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व्यंग्य

सांसदों की कीमत

राजकिशोर


क्या जमाना है! किसी भी चीज की कीमत स्थिर नहीं रही। जो शेयर कल तक सोने के भाव बिकते थे, अब वे मिट्टी की दर पर मिल रहे हैं। सोना कभी फिसलता है, कभी उछलता है। मकान कभी महँगे होते हैं, कभी सस्ते हो जाते हैं। बैंक भी अपनी ब्याज दर घटाते-बढ़ाते रहते हैं। कारों की कीमत भी ऊपर-नीचे होती रहती है। जो कर्मचारी कल अस्सी हजार रुपए महीने पाने के काबिल माना जाता था, वह आज अचानक टके के भाव भी महँगा हो जाता है। ठीक ही कहा था हमारे पुरखों ने, लक्ष्मी स्वभाव से ही चंचला है। पुरुष पुरातन की वधू ठहरी।

लेकिन लोकतंत्र? इसके बारे में हम लगातार अपने आपको और खुद से ज्यादा विदेशियों को लगातार आश्वस्त करते आ रहे हैं कि भारत में यह खूब मजबूत और सघन होता जा रहा है। भइया, हमें तो कभी ऐसा लगा नहीं। आखिर हम भी इसी लोकतंत्र में रहते हैं। लोकतंत्र मजबूत होता रहता, तो हम भी मजबूत और सघन होते जाते। लेकिन मुझे यह एहसास कभी नहीं हुआ। अन्याय का विरोध करते हुए कई बार पिटते-पिटते बचा हूँ। हर महीने कोई न कोई ऐसी खबर मिलती है, जिससे यह बात पुष्ट होती है कि अयोग्य व्यक्तियों की पूछ बढ़ती जा रही है। जब किसी महत्वपूर्ण पद पर नियुक्ति का मामला उठता है, तो सबसे पहले उन्हीं पर नजर जाती है। हम ठीक से नहीं जानते। हो सकता है, लोकतंत्र इसी तरह पुष्ट होता हो।

लेकिन लोकतंत्र पुष्ट हो रहा है, तो सांसदों की कीमत में अस्थिरता क्यों आ रही है? अभी उस दिन लोक सभा के स्पीकर सोमनाथ चटर्जी ने कुछ संसद सदस्यों को बताया कि तुम लोगों की कीमत एक रुपए की भी नहीं है। सभी को पता है कि संसद में कही गई बातों पर मानहानि का मामला ले कर अदालत में नहीं जाया जा सकता। संसद की विशेषाधिकार समिति को मामला सौंपा जा सकता है, लेकिन अब यह भी संभव नहीं। इस लोक सभा की मीयाद पूरी हो रही है। अगली बार जब लोक सभा जुड़ेगी, तो वह दूसरी लोक सभा होगी। वह इस लोक सभा के मामलों पर विचार नहीं कर सकेगी। इस तरह मामला रफा-दफा हो जाएगा। सांसदों की वास्तविक कीमत बताने के लिए स्पीकर महोदय ने सटीक समय चुना है।

सच कहूँ तो सोमनाथ चटर्जी की बात मेरी समझ में आई नहीं। कुछ समय पहले यही सांसद थे, जिनकी कीमत लाखों और करोड़ों में लगाई जा रही थी। यह साबित करने के लिए कुछ सांसद अपनी सांसद निधि ले कर लोक सभा में आए और एक करोड़ रुपए की गड्डियाँ भी उछालीं। पर लोक सभा को सदमा नहीं लगा। हलकी-सी तफतीश कर रुपए सरकारी खजाने में जमा करवा दिए गए। यह पता लगाने की जरूरत नहीं समझी गई कि ये रुपए आए कहाँ से थे और किसलिए किसने किसको दिए थे। स्पीकर महोदय को लगा होगा कि सांसदों की कीमत बढ़ रही है, तो यह जश्न मनाने की बात है न कि चिंता करने की।

मुझे लगता है कि एक करोड़ से सांसदों की वास्तविक कीमत का अनुमान नहीं लगाया जा सकता। अनुभवी लोगों का कहना है कि एक-करोड़-रुपया-रिश्वत कांड की जाँच संसद मार्ग थाने के किसी सब-इंस्पेक्टर को सौंप दी गई होती, तो बेहतर था। वह भी शायद वही करता जो लोक सभा ने किया। लेकिन इस बीच दो-तीन करोड़ रुपए खुद भी कमा लेता। आजकल के भाव से एक करोड़ की लाज बचाने के लिए इससे कम क्या खर्च करने होंगे। सरकार चाहती, तो उस पुलिस सब-इंस्पेक्टर से सौदा भी कर सकती थी कि इस कांड से तुम जितना चाहो, कमा लो - बस उसका आधा सरकारी खजाने में जमा कर देना। इससे एक नई परंपरा शुरू हो सकती थी। फिलहाल लोक सभा पर खर्च ही खर्च होता है। सब-इंस्पेक्टर यह साबित कर देता कि लोक सभा से सरकार को कमाई भी हो सकती है।

आजकल सभी कॉलेजों, विश्वविद्यालयों तथा अन्य अनेक संस्थानों से कहा जा रहा है कि वे अपना खर्च खुद उठाएँ। जो आमदनी नहीं कर सकता, उसे खर्च करने का अधिकार नहीं है। देश में नोट छापने का अधिकार सिर्फ एक ही संस्था को है, जिसका नाम है भारत सरकार। बाकी लोगों को नोट कमाने होंगे। इस तर्क से लोक सभा को भी बाध्य किया जाना चाहिए कि वह भी आमदनी करके दिखाए। इसका सबसे आसान तरीका यह है कि चुन कर आनेवाले सांसदों पर एंट्री फी लगा दी जाए। जब संसद की एक सीट जीतने के लिए दस-पंद्रह करोड़ खर्च कर देना मामूली बात है, तो संसद में बैठने की जगह पाने के लिए एक-दो करोड़ खर्च करने से कौन पीछे हटेगा? इसी तरह, संसद में बोलने की दर भी तय की जा सकती है। शोर-शराबे के कारण संसद जितनी देर तक स्थगित रहती है, उसका सामूहिक जुर्माना शोर-शराबा करनेवालों से वसूल किया जा सकता है। निवर्तमान हो रहे सदस्यों पर पाबंदी लगाई जा सकती है कि अगला चुनाव लड़ने के लिए उन्हें संसद से अनापत्ति प्रमाणपत्र लेना होगा। इस प्रमाणपत्र की कीमत सांसद के आचरण को देखते हुए एक हजार से एक करोड़ रुपए तक रखी जा सकती है। संसद की आय बढ़ाने के लिए एमबीए उपाधिधारकों की टोलियाँ नियुक्ति की जा सकती हैं - इस शर्त पर कि जो टोली जितनी ज्यादा आमदनी के स्रोत सुझाएगी, उसे उतना ही ज्यादा पारिश्रमिक दिया जाएगा।


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