hindisamay head


अ+ अ-

आलोचना

चिंतन के विविध आयाम

सुशील कुमार शर्मा


चिंतन के विविध आयाम

ISBN 978-93-80363-63-9

प्रकाशक: मीनाक्षी प्रकाशन

प्रथम संस्करण : 2011

मूल्य : 200.00 रूपये

 

आत्मकथ्य

आंतरिक चुनौतियाँ बाह्य चुनौतियों से अधिक भयावह होती हैं। हिन्दी के निर्बाध विकास में यही चुनौतियाँ अधिक अवरोधक बनी हुई हैं। इन चुनौतियों की शून्यता ही हिन्दी का पथ प्रशस्त करते हुए उसे विश्व मंच तक ले जा सकती है। विश्व विजयी बनाने के लिए यह आवश्यक है कि हिन्दी की सर्वसम्मत ताजपोशी सबसे पहले अपने ही देश में हो। विश्व में हिन्दी की प्रगति का आकलन करने के पूर्व यह आवश्यक है कि हम अपने देश में हिन्दी की दशा और दिशा का आकलन करें। वैश्वीकरण की प्रक्रिया से आज समूचे देश साक्षात्कार कर रहे हैं। भारत इस विचारधारा से विशेष रूप से प्रभावित हुआ है। इस विचारधारा के पीछे 'सबै भूमि गोपाल की' और 'विश्व बंधुत्व' जैसा भारतीय आदर्श नहीं, अपितु अर्थ-व्यवस्था का प्रवाह और प्रभाव है।

वैश्वीकरण के साथ आर्थिक उदारीकरण ने अपने पंजों में भारतीय बाजार को जकड़ लिया है। बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ भारतीय बाजार में पैर पसार चुकी हैं। इसके परिणामस्वरूप हिन्दी के अस्तित्व पर ही खतरे के बादल मँडराने लगे हैं। आयातित प्रभाव के कारण हिन्दी का जो बाजारू रूप उभर रहा है, वह चिंता का विषय है। इस परिप्रेक्ष्य में पहले यह तय करना आवश्यक है कि हम विश्व मंच पर किस हिन्दी का अभिषेक करने की अभिलाषा रखते हैं- अंग्रेजी बहुल 'अंग्रेहिन्दी' अथवा विशुद्ध भारतीय हिन्दी? हिन्दी की वैश्विक स्थिति पर दृष्टिपात करने के पूर्व हमें अपने घर के कोनों में भी झाँकना होगा, जो हिन्दी की आभा के अभाव में अंधेरे की चादर ओढ़ेपड़े हैं। देश के हिन्दीतर राज्यों में हिन्दी अभी भी लंगड़ा रही है, उसे स्वस्थ और दौड़ने के योग्य बनाने के लिए पर्याप्त सर्जरी की आवश्यकता है। तभी यह घर की देहरी फलांग कर विश्व मंच की ओर दौड़ लगाएगी।

हिन्दी के अतिरिक्त चिंतन के अन्य आयाम भी हैं, जिन पर मस्तिष्क की तरंगें सहज ही तरंगायित हो उठती हैं। ये आयाम अत्यंत ज्वलंत हैं और देश का कोई भी सजग नागरिक इनसे मुँह नहीं मोड़ सकता। आतंकवाद, नक्सलवाद, अलगाववाद, साम्प्रदायिक तथा महिलाओं की स्थिति ऐसे ही अनेक बिन्दु हैं। प्रस्तुत कृति में इन पर भी अपनी मति और मतानुसार विचाराभिव्यक्ति प्रस्तुत की है। मैं अपने प्रयास में कहाँ तक सफल हुआ हूँ इसके मूल्यांकन का श्रेय केवल सुधि एवं विज्ञ पाठकों को ही है।

- डॉ. सुशील कुमार शर्मा

अनुक्रम

विश्व मंच पर हिन्दी 11

जनसंचार माध्यमों में हिन्दी 18

भाषाई मीडिया : हाशिये की आवाजें 25

कार्यालयी अनुवाद 32

हिन्दी-शिक्षण और विविध ज्ञानानुशासन 39

शिक्षा में भाषा : भूमंडलीकरण की चुनौतियाँ 46

भारत में दूरस्थ शिक्षा 53

पूर्वोत्तर भारत : भाषाई संसार 61

असम में हिन्दी 67

मेघालय में हिन्दी 72

मणिपुर में हिन्दी 77

पूर्वोत्तर भारत : स्वैच्छिक हिन्दी संस्थाएँ 83

पूर्वोत्तर भारत : हिन्दी का भविष्य 94

प्रयोजनमूलक हिन्दी और वैज्ञानिक लेखन 98

अरुणाचल का धार्मिक लोक-साहित्य 105

आतंकवाद 112

नक्सलवाद 118

पूर्वोत्तर भारत : अलगाववाद 124

पूर्वोत्तर भारत : जैव-विविधता 131

खनिज स्रोत और पर्यावरण 135

हिंदू-मुस्लिम एकता 140

कामकाजी महिलाएँ : समस्याएँ और निदान 146

संयुक्त परिवारों का विघटन और बच्चे 150

मालवी लोकगीतों में राष्ट्रीयता 155

 

विश्व मंच पर हिन्दी

जातीय विशेषताओं की संस्कृति और समृद्धि देखकर प्रसन्नता का अनुभव होना सहज और स्वाभाविक है। हिन्दी हिंदुस्तान की गौरवशाली भाषा है। भाषाई उत्थान की गति अत्यंत धीमी होती है, पर हिन्दी ने जिस तीव्र गति से भारत और भारत के बाहर अपने प्रभाव से विश्व समुदाय को आकृष्ट किया है, वह चमत्कार से कम नहीं है। जब विश्व के प्रसंग में हिन्दी की चर्चा की जाती है, तब इस तथ्य का कोई मूल्य नहीं रह जाता है कि हिन्दी का उद्भव कहाँ से हुआ और इसका विकास कैसे हुआ? ये तथ्य विकासशील हिन्दी के लिए अब इतिहास बन चुके हैं। करोड़ों भारतीयों की अभिव्यक्ति की सबल हिन्दी न सिर्फ देशों में अपितु विश्व में भी उसी तरह सफलता के सोपान बढ़ रही है, जैसे अन्य देशों में अंग्रेजी की अहिमयत बढ़ रही है।

हिन्दी के प्रसार में बाधक तत्त्व :

विश्व स्तर पर जब हिन्दी के प्रसार की बात की जाती है, तब इसकी पड़ताल आवश्यक हो जाती है कि वे कौन से खतरे हैं, जो इसके मार्ग में अवरोधक हैं? ये अवरोध कहाँ से हैं और इनका स्वरूप क्या है? स्पष्ट है, विश्व क्षितिज पर विकासशील हिन्दी के पथ में बाधा घर से होगी। इन बाधाओं की चर्चा किये बिना हम आगे बढ़ने का उपक्रम ही नहीं कर सकते। अन्य भारतीय भाषाओं को पीछे छोड़कर विकास-पथ पर आगे बढ़ना हिन्दी का कतई उद्देश्य न था और न है। परंतु राजभाषा से राष्ट्रभाषा की ओर कदम बढ़ाती हिन्दी को प्रमुखता मिलनी ही चाहिए। कुछ वर्षों पूर्व तक हिन्दी के विरोध में स्वर उभरते रहे हैं। तमिलनाडु का स्वर इनमें अत्यंत मुखर रहा है। सन् 1949 में संविधान सभा ने हिन्दी को राजभाषा का दर्जा दिया। 26 जनवरी, 1950 को देश में लागू हुए संविधान में यह प्रावधान था कि आगामी 15 वर्षों तक सरकारी पत्राचार हिन्दी के साथ-साथ अंग्रेजी में भी किये जायेंगे और 15 वर्षों बाद सरकारी कामकाज की अधिकृत भाषा हिन्दी होगी। ऐसा माना गया था कि इन 15 वर्षों में हिन्दी पूरे देश की संपर्क भाषा बन जायेगी, पर दुर्भाग्य कि 15 वर्षों की जगह 55 वर्षों से अधिक समय व्यतीत होने के पश्चात् भी हिन्दी इस देश की पूरी तरह संपर्क भाषा नहीं बन सकी।

संविधान में संशोधनों के द्वारा इस अवधि को आगे बढ़ाया जाता रहा है। अतः स्पष्ट है कि हिन्दी प्रारंभ से ही राजनीतिक षडयंत्र का शिकार रही है। तब से अब तक कोई ऐसा विराट व्यक्तित्व राजनीति के क्षेत्र में अवतरित नहीं हो सका है जो अपने बुद्धि-चातुर्य, संगठन समता और दृढ़ आत्मबल के द्वारा हिन्दी को उसकी प्रतिष्ठा दिला सके। हिन्दी के वैश्विक रूप को गढ़ने में बाधाएँ हिन्दी के देश से ही हैं। यह भी अजीब विडम्बना है कि हिन्दी को विश्व भाषा बनाने के लिए जो ईमानदार प्रयास होने चाहिए, नहीं किये गये। भारत की आजादी के पश्चात् अनेक देशों के विश्वविद्यालयों में हिन्दी की पढ़ाई आरंभ की थी। इस प्रारंभ के पीछे उन देशों की सोच यह थी कि भारत के साथ राजनयिक और व्यापारिक संबंध बनाने के लिए तथा उन्हें मजबूती प्रदान करने के लिए हिन्दी का ज्ञान आवश्यक है। खेद है कि भारत सरकार की ओर से अंग्रेजी में ही पत्राचार होता रहा। परिणाम यह हुआ कि अधिकतर विश्वविद्यालयों में हिन्दी विभाग बंद हो गये।

हिन्दी की प्रतिस्पर्द्धा और संपर्क भाषा :

भारत में हिन्दी की होड़ किसी प्रांतीय भाषा से नहीं है, अपितु अंग्रेजी से है। भारत में अंग्रेजी के समर्थकों का तर्क यह है कि भारत जैसे बहुभाषी राष्ट्र में संपर्क भाषा बनने की क्षमता केवल अंग्रेजी में ही है और इस देश की संपर्क भाषा अंग्रेजी ही हो सकती है। यह तर्क एकदम खोखला तथा आधारहीन है। अंग्रेजी आम भारतीय की संपर्क भाषा कदापि नहीं हो सकती है। यह मुट्ठीभर आभिजात्य वर्ग की ही भाषा हो सकती है। अतः संपर्क भाषा के रूप में प्रतिष्ठित होने का अधिकार केवल हिन्दी को है, अंग्रेजी को नहीं। अंग्रेजी समर्थकों का एक और तर्क है कि हिन्दी में आधुनिक विज्ञान और टेक्नॉलाजी को अभिव्यक्त करने की क्षमता नहीं है। इनका मानना है कि विज्ञान, सूचना प्रौद्योगिकी एवं अन्य क्षेत्रों में भारत को यदि तेजी से विकास करना है तो अंगेजी को अपनाना ही होगा, क्योंकि भूमंडलीकरण के दौर में अंग्रेजी ही संपर्क भाषा है और इससे विमुख होने से हम वैश्विक प्रगति की दौड़ में पिछड़ जाएँगे।

उपर्युक्त सारे तर्क निराधार हैं। हिन्दी अब इतनी समर्थ एवं सबल है कि वह प्रत्येक परिवर्तन को आत्मसात कर सकती है और उसे अंग्रेजी के मुकाबले कहीं सशक्त रूप से व्यक्त कर सकती है। अब तो चीन, जापान, जर्मनी जैसे विकसित राष्ट्रों में भी अंग्रेजी का जबरदस्त विरोध प्रारंभ हो गया है। यहाँ श्री रामावतार शर्मा को उद्धत करना समीचीन होगा। वे लिखते हैं "कितने लोग यह कहते हैं कि देशी भाषाओं में शिक्षा होने से यूरोपीय विज्ञान का यहाँ प्रचार बंद हो जायेगा। कितने यह भी कहते हैं कि अंग्रेजी न पढ़ेंगे तो कैसे अंग्रेजी विज्ञान यहाँ अपनो भाषा में ला सकेंगे। ये लोग सर्वथा अपना चरित्र भूल रहे हैं। पढ़ते तो हैं ये जीविका के लिए या खेल के लिए और झूठ ही कहते हैं कि हम ज्ञान-विज्ञान का अनुवाद करेंगे। हम लोग अंग्रेजी पढ़ना सर्वथा बंद नहीं करना चाहते। केवल इतना ही चाहते हैं कि अंग्रेजी में ज्ञान-विज्ञान के ग्रंथों का अनुवाद कर यहाँ प्रचार के लिए भी सौ-पचास आदमी हर साल अंग्रेजी पढ़ा करें, न कि केवल नई कमाई करने के लिए या बाप-दादे की कमाई गँवाने के लिए। ऊँची-नीची सब शिक्षा देश की भाषाओं में हो। बाजारू बिस्कुट खाने वाले घर में रसोई बनाना कभी नहीं सीख सकते।"' यद्यपि उक्त विचार हिन्दी साहित्य सम्मेलन के भागलपुर अधिवेशन में 8-9 दिसंबर, 1913 को व्यक्त किये गये थे, पर लगभग एक शताब्दी के पश्चात् आज भी ये प्रासंगिक हैं।

विश्व मंच पर हिन्दी :

4 अक्टूबर, 1977 को तत्कालीन विदेश मंत्री श्री अटलबिहारी वाजपेयी द्वारा संयुक्त राष्ट्र महासभा में हिन्दी में अभिभाषण दिया गया। इसी अभिभाषण से हिन्दी विश्व मंच पर प्रथम बार औपचारिक रूप से प्रतिष्ठित हुई। इस समय तक विश्व हिन्दी की भूमिका, उपयोगिता और अस्तित्व से परिचित हो चुका था। आवश्यकता थी इस परिचय को प्रागढ़ता में बदलने की। यह कार्य अनेक प्रकार से किया गया। इन प्रकारों में प्रमुख सीढ़ी थी-विश्व हिन्दी सम्मेलन की परिकल्पना। सन् 1975 में नागपुर में प्रथम विश्व हिन्दी सम्मेलन हुआ। इसका संयोजन अनंत गोपाल शेवडे ने किया था। मारीशस के श्री दयानंदलाल बसंत राय ने विश्व मंच की दृष्टि से संयुक्त राष्ट्र संघ में हिन्दी को प्रतिष्ठित करने हेत प्रस्ताव प्रस्तुत किया- 'हम सब चाहते हैं कि हिन्दी को संयुक्त राष्ट्र संघ में स्थान मिले।' फीजी के विवेकानंद शर्मा ने तथा जापान, कनाडा, स्वीडन, अमेरिका, इंग्लैंड, थाइलैंड आदि देशों के प्रतिनिधियों ने इसका जोरदार शब्दों में समर्थन किया। तत्पश्चात् दूसरा 1976 (मारीशस), तीसरा 1983 (दिल्ली), चौथा 1993 (मारीशस), पाँचवा 1996 (त्रिनिडाड), छठा 1999 (लंदन), सातवाँ 2003 (सूरीनाम) और आठवाँ 2007 (न्यूयार्क) में हुआ।

सूरीनाम में हुए विश्व हिन्दी सम्मेलन की महत्त्वपूर्ण उपलब्धि यह रही है कि विश्व स्तर पर हिन्दी भाषा के अध्ययन-अध्यापन और प्रभावी प्रचार-प्रसार हेतु आम सहमति बनी। विगत आठ विश्व हिन्दी सम्मेलनों में हिन्दी के हित में जो प्रस्ताव पारित हुए हैं, उन्हें व्यवहार में लाने हेतु भारत सरकार ने विदेश मंत्रालय के अंतर्गत् एक स्वतंत्र विभाग की स्थापना की। यह विभाग विश्व हिन्दी सम्मेलनों में पारित प्रस्तावों पर अनुवर्ती कार्यवाही सुनिश्चित करेगा। हिन्दी की प्रतिस्पर्द्धा विश्व के 80 प्रतिशत भाग पर राज करने वाली अंग्रेजी से है जिसकी तुलना में हिन्दी कुछ भी नहीं है। पर अत्यल्प समय में ही अपनी क्षेत्रीय सीमाओं को लाँघ कर सात समंदर पार जाना और अपने अस्तित्व का मान कराना कम उपलब्धि नहीं है। अपनी संस्कृति और अपने अस्तित्त्व की वृद्धि किसे अच्छी नहीं लगती ?

हिन्दी हमारी अस्मिता है, हिन्दी हमारी सांस्कृतिक और भावात्मक पहचान है। यह विश्वाकाश पर ध्रुवतारे की भाँति चमके तो हर भारतीय को गर्व होगा। हिन्दी खूब फले-फूले, परंतु उसके फलने-फूलने में बाधक तत्त्वों की पहचान होनी चाहिए। डॉ. राजेश्वर प्रसाद चतुर्वेदी का कथन इस संबंध में अत्यंत सटीक है। वे लिखते हैं- "विदेशों में अपनी साख रखने के लिए हमारे कर्णधार भले ही कुछ आवश्यक कार्य हिन्दी में कर लेते हों, परंतु देश के स्तर पर राज-काज में वे हिन्दी का प्रयोग अपनी प्रतिष्ठा के प्रतिकूल समझते हैं। ऐसी स्थिति में हिदी का राजभाषा पद अधंकार के गर्त में फँस गया है। अंतःप्रांतीय एवं अंतर्राष्ट्रीय स्तरों पर सरकारी कामकाज के लिए एक भाषा की आवश्यकता का अनुभव करके ही संविधान निर्माताओं ने हिन्दी को राष्ट्रभाषा एवं राजभाषा स्वीकार किया है। आश्चर्य की बात है कि संविधान को सुविधा की राजनीति का शिकार बनाकर उसमें संशोधन कर दिये गये तथा संविधान के विरुद्ध हिन्दी का अपमान करने वाले लोग कभी भी देशद्रोही नहीं समझे गये।"2

हिन्दी-प्रसार के अवरोधों का शमन :

हम यह नहीं कहते हैं कि विश्व की समूची भाषाओं का अस्तित्व समाप्त हो जाए और हिन्दी सम्पूर्ण विश्व पर राज करे। परंतु यह कामना अवश्य है कि कम से कम अंतर्राष्ट्रीय संपर्क भाषा अवश्य बने, क्योंकि इसमें अंतर्राष्ट्रीय संपर्क भाषा के समस्त गुण विद्यमान हैं। इस दिशा में जो प्रयास किये जा रहे हैं उनमें कुछ विनम्र सम्मतियाँ मेरी दृष्टि में हो सकती हैं, जो निम्नानुसार हैं-

1. अंतर्राष्ट्रीय सांस्कृतिक समझौतों का ईमानदारी से क्रियान्वयन :

भारत के अनेक देशों में सांस्कृतिक संबंध हैं, पर सामान्यतः इनमें जो गर्माहट होनी चाहिए, वह नहीं हो पाती। इस ओर से हमारे वे जिम्मेवार अधिकरी उदासीन रहते हैं जिन पर संस्कृति-सम्वर्द्धन का दायित्व होता है। ये अधिकारी अंग्रेजी मानसिकता से उबर नहीं पाते और हिन्दी-प्रसार के क्षेत्र में कार्य करना इन्हें शर्म की बात लगती है। "राजदूत के रूप में श्रीमती विजयलक्ष्मी पंडित ने रूस में जब अपने प्रमाण पत्र अंग्रेजी में प्रस्तुत किये थे, तब वहाँ के अधिकारियों ने पूछा था-वया आपकी कोई भाषा नहीं है? और संभवतः उन्होंने वे कागज वापस भी लौटा दिये थे। गनीमत है कि उसके बाद हमारी सरकार का ध्यान हिन्दी की ओर गया है और हमारे राजदूतों द्वारा प्रस्तुत प्रमाण-पत्रों की भाषा हिन्दी हो गई है।"3 भाषा का संबंध शिक्षा और संस्कृति से है। दूतावासों में संस्कृति-सचिव तथा संबंधित पदों पर ऐसे अधिकारियों की नियुक्ति की जानी चाहिए जिन्हें हिन्दी से प्रेम हो और जिनके हृदय में हिन्दी-प्रसार की लगन हो।

2. शब्दावली का सरलीकरण :

विज्ञान और तकनीकी के युग में इसकी अभिव्यक्ति क्षमता यदि किसी भाषा में नहीं है, तो वह भाषा विश्व मंच पर अपना अस्तित्व अक्षुण्ण नहीं रख सकती। उसे समयानुकूल अपनी प्रकृति को ढालना ही पड़ेगा। हिन्दी में वैज्ञानिक शब्दावली तैयार की गई है, लाखों पारिभाषिक शब्द तैयार किये गये हैं, पर उनमें से 10 प्रतिशत शब्द ही प्रचलन में हैं। क्लिष्टता और दुरूहता के कारण मात्र हिन्दी भाषी जन उन शब्दों की अपेक्षा अब भी अंग्रेजी के शब्दों का प्रयोग करना उचित समझते हैं और कर रहे हैं। पारिभाषिक और वैज्ञानिक शब्द ग्रंथों में बंद पुस्तकालयों की शोभा बढ़ा रहे हैं। पारिभाषिक शब्दावली का पुनर्परीक्षण होना चाहिए और बिना किसी पूर्वाग्रह के इसका सरलीकरण होना चाहिए। "सरकारी अधिकारियों और स्वार्थी नेताओं ने एक प्रकार से हिन्दी के विरुद्ध षडयंत्र रच रखा है। वे व्याख्यान तो इस प्रकार के देते हैं कि हिन्दी ही हमारी भाषा है। परंतु व्यवहार में समस्त कार्य हिन्दी विरोधी करते हैं। उदाहरण के लिए हम हिन्दी में पारिभाषिक शब्दावली के निर्माण को लेते हैं। एक ओर तो अत्यंत दुरूह, हास्यास्पद और अस्वाभाविक शब्दों के निर्माण में रुपये खर्च किये जाते हैं और दूसरी ओर उन्हीं शब्दों को लेकर मजाक उड़ाया जाता है, शब्दावली की अव्यावहारिकता घोषित की जाती है। इस प्रकार के दोहरे मापदंडीय मुखौटों के जाल को हिन्दी के हित में छिन्न-भिन्न करना होगा।

3. हिन्दी साहित्य का सरस अनुवाद :

किसी भाषा के प्रचार-प्रसार में उस भाषा में लिखे गये विपुल साहित्य की महती भूमिका होती है। हिन्दी का साहित्य जितना समृद्ध होता है, उतना समृद्ध उसका अनूदित साहित्य नहीं है। हिन्दी में सृजित जो साहित्य विदेशी भाषाओं में अनूदित हुआ है। उसका बहुत कम प्रतिशत ही विदेशों में लोकप्रियता प्राप्त कर सका है। रोचक, आकर्षक, सरस और मूल रचना की आत्माभिव्यक्ति करने वाले अनुवाद किये जाने चाहिए। विदेशी स्वतः इन रचनाओं को उसके मूल स्वरूप में जानने हेतु उत्सुक हो उठेंगे। वह अतीत अभी विस्मृत नहीं हुआ है जब बाबू देवकीनंदन खत्री के ऐयारी उपन्यासों की लोकप्रियता ने लोगों को हिन्दी सीखनेके लिए विवश कर दिया था।

4. भाषा की सरलता :

लोगों को सरल भाषा ही ग्राह्य होती है। 'Pneumonia' लिखने के स्थान पर हिन्दी में 'निमोनिया' लिखना और बोलना कहीं अधिक आसान है। हिन्दी में लेखन और उच्चारण समान है ऐसी, अंग्रेजी तो क्या, किसी भी भाषा में विशेषता नहीं है। हिन्दी में कुछ लेखन ऐसा है, जो भ्रमोत्पादक है। ये रूप हिन्दी की प्रकृति के हो सकते हैं पर जब हिन्दी के अंतर्राष्ट्रीय रूप की बात आती है, तब लगता है। इनमें सुधार होना आवश्यक है। ये रूप विशेषकर 'र' की विभिन्नता और 'श' तथा 'ष' से संबंधित हैं। इसी प्रकार अनेक वर्तनीगत और व्याकरणिक रूपों के संबंध में भी यह बात की जा सकती है। "हिन्दी व्याकरण में सबसे बड़ी अराजकता लिंग संबंधी है। प्राचीन वैयाकरणों को भी लिंग की व्याख्या करना अबोध ही लगा था। बौद्ध लेखकों द्वारा व्यवहृत संस्कृत में लिंग परिवर्तन बहुतायत से मिलते हैं। हेमचंद्र ने भी प्राकृत व्याकरण में लिखा है- 'लिंगम अनंतम्।"5

5. शब्दकोश का निर्माण :

अंग्रेजी भाषा की जानकारी के लिए 'ऑक्सफोर्ड डिक्शनरी' को प्रामाणिक माना जाता है। पर हिन्दी में ऐसा कोई सर्वमान्य शब्दकोश नहीं है। जितने शब्दकोश हैं उतनी ही पृथक् पृथक् शब्दों की व्याख्याएँ हैं। आवश्यकता है एक ऐसे शब्दकोश की जो सरल हो, सरस हो और स्वतः पूर्ण हो। "हिन्दी भाषा को अंग्रेजी के समकक्ष पहुँचाने के लिए इसमें अच्छे शब्दकोशों का होना अनिवार्य है। अभी तक जिस तीव्र गति से हिन्दी भाषा में कोशों का निर्माण कार्य संपन्न हो रहा है, उसके लिए कोश-निर्माण के सिद्धांतों का प्रतिपादन वैज्ञानिक रूप से नहीं हुआ है। कोश-निर्माण के व्यावहारिक क्षेत्र में होने वाली प्रगति में कोश-निर्माण संबंधी सिद्धांतों का भी वैज्ञानिक विवेचन होना अनिवार्य है, अन्यथा भविष्य में इस संबंध में अनेक भ्रांतियाँ फैल सकती हैं।"6

हिन्दी सर्वग्राही, सरलतम और वैज्ञानिक भाषा है। यह केवल भाषा ही नहीं है। भारतीयों के सांस्कृतिक चरित्र की प्रतीक है। अब यह भारतीय सीमा के पार जाकर विश्व भर में धूम मचा रही है और लोग इसे आदर दे रहे हैं। बहुत संघर्ष के बाद हिन्दी की यह स्थिति निर्मित हुई है। अब हम पर निर्भर करता है कि हिन्दी को हमें इस स्थिति से भी आगे ले जाना है अथवा पीछे धकेलना है।

संदर्भ :

1. सम्मेलन पत्रिका: सं. विभूति मिश्र, दिसंबर, 2005, पृ. 110

2. अभिनव साहित्यिक निबंध डॉ. राजेश्वर प्रसाद चतुर्वेदी, पृ. 608

3. वही, पृ. 613

4. वही, पृ. 610

5. भाषा: जून, 1965, पृ. 33

6. वही, पृ. 23

जनसंचार माध्यमों में हिन्दी

 

मनुष्य सामाजिक प्राणी है। समाज में रहकर वह अपनी भावनाओं तथा विचारों की अभिव्यक्ति करता है। इस अभिव्यक्ति का नाम ही भाषा है। विश्व की अनेक भाषाएँ इस अभिव्यक्ति की माध्यम हैं। भाषा भावनाओं और विचारों की संवाहिका तो है ही, वह मनुष्य को सुसंस्कृत भी बनाती है। मनुष्य सामाजिक प्राणी तो है ही, वह जिज्ञासु भी है। प्रतिपल अपने आस-पास जटिल घटनाओं को जानने-समझने और उन्हें विश्लेषित करने की उसे जिज्ञासा रहती है और उनके रहस्यों को आवरण हीन करने की सहज उत्सुकता रहती है। वह यह भी जानने को उत्सुक रहता कि प्रदेश, देश और विदेश में क्या हलचल हो रही है? प्रकृति के इस रहस्य पर से पर्दा उठा अंतरिक्ष के ग्रह-नक्षत्रों में क्या जुगलबंदी हुई.....? तात्पर्य यह कि मनुष्य प्रकृति और विश्व में घटित प्रत्येक घटना की सूचना प्राप्त करने का अभिलाषी होता है। भाषा इस अभिलाषा-पूर्ति की सशक्त माध्यम है।

संचार और जनसंचार :

एक स्थल से दूसरे स्थल अथवा एक व्यक्ति से दूसरे व्यक्ति तक सूचनाओं या संदेशों से संप्रेषित करने की क्रिया संचरण या संचार है। 'संचार' सब संस्कृत की 'चर' धातु से उत्पन्न है, जिसका तात्पर्य है-चलना। चलने, दौड़ने जैसी क्रियाओं के लिए इसका व्यापक अर्थ में प्रयोग किया जाता है। किसी भाव, विचार अथवा दृष्टिकोण को जब किसी अन्य तक प्रेषित करने का कार्य किया जाता है, तब इसे 'संचार' नाम दिया जाता है। हिन्दी का 'संचार' शब्द अंग्रेजी के 'कम्यूनिकेशन' का पारिभाषिक है, जो लैटिन भाषा के 'कम्युनिस' से बना है जिसका तात्पर्य-'समझ का सम्मिलित आधार' है। इस प्रकार संचार एक प्रक्रिया है, एक प्रयास है जिसके माध्यम से व्यक्ति दूसरों के विचारों को जानता है, समझता है, उनमें सहभागिता निभाता है तथा परस्पर समझदारी को बढ़ाता है।

व्यक्ति के विचारों, संदेशों और सहभागिता की भावना को जब एक साथ बड़े पैमाने पर व्यापक रूप से विस्तारित और प्रसारित किया जाता है, तब वह जनसंचार का रूप ग्रहण कर लेता है। प्राचीन काल में यह क्रिया मुनादी, शिला लेखों अथवा राजाज्ञाओं को सुनाकर सम्पन्न की जाती थी। विज्ञान आविष्कार तथा नवीन खोजों और संसाधनों ने जनसंचार का रूप परिवर्तित कर दिया है। आज समाचार पत्र, रेडियो, टेलीविजन, कैसेट, टेप रिकार्डर, वी.डी.ओ. आदि जनसंचार के आधुनिक माध्यम हैं। अब तो जनसंचार के टेलेक्स, फैक्स, ई-मेल, इंटरनेट जैसे जनसंचार माध्यमों को भी पीछे छोड़ दिया है। आज मानव सभ्यता के कार्य-कलापों के विकास में दूरसंचार या जनसंचार व्यवस्था की महत्त्वपूर्ण भूमिका असंदिग्ध है। इन संचार माध्यमों ने मानव-जीवन को गहराई तक प्रभावित किया है।

दूरसंचार के विकास ने विश्व की समस्त दूरियों को संकुचित कर दिया है और भारतीय सूत्र- "वसुधैव कुटुम्बकम्" को चरितार्थ कर दिया है। "दूरसंचार के क्षेत्र में हुई प्रगति ने तथ्यों, आँकड़ों, सूचनाओं, चित्रों आदि के संप्रेषण और संग्रहण को सरल बना दिया है। आप बस या रेल में बैठे संदेशों का आदान-प्रदान कर सकते हैं। इस चलती-फिरती संचार प्रणाली में बातचीत के क्षेत्र को बढ़ा दिया है। यह दिशा निरपेक्ष है तथा किसी अन्य रेडियो संचार प्रणाली से प्रभावित नहीं होता और न ही इसके कार्य में कोई बाधा आती है। दूरसंचार व्यवस्था के विकास में विद्युत विज्ञान और इलेक्ट्रोनिकी के ज्ञान का उपयोग होता है। गत शताब्दी में टेलीग्राफ और टेलीफोन ने प्रगति को और लागों तथा देशों को परस्पर जोड़ा। आगे चलकर रेडियो संचार प्रणाली ने विकास किया जो आज के सैन्य संचालन का प्रमुख अंग बन चुकी है। दूरदर्शन ने उसे एक पग और आगे बढ़ा दिया है।"।

जनसंचार माध्यम और भाषा :

समाचार पत्र, रेडियो, टी.वी., कम्प्यूटर, इंटरनेट जनसंचार का कोई भी माध्यम हो, बिना भाषा के इन सबका अस्तित्व गूँगा है। समाचार पत्रों का समूचे विश्व में पर्याप्त प्रसार है। स्वाभाविक है कि विश्व-भाषाओं को समाचार पत्र समृद्ध कर रहे हैं। रेडियो का भी अत्यंत व्यापक स्तर पर प्रसार हो चुका है और विविध भाषाओं के कार्यक्रमों के प्रसारण से ये भाषाएँ समृद्ध हुई हैं। पर, कम्प्यूटर, इंटरनेट, ई-मेल जैसे अत्याधुनिक जनसंचार माध्यमों पर अभी अंग्रेजी हावी है। टेलीविजन भी विश्व की भाषाओं को समादृत कर रहा है। यह बहुत आवश्यक भी है। जनसंचार का उद्देश्य भी स्वभाषा के प्रयोग से पूरा होगा, किसी थोपी हुई भाषा से नहीं। इस प्रसंग में भारतेंदु हरिश्चंद्र की निम्नलिखित पंक्तियाँ अत्यंत सटीक हैं :

निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति कौ मूल।

पै निज भाषा ज्ञान के, मिटत न हिय कौ सूल ।।

जनसंचार माध्यम और हिन्दी :

जनसंचार माध्यमों के दो रूप हैं-प्रिंट एवं इलेक्ट्रोनिक। प्रिंट के अंतर्गत् पत्र-पत्रिकाएँ भी समाहित हैं, पर इनका आधार सीमित होता है। समाचार पत्रों का दायरा पर्याप्त विस्तृत होता है अतः जनसंचार माध्यम के रूप में समाचार पत्रों की गणना करना समीचीन होगा। इलेक्ट्रोनिक जनसंचार माध्यमों का संसार अत्यंत विस्तृत है। रेडियो, टेलिविजन, फिल्म, कम्प्यूटर आदि का प्रारंभ यद्यपि भारत में अति विलंब से हुआ परंतु प्रसार-गति अत्यंत तीव्र रही।

भारत में प्रेस की स्थापना तो सन् 1550 में हो गई थी और सन् 1780 में हिन्दी ने देश का पहला अखवार निकाला था। पर हिन्दी में निकलने वाला पहला अखबार उदंत मार्तंड था जिसका प्रकाशन सन् 1816 में हुआ था। तब से अब तक 182 वर्ष व्यतीत हो चुके हैं और हिन्दी भाषा के स्वरूप में पर्याप्त परिवर्तन हुए है। इसी प्रकार भारत में रेडियो की शुरुआत 1927 में हो चुकी थी। सन् 1936 में इसका नाम 'ऑल इंडिया रेडियो' और 1957 में 'आकाशवाणी' नामकरण किया गया। स्पष्ट है, रेडियो पर हिन्दी का आधिपत्य 1957 में हुआ।

भारतीय दूरदर्शन का इतिहास अधिक पुराना नहीं है। सन् 1954 में आगमन देश में हुआ और 15 अगस्त, 1982 से देश में रंगीन दूरदर्शन का सूत्रपात हुआ। आज 13 उपग्रहों के कारण चैनलों की बाढ़ सी आ गई है। देश में प्रचलित 80 प्रतिशत चैनल या तो हिन्दी में अपने कार्यक्रम प्रसारित कर रहे हैं या हिन्दी में अनूदित कार्यक्रमों का प्रसारण कर रहे हैं। इन कार्यक्रमों का समाजिक-सांस्कृतिक पक्ष कुछ भी हो, पर एक बात निश्चित है कि इन सब से हिन्दी के प्रचार-प्रसार का पथ सबल हुआ है और हिन्दी की विश्व व्यापी छवि निर्मित हुई है।

हिन्दी की सशक्त छवि ने अपने प्रथम अखबार-प्रकाशन से ही अपनी प्रमुखता का परिचय दे दिया था। अब से 9 वर्ष पूर्व अर्थात् 1999 में देश से प्रकाशित होने वाले विभिन्न भाषाई समाचार पत्रों में हिन्दी दैनिकों 2305, साप्ताहिकों 9608, पाक्षिकों 2878 मासिकों 3180 त्रैमासिकों 589 तथा वार्षिकी की संख्या 33 अन्य भाषाओं में प्रकाशित पत्र-पत्रिकाओं से कहीं सर्वाधिक है। आज इनमें लगभग पंद्रह से बीस प्रतिशत वृद्धि हो चुकी है। इससे हिन्दी की लोकप्रियता स्वतः सिद्ध है।

जनसंचार माध्यमों में हिन्दी की भूमिका:

एक समय था, जब हिन्दी ने प्रारंभिक पत्रकारिता के दौरान देश में राष्ट्रीय एवं सांस्कृतिक जागरण के अग्रदूत के रूप में कार्य किया था तथा देश को एकता के सूत्र में बाँधने का महत् कार्य किया था। आज देश सर्व गुण सम्पन्न है और सर्व समर्थ है। वर्तमान युग आर्थिक युग है और आर्थिक विकास की तीव्रता को विकास का पैमाना माना जाता है। बाजारीकरण, वैश्वीकरण तथा आर्थिक उदारीकरण ने हिन्दी के महत्त्व को कई गुना बढ़ा दिया है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों को अपने उत्पादों ने हिन्दी के महत्त्व को कई गुना बढ़ा दिया है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों को अपने उत्पादों की खपत के लिए बाजार चाहिए और भारत से अच्छा तथा बड़ा बाजार कोई दूसरा नहीं है इसके लिए अंग्रेजी कंपनियों की मजबूरी बन गई हिन्दी में आकर्षक विज्ञापन तैयार करने की।

"विज्ञापन की ताकत इस बात में है कि उसे देखने के बाद उसे कितने लोग याद रख पाते हैं। तकनीकी भाषा में इसे रीकाल वैल्यू कहा जाता है। यदि विज्ञापन याद ही नहीं रहा तो बेकार गया समझिये। इसके लिए विज्ञापन बनाने वाली कंपनियाँ तरह-तरह के नुस्खे अपनाया करती हैं। हर विज्ञापन का एक सुस्पष्ट सुलक्षित उपभोक्ता समूह होता है। बच्चों के लिए जो चीजें बेची जाती हैं, उनके विज्ञापन कुछ अलग किस्म के होते हैं और बड़ों के अलग तरह के। औरतों के लिए अलग विज्ञापन होते हैं। विज्ञापन एक हाइब्रिड कला है। वह कई तरकीबों का इस्तेमाल करती है। आज भारत में टी.वी. विज्ञापन कला-एक विकसित कला है और इस क्षेत्र में कई ग्लोबल कंपनियाँ भी काम करती हैं। "5

स्पष्ट है कि प्रसारित होने वाले विज्ञापनों में 80 से 90 प्रतिशत विज्ञापन कोनिकाल दिया जाए तो टी.वी. चैनलों को दीवालिया होते देर न लगेगी। "1976 में विज्ञापनों से हुई आय का कोई हिसाब नहीं मिलता। वे ज्यादा थे भी नहीं। 1982 से 1997 तक दूरदर्शन की विज्ञापनों से होने वाली आय में 36 गुना वृद्धि हुई। यह अनुपात दर्शकों की संख्या एक करोड़ सत्तर लाख थी, जो 1997 तक आते-आते 29 करोड़ 60 लाख तक पहुँच गयी। जिस अनुपात में दशक बढ़े, विज्ञापनों की आय बढ़ी, यानि विज्ञापन बढ़े। विज्ञापन से कमाई करने में दूरदर्शन सन् 1998 तक आगे रहा लेकिन बाद में प्रसार भारती के कुप्रबंध और राजनीति के कारण उसकी हिस्सेदारी घटने लगी। उसके खाते में जी.टी.वी. और सोनी जैसे चैनल काम कराने में सक्षम हैं।"6

उपर्युक्त आँकड़े लगभग एक दशक पूर्व के हैं। आज हिन्दी के एक से भी अधिक चैनल चल रहे हैं और इन पर अरबों के विज्ञापन प्रदर्शित किये जा रहे हैं। आये दिन आयोजित होने वाले क्रिकेट मैचों के मध्य प्रसारित विज्ञापनों में पूरे सौ प्रतिशत विज्ञापन हिन्दी में होते हैं। यही नहीं अब तो रेडियो पर भी विज्ञापन प्रसारित किये जाने लगे हैं। अखबारों और पत्र-पत्रिकाओं में तो हिन्दी-विज्ञापन रहते ही हैं। इन सबसे करोड़ों का व्यवसाय हो रहा है और रोजगार के क्षेत्र खुले हैं।

विख्यात पत्रकार राजेन्द्र जोशी का मत है कि- "संचार माध्यमों ने जहाँ हिन्दी को हिन्दी को अपनी मुख्य भाषा बनाया है, वहीं फिल्मों, नाटकों और विभिन्न साहित्य सामग्रियों को भी देश के कोने-कोने में फैलाने में हिन्दी का बड़ा योगदान है। हिन्दी क्षेत्रों में दूरदराज के अंचलों में, जहाँ के लोगों की बोलियाँ हिन्दी नहीं हैं, ने भी फिल्मों और टी.वी. सीरियलों के बढ़ते प्रभाव के कारण हिन्दी समझने और बोलने लगे हैं, अनेक बाहरी देशों में फिल्मों और टी.वी. सीरियलों ने हिन्दी भाषा को शीर्ष पर पहुँचाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वहन किया है। आज विश्व के प्रायः सभी देशों में हिन्दी की पहुँच हो गई है। विश्व के बाजार में भारत को विशिष्ट उपभोक्ता के तौर पर जाना जाने लगा है। बहुराष्ट्रीय कंपनियों में भारत के शहरों और गाँवों में अपनी वस्तुओं तक पहुँचाने में आज भारी प्रतिस्पर्द्धाएँ देखी जा रही हैं। इन प्रतिस्पर्द्धाओं ने जनता पर मोहनी डालने में हिन्दी भाषा बहुत बड़ा काम कर रही है। यही कारण है कि विदेशी कंपनियों के भारत में प्रसारित होने वाले विज्ञापन और समाचार हिन्दी भाषा में आने लगे हैं। खाद्य पदार्थों और पेय वस्तुओं के पाउचों और बोतलों पर लिखी जाने वाली रबारत तथा प्रचार-प्रसार के लिए आने वाले होर्डिंग्स, पोस्टर्स और बैनरों में हिन्दी का अधिकतम उपयोग होने लगा है। विदेशी टी.वी. चैनल, डिस्कवरी, पोगो और अन्य कार्टून चैनल भी हिन्दी भाषा के माध्यम से भारत में अपनी लोकप्रियता सिद्ध करने में लगे हैं।""

केवल समाचार पत्र, रेडियो और टेलिविजन में ही नहीं अन्य अत्याधुनिक संचार माध्यमों की स्थापना में भी हिन्दी की महती भूमिका है। अपने आविष्कार के पश्चात् जब कम्प्यूटर के कदम भारत भूमि पर पड़े तब कहा गया था कि अंग्रेजी ज्ञान के बिना कम्प्यूटर का संचालन नहीं किया जा सकता। पर यह दलील आज झूठी पड़ चुकी है। हिन्दी ने कम्प्यूटर पर भी अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया है। इतना ही नहीं हिन्दी ने हाल में ही पर्याप्त तकनीकी विशेषताएँ प्राप्त की हैं। इंटरनेट में हिन्दी का प्रयोग होने लगा है और अब तो कुछ वेबसाइटस भी हिन्दी में आ गई हैं। आज के आर्थिक जीव में कम्प्यूटर, इंटरनेट और ई-मेल का अत्याधिक महत्त्वपूर्ण स्थान है। इनमें भी हिन्दी ने अपनी धाक जमायी है।

प्रख्यात चिंतक श्री मनोज श्रीवास्तव के ये उद्‌गार अत्यंत सटीक और समीचीन हैं- "दुनिया की ऑन लाइन आबादी 71 करोड़ 30 लाख है, भारत 1 करोड़ 82 लाख लोगों के बाद फिलहाल दुनिया में नौवें स्थान पर दिग्गज साइबर कंपनियाँ यह जान चुकी हैं कि भारत के महज 2-3 प्रतिशत अंग्रेजीदा लोगों में सिमटे इंटरनेट बाजार में अगर बाकी करोड़ों की आबादी वाली हिन्दी और क्षेत्रीय भाषाओं को उतारा जाता है, तो आसमाँ ही सीमा है। जक्स कंसल्ट इंडिया का एक सर्वे बताता है कि 44 प्रतिशत भाषाओं में इंटरनेट उपभोक्ता अंग्रेजी की जगह हिन्दी का और 25 फीसदी शेष भारतीय भाषाओं में इंटरनेट सामग्री को तरजीह देते हैं। जिन लोगों को अंग्रेजी का भूत है, वे देखें कि इंटरनेट बाजार में शीर्ष चार स्थानों पर अमेरिका, चीन, जापान और जर्मनी में दो, अमेरिका में साइबरे की भाषा अंग्रेजी है तो बाकी तीन देशों में प्रभुत्व उनकी अपनी भाषाओं का ही है। हिन्दी को मात्र हिन्दी के प्रेमी नहीं बख्शेंगे, बल्कि वे मल्टी नेशनल कंपनियाँ बख्शेंगी, जिनको हिन्दी से नहीं अपने मुनाफे से मतलब है।"- स्पष्ट है, मुनाफे और बाजार में अपनी पैठ जमाने के लिए मल्टी नेशनल कंपनियों की मजबूरी है-हिन्दी को गले लगाने की।

एक समय था, जब "हिन्दी के प्रचार-प्रसार में संचार माध्यमों की भूमिका"पर विचार किया जाता था। आज स्थिति ठीक विपरीत है। आज "जनसंचारमाध्यमों में हिन्दी की भूमिका" जैसे शीषर्कों पर चिंतन किया जाता है। इससेअधिक हिन्दी का महत्त्व जनसंचार माध्यमों में और क्या हो सकता है? हिन्दी कीदुर्दशा पर कितनी ही हाय-तौबा मचायी जाये पर सच यह है कि जनसंचार माध्यमोंपर हिन्दी ने अपनी पकड़ सुदृढ़ की है। यह बात अलग है कि बाजारवाद के प्रभावने हिन्दी के मूल स्वरूप को बदलकर अंग्रेजीनुमा कर दिया है। यद्यपि आर्थिकउदारीकरण, भूमंडलीकरण और बाजारवाद से प्रभावित जनसंचार माध्यमों कीभूमिका के पृष्ठ पीछे से नहीं पलटे जा सकते तथापि इन माध्यमों को आर्थिकदृढ़ता प्रदान करने और इन्हें सुस्थापित करने में हिन्दी की महत्त्वपूर्ण भूमिका कोनजरअंदाज नहीं किया जा सकता। समाचार पत्र, रेडियी, टी.वी., इंटरनेट, कम्प्यूटरआदि जन संचार माध्यमों की स्थापना में तो हिन्दी की भूमिका है ही, पर इनकेप्रचार-प्रसार से छपे हुए शब्दों का अर्थात् पुस्तकों का अस्तित्व खतरे में पड़ गयाथा। किंतु अब ऐसा नहीं है।

भारतीय प्रकाशक संघ के उपाध्यक्ष नरेन्द्र वर्मा के अनुसार "भारत का व्यवसाय आज विश्व के तीसरे नंबर पर है। आर्य के मुताबिक भारत में हर साल लगभग नब्बे हजार पुस्तकें छपती हैं, इनमें से 20 से 22 हजार हिन्दी की होती हैं। यही वजह है कि आज हिन्दी प्रकाशन का सालान टर्न ओवर 100 करोड़ रुपये हो चुका है......।" हिन्दी ने जनसंचार माध्यमों की आर्थिक तस्वीर ही नहीं बदली बल्कि नये-नये मुहावरे गढ़े गये, नये-नये शब्दों का समावेश हुआ इससे हिन्दी ने अपने महत्त्व और प्रभाव में भी वृद्धि की।

संदर्भ :

1. प्रयोजनमूलक हिन्दी: सं. डॉ. विनय दुबे, पृ. 5

2. वही, पृ. 91

3. वही, पृ. 93

4. मनोरमा ईयर बुक 2002, पृ. 708

5. वही, पृ. 705

6. वही, पृ. 706

7. नवभारत (भोपाल), 2 अगस्त, 2006, पृ. 6

8. नई दुनिया (इंदौर), 18 सितंबर, 2007, पृ. 8

9. दैनिक जागरण (इंदौर), 10 फरवरी, 2006, पृ. 5

भाषाई मीडिया : हाशिये की आवाजें

 

मीडिया लगभग पंद्रह-बीस वर्षों से भी कम समय में हिन्दी का अपना शब्द हो गया है। अब पत्रकारिता से लोग कम परिचित हैं, मीडिया से अधिक। ठीक उसी प्रकार जैसे तातश्री, पिताश्री के खंडहरों पर पापा और डैडी का महल खड़ा है अस्तु। भारतीय स्वतंत्रता संग्राम में पत्रकारिता की महत्त्वपूर्ण भूमिका रही। इस समय की पत्रकारिता का एक मिशन था। स्वतंत्रता संग्राम के जन मानस को प्रेरित करना, नैतिक मूल्यों का संरक्षण और संवर्धन, भारतीय गौरवशाली अतीत का वर्णन, मूल्यों की स्थापना आदि इस समय की पत्रकारिता के प्रमुख अंग थे। देश की पत्रकारिता का इतिहास अपने अनूठे संघर्ष, अदम्य जिजीविषा और सजग राष्ट्रीय सरोकारों के गौरवशाली प्रसंगों से आपूरित है।

इस काल के पत्रकार महापुरुष थे, जिनकी चारित्रिक दृढ़ता ने पत्रकारिता को स्वस्थ स्वरूप प्रदान किया। भारतेंदु हरिश्चंद्र, महावीर प्रसाद द्विवेदी, गणेश शंकर विद्यार्थी, बालमुकुंद गुप्त, बालकृष्ण शर्मा 'नवीन', माखनलाल चतुर्वेदी, माधव राव सप्रे प्रभृति सहित राष्ट्रपिता महात्मा गांधी द्वारा संपादित विभिन्न पत्र-पत्रिकाएँ इस तथ्य की साक्षी हैं कि इन महापुरुषों द्वारा की गई पत्रकारिता में भारतीय जन की चित्तवृतियों के प्राकट्य का पूरा-पूरा ध्यान रखा जाता था। इतना ही नहीं, परिवर्तित परिस्थितियों के अनुकूलन और प्रतिकूलन प्रवृतियों का भी सम्यक् विश्लेषण किया जाता था। ये महापुरुष पत्रकार के रूप में पत्रकारिता के लिए समर्पित थे।

मीडिया की अवधारणा :

भारतीय पत्रकारिता के इतिहास का सूत्रपात 29 जनवरी, 1780 को होता है, जब जेम्स आगस्टस हिकी ने 'बंगाल गजट' और 'कलकत्ता जनरल एडवरटाइजर' का प्रकाशन किया। 'बंगाल गजट' का प्रकाशन हिकी के नाम पर 'हिकीज गजट' की संज्ञा से जाना गया। इस समाचार पत्र का जन्म ही संघर्ष और विरोध की कोख से हुआ था। 'हिकी ने जब हेस्टिंग्ज' की पत्नी और कुछ अन्य आला हस्तियों के विरुद्ध व्यक्तिगत और तीखे प्रहार किये तो उसे जनरल पोस्ट ऑफिस के मार्फत समाचार पत्र प्रेषण की सुविधा से वंचित कर दिया गया। लेकिन हिकी के प्रहार बढ़ते जा रहे थे, अंततः जिसने हिकी को हेस्टिंग्ज के मुकाबले ला खड़ा किया। स्वीडिश मिशनरी जॉन अकारिया कीरंडेर ने हिन्दी के खिलाफ मुकदमा चला दिया, जिससे हिकी को चार महीने की कैद और पाँच सौ रुपये जुर्माने से दंडित किया गया। जब तक वह जुर्माना अदा न करता, तब तक उसे जेल में ही रहना था। इसके बावजूद हिकी ने रास्ता नहीं बदला और उसने गवर्नर और मुख्य न्यायाधीश के खिलाफ भी कटु लेखन जारी रखा। इस बीच यूरोपीय लोगों की अगुवाई में करीब चार सौ हथियार बंद लोगों की भीड़ ने हिकी की प्रेस पर धावा बोल दिया। हिकी से अस्सी हजार रुपये की जमानत माँगी गई, जिसे वह दे न सका और उसे जेल भेज दिया गया। जेल में रहते हुए भी हिकी अखबार का संपादन करता रहा। यही नहीं, उसने अपना स्वर भी नहीं बदला।"'

स्पष्ट है कि पत्रकारिता को प्रजातंत्र का चौथा स्तंभ कहा जाता है, पर इसके खतरे टले नहीं हैं। स्वतंत्रता के पूर्व भारतीय पत्रकारिता का उद्देश्य स्वतंत्रता प्राप्ति के प्रयास का वातावरण निर्मित करना और भारत की गौरव गाथा का स्मरण करना हुआ करता था। स्वतंत्रता प्राप्ति के प्रारंभिक वर्षों तक तत्कालीन घटनाओं की प्रवृतियों को प्रकट करना पत्रकारिता का ध्येय बन गया। इसके बाद भी पत्रकारिता में वह पैनापन और विस्तृत फलक नहीं था, जिसमें संपूर्ण भारतीय चित्तवृत्तियों के दिग्दर्शन होते हों। आजादी के पूर्व के भाषाई मीडिया का चरित्र इससे हटकर नहीं था। फिर चाहे 'जाम-ए हजाँनुमा' (उर्दू) हो, 'संवाद कौमुदी' (बंगाल) हो, 'मिरात-उल-अखबार' (फारसी) हो, 'मुंबई समाचार' (गुजराती) हो अथवा अन्य भाषाई समाचार पत्र हों।

भाषाई मीडिया :

जिसे आज 'भाषाई मीडिया' कहा जाता है, अखबारी दुनिया के प्रारंभिक वर्षों में 'भाषाई पत्रकारिता' के नाम से वह अभिहित होता था। हिन्दी की प्रारंभिक पत्रकारिता अन्य भाषाई पत्रकारिता से अनेक अर्थों में भिन्न है। "यहाँ अंग्रेजी, बंगला, कन्नड़, तेलुगु, गुजराती आदि के शुरुआती समाचार पत्र धर्म पर केंद्रित थे। कन्नड़ का 'कन्नड समाचार' (1812), तेलगु का 'सत्य दूत' (1836) और मलयालम का 'राज्य समाचारम्' (1847) आदि समाचार पत्र धर्म प्रचार के माध्यम थे। ईस्ट इंडिया कंपनी ने कलकत्ता को अपना केंद्र बना लिया था। यही कंपनी के प्रशासन की राजधानी थी। यहीं से अंग्रेजी, हिन्दी, उर्दू के प्रारंभिक समाचार पत्र प्रकाशित हुए। ज्यों-ज्यों कंपनी का आधिपत्य बढ़ा तथा अन्याय ओर अधिकारों का दुरुपयोग बढ़ता गया त्यों-त्यों जनता में असंतोष घर करने लगा। 1780 से 1818 तक बंगाल से केवल अंग्रेजी में ही समाचार पत्र प्रकाशित हुए जिनमें से अधिकांश अधिकारियों के भ्रष्टाचार, अधिकारों के दुरुपयोग और कंपनी की नीतियों के निहित स्वार्थों की आलोचना करने से नहीं चुकते थे।" स्पष्ट है, अपने प्रारंभिक दिनों में भाषाई मीडिया अपने स्वरूप को गढ़ रहा था।

पूर्वोत्तर में प्रेस का प्रवेश पर्याप्त विलंब से हुआ। सन् 1840 में ईसाई मिशनरियों ने अपनी एक प्रेस तत्कालीन असम प्रांत के शिवसागर में स्थापित की। इसका उद्देश्य असमिया भाषा के ईसाई धर्म का प्रचार करना था। असमिया भाषा में निकलने वाली पहली पत्रिका 'अरुणोदय' थी जिसका प्रकाशन सन् 1846 से प्रारंभ हुआ। यद्यपि इसका उद्देश्य भी ईसाई धर्म का प्रचार करना था तथापि इसने अन्य विषय भी स्पर्श किए। "इसके प्रकाशन का उद्देश्य भी ईसाई धर्म का उपदेश साधारण लोगों तक पहुँचाना था। साथ-साथ विज्ञान, इतिहास, समाजशास्त्र, विश्ववार्ता, भ्रमण-वृत्तांत, जीवनी और कहानी आदि का भी प्रकाशन नियमित रूप से होता रहा।" तात्पर्य यह है कि भारतीय भाषाई समाचार पत्रों के जन्म से उसकी शेष अवस्था तक इनकी संख्या सीमित थी और उद्देश्य बँधी बँधाई लीक पर चलना था। प्रथम स्वतंत्रता संग्राम तक देश के विभिन्न भागों में विविध भाषाई अखबार या तो निकल रहे थे या उसनके निकलने की पृष्ठभूमि तैयार हो चुकी थी, यह आजादी के पहले की बात थी।

सन् 1997 में समाचार पत्र 100 भाषाओं में छप रहे थे। अंग्रेजी और संविधान की 8वीं अनुसूची में 18 भारतीय भाषाओं के अलावा समाचार पत्र 78 अन्य भाषाओं में छपे। सन् 1999 के उपलब्ध आँकड़ों के अनुसार असमिया में 15, बंगाल में 99, गुजराती में 118, कन्नड़ में 314, कोंकड़ी में 1, मलयालम में 213, मणिपुरी में 14, मराठी में 346, नेपाली में 3, उड़िया में 71, पंजाबी में 107, संस्कृत में 3, सिंधी में 11, तमिल में 352, तेलुगु में 151 और उर्दू में 519 दैनिक समाचार पत्र प्रकाशित हो रहे थे।

हाशिये की आवाजें :

निश्चित ही प्रारंभिक भाषाई मीडिया में हाशिये पर पड़ी कराहती एवं सिसकियाँ भरती आवाजों को कोई स्थान नहीं था, पर आज वह बात नहीं है। अतीत के अखबारी विषयों में धर्म, राजनीति, कला, साहित्य आदि प्रमुख हुआ करते थे। इनके अतिरिक्त और अधिक हुआ तो नई-नई वैज्ञानिक उपलब्धियों की हलचल परिलक्षित हो गई। 1857 की क्रांति के ठीक पूर्व और बाद की घटनाओं को भी इस समय के भाषाई समाचार पत्रों में स्थान प्राप्त हुआ। अंग्रेजों, उनके समर्थ देशी रजवाड़ों, जमींदारों तथा साहूकारों की चित्तवृत्तियों का चित्रण भी हुआ, पर हाशिये पर पड़ा दलित, शोषित, श्रमिक, मजदूर, कृषक और नारी की पारंपरिक परिस्थितियाँ या तो विश्लेषित भी नहीं हो सकीं और हुईं भी तो इन्हें समाचार पत्रों में वह सुर्खी प्राप्त नहीं हो सकी, जो अपेक्षित थी। इन समाचार पत्रों के साथ एक और विडंबना थी। एक ओर ये अंग्रेजी हुकूमत द्वारा किये गये अन्याय का हल्की शब्दावली में विरोध करते थे, तो दूसरी ओर उसकी प्रशंसा करना भी इनकी विवशता थी।

सन् 1854 में प्रारंभ हुए हिन्दी और बंगला के दैनिक समाचार 'सुधावर्षण' के18 मई, 1855 के अंक से एक उदाहरण यहाँ उद्धृत करना समीचीन होगा- "हमलोगों के गवर्नर जनरल लार्ड डलहौजी बहादुर ने नागपुर राज्यापहरण कर राजरानियोंका गहना और सब खजाना लूटकर कलकत्ता महानगर के तोषक खाने में रखा।हेमलटन कंपनी के साहेबान लोग स्पष्ट रूप से समाचार पत्रों में विज्ञापन देकर उनपदार्थों को निलाम करके बेचने का समय सभी को जनावेंगे और एक विशेष बातसुनने में आई है कि नागपुर के महाराज की रानी जिस महल में वास करती हैउन्हीं को उस महल से निकालकर दूर कहीं और एक क्षुद्र स्थान पर वास करवानेकी इच्छा करते हैं और उस राजमंदिर में कमिश्नर साहब को वास करने के लिएअनुमति देने वाले हैं। लेकिन यह बात सत्य है कि नहीं हम लोग नहीं कह सकते।अगर यह बात सत्य है तो ब्रिटिश गवर्नमेंट ने भारतवर्ष निवासी राजाओं परअन्याय, अत्याचार और जोर-जबर्दस्ती करने का जो प्रयास किया था अब उसकीहद हो चुकी। कहीं से धन, गहना और कपड़ा लूटकर फिर बैठने का झोपड़ा भीछीनने का जब इरादा किया, इससे अधिक और जोर-जबर्दस्ती क्या हो सकती है?नागपुर राज्य पर जितना बल प्रयोग किया उतना अन्य किसी राज्य पर नहीं।

क्या नागपुर के महाराज ने अंग्रेजों पर बड़ा दुराचार किया था। वृथा निरापराधी राजाओं के मरने पर उनकी विधवा रानियों को कई प्रकार की यातनाएँ देते हैं, यह क्या उचित है? लेकिन अब इन लोगों को भी सब लोग कहेंगे लोग बड़े दुराचारी और अन्यायी हैं। जो हो एक बात का बड़ा आश्चर्य मालूम होता है और हम लोग हमेशा बराबर सुनते हैं कि अंग्रेज लोग स्त्री जाति पर बड़ी दया करते हैं और उन्हें किसी बात का कष्ट भी नहीं देते हैं। इतने दिनों तक अंग्रेजों का दयालुपन प्रकाश में नहीं आया था। ईश्वर की इच्छा से ही भारत और यूरोप में दयालुता का प्रकाश चमका, परंतु हम लोगों के गवर्नर जनरल लार्ड डलहौजी बहादुर बड़े कुलीन, ज्ञानी, प्रतिष्ठित, दयावान एवं परोपकारी थे। उन्होंने नागपुर की रानियों पर अत्याचार किसके आदेश से किया सो नहीं कहा जा सकता। "5

इस समाचार में हाशिये पर पड़े आम आदमी की आवाज कहीं नहीं है। पर यह समस्या तत्कालीन परिवेश की थी। ऐसा करना उस समय के समाचार पत्रों की विवशता थी। फिर भी, भाषाई मीडिया आम आदमी के सरोकारों से सर्वथा विमुख नहीं था। "इस काल में पत्रों को, सरकार के विरुद्ध भड़काने और सरकार का तख्ता पलटने के उद्देश्य से जनमत तैयार करने का दोषी नहीं ठहराया जा सकता। ऐसा प्रतीत होता है कि उसका उद्देश्य अपनी शिकायतों को दूर कराने तक ही सीमित था। फिर भी भारतीय भाषाओं के समाचार पत्रों का जनता पर अत्यंत महत्त्वपूर्ण तथा गहरा प्रभाव पड़ रहा था। इसका प्रभाव इतना व्यापक था कि 1850 में ही इस ओर सरकार का ध्यान गया। अनपढ़ लोगों पर इसका प्रभाव पड़ता था क्योंकि पाठशाला का अध्यापक या गाँव का मुखिया अनेक लोगों को समाचार पत्र जोर-जोर से पढ़कर सुनाता था। कर्जन तथा भारत सचिव हैमिलटन भी इन भाषाई पत्रों से परेशान थे।"6

स्वतंत्रता के पश्चात् हाशिये पर पड़े लोगों के कल्याण के लिए सरकार ने अनेक योजनाएँ तैयार कीं। शिक्षा के प्रसार के कारण जागृति का प्रकाश जन-जन तक पहुँचा और मीडिया की इसमें अभूतपूर्व भूमिका रही। परिस्थितियों के परिवर्तन के साथ मीडिया के चरित्र और स्वभाव में भी परिवर्तन तो हुआ पर उतना ही नहीं जितना अपेक्षित था। किसानों, मजदूरों और शोषितों की समस्याएँ भाषाई मीडिया ने उठायीं, पर कार्यवाहियाँ उन्हीं पर हुईं जिन्हें राजनैतिक मंच का प्रबल संबल प्राप्त हुआ। भागलपुर का आँख फोड कांड हो अथवा मध्यप्रदेश का मुलताई कांड, जिसमें निहत्थे प्रदर्शनकारी कृषकों पर पुलिस ने बर्बरता पूर्ण अत्याचार किया था। इन सबको मीडिया ने उछाला पर मीडिया से अधिक राजनैतिक दलों के आंदोलनों ने सरकारों को कटघरे में खड़ा किया।

अभी हाल ही में कुछ माह पूर्व कर्नाटक और आंध्रप्रदेश में फसलों केविनष्टीकरण से दुखी कर्ज के बोझ से दबे किसानों की आत्महत्या का सिलसिलाप्रारंभ हुआ। इस मानवीय समस्या को सभी भारतीय भाषाई समाचार पत्रों नेप्रमुखता प्रदान की। इस घटना पर संपादकीय लिखे गए और अखबारी लेखकों नेइस घटना की विषय वस्तु को लेकर विश्लेषणात्मक और सटीक लेख लिखे।'दैनिक जागरण' (ग्वालियर) ने अपने 30 अक्टूबर, 2007 से लेकर लगातार 4नवंबर, 2007 तक एक ऐसे भूमि घोटालो का रहस्योद्घाटन किया जो अपने आप अभूतपूर्व है। गरीब अनुसूचित जाति एवं अनुसूचित जनजाति वर्ग के भूमिहीनों की भूदान से प्राप्त कृषि भूमि राजस्व अधिकारियों ने रसूखदार के नाम कर दी, जबकि यह भूमि बेची नहीं जा सकती। बेचारे किसान मन मसोस कर रह गए। कोर्ट-कचहरी के लिए पैसा और सबल से टकराने का हौसला कहाँ लाएँ?

'दैनिक जागरण' ने इन मूक नर पशुओं को स्वर दिये, परिणामतः लगभग 50 वर्ष बाद अपनी खोई भूमि पाने की लालसा इनमें बलवती हुई है। जिस जमीन पर विशुद्ध रूप से भूमिहीन गरीब का इतना भर हक था कि वह उसे जोतकर अपनी उदर पूर्ति कर सके, ऐसी अस्थायी पट्टे पर प्रदाय की गई भूदान की जमीनों के मात्र पट्टे और किताबें हीं इन कृषकों के पास शेष रह गईं। जमीन इनके नीचे से खिसकर धन्ना सेठों के हाथ में पहुँच चुकी है। तात्पर्य यह है कि आज भाषाई मीडिया में आम आदमी के अकेले और कराहते स्वर की तरंगों को तरंगायित होने के लिए पर्याप्त स्थान प्राप्त हो रहा है।

भाषाई मीडिया: सीमाएँ :

भाषाई मीडिया की अपनी सीमाएँ हैं। अखबार के सुचारू संचालन हेतु अर्थ-व्यवस्था, ग्राहक, विज्ञापन, दलीय प्रतिबद्धता आदि ऐसे बिंदु हैं, जिनसे कोई अखबार प्रभावित हुए बिना रह नहीं सकता। इन प्रभावों के कारण हाशिये पर पड़ी आवाजें अर्थात् वंचितों, पीड़ितों और शोषितों को जो जगह, जो स्थान मीडिया में मिलना चाहिए, वह नहीं मिल पाता है। आज भी देश का एक बड़ा प्रतिशत इन समस्याओं से जूझ रहा है। स्वास्थ्य, शिक्षा, कुपोषण, भूख, महामारी इन घेरों में आबद्ध अंतिम छोर का जन अब भी व्याकुल है।

भाषाई मीडिया को वर्तमान में इलेक्ट्रोनिक मीडिया से कड़ी चुनौतियाँ प्राप्त हो रही हैं। दर्शक को पाठक के रूप में परिवर्तित करने के लिए समाचार पत्रों के पास एक ही उपाय है-समाचार पत्र में उन खबरों के लिए अधिक से अधिक स्थान उपलब्ध कराना। स्पष्ट है, जब जनरुचि के नाम पर ऐसी खबरों को इन खबरों के साथ-साथ राजनीतिक जोड़-तोड़, राजनीतिक भ्रष्टाचार, व्यापार, सिनेमा, क्रिकेट, साहित्य और विज्ञापनों से अखबारी पृष्ठ भरे जायेंगे तो समाज के सबसे कमजोर व्यक्ति को सबसे कम अथवा एक कोने के छोटे से कॉलम में ही स्थान प्राप्त हो सकेगा।

इलेक्ट्रानिक मीडिया के सर्वाधिक शक्तिशाली और जनप्रिय होने के उपरांत भी भाषाई मीडिया का महत्त्व असंदिग्ध है। इन दोनों में मूलभूत अंतर यह है कि जहाँ इलेक्ट्रोनिक मीडिया उच्च वर्ग और मध्यम वर्ग की आँखों का तारा है वहीं भाषाई मीडिया एक कम पढ़े लिखे मजदूर को भी सहज उपलब्ध है। एक अखबार को एक मजदूर चाय के चलते-फिरते हाथ ठेले पर भी चाय पीते समय पढ़ लेता है। पर उसमे छपी आभिजात्य वर्गीय खबरों से उसकी मानसिकता तालमेल नहीं बैठा पाती है। अखबार का मुख पृष्ठ उसे आकर्षित नहीं करता। अखबार के व्यापारिक और खेलकूद तथा साहित्य कला के अक्षरों से उसकी भावनाएँ नहीं जुड़ पाती हैं। 12-14 पृष्ठ के अखबार में एकाध छोटे से कॉलम में छपी खबर उसे आकृष्ट कर लेती है, क्योंकि वह खबर उसकी अपनी दुनिया की धड़कनों की होती है। पर, समस्या यह है कि ऐसे कितने भाषाई अखबार हैं, जो इन धड़कनों की आवाज को सुनते हैं और उसका सम्मान न सही, उन पर ध्यान देते हैं? पर अब समय आ गया है कि हाशिये पर ठुकरायी पड़ी आवाजों को पृष्ठ के प्रमुख भागों पर स्थान दिया जाए और भाषाई मीडिया के मूल्यों को पुनर्व्याख्यायित कर उन्हें पुनर्प्रतिष्ठित किया जाए।

संदर्भ :

1. भारतीय पत्रकारिता : नींव के पत्थर : डॉ. मंगला अनुजा, पृ. १

2. वही पृ. 23

3. असमिया साहित्य का इतिहास चित्र मंहत, पृ. 81

4. मनोरमा ईयर बुक (2002) सं. माम्मन मात्यु, प. 702

5. भारतीय पत्रकारिता नींव के पत्थर डॉ. मंगला अनुजा, पृ. 69

6. आधुनिक भारत का इतिहास सं. आर. एल. शुक्ल, पृ. 387

 

कार्यालयी अनुवाद

भारत में प्रशासनिक कार्य प्रणाली का जो वर्तमान स्वरूप है, उसका श्रीगणेश अंग्रेजों के द्वारा हुआ। यही कारण है कि स्वतंत्रता के पश्चात् विकसित प्रशासनिक कार्य प्रणाली से संबंधित समस्त शब्दावली, कार्य प्रकार और समूचा साहित्य अंग्रेजी में है। अंग्रेजों के शासन से ठीक पूर्व तक भारत की केंद्रीय सत्ता मुसलमान शासकों के हाथ में थी और राजभाषा के रूप में फारसी, अरबी तथा उर्दू का वर्चस्व रहा। इस काल में हिन्दी थी अवश्य, परंतु उसका राष्ट्रीय एवं प्रशासनिक स्वरूप नहीं था। खड़ीबोली तो अपने संशोधित एवं परिष्कृत रूप में वर्षों बाद भारतीय भाषा आकाश में परिलक्षित हुई। अन्यथा हिन्दी राजकाज के कार्यों के लिए सर्वधा उपेक्षित रही। इसकी उपयोगिता केवल साहित्य और काव्य के क्षेत्र तक सीमित रही, इसमें भी ब्रज का प्राधान्य रहा। यद्यपि राजकाज में सुविधा के लिए मुगल शासकों ने दिल्ली, मेरठ, सहारनपुर आदि के आसपास बोली जाने वाली खड़ीबोली को प्रोत्साहित अवश्य किया, परंतु इसे राजदरबार की ड्योढ़ी के बाहर ही खड़ा रखा, भीतर नहीं आने दिया गया उसे।

स्वतंत्रता के पूर्व से ही राष्ट्रभाषा के नाम पर जबरदस्त विवाद छिड़ गया और यह विवाद इतिहास का एक भाग बनकर रह गया। एक पक्ष संस्कृतनिष्ठ शब्दावली से युक्त शैली की हिन्दी का पक्षधर था, दूसरा उर्दू मिश्रित शब्दावली का। हिन्दी के प्रारंभिक गद्य लेखकों में से एक राजा लक्ष्मण सिंह प्रथम प्रकार की हिन्दी के पक्षधर थे, तो राजा शिवप्रसाद दूसरे प्रकार के।

सन् 1835 में अंग्रेजी शिक्षा प्रचार का लार्ड मैकाले का प्रस्ताव कंपनी सरकार ने पारित कर दिया और देश भर में अंग्रेजी भाषा के स्कूल खोले गये। अदालती भाषा के प्रश्न पर स्कूलों में हिन्दी को अनिवार्य विषय के रूप में पढ़ने के प्रश्न पर मतभेद उभर आये। जनसाधारण अदालती भाषा-अरबी-फारसी नहीं समझती थी। "सर्वसाधारण जनता की फारसी भाषा और उसकी लिपि संबंधी कठिनाइयों को देखकर सन् 1836 में कंपनी सरकार ने आज्ञा जारी की कि सारा अदालती काम देश की प्रचलित भाषाओं में हुआ करें। इसके परिणामस्वरूप संयुक्त प्रांत में हिन्दी खड़ीबोली को वहाँ की अदालती भाषा स्वीकार कर लिया गया। सारा अदालती कार्य हिन्दी भाषा और लिपि में होने लगा। कंपनी सरकार भाषा संबंधी इस नीति पर चिरकाल तक टिक न सकी। केवल एक वर्ष के पश्चात् उत्तरी भारत के सब दफ्तरों की भाषा उर्दू कर दी गयी। यह सब मुसलमानी विरोध के कारण हुआ।" परंतु ये सब अतीत के पन्नों में सिमटा इतिहास बन चुका है।

भारत स्वतंत्र हुआ और हिन्दी को राजभाषा का दर्जा प्राप्त हुआ। "संविधान की धारा 343 में कहा गया है कि संघ की राजभाषा देवनागरी लिपि में लिखी जाने वाली हिन्दी होगी और भारतीय अंकों के स्थान पर अंग्रेजी अंकों का प्रयोग होगा। अंग्रेजी, जिसे मूलतः 26 जनवरी, 1965 तक सह-राजभाषा के रूप में चलना था अब राजभाषा अधिनियम 1963 के अधीन उक्त तिथि के बाद भी हिन्दी के साथ-साथ चलती रहेगी।" ऐसी स्थिति में यह आवश्यक हो गया है कि अनुवाद को सशक्त बनाया जाये। भारतीय संविधान ने 22 भाषाओं को आठवीं अनुसूची में धारा 344 (1) और 345 (1) के अंतर्गत् मान्यता प्रदान की है। इनमें से हिन्दी एक है। इन 22 भाषाओं में हिन्दी का स्थान महत्त्वपूर्ण है। संविधान के अनुच्छेद 344 के खंड एक के अनुसार सन् 1955 में राजभाषा आयोग बनाया गया। इस आयोग ने समय-समय पर राजभाषा के संवर्द्धन हेतु महत्त्वपूर्ण सिफारिशें कीं। केंद्र सरकार ने इन सिफारिशों को माना और इन्हें क्रियान्वित करने हेतु समय-समय पर आदेश जारी किये।

अनुवाद और इसका शास्त्रीय पक्ष :

अनुवाद का भारतीय और वैश्विक इतिहास अत्यंत प्राचीन है। विदेशी यात्री और विद्वान भारतीय संस्कृति से प्रभावित होकर इस देश में आते रहे हैं और वर्षों इस देश की भूमि पर रहकर ज्ञान-पिपासा को शांत करते रहे हैं। इन विद्वानों में चीनी विद्वानों का फाह्यान और ह्वेनसांग के नाम उल्लेखनीय हैं। हजारों वर्षों से भारतीय संस्कृत ग्रंथों का अनुवाद अरबी-फारसी, ग्रीक, लैटिन और चीनी आदि भाषाओं में होता रहा है। परंतु इनका विषय क्षेत्र धर्म, ज्योतिष, औषधि, रसायन, पशु चिकित्सा, चिकित्सा आदि हुआ करते थे। काव्य और नाटकों आदि का अनुवाद भी होता था। मुगल शासन में संस्कृत, पालि, प्राकृत अव अपभ्रंश की अनेक कृतियों का अरबी-फारसी में तथा अरबी फारसी की अनेक कृतियों का देशी भाषाओं में अनुवाद हुआ। इतना ही नहीं राजदरबारों में परस्पर विचार-विनिमय और वार्तालाप हेतु विधिवत् दुभाषिये हुआ करते थे। समय बदला। देश में अंग्रेजों का शासन हुआ। अंग्रेजी भाषा हिंदुस्तानियों ने सीखी और टूटी-फूटी हिन्दी तथा अन्य भाषाएँ अंग्रेजों ने। अंग्रेजी साहित्य का भारतीय भाषाओं में अनुवाद हुआ और अंग्रेजों ने भी अपने धर्म और नीतियों के प्रचारार्थ भारतीय भाषाओं को माध्यम बनाया। परंतु इतना ही पर्याप्त नहीं था। अंग्रेजों ने भारत को जहाँ एक ओर अनेक आधुनिक व्यवस्थाएँ दीं, वहीं एक सुसंबद्ध प्रशासनिक कार्य प्रणाली भी दी। परंतु इस प्रणाली का संपूर्ण साहित्य अंग्रेजी में था, इसे हिन्दी में अनूदित करना आवश्यक समझा गया। हिन्दी के साथ-साथ बंगला, मराठी, गुजराती, तमिल, तेलुगु, कन्नड़, असमिया आदि में भी अनुवाद करना आवश्यक हो गया। इस आवश्यकता की तैयारियाँ स्वतंत्रता के ठीक पूर्व में होने लगी थीं। यहाँ इस तथ्य का उल्लेख करना समीचीन होगा कि भारतीय संविधान की संरचना अंग्रेजी भाषा में हुई। संविधान लागू होने के 36 वर्ष बाद 58 वे संविधान संशोधन (सन् 1987) द्वारा संविधान के हिन्दी अनुवाद का प्रावधान किया गया। आज भी जहाँ कहीं हिन्दी के पत्र अथवा परिपत्र जारी किये जाते हैं, वहाँ विवाद की स्थिति में उसके अंग्रेजी मूल की मान्यता होती है। शिक्षा के क्षेत्र में भी प्रयुक्त किसी हिन्दी शब्द का अंग्रेजी मूल मान्य है।

कार्यालयी अनुवाद :

कार्यालयीन प्रक्रियाओं आदि का अंग्रेजी से हिन्दी में अनुवाद का कार्य तब प्रारंभ हुआ, जब हिन्दी को राजभाषा घोषित कर दिया गया। अनुवाद के इस कार्य के लिए अलग-अलग एजेंसियों ने अलग-अलग कार्य किये। केंद्रीय शिक्षा मंत्रालय (अब मानव संसाधन विकास मंत्रालय) के अंतर्गत् केंद्रीय हिन्दी निदेशालय ने अनुवाद कार्य किया तो विभिन्न केंद्रीय मंत्रालयों ने भी उनके विभाग में प्रचलित शब्दों के अनुसार अनुवाद का कार्य संपादित किया। ऐसे मंत्रालयों में रेल मंत्रालय, डाक एवं तार मंत्रालय, रक्षा मंत्रालय, वित्त एवं लेखा, दूर संचार, बीमा निगम, प्रसार भारती आदि प्रमुख हैं। इन मंत्रालयों में रेल मंत्रालय अग्रणी है जिसने अनुवाद कार्य को प्राथमिकता ही प्रदान नहीं की अपितु उनका जबरदस्त व्यवहारिक क्रियान्वयन भी किया। "गृह मंत्रालय ने 1971 में असंविधिक मैनुअलों, नियम पुस्तकों, नियमावलियों, फॉर्मों तथा अन्य कार्य विधि साहित्य के अनुवाद में शीघ्रता लाने के लिए केंद्रीय अनुवाद ब्यूरो की स्थापना की। प्रति वर्ष लगभग 30,000 मानक पृष्ठों का अनुवाद यह संस्था करती आ रही है। इस तरह सब मिलाकर राजभाषा हिन्दी में अनुवाद कार्य काफी हुआ है। इतने अधिक अनुवादों का परिणाम यह हुआ है कि राजभाषा हिन्दी अपनी प्रकृति में अनुवाद की भाषा सी हो गये हैं।

स्पष्ट है, अनुवाद की जो प्रकृति होनी चाहिए, अनेक संस्थाओं के विद्वान विशेषज्ञों द्वारा उसे नजरअंदाज कर दिया गया है। कहीं-कहीं तो अनुवाद ऐसे किये गये हैं, मानों अनुवाद न होकर शब्दकोश बनाया हो। कहीं-कहीं कार्यालयों में 'नहीं प्रवेश' के बोर्ड टैंगे रहते हैं जो "No Admission" का अनुवाद है। पर "No Admission" का 'नहीं प्रवेश' अनुवाद हिन्दी की प्रकृति के सर्वथा विरुद्ध है। हिन्दी की प्रकृति के अनुसार इसका अनुवाद- 'प्रवेश निषेध' अथवा 'अंदर आना माना है' जैसे वाक्यों द्वारा होना चाहिए। 'नहीं प्रवेश' तो "No Admission" का शब्दानुवाद मात्र बनकर रह गया।

अनुवाद मात्र शब्दानुवाद नहीं होता और न ही उसे छायानुवाद होना चाहिए। अनुवाद को भावानुवाद होना चाहिए। अच्छे अनुवाद की विशेषता ही यही है कि उसे लक्ष्य भाषा की प्रकृति के अनुकूल होना चाहिए। यदि ऐसा नहीं होता तब वह सफल अनुवाद नहीं हो सकता और न ही उसमें स्त्रोत भाषा के भावों की अभिव्यक्ति हो सकती है।

कार्यालयी अनुवाद का वैशिष्ट्य :

प्रशासकीय कार्यों की भाषा का वैशिष्ट्य यही है कि स्त्रोत भाषा की मूल भावाभिव्यक्ति लक्ष्य भाषा में हो। मात्र भावाभिव्यक्ति ही नहीं हो, अपितु अनुवाद लक्ष्य भाषा की प्रकृति के अनुकूल हो। डॉ. भोलानाथ तिवारी ने हिन्दी की प्रकृति के अनुरूप अनुवाद के कतिपय उदाहरण प्रस्तुत किये हैं, जिन्हें उद्धृत करना यहाँ समीचीन होगा :

1. यह पत्र ...... के द्वारा लिखा है [This letter has been written by] यह पत्र ....... ने लिखा है।

2. प्रवर्तन में आना [To come into operation] चालू होना, लागू होना।

3. वापसी डाक द्वारा [By return of Post] वापसी डाक से।

4. के हित में हानिकारक (Detrimental in the interest of...] केलिए हानिकार/ अहितकार।

5. ..... के दौरान में [In the course of] के दौरान।

6. की उपस्थिति में [In Present of] के सामने।

7. यह सुझाव दिया जाता है कि [It is suggested] यह सुझाव है।

8. ठीक अभी [Just now] अभी, अभी-अभी।

9. किसी भी प्रकार से [By any means] किसी भी प्रकार।

10. ऊपर उल्लिखित [Above mentioned] उपर्युक्त

11. कागज पर बैठना [To sit over the paper] कागज दबा लेना।

12. आदेशानुसार जिलाधीश के [By the order of Collector] जिलाधीश की आज्ञा से।

डॉ तिवारी ने जो कतिपय उदाहरण प्रस्तुत किये हैं ऐसे अन्य अनेक उदाहरण और भी मिल सकते हैं। ये उदाहरण खटकते इसीलिए हैं कि इनकी प्रकृति अंग्रेजी पर अधिक आश्रित है। परंतु कार्यालयी पत्र व्यवहार और अनुवाद में ऐसी तमाम अभिव्यक्तियाँ हिन्दी में हैं जो अब हिन्दी की अपनी बन चुकी हैं। ये इतनी अधिक प्रचलन में आ चुकी हैं कि हिन्दी की ये अपनी नहीं होने के बाद भी इनके अभाव में काम नहीं चलता। ये अनुवाद के द्वारा मूल रूप से अंग्रेजी से ही आई हैं। ऐसा क्यों है? डॉ. भोलानाथ तिवारी ने इसके लिए दो प्रकार के अनुवाद को जिम्मेदार ठहराया है-एक तो अंग्रेजी में प्रस्तुत प्रशासनिक साहित्य का हिन्दी अनुवाद, दूसरे, अंग्रेजी के प्रशासनिक रूप से अभिभूत लोगों द्वारा अंग्रेजी में सोचकर उसका हिन्दी अनुवाद कर हिन्दी में लिखने की परंपरा। अनुवाद की यह दूसरे प्रकार की * प्रकृति अधिक प्रचलन में परिलक्षित होती है। क्योंकि आज भी हिंदुस्तानी विद्वानों पर अंग्रेजी का जबरदस्त प्रभाव है और अंग्रेजी से हिन्दी अनुवाद में यह अंग्रेजी प्रेम स्पष्टतः परिलक्षित होता है।

डॉ. तिवारी अनुवाद के प्रसंग में यहाँ एक दूसरा प्रश्न उठाते हैं कि "किसी ने कहा कि अनुवाद कस्टम हाउस है, जिससे होकर स्रोत भाषा के प्रयोग का विदेशी माल लक्ष्य भाषा में, अन्य स्रोतों की तुलना में अधिक आ जाता है, यदि अनुवादक अपेक्षित सतर्कता न बरतें।" पर, जैसा कि ऊपर उल्लेख किया जा चुका है, तमाम सतर्कता के बाद भी अंग्रेजी रूझान के कारण राजभाषा हिन्दी के रक्त में ऐसा तमाम विदेशी रक्त आ चुका है और इसका प्रवाह अभी रुका नहीं है। इस प्रवाह को रोकना चुनौती भरा काम है, परंतु इसे रोकना ही होगा। यहाँ यह तथ्य उल्लेखनीय होगा कि हिन्दी की प्रकृति अत्यंत लचीली है। सबको समाहित करने का इसमें विशिष्ट गुण है। अपने इसी विशिष्ट गुण के कारण इसने अनुवाद के उन आयामों को भी समाहित कर लिया है, जो अंग्रेजी की प्रकृति के थे। इससे हिन्दी की हानि कुछ नहीं हुई, उसका कद ही बढ़ा है और पद बढ़ा है।

अनुवाद का शिथिल पक्ष :

भारतीय संविधान के अनुच्छेद 344 (1) के आधार पर सन् 1955 में राजभाषा आयोग नियुक्त किया गया है। इस आयोग ने राजभाषा हिन्दी के उन्नयन तथा प्रशासनिक कार्यों में हिन्दी को बढ़ावा देने के लिए अपनी अनेक अनुशंसाएँ कीं। इन अनुशंसाओं की जाँच के लिए संविधान के अनुच्छेद 344 (4) के अनुसार 30 सदस्यों की एक समिति गठित की गई। इस समिति में 20 सदस्य लोक सभा के तथा 10 सदस्य राज्य सभा के थे। सन् 1959 में इस समिति ने अपना प्रतिवेदन राष्ट्रपति को सौंपा था। इस आयोग ने जो अनुशंसाएँ की थीं उसके बिंदु क्रमांक-1 में यह प्रस्ताव था कि प्रशासनिक क्षेत्रों में प्रयुक्त होने वाली आवश्यक विशिष्ट परिभाषाएँ तैयार करना और प्रमाणीकरण करना। प्रस्ताव क्रमांक-2 इस प्रकार था प्रशासन के दैनिक कार्यकलाप से संबंधित सरकारी प्रकाशनों, जिनमें नियम, विनियम दिये रहते हैं, हस्त पुस्तिकाओं तथा अन्य कार्यविधक साहित्य का हिन्दी में अनुवाद। आवश्यकता (2) के संबंध में कहा गया कि इस बात का पूर्ण रूप से निश्चय कर लेना आवश्यक होगा कि इस प्रकार के सारे कार्यविधिक साहित्य के अनुवाद में भाषा की एकरूपता हो। संसदीय समिति की अनुकूल राय इस पर यह थी कि इसे स्वीकार किया जा सकता है।

कार्यालयी अथवा प्रशासनिक अनुवाद का जो सर्वाधिक शिथिल पक्ष है, वह यही है कि इसमे एकरूपता नहीं है। ऐसा पारिभाषिक शब्दावली निर्माण के समय भी हुआ है। स्पष्ट है, पारिभाषिक शब्दावली में जब एकरूपता नहीं है, तब अनुवाद में भी यह प्रवृत्ति परिलक्षित होगी। स्वयं 'कार्यालयीन' शब्द ही इस विसंगति का शिकार है। शब्द 'Official' का अनुवाद कहीं 'कार्यालयीन' है, कहीं 'कार्यालयी' अन्य राज्यों की बात क्या की जाय, स्वयं हिन्दी भाषी राज्यों में शब्दों के समान अनुवाद प्राप्त नहीं होते। 'Block Development Officer' का अनुवाद उत्तर प्रदेश मे शब्दानुवाद किया जाकर जहाँ 'खंड विकास अधिकारी' प्रयुक्त हो रहा है, वहीं मध्य प्रदेश में इसका भावानुवाद- 'विकास खंड अधिकारी' प्रयुक्त किया जा रहा है। शब्द 'District' उत्तर प्रदेश में 'जनपद' है, मध्य प्रदेश में 'जिला' । शब्द 'Abstract' के लिए केंद्र में 'सार' है उत्तर प्रदेश में 'सारपत्र', बिहार में 'सारांश' तथा मध्य प्रदेश में 'संक्षेप। शब्द 'Category' का अनुवाद केंद्र में 'श्रेणी', 'वर्ग', 'दर्जा' तथा 'कोटि' है। राजस्थान में इसका अर्थ 'निकाय' और 'मद' है। मध्य प्रदेश में यह 'प्रकार' है तथा बिहार में 'प्रवर्ग'। ऐसे सैकड़ों शब्द और वाक्य हैं जो समान रूप से कहीं भी न तो अनूदित हैं और न व्यवहृत। कार्यालयी अनुवाद का यह सर्वाधिक शिथिल पक्ष है। यद्यपि ऐसे शिथिल पक्ष हैं और भी।

कार्यालयी कार्य प्रणाली में अनुवाद का अपना विशिष्ट महत्त्व है। राजभाषा हिन्दी के साथ-साथ अंग्रेजी में भी पत्राचार अनिवार्य है। अतः ऐसी स्थिति में यह आवश्यक है कि पारिभाषिक शब्दों के निर्माण और अंग्रेजी से हिन्दी तथा हिन्दी से अंग्रेजी के अनुवाद कार्य को सरल, सहज, बोधागम्य और हिन्दी की प्रकृति के अनुकूल बनाया जाये। जो पारिभाषिक शब्दकोश तैयार हुए हैं, उनमें अनेक शब्द ऐसे अप्रचलित तथा दुरूह हैं, जिनका उपयोग करने वाला चकरा जाता है और उस शब्द की अर्थ ग्राहिता के लिए उसे अंग्रेजी की शरण में पुनः जाना पड़ता है। कम-से-कम ऐसे शब्दों को परिवर्तित किया जा सकता है।

20 वीं शताब्दी के अंतिम दो दशकों से प्रारंभ हुई 'ग्लोबलाइजेशन' की प्रक्रिया ने कार्यालयी कार्य पद्धति तथा अनुवाद के क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन किया है। कम्प्यूटराइजेशन ने कार्यालयी पद्धति को कागज, फाइल और नोटशीट के मकड़जाल से मुक्त किया है और परंपरा से हटकर एक अलग ही संस्कृति का निर्माण किया है। सच तो यह है कि अब विश्व का सारा कार्य कम्प्यूटर ने संभाल लिया है। कार्यालयी अनुवाद के वैशिष्ट्य को इस नजरिये से भी देखा जाना आवश्यक है।

संदर्भ :

1. हिन्दी साहित्य युग और प्रवृत्तियाँ डॉ. शिवकुमार शर्मा, पृ. 590

2. मनोरमा ईयर बुक 2008, पृ. 692

3. वही, पृ. 693

4. वही, पृ. 599

5. राजभाषा हिन्दी : डॉ. भोलानाथ तिवारी, पृ. 103

6. वही, पृ. 104

7. वही, पृ. 106

8. वही, पृ. 105

9. वही, पृ. 110

 

हिन्दी-शिक्षण और विविध ज्ञानानुशासन

हिन्दी राष्ट्रीय सीमाओं को लाँघकर जब अंतर्राष्ट्रीय नभ में उन्मुक्त करने की ओर अग्रसर है और उस दिशा में उसके मजबूत पंख फड़फड़ा भी उठे हैं, ऐसी स्थिति में उसके अपने ही देश में हिन्दी-शिक्षण की बात करना बड़ा ही असहज सा लगता है। पर, आज के वैश्विक परिदृश्य में इस पर गंभीर चर्चा करना आवश्यक हो गया है। शिक्षा जगत के प्रथम सोपान पर पैर रखने से पूर्व इस बात पर चिंतन जरूरी हो गया है कि 'अ' अनार का रसपान करें अथवा 'ए' फॉर एपल का अथवा दोनों के मिश्रण का रसास्वादन करें? परिवर्तन सहज और प्राकृतिक प्रक्रिया है, इसे रोका नहीं जा सकता। विज्ञान के क्षेत्र में नित नये परिवर्तन हो रहे हैं और उसकी तकनीकी गति इतनी तीव्र है कि उसके साथ दौड़ने की ऊर्जा हम जुटा नहीं पा रहे हैं। जब तक हम अपनी भाषाई गति से उसे पकड़ने का उपक्रम करते हैं तब तक सरिताई तरंगों की भांति वह गड्डमड्ड होकर आगे बढ़ जाती है। हम नहीं पकड़ पा रहे हैं उसे। हिन्दी उस दौड़ में होड़ करने के प्रयास में असंतुलित होकर गिर पड़ी है। पारिभाषिक शब्दावलियों की पुरानी और 'एक्सपाइरी डेट' की 'बेंडेज' बाँधने से भी उसका लंगड़ाना बंद नहीं हुआ। यह पंगुता क्या ऐसी ही बनी रहेगी या कभी दूर होगी-विचारणीय मुद्दा यह है।

हिन्दी-शिक्षण :

अंग्रेजी शासन के पूर्व मुगलकाल से ही हिन्दी का वर्चस्व रहा है। राजकाज की भाषा अरबी-फारसी थी और इस भाषा को पढ़ना-लिखना अपने आप में गौरवशाली माना जाता था। "पढ़े फारसी बेंचे तेल/जे देखो कुदरत का खेल"- लोकोक्ति में फारसी के महत्त्व की स्पष्ट व्यंजना है, फिर भी उस काल में इसका प्रभाव क्षेत्र ठीक वैसा ही था, जैसा आज मुट्ठीभर अंग्रेजी शिक्षितों का है। हिन्दी का प्रचार जन-जन तक था। आदिकाल, भक्तिकाल और 1857 के पूर्व तक रचित रीतिकाल का विपुल साहित्य इस बात का पुष्ट प्रमाण है कि हिन्दी की दशा उस काल की विषम परिस्थितियों में भी श्रेष्ठ और सम्मानजनक थी।

स्पष्ट है, हिन्दी का शिक्षण कार्य प्रारंभ से ही होता था। यद्यपि हिन्दी की स्थिति बड़ी विचित्र थी। एक ओर संस्कृत थी जो पंडितों और शास्त्रज्ञों की भाषा थी, दूसरी ओर फारसी-अरबी और इन दोनों के मिश्रण से निर्मित उर्दू थी जिसे राजकीय संरक्षण प्राप्त था। हिन्दी की शैशवावस्था में, जो व्रजाच्छादित थी। फिर भी जनभाषा यही थी और इसमें शिक्षण कार्य होता था। अंग्रेजी सत्ता की स्थापना के पश्चात् संस्कृत और उर्दू वर्ग विशेष की भाषाएँ बनकर रह गयीं और हिन्दी के साथ अंग्रेजी कदमताल करने लगी। अनार और एपल का संग साथ हो गया। कालांतर में एपल का स्वाद भारतीयों के मुँह ऐसा लगा कि अनार का स्वाद उन्हें कसैला लगने लगा। अब शिक्षण हिन्दी में नहीं अंग्रेजी में होता है क्योंकि तेजी से बढ़ते तकनीकी प्रभाव के प्रवाह को रोकने की सामर्थ्य किसी में नहीं है और इसे व्यक्त करने की शक्ति हिन्दी के पास नहीं है-ऐसा अंग्रेजी शिक्षण के पक्षधरों का मत है। तो क्या सचमुच हिन्दी के सारे दाँत टूट चुके हैं और वह इतनी पोपली हो गई है कि उसके मुख से अस्पष्ट और अबूझ ध्वनियाँ निकलती हैं? इन प्रश्नों पर गहराई से मंथन और प्राप्त तथ्यों का विश्लेषण करना होगा।

अंग्रेजी के आगमन से पूर्व भारत के विविध क्षेत्रों में उनकी क्षेत्रीय भाषाओं तथा हिन्दी प्रदेशों में हिन्दी में शिक्षण कार्य होता था। हिन्दी में केवल काव्य और ईश्वरीय आराधना के पद ही सृजित नहीं हुए अपितु अन्य विषयों पर भी ग्रंथों का प्रणयन हुआ। वैद्यक, ज्योतिष, कृषि, पशुपालन, पक्षी विज्ञान, मौसम विज्ञान, आयुर्वेद, रसायन विज्ञान, खगोल विद्या, भूगर्भ विज्ञान-जितने भी ज्ञान के क्षेत्र उस काल में ज्ञात थे उन सब पर ग्रंथ लिखे गये। इनकी शैली गद्यात्मक कम, पद्यात्मक अधिक थी। ये ग्रंथ उस समय पाठ्य-पुस्तकों का काम करते थे, क्योंकि गद्य की अपेक्षा पद्य में किसी वस्तु को कंठस्थ करना और याद रखना कहीं अधिक सुगम होता है। हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग द्वारा की गई खोज रिपोर्ट के अनुसार काव्य के अतिरिक्त अन्य विषयों के हस्तलिखित ग्रंथों की संख्या निम्नानुसार है:

आयुर्वेद 64 ग्रंथ

प्राकृतिक चिकित्सा 01 ग्रंथ

स्त्री चिकित्सा 06 ग्रंथ

बाल चिकित्सा 10 ग्रंथ

पशु चिकित्सा 13 ग्रंथ

रसायन 08 ग्रंथ

मिश्रित ग्रंथ 08 ग्रंथ

समस्त चिकित्सा से संबंधित 45 ग्रंथ

कामशास्त्र 25 ग्रंथ

आख्यानक काव्य 21 ग्रंथ

वार्ता काव्य 26 ग्रंथ

सामान्य 07 ग्रंथ'

उपर्युक्त विषयक ग्रंथों के अतिरिक्त भी अन्य विषयों के हस्तलिखित ग्रंथ खोज निकाले गये :

ज्योतिष 105

तंत्र-मंत्र 10

छंदःशास्त्र 30

नीति और उपदेश 122

उक्त सूची के अवलोकन से विदित होता है कि सर्वाधिक ग्रंथ ज्योतिष से संबंधित हैं। ज्योतिष के अंतर्गत् गणित, फलित ज्योतिष, काल निर्णय, नक्षत्र विचार आदि के ग्रंथ समाहित हैं। नागरी प्रचारिणी सभा, वाराणसी द्वारा प्रकाशित खोज रिपोर्टों में भी इसी प्रकार के तमाम विषयों के ग्रंथों का उल्लेख किया गया है। इन समस्त ग्रंथों की प्राप्ति और उनकी प्रकृति से यह स्पष्ट ध्वनित होता है कि हिन्दी जब अपनी शैशवास्था में थी, तभी उसमें विविध ज्ञान को व्यक्त करने की तीव्र अभिव्यंजना शक्ति थी।

कोई भी ज्ञान नया नहीं होता, वह सृष्टि में पूर्व से ही विद्यमान होता है। वैज्ञानिक, आविष्कारक एवं शोधार्थी अपनी दिव्य दृष्टि द्वारा वह विचार और तत्त्व ग्रहण कर लेते हैं, जिन्हें जनसाधारण का सामान्य मस्तिष्क ग्रहण नहीं कर पाता। 'वि' उपसर्ग से निर्मित शब्द 'विज्ञान' में यह गुण है और विज्ञान जब विशिष्ट है तो इसकी अभिव्यक्ति का माध्यम-भाषा भी विशिष्ट होनी चाहिए। भारतीय वैज्ञानिक दृष्टि अत्यंत प्रखर तथा तीव्र रही है, परंतु पाश्चात्य देशों में वैज्ञानिक आंविष्कारों और सिद्धांतों की स्थापना ने भारत को गर्त में धकेल दिया, उसकी चिंतन धारा को रूढ़िवादी बनाने का प्रयास किया। इस प्रयास में वे काफी कुछ सफल भी रहे। इनकी दृष्टि में वैज्ञानिक दृष्टि सम्यक् ज्ञान की खोज में भारत का योगदान नहीं है और न ही वैज्ञानिक दृष्टि को विस्तार देने की क्षमता हिन्दी में है। इस तर्क को गढ़कर ये भले ही आत्ममुग्ध हो लें, पर सच यही है कि हिन्दी में विविध ज्ञानार्जन की क्षमता पहले भी थी, अब भी है। ऊपर वर्णित सूची की एक झलक में यह दर्शाया गया है कि प्रायः समस्त ज्ञान संबंधी पुस्तकों का लेखन हिन्दी में ही हुआ है और इन्हीं ग्रंथों को शिक्षण कार्य के लिए पाठ्यपुस्तकों की भाँति प्रयुक्त किया जाता था।

अंग्रेजी शासन की स्थापना के साथ-साथ देश के ज्ञान का प्रत्येक क्षेत्र अंग्रेजीमय हो गया। चिकित्सा, खगोल, गणित, यांत्रिकी, प्रबंधन, बैंकिंग आदि नये-नये क्षेत्र जब प्रादुर्भूत हुए तो उनके लिए प्रारंभ में वही नाम हिन्दी में स्वीकार कर लिये गये, जो अंग्रेजी में थे। परंतु इनके हिन्दीकरण की आवश्यकता महसूस की गई और अंग्रेजी शब्दों के पारिभाषिक शब्द तैयार किये गये। यहाँ एक चूक हो गयी। जिन विद्वानों को पारिभाषिक शब्दावली-निर्माण कार्य का दायित्व सौंपा गया, उन्होंने भाषा की परिशुद्धता का ध्यान तो रखा, भाषा के प्रयोगकर्ताओं की प्रकृति को नज़रअंदाज कर दिया। अतिशय विद्वता का प्रदर्शन करते हुए ऐसे-ऐसे पारिभाषिक शब्दों की रचना की गयी, जो न तो शिक्षकों द्वारा स्वीकार किये गये, न ही शिक्षार्थियों द्वारा। गणित के शब्दों (ट्रिगनामेट्री में) 'साइन', 'कॉस', 'थीटा', के हिन्दी पारिभाषिक के रूप में ज्या, कोज्या, स्पज्या रखे गये, (अब भी हैं), पर इनके समझने और उच्चारण में गणित के छात्रों को अत्याधिक परेशानी हुई। परिणाम यह हुआ कि त्रिकोणमिति (Triyonometry) के हिन्दी संस्करण धरे रह गये और साइन, कॉस-थीटा को छात्रों ने सिर माथे पर लिया सरलता मनुष्य का सहज स्वभाव जो है।

इसी प्रकार के पारिभाषिक शब्द अन्य विषयों में भी उपलब्ध होते हैं और अन्य क्षेत्रों में भी। न्याय, शिक्षा, मानविकी, वाणिज्य, बैंकिंग-अनेक नये-नये क्षेत्रों के लिए नये-नये पारिभाषिक शब्द तैयार हुए अवश्य, पर इनका समुचित उपयोग न शिक्षण कार्य में हो सका और न ही हिन्दी के संबर्द्धन में। ऐसे शब्द निर्माण के समर्थकों द्वारा एक तर्क दिया जाता है कि भारत का जन अभी इतना शिक्षित नहीं है कि इन नवीन शब्दों को आत्मसात करे। इनका कहना यह भी है कि इन शब्दों का प्रयोग करते रहने से ये स्वतः प्रचलन में आ जाएँगे। पर प्रश्न यह है कि इनका प्रयोग क्या कोई कर रहा है? यदि नहीं तो क्यों नहीं हो पा रहा है इन पारिभाषिक शब्दों का प्रयोग? किसी अध्यादेश अथवा अधिनियम को हिन्दी में अनुवाद करते समय यह बंधन क्यों लगा दिया जाता है कि किसी विवाद की स्थिति में इसका मूल अंग्रेजी रूप ही मान्य होगा और तो और, परीक्षाओं के समय प्रश्नपत्र हिन्दी में होते हैं, साथ ही उनका अंग्रेजी अनुवाद होता है। मान्यता अंग्रेजी अनुवाद के ही प्राप्त होती है। इन सबका आश्य क्या है? हिन्दी-शिक्षण के प्रतिमान क्या यही हैं?

7 से 9 दिसंबर, 1913 तक बिहार के प्रांत के भागलपुर में सम्पन्न हिन्दी साहित्य सम्मेलन के अधिवेशन में भाषण करते हुए साहित्याचार्य रामावतार शर्मा ने कहा था कि-"25-30 वर्ष में दुनिया भर का ज्ञान और विज्ञान जापान ने अपनी भाषा में संग्रहीत कर लिया। इसके लिए जापान को अनेक कष्ट उठाने पड़े हैं। हजारों व्यक्तियों को यूरोप जा जाकर रहना पड़ा है। पर भारत में कई सदियों से यूरोप सिर पर गड़गड़ा रहा है तो भी यहाँ साधारण ज्ञान-विज्ञान का संग्रह आज तक देशी भाषाओं में नहीं हुआ और शिक्षा में उसका निवेश नहीं हुआ। इसका प्रधान हेतु यह है कि यदि एक हजार आदमी को विलायत से एक एक सुई लानी हो तो प्रत्येक जा जाकर अपने लिए सुई लावे, या एक ही हजार सुई लाकर सबको दे दे। वैसे भी यहाँ सब ज्ञान-विज्ञान का अनुवाद कर दस-बीस आदमी देश की भाषाओं में उसका प्रचार कर देते, सो न कर प्रत्येक व्यक्ति विदेशी भाषा पढ़कर अपने लिए ज्ञान-विज्ञान के लाभ का यत्न करता है। इस पर कितने लोग यह कहते हैं कि देश की भाषाओं में शिक्षा होने से यूरोपीय विज्ञान का यहाँ प्रचार बंद हो जायेगा। कितने यह भी कहते हैं कि अंग्रेजी न पढ़ेंगे तो कैसे अंग्रेजी विज्ञान यहाँ अपनी भाषा में ला सकेंगे। ये लोग सर्वथा अपना चरित्र भूल रहे हैं। पढ़ते तो हैं यह जीविका के लिए या खेल के लिए और झूठ ही कहते हैं हम ज्ञान-विज्ञान का अनुवाद करेंगे। हम लोग अंग्रेजी पढ़ना सर्वथा बंद नहीं करना चाहते। केवल इतना ही चाहते हैं कि अंग्रेजी में ज्ञान-विज्ञान के ग्रंथों का अनुवाद कर यहाँ प्रचार करने के लिए भी पचास आदमी हर साल अंग्रेजी पढ़ा करें।""

अब ये ज्ञान-विज्ञान के ग्रंथों के अनुवाद हिन्दी में हुए अवश्य, पर अत्यधिक दुर्बोध रहे। इनमें हिन्दी भाषा की प्रकृति का ध्यान नहीं रखा गया। डॉ. विश्वनाथ प्रसाद मिश्र ने अपने आलेख- "वर्ण विन्यास" में अत्यंत उचित लिखा है कि- "हिन्दी लिखने-पढ़ने वालों को इसे लिखने-पढ़ने की भाषा समझकर ही लिखना-पढ़ना चाहिए। साथ ही लिखते-पढ़ते समय सदा यह ध्यान में रखना चाहिए कि हिन्दी 'हिन्दी' है, न संस्कृत, न अरबी, न फारसी और न अंग्रेजी। उर्दू वालों की नकल भी इसके लिए ठीक नहीं। देश में शिक्षण के माध्यम का प्रश्न नया नहीं है और स्वतंत्रता के बहुत पूर्व से यह उठाया जा रहा है। माध्यम हिन्दी हो या अंग्रेजी। आजादी और आजादी के पश्चात् प्रारंभिक वर्षों में विभिन्न कलात्मक विषयों को छोड़कर वैज्ञानिक प्रकृति के विषयों के शिक्षण का माध्यम अंग्रेजी रही। इनमें चिकित्सा, यांत्रिकी, भौतिकी, रसायन जैसे विषयों का समावेश है। ब्रिटिश काल में भी शिक्षण के माध्यम को लेकर अंग्रेजी के विरुद्ध वातावरण तैयार होता रहा है और हिन्दी में ही शिक्षण कार्य पर बल दिया जाता रहा है।

वैज्ञानिक शब्दावली के संबंध में विद्वानों का मत था कि "विदेशी वैज्ञानिक परिभाषिक शब्दों का किसी प्रकार से भी रूपांतर न करके उनका अपने असली रूप में ही भारतीय भाषाओं में व्यवहार किया जाये। लेकिन इस प्रथा का अनुयायी होना उपयुक्त नहीं मालूम होता है, क्योंकि इसमें दो बातें विचारणीय है। एक तो यह कि शब्दों का उच्चारण देश के जलवायु, प्राकृतिक अवस्था एवं मनुष्यों के शरीर संगठन पर अवलंबित होता है, इसीलिए विदेशी शब्द भारतीय भाषाओं के शब्दों के उच्चारण के साथ मेल न खायेंगे। दूसरे, संसार की मुख्य मुख्य समस्त भाषाओं के इतिहास पर दृष्टि डालने से पता चलता है कि किसी भी भाषा ने विदेशी शब्दों को किंचित् भी अपने स्वभाव के अनुकूल रूपांतर किये बिना स्वीकार नहीं किया गया है। जातीयता को स्थिर रखने कि लिए यह परिवर्तन आवश्यक है।"5 पर ये भाषण और आलेख आज लगभग नब्बे वर्ष पूर्व के हैं और साहित्य की धरोहर मात्र हैं। तब से अब तक देश की शिक्षण व्यवस्था में आमूल-चूल परिवर्तन हो चुके हैं।

हिन्दी-शिक्षण और विविध ज्ञानानुशासन :

लगभग दो दशक पूर्व से भारतीय शिक्षण व्यवस्था में परिवर्तन परिलक्षित हुआ है और शिक्षा व्यावसायिक पाठ्यक्रमों की ओर उन्मुख हुई है। शिक्षण के क्षेत्र में भी नवीन क्रांतियाँ हुई हैं। तेल और गैस, खनिज, धातु, परमाणु, ऊर्जा, रक्षा-उत्पादन, अंतरिक्ष अनुसंधान जैसे सर्वोच्च ज्ञान-क्षेत्रों में हिन्दी में शिक्षण कार्य अब भी दिवास्वप्न हैं। इतना ही नहीं, आई.आई.टी. जैसी सर्वोच्च तकनीकी संस्थाओं में भी शिक्षण का माध्यम हिन्दी न होकर अंग्रेजी ही है। बी. बी.ए., एम. बी.ए. जैसे व्यावसायिक पाठ्यक्रमों में हिन्दी का कोई काम नहीं रह गया है। सूचना प्रौद्योगिकी के नित नये बदलते परिवेश और स्वरूप का ज्ञान कराने के लिए जिस तकनीकी शब्दावली का प्रयोग हो रहा है, वे शब्द या तो हिन्दी में गढ़े नहीं गये हैं अथवा गढ़े गये हैं तो प्रचलन में नहीं है। कम्प्यूटर, इंटरनेट, ई. मेल आदि में जिस द्रुत गति से परिवर्तन हो रहे हैं, ऐसा लगता है उस गति से हिन्दी नहीं दौड़ पा रही है। ऐसी स्थिति में विविध ज्ञान कोशों और हिन्दी-शिक्षण के मध्य सामंजस्य स्थापित नहीं हो पा रहा है-यह हिन्दी के लिए अत्यंत घातक, दुखद और विडंबना पूर्ण स्थिति है।

भारतीय हिन्दी साहित्य केवल कविता-कामिनी का रसास्वादन मात्र नहीं था। इसमें विविध ज्ञानानुशासन के शिक्षण की वैज्ञानिक मनोभूमि पर आधृत व्यवस्था थी। अनेक विविध विषयक ग्रंथों का प्रणयन हुआ, जो पाठ्यपुस्तकों का काम करते थे। नवीन अविष्कारों और जीवन-प्रणाली की नूतन दृष्टि की अभिव्यक्ति में ये पुरातन ग्रंथ अशक्त हो गये। युग की माँगानुसार हिन्दी की प्रकृति के अनुरूप हिन्दी में शिक्षण व्यवस्था की सशक्त आधारशिला उसी समय रखी जानी चाहिए थी, जब आधुनिक विज्ञान भारत के प्रवेश द्वार पर खड़ा था। हमसे भूल यह हुई कि उसके स्वागत-गीत हिन्दी में नहीं गाये और भारतीय थाली में अंग्रेजी मोमबत्ती रखकर उसकी आरती उतारी। मानविकी से संबंधित-भाषा, साहित्य, इतिहास, समाजशास्त्र, राजनीति विज्ञान, धर्म, दर्शन और यहाँ तक कि आयुर्वेद-ज्योतिष जैसे विषयों के हिन्दी में शिक्षण की कोई समस्या नहीं है। समस्या है तो केवल अत्याधुनिक तकनीकी विषयों के शिक्षण की, जिसका हिन्दी में शिक्षण कार्य आज अत्यंत दुष्कर कार्य प्रतीत हो रहा है।

संदर्भ :

1. हस्तलिखित हिन्दी ग्रंथों की विवरणात्मक सूची रामकुमार वर्मा, प. 9

2. वही, पृ. 216

3. सम्मेलन (शोध पत्रिका) सं, विभूति मिश्र, भाग-90, संख्या 4, पृ. 109

4. हिन्दी भाषा और वैज्ञानिक चेतना सं. धनंजय वर्मा, पृ. 15

5. सम्मेलन (शोध पत्रिका) सं. विभूति मिश्र, भाग 90, संख्या-4, पृ. 115

शिक्षा में भाषा : भूमंडलीकरण की चुनौतियाँ

भूमंडलीकरण की अवधारणा भारत के लिए नई नहीं है। भूमंडलीकरण का विचार भारतीय आदि ग्रंथों में स्पष्ट रूप से उपलब्ध है। परंतु आज जिस भूमंडलीकरण की बात की जाती है और की जा रही है, उसका चिंतन और विमर्श भारतीय परंपरा से सर्वथा भिन्न है। वैश्वीकरण, भूमंडलीकरण, ग्लोबलाइजेशन जैसे शब्द भारत के लिए नये नहीं हैं। 'सर्वे भवंतु सुखिनः' और 'सबै भूमि गोपाल की' जैसे सूत्र इस देश में प्रचलित थे। परंतु इनके निहितार्थ सर्वथा भिन्न हैं। जहाँ भारतीय वैश्वीकरण का आधार विश्व बंधुत्व, विश्वात्मा, विश्व प्रेम तथा विश्व शांति से है, वहीं पश्चिम में उगे ग्लोबलाइजेशन की जड़े विश्व व्यापार उदारीकरण और अंततः संपूर्ण अर्थव्यवस्था की भूमि से पोषित हैं, यहाँ अर्थ ही प्रधान है।' स्पष्ट है आज जिस भूमंडलीकरण की चर्चा जोरों पर है, उसका उदात्त भावों और मानवीय गरिमा से कोई लेना-देना नहीं है। आज के भूमंडलीकरण की चिंतन धारा केवल अर्थ के तटों को स्पर्श करती हुई प्रवाहित होती है। इस चिंतन जलधारा में आर्थिक उतार-चढ़ाव हैं, आर्थिक ताप है और आर्थिक शीत है।

वस्तुतः भूमंडलीकरण की वर्तमान अवधारणा व्यापक कार्य व्यापार के धरातल पर अवस्थित दिखलाई पड़ती है पर मूलतः उसका स्वरूप अत्यंत संकुचित है। "भूमंडलीकरण का मामला केवल आर्थिक या राजनैतिक मामला नहीं है वह हमारे समूचे जीवन को प्रभावित करने वाला मामला भी है। वह हमारी संस्कृति, हमारे मानवीय मूल्यों, हमारे साहित्य और प्राचीन विरासतों को प्रभावित करने वाली, उसे जबरदस्त रूप से क्षति पहुँचाने वाली एक मनुष्य विरोधी अवधारणा है, जिसमें मनुष्य आत्मकेंद्रित (सेल्फ सेंटर्ड) मनुष्य रूप में ही जीवित रह सकता है। एक ऐसा मनुष्य, जिसका न कोई सामाजिक सरोकार होगा, न सामाजिक दायित्व, वह इस विश्व बाजार का केवल खरीददार या उपभोक्ता होगा जो अपनी पसंद और रुचि के अनुसार वस्तुओं का चुनाव कर सकेगा। वह वही चुनेगा जो हजारों बार, लाखों बार श्रव्य और दृश्य माध्यमों के द्वारा (आँखों और कानों के द्वारा) प्रत्येक मस्तिष्क के तंतुओं तक पहुँचाया जा रहा है।" स्पष्ट है आज के वैश्वीकरण अथवा भूमंडलीकरण की प्रकृति और प्रवृत्ति यही है कि विश्व की संपूर्ण गतिविधियाँ विश्व के सबल आर्थिक प्रतिष्ठानों के हाथों नाचती रहें। इस प्रकृति और प्रवृत्ति का शिक्षा और शिक्षा की भाषा पर जबरदस्त प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है।

शिक्षा और भाषा :

शिक्षा वह पावन तत्त्व है, जो मनुष्य को मनुष्य बनाती है। पंच तत्त्वों से यदि देह का निर्माण होता है तो शिक्षा वह छठा महत्त्वपूर्ण तत्त्व है जिससे आत्मिक देह में व्यक्तित्त्व की प्राण प्रतिष्ठा की जाती है। शिक्षा व्यक्ति को संस्कारित करती है और किसी भी राष्ट्र तथा समाज के सर्वांगीण विकास के लिए संस्कार युक्त मनुष्य का होना आवश्यक है। पर उस संस्कार को प्राप्त कहाँ से किया जाये? यह तो तय है कि बच्चे की प्रथम पाठशाला उसका परिवार होता है और माँ उसकी प्रथम शिक्षिका होती है। इसीलिए भाषा के विविध भेदों में मातृभाषा सर्वोपरि है। मातृभाषा का अर्जन सर्वप्रथम माँ से ही होता है। पिता एवं परिवार तो उसमें वृद्धि करता है और उसे नियमन का स्वरूप प्रदान करता है।

सबसे अहम् प्रश्न यह है कि शिक्षा प्रदान करने का माध्यम किस भाषा को बनाया जाये इस तथ्य से कोई इंकार नहीं कर सकता कि अपनी मातृभाषा से बढ़कर शिक्षा का कोई दूसरा माध्यम हो ही नहीं सकता। अंग्रेजों के शासनकाल में अंग्रेजी का बोलबाला था और शिक्षा का माध्यम भी अंग्रेजी था पर इस विदेशी भाषाई माध्यम से लाभ कितनों को हुआ? भारतेंदु हरिश्चंद्र ने अत्यंत सटीक कहा है:

निज भाषा उन्नति अहै, सब उन्नति को मूल।

बिन निज भाषा ज्ञान के, मिटत न हिय को सूल ।।

अंग्रेजी पढ़ि के जदपि, सब गुन होत प्रवीन।

पै निज भाषा ज्ञान बिनु, रहत हीन के हीन।।

महात्मा गाँधी से लेकर देश के प्रायः समस्त महापुरुषों ने मातृभाषा में शिक्षा-व्यवस्था की पुरजोर वकालत की। पर वर्तमान परिदृश्य यह है कि स्वतंत्रता के साठ वर्षोपरांत भी हम शिक्षा की भाषा का मसला हल नहीं कर पाये हैं। मैकाले ने जो शिक्षा नीति अब से लगभग 140 वर्ष पूर्व हमें परोसी थी, न्यूनाधिक परिवर्तन के साथ उसी की जुगाली हम करते चले आ रहे हैं। "हमारी शिक्षा प्रणाली मैकाले का अनुसरण मात्र है। जब हमारी शिक्षा अपनी नहीं, हमारी सोच अपनी नहीं, अपनी भाषा में सोचने की हमारी आदत नहीं, तो जो संस्कृति विकसित होगी उसका साक्षात् रूप हम अपने चारों ओर देख रहे हैं। नई शिक्षा नीति की बातें होती हैं, नई संस्कृति-नीति के मसौदे बनते हैं, पर बात केवल भाषाओं और कागजों तक ही सीमित रह जाती है। ऐसा प्रतीत होता है कि अपनी परंपराओं को स्वीकार करने तक ही सीमित रह जाती है। ऐसा प्रतीत होता है कि अपनी परंपराओं को स्वीकार करने तथा उन पर गव्र करने का संकल्प ही हमारे पास नहीं है। संकल्प हीनता हमारे समय का सबसे बड़ा सांस्कृतिक संकट है।"4

तथ्य यह है कि इसी संकल्पहीनता के कारण ही हमारे अस्तित्व पर संकट के बादल मंडराने लगे हैं। संकल्प हीनता की प्रवृत्ति इस हद तक आगे बढ़ चुकी है कि किसी बिंदु पर सामान्य चर्चा की प्रवृत्ति को भी फूहड़पन की प्रवृत्ति की संज्ञा दी जाने लगी है। संकल्प हीनता ने अतिक्रमण कर संवादहीनता तक अपना जबरदस्त विस्तार कर लिया है। जिस भूमंडलीकरण की चर्चा आज जोर-शोर से की जा रही है, उसकी उम्र तीस वर्ष से अधिक नहीं है। इन तीस वर्षों में भूमंडलीकरण ने प्रायः प्रत्येक संस्था को प्रभावित किया है। भारतीय समाज इस परिवर्तन से अछूता नहीं रहा है। परिवर्तन की प्रक्रिया जब प्रारंभ होती है, तब परंपरागत मूल्य धराशायी होने लगते हैं और नवीन मूल्यों की स्थापना होती है। शिक्षा पद्धति की जो स्थापित मान्यताएँ थीं, उनमें आमूलचूल परिवर्तन स्पष्ट रूप से परिलक्षित हो रहा है। परंपरागत पाठ्यक्रम, भाषाई अध्ययन, इतिहास, भूगोल, राजनीति विज्ञान आदि का अध्ययन अब युवाओं के लिए आकर्षण के केंद्र नहीं रहे।

भूमंडलीकरण की कोख से उत्पन्न बहुराष्ट्रीय कंपनियों की दानवी किलकारियों ने एक झटके में समूचा परिदृश्य ही बदल दिया। सरकारें भी अब रोजगारोन्मुखी शिक्षा की वकालत करने लगीं हैं। छात्र के अभिभावक जानते हैं- बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ उनकी कसौटी पर खरे उतरने वाले युवाओं को लाखों रुपयों और अन्य तमाम सुविधाओं के आकर्षक पैकेज दे रही है। ऐसी स्थिति में वह अपने बच्चे को प्रारंभ से ही जिस शिक्षा प्राप्ति हेतु प्रेरित करता है, उसकी भाषा हिन्दी अथवा क्षेत्रीय भाषाएँ नहीं, अंग्रेजी होती हैं। सामान्य हिन्दी अथवा अन्य मातृभाषाएँ अब अपनी उपयोगिता खोती जा रही हैं- इसमें कोई संदेह नहीं है अब यह एक अलग बात है कि आर्थिक मंदी के कारण विश्व भर में जो प्रतिकूल प्रभाव देखा जा रहा है उसके कारण अनेक कंपनियाँ अपने कर्मचारियों की छटनी कर रही हैं और एक ही दिन में लाखों के पैकेज प्राप्त करने वाला व्यक्ति एक झटके में शेयर बाजारों की भाँति सड़कों पर औंधे मुँह आ गिरा है।

शिक्षा और भाषा : भूमंडलीकरण की चुनौतियाँ :

भाषा का अर्थ संसार अत्यंत व्यापक है जिसका संबंध मानव मात्र से है। "भाषा का सर्वोत्तम उपयोग व्यक्ति को समाज से समन्वित करने का है। भाषा समाज का समन्वय सूत्र है, जिससे समाज समन्वित, संगठित और संपृक्त है भाषा के द्वारा ही मनुष्य समाज का एक अंग बनता है। भाषा रूपी सूत्र न हो तो व्यक्ति और समाज विश्रृंखल हो जाएँगे। भाषा न दर्शन न चिंतन है। भाषा उच्च स्तर पर दार्शनिक हो जाती है, इसमें चिंतन, मनन, अनुभूति का समावेश हो जाता है।"5

पर, यहाँ भाषा से अभिप्रेत शिक्षा के माध्यम से है। शिक्षा को केवल रोजगार का साधन नहीं माना जा सकता और रोजगार के लिए शिक्षा आवश्यक नहीं है। इसके लिए तो अनुभव कार्य कुशलता और दक्षता जैसे तत्त्व ही पर्याप्त हैं। शिक्षा व्यक्ति के व्यक्तित्व (संपूर्ण और समग्र व्यक्तित्व) के विकास का माध्यम है। इसीलिए शिक्षा और भाषा कम अन्योन्याश्रित संबंध है, दोनों परस्पर पूरक हैं, दोनों घनिष्ठ हैं।

भूमंडलीकरण ने अर्थवाद को जन्म दिया, अर्थ प्रधान हो गया, शेष सब लुप्त हो गया। विज्ञान व उन्नत तकनीक का उपयोग भी मानव जाति के हित के नाम पर अर्थ प्राप्ति और आर्थिक साम्राज्य के सुदृढ़ीकरण के लिए हो रहा है। "वस्तुतः वैश्वीकरण एक दुधारी तलवार की भाँति है। इसके सकारात्मक और नकारात्मक दोनों प्रकार के परिणाम सामने आ रहे हैं। उदारीकरण एवं निजीकरण की नीति के फलस्वरूप तीव्र गति से शिक्षा का निजीकरण किये जाने के कारण आज शिक्षा बाजार की वस्तु हो गई है। स्थान-स्थान पर खुल रहे विद्यालय, महाविद्यालय एवं विश्वविद्यालय दुकानों एवं व्यवसायों का स्वरूप ग्रहण करते जा रहे हैं और इस बाजारवादी व्यवस्था में गरीबों को शिक्षा से वंचित किया गया है। वैश्वीकरण के फलस्वरूप, जिसका सूत्र बनाया है- 'लाभ परमो धर्मः' समाज में एक ऐसी द्वंद्वात्मक स्थिति उत्पन्न हो रही है जिससे समाज का प्रत्येक वर्ग शिक्षा व्यवस्था को लेकर अनिश्चितता की स्थिति में है।"6

भूमंडलीकरण ने व्यवस्था को जो बदलाव दिये हैं, उनका भाषा पर जबरदस्त प्रभाव पड़ा है। अर्थतंत्र, रक्षा, बैंकिंग, पर्यावरण, सूचना प्रौद्योगिकी, अत्याधुनिक तकनीक और विकास के नवीन आयामों तथा आविष्कारों ने नये-नये शब्दों को जन्म दिया है। इन शब्दों के कारण भाषाओं के रूप में स्पष्ट परिवर्तन परिलक्षित हुआ है। यहाँ एक भारी विडंबना यह है कि देश के दक्षिणी तथा पूर्वोत्तर प्रांतों की भाषाओं के साथ अंग्रेजी भी सबल है, इसीलिए क्षेत्रीय भाषाओं में शिक्षण कार्य में कोई असुविधा नहीं होती। परंतु हिन्दी भाषी क्षेत्रों में स्थिति अत्यंत विषम है। यहाँ के लोग ज्ञान-विज्ञान की शिक्षा में दक्ष भी होना चाहते हैं और अपनी मातृभाषा के प्रति उत्कट प्रेम भी प्रदर्शित करना चाहते हैं। परंतु शिक्षण का माध्यम अंग्रेजी (अंग्रेजी में विज्ञ न होते हुए भी) को रखना चाहते हैं।

आज शिक्षा की भाषा का प्रश्न अपने उत्तर की प्राप्ति में अधर में लटका है। वैश्वीकरण या भूमंडलीकरण के प्रभाव से क्या हिन्दी सहित देश की अन्य क्षेत्रीय भाषाओं का प्रशस्त मार्ग अवरुद्ध हो जाएगा या इसमें श्रीवृद्धि होने की संभावना रहेगी? यदि विज्ञान के बढ़ते चरणों का ज्ञान का परिष्करण अपनी भाषा में करने का प्रयास नहीं किया गया तो क्या स्थिति निर्मित होगी? स्टेट यूनिवर्सिटी ऑफ न्यूयार्क, ऑसवीगो न्यूयार्क के एमेरिटस प्रोफेसर ऑफ फिजिक्स-राम चौधरी का मत है कि- "भारत में अंग्रेजी माध्यम के भयंकर परिणाम हुए। देश की 95 प्रतिशत जनता का विकास अवरुद्ध हुआ। अंग्रेजी शासनकाल से लेकर आज तक भारत दो समूहों में बँटा हुआ है। एक तो वे जो अंग्रेजी (अफसर) जानते हैं, भारत की आबादी का 5 प्रतिशत भाग है; दूसरे, जो अंग्रेजी (जनता) नहीं जानते, आबादी का 95 प्रतिशत भाग हैं। पहले वर्ग के लिए उच्च शिक्षा के द्वार खुल चुके हैं-भारत में और विदेशों में भी। दूसरे वर्ग के लिए द्वार बंद हैं क्योंकि उच्च शिक्षा का माध्यम हिन्दी अथवा अन्य भारतीय भाषाएँ नहीं हैं। उन्हें मातृभाषा द्वारा आधुनिक ज्ञान मिल सकता था, वे कुशल कारीगर, इंजीनियर, वैज्ञानिक बनकर भारत को समर्थ बना सकते थे। सामाजिक विषमताओं ने इन दुष्परिणामों को और गहरा कर दिया है।"" हाँ पर अंत में ये तर्क मिथ्या और पिष्टपेषण से प्रतीत होते हैं। ऐसे तर्कों से पलायनवाद की गंध आती प्रतीत होती है।

समय की परिवर्तनशीलता से बचा नहीं जा सकता है। समय तेजी से दौड़ रहा है। हम जिस युग में जी रहे हैं, उसकी पदचापों को सुनना होगा। शिक्षा में जब परिवर्तन हो रहे हैं तो उनकी भाषा बदलेगी ही। हिन्दी को ही लें, इसमें अन्य भाषा से हेल मेल करने का सबसे बड़ा गुण है। यह लचीली है, इसलिए इसने संस्कृत, अरबी, फारसी, उर्दू, मराठी, गुजराती, अंग्रेजी, पुर्तगाली आदि भाषाओं के शब्दों को आत्मसात किया है। भूमंडलीकरण के दौर में जो परिवर्तन हुए हैं, उन तकनीकी शब्दों को भी यथावत आत्मसात कर लिया है। भले ही अभी उनके पारिभाषिक शब्द न गढ़े गये हों। सिम, रिचार्ज, कूपन, मोबाइल, की बोर्ड, शेयर बाजार, बी.सी.ए., बी.बी.ए. आदि ऐसे अनेक शब्द हैं और शिक्षा की डिग्रियाँ हैं, जो बी.ए., एम.ए. जैसी परंपरा को समाप्त कर रही हैं। भूमंडलीयकरण की प्रक्रिया 'स्लोपॉइजन' जो अंग्रेजी की सिरिंज से दिया जा रहा है। उसे ग्रहण भी किया जा रहा है। पर, भूमंडलीयकरण ने जिस बाजारवाद को जन्म दिया है, उसकी संपूर्ति के लिए भारत जैसा बड़ा बाजार उन्हें कहीं उपलब्ध नहीं है। इस बाजार में सर्वाधिक प्रतिशत हिन्दी बोलने-समझने वालों का है। अतः अपने उत्पादों को खपाने के लिए 'हिन्दी शरणं गच्छामि' उनकी विवशता है। पर यह जो बाजार भाषा है, इससे हिन्दी की श्रीवृद्धि तो हो रही है, पर अपना स्वरूप खोती जा रही है।

कम्प्यूटर तथा तकनीकी से संबंधित विषयों पर शिक्षा का माध्यम तथा अध्ययन सामग्री की भाषा मुख्यतः अंग्रेजी ही है, परंतु भारतीय परिवेश, जहाँ देश के प्रत्येक भाग में हिन्दी का बाहुल्य है, वहाँ कम्प्यूटर का उपयोग एक अड़चन है, यह अड़चन अंग्रेजी के अल्प ज्ञान के कारण है। कई लोग कम्प्यूटर का उपभोग स्वभाषा-हिन्दी, असमिया, बंगला, कन्नड़, तेलगू, तमिल आदि में करना चाहते हैं-वह भी सूचना प्रौद्योगिकी के क्षेत्र में। ऐसी स्थिति में कम्प्यूटर का क्षेत्रीय भाषाओं के सॉफ्टवेयर के विकास के साथ-साथ अंग्रेजी भाषी सॉफ्टवेयर का क्षेत्रीय भाषा में अनुवाद किया जाना परम आवश्यक है। जब तक ऐसा प्रयास नहीं होगा तब तक भूमंडलीकरण से उत्पन्न शिक्षा और भाषाई चुनौतियों का सामना नहीं किया जा सकेगा।

अंततः देश के विख्यात कम्प्यूटर इंजीनियर डॉ. जगदीप सिंह दांगी के अनुसार - "प्रौद्योगिकी भारत में कुछ प्रतिशत लोगों तक ही सीमित है। इसका मूलभूत कारण हमारा अल्प अंग्रेजी ज्ञान है। यहाँ दो संभावनाएँ बनती हैंः या तो हम देश के प्रत्येक नागरिक को अंग्रेजी का ज्ञान कराएँ या फिर प्रौद्योगिकी और तकनीकी का उत्पादन ही हम अपनी भाषा में करें। इसमें पहली संभावना को हम नहीं अपना सकते। इसका कारण यह है कि अभी हमें देश के नागरिकों को शिक्षा के लिए प्रेरित करने के लिए बहुत प्रयास चाहिए। अगर शिक्षा का माध्यम अंग्रेजी बना दिया जाता है, तो यह सर्व शिक्षा अभियान के प्रयासों में एक बहुत बड़ा रोड़ा हो सकता है। विश्व के राष्ट्रों में जहाँ-जहाँ उनकी मूल भाषाओं में प्रौद्योगिकी की शिक्षा दी गई है, वहाँ-वहाँ वे सफल रहे हैं। चीन, फ्राँस और जापान को उदाहरण स्वरूप लिया जा सकता है। तब भूमंडलीकरण की चुनौतियाँ कहाँ रह जाती हैं, यदि हम भी क्षेत्रीय भाषाओं को सशक्त कर आधुनिक शिक्षा को आत्मसात करें।

संदर्भ :

1. वैश्वीकरण की चुनौतियों और भारतीय उच्च शिक्षा सं. शिखर चंद्र जैन, पृ. 109

2. रचना (पत्रिका): सं. शिव कुमार अवस्थी, अंक 51, पृ. 34

3. काव्य सौरभ : सं. रमेश चंद्र कुलश्रेष्ठ, पृ. 38

4. रिसर्च लिंक (शोध पत्रिका) सं. रमेश सोनी, व्यलूम 13, पृ. 50

5. वही, पृ. 52

6. आलोक (पत्रिका): सं. राम द्विवेदी, अंक 3, पृ. 24

7. कृतिका (पत्रिका): सं. वीरेन्द्र सिंह यादव, अंक 2, पृ. 176

8. नव भारत (भोपाल) 19 अगस्त, 2007, पृ. 6

भारत में दूरस्थ शिक्षा

समूचा विश्व आज जब इक्कीसवीं शताब्दी के प्रथम दशक की समाप्ति की ओर अग्रसर है, तब शिक्षा के महत्त्व पर प्रकाश डालते हुए लेखन कार्य करना प्रायः निरर्थक ही है। क्योंकि ज्ञान, विज्ञान और प्रौद्योगिकी का जिस तीव्र गति से विकास हुआ, जन-जन तक उसका लाभ पहुँचा और इस क्षेत्र में शोध तथा संभावनाओं के जो द्वार खुले, यह सब बिना शिक्षा के संभव न था। शिक्षा मानवीय गरिमा को गौरव प्रदान करती है, मानवीय भावों का उत्कर्ष करती है और मनुष्य को मनुष्यत्व से सजाती-संवारती है। विश्व में शिक्षा प्राप्ति के लिए विभिन्न देशों में विभिन्न तरीके विभिन्न कालों में प्रचलित रहे हैं। भारत में गुरुकुल प्रथा थी। गुरुओं के आश्रम नगरों से दूर वनों में हुआ करते थे और विद्याध्ययन की पूर्णता तक छात्र इन्हीं आश्रमों या गुरुकुलों में निवास करते थे। पाठ्यक्रम पूर्ण होने के उपरांत ही वे अपने-अपने घरों को प्रस्थान करते थे।

समय बदला। गुरुकुलों का रूपांतरण बड़े-बड़े शिक्षा केंद्रों में प्रारंभ हुआ। तक्षशिला और नालंदा के विश्वविद्यालय ऐसे ही बड़े-बड़े शिक्षा केंद्र थे। भारत पर मुसलमानों का आक्रमण हुआ और आधिपत्य हुआ। परंपरागत शिक्षा 'तालीम' में बदल गई और मदरसों का प्रचलन प्रारंभ हुआ। अंग्रेजी शासन काल में अंग्रेजों ने शिक्षा की जिस परिपाटी की बुनियाद भारत में रखी, उसने शिक्षा को वर्गीकृत कर दिया। प्राथमिक, माध्यमिक, उच्चतर माध्यमिक तथा उच्च शिक्षा के रूप में शिक्षा का वर्गीकरण हुआ। आगे चलकर इसका सामान्य, तकनीकी और व्यावसायिक शिक्षा में इसे विभाजित किया गया। सर्वविदित है कि वर्तमान में भारतीय शिक्षा प्रणाली का ढाँचागत स्वरूप लार्ड मैकाले की परिकल्पना पर आधारित है। भारत में गुरुकुल से प्रारंभ हुआ शिक्षा का सफर स्कूल, कॉलेज और विश्वविद्यालय पर आकर रुका। परंतु इसके उपरांत भी भारत में सर्व शिक्षा मिशन पूर्णता को प्राप्त न कर सका।

आज भी देश का एक बड़ा प्रतिशत शिक्षा से वंचित है-प्राथमिक शिक्षा से भी, माध्यमिक शिक्षा से भी, उच्चतर शिक्षा से भी और उच्च शिक्षा से भी। इन वर्गों से वंचित नागरिकों को शिक्षा प्राप्ति की विभिन्न प्रणालियाँ विकसित हुईं। शिक्षा केंद्रों में नियमित पढ़ाई न कर सकने वाले या बीच में ही पढ़ाई छोड़ने वाले छात्रों के लिए स्वाध्यायी परीक्षार्थी का विकल्प खोजा गया। पर, इसमें परेशानी यह है कि छात्रों को शिक्षक का मार्गदर्शन प्राप्त नहीं हो पाता। छात्र पूर्णरूपेण पुस्तकों पर आश्रित होता है। यदि छात्र विज्ञान विषय की पढ़ाई कर रहा है कि तो स्वाध्यायी रूप से उसे और भी अधिक कठिनाई का सामना करना पड़ता है। अपने प्रायोगिक कार्यों के लिए वह स्कूल-कॉलेजों की दया की अपेक्षा करता है और शिक्षण संस्थान का प्रबंधन उससे इस कार्य के लिए खासी मोटी राशि वसूल करता है। इस विधि से गरीब छात्र या तो विज्ञान विषय की शिक्षा से वंचित रहते हैं अथवा उनकी शिक्षा में अधकचरापन झलकता है। यह स्थिति माध्यमिक स्तर की शिक्षा से लेकर विश्वविद्यालय शिक्षा तक की है। देश में ऐसे छात्रों की संख्या में लगातार वृद्धि हो रही है और शिक्षा के क्षेत्र में यह स्थिति शोचनीय है।

देश का शैक्षिक परिदृश्य :

वर्तमान स्थिति में राष्ट्रीय साक्षरता का प्रतिशत संतोषप्रद नहीं है। सन् 2001 में हुई जनगणना के अंतिम आँकड़ों के अनुसार देश की साक्षरता दर 64.8 प्रतिशत है। इसमें पुरुष साक्षरता 75.2 तथा महिला साक्षरता 53.6 प्रतिशत है। 1,02,8737436 की जनसंख्या में कुल साक्षर 56,06,87797 हैं। इनमें से 33,65,33,716 पुरुष और 22,41,54,081 महिलाएँ ही साक्षर हैं। आज भी मध्य भारत की अपेक्षा पूर्वी और पूर्वोत्तर राज्यों तथा दक्षिणी भारत के कुछ राज्यों में साक्षरता का प्रतिशत पर्याप्त संतोषप्रद है। केरल देश का सर्वाधिक शिक्षित प्रांत है, जहाँ की साक्षरता दर 90.9 प्रतिशत है। इसी क्रम में मिजोरम में 88.8 प्रतिशत, गोआ में 82 प्रतिशत, महाराष्ट्र में 76.9 प्रतिशत तथा हिमाचल प्रदेश में 76.5 प्रतिशत व्यक्ति साक्षर हैं। देश के शेष भाग में साक्षरता का प्रतिशत 75 प्रतिशत से भी कम है।

शिक्षण संस्थानों की स्थिति :

आजादी के बाद से देश ने विशाल शिक्षा प्रणाली विकसित की है। इसका लाभ वैज्ञानिक व तकनीकी, मानव विज्ञान, दार्शनिक और रचनात्मक कुशलता से दक्षता बढ़ाकर युवाओं ने प्राप्त किया है। यह चिंतनीय विषय है कि देश में पर्याप्त शैक्षणिक संस्थाओं की उपलब्धता के पश्चात् भी शिक्षा का प्रतिशत और स्तर संतोषप्रद नहीं है। वर्ष 2001-2002 की अंतिम रिपोर्ट, जो भारतीय विश्वविद्यालय संगठन ने 15 सितंबर, 2001 की स्थिति में जारी की थी, के अनुसार देश में विश्वविद्यालयों की संख्या 261 थी। इसी अवधि में देश भर में शासकीय कॉलेज 8360 और शासकीय व्यावसायिक कॉलेज 2339 थे।

देश भर में प्राइमरी, माध्यमिक और हाई स्कूलों का तो जैसे जाल फैला है। सन् 1986 में घोषित और क्रियान्वित राष्ट्रीय शिक्षा नीति में प्राथमिक शिक्षा की सार्वजनिकता को उच्च प्राथमिकता दी गई थी ताकि 14 वर्ष तक के समस्त बच्चों को प्राथमिक शिक्षा निःशुल्क प्राप्त हो सके। अनेक राज्यों में माध्यमिक शिक्षा भी निःशुल्क उपलब्ध है। शिक्षा सुधार हेतु समय-समय पर विभिन्न आयोगों का गठन किया गया और इन आयोगों ने माध्यमिक स्तर से ही शिक्षा में व्यवसाय की विविधता पर बल दिया। सन् 1963 से केंद्रीय विद्यालय खोले गये। समूचे देश में इस समय आठ सौ से अधिक केंद्रीय विद्यालय हैं। ग्रामीण प्रतिभावान छात्रों को आगे अवसर प्रदान करने के उद्देश्य से केंद्रीय विद्यालय की तर्ज पर देश के प्रत्येक जिले में एक-एक जवाहर नवोदय विद्यालय की स्थापना की गयी। उच्च शिक्षा के क्षेत्र में भी शैक्षणिक संस्थाओं की दृष्टि से देश कंगाल नहीं है। दो सौ साठ से अधिक विश्वविद्यालय और आठ हजार से अधिक कॉलेज इस क्षेत्र में कार्यरत हैं। इतना ही नहीं, 20 से अधिक केंद्रीय विश्वविद्यालय उच्च और गुणवत्ता युक्त शिक्षा के लिए कटिबद्ध हैं।

शिक्षा की स्थिति :

इतना सब होने के बाद भी उच्च शिक्षा की शिक्षण संस्थानों में प्रवेशित छात्र-छात्राओं की प्रवेशमूलक संख्या में जिस दर से वृद्धि होनी चाहिए, नहीं हो पा रही है। इसके कारण अनेक हैं, परंतु सबसे बड़ा कारण है उच्च शिक्षण संस्थानों का नगरीय और शहरी क्षेत्रों में स्थापित होना। ग्रामीण क्षेत्र के छात्र क्षेत्र में स्थापित स्कूली संस्थाओं से बारहवीं कक्षा उत्तीर्ण तो कर लेते हैं, परंतु अपने अभिभावकों की निम्न आय और शहरी क्षेत्र में रहकर अध्ययन की सुविधा न होने के कारण उनके उच्च शिक्षा के सपने अधूरे रह जाते हैं। ग्रामीण क्षेत्र से यदि कुछ छात्र उच्च शिक्षण संस्थानों में प्रवेश ले भी लेते हैं तो उनके साथ दो विडंबनाएँ जुड़ जाती हैं। छात्र ग्रामीण वातावरण से शहरी वातावरण में जाता है और यहाँ की सभ्यता की चकाचौंध में अपने मूल उद्देश्य से भटक जाता है। परिणाम यह होता है कि परीक्षा में असफल होने के कारण वह अधूरी पढ़ाई छोड़कर वापस घर-गाँव लौट जाता है। दूसरी स्थिति यह बनती है कि गाँव का भोला-भाला छात्र शहरी छात्रों की चालाकियों में फँस जाता है। ये छात्र 'रैगिंग' के नाम पर ग्रामीण छात्र को भयाक्रांत कर देते हैं। परिणाम यह होता है ग्रामीण छात्र अपनी अधूरी पढ़ाई छोड़कर गाँव लौट जाता है।

उपाय :

ऐसे छात्रों की उच्च शिक्षा की अभिलाषा पूर्ण करने के उद्देश्य से शासन स्तर पर योजनाएँ बनाने का कार्य प्रारंभ हुआ। पत्राचार प्रणाली और दूरस्थ शिक्षण प्रणाली का प्रयोग ऐसे छात्रों के लिए किया गया। सन् 1962 में यह प्रयोग, सर्वप्रथम दिल्ली विश्वविद्यालय में किया गया। जीवाजी विश्वविद्यालय ग्वालियर, (मध्य प्रदेश) के दूरस्थ शिक्षण संस्थान के उपसंचालक डॉ. अशोक शर्मा इस संबंध में लिखते हैं: "The distance mode of education was introduced in India for the first time by the University of Delhi as a correspondance courses in 1962 on the experimental basis, at that time the main objectives of start- ing these correspondence course to provide an efficient and less expen- sive method of education at higher level of education in the higher level of education in teh context of National Development & to offer facilities of proper higher education to all qualified & willing persons who has missed the regular University course due to unavoidable personal eco- nomic and financial reasons or their inability to get admission to a regular streem. Another reason is that it provides more opportunity to improve their stenderd of knowledge by acquiring learning though correspondence instructions without distubting their present employment."4

दूरस्थ शिक्षा प्रणाली :

स्कूली शिक्षा के स्तर पर राष्ट्रीय शैक्षिक अनुसंधान एवं प्रशिक्षण परिषद द्वारा सन् 1979 में 'खुला विद्यालय' की स्थापना की, जिसका लक्ष्य देश में दूरस्थ प्रणाली द्वारा शिक्षा देना है। अक्टूबर 1990 से राष्ट्रीय मुक्त विद्यालय द्वारा अपनी ब्रिज/माध्यमिक/उच्च माध्यमिक परीक्षाएँ आयोजित करने का तथा प्रमाणपत्र देने का अधिकार इसे दिया गया। परिषद् के इस सफल प्रयोग का अनुसरण उच्च शिक्षा विभाग द्वारा किया गया। वर्तमान में 10 खुले विश्वविद्यालय और 100 से अधिक पत्राचार संस्थाएँ दूरस्थ शिक्षण संस्थाएँ देश में उच्च शिक्षा के क्षेत्र में कार्यरत हैं। इनमें अध्ययन करने वालों की कुल संख्या 10 लाख से अधिक है जो महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों में दर्ज छात्रों की कुल संख्या का भाग है। 8 एक अध्ययन में यह पाया गया कि दूरस्थ शिक्षा पद्धति से स्नातक और स्नातकोत्तर तक के पाठ्यक्रम में शामिल होने वाले छात्रों में कला और वाणिज्य संकायों के प्रति रुझान सर्वाधिक है। डॉ. अशोक शर्मा का निष्कर्ष है कि-"Another important finding of the study is that almost all the DELS (Distance edu- cation learning scheme) are not catering to the needs of the distance stu- dents and present day requirement. A large majority confine to Arts and Commerce courses, which is a beater track. Among 41 institutes/director- ates of correspondence courses (1989-90), 26 and 28 are offering bach- elorprogrammes of B.A. and B.Com respectively and 19 M.A. courses similerly 4 open Universityes are offering bachelor courses and non of the our corrently offering any M.A. courses, but BRAOU [BhimRoaAmbedkar open University] and V.M.O.U. (VardmanMahavir Open Uni- versity), Kota have plans to introduce some of the traditional subjects, like Political Science, Economics and Public Administration."6

परंपरागत आर्ट एवं कॉमर्स पाठ्यक्रमों के अतिरिक्त समय की माँग के अनुसार उच्च शिक्षा में विज्ञान, टेक्नॉलाजी, विधि, बी.एड., एम.एड. पुस्तकालय विज्ञान, बी.बी.ए., एम.बी.ए. जैसे पाठ्यक्रमों की माँग बढ़ी है और इन तथा ऐसे अन्य पाठ्यक्रमों में शिक्षार्थियों की रुचि बढ़ी है। बिरला इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी पिलानी, जवाहरलाल नेहरू टेक्नॉलाजीकल विश्वविद्यालय, हैदराबाद, इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ टेक्नॉलॉजी, चैन्नई, इंडियन इंस्टीट्यूट ऑफ साइंस, बंगलौर जैसे उच्च प्रतिष्ठ संस्थाएँ भी इस क्षेत्र में सक्रिय हैं। इतना ही नहीं, एम.फिल. और पी-एच. डी. कार्यक्रम भी दूरस्थ शिक्षण द्वारा किया जाना संभव हो रहा है।

दूरस्थ शिक्षण क्यों

देश में नियमित कॉलेज और विश्वविद्यालयों में अध्ययन की सुविधा होने के पश्चात् भी दूरस्थ शिक्षण प्रणाली निरंतर लोकप्रिय हो रही है। इसका कारण क्या है? इसके कारण अनेक हैं। नियम-कानूनों के मकड़जाल से यह प्रणाली सर्वथा मुक्त है। इसमें प्रवेश के लिए उम्र और मध्यांतराल का कोई बंधन नहीं है, जबकि नियमित प्रवेश के लिए स्नातक और स्नातकोत्तर स्तर पर उम्र का बंधन है। 10+2 और स्नातक में प्रवेश लेने के मध्य यदि अतंर है तो अदालती शपथ आगे की प्रवेशित कक्षा के लिए देना होता है, दूरस्थ शिक्षण प्रणाली में इसकी अनिवार्यता नहीं है।

कामकाजी और घरेलू महिलाएँ तथा सरकारी कर्मचारियों के लिए यह प्रणाली वरदान साबित हुई है क्योंकि इस प्रणाली में सरकारी कॉलेजों की भाँति प्रतिदिन उपस्थित होने और 75 प्रतिशत उपस्थिति की अनिवार्यता का बंधन नहीं है। इस प्रणाली के अंतर्गत् केवल 15 या 20 दिन की संपर्क कक्षाओं में शिक्षार्थी को उपस्थित होना होता है। इन्हीं संपर्क कक्षाओं में छात्रों को प्रदूत गृह कार्य (Home Assigment) दिया जाता है, जिसे अपने अध्ययन के आधार पर छात्र अपने घर पर से पूर्ण करके लाता है। इस कार्य में निर्धारित अंक उसकी मुख्य परीक्षा में जुड़ते हैं जो उसकी श्रेणी निर्धारण करने में प्रमुख भूमिका का निर्वाह करते हैं। इसके साथ ही प्रदत्त गृह कार्य से उसकी पठन क्षमता और शैक्षणिक गुणवत्ता के मूल्यांकन का निर्धारण होता है।

दूरस्थ शिक्षण की संभावनाएँ :

दूरस्थ शिक्षण प्रणाली में प्रति वर्ष हो रही शिक्षार्थियों की वृद्धि का प्रतिशत इस प्रणाली की लोकप्रियता और सफलता को प्रदर्शित करता है। इससे यह भी विदित होता है कि इस प्रणाली में भविष्य में विस्तार की अपार संभावनाएँ हैं। ऐसे ग्रामीण क्षेत्र, जहाँ उच्च शिक्षण संस्थाओं की कमी है अथवा उच्च शिक्षा का अभाव है, वहाँ यह प्रणाली अत्यंत सार्थक सिद्ध हुई है और होगी। इस प्रणाली ने युवाओं को ही नहीं, सरकारी कर्मचारियों, महिलाओं और यहाँ तक कि प्रौढों को भी अपनी ओर आकर्षित किया है तथा इनकी उच्च शिक्षा प्राप्ति की आकांक्षाओं को जागृत किया।

दूरस्थ शिक्षण की चुनौतियाँ :

आज जब भूमंडलीकरण का दौर चल रहा है और आर्थिक उदारीकरण की प्रक्रिया के बीज-वपन के फलस्वरूप आर्थिक मंदी के शिशु का जन्म हो चुका है, तब ऐसे में यह मंथन करना आवश्यक हो जाता है कि विभिन्न शिक्षण संस्थाओं के साथ-साथ दूरस्थ शिक्षण संस्थान द्वारा तैयार किये जा रहे और चलाये जा रहे रोजगारमूलक पाठ्यक्रम 'जश्न मनाएँगे अथवा मशिया गाएँगे? बहुराष्ट्रीय कंपनियों ने युवाओं के लिए पहले तो आकर्षक पैकेज पर युवाओं को अपनी ओर आकर्षित किया। डेढ़ दशक का दशक भी पूरा न हो पाया था कि कंपनियों ने आर्थिक मंदी के चलते बड़े पैमाने पर नौकरियों में से छंटनी करनी प्रारंभ कर दी। परिणाम यह हुआ कि युवाओं ने जिस हर्ष उल्लास और सपनों के साथ लाखों-लाखों रुपये व्यय कर ऐसे पाठ्यक्रमों में प्रवेश लेकर मलाईदार नौकरियाँ प्राप्त कीं, वे फिसलकर पल भर में पथरीली धरती पर आ गिरे। इस घटना से सबक लेकर दूरस्थ शिक्षण संस्थाओं को अपनी रणनीति में परिवर्तन लाना होगा तथा अपने पाठ्यक्रमों को रोजगारमूलक के साथ-साथ दूरदर्शी भी बनाने पर विचार करना होगा।

सबसे बड़ी चुनौती दूरस्थ शिक्षण के सामने आर्थिक है। दूरस्थ शिक्षण संस्थानों को अपने पाठ्यक्रमों के संचालन और स्थापना व्यय के लिए जिस आवश्यक धन राशि की आवश्यकता होती है, उसे प्राप्त करने में वह सफल नहीं हो पाता। स्वयं के संसाधन जुटाने में दूरस्थ शिक्षण संस्थान अपने छात्रों को फीस के रूप में भारी भरकम राशि वसूल करती है। परंपरागत पाठ्यक्रमों का शिक्षग शुल्क यद्यपि कम होता है, फिर भी सामान्य शिक्षण से अधिक होता है। व्यसावसायिक पाठ्यक्रमों का शुल्क सर्वाधिक होता है जिसे गरीब और निम्न आय वर्ग तथा ग्रामीण परिवेश के छात्र वहन नहीं कर पाते। ऐसी स्थिति में दूरस्थ शिक्षण संस्थानों का मूल लक्ष्य सुदूर ग्रामीण क्षेत्रों में उच्च शिक्षा का प्रसार ही समाप्त हो जाता है।

यद्यपि उच्च शिक्षा संस्थानों की भी अपनी परिसीमाएँ हैं। सुयोग्य व विद्वान प्रोफेसर्स द्वारा दूरस्थ के छात्रों के स्तर के अनुरूप उच्च गुणवत्ता की पाठ्य सामग्री तैयार करवाने, फिर उसे आकर्षक और अशुद्धि रहित छपवाने का कार्य अत्यंत चुनौतीपूर्ण होता है। पाठ्य सामग्री तैयार कराने में शिक्षकों को यदि पर्याप्त मानदेय उपलब्ध नहीं कराया गया, तो सुयोग्य शिक्षकों द्वारा गुणवत्ता से युक्त सामग्री तैयार नहीं हो सकती। विज्ञान, इंजीनियरिंग, प्रौद्योगिकी, बी.बी.ए.एम.बी. ए. जैसे मँहगे और आकर्षक पाठ्यक्रमों को तैयार करना और फिर फिर उन्हें क्रियान्वित करना दुष्कर कार्य है। दूरस्थ शिक्षण के विभिन्न अध्ययन केंद्रों में ये विषय प्रारंभ तो कर दिये जाते हैं, परंतु प्रायोगिक कार्यों हेतु अच्छी प्रयोगशालाओं का सर्वथा अभाव होता है। ऐसी स्थिति में प्रायोगिक कार्य भी सैद्धांतिक पाठ्यक्रम में समाहित होकर रह जाते हैं। इस प्रक्रिया में शिक्षा की गुणवत्ता और उद्देश्य दोनों ही बुरी तरह प्रभावित होते हैं।

देश की आज भी सौ प्रतिशत किंतु गुणवत्ता से युक्त उच्च शिक्षा की दरकार है। आगामी वर्षों में यदि इस लक्ष्य की प्राप्ति करनी है तो इसके लिए दूरस्थ शिक्षण-पद्धति से बढ़कर कोई दूसरी अच्छी विधि नहीं हो सकती। इसके लिए यह आवश्यक है कि इस प्रणाली को आर्थिक रूप से सुदृढ़ किया जाये और सर्व सुविधा युक्त इसकी प्रणाली तंत्र को बनाया जाये। स्ववित्त पोषित होने के कारण स्वयं के संसाधन विकसित करने के नाम पर यह सारा बोझ प्रायः शिक्षार्थी के सिर पर आता है। उच्च शिक्षा का स्वरूप वैसे ही मँहगा है। यदि यही स्वरूप दूरस्थ शिक्षण प्रणाली का भी रहा तो दोनों में कोई अंतर नहीं रहेगा। ऐसी स्थिति से निपटने के लिए यह आवश्यक है कि सरकार दूरस्थ शिक्षण संस्थानों को अधिक से अधिक आर्थिक सहयोग प्रदान करे और छात्रों से ली जाने वाली फीस में सब्सिडी की व्यवस्था करे। इतना ही नहीं, निर्धन, किंतु मेधावी छात्रों, अनुसूचित जनजाति तथा महिलाओं को शुल्क से पूरी मुक्ति मिलनी चाहिए। दूरस्थ शिक्षण प्रणाली भविष्य में उच्च शिक्षा के क्षेत्र में मील का पत्थर साबित होगी। यदि इसकी न्यूनताओं को दूर करने का ईमानदारी से प्रयास किया जाये तो यह प्रणाली उच्च शैक्षिक विषमताओं को दूर कराने में निश्चित ही सहायक सिद्ध होगी।

संदर्भ

1. भारत की जनसंख्या डॉ. के. शर्मा, पृ. 45

2. वही, पृ. 18

3. मनोरमा ईयार बुक, 2008, पृ. 117

4. जनसाक्षरता : डॉ. अशोक शर्मा, पृ. 70

5. मनोरमा ईयर बुक, 2008, पृ. 770

6. जनसाक्षरता : डॉ. अशोक शर्मा, पृ. 77

पूर्वोत्तर भारत : भाषाई संसार

देश को स्वतंत्र हुए आधी शताब्दी से अधिक का समय व्यतीत हो चुका है; परंतु यह दुर्भाग्य की बात है कि तमाम आधुनिक साधनों की प्रचुरता के पश्चात् भी पूर्वोत्तर भारत देश के शेष भाग से अस्पर्श की भांति अलग-थलग पड़ा है। पूर्वोत्तर से संलग्न-बिहार, झारखंड, उत्तर प्रदेश जैसे प्रांतों से तो इसका पड़ोसियों की भांति परिचय भी है; परंतु इससे सुदूरवर्ती मध्यप्रदेश, गुजरात जैसे प्रांतों के ग्रामीण क्षेत्रों के निवासी पूर्वोत्तर के प्रांतों के नाम भी नहीं जानते। इनता वे अवश्य जानते हैं कि कामरूप-कामाख्या बंगाल की भांति विदेश में है। बंगाल की तरह यहाँ भी काला जादू होता है और जो यहाँ आता है, उसे यहाँ की स्त्रियाँ जादू से बकारा या भेड़ बनाकर बाँध लेती हैं, फिर उसे मारकर खा जाती हैं। पचास वर्ष पूर्ण प्रचलित यह धारणा आज भी यथावत है। यह तब है, जब पुरानी पीढ़ी लगभग चुकती जा रही है, और नई पीढ़ी अपने पूर्वजों के विश्वास को जीती हुई इंटरनेट के युग में प्रवेश कर गई है।

ऐसे पूर्वोत्तर भारत में भाषाई विविधता को समझना अत्यंत दुष्कर है। असम, मेघालय, अरुणाचल, सिक्किम, नागालैंड, त्रिपुरा, मणिपुर और मिजोरम-इन आठों प्रांतों में अनेक विध वैविध्य है। इनकी भौगोलिक संरचना इनके सांस्कृतिक तत्त्वों को पृथक् करती है और स्पष्ट है कि जब सांस्कृतिक विविधिता है, तो भाषाई विविधता भी होगी। इन आठों राज्यों की अपनी पृथक् भाषाएँ हैं। असम में असमिया, अरुणाचल में चकमा, त्रिपुरा में त्रिपुरी, मणिपुर में मणिपुरी आदि भाषाओं की प्रधानता है, तो परंतु मात्र इतनी सूचना तक विहंगम दृष्टि है। समूचे पूर्वोत्तर में बोली जाने वाली भाषाओं और बोलियों की संख्या लगभग 100 है। इन भाषाओं में से 65 बोलियाँ प्रमुख हैं जो तिब्बती-चीनी परिवार की है। डॉ. अरुण कुमार सिंह ने इन्हें इस प्रकार रेखांकित किया है' :

राज्य प्रमुख भाषा और बोलियों की संख्या

अरुणाचल प्रदेश 12

असम 14

त्रिपुरा 05

नागालैंड 14

मणिपुर 11

मिजोरम 04

मेघालय 03

सिक्किम 02

पूर्वोत्तर राज्यों की सीमाओं से लगे बंगला देश, नेपाल, वर्मा, तिब्बत और चीन देश हैं। इन देशों का भाषाई प्रभाव यहाँ की जनजातीय बोलियों और भाषाओं पर पड़ा है। इन राज्यों में कोई एक भाषा नहीं बोली जाती, अपितु अनेक जनजातियाँ बोलियाँ जाती हैं। इसका प्रधान कारण इस क्षेत्र में जनजातियों की विविधता और बहुलता है। इस प्रकार पूर्वोत्तर में एक भाषा के अंतर्गत् अनेक बोलियों की श्रृंखला है। "पूर्वांचल की जनजाति भाषाएँ विभिन्न भाषा परिवारों के साथ संबंध रखती हैं; जैसे-तिब्बती, बर्मन, मौन-ख्मेर, सयमीज-चायनीज परिवार आदि। इन भाषाओं में अनेक बोलियाँ भी हैं। कभी-कभी एक ही छोटे सीमित क्षेत्र में रहने वाले लोगों की भी भाषाएँ अनेक होती हैं।" पूर्वांचल, अर्थात् पूर्वोत्तर भारत की अपनी भौगोलिक स्थिति के कारण इस क्षेत्र की जनजातियाँ छोटे-छोटे क्षेत्रों में रहती हैं और यही कारण है कि इस अंचल में पर्याप्त भाषाई विविधता है।

असम यद्यपि राजनैतिक दृष्टि से भले ही टुकड़ों में बँट गया हो, पर भौगोलिक व सास्कृतिक सीमाएँ तो बृहत्तर असम को ही संसूचित करती हैं। "असम राज्य का आज का रूप छोटा भले हो, वह आज भी इस सारे पूर्वोत्तर भारत का प्रतिनिधित्व करता है। एक समय (अंग्रेजों के लिए) आज का त्रिपुरा और मणिपुर राज्यों को छोड़ बाकी सभी राज्य इसी के अंतर्गत् थे।"3

स्वतंत्रता के पश्चात् राज्यों का पुनर्गठन हुआ और राज्यों के पुनर्गठन के पश्चात् आई सामाजिक-राजनैतिक-सांस्कृतिक चेतना के परिणास्वरूप क्षेत्रीय भाषाओं तथा बोलियों का विकास होना प्रारंभ हुआ। पूर्वोत्तर भारत के अधिकतर भागों में एक ही क्षेत्र में बोली जाने वाली अनेक बोलियों की विशिष्टता विद्यमान है। अकेले मेघालय में ही गारो, खासी और जयंतिया जनजातीय भाषायें बोली जाती हैं। असम फ्री मुख्य भाषा असमिया के साथ-साथ यहाँ भी गोरा, खासी और जयंतिया के बोलने वाले प्रचुर मात्रा में निवास करते हैं। गारो भाषा तुरा, विलियमनगर तथा बाघमारा जिलों में बोली जाती हैं। ये जिले गारो हिल्स के नाम से विख्यात हैं। खासी हिल्स के नांगस्टोन, नांगपोंग तथा शिलांग क्षेत्रों में खासी भाषा का वर्चस्व है। इस क्षेत्र में अंग्रेजों के आने के पश्चात् यहाँ की तीनों प्रमुख भाषाओं-गारो, खासी और जयंतिया का रूप ही बदल गया। खासी भाषा के चेहरे पर अंग्रेजों ने अपनी लिपि का लेपन कर दिया। परिणाम यह हुआ कि आज भी खासी रोमन लिपि में लिखी जाती है। जयंतिया बोली खासी के निकट है जो जयंतिया हिल्स में बोली जाती है इसे जोवाई क्षेत्र भी कहते हैं।

पूर्वोत्तर के प्रमुख राज्य असम की प्रमुख भाषा असमिया है, परंतु राज्य के विभिन्न क्षेत्रों में विभिन्न बोलिंयाँ प्रचलन में हैं। इन बोलियों में बोडो, सोनोवाल और दिमाशा प्रमुख हैं। ये तीनों बोलियाँ कछारी के नाम से जानी जाती हैं, इसलिए इन्हें बोडो कछारी, सोनोवाल कछारी और दिमाशा कछारी भी कहते हैं। असम के कोकराझार, कामरूप, शोषितपुर, दरंग तथा नलवाड़ी जिले बोडो बोली के प्रधान क्षेत्र हैं। इस राज्य की अन्य जनजातीय बोलियों में राभा, कार्बी, मिसिंग, देउरी, लालुंग, हमार, बर्मन आदि प्रमुख हैं। असम की बोडो भाषा के लिए देवनागरी लिपि का प्रयोग होता है।

अरुणाचल प्रदेश के विभिन्न जिलों में विभिन्न भाषाएँ बोली जाती हैं। इनमें पच्चीस भाषाओं तथा बोलियों को अब तक चिह्नित किया गया है। ये हैं-मोनपा एवं इसकी पृथक् पृथक् बोलियाँ, वांचू, खोवा, मेंबा, खांबा, तागनि, तांगसा, योबिन, मशिमी मीजू, मिशमी दिगारू, मिशमी ईद, मिजी, शेरदुक्पेन, सोलुंग, सिंहफो, खामती, नोक्टे, मिशिंग, बैंगनी, देउरी, निशिंग, आदी, आपातानी, हिलमिरी एवं अका। यहाँ की प्रमुख भाषा जेमी है, जिसकी लिपि देवनागरी है।

त्रिपुरा की जनजातियाँ काकवरक भाषा बोलती हैं। यह यहाँ के जनजातियों की प्रमुख संपर्क भाषा है। नागालैंड की प्रमुख भाषा नागामीज़ है। इसके अतिरिक्त इस प्रदेश में नगा भाषाओं का भी प्रचलन है। ये भाषाएँ हैं-लोथा, अंगामी, आओ, सेमा आदि। नागालैंड में इन भाषाओं के समन्वय से अब एक नई भाषा- 'तेनिदिए' आकर ग्रहण करने लगी है। त्रिपुरा में उक्त भाषाओं के अतिरिक्त चकमा भाषा के बोलने वाले भी पर्याप्त निवासी हैं, जिनकी संख्या हजारों में है।

मिजोरम में जितनी भी जनजातियाँ निवास करती हैं, उनमें राल्ते, पाइते, पोइ, लुशेई और म्हार प्रमुख हैं। इतना ही नहीं, लगभग ग्यारह उपजातियाँ भी इनके अतिरिक्त हैं। इन जनजातियाँ में जो बोलियाँ प्रचलित हैं, उन्हें उन्हीं के नाम से जाना जाता है, जैसे राल्ते जनजाति की बोली राल्ते टंग, पाइते जनजाति की बोली पाइते टंग आदि। इन जन-जातियों की बोलियों का जो समन्वित स्वरूप है, उसे 'ओजिया' नाम से जाना जाता है। अन्य जनजातियों की भी स्वतंत्र भाषाएँ नागालैंड में प्रचलित हैं। इन जनजातीय भाषाओं में कोनकू, अंगामी, छोक्री, पोचुरीं, साड़गतम, चाड़ग, फोम, लोथा, खेजा, सेमा आदि के उल्लेखनीय नाम हैं।

मणिपुर राज्य की प्रमुख भाषा मणिपुरी है। अन्य राज्यों की भांति इस राज्य में भी लगभग 21 जनजातीय भाषाएँ बोली जाती हैं। जिनमें से सात भाषाएँ प्रमुख हैं। इन भाषाओं की भी अनेक बोलियाँ हैं। इन बोलियों में माओ, पाओ, ताङगखुल, रोङग में, लैङग मैं, जैमै, खोङगजाई, वाइफै, पाइते, थादौ, अनाल, ककचिड, चांदेल, सिकमाई, अन्प्रे, फयेड आदि प्रमुख हैं। भाषा-शास्त्रियों ने इन बोलियों को भाषाओं के समूह में वर्गीकृत किया है।

सिक्किम राज्य में भी भाषाई विविधता परिलक्षित होती है। इस राज्य में यद्यपि नेपाली भाषा का बाहुल्य है, पर इसके अतिरिक्त भोटिया और लेपचा भाषाएँ भी यहाँ पर अस्तित्व में हैं। इन भाषाओं की अनेक बोलियाँ सिक्किम में बोली जाती हैं।

भाषा और बोलियों की जितनी अधिक विविधता पूर्वोत्तर राज्यों में है, उतनी भारत के किसी अन्य राज्य में नहीं है। पूर्वोत्तर के कुछ राज्यों में उनकी अपनी मूल भाषा और भाषाओं के अतिरिक्त बंगला, चीनी, नेपाली तथा बर्मी भी बोली जाती है। असम, मेघालय, त्रिपुरा, मणिपुर आदि में हिन्दी भी बोली-समझी जाती है।

पूर्वोत्तर भारत की भाषाएँ और बोलियाँ पर्याप्त समय तक उपेक्षित रहीं। रही-सही कसर अंग्रेजों ने अंग्रेजी थोप कर पूरी कर दी। आज समूचे देश की भांति इन राज्यों में भी संपर्क भाषा के रूप में अंग्रेजी का प्रभुत्व स्थापित है। परंतु, स्थितियाँ अब बदलने लगी हैं और हिन्दी, अंग्रेजी के साथ कदमताल करने लगी है। यहाँ की भाषाएँ और बोलियाँ भी अब युग-चेतना के साथ अँगड़ाई लेकर खड़ी होने लगी हैं। असमिया में तो शंकरदेव के समय से ही समृद्धि परिलक्षित होने लगी थी। आज उसमें विपुल साहित्य उपलब्ध है।

गारो, खासी तथा बोडो भाषाओं पर भी पर्याप्त काम हुआ है। खासी-हिन्दी-अंग्रेजी शब्दकोश तैयार हो चुका है। खासी में रामायण और महाभारत के सुनवाद हो चुके हैं तथा अनेक ग्रंथों की रचना हुई है। पूर्वोत्तर पर्वतीय विश्वविद्यालय, शिलांग में खासी और गारो भाषाओं में स्नातकोत्तर स्तर पर अध्यापन कार्य संपादित किया जा रहा हैं इतना ही नहीं, मणिपुर, सिलचर आदि विश्वविद्यालयों में इन भाषाओं और बोलियों को लेकर अनेक शोधकार्य हो रहे हैं, इनमें साहित्य लिखा जा रहा है और शब्दकोश तैयार हो रहे हैं। नागालैंड भाषा परिषद्, कोहिमा द्वारा पूर्वोत्तर की प्रायः समस्त भाषाओं में सौ के आसपास कोशों का निर्माण किया है और उनका प्रकाशन किया है। बोडो-हिन्दी-अंग्रेजी-शब्द-कोश, मिजो-हिन्दी कोश आदि के प्रकाश में आने से जहाँ हिन्दी को इस क्षेत्र में प्रतिष्ठा प्राप्त हुई है, वहीं इन भाषाओं के विकास का पथ भी प्रशस्त हुआ है।

पूर्वोत्तरीय राज्यों में हिन्दी का प्रवेश विलंब से हुआ। अंग्रेज नहीं चाहते थे कि हिन्दी इस क्षेत्र में प्रवेश करे और उसके विरुद्ध वातावरण निर्मित हो। परंतु भावनाओं की अभिव्यक्तियों को भाषाई दीवार रोक नहीं पाती। इस क्षेत्र में अंग्रेजी साम्राज्यवाद के विरुद्ध चेतना भी विकसित हुई और हिन्दी के पल्लवन-पुष्पन हेतु भूमि भी तैयार हुई।

अत्याधुनिक सूचना-प्रौद्योगिकी के विस्तार ने इस क्षेत्र के निवासियों कोजागरूक और नव-चेतना सम्पन्न बनाया है। अब इन लोगों के हृदय में अंग्रेजी के प्रति आस्था और हिन्दी के प्रति दुराग्रह के भाव नहीं रहे। यहाँ के अधिकांश जन हिन्दी बोलते हैं, हिन्दी समझते हैं और हिन्दी पढ़ते हैं। हिन्दी विषय लेकर एम.ए. करने व हिन्दी में एम.फिल. व पी-एच.डी. करने वाले छात्रों-छात्राओ की संख्या में प्रति वर्ष उत्तरोत्तर वृद्धि हो रही है। हिन्दी फिल्मों, हिन्दी फिल्मों के गीतों और आकाशवाणी की स्थापना तथा दूरदर्शन के प्रभाव ने भी इस क्षेत्र में हिन्दी की स्थापना में योगदान दिया है। इतना ही नहीं, हिन्दी ने भी क्षेत्रीय बोलियों और भाषाओं को फलने-फूलने के लिए समुचित वातावरण तथा पर्याप्त अवसर प्रदान किये हैं। हिन्दी ज्येष्ठा है, अपनी अनुजाओं को पीछे रखकर क्या वह समृद्ध और सुखी रह सकती है? कदापि नहीं। यही कारण है कि इस क्षेत्र में स्थान-स्थान पर लगे सूचना-पटल हिन्दी और अंग्रेजी के साथ-साथ क्षेत्रीय भाषाओं में भी लिखे जा रहे हैं।

डॉ. अजित कुमार सिंह का मत है कि "विश्व के आधुनिक वैज्ञानिक विचारकों की राय में आने वाला नया युग नई प्रौद्योगिकी का युग होगा। इस नई प्रौद्योगिकी से समस्त भारतीय भाषाएँ भी प्रभावित हुए बिना नहीं रहेंगी। इस प्रौद्योगिकी का प्रभाव पूर्वोत्तर भारत की सभी छोटी-बड़ी भाषाओं पर पड़ना आरंभ हो चुका है। सूचना संसाधित उपकरणों की उपस्थिति तथा निरंतर बढ़ते प्रयोग से पूर्वोत्तर भारत की सभी मुख्य भाषाएँ और जनजातीय भाषाएँ नई शब्द-संपदा के संपर्क में आ रही हैं। सभी जनजातीय भाषाओं की शब्द-संपदा और अभिव्यक्ति की क्षमता का दायरा बढ़ता जा रहा है। वर्तमान युग की सूचना क्रांति से पूर्वोत्तर भारत की भाषाओं को भी अन्य भारतीय भाषाओं के साथ-साथ हमें जोड़ना होगा।"

अब तो इस क्षेत्र की असमिया, मणिपुरी तथा नेपाली भाषाओं को संविधान में स्थान दिया गया है। इससे, इन भाषाओं की ही नहीं, इनसे संबद्ध अनेक बोलियों की प्रतिष्ठा में भी श्रीवृद्धि हुई है। सुखद आशा-संचरण के मध्य निराशाजनक पक्ष यह है कि पूर्वोत्तर की अनेक जनजातीय बोलियाँ या तो लुप्त हो गई हैं या लुप्त होने की स्थिति में हैं। यदि इनके संरक्षण पर यथाशीघ्र ध्यान केंद्रित न किया गया, तो इनके सांस्कृतिक स्वरूप से देश वंचित हो जायेगा।

संदर्भ :

1. पूर्वोत्तर भारत का इतिहास डॉ. अजित कुमार सिंह, पृ. 242

2. जनजाति भाषाएँ और हिन्दी-शिक्षण सं. न.वी. राजगोपालन, पृ. 6

3. वही, पृ. 30

4. पूर्वोत्तर भारत का इतिहास डॉ. अजित कुमार सिंह, पृ. 241

असम में हिन्दी

हिन्दी को राजभाषा से राष्ट्रभाषा के पथ पर अग्रसर करने के लिए जहाँ समूचे देश में सरकारी-गैर सरकारी संगठन सक्रिय हैं, वहीं असम भी इस उद्यम में पीछे नहीं है। यद्यपि भाषा का मुद्दा अत्यंत संवेदनशील और भावनात्मक है तथापि भारत जैसे बहुभाषी राष्ट्र में इसका विशेष स्वरूप परिलक्षित भी होता है। देश के पूर्व से पश्चिम और उत्तर से दक्षिण के आम जन की यही भावना है कि हिन्दी भारत की राष्ट्रभाषा पद को सुशोभित करे। असम में भी आम जन की इसी भावना से प्रेरित होकर हिन्दी के संबर्द्धन का कार्य किया जा रहा है। हिन्दी की कभी भी यह भावना नहीं कि वह अन्य भाषाओं के अस्तित्व को पराजित कर उन पर राज करे। सभी भाषाएँ फलें, फूलें, पर देश के करोड़ों लोगों की राष्ट्रीय भावनाओं को अभिव्यक्त करने वाली हिन्दी को भी उसका स्वत्व प्राप्त हो।

असम में हिन्दी का प्रचार :

भाषा का अध्ययन प्रारंभिक स्तर पर प्रायः दो प्रकारों से हुआ करता है-अक्षर ज्ञान व व्याकरण और साहित्य। यह भाषा शिक्षण का लिखित रूप है। किसी भाषा का विकास लिखित रूप की अपेक्षा मौखिक परंपरा से कहीं अधिक होता है। सच तो यह है कि किसी भी भाषा में मौखिक परंपरा के पश्चात् ही उसका लिखित रूप आकार ग्रहण करता है। धार्मिक, राजनैतिक एवं व्यापारिक संबंधों के कारण असम में हिन्दी की बोलचाल का रूप प्रविष्ट हुआ। जब हिन्दी को राष्ट्रभाषा बनाने की राष्ट्रव्यापी हलचल हुई तो असम में भी इसकी अनुकूल प्रतिक्रिया हुई। असम में हिन्दी प्रचारक संस्थानों की स्थापनाएँ हुई। सन् 1921 में गाँधी जी ने असम की यात्रा की। सन् 1934 में गाँधी जी की प्रेरणा से बाबा राघवदास ने असम में हिन्दी का प्रचार-प्रसार किया। इसके लिए उन्होंने बरहज में अपना आश्रम बनाया और यहाँ से अपने कार्यों को संचालित करने लगे।

सन् 1936 में जब गुजरात के वर्धा में 'हिन्दी प्रचार समिति' की स्थापना हुई तो असम से भी अनेक युवक हिन्दी में उच्च शिक्षा प्राप्त करने वहाँ भेजे गये। 3 नवंबर, 1938 को 'असम हिन्दी प्रचार समिति' की स्थापना हुई। इसी संस्था ने आगे चलकर 'असम राष्ट्रभाषा हिंदुस्तानी प्रचार समिति' का नाम ग्रहण किया। कालांतर में इस संस्था ने अपने नाम में आंशिक संशोधन करते हुए इसका नामकरण 'असम राष्ट्रभाषा प्रचार समिति' किया। हिन्दी भाषा के प्रचार कार्य में संलग्न एक और संस्था- 'असम पोलिटेक्नीक इंस्टिट्यूट' का प्रयास भी वंदनीय रहा जिसने अपने संस्थान में विभिन्न तकनीकी विषयों के साथ-साथ सन् 1926 से हिन्दी को एक विषय के रूप में रखा। इस संस्था के विधान के अनुसार, इस संस्था में प्रवेशित छात्रों को कक्षा तीसरी से आठवीं तक हिन्दी की शिक्षा ग्रहण करना अनिवार्य था। नौवीं और दसवीं कक्षाओं के लिए यह शिक्षा ऐच्छिक थी।

असम में हिदी शिक्षा :

असम में हिदी शिक्षण का कार्य तो स्वतंत्रता के वर्षों पूर्व प्रारंभ हो गया था, पर उसमें वह गति नहीं थी, जो होनी चाहिए थी। यद्यपि स्वतंत्रता के पूर्व कुछ और स्वतंत्रता के पश्चात् पर्याप्त ऐसे ग्रंथ सृजित हुए जो असम में हिन्दी-शिक्षण के क्षेत्र में मील के पत्थर सिद्ध हुए। वे व्याकरणिक और कोश-ग्रंथ थे। इसके अतिरिक्त केंद्र सरकार और राज्य सरकारों का अनुकूल रवैया असम में हिन्दी की भी वृद्धि के लिए अधिक सफल सिद्ध हुआ। सन् 1951-52 से राज्य के प्राथमिक विद्यालयों में हिन्दी की शिक्षा प्रारंभ की और कक्षा 4 से इसे अनिवार्य कर दिया। इतना ही नहीं, असम के अंग्रेजी माध्यम के माध्यमिक तथा उच्चतर माध्यमिक विद्यालयों में भी इस योजना का श्रीगणेश किया गया। असम में हिदी शिक्षण की दिशा में उठाया गया यह महत्त्वपूर्ण कदम था।

सरकार ने हिन्दी-शिक्षण की योजना तो प्रारंभ कर दी, पर इसके क्रियान्वयन के लिए हिन्दी शिक्षकों का भारी अभाव था। सन् 1951 में ग्वालपाड़ा जिले के दुधनइ में हिन्दी प्रशिक्षण केंद्र प्रारंभ कर दिया गया। सन् 1962 में चीनी आक्रमण के समय सुरक्षा कारणों से इसे मिकिर पहाड़ जिले के डिफू ले जाया गया। यहाँ प्रशिक्षण प्राप्त हिन्दी शिक्षकों को विद्यालयों में हिन्दी शिक्षक के पद पर नियुक्त किया जाने लगा। इतना ही नहीं और अधिक योग्यता तथा हिन्दी में दक्षता बढ़ाने हेतु शिक्षकों को आगरा भेजा जाने लगा। यह उपाय सरकार के लिए बहुत व्यय साध्य और श्रम साध्य था, इसीलिए सन् 1969 में असम सरकार ने राज्य में हिन्दी शिक्षक प्रशिक्षण महाविद्यालय खोलने का निर्णय लेते हुए गुवाहाटी में इसकी स्थापना की। इस महाविद्यालय से हिन्दी शिक्षक राज्य में ही प्रशिक्षित होने लगे। यद्यपि असम में कक्षा चार से कक्षा दस तक हिन्दी के अध्ययन को अनिवार्य बनाया गया था तथापि सन् 1973 में राज्य की आंतरिक परिस्थितियों के कारण इस प्रक्रिया में संशोधन हुआ और केवल कक्षा पाँच से सात तक हिन्दी को अनिवार्य बनाया गया तथा कक्षा आठ से दस तक की कक्षाओं के लिए हिन्दी को ऐच्छिक विषय के रूप में रखा गया।

एक ओर प्राथमिक तथा हाई स्कूल स्तरों पर हिन्दी-शिक्षण का कार्य चल रहा था तो दूसरी ओर उच्च शिक्षा के क्षेत्र में हिन्दी अध्ययन को प्रोत्साहित किया जा रहा था। सन् 1960 के पूर्व तक असम के उच्च शिक्षण संस्थानों में हिन्दी अध्ययन की सुविधा नहीं थी। सन् 1963 में राजकीय कॉटन कॉलेज में हिन्दी विभाग प्रारंभ हुआ। चौथी पंचवर्षीय योजना में सन् 1970 में गुवाहाटी विश्वविद्यालय में हिन्दी विभाग प्रारंभ हुआ।

असम में हिन्दी साहित्य

भाषाई समृद्धि उसमें सृजित साहित्य से होती है। असम में हिन्दी का श्रीगणेश तो मध्यकाल में हो चुका था, जब श्रीमंत शंकरदेव ने ब्रजबुलि में साहित्य-सृजन प्रारंभ किया था। इस दृष्टि से शंकरदेव को असम में हिन्दी का प्रथम प्रचारक माना जाना चाहिए। इनके सुयोग्य शिष्य माधवदेव ने भी अपने गुरु द्वारा प्रवर्तित हिन्दी-साहित्य परंपरा को आगे बढ़ाया। अंग्रेजी शासन काल तक यह स्थिति न्यूनाधिक रूप में रही। महात्मा गाँधी ने स्वतंत्रता आंदोलन के साथ-साथ हिन्दी के प्रचार-प्रसार का लक्ष्य भी घोषित किया। पर हिन्दी में साहित्य-सृजन की गति मंद रही क्योंकि हिन्दी जब हिन्दी भाषी क्षेत्रों में ही गतिशील नहीं हो सकी थी-जितनी होनी चाहिए थी, तब असम में विपुल साहित्य सृजन की कल्पना कैसे की जा सकती थी? फिर भी हरिनारायण दत्त बरुआ, विचित्र नारायण दत्त बरुआ, नवीनचंद्र कलिता, चक्रेश्वर भट्टाचार्य, रजनीकांत चक्रवर्ती आदि पचासों हिन्दीतर सृजन धर्मियों ने हिन्दी में सृजन कार्य किया और असम में हिन्दी के प्रसार में योगदान दिया। इस समय तक हिन्दी की विभिन्न विधाओं में अनेक श्रेष्ठ कृतियाँ सृजित हुईं। असम में इस समय तक हिन्दी और हिन्दीतर भाषा के रचनाकारों का पर्याप्त प्रभाव साहित्य पर पड़ रहा था।

1947 के पश्चात् हिन्दी में रचनाकारों की बाढ़-सी आ गयी। इस समय रचनाकारों के दो वर्ग हो चुके थे। एक वे रचनाकार थे, जो स्वतंत्रता के पूर्व से रचनाधर्मिता का निर्वाह करते आ रहे थे और जिनकी लेखनी प्रौढ़ तथा प्रांजल हो चुकी थी। दूसरा नवोदित वर्ग था, जो हिन्दी में अपनी अभिव्यक्ति कर रहा था और जिसके हृदय में हिन्दी-प्रेम अंकुरित हो चुका था। असम में स्वतंत्रता के पश्चात् की यह महत्त्वपूर्ण घटना थी कि नई पीढ़ी हिन्दी के प्रति आकर्षित हो रही थी। इस समय तक अनेक कहानियाँ, उपन्यास और काव्य-ग्रंथ हिन्दी से असमिया में तथा असमिया से हिन्दी में अनूदित हो चुके थे और हो रहे थे। इस साहित्यिक विनिमय-व्यवहार से असम में हिन्दी के विकास के लिए सुखद वातावरण का निर्माण हुआ, जो भविष्य के लिए शुभ संकेत था।

असम में हिन्दी की दशा और दिशा :

स्वतंत्रता के पूर्व से ही असम में हिन्दी को समुचित स्थान दिलाने के प्रयास किये जा रहे थे पर इसकी गति मंद थी। अन्य हिन्दीतर भाषी प्रदेशों की अपेक्षा असम में हिन्दी की स्थापना का कार्य तीव्रतर हुआ। समूचे प्रदेश में शासकीय प्रयास तो चलते ही रहे, असम राष्ट्रभाषा प्रचार समिति का सर्वाधिक, सर्वोपरि एवं महत्त्वपूर्ण अवदान रहा। आज असम में हिन्दी की दशा दीनहीन नहीं है। हिन्दी असम में अत्यंत समृद्ध है। शिक्षा विभाग की रिपोर्टों के अवलोकन से विदित होता है कि प्रतिवर्ष लगभग सवा लाख छात्र माध्यमिक कक्षाओं में हिन्दी जैसा ऐच्छिक विषय लेते हैं। इस संख्या में निरंतर वृद्धि हो रही है। सन् 1938 में जहाँ कुल 1304 छात्र इस परीक्षा में सम्मिलित हुए थे, अगले 10 वर्षों में यह संख्या बढ़कर 24,570 हो गयी। सन् 1997 में यह संख्या 82,303 थी। इतना ही नहीं, उच्च शिक्षा विभाग में हिन्दी की एम.ए. कक्षाओं में अध्ययन हो रहा है, शोध-कार्य हो रहा है और इस ओर छात्रों का रुझान बढ़ा है। असम से अनेक मासिक, त्रैमासिक और वार्षिक पत्र-पत्रिकाओं के साथ-साथ दैनिक-पत्र भी निकल रहे हैं। पूर्वोदय, प्रभात खबर, पूर्वांचल प्रहरी, राष्ट्रसेवक, अकेला आदि इनमें प्रमुख हैं।

असम में हिन्दी की श्रेष्ठ दशा तो है पर कुछ न्यूनताएँ भी हैं। गौहाटी विश्वविद्यालय में अब भी हिन्दी का शोध-प्रबंध अंग्रेजी भाषा में लिखकर प्रस्तुत करने की बाध्यता है। लगभग एक दशक पूर्व हिन्दी छात्रों ने इस नियम के विरुद्ध प्रभावी आंदोलन भी किया था और अनेक बार नेताओं तथा वरिष्ठ अधिकारियों का इस ओर ध्यान आकृष्ट कराया परंतु इस प्रथा को दूर न किया जा सका। इससे इस विश्वद्यिालय की सीमा में हिन्दी में शोध की संख्या कम हुई है। इतना ही नहीं, अंग्रेजी में हिन्दी का शोध लिखने पर मूल नामों, भावों और उच्चारणों में भी पर्याप्त दोष उत्पन्न होते हैं जो भविष्य में अत्यंत घातक सिद्ध होंगे। यह प्रवृत्ति असम में हिन्दी का क्या भविष्य निर्धारित करेगी, सहज ही अनुमान लगाया जा सकता है। असम में हिन्दी का प्रचार-प्रसार पर्याप्त हुआ, छात्रों में हिन्दी के प्रति सहज आकर्षण भी उत्पन्न हुआ, किंतु इस बिंदु पर विचार नहीं किया गया कि हिन्दी में विशेषज्ञता प्राप्त कर लेने वालों को लाभ क्या मिलेगा? केंद्रीय राजभाषा आयोग द्वारा निर्धारित किये गये मापदंडों के अनुसार केंद्र सरकार के कार्यालयों और उपक्रमों में हिन्दी योग्यताधारियों के लिए सारे पद निर्धारित किये गये हैं वे बहुत कम हैं और जितने पद सृजित हैं भी तो उनकी पूर्ति भी लालफीताशाही के कारण नहीं हो पाती। राज्य शासन भी अपने विभागों और उपक्रमों में हिन्दी योग्यताधारियों के लिए अनेक पदों को सृजित कर युवाओं को राहत प्रदान कर सकता है। हिन्दी में डिग्रीधारियों को यदि रोजगार की व्यवस्था नहीं की गई तो उनके मन में हिन्दी के प्रति प्रतिकूल भाव उत्पन्न हो सकते हैं। इतना ही नहीं भविष्य में भी हिन्दी के छात्रों में कमी आ सकती है। यदि ऐसा हुआ तो असम में हिन्दी प्रसार के लिए किये गये 100 वर्षों के प्रयास पर यह कदम पानी फेरने जैसा होगा तथा इससे हिन्दी विरोधी मानसिकता को लेकर गतिविधियाँ चलाने वाले को फलने फूलने का मौका सहज ही उपलब्ध हो जायेगा।

मेघालय में हिन्दी

भारत का एक उत्तर-पूर्वी राज्य जहाँ की कुल जनसंख्या 2001 की जनगणना के अनुसार 2318822 है और जिसमें खासी, गारो तथा जयन्तिया बोलने वालों का बाहुल्य है। 'सेवन-सिस्टर' स्टेट की एक बहन मेघालय 2 अप्रैल, 1970 को अस्तित्व में आया और 21 फरवरी, 1972 को इसे असम से पृथक् स्वतंत्र राज्य का दर्जा प्राप्त हुआ। यह प्रदेश अप्रैल से लेकर सिंतबर तक बारिश से तर रहता है, बादल तो वर्ष में दस माह छाये ही रहते हैं। इन बादलों का दृश्य अत्यंत मनोरम होता है, इसलिए इसे मेघों का आलय (मेघालय) कहा गया है। इसकी पूर्वी, उत्तरी और उत्तरी पूर्वी सीमा बंगला देश से घिरी है जबकि शेष भाग असम राज्य से जुड़ा है। राज्य में खासी, गारो और जयंतिया जनजातियाँ हैं। ऐसी स्थिति में यह जानना निश्चित ही विस्मयकारी होगा कि इस प्रदेश में राजभाषा हिन्दी की क्या स्थिति है और इसका भविष्य क्या है? मेघालय में अब तक जो भाषाई सर्वेक्षण हुआ है उसके अनुसार इस प्रांत में खासी, गारो, जयन्तिया, बंगला, असमिया और नेपाली छह भाषाओं का प्रयोग होता है। अंग्रेजी इस प्रदेश की राजभाषा है। स्वतंत्रता के पूर्व से ही अविभाजित असम प्रदेश में बिहार तथा उत्तरी भारत के अन्य प्रदेशों से हिन्दी भाषी मजदूरों का प्रवेश प्रारंभ हुआ और इस प्रकार इस प्रदेश में हिन्दी का प्रवेश हुआ।

हिन्दी का प्रसार कार्य :

मेघालय का एक स्वतंत्र राज्य के रूप में जब से उदय हुआ, तब तक हिन्दी का पर्याप्त प्रचार-प्रसार हो चुका था। बात जब इस प्रदेश में हिन्दी के प्रारंभिक प्रचार-प्रसार की होती है, तब इसकी पृष्ठभूमि अविभाजित असम की होगी। मेघालय का अपना स्वयं का इतिहास तो सन् 1972 से प्रारंभ होता है और इस पृष्ठभूमि में सन् 1943 में शिलाँग से असम राष्ट्रभाषा प्रचार समिति ने इस दिशा में कार्य प्रारंभ किया। मेघालय क्षेत्र में खासी नेता महाम सिंह के अतिरिक्त बैकुंठनाथ सिंह, पद्मनाभ बड़ठाकुर, विश्वनाथ उपाध्याय आदि हिन्दी प्रेमियों ने हिन्दी के प्रारंभिक प्रचार-प्रसार मे अपना योगदान दिया। असम राष्ट्रभाषा प्रचार समिति ने मेघालय क्षेत्र में अपने प्रचारकों को हिन्दी के प्रचार-प्रसार हेतु भेजा। आगामी दो-तीन वर्षों में ही इस प्रचार-प्रसार के सुखद परिणाम परिलक्षित होने लगे। सन् 1952 में इसमें गति लाने के उद्देश्य से जनजातीय लोगों को मिसामारी स्थित राजकीय हिन्दी प्रशिक्षण केंद्र में आमंत्रित किया गया। लोगों ने सोत्साह इसमें अपनी भागीदारी दर्ज की। श्रीमती आइटी ग्रेटिस लिंबा ऐसी प्रथम जनजातीय महिला बनीं, जिन्होंने हिन्दी में प्रथम उपाधारी का श्रेय प्राप्त किया। श्रीमती लिंबा ने मिसामारी के हिन्दी केंद्र से शिक्षा विशारद की उपाधि प्राप्त की। श्रीमती लिंबा का अवदान इस क्षेत्र में इसलिए महत्त्वपूर्ण है कि इन्होंने खासी-जयन्तिया पहाड़ी क्षेत्र में हिन्दी के प्रचार-प्रसार का स्तुत्य कार्य किया।

सन् 1952 से ही असम सरकार ने राज्य के स्कूलों में हिन्दी अध्ययन को अनिवार्य कर दिया और 140 माध्यमिक विद्यालयों में इसकी पढ़ाई प्रारंभ करवा दी। यद्यपि मेघालय की सरकार भी इस ओर प्रवृत्त थी पर उसकी स्पष्ट नीति के अभाव के कारण जो गति हिन्दी प्रसार की होनी चाहिए थी, वह न हो सकी। मेघालय के कुछ विद्यालयों में कक्षा 5 से हिन्दी का पठन-पाठन प्रारंभ कराया गया तो कुछ विद्यालयों में कक्षा दो से। अंग्रेजी को वैकल्पिक भाषा के रूप में रखने का भी दुष्परिणाम यह हुआ कि हिन्दी के प्रति छात्रों का रुझान कम हुआ और वे अंग्रेजी की ओर अधिक प्रवृत्त हुए। हिन्दी की पाठ्यपुस्तकों में भी विभिन्नता परिलक्षित हुई।

परिणामतः हिन्दी विकास-रथ के पहिये वांछित गति प्राप्त न कर सके इस अफरा-तफरी के कारण स्थिति यह है कि जहाँ सन् 1991 के पूर्व मेघालय में प्रत्येक भाषा माध्यम के विद्यालय थे, आज वे सभी अंग्रेजी माध्यम से शिक्षा देने ही ओर प्रवृत्त हो गये हैं। स्कूलों में हिन्दी छात्रों और हिन्दी शिक्षकों की संख्या में भारी कमी आयी है। राज्य के शिक्षा विभाग की रिपोर्टों के अनुसार समूचे मेघालय में 1997 में मिडिल स्तर पर कुल 319 और हाई स्कूल स्तर पर लगभग इसके आधे 159 हिन्दी शिक्षक थे। यही स्थिति उच्च शिक्षा के क्षेत्र में है। मेघालय के कुछ महाविद्यालयों में ही हिन्दी का अध्यापन की सुविधा है। यहाँ के पूर्वोत्तर पर्वतीय विश्वविद्यालय में 1996 को हिन्दी विभाग की स्थापना की गयी। इस विभाग की अवधि अभी मात्र 12 वर्ष की है और यह छोटी सी अवधि किसी नवीन संस्था के कार्यों के मूल्यांकन हेतु पर्याप्त नहीं होती। पर इस विभान से इस प्रदेश को असीम अपेक्षाएँ हैं। इन अपेक्षाओं को पूर्ण करने में इस विभाग में संभावनाएँ तथा कार्य क्षमता की ऊर्जा भी है।

केंद्रीय हिन्दी संस्थान की भूमिका:

पृथक् राज्य बनने के बाद से मेघालय में हिन्दी प्रचार-प्रसार हेतु केंद्रीय हिन्दी संस्थान की भूमिका अत्यंत महत्त्वपूर्ण रही है। इस संस्थान का रूप पहले 'अखिल भारतीय हिन्दी महाविद्यालय' का था जिसका मुख्यालय आगरा था। केंद्र सरकार ने 21 अक्टूबर, 1963 को इसे स्वायत्तशासी दर्जा लेकर इसका नामकरण 'केंद्रीय हिन्दी संस्थान' रखा। आगरा में केंद्रीय मुख्यालय रखते हुए इसके अनेक क्षेत्रीय केंद्र स्थापित किये गये जो वर्तमान में दिल्ली, गुवाहाटी, हैदराबाद, शिलाँग, दीमापुर, अहमदाबाद तथा मैसूर में हिन्दी के प्रचार-प्रसार में अपनी महत्त्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह कर रहे हैं। मेघालय में इस संस्थान ने अपने विभिन्न क्रिया-कलापों द्वारा हिन्दी प्रचार का पथ प्रशस्त किया है और अब भी अनवरतकार्यरत है।

पूर्वोत्तर में हिन्दी के प्रचार-प्रसारार्थ केंद्रीय हिन्दी संस्थान का केंद्र सन् 1976 में शिलांग में स्थापित हुआ था। इस केंद्र पर पूर्वोत्त के सातों राज्यों की गतिविधियों का उत्तरदायित्व था, परंतु भौगोलिक कारणों से इसका समुचित निर्वहन नहीं हो पा रहा था। इसी समस्या के चलते 1879 में इस केंद्र को गुवाहाटी स्थानांतरित कर दिया गया परंतु सन् 1987 में शिलांग में नया केंद्र वहाँ की आवश्यकताओं को दृष्टिगत रखते हुए स्थापित किया गया। इस संस्थान में मिडिल एवं हाई स्कूल के हिन्दी अध्यापकों को प्रशिक्षित करने के लिए दो से लेकर चार सप्ताह तक के नवीकरण पाठ्यक्रम संचालित किये जाते हैं।

अब तक मेघालय सहित पूर्वोत्तर क्षेत्र में हिन्दी प्रचार में संलग्न विभिन्न शासकीय-अशासकीय संस्थानों के कार्यक्रमों में एकता का अभाव था। केंद्र सरकार ने इस न्यूनता और विषमता को समाप्त करने के लिए राज्य में संचालित समस्त संस्थानों को केंद्रीय हिन्दी संस्थान से संबद्ध करने के निर्देश दिये। इसके परिणामस्वरूप मेघालय सहित उत्तरी पूर्वी राज्यों के विद्यालय इस संस्थान से जुड़ गये। यह संस्थान हिन्दी-शिक्षण, प्रशिक्षण तथा शिक्षण टेक्नॉलॉजी विकास के साथ-साथ हिन्दी-शिक्षण के लिए राज्य की आवश्यकता और प्रकृति के अनुरूप सामग्री निर्माण का कार्य भी करता है। मेघालय में इस संस्थान द्वारा उक्त कार्यों के अतिरिक्त वैज्ञानिक हिन्दी, तकनीकी हिन्दी, व्यापार-वाणिज्य के क्षेत्र में प्रयुक्त होने वाली हिन्दी आदि के द्वारा प्रयोजनमूलक हिन्दी का विकास भी किया जा रहा है।

सुधार के सुझाव :

इतने प्रयासों के बाद भी मेघालय में अब भी हिन्दी प्रचार के क्षेत्र में बहुत कुछ किया जाना जरूरी है। केंद्र सरकार, केंद्रीय हिन्दी संस्थान के माध्यम से नवीकरण पाठ्यक्रम संचालित कर रही है। मेघालय में भी अध्यापक और छात्र इसका लाभ उठाते हैं। पर यहाँ सर्वाधिक परेशानी की बात यह है कि इस पाठ्यक्रम के लिए जो सामग्री तैयार की गई है उसमें स्थानीय परिवेश और स्थानीय आवश्यकताओं का समावेश नहीं है। इस पाठ्यक्रम के साथ-साथ हिन्दी-शिक्षण-प्रशिक्षण के क्षेत्र में संलग्न अन्य संस्थाओं द्वारा संचालित पाठ्यक्रमों को पाठ्य-सामग्री में स्थानीय परिवेश का ध्यान रखा जाना नितांत आवश्यक है। पाठ्य-पुस्तकों तथा दृश्य श्रव्य सामग्री का निर्माण स्थानीय जरूरतों को ध्यान में रखकर किया जाना चाहिए, तभी इस प्रदेश मे हिन्दी तेजी से उड़ान भर सकती है। मात्र पाठ्य-सामग्री के निर्माण और शिक्षण-प्रशिक्षण के विविध कार्यक्रमों का संचालन करना ही मेघालय में हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए पर्याप्त नहीं है। यह भी ध्यान देना होगा कि इस प्रदेश की राजनीतिक, भौगोलिक तथा सामाजिक स्थित अन्य-प्रांतों की अपेक्षा कहीं अधिक नाजुक है, महत्त्वपूर्ण है और गंभीर है।

इस प्रांत की अपनी पारंपरिक भाषाएँ और बोलियाँ तो हैं ही, इस प्रांत से लगे हुए अन्य प्रदेशों की भाषाओं का प्रभाव भी है या कहें दबाव है। ये भाषाएँ भी निश्चित ही यहाँ अपना प्रभाव बढ़ाना चाहेंगी और शनैःशनैः इस ओर प्रयासरत भी हैं। इन भाषाओं के बोलने वालों के अपने आर्थिक हित-सर्वोपरि हैं। अपनी भाषाओं के प्रचार में तो, स्थानीय बोलियों और अन्य भाषाओं के मध्य हिन्दी को अपना मार्ग ढूँढना है, बनाना है औ उसे प्रशस्त करना है। स्थानीय भाषाओं और बोलियों को नजरअंदाज कर हिन्दी मेघालय में राजभाषा के रूप में अपना वर्चस्व स्थापित नहीं कर सकती। हिन्दी को इन्हें साथ लेकर चलना ही होगा।

मेघालय में राजभाषा के रूप में हिन्दी को प्रतिष्ठित होने में सबसे बड़ी चुनौती है-अंग्रेजी। यद्यपि अंग्रेजी केवल मेघालय में नहीं, अपितु समूचे देश में ही हिन्दी के लिए चुनौती बनी हुई है। राजभाषा अधिनियम के प्रावधानों के अनुसार शासकीय कार्य प्रणाली हेतु हिन्दी के साथ-साथ अंग्रेजी भाषा मान्य है। यह प्रावधान संशोधन की माँग करता है। इसमें हिन्दी के साथ-साथ अंग्रेजी के स्थान पर स्थानीय बोली या भाषा या समावेश होना चाहिए। इससे जहाँ एक ओर हिन्दी के लिए राष्ट्रभाषा पद का मार्ग प्रशस्त होगा वहीं दूसरी ओर क्षेत्रीय बोलियों और भाषाओं का विकास होगा। जब क्षेत्रीय बोलियाँ और भाषाएँ समृद्ध होंगी, तब हिन्दी स्वतः ही परिपुष्ट होगी। मेघालय में अंग्रेजी के स्थान पर स्थानीय स्तर पर बोली जाने वाली बोलियों को शिक्षण-प्रशिक्षण कार्यक्रर्मों में महत्त्व दिया जाना चाहिए।

हिन्दीतर भाषी प्रांतों में हिन्दी को बढ़ावा देने के लिए केंद्र सरकार द्वारा परिवर्तित योजनाओं के लक्ष्य निर्धारित किये जाते हैं। मेघालय इस दृष्टि से 'ग' श्रेणी के अंतर्गत् सम्मिलित है। इन लक्ष्यों के अंतर्गत् अब तक हिन्दी में विभिन्न पत्राचार करना, हिन्दी में टंकण कार्य, हिन्दी पुस्तकें क्रय करना आदि शामिल हैं। मेघालय में इन लक्ष्यों को प्राप्त करने हेतु गत पाँच-छह वर्षों में प्रयास किये गये और उसके अच्छे परिणाम प्राप्त हुए।

मेघालय में हिन्दी की दशा :

जो संस्थान अपने लक्ष्य की प्राप्ति कर लेता है, वह दिशा हीन नहीं रह जाता। मेघालय ने हिन्दी के प्रचार-प्रसार की अपनी लय प्राप्त कर ली है। और वह अनवरत उसी दिशा की ओर अग्रसर हो रहा है। कुछ बाधाएँ हर जगह होती हैं। मेघालय में भी हैं जो सामाजिक चेहरे के ऊपर राजनैतिक नकाब के रूप में है। परंतु जिस गति से मेघालय में राजभाषा हिन्दी का प्रचार-प्रसार हो रहा है उससे विदित होता है कि उक्त बाधाओं की दीवारें कच्ची मिट्टी की ही साबित हुई हैं। सुधार की गुंजाइश तो हर क्षेत्र में बनी रहती है, पर और अधिक सुधार की गुंजाइश है-यह कहकर मेघालय में हिन्दी प्रचार के क्षेत्र में अब तक की उपलब्धियों को विस्मृत नहीं किया जा सकता। मेघालय के हिन्दी सीखने और पढ़ने के इच्छुक छात्रों को विशेष छात्रवृत्ति प्रारंभ की जा सकती है। हिन्दी शिक्षकों के साथ हिन्दी के छात्रों को अध्ययन भ्रमण के लिए हिन्दी भाषी राज्यों के महाविद्यालयों और विश्वविद्यालयों के हिन्दी विभाग में भेजा जा सकता है। इससे इन छात्रों और अध्यापकों को हिन्दी के उच्चारण, शुद्धियाँ, सार्थकता तथा बोलने के लहजे को सीखने, परखने और समझने की व्यावहारिक दृष्टि प्राप्त होगी तथा मेघालय में टूटी-फूटी नहीं, स्वस्थ व सुंदर हिन्दी का सर्वांगीण विकास होगा।

मणिपुर में हिन्दी

जहाँ जो वस्तु नहीं है, वहाँ के संदर्भ में जब बात की जाती है, तब वह महत्त्वपूर्ण, रोचक तथा उत्सुकता से युक्त हो जाती है। हिन्दीतर भाषी प्रदेशों में हिन्दी के प्रचार-प्रसार की जब बात आती है, तब विषय का महत्त्व बढ़ जाता है और यह जानना रोचक हो जाता है कि हिन्दीतर क्षेत्रों में कैसे हिन्दी पल्लवित-पुष्पित हुई होगी। देश के दक्षिणी, दक्षिणी-पश्चिमी, पूर्वी तथा पूर्वोत्तर भाग हिन्दीतर भाषी है। यहाँ हिन्दी से इतर भाषाओं का बाहुल्य है। पूर्वोत्तर भारत के आठ राज्य जनसंख्या और क्षेत्रफल की दृष्टि से छोटे-छोटे हैं। इनकी अपनी भौगोलिक स्थिति तो विशिष्ट है ही, सामाजिक, सांस्कृतिक तथा भाषाई स्थितियाँ भी विशिष्ट हैं। ये आठों राज्य भारतीय गणतंत्र के अभिन्न अंग हैं, पर इससे सटे हुए चीन, बर्मा, नेपाल, बंगला देश, भूटान आदि की संस्कृतियों का तथा भाषाओं का प्रभाव इन पर पड़ा है। अंग्रेजी तो अमरबेल की तरह पूरे भारत का सांस्कृतिक रस चूस चूसकर फैल ही रही है। इन राज्यों की अपनी भाषाएँ और बोलियाँ भी हैं। ऐसी स्थिति में राजभाषा का संवैधानिक दर्जा प्राप्त हिन्दी की स्थिति इन राज्यों में क्या और कैसी है, यह जानना अत्यंत उपयोगी होगा।

पूर्वोत्तर के आठ राज्यों में से एक राज्य है-मणिपुर। जहाँ की प्राकृतिक सुंदरता को देखकर लगता है कि भारतीय पुराणों में जिस स्वर्ग की कल्पना की गई है, वह मणिपुर ही है। यहाँ तीसों दिन त्यौहारों-सा माहौल रहता है। वर्ष 2001 में सम्पन्न हुई भारतीय जनगणना के अनुसार मणिपुर की जनसंख्या 2293896 है। उत्तर में नागालैंड, पश्चिम में असम, दक्षिण में मिजोरम तथा पूर्व में बर्मा से घिरे इस राज्य के पर्वतीय क्षेत्रों में वर्तमान में लगभग 30 जनजातियाँ अवस्थित हैं। इन जनजातियों की अपनी भाषाएँ हैं और अपनी बोलियाँ हैं, परंतु इन सबकी संपर्क भाषा मणिपुरी है।

मणिपुर का संबंध प्राचीनकाल से ही उत्तरी भारत से रहा है। 15 वीं शताब्दी से मुस्लिम आक्रमणकारियों से अपने धर्म की रक्षार्थ कुछ ब्राह्मण भागकर मणिपुर आये। इन्होंने यहाँ की स्त्रियों से विवाह किया और यहीं बस गये। इन ब्राह्मणों के द्वारा संस्कृत और हिन्दी का प्रवेश मणिपुर में हुआ। यही कारण है कि मणिपुरी भाषा में संस्कृत और हिन्दी के सैकड़ों शब्द प्राप्त होते हैं। मणिपुर के महाराज भाग्यचंद्र उर्फ जयसिंह (सन् 1759-1798) ने जो प्रार्थनाएँ लिखीं हैं, वे स्पष्ट रूप से हिन्दी में हैं:

प्राणनाथ गोविंद गुनेर सागर,

अधम पतित जानि ना छांड़ किंकर,

कोटि जन्म निज भृत्य ना कर विछेद,

चरन विरह ज्वाले मरन विवाद ।

मणिपुर मे जिस काल में इस प्रकार की रचनाएँ की जा रही थीं, हिन्दी साहित्य में उस समय रीतिकाव्य का सृजन किया जा रहा था। मणिपुर के राजघराने के प्रायः समस्त सदस्य काव्य प्रेमी रहे हैं और इनका काव्य-विषय केवल भगवद् भक्ति रहा है। राजा का प्रभाव प्रजा पर पड़ना स्वाभाविक है। यह सहज अनुमान लगाया जा सकता है कि हिन्दी का प्रवाह राजमहलों से गलियारों-खेत-खलिहानों तक अवश्य हुआ होगा। मणिपुर से राज परिवार के सदस्यों के द्वारा वृंदावन की यात्राएँ की गई थीं। इन यात्राओं में सैकड़ों लोग शामिल होते थे। इस प्रक्रिया से भी मणिपुर में हिन्दी का प्रचार-प्रसार हुआ।

सन् 1890 में मणिपुर के महान स्वतंत्रता संग्राम सेनानी श्री टिकेंद्र ने अंग्रेजों की अदालत में हिन्दी में अपना पक्ष जब रखा तब स्वतः ही यह घटना इतिहास का अंग बन गई है। सन् 1891 में मणिपुर में हुई सशस्त्र क्रांति के बाद मणिपुर के सिंहासन पर चूड़ा चाँद सिंह को बैठाया गया, जो अवयस्क थे, परंतु सत्ता सूत्र अंग्रेजों के हाथों में रहा। चूड़ा चाँद सिंह ने मणिपुर से बाहर निकलकर अजमेर के मेयो कॉलेज में शिक्षा ग्रहण की। इस कॉलेज में हिन्दी पठन की अनिवार्यता थी। अतः चूड़ा चाँद सिंह ने हिन्दी सीखी। मणिपुर के विद्वान हिन्दी प्रदेशों में जाते और हिन्दी सीखकर मणिपुर आते। इस प्रकार हिन्दी का प्रारंभिक बीज-वपन इस प्रदेश में हुआ। सन् 1902 से अनेक विद्यार्थी बनारस, कलकत्ता आदि स्थानों में राज्य सरकार की छात्रवृत्ति प्राप्त कर जाने लगे। इससे राज्य में हिन्दी के प्रचार-प्रसार का वातावरण निर्मित हुआ।

सन् 1925-26 से मणिपुर में व्यवस्थित रूप से हिन्दी का प्रचार कार्य प्रारंभ हुआ। यहाँ यह तथ्य उल्लेखनीय है कि हिन्दी सीखने में मणिपुर की जनता ने संकीर्ण मनोवृत्ति का परिचय नहीं दिया और अपनी भाषा-लिपि के प्रति आग्रह तथा हिन्दी के प्रति दुराग्रह नहीं अपनाया। सन् 1927 में हिन्दी साहित्य सम्मेलन, प्रयाग ने अपना परीक्षा केंद्र काँचीपुर, इम्फाल में प्रारंभ किया। प्रयाग द्वारा प्रारंभ किये गये केंद्र की गतिविधियाँ चल ही रहीं थीं, इसी बीच काका कालेलकर का भ्रमण राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा की ओर से सन् 1940 में मणिपुर में हुआ। उनके प्रभावी भाषणों और व्यावहारिक कार्यों से मणिपुर में हिन्दी के लिए अनुकूल वातावरण निर्मित हुआ। सन् 1940 में ही इस राज्य में 'मणिपुर हिन्दी प्रचार सभा' की स्थापना हुई। तात्पर्य यह है कि इन संस्थाओं की स्थापना ने हिन्दी प्रचार को तीव्र गति प्रदान की। इन संस्थाओं के कार्यकर्ताओं के निःस्वार्थ रूप से कार्य किया।

इस बात की जानकारी कम ही लोगों को है कि जब द्वितीय विश्व युद्ध (सन् 1942) हुआ, तो मणिपुर का शांत जीवन भी उससे प्रभावित हुआ। निरीह इम्फाल पर 10 मई, 1942 को बम वर्षा हुई। स्थिति सामान्य होने में लगभग दो वर्ष लगे, तब कहीं जाकर हिन्दी प्रचार की अवरुद्ध धारा प्रवाहित हो सकी। युद्ध किसी भी प्रकार का हो, उसका स्वरूप कुछ भी हो, किसी भी दृष्टिकोण से शुभ नहीं होता। द्वितीय विश्व युद्ध ने जहाँ युद्धरत देशों के साथ-साथ मणिपुर में अपार जन-धन की हानि की, वहीं इस प्रदेश में हिन्दी प्रचार का सहज मार्ग खुला। मणिपुर में उपस्थित आजाद हिंद फौज के तथा अन्य सैनिकों की उपस्थिति ने हिन्दी को पर्वतीय क्षेत्रों तक पहुँचाया क्योंकि ये सैनिक हिन्दी भाषी थे और इस प्रदेश के लोगों से इनका संपर्क विनिमय हिन्दी के द्वारा ही होता था। यह महत्त्वपूर्ण तथ्य है कि भाषा का प्रसार संगठित रूप से उतनी तेजी से नहीं होता, जितना परस्पर संपर्क में आकर बोलने से होता है। युद्ध के पूर्व, युद्धकाल और युद्धेतर समय में मणिपुर में यही हुआ। संगठित रूप से यहाँ हिन्दी प्रसार वह गति नहीं पकड़ सका। यदि वेगवान हुआ भी तो शहरी क्षेत्रों में। पर्वतीय क्षेत्र अभी इससे प्रायः अछूते थे। इस कमी की पूर्ति यहाँ उपस्थित हिन्दी भाषी सैनिकों के द्वारा हुई।

आजादी के सैकड़ों वर्ष पूर्व से मणिपुर में हिन्दी प्रसार की जो दिव्य-ज्योति प्रज्ज्वलित हुई थी, आजादी के बाद वह तीव्रतर हुई और उसके शुभ्र प्रकाश से मणिपुर प्रदेश आभा मंडित होने लगा। राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा के नेतृत्व में हिन्दी प्रचार की गतिविधियाँ जोर पकड़ने लगा। मणिपुर राज्य स्टेट कांग्रेस ने सन् 1954 में एक प्रस्ताव पारित किया और राज्य में हिन्दी के प्रचार-प्रसार का समर्थन किया। राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा ने मणिपुर ने अपने 30 से अधिक परीक्षा केंद्र प्रारंभ किये और हिन्दी की परीक्षाएँ संचालित करनी प्रारंभ की। इतना ही नहीं अनेक स्वैच्छिक संस्थाएँ भी इस बीच गठित हुईं और इन्होंने भी हिन्दी का प्रचार-प्रसार अपने आप ढंग से करना प्रारंभ किया। यह और बात है कि अर्थाभाव के कारण इनमें से अनेक काल-कवलित हो गयीं, पर इससे उनका योगदान कम नहीं हो जाता।

स्वतंत्रता के पश्चात् हिन्दी को वैधानिक राजभाषा का दर्जा प्राप्त हुआ और केंद्र सरकार ने राजभाषा प्रभाव ने मणिपुर में हिन्दी प्रचार के लिए अनेक योजनाएँ प्रारंभ कीं। इनमें अनुवादकों की नियुक्तियाँ, हिन्दी शिक्षकों की भर्ती और उनका प्रशिक्षण, छात्रों को छात्रवृतियाँ प्रदान करना, स्कूलों में प्राथमिक स्तर से हिन्दी को एक अनिवार्य विषय के रूप में पढ़ाया जाना आदि प्रमुख थीं। सन् 1947 में स्थापित मणिपुर हिन्दी प्रचार सभा, इम्फाल का योगदान भी इस क्षेत्र में सराहनीय रहा। इस संस्था ने लगभग 200 विद्यालय व महाविद्यालय प्रदेश भर में आरंभ किये और लगभग 15 पाठ्य पुस्तकों का प्रकाशन किया। यह संस्था अनेक अखिल भारतीय संस्थाओं से जुड़ी है। इसी श्रृंखला में सन् 1958 में नागरी लिपि प्रचार सभा, इम्फाल, 1970 में नागा हिन्दी विद्यापीठ, इम्फाल की स्थापना हुई। इन संस्थाओं ने भी राष्ट्रभाषा के हित में अनेक कार्य किये। आकाशवाणी और दूरदर्शन के हिन्दी कार्यक्रम भी इस दिशा में उपयोगी सिद्ध हुए। सर्वाधिक लोकप्रियता प्राप्त हुई हिन्दी के फिल्मी गानों और हिन्दी फिल्मों को जिन्होंने मणिपुर के जनमानस पर जबर्दस्त प्रभाव छोड़ा।

किसी अच्छे कार्यों का विरोध होना सहज और स्वाभाविक मनवीय वृत्ति है। उपर्युक्त वर्णनों से ऐसा आभास हो सकता है कि मणिपुर में हिन्दी को अपनी जड़े जमाने के लिए अत्यंत उर्वर भूमि प्राप्त हुई थी, पर ऐसा नहीं है। सन् 1980 के आस-पास मणिपुर में जो चरम राष्ट्र विरोधी गतिविधियाँ प्रारंभ हुईं। उसका आशिक प्रभाव हिन्दी प्रसार पर पड़ा। इन तत्त्वों की गतिविधियों में हिन्दी विरोध भी शामिल था। मणिपुर के पर्वतीय क्षेत्र विशेष रूप से इन गतिविधियों के केंद्र थे। पर, इन विरोधों का कोई असर हिन्दी यात्रा पर पड़ा नहीं। हिन्दी यात्रा इन अवरोधों के कारण क्षणिक ठिठकी, पर थमी नहीं, बढ़ती ही गई।

किसी भाषा की समृद्धि और विकास को मापने का पैमाना उसमें सृजित साहित्य होता है। मणिपुर में भी विभिन्न विधाओं का साहित्य-सृजन हिन्दी में हुआ। हिन्दी से मणिपुरी और मणिपुरी से हिन्दी में अनेक ग्रंथों का अनुवाद हुआ, जिसका प्रारंभ लगभग 1959-60 से प्रारंभ हो गया था, जब श्री कैशाम कुंज बिहारी सिंह ने हिन्दी की पुस्तक 'बैताल' का मणिपुरी में अनुवाद किया। इसके बाद से तो अनुवाद के क्षेत्र में अनेक उत्कृष्ट कार्य हुए। 'चित्रलेखा' (भगवतीचरण वर्मा) का 1963 में, 'गोदान' (प्रेमचंद) का 1971 में, 'गबन' (प्रेमचंद) का 1980 में, 'त्यागपत्र' (जैनेन्द्र) का 1971 में तथा 'अंधायुग' (धर्मवीर भारती) का 1985 में सफल अनुवाद किये गये। यही नहीं, मणिपुरी की अनेक कविताओं, कहानियों, उपन्यासों तथा आलेखों के अनुवाद हिन्दी में किये गये। अनुवाद की यह श्रेष्ठ परंपरा अद्यतन जारी है और इसने समन्वयात्मक सेतु का कार्य किया है।

आजादी के 30-40 वर्षों तक मणिपुर में छापाखानों की पर्याप्त सुविधाओं का अभाव था। यातायात और संचार सुविधा भी समुचित नहीं थी। परिणामतः राज्य में पाठ्य पुस्तकों सहित हिन्दी के उत्कृष्ट साहित्य का अभाव-सा रहा। यद्यपि अब यह तथ्य अतीत हो चुका है। इस अभाव के बाद भी राज्य से पत्र-पत्रिकाओं का सीमित प्रकाशन होता था। नागरी लिपि प्रचार सभा, इम्फाल ने 1950 में साप्ताहिक आधुनिक का प्रकाशन किया। 1960 से 1971 तक दो मासिक पत्रिकाएँ (सम्मेलन गजट और नई शिक्षा) प्रकाशित हुईं। 'दैनिक नागरिक पंथ', 'चिंतना', 'हिन्दी चिंतन दीप', 'युमश कैश', मणिपुर हिन्दी परिषद पत्रिका' एवं 'पूर्वा' आदि वे हिन्दी पत्रिकाएँ हैं जो सन् 1960 से निकलती रही हैं। आज इनमें से एकाध पत्रिका ही प्रकाशित हो रही है। इन पत्रिकाओं का प्रकार दैनिक से लेकर मासिक, त्रैमासिक और वार्षिक था। इन पत्रिकाओं के अतिरिक्त प्रदेश के अनेक विशेषांक और स्मारिकाएँ भी प्रकाशित हुईं।

किसी भाषा को सीखने के लिए कोश की भूमिका अत्यंत महत्त्वपूर्ण होती है। मणिपुर में भी शब्दकोशों का सृजन हुआ। इस दिशा में प्रथम प्रयास सन् 1959 में हुआ, जब श्री चिंगाबम रणजीत सिंह और चिंगाबम निशान सिंह के संयुक्त संपादन में मणिपुरी-हिन्दी शब्दमाला का प्रकाशन हुआ। सन् 1958 में राधा मोहन शर्मा व एस. नारायण शर्मा ने 'हिन्दी मणिपुरी शब्दकोश', 1962 में श्री द्विजमणि देव शर्मा ने 'दी हिन्दी मणिपुरी इंगलिश डिक्शनरी, 1977 में प्रो. ब्रजविहारी शर्मा ने 'हिन्दी-मणिपुरी कोश' आदि का सफल संपादन किया।

मणिपुर विश्वविद्यालय का हिन्दी विभाग शोध की दिशा में शोधार्थियों को प्रोत्साहित करता रहा है। यही कारण है कि इस विश्वविद्यालय में अनेक शोधार्थियों ने अपने शोध-प्रबंध प्रस्तुत किये। जिसमें नये-नये विषयों को स्पर्श किया गया। इतना ही नहीं, मणिपुर के अनेक छात्रों ने बनारस, आगरा व इलाहाबाद विश्वविद्यालय से हिन्दी में शोधोधियाँ प्राप्त कीं।

हिन्दीतर भाषी राज्य मणिपुर अब हिन्दीतर भाषी नहीं रहा। समूचे राज्य में हिन्दी के व्यापक प्रचार-प्रसार का वातावरण निर्मित हो चुका है। आजाद के बाद के 60 वर्षों की जो गहरी बुनियाद हिन्दी सेवियों द्वारा इस प्रदेश में रखी गई थी, वह इतनी मजबूत थी कि राष्ट्रभाषा का भव्य महल आज सिर उठाकर गर्व से इस प्रदेश में खड़ा है। मणिपुर में हिन्दी का प्रचार प्रसार भाषा कोश, प्रशिक्षण. पठन-पाठन, पुस्तक प्रकाशन, सेमीपार, शोध और शासकीय सहयोग एवं स्वयंसेवी संस्थाओं-हर स्तर पर हुआ है। मणिपुर में आजादी के साठ वर्षों में हिन्दी की जो संतोषजनक प्रगति हुई है, उस पर राष्ट्रवादी विचार धारा का प्रत्येक व्यक्ति गर्व कर सकता है। पर अभी भी इस प्रदेश के पर्वतीय क्षेत्र में बहुत कुछ किया जाना शेष है, जिसे पूरा करने का प्रयास हिन्दी प्रेमियों और हिन्दी साधकों द्वारा किया जा रहा है।

पूर्वोत्तर भारत : स्वैच्छिक हिन्दी संस्थाएँ

किसी समय हिन्दीतर भाषी रहे भारत के पूर्वोत्तर क्षेत्र में हिन्दी को वह सम्मान प्राप्त नहीं था, जो आज है। इसका संपूर्ण श्रेय इन राज्यों में निष्ठापूर्वक कार्य कर रहीं विभिन्न स्वैच्छिक संस्थाओं को है, जो विषम परिस्थितियों में भी अपने लक्ष्य की ओर सतत अग्रसर होती रही हैं। श्रेय उन हिन्दी प्रेमी कार्यकर्ताओं को भी है, जिनके हृदयों में अपनी राष्ट्रभाषा हिन्दी की सेवा करने की अदम्य ललक रही है। इन्हीं के सत्प्रयासों का परिणाम है कि पूर्वोत्तर में आज हिन्दी अब परायी नहीं रही है। यहाँ की जनता हिन्दी बोलने, हिन्दी समझने और हिन्दी में काम करने में गर्व का अनुभव करती है। परन्तु यह बदलाव रातों-रात नहीं हुआ। इसकी भूमिका सहसा नहीं बनी। इसकी पृष्ठभूमि एक वृहद और दीर्घकालीन गौरवशाली इतिहास से निर्मित है। इस इतिहास को जाने बिना पूर्वोत्तर राज्यों में राष्ट्रभाषा हिन्दी के प्रचार-प्रसार में विभिन्न स्वैच्छिक हिन्दी संस्थाओं के अवदान का मूल्यांकन नहीं किया जा सकता। इसके समग्र मूल्यांकन की आवश्यकता इसकी ऐतिहासिक पृष्ठभूमि के परिप्रेक्ष्य में महत्त्वपूर्ण है। हिन्दी को 'निज भाषा' के रूप में राष्ट्र की भाषा बनाने का आह्वान भारतेन्दु सन् 1900 के बहुत पूर्व कर चुके थे। सन् 1900 से महावीर प्रसाद द्विवेदी ने 'सरस्वती' के माध्यम से हिन्दी को परिष्कृत करने का महत् कार्य करना प्रारंभ किया। 1915-16 तक हिन्दी पर्याप्त निखर चुकी थी। हिन्दी के राष्ट्रव्यापी प्रचार-प्रसार हेतु सन् 1910 में काशी में 'नागरी प्रचारिणी सभा' की स्थापना हुई और लगभग इसी समय प्रयाग में 'हिन्दी साहित्य सम्मेलन' का शुभारंभ हुआ।

सन् 1916 एवं 1917 में कांग्रेस के अधिवेशन क्रमशः लखनऊ एवं कलकत्ता में सम्पन्न हुए। इन दोनों अधिवेशनों में गाँधी जी ने समूचे देश में, विशेष रूप से देश के हिन्दीतर भाषी क्षेत्रों में हिन्दी के व्यापक प्रचार-प्रसार की आवश्यकता पर बल दिया। सन् 1918 का कांग्रेस का अधिवेशन इंदौर में गाँधी जी के सभापतित्व में सम्पन्न हुआ। इस अधिवेशन में दक्षिण भारत में हिन्दी का प्रचार-प्रसार उनकी प्राथमिक सूची में था। गाँधी जी में हिन्दी के प्रति इतना उत्कट प्रेम विद्यमान था कि जिस प्रकार अशोक ने अपने पुत्र महेन्द्र और पुत्री संघमित्रा को बुद्ध-धर्म के प्रचार के लिए श्रीलंका भेजा था, उसी प्रकार गाँधी जी ने भी सन् 1918 में अपने सबसे छोटे बेटे देवदास को हिन्दी के प्रचारार्थ दक्षिण भारत भेजा। डॉ. राजेन्द्र प्रसाद की अध्यक्षता में सन् 1936 में नागपुर में अखिल भारतीय हिन्दी साहित्य सम्मेलन का वार्षिक अधिवेशन हुआ। गाँधी जी की प्रेरणा से हिन्दी के प्रचार-प्रसारार्थ 'हिन्दी प्रचार समिति' का गठन इस अधिवेशन में किया गया और वर्धा में इसका मुख्यालय रखने का प्रस्ताव पारित किया गया। इस अधिवेशन के पश्चात् ही सन् 1936 में उक्त प्रस्ताव ने कार्य रूप ग्रहण किया। यह वही वर्ष था, जब लखनऊ में प्रेमचंद की अध्यक्षता में प्रगतिशील लेखक संघ का गठन हुआ था। पूर्वोत्तर भारत में वर्तमान में 79 स्वैच्छिक हिन्दी संस्थाएँ हैं जिनका राज्यवार विवरण निम्नलिखित है- असम 51, मणिपुर 16, नागालैंड: 4, मेघालय: 3, त्रिपुरा : 2, मिजोरम: 2, अरुणाचल प्रदेश: 1

1. असम राज्य की विभिन्न स्वैच्छिक हिन्दी संस्थाएँ :

भारतीय मानचित्र में जो पूर्वोत्तर के राज्य आज प्रदर्शित हैं, वे सब स्वतंत्रता के पूर्व नहीं थे। यह समूचा क्षेत्र असम राज्य था। असम में सबसे पहले हिन्दी प्रचार-प्रसार का कार्य हुआ। गाँधी जी प्रेरणा से उनके अनुयायी बाबा राघवदास सन् 1934 में असम में हिन्दी के प्रचारक बनकर आये। 3 नवंबर, 1938 को गोपीनाथ बरदलै के प्रयासों से 'असम हिन्दी प्रचार समिति' नामक संस्था का गठन किया गया। बाद में यही संस्था 'असम राष्ट्रभाषा प्रचार समिति' के नाम से जानी गयी।' इस समिति को प्रारंभ में अनेक परेशानियों का सामना करना पड़ा। इस समिति की स्थापना के प्रारंभ में इसका संचालन राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा से होता था। इसके प्रांतीय संचालक की नियुक्ति भी वर्धा से ही होती थी। इस समिति के प्रथम संचालक के रूप में श्री यमुना प्रसाद श्रीवास्तव को वर्धा से असम भेजा गया। इसका प्रधान कार्यालय गौहाटी में स्थापित किया गया। डॉ. विरंचि कुमार बरुआ जैसे शिक्षाविद् इस समिति को मार्गदर्शन देते रहे। श्री देवकांत बरुआ समिति के प्रधान मंत्री थे, जिन्होंने सत्याग्रह आंदोलन में शामिल होने के कारण पद से त्यागपत्र दे दिया। सन् 1941 में श्री यमुना प्रसाद श्रीवास्तव भी संचालक पद से मुक्त हो गये। श्री कमलदेव नारायण ने संचालक पद ग्रहण किया और इन्होंने समिति की गतिविधियों को व्यवस्थित करने का कार्य किया।

श्री कमलदेव नारायण को समिति का कार्यभार सँभाले हुए अभी एक वर्ष ही व्यतीत हुआ था कि सन् 1942 में भारत छोड़ो आंदोलन प्रारंभ हो गया और अनेक प्रचारक जेल चले गये। समिति के कार्यकलापों पर इसका प्रभाव पड़ा। इसी बीच राष्ट्र स्तर पर हिन्दी-हिन्दुस्तानी के संबंध में मतभेद उभर पड़े यद्यपि ये मतभेद हिन्दी को राष्ट्रभाषा के रूप में स्थापित करते समय ही उभर आये थे। इसका प्रभाव असम की हिन्दी प्रचार संस्था पर भी पड़ा और 'हिन्दुस्तानी' के समर्थकों ने 'असम राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, गौहाटी' के नाम से एक पृथक् संस्था बना ली। अनेक उतार-चढ़ावों के मध्य स्वतंत्रता के पश्चात् सन् 1952 में 'असम राष्ट्रभाषा प्रचार समिति' ने वर्धा से अपना संबंध विच्छेद कर लिया और इस समय संचालक के पद पर पदस्थ श्री छगनलाल जैन ने त्यागपत्र दे दिया। श्री जीतेन्द्र चन्द्र चौधरी ने श्री जैन के रिक्त पद की पूर्ति की। श्री चौधरी ने असम का सघन भ्रमण किया और समिति को नये सिरे से संगठित किया। इतना ही नहीं, 'असम राज्य राष्ट्रभाषा प्रचार समिति' का कार्यालय बदलकर जोरहाट किया गया। वर्तमान में यह संस्था पंजीकृत है और इसका अपना विधान है, जिसके अंतर्गत् समिति संचालित होती है।

समिति का कार्य-विवरण :

असम राज्य में समिति द्वारा वर्तमान में 500 से अधिक तथा अन्य राज्यों में 50 से अधिक परीक्षा केन्द्र संचालित हैं। इतना ही नहीं, 115 से अधिक शिक्षण केन्द्र और विद्यालय तथा 150 से अधिक प्रचारक हैं। स्वतंत्रता के प्रारंभिक वर्षों में सिलचर, करीमगंज तथा गुवाहाटी में हिन्दी के शिक्षकों के लिए प्रशिक्षण शिविर आयोजित किये गये। इन शिविरों के आयोजन के लिए तत्कालीन असम सरकार द्वारा समिति को बीस हजार रुपये का अनुदान प्राप्त हुआ था। राष्ट्रभाषा प्रचार समिति हिन्दी और हिन्दुस्तानी के विवाद में फँसी हुई थी। सन् 1942 में महात्मा गाँधी का असम का दौरा हुआ। इस दौरे से असम राष्ट्रभाषा समिति के कार्यकर्ताओं को हिन्दी और हिन्दुस्तानी के संबंध में गाँधी जी के दृष्टिकोण को समझने का अवसर प्राप्त हुआ। परिणामस्वरूप समिति ने स्वयं को वर्धा से ही जुड़े रहने का निर्णय लिया। इस निर्णय के परिप्रेक्ष्य में समिति द्वारा वर्धा का विधान ही अंगीकार किया और वहाँ की परीक्षाओं तथा पुस्तकों को अपने यहाँ चलाया। असम राष्ट्रभाषा प्रचार समिति प्रारंभ में साधन विहीन तो थी ही, भवन विहीन भी थी। यह स्थिति सन् 1938 से 24 अप्रैल 1953 तक रही। समिति का भवन एवं कार्यालय असम शासन द्वारा प्रदत्त गुवाहाटी में निर्मित हुआ है जबसे उसकी गतिविधियाँ सुचारु रूप से संचालित हो रही हैं। समिति ने सन् 1948 से अपना स्वतंत्र कार्य करने का निर्णय लिया। इस निर्णय के फलस्वरूप समिति ने स्वयं परीक्षाओं का संचालन तथा पाठ्य पुस्तकों के निर्माण का कार्य किया। समिति ने हिन्दी की प्रबोध, विशारद और रत्न परीक्षाएँ आयोजित कीं। इन परीक्षाओं को असम सरकार एवं भारत सरकार की ओर से मैट्रिक, इंटर तथा बी.ए. के समकक्ष मान्यता प्रदान की। वर्तमान में इन परीक्षाओं में तीस से लेकर चालीस हजार तक परीक्षार्थी होते हैं। परीक्षा केन्द्रों की संख्या भी पाँच सौ से अधिक है। समिति के नाम से ही यह तो ध्वनित है कि इसका प्रमुख उद्देश्य राष्ट्रभाषा हिन्दी का असम में प्रचार-प्रसार करना है। परन्तु इसके साथ-साथ जिन अन्य उद्देश्यों को साथ लेकर समिति चल रही है, उसमें जन-जातियों की भाषा और संस्कृति के साथ हिन्दी का समन्वय करना प्रमुख है।5

असम में हिन्दी के प्रचार-प्रसार में 'असम राष्ट्रभाषा प्रचार समिति' कीभूमिका केवल परीक्षा-संचालन और पाठ्य पुस्तक निर्धारण तक ही नहीं है। समिति ने अपना एक समृद्ध केन्द्रीय पुस्तकालय विकसित किया है, जिसमें हिन्दी के अतिरिक्त संस्कृत, अंग्रेजी, उर्दू, बंगला, असमिया तथा स्थानीय भाषाओं की लगभग दस हजार से अधिक पुस्तकें हैं। पुस्तकालय के साथ-साथ समिति के अपने प्रकाशन भी हैं, जिनकी संख्या 170 से अधिक है। समिति ने सन् 1951 से अपना मुखपत्र 'राष्ट्रसेवक' भी प्रारंभ किया था, जो मासिक है। असम राज्य में लगभग 51 स्वैच्छिक हिन्दी संस्थाएँ हिन्दी के प्रचार-प्रसार में संलग्न हैं।

2. मणिपुर की विभिन्न स्वैच्छिक हिन्दी संस्थाएँ :

मणिपुर पूर्वोत्तर का विशिष्ट राज्य है। इस राज्य में हिन्दी प्रचार का कार्य अपेक्षाकृत विलम्ब से हुआ। सन् 1953 में इस राज्य में 'मणिपुर हिन्दी परिषद्, इम्फाल की स्थापना हुई। एक वर्ष पश्चात् सन् 1954 से ही इस संस्था ने हिन्दी की परीक्षाएँ लेना प्रारंभ कर दिया। चार वर्ष पश्चात् सन् 1958 में संस्था रजिस्टर्ड हुई। इस संस्था का प्रधान कार्यालय इम्फाल में स्थित है। इस संस्था का कार्य क्षेत्र मणिपुर राज्य तक ही सीमित है।

परिषद् के क्रियाकलाप

(क) उद्देश्य

(क) हिन्दी भाषा और इसकी लिपि देवनागरी के द्वारा राष्ट्र में भावनात्मक एकता एवं सांस्कृतिक समन्वय हेतु प्रयास।

(ख) भारतीय संविधान के अनुच्छेद 351 के परिप्रेक्ष्य में भारतीय सामाजिक सांस्कृतिक तत्त्वों की अभिव्यक्ति प्रदान करने वाली हिन्दी का निर्माण, विकास एवं प्रचार-प्रसार करना।

(ग) हिन्दी के साथ-साथ क्षेत्रीय भाषाओं-नागा, कुकी आदि का विकास एवं हिन्दी से इनका समन्वय स्थापित करना।"

(ख) शिक्षण

मणिपुर राज्य में इस समय लगभग 150 परीक्षा केन्द्र संचालित हैं। प्रत्येक केन्द्र का अपना हिन्दी-शिक्षण विद्यालय है। उन विद्यालयों से अब तक लगभग दो हजार हिन्दी में निष्णात छात्र तैयार हो चुके हैं, जो हिन्दी-शिक्षण का कार्य कर रहे हैं। परिषद् द्वारा प्रबोध, विशारद और रत्न परीक्षाओं को केन्द्र सरकार द्वारा क्रमशः मैट्रिक, इंटर एवं स्नातक (बी.ए.) के समकक्ष मान्यता प्राप्त है। परिषद् का अपना समृद्ध पुस्तकालय है, जिसमें लगभग दस हजार पुस्तकें हैं।

(ग) अन्य कार्य

परिषद् द्वारा शिक्षण, प्रशिक्षण और परीक्षा कार्यों के अतिरिक्त हिन्दी के प्रचार-प्रसार के लिए अन्य कार्य भी किये जाते हैं। हिन्दी दिवस का आयोजन किया जाता है। स्थान-स्थान पर संगोष्ठियों का भी आयोजन किया जाता है, जिसमें हिन्दी के पठन-पाठन की आवश्यकता को निरूपित किया जाता है। इन गोष्ठियों में हिन्दी के विद्वानों को स्थानीय जनता के समक्ष भाषण हेतु आमंत्रित किया जाता है। मणिपुर राज्य में लगभग 16 स्वैच्छिक संस्थाएँ हिन्दी के प्रचार-प्रसार का कार्य कर रही हैं।

3. मिजोरम की विभिन्न स्वैच्छिक हिन्दी संस्थाएँ :

अन्य पूर्वोत्तर राज्यों की अपेक्षा मिजोरम में हिन्दी का प्रचार कार्य पर्याप्त विलंब से प्रारंभ हुआ। राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा ने यहाँ विशेष ध्यान दिया। वर्तमान में यहाँ दो स्वैच्छिक हिन्दी संस्थाएँ कार्यरत हैं-1. मिजोरम हिन्दी प्रचार सभा, आइजोल, 2. यूनिवर्सल कम्यूनिकेशन हिन्दी सेंटर, आइजोल। मिजोरम हिन्दी प्रचार सभा, मिजोरम की प्रारंभिक संस्था है, जो राष्ट्रभाषा, महाविद्यालय संचालित करती है। इस महाविद्यालय में राज्य के दूरस्थ अंचलों से हिन्दी सीखने के इच्छुक लोग आते हैं, जिन्हें निःशुल्क हिन्दी-शिक्षण कराया जाता है। सभा द्वारा प्रबोध, विशारद और प्रवीण परीक्षाओं को केन्द्र सरकार द्वारा क्रमशः मैट्रिक, इंटर एवं बी.ए. के समकक्ष मान्यता प्राप्त है। प्रदेश की दूसरी संस्था यूनिवर्सल कम्यूनिकेशन हिन्दी सेंटर की स्थापना 2000 में हुई। यह संस्था भी मिजोरम हिन्दी प्रचार सभा के साथ समन्वय स्थापित कर हिन्दी के प्रचार-प्रसार का कार्य कर रही है। हिन्दी सीखने वालों के लिए प्रतिवर्ष सभा द्वारा हिन्दी पुस्तकों का निःशुल्क वितरण किया जाता है। सभा का अपना एक समृद्ध पुस्तकालय भी है। मिजोरम में जनजातियों का बाहुल्य है। समिति इन जातियों को हिन्दी सिखाने की ओर यान दे रही है। मिजोरम राष्ट्रभाषा प्रचार समिति की गति यद्यपि अत्यंत धीमी है, पर विषम परिस्थितियों को दृष्टिगत रखते हुए यह अत्यंत संतोषप्रद कही जाएगी।

इस प्रांत में समिति के कुल परीक्षा केन्द्रों की संख्या दो है। तीन वर्ष पुराने आँकड़ों पर दृष्टिपात करने से विदित होता है कि सन् 1997 से वर्ष 2000 तक की औसत परीक्षार्थी संख्या 122 रही है। ये निम्नानुसार हैं' :

सत्र परीक्षार्थियों की कुल संख्या

1997-1998 167

1998-1999 45

1999-2000 156

4. अरुणाचल प्रदेश की विभिन्न स्वैच्छिक हिन्दी संस्थाएँ

सन् 1970 में राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा के मंत्री श्री शंकर राव लोढ़े ने अरुणाचल प्रदेश का दौरा किया। हिन्दी दिवस के अवसर पर 14 सितम्बर, 1974 को प्रदेश के मुख्यमंत्री श्री प्रेमखान्दू खुंगन की उपस्थिति में सम्पन्न बैठक में उत्तर पूर्वांचल राष्ट्रभाषा प्रचार समिति की स्थापना की गयी। लखीमपुर जिले में राष्ट्रभाषा महाविद्यालय का शुभारंभ हुआ। इस महाविद्यालय में कोविद एवं रत्न परीक्षा सम्पन्न करायी जाती हैं। जिले में इसके 165 के लगभग केन्द्र हैं। ये केन्द्र सफलतापूर्वक संचालित हो रहे हैं।10 इस राज्य की प्रमुख स्वैच्छिक हिन्दी संस्था है-अरुणाचल प्रदेश हिन्दी समिति, नाहरलगून।

5. नागालैंड की विभिन्न स्वैच्छिक हिन्दी संस्थाएँ :

नागालैंड में हिन्दी का प्रचार-प्रसार करना आसान काम नहीं था। नागालैंड के चुचइम्हांग में स्थित गाँधी आश्रम के व्यवस्थापक श्री नटवर भाई ठक्कर थे। प्रसिद्ध गाँधीवादी आचार्य काका साहेब कालेलकर के अनुरोध पर श्री ठक्कर ने पाँच युवक-युवतियों को हिन्दी सिखाने के लिए वर्धा भेजा। वर्धा में इन्हें पच्चीस रुपये मासिक छात्रवृत्ति देते हुए, इनके निःशुल्क भोजन, आवास एवं शिक्षण की व्यवस्था की गयी। दो वर्ष में समिति की परिचय परीक्षा उत्तीर्ण कर ये पाँचों छात्र वापस अपने प्रदेश आ गये और यहाँ इन्होंने हिन्दी प्रचार-प्रसार कार्य प्रारंभ किया। जिन पाँच छात्रों ने हिन्दी सीखने का प्रथम बार साहस जुटाया, वे थे-लिड तोम्बा, तुशीबा, तकोबा, कु. रोङ सनला एवं कु. अनङला।

नागालैंड में दो परीक्षा केन्द्र स्थापित किये गए और प्रथम बार इनमें 28 परीक्षार्थियों को सम्मिलित किया गया। सन् 1957 में सात विद्यार्थी पुनः हिन्दी अध्ययन हेतु वर्धा आये। सन् 1987 तक 62 छात्र-छात्राओं ने वर्धा में हिन्दी का ज्ञान प्राप्त किया और अपने प्रदेश में आकर राष्ट्रभाषा हिन्दी का प्रचार-प्रसार किया। इस प्रदेश के दीमापुर नगर में समिति द्वारा सन् 1962 में राष्ट्रभाषा विद्यालय स्थापित किया गया। इस तरह यहाँ नागालैंड राष्ट्रभाषा प्रचार समिति दीमापुर अस्तित्व में आयी।"

नागालैंड में कोविद तथा रत्न परीक्षाओं को वर्धा से संचालित किया जाता है। सन् 1997 से 2000 तक कुल 1879 विद्यार्थी इन परीक्षाओं में सम्मिलित हुए। राष्ट्रभाषा हिन्दी-शिक्षण संस्थान, दीमापुर के पूरे प्रदेश में 5 शिक्षण केन्द्र हैं। इन केन्द्रों में अप्रैल 2000 तक विभिन्न परीक्षाओं में परीक्षार्थियों की कुल संख्या 81 थी। इस राज्य की प्रमुख स्वैच्छिक हिन्दी संस्थाएँ हैं- नागालैंड भाषा परिषद्, कोहिमा, नागालैंड भाषा अकादमी, दीमापुर; अखिल नागालैंड हिन्दी शिक्षक संघ, कोहिमा ।

6. त्रिपुरा की विभिन्न स्वैच्छिक हिन्दी संस्थाएँ :

त्रिपुरा राज्य में भी राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा ने त्रिपुरा राष्ट्रभाषा प्रचार समिति की स्थापना की, जिसका मुख्यालय धर्मनगर में रखा गया। इस समिति द्वारा संचालित परीक्षाओं में परीक्षार्थियों की संख्या विगत वर्षों में निम्नानुसार रही-13

सत्र परीक्षार्थियों की कुल संख्या

1997-1998 1103

1998-1999 674

1999-2000 499

उपर्युक्त आँकड़े सिद्ध करते हैं कि सत्र 97-98 के बाद से परीक्षार्थियों की संख्या में जबरदस्त गिरावट आयी है। त्रिपुरा में संचालित इस स्वैच्छिक हिन्दी संस्था के लगभग दस केन्द्र संचालित हैं, जहाँ प्राथमिक, प्रारंभिक, प्रवेश, परिचय एवं कोविद परीक्षाएँ संचालित होती हैं। इन समस्त परीक्षाओं में अप्रैल 2000 तक कुल 397 परीक्षार्थियों ने भाग लिया था। इस राज्य की एक अन्य स्वैच्छिक हिन्दी संस्था है-त्रिपुरा राज्य राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, अगरतला।

7. मेघालय की विभिन्न स्वैच्छिक हिन्दी संस्थाएँ :

सन् 1972 में मेघालय राज्य अस्तित्व में आया। इसके पूर्व यह असम राज्य का ही एक अंग था। स्पष्ट है कि इसके पूर्व का हिन्दी प्रचार-प्रसार का इतिहास वही है, जो असम का था। मेघालय में मेघालय राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, शिलांग की स्थापना 1972 में हुई। इसके 40 शिक्षण केन्द्र एवं 27 परीक्षा केन्द्र हैं। इसका कार्य क्षेत्र मेघालय राज्य है। यह प्राथमिक से रत्न तक शिक्षा प्रदान करती है। अपनी स्थापना से लेकर आगामी सोलह वर्ष तक के इसमें सम्मिलित परीक्षार्थियों के आँकड़े अत्यंत संतोषप्रद हैं15-

सत्र परीक्षार्थियों की कुल संख्या

1973-197 41062

1974-1975 2001

1975-1976 1972

1976-1977 2021

1977-1978 1794

1978-1979 1686

1979-1980 1441

1980-1981 1303

1981-1982 2036

1982-1983 1103

1983-1984 1042

1984-1985 1897

1985-1986 1412

1986-1987 1713

1987-1988 1150

1988-1989 2387

मेघालय की राजधानी शिलांग में राष्ट्रभाषा विद्यालय भी खोला गया। इस विद्यालय में अध्ययनरत छात्रों के लिए छात्रवृत्ति की व्यवस्था भी की गयी। इस समिति ने अपने क्रियाकलापों से शीघ्र ही अपना लोकप्रिय स्थान बना लिया। समिति के कार्यों से केन्द्र एवं राज्य सरकारें अत्यंत प्रभावित हुईं। इस राज्य की अन्य प्रमुख स्वैच्छिक संस्थाएँ हैं-मेघालय हिन्दी प्रचार परिषद्, शिलांग; पूर्वोत्तर हिन्दी अकादमी, शिलांग। पूर्वोत्तर हिन्दी अकादमी की स्थापना सन् 1990 में हुई। गत 5 वर्षों में इसने 60 से अधिक कार्यक्रम किए हैं। यह संस्था परिचय, प्रथमा और प्रवेशिका का शिक्षण करती है। इसके दो शिक्षण केन्द्र हैं। इन दोनों शिक्षण केन्द्रों में कुल 128 छात्र हैं।

स्वैच्छिक हिन्दी संस्थाओं की सीमाएँ :

महात्मा गाँधी के प्रयासों से देश के विभिन्न राज्यों में राष्ट्रभाषा प्रचार समितियों की स्थापना हुई। ये तमाम समितियाँ राष्ट्रभाषा प्रचार समिति, वर्धा से सम्बद्ध थीं। जिस समय इन संस्थाओं का स्वरूप गढ़ा गया था, उस समय देशवासियों में राष्ट्र सेवा और राष्ट्रभक्ति का जोश था, लोग निःस्वार्थ भाव से अपना कर्त्तव्य पालन करते थे। राष्ट्रभाषा का प्रचार-प्रसार करना गाँधी जी के प्रमुख उद्देश्यों में से एक था, अतः उनके अनुयायियों ने राष्ट्रभाषा-प्रचार को अपने जीवन का एक अंग बना लिया। ये कार्यकर्ता उन समितियों से जुड़कर राष्ट्रभाषा प्रचार का कार्य करने लगे। स्वतंत्रता के पश्चात् परिस्थितियों का चक्र तेजी से घूमने लगा। हिन्दी को राजभाषा की संवैधानिक स्वीकृति प्राप्त तो हुई, परन्तु अंग्रेजी के बाहुल्य के कारण हिन्दी का वह विकास न हो सका, जो होना चाहिए था। सवैधानिक व्यवस्था तो यह है कि भारत सरकार के गृह मंत्रालय, मानव संसाधन विकास मंत्रालय, विधि मंत्रालय और सूचना-प्रसारण मंत्रालय सहित समस्त विभागों की पृथक् पृथक् हिन्दी सलाहकार समितियाँ हैं। मानव संसाधन बिकास मंत्रालय प्रतिवर्ष उन स्वैच्छिक हिन्दी संस्थाओं को अनुदान देती है, जो हिन्दी के प्रचार-प्रसार में लगी हुई हैं।

स्वैच्छिक हिन्दी संस्थाओं की विडम्बना यह है कि इन्हें राज्य सरकारों से कोई अनुदान या तो प्राप्त ही नहीं होता है अथवा होता भी है तो अत्यल्प। चूंकि हिन्दी को पूर्ण विकसित कर उसे राजभाषा का पूर्ण दर्जा दिलाने की जिम्मेवारी केन्द्र सरकार की है, अतः केन्द्र सरकार इन स्वैच्छिक हिन्दी संस्थाओं को अनुदान उपलब्ध कराती है। पर यह अनुदान पूर्वोत्तर राज्यों की विशिष्ट स्थितियों को देखते हुए अत्यल्प है।

हिन्दी के प्रचार-प्रसार में लगी स्वैच्छिक हिन्दी संस्थाओं के कार्यकर्ता पूर्व में उत्साही, समर्पित एवं लगनशील हुआ करते थे। ये गुण इन कार्यकर्ताओं में अब भी हैं। परन्तु अंग्रेजी के बढ़ते प्रभाव के कारण ये हतोत्साहित हुए हैं। सरकार की नीति भी दोमुँही है। एक ओर वह हिन्दी के संवर्द्धन की बात करती है और दूसरी ओर हिन्दी की अपेक्षा अंग्रेजी को चाहती है। सरकार की इस नीति का स्वैच्छिक हिन्दी संस्थाओं के कार्यकर्ताओं पर अत्यंत विपरीत असर पड़ा है। प्रशासनिक अधिकारी और बड़े उद्योगपतियों का अंग्रेजी प्रेम किसी से छुपा नहीं है। हिन्दी प्रचार में संलग्न स्वैच्छिक हिन्दी संस्थाओं के प्रति इन अधिकारियों और व्यापारियों की उदासीनता से भी इन संस्थाओं के कार्य की गति धीमी हुई है। इन संस्थाओं की आय के स्रोत सदस्यता शुल्क, परीक्षा शुल्क, दान, चंदा एवं अल्प शासकीय अनुदान है। इन स्रोतों से इतनी कम आय होती है कि इन संस्थाओं की प्रारंभिक आवश्यकताएँ भी पूरी नहीं हो पातीं। पूर्वोत्तर भारत में कार्यरत हिन्दी प्रचार की स्वैच्छिक हिन्दी संस्थाओं के पक्ष में पर्याप्त सीमा तक एक बात है कि इन्हें दक्षिण भारत की तरह हिन्दी-विरोध से सामना नहीं करना पड़ा। पर कभी-कभी राजनीतिक कारणों से ये विरोधी स्वर उभरते रहे हैं, जिसका प्रतिकूल प्रभाव इन संस्थाओं पर पड़ा है।

संभावनाएँ :

अंग्रेजी की मानसिकता हिन्दी-प्रचार में सबसे बड़ी बाधा है। अंग्रेजी माध्यम से शिक्षित युवक को शीघ्र कहीं भी नौकरी प्राप्त हो जाती है, जबकि हिन्दी माध् यम से शिक्षित युवा बेरोजगार रहता है। ऐसी स्थिति में युवाओं का हिन्दी से मोहभंग होने लगता है। वर्तमान समय में यही हो रहा है। परन्तु यह कोहासा भी अब धीरे-धीरे छट रहा है। बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को अपने उत्पाद बेचने के लिए भारत से बड़ा बाजार कहीं दिखा नहीं। इसी बहाने ही सही, इन कंपनियों ने अपने उत्पाद के विज्ञापन के लिए हिन्दी को अपनाया। अब विज्ञान तथा प्रौद्योगिकी की शिक्षा भी हिन्दी में दी जा रही है। कम्प्यूटर-इंटरनेट पर ही हिन्दी राज कर रही है। ऐसी स्थिति में खोया हुआ यह विश्वास बलवती हुआ है कि हिन्दी राजभाषा से राष्ट्रभाषा की ओर द्रुत गति से अग्रसर हो रही है।

पूर्वोत्तर भारत में हिन्दी के प्रचार-प्रसार में स्वैच्छिक हिन्दी संस्थाओं के योगदान को विस्मृत नहीं किया जा सकता। देश के इस अंचल में हिन्दी की स्थापना का एकमात्र श्रेय इन्हीं स्वैच्छिक हिन्दी संस्थाओं को है। यह बहुत ही आवश्यक हो जाता है कि इस संस्थाओं की स्थापना, इतिहास और समग्र अवदान का मूल्यांकन किया जाए तथा इन्हें फिर से 'कोरामिन' दिया जाए। केन्द्र सरकार और राज्य सरकारें परिवर्तित परिस्थितियों को देखते हुए इनके अनुदान में वृद्धि करे तथा इन स्वैच्छिक हिन्दी संस्थाओं को आवश्यक सुविधाएँ प्रदान करें। स्वैच्छिक हिन्दी संस्थाओं के अथक और ईमानदार परिश्रम द्वारा ही हिन्दी राजभाषा से राष्ट्रभाषा पद पर सवैधानिक रूप से आसीन हो सकती है।

संदर्भ :

1. राष्ट्रभाषा प्रचार का इतिहास सं. गंगाशरण सिंह, पृ. 61

2. स्वर्णाकित: सं. रामेश्वर दयाल दुबे, पृ. 200

3. हिन्दी प्रचार का इतिहास सं. गंगाशरण सिंह, पृ. 26

4. वही, पृ. 62

5. वही, पृ. 36

6. वही, पृ. 67

7. वही, पृ. 68

8. तृतीय विश्व हिन्दी सम्मेलन का प्रतिवेदन सं. रवीन्द्रनाथ श्रीवास्तव, पृ. 258

9. 'राष्ट्रभाषा' (पत्रिका) सं. अनन्तराम त्रिपाठी, जून 2000, पृ. 23

10. स्वर्णाकित: सं. रामेश्वर दयाल दुबे, पृ. 200

11. वही, पृ. 61

12. 'राष्ट्रभाषा' (पत्रिका) सं. अनन्तराम त्रिपाठी, जून 2000, पृ. 23

13. वही, पृ. 23

14. वही, पृ. 22

15. स्वर्णाकित : सं. रामेश्वर दयाल दुबे, पृ. 222

पूर्वोत्तर भारत : हिन्दी का भविष्य

पूर्वोत्तर भरत का नाम आते ही सहसा लोगों के मस्तिष्क में एक चित्र उभर कर सामने आता है कि यह ऐसा क्षेत्र है, जहाँ हिन्दी न बोली जाती है और न समझी जाती है। ऐसी सोच केवल उनके पास तक सीमित है, जो अखबारों तथा मसाला छाप पत्र-पत्रिकाओं की बैसाखियों पर अपनी जानकारी ढोते हैं। हिन्दी देश की राजभाषा है। अतीत में हिन्दी को इस अंचल में अपने पैर जमाने में कठिनाई हुई अवश्य; परंतु आज वह अपने बलबूते पर अग्रसर हो रही है और उसका भविष्य अत्यंत उज्ज्वल है।

पूर्वोत्तर में हिन्दी का अतीत :

पूर्वोत्तर भारत में आठ राज्य अवस्थित है। ये हैं-असम, अरुणाचल प्रदेश, मेघालय, त्रिपुरा, मणिपुर, नागालैंड, मिजोरम एवं सिक्किम। इन राज्यों की सीमाएँ पश्चिमी बंगाल और बिहार जैसे भारतीय राज्यों की सीमाओं से तो स्पर्श करती ही हैं, बंग्लादेश, चीन, म्यामार, नेपाल आदि परराष्ट्रों की सीमाओं को भी छूती हैं। यही कारण है कि पूर्वोत्तर की मूल भाषाओं, जो जनजातीय रही हैं, पर पड़ोसी राज्यों और राष्ट्रों की भाषाओं का जबरदस्त प्रभाव पड़ा। यहाँ की मूल भाषाओं और बोलियों को अंग्रेजों ने भी भारी क्षति पहुँचायी। इसके अनेक कारणों के साथ-साथ राजनैतिक कारण अधिक रहे हैं। "यहाँ माध्यम भाषा के रूप में अंग्रेजी की जो स्थिति है, वह भी कोई संतोषजनक नहीं है। आख्याओं से पता चलता है कि पूरे भारत में अंग्रेजी के शिक्षण का स्तर गिरता जा रहा है। ऐसी दशा में पूर्वाचल की स्थिति अधिक चिंतनीय है। इस स्थिति के बावजूद कई गहरे राजनैतिक, सांस्कृतिक कारणों से पूर्वांचल में अंग्रेजी ही माध्यम भाषा की भूमिका निभा पायेगी, ऐसा प्रतीत होता है।"1

माध्यम के रूप में अंग्रेजी की भूमिका अब स्पष्ट रूप से सामने आ गई है। परंतु इसके बीज बहुत पहले बोये जा चुके थे। उससे जो विष-वृक्ष बड़ा हुआ उसने हिन्दी को इस अंचल में फूलने-फलने का अवसर नहीं दिया। मिजोरम, त्रिपुरा, मणिपुर, नागालैंड, अरुणाचल प्रदेश, असम, मेघालय, सिक्किम-इन समस्त राज्यों की अपनी-अपनी भाषाएँ हैं। मिजोरम की मिजो भाषा है, पर राजभाषा का दर्जा अंग्रेजी को प्राप्त है। त्रिपुरा में बंगाली और त्रिपुरी भाषा बोली जाती है, पर राजभाषा के रूप में यहाँ भी अंग्रेजी है। मणिपुर और मणिपुरी, नागालैंड में नागामीज, असम में असमिया आदि भाषाओं का अस्तित्व है, परंतु इन समस्त राज्यों में अंग्रेजी का बाहुल्य है और राजभाषा के रूप में अंग्रेजी का वर्चस्व है। ऐसी स्थिति में हिन्दी को अपने अस्तित्व को बचाने में कितनी कीमत चुकानी पड़ रही होगी, यह जानना बहुत आवश्यक है।

हिन्दी के प्रचार-प्रसार के रूप में उल्लेखनीय कार्य हुआ असम में स्वतंत्रता के लगभग डेढ़-दो दशकों में हिन्दी को कोई विशेष स्थान प्राप्त नहीं हो सका, और 8 वाँ दशक आते-आते असम अनेक टुकड़ों में विभक्त हो गया। इसी बीच शिक्षा प्रणाली में हुए परिवर्तन के अंतर्गत् त्रिभाषा फार्मूला अपनाया गया और पूर्वांचल राज्यों में हिन्दी-शिक्षण का कार्य प्रारंभ हुआ। परंतु यह कार्य इतना आसान न था। विरोध के स्वर उभरते थे। इसी मध्य हिन्दी के प्रचार-प्रसार में संलग्न सरकारी और गैर-सरकारी संस्थाओं ने कार्य कराना प्रारंभ किया, परंतु गति अत्यंत धीमी रही। इसकी धीमी गति का पता इसी तथ्य से चलता है कि सन् 1952 में मिजोरम में हिन्दी को भाषा शिक्षण के लिए स्वीकार किया गया और सन् 1960 तक इसकी गति अत्यंत धीमी रही। असम में यद्यपि महात्मा गाँधी की प्रेरणा से सन् 1919-20 से हिन्दी के लिए प्रयास प्रारंभ होने लगे थे परंतु सन् 1930 से इस कार्य ने गति पकड़ी।

नागालैंड में 1990 तक राज्य के समस्त राजकीय माध्यमिक विद्यालयों और राजकीय उच्च विद्यालयों में अनिवार्य हिन्दी-शिक्षण की व्यवस्था थी। इन विद्यालयों में कक्षा 5 से कक्षा 8 तक हिन्दी तीसरी भाषा के रूप में पढ़ाई जाती है। यही स्थिति न्यूनाधिक समस्त प्रदेशों की रही है।

पूर्वोत्तर में हिन्दी की स्थिति :

चूँकि पूर्वोत्तर के कुछ राज्यों में स्वतंत्रता प्राप्ति के पूर्व से तथा कुछ राज्यों में स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् से हिन्दी की उन्नति तथा प्रचार-प्रसार से कुछ सरकारी तथा कुछ गैर-सरकारी संगठन कार्य कर रहे हैं। इनमें सम्मिलित प्रयासों से इस क्षेत्र में हिन्दी का स्वरूप परिवर्तित हुआ है। स्वतंत्रता के पश्चात् तक हिन्दी के उच्च शैक्षणिक स्तर तक पठन-पाठन की कोई समुचित व्यवस्था नहीं थी। असम में 1960 से डिब्रूगढ़ तथा गुवाहाटी विश्वविद्यालयों में हिन्दी अध्ययन का शुभारंभ हुआ। 1970 से 1974 तक इन विश्वविद्यालयों में स्नातकोत्तर स्तर पर हिन्दी का विभाग खोला जा चुका था। आठवें दशक के मध्य में इम्फाल में जो महाविद्यालय खोला गया उसे 1981 से विश्वविद्यालय में परिवर्तित कर दिया गया, जिसमें एम. ए. स्तर तक हिन्दी अध्यापन तथा शोध की सुविधा उपलब्ध करायी गयी। शिलांग में भी विश्वविद्यालय की स्थापना की गई और यहाँ भी हिन्दी विभाग स्थापित किया गया।"

विद्यालयों और विश्वद्यिालयों की स्थापना की गई तथा इनमें हिन्दी-शिक्षण का प्रावधान भी किया गया परंतु उसके पठन-पाठन के लिए न तो समुचित पाठ्य-पुस्तकें उपलब्ध करायी गयीं और न ही प्रशिक्षित एचं उत्साही शिक्षकों की व्यवस्था की गयी। "यद्यपि भाषा केंद्रित हिन्दी पाठ्यक्रम की स्नातक स्तर पर पढ़ने-पढ़ाने की बात की जाने लगी है और इस प्रकार के पाठ्यक्रमों की कहीं-कहीं शुरुआत भी कर दी गई है। परंतु इस प्रकार के पाठ्यक्रम को पूर्ण रूप से विकसित करके अभिनव रूप दे देना बाकी है। इस पाठ्यक्रम के अनुकूल भाषा केंद्रित पाठ्य-पुस्तकों का तो लगभग अकाल सा है।"4

परंतु पूर्वोत्तर में हिन्दी के प्रचार-प्रसार में इतने प्रयास पर्याप्त नहीं हैं। और सच तो यह है कि आज पूर्वोत्तर में हिन्दी का जो भी प्रभाव परिलक्षित हो रहा है, उसके प्रथम और प्राथमिक श्रेय का अधिकार हिन्दी फिल्मों, हिन्दी गीतों और व्यापारिक गतिविधियों को जाता है। व्यापारिक गतिविधियों के कारण पूर्वोत्तर भारत में हिन्दी भाषियों के संपर्क में यहाँ के निवासी आये और ये हिन्दी की ओर आकर्षित हुए। यहाँ यह उल्लेख करना समीचीन होगा कि इस रूप में हिन्दी भाषा बोलने के लिए ही प्रयुक्त हुई है, पठन-पाठन में तथा लेखन में इनका हिन्दी प्रेम नहीं है।

पूर्वोत्तर में जनजातीय बोलियाँ एवं जनजातीय भाषाओं का प्रभाव होना तोस्वाभाविक है, पर हिन्दी के प्रसार में इनके कारण कोई विशेष व्यवधान परिलक्षित नहीं होता। इस तथ्य को और अधिक स्पष्ट करते हुए भी प्रो. रवि प्रकाश गुप्त का मत है कि- "जनजातीय भाषा बोलने वाले लोगों की संख्या यद्यपि अधिक नहीं है, फिर भी उसमें परस्पर सांस्कृतिक भिन्नताएँ काफी हैं। कुछेक बोली भाषियों को छोड़कर (औहाम, बोड़ो) अधिकतर भाषाएँ बोलने वाले लोग आज भी भारतीय जीवन धारा से अपने को जोड़कर नहीं चल पाये हैं। इन भाषाओं में लिखित साहित्य की तो कल्पना ही नहीं की जा सकती। शिक्षा की दृष्टि से भी ये अविकसित हैं। अब, जब शिक्षण का प्रचार-प्रसार बढ़ा है तो इनके सामने एक बड़ी समस्या है माध्यम भाषा की, क्योंकि आरंभिक स्तर पर विभिन्न भाषा-भाषी जो बच्चे आते हैं, उन्हें दूसरे की भाषा समझने में तो कठिनाई होती है साथ ही उनकी प्रथम भाषा या मातृभाषा का प्रयोग कक्षा में नहीं हो पाता, इनकी शिक्षा की शुरुआत ही किसी द्वितीय भाषा से होती है, जिसका प्रभाव उनके भाषा-विकास पर तो पड़ता ही है, साथ ही व्यक्तित्व पर भी पड़ता है। ऐसी स्थिति में समझा जा सकता है कि पूर्वोत्तर में हिन्दी के प्रचार-प्रसार में कैसी कठिनाइयाँ उपस्थित हो सकती हैं। "5

हिन्दी का भविष्य :

पूर्वोत्तर में हिन्दी के प्रचार-प्रसार हेतु अब ये बाधाएँ भी हैं जो इसके प्रारंभिक दिनों में थीं। इस अंचल में केंद्रीय हिन्दी संस्थान की गतिविधियों के अतिरिक्त केंद्रीय हिन्दी निदेशालय की अहम भूमिका है। यहाँ के विश्वविद्यालयों में हिन्दी में एम.ए., एम.फिल. तथा पी-एच.डी. करने वालों छात्रों की संख्या में उत्तरोत्तर वृद्धि को देखते हुए कहा जा सकता है कि वह दिन दूर नहीं जब पूर्वोत्तर में 21 वीं सदी हिन्दी की होगी।

कुछ न्यूनताएँ अवश्य ही ऐसी हैं जो आशाओं के उपवन से तुषारापन करती प्रतीत होती है। इस अंचल के एक विश्वविद्यालय में हिन्दी का शोध प्रबंध भी अंग्रेजी में लिखने का प्रावधान है, जो हिन्दी के साथ क्रूरता मानता है। इस श्रम साध्य कार्य से यहाँ के हिन्दी के प्रेमीजनों को अरुचि उत्पन्न होती है और वे हिन्दी की ओर से विरक्त होने लगते हैं। हिन्दी को संकट का भी सामना करना पड़ता है। इससे भी छात्रों का रुझान इस ओर से हट रहा है। आवश्यकता इस बात की है कि इन कमियों को दूर करने का उपक्रम किया जाये तभी 21 वीं सदी में हिन्दी का भविष्य उज्ज्वल हो सकेगा।

संदर्भ

1. पूर्वांचल प्रदेश में हिन्दी भाषा और साहित्य डॉ. सी.ई. जीनी, पृ. 130

2. वही, पृ. 126

3. वही, पृ. 131

4. वही, पृ. 132

5. समन्वय पूर्वोत्तर : सं. शंभुनाथ, पृ. 149

 

प्रयोजनमूलक हिन्दी और वैज्ञानिक लेखन

भाषा समाज सापेक्ष होती है। इसका सर्वश्रेष्ठ उपयोग समाज में रहकर ही किया जाना संभव है। भाषा तो पशु-पक्षियों की भी होती है, पर वह विश्लेषणात्मक नहीं होती और न ही वह मानव समाज के काम की होती है। मानव समाज की •भाषा का अध्ययन किया जाता है और उसका उपयोगात्मक विश्लेषण किया जाता है। भाषा का प्रमुख उपयोग तो मानवीय सरोकारों की भाषाई अभिव्यक्ति ही है। मनुष्य अपने विचारों और भावों को व्यक्त करने के लिए या तो संकेतों का सहारा लेगा या ध्वनि का अथवा लिपि का। इन्हीं भाषाई माध्यमों के द्वारा समाज का कार्य-व्यापार संचालित होता है। भाषाई संसार में हिन्दी भाषा की अपनी विशिष्ट स्थिति है। इसका विस्तार क्षेत्र भी पर्याप्त संतोषप्रद है। भारत की यह भाषा आज विश्व की उत्पन्न और समृद्ध भाषाओं में से एक है।

प्रयोजनमूलक हिन्दी :

संविधान में हिन्दी की संवैधानिक स्थिति राजभाषा की है। अंग्रेजी के साथ-साथ हिन्दी के चलने की वैधानिक विवशता है। पर वह चल रही है- साठ वर्षों से चल रही है। परन्तु इसके पूर्व हिन्दी का प्रयोग केवल काव्य भाषा तक ही सीमित था। हिन्दी साहित्य में विभिन्न रसों-अलंकारों तथा विभिन्न लक्षणों के निरूपण में इस भाषा का प्रयोग होता था। अधिक हुआ तो राजा-महाराजाओं की सनदों, दानपत्रों और इसी प्रकार के अन्य कार्यों में हिन्दी का प्रारंभिक प्रयोग हुआ है। पारिवारिक पत्राचार एवं अन्य पत्र-लेखन का प्रारंभिक स्वरूप भी इस हिन्दी में प्राप्त होता है। पद्य साहित्य का एकाधिकार समाप्त होने पर गद्य-युग में गद्य की विविध विधाओं का लेखन इस भाषा में हुआ अवश्य; परन्तु इससे हिन्दी भाषा के पैरों को वह शक्ति प्राप्त नहीं हुई, जिससे वह युग की गति से कदम ताल करती हुई चल सके।

अब चन्दबरदायी, अमीर खुसरो, कबीर, जायसी, तुलसी, सूर, मीरा, रसखान, केशव, घनानन्द, बिहारी, पद्माकर, भारतेन्दु, मैथिलीशरण, प्रसाद, निराला, अज्ञेय, प्रेमचंद, रेणु की साहित्यिक हिन्दी से काम बनने वाला नहीं है, क्योंकि युग तीव्र-गति से बदल रहा है। उस बदलती हुई गति को पकड़ने के लिए हिन्दी भाषा को अपना रूप परिवर्तित करना पड़ा जिसका नाम पड़ा-प्रयोजन मूलक हिन्दी। आधुनिक युग में विश्व फलक पर विज्ञान के विभिन्न क्षेत्रों, सरकारी कार्य विधि के ऊर्ध्वगामी दायरों तथा भाषागत अंतप्रवाहों के संपर्क सूत्रों को यथावत अभिव्यक्त कर परिभाषित करने हेतु हिन्दी भाषा की वृत्तियों का सर्वथा नया प्रयोगधर्मी रूप उभरकर सामने आया, जो 'प्रयोजनमूलक हिन्दी' कहलाया।'

वस्तुतः 'प्रयोजन मूलक' एक पारिभाषिक शब्द है। यह शब्द भाषा के अनुप्रयुक्त रूप और उसके प्रयोग के निश्चित अर्थ में प्रयुक्त किया जाता है। यह अंग्रेजी के "Applied" शब्द का हिन्दी अनुवाद है। यद्यपि इसके लिए "Func- tioned" शब्द भी प्रयुक्त होता है, परन्तु कोश ग्रंथों के अनुसार "Functioned" से तात्पर्य है-कार्यात्मक, क्रियाशील अथवा वृत्तिमूलक। अतः स्पष्ट है कि "Func- tioned" शब्द से 'प्रयोजन मूलक' या व्यावहारिक संकल्पना स्पष्ट नहीं हो पाती है। इसके विपरीत व्यावहारिक, प्रयुक्त, अनुप्रयुक्त अथवा प्रायोगिक प्रकारान्तर से प्रयोजनमूलक संकल्पना को अंग्रेजी शब्द "Applied" सर्वाधिक सटीक बैठता है और 'प्रयोजनमूलक' संकल्पना को सार्थकता से रूपायित करता है।" जब संदर्भ 'प्रयोजनमूलक हिन्दी' का है तो यहाँ यह उल्लेखनीय है कि 'प्रयोजन' विशेषण मूलक शब्द है और 'मूलक' उपसर्ग। "प्रयोजन' का अर्थ है-उद्देश्य और 'मूलक' का तात्पर्य है आधारित ।

अतः 'प्रयोजनमूलक हिन्दी' का तात्पर्य हुआ ऐसी विशिष्ट हिन्दी, जिसका प्रयोग किसी विशिष्ट उद्देश्य के लिए किया जाता है। 'प्रयोजन हिन्दी संकल्पना में प्रयुक्ति के स्तर, विषयवस्तु, संदर्भ आदि के अनुरूप पारिभाषिक शब्दावली तथा विशिष्ट भाषिक संरचना समादृत है। प्रयोजनमूलक हिन्दी वह है, जिसमें हिन्दी का प्रयुक्तिपरक विशिष्ट रूप होता है, जो विषयगत, भूमिकागत तथा संदर्भगत प्रयोजन के लिए विशिष्ट भाषिक संरचना द्वारा प्रयुक्त किया जाता है और जो सरकारी प्रशासन तथा विज्ञान एवं प्रौद्योगिकी के अनेकविध क्षेत्रों को अभिव्यक्ति प्रदान करने में सक्षम सिद्ध होता है।"- स्पष्ट है, इस विशिष्ट हिन्दी में परम्परागत साहित्यिक हिन्दी का कोई स्थान नहीं है, न ही आलंकारिक भाषा का प्रयोजनमूलक हिन्दी से कहीं कोई संबंध है।

प्रयोजनमूलक हिन्दी की सीमाएँ

विश्व में हुए नये-नये आविष्कारों, नयी तकनीक तथा नयी प्रौद्योगिकी का साक्षात्कार भारत ने भी किया। नवीन कार्य-व्यापार को अपनाना, विश्व में अपना स्थान बनाने के लिए अत्यावश्यक था। स्वतंत्रता के पश्चात् 'निज भाषा उन्नति अहै सब उन्नति के मूल' की भावना को साकार करने के उद्देश्य से केन्द्रीय गृह मंत्रालय के अंतर्गत राजभाषा विभाग का गठन किया गया, जिसने हिन्दी को विश्वस्तरीय भाषा बनाने हेतु सफल प्रयास किये। हिन्दी में पारिभाषिक शब्दावली तैयार हुई, नयी तकनीक और नवीन कार्य प्रणाली के अनुरूप संरचनाओं और प्रयुक्तियों को गढ़ा गया एवं हिन्दी को पूर्णतः आधुनिक अभिव्यक्ति की सशक्त भाषा बनाया गया। परन्तु यह मान लेना नितांत भ्रम व भूल होगी कि अब प्रयोजनमूलक हिन्दी का संपूर्ण एवं स्वस्थ स्वरूप खड़ा हो चुका है। अब भी इसमें अनेक न्यूनताएँ हैं और इसकी सीमाएँ हैं।

"अनुवाद प्रयोजनमूलक हिन्दी का प्रमुख तत्त्व है। विज्ञान एवं टेक्नॉलाजी का प्रस्फुटन एवं विकास पश्चिमी देन है, जो आयातित होकर भारत में आयी। इन ज्ञान-क्षेत्रों से संबंधित ग्रंथ विदेशी भाषाओं में विद्यमान थे, जो परिस्थिति जन्य तथा युगीन आवश्यकता के रूप में हिन्दी में अनुवाद के रूप में लाये गये। इसी के साथ भारत की राजभाषा के पद पर आसीन होने के बाद हिन्दी सरकारी प्रशासन की भाषा बनी और उन दायित्वों से गुजरी जिससे पहले वह कभी नहीं गुजरी थी। ऐसी स्थिति में हिन्दी, कार्यालय तथा प्रशासन की भाषा बनी। अतः उसे प्रशासनिक स्तर पर अभिव्यक्ति तथा प्रयुक्ति के लिए अनुवाद का ही एकमात्र सहारा लेना पड़ा। 'राजभाषा अधिनियम 1963' ने तो लगभग हिन्दी को पूर्णतः अनुवादाश्रित कर दिया। वस्तुतः प्रशासनिक कार्यों, मैन्युअलों, करारों, प्रतिवेदनों एवं अन्य प्रविधि साहित्य का अनुवाद वे लोग (अनुवादक) करने लगे जिन्हें इन क्षेत्रों की विधियों का सूक्ष्म ज्ञान एवं अनुभव नहीं था। परिणामस्वरूप पुस्तकीय अनुवाद के क्लिष्ट एवं अटपटे नमूने उभरने लगे, जिसके कारण प्रयोजनमूलक हिन्दी को जबर्दस्त आघात पहुँचा।"4

प्रयोजनमूलक हिन्दी के क्षेत्र में उपर्युक्त उद्धरण में प्रदर्शित समस्या अथवा समस्याएँ हो सकती हैं, परन्तु यह केवल एक बिन्दु है। इसमें कोई संदेह नहीं कि हिन्दी के मानकीकरण करने में तथा उसे प्रयोजनमूलक बनाने में प्रारंभ से ही तमाम भूलें रही हैं। हिन्दी में पारिभाषिक शब्दों को गढ़ने में स्रोत भाषा को तो ध्यान में रखा गया परन्तु हिन्दी की प्रकृति, उसके इतिहास और उसके प्रयोक्ता की मानसिकता को पूर्णतः नजरअंदाज कर दिया गया। होना यह चाहिए था कि स्रोत भाषा और प्रयोजनमूलक हिन्दी की प्रकृति को परखकर दोनों में समन्वय स्थापित किया जाता। ऐसा न होने का ही परिणाम है कि ज्यामिती गणित का छात्र अनुवादित शब्दों- 'ज्या', 'कोज्या', 'स्पस्ज्या' के स्थान पर 'साइन', 'कॉस', 'टेन' पढ़ना अधिक पसंद करता है। ऐसी प्रयोजनमूलक हिन्दी तैयार करने का लाभ क्या है? हिन्दी वाले हिन्दी की प्रगति न होने का मर्शिया गाते हैं, पर हिन्दी को इस स्थिति में पहुँचाने के सर्वाधिक दोषी वही हैं। अंततः इस प्रकार के अनुवाद किये किसने ? विशेषज्ञ के रूप में तो हिन्दी वाले ही थे। और यदि इस महत् कार्य को अंग्रेजी मानसिकताधारी प्रशासनिक अधिकारियों ने किया है तो हिन्दी के 'विज्ञजनों' ने उसका समर्थन कैसे किया? दोषी तो अंततः 'साइन' को ज्या, 'कॉस' को कोज्या नामकरण करने वाले ही हुए।

प्रयोजनमूलक हिन्दी और वैज्ञानिक लेखन

पाश्चात्य देशों में, जहाँ वैज्ञानिक दृष्टि विकसित हुई और वैज्ञानिक आविष्कार और अनुसंधान हुए, वैज्ञानिक-लेखन कठिनाई का कारण नहीं रहा, ठीक वैसे ही, जैसे भारत में वेदों पर भाष्य करना। इस क्षेत्र में भी समस्याओं का कारण बना समन्वय का अभाव। वैज्ञानिकों एवं हिन्दी भाषाविदों को एक साथ बैठना चाहिए था और फिर एक-एक शब्द को उसकी, प्रयोक्ता की तथा लक्ष्य भाषा की प्रकृति के अनुरूप पारिभाषिक शब्द प्रदान करना चाहिए था। ऐसा न हो पाने के कारण इस क्षेत्र में जो सफलताएँ मिलनी चाहिए थीं, नहीं मिल सकीं। रेडियो ने जब प्रथम बार भारत में प्रवेश किया, तब न तो राजभाषा विभाग का कहीं कोई अस्तित्व था, न ही प्रयोजनमूलक हिन्दी की कल्पना की थी और न ही पारिभाषिक शब्दों के नाम पर शाब्दिक अनुवाद खड़ा कर देने की बात थी। गुरुदेव रवीन्द्रनाथ टैगोर ने 'रेडियो' का भारतीयकरण 'आकाशवाणी' किया। यह शब्द अत्यंत लोकप्रिय हुआ और अब तक समूचे देश में मुद्रा की तरह चल रहा है।

"वास्तव में कोई शब्द सरल या कठिन नहीं होता। शब्द या तो परिचित होता है या अपरिचित । परिचित (प्रचलित) शब्द आसान या सरल लगता है, इसके विपरीत अपरिचित शब्द कठिन या दुरूह लगता है। भौतिक, रसायन, गणित, विधि, अंतरिक्ष, कम्प्यूटर तथा मानविकी से संबंधित लाखों नये शब्दों का निर्माण वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग ने किया है, किन्तु समस्या उनके प्रचलन की है। विशुद्ध विज्ञान और टेक्नॉलॉजी से संबंधित ये पारिभाषिक शब्द प्रचलित नहीं थे, इसलिए दुरूह या कठिन लगते हैं और उचित मात्रा में प्रचलित नहीं हो पा रहे हैं। अतः विज्ञान और टेक्नॉलॉजी से संबंधित पारिभाषिक शब्दावली को विषयवस्तु एवं संदर्भानुसार अधिक मात्रा में प्रचलित करने के लिए सघन प्रयास किये जाने की आवश्यकता है।"5

"प्रयास किये जाने की आवश्यकता है" जैसे वाक्य खण्ड लिख या कह तो दिये जाते हैं, पर यह बताने को कोई तैयार नहीं होता कि 'प्रयास' के अंतर्गत् क्या-क्या होना चाहिए। वस्तुतः समूचा प्रयोजनमूलक हिन्दी का प्रकरण ही अत्यंत संवेदनशील मसला है, फिर हिन्दी में वैज्ञानिक लेखन तो और भी अधिक सतर्कता, सूक्ष्मता और अतिरिक्त संवेदनशीलता की माँग करता है। वैज्ञानिक लेखन पहले भी हिन्दी में हुआ है, अब भी हो रहा है। परेशानी यह है कि जिस गति से विज्ञान में नयी-नयी तकनीक का विकास हो रहा है, उस गति से उसे अंग्रेजी से हिन्दी में समझने के लिए न तो उचित, सरल व सुबोध शब्दों का निर्माण हो रहा है और न ही वे जनसाधारण के मध्य प्रचारित हो रहे हैं। इस दिशा में सब अपनी-अपनी ढफली पर अपना-अपना राग आलाप रहे हैं।

जब टेलीफोन का आविष्कार हुआ, तब उसके लिए 'दूरभाष' प्रचलन मेंआया। यह शब्द जब तक विस्तार पाता, मोबाइल क्रांति हो गयी। 'दूरभाष' लोगोंकी जबान पर चढ़ने से पहले ही उतर गया। अब 'मोबाइल' का हिन्दी में कौन-सासटीक पारिभाषिक शब्द हो-अब तक स्थिर नहीं हो सका। मुझे अपने अनेकमित्रों के 'लेटरहेड' तथा 'विजिटिंग कार्ड' पर 'मोबाइल' के स्थान पर - 'चलभाषयंत्र','वायुदूत', 'समीरवार्ता', 'चलित दूरभाष' जैसे शब्द पढ़ने को मिले। अब इनमें सेकिस शब्द को 'मोबाइल' के स्थान पर ग्रहण किया जाये अथवा इसके स्थान परअन्य कोई लोकप्रिय शब्द 'मोबाइल' जैसा ही लोकप्रिय निर्मित किया जाये? ऐसेज्वलंत प्रश्नों के शीघ्र उत्तर तलाशने की आवश्यकता है, अन्यथा 'मोबाइल' हीसबकी जबान पर चढ़ा रहेगा। मोबाइल के साथ ही 'सिम' शब्द जुड़ा हुआ है। अब'सिम' का हिन्दी में क्या पारिभाषिक शब्द गढ़ा जाएगा और कब ?

अभियांत्रिकी, अंतरिक्ष, रक्षा-अनुसंधान, चिकित्सा, भौतिकी, रसायन, जैविकी, कम्प्यूटर, आनुवंशिकी, कृषि आदि इतने नये-नये क्षेत्र विज्ञान ने खोल दिये हैं कि इनमें अत्यंत गहराई और सूक्ष्मता से लेखन कार्य अत्यंत दुष्कर है। ये सब पुस्तकें अंग्रेजी में हैं। हिन्दी में इनका अनुवाद होता भी है तो अंग्रेजी के एक निर्धारित शब्द के लिए हिन्दी में अनेक शब्दों का प्रयोग परिचलन में है। ऐसी जगह और ऐसी स्थिति में हिन्दी का विज्ञान- पाठक और विशेष रूप से हिन्दी- 'निज भाषा' में विज्ञान का अध्ययन करने वाले विद्यार्थी अत्यंत भ्रमित हो जाते हैं और अंततः हार थक कर निराश होकर 'लौट के बुद्ध घर को आये' की तर्ज में वे 'अंग्रेजी शरणम् गच्छामि' हो जाते हैं।

परीक्षाओं के प्रश्नपत्रों में हिन्दी में जो प्रश्न रहते हैं, उनके साथ उनका अंग्रेजी अनुवाद भी रहता है तथा विवाद की स्थिति में अंग्रेजी अनुवाद को 'अंतिम सत्य' माना जाता है। यह दुर्भाग्यपूर्ण स्थिति नहीं तो और क्या है? जब घूम-फिर कर वापस अंग्रेजी को ही जीवन साथी बनाना है तो उससे तलाक का ढोंग क्यों? 'वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग', 'केन्द्रीय हिन्दी निदेशालय' आदि अन्य संस्थाओं की फिर आवश्यकता ही क्या है?

जयंत नार्लीकर जैसे विद्वानों ने हिन्दी में स्तरीय, प्रामाणिक तथा ग्रहणीय लेखन किया भी है। अतः यह नहीं कहा जा सकता कि हिन्दी में वैज्ञानिक लेखन शून्य ही है। परन्तु यह प्रायोगिक सत्य है कि पुस्तक-भंडारों से जितनी अधिक मात्रा में अंग्रेजी में लिखित पुस्तकों की बिक्री होती है, उस अनुपात में हिन्दी में लिखी वैज्ञानिक पुस्तकों की बिक्री नहीं होती। इस सीमा में प्राथमिक से लेकर सेकेण्डरी शिक्षा तक के पाठ्यक्रमों की पुस्तकें सम्मिलित नहीं हैं, क्योंकि इन छात्रों को हिन्दी-अंग्रेजी मिश्रित विज्ञान पुस्तकों को पढ़ने की विवशता रहती है।

हिन्दी में वैज्ञानिक लेखन हेतु उपाय

हिन्दी में वैज्ञानिक लेखन की सफलता, स्थायित्व एवं पूर्ण स्थापन हेतु निम्नलिखित उपाय लागू किये जा सकते हैं:

1. अंग्रेजी के जिस शब्द का हिन्दी रूपान्तर अधिकृत वैधानिक संस्था द्वारा जो तथा जिस रूप में मान्य किया गया हो हिन्दी की समस्त पुस्तकों में उसे ही मान्य किया जाये। कोई लेखक अथवा प्रकाशक उससे भिन्न शब्द का यदि प्रयोग करता है। तो ऐसे लेखक-प्रकाशक की पुस्तक को प्रकाशन की अनुमति ही न दी जाये।

2. राजभाषा हिन्दी के संवर्धन में लगी समस्त वैधानिक संस्थाओं में उचित समन्वय स्थापित किया जाये। विज्ञान के जिस क्षेत्र का लेखन किया जाना हो, उस क्षेत्र के विशेषज्ञों तथा हिन्दी के वरिष्ठ, अनुभवी तथा स्थापित कोशकारों व भाषाविदों को मिलकर लेखन करना चाहिए।

3. लेखन में हिन्दी की प्रकृति तथा हिन्दी भाषियों की प्रकृति व मानसिकता को सर्वोच्च प्राथमिकता दी जानी चाहिए तभी हिन्दी में वैज्ञानिक लेखन सफलता की ओर अग्रसर हो सकेगा।

4. हिन्दी में वैज्ञानिक लेखन की एक सुस्पष्ट तथा सुनिर्धारित नीति होनी चाहिए। उसे नौकरशाही के हस्तक्षेप से सर्वथा अलग होना चाहिए। अब तक का अनुभव यही सिद्ध करता है कि नौकरशाही अपने थोथे अहं की तुष्टि के लिए अपने अविवेकपूर्ण निर्णय व अतार्किक, अवैज्ञानिक मान्यताएँ विशेषज्ञों पर थोपती है। परन्तु बदनाम विशेषज्ञ दल होता है।

5. जब निर्धारित शब्द निर्माण प्रक्रिया पूर्ण हो जाए तब सिद्धहस्त लेखक से उन्हीं मान्य शब्दों के दायरे में रोचक व प्रभावी शैली में विज्ञान की पुस्तकों को लिखाना श्रेयस्कर होगा। ऐसी पुस्तकें एकरूप व लोकप्रिय होंगी।

6. इन सब कार्यों की पूर्व तैयारी के रूप में राजभाषा आयोग और वैज्ञानिक तथा तकनीकी शब्दावली आयोग के संयुक्त तत्त्वावधान में राष्ट्रीय संगोष्ठियों को व्यापक रूप से किया जाना चाहिए। इन आयोजनों से नये तथ्य व निष्कर्ष प्राप्त होंगे तथा कार्य को नवीन दिशा प्राप्त होगी।

अतः इन उपायों के द्वारा हिन्दी में वैज्ञानिक लेखन को अधिक रोचक, जनोपयोगी और लोकप्रिय बनाया जा सकता है।

संदर्भ :

1. प्रयोजनमूलक हिन्दी सं. डॉ. विनय दुबे, पृ. 1

2. वही, पृ.4

3. वही, पृ.5

4. वही, पृ.8

5. वही, पृ.४

अरुणाचल का धार्मिक लोक-साहित्य

भारतीय राज्यों को यदि वर्णिक अनुक्रम में लिखना हो, तो अरुणाचल प्रदेश का नाम सबसे पहले आयेगा। भारत के पूर्वोत्तर में स्थित यह छोटा सा, किंतु प्राकृतिक सुषमा से भरपूर प्यारा-सा प्रदेश अनेक विशेषताओं से युक्त है। अंग्रेजों ने चीन-तिब्बत सीमा से लगे इस प्रेदश को 'नेफा' (नार्थ-ईस्ट फ्रंटियर ऐजेंसी। बनाकर भारतीय नागरिकों के वहाँ जाने पर रोक लगा दी थी। वर्ष 1987 में इसे पूर्ण राज्य का दर्जा प्रदान किया गया था। इसकी जनसंख्या लगभग साढ़े आठ लाख है और क्षेत्रफल 83,500 वर्ग किलोमीटर है।' यह जनजातीय बहुल प्रदेश है। मोनपा, मिजी, आँका, निशी, वाँगनी, आपातानी, गोलोंग, बोरी, पदम, मियोंग, पासी, नांगटे, टांगसा, वांगचों आदि इस प्रदेश की प्रमुख जनजातियाँ हैं। समूचे अरुणाचल प्रदेश में 110 जनजातियाँ निवास करती हैं जिनमें 23 प्रमुख मानी गई हैं। यहाँ पुरुष प्रधान समाज है। इनकी अपनी परंपराएँ और प्रथाएँ हैं। इन जनजातियों के अपने लोक देवता हैं, उनके अपने स्वरूप हैं, अपनी मान्यताएँ हैं, अपने विश्वास और आस्थाएँ हैं तथा इन विश्वासों की अभिव्यक्ति के लिए उनके अपने विशिष्ट कर्म कांड हैं। देश में प्रचलित विभिन्न लोक धर्मों से जिस प्रकार अनेक गीत और गाथाएँ होती हैं, वैसे ही इन आदिवासियों के समाज की धार्मिक प्रथाएँ, गाथाएँ और गीत हैं।

लोक :

'लोक' शब्द का अर्थ-फलक अत्यंत व्यापक है। यदि इसे शास्त्रीय संदर्भ में ग्रहण किया जाएगा तो इसके अर्थ-इहिलोक, परलोक, त्रिलोक, चतुर्दशलोक आदि ग्राह्य होंगे। राजनीतिक दृष्टि से यह लोकतंत्र, लोक-कल्याण आदि को ध्वनित करेगा। समाजशास्त्रीय दृष्टि इसे लोक शिविर, लोकाचार, लोक-व्यवहार आदि बनाती है। इससे भी अधिक संकुचित दृष्टि इसे केवल ग्रामों और ग्रामीणा चेतना तक संबद्ध करती है। पर वस्तुतः 'लोक' का व्यापक अर्थ होते हुए भी व्यापारिक दृष्टि से संकुचित अर्थ ही इसका ग्राह्य होता है और किया जाता है। व्यापक अर्थ में तो व्यक्ति की समग्र चेतना के कार्य-व्यवहार का नाम 'लोक' है। इसे व्यक्त करने के विभिन्न माध्यम हैं और ये लोक से प्रकृत रूप से निःसृत होने के कारण उनकी विशुद्ध भावाभिव्यक्ति करते हैं। ये माध्यम 'लोक-संस्कृति' की संज्ञा से अभिहित किये जाते हैं। इनके उपांग हैं-गीत, गाथा, पर्व, त्योहार, नाट्य, संगीत, नृत्य, लोकोक्तियाँ आदि। कतिपय विद्वानों ने लोक साहित्य को अशिष्ट साहित्य तथा लोकेतर साहित्य को शिष्ट या नागर साहित्य कहा है। यहाँ भी बौद्धिक मत भिन्नता है। विज्ञजनों का एक वर्ग मानता है कि साहित्य में शिष्ट और अशिष्ट जैसा कोई भेद नहीं होता, जबकि दूसरा वर्ग इससे सहमत नहीं है। सच तो यह है कि शिष्ट साहित्य भी अपने मूल रूप में अशिष्ट या लोक साहित्य ही होता है।

लोक साहित्य शिष्ट होता है अथवा अशिष्ट-यह बौद्धिक विवाद का विषयहो सकता है। परंतु इस तथ्य में कोई विवाद नहीं है कि साहित्य की मूल अवधारणा और लक्ष्य जीवन-मूल्यों की स्थापना करना होता है। देश की विभिन्न भाषाओं में लोक साहित्य में ये जीवन-मूल्य प्राप्त होते हैं। अरुणाचल प्रदेश की धार्मिक लोग गाथाएँ भी इनसे सम्पृक्त हैं, जबकि यहाँ की संस्कृति देश के 'शिष्ट और विशिष्ट' भागों से सर्वथा भिन्न है। लगभग न के बराबर साक्षरता वाली इन जनजातियों के रीति-रीवाजों, गीतों, धार्मिक कर्म कांडों को शिष्ट और नागर समाज भले ही उत्सुकता और कौतूहलवश देखे, इन्हें अजूबा समझे, परंतु इनके लोक गीतों और लोक गाथाओं में जीवन जीने की कला है और जीवन के लक्ष्य का रेशा-रेशा मौजूद है।

जिस प्रकार देश के अन्य भागों में पर्व-त्यौहारों के साथ उसका कारण और महत्त्व दर्शाने वाल गाथाएँ जुड़ीं रहती हैं, उसी प्रकार अरुणाचल प्रदेश में मनाये जाने वाले विभिन्न पर्वों की भी अपनी गाथाएँ हैं। इतना ही नहीं, कुछ गाथाएँ ऐसी भी हैं, जिनका पर्वों-त्योहारों से कोई संबंध नहीं है, परंतु वे मनोरंजन के लिए सुनी-सुनायी जाती हैं। फिर भी ऐसी गाथाएँ जीवन-मूल्यों से शून्य नहीं हैं। इनके धार्मिक कर्म कांड की गाथाएँ व्यक्ति को दुर्बलताओं से दूर हटाकर अच्छे आचरण करने, अनुशासन और मर्यादा बनाये रखने, उदारता, अतिथि सत्कार, प्रेम, सहयोग, सहायता, दया आदि सद्‌गुणों के विकास करने का मार्ग प्रशस्त करती है।

अरुणाचल के प्रमुख त्योहार

अरुणाचल प्रदेश के आदिवासियों के प्रमुख त्योहार सीधे-सीधे प्रकृति पूजा, भूत प्रेत, कृषि-वृद्धि एवं मनुष्य के जीवन को सुखमय निरोग व निर्भय बनाने के उद्देश्य अपने में समाहित किये हुए हैं। निसी जनजाति का सबसे बड़ा त्योहार है "सिरोम मोलो सोचुम" यह दिसंबर में मनाया जाता है। इस त्योहार की तैयारियाँ कई दिनों पूर्व से होने लगती हैं। त्योहार शुरू होने के पूर्व इस समुदाय के समस्त लोग मकानों और धान रखने के स्थान की साफ सफाई व लिपाई-पुताई करते हैं और धान-मक्का आदि की फसल काटकर घर लाते हैं व गीत गाते हैं। पूजा शुरू कराने के पहले स्त्रियाँ भात व माँस पकाती हैं तथा आपो (चावल की शराब) बनाती हैं। फिर घरों में अतिथियों को आमंत्रित कर आपो पीने को देती हैं और भात माँस का भोजन परोसती हैं तथा अगले साल की फसल और अच्छी होने की प्रार्थना करती हैं। अतिथि भी भोजन से संतुष्ट होकर ऐसा ही आशीर्वाद घर की स्त्रियों को देते हैं।

इस पर्व की विशेषता यह है कि जिसके घर में जितने अधिक मेहमान आएँगे, अगले वर्ष की फसलें उतनी ही अच्छी होंगी-ऐसा विश्वास किया जाता है। इस पर्व में 'अतिथि देवो भव' की भावना स्पष्ट परिलक्षित होती है। इस त्योहार के दिन ग्रामवासी एक स्थान पर एकत्र होते हैं और अपनी जाति के प्राचीन गौरव के परंपरागत गीत गायकों से सुनते हैं तथा गाथा भी सुनते हैं। यह गाथा उत्तर भारत के त्योहारों में सुनाई जाने वाली कथा जैसी होती है। इस पर्व की कथा इस प्रकार है :

नीमातेनी नामक देवता था, जिसने एक बार फसलों की देवी का पूजन नहीं किया जिससे रूष्ट होकर वह देवी 'दोमो देकानी' नामक गर्म स्थान पर चली गयी। नीमातेनी को भूल का अहसास हुआ तो वह भी दोमो देकानी चला गया और देवी से विवाह कर लिया। इसके बाद देवी ने प्रसन्न होकर नीमातेनी देवता को हर प्रकार की फसलों के बीज दिये और उन फसलों की खेती करने का उपाय भी बताया। वरदान पाकर नीमातेनी देवता अपनी ठंडी भूमि पर वापस आ गये और देवी की बतायी विधि के अनुसार खेती करने लगे। यहाँ से झूम खेती की उत्पत्ति हुई। नीमातेनी देव ने जंगलों को काटकर उन्हें ऐसे ही सूखने के लिए छोड़ दिया। कुछ दिनों बाद वहाँ चिड़ियाँ चहकने लगीं और कीट-पतंगे आकर बोलने लगे तब नीमातेनी देव ने समझ लिया कि अब खेतों में बीज बोने का समय आ गया है और तभी लोग अपने-अपने खेतों में कृषि कार्य प्रारंभ करते हैं। नीमातेनी देव ने जब देख लिया कि लोगों ने खेती करना अच्छी तरह से सीख लिया है तब वे अपनी पत्नी फसलों की देवी के पास चले गये।

उपर्युक्त कथा पूर्ण होने के पश्चात् कृषि की पूजा करते हैं। उसे भात, माँस और आपो चढ़ाते हैं। पूजा की रात में यदि भात या शराब (आपो) का कुछ हिस्सा गायब हो जाता है, किसी पशु के खुरों के चिह्न पूजा स्थल पर सुबह पाये जाते हैं, तो ऐसा माना जाता है कि स्वयं कृषि देवी ने आकर पूजा स्वीकार की है।

ग्लोना सारोक :

यह आका जनजाति का प्रमुख पर्व है। इस पर्व में पाताल लोक के देवता (नाम्री सारोक) और स्वर्ग लोक के देवता (ग्लोते सारोक)- दोनों देवों की पूजा की जाती है। यह पर्व 28 फरवरी से 3 मार्च और कभी-कभी 9 मार्च तक मनाया जाता है। यह बलि प्रधान त्योहार है। आकाओं का विश्वास है कि जब कभी बीमारियाँ फैलती हैं या अकाल पड़ता है तो ऐसा किसी न किसी देवता के रूष्ट होने से होता है। गाँव का पुजारी अपने ज्ञान से यह पता लगाता है कि यह किस देवता का प्रकोप है तब उस देवता की प्रकृति के अनुसार छोटे या बड़े पशु की बलि चढ़ाई जाती है। ऐसी बलि चार या छह वर्ष के बाद चढ़ाई जाती है किंतु "ग्लोना सारोक" वार्षिक पर्व है।

इसकी पूजा विधि इस प्रकार है-बलि की प्रथा पूजा के अंतिम दिन होती है। इसके लिए गाँव का जो सम्मानित व्यक्ति होता है, वह दोपहर को पूजा स्थल पर जाकर बलि के मिथुन पर विष हीन बाण चलाता है और शीघ्र अपने घर को चल पड़ता है। ऐसा कर वह पीछे मुड़कर नहीं देखता। फिर जो वहाँ लोग उपस्थित रहते हैं वे मिथुन के टुकड़े-टुकड़े कर देते हैं और आपस में बाँट लेते हैं। इनमें से पुजारी (वह व्यक्ति जो बलि-पशु पर वार करता है) का हिस्सा भी निकाल कर उसके घर भिजवा दिया जाता है। ग्लोना सरीक पर्व की गाथा इस प्रकार है :

पुराने समय में एक देवता था जिसका नाम कावलापू था। इसी समय रावसोयू नामक मनुष्य भी थे। दोनों-देवता और मनुष्य साथ-साथ रहते थे। देवता की लड़की 'जेम जेब्लामी' का विवाह रावसोयू के साथ हुआ था। कावलापू में देवता के गुण कम और बुरी आत्मा के गुण अधिक थे और इसे बहुत दिनों से आदमी का माँस खाने को नहीं मिला था जिससे वह बहुत बेचैन रहता था। वह अपने दामाद को ही मारकर खाने की योजना बनाने लगा और आये दिन वह अपने दामाद को शिकार आदि के कामों में मदद के लिए बुलाने लगा। कावलापू पर हर बार षडयंत्र रचता, परंतु रावसोयू हर बार साफ बच जाता। इस प्रकार आठ बार रावसोयू बच गया।

नवीं बार के षडयंत्र में कावलोपू ने रावसोयू की शक्ति छीन ली परंतु उसे जान से मारने में असफल रहा। यह शक्ति जादुई शीशे के रूप में थी। इस शीशे के द्वारा हर प्रकार की गुप्त वस्तु तथा दूसरों की और अपनी आत्मा को भी देखा जा सकता था। इस शीशे को पाकर कावलापू अदृश्य दुनिया में रहने लगा और अब उसका संपर्क एक दूसरी आत्मा से हुआ, जिसका नाम था 'नाम्लो सिकी' । कावलापू और नाम्लो सिकी के संयोग से 'नाम्री सारोक' का जन्म हुआ। इसी समय से कावलापू जादुई शीशे की सहायता से अपना रूप बदलकर 'ग्लोते सारोक' के रूप में स्वर्ग में रहने लगा। इस प्रकार आध्यात्मिक जगत में सारोक की उत्पत्ति हुई। इसी से 'ग्लोते सारोक' और 'नाम्री सारोक' की पूजा विशेष रूप से 'ग्लोना सारोक' के अवसर पर होती है।'

इस प्रकार, जनजातियों के विभिन्न समुदायों में विभिन्न प्रकार की पूजाएँ होती हैं और प्रत्येक पूजा से कोई न कोई कथा जुड़ी होती है। केवल कथाएँ ही नहीं, इस अवसर पर विभिन्न प्रकार के गीत गाये जाते हैं। इन गीतों का तात्पर्य सामान्यतः देवताओं से सुख-समृद्धि की कामना, अच्छी फसल की प्राप्ति एवं बुरी आत्माओं से रक्षा के लिए प्रार्थना करना है। 'आरान' पर्व का एक उदाहरण प्रस्तुत है-जिसमें विभिन्न लोकगीतों के द्वारा भावनाओं की अभिव्यक्ति इस जनजाति के लोग करते हैं। यह पर्व मार्च-अप्रैल में मनाया जाता है। इसमें लोग अपोङ (एक प्रकार की शराब) पीते हैं एक दूसरे को माँस और भात देते हैं तथा सब लोग एक साथ-साथ नाचते-गाते हैं।

पर्व की तैयारी बहुत दिनों पूर्व से होने लगती है। स्त्रियाँ धान कूटकर अपोङ बनाती हैं। निर्धारित तिथि को पुरुष शिकार करने जाते हैं। शाम को स्त्रियाँ घरों में अपोङ, अंडा, अदरक आदि विभिन्न प्रकार की सामग्रियाँ देवी-देवताओं और वन के भूत-प्रेतों को समर्पित करती हैं तथा ये गीत गाती हैं :

उयू मिलो / गुबुर सियो

दोम्पोङ दुमी मोना

आरूम आगोन ताकाम बुलुम

सियुम के कारान दोमिन उमी सो

बिदी केपेल एम पेल्बी दावकी

ये नाम दाकनाम एम एरिए एमो दाकयिका

आराम गिदिएम रिपी मिगी दाकयिका

नोलू बुलू सिपे दोरिक तिरिक सिलोटूका

मिन्यी मिसो गाम्सी गाम्पाक कामायिका ।

अर्थात् हे हमारे मालिक ! जो मनुष्यों में बीमारी फैलाते हैं उनको नष्ट करो। हम आपकी पूजा करते हैं। हमारी पूजा स्वीकार करो। आप प्रसन्न हों और संतुष्ट हों आप तमाम रोगों से हमें मुक्त करो, यह हमारी कामना है। इस त्योहार के चौथे या पाँचवे दिन को लुङक कहा जाता है। इस दिन स्त्रियाँ पशुओं के देवता अर्थात् पशुपतिनाथ को अपोङ, अंडा तथा मरी सूखी गिलहरी चढ़ाते हैं। पशुपतिनाथ को 'आग्रङ आगम' कहते हैं। स्त्रियाँ गीत गाती हैं :

गुते गाने आजोन किदारे

सियुमके लुङक गिदी युगे सिम

मोलुम दोन्यी दादेय रेपे मिला

गिदि केपेल एम आगाम कपेल एम पेल्वी दावक् ।

नोलू आइये दोरिक तिरिक सिदाक यिका,

तानिक मिति-लोल्बाङ सो एक किदार एम

आइये एन आ-दाक्मो लाइका ।

हे पशुओ के देव! आप मनुष्यों के मित्र हैं। पूरी श्रद्धा भक्ति के साथ मैं आपसे अपनी भूलों के लिए क्षमा प्रार्थी हूँ। आप हमसे प्रसन्न हों और हमारे पशुओं को स्वस्थ रखें।

ऐसे लोकगीतों में धन-धान्य की वृद्धि, सौख्य-कामना, फसलों की वृद्धि, भरपूर उपज, शत्रुओं का सर्वनाश, लोक कल्याण की भावना और भूत-प्रेतों से मुक्ति जैसे विषय उदात्त भावना के बोधक हैं।

अरुणाचल का लोक जीवन धर्म प्रधान है। यद्यपि इनके धर्म में अंध विश्वास की प्रधानता है, परंतु जैसा निश्छल जीवन इनका है, वैसी ही अपेक्षाएँ अन्य लोगों से करते हैं और वैसा ही बने रहने का वरदान ये अपने मालिक से माँगते हैं। इनके लोकगीतों और लोक गाथाओं को देख-सुनकर ऋग्वेद का स्मरण हो आता है। वैदिक ऋषि भी इसी प्रकार इंद्रादिक देवों का आह्वान सोमरस पान हेतु करता है और अच्छी वर्षा, अच्छी फसल तथा गायों (पशुओं की) अभिवृद्धि और सुख-निरोग रहने तथा समृद्धि की कामना करता है। अरुणाचल के जनजातीय लोकगीतों और लोकगाथाओं में भी इन्हीं सब की अभ्यर्थना है।

इस प्रदेश की बहुसंख्यक जनजातीय आबादी कृषि पर आधारित है। यही कारण है कि इनके लोक साहित्य में कृषि और पशु पालन से संबंधित मिथकों की भरमार है। आज जब शिष्ट समाज से 'अतिथि देवो भव' जैसे जीवन मूल्य बुरी तरह खंडित हो रहे हैं, तब उसके तथाकथित अशिष्ट साहित्य और पर्वों में इसकी प्रधानता, मान्यता और स्थापना हृदय को शांति प्रदान करती है। इनके लोक साहित्य में प्राणि मात्र की जो मंगल कामना बार-बार की गई है, उससे जीवन-मूल्यों का वन के फूलों सा सुंदर श्रृंगार प्रतीत होता है। 21 वीं शताब्दी में इन जीवन-मूल्यों को बचाये और बनाये रखने की महती आवश्यकता है।

संदर्भ :

1. पूर्वांचल की ओर : मधुकर दिघे, पृ. 109

2. भारत का प्रहरी : डॉ. सत्यदेव झा, पृ. 113

3. बुंदेली लोक काव्य (भाग-1): डॉ. बलभद्र तिवारी, पृ. 118

4. अरुणाचल के त्योहार डॉ. धर्मराज सिंह, पृ. 4

5. वही, पृ. 22

6. वही, पृ. 45

7. वही, पृ. 46

8. वही, पृ. 61

9. वही, पृ. 62

 

आतंकवाद

आतंकवाद को यदि सटीक परिभाषा में आबद्ध करना हो, तो यही कहा जा सकता है कि समाज में भय का वातावरण निर्मित करने वाला तत्त्व आतंकवाद है, जिसमें हिंसा के प्रत्येक स्वरूप की भावना निहित होती है। श्री सुभाष गाताड़े इस संबंध में लिखते हैं कि "अगर यह खोज की जाये कि आतंकवाद नाम की जिस परिघटना का इतना खौफ दुनिया को सता रहा है, उसकी कोई स्थापित परिभाषा होगी, तो पाएँगे कि वह तकरीबन नदारद है। जो परिभाषा है भी, वह इस मायने में आधी-अधूरी है कि वह गैर-राज्य कारकों द्वारा की जाने वाली हिंसा पर तो 'आतंकवाद' की मुहर लगा देती है, लेकिन सरकारों की तरफ से की जाने वाली हिंसा को इस परिभाषा के दायरे से बाहर रखती है। इसी तरह का एक दूसरा शब्द- 'हिंसा' । प्रत्यक्ष नजर आने वाली शारीरिक हिंसा से लेकर मानसिक किस्म की अप्रत्यक्ष हिंसा तक का इसका विशाल दायरा है। इसे हमारे वक्त की ओर खासियत समझें कि हर तरह की हिंसा में जबर्दस्त बढ़ोतरी भी देखी गई है। यह भी साफ है कि संस्कृति और सभ्यता में लगातार होती जा रही तरक्की के बाद हिंसा किसे कहा जाये इसके बारे में हमारा अहसास भी गहराता गया है।"।

संस्कृति और सभ्यता की तरक्की के बाद हिंसा के संबंध में जिस गहराई से अहसासों में बदलाव आया है, उसी गहराई और तीव्रता से संवेदनाएँ नष्ट हुई हैं। हिंसा और आतंक का तांडव हर युग में होता रहा है। किसी युग में कम, किसी में ज्यादा। प्रत्येक युग में मनीषियों द्वारा इस समस्या पर चिंतन भी होता रहा है। मनुष्य जिस युग की परिस्थितियों से साक्षात्कार करता है, तदनुसार उपलब्ध संसाधनों से उसका सामना करता है। हम जिस युग में जी रहे हैं वह अति भौतिकतावाद और अत्याधुनिक टेक्नोलॉजी का युग है। परंतु यह 'अति' हमारे भीतर स्थापित आसुरी प्रवृत्तियों को नष्ट नहीं कर सकी है।

आचार्य डॉ. हरिवंश तरुण अपने एक आलेख में आतंकवाद और हिंसा के संबंधों को व्याख्यायित करते हुए लिखते हैं कि "आतंकवाद हिंसा और आतंक द्वारा कुछ लोगों की इच्छा पूर्ति का एक अमानवीय माध्यम है। इसके आते ही देश और समाज में असुरक्षा और भय का वातावरण व्याप्त हो जाता है। कुछ हिंसक, बदमिजाज और पथभ्रष्ट एवं असामाजिक लोगों का गिरोह सारे समाज की सुरक्षा चैन और शांति का नाश कर देता है। इसके चलते शांति व्यवस्था, समाज व्यवस्था तथा नागरिक जीवन छिन्न-भिन्न हो जाते हैं।" डॉ तरुण इसी संबंध में आगे लिखते हैं- 'आतंकवाद' और भितरघात एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। ये किसी खास पद्धति, सिद्धांत अथवा मार्ग का अनुसरण नहीं करते। इनके कार्य की न तो कोई दिशा होती है और न कोई सुनिश्चित स्थल।"3

देश में जितनी भी असामाजिक भयोत्पादक घटनाएँ हो रही हैं, वे सबनिश्चित संगठनों के द्वारा की जा रही है। पंजाब में आतंकवाद के लिए उत्तरदायीसिख संगठन, तमिलनाडु और श्रीलंका में सक्रिय तमिल विद्रोही, झारखंड, छत्तीसगढ़,उड़ीसा व आंध्रप्रदेश में सक्रिय नक्सली आदि विभिन्न संगठन देश में आतंक औरहिंसा फैलाने के लिए ख्यात हैं। इन संगठनों के कार्यक्षेत्र सीमित हैं इनकी आतंकीऔर हिंसक गतिविधियों से देश की जान सांसत में है, पर इन सबसे अधिक खतराजिनका है, वह है पड़ोसी देश के संगठन। इसके प्रभाव से अब तक जम्मू-कश्मीरही लहूलुहान हो रहा था, पर अब गुजरात, उत्तर प्रदेश, महाराष्ट्र, मध्य प्रदेश,छत्तीसगढ़ जैसे राज्य भी भयाक्रांत हो रहे हैं। इंडियन मुजाहिद्दीन ओर सिमी जैसेआतंकवादी संगठन तमाम प्रतिबंधों के बाद भी बेधकड़क होकर अपनी गतिशीलताबनाए हुए हैं।

"भारत की गुप्तचर ऐजेंसियों के मुताबिक आई.एस.आई. पाकिस्तान पोषित अंतर्राष्ट्रीय इस्लामी संगठन हिजबुल मुजाहिद्दीन, जमात-ए-इस्लामी, लश्कर-ए-तोएबा, जैस-ए-मोहम्मद, बंगला देश स्थित हरकत-उल-जेहाद अल इस्लामी जैसे आतंकवादी संगठनों से सिमी को वैचारिक समर्थन एवं सहयोग प्राप्त हो रहा है। अप्रवासी मुसलमान नौजवानों के लिए सिमी की एक शाखा-जमायुतल अंसार भी सऊदी अरब में सक्रिय है। प्रत्येक कालखंड में हमारे देश में गद्दारों, जयचंदों और मीर ज़ाफरों की राष्ट्रघाती निकृष्ट श्रृंखला मौजूद रही है।"4

यह सच है कि अब तक के बम धमाकों में इस्लामिक संगठन प्रमुख रूप से उभरकर सामने आये हैं और इनके सूत्रों के दूर-दूर तक फैलने के पुखता सबूत भी सुरक्षा ऐजेंसियों को प्राप्त हुए हैं। हाल ही में दिल्ली बम धमाकों के आरोपियों को उत्तर प्रदेश के आजमगढ़ से गिरफ्तार किया गया। इन आरोपियों ने भविष्य की जो जानकारियाँ उगली, वे दहला देने वाली थीं। इसके ठीक दो माह पूर्व ही मध्य प्रदेश से सिमी के राष्ट्रीय महासचिव सफदर नागौरी को गिरफ्तार किया गया था। केवल नागौरी ही नहीं, अन्य कार्यकर्ता भी गिरफ्तार हुए थे। "मध्य प्रदेश पुलिस ने हाल ही में एक आतंकी ट्रेनिंग कैंप पर छापा मारकर

मध्य प्रदेश की शांति में विघ्न डालने का सनसनीखेज खुलासा किया है। इसके पहले पुलिस ने एक और महत्त्वपूर्ण सफलता हासिल करते हुए सिमी (स्टूडेंट्स इस्लामिक मूवमूंट ऑफ इंडिया) के 13 दुर्दात आतंकवादियों को इंदौर संभाग के धार जिले के पीथमपुर से गिरफ्तार किया था। मध्य प्रदेश पुलिस द्वारा गिरफ्त में लिये गये सिमी के इन ख्यात आतंकी सरगनाओं में सिमी का राष्ट्रीय महासचिव सफदर नागौरी, सिमी का मध्य प्रदेश राज्य प्रमुख कमरुद्दीन नागौरी, गोधराकांड का प्रमुख आरोपी आमिल परवेज, मुंबई ट्रेन सीरियल बम ब्लास्ट के मामले में वांछित एवं दक्षिण भारत में सिमी की आतंकी गतिविधियों के प्रमुख सूत्रधार-शिबली, शाबिर, अंसार, यासिम, हाफिज हुसैन, अहमद बेग, सिमी बकर, मुनरोज, खालिद अहमद, कामरान शामिल हैं गिरफ्तार किये गये इन सिमी कार्यकर्त्ताओं के पास से पिस्टल, कारतूस, नकाब एवं आपत्तिजनक देशद्रोही दस्तावेज बरामद हुए हैं।"5

यह कहानी केवल मध्य प्रदेश की नहीं है अपितु लगभग सारे देश की है। देशके 28 राज्यों और 7 केंद्र शासित प्रदेशों में हिंसा है, आतंक है, अस्थिरता है औरअराजकता है। तात्पर्य यह है कि देश कहीं जल रहा है, कहीं धधक रहा है, कहींसुलग रहा है, तो कहीं से धुँआ उठ रहा है। इसकी तपन और आँच का अनुभवआम भारतीय कर रहा है। यद्यपि आतंकवाद की आग से समूचा देश जल रहा है,फिर भी सर्वाधिक हानि जम्मू कश्मीर को उठानी पड़ी है और अब भी वह जन-धनकी हानि उठा रह है। पड़ोसी देश से घुसपैठिये लगातार घुसपैठ कर भारत में स्थितअपने ऐजेंटों के माध्यम से जम्मू-कश्मीर में निर्दोषों का रक्त बहा रहे हैं। सर्वाधिकशर्मनाक बात तो यह है कि मजहब की दुहाई देकर मजहब के नाम पर रक्त बहानेवाले इस मजहब से करोड़ों कोस दूर हैं। यदि ऐसा न होता तो अन्य घटनाओं कोछोड़ दें, कश्मीर में सन् 1993 में हजरतबल दरगाह कांड न होता।

यदि लोगों की स्मृति क्षीण नहीं है तो सबको ज्ञात होगा कि अक्टूबर, 1993 में पवित्र हजरत बल दरगाह में (जिसमें हजरत मोहम्मद साहब की दाढ़ी का पवित्र बाल सुरक्षित रखा है और जिसे मुस्लिम धर्मावलंबी अत्यंत आदर और श्रद्धा प्रदान करते हैं) नमाज़ अदा करते समय आतंकवादियों ने नमाजियों को बंधक बना लिया था। इन बंधकों में मुस्लिम पुरुष तो थे ही, स्त्रियाँ भी थीं। यह अलग बात है कि भारतीय सेना ने चरमपंथियों के मंसूबे पूरे नहीं होने दिये और स्थिति पर नियंत्रण कर लिया। इससे यह तो बिल्कुल स्पष्ट हो गया कि आतंकवादियों का जाति, संप्रदाय या धर्म से कोई लेना देना नहीं है, इसे केवल सांप्रदायिक आतंकवाद की संज्ञा ही प्रदान की जा सकती है। सांप्रदायिक आतंकवाद ने पंजाब में भी सिर उठाया था, पर उसका सिर शीघ्र ही कुचल दिया गया। यह अलग बात है कि जब तक इसे नेस्तनाबूद किया जाता, तब तक देश लाला जगत नारायण, संत हरवंश सिंह लोंगोवाल और यहाँ तक कि विधाता की अनुपम कृति श्रीमती इंदिरा गाँधी को खो चुका था।

आतंकवादियों का सीधा-साधा एक ही मकसद होता है और वह है-समाजमें अराजकता तथा द्वेष की स्थिति निर्मित करना। समाज में विभेद करना औरशांति पर प्रहार करना आतंकवाद की प्रमुख विशेषताएँ हैं। इस समस्या से हरेकदेश पहले पृथक-पृथक् जूझता था; परंतु 11 सितंबर, 2001 को अमरीका के शहरन्यूयार्क में वर्ल्ड ट्रेड सेंटर और वाशिंगटन में पेंटागन पर हुए हमले आतंकी हमलोंके कारण आतंकवाद अंतर्राष्ट्रीय समस्या बन गया। इसके पीछे खूंखार आतंकावादीओसामा बिन लादेन का मस्तिष्क था। उसने कतर के टी.वी. चैनल अल जजीरासे जारी वीडियो टेप में वर्ल्ड ट्रेड सेंटर के संबंध में कहा था- "उनके मौके पर पहुँचजाने और जहाज में सवार होने से ठीक पहले हमने उन्हें योजना की जानकारी दी।एक दल दूसरे को जानता तक नहीं था, टॉवरों की स्थिति और जहाजों के रास्तेके हिसाब से हमने मरने वालों की संभावित संख्या का पहले ही अनुमान लगालिया था। हमारा आकलन था कि जहाज तीन या चार मंजिल से टकराएँगे। इसक्षेत्र में अपने अनुभव के आधार पर योजना की सफलता को लेकर मैं पूरी तरहआशान्वित था। मेरी राय थी कि जहाज के ईंधन से उठी आग लोहे के ढाँचे कोगला देगी तथा जहाज से टकराने वाली ऊपर की ही मंजिले ध्वस्त होंगी- हमनेइतनी उम्मीद की थी"।"

शक्तिशाली अमेरिका पर हुए उपर्युक्त आतंकी हमलों से यह अनुमान लगाना कोई कठिन नहीं है कि आतंकवादी अपने कृत्यों को कितने निडर होकर अंजाम देते हैं। यह निडरता उनमें इसलिए भी आ जाती है कि उन्हें अपने प्राणों का कोई मोह नहीं होता। अपने ऊपर हुए हमलों से सबक लेकर यद्यपि अमेरिका ने अपनी सुरक्षा व्यवस्था पूरी तरह कड़ी कर ली है, पर शेष विश्व; विशेष रूप से भारत में तो ऐसे खतरे मंडराते रहते हैं, इन्हें दूर कैसे किया जाए? जो पाकिस्तान अब तक आतंकवाद को शह दे रहा था; वही आतंकवाद भस्मासुर बनकर उसके ही सिर पर हाथ रखने लगा है। राजधानी इस्लामाबाद के होटल पर हालिया हुए हमले ने पाकिस्तान की आँखें खोल दी हैं और आतंकवाद के विरोध में अब तक बंद उसके मुँह में भी स्वर फूटने लगे हैं।

संदर्भ भारत का हो अथवा वैश्विक हो, यह तो तय है कि आतंकियों का मुख्य उद्देश्य सामाजिक शांति को विखंडित करना है। भारत जैसे सर्वधर्म और सर्वजातीय देश में स्थिति अत्यंत शोचनीय है। यहाँ के प्रमुख दो वर्गों हिंदू और मुसलमानों के मध्य तनाव बना रहता है और यह तनाव आतंकवादियों को 'जेहाद' के लिए उकसाता है। "वे यह साबित करने पर अमादा हैं कि देश का मुस्लिम समुदाय यहाँ के हिंदुओं का दुश्मन है और उसे चैन से जीने नहीं देगा। आतंकवादियों के इस षडयंत्र से सबसे ज्यादा आशंकित और भयभीत खुद मुस्लिम समुदाय हुआ है। हर आतंकी वारदात के बाद वह इस डर से काँपने लगता है कि कहीं इसकी हिंसक प्रतिक्रिया में वह बहुसंख्यक घृणा और गुस्से का शिकार न बन जाए। यह महज संयोग नहीं है कि देश के किसी भी कोने में होने वाले आतंकी बम विस्फोट के बाद उसके विरुद्ध अपना प्रतिरोध और प्रदर्शन दर्ज करवाने की होड़ मुस्लिम धार्मिक, सामाजिक और राजनीतिक संगठनों में शुरू हो जाती है। क्या इससे यह सिद्ध नहीं हो जाता कि अपने जिस समुदाय हकतल्फी के नाम पर आतंकवादी अपनी करतूतों को अंजाम दे रहे हैं उससे उसी समुदाय की बेचारगी और असुरक्षा सबसे ज्यादा बढ़ रही है? उनका सार्वजनिक अकेलापन और संत्रास बढ़ता जा रहा है?"8

अब समय आ गया है-आतंकवाद को नेस्तनाबूद करने का। यदि हमने इसकी जड़ों पर कुठाराघात नहीं किया तो कुठाराघात हम पर होगा। यह कुठाराघात मात्र कड़े कानून बनाकर इतिश्री कर देने से नहीं होगा। कड़े कानूनों से यदि आतंकवाद रुकता तो कब का रुका गया होता। इसके राजनैतिक और सामाजिक कारणों को तलाशकर उनका शमन किया जाना बहुत जरूरी है। भारत में जब तक वोट बैंक की राजनीति चलती रहेगी तब तक आतंकवाद दूर नहीं हो सकता। जब-जब भी आतंकवादी हमले होते हैं, तब-तब सत्ता पक्ष बचाव की ओर सफाई की मुद्रा में आ जाता है तथा विपक्ष आक्रामक मुद्रा में आकर कभी सरकार का, तो कभी गृहमंत्री का इस्तीफा माँगता है। गंभीरतापूर्वक एक साथ मिल बैठकर इस समस्या पर चिंतन कोई नहीं करना चाहता। इस प्रवृत्ति के खाद-पानी से तो आतंकवाद का विष वृक्ष लहलहाएगा, फलेगा और फूलेगा। आतंकवाद मूलतः राजनैतिक और सामाजिक समस्या है और इसी के समाधान में उसके नष्ट होने के बीज निहित हैं।

संदर्भ :

1. दैनिक आचरण (ग्वालियर), 4 अक्टूबर, 2008, पृ. 4

2. आधुनिक मानक हिन्दी निबंध डॉ. हरिवंश तरुण, पृ. 149

3. वही, पृ. 52

4. अभिनव (पत्रिका), जून 2008, पृ. 21

5. वही, पृ. 25

6. मनोरमा ईयर बुक, 1994, पृ. 647

7. इंडिया टुडे (पत्रिका), 1 जनवरी, 2002

8. दैनिक भास्कर (ग्वालियर), 23 सितंबर, 2008, पृ. 6

 

नक्सलवाद

नक्सलवाद की उम्र अभी कोई ऐसी अधिक नहीं है जिसे इतनी अधिक तवज्जो दी जाय। अब से लगभग चालीस-बयालीस वर्ष पूर्व ही नक्सलवाद का जन्म हुआ था। नक्सलवाद के जन्म के समय इसका जो स्वरूप था, वह बदल चुका है, जो उद्देश्य थे, वे पीछे छूट चुके हैं। देश में नक्सलवाद का जन्म और विस्तार वैसा नहीं हुआ है, जैसा नेपाल में माओवाद का हुआ। माओवाद सीधे तौर पर चीन से धन पाता है, पर भारत में नक्सलवाद या माओवाद प्रतिक्रिया स्वरूप पैदा हुआ है, जो हिंसक और भ्रष्ट तरीकों का इस्तेमाल करके विस्तार कर रहा है। नक्सलवाद के जन्मदाता कानू सान्याल हैं।

पश्चिम बंगाल में एक छोटा सा कस्बा है जिसका नाम है- नक्सलबाड़ी। यहाँ से क्रांति की शुरुआत हुई जिसने देश के गाँव-गाँव में सामंती व्यवस्था के खिलाफ बेसहारों व शोषितों के अधिकारों को लेकर गुरिल्ला शैली के लड़ाकुओं के लिए 'नक्सलाइट' का विशेषण दिया। यह कस्बा सिलीगुड़ी से कुछ दूरी पर स्थित है। "सिलीगुड़ी से कुछ दूर स्थित नक्सलवाड़ी थाने की जनसंख्या लगभग डेढ़-पौने दो लाख है। मुख्य रूप से इनमें राजवंशी, मधेसिया, नेपाली, असमी, बांग्लादेशी मुसलमान, आदिवासी व थारू हैं। उत्तरप्रदेश व बिहार के लोग भी काफी संख्या में इधर आ बसे हैं। राजवंशी, आदिवासी व थारू जीवन यापन के लिए चाय बागान में मजदूरी करते हैं या खेती। राजवंशी पूर्वी बंगाल से यहाँ आकर बस गये हैं और इनकी गिनती अनुसूचित जाति में होती है।"1

"नक्सलवादी आतंकवाद का जन्म स्थान बंगाल है, जहाँ उसने सन् 1967 में अपना सिर उठाया और बाद में चीन का वरदान प्राप्त कर सन् 1969 में भारतीय कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना के साथ ही अपने पैर पसारने लगा। नक्सलवादी नेता चारु मजूमदार ने घोषणा कि चीन का चेयरमेन हमारा चेयरमेन है।" एक छोटे से कस्बे से प्रारंभ हुआ माओवादी विचारधारा से युक्त हिंसक आंदोलन देश भर के प्रभावित क्षेत्रों में नक्सलवाद गतिविधियों के नाम से पहचाना और जाना जा रहा है। इसकी गतिविधियाँ रुकने की अपेक्षा दिनों-दिन बढ़ती ही जा रही हैं।

नक्सलवाद का विस्तार :

सन् 1967 से नक्सली हिंसा का दौर प्रारंभ हुआ। प्रारंभिक एक दशक में पश्चिम बंगाल और इसके आसपास के क्षेत्र ही इसकी विचारधारा से प्रभावित रहे। पश्चिम बंगाल के तत्कालीन मुख्यमंत्री श्री सिद्धार्थ शंकर राय की सक्रियता तथा कठोर कार्यवाही से नक्सलवादी आंदोलन का विष-वृक्ष कुछ समय के लिए मुरझा तो गया, पर पूरी तरह नहीं सूखा। गत 15-20 वर्षों में इसकी शाखाओं और फूल-पत्तियों का विस्तार अनेक राज्यों में हो गया। "उनके पास आज बाईस हजार हथियार बंद लड़ाके हैं। देश में अलग-अलग जगहों पर उनके सौ प्रशिक्षण शिविर चल रहे हैं। पिछली यू.पी.ए. सरकार के ढुलमुल रवैये के चलते आज देश के बीस राज्यों के 223 जिलों पर इनका प्रभाव स्थापित हो गया है।" "नक्सलवाद जिसका पर्याय वामपंथी उग्रवादियों के रूप में लगभग 13 फरवरी में 170 जिले, लगभग 45 करोड़ से ज्यादा जनसंख्या एवं लगभग 40 प्रतिशत प्रभावित भू-भाग क्षेत्रफल में फैल चुका है।"4

पश्चिम बंगाल में गरीब आदिवासियों को उनके उचित आर्थिक अधिकारों के लिए प्रारंभ किया गया यह हिंसक आंदोलन धीरे-धीरे बिहार में फैल गया। बिहार में जब भी सक्रिय आतंकी संगठन 'पीपुल्स वार ग्रुप' वास्तव में नक्सलवादी आतंकवाद की शाखा का ही एक रूप है। बिहार के पश्चात् इसका विस्तार आंध्रप्रदेश, छत्तीसगढ़, मध्यप्रदेश, कर्नाटक, उड़ीसा, केरल, तमलिनाडु और त्रिपुरा आदि राज्यों तक फैल गया। अपने जन्मकाल के पाँच वर्ष के भीतर ही इसने देश को भारी हानि पहुँचाई। "उपलब्ध आँकड़ों के अनुसार सन् 1969 से लेकर 1972 तक नक्सलवादी आतंकवादियों ने 2711 लोगों को जान से मार 715 जमींदारों व साहूककारों का धन लूटा, 21 बैंकों को लूटने की योजना को अंजाम दिया तथा 9987 अन्य प्रकार के हिंसक कारनामे किये। बिहार में 1988 से लेकर 2002 तक स्थिति निंरतर खराब होती गई और वर्ग संघर्ष व जातीय संघर्ष के परिणामस्वरूप नरसंहार की घटनाएँ तेजी से बढ़ती गयीं। मई 2002 को राजधानी पटना की सीमा से आने वाले भदौरा गाँव में आतंकवादी संगठन पीपुल्स वार ग्रुप के सक्रिय सदस्यों ने दो महिला व दो बच्चों सहित छह लोगों की सामूहिक हत्या कर दी। 1972 के पश्चात् नक्सलवादी आतंकवाद बंगाल और बिहार की सीमा पार कर गया। "5

आज देश के महाराष्ट्र, उड़ीसा, पश्चिम बंगाल, छत्तीसगढ़, झारखंड और आंध्रप्रदेश के हालात नक्सलवाद से सर्वाधिक बिगड़े हुए हैं। नक्सलवादियों को अपनी गतिविधियों के संचालन के लिए धन चाहिए। क्योंकि धन से ही तो हथियारों का जखीरा खरीदा जायेगा, इसके लिए ये पूंजीपतियों को और बैंकों को लूटते हैं तथा उनसे हथियार खरीदते हैं। पुलिस और सेना के जवानों के हथियारों पर भी ये प्रायः सफल घात लगाते हैं। "एक अनुमान के मुताबिक माओवादी सलाना छह सौ करोड़ की वसूली करते हैं, जो हथियारों पर खर्च होती है।"6

देश में जब-जब भी विघटनकारी शक्तियों ने सिर उठाया है, तब-तब एक शंका जनमानस को घेरती रही है कि इसके लिए विश्व से अलगाववादी संगठनों को आर्थिक सहायता प्राप्त होती है। यह शंका निर्मूल भी नहीं है क्योंकि खालिस्तान आंदोलन में यह तथ्य सिद्ध हो चुका है। पूर्वोत्तर भारत की अलगाववादी गतिविधियाँ और जम्मू कश्मीर में पाकिस्तान द्वारा प्रायोजित आतंकी गतिविधियों का संचालन विदेशी आर्थिक सहायता के बल पर हो रहा है। परंतु इस तथ्य को बार-बार झुठलाना राजनीतिज्ञों की परंपरा सी बन गई है। ऐसा अनुमान है कि नक्सलवाद को भी चीन से आर्थिक सहायता प्राप्त होती है।

नक्सलवाद के कारण :

अधिक विस्तार में न जाकर गदि एक ही वाक्य में नक्सलवाद के कारणों को जानना चाहें तो कहा जा सकता है कि भूख, असमानता और अन्याय ही नक्सलवाद के मूल में है। नक्सलवाड़ी में जिस आंदोलन का जन्म हुआ था वह इन्हीं तथ्यों से प्रेरित था। "1967 को क्रांति में तीन थानों- नक्सलबाड़ी, फांसीदेवा और फोरीबाडो में चाय मजदूरों पर दमन के खिलाफ सशस्त्र क्रांति हुई थी। आज भी इन तीनों थानों के लोग बेहाल घिसट रहे हैं। समस्याओं ने अपना शिकंजा इन निरुपाय लोगों पर और भी ज्यादा कस दिया है। नक्सलवाड़ी की नई पीढ़ी को इसकी अतीत कथा अब अविश्वसनीय प्रतीत होती है। आज से दस साल पूर्व जिस नक्सलबाड़ी में एक भी भूमिहीन नहीं था, लेकिन आज बहुतायत में है। दरअसल बंगलादेशी मूल के तथा अन्य लोगों ने तस्करी से अर्जित धन से नक्सलबाड़ी के गरीबों से कौड़ियों के मोल जमीनें खरीद ली हैं। इस तरह तस्करी के धने से नक्सलबाड़ी की नन्हीं अर्थव्यवस्था को भी तोड़कर रख दिया।""

नक्सलवाद की आधारभूमि यही गरीबी और असमानता की गहरी खाई है। बिहार, आंध्रप्रदेश और छत्तीसगढ़ ने नक्सलवाद का प्रभाव आदिवासियों के मध्य तेजी से पड़ा। नक्सलवादियों ने उनकी भूखी, अपमानित, शोषित और उपेक्षित भावनाओं का दोहन किया। परिणामतः इन्होंने शीघ्र ही बंदूकें थाम लीं। भूख और अपमान से त्रस्त होकर मरने की अपेक्षा इन्होंने मारकर मरना उचित समझा। पर नक्सलवाद के प्रसार का यह प्रधान एवं एकमात्र कारण नहीं है। विख्यात पत्रकार आलोक मेहता इस पर अपनी विचारोत्तेजक प्रतिक्रिया देते हुए लिखते हैं कि- "छत्तीसगढ़, आंध्र, उड़ीसा, झारखंड जैसे राज्यों के कुछ जिलों में नागरिक प्रशासन की बात तो दूर रही, सरकारी सेवा का कोई शिक्षक, कंपाउंडर, नर्स, इंजीनियर और पटवारी तक नहीं घुस पा रहे हैं। ऐसी स्थिति में इन क्षेत्रों में आर्थिक विकास न होने का तर्क देना अपने को धोखे में रखना जैसा है। कतिपय प्रगतिशील लोगों की दलील रहती है कि पहले सामंती व्यवस्था और फिर प्रशासन व पुलिस की ज्यादतियों से ही नक्सलियों को इन क्षेत्रों में प्रभाव बढ़ाने का अवसर मिला। फिर इन इलाकों के जंगलों में उद्योग-धंधे लगने से गरीबों का शोषण बढ़ेगा और उनकी संस्कृति नष्ट होगी।

पहला मुद्दा कुछ क्षेत्रों में गड़बड़ियों और ज्यादतियों का है। पुलिस ज्यादतियाँ तो दिल्ली, मुंबई, कलकत्ता में भी होती रहती हैं, लेकिन इस वजह से क्या सब थाने और पुलिस हटा दिये जायें? स्कूल-कॉलेज में अनियमितताएँ और गड़बड़ियाँ हो तो क्या सारे शिक्षक बर्खास्त कर संस्थाएँ बंद कर दी जाएँ? अत्याचार मुगल या ब्रिटिश राज में हुए तो क्या अब प्रजातांत्रिक व्यवस्था से किसी को राज चलाने की जिम्मेदारी नहीं दी जाये? यदि 180 जिलों में कभी 500 अधिकारी बेईमान और जुल्म करने वाले रहे हों तो क्या आज उनसे बेहतर और ईमानदार पाँच हजार युवा अधिकारी-कर्मचारी समाज में नहीं मिलते? भ्रष्ट अधिकारियों और नेताओं के रहते हुए देश में संघर्षशील सरकारी शिक्षकों, डॉक्टरों, अभियंताओं, न्यायाधीशों, कर्मचारियों को संख्या अच्छी खासी है। सब बेईमान और अत्याचारी नहीं हैं, तभी तो देश चल रहा है। "8

उपर्युक्त विचार मात्र तर्क के लिए तर्क है। यह सच है कि सब बेईमान और अत्याचारी नहीं हैं। पर यह भी सच है कि एक मछली सारे तालाब को गंदा करती है। शोषण और अत्याचार पहले कोई एक करता है, फिर उसका विस्तार होता है। फिर उसकी प्रतिक्रिया होती है और फिर नक्सलवाद का जन्म होता है। मध्यप्रदेश की चंबल घाटी में दस्यु समस्या का विस्तार यही अत्याचार मूल कारण रहा है। जहाँ-जहाँ नक्सलवाद ने सिर उठाया है, वहाँ के मूल में भूख, भय, भ्रष्टाचार, गरीबी, क्षेत्रीय विकास तक अवरुद्ध होना, राजनेताओं का उपेक्षा भाव तथा निर्वाचित जनप्रतिनिधियों की जड़ता है। पर कुछ और भी कारण हैं।

ग्रामों व नगरों में जनप्रतिनिधियों, निर्दोषों, पुलिसकर्मियों और सरकारी कर्मचारियों की हत्याएँ कर आतंक के बल पर अपनी समानांतर सत्ता स्थापित करने और चलाने की उत्कट अभिलाषा भी नक्सलवाद के कारणों में है। धन प्राप्ति के लालच में विदेशी शक्तियों के हाथों की कठपुतली बनकर देश में अस्थिरता उत्पन्न करना भी एक कारण है। तात्पर्य यह है कि नक्सलवाद का कोई एक कारण नहीं अपितु अनेक कारण हैं।

कैसे रुके नक्सलवाद :

लगभग चालीस वर्ष हो गये नक्सलवादी हिंसक आंदोलन को खूनी खेल खेलते हुए। नक्सली अपना मार्ग छोड़ने को तैयार नहीं और सरकारें इस समस्या के प्रति उतनी गंभीर नहीं, जितनी होनी चाहिए। जब-जब भी नक्सली हिंसक वारदातें करते हैं, तब-तब नक्सलवाद को कुचल देंगे, हिंसा बर्दाश्त नहीं होगी जैसी सरकारी शब्दावली का मंत्र जाप कर लिया जाता है। यदि इतने भर से नक्सली डर जाते तो आज यह समस्या ही समाप्त हो जाती।

नक्सलवाद को समूल नष्ट करने में सबसे अधिक आवश्यकता है कि केंद्र तथा राज्य सरकारें बयानबाजी छोड़कर दृढ़ इच्छाशक्ति का परिचय दें। नक्सलवाद को समाप्त करने के लिए यह बहुत आवश्यक है कि प्रभावित राज्यों के प्रभावित क्षेत्रों को विशेष क्षेत्र घोषित किया जाये और इन क्षेत्रों में रोजगारोन्मूलक तथा विकासमूलक कार्यों को सर्वोच्च प्राथमिकता दी जाये।

विकास कार्यों के बल पर भी केवल नक्सलवाद पर अंकुश नहीं लगाया जा सकता। विकास और रचनात्मक कार्य तो केवल इसीलिए है कि बीमारी को और अधिक फैलने से रोका जा सके। पर जो अंग सड़ चुके हैं उन्हें तो ऑपरेशन द्वारा काट कर फेंक देना ही श्रेयस्कर होगा। शांतिपूर्ण ढंग से इस समस्या पर काबू पाना अब शायद संभव नहीं रहा। सुरक्षा बलों का बेहतर उपयोग करने के साथ ही समाज को साथ लेना जरूरी है ताकि नक्सलियों का जनाधार कमजोर हो। हिंसा के चलते अवरुद्ध हुए विकास कार्यों को गति देना एक बड़ी चुनौती है, लेकिन सरकारों के लिए इससे बचना भी उचित नहीं होगा। आक्रामकता विकास और जागरूकता की समग्र रणनीति के कारगर होने की संभावना अधिक है।"9

नक्सलवाद की समस्या पंजाब के खालिस्तान, श्रीलंका के तमिल आंदोलन और काश्मीर के पृथकतावादी आंदोलन से अधिक भयावह नहीं है। यह इतनी विकराल समस्या भी नहीं है कि इस पर नियंत्रण न किया जा सके। इस विष-वृक्ष में जो फल लग चुके हैं, उन्हें बेरहमी से नष्ट किया जाकर इसकी जड़ों में तेजाब डाला जाये ताकि वह पुनः पल्लवित-पुष्पित न हो सकें। दूसरी ओर ऐसे प्रयास किये जाएँ कि विष-वृक्षों के स्थान पर पुष्पों के तरु और आम्र-वृक्षों का पल्लवन-पुष्पन हो, तभी नवीन बयार का बहना संभव है। हाथ की बंदूक और कोयल की कूक के समन्व्य से ही नक्सलवाद पर पूर्णरूपेण नियंत्रण प्राप्त करना संभव है।

संदर्भ :

1. माया आलोक मित्र (वर्ष 59, अंक 3, 15 फरवरी 1988), पृ. 54

2. अंतर्राष्ट्रीय संबंध: डॉ. एस.सी. सिंहल, पृ. 321

3. दैनिक राज एक्सप्रेस, ग्वालियर, 10 अक्टूबर 2009, पृ. 5

4. सांप्रदायिकता, आतंकवाद एवं मानवाधिकार चुनौतियाँ और समाधान सं. डॉ. शिखरचंद जैन, पृ. 349

5. अंतर्राष्ट्रीय संबंध: डॉ. एस. सी. सिंहल, पृ. 321

6. दैनिक आचरण (ग्वालियर), 28 सितंबर 2009, पृ. 4

7. माया, वर्ष 59, अंक 3, 16 फरवरी, 1988, पृ. 54

8. नई दुनिया (इंदौर), 10 अक्टूबर 2009, पृ. 5

9. दैनिक भास्कर (भोपाल): 18 सितंबर 2009, पृ. 8

पूर्वोत्तर भारत : अलगाववाद

भारत 15 अगस्त, 1947 को स्वतंत्र हुआ। पाकिस्तान के रूप में अलगाववादी भावना से देश की आजादी का दुर्भाग्यपूर्ण श्री गणेशा हुआ जो विष बीज स्वतंत्रता के समय बोये गये उनमें तभी से जहरीले फल आने लगे थे। अब तो वे गदराने भी लगे हैं। परंतु पकने के पूर्व ही यदि इन्हें नष्ट न किया तो ये प्राणघातक सिद्ध हो सकते हैं। पूर्वोत्तर से वर्तमान में आश्य है-भारत के उत्तर पूर्व में स्थित भारत छोटे-छोटे राज्य जो प्राकृतिक संपदा से भरपूर हैं, परंतु पड़ौसी देशों की सीमा से लगे होने के कारण इनकी स्थिति अत्यंत संवेदनशील है। ये आठ राज्य हैं- अरुणाचल प्रदेश, असम, मणिपुर, मेघालय, मिजोरम, नागालैंड, त्रिपुरा और सिक्किम। इन राज्यों की सीमाएँ क्रमशः म्यामांर, चीन तथा बंगला देश से उत्तर पूर्व व दक्षिण में मिली हुई हैं। इन आठ राज्यों की अस्सी प्रतिशत आबादी जनजातियों की है। उत्तरी भारत की भाँति इन राज्यों में भी पर्व, त्यौहार मनाये जाते हैं और कृष्ण, शिव, मातृ शक्ति को देवी देवता के रूप में मान्यता प्राप्त है। यद्यपि जनजातियों के अपने अलग पर्व, रीति रिवाज और संस्कृति है।

आठों राज्य वनों से आच्छादित हैं, नैसर्गिक सुषमा से सम्पन्न हैं तथा वनोपज, दुर्लभ जड़ी बूटियों एवं फलों मेवों से समृद्ध हैं। इन सभी को अलग-अलग समय में पूर्ण राज्य का दर्जा प्रदान किया गया है। अरुणाचल प्रदेश को इस नाम के पूर्व 'नेफा' के नाम से पूरे देश में जाना जाता था जो North East frontier agency का संक्षिप्त रूप है। 21 जनवरी, 1972 को जब यह केंद्र शासित प्रदेश बना तब इसका नामकरण हुआ-अरुणाचल प्रदेश। 1987 में इसे पूर्ण राज्य का दर्जा दिया गया। असम की स्थापना सन् 1950 में हुई। मणिपुर को सन् 1956 में संघ शासित प्रदेश बनाया गया और सन् 1971 में यह पूर्ण राज्य बना। 1972 में मेघालय पूर्ण राज्य बना। मिजोरम सन् 1987 में, नागालैंड सन् 1963 में और त्रिपुरा सन् 1972 में पूर्ण राज्य के गौरव को प्राप्त कर सके। इन आठ प्रदेशों में अशिक्षित जनजातियों के भोलेपन का फायदा ईसाई मिशनरियों ने उठाया और यहाँ के निवासियों का जी भरकर धर्मांतरण किया। आज मिजोरम में 87 प्रतिशत', मणिपुर में 26 प्रतिशत, नागालैंड में 67 प्रतिशत तथा मेघालय में 47 प्रतिशत', ईसाई धर्मावलंबी हैं। अरुणाचल प्रदेश, असम और त्रिपुरा में इन धर्मावलंबियों की संख्या अपेक्षाकृत कम है। शेष धर्मावलंबियों में हिंदू, मुस्लिम और बौद्ध धर्मावलंबी हैं। चीन, वर्मा, भूटान और नेपाल बौद्ध धर्मावलंबी तथा बंगला देश मुस्लिम बहुल राज्य होने के कारण यहाँ के धर्मावलंबियों की सहज सहानुभूमि पूर्वोत्तर के अपने समानधर्मी भाइयों के साथ रहती है।

इन देशों की सीमाओं पर यद्यपि कड़ी चौकसी रहती है, परंतु फिर भी वर्मा और बंगलादेश के नागरिकों द्वारा बड़े पैमाने पर घुसपैठ होती रहती है। इससे इन राज्यों की आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक व धार्मिक स्थितियों पर विपरीत प्रभाव पड़ रहा है। इस घुसपैठ से न्यूनाधिक आठों राज्य प्रभावित हैं, परंतु असम, अरुणाचल प्रदेश, मेघालय और त्रिपुरा घुसपैठ तथा आतंकी की त्रासदी को सर्वाधिक झेल रहे हैं। मिजोरम और नागालैंड में आतंक का स्वरूप भिन्न प्रकार का है। यहाँ पूर्ण स्वतंत्रता की माँग उठाई जा रही है और इसके लिए आतंकवाद का सहारा लिया जा रहा है।

पूर्वोत्तर का आर्थिक परिदृश्य :

पूर्वोत्तर के समस्त राज्यों का प्रमुख आधार कृषि है। कृषि में चाय, चावल, मक्का और गेहूँ का प्रमुख स्थान है। बड़े उद्योग धंधों का विस्तार न के बराबर है। असम में खनिजों तथा तेल का उत्पादन होता है। त्रिपुरा में जूट का कारखाना है। नागालैंड में कागज मिल और सीमेंट कारखाने, मणिपुर में हथकरघा उद्योग, चीनी कारखाना, टी.वी. संयोजन का कारखाना और साइकिल संयोजन के कारखाने आदि हैं। छोटे और मध्यम उद्योग अवश्य ही इन राज्यों में विस्तार पा रहे हैं परंतु ये पर्याप्त नहीं हैं। इन राज्यों में स्थानीय माल की उपलब्धानुसार बड़े उद्योग स्थापित किये जा सकते हैं और पूर्वोतर के लाखों लोगों को रोजगार देकर उन्हें राष्ट्र की मुख्य धारा से जोड़ा जा सकता है, परंतु इस दिशा में जितनी तेजी से प्रयास होने चाहिए थे, नहीं हो सके। यही कारण है कि इन राज्यों में औसत प्रति व्यक्ति आय अब भी राष्ट्रीय औसत से कम है और समृद्ध होते हुए भी इन राज्यों में सीमातीत बेरोजगारी है।

पूर्वोत्तर में आतंक का साया :

देश की स्वतंत्रता के पश्चात् से ही पूर्वोत्तर के प्रदेशों में अनेक कारणोवश आतंकवादी और अलगाववादी ताकतें सक्रिय रही हैं। समय-समय पर इनके जन विरोधी कृत्य सामने आते रहे हैं। दिसंबर 2008 जनवरी 2009 में असम के दूसरे हिस्सों के साथ गुवाहाटी में हुए बम धमाकों ने जनसाधारण को व्यथित कर दिया है। यह एक 'टेंडेंसी' सी बन गई है कि असम में जब-जब भी बम धमाके हुए हैं, तब तक सरकार द्वारा इसके लिए उल्फा अथवा एन.डी.एफ.बी. को जिम्मेदार ठहरा दिया जाता है। अब तक इसके कारण, राजनीतिक रहे हैं अथवा राजनीतिक बनाये गये हैं। परंतु प्रथम बार इस असंतोष के कारणों में एक कारण 'बेरोजगारी' भी राजनेताओं को सूझ पड़ा है: "राजनैतिक हितों को ध्यान में रखते हुए मुख्यमंत्री तरुण गोगोई अब बेरोजगारी को असम की प्रमुख समस्या भले ही मान रहे हैं लेकिन राज्य के लोगों के लिए आज भी उग्रवाद अहम् समस्या हैं।"5

वास्तविकता तो यह है कि पूर्वोत्तर में फैले अलगावववाद, उग्रवाद और आतंकी समस्याओं को प्रत्येक दल का राजनेता अपनी-अपनी दृष्टि से निहार रहा है। ऐसी दृष्टि, जो चश्मों से बनकर निकलती है, पर न तो वह पैनी है और न ही सूक्ष्म। इन दृष्टियों में अपने-अपने राजनीतिक नफा नुकसान समाये रहते हैं, जिससे व्यापक हित घूँधले दिखाई देने लगते हैं। सरकारें भी दलीय प्रतिवद्धता से पोषित होती हैं और यही कारण है कि वे ऐसी समस्याओं को नासूर बनने तक टालती रहती हैं। लोग क्षेत्रीय, जातीय तथा धार्मिक आकर्षण प्रेम के कारण समाज में आतंक की वर्षा करते हैं। पर तथ्य यह भी है लोग बेरोजगारी, तंगहाली और उत्पीड़न के चलते भी शस्त्र धारण कर लेते हैं। अत्यधिक सताये हुए लोग भी परेशान होकर और 'करो या मरो' की भावना लेकर उग्रवाद की शरण में चले जाते हैं।

पूर्वोत्तर के समस्त राज्यों में सर्वाधिक विस्फोटक स्थिति वर्तमान में असम की है। असम का इतिहास अत्यंत गौरवशाली रहा है। अब से 25-30 वर्ष पूर्व असम में अलगाववाद और उग्रवाद की जो नींव पड़ी उस पर आतंक का महल अब तक बनता चला जा रहा है। 'आसू', 'अल्फा' और 'उल्फा' जैसे उग्रवादी संगठन अब भी अपना सिर उठा रहे हैं। प्रारंभिक संघर्ष के बाद असम गण संग्राम परिषद् ने असम की सत्ता प्राप्त की, पर जैसे सत्ता प्राप्ति ही उसका ध्येय रहा हो, उसने असम में शांति के लिए कुछ भी नहीं किया। 'अल्फा' के आंदोलन से दलित, पीड़ित और शोषित जातियाँ प्रायः अलग थलग रहीं, फिर भी इसे भरपूर समर्थन प्राप्त हुआ। फलतः यह आंदोलन आग की भांति फैलता ही गया।

सन् 1990 से असम के राज्यपाल रहे श्री मधुकर दिघे असम के आंदोलनों पर विस्तार से प्रकाश डालते हुए लिखते हैं- "इस आंदोलन की शुरुआत हुई थी-ब्रह्मपुत्र घाटी के लोगों द्वारा बंगालियों के खिलाफ अपनी अस्मिता का सवाल उठाया था उन लोगों ने। इस बात को समझना जरूरी है कि अंग्रेजों ने अपनी कुटिल बुद्धि के कारण ही बंगाल के मध्यवर्गीय बेरोजगार नौजवानों को सरकारी कार्यालयों में बाबू बनाकर भेजा और उन्हें क्रांतिकारी संगठनों में जाने से रोकने का प्रयास किया। बंगाल के मध्यवर्गीय नौजवान सशस्त्र क्रांति की तरफ आकर्षित हो रहे थे। इससे अंग्रेजों के मन में भय व्याप्त था। अतः उन्होंने इन नौजवानों को नौकरी का लालच देकर बाबू बनाकर अन्यत्र भेजा। इसका परिणाम यह हुआ कि असम राज्य में लगभग सभी वरिष्ठ पदों पर गैर असमी विराजमान हो गये। इस बात से साधारण असमवासियों के मन में बड़ा क्लेश उत्पन्न हुआ। जैसे-जैसे शिक्षा का प्रसार हुआ और पढ़े-लिखे नौजवानों की फौज तैयार हुई, तो उनमें विद्वेष बढ़ता गया।"6

असम में बंगालियों का बढ़ता दबाव ही असम में अशांति का एकमात्र कारणनहीं है। अन्य कारण भी हैं जिनमें विकास के नाम पर बढ़ती बेरोजगारी औरगरीबी है। असम की अस्सी प्रतिशत जनता कृषि पर आश्रित है परंतु उत्पादनअत्यंत न्यून है जो उनकी जरूरतों की पूर्ति करने में सक्षम नहीं है। खेती के काममें बंगलादेशी मुसलमानों की सहभागिता अधिक है। चाय बागानों में केरल, आंध्रप्रदेश, बिहार व नेपाल के मजदूरों का वर्चस्व है और व्यापार राजस्थानियों तथाउत्तर प्रदेश के व्यापारियों तक सीमित है। ऐसी स्थिति में आम आसमिया अपनेआपको ठगा सा महसूस करने लगा। अपने ही प्रांत में यह अजनबी हो गया।परिणाम हुआ-बढ़ते हुए असंतोष का उग्रवादीकरण ।

अंग्रेजों ने चाय बागानों में काम करने के लिए असम के बाहर के मजदूरों को यहाँ रखा, जिनकी पीढ़ियों ने असम के विकास में सहयोग दिया। असमियों के दिल में एक ही भावना घर कर गई है कि ये बाहरी लोग हमारे सत्वों को छीन रहे हैं। इसी भावना के कारण हाल के वर्षों में हुई हिंसा में बिहारियों समेत अन्य राज्य के मजदूरों को असम उग्रवादियों ने चुन-चुनकर मारा भी और असम से बाहर जाने को विवश भी किया। सन् 2009 के प्रारंभ में असम के गुवाहाटी में सिलसिलेवार धमाके हुए। अक्टूबर 08 में गुवाहाटी और आस-पास के इलाकों में हुए धमाकों में 80 से अधिक निर्दोषों के प्राण गये। त्रिपुरा के अगरतला और मणिपुर के इंफाल में भी बम धमाकों ने आतंक का वातावरण पैदा कर दिया।

असम के उग्रवादियों को यह बात समझ में ही नहीं आ रही कि लगभग एक दो शताब्दी बीतने पर ये बाहरी लोग भी असम के ही हो गये हैं। असम की बोली, भाषा, संस्कृति सब में वे रच बस गये हैं। उन्हें अब असम के बाहर निकालना संभव नहीं है। "सन् 1983 के आंदोलन ने इस खाई को और गहरा बना दिया। जिन नौजवानों ने असम गण परिषद् और 'आंसू' के नेतृत्व में आंदोलन चलाया था। उनमें से कुछ नौजवानों को तो सत्ता का लाभ मिला, परंतु उन्हीं के अन्य साथी बाहर रह गये। यह स्थिति नफरत पैदा करने और ईर्ष्या के लिए काफी थी। शुरुआत में ये आंदोलन बंगला देश व पश्चिमी बंगाल से आये हिंदू मुस्लिम दोनों के विरुद्ध था। उस आंदोलन में भीषण संहार भी हुआ और कई बंगाली नागरिक भी मारे गये। परंतु अब अल्फा द्वारा उत्पन्न गुस्सा सभी गैर असमी लोगों के विरुद्ध इस्तेमाल किया जा रहा है।"7

अब से लगभग 30-40 वर्ष पूर्व मेघालय, नागालैंड, अरुणाचल प्रदेश और मिजोरम ये असम के ही भाग थे। 1960 के बाद से असम का अंग भंग होना प्रारंभ हुआ पर यह टूटन समस्या का तात्कालिक एवं राजनीतिक हल तो हो सकता है, स्थायी समाधान नहीं। यदि ऐसा होता तो अलग हुए मेघालय, नागालैंड और मिजोरम में भी शांति हो जानी चाहिए थी, पर नहीं हुई। "पहले खासी, जयंतिया व गारो मिलकर एक राज्य बना, जबकि इसके पहले ए.पी.एच.एल.सी. (ऑल पार्टी हिल्स लीडर कान्फ्रेंस) द्वारा यह प्रयत्न किया गया था कि मिजो, मिकिर व कछारी आदि सभी को मिलाकर एक राज्य बने। परंतु अब गारो लोग भी, माँग कर रहे हैं कि उन्हें मेघालय से अलग कर दिया जाये। अभी शुरुआत है और आवाज कमजोर है, पर इसको हवा दी जा रही है।" ऐसी स्थिति में कितने राज्यों का निर्माण होता रहेगा और किस किसको इस प्रक्रिया से संतुष्ट किया जाता रहेगा?

जिस प्रकार वर्तमान में असम का स्वरूप विस्फोटक हो रहा है, उसी प्रकार अतीत में कभी नागालैंड की स्थिति रही है। स्वतंत्रता के पूर्व से ही नागा क्षेत्र में हिंसक आंदोलन होते रहे हैं। जो स्वतंत्रता के बाद बढ़ते गये। "भारत के स्वाधीन होने के बाद से ही नागा लोगों ने उपद्रव शुरू कर दिये। ये उपद्रव इस दृष्टि से अद्वितीय हैं कि इनकी लगभग पूरी नींव राजनीतिक है। भारत शासन के अंतर्गत् नागा जन जातियों का किसी भी प्रकार का आर्थिक शोषण नहीं हो रहा था। उनके धार्मिक आचार व्यवहार में कोई हस्तक्षेप नहीं किया जा रहा था और न उनके जातीय अथवा सामाजिक गठन को ही बदलने का कोई प्रयास किया जा रहा था। मिजो और उसके अनुयायियों ने विधिवत् यह प्रचार किया कि नागालैंड भारत का हिस्सा कभी रहा ही नहीं और यह भारत तथा बर्मा के बीच में एक स्वाधीन क्षेत्र था। अतएव अंग्रेजों के भारत से चले जाने के बाद नागा लोग श्राप से आप स्वाधीन हो गये। इतिहास की एक अति सरल और विकृत व्याख्या के आधार पर किये जाने वाले इस प्रचार के कारण बहुत बड़ी क्षति हुई। सीधे सादे नागा लोगों के एक अंश ने इसे सही मान लिया और उन्होंने सशस्त्र विद्रोह कर दिया। "9

मिजोरम भी स्वतंत्रता के पूर्व से अशांत था। यह अशांति स्वतंत्रता के पश्चात् तब तक रही, जब तक इसे पृथक् राज्य का दर्जा प्राप्त नहीं हुआ। मिजो आदिवासियों को विद्रोह के लिए बर्मा और पाकिस्तान के लोगों ने उकसाया। भ्रमित मिजो युवाजनों का उद्देश्य पृथक् राज्य की स्थापना करना था जिसमें चीन मूल के मिजो डिस्ट्रिक्ट मणिपुर, पाकिस्तान और वर्मा में रहने वाले लोग शामिल होते। मिजोरम में इस प्रकार विद्रोही गतिविधियाँ चलती रहीं। "इस प्रकार की विद्रोही गतिविधियाँ पाक और बर्मी मिजो के सहयोग से सन् 1968 तक जारी रहीं। फलतः पूरे क्षेत्र को अशांत घोषित कर दिया गया और सुरक्षा सेनाओं को प्रशासनिक अधिकारियों की सहायता करने और शांति स्थापित करने के आदेश दे दिये गये थे। इन्हीं परिस्थितियों में मिजो क्षेत्र को असम राज्य से पृथक् कर राज्य का दर्जा प्रदान कर दिया गया। "10

पूर्वोत्तर प्रांतों में शांति व्यवस्था और शांति स्थापना हेतु यह आवश्यक है कि अशांति के कारणों को तलाश कर उन्हें दूर करने के ईमानदार प्रयास किये जायें। पूर्वोत्तर राज्य की अस्सी प्रतिशत आबादी जनजातियों की है और बीस प्रतिशत अप्रवासीय हैं। ये बीस प्रतिशत अप्रवासीय इन राज्यों की सभ्यता, संस्कृति, राजनीति और अर्थव्यवस्था को प्रभावित करते हैं। यही पूर्वोत्तर में असंतोष का प्रमुख कारण है। इन आठ राज्यों का प्रमुख व्यवसाय कृषि है अवश्य, परंतु कृषि योग्य भूमि इतनी कम है कि वहाँ की आबादी की उदर पूर्ति करना भी असंभव है। श्री मधुकर दिघे मेघालय राज्य का उदाहरण देते हुए लिखते हैं- "मेघालय के कृषि निदेशक ने सन् 1980-81 में अनुमान लगाया था, जिसके अनुसार लगभग 63000 हेक्टेयर से ऊपर जमीन पर झूम की खेती होती थी। सन् 1980-81 के आँकड़ों के अनुसार संपूर्ण कृषि क्षेत्र लगभग दो लाख हेक्टेयर था। यह राज्य की संपूर्ण जमीन का केवल 9 प्रतिशत है। इतनी सी खेती पर 18 लाख लोगों के पेट के लिए अनाज की व्यवस्था कैसे संभव है?"11

स्पष्ट है खाली दिमाग शैतान का घर की तर्ज पर जब बेरोजगारों को काम नहीं होगा और पेट में रोटी नहीं होगी तब ये बंदूक थामने के अतिरिक्त और क्या करेंगे? सीमावर्ती होने के कारण इन राज्यों की स्थिति अत्यंत नाजुक है। केंद्र सरकार ने अभी हाल ही में यहाँ के विकास के लिए अनेक घोषणाएँ की हैं। पर ये नाकाफी हैं। यहाँ की नैसर्गिक संपदा पर आधारित बड़े-बड़े उद्योगों की स्थापना यहाँ होनी चाहिए, जिससे युवा ऊर्जा का सदुपयोग हो सके और उन्हें रोजगार मिल सके। इससे युवा शक्ति पथभ्रष्ट होने से बचेगी।

पूर्वोत्तर भारत की अनदेखी से यहाँ अलगाववाद की भावनाएँ उभरीं और पाक, चीन, बंगलादेश ने उसे हवा देकर आतंकवाद में बदला। राजनीति को परे कर इस बिंदु पर विशेष ध्यान देना होगा और खुफिया तंत्र को और अधिक सक्षम बनाना होगा। यद्यपि हमारी सेना और खुफिया तंत्र अत्यंत सबल है फिर भी कई बार गुप्तचर एजेंसियों द्वारा सूचनाएँ मिलने के बाद भी आतंकवाद के विरुद्ध मैदानी कार्यवाही करने वाली एजेंसियाँ कारगर ढंग से काम नहीं कर पाती हैं और जिम्मेदारी गुप्तचर एजेंसियों पर डाल दी जाती है। इससे गुप्तचर एजेंसियों का मनोबल गिरता है। सुरक्षा और गुप्तचर एजेंसियों में बेहतर तालमेल के उपाय किये जायें। इन उपायों से पूर्वोत्तर भारत में उठती अलगाववाद की लहरों को दबाया जा सकता है।

संदर्भ :

1. पूर्वांचल प्रदेश में हिन्दी भाषा और साहित्य डॉ. सी.ई. जीनी, पृ. 42

2. वही, पृ. 43

3. वही, पृ. 38

4. वही, पृ. 45

5. नई दुनिया (इंदौर): 04 फरवरी, 2009 पृ. 4

6. पूर्वाचल की ओर मधुकर दिघे, पृ. 99

7. वही, पृ. 101

8. वही, पृ. 102

9. नागालैंड : रामलाल परीख, पृ. 7

10. पूर्वांचल प्रदेश में हिन्दी भाषा और साहित्य डॉ. सी.ई.जीनी, पृ. 21

11. पूर्वांचल की ओर मधुकर दिघे, पृ. 95

 

पूर्वोत्तर भारत : जैव-विविधता

जैव-विविधता से सीधा-साधा तात्पर्य जीवों की विविधता से है। जीव-मंडल में नाना प्रकार के जीव पाये जाते हैं। इन जीवों की विभिन्न जातियाँ पायी जाती हैं। इनकी विविधता ही जैव-विविधता है। जैव-विविधता से तात्पर्य सजीवों (वनस्पति एवं प्राणी) में पाये जाने वाले जातीय भेद से है। पृथ्वी पर अकारिकी, कार्यकी तथा आनुवांशिक आधार पर विविध प्रकार के जीव पाये जाते हैं। जैव-विविधता का विस्तार मृदा में उपस्थित सूक्ष्म जीवाणुओं से लेकर हाथी जैसे विशालकाय प्राणियों तक तथा सूक्ष्म लाइकेन से लेकर विशालकाय रेड-वुड वृक्षों तक पाया जाता है। प्रकृति में जीव समुदायों के मध्य मिलने वाली इस विविधता का अत्याधिक महत्त्व है। पर्यावरण प्रदूषण के कारण जैव-विविधता की अपार क्षति हुई है और जीवों की अनेक प्रजातियाँ या तो लुप्त हो गई हैं या नष्ट होने के कगार पर हैं।

भारत का जैविक-भूगोल :

भारत का भौगोलिक प्रकृति में पर्याप्त अंतर है। अतः यहाँ उसी अनुपात में जैव-विविधता भी है। विश्व के लगभग समस्त जैव-भौगोलिक कटिबंधों के जंतु और वानस्पतिक प्रजातियाँ भारत में हैं। पर्यावरणविदों ने जैव भौगोलिक-वर्गीकरण को वनस्पति प्रदेश तथा प्राणी-प्रदेश में विभक्त किया है। वनस्पति प्रदेश के अंतर्गत् 6 प्रदेश हैं-पश्चिमी हिमालय, पूर्वी हिमालय, गंगा का मैदान, सिंधु-सतलज का मैदान, दक्षिणी पठार तथा मालाबार तट और द्वीपीय क्षेत्र। प्राणी भौगोलिक प्रदेश को भी 6 भागों में विभक्त किया गया है-हिमालय प्रदेश, उत्तरी मैदान, मरुस्थलीय प्रदेश, प्राय-द्वीपीय पठार, मालाबार तट व नीलगिरि प्रदेश तथा द्वीप व डेल्टा प्रदेश। विभाजन के अंतर्गत् पूर्वोत्तर भारत को पश्चिमी व पूर्वी हिमालय वानस्पतिक प्रदेश तथा हिमालय व उत्तरी मैदानी प्राणी भौगोलिक प्रदेश के अंतर्गत् रखा जा सकता है।

पूर्वोत्तर भारत में जैव विविधता:

जैसी जैव-विविधता भारत में पायी जाती है, वैसी विश्व में कम ही देशों में प्राप्त है। क्षेत्रफल की दृष्टि से भारत का विश्व में सातवाँ स्थान है। अतः यहाँ वृहद जैव-विविधता का पाया जाना स्वाभाविक है। भारत में प्राणियों की लगभग 81 हजार तथा पादपों की लगभग 46 हजार जातियाँ उपलब्ध हैं। जैव शास्त्रियों के आँकड़ों के अनुसार पुष्प पादप 13 हजार, कवक 20 हजार, कीट-पतंग 60 हजार, कीड़े-मकोड़े चार हजार, मछलियाँ ढाई हजार, पक्षी 1200, सरीसृप 420, स्तनधारी 370 तथा उभयचर 250 की जातियाँ भारत भूमि पर उपलब्ध हैं। पूर्वोत्तर भारत में इनमें से अनेक जातियाँ अब भी हैं। अनेक ऐसी जातियाँ हैं जो पूर्वोत्तर भारत से लुप्त हैं या लुप्त प्राय हैं।

पूर्वोत्तर भारत में वानस्पतिक जैव-विविधता

पूर्वोत्तर भारत में वनों का जो विस्तार है, वह अर्द्ध उष्ण कटिबंधीय तथा शीतोष्ण कटिबंधीय वनों का है। ये वन कश्मीर से कुमायूँ एवं सिक्किम के पश्चित तक के विस्तृत भाग में फैले हुए हैं। शिवालिक पहाड़ियों, तराई तथा भावर के पदीय प्रदेशों में प्राकृतिक मानसूनी वन अथवा अर्द्ध सदाबहार वन पाये जाते हैं। इन वनों में साल, ढाक, बाँस व ताड़ के वृक्ष, लंबी घास तथा सवन्ना घास पायी जाती है। अधिक ऊँचाइयों पर नुकीली पत्ती वाले मिश्रित चीड़ के वन पाये जाते हैं। चीड़, देवदार, ओक, वर्च, बौने बाँस तथा अल्पाइन घास मिश्रित रूप से इनमें प्रमुख हैं। सिक्किम से अरुणाचल प्रदेश व नागालैंड तक के विस्तृत भू-भाग में पश्चिमी हिमालय की अपेक्षा वर्षा का औसत अधिक है। निम्न भागों में उष्ण कटिबंधीय वनों की पेटी पायी जाती है। इस पेटी में शहतूत-साल, चंदन, खेर, डिलेनिया, सेमल आदि वृक्ष और सवन्ना घास प्रमुख रूप से होती है। इस पेटी से ऊपर की ओर शीतोष्ण कटिबंधीय वनों का विस्तार है। यहाँ पर सेपिल, देवदार, लारेल, वर्च, स्म्रस तथा चीड़ आदि वृक्ष प्रमुख रूप से पाये जाते हैं। उच्च पर्वतीय भागों में वर्च, फर, जूनीफर जैसे वृक्ष तथा आर्किड और अल्पास जैसी वनस्पतियाँ पायी जाती हैं।

पूर्वोत्तर भारत में प्राणी जैव-विविधता :

हिमालय के पश्चिमी भाग में अर्थात् पूर्वोत्तर भारत में हाथी, सांभर, बाघ, तेंदुआ, हिरण, लकड़बग्धा, जंगली कुत्ते, काले भालू, कस्तूरी मृग, एक सींग वाला गेंडा, जंगली भैंस, सुअर, सुनहरे लंगूर तथा घड़ियाल आदि वन्य प्राणी पाये जाते हैं। ऊँचाई या पर्वतीय हिस्सों में याक, गधा, बकरी, भेड़, हिरण व लाल पांडा आदि जीव मिलते हैं। शीत जलवायु वाले उच्च भागों में हिम-तेंदुआ, भूरा भालू, हिम मुर्गा व मोनाल आदि प्राणी पाये जाते हैं। उत्तरी मैदान के सघन जनसंख्या तथा विरल वनों वाले प्रदेश में बड़े वन्य जीवों का अभाव-सा है। यहाँ नीलगाय, हिरण, खरगोश, तेंदुआ, चीतल, भेड़िया, सियार, जंगली बिल्ली, लोमड़ी आदि जीव पाये जाते हैं।

पूर्वोत्तर भारत के संकट ग्रस्त जीव :

भारत के दूसरे प्रांतों की अपेक्षा पूर्वोत्तर भारत में वनस्पति एवं जंतुओं की सर्वाधिक प्रजातियाँ पायी जाती हैं। परंतु तमाम कारणों से इनमें से अनेक पादप और जीव जातियाँ खतरे में हैं। ऐसी संकट ग्रस्त जातियों में कल्पवृक्ष, हिरण, तूतिया, सर्पगंधा आदि प्रमुख हैं। इतना ही नहीं, नीलगिरी लंगूर लघु पुच्छ बंदर, गेंडा, कस्तूरी मृग, जंगली गधा, सुनहरी बिल्ली, घड़ियाल आदि पर भी खतरा मंडरा रहा है। ये जातियाँ पूर्वोत्तर भारत की शान हैं।

पूर्वोत्तर भारत में जैव विविधता का संरक्षण :

भारत के पूर्वोत्तर राज्यों के दुर्लभ पादपों एवं जंतुओं की प्रकृति-प्रदत्त विविधता को बचाकर रखना सरकार का काम बाद में है, इन राज्यों की जनता का प्रमुख व प्रथम दायित्व पहले है। शासकीय स्तर पर वैज्ञानिक रूप से यद्यपि इसके लिए तेजी से प्रयास किये जा रहे हैं। इसके अंतर्गत् कृत्रिम आवासीय संरक्षण, आवासीय संरक्षण, राष्ट्रीय उद्यान एवं अभ्यरण्यों (Wild life Sancturies) का निर्माण एवं उन्हें विकसित किया जा रहा है। राष्ट्रीय उद्यानों मे असम का काजीरंगा और सिक्किम का कंचनजंघा विशेष उल्लेखनीय हैं। नामिडाफा (अरुणाचल प्रदेश), डिफ मानस (असम), नंदपा वन्य जीवन-विहार (अरुणाचल प्रदेश), किबुललेम्जो (मणिपुर), डेम्पा (मिजोरम) तथा इटांक्की (नागलैंड) पूर्वोत्तर भारत के प्रमुख वन्य जीव अभ्यारण्य हैं। इनके अतिरिक्त संकट ग्रस्त जीवों के संरक्षण के लिए शासन द्वारा विशेष परियोजनाएँ (Special Project) तैयार की गई हैं। पूर्वोत्तर भारत में इनमे से संचालित की जा रही परियोजनाओं में बांदीपुर जिम कार्बेट व दुधवा परियोजनाएँ प्रमुख हैं।

पूर्वोत्तर भारत के मणिपुर राज्य को यह गौरव प्राप्त है कि संसार का एकमात्र तैरता हुआ राष्ट्रीय उद्यान यहाँ पर है। इसमें अनेक प्रकार की वानस्पतिक जातियाँ तथा छोटे-मोटे जलीय जंतु संरक्षित हैं। वानस्पतिक जातियों के संरक्षण हेतु पूर्वोत्तर भारत के अनेक स्थलों में वौटेनिकल गार्डेन की स्थापना की गई है। 1971 में यूनेस्को ने जैव-विविधता के संरक्षण के लिए 'जीवमंडल रिजर्व' कार्यक्रम प्रारंभ किया था इसके अंतर्गत् मानव को अलग किये बिना पारिस्थितिकी के अंग के रूप में पेड़-पौधों, जीव-जंतुओं तथा सूक्ष्म-जीवों के संपूर्ण संरक्षण पर जोर दिया गया। भारत में ऐसे 13 जीव मंडल कोष स्थापित किये गये हैं। इनमें से नीलगिरि, नामदफा, नंदादेवी, फूलों की घाटी, काजीरंगा, मानस व नोकरेक कोष पूर्वोत्तर भारत में ही हैं।

अधिक वर्षा, सर्वाधिक वन-क्षेत्र, पहाड़ी प्रदेश और अपनी विशिष्टि भौगोलिक स्थिति के कारण पूर्वोत्तर भारत में अन्य स्थलों की अपेक्षा जैव-विविधता अधिक है। इस प्रांतर को नगाधिराज हिमालय का वरदान प्राप्त है। इस क्षेत्र की जैव-विविधता के संरक्षण-संबर्द्धन के प्रति राज्य शासन, केंद्र शासन और अंतर्राष्ट्रीय ऐजेंसियाँ तो प्रयत्नशील हैं ही, परंतु जब तक हम स्वयं जागरूक होकर इनके प्रति अपने दायित्वों का ईमानदारी से निर्वहन न करेंगे, तब तक जैव-विविधता के संरक्षण-संबर्द्धन का महत् कार्य पूर्ण नहीं होगा।

खनिज स्रोत और पर्यावरण

छायावाद के सुप्रसिद्ध कवि श्री सुमित्रानंदन 'पंत' की एक प्रसिद्ध रचना है- "आः धरती कितना देती है।" इस कविता में कवि अपने जीवन की एक घटना का उल्लेख करते हुए लिखता है :

मैंने छुपकर छुटपन में पैसे बाये थे

सोचा था, पैसों के प्यारे पेड़ उगेंगे

रुपयों की फलदार मधुर फसलें खनकेंगी,

और फलफूल कर मैं मोटा सेठ बनूँगा

पर बंजर धरती में एक न अंकूर फूटा

बंध्या धरती ने न एक भी पैसा उगला ।

पर, आगे चलकर कवि सेम के कुछ बीजों को आँगन में कौतूहल वश मिट्टी के नीचे दबा देता है और वे समय आने पर ढेर सारी फलियाँ देते हैं, जिन्हें वह पूरे मोहल्ले में बाँटता है। कवि की धारणा धरती के प्रति बदल जाती है और जो पृथ्वी पहले उसे बंजर और बंध्या लगती थी, वही अब उसे रत्नप्रसविनी लगने लगती है :

रत्न प्रसविनी है वसुधा, अब समझ सका हूँ

इसमें सच्ची समता के दाने बोने हैं।

वसुधा सचमुच रत्नगर्भा है, रत्न प्रसविनी है। वह अपने गर्भ से अनेक प्रकार के मानवोपयोगी बहुमूल्य भंडार लिये है, जिनका खनन कर मनुष्य पृथ्वी माँ का दोहन कर रहा है और ऐश्वर्यपूर्ण जीवन जी रहा है।

खनिज :

खनिज पदार्थ मनुष्य के लिए प्रकृति द्वारा दिया गया अनमोल उपहार है। सामान्य रूप से वे सभी पदार्थ, जो खनन द्वारा प्राप्त होते हैं, खनिज कहलाते हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार एक ऐसा अजैव पदार्थ, जो विशिष्ट रासायनिक संगठनों से युक्त होता है, खनिज कहलाता है। प्राचीन काल से लेकर मनुष्य खनिजों का निरंतर अपने हित में उपयोग करता आ रहा है। सभ्यता के विभिन्न नाम ताम्रयुग, कांस्ययुग, लौहयुग खनिजों के महत्त्व को स्पष्ट करते हैं। खनिज अनेक देशों की अर्थ-व्यवस्था के मुख्य आधार हैं। अरब देशों में खनिज तेल, मलेशिया में टिन, कांगों में तांबा, दक्षिण अफ्रीका में सोना तथा मैक्सिकों में चाँदी आदि वहाँ के आर्थिक विकास के आधार हैं। खनिज स्त्रोतों की पर्याप्तता किसी भी राष्ट्र की आर्थिक सुदृढ़ता के लिए आवश्यक होती है।

खनिजों का उपयोग :

जितने भी खनिज पदार्थ हैं, वे सभी किसी न किसी रूप में मनुष्य के काम आते हैं। यदि आयोडीन और नमक न होता, तो जीवन का आधार भोजन ही नीरस होता। संगमरमर, लाल पत्थर, ग्रेनाइट, फर्शी आदि स्थापत्य के काम आते हैं। आज जिन छोटी-बड़ी मशीनों से मनुष्य के पल-पल का काम होता है, उनका निर्माण खनिजों के अभाव में संभव न था। परिवर्तन के साधनों की कल्पना क्या बिना खनिजों के साकार हो सकती थी? औद्योगिक की आधार भूमि कोयले की शक्ति के बिना असंभव थी।

खनिजों के प्रकार :

खनिज प्रमुख रूप से तीन प्रकार में पाये जाते हैं-1. अधात्विक 2. धात्विक, 3. ईंधन । अधात्विक खनिज से तात्पर्य अधातुओं से है। इसके अंतर्गत् हीरा, पन्ना, नीलम, पुखराज एवं अभ्रक जैसे बहुमूल्य रत्न आतें हैं। इनके अतिरिक्त चूना, गंधक, नमक, फास्फेट, पोटाश, संगमरमर, ग्रेनाइट, बलुआ पत्थर आदि का परिगणन भी अधात्विक खनिज के अंतर्गत् होता है। धात्विक खनिजों में शीशा, जस्ता, ऐलूमिनीयम, टीन, लोहा, मैंगनीज, सोना, चाँदी, प्लेटीनम आदि का परिगणन होता है। औद्योगिकीकरण में इनका महत्त्वपूर्ण अवदान है। शक्ति एवं ऊर्जा स्त्रोत के रूप में कोयला, पेट्रोलियम पदार्थ एवं आणविक खनिज ईंधन के रूप में परिगणित होते हैं।

खनिजों का उत्खनन :

मनुष्य ने अपनी प्रारंभिक अवस्था में खनिज पदार्थों से धीरे-धीरे मित्रता की थी क्योंकि उस समय जनसंख्या वृद्धि का विस्फोट नहीं था। उसी इच्छाएँ और आवश्कताएँ भी सीमित थीं। जैसे ही विज्ञान और तकनीक का विकास हुआ, खनिजों का दोहन अंधाधुंध रूप से होने लगा। उद्योगों में दिनों-दिन खनिजों की माँग बढ़ती गई और उसका दोहन किया जाने लगा। एक अनुमान के अनुसार कच्चे माल के रूप में प्रति वर्ष लगभग 10 अरब टन विभिन्न धातुओं के अयस्क तथा ईंधन का उत्खनन होता है और उद्योगों के रूप में इनका प्रयोग होता है। इतने बड़े पैमाने पर खनिजों के लगातार अति दोहन से अनेक खनिज तो समाप्त प्रायः हैं।

यूरोपीय देश आज ताँबा, मैंगनीज, शीशा, निकल, फॉसफेट व टिन के मामले में पूर्णरूपेण आयात पर निर्भर हो गये हैं। यही नहीं, पेट्रोलियम पदार्थों की उपलब्धता का ग्राफ तेजी से नीचे खिसक रहा है। 21वीं शताब्दी के अंत तक पेट्रोलियम पदार्थों सहित अन्य अनेक खनिज पूर्णतः समाप्त हो जाएँगे ऐसा दावा 'वर्ल्डवाच' की ताजा रिर्पोट में किया गया है। रिर्पोट में इन खनिजों की समाप्ति होने पर उद्योगों का जो चित्रण किया गया है, वह भयावह, किंतु चिंतनीय है। प्रकृति द्वारा प्रदत्त खनिज पदार्थों का भंडार अक्षय नहीं है, जो समाप्त नहीं हो सकता। खनिज अवयवों के निर्माण में हजारों-लाखों वर्षों का समय लगता हैं एक बार खनन से बाहर आने के बाद दोबारा उसकी पूर्ति होना असंभव है।

परंतु व्यक्ति की स्वार्थी एवं लालची प्रवृत्ति इन खनिजों के अंधाधुंध दोहन करने में ऐसी लिप्त है कि वह इसके भविष्य के दुखद परिणामों को सोचना भी नहीं चाहती। खनिजों के उत्खनन की यदि वर्तमान गति पर शीघ्र ही अंकुश नहीं लगाया गया, तो दिन दूर नहीं जब अनेक खनिज इतिहास की वस्तु बनकर रह जाएँगे और आने वाली पीढ़ी इन्हें केवल पन्नों पर पढ़ सकेगी, इन्हें देख नहीं सकेगी, इनसे परिचय प्राप्त नहीं कर सकेगी।

पर्यावरणीय प्रभाव :

प्राचीन समय में बड़ी-बड़ी मशीनें नहीं थीं और न वर्तमान जैसे बड़े-बड़े उद्योग धंधे थे। अतः खनिजों का खनन इतना कम होता था कि उसका पर्यावरण पर कोई दुष्प्रभाव नहीं पड़ता था। पर आज बड़े पैमाने पर खनिजों के खनन से पर्यावरण पर पड़ने वाले दुष्प्रभाव को स्पष्ट रूप से देखा जा सकता है। यह दुष्प्रभाव निम्नलिखित रूपों में परिलक्षित होता है :

क. बीहड़ों का निर्माण :

भूमि को अत्यंत गहराई तक खोदकर खनिज निकाले जाते हैं। इस प्रक्रिया के परिणामस्वरूप पृथ्वी पर बड़े-बड़े गड्ढे हो जाते हैं, जो आगे चलकर बीहड़ों और भरकों में परिवर्तित होकर भूमि के मूल स्वरूप को ही बदल देते हैं। इससे भूमि संसाधन अनुपयोगी हो जाते हैं।

ख. कचड़े की वृद्धि :

खनिज क्षेत्र तो खनिज-उत्खनन से प्रभावित होता ही है। इसके आस-पास का भू-क्षेत्र भी खनन मलबे के कारण प्रभावित होता है। खनन क्षेत्रों के आस-पास छोटी-छोटी कृत्रिम पहाड़ियों जैसे टीलों का निर्माण होने लगता है, जिससे भूमि व उसके आस-पास का भाग अनुपयोगी होने लगता है।

ग. वनों का विनाश :

खनिज-उत्खनन के लिए पहले वनों को काटकर उस भाग को साफ किया जाता है। इससे वनों का विनाश होता है। मशीनों को धार देने व श्रमिकों के घरेलू ईंधन में भी वनों को काटा जाता है।

घ. जैव विविधता का हलास :

खनिजों के उत्खनन हेतु वनों को काटने से वनों में स्थित अनेक दुर्लभ वनस्पतियाँ नष्ट हो जाती हैं। इतना ही नहीं, प्राकृतिक आवासों के विनष्टीकरण के कारण प्राणियों की संख्या पर भी विपरीत असर पड़ता है।

ङ. पर्यावरण प्रदूषण :

मशीनों के उत्खनन की प्रक्रिया में, संबंधित क्षेत्र में जल, वायु, भूमि एवं शोर प्रदूषण बढ़ाता है। खनन की अवशिष्ट वर्षा ऋतु में बहकर जल स्त्रोतों तक जाता है जिससे जल की अम्लीयता और क्षारीयता परिवर्तित हो जाती है। खनन से उड़ने वाले धूलकण और मशीनों से निकलने वाली कार्बनडाइऑक्साइड वातावरण को प्रदूषित करती है। मलबे के जमाव के कारण बंजर भूमि का विस्तार होता है।

उपर्युक्त प्रमुख पर्यावरणीय प्रभावों के अतिरिक्त भू-जल के स्तर में गिरावट, मृदा-विनाश, भू-स्खलन, जलवायु पर प्रभाव सहित मानव के स्वास्थ्य पर पड़ने वाले ऐसे प्रभाव हैं जो अति खनिज-खनन की भयावहता को सिद्ध करते हैं।

निदान :

खनिज स्त्रोतों पर मनुष्य ने बिना सोच-समझे प्रहार करने प्रारंभ कर दिये हैं। परिणामतः प्रकृति लहू-लुहान होने लगी और पर्यावरण प्रदूषित होकर मृतप्रायः होने लगा। यदि इसका निदान एवं उपचार शीघ्र न हुआ तो खनिज संसाधनों के दुरुपयोग से होने वाले पर्यावरण प्रदूषण से मनुष्य के अस्तित्व पर प्रश्न चिह्न लग जायेगा।

उपाय :

1. खनिजों का खनन करने के पूर्व क्षेत्र के पर्यावरण पर पड़ने वाले प्रभाव का आकलन

2. खानों से उत्सर्जित मलबे का पुनस्थापन

3. वन भूमि के खनन पर रोक

4. खनिज क्षेत्रों में वृक्षारोपण

5. खनन में उचित एवं वैज्ञानिक तकनीक का प्रयोग

6. खनन क्षेत्र के जल स्रोतों की सुरक्षा

7. खनन क्षेत्रों में पर्यावरणीय संरक्षण कानूनों का सख्ती से पालन करना।

हिंदू-मुस्लिम एकता

1947 में बृहत्तर भारत एक बार पुनः खंडित हो गया। अफगानिस्ताान सहित अन्य आसपास के पड़ोसी देश बहुत पहले ही इससे हो चुके थे, पर यह अतीत और इतिहास का विषय है। इनकी अपेक्षा 1947 का विखंडन अपेक्षाकृत पर्याप्त नया था और नया घाव अधिक कसकता है। इस विभाजन का सर्वाधिक विपरीत असर पड़ा दो वर्गों की भावनात्मक एकता पर। भावना का सीधा संबंध हृदय से है और जब तक हार्दिक एकता नहीं होगी तब तक दोनों समुदाय एकता के नाम पर संदेह ही नाव में बैठकर मँझधार में भटकते रहेंगे, किनारे का स्पर्श नहीं कर सकते। 1947 के घावों को भरने के लिए अर्द्धशताब्दी से भी अधिक समय से सामाजिक, आर्थिक, साहित्यिक, सांस्कृतिक और राजनीतिक प्रयास जारी हैं, पर हुआ क्या? वहीं हैं, जहाँ से चले थे और दर्द बढ़ता गया ज्यों-ज्यों दवा की !

सन् 1857 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के समय तक मुगलिया सल्तनत का दमकता हुआ आफताब सदैव को डूब गया। यद्यपि अस्ताचलगामी तो वह औरंगजेब के इंतकाल के बाद से ही होने लगा था। 1857 की क्रांति की क्षणिक सफलता के पश्चात् क्रांति में सम्मिलित तमाम हिंदू राजे-रजवाड़ों ने बिना किसी विरोध और प्रतिरोध के बहादुरशाह को दिल्ली के सिंहासन पर आरूढ़ कराया। अंग्रेजों को भारत से खदेड़ने के लए दोनों ने सम्वेत स्वर में हुँकार भरी। तब आभास भी नहीं था कि दोनों के हृदय भविष्य में दरक जाएँगे। इस दरकन की प्रक्रिया प्रारंभ हुई 1857 की क्रांति के शमन के पश्चात्। जब दरारें पड़नी प्रारंभ हुईं तो उन्हें भरने के प्रयास भी हुए, परंतु शून्य परिणाम के कारण क्या रहे?

इन कारणों को व्याख्यायित करते हुए प्रसिद्ध पत्रकार व लेखक श्री राजकिशोर, डॉ. हजारी प्रसाद द्विवेदी को उद्धृत करते हुए लिखते हैं- "बहुत से लोग हिंदू-मुस्लिम एकता को या हिंदू संगठन को ही लक्ष्य मानकर उपाय सोचने लगते हैं। वस्तुतः हिदू मुस्लिम एकता भी साधन है, साध्य नहीं। साध्य है मनुष्य को पशु सामान्य स्वार्थी धरातल से ऊपर उठाकर 'मनुष्यता' के आसन पर बैठाना। हिंदू और मुस्लिम अगर मिलकर संसार में लूट खसोट मचाने के लिए साम्राज्य स्थापना करने निकल पड़े तो उस हिंदू मुस्लिम मिलन से मनुष्यता काँप उठेगी, परंतु हिन्दी मुस्लिम का उद्देश्य है-मनुष्य को दासता, जड़िया, मोह, कुसंस्कार और परमुखपिक्षिता से बचाना, मनुष्य को छुद्र स्वार्थ और अहमिका की दुनिया से ऊपर उठाकर सत्य, न्याय और औदार्य की दुनिया में ले जाना, मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण को हटाकर परस्पर सहयोगिता के पवित्र बंधन में बाँधना। मनुष्य का सामूहिक कल्याण ही हमारा लक्ष्य हो सकता है। वही मनुष्य का सर्वोत्तम प्राप्य है।"।

आचार्य द्विवेदी ने जो विचार व्यक्त किये हैं वे उदात्त आदर्शों को ध्वनित करते हैं। उपर्युक्त प्राप्यार्थ तो 'मनुष्यता' का लक्ष्य है। परंतु ज्वलंत प्रश्न तो यह है कि क्या यह लक्ष्य बिना हिंदू-मुस्लिम एकता से प्राप्त किया जा सकता है? व्यावहारिक धरातल पर ऐसा संभव नहीं है कि हिंदू मुस्लिम एकता के चिथड़े उड़ते रहे और हमें मनुष्य के सामूहिक कल्याण का उद्देश्य प्राप्त हो जाए! महात्मा गाँधी सहित विश्व के तमाम महापुरुषों की सोच का लक्ष्य ही मनुष्य का सामूहिक कल्याण है। कठिनाई तो इसके क्रियान्वयन में है।

हिंदू-मुस्लिम एकता की व्यावहारिक कठिनाइयाँ

हिंदू मुस्लिम एकता के मार्ग में जो सबसे बड़ा अवरोधक तत्त्व है, वह है संकुचित मुखौटों को न तोड़ पाना। दो विभिन्न संस्कृतियों के संस्कारों ने दोनों के हृदय द्वार पर ताले मार दिये हैं। इसीलिए प्रयासों के स्वर जो भीतर से निकलने चाहिये, वे नहीं निकल पा रहे हैं, केवल बनावटी नारों के सूखे शब्द पानी के बुलबुलों की भाँति होठों पर आकर बिखर जाते हैं। धर्म, आचार-विचार और भाषा के खोल से दोनों के पोंगापंथियों द्वारा नियंत्रित बुद्धि-विवेक जब तक स्वतंत्र नहीं होंगे, तब तक इस समस्या का समुचित समाधान हो नहीं सकता। यह एक बड़ी विडंबना है कि देश के हिंदू का देश के अन्य अल्पसंख्यकों-ईसाई, सिख, फारसी, बौद्ध आदि से टकराव और संदेह के भाव नहीं रखते। मुस्लिम मानसिकता भी यही है। वह हिंदू को छोड़कर अन्य किसी को अपना सबल प्रतिद्वंद्वी नहीं समझती।

इसके कारणों की तह तक पहुँचने में जो परिणाम प्राप्त होते हैं, वे ये हैं किदोनों परंपरा से उपजे स्वप्नलोक से बाहर नहीं आना चाहते। और जो बाहर आ गये वे न हिंदू रहे, न मुसलमान। वे इंसान बन गये। हिंदू अपनी पुरातन विश्व संस्कृति के मोह पाश में आबद्ध हैं तो मुस्लिम अपनी आक्रांता और विजेता की ऐतिहासिक छवि से मुग्ध हैं। मुसलमानों का राज्य समाप्त हो जाने के बाद उनके दिलों में जिंदा बादशाहत अब तक मरी नहीं। छद्म धर्मनिरपेक्षता के चश्मे से आँखों को सजाये और विदेशी मानसिकता की कलम पकड़े परवर्ती इतिहासकारों के एक अति शक्तिशाली वर्ग ने भी उपरोक्त वातावरण के निर्माण में कोई कसर नहीं छोड़ी।

डॉ. अखिलेश्वर पांडेय का मत है कि "यहाँ यह कहना उचित होगा कि इतिहास को सांप्रदायिक रूप देने का प्रयास वस्तुतः 19वीं सदी से शुरु हुआ। ब्रिटिश इतिहासकार जेम्स मिल ने भारतीय इतिहास के प्राचीन काल को हिंदू युग, मध्यकालीन इतिहास को मुस्लिम युग की संज्ञा दी जबकि वास्तविकता यह थी कि दोनों ही कालों में क्रमशः मुस्लिम और हिंदू शोषित थे। लेकिन यही भूल थी कि प्राचीन युग में सभी हिंदुओं को शासक मान लिया गया और मध्यकाल में सभी मुसलमानों को अर्थात् भारतीय राजनीतिक व्यवस्था का चित्रण इस दृष्टि से किया जाने लगा कि उस शासक का अपना धर्म क्या था? और इसकी चपेट में हिंदू सांप्रदायिकतावादी जल्दी आ गये। शायद यही कारण था कि आजादी के दिनों में 'हजार वर्ष की गुलामी' और 'विदेशी शासन' जैसे मुहावरे सामान्य हो गये थे, जिसके प्रतिकार स्वरूप मुस्लिम सांप्रदायिकतावादी पश्चिम एशिया में इस्लामी के स्वर्णयुग का राग अलापना शुरू कर दिये।"2

हिंदू-मुस्लिम एकता की सबसे बड़ी शत्रु है-राजनीति। भारत के ग्रामों का आम मुसलमान आज भी छद्म राजनीतिज्ञों और छद्म राजनीति से दूर है। परंतु शहरों में बैठे अपने आकाओं के भाषणों से वह भाव-प्रवाह में बहने लगता है। हिंदुओं की अपेक्षा मुसलमानों में साक्षरता का प्रतिशत अत्यंत न्यून है। यही कारण है कि वे आधुनिक प्रगति की दौड़ में सर्वाधिक पिछड़े हैं। बंबई के उर्दू दैनिक 'हिंदुस्तान' के 8 अगस्त, 1991 के अंक में प्रकाशित अलीगढ़ मुस्लिम विश्वविद्यालय के पूर्व उपकुलपति सैयद हामिद के एक लेख को राजकिशोर ने उद्धृत किया है, जिसमें सैयद हामिद लिखते हैं- "हमें चाहिए कि ऊँची उड़ानों और गुलकारी को शायरों और मुशायरों के लिए छोड़ दें। हमारे सामने समस्याओं का हुजूम है। बगैर शिक्षा के सहयोग के हम दो कदम भी आगे नहीं बढ़ सकेंगे।

हमें तय कर लेना चाहिए कि हम शहर और देहात में से दो स्वयं सेवक तैयार करें जो शिक्षा को बढ़ावा देने को धार्मिक कर्तव्य समझकर अपना तन-मन-धन लगा दें। धन न भी लगाएँ, लेकिन तन और मन लगाये बगैर कोई मुहिम कामयाब नहीं होती। इस वक्त हाल यह है कि खुशहाल घरानों के विद्यार्थी दीन से नवाकिफ है। इसमें से अधिकांश दीन से बेखबर ही नहीं, बल्कि उसके अपमान में भी संकोच नहीं करते। जिन मदरसों में दीनी तालीम दी जाती है उसकी स्थिति बहुत खराब है, दीनी मदरसों के ढाँचे में इनकलाब और तब्दीलियों की जरूरत है। ये स्कूल और कॉलेज ऐसे विद्यार्थियों को पैदा नहीं कर सकते, जो जागरूक हों और विश्वास के साथ जिंदगी की दौड़ में शामिल हो सकते हों।"" ज्ञान-विज्ञान के इस युग में मुसलमानों के पिछड़े और गरीब परिवारों के बच्चों को अब भी दीन पर आधारित धर्म की शिक्षा मदरसों में दी जा रही है। ऐसे बच्चों की मानसिकता भविष्य में कैसी निर्मित होगी सहज की अनुमान लगाया जा सकता है।

हिंदू-मुस्लिम एकता के मार्ग में सबसे बड़ी, पुरानी और सबसे अधिक प्रभावी समस्या धार्मिक है। धर्म के मामले में हिंदू-मुसलमानों की अपेक्षा अधिक सहिष्णु रहा है। सदियों से हिंदुओं के मंदिर टूटे, मूर्तियाँ नष्ट हुईं, मंदिरों के खंडहरों पर मस्जिदों का निर्माण हुआ, हिंदू चुप रहा। बाबरी मस्जिद का भूलुष्ठित होना हिंदू सहिष्णुता का तीव्र प्रतिक्रियात्मक विस्फोट था। परंतु इसके और भी घृणात्मक परिणाम सामने आये। पाकिस्तान और बांगला देश सहित अन्य मुस्लिम बहुल देशों में अल्पसंख्यक हिंदुओं पर अत्याचार हुए और उनके उपासना गृहों को तोड़ा गया। बाबरी मस्जिद ढहाने की एक घटना के अलावा हिंदुओं द्वारा मुस्लिमों के उपासना गृहों को तोड़ने की शायद दूसरी घटना इतिहास में नहीं मिलती। इस एक घटना ने दोनों वर्गों की खाई को इतना गहरा कर दिया कि वह शताब्दियों में भी शायद ही भर सके। सांप्रदायिक सौहार्द्र की इस एक घटना ने अपूरणीय क्षति की।

मजहबी कट्टरपन की ढाल लेकर कभी-कभी राजनीतिक स्वार्थ के लिए जो छद्म खेल खेला गया या खेला जाता है, उसने भी हिंदू-मुसलिम एकीकरण पर तुषारापात किया है। कभी स्वतंत्रता दिवस और गणतंत्र दिवस का बहिष्कार किया जाता है, कभी भारत माँ को डायन कहा जाता है, कभी राष्ट्रध्वज को जलाया जाता है, कभी राष्ट्रगान का बहिष्कार किया जाता है, कभी भारत में रहकर पाक परस्ती का खुलेआम समर्थन किया जाता है। ऐसे राष्ट्रद्रोही कृत्यों पर भी शासन-प्रशासन में कोई क्रियात्मक कार्यवाही नहीं होती। भूल से भी राष्ट्रीय पर्वों पर उलटा झंडा फहरा जाने से दूसरे वर्ग के विरुद्ध शीघ्र ही 'कड़ी कार्यवाही' प्रारंभ हो जाती है। इस नीति से भी दोनों वर्गों के बीच दूरियाँ बढ़ीं हैं।

भारत के वर्तमान इतिहास में कुछ ऐसी अनहोनी घटनाएँ हुई हैं जिन्होंने भी दोनों वर्गों के मध्य छत्तीस का आँकड़ा बड़ा बनाने में मदद की है। इन घटनाओं को दोनों ने अपनी-अपनी परिभाषाएँ और शब्दावलियाँ दी हैं। एक के लिए सरकार की नीतियाँ 'मुस्लिम' तुष्टिकरण है तो दूसरे के लिए 'शरीयत में हस्तक्षेप' है। पर वास्तविकता क्या है? "दरअसल मुसलमानों के बारे में धारणाएँ ही गलत रहीं हैं और सारे फैसले उन्हीं धारणाओं के प्रकाश में लिये गये। सच यह है कि कठमुल्ला मुस्लिम नेताओं का तुष्टिकरण हुआ, मुसलमानों का नहीं। इन नेताओं को समुदाय पर थोपा गया। मैं सिफ कांग्रेस को इसके लिए दोषी नहीं ठहराता। भाजपा, विहिप और आर.एस.एस. जैसे संगठनों ने मुसलमानों को जानने की कोशिश नहीं की। मुसलमानों पर यह इल्जाम लगाया कि वे अलग हैं और उन पर हमला किया। कुछ लोगों ने दोस्ती से तो कुछ लोगों ने दुश्मनी कर मुसलमानों को अलग कर दिया। धर्मनिरपेक्ष नेता जब शाही इमाम से मिलते हैं और समझते हैं कि वह 'सेकुलर' है और भाजपा जब कहती है कि मुसलमान कट्टरपंथी है, तो भाजपा की एक प्रकार की विश्वसनीयता बनती है।"4

हज के लिए सरकारी अनुदान, मदरसों के लिए सरकारी सहायता, शाहबानो प्रकरण आदि ऐसे अनेक उदाहरण हैं जो हिंदुओं द्वारा गढ़ी हुई 'तुष्टिकरण' की परिभाषा में समाहित हैं। दोनों वर्गों के अपने-अपने नजरिये हैं, अपनी-अपनी सोच है। दोनों वर्ग इस बनी बनायी पूर्वाग्रही लकीर से एक इंच हटने को तैयार नहीं, तब एकता का संगीत सरस, सुमधुर, कर्णप्रिय व एक लय-तान से युक्त कैसे हो? डॉ. अखिलेश्वर पांडे ने अत्यंत सटीक लिखा है "वस्तुतः भारतीय राजनीति की सबसे बड़ी, त्रासदी यह है कि उसने हिंदू राष्ट्रीयता को हिंदू सांप्रदायिकता में बदल दिया तथा अब वह उसे हिंदू उग्रवाद के रूप में रूपांतरित करने की प्रक्रिया में व्यस्त है। 1947 में भारत का विभाजन हुआ। हमने मुस्लिम, ईसाई और सिख पंथों के समानांतर 'हिंदू' शब्द का प्रयोग कर उसका सांप्रदायीकरण कर दिया। इस देश के मुसलमानों को यह शिक्षा ही नहीं दी गई कि मजहब से मुसलमान होते हुए भी वे राष्ट्रीयता से हिंदू हैं और हिंदुओं को भी इस भाव का बोध ठीक से नहीं हो पाया कि मुसलमान कोई पराया नहीं, भारत का ही भूमि पुत्र है। वस्तुतः दोनों संप्रदायों को इस भाव-बोध से अभिभूत होना होगा कि मजहब बेशक अलग-अलग हो, राष्ट्र की संस्कृति एक होती है-राष्ट्रीय संस्कृति।"5

हिंदू-मुस्लिम संप्रदायवाद का पतन हो इसके लिए यह बहुत आवश्यक है किदोनों ओर से सार्थक और ईमानदार पहल की जाये। इस पहल के लिए पहली शर्त यह है कि दोनों ओर से कट्टरपन को दफन करने का उपक्रम किया जाये। इसके लिए दोनों को लचीला रवैया अपनाना पड़ेगा। 'मस्जिद में राम-राम हो मंदिर में हो अजान' की काव्यात्मक भावना सुनने में अत्यंत प्रिय लगती है, परंतु इसका व्यावहारिक क्रियान्वयन अत्यंत दुष्कर है। यद्यपि अपवाद हर जगह होते हैं फिर भी यह कड़वी हकीकत है कि जितनी बड़ी संख्या में और जिस श्रद्धा भाव से एक हिंदू, मज़ारों और दरगाहों पर जाता है, मुस्लिम हिंदुओं के उपासना स्थलों में नहीं जाता। इस संकीर्णता को तोड़े बिना क्या हिंदू मुस्लिम एकता के पथ पर बढ़ना संभव है? कितने हिंदू-मुस्लिम ऐसे हैं जो दीवाली, होली और ईद में परस्पर सहभागिता करते हैं? यह होनी चाहिए इससे दूरियाँ मिटेंगी।

हिंदुओं को भी अपना अंतस्तल विस्तृत करना होना और 'बड़े भाई' का फर्ज पहचानकर उसे निभाना होगा। साधन विहीन 'छोटा भाई' को यदि हज के लिए अनुदान और ऐसी ही कुछ विशेष सुविधाएँ यदि सरकार देती है तो इसका पुरजोर समर्थन करना चाहिए, न कि तुष्टिकरण के नाम पर उसका विरोध। ऐसा करने से मुसलमानों को राष्ट्र की मुख्यधारा में आने का मौका प्राप्त होगा, उनका आर्थिक, शैक्षिक और बौद्धिक विकास होगा तथा उनकी चेतना प्रगतिशील होगी। ऐसा होना ही चाहिए-राष्ट्र के हित में, समाज के हित में और व्यक्ति के हित में।

संदर्भ :

1. हिंदू होने का मतलब सं. राजकिशोर, पृ. 14

2. स्वतंत्र भारत में हिंदू-मुस्लिम समस्या के आयाम डॉ. अखिलेश्वर पांडेय, पृ. 44

3. मुसलमान क्या सोचते हैं सं. राजकिशोर, पृ. 136

4. भारतीय मुसलमान मिथक और यथार्थ सं. राजकिशोर, पृ. 147

5. स्वतंत्र भारत में हिदू-मुस्लिम समस्या के आयाम डॉ. अखिलेश्वर पांडेय, पृ. 128

कामकाजी महिलाएँ : समस्याएँ और निदान

नारी प्रकृति की अनुपम कृति है। वह जननी है, जनन करती है और जन के अस्तित्व को बनाती है। पर, यही जन, नर बनकर सत्ता के मद में चूर होकर नारी को नारायणी न बना कर अपनी दासी समझने की भूल कर बैठता है और फिर शुरू होता है नारी पर अत्याचार करने का सिलसिला। यह सिलसिला न्यूनाधिक रूप से सदियों से चला आ रहा है। भारतीय समाज तो अब विज्ञान के शिखर पर चढ़कर रोज यह तमाशा देखता है कि दूरदर्शन और टी.वी. चैनल आज रोज ही द्रोपदी का चीर हरण कर रहे हैं-दुःशासन ने तो एक बार ही चीर हरण का प्रयास किया था। सीता को एक बार ही अग्नि परीक्षा देनी पड़ी थी अपने अक्षत सतीत्व के प्रमाण के लिए, आज यह नारी की प्रतिदिन की दिनचर्या बन चुकी है। दफ्तर से लौटती नारी को पुरुष के भीतर छुपा बैठा संदेह का विषधर रोज डंक मारता है और वह रोज आहत होती है। आश्चर्य तो यह है कि पुरुष जिस नारी की यौन-शुचिता पर संदेह कर उसे प्रताड़िता करता है, उसी की देह से यौन सुख भी पाना चाहता है।

समस्याएँ :

आज जब भी कामकाजी महिलाओं की चर्चा होती है, तो लोगों का ध्यान सामान्यतः उन पर जाता है जो सरकारी नौकरी कर रही हैं। पर, कामकाजी महिला की यह परिभाषा संकुचित है। घर के अतिरिक्त किसी भी प्रतिष्ठान पर कार्य करने वाली महिला कामकाजी है। महिला कामकाजी पहले भी थी, आज भी है। पहले उसका दायरा सीमित था। अधिक से अधिक वह निकलती थी तो खेत-खलिहान तक या मजदूरी करने। पर, इन कार्यों में संलग्न महिला को महिला-कृषि मजदूर कहा जाता था। अब भी इस वर्ग में देश की महिलाओं की एक बड़ी संख्या है। मिलों-कारखानों में, दुकानों में, घरेलू नौकरानियों के रूप में और अन्यान्य श्रम-कार्यों में लाखों महिलाएँ कार्यरत हैं। इनके अनुपात में सरकारी और निजी प्रतिष्ठानों में कार्यरत महिलाओं की संख्या बहुत कम है। मिट्टी खोदने से लेकर आकाश में उड़ने वाली बाला तक धरती से लेकर आकाश तक काम करने वाली स्त्री कामकाजी महिला है। इन सभी की समस्याएँ हैं, जो पुरुष प्रधान समाज में विकराल रूप धारण करती जा रही है। कामकाजी महिलाओं के मार्ग में अनेक काँटे हैं, फिर भी वह रोज उन्हें साफ करती है और अपना पथ प्रशस्त करती हुई आगे बढ़ती है।

पुरुषों की लोलुपता :

पुरुष प्रधान समाज में कामकाजी महिलाओं की राह का सबसे बड़ा रोड़ा है-सहकर्मी पुरुषों की काम-लोलुप प्रवृत्ति। खेत-खलिहानों में पहले महिला-पुरुष साथ-साथ काम किया करते थे। पर, पुरुष के मन में कभी भी अपनी सहकर्मी महिला के प्रति यौनाकर्षण उत्पन्न नहीं होता था। हाँ, महिला-पुरुष आपस में हल्के-फुल्के विनोद द्वारा मनोरंजन अवश्य किया करते थे-श्रम की नीरसता को तोड़ने के लिए। इस मनोरंजन में भी शुचिता थी, निर्मलता थी, यौनेच्छा की कहीं कोई कायिक चेष्टा न थी, विशुद्ध शाब्दिक चपलता रहा करती थी। खेत-खलिहानों, मिलों-कारखानों में यह प्रवृत्ति आज भी न्यूनाधिक है। पर, दफ्तरी-जमाने में अब सारे समीकरण बदल चुके हैं। महिलाएँ पढ़-लिखकर आगे बढ़ रही हैं। उनमें नौकरी करने की चरम उमंग है, अभिलाषा है। इस उत्साह के पीछे सबसे बड़ा कारण उनका आर्थिक रूप से स्वावलंबी होने की कामना है। आर्थिक स्वावलंबन नारी मुक्ति की दूसरी सबसे बड़ी शर्त है और पहली है-शिक्षा।

नारी के कामकाज करने का क्षेत्र अब विस्तृत हो गया है। स्कूल-कॉलेजों में, अस्पतालों मे, विभिन्न दफ्तरों में, मैदानी सेवाओं में, आकाश व पाताली सेवाओं में तथा प्रशासनिक सेवाओं में महिलाओं का वर्चस्व बढ़ा है। सुशिक्षित महिलाओं की इस जागृति में मीडिया द्वारा निर्मित किये गये वातावरण को नकारा नहीं जा सकता। कहावत है-बरसात में नदियों का पानी सुख-समृद्धि की सूचना लाता है, तो गंदगी को भी बहाकर लाता है। टी.वी. के प्रसार से महिलाओं को जहाँ शक्ति प्राप्त हुई है, वहीं कामकाजी महिलाओं के प्रति अपराधों में वृद्धि भी हुई है। दूरदर्शन का प्रभाव कहें या समय की बलिहारी पर आज पुरुष अपनी सहकर्मी नारी को कामुक दृष्टि से देखता है। इसकी नजर में नारी की नौकरी करना उसकी आर्थिक विवशत है और पुरुष की यह सोच रहती है कि नारी की आर्थिक सहायता करने पर उसके छोटे-मोटे कार्यों की पूर्ति के लिए भी पुरुष अधिकारियों के द्वारा उसके सामने देह-समर्पण का घिनौना प्रस्ताव रखा जाता है। महिला द्वारा विरोध करने पर उसे अनेक प्रकार से प्रताड़ित किया जाता है।

पारिवारिक दायित्व :

कामकाजी महिला, घरेलू महिला की अपेक्षा दुगना श्रम करती है। उसे परिवार के दायित्व के साथ अपने कार्यालय के दायित्व का निर्वहन भी करना पड़ता है। बच्चों की देखभाल, कमाऊ या गैर कमाऊ पति-परमेश्वर की अर्चना और उसके अहं को सब प्रकार से संतुष्ट करना और यदि संयुक्त परिवार की रस्सी से बंधी है तो सभी पारिवारिक स्वजनों की नौकरानी बनकर रहना उसकी नियति है। इतना ही नहीं, कामकाजी महिला अपनी कमाई को भी मनमर्जी से खर्च नहीं कर सकती। यह दोहरा दायित्व बोध कामकाजी महिला के लिए सबसे बड़ा अभिशाप है।

मातृत्व की समस्या :

माँ बनना नारी के लिए सबसे बड़ा वरदान माना जाता है, परंतु कामकाजी महिला के लिए मातृत्व मुसीबत बन जाती है। शिशु जन्म के तीन माह पूर्व से उसकी स्वास्थ्य-संबंधी कठिनाइयाँ बढ़ जाती हैं तो शिशु जन्म के छह से आठ माह तक बच्चे के संरक्षण व पालन की जिम्मेदारी भी उसे उठानी पड़ती है। अपने कर्त्तव्य स्थल से कामकाजी महिला को जो प्रसूति अवकाश मिलता है, वह इसकी अपेक्षा कम होता है। इतना ही नहीं, अपने उचित अवकाश की स्वीकृति हेतु भी महिला को अपने सहकर्मी व अधिकारियों के सामने सौ-सौ बार गिड़गिड़ाना पड़ता है।

आवास समस्या :

अपने परिवार से दूर जब महिला सरकारी या गैर सरकारी संस्थानों में नौकरी करने जाती है, तब उसके सामने सबसे विकराल समस्या होती है आवास की। यद्यपि बड़े-बड़े शहरों में महिला-वसति गृहों का निर्माण हुआ है, तथापि उनकी संख्या एक अनार सौ बीमार जैसी है। मैदानी और ग्रामीण अंचल अभी भी इनसे विहीन हैं। ऐसी स्थिति में कामकाजी महिलाओं के सम्मुख सुरक्षित आवास की समस्या उत्पन्न हो जाती है।

निदान :

कामकाजी महिलाओं की समस्याओं का निदान सामाजिक और शासकीय दोनों स्तरों पर किया जाना अपेक्षित है। एक ऐसा वातावरण बनाया जाना आवश्यक है, जिसमें पुरुष सहकर्मियों द्वारा महिला की गरिमा का अतिक्रमण न किया जा सके। महिला उत्पीड़न के विरुद्ध यद्यपि अनेक कानून बनाये गये हैं, उनमें अपराधी को कड़े दंड के प्रावधान भी किये गये हैं, पर इतना भी पर्याप्त नहीं है। इसके लिए स्वस्थ चेतना का प्रसार करना अत्यावश्यक है।

मातृत्व की समस्या से निपटने के लिए महिलाओं के प्रसूति अवकाश में वृद्धि की जानी आवश्यक है। गर्भावस्था के छठे माह से लेकर प्रसव के एक वर्ष तक, अर्थात् न्यूनतम 15 माह के प्रसूति अवकाश की सवैतनिक पात्रता कामकाजी महिलाओं को होनी चाहिए। ग्रामीण और शहरी क्षेत्रों में उनके लिए पर्याप्त एवं सुरक्षित आवासों की व्यवस्था शासन के द्वारा की जा सकती है।

कामकाजी महिलाओं की समस्याएँ न तो केवल समाज के द्वारा हल की जा सकती है, न शासन के द्वारा और नहीं कानून के द्वारा। इन सबके समन्वित प्रयासों से ही इस वर्ग की समस्याओं का निदान संभव है।

संयुक्त परिवारों का विघटन और बच्चे

भारतीय समाज का आदर्श और गौरव संयुक्त परिवार में निहित रहा है। प्राचीन काल से ही हमारे देश में संयुक्त परिवार की अवधारणा रही है। इस व्यवस्था में व्यक्ति की सुरक्षा, चहुमुखी विकास और नैतिक मूल्यों के उन्नयन की संपूर्ण संभावनाएँ रहती हैं, जो एक गतिशील और स्वस्थ समाज के निर्माण के लिए आवश्यक है। परस्पर विश्वास, सद्भाव, सहयोग, प्रेम और स्नेह के मानवीय सुमन संयुक्त परिवार के उपवन में ही खिलना संभव है। पारिवारिक संबंधों का मूल उद्गम पति-पत्नी का संबोधन है, जो माता-पिता से होते हुए माँ-बेटा, भाई-बहिन, ताऊ ताई, चाचा-चाची, दादा-दादी, बुआ, भाभी जैसे शब्दों को अभिसिंचित करता है। इन स्नेह पगे शब्दों का पावन अस्तित्व संयुक्त परिवार में ही संभव है।

समाजशास्त्रियों और साहित्यशास्त्रियों ने संयुक्त परिवार को अपने-अपने दृष्टिकोण से परिभाषित करने का प्रयास किया है। समाजशास्त्री-ईरावती कर्वे के अनुसार - "संयुक्त परिवार ऐसे व्यक्तियों का समूह है, जो एक ही घर में रहते हैं, एक रसोई में बना भोजन करते हैं, जो सामान्य संपत्ति के स्वामी होते हैं व पूजा में सामान्य रूप से भाग लेते हैं तथा जो किसी न किसी रूप में एक दूसरे से रक्त संबंधी होते हैं।" प्रख्यात पाश्चात्य समाजशास्त्रियों-रोजन एंड हेरिस की दृष्टि में- "संयुक्त परिवार नातेदार व्यक्तियों का एक समूह है, जिसके सदस्य विवाह, वंश अथवा गोद लेने के आधार पर परस्पर जुड़ें हों और जो केंद्रित परिवार का विस्तृत रूप हो।"2

प्रख्यात साहित्यकार, समालोचक तथा चिंतक डॉ. परशुराम शुक्ल 'विरही' का मत है कि "किसी एक कर्त्ता की अनेक संतानों, उन अनेक संतानों की संतानों का संयुक्त परिवार कहलाता है, जो एक ही मकान में रहता है, एक ही रसोईघर में संयुक्त परिवार के सदस्यों का भोजन बनता है, सभी सदस्य एक सामान्य संपत्ति के स्वामी होते हैं, सभी सदस्य एक कुल देवी या कुल देवता के पूजक होते हुए सामान्य उपासना में भाग लेते हैं और सभी सदस्य किसी न किसी प्रकार परस्पर रक्त संबंधी होते हैं। संयुक्त परिवार का कर्ता परिवार का प्रधान होता है, उसके बाद उसकी पत्नी का स्थान होता है और फिर ज्येष्ठा के आधार पर पारिवारिक शिष्टागम में प्रत्येक सदस्य अपना स्थान रखता है। परिवार में एक समान रीति-रिवाज, रहन-सहन आदि अपनाये जाते हैं। शिक्षा, व्यापार और बाहर रहने के कारण किसी सदस्य की वेशभूषा मिन्न भी हो सकती है।"3

उक्त परिभाषाओं में एक साहित्यकार की दृष्टि संयुक्त परिवार के संबंध में समाजशास्त्रियों की अपेक्षा कहीं अधिक व्यापक और सघन है। अन्य परिभाषाओं में जहाँ परिवार के संगठन की भौतिक प्रक्रियागत विशेषताओं को उद्घाटित किया गया है, वहीं डॉ. विरही ने इस विशेषताओं के साथ-साथ रीति-रिवाजों के रूप में आंतरिक गुणों (समान संस्कृति की धारणा) पर भी बल दिया है।

संयुक्त परिवार के विघटन के कारण :

संयुक्त परिवार का बृहद और प्राचीन रूप कबीलाई संस्कृति में परिलक्षित होता है। जहाँ समान रक्त संबंधी विभिन्न समूहों में एक साथ रहा करते थे। कार्य क्षेत्र में विस्तार के साथ-साथ इनके पृथक् पृथक् परिवार बनते गये और बड़े-बड़े कबीले विभाजित होकर परिवारों के रूप में हो गये। इनका भी विस्तार होता गया। समय के प्रभाव से संयुक्त परिवारों का बिखराव आज भी हुआ हो-ऐसी बात नहीं है। ऋग्वेद काल में संयुक्त परिवार अस्तित्व में आ चुके थे, पर साथ ही इनमें विघटन की नींव भी पड़ चुकी थी- "संयुक्त परिवार की नींव पड़ चुकी थी। पति और पत्नी के अतिरिक्त परिवार में माता-पिता, भ्रात, भगिनी, पुत्र-पुत्री आदि भी रहते थे। पारस्परिक स्नेह का अभाव नहीं था, किंतु कभी-कभी पारस्परिक स्वार्थों का टकराना अस्वाभाविक नहीं था। पारिवारिक कलह, ईर्ष्या और द्वेष के कारण कितने परिवार बिखर जाते थे।"4

वैदिक काल के उपरांत उत्तर वैदिक काल में भी परिवार का स्वरूप तो संयुक्त रहा, पर टूटने का क्रम भी रहा। 'शतपथ ब्राह्मण' में इसका स्पष्ट उल्लेख है- "आदर्श संयुक्त परिवार मे पिता सहित उसके सभी पुत्र-पौत्र रहते थे, किंतु उसकी वृद्धावस्था में संपत्ति के बँटवारे की माँग बढ़ती जा रही थी। कभी-कभी भाई अपने में स्वयं संपत्ति का बँटवारा कर लेते थे।"5 उत्तर वैदिक काल में कभी-कभी एक परिवार की कुछ स्त्रियों में भेद-भाव के कारण भी परिवारों के टूटने के उल्लेख मिलते हैं।

गुप्त काल में भी संयुक्त परिवार व्यवस्था थी। "इस काल में पिता के जीवन काल में परिवार का विभाजन बुरा माना जाता था और उसकी मृत्यु के बाद भी लोग साथ-साथ रहते थे। पिता परिवार की संपत्ति का स्वामी होता था, किंतु भाइयों तथा पुत्रों के अलग-अलग भाग स्वीकार किये जाते थे....। पुत्रों में संपत्ति बराबर बाँटी जाती थी। विधवाओं को संपत्ति में अधिकार नहीं मिलता था। .... ... संयुक्त परिवारों की विधवाओं को केवल जीवन वृत्ति मिलती थी, किंतु यदि किसी स्त्री का पति अपनी मृत्यु के समय संयुक्त परिवार का सदस्य न होता था तो स्त्री का, पति की सम्पत्ति पर जीवन भर के लिए अधिकार मान लिया जाता था।6

उपर्युक्त उद्धरणों से यह तथ्य प्रमाणित है कि भारतीय समाज के संदर्भ में संयुक्त परिवार का आदर्श रूप था अवश्य, पर उसके क्षरण की क्रिया भी हो रही थी। इस विघटन की क्रिया के मूल में जो तथ्य उभरकर आये हैं उनमें पारिवारिक कलह, ईर्ष्या, द्वेष, पारिवारिक स्त्रियों का भेद-भाव और पारिवारिक संपत्ति का विभाजन-प्रमुख हैं।

वर्तमान परिदृश्य :

परंतु वैदिक काल से अब तक गंगा में बहुत पानी बह चुका है। संयुक्त परिवार के विघटन के पारंपरिक कारण न्यूनाधिक अब भी यथावत हैं। इसके साथ परिवर्तित समय के प्रभावों से प्रादुर्भाव अनेक कारण भी जुड़ गये हैं। विज्ञान और टेक्नॉलाजी के विकास तथा रोजगार मूलक शिक्षा की प्रधानता के कारण पारिवारिक सदस्यों का परंपरागत परिवारों से दूर-दूर रहना संयुक्त परिवार के विघटन के आज प्रधान कारण बन गये हैं।

संयुक्त परिवार के विघटन का बच्चों पर प्रभाव :

आज माता-पिता के पास इतना समय नहीं है कि वे अपने बच्चों की गतिविधियों पर नजर रख सकें और उनकी उद्वेलित होती भावनाओं को नियंत्रित कर सकें। प्रख्यात मनोचिकित्सक डॉ. मुकेश चंगलानी का स्पष्ट मत है कि- "संयुक्त परिवारों का टूटना बच्चों के हिंसक होने का एक बहुत बड़ा कारण है। आजकल माँ बाप भौतिक सुख साधन जुटाने की चाह में व्यावसायिक कर्त्तव्यों को ज्यादा तवज्जो देकर परिवारिक कर्त्तव्यों के प्रति उदासीन हो रहे हैं। एकाकी परिवारों में पल-बढ़ रहे बच्चे उचित देखभाल के अभाव में ज्यादा जिद्दी हो जाते हैं और इस वजह से माँ-बाप अपने बच्चों की हर माँग की पूर्ति कर अपने समयाभाव की पूर्ति करते हैं। संयुक्त परिवार में रहने से बच्चों में अनुशासन की भावना पनपती है और वह अपनी समस्या को परिवार के सामने रख सकते हैं, जबकि एकाकी परिवार के बच्चों में इनहेविटिरी पावर डवलप नहीं हो पाती हैं। ऐसे बच्चे, 'कनडक्ट डिसआर्डर' की समस्या से ग्रस्त हो जाते हैं और सामान्य से अधिक शरारत तथा झूठ बोलने जैसी समस्याओं से घिर जाते हैं।"8

किशोर वय वर्ग सामाजिक सरोकारों से बिल्कुल अलग-थलग रहता है। सामाजिक परिवेश से उसका वैसा कोई सरोकार नहीं होता जिसने उसमें संवेदनशीलता और सहिष्णुता जैसे भावों का निरंतर विकास हो सके। यह विकास तो संयुक्त परिवारों में ही संभव है, जहाँ माँ-बाप से कहीं अधिक समय बच्चे का अपने दादा-दादी या चाचा-चाची आदि के पास व्यतीत होता था। शहरों में अथवा ग्रामों में अपने माता-पिता, चाचा-चाची, दादा-दादी को छोड़कर युवा अपनी पत्नी और एक या दो बच्चों के साथ जब अकेला रहता है, तब यहीं से बच्चों के मनो मस्तिष्क में समाज से अलगाव की भावना का बीजारोपण हो जाता है। किशोरावस्था से होते हुए जब यही बीज युवा और प्रौढ़ वृक्ष के रूप में परिवर्तित होता है, तब इसके फल समाज और राष्ट्र के लिए स्वास्थ्यवर्धक नहीं होते। कड़वाहट आ जाती है, उन फलों में लोकतंत्र को पुष्ट बनाये रखने की पौष्टिकता ही नहीं रह जाती। "स्वस्थ बच्चे स्वस्थ राष्ट्र, "आज के बच्चे-कल का भविष्य" जैसे स्वप्निल नारे खोखले होने लगते हैं। संस्कार हीन बच्चों की भीड़ प्रजातंत्र को क्या मजबूत बना सकती है?

पुरातन के स्थान पर नव्यता की स्थापना होते रहना प्रकृति का शाश्वत नियम है जिसे कोई मिथ्या नहीं कर सकता। परिवारों की स्थापना और उसके विघटन के मूल में कारण जो भी हों, पर परिवर्तन की यह क्रिया होती रहेगी। इस क्रिया में बच्चों की क्या भूमिका है और वे कहाँ तक इससे प्रभावित होते हैं- यह राष्ट्रीय सोच, राष्ट्रीय विचार, राष्ट्रीय चिंता तथा राष्ट्रीय विश्लेषण का प्रमुख प्रश्न होना चाहिए। समय के परिवर्तित परिप्रेक्ष्य में संयुक्त परिवार के विघटन के पक्ष-विपक्ष में अनेक तर्क दिये जा सकते हैं, पर भौतिक समृद्धि की अंधी दौड़ में शामिल बच्चों के माता-पिताओं को थोड़ा रुककर अपने नैनिहालों के भविष्य के बारे में सोचना होगा। क्योंकि इनके भविष्य से 'समाज और राष्ट्र का भविष्य जुड़ा हुआ है। यह भविष्य संयुक्त परिवार की अवधारणा में ही सुरक्षित है।

संयुक्त परिवार के बिखराव का सिलसिला इतने अधिक आगे बढ़ चुका है कि अब इसे रोका जाना संभव नहीं है। आज संयुक्त परिवारों के विघटन के साथ-साथ पारंपरिक, किंतु स्वस्थ और आदर्श सामाजिक मूल्यों का क्षरण जिस तीव्रता से हो रहा है, यह चिंतनीय है। भूमंडलीकरण और आर्थिक उदारीकरण के दो पाटों के बीच संयुक्त परिवार की आदर्शवादिता पिस रही है, संयुक्त परिवार के द्रवणशील वातावरण में पनपने और पल्लवित होने वाले नैतिक और आदर्श मूल्य सूख रहे हैं। इनका सीधा प्रभाव बच्चों पर पड़ रहा है। यद्यपि यह बात सत्य है कि संयुक्त परिवार की अवधारणा भी पूर्णतः दोष मुक्त नहीं है। इस संस्था में भी अनेक दुर्गुण हैं। संयुक्त परिवारों के अभिरक्षण में भी बच्चे बहके हैं।

वर्तमान संयुक्त परिवारों में सांस्कृतिक विशेषताओं के हस्तांतरण के स्थान पर कुटिलता और प्रतिशोध के आचरण एक पीढ़ी से दूसरी पीढ़ी को हस्तांतरित हो रहे हैं। तमाम न्यूनताओं की उपस्थिति के पश्चात् भी आज बच्चों के विकास में संयुक्त परिवार के योगदान को झुठलाया नहीं जा सकता। बच्चों में प्रेम, त्याग, भ्रातृत्व, सहिष्णुता, अनुशासन और कर्त्तव्य भावना जैसे मानवीय गुणों के विकास संयुक्त परिवार में ही संभव हैं और इसीलिए बच्चों की नई पीढ़ी बढ़ने में इस संस्था का आज की दृष्टि से पुनर्गठन किया जाना आवश्यक है।

संदर्भ :

1. भारतीय समाज ईश्वर सिंह चौहान, पृ. 89

2. वही, पृ. 153

3. बुंदेलखंड की संस्कृति डॉ. परशुराम शुक्ल विरही, पृ. 16

4. भारत का राजनैतिक एवं सांस्कृतिक इतिहास डॉ. कोलेश्वर राय, पृ. 49

5. शतपथ ब्राह्मण: 4.1.5

6. यूनिफाइड इतिहास सत्यनारायण दुबे, पृ. 262

7. नवभारत (भोपाल), 4 जनवरी, 2008, पृ. 3

8. दैनिक आचरण (ग्वालियर), 4 जनवरी, 2008, पृ. 12

मालवी लोकगीतों में राष्ट्रीयता

मालवा की समृद्धि को दर्शाने वाली एक कहावत प्रचीन समय से चली आ रही है कि-'मालव मटी गहन गंभर, पग-पग रोटी डग-डग नीर'- बहुत समृद्धि है- मालवा में, तभी तो शक, हूण, कुषाण, चालुक्य आदि अनेक जातियाँ इस ओर आकृष्ट हुईं। मुगलों को भी मालवा बहुत भाया। मालवा की माटी को प्रकृति का वरदान है। कपास, गेहूँ, मक्का, अफीम के साथ-साथ मूँगफली व सरसों सहित अनेक फसलें विपुल मात्रा में भी पैदा होती हैं। दूध-दही की तो मानों नदियाँ ही बहती हों। मालवा का मनुष्य बहुत मेहनती है। वह श्रम करने से घबराता नहीं है। 'आलस्य' शब्द तो जैसे यहाँ है ही नहीं।

मध्यप्रदेश देश का हृदयस्थल है और इसके पश्चिम का जो विस्तृत भू भाग है, वह मालवा है। मध्यप्रदेश के गुना, नरसिंहगढ़, राजगढ़, शाजापुर, भोपाल (कुछ भाग), सीहोर, देवास, इंदौर, उज्जैन, धार, झाबुआ, रतलाम, मंदसौर व नीमच जिलों का भू-भग मालवांचल के अंर्तगत आता है। इतना ही नहीं, राजस्थान के झालाबाड़ और चित्तौढ़ जिले का दक्षिणी भाग भी बोली, वेश-भूषा और रहन-सहन तथा खान-पान के आधार पर मालवा का भाग माना जाता है। इस समूचे अंचलकी कुल जनसंख्या लगभग दो करोड़ है, जिनकी प्रमुख बोली मालवी है।

गणराज्यों के काल में मालव एक गणराज्य था, जो अत्यंत विख्यात था। सिकंदर जैसे विदेशी आक्रमणकारी से भी इस गणराज्य ने सामना किया था। मालवा अत्यंत वीर थे। अवंती क्षेत्र (जो आज उज्जैन के नाम से जाना जाता है) में वीर और शूरवीर मालवों का आधिपत्य होने के कारण यह क्षेत्र मालवा कहलाया। मालवा की आतंकी रीति व प्रवृत्ति के साथ ही आवंती प्राकृत भाषाऔर अपभ्रंश आदिकाल से प्रसिद्ध रही है।

यद्यपि मालवी बोली की लिपि देवनागरी है, फिर भी इस बोली में कुछ विशेष है, जैसे-श, ष के स्थान पर मालवी में केवल 'स' ही प्रयुक्त होता है। मंदसौर, नीमच,, भानपुरा आदि क्षेत्रों में 'स' को 'श' उच्चारित करते हैं। यहाँ 'साब' को 'शाब' बोलते हैं। 'ऋ' का उच्चारण 'रि' किया जाता है। रजबाड़ी और सोंधवाड़ी क्षेत्र मे 'स' को 'ह' बोलते हैं। व्याकरणिक दृष्टि से मालवी ओकारांत बोली है। संज्ञा रूप हिन्दी जैसे हैं, वचन भी दो हैं-एकवचन और बहुवचन।

मालवा आदिकाल से ही साहित्यिक दृष्टि से अत्यंत समृद्ध रहा है। धार नगरी के राजा भोज का नाम संस्कृत काव्याशास्त्र में अत्यंत आदर के साथ लिया जाता है, इसी प्रकार उज्जैन के राजा विक्रमादित्य के दरबार के नवरत्नों में से एक-महाकवि कालिदास को कौन नहीं जानता? परमार कालीन 'राउरबेल' काव्य की रचना रोड़ा कवि ने की थी। शिला पर उत्कीर्ण इस काव्य में मालवी का पूर्ण रूप परिलक्षित होता है। इसे देशी भाषा का पहला काव्य माना जाता है। संत पीपा (1360-1425 ई.) ने मालवी को प्रथम बार गुरु गौरव प्रदान किया। इन्हें मालवी का प्रथम लोक कवि माना जाता है। रानी रूपमती, चंद्रसखी जैसी स्त्री कवयित्रियाँ भी मालव माटी ने दी हैं। चंद्रसखी के मालवी भजन तो इतने लोकप्रिय हुए कि 'चंद्रसखी' की छाप सहित वे बुंदेली में परिवर्तित होकर बुदेलखंड की नारियों के कंठहार बने हुए हैं। इनका समय संवत् 1700 के आसपास माना जताा है। इन्होंने मालवा को छोड़कर ब्रज को कालांतर में अपना निवास बनाया था, पर अपनी बोली का मोह नहीं गया :

चित चोंखा मन तापसी प्रभु नेणा घी की धार।

थाल परोसे रुकमणी जी, जीमो कृष्ण मुरार।

हो मानवाराँ कर कर हारी रे, उबा जमनाजी के तीर।

बड़बानी (अब जिला) के निकट ग्राम खजूरी में जन्में संत सिंगानी (16 वीं सदी के उत्तरार्द्ध-17 वीं सदी का पूर्वाद्ध) के पद मालवा के साथ-साथ निमाड़ में भी पर्याप्त समादृत हैं। इसी समय धनाजी, दलुदास, खेमदास, नित्यानंद, महात्मा लाल दास, संत जग्गा जी, दुल्हेराम और संत अफजल साहव भी हुए हैं, जिन्होंने अपने प्रेम-प्रसंगों द्वारा मालवी बोली को समृद्ध किया है। इनके अतिरिक्त मालवी के प्राचीन कवियों की एक लंबी श्रृंखला है। आधुनिक काल में भी जीवण जी, नाथूलाल, पन्नालाल शर्मा, नायाब, नरहरि पटेल, जुगल किशोर द्विवेदी, नरेंद्र सिंह तोमर आदि शताधिक कवियों ने मालवी मे लिखकर मालवी साहित्य की अभिवृद्धि की है। बाल कवि बैरागी तो इनमें सिरमौर ही हैं जिन्होंने राजनीति और साहित्य का सुंदर समन्वय किया है। इतना ही नहीं, काव्य के क्षेत्र में भी इन्होंने ओज और माधुर्य को समन्वित किया है। राष्ट्रीय भावनाओं की अभिव्यक्ति के कारण ओज के कवि के रूप में ही इनकी पहचान राष्ट्रीय स्तर पर है, परंतु उनके काव्य में प्रकृति एवं ग्राम्य संस्कृति की निश्छलता के दर्शन भी होते हैं :

रीता गगन में भरई ग्यो देखो मेरो,

मेरा में लाग्यी रयो विजरी को फेरो।

अछन, अछन इतरावे डील में न्ही भावे,

गूँणइयाँ पूँजईयाँ, इंदर को डेरो

पचरंगी पागाँ ने देखी ने बागाँ में

सतरंगी चूनर ओर लेहर्या लेहरइ ग्या

बादरवा आईग्या।।

मालवी काव्य-जगत् अत्यंत उदार है, गहन है और व्यापक है, इसीलिए यह अत्यंत समृद्ध भी है। हिन्दी की पवित्र उपबोलियों में ब्रज के उपरांत मालवी भी साहित्यिक दृष्टि से समृद्ध और संपन्न है। सर्वाधिक सुखद पक्ष तो यह है कि इसकी समृद्धि और सपन्नता दिनो-दिन बढ़ रही है। इसकी समृद्धि वर्तमान पीढ़ी के कवि और नवोदित कवि अपनी मालवी के गौरव को बचाने हेतु सन्नद्ध हैं। मालवी लोक भाषा-काव्य के संदर्भ में एक तथ्य और भी महत्त्वपूर्ण है। वह यह, कि इसके लोकगीतों में जीवन स्पंदन और गति है। इसलिए इसका परिवेश बहुआयामी और गतिशील है। मालवी लोकगीतों का विविधवर्णी रूप उसे अन्य लोक भाषा के लोकगीतों से पृथक् करता है।

भौतिक सांस्कृतिक वैभव और आर्थिक रूप से यह क्षेत्र जितना सम्पन्न है, कल्प और विविध विधाओं में भी पीछे नहीं है। विक्रमादित्य द्वारा विक्रम संवत् का प्रवर्तन मालवा से ही किया। कालिदास, भोज भर्तृहरि जैसे काव्य मर्मज्ञों, नागार्जुन जैसे रसायनाचार्य और बाराह मिहिर आर्यभट्ट जैसे वैज्ञानिकों की खान यही भूमि रही है। हो भी क्यों न? जिस अंचल में साक्षात् ब्रह्मावतार कृष्ण विद्याध्ययन करने ब्रजभूमि छोड़कर आये हों, जिस अंचल में संदीपनी जैसे प्रकांड विद्वान को श्रीकृष्ण का गुरु बनने का गौरव प्राप्त हुआ हो, वह भूमि निश्चित ही सब प्रकार से उर्वर होगी। इसकी यह उर्वरता कभी समाप्त नहीं हुई। मध्यकाल में विद्वषी व संगीत प्रेमी मांडू महारानी रूपमती ने कला के संरक्षण-संवर्द्धन में महत्त्वपूर्ण कार्य किया, तो विज्ञान की प्रगति में खगोल विद्या प्रेमी राजा जयसिंह ने उज्जैन में वेद्यशाला निर्माण करवाकर अपना नाम इतिहास के पन्नों पर लिखवाया। महाकालेश्वर, ओंकारेश्वर और महेश्वर तो धार्मिक आकर्षण के केंद्र हैं ही। मालवा के सुप्रसिद्धकवि आनंदराव दुबे मालवा की माटी का बखान करते हुए लिखते हैं :

घड़ी-पुराणी या उज्जेणी, महाकाल की हे नगरी।

कालिदास ने, गीता ज्ञान की, याँज उँढ़ेली यी गगरी।

राजा भरथरी राज करीग्या-

रीत नीत बेराग बतइग्या

अमर गीत की तान सुणइग्यो

सांरगी पर गीत गुंजीग्या

सुणलो हिरदा खोल रे।

मालवा की माटी को

संदेसो अनमोल रे।।

इस मालवा की माटी के अनमोल संदेशों के प्रमुख हैं-प्रेम का संदेश-निश्चल प्रेम का संदेश, जो आत्मीयता की भावना को पुष्ट करता है। राष्ट्रीय चेतना के सुदृढ़ीकरण हेतु आत्मीयता की भावना का पोषण अनिवार्य तत्त्व है। यह तत्त्व मालवी लोकगीतों में पर्याप्त विद्यमान है।

राष्ट्रीयता :

राष्ट्र के प्रति उत्कट प्रेम और राष्ट्र पर मर मिटने की भावना तो राष्ट्रीयता है ही, पर राष्ट्रीयता की परिधि मात्र इतनी ही नहीं है। राष्ट्र के गौरव की स्थापना की भावना, राष्ट्र की प्रगति और समृद्धि की भावना, राष्ट्र की संस्कृति, सभ्यता और उसके मूल स्वरूप की भावना, धार्मिक सद्भाव, परस्पर प्रेम और विश्वास की भावना की स्थापना आदि भी राष्ट्रीयता की स्थापना के प्रमुख तत्त्व होते हैं। मालवी के लोकगीत इन तत्त्वों से संपृक्त हैं।

राष्ट्र गौरव की स्थापना की भावना :

भारत ग्रामों का देश है। भारत की प्राचीनतम आर्य सभ्यता भी ग्रामीण थी। ग्राम भारतीय संस्कृति के प्राण हैं। ग्रामों की उन्नति ही राष्ट्र की उन्नति है :

गाम रीढ़ की हड्डी बनके, ग्रामे सारो देश,

ई काठा तो देश मरइयो नी, खइग्यो कितनी ठेश?

इनका ऊपर टिकी सभ्यता, पली प्यार की बेल,

ग्यान-करम की खरी कसोटी, परखी ले सब खेल

कासी-काबा, अमरतसर ई, सबका तीरथ धाम ।

सूरज चाँद करे रखवाली, वी भारत का गाम ।।

 

राष्ट्र की प्रगति और समृद्धि की भावना :

प्रत्येक जागरूक नागरिक की कामना होती है कि उसका देश समद्ध हो, खुशहाल हो और दिनों-दिन प्रगति करे। मालवी का लोक कवि भी यही कामना करता है :

दुख की लाय बुझेगी के प्यारा,

सुख की बरसेगी सही धारा,

तू मन में राख पतियारो

सुखी होयगा देस यो म्हारो

संस्कृति और सभ्यता का संरक्षण :

ग्राम भारतीय संस्कृति के प्राण होते हैं। ग्रामों के रीतिरिवाज, मान्यताएँ, परंपराएँ, लोक-कलाएँ आदि मिलकर वृहद् संस्कृति या राष्ट्रीय संस्कृति का निर्माण करती हैं। विवाह के अवसर पर दूल्हा मंडप के नीचे आता है, और लोक कवि गा उठता है :

माथे जिनके पाग जरी की

सुंदर सूरत बनड़ाजी की

सोभा बइरी जिनकी नीकी

आभा चंदरमा की फीकी

जागे सो-सो सूरज उगाया, इना माँडवा रा नीचे,

रइवर धीरे-धीरे आया, इन माँडवा रा नीचे

धार्मिक सद्भाव : धार्मिक सद्भाव राष्ट्रीयता का प्रमुख तत्त्व है। इसके अभाव मे राष्ट्रीय चेतना की कल्पना नहीं की जा सकती, मालवा में यह बात है, अतः मालवी लोकगीतों में इसके दिग्दर्शन होते हैं :

(क)

विध्यांचल की बाग गुफा में, पांडव की तस्वीर हे।

गौतम की अनमोल सीख में, दनिया की तकदीर हे।

साँची जई संदेशो लाजो

दूर दूर उनके पोंचाजो

प्रेम भाव की जोत जगाजो

दुनियाँ का नर-नारी सुणजो

धरती का ई बोल रे।

(ख)

बात बात में बात बढ़ी गी हुइरी हेंचा ताणी।

झगड़ो रगड़ो देखी ने कवि लिखी काम की बानी।

नारंगी तू नार नवेली मत बन असली सीता ।

खाल उधेड़ हेंड़ जे फेंकी, हुए रया फूट फजीता।

खरबूजा की खास बात हे ऊपर चीर अनेक।

रूप एकता को लड़ ने भतर से सगला एक।

जिना देस का माँय एकता खरबूजा सी-होय ।

वन दूजो ने राज चौगुनी जाने हे सब कोय।

बलिदानी भावना :

राष्ट्र पर मर मिटने का भाव प्रत्येक देशवासी में होना चाहिए। इस भावना में धर्म, पंथ या संप्रदायों को आड़े नहीं आना चाहिए :

मंदिर मज्जित गौतम गिरजा, मरजी वे जो पूजो रे,

पठा, बाजे जुझारू बाजा जद तो इगरा लारे जूझो रे।

भारत माँ का सिंघ सपूतां, साथर सुगणा शूराँ रे

हेला पाड़े रे जामण थाँने जामण हेला पाड़े रे।

मालवी लोक गीतों ने जहाँ क्षेत्रीय परंपराएँ, संस्कृति और विविध रंगों का प्रयोग हुआ है, वहीं लोक कवि ने राष्ट्रीय भावना को विस्मृत नहीं किया है। उसके भी विभिन्न तत्त्वों के दर्शन मालवी के लोकगीतों में देखने को मिलते हैं।


End Text   End Text    End Text