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स्वामी विवेकानंद के लेख

स्वामी विवेकानंद

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'ईश्‍वर ने देशी लोगों को उत्‍पन्‍न किया, ईश्‍वर ने यूरोपीय लोगों को उत्‍पन्‍न्‍ा किया, किंतु वर्णसंकर लोगों को किसी अन्‍य व्यक्ति ने उत्‍पन्‍न किया'- एक भयंकर पाखंडी अंग्रेज को ऐसा कहते हमने सुना था।

हमारे सम्‍मुख न्‍यायाधीश रानाडे का उद्घाटन भाषण है, जिसमें भारतीय 'समा-सम्मेलन' की सुधारवादी उत्‍कंठा व्‍यक्‍त की गई है। इस भाषण में प्राचीन काल के अंतरजातीय विवाहों के उदाहरणों की एक लंबी तालिका है, प्राचीन क्षत्रियों की उदार भावना की पर्याप्‍त चर्चा है, विद्यर्थिंयों के लिए कल्‍याणकारी गंभीर परामर्श है; और यह सब सत्‍य‍निष्‍ठ सद्भावना के साथ, भाषा की इतनी शिष्‍टता के साथ व्‍यक्‍त किया गया है, जो सचमुच स्‍तुत्‍य है।

फिर भी भाषण का अंतिम भाग, जिसमें पंजाब में प्रबल नवीन आंदोलन के प्रचार के लिए, जिसे हम निश्‍चय ही आर्य समाज मानते हैं, जिसकी स्‍थापना एक संन्‍यासी ने की है, उपदेशकों के एक दल की स्‍थापना का सुझाव दिया गया है, हमें आश्‍चर्य में डाल देता है और हम उपने से यह प्रश्‍न पूछते रह जाते हैं : ऐसा लगता है कि भगवान ने ब्राह्मणों को उत्‍पन्‍न किया, भगवान ने क्षत्रियों को उत्‍पन्‍न्‍ा किया, किंतु संन्‍यासियों को किसने उत्‍पन्‍न किया ?

प्रत्‍येक जाति धर्म में संन्‍यासी होते रहे हैं और हैं। हिंदू संन्‍यासी है, बौद्ध संन्‍यासी है, ईसाई पादरी हैं और इस्‍लाम को भी अपनी इस प्रथा की कठोर अस्‍वीकृति छोड़नी पड़ी और भिक्षु,फकीरों या संन्यासियों की एक संपूर्ण श्रृखंला स्‍वीकार करनी पड़ी।

संपूर्ण मुंडित, आंशीक मुंडीत, दीर्घकेशी, जटाधारी और विविध अन्‍य रुक्ष बालों वाले संन्‍यासियों की कोटियाँ हैं।

दिगंबर हैं, चिथड़े लपेटने वाले हैं, गेरूआधारी हैं, पीतांबरधारी हैं, काले वस्त्रधारी ईसाई हैं और नीलांबरधारी मुसलमान हैं। फिर कुछ ऐसे हुए हैं, जिन्‍होंने अपने शरीर को विविध यातनाएँ दी हैं और कुछ ऐसे हुए हैं, जो अपने शरीर को सुखी और स्‍वस्‍थ ही रखने में विश्‍वास करते थे। प्राचीन काल में शरीर को सुखी और स्‍वस्‍थ ही रखने में विश्‍वास करते थे। यही भावना ऐसी ही अभिव्यक्तियों में समानांतर रूप से स्त्रियों में-संन्‍यासिनियों में भी पाई गई है। श्री रानाडे महोदय न केवल भारतीय समाज-सम्‍मेलन के अध्‍यक्ष है, बल्कि एक शूर-वीर सज्‍जन हैं: श्रुतियों की तपस्विनियाँ उनको पूर्ण संतोष प्रदान करती प्रतीत होती हैं। प्राचीन कुमारी ब्रह्मवादिनियाँ, जो एक से दूसरे राजदरबार में दार्शनिकों को चुनौती देती घूमती थी, श्री रानाडे को विधाता की केंद्रीय योजना-जाति के संवर्धन को बाधित करती नहीं मालूम होती; मानव-अनुभूति की विविधता और पूर्णता का भी इन तापस बालाओं में, श्री रानाडे की राय में, कोई अभाव नहीं दिखाई देता, जैसा कि उसी मार्ग पर चलने वाले पुरुष वर्ग में उन्‍हें दिखाई देता हैं।

अत: हम प्राचीन तपस्विनियों और उनकी वर्तमान आध्‍यात्मिक उत्तराधिकारिनियों को परीक्षा में उत्‍तीर्ण हुई मानकर छोड़ देते हैं।

मुख्‍य अपराधी-केवल पुरुष को ही श्री रानाडे की आलोचना की सारी चोट बरदाश्‍त करनी पड़ती हैं। आओ, देखें, वह इस चोट से उबर पाता है या नहीं !

विद्वतमंडली की कुछ ऐसी सम्‍मति जान पड़ती है। कि मठों या आश्रमों की यह विश्‍वव्‍यापी व्‍यवस्‍था सर्वप्रथम हमारे इस अद्भुत देश में ही प्रचलित हुई थी, जिसमें 'सामाजिक सुधार' की इतनी अधिक आवश्‍यकता जान पड़ती है।

विवाहित और ब्रह्मचारी गुरु दोनों ही उतने ही प्राचीन है, जितने वेद। इस समय यह निश्चित करना कठिन है कि पहले सब प्रकार के अनुभव से शून्‍य ब्रह्मचारी ऋषि ही इस परंम्‍परा का आदिम रूप था। संभवत: श्री रानाडे ही, तथाकथित पाश्‍चात्‍य संस्‍कृत-विद्वानों की सुनी-सुनायी बातों से मुक्‍त स्‍वतंत्र रूप में इस समस्‍या का हल हमें सुझाएंगे; तब तक तो यह हमारे लिए मुरगी और मुरगी के अंडेवाली पुरानी पहेली ही बनी रहेगी।

पर उत्‍पत्ति-क्रम कुछ भी हो, श्रुतियों और स्‍मृतियों के ब्रह्मचारी गुरु विवाहित गुरुओं से सर्वथा पृथक् घरातल पर थे और यह पार्थक्‍य था पूर्ण पवित्रता का, ब्रह्मचर्य का !

यदि वेदों के कर्मकांड का मूलाधार यज्ञ है, तो उनके ज्ञानकांड की आधारशिला ब्रह्मचर्य है।

रक्‍त बहाकर यज्ञ कराने वाले, उपनिषदों के व्‍याख्‍याता क्‍यों नहीं हो सके-आखिर क्‍यों ?

एक और तो विवाहित ऋृषी था-अपने अर्थहीन, झक्‍की-नहीं भयानक अनुष्‍ठानों से युक्‍त-और जिसके संबंध में और अधिक न कहकर इतना ही कहना पर्याप्‍त होगा कि नैतिकता की उसे एक धूमिल धारणा भर थी। और दूसरी ओर थे ब्रह्मचारी संन्‍यासी, जो मानव-अनुभव की कमी के बावजूद आध्‍यात्मिकता और नैतिकता के उन स्‍त्रोतों को खोज रहे थे, जिनसे संन्‍यासी जिनों और बुद्धों से लेकर शंकर, रामानुज, कबीर और चैतन्‍य तक ने छककर पान किया और अपने आश्‍चर्यजनक आध्‍यात्मिक और सामाजिक सुधारों के प्रचार की शक्ति प्राप्‍त की; और जो आज हमारे समाज-सुधारकों को पश्चिम से तीसरी-चौथी किश्‍त की जूठन के रूप में मिलने पर भी इतनी शक्ति दे रहे हैं कि वे संन्‍यासियों की भी आालेचना करते हैं !

सम्‍प्रति हमारे समाज-सुधारकों को मिलने वाले वेतन और विशेषाधिकार की तुलना में भारत में हमारे संन्यासियों को कितनी सहायता, कितना वेतन मिलता है ? और संन्‍यासियों को कितनी सहायता, कितना वेतन मिलता है ? और संन्‍यासियों के गरीब नि:स्‍वार्थ प्रेममय सेवा-कार्य की तुलना में हमारा समाज-सुधारक क्‍या काम करता है ?

पर संन्यासियों ने आत्‍म-विज्ञापन का आधुनिक ढंग नहीं सीखा !

हिंदू अपनी माँ के दूध के साथ ही यह धारणा ग्रहण कर लेता है कि यह जीवन कुछ नहीं है-एक स्‍वप्‍न है ! इस बात में वह पाश्‍चात्‍य लोगों के समान है; पर पाश्‍चात्‍य लोग इस जीवन के परे नहीं देखते और उनका निष्कर्ष चार्वाक का निष्‍कर्ष हैं-बहती गंगा में हाथ धो लेना। 'यह संसार तो एक दु:ख सागर है, तो फिर सुख के जो भी अंश उपलब्‍ध हों, अनका भरपूर उपभोग कर लिया जाए। इसके विरीत हिंदू की दृष्टि में ईश्‍वर और आत्‍मा ही केवल सत्‍य हैं, इस संसार से अनंत गुणा अधिक सत्‍य; और इस लिए वह सर्वदा इस संसार को उनकी प्राप्‍ती के लिए त्‍यागने को तैयार रहता है।

जब तक जातीय मनश्‍चेतना की यह प्रवृत्ति बनी रहती है, यह दृष्टिकोण रहता है-और हम प्रार्थना करते हैं कि यह सर्वदा बना रहे-तब तक भारतीय पुरुषों और स्त्रियों की 'विश्‍व कल्‍याण और आत्‍ममुक्ति के लिए' सब कुछ त्‍याग देने की सहज प्रवृत्ति को रोकने की कितनी आशा हमारे ये आंग्‍लीकृत देश-बंधु कर सकते हैं ?

और संन्‍यासी के विरुद्ध उस मुरदा तर्क की सड़ी हुई लाश, जिसे पहले-पहल यूरोप के प्रोटेस्‍टेन्‍टों ने प्रयुक्‍त किया, जिसे बंगाली सुधारकों ने उधार लिया और अब बंबई के बंधु जिसे गले लगा रहे हैं कि संन्‍यासी अपने ब्रह्मचर्य के कारण जीवन की 'परिपूर्ण और सर्वांगीण अनुभूति' से वंचित रहता ही है !-हम आशा करते हैं कि इस बार यह लाश सदा सर्वदा के लिए, विशेषकर इन प्‍लेग के दिनों में, यहाँ की ब्राह्मण जाति में अपने तीव्र गंधवाले पूर्वजों के प्रति जो पितृप्रेम कल्पित किया जा सकता है, यदि पौराणिक गाथाओं का कोई मूल्‍य पूर्वजों की खोज में है तो-उसके बावजूद भी, अरब सागर में बहा दी जाएगी।

लगे हाथ यह भी देख लें कि यूरोप में इन संन्‍यासी और संन्‍यासिनियों ने ही अधिकांश ऐसे बच्‍चों का पालन-पोषण और शिक्ष्‍ाण किया है, जिनके माता-पिता, विवाहित होते हुए भी,'जीवन के सर्वांगीण अनुभव' का स्‍वाद लेने के सर्वदा अनिच्‍छुक थे।

दूसरा तर्क बेशक यह है कि परमात्‍मा ने हमें सभी इंद्रियां किसी न किसी उपयोग के लिए ही दी हैं। अत: संन्‍यासी जाति की वृद्धी न करके भूल करता है-- पापी है ! ठीक हैं; पर इसी प्रकार हमें क्रोध,काम, निदर्यता, चोरी, लूट, और प्रताणना आदि की मन:शक्तियां भी तो दी गई हैं ; और इनमें से प्रत्‍येक, सुधरे हुए या बिना सुधरे हुए, सामाजिक जीवन के स्‍थायित्‍व के लिए परम अनिवार्य हैं। इनके बारे में क्‍या किया जाए ?'जीवन के सर्वांगीण अनुभव' वाले सिद्धांत का अनुगमन करते हुए, इन्‍हें भी पूर्ण प्रवेग से प्रचलित रहने देना चाहिए या नहीं ? निश्‍चय ही सर्वशक्ति मान परमात्‍मा के घनिष्‍ठ परिचित और उसके उद्देश्य के जानकार समाज सुधारक इस प्रश्‍न का उत्तर सकारात्‍मक ही देंगे ! क्‍या हमें विश्‍वामित्र, अत्रि तथा दूसरों की क्रूरता का, और विशेषकर वशिष्‍ठ परिवार के नारी-जाति संबंधी 'परिपूर्ण व्‍यापक अनुभव' का, अनुगमन करना होगा ? क्‍योंकि विवाहित ऋृषी में से अधिकांश जब कभी और जहाँ बच्‍चे उत्‍पन्‍न करने में उतने ही ख्‍यातनाम थे, जितने प्रसिद्ध वे ऋृषीगण और सोमपान के लिए थे। अथवा हमें ब्रह्मचारी ऋृषियों का अनुगमन करना चाहिए, जो ब्रह्मचर्य को आध्‍यात्मिकता की अनिवार्य आवश्‍यकता मानते थे ?

फिर प्राय: कुछ पथभ्रष्‍ट विरागी संन्‍यासी भी होते हैं, जिनकी पर्याप्‍त निन्‍दा होनी ही चाहिए-दुर्बल, दुराचारी, जो अपने संन्‍यास के आदर्श से च्‍युत हो जाते है।

पर यदि आदर्श सरल और स्‍वस्‍थ है, तो,'गिरते हैं शहसवार ही मैदाने जंग में' वाली कहावत के अनुसार, पथ-भ्रष्‍ट संन्‍यासी देश के किसी भी गृहस्‍थ से कहीं अधिक उच्‍चतर भूमि पर है।

उस कायर की तुलना में, जिसने कभी प्रयत्न हो नहीं किया, वह शूरवीर है।

यदि हमारे समाज-सुधार केंद्रों की आंतरिक कार्य-पद्धति पर सूक्ष्‍म निरीक्षण की दृष्टि डाली जाए, तो संन्‍यासियों और गृहस्‍थों के बीच पथ-भ्रष्‍ट-लोगों का प्रतिशत देवदूत ही निकाल पाएंगे; और लेखा रखने वाला देवदूत हमारे हृदय में ही है।

किंतु जब इस एकांत महत्‍व की, समस्‍त सहायता का तिरस्‍कार करने की, जीवन की आँधियों का सामना करने और बिना किसी प्रकार के प्रतिफल या कर्तव्‍य-पूर्ति की भावना के कर्म करने की अद्भुत अनुभूति का क्‍या होगा ? सारे जीवन आनंदपूर्वक मुक्‍त रहकर कर्म करने की अनुभूति; क्‍योंकि दासों की भाँति मिथ्‍यामानव-प्रेम अथवा महत्‍वाकांक्षा के अंकुशों से कर्म करने की यह प्रेरणा नहीं है !

इसे तो केवल संन्यासी ही प्राप्‍त कर सकते हैं। धर्म का क्‍या होगा ? वह रहेगा या उसे समाप्‍त होना हैं ? यदि उसे अपने विषेषज्ञों, अपने सैनिकों की आवश्‍यकता है। संन्‍यासी धार्मिक विशेषज्ञ है; क्‍योंकि उसने धर्म को ही जीवन का एकमात्र उद्देश्य बना लिया है। वह भगवान् का सैनिक है। कौन सा धर्म तब तक मर सकता है, जब तक उसमें श्रद्धालु संन्‍यासियों का समुदाय बना रहता है ?

प्राटेस्‍टेन्‍ट इंग्‍लैड और अमेरिका कैथोलिक संन्‍यासियों की प्रगति से क्‍यों काँप रहे हैं ?

श्री. रानाडे और समाज-सुधारकों, जिंदाबाद ! पर ओ अभागे भारत ! आंग्‍लीभूत भारत ! भोले बच्‍चे ! मत भूलो कि इस समाज में कुछ ऐसी भी समास्‍याएँ है, जिन्‍हें अभी न तो तुम समझ सकते हो, न तुम्‍हारे पाश्‍चात्‍य गुरु ही-उन्‍हें हल करना तो दूर की बात है !


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