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लेख

भारतीय भाषाओं से सशक्त होती हिंदी

प्रो. लेल्ला कारुण्यकरा


गुरुदेव रवींद्र नाथ ठाकुर ने कहा था, "भारतीय भाषाएं नदियां हैं और हिंदी महानदी।" ठाकुर ने यह इसलिए कहा था क्योंकि उन्हें हिंदी के महत्व का बोध था। वह हिंदी जो राष्ट्र के स्वतंत्रता संग्राम के दौरान स्वाधीनता सेनानियों के बीच सम्पर्क का प्रमुख माध्यम रही। वह हिंदी जो विविधता में एकता का सूत्र रही। जो देश के ज्यादातर भागों में अधिकांश लोगों द्वारा सबसे अधिक बोली-समझी जाती रही है और देश के सामाजिक, राजनीतिक, धार्मिक, साम्प्रदायिक एवं भाषायी समन्वय व सौहार्द का प्रतीक है। भारतीय भाषाओं और हिंदी के संबंध की दृष्टि से संविधान की धारा 351 अत्‍यन्‍त महत्‍वपूर्ण है जिसमें हिंदी और अन्य भारतीय भाषाओं में सौहार्द और सामंजस्य की अपेक्षा की गई है, "संघ हिंदी के प्रसार के लिए प्रयत्न करेगा और हिंदी को इस प्रकार विकसित करेगा कि वह देश की मिलीजुली संस्कृति को अभिव्यक्त कर सके। संघ से यह भी अपेक्षा है कि वह हिंदी को समृद्ध बनाने के लिए संस्कृत, हिंदुस्तानी और अन्य भारतीय भाषाओं के मध्य सतत संवाद को प्रोत्साहन देगा। जहां तक संभव हो भारतीय भाषाओं के शब्द, मुहावरे, लोकोक्तियों से हिंदी को समृद्ध किया जायेगा।" इस दृष्टि से यह बेहद तात्पर्यपूर्ण है कि हिंदी विभिन्न भाषाओं के उपयोगी और प्रचलित शब्दों को अपने में समाहित करके सही मायनों में भारत की संपर्क भाषा होने की भूमिका निभा रही है। हिंदी ने तेलगु से कुचीपुड़ी और मोरम शब्‍दों को ग्रहण किया तो तमिल से पिल्‍ला और पंडाल जैसे शब्‍दों को आत्‍मसात किया। इसी तरह चाल (छोटा कमरा) और अम्‍मत मलयालम के शब्‍द हैं किन्‍तु ये शब्‍द हिंदी में स्‍वीकार किए जा चुके हैं। छाता बांग्‍ला का शब्‍द है और हड़ताल गुजराती का। ये दोनों शब्‍द हिंदी में खूब प्रचलित हैं। हिंदी में श्री, श्रीमती, राष्ट्रपति, मुद्रास्फीति जैसे अनेक शब्द मूलतः मराठीभाषी बाबूराव विष्णु पराड़कर के चलाए हुए हैं। कोई भाषा तभी नीरभरी नदी बनती है जब वह दूसरी भाषाओं से स्रोत ग्रहण करे। इससे वह भाषा समृद्ध भी बनती है। हिंदी समेत कई भाषाओं में एक मुहावरा है-तू डाल-डाल, मैं पात-पात। तेलुगु में भी यह मुहावरा है। तेलुगु में जो मुहावरा है, उसका हिंदी अनुवाद होगा- तू मेघ-मेघ, मैं तारा तारा। जाहिर है कि इस तरह के मुहावरों का प्रचलन बढ़ने पर हिंदी और सशक्त होगी।

हिंदी को पूरे देश में राजभाषा के रूप में पूरी तरह स्वीकार्यता तभी मिलेगी जब हम सभी लोग स्थानीय भाषाओं को भी सम्मान देंगे। ध्यान देनेयोग्य है कि राष्ट्रीय शिक्षा नीति 2020 में भी भारतीय भाषाओं में शिक्षा पर बल दिया गया है। भारतेंदु ने कहा था, "निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल, बिन निज भाषा ज्ञान के, मिटत न हिय के सूल।" यानी मातृभाषा की उन्नति के बिना किसी भी समाज की उन्नति संभव नहीं है। कहना न होगा कि हिंदी तथा प्रांतीय भाषाओं के माध्यम से हम बेहतर जन सुविधाएं लोगों तक पहुंचा सकते हैं। भाषा राजकीय उत्सवों से नहीं, बल्कि जनसरोकारों और लोक पंरपराओं से समृद्ध होती है। हिंदी की सबसे बड़ी शक्ति इसकी वैज्ञानिकता, मौलिकता, सरलता, सुबोधता और स्‍वीकार्यता है। हिंदी भाषा की विशेषता है कि इसमें जो बोला जाता है, वही लिखा जाता है। हिंदी सर्व-सुलभ और सहज ग्रहणीय भाषा है, अधिकांश जनता की भाषा है, उसका स्वरूप समावेशी है और उसकी लिपि देवनागरी विश्व की सबसे पुरानी एवं वैज्ञानिक लिपियों में से है। हिंदी आधुनिक भी है और पुरातन भी। हिंदी के ये गुण ही उसे मात्र एक भाषा के दर्जे से ऊपर एक संस्कृति होने का सम्मान दिलाते हैं। राजभाषा हिंदी के माध्‍यम से देश की जनता की सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्‍कृतिक सभी प्रकार की अपेक्षाओं को पूरा करने वाली योजनाओं व कार्यक्रमों को आखिरी सिरे तक पहुंचाना सरकारी तंत्र का अति महत्‍वपूर्ण कर्तव्‍य है और उसकी सफलता की कसौटी भी। यदि हम चाहते हैं कि हमारा लोकतंत्र निरंतर प्रगतिशील रहे और अधिक मजबूत बने तो हमें संघ के काम-काज में हिंदी का तथा राज्‍यों के कामकाज में उनकी प्रांतीय भाषाओं का ही प्रयोग करना होगा। हिंदी को उसके वर्तमान स्‍वरूप तक पहुंचाने में देश के सभी प्रदेशों का महत्‍वपूर्ण योगदान रहा है। भारत की सभी भाषाएं समृद्ध हैं। उनका अपना साहित्‍य, शब्‍दावली, अभिव्‍यक्‍तियां एवं मुहावरे हैं। इन सभी भाषाओं में भारतीयता की एक आतंरिक शक्‍ति भी है।

इसे याद रखना जरूरी है कि हिंदी की सेवा अनेक हिंदीतरभाषियों ने की है। केरल के प्रथम हिंदी प्रचारक मलयालमभाषी एम.के. दामोदरन उण्णि थे। मलयालमभाषी जी. गोपीनाथन, दंद्रहासन, एन. चंद्रशेखरन नायर, एन.ई. विश्वनाथ अय्य्यर और के.सी. अजय कुमार की हिंदी सेवा को क्या हम भूल सकते हैं? इसी कड़ी में सुब्रह्मण्यम भारती, सुमति अय्यर और डॉ. पी. जयरामन जैसे तमिलभाषियों की हिंदी सेवा, बी. वी. कारंत और नारायण दत्त जैसे कन्नड़भाषियों की हिंदी सेवा, मोटूरि सत्यनारायण, भीमसेन निर्मल, बाल शौरि रेड्डी और यार्लगड्डा लक्ष्मी प्रसाद जैसे तेलुगुभाषियों की हिंदी सेवा को याद रखना चाहिए।

इतिहास स्वीकृत तथ्य है कि अनेक मराठीभाषियों जैसे सखाराम गणेश देउस्कर, लक्ष्मण नारायण गर्दे, माधव राव सप्रे, बाबूराव विष्णु पराड़कर, मुक्तिबोध, प्रभाकर माचवे, चंद्रकांत वांडिवडेकर, राहुल बारपुते ने हिंदी की अनन्य सेवा की। यही बात राजा राममोहन राय, श्याम सुंदर सेन, अमृतलाल चक्रवर्ती, चिंतामणि घोष, क्षितिन्द्र मोहन मित्र,शारदा चरण मित्र, रामानंद चट्टोपाध्याय, ईश्वरचंद्र विद्यासागर, नलिनी मोहन सान्याल, सुनीति कुमार चाटुर्ज्या और रवींद्रनाथ ठाकुर जैसे बांग्लाभाषियों की हिंदी सेवा के लिए भी सही है। रवींद्रनाथ ठाकुर ने तो विश्वभारती में हिंदी भवन की स्थापना की और हजारीप्रसाद द्विवेदी को हिंदी शिक्षक नियुक्त किया।

महात्मा गांधी ने हिंदी को भारतीय चिंतन-धारा का स्वाभाविक विकास क्रम माना था। हिंदी भाषा का प्रश्न उनके लिए स्वराज्य का प्रश्न था। हिंदी का महत्‍व हमारे संविधान निर्माताओं ने प्रारम्भ में ही स्वीकार कर लिया था। हिंदी की सर्वग्राह्यता को ध्‍यान में रखते हुए भारतीय संविधान सभा ने 14 सितंबर, 1949 को हिंदी को संघ की राजभाषा के रूप में अंगीकार किया।

हिंदी ने राष्ट्रीय एकता का मार्ग प्रशस्त तो किया किंतु उसे यह भी बोध रहा है कि भारत का विकास और राष्ट्रीय एकता की रक्षा प्रादेशिक भाषाओं के पूर्ण विकास से ही संभव है। सहयोग और सहकार के लक्ष्य की प्राप्ति हिंदी भाषा के माध्यम से ही संभव होती रही है। हिंदी में वह शक्ति है कि वह भारत को जोड़े और वहां के सांस्कृतिक तत्वों के संरक्षण, परिष्कार और सर्जना का भरपूर अवसर प्रदान करे। भारत अनेक दृष्टियों से बहुलता के साथ जीता रहा है। विविधता और बहुभाषिकता भारत की विशेषता है। विभिन्न भाषाओं के साथ हिंदी का सहज रिश्ता विकसित हुआ है। भारत की विविधता के संरक्षण के लिए हिंदी आरंभ से ही अपना दाय निभाती रही है। हिंदी ने दूसरी भारतीय भाषाओं के साहित्य के साथ सहकार संबंध कायम किया है। हिंदी और भारतीय भाषाओं और साहित्य का पारस्परिक आदान-प्रदान और योगदान संगठित व योजनाबद्ध तरीके से बढ़ाने की जरूरत है। हिंदी और भारतीय भाषाओं के बीच पारस्परिक साझेदारी विकसित होने पर देशवासियों के बीच अपरिचय कम होगा। हमें हिंदी दिवस के अवसर पर हिंदी तथा भारतीय भाषाओं के बीच सहकार संबंध की समझ का विकास करने का संकल्प लेना होगा। पारस्परिक साझेदारी और समझदारी का विकास करने के लिए हिंदी तथा भारतीय भाषाओं के बीच अन्योन्याश्रित संबंध का संधान करना होगा। हिंदी तथा भारतीय भाषाओं के बीच संवेदना की समझ का विकास करना होगा। हिंदीतर भाषाओं के साथ हिंदी की भाषिक और अर्थपरक समझ का विकास होने पर अखिल भारतीय बोध का विस्तार होगा।

(लेखक मूलतः तेलुगुभाषी हैं , जाने-माने इतिहासकार हैं और संप्रति महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्वविद्यालय, वर्धा के कुलपति हैं)


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