अभिभाषण
राष्ट्रभाषा
कवि कौन है?
वेदान्तवाद
रामायण में हिन्दू - संस्कृति
तुलसीदास का महत्तव
कृष्ण - गीतावली
'नीहार' का 'परिचय'
हिन्दी के मुसलमान कवि की प्रस्तावना
'सरस सुमन' की भूमिका
धारतीमाता
पति - सेवा
अभिभाषण
।मंगलाचरण।
दु्रतविलम्बित
सकल साधाक साधिात सेविता।
विबुधा वृन्द विबोधिात वन्दिता।
भरित भाव प्रभूत विभूति से।
जयति भारत भूतल भारती। 1।
सरसती सुर की सरि सी रहे।
बन सुधाा सम स्वाद सहोदरा।
सरस नीरस मानस को करे।
रसिक की रसना रस से भरी। 2।
मधाुमयी वन हो बुधा लालिता।
पुलकिता रह हो अकलंकिता।
सफलिता कलिता ललिता रहे।
विकसिता लसिता कवितावली। 3।
सुधा रखे हित साधान की सुधाी।
सकल प्रेमिक प्रेम निकेत हो।
विबुधा की विधिा हो विधिा से बँधाी।
विबुधातामय हो विविधाा क्रिया। 4।
सरलता शुचिता सहकारिता।
सरसता सहिता हितकारिता।
विलसती जन मानस में रहे।
मधाुरता मृदुता उपकारिता। 5।
अनुनय - विनय
स्वागतकारिणी समिति के सभापति महोदय! समुपस्थित सज्जन समूह! समादरणीया महिला वृन्द!
गौरव लाभ करना गौरव की बात है, किन्तु सबसे बडे ग़ौरव का अधिाकारी वह है, जो वास्तव में किसी को गौरवित बनाता है। मन्दवाही मलयानिल का प्रवाह मन्द - मन्द आता है, तरु - पुंज को स्पर्श करता है, सौरभित बनाता है, वे कुछ से कुछ हो जाते हैं, काठ से चन्दन बन जाते हैं, सुर शीश पर चढ़ते हैं,निस्सन्देह यह उनके लिए महत्तव की बात है। परन्तु जिसने उन्हें यह महत्ताा प्रदान की वह किस महत्तव का अधिाकारी है, आप लोग स्वयं इसको समझ सकते हैं। आप लोगों का कृपापात्रा बनकर मैं सम्मानपात्रा हुआ हूँ - किन्तु वास्तव में इस सम्मान के अथवा इससे भी किसी उच्च और पुनीत सम्मान के भागी आप लोग हैं। लोहा पारस स्पर्श से स्वर्ण बनता है, किन्तु लोहे को स्वर्णता प्रदान करके पारस क्या बनता है, यह कहते नहीं बनता। कंगाल सुदामा भगवान् यदुकुल कुमुद कलाधार की कसौटी है। एक साधाारण लोक को लोकपाल बनाकर वे त्रिालोक से ऊँचे हो गए। आप लोगों का भी कुछ ऐसा ही कौशल है, नहीं तो उज्ज्वल रत्नराशि के मिलते तुच्छ काँच न पूछा जाता, प्रफुल्ल पाटल प्रसून के होते पलाश पुष्प पर दृष्टि न पड़ती। दूसरे तर्क - वितर्क करें, मैं सतर्क हूँ, मेरा हृदय कृतज्ञतापूर्ण है, मैं इस अभूतपूर्व उदारता के लिए आप लोगों को सहòों धान्यवाद प्रदान करता हूँ। मेरे रोम - रोम से धान्यवाद की धवनि निकल रही है। मैं शिष्टाचार प्रदर्शन नहीं कर रहा हूँ, वास्तव में बात यह है कि धान्यवाद से भी बहुमूल्य यदि कोई वस्तु होती, तो आज मैं उसको भी सेवा में अर्पण करके सन्तोष न पाता। अपने किए की लज्जा आप लोगों को अवश्य होगी,आप लोग अपना कार्य मुझ अयोग्य से भी योग्यतापूर्वक करा ही लेंगे, अतएव आज मैं अयोग्य होकर भी योग्य हूँ। विशेष क्या कहूँ - कहूँगा तो इतना ही और कहूँगा 'मणौ वज्र समुत्कीर्णं सूत्रास्येवास्ति मे गति:। '
हिन्दी भाषा का उद्गम
आप लोगों ने अनुग्रह करके मुझको जिस सभा के समुच्च सिंहासन पर समासीन किया है, उसका नाम है हिन्दी साहित्य - सम्मेलन। सभापतित्व की सूचना पत्राों में प्रकाशित होते ही, मेरे पास पत्राों की भरमार हो गयी, अनेक विषयों में सम्मति देने की मुझे सम्मति दी गयी। कहा गया घडे में समुद्र भर दिया जावे, सामयिक सब विषयों पर लेख लिख दिया जावे, यही नहीं लेख में प्रौढ़ वय की प्रौढ़ता भी हो। एक सज्जन ने लिखा - अपने पक्ष का प्रतिपादन पूरा - पूरा किया जावे,चाहे पक्षपात का दोष भले ही लगे। निदान अपना - अपना राग सबने अलापा, मैं चिन्तित हुआ, क्या करूँ। यदि व्याख्यान लंबा होगा, तो रंग फीका हो जावेगा, लोग बिना सुने ही लम्बे हो जावेंगे। यदि छोटा हुआ, तो छोटाई होगी, अधाूरा हुआ तो पूरी न पड़ेगी। सोच - समझ कर ठीक किया, हमें तीन ही विषय से मतलब है, और वे हैं, 'हिन्दी', 'साहित्य' और 'सम्मेलन'। अतएव मैं इन्हीं तीन विषयों पर आप लोगों की सेवा में कुछ निवेदन करूँगा। यद्यपि इन विषयों पर भी बहुत कुछ कहा जा चुका है किन्तु इसके लिए मैं क्या करूँ, यह मार्ग सबके लिए तंग है। कौन - सा विषय है, कि जिस पर लेखनी नहीं चल चुकी है, पर लिखने वाले कब मानते हैं, कुछ न कुछ लिखते ही हैं - और नहीं कुछ होता, तो पूर्वजों का पदानुसरण ही करते हैं - मैं भी यही करूँगा। ऐसे ही बखेडे में एक बार कविकुल - तिलक गोस्वामी तुलसीदास जी पडे थे - उस समय उनकी रत्न प्रसविनी लेखनी ने लिखा था ''सब जानत प्रभु प्रभुता सोई। तदपि कहे बिन रहा न कोई। '' मेरे लिए यही महावाक्य अवलम्बन है। यह वाक्य मेरी तमोमयी रजनी मति का मयंक और मेरे नीरस मानस तरु का मन्दान्दोलित वसन्त समीर है।
पहला विषय मेरा हिन्दी है, अतएव पहले मैं देखूँगा हिन्दी भाषा की जननी कौन है? उसकी जन्मभूमि कहाँ है? वह वहाँ कैसे उत्पन्न हुई? कैसे लालित - पालित हुई? उसका उगना, अंकुरित होना, पल्लवित बनना, फूलना - फलना, अत्यन्त मनोमुग्धाकर है। परम ललित लेखनी द्वारा यह बातें लिपिबध्द हुई हैं, बडे सुचतुर चित्राकारों ने अपनी चारुतूलिका द्वारा उसका रुचिर चरित चित्रा अंकित किया है। मैं उस सुन्दर लेखमाला को उस चमत्कारमय चित्रापट को, आपके सामने रखने में असमर्थ हूँ। किन्तु उस लेखमाला की कुछ काम की बात सुनाऊँगा, उस चारु चित्रापट के कुछ आवश्यक अंश दिखलाऊँगा। आशा है उनसे आप लोगों का बहुत कुछ मनोरंजन होगा।
हिन्दी भाषा का वर्तमान रूप अनेक परिवर्तनों का परिणाम है। वह क्रम - क्रम विकसित होकर इस अवस्था को प्राप्त हुई है, यह क्रम विकास कैसे हुआ, उसका निरूपण यहाँ किया जाता है। प्रथम सिध्दान्त यह है कि हिन्दी भाषा की जननी संस्कृत है, पहले वह कई प्राकृतों में परिवर्तित हुई, उसके उपरान्त उसने हिन्दी का वर्तमान रूप धाारण किया। दूसरा यह कि प्राकृत स्वयं एक स्वतन्त्रा भाषा है, वह न तो वैदिक भाषा से उत्पन्न हुई न संस्कृत से, कालान्तर में वही रूप बदल कर आया और हिन्दी कहलायी। तीसरा यह कि प्राचीन वैदिक भाषा ही वह उद्गम स्थान है, जहाँ से समस्त प्राकृत भाषाओं के òोत प्रवाहित हुए हैं, संस्कृत उसी का परिमार्जित रूपान्तर, और हिन्दी उन्हीं òोतों में से एक òोत का सामयिक स्वरूप है। हम मीमांसा करके देखेंगे कि इनमें कौन - सा सिध्दान्त उपपत्तिा मूलक है।
सबसे पहले प्रथम सिध्दान्त को लीजिये, उसके प्रतिपादक संस्कृत और प्राकृत भाषा के कुछ प्राचीन विबुधा और हमारी हिन्दी भाषा के कुछ धाुरन्धार विद्वान् हैं। उनका यह कथन है -
''प्रकृति: संस्कृतम् तत्रा भवम् तत् आगतम् वा प्राकृतम्। ''
- वैयाकरण हेमचन्द्र
''प्रकृति: संस्कृतम् तत्रा भवत्वात् प्राकृतम् स्मृतम्। ''
- प्राकृत चन्द्रिकाकार
''प्राकृतस्य तु सर्वमेवसंस्कृतम् योनि:। ''
- प्राकृत संजीवनीकार।
''यह सर्व सम्मत सिध्दान्त है कि प्रकृति संस्कृत होने पर भी कालान्तर में प्राकृत एक स्वतन्त्रा भाषा मानी गयी। ''
- स्वर्गीय पण्डित गोविन्दनारायण मिश्र
''संस्कृत प्रकृति से निकली भाषा ही को प्राकृत कहते हैं।
- स्वर्गीय पण्डित बदरीनारायण चौधारी
अब दूसरे सिध्दान्त वालों की बातें सुनिए। इनमें अधिाकांश बौध्द और जैन विद्वान् हैं। अपने 'प्रयोग सिध्दि' ग्रन्थ में कात्यायन लिखते हैं -
सा मागधाी मूल भासानरा यायादि कप्पिका।
ब्राह्मणो चस्सुतालापा सुग्बुध्दा चापि भासरे।
आदि कल्पोत्पन्न मनुष्यगण, ब्राह्मणगण, सम्बुध्दगण, और जिन्होंने कोई वाक्यालाप श्रवण नहीं किया है ऐसे लोग,जिसके द्वारा बातचीत करते हैं, वही मागधाी मूल भाषा है।
'पति सम्बिधा अत्वूय' नामक ग्रन्थ में लिखा है -
''मागधाी भाषा देवलोक, नरलोक, प्रेतलोक, और पशु जाति में सर्वत्रा प्रचलित है। किरात, अन्धाक, योणक, दामिल प्रभृति भाषा परिवर्तनशील है, किन्तु मागधाी आर्य और ब्राह्मणगण की भाषा है। इसलिए अपरिवर्तनीय और चिरकाल से समान रूपेण व्यवहृत है। ''
महारूप सिध्दिकार लिखते हैं -
''मागधिाकार सभाव निरुत्तिाया'' अर्थात् मागधाी स्वाभाविक भाषा (अथवा मूल भाषा) है।
अपने पाली भाषा के व्याकरण की अंग्रेजी भूमिका में श्रीयुत् सतीशचन्द्र विद्याभूषण लिखते हैं -
''धाीरे - धाीरे मागधाी में, जो इस देश में बोली जाती थी, बहुत से परिवर्तन हुए और आजकल की भाषाएँ, जैसे बंगाली, मरहठी, हिन्दी और उड़िया इत्यादि उसी से उत्पन्न हुईं। ''1
'' जैनेरा अर्ध्द मागधाी भाषा केई आदि भाषा बलिया मने करेन। ''
जैन लोग अर्ध्द मागधाी भाषा को ही आदि भाषा मानते हैं।
- बँगला विश्वकोश, पृष्ठ 437।
अब तीसरे सिध्दान्त वालों का विचार सुनिए, यह दल समधिाक पृष्ठ है, इसमें पाश्चात्य विद्वान् तो हैं ही, भारतीय विद्वानों की संख्या भी न्यून नहीं है। क्रमश: अनेक विद्वानों की सम्मति, मैं आप लोगों के समाने उपस्थित करता हूँ। जर्मन विद्वान्'वेबर' कहते हैं -
''वैदिक भाषा से ही एक ओर सुगठित और सुप्रणालीबध्द होकर संस्कृत भाषा का जन्म, और दूसरी ओर मानव प्रकृति सिध्द और अनियत वेग से वेगवान प्राकृति भाषा का प्रचलन हुआ - प्राचीन वैदिक भाषा ही क्रमश: बिगड़ कर सर्व साधाारण के मुख से प्राकृत हुई। '' बँगला विश्वकोष, पृष्ठ 433।
1. Course of time this Magadhi-the spoken language of the country underwent immense changes, and gave rise to the madern vernaculars such as Bengali, Marahathi, Hindi, Uriya etc.
विश्वकोश के प्रसिध्द विद्वान् रचयिता स्वयं यह लिखते हैं -
''वास्तविक आर्य जाति की आदि भाषा वेद में है। इसमें सन्देह नहीं कि इस वैदिक भाषा रूप òोतस्वनी से ही संस्कृत और प्राकृत दोनों धााराएँ निर्गत हुई हैं। ''
- बँगला विश्वकोश; पृष्ठ 433
श्रीमान् विधाुशेखर शास्त्राी अपने पालिप्रकाश नामक बँगला ग्रन्थ में क्या लिखते हैं, उसे भी देखिए - .
''आर्यगण की वेद - भाषा और अनार्यगण की आदिम भाषा में एक प्रकार का सम्मिश्रण उत्पन्न होने से, बहुत से अनार्य शब्द वर्तमान कथ्य वेद - भाषा के साथ मिश्रित हो गए, इस सम्मिश्रण जात भाषा का नाम ही प्राकृत है। ''
- पालि प्रकाश प्रवेशक' पृष्ठ 36
हिन्दी भाषा के प्रसिध्द विद्वान् श्रीमान् पण्डित महावीरप्रसाद द्विवेदी की यह अनुमति है -
''हमारे आदिम आर्यों की भाषा पुरानी संस्कृत थी, उसके कुछ नमूने ऋग्वेद में वर्तमान हैं, उसका विकास होते - होते कई प्रकार की प्राकृतें पैदा हो गयीं, हमारी विशुध्द संस्कृत किसी पुरानी प्राकृत से ही परिमार्जित हुई है। ''
- हिन्दी भाषा की उत्पत्तिा; पृष्ठ 73
विख्यात साहित्य मर्मज्ञ बाबू पुरुषोत्तामदास टण्डन का विद्वत्ताापूर्ण भाषण भी इसी सिध्दान्त का प्रतिपादक है। और भी प्रगल्भ विद्वानों की सम्मतियाँ मैं यहाँ उध्दृत कर सकता हूँ, किन्तु विस्तार भय से छोड़ता हूँ।
अब मैं देखूँगा कि इन तीनों सिध्दान्ताें में से कौन - सा सिध्दान्त विशेष उपपत्तिा मूलक है। शब्दशास्त्रा की गुत्थियों का सुलझाना सुलभ नहीं, लोग जितना ही इसको सुलझाते हैं, उलझन उतनी ही बढ़ती है। बहुत कुछ छानबीन हुई, किन्तु भाषा विज्ञान का अगाधा रत्नाकर आज भी बिना छाने हुए पड़ा है, छानने वालों ने उसको सौ - सौ तरह से छाना, किन्तु रत्न हाथ आना सबके भाग्य में कहाँ! मैं इस उद्योग में नहीं हूँ - न मुझमें इतनी योग्यता है - न मैं इस धानीभूत अंधाकार में प्रवेश करने के लिए कोई सुन्दर आलोक प्रस्तुत कर सकता हूँ, केवल मैं विचारों का दिग्दर्शनमात्रा करूँगा। प्रथम सिध्दान्त के विषय में मैं विशेष कुछ लिखना नहीं चाहता, वेद - भाषा को प्राचीन संस्कृत कहा जाता है। कोई - कोई वेद - भाषा को वैदिक संस्कृत और पाणिनि काल की एवं उसके बाद के ग्रन्थों की भाषा को लौकिक संस्कृत कहते हैं। प्रथम सिध्दान्त वालों ने संस्कृत से ही प्राकृत की उत्पत्तिा बतलायी है, यदि इस संस्कृत से वैदिक संस्कृत अभिप्रेत है, तो प्रथम सिध्दान्त तीसरे सिध्दान्त के अन्तर्गत हो जाता है, और विरोधा का निराकरण होता है। परन्तु वास्तव में बात यह है कि प्रथम सिध्दान्त वालों का उद्देश्य वैदिक संस्कृत से नहीं, वरन् लौकिक संस्कृत से है। क्योंकि षड्भाषा - चन्द्रिकाकार लिखते हैं -
भाषा द्विधाा संस्कृता चा प्राकृती चेति भेदत:।
कौमार पाणिनीयादि संस्कृता संस्कृतामता।
प्रकृते: संस्कृता यास्तु विकृति: प्राकृता मता।
अतएव दोनों सिध्दान्तों का परस्पर विरोधाी होना स्पष्ट है। प्रथम सिध्दान्त की सारवता के विषय में मैं कुछ नहीं लिखना चाहता, उस पर समधिक लेखनी परिपालना हुई है। सम्मेलन के सभापतित्व के आसन पर विराजमान होकर पारसाल इस विषय में विद्वद्वर श्रीमान् बाबू पुरुषोत्तामदास टण्डन ने बहुत कुछ लिखा है उन्होंने युक्ति के साथ उसकी असारता सिध्द कर दी है, अतएव उसके सम्बन्धा में अब मेरा कुछ लिखना पिष्टपेषण मात्रा होगा। सम्भव है कि कुछ विद्वज्जन उनके विचारों से सहमत न हों, सम्भव है कि उनकी चिन्ता प्रणाली अभ्रान्त न हो, विचार वैचित्रय अप्रकट नहीं, परन्तु मेरी उनके साथ एक वाक्यता है - केवल इस कारण से नहीं कि उनके विचार में प्रौढ़ता है, वरन् इस कारण्ा से भी कि शिक्षा नामक वेदांग के पाँचवें अधयाय का तीसरा श्लोक भी उनके विचार को पुष्ट करता है। वह यह है - ''प्राकृते संस्कृते वापि स्वयं प्रोक्ता स्वयंम्भुवा'',स्वयं आदि पुरुष प्राकृत अथवा संस्कृत बोलते थे। इस श्लोक में प्राकृत को अग्रस्थान दिया गया है, जो पश्चाद्वर्ती संस्कृत को उसका पश्चाद्वर्ती बनाता है। अतएव अब इस विषय में कुछ और न लिखकर, मैं दूसरे सिध्दान्त की मीमांसा करताहूँ।
दूसरा सिध्दान्त क्या है, उसका परिचय मैं दे चुका हूँ। वह मागधाी को आदि कल्पोत्पन्न, मूल भाषा, आदि भाषा, और स्वाभाविक भाषा मानता है। यदि इस भाषा का अर्थ वैदिक भाषा के अतिरिक्त सर्व साधाारण में प्रचलित भाषा है, तो यह सिध्दान्त बहुत कुछ माननीय है। क्याेंकि महर्षि पाणिनि के प्रसिध्द सूत्राों में वेद अथवा उसमें प्रयुक्त भाषा, छन्द, मन्त्रा,निगम, आदि नामों से अभिहित है, यथा - विभाषा छन्दसि (1, 2, 36) अयस्मयादीनि छन्दसि (1, 4, 20) नित्यं मन्त्रो (6, 1, 10) जनिता मन्त्रो (6, 4, 53) वाव पूर्वस्य निगमे (6, 4, 9) ससूवेति निगमे (7, 4, 74)।
परन्तु1 भाषाओं के लिए 'लोक', 'लौकिक' अथवा भाषा शब्द का ही प्रयोग उन्होंने किया है, यथा -
विभाषा भाषायाम् (6 - 1 - 181) स्थेव भाषायाम् (6 - 3 - 20) प्रथमायाश्च द्विवचने भाषायाम् (7 - 2 - 88) पूर्व तु भाषायाम् (8 - 2 - 98)।
परन्तु वास्तव में बात यह नहीं है, वरन् वास्तव में बात यह है कि मागधाी को मूल भाषा अथवा आदि भाषा कहकर,वेद - भाषा पर प्रधाानता दी गयी है। क्योंकि वह अपरिपर्वतनीय मानी गयी है, और कहा गया है कि नरलोक के अतिरिक्त उसकी व्यापकता देवलोक तक है, प्रेतलोक और पशु जाति में भी वह सर्वत्रा प्रचलित है। जिस काल में स्वयं वेदों की अप्रधाानता हो गयी थी, उस काल में वेदभाषा का अप्राधाान्य माना जाना स्वाभाविक है। धाार्मिक संस्कार सभी धार्मवालों के कुछ - न - कुछ इसी प्रकार के होते हैं - ऐसे स्थलों पर वितण्डावाद व्यर्थ है, केवल देखना यह है कि भाषा - विज्ञान की दृष्टि से यह विचार कहाँ तक युक्तिसंगत है, और पुरातत्तववेत्ताा क्या कहते हैं। वैदिक भाषा की प्राचीनता, व्यापकता, और उसके मूल भाषा अथवा आदि भाषा होने के सम्बन्धा में कुछ विद्वानों की सम्मति मैं नीचे उध्दाृत करता हूँ - उनसे इस विषय पर बहुत कुछ प्रकाश पडेग़ा। संस्कृत भाषा से इन अवतरणों में वैदिक संस्कृत अभिप्रेत है।
''किसी समय संस्कृत सम्पूर्ण संसार की बोलचाल की भाषा थी। ''2
- मिस्टर वाय।
''सर्वज्ञात भाषाओं में से संस्कृत अतीव नियमित है, और विशेषतया इस कारण अद्भुत है कि उसमें योरप की अद्यकालीन भिन्न - भिन्न भाषाओं और प्राचीन भाषाओं के धाातु हैं। ''3 मिस्टर कूवियेर।
यह देखकर कि भाषाओं की एक बड़ी संख्या का प्रारम्भ संस्कृत से है, या यह कि संस्कृत से उसकी समधिाक समानता है, हमको बड़ा आश्चर्य होता है - और यह संस्कृत के बहुत प्राचीन होने का पूरा प्रमाण है। रेडिगर नामक एक
1. संस्कृतं प्राकृतं चैवापभ्रंशोथ पिशाचिकी।
मागधाी शौरसेनी च षड्भाषाश्च प्रकीर्तिता:। प्रा. लक्षण टी.
2. Some time Sanskrit was the one language spoken all over the world. Edinburgh Rev. Vol XXXIII, 3.43.
3. It is the most regular language known and is especially remarkable, as containing the roots of various languages of Europe, and the Greek, Latin, German, of Sclavonic-Baron cuvier-Lectures on the Natural Sciences.
जर्मन लेखक का यह कथन है कि संस्कृत सौ से ऊपर भाषाओं और बोलियों की जननी है। इस संख्या में उसने बारह भारतवर्षीय, सात मीडियन पारसी, दो अरनाटिक अलबानियन, सात ग्रीक, अठारह लेटिन, चौदह इसक्लेवानियन और छ: गेलिक केल्टिक को रखा है।
लेखकों की एक बड़ी संख्या ने संस्कृत को ग्रीक तथा लैटिन और जर्मन भाषा की अनेक शाखाओं की जननी माना है, या इनमें से कुछ को संस्कृत से उत्पन्न हुई किसी दूसरी भाषा द्वारा निकला पाया है, जो कि अब नाश हो चुकीहै।
सर विलियम जोन्स और दूसरे लोगों ने संस्कृत का लगाव पारसी और जिन्द भाषा से पाया है।
हालहेड ने संस्कृत और अरबी शब्दों में समानता पायी है, और यह समानता केवल मुख्य - मुख्य बातों और विषयों में ही नहीं, वरन् भाषा की तह में भी उन्हें मिली है। इसके अतिरिक्त इन्डो चाइनीज और उस भाग की दूसरी भाषाओं का भी उसके साथ घनिष्ठ सम्बन्धा है। 1 - मिस्टर एडलिंग।
''पुरातन ब्राह्मणों ने जो ग्रन्थ हमें दिए हैं, उनसे बढ़कर निर्विवाद प्राचीनता के ग्रन्थ पृथ्वी पर कहीं नहीं मिलते। ''2 -मिस्टर हालहेड।
''जिन्द के दश शब्दों में से 6 या 7 शब्द शुध्द संस्कृत के हैं। '' मिस्टरहैमर।
''जिन्द और वैदिक संस्कृत का इतना अन्तर नहीं, जितना वैदिक संस्कृत और संस्कृत का है। '' मैकडानेल - ईश्वरीय ज्ञान, पृष्ठ 63, 64, 66, 67।
1. The great number of languages which are said to owe their origin, or bear a close affinity to the Sanskrit, is truly astonishing, and is another proof of its high antiquity. -A German writer.
2. The world does not now contain annals of more indisputable antiquity than those delivered down by the ancient Brahmans-Halhed, Code of Hindu Lows (Rudiger) has asserted it to be the parent of upwards of a hundred languages and dialects, among which he enumerates, twelve Indian seven Median-Persic, two Arnantic-Albanian, seven Greek, eighteen Latin, fourteen Sclavanian and six Ciltic-Gallic.
A host of writers have made it the immediate parent of the Greek, and Latin, and German families of languages, or regarded some of these as descended from it through a language now extinct. With the Persian and Zend it has been almost identified by Sir William Jones and others. Halhed notices the similitude of Sanskrit and Arabic words, and this not merely in technical and metaphorical terms, but in the main ground work of language. In a contrary direction of the Indo-Chinese, and other dialects in that quarter, all seem to be closely allied to it-Adeling Sans. Literature. H. 38-40.
संसार की आर्य जातीय भाषाओं के साथ वैदिक भाषा का सम्बन्धा प्रकट करने के लिए मैं यहाँ कुछ शब्दों को भी लिखता हूँ -
संस्कृत मीडी यूनानी लैटिन अंग्रेजी फारसी
पितृ पतर पाटेर पेटर फादर पिदर
मातृ मतर माटेर मेटर मदर मादर
भ्रातृ ब्रतर फाटेर फ्रेटर ब्रदर बिरादर
नाम नाम ओनोमा नामेन नेम नाम
अस्मि अह्मि ऐमी एम ऐम अस
अवतरणों को पढ़ने और ऊपर के शब्दों का साम्य देखकर यह बात माननी पडेग़ी कि वैदिक भाषा अथवा आर्य जाति की वह भाषा, जिसका वास्तविक और व्यापक रूप हमको वेदों में उपलब्धा होता है, आदि भाषा अथवा मूल भाषा है। यदि संसार भर की भाषाओं की जननी हम उसे न मानें, तो भी हमें आर्य भाषा से प्रसूता जितनी भाषाएँ हैं, उनकी आधाार भूता अथवा जन्मदात्राी तो उसे मानना ही पड़ेगा और ऐसी अवस्था में मागधाी भाषा को मूल भाषा अथवा आदि भाषा कहना कहाँ तक युक्तिसंगत है, आप लोग स्वयं इसको सोच सकते हैं।
पालि प्रकाशकार कहते हैं ''समस्त प्राकृतों में पालि ही सबसे प्राचीन है, यह भी कहा गया है कि प्राकृत संस्कृत की पूर्ववर्ती है। इसलिए सिंहल के पालि वैयाकरणों की पालि के प्राचीनत्व सम्बन्धा में जो धाारणा है, उसको अस्वीकार नहीं किया जा सकता। '' पालि प्रकाश प्रवेशक, पृ. 15।
वास्तव में वह अस्वीकार नहीं किया जा सकता, परन्तु इसका यह अर्थ नहीं है कि पालि ही मूल अथवा आदि भाषा है। पालि प्रकाशकार एक स्थान पर लिखते हैं, 'पालि भाषा का दूसरा नाम मागधाी है और यह उसका भौगोलिक नाम है - पृष्ठ13। दूसरे स्थान पर वे कहते हैं ''मूल प्राकृत जब इस प्रकार उत्पन्न हुई, तो उसके अन्यतम भेद पालि की उत्पत्तिा का कारण भी यही है, यह लिखना बाहुल्य है'' - पृष्ठ 48। उक्त महोदय का यह वाक्य इस भाव का व्यंजक है कि पालि अथवा मागधाी मूल भाषा किम्वा आदि भाषा कैसे मानी जा सकती है। विश्वकोशकार ने वैदिक संस्कृत से आर्ष प्राकृत, पाली और प्राकृत का सम्बन्धा प्रकट करने के लिए शब्दों की एक लम्बी तालिका पृष्ठ 434 में दी है, उनके देखने से यह विषय और स्पष्ट हो जावेगा, अतएव उसके कुछ शब्द यहाँ उठाए जाते हैं। विश्वकोशकार ने पालि प्रकाश के मूल प्राकृत के स्थान पर आर्ष प्राकृत लिखा है -
संस्कृत आर्ष प्राकृत पाली प्राकृत
अग्नि: अर्ग्नि अग्नि अग्गी
बुध्दि: बुध्दि बुध्दि बुध्दी
मया मये, मे मया मये, मइ, मे, ममए
त्वम् त्वं, तुमन त्वं, तुवम् तं, तुमं, तुवम
षोडश सोलस सोलस सोलह
विंशति वीसा वीसति, वीसम् वीसा
दधिा दहि, दहिम् दधिा दहि, दहिम्
प्रसिध्द हिन्दी उन्नायक बाबू श्यामसुन्दरदास ने नागरी प्रचारिणी पत्रिाका के प्रथम भाग में जो लेख भारतवर्षीय आर्य देश भाषाओं के प्रादेशिक विभाग पर लिखा है, उसके अन्त में उक्त महोदय ने एक नक्शा लगाया है, उस नक्शे में उन्होंने वैदिक संस्कृत से प्राचीन प्राकृत की और प्राचीन प्राकृत से मागधाी और अर्ध्द मागधाी की उत्पत्तिा दिखलायी है। यह नक्शा भी इसी विचार को पुष्ट करता है कि मागधाी मूल भाषा नहीं है।
प्राकृत लक्षणकार, चण्ड ने आर्ष प्राकृत को, प्राकृत प्रकाशकार, वररुचि ने महाराष्ट्री को, प्रयोग सिध्दिकार, कात्यायन ने मगधाी को, जैन विद्वानों ने अर्ध्दमागधाी को आदि प्राकृत अथवा मूल प्राकृत लिखा है। पालि प्रकाशकार, पालि को सब प्राकृतों से प्राचीन बतलाते हैं - कुछ लोग दोनों को दो भाषा समझते हैं और अपने कथन के प्रमाण में दोनों भाषाओं के कुछ शब्दों की प्रयोग भिन्नता दिखलाते हैं - ऐसे कुछ शब्द नीचे लिखे जाते हैं -
संस्कृत पाली मागधा
शश ससा मो
कुक्कुट कुक्कुटो रो
अश्व अस्स सांगा
श्वान सुनश साच
व्याघ्र व्यघ्घो वीं
जो अभेदवादी हैं, वे शब्दों को मागधाी भाषा के देशज शब्द मानते हैं। जो हो, किन्तु अधिाकांश विद्वान् पालि और मागधाी को एक ही मानते हैं। इस प्रकार के मतभेद और खींच - खाँच का आधाार कुछ धाार्मिक विश्वास और कुछ आपेक्षिक ज्ञान की न्यूनता है। अतएव अब मैं इस विषय में कुछ विशेष लिखना नहीं चाहता। केवल एक कथन की ओर आप लोगों की दृष्टि और आकर्षित करूँगा, वह यह कि कुछ लोगों का यह विचार है कि मागधाी को देश - भाषा मूलक मानकर मूल भाषा कहा गया है। किन्तु यह सिध्दान्त मान्य नहीं, क्योंकि यदि ऐसा होता, तो द्राविड़ी, और तेलगू आदि देशभाषाओं के समान वह भी एक देश - भाषा मानी जाती, परन्तु उसको किसी पुरातत्तववेत्ताा ने आज तक ऐसा नहीं माना, वह आर्य भाषा सम्भवा ही मानी गयी है, इसलिए यह तर्क सर्वथा उपेक्षणीय है। आर्य भाषा सम्भवा वह इसलिए मानी गयी है, कि उसकी प्रकृति आर्य्य भाषा अथवा वेद - भाषा मूलक है। प्राकृत भाषा के जितने व्याकरण हैं, उन्होंने संस्कृत के शब्दों अथवा प्रयोगों द्वारा ही प्राकृत के शब्द और रूपों को बनाया है, प्राकृत भाषा का व्याकरण सर्वथा संस्कृतानुसारी है। संस्कृत और प्राकृत के अधिाकांश शब्द एक ही झोले के चट्टे - बट्टे, अथवा एक फूल के दल, अथवा एक चना के दो दाल मालूम होते हैं, थोड़े ऐसे शब्द नीचे लिखे जाते हैं -
संस्कृत मागधा संस्कृत मागधा
कृतं कतं ऐश्वर्य इस्सरिय
गृहं गहं मौक्तिकं मुत्तिाकं
घृतं घतं पौर: पोरो
वृत्ताान्त: बुत्तान्तो मन: मनो
चैत्रा: चित्ताो भिक्ष: भिक्खु
क्षुद्रं खुद्दं अग्नि: आगी
संस्कृत के एक श्लोक का प्राकृत रूप देखिए। पहला शुध्द मागधाी दूसरा अर्ध्द मागधाी है।
रभस वशनम्र सुर शिरो विगलित मन्दार राजितांघ्रि युग:।
वीर जिन: प्रक्षालयतु मम सकलमवधा जम्बालम्।
1. लहश वशन मिल शुलशिल - विअलिद मन्दाल लायिंदहि युगे।
वोल यिणे पक्खालदु मम शयल मवय्य यम्बालम्।
2. लभश वशन मिल शुलशिल - विअलिद मन्दाल लाजि दहिजुगे।
वील जिणे पक्खालदु मम शयल मवज्ज जम्बालम्।
संस्कृत के श्लोक में और उसके प्राकृत रूप में कितना अधिाक साम्य है, वह आप लोग स्वयं समझ सकते हैं। जो बातें ऊपर कही गयी हैं, वे भी कम उपपत्तिा मूलक नहीं। ऐसी अवस्था में यदि प्राकृत भाषा वेद - भाषा मूलक नहीं है, तो क्या देश - भाषा मूलक है? वास्तव में मागधाी अथवा अर्ध्द मागधाी किम्वा पालि की जननी वैदिक संस्कृत है, और यही तीसरा सिध्दान्त है, जिसको अधिाकांश विज्ञानवेत्ताा स्वीकार करते हैं, ऐसी दशा में दूसरे सिध्दान्त की अप्रौढ़ता अप्रकट नहीं।
हिन्दी भाषा का विकास
हिन्दी भाषा के विकास की बातें चित्ता विकसित करने वाली हैं। आप लोगों को ऐसे अमनोरम मार्ग से चलना पड़ा है, जहाँ मन रम कर भी नहीं रमता। पथ असरल तो था ही, भूल - भुलैया से भी भरा था, वहाँ यथोचित आलोक न होने के कारण अंधाकार भी था, टटोल - टटोलकर चलना पड़ता था। कहीं पत्थर थे, कहीं राह के रोडे, क़हीं पहाड़, कहीं मरुभूमि, कहीं काँटे। वहाँ न तो चित्ता प्रफुल्लित करने वाले फूल थे, न हरी - भरी बेलियाँ, न कोकिल की कल कूजन, न पक्षियों का कलरव। आप लोग ऊब गये होंगे, न जाने क्या सोचते होंगे। परन्तु अन्त सबका होता है, यह मार्ग भी समाप्त होना चाहता है थोड़ा और चलिए। विदेशी विद्वानों का मत है कि आर्य जाति मधय एशिया से भारत वर्ष में आयी, कोई कहता है तिब्बत से, कोई कहता है हिन्दूकुश अथवा काकेशश के आसपास से। कुछ लोग इस बात को नहीं मानते। वे कहते हैं कि पश्चिमी यूरप अथवा आरमेनिया किम्वा आक्ससनदी का कान्त कूल उनका आदिम निवास स्थान था। अन्तिम मत यह है कि प्राचीन आर्य लोग दक्षिण रूस के सुन्दर पहाड़ी प्रदेश के रहने वाले थे। किन्तु अनेक भारतीय विद्वान् इन विचारों से सहमत नहीं हैं, वे कहते हैं,पवित्रा भारतवर्ष ही हमारा क्रीड़ा क्षेत्रा और आदिम निवास स्थल है, वे स्वर्गोपम कश्मीर प्रदेश अथवा उसके समीपवर्ती संसार में सर्वोच्च पामीर आदि भूभाग को अपनी आदि जन्मभूमि मानते हैं। वे कहते हैं, उसी स्थान से मुख्य निवासी आर्य भारतवर्ष में पूर्व और दक्षिण में बढ़े। और यहीं से आर्य जाति की कुछ शाखाएँ ईरान होती हुई दूसरे प्रदेशों में गयीं। इस विषय में विस्तृत समालोचना करने का स्थान नहीं, अतएव अब मैं प्राकृत विषय लिखने में प्रवृत्ता होता हूँ। यह निश्चित है कि जन्म ग्रहण उपरान्त आर्यजाति चिरकाल तक कश्मीर प्रदेश में अथवा उसके निकटवर्ती भूभाग में रही और फिर वह वहाँ से कई दलों में विभक्त होकर पूर्व दक्षिण और उत्तार पश्चिम की ओर फैली। ऋग्वेद के दसवें मण्डल के 75वें सूक्त में 'नद्यो देवता:' सम्बन्धाी मन्त्राों में नदियों का वर्णन है, उनमें गंगा, यमुना, सरस्वती, शतदु्र, वितस्ता, सरयू, गोमती, विपाशा आदि उन नदियों का नाम आया है, जो इस समय भी पंजाब प्रान्त और हमारे पश्चिमोत्तार प्रदेश में वर्तमान हैं। इससे यह पता चलता है कि वैदिक काल में हमारी आर्य - जाति इन्हीं प्रदेशों में निवास करती थी, और यही कारण है कि यह प्रदेश आर्यावर्त कहलाया। इस प्रदेश में निवास करते हुए आर्यजाति का सम्बन्धा यहाँ के आदिम निवासियों से स्थापित हुआ, और यहीं पर आर्य भाषा के बहुत से शब्द आर्येतर जातियों ने और बहुत से आर्येतर जातियों के शब्द आर्यों ने ग्रहण किए। स्थिति और आवश्यकता के अनुसार यह आदान - प्रदान बढ़ता गया, और आर्य प्राकृत की उत्पत्तिा हुई। अतएव ज्यों - ज्याें आर्यजाति पूर्व और दक्षिण की ओर बढ़ती गयी, त्यों - त्यों उसका सम्बन्धा नयी - नयी आर्येतर जातियों से होता गया, साथ ही उनकी नित्य की व्यवहृत भाषा का प्रभाव भी उनकी आर्ष प्राकृत पर पड़ा, और यही स्थान परक प्राकृतों की उत्पत्तिा का कारण हुआ, जैसा कि मागधाी,अर्ध्दमागधाी, शौरसेनी, महाराष्ट्री, अवन्ती आदि स्थान सम्बन्धाी नामों से ही प्रकट होता है। श्रीयुत् स्वर्गीय पण्डित बदरीनारायण चौधारी ने अपने व्याख्यान में लिखा है - ''महाराष्ट्री शब्द से प्रयोजन दक्षिण देश से नहीं, अपितु भारत रूपी महाराष्ट्र से है। '' 'प्राकृत प्रकाशकार' वररुचि भी कुछ इसी विचार के मालूम होते हैं। परन्तु यह सिध्दान्त एक देशी है, वास्तव में बात यह है कि महाराष्ट्री नाम देश परक है, चाहे किसी काल में वह बहुदूर व्यापिनी भले ही रही हो। 'प्राकृत लक्षणकार' चण्ड ने चार प्राकृत का उल्लेख किया है - प्राकृत, अपभ्रंश, पैशाचिकी और मागधाी उनकी संज्ञा है; प्राकृत से उनका अभिप्राय आर्ष से है। 'प्राकृत - लक्षण' के टीकाकार षड्भाषा मानते हैं, वे उपर्युक्त चार नामों में संस्कृत और शौरसेनी का नाम बढ़ाते हैं। वररुचि महाराष्ट्री, पैशाची, मागधाी और शौरसेनी और हेमचन्द्र मूल प्राकृत, शौरसेनी, पैशाची, चूलिका और अपभ्रंश छ: प्राकृत बतलाते हैं। हमारी हिन्दी भाषा का सम्बन्धा शौरसेनी और अपभ्रंश से है। इन प्राकृतों के विषय में अधयापक लासेन की सम्मति देखने योग्य है, वे कहते हैं - ''वररुचि वर्णित महाराष्ट्री, शौरसेनी, मागधाी और पैशाची, इन चार प्रकार के प्राकृतों में शौरसेनी मागधाी और मागधाी ही वास्तव में स्थानीय भाषाएँ हैं। इन दोनों में शौरसेनी एक समय में पश्चिमांचल के विस्तृत प्रदेश की बोल - चाल की भाषा थी। मागधाी अशोक की शिलालिपि में व्यवहृत हुई है, और पूर्व भारत में यही भाषा किसी समय प्रचलित थी। महाराष्ट्री नाम होने पर भी यह महाराष्ट्र प्रदेश की भाषा नहीं कही जा सकती। पैशाची नाम भी कल्पित मालूम होता है। '' विश्वकोश, पृष्ठ 438।
प्राय: कहा जाता है कि पुस्तक की अथवा लिखित भाषा में और बोल - चाल की भाषा में अन्तर होता है। यह बोल - चाल की भाषा साहित्य में विकृत हो जाती है। यह बात स्वीकार की जा सकती है, पर सर्वथा सत्य नहीं है। हृदय का वास्तविक उद्गार यदि हम चाहें तो अपनी बोल - चाल की भाषा में भी प्रकट कर सकते हैं, वरन् पुस्तक की अथवा लिखने की भाषा से इस प्रकार की रचना कहीं अधिाक हृदयग्राहिणी, मनोहर और भावमयी हो सकती है। यह दूसरी बात है कि प्रान्तिक भाषा में होने के कारण उसके समझने वालों की संख्या परिमित हो। मैं इस बात का कुछ प्रमाण आप लोगाें के सामने बिना उपस्थित किए आगे बढ़ना नहीं चाहता। दो एक प्रमाण सुनिए। हमारे हिन्दी संसार में कुछ ऐसे सहृदय कवि भी हो गये हैं,जिन्होंने बोल - चाल की भाषा में कविता लिखकर कमाल कर दिया है। इन सुहृदयों में सबसे पहिले मेरी दृष्टि घाघ पर पड़ती है, उनकी समस्त रचना बोल - चाल की भाषा में है और उसमें गजब का जादू है। देखिए यह भगवान् बैकुण्ठनाथ के बैकुण्ठ को भी कुण्ठित करके क्या कहते हैं -
भुइयाँ खेडे हर व्है चार। घर व्है गिहथिन गऊ दुधाार।
रहर दाल जड़हन का भात। गागल निबुआ औ घिव तात।
सहरस खंड दही जो होय। बाँके नैन परोसै जोय।
कहै घाघ तब सब ही झूठा। उहाँ छाड़ि इहवै बैकुंठा।
सुनिए एक ब्राह्मण देवता की बातें सुनिए - आप बडे बिगडे दिल और चिड़ - चिड़ थे। कुछ दु:ख पाकर एक बार अपने राम से खीझ गए - फिर क्या था उबल पडे - बड़ी जली - कटी सुनायी - उनकी बातें ही बेढंगी - पर दिल के भाव का सच्चा फोटो उनमें मौजूद है - कहते हैं -
घर से निकसतै बापै खैलैं। पंचवटी हरवउलैं नार।
ढेकुली के अड़वाँ से बाली मरले। ये दशरथ के बंड बोहार।
स्वर्गीय पण्डित प्रतापनारायण मिश्र की वैसवाड़ी में लिखी गयी कविता की बहार देखिए -
हाय बुढ़ापा तोरे मारे अब तो हम नक न्याय गयन।
करत धारत कुछ बनतै नाहीं कहाँ जान औ कैस करन।
छिन भर चटक छिनै मा मध्दिम जस बुझात खन होय दिया।
तैसे निखबख देख परत है हमरी अक्किल के लच्छन।
यदि इन पद्यों में वास्तविक हृदय के उद्गार प्रकट हुए हैं, तो बोल - चाल की भाषा में क्यों उत्ताम कविता न हो सकेगी। सैकड़ों गाने की चीजे, ठुमरियाँ कजलियाँ, विरहे, लोरिक, पचरे, आल्हे, बिलकुल बोल - चाल की भाषा में लिखे गये हैं, और आज तक प्रचलित हैं। जनता में उनका कम आदर भी नहीं, फिर कैसे कहा जाए कि बोल - चाल की भाषा काव्य अथवा कवि कृति की भाषा नहीं हो सकती। मेरा विचार है कि पवित्रा वेदों की भाषा बिल्कुल सामयिक बोल - चाल की भाषा है, उसकी सरलता, सादगी, स्वाभाविकता, उसके छन्दों की गति यह बतलाती है कि वह कृत्रिाम भाषा नहीं है। जिस समय किसी लिपि का प्रचार तक नहीं हुआ था, ब्राह्मी लिपि ब्रह्मदेव के विचार गर्भ में थी, लेखनी विधिा की लिलाट लेखा भी न लिख सकी थी, और पुस्तक भगवती वीणा पुस्तक धाारिणी के पदम्पाणि में भी सुशोभित नहीं थी, उस समय श्रुति श्रवण परम्परा द्वारा भारतीय आर्य जाति का हृदय सर्वस्व थी। जो श्रुति स्वाभाविकता की मूर्ति है, उसमें अस्वाभाविकता की कल्पना भी नहीं हो सकती, श्रुति ही वेद - भाषा स्वरूपा है। यही वेद - भाषा स्थिति, प्रगति, और देश - काल के प्रभाव से परिवर्तित होकर उच्चारण भिन्नता और उनके नवीन शब्दों के संसर्ग से आर्ष प्राकृत में परिणत हुई। आर्ष प्राकृत का पूर्ण विकास होने पर वेद - भाषा उस अवस्था को प्राप्त हुई, जो कि नियति का नियम है। अब वह सर्वसाधाारण की भाषा न थी, अतएव विद्वद्वृन्द का हृदय तल अथवा मुख प्रदेश ही उसका निवास स्थल था, ब्राह्मी लिपि का उद्भव होने पर यथासमय उसको पुस्तक का स्वरूप भी मिला।
जिस समय वेद - भाषा आर्ष प्राकृत का रूप धाारण कर रही थी, उसी समय कुछ संस्कार प्रिय विद्वज्जनों ने उसे संस्कृत किया, और इस प्रकार संस्कृत भाषा की उत्पत्तिा हुई। ज्ञात होता है, वेदांग शिक्षा के इस अर्ध्द श्लोक का 'प्राकृत संस्कृते चैव स्वयं प्रोक्ता स्वयम्भुवा' यही मर्म है। संस्कृत यद्यपि विद्वद्वृन्द में ही प्रचलित रही है। यद्यपि यह उन्हीं के परस्पर सम्भाषण और धाार्मिक कार्यकलाप की सम्बल मानी गयी है, किन्तु उसका भाण्डार अलौकिक और अद्भुत है। वह नन्दन कानन समान कान्ति निकेतन और चारु चिन्तामणि सदृश अनन्त लोकोत्तार चिन्ताआें का आगार है। वह कल्पना कल्पतरु, कमनीयता कामधोनु, भाव का सुमेरु, माधाुर्य निर्झर का मनोहर सलिल, धवनि वीणा का मनो मुग्धाकर झंकार, और कला कुमुदिनी का कान्त कलाधार है। वह कूटस्थ अचल हिमाचल समान समुन्नत, पुनीत ज्ञान सुरसरि प्रवाह का जनक, भावभक्ति भानुनन्दिनी का उत्पादक और अनुपम विचार रत्न राजिका आकर है। उसी के समान उसमें से अनेक छोटे - बडे धार्म के परम पवित्रा सोते निकलते हैं, संसार को सरस करते हैं, मानसों में मन्द - मन्द बहते हैं, निज कल - कल धवनि से निर्जीव को सजीव बनाते हैं, मूढ़ प्रकृति मरुभूमि की मरुभूमिका खोते हैं, पाहन हृदय को स्निग्धा रखते हैं, कलित कामना क्यारियों को सींचते हैं, प्रेम पादप पुंज को पानी पिलाते हैं और कहीं तरंगिणी का स्वरूप धाारण कर सद्भाव प्रान्त को पय सिक्त कर देते हैं। वह एक देशवर्ती मानसरोवर है, जिसमें विवेक का निर्मल नीर भरा है, जिसके वेदान्त, सांख्य, न्याय, मीमांसा जैसे बड़े ही मनोरम घाट हैं, जिसमें उपनिषद् के अनूठे उत्पल सुविकसित हैं, और जिसके अनुकूल कूल पर संसार भर के नीर - क्षीर विवेकी मानस मराल सदैव क्रीड़ा करते रहते हैं। जिस समय महिमामयी मागधाी के तुमुल कोलाहल से भारतीय गगन धवनित हो रहा था,उस समय कुछ दिनों तक संस्कृत देवी का महान् कण्ठ अवश्य कुंठित हो गया था, किन्तु जल्द समय ने पलटा खाया, फिर उनकी पूजा अर्चा और पद - वन्दना होने लगी, उनकी महत्ताा देखकर मागधाी अवनत मस्तक हुई, बौध्द धार्म के ग्रन्थ संस्कृत में लिखे जाने लगे, ललित विस्तर जैसे ललित ग्रन्थों की रचना हुई; बौध्द धार्म के साथ वह देशान्तरों में भी पहुँची,और वहाँ हाथों - हाथ ली गयी। समस्त प्राकृत भाषाएँ अपना काल बिताकर अव्यवहृत हुईं; किन्तु संस्कृत की अबाधा सत्ताा,आज भी भारतवर्ष की समस्त प्रचलित भाषाओं को अपने तत्सम शब्दों द्वारा सत्ताामयी बना रही है। आज भी प्राचीन भाषाओं के सुसज्जित सभा मण्डप में वह सिंहासनासीना है, और आज भी उसकी पुस्तक व्यापिनी भाषा, रूपान्तर से देश व्यापिनी होकर अपनी विजय वैजयन्ती उत्ताोलन कर रही है।
संस्कृत अर्चा की बातें कहने में मैं आर्ष प्राकृत की चर्चा को भूल गया। जब आर्ष प्राकृत अधिाक व्यापक हो गयी और उनके प्रान्तों पर उसका अधिाकार हो गया, तो उसका रंग - रूप भी बदला, और उसका स्थान प्रान्तीय प्राकृत ने धाीरे - धाीरे ग्रहण कर लिया। इन प्रान्तीय प्राकृतों में मागधाी और शौरसेनी की प्रभा के सामने, शेष समस्त प्राकृतों की प्रभा मलिन हो जाती है। मागधाी भगवान् बुध्ददेव के आत्मबल से बलवती और प्रियदर्शी अशोक की धार्मप्रियता से समुन्नत हुई और चिरकाल तक भारतव्यापिनी रही। शौरसेनी को यह गौरव तो नहीं प्राप्त हुआ, परन्तु वह भी बहुत दिनों तक भारतवर्ष के एक बृहत् भाग पर विस्तृत रही, पश्चात् अपभ्रंश भाषा में परिण्ात हो गयी, यही अपभ्रंश भाषा हमारी हिन्दी भाषा की जननी है।
किस प्रकार वेद - भाषा बदलते - बदलते हिन्दी भाषा के रूप में आयी, इसका उदाहरण थोडे में, मैं आप लोगों के सामने उपस्थित करता हूँ - मैं कुछ पद्य आर्ष प्राकृत, शौरसेनी, अपभ्रंश और तदुपरान्त हिन्दी भाषा के लिखता हूँ, उनको मिलाइए;आशा है उनसे हिन्दीभाषा के विकास पर पूर्ण प्रकाश पडेग़ा। डॉक्टर राजेन्द्रलाल मिश्र की यह सम्मति है कि आदि प्राकृत का रूप गाथाओं में मिलता है। उनके इस सिध्दान्त का अनुमोदन मनीषी मैक्स मूलर और डॉक्टर वेबर आदि विद्वानों ने भी किया है। कहा जाता है कि आर्ष प्राकृत का पूर्वरूप गाथाओं में ही मिलता है, एक गाथा नीचे लिखी जाती है -
अधा्रुवम् त्रिाभवम् शरदभ्र निभम्।
नट रंग समा जगि जन्मि च्युति।
गिरि नद्य समम् लघु शीघ्र जवम्।
ब्रजतायु जगे यथ विद्यु नभे।
संस्कृत के नियम के अनुसार दूसरे चरण के नटरंग समा को नटरंग समम्, जगि को जगति, जन्मि को जन्म, च्युति के स्थान पर च्युत:; तीसरे चरण में गिरि नद्य समम् के स्थान पर गिरि नदी समम् और चौथा चरण ब्रजत्यायुर्जगति यथा विद्युदं नभसि होना चाहिए। यह पद्य, यह बतलाता है कि किस प्रकार संस्कृत प्रयोगों और शब्दों का तोड़ - फोड़ आदि से प्रारम्भ हुआ। इसके बाद का आर्ष प्राकृत रूप देखिए -
रसभ वश नभ्र सुरशिरो - विगलित मन्दार राजितांघ्रि युग:।
वीर जिन: प्रक्षालयतु - मम सकलमवद्य जम्बालम्
यह संस्कृत रूप है - आर्ष प्राकृत का रूप नीचे लिखा जाता है। देखिए कितना थोड़ा परिवर्तन है।
रभस वस नम्म सुरसिर - विगलित राजितांघ्रि युगो।
भीर जिनो पक्खालेतु - मम सकल भवज जम्बालम्।
शौरसेनी रूप कितना परिवर्तित है, यह नीचे लिखे पद्य से प्रकट होगा। पहले संस्कृत रूप, उसके नीचे प्राकृत रूप लिखा जाता है -
ईषदीषच्चुम्बितानि भ्रमरै: सुकुमारकेसरशिखानि।
अवतंसयन्ति दयमाना: प्रमदा: शिरीषकुसुमानि।
ईसीसि चुम्बिआद्रं भमरेहिं सुउमार केसर सिहाई।
ओदंसयन्ति दअमाणा पमदाओ सिरीस कुसुमाई।
विदग्धा मुख मण्डलकार ने अप्रभंश भाषा की निम्नलिखित कविता बतलायी है -
रसिअह केण उच्चाडण किज्जइ।
जुयदह माणसु केण उविज्जइ।
तिसिय लोउ खणि केण सुहिज्जइ।
एह यहो मह भुवणे विज्जइ।
इसका संस्कृत रूप देखिए -
रसिकानां केनोच्चाटनं क्रियते , युवत्या: मानसं केनोद्विज्यते।
तृषितो लोक: क्षाणं केन सुखी क्रियते , एतदयं मम (प्रश्न:) भुवने गीयते।
वैयाकारण हेमचन्द्र ने अपभ्रंश का यह उदाहरण दिया है -
वाह विछोउवि जाहि तुहुँ हउँते वइँ को दोसु।
हिय पट्टिय जद नीसरहि जाणउँ मंज सरोसु।
अब हिन्दी भाषा के आदि कवि चन्द की रचनाओं से इन अपभ्रंश भाषा की कविताओं को मिलाइए, देखिए कितना साम्य है -
ताली खुल्लिय ब्रह्म दिक्खि इक असुर अदभ्युत।
दिधधा देह चख सीस मुष्ष करुना जस जप्पत।
कबी कित्ता कित्ताी उकत्ताी सुदिष्षी।
तिनक्की उचिष्टी कबी चन्द भष्षी।
अपभ्रंश भाषा की कविता से चन्द की कविता कितनी मिलती है, दोनों में कितना साम्य है। यह आपने देखा। परिवर्तन होते - होते अपभ्रंश भाषा की कविता संस्कृत से कितनी दूर हो गयी और वर्तमान हिन्दी के कितनी निकट आ गयी, यह भी प्रकट हो गया। कविवर चन्द तेरहवें शतक के आदि में हुए हैं। कहा जाता है कि ग्यारहवें शतक के अन्त तक अपभ्रंश का प्रचार था, इसके उपरान्त वह हिन्दी के रंग में ढलने लगी। कवि चन्द हिन्दी भाषा के चासर हैं, उनके पहले भी कुछ कवि हो गये हैं, जिनमें खुमान, कुतुब अली, साई दान चारण, फैज अकरम और पुष्प कवि का नाम विशेष उल्लेख योग्य है; परन्तु हिन्दी भाषा के आदिम प्रौढ़ कवि चन्दबरदायी ही हैं। इनके पहले के कवियों के न तो कोई काव्य कहलाने योग्य उत्ताम ग्रन्थ मिलते हैं और न उनकी भाषा ही टकसाली अथवा वास्तविक हिन्दी कही जा सकती है; अतएव हिन्दी भाषा के आदि कवि होने का सेहरा चन्द वरदायी के ही सिर है।
चन्द वरदायी का ग्रन्थ पृथ्वीराज रासो, विशाल ग्रन्थ है, उसकी भाषा में भी भिन्नता है। उसमें कई प्रकार की रचनाएँ हैं,वह केवल चन्द की कृति भी नहीं है; ग्रन्थ का अन्तिम भाग उसके योग्य पुत्रा जल्ह द्वारा लिखा गया है, अतएव रासो के विषय में संदिग्धा बातें कही - सुनी जाती हैं; तथापि अधिाकांश भाषा, ग्रन्थ की सामयिक बातों का वास्तविक उल्लेख, उस काल की सभ्यता के आदर्श, रासो को हिन्दी भाषा का आदि ग्रन्थ मानने के लिए विवश करते हैं। कुछ उसकी भिन्न प्रकार की रचनाएँ आप लोगों के मनोरंजन के लिए यहाँ उध्दृत करता हूँ।
दोहा
पूरन सकल बिलास रस , सरस पुत्रा फलदान।
अन्त होइ सह गामिनी , नेह नारि को मान।
सम दरसी ते निकट है , भुगति मुगति भरपूर।
विखम दरस वा नरन ते सदा सरवदा दूर।
ये पद्य बिल्कुल प्रौढ़ हिन्दी काल के मालूम होते हैं -
हरित कनक कान्ति कापि चंपेव गोरी।
रसित पदुम गंधाा फुल्ल राजीव नेत्राी।
उरज जलज शोभा नाभि कोशं सरोजं।
चरण कमल हस्ती लीलया राज हंसी।
ऊपर जो दो कविताएँ लिख आया हूँ - वह इन दोनाें रचनाओं से भिन्न है। अधिाकांश स्थल पर चन्द की कविता बड़ी मनोहारिणी है, सम्भव है कि रासो में कुछ प्रक्षिप्त अंश भी हो, किन्तु जिन कविताओं में चन्द या जल्ह का नाम आया है,उनके तात्कालिक रचना होने में सन्देह नहीं, रासो बड़ा सुन्दर काव्य है, और साहित्य की सम्पूर्ण कलाओं से अलंकृत है।
कविवर चन्दबरदायी के बाद, चौदहवें शतक के मधयकाल में हमारे सामने दो भाषाओं के दो महान् विद्वान् आते हैं - एक संस्कृत विद्या का विदग्धा और दूसरा अरबी - फारसी का आलिम। दोनों ही भगवती वीणापाणि के वर पुत्रा, सरस हृदय, और कविता देवी के भावुक भक्त हैं; उन्होंने हिन्दी के मनोरम उद्यान से बडे सुन्दर सुमन खिलाये हैं। एक ने पूर्वी हिन्दी की उज्ज्वल और परम ललित रचना की नींव डाली है, और दूसरे ने खड़ी बोली की मनोहर कविता का आदि रूप सामने उपस्थित किया है। एक मैथिल कोकिल है और दूसरा बुलबुल हजार दास्तान। एक का नाम है विद्यापति ठाकुर और दूसरे का अमीर खुसरो। यदि कोमल कान्त पदावली के जनक संस्कृत में जयदेव हैं, तो हिन्दी भाषा में कलित ललित मधाुर रचना के पिता विद्यापति। यदि वे हृत्तांत्राी को निनादित कर कहतेहैं -
ललितलवंगलतापरिशीलनकोमलमलयसमीरे।
मधाुकरनिकरकरम्बितकोकिलकूजितकुंजकुटीरे।
तो ये मानस मृदंग को मुखरित कर यों मधाुर आलाप करतेहैं -
नन्द क नन्दन कदम्बेर तरु तरे धिारे - धिारे मुरलि बजाव।
समय सँकेत निकेतन बइसल बेरि बेरि बोलि पठाव।
जमुना का तिर उपवन उदवेगल फिरि फिरि त - तहि निहारि।
गोरस बिकइ अबइते जाइत जनि जनि पुछ बन मारि।
इस सुधाा òावी सज्जन के इस वाक्य 'माह भादर भरा बादर सून्य मन्दिर मोर' पर बंगाल का सहृदय समूह विमुग्धा हो जाता है, किन्तु उनके इस प्रकार के सहòों ललित पद उनके ग्रन्थ में मौजूद हैं। अब हमारे बुलबुल हजार दास्तान की नगमा सराई सुनिए -
जे हाल मिसकी मकुन तगा फुल दुराय नयना बनाय बतियाँ।
कि ताबे हिज्राँ न दारम ऐ जाँ न लेहु काहें लगाय छतियाँ।
यकायक अजश् दिल दो चश्मे जादू बसद फरेबम बेबुर्दतसकीं।
किसे पड़ी है जो जा सुनावे पिआरे पी को हमारी बतियाँ।
इन पद्यों में जो हिन्दी का रूप है, उसमें आदि के दो पद्यों में सरस ब्रजभाषा का सुन्दर नमूना है - नीचे के हिन्दी पद्य में से यदि 'बतियाँ' को निकाल दें, तो वह खड़ी बोली का बड़ा अनूठा उदाहरण है। नीचे के दोहे कितने मनोहर हैं -
खुसरो रैन सुहाग की , जागी पी के संग।
तन मेरो मन पीउ को , भए दोऊ एक रंग।
श्याम सेत गोरी लिये , जनमत भई अनीत।
एक पल में फिर जात हैं , जोगी काके मीत।
गोरी सोवे सेज पर , मुख पर डारे केस।
चल खुसरो घर आपने , रैन भई चहुँ देस।
इस सहृदय सुकवि की एक बिलकुल खड़ीबोली की कविता देखिए, यह आकाश की पहेली है -
' एक थाल मोती से भरा , सबके सिर पर औंधाा धारा।
चार ओर वह थाली फिरे , मोती उससे एक न गिरे। '
इन दोनों सज्जनों की कविताओं को पढ़कर आश्चर्य होता है कि किसी आदर्श के न होने पर भी इन लोगों ने कितनी सरस, टकसाली, और सुन्दर हिन्दी लिखी है। मेरा विचार है कि कोई कविता की पुस्तक न होने पर भी, यह नहीं कहा जा सकता कि इस प्रकार की भाषा का देश में उस काल में प्रचार न था। सैकड़ों भजन, गीत और गाने की चीजें उस समय अवश्य होंगी, और उनसे इन लोगों को कम सहारा न मिला होगा। यही बात चन्द बरदायी के लिए भी कही जा सकती है। मैथिल कोकिल की भाषा तो इतनी प्यारी और सुन्दर है, उनका कल कूजन इतना आकर्षक है कि बंगाल, बिहार, और हमारा प्रान्त तीनों उनको अपनी - अपनी भाषा का महाकवि मानकर अपने को गौरवित समझते हैं।
इन लोगों के बाद हिन्दी संसार के सामने सन्त कबीर आते हैं। इनके हाथों में ज्ञान का दीपक था, जो खूब दमक रहा था;आपकी हिन्दी रचनाएँ बहुमूल्य हैं, और उसी दीपक ज्योति से ज्योतिर्मयी हैं। आपने सन्तमत और सन्तवानी की नींव डाली। आपकी दृष्टि बड़ी प्रखर थी, आपकी समस्त रचनाओं में उसकी प्रखरता विद्यमान है। आपकी रचनाएँ हिन्दी साहित्य का गौरव हैं, उनमें वह आदर्श मौजूद है, जिस आदर्श ने अनेक सन्तजनों के हृदय को प्रेमरस से प्लावित कर दिया। महात्मा कबीर ने अपनी रचनाओं से हिन्दी भाषा को तो मालामाल बना ही दिया है, परन्तु उनके आदर्श ने एक विशद साहित्य उत्पन्न कर दिया है। हिन्दी साहित्य के विकास में इन रचनाओं से बड़ी सहायता मिली है। कबीर साहब की रचनाओं का भाण्डार बहुत बड़ा है, उसमें सब प्रकार की कविताएँ पायी जाती हैं, जो उनकी विभिन्न समयों में रची गयी बतलायी हैं, उनकी रचना - प्रणाली में भी अन्तर है। मेरा विचार है कि कबीर साहब की रचना का मुख्य स्वरूप उनके बीजक में पाया जाता है। दोनों प्रकार की रचनाएँ नीचे उध्दृत की जाती हैं -
कहहु हो अम्बर कासों लागा , चेतन हारा चेत सुभागा।
अम्बर मधये दीसे तारा , एक चेता एक चेतवनहारा।
जो खोजी सो उहवाँ नाहीं , सो तो आहि अमर पद माहीं।
कह कबीर पद बूझै साई , मुख हृदया जाके एक होई।
रहना नहिं देस विराना है।
यह संसार कागद की पुड़िया बूँद पडे घुल जाना है।
यह संसार काँट की बाड़ी उलझ पुलझ मर जाना है।
यह संसार झाड़ औ झाँखड़ आग लगे बरि जाना है।
कहत कबीर सुनो भाई साधाो सतगुरु नाम ठिकाना है।
महात्मा गोरखनाथ, कबीर साहेब के प्रथम हुए हैं। और सन्तवानी और हिन्दी - गद्य के आदि आचार्य वे ही हैं - उनकी वाणी का नमूना देखिए -
अवधू रहिया हाटे बाटे रूख विरिख की छाया।
तजिबा काम क्रोधा लोभ मोह संसार की माया।
परन्तु इस प्रणाली को समुन्नत करने वाले कबीर साहब हैं, उनकी रचनाएँ अधिाक हैं, और भावमयी हैं। अतएव उनका समादर भी अधिाक हुआ है। हिन्दी साहित्य को समुन्नत करने में वे बहुत सहायक हुई हैं। कबीर साहेब की साखियाँ बड़ी मनोहर हैं, वे भजनों से अधिाक जनता में प्रचलित हैं - उनका रंग देखिए -
आछे दिन पाछे गये गुरु सों किया न हेत।
अब पछताया क्या करै चिड़िया चुग गईं खेत।
पाँचो नौबत बाजती होत छती सो राग।
सो मन्दिर खाली पड़ा बैठन लागे काग।
कबीर साहेब के उपरान्त हिन्दी की समुन्नति और वृध्दि का वह समय आया, जो फिर कभी नहीं आया। उनके बाद सौ बरस के भीतर हिन्दी देवी का जो शृंगार हुआ, जो लोकोत्तार प्रसून चय उन पर चढे, उनका वर्णन नहीं हो सकता। इस समय में हिन्दी गगन को समुद्भासित करने वाले, हिन्दू संसार को अलौकिक आलोक से आलोकित करने वाले, प्रभाकर समान प्रभावशाली सूरदास और सुधाारस समान सुधााòावी गोस्वामी तुलसीदास उत्पन्न हुए। मधाुमयी लेखनी के आधाार - मलिक मुहम्मद जायसी और मम्मट समान आचार्य पद के अधिाकारी - विबुधावर केशवदास इसी काल के जगमगाते रत्न हैं। इस समय यदि सम्राट् अकबर हिन्दी साम्राज्य सम्वर्धान को केतु उत्ताोलन कर रहे थे, तो मन्त्रिाप्रवर रहीम खाँ खानखाना उसको अमूल्य रत्नों का हार उपहार देकर और सचिव शिरोमणि महाराज बीरबल पारिजात पुष्प से उसकी पूजा करके फूले नहीं समाते थे। इस समय वह भारत के अधिाकांश भाग में सम्मानित थी, महाराजाधिाराज के समुच्च प्रासाद से लेकर, एक साधाारण विद्या व्यसनी की कुटीर तक में उसका सरस प्रवाह प्रवाहित था। वह वैष्णव मण्डली का जीवन सर्वस्व, विबुधा समाज का आधाार स्तम्भ, सहृदय जन की हृदय वल्लभा, और रसिक जनों की रसायन सरसी थी। इस समय अनेक सरस हृदय कवि उत्पन्न हुए, जिन्होंने अपनी रसमयी रचनाओं से हिन्दी साहित्य को अजर - अमर कर दिया है। इस समय ब्रजभाषा का अखण्ड राज्य था, किन्तु इसी समय अवधाी भाषा में पद्मावत जैसा बड़ा ही अनूठा काव्य लिखा गया।
इस काल के समस्त बडे - बडे क़वियों की भाषा और रचनाओं का उदाहरण मैं सेवा में उपस्थित नहीं कर सकता। किन्तु जो हिन्दी देवी के अंक के निराले लाल हैं, जिन्होंने उसको निहाल ही नहीं किया, उसे चार चाँद भी लगा दिए, उनकी कुछ कविताएँ सुनाए बिना आगे बढ़ने को जी नहीं चाहता। साहित्य संसार के सूर - सूर की बातें सुनिए -
खंजन नैन रूप रस माते।
अतिसय चारु चपल अनियारे पल पिंजरा न समाते।
चल चल जात निकट श्रवनन के उलट पलट ताटंकफँदाते।
सूरदास अंजन गन अटके नतरु अबहिं उड़ि जाते।
कुछ मर्म भरी बातें मलिक मुहम्मद जायसी की भी सुनिए, यह शख्स अजब दर्द भरा दिल साथ लाया था।
मिलहिं जो बिछुरे साजना , करि करि भेट कहंत।
तपन मृगिसिरा जे सहँहिं , ते अदरा पलुहंत।
पिय सों कहेहु संदेसरा , ए भौंरा ए काग।
सो धान विरहिन जरि गई , तेहिक धाुऑं मोहि लाग।
राती पिय के नेह की , स्वर्ग भयो रतनार।
जोरेऊ बासो अथवा , रहा न कोइ संसार।
गोस्वामी जी की रत्न राजि में से कौन उपस्थित करूँ, वे सभी उज्ज्वल हैं, रामचरित मानस सरोज मकरन्द का मधाुप कौन नहीं है, उनका रंग निराला, ढंग निराला, बात निराली, सब निराला ही निराला तो है। हाँ, उनका रंग बड़ा चोखा है - अच्छा इसी की रंगत देखिए -
एक भरोसो एक बल , एक आस विश्वास।
स्वाति सलिल रघुनाथ यश , चातक तुलसीदास।
तुलसी सन्त सुअम्ब तरु , फूलि फलहिं पर हेत।
इत ते ए पाहन हनैं , उत ते वे फल देत।
गोधान गजधान बाजिधान , और रतन धान खान।
जब आवत सन्तोख धन , सब धान धाूरि समान।
असन वसन सुत नारि सुख , पापिहुँ के घर होय।
सन्त समागम राम धान , तुलसी दुरलभ दोय।
महाकवि केशव का महत्तव अकथनीय है। आपके कुल के सेवक भी भाषा नहीं बोलते थे। आपको भाषा में कविता करना अरुचिरकर था, किन्तु जब इधार रुचि हुई, तो कमाल कर दिया। एक पद्य उनका भी सुन लीजिये, देखिए आपके मान मर्यादा की मर्यादा बनी रहे -
भूखन सकल घन सारही के घनस्याम कुसम कलित केसर ही छवि छाईसी।
मोतिन की लरी सिर कण्ठ कण्ठमाल हार और रूप ज्योति जात हेरतहेराईसी।
चन्दन चढ़ाए चारु सुन्दर शरीर सब राखी जनु सुभ्र सोभा बसन बनाईसी।
सारदा सी देखियत देखो जाइ केसो राइ गढ़ी वह कुँवरि जोन्हाई मेंअन्हाईसी।
हिन्दी संसार में दो बहुत बडे सारग्राही हुए हैं, इनकी सारग्राहिता बड़ी ही हृदयग्राही है। ये हैं थोड़ी पूँजी वाले, किन्तु कई बडे - बडे पूँजीपति इनके सामने कुछ नहीं हैं। इनके पास हैं थोड़े, किन्तु जितने जवाहिर हैं, हैं बडे ही अनूठे। जहाँ कितने तेल चुराने वाले ठीक - ठीक तेल भी नहीं चुरा सके, वहाँ उन्होंने इत्रा निचोड़ा है। इनमें एक दरियाय लताफत के दुरे बेवहा अब्दुल रहीम खाँ खान - खाना हैं और दूसरे साहित्य गगन के पीयूषवर्षी पयोद बिहारी लाल। इन दोनों सहृदयों में सौ साल से अधिाक का अन्तर है। इन लोगों की भी कुछ रचनाएँ सुनिए - पहले रहीम की सेÐ बयानी देखिए -
यों रहीम सुख होत हैं , बढयो देखि निज गोत।
ज्यों बड़री ऍंखियान लखि ; ऍंखियन को सुख होत।
छार मुण्ड मेलत रहत , कहु रहीम केहि काज।
जेहि रज रिखि पत्नी तरी , सो ढूँढ़त गजराज।
कलित ललित माला बा जवाहिर जड़ा था।
चपल चखन वाला चाँदनी में खड़ा था।
कटि पट बिच मेला पती सेला नवेला।
अलि बन अलबेला यार मेरा अकेला।
बिहारी लाल की ललामता अवलोकन कीजिए -
यद्यपि सुन्दर सुघर पुनि , सगुनो दीपक देह।
तऊ प्रकास करै तितौ , भरिए जितौ सनेह।
जो चाहत चटकन घटै , मैलो होय न मित्ता।
रज राजस न छुवाइये , नेह चीकने चित्ता।
दृग अरुझत टूटत कुटुम , जुरत चतुर चित प्रीति।
परति गाँठ दुरजन हिए , दयी नयी यह रीति।
हिन्दी के इस स्वर्ण - युग में और भी अनेक साहित्य कानन केशरी उत्पन्न हुए हैं। वे सब अपने ढंग के निराले हैं,परन्तु मेरे पास उन समस्त भावुकों की भावमयी रचनाओं को उपस्थित करने का स्थान नहीं। इस स्वर्ण - युग के उपरान्त भी बडे ही कवि कर्म कुशल - काव्य - कत्तर्ााओं का दर्शन होता है, उन लोगों ने भी मोती पिरोए हैं, बडे अनूठे बेलबूटे तराशे हैं, भगवती भारती के कण्ठ में बहुमूल्य रत्नहार डाले हैं; हिन्दी देवी को भाव के समुच्च आसन पर आसीन किया है, उसे समुन्नत बनाया है और उन न्यूनताओं की पूर्ति की है, जो उसकी कीर्ति के आवश्यक साधान हैं, परन्तु स्वर्णयुग का आदर्श ही उनका आदर्श भूत है, अतएव उनके विषय में कुछ विशेष लिखकर मैं इस व्याखान की कलेवर वृध्दि नहीं करना चाहता। हाँ,इन लोगों में एक देवदत्ता बलबलीयान देवदत्ता नामक कविकुल कलश पर दृष्टि बिना पडे नहीं रहती, यह देव वास्तव में स्वर्गीय सम्पत्तिा सम्पन्न है। उसकी दीप्ति के सम्मुख कविता देवी भी चमत्कृत होती है। अतएव उनका चमत्कार भीे देखिए -
जब ते कुँवर कान्ह रावरी कला निधाान कान परी वाके कहुँ सुजसकहानीसी।
तब ही ते देव देखी देवता सी हँसति सी रीझति सी खीजति सी रूठतिरिसानीसी।
छोटी सी छली सी छीन लीनी सी छकी सी छिन जकी सी टकी सी लगी
थकी थहरानी सी।
वींधाी सी बँधाी सी विख बूड़ति विमोहित सी बैठी बाल बकति बिलोकति बकानीसी।
हिन्दी विकास का यह प्रसंग अधाूरा रह जायेगा, यदि गुरु देवों की गौरवमयी रचनाओं की गुरुता का गान इसमें न हो। महात्मा गुरु नानक से लेकर कलँगीधार गुरु गोविन्दसिंह तक दसों गुरुआें ने हिन्दू जाति को गौरवित बनाने का ही भगीरथ प्रयत्न नहीं किया है - उन स्वर्गीय महापुरुषों ने हिन्दी देवी की भी वह सेवा की है कि जिसके विषय में यह निर्भय होकर कहा जा सकता है 'न भूतो न भविष्यति। ' यदि वन्दनीय बल्लभ सम्प्रदाय अथवा पूजनीय वैष्णव दल ने उसको समुन्नति के शिखर पर पहुँचा दिया है, यदि समादरणीय संत मतवालों ने उसकी प्रथित प्रतिष्ठा पताका बहुत ऊँची कर दी है, तो सकल गौरव भाजन गुरु देवों ने उसकी कान्ति कीर्ति कौमुदी द्वारा समस्त दिशाओं को धावलित कर दिया है। वास्तव में बात यह है कि एक हिन्दी देवी ही ऐसी हैं, जो अविरोधा से सभी सम्प्रदाय और मतवालों की आराधया हैं। पवित्रा आदि ग्रन्थ साहब और दशम गुरु प्रणीति दशम ग्रन्थ साहब हिन्दी भाषा की पुनीत, महान् और भावमयी रचनाओं के अपार पारावार हैं। जहाँ तक मैं जानता हूँ,हिन्दी में आज तक किसी ग्रन्थकार ने इतना बड़ा ग्रन्थ नहीं रचा। इन दोनों पुनीत ग्रन्थों में क्या नहीं है? वे ज्ञान के भाण्डार, विवेक के वारिधिा, विचार के हिमाचल, भाव के सुमेरु और भक्ति के आकार हैं। गुरु नानक देव के शब्द पंजाबी भाषा मिश्रित हैं, किन्तु गुरु अर्जुनदेव की रचना अधिकांश शुध्द हिन्दी है। दशम ग्रन्थ साहब की अधिाकांश ब्रज कविता ब्रजभाषा में है, और उसमें उसका उच्च और परिमार्जित स्वरूप वर्तमान है। आदि ग्रन्थ साहब में से एक भजन और दशम ग्रन्थ साहब में से एक पद्य, नीचे लिखा जाता है -
बलिहारी गुर आपणे देव हाड़ीं सद वार।
जिन माणस ते देवते करत न लागी वार।
जे सौ चंदा ऊगबे सूरज चढै हजार।
एते चानण हो दियाँ गुर विण घोर ऍंधाार।
सेत धारे सारी वृख भानु की कुमारी जस ही की मनोवारी ऐसी रची हैनकोदई।
रंभा उरवासी और सची सी मदोदरी पै ऐसी प्रभा का की जग बीचनकछूभई।
मोतिन के हार गरे डार रुचि सो सिंगार कान्ह जू पै चली कवि श्याम रसकेलई।
सन्त साज साज चली साँवरे के प्रीति काज चाँदनी में राधाा मानो चाँदनीसीहर्ोगई।
ब्रजभाषा और खड़ीबोली
हिन्दी भाषा के विकास की वार्ता के साथ खड़ीबोली के विकास का बहुत बड़ा सम्बन्धा है। यद्यपि खड़ीबोली की कविता कविवर खुसरो के समय से ही होने लगी थी। कबीर साहब ने भी कभी - कभी खड़ीबोली की कविता लिखी है। कभी - कभी और सहृदय सुजन भी एक आधा पद्य खड़ीबोली का लिख जाते थे, जैसा निम्नलिखित पद्यों से प्रकट होता है -
जंगल में हम रहते हैं - दिल बस्ती से घबराता है।
मानुस गंधा न भाती है मृत मरकट संग सुहाता है।
चाक गरेबाँ कर के दम दम आहें भरना आता है।
ललितकिशोरी इश्क रैन दिन ये सब खेल खेलाता है।
ललित किशोरी
हम खूब तरह से जान गये जैसा आनन्द का कन्द किया।
सब रूप सील गुन तेज पुंज तेरे ही तन में बन्द किया।
तुझ हुस्न प्रभा की बाकी ले फिर विधिा ने यह फरफन्द किया।
चम्पक दल सोनजुही नरगिस चामीकर चपला चन्द किया।
किन्तु खड़ीबोली की ये रचनाएँ आकस्मिक हैं। ब्रजभाषा और खड़ीबोली दोनों शौरसेनी अपभ्रंश का रूप हैं। ब्रजभाषा का केन्द्र मथुरामण्डल है, और खड़ी - बोली का दिल्ली प्रान्त अथवा उसका समीपवर्ती भू भाग। किस प्रकार ब्रजभाषा उन्नति करते - करते पराकाष्ठा को पहुँची, यह आप लोगों ने देख लिया। जो सौभाग्य स्वयं शौरसेनी अथवा अपभ्रंश को नहीं प्राप्त हुआ, जो महत्तव उसकी दूसरी बहनों अवधाी - भोजपुरी बोलियों को नहीं मिला, वह अथवा उससे भी कहीं अधिाक सौभाग्य और महत्तव ब्रजभाषा ने हस्तगत किया। मैथिल कोकिल की रचना में आप ब्रजभाषा की झलक देख चुके हैं। यदि आप आगे बढ़कर बंगाल में पदार्पण करेंगे, तो वहाँ के प्राचीन कवि विद्यापति और चण्डीदास इत्यादि की मधाुर रचनाओं को भी वह माधाुर्य वितरण करती दिखलाई पड़ेगी। पश्चिम - दक्षिण में राजपूताने और गुजरात में भी आप उसका प्रसार देखेंगे। वहाँ वह तात्कालिक पूर्वतन कवि की कविता - मालाओं को अपनी कोमलकान्त पदावली कुसुमावली द्वारा सुसज्जित करती दृष्टिगोचर होती है। भगवान् बुध्ददेव के साधान बल से जिस प्रकार मागधाी का हित साधान हुआ था, उसी प्रकार भगवान् वासुदेव के सहवास से सुवासित होकर ब्रजभाषा भी समादृत हुई। जहाँ - जहाँ उनके प्रेममय ग्रन्थ का प्रचार हुआ, जहाँ - जहाँ उनकी मधाुमयी लोक विमुग्धाकारिणी मुरली की चर्चा छिड़ी, जहाँ - जहाँ उनकी आराधया श्रीमती राधिाका देवी उनके साथ आराधित हुईं, वहाँ - वहाँ कलित - ललित कलामयी ब्रजभाषा अवश्य पहुँची। न तो पंजाब इस प्रवाह में पड़ने से बचा, न बिहार, न मधयप्रान्त। हमारे देश की चर्चा ही क्या, वह तो चिरकाल से भगवती ब्रजभाषा का भक्त है, और आज भी उनके पुनीत चरण्ाों पर भक्ति पुष्पांजलि अर्पण कर रहा है। ब्रजभाषा साहित्य का पद्य विभाग जितना विशद, उन्नत और उदात्ता है, जितना ललित और सरस है, उतना ही प्रिय और व्यापक है। जो गौरव इस विषय में उसको मिला, भारत की किसी अन्य भाषा को आज तक प्राप्त नहीं हुआ। इस प्रान्त के अधिाकांश सुकवि आज भी उसके अनन्य उपासक हैं। बहुत लोग आज भी उसकी चकितकरी ललित कला के समर्थक हैं, किन्तु यह अवश्य है कि काल - गति से उसके अबाधा प्रवाह में अब कुछ बाधाा उपस्थित हो गयी है, इसके कारण हैं।
उन्नीसवें शतक के आरम्भ में गद्य हिन्दी की नींव श्रीयुत् लल्लूलाल और श्रीमान् सदलमिश्र द्वारा कुछ विशेष कारणों से पड़ी। यद्यपि इनके पहले के भी पद्य ग्रन्थ हिन्दी में पाए गये हैं, जिनमें महात्मा गोरखनाथ, गोस्वामी विट्ठलनाथ, और गोस्वामी गोकुलनाथ के ग्रन्थ प्रधाान हैं; किन्तु गद्य विभाग का वास्तविक कार्य, जो कि क्रमश: अग्रसर होता गया, उक्त दोनों सज्जनों के समय से ही प्रारम्भ होता है। हिन्दी गद्य का जो सुन्दर बीज उन लोगों ने बोया, वह श्रीयुत् राजा शिवप्रसाद और राजा लक्ष्मण सिंह के सेचन द्वारा कुछ काल के उपरान्त एक हरा - भरा पौधाा बन गया। भारतेन्दु बाबू हरिश्चन्द्र के कर कमलों से लालित - पालित होकर यह पौधाा एक प्रकाण्ड वृक्ष में परिण्ात हुआ, और सुन्दर फूल - फल लाया। इस काल में और उसके परवर्ती काल में, हिन्दी गद्य के अनेक सुलेखक उत्पन्न हुए, उन्होंने सुन्दर - सुन्दर पुस्तकें लिखीं, तरह - तरह के समाचार पत्रा और मनोहर मासिक पत्रिाकाएँ निकालीं, और इस प्रकार उसको बहुत कुछ अलंकृत एवं श्रीसम्पन्न कर दिया। जो हिन्दी गद्य किसी काल में कतिपय पंक्तियों में ही स्थान पाता था, जो थोडे से दान पत्राों, दस्तावेजों, तमस्सुकों, इकरारनामों और महज्जरनामों के आधाार से ही जीवित था, जो या तो कुछ चिट्ठी - पत्राी में दिखलायी पड़ता, अथवा किसी टीकाकार की लेखनी से प्रसूत हो टूटी - फूटी दशा में किसी प्राचीन पुस्तक के मैले - कुचैले पत्राों में पड़ा रहता, वह इस काल में नये वसन - आभूषणों से सुसज्जित होकर सर्वजन आदृत हुआ। पहले पहल जो तेरहवें शतक में मेवाड़ की एक सनद में दिखलायी पड़ा और अटठारहवें शतक में छोटे - छोटे लेखों अथवा साधाारण पुस्तकों के सहारे कभी - कभी अग्रसर होता रहा, उन्नीसवें शतक के पचास वर्ष के भीतर वही विस्तृत होकर भारतव्यापी हुआ। जो महात्मा गोरखनाथ की विभूति से भी विभूतिमय नहीं हुआ, गोस्वामी विट्ठलनाथ की स्वामिता में भी साहित्य स्वामी नहीं बना, भक्त नाभादास जिसे आभा नहीं दे सके, जिसे बनारसीदास सरस, जटमल सजीव, देव दिव्य, सूरज मिश्र स्वरूपमान, दासप्रसाद युक्त, ललितकिशोरी ललित, और ललित माधाुरी मधाुर नहीं बना सके, वही हिन्दी गद्य इस काल में समुन्नत होकर सर्वगुण सम्पन्न हो गया। भारतेन्दु और तात्कालिक हिन्दी साहित्य गगन शोभी कतिपय ज्योति निकेतन विद्वद्वृन्द तारक पुंज ने उस समय उसको जो अपूर्व आलोक प्रदान किया, उससे वह आज तक आलोकित है, और दिन - दिन समधिाक आलोकमय हो रहा है।
समय प्रवाह से जब हिन्दी गद्य समुन्नत हुआ, और योग्य विद्वत्समाज द्वारा उसको समुचित आश्रय मिला, तो जनता में उसका अनुराग उत्पन्न होना स्वाभाविक था। जैसे - जैसे हिन्दी में सुन्दर - सुन्दर भावमय ग्रन्थ निकलने लगे, वैसे - वैसे उसका समादर बढ़ता गया, यन्त्राालयों और सामयिक पत्रा - पत्रिाकाओं की वृध्दि ने इस वृत्तिा की और वृध्दि की। इस समय युक्तप्रान्त, बिहार और मधयप्रदेश में तो वह प्रचलित था ही, पंजाब प्रान्त में और बंगाल के प्रधाान स्थान कलकत्तो और बम्बई हाते की राजधाानी बम्बई में भी उसका प्रचुर प्रसार हो गया था। इस बहु विस्तृत हिन्दी गद्य की भाषा खड़ी बोली थी। श्रीयुत् गोस्वामी विट्ठलनाथ के चौरासी वैष्णवों की वार्ता की रचना ब्रजभाषा में हुई है, पहले की जितनी टीकाएँ और फुटकल नोट कहीं पाए जाते हैं, उन सबकी भाषा लगभग ब्रजभाषा ही थी, श्रीयुत् लल्लूलाल की भाषा में भी ब्रजभाषा का पुट मौजूद है। किन्तु राजा लक्ष्मणसिंह, राजा शिवप्रसाद और बाबू हरिश्चन्द्र ने अपने गद्य में शुध्द खड़ीबोली को स्थान दिया है। परवर्ती समस्त हिन्दी गद्य लेखक भी इसी पथ के पथिक हैं। कारण इसका यह है कि जिस काल का यह वृत्ताान्त है, उस समय उर्दू भाषा उत्तारोत्तार समुन्नत होती हुई सरकारी कचहरियों में भी प्रतिष्ठा लाभ कर चुकी थी, अतएव उसका प्रचार, प्रान्त भर में ही हो गया था और उसके आश्रय से खड़ीबोली प्रान्तव्यापिनी भाषा बन गयी थी। ऐसी अवस्था में हिन्दी की समुन्नति के लिए उसका भी खड़ीबोली में लिखा जाना आवश्यक हो गया। यही कारण है कि ब्रजमण्डल निवासी होकर भी राजा लक्ष्मणसिंह की लेखनी खड़ीबोली के अनुकूल चली, और ब्रजभाषा के अनन्य भक्त होकर भी भारतेन्दु की लेखनी खड़ीबोली को भारतव्यापिनी बनाने में संकुचित नहीं हुई। राजा शिवप्रसाद के विषय में तो कुछ कहना ही व्यर्थ है, क्योंकि उनका आदर्श था 'चलो तुम उधार को हवा हो जिधार की। ' इतना होने पर भी हिन्दी गद्य लेखकों ने पद्य की भाषा उस समय ब्रजभाषा ही रखी, भारतेन्दु जी और राजा लक्ष्मणसिंह के ग्रन्थों की पद्यभाषा ब्रजभाषा है। किन्तु कुछ समय बीतने पर सुगमता और सुविधाा का सामना करना पड़ा, इस समय पढ़ी - लिखी जनता खड़ीबोली से परिचित हो गयी थी, अधिाकांश लेखक भी जितना खड़ीबोली पर अधिाकार रखते थे, उतना ब्रजभाषा पर नहीं। अतएव धाीरे - धाीरे वह अव्यवहृत हो चली, और उसका समझना सुगम नहीं रहा। सामने उर्दू का आदर्श था, जिसके गद्य - पद्य दोनों की भाषा एक थी, अतएव खड़ीबोली में ही हिन्दी भाषा की कविता करने का प्रश्न छिड़ा, सुविधाा और सुगमता की दोहाई दी गयी, धाूमधााम से आन्दोलन हुआ, सफलता खड़ीबोली को मिली,और इस प्रकार खड़ीबोली की कविता का सूत्रापात हुआ।
जनता अथवा मानव हृदय सुविधाा और सुगमता का अनुचर है, सामयिक प्रवाह उसका सूत्राधाार है, समयानुसार जो सुगम और सुविधााजनक पथ होता है, वह बहुत विरोधा करने पर भी अन्त में उसी पथ पर अविरोधा के साथ चलने लगता है - सदैव ऐसा होता आया है, आगे भी ऐसा ही होगा। हमारी परम पवित्रा वेद - भाषा, सुसंस्कृता संस्कृत, महिमामयी मागधाी,जैसे नियति का नियम पालन करने को बाधय हुईं, उसी प्रकार मधाुरतार् मूत्तिा ब्रजभाषा को भी नियति चक्र में पड़ना पड़ा। किन्तु वे भाषाएँ जैसे हमारी दृष्टि में आज तक भी समादृत हैं, वैसे ही जब तक हिन्दी भाषा का नाम भी संसार में शेष रहेगा,ब्रजभाषा समादृत रहेगी। आज भी उसकी चर्चा करके अपने करों को चन्दन चर्चित करने वाले लोग हैं, और चिरकाल तक रहेंगे। मैं उन लोगों को मर्मज्ञ और सहृदय नहीं समझता, जो उसके विरुध्द असंगत बातें कथन करके अपने को कलंकित करते हैं।
खड़ीबोली की कविता का अभी आरम्भिक काल है, जो लोग उसकी सेवा आजकल कर रहे हैं, वास्तव में वे सेवक हैं। यदि उनको कोई कवि समझता है, तो यह उसका महत्तव है। भक्त जन की भावुकता भावमयी होती है, अपने भावावेश में उसे किसी बात का अभाव नहीं होता, इसी सूत्रा से कोई कुकवि भी किसी की दृष्टि में महाकवि बन सकता है। परन्तु वास्तव में बात यह है कि खड़ीबोली के सेवकों की तुलना ब्रजभाषा के सुकवियों से करना विडम्बना छोड़ कुछ नहीं है। कवि चक्र चूड़ामणि गोस्वामी तुलसीदास से महाकवि जिस पथ में चलकर कहते हैं, 'कवित विवेक एक नहिं मोरे। सत्य कहौं लिखि कागद कोरे'। उस पथ का पथिक होकर कोई खड़ीबोली का सुकवि भी अपने को कवि नहीं कह सकता, कोई सेवक ऐसा दुस्साहस कैसे करेगा! सब भाषाओं में सूर शशि एक - एक ही होता है; हाँ, तारक चय की कमी नहीं होती। खड़ीबोली की कविता के आस - पास अन्धाकार घनीभूत है, कतिपय तारे चमक - दमक रहे हैं, धाीरे - धाीरे अन्धाकार भी टल रहा है। किन्तु भरमार अभी खद्योतों की ही है, उनको भी चमकने दीजिये, क्या कुछ ऍंधोरा उनसे भी दूर नहीं हो रहा है? आप उनको मूठियों में क्यों रखना चाहते हैं, यह अंधोर है। समय पर सब होगा, घनीभूत अन्धाकार एक दिन टलेगा, भगवान् भुवन - भास्कर भी निकलेंगे।
सेवकों को उचित पथ पर चलाने का अधिाकार सब अधिाकार वालों को है, किन्तु कशाघात करके उसको क्षत - विक्षत कर देना न्याय संगत न होगा। आजकल देखता हूँ कि खड़ीबोली की कविता के सेवकों पर प्रहार हो रहे हैं, उनको नाना लांछनों द्वारा लांछित किया जा रहा है। अपराधा उनका यह है कि वे नीरस को सरस, तमोमयी अमा को राका रजनी, और काक कुमार को कल कण्ठ बनाना चाहते हैं। कहा जाता है कि उनकी खड़ीबोली की रचना क्लिष्ट होती है, उसमें ब्रजभाषा के शब्द मिलाकर खिचड़ी पकायी जाती है, और शुध्द शब्दों का प्रयोग करके उसे कर्कश किया जाता है। उनकी कविता में सरसता नहीं, लालित्य नहीं, भाव नहीं, धवनि नहीं, व्यंजना नहीं, कोमलता नहीं; प्रयोजन यह है कि क्या यह सत्य है? मैं क्लिष्टता का प्रतिपादक नहीं, मैं कोमलकान्त पदावली का अनुरक्त हूँ, प्रिय प्रवास रचना का यही उद्देश्य है, मेरे इस कथन में सत्यता है या नहीं, यह'बोलचाल' नामक ग्रन्थ बतलावेगा, जो प्रिय प्रवास का दूना है। किन्तु प्रसाद गुणमयी कविता का अनुमोदक होकर भी मैं यह कहने के लिए बाधय हूँ कि कवि की स्वतन्त्राता हरण नहीं की जा सकती, उसको सब प्रकार की रचना करने का अधिाकार है। यदि कोई क्लिष्ट कविता करना ही पसन्द करता है, तो वह अवश्य सतर्क करने योग्य है, परन्तु यदि उसकी कविता सब प्रकार की है, और उसमें से क्लिष्ट रचना ही दोष दिखलाने के लिए उपस्थित की जाती है, तो यह अनुचित दोष - दर्शन है। प्राय: देखा जाता है कि किसी खड़ीबोली की कविता लेखक की कोई अत्यन्त क्लिष्ट कविता उठाकर रख दी जाती है और तरह - तरह के व्यंग्य करके यह प्रश्न किया जाता है कि यह खड़ीबोली की कविता है? प्रयोजन यह कि खड़ीबोली की कविता रचना ढोंग मात्रा है, उसमें असरसता छोड़ और कुछ नहीं। मेरा निवेदन यह है कि प्राचीन लब्धा - प्रतिष्ठ - महाकवियों ने भी इस प्रकार की कविताएँ की हैं, और ये कविताएँ उसी भाषा की मानी गयी हैं, जिस भाषा में लिखी गयी हैं। मैं हिन्दी संसार के कवि शिरोमणि गोस्वामी तुलसीदास, बंग भाषा के महाकवि भारत चन्द्र और उर्दू भाषा के मलिककुश्शोअरा मिर्जाग़ालिब की एक - एक कविता प्रमाण स्वरूप नीचे लिखता हूँ - आप लोग उसे देखें -
गोपाल गोकुल बल्लभी प्रिय गोप गोसुत बल्लभं।
चरणारविन्दमहं भजे भजनीय सुर नर दुर्लभं।
सिर केकि पच्छ बिलोल कुण्डल अरुन बन रुह लोचनं।
गुंजावतंस - विचित्रा सब ऍंग धाातु भव भय मोचनं।
कच कुटिल सुन्दर तिलक भूराका मयंक समाननं।
अपहरत तुलसीदास त्राास बिहार वृन्दा काननं।
गोस्वामी तुलसीदास
जय चामुण्डे जय चामुण्डे कर कलितासि वराभय मुण्डे।
कल कल रसने कड़ मड़ दशने रण भुवि खण्डित सुर रिपुमुण्डे।
अट अट हासे कट मट भाषे नखर बिदारित रिपु करि शुण्डे।
कलि मल मथनम् हरिगुण कथनम् विरचय भारत कविवर तुण्डे।
भारत चन्द्र
शुमाहे सबहा मरगूबे बुते मुशकिल पसन्द आया।
तमाशा ये वयक कफबुरदने सद दिल पसन्द आया।
हवाए सबज गुल आईनये बेमेहरिये कषतिल।
कि अन्दाजेश् बखुँ ग़लतीदने कषतिल पसन्द आया।
मिर्जा गालिब
गोस्वामी जी के इस प्रकार के पद्य सैकड़ों हैं, विनय पत्रिाका का लगभग एक तृतीयांश ऐसे ही पद्यों से पूर्ण है। आचार्य केशव की रचना में इस प्रकार के अनेक पद्य हैं, क्या कविवर सूरदास, क्या वैष्णव संसार के दूसरे प्रसिध्द कवि सभी की रचनाओं में इस प्रकार की कविता पायी जाती हैं। भारतेन्दु जी के बहुत पद्य ऐसे हैं। उनकी गंगास्तुति का एक पद्य सोलह चरणों का है - वह आरम्भ यों होता है - 'ब्रह्म द्रव भूत आनन्द मन्दाकिनी अलकनन्दे सुकृति कृति विपाके'। यदि इस प्रकार की कविता होती है, और आद्योपान्त संस्कृत शब्दमयी होने पर भी ब्रजभाषा की कविता समझी जाती है, तो खड़ी बोली में रचे गये इस प्रकार के कतिपय पद्य खड़ी बोली के पद्य क्यों न माने जावेंगे। यदि ऐसे पद्यों को लेकर वितण्डावाद किया जावे, तो अधिाकांश वर्तमान हिन्दी गद्य भी खड़ी बोली का नहीं माना जावेगा।
दूसरी बात यह कि खड़ी बोली की कविता में ब्रजभाषा के शब्द मिलाकर खिचड़ी पकायी जाती है, खिचड़ी बड़ी मीठी होती है, क्या बुरा किया जाता है। कौन ब्रजभाषा का कवि है, जिसकी कविता बुन्देलखण्डी शब्दों से बची है, कविवर बिहारीलाल की मधाुमयी कविता उससे भरपूर है, क्या इन लोगों की कविता ब्रजभाषा की कविता नहीं मानी जाती? गोस्वामी जी की अद्भुत रामायण में अनेक प्रान्तों के शब्द हैं, अवधाी की वह आकर है, ब्रजभाषा भूषिता है, बुल्देलखण्डी में अलंकृत है, भोजपुरी से भावमयी है; क्या यह दूषण है, यह तो भूषण ही माना गया है - भाषा मर्मज्ञ भिखारीदास कहते हैं -
तुलसी गंग दोऊ भए सुकविन के सरदार।
इनके काव्यन में मिली भाषा विविधा प्रकार।
देखिए सहृदयता 'ताज' की यह कई भाषामयी कविता कितनी मधाुर है -
सुनो दिल जानी मेरे दिल की कहानी तुम दस्त ही बिकानी बदनामी भीसहूँगीमैं।
देव पूजा ठानी मैं निवाज हूँ भुलानी तजे कलमा कुरान साडे ग़ुनन गहूँगीमैं।
साँवला सुलोना सिरताज सिर कुल्ले दिए तेरे नेह दाग में निदाग दो दहूँगीमैं।
नन्द के कुमार कुरबान ताँड़ी सूरत मैं ताँड़ नाल प्यारे हिन्दुआनी ही रहूँगीमैं।
मेरी इन बाताें से आप लोग यह न समझें कि मैं खड़ी बोली की कविता में ब्रजभाषा के शब्दों के अबाधा व्यवहार का पक्षपाती हूँ। नहीं, यह मेरा विचार कदापि नहीं है, ऐसी अवस्था में खड़ी बोली की कविता की उपयोगिता ही क्या रह जाएगी,वह तो पहचानी भी न जा सकेगी। मेरे कथन का अभिप्राय यह है कि ब्रजभाषा के उपयुक्त और सुन्दर शब्द यदि कहीं प्रयुक्त होकर कविता को कवित्वमय कर देते हैं, तो उसका ग्रहण कर लेना भावुकता है। कवि सौन्दर्य का उपासक, भाव का भूखा, रस का रसिक, प्रसाद का प्रेमिक और सरलता का सेवक है; अतएव इनके साधानों को साधय बनाना ही उसका धार्म है - अन्यथा कवि - कर्म कवि - कर्म न रह जावेगा।
मुख्यत: क्रिया ही खड़ी बोली को ब्रजभाषा से पृथक् करती है, अतएव ब्रजभाषा की क्रिया का प्रयोग खड़ी बोली में कदापि न होना चाहिए। किसी उपयुक्त अवसर पर, संकीर्ण स्थल पर अनुप्रास के लिए यदि ब्रजभाषा क्रिया का प्रयोग संगत जान पडे,तो मेरा विचार है कि वहाँ उसका प्रयोग हो सकता है; किन्तु उसी अवस्था जब उसे खड़ी बोली की क्रिया का रूप दे दिया जावे। उस शब्द योजना और वाक्य - विन्यास को जो कि ब्रजभाषा प्रणाली से प्रस्तुत है, खड़ी बोली में ग्रहण करना उचित नहीं,क्योंकि इससे खड़ी बोली ब्रजभाषा का प्रतिरूप बन जावेगी। हिन्दी भाषा की दो मूर्तियाँ हैं - एक खड़ी बोली और दूसरी ब्रजभाषा,अतएव उनके परस्पर सम्बन्धा की रक्षा न्यायानुमोदित है, अन्य भाषा के शब्दों से खड़ी बोली पर ब्रजभाषा का विशेष स्वत्व है,इसलिए उसका बिलकुल बायकाट विडम्बना है। उर्दू के कवि अब तक ब्रजभाषा शब्दों का आदर करते हैं, फिर खड़ी बोली के कवि उसका अनादर क्यों करें, हाँ उनको समधिाक संयत होना चाहिए। उर्दू के वे अशआर प्रमाण स्वरूप नीचे लिखे जाते हैं,जिनमें ब्रजभाषा शब्दों का प्रयोग हुआ है - ऐसे शब्द काले अक्षरों में दिए गये हैं -
सुबह गुजरी शाम होने आयी मीर।
तू न चेता औ बहुत दिन कम रहा। - मीर
हाय! क्या चीज गरीबुल बतनी होती है।
बैठ जाता हूँ जहाँ छाँव घनी होती है। - हाफिज
कमसिनी है तो जिदें भी हैं निराली उनकी।
इस पै मचले हैं कि हम दर्र्दे जिगर देखेंगे। - फसाहत
जग में आकर इधार उधार देखा।
तू ही आया नजश्र जिधार देखा। - मीर दर्द
सारे जहाँ से अच्छा हिन्दोस्ताँ हमारा।
हम बुलबुले हैं उसकी वह गुलसिताँ हमारा। - अकबाल
शुध्द शब्दों के प्रयोग के विषय में मुझको इतना ही कहना है कि यह प्रवृत्तिा बहुत अच्छी है, इसने खड़ी बोली के कवियों को च्युत दोष और शब्दों के तोड़ - मरोड़ से बहुत बचाया है। जहाँ ब्रजभाषा में इस दोष की भरमार है वहाँ खड़ी बोल चाल की कविता इससे सुरक्षित है। अतएव इस अंश में आक्षेप मान्य नहीं, परन्तु इसका दूसरा पहलू भी है, इसलिए इधार समुचित दृष्टि होना आवश्यक है। वह यह कि खड़ी बोली के कुछ कवियों को शुध्द शब्द प्रयोग का नशा - सा हो गया है, और इसमें कोई सन्देह नहीं कि इससे कविता में कर्कशता आ गयी है। यदि अक्ष के बजाय ऑंख, कर्ण के स्थान पर कान, दन्त के स्थान पर दाँत, जिह्ना के स्थान पर जीभ, ओष्ठ की जगह ओठ या होठ लिखना ठीक है, तो मुख के स्थान पर मुँह, आशा के स्थान पर आस, वेश के स्थान पर भेस, यश के स्थान पर जस, विष के स्थान पर बिख लिखना भी ठीक है। दोनों प्रकार के ही शब्द अपभ्रंश शब्द हैं, इसी प्रकार के और बहुत से शब्द बतलाए जा सकते हैं। चाहिए यह कि अपभ्रंश शब्दों के व्यवहार के लिए परस्पर कलह न करें - प्रयोग करने न करने के लिए सब स्वतन्त्रा हैं। किन्तु यह आग्रह उचित नहीं कि हम प्रयोग करेंगे तो शुध्द शब्द का ही प्रयोग करेंगे। इसका यह परिणाम होगा कि ऑंख, कान आदि के स्थान पर अक्ष और कर्ण इत्यादि लिखे जाने लगेंगे, भाषा कृत्रिाम हो जावेगी और हिन्दी का हिन्दीपन लोप हो जावेगा। यह स्मरण रखना चाहिए कि हिन्दी भाषा की जननी अपभ्रंश भाषा है, हिन्दी की प्रशंसा इसीलिए है कि वह तद्भव शब्दों द्वारा सुगठित है। जिस दिन उसके आधाार तत्सम शब्द हो जावेंगे, उसी दिन वह अपना स्वरूप खोकर अन्तर्हित हो जावेगी। नियम यह चाहिए कि प्रयोग आवश्यकतानुसार तद्भव और तत्सम दोनों प्रकार के शब्दों का हो, किन्तु प्रधाानता तद्भव शब्दों को दी जावे। संस्कृत के विद्वान् भी तद्भव शब्दों का प्रयोग करते देखे जाते हैं, शुध्द शब्दों का प्रयोग तो वे करते ही हैं। हम लोगों को भी उन्हीं का पदानुसरण करना चाहिए। कुछ ऐसे प्रयोग दिखलाए जाते हैं। शुध्द शब्द क्षुर है। अपभ्रंश उसका खुर है, इसी प्रकार प्रियाल शब्द शुध्द, और पियाल अपभ्रंश है,कवि कुल गुरु कालिदास रघुवंश के 'तस्या खुरन्यास पवित्रा पांशुम्' और कुमार सम्भव के 'मृगा: पियाल द्रुम मंजरीणाम्' वाक्यों में 'खुर' और 'पियाल' का प्रयोग करते देखे जाते हैं।
अब रहीं कवितागत लालित्य और सौन्दर्य इत्यादि की बातें - इस विषय में मेरा इतना ही निवेदन है कि क्या श्रुतिधार श्रीमान् पण्डित श्रीधार पाठक के भारत गीत में भारतीयता का राग नहीं है? क्या शुभंकर श्रीमान् पण्डित नाथूराम शंकर शर्मा की रचनाओं में रचना चातुरी दृष्टिगत नहीं होती? क्या विद्वद्वर श्रीमान् पण्डित महावीरप्रसाद द्विवेदी के वाग्विलास में विद्वत्ताा नहीं बिलसती? क्या ललित कण्ठ श्रीमान् लाला भगवानदीन गुले लाला अथवा गुल्लाला नहीं खिलाते? क्या काव्य विनोद श्रीमान् पण्डित लोचनप्रसाद पाण्डेय की वर वचनावली विविधा विनोदमयी नहीं होती? क्या रामचरित चिन्तामणिकार श्रीमान् पण्डित रामचरित उपाधयाय की कृति में चारु - चरित चित्राण नहीं होता? क्या निरूपण पटु श्रीमान् पण्डित रूप नारायण पाण्डेय की रूपकपटुता अनुरूप नहीं होती? क्या भारत भारतीकार श्रीमान् बाबू मैथलीशरण गुप्त की भारती, विविधा भाव भरित नहीं पायी जाती? क्या शंकर नगर निवासी श्रीमान् बाबू जयशंकर प्रसाद की कविता के प्रसादमयी होने में सन्देह है? क्या स्नेह भाजन श्रीमान् पण्डित गया प्रसाद शुक्ल सनेही की सुलेखनी सरसता के साथ नहीं सरसती। क्या पवित्राात्मा भारतीय आत्मा की अनूठी उक्ति आत्म विस्मृतिकारिणी नहीं होती? क्या परम सहृदय भारतीय हृदय का कवित्व हृदय विभक्त नहीं करता? क्या रमणीय मानस श्रीमान् पण्डित रामनरेश त्रिापाठी की मानसिकता में नव रसमयी रसिकता नहीं मिलती? क्या हृदयवान् सुकवि श्रीमान् पण्डित गोकुलचन्द्र की चारुचित्ताता अरोचकता को अर्ध्दचन्द्र नहीं देती? इसका उत्तार सहृदय हृदय दें। मैं इतना ही कहूँगा कि इन सज्जनों की रचनाएँ रुचिर हैं, यदि यह समय उनके अनुकूल नहीं है, तो कोई अनुकूल समय भी आवेगा। एक समय था, जब भावुक प्रवर भवभूति को यह कहना पड़ा था -
ये नाम केचिदिहने: प्रथमन्त्यवज्ञां, जानन्तु ते किमपितान्प्रति नैष यत्न:।
उत्पत्स्यते हि मम कोपि समानधार्म्मा, कालो ह्ययं निरवधिार्विपुला च पृथ्वी।
किन्तु बाद को वह समय भी आया जब वह इन शब्दों में स्मरण किए गए। 'कारुण्यं भवभूतिरेव तनुते' अथवा -
भवभूते: संबंधााद् भूधार - भूरेव भारती भाति। एतत्कृतकारुण्ये किमन्यथा रोदिति ग्रावा।
क्या हिन्दी उर्दू में भेद है
हिन्दी शब्द उच्चारण करते ही हृदय उत्फुल्ल हो जाता है, और नस - नस में आनन्द की धाारा बहने लगती है। यह बड़ा प्यारा नाम है, कहा जाता है - इस नाम में घृणा और अपमान का भाव भरा हुआ है, परन्तु जी इसको स्वीकार नहीं करता। हिन्दू शब्द से हिन्दी का सम्बन्धा नहीं है, वरन् हिन्द शब्द उसका जनक है। हिन्द शब्द देशपरक है और भारतवर्ष का पर्यायवाची है। यदि हिन्दू शब्द से ही उसका सम्बन्धा माना जावे, तो भी अप्रियता की कोई बात नहीं - आज दिन हिन्दू नाम ही इक्कीस करोड़ संख्या का सम्मिलन सूत्रा है, यह नाम ही ब्राह्मण से लेकर अस्पृश्य जाति के पुरुष तक को एक बन्धान में बाँधाता है। आर्य नाम उतना व्यापक नहीं है, जितना हिन्दू नाम; यह कभी विष रहा हो, पर अब अमृत है। वह पुण्य सलिला सुरसरि जल विधाौत, सप्त पुरी पावन रजकण पूत और पुनीत वेद मन्त्राों द्वारा अभिमन्त्रिात है, क्या अभी इसमें अपावनता मौजूद है। इतना निराकरण के लिए कहा गया, इस विषय में मेरा दूसरा सिध्दान्त है। यदि सत्य है कि हमारे प्राचीन ग्रन्थों अथवा पुराणों में हिन्दू शब्द का प्रयोग नहीं है, यह सत्य है कि मेरुतंत्रा का 'हीनांश्च' दूषयेत्वेव हिन्दुरित्युच्यते प्रिये' और शिव रहस्य का 'हिन्दूधार्मप्रलोपास्तु भविष्यन्ति कलौ युगे' आधाुनिक श्लोक खण्ड हैं। किन्तु यह भी सत्य है कि विजेता मुसलमानों ने बलपूर्वक हिन्दुओं से हिन्दू नाम स्वीकार नहीं कराया। यदि बलात् यह नाम स्वीकार कराया गया होता, तो चन्दबरदायी ऐसा स्वधार्माभिमानी अब से सात सौ बरस पहले अपने निम्नलिखित पद्य में 'हिन्दुवान' शब्द का प्रयोग न करता।
' हिन्दुवान रान भय भान मुख गहिय तेग चहुआन जब। '
वास्तव में बात यह है कि फारस निवासी चिरकाल से भारत को हिन्द कहते आये हैं। अब से लगभग पाँच सहò वर्ष की पुरानी पुस्तक जिन्दा वास्ता में इस शब्द का प्रयोग पाया जाता है - उसकी 163वीं आयत यह है -
' चूं व्यास हिन्दी वलख आमद गुस्तास्य जरतुश्तरा बख्वांद '
यह हिन्दी, नाम सिन्धाु के सम्बन्धा से पड़ा है, क्योंकि फारसी में हमारा 'स' 'ह' हो जाता है। जैसे सप्त से हफ्त बना,वैसे ही सिन्धा से हिन्ध, अथवा हिन्द बना है, और इसी हिन्द शब्द से हिन्दू शब्द की वैसे ही उत्पत्तिा है - जैसे इण्डस से इण्डिया और इण्यिन की। जब मुसलमान जाति भारत में विजेता बनकर आयी, तो वह यहाँ के निवासियों को इसी प्राचीन नाम से ही पुकारती रही, अतएव उसके संसर्ग और प्रभाव से यह शब्द व्यापक और सर्वसाधाारण्ा में गृहीत हो गया। इस सीधाी और वास्तविक बात को स्वीकार न करके यह कहना कि हिन्दू माने काफिर के हैं, अतएव बलात् यह नाम हिन्दुओं से स्वीकार कराया गया, अनुचित और असंगत है। एक उस्ताद का शेर है -
न हिन्दुअम न मुसल्माँ न काफिरम न यहूद।
ब हैरतम कि सरंजामे मन चे खा हद बूद।
यदि हिन्दू और काफिर पर्यायवाची शब्द होते, तो इस शेर में हिन्दू और काफिर का अलग - अलग प्रयोग न होता,क्योंकि यह पुनरुक्ति है।
उर्दू हिन्दी का रूपान्तर है। जिस समय विजेता मुसलमान भारत में आए, उस समय दिल्ली के आसपास खड़ी बोलचाल की हिन्दी का प्रचार था, अतएव अनेक कार्य सूत्रा से बहुत से अरबी, फारसी और तुर्की के शब्द हिन्दी में मिल गए - यही उर्दू है। यदि अन्य भाषा के शब्द सम्मिलित होने से नाम बदल जाता है, तो फारसी अंग्रेजी आदि बहुत - सी भाषाओं का नाम बदल जाना चाहिए। फारसी में अरबी, तुर्की के इतने अधिाक शब्द मिल गये हैं कि उनके शब्द आज भी हिन्दी में इन भाषाओं अथवा फारसी के नहीं मिले; फिर क्यों फारसी फारसी कही जाती है, और हिन्दी उर्दू कहलाने लगी। फारस के विख्यात महाकवि फिर्दोसी ने अपने शाहनामे में एक स्थान पर लिखा है - फलक गुफ्त अहसन मलक गुफ्त जेह'। अहसन और जेह अरबी शब्द हैं, अतएव उनसे प्रश्न हुआ कि आपने कुल किताब तो खालिस फारसी में लिखी, इस शेर में दो अरबी के शब्द कैसे आ गए,उन्होंने कहा 'फलक व मलक गुल्फ न मन गुल्फ' कहाँ यह भाव, कहाँ यह कि एक तिहाई से अधिाक अरबी शब्द फारसी में दाखिल हो गए, तो भी फारसी का नाम फारसी ही रहा। उर्दू भाषा की प्रकृति आज भी हिन्दी है, व्याकरण उसका आज भी हिन्दी प्रणाली में ढला है। उसमें जो फारसी मुहाविरे दाखिल हुए हैं, वे सब हिन्दी के रंग में रँगे हैं, फारसी के अनेक शब्द हिन्दी के रूप में आकर उर्दू की क्रिया बन गये हैं, एक वचन शब्द बहुधाा हिन्दी रूप में बहुवचन होते हैं, फिर उर्दू हिन्दी क्यों नहीं है? यदि कहा जावे कि फारसी अरबी और संस्कृत शब्दों के न्यूनाधिाक्य से ही उर्दू हिन्दी का भेद स्थापित होता है,तो यह भी स्वीकार नहीं किया जा सकता, क्योंकि अनेक उर्दू शायरों का बिल्कुल हिन्दी से लबरेज शेर, उर्दू माना जाता है और अनेक हिन्दी कवियों का फारसी और अरबी से लबालब भरा पद्य; हिन्दी माना जाता है - कुछ प्रमाण लीजिये -
तुम मेरे पास होते हो गोया। जब कोई दूसरा नहीं होता।
मोमिन
लोग घबरा के यह कहते हैं कि मर जायेंगे।
मर के गर चैन न पाया तो किधार जायेंगे।
जौक
लटों में कभी दिल को लटका दिया।
कभी साथ वालों के झटका दिया।
मीर हसन
न था कुछ तो खुदा था कुछ न होता तो खुदा होता।
डुबाया मुझको होने ने न होता मैं तो क्या होता।
ग़ालिब
हिन्दी भरी कविता आपने उर्दू की देख ली। अब अरबी - फारसी भरी हिन्दी कविता देखिए -
पजनेस तसद्दुकता बिसमिल जुल्फेष् न कष्बूल कसे।
महबूब चुना मद मस्त सनम अज़ दस्त अला वल जुल्फष् वसे।
पजनेस
जेहि मग दौरत निरदई तेरे नैन कजाक।
तेहि मग फिरत सनेहिया किए गरेबाँ चाक।
रसनिधिा
यों तिय गोल कपोल पर परी छूटि लट साफ।
खुश नवीस मुंशी मदन लिख्यो काँच पर काफष्।
शृंंगार सरोज
मैं यहाँ कुछ अंग्रेज और भारतीय विद्वानों की सम्मति भी उठाना चाहता हूँ - आप लोग देखें वे क्या कहते हैं -
'उर्दू का व्याकरण ठीक हिन्दी व्याकरण से मिलता है, उर्दू हिन्दी से भिन्न नहीं है। ' डॉक्टर राजेन्द्रलाल मित्रा
The Grammar of Urdu is unmistakably the same as that of Hindi, and it must follow therefore that the Urdu is a Hindi and an Aryan dialect.
उर्दू के बडे प्रसिध्द कवि वली और सौदा की भाषा तथा हिन्दी के अति प्रसिध्द कवि तुलसीदास और बिहारीलाल की भाषा में कुछ अन्तर नहीं है, दोनों ही आर्य भाषा हैं। इसलिए हिन्दी और उर्दू को अलग मानना बड़ी भारी भूलहै।
- मिस्टर बीम्स
...Such words however, in no way altered or influenced the language itself, which, when its inflectional or phonetic elements are considered, remains still a pure Aryan dialect, just as pure in the pages of Wali and Sauda, as it is in those of Tulsidas or Biharilal. It betrays, therefore, a radical misunderstanding of the whole learning of the question and of whole Science philology to speak of Urdu and Hindi as two distinct languages.
जो भाषा आज हिन्दुस्तानी कहलाती है, उसी का नाम हिन्दी, उर्दू और रेखता भी है। इसमें अरबी, फारसी, संस्कृत वा भाषा के शब्द हैं।
- डॉ. गिलक्राइस्ट
The language...at present best known as the Hindustanee, is also fuequently denominated Hindi, Urdu and Rekhata. It is compounded of the Arabic persian and Sanskrit, or Bhasha which last appears to have been in former ages the current lauguage of Hindustan.
जो कुछ मैंने ऊपर दिखलाया, उससे पाया गया कि हिन्दी उर्दू में कोई ऐसा भेद नहीं है, जो दोनों को अलग करता हो - वास्तव में उर्दू हिन्दी ही है। यह अपनी - अपनी इच्छा है कि कोई किसी को उर्दू कहे और कोई किसी को हिन्दी। मैंने जो कुछ प्रतिपादन किया है, उसका उद्देश्य यह नहीं कि किसी नाम का बायकाट किया जावे - वरन् उद्देश्य यह है कि विभेद नीति का उन्मूलन हो। एक ही भाषा जब दो नामों से पुकारी जाती है, तब उसके विषय में परस्पर कलह वांछनीय नहीं। जिसकी इच्छा हो वह उसे संस्कृत गर्भित लिखे, जिसकी इच्छा हो उसमें फारसी - अरबी के शब्दों का प्रयोग करे; किन्तु यह समझता रहे कि दोनों भाषाएँ एक हैं। यदि दोनों नामों के स्थान पर हिन्दुस्तानी नाम रख लिया जावे, तो अच्छा; यदि कोई भाषा भी ऐसी निकल आवे, जो हिन्दुस्तानी नाम का विभेद मिटाकर सार्थक करे, तो सोने में सुगन्धा। हिन्दुस्तानी और हिन्दी वास्तव में दोनों पर्यायवाची शब्द हैं।
यह आशा करना कि उर्दू कविता मुसलमानों के और हिन्दी कविता हिन्दुओं के धाार्मिक भावों का दर्पण न हो, विडम्बना है। इस बात का उद्योग करना कि हिन्दू और मुसलमान अपने - अपने महापुरुषों, शूर - वीरों, देश - प्रेमियों, कर्णधाारों,महात्माओं, जीवनदाताओं के आदर्शों का उल्लेख न करें, उनका स्मरण करके उन पर भक्ति पुष्पांजलि न चढ़ावें, पागलपन है। जो सभ्यता किसी जाति की जीवन सामग्री है, वह अनादृत नहीं हो सकती; जो उदाहरण, उपाख्यान, जाति संगठन के साधान हैं, उनसे जीती - जागती जाति मुख नहीं मोड़ सकती। अतएव इन बातों को लेकर हिन्दी - उर्दू के भेद का राग अलापना उचित नहीं। मानवता का आदर्श, जातीयता का मन्त्रा, देशप्रेम का पाठ, सत्यता का महत्तव, सहायता का सूत्रा, दोनों साहित्यों में ही मिलेगा; हमारी एकतानुरागिणी दृष्टि उसी पर होनी चाहिए। साहित्य गत न्यूनताएँ और विशेषताएँ दोनों में हैं। उपयोगी विषयों का आदान - प्रदान, दोनों का दोनों के साथ होना चाहिए। फूल चुनना दोनों का काम है, काँटों से उलझना उलझन है।
उर्दू का साहित्य बड़ा सुन्दर है, उसकी नाजुक ख्याली, तराश - खराश, बन्दिश, उसका मुहाविरा, मुबालिगा इस्तेआरा मारके का है; हिन्दी भाषा के कवियों को, मुख्यत: खड़ी बोली की कविता करने वालों को देखना चाहिए। वे बडे क़ाम की चीजें हैं,उनसे बहुत कुछ लाभ उठाया जा सकता है - उनकी रंगत में रँगकर हम अपनी कविता की रंगतें कुछ और की और कर दे सकते हैं। मुहाविरों का सुन्दर और सार्थक प्रयोग करने में उर्दू वालों को कमाल है, हम लोग इस बारे में बेतरह ठोकर खाते हैं। हमारी यह कमी पूरी हो सकती है, यदि कम - से - कम हम उर्दू से प्रेम करना सीख जाएँ। उर्दू अशआरों की चाशनी अक्सर हिन्दी लेखकों के लेखों पर चढ़ी रहती है, क्यों? इसलिए कि उनको पढ़कर दिल में गुदगुदी ही नहीं पैदा होती, जबान भी चटखारे भरने लगती है; मौके पर हृदय के भावों को प्रकट करने में भी वे कमाल रखते हैं। क्या ये साधाारण गुण हैं, हमें इन्हें ग्रहण करना चाहिए। बहुत कुछ कहना है, किन्तु स्थान का संकोच है - चन्द चुने अशआर सुन लीजिये -
यह तसवीर चेहरा उतर क्यों रहा है।
खिंचे किस से हो क्या है नकशा तुम्हारा। - नसीम
दिल के फफोले जल उठे सीना के दाग से।
इस घर में आग लग गयी घर के चिराग से।
वह शब को मेरी कष्ब्र पै क्या चाल चल गए।
सदहा चिरागश् नकष्शे कफे पासे जल गए। - फसाहत
पडे हैं सूरते नकष्शे कष्दम व छेड़ा हमें।
हम और खाक में मिल जायेंगे उठाने से।
यह मजनूँ है नहीं आहू है लैला।
पहन कर पोस्ती निकला है घर से।
जिसे तू सींग समझे है , यह है खार।
लगे है पाँव में निकले हैं सर से। - नसीर
हिन्दी सादगी में लासानी है, इस बारे में उर्दू उससे बहुत कुछ सीखती है। उर्दू हिन्दी नजषद है, मगर फरियाद यह है कि वह तर्जेष् मआशिरत फषरस का दिलदाद है - क्या हिन्दुस्तान वतने मालूफ नहीं? हिन्दी इस रंग में शराबोर है, उर्दू को देखना चाहिए कि इस रंगत में कुछ नैरंगियाँ हैं या नहीं? उर्दू के साकष्ी व पैमाना, बुलबुल व कुमारी, सरो व शमशाद, शमा व फानूस, जवानाने चमन व उरूसाने गुलशन, नरगिस व सम्बुल, फरहाद व मजनूँ, मानी व वहजाद, जबाने सुराही व खन्दए कुलकुल वगैरा सरमायये नाज हैं - आमतौर से वह इन्हीं पर फिदा है, शाजश् व नादिर की बात दूसरी है। हजरत आजाद इन्हीं की तरफ इशारा करके फरमाते हैं - 'इनमें बहुत - सी बातें ऐसी हैं, जो खास फारिस और तुर्किस्तान के मुल्कों से तबयी और जाती तअल्लुक रखती हैं, इसके अलावा बाज ख्यालात में अकसर उन दास्तनों या किस्सों के इशारे भी आ गये हैं, जो खास मुल्क फारस से इलाका रखते हैं,' 'इन ख्यालों ने और वहाँ की तशवीहों ने इस कदर जोर पकड़ा कि उनके मशावेह जो यहाँ की बातें थीं, उन्हें बिलकुल मिटा दिया' क्या इसकी तलाफी न होनी चाहिए, इस पर इन्शा परदाजाने उर्दू अगर मुनासिब समझें गौर फरमावें। मैं चन्द उर्दू - हिन्दी नज़में मौसिमे बहार की दर्ज जैल करता हूँ, उनको वाहन मिलाकर ख्यालात की कसौती पर कसना चाहिए। बाद को इल्तिजा अगर हक व जानिब हो मंजूर की जावे -
करे है बा लबे गुंचा दरे हजार सखुन।
चमन में मौजे तवस्सुम की खोलकर जंजीर।
कुछ इनविसात हवाए चमन से दूर नहीं।
जो वाहो गुंचए मिनकार बुलबुले तसवीर।
असर से बादे बहारी के लहलहाते हैं।
जश्मीं पै हमसरे सुंबुल हैं मौजे नकष्शे हसीर। - जौक
हैं सभी पेड़ कोंपलों से पुर
है नया रस गया सबों में भर।
आम सिरमौर बन गया सबका।
मौर का मौर बाँधाकर सिरपर।
पेड़ प्यारे पलास सेमल के।
फूल पा लाल लाल लाल हुए।
हैं बहुत ही लुभावने लगते।
लाल दल से लसे हुए महुए।
है लुनाई बड़ी लताओं पर।
है चटकदार रंग चढ़ा गहरा।
लह बडे ही लुभावने पत्तो।
लहलही बेलि है रही लहरा।
गूँजते गूँजते उमग में आ।
हैं बहुत चौंक चौंक कर अड़ते।
चाव से चूम चूम कलियों को।
मनचले भौंरे हैं मचल पड़ते।
पा गये पर बहार सा मौसिम।
क्याें न अपनी बहार दिखला लें।
लहलही बेलि चहचहे खग के।
डह डहे पेड़ डह डही डालें।
साहित्य
'सहितस्य भाव: साहित्य। ' जिसमें सहित का भाव हो उसे साहित्य कहते हैं - कुछ और सम्मतियाँ भी साहित्य के विषय में सुनिए।
'परस्पर सापेक्षाणाम् तुल्य रूपाणाम् युगपदेक क्रियान्वयित्वम् साहित्यम्। '
- श्राध्द विवेक
'तुल्यवदेक क्रियान्यवयित्वं वृध्दि विशेष विषयित्वं वा साहित्यम्। '
- शब्द शक्ति प्रकाशिका
'मनुष्य कृत श्लोक मय ग्रन्थ विशेष: साहित्यम्। ' - शब्द कल्पदु्रम।
सहृदय विज्ञान श्रीमान् पण्डित रामदहिन मिश्र काव्य तीर्थ ने साहित्य का विलक्षण अर्थ किया है - वे कहते हैं -
'जो हित के साथ वर्तमान है वह हुआ सहित और उसका जो भाव है वही हुआ साहित्य, अर्थात् जो हमारे हितकारी भाव हैं,वे ही साहित्य हैं। '
- साहित्य मीमांसा
कविन्द्र रवीन्द्र कहते हैं, 'सहित शब्द से साहित्य शब्द की उत्पत्तिा हैं, अतएव धाातुगत अर्थ करने पर साहित्य शब्द में एक मिलन का भाव दृष्टिगत होता है। वह केवल भाव का भाव के साथ, भाषा का भाषा के साथ, ग्रन्थ का ग्रन्थ के साथ मिलन है, यह नहीं, वरन् वह बतलाता है कि मनुष्य के साथ मनुष्य का, अतीत के साथ वर्तमान का, दूर के साथ निकट का,अत्यन्त अन्तरंग योग है। साहित्य के अतिरिक्त और किसी साधान के द्वारा यह सम्भव नहीं है। पर जिस देश में साहित्य का अभाव है, उस देश के लोग परस्पर सजीव बन्धान से बँधो नहीं, विच्छिन्न होते हैं। ' - साहित्य
श्राध्द विवेक और शब्द शक्ति प्रकाशिका ने साहित्य की जो व्याख्या की है, कवीन्द्र का कथन एक प्रकार से उसकी टीका है, वह व्यापक और उदात्ता है। कुछ लोगों का विचार है कि साहित्य शब्द काव्य के अर्थ में रूढ़ि है - शब्द कल्पद्रुम की कल्पना कुछ ऐसी ही है, परन्तु ऊपर की शेष परिभाषाओं और अवतरणों से यह विचार एकदेशी पाया जाता है। साहित्य शब्द का जो शाब्दिक अर्थ है, वह स्वयं बहुत व्यापक है, उसको संकुचित अर्थ में ग्रहण करना संगत नहीं। साहित्य समाज का जीवन है, वह उसके उत्थान - पतन का साधान है, साहित्य के उन्नत होने से उन्नत, उसके पतन से समाज पतित होता है। साहित्य वह आलोक है, जो देश को अन्धाकार रहित, जाति मुख को उज्ज्वल और समाज के प्रभाहीन नेत्राों को सप्रभ रखता है। वह सबल जाति का बल, सजीव जाति का जीवन, उत्साहित जाति का उत्साह, पराक्रमी जाति का पराक्रम, अधयवसाय शील जाति का अधयवसाय, साहसी जाति का साहस, औरर् कत्ताव्य परायण जाति कार् कत्ताव्यहै।
वह धार्म भाव जो भव भावनाओं का विभव है, वह ज्ञान गरिमा जो गौरव कामुक को सगौरव करती है, वह विचार परम्परा जो विचारशीलता की शिला है, वह धाारणा जो धारणी में सजीव जीव धाारण का आधाार है, वह प्रतिभा जो अलौकिक प्रतिभा से प्रतिभासित हो, पतितों को उठाती है, लोचनहीन को लोचन देती है और निरवलम्ब का अवलम्बन होती है। वह कविता जो सूक्ति समूह की प्रसविता हो संसार की सारवत्ताा बतलाती है, वह कल्पना जो कामद कल्पलतिका बन सुधााफल फलाती है, वह रचना जो रुचिर रुचि सहचरी है, वह धवनि जो स्वर्गीय धवनि से देश को धवनित बनाती है। वह सजीवता जो निर्जीवता संजीवनी है, वह साधाना जो समस्त सिध्दि का साधान है, वह चातुरी जो चतुवर्ग जननी है, वह चारु चरितावली जो जाति चेतना और चेतावनी की परिचालिका है - जब हमारे साहित्य का सर्वस्व थी, उस समय हम पर पवित्रा वेदों का आविर्भाव हुआ, हमने अनुपम उपनिषदों की रचना की, दर्शनों के दर्शन कराए, सूत्राों को रचकर समाज को एक सूत्रा में बाँधाा,आदर्श चरित के आदर्श रमणीय वाल्मीक रामायण को बनाया, और अशेष ज्ञान भाण्डार महाभारत जैसे महान् ग्रन्थ को निर्मित कर भारत का मुख उज्ज्वल किया।
हमारे त्रिादेवों में त्रिालोकपति की सृजन, पालन, संहार सम्बन्धिानी त्रिाशक्ति का अद्भुत विकास है। ब्रह्मदेव चतुर्मुख अथवा चतुर्वेद रचयिता, ललाट फलक लिपि विधााता, और समस्त विधिा विधाान सर्वस्व हैं। उनकी शक्ति वीण्ाा झंकार जीवनमृत जीवन संचारिणी, और उनकी वाग्देवी विविधा विद्या स्वरूपा है। भगवान् विभु चतुर्भुज हैं, चार हाथों से समस्त लोक का लालन - पालन करते हैं, वे क्षीर निधिा निकेतन हैं, इसीलिए स्तन - पायी जीव मात्रा को प्रतिदिन क्षीर पान कराते हैं, वे विश्वम्भर हैं,इसीलिए उनकी विश्वम्भरी शक्ति ब्रह्म स्तम्भ पर्यन्त का प्रतिपल पालन - पोषण करती है। भगवान् भूतनाथ की मूर्ति बड़ी भावमयी है, वह बतलाती है, संसार हित के लिए अवसर आने पर गरलपान कर लो, परन्तु जो कुसुम शायक बनकर मर्मवेधाीबाण प्रहार करता है, उसका संहार अवश्य करो, लोक लाभ के निमित्ता आकाश निपतित कठोर जलपात शिर पर वहन करो; पर उरगों की उरगता निवारण करने से मत चूको। शक्ति कितनी ही प्रचण्ड हो, दो क्या उसको दश भुजाएँ क्यों न हाें,परन्तु अपने साधान बल से उसे भी अंगमुक्त किए बिना मत छोड़ो। हमारा साहित्य जब इन मर्म की बातों को मर्मभरी भाषा में बतलाता था, और जब हममें उसके समझने की मार्मिकता थी - उस समय हम पृथ्वी को दूहते थे, समुद्र को मथकर चौदह रत्न निकालते थे, पंचभूत पर शासन करते थे, व्योमयानों द्वारा आकाश में उड़ते थे, समुद्र पर पुल बनाते थे, पहाड़ को कानी उँगली पर नचाते थे, देह होते विदेह थे, राजप्रासाद में रहकर गृह संन्यासी थे, काया कल्प करते थे, और राज त्यागी होकर भी कृपा पात्रा को राजपद पर प्रतिष्ठित कर देते थे। अधयात्म शक्ति इतनी प्रबल थी कि असीम पयोधिा जल को गण्डूष जल समझते थे,पर्वत को नत मस्तक कर देते थे, और चक्रवर्ती भूपाल के रत्न मण्डित मुकुट को पद रज द्वारा आरंजित बनाते थे।
कहते व्यथा होती है कि कुछ कालोपरांत हमारे ये दिन नहीं रहे। हममें प्रतिकूल परिवर्तन हुए और हमारे साहित्य में केवल शान्त और शृंगार रस की धाारा प्रबल वेग से बहने लगी। शान्त रस की धाारा ने हमको आवश्यकता से अधिाक शान्त और उसके संसार की असारता के राग ने हमें सर्वथा सारहीन बना दिया। शृंगार रस की धाारा ने भी हमारा अल्प अपकार नहीं किया, उसने भी हमें कामिनी कुल शृंगार का लोलुप बनाकर, समुन्नति के समुच्च शृंग से अवनति के विशालर् गत्ता में गिरा दिया। इस समय हम अपनी किर्ंकत्ताव्यविमूढ़ता, अकर्मण्यता, अकार्यपटुता को साधाुता के परदे में छिपाने लगे और हमारी विलासिता, इन्द्रिय परायणता, मानसिक मलिनता, भक्ति के रूप में प्रकट होने लगी। इधार निराकार की निराकारता में रत होकर कितने सब प्रकार बेकार हो गए, उबर आराधय देव भगवान् वासुदेव और परम आराधानीय श्रीमती राधिाका देवी की आराधाना के बहाने पावन प्रेम पन्थ कलंकित होने लगा। न तो लोक पावन भगवान् श्रीकृष्ण लौकिक प्रेम के प्रेमिक हैं, न तो वन्दनीया वृषभानु नन्दिनी कामनामयी प्रेमिका, न तो भुवन अभिराम वृन्दावन धााम अवधा विलास वसुंधारा है, न कलकल वाहिनी कलिन्द नन्दिनी कूल काम केलि का स्थान। किन्तु अनधिाकारी हाथों में पड़कर वे वैसे ही चित्रिात किए गये हैं। कतिपय महात्माओं और भावुक जनों को छोड़कर अधिाकांश ऐसे अनधिाकारी ही हैं, और इसीलिए उनकी रचनाओं से जनता पथच्युत हुई। केहरि पत्नी के दुग्धा का अधिाकारी स्वर्ण पात्रा है, अन्य पात्रा उसको पाकर अपनी अपात्राता प्रकट करेगा। मधयकाल से लेकर इस शताब्दी के आरम्भ तक का हिन्दी साहित्य उठाकर आप देखें, वह केवल विलास का क्रीड़ा क्षेत्रा और काम वासनाओं का उद्गार मात्रा है। सन्तों की वानी और कतिपय दूसरे ग्रन्थ अवश्य इसके अपवाद हैं। ऐसा ग्रन्थ जो हिन्दू जाति का जीवन सर्वस्व, उन्नायक, और कल्पतरु है, जो आदर्श चरित का भाण्डार और सद्भाव रत्नों का रत्नागार है, जो आज दश करोड़ से भी अधिाक हिन्दुओं का सत्पथ प्रदर्शक है, यदि है तो रामचरित मानस है, और वह गोस्वामी जी के महान् तप का फल है। कुछ ग्रन्थ हिन्दी भाषा में नीति और सद्विचार सम्बन्धाी और हैं, किन्तु उनकी संख्या बहुत थोड़ी है।
न वह साहित्य साहित्य है और न वह कल्पना कल्पना, जिसमें जातीय भावों का उद्गार न हो। जिन काव्यों, ग्रन्थों को पढ़कर जीवनी शक्ति जागरित नहीं होती, निर्जीव धामनियों में गरम रक्त का संचार नहीं होता, हृदय में देश - प्रेम - तरंगें तरंगित नहीं होतीं, वे केवल निस्सार वाक्य समूह मात्रा हैं। जो भाव देश को, जाति को, समाज को स्वर्गीय विभव से भर देते हैं, उनमें अनिर्वचनीय ज्योति जगा देते हैं, उनको स्वावलम्बी, स्वतन्त्रा, स्वधार्मरत, और स्वकीय कर देते हैं। यदि वे भाव किसी उक्ति की सम्पत्तिा नहीं, तो वह मौक्तिक हीन शुक्ति है। जिसमें मनुष्य जीवन की जीवन्त सत्ताा नहीं, जो प्रकृति के पुण्य पाठ की पीठ नहीं, जिसमें चारु चरित चित्रिात नहीं, मानवता का मधाुर राग नहीं, सजीवता का सुन्दर स्वाँग नहीं, वह कविता सलिल रहित सरिता है। जिसमें सुन्दरता विकसित नहीं, मधाुरता मुखरित नहीं, सरसता विलसित नहीं, प्रतिभा प्रतिफलित नहीं,वह कवि रचना कुकवि वचनावली है। जो गद्य अथवा पद्य जाति की ऑंखें खोलता है, पते की सुना राह पर लगाता है, मर्मवेधाी बातें कह सावधाान बनाता है, चूकें दिखा चौकन्ना करता है, चुटकियाँ ले सोतों को जगाता है, वह इस योग्य है कि सोने के अक्षरों में लिखा जावे; वह अमृत है, जो मरतों को जिलाता है। हिन्दी में ऐसे गद्य - पद्य विरल हैं। उर्दू कला में अकबर को यह कमाल नजर आता है - देखिए
बे परदा नजर आईं कल जो चन्द बीबियाँ।
अकबर जमींमें गैरते कौमी से गड़ गया।
पूछा जो उनसे आपका परदा वह क्या हुआ।
कहने लगी कि अक्ल पै परदों के पड़ गया।
पाकर खिताब नाच का भी जौंकष् हो गया।
सर हो गये तो बाल का भी शौकष् हो गया।
हम ऐसी कुल किताबें काबिले जश्ब्ती समझते हैं।
कि जिनको पढ़ के लड़के बाप को खब्ती समझते हैं।
किस तरह समझें कि क्या यह फिलसफष मरदूद है।
कौम ही को देखिए वह मुरदा है मौजूद है।
इस रंग में बा अकबाल अकबाल भी अच्छा कहते हैं, उनकी भी दो एक बातें सुन लीजिये।
मजहब नहीं सिखाता आपस में बैर रखना।
हिन्दी है हम वतन है हिन्दोस्ताँ हमारा।
यूनान मिश्र रोमा सब मिट गये जहाँ से।
अब तक मगर है बाकी नामों निशाँ हमारा।
कुछ बात है कि हस्ती मिटती नहीं हमारी।
सदियों रहा है दुश्मन दौरे जमाँ हमारा॥
सौभाग्य की बात है कि दृष्टिकोण बदला है, परम कमनीय कलेवरा शृंगार रस की कविता सुन्दरी कवि मानस समुच्च सिंहासन से धाीरे - धाीरे उतर रही है और उस पर लोकोत्तार कान्तिवती जातीय राग रंजिता कविता देवी सादर समासीन हो रही है। ललित लीला निकेतन वृन्दावन धााम अब भी विमुग्धाकर है, किन्तु सुजला सुफला शस्यश्यामला भारत वसुन्धारा आज दिन अधिाक आदरवती है। तरल तरंगमयी तरणि तनया उत्फुल्लकरी है, किन्तु प्रवहमान देश प्रेम पावन प्रवाह समान सर्वप्रिय नहीं। भगवान् मुरली मनोहर की मधाुमयी मुरलिका आज भी मोहती है, मोहती ही रहेगी। किन्तु अब हम उसके माधाुर्य में देश - प्रेम का पुट, धवनि से जातीयता की धाुन और सुरीलेपन में सजीव स्वर लहरी होने के कामुक हैं। प्र्रेम प्रतिमा राधिाका देवी की आराधाना आज भी होती है, किन्तु पुष्पांजलि अर्पणकर बध्दांजलि हो अब यही प्रार्थना की जाती है - माता! तू जिसकी हृदयेश्वरी है, उससे गम्भीर भाव से कह दे - भारत भूतल फिर भाराक्रान्त है।
प्रिय हिन्दी संसार के उदीयमान कवि वृन्द! हम अत्यन्त लालायित दृष्टि से आज आप लोगों का वदनारविन्द अवलोकन कर रहे हैं। हमारे आशा स्थल आप लोग हैं, हम किस - किस का नाम लें, आप लोगों में से अनेक मर्मस्पर्शी कविता करने वाले हैं - आप लोगों का कविता - क्षेत्रा में पदार्पण अभिनन्दनीय है। आप लोग मानस नन्दन कानन में बिहार कर ऐसे मन्दार कुसुम चयन करें, जिसके आमोद से हमारा साहित्य - संसार आमोदित हो जावे, और चिन्तासूत्रा में भाव के अनूठे रत्न गुंफित करके वह मनोरम हार प्रस्तुत करें, जो भारत माता के गले का अभूतपूर्व अलंकार हो। परमात्मा आपकी कल्पना को अलौकिक आलोकमयी, आपकी प्रतिभा को देशानुराग रंजिता और आपकी कविता को जातीयता ज्योतिर्वती करे, जिससे भारत माता पुत्रावती हो, और आपके कीर्तिकलाप के अलाप से दिगन्त धवनित हो उठे।
सम्मेलन
सम्मेलन का अर्थ है किसी उद्देश्य से समान विचार वालों का एकत्रिात अथवा सम्मिलित होना। धाार्मिक, सामाजिक,राजनीतिक, साहित्यिक एवं इसी प्रकार के अन्य सार्वजनिक कार्यों के भली प्रकार सम्पादित और मिलित शक्ति से परिचालित होने के लिए सम्मेलन बहुत अच्छा साधान है। परस्पर विचार परिवर्तन, सहयोग, और संसर्ग जनित सहानुभूति का भी वह हेतु है। हमारा आज का सम्मेलन इसका सुन्दर उदाहरण है, चौदह वर्ष के अल्प काल में उसके प्रभाव का देशव्यापी होना, इन्हीं भावों का फल है। साहित्य का व्यापक अर्थ लेकर सब प्रकार के साहित्य - सेवी इसमें सम्मिलित होते हैं, यह इसकी सफलता का दूसरा कारण है। मदरास प्रान्त जैसे हिन्दी अपरिचित प्रदेश में, उसका प्रचार करना, सम्मेलन का आदर्श कार्य है। उसके सत्कार्यों का उल्लेख प्राय: समाचारपत्राों में होता रहता है, और सूत्राों से भी आप लोगों को इस विषय में बहुत कुछ ज्ञात होगा। अतएव मैं केवल अपना वक्तव्य सुनाऊँगा, और वह भी थोड़े में, क्याेंकि समय और स्थान दोनों का संकोच है।
हम लोग हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाना चाहते हैं - बनाना नहीं चाहते, वरन् जो वास्तविक स्वत्व उसका है, वह उसे देना चाहते हैं। परन्तु बहुत से वास्तविक स्वत्व भी योग्यता के अभाव में अप्राप्य ही रह जाते हैं, विकसित होना प्रसूत समूह का वास्तविक स्वत्व है, किन्तु विकास योग्यता की कमी कितनों को अर्ध्द विकसित ही रखती है। यदि हमको राष्ट्रीयता के उच्च मंच पर हिन्दी को बिठाना है, तो उसे सर्वगुण सम्पन्न बनाना, सुप्रयोग परिजात पुष्प से सजाना, सरलता अलंकार से अलंकृत करना और सर्वप्रियता के कर कमलों से मान का पान दिलाना होगा। हिन्दी साहित्य का सब विभाग अभी अधाूरा है, परिश्रम करके उसको पूरा करना होगा। पुरातत्तव, इतिहास, अर्थशास्त्रा, रसायन विज्ञान, मनोविज्ञान, भाषाविज्ञान, ज्योतिष, व्याकरण,प्राणिशास्त्रा, उदि्भद विद्या इत्यादि की ओर - अभी पूरी तौर पर दृष्टि भी आकर्षित नहीं हुई है। जिन क्षेत्राों में कार्य हो रहा है, उन क्षेत्राों में भी अधिाक तत्परता और मनोनिवेश की आवश्यकता है। नाटय कला व काव्य कला को जितना समुन्नत होना चाहिए उतना समुन्नत वह आज भी नहीं हुई। हम युनिवर्सिटियों में हिन्दी को सर्वोच्च कक्षाओं में प्रवेश कराना चाहते हैं - किन्तु क्या यह सर्वांगपूर्ण है? इधार उद्योग हो रहा है, किन्तु और अधिाक उद्योगअपेक्षितहै।
अंग्रेजी बड़ी उन्नत भाषा है, उसका भाण्डार बहुमूल्य है और अशेष रत्न समूह का आकर है, योरोप की कतिपय अन्य भाषाएँ भी श्रीसम्पन्न हैं। भारतीय भाषाओं में संस्कृत, बंग भाषा, मरहठी और गुजराती ने बड़ी उन्नति की है, संस्कृत तो संस्कृत ही है, किन्तु बंग भाषा और मरहठी भी सौभाग्यवती हैं। हम लोगों को चाहिए, जिस उद्यान से हमको मनोरम कुसुम समूह मिले, वहीं से हम उसे संग्रह करें, जिस भाण्डार से हमको रत्न राशि की प्राप्ति हो, वहीं से हम उसे लें, और उनके द्वारा हिन्दी देवी को अलंकृत करें। हाँ, मराल समान नीर - क्षीर विवेकी होना चाहिए। क्षीर के धाोखे हम नीर कदापि न ग्रहण करें। मधाुकर समान कुसुम रसग्राही हों, किन्तु कंटकों से बचते रहें।
खेद की बात है कि संस्कृत के धाुरंधार विद्वान् आज भी हिन्दी भाषा के प्रेमी नहीं हैं, अंग्रेजी के वृत्ताविद्यों में भी अधिाकांश इसी पथ के पथिक हैं। आज भी अनेक हिन्दू सन्तान उर्दू फारसी के ही एकान्त भक्त हैं, यहाँ तक कि हिन्दी को अपनी मातृभाषा भी नहीं मानते। कोई बंगाली, गुजराती, महाराष्ट्री, ऐसा न मिलेगा, जो बँगला, गुजराती और मराठी को अपनी मातृभाषा न मानता हो, किन्तु हमीें लोगों में कुछ ऐसे सज्जन हैं, जिनकी ऑंखें अब तक नहीं खुली हैं। हमारे राजा - महाराजाओं में से अनेक ऐसे हैं, कि जिनकी दृष्टि अब तक इधार नहीं फिरी, यह मर्मबेधाी व्यथा है। हैदराबाद के अधाीश्वर ने वहाँ उर्दू यूनिवर्सिटी खोल दी, वे अनेक उर्दू विद्वानों का समादर करते हैं, केवल उर्दू सेवा के लिए उनको बड़ी - बड़ी कम्पनियाँ मासिक वृत्तिायाँ देती हैं। किन्तु इस प्रकार की सेवा हिन्दी देवी की आज तक हमारे किसी महाराजा ने नहीं की। अनेक बडे - बड़े धानपात्राों की भी यही दशा है। दृष्टिकोण परिवर्तन की आवश्यकता है, कैसे समुचित दृष्टि इन महानुभावों और महिपालों की हम हिन्दी देवी की ओर आकर्षित करे - यह एक मार्मिक प्रश्नहै।
हिन्दी का प्रचार बहुत कुछ हुआ है। जिस समय मैंने हिन्दी देवी के कमनीय चरण कमल के समीप आसीन होकर उनकी सेवा आरम्भ की थी, उस समय घोर अन्धाकार था, कहीं - कहीं कोई क्षीणप्रभ नक्षत्रा दृष्टिगत होता था, अथवा किसी विशेष विभाग का तिमिर, ज्योतिर्मान तारक द्वारा विदूरित हो रहा था। किन्तु इस समय हिन्दी संसार आलोकमय है, तथापि कहीं - कहीं अब भी अन्धाकार घनीभूत है, वहाँ भी प्रकाश फैलाने की आवश्यकता है। संस्कृत के जितने विद्यार्थी हैं, उनके लिए दूसरी भाषा की भाँति हिन्दी पढ़ना और कालेजों के हिन्दू छात्राों का सेकण्ड लैंगवेज (Second Language) संस्कृत के अभाव में हिन्दी होना आवश्यक है। हिन्दी प्रधाान प्रान्तों में नगर - नगर नागरी प्रचारिणी सभाओं का खुलना, व्यापार वृत्तिा के हिन्दुओं का समस्त कार्य हिन्दी भाषा में होना, इस प्रान्त की कचहरियों में अधिाक संख्या में हिन्दी आवेदन पत्राों का दिया जाना,अथवा दस्तावेजों का हिन्दी में लिखा जाना, जनता में हिन्दी उपयोगिता का भाव फैलाना, प्रत्येक नगर अथवा ग्राम के प्रसिध्द - प्रसिध्द मन्दिरों में हिन्दी पुस्तकालयों का खोला जाना, हिन्दी भाषा के मासिक पत्राों और समाचार - पत्राों को उत्तोजन देना और उनका प्रचार बढ़ाना, हमारा प्रधाानर् कत्ताव्य है। यहर् कत्ताव्य कैसे कार्य में परिणत हो, यह विषय भी विचारणीय है।
सम्मेलन की दृष्टि इन सब बातों पर है, वह जी - जान से हिन्दी भाषा की समुन्नति और प्रचार कार्य में लग जाना चाहता है, किन्तु आप लोग जानते हैं कि प्रत्येक कार्य धान - जन की अपेक्षा रखता है। जब तक आप लोग प्रचुर धान और योग्य जनों द्वारा सम्मेलन की उपयुक्त सहायता न करेंगे, तब तक वह वांछनीय कार्यों और उद्योगों के करने में असमर्थ रहेगा,आशा है आप लोग इस निवेदन पर उचित दृष्टि देंगे।
एक बडे महत्तव के विषय की ओर मुझको आप लोगों की दृष्टि और आकर्षण करना है। आज हम लोग यहाँ हिन्दी भाषा को समुन्नत करने, उसका प्रचार करने, उसकी उत्तारोत्तार श्री वृध्दि करने के विचार से एकत्रिात हैं। किन्तु आप लोग जानते हैं कि हिन्दू आधाार है - हिन्दी आधोय, हिन्दू प्रसून है - हिन्दी विकास, हिन्दू मयंक है - हिन्दी कौमुदी, हिन्दू सलिल है - हिन्दी लहरी, हिन्दू मधाु है - हिन्दी माधाुरी। अतएव हिन्दी जीवन के लिए हिन्दू जाति की सजीवता वांछनीय है। किन्तु यही हिन्दू जाति आज जर्जरित है, प्रतिदिन उच्छिन्न हो रही है, तिरस्कृत, लांछित, पद दलित और असम्मानित है, और उसका भविष्यत् गगन तिमिराच्छन्न हो रहा है। आप लोग इधार दृष्टि आकर्षित कीजिए और यह समझिए कि हिन्दू जाति के अस्तित्व और उन्नति पर ही हिन्दी की समस्त भलाइयाँ निर्भर हैं। अतएव आप सज्जनों का, विशेषत: उत्साहशील युवक वृन्द का, यह उद्योग होना चाहिए, कि उत्तोजित कामनाओं के वश होकर कामधोनु की रक्षा से मुँह न मोड़ा जावे, और कल्पना के आधाार पर कल्पतरु को निर्मूल न किया जावे। अन्त में हिन्द, हिन्दू और हिन्दी की मंगलकामना करते हुए इन कतिपय पंक्तियों के साथ मैं इस व्याख्यान को समाप्त करता हूँ -
अमरावती समान बने पुर पंक्ति हमारी।
अमर निकर से रहें परम प्रमुदित नरनारी।
सकल कल्पना कलित कल्प पादप बन जावे।
अखिल कामना कामद कामदुधाा पद पावे।
चित चिन्ता हो जाय चारु चिन्तामणि जैसी।
बने भावना भावमयी भव भामा ऐसी।
पा गुरुता गौरवित देव गुर लौं गुरु जन हों।
साहस में सब परम साहसी उमा सुअन हों।
सु छवि निकेतन मंजु मीन के तन जैसे हों।
सुरपुर सुख से सुखी लोग सुरपति ऐसे हों।
शची सदृश मति मती सती शुचि रुचि मणिमाला।
हों कमनीया काम कामिनी जैसी बाला।
नंदन बन ऐसे सफल बन उपवन बनें मनोज्ञ तम।
पाकर प्रभूत सुविभूति हो भारत भूतल स्वर्ग सम।
दोहा
पालक प्रिय तरुअंक में कलित ललित करकेलि।
फैल फैल फूले फले सुफलद हिन्दी बेलि।
''हरिऔधा''
[ हिन्दी साहित्य सम्मेलन के चौदहवें अधिावेशन (दिल्ली, 1922) में, सभापति के आसान से दिया गया भाषाण। ]
राष्ट्रभाषा
भारतवर्ष की राष्ट्रभाषा कौन हो सकती है, इस विषय पर बहुत कुछ लिखा जा चुका है और अब भी लिखा जा रहा है। मत - भिन्नता स्वाभाविक है। सबके विचार एक - से नहीं होते। किसी की दृष्टि संकीर्ण होती है, किसी की व्यापक। कोई उदात्ता भाव से ऊँचे उठकर लेखनी चलाता और सोचता है, कोई अपने स्वार्थ पर विशेष दृष्टि रखकर अपने भावों को प्रकट करता है। इसलिए मत - द्वैधा होना आश्चर्यजनकनहीं।
देश और जाति - हित के विषय में भी इसी प्रकार की प्रवृत्तिा दृष्टिगत होती रहती है। आवश्यकता और स्वार्थपरता की जटिलता अविदित नहीं। फिर भी अपना विचार प्रकट करने का अधिाकार सभी को है। इसी सूत्रा से उक्त विषयों पर मैं भी अपना विचार प्रकट करता हूँ।
किसी देश की राष्ट्रभाषा वही भाषा हो सकती है जो देश - व्यापिनी हो और जिसे सर्वसाधाारण का अधिाकांश भाग भी समझ सकता हो। यह सत्य है सर्वसाधाारण का ज्ञान उतना नहीं होता जितना विद्वज्जनों और पढे - लिखे लोगों का होता है। किन्तु, जो भाषा ऐसी होती है जो विद्वज्जनों और पण्डित - समाज तक ही परिमित होती है, वह राष्ट्रभाषा की अधिाकारिणी नहीं हो सकती। साहित्यिक भाषा और बोलचाल की भाषा में प्राय: अन्तर होता है। इसीलिए राष्ट्रभाषा बनने की अधिाकारिणी प्राय: बोलचाल की भाषा ही होती है।
भारतवर्ष में बोलचाल की भाषा प्रत्येक प्रान्त की भिन्न - भिन्न है। जैसे पंजाब, युक्त प्रान्त, बिहार, बंगाल, उड़ीसा और आसाम की बोलचाल की भाषाओं में अन्तर है, वैसे ही राजस्थान, गुजरात, महाराष्ट्र और मद्रास प्रान्त की बोलचाल की भाषाओं में भी भिन्नता है। ऐसी अवस्था में यह प्रश्न उपस्थित होता है कि भारतवर्ष की राष्ट्रभाषा कौन - सी भाषा हो सकती है। हिन्दी भाषा में यह विशेषता है कि वह युक्त प्रान्त, बिहार, मधयहिन्द और राजस्थान में भली प्रकार समझी जाती है। पंजाब और उड़ीसा में भी यह विशेष दुर्बोधा नहीं है। इसलिए भारत की अन्य प्रान्तीय बोलचाल की भाषाओं से उसकी व्याप्ति अधिाक है। इसके अतिरिक्त हिन्दी भाषा में दूसरी विशेषता यह भी है कि उसमें जो संस्कृत के शब्द आते हैं, वे भारतवर्ष के सब प्रान्तों में समझे जा सकते हैं। जैसे - मुख, नेत्रा, धान, जन, प्रकाश, अन्धाकार इत्यादि। यह गौरव भारतवर्ष की किसी प्रान्तीय भाषा को नहीं प्राप्त है। अतएव मेरा विचार है - यदि भारतवर्ष की राष्ट्रभाषा हो सकती है तो 'हिन्दी' भाषा ही हो सकती है।
कहा जाता है कि हिन्दी भाषा अधिाक संस्कृतगर्भित होती है; अतएव वह बोलचाल से दूर पड़ जाती है। इसलिए वह राष्ट्र - भाषा कदापि नहीं हो सकती। हाँ, यदि वह अधिाक सरल और सुबोधा बना दी जाए, तो उसका राष्ट्रभाषा होना संभव है। परन्तु उर्दू भाषा के पक्षपाती इसको स्वीकार नहीं करते। वे कहते हैं - यदि राष्ट्रभाषा हो सकती है तो 'उर्दू' भाषा हो सकती है। एक दल ऐसा है, जो यह कहता है कि न तो हिन्दी भाषा राष्ट्रभाषा हो सकती है, न उर्दू। यदि इन दोनों के मेल से एक अधिाक व्यापिनी और सुबोधा भाषा का प्रचार किया जाए और दोनों पक्ष का विरोधा मिटाने के लिए उसका नाम 'हिन्दुस्तानी' रख दिया जाए और उसे व्यवहार में परिणत किया जाए, तो वह निस्सन्देह राष्ट्रभाषा हो सकती है। इस दल के लोग इसी दृष्टि से आजकल हिन्दुस्तानी की ओर आकर्षित हैं और अपनी खिचड़ी अलग पका रहे हैं। मैं यह कहूँगा कि इस प्रकार के विचार युक्तिसंगत नहीं हैं। उर्दू कोई अन्य भाषा नहीं है, वह हिन्दी भाषा का रूपान्तर - मात्रा है। उसकी जीवन - सर्वस्व हिन्दी भाषा की क्रियाएँ हैं,और हिन्दी भाषा के विभक्ति, प्रत्यय आदि ही उसके अस्तित्व के आधाार हैं। इसलिए थोड़े - से अरबी और फारसी के शब्द उसमें आ जाने से वह अन्य भाषा नहीं मानी जा सकती। आजकल हिन्दी भाषा में अंग्रेजी के या योरप की अन्य भाषाओं के रेल, तार, डाक, कचहरी, इत्यादि कुछ शब्द मिल गये हैं। और मिलते जा रहे हैं। किन्तु, इससे उसके हिन्दीपन में कोई अन्तर नहीं पड़ा है। फिर फारसी या अरबी के कतिपय शब्द उसमें आ जाने से वह हिन्दी छोड़ अन्य भाषा कैसे हो जाएगी? कहा जायेगा कि उर्दू के पक्षपाती इस दलील को नहीं मान सकते।
वह एक विशेष समाज की भाषा मान ली गयी है और उसका अधिाक प्रचार भी है। उसमें बहुत - सी पत्रा - पत्रिाकाएँ भी निकल रही हैं और अनेक ग्रन्थों की रचना भी हो गयी है। अतएव उसे अन्य भाषा मानना ही पडेग़ा। जिसके जी में आवे, वह उसे अन्य भाषा मान लेवे; परन्तु हिन्दी - संसार अब तक उसको हिन्दी का ही एक रूप मानता आया है। यह हिन्दी - संसार का दुराग्रह नहीं है, उसके विचार में वास्तविकता है।
दिल मल गये गेसुओं में फँस के ,
कुम्हला गये फूल रात बस के।
इस शेर में दस शब्द हैं, जिनमें से दो शब्द 'दिल' और 'गेसू' फारसी के हैं और बाकी आठ शब्द हिन्दी के। बतलाइए,जिस पद्य में आठ शब्द हिन्दी के हैं, पद्य 'हिन्दी' का नहीं है और दो शब्द आने से वह 'उर्दू' का हो गया! क्या यह न्यायसंगत कथन है? इसी शेर की बात क्या, उर्दू का कौन शेर ऐसा है जिसमें हिन्दी की क्रियाएँ, विभक्ति, प्रत्यय इत्यादि न भरे हों?ऐसी अवस्था में उर्दू को हिन्दी का रूपान्तर छोड़ और कुछ नहीं कहा जा सकता। हिन्दी के शब्दों को निकाल दीजिये, तो उर्दू उर्दू न रह जाएगी। ऐसे ही जिस हिन्दुस्तानी का राग एक दल अलाप रहा है, वह हिन्दी का रूपान्तर न होकर और क्या है?फिर यह कहाँ का न्याय होगा कि हिन्दी का नाम लुप्त कर उसके स्थान पर हिन्दुस्तानी शब्द का प्रयोग किया जाए और उसके चिरकालिक स्वत्व को आघात पहुँचाया जाए? जिस कार्य से देश, जाति और समाज का हित हो, उसके लिए बहुत बडे से बड़ा त्याग किया जा सकता है, मैं इस बात को स्वीकार करता हूँ। किन्तु, 'हिन्दी' के स्थान पर 'हिन्दुस्तानी' शब्द के प्रयोग ने जो विवाद उपस्थित कर दिया है, उसपर भी दृष्टि डालनी चाहिए। आज दिन उर्दू के पक्षपाती कहते हैं कि उनके उर्दू को मटियामेट कर देने के लिए हिन्दीवालों ने 'हिन्दुस्तानी' शब्द को गढ़ा है। हिन्दी के पक्षपाती यह कहते हैं कि 'हिन्दी' और 'हिन्दुस्तानी'शब्द का एक ही अर्थ है; फिर हिन्दी के गले पर छुरी चलाकर 'हिन्दुस्तानी' नाम क्यों दिया जा रहा है? क्या यह कार्य ऐसा नहीं है जो हिन्दी भाषा की चिरकालिक प्रतिष्ठा में धाब्बा लगा रहा है? हिन्दी - संसार ने सरल से सरल हिन्दी लिखी है और उसका प्रचार किया है; किन्तु कभी उसका नाम बदलने की चेष्टा नहीं हुई। अब क्यों व्यर्थ का झगड़ा किया जा रहा है, इसको भाषा - शास्त्रा के मर्मज्ञों को विचारना चाहिए। मैंने सरल से सरल हिन्दी के ग्रन्थ लिखे हैं और संस्कृत - गर्भित हिन्दी के ग्रन्थ भी। पर इसमें से किसी का अनादर नहीं हुआ। दोनों प्रकार के मेरे हिन्दी के ग्रन्थ समान रूप से ही आदृत हुए। ऐसी अवस्था में केवल सरलता लाने के बहाने से हिन्दी का नाम ही लोप कर देना कहाँ तक विवेकसंगतहै!
मैं ऊपर कह आया हूँ कि हिन्दी में जो संस्कृत के शब्द आते हैं, वे सब प्रान्तों में समझे जा सकते हैं। किन्तु, जो शब्द फारसी - अरबी के आते हैं, वे अन्य प्रान्तों के लिए दुर्बोधा होंगे।
'' किसी का कब कोई रोजश्ेसियह में साथ देता है।
कि तारीकी में साया भी जुदा रहता है इन्साँ से। ''
इस शेर में 'रोजश्ेसियह', 'तारीकी', 'साया' और 'इन्सा। ' ऐसे शब्द आये हैं, जिनको दक्षिण के प्रान्तवाले कभी नहीं समझ सकेंगे। किन्तु, यदि इनके स्थान पर 'दुर्दिन', 'अन्धाकार', 'छाया' और 'मनुष्य' लिख दिया जाए, तो उनको दक्षिण का प्रत्येक प्रान्त समझ लेगा। इसलिए कि संस्कृत शब्दों का प्रयोग आवश्यकतानुसार अपनी भाषा में दक्षिण प्रान्तवाले भी बराबर करते रहते हैं। आर्यभाषा से सम्बन्धिात पंजाबी, राजस्थानी, गुजराती, मरहठी, उड़िया, बंगाली एवं आसामी आदि भाषाओं में शुध्द अथवा अपभ्रंश संस्कृत शब्दों का प्रयोग तो होता ही है, द्राविड़ी, मलयालम और तेलगू आदि भाषाओं में भी इनके प्रयोग की प्रचुरता है। अधिाक दूरवर्ती मद्रास प्रान्त के मलयालम भाषा के एक पद्य को देखिए और जिन शब्दों के नीचे लकीर खींची है, उनपर दृष्टि डालिए तो ज्ञात हो जायेगा कि मलयालम भाषा में भी किस प्रकार संस्कृत शब्दों का प्रयोग होता है। विस्तारभय से अन्य भाषाओं को छोड़ता हूँ -
शरदचन्द्र उदिच्च q मोगुंलितो।
क्षीरांबुधिा ताने उपरन्नु काणन्नितो।
यही कारण है कि फारसी - अरबी के शब्द भारतीय अनेक प्रान्तों में अपरिचित और संस्कृत के शब्द परिचित हैं। और यह बात भी ऐसी है कि जो इसको प्रमाणित करती है कि यदि भारत की राष्ट्रभाषा कोई हो सकती है तो 'हिन्दी' ही भाषा हो सकती है, कोई अन्य भाषा नहीं।
एक बात मैं और कहे देता हूँ कि हिन्दी - उर्दू या हिन्दुस्तानी का विवाद न तो समयानुकूल है और न देश - कालोपयोगी। उचित यह ज्ञात होता है कि इस व्यर्थ के विवाद को छोड़कर और उर्दू को हिन्दी का रूपान्तर एवं हिन्दुस्तानी को उसका पर्यायवाची शब्द समझकर शुध्द हृदय से विवादास्पद विषयों का उठाना हम छोड़ दें। यह कार्य सब प्रकार उपकारक और सामयिकता के अनुकूल होगा।
रही बात लिपि की। इस विषय में मैं इतना ही कहूँगा कि हिन्दी - वर्णमाला - जैसी सरल, पूर्ण, सुविधााजनक एवं यथार्थ उच्चारण की अनर्ुवत्तिानी अन्य कोई भाषा है ही नहीं। रोमन लिपि और पारसी अथवा अरबी वर्णमाला में यह दोष है कि लिखा जाता है कुछ और पढ़ा जाता है कुछ। हिन्दी के अक्षर ही ऐसे हैं जिनके द्वारा जो कुछ लिखा जाता है, वही पढ़ा जाता है। और बातें भी इस विषय में बतलायी जा सकती हैं; परन्तु वह पिष्ट - पेषण्ामात्रा होगा। अतएव मैं यही कहूँगा कि राष्ट्र - लिपि यदि हो सकती है तो 'हिन्दी' ही हो सकती है, अन्य नहीं।
(सन्दर्भ - सर्वस्व)
कवि कौन है
कवि कौन है? यजुर्वेद के चालीसवें अधयाय का आठवाँ मन्त्रा यह है ''कविर्मनीषी परिभू: स्वयंभू:''। परमात्मा कवि है, मनीषी है, सर्वव्यापी है और स्वयमेव है। इन नामों में परमात्मा को सर्वप्रथम कवि नाम से क्यों अभिहित किया गया है? इसलिए कि ब्रह्मस्तम्भ पर्वत जो कुछ इन्द्रियगोचर है, उसमें उसकी अलौकिक मार्मिकता और अनिर्वचनीय कवि - कर्म का विकास है। चाहे आप हिमधावल पर्वत मान लें, चाहे उत्तााल तरंग तोयनिधिा, चाहे लहरीलीलासंकुल सरिता, चाहे शस्यश्यामला धारित्राी, चाहे फल - कुसुम भारावनत तरुपुंज, चाहे सुनील निर्मल गगन, चाहे तेज: पुंज - कलेवर मरीचिमाली, चाहे सरससुधाòावी मयंक,चाहे चमत्कारमय तारकसमूह, चाहे कोमलकान्त शरीर, चाहे एक रजकण, आप जिसे लेंगे उसी में उस अनन्त - लीलामय की अलौकिक काव्यकला दृष्टिगोचर होगी। उसी में उसकी अभूतपूर्व मार्मिकता दिखायी पडेग़ी। यही सब अद्भुत व्यापार सर्वप्रथम मानव दृष्टि को उसकी ओर आकर्षित करते हैैं। इसीलिए सर्वप्रथम उसका परिचय कवि नाम द्वारा ही दिया गया है। मन,बुध्दि, हृदय, नेत्रा और मस्तिष्क की रचना में जो मार्मिकता लक्षित होती है, जो अनिर्वचनीय प्रतिभा प्रतिभासित होती है,उसकी इयत्ताा नहीं हो सकती। यह वह अगाधा समुद्र है, जो आज भी अनवगाहित है; परन्तु जिसने इसका जितना ही अधिाक भेद जाना है, इस जटिल ग्रन्थि को जितना ही खोला है, इस असीम और अनन्त अथच नितान्त मनोमुग्धकर अपार पारावार में जितना ही अधिक अवगाहन किया है, वह उतना ही अधिाक भाग्यशाली और उतना ही अधिाक उच्च पदारूढ़ है। उसके द्वारा इस मंगलमयी सृष्टि का जितना हित - साधान होता है, मानव समूह का वरंच प्राणिमात्रा का जितना श्रेय होता है, अन्य द्वारा उतना होना असम्भव है। 'सर्वंखल्विदं ब्रह्म, जीवो ब्रह्मैवनापर:', 'ईश्वर अंश जीव अविनाशी', ये वाक्य हमको अभेद का पाठ पढ़ाते हैं, बतलाते हैं कि जीवन यदि अविद्याग्रस्त नहीं है, तो वह समझ सकता है कि वह क्या है? शेली का कथन है कि ''सुन्दर और साधाारण दृश्यों को देखकर बच्चों के मुँह से जो आनन्द की किलकारी निकलती है, उच्चतर सौन्दर्य की अभिव्यक्ति से कवि का आनन्द भी वैसे ही काव्य रूप में उछल पड़ता है। पहला मरणाधाीन है परन्तु दूसरा अमर है। कवि उस अनन्त और एक का अंश है और इसी कारण उस अनन्त लीलामय की लीलाओं पर अपनी लीला का स्वांग रचनेवाला, उसके अनन्त सौन्दर्यमय दृश्यों द्वारा अपनी सौन्दर्यमयी कविता को सजीव बनानेवाला, उसकी अलौकिक भावमयी रचना की कलित कुसुमावली द्वारा अपनी कविताकामिनी को सुसज्जित करनेवाला, उसके औदार्य आदि महान गुणों की मंजु मुक्ता द्वारा अपने मानस को सजानेवाला एक सहृदय जन भी कवि नाम से ही पुकारा जाता है। अग्निपुराण में लिखा है -
नरत्वं दुर्लभं लोके , विद्या तत्रा सु दुर्लभा।
कवित्वं दुर्लभं तत्रा शक्तिस्तत्रा सुदुर्लभम्।
नरत्व दुर्लभ है, विद्या प्राप्ति उससे दुर्लभ है, कवित्व उससे दुर्लभ है, शक्ति उससे भी दुर्लभ है। हमीें नहीं कहते कि'प्राणभृत्सु नरा श्रेष्ठा:' अन्य लोग भी कहते हैं कि 'इन्सान अशरफुलमखलूकात है', इसीलिए नरत्व दुर्लभ है। नरत्व प्राप्त होने पर विद्वान होना कठिन है। आप लोग स्वयं जानते हैं कि मनुष्यों में कितने वास्तव में विद्वान हैं। विद्वानों से उच्च कवित्व अर्थात् कवि का पद है और इसीलिए शायद महात्मा तुलसीदास कहते हैं 'कवि न होउँ नहीं चतुर कहाऊँ। थोड़ी सी काव्यप्रतिभा पाकर अथवा काव्य रचने में लब्धाप्रतिष्ठ होकर किम्वा साहित्य निर्माण में स्वाभाविक योग्यता लाभ कर अनेक विद्वान न जाने क्या - क्या कह जाते हैं। हमारे पण्डितराज जगन्नाथ कहते हैं -
मधाु द्राक्षा साक्षादमृतमथवामाधर सुधाा।
कदाचित्केषांचित्खलु हि विदधाीरन्न विमुदम्।
धा्रुवन्ते जीवन्तोप्यहह मृतका मन्द मतयो।
न येषामानन्दं जनयति जगन्नाथ भणिति:।
शहद, अंगूर, अमृत और कामिनीकुल का अधारामृत कभी किसी को ही आनन्दित करते हैं। परन्तु वे मूर्ख तो जीते हुए ही मृतक तुल्य हैं जिन्हें कि पण्डिराज जगन्नाथ की कविता आनन्द न दे।
उर्दू के मशूहर शायर नासिख फरमाते हैं -
इक तिफ्त दबिस्ताँ है फलातू मेरे आगे ,
क्या मुँह है अरस्तू जो करे चूँ मेरे आगे।
क्या माल भला कसरे फरेदूँ मेरे आगे ,
काँपे है पड़ा गुम्बदे गरदूँ मेरे आगे।
मुरगाने उलुल अजतेहा मानिन्द कबूतर ,
करते हैं सदा इज्ज से गूँ गूँ मेरे आगे।
बोले है यही खामा कि किस किस को मैं बाँधाूँ ,
बादल से चले आते हैं मजमूँ मेरे आगे।
वह मारे फलक काहे कशाँ नाम है जिसका ,
क्या दख्ल जो बल खाके करे फू मेरे आगे।
परन्तु, कवि चक्र चूड़ामणि महामान्य महात्मा तुलसीदास कहते हैं - 'कवि न होउँ', क्यों? ऐसा वे क्यों कहते हैं? इसलिए कि 'जेहि जाने जग जाय हेराई' अथवा 'आराँ कि खबर शुद खबरश बाज नयामद', वे जानते हैं कि कवि शब्द का क्या महत्तव है और इसीलिए वे कहते हैं कि मैं कवि नहीं हूँ। पृथ्वी की आकर्षण शक्ति के आविष्कारक प्रसिध्द विज्ञानवेत्ताा न्यूटन ने अन्त समय कहा था - ''परमात्मा की अलौकिक रचना अगाधा उदधिा के कूल पर मैं सदा एक बालक कि भाँति खेलता रहा। कभी एकाधा चमकीले कंकर मेरे हाथ लग गए। किन्तु, उसकी महिमा का अगाधा समुद्र आज भी बिना छाने हुए पड़ा है। ''वास्तव बात यह है कि अपरिसीम अनन्त गगन में उड़नेवाला एक छुद्र विहंग उसका क्या पता पा सकता है? गोस्वामीजी के'कवि न होउँ' वाक्य की गम्भीर धवनि यही है। उन्हाेंने इस वाक्य द्वारा यह तो प्रकट किया है कि मैं कवि नहीं हूँ। किन्तु,उनके इस वाक्य का गाम्भीर्य ही यह प्रकट करता है कि वे कितने योग्य कवि थे। हमलोगों को भी उन्हीं का पदानुसरण करना चाहिए। हमलोगों को अपनी समाजसेवा द्वारा अपने भावोद्यान के सुमनों द्वारा, अपनी कवितालता के सौरभित दलों द्वारा,मनोराज्य के विपुल विभव द्वारा, प्रतिभा - भाण्डार के बहुमूल्य मणि द्वारा, हृदय के सरस प्रवाह द्वारा, देश के लिए, जाति के लिए, लोकोपकार के लिए उत्सर्गीकृत जीवन होना चाहिए। जनता आप ही कहेगी कि हम कौन हैं। काम चाहिए, नाम नहीं।'कर्म्मण्येवाधिाकारस्ते मा फलेषु कदाचन'। एलिजाबेथ ब्राउनिंग का कथन है कि 'कवि सौन्दर्य का ईश्वर प्रेरित आचार्य है'। मैथ्यू अर्नाल्ड कहते हैं - ''जिसके काव्य में मानव - जीवन की गुप्त समस्यायें प्रतिफलित होती हैं और सौन्दर्य के साथ उन गूढ़ समस्याओं का समन्वय होता है, वही कवि है''। कार्लाइल का वचन है - ''कवि और भविष्यवक्ता एक ही प्रकार का मंगल समाचार सुनाते हैं। जो कवि है वही वीर है। सत्य और काव्य दोनों एक वस्तु हैं। काव्य की जीवन - धाारा सत्य है। जो कवि है, वही सच्चा शिक्षक है''। टेनिसन कहता है - ''सिर पर अनेक ताराओं का मुकुट धाारण किए सोने के देश में कवि ने जन्म धाारण किया था। घृणा की घृणा, उपेक्षा की उपेक्षा और प्रेम का प्रेम यही उसको भेंट में मिला था। उसकी दृष्टि जीवन और मरण के बीच से भले और बुरे के भीतर से होकर दूर तक देखती है। '' जो कवि नाम के अधिाकारी हैं उनको इन पंक्तियों का अवतार होना चाहिए, अन्यथा कवि कहलाना परमात्मा के पुनीत नाम का अपमान करना है।
कवि - कर्म्म
कवि - कर्म्म के विषय में सूत्रारूप से ऊपर कुछ कहा गया है, उसकी व्याख्या आवश्यक है। कविता और काव्य ही कवि - कर्म्म है। शेक्सपियर का कथन है - ''कवि की दृष्टि स्वर्ग से पृथ्वी और पृथ्वी से स्वर्ग तक आती - जाती रहती है। उसकी कल्पना अज्ञात को मूर्तिमान कर देती और लेखनी उस पर रंग चढ़ाकर उसे मर्त्यलोक का - सा नाम - धााम दे डालती है। अरस्तू का कथन है ''साधाारणत: सब प्रकार की कलित कलाओं की भाँति काव्य का भी स्वाभाविक गुण्ा प्रकृति का अनुकरण करना ही है। प्रकृति का अर्थ सृष्टिपदार्थमयी बाह्य प्रकृति नहीं है वरन् मेरा अभिप्राय विश्व की सृष्टिक्षमशक्ति और उसमें छिपे हुए धा्रुव सत्य से है। काव्य इतिहास की अपेक्षा महत् और दार्शनिक विचार से पूर्ण होता है। वह विश्वव्यापी मूल पदार्थ की अभिव्यक्ति है। '' वर्ड्सवर्थ बतलाते हैं - ''काव्य एक सत्य है, वह सत्य स्थानीय वा व्यक्तिविशेष के लिए सीमाबध्द नहीं है,वह सर्वसाधाारण की वस्तु है। वह बड़ा ही शक्तिशाली है। मनोवृत्तिा की गति की भाँति वह भी बिल्कुल हृद्गत बात है। बाह्य प्रमाण के ऊपर उसकी स्थिति नहीं है। काव्य प्रकृति और मानव की प्रतिमूर्ति है। कवि के लिए कोई पराया नहीं। वह सबको आनन्द देने और सबको सन्तुष्ट करने के लिए बाधय है। सत्य की एक महान् कल्पना के भीतर कवि और भविष्यवक्ता एक - दूसरे के साथ एक ही योगसूत्रा में गुँथे हुए हैं। ये दोनों सबको अपना बना लेते हैं। इसकी उनमें ईश्वर की दी हुई विशेष शक्तिर् वत्तामान है। उनके ज्ञानचक्षुओं के सामने अदृष्टपूर्व औरनए - नए दृश्यपट खुलते हैं। महान् कवि के विशाल हृदयराज्य में धार्म की राजधाानी है। ''
यह तो कवि - कर्म्म की परिभाषा हुई। उसका व्यावहारिक रूप क्या हो सकता है, यह विषय विचारणीय है। हमलोगों के अमर महाकाव्य रामायण और महाभारत हैं। कुछ दिन हुए मद्रास प्रान्त में व्याख्यान देते हुए एक विद्वान ने कहा था कि ''यदि हमारा सर्वस्व छिन जावे तो भी कोई चिन्ता नहीं, यदि रामायण और महाभारत जैसे हमारे बहुमूल्य मणि सुरक्षित रहें। इन दोनों ग्रन्थों में वह संजीवनी शक्ति है कि जब तक इनका सुधााòोत प्रवाहित होता रहेगा, हिन्दू - जाति अजर - अमर रहेगी। जिस दिन यह सुधाòोत बन्द होगा उसी दिन हिन्दू - जीवन और हिन्दू - सभ्यता दोनों निर्मूल हो जावेगी''। उनके इस कथन का क्या मर्म है? उन्हाेंने किस सिध्दान्त पर आरूढ़ होकर यह कथन किया? वास्तव बात यह है कि ये ग्रन्थ हिन्दू - सभ्यता के आदर्श हैं; हमारी गौरवगरिमा के विशाल स्तम्भ हैं; इनमें हमारे हृदय का मर्म स्वर्णाक्षरों में अंकित है; हमारे सुखदुख का, हमारे उत्थान - पतन का ज्वलन्त उदाहरण इनमें मौजूद है। आर्य्यसभ्यता कैसे उत्पन्न हुई, कैसे परिवर्ध्दित हुई,किन - किन घात - प्रतिघातों में पड़ी, फिर कैसे सुरक्षित रही, इसका उनमें सुन्दर निरूपण है। उनमें सामयिक चित्रा हैं,आदर्शमूलक विचार हैं, समुन्नति के महामन्त्रा हैं, सिध्दि के सूत्रा हैं, व्यवहार के प्रयोग हैं, सफलता के साधान हैं। उनमें कामद कल्पलतिका है, फलप्रद कल्पतरु है, संजीवनी जड़ी है, अमर बेलि है औैर चारु चिन्तामणि है। प्रयोजन यह कि किसी जीवित जाति के लिए जीवनयात्राा निर्वाह की जितनी उपयोगी सामग्री है, वह सब उनमें मौजूद है, और यही कारण है कि वे आज तक उसके जीवन सर्वस्व हैं। प्रत्येक सहृदय कवि को इन्हीं ग्रन्थों को आदर्श मानकर कार्य्य क्षेत्रा में उदारता और सहृदयता के साथ उत्ताीर्ण होने की आवश्यकता है। आज हमारे लिए जो विष है उसका त्याग और जो अमृत है उसका ग्रहण आवश्यक है। कवि की दृष्टि प्रखर होनी चाहिए। उसको समाज के भीतर की गूढ़ से गूढ़ बातों को, छिपे से छिपे रहस्य को उद्धाटन करना चाहिए और उसके गुण - दोष की समुचित विवेचना करके दोष के निराकरण और गुण के संवर्धन और संरक्षण के लिए बध्द - परिकर होना चाहिए। यदि उसमें सच्चा आत्म - उत्सर्ग है, वास्तविक सत्यप्रियता है, यदि उसका हृदय उन्नत है, उदार है,निरपेक्ष है, संयत है, तो उसकी लेखनी जाति के लिए संजीवनीधाारा होगी और उसका कविताकलाप समाज पर सुधाावर्षण करेगा। वैतालिक जिस समय इदंकुत: में रत रहकर मानव हृदय को उपपत्तिायों में उलझाता है और उसे पेचीली बातों में फँसाकर भूलभुलैया में डाल देता है, उसी समय कवि अपनी रसमयी वाणी से उसको सरस कर देता है और उसमें उत्साह और स्फूर्ति के वह बीज वपन कर देता है, जो उसके लिए तत्काल फलप्रसू होते हैं। कवि के एक - एक शब्द, कविता की एक - एक पंक्ति में वह जीवन्त शक्ति होती है और वह इतनी प्रभावशालिनी होती है कि जाति के उत्थान - पतन में, मानव - हृदय के संबोधान में, चित्ता के वशीकरण में जादू का - सा काम देती है। कविपुंगव सूरदास के सामने दो मनुष्य उपस्थित हुए। ये दोनों विद्वान थे, शंकासमाधाान और वाद की निवृत्तिा के लिए उनकी सेवा में आये थे। एक कहता - 'कुल बड़ा', दूसरा कहता - 'संगति बड़ी'। घण्टों लड़झगड़ कर भी जब किसी सिध्दान्त पर उपनीत न हुए तो उनको उक्त महात्मा को पंच मानना पड़ा। उन्होंने उनकी बातों को सुनकर तत्काल निम्नलिखित दोहा पढ़ा - जिसमें ऐसे गूढ़ प्रश्न की मीमांसा तुरत कर दी -
स्वाति बूँद सीपी मुकुत कदली भयो कपूर।
कारे के मुख बिख भयो संगति केवल सूर।
यह है कवि और कवि के शब्दों की क्षमता और महत्ताा। यदि देश और जाति को आवश्यकता है, तो ऐसे कवियों की आवश्यकता है। यदि हमारी जाति के विकल नेत्रा कोई प्रभावमय बदनारविन्द देखना चाहते हैं तो ऐसे ही शक्तिशाली कवि को देखना चाहते हैं। आज हमारी हिन्दू जाति का अधा:पात प्रखर गति से हो रहा है, आज पद - पद पर उसका स्खलन हो रहा है। जातीय सभाएँ उसकी संघ - शक्ति का संहार कर रही हैं, विधावाओं के करुण क्रन्दन से आज पत्थर का हृदय भी विदीर्ण हो रहा है, दिन - दिन उसकी संख्या क्षीण हो रही है, उसके हृदय - धान, उसके नेत्राों के तारे उससे अलग हो रहे हैं। आज भी बाल - विवाह कार् आत्तानाद कर्णगत हो रहा है। वृध्द - विवाह आज भी समाज को विधवंस कर रहा है। आर्य्य - सन्तान कहलाकर महर्षिकुल में जन्म लेकर, भगवती भारतमाता की गोद में पलकर आज भी हम कन्या - विक्रय कर रहे हैं। आज भी अपनी कुसुम - कोमल - बालिका को धान के लिए, थोड़े से अर्थ के लिए, हम तृष्णापिशाचिनी के समाने बलिप्रदान कर रहे हैं। यदि मन्दिरों में अकाण्ड तांडव है, तो सुरसरी - पुनीत - तट पर पैशाचिक नृत्य है। कहीं धार्म की ओट में सतीत्व हरण हो रहा है, कहीं भभूत पर विभूति निछावर हो रही है। आज मनोमालिन्य का अखण्ड राज्य है, अविश्वास और अंधाविश्वास की दुन्दुभी बज रही है। क्या कहें, किस - किस बात को कहें, जी यही कहता है -
क्या पूछते हो हमदम इस जिस्म नातवाँ की।
रग - रग में नेशे गम है कहिए कहाँ - कहाँ की।
पर इस दर्द की दवा कौन करेगा, कौन इस बिगड़ी को बनावेगा, कौन हमारी नाड़ी टटोलेगा, कौन गिरती जाति को उठावेगा, कौन उजडे घर को बसावेगा और कौन हमारी उलझी को सुलझावेगा? ऑंख बहुतों की ओर जाती है पर हृदय यही कहता है 'एक सच्चा कवि'। इस सच्चे कवि शब्द पर खटकना न चाहिए, हृदय में दर्द होने पर सच्चा कवि सभी हो सकते हैं। प्रतिभा किसी जातिविशेष और मनुष्यविशेष की बाँट में नहीं पड़ी है। हमारे उत्साही कविगण आवें और इस क्षेत्रा में कार्य्य करें। उनके पुरुषार्थ और कवित्वबल से भारतमाता का मुख उज्ज्वल होगा और उनकी कीर्तिकौमुदी से वसुधाा धावलित हो जावेगी। आज दिन यदि कोई महदनुष्ठान है तो यही, तपशर््चय्या है तो यही कि जैसे हो वैसे जाति के कुरोग विदूरित किए जावें। कवि की प्रौढ़ लेखनी का प्रौढ़त्व और कवि की मार्मिकता का महत्तव इसी में है कि वह प्रसुप्त जातियों को जगावे, उसके रोम - रोम में वैद्युतिक प्रवाह प्रवाहित करे और उसको उस महान् मन्त्रा से दीक्षित करे, जो उसको सगौरव संसार में जीवित रहने का साधान हो। एक दिन साहित्य - संसार शृंगार - रस से प्लावित था, उसी की आनन्द - भेरी जहाँ देखो, वहाँ निनादित थी। समयप्रवाह ने अब रुचि को बदल दिया है, लोगों के नेत्रा खुल गये हैं, कविगण अपनार् कत्ताव्य अब समझ गये हैं। इस समय यदि आवश्यकता है तो तदीयता की आवश्यकता है। आज दिन भारतमाता यही कह रही है -
मन्मना भव मद्भक्त: मद्यायी मां नमस्कुरु ,
सर्व धार्मान् परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज।
क्या उसका यह कथन सहृदय कविगण उत्कर्ण होकर सुनेंगे।
कवि - कर्म्म का यह पहला पहलू है, दूसरा पहलू उसका साहित्य सम्बन्धाी है। मैं इस विषय में भी कुछ कथन कर अपना वक्तव्य समाप्त करूँगा। कवि कर्म बहुत दुसह है, जब तक सर्वसाधाारण की दृष्टि से कवि की दृष्टि विलक्षण न होगी, वह कवि - कर्म्म का अधिकारी न हो सकेगा। गजराज को शिर पर धाूल डालते हुए चलते सभी देखते हैं पर इस क्रिया में एक बारीक बात सहृदयवर रहीम खाँ खानखान ने ही देखी और विमुग्धा होकर कहा -
छार मुण्ड मेलत रहत कहु रहीम केहि काज।
जेहि रज ऋषिपत्नी तरी सो ढूँढ़त गजराज।
चंपा की हृदयलुभावनी छवि किसको नहीं लुभाती, पर एक सहृदय कवि के मुख से ही यह बात निकली -
चंपा तो मैं तीन गुण , रूप , रंग और बास।
औगुण तो मैं एक है भौंर न बैठत पास।
कवि - कर्म्म यही है। तुकबन्दी करना कवि - कर्म्म नहीं है। कविवर ठाकुर कहते हैं -
ठाकुर जो तुकजोरनहार उदार कबिन्दन की सरि कैहैं।
एक दिना फिर तो करतार , कुम्हार हूँ सो झगरो बनि ऐहैं।
यदि मूर्ति खड़ी कर देने से ही काम चलता तो करतार और कुम्हार में अन्तर ही क्या है? बात तो है सजीवता की, और इसीलिए विद्वानों ने कहा है -
किं कवेस्तस्य काव्येन किं काण्डेन धानुष्मत:
परस्यहृदये लग्नं न घूर्णयतियच्छिर:।
जाके लागत ही तुरत सिर ना डुलै सुजान ,
ना वह कबित न कबिकथन ना वह तान न बान।
दूसरा कवि - कर्म्म है कोमलकान्त पदावली। आजकल की कर्णकटु भाषा में कविता करना कवि - कर्म्म नहीं है। 'वाक्यं रसात्मकं काव्य। ' - जिस वाक्य में रस नहीं वह काव्यसंज्ञा का अधिाकारी नहीं। जो रस प्रसादगुणमयी कविता में होता है अन्य में नहीं, और प्रसादगुण के लिए कोमलकान्त पदावली आवश्यक है। उर्दू का एक कवि कहता है 'जेरे कदमे वालिदा फिरदौस बरीं है'। दूसरा कहता है 'जुनूं पसन्द है मुझको हवा बबूलों की, अजब बहार है इन जर्श्द ज़र्द फूलों की'। तीसरा कहता है, 'दिल मय गये गेसुओं में फँसके, कुम्हला गये फूल रात बसके'। अब आप सोचिए, इनमें कौन अधिाक सरस है, वही जिसकी कोमलकान्त पदावली है।
तीसरा कवि - कर्म्म है शब्द - विन्यास। शब्दों की काट - छाँट और उनका यथोचित स्थान पर संस्थान। यह कार्य्य बड़ी ही मार्मिकता का है।र् वत्तामान कविताओं में इसकी बड़ी त्राुटि है। इस कार्य के लिए एक अच्छे समालोचक - पत्रा की आवश्यकता है। किन्तु खेद है कि हिन्दी संसार इससे शून्य है। आजकल की समालोचनाएँर् ईष्या - द्वेषमूलक अधिाक होती हैं। इसी से जैसा चाहिए वैसा उपकार नहीं हो सकता है। समालोचनाएँ सहृदयतामयी और उदार होनी चाहिए जिसको विरोधाी भी स्वीकार करने को बाधय हों। उचित समालोचनाएँ और कविता की समुचित काट - छाँट बहुत ही सुफलप्रसू है और वैसा ही उपकारक है जैसा उद्यान के छोटे - छोटे पौधाों की काट - छाँट। कुछ प्रमाण लीजिये। हजरत आतश के सामने उनके शागिर्द सबा ने यह शेर पढ़ा - 'मौसिमे गुल में यह कहता है कि गुलशन से निकल, ऐसी बेपर की उड़ाता न था सैय्याद कभी'। शेर बहुत अच्छा है मगर उस्ताद ने कहा कि अगर तुम यों कहते कि 'पर कतर करके यह कहता है कि गुलशन से निकल' तो शेर और भी बढ़ जाता। वास्तव में पर कतरने के साथ बेपर उड़ाने की बात ने कमाल कर दिया। एक मुशायरे में एक लड़के ने यह शेर पढ़ा, 'जिस कमसखुन से मैं करूँ तकरीर बोल उठे। ', मुझमें कमाल वह है कि तसवीर बोल उठे। '। हजरत नासिख ने इस शेर की बड़ी प्रशंसा की। हजरत आतश ने कहा, 'कम सखुन की जगह यदि 'बेजबाँ' होता तो शेर बोल उठता, क्योंकि तसवीर को कमसखुनी से कोई वास्ता नहीं। वास्तव में बहुत अच्छी इसलाह है। यह न समझिए कि उस्ताद आतश नहीं चूकते थे। एक बार मुशायरे में उन्होंने यह शेर पढ़ा 'सुर्मा मंजूरे नजश्र रहता है चश्मेयार को, नील का गंडा पिन्हाया मर्दुमे बीमार को'। हजरत नासिख ने कहा - वाह, क्या कहा है; 'नील का गंडा पिन्हाया मर्दुमे बीमार को'। आतश ताड़ गए, बोले - नील का गंडा नहीं, 'नीलगूँ' गंडा पिन्हाया मर्दुमे बीमार को। ' भाव यह कि इस तरह की छील - छाल और काट - छाँट बहुत ही उपयोगिनी और कवि को समुचित शब्द - संस्थान की शिक्षा देने के लिए बहुत ही हितकारिणी है।
(संदर्भ - सर्वस्व)
वेदान्तवाद
वेदान्त का विषय बड़ा गहन है, उसमें अल्पविषयामति का प्रवेश नहीं। मैं कहूँ तो क्या कहूँ, लिखूँ तो क्या लिखूँ? पिपीलिका समुद्र की थाह नहीं पा सकती, और न पक्षी आकाश की इयत्ताा बतला सकता है। पर, जी चाहता है कि वेदान्तवाद पर कुछ लिखूँ। बुध्दि कहती है, यह तो 'तितीर्षुर्दुस्तरं मोहादुडुपेनास्मि सागरम्' है। ईश्वरीय - विषय 'वज्रादपि कठोराणि' है। इस मार्ग में लोहे के चने चबाने पड़ेंगे। बुध्ददेव का संसार के धार्म - प्रचारकों में प्रधाान स्थान है। हिन्दुओं के विशिष्ट दश अवतारों में उनकी गणना है। जब वे भी इस विषय में जीभ नहीं हिला सके, मौनावलम्बन ही उनको इष्ट हुआ, तो अन्यों की बात ही क्या! बात सच्ची है। परन्तु, अधिाक सम्मति किस ओर है। संसार में आज भी ईश्वर माननेवालों की संख्या ही अधिाक है। संसार के सर्वश्रेष्ठ चार - पाँच धार्म - प्रचारकों में एक बुध्ददेव को छोड़ और सभी ईश्वरवादी हैं। सभी ने ईश्वर की सत्ताा को स्वीकार किया है। विश्व का सर्व - प्रधाान वैदिक अथवा सनातनधार्म ईश्वरवादी है, अनीश्वरवादी नहीं। हमारे दर्शनों में सांख्य दर्शन का विशेष स्थान है; परन्तु वेदान्त दर्शन ने उसकी महिमा मलिन कर दी है। अस्त होते राकेश के सामने प्रात:कालीन प्रभाकर निकल आया है। यह सत्य है: -
'न तत्रा चक्षुर्गुच्छति न वाग्गच्छति, न मनो, न विद्यो, न विजानिमो, यतो वाचो नर्िवत्तान्ते अप्राप्य मनसारुह। '
किन्तु, इसका अर्थ यह नहीं है कि ईश्वर के विषय में कुछ कहा ही नहीं जा सकता। हाँ, उसके विषय में इदमित्थं नहीं कहा जा सकता। मनुष्य अपूर्ण है, उसका ज्ञान भी अपूर्ण है। ऐसी अवस्था में उसका ईश्वर - सम्बन्धाी जो कुछ वर्णन होगा,अपूर्ण होगा, एकदेशी होगा, सर्वदेशी नहीं, अधाूरा होगा, व्यापक नहीं। वह इतना ऊँचा है कि हमारे ज्ञान को उसके छूने की चेष्टा वामन के चन्द्रस्पर्श करने के उद्योग - समान होगा। मनुष्य का ज्ञान इतना साधाारण है कि वह अपने शरीर के सर्वांग,विचारों एवं भावों के विषय में ही असंदिग्धा भाव से कुछ कहने में असमर्थ होता है। ऐसी अवस्था में जो असंख्य ब्रह्मांडाधाीश है - 'जाके रोम कोटि ब्रह्मांडा' है, उसका यथातथ्य वर्णन कोई मनुष्य कैसे कर सकेगा। यदि करेगा तो वह एक साधाारण जलबिन्दु के समुद्र - वर्णन समान होगा। ऊपर के संस्कृत - वाक्यों का यही मर्म है। यदि मर्म नहीं होता, तो संसार के महापुरुषों, महज्जनों और परमार्थवादियों का आज तक ईश्वर - सम्बन्धाी समस्त कथन प्रलापमात्रा होता। इतना सम्मानार्ह और मानिन् होता जितना कि वह इस समय है। भले ही अद्वैत, विशिष्टाद्वैत, द्वैताद्वैत इत्यादि के झगडे हों, भले ही तर्क - वितर्क और वाद - विवाद के पचडे हों, किन्तु वे इस योग्य नहीं कि हम उनको उपेक्षादृष्टि से देखें अथवा उनको वितंडामात्रा समझें। बात यह है कि 'वादे - वादे जायतेतत्तवबोधा:' वाद से ही बुध्दि विकसित होती है, विद्वानों के समागम और उनके सदुपदेशों से ही नेत्राोन्मीलन होता है। मन्थन से ही घृत की प्राप्ति होती है। सारांश यह कि ईश्वरीय ज्ञान के जो साधान प्राप्त हैं, वे हमारे बहुत कुछ मार्ग - प्रदर्शक हो सकते हैं। अन्धाकार में वे हमारे लिए उदीयमान प्रभाकर के समान हैं। हमारे अन्धानेत्रा के वे ज्ञानांजनशलाका - तुल्य हैं। उन्हीं का हमको अवलंब है और हम उन्हीं का पदानुसरण करके अपने क्षेत्रा में आगे बढेंग़े और प्रस्तुत विषय पर कुछ प्रकाश डालने की चेष्टा करेंगे।
वेदान्त का एक श्लोक है -
श्लोकार्ध्देन प्रवक्ष्यामियदुक्तं ग्रन्थ कोटिभि:
ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या जीवो ब्रह्मैवनापर:।
इसका अर्थ यह है कि करोड़ों ग्रन्थ में जो कहा गया है, उसको मैं श्लोकार्ध्द में कहता हूँ। वह यह है कि ब्रह्म सत्य है,जगत् मिथ्या है और जीव भी ब्रह्म ही है।
मैं इस लेख में ब्रह्म और जीव के विषय में कुछ विशेष नहीं कहना चाहता, मेरा वर्णनीय विषय है जगत् का मिथ्यात्व। इस लेख में इसी बात पर प्रकाश डाला जायेगा।
छान्दोग्य उपनिषद् के तृतीय प्रपाठक का यह वाक्य है।
'' सर्वे खल्विदं ब्रह्मतज्जलानिति ''
यह समस्त जगत् ब्रह्म है; क्योंकि उसी से उत्पन्न है, उसी में स्थित है और उसी में लीन होगा। कठोपनिषद् का यह वाक्य है - नेह नानास्ति किंचन।
''संसार में नाना कुछ नहीं है, सब ब्रह्म है। '' मुण्डकोपनिषद् में यह लिखाहै -
'' ब्रह्मैव इदं अमृतं पुरस्तात ब्रह्मपश्चात्।
ब्रह्मदक्षिणतश्चोत्तारेण अधाश्चोधर्वं।
च प्रसृतं ब्रह्यैव इदं विश्वम् इदं वरिष्ठम्। ''
संसार निश्चय करके ब्रह्म ही है। ब्रह्म ही आगे और ब्रह्म ही पीछे है। ब्रह्म ही दक्षिण और ब्रह्म ही उत्तार है। ब्रह्म ही नीचे तथा ब्रह्म ही ऊपर है, चारों ओर ब्रह्म ही फैला हुआ है।
महाभारत के शान्तिपर्व, मोक्षधार्म, द्वादशीत्याधिाकशतम् अधयाय में जो कुछ लिखा है, उसका अनुवाद नीचे दिया जाता है -
''समस्त पर्वत उसकी अस्थि, मेदिनी मेद और मांस, समुद्र चतुष्टय रुधिार, आकाश उदर, समीरण निश्वास, तेज अग्नि,òोतस्विनी सकल शिरा एवम् चन्द्र और सूर्य उसके दोनों नेत्रा हैं। आकाश - मण्डल में उसका मस्तक, पदद्वय भूमण्डल में और उसके हस्त - समूह का अवस्थान हिम - मण्डल में है। ''
श्रीमद्भागवत और भगवद्गीता में भी परमात्मा के विराट रूप का वर्णन इसी प्रकार किया गया है। उन सबका उध्दरण लेख के व्यर्थ विस्तार का कारण होगा। उनपर दृष्टि रखकर एक अवसर पर मैंने एक कविता लिखी थी। आप लोगों के मनोविनोद के लिए मैं उसी को यहाँ अंकित करता हूँ -
है रूप उसी विभु का ही , यह जगत् रूप है किसका।
है कौन दूसरा कारण , यह विश्व - कार्य है जिसका।
है प्रकृति - नटी लीला तो , है कौन सूत्राधार उसका।
अति दिव्य दृष्टि से देखो , भव - नाटक प्रकृति - पुरुष का।
है दृष्टि जहाँ तक जाती , नीलाभ गगन दिखलाता।
क्या है वह शीश उसी का , जो व्योम - केश कहलाता।
वह प्रभु अनन्त लोचन है , जो हैं भव - ज्योति सहारे।
क्या हैं न विपुल तारक ये , उन ऑंखों के ही तारे।
जितने मयंक नभ में हैं , वे उसके मंजुल मुख हैं।
जो सरस हैं , सुधाामय हैं , जगती जीवन के सुख हैं।
चाँदनी का निखर ख्ािेलना , दामिनी का दमक जाना।
उस अखिल लोकरंजन का है मन्द - मन्द मुसकाना।
उसके गभीरतम रव का सूचक है घन का निस्वन।
कोलाहल प्रबल पवन का अथवा समुद्र का गर्जन।
अपने कमनीय करों से बहु रवि - शशि हैं तम खोते।
क्या है न हाथ ये विभु के जो ज्योति - बीज हैं बोते।
भव - केन्द्र हृदय है उसका नवजीवन - रस - संचारी।
है उदर दिगन्त समाई जिसमें विभूतियाँ सारी।
हैं विपुल अस्थिचय उसके , गौरवित विश्व के गिरिवर।
हैं नसें सरस सरिताएँ तन लोम - सदृश हैं तरुवर।
जिसके अवलम्बन - द्वारा है प्रगति विश्व में होती।
है वही अगति - गति का पग जिसकी रति है अघ खोती।
है तेज , तेज उसका ही , है श्वास समीर कहाता।
जीवन है जग का जीवन , है सुधाा - पयोधिा विधााता।
हैं रातें हमें दिखाती , फिर वर वासर है आता।
यह है उसकी पलकों का उठना - गिरना कहलाता।
जिनसे बहु कलित ललित हो बनता है विश्व मनोहर।
उन सकल कलाओं का है , विभु अति कमनीय कलाधार।
जो पंक्तियाँ अभी उठायी गयी हैं, उनसे यह सिध्द होता है कि विश्व ब्रह्म का ही स्वरूप है, अन्य कुछ नहीं। अन्यथा समझना भ्रममात्रा है। वेदान्तवादियों ने इस भाव को इन शब्दों में व्यक्त किया है: -
' भ्रान्त्या जन: पश्यति सर्वमेतच्छुक्तौ यथा रौप्यमहिश्चरज्जौ '
भ्रान्तिवश प्राणी संसार को ब्रह्मस्वरूप न मानकर उसे कुछ और समझता है, वैसे ही, जैसे सीपी में रूपे का और रस्सी में साँप का भ्रम होता है। यद्यपि न तो रस्सी साँप है, न सीपी रूपा। जैसे चित्ता के स्थिर और स्वस्थ होने पर उन दोनों के वास्तविक रूप का ज्ञान हो जाता है - भ्रम दूर हो जाता है, उसी प्रकार जब तक हमारी ऑंख पर अज्ञान का परदा पड़ा रहता है, विवेक - दृष्टि उज्ज्वल नहीं होती, बुध्दि को सत्यस्वरूप का ज्ञान नहीं होता, उस समय तक हम संसार को ईश्वर से भिन्न कोई अन्य वस्तु समझते हैं; परन्तु यह मिथ्या ज्ञान और भ्रम है। यथार्थ बोधा होने पर जब हम जान लेते हैं कि जगत् ब्रह्म का ही स्वरूप है, उसी समय हमको तत्तवज्ञता प्राप्त होती है और हम उस पद के अधिाकारी होते हैं, जो 'मुनीनामप्यगम्य:' है।
संसार का मिथ्यात्व आजकल के हिन्दुओं का प्रबल संस्कार है और वह संस्कार हृदय में इतनी दृढ़ता से बध्दमूल है कि वह प्रकृतिगत और स्वाभाविक हो गया है। कोई दुख सामने आया, किसी कार्य में असफलता हुई, किसी के शोक से अभिभूत हुए कि संसार की असारता सामने आयी। इस संस्कार से हिन्दुओं की कितनी अधाोगति हुई और आज दिन भी उनकी कितनी दुर्गति हो रही है, इसकी चर्चा से भी हृत्कम्प उपस्थित होता है।
संसार द्वन्दमय है। जहाँ सुख है, वहाँ दुख; जहाँ हर्ष है, वहाँ शोक; जहाँ भोग है, वहाँ रोग; जहाँ जीत है, वहाँ हार; जहाँ आशा है, वहाँ निराशा। कहाँ तक कहें, जहाँ देखिए, वहाँ द्वन्द्व विराजमान है। द्वन्द्व से छुटकारा नहीं। इसीलिए शास्त्रा की आज्ञा है कि 'द्वन्द्वातीत:', हमको द्वन्द्व से रहित होना चाहिए; परन्तु कौन सुनता है। यहाँ तो यह अवस्था है - ''नारि मुई घर सम्पति नासी, मूँड़ मुड़ाएँ भये संन्यासी। '' यह बहुत बड़ी दुर्बलता है। दुर्बलता ही नहीं, उच्च कोटि की शास्त्राीय अवमानना है। अनिष्ट का सामना होना, सिर पर विपत्तिा का पड़ना स्वाभाविक है। ऐसी अवस्था में हमको धाृति से काम लेना चाहिए, न कि धौर्यच्युत होकर अपने जीवन को नष्ट कर देना चाहिए। कोई प्राणी संसार में सदा जीता नहीं रहता। 'अद्यैवाब्दशतांते वा मृत्युर्वैप्राणिनां धाु्रवम्', आज हो चाहे सौ वर्ष के बाद हो, प्राणी की मृत्यु अवश्य होगी। फिर, ''मरणं प्रकृति:शरीरिणाम् विकृतिर्जीवितमुच्यते बुधौ:'', मरण तो प्रकृति है, वही स्वाभाविक है, जीवन ही विकृति है, वह क्षणिक है, कुछ काल के लिए है। इसलिए उसके लिए आत्मविस्मृति होना, कुछ का कुछ कर बैठना युक्तिसंगत नहीं। किसी आत्मीय के मरने पर हृदय का व्यथित होना, नेत्राों से ऑंसू निकलना, लोगों का व्याकुल होना, रोना - पीटना, हाय मारना, आह - आह करना स्वभावसिध्द है। मरण का दृश्य ही ऐसा है, उसे देखकर पत्थर का कलेजा भी विदीर्ण होने लगता है। आत्मीय क्या, किसी भी मृतक को देखकर दिल हिल जाता है। यह साधारण बात है। ऐसा होना आश्चर्यजनक नहीं। ऐसा न हो तो मनुष्य का हृदय ही हृदय नहीं माना जा सकता। परन्तु, इस प्रकार के अथवा ऐसे ही अन्य अनिष्टों को लेकर संसार की असारता का जो राग अलापा जाता है, संसार - त्याग का जो उपदेश दिया जाता है, वह युक्ति - संगत नहीं। किन्तु, खेद की बात है कि हमारा साहित्य अधिाकतर ऐसे ही भावों से भरा है। कुछ पद्य देखिए: -
रहना नहीं , देस बिराना है
यह संसार कागद की पुड़िया बूँद पड़े घुल जाना है
यह संसार काँटे की बाड़ी उलझ पुलझ मर जाना है
यह संसार झाड़ और झाँखर आग लगे बरि जाना है
कहत कबीर सुनो भाई साधाो सतगुरु नाम ठिकाना है
जियरा जाहु गे हम जानी।
पाँच तत्तव को बनो पींजरा जामे वस्तु बिरानी।
आवत जावत कोई न देखेउ डूबि गयो बिन पानी।
राजा जैहैं रानी जैहैं औ जैहैं अभिमानी।
जोग करंते जोगी जइहैं कथा सुनंते ज्ञानी।
चंदो जइहैं सुरजौ जइहैं जइहैं पवनो पानी।
कह कबीर इक भक्त न जइहैं जिनकी मति ठहरानी।
का माँगों कुछ थिर न रहाई। देखत नैन चलो जग जाई।
इक लख पूत सवा लख नाती। तेहि रावन घर दिया न बाती।
लंका सी कोट समुद्र सी खाई। तेहि रावन की खबरि न पाई।
सोने कै महल रूपै के छाजा। छोड़ चलै नगरी के राजा।
कोइ कर महल कोइ कर टाटी। उड़ि जाय हंस पड़ी रहै माटी।
आवत संग न जात सँगाती। कहा भए दर बाँधो हाथी।
कहै कबीर अंत की बारी। हाथ झारि ज्यों चला जुआरी।
हमका उढ़ावै चदरिया चलती बिरियाँ।
प्रान राम जब निकसन लागे उलट गयी दोउ नैन पुतरिया।
भीतर से जब बाहर लाए छूट गयी सब महल अटरिया।
चार जने मिलि खाट उठाइन रोवत ले चले डगर डगरिया।
कहत कबीर सुनो भाई साधाो संग चली वह सूखी लकरिया।
देखिए, कैसे ओजमय शब्दों में इन पद्यों में संसार की असारता का चित्रा खींचा गया है। संतमत की वाणियों और भजनों में इस प्रकार के पदों की भरमार है। सहò वर्ष से अधिाक हुए, भारतवर्ष में संसार - त्याग की महिमा और संसार की असारता का डिंडिमनाद बड़ी प्रबलता से हुआ। इसका आरम्भ बुध्ददेव के संसार - त्याग से होता है। परन्तु, जब तक हिन्दू - शक्ति क्षीण नहीं हुई थी, उनमें सम्राट् उत्पन्न होते रहे, एकाधिापत्य का दुन्दुभिनाद होता रहा, तब तक इस भाव की प्रबलता उतनी नहीं हुई, जितनी मुसलमानों के आधिापत्य के समय में। कारण इसका यह हुआ कि उस समय हिन्दू - शक्ति क्षीण हो गयी थी और नैराश्य भाव उनमें अधिाक जागरित हो गया था। उन दिनों कुछ सामयिक परिस्थिति भी ऐसी हो गयी थी कि उनमें इस प्रकार की प्रवृत्तिा अधिाकता से वृध्दि पा रही थी। उस समय के सन्तों की बानियाँ इस प्रवृत्तिा में अग्नि में घृत के समान कार्य कर रही थीं। परिणाम इसका यह हुआ कि हिन्दू जाति में अकर्मण्यता और कापुरुषता का संचार हुआ। और भगवद्भजन अथवा निराकार की उपासना का ढोंग रचकर वह अपनेर् कत्ताव्य - पथ से च्युत हो गयी।
हिन्दू - संस्कृति का वैराग्य से बड़ा सम्बन्धा है। योगदर्शनकार कहते हैं -''दृष्टानुश्रविकविषयवितृष्णस्यवशीकारसंज्ञावैराग्यम्'' जितने विषय देखे - सुने जाते हैं, उनसे तृष्णारहित होने की वशीकार संज्ञा है, उसी को वैराग्य कहते हैं। एक टीकाकार इस बात को यों स्पष्ट करते हैं; -
'स्त्राी, पुत्रा, गृह, भोजन वा वस्त्राादि जहाँ तक संसारी विषय देखे जाते हैं और स्वर्गादि सुख जो पुराणादि - द्वारा सुने जाते हैं, उनमें उदासीन भाव धाारण करने की संज्ञा वशीकार है। इसीको वैराग्य कहते हैं।
योगदर्शनकार ही यह भी कहते हैं - ''तद्वैराग्यादपिदोष बीज क्षये कैवल्यम्'' वैराग्य से दोष - बीज का क्षय होने पर कैवल्य अर्थात् मुक्ति की प्राप्ति होती है। महाराज भर्तृहरि कहते हैं: -
भोगे रोगभयं कुले च्युति भयं वित्तोनृपालाद्भयं।
माने दैन्यभयं बले रिपुभयं रूपेतरुण्याभयं।
शास्त्रो वादिभयं गुणे खलभयं काये कृतान्ताद्भयं।
सर्वंवस्तु भयान्वितं भुविनृणां वैराग्यमेवाभयं।
भोग को रोग का, कुल को च्युति का, वित्ता को राजा का, अभिमान को दैन्य का, बल को रिपु का, रूप को तरुणी का,शास्त्रा को वाद का, गुण को खल का, शरीर को मृत्यु का भय है। संसार में सब वस्तुएँ भयवाली हैं, केवल वैराग्य ही भयरहित है।
आपने वैराग्य की महत्ताा समझ ली। वह कितना उच्च है, यह भी आपको ज्ञात हो गया। उसका अधिाकारी सर्वसाधाारण नहीं, कोई महापुरुष हो सकता है। किन्तु, आज जिसको देखो वही उसके लिए कमर कसे तैयार है। थोड़ी - सी असुविधाा हुई,हमारे सुख में बाधाा पड़ी, हमारे मन की बात नहीं हुई कि हमको वैराग्य हुआ और हम घर - बार छोड़कर किनारे हो गए। भगवान के भजन का ढोंग रचकर, भीख माँगकर पेट पालने लगे या साधाु बनकर लोगों को ठगने लगे। आजकल प्राय: ऐसा क्यों हो रहा है, कारण क्या? मेरा विचार है कि उसका उत्तारदायित्व अधिाकतर हिन्दी भाषा की उन रचनाओं पर है, जिनमें असंयत और अवांछित भाव से वैराग्य का निरूपण किया गया और गुप्त रूप से जनता को संसार - त्याग की ओर प्रवृत्ता कर दिया गया है।
संस्कृत में भी शान्त रस और वैराग्य सम्बन्धिानी रचनाएँ हैं, अन्य भाषाओं में भी इस प्रकार की कृतियाँ पायी जाती हैं;पर वे उतनी जी बिगाड़नेवाली और पथभ्रष्ट करने वाली नहीं हैं। कष्ट पड़ने पर अथवा अनिष्ट होने पर चित्ता में एक प्रकार का ऐसा भाव स्वाभाविकतया उदय होता है, जो हमें वैराग्य की ओर ले जाता है और हमको संसार से विरक्ति होने लगती है। यह भाव यथावसर मनुष्यमात्रा में उत्पन्न होता है; अतएव सब भाषाओं के साहित्य में उसका दर्शन होता है। परन्तु, उनके कथन का ढंग संयत होता है और वे हमकोर् कत्ताव्य - च्युत नहीं करते। महाराज भर्तृहरि का यह संस्कृत पद्य देखिए -
व्याघ्रीवतिष्ठतिजरा परितर्जयन्ती , रोगाश्च शत्रा वइव प्रहरन्ति देहे।
आयु: परि ò वति भिन्न घटाइवाम्भो , लोकस्तथाप्यहितमाचरतीतिचित्राम्।
व्याघ्री के समान गरजती हुई जरा सामने है, रोग शत्राु के समान शरीर पर आघात कर रहे हैं। आयु छेदवाले घडे क़े जल के समान छीजती जा रही है, संसार तब भी अहित का आचरण करता है, यह आश्चर्य की बात है।
एक हिन्दी कवि की बातें सुनिए: -
बाँधो रहे बटना बनाए रहे जेवरन ,
अतर फुलेलन की सीसियाँ धारी रहीं।
तानी रही चाँदनी , सुहानी रही फूल - सेज ,
मखमल तकियन की पँगती परी रहीं।
' प्रतापसिंह ' कहै तात - मात के पुकार रहे ,
नाह - नाह कूकत वे सुंदरी खरी रहीं।
खेल गयो योगी हाथ में लग के धाूर बीच ,
चूर ह्नै मसान खेत खोपरी परी रहीं।
एक उर्दू कवि क्या कहता है, उसे भी सुनिए: -
यह इशरत व ऐश कामरानी कब तक।
इशरत भी हुई तो नौजवानी कब तक।
गर यह भी हुई तो दौलत है मुहाल।
दौलत भी हुई तो जिन्दगानी कब तक।
इन पद्यों के साथ कबीर साहब के ऊपर के पद्यों को मिलाइए तो आपलोगों को ज्ञात हो जायेगा कि भाव - साम्य होने पर भी दोनों की कथन - प्रणाली में कितना अन्तर है। किसी रचना को कलंकित करना या किसी महापुरुष पर कटाक्ष करना मुझे इष्ट नहीं है। मैं दिखलाना यह चाहता हूँ कि संसार की असारता का भाव हिन्दू जाति की रग - रग में क्यों समा गया।
साहित्य सामयिक भावों का ज्ञापक होता है। उसमें उस काल के भावों का सुन्दर चित्रा अंकित मिलता है। कबीर साहब के पद्य बतला रहे हैं कि उस समय हिन्दू - जनता की प्रवृत्तिा क्या थी। उसकी उस समय ऐसी प्रवृत्तिा होने का कारण मैं पहले बतला चुका हूँ। इस प्रवृत्तिा का कितना बुरा परिणाम हुआ, इसका प्रमाण स्वयंर् वत्तामान हिन्दू - समाज है। उसमें साहस, धौर्य और गम्भीरता का इतना अभाव है और पल्लवग्राहिता इतनी बढ़ गयी है कि उसको स्मरण करके भी रोमांच होता है। वह शास्त्रा के आज्ञानुसार चलने का दावा करता है। परन्तु, वास्तव में बात यह है कि वह रूढ़ियों और सामयिक प्रवाह का सेवक एवं अनुगामी है। हिन्दू साधाुओं की संख्या बावन लाख है। इनमें लाखों अपरिपक्व वय के बालक हैं, जो साधाुत्व के अधिाकारी नहीं। कई लाख ऐसे बलिष्ठ और हट्टे - कट्टे युवक हैं, जो यदि हृदय से देश - सेवा में लगते या शास्त्राानुसार हिन्दू जाति के उध्दार के लिए कटिबध्द होते, तो आज हिन्दुओं की दशा कुछ और होती और भारतमाता का लिलार चमकता होता। इनमें से कितने अपनी युवती स्त्रिायों को अपनी अकर्मण्यता के कारण त्यागकर भागे हैं और किसी प्रकार अपना पेट पालकर अपने जीवन को गर्हित बना रहे हैं। कितने आलसी हैं, कितने लफंगे हैं, कितने कामचोर हैं, कितने अपने कुटुम्ब के कलंक हैं। कितने अपने अनाथ बाल - बच्चों को नारकीय जीवन बिताने के लिए विवश कर रहे हैं। कितनों ने अपने प्यारे कुटुम्बी का निधान होने पर घर का त्याग किया है। कितनों ने किसी अन्य के अनिष्ट होने पर किर्ंकत्ताव्यविमूढ़ होकर तूम्बा हाथ में लिया है। सच्चे वैरागी और महात्मा इने - गिने ही मिलेंगे। परन्तु, सभी भगवद्भक्त बनने और पवित्रा जीवन बिताने के दावेदार हैं। उन्होंने संसार का त्याग उसको असार समझकर किया है। कुल - परिवार बन्धान है, पुत्रा - कलत्रा मुक्ति के बाधाक हैं, काम - काज करने से भजन में बाधाा पड़ती है; फिर वे करें तो क्या करें? उन्होंने उचित पथ का ही तो अवलंबन किया है! कोई नास्तिक अथवा अविवेकी उनकी निन्दा करे तो करे, वे उनको इस योग्य नहीं समझते कि उनकी बातों का धयान दें।
विचारणीय तो यह है कि उनका व्यवहार, उनकी इस प्रकार की बातें कहाँ तक युक्तिसंगत हैं, और शास्त्रा की आज्ञा इस विषय में क्या है। क्या कर्म का त्याग उचित है? जिस रूप में प्राय: भगवद्भजन आजकल किया जा रहा है, क्या वह अपने शुध्द रूप में है? वैराग्य किसे कहते हैं? उसका सच्चा रूप क्या है? मुक्ति किसे कहते हैं? क्या संसार असार है? ये प्रश्न साधाारण नहीं। परन्तु, यह अवश्य है कि वास्तवता छिपी भी नहीं है। शास्त्रा उसको डंके की चोट कह रहे हैं। वाद - विवाद और वस्तु है, तत्तवग्राहिता और बात। इनमें से एक - एक विषय पर कितने ग्रंथ लिखे गये हैं, अब भी लिखे जा सकते हैं। मुझमें ऐसी शक्ति नहीं, मैं साधाारण विद्या - बुध्दि का मनुष्य हूँ। केवल कुछ सिध्दान्तों को ही प्रकट करूँगा, वह भी थोडे में। कर्म का त्याग किसी काल में नहीं हो सकता, भगवदाज्ञाहै -
नियतं कुरु कर्म्मत्वं कर्मज्यायोह्यकर्मण:।
शरीरयात्राापि च ते न प्रसिधयेदकर्मण:।
सदा कर्म करो। कर्म न करने से कर्म का करना अच्छा है। कर्म का त्याग करने से तो शरीर - यात्राा का भी निवाह ना होगा। और सुनिए: -
त्यक्त्वाकर्मफलासंग नित्यतृप्तो निराश्रय:।
कर्मण्यभिप्रवृत्ताोपि नैव किि × चत् करोति स:।
''जो पुरुष सांसारिक आश्रय से रहित सदा परमानन्द परमात्मा में तृप्त है, वह कर्मों के फल और संग अर्थात् कर्तृत्वाभिमान को त्यागकर कर्म में लगा हुआ भी कुछ भी नहीं करता।
इससे अधिाक कर्म करने के विषय में क्या कहा जा सकता है? हम ऑंख से देखेंगे, कान से सुनेंगे, मुख से खायेंगे, जीभ चलती ही रहेगी, हाथ - पाँव हिलते ही रहेंगे, दूसरी इन्द्रियाँ अपने काम करती ही रहेंगी तो कर्म का त्याग कहाँ हुआ! मनुष्य का जीवन जब तक है तब तक उसे कार्य करते रहना चाहिए और वह कर्म करते रहना चाहिए जो लोकद्वय साधाक हो। साथ ही यह भी धयान में रखना चाहिए कि 'कर्मण्येवाधिाकारस्ते मा फलेषु कदाचन'। कर्म करने का ही अधिाकार प्राणी को है, फल की कामना उसे न होनी चाहिए - यही त्याग है। अब प्रश्न यह है कि इस आज्ञा का पालन कहाँ तक होता है। क्या कर्म का त्याग विडम्बना नहीं है? निष्कर्म होने का दावा क्या शास्त्रा - विरुध्द नहीं है?
भगवद्भजन की बात बड़ी ही हृदयहारिणी है। धान्य हैं वे पूज्य चरण, जिन्होंने इसका मर्म समझा है। जो भगवद्भक्त है, वह संसार का त्याग कर ही नहीं सकता। क्योंकि वह जानता है, 'सर्वंखल्विदम् ब्रह्म नेह नानास्ति कि×चन'। भगवदाज्ञा है - येदारागार पुत्रााप्सान् प्राणान् वित्तामिवंपरम्। हित्वामाशरणं याता: कथंतास्त्यक्तु - मुत्सहे।
जो भक्त अपनी स्त्राी, बच्चे, धान, प्राणी सभी को छोड़कर एकमात्रा मेरी शरण में आते हैं, उनको मैं कैसे छोड़ सकता हूँ।
इस श्लोक को पढ़कर कुछ लोग यह कह सकते हैं कि जब स्त्राी, बच्चे, धान इत्यादि के त्यागने की आज्ञा है, तो यदि उनका त्याग किया जावे तो अनुचित क्या? परन्तु, निवेदन यह है कि स्त्राी इत्यादि के साथ प्राण - त्याग की भी आज्ञा है,तो क्या प्राणत्याग का अर्थ वास्तविक प्राण - त्याग है? यदि नहीं, तो इस त्याग का अर्थ अर्पण ही होगा। इसी प्रकार स्त्राी इत्यादि भगवदर्पण हो सकते हैं, उनका त्याग नहीं हो सकता। केवल सद्बुध्दि से संसार के मंगल के लिए उनका मानस त्याग हो सकता है, अन्य प्रकार से नहीं। दूसरी बात यह कि भगवान के न त्यागने का क्या अर्थ? भक्त का आत्मस्वरूप लाभ ही तो ब्रह्म का न त्यागना है? और, यदि उसको आत्मस्वरूप की वास्तविक प्राप्ति हो गयी, तो स्त्राी - पुत्राादि का त्याग कैसे होगा? क्योंकि, वे भी तो उसी के स्वरूप हैं, वे भी तो ब्रह्म हैं। जहाँ कहीं संसारत्याग अथवा स्त्राी, पुत्रा, कुल आदि के त्याग के लिए लिखा गया है, उसका उद्देश्य भगवद्भजन अथवा ईश्वर - प्राप्ति ही है। ऐसी अवस्था में त्याग का अर्थ वही है जैसा इस श्लोक में व्यक्त किया गया है। भगवद्भजन के नाम पर स्त्राी इत्यादि अथवा संसार का त्याग करके जो स्वार्थ - साधान अथवा आत्मसुख - भोग का प्रपंच फैलाया जाता है, वह भगवद्भक्ति नहीं, प्रवंचना है। वह निन्दनीय है, आदरणीय नहीं।
अब रहा वैराग्य। वैराग्य क्या है, यह मैं पहले बतला आया हूँ। आजकल विरक्ति का नाम वैराग्य हो गया है। घर में थोड़ी अनबन हुई, बाल - बच्चों से न पटी, परिवार में कलह हुआ तो उसके सुलझाने का उद्योग न होगा। धौर्य से सब बातों का विचार न किया जायेगा, अपनी अकर्मण्यता पर दृष्टि नहीं डाली जाएगी, अपने दोषों का धयान न किया जायेगा; बस संसार को कोसा जायेगा। सबको मतलबी बतलाया जायेगा और सबको छोड़छाड़कर भगवद्भजन के लिए ही कमर कस ली जावेगी। लोग किसी साधाु की जमात में शरीक हो जायेंगे, किसी तरह अपना पेट पालेंगे, पडे - पडे दिन बिताएँगे, हाथ पर हाथ रख बैठे रहेंगे। लम्बा टीका कर लेंगे। गले में माला डालेंगे। अचला पहिन लेंगे। कहीं बैठकर माला फेरने लगेंगे, चलो हो गया भगवद्भजन। ऐसा करके वे अपना दोनों लोक बना लेंगे। परन्तु, उनको समझना चाहिए यह भगवद्भजन नहीं है। ऐसा करके वे अपना यह लोक तो बिगाड़ ही चुके हैं, परलोक भी बिगाड़ लेंगे। तप करना बड़ा कठिन है, हम पंचाग्नि ताप सकते हैं, जाड़ों में जल में चौबीस घण्टे खडे रह सकते हैं। उर्ध्व बाहु बन सकते हैं, तन पर भभूत रमा सकते हैं, व्रत - उपवास कर सकते हैं;परन्तु यह तप नहीं है। जिसने मन नहीं मारा, वासना को वश में नहीं किया, काम - क्रोधा को नहीं जीता, भगवद्भजन के मर्म को नहीं समझा, देश - सेवा नहीं की, पर - दुख - कातरता जिसमें नहीं, परोपकार के लिए जो कमर नहीं कस सका, अपनेर् कत्ताव्य को नहीं समझ सका, जीवन के उद्देश्य से किनारा करता रहा, वह आडम्बरों के द्वारा संसार को ही धाोखा नहीं दे रहा है, अपनी आत्मा को भी प्रवंचित कर रहा है। अपने कुटुम्ब में रहकर परिवार के साथ सरल जीवन व्यतीत करके, अपने बाल - बच्चों को ठीक - ठीक देखभाल करके हम अपने जीवन को जितना सफल बना सकते हैं, उतना उन कामों को करके नहीं,जिसे भ्रमवश वैराग्य अथवा भगवद्भजन समझ रहे हैं। पहला मार्ग सरल से सरल है, दूसरा कठिन से कठिन। यदि घर में रहें,पुत्राकलत्रा और परिवार के साथ सरल मानवोचित व्यवहार करें, आए - गए की सेवा करें, गृहस्थी - धार्म का ठीक पालन करें,धौर्य रखें, उलझते को सुलझावें, बिगड़ते को बनावें। अपने सुख - दुख के समान दूसरे के सुख - दुख को समझें, बात - बात में बखेड़े न खड़ा करें, रोतों को हँसावें, रूठों को मनावें, सबको प्यार करें, जहाँ डाँट - डपट की जरूरत हो, वहाँ डाँट - डपट भी करें; पर जल - भुनकर नहीं, डाह से नहीं,र् ईष्या से नहीं, द्वेष से नहीं, प्यार से सुधाारने के लिए, उसे राह पर लगाने के लिए। ये काम आसान नहीं है, ये बडे - बडे तप हैं। उस तप से भी इनका दर्जा बढ़ा हुआ है, जिनको तप समझा जाता है और जिनको करके अपना जन्म बनाने का राग अलापा जाता है। शास्त्रा कहता है: -
वनेषु दोषा प्रभवन्ति रागिणाम् गृहेषु पंचेन्द्रियनिग्रहस्तप:।
अकुत्सितेकर्म्मणि य: प्र्रवत्ताते निवृत्तारागस्वगृहं तपोवनम्!
जिनमें राग है, जो वासनाओं में फँसते हैं, उनके लिए वन भी दोषमय हो सकता है। और घर में पंचेन्द्रिय का निग्रह करके रहना तप है। जो अकुत्सित कर्मों में रत नहीं होता एवम् जो निवृत्ता राग है, उसके लिए घर ही तपोवन है।
अब यह बात समझ में आ गयी होगी कि वैराग्य क्या है। जो विगतराग है, वही सच्चा विरागी है, वह चाहे घर में रहे या वन में। कुछ लोगों को श्मशान वैराग्य होता है। मृतक के साथ श्मशान गए, वहाँ उसको जलते देखा; चित्ता में यह बात जमी कि एक दिन हमारी भी यही गति होगी। सब कुछ छोड़ - छाड़कर हमको भी उठ जाना होगा, आओ, भगवान का भजन करें,सब कुछ छोडें - छाडें। पर सब कुछ छोड़कर भगवान का भजन कैसे होगा? मतलब तो जीवन को सफल बनाना है; पर जीवन सफल तो सदाचरण द्वारा बनाया जा सकता है। और यह बात सब कुछ छोड़कर नहीं प्राप्त हो सकती। श्मशान वैराग्य स्वाभाविक है; परन्तु, वह क्षणिक होता है, उसमें स्थायिता नहीं होती। घर आकर मनुष्य उसको भूल जाता है और फिर ऐसे कामों में लग जाता है, जिससे ज्ञात होता है कि वह अपने को अजर - अमर समझता है। ऐसे ही अनेक संकटमय अवसरों पर हमारे हृदय में वैराग्य उत्पन्न होता रहता है; परन्तु, संकट की समाप्ति के साथ उसकी भी समाप्ति हो जाती है और हम उचितर् कत्ताव्यों की ओर से ऑंखें बन्द कर लेते हैं। इन वैराग्यों को सच्चा वैराग्य नहीं कह सकते। न तो कोई आश्रम बुरा है, न कोई वेश। हम चाहे जिस आश्रम में रहें, चाहे जिस वेश में रहें; परन्तु मानवोचित कर्म्म करते रहें। जो वेश ग्रहण करें, जिस आश्रम में हम हों, हमको जीवन की सार्थकता पर दृष्टि रखनी चाहिए और प्रत्येकर् कत्ताव्य कर्म्म को त्याग बुध्दि से करना चाहिए, यही सच्चा वैराग्य है। क्योंकि इस प्रकार के कार्यों का सम्बन्धा राग से नहीं होता, और न उसमें वासनाओं का बीभत्स काण्ड देखने में आता। मृत्युकाण्ड हमारी ऑंखों के सामने आवेगा, बार - बार जलती चिताएँ देखने को मिलेंगी। सबपर भी ऑंखें पड़ती ही रहेंगी, संसार के दूसरे हृत्कम्पकर दृश्य भी दिखलायी देंगे ही। क्षणिक वैराग्य भी हृदय में स्थान पाता रहेगा; परन्तु मनुष्य संसार में रहेगा, उसका त्याग न कर सकेगा। उसके पास कार्य - कलाप की भी धाूम रहेगी। चाहे वह जिस वेश में रहे, जिस आश्रम में रहे, जिस रंग में रँगे; पर इससे उसको छुटकारा नहीं। मनुष्य संसार को छोड़कर भी न छोड़ सकेगा और अनेक रूप - रूपाय बनकर वह उसके सिर पर सवार होगा। ऐसी अवस्था में उचित यह है कि सच्चे वैराग्य का मर्म वह समझे और घबराकर अथवा धौर्यच्युत होकर उन्मार्गगामी न हो। और जहाँ तक हो सके, ऐसा मार्ग ग्रहण करे जो अधिाकतर उसके लिए सुविधााजनक हो, परन्तु उसमें ढोंग अथवा आडम्बर न हो; क्योंकि 'सत्यमेव जयते नानृतम्। '
आइए, अब मुक्ति के विषय में भी थोड़ा विचार कर लें। उसमें बड़ी मोहकता है। कोई धार्म ऐसा नहीं, जिसपर उसने अपनी मोहिनी न डाल रक्खी हो। मुक्ति अनेक रूप - रूपाय है। कोई कहता है, आवागमन बन्द होना 'मुक्ति' है। किसी का विचार है,मुक्ति चार प्रकार की होती है - सालोक्य, सामीप्य, सारूप्य, सायुज्य; अर्थात् बैकुण्ठ की प्राप्ति हो जाना सालोक्य, विष्णु भगवान की समीपता प्राप्त कर लेना सामीप्य, उनका स्वरूप - लाभ करना सारूप्य और उनमें मिल जाना अर्थात् उनकी मूर्ति में लीन हो जाना सायुज्य मुक्ति कहलाती है। वशिष्ठदेव कहते हैं: -
'' न मोक्षो नभस:पृष्ठे न पाताले न भूतले।
मोक्षो हि मनस: शुध्दि सम्यग्ज्ञान विबोधिातम्। ''
न मोक्ष आकाश के पृष्ठ पर है, न पाताल में, न भूतल में; वास्तव में सम्यग्ज्ञान विबोधिात मन की शुध्दि ही मोक्ष है। ऐसे ही पुरुष को जीवनमुक्त कहते हैं।
मैंने एक साधाु से पूछा - ''महाराज, आपने घर - बार क्यों छोड़ा? क्यों सबसे अलग - थलग रहकर अपना जीवन व्यतीत करते हैं? बहुत व्रत - उपवास करते हैं? सब समय सुमिरिनी लिये राम का नाम जपा करते हैं? कृपा करके बतलाइए।''
उन्होंने कहा - ''मुक्ति पाने के लिए। ''
मैंने कहा - ''मुक्ति किसे कहते हैं?''
उन्होंने कहा - ''भव - बन्धान से छूट जाने को मुक्ति कहते हैं। ''
मैंने कहा - ''भव - बन्धान से तो आप छूटे ही हैं, जब किसी से आपको कोई सरोकार नहीं, जब पूजा - पाठ ही में आपका दिन बीतता है, कोई काम आप करना नहीं चाहते, न करते हैं, तो भव - बन्धान आपका छूटा ही हुआ है। ''
उन्होंने कहा - ''नहीं नहीं, भव - बन्धान छूटने का यह भाव नहीं है। भव - बन्धान छूटने का अर्थ 'साकेत' में पहुँच जाना है। '' ''साकेत' सब लोकों से ऊपर है, जहाँ भगवान् श्री रामचन्द्र, श्रीमती जानकी देवी के साथ सदा विराजमान रहते हैं। कुछ मान्य ग्रन्थों ने, गोलोक को ही बैकुण्ठ बतलाया है। सन्तमतवाले सत्यलोक अथवा सच्चखण्ड की प्राप्ति को ही 'मुक्ति'समझते हैं। एक स्थान पर कबीर साहब भी अपने खाबिन्द का निवासस्थान साकेत को ही बतलाते हैं और उसे सर्वोच्च भी कहते हैं -
जाय जाहूत में खुद खाविंद जहँ वही ' मक्कान ' साकेत साजी।
कहै कब्बीर वहाँ भिस्त दोजख थके वेद कीताब काहूत काजी।
महारामायण में भी श्री रामचन्द्र को सत्यलोकेश ही लिखा है। यथा: -
वाङ्मनोगोचरातीत: सत्यलोकेश ईश्वर:!
तं रचनामादिकं सर्वं रामानाम्ना प्रकाशते।
किसी स्थान - विशेष पर परमात्मा के रहने का विश्वास प्राय: सभी धार्मों में पाया जाता है और इस स्थान को सर्वोच्च बतलाया जाता है। परन्तु, ऐसी अवस्था में ब्रह्म एकदेशी हो जाता है, सर्वदेशी नहीं रह जाता। कितने ही ऊँचे उठाकर मनुष्य ब्रह्म को ऊपर ले जाता रहे; परन्तु, वह उस पद को नहीं प्राप्त होता, जो विश्वस्वरूप बतलाकर उसे वेदान्त ने प्रदान किया है। वेदान्त का विचार उदात्ता और लोकोत्तार है। इसीलिए विद्वत् समाज और विज्ञानवेत्तााओं में यह माना जाता है कि ईश्वरीय विषय में वेदान्त जितना ऊँचा उठ सका, उतना अन्य कोई सिध्दान्तवादी नहीं। किसी धार्मनेता की बुध्दि उस ऊँचाई तक किसी काल में भी नहीं पहुँच पायी। पाश्चात्य विद्वानों ने भी इस बात को मुक्तकण्ठ से कहा है कि वेदान्त का ईश्वरवाद सर्वोत्कृष्ट और अलौकिक है। परन्तु, अधिाकारी - भेद से स्थान - विशेष बैकुण्ठादि की कल्पना भी असंगत नहीं। क्योंकि भगवदाज्ञा है: -
ये यथा मां प्रपद्यन्ते ताँस्तथैव भजाम्यहम्।
मम वर्त्मानर्ुवत्तान्ते मनुष्या: पार्थ सर्वश:।
''जो मुझे जिस प्रकार से भजते हैं, उन्हें मैं उसी प्रकार से फल देता हूँ। हे पार्थ! किसी भी ओर से हो, मनुष्य मेरे ही मार्ग पर चलने लगते हैें। ''
ईसाई और मुसलमानों के भी विचार लगभग ऐसे ही हैं और वे लोग भी उस स्थान पर पहुँच जाने को ही 'मोक्ष' मानते हैं,जहाँ उनका गॉड अथवा खुदा रहता है। बुध्ददेव अनीश्वरवादी तथा अनात्मवादी हैं; फिर भी वे निर्वाण को मानते हैं। यह निर्वाण मुक्ति को छोड़ और कुछ नहीं है। गोस्वामी तुलसीदास कहतेहैं: -
राम उपासक मुक्ति न लेहीं। तिन कहँ राम भक्ति निज देहीं।
लीजिये, वे कहते हैं - राम - उपासक मुक्ति लेते ही नहीं। वे केवल रामभक्ति की ही कामना करते हैं। भागवतकार एक महान् भक्त के मुख से यह कहलातेहैं -
न त्वहं कामये राज्यं न स्वर्गं न पुनर्भवम्।
कामये दु:खतप्तानाम् प्राणिनामार्ति नाशनम्।
न मैं राज्य चाहता हूँ, न स्वर्ग की कामना रखता हूँ, न पुनर्भव की लालसा है। मैं केवल दुख - तप्त प्राणियों के आर्तिनाश की ही इच्छा रखता हूँ।
मुक्ति क्या है, यह बतलाया गया। इसको स्मरण रखिए। अब आइए संसार की असारता पर। प्रश्न यह है कि यदि संसार असार है तो सार किसमें है? यदि संसार मिथ्या है तो सत्य क्या है? संसार परमात्मा का स्वरूप है, विश्व ही ब्रह्म है, विश्व ही अरूप का रूप है। विश्व को ब्रह्म न समझना भ्रम है, वैसा ही भ्रम है जैसा रज्जु में सर्प का। विश्व मिथ्या नहीं है। विश्व को ब्रह्म न मानना मिथ्या है। जो लोग कहते हैं, संसार माया - जाल है, मिथ्या से भरा है, अनित्य है, नित्य नहीं, वे भ्रान्त हैं। गीताकार के इस मार्मिक कथन की मार्मिकता को समझिए: -
अहं कृत्स्नस्य जगत: प्रभव: प्रलयस्तथा।
मत्ता: परतरं नान्यत् किि × चदस्ति धानंजय।
मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रो मणिगणा इव।
मैं समग्र जगत् की उत्पत्तिा और प्रलय का स्थान हूँ, मुझसे भिन्न कुछ नहीं है। एक सूत में गुँथे हुए हार की मणियों के समान सब मुझमें गुँथे हुए हैं। इतना ही नहीं; उपनिषद् के इन वाक्यों पर विचार कीजिए -
' सर्वं खल्विदम् ब्रह्म नेह नानास्ति कि × चन '
रात्रिा में किसी स्थान पर खडे होकर जब आकाशमण्डल पर दृष्टिपात किया जाता है, तो ब्रह्मरूप विश्व की महत्ताा प्रकट होती है। उस सयम आकाश मे अनन्त पिण्ड दिखलाई देते हैं। नेत्राों - द्वारा जितने पिण्ड देखे जा सकते हैं, उनमें से अधिाकांश हमारे सूर्य के समान हैं, कोई - कोई उससे भी बड़े हैं। हमारा सूर्य जो इस सौरमण्डल का स्वामी है, यदि मटके के बराबर है, तो पृथ्वी मटर के बराबर। हमारे सौरमण्डल और उसके ग्रह - उपग्रहों का विस्तार और उनके कार्यकलाप ही बोधागम्य नहीं हैं, अनन्त पिण्डों की बात ही क्या? परन्तु, अनुभव से हम समझ सकते हैं कि यह ब्रह्माण्ड क्या है और उसके विषय में हमारा ज्ञान कितना है। ये सब वैसे ही अनिर्वचनीय, बुध्दि - विचार से परे और आश्चर्यमय हैं, जैसे ब्रह्म। वरन् यों कहा जा सकता है कि ब्रह्मस्वरूप होने के कारण ही वे भी इन गुणों के प्रत्यक्ष प्रमाण हैं, अकल्पनीय हैं और 'वाचामगोचर चरित्रा विचित्राताय' हैं। फिर भी हम यह कहते संकोच नहीं करते कि विश्व मिथ्या है, संसार असार है। कहना तो यह चाहिए कि'ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्या' ब्रह्म ही सब कुछ है, उससे भिन्न जगत् का परिज्ञान भ्रम है; अतएव मिथ्या है। वैशेषिक दर्शनकार कहते हैं - ''यतोऽभ्युदय नि:श्रेयससिध्दि: स धार्म:'', परन्तु अविवेकी मानव अभ्युदय को धाता बताकर नि:श्रेयस् की कामना करता है। लोक को खोकर परलोक की चिन्ता करता है। यह वह नहीं समझता कि लोक खोकर परलोक की चिन्ता कैसे होगी?प्रत्यक्ष जो सामने है, उससे विमुख होकर अप्रत्यक्ष की ओर दौड़ना असमीचीन है। यदि अप्रत्यक्ष कुछ है, तो उसका अनुभव प्राणी को प्रत्यक्ष ही द्वारा हो सकता है। साधय की प्राप्ति साधान द्वारा ही हो सकती है। वे दोनों इस प्रकार परस्पर मिलित हैं कि एक के अभाव में दूसरे का अनुमान भी सम्भव नहीं। दूसरी बात यह कि जो संसार को असार समझता है, उसमें आत्मविवेक कहाँ है। वह स्वयं क्या है? वह भी तो संसार की वस्तु है। उसके व्यक्तित्व का सर्वस्व तो संसार ही है, वह ईश्वरांश है, तो संसार क्या है, वह भी तो ईश्वर का रूप है, फिर भिन्नता कहाँ रही? यदि ईश्वरांश ईश्वर के रूप की उपेक्षा करता है और उसके प्रति अपने कर्तव्य का पालन नहीं करता, तो वह स्वयं अपना तिरस्कार आप करता है, अपने कर्तव्य से च्युत होता और भ्रांत है। मुक्ति क्या है, मैं ऊपर बतला आया हूँ। जिस समय मनुष्य का ज्ञान इतना पूर्ण हो जाता है कि ''अहं ब्रह्मास्मि'' ब्रह्म मैं ही हूँ, उस समय संसार भी उसमें लीन हो जाता है; फिर भिन्नता कैसी? क्या यही वास्तविक मुक्ति नहीं है, जिसका उल्लेख वशिष्ठदेव ने किया है? परन्तु, यह वृत्तिा सबको नहीं प्राप्त होती। इस अवस्था में उपास्य और उपासक का भेद नहीं रह जाता। इसको सायुज्य मुक्ति भी कह सकते हैं। परन्तु, बीच की अन्य अवस्थाएँ भी हैं; इसीलिए उपासना चार प्रकार की होती है।
उत्तामं ब्रह्मसद्भवो मधयमं धयानधाारणा
स्तुतिप्रार्थनाधामाज्ञेया बाह्यपूजाधामाधामा।
ब्रह्मसद्भाव उत्ताम, धयान - धाारण मधयम, स्तुति प्रार्थना अधाम और बाह्य पूजा - अर्थात् किसी प्रतीक द्वारा परमात्मा की उपासना करना अधामाधाम कही जाती है। यहाँ अधाम और अधामाधाम शब्दों का प्रयोग निन्दात्मक नहीं, केवल कोटि निर्देशात्मक है। भाव यह है कि कौन उपासना किस कोटि अथवा किस दर्जे की है, यही इस श्लोक में बतलाया गया है। किन्तु,उपासना के लिए और विश्व को ब्रह्मरूप में देखने की साधाना के लिए जो श्रेणि - विभाग इस पद्य में किया गया है, वह बहुत समीचीन और उपयोगी है। एक मुसलमान पीपल वृक्ष पर किसी हिन्दू को जल चढ़ाते देखकर उसका उपहास कर सकता है;परन्तु एक वेदान्ती समझता है कि वह 'सर्वं खल्विदम् ब्रह्म' इस ज्ञान - प्राप्ति - साधाना के प्रथम सोपान पर चढ़ रहा है। संसार में जड़ पदार्थ ही ऐसी वस्तु है जिसमें लोगों को ईश्वर न होने का विचार उत्पन्न हो सकता है। हिन्दू वहीं से अपनी आराधाना आरम्भ करता है और पीपल पर जल चढ़ाते हुए 'वासुदेवाय नम:' कहकर अपनी साधाना की महत्ताा बतलाता है। पशुओं में गाय की, मनुष्यों में ब्राह्मण अथवा साधाु - महात्माओं की पूजा एक के बाद दूसरे सोपान पर उत्तारोत्तार आरोहरण करना ही है; क्योंकि उनमें भी ईश्वरीय भाव का ही आरोपण होता है। जब किसी मूर्ति के सामने जाकर श्रध्दालु हिन्दू उसकी अर्चना करता है, तो एक असहृदय जन उसकी इस क्रिया को पत्थर का पूजना कह सकता है; परन्तु, वह तो सर्वसाधाारण के सामने यही प्रगट करता है कि ईश्वर सर्वव्यापी है।
मुसलमानों का सूफी मजहब वेदान्तवाद का साधाारण संस्करण है। वह प्रस्तुत विषय में क्या कहता है, कुछ उसकी बातें सुनिए: -
हर शै में तेरा जलवा यारब नजर आता है।
बुतखाना के पर्दे में काबा नजर आता है!
गर मुझसे मिला चाहो तो सिजदा कर बुतों का।
बुत मेरी ही सूरत है , बुतखाना भी मैं ही हूँ।
एक पत्थर चूमने को शेखजी काबा गए
जौक हर बुत काबिले बोसा है इस बुतखाना में
न देखा दैर में तो क्या हरम में देखेगा
वह तेरे पेशे नजर याँ नहीं तो वाँ भी नहीें।
एक फारसी का शायर कहता है: -
दर हैरतम कि दुश्मनिए कुफ्र वो दीं चे रास्त
अज तक चिराग काबा व बुतखाना रौशनस्त।
आश्चर्य में हूँ कि कुफ्र व दीन में दुश्मनी क्यों है। एक ही दीपक से तो बुतखाना और काबा दोनों प्रकाशित हैं।
हिरण्यकश्यप अपनी तलवार को चमकाकर प्रधाद से पूछता है कि क्या इस पत्थर के खम्भे में भी तेरा राम है? भक्त प्रह्लाद अविचलित चित्ता से कहता है - हाँ पित:, 'तोहि में मोहि में खरग खम्भ में सबमें व्यापक राम। '
देखिए, दानव - बुध्दि और देव - बुध्दि का अन्तर! आज भी सहòों हिन्दुओं को प्रतिदिन सूर्य को नतशिर होकर श्रध्दांजलि अपर्ण करते देखते हैं, जो यह भाव प्रकट करता है, 'सूर्यो आत्मा हि जगत:। देखिए, कहाँ - से - कहाँ हिन्दू जाति का उच्च भाव पहुँचता है और यह बतलाता है: -
जले विष्णु: स्थले विष्णु: विष्णु: पर्वत मस्तके।
ज्वालमाला कुले विष्णु: सर्वं विष्णुमयं जगत्।
जल में, स्थल में, पर्वत पर, ज्वाला - माला में, समस्त जगत् में विष्णु विराजमान हैं। इस प्रकार की उपासना में भक्ति की प्रधाानता होती है। गोस्वामीजी कहते हैं कि 'ज्ञानहिं भक्तिहिं नहिं कुछ भेदा', परन्तु ज्ञान स्थिर होता है और भक्ति क्रियाशील। ज्ञान आत्मोध्दारप्रिय होता है और भक्ति सेवा - परायणा, सहृदया और परोपकाररता होती है। इसीलिए गोस्वामीजी मुक्ति की कामना न करके भक्ति की इच्छा करते हैं। श्रीमद्भागवत का श्लोक भी इसी भाव का सूचक है। इसमें अलौकिक आनन्द की प्राप्ति होती है। भक्त आत्मार्थी नहीं होता, आत्मत्यागी होता है। वह संसार को ब्रह्मस्वरूप मानकर उसकी हृदय से समुचित सेवा करता है। आप तरता है और अपने साथ दूसरों को भी तार देता है। इसीलिए वह तरन - तारन कहलाता है। भक्ति नौ प्रकार की होती है। उक्त सिध्दान्तों पर दृष्टि रखकर मैंने 'प्रिय - प्रवास' में नवों प्रकार की भक्ति का स्वरूप बतलाया है। उसी को आप लोगों के सामने रखकर मैं इस लेख को समाप्त करता हूँ। आप लोग कृपा करके देखेंगे कि उध्दाृत पद्यों में 'सर्वं खल्विदम् ब्रह्म', भाव की चरितार्थता है या नहीं।
श्रवणर् कीत्तान वन्दन दासता।
स्मरण आत्मनिवेदन अर्चना।
सहित सख्य तथा पद सेवना।
निगदिता नवधाा प्रभु भक्ति है।
विश्वात्मा जो परम प्रभु है रूप तो है उसी के।
सारे प्राणी , सरि - गिरि - लता वेलियाँ वृक्ष नाना।
रक्षा पूजा उचित उनका यत्न सम्मान सेवा।
भावोपेता परम प्रभु की भक्ति सर्वोत्तामा है।
जी से सारा कथन सुननार् आत्ता - उत्पीड़ितों का।
रोगी प्राणी व्यथित जन का लोक उन्नायकों का।
सच्छास्त्राों का श्रवण , सुनना वाक्य सत्संगियों का।
ज्ञाताओं में श्रवण अभिधाा भक्ति मानी गयी है।
सोए जागें तम पतित की दृष्टि में ज्योति आवे।
भूले आवें सुपथ पर औ ज्ञान उन्मेष होवे।
ऐसे गाना कथन करना दिव्य न्यारे गुणों का।
है प्यारी भक्ति प्रभुवर कीर् कीत्तानोपाधिा वाली।
विद्वानों के स्वगुरुजन के देश के प्रेमियों के।
ज्ञानी दानी सुचरित गुणी सर्व तेजस्वियों के।
आत्मोत्सर्गी विबुधा जन के देव सद्विग्रहों के।
आगे होना नमित प्रभु की भक्ति है वन्दनाख्या।
जो बातें हैं भव - हितकारी सर्वभूतोपकारी।
जो चेष्टाएँ मलिन गिरती जातियाँ हैं उठाती।
हो सेवा में निरत उनके अर्थ उत्सर्ग होना।
विश्वात्मा भक्ति भवसुखदा दासता संज्ञका है।
कंगालों की विवश विधावा औ अनाथाश्रितों की।
उद्विग्नों की सुरति करना औ उन्हें त्रााण देना।
सत्कार्यों का , पर हृदय की पीर का धयान आना।
मानी जाती स्मरण अभिधाा भक्ति है भावुकों में।
विपद सिन्धाु पडे नर वृन्द के।
दुख निवारण औ हित के लिए।
अरपना अपने तन - प्राण को ,
प्रथित आत्म निवेदन भक्ति है।
सन्त्रास्तों को शरण मधाुरा शान्ति सन्तापितों को।
निर्बोधाों को सुमति विविधाा ओषधाी पीड़ितों को।
पानी देना तृषित जन को अन्न भूखे नरों को।
सर्वात्मा भक्ति अति रुचिरा अर्चना संज्ञका है।
नाना प्राणी तरु गिरि लता वेलि की बात ही क्या।
जो है भू में गगनतल में भानु से मृत्कणों लौं।
सद्भावों के सहित उनसे कार्य्य प्रत्येक लेना।
सच्चा होना सुहृदय उनका भक्ति है सख्य नाम्नी।
जो प्राणिपुंज कर्म निपीड़नों से।
नीचे समाज वपु के पग - सा पड़ा है।
देना उसे शरण मान प्रयत्न द्वारा।
है भक्ति लोकपति की पदसेवनाख्या।
(सन्दर्भ - सर्वस्व)
रामायण में हिन्दू - संस्कृति
मद्रास प्रान्त के लब्धाप्रतिष्ठ विद्वान् और वक्ता श्रीयुत शिवस्वामी ऐयर ने एक बार अपने एक प्रसिध्द व्याख्यान में कहा था - हमारा राज्य छिन जाए, ऐश्वर्य धाूल में मिल जाए, विभव पद दलित हो, सम्पत्तिा हर ली जाए, हम सर्वप्रकार नि:सम्बल हो जाएँ, सर्वस्व गँवा दें, तो भी हम नि:स्व न होंगे, यदि रामायण और महाभारत जैसे हमारे अलौकिक रत्न सुरक्षित रह सकें। इस कथन का रहस्य क्या है? वास्तव में बात यह है कि जाति की संस्कृति ही उसका जीवन सर्वस्व होती है। कोई जाति अपनी संस्कृति खोकर जीवित नहीं रह सकती। संस्कृति ही वह आधाार शिला है, जिसके सहारे जाति - जीवन का विशाल प्रासाद निर्मित होता है। जिस दिन यह आधाार - शिला स्थानच्युत होगी, उसी दिन पुष्ट से पुष्ट प्रासाद भी भहरा पडेग़ा। संसार में कुछ निर्जीव जातियाँ अब भी जीवित हैं, किन्तु अपनी संस्कृति को खोकर वे कण्ठगतप्राण हैं, उनको मरी ही समझिए - चाहे आज मरें, चाहे कल, कारण यह है कि संस्कृति ही किसी जाति के अस्तित्व का पता देती है। यही वह चिद्द है, जो उसके पूर्वगौरव, महान् आदर्श और लोकोत्तार कार्य - कलाप द्वारा संसार की अन्य जातियों से उसको पृथक करता है। जिस समय चारों ओर से अन्धाकार होने के कारण वह अवनति - गर्त की ओर अग्रसर होती रहती है, उस समय उसीके आलोक से आलोकित होकर वह उचित पथ ग्रहण करती है और उस समुन्नतिसोपान पर चढ़ने लगती है, जो उसको उत्थान के समुच्चशिखर पर आरूढ़ कर देता है। भारत में यवन, शक, हूण आदि बड़ी - बड़ी बलवान जातियाँ आयीं। परम पराक्रान्त वह मुसलमान जाति आयी, जिसने जहाँ शासन किया, वहीं अपने धार्म की विजय - दुंदुभि भी बजायी, जिसके द्वारा देश का देश उसके धार्म में दीक्षित हो गया। किन्तु रामायण और महाभारत की पवित्रा संस्कृति के बल से हिन्दू - धार्म आज भी जीवित है। जीवित ही नहीं, उसने अपनी वह अलौकिक महत्ताा दिखलायी कि जिसके बल से संसार विजयिनी करवाल भी टुकडे - टुकडे हो गयी। जिस समय भारतव्यापी मुसलमान साम्राज्य उत्तारोत्तार वृध्दि पा रहा था और उसकी गुरुगर्जना से भारत वसुन्धारा प्रकम्पित हो रही थी, जब यह अवगत हो रहा था कि अब भारतीयता की समाप्ति हो जाएगी, हिन्दू - धार्म लुप्त हो जायेगा, हिन्दू जाति नामशेष रह जाएगी और भारतभूमि का अपार विभव मुसलमान जाति के विशाल उदर में समा जायेगा, उस समय कतिपय महान् आत्माओं में कुछ ऐसी संस्कृति जाग्रत हुई, जिसने भारतवर्ष की काया ही नहीं पलट दी, हिन्दू जाति को पुनरुज्जीवित भी कर दिया। यह बात इतिहास जाननेवालों को अविदित नहीं। यह कौन संस्कृति थी? वही रामायण - महाभारत की, उस रामायण और महाभारत की, जो हिन्दू - संस्कृतियों के भण्डार है, मैं समझता हूँ, अब मद्रास प्रान्त के उपर्युक्त विद्वान के कथन का रहस्य आपलोगों की समझ में आ गया होगा।
भारत में समय - समय पर विभिन्न विचार के बडे - बडे प्रवाह आए। कुछ काल तक उनके प्रबल वेग के सामने वह आत्मविर्सजन करता दिखलाई पड़ा। परन्तु उसके धौर्य का पाँव स्थानच्युत कभी नहीं हुआ। वह सदा सँभला और अपनी भारतीयता की धाारा में उसने सबको विलीन कर दिया। उसकी महान् संस्कृति ही उसकी इस सफलता का कारण है। कविकुलपुंगर वाल्मीकि की महिमामयी लेखनी जिस प्रकार इन आर्य संस्कृतियों का उल्लेख कर धान्य हुई है, उसी प्रकार गोस्वामी तुलसीदास की कलामयी कविता में भी उनका अलौकिक चमत्कार दृष्टिगत होता है। गोस्वामी जी का वर्णन सामयिकता लिये है, इसलिए उन्हीें की रामायण से कुछ ऐसी संस्कृतियों का वर्णन यहाँ किया जाता है, जो हमारे सामाजिक जीवन की संजीवनी शक्तियाँ कही जा सकती हैं। गोस्वामी जी की रामायण आर्यसभ्यता और संस्कृति का अलौकिक कोष है। जहाँ देखिए,वहीं उनकी लेखनी इस विषय में बड़ी ही मार्मिकता से चलती दिखलायी पड़ती है। उनकी रामायण का गेहे - गेहे जने - जने प्रचार क्यों है, इसीलिए कि हिन्दू हृदय जिन आदर्शों को देखकर पुलकित होता है, जिन भावों द्वारा उल्लसित और रससिक्त बनता है, उसमें उन्हीें आदर्शों और भावों का बड़ा ही हृदयग्राही चित्राण है। गोस्वामी जी की लेखनी का चमत्कार यही है कि वह मूर्तिमन्त आर्य - संस्कृति है, यह मूर्तिमत्ताा कहीं - कहीं इतनी मनोहर और सुन्दर है, इतनी प्रांजल और सरस है कि उसकी प्रशंसा नहीं हो सकती। उनकी अद्भुत रचनाओं को पढ़ते समय कभी - कभी इतनी तन्मयता हो जाती है कि ब्रह्मानन्द - सुख का अनुभव होने लगता है। वही कविता मर्मस्पर्शिनी होती है, जिसमें वे ही दृश्य, सुन्दरता से सामने आते हैं, जिसको हम प्राय: देखते रहते अथवा जिनका अनुभव प्रतिदिन करते रहते हैं। गोस्वामीजी इसी प्रकार की कविताओं के आचार्य हैं। वे न तो'ख' - पुष्प तोड़ते हैं, न अगम - अगोचर का व्यापार करते हैं, न अधार में प्रासाद निर्माण हो; वे मानव - चरित्रा में ही आत्मा की महत्ताा का प्रदर्शन करते हैं और नित्य के कार्य - कलाप में ही 'सत्यं शिवं सुन्दरम्' की कल्पना। इसीलिए वे जो कुछ कहते हैं, उसको हृदय स्वीकार कर लेता है। कुछ इसी प्रकार का कृतियाँ आपके सामने उपस्थित की जाती हैं।
पिता की आज्ञा शिरोधाार्यकर भगवान श्री रामचन्द्र वन - यात्राा के लिए प्रस्तुत हैं, श्रीमती कौसल्या देवी की सेवा में उपस्थित होकर उनसे अनुनय - विनय कर रहे हैं, इसी समय व्यथितहृदया विदेहनन्दिनी वहाँ आईं। गोस्वामी जी लिखते हैं -
समाचार तेहि समय सुनि , सीय उठी अकुलाइ।
जाइ सासु पद कमल जुग , बन्दि बैठि सिरु नाइ।
दोहे के द्वितीय भाग में कुल ललना की कितनी मर्यादाशीलता अंकित हुई है, यह अविदित नहीं। भगवती जानकी सीधो आकर भगवान् श्री रामचन्द्र के सामने नहीं खड़ी हो गयीं। उन्हीं से कथोपकथन नहीं प्रारम्भ किया। क्यों? इसीलिए कि इसमें श्रीमती कौसल्यादेवी का तिरस्कार होता। आर्यजाति की यह संस्कृति है कि बड़ों की उपस्थिति में बहुएँ लज्जा त्याग कर पति से सम्भाषण नहीं करतीं, उनसे बोलतीं तक नहीं। आज भी कुलीनों में यह परम्परा प्रचलित है। फिर आदर्श गृहिणी सीता देवी ऐसा क्यों करतीं, वे आयीं और सास को चरणवन्दना करके, सिर नीचा करके बैठ गईं। कितना सलज्ज भाव है? 'बैठि सिरु नाइ' लिखकर गोस्वामी जी ने जो - जो मार्मिकता दिखलायी है, यही उनकी विशेषता है। यह 'बैठि सिरु नाइ' जानकी जी के हृदय का प्रतिबिम्ब है। इस कार्य द्वारा उन्होंने अपनी मर्यादाशीलता, अपनी आकुलता और अपनी अशक्तता का ही प्रदर्शन नहीं किया, दैन्य दिखलाकर सहायता की भिक्षा भी माँगी। सम्भव है, आजकल की शिक्षित ललनाएँ इसको पराधाीनता की कुत्सित बेड़ी समझें, किन्तु यह मर्यादाशीलता की वह मौक्तिमाला है, जिसको धाारण कर प्रत्येक कुल - बाला की अपूर्व शोभा हो सकती है। आर्य संस्कृतियाँ अत्यन्त उदात्ता हैं, उनमें स्वार्थपरता का उतना स्थान नहीं, जितना सदाशयता का।
वह अपने सुख - विलास में ही जीवन की सार्थकता नहीं समझतीं; वह तभी कृतकृत्य होती हैं, जब गुरुजन, आत्मीयजन अथवा अन्य उपकार कामुक जनों की सेवा कर आत्मोत्सर्ग कर पाती है। वे उच्छृंखलता एवं निर्लज्जता में मर्यादा शीलता को और संकीर्णहृदयता एवं मदान्धाता से सहृदयता को उत्ताम समझती हैं। इसीलिए शास्त्राों में ऐसे आदेश हैं कि जिनमें इस प्रकार के संस्कारों का उदय हो। कुछ नीचे लिखे जाते हैं -
अभिवादनशीलस्य नित्यं वृध्दोपसेविन:।
चत्वारि तस्य वर्ध्दन्ते आयुर्विद्यायशोबलम्।
(मनु. 2/121)
भगवान मनु कहते हैं, जो अभिवादनशील और नित्य वृध्दसेवातत्पर हैं उनकी आयु बढ़ती है, तथा उन्हें विद्या, यश और बल प्राप्त होता है।
विवाह काल के समय सप्तपदी में स्त्राी यह प्रतिज्ञा करती है -
कुटुम्बंरक्षयिष्यामि सदा तं म × जुभाषिणी।
दु:खे धाीरा सुखे हृष्टा द्वितीये साब्रवीद्वच:।
कुटुम्ब की रक्षा करूँगी, सदा मधाुरभाषिणी रहूँगी, दु:ख में धाीर और सुख में आनन्दित रहूँगी -
1. गुरुषु सखिषु भृत्ये बन्धाुवर्गे च भर्तु -
र्ऱ व्यपगतमदमाया वर्तयेत् स्वं यथार्हम्।
2. भार्येकचारिणी गूढ़विश्रम्भा देववत्पतिमानुकूल्येन
वर्तेत तन्मतेन कुटुम्बचिन्तामात्मनि सन्निवेशयेत्।
3. श्वश्रूश्वशुरपरिचर्या तत्पारतन्त्रयमनुचरवादिता परिमिता प्रचण्डाला -
पकरण मनुच्चैर्हास: तत्ताु प्रियाप्रियेषु स्वप्रिया प्रियेष्विव वृत्तिा:। - वात्स्यायने
1 - पति के गुरुजनों से, सखाओं से, और बन्धाु वर्ग एवं सेवकों से निरभिमान रहकर यथायोग्य बर्ताव करे।
2 - भार्या को चाहिए - पति को देवता के समान जाने, उसकी इच्छा के अनुकूल जीवन व्यतीत करे और उसकी सम्मति के अनुसार कुटुम्बीजन की चिन्ता में लीन रहे।
3 - कुलवधाू सास - ससुर की सेवा करे, उनकी आज्ञा में रहे, उनकी परतन्त्रा बने, उनकी बातों का जवाब न दे, मिष्ट भाषण करे, जोर से न हँसे। उनके प्रिय - अप्रिय को अपने प्रिय - अप्रिय के समान समझे।
जिस समय श्रीमती जनकनन्दिनी सिर नीचा करके चरणों के समीप बैठ गयीं, उस समय -
दीन्हि असीस सासु मृदु बानी।
अति सुकुमारि देखि अकुलानी।
इस पद्य में यथावसर 'मृदु बानी' शब्द का कितना सुन्दर प्रयोग है। यदि दोहे का 'पद कमल बन्दि बैठि सिरु नाइ' श्रीमती जानकी के विनय नम्र हृदय का सूचक है, तो यह 'मृदुबानी' शब्द कौसल्या देवी के कोमल वात्सल्यपूर्ण हृदय का परिचारक है। इसके उपरान्त श्रीमती कौसल्या देवी के हृदय की क्या अवस्था हुई, इसकी सूचना यह अध्र्दाली देती है -
' अति सुकुमारि देखि अकुलानी। '
कितनी स्वाभाविकता है? वे कितना शीघ्र अपनी पुत्रा - बधाू के हृदय में प्रवेश कर गई।
श्री जानकीजी सास के समीप सिर नीचा करके बैठ तो गईं, परन्तु मुँह न खुला, वे कुछ कह न सकीं। कैसे कहतीं? संकोच ने जीभ को बन्द जो कर रखा था। यही नहीं, हृदय में दु:ख की एक विचित्रा घनघोर घटा उठ रही थी, वे सोच रही थीं: -
बैठि नमित मुख सोचति सीता। रूप - रासि पति - प्रेम - पुनीता।
चलन चहत बन जीवन - नाथू। केहि सुकृती सन होइहि साथू।
की तनु प्रान कि केवल प्राना। विधिा करतब कछु जाइ न जाना।
चारु चरन नख लेखति धारनी।......।
देखा आपने, सामयिक अवस्था की कितनी सुन्दर वर्णना है 'बैठि नमित मुख' से 'चारु चरन नख लेखति धरनी' तक कैसे भावमय शब्द - विन्यास हैं। उनसे श्रीमती जानकी देवी की संकोचमय दशा, उनमें चिन्ता नाटय, उनके दृढ़ विचार, पवित्रा प्रेम आदि पर कितना सुन्दर प्रकाश पड़ता है। हृदय में जो घटा धाूम से उठ रही थी, नेत्राों के सहारे वह बरस पड़ी। गोस्वामी जी ने लिखा -
मंजु बिलोचन मोचति बारी।
कौसल्यादेवी पहले ही सब समझ गयी थीं, नेत्राों के जल ने उनको और आर्द्र कर दिया, इसलिए दूसरी अध्र्दाली यों लिखी गयी -
बोली देखि राम महतारी।
'राम महतारी' का कितना सार्थक प्रयोग है। पुत्रा पर माता का अधिाकार तो सूचित हुआ ही, साथ ही उनके हृदय की महत्ताा और द्रवणशीलता भी उससे विदित हुई। राम महतारी क्या बोली, अब उसे भी सुनिए -
तात सुनहु सिय अति सुकुमारी। सासु ससुर परिजनहिं पिआरी।
पिता जनक भूपाल मनि, ससुर भानुकुल भानु।
पति रविकुल कैरव बिपिन, बिधाु गुन रूप निधाानु।
मैं पुनि पुत्रा - बधाू प्रिय पाई। रूप रासि गुन सील सुहाई।
नयन पुतरि करि प्रीति बढ़ाई। राखेउँ प्रान जानकिहिं लाई।
कलप बेलि जिमि बहुबिधिा लाली। सींचि सनेह सलिलप्रतिपाली।
फूलत फलत भयउ बिधिा बामा। जानि न जाइ काह परिनामा।
पलँग पीठ तजि गोद हिंडोरा। सिय न दीन्ह पगु अवनि कठोरा।
जिअन - मूरि जिमि जोगवत रहऊँ। दीप बाति नहिं टारन कहऊँ।
सोइ सिय चलन चहति बन साथा। आयसु काह होइ रघुनाथा।
चंद किरन रस रसिक चकोरी। रवि रुख नयन सकइ किमि जोरी।
करि केहरि निसिचर चरहिं, दुष्ट जन्तु बन भूरि।
बिष बाटिका कि सोह सुत, सुभग सजीवनि मूरि।
बन हित कोल किरात किसोरी। रचीं विरंचि विषय - सुख - भोरी।
पाहन कृमि जिमि कठिन सुभाऊ। तिन्हहि कलेसु न कानन काऊ।
सिय बन बसिहि तात केहि भाँती। चित्रालिखित कपि देखि डेराती।
सुर सर सुभग बनज बन चारी। डाबर जोगु कि हंसकुमारी।
अस विचारि जस आयसु होई। मैं सिख देउँ जानकिहिं सोई।
जौ सिय भवन रहै, कह अम्बा। मोहि कहँ होइ बहुत अवलंबा।
श्रीमती कौसल्या देवी आदर्श माता ही नहीं, आदर्श सास भी हैं। सास का पतोहू के प्रति वह सच्चा और पवित्रा स्नेह जो गृह को स्वर्ग बनाता है, गार्हस्थ्य धार्म को उन्नत कर कुटुम्ब को सुख - शान्तिमय कर देता है, वे उसकी मूर्ति थीं। भावमय शब्दों में उनके हृदय का प्रेम जिस प्रकार व्यंजित हुआ है, वह बड़ा ही गम्भीर, उदात्ता एवं द्रावक है।
नयन पुतरि करि प्रीति बढ़ाई। राखेउँ प्रान जानकिहिं लाई।
कलप बेलि जिमि बहुविधिा लाली। सींचि सनेह सलिल प्रतिपाली।
जिअनमूरि जिमि जोगवत रहऊँ। दीप बाति नहिं टारन कहऊँ।
इन पंक्तियों में कितनी ममता भरी है, इनमें कितना आदर भाव और प्यार है, कितना प्रेम और वात्सल्य है, कितनी करुणा और द्रवणशीलता है, क्या यह बतलाना होगा? कौन सहृदय है, जो इन भावों को इनमें छलकता न पाएगा? जब कौसल्या देवी कहती हैं -
पलँग पीठ तजि गोद हिंडोरा। सिय न दीन्ह पगु अवनि कठोरा।
बन हित कोल किरात किसोरी। रची विरंचि विषय - सुख - भोरी।
कै तापस तिय कानन जोगू। जिन्ह तप हेतु तजा सब भोगू।
सिय बन बसिहि तात केहि भाँति। चित्रालिखित कपि देखि डेराती।
तब जानकी देवी की सरलता, कोमलता, उनके स्वभाव का भोलापन और उनकी भीरु प्रकृति ऑंखों के सामने फिर जाती है,साथ ही हृदय में एक ऐसी बेदना होने लगती है, जो चित्ता विह्नल कर देती है। यदि कौसल्यादेवी सीताजी का मुँह न जोहती रहतीं, उनके सुख से रहने का धयान न रखती होतीं, तो उनके मुख से इस तरह की बातें न निकलतीं। इन पंक्तियों में उनकी व्यथा ही मूर्तिमन्त होकर विराजमान नहीं है, उनकी वह वांछा भी झलक रही है, जो पुत्रा - वधाू के साधाारण क्लेशों को देखकर भी विचलित होती है -
चन्द किरन रस रसिक चकोरी। रबि रुख नयन सकइ किमि जोरी।
सुर - सर सुभग बनज बनचारी। डाबर जोगु कि हंसकुमारी।
बिष बाटिका कि सोह सुत , सुभग सजीवनि मूरि।
किसी पुत्रा - वधाू के पक्ष में अपने पुत्रा से कोई सास इससे अधिाक और इससे उत्तामता से क्या कह सकती है। इन पंक्तियों में एक कुल - बाला का हृदय खोलकर उसके प्रियतम को दिखलाया गया है और साथ ही यह भी सूचित किया गया है कि एक पति - प्राणा के वियोग - विधाुरा बनने पर उसका जीवन कैसा संकटापन्न हो सकता है। इनसे कौसल्या देवी की गम्भीरता जितनी सुन्दरता से स्फुटित हुई है, उतनी ही उनकी भावुकता, सहृदयता और मार्मिकता भी। एक ओर वे पुत्रावधाू की गम्भीर मनोवेदना, उसकी वन गमन की असमर्थता आदि का आवरण हटाती हैं और दूसरी ओर पुत्रा की ऑंखें खोलती हैं और उसके उचितर् कत्ताव्य के लिए सावधाान करती हैं। ऐसे अवसर पर वे अपने उत्तारदायित्व को भी नहीं भूलतीं। वे पुत्रा के महान् कर्तव्यों, उनके असीम संकटों और दैवदुर्विपाक को समझती हैं। अतएव यह आज्ञा नहीं देतीं कि अपनी स्त्राी को अवश्य साथ लेते जाओ, केवल इतना कहती हैं -
सोई सिय चलन चहति बन साथा। आयसु काह होइ रघुनाथा।
अस बिचारि जस आयसु होई। मैं सिख देउँ जानकिहिं सोई।
फिर व्यथित और विरहकातरा होकर वह कह पड़ती हैं: -
जो सिय भवन रहै , कह अम्बा। मोहि कहँ होइ बहुत अवलम्बा।
यह अन्तिम पद उनके व्यथामय आन्तरिक भाव का सूचक है। पुत्रा जाए तो जाए, किन्तु विनयशील पुत्रावधाू को वह त्यागना नहीं चाहतीं। फिर भी कलेजे पर पत्थर रखकर उन्होंने आत्मसुख को तिलांजलि दीं और जानकी देवी को गर्भव्यथाओं की ही मरहम पट्टी करने की पूरी चेष्टा कीं, यही है उनकी महत्ताा और महानुभावता। यहीं 'राम महतारी' पद की पूरी सार्थकता हुई है। आर्य संस्कृति की ही यह उदात्ता कल्पना है और आर्य संस्कृति का ही है यह अपूर्व आदर्श।
भगवान करे, घर - घर श्रीमती कौसल्या जैसी सास और श्रीमती जानकी जैसी पुत्रा वधाुएँ दिखलायी पडें, ज़िससे हमारे पवित्रा गृहों में पाश्चात्य कलुषित प्रभावों का अशुभ प्रवेश न हो सके।
माता की बातें सुनकर भगवान श्री रामचन्द्र चिन्तित हुए। पहले तो विवेकमय वचन कहकर उन्होंने उनको समझाया। इसके उपरान्त जानकी जी से कुछ कहना चाहा, परन्तु मर्यादा बाधाक हुई, माता का संकोच हुआ, फिर भी समय देखकर उन्हें उनसे कुछ कहना ही पड़ा। गोस्वामी जी लिखते हैं: -
मातु समीप कहत सकुचाहीं। बोले समउ समुझि मन माहीं।
भगवान् श्री रामचन्द्र मर्यादा पुरुषोत्ताम हैं, परन्तु प्रबल काल से उनकी भी न चली। श्रीमती जानकी देवी से उन्होंने जो कुछ कहा, उसे सुनिए -
राजकुमारि सिखावन सुनहू। आन भाँति जिय जनि कछु गुनहू।
आपन मोर नीक जो चहहू। कथनु हमार मानि गृह रहहू।
आयसु मोर सासु सेवकाई। सब बिधिा भामिनि भवन भलाई।
एहि तें अधिाक धारम नहिं दूजा। सादर सासु ससुर पद पूजा।
जब - जब मातु करिहिं सुधिा मोरी। होइहिं प्रेम बिकल मति भोरी।
तब - तब तुम्ह कहि कथा पुरानी। सुन्दरि समुझाएहु मृदुबानी।
कहउँ सुभायँ सपथ सत मोही। सुमुखि मातु हित राखउँ तोही।
कैसी उचित और मार्मिक बातें हैं, भगवान श्रीरामचन्द्र जैसे विनय - नम्र और मर्यादाशील पुत्रा के मुख से दूसरी कौन बात निकलती। उन्होंने यह भी कहा - जो कुछ मैं कह रहा हूँ वह गुरु एवं श्रुतिसम्मत है, अतएव इस धार्म फल का बिना कष्ट का अनुभव किए लाभ करना चाहिए।
गुरु श्रुति संमत धारम फलु , पाइउ बिनहिं कलेस।
श्रुति कहती है -
मातृदेवो भव , पितृदेवो भव , आचार्यदेवो भव।
शास्त्रा कहता है -
प्रत्यक्ष देवता माता।
जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी।
स्मृति कहती है -
संयतोपस्करा दक्षा हृष्टा व्ययपराङ्मुखी।
कुर्याच्छ्वशुरयो: पादवन्दनं भर्तृतत्परा।
(याज्ञवल्क्य)
उपाधयायान् दशाचार्य आचार्याणां शतं पिता।
lgòं तु पितृन्माता गौरवेणातिरिच्यते।
(मनु. 2/145)
माता - पिता और आचार्य देवता हैं, माता प्रत्यक्ष देवता है। जननी और जन्मभूमि स्वर्ग से भी श्रेष्ठ है। स्त्राी को संयतोपस्कर (थोड़े गहनों वाली) दक्ष, हृष्ट और व्यर्थव्यय - पराङ्मुखी होना चाहिए। पति से रत रहकर सदा सास, ससुर की सेवा करना उनका धार्म है। उपाधयाय से दशगुण आचार्य का, आचार्य से शतगुण पिता का और पिता से सहò गुण - गौरव माता का है।
इस प्रधाान धार्म की शिक्षा देने के बाद भगवान श्रीरामचन्द्र ने वन की भयंकरताओं और वहाँ की असुविधााओं का बड़ा ही विशद वर्णन किया है। पाठक रामायण में उनको देख सकते हैं। अधिाकांश वर्णन बड़ा ही भावमय और सुन्दर है, कवित्व तो उसमें कूट - कूटकर भरा है। कुछ पंक्तियाँ देखिए -
डरपहिं धाीर गहन सुधिा आएँ। मृगलोचनि तुम्ह भीरु सुभाएँ।
हंसगवनि तुम्ह नहिं बन जोगू। सुनि अपजसु मोहि देइहि लोगू।
मानस सलिल सुधाा प्रतिपाली। जिअइ कि लवन पयोधिा मराली।
नव रसाल बन बिहरन सीला। सोह कि कोकिल बिपिन करीला।
इन पंक्तियों में कितनी स्वाभाविकता और भावुकता है, सहृदयजन स्वयं उसका अनुभव करें। कुछ पाश्चात्य विद्वानों का मत है कि श्रीमती जनकनन्दिनी का चरित्रा जिस रूप में भारतीय कवियों ने अंकित किया है, वह कल्पित है, उसमें वास्तविकता का लेश नहीं। उनपर विपत्तिा का पहाड़ टूट पड़ता है, परन्तु उस अवस्था में भी उनको कुछ कहते नहीं देखा जाता। ज्ञात होता है कि उनके मुख में जीभ नहीं, या किसी ने उनके मुख पर मुहर लगा दी है। वे बड़े - से - बड़ा दु:ख सह लेती हैं, परन्तु उफ् भी नहीं करतीं। वज्र टूट पड़ता है, किन्तु हिलतीं तक नहीं। ऐसी प्रस्तर - प्रतिमा हो सकती है, कोई जीव - धारिणी नहीं। ऐसी - ही - ऐसी तर्कनाएँ करके वे दिल के फफोले फोड़ते हैं और इस प्रकार की और कितनी ही ऊटपटांग बातें कहते रहते हैं। वास्तव में बात यह है कि जिस वातावरण में उनके दृश्य का विकास हुआ है, जो हृदय उनके नेत्राों के सामने उपस्थित होते रहते हैं, पति - पत्नी के जिन पारस्परिक व्यवहारों का उनको अनुभव है, वैसी ही उनकी विचार परम्परा और मननशैली है। यूरोप की स्त्रिायों में आत्मपरायणता अधिक होती है, वे उतनी पति प्रेमिका और स्नेहमयी नहीं होतीं, जितनी एशिया विशेषत: भारत की कुल ललनाएँ होती हैं। वे पतिपरायणा तभी तक रहती हैं, जब तक उनके स्वार्थों की पूर्ति होती रहती है। स्वार्थ में व्याघात उपस्थित होने पर वे तत्काल उनको त्याग देती हैं, आजकल यह प्रवृत्तिा बहुत ही प्रबल हो गयी है। पति की आज्ञा में रहना, उनकी सेवा के लिए आत्मोत्सर्ग करना, उनकी दृष्टि में आत्मविक्रय है। विवाह - बन्धन उनके दृष्टि में उतना पवित्रा नहीं। वे बात की बात में उसे तोड़ सकती हैं। उनका स्वभाव उग्र, असंयत और प्राय: उच्छृंखल होता है। इस प्रकार की प्रवृत्तिा को वे तेजस्विता कहती हैं। उनकी स्वतन्त्राता की कामना इतनी तीव्र होती है कि पति के सामने यदि थोड़ा भी झुकना पड़े, तो वे उसे परतन्त्राता मान बैठती हैं। जिस देश, जिस समाज के ऐसे आदर्श हों, उस देश और समाज में पला हुआ मनुष्य यदि सीतादेवी को अधिक धीर, गम्भीर, संयत, आत्मत्याग की मूर्ति और पतिप्राणा देखकर उनके विषय में तथाकथित विचार प्रकट करे तो क्या आश्चर्य! मेरे कथन का यह मतलब नहीं कि यूरोप में पतिपरायणा स्त्रिायाँ होतीं ही नहीं, ऐसा कहना और सोचना अन्याय होगा। मिल्टन ने एक स्थान पर 'ईव' के मुख से इन शब्दों को कहलवाया है। ये शब्द उन्होंने आदम से कहे हैं -What thou bidd'st, unargued I beg. So God ordains, God is thy law, thou mine.
'जो आप की आज्ञा होती है, उसे मैं बिना कुछ कहे - सुने स्वीकार करती हूँ। ईश्वरीय इच्छा यही है। आप के नियन्ता ईश्वर हैं और मेरे आप। '
संसार में जितनी सती साध्वी स्त्रिायाँ होंगी, प्राय: सबके हृदय का भाव ऐसा ही होगा। यदि यूरोप की स्त्रिायों में ऐसा भाव न पाया जाता तो मिल्टन की लेखनी से ऐसे शब्द निकलते ही नहीं, अभाव में भाव नहीं होता। यूरोप की स्त्रिायों में रजोगुण और तमोगुण ही होता है, सत्वगुण नहीं - ऐसा कहना अस्वाभाविक होगा। वहाँ स्वाभाविकता का लोप हो गया है, कृत्रिामता ही शेष है, यह भी नहीं कहा जा सकता। किन्तु यह परम सत्य है कि आजकल धार्मिकता का स्थान स्वेच्छाचारिता ग्रहण कर रही है, इसीलिए वहाँ का वायुमंडल विशेष कलुषित हो गया। यूरोप में सती साध्वी स्त्रिायों का अभाव नहीं, किन्तु वे उँगलियों पर गिनी जा सकती हैं। क्षेत्रा प्राय: वैसी ही स्त्रिायों के हाथ में है, जिनका चित्राण ऊपर हुआ है। आजकल हमारे यहाँ भी पढ़ी - लिखी स्त्रिायों ने यूरोप की स्त्रिायों का अनुकरण आरम्भ कर दिया है। अतएव उन्हीं के प्रभावों से लोग प्रभावित हैं और वैसे ही असंगत विचार भारत की पुनीत सभ्यता में पली स्त्रिायों के विषय में प्रकट करने के लिए बाधय हैं, किन्तु इस प्रकार की निर्मूल बातों का मूल्य ही क्या?
श्रीमती सीता देवी भारत की सती साध्वी स्त्रिायों की शिरोमणि हैं। उनको आर्य संस्कृति की दिव्य मूर्ति कह सकते हैं। उनके मुख में जिह्ना है, किन्तु बड़ी ही संयत। उनके मुँह पर मुहर कभी नहीं लगी। वे समय पर बोलती हैं, किन्तु उनके शब्द तुले हुए और गम्भीर होते हैं, उन शब्दों में महानुभावता भरी होती है, पर साथ ही हृदय की विशालता भी। कटु वचन कहना,उध्दत बन जाना, उनके स्वभाव के विरुध्द है। जैसी मर्यादाशीलता और सदाशयता उनमें दृष्टिगत होती है, वैसी अन्यत्रा नहीं। और बातों की तरह सभ्यता के भी स्तर होते हैं। पहले वह उतनी उदात्ता, संयत और गम्भीर नहीं होतीं, जितनी उन्नतावस्था में। सांसारिक अन्य पदार्थों की तरह उसका भी क्रमश: विकास होता है। जो जातियाँ पहले पशुओं के समान जीवन व्यतीत करती थीं, आज वे ऊँचे - ऊँचे महलों में रहती हैं और वैज्ञानिक आविष्कारों द्वारा जगत् को चकित करती हैं, यह उनकी सभ्यता के क्रमश: विकास का ही फल है। आर्य सभ्यता संसार की सब सभ्यताओं से प्राचीन है और लगभग पूर्णता को पहुँची हुई है, इसलिए वह अधिकांश उदात्ता गुणों का आधार है। भगवती जानकी सतीत्व के विषय में इसका प्रमाण हैं। स्त्राी जाति के हृदय का चरमोत्कर्ष उनमें देखा जाता है। उनकी महानुभावता संसार की सती साध्वी स्त्रिायों का आदर्श है। विभिन्न हाथों में पड़कर विचार वैचित्रय के कारण कहीं - कहीं उनका चरित्रा विकृत हो गया है, किन्तु उनकी महत्ताा कहीं खर्व नहीं हुई।
दिङ्नाग बौध्द विद्वान् था। उसने 'कुन्दमाला' नामक एक नाटक लिखा है। प्रकरण उसका 'वैदेही वनवास' है। विपिन में पहुँचाकर लौटते समय लक्ष्मण जी जनकनन्दिनी से सन्देश की प्रार्थना करते हैं। उस समय नाटककार उनके मुख से ये वाक्य कहलाते हैं -
तथा निष्ठुरो नाम सन्दिश्यत इत्यप्रतिहतवचनतैषा
लक्ष्मणस्य , न सीताया धान्यत्वम्।
अहो अविश्वसनीयता प्रकृतनिष्ठुरभावानां पुरुष हृदयानाम्।
ऐसे निष्ठुर के लिए मैं जो सन्देश देना चाहती हूँ, इसमें लक्ष्मण के वचन का आदर है, सीता का सौभाग्य नहीं। स्वभाव से ही निष्ठुरभावपूर्ण पुरुष हृदय की अविश्वसनीयता विचित्रा है।
ऐसे ही एक अवसर पर भवभूति कौन - सा पथ ग्रहण करते हैं, उसे भी देखिए। उत्तार रामचरित में एक स्थल पर वे श्रीमती सीतादेवी की सखी वासन्ती के मुख से भगवान श्री रामचन्द्र के विषय में यह वाक्य कहलाते हैं -
' अयि देव ? किं परं दारुण: खल्वसि। '
'देव? आप सचमुच बडे निष्ठुर हैं। '
यह सुन सीतादेवी अपनी पतिप्राणता का परिचय देते हुए क्या कहती हैं, उसे भी सुनिए -
' सखि वासन्ति ? किं त्वमेवंवादिनी भवसि , पूजार्ह:
सर्वस्यार्यपुत्राो विशेषतो मम प्रिय सख्या:
'सखी वासन्ती? तुम ऐसा क्यों कहती हो?
आर्य पुत्रा सबके पूजनीय हैं, विशेषत: मेरी प्रिय सखी के। '
दिड्नाग की जनकनन्दिनी देवी नहीं, मानवी हैं। उनमें धौर्यच्युति है। वे धौर्यच्युत होकर पतिदेव को निष्ठुर कहती हैं, साथ ही पुरुष जातिमात्रा को स्वभाव से ही निष्ठुर हृदय कह डालती हैं। इस कथन में स्वाभाविकता है, किन्तु चित्ता की वह विशालता नहीं, जो मनुष्य को देवता बना देती है। विपत्तिा ही मनुष्य की कसौटी है, इस पर कसने पर दिङ्नाग को सीतादेवी ठीक नहीं उतरतीं। भवभूति की सीतादेवी वास्तव में देवी हैं। वे आत्मचिन्ता शून्य हैं, सच्ची प्रतिप्राणा हैं, वे विपत्तिा धौर्य का आदर्श है। उन्हाेंने स्वाभाविकता पर विजय प्राप्त कर ली है। उनमें प्रतिहिंसा - वृत्तिा है ही नहीं, वे स्वयं तो भगवान श्री रामचन्द्र को देखकर कुछ कहतीं ही नहीं, सखी के कटु वचन को भी नहीं सह सकतीं। उनका यह वाक्य बड़ा ही मार्मिक है - आर्यपुत्रा सबके पूजनीय हैं, विशेषत: मेरी प्रिय सखी के। यह सीता देवी का वास्तवकि रूप है। यह रूप बुधजन ही नहीं, विबुधाजन वन्दनीय है। उनका यही रूप आर्य संस्कृति का सर्वस्व है। गोस्वामी जी उनके इसी रूप के उपासक हैं। भगवान् श्री रामचन्द्र की बाताें को सुनकर सीतादेवी ने क्या कहा, अब उसको उन्हीं के शब्दाें में सुनिए।
कौसल्यादेवी के सामने जनकनन्दिनी के सीधो पति से बातचीत करने में मर्यादा बाधाक थी। अतएव उन्होंने उन्हीं का सहारा ढूँढा, किन्तु इसमें उनको सफलता न हुई। भगवान श्री रामचन्द्र ने ऐसी बात कही कि उन्हें बोलने की नौवत आयी। इसलिए पहले उन्होंने -
लागि सासु पग कह कर जोरी! छमबि देवि बड़ि अविनय मोरी।
इस पद्य में कितनी मर्यादाशीलता है। 'छमबि देवि बड़ि अविनय मोरी' में उनके सरल और विनम्र हृदय की कितनी सुन्दर प्रतिच्छाया है। सास से अविनय की क्षमा माँगकर उन्होंने पतिदेव से कुछ कहा, उससे पति - प्रेम का प्रवाह उमड़ पड़ता है। उसका एक - एक शब्द बड़ा ही भावमय है। उसकी कुछ पंक्तियाँ देखिए -
मैं पुनि समुझि दीखि मन माहीं। पिय बियोग सम दुख जग नाहीं।
तुम्ह बिनु रघुकुल कुमुद - विधाु सुरपुर नरक समान।
मातु पिता भगिनी प्रिय र्भाई। प्रिय परिवारु सुहृदय समुदाई।
सास ससुर गुर सजन सहाई। सुत सुन्दर सुसील सुखदाई।
जहँ लगि नाथ नेह अरु नाते। पिय बिनु तियहिं तरनिहु ते ताते।
तनु धानु धााम धारनि पुर राजू। पतिबिहीन सबु सोक समाजू।
भोग रोग सम , भूषन भारू। जम जातना सरिस संसारू।
प्राननाथ तुम्ह बिनु जग माहीं। मो कहुँ सुखद कतहुँ कुछ नाहीं।
जिय बिनु देह , नदी बिनु बारी। तैंसिहि नाथ पुरुष बिनु नारी।
नाथ सकल सुख साथ तुम्हारे। सरद बिमल बिधाु बदनु निहारे।
विवाह काल में सप्तपदी के समय पत्नी प्रतिज्ञा करती है -
आर्ते आर्ता: भविष्यामि सुख:दुखविभागिनी।
तवाज्ञां पालयिष्यामि पंचमे सा पदे वदेत।
आर्त होने पर आर्त हूँगी, सुखदु:ख भागिनी हूँगी और तुम्हारी आज्ञा का पालन करूँगी। कहा जा सकता है कि इस प्रतिज्ञा के अनुसार उनको वही करना चाहिए था, जो पति ने कहा, क्या यह अमर्यादा नहीं? पहली बात यह कि आपत्काले नियमो नास्ति। दूसरी बात यह है कि उन्हाेंने अवज्ञा क्या की? कोई आज्ञा होने पर उसके पालन करने में जो बाधााएँ उपस्थित होंगी, क्या उनका निवेदन करना आज्ञा न मानना है? आज्ञा मानने की अपेक्षा पति की दु:ख - सुख संगिनी होना, उनके लिए जीवन उत्सर्ग करना, क्या अधिाक संगत नहीं? सीतादेवी की चेष्टा यही तो है, स्त्राी का सर्वस्व पति ही तो है, फिर यहाँ तो प्राण की बाधाा उपस्थितहै।
राखिअ अवधा जो अवधिा लगि , रहत जानिअहिं प्रान।
ऐसी अवस्था में उन्हाेंने जो कुछ निवेदन किया, उसमें विप्रतिपत्तिा क्या? जो स्त्राी - धार्म है, जो शास्त्रासंगत बात है,वही तो वे कह रही हैं -
नास्ति स्त्राीणां पृथग्यज्ञ , न व्रतं नाप्युपोषितम्।
पतिं शुश्रूषते येन , तेन स्वर्गे महीयते।
पाणिग्राहस्य साधवी स्त्राी , जीवतो वा मृतस्य वा।
पतिलोकमभीप्सन्ती , नाचरेत्ंकिचिदप्रियम्।
(मनु.)
सा भार्या या गृहे दक्षा , सा भार्या या प्रजावती।
सा भार्या या पतिप्राणा , सा भार्या या पतिव्रता।
(व्यास.)
मितं ददाति जनको , मितं भ्राता मितं सुत:।
अमितस्य हि दातारं , भर्तारं पूजयेत्सदा।
(शिवपुराण)
पतिरेको गुरु: स्त्राीणाम् (चाणक्य. शिवपुराण)
स्त्राी को न तो कोई यज्ञ करने की आवश्यकता है, न व्रत - उपवास की। पति की सेवा करने से ही वह स्वर्ग में आदृत होती है। पति - लोक की कामना करनेवाली साधवी स्त्राी, चाहे जीवित पति हो चाहे मृत, उसका अप्रिय कभी न करे। भार्या वही है, जो गृह - कार्य में दक्ष हो, सन्तानवाली हो, पतिप्राणा और पतिव्रता हो। पिता, भ्राता, पुत्रा थोड़ा देनेवाले हैं, सब कुछ देनेवाला पति ही है। इसलिए वह सदा सत्कार योग्य है। स्त्रिायों का गुरु एक पति ही है।
श्रीमती जानकी देवी के निवेदन में आर्य - सिध्दान्तों की धवनि के सिवा और क्या है? हाँ, उनके हृदय के समान उनकी उदात्ता उक्तियाँ अवश्य हैं। इस कथन में कितनी सत्यता है - पिय वियोग सम दुखु जग नाहीं। इसीलिए 'तन धानु धााम धारनि पुर राजू। पति बिहीन सब सोक समाजू' है, और 'भोग रोग सम भूषन भारू'! जब रघुकुल कुमुद बिधाु बिना सुरपुर नरक समान है, तब 'जम जातना सरिस संसारू' का होना क्या आश्चर्य? फिर वे क्यों ने कहतीं - प्रान नाथ तुम बिनु जगमाहीं। मो कहुँ सुखद कतहुँ कछु नाहीं। ' जब वे मातु - पिता भगिनी इत्यादि बडे - बडे सम्बन्धिायों का नाम सुन्दर विशेषणों के साथ गिनाकर यह कहती हैं 'जहँ लगि नाथ नेह अरु नाते। पिय बिन तिय तरनिहु ते ताते,' तब वे किस ज्वाला की ओर संकेत करती हैं, क्या यह बतलाना होगा? विरह ज्वाला की बातें कौन नहीं जानता। विरहिणी को कौन नहीं जलाता। चाहे यह उसकी मानसिक आधिा का ही फल हो, उसको अनुभव ऐसा ही होता है। उसको सुधााकर किरणें भी अग्निमयी ज्ञात होती हैं और मलय समीर शेष - वास और अधिाक क्या कहें। उन्होंने यह बात कितनी दूर की कही, 'जिय बिनु देह नदी बिनु बारी। तैसिहि नाथ पुरुष बिनु नारी। ' सत्य है और कामिनी - कल्लोलिनी का सलिल। किन्तु इस बात को सीतादेवी सदृश पति - प्राणा देवी ही समझ और कह सकती हैं।
इसके उपरान्त उन्होंने यह कहा -
खग मृग परिजन , नगरु बनु , बलकल बिमल दुकूल।
नाथ साथ सुरसदन सम , परनसाल सुख मूल।
बन देवी बनदेव उदारा। करिहहिं सासु ससुर सम प्यारा।
कुस किसलय साथरी सुहाई। प्रभु सँग मंजु मनोज तुराई।
कंद मूल फल अमिअ अहारू। अवधा सौधा सत सरिस पहारू।
आजकल खाओ, पीओ, आराम करो का वज्र निर्घोष ही सुनायी पड़ रहा है, ऐसी अवस्था में सीतादेवी की बातों को कौन सत्य स्वीकार करेगा? खग - मृग को परिजन, वन को नगर, वल्कल को विमल दुकूल, पर्णशाला को सुरसदन सूखमूल कौन मानेगा? क्या ऐसा माना जा सकता है? ये तो चिकनी - चुपड़ी बातें हैं, वनदेव, वनदेवी सास - ससुर नहीं बन सकते। कुस किसलय साथरी, मनोज तुराई नहीं कही जा सकती, न तो कन्द मूल फल अमृतमय आहार हो सकते हैं। और न अवधा के सैकड़ों सौधाौं के समान पहाड़ एवं न कोई बुध्दिमती स्त्राी ऐसा कह सकती है। हाँ, यह कवि - कल्पना हो सकती है। हृदय सबके पास है, जीभ सबके मुँह में है, जो जिसके मन में आए, कह सकता है, जो चाहे सोच सकता है। परन्तु यह अक्षरश: सत्य है कि जो कुछ श्रीजानकीदेवी ने कहा, वह आर्य ललना के हृदय का सच्चा उद्गार है। यदि हम विवेक की ऑंखें खोल लें,तो भारतीय कुलबाला के मानस - दर्पण में यह भाव बहुत ही स्पष्ट रूप में प्रतिबिम्बित दिखायी देगा। श्रीमती सीतादेवी स्वयं इसके लिए प्रमाण हैं - जिन्होंने एक - दो दिन नहीं, लगभग चौदह वर्ष भगवान् श्रीरामचन्द्र के साथ इसी भाव से व्यतीत किए। उनके उद्गारों का प्रतिपादन निम्नलिखित पद्य बड़ी ही दृढ़ता से करते हैं -
नाथ सकल सुख साथ तुम्हारे। सरद बिमल विधाु बदन निहारे।
छिनु छिनु प्रभु पद कमल बिलोकी। रहिहउँ मुदित दिवस जिमि कोकी।
मोहि मग चलत न होइहि हारी। छिनु छिनु चरन सरोज निहारी।
वास्तविक सुख का सम्बन्धा हृदय के भावों से है, किसी पदार्थ अथवा वस्तु विशेष से नहीं। इन पद्यों को पढ़कर इस बात को सत्य प्रेम का पथिक भली - भाँति समझ सकता है। प्रेम प्रेम के लिए होता है, सुख - उपभोग के लिए नहीं। जो प्रेम सुख कामना पर उत्सर्गर्ित है, वह प्रेम नहीं, प्रेम का आडम्बर मात्रा है। सच्चे प्रेम में कष्ट की अनुभूति होती ही नहीं।
सीतादेवी कहती हैं -
बन दुख नाथ कहे बहुतेरे। भय विषाद परिताप घनेरे।
प्रभु वियोग लवलेस समाना। सब मिलि हाेंहि न कृपानिधााना।
सत्य प्रेम में अहंभाव नहीं होता, उसमें सेवाभाव ही प्रबल होता है। सत्य प्रेम सूर्य है, उसके सामने अहंभाव - अन्धाकार ठहर नहीं सकता, उसको अवलोकन कर सेवा - भाव सरसिज अवश्य विकसित होता रहता है। भगवती जानकी में यह भाव कितना जाग्रत है, देखिए -
सबहि भाँति पिय सेवा करिहौं। मारग जनित सकल श्रम हरिहौं।
पाय पखारि बैठि तरु छाहीं। करिहउँ बाउ मुदित मन माहीं।
श्रम कन सहित स्याम तनु देखे। कहँ दुख समउ प्रानपति पेखे।
सम महि तृन तरुपल्लव डासी। पाय पलोटिहि सब निसि दासी।
इन पंक्तियों में कितना आत्मनिवेदन है, कितनी अमायिकता और सरलता है, कितनी हित कामना और सहानुभूति है, यह निर्बल हृदय की अवतारणा नहीं, सबल चित्ता की उदात्ता भावमयी सुन्दर प्रस्तावना है। प्रवंचनामय मानस की प्ररोचना नहीं, 'मनस्येकं वचस्येकं क्रियास्येक। ' की सत्यतामयी विभावना है। स्वार्थ साधान की कपटभरी आयोजना नहीं, कर्तव्य ज्ञान की भक्तिभरी साधाना है।
भगवान श्रीरामचन्द्र ने विपिन की भयंकरता का बड़ा विशद् वर्णन किया था और यह भी कहा था -
नर अहार रजनीचर चरहीं। कपट वेष बिधिा कोटिक करहीं।
सीतादेवी इसका कितना सुन्दर और गम्भीर उत्तार देती हैं, सुनिए -
बार बार मृदु मूरति जोही। लागिहि तात बयारि न मोही।
को प्रभु संग मोहि चितवनिहारा। सिंघ - बधाुहिं जिमि ससक सिआरा।
इस उत्तार में कितना आत्मविश्वास है और कितनी पतिनिर्भरता है, कितनी प्रीतिपरायणता और तेजस्विता है - इसका अनुभव प्रत्येक सहृदय प्राणी कर सकताहै।
श्रीरामचन्द्रजी ने यह भी कहा था 'हंस गवनि तुम्ह नहीं बन जोगू। ' इसका उत्तार बड़ा ही हृदयग्राही और मर्मस्पर्शी है। कहीं भी जानकीदेवी ने व्यंग्य से काम नहीं लिया है। बहुत धाीर भाव से संयत उत्तार ही देती चली गयी हैं। किन्तु इस पंक्ति का उत्तार बड़ा ही व्यंजनामय है, साथ ही उसमें इतनी स्वाभाविकता है कि पढ़कर चित्ता लोट - पोट हो जाता है -
मैं सुकुमारि , नाथ बन जोगू ? तुम्हहि उचित तप , मो कहुँ भोगू ?
इस बचन - रचना की बलिहारी। इसको कहते हैं , ' कागज पै रख दिया है कलेजा निकालकर। ' कितनी मीठी चुटकी है , साथ ही कितनी प्रेम भरी ?
शास्त्राों में स्त्राी को सहधार्मिणी कहा गया है, सहधार्मिणी का अर्थ है समान धार्मवाली। सच्ची गृहिणी वही है, जो पति के भावों को समझती है और बिना कहे उसकी पूर्ति करती है। पति ने जब मुँह खोलकर कुछ कहा और तब स्त्राी ने कोई कार्य किया, तो वह सहधार्मिणी कहाँ रही। जिस स्त्राी ने पति के हृदय को नहीं पहचाना, उसके कर्तव्य को नहीं समझा, जो उसकी जीवन - यात्राा के अनुकूल अपने को नहीं बना सकी, किसी स्थलविशेष पर पति का क्या धार्म है - जो इसकी मर्मज्ञ नहीं,वह सहधार्मिणी होने का दावा नहीं कर सकती। विवाह के समय वर कन्या से कहता है -
मम ब्रते ते हृदयं दधाामि , मम चित्तामनुचित्तां ते अस्तु।
मम वाचमेकमना जुषस्व , प्रजापतिस्त्वा नियुनक्तुमह्यम्।
मेरे ब्रत की ओर तम्हारा हृदय खिंचे, मेरे चित्ता के अनूकुल चित्ता हो, एकमना होकर मेरी बात मानो, प्रजापति तुमको मुझसे सम्बन्धिात करें।
विवाह के अन्त में कन्या को धाु्रव का दर्शन कराया जाता है, वह धा्रुव को देखकर कहती है - धा्रुवमसि धाु्रवं त्वां पश्यामि। अयि धाु्रव, तुम अचल - अटल हो, मैं तुम्हें देखती हूँ। इसका भाव यह है कि विवाह कार्य में पति के द्वारा मुझसे तो प्रतिज्ञाएँ करायी गयी हैं अथवा मैंने स्वयं जो प्रतिज्ञाएँ की हैं, उनपर मैं धाु्रव के समान अचल - अटल रहूँगी। सप्तपदी के समय वह यह भी कहती है -
यज्ञे होमे च दानादौ भविष्यामि त्वया सह।
धार्मार्थकामकार्येषु वधाू: षष्ठे पदे वदेत्।
यज्ञ, होम और दानादि में, धार्म, अर्थ और काम में, मैं सदा तुम्हारे साथ रहूँगी, इसीलिए अर्ध्दे भार्या मनुष्यस्य' है। इसीलिए स्त्राी अधर्ाांगिनी है और इसीलिए सहधार्मिणी। रामायण में इस संस्कृति का बड़ा ही उत्ताम निदर्शन है। गोस्वामी जी लिखते हैं -
उतरि ठाढ़ भए सुरसरि रेता। सीय रामु गुह लखन समेता।
केवट उतरि दण्डवत कीन्हा। प्रभुहि , सकुच , एहि नहिं कछु दीन्हा।
पिय हिय की सिय जाननिहारी। मनि मुँदरी मन मुदित उतारी।
गोस्वामी जी की इस उक्ति में कि 'प्रभुहि सकुच एहि नहिं कछु दीन्हा में बड़ा स्वारस्य है। प्रभु शब्द का प्रयोग कितना सार्थक है? साधाारण जन होते तो इस विषय में वे कुछ लापरवाही भी कर सकते, किन्तु प्रभु का ऐसा करना बड़ा ही अनुचित था। बड़ी ही मर्यादा विरुध्द बात थी। फिर उसके साथ, जो जीभ नहीं हिला सकता। बडे लोगों के लिए दीनों, अकिंचनों की सहायता करने के लिए इस प्रकार के अवसर बडे ही सुन्दर होते हैं। सेवा करनेवाला बड़ों से बड़ी आशा रखता भी है। कम से कम भगवान् को निषाद की मूँठी अवश्य भर देनी चाहिए थी, किन्तु कहाँ, वे तो कुछ न दे सके। तापस वेष में उनके पास था ही क्या। फिर उनके जी को चोट क्यों न लगती, और वे क्यों न संकुचित होते। सीतादेवी सतीशिरोमणि हैं, सच्ची सहधार्मिणी और अधर्ाांगिनी हैं, उन्हाेंने पतिदेव के हृदय की बात जान ली और तत्काल मुदित मन से मणिजटित मुँदरी उतार दी। गोस्वामी जी के शब्दों की मार्मिकता देखिए -
पिय हिय की सिय जाननिहारी। मनिमुदरी मन मुदित उतारी।
कैसी मँदरी उतारी? मणिजटित। कैसे उतारी? मुदित मन से। स्त्रिायों को गहना बड़ा प्यारा होता है, उनको उसे अलग करते समय बड़ी कठिनता होती है, पीड़ा भी होती है। वे आसानी से उसे किसी को देना नहीं चाहतीं। जब्र करके कोई भले ही ले ले। यह साधाारण गहनों की बात है, और मणिजटित गहना? वह तो कलेजे में छिपाकर रखने की चीज है। उसका तो नाम ही न लीजिये। किन्तु सीतादेवी ने वैसी ही ऍंगूठी उतारी। और वह भी मुदित मन से, जरा - सा तेवर भी नहीं बदला, पेशानी पर शिकन तक नहीं आयी। क्याेंकि उनका सर्वस्व तो उनका जीवनधान है, उनका सौन्दर्य तो उनके हृदय का सौन्दर्य है। जो पतिप्र्रेम के आभूषण से आभूषित है, उसको भूषणों की क्या आवश्यकता। जिसे पति की अनुकूलता वांछनीय है, जो पतिमर्यादा की भूखी है, गहनों पर उसकी लार नहीं टपकती। यह चिर संचित आर्य - संस्कृति है। भगवती जनकनन्दिनी इसका उच्चतम आदर्शहैं।
आधाुनिक काल में भी इस प्रकार के आदर्शों का अभाव नहीं। एक प्रसंग आप लोगों को सुनाता हूँ। देश पूज्य, दयासागर,ईश्वरचन्द्र विद्यासागर का पवित्रा नाम आपलोगों ने सुना होगा। उनकी स्त्राी बड़ी साधवी थी। विद्यासागर महोदय की उदारता लोक विश्रुत है। एक बार एक ब्राह्मण उनकी सेवा में उपस्थित हुआ और उसने विनय की कि मैं कन्यादान से आकुल हूँ, यदि आपने कृपा नहीं की तो मेरा निर्वाह होना कठिन है। उसने दो सौ रुपये की आवश्यकता बतलायी। उस समय उनके पास कुछ नहीं था, वे चिन्तित हुए। ब्राह्मण को बाहर बैठाया और आप अन्दर गए। सामने उनकी सहधार्मिणी आ गयीं। उन्हाेंने पति के मुख की ओर देखा और पूछा - आप चिन्तित क्यों हैं? उन्होंने कहा - एक ब्राह्मण कन्यादानग्रस्त है और दो सौ रुपये की उसको आवश्यकता है, परन्तु इस समय तो मैं बिलकुल रिक्तहस्त हूँ। साधवी के नेत्राों में जल आ गया, उन्होंने कहा, मेरे हाथ के सोने के कडे क़िस काम आयेंगे। यह कहकर उन्हाेंने अपने कडे उतारे और पतिदेव के हाथ पर उनको रख दिया। अपनी पत्नी की उदारता देखकर उनके अश्रुपात होने लगा, वे अश्रुविसर्जन करते ही बाहर आये और उत्फुल्ल हृदय से उन्होंने कडे ब्राह्मणदेव को सादर देकर कहा, मेरी स्त्राी ने आपको अर्पण कियाहै।
रामायण की संस्कृति की बातें सुनाते - सुनाते एक अन्य प्रसंग भी मैंने आप - लोगों के समाने उपस्थित कर दिया - केवल इस विचार से कि जिसमें आपलोग आर्य संस्कृति की व्यापकता का अनुभव कर सकें। आर्य बहुत उदात्ता है। और आज इस प्रतिकूल काल में भी वह बहुत व्यापक है। हिन्दू जाति पर तो उसका प्रभाव है ही, यहाँ की मुसलमान जाति और ईसाइयों पर भी उसका असर देखा जाता है। कारण इसका यह है कि उनमें अधिाकांश हिन्दू सन्तान ही हैं। चिरकालिक संस्कार नाश होते - होते होता है। तत्काल अथवा थोडे समय में उसका सर्वथा नाश नहीं होता । यह सच है कि समय की प्रतिकूलता का सामना उसे करना पड़ रहा है, पाश्चात्य विचार भी उसे दबा रहे हैं, किन्तु सूर्य कब तक बादलों में छिपा रहेगा। काल पाकर बादल टलेंगे और वह फिर वैसा ही जगमगाता दिखलायी पडेग़ा। दूसरी बात यह है कि आर्य संस्कृति के भाव उदात्ता और सर्वदेशी हैं। एकदेशिता उनमें कम है। इसलिए पंचभूत के समान ही वे उपयोगी हैं। आवश्यकतानुसार उनका कुछ रूप बदल सकता है। वे सर्वथा परित्यक्त नहीं हो सकते। रामायण और महाभारत के अनेक अंश और अनेक उपदेश जैसे हिन्दू जाति के उपकारक और शिक्षक हैं, वैसे ही संसार की अन्य जातियों के लिए भी हैं। यूरोप में भी उनके अनुवाद आदर से पढे ग़ये हैं और विजातीय सहृदयों ने भी उनकी दिल खोलकर प्रशंसा की है। ऐसी अवस्था में उनकी उपयोगिता अप्रकट नहीं। रामायण की संस्कृतियों का संकलन कर यदि उनपर प्रकाश डाला जाए और उन पर मननपूर्वक लेख लिखे जाएँ, तो मेरा विचार है कि वर्तमानकाल में उससे बड़ा लाभ हो सकता है। अन्त में अपनी निम्नलिखित सवैया द्वारा गोस्वामी जी का गुणगान करते हुए मैं इस लेख को समाप्त करता हूँ -
बन राम रसायन की रसिका , रसना रसिकों की हुई सफला।
अवगाहन मानस में करके , जन - मानस का मल सारा टला।
बनी पावन भाव की भूमि भली , हुआ भावुक - भावुकता का भला।
कविता करके तुलसी न लसे , कविता लसी पा तुलसी की कला।
(असंकलित)
तुलसीदास का महत्तव
सवैया
बन राम - रसायन की रसिका रसना रसिकों की हुई सफला।
अवगाहन मानस में करके जन मानस का मल सारा टला।
बने पावन भाव की - भूमि भली हुआ भावुक भावुकता का भला।
कविता करके तुलसी न लसे कविता लसी पा तुलसी की कला। 1 ।
- हरिऔधा
कसौटी
समालोचकों में मैथ्यू आर्नोल्ड का स्थान बहुत ऊँचा है। वे कहते हैं - ''कविता यथार्थ में मानव - जीवन का सूक्ष्म विश्लेषण है। कवि की महत्ताा इसी में है कि वह विचारों को बड़ी कुशलता से जीवन के उपयुक्त कर दे। जब मनुष्य सत्य को सबसे श्रेष्ठ भाषा में प्रकट करता है तब वही भाषा कविता हो जाती है। ''
अल्फ्रेड लायल कहते हैं - ''किसी युग के प्रधाान भावों और उच्च आदर्शों को प्रभावोत्पादक रीति से प्रकट कर देना ही कविता है। ''
स्वर्गीय बाबू द्विजेन्द्रलाल राय का कथन है -
''कविता का राज्य सौन्दर्य है, वह सौन्दर्य बहिर्जगत में भी है और अन्तर्जगत में भी है। जो कवि केवल बाहर के सौन्दर्य का ही वर्णन सुन्दर रूप से करते हैं, वे कवि हैं, इसमें सन्देह नहीं। किन्तु जो कविजन मनुष्य के मन के सौन्दर्य का भी सुन्दर रूप से वर्णन करते हैं, वे बहुत बडे क़वि या महाकवि हैं। '' ''बाह्य सौन्दर्य - वर्णन की अपेक्षा भीतरी सौन्दर्य के वर्णन में कवि की अधिाक कवित्व - शक्ति प्रकट होती है। बाहरी सौन्दर्य, भीतरी सौन्दर्य की तुलना में स्थिर, निष्प्राण और अपरिवर्तनीय है। ''
मनुष्य के हृदय में घृणा भक्ति का रूप धाारण कर लेती है, अनुकम्पा से प्रेम की उत्पत्तिा होती है और प्रतिहिंसा से कृतज्ञता का जन्म हो सकता है। जो कवि इस परिवर्तन को दिखा सकता है, जिसने अन्तर्जगत के इस विचित्रा रहस्य को खोलकर देखा है, उसके आगे मानसिक पहेलियाँ आप ही स्पष्ट हो गयी हैं, उसके निकट मनुष्य - हृदय की गूढ़तम जटिल समस्याएँ सरल और सहज हो जाती हैं। उसकी इच्छा के अनुसार नयी - नयी मोहिनी मानसी प्रतिमाएँ मूर्ति धाारण करके पाठकाें की ऑंखों के आगे खड़ी होती हैं, उसके इशारे से अन्धाकार दूर हो जाता है, उसकी जादू की लकड़ी के स्पर्श से निर्जीव सजीव हो जाता है, उसका कवित्व - राज्य दिगन्त प्रसारित उछ्वासपूर्ण समुद्र के समान रहस्यमय है। ''
कालिदास और भवभूति
जिसकी रचना के भीतर एक समस्त देश, एक समग्र युग, अपने हृदय को, अपनी अभिज्ञता को व्यक्त कर उसको मानव जाति की चिरन्तन सामग्री बना देता है; उसी कवि को महाकवि कहा जाता है। समग्र देश की और समस्त जाति की सरस्वती उसका आश्रय ग्रहण कर सकती है। ये लोग जो रचना करते हैं, उसको किसी व्यक्ति विशेष की रचना नहीं मानी जा सकती। ऐसा ज्ञात होता है, मानो वह बृहत् वनस्पति के समान देश के भूतल - जठर से उत्पन्न होकर उसी देश को ही आश्रय - छाया प्रदान करती है। शकुन्तला और कुमारसम्भव में विशेष भाव से कालिदास के निपुण हस्त का परिचय मिलता है; किन्तु रामायण और महाभारत के विषय में यह ज्ञात होता है कि भगवती भागीरथी अथच हिमाचल की भाँति वे भारत के ही हैं, व्यास वाल्मीकि उपलक्ष्य मात्रा हैं।
कसौटी का परिमाण कुछ बढ़ गया, किन्तु यदि वह उपयोगी है तो अपेक्षित है। किसी का महत्तव प्रतिपादन सहज साधय नहीं, उसके लिए उपपत्तिा चाहिए। उस समय यह कार्य और दुस्तर हो जाता है, जब वह तुलनामूलक होती है। गोस्वामीजी का व्यक्तिगत महत्तव बहुत कुछ है, वह शरद ऋतु के सुनील नभोमण्डल के समान निर्मल अथच राका रजनी के मयंक समान कमनीयकान्ति - निकेतन है। किन्तु मेरा प्रतिपाद्य वह नहीं है, मुझको उनके काव्य का महत्तव देखना है। मैं उनकी कविता की गौरव - गरिमा निरूपण करना चाहता हूँ। कविता कविहृदय का प्रतिबिम्ब है, वह उसमें ऐसा ही प्रतिबिम्बित रहता है, जैसे दर्पण में छाया। किन्तु, यह परोक्ष विषय है, मैं प्रत्यक्ष विषय से काम लेना चाहता हूँ। मैं देखूँगा कि हिन्दी संसार में कविकुल तिलक तुलसीदास की कविता का क्या महत्तव है; इसलिए मुझको कसौटी की आवश्कयकता र्हुई। जो कसौटी सामने रखी गयी है,आइए उस पर हम आप गोस्वामीजी की रचना और हिन्दी के अन्य कतिपय लब्धाप्रतिष्ठ महाकवियों की कृतियों को कसें, देखें उन कृतियों से उनकी रचना में कुछ महत्तव है या नहीं और यदि है तो वह साधाारण है या आसाधाारण। उसमें कुछ विशेषता है या नहीं, यदि विशेषता है तो क्या?
कसौटी में मानव - जीवन, मानव - आदर्श, मानव - उच्चभाव और मानव के महान हृदय की ओर ही विशेष लक्ष्य है। चिन्त्य यह है कि मानवता क्या है? आहार - विहार, निद्रा, भय, मैथुन और स्वार्थसाधान में मानव एवं पशु में कोई भिन्नता नहीं है, इन विषयों में दोनों समान हैं। अतएव यदि मनुष्य आहार - विहार के लिए ही उद्योगशील रहा, रात्रिा में नींद भर सोया और प्रात:काल उठकर जीवन - यात्राा में संलग्न हुआ; भय से त्रााण पाने के लिए प्रतिपक्षियाें का सामना करता रहा,अथवा उनसे सुरक्षित रहने के लिए नाना प्रकार के प्रयत्न सोचता रहा; कामिनीकुल में कमनीय वदनारविन्द का भ्रमर रहा,उनके हाव, भाव, विभ्रम और विलासों पर ही लोट - पोट होता रहा; स्वार्थ - रक्षा को ही आत्म - सर्वस्व समझता रहा, तो पशुता ही उसका आदर्श रही, मानवता उसमें कहाँ है। वास्तव बात यह है कि मानवता आत्म - त्याग में है। जब मनुष्य स्वार्थ की उपेक्षा करके परमार्थ की ओर दत्ताचित्ता होता है, जब सत्य और न्याय पर अपने जीवन के सुख समूह को उत्सर्ग करता है,जबर् कत्ताव्यज्ञान उसकी दृष्टि में त्रिालोक के राज्य को अकिंचित्कर बनाता है, तभी वह मानवता के उच्च सोपान पर आरूढ़ होता है। जब हृदय में द्वन्द्व उपस्थित होने पर मानव धार्मसंगत व्यापार को सुसंगत समझता है, जब उदरभरी कामनाओं की नरक यन्त्राणा से त्रााण पाकर वह लोकहितकरी रुचि अमरावती में सानन्द विचरण करता है, जब वह जानता है आत्मनियम मन्दान्दोलित मलय पवन है, समाज उन्नयन नन्दन कानन है, लोकहित कुसुम - संचयन स्वर्गीय सुख है, संसार - सुखसमृध्दिसंवर्धान अलौकिक लाभ है, तभी उसमें मानवता स्वीकृत हो सकती है। जिस रचना में इस मानवता के आदर्श - चरित चित्रिात हों, जो कविता उसके अलौकिक आलोक से आलोकित हो, जो काव्य उसकी पावना से पवित्राीभूत हो, जो भारती उसके भव्य भावों से भरित हो, जो विचारमाला उसकी महत्ताा से महिमामयी हो, यदि दिया जा सकता है तो उसी को महत्तव दिया जा सकता है। जिस रचना अथवा कविता कलाप में जितनी अधिाक मात्राा से मानवता का प्रदर्शन होगा, वह कविता रचना उतनी ही अधिाक मात्राा में महत्तव की अधिाकारिणी होगी।
इन बातों पर दृष्टि रखकर अब हम हिन्दी संसार के शिरोमणि कविवृन्द की रचनाओं और कविता कलाप की आलोचना में प्रवृत्ता होते हैं और देखना चाहते हैं कि किसकी कविता अथवा ग्रन्थ में कितना महत्तव है।
महाकाव्यकार
इस अवसर पर हिन्दी संसार के प्रसिध्द महाकाव्यकार ही तुलना के लिए मनोनीत किए जा सकते हैं, क्योंकि 'योग्य: योग्येन युज्यते'। तारे तारापति का सामना नहीं कर सकते, पावन सलिल भगवती भागीरथी की तुलना एक साधाारण्ा तरंगिणी से नहीं हो सकती। इस सूत्रा से जब हम अग्रसर होते हैं, तो सबसे पहले एक वीरधार्म्मा महाकवि पर हमारी दृष्टि पड़ती है। जिस प्रकार उसकी राज्य - परिचालन - शक्ति लोकोत्तारा है, उसी प्रकार उसकी लेखनी परिचालना भी मनोमुग्धाकारिणी है। जिस प्रकार वह समरांगण में अवतीर्ण होकर कीर्तिकला से अलंकृत होता है, उसी प्रकार वह साहित्य क्षेत्रा में भी पदार्पण कर सुयश कुसुम संचयन में निपुणता का परिचय देता है। यदि उसके शिर पर राजमन्त्राी होने का सुन्दर मुकुट सुशोभित है, तो उसके विशाल मस्तक पर महाकवि होने का भी कलित क्रीट विराजमान है। वह नवरससिध्द महाकवि है, वह हमारा चॉसर है,उसकी कविता सुन्दर समलंकृता है, वीर रस की निर्झरिणी है। वह कविकुलगुरु वाल्मीकि - समान हिन्दी का आदि कवि है। उन्हीं के समान प्रकाण्ड और कमनीय काव्य का रचयिता है। उसने बडे अनूठे बेलबूटे तराशे हैं, बडे क़ान्त कुसुम चुने हैं, भाव प्रवाह उसका अमूल्य है, और उसकी प्रतिभा चमत्कारिणी है। वह साहित्य - कानन - केशरी है, वीर रस का अवतार है, अतएव उसके प्रसिध्द काव्य पृथ्वीराजरासो में विचित्रा तर्जन गर्जन है - किन्तु उल्लिखित कसौटी के आलोक में जब हम इस ग्रन्थ का अवलोकन करते हैं तो अवगत होता है कि मानवता के वे मनोहर चरित जो किसी जाति की सम्पत्तिा होते हैं, इस ग्रन्थ में विरल हैं। कविवर चन्दबरदायी का काव्य इतिहास है और उसका अधिाकांश भाग पृथ्वीराज के आहार - विहार, युध्द - विग्रह,राग - रंग, क्रीड़ा - कौतुक, आनन्द - विनोद, इत्यादि से परिपूर्ण है। उसमें उदात्ता भाव भी हैं, लोकोत्तार चरित भी है,सामाजिक और धाार्मिक भावों का संकलन भी है, आत्मत्याग के चित्रा भी हैं, किन्तु गौणीभूत, प्राधाान्य उनमें नहीं है। प्राधाान्य पृथ्वीराज के व्यक्तिगत कार्यकलाप को ही है, और इसीलिए पृथ्वीराजरासो उसका सार्थक नाम है। किसी व्यक्ति के चरित्राचित्राण में वह सामाजिक आदर्श, जो किसी समाज को समुन्नत बनाता है, वह रहन - सहन की प्रणाली जो परम्परागत जातिजीवन का पावन पाथेय होती है। वह महान कार्य्यकलाप जिसकी व्यापकता कल कौमुदी समान जाति - हृदयगगनतलरंजिनी बनती है। वह मनोहर झंकार जो समाज और देश के प्रत्येक सहृदय की हृत्तान्त्राी को निनादित करती है,न तो इस ग्रन्थ में दृष्टिगत होती है और न श्रवण गोचर। अतएव वह महत्तव इस ग्रन्थ को नहीं प्राप्त होता जो उल्लिखित कसौटी के आदर्श का आधाार हो सके।
दूसरी ओर दृष्टि डालने पर काव्य - गगन का प्रथित प्रभाकर प्रभा वितरण करता हुआ दृष्टिगत होता है। यह प्रभाकर बाल विभाकर है, यदि वह समुदित होकर व्योमतल को अरुण राग द्वारा आभूषित करता है, तो वह भी आविर्भूत होकर साहित्य - नभतल को अभूतपूर्व अनुराग - राग से अनुरंजित बनाता है। यदि वह जलद - जाल उत्पन्न कर जीवों को जीवन प्रदान करने में समर्थ होता है, तो यह भी अलौकिक काव्य - कला की सृष्टि कर उस सरस रस की वृष्टि करता है, कि जिसको पुन: पुन: पान करके भी चित्ता को तृप्ति नहीं होती। यदि उसके आलोक से विपुल तारकचय आलोकित हैं, तो इसकी ज्योतिर्मालाएँ भी विपुल कविकुलमानस को ज्योतिर्मयी बनाती हैं। हमारा यह कविता - कामिनी - कान्त सूर होकर भी वह ज्योति विकीर्णकारी उज्ज्वल नेत्रा रखता है, कि जिसकी दर्शनशक्ति महती और अवलोकन सामर्थ्य असीम है। वह भाव राज्य का चक्रवर्ती सम्राट् है,प्रतिभा कुलवधाू का शृंगार है, नवरस मधाुमास का वसन्त - समीर है, उक्ति आलापिनी का मधाुर निनाद है, व्यंजना अमरावती का पुरन्दर है, अलंकार विकच कमल का लावण्य है, और सरसता और सौभाग्यवती सीमन्त का सिन्दूर है। उसका सूरसागर रस का सागर, भाव का सुमेर, मधाुरता का मन्दिर, कान्त कवितावली का निकेतन, वाणी - विलास का विलास,भवन और वर्णना का विचित्रा क्रीड़ास्थल है। किन्तु मानवता की विविधा आदर्शमयी लोकपावन मूर्ति का दर्शन उसमें दुर्लभ है।
सूर सागर के बाल - चरित - वर्णन की चारुता अवर्णनीय है, वात्सल्य रस उसमें छलकता मिलता है, कहीं - कहीं शान्ति रस की उछ्वासमयी पावन धाारा प्रखर गति से प्रवाहित है, वीर रस का भी अभाव नहीं है, अन्य रस भी यथास्थान बड़ी निपुणता के साथ अंकित हैं; किन्तु शृंगार रस ही उसका प्रधाान वर्णनीय विषय है, समस्त ग्रन्थ शृंगार रस से प्लावित है। इस प्लावन का प्रेम प्रवाह बड़ा ही मनोहर है; किन्तु उसमें शृंगार रस के अभव्य और अमनोरम र्आवत्ता भी विद्यमान हैं। प्रेम का वह उच्च आदर्श जिसका स्पर्श मरुस्थल को नन्दन - कानन में परिणत करता है, मानवता की वह महिमामयी मूर्ति जिसके पुनीत पदतल पर जातीय गौरव का कमनीय कुसुम - कदम्ब सादर समर्पित होता है, पारिवारिक परस्पर सम्बन्धा के वे आदरणीय व्यापार जो सांसारिक जनों के संसार को स्वर्गीय सुख का आधाार बनाते हैं, कौटुम्बिक प्रथा के वे सुन्दर निदर्शन जो कुटुम्ब में सुख - शान्ति संवर्धान के सूत्रा होते हैं, व्यावहारिक वे कार्यकलाप जिनमें आत्मोत्सर्ग की अद्भुत आभामयी मूर्ति विराजमान होती है। धाार्मिक भाव के वे महान रहस्य - समूह जो स्वार्थ संघर्षणजनित उत्ताापतप्त प्राणिपुंज को पारिजात तरुछाया समान सुखद अथच शान्तिप्रद होते हैं - पूर्ण कला से विकसित सूरसागर में नहीं पाए जाते। उनके किसी - किसी अंश का आभास उसमें भले ही हो।
सामने देखिए, एक शान्तिमयी मूर्ति खड़ी है, पावनता उस पर पुष्प - वर्षण कर रही है, मर्यादा उत्सर्ग हो रही है,सहृदयता स्तव पाठ में संलग्न है और भावुकता उसकी प्रशंसा में सहò मुख है। उसके विशाल भाल पर विवेक का भव्य तिलक विराजमान है, प्रसन्न वदनमण्डल पर वन्दनीय भावों का विकास है, विस्फारित उज्ज्वल नेत्राद्वय से जगत - विमुग्धाकारी पवित्रा ज्योति विकीर्णिता है और सत्यं, शिवं, सुन्दरं के आनन्द कोलाहल से उसका पुनीत हृदयदेश स्फीत है। यह शान्तिमयी मूर्ति साहित्य - समाज - सरोवर का मराल है, जो नीर - क्षीर का सच्चा विवेक रखता है, जब चुगता है तब मोती चुगता है,और अपनी गौरवमयी गति से अपरमित मानव के मानसों को गौरवित बनाता है। उसकी पूत लेखनी के स्पर्श से सरसता पवीत्राीभूत हुई, मधाुरता स्वर्गीय मन्दाकिनी बनी, व्यंजना में मानवता व्यंजित हुई, धवनि में धार्म - धाुरन्धारता धवनित हो पड़ी, और कविता में लोकहितकारिता सुरसरिता की पवित्रा धाारा प्रवाहित होने लगी। उसकी प्रतिभा भगवती भारती की कमनीय कीर्ति है, सुरुचि मालिका की कलित कुसुमावलि है, मानसिक महत्ताा मनोरम कमल - कलिका की विकासक्रिया है और भावभव्यता कान्त कादम्बिनी की निर्मल सलिल धाारा है। वह उस रामचरितमानस का रचयिता है जो सत्साहित्य का सर्वस्व,लोकोत्तार चरित का भाण्डार, महान आदर्श का आदर्श, मानवीय महत्तव का निदर्शन और पुनीत कार्यकलाप - पयोधिा का धाीर प्रवाह है। वह मर्यादा - पुरुषोत्ताम भगवान रामचन्द्र की मर्यादाशीलता से मर्यादित है, पतिप्राणा विदेहनन्दिनी के प्रसिध्द पातिव्रतप्रसंग से प्रतिष्ठा - प्राप्त है, भारत - भुवि - भूषण महाप्राण भरत की महाप्राणता से महाप्राणित है और तेजस्विता मूर्ति सुमित्राासुवन की चकितकरी तेजस्विता से तेज:पुंज कलेवर है। उसमें सत्यव्रत महाराज दशरथ जैसे आदर्श पिता का, नितान्त कोमल हृदय ऐश्वर्यमयी कौसल्या जैसी आदर्श माता का, आत्मोत्सर्ग - व्रत - परायण सुमित्राा देवी जैसी आदर्श पत्नी का,आत्मत्याग मन्त्रा के प्रसिध्द देवता भरत और सुमित्राानन्दन जैसे आदर्श भ्राता का और सेवा समान कठोर कर्म के कर्म्मठ व्यक्ति पवनकुमार जैसे आदर्श सेवक का, उदात्ता चरित बड़ी ही ज्वलन्त भाषा में बहुत ही निपुण्ाता के साथ वर्णित है। वृध्दविवाह का क्या बुरा परिणाम होता है, स्त्राीवश्यता कितना अनर्थमूलक है, कुटिला दासी कैसे सोने के संसार को धाूल में परिणत करती है, मातृविरोधाी कैसे एक विशाल राज्य को भी भस्मसात् करता है, सर्वलोक विजेता होने पर भी एक अत्याचारी नृपति का किस प्रकार अचानक अधा:पात होता है, ये बातें इस ग्रन्थ में ऐसी शिक्षाप्रद रीति से अंकित हैं कि उनका पठन और मनन एवं उनसे समुचित उपदेश ग्रहण करके एक अनुन्नत समाज भी उन्नत हो सकता है और एक पतनप्राय देश भी विनाशगर्त में निपतित होने से बच सकता है। परम्परागत जो आर्य सभ्यता का उद्देश्य है, आर्य्यजाति - हृत्तान्त्राी का जो अत्यन्त प्रिय मधाुर निनाद है, उसका चिरअर्जित ज्ञानआलोक जो संसार को आलोकित करने का हेतु है, उसका वह उच्च विचार जो प्राणी - मात्रा पर सुधाावर्षण करता है, उसका वह आत्म - उत्सर्ग - मूलक प्रेम जो जीवमात्रा का जीवन सर्वस्व है,उसका वह उदार भाव जो भावुकता देवी का हृदयविलम्बी रत्नहार है, उसका वह अद्भुत ईश्वरीय संगीत जो आज भी जगत को विमुग्धा बना रहा है, यदि आप खोजेंगे तो सांगोपांग इसी ग्रन्थ रत्न में पावेंगे। ऐसी अवस्था में आप देखेंगे कि जो कसौटी मैंने आपके सामने उपस्थित की थी, उस पर कसने पर यही ग्रन्थ आदरणीय ठहरा। अतएव जिन ग्रन्थों को मैंने पहले तुलना के लिए सामने रखा था, उनसे और उनके रचयिता से इस ग्रन्थ और इस ग्रन्थ के रचयिता का महत्तव कितना अधिाक है, मैं समझता हूँ यह प्रतिपादन करने की आवश्यकता नहीं रही, तथापि मैं कुछ उदाहरण और प्रमाण भी उपस्थित करूँगा।
गोस्वामीजी ने मर्य्यादा और सामंजस्य का रामचरितमानस में बड़ा धयान रखा है - हिन्दी संसार का कोई महाकवि इस विषय में उनका सामना नहीं कर सकता। वह धार्म्मनीति, समाजनीति, राजनीति निरूपण में अपने उदाहरण आप हैं, आज तक उनका समकक्ष उत्पन्न नहीं हुआ, आगे क्या होगा, इस विषय में कुछ कथन करना उचित न होगा, इसको समय स्वयं बतलावेगा। खेद है कि लेख बढ़ जाने के कारण मैं सब विषयों का उदाहरण नहीं दे सकता, तथापि दो - चार विषयाें का उदाहरण देने की चेष्टा करता हूँ। कविपुंगव कालिदास रघुवंश के आदि में लिखते हैं - 'वागर्थाविव सम्पृक्तौ वागर्थ प्रतिपत्ताये। जगत: पितरौ वन्दे पार्वती परमेश्वरौ' किन्तु, इन्हीं 'जगत: पितरौ', में से जगज्जननी पार्वती देवी की कुमारसम्भव के सप्तम सर्ग में वह पूजा की गयी है और उनपर मर्यादा की वह पुष्पांजलि चढ़ाई गयी है कि लिखते लज्जा लगती है। उस काल से अब तक शृंगार रस के कविगण इसी प्रकार मर्यादा को तिलांजलि देते आये हैं, और अपनी पूज्या और माननीया देवियों के नखशिख वर्णन के समय उनके अवर्णनीय अंगों के वर्णन में भी संकुचित नहीं हुए। जहाँ उनको दम्पती - विलास - वर्णन का अवसर हाथ आया, उस समय उन्होंने उस विलास को इस प्रकार अंकित किया है, कि एक साधारण मानवी का भी ऐसा विलास - वर्णन मर्यादाशील पुरुषों की दृष्टि में समुचित और सुसंगत न समझा जावेगा। जब अपनी माता के अंगों की भी वर्णना हम इस प्रकार नहीं कर सकते, जब ऐसा करते हमारी आत्मा संकुचित होती है, हमारे ऊपर सैकड़ों घडे ज़ल पड़ते हैं, भद्र समाज में मुख दिखाना दुस्तर हो जाता है, तो जगज्जननी के अंगों की वर्णना इस प्रकार क्यों की जाती है और क्यों ऐसा करते हमको आत्मग्लानि नहीं होती, यह बात समझ में नहीं आती। जो जगज्जननी ही नहीं, हमारी इष्ट देवी हैं, हमारे मुक्तिपथ की आधाारभूता हैं, क्या उसके अवर्णनीय अंगों का वर्णन कर उसके गोपनीय विहारों का स्वच्छन्द निरूपण कर हमारा घोर मानसिक अधा:पात नहीं होता, अवश्य होता है; किन्तु समय का प्रवाह बड़ा प्रबल होता है - सामयिक प्रवाह में सभी पड़ जाते हैं। उससे सुरक्षित रहना किसी लोकोत्तार पुरुष का ही कार्य है। भक्तप्रवर भक्ति और श्रध्दाभाजन हमारे कविकुलगुरु सूरदासजी शृंगार रस के आचार्य और आदर्श हैं। इस क्षेत्रा में जो कार्य उनका है वह अभूतपूर्व है। आज तक उसी का अनुकरण होता आ रहा है। उन्होंने इस विषय में लेखनी तोड़ दी है, और कमाल कर दिया है, और यही कारण है कि पश्चाद्वर्ती कविगण आज भी उनके प्रभाव से प्रभावितहैं।
यदि वे चाहते तो प्रवाह की गति बदल देते, किन्तु ऐसा नहीं हुआ, वे स्वयं प्रवाह में पडे अौर प्रवाहित हुए। यदि इस प्रवाह में नहीं पडे तो महात्मा तुलसीदास नहीं पडे, क्योंकि उनका आदर्श था 'सरस कवित कीरति विमल, सोइ आदरहिं सुजान'और यही कारण है कि मर्यादा को वें तिलांजलि न दे सके और यह उनके महत्तव का एक उज्ज्वल उदाहरण है। परमाराधया श्रीमती राधिाका देवी और लोकललाम भगवान ब्रजबल्लभ का परस्पर प्रथम दर्शन जब हुआ, उस काल का वर्णन सूरदासजी इस प्रकार करते हैं।
चितै रही राधाा हरि को मुख।
भृकुटी विकट विसाल नयन युग देखत मनहिं भयो रतिपति दुख।
उतहि श्याम एक टक प्यारी छवि अंग अंग अवलोकत।
रीझि रहे उत हरि इत राधाा अरस परस दोउनो कत।
सखिन कह्यो वृखभानुसुता सों देखे कुँवर कन्हाई।
सूर श्याम एई हैं ब्रज में जिनकी होति बड़ाई।
अब गोस्वामीजी के भगवान रामचन्द्र और सती शिरोमणि भगवती जनकनन्दिनी के प्रथम सन्दर्शन का वर्णन देखिए।
चौपाई
कंकन किंकिनि नूपुर धाुनि सुनि। कहत लखन सन राम हृदय गुनि।
मानहुँ मदन दुन्दुभी दीन्ही। मनसा विश्व विजय कर कीन्ही।
अस कहि फिर चितये तेहि ओरा। सिय सुख ससि भये नयन चकोरा।
भये विलोचन चारु अचंचल। मनहुँ सकुचि निमि तजे दृगंचल।
देखि सीय सोभा सुख पावा। हृदय सराहत बचन न आवा।
जनु विरंचि सब निज निपुनाई। विरचि विश्व कह प्रगट देखाई।
सुन्दरता कहँ सुन्दर करई। छविगृह दीपसिखा जनु र्बरई।
सब उपमा कवि रहे जुठारी। केहि पटतरिय विदेह कुमारी।
सिय सोभा हिय बरनि प्रभु आपन दसा बिचारि।
बोले सुचि मन अनुज सन बचन समय अनुहारि।
तात जनक तनया यह सोई। धानुख यज्ञ जेहि कारन होई।
पूजन गौरि सखी लै आई। करत प्रकाश फिरति फुलवाई।
जासु विलोकि अलौकिक सोभा। सहज पुनीत मोर मन छोभा।
सो सब कारन जान विधााता। फरकहिं सुभग अंग सुनु भ्राता।
रघुबंसिन कर सहज सुभाऊ। मन कुपंथ पग धारहिं न काऊ।
मोहि अतिसय प्रतीत मन केरी। जेहि सपनेहु पर नारि न हेरी।
भगवान रामचन्द्र की मानव स्वभाव सुलभ स्वाभाविकता, मर्यादाशीलता, धार्म्मपरायणता आपने देखी। इन चौपाइयों में'सिय सोभा हिय बरनि प्रभु', 'आपन दसा बिचारि', 'बोले सुचि मन अनुज सन', 'सहज पुनीत मोर मन छोभा', इत्यादि वाक्य और अन्तिम तीन चौपाइयाँ कितनी भावव्यंजक हैं और उनकी धवनि कितनी पावनतामय है, इसको आपलोग स्वयं अनुभव करें, मैं उनकी व्याख्या करके इस लेख को बढ़ाना नहीं चाहता।
अब श्रीमती जनकनन्दिनी की स्त्राीस्वभावसुलभ प्रीतिप्रवणता, लज्जाशीलता, और मर्यादा - महत्ताा देखिए -
चितवत चकित चहूँ दिसि सीता। कहँ गये नृपकिसोर मन चीता।
जहँ विलोक मृग सावक नयनी। जनु तहँ बरिस कमल सित श्रेनी।
लता ओट तब सखिन लखाए। स्यामल गौर किसोर सुहाए।
देखि रूप लोचन ललचाने। हरखे जनु निज निधिा पहचाने।
थके नयन रघुपति छवि देखी। पलकनहूँ परिहरी निमेखी।
अधिाक सनेह देह भई भोरी। सरद ससिहिं जनु चितव चकोरी।
लोचन मग रामहिं उर आनी। दीन्हें पलक कपाट सयानी।
'' धाीरज धारि एक अली सयानी। सीता सन बोली गहि पानी।
बहुरि गौरि कर धयान करेहू। भूप किसोर देखि किन लेहू।
सकुचि सीय तब नैन उघारे। सनमुख दोउ रघुसिंह निहारे।
नख सिख देखि राम कै सोभा। सुमिरि पिता प्रन मन अति छोभा।
'' धारि बड़ि धाीर राम उर आने। फिरि आपनपौ पितुबस जाने ''
इसके उपरान्त वे जगज्जननी गिरिराजनन्दिनी की सेवा में उपस्थित होती हैं, और उनकी स्तुति करके कहती हैं -
पति देवता सुतीय महँ जननि प्रथम तव रेख।
फिर निवेदन करती हैं -
मोर मनोरथ जानहु नीके। बसहु सदा उरपुर सबही के।
कीन्हेंउ प्रगट न कारन तेही। अस कहि चरन गही बैदेही।
इस स्थल पर गोस्वामीजी ने जो भगवती नन्दिनी की महिमामयी मूर्ति अंकित की है, वह बड़ी ही गम्भीरतामयी है। उनको अपने हृदय का भाव प्रकट करने में मूर्ति के सामने भी संकोच है - वह कहती हैं तो यही कहती हैं -
''मोर मनोरथ जानहु नीके'' क्योंकि ''बसहु सदा उरपुर सब ही के''। कैसी अद्भुत लज्जाशीलता है। अपने हृदय के एक परम उदात्ता भाव का संकेत उन्होंने इस पद्य में किया है ''पति देवता सुतीय महँ जननि प्रथम तव रेख'' जो पतिव्रता है, वही पतिव्रता के मर्म्म को समझ सकती है। अतएव भगवती गिरिनन्दिनी को इस पद्य द्वारा वे यह व्यंजित करती हैं कि जब मैं भगवान रामचन्द्र को लोचनमार्ग से हृदय में ला चुकी - 'लोचन मग रामहिं उर आनी' तो यह पतिव्रत - धार्म्म के विरुध्द होगा कि किसी अन्य पुरुष को हृदय में स्थान दूँ। देखा आपने कविकर्म्म का महत्तव - अधिाक मैं क्या लिखूँ, दोनों महाकवियों की रचनाओं को स्वयं मिलाकर देखिए और निश्चित कीजिए कि किसकी रचना कितनी महत्ताामयी है। श्री सूरदासजी अपनी इष्टदेवी की शोभा यों वर्णन करते हैं -
आज अति राधाा नारि बनी।
प्रति प्रति अंग अनंग बिराजत , सबस करि त्रायलोक धानी।
शोभित केस विचित्रा भाँति दुति , शिखि शिखण्ड हरनी।
बिरचि माँग सभाग रागनिधिा काम धााम सरनी।
अलक तिलक राजत अकलंकित मृग मह अंक बनी।
खुभी जराव फूल दुति यों मनौं दुधारगति रजनी।
भौंह कमान समान बान मनो हैं युग नैन अनी।
नासा तिलक प्रसून बिंबाधार अमल कमल बदनी।
चिबुक मधय मेचक रुचि राजति बिन्द कुन्द रदनी।
कम्बु कण्ठ विधिा लोक विलोकत सुन्दरि एक गनी।
बाँह मृणाल लाल करपल्लव मद गज गति गवनी।
पति मन मणि कंचन संपुट कुच रोम राजि तटनी।
नाभि भँवर त्रिावली तरंग गति पुलिन तुलिन ठटनी।
कृश कटिपृथु नितम्ब किंकिनिपुत कदलि खम्भ जघनी।
रचि आभरण शृंगार अंग सजि रतिपति ज्यों सजनी।
जीते सूर श्याम गुन कारण मुखन मुरचो लगनी। 1 ।
अब गोस्वामी जी का वर्णन सुनिए - देखिए वे जानकी जी की शोभा किस प्रकार वर्णन करते हैं।
सिय सोभा नहिं जाय बखानी। जगदम्बिका रूप गुन खानी।
उपमा सकल मोहि लघु लागी। प्राकृत नारी अंग अनुरागी।
जो पटतरिय तीय सम सीया। जग अरु युवति कहा कमनीया।
गिरा मुखर तनु अरध भवानी। रति अति दुखित अतनुपति जानी।
बिख बारूनी बंधाु प्रिय जेही। कहिय रमा सम किमि बैदेही।
जो छवि सुधाा पयोनिधिा होई। परम रूप मय कच्छप सोई।
सोभा रजु मन्दर शृंगारू। मथै पानि पंकज निज मारू।
एहि विधिा उपजै लच्छि जब सुन्दरता सुख मूल।
तदपि सकोच समेत कबि कहँहि सीय सम तूल।
गोस्वामीजी ने सौन्दर्यवर्णन की पराकाष्ठा कर दी है, इससे अधिाक रूपवर्णना क्या होगी। किन्तु यह वर्णना कितनी मर्यादित, कितनी महत्तवमय और कितनी भावपूर्ण है, इसको सहृदयगण स्वयं अनुभव करें, साथ ही यह भी सोचें कि इस वर्णन के सामने श्री सूरदासजी के छवि वर्णन का क्या महत्तव है। जो अन्तर स्वर्गीय मन्दाकिनी और कलिन्दनन्दिनी की धााराओं में है, क्या वही अन्तर इन दोनों वर्णनाओं में नहीं है। पहली उज्ज्वला, निर्मला, पावनतामयी, अथच स्वर्गविहारिणी है - दूसरी मनोरमा, सुन्दर सलिला, ललित तरंगवती होकर भी कालिमारहित नहीं है। समग्र रामचरित मानस में मर्यादा के ऐसे - ऐसे मनोरम और पूत आदर्श हैं, ऐसे उच्च विचारमय गार्हस्थ्य - जीवन के निदर्शन हैं, जिनका आभास भी अन्य हिन्दी भाषा के ग्रन्थों नहीं मिलता। खेद है कि स्थान संकोचवश मैं उन सबका दिग्दर्शनमात्रा भी नहीं करा सकता।
गोस्वामीजी का सामंजस्य - स्थापन भी अभूतपूर्व है। उनका पदानुसरण आज तक हिन्दी संसार का कोई कवि उस सौन्दर्य और निपुणता के साथ नहीं कर सका। हिन्दू - समाज का अधिाकांश पंचदेवोपासक है, विष्णु - शिव - विरोधा उनके हृदय की प्यारी सामग्री नहीं, आज भी हिन्दू - समाज में सर्वकार्य के प्रथम गणेशजी की अर्चना होती है, आज भी भगवती वीणापाणि हिन्दुओं के हृदय - मन्दिर की अधिाष्ठात्राी देवी हैं, आज भी दुर्गतिनाशिनी दुर्गा देवी की आराधाना गृह - गृह में होती है। गोस्वामी जी ने अपने अपूर्व ग्रन्थ में सबका समादर किया है, सबकी उचित स्तुति की है और इनके भक्तिभाव को इस प्रकार अंकित किया है कि वह चिर प्रचलित हिन्दू - उपासना - पध्दति का आदर्श बन गया है। तथापि एकेश्वरवाद का जीता - जागता चित्रा उसमें मौजूद है और वह इतना रहस्यपूर्ण है कि उसी के अन्तर्गत समस्त देवताओं की उपासना का अन्तरभाव हो गया है। क्याेंकि वह जानते थे कि 'सर्वं खल्विदं ब्रह्म नेह नानास्ति किंचन', यह भाव उनके हृदय में इतना जागृत था कि उनकी लेखनी यह उदात्ता भाव प्रकट करने में समर्थ हुई - 'सिया राम मय सब जग जानी, करहुँ प्रणाम जोरि जुग पानी'। वास्तव बात तो यह है कि उनका यह व्यापक विचार ही उनकी सर्वप्रियता की कुंजी है। हमारे प्रिय बन्धाु बाबू शिवनन्दन सहाय ने गोस्वामीजी के निज रचित जीवन - चरित्रा में इस विषय में जो कुछ लिखा है, मैं उसको भी यहाँ अविकल उध्दाृत कर देता हूँ। देखिए -
''गोस्वामीजी धान्य हैं कि उन्होंने ऐसे समय में जबकि अत्याचारियों का खड्ग चतुर्दिक् चमा - चम चमकता हुआ, सर्वदा हिन्दुओं का, विशेषत: तीर्थस्थ हिन्दुओं का कलेजा कँपाया करता था, जब मत मतान्तर के झगड़ों से लोगों की बुध्दि भ्रमित हो रही थी, जब वैष्णवगण शैवों से विरोधा करने में ही ईश्वर की प्रसन्नता समझते थे, जब शैव वैष्णवों से द्वेष रखने में ही अपनी धार्म्मज्ञता मानते थे, जब रामोपासक तथा कृष्णोपासक में भी वैमनस्य आ घुसा था और लोग एक - दूसरे को घृणा की दृष्टि से देखने लगे थे - केवल अपनी बुध्दि और लेखनी के बल से अत्याचारियों का दर्प चूर्ण और मान मर्दन कर, स्वदेशियों को सच्चे - धार्म्म मार्ग में अटल रखने का ऐसा दृढ़ तथा प्रबल उद्योग किया, जिससे लोग आज तक लाभ उठा रहे हैं, तथा आगे भी उठाते ही जाएँगे। क्योंकि गोसाईं जी के जीवित काल की अपेक्षा आज उनकी रचनाएँ हिन्दू धार्म एवं जगत पर निश्चय अधिाकतर प्रभाव दिखा रही हैं। विशेष प्रशंसा की बात तो यह है कि सब सम्प्रदाय के अनुगामी, क्या वैष्णव, क्या शैव, क्या शाक्त, क्या नानकशाही, क्या वेदान्ती सभी लोग निर्द्वेष भाव से इसका आदर करते हैं, जो रामोपासक हैं उनका तो कहना ही क्या है?
श्रीमान् सत्यदेवजी ने लिखा है - ''जैसे अंकिल टाम्स केबिन का उपन्यास उत्तारी तथा दक्षिणी अमेरिका में हबशी गुलामों का वाणिज्य रोकने का कारण हुआ, जैसे हाल ही में अपटन सिंक्लेयर ने अपने उपन्यास के बल से शिकागो के कसाईघर का सुधाार कराया, रूसो एमिली ने स्वलिखित उपन्यास द्वारा शिक्षा के प्राचीन ढंग का प्रचार किया, जैसे इटली के स्वतन्त्राता - प्राप्ति का कारण जिबन कृत 'रोमन राज का उत्थान और पतन' नामक ग्रन्थ हुआ, जैसे अगणित उपन्यासों द्वारा ईसाई धार्म की श्रेष्ठता प्रतिपादित हुई, वैसे ही गोसाईंजी की रचनाओं ने शैव तथा वैष्णवों के परस्पर द्रोह एवं रामोपासक तथा कृष्णोपासक के परस्पर वैमनस्व और रागद्वेष को दूर कर हिन्दू धार्म की श्रेष्ठता पूर्णरूपेण प्रतिपादित कर देश को महान लाभ पहुँचाया।
हिन्दी के कतिपय और प्रसिध्द महाकाव्यकार हैं। उनमें विबुधा - बृन्द - विभूषण मैथिल - कोकिल विद्यापति, मूर्तिमान सहृदयता मलिक मुहम्मद जायसी, हिन्दी साहित्य के आद्य आचार्य महाकवि केशवदास और हिन्दी संसार के कालिदास कविवर देव का नाम आदरसहित लिया जा सकता है। किन्तु यदि इन लोगों की रचना साधाारण आभामयी रजनी है तो गोस्वामीजी की रचना उज्ज्वल आलोक - अलंकृता राकानिशा है। इसके अतिरिक्त इन लोगों के काव्यों में भी वे विशेषताएँ मौजूद नहीं हैं कि जिनके कारण रामचरितमानस का महत्तव है। महात्मा कबीरदास धार्मोपदेशक हैं। सामाजिक उदात्ता आदर्श और गार्हस्थ्य जीवन के लोकोत्तार चरित उनकी रचनाओं के विषय नहीं। अतएव इन लोगों को सामने न लाकर अब मैं यह देखूँगा कि गोस्वामीजी के विषय में कुछ प्रसिध्द देश और विदेश के विद्वानों की सम्मति क्या है। रामायण के प्रसिध्द अंग्रेजी अनुवादक ग्राउस साहब अपने ग्रन्थ की भूमिका में लिखते हैं -
''रामायण केवल हिन्दुओं का राष्ट्रीय प्राचीन काव्य ही नहीं है किन्तु उसमें यह विशेष गुण भी है कि वह अपने देशवासियों के विश्वास तथा चरित का चित्रा अत्यन्त सत्यतापूर्वक किन्तु, चित्तााकर्षक रूप में खींचती है। इसका फल यह होता है कि उसके अनुशीलन से योरपवासियों के बहुत से मिथ्या विश्वास और दुर्भाव, जो इस सम्बन्धा में हैं, दूर हो जाते हैं और दोनों जातियों में परस्पर सहानुभूति की वृध्दि होती है। ''
रामायणवर्णित पात्राों के वर्णन प्रभाव से प्रभावित होकर एक दूसरे स्थान पर वे ही महोदय जो लिखते हैं, उसका सारांश यह है -
''कोई श्री राम, सीता, भरत तथा लक्ष्मणजी के सद्गुणों पर मुग्धा होकर इन लोगों की पूजा न करे सही परन्तु, इनके सद्गुणों की सराहना सभी करेंगे। हम कहते हैं कि इन्हें कोई ईश्वरावतार या ईश्वरांश होना स्वीकार करे या न करे परन्तु अपने अलौकिक सद्गुणों से ये लोग अवश्य ईश्वरत्व और देवत्व को प्राप्त हैं और सब की पूजा के योग्य हैं। हिन्दू समाज में चिरकाल से घर - घर इनकी पूजा होती आयी है और अवश्य होनी चाहिए। इन्हीं लोगों में श्रध्दाभक्ति रखने, इन्हीं की पूजा करने इन्हीं महापुरुषों के सुकार्यों से सत्शिक्षा ग्रहण तथा उनका अनुशरण करने से मनुष्य का उभय लोक में कल्याण हो सकता है।
माननीय विद्वान डॉक्टर जी.ए. ग्रियर्सन अपने भारत - वर्षीय साहित्य के इतिहास में लिखते हैं -
''भारतवर्ष के इतिहास में तुलसीदास की महत्ताा के विषय में इदमित्थं नहीं कहा जा सकता। साहित्य की दृष्टि से रामायण के गुणों को एक ओर रखकर यह बात अवश्य उल्लेखनीय है कि यह ग्रन्थ यहाँ की सर्वजातियों द्वारा अंगीकृत है। पंजाब से भागलपुर तक और हिमालय से नर्वदा पर्यंत उसका प्रभाव है। राजमहल से लेकर झोंपड़ी तक प्रत्येक मनुष्य के हाथों में वह देखी जाती है और हिन्दू - जाति के प्रत्येक वर्ण द्वारा चाहे वह उच्च हो या नीच, धानी हो या निर्धान, युवा हो अथवा वृध्द,एक रूप से पढ़ी - सुनी जाती अथच आदृत होती है। वह हिन्दू जनता के जीवन, भाषा, अथच चरित्रा में प्राय: तीन सौ वर्ष से ओतप्रोत है और केवल अपनी कवितागत सौन्दर्य के लिए ही आदर तथा प्रेम नहीं लाभ करती है, वरन् यह उनसे पवित्रा धार्म - पुस्तक की भाँति सम्मानित होती है। जिस धार्म का उसने प्रचार किया है वह सादा और उच्च है एवं ईश्वर के नाम के पूर्ण विश्वास पर निर्भर है। ''
''मनुष्य का अपने पड़ोसी के प्रति क्यार् कत्ताव्य है, तुलसीदास इसके बडे प्रचारक थे। वाल्मीकि ने भरतजी की धार्मपरायणता, लक्ष्मणजी के भ्रातृ - प्रेम और सीताजी के स्त्राी - धार्म की प्रशंसा की थी। किन्तु तुलसीदास ने उन्हें आदर्श बनाकर दिखलाया। ''
एक दूसरे स्थान पर वही महोदय लिखते हैं -
''भारतवर्षीय धार्मोन्नति के इतिहास में जो आसन तुलसीदासजी को प्रदान किया जाता है, उससे कहीं उच्चतर आसन के ये अधिाकारी देखे जाते हैं। क्याेंकि हमलोग धार्म - प्रचारक की श्रेष्ठता का अटकल उसके कार्य - फल से लगाते हैं। यह कहने में कि ठीक नव करोड़ मनुष्य इनके लेखों पर ही अपने धार्म तथा सदाचार के तत्तवों को स्थापित किए हुए हैं, हम सामान्य गणना से बहुत ही कम अनुमान करते हैं।र् वत्तामान काल में इनकी रचनाएँ लोगों पर जो प्रभाव दिखाती हैं, यदि हमलोग उसी से जाँच करें तो एशिया के तीन या चार बडे - बडे लेखकों में से एक यही महाशय हैं। ''
वही महाशय रामायण के विषय में यह लिखते हैं -
''इसकी सुख्याति उपयुक्त होने में तनिक भी सन्देह नहीं है। अपने देश में इसने सब ग्रन्थों पर प्राधाान्य लाभ किया है और सर्वसाधाारण पर उसका ऐसा प्रभाव पड़ रहा है कि उसे बढ़ा - चढ़ाकर कहना कठिन कार्य है। ''
''विलायत में जितना बाइबिल का प्रचार है, उससे कहीं अधिाक बंगाल और पंजाब एवं हिमालय और विन्धय के मधयस्थ प्रदेशों में इस महाग्रन्थ का प्रचारहै। ''
गोस्वामाजी के जीवनी लेखक सहृदयवर बाबू शिवनन्दन सहाय लिखते हैं -
''रामायण प्रदर्शित चित्राों पर धयान देने से यह स्पष्ट ज्ञात होता है कि सध्दर्मनिरूपण तथा सत् शिक्षा प्रदान के निमित्ता ही इस ग्रन्थ की अवतारणा हुई है। ग्रन्थ रूपी नाटयशाला में खड़े होकर उसके पात्रागण आज भी अपने उदाहरणों से आर्यत्व के परमोक्त सगुण, सध्दर्मानुराग, सत्यता, सरलता, धाीरता, वीरता, उदारता, सहनशीलता, दयालुता आदि की सुन्दर शिक्षा प्रदान कर रहे हैं। ''
''लाखों जन इसे अपना जीवन सर्वस्व समझते हैं, करोड़ों इसका आश्रय ग्रहण करके कतिपय कुत्सित कर्मों से बचते हैं। कितने इसके पाठ से विरक्त साधाु बन जाते हैं एवं कितने पतित ज्ञानी कहलाने लगते हैं। ''
''रामायण केवल कविता रस के प्रेम ही से नहीं पढ़ी जाती, यह धार्म का एक अंग और धार्मशास्त्रा की एक प्रधाान पुस्तक बन गयी है। धार्मशास्त्रा ही क्यों समाजनीति, व्यवहारनीति, राजनीति इत्यादि सब नीतियों का शास्त्रा कहलाने का यह ग्रन्थ अधिाकारी है।
ऍंगरेजी कवि वड्र्सवर्थ के समान गोसाईंजी प्राकृतिक सौन्दर्योपासक थे
एवम् स्वच्छता तथा सत्यता को उसका प्रधाान अंग मानते थे। अपने सौन्दर्य देव को विषय के गँदले जल से स्नान नहीं कराते थे, वरन् पवित्राता के स्वच्छ गंगाजल से स्नान कराकर उसे रचनामन्दिर में स्थापित करते थे। ''
''श्रीयुत ज्ञान मोहन दत्ता ने ''प्रवासी'' भाग 11, खण्ड 2 में लिखा है कि इस पुस्तक में धार्मभाव जिस रूप से जागृत है,वैसी धार्मभाव समन्वित दूसरी और कोई पुस्तक नहीं देखी जाती। '' कलकत्ताा हाईकोर्ट के भूतपूर्व जज श्रीमान् बाबू शारदाचरण मित्रा ने एक लेख में रामायण के कुछ पद उध्दृत करते हुए गोस्वमीजी की 'भक्ति - भाजन भावुक श्रेष्ठ कविश्वर' तथा'भारतवर्षीय कविगण में अग्रणी' लिखा है।
गोस्वामी तुलसीदासजी की जीवनी
समय का प्रभाव बदल गया है, आज दिन पुनीत भारतवर्ष में यूरोपियन आदर्श का बोलबाला है। 'यथा - राजा तथा प्रजा'की चरितार्थता हो रही है। आत्म - त्याग का स्थान आत्म - गौरव, सौजन्य का स्थान अहम् भाव, र्कत्ताव्य - निष्ठा का स्थान कामुकता, धार्मपरायणता का स्थान अहमहमिकता, पवित्रा नीति का स्थान पालिसी, सत्यता का स्थान प्रवंचना,लोकहितकारिता का स्थान स्वार्थलोलुपता और उदारता का स्थान अनुदारता ग्रहण कर रही है। आज गुरुजन गौरव गरिमा से चित्ताप्रवृति का समादर अधिाक है, पावनपद प्रेम से साम्यवाद का महत्तव विशेष है और भातृप्रीति उदरम्भरिता के सम्मुख तिरस्कृत है। आज आलुलायित कुन्तला अविकच वदना आर्य्यसभ्यता धाीरे - धाीरे अपना चिरअधिाकृत उच्च सिंहासन परित्याग कर रही है और उसपर धाीरपाद विच्छेपपरायण उल्लासमयी एक सभ्यता नामधाारिणी अर्ध्दसभ्यता क्रमश: आरोहण कर रही है, नहीं कहा जा सकता ऊँट किस करवट बैठेगा। और कविकुल - तिलक महात्मा तुलसीदास और उनकी अद्भुत रामायण का महत्तव अब सुरक्षित रहेगा या नहीं। किन्तु मैं यही कहूँगा 'सत्यमेव जयते नानृतम्'। भगवान कमलिनी कुल बल्लभ कब तक घनपटल से आछन्न रहेंगे। वे यथासमय मुक्त होंगे और उनकी आभा से पूर्ववत गगनमण्डल जगमगाने लगेगा। जब तक संसार में ज्ञानपिपासा रहेगी, सदुपदेश का समादर होगा, पवित्रा जीवन प्रिय रहेगा, आदर्श चरित लोक हृदय को उत्फुल्ल करेंगे, मर्यादा समादृत होगी, आत्मोत्सर्ग का महत्तव समझा जायेगा और पुनीत आर्यसभ्यता धारातल को पावन करती रहेगी, उस समय तक गोस्वामीजी मानवहृदय के उच्च आसन पर विराजमान रहेंगे और उनका लोकोत्तार रामचरितमानस गौरव की दृष्टि से देखा जावेगा। सत्कवि और सत्कविता यदि संसार में अजर - अमर नहीं है तो फिर नश्वर संसार में अजर - अमर का प्रश्न ही व्यर्थ है। मैं निम्नलिखित श्लोकों के साथ इस लेख को समाप्त करता हूँ -
'' जयन्ति ते सुकृतिनो रस सिध्दा: कवीश्वरा: ''
नास्ति येषां यश: काये जरामरणजम् भयम् ''
ते धान्यास्ते महात्मानस्तेषां लोके स्थिरं यश:।
यैर्निबध्दानि काव्यानि ये च काव्येषु कीर्तिता: ''
(सन्दर्भ - सर्वस्व)
कृष्ण - गीतावली
कहा जाता है, किसी दिन गोस्वामी तुलसीदास मथुरा के एक प्रसिध्द मन्दिर में पधाारे। समय भजन - पूजा का था, इसलिए विग्रह का बड़ा ही सुन्दर शृंगार किया गया था। गोस्वामीजी सुसज्जित मूर्ति देखकर विमुग्धा हो गए। उनके हृदय में प्रेमातिरेक से आनन्द की धाारा बहने लगी। किन्तु, उन्हाेंने उसके सामने सिर नहीं झुकाया, गद्गद कण्ठ से कहा -
कहा कहौं छबि आज की भले बने हो नाथ।
तुलसी मस्तक तब नवै धानुखबान लो हाथ।
भगवान जनमनरंजन हैं। उनका यह महावाक्य है 'यो यथा मां प्रपद्यंते तांस्तथैव भजाम्यहम्' - जो मुझको जिस रूप में प्राप्त करना चाहता है, मैं उसको उसी रूप में मिलता हँ। अतएव उन्होंने उनकी इच्छा पूरी की, बात की बात में मुरलीधार धानुर्धार बन गए -
मुरली मुकुट दुराय के नाथ भए रघुनाथ।
लखि अनन्यता भक्ति की जन को कियो सुनाथ।
मनोकामना पूर्ण होने पर गोस्वामीजी की ऑंखें खुलीं और उनके हृत्तान्त्राी के निनादित होने पर यह मधाुर धवनि सुनाई दी -
तुलसी मथुरा राम हैं जो करि जाने दोय।
दो आखर के बीच जो वाके मुख मैं सोय।
मथुरा के दो अक्षर म और रा के बीच में थु है। जब उनको सच्चा ज्ञान हुआ तो उनका यह कहना कि रामकृष्ण में जो द्वैत बुध्दि रखता है, उसके मुँह में 'थू' स्वाभाविक है। किन्तु, सबसे पहले यह बात गोस्वामाजी पर घटती है, क्योंकि द्वैत बुध्दि उन्हीं में उत्पन्न हुई। इसलिए अनन्यता का ढाेंग रचनेवालों की कही इस दन्तकथा पर मेरा विश्वास नहीं। अनन्यता निन्दनीय नहीं, उपासना का यह प्रधाान अंग है। जिसकी बुध्दि निश्चयात्मिका नहीं होती, वही एक को छोड़ अनेक के जंजाल में पड़ा रहता है। नाना देवताआें की उपासना में रत रहना, कभी भूत को पूजने लगना, कभी पिशाच को, - बुध्दि की अस्थिरता का सूचक है। इसलिए भक्ति के लिए उच्चकोटि की साधाना अनन्यता ही है। क्योंकि
सब आयो इस एक मैं डार पात फल फूल।
कविरा पीछे का रहा गहि पकरा जिन मूल।
जो 'एकमेवाद्वितीयम्' का मर्म जानता है, उसका अनन्य होना स्वाभाविक है। किन्तु, इसका यह अर्थ नहीं कि परमात्मा की विभूतियों की उपेक्षा की जावे। अनन्य होकर अपने इष्टदेव की सत्ताा को ही समस्त विभूतियों में देखना और यथोचित सबकी मर्यादा की रक्षा करना अनन्यता का बाधाक नहीं, क्याेंकि -
आकाशात् पतितम् तोयं यथा गच्छति सागरे।
सर्व देव नमस्कारम् केशवम् प्रतिगच्छति।
आकाश से गिरा हुआ जल जैसे समुद्र को जाता है, उसी प्रकार सब देवताओं को किया गया प्रणाम ईश्वर को ही प्राप्त होता है। शास्त्रा कहता है 'एको देव: सर्व भूतेषु गूढ:' एक परमात्मा ही सबमें व्याप्त है। यह अभेद बुध्दि दुर्लभ हो, किन्तु है उदात्ता। अनन्यता की सच्ची साधाना द्वारा ही इसकी प्राप्ति होती है। अतएव, अनन्यता के विरुध्द उँगली नहीं उठायी जा सकती। हाँ,अनन्यता का अवास्तव रूप अवश्य निन्दनीय है। जो शिव का अनन्य भक्त बनकर विष्ण्ाु की निन्दा करता है, राम का अनन्य उपासक कहलाकर भगवान कृष्णचन्द्र में उचित समादर बुध्दि नहीं रखता, वह अनन्यता का दम भरता है, किन्तु उसका तत्तव नहीं जानता। मेरा विचार है कि ऐसे ही ज्ञानलव - दुर्विदग्धा की गढ़ी हुई, गोस्वामीजी सम्बन्धिानी यह दन्तकथा है। जो गोस्वामीजी कहते हैं - 'सियाराममय सब जग जानी, करहुँ प्रनाम जोरि युग पानी', वे भगवान कृष्णचन्द्र के विग्रह के सम्मुख पहुँचकर यह कैसे कह सकते हैं - 'तुलसी मस्तक तब नवै धानुख बान लो हाथ'। जिस अमोघ मन्त्रा का जपकर मनु और सतरूपा भगवान रामचन्द्र समान पुत्रा मानव शरीर धारण कर लाभ करते हैं - उस मन्त्रा को गोस्वामीजी ने द्वादशाक्षर बतलाया है - और वह मन्त्रा है - '¬ नमो भगवते वासुदेवाय'। गोस्वामीजी लिखते हैं - 'द्वादस अक्षर मन्त्रावर जपहिं सहित अनुराग - वासुदेव पदपंकरुह दम्पति मन अति लाग'। यद्यपि वासुदेव संज्ञा की व्याख्या इस प्रकार की जाती है -
' वसु: सर्व निवासश्च विश्वानि यस्य लोमसु।
स च देव: परं ब्रह्म वासुदेव इति स्मृत: '
किन्तु वास्तव में वासुदेव अयप्तवाचक संज्ञा है और वसुदेव शब्द से ही बनता है। जो गोस्वामीजी भगवान रामचन्द्र और कृष्णचन्द्र में इतनी अभेद बुध्दि रखते हैं, उनके मुख से ऐसी बात कभी नहीं निकल सकती, जो विभेद का परिचायक हो। उनकी अभेद बुध्दि का प्रतिपादक उनका 'कृष्ण - गीतावली' नामक ग्रन्थ भी है जिससे अधिाकांश हिन्दी - संसार अपरिचित है। इस ग्रन्थ का परिचय देने के लिए ही मुझको यह उपक्रम लिखना पड़ा है। ऊपर के दोहों को प्रमाण मानकर कुछ लोग अब तक 'कृष्ण - गीतावली' को गोस्वामीजी की रचना नहीं मानते। किन्तु उनके विषय में पूर्ण अभिज्ञता रखनेवालों और प्रतिष्ठित एवं मान्य ग्रन्थकारों ने भी इस ग्रन्थ को उनकी ही रचना मानी है, ग्रन्थ की भाषा भी यही बतलातीहै।
कृष्ण - गीतावली गीतिकाव्य है। इसकी रचना बड़ी ही सरस और मनोरम है। यह ग्रन्थ बड़ी ही मधाुर ब्रजभाषा में लिखा गया है। गोस्वामीजी की लेखनी की समस्त विशेषताएँ इसमें मौजूद हैं। भगवान कृष्णचन्द्र को योगिराज स्वीकार करके भी अनेक कवियों और महाकवियों ने उनकी लीलाओं का असंयत वर्णन किया है, इतना असंयत कि जिन्हें अभिनन्दनीय नहीं कहा जा सकता। कहीं - कहीं इन वर्णनों में इतनी अश्लीलता आ गयी है कि उन्हें सभ्यजनानुमोदित नहीं माना जा सकता। गोस्वामी जी की रचना में यह छूत नहीं लग पाई है। उनकी लेखनी जिस प्रकार रामायण की पंक्तियों में पवित्रातामयी है, वैसी ही इस ग्रन्थ में। इतनी संयत और पावन रचना होने पर भी उसमें रस छलका पड़ता है, और मधाुरता उच्च कोटि की मिलती है। ग्रन्थ में कुल 61 पद हैं। आधो से अधिाक पदों में भगवान की बाललीलाओं का वर्णन है। शेष में उध्दव गोपिका सम्वाद है और दो - तीन पदों में स्फुट विषय हैं। इस ग्रन्थ के भाव - चित्राण्ा की मार्मिकता विलक्षण है। गोस्वामीजी बाह्य और अन्तर्द्वंद्व दोनों के चित्राण में अद्वितीय हैं। इस विषय में वे अद्भुत क्षमता रखते हैं। इस ग्रन्थ में भी उनकी यह प्रगल्भता सर्वत्रा विद्यमान है। रचना में स्वाभाविकता इतनी मिलती है, जितनी अन्य ग्रन्थों में मिलनी दुर्लभ है। कुछ पद्यों को उपस्थित करके मैं अपने कथन की पुष्टि करूँगा। साथ ही आपलोगों को इस ग्रन्थ की मधाुर रचनाओं का रस आस्वादन कराऊँगा।
संसार में जितने महापुरुष हो गये हैं, उन सबका बाल्य काल विलक्षण देखा जाता है। ऊधामी बालकों का ऊधाम प्राय: अप्रिय होता रहता है; किन्तु उनके इसी ऊधाम में उनकी भावी महत्ताा का बीज छिपा रहता है। बालकों की नटखटी और चंचलता खटकती है। किन्तु, किसी - किसी बालक की इसी नटखटी और चंचलता में एक विलक्षणता भी रहती है, जो लोगों को अपनी ओर आकर्षित ही नहीं करती, चकित भी बनाती है। भगवान कृष्णचन्द्र का बालकाल भी इस प्रकार की विचित्राताओं से पूर्ण है। वह प्राय: बाल - स्वभाव - सुलभ चपलतावश गोपियों को छेड़ा करते, अवसर पाकर उनका दही - दूधा खा जाते, या उसे गिरा देते या अपने साथियों को खिला देते। वे बोलतीं तो मुँह चिढ़ाते, उन्हें तंग करते, उनके बरतनों तक को फोड़ डालते। वे बिचारी गोरस को छिपाकर सौ परदे में रखतीं, ऊँचे - ऊँचे छींकों पर टाँगतीं, फिर भी वे कन्हैया की ढूँढ़नेवाली ऑंखों और ऊँचे उठे हुए हाथों से बचने नहीं पाते। वे बिचारी जब बहुत तंग हो जातीं तो उलाहना लेकर यशोदा के पास पहुँचतीं। ऐसी ही एक गोपी की बातें सुनिए -
तोहि स्याम की सपथ जसोदा आइ देखु गृह मेरे।
जैसी हाल करी यहि ढोटा छोटे निपट अनेरे।
गोरस हानि सहौं न कहौं कछु यहि ब्रजवास बसेरे।
दिन प्रति भाजन कौन बेसाहै ? घर निधिा काहू केरे।
किए निहोरो हंसत , खिझे ते डाटत नयन - तरेरे।
अबहीं ते ये सिखे कहाँ धा चरित ललित सुत तेरे।
बैठो सकुचि साधा भयो चाहत मातु बदन तन हेरे।
तुलसिदास प्रभु कहौं ते बातैं जे कहि भजे सबेरे।
गोपी के मानसिक भावों का गोस्वामीजी ने जिस सहृदयता से चित्राण किया है, उसकी जितनी प्रशंसा की जाए, थोड़ी है। उसकी खीझ, उसका दुख, उसका भय और प्रेम, उसके हृदय का क्षोभ और रोष, उसका डराना और धामकाना इस पद्य के शब्दों का विन्यास जिस स्वारस्य के साथ व्यंजित कर रहा है उसका रस आस्वादन कर कौन हृदय मुग्धा न होगा। जो कुछ गोपी कह रही है, ऐसे अवसरों पर ऐसी ही बातें तो सुनी जाती हैं। पद्य पढ़ते समय उस समय का चित्रा ऑंखों के सामने खिंच जाता है, और ज्ञान होने लगता है कि उसके एक - एक वाक्य मन पर प्रभाव डाल - डालकर उसको प्रभावित कर रहे हैं। कवि - कर्म यही तो है, ऐसी ही कविता का नाम कविता है। जो कविता अन्धाकार में रखती है, जिसके भाव प्रकाश में आने से संकुचित होते हैं, न तो वह कविता है और न उसका रचनेवाला कवि। जो सत्य है, हृदयंगम हो सकता है, उससे मुँह फेरकर अकल्पनीय को कल्पना ही का रूप देना वातुलता है।
माखनचोर, चोर ही नहीं थे, वचन - रचना - चतुर भी थे। उनमें चंचलता ही नहीं थी, बात गढ़ने की भी शक्ति थी। जब गोपियों ने उलाहना का ताँता बाँधा दिया, तो यशोदाजी कब तक बातें टालतीं, कब तक खरी - खोटी सुनतीं, एक दिन दोबारा - तिबारा उलाहना सुनने पर बिगड़ खड़ी हुईं। नन्दलाल ने रंग बिगड़ा देखकर अपना रंग जमाने की ठानी। ऐसी बातें गढ़ीं, कि यशोदा जी मुँह देखते ही रह गयीं। गोपी बिचारी के तो छक्के छूट गए, मुँह में आयी बात कह न सकी, लाज के मारे अपना मुँह छिपाने लगी, लाला की बातें सुनिए -
मो कहं झूठेहिं दोख लगावहिं।
मैया इनहिं बानि पर गृह की , नाना जुगुत बनावहिं।
इनके लिए खेलिबो छोरयो तऊ न उबर पावहिं।
भाजन फोरि बोरि कर गोरस देन उरहनो आवहिं।
कबहुँक बाल रोआई पानि गहि मिस करि करि उठि धाावहिं।
करहिं आप सिर धरहिं आनके बचन विरंचि हरावहिं।
मेरी टेव बूझि हलधार सों सन्तत संग खेलावहिं।
जे अन्याय करहि काहू को ते सिसु मोहिं न भावहिं।
सुनि सुनि बचन चातुरी ग्वालिनि हँसि हँसि बदन दुरावहिं।
बाल गोपाल केलि - कलकीरति तुलसिदास सुर गावहिं। 1 ।
देखिए कैसी भोली - भाली बातें हैं, साथ ही इनमें कितनी मधारता है। बातें गढ़ी हैं पर उनमें से सरलता टपकी पड़ती है। एक बालक माता से डरकर अवसर पर कैसे बातें बनाता है। इस पद्य में उसका जीता - जागता चित्रा है। इसी भाव का एक पद्य और देखिए इसमें कितनी भावुकता है, साथ ही कितनी स्वाभाविकता, बाल भाव इसमें किलक - किलक कर क्रीड़ा कर रहा है - फिर गोपी क्यों न ठग जाती। और उसके मुँह से उत्तार कैसे निकलता।
अबहिं उरहनो दै गई , बहुरो फिर आई।
सुनु मैया तेरी सौं करौं , या की टेव लरन की सकुच बेंचि सी खाई।
या ब्रज में लरिका घने , हौं ही अन्याई।
मुँह लाए मूंडहिं चढ़ी , अन्तहु अहिरिनि तोहि सूधाी करि पाई।
सुनि सुत की अति चातुरी जसुमति मुसुकाई।
तुलसिदास ग्वालिनि ठगी , आयो न उतरु कछु कान्ह ठगौरी लाई।
गोपियाँ खीझती थीं, उलाहना भी देती थीं - गोरस का लुटना - लुटाना, कहाँ तक देख सकतीं। नित्य की क्षति को कोई नहीं सह सकता। उत्पात और ऊधाम से सब ऊब जाता है। परन्तु उनके हृदय में कृष्ण प्यारे की बड़ी ममता थी, वे उनका कुम्हलाया मुख नहीं देख सकती थीं। उनकी ताड़ना का ख्याल भी उनको सताता। वे मोहन लाल को दुखी देख काँप उठतीं। उनकी खीझ में भी रीझ थी, उनके उलाहने में भी प्यार था। उनका यह भाव नीचे के पद में कैसा स्फुटितहै -
हरि को ललित बदन निहारु।
निपट ही डांटति निठुर ज्यों लकुट करते डारु।
कान्ह हूँ पर सतर भौंहैं महरि मनहिं बिचारु।
दास तुलसी रहति क्यों रिस निरखि नन्दकुमारु।
माता का हृदय बड़ा मधार होता है, इतना मधाुर कि उसके सामने पीयूष क्या है। जब बालक मचलता है, तब इस मधाुर हृदय की मधाुरता और अधिाक हो जाती है। उस समय उसपर स्नेह का बड़ा गहरा रंग चढ़ा रहता है और उसमें एक बड़ी विमुग्धाकरी धाारा प्रवाहित होती रहती है। बच्चों की सँभाल टेढ़ी खीर है। जब बच्चों के मन का नहीं होता, तब वे चिड़चिडे हो जाते हैं और बात - बात में उलझन डालते हैं, क्योंकि बालक - स्वभाव हठी होता है। बच्चे का मन रखना और उसकी बुरी आदतें छुड़ाना आसान नहीं। खेल के सामने बच्चे सब भूल जाते हैं, न तो नहाने - धाोने की सुधा रहती है न खाने - पीने की। कुशल माता ही उसकी ठीक - ठीक सँभाल करती है। गीत गाती है, उसको बहलाती है, बातें बनाती है, तरह - तरह की कहानियाँ सुनाती है और लालच दिलाकर फुसलाती है, फिर उसको खुश करके जो चाहती है उससे करा लेती है। गोस्वामीजी की लेखनी बड़ी ही मर्मस्पर्शिनी है। देखिए नीचे के पद्य में इन भावों का कितना सुन्दर वर्णन है -
छाड़ो मेरे ललित ललन लरिकाई।
ऐहैं सुत देखवार कालि तेरे बबै ब्याह की बात चलाई।
डटिहैं सासु ससुर चोरी सुनि हँसिहै नयी दुलहिया सुहाई।
उबटौं न्हाहु गुहौं चुटिया बलि देखि भलो बर करिहिं बड़ाई।
मातु कह्यो करि कहत बोलि दै भई बड़िवार ' कालि ' तो न आई।
जब सोइबो तात यों ' हा। ' कहि नयन मीचि रहै पौढ़ि कन्हाई।
उठि कह्यो भोर भयो झंगुली दै मुदित महरि लखि आतुरताई।
विहँसी ग्वालि जानि तुलसी प्रभु सकुचि लगे जननी उर धाई।
कान्ह कुँवर की लीलाएँ देखकर एक गोपी हँस पड़ी। यह देखकर वे लज्जित हो गये और दौड़कर माँ की छाती से चिपक गए। यह लिखकर गोस्वामीजी ने हमारे एक सामाजिक संस्कार पर प्रकाश डाला है। अपने विवाह की बात सुनकर हमारे लड़के,लड़कियों के लज्जित हो जाने का भाव स्वाभाविक है। पद्य का अन्तिम चरण लिखकर गोस्वामीजी ने बतलाया है कि किस प्रकार बाल्यकाल ही में घटनासूत्रा से ही इस भाव का बीज बालकों के हृदय में अंकुरित हो जाता है।
कृष्ण - गीतावली के पद्य एक से एक सुन्दर हैं। जी चाहता है मैं सबको सामने रखूँ और उनका रसास्वादन कराकर आप लोगों के हृदय को सुधाासिंचित बनाऊँ। किन्तु, न तो इतना समय है, और न स्थान। इसलिए कतिपय पद्य वियोगविधाुरा गोपियों के लिखकर मैं इस लेख को समाप्त करूँगा। भगवान कृष्णचन्द्र का ब्रज को छोड़कर मथुरा चले जाना और फिर उसकी ओर उलट कर भी न देखना बड़ी मर्मवेधिानी कथा है। सहृदय जनों के हृदय का यह ऐसा गहरा घाव है, जो आज तक नहीं भरा, कभी भरेगा भी नहीं। उसकी टपक से व्यथित होकर लोग आज भी कलेजा थामते हैं, परन्तु इलाज क्या। ऑंसू बहाने से कुछ शान्ति मिलती है, पर हाय! कोई कब तक ऑंसू बहाये। सहृदय हिन्दू समाज को वैदेही - बनवास और ब्रजजीवन - प्रवास चिरकाल से रुला रहा है, और प्रलय काल तक रुलाता रहेगा। किन्तु इस कोने में भी रस है, इसलिए आज भी वे रसिकजन - हृदय के सर्वस्व हैं। मनीषी ऊधाव ब्रज निवासियों का प्रबोधा करने आए, किन्तु क्या वे उसका प्रबोधा कर सके। सच्ची बात तो यह है कि उनकी अकृत्रिाम प्रेमधाारा में वे भी बह गए। निर्गुणवादी ऊधाव ज्ञानमार्गी थे, भक्तिमार्ग का मर्म उन्होंने ब्रज में ही जाना। अब गोपियाँ कहतीं -
'' ऊधा या ब्रज की दसा विचारो।
ता पाछे यह सिध्दि आपनी जोग कथा विस्तारो।
जा कारन पठए तुम माधाव सो सोचहु मन मांहीं।
केतिक बीच विरह परमारथ जानत हो किधा नाहीं।
परम चतुर निजदास स्याम के संतत निकट रहत हो।
जल बूड़त अवलंब फेन को फिरि - फिरि कहा कहत हो।
वह अति ललित मनोहर आनन कौने जतन विसारौं।
जोग जुगुत अरु मुकुत विविधा विधावा मुरली पर वारौं।
जेहि उर बसत श्यामसुन्दर धन तेहि निर्गुन कस आवै।
तुलसिदास सो भजन बहाओ जाहि दूसरो भावै। ''
तो वे चकित हो जाते, सोचते गोपियों जैसी 'तादात्म्य वृत्तिा' कहाँ मिलेगी। जिसको प्रेम का बाण लग गया है और जो प्रेम - स्वरूप का सच्चा विरही है उसको परमार्थ की क्या आवश्यकता, परमार्थ का परिणाम सच्चा प्रेम ही तो है। जो विरह - सलिल - राशि में डूब रहा है, उसकी रक्षा योगसाधान - फेन से कैसे होगी, उसका त्रााण तो तभी होगा, जब उसको प्रेमाधाार की प्राप्ति हो। जिसको मुक्ति की भी कामना नहीं, उसको योग की क्या परवा। जो घनश्याम की चातकी है, सगुणता की मर्मज्ञ है, उसको निर्गुण से क्या काम, जो अनन्त साधानाओं के द्वारा केवल समाधिालब्धा मात्रा है। निष्क्रिय निर्गुण की संसार को उतनी आवश्यकता नहीं, जितनी सक्रिय सगुण की। संसार निर्गुण का ही सगुण स्वरूप है। प्रेम के द्वारा ही प्राणी को इसका साक्षात्कार होता है। अतएव प्रेम ही जीवन की प्रधाान साधाना है, वही परमानन्द का बीजमन्त्रा है और इसलिए कहा गया है 'प्रेमएवपरो धार्म:'। ऊधाव के इस प्रकार के विचारों ने ही उनका काया पलट कर दिया था, जिसका फल यह हुआ कि उन्होंने अपना ज्ञान भूलकर गोपियों से प्रेम - शिक्षा ग्रहण की। गोस्वामीजी के पद्य के सीधो - सादे शब्दों में गोपियों की प्रेमपरायणता मूर्तिमन्त होकर विराज रही है। साथ ही उसमें कितना त्याग और व्यंग्य है, कितनी तदीयता और लगन है, इसका अनुभव प्रत्येक सहृदय सुजन कर सकता है।
नीचे लिखे पद्यों में कितनी सरसता और मोहकता है, कितना व्यंग्य और कितनी मनोवेदना है, उनको पढ़कर विचारिए। कहीं निराशा की झलक है, कहीं प्रेममयी खीझ। कहीं ऊधाो की अरसिकता पर कटाक्ष है, कहीं निर्मोही के निर्मोह पर मनोहर व्यंग्य। किसी पद में मनोवेदना 'तड़पती' मिलती है, तो किसी से पीड़ा रुदन करती दृष्टिगत होती है। फिर भी जो कुछ है, वह संयत है, नियमित है, और है प्रेम रस परिपूरित -
मधाुकर कहहु कहन जो पारो।
नाहिन बलि अपराधा रावरो सकुचि साधा जनि मारो।
नहिं तुम ब्रज बसि नन्दलालन को बाल विनोद निहारो।
नाहिंन रासरसिकरस चाख्यो तातें डेल सों डारो।
तुलसी जो न गये प्रीतम संग प्रान त्यागि तनु न्यारो।
तौ सुनिब देखिबो बहुत अब कहा करम सों चारो। 1 ।
ऊधाजू कह्यो तिहारोइ कीबो।
नीके जिय की जानि अपनपौ समुझि सिखावन दीबो।
स्याम वियोगी ब्रज के लोगन जोग जोग जो जानो।
तौ सकोच परिहरि पालागौं परमारथहिं बखानो।
गोपी गाय ग्वाल गोसुत सब रहत रूप अनुरागे।
दीन - मलीन छीन तनु डोलत मीन मजा सों लागे।
तुलसी है सनेह दुखदायक नहिं जानत यह को है।
तऊ न होत कान्ह को सो मन , सबै साहेबहिं सोहै। 2 ।
चित्ता की विचित्रा अवस्था है, वह जिसको प्यार करता है, जिसके नाम की माला जपता है, खीझ जाने पर उसको भी उलटी - सीधाी सुना देता है। कभी वेदनाओं से विकल होकर ऐसा किया जाता है, और कभी जी हलका करने के लिए। कभी इस भाव का वेग संयत होता है, कभी तीव्र। धाीर प्रकृति गम्भीर होती है, अधाीर प्रकृति उध्दाृत। संसार में ऐसे लोग भी हुए हैं, जिन्होंने गला उतर जाने पर भी ऊफ नहीं की, ऐसे लोग प्रियतम के विरुध्द जीभ हिलाना भी पाप समझते हैं, हमारे यहाँ स्वकीया नायिका का यही आदर्श है, परन्तु ऐसे लोग कितने हैं। प्राय: प्राणी रो - कलपकर टेढ़ीमेढी बातें कहकर अपनी पीड़ाओं और मानसिक दुखों को कम करता है। गोपियों के मुख से भी ऐसी बातें सुनी जाती हैं, किन्तु गोस्वामीजी की लेखनी का सहारा पाकर वे कितनी संयत हो गयी हैं - इस बात को निम्नलिखित पद्य में देखिए -
ताकी सिख ब्रज न सुनैगो कोउ मोरे।
जाकी कहनि रहनि अनमिल अलि सुनत समझियत थोरे।
आपु कंज मकरंद सुधाा Ð द हृदय रहत नित बोरे।
हम सों कहत विरह ò म जैहै गगन कूप खनि खोरे।
धाान को गाँव पयार ते जानिय ज्ञान विषय मन मोरे।
तुलसी अधिाक कहे न रहै रस ज्यों गूलर फल फोरे।
इस पद्य के 'गगन कूप खनि खोरे', 'ज्यों गूलर फल फोरे' आदि व्यंग्यों की गम्भीरता की जितनी प्रशंसा की जाए, थोड़ी है।
एक पद्य और देखिए - इस पद्य में पद - पद से गहरी निराशा और विवशता टपकी पड़ती है। मथुरा चले जाने पर ब्रजदेव के वियोग में ब्रज - बालाओं अथवा ब्रज - निवासियों की क्या मानसिक अवस्था हुई, इसका चित्राण इसमें बड़ी ही निपुणता से किया गया है। पद्य पढ़ते ही चित्ता करुणार्द्र हो जाता है -
करी है हरि बालक की - सी केलि।
हरखन रचत , विखादन बिगरत , डगरि चले हँसि खेलि।
बई बनाइ वारि वृन्दावन प्रीति सजीवन बेलि।
सींचि सनेह सुधाा खनि काढ़ी लोक वेद अवहेलि।
तृन ज्यों तजी पालि तनु ब्रजजन विधिा वासव बल पेलि।
एतेहुँ पर भावत तुलसी प्रभु गये मोहिनी मेलि।
अमृत से तृप्ति नहीं होती, उसको जितना ही पीजिए उतनी ही तृष्णा बढ़ती है। कृष्ण - गीतावली के जिस पद्य को पढ़िए वही तन्मय कर देता है, उसे बार - बार पढ़कर भी जी नहीं भरता। मनन करने पर उसकी मोहकता बढ़ती ही जाती है। मैंने कुछ पद्य आपलोगों के सामने रखे, उनको पठन कर मेरे कथन को कसौटी पर कसिए। आशा है आपलोग मेरे विचार से सहमत होंगे। गोस्वामीजी के अपर ग्रन्थों के समान कृष्ण - गीतावली भी हिन्दी साहित्य - सागर का महारत्न है। उसकी ओर साहित्य - प्रेमियों का दृष्टि आकर्षण करने के लिए ही यह लेख लिखा गया है। इस ग्रन्थ को पढ़कर भी जो गोस्वामीजी के हृदय की विशालता और अनन्य उपासना का मर्म न समझ सकेंगे, उनको मैं मननशील और जिज्ञासाप्रिय बनने की सम्मति दूँगा। अन्त में कृष्ण - गीतावली के निम्नलिखित स्तुति - पद्य के साथ इस लेख को समाप्त करता हूँ।
गोपाल गोकुल वल्लभी प्रिय गोप गोसुतवल्लभं।
चरनारविन्दमहं भजे भजनीय सुर मुनि दुर्लभं।
घनश्याम काम अनेक छबि लोकाभिराम मनोहरं।
किंजल्क बसन किशोर मूरति भूरि गुन करुनाकरं।
सिर केकिपच्छ विलोल कुण्डल अरुन बनरुह लोचनं।
गुंजावतंस विचित्रा सब ऍंग धातु भव भय मोचनं।
कच कुटिल सुन्दर तिलक भ्रू राका मयंक समाननं।
अपहरन तुलसीदास त्राास विहार वृन्दा काननं।
(सन्दर्भ - सर्वस्व)
' नीहार' का 'परिचय'
परिचय
आजकल जिसे छायावाद कहते हैं, इस ग्रन्थ की अधिाकांश कविताएँ उसी ढंग की हैं। छायावाद किसे कहते हैं? उसे छायावाद कहना चाहिए अथवा रहस्यवाद, यह वाद - ग्रस्त विषय है। स्वयं छायावादी कवि अब तक इस बात को निश्चित नहीं कर सके कि वे अपनी नूतन प्रणाली की कविताओं को छायावाद कहें अथवा रहस्यवाद। इस प्रकार की कविताओं की परिधिा इतनी विस्तृत हो गयी है कि उन सबका अन्तर्भाव छायावाद अथवा रहस्यवाद में नहीं हो सकता। अतएव कोई - कोई उसको हृदयवाद कहने लगे हैं, किन्तु यह संज्ञा अति व्याप्ति दोष से दूषित है। मिसटिसिज्म (Mysticism) का यथार्थ अनुवाद रहस्यवाद ही हो सकता है, छायावाद शब्द में उसकी छाया दिखलाई पड़ती है, मूर्ति नहीं। रहस्यवाद में अस्पष्टता, अपरिच्छिन्नता और सर्व साधाारण की दुर्बोधाता झलकती है, वह चमत्कार होकर अचिंतनीय भी है, छायावाद में यह बात नहीं पाई जाती है। वह स्निग्धा, मनोरम और प्रांजल है, साथ ही उतना अचिंततीय नहीं, शायद इसीलिए उस पर अधिाकतर सहृदयों की स्वीकृति की मुहर लग गयी है। छायावाद शब्द प्रचलित हो गया है और अपने उद्देश्य की पूर्ति भी कर रहा है। ऐसी अवस्था में अब इस विषय में अधिाक इदं कुत: की आवश्यकता नहीं जान पड़ती। किसी विषय के लिए जब कोई शब्द रूढ़ हो जाता है, तो एक प्रकार से वह अप्रेक्षित आवश्यकता के लिए स्वीकृत समझा जाता है, फिर वाद - विवाद क्या? संसार में अधिाकांश नामकरण इसी प्रकार हुआ है।
हिन्दी कविता क्षेत्रा में आजकल छायावाद की कविताएँ इस अधिाकता से हो रही हैं और युवक दल उसकी ओर इतना आकृष्ट है कि वर्तमान समय को छायावाद युग कह सकते हैं फिर भी छायावाद की कविताएँ अभी आदिम अवस्था में हैं, उद्गम से बाहर निकलती हुई अधिाकांश सरिताओं के समान उनमें वेग है, प्रवाह है, उल्लास और कल्लोल है, किन्तु वांछित धाीरता नहीं, वह स्थान - स्थान पर तरंगाकुल और आविल भी है। ऐसा होना स्वाभाविक है, काल पाकर उनको सम धारातल भी मिलेगा और उस समय वे मंजु मन्थर गामिनी और यथेच्छ स्वच्छतामयी एवं सरसा होंगी। कवि कार्य सुगम नहीं, वह अगम्य है, वह सर्वथा निर्दोष नहीं हो सकता। जब महाकवियों में भी भ्रम प्रमाद और त्राुटियाँ पाई जाती हैं, तो उस पर बात - बात में उँगली उठाना क्या उचित होगा, जिसने अभी कविता क्षेत्रा में पदार्पण किया है। प्रेम से दोष प्रक्षालन के लिए किसी को सतर्क करना अवांछनीय नहीं, किन्तु ऐसे अवसरों पर मच्छिका प्रवृत्तिा काम लेना संगत नहीं। थोडे समय में भी कतिपय छायावादी कवियों ने हिन्दी संसार में कीर्ति अर्जन की है और उनमें पर्याप्त भावुकता का विकास देखा गया है। उन्होंने अपने गहन - पथ को सरल बनाया है और कोमलकान्त पदावली पर अधिाकार करके बड़ी भावमयी कविताएँ की हैं। उन्हीं में से एक श्रीमती महादेवी वर्मा कवयित्राी भी हैं।
यह ग्रन्थ इनका आदिम ग्रन्थ है, फिर भी इसमें उनकी प्रतिभा का विलक्षण विकास देखा जाता है। ग्रन्थ सर्वथा निर्दोष नहीं, किन्तु इसमें अनेक इतनी सजीव और सुन्दर पंक्तियाँ हैं कि उनके मधाुर प्रवाह में उधार दृष्टि जाती ही नहीं। प्रफुल्ल पाटल प्रसून में काँटे होते हैं, हों, किन्तु उसकी प्रफुल्लता और मनोरंजकता ही मुग्धाकारिता की सम्पत्तिा है। ऐसा कहकर मैं नियमन की अवहेलना नहीं करता हूँ - सहृदयता का नेत्राोन्मीलन कर रहा हूँ। कहा जा सकता है एक स्त्राी का उत्साह - वर्ध्दन करने के लिए बातें कही गईं। मैं कहूँगा यह विचार समीचीन नहीं, ऐसा कहना स्त्राी जाति की सर्वतोमुखी प्रतिभा को लांछित करना है। वास्तव में बात यह है कि ग्रन्थ की भावुकता और मार्मिकता उल्लेखनीय है, उसका कोमल शब्द - विन्यास भी अल्प आकर्षक नहीं।
मैं श्रीमती महादेवी वर्मा का हिन्दी साहित्य क्षेत्रा में सादर अभिनन्दन करता हूँ और उनसे यह निवेदन भी करूँगा कि उनकी हृत्तान्त्राी के अपूर्व झंकार में भारत - माता के कण्ठ की वर्तमान धवनि भी श्रुत होनी चाहिए। इससे उनकी कीर्ति उज्ज्वलतर होगी। माता की व्यथाओं के अनुभव करने की मार्मिकता मातृत्व पद की अधिाकारिणी को ही यथातथ्य हो सकती है।
काशीधााम 28 - 4 - 30 हरिऔधा
(असंकलित)
हिन्दी के मुसलमान कवि की प्रस्तावना
संकलनकार की इच्छा हुई कि इस ग्रन्थ की प्रस्तावना मैं लिख दूँ। प्रस्तावना लिखने के समय विचार हुआ कि प्रस्तावना लिखूँ -
' जिन दिन देखे वे कुसुम गयी सु बीति बहार। '
फिर सोचा यह तो नैराश्य है, नैराश्यावाद अच्छा नहीं। क्यों न निश्चित किया जावे -
' ह्नैहैं बहुरि बसन्त ऋतु इन डारन वे फूल। '
निराशा से आशा और निर्जीवता से सजीवता अच्छी है। उद्योग जीवन का लक्षण है और चेष्टा सफलता की कुंजी। और कुछ न हो, अच्छे उद्देश्य का अच्छा होना ही क्या कम है। संग्रहकार का उद्देश्य उच्च है, उसने सम्बन्धाबीज वपन किया है, स्नेह - सलिल से उसे सींचा है, क्यों न आशा की जावे कि वह अंकुरित होगा और काल पाकर सुन्दर फूल - फल भी लावेगा। संसार परिवर्तनशील है, काल - चक्र कब किस प्रकार घूमेगा, यह कौन जानता है।
अन्तर्जगत दर्पण के समान पारदर्शक और उज्ज्वल है। इस विविधा भावमय संसार में वह प्रत्येक भाव का प्रतिबिम्ब वा तथ्य ग्रहण करता है और उसको उसी रूप में प्रकट करना चाहता है। वह मलिन हो अथवा कारण विशेष से कलुषित हो, तो उसके प्रतिबिम्ब आवरण में अन्तर पड़ सकता है, किन्तु यह उसका वास्तविक रूप नहीं है। हिन्दू हो अथवा मुसलमान,स्वाभाविक हृदय सबका समान होता है, उसमें अस्वाभाविकता भी पाई जाती है, किन्तु उसके कारण वंशगत, समाजगत या संसर्गगत कुछ संस्कार हैं, जो अधिाकांश वास्तव हैं। जो जिस देश का निवासी है, उसका उस देश की भाषा से प्रेम होना स्वाभाविक है। जो भाषा आबाल जीवन - सहचरी है, उसकी ममता कोई छोड़ नहीं सकता। प्राय: भली प्रकार भावस्फुरण भी उसीमें होता है, वह सुन्दरता के साथ प्रकट भी उसी में किया जा सकता है। स्वाभाविकता भी उसी में पाई जाती है, कृत्रिामता की बात मैं नहीं कहता, वह अन्य विषय हैं। कबीर और मलिक मुहम्मद जायसी की अपूर्व रचना में इसी बात के उदाहरण हैं। रसखान की मुग्धाकारी कृति में उसी का सरस रस प्रवाहित है। खुसरो, रहीम, रसलीन, मुबारक जैसे भावुकों के भाव प्रवाह में भी उसी का बहुत कुछ विकास है। ये हिन्दी के ऐसे सरस हृदय कवि हैं कि कतिपय सर्वमान्य महाकवियों को छोड़ अधिाकांश हिन्दी भाषा के प्रसिध्द कवियों के वे समकक्ष हैं। इन सहृदय मुसलमान कवियों पर मुसलमान जाति उचित गर्व कर सकती है,हिन्दू जाति को तो उनका गर्व है ही, इतना ही नहीं वह उनकी विचार उच्चता की कृतज्ञ भी है। चलती गाने की चीजों में विशेषकर ठुमरी, खेमटे, दादरों इत्यादि में कुछ मुसलमान सहृदयों ने जो रचना पटुता दिखलाई है, वह अभूतपूर्व है। उनमें इतनी सरसता, स्वाभाविकता और हृदयग्राहिता है कि उनकी बहुत कुछ प्रशंसा की जा सकती है। इस विषय में उनका समकक्ष कोई हिन्दी कवि कठिनता से मिलता है, उचित समकक्षता लाभ तो की है, बाबू हरिश्चन्दजी ने लाभ की है। उनके प्रेम तरंग इत्यादि ग्रन्थों में इस प्रकार की बड़ी मनमोहक रचनाएँ हैं। इस कथन का अभिप्राय यह है कि हिन्दी भाषा को अपनाकर मुसलमानों ने केवल कीर्ति और प्रतिष्ठा ही नहीं लाभ की है, अपितु उन्होंने मनोभावों के चित्राण में भी पराकाष्ठा दिखलाई है। मेरा तो विचार है कि उर्दू के महाकवियों की रचनाओं में उतनी स्वाभाविकता और सरसता किसी - किसी शेर में ही मिलेगी। इसलिए यह नहीं कहा जा सकता कि हिन्दी क्षेत्रा मुसलमानों का नहीं है। वास्तव में बात यह है कि हिन्दी पर प्रत्येक हिन्द निवासी का स्वत्व है, और यही कारण है कि वह साधाारण मुसलमान बादशाहों से लेकर मुसलमान सम्राटों तक में आदृत रहीहै।
खेद है कि आज रंग बदल गया है, आज मुसलमान सज्जन हिन्दी सुमनोद्यान को ऑंख भर देख नहीं सकते, उनकी दृष्टि में उसमें न तो विकच कुसुमावली है, न मनोमुग्धाक सुगन्धा, और न मानसरंजन रमणीयता। उन्हें हरे - भरे पौधो, लहलही लता, कोमल किसलय और लुभावने प्रसून भी उसमें नहीं मिलते। उन्हें करील का साम्राज्य ही सब ओर दिखलाई पड़ता है, यह विपरीत दृष्टि का ही फल है, चाहे यह विपरीत दृष्टि किसी कारण विशेष से ही क्यों न हो। एक हिन्दी का हिन्दी के साथ यह व्यवहार कहाँ तक संगत है, इसको समय ही बतलाएगा। मेरा तो विचार है कि 'सत्यमेव जयते नानृतम्', जीत सत्य की ही होगी, असत्य की नहीं। हिन्दी सेवी के उदात्ता करों में सदा की विजयी वैजयंती है, कोई दिन होगा कि उसके तले समस्त हिन्द निवासी एकत्रिात हाेंगे, स्वाभाविक जल - प्रवाह, सहज वायु संचार और लोक आलोकित कर आलोक से कोई कब तक मुख मोड़ेगा?
मुसलमान जाति का हिन्दी पर कितना प्र्रेम था और हिन्दी की समुन्नति में उनका कितना हाथ है, इसी बात के प्रकट करने के लिए यह ग्रन्थ संकलित हुआ है, साथ ही हिन्दी प्रेमिकों का मनोरंजन भी। संकलनकार ने ग्रन्थ के संकलन करने में परिश्रम किया है। अधिकांश हिन्दी मुसलमान कवियों की सुन्दर कविताएँ इस ग्रन्थ में संकलित हैं। उनमें आप उन ललित और सुन्दर रचनाओं को भी पावेंगे, जिनका उल्लेख मैंने जहाँ - तहाँ किया है। प्रत्येक कवि की प्राप्त जीवनी भी दी गयी है। कहीं - कहीं उसमें अच्छा विश्लेषण भी है। ग्रन्थ की भूमिका के लिखने में भी सहृदयता से काम लिया गया है। उसमें यत्रा - तत्रा मार्मिक नूतन और हृदयग्राहिणी बातें हैं। भूमिका मेें मौलिकता कम है, किन्तु संकलनकार की मधाु - प्रवृत्तिा प्रशंसनीय है। मैं इस ग्रन्थ का हिन्दी संसार में अभिनन्दन करता हूँ। आशा है हिन्दी संसार में इसका उचित आदर होगा। यदि मुसलमान सज्जनों की दृष्टि भी संग्रहकार के उद्देश्य की ओर समुचित आकर्षित हो गयी और उन्होंने उसका तत्तव समझा, तो मैं समझूँगा उनका श्रम सफल हुआ। अपनी मातृभाषा की सेवा का पुण्य तो उन्हें मिलेगा ही।
बनारस 27 - 4 - 26
हरिऔधा
(असंकलित)
' सरस सुमन' की भूमिका
अभिनन्दन
एक दिन एक सरस सुमन मेरे सामने आया, उसकी भीनी - भीनी महँक मनमोहक थी, उसमें सुमनता और सरसता भी मिली,मैं उत्फुल्ल हो गया। इस सरस सुमन के प्रस्तुत करनेवाले हिन्दी संसार के एक होनहार सुकवि हैं। आप कितने सरस हृदय हैं,आपका प्रकृति - निरीक्षण कितना भावमय है, आपकी कोई - कोई उक्ति कितनी मार्मिक है, उसमें कितना प्रवाह और कितनी स्वाभाविकता है, कितना प्रसाद गुण है, ग्रन्थ की कुछ लाइनें कितनी सजीव हैं, इस विषय में मैं कुछ न कहूँगा, मुझको कहने का अधिाकार नहीं, अपनी वस्तु किसे प्यारी नहीं होती। कविता कुसुमोद्यान दोष - कंटक - रहित नहीं होता, सरस सुमन की रक्षा के लिए कंटक - निर्माण में भी प्रकृति का कुछ कौशल है, अतएव मैं दोषों की भी चर्चा न करूँगा। मैं तो केवल हिन्दी साहित्य क्षेत्रा में प्रिय ग्रन्थकार का अभिनन्दन मात्रा करूँगा और आदिम उद्योग में ही उन्हाेंने जितनी सफलता लाभ की है,उसके लिए धान्यवाद दूँगा। साथ ही यह कामना भी करूँगा कि उनकी प्रतिभा पूर्ण विकसित हो, उक्ति और अधिाक सुन्दर और सरस हो, वह प्रकृति निरीक्षण में और अधिाक पटुता प्राप्त करें और यदि सम्भव हो तो हिन्दी संसार में उस कीर्ति के अर्जन करने की चेष्टा करें, जिसको अंगरेजी साहित्य में वर्ड्सवर्थ ने लाभ किया है।
- हरिऔधा
(असंकलित)
धारतीमाता
कोई दिन था, जब धारती पर पानी ही पानी था। न कहीं हरे - भरे पेड़ थे, न फूलों की क्यारियाँ, न हँसती हुई बेलियाँ, न लहलहाती हुई लताएँ। न तो कहीं बन था, न बनों में बसनेवाले जानवर। न कहीं कोई खेत था, न कहीं खेतों के पौधो। ऊँचे - ऊँचे घरों की बात ही क्या, कहीं कोई टट्टी भी नहीं दिखलाती। न तो कहीं कोई चिड़ियाँ चहकती मिलती; न कहीं भौंरे भाँवरें भरते पाए जाते। चारों ओर सन्नाटा था, हाँ, कभी - कभी हवा अपनी हवा बाँधा जाती, कभी सन - सन बहती, कभी पानी की लहरों के साथ खेलती। सूरज उगता था, उसकी किरणें उजाला फैलाती थीं, पानी की लहरों में जगमगाती थीं, और कभी - कभी उनके साथ थिरकने लगती थीं। रात होती थी, चाँद भी निकलता था, चाँदनी भी छिटकती थी। तारे भी अपनी समाँ दिखलाते थे, और नीले आसमान की गोद में बैठे हुए किसी ओर ताकते - झाँकते जान पड़ते थे। लाखों बरस तक धारती का यही ठाट था। फिर रंग बदला। अथाह पानी में भी कहीं - कहीं पहाड़ाें की ऊँची - ऊँची चोटियाँ दिखलाने लगीं, बहुत बरसों के बाद पूरा पहाड़ ही सर उठाए सामने खड़ा पाया गया। जहाँ पोरसों पानी था, वहाँ भी कहीं - कहीं सूखे टीले दिखलाई देने लगे, पहले एक टापू बना, फिर टापुओं की भरमार हो गई। इसी तरह धारती के बहुत - से बडे - बडे टुकडे भी सूखकर समाने आए,जिनके अलग - अलग नाम पडे अौर जो 'देश' कहलाए।
सूखी धारती पर बहुत दिनों क्या, बहुत बरसों के बाद पहले हरी - भरी दूब दिखलाई पड़ी, फिर तरह - तरह के तृण सर उठाकर उसे सजाने लगे। बाद को पेड़ों की बारी आई। जहाँ - तहाँ रंग - बिरंग के पेड़ खडे, कहीं हरे - भरे पत्ताों से हरियाली की छटा दिखलाते, कहीं धारती पर फूल बरसा फूले नहीं समाते, कहीं फूलों से लदकर झूमते पाए जाते। बनी - ठनी बेलियों और लतरों की भी कमी नहीं थी, उनसे भी धारती भर गयी थी। इस समय वनों की बन आयी थी, सूखी धारती पर अब उन्हीं का राज था। पानी में जीवों की कमी नहीं थी; पर सूखी धरती पर अब तक कहीं कोई जीव नहीं दिखलाता था। कभी - कभी कछुआ अलबत्ताा पानी से निकलकर धरती पर आ जाता था। पर धारती पर और कहीं किसी जीव की सूरत नहीं दिखलाती थी। बहुत काल के बाद एक दिन ऐसा आया, जब सूखी धारती पर भी जीव दिखाई पडे। वनों में रेंगते और फुदकते बहुत - से जीव - जन्तु पाए गए; पेड़ों की डालियों पर भी चहचहे होने लगे। धाीरे - धाीरे ये बातें बढ़ती गयीं। उड़नेवाले पखेरुओं से जब पेड़ों की डालियाँ गूँजीं, तो जंगली जीव - जन्तुओं से जंगल भी भर गए। आदमी की सूरत कब सामने आयी,यह नहीं कहा जा सकता। जहाँ गिनती लाख - लाख बरसों पर होती है, वहाँ का हिसाब ही क्या। कुछ लोग कहते हैं, आदमी की नस्ल का नाता बन्दरों की नस्ल से है। एक साथ रहते - रहते जंगली जानवरों के रूप - रंग, शकल - सूरत, चाल - ढाल में अदल - बदल होते - होते एक नस्ल बन्दरों की बन गयी। कहा जाता है, इन्हीं बन्दरों में से एक तरह के बन्दर से आदमी की नस्ल का नाता है। आदमी भी पहले जंगलों में ही रहता था; बहुत समय के बाद वह घरबारी बना। इस समय वह जिस दशा में है, उसे उसने बहुत उलट - फेर के बाद हजारों बरसों में पाया है।
कुछ बडे लोग कहते हैं, मनुष्य मनु से पैदा हुआ है, यह बात मनुष्य अथवा मनुज शब्द ही बतलाता है। मुसलमान भी यही कहते हैं। वे कहते हैं, आदम से पैदा होने के सबब से ही आदमी आदमी कहलाता है। संस्कृत का आदिम शब्द ही आदम बन गया है, जो इस बात को ठीक बतलाता है कि सबसे पहले मनु हुए और उन्हीं की सन्तान मनुष्य हैं। जो हो, पर इस समय जैसे लोग हैं, पहले के लोग वैसे नहीं थे। बहुत उलट - फेर के बाद अब के लोग अबके लोग बने हैं। समय के पलटा खाने और काम - काज के झमेलों से लोगों का रंग - ढंग बदलता गया है, और रहन - सहन और की और होती गयी है। जब जंगली जानवराें से लोग तंग होने लगे, बरसात के झगड़ों से बचने को जी चाहा, सामानों की रक्षा का विचार हुआ, तो पहले झोंपड़े बने, फिर घर, फिर बडे - बडे मकान। जब बहुत लोगाें के इकट्ठा रहने से उलझनें पैदा हुईं तो कुटुम्ब की नींव पड़ी। आपस के झगड़ों के निबटारा के लिए पंचायत बनी।
मतलब यह कि इस समय के लोग उनकी रहन - सहन, उनका आपस का बर्ताव, ठाट - बाट, रंग - रूप, व्यवहार, काम - धान्धो, राजकाज आदि जो कुछ हैं, उन सबकी जड़ आवश्यकता (जरूरत) है। पहले धारती के ऊपर जो सामान मिलता, उन्हीं से काम लिया जाता था। धारती के नीचे की खानों का लोगों को कुछ पता न था; इसलिए लोहे का काम पत्थर से लिया जाता था। यही सबब है कि इस युग को 'पत्थर - युग' कहा जाता है।
इन दिनों हम आसमान में उड़ते हैं, महीनों का रास्ता घण्टों में तय करते हैं। तार से हजारों कोस की बात घर बैठे सुनते हैं, वह भी मिनटों में, घण्टों से नहीं। ऐसी ही और बहुत - सी अचरज में डालनेवाली बातें कलों के सहारे करते रहते हैं। ये सब क्या है? समय और आवश्यकताओं की करतूतें तो हैं! माता का गुण क्या है, यही कि वह सन्तानों के रंग में ही रँगी पायी जाती है। समय पर जिस ढंग में वे ढलते हैं, जो चाहते हैं, माता भी उसी ढंग में ढल उनकी चाहों को पूरा करती रहती है। उनके सुख - दु:ख का विचार रखती है, उनके सुभीते की बातें सोचती है। अब तक जो कुछ कहा गया है, उससे पाया जाता है कि धारती भी ऐसी ही है। सूरज से जन्म लेकर पहले वह बहुत गर्म थी, उस समय उसपर पानी ही पानी था। जब ठण्डी हुई तब सुभीते के साथ जहाँ - तहाँ सूखी धारती के रूप में दिखलाई पड़ी। फिर किस तरह समय के साथ वह रंग बदलती गयी, ये बातें बतलायी जा चुकी हैं। इन बातों का विचार करके ही धारती को 'माता' कहा गया है। वह सचमुच माता है। वह जितनी बड़ी है, उसकी बड़ाई भी उतनी बड़ी है। बोलिए - 'धारतीमाता की जय। '
(सन्दर्भ - सर्वस्व)
पति - सेवा
सेवा भक्ति की परम प्रिय पुत्राी है। यह हर्ष और गौरव की बात है कि उसका देश में प्रचुर प्रचार हो रहा है। आज दिन सब ओर देश - सेवा, जाति - सेवा, समाज - सेवा आदि की धूम है। किन्तु, न जाने क्यों, पति - सेवा अच्छी दृष्टि से नहीं देखी जाती, उसे सपत्नी समझा जाता है। शायद दासी कहलाने का भाव मड़राता रहता है। जिसकी दृष्टि में साम्यवाद बसा है, वह दासी बनना कब पसन्द करेगी। किन्तु यह भ्रम है, सेवा साम्यवाद की सहचरी है। जिसको उच्चता का अभिमान है, वही किसी को नीच समझकर उसकी सेवा करना पसन्द न करेगा। जब सभी समान हैं, तो किसी को किसी की सेवा करने में संकोच क्या?स्त्राी - पुरुष तो समान ही नहीं, और कुछ भी हैं, वे औरों की अपेक्षा अधिाक समान हैं, फिर परस्पर एक - दूसरे की सेवा करने में संकोच क्या? क्या पुरुष स्त्राी की सेवा नहीं करते? माँ, बहिन, बेटी की बात जाने दीजिये, मैंने पुरुषों को महीनों रात - रात भर जागकर अपनी अध्र्दांगिनी की सेवा करते देखा है। क्या इससे वे उसके दास हो गए? नहीं, वरन् उन्हाेंने अपना बहुत बड़ार् कत्ताव्य - पालन किया; क्योंकि अन्यों से स्त्राी का अपने पुरुष पर अधिाक दावा है। फिर स्त्राी को पुरुष की सेवा करने का क्या विरोधा? यह तो उसका धार्म है। स्त्राी - पुरुष परस्पर इतने बँधो हुए हैं कि एक को दूसरे की आवश्यकता पूरी करनी ही होगी, इसमें दम्भ कैसा? भगवान मनु कहते हैं -
सन्तुष्टो भार्यया भर्ता भर्ता भार्या तथैव च।
यस्मिन्नैव कुले नित्यं कल्याणं तत्रा वै धाु्रवम्।
जिस कुल में स्त्राी से पुरुष प्रसन्न रहता है और पुरुष से स्त्राी, उसका अवश्य कल्याण होता है।
सेवा - भाव आर्य - संस्कृति का एक अंग है। इसीलिए चाहे रामायण - महाभारत में देखिए, चाहे पुराण - उपपुराण में,पति की सेवा करना स्त्राी का धार्म बतलाया गया है। कारण इसका यह है कि सेवा - प्रवृत्तिा स्त्रिायों में स्वाभाविक होती है। वह उदारहृदया, कोमलमना और दयाशीला होती है। दूसरे का दु:ख देखकर द्रवीभूत होना उनका प्रधाान गुण है। उनमें सहनशीलता भी अधिक होती है; सेवा के लिए यह गुण अधिाकतर अपेक्षित है। जिसमें कष्ट - सहिष्णुता नहीं, वह स्थिर चित्ता से सेवा भाव परायण नहीं हो सकता। सन्तान को दस मास गर्भ में धाारण करके उसे जन्म देना और आत्मोत्सर्ग कर चिर काल तक तन्मयता से उसकी सेवा करना माता का ही काम है, और इसीलिए मनु के कथनानुसार सहòं तु पितृन्माता गौरवेणातिरिच्यते', माता पिता से गौरव में सहò गुण अधिाक है। यदि माताओं में यह अलौकिक सेवा - भाव न होता, तो धारातल आज सन्तानशून्य होता। पशु - पक्षियों तक में यह भाव इतना ही प्रबल होता है कि देखकर आश्चर्य होता है। रण में जिस समय पुरुष जाति शस्त्रा - संचालन में उन्मत्ता दिखलाई देती है, उस समय धाीर भाव ये महिलाएँ (नसर्ें) घायलों और रोगियों की परिचर्या में निरत रहती हैं। जिसके सेवा - भाव का प्रवाह इतना सबल है, पतिदेव की सेवा की सच्ची अधिाकारिण्ाी वही है, शास्त्राों की आज्ञा का मर्म यही है। क्याेंकि, पति की हितकारिणी संसार में पत्नी के समान कौन है? विपत्तिा में, कष्ट में, दुखों के अन्य अवसरों पर पति की सेवा जिस लगन और तन्मयता से पत्नी कर सकती है, अन्य नहीं। प्रत्येक कार्य के लिए योग्य अधिाकारी ही अपेक्षित होता है। शास्त्रा इस सिध्दान्त की उपेक्षा कैसे करता? सदा से सेवा का भार उसी पर पड़ता आया है, जो समीपी होता है। अध्र्दांगिनी - पत्नी से बढ़कर समीपी संसार में दूसरा कौन है? फिर पति - सेवा यदि उसकार् कत्ताव्य न कहा जावे तो किसका कहा जावे?
गोस्वामी तुलसीदासजी की रामायण पवित्रा आर्य - संस्कृतियों और महान आदर्शों का भाण्डार है। श्रीमती जनकनन्दिनी सती - साधवी स्त्रिायों की शिरोमणि हैं। उनके विषय में गोस्वामीजी एक स्थान पर लिखते हैं -
पति अनुकूल सदा रह सीता। सोभा खानि सुसील विनीता।
यद्यपि गृह सेवक सेवकिनी। विपुल सकल सेवा विधिा गुनी।
निज कर गृह परिचरचा करहीं। रामचन्द्र आयसु अनुसरहीं।
'पति अनुकूल सदा रह सीता' इस पद्य में 'सदा' का प्रयोग बड़ा ही मार्मिक है। किसी अवस्था में श्रीमती जनकनन्दिनी पति - प्रतिकूलाचरण नहीं करतीं, यह इसका भाव है। यौवन बड़ा प्रमादी है। गृह के झमेले, आत्मपरायणता, अहंभाव, कभी - कभी ऐसे काण्ड उपस्थित कर देते हैं जिनसे प्राय: पति - पत्नी में मनोमालिन्य हो जाता है और कई दिन तक चलता रहता है,आपस में बातचीत तक बन्द हो जाती है। ऐसी अवस्था में प्रतिकूलाचरण स्वाभाविक है, चाहे वह साधाारण ही हो। महारानी विक्टोरिया की पतिपरायणता, सरलता और विनयशीलता विश्व - विदित है। वह एक साधाु - स्वभाव महिला थीं। एक दिन यौवन के उमंग में अपने परम प्रिय पति प्रिन्स अलबर्ट के साथ बात ही बात में वे ऐसा व्यवहार कर बैठीं कि वे रुष्ट हो गये और दूसरे कमरे में जाकर उसके किवाड़ लगा लिये। थोड़ी ही देर में पति - प्राणा को यह बात खटकी। वे अपने स्थान से उठीं और किवाड़ों को सविनय खुलवाकर पतिदेव को मना लिया। जो कुछ उन्होंने किया, इससे उनकी विशाल हृदयता सूचित है;किन्तु यौवन - प्रमाद की झलक उसमें मौजूद है। कहा जा सकता है, ये चढ़ती जावनी के रंग - रहस्य और चोचले हैं, इनको प्रतिकूल आचरण नहीं कह सकते। किन्तु, यह विचार ठीक नहीं। अनबन की जड़ प्रतिकूलाचरण है, चाहे वह कितनी ही थोड़ी मात्राा में क्यों न हो। गोस्वामीजी का 'सदा' शब्द इसी भाव का सूचक है। श्रीमती जानकी देवी इतनी साधवी थीं कि ऐसी नौबत कभी आती ही न थी।
'सोभा खानि सुसील विनीता', इस पद्य में 'सोभा खानि' का प्रयोग मार्के का है। नीति - ग्रन्थों में लिखा है, 'भार्या रूपवती शत्राु', क्यों? इसलिए कि वह गर्ववती होती है, उसमें ऐंठ बहुत होती है, उसकी नाजबरदारी करते - करते पतिदेव का नाकों - दम रहता है। जब वह कितनों को अपनी ओर लालायित ऑंखाें से अवलोकन करते देखती हैं तो उसका मिजाज चढ़ जाता है। इसलिए रूपवर्ती भार्या को शत्राु कहा गया है। श्रीमती जनकनन्दिनी स्वयं श्री हैं, इसलिए उनकी शोभा का क्या कहना। किन्तु, 'सोभा खानि' होकर भी वे सुशील और विनीत थीं। यह बात इसी से प्रमाणित होती है कि वे सदा पति के अनुकूल रहती थीं। जो पति - प्राणा है, वह सुशीला और विनय - नम्र क्यों न होगी? जो समझती है 'वाही के सुहाग से सुहागिनी भई हौं बीर वाही रूपवारे रूप ही ते भई रूप सी' उसमें कैसी ऐंठ? कैसा रूप - गर्व और कैसा मिजाज? जिसकी यह अवस्था है कि 'रूप सुधाा अकली ही पियै पियहूँ को न आरसी देखन देति है' वह नाजबरदारी की भूखी क्यों न होगी? और क्यों न चाहेगी कि मैं अपने प्यारे का कौन प्रिय करूँ, क्यों न उन्हें अपनी ऑंखों का तारा बनाकर रखूँ।
इसके उपरान्त गोस्वामीजी लिखते हैं - ''यद्यपि सकल सेवा - विधिा में दक्ष घेर में अनेक दास - दासियाँ हैं, फिर भी सीता देवी अपने हाथ से घर की सेवा - टहल करती और पति के आज्ञानुसार चलती रहती हैं। '' कौन सीता देवी? जो शोभाखानि हैं, चक्रवर्ती की पुत्रा - वधाू हैं और मिथिलाधिापति की प्रिय पुत्राी। उनकी इस गृहिणीवर्ग की महत्ताा को प्रथम के दो चरणों में कितना चमका दिया है, उसका विचार सहृदयजन भली - भाँति कर सकते हैं। आज पति - सेवा के साथ गृह - सेवा से भी नाक - भौं चढ़ाई जा रही है, उसका भी बॉयकाट किया जा रहा है। क्यों? इसलिए, कि जब पति - सेवा ही इष्ट नहीं, तो गृह - सेवा के जंजाल में कौन पडे? क़ौन आग के सामने बैठकर अपने रूप पर ऑंच आने दे? कौन धाुएँ में बैठकर अपनी ऑंखें फोडे? क़ौन फूल - से कोमल हाथों से गर्म - गर्म बर्तनों को पकडे? क़ौन चौके में बैठे? कौन तहदार साड़ियों को मैली होने दे? ये सब काम तो लौंड़ियों के हैं, गृह - स्वामिनी के नहीं। रसोई अच्छी न बने, बला से न बने, पतिदेव आधो पेट खाकर उठ आवें तो उठ आवें, घरवाले मुँह फुलावें तो फुलावें उनको सैर - सपाटे, क्लबों से छुट्टी कहाँ, जो वे इन पचड़ों में पडें। यह पाश्चात्य शिक्षा - दीक्षा का प्रभाव है। इससे समाज में रोमांचकर असुविधााएँ फैल रही हैं। थोड़ी पूँजीवालों का तो नाकोंदम है। परन्तु अभी ऑंखें ठीक - ठीक नहीं खुलीं। पतन पर पतन होता जा रहा है। हिन्दू - आदर्श से ही हिन्दू जाति का भला हो सकता है। भगवती विदेह - नन्दिनी ही हमारी कुल - ललना का आदर्श हो सकती हैं, अन्य नहीं। शास्त्राों की कुछ आज्ञाएँ भी देखिए -
सदा प्रदुष्टयाभाव्यं गृह कार्येषु दक्षया।
सुसंस्कृतोपस्करया व्यये चामुक्त हस्तया।
- मनु
भोजने च रुचितमिदमस्मै द्वेष्यमिदम् पथ्यम् इदम् इति चविन्धयात्।
स्वरम्वहिरुपश्रुत्य भवनमागच्छत: किम्
कृत्यमितिव्रुवती सज्जा भवन मधये तिष्ठेत् ,
' परिचारिकामपनुद्य स्वयम् पादौप्रक्षालयेत् '
' पश्चात् संवेशनम् पूर्वमुत्थान मनवोधानम् च सुप्तस्य।
- वात्स्यायन
'स्त्राी को चाहिए - सदा आनन्दित रहे, गृह - कार्य में दक्ष हो, तमाम सामानों को सँभालती एवं सुधाारती रहे और काम हाथ दबाकर करे। भोजन - पदार्थों में इसका विचार रखे कि किसको क्या रुचता है और किसके लिए क्या पथ्य और क्या अपथ्य है।
''घर आते हुए पति की आवाज बाहर सुनकर सज्जा - भवन में आकर खड़ी हो जावे और कृत्य के विषय में उसकी आज्ञा ले। '
'परिचारिकाओं अर्थात् दासियों को हटाकर स्वयम् उसका पाँव धाोवे। '
'पीछे सोना और पहले उठना चाहिए, जो पति आराम में हो तो जगाने की चेष्टा न करे। '
सम्भव है कि इन पंक्तियों को पढ़कर यह समझा जावे कि इनमें दासीकरण की ही कला है; किन्तु वास्तव में ऐसा नहीं है। जिससे अहंभाव के अन्धाकार में मानवता - कौमुदी का विकास हो, अलसप्रकृति, कटु स्वभाव, उच्छृंखल मनोवृत्तिा का नियमन हो, इनमें इसी प्रकार की मधाुर शिक्षा है। आजकल उद्दाम प्रवृत्तिा को अच्छा समझा जाता है, मानवता से अहमहमिका अधिाक पसन्द की जाती है, आत्मप्रतारण को आत्म - गौरव कहा जाता है, और मानसिक दुर्बलता को महत्ताा। किन्तु, दुर्गुण दुर्गुण है और गुण गुण। दुर्गुण गुण कदापि नहीं हो सकता। मोहममता की रात्रिा व्यतीत होने पर सूर्य का उदय होता है। उस समय मानवता की किरणें ही फूटती दिखलाती हैं।
एक दिन एक सज्जन के साथ मैं उनके मकान पर गया। दिन मेले का था। अपने साथ शेषशायी भगवान का एक चित्रा वे लेते गये थे। जिस समय हमलोग बैठे, उनकी श्रीमती सामने आयीं। उन्होंने चित्रा उन्हें दे दिया। उसे उन्होंने एक बार देखा,भौहें टेढ़ी की, और टुकडे - टुकडे क़रके फेंक दिया। पतिदेव ने कहा - हैं हैं, यह क्या!
उन्होंने कहा - यह चित्रा यही दिखलाने को न आये हो कि लक्ष्मी बैठी विष्णु भगवान का पाँव मल रही हैं। मैं ऐसा आदर्श पसन्द नहीं करती। स्त्रिायाँ पुरुषों की दासी नहीं हैं। मैं ऐसी तसवीरों को फाड़कर फेंक देना ही अच्छा समझती हूँ। यह कहकर श्रीमती भीतर चली गयीं और वे मेरा मुँह देखने लगे। आजकल ऐसी प्रवृत्तिा प्रबल हो रही है और हमारे समाज में हलचल मचा रही है।
ऐसी प्रवृत्तिा स्त्राी की ही नहीं; पुरुष भी प्राय: कहा करते हैं कि हिन्दू - ग्रन्थों में स्त्रिायों को उच्च स्थान दिया ही नहीं गया, वे प्राय: दासी ही समझी गयी हैं। किन्तु, ऐसा कहना बहुत बड़ा अज्ञान है। विचार की संकीर्णता ही इस अज्ञान का कारण है। यदि जिज्ञासा - दृष्टि से हिन्दू - ग्रन्थों का अधययन किया गया होता तो ऐसी अनर्गल बात कदापि न कही जाती। मैं कुछ प्रमाण दूँगा -
अर्धां भार्या मनुष्यस्य भार्या श्रेष्ठतम: सखा।
भार्या मूलत्रिावर्गस्य भार्या मूलंतरिष्यत:। 1 ।
सखाय: प्रविविक्तेषु भवंत्येदाप्रियम्वदा।
पितरो धार्म कार्येषु भवंत्येदार्तस्यमातर:। 2 ।
कान्तारेष्वपि विश्रामो जनस्याधवनिकस्य वै।
य: सदार: सविश्वास्यस्तस्मात् दारापरागति:। 3 ।
आत्मात्म नैवजनित: पुत्रा इत्युच्यतेबुधौ:।
तस्मात् भार्याम् नर:पश्येन्मातृवत्पुत्रा मातरम्। 4 ।
- महाभारत
यत्रानार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्रा देवता।
- मनु
दाम्पत्येर्व्युत्क्रमे दोष: सम: शास्त्रो प्रकीर्तित:।
नरान् तमवेक्षन्ते तेनात्रा वरमंगना। 5 ।
- वराहमिहिर
भार्या मनुष्य का आधाा शरीर और श्रेष्ठतम सखा है। भार्या अर्थ, धार्म और काम का मूल है। प्रियम्वदा भार्या असहाय की सहाय, धार्म - कार्य में पिता - स्वरूप, आर्त व्यक्ति की जननी और संसार - पथ - पथिकों का विश्रामस्थल है। भार्यावान व्यक्ति ही सबका विश्वासभाजन बनता है, इसलिए भार्या ही परागति है। पति की आत्मा ही पत्नी के गर्भ में प्रविष्ट होकर पुत्रा - रूप से जनमता है; इसलिए भार्या माता - समान मानी जाती है। जहाँ स्त्रिायों की पूजा होती है, वहाँ देवतों का निवास होता है। शास्त्राों ने दाम्पत्य धार्म तोड़ने को दोष माना है। पुरुष इसकी परवा नहीं करते, इसलिए स्त्रिायाँ ही श्रेष्ठ हैं।
कविता - विभूति - सम्पन्न भवभूति की बातें भी सुन लीजिये। 'उत्तार रामचरित' में भगवान रामचन्द्र के मुख से एक स्थान पर वे यह कहलाते हैं -
इयं गेहे लक्ष्मीरियममृतवतिर्नयनयो।
रसावस्या: स्पर्शोवपुषिबहुलश्चन्दन रस:।
अयं बाहु: कण्ठे शिशिरमसृणो भौक्तिकसर:।
किमस्या न प्रेमो यदि परम सह्यस्तु विरह:।
'यह मेरे घर की लक्ष्मी है, ऑंखों की अमृत - शलाका है, इसका स्पर्श शरीर के लिए गाढ़ा चन्दन - रस है, इसकी भुजा मेरे गले में मोतियों की माला की भाँति शीतल और सुखद है, वियोगजनित दुख को छोड़कर मुझे सीता की कौन बात प्यारी नहीं!'
एक दूसरे स्थान पर उनकी लेखनी ने यों रस - वर्षण किया है -
त्वं जीवितं त्वमसि मे हृदयं द्वितीयं
त्वं कौमुदी नयनयोरमृतं त्वमंगे।
'तुम मेरा जीवन हो, मेरा द्वितीय हृदय हो, मेरी ऑंखों के लिए चन्द्रमा की चाँदनी और शरीर के लिए अमृत - रस हो। '
इन कतिपय पंक्तियों में स्त्राी - जाति की महत्ताा के विषय में जो कहा गया है, उससे अधिाक क्या कहा जा सकता है। शास्त्रा उदार और तत्तवग्राही हैं। उनकी अनुभूति महान् और अत्यन्त समीचीन है। उनकी दृष्टि एकदेशी नहीं, व्यापक और उदात्ता है। यह दूसरी बात है कि कोई मणि को काँच समझे। स्त्राी और पुरुष दोनों के लिए उचित शिक्षाएँ उनमें मौजूद हैं। संसार को उन्होंने गम्भीर दृष्टि से देखा है और चिरकाल तक उसके विषयों को मनन किया है; इसलिए वास्तव में उनका कथन भव - भेषज है। वह किसी को कड़वी मालूम हो; किन्तु है वह मानसरोग की अमोघ चिकित्सा। दाम्पत्य धार्म उत्तारदायित्वपूर्ण है,थोड़ी असावधाानी से वह विषमय हो सकता है। तपोवन से गृहक्षेत्रा में अधिाक इन्द्रिय - निग्रह और साधाना की आवश्यकता है। वहाँ इतने विघ्न सामने नहीं आते, जितने यहाँ। पुरुष - जाति से स्त्राी - जाति पर उसका उत्तारदायित्व अधिाक है;क्योंकि गृहिणी और गृहलक्ष्मी वही है। गृह के भाण्डार पर उसी का अधिाकार होता है; इसलिए अन्नपूर्णा भी उसी को कहते हैं। यदि वह यह नहीं समझ सकती है कि मैं क्या हूँ, यदि उसका आत्मज्ञान अपूर्ण है तो वह संसारक्षेत्रा में असफल रहेगी और उस एक के कारण स्वर्ग - समान गृह नरक बन जावेगा। जैसे अन्न - वस्त्रा की सुव्यवस्था करना कर्तव्य है उसी प्रकार कष्ट के समय उचित सेवा करना भी कर्तव्य है।र् आत्ता और पीड़ित की सेवा कर जो आत्मप्रसाद लाभ होता है, वह बड़ा ही उदात्ता होता है, क्योंकि उसमें मानवता की झलक विशेष होती है। मैंने देखा है कि चोट लग जाने पर, मर्ूच्छित हो जाने पर बडे प्रतिष्ठित लोग भी साधाारण जन की सेवा करने लगते हैं। इससे उनकी प्रतिष्ठा अधिाक होती है, कम नहीं। पति परिश्रान्त है और पत्नी ने पंखा झल दिया तो उसने शिष्टता ही की, आत्मीयता का ही परिचय दिया, इसमें उसकी लघुता क्या हुई? यदि पति पीड़ित है, रुग्ण है, कष्ट में है तो उसकी सेवा करना क्या पत्नी का धार्म नहीं है? यदि नहीं है, तो उसमें सहानुभूति कहाँ,ममता कहाँ, स्नेह कहाँ? ऐसी पत्नी पत्नी नहीं है, वह कुछ और है वह स्वार्थमयी है, प्रेममयी मानवी नहीं। वह लोक - निन्दा का पात्रा तो बनती ही है, साथ ही संसार में उपेक्षित भी होती है। आज भी घर - घर ऐसी कुल - ललनाएँ हैं, जो पति के कष्ट को देखकर व्यथित हो जाती हैं और रात - दिन उनकी सेवा करके भी तृप्त नहीं होतीं। सच्ची बात तो यह है कि यदि वे ऐसा न करें तो उनका मन ही नहीं मानता। वे भूख - प्यास भूल जाती हैं, तन की सुधा भूल जाती हैं, पर पति की सेवा को नहीं भूलतीं, उनको थोड़ी देर के लिए भी पति की चारपाई के पास से हटना गवारा नहीं होता। मुँह बनाकर कहा जा सकता है, वे निन्दनीय दासी हैं। परन्तु वे सच्ची देवी हैं; क्योंकि दिव्य गुण उन्हीें में है।
पति - सेवा का यह अर्थ नहीं कि दबकर उसका पाँव दबाया जावे, मूठी में रखने के लिए उसका तलवा सहलाया जावे,मतलब गाँठने के लिए दबी बिल्ली का स्वाँग लाया जावे। यद्यपि ऐसा बहुत किया जाता है; किन्तु इनमें स्वार्थ की गन्धा है। अतएव ये विडम्बनाएँ हैं, सच्ची पति - सेवा नहीं। हृदय के सच्चे भाव से, बिना किसी कामना के पति - हित में रत रहना,दुख में उस पर उत्सर्ग होना, उसके जीवन को आनन्दमय और उसके संसार को सुखमय बनाना ही सच्ची पति - सेवा है। स्मरण रहे, बाह्य सौन्दर्य से हृदय - सौन्दर्य ही उत्ताम होता है।
(सन्दर्भ - सर्वस्व)
सन्दर्भ - सर्वस्व
भूमिका
इस ग्रन्थ का नाम 'सन्दर्भ - सर्वस्व' है। बंगभाषा के प्रसिध्द कोष 'प्रकृतिवाद अभिधाान' में सन्दर्भ शब्द का अर्थ निम्नलिखित है -
''सन्दर्भ - संज्ञा, पुल्लिंग - प्रबन्धा, परस्परान्वित रचना, ग्रन्थ, संग्रह, विस्तार - शिष्ट प्रयोग -
'' गूढार्थस्य प्रकाशश्च सारोक्ति: श्रेष्ठता तथा
नानार्थवत्वम् वेदत्वम् सन्दर्भ: कथ्यते बुधौ:। ''
जिसमें गूढ़ार्थ का प्रकाशन हो, सारोक्ति की श्रेष्ठता हो, नानार्थवत्ताा का वेदत्व हो, बुधाजनों ने उसको ही सन्दर्भ कहा है।
सन्दर्भ की व्याख्या अत्यन्त विमुग्धाकरी है, उसमें आकर्षण है और है समीचीनता। अतएव किसी लेख लिखने के समय अथवा किसी विषय के निरूपण के अवसर पर मेरे विचारों का आधाार अथवा अवलम्ब प्राय: वही रहा है। उसी के सिध्दान्तों को सर्वस्व मानकर ही मैंने प्राय: लेखनी की परिचालना की है, इसीलिए ग्रन्थ का नाम मैंने 'सन्दर्भ - सर्वस्व' रखा है। कहा जा सकता है, यह दम्भ है, यह साधाारण प्रसून को पारिजात बनाने की चेष्टा है। किन्तु मेरा यह सविनय - निवेदन है कि मैंने दाम्भिक बनकर अपना यह विचार नहीं प्रकट किया है। जो वस्तुत: है, उसको विद्वज्जन के समाने उपस्थित कर देना ही मैं उचित समझता हूँ, अन्यथा ऐसा दुस्साहस मैं न करता। कार्य्य - परायणता र्कत्ताव्य है; किन्तु सफलता - लाभ सर्वथा सम्भव नहीं। मैंने उद्देश्य -र् पूत्तिा की प्रबल चेष्टा की है, किन्तु कृतकार्य्य कहाँ तक हुआ हूँ, इसको साहित्य - मर्म्मज्ञ ही समझ सकते हैं। मैं साधाारण विद्या - बुध्दि का मनुष्य हूँ, मेरी बात ही क्या। विदग्धा की विदग्धाता भी कभी - कभी अपने उद्देश्यों और विचारों के यथातथ्य निरूपण में कृतकार्य्य नहीं होती, और असफलता उनके मार्ग में बाधाक होती है। अतएव इस विषय में अधिाक न लिखकर मैंने अपना विचार - मात्रा प्रकट किया है। विश्वास है, वह अनुपयुक्त न समझा जावेगा।
इस ग्रन्थ में जितने निबन्धा हैं, वे एक समय के लिखे हुए नहीं हैं। इनमें से कोई - कोई पचास वर्ष पहले के लिखे हुए हैं, और कोई - कोई आधाुनिक हैं, जिनके लिखने का समय चार - पाँच साल भी नहीं है। अधिाक लेख ऐसे हैं, जो पत्रा - पत्रिाकाओं के लिए माँग होने पर लिखे गये हैं, शेष ऐसे हैं, जो किसी सभा के सभापतित्वसूत्रा से लिपि - बध्द हुए हैं। समय परर्िवत्तानशील है, समय के साथ विचार भी बदलते रहते हैं। कुछ निबन्धाों में ऐसे विचार मिलेंगे, जोर् वत्तामान समय के अनुकूल नहीं कहे जा सकेंगे, और ऐसी अवस्था में यह कहा जा सकता है कि ऐसे लेख को प्रकाशित कराना ही नहीं चाहिए था;किन्तु वह लेख प्रकाशित इस विचार से कराया गया है कि उसको पढ़करर् कत्ताव्य का ज्ञान हो। पचास वर्ष के भीतर कुछ सुधाार अवश्य हुए हैं; परन्तु उच्छृंखलता और कदाचार ने भी हाथ - पाँव फैलाए हैं। मनमानापन भी रंग ला रहा है। समाज में खलबली अवश्य है, पर असावधाानी भी उसको स्वीकृत नहीं है। वह जो कुछ करता है, अपनी प्राचीन प्रणाली पर दृष्टि रखकर,र् वत्तामान जीवन से प्राचीन प्रणाली का मिलान कर। इन सब बातों पर दृष्टि रखकर ही कुछ ऐसे निबन्धा भी प्रकाशित कर दिए गये हैं, जो कुछ अंश में सामयिक न हों, पर उपयोगी अवश्य हैं। यथार्थ अनुभव उपकारक होता है, अपकारक नहीं। किन्तु ऐसे निबन्धा इने - गिने हैं, उनकी संख्या थोड़ी है। उनकी अधिाक बातें हितकारिणी हैं।
अन्य निबन्धा ऐसे हैं, जिनमें साहित्यिकता अधिाक है, ऐतिहासिक अथवा दर्शनिक, किंवा वैज्ञानिक विषय के निबन्धा नाममात्रा के हैं; परन्तु, यथाशक्ति सब निबन्धाों को उपयोगी बनाने का उद्योग किया गया है। सफलता मुझको कितनी मिली है, इस विषय में मुझको कुछ कहने की अधिाकार नहीं है। भाषा संस्कृतगर्भित अवश्य है; पर दो - एक निबन्धा की भाषा सरल हिन्दी है।
हिन्दी भाषा में प्राय: कुछ ऐसे शब्द आते हैं, जिनका उच्चारण विशेष रीति से होता है, ये शब्द अरबी और फारसी के हैं,ऐसे शब्दों के जिन अक्षरों का उच्चारण विशेष रीति से होता है, उसके विशेष रूप से उच्चारण करने के लिए उन अक्षरों के नीचे बिन्दी (बिन्दु) दे दी जाती है। इस क्रिया से एक तो इस बात का ज्ञान हो जाता है कि यह दूसरी भाषा का शब्द है, दूसरी बात यह होती है कि उसे विशेष रूप से उच्चारण करना पड़ता है। बोल - चाल के समय साधाारण जनता ऐसे शब्दों का उचारण हिन्दी शब्दों की तरह करती है। जिसने उर्दू या फारसी पढ़ी है, वह तो अवश्य उसका उच्चारण फारसी अथवा अरबी के विद्वानों के समान करेगा, अन्य हिन्दू ऐसा उच्चारण करने में असमर्थ होता है। शिक्षा के समय अवश्य ऐसे शब्दों का उच्चारण हिन्दी के विद्यार्थी को भी फारसी और अरबी के नियामानुसार कराया जाता है, इसलिए कोर्स की पुस्तकों में ऐेसे शब्दों के उस अक्षर के नीचे बिन्दी (बिन्दु) अवश्य लगी रहती है, जिनका उच्चारण फारसी अथवा अरबी के ढंग से होता है। परस्पर बातचीत के समय, पंजाब प्रान्त, युक्त प्रान्त, विहार और मधय हिन्द का शिक्षित समुदाय भी फारसी और अरबी के शब्दों का उच्चारण उसी भाषा के नियमानुसार करता है; परन्तु इनकी संख्या थोड़ी है। साधाारण जनता और संस्कृत भाषा आदि के विद्वान् जिनकी संख्या बहुत बड़ी है, इस नियम का पालन नहीं करते, कचहरी - दरबार में भी वे लोग इस विषय में स्वतन्त्रा पाए जाते हैं। इन सब बाता पर दृष्टि रखकर उक्त प्रान्तों के कुछ विशिष्ट विद्वानों और प्रसिध्द पुरुषों अथच प्रभावशाली सज्जनों का यह विचार कुछ समय से हो गया है कि अधिाक सम्मति का आदर किया जावे। बिन्दी के झगडे से यन्त्राालयों को भी अनेक असुविधााएँ होती हैं। विहार इस विषय में अग्रगण्य है, युक्त प्रान्त और मधय हिन्द 'इदम् कुत:' में पडे हैं; परन्तु वहाँ भी कुछ यन्त्राालयों ने स्वतन्त्राता ग्रहण कर ली है। ज्ञात होता है, अधिाक सम्मति सर्वमान्य होकर रहेगी।
'सन्दर्भ - सर्वस्व' का मुद्रण आधाुनिक प्रणाली से हुआ है। उसका अधिाकांशर् वत्तामानकालिक है। ग्रन्थ के कुछ पृष्ठों में बिन्दु या बिन्दी का प्रयोग किया गया है, किन्तु उनकी संख्या बहुत थोड़ी है। बिन्दी का प्रयोग अधिाकतर उर्दू के पद्यों में किया गया है, किन्तु जिस पद्य में बिन्दु का प्रयोग किया गया है, उसमें भी कुछ ऐसे शब्द छोड़ दिए गये हैं, जिनको सबिन्दु होना चाहिए था। इस क्रिया से यह ज्ञान होता है कि कम्पोजिटर ने जिसको उर्दू शब्द समझा, उसको सबिन्दु बनाया, शेष को छोड़ दिया। मैंने अपने लेख में समस्त सबिन्दु शब्दों को सबिन्दु ही लिखा है; परन्तु कम्पोज के समय उस पर दृष्टि न रखकर कम्पोजिटर ने अपनी इच्छा के अनुसार कार्य किया है। प्राय: ग्रन्थ छपने के समय कुछ कम्पोजिटर ऐसी मनमानी करते हैं,चाहे अपने अज्ञान के कारण अथवा किसी असुविधाा के कारण। ग्रन्थों में जो बिन्दुओं का व्यवहार है, उसमें न तो मेरा मत है, न प्रकाशक का हाथ है, जो कुछ है कम्पोजिटर साहब का कृत्य है, अज्ञान से अथवा असावधानी से। इसलिए विद्वज्जन से मेरी प्रार्थना है कि इस विषय में हमलोगों को क्षमा करेंगे। क्योंकि इस संस्करण में, इस प्रपंच में पड़ने से ग्रन्थ का यथासमय प्रकाशन न हो सकेगा, जो इस समय वांछनीय नहीं है।
अब तक जो कुछ लिखा जा चुका है, उसके अतिरिक्त ग्रन्थ में जो अन्य भ्रम - प्रमाद हों, विद्वज्जनों द्वारा उनकी सूचना मिलने पर दूसरे संस्करण में मैं उनके संशोधान का प्रयत्न करूँगा और सूचक महोदय की कृपा का अनुगृहीत भी हूँगा।
अयोधयासिंह उपाधयाय
' हरिऔधा '
हरिऔध भारतेंदु और द्विवेदी - युग की संधिा - वेला के रचनाकार थे। उन्हें 'कविसम्राट' कहा जाता था। वे हिन्दी की भाषिक और साहित्यिक परम्परा को गहराई से आत्मसात करते हुए निरंतर अपना विकास करते रहे। प्राचीनता और नवीनता, भावुकता और बौध्दिकता जैसे प्रश्नों के बीच उनकी दृष्टि हमेशा संतुलित बनी रही। उन्नीसवीं सदी के उत्तारार्ध्द यानी हिन्दी में आधुनिक युग की शुरूआत के साथ काव्य भाषा को लेकर तीक्ष्ण विवाद शुरू हुआ जो किसी न किसी रूप में स्वाधीनता प्राप्ति के आसपास तक चलता रहा। इसमें तीन तरह के लोग थे। एक ब्रजभाषा के अंधापक्षपाती थे तो दूसरे खड़ीबोली के। इनके बीच कुछ वैसे लोग भी थे जो इन दोनों के बीच एक संतुलित दृष्टिकोण को लेकर चलनेवाले थे। हरिऔध जी उन्हीं कुछ लोगों में थे। विवाद खड़ीबोली हिन्दी की काव्यभाषा के स्वरूप को लेकर भी था। संस्कृतनिष्ठ हिन्दी, ठेठ हिन्दी और बोलचाल की हिन्दी के विभिन्न रूपों के बीच विरोध देखने की जगह हरिऔधा जी इन विभिन्न रूपों से हिन्दी को समृध्द करने के पक्षपाती थे। अपने पक्ष को श्रेष्ठ रचनाओं के माध्यम से ही नहीं, आलोचना के द्वारा भी उन्होंने व्यवस्थित रूप में सामने रखा।
काव्यभाषा - सम्बन्धी उक्त विवादों के साथ 'कबीर वचनावली' के सम्पादन और उसकी लम्बी भूमिका के द्वारा कबीर सम्बन्धा पाठालोचन और अध्ययन को केंद्र में लाने का काम भी उन्होंने किया। ग्रंथावली के प्रस्तुत खंड के जरिए हमें न केवल हरिऔधा के आलोचक रूप का बल्कि बीसवीं सदी के पूर्वार्ध्द की हिन्दी जाति का प्रमुख चिंताओं - विवादों का भी जीवन्त परिचय मिलता है।