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स्वामी विवेकानंद के लेख

स्वामी विवेकानंद

अनुक्रम प्रोफेसर मैक्समूलर पीछे     आगे

जिन लोगों में सत्‍य, पवित्रता और नि:स्‍वार्थपरता विद्यमान हैं, उन्‍हें स्‍वर्ग, मर्त्‍य एवं पाताल की कोई भी शक्ति कोई क्षति नहीं पहुँचा सकती।इन गुणों के रहने पर, चाहे समस्‍त विश्‍व ही किसी व्‍यक्ति के विरुद्ध क्‍यों न हो जाए, वह अकेला ही उसका सामना कर सकता है।

सर्वोपरि, समझौता कर लेने से सावधान रहना। मेरे कहने का तात्‍पर्य यह नहीं है कि किसी के साथ विरोध करना होगा। किंतु सुख में हो या दु:ख में, अपने सिद्धांतों पर दृढ़ रहो, अपना संघ बढ़ाने के लोभ से दूसरों की लोकप्रिय धुनों से समझौता न करो। तुम्‍हारी आत्‍मा ही तो समस्‍त ब्रह्मांड का आश्रय स्‍वरूप है, तुम्‍हारे लिए दूसरे के आश्रम का क्‍या प्रयोजन ? धैर्य, प्रेम एवं दृढ़ता के साथ प्रतीक्षा करो, यदि इस समय सहायक नहीं मिले, तो उचित समय पर अवश्‍य मिलेंगे। शीघ्रता करने की क्‍या आवश्‍यकता है ? सभी महान् कार्यों की वास्‍तविक क्रिया-शक्ति उसके असंवेद्य प्रारंभ में रहती है।

किसने सोचा था कि बंगाल के एक सुदूर गाँव में रहनेवाले एक निर्धन ब्राह्मण परिवार में उत्‍पन्‍न बालक के जीवन और उपदेशों को इन कुछ ही वर्षों में ऐसे दूर देश के लोग जान सकेंगे, जिनके बारे में हमारे पूर्वजों ने कभी स्‍वप्‍न में भी न सोचा होगा ? मैं भगवान् श्री रामकृष्‍ण के विषय में कह रहा हूँ। तुमने क्‍या यह सुना है कि प्रो. मैक्‍समूलर ने 'नाइन्‍टीन्‍थ सेन्‍चुरी' नामक अंग्रेजी पत्रिका में श्री रामकृष्‍ण के संबंध में एक लेख लिखा है, एवं यदि पर्याप्‍त सामग्री उन्‍हें मिले तो बड़े हर्ष से उनकी जीवनी तथा उपदेशों का एक और भी विस्‍तृत विवरणयुक्‍त ग्रंथ लिखने के लिए वे प्रस्‍तुत हैं ? प्रो. मैक्‍समूलर कितने असाधारण व्‍यक्ति हैं ! मैं कुछ दिन पहले उनसे मिलने गया था। वास्‍तव में तो यह कहना उचित होगा कि मैं उनके प्रति अपनी श्रद्धा निवेदित करने गया था; क्‍योंकि जो कोई भी व्‍यक्ति श्री रामकृष्‍ण से प्रेम करता हो, वह स्‍त्री हो या पुरुष, वह चाहे जिस किसी भी संप्रदाय, मत अथवा जाति का हो, उसका दर्शन करने जाना मैं तीर्थयात्रा के समान समझता हूँ। मदभक्‍तानात्र्च ये भक्‍तास्‍ते मे भक्‍ततमा मता:-'मेरे भक्‍तों के जो भक्‍त हैं, वे मेरे सर्वश्रेष्‍ठ भक्‍त हैं।' क्‍या यह सत्‍य नहीं है ?

प्रोफ़ेसर महोदय ने पहले तो यह जानने में रूचि दिखलायी कि किस शक्ति के द्वारा ब्राह्म समाज के बड़े नेता स्‍वर्गीय केशवचंद्र सेन के जीवन में सहसा महत्‍वपूर्ण परिवर्तन घटित हुए और तभी से वे श्री रामकृष्‍ण देव के जीवन एवं उपदेशों के प्रशंसक और उत्‍साही विद्यार्थी हो गए हैं। मैंने कहा, "प्रोफेसर, आजकल सहस्‍त्रों लोग श्री रामकृष्‍ण की पूजा कर रहे हैं।" प्रोफ़ेसर ने प्रत्‍युत्तर में कहा, "यदि लोग ऐसे व्‍यक्ति की पूजा नहीं करेंगे तो और किसकी करेंगे ?" प्रोफेसर स्‍वयं सहृदयता की मूर्ति थे। उन्‍होंने स्‍टर्डी साहब को तथा मुझे अपने साथ भोजन करने के लिए कहा, और फिर उन्‍होंने हमें बोडलिएन पुस्‍तकालय तथा ऑक्‍सफोर्ड के कई कॉलेज दिखलाए। वे हम लोगों को रेलवे स्‍टेशन तक पहुँचाने के लिए भी आए, और जब हमने उनसे पूछा कि वे हमारे आराम और सुख के लिए इतना सब क्‍यों कर रहे हैं, तो उन्‍होंने उत्तर दिया, "श्री रामकृष्‍ण परमहंस के एक शिष्‍य के साथ हमारी प्रतिदिन भेंट तो नहीं होती !"

यह भेंट मेरे लिए एक अद्भुत अनुभव थी। एक सुंदर उद्यान के बीच उनका वह मनोरम छोटा सा गृह, सत्तर वर्ष की आयु होते हुए भी वह स्थिर प्रसन्‍न मुख, बालकों का सा कोमल ललाट, रजतशुभ्र केश, ऋषि-हृदय के अंतस्‍तल में कहीं स्थित गंभीर आध्‍यात्मिक निधि की अस्‍तित्‍वसूचक उनके सुख की प्रत्‍येक रेखा, उनकी शीलवती पत्‍नी, विरोध एवं निंदा पर विजय प्राप्‍त करके अंतत: भारत के प्राचीन ऋषियों के विचारों के प्रति आदर भाव उत्‍पन्‍न करा सकनेवाले उनके दीर्घकालीन श्रमसाध्‍य उत्तेजक जीवन कार्य में हाथ बँटानेवाली उनकी सहधर्मिणी-विटप, पुष्‍प, नीरवता और स्‍वच्‍छ आकाश -ये समस्‍त सम्मिलित हो मुझे कल्‍पना में भारत के उस प्राचीन गौरवशाली युग में, ब्रह्मर्षियों और राजपिर्षयों के, उच्‍चाशय वानप्रस्थियों तथा अरून्‍धती और वशिष्‍ठादिकों के युग में खींच ले गए।

मैंने उन्‍हें एक भाषातत्त्वविद् अथवा पंडित के रूप में नहीं देखा, वरन् मैंने उन्‍हें ब्रह्म के साथ निरत्‍य एकरूपता अनुभव करनेवाली एक आत्‍मा और विश्‍वात्‍मा के साथ एकात्‍म होने के निमित्त प्रतिक्षण विस्‍तीर्ण होते हुए हृदय के रूप में ही देखा। जहाँ अन्‍य लोग शुष्‍क ब्‍योरों की मरूभूमि में स्‍वयं को खो देते हैं, वहाँ उन्‍होंने जीवन का स्रोत ढूँढ़ निकाला है। निस्‍संदेह उनके हृदय के स्‍पंदनों ने उपनिषदों की लय पकड़ ली है-तमेवैकं जानथ आत्‍मानं अन्‍यावाचो विमुत्र्चथ -'एकमात्र आत्‍मा को ही जान लो और सब बातें त्‍याग दो।'

समग्र जगत् को हिला देनेवाले पंडित एवं दार्शनिक होने पर भी उनके पांडित्य और दर्शन ने उन्‍हें उच्‍च से उच्‍चतर स्‍तर की ओर ले जाकर आत्‍मदर्शन में समर्थ किया है। उनकी अपरा-विद्या वास्‍तव में उनके परा-विद्या-लाभ में सहायक हुई है। यही है सच्‍ची विद्या। विद्या ददाति विनयं -'ज्ञान से ही विनय की प्राप्ति होती है।' यदि ज्ञान हमें उस परात्‍पर के निकट न ले जाए, तो फिर ज्ञान की उपयो‍गिता ही क्‍या ?

और फिर उनका भारत के प्रति अनुराग भी कितना है ! मेरा अनुराग यदि उसका शतांश भी होता, तो मैं अपने को धन्‍य समझता ! असाधारण और प्रखर क्रियाशील प्रतिभा से युक्‍त यह मनस्‍वी पचास या उससे भी अधिक वर्ष से भारतीय विचार-राज्‍य में निवास तथा विचरण कर रहे हैं; और उन्‍होंने इतनी श्रद्धा एवं हार्दिक प्रेम के साथ संस्‍कृत साहित्‍य के अनंत अरण्‍य में प्रकाश और छाया के तीक्ष्‍ण विनिमय का अवलोकन किया है कि अंत में वह उनके हृदय में ही पैठ गया है एवं उनका सर्वांग ही उसमें रंग गया है।

मैक्‍समूलर वेदांतियों के भी वेदांती हैं। उन्‍होंने सचमुच वेदांत की रागिनी की यथार्थ आत्‍मा को समस्‍वरता और विस्‍वरता की पूर्ण भूमिका में पहचाना है -उस वेदांत की, जो पृथ्‍वी के समस्‍त संप्रदायों एवं विचारों को प्रकाशित करने वाला एकमात्र आलोक है और समस्‍त धर्म जिसके भिन्‍न भिन्‍न रूप मात्र हैं। और श्री रामकृष्‍ण देव कौन थे ?- वे थे इसी प्राचीन तत्त्व के प्रत्‍यक्ष उदाहरणस्‍वरूप, प्राचीन भारत के ज्‍वलंत मूर्त स्‍वरूप,भविष्‍य-भारत के पूर्वाभास स्‍वरूप एवं समस्‍त जातियों के समक्ष आध्‍यात्मिक आलोकवाहक स्‍वरूप ! यह एक मानी हुई बात है कि जौहरी ही रत्‍नों की परख कर सकता है। अत: यदि इस पाश्‍चात्‍य ऋषि ने भारतीय विचार-गगन में किसी नए नक्षत्र के उदित होने से-इसके पहले कि भारतवासी उसका महत्‍व समझ कसें-उसकी ओर आकृष्‍ट होकर उसकी विशेष पर्यालोचना की हो, तो क्‍या यह विस्‍मय की बात है ?

मैंने उनसे कहा, "आप भारत में कब आ रहे हैं ? भारतवासियों के पूर्वजों की चिंताराशि को आपने यथार्थ रूप में लोगों के सामने प्रकट किया है, अत: वहाँ का प्रत्‍येक हृदय आपका स्‍वागत करेगा।" वृद्ध ऋषि का मुख चमक उठा, उनके नेत्रों में आँसू जैसे भर आए और नम्रता से सिर हिलाकर उन्‍होंने धीरे धीरे कहा, "तब तो मैं वापस नहीं आऊँगा; तुम लोगों को मेरा दाह-संस्‍कार वहीं कर देना होगा।" आगे और अधिक प्रश्‍न करना मुझे मानव हृदय के पवित्र रहस्‍यपूर्ण राज्‍य में अनधिकार प्रवेश करने की चेष्‍टा की भाँति प्रतीत हुआ। कौन जाने, कवि ने जो कहा था वह यही हो -

तच्‍चेतसा स्‍मरति नूनमबोधपूर्वम्।

भावस्थिराणि जनतान्‍तरसौह्दानि।।

- 'वे निश्‍च ही, अज्ञात रूप से हृदय में दृढ़-निबद्ध, पूर्व जन्‍मकी मित्रता की बातें सोच रहे हैं।'

उनका जीवन संसार के लिए एक वरदान रहा है और मेरी प्रार्थना है कि उनके द्वारा अपनी सत्ता की प्रस्‍तुत भूमिका को परिवर्तित करने के पूर्व यह वरदान अनेक वर्षों तक चलता रहे।


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