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स्वामी विवेकानंद के लेख

स्वामी विवेकानंद

अनुक्रम विश्व को भारत का संदेश पीछे     आगे

(निम्नलिखित टिप्‍पणियाँ स्‍वामी विवेकानंद के कागजों में प्राप्‍त हुई थीं। वे एक ग्रंथ लिखना चाहते थे और उसके लिए उन्‍होंने ये बयालीस सूत्र लिख लिए थे, जो उसके सारांश रूप में थे| पर इनमें से केवल कुछ सूत्रों की व्‍याख्‍या की थी और शेष कार्य अपूर्ण ही रह गया । प्रतिलिपि जैसी प्राप्‍त हुई, नीचे दी जा रही है )

विषय -सूची

१. पाश्‍चात्‍य लोगों के लिए मेरा संदेश ओजस्‍वी रहा है। उससे भी अधिक ओजस्‍वी अपने देशवासियों के लिए।

२. विस्‍मयकारी पाश्‍चात्‍य देशों में मेरे चार वर्ष के प्रवास ने भारत को और भी अधिक स्‍पष्‍ट रूप से समझने में ही सहायता की है। छायाएँ अधिक गहरी और प्रकाश अधिक चटक हो गया है।

३. सर्वेक्षण यह है-यह सत्‍य नहीं है कि भारतीयों का पतन हो चुका है।

४. समस्‍या यहाँ भी वही रही है, जो अन्‍य सभी स्‍थानों में रही है-विभिन्‍न जातियों को आत्‍मसात करना पर अन्‍यत्र कहीं भी समस्‍या इंतनी विराट् नहीं रही, जितनी यहाँ।

५. भाषा, शासन और सर्वोपरि धर्म की एकता ही समन्‍वय की शक्ति रही है।

६. दूसरे देशों में समन्‍वय बलात् लाने का प्रयत्‍न किया गया है; अर्थात् किसी एक ही जाति की संस्‍कृति को शेष अन्‍य जातियों पर लादकर। उसके फलस्‍वरूप एक अल्‍पकालीन शक्तिपूर्ण राष्‍ट्रीय जीवन की उत्‍पत्ति हुई; और फिर विघटन हो गया।

७. इसके विपरीत भारत में समस्‍या जितनी ही विराट् रही, प्रयत्‍न उतना ही सौजन्‍यपूर्ण रहा; और अति प्राचीन काल से ही विभिन्न समुदायों के रीति-रिवाजों, और विशेषकर धर्मों के प्रति सहिष्‍णुता बढ़ती गई।

८. जहाँ समस्‍या अल्‍प और एकता स्‍थापित करने के लिए पर्याप्‍त शक्ति थी, वहाँ वस्‍तुत: परिणाम यह हुआ कि प्रमुख जाति को छोड़कर शेष में अन्‍य स्‍वस्‍थ जातियों का आदान अं‍कुरित होते ही विनष्‍ट हो गया। बुद्धयुक्‍त व्यक्तियों के केवल एक समुदाय ने विकास के अधिकांश से वंचित रह गया। और इस प्रकार उस प्रमुख तत्त्व (जाति) के क्षीण हो जाने पर वह अभेद्य प्रतीत होने वाला दुर्ग ढहकर खँडहर हो गया; उदाहरण हैं, यूनान, रोम और नार्मन लोग।

९. एक जातीय भाषा अत्‍यंन्‍त वांछनीय है; पर इस पर भी वही आलोचना लागू होती है-विविध विद्यमान भाषाओं की जीवनीशक्ति का विनाश।

१०. केवल एक ही हल संभव था-एक ऐसी महान् और पवित्र भाषा को खोजना-शेष सभी भाषाओं को, जिसकी विविध अभिव्यक्तियाँ माना जा सके, और वह भाषा संस्‍कृत में उपलब्‍ध हुई।

११. द्राविड़ भाषाएँ मूलत: संस्‍कृत पूरक रही हों या न रही हों, पर आज समस्‍त व्‍यावहारिक दृष्टियों से वह संस्‍कृत पूरक हैं और प्रतिदिन वे अपनी पृथक् जीवंत विशिष्‍टताओं को रखते हुए भी, संस्‍कृत के आदर्श के समीप ही आ रही हैं ।

१२. एक जातिय पृष्‍ठभूमि भी उपलब्‍ध हुई-आर्य।

१३. यह अनुमान कि मध्‍य एशिया से वाल्टिक सागर तक कोई विशिष्‍ट पृथक् जाति, जिसे आर्य कहा जाता था, रहती थी या नहीं।

१४. तथाकथित प्रकार। जातियाँ सर्वदा मिश्रित रही हैं।

१५. 'गौरी' और 'श्‍यामा' जातियाँ।

१६. तथा‍कथित ऐतिहासिक कल्‍पना को छोड़कर हम सामान्‍य व्‍यावहारिक ज्ञान के धरातल पर उतरे। अपने प्राचनीतम अभिलेखों के अनुसार आर्य लोग तुर्किस्‍तान, पंचनाद और उत्तरी-पश्चिमी तिब्‍बत के मध्‍यवर्ती भूखंड में रहते थे।

१७. इसका परिणाम होता है, विभिन्‍न स्‍तर की संस्‍कृतिवाली जातियों-उपजातियों के सम्मिश्रण-समन्‍वय का प्रयत्‍न।

१८. जैसे भाषा संम्‍बंन्धी समस्‍या हल बनी संस्‍कृत, ठीक वैसे ही जाति संबंधी समस्‍या का हल बनी आर्यं जाति। और वैसे ही विभिन्‍न स्‍तर की उन्‍नति और संस्‍कृति तथा सभी सामाजिक और राजनीति‍क समस्‍याओं का हल निकला ब्राह्मणत्‍व !

१९. भारत का महान् आदर्श-ब्राह्राणत्व।

२०. संपत्तिहीन, नि: स्‍वार्थ, नैतिक विधान के अतिरिक्‍त अन्‍य किसी शासक या कानून के अधीन रहीं।

२१. जन्‍म से ब्राह्मणत्‍व-विभिन्न जातियों ने अतीत में और वर्तमान काल में भी ब्राह्मणत्‍व के अधिकार की माँग की है और प्राप्‍त किया है।

२२. पर महान कार्यों को संपन्‍न करने वाले कभी कोई माँग नहीं करते ; माँग तो केवल आलसी निकम्‍मे मूर्खों द्वारा की जाती है।

२३. ब्राह्मणत्‍व और क्षत्रियत्‍व का पतन। पुराणों ने कहा था कि कलियुग में केवल अब्राह्मण ही होंगे; और यह सत्‍य है, प्रतिदिन अधिकाधिक सत्‍य होता जा रहा है। फिर भी कुछ ब्राह्मण शेष रहते हैं, और केवल भारत में।

२४. क्षत्रियत्‍व-ब्राह्मण बनने के लिए यह सोपान पार करना होगा। अतीत में कुछ ने पार कर लिया होगा, पर वर्तमान के लोगों की तो प्रत्‍यक्ष दिखाना होगा।

२५. पर इस समस्‍त आयोजना की विवृत्ति तो धर्म में ही मिलेगी।

२६. एक ही जाति के विभिन्‍न कबीले एक ही जैसे देवताओं की उपासना करते हैं, जिनका एक सामान्‍य जाति-नाम होता है, जैसे बेबिलोन वासियों के देवता 'बाल', अथवा हिंदू लोगों के देवता 'मौलिक'।

२७. बेबिलोनिया में सभी 'बाल' देवों को एक देव 'बाल मेरोदक्' में विलय करने का प्रयत्‍न। इजराइल वालों का सभी 'मोलोक' देवों को एक 'मोलोक यवह' अथवा 'याहु' में विलय करने का प्रयत्‍न।

२८. बेबिलोनवासियों का विनाश ईरानियों ने किया; और बेबिलोन की पौराणिक परंपरा को अपनाने और उसे अपनी आवश्‍यकताओं के अनुकूल ढालने वाले हिब्रू लोगों को एक कठोर एकेश्‍वरवादी धर्म की स्‍थापना करने में सफलता मिली।

२९. निरंकुश राजतंत्र की भांति एकेश्‍वरवाद भी आदेश-पालन में तेज और केंद्रीकरण में सहायक शक्ति होता है। पर इससे आगे उसका विकास नहीं होता और उसकी सबसे बड़ी बुराई है, उसकी क्रूरता और अत्‍याचार। उसके प्रभाव में आनेवाली सभी जातियाँ कुछ वर्षों के ज्‍वलंत जीवन के बाद बहुत शीघ्र नष्‍ट हो जाती है।

३०. भारत में वही समस्‍या उठ खड़ी हुई-उसका समाधान मिला -

एक सद्विप्रा बहुधा वदन्ति।

यही उस सबका मूल स्‍वर है जो बाद में हुआ-भवन की आधारशिला।

३१. इसका फल है वेदांतियों की अद्भुत सहिष्‍णुता।

३२. इसलिए सबसे बड़ी समस्‍या है इन विविध तत्त्वों का, बिना उनका विशिष्‍ट व्‍यक्तित्‍व नष्‍ट किए हुए, समन्‍वय करता-उन्‍हें एक सूत्र में बाँध देना।

३३. किसी भी ऐसे धर्म में, जो व्यक्तियों पर आधारित है, वे व्यक्ति चाहे इस धरती के हों और चाहे स्‍वर्ग के, इस कार्य को संपादित करने की सामर्थ्‍य नहीं है।

३४. यही अद्वैत दर्शन की महिमा है, जो एक तत्त्व का उपदेश देता है, व्यक्ति का नहीं; और फिर भी लौकिक और अलौकिक, दोनों ही प्रकार के व्यक्तियों को कार्य करने का पूर्ण अवसर देता है।

३५. ऐसा निरंतर होता रहा है; और इस अर्थ में हम सर्वदा प्रगतिशील रहे हैं। मुसलमान शासन-काल में पैंगंबर।

३६. यह प्रगति प्राचीन काल में पूर्णरूपेण सजग और सशक्‍त रही है; पर कुछ समय से अब उसमें कमी आ गई है; केवल इसी अर्थ में हमारा पतन हुआ है।

३७. भविष्‍य में यह होने जा रहा है। यदि शेष समस्‍त समुदायों के श्रम का उपयोग करने वाली एक जाति की शक्ति की अभिव्यक्ति कम से कम एक विशेष अवधि में आश्चर्यजनक फल उत्‍पन्‍न कर सकती है, तो फिर यहाँ उन समस्‍त जातियों का संचयन और केंन्‍द्रीकरण होने जा रहा है, जिनके विचारों का और रक्‍त का सम्मिश्रण मंद गति से, पर अनिवार्य रूप से होता आ रहा है; और मैं अपने मानस-चक्षुओं से उस भावी विराट् पुरुष को धीरे-धीरे परिपक्‍व होता देख रहा हूँ 'धरती के समस्‍त राष्ट्रों में कनिष्‍ठतम, सर्वाधिक महिमा मंडित और ज्‍येष्‍ठतम भारत का भविष्‍य।

३८. इसका मार्ग-हमें कर्मरत होना होगा। सामाजिक रीति- रिवाज बाधक हैं; कुछ तो स्‍मृतियों पर आधारित हैं। पर श्रुतियों पर आधारित कोई नहीं है। स्‍मृतियों को यथाकाल बदलना ही होगा। यही स्‍वीकृत विधान है।

३९. वेदांत के सिद्धांतों का उपदेश न केवल भारत में सर्वत्र होना चाहिए, बल्कि भारत के बाहर भी। प्रत्‍येक राष्‍ट्र की मनश्‍चेतना में ह‍मारे विचारों का प्रवेश होना चाहिए, लेखों-ग्रंथों द्वारा नही, बल्कि व्यक्तियों द्वारा।

४०. कलियुग में दान ही एकमात्र कर्म है। [1] जब तक कर्म द्वारा शुद्ध न हो, तब तक किसी को ज्ञान की प्राप्ति नहीं होती ।

४१. आध्‍यात्मिक और लौकिक ज्ञान का दान ।

४२. राष्‍ट्र की पुकार-त्‍याग, त्‍यागी पुरुष।

भूमिका

मेरे प्रिय देशवासियों, पाश्चात्य लोगों के लिए मेरा संदेश ओजस्‍वी रहा है; तुम्‍हारे लिए मेरा संदेश उससे भी अधिक ओजस्‍वी है। मैंने यथाशक्ति प्रयत्‍न किया है कि नवीन पश्चिमी राष्‍ट्रों के लिए पुरातन भारत का संदेश मुखरित करूँ भविष्‍य निश्चित रूप से बताएगा कि मैंने यह कार्य सम्‍यक् रूप से संपन्न किया या नही; पर उस अनागत भविष्‍य के सशक्त-सबल स्‍वरों का कोमल पर स्‍पष्‍ट मर्म अभी से सुनायी देने लगा है-भावी भारत का संदेश वर्तमान भारत के लिए; और जैसे- जैसे दिन बीतते हैं, यह मर्मर ध्‍वनि सबलतर, स्‍पष्‍टतर होती जाती है।

जिन विविध जातियों के देखने-समझने का सौभाग्‍य मुझे मिला, उनके बीच मैंने अनेक आश्‍चर्यजनक संस्‍थाओं, प्रथाओं, रीतीरिवाजों और शक्ति तथा बल की अद्भुत अभिव्यक्तियों का अध्‍ययन किया गया है; पर इन सबमें सर्वाधिक विस्‍मयकारी यह उपलब्धि थी कि रहन-सहन, प्रथाओं, संस्‍कृती और शक्ति की इन बाहय विभिन्‍नताओं इन ऊपरी विभेदों के अंतराल में एक ही प्रकार के दु:ख सुख से, एक ही प्रकार की शक्ति और दुर्बलता से अनुप्र‍ेरित वही महीजस मानव हृदय स्‍पंदित है।

शुभ और अशुभ सर्वत्र है, और दोनों के पलड़े अद्भुत रूप से बराबर हैं। पर सर्वत्र सर्वोपरि है मनुष्‍य की महिमामयी आत्‍मा, जो उसकी ही भाषा में बोलने वाले किसी भी व्यक्ति को समझने में कभी नहीं चूकती। हर जगह ऐसे नर-नारी हैं, जिनका जीवन मानव जाति के लिए वरदान है और जो दिव्‍य सम्राट अशोक के इन शब्‍दों को सत्‍य सिद्ध करते हैं : 'प्रत्‍येक देश में ब्राह्मणों और श्रमणों का निवास है।'

केवल शुद्ध और निष्‍काम आत्मा द्वारा ही संभव प्रेम के साथ मेरा स्‍वागत सत्‍कार करने वाले उन अनेक सहृदय पुरुषों के लिए मैं पाश्‍चात्‍य देशों का आभारी हूँ। पर मेरे जीवन की निष्‍ठा तो मेरी इस मातृभूमि के प्रति अर्पित है। और यदि मुझे हजार जीवन भी प्राप्‍त हों, तो प्रत्‍येक जीवन का प्रत्येक क्षण, मेरे देशवासियों, मेरे मित्रों, तुम्‍हारी सेवा में अर्पित रहेगा।

क्‍योंकि मेरा जो कुछ भी है-शरीरिक, मानसिक और आत्मिक सब का सब इसी देश की देन है; और यदि मुझे किसी अनुष्‍ठान में सफलता मिती हैं, तो तुम्‍हारी है, मेरी नहीं। मेरी अपनी तो केवल दुर्बलताएँ और असफलताएँ हैं; क्‍योंकि जन्‍म से ही जो महान् शिक्षाएँ इस देश में व्यक्ति को अपने चतुर्दिक बिखरी और छायी मिलती हैं, उनसे लाभ उठाने की मेरी असमर्थता से ही इन दुर्बलताओं और असफलताओं की उत्‍पत्ति हुई है।

और कैसा है यह देश ! जिस किसी के भी पैर इस पावन धरती पर पड़ते हैं वही, चाहे वह विदेशी हो चाहे इसी धरती का पुत्र, यदि उसकी आत्‍मा जड़पशुत्‍व की कोटि तक पतित नहीं हो गई तो अपने आपको पृथ्‍वी के उन सर्वोत्‍कृष्ट और पावनतम पुत्रों के जीवंत विचारों से घिरा हुआ अनुभव करता है, जो शताब्दियों से पशुत्‍व को देवत्‍व तक पहुँचाने के लिए श्रम करते रहे हैं और जिनके प्रादुर्भाव की खोज करने में इतिहास असमर्थ है। जहाँ की वायु भी आध्‍यात्मिक स्‍पंदनों से पूर्ण है। यह धरती दर्शन शास्‍त्र, नीति-शास्‍त्र और आध्‍यात्मिकता के लिए, उन सबके लिए जो पशु को बनाए रखने के हेतु चलने वाले अविरत संघर्ष से मनुष्‍य को विश्राम देता है, उस समस्‍त शिक्षा-दीक्षा के लिए जिससे मनुष्‍य पशुता का जामा उतार फेंकता और जन्‍म मरणहीन सदानंद अमर आत्‍मा के रूप में आविर्भूत होता है, पवित्र है। यह वह धरती हैं, जिसमें सुख का प्‍याला परिपूर्ण हो गया था और दु:ख का प्‍याला और भी अधिक भर गया था; अंतत: यहीं सर्वप्रथम मनुष्‍य को यह ज्ञान हुआ कि यह तो सब निस्‍सार है; यही सर्वप्रथम यौवन के मध्‍याह्य में, वैभव विलास की गोद में, ऐश्‍वर्य के शिखर पर और शक्ति के प्राचुर्य में मनुष्‍य ने माया की श्रृखंलाओं को तोड़ दिया। यहीं मानवता के इस महासागर में, सुख और दु:ख, शक्‍ति और दुर्बलता, वैभव और दैन्‍य, हर्ष और विषाद, स्मित और आँसू तथा जिवन और मृत्‍यु के प्रबल तरंगाघातों के बीच, चिरंतर शांति और अनुद्विगता की घुलनशील लय में, त्‍याग का राजसिंहासन आर्विभूत हुआ ! यहीं इसी देश में जीवन और मृत्‍यु की, जीवन की तृष्‍णा की और जीवन के संरक्षण के निमित्त किए गए मिथ्‍या और विक्षिप्‍त संघर्षों की महान समस्‍याओं से सर्वप्रथम जूझा गया और उनका समाधान किया गया-ऐसा समाधान जो न भूतो न भविष्‍यति क्‍योंकि यहाँ पर, और केवल यहीं पर इस तथ्‍य की उपलब्धि हुई कि जीवन भी स्‍वत: एक अशुभ है, किसी एक मात्र सत्‍य तत्त्व की छाया मात्र । यही वह देश है जहाँ, और केवल जहाँ पर धर्म व्‍यावहारिक और यथार्थ था; और केवल यहीं पर नर- नारी लक्ष-सिद्धि के लिए परम पुरुषार्थ के लिए साहस पूर्वक कर्मक्षेत्र में कूदे, जैसे अन्य देशों में लोंग अपने से दुर्बल अपने ही बंधुओं को लूटकर जीवन के भोगों को प्राप्‍त करने के लिए विक्षिप्‍त होकर झपटते हैं। यहाँ, और केवल यहीं पर मानव हृदय इतना विस्‍तीर्ण हुआ कि उसने केवल मनुष्‍य-जाति को ही, वरन पशु पक्षी और वनस्‍पति तक को भी अपने में समेट लिया- सर्वोच्‍च देवताओं से लेकर बालू के कण तक, महानतम और लघुतम सभी को मनुष्‍य के विशाल और अनंत बर्द्धित हृदय में स्‍थान मिला। और केवल यही पर मानवात्‍मा ने इस विश्‍व का अध्‍ययन एक अविच्छिन्‍न एकता के रूप में किया, जिसका हर स्‍पंदन उसका अपना स्‍पंदन है।

हम सभी भारत के पतन के संबंध में बहुत कुछ सुनते है। एक समय था, जब मैं भी इसमें विश्‍वास करता था। पर आज अनुभव की अग्रभूमि पर खड़े होकर,बाधात्‍मक पूर्व परिकल्‍पनाओं से दृष्टि को मुक्‍त करके, और सर्वोपरि, अन्‍य देशों के अतिरंजित चित्रों को प्रत्‍यक्ष संपर्क द्वारा उचित प्रकाश और छायाओं में देखकर मैं,अत्‍यंत विनम्रता के साथ, स्‍वीकार करता हूँ कि मैं गलत था। आर्यों के ए पावन देश। तू कभी पतित नहीं हुआ। राजदंड टूटते रहे और फेंक दिए जाते रहे हैं, शक्ति का कंदुक एक हाथ से दूसरे हाथ में उछलता रहा है, पर भारत में राजदरबारों और राजाओं का प्रभाव सर्वदा थोडे से लोगों को छू सका है -उच्‍चतम से निम्नतम तक जनता की विशाल राशि अपनी अनिवार्य जीनवधारा का अनुगमन करने के लिए मुक्‍त रही है, और राष्‍ट्रीय जीवनधारा कभी मंद और अर्द्ध चेतन गति से और कभी प्रबल गति से प्रवाहित होती रही है। उन बीसों ज्‍योतिर्मय शताब्दियों की अटूट श्रृखंला के सम्‍मुख मैं तो विस्‍मयाकुल, खड़ा हूँ, जिनके बीच यहाँ वहाँ एकाध धूमिल कड़ी है, जो अगली कड़ी को और भी अधिक ज्‍योतिर्मय बना देती है और इन के बीच इनकी गति में अपने सहज महिमामय पदक्षेप के साथ प्रगतिशील है मेरी यह जन्‍मभूमि अपने यशोपूरित लक्ष्‍य की सिद्धि के लिए- जिसे धरती या आकाश की कोई शक्ति रोक नहीं सकती-पशु मानव को देव-मानव में रूपांतरित करने के लिए।

हाँ, मेरे बंधुओं, यही गौरवमय भाग्‍य (हमारे देश का है), क्‍योंकि उपनिषदयुगीन सुदूर अतीत में, हमने इस संसार को एक चुनौती दी थी : न प्रजया धनेन त्‍यागेनैके अमृतत्त्वमानशु:-'न तो संतति द्वारा और न संपत्ति द्वारा, वरन केवल त्‍याग द्वारा ही अमृततुल्‍य की उपलब्धि होती है।' एक के बाद दूसरी जाति ने इस चुनौती को स्‍वीकार किया और अपनी शक्ति भर संसार की इस पहेली को कामनाओं के स्‍तर पर सुलझाने का प्रयत्‍न किया। वे सबकी सब अतीत में तो असफल रही है-पुरानी जातियाँ तो शक्ति और स्‍वर्ण की लोलुपता से उद्भुत पापाचार और दैन्‍य के बोझ से दबकर पिस-मिट गयीं, और नई जातियाँ गर्त में गिरने को डगमगा रही हैं। इस प्रश्‍न का तो हल करने के लिए अभि शेष ही है कि शांति की जय होगा या युद्ध की, सहिष्‍णुता की विजय होगी या असहिष्‍णुता की, शुभ की विजय होगी या अशुभ की, शरीर की विजय होगी या बुद्धि की, सांसारिकता की विजय होगी या आध्‍यात्मिकता की। हमने तो युगों पहले इस प्रश्‍न का अपना हल ढूँढ़ लिया था और सौभाग्‍य या दुर्भाग्‍य के मध्‍य हम अपने उस समाधान पर दृढ़ारूढ हैं और कालांत तक उस पर दृढ़ रहने का संकल्‍प किए हुए हैं। हमारा समाधान है: असांसारिकता - त्‍याग।

भारतीय जीवन-रचना का यही प्रतिपाद्य विषय है, उसके अनंत संगीत का यही दायित्‍व है, उसके अस्तित्‍व का यही मेरूदंड है, उसके जीवन की यही आधारशिला है, उसके अस्तित्‍व का एक मात्र हेतु-मानव जाति का आध्‍यात्‍मीकरण। अपने इस लंबे जीवन- प्रवाह में भारत अपने इस मार्ग से कभी भी विचलित नहीं हुआ, चाहे तातारों का शासन रहा हो और चाहे तुर्कों का, चाहे मुगलों ने राज्‍य किया हो और चाहे अंग्रेजों ने ।

और मैं चुनौती देता हूँ कि कोई भी व्‍यक्ति भारत के राष्‍ट्रीय जीवन का कोई भी ऐसा काल मुझे दिखा दे, जिसमें यहाँ समस्‍त संसार को हिला देने की क्षमता रखने वाले आध्‍यात्मिक महापुरुषों का अभाव रहा हो। पर भारत का कार्य आध्‍यात्मिक है; और यह कार्य रण-भेरी के निनाद से या सैन्‍य दलों के अभियानों से तो पूरा नहीं किया जा सकता। भारत का प्रभाव धरती पर सर्वदा मृदुल ओस-कणों की भाँति बरसा है, नीरव और अव्‍यक्‍त, पर सर्वदा धरती के सुंदरतम सुमनों को विकसित करने वाला। प्रकृत्‍या मृदुल होने के कारण विदेशों में जाने- प्रभविष्‍णु होने के लिए इसे परिस्थितियों के एक सुयोगपूर्ण संघटन की प्रतीक्षा करनी होगी। यद्यपि उपने देश की सीमा के भीतर इसकी सक्रियता कभी बंद नहीं हुई इसलिए प्रत्‍येक शिक्षित व्यक्ति जानता है कि जब कभी साम्राज्‍य-निर्माता तातार या ईरानी, या यूनानी अथवा अरब लोग इस देश को बाह्य संसार के संपर्क में लाए, तभी व्‍यापक आध्‍यात्मिक प्रभाव की एक लहर यहाँ से समूचे संसार पर फैल गयी। ठीक वही परिस्थितियाँ एक बार फिर आकर हमारे सम्‍मुख खड़ी हो गई हैं। धरती और सागर के यातायात, मार्ग और उस छोटे से द्वीप के निवासियों द्वारा प्रदर्शित अद्भुत शक्ति ने एक बार फिर भारत को शेष संसार का संपर्क में ला दिया है, और वही काम फिर से प्रारंम्‍भ हो चुका है। मेरे शब्‍दों पर ध्‍यान दो-यह तो मेरे प्रारंभ मात्र है; महान सिद्धियों के बाद में उपलब्‍ध होंगी; यह तो मैं निश्चित रूप से जानता हूँ कि प्रत्‍येक सभ्‍य देश में लाखों मैं जान-बूझकर करता हूँ-लाखों व्यक्ति उस संदेश की प्रतीक्षा कर रहे हैं, जो उन्‍हें भौतिकता के उस घृणित गर्त में गिरने से बचा लेगा, जिसकी और आधुनिक अर्थोपासना उन्‍हें ऑंख मूँदकर ढकेल रही है; और नवीन सामाजिक आंदोलनों के अनेक अग्रणी पहले ही से समझ चुके हैं कि केवल वेदांत ही अपने सर्वोच्‍च रूप में उनकी सामाजिक आकांक्षाओं को आध्‍यात्मिकता प्रदान कर सकता है । अंत में मुझे इस विषय की ओर लौटना होगा। इसलिए मैं दूसरा महान् विषय उठाता हूँ-देश के भीतर कर्तव्‍य कर्म।

समस्‍या के दो पहलू है: जिन विविध तत्त्वों से राष्‍ट्र निर्मित है उनका न केवल आध्यात्मीकरण, बल्कि उनको आत्‍मसात करना भी। प्रत्‍येक राष्‍ट्र के जीवन में विभिन्‍न जातियों का आत्‍मसात किया जाना-समन्‍वय-एक सामन्‍य समस्‍या रही है।



[1] दानमेकं कली युगे । महाभारत ।


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