स्वामी जी के साथ दो-चार दिन
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पाठकों ! मेरी स्मृति के दो-एक पृष्ठ यदि आप पढ़ना चाहते है, तो प्रथमत:
आपको यह जान लेना आवश्यक है कि पूज्यपाद स्वामी विवेकानन्द जी का
साक्षात्कार होने से पूर्व धर्म के संबंध में मेरी धारणा क्या थी, और मेरी
विद्या-बुद्धि एवं स्वभाव-प्रकृति कैसी थी; अन्यथा उनके सत्संग एवं उनके
साथ वार्तालाप आदि करने का कितना मूल्य है, यह ठीक समझ न सकेंगे। जब से मैंने
होश सँभाला, तब से एँट्रेन्स पास करने तक (५ से १८ वर्ष की आयु तक) मैं
धर्माधर्म कुछ भी नहीं समझता था; किंतु चौथी कक्षा में आते ही तथा अंग्रेजी
शिक्षा का प्रभाव मन पर पड़ते ही प्रचलित हिंदू धर्म के प्रति अत्यंत अनास्था
जाग्रत हो गयी। फिर भी मिशनरी स्कूल में मुझे पढ़ना नहीं पड़ा। उसके बाद
कॉलेज में अध्ययन के समय, अर्थात् उन्नीस वर्ष से पच्चीस वर्ष की अवस्था
के बीच, भौतिकशास्त्र, रसायनशास्त्र, भूगर्भशास्त्र तथा वनस्पतिशास्त्र
इत्यादि वैज्ञानिक विषय थोड़े-बहुत पढ़े, एवं हक्स्ले, डार्विन, मिल,
टिन्डल, स्पेन्सर आदि पाश्चात्य विद्वानों के विषय में थोड़ी-बहुत जानकारी
भी हुई। इसका फल वही हुआ, जो ज्ञान के अपच से होता-यानी मैं घोर नास्तिक हो
गया। --किसी में भी विश्वास नहीं। भक्ति किसे कहते हैं, यह जानता ही न था। और
यदि कहा जाय कि उस समय मैं हाथ-पैरवाला एक अत्यंत गर्वित अजीब जानवर था, तो भी
कोई अत्युक्ति नहीं होगी। उस समय सभी धर्मों में मैंने दोष ही देखा और सभी को
अपनी अपेक्षा नीच माना-पर हाँ, यह भावना मेरे मन में ही रहती थी, ऊपर से मैं
कुछ दूसरा ही प्रकट किया करता था।
ईसाई मिशनरी इस समय मेरे पास आने-जाने लगे। अन्य धर्मों की निंदा एवं
दाँव-पेच के साथ अनेक तर्क-युक्ति करके अंत में उन्होंने मुझे समझाया कि
विश्वास के बिना धर्म-राज्य में कुछ भी नहीं हो सकता। ईसाई धर्म में पहले
विश्वास करना आवश्यक है, तभी उसकी नवीनता तथा उन्य सब धर्मों की अपेक्षा
उसकी श्रेष्ठता समझी जा सकती है। अद्भुत गवेषणा और पांडित्य से भरी उन बातों
से मुझ कट्टर नास्तिक का मन बदला नहीं। पाश्चात्य विद्या की कृपा से सीखा
है, 'प्रमाण बिना किसी में भी विश्वास नहीं करना चाहिए।' किंतु मिशनरी प्रभु
बोले, "पहले विश्वास, पीछे प्रमाण।" पर मन समझे कैसे? अतएवं वे अपनी बातों से
किसी भी मत में मेरा विश्वास पैदा नहीं कर सके। तब उन्होंने कहा,
"मनोयोगपूर्वक समस्त बाइबिल पढ़ना आवश्यक है; तभी विश्वास होगा।" अच्छा,
वैसा ही किया। दैवयोग से फ़ादर रिबिंगटन, रेवरेन्ड लेट्वार्ड, गोरे और
बोमेन्ट आदि बहुत से विद्वान, नि:स्पृह और वास्तविक भक्त मिशनरियों से भी
भेंट हुई; किंतु किसी भी तरह ईसाई धर्म में विश्वास उत्पन्न नहीं हुआ।
उनमें से कुछ ने मुझसे यह भी कहा, "तुम्हारी बहुत उन्नति हो गयी है, ईसा के
धर्म में विश्वास भी हो गया है, किंतु जाति जाने के भय से ईसाई नहीं हो रहे
हो।" उन लोगों की उस बात का फल यह हुआ कि क्रमश: मुझे संदेह के ऊपर भी संदेह
होने लगा। अंत में यह निश्चय हुआ कि वे मेरे दस प्रश्नों के उत्तर देंगे और
प्रत्येक प्रश्न के यथोचित समाधान के बाद मेरे हस्ताक्षर लेंगे। इस तरह जब
दसवें प्रश्न के उत्तर में मेरे हस्ताक्षर होंगे, तभी मेरी हार होगी और वे
मुझे बपतिस्मा देंगे, अर्थात् अपने धर्म के लिए अभिषिक्त कर लेंगे। पर तीन
से अधिक प्रश्नों के समाधान के पहले ही कॉलेज छोड़कर मैंने संसार में प्रवेश
किया। संसार में प्रवेश करने के बाद भी सभी धर्मों के ग्रंथों को पढ़ता रहा।
कभी चर्च में, कभी मंदिर में, तो कभी ब्राह्म मंदिर में जाया करता था; किंतु
कौन सा धर्म सत्य है, कौन सा असत्य; कौन सा अच्छा है, कौन सा बुरा, कुछ भी
समझ न पाया। अंत में मेरी धारणा हो गयी कि परलोक या आत्मा के संबंध में कोई
भी नहीं जानता-परलोक है या नहीं; आत्मा मरणशील है, अथवा अमर, इन सब बातों का
ज्ञान किसी को भी नहीं है। तो भी, धर्म जो भी हो, उसमें दृढ़ विश्वास कर लेने
पर इस जीवन में बहुत कुछ सुख-शांति रहती है, और वह विश्वास मनुष्य के
अभ्यास से ही दृढ़ी होता है। तर्क, विचार अथवा बुद्धि के द्वारा धर्म का
सत्यासत्य समझने के लिए किसी में भी क्षमता नहीं। भाग्य अनुकूल था-अधिक वेतन
की नौकरी भी मिली। उस समय मुझे रुपये-पैसों की कमी न थी, दस लोगों में
प्रतिष्ठा भी थी; सुखी होने के लिए साधारण मनुष्य को जो जा आवश्यक होता है,
उस सबका भी कोई अभाव न था। किंतु यह सब होने पर भी मन में सुख-शांति का उदय
नहीं हुआ। किसी एक बात का अभाव मन में सर्वदा ही खटकता रहता था। इस प्रकार दिन
पर दिन और वर्ष पर वर्ष बीतने लगे।
बेलगाँव-१८ अक्तूबर १८९२, मंगलवार। संध्या हुए लगभग दो घंटे हुए हैं। एक
स्थूलकाय प्रसन्नमुख युवा संन्यासी मेरे एक परिचित महाराष्ट्रीय वकील के
साथ मेरे घर पर पधारे। मेरे वकील मित्र ने कहा, "ये एक विद्वान् बंगाली
संन्यासी हैं, आपसे मिलने आए हैं।" घूमकर देखा-प्रशांत मूर्ति, नेत्रों से
मानो विद्युत्प्रकाश निकल रहा हो, दाढ़ी-मूँछ मुड़ी हुई, शरीर पर गेरूआ
अँगरखा, पैर में मरहठी चप्पल, सिन पर गेरूआ पगड़ी। संन्यासी की उस भव्य
मूर्ति का स्मरण होने पर अभी भी जैसा उनको अपनी आँखों के सामने देखता हूँ।
देखकर आनंद हुआ, और उनकी और मैं आकृष्ट हुआ किंतु उस समय उसका कारण नहीं समझ
सका। ... उस समय मेरा विश्वास था कि गेरूआ वस्त्रधारी संन्यासी मात्र ही
पाखंडी होते हैं। सोचा, ये भी कुछ आशा लेकर मेरे पास आए हैं। फिर वकील बाबू है
महाराष्ट्रीय ब्राह्मण, और ये ठहरे बंगाली। बंगालियों का महाराष्ट्रीय
ब्राह्मण के साथ मेल होना कठिन है; इसीलिए, मालूम होता है, ये मेरे घर में
रहने के लिए आए हैं। मन में इस प्रकार अनेक संकल्प-विकल्प करके उन्हें अपने
यहाँ ठहरने के लिए कहा, और उनसे पूछा, "आपका सामान अपने यहाँ मँगवा लूँ!''
उन्होंने कहा, "मैं वकील बाबू के यहाँ अच्छी तरह से हूँ। और बंगाली देखकर
यदि उनके यहाँ से मैं चला जाऊ, तो उनके मन में दु:ख होगा, क्योंकि वे सभी लेग
बड़ी भक्ति और स्नेह करते है; अतएव ठहरने-ठहरने के विषय में पीछे विचार किया
जाएगा।'' उस रात कोई अधिक बातचीत न हो सकी; किंतु उन्होंने जो कुछ दो-चार
बातें कहीं, उसी से अच्छी तरह समझ गया कि वे मेरी अपेक्षा हज़ार गुना अधिक
विद्वान और बुद्धिमान हैं; इच्छा मात्र से ही वे बहुत धन उपार्जित कर सकते
हैं, तथापि रुपया-पैसा छूते तक नहीं, और सुखी होने के सभी साधनों के न होते
हुए भी मेरी अपेक्षा हजार गुना सुखी हैं। ज्ञात हुआ, उन्हें किसी वस्तु का
अभाव नहीं, क्योंकि उन्हें स्वार्थसिद्धि की इच्छा नहीं है। मेरे यहाँ
नहीं रहैंगे, यह जानकर मैंने फिर कहा, "यदि चाय पीने में कोई आपत्ति न हो, तो
कल प्रात:काल मेरे साथ चाय पीजिए; मुझे बड़ी प्रसन्नता होगी।" उन्होंने आना
स्वीकार किया और वकील बाबू के साथ उनके घर लौट गए। रात में उनके विषय में
बड़ी देर तक सोचता रहा, मन में आया-ऐसा नि:स्पृह, चिरमुखी, सदा संतुष्ट,
प्रफुल्लमुख पुरुष तो कभी देखा नहीं ! मन में सोचा करता था-जिसके पास पैसा
नहीं, उसका मर जाना अच्छा; जगत् में वास्तविक नि:स्पृह संन्यासी का होना
असंभव है। किंतु इतने दिनों बाद उस विश्वास को संदेह ने घेरकर शिथिल कर दिया।
दूसरे दिन (१९ अक्तूबर, १८९२ ई.) प्रात:काल ६ बजे उठकर स्वामी जी की
प्रतीक्षा करने लगा। देखते देखते आठ बज गए, किंतु स्वामी जी नहीं दिखायी
पड़े। अंत में अधीर होकर मैं अपने एक मित्र को साथ ले स्वामी जी के
वास-स्थान की ओर चल पड़ा। वहाँ जाकर देखता हूँ, एक महासभा जुटी हुई है।
स्वामी जी बैठे हैं और उनके समीप अनेक प्रतिष्ठित वकील तथा विद्वान् लोग बैठे
है; उनके साथ बातचीत हो रही है। स्वामी जी किसी को अंग्रेजी में, किसी को
संस्कृत में और किसी को हिन्दी में उनके प्रश्नों का उत्तर तुरंत बिना समय
लिए ही दे रहे हैं। मेरे समान कोई कोई हक्स्ले के दर्शन की प्रामाणिक मानकर
उसके आधार पर स्वामी जी के साथ तर्क करने को उद्यत हैं। किंतु वे किसी को
हँसी में, किसी को गंभीर भाव से यथोचित्त उत्तर देकर सभी को चुप कर रहे हैं।
मैंने जाकर प्रणाम किया और एक ओर बैठ गया और अवाक् होकर सुनने लगा। सोचने
लगा-ये मनुष्य हैं या देवता? इसीलिए उनकी सभी बातें स्मृति में नहीं रह
पायीं। जो कुछ स्मरण हैं, उनमें से कुछ निम्नलिखित है:
एक प्रतिष्ठित ब्राह्मण वकील ने प्रश्न किया, "स्वामी जी, संध्या आदि आह्रिक
कृत्य के मंत्र संस्कृत में है; हम लोग उन्हें समझ नहीं पाते। हमारे इन सब
मंत्रोच्चार का क्या कुछ फल है?''
स्वामी जी ने उत्तर दिया, "अवश्य, उत्तम फल है। ब्राह्मण की संतान होने के
नाते इन संस्कृत मंत्रों का अर्थ तो इच्छा रहने से सहज ही समझ ले सकते हो।
फिर भी समझने की चेष्टा नहीं करते, इसमें भला दोष किसका! और यद्यपि तुम
मंत्रों का अर्थ नहीं समझते, तो भी जब संध्या-वंदन आदि आह्रिक कृत्य करने
बैठते हो, उस समय क्या सोचते हो-धर्म-कर्म कर रहा हूँ, ऐसा सोचते हो, या यह
कि कोई पाप कर रहा हूँ? यदि धर्म-कर्म समझकर संध्या-वंदन करने के लिए बैठते
हो, तो उत्तम फल पाने के लिए वही यथेष्टा है।"
इसी समय दूसरे एक व्यक्ति संस्कृत में बाले, "धर्म के संबंध में म्लेच्छ
भाषा द्वारा चर्चा करना उचित नहीं है; अमुक पुराण में इसका उल्लेख है।"
स्वामी जी ने उत्तर दिया, "किसी भी भाषा के द्वारा धर्म-चर्चा की जा सकती
है।" और अपने इस कथन के समर्थन में वेद आदि का प्रमाण देकर बोले, "हाईकोर्ट के
फैसले को छोटी अदालत नहीं काट सकती।"
इस प्रकार नौ बज गए। जिन लोगों को आफिस या कोर्ट जाना था, वे सब चले गए। कोई
कोई समय भी बैठे रहे। स्वामी जी की दृष्टि मेरे ऊपर पड़ते ही उन्हें पूर्व
दिवस की चाय पीने के लिए जाने की बात याद आ गयी। वे बोले, "बच्चा, बहुतों का
मन दुखाकर नहीं जा सकता था। कुछ बुरा मत मानना।" बाद में मैंने उनसे अपने
निवास-स्थान पर रहने के लिए विशेष अनुरोध किया। इस पर वे बोले, "मैं जिनका
अतिथि हूँ, उन्हें यदि मना लो, तो मैं तुम्हारे ही पास रहने को प्रस्तुत
हूँ।" वकील महाशय को समझा-बुझाकर स्वामी जी को साथ ले अपने स्थान पर आया।
उनके साथ एक कमंडलु और गेरूए वस्त्र में लपेटी हुई एक पुस्तक, बस इतना ही
सामान था। स्वामी जी उस समय फ्रांस देश के संगीत के संबंध में एक पुस्तक का
अध्ययन कर रहे थे। घर पर आकर लगभग दस बजे चाय-पानी हुआ; इसके बाद ही स्वामी
जी ने एक गिलास ठंडा जल भी मँगवाकर पिया। यह देखकर कि मुझे अपने मन की कठिन
समस्याओं के बारे में पूछने का साहस नहीं हो रहा है, उन्होंने स्वयं ही
मुझसे दो-एक बातें कीं, और उसी से उन्होंने मेरी विद्या-बुद्धि को नाप लिया।
इसके कुछ समय पहले 'टाइम्स' नामक समाचारपत्र में किसी व्यक्ति ने एक सुंदर
कविता लिखी थी, जिसका भाव था-'ईश्वर क्या है, कौन सा धर्म सत्य है-आदि
तत्वों को समझना अत्यंत कठिन है।' वह कविता मरे तत्कालीन धर्म-विश्वास के
साथ खूब मिलती थी, इसलिए मैंने उसे यत्नपूर्वक रख छोड़ा था। उसी कविता को
उन्हें पढ़ने के लिए दिया। पढ़कर वे बोले, "यह व्यक्ति तो भ्रांति में पड़ा
हुआ है।" मेरा भी कमश: साहस बढ़ने लगा। 'ईश्वर एक ही साथ न्यायवान और दयामय
नहीं हो सकता' -इस तर्क की मीमांसा ईसाई मिशनरियों से नहीं हो सकी थी। मन में
सोचा, इस समस्या को स्वामी जी भी नहीं सुलझा सकते। मैंने यह प्रश्न स्वामी
जी से पूछा। वे बोले, "तुमने तो विज्ञान का यथेष्ट अध्ययन किया है। क्या
प्रत्येक जड़ पदार्थ में केंद्रापसारी (centrifugal) तथा केंद्रगामी
(centripetal)-ये दो विरुद्ध शक्तियाँ कार्य नहीं करती! यदि दो विरुद्ध
शक्तियों का जड़ पदार्थं में रहना संभव है, तो दया और न्याय, ये दोनों
विरुद्ध होते हुए भी क्या ईश्वर में नहीं रह सकते? मैं इतना ही कह सकता हूँ
कि अपने ईश्वर के संबंध में तुम्हारा ज्ञान नहीं के बराबर है।" मै तो
निस्तब्ध हो गया। मैंने पूछा, "मुझे पूर्ण विश्वास है कि सत्य निरपेक्ष
(absolute) है। सभी धर्म एक ही समय कभी सत्य नहीं हो सकते।" उन्होंने उत्तर
दिया, "हम लोग किसी विषय में जो कुछ भी सत्य नहीं हो सकते।" उन्होंने उत्तर
दिया, "हम लोग किसी विषय में जो कुछ भी सत्य के नाम से जानते हैं या कालांतर
में जानेंगे, वह सभी सापेक्ष में जो कुछ भी सत्य के नाम से जानते हैं या
कालांतर में जानेंगे, वह सभी सापेक्ष सत्य (relative truth) है-निरपेक्ष
सत्य (absolute truth) की धारणा तो हमारी सीमाबद्ध मन-बुद्धि के द्वारा असंभव
है। इसीलिए सत्य निरपेक्ष होता हुआ भी विभिन्न मन-बुद्धि के निकट विभिन्न
रूपों में प्रकाशित होता है। सत्य के वे विभिन्न रूप या भाव उस नित्य
निरपेक्ष सत्य का अवलंबन करके ही प्रकाशित होते हैं, इसलिए वे सभी एक ही
प्रकारय एक ही श्रेणी के हैं। जिस तरह दूर और पास से फोटोग्राफ लेने पर एक ही
सूर्य का चित्र अनेक प्रकार से दीख पड़ता है और ऐसा मालूम होता है। कि
प्रत्येक चित्र भिन्न-भिन्न सूर्यों का है, उसी तरह सापेक्ष सत्य के विषय
में भी समझना चाहिए। सभी सापेक्ष सत्य निरपेक्ष सत्य के साथ ठीक इसी रीति से
संबद्ध हैं। अतएवं प्रत्येक सापेक्ष सत्य या धर्म उसी नित्य निरपेक्ष सत्य
का आभास होने के कारण सत्य है।"
'विश्वास ही धर्म का मूल है'-मेरे इस कथन पर स्वामी जी ने मुस्कराकर कहा,
"राजा होने पर फिर खाने-पीने का कष्ट नहीं रहता; किंतु राजा होना ही तो कठिन
है। क्या विश्वास कभी जोर-जबरदस्ती करने से होता है? बिना अनुभव के ठीक-ठीक
विश्वास होना असंभव है।"
किसी प्रसंग में उनको 'साधु' कहने पर उन्होंने उत्तर दिया, "हम लोग क्या
साधु हैं? ऐसे अनेक साधु हैं, जिनके दर्शन या स्पर्श मात्र से ही दिव्य
ज्ञान का उदय होता है।"
"संन्यासी इस प्रकार आलसी होकर क्यों समय बिताते हैं ? दूसरों की सहायता के
ऊपर क्यों निर्भर रहते हैं, और समाज के लिए कोई हितकर काम क्यों नहीं
करते?"-इन सब प्रश्नों के उत्तर में स्वामी जी बोले, "अच्छा बताओ तो भला,
तुम इतने कष्ट से अर्थोपार्जन कर रहे हो। उसक बहुत थोड़ा सा अंश केवल अपने
लिए व्यय करते हो; शेष में कुछ अंश दूसरे लोगों के लिए, जिन्हें तुम अपना
समझते हो, व्यय करते हो। वे लोग उसके लिए न तुम्हारा उपकार मानते हैं और न
उनके लिए जितना व्यय करते हो, उससे संतुष्ट ही होते हैं। रक़म तुम कौड़ी
कौड़ी जोड़े जा रहे हो। तुम्हारे मर जाने पर कोई दूसरा उसका भोग करेगा, और हो
सकता है, यह कहकर गाली भी दे कि तुम अधिक रुपया नहीं रख गए। ऐसा तो गया-गुजरा
तुम्हारा हाल है। और मैं तो वैसा कुछ भी नहीं करता भूख लगने पर पेट पर हाथ
रखकर, हाथ को मुँह के पास ले जाकर दिखला देता हूँ; जो पाता हूँ, खा लेता हूँ;
कुछ भी कष्ट नहीं उठाता; कुछ भी संग्रह नहीं करता। हम दोनों में कौन
बुद्धिमान है?-तुम या मैं! मैं तो सुनकर अवाक् रह गया। इसके पहले मैंने अपने
सामने किसी को भी इस प्रकार स्पष्ट रूप से बोलने का साहस करते नहीं देखा था।
आहार आदि करके कुछ विश्राम कर चुकने के बाद फिर उन्हीं वकील महाशय के
निवास-स्थान पर गया। वहाँ अनेक प्रकारके वार्तालाप और चर्चा चलने लगी। लगभग
नौ बजे रात को स्वामी जी को लेकर मैं अपने निवास-स्थान की ओर लौटा। आते-आते
मैंने कहा, "स्वामी जी, आपको आज तर्क-वितर्क में बहुत कष्ट हुआ।"
वे बोले, "बच्चा तुम लोग तो ठहरे उपयोगितावादी (utilitarian)। यदि मैं चुप
होकर बैठा रहूँ, तो क्या तुम लोग मुझे एक मुट्ठी भी खाने को दोगे! मैं इस
प्रकार अनवरत बकता हूँ, लोगों को सुनकर आनंद होता है, इसीलिए वे दल के दल आते
हैं। किंतु यह जान लो, जो लोग सभा में तर्क-वितर्क करते हैं, अनेक प्रश्न
पूछते हैं, वे वास्तविक सत्य को समझने की इच्छा से वैसा नहीं करते। मैं भी
समझ जाता हूँ, कौन किस भाव से क्या कह रहा है और उसे उसी तरह उत्तर देता
हूँ।"
मैंने स्वामी जी से पूछा, "अच्छा स्वामी जी, सभी प्रश्नों के इस प्रकार
उत्तम-उत्तम उत्तर आप तुरंत किस प्रकार दे लेते हैं?"
वे बोले, "ये सब प्रश्न तुम्हारे लिए नवीन है; किंतु मुझसे तो कितने ही
मनुष्य कितनी बार इन प्रश्नों को पूछ चुके हैं, और उनका उत्तर कितनी ही बार
दे चुका हूँ।" रात में भोजन करते समय और भी अनेक बातें उन्होंने कहीं। पैसा न
छूते हुए देश-भ्रमण करते करते कहाँ कैसी कैसी घटनाएँ हुई, यह सब वर्णन करने
लगे। सुनते-सुनते मेरे मन में हुआ-अहा! न जाने इन्होंने कितना कष्ट, कितनी
विपत्तियाँ सही हैं। किंतु वे तो उन सब घटनाओं को इस प्रकार हँसते-हँसते
सुनाने लगे, मानो वे अत्यंत मनोरंजक कहानियाँ हों। कहीं पर उनका तीन दिन तक
बिना कुछ खाए रहना, किसी स्थान में मिर्चा खाने के कारण पेट में ऐसी जलन
होना, जो एक कटोरी इमली का पना पीने पर भी शांत नहीं हुई; कहीं पर 'यहाँ
साधु-संन्यासियों को स्थान नहीं'-इस प्रकार झिड़के जाना; और कहीं खुफिया
पुलिस की कड़ी नजर में रहना-अदि सब घटनाएँ, जिन्हें सुनकर हमारे शरीर का खून
पानी हो जाय, उनके लिए तो मानो एक तमाशा थीं।
रात अधिक हुई देखकर उनके लिए सोने का प्रबंध कर मैं भी सोने के लिए चला गया;
किंतु रात में नींद आयी। सोचने लगा-कैसा आश्चर्य, इतने वर्षों का दृढ़ संदेह
और अविश्वास स्वामी जी को देखकर और उनकी दो-चार बातें सुनकर ही दूर हो गया !
अब और कुछ पूछने को नहीं रहा। जैसे-जैसे दिन बीतने लगे, हमारी ही क्या-हमारे
नौकर-चाकरों की भी उनके प्रति इतनी श्रद्धा-भक्ति हो गयी कि कभी कभी स्वामी
जी उन लोगों की सेवा और आग्रह के मारे परेशान हो उठते थे।
२० अक्तूबर, १८९२ ई.। सवेरे उठकर स्वामी जी को प्रणाम किया। इस समय साहस कुछ
बढ़ गया है, श्रद्धा-भक्ति भी हुई है। स्वामी जी भी मुझसे अनेक वन, नदी,
अरण्य आदि का विवरण सुनकर संतुष्ट हुए हैं।
इस शहर में आज उनका चौथा दिन है। पाँचवें दिन उन्होंने कहा, "संन्यासियों को
नगर में तीन दिन से और गाँव में एक दिन से अधिक ठहरना उचित नहीं। मैं अब
जल्दी चला जाना चाहता हूँ।" परंतु मैं किसी प्रकार उनकी वह बात मानने को राज़ी
न था। बिना तर्क द्वारा समझे मैं कैसे मानूँ! फिर अनेक वाद-विवाद के बाद वे
बोले, "एक स्थान में अधिक दिन रहने पर माया-ममता बढ़ जाती है। हम लोगों ने घर
और आत्मीय जनों का परित्याग किया है। अत: जिन बातों से उस प्रकार की माया
में मुग्ध होने की संभावना है, उनसे दूर रहना ही हम लोगों के लिए अच्छा है।"
मैंने कहा, "आप कभी भी मुग्ध होनवाले नहीं हैं।" अंत में मेरा अतिशय आग्रह
देखकर और भी दो-चार दिन ठहरना उन्होंने स्वीकार कर लिया। इस बीच मेरे मन में
हुआ, यदि स्वामी जी सर्वसाधारण के लिए व्याख्यान दें, तो हम लोग भी उनका
व्याख्यान सुनेंगे और दूसरों का भी कल्याण होगा। मैंने इसके लिए बहुत
अनुरोध किया; किंतु व्याख्यान देने पर शायद नाम-यश की स्पृहा जग उठे, ऐसा
कहकर उन्होंने मेरे अनुरोध को किसी भी तरह नहीं माना। पर उन्होंने यह भी बात
मुझे बतायी कि उन्हें सभा में प्रश्नों का उत्तर देने में कोई आपत्ति नहीं
है।
एक दिन बातचीत के सिलसिले में स्वामी जी 'पिक्विक् पेपर्स' (Pickwick Papers)
के दो-तीन पृष्ठ कंठस्थ बोले गए। मैंने उस पुस्तक को अनेक बार पढ़ा है। समझ
गया-उन्होंने पुस्तक के किस स्थान से आवृत्ति की है। सुनकर मुझे बहुत
आश्चर्य हुआ।सोचने लगा-संन्यासी होकर सामाजिक ग्रंथ में से इन्होंने इतना
कैसे कंठस्थ किया! हो न हो, इन्होंने पहले इस पुस्तक को अनेक बार पढ़ा है।
पूछने पर उन्होंने कहा, "दो बार पढ़ा है। एक बार स्कूल में पढ़ने के समय, और
दूसरी बार आज से पाँच-छ: मास पहले।"
आश्चर्यचकित होकर मैंने पूछा, "फिर आपको किस प्रकार यह स्मरण रहा? और हम
लोगों को क्यों नहीं रहता?"
स्वामी जी ने उत्तर दिया, "एकाग्र मन से पढ़ना चाहिए; और खाद्य के सार भाग
द्वारा निर्मित वीर्य का नाश न करके उसका अधिकाधिक परिपचन (assimilation) कर
लेना चाहिए।"
और एक दिन की बात है। स्वामी जी दोपहर में बिछौने पर लेटे हुए एक पुस्तक पढ़
रहे थे। मैं दूसरे कमरे में था। एकाएक स्वामी जी इतने जोर से हँस पड़े कि
क्या हो गया सोचकर मैं उनके कमरे के दरवाजे के पास आकर खड़ा हो गया। देखा,
बात कोई विशेष नहीं है। वे जैसे पुस्तक पढ़ रहे थे, वैसे ही पढ़ रहे हैं।
लगभग पंद्रह मिनट खड़ा रहा, तो भी उनका ध्यान मेरी ओर नहीं गया। पुस्तक
छोड़कर उनका ध्यान किसी दूसरी ओर नहीं था। कुछ देर बाद मुझे देखकर अंदर आने
के लिए कहा, और मैं इतनी देर से खड़ा हूँ, यह सुनकर बोले, "जब जो काम करना हो,
तब उसे पूरी लगन और शक्ति के साथ करना चाहिए। गाजीपुर के पवहारी बाबा ध्यान,
जप, पूजा-पाठ जिस प्रकार एक चित्त से करते थे, उसी प्रकार वे अपने पीतल के
लोटे को भी एकचित्त से माँजते थे। ऐसा माँजते थे कि सोने के समान चमकने लगता
था।"
एक बार मैंने स्वामी जी से पूछा, "स्वामी जी, चोरी करना पाप क्यों है? सभी
धर्म चोरी करने का निषेध क्यों करते हैं? मरे विचार में तो 'यह मेरा है', 'यह
दूसरे का'-ये सब भावनाएँ केवल कल्पना मात्र हैं। मुझसे बिना पूछे ही जब कोई
मेरा आत्मीय बंधु मेरी किसी वस्तु का व्यवहार करता है, तो वह चोरी क्यों
नहीं कहलाती? और पशु-पक्षी आदि जब हमारी कोई वस्तु नष्ट कर देते हैं, तो हम
उसे चोरी क्यों नहीं कहते?"
स्वामी जी ने कहा, "हाँ, ऐसी कोई वस्तु या कार्य नहीं है, जो सभी अवस्था में
और सभी समय बुरा और पाप कहा जा सके। फिर दूसरी ओर, अवस्था भेद से प्रत्येक
वस्तु ही बुरी और पाप कहा जा सके। फिर भी, जिससे दूसरे की किसी प्रकार का
कष्ट हो एवं जिसके आचरण से शारीरिक, मानसिक अथावा आध्यात्मिक किसी प्रकार की
दुर्बलता आए, उस कर्म को नहीं करना चाहिए; वह पाप है, और उससे विपरीत कर्म ही
पुण्य है। सोचो, तुम्हारी कोई वस्तु किसी ने चुरा ली, तो तुम्हें दु:ख
होगा या नहीं? तुम्हें जैसा लगता है, वैसा ही संपूर्ण जगत् के बारे में भी
समझों। इस दो दिन की दुनिया में जब किसी छोटी वस्तु के लिए तुम एक प्राणी को
दु:ख दे सकते हो, तो धीरे-धीरे भविष्य में क्या बुरा काम नहीं कर सकोगे?
फिर, यदि पाप-पुण्य न रहे, तो समाज ही न चले। समाज में रहने पर उसके नियम आदि
पालन करने पड़ते हैं। वन में जाकर नंगे होकर नाचो-कोई कुछ न कहेगा; किंतु शहर
में इस प्रकार का आचरण करने पर पुलिस द्वारा तुम्हें पकड़वाकर किसी निर्जन
स्थान में बंद रख देना ही उचित होगा।"
स्वामी जी कई बार हास-परिहास के भीतर से विशेष शिक्षा दिया करते थे। वे गुरु
होते हुए भी, उनके पास बैठना मास्टर के पास बैठने के समान नहीं था। अभी खूब
रंग-रस चल रहा है; बालक के समान हँसते-हँसते हँसी के बहाने कितनी ही बातें कहे
जा रहे हैं, सभी लोगों को हँसा रहे हैं; और दूसरे ही क्षण ऐसे गंभीर होकर जटिल
प्रश्नों की व्याख्या करना आरंभ कर देते हैं कि उपस्थित सभी लोग विस्मित
होकर सोचने लगते हैं, 'इनके भीतर इतनी शक्ति ! अभी तो देख रहे थे कि ये हमारे
ही समान एक व्यक्ति हैं!'
लोग सभी समय उनके पास शिक्षा लेने के लिए आते। उनका द्वारा सभी समय खुला रहता।
दार्शनार्थियों में अनेक भिन्न-भिन्न उद्देाश्य से भी आते-कोई उनकी परीक्षा
लेने के लिए, तो कोई मजेदार बात सुनने के लिए, कोई इसलिए कि उनके पास आने से
बड़े बड़े धनी लोगों से बातचीत हो सकेगी, और कोई संसार-ताप से जर्जरित होकर
उनके पास दो घड़ी शीतल होने एवं ज्ञान और धर्म का लाभ करने के लिए। किंतु उनकी
ऐसी अद्भुत क्षमता थी कि कोई किसी भाव से क्यों न आए उसे उसी क्षण समझ जाते
थे और उसके साथ उसी तरह व्यवहार करते थे। उनकी मर्मभेदी दृष्टि से किसी के
लिए बचना या कुछ छिपाकर रखना संभव नहीं था। एक समय किसी प्रतिष्ठित धनी का
एकमात्र पुत्र विश्वविद्यालय की परीक्षा से बचने के लिए स्वामी जी के निकट
बारंबार आने लगा और साधु होऊँगा, ऐसा भाव प्रकाशित करने लगा। वह मेरे एक मित्र
का पुत्र था। मैंने स्वामी जी से पूछा, "यह लड़का आपके पास किस मतलब से इनता
अधिक आता-जाता है? उसे क्या आप संन्यासी होने का उपदेश देंगे? उसका बाप मेरा
मित्र है।"
स्वामी जी ने कहा, "वह केवल परीक्षा के भय से साधु होना चाहता है। मैंने उससे
कहा है, एम.ए. पास कर चुकने बाद साधु होने के लिए आना; साधु होने की अपेक्षा
एम.ए. पास करना कहीं सरल है।"
स्वामी जी जितने दिन मेरे यहाँ ठहरे, प्रत्येक दिन संध्या समय उनका
वार्तालाप सुनने के लिए इतनी अधिक संख्या में लोगों का आगमन होता था, मानो
कोई सभा लगी हो। इसी समय एक दिन मेरे निवास-स्थान पर, एक चंदन के वृक्ष के
नीचे तकिया के सहारे बैठकर उन्होंने जो बातें कही थीं, उन्हें आजन्म न भूल
सकूँगा। उस प्रसंग को उठाने में बहुत सी बातें कहनी होंगी। इसलिए उसे दूसरे
समय के लिए ही रख छोड़ना युक्तिसंगत है। इस समय और एक अपनी बात कहूँगा। कुछ
समय पहले से मेरी पत्नी की इच्छा किसी गुरु से मंत्र-दीक्षा लेने की थी।
मुझे उसमें आपत्ति नहीं थी। उस समय मैंने उससे कहा था, "एसे व्यक्ति को गुरु
बनाना, जिसकी भक्ति मैं भी कर सकूँ। गुरु के घर में प्रवेश करते ही यदि मुझमें
अन्यथा भाव आ जाय, तो तुम्हें किसी प्रकार का आनंद या उपकार नहीं होगा। यदि
किसी सत्पुरुष को गुरु रूप में पाऊँगा, तो हम दोनों साथ ही दीक्षा-मंत्र
लेंगे, अन्यथा नहीं।" इस बात को उसने भी स्वीकार किया। स्वामी जी के आगमन
के बाद मैंने उससे पूछा, "यदि ये संन्यासी तुम्हारे गुरु हों, तो तुम उनकी
शिष्या हो सकती हो?"
वह उत्कंठा से बोली, "क्या वे गुरु होंगे? होने से तो मैं कृतार्थ हो
जाऊँगी!"
स्वामी जी से एक दिन डरते मैंने पूछा, "स्वामी जी, मेरी एक प्रार्थना पूर्ण
करेंगे?" स्वामी जी ने पूछा, "कहो, क्या कहना है?" तब मैंने उनसे
अनुरोधपूर्वक कहा, "आप हम दोनों को दीक्षा दें।"
वे बोले, "गृहस्थ के लिए गृहस्थ गुरु ही ठीक है। गुरु होना बहुत कठिन है।
शिष्य का समस्त भार ग्रहण करना पड़ता है। दीक्षा के पहले गुरु के साथ शिष्य
का कम से कम तीन बार साक्षात्कार होना आवश्यक है।" इस प्रकार स्वामी जी ने
मुझे टालने की चेष्टा की। जब उन्होंने देखा कि मैं किसी भी तरह माननेवाला
नहीं, तो अंत में उन्हें स्वीकृति देनी ही पड़ी और २५ अक्तूबर १८९२ ई. को
उन्होंने हम दानों को दीक्षा दी। इस समय मेरी प्रबल इच्छा हुई कि स्वामी जी
का फोटो खिंचवाऊँ परंतु इसके लिए वे शीघ्र राजी नहीं हुए। अंत में बहुत
वाद-विवाद के बाद, मेरा तीव्र आग्रह देखकर २८ तारीख को फोटो खिंचवाने के लिए
सम्मत हुए, फोटो खींचा गया। इसके पहले एक व्यक्ति के अतिशय आग्रह पर भी
स्वामी जी ने फोटो नहीं खिचवाया था, इसलिए फोटो की दो प्रतियाँ उस व्यक्ति
को भी भेज देने के लिए उन्होंने मुझसे कहा। मैंने स्वामी जी की इस आज्ञा को
बड़ी प्रसन्नता से स्वीकार किया। एक दिन बातचीत के सिलसिले में स्वामी जी
ने कहा, "कुछ दिन तुम्हारे साथ जंगल में तंबू डालकर रहने की मेरी इच्छा है।
किंतु शिकागो में धर्म-महासभा होगी, यदि वहाँ जाने की सुविधा हुई, तो वहीं
जाऊँगा।" मैंने चंदे की सूची तैयार कर धनसंग्रह करने का प्रस्ताव किया, परंतु
उन्होंने न जाने क्या सोचकर उसे स्वीकार नहीं किया। स्वामी जी का इस समय
व्रत ही था-रुपये-पैसे का स्पर्श या ग्रहण न करना। मेरे अत्याधिक अनुरोध
करने पर स्वामी जी मरहठी चप्पल के बदले एक जोड़ा जूता और बेत की एक छड़ी
स्वीकार करने के लिए राजी हुए। इसके पहले कोल्हापुर की रानी ने स्वामी जी
से बहुत अनुरोध किया था कि वे कुछ ग्रहण करें; पर स्वामी जी इससे सहमत नहीं
हुए थे। अंत में रानी ने दो गेरूए वस्त्र स्वामी जी के लिए भेजे, स्वामी जी
ने यह ग्रहण कर लिया, और पुराने वस्त्र वहीं छोड़ते हुए बोले, "संन्यासियों
के पास जितना कम बोझा हो, उतना ही अच्छा।"
इसके पहले मैंने भगवद्गीता पढ़ने की अनेक बार चेष्टा की थी; किंतु समझ न सकने
के कारण मैंने ऐसा सोच लिया कि उसमें समझने के लायक ऐसी कोई बड़ी बात नहीं है,
और उसे पढ़ना ही छोड़ दिया। स्वामी जी एक दिन गीता लेकर हम लोगों को समझाने
लगे। तब ज्ञात हुआ कि गीता कैसा अद्भुत ग्रंथ है ! गीता का मर्म समझना जिस
प्रकार मैंने उनसे सीखा, उसी प्रकार दूसरी ओर ज्यूलिस वर्ने के वैज्ञानिक
उपन्यास एवं कार्लाइल का 'सार्तोर रिजार्तस' पढ़ना भी उन्हीं से सीखा।
उस समय स्वास्थ्य के लिए मैं औषधियों का अत्यधिक व्यवहार करता था। इस बात
को जानकर वे एक दिन बोले, "जब देखो कि किसी रोग ने अत्यधिक प्रबल होकर
शय्याशायी कर दिया है, उठने की शक्ति नहीं रही, तभी औषधि का सेवन करना,
अन्यथा नहीं। स्नायुओं की दुर्बलता आदि रोगों में से तो ९० प्रतिशत
काल्पनिक हैं। इन सब रोगों से डॉक्टर लोग जितने लोगों को बचाते हैं, उससे
अधिक को तो मार डालते हैं। फिर इस प्रकार सर्वदा रोग-रोग करते रहने से क्या
होगा? जितने दिन जियो, आनंद से रहो। पर जिस आनंद से एक बार कष्ट हो चुका है,
उसके पीछे फिर और कभी न दौड़ना। तुम्हारे-हमारे समान एक के मर जाने से
पृथ्वी अपने केंद्र से कोई दूर तो हट न
जाएगी, और न जगत् का किसी तरह का कोई नुकसान ही होगा।" इस समय कुछ कारणों से
अपने ऊपर के अफसरों के साथ मेरी बनती नहीं थी। उनके सामान्य कुछ से ही मेरा
सिर गरम हो जाता था, और इस प्रकार इस अच्छी नौकरी से भी मैं एक दिन के लिए भी
सुखी न हुआ। स्वामी जी से मैंने जब ये सब बातें कहीं, तो वे बोले, "नौकरी
किसलिए करते हो? वेतन के लिए ही न, वेतन तो ठीक महीने के महीने नियमित रूप से
पाते ही रहते हो? फिर मन में दु:ख क्यों? और यदि नौकरी छोड़ देने की इच्छा
हो, तो कभी भी छोड़ दे सकते हो, किसी ने तुम्हें बाँधकर तो रखा नहीं है, फिर
'विषम बंधन में पड़ा हूँ', सोचकर इस दु:ख भरे संसार में और भी दु:ख क्यों
बढ़ाते हो? और एक बात ज़रा सोचो, जिसके लिए तुम वेतन पाते हो, आफिस के उन सब
कौमों को करने अतिरिक्त तुमने उपने ऊपरवाले साहबों को संतुष्ट करने के लिए
कभी कुछ किया भी है? कभी तो तुमने उसके लिए चेष्टा नहीं की, फिर भी वे लोग
तुमसे संतुष्ट नहीं हैं, ऐसा सोचकर उनके ऊपर खीझे हुए हो! क्या यह
बुद्धिमानों का काम है? यह जान लो, हम लोग दूसरों के प्रति हृदय में जैसा भाव
रखते हैं, वही कार्य में प्रकाशित होता है; और प्रकाशित न होने पर भी उन लोगों
के भी भीतर हमारे प्रति ठीक उसी भाव का उदय होता है। हम अपने मन के अनुरूप ही
जगत् को देखते हैं-हमारे भीतर जैसा है, वैसा ही जगत् में प्रकाशित देखते हैं।
'आप भले तो जग भला'-यह उक्ति कितनी सत्य है, कोई नहीं समझता। आज से किसी की
बुराई देखना एकदम छोड़ देने की चेष्टा करो। देखोगे, तुम जितना ही वैसा कर
सकोगे, उतना ही उनके भीतर का भाव और उनके कार्य तक परिवर्तित हो जाएंगे।" बस,
उसी दिन से औषधि-सेवन का मेरा पागलपन दूर हो गया, और दूसरों के दोष ढूँढने की
चेष्टा को त्याग देने की फलस्वरूप क्रमश: मेरे जीवन का एक नया पृष्ठ खुल
गया।
एक बार स्वामी जी के सामने यह प्रश्न उपस्थित किया गया-- "अच्छा क्या है
और बुरा क्या है?" इस पर वे बोले, "जो अभीष्ट कार्य का साधनभूत है, वही
अच्छा है और जो उसका प्रतिरोधक है, वही बुरा। अच्छे-बुरे का विचार जगह की
ऊँचाई-निचाई के विचार के समान है। तुम जितने ऊपर उठोगे, उतने ही वे दोनों एक
होते जायँगे। कहा जाता है, चंद्रमा में पहाड़ और समतल दोनों हैं; किंतु हम लोग
सब एक देखते है; वैसा ही अच्छे-बुरे के संबंध में भी समझो।" स्वामी जी में
यह एक असाधारण शक्ति थी कि कोई चाहे कैसा प्रश्न क्यों न पूछे, तुरंत उनके
भीतर ऐसा सुंदर और उपयुक्त उत्तर आता था कि मन का संदेह एकदम दूर हो जाता था।
और एक दिन की बात है-स्वामी जी ने समाचारपत्र में पढ़ा कि अनाहार के कारण
कलकत्ते में एक मनुष्य मर गया। यह समाचार पढ़कर स्वामी जी इतने दु:खी हुए कि
उसका वर्णन नहीं हो सकता। वे बारम्बार कहने लगे, "अब तो देश गया!" कारण पूछने
पर बोले, 'देखते नहीं, दूसरे देशों में गरीबों की सहायता के लिए 'पूवर-हाउस',
'वर्क-हाउस', चैरिटी फंड' आदि संस्थाओं के रहने पर भी प्रतिवर्ष सैकड़ों
मनुष्य अनाहार की ज्वाला में समाप्त हो जाते हैं-समाचारपत्रों में ऐसा
देखने में आता है। पर हमारे देश में एक मुट्ठी भिक्षा की प्रथा होने से अनाहार
के कारण लोगों का मरना कभी सुना नहीं गया। मैंने आज पहली बार अखबार में यह
समाचार पढ़ा कि दुर्भिक्ष न होते हुए भी कलकत्ता जैसे शहर में अन्न के बिना
मनुष्य मरे।"
अंग्रेजी शिक्षा की कृपा से मैं भिखारियों को दो-चार पैसे देना अपव्यय समझता
था। सोचता था, इस प्रकार जो कुछ थोड़ा सा दान किया जाता है, उससे उनका कोई
उपकार तो होता नही, अपितु बिना परिश्रम के पैसा पाकर, उसे शराब-गाँजा आदि में
खर्च कर वे और भी अध:पतित हो जाते हैं। लाभ इतना ही है कि दाता का व्यर्थ
खर्च कुछ बढ़ जाता है। इसलिए सोचता था, बहुत लोगों को कुछ कुछ देने की अपेक्षा
एक को अधिक देना अच्छा है। स्वामी जी से इस विषय में जब मैंने पूछा, तो वे
बोले, "भिखारी के आने पर यदि शक्ति हो, तो कुछ देना ही अच्छा है। दोगे तो
केवल दो-एक पैसा, उसके लिए, वह किसमें खर्च करेगा सद्व्यय होगा या अपव्यय,
ये सब बातें लेकर माथापच्ची करने की क्या आवश्यकता? और यदि सचमुच ही वह उस
पैसे को गाँजा में उड़ा देता हो, तो भी उसे देने से समाज का लाभ ही है, नुकसान
नहीं क्योंकि तुम्हारे समान लोग यदि दया करके उसे कुछ न दें, तो वह तुम
लोगों के पास से चोरी करके लेगा। वैसा न कर वह, जो दो पैसे माँगकर गाँजा पीकर,
चुप होकर बैठा रहता है, वह क्या तुम लोगों का ही लाभ नहीं है? अतएव इस प्रकार
के दान में भी लोगों का उपकार ही है, अपकार नहीं।"
मैंने पहले से ही स्वामी जी को बाल्य विवाह के बिल्कुल विरुद्ध देखा है। वे
सदैव सभी को, विशेषत: बालकों को, हिम्मत बाँधकर समाज के इस कलंक के विरोध में
खड़े होने के लिए तथा उद्योगी और संतुष्ट चित्त होने के लिए उपदेश देते थे।
स्वदेश के प्रति इस प्रकार अनुराग भी मैंने और किसी में नहीं देखा। स्वामी
जी के पाश्चात्य देशों से लौटने के बाद जिन लोगों ने उनके प्रथम दर्शन किए
हैं, वे नहीं जानते कि वहाँ जाने के पूर्व वे संन्यास-आश्रम के कठोर नियमों
का पालन करते हुए, कांचन का स्पर्श तक न करते हुए कितने दिनों तक भारत के
समस्त प्रांतों में भ्रमण करते रहे। किसी के एक बार ऐसा कहने पर कि उनके समान
शक्तिमान पुरुष के लिए नियम आदि का इतना बंधन आवश्यक नहीं है, वे बोले,
"देखो, मन बड़ा पागल है बड़ा उन्मत्त है, कभी भी शांत नहीं रहता; थोड़ा मौका
पाते ही अपने रास्ते खींच ले जाता है। इसलिए सभी को निर्धारित नियमों के भीतर
रहना आवश्यक है। संन्यासी को भी मन पर अधिकार रखने के लिए नियम के अनुसार
चलना पड़ता है। सभी मन में सोचते हैं कि मन के ऊपर उनका पूरा अधिकार है, वे
तो जान-बूझकर कभी कभी मन को थोड़ी छूट दे देते हैं। किंतु मन पर किसका कितना
अधिकार हुआ है, वह एक बार ध्यान करने के लिए बैठते ही मालूम हो जाता है। 'एक
विषय पर चिंतन करूँगा' ऐसा सोचकर बैठने पर दस मिनट भी उस विषय में मन स्थिर
रखना असंभव हो जाता है। सभी सोचते हैं कि वे पत्नी के वशीभूत नहीं हैं; वे तो
केवल प्रेम के कारण पत्नी को अपने ऊपर आधिपत्य करने देते हैं। मन को वशीभूत
कर लिया है-यह सोचना भी ठीक उसी तरह है। मन पर विश्वास करके कभी निश्चिंत न
रहना।"
एक दिन बातचीत के सिलसिले में मैंने कहा, "स्वामी जी, देखता हूँ, धर्म को
ठीक-ठीक समझने के लिए बहुत अध्ययन की आवश्यकता है।"
वे बोले, "अपने धर्म समझने के लिए अध्ययन की आवश्यकता नहीं; किंतु दूसरों को
समझाने के लिए उसकी विशेष आवश्यकता है। भगवान् श्री रामकृष्ण देव तो
'रामकेष्ट' नाम से हस्ताक्षर करते थे, किंतु धर्म का सार-तत्त्व उनसे अधिक
भला किसने समझा है?
मेरा विश्वास था, साधु-संन्यासियों का स्थूलकाय और सर्वदा संतुष्टचित्त
होना असंभव है। एक दिन हँसते हँसते उनके ऊपर ऐसा कटाक्ष करने पर उन्होंने भी
मज़ाक में कहा, "यही तो मेरा 'अकाल रक्षाकोष' (फैमिन इंश्योरेंस फंड ) है! यदि
मैं पाँच-सात दिन तक भोजन न पाऊँ, तो भी मेरी चर्बी मुझे जीवित रखेगी। तुम लोग
तो एक दिन न खाने से ही चारों ओर अंधकार देखने लगोगे। जो धर्म मनुष्य को सुखी
नहीं बनाता, वह वास्तविक धर्म है ही नही; उसे मंदाग्निप्रसूत रोग विशेष
समझो।" स्वामी जी संगीत-विद्या में विशेष पारंगत थे। एक दिन एक गाना भी
उन्होंने प्रारंभ किया था, किंतु मैं तो 'संगीत में औरंगजेब' था; फिर मुझे
सुनने का अवसर ही कहां? उनके वार्तालाप ने ही हम लोगों को मोहित कर लिया था।
आधुनिक पाश्चात्य विज्ञान के सभी विभाग, जैसे-रसायनशास्त्र, भौतिकशास्त्र,
भूगर्भशास्त्र, ज्योतिषशास्त्र, मिश्रित गणित आदि पर उनका विशेष अधिकार था
एवं उन विषयों से संबद्ध सभी प्रश्नों को वे बड़ी सरल भाषा में दो-चार बातों
में ही समझा देते थे। फिर, पाश्चात्य विज्ञान की सहायता एवं दृष्टांत से
धर्मविषयक तथ्यों को विशद रूप से समझाने तथा यह दिखाने में कि धर्म और
विज्ञान का एक ही लक्ष्य है, एक ही दिशा में गति है-उनकी क्षमता अद्वितीय थी।
लाल मिर्च, काली मिर्च आदि तीखे पदार्थ उन्हें बड़े प्रिय थे। इसका कारण
पूछने पर उन्होंने एक दिन कहा, "पर्यटन-काल में संन्यासियों को देश-विदेश
में अनेक प्रकार का दूषित जल पीना पड़ता है; यह स्वास्थ्य के लिए हानिकारक
होता है। इस दोष को दूर करने के लिए उनमें से बहुत से गाँजा, चरस आदि मादक
द्रव्य पीते हैं। मैं भी इसीलिए इतनी मिर्च खाता हूँ।"
खेतड़ी के राजा, कोल्हापुर के छत्रपति एवं दक्षिण के अनेक राजा उन पर विशेष
भक्ति करते थे। उनका भी उन लोगों पर बड़ा प्रेम था। असाधारण त्यागी होकर,
राजे-रजवाड़ों के साथ इतनी घनिष्ठता वे क्यों रखते हैं, यह बात बहुतों की
समझ में नहीं आता थी। कोई निर्बोध तो इस बात को लेकर उनके ऊपर आक्षेप करने में
भी नहीं चूकते थे।
इसका कारण पूछने पर एक दिन उन्होंने कहा, "जरा सोच तो देखो, हजार- हजार
दरिद्र लोगों को उपदेश देने और सत्कार्य के अनुष्ठान में तत्पर कराने से जो
कार्य होगा, उसकी अपेक्षा एक राजा को इस दिशा में ला सकने पर कितना अधिक कार्य
हो जाएगा। निर्धन प्रजा की इच्छा करने पर भी सत्कार्य करने की क्षमता उसके
पास कहाँ? किंतु राजा के हाथ में सहस्त्रों प्रजाओं के मंगल-विधान की क्षमता
पहले से ही है, केवल उसे करने की इच्छा भर नहीं है। वह इच्छा यदि उसके भीतर
किसी प्रकार जागरित कर सकूँ, तो ऐसा होने पर उसके साथ-साथ उसके अधीन सारी
प्रजा की अवस्था बदल सकती है, और इस प्रकार जगत् का कितना अधिक कल्याण हो
सकता है।"
धर्म वाद-विवाद में नहीं है, वह तो प्रत्यक्ष अनुभव का विषय है, इसको समझाने
के लिए वे बात बात में कहा करते थे, "गुड़ का स्वाद खाने में ही है। अनुभव
करो, बिना अनुभव किए कुछ भी न समझोगे।" उन्हें ढोंगी संन्यासियों से अत्यंत
चिढ़ थी। वे कहते थे, "घर में रहकर मन पर अधिकार स्थापित करके फिर बाहर
निकलना अच्छा है; नहीं तो नव अनुराग कम होने पर ऐसे संन्यासी प्राय:
गाँजाखोर संन्यासियों के दल में मिल जाते हैं।"
मैंने कहा, "किंतु घर में रहकर वैसा होना तो अत्यंत कठिन है। सभी प्राणियों को
समान दृष्टि से देखना, राग-द्वेष का त्याग करना आदि जिन बातों को आप धर्मलाभ
में प्रधान सहायक कहते हैं, उनका अनुष्ठान करना यदि मैं आज से ही आरंभ कर
दूँ, तो कल से ही मेरे नौकर-चाकर और अधीनस्थ कर्मचारीगण, यहाँ तक कि
सगे-संबंधी लोग भी, मुझे एक क्षण भी शांति से न रहने देंगे।"
उत्तर में भगवान् श्री रामकृष्ण देव की सर्प और संन्यासी वाली कथा का
दृष्टांत देकर उन्होंने कहा, "फुफकारना कभी बंद मत करना, और कर्तव्य-पालन
करने की बुद्धि से सभी काम किए जाना। कोई अपराध करे, तो दंड देना; किंतु दंड
देते समय कभी भी क्रुद्ध न होना।" फिर पूर्वोक्त प्रसंग को छेड़ते हुए बोले,
"एक समय मैं एक तीर्थस्थान के पुलिस इंस्पेक्टर का अतिथि हुआ। वह बड़ा
धार्मिक और श्रद्धालु था। उसका वेतन १२५ रू. था; किंतु देखा, उसके घर का खर्च
मासिक दो-तीन सौ का रहा होगा। जब अधिक परिचय हुआ, तो मैंने पूछा, 'आय की
अपेक्षा आपका खर्च तो अधिक देख रहा हूँ-यह कैसे चलता है?' वह थोड़ा हँसकर
बोला, 'आप ही लोग चलाते हैं। इस तीर्थस्थल में जो साधु-संन्यासी आते हैं, वे
सब आपके समान तो नहीं होते। संदेह होने पर उनके पास क्या है, क्या नहीं,
इसकी तलाशी करता हूँ। बहुतों के पास प्रचुर मात्रा में रुपया-पैसा निकलता है।
जिन पर मुझे चोरी का संदेह होता है, वे रुपया-पैसा छोड़कर भाग जाते हैं, और
मैं उन पैसों को अपने कब्जे में कर लेता हूँ पर अन्य किसी प्रकार का घूस आदि
नहीं लेता।"
स्वामी जी के साथ एक दिन अनंत (infinity) वस्तु के संबंध में वार्तालाप हुआ।
उन्होंने जो बात कही, वह बड़ी ही सुंदर एवं सत्य है। वे बोले, "दो अनंत
वस्तुएँ कभी नहीं रह सकतीं।" पर मैंने कहा, "काल तो अनंत है और देश भी अनंत
है।" इस पर बोले, "देश अनंत है, यह तो समझा, किंतु काल अनंत है, यह नहीं समझा।
जो भी हो, एक वस्तु अनंत है, यह बात समझ में आती है, किंतु दो वस्तुएँ यदि
अनंत हों, तो कौन कहाँ रहेगी? कुछ और आगे बढ़ो, तो देखोगे, काल जो है, देश भी
वही है; फिर और अग्रसर होने पर समझोगे, सभी वस्तुएँ अनंत हैं, और वे सभी अनंत
वस्तुएँ एक हैं, दो या दस नहीं।"
इस प्रकार स्वामी जी के पदार्पण से २६ अक्तूबर तक मेरे निवास-स्थान पर आनंद
का स्त्रोत बहता रहा। २७ तारीख को वे बोले, "और नहीं ठहरूँगा; रामेश्वर जाने
के विचार से बहुत दिन हुए इस ओर निकला हूँ। पर यदि इसी प्रकार चला, तो इस
जन्म में शायद रामेश्वर पहुँचना न हो सकेगा।" मैं बहुत अनुरोध करके भी
उन्हें नहीं रोक सका। २७ अक्तूबर की 'मेल'से उनका मरमागोआ जाना ठहरा। इस
थोड़े से समय में उन्होंने कितने लोगों को मुग्ध कर लिया था, यह कहा नहीं जा
सकता। टिकट खरीदकर उन्हें गाड़ी में बिठाया और साष्टांग प्रणाम कर मैंने
कहा, "स्वामी जी, मैंने जीवन में आज तक किसी को भी आंतरिक भक्ति के साथ
प्रणाम नहीं किया। आज आपको प्रणाम कर मैं कृतार्थ हो गया।"
स्वामी जी को मैंने केवल तीन बार देखा। प्रथम, उनके अमेरिका जाने से पूर्व।
उस समय की बहुत सी बातें आप लोगों को सुना चुका हूँ। बेलगाँव में उनके साथ
मेरा प्रथम साक्षात्कार हुआ। द्वितीय, जब उन्होंने दूसरी बार इंग्लैंड और
अमेरिका की यात्रा की थी, उसके कुछ दिन पहले। तृतीय एवं अंतिम बार दर्शन हुआ
उनके देहत्याग के छ:सात मास पहले। पर इतने ही अवसरों पर मैंने उनसे जो कुछ
सीखा उसका आद्योपांत वर्णन करना असंभव है। बहुत सी बातें मेरे अपने संबंध की
हैं, इसलिए उन्हें कहने की आवश्यकता नहीं; और बहुत सी बातों को भूल भी गया
हूँ। जो कुछ स्मरण है, उसमें पाठकों के लिए उपयोगी विषयों को बतलाने की
चेष्टा करूँगा।
इंग्लैड से लौट आने के बाद उन्होंने हिंदुओं के जाति-विचार के संबंध में और
किसी किसी संप्रदाय के व्यवहार के ऊपर तीव्र आलोचना करते हुए मद्रास में जो
व्याख्यान दिए थे, उन्हें पढ़कर मैंने सोचा, स्वामी जी की भाषा कुछ अधिक
कड़ी हो गयी है। और उनके समीप मैंने अपने इस अभिप्राय को प्रकट भी किया। सुनकर
वे बोले, "जो कुछ मैंने कहा है, सब सत्य कहा है। और जिनके संबंध में मैंने इस
प्रकार की भाषा का व्यवहार किया है, उनके कार्यों की तुलना में वह बिंदु
मात्र भी कड़ी नहीं है। सत्य बात में संकोच का या उसे छिपाने का तो मैं कोई
कारण नहीं देखता। यह न सोचना कि जिनके कार्यों पर मैंने इस प्रकार समालोचना की
है, उनके ऊपर मेरा क्रोध था या है, अथवा जैसा कोई कोई सोचते हैं कि कर्तव्य
समझकर जो कुछ मैंने किया है, उसके लिए अब मैं दु:खित हूँ। इन सब बातों में
कोई सार नहीं। मैंने क्रोध के कारण ऐसा नहीं किया है, और जो मैंने किया है,
उसके लिए मैं दु:खित नहीं हूँ। आज भी यदि उस प्रकार का कोई अप्रिय कार्य करना
कर्तव्य मालूम होगा, तो अवश्य नि:संकोच वैसा करूंगा।"
ढोंगी संन्यासियों के विषय में उनका मत पहले कुछ कह चुका हूँ। किसी दूसरे
दिन इस संबंध में प्रसंग उठने पर उन्होंने कहा, "हाँ, अवश्य बहुत से बदमाश
वारंट के डर से अथवा घोर दुष्कर्म करके छिपने के लिए संन्यासी के वेष में
घमते-फिरते हैं; किंतु तुम लोगों का भी कुछ दोष है। तुम लोग सोचते हो,
संन्यासी होते ही उसे ईश्वर के समान त्रिगुणातीत हो जाना चाहिए। उसे पेट भर
अच्छी तरह खाने में दोष, बिछौने पर सोने में दोष, यहाँ तक कि उसे जूता और
छाता तक व्यवहार में लाने की गुंजाइश नहीं। क्यों, वह भी तो मनुष्य है। तुम
लोगों के मत में जब तक कोई पूर्ण परमहंस न हो जाय, तब तक उसे गेरूआ वस्त्र
पहनने का अधिकार नहीं। पर यह भूल है। एक समय एक संन्यासी के साथ मेरा
वार्तालाप हुआ। अच्छी पोशाक पर उनकी खूब रुचि थी। तुम लोग उन्हें देखकर
अवश्य ही घोर विलासी समझते। किंतु वे सचमुच यथार्थ संन्यासी थे।"
स्वामी जी कहा करते थे, "देश, काल और पात्र के भेद से मानसिक भावों और
अनुभवों में काफ़ी तारतम्य हुआ करता है। धर्म के संबंध में भी ठीक वैसा ही
है। प्रत्येक मनुष्य की भी एक न एक विषय में अधिक रुचि पायी जाती है। जगत्
में सभी अपने को अधिक बुद्धिमान समझते हैं। ठीक है, वहाँ तक कोई विशेष हानि
नहीं, तभी सारे बखेड़े उपस्थित हो जाते हैं। सभी चाहते हैं कि दूसरे सब लोग
भी उन्हीं के समान प्रत्येक वस्तु को देखें और समझें। प्रत्येक व्यक्ति
सोचता है कि उसने जिस बात को सत्य समझा है या जिसे जाना है, उसे छोड़कर और
कोई सत्य हो ही नहीं सकता। सांसारिक विषय के क्षेत्र में हो अथवा धर्म के
क्षेत्र में, इस प्रकार के भाव को मन में किसी तरह न आने देना चाहिए।
"जगत् के किसी भी विषय में सब पर एक ही नियम लागू नहीं हो सकता। देश, काल और
पात्र के भेद से नीति एवं सौंदर्य-ज्ञान भी विभिन्न देखा जाता है। तिब्बत की
स्त्रियों में बहु-पति की प्रथा प्रचलित है। हिमालय-भ्रमणकाल में मेरी इस
प्रकार के एक तिब्बती परिवार से भेंट हुई थी। इस परिवार में छह पुरुष थे, उन
छह पुरुषों की एक ही स्त्री थी। अधिक परिचय हो जाने के बाद मैंने एक दिन उनकी
इस कुप्रथा के बारे में कुछ कहा, इस पर वे कुछ खीझकर बोले, 'तुम साधु
संन्यासी होकर लोगों को स्वार्थपरता सिखाना चाहते हो? यह मेरी ही उपभोग्य
है, दूसरे की नहीं, इस प्रकार का भाव क्या अन्याय नहीं है?' मैं तो सुनकर
दंग रह गया!
"नाक और पैर की लघुता लेकर ही चीन में सौंदर्य का विचार होता है, यह सभी जानते
हैं। आहार आदि के संबंध में भी ऐसा ही है। अंग्रेज हम लोगों के समान खूशबूदार
चावल का भात खाना पसंद नहीं करते। एक समय किसी जगह के एक जज साहब की अन्यत्र
बदली हो जाने पर वहाँ के बहुत से वकीलों ने उनके सम्मान के लिए बढ़िया अनाज
आदि भेजा। उसमें कुछ सेर खूशबूदार चावल भी थे। जज साहब ने उस चावल का भात खाकर
मन में सोचा-यह सड़ा हुआ चावल है, और वकीलों से भेंट होने पर कहा, 'तुम लोगों
को मेरे लिए सड़ा चावल भेजना उचित न था।'
"किसी समय मैं रेलगाड़ी में जा रहा था। उसी डब्बे में चार-पाँच साहब भी बैठे
थे। बात-चीत के सिलसिले में तंबाकू के बारे में मैंने कहा, 'सुगंधित गुड़ाकू
का पानी से भरे हुए हुक्के में व्यवहार करना ही तंबाकू का श्रेष्ठ उपभोग
हैं।' मेरे पास खूब अच्छा तंबाकू था। मैंने उन लोगों को देखने के लिए दिया।
वे सूँघकर बोले, 'यहाँ तो अत्यंत दुर्गंधयुक्त है! इस प्रकार गंध, आस्वाद
सौंदर्य आदि सभी विषयों में समाज, देश और काल के भेद से भिन्न-भिन्न मत
हैं।"
स्वामी जी की पूर्वोक्त कथाओं को हृदयंगम करते मुझे देरी नहीं लगी। मैंने
सोचा, पहले मुझे शिकार करना कितना प्रिय था; किसी पशु-पक्षी को देखने पर उसे
मारने के लिए मन छटपटाने लगता था। न मार सकने पर अत्यंत कष्ट भी मालूम होता
था। पर अब उस प्रकार प्राणियों का वध करना बिल्कुल ही अच्छा नहीं लगता। अतएव
किसी वस्तु का अच्छा या बुरा लगना केवल अभ्यास पर निर्भर है।
अपने मत को अक्षुण्ण रखने में प्रत्येक मनुष्य का एक विशेष आग्रह देखा जाता
है। धर्म के क्षेत्र में तो उसका विशेष प्रकाश दिखायी देता है। स्वामी जी इस
संबंध में एक कहानी बतलाया करते थे: एक समय एक छोटे राज्य को जीतने के लिए एक
दूसरे राजा ने दल-बल के साथ चढ़ाई की। शुत्रओं के हाथ से बचाव कैसे हो, इस
संबंध में विचार करने के लिए उस राज्य में एक बड़ी सभा बुलायी गयी। सभा में
इंजीनियर, बढ़ई, चमार, लोहार, वकील, पुरोहित आदि सभी उपस्थित थे। इंजीनियर, ने
कहा, "शहर के चारों ओर एक बहुत बड़ी खाई खुदवाइए।" बढ़ई बोला, "काठ की एक
दीवाल खड़ी कर दी जाय।" चमार बोला, "चमड़े के समान मजबूत और कोई चीज नहीं है,
चमड़े की ही दीवाल खड़ी की जाय।" लोहार बोला, "इस सबकी कोई आवश्यकता नहीं है;
लोहे की दीवाल सबसे अच्छी होगी; उसे भेदकर गोली या गोल नहीं आ सकता।" वकील
बोले, "कुछ भी करने की आवश्यकता नहीं है; हमारा राज्य लेने का शत्रु को कोई
अधिकार नहीं है-यहाँ एक बात शत्रु को तर्क-युक्ति द्वारा समझा दी जाय।"
पुरोहित बोले, "तुम लोग तो पागल जैसे बकते हो। होम-याग करो, स्वस्त्ययन
करो, तुलसी दो, शत्रु कुछ भी नहीं कर सकता।" इस प्रकार उन्होंने राज्य बचाने
का कोई उपाय निश्चित करने के बदले अपने-अपने मत का पक्ष लेकर घोर तर्क-वितर्क
आरंभ कर दिया। यही है मनुष्य का स्वभाव!
यह कहानी सुनकर मुझे भी मानव मन के एकतरफ़े झुकाव के संबंध में एक कथा याद आ
गयी। स्वामी जी से मैंने कहा, "स्वामी जी, मुझे लड़कपन में पागलों के साथ
बातचीत करना बड़ा अच्छा लगता था। एक दिन मैंने एक पागल देखा-खासा बुद्धिमान,
थोड़ी-बहुत अंग्रेजी भी जानता था; वह केवल पानी ही चाहता था ! उसके पास एक
फूटा लोटा था। पानी की कोई नयी जगह देखते ही, चाहे नाला हो, हौज हो, बस वहीं
का पानी पीने लगता था मैंने उससे इतना पानी पीने का कारण पूछा, तो वह बोला,
'Nothing like water, Sir!' (पानी जैसी दूसरी कोई चीज ही नहीं, महाशय!) मैंने
उसे एक अच्छा लोटा देने की इच्छा प्रकट की, पर वह किसी प्रकार राजी नहीं
हुआ। कारण पूछने पर बोला, 'यह लोटा फूटा हुआ है, इसीलिए इतने दिनों तक मेरे
पास टिका हुआ है। अच्छा रहता, तो कब का चोरी चला गया होता!'"
स्वामी जी यह कथा सुनकर बोले, "वह तो बड़ा मजे का पागल दिखता है! ऐसे लोगों
को झक्की कहते हैं। हम सभी लोगों में इस प्रकार का कोई आग्रह या झक्कीपन हुआ
करता हैं। हम सभी लोगों में उसे दबा रखने की क्षमता है। पागल में वह नहीं है।
हम लोगों में और पागलों में भेद केवल इतना ही है। रोग, शोक, अहंकार, काम,
क्रोध, ईर्ष्या या अन्य कोई अत्याचार अथवा अनाचार से दुर्बल होकर, मनुष्य
के अपने इस संयम को खो बैठने से ही सारी गड़बड़ी उत्पन्न हो जाती है ! मन के
आवेग को वह फिर सँभाल नहीं पाता। हम लोग तब कहते हैं, 'यह पागल हो गया है।' बस
इतना ही!"
स्वामी जी का स्वदेश के प्रति अत्यंत अनुराग था, यह बात पहले ही बता चुका
हूँ। एक दिन इस संबंध में बातचीत के प्रसंग में उनसे कहा गया कि संसारी लोगों
का अपने अपने देश के प्रति अनुराग रखना नित्य कर्तव्य है, परंतु
संन्यासियों को अपने देश की माया छोड़कर, सभी देशों पर समदृष्टि रखकर, सभी
देशों की कल्याण-चिंता हृदय में रखना अच्छा है। इसके उत्तर में स्वामी जी
ने जो ज्वलंत बातें कहीं, उनको जीवन में कभी नहीं भूल सकता। वे बोले, "जो अपनी
माँ को खाना नहीं देता, वह दूसरे की माँ का क्या पालन करेगा?" स्वामी जी यह
स्वीकार करते थे कि हमारे प्रचलित धर्म में, आचार-व्यवहार में, सामाजिक
प्रथा में अनेक दोष हैं। वे कहते थे, "उन सभी का संशोधन करने की चेष्टा करना
हम लोगों का मुख्य कर्तव्य है; किंतु इसके लिए संवाद-पत्रों में अंग्रेजों
के समीप उन दोषों को घोषित करने की क्या आवश्यकता है? घर की गलतियों को जो
बाहर दिखलाता है, उसके समान गधा और कौन है ? गंदे कपड़ों को लोगों की आँखों के
सामने नहीं रखना चाहिए।"
ईसाई मिशनरियों के बारे में एक दिन चर्चा हुई। बातचीत के सिलसिले में मैंने
कहा कि उन लोगों ने हमारे देश का कितना उपकार किया है और कर रहे हैं। सुनकर वे
बोले, "किंतु अपकार भी तो कोई कम नहीं किया। देशवासियों के मन की श्रद्धा को
बिल्कुल नष्ट कर देने का अद्भुत प्रबंध उन्होंने कर छोड़ा है। श्रद्धा के
साथ-साथ मनुष्यत्व का भी नाश हो जाता है। इस बात को क्या कोई समझता है?
हमारे देव-देवियों और हमारे धर्म की निंदा किए बिना वे अपने धर्म की
श्रेष्ठता क्यों नहीं दिखा पाते? और एक बात है: जो जिस धर्ममत का प्रचार
करना चाहते हैं, उन्हें उसमें पूर्ण विश्वास होना चाहिए और तदनुरूप कार्य
करना चाहिए। अधिकांश मिशनरी कहते कुछ हैं और करते कुछ। मुझे कपट से बड़ी चिढ़
है।"
एक दिन उन्होंने धर्म और योग के संबंध में अत्यंत सुंदर ढंग से बहुत सी बातें
कहीं। उनका मर्म जहाँ तक स्मरण है, उद्धृत कर रहा हूँ: "समस्त प्राणी सतत
सुखी होने की चेष्टा में रत रहते हैं; किंतु बहुत ही थोड़े लोग सुखी हो पाते
हैं। काम-धाम भी सभी सतत करते रहते हैं, किंतु उसका ईप्सित फल पाना
प्राय:देखा नहीं जाता। इस प्रकार विपरीत फल उपस्थित होने का कारण क्या है, वह
भी समझने की कोई चेष्टा नहीं करता। इसी-लिए मनुष्य दु:ख पाता है। धर्म के
संबंध में कैसा भी विश्वास क्यों न हो, यदि कोई उस विश्वास के बल से अपने
को यथार्थ सुखी अनुभव करता है तो ऐसी स्थिति में उसके उस मत को परिवर्तित
करने की चेष्टा करना किसी के लिए भी उचित नहीं है; और ऐसा करने से कोई अच्छा
फल भी नहीं होगा। पर हाँ, मुँह से कोई कुछ भी क्यों न कहे, जब देखो कि किसी
का केवल धर्म संबंधी कथावार्ता सुनने में ही आग्रह है, पर उसके आचरण में नहीं,
तो जानना कि उसे किसी भी विषय में ही आग्रह है, पर उससे आचरण में नहीं, तो
जानना कि उसे किसी भी विषय में दृढ़ विश्वास नहीं है।
"धर्म का मूल उद्देश्य है-मनुष्य को सुखी करना। किंतु अगले जन्म में सुखी
होने के लिए इस जन्म में दु:ख-भोग करना कोई बुद्धिमानी का काम नहीं है। इस
जन्म में ही, इसी मुहूर्त से सुखी होना हागा। जिस धर्म के द्वारा यह संपन्न
होगा, वही मुनष्य के लिए उपयुक्त धर्म है। इंद्रिय-भोगजनित सुख क्षणिक है,
और उसके साथ अवश्यंभावी दु:ख भी अनिवार्य है। शिशु, अज्ञानी और पाशविक
स्वभाव वाले मनुष्य ही इस क्षणस्थायी दु:खमिश्रित सुख का वास्तविक सुख
समझते हैं। यदि इस सुख को भी कोई जीवन का एकमेव उद्देश्य बनाकर चिकाल तक
संपूर्ण रूप से निश्चिंत और सुखी रह सके, तो वह भी कुछ बुरा नहीं है। किंतु आज
तक तो इस प्रकार का मनुष्य देखा नहीं गया। साधारणत: देखा यही जाता है कि जो
इंद्रिय-चरितार्थता को ही सुख समझते हैं, वे धनवान एवं विलासी लोगों को अपने
से अधिक सुखी सझकर उनसे द्वेष करने लगते हैं और बहुत व्यय से प्राप्त
होनेवाले उनके उच्च श्रेणीके इंद्रिय-भोग पदार्थों को देखकर, उन्हें पाने के
लिए लालायित होकर दु:खी हो जाते हैं। सम्राट सिकंदर समस्त पृथ्वी को जीतकर,
यही सोचकर दु:खी हुए थे कि अब पृथ्वी में जीतने को और कोई देश नहीं रह गया।
इसीलिए बुद्धिमान मनीषियों ने बहुत देख-सुनकर, सोच-विचारकर हो, तभी मनुष्य
निश्चिंत और यथार्थ सुखी हो सकता है।
"विद्या, बुद्धि आदि सभी विषयों में प्रत्येक मनुष्य का स्वभाव पृथक्-पृथक्
देखा जाता है। इसी कारण उनके उपयुक्त धर्म का भी भिन्न-भिन्न होना आवश्यक
है; अन्यथा वह किसी भी तरह उनके लिए संतोषप्रद न होगा, वे किसी भी तरह उसका
अनुष्ठान करके यथार्थ सुखी नहीं हो सकेंगे। अपने अपने स्वभाव के अनुकूल
धर्म-मत को, स्वयं ही देख-भालकर, सोच-विचारकर चुन लेना चाहिए। इसके अतिरिक्त
कोई दूसरा उपाय नहीं धर्म ग्रंथ का पाठ, गुरु का उपदेश, साधु-दर्शन,
सत्पुरुषों का संग आदि उसे इस मार्ग में केवल सहायता मात्र देते हैं।
"कर्म के संबंध में भी यह जान लेना आवश्यक है कि किसी न किसी प्रकार का कर्म
किए बिना कोई भी रह नहीं सकता, और जगत् में केवल अच्छा या केवल बुरा, इस
प्रकार का कोई कर्म नहीं है। सत्कर्म करने में कुछ न कुछ बुरा कर्म भी करना
ही पड़ता है। और इसीलिए उस कर्म के द्वारा जैसे सुख होगा, वैसे ही साथ ही साथ
कुछ न कुछ दु:ख एवं अभाव का बोध भी होगा-यह अवश्यंभावी है। अतएव यदि उस थोड़े
से दु:ख को भी ग्रहण करने की इच्छा न हो, तो फिर विषय-भोगजनित ऊपरी सुख की
आशा भी छोड़ देनी होगी, अर्थात् स्वार्थ-सुख का अन्वेषण करना छोड़कर
कर्तव्य-बुद्धि से सभी कार्य करने होंगे। इसी का नाम है निष्काम कर्म।
भगवान् गीता में अर्जुन को उसी का उपदेश देते हुए कहते हैं-'काम करो, किंतु फल
मुझे अर्पण करो; अर्थात् मेरे लिए ही का करो।'"
किसी विषय का इतिहास कहाँ तक ठीक ठीक लिखा जा सकता है, इस विषय में लेखक को
बहुत संदेह है। उसके अनेक कारण हैं। गवर्नर जनरल साहब के किसी शहर में पदार्पण
से लेकर उस शहर से जाने तक की घटना अपनी आँखों से देखने और बाद में उसी का
विवरण प्रसिद्ध प्रसिद्ध संवाद-पत्रों में पढ़ने की सुविधा हमारे सदृश-लोगों
को अधिकतर होती है। आदि से अंत तक हम लोगों की देखी हुई घटनाओं के साथ इन सभी
विवरणों की इतनी विभिन्नता देखी जाती है कि विस्मित हो जाना पड़ता है! चार
दिन पहले जो घटना हुई है, उसी को लिपिबद्ध करना जब इतना कठिन है, तो चार सौ,
चार हजार अथवा चार लाख वर्ष पहले जो घटना हुई है, उसका इतिहास कहाँ तक ठीक ठीक
लिपिबद्ध हुआ है, इसका अनुमान सहज ही किया जा सकता है।
और एक बात है, ईसाई मिशनरियों में से बहुत से कहा करते हैं-'उनकी बाइबिल की
प्रत्येक घटना जिस वर्ष, जिस महीने, जिस दिन, जिस घंटे और जिस मिनट घटित हुई
है, वह बिल्कुल सामने घड़ी रखकर लिपिबद्ध की गयी है।' किंतु एक ओर conflict
between religion and science (धर्म और विज्ञान में द्वंद्व ) आदि पुस्तकों
में बाइबिल की उत्पत्ति के संबंध में उनके ही देश के आधुनिक पंडितों का विचार
पढ़कर बाइबिल की ऐतिहासिकता जिस प्रकार अच्छी तरह समझी जा सकती है, उसी
प्रकार दूसरी ओर मिशनरियों द्वरा अनूदित हिंदू धर्मशास्त्रों का अपूर्व विवरण
पढ़कर उनका लिखित इतिहास भी कहाँ तक सत्य है, इसे समझने में कुछ अविशिष्ट
नहीं रहता। यह सब देख-सुनकर मानवजाति के सत्यानुराग एवं इतिहास में लिपिबद्ध
घटनाओं के ऊपर श्रद्धा प्राय: बिल्कुल उड़ सी जाती है।
गीता, बाइबिल, क़ुरान , पुराण प्रभृत प्राचीन ग्रंथों में निबद्ध घटनाओं की
वास्तविक ऐतिहासिकता के संबंध में इसीलिए पहले मुझे तनिक भी विश्वास नहीं
होता था। एक दिन स्वामी जी से मैंने पूछा कि कुरुक्षेत्र में युद्ध से थोड़ी
देर पहले अर्जुन के प्रति भगवान् श्री कृष्ण का जो धर्मोंपदेश भगवद्गीता में
लिपिबद्ध है, वह यथार्थ ऐतिहासिक घटना हैं या नहीं? उत्तर में उन्होंने जो
कहा, वह बड़ा ही सुंदर है। वे बोले, "गीता एक अत्यंत प्राचीन ग्रंथ है।
प्राचीन काल में इतिहास लिखने अथवा पुस्तक आदि छापने की आजकल के समान इतनी
धूम-धाम नहीं थी; इसलिए तुम्हारे सदृश-लोगों के सामने भगद्गीता की ऐतिहासिकता
प्रमाणित करना कठिन है। किंतु गीता में उक्त घटना घटी थी या नहीं, इसके लिए
तुम लोग जो माथापच्ची करते हो, इसका कोई कारण मुझे नहीं दिखता। यदि कोई
अकाट्य प्रमाण से तुम्हें यह समझा सके कि भगवान् श्री कृष्ण ने सारथी होकर
अर्जुन को गीता का उपदेश दिया था, क्या केवल तभी तुम लोग गीता में वर्णित
बातों पर विश्वास करोगे? जब अपने सामने साक्षात् भगवान के मूर्तिमान होकर आने
पर भी तुम लोग उनकी परीक्षा करने के लिए दौड़ते हो और उनका ईश्वरत्व
प्रामाणित करने के लिए कहते हो, तब गीता ऐतिहासिक है या नहीं, इस व्यर्थ की
समस्या को लेकर क्यों परेशान होते हो? यदि हो सके, तो गीता के उपदशों को
जितना बने ग्रहण करो, और उसे जीवन में परिणत कर कृतार्थ हो जाओ। श्री
रामकृष्ण देव कहते थे-'आम खाओ, पेड़ के पत्ते गिनने से क्या होगा!' मरी राय
में धर्मशास्त्र में लिपिबद्ध घटना के ऊपर विश्वास या अविश्वास करना
वैयक्तिक अनुभव-मेल का विषय है-अर्थात् मनुष्य किसी एक विशेष अवस्था में
पड़कर, उससे उद्धार पाने की इच्छा से रास्ता ढूँढता और धर्मशास्त्र में
लिपिबद्ध किसी घटना के साथ उसकी अवस्था का ठीक ठीक मेल होने पर वह उस घटना को
ऐतिहासिक कहकर उस पर निश्चित विश्वास करता है तथा धर्मशास्त्रोक्त उस अवस्था
के उपयोगी उपायों को भी साग्रह ग्रहण करता है।"
स्वामी जी ने एक दिन, शारीरिक एवं मानसिक शक्ति को अभीष्ट कार्य के लिए
संरक्षित रखना प्रत्येक के लिए कहाँ तक कर्तव्य है, इसे बड़े सुंदर भाव से
समझाते हुए कहा था-"अनधिकार चर्चा अथवा वृथा कार्य में जो शक्ति क्षय करता है,
वह अभीष्ट कार्य की सिद्धि के लिए पर्याप्त शक्ति कहाँ से प्राप्त करेगा?
The sum total of the energy which can be exhibited by an ego is a constant
quantity-अर्थात् 'प्रत्येक जीवात्मा के भीतर विविध भाव प्रकाशित करने की जा
श्क्ति रहती है, वह एक नियत मात्रा में होती है'; अतएवं उस शक्ति का अधिकांश
एक भाव में प्रकाशित होने पर अतना अंश और किसी दूसरे भाव में प्रकाशित नहीं हो
सकता। धर्म के गंभीर सत्य को प्रत्यक्ष करने के लिए बहुत शक्ति की आवश्यकता
होती है; इसीलिए धर्म-पथ के पथिकों के प्रति विषय-भोग आदि में शक्ति क्षय न कर
ब्रह्मचर्य के द्वारा शक्ति संरक्षण का उपदेश सभी जातियों के धर्मग्रंथों में
पाया जाता है।"
स्वामी जी बंगाल के ग्रामों तथा वहाँ के लोगों के अनेक व्यवहारों से संतुष्ट
नहीं थे। ग्राम के एक ही तालाब में स्नान, शौच आदि करना एवं उसी का पानी
पीना, यह प्रथा उन्हें बिल्कुल पसंद न थी। वे प्राय: कहा करते थे, "जिनका
मस्तिष्क मल-मूत्र से भरा है, उन लोगों से आशा-भरोसा कहाँ! और यह जो ग्रामीण
लोगों का अनाधिकार चर्चा करना है, वह तो बड़ी ख़राब चीज है। शहर के लोग
अनाधिकार चर्चा न करते हों, ऐसी बात नहीं; परंतु उन्हें समय कम मिलता है,
क्योंकि शहर का खर्च अधिक है, इसलिए उन्हें काम भी बहुत करना पड़ता है। इतना
परिश्रम करने के बाद, खाली बैठकर हुक्का पीने और परनिंदा करने का समय नहीं
मिलता। अन्यथा ये शहरी भूत इस विषय में तो ग्रामीण भूतों की गर्दन पर चढ़कर
नाचते।"
स्वामी जी को प्रत्येक दिन की कथा-वार्ता यदि संगृहीत होती, तो प्रत्येक
दिन की बातें एक एक मोटी पुस्तक होतीं। एक ही प्रश्न का बार बार एक ही भाव
से उत्तर देना एवं एक ही दृष्टांत की सहायता से उसे समझाना उनकी रीति नहीं थी।
एक ही प्रश्न का उत्तर जितनी बार देते, उतनी बार नए भाव और नए दृष्टांत के
द्वारा इस प्रकार देते कि वह सुनने वालों को एक़दम नया मालूम होता था, और उनकी
वाणी सुनते सुनते थकावट आना तो दूर की बात रहीं, बल्कि और अधिक सुनने का
अनुराग उत्तरोत्तर बढ़ता जाता था। व्याख्यान देने की भी उनकी यही शैली थी।
पहले से सोचकर व्याख्यान-प्रारंभ से कुछ देर पहले तक वे हँसी-मजाक, साधारण
भाव से बातचीत एवं व्याख्यान से बिल्कुल संबंध न रखनेवाले विषयों को लेकर
भी चर्चा करते रहते थे। व्याख्यान में क्या कहेंगे, यह उन्हें स्वयं नहीं
मालूम रहता था। हम लोग जो कुछ दिन उनके संस्पर्श में रहकर धन्य हुए हैं,
उन्हीं कुछ दिनों की कथा-वार्ता का विवरण जहाँ तक और भी संभव है, कमश:
लिपिबद्ध कर रहा हूँ।
३
पहले ही कह चुका हूँ कि पाश्चात्य विज्ञान की सहायता से हिंदू धर्म को
समझाने एवं विज्ञान और धर्म का सामंजस्य प्रदर्शित करने में स्वामी जी के
समान मैंने और कोई नहीं देखा। आज उसी प्रसंग में दो-चार बातें लिखने की इच्छा
है। किंतु यह जान लेना होगा, मुझे जहाँ तक स्मरण है, उतना ही लिख रहा हूँ।
अतएव इसमें यदि कोई भूल रहे, तो वह मेरे समझने की भूल है, स्वामी जी की
व्याख्या की नहीं।
स्वामी जी कहते थे-"चेतन-अवचेत, स्थूल-सूक्ष्म-सभी एकत्व की ओर दम साधकर
दौड़ रहे हैं। पहले मनुष्य ने जिन भिन्न-भिन्न पदार्थों को देखा, उनमें से
प्रत्येक को भिन्न-भिन्न समझकर उनको भिन्न- भिन्न नाम दिए। बाद में विचार
करके थे समस्त पदार्थं ६३ मूल द्रव्यों से उत्पन्न हुए हैं, ऐसा निश्चित
किया।
"इन मूल द्रव्यों में अनेक मिश्र द्रव्य हैं, ऐसा इस समय बहुतों को संदेह हो
रहा है। और जब रसायनशास्त्र अंतिम मीमांसा पर पहुँचेगा, उस समय सभी पदार्थ एक
ही पदार्थ के अवस्था-भेद मात्र समझे जाएंगे। पहले ताप, आलोक और विद्युत को
सभी विभिन्न समझते थे। अब प्रमाणित हो गया है, ये सब एक हैं, एक ही शक्ति के
अवस्थांतर मात्र हैं। लोग ने पहले समस्त पदार्थों को चेतन, अचेतन और उद्भिद
इन तीन श्रेणियों में विभक्त किया था। उसके बाद देखा कि उद्भिद में भी दूसरे
सभी चेतन प्राणियों के समान प्राण हैं, केवल गमनशक्ति नहीं है, इतना ही। तब
बाकी रहीं दो श्रेणियाँ-चेतन और अचेतन। फिर कुछ दिनों बाद देखा जाएगा, हम लोग
जिन्हें अचेतन कहते हैं, उनमें भी थोड़ा-बहुत चैतन्य है।
[2]
"पृथ्वी में जो ऊँची-नीची जमीन देखी जाती है, वह भी समतल होकर एक रूप में
परिणत होने की सतत चेष्टा कर रही है। वर्षा के जल से पर्वत आदि ऊँची जमीन धुल
जाने पर उस मिट्टी से गड्ढे भर रहे हैं। एक उष्ण पदार्थ को किसी स्थान में
रखने पर वह चारों ओर के द्रव्यों के साथ समान उष्ण भाव धारण करने की चेष्टा
करता है। उष्णता-शक्ति इस प्रकार संचालन, संवाहन, विकिरण आदि उपायों से
सर्वदा समभाव या एकत्व की ओर ही अग्रसर हो रही है।
"वृक्ष के फल, फूल, पत्ते और उसकी जड़ हम लोगों द्वारा भिन्न-भिन्न देख जाने
पर भी वे सब वस्तुत: एक ही हैं, विज्ञान इसे प्रमाणित कर चुका है। त्रिकोण
काँच के भीतर से देखने पर सफेद रंग इंद्रधनुष के सात रंग के समान पृथक-पृथक
विभक्त दिखायी पड़ता है। खाली आँखो से देखने पर एक ही रंग, और लाल या नीले
चश्मे से देखने पर सभी कुछ लाल या नीला दिखायी देता है।
"इसी प्रकार, जो सत्य है, वह तो एक ही है। माया के द्वारा हम लोग उसे
पृथक-पृथक देखते हैं, बस इतना ही। यद्यपि देश और काल से अतीत जो अखंड अद्वैत
सत्य है, उसी के कारण मनुष्य को सब प्रकार के भिन्न-भिन्न पदार्थों का
ज्ञान होता है, फिर भी वह उस सत्य को नहीं पकड़ पाता. उसे नहीं देख सकता।"
इन सब बातों को सुनकर मैंने कहा, "स्वामी जी, हम लोग आँखों से जो कुछ देखते
हैं, वही क्या सब समय सत्य है? दो समानांतर रेल की पटरियों को देखने पर
प्रतीत होता है, मानो वे अंत में एक जगह मिल गयी है। उसी का नाम है, 'लुप्त
बिंदु'। मृगतृष्णा, रज्जु में सर्प-भ्रम आदि (optical illusion)
(दृष्टि-विभ्रम) सर्वदा ही होता रहता है। Calcspar नामक पत्थर के नीचे एक
रेखा double refraction (द्वि-आवर्तन) से दो दिखायी देती है। एक पेंसिल को आधे
गिलास पानी में डुबाकर रकहने पर पेंसिल का जलमग्न भाग ऊपरी भाग की अपेक्षा
मोटा दिखायी देता है। फिर सभी प्राणियों के नेत्र भिन्न-भिन्न क्षमतायुक्त एक
एक लेंस मात्र हैं। हम लोग किसी वस्तु को जितनी बड़ी देखते हैं, घोड़ा आदि
अनेक प्राणी उसको तदपेक्षा अधिक बड़ी देखते हैं, क्योंकि उनके नेत्रों का लेंस
भिन्न शक्तिवाला है। अतएव हम जिसे अपनी आँखों से देखते हैं, वही सत्य है,
इसका भी तो कोई प्रमाण नहीं। जॉन स्टुअर्ट मिल ने कहा है-मनुष्य सत्य-सत्य
करके ही पागल है, किंतु निरपेक्ष सत्य (absolute truth) को समझने की क्षमता
उसमें नहीं है; क्योंकि, घटनाक्रम से प्रकृत सत्य के आँखों के सामने आने पर
भी यह वास्तविक सत्य है, यह मनुष्य कैसे समझेगा? हम लागों का समस्त ज्ञान
सापेक्ष है, निरपेक्ष को समझने की क्षमता हममें नहीं है। अतएव निरपेक्ष
(निर्गुण) भगवान् या जगत्कारण को मनुष्य कभी भी नहीं समझ सकता।"
मैंने कहा, 'स्वामी जी, यह तो बड़ी भयानक बात है! यदि ज्ञान और अज्ञान, ये दो
ही वस्तुएँ हैं, तो ऐसा होने पर आप जिसे सत्य ज्ञान समझते हैं, वह भी तो
मिथ्या ज्ञान हो सकता है, और हम लोगों के जिस द्वैत ज्ञान को आप मिथ्या
ज्ञान कहते हैं, वह भी तो सत्य ज्ञान हो सकता है?"
उन्होंने कहा, "ठीक कहते हो, इसीलिए तो वेद में विश्वास करना चाहिए। हमारे
पूर्वकालीन ऋषि-मुनिगण समस्त द्वैत ज्ञान को पारकर, इस अद्वैत सत्य का अनुभव
कर जो कह गए हैं, उसी को वेद कहते हैं, स्वप्न और जाग्रत अवस्थाओं में से
कौन सी सत्य है और कौन सी असत्य, इसे विचारने की क्षमता हम लोगों में नहीं
है। जब तक हम लोग इन दोनों अवस्थाओं को पारकर इनकी परीक्षा नहीं कर सकेंगे,
तब तक कैसे कह सकते हैं कि यह सत्य है और वह असत्य ? केवल दो विभिन्न
अवस्थाओं का अनुभव होता हैं, इतना ही कहा जा सकता है। जब तुम एक अवस्था में
रहते हो, तो दूसरी अवस्था तुम्हें भूल मालूम पड़ती है। स्वप्न में हो सकता
है, कलकत्ते में तुमने क्रय-विक्रय किया, पर दूसरे ही क्षण अपने को बिछौने पर
लेटे हुए पाते हो। जब सत्य ज्ञान का उदय होगा, तब एक से भिन्न और कुछ नहीं
देखोगे, उस समय यह समझ सकोगे कि पहले का द्वैत ज्ञान मिथ्या था। किंतु यह सब
बहुत दूर की बात है। हाथ में खड़िया लेकर अक्षरारंभ करते हो यदि कोई रामायण,
महाभारत पढ़ने की इच्छा करे, तो यह कैसे होगा ? धर्म अनुभव का विषय है,
बुद्धि के द्वारा समझने का नहीं। अनुभव के लिए प्रयत्न करना ही होगा, तब उसका
सत्यासत्य समझा जा सकेगा। यह बात तुम लोगों के पाश्चात्य विज्ञान
रसायनशास्त्र, भौतिकशास्त्र, भूगर्भशास्त्र आदि से भी अनुमोदित है। दो अंश
Hydrogen (उद्जन) और एक अंश Oxygen (ओषजन) लेकर 'पानी कहाँ' कहने से क्या
कहीं पानी होगा ? नहीं; उनको एक सख्त स्थान में रखकर उनके भीतर electric
current (विद्युत्प्रवाह) चलाकर उनका combination (संयोग, मिश्रण नहीं) करने
पर ही पानी दिखायी देगा और ज्ञात होगा कि उद्जन और ओषजन नामक गैस से पानी
उत्पन्न हुआ है। अद्वैत ज्ञान की उपलब्धि के लिए भी ठीक उसी तरह धर्म में
विश्वास चाहिए, आग्रह चाहिए, अध्यवसाय चाहिए और चाहिए प्राणपण से यत्न। तब
कहाँ अद्वैत ज्ञान होता है। एक महीने की आदत छोड़ना कितना कठिन होता है, फिर
दस साल की आदत की तो बात ही क्या ! प्रत्येक व्यक्ति के सैकड़ों जन्मों का
कर्मफल, पीठ पर बँधा हुआ है। एक मुहूर्त भर श्मशानवैराग्य हुआ नहीं कि बस
कहने लगे, 'कहाँ, मुझे तो सब एक दिखायी नहीं पड़ता?''
मैंने कहा, ''स्वामी जी, आपकी यह बात सत्य होने पर तो Fatalism (अदृश्यवाद)
आ जाता है। यदि बहुत जन्मों का कर्मफल एक जन्म में जाने का नहीं, तो उसके
लिए फिर प्रयत्न ही क्यों ! जब सभी को मुक्ति मिलेगी, तो मुझे भी मिलेगी।''
वे बोले, ''वैसा नहीं है। कर्म का फल तो अवश्य भोगना होगा, किंतु अनेक उपायों
द्वारा ये सब कर्मफल बहुत थोड़े समय के भीतर समाप्त हो सकते हैं। मैजिक
लैन्टर्न की पचास तस्वीरें दस मिनट के भीतर भी दिखायी जा सकती हैं, और
दिखाते-दिखाते समस्त रात भी काटी जा सकती है। यह तो अपने आग्रह के ऊपर निर्भर
है।''
सृष्टि-रहस्य के संबंध में भी स्वामी जी की व्याख्या अति सुंदर
है-''सृष्ट वस्तु मात्र की चेतन और अचेतन (सुविधा के लिए) इन दो भागों में
विभक्त है। मनुष्य सृष्ट वस्तु के चेतन-भाग का श्रेष्ठ प्राणीविशेष है।
किसी किसी धर्म के मतानुसार ईश्वर ने अपने ही समान रूपवाली सर्वश्रेष्ठ मानव
जाति का निर्माण किया है; कोई कहते हैं-मनुष्य पुच्छरहित वानरविशेष है; कोई
कहते हैं-केवल मनुष्य में ही विवेचना-शक्ति हैं, उसका कारण यह है कि मनुष्य
के मस्तिष्क में जल का अंश अधिक है। जो भी हो, मनुष्य प्राणीविशेष है और सब
प्राणी सृष्ट पदार्थ के अंश मात्र हैं, इस विषय में मतभेद नहीं है। अब एक ओर
पाश्चात्य विद्वान् 'सृष्ट पदार्थ क्या है', यह समझने के लिए
संश्लेषण-विश्लेषणात्मक उपायों का अवलंबन कर 'यह क्या', 'वह क्या', इस
प्रकार अनुसंधान करने लगे; और दूसरी ओर हमारे पूर्वज लोग भारत की गर्म हवा और
उर्वरा भूमि में, शरीर-रक्षा के लिए बिल्कुल थोड़ा समय देकर, कौपीन धारण कर,
टिमटिमाते दिए के प्रकाश में बैठकर, कमर बाँधकर विचार करने लगे- कस्मिन् विज्ञाते सर्वमिदं विज्ञातं भवति, अर्थात् 'ऐसा
कौन सा पदार्थ है, जिसके जान लेने पर सब कुछ जाना जा सकता है ?' उन लोगों में
अनेक प्रकार के लोग थे। इसीलिए चार्वाक के, 'जो कुछ दिखता है, वही सत्य है',
इस मत (ultra-materialistic theory) से लेकर शंकराचार्य के अद्वैत मत तक सभी
हमारे धर्म में पाए जाते हैं। ये दोनों ही दल धीरे-धीरे एक स्थान में पहुँच
रहे हैं और अब दोनों ने एक ही बात कहनी आरंभ कर दी हैं। दोनों ही कहते हैं-इस
ब्रह्मांड के सभी पदार्थ एक अनिर्वचनीय, अनादि, अनंत वस्तु के प्रकाश मात्र
हैं। देश एवं काल भी वही हैं। काल अर्थात् युग, कल्प, वर्ष, मास, दिन और
मुहूर्त आदि समयसूचक काल, जिसके अनुभव में सूर्य की गति ही हमारी प्रधान सहायक
है। जरा सोचकर तो देखो, वह काल क्या मालूम होता है ? सूर्य अनादि नहीं है;
ऐसा समय अवश्य था, जब सूर्य की सृष्टि नहीं हुई थी। और ऐसा समय भी आएगा, जब
यह सूर्य नहीं रहेगा; यह निश्चित है। अत: अखंड समय एक अनिर्वचनीय भाव या
वस्तु विशेष के अतिरिक्त भला और क्या है ? देश या आकाश कहने पर हम लोग
पृथ्वी अथवा सौर जगत संबंधी सीमाबद्ध स्थानविशेष समझते हैं; किंतु वह तो
समग्र सृष्टि का अंश मात्र छोड़ और कुछ भी नहीं है। ऐसा भी स्थान ही सकता है,
जहाँ पर कोई सृष्ट वस्तु नहीं है। अतएव अनंत देश भी काल के समान एक
अनिर्वचनीय भाव या वस्तुविशेष है। अब, सौर जगत् और सृष्ट पदार्थ कहाँ से और
किस तरह आए ? साधारणत: हम लोग कर्ता के अभाव में क्रिया नहीं देख पाते। अतएव
समझते हैं कि इस सृष्टि का अवश्य कोई कर्ता है; किंतु ऐसा होने पर तो
सृष्टिकर्ता का भी कोई सृष्टिकर्ता आवश्यक है। किंतु वैसा ही नहीं सकता। अतएव
आदि कारण, सृष्टिकर्ता या ईश्वर भी अनादि, अनिर्वचनीय अनंत भाव या
वस्तुविशेष है। पर अनंत की अनेकता तो संभव नहीं है, अतएवं ये सब अनंत
वस्तुएँ एक ही हैं एवं एक ही विविध रूपों में प्रकाशित हैं।''
एक समय मैंने पूछा था, ''स्वामी जी, मंत्र आदि में जो साधारणतया विश्वास
प्रचलित है, वह क्या सत्य है ?''
उन्होंने उत्तर दिया, ''सत्य न होने का कोई कारण तो दिखता नहीं। तुमसे कोई
यदि करुण स्वर एवं मधुर भाषा में कोई बात पूछे, तो तुम संतुष्ट होते हो, पर
कठोर स्वर एवं तीखी भाषा में पूछे, तो तुम्हें क्रोध आ जाता है। तब फिर भला
प्रत्येक भूत के अधिष्ठाता देवता सुललित उत्तम श्लोकों द्वारा क्यों न
संतुष्ट होंगे ?''
इन सब बातों को सुनकर मैंने कहा, ''स्वामी जी, मेरी विद्या-बुद्धि की दौड़ को
तो आप अच्छी तरह समझ सकते हैं। इस समय मेरा क्या कर्तव्य है, यह आप बतलाने
की कृपा करें।''
स्वामी जी ने कहा, ''जिस प्रकार भी हो, पहले मन को वश में लाने की चेष्टा
करो, बाद में सब आप ही हो जाएगा। ध्यान रखो, अद्वैत ज्ञान अत्यंत कठिन है;
वहीं मानव-जीवन का चरम उद्देश्य या लक्ष्य है, किंतु उस लक्ष्य तक पहुँचने
के पहले अनेक चेष्टा और आयोजन की आवश्यकता होती है। साधु-संग और यथार्थ
वैराग्य को छोड़ उसके अनुभव का और कोई साधन नहीं।''
स्वामी जी की अस्फुट स्मृति
[3]
1
आज से सोलह वर्ष पहले की बात है। सन् 1897 ईस्वी, फ़रवरी मास। स्वामी
विवेकानन्द ने पाश्चात्य देशों को जीतकर अभी-अभी भारत में पदार्पण किया है।
जिस क्षण से स्वामी जी ने शिकागो धर्म-महासभा में हिंदू धर्म की विजय-पताका
फहरायी है, तब से उनके संबंध में जो भी बात संवाद-पत्रों में प्रकाशित होती
है, बड़े चाव से पढ़ता हूँ। कॉलेज छोड़े अभी दो-तीन वर्ष हुए हैं, किसी प्रकार
का अर्थोपार्जन आदि नहीं कर रहा हूँ इसलिए कभी मित्रों के घर जाकर, अथवा कभी
घर के समीपवर्ती धर्मतला मुहल्ले में 'इंडियन मिरर' आफिस के बाहरी भाग में
बोर्ड पर चिपकी हुई 'इंडियन मिरर' पत्रिका में स्वामी जी से संबंधित जो कोई
संवाद या उनका व्याख्यान प्रकाशित होता है, उसे बड़ी उत्सुकता से पढ़ा करता
हूँ। इस प्रकार, स्वामी जी के भारत में पदार्पण करने के समय से सिंहल या
मद्रास में जो कुछ उन्होंने कहा है, प्राय: सभी पढ़ चुका हूँ। इसके सिवाय
आलमबाजार मठ में जाकर उनके गुरुभाइयों के पास एवं मठ में आने-जानेवाले मित्रों
के पास उनके विषय में बहुत सी बातें सुन चुका हूँ और सुनता हूँ, तथा विभिन्न
संप्रदायों के मुखपत्र, जैसे-बंगवासी, अमृतबाजार, होप, थियोसॉफिस्ट प्रभृति,
अपनी-अपनी समझ के अनुसार-कोई व्यंग्य से, कोई उपदेश देने के बहाने, तो कोई
बड़प्पन के ढंग से -उनके बारे में जो कुछ लिखता है, वह भी लगभग सब पढ़ चुका
हूँ।
आज वे ही स्वामी विवेकानन्द सियालदह स्टेशन पर अपनी जन्मभूमि कलकत्ता नगरी
में पदार्पण करेंगे। अब आज उनकी श्री मूर्ति के दर्शन से आँख-कान का विवाद
समाप्त हो जाएगा, इस हेतु बड़े तड़के ही उठकर सियालदह स्टेशन पर जा उपस्थित
हुआ। इतने सवेरे से ही स्वामी जी की अभ्यर्थना के लिए बहुत से लोग एकत्र हो
गए हैं। अनेक परिचित व्यक्तियों से भेंट हुई। स्वामी जी के संबंध में बातचीत
होने लगी। देखा, अंग्रेजी में मुद्रित दो परचे वितरित किए जा रहे हैं। पढ़कर
मालूम हुआ कि इंग्लैंड और अमेरिकावासी उनके छात्रवृंद ने उनके प्रस्थान के
अवसर पर उनके गुणों का वर्णन करते हुए, उनके प्रति कृतज्ञतासूचक जो दो
अभिनंदन-पत्र अर्पित किए थे, वे ही ये हैं। धीरे-धीरे स्वामी जी के
दर्शनार्थी लोग झुंड के झुंड आने लगे। प्लेटफार्म लोगों से भर गया। सभी आपस
में एक दूसरे से उत्कंठा के साथ पूछते हैं, 'स्वामी जी के आने में और कितना
विलंब है ?' सुना गया, वे एक 'स्पेशल ट्रेन' से आएंगे, आने में अब और देरी
नहीं है। अरे, यह तो है-गाड़ी का शब्द सुनायी दे रहा है ! क्रमश: आवाज के साथ
गाड़ी ने प्लेटफार्म के भीतर प्रवेश किया।
स्वामी जी जिस डिब्बे में थे, वह जिस जगह आकर रूका, सौभाग्य से मैं ठीक
उसी के सामने खड़ा था। गाड़ी रुकते ही देखा, स्वामी जी खड़े हाथ जोड़कर सबको
नमस्कार कर रहे हैं। इस एक ही नमस्कार से स्वामी जी ने मेरे हृदय को
आकृष्ट कर लिया। उस समय गाड़ी में बैठे हुए स्वामी जी की मूर्ति को मैंने
साधारणत: देख लिया। उसके बाद स्वागत-समिति के श्रीयुत नरेन्द्रनाथ सेन आदि
व्यक्तियों ने आकर स्वामी जी को गाड़ी से उतारा और कुछ दूर खड़ी एक गाड़ी
में बिठाया। बहुत से लोग स्वामी जी को प्रणाम करने और उनकी चरण रेणु लेने के
लिए अग्रसर हुए। उस जग बड़ी भीड़ जमा हो गयी। इधर दर्शकों के हृदय से आप ही
'जय स्वामी विवेकानन्द जी की जय', 'जय श्री रामकृष्ण देव की जय' की
आनंद-ध्वनि निकलने लगी। मैं भी हृदय से उस आनंद-ध्वनि मे सहयोग देकर जनता के
साथ अग्रसर होने लगा। क्रमश: जब स्टेशन के बाहर निकले, तो देखा बहत से युवक
स्वामी जी की गाड़ी के घोड़े खोलकर खुद ही गाड़ी खींचने के लिए अग्रसर हो रहे
हैं। मैंने भी उन लोगों को सहयोग देना चाहा, परंतु भीड़ के कारण वैसा न कर
सका। इसलिए उस चेष्टा को छोड़कर कुछ दूर से स्वामी जी की गाड़ी के साथ चलने
लगा। स्टेशन पर स्वामी जी के स्वागतार्थ आए हुए एक हरिनाम-संकीर्तन-दल को
देखा था। रास्ते में एक बैंड बजानेवाले दल को बैंड बजाते हुए स्वामी जी के
साथ चलते देखा। रिपन कॉलेज तक का मार्ग अनेक प्रकार की पताकाओं एवं लता, पत्र
और पुष्पों से सुसज्जित था। गाड़ी आकर रिपन कॉलेज के सामने खड़ी हुई। इस बार
स्वामी जी को देखने का अच्छा सुयोग मिला। देखा, वे किसी परिचित व्यक्ति से
कुछ कह रहे हैं। मुख तप्तकांचनवर्ण हैं, मानो ज्योति फूटकर बाहर निकल रही
है। मार्गजनित श्रम के कारण कुछ पसीना आ रहा है। दो गाड़ियाँ हैं-एक में
स्वामी जी एवं श्रीमान और श्रीमती सेवियर बैठे हैं, जिसमें खड़े होकर माननीय
चारूचंद्र मित्र हाथ के इशारे में जनता को नियंत्रित कर रहे हैं; और दूसरी
गाड़ी में गुडविन, हैरिसन (सिंहल से स्वामी जी के साथ आए हुए बौद्ध
धर्मावलंबी एक साहब), जी. जी. किडी और आलासिंगा नामक तीन मद्रासी शिष्य एवं
स्वामी त्रिगुणातीतानंद जी बैठे हुए हैं।
थोड़ी देर गाड़ी रुकने के बाद, बहुतों के अनुरोधवश स्वामी जी रिपन कॉलेज में
प्रवेश कर दो-तीन मिनट अंग्रेज़ी में थोड़ा बोले और लौटकर गाड़ी में आकर बैठ
गए। यहाँ से जुलूस आगे नहीं गया। गाड़ी बागबाजार में पशुपति बाबू के घर की ओर
चली। मैं भी मन ही मन स्वामी जी को प्रणाम कर अपने घर की और लौटा।
2
भोजन करने के बाद मध्याह्न काल में चाँपातला मुँहल्ले में खगेन (स्वामी
विमलानन्द) के घर गया। वहाँ से खगेन और मैं उसके टाँगे में बैठकर पशुपति बोस
के घर की ओर चले। स्वामी जी ऊपर के कमरे में विश्राम कर रहे थे, अधिक लोगों
को नहीं जाने दिया जा रहा था। सौभाग्यवश हमारे परिचित, स्वामी जी के अनेक
गुरुभाइयों से भेंट हो गयी। स्वामी शिवानन्द जी हम लोगों को स्वामी जी के
पास ले गए और हम लोगों का परिचय देते हुए कहा, ''ये सब आपके खूब Admirers
(प्रेमी) है।''
स्वामी जी और स्वामी योगानन्द पशुपति बाबू के घर की दूसरी मंजिल पर एक
सुसज्जित बैठकखाने में पास पास दो कुर्सियों पर बैठे थे। अन्य साधुगण
उज्ज्वल गैरिक वस्त्र धारण किए हुए इधर-उधर घूम रहे थे। फर्श पर दरी बिछी
हुई थी। हम लोग प्रणाम करके दरी पर बैठे। स्वामी जी उस समय स्वामी योगानन्द
से बातचीत कर रहे थे। अमेरिका और यूरोप में स्वामी जी ने क्या देखा, यह
प्रसंग चल रहा था। स्वामी जी कह रहे थे-
''देख योगेन, क्या देखा, बताऊँ ? समस्त पृथ्वी में एक महाशक्ति ही क्रीड़ा
कर रही है। हमारे पूर्वजों ने उसको Religion (धर्म) की ओर Manifest (प्रकाशित)
किया था, और आधुनिक पाश्चात्य देशीय लोग उसी को महा रजोगुणात्मक क्रिया के
रूप में Manifest (प्रकाशित) कर रहे हैं। वस्तुत: समग्र जगत में वही एक
महाशक्ति भिन्न-भिन्न रूप में क्रीड़ा कर रही है।''
खगेन की ओर देखकर स्वामी जी ने कहा, ''इस लड़के को बहुत Sickly (कमजोर) देखता
हूँ।''
स्वामी शिवानन्द जी ने उत्तर दिया, ''यह बहुत दिनों से chronic dyspepsia
(पुराने अजीर्ण रोग) से पीड़ित है।''
स्वामी जी ने कहा, ''हमारा बांग्ला देश बहुत sentimental (भावुक) है न, इसलिए
यहाँ इतना dyspepsia होता है।''
कुछ देर बाद हम लोग प्रणाम करके अपने अपने घर लौट आए।
3
स्वामी जी और उनके शिष्य श्रीमान और श्रीमती सेवियर काशीपुर में स्व.
गोपाललाल शील के बँगले में निवास कर रहे हैं। स्वामी जी के श्रीमुख से
कथा-वार्ता सुनने के लिए अपने बहुत से मित्रों के साथ मैं इस स्थान पर कई बार
गया था। वहाँ का प्रसंग जो कुछ स्मरण है, वह इस प्रकार है :
स्वामी जी के साथ मुझे वार्तालाप का सौभाग्य सर्वप्रथम उसी बँगले के एक कमरे
में हुआ। स्वामी जी आकर बैठे हैं, मैं भी जाकर प्रणाम करके बैठा हूँ, उस समय
वहाँ और कोई नहीं है। न जाने क्यों, स्वामी जी ने एकाएक मुझसे पूछा, ''क्या
तू तंबाकू पीता है ?''
मैंने कहा, ''जी नहीं।''
उस पर स्वामी जी बोले, ''हाँ, बहुत से लोग कहते हैं-तंबाकू पीना अच्छा
नहीं।''
एक दूसरे दिन स्वामी जी के पास एक वैष्णव आए हुए हैं। स्वामी जी उनके साथ
वार्तालाप कर रहे हैं। मैं कुछ दूर पर बैठा हूँ, ओर कोई नहीं है। स्वामी जी
कह रहे हैं, ''बाबा जी, अमेरिका में मैंने श्री कृष्ण के संबंध में एक बार
व्याख्यान दिया। उसको सुनकर एक परम सुंदरी, अगाध ऐश्वर्य की अधिकारिणी
युवती सर्वस्व त्यागकर, एक निर्जन द्वीप में जाकर श्री कृष्ण के ध्यान में
उन्मत्त हो गयी।'' उसके बाद स्वामी जी त्याग के संबंध में कहने लगे, ''जिन
संप्रदायों में त्याग-भाव का प्रचार उतने उज्ज्वल रूप में नहीं है, उनके
भीतर शीघ्र ही अवनति आ जाती है, जैसे- वल्लभाचार्य का संप्रदाय।''
और एक दिन स्वामी जी के पास गया। देखता हूँ, बहुत से लोग बैठे हैं और स्वामी
जी एक युवक को लक्ष्य कर वार्तालाप कर रहे हैं। युवक बंगाल थियोसॉफिकल
सोसायटी के भवन में रहता है। वह कर रहा है, ''मैं अनेक संप्रदायों में जाता
हूँ, किंतु सत्य क्या है, यह निर्णय नहीं कर पा रहा हूँ।''
स्वामी जी अत्यंत स्नेहपूर्ण स्वर में कह रहे हैं, ''देखो बच्चा, मेरी भी
एक दिन तुम्हारी जैसी अवस्था थी। फिर भय क्या ? अच्छा, भिन्न-भिन्न लोगों
ने तुमसे क्या क्या कहा था, और तुमने क्या-क्या किया, बताओ तो सही ?''
युवक कहने लगा, ''महाराज, हमारी सोसायटी में भवानीशंकर नामक एक विद्वान्
प्रचारक हैं। मूर्तिपूजा के द्वारा आध्यात्मिक उन्नति में जो विशेष सहायता
मिलती है, उसे उन्होंने मुझे बहुत सुंदर ढंग से। समझा दिया। मैंने भी तदनुसार
कुछ दिनों तक खूब पूजा-अर्चना की, किंतु उससे शांति नहीं मिली। उसी समय एक
महाशय ने मुझे उपदेश दिया-'देखो, मन को बिल्कुल शून्य करने की कोशिश करो,
उससे तुम्हें परम शांति मिलेगी।' मैं बहुत दिनों तक उसी कोशिश में लगा रहा,
किंतु उससे भी मेरा मन शांत न हुआ। महाराज, मैं अब भी एक कोठरी में, दरवाजा
बंद कर, जब तक बन पड़ता है, बैठा रहता हूँ, किंतु शांति तो किसी भी तरह नहीं
मिल रही है। क्या आप दया कर यह बता सकेंगे, शांति किससे मिलेगी ?''
स्वामी जी स्नेहभरे स्वर में कहने लगे, ''बच्चा, यदि तुम मेरी बात सुनो,
तो तुम्हें अब पहले अपनी कोठरी का दरवाज़ा खुला रखना होगा। तुम्हारे घर के
पास, बस्ती के पास कितने अभावग्रस्त लोग रहते हैं, उनकी तुम्हें यथासाध्य
सेवा करनी होगी। जो पीड़ित है, उसके लिए औषधि और पथ्य का प्रबंध करो और शरीर
के द्वारा उसकी सेवा-शुश्रूषा करो। जो भूखा है, उसके लिए खाने का प्रबंध करो।
तुमने तो इतना पढ़ा-लिखा है, अत: जो अज्ञानी है, उसे वाणी द्वारा जहाँ तक हो
सके, समझाओ। यदि तुम मेरा परामर्श मानो, तो इस प्रकार लोगों की यथासाध्य सेवा
करो। यदि तुम इस प्रकार कर सकोगे, तो तुम्हारे मन को अवश्य शांति मिलेगी।''
युवक बोला, ''अच्छा, महाराज, मान लीजिए, मैं एक रोगी की सेवा करने के लिए
गया; किंतु उसके लिए रात भर जगने से, समय पर भोजन आदि न करने तथा अधिक परिश्रम
से यदि मैं स्वयं ही रोगग्रस्त हो जाऊँ तो ?''
स्वामी जी अब तक उस युवक के साथ स्नेहपूर्ण स्वर में सहानुभूति के साथ
बातें कर रहे थे। इस अंतिम वाक्य से ऐसा जान पड़ा कि ये कुछ विरक्त से हो
गए। वे कुछ व्यंग्य-भाव से कह उठे, ''देखो जी, रोगी की सेवा करने के लिए जाने
पर तुम अपने रोग की आशंका कर रहे हो किंतु तुम्हारी बातचीत सुनने पर और
तुम्हारा मनोभाव देखने पर मुझे तो मालूम पड़ता है-और जो यहाँ उपस्थित हैं, वे
भी खूब अच्छी तरह समझ सकते हैं-कि तुम ऐसे रोगी की सेवा कभी भी नहीं करोगे,
जिससे तुम्हें खुद को ही रोग हो जाय।''
युवक के साथ और कोई विशेष बातचीत नहीं हुई। हम लोग समझ गए, यह व्यक्ति 'कैची'
श्रेणी का है; अर्थात् जैसे कैंची जो कुछ भी मिले, उसी को काट देती है, उसी
प्रकार एक श्रेणी के मनुष्य हैं, जो कोई सदुपदेश सुनने से ही उसमें त्रुटि
निकालते हैं, जिनकी निगाह इन उपदिष्ट विषयों में दोष देखने के लिए बड़ी पैनी
रहती है। ऐसे लोगों से चाहे कितनी ही अच्छी बात क्या। क्यों न कहिए, सभी की
बात वे तर्क द्वारा काट देते हैं।
एक दूसरे दिन मास्टर महाशय (श्री रामकृष्ण वचनामृत के प्रणेता श्री 'म') के
साथ वार्तालाप हो रहा है। मास्टर महाशय कर रहे हैं, ''देखो, तुम जो दया,
परोपकार और जीव-सेवा आदि की बातें करते हो, वे तो माया के राज्य की बातें
हैं। जब वेदांत-मत में मानव का चरम लक्ष्य मुक्ति-लाभ और माया-बंधन का
विच्छेद है, तो फिर उन सब माया-व्यापारों में लिप्त होकर लोगों को दया,
परोपकार आदि विषयों का उपदेश देने में क्या लाभ ?''
स्वामी जी ने तत्क्षण उत्तर दिया, "मुक्ति भी क्या माया के अंतर्गत नहीं ?
आत्मा तो नित्य मुक्त है, फिर उसकी मुक्ति के लिए चेष्टा क्यों ?''
मास्टर महाशय चुप हो गए।
मैं समझ गया, मास्टर महाशय दया, सेवा, परोपकार आदि सब छोड़कर, सभी प्रकार के
अधिकारियों के लिए केवल जप-तप, ध्यान-धारणा या भक्ति का ही एकमात्र साधन के
रूप में समर्थन कर रहे थे; किंतु स्वामी जी के मतानुसार, एक प्रकार के
अधिकारियों के लिए इन सबका अनुष्ठान जिस तरह मुक्ति-लाभ के लिए आवश्यक हैं,
उसी प्रकार ऐसे भी बहुत से अधिकारी हैं, जिनके लिए परोपकार, दान, सेवा आदि
आवश्यक हैं। एक को उड़ा देने से दूसरे को भी उड़ा देना होगा, एक को स्वीकार
करने पर दूसरे को भी स्वीकार करना पड़ेगा। स्वामी जी के इस प्रत्युत्तर से
यह बात अच्छी तरह समझ में आ गयी कि मास्टर महाशय दया, सेवा आदि को 'माया'
शब्द से उड़ाकर और जप-ध्यान आदि को ही मुख्य रखकर संकीर्ण भाव का परिपोषण
कर रहे थे। परंतु स्वामी जी का उदार हृदय और छुरे की धार के समान उनकी
तीक्ष्ण बुद्धि उसे सहन न कर सकी। अपनी अद्भुत युक्ति से उन्होंने मुक्ति-लाभ
की चेष्टा को भी माया के अंतर्गत ही निर्धारित किया एवं दया, सेवा आदि के साथ
उसको एक श्रेणी में लाकर उन्होंने कर्मयोग के पथिक को भी आश्रय दिया।
थॉमस-ए-केम्पिस के 'ईसा-अनुसरण' (Imitation of Christ) का प्रसंग उठा। बहुत से
लोग जानते होंगे कि स्वामी जी संसार-त्याग करने से कुछ पहले इस ग्रंथ की
विशेष रूप से चर्चा किया करते थो, और बराहनगर मठ में रहते समय उनके सभी
गुरुभाई उन्हीं के समान इस ग्रंथ को साधक-जीवन में विशेष सहायक समझकर सर्वदा
इस पर विचार किया करते थे। स्वामी जी इस ग्रंथ के इतने अनुरागी थे कि उस समय
के 'साहित्य-कल्पद्रुम' नामक मासिक पत्र में उसकी एक प्रस्तावना लिखकर
उन्होंने 'ईसा-अनुसरण' नाम से उसका सुंदर अनुवाद करना भी आरंभ कर दिया था।
प्रस्तावना पढ़ने से ही यह मालूम हो जाता है कि स्वामी जी इस ग्रंथ तथा
ग्रंथकार को कितनी गंभीर श्रद्धा से देखते थे। वास्तव में, उसमें विवेक,
वैराग्य, दीनता, दास्य, भक्ति आदि के ऐसे सैकड़ों ज्वलंत उपदेश हैं कि जो
उसे पढ़ेंगे, उनके हृदय में वे भाव कुछ न कुछ अवश्य उद्दीपित होंगे। उपस्थित
व्यक्तियों में से एक सज्जन यह जानने के लिए कि स्वामी जी का इस समय उस
ग्रंथ के प्रति कैसा भाव है, उस ग्रंथ में वर्णित दीनता के उपदेश का प्रसंग
उठाते हुए बोले, ''अपने को इस प्रकार अत्यंत हीन समझे बिना आध्यात्मिक
उन्नति कैसे हो सकती है ?'' स्वामी जी यह सुनकर कहने लगे, ''हम लोग हीन कैसे
? हम लोगों के लिए अंधकार कहाँ ? हम लोग तो ज्योति के राज्य में वास करते
हैं, हम लोग तो ज्योति के तनय हैं !''
उनका इस प्रकार प्रत्युत्तर सुनकर मैं समझ गया कि स्वामी जी उक्त
ग्रंथनिर्दिष्ट इन प्राथमिक साधन-सोपानों को पारकर साधना-राज्य की कितनी
उच्च भूमि में पहुँच गए हैं।
हम लोग यह विशेष रूप से देखते थे कि संसार की अत्यंत सामान्य घटनाएँ भी उकनी
तीक्ष्ण दृष्टि को धोखा नहीं दे सकती थी। वे उन घटनाओं की सहायता से भी उच्च
धर्मभाव का प्रचार करने की चेष्टा करते थे।
श्री रामकृष्ण देव के भतीजे श्रीयुत रामलाल चट्टोपाध्याय (मठ के पुराने
साधुगण, जिन्हें रामलाल दादा कहकर पुकारते हैं ) दक्षिणेश्वर से एक दिन
स्वामी जी से मिलने आए। स्वामी जी ने एक कुर्सी मँगवाकर उनसे बैठने के लिए
अनुरोध किया और स्वयं टहलने लगे। श्रद्धाविनम्र दादा इससे कुछ संकुचित होकर
कहने लगे, ''आप बैठें, आप बैठें।'' पर स्वामी जी उन्हें किसी तरह छोड़नेवाले
नहीं थे। बहुत कह-सुनकर दादा को कुर्सी पर बिठाया और स्वयं टहलते-टहलते कहने
लगे, ''गुरुवत् गुरुपुत्रेषु।'' (गुरु के पुत्र एवं संबंधियों के साथ गुरु
जैसा ही व्यवहार करना चाहिए) मैंने देखा, इतना ऐश्वर्य, इतना मान पाकर भी
हमारे स्वामी जी को थोड़ा सा भी अभिमान नहीं हुआ है। यह भी समझा, गुरुभक्ति
इसी तरह की जाती है।
बहुत से छात्र आए हुए हैं। स्वामी जी एक कुर्सी पर बैठे हुए हैं। सभी उनके
पास बैठकर उनकी दो-चार बातें सुनने के लिए उत्सुक हैं। वहाँ पर और कोई आसन
नहीं है, जिस पर स्वामी जी लड़कों से बैठने को कह सकें; इसलिए उन लोगों को
भूमि पर बैठना पड़ा। ऐसा ज्ञात हुआ कि स्वामी जी मन में सोच रहे हैं, यदि
इनके बैठने के लिए कोई आसन होता, तो अच्छा है। किंतु ऐसा लगा कि दूसरे ही
क्षण उनके हृदय में दूसरा भाव उत्पन्न हो गया। वे बोल उठे, "सो ठीक है, तुम
लोग ठीक बैठे हो, थोड़ी-थोड़ी तपस्या करना भी ठीक है।"
एक दिन अपने मुँहल्ले के चंडीचरण बर्धन को साथ लेकर मैं स्वामी जी के पास
गया। चंडी बाबू 'हिंदू ब्वायेज' स्कूल' नामक एक संस्था के मालिक थे। वहाँ
अंग्रेज स्कूल की तृतीय श्रेणी तक पढ़ाया जाता था। वे पहले से ही खूब
ईश्वरानुरागी थे, बाद में स्वामी जी की वक्तृता आदि पढ़कर उनके प्रति
अत्यंत श्रद्धालु हो गए। पहले कभी-कभी धर्म-साधना के लिए व्याकुल हो संसार
परित्याग करने की भी उन्होंने चेष्टा की थी, किंतु उसमें सफल नहीं हो सके।
कुछ दिन शौक के लिए थियेटर में अभिनय आदि एवं एकाध नाटक की रचना भी की थी। ये
भावुक व्यक्ति थे। विख्यात प्रजातंत्रवादी एडवर्ड कारपेंटर जब भारत भ्रमण कर
रहे थे, उस समय उनके साथ चंडी बाबू का परिचय और बातचीत हुई थी। उन्होंने
'एडम्स पीक टु एलिफ़ेन्टा' नामक अपने ग्रंथ में चंडी बाबू के साथ हुए
वार्तालाप का संक्षिप्त विवरण और उनका एक चित्र भी दिया था।
चंडी बाबू आकर भक्ति-भाव से स्वामी जी को प्रणाम कर पूछने लगे, ''स्वामी जी,
किस प्रकार के व्यक्ति को गुरु बनाना चाहिए ?''
स्वामी जी -"जो तुम्हें तुम्हारा भूत-भविष्य बतला सके, वही तुम्हारा गुरु
है। देखो न, मेरे गुरु ने मेरा भूत-भविष्य सब बतला दिया था।"
चंडी बाबू ने पूछा, "अच्छा स्वामी जी, कौपीन पहनने से क्या काम-दमन में कुछ
विशेष सहायता मिलती है।"
स्वामी जी-"थोड़ी-बहुत सहायता मिल सकती है। किंतु इस वृत्ति के प्रबल हो उठने
पर कौपीन भी भला क्या करेगा ? जब तक मन भगवान् में तन्मय नहीं हो जाता, तब
तक किसी भी बाह्य उपाय के काम पूर्णतया रोका नहीं जा सकता। फिर भी बात क्या
है जानते हो, जब तक मनुष्य उस अवस्था को पूर्णतया लाभ नहीं कर लेता, तब तक
अनेक प्रकार के बाह्य उपायों के अवलंबन की चेष्टा स्वभावत: ही किया करता
है।"
ब्रह्मचर्य के संबंध में चंडी बाबू स्वामी जी से बहुत से प्रश्न पूछने लगे।
स्वामी जी भी बड़े सरल ढंग से सभी प्रश्नों कर उत्तर देने लगे। चंडी बाबू
धर्म-साधना के लिए आंतरिक भाव से प्रयत्न करते थे, किंतु गृहस्थ होने के
कारण इच्छानुसार नहीं कर पाते थे। यद्यपि उनकी यह दृढ़ धारणा थी कि
ब्रह्मचर्य धर्म-साधन के लिए अत्यंत प्रयोजनीय है, तथापि वे पूर्ण रूप में
उसका अनुष्ठान नहीं कर पाते थे। वे सर्वदा लड़कों को लेकर अध्यापन-कार्य में
ही लगे रहते थे, इसलिए धर्म-साधन और सत्-शिक्षा के अभाव एवं कुसंगति के कारण
अत्यंत अल्प अवस्था में ही उन लोगों का ब्रह्मचर्य किस तरह नष्ट हो जाता
है, इसे वे अच्छी तरह जानते थे, और किस उपाय से उसे रोका जाय, इसकी शिक्षा उन
बच्चों को देने के लिएवे सर्वदा प्रयत्नशील रहते थे। किंतु स्वयंसिद्ध: कथं परान् साधयेत् अर्थात् 'स्वयं असिद्ध
होकर दूसरों को कैसे सिद्ध किया जा सकता है!' अतएव किसी भी तरह अपने या दूसरे
के भीतर ब्रह्मचर्य-भाव को प्रविष्ट करने में असमर्थ हो समय समय पर वे अत्यंत
दु:खित हो जाते थे। इस समय परम ब्रह्मचारी स्वामी जी की ज्वलंत उपदेशावली और
ओजस्विनी वाणी सुनकर अकस्मात् उनके हृदय में यह भाव उचित हुआ कि ये
महापुरुष एक बार इच्छा करने पर मेरे तथा बालकों के भीतर उस प्राचीन
ब्रह्मचर्य भाव को निश्चित ही उद्दीप्त कर सकते हैं। पहले ही कहा जा चुका है
कि ये एक भावुक व्यक्ति थे। वे एकाएक पूर्वोक्त रूप से उत्तेजित हो अंग्रेज़ी
में चिल्लाकर बोल उठे, "Oh Great Teacher ! tear up the veil of hypocrisy
and teach the world the one thing needful-how to conquer lust." अर्थात्
''हे आचार्यवर, जिस कपटता के आवरण से अपने यथार्थ स्वभाव को छिपाकर हम लोग
दूसरों के निकट अपने को शिष्ट, शांत या सभ्य बतलाने की चेष्टा करते हैं,
उसे आप अपनी दिव्य शक्ति के बल से छिन्न करके दूर कर दें एवं लोगों के भीतर
जो घोर कामप्रवृत्ति विद्यमान है, उसका जिससे समूल विनाश हो, वैसी शिक्षा
दें।"
स्वामी जी ने चंडी बाबू को शांत और आश्वस्त किया।
बाद में एडवर्ड कारपेंटर का प्रसंग उपस्थित हुआ। स्वामी जी ने कहा, "लंदन में
ये बहुधा मेरे पास आते रहते थे। और भी बहुत से समाजवादी, प्रजातंत्रवादी आदि
आया करते थे। वे सब वेदांतोक्त धर्म में अपने मत की पोषकता उसके प्रति विशेष
आकृष्ट होते थे।"
स्वामी जी उक्त कारपेंटर साहब की 'एडम्ब पीक टु एलिफेन्टा' नामक पुस्तक
पढ़ चुके थे। इसी समय उक्त पुस्तक में दी हुई चंडी बाबू की तस्वीर उन्हें
याद आयी; वे बाले, ''आपका चेहरा तो पुस्तक में पहले ही देख चुका हूँ।'' और भी
कुछ देर बातचीत करने के बाद संध्या हो जाने के कारण स्वामी जी विश्राम के लिए
उठे। उठने के समय चंडी बाबू को संबोधित करके बोले, ''चंडी बाबू आप तो बहुत से
लड़कों के संसर्ग में आते हैं। क्या आप मुझे कुछ सुंदर सुंदर लड़के दे सकते
हैं ?" शायद चंडी बाबू कुछ अन्यमनस्क थे। स्वामी जी के कथन का संपूर्ण मर्म
न समझ सकने के कारण वे जब विश्रामघर में प्रवेश कर रहे थे, तब आगे बढ़कर उनके
पास आकर चंडी बाबू बोले, ''सुंदर लड़कों की आप क्या बात कर रहे थे ?"
स्वामी जी ने कहा, ''जिनकी मुखाकृति सुंदर हो, ऐसे लड़के मैं नहीं चाहता-मैं
तो चाहता हूँ, खूब स्वस्थ शरीर, कर्मठ एवं सत्प्रकृतियुक्त कुछ लड़के।
उन्हें train करना (शिक्षा देना) चाहता हूँ, जिससे वे अपनी मुक्ति के लिए और
जगत् के कल्याण के लिए प्रस्तुत हो सकें।''
और एक दिन जाकर देखा, स्वामी जी टहल रहे हैं, श्रीयुत शरच्चन्द्र चक्रवर्ती
('स्वामी-शिष्य-संवाद नामक' पुस्तक के रचयिता) स्वामी जी के साथ खूब
घनिष्ठ भाव से बातें कर रहे हैं। स्वामी जी से एक प्रश्न पूछने की हमें
अत्यधिक उत्कण्ठा हुई। प्रश्न यह था-अवतार और मुक्त या सिद्ध पुरुष में
क्या अंतर है ? हमने शरत बाबू से स्वामी जी के सम्मुख इस प्रश्न को उठाने
के लिए विशेष अनुरोध किया। अत: उन्होंने स्वामी जी से यह प्रश्न पूछा। हम
लोग शरत् बाबू के पीछे पीछे यह सुनने के लिए गए कि देखें, स्वामी जी इस
प्रश्न का क्या उत्तर देते हैं। स्वामी जी उस प्रश्न के संबंध में बिना
कोई प्रकट उत्तर दिए कहने लगे, "विदेह-मुक्त ही सर्वोच्च अवस्था है-यही
मेरा सिद्धांत हैं। जब मैं साधनावस्था में भारत के अनेक स्थानों में भ्रमण कर
रहा था, उस समय कितनी निर्जन गुफाओं में अकेले बैठकर कितना समय बिताया है,
मुक्ति प्राप्त नहीं हुई, यह सोचकर कितनी बार प्रायोपवेशन द्वारा देह त्याग
देने का भी संकल्प किया है, कितना ध्यान, कितना साधन-भजन किया है ! किंतु अब
मुक्ति-लाभ के लिए वह 'विजातीय' आग्रह नहीं रहा। इस समय तो मन में केवल यही
होता है कि जब तक पृथ्वी पर एक भी मनुष्य अमुक्त है, तब तक मुझे अपनी
मुक्ति की कोई आवश्यकता नहीं !''
मैं तो स्वामी जी की उक्त वाणी सुनकर उनके हृदय की अपार करुणा की बात सोचकर
विस्मित हो गया और सोचने लगा, इन्होंने क्या अपना दृष्टांत देकर अवतार
पुरुषों का लक्षण समझाया है ? क्या ये भी एक अवतार हैं ? सोचा, स्वामी जी अब
मुक्त हो गए हैं, इसीलिए मालूम होता है, उन्हें अपनी मुक्ति के लिए अब आग्रह
नहीं है।
और एक दिन संध्या के बाद मैं और खगेन (स्वामी विमलानन्द) स्वामी जी के पास
गए। हरमोहन बाबू (श्री रामकृष्ण देव के भक्त) हम लोगों को स्वामी जी के साथ
विशेष रूप से परिचित कराने के लिए बोले, ''स्वामी जी, ये दोनों आपके खूब
admirers (प्रशंसक) हैं, और वेदांत का अध्ययन भी खूब करते हैं।'' हरमोहन बाबू
के वाक्य का प्रथम अंश संपूर्ण सत्य होने पर भी, द्वितीयांश कुछ अतिरंजित
था, क्योंकि हम लोगों ने उस समय केवल गीता का ही अध्ययन किया था। हम लोगों ने
वेदांत के छोटे-छोटे कुछ ग्रंथ और दो-एक उपनिषदों का अनुवाद एकाध बार देखा था,
परंतु इन सब शास्त्रों की हम लोगों ने विद्यार्थी के समान उत्तम रूप से
आलोचना नहीं की थी और न मूल संस्कृत ग्रंथों को भाष्य आदि की सहायता से पढ़ा
था। जो हो, स्वामी जी वेदांत की बात सुनकर बोल उठे, "उपनिषद् कुछ पढ़ा है ?"
मैंने कहा, "जी हाँ, थोड़ा बहुत देखा है।"
स्वामी जी ने पूछा, "कौन सा उपनिषद पढ़ा है ?"
मन के भीतर टटोलकर और कुछ न पाकर कह डाला, "कठोपनिषद पढ़ा है।"
स्वामी जी ने कहा, "अच्छा, कठ ही सुनाओं, कठोपनिषद खूब grand (सुंदर) है-
कवित्व से भरा है।"
क्या मुसीबत ! स्वामी जी ने शायद समझा कि मुझे कठोपनिषद् कंठस्थ है, इसीलिए
मुझसे सुनाने के लिए कहा। मैंने उसके संस्कृत मंत्रों को यद्यपि एकाध बार
देखा था, किंतु कभी भी अर्थानुसंधानपूर्वक पढ़ने और मुखाग्र करने की चेष्टा
नहीं की थी। सो बड़ी मुश्किल में पड़ गया। क्या करूँ ? इसी समय एक बात स्मरण
आयी। इसके कुछ वर्ष पहले से ही प्रत्यह नियमपूर्वक थोड़ा थोड़ा गीता का पाठ
किया करता था। इस कारण गीता के अधिकांश श्लोक मुझे कंठस्थ थे। सोचा, जैसे भी
हो, कुछ शास्त्रीय श्लोकों की आवृत्ति यदि न करूँ, तो फिर स्वामी जी को
मुँह दिखाते न बनेगा। अतएव बोल उठा, ''कंठ तो कंठस्थ नहीं है-गीता से कुछ
सुनाता हूँ।"
स्वामी जी बोले, "अच्छा, वही सही।"
तब गीत के ग्यारहवें अध्याय के अंतिम भाग से स्थाने हृषीकेश! तव प्रकीर्त्या से आरंभ
करके अर्जुनकृत संपूर्ण स्तव स्वामी जी को सुना दिया। स्वामी जी उत्साह
देते हुए, ''बहुत अच्छा, बहुत अच्छा,'' कहने लगे।
इसके दूसरे दिन मैं अपने मित्र राजेन्द्र घोष के पास गया। उससे मैंन कहा,
''भाई, कल उपनिषद् के कारण स्वामी जी के सम्मुख बड़ा लज्जित हुआ। तुम्हारे
पास यदि कोई उपनिषद् हो, तो जेब में लेते चलो। यदि कल की तरह उपनिषद् की बात
निकालेंगे, तो पढ़ने से ही हो जाएगा।'' राजेन्द्र के पास प्रसन्नकुमार
शास्त्रीकृत ईश-केन-कठ आदि उपनिषद् और उनके बंगानुवाद का एक गुटका संस्करण
था। उसे जेब में रखकर हम लोग स्वामी जी के दर्शनार्थ चले। आज अपराह्न में
स्वामी जी का कमरा लोगों से भरा हुआ था। जो सोचा था, वही हुआ। आज भी, यह तो
ठीक स्मरण नहीं कि कैसे, पर कठोपनिषद् का ही प्रसंग उठा। मैंने झट जेब से
उपनिषद् निकाला और उसे शुरू से पढ़ना आरंभ किया। पाठ के बीच में स्वामी जी
नचिकेता की श्रद्धा की कथा-जिस श्रद्धा के बल से वे निर्भीक चित्त से यम-सदन
जाने के लिए भी साहसी हुए थे-कहने लगे। जब नचिकेता के द्वितीय वर
स्वर्ग-प्राप्ति की कथा का पाठ प्रारंभ हुआ, तब स्वामी जी ने उस स्थल को
अधिक न पढ़कर कुछ-कुछ छोड़कर तृतीय वर का प्रसंग पढ़ने के लिए कहा।
नचिकेता के प्रश्न-मृत्यु के बाद लोगों का संदेह-शरीर छूट जाने पर कुछ रहता
है या नहीं;--उसके बाद यम का नचिकेता को प्रलोभन दिखाना और नचिकेता का दृढ़
भाव से उन सभी का प्रत्याख्यान-इन सब स्थलों का पाठ हो जाने के बाद स्वामी
जी ने अपनी स्वभाव-सुलभ ओजस्विनी भाषा में क्या क्या कहा-क्षीण स्मृति
सोलह वर्षों में उसका कुछ भी चिह्न न रख सकी।
किंतु इन दो दिनों के उपनिषद्-प्रसंग में स्वामी जी की उपनिषद् के प्रति
श्रद्धा और अनुराग का कुछ संश मेरे अंत:करण में भी संचरित हो गया, क्योंकि
उसके दूसरे ही दिन से जब कभी सुयोग पाता, परम श्रद्धा के साथ उपनिषद् पढ़ने की
चेष्टा करता था। और यह कार्य आज भी कर रहा हूँ। विभिन्न समय में उनके
श्रीमुख से उच्चरित, अपूर्व स्वर, लय और तेजस्विता के साथ पठित उपनिषद के एक
एक मंत्र मानो आज भी मेरे कानों में गूँज रहे हैं। जब परचर्चा में मग्न हो
आत्म-चर्चा भूल जाता हूँ, तो सुन पाता हूँ-उनके उस सुपरिचित किन्नरकंठ से
उच्चरित उपनिषद्-वाणी की दिव्य गंभीर घोषणा-
तमेवैकं जानथ आत्मानमन्या वाचो विमुत्र्चयामूतस्यैष सेतु:
[4]
--'एकमात्र उस आत्मा को ही पहचानो, अन्य सब बातें छोड़ दो-वही अमृत का सेतु
है।'
जब आकाश में घोर घटाएँ छा जाती हैं और दामिनी दमकने लगती है, उस समय मानो सुन
पाता हूँ-स्वामी जी उस आकाशस्थ सौदामिनी की ओर इंगित करते हुए कह रहे हैं-
न तत्र सूर्यो भाति न चंद्रतारकम्।
नेमा विद्युतो भान्ति कुतोऽयमग्नि:।
तमेव भान्तमनुभाति सर्वं।
तस्य भासा सर्वमिदं विभाति।।
[5]
-'वहाँ सूर्य भी प्रकाशित नहीं होता-चंद्रमा और तारे भी नहीं, ये सब विद्युत्
भी वहाँ प्रकाशित नहीं होती-फिर इस सामान्य अग्नि की भला बात ही क्या ? उनके
प्रकाशित होने से फिर सभी प्रकाशित होते हैं, उनका प्रकाश इन सबको प्रकाशित
करता है।'
पुन: जब तत्वज्ञान को असाध्य जान हृदय हताश हो जाता है, तब जैसे सुन पाता
हूँ-स्वामी जी आनन्दोत्फुल्ल हो उपनिषद् की आश्वासन देनेवाली इस वाणी की
आवृत्ति कर रहे हैं-
श्रृण्वन्तु विश्वे अमृतस्य पुत्रा
आ ये धामानि दिव्यनि तस्यु:।।
वेदाहमेतं पुरुषं महान्तम्
आदित्सवर्णं तमस: परस्तात्।।
तमेव विदित्वाऽति मृत्युमेति
नान्य: पन्था विद्यतेऽयनाय।।
[6]
-'हे अमृत के पुत्रो, हे दिव्यधामनिवासियों, तुम लोग सुनो। मैंने उस महान्
पुरुष को जान लिया है, जो आदित्य के समान ज्योतिर्मय और अज्ञानांधकार से
अतीत हैं। उसको जानने से ही लोग मृत्यु का अतिक्रमण करते हैं-मुक्ति का और
दूसरा कोई मार्ग नहीं।'
अस्तु, और एक दिन की घटना का विषय यहाँ पर संक्षेप में कहूँगा। इस दिन की
घटना का शरत् बाबू ने 'विवेकानन्द जी के संग में' नामक अपने ग्रंथ में
विस्तृत रूप से वर्णन किया है।
मैं उस दिन दोपहर में ही जा उपस्थित हुआ था। देखो, कमरे में बहुत से गुजराती
पंडित बैठे हैं, स्वामी जी उनके पास बैठकर धाराप्रवाह रूप से संस्कृत भाषा
में धर्मविषयक विचार कर रहे हैं। भक्ति-ज्ञान आदि अनेक विषयों की चर्चा हो रही
थी। इसी बीच हल्ला हो उठा। ध्यान देने पर समझा कि स्वामी जी संस्कृत भाषा
में बोले बोलते कोई एक व्याकरण की भूल कर गए। इस पर पंडितगण
ज्ञान-भक्ति-विवेक-वैराग्य आदि विषय की चर्चा छोड़कर इस व्याकरण की त्रुटि
को लेकर, 'हमने स्वामी जी को हरा दिया' यह कहते हुए खूब शोर-गुल मचा रहे हैं
और प्रसन्न हो रहे हैं। उस समय श्री रामकृष्ण देव की वह बात याद आ
गयी-'गिद्ध उड़ता तो खूब ऊपर है, किंतु उसकी दृष्टि रहती है मरे पशुओं पर !'
जो ही, स्वामी जी किंचित्त भी विचलित नहीं हुए और कहा, पण्डितानां दासोहं क्षतंव्यमेतत्स्खलनम्। थोड़ी देर के
बाद स्वामी जी उठ गए और पंडितगण गंगा जी में हाथ-मुँह धोने के लिए गए। मैं भी
बगीचे में घूमते घूमते गंगा जी के तट पर गया। वहाँ पंडितगण स्वामी जी के
संबंध में आलोचना कर रहे थे। सुना, वे कह रहे थे - "स्वामी जी उस प्रकार के
पंडित नहीं हैं, परंतु उनकी आँखों में एक मोहिनी शक्ति है। उसी शक्ति के बल से
उन्होंने अनेक स्थानों में दिग्विजय की है।"
सोचा, पंडितों ने तो ठीक ही समझा है। आँखों में यदि मोहिनी शक्ति न होती, तो
क्या यों ही इतने विद्वान्, धनी-मानी, प्राच्य-पाश्चात्य देश के विभिन्न
प्रकृति के स्त्री-पुरुष इनके पीछे पीछे दास के समान दौड़ते ! यह तो विद्या
के कारण नहीं, रूप के कारण नहीं, ऐश्वर्य के भी कारण नहीं - यह सब उनकी,
आँखों की उस मोहिनी शक्ति के ही कारण है।
पाठकगण ! आँखों में यह मोहिनी शक्ति स्वामी जी को कहाँ से मिली, इसे जानने का
यदि कौतूहल हो, तो अपने श्री गुरु के साथ उनके दिव्य संबंध एवं उनके अपूर्व
साधन-वृत्तांत पर श्रद्धा के साथ एक बार मनन करो - इसका रहस्य ज्ञात हो
जाएगा।
सन् १८९७, अप्रैल मास का अंतिम भाग। आलमबाजार मठ। अभी चार-पाँच दिन ही हुए
हैं, घर छोड़कर मठ में रह रहा हूँ। पुराने संन्यासियों में केवल स्वामी
प्रेमानंद, स्वामी निर्मलानंद और स्वामी सुबोधानंद हैं। स्वामी जी
दार्जिलिंग से आए - साथ में स्वामी ब्रह्मानंद, स्वामी योगानंद, स्वामी जी
के मद्रासी शिष्य आलसिंगा पेरूमल, किडी और जी. जी. आदि हैं।
स्वामी नित्यानंद, कुछ दिन हुए, स्वामी जी द्वारा संन्यासव्रत में दीक्षित
हुए हैं। इन्होंने स्वामी जी के कहा, "इस समय बहुत से नए-नए लड़के संसार
छोड़कर मठवासी हुए हैं, उनके लिए एक निर्दिष्ट नियम से शिक्षा-दान की
व्यवस्था करना अत्युत्तम होगा।"
स्वामी जी उनके अभिप्राय का अनुमोदन करते हुए बोले, "हाँ, हाँ, नियम बनाना तो
अच्छा ही है। बुलाओ सभी को।" सब आकर बड़े कमरे में जमा हुए। तब स्वामी जी ने
कहा, "कोई एक व्यक्ति लिखना शुरू करो, मैं बोलता जाता हूँ।" उस समय सब एक
दूसरे को ठेलकर आगे करने लगे - कोई अग्रसर नहीं होना चाहता था, अंत में मुझे
ढकेलकर आगे कर दिया। उस समय मठ में लिखाई-पढ़ाई के प्रति साधारणतया एक प्रकार
की उपेक्षा थी। यही धारणा प्रबल थी कि साधन-भजन करके भगवान् का साक्षात्कार
करना ही एकमात्र सार है; लिाने-पढ़ने से तो मान और यश की इच्छा होती है। जो
भगवान् के द्वारा आदिष्ट होकर प्रचार-कार्य आदि करेंगे, उनके लिए भले वह
आवश्यक हो, पर साधकों के लिए तो उसका कोई प्रयोजन नहीं है, उलटे वह हानिकारक
ही है। जो हो, मैं पहले ही कह चुका हूँ कि स्वभाव मैं जरा forward (अग्रिम)
और लापरवाह हूँ - मैं अग्रसर हो गया। स्वामी जी ने एक बार आकाश की ओर देखकर
पूछा, "यह क्या रहेगा ?'' (अर्थात् क्या मैं ब्रह्मचारी होकर वहाँ रहूँगा,
अथवा दो-एक दिन मठ में घूमने के लिए ही आया हूँ और बाद में चला जाऊँगा।)
संन्यासियों में से एक ने कहा, "हाँ।" तब मैंने कागज-कलम आदि ठीक से लेकर
गणेश का आसन ग्रहण किया। नियम लिखाने से पहले स्वामी जी कहने लगे, "देखो, हम
ये सब नियम बना तो रहे हैं, किंतु पहले हमें समझ लेना होगा कि इन नियमों के
पालन का मूल लक्ष्य क्या है। हम लोगों का मूल उद्देश्य है - सभी नियमों से
परे होना। तो भी, नियम बनाने का अर्थ यही है कि हममें स्वभावत: बहुत से
कुनियम हैं - सुनियमों के द्वारा उन कुनियमों को दूर कर देने के बाद हमें सभी
नियमों से परे जाने की चेष्टा करनी होगी। जैसे काँटे से काँटा को फेंक दिया
जाता है।"
उसके बाद स्वामी जी ने नियम लिखाने प्रारंभ किए। प्रात:काल और सायंकाल
जप-ध्यान, मध्याह्न विश्राम के बाद स्वस्थ होकर शास्त्र-ग्रंथों का
अध्ययन और अपराह्न सबको मिलकर एक अध्यापक के निकट किसी निर्दिष्ट
शास्त्र-ग्रंथ का श्रवण करना होगा- यह व्यवस्था हुई। प्रत्येक दिन प्रात:
और सायं थोड़ा-थोड़ा 'डेल्सर्ट' व्यायाम करना होगा, यह भी निश्चित हुआ। अंत
में लिखाना समाप्त कर स्वामी जी ने कहा, 'देख, इन नियमों को ज़रा देख-भालकर
अच्छी तरह प्रतिलिपि करके रख ले- देखना, यदि कोई नियम negative (निषेधवाचक)
भाव से लिखा गया हो, तो उसे positive (विधिवाचक) कर देना।'
इस अंतिम आदेश का पालन करते समय हमें ज़रा कठिनाई मालूम हूई। स्वामी जी का
उपदेश था कि किसीको खराब कहना, उसके विरुद्ध आलोचना करना, उसके दोष दिखाना,
उससे 'तुम ऐसा मत करो, वैसा मत करो' कहकर negative (निषेधात्मक) उपदेश देना -
इस सबसे उसकी उन्नति में विशेष सहायता नहीं होती, किंतु उसको यदि एक आदर्श
दिखा दिया जाय, तो फिर उसकी उन्नति सरलता से हो सकती है, उसके दोष अपने आप
चले जाते हैं। यही स्वामी जी का अभिप्राय था।
४
आज अपराह्न में बड़ा कमरा लोगों से भरा हुआ है। स्वामी जी उनके बीच अपूर्व
शोभा धारण कर बैठे हुए हैं। अनेक प्रसंग चल रहे हैं। वहाँ हम लोगों के मित्र
विजयकृष्ण बसु (आजकल अलीपुर अदालत के विख्यात वकील) महाशय भी उपस्थित हैं।
उस समय विजय बाबू समय समय पर अनेक सभाओं में और कभी-कभी कांग्रेस में खड़े
होकर अंग्रेजी में व्याख्यान दिया करते थे। उनकी इस व्याख्यान-शक्ति का
उल्लेख किसी ने स्वामी जी के समक्ष किया। इस पर स्वामी जी ने कहा, शो बहुत
अच्छा है। अच्छा, यहाँ पर बहुत से लोग एकत्र हैं - जरा खड़े होकर एक
व्याख्यान तो दो, soul (आत्मा) के संबंध में तुम्हारी जो idea (धारणा) है,
उसी पर कुछ कहो। विजय बाबू अनेक प्रकार के बहाने बनाने लगे। स्वामी जी एवं और
भी बहुत से लोग उनसे खूब आग्रह करने लगे। १५ मिनट तक अनुरोध करने पर भी जब कोई उनके संकोच को दूर करने में सफल नहीं हुआ, तब
अंततोगत्वा हार मानकर उन लोगों की दृष्टि विजय बाबू से हटकर मेरे ऊपर पड़ो।
मैं मठ में सहयोग देने से पूर्व कभी-कभी धर्म के संबंध में बांग्ला भाषा में
व्याख्यान देता था, और हम लोगों का एक 'डिबेटिंग क्लब' (वाद-विवाद समिति)
भी था -उसमें अंग्रेजी बोलने का अभ्यास करता था। मेरे संबंध में इन सब बातों
का किसी ने उल्लेख किया ही था कि बस, मेरे ऊपर बाजी पलटी। पहले ही कह चुका
हूँ, मैं बहुत कुछ लापरवाह सा था। Fools rush in where angels fear to tread.
(जहाँ देवता भी जाने में भयभीत होते हैं, वहाँ मूर्ख घुस पड़ते हैं) मुझसे
उन्हें अधिक कहना नहीं पड़ा। मैं एकदम खड़ा हो गया और बृहदारण्यक उपनिषद् के
याज्ञवल्क्य-मैत्रेयी संवाद के अंतर्गत आत्मतत्त्व को लेकर आत्मा के संबंध
में लगभग आध घंटे तक जो मुँह में आया, बोलता गया। भाषा या व्याकरण की भूल हो
रही है अथवा भाव का असामंजस्य हो रहा है, इस सबका मैंने विचार ही नहीं किया।
दया के सागर स्वामी जी मेरी इस चपलता पर थोड़ा भी विरक्त न हो मुझे
उत्साहित करने लगे। मेरे बाद स्वामी जी द्वारा अभी अभी संन्यासाश्रम में
दीक्षित स्वामी प्रकाशानंद
[7]
लगभग दस मिनट तक आत्मतत्त्व के संबंध में बोले। वे स्वामी जी की
व्याख्यान-शैली का अनुकरण कर बड़े गंभीर स्वर में अपना वक्तव्य देने लगे।
उनके व्याख्यान की भी स्वामी जी ने खूब प्रशंसा की।
अहा! स्वामी जी सचमुच ही किसी का दोष नहीं देखते थे। वे, जिसमें जो भी कुछ
गुण या शक्ति देखते, उसी के अनुसार उसे उत्साह देकर, जिससे उसके भीतर की
अव्यक्त शक्तियाँ प्रकाशित हो जायँ, इसी की चेष्टा करते थे। किंतु, पाठक,
आप लोग इससे ऐसा न समझ बैठे कि वे सबको सभी कार्यों में प्रश्रय देते थे
क्योंकि अनेक बार देख चुका हूँ, लोगों के, विशेषत: अपने अनुगामी गुरुभ्राता और
शिष्यों के, दोष दिखलाने में समय समय पर वे कठोर रूप भी धारण करते थे। किंतु
वह हम लोगों के दोषों को हटाने के लिए - हम लोगों को सावधान करने के लिए ही
होता था, हमें निरूत्साह करने या हम लोगों के समान केवल परछिद्रान्वेषण
वृत्ति को सार्थक करने के लिए नहीं। ऐसा उत्साह और भरोसा देनेवाला हम अब और
कहाँ पायेंगे? कहाँ पाएंगे ऐसा व्यक्ति, जो शिष्यवर्ग को लिख सके, "I want
each one of my children to be a hundred times greater than I could ever be.
Everyone of you must be a giant - must, that is my word." - 'मैं चाहता हूँ
कि तुम लोगों में से प्रत्येक, मैं जितना हो सकूँ, तदपेक्षा सौगुना बड़ा
होवे। तुम लोगों में से प्रत्येक को आध्यात्मिक दिग्गज होना पड़ेगा - होना
ही होगा, न होने से नहीं बनेगा।'
५
इसी समय स्वामी जी द्वारा इंग्लैंड में दिए गए ज्ञानयोग संबंधी व्याख्यानों
को लंदन से ई. टी. स्टर्डी साहब छोटी छोटी पुस्तिकाओं के आकार में प्रकाशित
करने लगे। मठ में भी उनकी एक एक दो दो प्रतियाँ आने लगीं। स्वामी जी उस समय
दार्जिलिंग से नहीं लौटे थे। हम लोग विशेष आग्रह के साथ अद्वैत तत्त्व के
अपूर्व व्याख्यारूप, उद्दीपना से भरे उन व्याख्यानों को पढ़ने लगे। वृद्ध
स्वामी अद्वैतानंद अंग्रेज़ी अच्छी तरह नहीं जानते थे, किंतु उनकी यह विशेष
इच्छा थी कि नरेंद्र ने वेदांत के संबंध में विलायत में क्या कहकर लोगों को
मुग्ध किया है, यह सुनें। अत: उनके अनुरोध से हम लोग उन्हें उन पुस्तिकाओं
को पढ़कर, उनका अनुवाद करके सुनाने लगे। एक दिन स्वामी प्रेमानंद नए
संन्यासियों और ब्रह्मचारियों से बोले, "तुम लोग स्वामी जी के इन
व्याख्यानों का बांग्ला अनुवाद करो न।" तब हममें से कई लोगों ने अपनी अपनी
इच्छानुसार उन पुस्तिकाओं में से एक-एक को चुन लिया और उनका अनुवाद करना आरंभ
कर दिया। इसी बीच स्वामी जी लौट आए। एक दिन स्वामी प्रेमानंद जी स्वामी जी
से बोले, "इन लड़कों ने आपके व्याख्यानों का अनुवाद करना प्रारंभ कर दिया
है।" बाद में हम लोगों को लक्ष्य करके कहा, "तुम लोगों में से कौन क्या
अनुवाद कर रहा है, यह स्वामी जी को सुनाओ।" तब हम लोगों ने अपना अपना अनुवाद
लाकर स्वामी जी को थोड़ा-थोड़ा सुनाया। स्वामी जी ने भी अनुवाद के बारे में
अपने कुछ विचार प्रकट किए, और अमुक शब्द का अमुक अनुवाद ठीक रहेगा, इस प्रकार
दो-एक बातें भी बतायीं। एक दिन स्वामी जी के पास केवल मैं ही बैठा था,
उन्होंने अचानक मुझसे कहा, "राजयोग का अनुवाद कर न।" मेरे समान अनुपयुक्त
व्यक्ति को स्वामी जी ने इस प्रकार आदेश कैसे दिया? मैं उसके बहुत दिन पहले
से ही राजयोग का अभ्यास करने की चेष्टा किया करता था। इस योग के ऊपर कुछ दिन
मेरा इतना अनुराग हुआ था कि भक्ति, ज्ञान और कर्मयोग को मानो एक प्रकार से
अवज्ञा से ही देखने लगा था। सोचता था, मठ के साधु लोग योग-याग कुछ भी नहीं
जानते, इसीलिए वे योग-साधना में उत्साह नहीं देते। पर जब मैंने स्वामी जी का
'राजयोग' ग्रंथ पढ़ा, तो मालूम हुआ कि स्वामी जी केवल राजयोग में ही पटु
नहीं, वरन् भक्ति, ज्ञान प्रभृति अन्यान्य योगों के साथ उसका संबंध भी
उन्होंने अत्यंत सुंदर ढंग से दिखलाया है। राजयोग के संबंध में मेरी जो
धारणा थी, उसका उत्तम स्पष्टीकरण भी मुझे उनके उस 'राजयोग' ग्रंथ में मिला।
स्वामी जी के प्रति मेरी विशेष श्रद्धा का यह भी एक कारण हुआ। तो क्या इस
उद्देश्य से कि राजयोग का अनुवाद करने से उस ग्रंथ की चर्चा उत्तम रूप से
होगी और उससे मेरी भी आध्यात्मिक उन्नति में सहायता पहुँचेगी, उन्होंने
मुझे इस कार्य में प्रवृत्त किया? अथवा बंग देश में यथार्थ राजयोग की चर्चा
का अभाव देखकर, सर्वसाधारण के भीतर इस योग के यथार्थ मर्म का प्रचार करने के
लिए ही उन्होंने ऐसा किया? उन्होंने स्व. प्रमदादास मित्र को एक पत्र में
लिखा था, 'बंगाल में राजयोग की चर्चा का बिल्कुल अभाव है। जो कुछ है, वह भी
नाक दबाना इत्यादि छोड़ और कुछ नहीं।'
जो भी हो, स्वामी जी की आज्ञा पा, अपनी अनुपयुक्तता आदि की बात मन में न
सोचकर उसका अनुवाद करने में उसी समय लग गया।
६
एक दिन अपराह्न काल में बहुत से लोग बैठे हुए थे। स्वामी जी के मन में आया कि
गीता-पाठ होना चाहिए। गीता लायी गयी। सभी दत्तचित्त होकर सुनने लगे कि देखें,
स्वामी जी गीता के संबंध में क्या कहते हैं। गीता के संबंध में उस दिन
उन्होंने जो कुछ भी कहा था, वह सब दो-चार दिन के बाद ही स्वामी प्रेमानंद जी
की आज्ञा से मैंने स्मरण करके यथासाध्य लिपिबद्ध कर लिया। वह पहले
'गीता-तत्त्व' के नाम से 'उद्बोधन' के द्वितीय वर्ष में प्रकाशित हुआ और बाद
में 'भारत में विवेकानन्द' पुस्तक में अंतर्भूत कर दिया गया। अतएवं उन बातों
की पुनरावृत्ति कर प्रस्तुत लेख का कलेवर बढ़ाने की इच्छा नहीं है; किंतु उस
दिन गीता की व्याख्या के सिलसिले में स्वामी जी ने जो एक नयी ही भावधारा
बहायी थी, उसी को यहाँ लिपिबद्ध करने की इच्छा है। हम लोग महापुरुषों की
वचनावली को अनेक बार यथासंभव लिपिबद्ध तो करते हैं, किंतु जिन भावों से
अनुप्राणित होकर वे वाक्य उनके श्रीमुख से निकलते हैं, वे प्राय: लिपिबद्ध
नहीं रहते। फिर एसे महापुरुषों के साक्षात् संस्पर्श में आए बिना हजार वर्णन
करने पर भी लोग उनकी बातों के भीतर का गूढ़ मर्म नहीं समझ सकते। तो भी,
जिन्हें उन लोगों के साथ साक्षात् संपर्क में आने का सौभाग्य नहीं मिला है,
उनके लिए उन महापुरुषों के संबंध में लिपिबद्ध थोड़ी सी भी बातें बहुत आदर की
वस्तु होती हैं, और उनकी आलोचना एवं ध्यान से उनका कल्याण होता है।
पाठकवर्ग! उन महापुरुष की जिस आकृति को मैं मानो आज भी अपनी आँखों के सामने
देख रहा हूँ, वह मेरे इस क्षुद्र प्रयास से आपके मनश्चक्षु के सामने भी
उद्भासित हो। उनकी कथा का स्मरण कर मेरे मनश्चक्षु के सामने आज उन्हीं
महापंडित, महातेजस्वी, महाप्रेमी की तस्वीर आ खड़ी हुई है। आप लोग भी एक बार
देशकाल के व्यवधान का उल्लंघन कर मेरे साथ हमारे स्वामी जी के दर्शन करने की
चेष्टा करें।
हाँ, तो जब उन्होंने व्याख्या आरंभ की, उस समय वे एक कठोर समालोचक मालूम
पड़े। कृष्ण, अर्जुन, व्यास, कुरूक्षेत्र की लड़ाई आदि की ऐतिहासिकता के
बारे में संदेह की कारण-परंपरा का विवरण जब वे सूक्ष्मातिसूक्ष्म भाव से
करने लगे, तब बीच बीच में ऐसा बोध होने लगा कि इस व्यक्ति के सामने तो कठोर
समालोचक भी हार मान जाय। यद्यपि स्वामी जी ने ऐतिहासिक तत्त्व का इस प्रकार
तीव्र विश्लेषण किया, किंतु इस विषय में वे अपना मत विशेष रूप से प्रकाशित
किए बिना ही आगे समझाने लगे कि धर्म के साथ इस ऐतिहासिक गवेषणा का कोई संपर्क
नहीं है। ऐतिहासिक गवेषणा में शास्त्रोल्लिखित व्यक्ति यदि काल्पनिक भी
ठहरे, तो भी उससे सनातन धर्म को कोई ठेस नहीं पहुँचती। अच्छा, यदि धर्म-साधना
के साथ ऐतिहासिक गवेषणा का कोई संपर्क न हो, तो ऐतिहासिक गवेषणा का क्या फिर
कोई मूल्य नहीं है? - इसका उत्तर देते हुए स्वामी जी ने समझाया कि निर्भीक
भाव से इन सब ऐतिहासिक सत्यानुसंधानों का भी एक विशेष प्रयोजन है। उद्देश्य
महान् होने पर भी उसके लिए मिथ्या इतिहास की रचना करने का कोई प्रयोजन नहीं!
प्रत्युत यदि मनुष्य सभी विषयों में सत्य का संपूर्ण रूप से आश्रय लेने के
लिए प्राणपण से यत्न करे, तो वह एक दिन सत्यस्वरूप भगवान् का भी
साक्षात्कार कर सकता है। उसके बाद उन्होंने गीता के मूल तत्त्व सर्वधर्म
समन्वय और निष्काम कर्म की संक्षेप में व्याख्या करके श्लोक पढ़ना आरंभ
किया। द्वितीय अध्याय के क्लैब्यं मा स्म गम: पार्थ इत्यादि में, युद्ध
के लिए अर्जुन के प्रति श्री कृष्ण के जो उत्तेजनात्मक वचन हैं, उन्हें
पढ़कर वे स्वयं सर्वसाधारण को जिस भाव से उपदेश देते थे, वह उन्हें स्मरण
हो आया - नैतत्त्वय्युपपद्यते - 'यह तो तुम्हें शोभा नहीं देता' ' तुम
सर्वशक्तिमान हो, तुम ब्रह्म हो, तुममें जो अनेक प्रकार के विपरीत भाव देख रहा
हूँ, वह सब तो तुम्हें शोभा नहीं देता। मसीहा के समान ओजस्विनी भाषा में इन
सब तत्वों को समझाते समझाते उनके भीतर से मानो तेज निकलने लगा। स्वामी जी
कहने लगे, "जब सबको ब्रह्म-दृष्टि से देखना है, तो महापापी को भी घृणा-दृष्टि
से देखना उचित न होगा।" "महापापी से घृणा मत करो'', यह कहते कहते स्वामी जी के
मुख पर जो भावांतर हुआ, वह छबि आज भी मेरे मानसपटल पर अंकित है - मानो उनके
श्रीमुख से प्रेम शतधारा बन बह निकला। श्रीमुख मानो प्रेम से दीप्त हो उठा -
उसमें कठोरता का लेशमात्र भी नहीं।
इस एक श्लोक में ही संपूर्ण गीता का सार निहित देखकर स्वामी जी ने अंत में
यह कहते हुए उपसंहार किया, "इस एक श्लोक को पढ़ने से ही समग्र गीता के पाठ का
फल होता है।"
७
एक दिन स्वामी जी ने ब्रह्मसूत्र लाने के लिए कहा। कहने लगे, "ब्रह्मसूत्र के
भाष्य को बिना पढ़े इस समय स्वतंत्र रूप से तुम सब लोग सूत्रों का अर्थ
समझने की चेष्टा करो।" प्रथम अध्याय के प्रथम पाद के सूत्रों का पढ़ना
प्रारंभ हुआ। स्वामी जी शुद्ध रूप से संस्कृत उच्चारण करने की शिक्षा देने
लगे; कहने लगे, ''संस्कृत भाषा का उच्चारण हम लोग ठीक-ठीक नहीं करते। इसका
उच्चारण तो इतना सरल है कि थोड़ी चेष्टा करने से ही सब लोग संस्कृत का शुद्ध
उच्चारण कर सकते हैं। हम लोग बचपन से ही दूसरे प्रकार का उच्चारण करने के
आदी हो गए हैं, इसीलिए इस प्रकार का उच्चारण अभी हम लोगों को इतना नया और
कठिन मालूम होता है। हम लोग 'आत्मा' शब्द का उच्चारण 'आत्मा' न करके
'आत्तां' क्यों करते हैं? महर्षि पतंजलि अपने महाभाष्य में कहते हैं
-'अपशब्द उच्चारण करनेवाला म्लेच्छ है।' अत: उनके मत से हम सब तो
म्लेच्छ ही हुए।" तब नवीन ब्रह्मचारी और संन्यासीगण एक-एक करके, जहाँ तक बन
सका, ठीक-ठीक उच्चारण करके ब्रह्मसूत्र पढ़ने लगे। बाद में स्वामी जी वह
उपाय बतलाने लगे, जिससे सूत्र का प्रत्येक शब्द लेकर उसका अक्षरार्थ किया जा
सके। उन्होंने कहा, "कौन कहता है कि ये सूत्र केवल अद्वैत मत के परिपोषक हैं?
शंकर अद्वैतवादी थे, इसलिए उन्होंने सभी सूत्रों की केवल अद्वैत मतपरक
व्याख्या करने की चेष्टा की है, किंतु तुम लोग सूत्रों की केवल अद्वैत
मतपरक व्याख्या करने की चेष्टा की है, किंतु तुम लोग सूत्र का अक्षरार्थ
करने की चेष्टा करना- व्यास का यथार्थ अभिप्राय क्या है, यह समझने की
चेष्टा करना। उदाहरण के रूप में देखो - अस्मिन्नस्य च तद्योगं शास्ति
[8]
- मेरे मतानुसार इस सूत्र की ठीक ठीक व्याख्या यह है कि यहाँ अद्वैत और
विशिष्टाद्वैत, दोनों ही वाद भगवान् वेदव्यास द्वारा इंगित हुए हैं।
स्वामी जो एक और जैसे गंभीर प्रकृतिवाले थे, उसी तरह दूसरी ओर रसिक भी थे।
पढ़ते पढ़ते कामाच्च नानुमानापेक्षा
[9]
सूत्र आया। स्वामी जी इस सूत्र को लेकर स्वामी प्रेमानंद के निकट इसका विकृत
अर्थ करके हँसने लगे। सूत्र का सच्चा अर्थ है - जब उपनिषद् में, जगत्कारण के
प्रसंग में 'सोकामयत' (उन्होंने अर्थात् उन्हीं जगत्कारण ने कामना की) इस
तरह का वचन है, तब 'अनुमानगम्य' (अचेतन) प्रधान या प्रकृति को जगत्कारण रूप
में स्वीकार करने की कोई आवश्यकता नहीं। जिन्होंने शास्त्र-ग्रंथों का
अपनी अपनी अद्भुत रुचि के अनुसार कुत्सित अर्थ करके ऐसे पवित्र सनातन धर्म को
घोर विकृत कर डाला है और ग्रंथकार का जो अर्थ किसी भी काल में अभिप्रेत नहीं
था, ग्रंथकार ने जिसे स्वप्न में भी नहीं सोचा था, ऐसे सभी विषयों को
जिन्होंने ग्रंथ-प्रतिपाद्य बातें सिद्ध करते हुए धर्म को शिष्ट जनों से
'दूरात्परिहर्तव्य' कर डाला है, क्या स्वामी जी उन्हीं लोगों का तो उपहास
नहीं कर रहे थे? अथवा, वे जैसे कभी-कभी करते थे, कठिन शुष्क ग्रंथ की धारणा
कराने के लिए वे बीच-बीच में साधारण मन के उपयुक्त रसिकता लाकर दूसरों को
अनायास ही उस ग्रंथ की धारणा कराने के लिए वे बीच-बीच में साधारण मन के
उपयुक्त रसिकता लाकर दूसरों को अनायास ही उस ग्रंथ की धारणा करा देते थे, तो
संभवत: कहीं वही चेष्टा तो नहीं कर रहे थे?
जो भी हो, पाठ चलने लगा। बाद में शास्त्रदृष्ट्या तूपदेशो वामदेववत्
[10]
सूत्र आया। इस सूत्र की व्याख्या करके स्वामी जी स्वामी प्रेमानंद की ओर
देखकर कहने लगे,'' देखो, तुम्हारे ठाकुर
[11]
जो अपने को भगवान् कहते थे, सो इसी भाव से कहते थे।" पर यह कहकर ही स्वामी जी
दूसरी ओर मुँह फेरकर कहने लगे, "किंतु उन्होंने मुझसे अपने अंतिम समय में कहा
था - 'जो राम, जो कृष्ण, वही अब रामकृष्ण; तेरे वेदांत की दृष्टि से नहीं।"
यह कहकर दूसरा सूत्र पढ़ने के लिए कहा।
यहाँ पर इस सूत्र के संबंध में कुछ व्याख्या करनी आवश्यक है। कौषीतकी
उपनिषद् में इंद्र-प्रतर्दन संवाद नामक एक आख्यायिका है। उसमें लिखा हैं,
प्रतर्दन नामक एक राजा ने देवराज इंद्र को संतुष्ट किया। इंद्र ने उसे वर
देना चाहा। इस पर प्रतर्दन ने उनसे यह वर माँगा कि आप मानव के लिए जो सबसे
अधिक कल्याणकारी समझते हैं, वही वर मुझे दें। इस पर इंद्र ने उसे उपदेश दिया
- मां विजानीति - 'मुझे जानो।' यहाँ पर सूत्रकार ने यह प्रश्न उठाया है कि
'मुझे' के अर्थ में इंद्र ने किसको लक्ष्य किया है। संपूर्ण आख्यायिका का
अध्ययन करने पर पहले अनेक संदेह होते हैं - 'मुझे कहने से स्थान-स्थान पर
ऐसा ज्ञात होता है कि उसका आशय 'देवता' से है, कहीं कहीं पर ऐसा मालूम होता है
कि उसका आशय 'प्राण' से है, कहीं पर 'जीव' से, तो कहीं पर 'ब्रह्म' से। यहाँ
पर अनेक प्रकार के विचार द्वारा सूत्रकार सिद्धांत करते हैं कि इस स्थल में
'मुझे' पद का आशय है 'ब्रह्म' से। 'शास्त्रदृष्ट्या' इत्यादि सूत्र के
द्वारा सूत्रकार ऐसा एक उदाहरण दिखलाते हैं, जिससे इंद्र का उपदेश इसी अर्थ
में संगत होता है। उपनिषद् के एक स्थल में है कि वामदेव ऋषि ब्रह्मज्ञान लाभ
कर बोले थे - 'मैं मनु हुआ हूँ, मैं सूर्य हुआ हूँ।' इंद्र ने भी इसी प्रकार
शास्त्र-प्रतिपाद्य ब्रह्मज्ञान को प्राप्त कर रहा था - मां विजानीहि (मुझे जानो)। यहाँ पर 'मैं'
और 'ब्रह्म' एक ही बात है।
स्वामी जी भी स्वामी प्रेमानंद से कहने लगे, "श्री रामकृष्ण देव जो कभी कभी
अपने को भगवान् कहकर निर्देश करते थे, सो वह इस ब्रह्मज्ञान की अवस्था
प्राप्त होने के कारण ही करते थे। वास्तव में वे तो सिद्ध पुरुष मात्र थे,
अवतार नहीं।" पर यह बात कहकर ही उन्होंने धीरे से एक दूसरे व्यक्ति से कहा,
"श्री रामकृष्ण स्वयं अपने संबंध में कहते थे, 'मैं केवल ब्रह्मज्ञ पुरुष ही
नहीं हूँ, मैं अवतार हूँ।" अत:, जैसा कि हमारे एक मित्र कहा करते थे, श्री
रामकृष्ण को एक साधु या सिद्ध पुरुष मात्र नहीं कहा जा सकता; यदि उनकी बातों
पर विश्वास करना है, तो उन्हें अवतार कहकर मानना होगा, नहीं तो ढोंगी कहना
होगा।
जो हो, स्वामी जी की बात से मेरा एक विशेष उपकार हुआ। सामान्य अंग्रेज़ी
पढ़कर चाहे और कुछ सीखा हो या न सीखा हो, किंतु संदेह करना तो अच्छी तरह सीखा
था। मेरी यह धारणा थी कि महापुरुषों के शिष्यगण अपने गुरु की बड़ाई कर
उन्हें अनेक प्रकार की कल्पना और अतिरंजना का विषय बना देते हैं। परंतु
स्वामी जी की अद्भुत वाकपटुता और सत्यनिष्ठा को देखकर, वे भी किसी प्रकार
की अतिरंजना कर सकते हैं, यह धारणा एकदम दूर हो गयी। स्वामी जी के वचन धुव्र
सत्य हैं, यही धारणा हुई। इसलिए उनके वाक्य में श्री रामकृष्ण देव के संबंध
में एक नवीन प्रकाश पाया। जो राम, जो कृष्ण, वही अब रामकृष्ण- यह बात
उन्होंने स्वयं कही है; अभी यही बात हम समझने की चेष्टा कर रहे हैं।
स्वामीजी में अपार दया थी, वे हम लोगों से संदेह छोड़ देने को नहीं कहते थे,
चट से किसी की बात में विश्वास कर लेने के लिए उन्होंने कभी नहीं कहा। वे तो
कहते थे, "इस अद्भुत रामकृष्ण-चरित्र की तुम लोग अपनी विद्या-बुद्धि के
द्वारा जहाँ तक हो सकें; आलोचना करो, इसका अध्ययन करो - मैं तो इसका एक
लक्षांश भी समझ न पाया। उनको समझने की जितनी चेष्टा करोगे, उतना ही सुख
पाओगे, उतना ही उनमें डूब जाओगे।"
८
स्वामी जी एक दिन हम सबको पूजा-गृह में ले जाकर साधन-भजन सिखलाने लगे।
उन्होंने कहा, "पहले सब लोग आसन लगाकर बैठो; चिंतन करो - मेरा आसन दृढ़ हो,
यह आसन अचल-अटल हो, इसी की सहायता से मैं संसार-समुद्र के पार होऊँगा।" सभी ने
बैठकर कई मिनट तक इस प्रकार चिंतन किया। उसके बाद स्वामी जी फिर कहने लगे,
"चिंतन करो - मेरा शरीर निरोग और स्वस्थ है, वज्र के समान दृढ़ है, इसी देह
की सहायता से मैं संसार को पार करूँगा।" इस प्रकार कुछ देर तक चिंतन करने के
बाद स्वामी जी फिर कहने लगे, "अब इस प्रकार चिंतन करो कि मेरे निकट से पूर्व,
पश्चिम, उत्तर, दक्षिण चारों दिशाओं में प्रेम का प्रवाह बह रहा है- ह्रदय के
भीतर से संपूर्ण जगत् के लिए शुभकामना हो रही है - सभी का कल्याण हो, सभी
स्वस्थ और निरोग हों। इस प्रकार चिंतन करने के बाद कुछ देर प्राणायाम करना,
अधिक नहीं, तीन प्राणायाम करने से ही काफी है। इसके बाद ह्रदय में अपने अपने
इष्टदेव की मूर्ति का चिंतन और मंत्र जप लगभग आध घंटे तक करना।" सब लोग
स्वामी जी के उपदेशानुसार चिंतन आदि की चेष्टा करने लगे।
इस प्रकार सामूहिक साधनानुष्ठान मठ में दीर्घ काल तक होता रहा है, एवं
स्वामी जी की आज्ञा से स्वामी तुरीयानंद नवीन संन्यासियों और ब्रह्मचारियों
को लेकर बहुत समय तक, 'इस बार इस प्रकार चिंतन करो, उसके बाद ऐसा करो', इस तरह
बतला बतलाकर और स्वयं अनुष्ठान कर स्वामी जी द्वारा बतलायी गयी
साधना-प्रणाली का अभ्यास कराते थे।
९
एक दिन सवेरे ९-१० बजे मैं एक कमरे में बैठकर कुछ कर रहा था, उसी समय सहसा
तुलसी महाराज (स्वामी निर्मलानंद) आकर बोले, "स्वामी जी से दीक्षा लोगे?''
मैंने कहा, "जी हाँ!'' इसके पहले मैंने कुलगुरु या और किसीके पास किसी प्रकार
मंत्र-दीक्षा नहीं ली थी। एक योगी के पास प्राणायाम आदि कुछ योग-क्रियाओं का
मैंने तीन वर्ष तक साधन किया था और उससे बहुत कुछ शारीरिक उन्नति और मन की
स्थिरता भी मुझे प्राप्त हुई थी, किंतु वे गृहस्थाश्रम का अवलंबन करना
अत्यावश्यक बतलाते थे, और प्राणायाम आदि योग-क्रिया को छोड़कर ज्ञान, भक्ति
आदि अन्यान्य मार्गों को बिल्कुल व्यर्थ कहते थे। इस प्रकार की कट्टरता
मुझे बिल्कुल अच्छी नहीं लगती थी। दूसरी ओर, मठ के कोई कोई संन्यासी और
उनके भक्तगण योग का नाम सुनते ही बात को हँसी से उड़ा देते थे। 'उससे विशेष
कुछ नहीं होता, श्री रामकृष्ण देव उसके उतने पक्षपाती नहीं थे', इत्यादि
बातें मैं उन लोगों से सुना करता था। पर जब मैंने स्वामी जी का राजयोग पढ़ा,
तो समझा कि इस ग्रंथ के प्रणेता जैसे योगमार्ग के समर्थक हैं, वैसे ही
अन्यान्य मार्गों के प्रति श्री श्रद्धालु हैं; अतएवं कट्टर तो हैं ही नहीं,
अपितु इस प्रकार के उदार भावसंपन्न आचार्य मुझे कभी दृष्टिगोचर नहीं हुए; तिस
पर वे संन्यासी भी हैं; - अतएव उनके प्रति यदि मेरे ह्रदय में विशेष श्रद्धा
हो, तो उसमें आश्चर्य ही क्या? बाद में मैंने विशेष रूप से जाना कि श्री
रामकृष्ण देव साधारणतया प्राणायाम आदि योग-क्रिया का उपदेश नहीं दिया करते
थे। वे जप और ध्यान पर ही विशेष रूप से जोर देते थे। वे कहा करते थे,
"ध्यानावस्था के प्रगाढ़ होने पर अथवा भक्ति की प्रबलता आने पर प्राणायाम
स्वयंमेव हो जाता है, इन सब दैहिक क्रियाओं का अनुष्ठान करने से अनेक बार मन
देह की ओर आकृष्ट हो जाता है।" किंतु अंतरंग शिष्यों से वे योग के उच्च
अंगों की साधना कराते थे, उन्हें स्पर्श करके अपनी आध्यात्मिक शक्ति के बल
से उन लोगों की कुंडलिनी शक्ति को जाग्रत कर देते थे, एवं षट्चक्र के विभिन्न
चक्रों में मन की स्थिरता की सुविधा के लिए समय समय पर शरीर के किसी विशिष्ट
अंग में सुई चुभाकर वहाँ मन को स्थिर करने के लिए कहते थे। स्वामी जी ने अपने
पाश्चात्य शिष्यों में से बहुतों को प्राणायाम आदि क्रियाओं का जो उपदेश
दिया था, वह, मैं समझता हूँ, उनका अपना कपोलकल्पित नहीं था, वरन् उनके गुरु
द्वारा उपदिष्ट मार्ग था। स्वामी जी एक बात कहा करते थे कि यदि किसी को
सचमुच सन्मार्ग में प्रवृत्त करना हो, तो उसीकी भाषा में उसे उपदेश देना
होगा। इसी भाव का अनुसरण करके वे व्यक्ति विशेष अथवा अधिकारी विशेष को
भिन्न-भिन्न साधनाप्रणाली की शिक्षा देते थे और इस तरह सभी प्रकार की
प्रकृतिवाले मनुष्यों को थोड़ी-बहुत आध्यात्मिक सहायता देने में सफल होते
थे।
जो हो, मैं इतने दिनों से उनका उपदेश सुन रहा हूँ, किंतु उनके पास से मुझे अभी
तक किसी प्रकार की प्रत्यक्ष आध्यात्मिक सहायता नहीं मिली, और उसके लिए
मैंने चेष्टा भी नहीं की। चेष्टा न करने का कारण यह था कि मुझे करने का साहस
नहीं होता था, और शायद मन के भीतर यह भी भाव था कि जब मैं इनके आश्रित हुआ
हूँ, तो जो जो मेरे लिए आवश्यक हैं, सभी पाऊँगा। किस प्रकार वे मेरी
आध्यात्मिक सहायता करेंगे, यह मैं नहीं जानता था। इस समय स्वामी निर्मलानंद
के ऐसे बिन माँगे आह्वान से मन में और किसी प्रकार की दुविधा नहीं रही।
'लूँगा' ऐसा कहकर उनके साथ पूजा-गृह की और बढ़ा। मैं नहीं जानता था कि उस दिन
श्रीयुत शरच्चद्र चक्रवर्ती भी दीक्षा ले रहे हैं। उस समय दीक्षा-दान समाप्त
नहीं हुआ था, इसलिए, स्मरण है, पूजा-गृह के बाहर कुछ देर तक मुझे प्रतीक्षा
करनी पड़ी थी। बाद में शरत् बाबू बाहर आए, तो उसी समय तुलसी महाराज मुझे ले
जाकर स्वामी जी से बोले, "यह दीक्षा लेगा।" स्वामी जी ने मुझसे बैठने के लिए
कहा। पहले ही उन्होंने पूछा, "तुझे साकार अच्छा लगता है या निराकार?''
मैंने कहा, "कभी साकार अच्छा लगता है, कभी निराकार।"
इसके उत्तर में वे बोले, "वैसा नहीं; गुरु समक्ष सकते हैं, किसका क्या मार्ग
है; हाथ देखूँ।" ऐसा कहकर मेरा दाहिना हाथ कुछ देर तक लेकर थोड़ी देर जैसे
ध्यान करने लगे। उसके बाद हाथ छोड़कर बोले, "तूने कभी घट-स्थापना करके पूजा
की है?'' घर छोड़ने के कुछ पहले घट-स्थापना करके मैंने बहुत देर तक कोई पूजा
की थी। वह बात मैंने उनसे बतायी। तब एक देवता का मंत्र बताकर उन्होंने उसे
अच्छी तरह मुझे समझा दिया और कहा, "इस मंत्र से तेरा कल्याण होगा। और
घट-स्थापना करके पूजा करने से तेरा कल्याण होगा।" उसके बाद मेरे संबंध में
एक भविष्यवाणी करके, उन्होंने सामने पड़े हुए कुछ फलों को गुरु-दक्षिणा के
रूप में देने के लिए मुझसे कहा।
मैंने देखा, यदि मुझे भगवान् के शक्तिस्वरूप किन्हीं देवता की उपासना करनी
हो, तो मुझे स्वामी जी ने जिन देवता के मंत्र का उपदेश दिया है, वे ही देवता
मेरी प्रकृति के साथ पूर्णरूपेण मेल खाते हैं। सुना था -सच्चे गुरु शिष्य की
प्रकृति को समझकर मंत्र देते हैं। स्वामी जी में आज उसका प्रत्यक्ष प्रमाण
मिला।
दीक्षा-दान के कुछ देर बाद स्वामी जी का भोजन हुआ। स्वामी जी की थाली में से
मैंने और शरच्चंद्र बाबू ने प्रसाद ग्रहण किया।
उस समय श्रीयुत नरेंद्रनाथ सेन द्वारा संपादित 'इंडियन मिरर' नामक अंग्रेजी
दैनिक मठ में बिना मूल्य दिया जाता था, किंतु मठ के संन्यासियों की ऐसी
स्थिति नहीं थी कि उसका डाक-खर्च भी दे सकते। वह पत्र एक पत्रवाहक द्वारा
वराहनगर तक वितरित होता था। वराहनगर में 'देवालय' के प्रतिष्ठाता सेवाव्रती
श्री शशिपद बंधोपाध्याय द्वारा प्रतिष्ठित एक विधवाश्रम था। वहाँ पर इस आश्रम
के लिए उक्त पत्र की एक प्रति आती थी। 'इंडियन मिरर' का पत्रवाहक बस वहीं तक
आता था, इसलिए मठ का समाचारपत्र भी वहीं दे जाता था। वहाँ से प्रतिदिन पत्र को
मठ में लाना पड़ता था। उक्त विधवाश्रम के ऊपर स्वामी जी की यथेष्ट
सहानुभूति थी। अमेरिका-प्रवास में इस आश्रम की सहायता के लिए स्वामी जी ने
अपनी इच्छा से एक व्याख्यान दिया था और उस व्याख्यान को बेचकर जो कुछ आय
हुई, उसे इस आश्रम में दे दिया था। अस्तु, उस समय मठ के लिए बाजार करना, पूजा
का आयोजन करना आदि सभी कार्य कन्हाई महाराज (स्वामी निर्भयानंद) को करना
पड़ता था। इस 'इंडियन मिरर' पत्र को लाने का भार भी उन्हीं के ऊपर था। उस समय
मठ में हम लोग बहुत से वनदीक्षित संन्यासी ब्रह्मचारी आ जुटे थे, किंतु तब भी
मठ के सब कार्यों का भार सब पर नहीं बाँटा गया था। इसलिए स्वामी निर्भयानंद
को यथेष्ट कार्य करना पड़ता था। अतएव उनके भी मन में आता था कि अपने कार्यों
में से थोड़ा-थोड़ा कार्य यदि नवीन साधुओं को दे सकें, तो कुछ अवकाश मिले। इस
उद्देश्य से उन्होंने मुझसे कहा, "देखो, जिस जगह 'इंडियन मिरर' आता है, उस
स्थान को तुम्हें दिखला दूँगा, तुम वहाँ से प्रतिदिन समाचारपत्र ले आना।"
मैंने उसे अत्यंत सरल कार्य समझकर एवं इससे एक व्यक्ति का कार्य-भार कुछ
हलका होगा, ऐसा सोचकर, सहज में ही स्वीकार कर लिया। एक दिन दोपहर के भोजन के
बाद कुछ देर विश्राम कर लेने पर निर्भयानंद जी ने मुझसे कहा, "चलो, वह
विधवाश्रम तुम्हें दिखला दूँ।" मैं उनके साथ जाने के लिए तैयार हुआ। इसी बीच
स्वामी जी ने मुझे देखकर वेदांत पढ़ने के लिए बुलाया। मैंने कहा कि मैं अमुक
कार्य से जा रहा हूँ। इस पर स्वामी जी कुछ नहीं बोले। मैं कन्हाई महाराज के
साथ बाहर जाकर उस स्थान को देख आया। लौटकर जब मठ में आया, तो अपने एक
ब्रह्मचारी मित्र से सुना कि मेरे चले जाने के कुछ देर बाद स्वामी जी किसी से
कह रहे थे, "यह लड़का कहाँ गया है? क्या स्त्रियों को तो देखने नहीं गया?''
इस बात को सुनकर मैंने कन्हाई महाराज से कहा, "भाई, मैं स्थान देख तो आया,
पर समाचारपत्र लाने के लिए अब वहाँ न जा सकूँगा।"
शिष्यों के, विशेषत: नवीन ब्रह्मचारियों के चरित्र की जिससे रक्षा हो, उस
विषय में स्वामी जी विशेष सावधान थे। कलकत्ते में विशेष प्रयोजन के बिना कोई
साधु-ब्रह्मचारी रहे या रात बिताए- यह उन्हें बिल्कुल पसंद न था, और विशेषत:
वह स्थान, जहाँ स्त्रियों के संस्पर्श में आना होता था। इसके सैकड़ों उदाहरण
देख चुका हूँ।
स्वामी जी जिस दिन मठ से रवाना होकर अल्मोड़ा जाने के लिए कलकत्ता गए, उस
दिन सीढ़ी के बगल के बरामदे में खड़े होकर अत्यंत आग्रह के साथ नवीन
ब्रह्मचारियों को संबोधन करके ब्रह्मचर्य के बारे में उन्होंने जो बातें कही
थीं, वे मानो अभी भी मेरे कानों में गूँज रही हैं। उन्होंने कहा -देखो
बच्चो, ब्रह्मचर्य के बिना कुछ भी न होगा। धर्म-जीवन का लाभ करना हो, तो
उसमें ब्रह्मचर्य ही एकमात्र सहायक है। तुम लोग स्त्रियों के संस्पर्श में
बिल्कुल न आना। मैं तुम लोगों को स्त्रियों से घृणा करने के लिए नहीं कहता,
वे तो साक्षात् भगवतीस्वरूपा है; किंतु अपने को बचाने के लिए तुम लोगों को
उनसे दूर रहने के लिए कहता हूँ। मैंने अपने व्याख्यानों में बहुत जगह जो कहा
है कि संसार में रहकर भी धर्म होता है, सो वह पढ़कर मन में ऐसा न समझ लेना कि
मेरे मत में ब्रह्मचर्य या संन्यास धर्म-जीवन के लिए अत्यावश्यक नहीं है।
क्या करता, उन सब भाषणों के सुनने वाले सभी संसारी थे, सभी गृही थे - उनके
सामने पूर्ण ब्रह्मचर्य की बात यदि एकदम कहने लगता, तो दूसरे दिन से कोई भी
मेरा व्याख्यान सुनने न आता। ऐसे लोगों के लिए छूट-ढिलाई दिए जाने पर, वे
क्रमश: पूर्ण ब्रह्मचर्य की ओर आकृष्ट होते हैं, इसीलिए मैंने उस प्रकार के
भाषण दिए थे। किंतु अपने मन की बात तुम लोगों से कहता हूँ-ब्रह्मचर्य के बिना
तनिक भी धर्मलाभ न होगा। काया, मन और वाणी से तुम लोग ब्रह्मचर्य का पालन
करना।
१०
एक दिन विलायत से कोई पत्र आया। उसे पढ़कर स्वामी जो उसी प्रसंग में,
धर्म-प्रचारक में कौन कौन से गुण रहने पर वह सफल हो सकेगा, यह बताने लगे। अपने
शरीर के भिन्न-भिन्न अवययों की ओर लक्ष्य करके कहने लगे कि धर्म-प्रचारक का
अमुक अंग खुला रहना आवश्यक है और अमुक अंग बंद। अर्थात् उसका सिर, ह्रदय और
मुख खुला रहना चाहिए, यानी उसे प्रबल मेधावी, सह्रदय और वाग्मी होना चाहिए और
उसके अधोदेश के अंगों का कार्य बंद होगा, अर्थात् वह पूर्ण ब्रह्मचारी होगा।
एक प्रचारक को लक्ष्य करके कहने लगे, उसमें सभी गुण हैं, केवल एक ह्रदय का
अभाव है - ठीक है, क्रमश: ह्रदय भी खुल जाएगा।
उस पत्र में यह संवाद था कि भगिनी निवेदिता (उस समय कुमारी नोबल) इंग्लैंड से
भारत के लिए शीघ्र ही रवाना होंगी। निवेदिता की प्रशंसा करने में स्वामी जी
शतमुख हो गए। कहने लगे, 'इंग्लैंड में इस प्रकार की पवित्र-चरित महानुभाव
नारियाँ बहुत कम हैं। मैं यदि कल मर जाऊँ, तो वह मेरे काम को चालू रखेगी।
स्वामी जी की यह भविष्यवाणी सफल हुई थी।'
११
स्वामी जी के पास पत्र आया है कि वेदांत के श्रीभाष्य के अंग्रेज़ी अनुवादक
तथा स्वामी जी की सहायता द्वारा मद्रास से प्रकाशित होनेवाले विख्यात
'ब्रह्मवादिन्' पत्र के प्रधान लेखक एवं मद्रास के प्रतिष्ठित अध्यापक
श्रीयुत रंगाचार्य तीर्थ-भ्रमण के सिलसिले में शीघ्र ही कलकत्ता जाएंगे।
स्वामी जी मध्याह्न समय मुझसे बोले, पत्र लिखने के लिए कागज और कलम लाकर ज़रा
लिख तो; और देख, थोड़ा पीने के लिए पानी भी लेता आ। मैंने एक गिलास पानी लाकर
स्वामी जी को दिया और डरते हुए धीरे धीरे बोला, मेरे हाथ की लिखावट उतनी
अच्छी नहीं है। मैंने सोचा था, शायद विलायत या अमेरिका के लिए कोई पत्र लिखना
होगा। स्वामी जी इस पर बोले, 'कोई हरज नहीं, आ, लिख, forign letter (विलायती
पत्र) नहीं है। तब कागज-कलम लेकर पत्र लिखने के लिए बैठा। स्वामी जी अंग्रेजी
में बोलने लगे। उन्होंने अध्यापक रंगाचार्य को एक पत्र लिखाया और एक पत्र
किसी दूसरे को; किसे- यह ठीक स्मरण नहीं है। मुझे याद है- रंगाचार्य को बहुत
सी दूसरी बातों में एक यह भी बात लिखायी थी: 'बंगाल में वेदांत की वैसी चर्चा
नहीं है, अतएव जब आप कलकत्ता आ रहे हैं, तो कलकत्तावासियों को जरा हिलाकर
जायँ।' कलकत्ते में जिससे वेदांत की चर्चा बढ़े, कलकत्तावासी जिससे थोड़ा सचेत
हों, उसके लिए स्वामी जी कितने सचेष्ट थे ! स्वामी जी ने अस्वस्थ होने के
कारण चिकित्सकों के साग्रह अनुरोध से कलकत्ते में केवल दो व्याख्यान देकर
फिर व्याख्यान देना बंद कर दिया था; किंतु तो भी जब कभी सुविधा पाते,
कलकत्तावासियों की धर्म-भावना को जाग्रत करने की चेष्टा करते रहते थे।
स्वामी जी के इस पत्र के फलस्वरूप, इसके कुछ दिन बाद कलकत्तावासियों ने
स्टार रंगमंच पर उक्त पंडित प्रवर का 'दि प्रीस्ट एंड दि प्रॉफेट' (पुरोहित
और ऋषि) नामक सारगर्भित व्याख्यान सुनने का सौभाग्य प्राप्त किया था।
१२
इसी समय, एक बंगाली युवक मठ में आया और उसने वहाँ साधु होकर रहने की इच्छा
प्रकट की। स्वामी जी तथा वहाँ के अन्यान्य साधु उसके चरित्र से पहले से ही
विशेषतया परिचित थे। उसको आश्रमवासी होने में अनुपयुक्त समझकर कोई भी उसे मठ
में रकहने के पक्ष में नहीं था। पर उसके पुन: पुन: प्रार्थना करने पर स्वामी
जी ने उससे कहा, "मठ के साधुओंका यदि मत हो, तो तुम्हें रख सकता हूँ।" यह
कहकर पुराने साधुओं को बुलाकर उन्होंने पूछा, "इसको मठ में रखने के बारे में
तुम लोगों का क्या मत है?" उस पर सभी साधुओं ने उसे मठ में रहने में अनिच्छा
प्रदर्शित की। अत: उस युवक को मठ में नहीं रखा गया। इसके कुछ दिनों बाद सुना
कि वह व्यक्ति किसी तरह विलायत गया, और पास में पैसा-कौड़ी न रहने के कारण
उसे 'वर्क-हाउस' में रहना पड़ा।
१३
एक दिन अपराह्न काल में स्वामी जी मठ के बरामदे में हम लोगों को लेकर वेदांत
पढ़ाने बैठे। संध्या होने ही वाली थी। स्वामी रामकृष्णानंद को इससे कुछ दिन
पहले स्वामी जी ने प्रचार-कार्य के लिए मद्रास भेजा था। इसीलिए उस समय मठ में
पूजा-आरती आदि उनके एक दूसरे गुरुभ्राता सँभालते थे। आरती आदि में जो लोग उनकी
सहायता करते थे, उन्हें भी लेकर स्वामी जी वेदांत पढ़ाने बैठे थे। उसी समय
उक्त गुरुभ्राता आकर नवीन संन्यासी ब्रह्मचारियों से कहने लगे, "चलो जी,
चलो, आरती करनी होगी, चलो। उस समय एक ओर स्वामी जी के आदेश से सभी वेदांत
पढ़ने में लगे हुए थे, और दूसरी ओर इनके आदेश से ठाकुर जी की आरती में सहयोग
देना चाहिए। अतएव नवीन साधु लोग कुछ समय असमंजस में पड़ गए। तब स्वामी जी
अपने गुरुभ्राता को संबोधित रके उत्तेजित होकर कहने लगे, यह जो वेदांत पढ़ा जा
रहा था, यह क्या ठाकुर की पूजा नहीं है? केवल एक चित्र के सामने जलती हुई
बत्ती घुमाना और झाँझ पीटना - मालूम होता है, इसी को तुम भगवान् की आराधना
समझते हो! तुम्हारी बुद्धि बड़ी ओछी है। इस तरह कहते कहते, ज़रा और भी अधिक
उत्तेजित हो इस प्रकार वेदांत-पाठ में बाधा उपस्थित करने के कारण कुछ और भी
अधिक कड़े वाक्य कहने लगे। फल यह हुआ कि वेदांत-पाठ बंद हो गया। कुछ देर बाद
आरती भी समाप्त हो गयी। किंतु आरती के बाद उक्त गुरुभ्राता चुपके से कहीं
चले गए। तब तो स्वामी जी भी अत्यंत व्याकुल होकर बारंबार वह कहाँ गया,
क्या वह मेरी गाली खाकर गंगा में तो नहीं डूब गया। इस तरह कहने लगे और सभी
लोगों को उन्हें ढूँढ़ने के लिए चारों ओर भेजा। बहुत देर बाद मठ की छत पर
चिंतित भाव से उन्हें बैठे हुए देखकर एक व्यक्ति उन्हें स्वामी जी के पास
ले आए। उस समय स्वामी जी का भाव एकदम परिवर्तित हो गया। उन्होंने उनका कितना
दुलार किया, और कितनी मधुर वाणी में उनसे बातें करने लगे। हम लोग स्वामी जी
का गुरुभाई के प्रति अपूर्व प्रेम देखकर मुग्ध हो गए। तब हम लोगों को मालूम
हुआ कि गुरुभाइयों के ऊपर स्वामी जी का अगाध विश्वास और प्रेम है। उनकी
आंतरिक चेष्टा यही रहती थी कि वे लोग अपनी निष्ठा को सुरक्षित रखकर अधिकाधिक
उन्नत एवं उदार बन सकें। बाद में स्वामी जी के श्रीमुख से अनेक बार सुना है
कि स्वामी जी जिनकी अधिक भर्त्सना करते थे, वे ही उनके विशेष प्रीति-पात्र
थे।
१४
एक दिन बरामदे में टहलते-टहलते उन्होंने मुझसे कहा, देख, मठ की एक डायरी रखना
और प्रत्येक सप्ताह मठ की एक रिपोर्ट भेजना। स्वामी जी के इस आदेश का
मैंने, और बाद में अन्य व्यक्तियों ने भी पालन किया था। अभी भी मठ की वह
आंशिक (छोटी) डायरी मठ में सुरक्षित है। उससे अभी भी मठ के क्रम-विकास और
स्वामी जी के संबंध में बहुत से तथ्य संग्रह किए जा सकते हैं।
[1]
श्री हरिपद मित्र द्वारा बंगला में लिपिबद्ध सामग्री का अनुवाद।
[2]
स्वामी जी ने जिस समय पूर्वोक्त विषयों का प्रतिपादन किया था, उस
समय विख्यात वैज्ञानिक जगदीशचंद्र बसु द्वरा प्रचारित तडि़त्प्रवाह
से जड़ पदार्थों का चेतनत्वरूप अपूर्व तत्व प्रकाशित नहीं हुआ था।
[3]
बांग्ला सन् 1320 के आषाढ़ मास के बंगला मासिक-पत्र 'उद्बोधन' में
स्वामी श्रद्धानंद का यह लेख प्रकाशित हुआ था।
[4]
मुण्डकोपनिषद् ।।2।2।5।।
[5]
मुण्डकोपनिषद् ।।2।2।5।।
[6]
श्वेताश्वतरोपनिषद् ।।2।5; 3।8।।
[7]
ये सैनफ्रांसिस्को (यू. एस. ए.) की वेदांत-समिति के अध्यक्ष थे।
अमेरिका में इनका कार्य-काल १९०६ ई. से १९२७ ई. तक था। ८ जुलाई, सन्
१८७४ को कलकत्ते में इनका जन्म हुआ था एवं १३ फ़रवरी, १९२७ ई. को
सैनफ्रांसिस्को की वेदांत-समिति में इनका देहांत हुआ।
[8]
ब्रह्मसूत्र ।।१।१।१९।।
[11]
भगवान् श्री रामकृष्ण देव।