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व्याख्यान

धर्म: साधना

स्वामी विवेकानंद

अनुक्रम विश्‍व धर्म का आदर्श पीछे     आगे

(उसमें विभिन्‍न प्रकार की प्रवृत्तियों और पद्धतियों का समावेश किस प्रकार होना चाहिए)

हमारी इंद्रियां चाहे किसी वस्तु को क्‍यों न ग्रहण करें, हमारा मन चाहे किसी विषय की कल्‍पना क्‍यों न करे, सभी जगह हम दो शक्तियों की क्रिया-प्रति-क्रिया देखते हैं। ये एक-दूसरे के विरुद्ध काम करती हैं, और हमारे चारों ओर बाह्य जगत् में होने वाली तथा जिनका अनुभव हम अपने मन में करते है, उन जटिल घटनाओं की निरंतर क्रीड़ा की कारण हैं। ये ही दो विपरीत शक्तियाँ बाह्य जगत् में आकर्षण-विकर्षण अथवा केंद्रगामी, केंद्रापसारी शक्तियों के रूप से, और अंतर्जगत् में राग-द्वेष या शुभाशुभ के रूप से प्रकाशित होती हैं। हम कितनी ही चीज़ों को अपने सामने से हटा देते हैं और कितनी ही को अपने सामने खींच लाते हैं, किसी की ओर आकृष्‍ट होते हैं और किसी से दूर रहना चाहते हैं। हमारे जीवन में ऐसा अनेक बार होता है कि हमारा मन किसी की ओर हमें बलात आकृष्‍ट करता है, पर इस आकर्षण का कारण हमें ज्ञात नहीं होता और किसी किसी समय किसी आदमी को देखने ही से बना किसी कारण मन भागने की इच्‍छा करता है। इस बात का अनुभव सभी को है और इस शक्ति का कार्यक्षेत्र जितना ऊँचा होगा, इन दो विपरीत शक्तियों का प्रभाव उतना ही तीव्र और परिस्‍फुट होगा। धर्म मनुष्‍य के चिंतन और जीवन का सबसे उच्‍च स्‍तर है और हम देखते हैं कि धर्म-जगत् में ही इन दो शक्तियों की क्रिया सब से अधिक परिस्‍फुट हुई है। मानवता को जिस तीव्रतम प्रेम का ज्ञान है, वह धर्म से ही प्राप्‍त हुआ है, और वह घोरतम पैशाचिक घृणा भी, जिसे मानवता ने कभी अनुभव किया, वह भी धर्म से ही प्राप्‍त हुई है। संसार ने कभी भी महत्‍तम शांति की जो वाणी सुनी है, वह धर्म-राज्‍य के लोगों के मुख से ही निकली हुई है। और जगत् ने कभी भी जो तीव्रतम भर्त्सना सुनी है, वह भी धर्म-राज्‍य के मनुष्‍यों के मुख से उच्‍चरित हुई है। किसी धर्म का उद्देश्‍य जितना ही उच्‍च होता है, उसका संगठन जितना ही सूक्ष्‍म होता है, उसकी क्रियाशीलता भी उतनी ही अद्भुत होती है। धर्म-प्रेरणा से मनुष्‍यों ने संसार में जो खून की नदियाँ बहायी हैं, मनुष्‍य के ह्दय की और किसी प्रेरणा ने वैसा ही किया। और धर्म-प्रेरणा से मनुष्‍यों ने जितने चिकित्‍सालय, धर्मशाला, अन्‍न-क्षेत्र आदि बनाए, उतने और किसी प्रेरणा से नहीं। मनुष्‍य-ह्रदय की और कोई वृत्ति उसे, सारी मानव-जाति की ही नहीं, निकृष्‍टतम प्राणियों तक की सेवा करने को प्रवृत्त नहीं करती। धर्म-प्रेरणा से मनुष्‍य जितना निष्‍ठुर हो जाता है, उतना और किसी प्रेरणा से नहीं; उसी प्रकार धर्म-प्रेरणा से मनुष्‍य जितना कोमल हो जाता है, उतना और किसी प्र‍वृत्ति से नहीं। अतीत में ऐसा ही हुआ है और संभवत: भविष्‍य में भी ऐसा ही होगा। फिर भी विविध धर्मों और और संप्रदायों के कलह और कोलाहल, द्वंद्व और संघर्ष, अविश्‍वास और ईर्ष्‍या-द्वेष से समय-समय पर इस प्रकार की वज्रगंभीर वाणियाँ निकली हैं, जिन्‍होंने इस सारे कोलाहल को दबाकर संसार में शांति और मेल की तीव्र घोषणा कर दी थी। एक ध्रुव से दूसरे ध्रुव तक अपने वज्रगंभीर आह्रान को सुनने के लिए मानव जाति को विवश किया है। क्‍या संसार में किसी समय इस शांति-समन्‍वय का राज्‍य स्‍थापित होगा?

प्रबल धार्मिक संघर्ष की इस भूमिका में क्‍या कभी सामंजस्‍य का अविच्छिन्न राज्‍य होना संभव है! वर्तमान शताब्‍दी के अंत में इस समन्वयक को लेकर संसार में एक विवाद चल पड़ा है। इस समस्‍या को समाधान करने के लिए समाज में विविध योजनाएँ प्रस्‍तावित की जा रही हैं और उन्‍हें कार्यरूप में परिणत करने के लिए अनेक चेष्‍टाएँ हो रही हैं। हम सभी लोग जानते हैं कि यह कितना कठिन है। सभी लोग जानते हैं कि जीवन-संग्राम की भीषणता को, मनुष्‍य के मन की प्रबल स्‍नायविक उत्‍तेजनाओं को कम करना लगभग एक प्रकार से असंभव है। जीवन का जो स्‍थूल एवं बाह्यांश मात्र है, उस बाह्य जगत् में साम्‍य और शांति स्‍थापित करना यदि इतना कठिन है, तो मनुष्‍य के अंतर्जगत् में शांति और साम्‍य स्‍थापित करना उससे हज़ार गुना कठिन है। तुम लोगों को थोड़ी देर के लिए शब्द-जाल से बाहर आना होगा। हम सभी लोग बाल्‍यकाल से ही प्रेम, शांति, मैत्री, साम्‍य, सावर्जनीन भ्रातृभाव प्रभूति अनेक बातें सुनते आ रहे हैं। किंतु इन सभी बातों में से हमारे निकट कितनी ही निरर्थक हो जाती हैं। हम लोग उन्‍हें तोते की तरह रट लेते हैं और वे मानों हम लोगों के स्‍वभाव हो गए हैं। हम ऐसा किए बिना रह नहीं सकते। जिन महापुरुषों ने पहले अपने ह्रदय में इस महान तत्त्‍व की उपलब्धि की थी, उन्‍हीं ने इन वाक्‍यों की रचना की है। उस समय बहुत से लोग इसका अर्थ समझते थे। आगे चलकर मूर्ख लोगों ने इन बातों को लेकर उनसे खिलवाड आरंभ कर दिया, और धर्म को केवल शब्‍दों का खेल बना दिया, उसे जीवन मे परिणत करने की वस्‍तु ही नहीं रखा। धर्म अब 'पैत्रिक-धर्म', 'राष्‍ट्रीय धर्म', 'देशी धर्म', इत्‍यादि के रूप में परिणत हो गया है। अंत में किसी धर्म में विश्‍वास करना देशभक्ति का एक अंग हो जाता है और देशभक्ति सदा पक्षपाती होती है। विभिन्‍न धर्मों में सामंजस्‍य-विधान करना बहुत ही कठिन काम है। फिर भी हम इस धर्म-समन्‍वय-समस्‍या पर विचार करेंगे।

हम देखते हैं कि प्रत्‍येक धर्म में तीन भाग हैं- मैं अवश्‍य ही प्रसिद्ध और प्रचलित धर्मों की बात कहता हूँ। पहला है, दार्शनिक भाग। इसमें उस धर्म का सारा विषय अर्थात मूल तत्व, उद्देश्‍य और उसकी प्राप्ति के साधन निहित होते हैं। दूसरा है, पौराणिक भाग। यह स्‍थूल उदाहरणों के द्वारा दार्शनिक भाग को स्‍पष्‍ट करता है। इसमें मनुष्‍यों एवं अलौकिक पुरुषों के जीवन के उपाख्‍यान आदि होते हैं। इसमें सूक्ष्‍म दार्शनिक तत्व, मनुष्‍यों या अतिप्राकृतिक पुरुषों के थोड़े बहुत काल्‍पनिक जीवन के उदाहरणों द्वारा समझाये जाते हैं। तीसरा है, आनुष्‍ठानिक भाग। यह धर्म का स्‍थूल भाग है। इसमें पूजा-पद्धति, आचार, अनुष्‍ठान, विविध शारीरिक अंग-विन्‍यास, पुष्‍प, धूप, धूनी प्रभृति नाना प्रकार की इंद्रियग्रस्त ग्राह्य वस्‍तुएँ हैं। इन सबको मिलाकर आनुष्‍ठानिक धर्म का संगठन होता है। तुम देख सकते हो कि सारे प्रसिद्ध धर्मों के ये तीन विभाग हैं। कोई धर्म दार्शनिक भाग पर अधिक जोर देता है, कोई अन्‍य दूसरे भागों पर। पहले दार्शनिक भाग की बाते लेनी चाहिए। प्रश्‍न उठता है, कोई सार्वभौमिक दर्शन है या नहीं! अभी तक तो नहीं। प्रत्‍येक धर्म वाले अपने मतों की व्‍याख्‍या करके उसी को एकमात्र सत्‍य कहकर उसमें विश्‍वास करने के लिए आग्रह करते हैं। वे सिर्फ़ इतना ही करके शांत नहीं होते, वरन् समझाते हैं कि जो उनके मत में विश्‍वास नहीं करते, वे किसी भयानक स्‍थान में अवश्‍य जाएंगे। कोई कोई तो दूसरों को अपने मत में लाने के लिए तलवार तक काम में लाते हैं। वे ऐसा दुष्‍टता से करते हों, सो नहीं। मानव-मस्तिष्‍क प्रसूत धर्मांधता नामक व्‍याधिविशेष की प्रेरणा से वे ऐसा करते हैं। ये धर्मांध सर्वथा निष्‍कपट होते हैं, मनुष्‍यों में सबसे अधिक निष्‍कपट। किंतु संसार के दूसरे पागलों की भाँति उनमें उत्तरदायित्‍व नहीं होता। यह धर्मांधता द्वारा जगायी गई है। उसके द्वारा क्रोध उत्‍पन्‍न होता है, स्‍नायु-समूह अतिशय तन जाता है, और मनुष्‍य शेर जैसा हो जाता है। विभिन्‍न धर्मों के पुराणों में क्‍या कोई सादृश्‍य या ऐक्‍य है! क्‍या ऐसा कोई सार्वभामिक पौराणिक तत्‍त्व है, जिसे सभी धर्म वाले ग्रहण कर सकें? निश्‍चय ही नहीं है। सभी धर्मों का अपना अपना पुराण-साहित्‍य है, किंतु सभी कहते हैं- "केवल हमारी पुराणोक्‍त कथाएँ उपकथा मात्र नहीं है।" इस बात को मैं उदाहरण द्वारा समझने की चेष्‍टा करता हूँ। उद्देश्‍य-अपनी कही बातों को उदाहरण द्वारा समझना मात्र है- किसी धर्म की समालोचना करता नहीं। ईसाई विश्‍वास करते हैं कि ईश्‍वर पंडुक (एक प्रकार का कबूतर) का रूप धारण कर पृथ्‍वी में अवतीर्ण हुआ था। उनके निकट यह ऐतिहासिक सत्‍य है- पौराणिक कहानी नहीं। हिंदू लोग गाय को भगवती के आविर्भाव के यप में मानते हैं। ईसाई कहता है कि इस प्रकार का विश्‍वास इतिहास नहीं है- यह केवल पौराणिक कहानी और अंधविश्वास मात्र है। यहूदी समझते हैं, यदि प्रतीक एक मंजूषा या संदूक के रूप में बनायी जाए, जिसके दो पल्‍लों में दो देवदूतों की मूर्तियाँ हों, तो उसे मंदिर के सबसे पवित्र स्‍थान में स्‍थापित किया जा सकता है; वह जिहोवा की दृष्टि से परम पवित्र होगा; किंतु यदि किसी सुंदर स्‍त्री या पुरुष की मूर्ति हो, तो वे कहते हैं, "यह एक वीभत्‍स प्रतिमा है- इसे तोड़ डालो।" हमारा पौराणिक सामंजस्‍य यही है! यदि कोई खड़ा होकर कहे, "हमारे अवतारों ने इन आश्‍चर्यजनक कामों को किया", तो दूसरे लोग कहेंगे, "यह केवल अंधविश्वास मात्र है।" किंतु उसी समय वे लोग कहेंगे कि हमारे अवतारों ने उसकी अपेक्षा और भी अधिक आश्‍चर्यजनक व्‍यापार किए थे और वे उन्‍हें ऐतिहासिक सत्‍य समझने का दावा करते हैं। मैंने जहाँ तक देखा है, इस पृथ्‍वी पर ऐसा कोई नहीं है, जो इन सब मनुष्‍यों के मस्तिष्‍क में रहने वाले इतिहास और पुराण के सूक्ष्‍म पार्थक्‍य को पकड़ सके। इस प्रकार की कहानियाँ वे चाहे किसी भी धर्म की क्‍यों न हों- सर्वथा पौराणिक हो हैं, पर कभी-कभी उनमें भी ऐतिहासिक सत्‍य का लेश हो सकता है।

इसके बाद आनुष्‍ठानिक भाग आता है। एक संप्रदाय की एक विशेष प्रकार की अनुष्‍ठान-पद्धति होती है और उस संप्रदाय के अनुयायी उसी को धर्मसंगत समझकर विश्‍वास करते हैं तथा दूसरे संप्रदायों की अनुष्‍ठान-पद्धति को घोर अंधविश्वास समझते हैं। यदि एक संप्रदाय किसी विशेष प्रतीक की उपासना करता है, तो दूसरे संप्रदाय वाले कह बैठते हैं, "आह, कैसा वीभत्स है!" एक साधारण प्रतीक की ही बात लो। लिंग-प्रतीक निश्‍चय ही यौन प्रतीक है, किंतु उसका यह पक्ष क्रमश: विस्‍मृत हो गया है और इस समय उसका ईश्‍वर के स्रष्‍टाभाव के प्रतीक-रूप में ग्रहण होता है। जिन जातियों ने उसका प्रतीक के रूप में ग्रहण किया है, वे कभी भी उसे लिंग नहीं समझते, वह भी एक प्रतीक है- बस, इतना ही। किंतु दूसरी जाति या संप्रदाय का व्‍यक्ति उसे लिंग के अतिरिक्‍त और कुछ नहीं समझ पाता और इसीलिए वह उसकी निंदा करने लगता है। किंतु यह भी संभव है कि स्‍वयं वह कुछ ऐसा करता है, जो लिंगोपासना करने वालों को अत्यंत वीभत्‍स लगे। उदाहरण के लिए लिंग-प्रतीक और सैक्रेमेंट (sacrament) नामक ईसाई धर्म के अनुष्‍ठान विशेष की बात कही जा सकती है। ईसाईयों के लिए लिंगोपासना में व्‍यवह्रत मूर्ति अति कुत्सित है और हिंदुओं के लिए ईसाईयों का सैक्रेमेंट वीभत्स है। हिंदू कहते हैं कि किसी मनुष्‍य की सद्गुणावली पाने के अभिप्राय से उसकी हत्‍या करके उसके मांस को खाना और खून को पीना नर-भक्षण है। कुछ जंगली जातियाँ भी ऐसा ही करती हैं। यदि कोई आदमी बहुत साहसी होता है, तो वे लोग उसकी हत्‍या करके उसके ह्रदय को खाते हैं। कारण, वे समझते हैं, उसके द्वारा उन्‍हें उस व्‍यक्ति का साहस और वीरत्‍व आदि गुण प्राप्‍त होगा। सर जॉन लूबक की तरह के भक्‍त ईसाई भी इस बात को स्‍वीकार करते हैं कि जंगली जातियों के इस रिवाज़ के आधार पर ही ईसाईयों के अनुष्‍ठान की रचना हुई है। दूसरे ईसाई अवश्‍य ही अनुष्‍ठान के उद्भव के संबंध में इस मत को स्‍वीकार नहीं करते और उसके द्वारा इस प्रकार के भाव का आभास मिलता है, यह भी उनकी समझ में नहीं आता। वह एक पवित्र वस्‍तु का प्रतिनिधि है, इतना ही वे जानना चाहते हैं। इसलिए आनुष्‍ठानिक भाग में भी कोई सार्वभौमिक प्रतीक नहीं है, जिसे सब धर्म वाले स्‍वीकार और ग्रहण कर सकें। तब किसी भी प्रकार का सावैभौमिकत्‍व कहाँ है? सार्वभौमिक धर्म किस प्रकार संभव है? सच है, किंतु वह पहले से ही विद्यमान है। अब देखें, वह कैसे।

हम सभी लोग विश्‍व बंधुत्‍व की बात सुनते हैं और विविध समाज में उसके प्रचार के लिए कितना उत्‍साह है, यह भी जानते हैं। मुझे एक पुरानी कहानी याद आती है। भारतवर्ष में शराबखोरी बहुत ही नीच समझी जाती है। दो भाई थे, उन दोनों ने रात्रि के समय छिपकर शराब पीने का इरादा किया। बग़ल के कमरे में उनके चाचा सोये थे, जो बहुत निष्‍ठावान व्‍यक्ति थे। इसीलिए शराब पीने के पहले वे लोग सलाह करने लगे, 'हम लोगों को चुपचाप पीना होगा, नहीं तो चाचा जाग जाएंगे।' वे लोग शराब पीते समय बार-बार 'चुप,चुप, जाग जाएगा' की आवाज़ करके एक दूसरे को चुप कराते रहे। इस गड़बड़ में चाचा की नींद खुल गई। उन्‍होंने कमरे में घुसकर सब कुछ देख लिया। हम लोग भी ठीक इन मतवालों की तरह शोर करते हैं, विश्‍व बंधुत्‍व। "हम सभी लोग समान हैं, इसलिए हम लोग एक दल का संगठन करें!" किंतु ध्‍यान रहे, ज्‍यों ही तुमने किसी दल का संगठन किया, त्‍यों ही तुम समता के विरुद्ध हो गए, और तब समता नामक कोई चीज़ तुम्‍हारे पास नहीं रह जाएगी। मुसलमान विश्‍व-बंधुत्‍व का शोर मचाते हैं। किंतु वस्‍तुत: वे भ्रातृभाव से कितनी दूर हैं! जो मुसलमान नहीं हैं, वे भ्रातृ-संघ में शामिल नहीं किए जाएंगे। उनके गले काटे जाने ही की अधिक संभावना है। ईसाई भी विश्‍व बंधुत्‍व की बातें करते हैं; किंतु जो ईसाई नहीं है, वह अवश्‍य ही ऐसे एक स्‍थान में जाएगा, जहाँ अनंत काल तक वह आग से झुलसाया जाए।

इस प्रकार हम लोग विश्‍व बंधुत्‍व और साम्‍य के अनुसंधान में सारी पृथ्‍वी पर घूमते फिरते हैं। जिस समय तुम लोग कहीं पर इसकी बातें सुनो, मेरा अनुरोध है, तुम थोड़ा धैर्य रखो और सतर्क हो जाओ, कारण, इन सब बातों के भीतर प्राय: घोर स्‍वार्थपरता छिपी रहती है। 'जाड़ों में कभी-कभी बादल आता है, बड़ा गर्जन तर्जन करता है, लेकिन बरसता नहीं। किंतु वर्षा ऋृतु में बादल गरजता नहीं, वह संसार को जल से प्‍लावित कर देता है।' इसी प्रकार जो लोग यथार्थ कर्मी हैं और अपने ह्रदय से विश्‍व बंधुत्‍व का अनुभव करते हैं, वे लंबी-चौड़ी बातें नहीं करते, न उस निमित्‍त संप्रदायों की रचना करते हैं; किंतु उनके क्रिया-कलाप, गतिविधि और सारे जीवन के ऊपर ध्‍यान देने से यह स्‍पष्‍ट समझ में आ जाएगा कि उनके ह्रदय सचमुच ही मानव-जाति के प्रति बंधुता से परिपूर्ण हैं, वे सबसे प्रेम और सहानुभूति करते हैं। वे केवल बातें न बनाकर काम कर दिखाते हैं-आदर्श के अनुसार जीवन व्‍यतीत करते हैं। सारी दुनिया लंबी-चौड़ी बातों से परिपूर्ण है। हम चाहते हैं कि बातें बनाना कम हो, यथार्थ काम कुछ अधिक हो। अभी तक हम लोगों ने देखा है कि धर्म के संबंध में कोई सार्वभौमिक लक्षण खोज़ निकालना ज़रा टेढ़ी खीर है। तथापि हम जानते हैं कि ऐसा भाव वर्तमान है। हम सभी लोग मनुष्‍य तो अवश्‍य हैं, किंतु क्‍या सभी समान हैं? निश्‍चय ही नहीं। कौन कहता है, हम सब समान हैं? केवल पागल। क्‍या हम बल, बुद्धि, शरीर में समान हैं? एक व्‍यक्ति दूसरे की अपेक्षा बलवान, एक मनुष्‍य की बुद्धि दूसरे की अपेक्षा अत्‍याधिक है। यदि हम सब लोग समान ही होते, तो यह असमानता कैसी! किसने यह असमानता उपस्थित की? हमने। हम लोगों की क्षमता, विद्या-बुद्धि और शा‍रीरिक बल में अंतर होने के कारण निश्‍चय ही पार्थक्‍य है। फिर भी हम लोग जानते हैं कि समता का यह सिद्धांत हमारे ह्रदय को स्‍पर्श करता है। हम सब लोग मनुष्‍य अवश्‍य हैं, किंतु हम लोगों में कुछ पुरुष और कुछ स्त्रियाँ हैं; कोई काले हैं और कोई गोरे-किंतु सभी मनुष्‍य हैं, सभी एक मनुष्‍य जाति के अंतर्गत हैं। हम लोगों का चेहरा भी कई प्रकार का है। दो मनुष्‍यों का मुँह ठीक एक तरह का हम नहीं देख सकते, तथापि हम सब लोग मनुष्‍य हैं। मनुष्‍यत्‍वरूपी सामान्‍य तत्‍व कहाँ है? मैंने जिस किसी काले या गोरे स्‍त्री या पुरुष को देखा, उन सबके मुँह पर सामान्‍य रूप से मनुष्‍यत्‍व का एक अमूर्त भाव है, मैं उसे पकड़ या इंद्रियग्रस्त गोचर भले ही न कर सकूँ फिर भी मैं निश्‍चयपूर्वक जानता हूँ कि वह है। यदि किसी वस्‍तु का असंदिग्‍ध अस्तित्‍व है, तो इसी मानवीयता का, जो हम सबमें व्‍याप्‍त है। इस सामान्‍यीकृत उपादान के द्वारा ही मैं तुम लोगों को स्‍त्री और पुरुष के रूप में जान पाता हूँ। विश्‍व धर्म के संबंध में भी यही बात है, जो ईश्‍वर-रूप से पृथ्‍वी के सभी धर्मों में विद्यमान है। यह अनंत काल से वर्तमान है और अनंत काल तक रहेगा। मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव। 'मैं इस जगत में मणियों के भीतर सूत्र की भाँति वर्तमान हूँ।' [1] इस एक मणि को एक विशष धर्म, मत या संप्रदाय कहा जा सकता है। पृथक्-पृथक् मणियाँ एक एक धर्म है और प्रभु ही सूत्र रूप से उन सबमें वर्तमान है। तिस पर भी अधिकांश लोग इस संबंध में सर्वथा अज्ञ हैं।

बहुत्‍व में एकत्‍व का होना सृष्टि का विधान है। हम सब लोग मनुष्‍य होते हुए भी परस्‍पर पृथक् हैं। मनुष्‍य जाति के एक अंश के रूप में मैं तुमसे एक हूँ, किंतु अमुक के रूप में मैं तुमसे पृथक् हूँ। पुरुष होने से तुम स्‍त्री से भिन्‍न हो, किंतु मनुष्‍य होने के नाते स्‍त्री और पुरुष एक ही हैं। मनुष्‍य होने से तुम जीव-जंतु से पृथक् हो, किंतु प्राणी होने के नाते स्‍त्री-पुरुष, जीव-जंतु और उद्भिज, सभी समान हैं एवं सत्‍ता के नाते, तुम्‍हारा विराट् विश्‍व के साथ एकत्‍व है। ईश्‍वर है वह विराट् सत्‍ता-इस वैचित्र्यमय जगत्-प्रपंच का चरम एकत्‍व। उस ईश्‍वर में हम सभी एक हैं, किंतु व्‍यक्‍त-प्रपंच में यह भेद अवश्‍य चिरकाल तक विद्यमान रहेगा। इसलिए विश्‍व धर्म का यदि यह अर्थ हो कि एक प्रकार के विशेष मत में संसार के सभी लोग विश्‍वास करें, तो यह सर्वथा असंभव है। यह कभी हो नहीं सकता। फिर, समस्‍त संसार में कभी भी एक प्रकार की अनुष्‍ठान-पद्धति प्रचलित हो नहीं सकती। ऐसा किसी समय हो नहीं सकता, अगर कभी हो भी जाए, तो सृष्टि लुप्‍त हो जाएगी। कारण, वैचित्र्य ही जीवन की मूल भित्ति है। हमें आकारयुक्त किसने बनाया है? -वैषम्‍य ने। संपूर्ण साम्‍यभाव होने से ही हमारा विनाश अवश्‍यंभावी है। समान परिणाम और संपूर्ण भाव से विकीर्ण होना ही ताप का धर्म है। मान लो, इस घर का सारा ताप उस तरह विकीर्ण हो जाए, तो ऐसा होने पर वस्‍तुत: ताप जैसी कोई चीज़ बाक़ी न रहेगी। इस संसार की गति किसके लिए संभव होती है? -खोये हुए संतुलन के लिए। जिस समय इस संसार का ध्‍वंस होगा, उसी समय चरम साम्‍य आ सकेगा; अन्‍यथा ऐसा होना असंभव है। केवल इतना ही नहीं, ऐसा होना विपज्‍जनक भी है। हम सभी लोग एक प्रकार का विचार करें, ऐसा सोचना भी उचित नहीं है। ऐसा होने से विचार करने की कोई चीज न रह जाएगी। अज़ायबघर में रखी हुई मिस्र देश की ममियों (mummies) [2] की तरह हम सभी लोग एक प्रकार के हो जाएंगे और एक दूसरे को देखते रहेंगे, हमारे मन में कोई भाव ही न उठेगा। यही भिन्‍नता, यही वैषम्‍य, संतुलन का यह भंग होना ही हमारी उन्‍नति का प्राण-हमारे समस्‍त चिंतन का स्रष्‍टा है। यह वैचित्र्य सदा ही रहेगा।

विश्‍व धर्म का अर्थ फिर मैं क्‍या समझता हूँ? कोई सार्वभौमिक दार्शनिक तत्व, कोई सार्वभौमिक पौराणिक तत्‍तव या कोई सार्वभौमिक अनुष्‍ठान-पद्धति, जिसको मानकर सबकों चलना पड़ेगा-मेरा अभिप्राय नहीं है। कारण, मैं जानता हूँ कि तरह तरह के चक्र समवायों से गठित, बड़ा ही जटिल और आश्‍चर्यजनक इस विश्‍व का जो दुर्बोध और विशाल यंत्र है, वह सदा ही चलता रहेगा। फिर हम लोग क्‍या कर सकते हैं? हम इस यंत्र को अच्‍छी तरह चला सकते हैं, इसका घषर्णवेग कम कर सकते हैं-इसके चक्‍कों को चमकीला रख सकते हैं, उसमें तेल देते रह सकते हैं। वह कैसे? वैषम्‍य की नैसर्गिक अनिवार्यता को स्‍वीकार करके। जैसे हम सबने स्‍वाभाविक रूप से एकत्‍व को स्‍वीकार किया है, उसी प्रकार हमको वैषम्‍य भी स्‍वीकार करना पड़ेगा। हमको यह शिक्षा लेनी होगी की एक ही सत्‍य का प्रकाश लाखों प्रकार से होता है और प्रत्‍येक भाव ही अपनी निर्दिष्‍ट सीमा के अंदर प्रकृत सत्‍य है-हमको यह सीखना होगा कि किसी भी विषय को सैकड़ों प्रकार की विभिन्‍न दृष्टि से देखने पर वह एक ही वस्‍तु रहती है। उदाहरणार्थ सूर्य को लो। मान लो, कोई मनुष्‍य भूतल पर से सूर्योदय देख रहा है; उसको पहले एक गोलाकार वस्‍तु दिखायी पड़ेगी। अब मान लो, उसने एक कैमरा लेकर सूर्य की ओर यात्रा की और जब तक सूर्य के निकट न पहुँचे, तब तक बार-बार सूर्य की प्रतिच्‍छवि लेने लगा। एक स्‍थान से लिया हुआ सूर्य का चित्र दूसरे स्‍थानों से लिए हुए सूर्य के चित्र से भिन्‍न है-वह जब लौट आएगा, तब उसे मालूम होगा कि मानो वे सब भिन्‍न-भिन्‍न सूर्यों के चित्र हैं। परंतु हम जानते हैं कि वह अपने गंतव्य पथ के भिन्‍न-भिन्‍न स्‍थानों से एक ही सूर्य के अनेक चित्र लेकर लौटा है। ईश्‍वर के संबंध में भी ठीक ऐसा ही होता है। उच्‍च अथवा निकृष्‍ट दर्शन से ही हो, सूक्ष्‍म अथवा स्‍थूल पौराणिक कथाओं के अनुसार ही हो, या सुसंस्‍कृत क्रियाकांड अथवा भूतोपासना द्वारा हो, प्रत्‍येक संप्रदाय, प्रत्‍येक व्‍यक्ति, प्रत्‍येक धर्म और प्रत्‍येक जाति, जान या अनजान में अग्रसर होने की चेष्‍ठा करते हुए ईश्‍वर की ओर बढ़ रही है। मनुष्‍य चाहे जितने प्रकार के सत्‍य की उपलब्धि करे, उसका प्रत्‍येक सत्‍य भगवान के दर्शन के सिवा और कुछ नहीं है। मान लो, हम जलपात्र लेकर जलाशय से जल भरने आए। कोई कटोरी लाया, कोई घड़ा लाया, कोई बाल्‍टी लाया, इत्‍यादि। अब जब हमने जल भर लिया, तो क्‍या देखते हैं कि प्रत्‍येक पात्र के जल ने स्‍वभावत: अपने अपने पात्र का आकार धारण किया है। परंतु प्रत्‍येक पात्र में वही एक जल है-जो सबके पास है। धर्म के संबंध में भी ऐसा ही कहा जा सकता है-हमारे मन भी ठीक पूर्वोक्‍त पात्रों के समान हैं। हम सब ईश्‍वर-प्राप्ति की चेष्‍टा कर रहे हैं। पात्रों में जो जल भरा हुआ है, ईश्‍वर उसी जल के समान है-प्रत्‍येक पात्र में भगवद्दर्शन उस पात्र के आकार के अनुसार है, फिर भी वे सर्वर एक ही हैं-वे घट में विराजमान हैं। सार्वभौमिक भाव का भी हम यही एकमात्र परिचय पा सकते हैं।

सैद्धांतिक दृष्टि से यहाँ तक तो सब ठीक है परंतु धर्म के समन्‍वय-विधान को कार्य रूप में परिणत करने का भी क्‍या कोई उपाय है? हम देखते हैं-'सब धर्ममत सत्‍य है', यह बात बहुत पुराने समय से ही मनुष्‍य स्‍वीकार करता आया है। भारतवर्ष, अजेक्‍ज़ेन्ड्रिया, यूरोप, चीन, जापान, तिब्‍बत और अंतत: अमेरिका में भी एक समन्वित धर्म को सूत्रबद्ध करने, सब धर्मों को एक ही प्रेम-सूत्र में ग्रथित करने की सैकड़ों चेष्‍टाएँ हो चुकीं- परंतु सब व्‍यर्थ हुई, कारण, उन्‍होंने किसी व्‍यावहारिक प्रणाली का अवलंबन नहीं किया। संसार के सभी धर्म सत्‍य हैं, यह तो अनेकों ने स्‍वीकार किया है-परंतु उन सबको एकत्र करने का उन्‍होंने कोई ऐसा उपाय नहीं दिखाया, जिससे वे इस समन्‍वय के भीतर रहते हुए भी अपनी विशिष्‍टता को सुरक्षित रख सकें। वही उपाय यथार्थ में कार्यकारी हो सकता है, जो किसी धर्मावलंबी व्‍यक्ति की विशिष्‍टता को नष्‍ट न करते हुए, उसको औरों के साथ सम्मिलित होने का पथ बता दे। परंतु अब तक धर्मों के समन्‍वय के जितने प्रयास हुए हैं, उनमें धर्म संबंधी सभी दृष्टिकोणों को समाहित कर लेने के संकल्‍प के बावजूद, कार्यरूप में उन्‍होंने सभी धर्मों को कुछ मतवादों में जकड़ देने की चेष्‍टा की है। फलस्‍वरूप उनसे परस्‍पर कलह, संघर्ष और प्रतियोगिता करने वाले अनेक नए संप्रदायों की ही सृष्टि हुई है।

मेरी भी एक छोटी सी योजना है। मैं नहीं जानता कि वह कार्यकारी होगी या नहीं, परंतु मैं उसको विचारार्थ तुम्‍हारे सामने रखता हूँ। मेरी योजना क्‍या है? सर्वप्रथम मैं मनुष्य जाति से यह मान लेने का अनुरोध करता हूँ कि 'कुछ विनाश न करो।' मूर्ति-भंजनकारी सुधारक लोग संसार का उपकार नहीं कर सकते। किसी वस्‍तु को भी तोड़कर धूल में मत मिलाओ, वरन् उसका गठन करो। यदि हो सके, तो सहायता करो, नहीं तो चुपचाप हाथ उठाकर खड़े हो जाओ और देखो, मामला कहाँ तक जाता है। यदि सहायता न कर सको, तो अनिष्‍ट मत करो। जब तक मनुष्‍य कपटहीन रहे, तब तक उसके विश्‍वास के विरुद्ध एक भी शब्‍द न कहो। दूसरी बात यह है कि जो जहाँ पर है, उसको वहीं से ऊपर उठाने की चेष्‍टा करो। यदि यह सत्‍य है कि ईश्‍वर सब धर्मों का केंद्रस्‍वरूप है और हममें से प्रत्‍येक एक एक व्‍यासार्ध से उसकी ओर अग्रसर हो रहा है, तो हम सब निश्‍चय ही उस केंद्र में पहुँचेंगे और सब व्‍यापारों के मिलन-स्‍थान में हमारे सब वैषम्‍य दूर हो जाएंगे। परंतु जब तक हम वहाँ नहीं पहुँचते, तब तक वैषम्‍य कदापि दूर नहीं हो सकता। सब व्‍यासार्ध एक ही केंद्र में सम्मिलित होते हैं। कोई अपने स्‍वभावानुसार एक व्यासार्ध से अग्रसर होता है और कोई किसी दूसरे व्यासार्ध से। इसी तरह हम सब अपने अपने व्यासार्ध द्वारा आगे बढ़ें, तब अवश्‍य ही हम एक ही केंद्र में पहुँचेंगे। कहावत भी ऐसी है कि 'सब रास्‍ते रोम में पहुँचते हैं।' प्रत्‍येक अपनी अपनी प्रकृति के अनुसार बढ़ रहा है और पुष्‍ट हो रहा है-प्रत्‍येक व्‍यक्ति उचित समय पर चरम सत्‍य की उपलब्धि करेगा; कारण, अंत में देखा जाता है कि मनुष्‍य स्‍वयं ही अपना शिक्षक है। तुम क्‍या कर सकते हो और मैं भी क्‍या कर सकता हूँ? क्‍या तुम यह समझते हो कि तुम एक शिशु को भी कुछ सिखा सकते हो? नहीं, तुम नहीं सिखा सकते। शिशु स्‍वयं ही शिक्षा लाभ करता है-तुम्‍हारा कर्तव्‍य है सुयोग देना और बाधा दूर करना। एक वृक्ष बढ़ रहा है। क्‍या तुम उस वृक्ष को बढ़ा रहे हो? तुम्‍हारा कर्तव्‍य है, उस वृक्ष के चारों ओर घेरा बना देना, जिससे चौपाए उस वृक्ष को कही न चर डालें। बस, वहीं तुम्‍हारे कर्तव्‍य का अंत हो गया-वृक्ष स्‍वयं ही बढ़ता है। मनुष्‍य की आध्‍यात्मिक उन्‍नति का रूप भी ठीक ऐसा ही है। न कोई तुम्‍हें शिक्षा दे सकता है और न कोई तुम्‍हारी आध्‍यात्मिक उन्‍नति कर सकता है। तुमको स्‍वयं ही शिक्षा लेनी होगी -तुम्‍हारी उन्‍नति तुम्‍हारे ही भीतर से होगी।

बाह्य शिक्षा देने वाले क्‍या कर सकते हैं? वे ज्ञानलाभ की बाधाओं को थोड़ा दूर कर सकते हैं, और वहीं उनका कर्तव्‍य समाप्‍त हो जाता है। इसीलिए यदि हो सके, तो सहायता करो; किंतु विनाश मत करो। तुम इस धारणा को त्‍याग दो कि 'तुम' किसी को आध्‍यात्मिक बना सकते हो। यह असंभव है। तुम्‍हारी आत्‍मा को छोड़ तुम्‍हारा और कोई शिक्षक नहीं है। यह स्‍वीकार करो। फिर देखो, क्‍या फल मिलता है। समाज में हम भिन्न-भिन्न प्रकार के लोगों को देखते हैं। संसार में सहस्रों प्रकार के मन और संस्‍कार के लोग वर्तमान हैं- उन सबका संपूर्ण सामान्‍यीकरण (generalisation) असंभव है, परंतु हमारे व्‍यावहारिक प्रयोजन के लिए उनको चार श्रेणियों में विभक्‍त किया जा सकता है। प्रथम, कर्मठ व्‍यक्त्‍िा, जो कर्मेच्‍छुक हैं। उनके नाड़ीतंत्र और मांसपेशियों में विपुल शक्ति है। उनका उद्देश्‍य है काम करना, अस्‍पताल तैयार करना, सत्‍कार्य करना, रास्‍ता बनाना, योजना स्थिर करके संघबद्ध होना। द्वितीय, भावुक, जो उदात्‍त और सुंदर को सर्वांत:करण से प्रेम करते हैं। वे सौंदर्य की चिंता करते हैं, प्रकृति के मनोरम दृश्‍यों का उपभोग करने के लिए, और प्रेम करते हैं, प्रेममय भगवान की पूजा करने के लिए। वे विश्‍व के तमाम महापुरुषों और भगवान के अवतारों पर विश्‍वास करते हुए सबकी सर्वांत:करण से पूजा करते हैं, प्रेम करते हैं। ईसा का दिया हुआ 'शैलोपदेश' कब प्रचारित हुआ था? अथवा श्री कृष्‍ण ने कौन सी तारीख को जन्‍मग्रहण किया था? इसकी उन्‍हें चिंता नहीं उनके निकट तो उनका व्‍यक्तित्‍व, उनकी मनोहर मूर्तियाँ ही सबसे बड़े आकर्षण हैं। यही प्रेशर या भावुकों का आदर्श है, यही उनका स्‍वभाव है। तृतीय, योगमार्गों व्‍यक्ति, जो अपने मन का विश्‍लेषण करना और मनुष्‍य के मन की क्रियाओं को जानना चाहते हैं। मन में कौन-कौन शक्ति काम कर रही है और उन शक्तियों को पहचानने का या उनको परिचालित करने का अथवा उनको वशाभूत करने का क्‍या उपाय है- यही सब जानने को वे उत्‍सुक रहते हैं। चतुर्थ, दार्शनिक, जो प्रत्‍येक विषय की परीक्षा लेना चाहते हैं- और अपनी बुद्धि के द्वारा मानवीय दर्शन से जहाँ तक जाना संभव है, उसके भी परे जाने की इच्‍छा रखते हैं।

अब बात यह है कि यदि किसी धर्म को अधिकांश लोगों के लिए उपयोगी होना है, तो उसमें इन सब भिन्न-भिन्न वर्गों के लोगों के लिए उपयुक्‍त सामग्री जुटाने की क्षमता होनी चाहिए, और जहाँ इस क्षमता का अभाव है, वहाँ सभी संप्रदाय एकदेशीय हो जाते हैं। मान लो, तुम किसी भक्‍त-संप्रदाय के पास गए। वे गाते हैं, रोते हैं, और प्रेम का प्रचार करते हैं; परंतु यदि तुमने उनसे कहा, "मित्र, यह सब ठीक ही है, परंतु मैं इससे अधिक शक्तिप्रद कुछ चाहता हूँ, मैं कुछ युक्तितर्क, कुछ दर्शन और बुद्धिपूर्वक इन विषयों को थोड़ा समझना चाहता हूँ," तो वे फ़ौरन तुमको बाहर निकाल देंगे। और केवल इतना ही नहीं कि तुमको चले जाने को ही कहें, वरन् हो सका, तो एकदम तुमको भवसागर के पार ही भेज देंगे! अब इससे यह फल निकलता है कि वह संप्रदाय केवल भावना प्रधान लोगों की ही सहायता कर सकता है। दूसरों की सहायता तो वे करते ही नहीं, उनको विनष्‍ट करने की चेष्‍टा करते हैं; और सबसे दुष्‍ट बात तो यह है कि सहायता की तो बात दूर रही, वे दूसरों की ईमानदारी पर भी विश्‍वास नहीं करते। फिर दार्शनिक हैं, जो भारत के और प्राच्‍य ज्ञान की बातें करते हैं और खूब लंबे-चौड़े बनो वैज्ञानिक-पचास अक्षर के लंबे-शब्‍दों का व्‍यवहार करते हैं। परंतु यदि मेरे जैसा कोई साधारण आदमी उनके पास जाकर कहे, "आप मुझे कुछ आध्‍यात्मिक उपदेश दे सकते है!" तो वह ज़रा मुस्‍कराकर यही कहेंगे, "अजी, तुम बुद्धि में अभी हमसे बहुत नीचे हो। तुम आध्‍यात्मिकता को क्‍या समझोगे?" वे बड़े ऊँचे दर्जे के दार्शनिक हैं। वे तुमको केवल धर्म का द्वार दिखा दे सकते हैं। एक और दल है-योगी। वे जीवन की विभिन्‍न भूमिकाओं, मन के भिन्न-भिन्न स्‍तरों, मानसिक शक्ति की क्षमता इत्‍यादि के विषय में ढेर सी बातें तुमसे कहेंगे, और यदि तुम साधारण आदमी की तरह उनसे कहो, "मुझको कुछ अच्‍छी बातें बतलाइए, जो मैं कार्यरूप में परिणत कर सकूँ, मैं उतना कल्‍पनाप्रिय नहीं हूँ, क्‍या आप कुछ ऐसा मुझे दे सकते हैं, जो मेरे लिए उपयोगी हो?" तो वे हँसकर कहेंगे, "सुनते हो, क्‍या कह रहा है यह निर्बोध! कुछ भी समझ नहीं है- अहमक़ का जीवन ही व्‍यर्थ है।" संसार में सर्वत्र यही हाल है। मैं इन सब भिन्न-भिन्न संप्रदायों के चुने चुने धर्म-ध्‍वजियों को एकत्र कर एक कमरे में बंद कर उनके सुंदर विद्रूपव्‍यंजक हास्‍य का फोटोग्राफ़ लेना चाहता हूँ!

यही धर्म की वर्तमान अवस्‍था है, और यही वस्‍तुस्थिति है। मैं एक ऐसे धर्म का प्रचार करना चाहता हूँ, जो सब प्रकार की मानसिक अवस्‍था वाले लोगों के लिए उपयोगी हो; इसमें ज्ञान, भक्ति, योग और कर्म समभाव से रहेंगे। यदि कॉलेज से वैज्ञानिक और भौतिकशास्त्री अध्‍यापक आयें, तो वे युक्ति-तर्क पसंद करेंगे। उनको जहाँ तक संभव हो, युक्ति-तर्क करने दो, अंत में वे एक ऐसी स्थिति पर पहुंचेंगे, जहाँ से युक्ति-तर्क की धारा अविच्छिन्‍न रखकर वे और आगे बढ़ ही नहीं सकते-यह वे समझ लेंगे। वे कह उठेंगे, "ईश्‍वर, मुक्ति इत्‍यादि धारणाएँ अंधविश्‍वास हैं-उन सबको छोड़ दो।" मैं कहता हूँ, "दार्शनिकवर तुम्‍हारी यह पंचभौतिक देह तो उससे भी बड़ा अंधविश्‍वास है, इसका परित्‍याग करो। आहार करने के लिए घर में या अध्‍यापन के लिए दर्शन-क्‍लास में आज तुम मत जाओ। शरीर छोड़ दो और यदि न हो सके, तो चुपचाप बैठकर ज़ोर ज़ोर से रोओ।" क्‍योंकि धर्म को जगत् के एकत्‍व और एक ही सत्‍य के अस्तित्‍व की सम्‍यक् उपलब्धि करने का उपाय अवश्‍य बताना पड़ेगा। इसी तरह यदि कोई योगप्रिय व्‍यक्ति आयें, तो हम उनकी आदर के साथ अभ्‍यर्थना करके वैज्ञानिक भाव से मनस्‍तत्‍व-विश्‍लेषण कर देने और उनकी आँखों के सामने उसका प्रयोग दिखाने को प्रस्‍तुत रहेंगे। यदि भक्‍त लोग आयें, तो हम उनके साथ एकत्र बैठकर भगवान के नाम पर हँसेंगे और रोयेंगे, प्रेम का प्‍याला पीकर उन्‍मत्‍त हो जाएंगे। यदि एक पुरुषार्थी कर्मी आए, तो उसके साथ यथासाध्‍य काम करेंगे। भक्ति, योग, ज्ञान और कर्म के इस प्रकार का समन्‍वय सार्वभौमिक धर्म का अत्यंत निकटतम आदर्श होगा। भगवान की इच्‍छा से यदि सब लोगों के मन में इस ज्ञान, योग, भक्ति और कर्म का प्रत्‍येक भाव ही पूर्ण मात्रा में और साथ ही समभाव से विद्यमान रहे, तो मेरे मत से मानव का सर्वश्रेष्‍ठ आदर्श यही होगा। जिसके चरित्र में इन भावों में से एक या दो प्रस्‍फुटित हुए हैं, मैं उनको एकपक्षीय कहता हूँ और सारा संसार ऐसे ही लोगों से भरा हुआ है, जो केवल अपना ही रास्‍ता जानते हैं। इसके सिवाय अन्‍य जो कुछ हैं, वह सब उनके निकट विपत्तिकर और भयंकर हैं। इस तरह चारों ओर समभाव से विकास लाभ करना ही 'मेरे' कहे हुए धर्म का आदर्श है। और भारतवर्ष में हम जिसको योग कहते हैं, उसी के द्वारा इस आदर्श धर्म को प्राइज़ किया जा सकता है। कर्मी के लिए यह मनुष्‍य के साथ मनुष्‍य-जाति का योग है, योगी के लिए जीवात्‍मा और परमात्‍मा का योग, भक्‍त के लिए अपने साथ प्रेममय भगवान का योग और ज्ञानी के लिए बहुत्‍व के बीच एकत्‍वानुभूतिरूप योग है। 'योग' शब्‍द से यही अर्थ निकलता है। यह एक संस्‍कृत शब्‍द है और चार प्रकार के इस योग के संस्‍कृत में भिन्न-भिन्न नाम हैं। जो इस प्रकार का योग-साधन करना चाहते हैं, उन्‍हें कर्मयोगी कहते हैं। जो भगवान के भीतर से इस योग का साधन करते हैं, उन्‍हें भक्तियोगी कहते हैं। जो रहस्‍यवाद के द्वारा इस योग का साधन करते हैं, उन्‍हें राजयोगी कहते हैं। अतएव योगी कहने से इन सभी का अर्थ निकलता है।

पहले राजयोग की ही बात लो। इस राजयोग-इस मन:संयोग का अर्थ क्‍या है? (इंग्लैंड में) तुम लोगों ने योग शब्‍द के साथ भूत-प्रेत इत्‍यादि तरह तरह की अजीब धारणाएँ कर रखी हैं। इसलिए मैं पहले ही तुम लोगों से कह देना चाहता हूँ कि योग के साथ इसका कुछ भी संबंध नहीं है। कोई भी योग युक्ति-तर्कों का परित्‍याग कर आँखों में कपड़ा बाँधकर ढूँढ़ते फिरना या अपने युक्ति-तर्कों को कुछ ऐरे-गैरे पुरोहितों के हाथ समर्पित करने को नहीं कहता। उनमें से कोई भी नहीं कहता कि तुमको किसी मनुष्‍य के निकट श्रद्धा-शक्ति को दृढ़ आलिंगन कर उसी में लगे रहो। प्राइज में ज्ञान-लाभ के हम तीन उपाय देखते हैं। पहला तो जन्‍मजाता-प्रवृत्ति है, जो जीव-जंतुओं में अत्‍याधिक परिस्‍फुटित देखी जाती है।यह ज्ञान-लाभ का सबसे निम्‍न साधन है। दूसरा साधन क्‍या है? तर्क या बुद्धि। मनुष्‍यों में ही इसका सर्वाधिक विकास दिखायी पड़ता है। पहला तो जन्‍मजा-प्रवृत्ति है, वह एक अपर्याप्‍त साधन है। जीव-जंतु का कार्यक्षेत्र बहुत ही संकीर्ण होता है और इस संकीर्ण क्षेत्र में ही वह काम आता है। मनुष्‍य में यही जन्‍मजाता-प्रवृत्ति वेशेष परिस्‍फुटित होकर तर्क या बुद्धि-शक्ति में परिणत हुई है। साथ ही कार्यक्षेत्र भी बढ़ गया है, फिर भी यह बुद्धि-शक्ति बहुत अपर्याप्‍त है। यह कुछ दूर अग्रसर होकर ही रह जाती है, फिर आगे नहीं बढ़ सकती और यदि उसको और आगे ले जाने की चेष्‍टा करो, तो फलस्‍वरूप भयानक परिभ्रांति उपस्थित हो जाएगी। तर्क अपने आप वितर्क में परिणत हो जाएगा। न्‍याय की भाषा में यह अन्‍योन्‍याश्रय (argument in a circle) से दूषित हो जाएगा। जैसे हमारे प्रत्‍यक्ष ज्ञान के मूलभूत कारण जड़ और शक्ति की बात लो। जड़ क्‍या है? -जिस पर शक्ति कार्य करती है। और शक्ति क्‍या है?-जो जड़ पर कार्य करती है। तुम लोग अवश्‍य समझ गए होगे कि जटिलता क्‍या है। नैयायिक इसको अन्‍योन्‍याश्रय दोष कहते हैं-पहले का भाव दूसरे पर निर्भर हो रहा है-और दूसरे का भाव पहले पर निर्भर हो रहा है। इसीलिए तुम्‍हारे तर्क के पथ में एक बड़ी भारी बाधा दिखायी पड़ रही है, जिसको लाँघकर बुद्धि अग्रसर हो नहीं सकती। तथापि इसके परे जो अनंत राज्‍य विद्यमान है, वहाँ पहुँचने के लिए बुद्धि सदा व्‍यस्‍त रहती है। पंचेंद्रियगम्‍य और मानसिक विचार-गम्‍य यह जगत्-यह विश्‍व उस अनंत का मानो एक अणु मात्र है, जो चेतन-भूमि पर प्रक्षिप्‍त हुआ है; और चेतनरूप जाल से घिरे हुए, इस निखिल विश्‍व-जगत् के क्षुद्र घेरे के भीतर हमारी बुद्धि-शक्ति काम करती है- उसके परे नहीं जा सकती। इस कारण इसके परे जाने के लिए और किसी साधन का प्रयोजन है। अतींद्रियबोध वह साधन है। अतएव जन्‍मजाता-प्रवृत्ति, बुद्धि-शक्ति और अतींद्रियबोध, ये तीनों ही ज्ञान-लाभ के साधन हैं। पशुओं में जन्‍मजाता-प्रवृत्ति, मनुष्‍य में बुद्धि-शक्ति और देव-मानव में अतींद्रियबोध दिखायी पड़ता है। परंतु सब मनुष्‍यों में ही इन तीनों साधनों का बीज थोड़ा बहुत परिस्‍फुटित दिखायी पड़ता है। इन सब मानसिक साधनों का विकास होने के लिए उनके बीजों का भी मन में विद्यमान रहना आवश्‍यक है आर यह भी स्‍मरण रखना कर्तव्‍य है कि एक शक्ति दूसरी शक्ति की विकसित अवस्‍था ही है, इसलिए वे परस्‍पर विरोधी नहीं हैं। बुद्धि-शक्ति ही परिस्‍फुटित होकर अतींद्रियबोध में परिणत हो जाती है, इसलिए अतींद्रियबोध बुद्धि-शक्ति का परिपंथी नहीं है, परंतु उसका पूरक है। जो, जो विषय बुद्धि-शक्ति के द्वारा समझ में नहीं आते, उन सबको अतींद्रियबोध द्वारा समझना होता है और वह बुद्धि-शक्ति का विरोधी नहीं है। वृद्ध बालक का विरोधी नहीं है, परंतु उसीकी पूर्ण परिणति है। अतएव तुमको सर्वदा स्‍मरण रखना होगा कि निम्‍न श्रेणी की शक्ति को उच्‍च श्रेणी की शक्ति कहकर भूल की गई है, उससे भयानक विपद की संभावना है। अनेक बार जन्‍मजाता-प्रवृत्ति को अतींद्रियबोध कह दिया जाता है और साथ ही भविष्‍यवक्‍ता बनने का झूठा दावा भी किया जाता है। एक निर्बोध या अर्धोंमत्‍त आदमी समझता है कि उसके दिमाग़ में जो पागलपन है, वह अतींद्रिय ज्ञान है और वह चाहता है कि लोग उसका अनुसरण करें। संसार में जो परस्‍पर विरोधी असंबद्ध प्रलाप प्रचारित हुए हैं, वे केवल विकृतमस्तिष्‍क उन्‍मत्‍त लोगों के सहज ज्ञानलब्‍ध प्रलाप को अतींद्रियबोध की भाषा में प्रकट करने की चेष्‍टा मात्र हैं।

सच्‍ची शिक्षा का प्रथम लक्षण यह होना चाहिए कि वह कभी युक्ति-तर्क की विरोधी न हो। तुमको इससे ज्ञात हो जाएगा कि ऊपर लिखे हुए सब योग इसी भित्ति पर प्रतिष्ठित हैं। पहले राजयोग की बात लो। राजयोग मनस्‍तत्‍व विषय का योग है-मनस्‍तत्‍व के विश्‍लेषण से ही एकत्‍व को प्राप्‍त किया जा सकता है। विषय खूब बड़ा हैं; इसलिए मैं अभी इस योग के आभ्‍यंतरीण मूल भाव को तुम लोगों के सामने व्‍यक्‍त करता हूँ। हम लोगों के लिए ज्ञानलाभ का केवल एक ही उपाय है। निम्‍नतम मनुष्‍य से लेकर सर्वोच्च योगी तक को उसी उपाय का अवलंबन करना पड़ता है। यह उपाय है एकाग्रता। रसायनविद् जब अपनी प्रयोगशाला (laboratory) में काम करते हैं, तब वे अपने मन की सारी शक्ति को एकत्र कर लेते हैं-केंद्रीभूत कर लेते हैं-और उस केंद्रीभूत शक्ति का मूल पदार्थों के ऊपर प्रयोग करते ही, वे सब विश्‍लेषित हो जाते हैं और इस प्रकार वे उनका ज्ञान-लाभ करने में समर्थ होते हैं। ज्‍योतिर्विद् भी अपनी समग्र मन:शक्ति को एकीभूत कर-दूरवीक्षण यंत्र के माध्‍यम से वस्‍तु के ऊपर प्रयोग करते हैं, जिससे घूमने वाले तारे और ग्रहमंडल उनके निकट अपने रहस्‍य उद्घाटित करते हैं। चाहे विद्वान् अध्‍यापक हो, चाहे मेधावी छात्र हो, चाहे अन्‍य कोई भी हो, यदि वह किसी विषय को जानने की चेष्‍टा कर रहा है, तो उसको उपर्युक्‍त प्रथा से ही काम लेना पड़ेगा। तुम सब मेरी बातों को सुन रहे हो, यदि मेरी बातें तुमको अच्‍छी लगीं, तो तुम्‍हारा मन मेरी बातों के प्रति एकाग्र हो जाएगा। फिर यदि तुम्‍हारे कान के पास कोई घंटा भी बजाए, तो तुमको सुनायी नहीं देगा, कारण, तुम्‍हारा मन उस समय किसी अन्‍य विषय में एकाग्र हुआ रहेगा। तुम अपने मन को जितना अधिक एकाग्र करने में समर्थ होगे, उतना ही अधिक तुम मेरी बातों को समझ सकोगे और मैं अपने प्रेम और शक्तिसमूह को जितना ही अधिक एकाग्र कर सकूंगा, उतना ही अधिक अच्‍छी तरह से मैं तुमको अपनी बात समझा सकूँगा। यह एकाग्रता जितनी अधिक होगी, उतना ही अधिक मनुष्‍य ज्ञान-लाभ करेंगे, कारण-यही ज्ञानलाभ का एकमात्र उपाय है-नान्‍य: पन्‍था विद्यतेऽयनाय। मोची यदि ज़रा अधिक मन लगाकर काम करे, तो वह जूतों को अधिक अच्‍छी तरह से पालिश कर सकेगा। रसोइया एकाग्र होने से भोजन को अच्‍छी तरह पका सकेगा। अर्थ का उपार्जन हो, चाहे भगवदराधना हो-जिस काम में जितनी अधिक एकाग्रता होगी, वह कार्य उतने ही अधिक अच्‍छे प्रकार से संपन्न होगा। द्वार के निकट जाकर बुलाने से या खटखटाने से जैसे द्वारा खुल जाता है, उसी भाँति केवल इस उपाय से ही प्रकृति के भंडार का द्वार खुलकर विश्‍व में प्रकाशधारा प्रवाहित होती है। राजयोग में केवल इसी विषय की आलोचना है। अपनी वर्तमान शारीरिक अवस्‍था में हम बड़े ही अन्‍यमनस्‍क हो रहे हैं। हमारा मन इस समय सैकड़ों ओर दौड़कर अपना शक्तिक्षय कर रहा है। जब कभी मैं व्‍यर्थ की सब चिंताओं को छोड़कर ज्ञान-लाभ के उद्देश्‍य से मन को स्थिर करने की चेष्‍टा करता हूँ, तब न जाने कहाँ से मस्तिष्‍क में हज़ारों बाधाएँ आ जाती हैं, हज़ारों चिंताएँ मन में एक संग आकर उसको चंचल कर देती हैं। किस प्रकार से इन सबका नियंत्रण कर मन को वशी-भूत किया जाए, यही राजयोग का एकमात्र आलोच्‍य विषय है।

अब कर्मयोग अर्थात कर्म द्वारा ईश्‍वर-लाभ की बात लो। संसार में ऐसे लोग बहुत देखे जाते हैं, जिन्‍होंने मानो किसी न किसी प्रकार का काम करने के लिए जन्‍म ग्रहण किया है। उनका मन केवल चिंतन-राज्‍य में ही एकाग्र होकर नहीं रह सकता। जिसे आँखों से देखा जा सकता है और हाथों से किया जा सकता है- ऐसे मूर्त कार्य में ही उनका मन एकाग्र होता है। इस प्रकार के लोगों के लिए एक विज्ञान की आवश्‍यकता है। हममें से प्रत्‍येक ही किसी न किसी प्रकार के काम में लिप्‍त है; परंतु हम लोगों में अधिकतर लोग अपनी अधिकांश शक्ति का अपव्यय करते हैं, कारण यह है कि हमें कर्म का रहस्‍य ज्ञात नहीं है। कर्मयोग इस रहस्‍य की व्‍याख्‍या करता है और कहाँ, किस भाव से कार्य करना होगा, प्रस्‍तुत कर्म में किस भाव से हमारी समस्‍त शक्ति का प्रयोग करने से सर्वापेक्षा अधिक लाभ होगा, इसकी शिक्षा देता है। हाँ, कर्म के विरुद्ध, यह कहकर जो प्रबल आपत्ति उठायी जाती है कि वह दु:खजनक है, इसका भी विचार करना होगा। सब दु:ख और कष्‍ट आते हैं आसक्ति से-मैं काम करना चाहता हूँ, मैं किसी मनुष्‍य का उपकार करना चाहता हूँ। और नब्‍बे में एक यही देखा जाता है कि मैंने जिसकी सहायता की है, वह व्‍यक्ति सारे उपकारों को भूलकर मुझसे शत्रुता करता है-फल यह होता है कि मुझे कष्‍ट मिलता है। इस प्रकार की घटनाएँ ही मनुष्‍य को कर्म से बिरत कर देती हैं और इन दु:खों और कष्‍टों का भय ही मनुष्‍यों के कर्म और उद्यम को नष्‍ट कर देता है। किसकी सहायता की जा रही है अथवा किस कारण से सहायता की जा रही है, इत्‍यादि विषयों पर ध्‍यान न रखते हुए अनासक्‍त भाव से केवल कर्म के लिए कर्म करना चाहिए-कर्मयोग यही शिक्षा देता है। कर्मयोगी कर्म करते हैं, कारण, यह उनका स्‍वभाव है, वे अनुभव करते हैं कि ऐसा करना ही उनके लिए कल्‍याणप्रद है-इसको छोड़ उनका और कोई उद्देश्‍य नहीं रहता। वे संसार में सर्वदा दाता का आसन ग्रहण करते हैं, कभी किसी वस्‍तु की प्रत्‍याशा नहीं रखते। वे जान-बुझकर दान करते जाते हैं, परंतु प्रतिदानस्‍वरूप वे कुछ नहीं चाहते, इसी कारण वे दु:खों से मुक्ति पाते हैं। जब दु:ख हमको ग्रसित करता है, तब यही समझना होगा कि यह केवल 'आसक्ति' की प्रतिक्रिया है।

अब इसके बाद, भावुक और प्रेमी लोगों के लिए भक्तियोग है। भक्‍त चाहते हैं, भगवान से प्रेम करना। वे धर्म के अंगस्‍वरूप क्रियाकलापों की सहायता लेते हैं और पुष्‍प, गंध, सुरम्‍य मंदिर, मूर्ति इत्‍यादि नाना प्रकार के द्रव्‍यों से संबंध रखते हैं। तुम लोग क्‍या यह कहना चाहते हो कि वे भूल करते हैं? मैं तुमसे एक सच्‍ची बात कहना चाहता हूँ, वह तुम लोगों को-विशेषकर इस देश में-स्‍मरण रखना उचित है। जो सब धर्म-संप्रदाय अनुष्‍ठान और पौराणिक तत्‍तव-संपद से समृद्ध हैं, विश्‍व के श्रेष्‍ठ आध्‍यात्मिक शक्तिसंपन्न महापुरुषों ने उन्‍हीं संप्रदायों में जन्‍म ग्रहण किया है। और जो संप्रदाय, किसी प्रतीक या अनुष्‍ठानविशेष की सहायता बिना ही भगवान की उपासना की चेष्‍टा करते हैं, जो धर्म की सारी सुंदरता, महानता तथा और सब कुछ निर्मम भाव से पददलित करते हैं, अत्यंत सूक्ष्‍म दृष्टि से देखने पर भी उनका धर्म केवल कट्टरता है, शुष्‍क है। जगत् का इतिहास इसका ज्वलंत साक्षी है। इसलिए इन सब अनुष्‍ठानों तथा पुराणों आदि को गाली मत दो। जो लोग इन्‍हें लेकर रहना चाहते हैं, उन्‍हें रहने दो। तुम व्‍यर्थ ही व्‍यंग्‍यात्‍मक हँसी-हँसकर यह मत कहो कि 'वे मूर्ख हैं, उन्‍हें उसी को लेकर रहने दो।' यह बात कदापि नहीं है; मैंने जीवन में जिन सब आध्‍यात्मिक शक्ति-संपन्न श्रेष्‍ठ महापुरुषों के दर्शन किए हैं, वे सब इन्‍हीं अनुष्‍ठानादि नियमों के माध्‍यम से हुए हैं। मैं अपने को उनके पैरों तले बैठने के योग्‍य भी नहीं समझता और उस पर भला मैं उनकी समालोचना करूँ? ये सब भाव मानव मन में किस तरह कार्य करते हैं और उनमें से कौन सा हमारे लिए ग्राह्य है तथा कौन सा त्‍याज्‍य है, इसे मैं कैसे समझूँ? हम उचित-अनुचित न समझते हुए भी संसार की सारी वस्‍तुओं की समालोचना करते रहते हैं। लोगों की जितनी इच्‍छा हो, उन्‍हें इन सब सुंदर प्रेरणादायक पुराणादि को ग्रहण करने दो; कारण, तुमको यह सर्वदा स्‍मरण रखना उचित है कि भावुक लोग सत्‍य की कुछ नीरस परिभाषाओं की ज़रा भी चिंता नहीं करते। ईश्‍वर उनके निकट मूर्त वस्‍तु है, वही एकमात्र सत्‍य वस्‍तु है। उसे वे अनुभव करते हैं, उससे वे बात सुनते हैं, उसे वे देखते हैं, उससे वे प्रेम करते हैं। वे अपने ईश्‍वर को ही लेकर रहें। तुम्‍हारा युक्तिवाद भक्‍त के निकट उस मूर्ख के सदृश है, जो एक सुंदर मूर्ति को देखते ही उसे चूर्ण कर यह देखना चाहे कि वह किस उपकरण से निर्मित है। भक्तियोग उनको नि:स्‍वार्थ भाव से प्रेम करने की शिक्षा देता है, किसी भी सुदूर स्‍वार्थभाव से, लोकैषणा, पुत्रैषणा, वितैषणा से नितांत रहित होकर। केवल ईश्‍वर को अथवा जो कुछ मंगलमय है, केवल उसी से कर्तव्‍य समझकर प्रेम करो। प्रेम ही प्रेम का श्रेष्‍ठ प्रतिदान है, और ईश्‍वर ही प्रेमस्‍वरूप है। ईश्‍वर सृष्टिकर्ता, सर्वव्‍यापी, सर्वर, सर्वशक्त्मिान, शास्‍ता और पिता-माता है, यह कहकर उसके प्रति ह्रदय की सारी भक्ति और श्रद्धा अर्पित करने की ही शिक्षा भक्तियोग देता है। भाषा उसका जो सर्वश्रेष्‍ठ प्रकाश कर सकती है, अथवा मनुष्‍य उसके संबंध में जो सर्वोच्‍च धारणा कर सकता है, वह यह है कि वह प्रेममय है। जहाँ कहीं प्रेम है, वहाँ वह है। 'जहाँ कहीं किसी प्रकार का प्रेम है, वहाँ वह है, वहाँ प्रभु विद्यमान है।' पति जब स्‍त्री को चुंबन करती है, तो उसमें भी वह वर्तमान है। मित्रों के करमर्दन में भी प्रभु विद्यमान है। जब कोई महापुरुष मानव जाति के प्रेम से वशीभूत हो, उनका कल्‍याण करने की इच्‍छा करते हैं, तब प्रभु ही अपने मानव-प्रेम-भंडार से मुक्‍तहस्‍त हो प्रेम वितरण करता है। जहाँ ह्रदय का विकास है, वहाँ उसका प्रकाश है। भक्तियोग से इन्‍हीं सब बातों की शिक्षा मिलती है।

अब अंत में मैं ज्ञानयोगी-दार्शनिक पर विचार करूँगा। वे दार्शनिक और चिंतक हैं, जो इस दृश्‍य जगत् के परे जाना चाहते हैं-वे संसार की तुच्‍छ वस्‍तुओं को लेकर संतुष्ट नहीं रह सकते। वे प्रतिदिन के आहारादि नित्‍य कर्म के परे चले जाना चाहते हैं-हज़ारों पुस्‍तकें पढ़ने पर भी उनकी शांति नहीं होती, यहाँ तक कि समग्र भौतिक विज्ञान भी उनको परितृप्‍त नहीं कर सकता। कारण, वे बहुत प्रयत्‍न करने पर इस क्षुद्र पृथ्‍वी को ही ज्ञानगोचर कर सकते हैं। ऐसी क्‍या वस्‍तु है, जो उनका संतोष कर सके? कोटि-कोटि सौर जगत् भी उनको संतुष्ट नहीं कर सकते; अपनी दृष्टि में वे 'सत्' सिंध में केवल एक बिंदु हैं। उनकी आत्‍मा इन सबके पार-सब अस्तित्‍वों का जो सार है, उसी में डूब जाना चाहती है-सत्‍यस्‍वरूप को प्रत्‍यक्ष करना चाहती है। वे इसकी उपलब्धि करना चाहते हैं, उसके साथ तादात्‍म्‍य लाभ करना चाहते हैं, उस विराट् सत्‍ता के साथ एक हो जाना चाहते हैं। वे ही ज्ञानी हैं। भगवान, जगत् के पिता, माता, सृष्टिकर्ता, पालक, पथप्रदर्शक इत्‍यादि वाक्‍यों द्वारा भगवान की महिमा प्रकाश करने में वे असमर्थ हैं। वे सोचते हैं, भगवान उनके प्राणों के प्राण, आत्‍मा की आत्‍मा हैं, भगवान उनकी ही आत्‍मा हैं। भगवान को छोड़कर और कोई भी वस्‍तु नहीं है। उनका समुदय नश्‍वर अंश विचारों के प्रबल आघात से चूर्ण-विचूर्ण होकर उड़ जाता है। अंत में जो सचमुच ही विद्यमान रहता है, वही स्‍वयं भगवान है।

'एक ही वृक्ष पर दो पक्षी हैं; एक ऊपर, एक नीचे। ऊपर का पक्षी स्थिर, निर्वाक् और महान है और अपनी ही महिमा में विभोर है; नीचे की डाल पर जो पक्षी है, वह कभी मिष्‍ट और कभी तिक्‍त फल खा रहा है, एक डाल से दूसरी डाल पर फुदक रहा है और पर्यायक्रम से अपने को कभी सुखी और कभी दु:खी समझता है। कुछ क्षण बाद नीचे के पक्षी ने एक बहुत ही कडुआ फल खाया और साथ ही अपने को धिक्‍कारते हुए ऊपर की ओर दृष्टिपात किया और एक दूसरे पक्षी को देखा-वह अपूर्व सुनहले परवाला पक्षी न तो मीठे फल खाता है और न कड़ुवे, अपने को न तो दु:खी समझता है और न सुखी; परंतु शांत भाव से अपने में ही विभोर है; उसे अपनी आत्‍मा को छोड़ और कुछ भी दिखायी नहीं देता। नीचे का पक्षी इस अवस्‍था को प्राप्‍त करने के लिए व्‍यग्र हुआ; परंतु शीघ्र ही भूल गया और फिर फल खाने लगा। थोड़ी देर बाद फिर उसने एक बड़ा ही कड़ुआ फल खाया, जिससे उसके मन में बड़ा दु:ख हुआ और फिर उसने ऊपर की ओर दृष्टि डाली और ऊपरवाले पक्षी के निकट जाने की चेष्‍टा की, परंतु फिर भूल गया और कुछ क्षण बाद फिर ऊपर देखा। कई बार ऐसा ही करते हुए, वह ऊपर के पक्षी के बिल्‍कुल निकट पहुँच गया और देखा कि उसके परों से ज्‍योति का प्रकाश फूटकर उसकी देह के च‍तुर्दिक् विकीर्ण हो रहा है। उसने एक परिवर्तन का अनुभव किया-मानो वह मिलने जा रहा है; वह और भी पास गया, देखा, उसके चारों तरफ़ जो कुछ था, सब गला जा रहा है-अंतर्हित हो रहा है। अंत में उसने इस अद्भुत परिवर्तन का अर्थ समझा। नीचे का पक्षी मानो ऊपर वाले पक्षी की एक घनीभूत छाया मात्र था-केवल प्रतिबिंब था! वह स्‍वयं बराबर स्‍वरूपत: ऊपर वाला पक्षी ही था। नीचेवाले पक्षी का मीठा और कड़ुआ फल खाना और एक के बाद एक सुख और दु:ख का बोध करना-सब मिथ्‍या-सब स्‍वप्‍न मात्र है; वह प्रशांत, निर्वाक्, महिमामय, शोक दु:खातीत ऊपर वाला पक्षी ही सर्वदा ३/११ विद्यमान था।' [3] ऊपर वाला पक्षी ईश्‍वर, परमात्‍मा-जगत्-प्रभु है और नीचेवाला पक्षी, जीवात्‍मा, इस जगत् के सुख-दु:खरूपी मीठे-कड़वे फलों का भोक्‍ता है। बीच-बीच में जीवात्‍मा के ऊपर प्रबल आघात आ पड़ता है; वह कुछ दिन के लिए फल भोग बंद कर उस अज्ञात ईश्‍वर की ओर अग्रसर होता है-उसके ह्रदय में सहसा ज्ञानज्‍योति का प्रकाश होता है। तब वह समझता है-यह संसार केवल झूठा दृश्‍यजाल है, परंतु फिर इंद्रियां उसे बहिर्जगत् में उतार लाती हैं और पूर्व की भांति फिर वह जगत् के अच्‍छे-बुरे फल भोगों में लग जाता है। पुन:एक अत्यंत कठोर आघात पाता है और फिर उसका ह्रदय-द्वार दिव्‍य प्रकाश के लिए उन्‍मुक्‍त हो जाता है। इस तरह धीरे-धीरे वह भगवान की ओर अग्रसर होता है और जितना ही वह अधिकतर निकटवर्ती होने लगता है, उतना ही वह देखता है कि उसके अहंकारी 'मैं' का अपने आप ही लय होता जा रहा है। जब वह खूब निकट आ जाता है, तब देख पाता है कि वह स्‍वयं ही भगवान है और बोल उठता है, "जिसको मैंने तुम्‍हारे निकट जगत् का जीवन और अनु-परमाणु तथा चंद्र-सूर्य तक में विद्यमान रहनेवाला कहकर वर्णन किया है, वही हमारे इस जीवन का आधार है, हमारी आत्‍माओं की आत्‍मा है। केवल यही नहीं, तत्‍तवमसि।" ज्ञानयोग हमको यही शिक्षा देता है। वह मनुष्‍य से कहता है, तुम्‍हीं स्‍वरूपत: भगवान हो। यह मानव जाति को प्राणिजगत् के बीच यथार्थ एकत्‍व दिखा देता है-हममें से प्रत्‍येक के भीतर से प्रभु ही इस जगत् में प्रकाशित हो रहा है। अत्यंत सामान्‍य पददलित कीट से लेकर, जिसको हम सविस्‍मय ह्रदय की श्रद्धा-भक्ति अर्पित करते हैं, उन श्रेष्‍ठ जीवों तक सभी उस एकमात्र भगवान की अभिव्‍यक्तियाँ हैं।

अंतिम बात यह है-इन सब विभिन्‍न योगों को हमें कार्य में परिणत करना ही होगा; केवल उनके संबंध में जल्‍पना-कल्‍पना करने से कुछ न होगा। श्रोतव्‍यो मंतव्यो निदिध्‍यासितव्‍य:। पहले उनके संबंध में सुनना पड़ेगा-फिर श्रुत विषयों पर चिंता करनी होगी। हमें उन सबको अच्‍छी तरह विचारपूर्वक समझना होगा, जिससे हमारे मन में उनकी एक छाप पड़ जाए। इसके बाद उनका ध्‍यान और उपलब्धि करनी पड़ेगी-जब तक कि हमारा समस्‍त जीवन तद्भावभावित न हो उठे। तब धर्म हमारे लिए केवल कतिपय धारणाओं एवं मतवादों की पोटली अथवा बौद्धिक कल्‍पना भी नहीं रहेगा। यह हमारा आत्‍मस्‍वरूप हो जाएगा। भ्रमात्‍मक बुद्धि से आज हम अनेक मूर्खताओं को सत्‍य समझकर ग्रहण करके कल ही शायद संपूर्ण मत-परिवर्तन कर सकते हैं, किंतु यथार्थ धर्म कभी परिवर्तित नहीं होता। धर्म अनुभूति की वस्‍तु है-वह मुख की बात, मतवाद अथवा युक्तिमूलक कल्‍पना मात्र नहीं है-चाहे वह जितना ही सुंदर हो। आत्‍मा की ब्रह्मस्‍वरूपता को जान लेना, तद्रूप हो जाना-उसका साक्षात्‍कार करना, यही धर्म है-वह केवल सुनने या मान लेने की चीज़ नहीं है। समस्‍त मन-प्राण विश्‍वास की वस्‍तु के साथ एक हो जाएगा। यही धर्म है।


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