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नाटक

दुर्लभ बन्धु

भारतेंदु हरिश्चंद्र


पहला दृश्य
स्थान-वंशनगर, एक सड़क
(सलोने और सलारन आते हैं)

सलोने : कहो बाजार का कोई नया समाचार है?

सलारन : इस बात का अब तक वहाँ बड़ा कोलाहल है कि अनन्त का एक अनमोल माल से लदा हुआ जहाज उस छोटे समुद्र में नष्ट हो गया; कदाचित् उस स्थान को लोग दुरूह कहते हैं जो एक बड़ी भयानक बालू की ठेंक है जहाँ कितने ही बड़े-बड़े अनमोल जहाज नष्ट हो गए हैं यदि यह समाचार निरी गप हाँकने वाली कुटनीक न हो।

सलोने : ईश्वर करे वह वैसी ही झूठी कुटनी निकले जो आँसू बहाने के लिए अपनी आँखों में लाल मिर्च मल लेती है, जिसमें लोगों पर अपने तीसरे पति के मरने का दुख प्रकट करे। पर यह सच है और मैं बिना इसके कि बात को बढ़ाऊँ या बातचीत की सीधी राह से मुड़ूँ, कहता हूँ कि सुहृद अनन्त धर्मिष्ठ अनन्त-हाय मुझे तो कोई ऐसा शब्द ही नहीं मिलता जिससे उसकी प्रशंसा सूचित हो सके।

सलारन : अच्छा तो अब तुम्हारा वाक्य समाप्त हुआ।

सलोने : वाह! क्या कहते हो? अच्छा तो उसका परिणाम यह है कि उनका एक जहाज नष्ट हो गया।

सलारन : मैं तो आशीर्वाद देता हूँ कि उनकी हानि यहीं पर समाप्त हो जाय।

सलोने : मैं भी झटपट एवमस्तु कह दूँ, कहीं ऐसा न हो कि भूत मेरी प्रार्थना में विघ्न करे क्योंकि यह देखो वह जैन की सूरत में चला आता है।

(शैलाक्ष आता है)

सलोने : कहो जी शैलाक्ष आज कल सौदागरों में क्या समाचार है?

शैलाक्ष : मेरी बेटी के भागने का हाल तुमको भलीभाँति विदित है तुमसे बढ़कर इस बात को कोई नहीं जानता, कोई नहीं जानता।

सलारन : इसमें भी कोई सन्देह है परन्तु यदि मुझसे पूछो तो मैं केवल इतना ही जानता हूँ कि अमुक दर्जी ने उसके लिये पर बनाये थे जिनके सहारे से उड़ी।

सलोने : और शैलाक्ष भी इस बात को जानता था कि उस चिड़िए के पर जम चुके हैं जिसके होने के सब पक्षियों का नियम है कि अपने माँ बाप के खोन्ते से निकल भागते हैं।

शैलाक्ष : वह इस अपराध के लिए अवश्य नरक में पड़ेगी।

सलारन : अवश्य यदि चेत भूत उसका न्यायकत्र्ता हो।

शैलाक्ष : ऐ! मेरा ही मांस और रुधिर मुझी से विरुद्ध हो!

सलोने : तुम भी पुराने घाघ होकर क्या ही वाही तबाही बकते हो! भला ऐसी युवा कुमारी के ऐसे कृत्य को विरुद्ध कह सकते हैं?

शैलाक्ष : क्या मेरी लड़की मेरा मांस और लहू नहीं है?

सलारन : तुम्हारे और उसके मांस में तो उससे भी अधिक अन्तर है जैसा कि नीलमणि और स्फटिक में होता है, तुम्हारे और उसके रुधिर में उससे भी अधिक अन्तर है जैसा कि सिंगर्फ और गेरू में होता है। पर यह तो कहो कि तुमने भी अनन्त के जहाज के नष्ट होने का कुछ हाल सुना है?

शैलाक्ष : वह मेरे लिये एक दूसरे घाटे की बात है; एक पूरा व्यर्थ व्यय करने वाला और दीवालिया जो अब बाजार में किसी को मुँह नहीं दिखला सकता, एक भिखमंगा जो किस बनावट के साथ बन ठन कर बाजार में आया करता था; नेक वह अपनी दस्तावेज तो देखे; वह मुझे बड़ा ब्याज खाने वाला कहता था; नेक वह अपनी दस्तावेज तो देखे; वह लोगों को बहुत अपनी आर्य दयालुता दिखलाने के लिए व्यर्थ रुपया ऋण दिया करता था; नेक वह अपनी दस्तावेज तो देखे।

सलारन : क्यों, मुझे विश्वास है कि यदि वह अपनी प्रतिज्ञा पूरी न कर सके तो तुम उनका मांस न माँगोगे; भला वह तुम्हारे किस काम में आ सकता है?

शैलाक्ष : मछली फँसाने के लिये चारे के काम में यदि वह और किसी वस्तु का चारा नहीं हो सकता तो मेरे बदले का चारा तो होगा। उसने मुझे अप्रतिष्ठित किया है और कम से कम मेरा पाँच लाख का लाभ रोक दिया है; वह सदा मेरी हानि पर हँसा है, मेरे लाभ की निन्दा की है, मेरी जाति की अप्रतिष्ठा की है, मेरे व्यवहारों में टाँच मारी है, मेरे मित्रों को ठंढा और मेरे शत्रुओं को गर्म किया है; और यह सब किस लिए? केवल इसलिये कि मैं जैनी हूँ। क्या जैनी की आँख, नाक, हाथ, पाँव और दूसरे अंग आर्यों की तरह नहीं होते? क्या उसकी सुधि, सुख और दुःख, प्रीति और क्रोध आर्यों की भाँति नहीं होता? क्या वह वही अन्न नहीं खाता उन्हीं शस्त्रों से घायल नहीं होता, वही रोग नहीं झेलता, उन्हीं औषधियों से अच्छा नहीं होता, उसी गर्मी और जाड़े से सुख और कष्ट नहीं उठाता जैसा कि कोई आर्य? क्या यदि तुम चुटकी काटो तो हम लोगों के रुधिर नहीं निकलता? क्या यदि तुम गुदगुदाओ तो हम लोगों को हँसी नहीं आती? क्या यदि तुम विष दो तो हम लोग मर नहीं जाते? तो फिर जो तुम हम पर अत्याचार करोगे तो क्या हम बदला न लेंगे? यदि हम लोग और बातों में तुम्हारे सदृश हैं तो इस बात में भी तुम्हारे तुल्य होंगे। यदि कोई जैनी किसी आर्य को दुःख दे तो वह किस भाँति अपनी नम्रता प्रकट कर सकता है? बदला लेकर। तो यदि कोई आर्य किसी जैन को क्लेश पहुँचावे तो इसे उसके उदाहरण के अनुसार किस प्रकार से सहन करना चाहिए? अवश्य बदला लेकर। जो पाजीपन तुम लोग मुझे अपने उदाहरण से सिखलाते हो उसे मैं कर दिखलाऊँगा और कितनी ही कठिनता क्यों न पड़े मैं बदला लेने में अवश्य तुमसे बढ़कर रहूँगा।

(एक भृत्य आता है)

भृत्य : महाशयो मेरे स्वामी अनन्त अपने घर पर हैं और आप दोनों से कुछ बातचीत किया चाहते हैं।

सलारन : हम लोग तो उनको चारों ओर खोज ही रहे थे।

(दुर्बल आता है)

सलारन : यह देखो एक दूसरा जैनी आया; अब तीसरा इनकी बराबरी का नहीं निकल सकता पर हाँ उस दशा में कि भूत आप ही एक जैन बन जाय।

(सलोने, सलारन और भृत्य जाते हैं)

शैलाक्ष : कहो जी दुर्बल जयपुर से क्या समाचार लाए? मेरी बेटी का पता लगाया?

दुर्बल : मैंने जहाँ जहाँ उसका समाचार सुना, वहाँ वहाँ पहुँचा परन्तु कहीं पता न लगा।

शैलाक्ष : वही, वही, वही वह हीरा ले गई जो मैंने दो सहस्र अशरफी से फरीदकोट में लिया था! ऐसा बड़ा ईश्वर का कोप हमारी जाति पर आज तक न गिरा था। मुझे तो आज तक उसका अनुभव न हुआ था-तो सहस्र अशरफी का एक हीरा और दूसरे अमूल्य रत्न अलग। अच्छा होता कि मेरी लड़की मेरी आँखों के सामने मर गई होती और वह रत्न उसके शरीर पर होते! अच्छा होता कि उसका शव मेरे पावों के नीचे गड़ता और अशरफियाँ उसके कफन में होतीं। उनका कुछ पता नहीं लगा? यही परिणाम हमारे प्रयत्नों का है और विदित नहीं कि इस खोज में कितना व्यय पड़ा-हाय यह हानि पर हानि! 'मुफलिसी में आटा गीला!' इतना तो चोर ले गया और इतना चोर की खोज में नष्ट हुआ। तिस पर न कुछ उसके सन्ती मिलने की आशा और न बदला निकलने की। किसी और के घर दुःख भी दृष्टि पड़ता जिसे देख धीरज हो। हाँ यदि है तो मेरी गर्दन पर सवार, कहीं से आह भी नहीं सुनाई देती सिवाय उसके जो मेरे हृदय से निकलती है, और न सिवाय मेरे किसी के आँसू गिरते हैं।

दुर्बल : ऐसा तो नहीं और लोग भी अपने अपने दुःख से खाली नहीं हैं। अभी मैंने जयपुर में समाचार पाया कि अनन्त का-

शैलाक्ष : क्या, क्या, क्या? दुःख दुःख?

दुर्बल : उसके जहाजों का एक बेड़ा त्रिपुल से आते समय राह में नष्ट हो गया।

शैलाक्ष : धन्य है ईश्वर को, धन्य है ईश्वर को, क्या यह समाचार सच्चा है? क्या यह समाचार सच्चा है?

दुर्बल : मैं आप उन खलासियों के मुँह से सुन आया हूँ जो जहाज के नष्ट होने से बच कर आए हैं।

शैलाक्ष : मैं तुम्हारा धन्यवाद करता हूँ अच्छे दुर्बल, बड़ा अच्छा समाचार लाए, बड़ा अच्छा समाचार लाए, अहाहा-कहाँ? जयपुर में?

दुर्बल : मैंने जयपुर में सुना कि तुम्हारी बेटी ने एक रात में अस्सी अशरफियाँ व्यय कीं!

शैलाक्ष : तू मेरे कलेजे में छुरी मारता है। अब मैं फिर अपनी अशरफियों को इन आँखों से न देखूँगा; हाय! अस्सी अशरफियाँ! एक बार में अस्सी अशरफियाँ!

दुर्बल : अनन्त के कई ऋणदाता मेरे साथ वंशनगर को आए जो शपथ खाकर कहते थे कि अब उसके काम का बिगड़ना किसी भाँति नहीं रुक सकता।

शैलाक्ष : बडे़ हर्ष की बात है; में उसे बहुत रुलाऊँगा, मैं उसे कोच कोच कर मारूँगा; बडे़ हर्ष का विषय है।

दुर्बल : उनमें से एक ने मुझे एक अँगूठी दिखलाई जो तुम्हारी बेटी ने उसे एक बन्दर के मोल में दी है।

शैलाक्ष : उसका नाम मत लो दुर्बल! तुम मेरे हृदय में रह रह के घात करते हो! वह मेरी नीलम की अँगूठी थी; मैंने उसे कमलाक्षी से पाया था जब कि मेरा ब्याह नहीं हुआ था; यदि मुझसे कोई बन्दरों का जंगल का जंगल देता तो भी मैं इस अँगूठी को अपने से पृथक् न करता।

दुर्बल : लेकिन अनन्त तो निस्सन्देह नष्ट हो गया।

शैलाक्ष : इसमें भी कोई सन्देह है, यह तो स्पष्ट है, यह तो भलीभाँति प्रकट है। जाओ दुर्बल उसके पकड़ने के लिए एक प्रधान ठहराओ, उसे पन्द्रह दिन पहले से पक्का कर रक्खो। यदि यह मुझे अपने प्रण के अनुसार रुपया न दे सका तो मैं इसका पित्ता निकलवा लूँगा, क्योंकि यदि यह काटा वंशनगर से निकल जाए तो मेरा व्यापार मनमाना चले। अच्छा दुर्बल अब जाओ और मुझसे मंदिर में मिलो, जाओ प्यारे दुर्बल; देखो हम लोगों को मंदिर में मिलना।

दोनों जाते हैं,

 

 

दूसरा दृश्य

 

 

स्थान-विल्वमठ, पुरश्री के घर का एक कमरा

(बसन्त, पुरश्री, गिरीश, नरश्री, और उनके साथी आते हैं। सन्दूक रक्खे जाते हैं)

पुरश्री : भगवान के निहोरे थोड़ा ठहर जाइए। भला अपने भाग्य की परीक्षा के पहले एक दो दिन तो ठहर जाइए, क्योंकि यदि आप की रुचि ठीक न हुई तो आप के साथ रहने का आनन्द तुरन्त ही हाथ से जाता रहेगा। इसलिए थोड़ा धीरज धरिए, न जाने क्यों मेरा जी आप से पृथक् होने को नहीं करता, पर मैं समझती हूँ कि इसका कारण अनुराग नहीं है और यह तो आप भी कहेंगे कि घृणा का इससे सम्बन्ध नहीं हो सकता। किन्तु कदाचित् आप मेरे जी की बात न समझे हों इसलिए मैं आप को भाग्य की परीक्षा करने से पहले दो एक महीने तक ठहराऊँगी, परन्तु इससे क्या होना है? कुमारी अपने जी की बात को जिह्ना पर कब ला सकती है। मैं आप को पते का सन्दूक बता सकती हूँ पर मेरी सौगन्ध टूट जायेगी और यह मुझे किसी तरह पर अंगीकार नहीं। कदाचित् मैं आप को न मिलूँ, पर यदि ऐसा हुआ तो मेरा चित्त यही कहेगा कि तू ने अपराध क्यों न किया और शपथ क्यों न तोड़ डाली। मेरा मन करता है कि आपकी आँखों को कोसूँ, इन्हीं ने तो मुझे मोल ले लिया और मेरे दो भाग कर डाले-आधी तो मैं आप को हूँ, और शेष आधी भी आप ही को, क्योंकि यदि मैं यों कहूँ कि अपनी हूँ तो भी तो आपही की हुई, इसलिए सब आप ही की ठहरी। क्या बुरा समय आ गया है कि अपनी वस्तु पर भी अपना बस नहीं! अतएव यद्यपि मैं आप ही की हूँ तो भी क्या? हुई न हुई दोनों बराबर-यदि कहीं भाग्य ने धोखा दिया तो उसके कारण मैं क्यों दुःख में पडँ़ई, पड़े तो भाग्य पड़े जिसका दोष है। मैं बहुत कुछ बक गई पर तात्पर्य मेरा यह है कि बातचीत में कुछ समय कटे और आपके सन्दूक पसन्द करने के लिए जाने में इसी बहाने कुछ देर हो।

बसन्त : मुझे झटपट चुन लेने दीजिए, यों रहने से तो मेरा जी सूली पर टँगा है।

पुरश्री : सूली पर, तो कहिए कि आप के प्रेम के साथ दगा कैसी मिली हुई है?

बसन्त : दगा का क्या काम, हाँ यदि कुछ है तो अपने चित्त के अभिलाष पूरे होने की ओर से अविश्वास। मेरे प्रेम के साथ तो दगा का होना ऐसा है मानो आग और बर्फ की मित्रता।

पुरश्री : जी हाँ, पर मुझे भय है कि आप का जी तो सूली पर टँगा है, और सूली पर लोग प्रायः विवश होकर बे सिर पैर की बका करते हैं।

बसन्त : जीवदान दीजिए तो यथार्थ कह दूँ।

पुरश्री : अच्छा तो फिर कहिए, आप का जीवन आपको मुबारक।

बसन्त : कह दूँ, मेरा प्राण मुझको मुबारक! तौ तो मेरा मनोरथ बर आया, वाह जब सताने वाला आप ही वह राह दिखलाता है जिससे जी बचे तो कष्ट भी परम सुख है परन्तु अच्छा अब मुझे सन्दूकों के साथ अपने भाग्य की परीक्षा के लिए छोड़ दीजिए।

पुरश्री : अच्छा तो आप जायँ, उन सन्दूकों में से एक में मेरा चित्र है; यदि आप मुझे चाहते होंगे तो वह आपको मिल जायगा। नरश्री तुम अब अलग खड़ी हो जाओ और जब आप सन्दूक पसन्द करने लगें तो कुछ गाना का भी आरंभ हो, जिसमें यदि आप कहीं चूक जायँ तो जैसे बत्तक अपना दम निकालने के समय गाता है वैसे ही आप के बिदा होने के समय भी गाना होता रहे। यदि कहिए कि बत्तक की समाधि पानी में होती है तो मेरी आँखें नदी बनकर आप के शत्रुओं की समाधि बन जायँगी। यदि कहीं आप ने दाँव मारा तो गाना क्या है मानो उस समय की सलामी का बाजा है जब कोई नया राजा सिंहासन पर बैठता है और उसकी शुभचिन्तक प्रजा उसके अभिनन्तन को आती है, या वह मीठी तान है जिसे सुन कर नया वर विवाह के दिन सबेरे ही उठ कर ब्याह की तैयारी करता है। देखिए (वह जाते हैं) जब रुद्र उस कुमारी को छुड़ाने गया था जिसे त्रयम्बक ने समुद्र की एक आपत्ति को सौंप दिया था तो जैसा तेज उसके मुख पर बरसता था वैसा ही उनके मुँह पर बरसता है परन्तु प्रेम तो उसकी अपेक्षा कई अंश अधिक है। मैं भी उस कुमारी की भाँति बलिदान के लिए प्रस्तुत हूँ और यह स्त्रियाँ मानो त्रयम्बक की रहने वाली हैं और वियोगिन बनी हुई खड़ी देख रही हैं कि इस दुस्तर कर्म का क्या परिणाम होता है। अच्छा मेरे रुद्र जाओ, अब तो मेरा जीवन तुम्हारे प्राण के साथ है और निश्चय रखिए कि आप का चित्त, यद्यपि आप स्वयं लड़ने जाते हैं, इतना न धड़कता होगा जितना मेरा धड़कता है यद्यपि मैं केवल दूर से खड़ी हुई कौतुक देख रही हूँ।

गीत

अहो यह भ्रम उपजत किय आय।

जिय मैं कै सिर मैं जनमत है बढ़त कहाँ सुख पाय।

ता को यह उत्तर जिय उपजत बढ़त दृष्टि में धाय ।

पै यह अति अचरज कै जित यह जनमत तितहि नसाय।

देखि ऊपरी चमक चतुर हूँ जद्यपि जात भुलाय ।

पै जब जानत अथिर ताहि तब निज भ्रम पर पछिताय।

तासों टनटन बजै कहौ अब घंटा हू घहराय ।

बसन्त : सच है पदार्थ देखने में भले और भड़कीले होते हैं वस्तुतः कुछ नहीं होते। संसार के लोग बाहरी चमक दमक में भूल जाया करते हैं। देखिए कानून में कोई दलील कैसी ही झूठी और बे सिर पैर की क्यों न हो यदि उसी को साधु भाषा में नमक मिर्च लगाकर कहिए तो उसका सब अवगुण छिप जाता है। उसी भाँति धर्म में देखिए तो कैसी ही घृणा के योग्य भूल क्यों न हो कोई न कोई उपयुक्त युक्ति मनुष्य उसके प्रमाण में देकर उसे सराहेगा और उसके दोषों पर सुवर्ण का पर्दा डाल देगा। निरी बुराई पर भी बाहरी भलाई का मुलम्मा चढ़ जाता है। देखिए कितने ऐसे डरपोक मनुष्य, जिनके चित्त बालू की भीत की भाँति निर्बल हैं, दाढ़ी और रूप रंग में मानसिंह और विजयसेन को तुच्छ करते हैं और भीतर देखिए तो उनका दुर्बल अन्तःकरण दूध सा स्वच्छ है। उन लोगों को कहना चाहिए कि यह केवल वीर पुरुषों का उतरन अपना प्रभाव दिखलाने के निमित्त पहिन लेते हैं। सुन्दरता की ओर दृष्टि कीजिए तो विदित होगा कि वह केवल चाँदी का न्यौछावर है जितना रुपया लगाइए उतनी ही भड़क हो। वास्तव में तत्वनिरूपण करने पर करामात प्रतीत होने लगती है, जिसके सिर पर जितना अधिक भार है उतना ही विशेष तुच्छ है। यही दशा उन घुँघरवाले सुन्दर कचकलापों का है जो वायु में इस भाँति बल खाते हैं कि मन को लुभा लेते हैं। देखिए एक के सिर से उतर एक दूसरे के सिर चढ़ते हैं और जिस सिर ने उन्हें पाला था वह अन्त में कीड़ों का आहार है। अतः भूषण बसन क्या हैं मानो किसी बड़े भयानक समुद्र का ऐसा किनारा है जो थाह बता कर गोता दे या किसी हिन्दुस्तानी स्त्री का भड़कीला दुपट्टा है, अर्थात् यह कहना चाहिए कि समय के छली लोग झूठ को ऐसा सच करके दिखा देते हैं कि बड़े-बड़े बुद्धिमान की बुद्धि चकित हो जाती है। इसलिये चमकीले सोने जिसने महाराज मागधि से उनका खाना लेकर लोहे के चने चबवाए, मैं तुझको न छुऊँगा और न तुझे ऐ कुरूप चाँदी जिसके लिए एक मनुष्य दूसरे की सेवा करता है। परन्तु तुच्छ सीसे जिसके देखने से आशा के बदले भय उत्पन्न होता है-

वचन रचन तजि और के, तोही पै विस्वास।

उदासीन प्रेमी मनहिं, लखि तुव रंग उदास ।

औरन तजि तासों चुनत, सीसक अब हम तोहि।

आनँदघन करुनायतन, करहु अनन्दित मोहि ।

पुरश्री : (आप ही आप)

मिट्या सकल भ्रम भीति नसानी।

नसी निरासा जिय-दुखदानी ।

मोह-कँवल-रुज दृग सों भाग्यौ।

संसय तजि मन आनँद पाँग्यौ ।

प्रेम! धीर धरु किन अकुलाई।

धरत सीवँ तजि पगहि बढ़ाई ।

आनँद नीर इतो हिय-जलधर।

उमगि उमगि जनि बरस धीर धर ।

यह सुख नदी उमड़ि जो आई।

मम घट घट नहिं सकत समाई ।

होइ न कहूँ अनन्त अजीरन।

तासों धरु धीरज चंचल मन ।

बसन्त : देखें तो यह क्या निकला?

(सीसे के सन्दूक को खोल कर) वाह वाह यह तो मेरी परम सुन्दरी पुरश्री का चित्र है! यह किस चितेरे की निपुणता है कि चित्र बोला ही चाहता है? क्या यह आँखें सचमुच फिरती हैं या केवल मेरी आँखों की पुतलियों पर इनकी परछाईं पड़ने से मुझे घूमती हुई दिखाई देती हैं। इधर देखिए तो दोनों ओष्ठ इस भाँति से भिन्न हैं मानो मीठे प्यारे श्वासों के आने जाने का मार्ग है। ऐसे प्यारे साथियों के विरह का कारण ऐसी ही प्यारी वस्तु होनी चाहिए। इधर देखिए तो बालों की छबि खींचने में चित्रकार ने मकड़ी की चातुरी को तुच्छ कर दिखलाया है और सोने के तारों का ऐसा जाल बिना है कि मनुष्य का चित्त पतंग की भाँति उसमें फँस जाय। पर वाह री आँखें! इनके बहाने के समय चित्रकार की दृष्टि किस भाँति ठहरी? मेरी समझ में तो जब एक बन गई थी तो उसकी दोनों आँखें इस एक के न्यौछावर हो जातीं और यह आँख बेजोड़ रह जाती। किन्तु सच पूछिए तो जितनी ही मेरी प्रशंसा की इस चित्र के सामने कुछ गिनती नहीं उतनी ही साक्षात् के सामने इस छबि की कुछ गणना नहीं। देखिए यह भाग्य का लेखा-जोखा है।

(पढ़ता है)

जौ लखि छबि ऊपरी भुलाते। तौ यह दाँव कबहुँ नहिं पाते ।

तुम्हरी बुद्धि धीर नहिं छूटी। लेहु अबै रस संपति लूटी ।

अब जिय चाह करौ जनि दूजी। भ्रमहु न जग इच्छा तुव पूजी ।

जौ तुम याहि भाग निज लेखौ। तौ मुरि निज प्यारी मुख देखौ ।

जीवन सरबस याहि बनाई। रहौ चूमि मुख कंठ लगाई ।

अब जौ प्यारी सुन्दरी तुव अनुशासन होय।

तौ हम चुंबन लेहिं अरु निजहु देहिं भय खोय ।

(मुँह चूमता है)

कहँ द्वै जन की होड़ मैं जीतत बाजी कोय।

तौ सब दिसि सों एक सँग ताकी जय धुनि होय ।

सो कोलाहल सुनत ही तासु बुद्धि अकुलाय।

ठाढ़ी सोचत साँच ही जीत्यो मैं इत आय ।

तिमि सुन्तरि सन्देह यह मेरे हू जिय माहिं।

कै जो देखत मैं दृगन तौन साँच की नाहिं ।

सो मम भ्रम तुम करि दया बेगहि देहु मिटाय।

मम जयपत्र सकारि पुनि सुन्तरि मुहि अपनाय ।

पुरश्री : मेरे स्वामी बसन्त आप मुझे जैसी खड़ी हुई देखते हैं वैसे ही मैं हूँ; यद्यपि केवल अपने लिये मेरे जी में यह अभिलाष नहीं है कि मैं अपनी वर्तमान अवस्था से चढ़ जाऊँ किन्तु आपके विचार से मेरा बस चले तो मैं सौगुनी अच्छी हो जाऊँ। रूप में सहस्र बार और धन में लक्षबार अधिक हो जाऊँ, केवल इसलिए कि आपकी दृष्टि में जचूँ। सम्भव है कि मैं गुण, सौन्दर्य, लक्ष्मी और मित्रों में अत्यन्त बढ़ जाऊँ, तथापि इन सब अलभ्य पदार्थों के होते भी मेरी अवस्था यह है कि मैं एक निरी मूर्ख, बेसमझ और सीधी सादी छोकरी हूँ; पर हाँ इस बात से तो प्रसन्न हूँ कि मेरी अवस्था इतनी अधिक अभी नहीं हुई कि मैं कुछ सीख न सकूँ और इस कारण से और भी प्रसन्न हूँ कि इतनी कुंठित भी नहीं हो गई हूँ कि सीखने के योग्य न रही हूँ और सबसे अधिक प्रसन्नता का कारण यह है कि मैं अपने भोले चित्त को आपको सौंपती हूँ कि वह आपको अपना स्वामी, अपना नियन्ता, अपना अधिपति समझकर जो आप कहे सो किया करे। मैं और जो कुछ मेरा है अब वह सब आप का हो चुका। अभी एक साइत हुई कि मैं इस राजभवन और अपने अनुचरों को स्वामिनी और अपने मन की रानी थी, और अभी इस क्षण यह घर, ये नौकर चाकर और मैं आप, सब आप के हो गए। मैं इन सबों को इस अँगूठी के साथ आपको सौंपती हूँ। जब यह अँगूठी आप के पास न रहे, खो जाय या आप इसे किसी को दे देवें तो मैं येे समझूँगी कि आप के प्रेम में अन्दर आ गया और फिर मुझे आप से उपालम्भ देने का पूरा स्वत्व प्राप्त होगा।

बसन्त : प्यारी मेरी जिह्ना को सामथ्र्य नहीं कि तुम्हारे उत्तर में एक अक्षर भी निकाले, पर हाँ मेरा रोम रोम तुम्हारी कृतज्ञता में जिह्ना बन रहा है और मेरी सुधि में ऐसी घबराहट आ गई है जैसी कि प्रजावृन्द में उस समय दृष्टि पड़ती है जब कि वह अपने प्यारे राजा के मुख से कोई उत्तम व्याख्यान सुन कर प्रसन्न हो जाते हैं और वाह वाह करने और आशीष देने लगते हैं। जबकि बहुत से शब्द जिनके कुछ अर्थ हो सकते हैं मिल कर सब व्यर्थ हो जाते हैं और सिवाय इसके कि उनसे प्रसन्नता प्रकट हो और कोई तात्पर्य नहीं समझ में आता। परन्तु यह प्यारी अँगूठी मेरी उँगली से उसी समय जुदा होगी जब कि इस उँगली से सत्ता निकल जायेगी और उस समय तुम निस्सन्देह समझ लेना कि बसन्त मर गया।

नरश्री : मेरे स्वामी और मेरी स्वामिनी अब तक हम लोग खड़े खड़े अपने मन के मनोरथ के पूर्ण होते देखा किए और अब हम लोगों की बारी है कि 'कल्याण हो' की ध्वनि मचावें। 'कल्याण हो' ऐ मेरे स्वामी और मेरी स्वामिनी।

गिरीश : ऐ मेरे स्वामी बसन्त और मेरी सरल स्वामिनी मेरी यही आसीष है कि आप के सारे मनोरथ पूरे हों क्योंकि मुझे निश्चय है कि आप मेरे हर्ष को तो बाँट लेंगे ही नहीं, अतः मेरी यह प्रार्थना है कि किस समय आप लोग परस्पर अपना मनोभिलाष और प्रतिज्ञा पूरी करें उसी समय मेरा ब्याह भी कर दिया जाय।

बसन्त : मुझे तन और मन से स्वीकार है पर इस शर्त पर कि तुम अपने लिये कोई स्त्री ठहरा लो।

गिरीश : मैं आप को धन्यवाद देता हूं कि आप ही के न्यौछावर में मेरा काम भी निकल आया, क्योंकि ज्योंही आप की प्रेम दृष्टि राजकुमारी पर पड़ी मेरे नेत्रों में भी उसकी सहेली बस गई। उधर आप अनुरक्त हुए इधर मैं प्रेम के फन्दे में फंसा। इसमें न आप को विलंब लगा न मुझे। आप के प्रारम्भ की परीक्षा सन्दूकों के चुनने पर थी वैसे ही मेरा भाग्य भी उन्हीं के साथ अटका हुआ था। तात्पर्य यह है कि मुझे इस सुन्दरी की इतनी सुश्रूषा करनी पड़ी कि शरीर से स्वेद निकल आया और अपनी प्रीति का निश्चय दिलाने के लिये इतनी सौगन्धें खानी पड़ीं कि तालू चटक गया तब कहीं, यदि वाक्दान कोई वस्तु है तो इनके मुख से यह वाक्य निकला कि जो तुम्हारे स्वामी का विवाह मेरी स्वामिनी से हो जायगा तो मैं भी तुम्हें ग्रहण करूँगी।

पुरश्री : नरश्री क्या यह बात सच है?

नरश्री : हाँ सखी यदि आप की इच्छा के विरुद्ध न हो तो सच ही समझी जायगी।

बसन्त : और तुम गिरीश धर्मपूर्वक यह विचार करते हो न?

गिरीश : धर्मावतार सब सच्चे जी से।

बसन्त : तुम्हारे ब्याह से हमारे समाज का आनन्द दूना हो उठेगा।

गिरीश : ऐ यह कौन आता है? अहा लवंग और उनकी प्राण-प्यारी! और हमारे पुराने वंशनगर के मित्र सलोने भी साथ हैं।

(लवंग, जसोदा और सलोने आते हैं)

बसन्त : अहा लवंग और सलोने आए परन्तु मैं अपनी अवस्था में बिना अपनी प्यारी की आज्ञा के प्रसन्नता प्रकट करने का कब अधिकार रखता हूँ। प्यारी पुरश्री यदि तुम्हारी आज्ञा हो तो मैं अपने सच्चे मित्रों और स्वदेशियों के आने पर प्रसन्नता प्रकट करूँ।

पुरश्री : मेरे स्वामी इस में मेरी परम प्रसन्नता है, ऐसे लोगों का भाग्य से आना होता है।

लवंग : मैं आपको धन्यवाद देता हूँ, किन्तु सच पूछिए तो मेरी इच्छा आप से यहाँ भेंट करने की न थी परन्तु मार्ग में सलोने मित्र मिल गए और मुझे यहाँ लाने के विषय में इतना हठ किया कि मैं नहीं न कर सका और साथ आना ही पड़ा।

सलोने : जी हाँ मैं इनको वस्तुतः खींच लाया पर इसका एक मुख्य कारण है। अनन्त महाशय ने आपको सलाम कहा है।

(बसन्त के हाथ में एक पत्र देता है)

बसन्त : इससे पहिले कि मैं उनके पत्र को खोलूँ मुझे भगवान के लिये इतना बता दो कि मेरे सुहृन्मित्र प्रसन्न तो है।

सलोने : देखने में तो वह पीड़ित नहीं हैं परन्तु आन्तरिक हो तो हो और न अच्छे ही दृष्टि आते हैं किन्तु चित्त का हाल मैं नहीं कह सकता। अच्छा उस पत्र से उनका वृत्तान्त आपको भलीभाँति सूचित हो जायगा।

गिरीश : नरश्री अपने पाहुनों का सत्कार करो और उनका मन बहलाओ। सलोने नेक इधर ध्यान दीजिए, कहो तो वंशनगर का क्या समाचार है, सब सौदागरों के सिरताज हमारे सुहृद अनन्त किस भाँति हैं? हमारे पूर्ण मनोरथ होने का समाचार सुन कर तो वह फूले न समाएँगे, हम लोग अपने समय के महाबीर हैं क्योंकि सोने की खाल हमने ही जीती है।

सलोने : मेरी जान तो यदि तुम उस खाल को जीतते जिसे बसन्त हारे हैं तो अच्छा होता।

पुरश्री : कदाचित् पत्र में कोई बुरा समाचार है कि जिससे बसन्त के मुख की कांति बढ़ी जाती है। कोई प्रिय मित्र मर गया हो, नहीं तो कौन ऐसी बात है कि जिससे ऐसे धीर मनुष्य की अवस्था हीन हो जाय। ऐं! यह तो क्षण प्रतिक्षण मुख की पाण्डुता बढ़ती जाती है। बसन्त मुझे क्षमा कीजिएगा, मैं आपके शरीर का अद्र्धांग हूँ, और इसलिए जो कुछ कि उस पत्र में लिखा है उस में से आधा हाल सुनने की मैं भी अधिकारी हूँ।

बसन्त : ऐ मेरी प्यारी पुरश्री इस पत्र में कई एक ऐसे दुखदाई शब्द हैं कि जिनका वर्णन नहीं हो सकता। मेरी सुजान प्यारी तुम भलीभाँति जानती हो कि जब मैंने तुम्हें अपना मन दिया था तो यह पहले ही कह दिया था कि जो, कुछ कि मेरी पूँजी है वह मेरा शरीर है अर्थात् मैं अपने कुल का कुलीन हूँ और इस में कोई बात मिथ्या न थी, परन्तु प्यारी यद्यपि मैंने अपनी क्षमता तुम पर स्पष्ट प्रकट कर दी तो भी यदि सच पूछो तो मैंने अभिमान किया क्योंकि जिस समय मैंने तुमसे यह कहा कि मेरे पास कुछ नहीं है मुझे यों कहना चाहिये था कि मेरी अवस्था उससे भी गई बीती है। खेद है कि मैंने केवल अपना मनोरथ पूरा करने के लिये अपने प्यारे मित्र को उसके परम शत्रु के पंजे में फँसा दिया। देखो यह पत्र वर्तमान है जिसे मेरे मित्र का शरीर समझना चाहिए और प्रति शब्द उसका नया घाव जिससे रक्त टपक रहा है। पर क्यों सलोने क्या यह सत्य है कि उनका सारा काम बिगड़ गया? क्या एक भी ठीक न उतरा? ऐ विपुल, मौक्षिक, अंगदेश नन्दन बरबर और हिन्दुस्तान सब देशों के जहाजों में से एक को भी व्यापारियों को निराश करनेवाली चट्टानों ने अखण्ड न छोड़ा।

सलोेने : महाराज एक भी नहीं। तिस पर यह और आपत्ति है कि यदि वह उस जैन को नकद रुपया देने का कहीं से प्रबन्ध भी करें तो वह न लेगा। मेरी दृष्टि में तो ऐसा व्यक्ति मनुष्य की उन्नति तथा उसकी अवनति का साथी अब तक नहीं आया! इसी सोच में वह प्रति दिन सायं प्रातः मण्डलेश्वर को जाकर घेरता है और कहता है कि यदि मेरे साथ न्याय न बरता जायेगा तो इस राज्य के इस सिद्धान्त पर कि वह प्रतिवर्ण के लोगों को एक दृष्टि से देखता है बट्टा लग जायेगा। बीस सौदागरों और कितने और बड़े बड़े नामी लोगों ने और मण्डलेश्वर ने आप भी उसे समझाया और उसने एक की भी न सुनी। अब बतलाइए क्या किया जाय। उस पर तो ईर्षा के मारे यही धुन सवार है कि बस जो कुछ होता था सो हो चुका अब तमस्सुक के प्रण के अनुसार मेरा विचार हो।

जसोदा : जबकि मैं उनके साथ थी मैंने उन्हें प्रायः दुर्बल और अक्रर अपने स्वदेशियों से इस बात की सौगन्ध खाते हुए सुना था कि यदि मुझे कोई ऋण के बीस गुने रुपये भी दे तो अनन्त के मांस के अतिरिक्त उसकी ओर आँख उठा कर न देखूँगा और महाराज मुझे निश्चय है कि यदि वहाँ के विचाराधीश कानून के अनुकूल उसे हठपूर्वक रोक न रक्खेंगे तो विचारे अनन्त के सिर पर बुरी बीतेगी।

पुरश्री : क्या वह आपके कोई प्यारे मित्र हैं जिन पर यह आपत्ति आई है।

वसंत : (आह भर कर) यह वही मेरा सबसे प्यारा मित्र है जो उपकार करने में अपना जोड़ी नहीं रखता, उपकार करने में कभी नहीं थकता और शील का राजा है। इस समय मारवाड़ में वही अकेला एक मनुष्य है जिसमें मारवाड़ के प्राचीन समय के लोगों की उत्तम बातें और उच्च विचार पूरे पूरे पाए जाते हैं।

पुरश्री : उन्हें इस जैन का कितना देना है?

वसंत : मेरे ही कारण छः हजार रुपये के ऋणी हो गए हैं।

पुरश्री : बस इतना ही? आप बारह सहस्र देकर तमस्सुक फेर लीजिए। यदि आवश्यकता हो तो बारह सहस्र के भी दूने कर डालिए और इस दूने के तिगुने, पर ऐसा कदापि न होने पावे कि बसन्त के कारण उनके ऐसे अनुपम मित्र का एक रोम भी टेढ़ा हो। चलिए अभी मंदिर में चल कर ब्याह की रीति कर लीजिए और इसके उपरान्त सीधे अपने मित्र के पास वंशनगर को चले जाइए; क्योंकि जब तक आपका शोच दूर न हो लेगा, मुझे आप के साथ सोना धिक्कार है। उस छोटे ऋण के चुका देने के लिये उनका बीस गुना रुपया लेते जाइए और उसे देकर अपने मित्र को यहाँ साथ लेते आइए। इस बीच में मैं और मेरी सहेली नरश्री कुमारी और विधवा स्त्रियों की भाँति अपना समय काटेंगी। आइए चलिए क्योंकि आपको आज ही अपने ब्याह के दिन यहाँ से जाना है। अपने मित्रों से प्रसन्नतापूर्वक मिलिए और अपना मन विकसित रखिए। आप से मिलने में जितनी कठिनता होवेगी उतने ही अधिक आप मुझे प्यारे प्रतीत होंगे। परन्तु तनिक अपने दोस्त का पत्र तो सुनाइए।

वसंत : (पढ़ता है)-

मेरे प्यारे बसन्त, सब जहाज नष्ट हो गए, मेरे ऋणदाता निर्दयता से वर्त ते हैं, मेरी अवस्था अत्यन्त ही नष्ट है और मेरी प्रतिज्ञा जैन के साथ टल गई और जो कि ऋण के चुका देने में संभव नहीं कि मैं जीता बचूँ, इसलिये मैं सब हिसाब अपने और तुम्हारे बीच साफ समझूँगा कि मैं अपने मरने के समय तुम्हें एक आँख देख लूँ। परन्तु हर हालत में यह तुम्हारी इच्छा पर निर्भर है। यदि मेरा प्रेम तुम्हें यहाँ तक न खींच ला सके तो मेरे पत्र का कुछ ध्यान न करना।

पुरश्री : मेरे प्यारे सब काम को झटपट पूरा करके एकबारगी चले ही जाओ।

वसंत : जब तुमने प्रसन्नता से जाने की आज्ञा दी तो अब मुझे क्या विलम्ब है। परन्तु जब तक कि मैं लौट न आऊँ मेरे लिये नींद हराम और सुख दुख से अधम है।

तीसरा दृश्य

स्थान-वंशनगर की एक सड़क

(शैलाक्ष, सलारन, अनन्त और कारागार के प्रधान आते हैं)

शैलाक्ष : प्रधान इससे सचेत रहो; मुझसे दया का नाम न लो। यही वह मूर्ख है जो लोगों को बिना ब्याज रुपये ऋण दिया करता था। प्रधान इससे सावधान रहो।

अनन्त : मेरे सुहृद शैलाक्ष कुछ तो मेरी सुन लो।

शैलाक्ष : मैं तमस्सुक के प्रणों को नहीं तोड़ने का, उसके विरुद्ध कुछ मत कहो। मैं इस बात की शपथ खा चुका हूँ कि अपने तमस्सुक की शर्तों पर दृढ़ रहूँगा। तुम ही न इस मुकद्दमे के होेने से पहले मुझे कुत्ता कहा करते थे। अच्छा मैं तो तुम्हारे कहने अनुसार कुत्ता हो ही चुका पर नेक मेरे पंजों से डरते रहना; मण्डलेवश्वर साहिब मेरा विचार करेंगे! मुझे तो ऐ दुष्ट प्रधान तुझ पर आश्चर्य होता है कि तुझे क्या मूर्खता सूझी है जो इसकी बातों में आकर इसे बेखटके इधर उधर लिए फिरता है।

अनन्त : भगवान के वास्ते एक बात तो मेरी सुन लो।

शैलाक्ष : मुझे अपने तमस्सुक से काम है, मैं कदापि तुम्हारी बात न सुनूंगा, मुझे केवल अपने तमस्सुक से काम है; बस अब अधिक गिड़गिड़ाने से क्या लाभ। मैं कुछ ऐसा चित्त का दुर्बल अथवा आँखों का अंधा थोड़े ही हूँ जो सिर हिला कर खेद करूँ, आहें भरूँ और आर्यों के समझाने बुझाने में आकर पिघल जाऊँ। मेरे पीछे न आओ, मैं कदापि सुनने का नहीं, मुझे अपने तमस्सुक से काम है।

(शैलाक्ष जाता है)

सलारन : मनुष्य की आकृति में ऐसा पाषाणहृदय कुत्ता काहे को निकलेगा।

अनन्त : जाने दो, अब मैं उसके पीछे व्यर्थ गिड़गिड़ाता न फिरूँगा। वह मेरे प्राण लेने की चिन्ता में है और इसका कारण भी मैं भलीभाँति जानता हूँ। प्रायः मैंने बहुतेरे लोगों को जो मेरे पास आकर रोए हैं उसके पंजे से छुड़ाया है और इसी कारण से वह मेरा प्राणघातक शत्रु हो रहा है।

सलारन : मुझे निश्चय है कि मण्डलेश्वर उसकी शर्त को कदापि स्थिर न रहने देंगे।

अनन्त : क्यों नहीं, मण्डलेश्वर कानून के उद्देश्य को जिससे विदेशी वंशनगर में आकर बेखटके लेन देन करते हैं क्योंकर बदल सकते हैं। यदि अस्वीकार किया जाये तो यहाँ के राज्य का अपवाद है क्योंकि इस नगर का वाणिज्य और लाभ सब जाति वालों के मिलाप होने के कारण है। अच्छा तो अब तुम जाओ। जो दुःख और क्षतियाँ मैंने इधर उठाई हैं उनके कारण मेरी अवस्था ऐसी नष्ट हो गई है कि कदाचित कल तक मेरे रक्त के प्यासे ऋणदाताओं के लिए मेरे शरीर में आध सेर माँस भी शेष न रहे। आओ प्रधान चलो। ईश्वर करे कहीं बसन्त आ जाय और मुझे अपना ऋण चुकाते हुए देख ले, फिर मेरे जी में कोई लालसा शेष न रहेगी।

ख्सब जाते हैं,

 

 

चौथा दृश्य

स्थान-विल्वमठ पुरश्री के घर का एक कमरा

(पुरश्री, लवंग, जसोदा और बालेसर आते हैं)

लवंग : प्यारी यद्यपि आप के मुँह पर कहना सुश्रूषा है पर आप में ठीक देवताओं का सा सच्चा और पवित्र प्रेम पाया जाता है और इसका बड़ा प्रमाण यह है कि आपने इस भाँति अपने स्वामी का विरह सहन किया। किन्तु यदि आपको विदित हो कि आपने किस पर इतनी कृपा की है और वास्तव में कैसे सच्चे सभ्य को सहायता भेजी है और उसको मेरे स्वामी अर्थात् आपके स्वामी से कैसी प्रीति है तो आपको अपने इस कृत्य पर और साधारण कर्तव्यों की अपेक्षा कहीं बढ़ कर प्रसन्नता हो।

पुरश्री : मैं अच्छे काम करके न आज तक पछताई हूँ और न अब पछताऊँगी क्योंकि ऐसे मित्र जो हर क्षण मिले जुले रहते हैं ओर जिनके चित्त में एक दूसरे का समान प्रेम है मानो एक प्राण दो देह हैं उनकी चाल ढाल रहन सहन और चित्त भी अवश्य ही एक सा होगा तो मैं समझती हूँ कि यह अनन्त जो मेरे स्वामी के अन्तरंग मित्र हैं उन्हीं के सदृश्य होंगे। यदि ऐसा है तो मैंने अपने स्वामी के चित्त को महा आपत्ति के पंजे से कैसे थोड़े व्यय में छुड़ा पायी। पर इससे तो मेरी ही प्रशंसा निकलती है। इसलिए अब इस प्रकरण को छोड़कर दूसरी बातें सुनो। लवंग मैं अपने घर और गृहस्थी का सारा प्रबन्ध अपने स्वामी के लौट आने तक तुम्हारे आधीन करती हूँ। रही मैं तो मैंने अपने मन में ईश्वर के सामने एक मन्नत मानी है कि नरश्री को साथ लेकर उसके स्वामी के आने तक प्रार्थना करती और उसकी ओर लौ लगाए रहूँ। यहाँ से दो मील पर एक मठ है, उसी में जाकर हम लोग रहंेगी। मैं आशा करती हूँ कि तुम मेरी इस प्रार्थना से जिसे अपनी प्रीति और कुछ अधिक आवश्यकता होने के कारण करती हूँ अनंगीकार न करोगे।

लवंग : प्यारी मैं तन मन से आप की आज्ञा का अनुगामी हूँ।

पुरश्री : मेरे नौकर चाकर इस इच्छा को जान चुके हैं और वह तुम्हें और जसोदा को महाराज वसन्त और मेरे स्नानापन्न समझेंगे। अच्छा अब मैं तुम लोगों से विदा होती हूँ, जब तक कि भगवान तुमसे फिर न मिलाए।

लवंग : भगवान् आपको उच्च मनोरथ और उत्तम साहस दें।

जसोदा : मेरी आसीस है कि आपका आन्तरिक मनोरथ पूरा हो।

पुरश्री : मैं तुम्हारी इस अभिलाषा का धन्यवाद देती हूँ और तुम्हारे विषय में भी वैसा ही जी से चाहती हूँ। जसोदा मेरा राम राम लो।

(जसोदा और लवंग जाते हैं)

हाँ बालेसर जैसा कि मैंने तुम्हें सदा सच्चा और धामिक पाया है वैसा ही मैं चाहती हूँ कि अब भी पाऊँ। इस पत्र को लो और जहाँ तक कि तुम्हारे पाँव में बल हो शीघ्र पाँडुपुर पहुँचने का प्रयत्न करो और इसे मेरे चचेरे भाई कविराज बलवन्त के हाथ में दो और देखो कि जो पत्र और वस्त्र वह तुम्हें दंे उन्हें ईश्वर के वास्ते मन से अधिक तीव्र उस घाट पर जहाँ से वंशनगर को व्यापार का माल जाता है, लेकर आओ। बस अब चले जाओ, बातों में समय नष्ट न करो। मैं तुमसे पहिले वहाँ पहुँच जाऊँगी।

वालेसर : बबुई मैं जितना शीघ्र सम्भव होगा जाऊँगा।

पुरश्री : इधर आओ नरश्री मुझे अभी वह काम करना है जो तुम्हें अभी विदित नहीं है। हम तुम चल कर अपने स्वामी को देखेंगे और उनको इसका ध्यान भी न होगा।

नरश्री : हमें भी वह देखेंगे या नहीं?

पुरश्री : हाँ हाँ परन्तु ऐसे भेस में कि उन्हें ध्यान न होगा कि वे वीरता के चिन्ह जो स्त्रियों में नहीं होते हम में उपस्थित हैं। मैं प्रण करती हूँ कि जब हम तुम युवा मनुष्यों की भाँति वस्त्र इत्यादि पहिन कर तैयार हो जाएँगे, उस समय मैं तुमसे बढ़कर सजीली जान पडँ़ईगी और अपनी तलवार को खूब तिरछी बाँध कर चलूँगी और बालक और युवा के शब्द के बीच का भारी शब्द बनाकर बोलूँगी और स्त्रियों की मन्दगति छोड़कर पुरुषों की भाँति लम्बे पैर रक्खूंगी और एक अभिमानी नवयुवक व्यसनी पुरुष की भाँति युद्ध इत्यादि का भी वर्णन करूँगी और झूठी बातें गढ़ गढ़ कर कहूँगी कि बड़ी प्रतिष्ठित स्त्रियाँ मुझ पर आसक्त हुईं पर मैंने उन्हें ऐसा कोरा उत्तर दिया कि नैराश्य से पीड़ित होकर मर गईं पर मेरा इसमें क्या बस था फिर मैं खेद प्रकट करूँगी और कहूँगी कि यद्यपि इसमें मुझ पर कुछ दोष नहीं है किन्तु यदि वह मेरे इश्क में न मरतीं तो उत्तम था और इसी प्रकार के बांसों झूठ ऐसे बोलूँगी कि लोगों को इस बात का पक्का विश्वास हो जायेगा कि मुझे पाठशाला छोड़े साल भर से अधिक न हुआ होगा। मुझे इन अभिमानी छोकरों के सहस्र चुटकुले स्मरण हैं और मैं इन्हीं से अपना काम निकालूँगी। परन्तु आओ मैं तुमसे अपना सब उपाय गाड़ी में जो बगीचे के फाटक पर खड़ी है सवार होकर वर्णन करूँगी। बस अब शीघ्र ही चलो क्योंकि हमें आज ही बीस मील समाप्त करना है।

(दोनों जाती हैं।)

पाँचवाँ दृश्य

स्थान-विल्वमठ-एक उद्यान

(गोप और जसोदा आते हैं)

गोप : हाँ बेशक-तुम जानती हो कि पिता के पापों का दण्ड उसके बच्चों को भोगना पड़ता है। इसलिये मैं सच कहता हूँ कि मुझे तुम्हारा अमंगल दृष्टि आता है। मैंने तुमसे छलावल की बात आज तक नहीं की और अब भी तुमसे अपना विचार स्पष्ट कह दिया। नेक अपने मन को प्रसन्न रक्खो क्योंकि मेरी सम्मति में तो तुम अपराधग्रस्त हो चुकीं। हाँ एक उपाय तुम्हारे कल्याण का दृष्टि आता है सो उसकी भी आशा कुछ ऐसी वैसी है।

जसोदा : वह कौन सा उपाय है नेक बताना तो?

गोप : भाई! तुम यह समझो कि तुम अपने पिता से उत्पन्न नहीं हो अर्थात् तुम जैन की कन्या नहीं हो।

जसोदा : तौ तो सचमुच यह आशा ऐसी ही वैसी है क्योंकि ऐसा करने में मुझे अपनी माता के अपराधों का दण्ड मिलेगा।

गोप : हाँ सच तो है, तब तो मुझे भाग्य है कि तुम माता पिता दोनों के निमित्त दण्ड पाओगी। हाय हाय जब मैं तुम्हें उधर गड्डे अर्थात् तुम्हारे पिता से बचाता हूँ तो इधर खाई अर्थात् तुम्हारी माता दृष्टि आती है। अच्छा तो अब तुम दोनों ओर से गई।

जसोदा : मैं अपने स्वामी के द्वारा मुक्ति पाऊँगी, वह मुझे आर्य धर्म में लाए हैं।

गोप : तौ तो प्रधान दोष उन पर है। हम लोग पहिले ही से आर्य धर्म के क्या न्यून मनुष्य हैं। परन्तु अच्छा जितने थे उतनों का किसी भाँति पूरा पड़ जाता था पर अब नये आर्यों के भरती होने से सूअर का दाम बढ़ जायेगा। यदि हम सब के सब शूकर भक्षी बन जाएँगे तो थोड़े दिनों में बहुत दाम देने से भी उस स्वादिष्ट मांस का एक टुकड़ा भी हाथ न आवेगा।

(लवंग आता है)

जसोदा : गोप, मैं तुम्हारी सब बातें अपने स्वामी से कहूँगी; देखो वह आते हैं।

लवंग : गोप, यदि तुम इस भाँति मेरी स्त्री से परोक्ष में बात किया करोगे तो मुझसे कैसे देखा जायेगा।

जसोदा : नहीं लवंग तुम हम लोगों की ओर से सन्देह मत करो; मुझ से और गोप से कहासुनी हो रही है क्योंकि वह मुझसे स्पष्ट कहता है कि मुझको भगवान न क्षमा करेगा क्योंकि मैं जैन की पुत्री हूँ और तुम्हारे विषय में कहता है कि तुम अपनी जाति के शुभचिन्तक नहीं हो क्योंकि जैनियों को आर्य बना कर सूअर के मांस का भाव बिगाड़ते हो।

लवंग : अबे जा उन लोगों से भोजन की तैयारी के लिये कह दे।

गोप : साहिब वह सब प्रस्तुत हैं क्योंकि उनको भी तो पेट है।

लवंग : ईश्वर का कोप हो तुझ पर, तू क्या ही हँसोड़ है। अच्छा उन्हें थाली परोसने के लिए कह दे।

गोप : यह भी हो चुका है केवल आच्छादन करना शेष है।

लवंग : तो शीघ्र आच्छादित करो।

गोप : यह मेरा सामथ्र्य नहीं कि स्वामी के सामने आच्छादन करूँ।

लवंग : फिर भी अपना ही राग गाए जाता है। क्या तू एक ही क्षण में अपना कुल हँसोड़पन खर्च कर डालेगा मैं तुझसे विनय करता हूँ कि मेरी सरल बातचीत के सीधे अर्थ समझ। जा अपने साथियों से कह दे कि थाली में मांस चुन कर ढंपना, छुरी काँटा इत्यादि रख दे। हम लोग भोजन को आते हैं।

गोप : महाराज थाली तो परस दी जायेगी और मांस भी लगा दिया जायेगा पर बिना चुहल के खाना अलोना प्रतीत होगा। इससे इसका तार न तोड़िए।

लवंग : ईश्वर की शरण, इस दुष्ट में तो हँसोड़पन वू$ट वू$ट कर भरा है मानो इसके सिर में श्लेष की सेना पैतरा बाँधे हर समय उपस्थित है। मैं बहुतेरे दुष्टों को जानता हूँ जो इससे अधिकार में कहीं बढ़कर हैं परन्तु शब्दों के प्रयोग में अर्थ का सत्यानाश करते हैं। जसोदा तुम किस विचार में हो? भला प्यारी तुम अपनी सम्मति तो वर्णन करो कि तुम राजकुमार बसन्त की अद्र्धांगिनी को कैसा समझती हो?

जसोदा : उनकी प्रशंसा अनिर्वचनीय है। मेरी जान में तो उचित होगा कि राजकुमार बसन्त को अब अपना जीवन निरी पवित्रता के साथ बिताना चाहिए क्योंकि जो पदार्थ कि उन्हें अपनी स्त्री में मिला है वह ऐसा है कि मानो उन्हें पृथ्वी पर स्वर्ग का सुख जीते जी हाथ लगा और यदि वह इसका आदर न करें तो स्पष्ट है कि उन्हें स्वर्ग का सुख भी क्या उठेगा। मेरी समझ में तो यदि दो देवता आपस में कोई स्वर्गीय कौतुक करें और दो सांसारिक स्त्रियों की होड़ बढ़े और इनमें से एक पुरश्री को अपनी ओर से बाजी में लगावें तो दूसरे को अपनी शर्त में एक स्त्री के साथ और भी बहुत कुछ बढ़ना होगा। क्योंकि इस उजाड़ संसार में पुरश्री का सा दूसरा तो मिलना नहीं।

लवंग : जैसा कि राजकुमार बसन्त को स्त्री लब्ध हुई है वैसा ही मैं भी तुम्हें स्वामी मिला हूँ।

जसोदा : सत्य वचन। परन्तु इसके विषय में भी तनिक मेरी सम्मति पूछ देखो।

लवंग : हाँ अभी पूछता हूँ। पहिले चलो खाना खा लें।

जसोदा : नहीं, अभी मुझे पेट भर तुम अपनी प्रशंसा कर लेने दो भोजन के उपरान्त समाई न रहेगी।

लवंग : भगवान के वास्ते यह कथा खाने के समय के लिए रहने दो। उस समय तुम मुझे कैसा ही कुछ कहोगी मैं उसे और पदार्थों के साथ पचा जाऊँगा।

जसोदा : बहुत अच्छा मैं आपकी प्रशंसा की पोथी वहीं खोलूँगी।

(दोनों जाते हैं)


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