विनाशभव्ययस्यास्य व कश्चित्कर्तुमर्हति।
(भगवदगीता २।१७)
संस्कृत के उस विराट् महाकाव्य 'महाभारत में एक आख्यान है, जिसमें कथानायक युधिष्ठिर से धर्म ने प्रश्न किया कि संसार में सबसे आश्चर्यजनक क्या है ? युधिष्ठिर ने उत्तर दिया कि मनुष्य जीवन भर प्राय: प्रतिक्षण अपने चारों ओर सर्वत्र मृत्यु का ही दृश्य देखता है, फिर भी उसे ऐसा दृढ़ और अटल विश्वास है कि मैं मृत्युहीन हूँ। मानव जीवन में यही बात सचमुच सबसे अधिक आश्चर्यजनक है। यद्यपि भिन्न-भिन्न मतावलंबी भिन्न- भिन्न युगों में इसके विरुद्ध तर्क करते आए हैं, और यद्यपि इंद्रियग्राह्य और अतींद्रिय जगत् के बीच जो रहस्य का परदा सदा पड़ा रहेगा, उसका भेदन करने में बुद्धि असमर्थ है, तथापि मनुष्य पूर्ण रूप से यही मानता है कि वह मरणहीन है।
हम जन्म भर अध्ययन करने के पश्चात् भी अंत में जीवन और मृत्यु की समस्या को तर्क के स्तर पर प्रमाणित करके 'हाँ' या 'नहीं' में उत्तर देने में असफल रहेंगे। हम मानव जीवन की नित्यता या अनित्यता के पक्ष में या विपक्ष में चाहे जितना बोलें या लिखें, शिक्षा दें या उपदेश करें, हम इस पक्ष के या उस पक्ष के प्रबल या कट्टर पक्षपाती बन जाएँ; एक से एक पेचीदे सैकड़ों नामों का आविष्कार करके क्षण भर के लिए इस भ्रम में पड़कर भले ही शांत हो जाएँ कि हमने समस्या को सदा के लिए हल कर डाला; हम अपनी शक्ति भर किसी एक विचित्र धार्मिक अंधविश्वास या और भी अधिक आपत्तिजनक वैज्ञानिक अंधविश्वासों से चाहे चिपके रहें, परंतु अंत में हम यही देखेंगे कि हम तर्क की संकीर्ण गली में चिरंतन खेल ही कर रहे हैं और केवल बार बार मात खाने के लिए मानो एक के बाद एक बौद्धिक गोटियाँ उठाते और रखते जाते हैं।
परंतु केवल खेल की अपेक्षा बहुधा अधिक भयानक परिणामकारी इस मानसिक परिश्रम और यंत्रणा के पीछे एक यथार्थ वस्तु है, जिसका प्रतिवाद नहीं हुआ है और प्रतिवाद हो नहीं सकता -वह सत्य, वह आश्चर्य है, जिसे महाभारत ने 'अपने ही विनाश को सोच सकने की हमारी मानसिक असमर्थता' कहा है। यदि मैं अपने विनाश की कल्पना करूँ भी, तो मुझे साक्षीरूप से खड़े होकर उसे देखते रहना होगा।
अच्छा, अब इस अद्भुत व्यापार का अर्थ समझने का प्रयत्न करने के पूर्व हमें यह ध्यान में रखना है कि इसी एक वस्तु पर सारा संसार टिका हुआ है। बाह्य जगत् की नित्यता का अटूट संबंध अंतर्जगत् की नित्यता से है। और चाहे विश्व के विषय में वह सिद्धांत-जिसमें एक को नित्य और दूसरे को अनित्य बताया गया है-कितना ही युक्तिसंगत क्यों न दिखे, ऐसे सिद्धांतवाले को स्वयं ही अपने ही शरीररूपी यंत्र में पता चल जाएगा कि ज्ञानपूर्वक किया हुआ एक भी ऐसा कार्य संभव नहीं है, जिसमें कि आंतरिक और बाह्य संसार दोनों की नित्यता उस कार्य के प्रेरक कारणों का एक अंश न हो। यद्यपि यह बिल्कुल सच है कि जब मनुष्य का मन अपनी परिसीमाओं के परे पहुँच जाता है तब तो वह द्वंद्व को अखंड ऐक्य में परिणत हुआ देखता है। उस असीम सत्ता के इस ओर संपूर्ण बाह्य संसार-अर्थात् वह संसार जो हमारे अनुभव का विषय होता है-उसका अस्तित्व विषयी (ज्ञाता) के लिए है, ऐसा ही जाना जाता है,या केवल ऐसा ही जाना जा सकता हे। और यही कारण है कि हमें विषयी के विनाश की कल्पना करने के पूर्व विषय के विनाश की कल्पना करनी होगी।
यहाँ तक तो स्पष्ट है। परंतु अब कठिनाई उपस्थित होती है। साधारणत: मैं स्वयं अपने को देह के सिवाय और कुछ हूँ, ऐसा सोच नहीं सकता। मैं देह हूँ, यह भावना मेरी अपनी नित्यता की भावना के अंतर्गत है, परंतु देह तो स्पष्ट ही उसी तरह अनित्य है, जैसी कि सदा परिवर्तनशील स्वभावशाली समस्त प्रकृति।
तब फिर यह नित्यता है कहाँ ?
हमारे जीवन से संबंध रखनेवाली एक और अद्भुत वस्तु है, -- जिसके बिना 'कौन जी सकेगा और कौन क्षण भर के लिए भी जीवन का सुख भोग सकेगा ?'- और वह है मुक्ति की भावना'।
यही भावना हमें पग पग पर प्रेरित करती है, हमारे कार्यों को संभव बनाती है और हमारा एक दूसरे से परस्पर संबंध नियमित करती है-इतना ही नहीं, मानवीय जीवनरूपी वस्त्र का ताना और बाना यही है। बौद्धिक ज्ञान उसे अपने प्रदेश से अंगुल अंगुल हटाने का प्रयत्न करता है, उसके प्रांत की एक एक चौकी छीनता जाता है और प्रत्येक पग को कार्य-कारण की लौह श्रृंखलाओं द्वारा दृढ़ता के साथ कस दिया जाता है। पर वह तो हमारे इन सारे प्रयत्नों पर हँसती है। और आश्चर्य तो यह है कि कार्य-कारण के जिस बृहत्पुंज के नीचे दवाकर उसका हम गला घोंटना चाहते थे, वह अपने की उसीके ऊपर प्रतिष्ठित किए हुए है ! इसके विपरीत हो भी कैसे सकता है ? असीम के उच्चतर सामान्यीकरण द्वारा ही सदैव ससीम को समझा जा सकता है। बद्ध को मुक्त द्वारा ही, सकारण को अकारण द्वारा ही समझा सकते हैं। परंतु यहाँ भी पुन: वही कठिनाई है। मुक्त कौन है ? शरीर, या मन ही, क्या मुक्त है ? यह तो स्पष्ट है कि वे भी नियम से उतने ही बद्ध हैं, जितने कि संसार के और सब पदार्थ।
अब तो समस्या इस दुविधा का रूप धारण कर लेती है : या तो सारी सृष्टि केवल सदा परिवर्तनशील वस्तुओं की ही राशि है-उसके सिवा और कुछ नहीं है-और वह कार्य-कारण के नियम से ऐसी जकड़ी हुई है कि छूट नहीं सकती, उसमें से किसी अणु मात्र को भी स्वतंत्र अस्तित्व प्राप्त नहीं है, तथापि वह नित्यता और स्वतंत्रता का एक अमिट भ्रम आश्चर्यजनक रूप में उत्पन्न कर रही है -अथवा हममें और सृष्टि में कोई ऐसी वस्तु है जो नित्य और स्वतंत्र है, जिससे यह सिद्ध होता है कि मनुष्य के मन का यह मौलिक प्राकृतिक विश्वास भ्रम नहीं है। यह विज्ञान का काम है कि उच्चतर सामान्यीकरण द्वारा सभी तथ्यों की व्याख्या करे। अत:, कोई भी ऐसी व्याख्या जो अपने को व्याख्यापेक्षी तथ्य के शेषांश से संगत बनाने के निमित्त उस तथ्य के अंश को नष्ट कर देती है, कदापि वैज्ञानिक नहीं हो सकती, वह और जो भी हो।
अत: ऐसी व्याख्या जो स्वतंत्रता की इस प्रबल और सर्वथा अनिवार्य भावना की उपेक्षा करती है और ऊपर कहे अनुसार सत्य के एक अंश का खंडन करके उसके शेष अंश को समझाती है, अशुद्ध है। तब तो हमारे लिए अपनी प्रकृति के अनुरूप यह स्वीकार करने का ही रास्ता रह जाता है कि हममें ऐसी कोई वस्तु है, जो मुक्त और नित्य है।
परंतु वह वस्तु देह नहीं है और न वह मन ही है। देह का नाश तो प्रतिक्षण होता रहता है और मन तो सदा बदलता रहता है। देह तो एक संघात है और उसी तरह मन भी। इसी कारण वे परिवर्तनशीलता के परे नहीं पहुँच सकते। परंतु स्थूल जड़ तत्त्व के इस क्षणिक आवरण के परे और मन के भी सूक्ष्मतर आवरण के परे, मनुष्य का सच्चा स्वरूप-नित्य मुक्त, सनातन आत्मा अवस्थित है। उसी आत्मा की मुक्ति जड़ और चेतन के स्तरों में व्याप्त है और नाम-रूप द्वारा रंजित होते हुए भी सदा अपने अबाधित अस्तित्व को प्रमाणित करती है। उसी का अमरत्व, उसी का आनंदस्वरूप, उसीकी शांति और उसीका दिव्यत्व प्रकाशित हो रहा है और अज्ञान के मोटे से मोटे स्तरों के रहते हुए भी वह अपने अस्तित्व का अनुभव कराती रहती है। वही यथार्थ पुरुष है, जो निर्भय है, अमर है और मुक्त है।
अब मुक्ति तो तभी संभव है, जब कि कोई बाहरी शक्ति अपना प्रभाव न डाल सकें, कोई परिवर्तन न कर सके। मुक्ति केवल उसीके लिए संभव है जो सभी बंधनों से परे हो, सभी नियमों से परे हो और कार्य-कारण की श्रृंखला से परे हो। कहने का तात्पर्य यही है कि एक अपरिवर्तनशील (पुरुष) ही मुक्त हो सकता है और इसीलिए अमर थी। यह पुरुष, यह आत्मा, मनुष्य का यह यथार्थ स्वरूप, मुक्त, अव्यय, अविनाशी सभी बंधनों से परे है, और इसीलिए वह न तो जन्म लेता, न मरता है।
'मनुष्य की यह आत्मा नित्य, सनातन और जन्म-मरणरहित है।' [1]
[1] न जायते त्रियते वा कदाचिन्नायं भूत्वा भविता ।
अजो नित्य: शाश्वतोयं पुराणो न हन्यते हन्यमाने शरीरे।।
-- गीता।।२।२०।।