hindisamay head


अ+ अ-

व्याख्यान

धर्म: साधना

स्वामी विवेकानंद

अनुक्रम शाश्‍वत शांति का पथ पीछे     आगे

आज रात को मैं तुम्‍हें वेदों में लिखी हुई एक कहानी बतलाता हूँ। वेद हिंदुओं के पवित्र धर्मग्रंथ हैं और साहित्‍य के विशाल संग्रह हैं। इनका अंतिम भाग 'वेदांत' अर्थात वेदों का अंत कहलाता है। वेदों में प्रतिपादित सिद्धांत ही वेदांत में विवेचना के विषय हैं, विशेषकर वह तत्त्वज्ञान, जिसके संबंध में मैं आज कुछ कहूँगा। स्‍मरण रहे कि वेद आर्य संस्‍कृत भाषा में हज़ारों वर्ष पूर्व के लिखे हुए हैं। हाँ, तो वह कहानी इस प्रकार है कि एक मनुष्‍य एक बड़ा यज्ञ करना चाहता था। हिंदू धर्म में यज्ञों का बड़ा महत्त्व है। यज्ञ अनेक प्रकार के होते हैं। अंत में वेदियाँ बनायी जाती हैं, अग्नि को आहुतियाँ समर्पित की जाती हैं, स्‍तोत्र आदि पढ़े जाते हैं और अंत में ब्राह्मणों तथा ग़रीबों को दान दिया जाता है। प्रत्‍येक यज्ञ की एक विशेष दक्षिणा होती है। एक यज्ञ ऐसा होता था, जिसमें मनुष्‍य को अपना सर्वस्‍व दान कर देना पड़ता था। यह मनुष्‍य यद्यपि धनिक था, तथापि कंजूस था, परंतु फिर भी वह चाहता था कि उसकी यह कीर्ति हो कि उसने सबसे कठिन यज्ञ किया है। इस यज्ञ में अपना सर्वस्‍व दान करने के बदले उसने केवल अपनी अंधी, लँगड़ी और बूढ़ी गायें ही दान दीं, जिन्‍होंने दूध देना बंद कर दिया था। लेकिन उसके नचिकेता नाम का एक पुत्र था। नचिकेता की बुद्धि बड़ी प्रखर एवं कुशाग्र थी। जब उसने देखा कि उसका पिता निकृष्‍ट दान दे रहा है, जिसका फल उसे अवश्‍य ही बुरा मिलेगा, तो उसने निश्‍चय किया कि वह स्‍वयं को दान में अर्पित करके इस कमी की पूर्ति करेगा। इसलिए वह पिता के पास गया और पूछने लगा, "पिता जी, मुझे आप किसे दान करेंगे?" पिता ने कुछ उत्तर न दिया। लड़के ने फिर यही प्रश्‍न दूसरी और तीसरी बार पूछा। पिता चिढ़ उठा और बोला, "मैं तुझे यम को दूँगा, मैं तुझे मृत्‍यु को अर्पित करूँगा।" [4] बस लड़का सीधा यमराज के दरबार को चला गया। यमराज घर पर न थे, इसलिए वह उनकी राह देखने लगा। तीन दिन के बाद यमराज आए और बोले, "ब्राह्मण, तुम मेरे अतिथि हो, तुम्‍हें यहाँ तीन दिन भूखा रहना पड़ा। मैं तुम्‍हारा अभिवादन करता हूँ और तुम्‍हारे इन तीन दिन के कष्‍ट के बदले मैं तुम्‍हें तीन वर देता हूँ। तुम अपने वर माँग लो।"

बालक ने कहा, "पहला वर तो मुझे यह दीजिए कि मेरे पिता का मुझ पर क्रोध नष्‍ट हो जाए।" [5] दूसरा वर किसी एक यज्ञ के विषय में था और तीसरे वर में उसने यह जानना चाहा, "मनुष्‍य जब मरता है, तो उसका क्‍या होता है? कोई कहते हैं कि उसका अस्तित्‍व ही नहीं रहता, दूसरे कहते हैं कि मरण के पश्‍चात् भी वह विद्यमान रहा है। मैं तीसरे वर में यही चाहता हूँ कि आप मेरे इस प्रश्‍न का उत्तर दें।" [6] तब मृत्‍युदेव बोले, "देवताओं ने भी यह रहस्‍य प्राचीन काल में जानने की कोशिश की थी। यह रहस्‍य इतना गहन है कि किसी के लिए इसका समझना कठिन है, इसलिए यह वर तू न माँग। कोई दूसरा वर माँग ले। सौ साल का जीवन माँग ले, घोड़े माँग ले, पशु माँग ले, राज्‍य भी माँग ले, लेकिन इस प्रश्‍न का उत्तर देने के लिए मुझे बाध्‍य न कर। मनुष्‍य भोग करने के लिए जो कुछ चाहता है, वह सब माँग ले, मैं सब कुछ दूँगा, लेकिन यह रहस्‍य जानने की इच्‍छा न कर।" [7] बालक ने उत्तर दिया, "नहीं महाराज, धन से मनुष्‍य को संतोष नहीं होता। अगर धन की ही इच्‍छा होती, तो वह आपके दर्शन मात्र से मिल सकता था। जब तक आपकी इच्‍छा होती है, तभी तक हम जीवित रह सकते हैं। कभी जराग्रस्‍त न होने वाले अमर पुरुष के समीप पहुँचकर नीचे पृथ्वी पर रहनेवाला ऐसा कौन मर्त्‍य विवेकी पुरुष होगा, जो नृत्‍य-गीतादि भोगों की अस्थिरता देखकर भी अतिदीर्घ जीवन में सुख मानेगा? इसलिए इहलोक के अनंतर आनेवाली मनुष्‍य की स्थिति का वह अद्भुत रहस्य ही मुझे बताइए। मैं और कुछ नहीं चाहता। मृत्‍यु के इस रहस्‍य को ही नचिकेता जानना चाहता है।" [8] इस पर मृत्‍युदेव प्रसन्‍न हो गए। पिछले दो या तीन व्‍याख्‍यानों में मैं यह कहता आया हूँ कि ज्ञान की इच्‍छा से मनुष्‍य का मन तैयार हो जाता है। इसलिए पहली तैयारी यह है कि मनुष्‍य सत्‍य के सिवा किसी अन्‍य वस्‍तु की इच्‍छा ही न रखे, सत्‍य-लाभ के लिए सत्‍य की अभिलाषा करे। देखो, इस बालक की ओर देखो। केवल एक बात के लिए केवल ज्ञान के लिए, केवल सत्‍य के लिए वह धन, राज्‍य, दीर्घ जीवन इत्‍यादि सभी कुछ, जो यमराज उसे देने को उत्‍सुक थे, त्‍यागने को तैयार हो गया। सत्‍य की प्राप्ति इसी तरह हो सकती है। मृत्‍युदेव प्रसन्‍न हो गए। उन्होंने कहा, "देखो, ये दो मार्ग हैं, एक है प्रेय अर्थात भोग का और दूसरा, श्रेय अर्थात मोक्ष का। मनुष्‍य को ये दो मार्ग ही अनेक प्रकार से आकृष्ट करते रहते हैं। उस मनुष्‍य का परम कल्‍याण होता है, जो श्रेय के मार्ग को स्‍वीकार करता है और प्रेय-मार्ग को स्‍वीकार करनेवाले का पतन होता है; हे नचिकेता, मैं तेरी प्रशंसा करता हूँ, क्‍योंकि तूने वासनापूर्ति की अभिलाषा नहीं की; भोग की ओर तुझे लुभाने की मैंने अनेक प्रकार से चेष्‍टा की, लेकिन तूने उन सबको अस्‍वीकार कर दिया, तूने यह जान लिया है कि भोग के जीवन से ज्ञानमय जीवन कितना अधिक ऊँचा है।

"तूने यह समझ लिया है कि जो मनुष्‍य अज्ञान में रहकर भोग भोगता रहता है, उसमें और पशु में कोई अंतर नहीं। फिर भी ऐसे कितने ही लोग होते हैं, जो अविद्या में पूरी तरह से डूबे रहते हुए भी अभिमानवश अपने को पंडित मानते हैं। ये मूढ़ एक अंधे के नेतृत्‍व में चलनेवाले दूसरे अंधे के समान अनेक टेढ़े-मेढ़े रास्‍तों में भटकते फिरते हैं। हे नचिकेता, धन के मोह से अंधे तथा प्रमादशील बालबुद्धिवालों को यह सत्‍य नहीं सूझता, वे न इहलोक को समझते हैं, और न परलोक को। वे इहलोक और परलोक को अस्‍वीकार करते हैं और इसीलिए बार-बार मेरे वश में आते हैं। बहुत से मनुष्‍यों को तो यह ज्ञान सुनने को भी नहीं मिलता, और दूसरे जो सुनते हैं, समझ नहीं सकते, क्‍योंकि गुरु एक अत्यंत निपुण व्‍यक्ति होना चाहिए तथा शिष्‍य भी, जिसे यह ज्ञान दिया जाता है। यदि वक्‍ता अच्‍छा अनुभवी न हो, तो चाहे यह ज्ञान सौ बार सुना जाए और सौ बार दुहराया जाए, परंतु फिर भी ह्रदय में सत्‍य को प्रकाश न पड़ेगा। व्‍यर्थ वाद-विवाद से अपना मन अशांत न करो। नचिकेता,यह ज्ञान उसी ह्रदय में प्रकाशित होता है, जो पवित्र हुआ है। असीम प्रयास के बिना जिसका दर्शन नहीं होता, जो गुप्‍त है, ह्रदय के गूढ़तम प्रदेश में निहित है, जो पुराण पुरुष है, इन बाह्य नेत्रों से जो देखा नहीं जा सकता, उसे आत्‍मा के नेत्रों से देखकर मनुष्‍य सुख और दु:ख, दोनों से अतीत हो जाता है। जिसे यह रहस्‍य मालूम है, वह अपनी संपूर्ण व्‍यर्थ वासनाओं का त्‍याग कर देता है और पूर्णत्‍व को प्राप्‍त कर दिव्‍य आनंद का अनुभव करने लगता है। हे नचिकेता,यही शाश्‍वत शांति का पथ है। वह सब पुण्‍य से परे है, पाप से भी परे है; धर्म से परे है, अधर्म से भी परे है; वर्तमान से अतीत है और भविष्‍य से भी अतीत है। जो यह जानता है, उसी ने जाना है।

"जिसे सब वेद ढूँढ़ते हैं, जिसका दर्शन पाने के लिए लोग अनेक प्रकार की तपश्‍चर्याएँ करते हैं, वह पद में तुझे बतलाता हूँ: वह है 'ॐ'। यह ॐ अक्षय है, यही ब्रह्म है, यही अमृत है। जो इसका रहस्‍य जान लेता है, वह जो कुछ चाहता है, वह सब उसे मिल जाता है। मनुष्‍य में विद्यमान यह आत्‍मा, जिसे हे नचिकेता, तू जानना चाहता है, न तो कभी जन्‍मती है और न मरती है। यह अनादि है तथा सदा वर्तमान है। यह पुराण पुरुष शरीर नष्‍ट होने पर भी नष्‍ट नहीं होता। अगर मारनेवाला सोचे कि मैं मार सकता हूँ और मरने वाला सोचे कि मैं मारा जाता हूँ, तो दोनों ही भूल कर रहे हैं, क्‍योंकि आत्‍मा न तो किसी को मारती है और न मारी जा सकती है। वह अणु से भी छोटी है, वह बड़े से भी बड़ी है, वह सबकी स्‍वामिनी है और प्रत्‍येक के ह्दयरूपी गुहा में निहित है। जब पापों का क्षय हो जाता है, तो उसी दयामय की दया से मनुष्‍य उसकी परम महिमा का दर्शन करता है। (हम देखते हैं कि परमेश्‍वर-प्राप्ति के हेतुओं में से उसकी दया एक हेतु है।) यह आत्‍मा स्थित होती हुई भी दूर तक जाती है और शयन करती हुई भी सर्वत्र पहुँचती है। जिसका ह्दय शुद्ध तथा बुद्धि सूक्ष्‍म है, उसके सिवा और किसे उस आत्‍माके दर्शन का अधिकार है, जो सब विरोधों की समन्‍वय भूमि है? उसके शरीर नहीं है, फिर भी वह शरीर में रहती है। वह स्‍पर्श से परे है, फिर भी उसका शरीर से स्‍पर्श होता सा मालूम होता है। वह सर्वव्‍यापक है। उसके इस स्‍वरूप को जानकर आत्‍मज्ञानी सब दु:खों से मुक्‍त हो जाते हैं। यह आत्‍म-दर्शन न तो वेदों के अध्‍ययन से होता है, न बहुश्रुत बनकर और न तीक्ष्‍ण बुद्धि से ही। जिसे यह आत्‍मा वरण करती है, वही उसे पाता है और उसमें ही अपनी संपूर्ण महिमा में प्रकट होती है। जो निरंतर दुष्‍कर्म करता रहता है, जिसका मन अशांत रहता है, जो ध्‍यान नहीं कर सकता, जो सदा अस्थिर और चंचल रहता है, वह इस ह्दयरूपी गुहा में प्रविष्‍ट आत्‍मा को न तो समझ सकता है और न उसका दर्शन ही कर सकता है। हे नचिकेत, यह शरीर रथ है और उसमें इंद्रियग्रस्त रूपी घोड़े जुते हुए हैं, मन उनकी लगाम है, बुद्धि उस रथ का सारथी है और आत्‍मा रथी है। जब यह रथी बुद्धिरूपी सारथी से संयुक्‍त होता है, तथा उसके द्वारा जब वह मनरूपी लगाम से संबंध होता है, और जब मनरूपी लगाम द्वारा वह इंद्रियग्रस्त रूपी घोड़ों से संयुक्‍त हो जाता है, तब वह भोक्‍ता कहलाता है; तब वह दर्शन-स्‍पर्शनादि क्रिया करनेलगता है। जिसका मन अपने वश में नहीं है, जो विवेकहीन है, वह इंद्रियों को अपने अधीन उसी प्रकार नहीं रख सकता, जैसे एक सवार अडि़यल घोड़ों को। लेकिन जो विवेकी है, जिसने अपने मन को संयत कर रखा है, उसके वश में इंद्रियां इस तरह रहती हैं, जैसे कुशल सवार के क़ाबू में अच्‍छे घोड़े। जो विवेकी है, जिसका मन हमेशा सत्‍य-दर्शन के पथ पर अग्रसर होता है, जो सर्वथा शुद्ध है, वही इस सत्‍य को पाता है। इस सत्‍य को पा लेने के पश्‍चात् मनुष्‍य का पुनर्जन्‍म नहीं होता; परंतु हे नचिकेता, यह मार्ग बहुत दुर्गम है, दीर्घ है, तथा दु:साध्‍य है। सूक्ष्‍म बुद्धिवाले मनीषी ही इसे समझ सकते हैं तथा इसका अनुभव कर सकते हैं। तो भी हे नचिकेता, तू निर्भय रह। जग जा, उठ खड़ा हो और बिना ध्‍येय तक पहुँचे विराम मत ले, क्‍योंकि आत्‍मज्ञानी कहते हैं कि यह पथ छूरे की तीक्ष्‍ण धार पर चलने के समान दुष्कर है। जो इंद्रियों से अतीत है, जो अरूप है, जो रस के अतीत है, जो अविकार्य, अचिंत्य और अनश्‍वर है, उसे जानकर ही मनुष्‍य मृत्‍यु के मुख से बच जाता है।" [9]

अत: यहाँ तक हमने यह देखा कि यम ने उपलब्‍ध किए जाने वाले लक्ष्‍य का वर्णन किया है। पहली बात, जो हमें मिलती है, यह है कि जन्‍म, मृत्‍यु, दु:ख तथा इस संसार में मनुष्‍य को मिलने वाले अनेक झटके केवल वही मनुष्‍य पार कर सकता है, जिसने सत्‍य जान लिया है। सत्‍य क्‍या है? सत्‍य वह है, जिसमें कोई विकार उत्‍पन्‍न नहीं होता, मनुष्‍य की आत्‍मा, विश्‍व की आत्‍मा ही सत्‍य है। पुनश्‍च, यह भी कहा है कि उसे जानना दुष्‍कर है। जानने का अर्थ केवल बुद्धि द्वारा ग्रहण ही नहीं, वरन् अनुभव करना है। बार-बारह हमने यही पढ़ा है कि इस आत्‍मा के दर्शन करने चाहिए, उसका अनुभव करना चाहिए। हम इन नेत्रों से उसे नहीं देख सकते, क्‍योंकि वह दर्शन परम सूक्ष्‍म दृष्टि द्वारा होता है। दीवाल या पुस्‍तकें देखना केवल स्‍थूल दर्शन है। उस सत्‍य को जानने के लिए मनुष्‍य की दृष्टि अत्यंत सूक्ष्‍म होनी चाहिए, और यही इस ज्ञान का रहस्‍य है। बाद में यह कहते हैं कि मनुष्‍य को अत्यंत पवित्र होना चाहिए। हमें अपनी दर्शन-शक्ति को सूक्ष्‍म बनाने का यही मार्ग है। और इसके बाद वे हमें दूसरे मार्ग बतलाते हैं। वह सत्‍यस्‍वरूप आत्‍मा इन इंद्रियों से अत्यंत परे है। दर्शन-स्‍पर्शनादि की साधनभूत ये इंद्रियां केवल बाह्य वस्‍तुओं को ही देखती हैं, लेकिन यह स्‍वयंभू आत्‍मा अंतर्मुख होने पर ही देखी जा सकती है। यहाँ साधक के लिए किस गुण की आवश्‍यकता है, इसका तुम्‍हें स्‍मरण रहना चाहिए। वह है अपने नेत्रों को अंतर्मुख कर आत्‍मा को जानने की अभिलाषा। निसर्ग में हम ये जो अनेक सुंदर वस्‍तुएँ देखते हैं, वे ऊपर से भले ही आकर्षक हों, पर इनसे परमेश्‍वर के दर्शन नहीं हो सकते। हमें अपने नेत्रों को अंतर्मुख करना सीखना चाहिए। बाह्य वस्‍तुओं को देखने की नेत्रों की लालसा रोकनी चाहिए। जब तुम किसी भीड़-भाड़वाली सड़क पर जाते हो, तो आने-जानेवाली गाडि़यों की आवाज़ के कारण अपने साथ चलने वाले मित्र की बातचीत सुनना तुम्‍हारे लिए कठिन हो जाता है,और वह साथी भी तुम्‍हारी बात नहीं सुन सकता। तुम्‍हारा मन बहिर्मुख होने के कारण तुम उस मित्र की बात नहीं सुन सकते, जो तुम्‍हारे बिल्‍कुल समीप है। इसी प्रकार यह संसार इतना विकट कोलाहल मचाता रहता है कि मन उधर खिंच जाता है। फिर आत्‍मा को हम कैसे देख सकते हैं? मन की यह बहिर्मुखता हमें दूर कर देनी चाहिए। नेत्रों को अंतर्मुख करने का यही अर्थ है; तभी अंतर्यामी प्रभु की महिमा का साक्षात्‍कार होगा।

यह आत्‍मा क्‍या है? हमें मालूम हो गया है कि वह बुद्धि से भी अतीत है। फिर यही कठोपनिषद् हमें बतलाता है कि यह आत्‍मा शाश्‍वत और सर्वव्‍यापी है; तुम, मैं और हम सब लोग वास्‍तव में सर्वव्यापी आत्‍मा हैं और यह आत्‍मा अविकारी है। अब, यह सर्वव्‍यापी सद्वस्‍तु केवल एक ही हो सकती है। ऐसी दो वस्‍तुएँ हो ही नहीं सकतीं, जो एक ही समय सर्वत्र विद्यमान हों। यह संभव भी किस तरह है? दो अनंत वस्तुएँ कभी हो नहीं सकतीं। फलत: वास्‍तव में आत्‍मा एक ही है। तुम, मैं तथा यह संपूर्ण विश्‍व, सब वही एक आत्‍मा है, जो बहुरूपी सी प्रतीत होती है। 'जिस प्रकार इस जगत् में अग्नि अपने आपको बहुरूपों में प्रकट करती है, उसी प्रकार यह अद्वितीय आत्‍मा-जो सबकी आत्‍मा है-स्‍वयं को प्रत्‍येक रूप में अभिव्‍यक्‍त करती है।' [10] पर प्रश्‍न यह है कि जब यह आत्‍मा पूर्ण, शुद्ध तथा एकमेव सत्‍ता है, तो इसका इस अपवित्र शरीर से, दुष्‍ट या सुष्‍ट शरीर आदि से संबंध होने पर क्‍या हो जाता है? इससे उसका पूर्णत्‍व किस तरह रह सकता है? 'वह अकेला सूर्य ही प्रत्‍येक आँख में दृष्टि का कारण है, फिर भी उसे किसी की आँख के दोष स्‍पर्श नहीं करते।'२ अगर किसी मनुष्‍य को 'पीलिया' रोग हो जाए, तो उसे प्रत्‍येक वस्‍तु पीली ही पीली नज़र आएगी। उसकी दृष्टि का कारण सूर्य है, पर उसकी दृष्टि के पीलेपन का सूर्य पर कोई असर नहीं होता। इसी तरह यह अद्वितीय सत्‍ता प्राणिमात्र की आत्‍मा होने पर भी उनमें विद्यमान गुण-दोषों से छुई नहीं जा सकती। 'इस अशाश्‍वत जगत् में उस शाश्‍वत को जो जानता है, इस अचेतन संसार में उस चिन्‍मय प्रभु को जो पहचानता है, जो अनेकता में एकमेवाद्वितीय को समझता है और उसका अपनी आत्‍मा में दर्शन करता है, वही शाश्‍वत शांति का अधिकारी होता है, दूसरा कोई नहीं, दूसरा कोई नहीं। वहाँ न सूर्य प्रकाशित होता है, न चंद्रमा; न तारे चमकते हैं और न बिजली ही लपकती है, फिर इस अग्नि की तो बात ही क्या? उसी के प्रकाशित होने से प्रत्‍येक वस्‍तु प्रकाशित होती है। उसी के प्रकाश से प्रत्‍येक वस्‍तु प्रकाशमान है। जब ह्रदय को दु:ख देनेवाली समस्‍त वासनाएँ नष्‍ट हो जाती हैं, तब मनुष्‍य अमर हो जाता है, और यहीं-जीवित रहते हुए ही-ब्रह्मपद प्राप्‍त कर लेता है। जब ह्रदय की समस्‍त ग्रंथियों का भेज हो जाता है, जब सभी संशयों का निरास हो जाता है, तभी यह मर्त्‍य अमर बन जाता है। यही मार्ग है। यह अध्‍ययन हम सभी का रक्षण करें। हम सब इस ज्ञान का एक साथ उपयोग करें। हम सबमें यह बल उत्‍पन्‍न करें। हम सब तेजस्‍वी और शक्तिशाली बनें और परस्‍पर विद्वेष न करें। ॐ शांति: शांति:।' [11]

वेदांत दर्शन में तुमको यही विचारधारा मिलेगी। सर्वप्रथम हम देखते हैं कि वेदांत के ये विचार संसार के अन्‍य सब दर्शनों से बिल्‍कुल निराले हैं। वेदों के प्राचीनतम विभागों में हम देखते हैं कि आत्‍मतत्‍व की खोज बाहर की गई थी, जैसा कि हम अन्‍यान्‍य ग्रंथों में पाते हैं। कुछ प्राचीनतम ग्रंथों में यह प्रश्‍न पूछा गया कि 'इस संसार के पहले क्‍या था? जब इस विश्‍व में न सत् था और न असत्, जब तम तम ही से ढका हुआ था, तब ये सब वस्‍तुएँ किसने बनायीं?' [12] और इस तरह खोज आरंभ हो गई। फिर, लोग देवदूत, देवता तथा इस तरह की अन्‍य बातें कहने लगे, और बाद में हम पाते हैं कि उन्‍होंने इस प्रकार के अन्‍वेषण को अपर्याप्‍त समझकर उसका तिरस्‍कार कर दिया। उन दिनों यह खोज बाहर ही थी, इसलिए वे लोग उससे कुछ फल न पा सके। लेकिन बाद में, जैसा कि वेदों में बतलाया है, उन्‍हें स्‍वयंभू आत्‍मा की प्राप्ति के लिए अंतर्जगत् के अन्‍वेषण की ओर झुकना पड़ा। वेदों का यह एक मूलभूत सिद्धांत है कि तारागण, नीहारिका, आकाशगंगा तथा इस संपूर्ण बाह्य जगत् का विमर्श करने से भी मनुष्‍य के हाथ कुछ नहीं लगता। इस परिशीलन से जन्‍म-मृत्‍यु की समस्‍या कभी नहीं सुलझती। इस अंत:स्थित अद्भुतं यंत्र का उन्‍हें विश्‍लेषण करना पड़ा और इस विश्‍लेषण से उन्‍हें विश्‍व के रहस्‍य का पता चल गया; न कि चाँद, सूरज आदि के विश्‍लेषण से। मानव का विश्‍लेषण करना पड़ा-उसके शरीर का नहीं, उसकी आत्‍मा का। और इस आत्‍मा में उन्‍हें अपने प्रश्‍न का उत्तर मिला। वह उत्तर क्‍या था? वह यह था कि इस शरीर से परे, इस मन से भी परे वह स्‍वयंभू आत्‍मा है। वह न तो मरती है और न जन्‍म लेती है। वह स्‍वयंभू आत्‍मा घट-घट में भरी हुई है, क्‍योंकि उसका कोई आकार नहीं है। जिसका न आकार है, न रूप; जो न काल से मर्यादित है, न देश से, वह एक विशिष्‍ट मर्यादा में कभी नहीं रह सकती। और यह हो भी कैसे सकता है? वह सर्वत्र विद्यमान है, सर्वव्‍यापी है। प्रत्‍येक वस्‍तु में उसकी समान सत्‍ता है।

मनुष्‍य की आत्‍मा क्‍या है? एक मत यह है कि एक ईश्‍वर है और उसके अतिरिक्‍त असंख्‍यात आत्‍माएँ हैं, जो उस ईश्‍वर से सत्‍तव की दृष्टि से, रूप की दृष्टि से तथा अन्‍य सभी प्रकार से सर्वदा पृथक् हैं। यह मत तो हुआ द्वैतवाद। यह बहुत पुरानी असंस्‍कृत कल्‍पना है। दूसरा मत यह है कि यह जीव सत्-चित्‍-आनंदस्‍वरूप अनंत परमात्‍मा का अंश है। जिस तरह यह शरीर स्‍वयं एक छोटा सा जगत् है, उसके परे मन या विचार-शक्ति तथा उस मन के भी परे है जीवात्‍मा-उसी तरह यह संपूर्ण विश्‍व एक शरीर है, उसके पीछे समष्टि-मन है और समष्टि-मन के भी पीछे है परमात्‍मा। जिस तरह यह व्‍यष्टि -शरीर उस समष्टि-विश्‍व-शरीर का अंश है, उसी तरह यह मन उस समष्टि-मन का अंश है तथा यह जीवात्‍मा उस विश्‍वात्‍मा का अंश है। इसी का नाम है विशिष्‍टाद्वैत अर्थात अंश-अंशीवाद। अब, हम जानते हैं कि विश्‍वात्‍मा अनंत है। फिर अनंत के अंश कैसेट हो सकते हैं, उसके विभाग किस तरह किए जा सकते हैं? यह कहना काव्‍यमय मन को बिल्‍कुल अजीब मालूम होगा। अनंत को विभाजित करने का अर्थ ही क्‍या है? क्‍या वह कोई भौतिक जड़ वस्‍तु है, जिसे तुम विभाजित अथवा खंडित कर सकते हो? अनंतत्‍व तो कभी विभक्‍त ही नहीं हो सकता। अगर यह संभव हो, तो फिर उसका अनंतत्‍व ही निकल जाए। अत: निष्‍कर्ष क्‍या निकला? समाधान यह है कि वह विश्‍वात्‍मा तुम्‍हीं हो। तुम उसके अंश नहीं हो, वह संपूर्ण ही तुम हो, तुम्‍हीं स्‍वयं वह पूर्ण ब्रह्म हो। तो फिर यह नानात्‍मक विश्‍व क्‍या है? हम जो करोड़ों जीव देखते हैं, वे फिर क्‍या हैं? यदि सूर्य पानी के करोड़ों बुलबुलों पर चमके, तो हर एक बुलबुले में सूर्य की एक एक आकृति, एक संपूर्ण बिम्‍ब दिखायी देगा, लेकिन वे सब प्रतिबिंब मात्र हैं, सच्‍चा सूर्य केवल एक ही है। इसी तरह, हममें से प्रत्‍येक में यह जो आत्‍मा दिखायी सी देता है, वह उस परमेश्‍वर का केवल प्रतिबिंब है, इसके अतिरिक्‍त और कुछ नहीं। वास्‍तविक सत्‍ता, जो इन सबके पीछे है, एकमात्र परमेश्‍वर ही है। उसमें हम सब एक हैं। इस विश्‍व में आत्‍मा एक ही है। वह तुममें है और मुझमें है। वह केवल एक ही है। वही आत्‍मा इन विभिन्‍न शरीरों में विभिन्‍न जीवों के रूप में प्रतिबिंबित हुई है। लेकिन इसका हमें ज्ञान नहीं। हम समझते है कि हम एक दूसरे से और उस परमात्‍मा पृथक् हैं। और जब तक हम ऐसा सोचेंगे, तब तक संसार में दु:ख और क्‍लेश बना रहेगा। यही एक बड़ा भ्रम है।

फिर दु:ख का एक और दूसरा उद्गम है-वह है भय। एक मनुष्‍य दूसरे का अपकार क्‍यों करता है? इसलिए कि वह डरता है कि उसे यथेष्‍ट भोग नहीं मिलेंगे। मनुष्‍य को यह डर रहता है कि उसे काफ़ी पैसा न मिलेगा, इसलिए वह दूसरे पर आघात करता है और उसे लूटता है। अगर यहाँ से वहाँ तक एक ही सत्‍ता का ज्ञान हो, तो फिर डर कहाँ से आ सकता है? अगर मेरे सिर पर वज्रपात हो जाए, तो वह वज्र भी तो मैं ही हूँ, क्‍योंकि विश्‍व में केवल मैं ही विद्यमान हूँ। अगर प्‍लेग आए, तो वह भी मैं ही हूँ और अगर शेर आए, तो वह भी मैं ही हूँ। अगर मृत्‍यु आए, तो वह भी मैं ही हूँ। मृत्‍यु और जीवन, दोनों ही मैं हूँ। जब हमें यह बोध होता है कि दुनिया में द्वैत है तो डर पैदा हो जाता है। हमने हमेशा यह उपदेश सुना है कि 'एक दूसरे से प्‍यार करो।' यह सिद्धांत खाली सिखला भर दिया गया था, लेकिन इसकी व्‍याख्‍या नहीं दी गई। तो इसकी व्‍याख्‍या क्‍या है? मुझे प्रत्‍येक व्‍यक्त्‍िा से क्‍यों प्‍यार करना चाहिए? इसलिए कि वह और मैं, दोनों एक हैं। समस्‍त विश्‍व में यही एकता तथा अखंड एक रसत्‍व विद्यमान है। दुनिया में रेंगते हुए छोटे से छोटे कीड़े से लेकर उन्‍नत से उन्‍नत जीव तक सब एक ही आत्‍मा हैं-यद्यपि उनके शरीर भिन्न-भिन्न हैं। तुम्‍हीं सब मुखों से खा रहे हो, सब हाथों से काम कर रहे हो और सब आंखों से देख रहे हो। तुम करोड़ों शरीरों में स्वास्थ्य का उपभोग करते हो और करोड़ों शरीरों में रोग भी भोगते हो। जब ये विचार उत्‍पन्‍न हो जाता है और जब हमें इसका प्रत्‍यक्ष अनुभव होता है, तो दु:ख का अंत हो जाता है और उसके साथ भय का भी। मैं कैसे मर सकता हूँ, मेरे सिवा तो कुछ है ही नहीं- इस विचार से जब भय का अंत हो जाता है, तभी पूर्ण आनंद और सच्‍चे प्रेम की प्राप्ति होती है। वह विश्‍वव्‍यापी प्रेम तथा सहानुभूति, वह असीम आनंद, जिसमें कभी परिवर्तन नहीं होता, मनुष्‍य को सर्वोच्‍च पद प्राप्‍त करा देता है। उसकी कोई प्रतिक्रिया नहीं होती और न उसे कोई दु:ख ही स्‍पर्श कर सकता है। परंतु दुनिया के ये क्षणभंगुर भोग सदैव प्रतिक्रिया उत्‍पन्‍न्‍ करते रहते हैं। इस सबका कारण है द्वैतभाव अर्थात यह भाव कि मैं दुनिया से अलग हूँ, मैं परमेश्‍वर से अलग हूँ। लेकिन ज्‍यों ही हमें यह अनुभूति होती है कि 'मैं वह हूँ, मैं ही विश्‍व की आत्‍मा हूँ, मैं आनंदस्‍वरूप हूँ, मैं नित्‍य मुक्‍त हूँ' त्‍यों ही सच्‍चा प्रेम प्रकट हो जाता है, डर भाग जाता है और समस्‍त दु:ख दूर हो जाते हैं।


>>पीछे>> >>आगे>>