राष्ट्रपिता की गिरफ्तारी पर स्थानीय राष्ट्र-सभा ने
हड़ताल की घोषणा की थी। इस छोर से उस छोर तक सारा बाजार बन्द था। जान पड़ता
था, मानो किसी योगी ने आत्म-साक्षात्कार के लिए समाधि चढ़ा ली हो।
प्रदर्शिनी देखने के लिए हृदय में जो आग्रह होता है, बन्द बाजार देखने के लिए
भी उससे कम नहीं होता; परन्तु मैं घर से न निकल सका। जयदेव कल से ज्वर में
पड़ा था। आज वह शोर-गुल करके, इधर से उधर, उधर से इधर दौड़ कर, पीछे से
अचानक मेरी पीठ पर चढ़कर, और भी अनेक नवविकृत युक्तियों से मेरे पढ़ने-लिखने
में व्याघात नहीं पहुँचा रहा था। जिस तरह घरघराहट के साथ चलती हुई रेलगाड़ी के
यात्री की नींद, गाड़ी रुकते ही उचट जाती है, उसी तरह इस शान्ति में मेरे मन
की शान्ति भङ्ग हो रही थी।
दोपहर के समय वह अचानक फुर्ती के साथ उठकर खाट पर बैठ गया। बोला- मैं भीतर
जाऊँगा। "ऐसे में घूमना-फिरना अच्छा नहीं बेटा !" कहकर मैं ने उसे अपनी गोद
में बिठा लिया। सिर पर हाथ रखकर देखा, ज्वर उतर गया है। उसने मेरी गोद से उठने
का प्रयत्न करते हुए कहा -छोटी दाख !
"छोटी दाख खाओगे ?"
"हाँ !"
घर में छोटी दाख थी नहीं। भजुआ को बुलाकर दो आने की किशमिश ले आने के लिए कहा।
वह विरक्ति प्रकट करते बोला-मालिक, आज हड़ताल है। जब से गाँधी बाबा यहाँ हो
गये हैं, हर दूसरे दिन बाजार बन्द रहने लगा है। पहले तो ऐसा नहीं होता था।
नौकर की बात सुनकर मुझे हँसी आ गई। कुछ दिन पहले इन प्रान्तों की यात्रा करते
हुए बापू हमारे गाँव में भी पधारे थे। उसके बाद ही सत्याग्रह - संग्राम छिड़
गया और हड़ताल रोज की बात हो उठी। यह नौकर देहात से नया आया था; इसलिए मेरे
यहाँ रहकर भी यथार्थ स्थिति से परिचित न था। परन्तु इस समय उसे अच्छी तरह
समझाने का अवसर मेरे पास न था। बच्चे को समझाते हुए मैंने कहा- बेटा, आज
बाजार बन्द है। दाख कल सबेरे मँगा दूँगा। इस समय और कुछ खालो।
जयदेव ने सिर हिलाकर संक्षेप में कहा - दाख !
मैंने उसे बहलाने के लिए कहा-अच्छा, भीतर से लड्डू मँगाये देता हूँ। बहुत
अच्छे, बहुत मीठे !
जयदेव ने विज्ञ की तरह सिर हिलाते हुए कहा - नहीं, मिठाई से दाँत खराब हो
जाते हैं, दाख अच्छी होती है।
उसकी बात सुनकर मैं जोर से हँस पड़ा। दाँत खराब हो जाने के डर से उसने आज तक
कभी मिष्ठान्न का अनादर नहीं किया था।
और कुछ लेने के लिए मैं उसे किसी प्रकार सम्मत न कर सका। कदाचित् दुष्प्राप्य
वस्तु ही अधिक स्वादिष्ट होती है। इस कठोर सत्याग्रह के लिए मैं भूखे बच्चे पर
अप्रसन्न भी न हो सका। विवश होकर बाजार के लिए उठ खड़ा हुआ।
एक मित्र दूकानदार को तलाश करके दूकान खुलवाई, तब कहीं बड़ी मुश्किल से दाखें
मिलीं। उन्होंने दाम नहीं लिये। हड़ताल के कारण उस दिन कोई चीज बेची नहीं जा
सकती थी। मित्र के एहसान के साथ जब मैं दाखें ले कर घर पहुँचा, तब जयदेव अपनी
माँ की गोद में बैठा-बैठा रोटी खा रहा था। दाखें देखकर बोला- मैं अब नहीं
खाऊँगा, और किसी को दे दो।
उसकी उदारता से विस्मित होकर मैंने कहा- मैं तो बड़ी मुश्किल से लाया हूँ;
बहुत अच्छी, बिलकुल साफ | क्यों नहीं खाते ?
उसने कहा- नहीं, आज दाख नहीं खाई जाती। आज गाँधीजी ने हड़ताल कराई है।
मैंने विस्मय प्रकट करते हुए कहा अच्छा, ऐसी बात है ! गाँधीजी नहीं, हम तो
उन्हें बापू कहते हैं। उसने 'बापू' शब्द पर जोर देते हुए कहा- वे तुम्हारे
बापू हैं ?
मैंने हँसकर कहा- हाँ वे हमारे, तुम्हारे और सबके बापू हैं। तुम उन्हें जानते
हो ?
जयदेव ने माँ की गोद में बैठे-बैठे कहा- मैं सब जानता हूँ। उस दिन वे यहाँ आये
थे। मंडियाँ लगाई गई थीं, बन्दनवार बाँधे गये थे और बहुत आदमी इकट्ठे हुए थे।
उन्हें थैली दी गई थी।
उसे इस परीक्षा में उत्तीर्ण पाकर कहा- तो ये दाखें मैं मुन्नी को दिये देता
हूँ।
उसने दृढ़ता से कहा- हाँ, मुन्नी को ही दे दो। वह नासमझ है, मैं सब समझता
हूँ। आज कोई चीज बाजार से मँगाना ठीक नहीं है। इन्हें मैं न खाऊँगा।
वे दाखें उसने नहीं ही लीं।