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व्यंग्य

मैं राष्ट्रपति क्यों न हो सका

राजकिशोर


राष्ट्रपति बनने की चाह मेरे मन में कभी पैदा नहीं हुई। मुझे लगता है कि यह एक रिटायरमेंट के बाद वाला पद है, जिस पर गाजे-बाजे के साथ आरूढ़ होने के बाद कुछ भी करने की जरूरत नहीं पड़ती। परिस्थितियाँ उससे खुद ही सब कुछ करवा लेती हैं। उसमें कोई गुण होना चाहिए तो यह कि देश की दुर्दशा देखते रहने के बाद भी अपने अखंड मौन को साधे रखने का माद्दा हो। उसे यह सुविधा जरूर है कि वह कठिन समय पर कुछ न बोले, बाद में किसी मौके पर कोई चलता हुआ उपदेश झाड़ दे। मैं इसे अवसरवाद मानता हूँ। दूसरे, मैं मरने के पहले रिटायर नहीं होना चाहता। गले का कोई रोग होने के पहले मैं चुप रहना भी पसंद नहीं करूँगा।

लेकिन जब मैंने देखा कि देश के पास राष्ट्रपति पद के लिए कोई अच्छा उम्मीदवार नहीं है, तो मुझे दया आ गई। देश के बिगड़ते हालात पर दया तो मुझे बहुत दिन से आती रही है, तभी से जब यह निश्चित हो गया कि हालात को बदलने की क्षमता मुझमें नहीं है, पर यह तो हद है कि देश चाह रहा हो और राष्ट्रपति पद के लिए कोई बेहतर आदमी न मिले। भाजपा कहती है कि प्रतिभा पाटिल का अतीत स्वच्छ नहीं है। कांग्रेस का मानना है कि शेखावत अंग्रेजी राज में सरकार के जासूस थे। फिर वोट किसे दिया जाए? दुर्लभता की इस स्थिति में मैंने अपनी सेवाएँ देश को अर्पित करने का फैसला किया। मेरा अतीत न कांग्रेसी है, न भाजपाई। मेरे अतीत में भी दाग होंगे, पर वे प्रतिभा पाटील या शेखावत जैसे नहीं हैं। इसलिए मुझे स्वीकार करने में किसी को दुविधा नहीं होनी चाहिए।

सबसे पहले मैं कांग्रेस के दफ्तर में गया। अपना परिचय दिया, सीवी दिखाई। वहाँ मौजूद नेता और कार्यकर्ता हो - हो कर हँसने लगे। मुझे गुस्सा आ गया। मैंने कहा, 'इसमें हँसने की बात क्या है? निश्चित रूप से मुझमें प्रतिभा पाटील से अधिक योग्यता है। मैंने कानून की पढ़ाई भी की है, सो संविधान की बारीकियों को समझता हूँ। प्रभाष जोशी के स्तर का तो नहीं, फिर भी ठीक-ठाक पत्रकार माना जाता हूँ।' एक नेता ने अपनी हँसी रोक कर कहा, 'सर, हमें राष्ट्रपति पद के लिए आदमी चाहिए। इसमें योग्यता का सवाल कहाँ उठता है?' मुझे लगा कि बात तो ठीक है। योग्यता का सवाल तो प्रधानमंत्री और

कांग्रेस अध्यक्ष पद के लिए भी कभी नहीं उठा। मैं समझ गया, यहाँ बात नहीं बनेगी।

उसके बाद मैं एक बड़े कम्युनिस्ट नेता से मिलने गया। मैंने सोचा कि ये पढ़ने-लिखने वाले लोग हैं। शायद मेरी योग्यता का सही मूल्यांकन कर सकें। कम्युनिस्ट नेता मेरी बात अंत तक ध्यान से सुनते रहे। फिर बोले, 'हमें किसी प्रगतिशील उम्मीदवार की तलाश नहीं है। वे तो हमारी पार्टी में भरे पड़े हैं। मैं खुद क्या किसी से कम प्रगतिशील हूँ? लेकिन हम अभी इस सरकार में भाग लेना नहीं चाहते। यह कांग्रेस की सरकार है। इससे हमारा क्या नाता?' मैंने याद दिलाया, 'लेकिन राष्ट्रपति तो दलगत राजनीति से बहुत ऊपर होता है। वह सिर्फ देश और संविधान के प्रति प्रतिबद्ध होता है।' इस पर लाल नेता भड़क उठे। बोले, 'लगता है, तुम दूसरों के लेख अपने नाम से छपवाते हो। इतना भी नहीं जानते कि राष्ट्रपति आम तौर पर सत्तारूढ़ दल का प्रतिनिधि होता है। जब सरकार बदल जाती है, तो उसकी वफादारी नई सरकार के प्रति हो जाती है। तुम क्या राष्ट्रपति बनोगे? जाओ, मेरा वक्त बरबाद न करो। हम अभी प्रतिभा पाटील को जितवाने की रणनीति बनाने में व्यस्त हैं।'

मेरी निराशा दुगुनी हो गई। राजनाथ सिंह के पास जाने का मन नहीं हो रहा था। वे मुझे हमेशा हाई स्कूल के किसी कड़क टीचर की तरह लगते हैं। फिर उनके पास अपनी पार्टी का एक छिपा हुआ उम्मीदवार है ही। इसके अलावा उनके पास सांप्रदायिकता विरोधी लेखकों और पत्रकारों की सूची भी होगी। तभी मुझे मायावती में कुछ आशा दिखाई पड़ी। सुनता हूँ कि वे समाज के सभी वर्गों को साथ लेकर चलना चाहती हैं। पत्रकार भी तो समाज का एक महत्त्वपूर्ण वर्ग है। हो सकता है, उन्हें लगे कि कुछ पढ़ने-लिखने वाले लोगों का समर्थन भी हासिल किया जाए।

आज की मायावती से मिल पाना बहुत कठिन है। वे किसी से फालतू नहीं मिलतीं। दिन-रात अगला प्रधानमंत्री बनने की रणनीति पर काम करती रहती हैं। फिर भी मैंने जुगाड़ भिड़ा लिया। भारत की यही खूबी है। कोई भी काम हो, जुगाड़ भिड़ ही जाता है। मायावती के कमरे में प्रवेश कर मैंने सबसे पहले उन्हें प्रणाम किया (कई लोगों ने बताया था कि सीधे पैरों पर गिर पड़ोगे, तो काम जल्दी सिद्ध होगा, पर मुझे हिम्मत नहीं हुई - मेरी अंतरात्मा कुछ ज्यादा ही जिद्दी है), फिर बहुत संक्षेप में अपनी बात रखी। मायावती का पहला सवाल था, 'कितना पैसा लाए हो?' मैंने किसी मूर्ख की तरह दुहराया, 'पैसा?' मायावती की पेशानी पर बल पड़े, 'खाक पत्रकारिता करते हो? तुम्हें पता नहीं है कि मैं बिना पैसा लिए किसी को टिकट नहीं देती? टिकट तो क्या, टिकट के लिए किसी का आवेदनपत्र भी हाथ में नहीं लेती। फिर यह तो बड़ा मामला है - राष्ट्रपति पद का।' मेरे चेहरे पर सुलगता हुआ सन्नाटा देख कर मायावती ने आवाज में थोड़ी और तुर्शी ला कर कहा, 'इस मामले में तो पैसे से भी बात नहीं बनेगी। तुम स्वतंत्र पत्रकार हो। राष्ट्रपति बन जाने के बाद भी स्वतंत्र रहना चाहोगे। जबकि मुझे जल्दी ही प्रधानमंत्री बनना है। उस समय ऐसा राष्ट्रपति ही मेरे काम आएगा जिसे हवा का रुख भाँप कर चलने की आदत हो। घर जाओ, मेरा वक्त बरबाद मत करो।'

उसी रात मैंने दिल्ली की ट्रेन पकड़ ली। घर आकर पहली प्रतिज्ञा यह की कि अब मैं कभी देश पर दया नहीं करूँगा। जिसे देश पर दया आती है, वह खुद दयनीय बन जाता है।


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