यह विश्व किसमें अवस्थित है, विश्व में कौन विराजमान है, विश्व-रूप कौन है;
आत्मा की स्थिति किसमें है, आत्मा में कौन है, मनुष्य की आत्मा है कौन;
उसका-और इसीलिए इस विश्व का-अपनी आत्मा के रूप में ज्ञान ही समस्त भय का
विनाश और क्लेश का अंत करता है और अनंत मुक्ति की उपलब्धि कराता है। जहाँ
कहीं भी प्रेम का विस्तार हुआ है अथवा व्यक्ति या समुदाय के कल्याण की
वृद्धि हुई है, इस शाश्वत सत्य-'समस्त प्राणी का एकत्व' के ज्ञान, अनुभव
और व्यवहार द्वारा ही हुई है। 'पराधीनता दैन्य है। स्वाधीनता ही सुख है।'
अद्वैत ही एकमात्र दर्शन है, जो मनुष्य को अपनी पूर्ण उपलब्धि कराता है-अपना
स्वामी बना देता है; समस्त पराधीनता और उससे संबंधित अंधविश्वास को उतार
फेंकता है और इस प्रकार हमें कष्ट झेलने में वीर, कर्म करने में वीर बनाता है
और अंतत: परम मुक्ति-लाभ करा देता है।
अब तक द्वैतवादात्मक दुर्बलताओं से पूर्णत: मुक्त रूप में इस मंगलमय सत्य
का उपदेश संभव नहीं हो सका; हमारा विश्वास है कि एकमात्र इसी कारण यह अधिक
प्रभविष्णु और मानव जाति के लिए उपयोगी नहीं हो सका।
व्यक्तियों के जीवन के उदात्त और मनुष्य जाति को संप्रेरित करने के अभियान
में इस सत्य को अधिक मुक्त और अधिक पूर्ण अवसर प्रदान करने के उद्देश्य से
हम इसकी आदि स्फुरण-भूमि, हिमालय के शिखरों पर इस अद्वैत आश्रम की स्थापना
कर रहे हैं।
आशा है कि यहाँ अद्वैत दर्शन को समस्त अंधविश्वासों और दुर्बलताजनक दूषणों के
संस्पर्श से मुक्त रखा जा सकेगा। यहाँ एकमात्र शुद्ध सरल एकत्व सिद्धांत के
अतिरिक्त और कुछ न पढ़ाया जाएगा, न व्यवहार में लाया जाएगा; और अन्य सभी
दर्शनों से हमारी पूर्ण सहानुभूति होते हुए भी, यह आश्रम अद्वैत-केवल अद्वैत
के लिए ही समर्मित है।
रामकृष्ण सेवाश्रम, बनारस : एक अपील
[1]
प्रिय -
कृपया रामकृष्ण सेवाश्रम, बनारस का गत वर्ष का यह विवरण-पत्र आप स्वीकार
करें, जिसमें उन विनम्र प्रयासों का एक संक्षिप्त लेखा है, जिनके द्वारा उस
दैन्यपूर्ण स्थिति के, जिसमें इस नगर के हमारे अनेक भाई-बंधु, प्राय: वृद्ध
स्त्री-पुरुष, कष्ट झेल रहे हैं, यत्किंचित सुधार की चेष्टा की गई है।
बौद्धिक जागरण और सतत जागरुक जनमत के इस युग में हिंदुओं के तीर्थस्थान, उनकी
स्थिति और उनकी कार्य-प्रणाली भी आलोचकों की तीक्ष्ण दृष्टि से बच नहीं सके;
और समस्त हिंदू जाति की इस पावन पावनानां काशी नगरी को भी आलोचना का अपना
पूरा-पूरा भाग मिला है।
अन्य तीर्थ स्थानों में लोग पाप से आत्म-शुद्धि की खोज में जाते हैं और इन
स्थानों से उनका संबंध यदा-कदा संयोगवश और कुछ दिनों का होता है। यहाँ,
आर्य-धर्म-चर्चां के इस प्राचीनतम और जीवंत केंद्र में नर-नारी अनपवाद रूप से
वृद्ध और जरा-जर्जर दुर्बल लोग, भगवान् विश्वनाथ के मंदिर की छाया तले परम
पवित्रतादायक साधन मृत्यु द्वारा अनंत मुक्ति-प्राप्ति की कामना से उसकी
प्रतीक्षा करने आते हैं।
और फिर कुछ ऐसे लोग हैं, जिन्होंने विश्व-कल्याण के लिए सब कुछ त्याग दिया है
और अपने रक्त मांस के अंश-अपने पिता माता, बाल-बच्चों और बाल सहचरों की सहायता
से सदा-सर्वदा के लिए रहित हो गए हैं।
यह बात सही हो सकती है कि कुछ दोष नगर की प्रबंध-व्यवस्था का भी है। यह सही हो
सकता है कि पंडों-पुरोहितों की जो आलोचना इतने मुक्त रूप से की जाती है, वे
उसके पात्र हों; फिर भी हमें इस महान् सत्य को न भुला देना चाहिए कि-जैसा समाज
वैसे ही पुरोहित पुजारी ! यदि लोग हाथ पर हाथ रखे, दर्शक बनकर, अपने द्वार पर
ही दैन्य की प्रखर धार में आबालवृद्ध नर नारियों को; गृहस्थों और संन्यासियों
को बिलखते-बहते असहाय दु:ख के आवर्त में गिरते देखें, किसी एक को भी उबार देने
का प्रयत्न नहीं करते, बल्कि तमाशा देखते हैं ; और केवल तीर्थस्थानों के
पुरोहित पुजारियों के दुष्कृत्यों का राग अलापते हैं, तो इस दैन्य का एक कण भी
कभी कम नहीं हो सकता, किसी एक की भी कभी सहायता नहीं हो सकती। क्या हम चाहते
हैं कि इस सनातन शिवधाम को मुक्ति-प्रदाता मानने का हमारे पूर्वजों का विश्वास
अचल रहे ?
यदि हम चाहतें हैं, तो प्रतिवर्ष प्राण त्याग के लिए यहाँ आनेवालों की संख्या
में वृद्धि देखकर हमें प्रसन्नता होनी चाहिए। और धन्य है भगवान के नाम को कि
दीन जनों में सदा की भांति मुक्ति की यह उत्कट कामना जागरूक है।
बंधु, अंतिम अवसान की साधना-भूमि इस अद्भुत नगरी का विलक्षण आकर्षण क्या आपको
स्तब्ध और विचार-विमुग्ध नहीं बना देता? मृत्यु-द्वार से मुक्ति-धाम को
प्रस्थान करता हुआ। तीर्थयात्रियों का यह सनातन अनंत प्रवाह क्या आपको एक
रहस्यपूर्ण श्रद्धा से अभिभूत नहीं कर देता?
यदि हाँ, तो फिर आइए, हमारा हाथ बटाइए।
इसकी चिंता मत करिए कि आपका योगदान केवल एक कण भर है, आपकी सहायता अत्यल्भ भले
ही हो, लेकिन पुरानी करावत है कि तिनकों से बटा हुआ रस्सा महामत्त गजराज को भी
बंधन में रखने में समर्थ होता है।
विश्वेश्वरपादश्रित, सदा आपका,
विवेकानन्द
[1]
फ़रवरी, १९०२ में, रामकृष्ण सेवाश्रम, बनारस के प्रथम विवरण-पत्र के
साथ प्रकाशित किए जाने के लिए स्वामी जी द्वारा लिखा गया पत्र ।