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व्याख्यान

धर्म: साधना

स्वामी विवेकानंद

अनुक्रम उपासक और उपास्‍य पीछे     आगे

(अप्रैल 16, 1600 ई. को सैनफ्रांसिस्‍को क्षेत्र में दिया गया भाषण)

अब तक हम मानव-प्रकृति के अधिक विश्‍लेषणात्‍मक पक्ष पर विचार करते रहे हैं। इस क्रम में अब हम संवेगात्‍मक पक्ष का अध्‍ययन करेंगे। प्रथम सिद्धांतत: मनुष्‍य को एक असीम सत्‍ता मानता है और द्वितीय में उसे ससीम समझा जाता है। पहले को कुछ बूँद आँसुओं के लिए और कष्‍ट के लिए ठहरने का समय नहीं है; दूसरा बिना आँसू पोंछे, बिना कष्‍ट दूर किए आगे नहीं बढ़ सकता। एक महान है, इतना महान और शानदार कि कभी-कभी हम उसकी विराटता से डगमगा जाते हैं; दूसरा सामान्‍य है, और फिर भी हमारे लिए सबसे अधिक सुंदर और प्रिय है। एक हमें पकड़ता है और इतनी ऊँचाइयों पर ले जाता है, जहाँ हमारे फेफड़े लगभग फटने लगते हैं। हम उस वातावरण में साँस नहीं ले सकते। दूसरा हम जहाँ हैं, हमें वहीं रहने देता है और जीवन की वस्‍तुओं को देखने का प्रयत्‍न करता है, दृष्टि (सीमित रखता है)। पहला उस समय तक कुछ स्‍वीकार न करेगा, जब तक कि उस पर तर्क की चमकदार मुहर न लग जाए; दूसरे को विश्‍वास हैं और जिसे वह देख नहीं पाता, उसे मान लेता है। दोनों आवश्‍यक हैं। पक्षी केवल एक पंख से नहीं उड़ सकता। हम उस मनुष्‍य को देखना चाहते हैं, जिसका विकास समन्वित रूप से हुआ हो...ह्दय से विशाल, मन से उच्‍च, (कर्म में महान)। हम ऐसा मनुष्‍य चाहते हैं, जिसका ह्दय संसार के दु:ख-दर्दों को गंभीरता से अनुभव करे। और (हम चाहते हैं) ऐसा मनुष्‍य, जो न केवल अनुभव कर सकता हो, वरन् वस्‍तुओं के अर्थ का भी पता लगा सके, जो प्रकृति और बुद्धि के ह्दय की गहराई में पहुँचता हो।

(हम चाहते हैं) ऐसा मनुष्‍य, जो यहाँ भी न रुके, (वरन्) जो (भाव और वास्‍तविक कार्यों के अर्थ का) पता लगाना चाहे। हम मस्तिष्‍क, ह्दय और हाथों के ऐसे ही संघात को चाहते हैं। इस संसार में बहुत से शिक्षक हैं, पर तुम पाओगे (कि उनमें से अधिकतर) एकांगी हैं। (एक) को बुद्धि का देदीप्‍यमान मध्‍यान्‍ह्र सूर्य दिखायी देता है (और) कुछ नहीं सूझता। दूसरे को प्रेम का सुंदर संगीत सुनायी देता है, और कुछ नहीं सुन पड़ता। एक काम में (डूबा हुआ) है, उसे न कुछ महसूस करने का समय है, न विचार करने का। तब हम उस महान को क्‍यों न प्राप्‍त करें, जो समान रूप से क्रियाशील, ज्ञानवान, प्रेमवान है? क्‍या यह असंभव है? निश्‍चय ही नहीं। यह भविष्‍य का मनुष्‍य है, इस समय ऐसे (केवल) कुछ ही हैं। (ऐसों की संख्‍या उस समय तक बढ़ती रहेगी) जब तक कि समस्‍त संसार का मानवीकरण नहीं हो जाता।

मैं इतनी देर से तुमसे बुद्धि (ओर) तर्क की बात कर रहा हूँ। हमने पूरा वेदांत सुन लिया है। माया का घूँघट हटता है: शिशिर के बादल विलीन होते हैं और सूर्य की किरणें हम तक पहुँचती हैं। मैं हिमालय की ऊँचाइयों पर चढ़ने का प्रयत्‍नकरता रहा हूँ, जहाँ चोटियाँ बादलों के परे छिप जाती हैं। मैं तुम्‍हारे साथ दूसरे पक्ष का अध्‍ययन करूँगा: सर्वोपरि सुंदर घाटियों का, प्रकृति में सर्वोपरि अनूठे सुहावनेपन का। (हम अध्‍ययन करेंगे) उस प्रेम का, जो हमें संसार के सारे दु:खों के बावजूद यहाँ बाँधे रखता है, (उस) प्रेम का जिसने हमें दु:ख की वह जंज़ीर गढ़ने को विवश किया है, उस शहीद होते रहने के लिए प्रेरित किया है, जिसका मनुष्‍य इच्‍छापूर्वक अपने आप वरण करता रहता है। हम उस चिरंतन प्रेम का अध्‍ययन करना चाहते हैं, जिसके कारण मनुष्‍य ने अपने हाथों अपने लिए श्रृंखला बनायी है, जिसके लिए वह दु:ख भोगता है। हम दूसरे को भूलना नहीं चाहते। हिमालय की हिमधाराओं को काश्‍मीर के धान के खेतों को गले लगना होगा। बिजली की कड़क के स्‍वरों को पक्षियों के कलरव के साथ अपनी संगति बैठानी होगी।

इस क्रम का संबंध प्रत्‍येक सुहावनी और सुंदर वस्‍तु से होना होगा। उपासना सब जगह है, प्रत्‍येक आत्‍मा में। प्रत्‍येक जन ईश्‍वर की पूजा करता है। नाम चाहे कुछ भी हो, वे सब ईश्‍वर की पूजा कर रहे हैं। पूजा का आरंभ-सुंदर कमल की भाँति, स्‍वयं जीवन की भाँति-पृथ्‍वी की धूलि में है।... यहाँ भय का अंश है। सांसारिक लाभ के लिए भूख है। यहाँ भिखारी की उपासना है। यह सब संसार के द्वारा उपासना का आरंभ है, जिसकी (परिणति) ईश्‍वर के प्रति प्रेम में और मनुष्‍य के द्वारा ईश्‍वर की पूजा में होती है।

क्‍या कोई ईश्‍वर है? क्‍या कोई ऐसा है, जिसे प्रेम किया जाए, कोई ऐसा है, जो प्रेम करने के योग्‍य हो? पत्‍थर से प्रेम करना विशेष भला न होगा। हम केवल उसी से प्रेम करते हैं, जो प्रेम को समझता है, जो हमारे प्रेम को खींचता है। यही बात उपासना के लिए है। यह कभी मत कहो कि हमारे इस संसार में एक भी ऐसा मनुष्‍य है, जो पत्‍थर के एक टुकड़े को (पत्‍थर समझकर) पूजता है। वह सदा (पत्‍थर में विद्यमान) सर्वव्‍यापी को पूजता है। हम देखते हैं कि वह सर्वव्‍यापी हममें है। (पर) जब तक वह हमसे अलग न हो, हम उसे कैसे पूज सकते हैं? अपने से नहीं। क्‍या कहीं कोई 'तू' है?

एक अनेक हो जाता हैं। जब हम एक को देखते हैं,तो, माया द्वारा उत्‍पन्‍न सीमाएँ ग़ायब हो जाती हैं; पर यह बिल्‍कुल सही है कि अनेक अनुपयोगी नहीं है। हम अनेक के द्वारा ही एक तक पहुँचते हैं।

क्‍या कोई सगुण ईश्‍वर है-ऐसा ईश्‍वर, जो सोचता है, जो समझता है, ईश्‍वर, जो हमारा पथ-प्रदर्शन करता है? हाँ, है। निर्गुण ईश्‍वर में इनमें से कोई भी गुण नहीं हो सकता। तुममें से प्रत्‍येक एक व्‍यक्ति है: तुम सोचते हो, तुम प्रेम करते हो, (तुम) घृणा करते हो, (तुम) सगुण और निर्गुण हो, एक में। तुम्‍हारे सगुण और निर्गुण पक्ष हैं। वह (निर्गुण सत्‍ता) क्रुद्ध नहीं हो सकती, (न) खिन्‍न, (न) दु:खित हो सकती-दु:ख को सोच भी नहीं सकती। वह विचार नहीं कर सकती, जान नहीं सकती। वह स्‍वयं ज्ञान है। पर सगुण (पक्ष) जानता है, सोचता है, और मरता है इत्‍यादि। स्‍वभावत: सर्वव्‍यापी ब्रह्म के दोनों पक्ष होने चाहिए। एक सब वस्‍तुओं की अनंत वास्‍तविकता (को दर्शाने वाला); दूसरा, एक सगुण पक्ष,हमारी आत्‍माओं की आत्‍मा। प्रभुओं का प्रभु। (यह है) जो ब्रह्मांड की सृष्टि करता है। (उसके) निर्देश के अनुसार ही ब्रह्मांड की स्थिति है।...

वह अनंत, नित्‍य शुद्ध, नित्‍य (मुक्‍त)। वह न्‍यायकारी नहीं है। ईश्‍वर न्‍याय करने वाला नहीं हो सकता। वह किसी सिंहासन पर बैठकर भले और बुरे के बीच निर्णय नहीं करता। वह मजिस्‍ट्रेट नहीं है, (न) सेनापति, (न ही) शिक्षक। सगुण ईश्‍वर अनंत दयावान, अनंत प्रेममय है।

अब इसे दूसरी ओर से देखो। तुम्‍हारे शरीर की प्रत्‍येक कोशिका में एक आत्‍मा है, जो कोशिका के प्रति सचेतन है। यह एक पृथक् सत्‍ता है। इसकी अपनी एक नन्‍हीं इच्‍छा है और इसके कार्य का अपना एक नन्‍हा क्षेत्र है। समस्‍त (कोशिकाएँ) मिलकर एक व्‍यक्ति को बनाती हैं। (इसी प्रकार) विश्‍व का सगुण ईश्‍वर इन सब (बहुसंख्‍यक व्‍यक्तियों) से बना है।

अब इसे दूसरी ओर से लो। जैसा मैं तुमको देखता हूँ, उसके अनुसार तुम अपने निरपेक्ष स्‍वरूप के वह अंश हो, जितनी कि जिसे मैं सीमित कर देता और अनुभव करता हूँ। मैंने तुमको अपने नेत्रों, अपनी इंद्रियों की क्षमता द्वारा देखने के लिए सीमित कर लिया है। तुम्‍हारे जितने भाग को मेरी आँखें देख सकती हैं, उतने को मैं देखता हूँ। तुम्‍हारे जितने भाग को मेरा मस्तिष्‍क पकड़ सकता है, उसे ही मैं तुम्‍हारे नाम से जानता हूँ, और अधिक को नहीं। इसी प्रकार, मैं ब्रह्म को, ईश्‍वर के रूप में देखता हूँ (और उसे सगुण के रूप में देखता हूँ)।जब तक हमारे शरीर और मन हैं, हम सदा ईश्‍वर, प्रकृति और जीवात्‍मा की त्रयी को देखेंगे। ये तीनों सदा एक में,अवियोज्‍य होने चाहिए। प्रकृति है। जीवात्‍माएँ हैं। और फिर वह है, जिसमें प्रकृति और जीवात्‍माएँ (स्थित) हैं।

विश्‍वात्‍मा शरीरवान हो गई है। स्‍वयं मेरी आत्‍मा ईश्‍वर का एक अंश है। वह हमारे नेत्रों का नेत्र,हमारे जीवन का जीवन, हमारे मन का मन, हमारी आत्‍मा की आत्‍मा है। सगुण ईश्‍वर का यही वह उच्‍चतम आदर्श है, जो संभव है।

यदि तुम द्वैतवादी नहीं हो, (वरन्) अद्वैतवादी हो, तो भी तुम्‍हारा सगुण ईश्‍वर हो सकता है।.... ईश्‍वर एक ही है, दूसरा नहीं है। उस एक ने अपने से प्रेम करना चाहा। इसलिए, उसने उस एक में से (अनेक) बनाये।...यह वह विराट् मैं, वास्‍तविक मैं है, जिसकी पूजा लघु मैं कर रहा है। इस प्रकार तुम प्रत्‍येक दर्शन में वैयक्तिक (ईश्‍वर) प्राप्‍त कर सकते हो।

कुछ व्‍यक्त्‍िा ऐसी परिस्थितियों में जन्‍म लेते हैं, जो उन्‍हें दूसरों की अपेक्षा अधिक सुखी बनाती हैं; एक न्‍यायी सत्‍ता के राज्‍य में ऐसा क्‍यों होना चाहिए? इस संसार में मरण है। ये मार्ग की कठिनाइयाँ है। (इन प्रश्‍नों का) समाधान कभी नहीं हो सका। किसी द्वैतवादी स्‍तर से उनका उत्तर नहीं दिया जा सकता। वस्‍तुएँ जैसी हैं, उनकी विवेचना करने के लिए हमें दर्शन शास्‍त्र की ओर लौटना पड़ेगा, हम स्‍वयं अपने कर्म से ही दु:ख भोग रहे हैं। इसमें ईश्‍वर का दोष नहीं है। जो हम करते हैं, उसमें हमारा अपना दोष होता है, और कुछ नहीं। ईश्‍वर को दोष क्‍यों दिया जाए?

अशुभ का अस्तित्‍व क्‍यों है? (इस प्रश्‍न को) हल करने का एकमात्र मार्ग (यह कहना है कि) ईश्‍वर शुभ और अशुभ, दोनों का कारण है। सगुण ईश्‍वर के सिद्धांत में बड़ी कठिनाई यह है कि यदि तुम यह कहते हो कि वह केवल शुभ हैं, अशुभ नहीं, तो तुम अपने तर्क के फंदे में स्‍वयं फँस जाते हो। तुम कैसे जानते हो कि ईश्‍वर है? तुम कहते हो कि (वह) इस विश्‍व का पिता है, और तुम कहते हो कि वह मंगलमय है; और चूंकि संसार में अशुभ (भी) है, इसलिए ईश्‍वर को अशुभ होना चाहिए... वही कठिनाई!

यहाँ न कोई शुभ है और न कोई अशुभ है। जो कुछ है, सब ईश्‍वर है।... शुभ क्‍या है, यह तुम कैसे जानते हो? तुम (उसे) अनुभव करते हो। (जो) अशुभ है, तुम उसे कैसे जानते हो? (यदि) अशुभ आता है, तो तुम उसे अनुभव करते हो। हम शुभ और अशुभ को अपने भावों से जानते हैं। एक भी मनुष्‍य ऐसा नहीं है, जो केवल शुभ की, सुखद अनुभवों की ही अनुभूति प्राप्‍त करता हो। एक भी मनुष्‍य ऐसा नहीं हैं, जो केवल दु:खद भावनाओं की ही अनुभूति प्राप्‍त करता हो।...

अभाव और चिंता ही सारे दु:ख के और सुख के भी कारण हैं। अभाव बढ़ रहा है या घट रहा है? जीवन सरल हो रहा है या जटिल? निश्‍चय ही जटिल। आवश्‍यकताएँ बढ़ रही हैं। तुम्‍हारे प्रपितामहों को उन वस्‍त्रों ओर उतने रुपयों की आवश्‍यकता नहीं होती थी, (जितनी तुमको होती है)। उनके पास न बिजली की गाडि़याँ थीं, न रेलें आदि। इसीलिए उन्‍हें कम काम करना पड़ता था। ज्‍यों ही ये वस्‍तुएँ आती हैं, आवश्‍यकताएँ बढ़ती हैं और तुमको अधिक परिश्रम करना पड़ता है। अधिकाधिक चिंता और अधिकाधिक प्रतियोगिता।

धन प्राप्‍त करना बहुत कठिन कार्य है। उसे बचाये रखना और भी कठिन काम है। तुम थोड़ा सा धन जोड़ने के लिए सारे सेसार से झगड़ते हो (और) समस्‍त जीवन उसकी रक्षा के लिए लड़ते हो। (इसलिए) दरिद्र की अपेक्षा धनवान की चिंता अधिक है।...संसार की गति ही ऐसी है। संसार में भलाई और बुराई सब जगह हैं। कभी-कभी बुराई भलाई बन जाती है, सच है; पर दूसरे अवसरों पर भलाई भी बुराई हो जाती है। हमारी सभी इंद्रियां कभी न कभी अशुभ उत्‍पन्‍न करती हैं। एक मनुष्‍य शराब पीता है। यह (पहले-पहल) बुरा नहीं होता, पर यदि लगातार वह पीता रहे, तो इससे अशुभ उत्‍पन्‍न होगा। एक मनुष्‍य धनी माता-पिता के यहाँ जन्‍म लेता है; बहुत अच्‍छा। वह मूढ़ हो जाता है, अपने शरीर और मस्तिष्‍क से कभी काम नहीं लेता। यहाँ भलार्इ ने बुराई उत्‍पन्‍न की है। जीवन के प्रति इस प्रेम पर विचार करो: हम दूर जाते हैं और इधर-उधर कूदते हैं और कुछ क्षण जीते हैं; हम कठोर परिश्रम करते हैं। हम नवजाता शिशु हैं, हमें नितांत अक्षम वस्‍तुओं को फिर से समझने में वर्षों लगते हैं। साठ अथवा सत्‍तर पर हम अपनी आँखें खोलते हैं, और तब आज्ञा आती है, 'बाहर निकला!' और यह हो तुम।

हमने देखा है कि भलाई और बुराई सापेक्षिक शब्‍द हैं। (जो) वस्‍तु मेरे लिए भली है, वह तुम्‍हारे लिए बुरी है। यदि तुम वह भोजन करो, जो मैं करता हूँ, तो तुम रोने लगोगे और मैं हँसूंगा।... हम दोनों नाच सकते हैं, पर मैं आनंद से नाचूँगा और तुम कष्‍ट के मारे।...वही वस्‍तु हमारे जीवन के एक अंश में भली होती है और दूसरे में बुरी। तुम कैसे कह सकते हो (कि) शुभ और अशुभ एकदम स्‍पष्‍ट रूप से भिन्‍न हैं, (कि) यह बिल्‍कुल शुभ है और वह बिल्‍कुल अशुभ है?

अब, यदि ईश्‍वर सदा शुभ है, तो इस सब शुभ और अशुभ के लिए उत्तरदायी कौन है? ईसाई और मुसलमान कहते हैं कि एक सज्‍जन हैं, जो शैतान कहलाते हैं। तुम कैसे कह सकते हो कि दो सज्‍जन काम में लगे हुए हैं। होना तो एक चाहिए। जो आग बच्‍चे को जलाती है, वह भोजन भी पकाती है। तुम आग को भला या बुरा कैसे कह सकते हो, और तुम कैसे कह सकते हो कि इसे दो भिन्‍न व्‍यक्तियों ने बनाया है? यह सब (तथाक‍थित) अशुभ कौन बनाता है? ईश्‍वर। तुम इससे बचकर नहीं निकल सकते। वह मृत्‍य और जीवन, प्‍लेग और छूत की बीमारियाँ, और सब कुछ भेजता है। यदि ईश्‍वर ऐसा है, तो वह भला है; वह बुरा है; वह सुंदर है;वह भयानक है; वह जीवन है; और वह मृत्‍यु है।

ऐसे ईश्‍वर की उपासना कैसे की जा सकती है? हम अभी (समझ) लेंगे कि कोई आत्‍मा किस प्रकार वास्‍तव में भीषण की उपासना करना सीख सकती है; लब उस आत्‍मा को शांति प्राप्‍त होगी। क्‍या तुम्हें शांति मिली? क्‍या तुम चिंतामुक्‍त हो जाते हो? घूम जाओ, और सबसे पहले भीषण का सामना करो। नक़ाब को फाड़ फेंको और उसी (ईश्‍वर) को पाओ। वह सगुण है, वह सब है, जो शुभ (प्रतीत होता) है और वह सब, जो अशुभ (प्रतीत होता) है। उसके अतिरिक्‍त कोई अन्‍य नहीं है। यदि ईश्‍वर दो होते, तो प्रकृति एक क्षण भी खड़ी नहीं रह सकती। प्रकृति में कोई दूसरा नहीं है। यह सब समन्‍वय है। यदि ईश्‍वर एक ओर जाता और शैतान दूसरी ओर, तो संपूर्ण प्रकृति विश्रृंखल हो जाती। नियम को कौन तोड़ सकता है? यदि मैं इस काँच को तोडूँ, तो यह नीचे गिर पड़ेगा। यदि कोई एक परमाणु को उसके स्‍थान से विचलित करने में सफल हो जाता है, तो शेष सब भी संतुलन से च्‍युत हो जाएंगे। नियम कभी नहीं तोड़ा जा सकता। प्रत्‍येक परमाणु अपने स्‍थान पर बनाये रखा जाता है। प्रत्‍येक तुला और नपा है और अपने (उद्देश्‍य) तथा स्‍थान को पूर्ण करता है। उसकी आज्ञा से हवाएँ चलती हैं, सूर्य चमकता है। [18] उसके विधान से जगत् अपने स्‍थानों पर स्थित रहते हैं। उसकी आज्ञा से मृत्‍यु पृथ्‍वी पर क्रीड़ा करती है। इस संसार में दो या तीन ईश्‍वरों की कुश्‍ती की कल्‍पना तो करा! ऐसा नहीं हो सकता।

अब हम देखते हैं कि हम सगुण ईश्‍वर रख सकते हैं; इस विश्‍व का रचयिता,जो सदय है और निर्दय भी। वह भला है, वह बुरा है। वह मुस्‍क़ाता है और भौहें चढ़ाता है। और कोई उसके विधान से बाहर नहीं जा सकता। वह इस ब्रह्मांड का सर्जक है।

सृष्टि का, कुछ-नहीं से कुछ के आविर्भाव का, अर्थ क्‍या है? छ: हज़ार वर्ष पहले ईश्‍वर अपने स्‍वप्‍न से जागा और उसने इस संसार को बनाया (और) उसके पहले कुछ नहीं था? तब ईश्‍वर क्‍या कर रहा था, लंबी नींद ले रहा था? ईश्‍वर ब्रह्मांड का कारण है, और हम कारण को कार्य के द्वारा जान सकते हैं। यदि कार्य नहीं है, तो कारण नहीं है। कारण सदा कार्य में और कार्य के द्वारा व्‍यक्‍त होता है। सृष्टि अनंत है। तुम आरंभ की कल्‍पना न काल में कर सकते हो, न देश में।

वह सृष्टि को क्‍यों रचता है? क्‍योंकि वह रचना चाहता है; क्‍योंकि वह स्‍वतंत्र है। तुम और मैं नियम से बँधें हैं, क्‍योंकि हम (केवल) कुछ विशेष मार्गों से ही काम कर सकते हैं और दूसरों से नहीं।'बिना हाथ के वह प्रत्‍येक वस्‍तु को पकड़ सकता है, बिना पैर के (वह तेज़ चलता है)।' [19] बिना शरीर वह सर्वशक्तिमान है। 'जिसे कोई आँख देख नहीं सकती, पर जो प्रत्‍येक आँख में दृष्टि का कारण है, उसे ईश्‍वर करके जानो।' [20] तुम उसके अतिरिक्‍त और किसी की उपासना नहीं कर सकते। ईश्‍वर सर्वशक्तिमान है, इस ब्रह्मांड का आधार। जो 'नियम' कहलाता है, वह उसकी इच्‍छा की अभिव्‍यक्ति मात्र है। वह विश्‍व का शासन अपने नियमों से कता है।

अब तक हमने ईश्‍वर और प्रकृति का, सनातन ईश्‍वर और सनातन प्रकृति का विवेचन किया है। पर जीवात्‍माओं के विषय में? वे भी सनातन हैं। किसी आत्‍मा की (कभी) सृष्टि नहीं की गई; न आत्‍मा मर सकती है। कोई स्‍वयं अपनी मृत्‍यु की कल्‍पना भी नहीं कर सकता। आत्‍मा अनंत, चिंरतन है। वह मर कैसे सकती है? वह देह बदलती है। जिस प्रकार मनुष्‍य अपने पुराने फटे कपड़े उतार देता है और नए स्‍वच्छ वस्‍त्र धारण करता है, उसी प्रकार जीर्ण शरीर त्याग दिया जाता है और एक नवीन शरीर ग्रहण किया जाता है। [21]

जीवात्‍मा का स्‍वरूप क्‍या है? आत्‍मा भी (सर्वशक्तिमान) और सर्वव्‍यापी है। आत्‍मा में न लंबाई होती है, न चौड़ाई। वह यहाँ है और वहाँ है, यह कैसे कहा जा सकता है? यह शरीर नष्‍ट हो जाता है, तो (आत्‍मा) दूसरे शरीर (के द्वारा) काम करती है। आत्‍मा एक वृत्‍त है, जिसकी परिधि कहीं नहीं है, पर जिसका केंद्र शरीर है। ईश्‍वर एक वृत्‍त है, जिसकी परिधि कहीं नहीं है और जिसका केंद्र सर्वत्र है। आत्‍मा अपने स्‍वभाव से ही आनंदमय, शुद्ध और पूर्ण है। यदि इसका स्‍वरूप ही अशुद्ध होता, तो यह कभी शुद्ध नहीं हो सकती थी। शुद्धता आत्‍मा का स्‍वभाव है, इसीलिए जीवात्‍मा शुद्ध (हो सकती) है। वह (स्‍वभाव से) आनंदमय है, इसीलिए वह आनंदमय (हो सकती) है। वह शांति है, (इसीलिए शांतिमय हो सकती है )।...

हम सब, जो अपने को इस स्‍तर पर शरीर की ओर आकृष्‍ट पाते हैं, ईर्ष्‍या, द्वेष और कठिनाइयों के बीच जीविका के लिए घोर परिश्रम करते हैं, और फिर मृत्‍यु आ जाती है। इससे प्रकट होता है कि जो हमें होना चाहिए, वह हम नहीं है। हम स्‍वतंत्र, पूर्ण शुद्ध आदि नहीं हैं। जैसे आत्‍मा का अध:पतन हो गया हो। अत: जीवात्‍मा को आवश्‍यकता है, विस्‍तार की।

तुम इसे कैसे कर सकते हो? क्‍या तुम स्‍वयं इसका उपाय निकाल सकते हो? नहीं। यदि मनुष्‍य के चेहरे पर धूल जमी हो, तो क्‍या तुम उसे धूल से धो सकते हो? यदि मैं धरती में एक बीज बोता हूँ, तो बीज एक वृक्ष उत्‍पन्‍न करता है, वृक्ष बीज उत्‍पन्‍न करता है, और बीज दूसरा वृक्ष, आदि। मुर्गी और अंडा, अंडा और मुर्गी। यदि तुम कुछ भला करते हो, तो तुमको उसका फल भोगना होगा, तुम फिर जन्‍म लोगे और दु:ख भोगोगे। एक बार इस अनंत श्रृंखला के चल पड़ने के बाद तुम रुक नहीं सकते। तुम चलते रहते हो...ऊपर और नीचे, स्‍वर्गों को और पृथ्वियों को, और इन सब (शरीरों) को। बाहर निकलने का कोई मार्ग नहीं है।

तो तुम फिर इस सबसे बाहर कैसे निकल सकते हो, और तुम यहाँ किसलिए हो?

एक विचार है कि हम दु:ख से छुटकारा पा जाएं। हम सक दिन-रात दु:ख से छुटकारा पाने का प्रयास कर रहे हैं। हम कर्म के द्वारा यह नहीं कर सकते। कर्म से अधिक कर्म उत्‍पन्‍न होगा। यह तभी संभव है, यदि कोई ऐसा हो, जो स्‍वयं मुक्‍त हो और वह हमें अपने हाथ का सहारा दे। 'हे अमरता के पुत्रों, वे सब जो इस स्‍तर पर रहते हैं। और वे सब जो ऊपर स्‍वर्गों में निवास करते हैं, सुनो, मैंने रहस्‍य को पा लिया है', [22] महान ऋषि कहता है। 'मैंने उसे पा लिया है, जो समस्‍त अंधकार से परे है। केवल उसी की अनुकंपा से हम भवसागर के पार होते हैं।' [23]

भारत में, इस लक्ष्‍य संबंध में ये विचार हैं-स्‍वर्ग है, नरक है, पृथ्वियाँ हैं, पर वे स्‍थायी नहीं हैं। यदि मैं नरक को भेजा जाता हूँ, तो वह स्थायी नहीं है। मैं चाहे कहीं भी हूँ, वहीं संघर्ष निरंतर चलता रहता है। समस्‍या यह है कि इस सारे संघर्ष के परे कैसे पहुँचा जाए? यदि मैं स्‍वर्ग जाता हूँ, तो कदाचित् वहाँ कुछ चैन मिले। यदि मैं अपने दुष्‍कृत्‍यों के लिए दंड पाता हूँ, तो वह (भी सदा) नहीं रह सकता। भारतीय आदर्श स्‍वर्ग जाना नहीं है। इस पृथ्‍वी से बाहर निकलो, नरक से बाहर निकलो, स्‍वर्ग से बाहर निकलो! लक्ष्‍य क्‍या है? वह मुक्ति है। तुम सबको मुक्‍त होना चाहिए। आत्‍मा का तेज आच्‍छादित है। इसे फिर अनाच्‍छादित करना है। आत्‍मा का अस्तित्‍व है। वह सब जगह है। वह कहाँ जाएगी?... वह कहाँ जा सकती है? वह वहीं जा सकती है, जहाँ वह न हो। यदि तुम यह समझ लो कि वह सदा विद्यमान है, तो उसके बाद सदा के लिए पूर्ण सुख (होगा)। और जन्‍म तथा मृत्‍यु नहीं। और रोग नहीं, शरीर नहीं। शरीर स्‍वयं सबसे बड़ा रोग है।

आत्‍मा, आत्‍मा की भाँति स्थित होगी। चेतना, चेतना की भाँति रहेगी। यह कैसे किया जाए? उस ईश्‍वर की उपासना करके जो आत्‍मा में है, जो अपने स्‍वभाव से ही नित्‍य, शुद्ध और पूर्ण है। इस संसार में दो सर्वशक्तिमान सत्‍ताएँ नहीं हो सकतीं। दो या तीन ईश्‍वरों (के होने) की कल्‍पना करो; एक संसार की सृष्टि करेगा, तो दूसरा कहेगा, 'मैं संसार का विनाश करूँगा।" ऐसा कभी हो नहीं सकता। ईश्‍वर एक ही होना चाहिए। जीवात्‍मा पूर्णता को पहुँचती है, वह लगभग सर्वशक्तिमान (और) सर्वज्ञ हो जाती है। यह उपासक है। उपास्‍य कौन है? वह, स्‍वामी, ईश्‍वर स्‍वयं, सर्वव्‍यापी, सर्वज्ञाता आदि विशेषणों से युक्‍त। और सबसे ऊपर, वह प्रेम है। जीवात्‍मा इस पूर्णता को कैसे प्राप्‍त करे? उपासना के द्वारा।


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