इस वर्ष थियोसॉफिस्ट़ अपनी जयंती मना रहे हैं और उनकी २५ वर्ष की गतिविधि और
कार्यालयों की कई एक विज्ञापिकाएँ हमारे सम्मुख हैं ।
अब किसी को यह कहने का अधिकार नहीं है कि हिंदू एक दोष की सीमा तक उदार नहीं
है। युवक हिंदुओं का एक गुट, थपकियों और धक्कों के सर्वांगीण कवच से आरक्षित
और महात्मीय गोलियों से आगे-पीछे आघात-प्रतिघात करने वाली अमेरिकन
प्रेतात्मवाद की इस कलम का स्वागत करने के लिए मिल गया है।
थियोसॉफिस्टो का दावा है कि उन्हें इस विश्व का आदिम दिव्य ज्ञान प्राप्त है।
हमें यह जानकर प्रसन्नता हुई है ; यह जानकर और भी अधिक प्रसन्नता हुई है कि वे
अपने इस ज्ञान को बड़ी दृढता के साथ एक रहस्य बनाए रखना चाहते हैं। अभाग्य और
दुर्दिन होगा हम दीन मर्त्य लोगों का, और विशेषकर हिंदुओं का, यदि यह सारा
ज्ञान एक साथ धावा बोल दे ! वर्तमान थियोसॉफी का अर्थ है श्रीमती बेसेन्ट।
ब्लेवेटेस्कीवाद और ऑल्कटवाद
[1]
तो लगता है पीछे रह गए हैं। श्रीमती बेसेन्ट का उद्देश्य कम से कम अच्छा है-और
कोई भी व्यक्ति उनके धैर्य और उत्साह को अस्वीकार नहीं कर सकता।
बेशक छिद्रान्वेषी आलोचक भी हैं। जहाँ तक हमारा संबंध है, हमें थियोसॉफी में
अच्छाई के अतिरिक्त और कुछ नहीं दिखाई देता-उसमें भी अच्छाई जो स्पष्टत:
कल्याणकारी है, उसमें भी अच्छाई जिसे लोग अपकारक कहते हैं, पर जिसे हम
अप्रत्यक्ष शुभ कहते हैं-विभिन्न स्वर्गों और अन्य स्थानों तथा उनके निवासियों
का गहन भौगोलिक ज्ञान; और सजीव थियोसॉफिस्टों के साथ प्रेतात्माओं के संवाद का
सहगामी दृश्य जगत् पर सूक्ष्म अंगुलि क्षेप यही सब कुछ । क्योंकि जहाँ तक हम
जानते हैं , थियोसॉफी ही वह सर्वोत्कृष्ट सीरम(serum) है, जिसका इंजेक्शन अपने
को स्वस्थ कहलाने की चेष्टा करने वाले कुछ मस्तिष्कों में जो अद्भुत कीट-पतंग
बसते हैं, उन्हें विकसित करने में कभी भी सफल नहीं होता।
थियोसॉफी समाज अथवा अन्य किसी समाज द्वारा किए गए अच्छे कार्य की उपेक्षा या
अवमानना करने की हमारी कोई इच्छा नहीं है। फिर भी, अतीत काल में अतिशयोक्ति
हमारी जाति के लिए घातक रही है और यदि थियोसॉफी के कार्य के संबंध में लखनऊ के
"एडवोकेट" में प्रकाशित कई लेखों को लखनऊ की मन:स्थिति का मानदंड मान लिया
जाए, तो कुछ न कहते हुए हम इतना कहेंगे कि जिनका प्रतिनिधित्व ये लेख करते
हैं, उनके लिए हमें अफसोस है। मूर्खतापूर्ण अवमूल्यन दुष्टता है, किंतु अतिशय
प्रशंसा भी कम कुत्सित नहीं होती।
अमेरिकन प्रेतात्मावाद की इस हिंदुस्तानी कलम में-जिसमें कुछ संस्कृत शब्दों
ने प्रतात्मवादी शब्दजाल का स्थान ले लिया है-- प्रेतों की थपकियों और धक्कों
का स्थान महात्मीय क्षेप्यास्त्रों ने और प्रेतबाधा का स्थान महात्मीय
अंत:प्रेरणा ने ले लिया है।
"एडवोकेट" में प्रकाशित लेखों के लेखक में इस सबके ज्ञान का आरोप हम नहीं कर
सकते; पर लेखक महोदय को अपने थियोसॉफिस्ट भाईयों और स्वंय अपने को हिंदू जाति
के साथ एक समझने की भूल नहीं करनी चाहिए; अधिकांश हिंदू जाति ने प्रारंभ से ही
थियोसॉफी के घटनाचक्र को अच्छी तरह समझ लिया था और वह, महान् स्वामी दयानंद
सरस्वती के नेवृत्व में, जिन्होंने ब्लैवेटेस्कोवाद की वास्तविकता पहचानते ही
ऊपर से अपनी छत्र छाया हटा ली थी, थियोसॉफी से दूर ही रही।
और फिर उपयुक्त लेखक महोदया का जो भी पक्षपात हो, आज इन कलियुग में भी हिंदुओं
के बीच उनके अपने धार्मिक उपदेशक और धार्मिक शिखाएँ पर्याप्त मात्रा में हैं ,
और उन्हें रूसियों और अमेरिकनों के मृत प्रेतों की कोई आवश्यकता नहीं है।
उपर्युक्त लेख हिंदुओं पर और उनके धर्म पर अपमानजनक आरोप है। उपयुक्त लेखक की
ओर उस जैसे अन्य लोगों की हमेशा के लिए समझ लेना चाहिए कि हम हिंदुओं को
पश्चिम से धर्म का आयात करने की न तो आवश्यकता ही है और न इच्छा ही। अन्य
प्रत्येक वस्तु का आयात करने में ही हमारा पतन बहुत काफी हो चुका है।
हमारा विश्वास है कि धर्म के आयात का कार्य पश्चिम के लोगों को और से ही होना
चाहिए; और हमारा कार्य सर्वदा इसी दिशा में होता रहा है। पश्चिम के
थियोसॉफिस्टों द्वारा हिंदुओं के धर्म को जो एकमात्र सहायता प्राप्त हुई है वह
तैयार खेत जाने जैसी सहायता नहीं है, वरन् उनकी जादूगरी के करतबों द्वारा
जनित, वर्षों का कठोर परिश्रम ही उनकी देन है। लेखक महोदय को यह ज्ञात होना
चाहिए था कि श्री मैक्समूलर जैसे विद्वानों और श्री एडविन ऑर्नल्ड जैसे कवियों
का पल्ला पकड़कर और साथ ही इन्हीं लोगों पर कीचड़ उछालते हुए-तथा स्वयं अपने
आपको विश्व ज्ञान का एकमात्र पात्र बताते हुए थियोसॉफिस्ट लोग पश्चिम के समाज
के हृदय में रेंगकर घुस जाना चहाते थे। और हम तो राहत की साँस लेते हैं कि यह
अद्भुत ज्ञान एक रहस्य बनाकर ही रखा जाता है। भारतीय चिंतन, मायावी पाखण्ड ओर
हाथ पर आम उगाने वाली फकीरी विद्या-यह सब पश्चिम के शिक्षित लोगों के दिमाग
में एक ही बन गए थे। थियोसॉफिस्टों द्वारा हिंदू धर्म की सहायता बस केवल इतनी
ही है।
थियोसॉफी द्वारा हर देश में जो तात्कालिक प्रत्यक्ष महान् कल्याण हमारी दृष्टि
से हुआ है, वह है यक्ष्मा के रोगी के फेफड़ों में दिए जाने वाले प्रोफेसर कोच
के इंजेक्शनों की भाँति, स्वस्थ, आध्यात्मिक, कर्मठ और देशभक्त लोगों को
पाखंडियों, अस्वस्थ और आध्यात्मिक होने का ढोंग करने वाले पतनशील व्यक्तियों
ये अलग कर देना।
[1]
थियोसॉफी के अग्रणी मैडम ब्लैवेटेस्की और श्री ऑल्कट के सिद्धांत ।