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स्वामी विवेकानंद के लेख

स्वामी विवेकानंद

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'(हे अर्जुन !) मेरे और तेरे पहले बहुत जन्‍म हो चुके हैं। उन सबको मैं जानता हूँ, तू नहीं जानता।'- भगवद्गीता। [1]

सभी देशों और युगों में मनुष्‍य की बुद्धि को चक्‍कर में डालने वाली अनेक पहेलियों में से सबसे पेचीदा स्‍वयं मनुष्‍य ही है। इतिहास के उषाकाल से जिन लाखों रहस्‍यों के उदघाटन करने में मनुष्‍य ने अपनी बहुतेरी शक्तियों का व्‍यय किया है, उनमें सबसे अधिक रहस्‍यमय है स्‍वयं उसकी प्रकृति। वह तो केवल असाध्‍य प्रहेलिका मात्र नहीं, बल्कि साथ ही साथ सभी समस्‍याओं की मूल समस्‍या है। हम जो कुछ जानते, अनुभव करते और कार्य करते हैं, मानव प्रकृति ही उन सबका प्रस्‍थान बिंदु और भंडार होने के कारण कभी भी ऐसा समय नहीं रहा है और न भविष्य में ही होगा, जब मानव प्रकृति मनुष्‍य के सर्वोत्तम और सर्वोपरि चिंतन का विषय न रही हो, या नहीं होगी।

मानव अस्तित्‍व के साथ घनिष्‍टतम संबंध रखने वाले उस सत्‍य के प्रति उत्‍कट प्‍यास, बाह्य सृष्टि के मापन के आंतरिक पैमाने के लिए सर्वोपरि उत्‍कट इच्‍छा, और परिवर्तनशील संसार में एक अचल केंद्र प्राप्‍त करने की अत्‍यधिक स्‍वाभाविक आवश्‍यकता प्रतीत होने के कारण, यद्यपि मनुष्‍य कभी-कभी मुट्ठी भर धूलि को ही सुवर्ण जान कर ग्रहण कर लेता रहा है और तर्कया बुद्धि से श्रेष्‍ठ आंतरिक ध्‍वनि द्वारा सचेत किए जाने पर भी अंत:स्थित ईश्‍वरत्‍व का सच्‍चा अर्थ ठीक ठीक लगाने में प्राय: भूल करता है, तथापि जब से खोज या शोध का प्रारंभ हुआ है, तब से ऐसा समय कभी नहीं रहा, जब किसी जाति या कुछ व्‍यक्तियों ने सत्‍य के दीपक को ऊँचा न उठाए रखा हो।

परिवेश और अनावश्‍यक ब्‍योरों की एकांगी, छिछली, और पूर्वग्रहदूषित धारणा करके कभी कभी अनेक संप्रदायों और पंथों के अनिश्चित मतों से ऊबकर और-दु:ख की बात है कि बहुधा संगठित पुरोहित-प्रपंच के दुर्घर्ष अंधविश्‍वासों के फलस्‍वरूप अत्‍यंत विपरीत दिशा में पहुँच जाने के कारण, पुराने जमाने में या आजकल विशेषकर प्रगतिशील बुद्धिवाले अनेक व्‍यक्तियों ने सत्‍य की शोध को निराश होकर छोड़ ही नहीं दिया,वरन् उसे निष्‍फल और निरूपयोगी भी घोषित कर दिया। भले ही दार्शनिक लोग क्रुद्ध हों और नाक-भौं सिकोड़ें और पुरोहित लोग अपना रोजगार तलवार के बल पर ही क्‍यों न जारी रखें, परंतु सत्‍य तो केवल उन्‍हींको प्राप्‍त होता है, जो निर्भय होकर बिना दूकानदारी किए उसके मंदिर में जाकर केवल उसी के हेतु उनकी पूजा करते हैं।

प्रकाश उन्‍हीं व्‍यक्तियों को प्राप्‍त होता है, जो अपनी बुद्धि द्वारा सचेतन प्रयत्‍न करते हैं, यद्यपि वह छनकर अचेतन रूप से सारी जाति को प्राप्‍त हो जाता है। दार्शनिक लोग महामना पुरुषों द्वारा सत्‍य की खोज के संकल्‍पयुक्‍त प्रयत्‍नों के उदाहरण प्रस्‍तुत करते हैं, और इतिहास परिव्‍याप्ति की उस मूक प्रक्रिया को प्रकट करता है, जिसके द्वारा जनता उस सत्‍य को आत्‍मसात् कर लेती है।

मनुष्‍य ने अपने संबंध में जितने सिद्धांत निकाले हैं, उन सबमें सर्वाधिक प्रचलित, शरीर से भिन्‍न अस्तित्‍व वाले और अमर आत्‍मा का ही है । और ऐसे आत्‍मा को मानने वालों में से अधिकांश विचारवान लोग सदा उसके पूर्वास्तित्‍व में भी विश्‍वास करते आए हैं ।

वर्तमान समय में संगठनबद्ध धर्मों के अधिकांश अनुयायी इसमें विश्‍वास रखते हैं; और सुसंपन्‍न देशों के सर्वश्रेष्‍ठ विचारक आत्‍मा के पूर्वास्तित्‍व के विरोधी धर्मों में पले होने के बावजूद उस विश्‍वास का समर्थन करते हैं। यह विश्‍वास हिंदू धर्म और बौद्ध धर्म का आधार है, प्राचीन मिस्‍त्र का शिक्षित वर्ग भी इसे मानता था। प्राचीन ईरानी भी इसी पर पहुँचे; यूनानी तत्त्ववेत्ताओं ने इसे अपने दर्शन-शास्‍त्र की नींव बनायी, हिब्रुओं में से फ़ैरिसी लोगों ने इसे स्‍वीकार किया, मुसलमानों में से प्राय: सभी सूफियों ने इसकी सत्‍यता अंगीकार की।

विभिन्‍न जातियों में आस्‍था के विविध रूपों को जन्‍म देने और पुष्‍ट करने वाली कुछ विशेष परिस्थितियाँ होती हैं। पुराने राष्‍ट्रों को यह समझने के लिए कि मृत्‍यु के उपरांत शरीर का भी कोई अंश जीवित रह सकता है, कई युग लग गए। और शरीर से पृथक् स्‍थायी जीवित बनी रहनेवाली कोई वस्‍तु है, इस प्रकार का युक्तिसंगत नत निश्चित करने के लिए उनको और भी अधिक युग लगे। जब यह मत निश्चित हो गया कि कोई ऐसी वस्‍तु है, जिसका संबंध शरीर के साथ थोड़े ही समय के लिए रहता है, तब और केवल उन्‍हीं राष्‍ट्रों में, जो इस सिद्धांत पर पहुँचे, यह अनिवार्य प्रश्‍न सामने आया कि वह वस्‍तु कहाँ से आई और कहाँ जाएगी ?

पुराने हिब्रू लोगों ने आत्‍मा विषयक कोई विचार अपने मन में न लाकर अपनी शांति भंग नहीं की। उनके विचार में मृत्‍यु सब कुछ समाप्‍त कर देती है। कार्ल हेकेल ठीक कहते हैं कि "यद्यपि यह सच है कि 'प्राचीन व्‍यवस्‍थान' में निर्वासन के पूर्व हिब्रू लोग शरीर से भिन्‍न एक जीवन-तत्त्व को अंगीकार करते हैं, जिसे वे 'नेफेश'(Nephesh) या 'रूआख' (Ruakh) या 'नेशामा' (Neshama) कहते हैं, पर इन सभी शब्‍दों से आत्‍मा की अपेक्षा प्राणवायु का बोध अधिक होता है। पैलेस्‍टाइन निवासी यहूदियों के लेखों में भी निर्वासन के उपरांत अमर जीवात्‍मा की कहीं चर्चा नहीं है, बल्कि सर्वत्र ईश्‍वर से निकलनेवाली केवल उस 'प्राणवायु' का ही उल्‍लेख है, जो शरीर के नाश होने पर ईश्‍वरी 'रुआख' में पुन: तिरोहित हो जाती है।"

प्राचीन मिस्रवासी और कैल्डियन (Chaldeans) लोगों का आत्‍मा के संबंध में एक विचित्र मत था, पर मृत्‍यु के उपरांत इस जीवित रहनेवाले अंश के संबंध में उनके मत को, और पुराने हिंदू, ईरानी, यूनानी या अन्‍य आर्यजातियों के मतों को एक ही समझने की भूल नहीं करना चाहिए। अत्‍यंत प्राचीन काल से ही आर्यों के और असंस्‍कृत-भाषी म्‍लेच्‍छों के आत्‍मा संबंधी विचारों में भारी अंतर था। बाह्यत: यह अंतर शव की अंत्‍येष्टि के रूपों द्वारा स्‍पष्‍ट हो जाता है। बहुधा म्‍लेच्‍छों का भरसक प्रयत्‍न यही रहता है कि मृत शरीर की-सावधानी के साथ उसे गाड़कर या और अधिक परिश्रम के साथ आलेपन द्वारा उसे ज्‍यों का त्‍यों बनाए रखते हुए-रक्षा की जाए। इसके विपरीत आर्यों की सामान्‍य प्रथा मृत शरीर को जला डालने की है।

यहीं तो एक महान् रहस्‍य की कुंजी है-यथार्थ तो यही है कि कोई भी म्‍लेच्‍छ जातिवाले-चाहे मिस्‍त्र देश वासी हों या बेबिलोनियन-आर्यों की, विशेषकर हिंदुओं की सहायता के बिना, कभी इस सिद्धांत पर नहीं पहुँच सके कि आत्‍मा का अलग अस्तित्‍व है और वह शरीर से स्‍वतंत्र रहकर भी अलग जीवित रह सकती है।

यद्यपि हिरोडोटस का कहना है कि मिस्र देशवासियों को ही सर्वप्रथम आत्‍मा की अमरता का ज्ञान हुआ, और वह मिस्रवासियों का यह सिद्धांत भी बताता है कि 'शरीर के नाश होने पर आत्‍मा जन्‍म लेने वाले प्राणियों में पुन: पुन: प्रवेश करती है और थलचर, जलचर, नभचर प्राणियों में भटकते भटकते तीन सहस्‍त्र वर्षों के पश्‍चात् पुन: मनुष्‍य शरीर को लौटकर आती है,' तो भी मिस्रदेशीय प्राचीन इतिहास के आधुनिक शोध करनेवालों ने उस देश के सर्वसाधारण धर्म में आत्‍मा की देहांतर-प्राप्ति के सिद्धांत का (metempsvchosis) कोई पता नहीं पाया। इसके विपरीत मैस्‍पेरो, ए. एरमैन और अन्‍य विख्‍यात आधुनिकतम मिस्‍त्रशास्‍त्री तो इसी अनुमान की पुष्टि करते हैं कि मिस्रदेशवासी पुनर्जन्‍म (palingenesis) के सिद्धांत से परिचित नहीं थे।

प्राचीन मिस्र देशवासी आत्‍मा को निजी व्‍यक्तित्‍वरहित केवल प्रतिरूप शरीर मानते थे और उनका यह विश्‍वास था कि वह शरीर से संबंध-विच्‍छेद नहीं कर सकती। जब तक शरीर है, तभी तक वह वर्तमान रहती है और यदि संयोगवश शव का नाश हो जाए, तो उस शरीरसे छूटी हुई आत्‍मा को दुबारा मृत्‍यु और विनाश का दु:ख भुगतना पड़ता है। मृत्‍यु के उपरांत आत्‍मा संसार भर में स्‍वतंत्रतापूर्वक विचरण कर सकती थी, परंतु वह रात के समय सदा दु:खी, सदा भूखी-प्‍यासी, जिस स्‍थान में उसका मृत शरीर रहता था, वहीं लौटकर आ जाया करती थी; उसकी सदैव पुन: एक बार जीवन के सुख भोगने की अत्‍यंत उत्‍कट इच्‍छा रहती थी, पर उस इच्‍छा को वह कभी पूर्ण नहीं कर सकती थी। यदि उसके पुराने शरीर के किसी भाग में कोई चोट आ जाए तो आत्‍मा के भी उसी भाग में अवश्‍य ही चोट आ जाती थी। अपने इसी विचार के कारण मिस्रनिवासी अपने यहाँ के मुरदों की रक्षा करने के लिए प्रयत्‍नशील रहते थे। पहले तो उन्‍होंने मुरदों को गाड़ने के लिए मरुस्‍थल को पसंद किया था, क्‍योंकि वहाँ की सूखी हवा में शरीर का नाश शीघ्र नहीं होता था और इस कारण विगत आत्‍मा को दीर्घ जीवन प्राप्‍त हो जाता था। कुछ काल के उपरांत उनके यहाँ के एक देवता ने शव-संरक्षण की विद्या (mummification) का आविष्‍कार किया। इस विद्या द्वारा श्रद्धावान लोग अपने पूर्वजों के मृत शरीरों को प्राय: अनंत काल तक रख सकने की आशा करने लगे, जिससे कि मृत आत्‍मा (या प्रेतात्‍मा), वह चाहे जितनी भी दु:खी क्‍यों न हो, अमरत्‍व प्राप्‍त कर सके।

जिस संसार में आत्‍मा अब आगे कोई आनंद नहीं प्राप्‍त कर सकती, उस संसार के लिए निरंतर खिन्‍नता मृत पुरुष को सदा यातना देती रहती थी। मृत पुरुष चिल्‍ला उठता, "अरे मरे भैया ! खान-पान, नशा कुछ भी मत छोड़ो, प्रेम और सुखोपभोग से भी अलग मत होओ, चाहे रात हो या दिन, अपनी वासनाओं की तृप्ति से विरत मत होओ, अपने हृदय में दु:ख मत लाओ-क्‍योंकि मनुष्‍य को पृथ्‍वी पर रहना ही कितने वर्ष है। 'पश्चिम' तो घोर निद्रा और गहन छाया का स्‍थान है, जहाँ के निवास करने वाले एक बार स्‍थापित कर दिए जाने पर अपने 'ममी' (Mummy) रूप में सदा सुप्‍त रहते हैं और अपने भाइयों को देखने के लिए कभी जाग्रत नहीं हो सकते; वे अपने माता-पिता को अब आगे कभी नहीं पहचानते और अपनी पत्नियों और बच्‍चों को भी अंत:करण से भुला देते हैं। वह सजीव जल, जिसे पृथ्‍वी अपने ऊपर बसनेवाले सभी को देती है, वह जल भी मेरे लिए दूषित और प्राणहीन बन जाता है; वह जल पृथ्‍वी पर रहनेवालों के लिए तो बहता हुआ है,पर मेरे लिए तो वह जल, जो मेरा है, केवल सड़ा हुआ द्रव मात्र है; जब से मैं इस श्‍मशानघाटी में आया हूँ, मैं कहाँ हूँ, और क्‍या हू, यही नहीं जान पाता। मुझे बहता पानी पीने को दो, मुझे जल के किनारे मेरा मुँह उत्तर की ओर करके रख दो, जिससे कि मुझे शीतल वायु का स्‍पर्श-सुख प्राप्‍त हो और मेरा हृदय अपने दु:ख से छूटकर प्रफुल्‍ल हो उठे।" [2]

इस प्रकार हम देखते हैं कि पुराने ज़माने के मिस्‍त्रवासी या कैल्डियन लोग आत्‍मा का विचार उसे मृत पुरुष के मृतक शरीर से या क़ब्र से अलग रखकर नहीं कर सकते थे। इस पृथ्‍वी पर का जीवन ही सबसे बढ़कर या और मृत पुरुष उसी जीवन को पु:न भोगने का अवसर प्राप्‍त करने के लिए सदा लालायित रहते थे और जीवित पुरुष सदा यही आशा करते थे कि हम उनके प्रतिरूप का अस्तित्‍व अधिक काल तक बनाए रखने में सहायता पहुँचाएं और वे इसके निमित्त भरपूर प्रयत्‍न भी करते थे।

यह वह भूमि नहीं है, जहाँ से आत्‍मविषयक कोई उच्‍चतर ज्ञान अंकुरित हो सके। प्रथम तो वह बहुत ही भौतिकतापूर्ण है और उस पर भी आतंक और पीड़ा से भरी है। अशुभ की प्राय: अगणित शक्तियों से भयत्रस्‍त, और निराशा के साथ उनसे बचने का दु:खमय प्रयत्‍न करते हुए, जीवित पुरुषों की आत्‍मा भी -मृत पुरुषों की आत्‍मा की धारणा के अनुसार-संसार भर में भटकती रहकर भी-कभी भी क़ब्र और विघटित होते मुरदे के आगे नहीं बढ़ सकी।

अब हम आत्‍मा संबंधी उच्‍चतर विचारों के उद्गम के लिए एक और जाति की ओर चलें, जिनका ईश्‍वर दयानिधान सर्वव्‍यापी पुरुष है और अनेक प्रकाशमान दयालु और सहायक देवों के रूप में प्रकट होता है; मानव जाति में सर्वप्रथम जिन्‍होंने ईश्‍वर को पिता कहकर पुकारा -'हे भगवान् ! मेरे हाथों को पकड़कर मुझे उसी प्रकार ले चल, जैसे पिता अपने प्‍यारे पुत्र को ले जाता है।' जो लोग जीवन को आशामय मानते थे, उसे निराशापूर्ण नहीं समझते थे; जिनका धर्म, उन्‍माद और आवेशपूर्ण जीवन में, दु:खी मनुष्‍य के मुँह से बारी बारी से निकलनेवाली दु:खभरी आहों का शब्‍द नहीं होता था, वरन् जिनके विचार खेतों और अरण्‍यों के सुवास से सुगंधित होकर हमें प्राप्‍त होते हैं; जिनके स्‍तुतिपूर्ण गीत-दिवाकर की प्रथम किरणों से प्रकाशित इस सुंदर संसार का अभिनंदन करते समय पक्षियों के गले से निकले हुए मधुर गीतों के समान स्‍वाभाविक, स्‍वच्‍छंद, आनंदपूर्ण-अभी भी अस्‍सी शताब्दियों की वीथी से होकर आनेवाली स्‍वर्ग के आनेवाले सदा आह्वान की तरह हमें सुनायी दे रहे हैं;-हम उन पुराने आर्यों की ओर दृष्टि डालते हैं।

'मुझे उस मरणरहित, विनाशरहित सृष्टि में पहुँचा दो, जहाँ स्‍वर्ग का प्रकाश और सनातन तेज चमक रहा है'; 'मुझे उस राज्‍य में अमर बना दो, जहाँ राजा विवस्‍वान् का पुत्र निवास करता है, जहाँ स्‍वर्ग का गुप्‍त मंदिर है'; 'मुझे उस राज्‍य में अमर बना दो, जहाँ श्रवण करते-करते वे डोलते हैं'; 'अंत-स्थित स्‍वर्ग के तृतीय मंडल में, जहाँ सारी सृष्टि प्रकाशपूर्ण है, मुझे उस आनंद के साम्राज्‍यमें अमर बना दो';-ये आर्यों के सबसे पुराने ग्रंथ 'ऋग्‍वेद-संहिता' के प्रार्थना-मंत्र हैं।

हमें म्‍लेच्‍छों और आर्यों के आदर्श में एकदम ज़मीन-आसमान का अंतर दिखाई देता है। एक को तो यह शरीर और यह संसार ही संपूर्ण सत्‍य प्रतीत होता है और उसके लिए यही इष्‍ट वस्‍तु हो जाता है। वह थोड़ा सा जीवन-द्रव-जो इंद्रियों के उपभोग के चले जाने से यातना और पीड़ा का अनुभव करने के लिए, मृत्‍यु-काल में शरीर से उड़ जाता है, वही, यदि शरीर की रक्षा सावधानी के साथ की गई तो, पुन: लौटकर आ जाएगा, इस प्रकार की व्‍यर्थ आशा वे करते रहते हैं; और इसी कारण जीवित मनुष्‍य की अपेक्षा मुरदा अधिक सावधानी से सुरक्षित रखने की वस्‍तु बन जाता है। दूसरे को यह पता लग चुका है कि शरीर को छोड़कर जानेवाला ही 'यथार्थ मनुष्‍य' है और जब शरीर से वह अलग हो जाता है, तब वह शरीर में रहते जिस आनंद का उपभोग कर सका था, उससे कहीं उच्‍च आनंद का उपभोग करता है। अत: वे शीघ्रतापूर्वक उस सड़ते हुए मुरदे को जलाकर नष्‍ट कर देने लगे।

यहाँ हमें वह बीज प्राप्‍त होता है, जिससे आत्‍मा की सच्‍ची कल्‍पना का उद्गम हुआ। यही स्‍थान है, जहाँ कि शरीर नहीं वरन् आत्‍मा ही यथार्थ मनुष्‍य है, इसका पता चला; यही स्‍थान है; जहाँ कि यथार्थ मनुष्‍य और उसके शरीर के अटूट संबंध के समस्‍त विचारों का अभाव है; इसीलिए यहाँ पर आत्‍मा की मुक्ति के उदार विचार का उदय हो सका। और जब आर्यों ने दिवंगत आत्‍मा को लपेटे रहनेवाले शरीररूपी चमकीले वस्‍त्र को भेदकर भीतर देखा, तब उन्‍हें उस आत्‍मा के यथार्थ स्‍वरूप, एकाकी, निराकार विशिष्‍ट तत्त्व होने का पता चला और तभी यह अनिवार्य प्रश्‍न उठा कि वह कहाँ से आई ?

भारत में और आर्यों में ही पूर्व जन्‍म, अमरत्‍व और आत्‍मा के व्‍यक्तित्‍व का सिद्धांत प्रथमत: प्रकट हुआ। मिस्‍त्र देश के आधुनिक अनुसंधान में इस पृथ्‍वी पर के जीवन-काल के पूर्व और पश्‍चात् रहनेवाली स्‍वतंत्र जीवात्‍मा के सिद्धांतों का नाम-निशान नहीं पाया जाता। कुछ गुह्य समाज निश्‍चय ही इस विचार से अवगत थे, पर उनमें उसका सूत्र भारत से ही संबंध रखता पाया गया है।

कार्ल हेकेल कहते हैं -'मुझे निश्‍चय हो चुका कि जितनी अधिक गंभीरता से हम मिश्री धर्म का अध्‍ययन करते हैं, उतना ही अधिक स्‍पष्‍ट हमें यह दिखता है कि लोकप्रचलित मिस्‍त्री धर्म के लिए आत्‍मा की देहांतर-प्राप्ति (metempsychosis) का सिद्धांत बिल्‍कुल अज्ञात था और जिस किसी गुह्य समाज में वह मिलता है, वह ओसाइरिस (Osiris) उपदेशों में अंतर्निहित न होकर हिंदू उद्गम से प्राप्‍त हुआ है।'

आगे चलकर हम अलेक्‍ज़ेन्ड्रिया के यहूदियों में जीवात्‍मा का सिद्धांत देखते हैं और ईसा मसीह के समय के फैरिसी लोग (प्राचीन आचारनिष्‍ठ यहूदी धर्मसंप्रदाय)-जैसा हम पहले बता चुके हैं-न केवल स्‍वतंत्र आत्‍मा में ही विश्‍वास करते थे वरन् यह भी मानते थे कि भिन्‍न-भिन्‍न शरीरों में वह भटकती रहती है,और इस प्रकार यह जानना आसान हो जाता है कि ईसा मसीह एक पुराने पैग़बर के अवतार कैसे माने गए; और स्‍वयं ईसा मसीह जोर देकर कहते थे कि पैगंबर इलिएस ही जॉन बैप्टिस्‍ट बनकर पुन: आए थे। 'यदि आप इसे मानें, तो यह इलिएस ही है, जो आनेवाला था'- मैथ्‍यु ११।१४।।

आत्‍मा और उसके स्‍वतंत्र व्‍यक्तित्‍व का विचार हिब्रुओं में, मालूम होता है, मिस्री लोगों के उच्‍चतर रहस्‍यमय उपदेशों के द्वारा पहुँचा और मिस्रियों ने उसे भारतसे ग्रहण किया। और वह विचार अलेक्‍ज़ेन्ड्रिया के रास्‍ते आया, यह बात अर्थगंभीर है, क्‍योंकि बौद्ध ग्रंथों से स्‍पष्‍ट पता चलता है कि बौद्ध धर्मप्रचारकों का कार्यक्षेत्र अलेक्‍जे़न्ड्रिया और एशिया माइनर में रहा है।

कहा जाता है कि पाइथागोरस ही प्रथम यूनानी है, जिसने यूनान देशवासियों-हेलेनों-को पुनर्जन्‍म का सिद्धांत सिखाया। वे आर्य जाति के होने के कारण पहले ही अपने मुरदों को जलाते थे और जीवात्‍मा के सिद्धांत को मानते थे;अत: उन यूनानियों के लिए, पाइथागोरस के उपदेश से पुनर्जन्‍म का सिद्धांत मान लेना आसान था। अपूलिएस (Apuleius) के कथन के अनुसार पाइथागोरस भारत में आए थे और वहाँ के ब्राह्मणों से उन्‍होंने शिक्षा ग्रहण की थी।

अब तक हमें यह ज्ञात हुआ कि जहाँ कहीं आत्‍मा न केवल शरीर को जीवित रखनेवाला एक अंश, वरन् पृथक् 'यथार्थ मनुष्‍य' ही मानी जाती है-वहाँ उसके पूर्वास्तित्‍व का सिद्धांत अनिवार्यत: स्थिर हो गया; और जिन राष्‍ट्रों ने आत्‍मा के स्‍वतंत्र व्‍यक्तित्‍व को माना, उन्‍होंने मृतक शरीर को जलाकर अपने उस विश्‍वास को बाह्य रूप में सदैव प्रकट भी किया; यद्यपि आर्यों की एक पुरानी जाति ईरानियों ने पुराने जमाने से ही, बिना किसी सेमिटिक प्रभाव के, अपने यहाँ के मुरदों को अलग करने की एक अद्भुत रीति प्रचलित की। वे अपने 'शांति के मीनार'(Towers of Silence) को जिस नाम से पुकारते हैं, वहनाम (दख्‍म) 'दह' (जलाना) धातु से बना है।

संक्षेप में यह कह सकते हैं कि जिन जातियों ने अपनी प्रकृति के विश्‍लेषण की ओर अधिक ध्‍यान नहीं दिया, वे तो अपने सर्वस्‍वरूपी इस भौतिक शरीर के परे नहीं पहुँचे और जब कभी उन्‍हें उसके परे जाने के लिए उच्‍चतर आलोक द्वारा प्रेरणा हुई, तब भी वे केवल इसी सिद्धांत पर पहुँचे कि किसी भी प्रकार कभी सुदूर भविष्‍य में यह शरीर ही अविनाशी बन जाएगा।

इसके विपरीत उस जाति या राष्‍ट्र के लोगों ने-भारतीय आर्यों ने अपनी शक्तियों का सर्वोत्तम अंश इसी खोज में लगा दिया कि इस चिंतनशील प्राणी का यथार्थ स्‍वरूप क्‍या है ? और परिणाम में उन्‍हें पता लगा कि इस शरीर के परे, और उनके पूर्वज जिस तेजस्‍वी शरीर की आकांक्षा करते रहे उसके भी परे,'यथार्थ मानव', वह सत्‍य तत्त्व, वह व्‍यक्ति है, जो इस शरीररूपी आवरण या वस्‍त्र को धारण कर लेता है और पुन: उसके जीर्ण हो जाने पर उसे अलग फेंक देता है। क्‍या यह तत्त्व सृष्‍ट किया गया ? यदि 'सर्जन' का अर्थ यह है कि 'कुछ नहीं' से कोई वस्‍तु उत्‍पन्‍न हुई, तब तो उसका उत्तर निश्‍चयात्‍मक 'नहीं' है। यह आत्‍मा जन्‍रहित और मरणरहित है; यह आत्‍मा किसी प्रकार के सम्मिश्रण या संयोग से बनी हुई नहीं है, वरन् स्‍वतंत्र व्‍यक्ति-सत्ता है और इसी कारण न तो वह उत्‍पन्‍न की जा सकती और न उसका नाश ही किया जा सकता है। वह तो भिन्‍न-भिन्‍न अवस्‍थाओं में से यात्रा कर रही है।

स्‍वभावत: यह प्रश्‍न उठता है कि वह इतने समय तक कहाँ थी ? हिंदू तत्त्ववेत्ता कहते हैं -'वह भौतिक दृष्टि से भिन्‍न-भिन्‍न शरीरों में यात्रा कर रही थी, या यथार्थ में तात्विक दृष्टि से देखने पर भिन्‍न-भिन्‍न मानसिक भूमिकाओं में यात्रा कर रही थी ?'

हिंदू दार्शनिक लोगों ने जो पुनर्जन्‍म का सिद्धांत निकाला है, उसके लिए वेदों के उपदेश के सिवाय और भी कोई प्रमाण है ? हाँ ! ऐसे प्रमाण हैं; और हम आगे यह बताने की आशा करते हैं कि उसके लिए ऐसे ही प्रबल प्रमाण हैं, जैसे किसी भी अन्‍य सर्वमान्‍य सिद्धांत के लिए। परंतु पहले हम यह देख लें कि कई आधुनिक यूरोपीय मनीषियों ने पुनर्जन्‍म के सबंध में क्‍या कहा है।

आई. एच. फि़क्‍टे (Fichte) आत्‍मा की अमरता के विषय में चर्चा करते हुए कहते हैं, 'यह सच है कि प्राकृतिक जगत् में एक दृष्‍टांत है, जो दलील के रूप में अस्तित्‍व की अविच्छिन्‍नता के विरुद्ध सामने लाया जा सकता है। वह यही प्रसिद्ध तर्क है कि जिस वस्‍तु का काल में आरंभ हुआ, उसका अंत या नाश किसी काल में अवश्‍य होगा। अत: आत्‍मा भूतकाल में थी, इस विवाद पक्ष में भी उसका पूर्वास्तित्‍व तो मान ही लिया गया। यह युक्तिसंगत सिद्धांत है, पर यह तो उसके अविच्छिन्‍न अस्तित्‍व के विरोध में न होकर उसके पक्ष में एक अतिरिक्‍त युक्ति हो गई। यथार्थ में दार्शनिक-शरीरविज्ञान के इस सत्‍य के संपूर्ण अर्थ को समझने की आवश्‍यकता है कि यथार्थ में न कोई वस्‍तु उत्‍पन्‍न की जा सकती है और न कोई वस्‍तु के पूर्व आत्‍मा का अस्तित्‍व अवश्‍य रहा होगा, यह बात समझी जा सकती है।'

शापेनहाँवर अपनी पुस्‍तक [3] में पुनर्जन्‍म के विषय में कहते हैं -'किसी व्‍यक्ति के लिए जैसी नींद है, उसी तरह 'इच्‍छा-शक्ति' के लिए मृत्‍यु है। यदि स्‍मृति और व्‍यक्तित्‍व कायम रहें, तो उन्‍हीं कर्मों को करना और उन्‍हीं दु:खों को भोगना, यही सदा अनंत काल तक, बिना लाभ के करते रहना उसे कभी सहन नहीं हो सकता। वह इन्‍हें दूर फेंक देती है और यही 'लेथी' [4] (Lethe) है, और इस मृत्‍युरूपी नींद में से नया प्राणी बनकर दूसरी बुद्धीन्द्रिय को साथ लेकर पुन: प्रकट होता है; नया दिवस उसे नए तटों की ओर ललचाता है। तब तो ये सतत होनेवाले नए जनम उस अविनाशी इच्‍छाशक्ति के जीवन-स्‍वप्‍न की लगातार श्रेणीरूप हैं। यह तब तक चलेगा, जब तक कि बारंबार के नए शरीरों में अधिकाधिक और भिन्‍न-भिन्‍न प्रकार के ज्ञान द्वारा शिक्षित और उन्‍नत होकर वह स्‍वयं को निर्मूल और विलुप्‍त न कर दे। इस प्रकार के पुनर्जन्‍म का अनुभव द्वारा भी प्रमाण मिल जाता है-यह नहीं भूलना चाहिए। यथार्थ में तो नए प्रकट होनेवाले प्राणियों के जन्‍म से और जीर्ण होनेवालों की मृत्‍यु से संबंध रहता ही है। यह बात तब दिखाई देती है, जबकि उजाड़ बना देनेवाली भयंकर बीमारियों का परिणाम प्रतीत होने वाली मानव जाति की अत्‍यधिक उत्‍पादन-शक्ति हुआ करती है। चौदहवीं शताब्‍दी में जब 'काली मौत' (Black Death) नामक बीमारी ने पूर्वी गोलार्द्ध की अधिकांश आबादी को उजाड़ कर दिया, उस समय मानव जाति में बहुत असाधारण रूप से उत्‍पादन शक्ति और जन्‍म-संख्‍या बढ़ गई और यमज (जुड़वाँ) बालकों की पैदाइश अधिक हुई। एक बात और उल्‍लेखनीय है कि उस समय पैदा होनेवाले बच्‍चों के दाँत पूरी संख्‍या में नहीं जमे; इस प्रकार प्रकृति ने भरपूर प्रयत्‍न किए, परंतु ब्‍योरों में कृपणता कर दी। यह विवरण एफ. स्‍नूरार ने अपने 'क्रॉनिक डेर सेसेन' [5] , १८२५ में दिया है। कैस्‍पर भी अपने 'यूबेर डी बारशाइना लिखे लेबेंस डायर डेस मेंसेन' [6] , १८३५ में इस सिद्धांत का समर्थन करता हैं कि किसी विशिष्‍ट आबादी में वहाँ की जनसंख्‍या का प्रभाव वहाँ के जीवन-काल की दीर्घता और मृत्‍यु-संख्‍या पर अवश्‍य पड़ता है, क्‍योंकि जन्‍म-संख्‍या मृत्‍यु-संख्‍या के साथ साथ चती है; सदैव और सर्वत्र मृत्‍यु और जन्‍म की संख्‍याएँ समान अनुपात में बढ़ती और घटती हैं; इस बात को नि:संदेह रूप से सिद्ध करने के लिए उन्‍होंने भिन्‍न-भिन्‍न देशों और भिन्‍न-भिन्‍न प्रांतों से प्रमाण एकत्र किए हैं। और , फिर यह तो असंभव है कि मेरी अकाल मृत्‍यु से, और जिस विवाह से मेरा कोई संबंध न हो, उसकी प्रजननशीलता से कोई भौतिक कार्य-कारण संबंध हो। इस प्रकार यहाँ अलौकिक को अस्‍वीकार नहीं किया जा सकता और उसमें निश्‍चयात्‍मक रूप से लौकिक घटना की व्‍याख्‍या का आधार तत्‍काल मिल जाता है। प्रत्‍येक नवजात प्राणी नए जीवन में ताज़ा और प्रफुल्लित होकर आता है और उसका मुक्‍त वरदान के रूप में उपभोग करता है; परंतु मुक्‍त वरदान के रूप में कुछ भी नहीं दिया जाता और कुछ भी नहीं दिया जा सकता। इस ताज़े जीवन का मूल्‍य बूढ़ापे और उस जीर्ण जीवन की मृत्‍यु द्वारा दिया जाता है, जिस जीवन का नाश तो हो गया, परंतु जिसके भीतर वह अविनाशी बीज था, जिसमें से नया जीवन अंकुरित हुआ है। वे दोनों जीवन एक ही है।'

वह महान् अंग्रेज तत्त्ववेत्ता ह्यूम, शून्‍यवादी होते हुए भी, अमरत्‍व पर अपने संदेहवादी निबंध में कहता है -'अतएव आत्‍मा की देहांतर-प्राप्ति ही इस प्रकार का सिद्धांत है, जिस पर दर्शन शास्‍त्र ध्‍यान दे सकता है।' तत्त्ववेत्ता लेसिंग एक कवि की गंभीर अंतर्दुष्टि के साथ पूछता है, 'यह परिकल्‍पना इतनी उपहासास्‍पद क्‍या इसीलिए है कि यह सबसे पुरानी है ? या इसीलिए कि (मध्‍ययुगीन बुद्धिविरोधी ईसाई) शिक्षालयों के वाक्‍छलों द्वारा नष्‍ट-भ्रष्‍ट होने के पूर्व मानव-बुद्धि-एकदम उस कल्‍पना पर उतर पड़ी ?.... जिस प्रकार मैं नया ज्ञान, नया अनुभव कई बार प्राप्‍त कर सकता हूँ, उसी प्रकार अनेक बार मैं क्‍यों न लौट आऊँ ? क्‍या मैं एक ही बार में इतना ले आया हूँ कि दुबारा वापस लौटने का कष्‍ट व्‍यर्थ जाएगा ?'

आत्‍मा का अस्तित्‍व पूर्व से ही रहता है और वह अनेक जन्‍म धारण करती है, इस सिद्धांत के पक्ष और विपक्ष में कई दलीलें दी गई हैं और सभी युगों के कुछ महानतम विचारकों ने उसके समर्थन का बीड़ा उठाया है; और जहाँ तक हम समझ सकते हैं यदि कोई जीवात्‍मा है, तो उसका अस्तित्‍व पहले से होना अनिवार्य है। यदि आत्‍मा का स्‍वतंत्र व्‍यक्तित्‍व नहीं है, वरन् वह स्‍कंधों (विचारों) का संयोग है, जैसा कि बौद्ध संप्रदाय के माध्‍यमिकों का कहना है, तो भी उन्‍हें अपने मत को समझाने के लिए पूर्वास्तित्‍व को स्‍वीकार करना अत्‍यंत आवश्‍यक प्रतीत होता है।

अनंत अस्तित्‍व के किसी काल में आरंभ होने की असंभावना सिद्ध करनेवाली दलील का कोई खंडन नहीं हो सकता, यद्यपि इस दलील को काटने के प्रयत्‍न यह कहकर किए गए हैं कि ईश्‍वर सर्वशक्तिमान है और वह कुछ भी-चाहे वह तर्क के विपरीत ही क्‍यों न हो -कर सकता है। कुछ परम विचारशील लोगों को ऐसा नितांत मिथ्‍या तर्क देते हुए देखकर हमें बड़ा खेद होता है।

पहली बात तो यह है कि ईश्‍वर सभी घटनाओं का एकमात्र सामान्‍य कारण हैं, इसलिए प्रश्‍न यह है कि कुछ विशिष्‍ट घटनाओं के स्‍वाभाविक कारणों का पता मानवात्‍मा में ही लगाना होगा। अत: 'कर्ता-धर्ता सब ईश्‍वर ही है' (Deus ex machina) का सिद्धांत यहाँ बिल्‍कुल असंगत है। इसका अर्थ तो इसके सिवाय और कुछ नहीं होता कि हम अपना अज्ञानी होना स्‍वीकार करते हैं। मानव-ज्ञान के किसी भी क्षेत्र में किसी भी प्रश्‍न के पूछे जाने पर हम यही उत्तर दे सकते हैं और हर प्रकार की जिज्ञासा को-और परिणात: ज्ञान को ही-समाप्‍त कर सकते हैं।

दूसरी बात यह है कि हर समय ईश्‍वर की सर्वशक्तिमत्‍ता की दुहाई देना केवल शब्‍द-जाल हे। कारण का, कारण के रूप में कार्य के लिए पर्याप्‍त होना ही हमें विदित होता है, और हो सकता है; इससे अधिक और कुछ नहीं। इस तरह हम किसी सर्वशक्तिमान कारण की अपेक्षा किसी अनंत कार्य के विषय में और अधिक विचार नहीं कर सकते। इसके सिवा यह भी है कि ईश्‍वर संबंधी हमारे सभी विचार सीमित हैं; उसे कारण कहना भी तो हमारे ईश्‍वर संबंधी विचार को सीमित कर देना है।

तीसरी बात यह है कि यह स्‍वीकार भी कर लिया जाए, तो हम ऐसे किसी असंभव सिद्धांत को तब तक मानने को बाध्‍य नहीं हैं कि 'कुछ नहीं (या शून्‍य) में से कोई पदार्थ उत्‍पन्‍न हुआ' या 'किसी अनंत पदार्थ का आदि या आरंभ किसी विशिष्‍ट काल में हुआ', जब तक हम इसकी व्‍याख्‍या और अधिक अच्‍छे प्रकार से कर सकते हैं।

पूर्वास्तित्‍व के सिद्धांत के विरोध में एक तथाकथित बहुत बड़ी दलील यह दी जाती है कि मनुष्‍य जाति में से अधिकांश को इसका भान नहीं है। इस दलील की सत्‍यता को प्रमाणित करने के लिए यह सिद्ध करना चाहिए कि मानवात्‍मा का संपूर्ण अंश स्‍मरण-शक्ति से बद्ध हे। यदि स्‍मृति ही अस्तित्‍व की कसौटी है, तब तो हमारे जीवन का वह अंश जो अभी उसमें नहीं है, उसका तो अस्तित्‍व नहीं ही होना चाहिए और हर एक मनुष्‍य जो बेहोशी की अवस्‍था में या और किसी तरह अपनी स्‍मरण-शक्ति को खो बैठता है, वह भी अस्तित्‍वहीन होना चाहिए।

जिन आधारों पर यह निष्‍कर्ष निकाला जाता है कि पूर्वास्तित्‍व है-और वह भी सज्ञान कर्म की भूमिका में है, जैसा कि हिंदू दार्शनिक विद्वान् सिद्ध करते हैं, वे मुख्‍यत: ये हैं :-

प्रथमत: इस संसार में जो असमानता है, उसकी व्‍याख्‍या और किस प्रकार करें ? न्‍यायी और दयानिधान ईश्‍वर की सृष्टि में एक बालक जन्‍म लेता है, उसकी हर एक परिस्थिति उसको उत्तम और मानव समाज के लिए उपयोगी बनाने के लिए अनुकूल है; और संभवत: उसी क्षण में और उसी शहर में एक दूसरा बालक जन्‍म लेता है, जिसकी प्रत्‍येक परिस्थिति उसके अच्‍छे बनने के प्रतिकूल है। हम ऐसे बच्‍चे देखते हैं, जो कि दु:ख भोगने के लिए-और संभवत: जन्‍म भर दु:ख भोगने के लिए ही-जन्‍म लेते है; और ऐसा उनके स्‍वयं के किसी अपराध के कारण नहीं होता। ऐसा क्‍यों होना चाहिए ? इसका कारण क्‍या है ? किसकी अज्ञानता का यह परिणाम है ? यदि उस बालक का कोई अपराध नहीं है, तो उसके माता-पिता के कर्मों के लिए उसे क्‍यों दु:ख भोगना चाहिए ?

यहाँ के दु:ख के अनुपात से भविष्‍य में सुख मिलेगा, ऐसा प्रलोभन दिखाने या 'रहस्‍यात्‍मक' बातें सामने लाने की अपेक्षा तो 'इसका कारण हम नहीं जानते'- यह स्‍वीकार कर लेना अधिक अच्‍छा है। कोई हमें बिना अपराध के जबरदस्‍ती दंड भुगतावे, यह तो नैतिकता के विरुद्ध है-अन्‍याय तो है ही -'परंतु भविष्‍य काल में पूर्ति होने'- का सिद्धांत भी लँगड़ा और निराधार है।

दु:ख-दैन्‍य में जन्‍म लेनेवालों में से कितने उच्‍चतर जीवन के निमित्त संघर्ष करते हैं और कितने-उससे अधिक संख्‍या में-जिस परिस्थिति में रखे जाते हैं, उसी के शिकार हो जाते हैं ? बुरी परिस्थिति में बलात् जन्‍म दिए जाने के कारण जो अधिक बुरे और दृष्‍टतर बन जाते हैं, उन्‍हें भविष्‍य में उनके जीवन-काल की दृष्‍टता के लिए क्‍या पारितोषिक मिलना चाहिए ? तब तो मनुष्‍य यहाँ जितना ही अधिक दुष्‍ट होगा, उतना ही इस जन्‍म के पश्‍चात् उसे सुखोपभोग प्राप्‍त होगा।

मानवात्‍मा की गरिमा और स्‍वतंत्रता को प्रतिष्ठित करने के लिए और इस संसार में विद्यमान असमानता और बीभत्‍सता के अस्तित्‍व को समझाने के लिए सारा दायित्‍व उसके यथार्थ कारण-हमारे निज के स्‍वतंत्र कृत्‍यों या 'कर्म'- पर रखने के सिवा और कोई दूसरा मार्ग नहीं है। इतना ही नहीं, बल्कि आत्‍मा का शून्‍य (या अस्तित्‍वहीन वस्‍तु) से उत्‍पन्‍न किए जाने का सिद्धांत अवश्‍यमेव हमें 'दैववाद और प्रारब्‍ध-लेख' की ओर ले जाएगा, और दयानिधान परम पिता ईश्‍वर के बदले हमारे सामने पूजा के लिए वीभत्‍स, क्रूर और सदा क्रूर रहनेवाला ईश्‍वर स्‍थापित कर देगा। और जहाँ तक धर्म की भलाई या बुराई करने की शक्ति का संबंध है, उसमें तो यह उत्‍पन्‍न की हुई आत्‍मा का सिद्धांत परिणाम में 'दैव और प्रारब्‍ध-लेख' के वादों की ओर ले जाकर उस भयानक धारणा के लिए उत्तरदायी बनता है, जो ईसाइयों और मुसलमानों में प्रचलित है-कि मूर्तिपूजकों को तलवार के घाट उतार देना न्‍यायसंगत है, और उसी के कारण वे सभी वीभत्‍स कांड हुए हैं और अब तक हो रहे हैं ।

परंतु तर्क-मतवादी तत्त्ववेत्ताओं ने पुनर्जन्‍म के पक्ष में सदैव एक तर्क उपस्थित किया है, जो हमें निश्‍चयात्‍मक प्रतीत होता है; वह तर्क यह है कि 'हमारे अनुभव लुप्‍त या नष्‍ट नहीं किए जा सकते।'- हमारे कर्म यद्यपि देखने में लुप्‍त से हो जाते हैं, तथापि 'अदृष्‍ट' बने रहते हैं और अपने परिणाम में 'प्रवृत्ति' का रूप धारण करके पुन: प्रकट होते हैं। छोटे-छोटे बच्‍चे भी कुछ प्रवृत्तियों को-उदाहरणार्थ, मृत्‍यु का भय-अपने साथ लेकर आते हैं।

अब यदि प्रवृत्ति बारंबार किए हुए कर्म का परिणाम है, तो जिन प्रवृत्तियों को साथ लेकर हम जन्‍म धारण करते हैं, उनको समझने के लिए उस कारण का भी उपयोग करना चाहिए। यह तो स्‍पष्‍ट है कि वे प्रवृत्तियाँ हमें इस जन्‍म में प्राप्‍त हुई नहीं हो सकतीं; अत: हमें उनका मूल पिछले जन्‍म में ढूँढ़ना चाहिए। अब यह भी स्‍पष्‍ट है कि हमारी प्रवृत्तियों में से कुछ तो मनुष्‍य के ही जान-बूझकर किए हुए प्रयत्‍नों के परिणाम हैं; और यदि यह सच है कि हम उन प्रवृत्तियों को अपने साथ लेकर जन्‍म लेते हैं, तब तो बिल्‍कुल यही सिद्ध होता है कि उनके कारण गत जन्‍म में जान-बूझकर किए हुए प्रयत्‍न ही हैं-अर्थात् इस वर्तमान जन्‍म के पूर्व हम उसी मानसिक भूमिका में रहे होंगे, जिसे हम मानव-भूमिका कहते हैं।

जहाँ तक वर्तमान जीवन की प्रवृत्तियों को भूतकालीन, ज्ञानपूर्वक किए हुए प्रयत्‍नों द्वारा समझाने की बात है, वहाँ तक भारत के पुनर्जन्‍मवादी और वर्तमान विकासवादी एकमत हैं; अंतर केवल इतना ही है कि हिंदू लोग अध्‍यात्‍मवादी होने के कारण उसे जीवात्‍माओं के सज्ञान प्रयत्‍नों के द्वारा समझाते हैं और विकासवाद के भौतिकवाद वाले उसे पिता से पुत्र में आनेवाले अनुवंशिक संक्रमण द्वारा समझाते हैं। जो शून्‍य से उत्‍पत्ति होने का सिद्धांत मानते हैं, वे तो किसी गिनती में नहीं हैं।

अब विवाद केवल पुनर्जन्‍मवादियों और भौतिकवाद वालों में ही है-पुनर्जन्‍मवादी लोग यह मानते हैं किसी भी अनुभव प्रवृत्तियों के रूप में अनुभव करनेवाली जीवात्‍मा में संगृहीत रहते हैं और उस अविनाशी जीवात्‍मा के पुनर्जन्‍म द्वारा संक्रमित किए जाते हैं; भौतिकवादवाले मस्तिष्‍क को सभी कर्मों के आधार होने के और कोशिकाओं (cells) के द्वारा उनके संक्रमण का सिद्धांत मानते हैं।

इस प्रकार हमारे लिए पुनर्जन्‍म का सिद्धांत बहुत महत्‍वपूर्ण बन जाता है, क्‍योंकि पुनर्जन्‍म के और कोशिकाओं के द्वारा आनुवंशिक संक्रमण के मध्‍य जो विवाद है, वह यथार्थ में आध्‍यात्मिकता और भौतिकता का विवाद है। यदि कोशिकाओं द्वारा आनुवंशिक संक्रमण समस्‍या को हल करने के लिए पूर्णत: पर्याप्‍त है, तब तो भौतिकता ही अपरिहार्य है और आत्‍मा के सिद्धांत की कोई आवश्यकता नहीं है। यदि वह पर्याप्‍त नहीं है, तो प्रत्‍येक आत्‍मा अपने साथ इस जन्‍म में अपने भूतकालिक अनुभवों को लेकर आती है, यह सिद्धांत पूर्णत: सत्‍य है। पुनर्जन्‍म या भौतिकता-इन दोनों में से किसी एक को मानने के सिंवा और कोई गति नहीं है। प्रश्‍न यह है कि हम किसे मानें



[1] बहूनिमे व्‍यतीतानि जन्‍म‍ानि तव चार्जुन ।

तान्‍यहं वेद सर्वाणि न त्‍वं वेत्‍थ परतंप ।।४।५।।

[2] ये मूल पंक्तियाँ ब्रग्श (Brugech) द्वारा जर्मन भाषा में अनूदित की गयी हैं, डाय् इजिप्टिश ग्रेबरवेल्‍ट (Die Egyptische Graberwelt), पृष्‍ठ ३९-४०; इसी प्रकार उनका अनुवाद फ़्रासीसी भाषा में मैस्‍पेरो द्वारां किया गया है, एट्यूड्स इजिप्टिएन्निज (Etudes Egyptiennes) भाग १, पृष्‍ठ १८१-१९० ।

[3] Die Welt als Wille and Vorstellung

[4] वैतरणी की यूनानी प्रतिरूप ले‍थी नदी, जिसमें मृत्‍यु के बाद स्‍नान करके आत्‍मा अपनी स्‍मृति खो देती है ।

[5] Chronik der Senchen

[6] Ueber die Wahrsheinliche Lebensdauer des Menschen


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