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स्वामी विवेकानंद के लेख

स्वामी विवेकानंद

अनुक्रम धर्म के मूल तत्त्व पीछे     आगे

संसार के प्राचीन या आधुनिक, मृत या जीवंत सभी धर्मों की अवधारणा मेरी बुद्धि इस चतुष्‍खण्‍ड विभाग द्वारा सर्वोत्तम ढंग से कर पाती है :

1. प्रतीकवाद-मनुष्‍य की धार्मिक प्रवृत्ति को सुरक्षित रखने और विकसित करने के लिए विविध बाह्य सहायक उपकरणों का उपयोग।

2. इतिहास-हर धर्म के दैवी अथवा मानवी उपदेशकों के जीवन द्वारा चरितार्थ प्रत्‍येक धर्म के दर्शन शास्‍त्र का धर्म द्वारा स्‍वीकार किया जाना। इसमें पौराणिक गाथाएँ भी शामिल हैं; क्‍योंकि जो कुछ एक जाति या युग के लिए पुराण गाथा है, वही दूसरी जातियों या युगों के लिए इतिहास था या इतिहास हो जाता है। मानव उपदेशकों के संबंध में भी उनके अधिकांश इतिहास को परवर्ती पीढि़यों द्वारा पुराण मान लिया जाता है।

3. दर्शन शास्‍त्र-प्रत्‍येक धर्म के संपूर्ण क्षेत्र का तर्काधार।

4. रहस्‍यवाद-विशेष व्‍यक्तियों द्वारा अथवाकुछ परिस्थितियों में सभी व्‍यक्तियों द्वारा इंद्रिय ज्ञान और बुद्धि के परे किसी उच्‍चतर तत्त्व के अस्तित्‍व की प्रतिष्‍ठा। यह अन्‍य विभागों में भी व्‍याप्‍त है।

संसार के अतीतया वर्तमान सभी धर्मों में, इन चारों में से एक या अधिक तत्त्व पाए जाते हैं। अधिक विकसित धर्मों में चारों पाए जाते हैं।

फिर इन अधिक विकसित धर्मों में भी कुछ के पास एक या अनेक पवित्र ग्रंथ थे ही नहीं; और ऐसे धर्म लुप्‍त हो गए हैं; पर जो धर्म पवित्र ग्रंथों पर आधारित थे, आज भी जीवित हैं। इस दृष्टि से आज संसार के समस्‍त महान् धर्म पवित्र धार्मिक ग्रंथों पर आधारित हैं।

वैदिक धर्म (जिसका भ्रान्‍त नाम हिंदू धर्म या ब्राह्मण धर्म रख दिया गया है) वेदों पर आधारित है।

अवैस्तिक धर्म व्यवस्था पर आधारित है।

यहूदी धर्म प्राचीन व्‍यवस्‍था पर आधारित है।

बौद्ध धर्म त्रिपिटक पर आधारित है।

ईसाई धर्म नव व्‍यवस्‍था पर आधारित है।

मुसलमान धर्म कुरान पर आधारित है।

चीन के ताओ धर्म और कन्‍फ़्यूशन धर्म की भी पुस्‍तकें हैं, पर यह बौद्ध धर्म के साथ इतने अविच्‍छेद्य रूप से धुल-मिल गए हैं कि उन्हें तालिका में बौद्ध धर्म के साथ रखना ही ठीक है।

और फिर, यद्यपि शुद्ध अर्थों में एकांत जातीय धर्म कोई भी नहीं है, फिर भी यह कहा जा सकता है कि इस उपर्युक्‍त समूह में से वैदिक, मूसाई और अवैस्तिक धर्म उन्‍हीं जातियों तक सीमित हैं, जिन जातियों को वह प्रारंभ में प्राप्‍त थे; जबकि बौद्ध धर्म, ईसाई धर्म और मुसलमान धर्म प्रारंभ से ही प्रसरणशील धर्म रहे हैं।

विश्‍वविजय के लिए बौद्धों, ईसाइयों और मुसलमानों के बीच संघर्ष होगा, और जातीय धर्मों को भी अनिवार्यत: उस संघर्ष में सम्मिलित होना पड़ेगा। इनमें से प्रत्‍येक धर्म, चाहे वह जातीय हो और चाहे प्रसरणशील, पहले से ही विभिन्‍न शाखाओं में विभाजित हो चुका है और जाने या अनजाने अपने आपको सतत परिवर्तित परिस्थितियों के अनुकूल बनाने के लिए व्‍यापक परिवर्तनों को स्‍वीकार करता रहा है। यही तथ्‍य सिद्ध करता है कि इनमें से कोई भी अकेला संपूर्ण मानव जाति का धर्म बनने के उपयुक्‍त नहीं है। प्रत्‍येक धर्म,‍ जिस जाति से वह उत्‍पन्‍न हुआ, उस जाति की कुछ विशिष्‍टताओं का परिणाम है, और प्रतिफलस्‍वरूप उन्‍हीं विशिष्‍टताओं के संरक्षण और संवर्धन का कारण भी है; और इसीलिए इनमें से कोई भी सार्वभौम मानव प्रकृति के उपयुक्‍त नहीं हो सकता। इतना ही नहीं, बल्कि प्रत्‍येक में एक अभावात्‍मक तत्त्व भी है। प्रत्‍येक मानव प्रकृति के एक विशिष्‍ट अंग की वृद्धि में सहायता देता है, पर उन अन्‍य सभी तत्त्वों को कुंठित कर देता है, जो उस जाति में नहीं थे, जिसमें उसकी उत्‍पत्ति हुई। इस प्रकार किसी एक धर्म का सार्वभौम हो जाना मनुष्‍य के लिए भयानक और पतनकारी होगा।

संसार का इतिहास यह स्‍पष्‍ट दर्शाता है कि एक विश्‍वव्‍यापी राजनीतिक साम्राज्‍य स्‍थापित करने और एक विश्‍वव्‍यापी धार्मिक साम्राज्‍य स्‍थापित करने के दो स्‍वप्‍न बहुत समय से मनुष्‍य जाति के सम्‍मुख रहे हैं; परंतु महानतम विजेताओं की योजनाएँ, संसार का एक अल्‍पांश विजय कर पाने के पूर्व ही, बारंबार उनके अधीनस्‍थ प्रदेशों के व्रिदोह-विच्‍छेद से, भंग हो गयीं; और इसी प्रकार प्रत्‍येक धर्म अपने पालने से भली-भाँति बाहर निकलने भी न पाया और विभिन्‍न मतों-संप्रदायों में विभक्‍त हो गया।

फिर भी यह सत्‍य मालूम पड़ता है कि अनंत विविधता के साथ समस्‍त मानव जाति की सामाजिक और धार्मिक एकता प्रकृति की योजना है। और यदि अल्‍पतम प्रतिरोध का मार्ग ही सच्‍चा कर्म-पथ है, तो मुझे ऐसा मालूम होता है कि प्रत्‍येक धर्म का यह मतों-संप्रदायों में विभक्‍त हो जाना जड़ एकरूपता की प्रवृत्ति को परास्‍त करके धर्म को जीवंत रखने की प्रक्रिया ही है और हमें इस बात का स्‍पष्‍ट निर्देश मिलता है कि हमें कौन सा मार्ग अपनाकर आगे बढ़ना चाहिए।

अत: ऐसा लगता है कि अनंत: मतों-संप्रदायों का तिरोभाव न होकर उनकी वृद्धि ही तब तक होती जाएगी, जब तक प्रत्‍येक व्‍यक्ति अपने लिए एक संप्रदाय नहीं बन जाता। और फिर समस्‍त वर्तमान धर्मों के एक व्‍यापक दर्शन शास्‍त्र में विलय हो जाने पर ही एकता की पृष्‍ठभूमि प्रस्‍तुत होगी। पुराण-गाथाओं और कर्मकांडों में तो कभी भी एकता न आ सकेगी, क्‍योंकि हम भावक्षेत्र की अपेक्षा वस्‍तुक्षेत्र में एक दूसरे से अधिक विभेद रखते हैं। एक ही सिद्धांत को स्‍वीकार करते हुए भी लोग उसके प्रत्‍येक आदर्श उपदेष्‍टा की महत्‍ता के संबंध में मतभेद रखेंगे।

अत: इस विलयन से दर्शन की एकता की उपलब्धि होगी, जो मानव जाति की एकता का आधार होगी और प्रत्‍येक व्‍यक्ति को स्‍वतंत्रता देगी कि वह अपने गुरु अथवा अपने मान्‍य मत को-जो इस एकता के दृष्‍टांत हों-चुन ले। यह विलयन सहस्‍त्रों वर्षों से स्‍वाभाविक रूप से चलता रहा है; केवल पारस्‍परिक विरोध के कारण ही वह दु:खद रूप से अवरूद्ध रहा है।

अत: विरोध फैलाने के बजाए हमें विभिन्‍न जातियों के बीच एक दूसरे के उपदेशकों को भेजकर विचारों के पारस्‍परिक आदान-प्रदान में सहायता देनी चाहिए, जिससे कि मानव जाति को संसार के विविध धर्मों की शिक्षा दी जा सके; किंतु हमें इस बात पर ज़ोर देना चाहिए कि हम दूसरों का उपहास न करें अथवा उनकी त्रुटियों और शिथिलताओं से अपने जीवन-यापन के लिए अनुचित लाभ न उठाएं, बल्कि उनकी सहायता करें, उनके प्रति सहानुभूति प्रदर्शित करें और उन्‍हें ज्ञान दें, जैसा कि ईसा से दो शताब्‍दी पूर्व भारत के महान् बौद्ध सम्राट् अशोक ने किया था।

आजकल समूचे संसार में जिसे भौतिक ज्ञान कहा जाता है, उसके पक्षमें और आध्‍यात्मिक ज्ञान के विरोध मे दुहाई दी जा रही है। प्राप्‍त जीवन और जगत् को एक दृढ़तर आधार पर प्रतिष्ठित करने के लिए प्राप्‍त जीवन से जो परे है, आध्‍यात्मिक है, उसके विरुद्ध अभियान बड़ी तेज़ी से एक फैशन बनता जा रहा है, जिसके सम्‍मुख धार्मिक उपदेशक भी एक के बाद एक बड़ी तेजी से घुटने टेकते जा रहे हैं। विचार-शून्‍य समाज तो निसंदेह सर्वदा बाह्यत: रोचक या सुखकर पदा‍र्थों का अनुगमन करता ही है; किंतु जब वे लोग, जिनसे अधिक ज्ञान की अपेक्षा की जाती है, निरर्थक फैशनों का अनुगमन करते हैं, भले ही वे दर्शनाभासित घोषित किए गए हों, तो स्थिति शोकजनक हो जाती है।

अब, इस बात को तो कोई भी अस्‍वीकार नहीं करता कि हमारी इंद्रियाँ, जब तक अपनी प्रकृतावस्‍था में हैं, तब तक वे हमें प्राप्‍त सर्वाधिक विश्‍वसनीय पथ-प्रदर्शक हैं; और जिन तथ्‍यों का संग्रह उनके द्वारा होता है, वही हमारे समस्‍त मानव ज्ञान की संरचना की आधारशिला हैं। पर यदि इसका अर्थ कोई यह लेता है कि समस्‍त मानव ज्ञान इंद्रियानुभूति मात्र है, तो हम उसे अस्‍वीकार करते हैं। यदि भौतिक विज्ञानों का अर्थ है ज्ञान की ऐसी शाखाएँ, जो केवल इंद्रियानुभूति पर ही आधारित और निर्मित हैं, और इसके अतिरिक्‍त अन्‍य किसी तथ्‍य पर नहीं, तो हमारा दावा है कि ऐसा विज्ञान न तो कभी था और न कभी हो सकेगा और न कोई ज्ञान की शाखा, जो केवल इंद्रियानुभूति पर ही निर्मित हो, कभी कोई विज्ञान बन सकेगी।

इंद्रियाँ निश्‍चय ही ज्ञान के उपादानों को संग्रह करती हैं और उनके साम्‍य और वैषम्‍य का निर्धारण करती हैं; पर यहीं पर उनकी गति रुक जाती है। पहली बात यह है कि तथ्‍यों के भौतिक संग्रह कुछ आध्‍यात्मिक धारणाओं-यथा देश-काल-के आश्रित हैं। दूसरे, तथ्‍यों का वर्गीकरण अथवा सामान्‍यीकरण किसी न किसी सूक्ष्‍म विचार की पृष्‍ठभूमि के अभाव में असंभव है। सामान्‍यीकरण जितना उच्‍चतर होगा, उतनी ही अधिक आध्‍यात्मिक वह सूक्ष्‍म पृष्‍ठभूमि होगी, जिस पर निरपेक्ष तथ्‍यों का विन्‍यास किया जाएगा। अब भूत-द्रव्‍य, शक्ति, मन, नियम, कारणता, और दिक्-काल जैसे विचार तो अत्‍युच्‍च अमूर्तीकरण के परिणाम हैं, और इनमें से किसी एक का भी किसी ने कभी इंद्रियानुभव नहीं किया। दूसरे शब्‍दों में, ये पूर्णत: आध्‍यात्मिक हैं। फिर भी इन आध्‍यात्मिक धारणाओं के बिना किसी भी भौतिक तथ्‍य का समझ सकना असंभव है। इस प्रकार किसी गति का बोध तब होता है, जब किसी शक्ति से उसका संदर्भ जुड़ जाता है, कुछ विशिष्‍ट संवेदनाओं का बोध पदार्थ-संदर्भ से होता है, कुछ बाह्य परिवर्तनों का बोध नियम-संदर्भ से होता है, कुछ वैचारिक परिवर्तनों का बोध बुद्धि-संदर्भ से और किसी एकाकी व्‍यवस्‍था का बोध कारणता-संदर्भ से होता है-काल और विधान से संबंद्ध होकर ! फिर भी किसी भी व्‍यक्ति ने भूत-द्रव्‍य अथवा शक्ति, विधान अथवा कारणता, दिक् अथवा काल को न कभी देखा है, न कभी उनकी कल्‍पना की है।

यह तर्क किया जा सकता है कि इन विविक्‍त धारणाओं का कोई अस्तित्‍व ही नहीं है; और ये सारी कल्‍पनाएँ उन वर्गों से विलग या विच्‍छेद्य कुछ हैं ही नहीं, जिनके कि ये विशिष्‍ट गुण मात्र हैं।

भाव-कल्‍पनाएँ संभव हैं या नहीं, अथवा सामान्‍यीकृत वर्गों के अतिरिक्‍त भी कुछ है या नहीं-ऐसे प्रश्‍नों से अलग इतना तो स्‍पष्‍ट है ही कि भूत-द्रव्‍य, शक्ति, दिक्, काल, कारणता, विधान अथवा मन को ऐसी इकाइयाँ माना गया है, जो संबंधित वर्गों से भाव रूप में परिकल्पित की गयीं और (अपने आप में) स्‍वतंत्र हैं; और यह कि जब उन्‍हें इस रूप में स्‍वीकार किया जाता है, तभी वे इंद्रियानुभूत तथ्‍यों के व्‍याख्‍यात्‍मक समाधान बनकर सामने आती हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि इन भावों-विचारों की सत्‍यता के अतिरिक्‍त इनके संबंध में दो तथ्‍य स्‍पष्‍ट रूप से सामने आते हैं-एक तो ये (तात्विक आध्‍यात्मिक) हैं; और दूसरे केवल तात्विक रूप में ही ये भौतिक तथ्‍यों की व्‍याख्‍या कर पाते हैं, अन्‍यथा नहीं।

बाह्य आं‍तरिक के अनुरूप बनता है या आंतरिक बाह्य के अनुरूप, भूतद्रव्‍य मन की अनुरूपता स्‍वीकार करता है या मन भूत-द्रव्‍य की, परिवेश मानव मन को ढालता है या मानव मन परिस्थितियों को मोड़ देता है-यह एक प्राचीन, अति प्राचीन प्रश्‍न है, जो आज भी उतना ही नवीन और जीवन है, जितना कभी था। प्राथमिकता अथवा कारणता की समस्‍या से परे-और मन भूत-द्रव्‍य का कारण है या भूत-द्रव्‍य मन का, इस पहेली का समाधान ढूँढ़ने की चेष्‍टा किए बिना भी-इतना तो स्‍पष्‍ट है कि, बाह्य का निर्माण आंतरिक द्वारा चाहे हुआ हो, चाहे न हुआ हो, पर हम बाह्य को समझने में समर्थ हो सकें-इसके लिए आवश्‍यक है कि बाह्य आं‍तरिक की अनुरूपता स्‍वीकार करे। हम यह मान भी लें कि बाह्य जगत् ही आंतरिक की अनुरूपता स्‍वीकार करे। हम यह मान भी लें कि बाह्य जगत् ही आंतरिक का कारण है, फिर भी हमें यह स्‍वीकार करना पड़ेगा कि हमारे मन के कारण-रूप में बाह्य जगत् के उतने ही रूप का या दृश्‍य का ज्ञान, हो सकता है, जितना उसकी प्रकृति के अनुरूप या उसी की प्रतिच्‍छाया हो। अब जो उसकी प्रतिच्‍छाया है-प्रतिबिंब है, वह उसका कारण तो नहीं हो सकता। और फिर इस व्‍यापक अस्तित्‍व का वह दृश्‍य जो मन के द्वारा समग्र से पृथक् कर लिया जाता है,अवगत किया जाता है-जाना जाता है, वह तो निश्‍चय ही मन का कारण नहीं हो सकता, क्‍योंकि उसके अस्तित्‍व का ज्ञान ही मन में और मन के ही द्वारा होता है।

इस प्रकार भूत-द्रव्‍य से मन का निर्गमन असंभव है। असंभव ही नहीं, असंगत भी है। क्‍योंकि यह तो एक प्रत्‍यक्ष तथ्‍य है कि अस्तित्‍व का वह अंश जो विचार और जीवन की विशिष्‍टताओं से विरहित है और जिसमें बाह्यत्‍व की विशिष्‍टता वर्तमान है, वही भूत-द्रव्‍य कहलाता है; और जो अंश बाह्यत्‍व से विरहित है और जिसे विचार और जीवन की विशिष्‍टताएँ उपलब्‍ध हैं, उसे मन कहा जाता है। अब मन से भूत-द्रव्‍य की अथवा भूत-द्रव्‍य से मन की उत्‍पत्ति सिद्ध करना प्रत्‍येक से उन गुण-धर्मों की अनुमिति करना है, जिनसे विरहित हम उन्‍हें मान चुके हैं; और इसलिए मन अथवा भूत-द्रव्‍य की कारणता के संबंध में चलनेवाला सारा संघर्ष एक शाब्दिक पहेली भर है, उससे अधिक कुछ नहीं। और फिर इन समस्‍त वितर्कों के बीच मन और भूत-द्रव्‍य-इन दोनों शब्‍दों के विविध अर्थों में प्रयुक्‍त करने की भ्रांति भी नियमित रूप से दिखाई देती है। मन शब्‍द का प्रयोग यदि एक स्‍थान पर भूत-द्रव्‍य से बाह्य विरोधी तत्त्व के अर्थ में किया जाता है, तो दूसरे स्‍थान पर उसका प्रयोग ऐसे तत्त्व के अर्थ में किया जाता है, जो मन और भूत-द्रव्‍य दोनों को समेटे हुए है, अर्थात् जिसके बाह्य और आंतरिक दोनों ही अंध भौतिक पक्ष के हैं; भूत-द्रव्‍य शब्‍द का प्रयोग कभी तो एक बाह्य तत्त्व के संकुचित अर्थ में किया जाता है, जिसकी हमें इंद्रियानुभूति होती है। और कभी उसका अर्थ होता है -एक ऐसा तत्त्व, जो बाह्य और आंतरिक समस्‍त गोचर सष्टि का कारण है। भौतिकवादी यह दावा करके आदर्शवादी को भयभीत कर देता है कि उसको अपने मन की उपलब्धि प्रयोगशाला के तत्त्वों से हुई है, जब कि उसका समस्‍त प्रयत्‍न प्रतिक्षण उस तत्त्व की अभिव्‍यक्ति के लिए होता है, जो समस्‍त तत्त्वों और अणुओं से परे है,व तत्त्व जिसके परिणामस्‍वरूप बाह्य और आंतरिक दोनों ही प्रकार के अस्तित्‍वों की स्थिति है और जिसे वह भूत-द्रव्‍य कहता है। दूसरी ओर आदर्शवादी भौतिकवादी के समस्‍त तत्त्वों और अणुओं को अपने विचार जगत् से ही उपलब्‍ध करना चाहता है, जब कि कभी कभी उस तत्त्व की भी झलक उसे मिलती है,जो मन और भूत-द्रव्‍य दोनों का ही कारण है और जिसे वह प्राय: ईश्‍वर कहकर पुकारता है। इसका अर्थ यह हुआ कि एक पक्ष इस समस्‍त विश्‍व की व्‍याख्‍या उसके उस अंश से करना चाहता है, जो बाह्य है और दूसरा पक्ष उस अंश से व्‍याख्‍या करना चाहता है, जो आंतरिक है। ये दोनों ही प्रयत्‍न असंभव हैं। मन और भूत-द्रव्‍य एक दूसरे की व्‍याख्‍या नहीं कर सकते-एक दूसरे का रहस्‍य नहीं खोल सकते। समस्‍या का एकमात्र समाधान उस तत्त्व में खोजना पड़ेगा, जो मन और भूत-द्रव्‍य दोनों को ही अपने में समाहित कर लेता है।

यह तर्क दिया जा सकता है कि मन के अभाव में विचार का अस्तित्‍व असंभव है, क्‍योंकि यदि हम यह कल्‍पना भी करें कि कोई ऐसा समय था, जब विचार का अस्तित्‍व नहीं था, तो निश्‍चय ही उस समय भूत-द्रव्‍य का भी-जैसा कि उसे हम जानते हैं, अस्तित्‍व नहीं हो सकता था। दूसरी ओर यह कहा जा सकता है कि चूँकि अनुभव के अभाव में ज्ञान असंभव है और चूँकि अनुभव के अभाव में ज्ञान असंभव है और चूँकि अनुभव बाह्य विश्‍व की पूर्व कल्‍पना करता है, इसलिए मन का अस्तित्‍व-जैसा कि उसे हम जानते हैं-भूत-द्रव्‍य के अस्तित्‍व के अभाव में असंभव है।

और न यही संभव है कि इन दो में से किसीका प्रारंभ हुआ हो। सामान्‍यीकरण ज्ञान का सार-तत्त्व है। समताओं के एक कोष के अभाव में सामान्‍यीकरण असंभव हे। पूर्वानुभूति के अभाव में तुलना भी असंभव है। इस प्रकार पूर्व ज्ञान के अभाव में ज्ञान भी असंभव है-और चूँकि ज्ञान के लिए विचार और भूत-द्रव्‍य दोनों का अस्तित्‍व आवश्‍यह है, अत: ये दोनों ही अनादि हैं।

और फिर उस पृष्‍ठभूमि के अभाव में, जिस पर निरपेक्ष इंद्रिय-ग्राह्य तथ्‍यों की एकता स्‍थापित होनी है, सामान्‍यीकरण, जो इंद्रिय-ज्ञान का सारतत्त्व है, असंभव है। जैसे चित्र के लिए चित्रपट अनिवार्य है, वैसे ही समस्‍त बाह्य दृष्टिगोचर तथ्‍यों के संगठन से विश्‍व की एक धारणा का रूप ग्रहण करने के लिए भी एक पृष्‍ठभूमि अनिवार्य है। यदि बाह्य विश्‍व के लिए हमारा विचार या हमारा मन चित्रपट का काम करता है, तो विचार और मन के लिए भी किसी दूसरे चित्रपट की आवश्‍यकता है। मन चूँकि विविध भावनाओं और इच्‍छाओं की एक श्रृंखला है, न कि स्‍वयं एक इकाई, इसलिए उसे अपनी एकता की पृष्‍ठभूमि के लिए अपने अतिरिक्‍त किसी अन्‍य तत्त्व की आवश्‍यकता है। यही समस्‍त विश्‍लेषण रुक जाता है, क्‍योंकि एक यथार्थ एकत्‍व की उपलब्धि हो गई है। किसी भी मिस्रतत्त्व का विश्‍लेषण तब तक नहीं रुकता, जब तक एक अविभाज्‍य इकाई की उपलब्धि नहीं हो जाती। फिर जो तत्त्व विचार और भूत-द्रव्‍य दोनों के ही लिए ऐसी अविभाज्‍य इकाई के रूप में उपलब्‍ध हो, वह निश्‍चय ही समस्‍त अस्तित्‍व का अंतिम अविभाज्‍य आधार होगा, क्‍योंकि उससे आगे और विश्‍लेषण की हम कल्‍पना ही नहीं कर सकते; और न इससे आगे विश्‍लेषण की कोई आवश्‍यकता ही है; क्‍योंकि इसमें हमारी समस्‍त बाह्य और आंतरिक ज्ञानानुभूति का विश्‍लेषण सम्मिलित है। इस प्रकार अब तक हमने यह देखा कि हमारे मानसिक और भौतिक जगत् की संपूर्ण समष्टि और उससे भी परे वह कुछ, जिस पर इन दोनों की लीला चल रही है-यही हमारी खोज का, हमारे विश्‍लेषण का परिणाम है।

अब वह जो 'कुछ' परे है, वह हमारे इंद्रिय ज्ञान में सम्मिलित नहीं हैं : यह एक तर्कसिद्ध आवश्‍यकता है,और इसकी अनिर्वचनीय सत्ता की अनुभूति की भावना हमारे समस्‍त इंद्रिय ज्ञान में अंतर्निहित है। हम यह भी अनुभव करते हैं कि अपने विवेक और सामान्‍यीकरण की अपनी शक्ति के प्रति हमारी सत्‍यनिष्‍ठा ही हमें इस अनिर्वचनीय 'कुछ' की ओर बरबस ले जाती है।

जोर देकर यह कहा जा सकता है कि हमारे मानसिक और भौतिक जगत् के परे ऐसे किसी तत्त्व की स्‍वयंसिद्ध स्‍वीकृति की कोई आवश्‍यकता ही नहीं है। जगत् की संपूर्ण समष्टि ही वह सब कुछ है, जो हम जानते हैं अथवा जान सकते हैं; और उसकी व्‍याख्‍या करने के लिए उसके अतिरिक्‍त उससे परे और किसी तत्त्व की आवश्‍यकता नहीं है। इंद्रियों से परे कोई भी विश्‍लेषण असंभव है, और किसी भी ऐसी वस्‍तु का अनुभव जिसमें सबका अंतर्भाव है-सबका निवास है, भ्रम मात्र है।

तो हम यह देखते हैं कि प्राचीनतम काल से विचारकों की दो शाखाएँ रही हैं। एक पक्ष का दावा यह है कि मानव मन की धारणाओं और कल्‍पनाओं के सर्जन की अनिवार्य आवश्‍यकता ही ज्ञानोपलब्धि की प्रकृत पथ-प्रदर्शिका है, और इस प्रक्रिया का तब तक विराम नहीं होता, जब तक हम जगतातीत नहीं हो जाते और हमें एक ऐसी धारणा की उपलब्धि नहीं होती, जो सर्वथा निरपेक्ष और देश, काल एवं निमित्त से परे हो। अब यदि इस परम धारणा की उपलब्धि समस्‍त वैचारिक एवं भूत-द्रव्‍य-जगत् का क्रमिक विश्‍लेषण करने पर ही हो सकती हो-स्‍थूल को लेकर सूक्ष्‍म और सूक्ष्‍म से सूक्ष्‍मतर के विघटन की सिद्धि द्वारा; जब तक कि हमें उस तत्त्व की प्राप्ति न हो, जो अन्‍य सभी पदार्थों का समाधान हो-तो यह स्‍पष्‍ट है कि इस अंतिम परिणाम से परे जो कुछ भी है, वह सब इसी का क्षणिक परिवर्तित रूप है, इसलिए यह अंतिम परिणाम ही सत्‍य है और शेष सभी कुछ उसकी छाया मात्र है। अत: वास्‍तविकता या सत्‍य हमारी इंद्रियों में नहीं, उनसे परे है। दूसरी ओर, दूसरे पक्ष का दावा है कि विश्‍व में एकमात्र वास्‍तविकता या सच्‍चाई वही है, जो हमारी इंद्रियाँ हमें उपलब्‍ध कराती हैं; और यद्यपि हमारी समस्‍त इंद्रियानुभूति पर किसी इंद्रियातीत तत्त्व की भावना छायी रहती है, फिर भी वह केवल हमारे मन की प्रवंचना मात्र है और इसलिए अयथार्थ है।

इस प्रकार किसी अपरिवर्तनशील चिरंतन तत्त्व की धारणा के अभाव में परिवर्तनशील पदार्थ कभी समझा ही नहीं जा सकता; और यदि तर्क किया जाए कि जिस अपरिवर्तनशील तत्त्व के साथ हम परिवर्तनशील का संदर्भ जोड़कर उसे समझते हैं; वह स्‍वयं भी केवल सापेक्ष रूप में ही अपरिवर्तनशील है, अन्‍यथा वह स्‍वयं भी परिवर्तनशील है और इसलिए उसका संदर्भ किसी अन्‍य अपरिवर्तनशील तत्त्व के साथ जोड़ना होगा और यह गति यथाक्रम चलती रहेगी, तो हमारा कहना यह है कि यह श्रृंखला चाहे जितनी लंबी हो, किंतु यह तथ्‍य ही कि हम अपरिवर्तनशील शक्तियों के अभाव में परिवर्तन को समझने में असमर्थ हैं, हमें विवश कद देता है कि हम समस्‍त परिवर्तनशील तत्त्वों की पृष्‍ठभूमि के रूप में एक अपरिवर्तनशील तत्त्व का अस्तित्‍व स्‍वयंसिद्ध मान लें। और किसी को भी यह अधिकार नहीं है कि वह संपूर्ण के एक अंश को सही मान ले और दूसरे अंश को मनमाने ढंग से अस्‍वीकार कर दे। यदि कोई मुद्रा के एक पहलू को स्‍वीकार करता है, तो उसे उसके दूसरे पहलू को भी स्‍वीकार करना होगा, चाहे वह कितना ही नापसंद उसे क्‍यों न हो।

और फिर अपनी प्रत्‍येक चेष्‍टा से मनुष्‍य अपनी स्‍वतंत्रता की घोषणा करता है। सर्वोच्‍च विचारक से लेकर घोर अज्ञानी व्‍यक्ति तक प्रत्‍येक जानता है कि वह स्‍वतंत्र है। थोड़ा सा सोचने पर भी प्रत्‍येक मनुष्‍य यह अनुभव करता है कि उसके प्रत्‍येक कार्य के पीछे प्रेरक प्रयोजन और परिस्थितियाँ भी हैं, और उन्‍हीं प्रयोजनों और परिस्थितियों में उसके विशिष्‍ट कार्य की अनुमति उतनी ही दृढ़ता से की जा सकती है, जितनी दृढ़ता से निमित्त-श्रृंखला में किसी दूसरे तथ्‍य की।

यहाँ फिर वही कठिनाई आ पड़ती है। मनुष्‍य की इच्‍छा कार्य-कारणवाद से उतनी ही दृढ़ता के साथ आबद्ध है, जिस दृढ़ता से किसी छोटे पौधे का बढ़ना अथवा किसी पत्‍थर का गिरना, और फिर भी इस समस्‍त बंधन के बीच स्‍वतंत्रता का अविनश्‍वर विचार विद्यमान है। तो फिर यहाँ भी समष्टि-पक्ष यही घोषणा करेगा कि स्‍वतंत्रता का विचार भ्रम है और मनुष्‍य सर्वथा अनिवार्यता का दास है।

अब एक ओर तो, स्‍वतंत्रता को भ्रम घोषित कर उसकी सत्ता की अस्‍वीकृति कोई समाधान नहीं है; दूसरी ओर, हम यह क्‍यों न कहें कि आवश्‍यकता अथवा बंधन अथवा कारणता का विचार अज्ञानियों का एक भ्रम मात्र है। कोई भी सिद्धांत जो विवेच्‍च तथ्‍यों में से उन सबको पहले काटकर अलग फेंक देता है, जो उसके अनुकूल नहीं पड़ते और तब अपने अनुकूल तथ्‍यों को लेकर समग्र की व्‍याख्‍या का दावा करता है, स्‍पष्‍टत: एक भ्रामक सिद्धांत है-अशुद्ध सिद्धांत है। अत: हमारे लिए एकमात्र शेष मार्ग यही है कि हम स्‍वीकार करें कि प्रथमत: न शरीर स्‍वतंत्र है और न इच्‍छा ही, बल्कि मन और शरीर दोनों से परे निश्‍चय ही कोई ऐसा तत्त्व होगा जो स्‍वतंत्र है और ...


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