(1)
पृष्ठभूमि
अब तक जो कुछ लिखा गया है वह सन 1940 ई. के अप्रैल में होनेवाली जेल-यात्रा तक की ही गाथा है। जेल के ये दो साल कैसे गुजरे और वहाँ कौन सीमहत्त्वपूर्ण घटनाएँ घटीं,यह बात बिलकुल ही छोड़ दी गई, छूट गई है। यह सही है कि यह जीवन-संघर्ष की कहानी जेल में ही लिखी गई। मगर इसका श्रीगणेश वहाँ पहुँचते ही कर दिया गया। फलत: बादवाली बातें लिखी जा सकती थीं नहीं। वे शेष रह गईं। सन 1942 ई. के 8 मार्च को मेरी रिहाई हुई। तब से ले कर आज सन 1946 ई. केमध्यतक की अनेकमहत्त्वपूर्ण घटनाएँ लिपिबध्द न हो सकी हैं। इसके न रहने से यह दास्तान अधूरी ही रह जाएगी, यह राम कहानी अपूर्ण ही मानी जाएगी। इन घटनाओं में कुछ तो बहुत ही अहम हैं, महत्त्वपूर्ण हैं और सिध्दांत की दृष्टि से ही उनका स्पष्ट उल्लेख निहायत जरूरी है। उन पर प्रकाश न पड़ने से अनेक भ्रमों एवं मिथ्या धारणाओं के लिए गुंजाइश भी बनी ही रहेगी। इसीलिए संक्षेप में ही सभी बातें लिख कर इस राम कहानी को आप तक पहुँचा देना, (अपटुडेट बना देना) जरूरी है।
(2)
जेल के दो साल
सन 1940 ई. अप्रैल केमध्यसे ले करसन 1942 ई. के मार्च के दूसरे हफ्ते तक प्राय: दो साल जेल में गुजरे और अच्छी तरह गुजरे। सजा थी सख्त। फलत: कुछ-न-कुछ काम करना जरूरी था। फल भी अच्छा ही होने को था। क्योंकि इससे हर साल प्राय: तीन महीने सजा में यों ही कम हो जाया करते हैं। इसी को मुआफी या'रेमिशन'कहते हैं। यही जेलों का नियम है और इससे लाभ न उठाना नादानी है। कुछ काम न करने से शारीरिक,मानसिक आदि हजार संकट भी आते रहते हैं। यों ही गप्प-सड़ाके में नाहक समय कटता है। यद्यपि मेरे साथ यह बात न थी, क्योंकि मैंने अपने एक-एक मिनट के सदुपयोग के लिए नियम बना लिए थे। फिर भी मैंने जेल का कुछ काम करना समय के सदुपयोग के भीतर ही डाल दिया और प्रतिदिन कुछ-न-कुछ सूत कातना तय कर लिया। मेरा चर्खा नियमित रूप से चला करता था। इस बार का सूत जेल की ही संपत्ति रहा। मैंने पैसे देकर उसे रिहाई के समय खरीदा नहीं। ऐसा ही विचार हो आया।
गीता-पाठ और पुस्तकें लिखना
गीता के पठन-पाठन का काम भी चलता रहा। कुछ साथियों ने हठ किया कि उन्हें गीता पढ़ा दूँ और मैंने मान लिया। उसका समय निधर्रित था और कुछ लोग चाव तथा उत्साह के साथ नियमित रूप से पढ़ने आया करते थे।
जीवनी (मेरा जीवन-संघर्ष) के सिवाय मैंने 'किसान कैसे लड़ते हैं?', 'क्रांति और संयुक्त मोर्चा', 'किसान-सभा के संस्मरण', 'खेत-मजदूर', 'झारखंड के किसान' और 'गीता हृदय' ये छ: पुस्तकें और भी लिखीं। इनमें पहली दो तो प्रकाशित भी हो गई हैं। शेष प्रकाशित होने ही को हैं। इनमें गीता हृदय तो जेल से निकलने के ठीक पूर्व जैसे लिखा जा सका। जानें मेरे दिल में रिहाई के दो मास पूर्व क्यों यह बात जम गई कि गीता हृदय पूरा करो,नहीं तो रिहाई होने ही वाली है और फिर वह पड़ा ही रह जाएगा। बस, मैंने उसमें हाथ लगा दिया। सचमुच ही मेल की गति की बात ही क्या, मैं स्पेशल ट्रेन की चाल से चलता रहा। तब कहीं यह लंबी पुस्तक पूरी हो सकी। लिखित कॉपी (हस्तलिपि) पर रोज-रोज की तारीखें नोट हैं कि किस दिन कितना लिखा। फिर भी इसका आशय यह नहीं है कि ऊलजलूल बातें लिख मारीं। ऐसा नहीं हुआ। जो कुछ लिखा गया वह खूब समझ-बूझ के,इतने पर भी दोई भाग पूरे हुए। तीसरा लिखा न जा सका। उसके लिए कुछ खास छानबीन और अन्वेषण जरूरी था और वैसी पुस्तकें जेल में मिल न सकती थीं। मेरा अपना विचार है कि 'गीता हृदय' में लिखी बातें अपने ढंग की निराली हैं। उनमें अधिकांश विचार के परिपाक के परिणाम हैं। कुछ तो लिखते-लिखते अकस्मात सूझीं और मैं आश्चर्यचकित रह गया। उन्हें लिपिबध्द करने में मुझे अपार आनंद हुआ।
कुछ और भी साथी थे जिन्हें किसान-सभा के विकास का इतिहास बताता रहा और किसानों में काम करने की शिक्षा दी। जेल में ही श्री जयप्रकाश बाबू तथा अन्यान्य पुराने साथियों से कभी बातें करने और विचार विनिमय का मौका आया तो कभी वे बेहद नाखुश भी हुए। मेरी लाचारी थी। जिससे मैं न तो उनकी सभी बातें मान सकता था और न उन्हें खुश कर सकता था।
श्री जयप्रकाश बाबू ने मुझसे बार-बार अनुरोध किया कि वे एक नई पार्टी, 'पीपुल्स पार्टी' (जनता की पार्टी) बनाना चाहते हैं जिसमें मुझे भी रहना चाहिए। मगर मैंने नहीं की। मेरे दिल में यह बात क्यों नहीं जँची, कौन कहे? यह बात उन्हें बुरी लगी होगी जरूर। मगर इससे वे मुझसे नाखुश हुए, ऐसा मुझे मालूम न हुआ। हाँ, अन्यान्य साथी सख्त रंज थे।
राजनीतिक शिक्षा नहीं , चर्खा
हमारी जेलयात्रा के बाद महात्माजी के द्वारा कांग्रेस का व्यक्तिगत सत्याग्रह चलाया गया जिसके फलस्वरूप सभी प्रमुख कांग्रेसी जेल में आ बैठे। इस तरह हजारीबाग जेल में प्राय: तीन-चार सौ ऐसे सज्जन थे जो बिहार के चुने-चुनाए कांग्रेसजन थे। उनमें कुछ तो काफी पढ़े-पढ़ाए लोग थे। फिर भी अधिकांश राजनीति के यथार्थ ज्ञान से बहुत दूर थे। आज तो राजनीति दर्शन और विज्ञान बन गई है। फलत: उसके अधययन-मंथन की बड़ी जरूरत है। इसके बिना हमें धोखा होगा। फिर भी देखा कि सबों का जोर केवल चर्खे पर था। राजनीति में तो शायद कुछेक की रुचि थी। मैंने लोगों से कहा भी। मगरउत्तरमिला कि राजनीति तो महात्मागाँधी के ही जिम्मे है,हमें उसकी विशेष जानकारी से क्या काम?हम तो आज्ञाकारी सिपाही हैं जिन्हें केवल चर्खा चलाना है! मुझे आश्चर्य हुआ। मैंने सोचा, आखिर चर्खा तो हाथ-पाँव से चलता है, न कि दिमाग से। अगर दिमाग ने भी वही काम किया तो आदमी गधा बन जाएगा। क्योंकि दिमाग के विकसित न होने का नतीजा यही होता है। हमारा देश जैसे गधों का मुल्क है, जहाँ अंधपरंपरा के पीछे हम मरे जाते हैं और संपत्ति,प्रतिष्ठा,धर्मसभी कुछ गँवाते हैं।जिस देश के परलोक और स्वर्ग-बैकुंठ का ठेका निरक्षर एवं भ्रष्टाचारी पंडे-पुजारियों के हाथ में हो,कठमुल्ले तथा पापी पीर-गुरुओं के जिम्मे हो उसका तो 'खुदा ही हाफिज' है। यह गधों का मुल्क नहीं है तो आखिर है क्या? मगर वहाँ मेरी बात सुनता कौन?लाचार चुप रह जाना पड़ा।
हम और साधारण कैदी
इस बार मैंने हजारीबाग जेल में एक बात और की। साधारण कैदियों के साथ आम तौर से सभी लोग लापरवाही का सलूक करते हैं। राजबंदी लोग इसके अपवाद नहीं होते। हाँ, कुछ लोग कभी-कभी उनकी ओर नजर जरूर फेरते हैं और दो-चार मीठी बातें कर लेते या कुछ खिला-पिला देते हैं। मगर जरूरत है कि उनकी ओर सबों के रुख में परिवर्तन हो। जेल अधिकारी उनके साथ मनुष्य का व्यवहार करें और खान-पान में उनके हकों को न मारें। मैंने हजारीबाग जेल में यही प्रश्न उठाया और खुशी है कि मुझे इसमें सफलता भी मिली। एतदर्थ मुझे जेल अधिकारियों से कभी लड़ना नहीं पड़ा। दरअसल जेल सुपरिंटेंडंट मेजरनाथ की ईमानदारी,दूरंदेशी और सज्जनता का ही फल था कि इस ओरध्यानदिलाते ही उनने बात मान ली। नतीजा यह हुआ कि जेल में कैदियों का डिसिप्लीन बना रहा। फिर भी उनका खान-पान बहुत कुछ सुधार गया। उनके साथ सलूक भी अच्छा होने लगा। यदि जेलों में कैदियों के राशन और वस्त्रादि में अधिकारी लोग चोरी न करें तो उन्हें बहुत कुछ आराम मिले। यही बात वहाँ हुई। फलत: वे कैदी बरसों मेरे रहते आराम से रहे जिससे आज भी मुझे याद करते रहते हैं, ऐसी खबरें मिला करती हैं।
मेजरनाथ
जब साधारण बंदियों के संबंध में मेजरनाथ का ऐसा सुंदर रुख था, तो राजबंदियों के बारे में कहना ही क्या? शायद ही ऐसा कोई बदबख्त राजबंदी होगा जिसने उनसे बुरा माना। यों तो समय पर जेल के नियमों की पाबंदी करना-कराना उनका प्रधान काम था ही और अगर इससे कोई बुरा माने तो बात ही दूसरी है। मगर पीछे चल कर इसी शराफत और भलमनसी के चलते मेजरनाथ को नाहक परेशानी उठानी पड़ी और बरसों उनके बारे में डिपार्टमेण्ट की ओर से जाँच-पड़ताल होती रही। हालाँकि आखिरकार वे शान के साथ निर्दोष साबित हुए। जेल के नियमों की पाबंदी करते-कराते अगर उनने नियमानुसार ही राजबंदियों को आराम दिया तो बुरा क्या किया?यदि कायदा-कानून तोड़ते तो बात दूसरी थी। मगर विदेशी सरकार जो ठहरी।
राजनीतिक पंडागिरी
इस बार भी राजनीतिक पार्टियों की धमाचौकड़ी और उथल-पुथल भीतर-ही-भीतर जेल में खूब रही। एक राजबंदी ने बैठे-बिठाए एक मनोरंजक कार्टून (व्यंग्य-चित्र) इससंबंध में बना डाला जो इन पार्टियों की मनोवृत्ति पर पूरा प्रकाश डालता था और पार्टियों के तथाकथित संचालक-सूत्रधार क्या करते हैं उसका खासा चित्रण था। चित्र में इन सूत्रधारों के हाथों में वंशी पकड़ा दी गई थी और उसे ले कर ये लोग जेल के फाटक पर खड़े थे। उधरसे कोई नया राजबंदी आया कि वहीं उसके फँसाने की कोशिश शुरू हो गई। इस काम के लिए कपड़ा-लत्ता, बीड़ी-सिगरेट आदि सभी प्रकार की चीजें इन आगंतुकों को दी जाती थीं,ताकि वे किसी पार्टी के सदस्य बनें और कायम रहें। हर पार्टीवालों को यही कोशिश होती थी कि वह हमारे चंगुल में फँसे। गया प्रभृति तीर्थों के पंडे अपने एजेंटों और दलालों को स्टेशनों एवंधर्मशालाओं में भेज कर अपने-अपने यात्रियों को'गिरफ्तार'करते हैं। यही बात यहाँ भी थी। पंडों के दलाल यात्रियों के घर द्वार पूछ कर ही उन्हें अपने यहाँ ले जाते हैं। यहाँ भी कुछ उसी प्रकार की बातें होती थीं और आगंतुक राजबंदियों के साथ अपने तथा अपनों के पूर्व परिचयों से अनुचित लाभ उठाया जाता था,जबकि पंडे ऐसा लाभ नहीं उठा सकते। इस प्रकार यह निराली राजनीतिक पंडागिरी खूब चलती थी और अंततोगत्वा अधिकांश आगंतुक किसी न किसी पार्टी में फँसी जाते थे यदि वह घोरगाँधीवादी या बहुत ही पक्के विचार के न हुए। यह बात मुझे बहुत ही खलती थी,खासकर इसलिए कि धार्मिक संप्रदायों की ही तरह ये राजनीतिक संप्रदाय एक-दूसरे को गालियाँ देते और उनके नेताओं को देशद्रोही और गद्दार तक कह डालते हैं। हर पार्टी सोचती है कि देश का उध्दार एकमात्र उसी के बताए रास्ते से हो सकता है। धर्मवाले भी मुक्ति के बारे में ऐसा ही मानते हैं। एक ओर तो ये भलेमानस देशव्यापी राष्ट्रीय एकता की बात बोलते हैं। दूसरी ओर जो लोग हिमालय-लंघन जैसी कठिन एकता के लाने में सहायक हो सकते हैं। वही आपस में जूती पैजार करते रहते हैं। आखिर इन पार्टियों तथा उनके नेताओं में ही तो समझदारी और राजनीतिक चेतना है और बाकियों को यही समझा सकते हैं। किंतु खुद यही नासमझ बने आपसी टीका-टिप्पणी और छिद्रान्वेषण में ही सारा समय बिताते हैं! मैं इसे निरा पागलपन मानता हूँ कि किसी पार्टी में जाते ही बड़े-से-बड़ा देशभक्त देशद्रोही माना जाने लगे। मैं इतनी दूर जाने की हिम्मत नहीं रखता।
पार्टियों में क्यों नहीं
मैं यदि पार्टियों से भड़कता हूँ तो उसकी यह एक बहुत बड़ी वजह है। आज तो मैं पार्टी लीडरों को देशभक्त मानता हूँ और कल ही किसी पार्टी में घुसा कि बाकियों को गद्दार समझने की नादानी ही करनी पड़ी! कम-से-कम इस बात का'गुरु मंतर' तो उस पार्टी में दिया ही जाना शुरू हुआ। यह रंगीन दृष्टि बहुत ही खतरनाक है। मैं इससे डरता हूँ। यह समझ में आने की चीज भी नहीं। समझ में आए भी कैसे?पार्टीवाले व्यक्तित्व एवं व्यक्तिगत समझ को तो खत्म ही कर देते हैं। पार्टियों में इसके लिए गुंजाइश नहीं! वहाँ तो घुसते ही व्यक्ति ठेठ समष्टि बन गया! यह अजीब जादू, निराली कीमिया, विचित्र जड़ीबूटी है जो छूमंतर करती है। हम पार्टी में गए और हमारीस्वतंत्रताही गायब,हालाँकि हमारा सबसे पहला लक्ष्य है यहस्वतंत्रता ही। चालीस कोटि जनों की स्वतंत्रतातो हम जरूर चाहते हैं! मगर इसके लिए जरूरी है कि अपनी स्वतंत्रता,अपने सोचने-विचारने और बोलने कीस्वतंत्रता को गँवा दें-समष्टि की, पार्टी कीस्वतंत्रतामें व्यक्ति की,व्यष्टि की यह आजादी हजम करवा दें। मेरे जैसा तुच्छ व्यक्ति इतना बड़ा त्याग करने की हिम्मत नहीं रखता कि जिस स्वतंत्रता के लिए लड़े-मरे उसे ही अपने लिए खत्म कर दें, अपने को निरी मशीन बना दें और इस तरह' बहुत ढूँढ़ा उसे हमने न पाया। अगर पाया पता अपना न पाया'वाली वेदांतियों की बात चरितार्थ करे। मैं मानता हूँ कि व्यक्तिगत स्वतंत्रता को कुछ हद तक मिटाए बिना कोई संस्था नहीं चल सकती। मगर यह भी मानता हूँ कि ब्योरे की बातों में ही यह बात संभव है और होनी चाहिए। सिध्दांत की बातों में व्यक्तिगत स्वतंत्रता रहनी ही चाहिए। यह दूसरी बात है कि उस मामले में भी,हम संस्था या समष्टि का खुल के या संगठितविरोधन करें,खासकर ऐतिहासिक और युध्द के समय जब कि जीवन-मरण की बात हो। हम अपना व्यक्तिगत खयाल जाहिर करके चुपचाप बैठजाए और सक्रियविरोधन करें,यह तो समझ की बात है। मगर विचार ही खत्म कर दें यह भयंकर बात है।
पार्टियों की करतूतें
जेल में इस बार जो पार्टियों की करतूतों का कटु अनुभव हुआ वह कभी भूलने का नहीं। उनने भरसक कोशिश की कि जो उनमें शामिल न हों उनका जीवन नारकीय बन जाए। खासकर एक पार्टी के तथाकथित महारथियों की करनी रुलाने एवं गुस्सा लाने वाली थी। उनने कोई भी तरीका उठा न रखा लोगों को अपनी पार्टी में भर्ती करने और भर्ती न होनेवालों का जीवन कष्टमय बनाने में। धमकी और मारपीट तक उतर आए। समस्त जेल का वायुमंडल अत्यंत दूषित बन गया और जेल की अपनी कोठरी (सेल से बाहर निकलना असंभव था। मेरी तो दिनचर्या ही ऐसी थी कि मिनट-मिनट कामों में बँटे थे और दैनिक क्रियाएँ घड़ी की सुई की तरह ठीक समय होती थीं। फिर भी सचमुच ही मैं भयभीत था कि ये पार्टी के भूत न जाने क्या कर डालें और किस तरह कब पेश आएँ। फिर भी मैंने अपना यह भय किसी पर प्रकट नहीं किया। नहीं तो मामला और बेढब हो जाता।
दिनचर्या
मेरा भोजन तो चौबीस घंटे में एक ही बार होता था सो भी आम तौर से दलिया ही खाता था। यह मेरा चिरपरिचित प्रियतम खाद्य है। पानी में पके गेहूँके दलिए को मैं अत्यंत प्रेम से खाताहूँ। उसके साथ साग-तरकारी या दूध की भी जरूरत नहीं है। मीठा तो चाहिए ही नहीं। यदि कभी बिना नमक-मसाले की उबली शाक-तरकारी या गाय के दूध के साथ भी उसे खाता हूँ तो यों ही। उसकी जरूरत मुझे मालूम नहीं होती। खाने के बाददूधपी लेता हूँ। यह एक भुक्तता का नियम अब जीवन भर चलेगा। इससे मैं नीरोग और हलका रहता हूँ। एक बार भोजन,दोनों समय मिला कर 7-8 मील टहलना और रात में सात घंटे से कम सोना नहीं,इन तीनों का सम्मिलित परिणाम यह हुआ कि मैंइधरबीसियों साल से कभी बीमार न पड़ा। हाँ, दिमागी कामदूधजरूर चाहता है। इसी से रात में गौ केदूधबिना मेरा काम नहीं चलता।
हाँ, तो जेल में शाम को दूध पीकर सात ही बजे सो जाता और दो बजे रात में उठकर नित्यक्रिया, आसन और टहलना सुबह होने तक पूरा कर लेता। लोगों को आश्चर्य होगा कि हजारीबाग की सख्त सर्दी में भी मैं जाड़े में उठकर सभी कामों से फुर्सत पाने के बाद अँधेरे में ही गाय का तक्र दो गिलास पी लेता था और नीरोग रहता था। गर्मियों में तो मुझे बाहर ही सोने दिया जाता था। मगर जाड़े में भी जेलवालों का ऐसा प्रबंध था कि हमारी कोठरी (सेल) का ताला दोई बजे रात में खुलवा देते थे, ताकि मैं शौचादि से फुर्सत पा लूँ। जाड़े में एक बाल्टी में सोने के पूर्व ही पानी भर के चूल्हे पर रख देता था और दो बजे वह कुछ-न-कुछ गर्म ही मिलता था ─कम-से-कम हाथ-पाँव ठिठुरानेवाला तो नहीं ही रहता था। फलत: उससे स्नान करने में आसानी थी।
रूस पर जर्मनी का हमला
जब हम जेल गए थे तो यही मानते थे कि इस यूरोपीय महायुध्द के खिलाफ हमें युध्द करना है और इस प्रकार अंग्रेजी सरकार के युध्दोद्योग में जहाँ तक हो सके बाधा पहुँचानी है। इसे ही अंग्रेजी में (war against-war) कहते हैं। मार्क्स, एंगेल्स और लेनिन के लेखों तथा मंतव्यों से हमने यही सीखा था कि साम्राज्यवादी युध्द को सफल होने न देना। हमने यह भी देखा था कि यदि सन 1917 ई. में रूसी जनता-किसान-मजदूरों-को जारशाही एवं पूँजीशाही को उठा फेंकने में सफलता मिली तो इसी सिध्दांत के चलते। वहाँ की जनता ने इसी पर अमल किया और वह पहले जार के और पीछे पूँजीपतियों के तख्त को उलट फेंकने में समर्थ हुई। यह तो इस मंतव्य की ताजी परीक्षा थी। फिर हम इस पर अमल क्यों न करते? फलत: यही करते-कराते हमें जेल चला आना पड़ा। वहाँ भी हमारी यही धारणा तब तक बनी रही जब तक हिटलर ने रूस पर हमला नहीं किया। हमले के एक सप्ताह के बाद ही हमारा यह खयाल जड़ से बदल गया। 21वीं जून, सन 1941 ई. की आधी रात के बाद यानी 22वीं जून को हिटलर का आक्रमण हुआ और जून के बीतते-न-बीतते हम स्वतंत्र रूप से-बिना किसी से पूछे या वाद-विवाद किए ही-इस नतीजे पर पहुँचे कि हमें अब वह सिध्दांत छोड़ना ही होगा। हिटलर और उसकी गत दो वर्षों की सामरिक गतिविधि के सूक्ष्म पर्यवेक्षण ने हमें ऐसा सोचने एवं निश्चय करने को बाधय किया।
फासिज्म के करिश्मे
इस बात पर थोड़ा विस्तृत विचार कर लेना जरूरी है। कारण, यह अहम मसला है। युध्द के विरुध्द युध्दवाला सिध्दांत अपनी जगह पर साधारणतया पूँजीवादी परिस्थिति और युग में ठीक ही है। मगर यह युग साधारण पूँजीवाद का न हो कर उसके गुंडाशाही रूप, फासिज्म का है जिसे नात्सीज्म और फाइनान्स कैपिटल का युग भी कहते हैं। मर्केंटइल कैपिटल (व्यापारिक पूँजी) और इंडस्ट्रियल कैपिटल (औद्योगिक पूँजी) के युगों को पार करके यह फाइनान्स कैपिटल (आर्थिक पूँजी) का युग आया है। मोटी तौर पर पहले को पूँजीवादी और दूसरे को साम्राज्यवादी युग भी कह सकते हैं, कहते हैं। पर तीसरा युग साम्राज्यवाद की मरणशय्या का युग है जब कि वह सरेसाम की हालत में बेहद कूदफाँद और तूफान मचाता है। इसकाध्यानमाक्र्स, एंगेल्स और लेनिन ने किया जरूर होगा और लेनिन तो विशेष रूप से अपनी सूक्ष्म दृष्टि से यह भी देखता होगा कि यह आने ही वाला है। फिर भी उन्हें इससे पाला नहीं पड़ा था। इसीलिए इसके अनुरूप अपनी गतिविधि को बदलने का निश्चित आदेश स्पष्ट रूप से वे किसान-मजदूरों को-शोषित एवं पीड़ित जनता तथा उसके नेताओं को-दे न सके थे। यदि उन्हें इस फासिज्म के करिश्मों का प्रत्यक्ष अनुभव होता तो इससे निपटने के रास्ते वे अवश्य ही स्पष्ट लिख जाते। मगरयह बात थी नहीं।
हिटलर और उसके साथी फासिस्टों-इटली एवं जापान-के शासकों की अभूतपूर्व विजय और एतदर्थ निराले ढंग की तैयारी-जिसका पता शेष दुनिया को पहले न था। किंतु इन विजयों के फलस्वरूप होने लगा था-हमें जेल में बैठे-बिठाए सोचने को बाध्य कर रही है कि क्या होने जा रहा है, युध्द का परिणाम क्या होनेवाला है, ये तीनों शैतान मिल-मिला के क्या करने जा रहे हैं? ये प्रश्न हमें परेशान कर रहे थे, खास कर हिटलरी चमत्कार और उसकी अपार सैनिकशक्ति हमें विवश कर रही थी कि हम वर्तमान एवं निकट भविष्य की ही परवाह न करके दूर भविष्य के बारे में भी सोचें। हमारे दिल-दिमाग हमें बताने लगे थे कि हिटलर तो संसार भर के लिए─सारी दुनिया के लिए─बला बनने जा रहा है। जब वह सीमित कोयला,लोहा, पेट्रोल आदि के बल पर ऐसी भीषण तैयारी कर सकता है,तब तो रूस,इराक,फारस आदि को जीत लेने पर संसार के ऊपर एकच्छत्र राज करेगा और स्थान-स्थान पर केवल लोगों को दबा रखने के लिए फौज (occupation army) रखेगा। केवल जर्मनों को आर्य और शेष लोगों को अनार्य मानने का उसका अभिप्राय भी यही प्रतीत होगा कि जर्मन शेष संसार के अनार्यों पर शासन करें, उन्हें कच्चा माल पैदा करने के लिए छोड़ दें औरसर्वत्रजर्मनी के बने तैयार माल की मंडियाँ खुलजाए। हमारे दिमाग में कुछ इसी प्रकार की खलबली थी,बेचैनी थी और यह दशा रूस पर हिटलर के आक्रमण के ठीक कुछ दिन पहले से हो रही थी ज्यों-ज्यों हम हिटलर और दोस्तों की छूमंतरी विजयों को देख रहे थे। फिर भी हमारा खयाल था कि अभी तत्काल रूस पर वह हमला न करेगा। किंतु बाकियों को जीतकर एक-दो साल रुकेगा और पूरी तैयारी करके रूस पर धावा बोलेगा। आखिर साँस भी तो उसे लेना चाहिए।
जब रूस पर उसने एकाएक धावा बोल दिया तो हम अकचका गए। पहले तो हमें विश्वास ही न हुआ जब एक साथी ने हमसे कहा कि हिटलर ने रूस पर हमला कर दिया। तब तक हमें उस दिन का अखबार न मिला था। हमने उत्तर दिया कि सरासर झूठी बात है। जब साथी ने उसे दुहराया तब भी हम यकीन करने को तैयार न थे। जब उसने तीसरी बार कहा तो हमारे मुँह से यकायक निकल पड़ा कि हिटलर सनक गया। हमें भी समझ में नहीं आता कि हम यह कैसे बोल उठे। मगर परवर्ती घटनाओं ने बताया है कि वह जरूर सनक उठा था। वह सनक क्यों और कैसी थी यह बात दूसरी है। हम रूस की शक्ति समझते थे कुछ-कुछ। इसलिए भी हमें ऐसा कहने का साहस हुआ। जब-जब एके बाद दीगरे लेनिनग्राड,मास्को, और स्तालिन ग्राड पर हिटलर के घेरे आगे चल कर और जेल के हमारे साथी कहा करते थे कि हिटलर ने अब लिया, तब लिया तब भी हमारा बराबर यही कहना था कि वह लेलिनग्राड को ले नहीं सकता, मास्को जीत नहीं सकता आदि-आदि। ये बातें भी सही निकलीं।
मगर अब तो हमें और भी बेचैनी हुई कि यह क्या होने जा रहा है?इस संसार मात्र की बला (World menace) का सामना कैसे किया जाए?हम इस नतीजे पर पहुँच रहे थे कि शेष संसार को आपसी मतभेद भुलाकर इस एक ही बला का सामना करना होगा। दूसरा रास्ता नहीं है। भारत पर भी ब्रिटिश साम्राज्यवाद को खत्म करके जर्मन फासिज्म चढ़ बैठेगा यह हमारी मान्यता हो रही थी। फलत: हम चूल्हे से निकलकर भट्ठी में जा पड़ेंगे। यदि ब्रिटिश साम्राज्यवादियों से देर-सवेर से पिंड छुड़ाने की आशा भी हम करते थे तो हिटलरी पिशाचों से जान बचने और त्राण पाने की संभावना भी नहीं है। यह बात हमने कांग्रेस के एक प्रमुख नेता से कही और घंटों उनसे हमारा कथनोपकथन होता रहा। उनने तत्कालउत्तरन देकर सोचने और पीछेउत्तरदेने को कहा।
जौनस्ट्रेची की किताब
कुछ दिनों बाद उनने हमें मि. जौनस्ट्रेची की एक ताजी किताब अंग्रेजी में लिखी भेज दी जिसका नाम हम भूलते हैं। उनने कहा कि हमने जो आशंका जाहिर की थी उसी पर उस किताब में विस्तृत विवेचन है। हम उसे गौर से पढ़ गए। दरअसल उसके लेखक मि. स्ट्रेची पहले कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य थे। मगर लड़ाई केसंबंध में पार्टी का और लोगों का क्या रुख हो यही बात ले कर उनका पार्टी के साथ गहरा मतभेद हो गया और उनने पार्टी से अलग होकर यह पुस्तक लिखी। उनका कहना था कि युध्द विरुध्द युध्द का युग चला गया। फासिज्म के इस युग में आँख मूँदकर उसे मानना खतरनाक है। आज तो उसके विपरीत ही काम करने की जरूरत है। कल्पना कीजिए कि लेनिन के समय में गत युध्द के वक्त कैसर की जगह हिटलर होता और उसकी ऐसी ही तैयारी रहती जैसी आज है। तो क्या लेनिन जारशाही के विरुध्द युध्द छेड़कर उसके युध्दोद्योग में बाधा पहुँचाता ? वह हर्गिज ऐसा न करता। क्योंकि इसका नतीजा यही होता कि जार को पछाड़कर लेनिन या सोवियत के शासन की जगह हिटलर का ही शासन हो जाता। फलत: लेनिन को लेने के देने पड़ते और रूस की आजादी युग-युगांतर के लिए खटाई में पड़ जाती। लेनिन को जार तथा कैसर दोनों की ही ताकतों का ज्ञान था और वह मानता था कि यदि जार की गद्दी खाली हो जाए तो उस पर आ धमकने की शक्ति कैसर में नहीं है। साम्राज्यवादी युग में ऐसा देखा नहीं गया था। फिर भी लेनिन को संकटों का सामना करना ही पड़ा। लेकिन फासिज्म के युग में तो दूसरी ही बात है। यदि आज जार वहाँ रहता और उसे रूसी जनता पछाड़ती तो आसानी से हिटलर अपना अव वहाँ जमा लेता। वह तो यों भी जमाते-जमाते ही न जाने कैसे फिसल गया। यही खतरा आज युध्द के विरुध्द युध्द के नारे में है। इसलिए आज तो हमारा फर्ज है कि वैसा न करके उसके उलटा करें ताकि फासिज्म का चंगुल कहीं जमने न पाए। नहीं तो जनता की खैर नहीं। उनसे पुन: पिंड छूटना प्राय: असंभव है। साम्राज्यवादियों से तो पीछे भी निपट सकते हैं।
मेरे दिमाग में ये बातें बैठ गईं और मेरी बेचैनी जाती रही। मैं तो इसी ढंग से खुद सोच भी रहा था। मगर मेरा साथी कोई न था। अब मिस्टर स्ट्रेची जैसा संगी मिल गया। मेरे ये विचार दिनोंदिन पक्के हो गए और मैं जेल में सोचा करता था कि अब मौका आने पर हम ब्रिटिश सरकार को युध्दोद्योग में सहायता भी कर सकते हैं। इसमें कोई अनौचित्य मुझे न दीखता था। प्रत्युत राजनीतिक दूरंदेशी का तकाजा यही मालूम होता था। आखिर जब भारतीयों का विरोध सफल होता और अंग्रेजी सरकार यहाँ से भागती तो हिटलर या तोजो की ही सरकार यहाँ बनती , न कि गाँधी , नेहरू या आजाद की। हमारे वे निहत्थे नेता उनकी अस्त्र-शस्त्र से सर्वात्मना सुसज्जवाहिनी के सामने टिक कैसे पाते ? और अगर हमारा विरोध विफल हो तो अंग्रेजी सरकार हमें पीस ही देती। फलत: दोनों ही तरह से हमारी हानि ही हानि थी।
मैं यह सोच ही रहा था कि सन 1941 ई. के आखिरी दिनों में श्री इंदुलाल याज्ञिक का एक पत्र मुझे जेल में एकाएक मिला। उसमें भी कुछ ऐसी ही बातें थीं। फिर तो मेरी खुशी का ठिकाना न रहा कि हम दोनों ही पुराने साथी एक ही ढंग से सोच रहे हैं , सो भी एक-दूसरे से बहुत दूर बैठे-बिठाए। मैंने भी उन्हें उत्तर देकर उनके विचारों का तहेदिल से समर्थन किया। उसके बाद सन1942 ई. की फरवरी में नागपुर में केंद्रीय किसान कौंसिल की होनेवाली बैठक का एक प्रस्ताव प्रकाशित हुआ जिसमें कहा गया था कि युध्दोद्योग में बाधावाली नीति छोड़ दी जाए। युध्द में सहायता देने के बारे में कोई स्पष्ट बात उसमें न थी। सिर्फ सोवियत रूस को सहायता देने की बात थी। दरअसल प्रस्ताव पास करनेवाले बाहरी स्थिति से पूर्ण परिचित थे। फलत: उनने युध्दोद्योग में सहायता करने की बात खतरनाक समझ उसे तय नहीं किया ─ छोड़ दिया। गो मैं यह रहस्य समझ न सका। फिर भी प्रस्ताव पढ़कर प्रसन्न हो गया।
विरोधियों की मनोवृत्ति
कुछ लोगों ने , जो अब तक किसान-सभा में साथ थे , नागपुरवाले इस प्रस्ताव का विरोध किया। उनकी मनोवृत्ति समझना मुश्किल है। इससे पूर्व आंधार देश के पकाला स्थान में सन 1941 ई. के अक्टूबर में आल इंडिया किसान कमिटी की बैठक में जो प्रस्ताव स्वीकृत हुआ था युध्द के हीसंबंध में उसमें वह भी साथी थे , सहमत थे। उसमें यह स्पष्ट लिखा है कि '' यह कमिटी आजादी-पसंद भारतीय जनता और विशेषत: किसानों , मजदूरों , छात्रोंतथा युवकों के बहुत बड़े गिरोह पर जोर देती है वह सोवियत रूस को सभी तरह की संभव सहायता दें और नात्सीजर्मनी के विरुध्द होनेवाले युध्द को सभी मोर्चों पर तेज बनाने का काम करें '' ─ "The A.I.K.c. urges upon the freedom-loving people of India, particularly the vast bulk of Peasants and workers, students and youths, that they should render all possible to the U.S.S.R. and work for the intensification of war against Nazi Germany on all front."
नागपुरवाले प्रस्ताव से इसमें यही विशेषता है कि यह सोवियत को सभी प्रकार की संभव सहायता देने के सिवाय नात्सीजर्मनी के विरुध्द इस युध्द को सभी मोर्चों पर तेज बनाने की बात कहता है , जो बात नागपुरवाले में नहीं है। अब जरा सोचा जाएकि नात्सीजर्मनी के विरुध्द चलनेवाले युध्द को तेज करने का क्या अभिप्राय है , सो भी सभी मोर्चों पर ? इंग्लैंड या फ्रान्स में जो मोर्चा था उसी की मजबूती के लिए क्या करना जरूरी था ? क्या यह बात उनने सोची ? उस युध्द में सभी तरह की सहायता सभी जगह देने के अलावे इसका और अर्थ क्या हो सकता था ? दूसरी तरह से सभी मोर्चों पर उस युध्द में तेजी कैसे लाई जा सकती थी ? और जब सभी जगह उसमें मदद ही करना है तो फिर उस युध्द का या उसके उद्योगों काविरोधकैसे किया जा सकता था ? यह संभव कैसे था ? उस प्रस्ताव में यही परस्परविरोधी बात थी। कम-से-कम नागपुर मेंविरोधउठानेवालों के कामों और पकाला के प्रस्ताव में यही परस्परविरोधथा और इसे ही नागपुर के प्रस्ताव में रहने नहीं दिया गया यह कह कर कि '' शांति की ही तरह युध्द को टुकड़ों में बाँटा नहीं जा सकता ''-"War like peace is indivisible." फिर उसमें मदद भी करें औरविरोधभी उसका ही करें यह संभव नहीं। इस तरह नागपुर के प्रस्ताव ने जो पकाला के कथन और विरोधियों के काम में होनेवाले पारस्परिकविरोधको मिटा दिया तो उचित था कि विरोधी लोग उसका स्वागत करते। मगर उनने विपरीत ही किया।
किसान-सभा में विरोध
जेल जीवन का संक्षिप्त विवरण खत्म करने से पूर्व किसान-सभा से संबध्द दो-एक महत्त्वपूर्ण घटनाओं पर प्रकाश डाल देना जरूरी है। सन 1940 ई. के अप्रैल में जेल जाने के बाद ही यह स्पष्ट हो गया था कि यद्यपिसोशलिस्ट लोग पलासा के प्रस्ताव में साथ थे , तथापि उस पर अमल करने के वे सख्तविरोधी थे।यों तो यह बात पहले ही झलकने लगी थी। फिर भी जेल जाने के बाद स्पष्ट हो गई। उनने सारी शक्ति इस बात में लगा दी कि पलासा के प्रस्ताव पर अमल न हो सके। यह इतनी प्रसिध्द बात है कि इस पर तर्क-दलीलें या प्रमाण पेश करना अनावश्यक है। फलत: किसान-सभा के शेष लोगों को जिनमें फारवर्ड ब्लॉक के भी लोग थे , यह बात बुरी तरह खटकी और इस प्रकार किसान-सभा के भीतरीविरोधने उग्र रूप धारण किया। इसकी खबरें मुझे जेल में बराबर ही मिलती रहती थीं और मैं दु:खी होता था। पर करता क्या ? विवश था। एक यह भी वजह थी जिससे ' जनता की पार्टी ' का प्रश्नजेल में उठने पर मैंने उसमें जाने से साफ इनकार किया। आगे फिर मिल-जुलकर काम करने का प्रश्न जब कुछ सोशलिस्ट साथियों ने गंभीरता के साथ उठाया तो मैंने उनसे जो ' नहीं ' कर दी उसका यह भी कारण था।
यहविरोधभीतर-ही-भीतर यहाँ तक बढ़ा कि सन 1941 ई. की फरवरी में डुमराँव में जो प्रांतीय किसान सम्मेलन पं. यमुना कार्यी कीअध्यक्षता में हुआ उसमें से सोशलिस्ट बाहर निकल आए। बात यों हुई कि भीतर-ही-भीतर उनकी कोशिश थी कि किसान-सभा में उन्हीं का बहुमत हो जाए। उनने इसके लिए सब कुछ किया। मगर जब उस कॉन्फ्रेंस में उन्हें पता चला कि वे विफल हुए और उनकी संख्या नगण्य सी है , तो कॉन्फ्रेंस से हट जाने के अलावे उनके लिए दूसरा चारा था ही नहीं। फलत: उसके शुरू में ही निकल खड़े हुए और उलटे पाँव लौट आए। संभव था वहाँ पहले के कामों और चालों पर टीका-टिप्पणी होती। इसलिए उनने पहले ही चल देना उचित समझा। अब किसान-सभा में खाँटी किसान सभावादियों के अलावे केवल कम्युनिस्ट और फारवर्डब्लाकिस्ट रह गए थे। फिर भी उसका काम निराबाध चलता रहा। उधरसोशलिस्टों ने एक अलग किसान-सभा बनाने की सारी भूमिका बाँधी। उसमें वे कहाँ तक सफल हुए यह तो सभी जानते हैं। इस बारे में मुझे यहाँ कहने की जरूरत नहीं है। मेरी रिहाई के पूर्व ब्लाकिस्टों की भी आवाज किसान-सभा के विरुध्द में उठ चुकी थी। उनके इस्तीफे भी कुछ दाखिल हुए थे। मगर उनके साथ हमारा और हमारे साथियों का नाता अभी टूटा न था। शायद कच्चे धागे से जुटा था। बिहार की किसान-सभा में तब तक कम्युनिस्टों की कोई गिनती थी नहीं। वे इने-गिने ही थे।
डुमराँव का संघर्ष
मेरे जेल में रहते ही एक औरमहत्त्वपूर्ण बात किसान-सभा के इतिहास में हुई जिसने मेरा कलेजा बाँसों उछाल दिया। वह थी शाहाबाद जिले के डुमराँव में खुद महाराजा की धाँधली और मनमानी घरजानी के विरुध्द किसानों की संगठित लड़ाई जो किसान-सभा के तत्त्वावधान में हुई और जिसने सभा का सिर ऊँचा किया। किसानों की उसमें जीत भी हुई। इससे न सिर्फ किसानों का , बल्कि जनसाधारण तथा डुमराँव के बनियों का भी संकट हटा और सबों ने राहत की साँस ली।
किसान सभा के संस्मरण
विषय-प्रवेश
आगे के पृष्ठों में किसान-सभा के संस्मरणों का जो संकलन मिलेगा वह तैयार किया था हजारी बाग जेल की चहारदीवारी के भीतर। 1940 की लंबी जेल-यात्रा के पहले ही मित्रों एवं साथियों ने बार-बार अनुरोध किया था कि इन संस्मरणों को अवश्य लिपिबद्ध करूँ। किसान-सभा से मेरा संबंध गत बीस वर्षों की भारी मुद्दत में अविच्छिन्न रहने के कारण मैं इसके बारे में आधिकारिक रूप से लिखनेवाला माना गया। इस संबंध में तरह-तरह के अनुभव सबसे ज्यादा मुझी को हुए हैं, यह भी बात है। यह अनुभव मजेदार भी रहे हैं और आगे की पंक्तियों से यह स्पष्ट है। फलतः इनके कलम बंद करने में मजा भी मुझे काफी मिला है। जेल से बाहर समय न मिलने के कारण मित्रों की इच्छा वहीं पूरी करनी पड़ी।
जमींदारों के अखबारों ने कभी-कभी मुझे अक्ल देने की भी कोशिश की है और लंबे उपदेश दिए हैं कि राजनीति संन्यासी का काम नहीं है। इसमें पड़ने से वह दुहरा पाप करता है। किसान-सभा के सिलसिले में होनेवाले मेरे रोज-रोज के तूफानी दौरों पर व्यंग्य कर के उनने उन्हें 'मनोविनोद के सैर (Pleasure Trips) नाम दिए हैं और आश्चर्य से पूछा है कि इन सैर-सपाटों का लंबा खर्च मुझे कौन देता है? उन्हें पता ही नहीं कि जिन्हें इन सैर-सपाटों की गर्ज है, जो इसके लिए बेचैन हैं, वही यह खर्च देते हैं─वही जो इन समाचार-पत्रों के मालिकों के महल सजाते हैं। आगे की पंक्तियाँ यह भी बताएँगी कि ये सैर-सपाटे हैं या कड़ी कसौटी।
ये संस्मरण लिखे तो गए जेल के भीतर ही 1941 में; मगर इनके प्रकाशन में परिस्थिति-वश काफी देर हो गई है। फिर भी इनका महत्त्व ज्यों का त्यों बना है। सोचा गया कि जिस किसान-सभा से संबंध रखनेवाले ये संस्मरण हैं, उसका इतिहास यदि इन्हीं के साथ न रहे तो एक प्रकार से ये अधूरे रह जाएँगे। पाठकों को इनके पढ़ने से पूरा संतोष भी न होगा और न वह मजा ही मिलेगा। इसीलिए भूमिका स्वरूप किसान-सभा का संक्षिप्त इतिहास और उसका कुछ विस्तृत विवेचन भी इन संस्मरणों के साथ जोड़ दिया गया है और इस प्रकार एक पूरी चीज तैयार हो गई।
"कहीं-कहीं किनारे पर जो अंक लिखे गए हैं वह इस बात के सूचक हैं कि किस दिन कितना भाग जेल के भीतर लिखा गया था।"
स्वामी सहजानंद सरस्वती बिहटा, पटना 10-2-47
भारत में किसान-आंदोलन का संक्षिप्त इतिहास
( अ)
बहुत लोगों का खयाल है कि हमारे देश में किसानों का आंदोलन बिलकुल नया और कुछ खुराफाती दिमागों की उपज मात्र है। वे मानते हैं कि यह मुट्ठीभर पढ़े-लिखे बदमाशों का पेशा और उनकी लीडरी का साधन मात्र है। उनके जानते भोलेभाले किसानों को बरगला-बहकाकर थोड़े से सफेदपोश और फटेहाल बाबू अपना उल्लू सीधा करने पर तुले बैठे हैं। इसीलिए यह किसान-सभाओं एवं किसान-आंदोलन का तूफाने बदतमीजी बरपा है, यह उनकी हरकतें बेजा जारी हैं। यह भी नहीं कि केवल स्वार्थी और नादान जमींदार-मालगुजार या उनके पृष्ठ-पोषक ऐसी बातें करते हों। कांग्रेस के कुछ चोटी के नेता और देश के रहनुमा भी ऐसा ही मानते हैं। उन्हें किसान-सभा की जरूरत ही महसूस नहीं होती। वे किसान-आंदोलन को राष्ट्रीय स्वातंत्रय के संग्राम में रोड़ा समझते हैं। फलतः इनका विरोध भी प्रयत्क्ष-अप्रत्यक्ष रूप से करते हैं।
परंतु ऐसी धारणा भ्रांत तथा निर्मूल है। भारतीय किसानों का आंदोलन प्राचीन है, बहुत पुराना है। दरअसल इस आंदोलन के बारे में लिपि-बद्ध वर्णन का अभाव एक बड़ी त्रुटि है। यदि सौ-सवा सौ साल से पहले की बात देखें तो हमारे यहाँ मुश्किल से इस आंदोलन की बात कहीं लिखी-लिखाई मिलेगी। इसकी वजहें अनेक हैं, जिन पर विचार करने का मौका यहाँ नहीं है। जब यूरोपीय देशों में किसान-आंदोलन पुराना है, तो कोई वजह नहीं है कि यहाँ भी वैसा ही न हो। किसानों की दशा सर्वत्र एक सी ही रही है आज से पचास-सौ साल पहले। जमींदारों और सूदखोरों ने उन्हें सर्वत्र बुरी तरह सताया है और सरकार भी इन उत्पीड़कों का ही साथ देती रही है। फलतः किसानों के विद्रोह सर्वत्र होते रहे हैं। उन्नीसवीं सदी के मध्य में─1850 में─शोषितों के मसीहा फ्रेड्रिक एंगेल्स ने 'जर्मनी में किसानों का जंग' (दी पीजेंट वार इन जर्मनी) पुस्तक लिखकर उसमें न सिर्फ जर्मनी में होनेवाले पंद्रहवीं तथा सोलहवीं सदियों के संधि-काल के किसान-विद्रोहों का वर्णन किया है, वरन आस्ट्रिया, हंगरी, इटली तथा अन्यान्य देशों के भी ऐसे विद्रोहों का उल्लेख किया है। उससे पूर्व जर्मन विद्वान विल्हेल्म जिमरमान की भी एक पुस्तक 'महान किसान-विद्रोह का इतिहास' (दी हिस्ट्री ऑफ दी ग्रेट पीजेंट वार) इसी बात का वर्णन करती है। यह 1841 में लिखी गई थी। फ्रांस में बारहवीं-तेरहवीं सदियों में फ्रांस के दक्षिण भाग में किसानों की बगावतें प्रसिद्ध हैं। इंग्लैंड की 1381 वाली किसानों की बगावत भी प्रसिद्ध है, जिसका नेता जौन बोल था। इसी प्रकार हंगरी में भी 16वीं शताब्दी में किसानों ने विद्रोह किया।
इस तरह के सभी संघर्ष एवं विस्फोट सामंतों एवं जमींदारों के जुल्म, असह्य कर-भार तथा गुलामी के विरुद्ध होते रहे, और ये चीजें भारत में भी थीं। यह देश तो दूसरे मुल्कों की अपेक्षा पिछड़ा था ही। तब यहाँ भी ये उत्पीड़न क्यों न होते और उनके विरुद्ध किसान-संघर्ष क्यों न छिड़ते? यहाँ तो साधारणतः ब्रिटिश भारत में और विशेषतः रजवाड़ों में आज भी ये यंत्रणाएँ किसान भोग ही रहे हैं।
तो क्या भारतीय किसान यों ही आँख मूँद कर सारे कष्टों को गधे-बैलों की तरह चुपचाप बर्दाश्त कर लेते रहे हैं और उनके विरोध में उनने सर नहीं उठाया है? यह बात समझ के बाहर है। माना कि आज के जमींदार डेढ़ सौ साल से पहले न थे। मगर सरकार तो थी। सूदखोर बनिए महाजन तो थे। जागीरदार तथा सामंत तो थे। फिर तो कर-भार, गुलामी और भीषण सूदखोरी थी ही। इन्हें कौन रोकता तथा इनके विरुद्ध किसान-समाज चुप कैसे रह सकता था? भारतीय किसान संसार के अन्य किसानों के अपवाद नहीं हो सकते। फिर भी यदि उनके आंदोलनों एवं विद्रोहों का कोई विधिवत लिखित इतिहास नहीं मिलता, तो इसके मानी हर्गिज नहीं कि यह चीज हुई ही नहीं-हुई और जरूर हुई-हजारों वर्ष पहले से लगातार होती रही। नहीं तो एकाएक सौ-डेढ़ सौ वर्ष पहले, जिसके लेख मिलते हैं, क्यों हुई? और अगर इधर आकर वे संघर्ष करने लगे तो मानना ही होगा कि पहले भी जरूर करते थे।
यह भी बात है कि यदि लिखा-पढ़ी तथा सभा-सोसाइटियों के रूप में, प्रदर्शन और जुलूस के रूप में यह आंदोलन न भी हो सकता था, तो भी अमली तौर पर तो होता ही था, हो सकता ही था और यही था असली आंदोलन। क्योंकि 'कह सुनाऊँ' की अपेक्षा 'कर दिखाऊँ' हमेशा ही ठोस और कारगर माना जाता है और इधर 1836 से 1946 तक के दरम्यान, प्रारंभ के प्रायः सौ साल में, जबानी या लिखित आंदोलन शायद ही हुए, किंतु अमली तथा व्यावहारिक ही हुए। इसका संक्षिप्त विवरण आगे मिलेगा। इससे भी मानना ही होगा कि पहले भी इस तरह के अमली आंदोलन और व्यावहारिक विरोध किसान-संसार की तरफ से सदा से होते आए हैं। (किसान तो सदा ही मूक प्राणी रहा है। इसे वाणी देने का यत्न पहले कब, किसने किया? कर्म, भाग्य, भगवान, तकदीर और परलोक के नाम पर हमेशा ही से चुपचाप कष्ट सहन करने, संतोष करने तथा पशु-जीवन बिताने के ही उपदेश इसे दिए जाते रहे हैं। यह भी कहा जाता रहा है कि राजा और शासक तो भगवान के अंशावतार हैं। अतः चुपचाप उनकी आज्ञा शिरोधार्य करने में ही कल्याण है। इस 'कल्याण' की बूटी ने तो और भी जहर का काम किया और उन्हें गूँगा बना दिया।) फलतः कभी-कभी ऊबकर उन्होंने अमली आंदोलन ही किया और तत्काल वह सफलीभूत भी हुआ। उससे उनके कष्टों में कमी हुई।
इधर असहयोग युग के बाद जो भी किसान-आंदोलन हुए हैं उन्हें संगठित रूप मिला है , यह बात सही है। संगठन का यह श्रीगणेश तभी से चला है। इसका श्रीगणेश तभी से होकर इसमें क्रमिक दृढ़ता आती गई है और आज तो यह काफी मजबूत है, हालाँकि संगठन में अभी कमी बहुत है। मगर असंगठित रूप में यह चीज पहले, असहयोग युग से पूर्व भी चलती रही है।संगठित से हमारा आशय सदस्यता के आधार पर बनी किसान-सभा और किसानों की पंचायत से है, जिसका कार्यालय नियमित रूप से काम करता रहता है और समय पर सभी समितियाँ होती रहती हैं। कागजी घुड़दौड़ भी चालू रहती है। यह बात पहले न थी। इसी से पूर्ववर्ती आंदोलन असंगठित था। यों तो विद्रोहों को तत्काल सफल होने के लिए उनका किसी-न-किसी रूप में संगठित होना अनिवार्य था। 'पतिया' जारी करने का रिवाज अत्यंत प्राचीन है। मालूम होता है, पहले दो-चार अक्षरों या संकेतों के द्वारा ही संगठन का महामंत्र फूँका जाता था। यद्यपि यातायात के साधनों के अभाव में उसे वर्तमान कालीन सफलता एवं विस्तार प्राप्त न होते थे। फिर भी हम देखते हैं कि जिन आंदोलनों एवं संघर्षों का उल्लेख आगे है वे बात की बात में आग की तरह फैले और काफी दूर तक फैले। संथाल-विद्रोह में तो लाखों की सेना एकत्र होने की बात पाई जाती है और यह बात अँग्रेज अफसरों ने लिखी है। ऐसी दशा में इतना तो मानना ही होगा कि वह चीज भी काफी संगठित रूप में थी, यद्यपि आज वाली दृढ़ता, आजवाली स्थापिता उसमें न थी। होती भी कैसे? उसके सामान होते तब न?
जैसा कि पहले कह चुके हैं , आज से प्रायः सौ-सवा सौ साल पहले वाले किसान-संघर्षों एवं आंदोलनों का वर्णन मिलता है। अतः हम उन्हीं से शुरू करते हैं। इसमें सबसे पुराना मालाबार के मोपला किसानों का विद्रोह है, जो 1836 में शुरू हुआ था। कहनेवाले कहते हैं कि ये मोपले कट्टर मुसलमान होने के नाते अपना आंदोलन धार्मिक कारणों से ही करते रहे हैं। असहयोग-युग के उनके विद्रोह के बारे में तो स्पष्ट ही यही बात कही गई है। मगर ऐसा कहने-माननेवाले अधिकारियों एवं जमींदार-मालदारों के लेखों तथा बयानों से ही यह बात सिद्ध हो जाती है कि दरअसल बात यह न हो कर आर्थिक एवं सामाजिक उत्पीड़न ही इस विद्रोह के असली कारण रहे हैं और धार्मिक रंग अगर उन पर चढ़ा है तो कार्य-कारणवश ही, प्रसंगवश ही। 1920 और 1921 वाले विद्रोह को तो सबों ने, यहाँ तक कि महात्मा गाँधी ने भी, धार्मिक ही माना है। मगर उसी के संबंध में मालाबार के ब्राह्मणों के पत्र 'योगक्षेमम' ने 1922 की 6 जनवरी के अग्रलेख में लिखा था कि "केवल धनियों तथा जमींदारों को ही ये विद्रोही सताते हैं, न कि गरीब किसानों को"
"Only the rich and the landlords are suffering in the hands of the rebels, not the poor peasants."
अगर धार्मिक बात होती तो यह धनी-गरीब का भेद क्यों होता? इसी तरह ता. 5/2/1921 में दक्षिण मालाबार के कलक्टर ने जो 144 धारा की नोटिस जारी की थी उसके कारणों में लिखा गया था कि "भोले-भोले मोपलों को न सिर्फ सरकार के विरुद्ध, वरन हिंदू जन्मियों (जमींदारों─मालाबार में जमींदार को 'जन्मी' कहते हैं) के भी विरुद्ध उभाड़ा जाएगा"─
"The feeling of the ignorant Moplahs will be inflamed against not only the Government but also against the Hindu Jenmies (landlords) of the district."
इससे भी स्पष्ट है कि विद्रोह का कारण आर्थिक था। नहीं तो सिर्फ जमींदारों तथा सरकार के विरुद्ध यह बात क्यों होती?
बात असल यह है कि मालाबार के जमींदार ब्राह्मण ही हैं। उत्तरी मालाबार में शायद ही दो-एक मोपले भी जमींदार हैं। और ये मोपले गरीब किसान हैं। इनमें खाते-पीते लोग शायद ही हैं। इन किसानों को जमीन पर पहले कोई हक था ही नहीं और झगड़े की असली बुनियाद यही थी, यही है। यह पुरानी चीज है और शोषक जमींदारों के हिंदू (ब्राह्मण) होने के नाते ही इन संघर्षों पर धार्मिक रंग चढ़ता है। नहीं-नहीं, जान-बूझकर चढ़ाया जाता है। 1880 वाले विद्रोह में मोपलों ने दो जमींदारों पर धावा किया था। उनने तत्कालीन गवर्नर लार्ड बकिंघम को गुप्तनाम पत्र लिखकर जमींदारों के जुल्मों को बताया था और प्रार्थना की थी कि उन्हें रोका जाए, नहीं तो ज्वालामुखी फूटेगा। गवर्नर ने मालाबार के कलक्टर और जज की एक कमेटी द्वारा जब जाँच करवाई तो रिपोर्ट आई कि इन तूफानों के मूल में वही किसानों की समस्याएँ हैं। पीछे यह भी बात ब्योरेवार मालूम हुई कि जमींदार किसानों को कैसे लूटते और जमीनों से बेदखल करते रहते हैं। इसीलिए तो 1887 वाला काश्तकारी कानून बना।
1921 तथा उसके बाद मौलाना याकूब हसन मालाबार के कांग्रेसी एवं गाँधीवादी नेता थे। मगर उनने भी जो पत्र गाँधी जी को लिखा था उसमें कहते हैं कि ''अधिकांश मोपले छोटे-छोटे जमींदारों की जमीनें ले कर जोतते हैं और जमींदार प्रायः सभी हिंदू ही हैं। मोपलों की यह पुरानी शिकायत है कि ये मनचले जमींदार उन्हें लूटते-सताते हैं और यह शिकायत दूर नहीं की गई है''─
"Most of the Moplahs were cultivating lands under the petty landlords who are almost all Hindus. The oppression of the Janmies (landlords) is a matter of notoriety and a long-standing grievance of the Moplahs that has never been redressed."
इससे तो जरा भी संदेह नहीं रह जाता किमोपला-विद्रोह सचमुच किसान-विद्रोह था।
1836 से 1853 तक मोपलों ने 22 विद्रोह किए । वे सभी जमींदारों के विरुद्ध थे। कहीं-कहीं धर्म की बात प्रसंगतः आई थी जरूर। मगर असलियत वही थी। 1841 वाला विद्रोह तो श्री तैरुम पहत्री नांबुद्री नामक जालिम जमींदार के खिलाफ था, जिसने किसानों को पट्टे पर दी गई जमीन बलात छीनी थी। 1843 में भी दो संघर्ष हुए─एक गाँव के मुखिया के विरुद्ध और दूसरा ब्राह्मण जमींदार के खिलाफ। 1851 में उत्तर मालाबार में भी एक जमींदार का वंश ही खत्म कर दिया गया। 1880 की बात कह ही चुके हैं। 1898 में भी उसी तरह एक जमींदार मारा गया। 1919 में मनकट्टा पहत्री पुरम में एक ब्राह्मण जमींदार और उसके आदमियों को चेकाजी नामक मोपला किसान के दल ने खत्म कर दिया और लूट-पाट की। क्योंकि उसने चेकाजी के विरुद्ध बाकी लगान की डिग्री से संतोष न कर के उसके पुत्र की शादी भी न होने दी।
1920 के अक्तूबर में कालीकट में जो काश्तकारी कानून के सुधार का आंदोलन शुरू हुआ, 1921 वाली बगावत इसी का परिणाम थी। जमींदार मनमाने ढंग से लगान बढ़ाते और बेतहाशा बेदखलियाँ किया करते थे। इसीलिए सैकड़ों सभाएँ हुईं। स्थान-स्थान पर किसान-सभाएँ बनीं, कालीकट के राजा की जमींदारी में एक 'टेनेन्ट रिलीफ असोसियेशन' कायम हुआ और मंजेरी की बड़ी कॉन्फ्रेंस में किसानों की माँगों का जोरदार समर्थन हुआ। इसी के साथ खिलाफत आंदोलन भी आ मिला। मगर असलियत तो दूसरी ही थी। इस तरह देखते हैं कि आज से सैकड़ों साल पूर्व विशुद्ध किसान-आंदोलन किसान हकों के लिए चला और 1920 में आकर उसने कहीं-कहीं संगठन का जामा पहनने की भी कोशिश की।
अच्छा, अब मालाबार के दक्षिणी किसान-आंदोलन से हटकर उत्तर में बंबई प्रेसिडेंसी के महाराष्ट्र, खानदेश और गुजरात को देखें। वहाँ भी 1845 और 1875 के मध्य किसानों में रह-रह के उभाड़ होते रहे। कोली, कुर्मी, भील, ब्राह्मण और दूसरी जाति के लोग─सभी─इस विद्रोह में शरीक थे। 1845 में भीलों के नेता रघुभंगरिन के दल ने साहूकारों को लूटा-पाटा। पूना और थाना जिलों के कोलियों ने भी समय-समय पर ऐसी लूटपाट और मारकाट की। इस संबंध में 1852 में सर जी. विन्गेट ने (Sir G. Wingate) बंबई सरकार को लिखा था कि ''बंबई प्रेसीडेंसी के परस्पर सुदूरवर्ती दो कोनों में जो कर्जदारों ने दो साहूकारों को मार डाला है यह कोई यों ही नहीं हुआ है, जो कही-कहीं महाजनों के जुल्मों के फलस्वरूप है। किंतु मुझे भय है कि ये एक ओर किसानों और दूसरी ओर सूदखोर बनियों के बीच सर्वत्र होनेवाले आम तनाव के दो उदाहरण मात्र हैं। और अगर ऐसा है, तो ये बताते हैं कि एक ओर कितना भयंकर शोषण-उत्पीड़न और दूसरी ओर कितना अधिक कष्ट-सहन मौजूद है''
''These two cases of village money-landers murdered by their debtors almost at the opposite extremities of our presidency must, I apprehend, be viewed not as the results of isolated instances of oppression on the part of craditors, but as examples in an aggravated form of the general relations subsisting between the class of mone-landers and our agricultural population, And if so, what an amount of dire oppression on the one hand and of suffering on the other, do they reveal to us?''
इसी प्रकार 1871 और 1875 के मध्य खेड़ा (गुजरात), अहमदनगर, पूना, रत्नागिरी, सितारा, शोलापुर और अहमदाबाद (गुजरात) जिलों में भी गूजरों, सूदखोरों, मारवाड़ियों दूसरे बनियों तथा जालिमों के विरुद्ध जेहाद बोले गए, जिनका विवरण'दक्षिणी किसान दंगा-जाँच कमीशन' की रिपोर्ट में दिया गया है। 1871 और 1855 के बीच का समय भी बेचैनी का था। 1865 वाले अमेरिका के गृहयुद्ध के चलते भारतीय रुई का दाम तेज हुआ। फलतः किसानों ने काफी कर्ज लिए। मगर 1870 में उस युद्ध के अंत होते ही एकाएक मंदीआई, जिससे 1929 की तरह किसान तबाह हो गए। यह भी था कि 1865 से पूर्व सरकार ने समय-समय पर सर्वे कराकर लगान भी बढ़ा दिया था। जब उसे न दे सकने के कारण किसानों की जमीन-जायदाद साहूकारों के हाथों में धड़ाधड़ जाने लगी तो उनने विद्रोह शुरू किए। फलतः सरकारी जाँच कमीशन कायम हुआ और उसी की रिपोर्ट पर दक्षिणी किसानों को सुविधाएँ देने का कानून बनाया गया। इस प्रकार स्पष्ट है कि सरकार और महाजनों से किसान इसीलिए बिगड़ पड़े कि उनकी जमीनें छीनी जा रही थीं।
कहा जाता है कि बंबई प्रेसिडेंसी में जमींदारी प्रथा है नहीं, वहाँ जमींदार हैं नहीं। रैयतवारी प्रथा के फलस्वरूप वहाँ किसान ही जमीन के मालिक हैं। मगर दरअसल अब यह बात है नहीं। वहाँ भी साहूकार-जमींदार कायम हो गए हैं और असली किसान उनके गुलाम बन चुके हैं। यह साहूकार-जमींदारी शुरू हुई थी 1845 में ही, जब किसानों की जमीनें महाजन कर्ज में छीनने लगे। किसानों के विद्रोह भी इसी छीना-झपटी को रोकने के लिए होते रहे। आज तो रैयतवारी इलाके का किसान इसी के चलते जमींदारी प्रांतों के किसानों से भी ज्यादा दुखिया है। क्योंकि उसे कोई हक हासिल नहीं है, जब कि जमींदारी इलाकेवालों ने लड़ते-लड़ते बहुत कुछ हक हासिल किया है। इसीलिए दक्षिणी विद्रोह के जाँच कमीशन की रिपोर्ट में मिस्टर आकलैंड कौलबिन ने लिखा है कि ''तथाकथित रैयतवारी प्रथा में धीरे-धीरे ऐसा हो रहा है कि रैयत टेनेंट हो गए हैं और मारवाड़ी (साहूकार) जमींदार (मालिक)। यह तो जमींदारी प्रथा ही है। फर्क इतना ही है कि उत्तरी भारत की जमींदारी प्रथा में किसानों की रक्षा के लिए जो बातें कानून में रखी गई हैं वे एक भी यहाँ नहीं हैं। मालिक गैर जवाबदेह हैं और किसान का कोई बचाव है नहीं। फलतः रैयतवारी न होकर यह तो मारवाड़ी (साहूकारी) प्रथा होने जा रही है''─
"Under so called ryotwari system it is gradual by coming to this, that the ryot is the tenant and the Marwari is the proprietor. It is a zamindari settlement; but it is a zamindari settlement stripped of all the safeguards which under such a settlement in Upper India are though indispensable to the tenant. The proprietor is irresponsible, the tenant unprotected. It promises to become not a ryotwari but a Marwari settlement."
उत्तर भारत के बिहार-बंगाल की सम्मिलित सीमा का संथाल आंदोलन भी, जो 1855 की 7 जुलाई से शुरू हुआ, किसान-आंदोलन ही था। भील नेताओं के अंग संरक्षक ही तीस हजार थे। बाकियों का क्या कहना?संथालों के घी, दूध और अन्नादि को बनिए मिट्टी के मोल ले कर नमक, वस्त्र खूब महँगे देते थे। इस प्रकार उनकी सारी जमीन, बर्तन और औरतों के लोहे के जेवर तक ये बनिए लूट लेते थे, ठग लेते थे। मिस्टर हंटर ने 'देहाती बंगाल का इतिहास' में लूट का विशद, पर हृदय-द्रावक, वर्णन किया है। और जब पुलिसवालों ने भी इन बनियों से घूस ले कर उन्हीं का साथ देना शुरू किया, तो फिर इन पीड़ित संथालों के लिए विद्रोह ही एकमात्र अस्त्र रह गया था। उनने उसी की शरण ली। इस तरह हम 1836 से चलकर 1875 तक आते हैं और इसी के बीच में वह संथालों का किसान-आंदोलन भी आ जाता है। बल्कि मालाबारवाले 1920 के विद्रोह को ले कर तो हम असहयोग-युग के पूर्व तक पहुँच जाते हैं।
हमें एक चीज इसमें यह भी मिलती है कि धीरे-धीरे यह आंदोलन एक संगठित रूप की ओर अग्रसर होता है। मोपलों के 1920 वाले संगठन का उल्लेख हो चुका है। दक्षिणी विद्रोह में भी 1836-53 वाले मोपला विद्रोह की अपेक्षा एक तरह का संगठन पाया जाता है जिसके फलस्वरूप वे आग की तरह बंबई प्रेसीडेंसी के एक छोर से दूसरे छोर तक बहुत तेजी से पहुँच जाते हैं, ऐसा सर विन्गेट ने तथा औरों ने भी लिखा है। मगर 1875 के बाद यह संगठन धीरे-धीरे सभा का रूप लेता है 1920 में मालाबार में;हालाँकि वह भी टिक नहीं पाता।
उत्तर और पूर्व बंगाल में नील बोनेवाले किसानों का विद्रोह भी इसी मुद्दत में आता है।बिहार के छोटा नागपुर का टाना भगत आंदोलन भी असहयोग युग के ठीक पहले जारी हुआ था। 1917 में चंपारन में निलहे गोरों के विरुद्ध गाँधी जी का किसान-आंदोलन चला और सफल हुआ अपने तात्कालिक लक्ष्य में। गुजरात के खेड़ा जिले में भीउनने किसान-आंदोलन इससे पूर्व उसी साल चलाया था। मगर वह अधिकांश विफल रहा। अवध में असहयोग से पहले 1920 में बाबा रामचंद्र के नेतृत्व में चालू किसान-आंदोलन वहाँ के ताल्लुकेदारों के विरुद्ध था, जिसमें लूट-पाट भी हुई। इस प्रकार के आंदोलन मुल्कों में जहाँ-तहाँ और भी चले। मगर उन पर विशेष रोशनी डालने का अवसर यहाँ नहीं है।
इनका निष्कर्ष , इनकी विशेषता
असहयोग युग के पूर्ववर्ती आंदोलनों की विशेषता यह थी कि एक तो वे अधिकांश असंगठित थे। दूसरे उनको पढ़े-लिखे लोगों का नेतृत्व प्राप्त न था। अवधवाले में भी यही बात थी। तीसरे उनने मार-काट का आश्रय लिया। तब तक जनांदोलन का रहस्य किसे विदित था? यह भी बात थी कि ये विद्रोह और आंदोलन पहले से तैयारी कर केकिए न गए थे। जब किसानों पर होनेवाले जुल्म असह्य हो जाते थे और उन्हें अपने त्राण का कोई दूसरा रास्ता दिखता न था तो वे एकाएक उबल पड़ते थे। फिर तो मार-काट अनिवार्य थी। परिस्थिति उन्हें एतदर्थ विवश करती थी या यों कहिए कि जमींदार और शोषक अपने घोर जुल्मों के द्वारा उन्हें इस हिंसा के लिए विवश करते थे। यही उनकी कमजोरी थी। इसी से वे दबा दिएगए और विफल से रहे;हालाँकि उनका सुंदर परिणाम किसानों के लिए हो कर रहा यह सभी मानते हैं। कितने ही कानून किसान हित-रक्षा के लिए बने उन्हीं के चलते।
यह ठीक है कि उनमें कुछ को पढ़े-लिखों का नेतृत्व प्राप्त था। दृष्टांत के लिए 1920 वाले मोपला-आंदोलन को ले सकते हैं। मगर वहाँ भी छिटपुट हिंसा की शरण लेने से भयंकर Ðास हुआ। खिलाफत और पंजाब-कांड के बाद ही होने तथा इनके साथ मिल जाने से भी उसका निर्दय दमन किया गया। फलतः वह बेकार-सा गया। अहिंसा की प्रचंड लहर का युग होने से वह उसी में डूबा, यह भी कह सकते हैं।
मगर खेड़ा, चंपारन और युक्तप्रांत का पं. नेहरू के द्वारा संचालित आंदोलनशांतिपूर्ण होने के साथ ही उदात्त नेताओं के हाथों में रहा; यद्यपि संगठित रूप उसे भी नहीं दिया जा सका। फिर भी जनांदोलन का शांतिपूर्ण रूप मिल जाने से ही और पठित नेतृत्व के कारण ही उन सबको कम-बेश प्रत्यक्ष सफलता मिली। उनके क्षेत्र और उद्देश्य जितने ही संकुचित या व्यापक थे, और उनमें जैसी शक्ति थी तदनुकूल ही उन्हें कम या अधिक सफलता मिली। खेड़ा का आंदोलन तो जिले भर का था, ठेठ सरकार के विरुद्ध। फलतः उसे उतनी कामयाबी न मिल सकी। चंपारनवाला था कुछ खास इलाके का, सिर्फ निलहों की नृशंसता एवं मनमानी घरजानी के विरुद्ध। फलतः वह पूर्ण सफल रहा। अवधवाला था लंबे इलाके के विरुद्ध, जिसमें बहुत जिले आ जाते हैं। युक्त प्राप्त का भी प्रश्न उसने साधारणतः उठाया। इसी से उसकी सफलता बहुत धीमी चाल से आनी शुरू हुई और अब तक भी पूर्ण रूप से पहुँच न सकी।
असहयोग के पूर्व किसान-आंदोलन में जो दृढ़ता न आ सकी और उसे जो पूर्ण संगठित रूप मिल न सका उसके दो बड़े कारण थे, जिसका उल्लेख अब तक किया न जा सका है। एक तो किसान जनता में आत्मविश्वास न था। सदियों से कुचले, पिसे किसान आत्मविश्वास खो चुके थे। अतः विश्वासपूर्वक सामूहिक रूप से खम ठोक कर अपने उत्पीड़कों से लड़ न सकते थे। फलतः एक बार फिसले तो हिम्मत हार गए और चुप्पी मार बैठे। फिर संगठन कैसा? दूसरे, आंदोलन चलाने के लिए बहुसंख्यक पठित कार्यकर्ता और नेता भी नहीं प्राप्त थे-ऐसे नेता और कार्यकर्ता जिन्हें आत्मविश्वास हो और जो धुन के पक्के हों कि लक्ष्य तक पहुँच कर ही दम लें।
ये दो मौलिक कमियाँ थीं, जिन्हें असहयोग आंदोलन ने पूरा कर दिया। 1921 में बड़ी-से-बड़ी शक्तिशाली और शस्त्रस्त्र सुसज्जित सरकार को एक बार निहत्थे किसानों ने कँपा दिया, हिला दिया। फलस्वरूप उन्हें अपनी अपार अंतर्निहित शक्ति का सहसा भान होने से उनमें आत्मविश्वास हो गया कि जब इतनी बड़ी सरकार को हिला दिया, तो जमींदार, ताल्लुकेदार और साहूकार की क्या बिसात? उन्हें चीं बुलाना तो बाएँ हाथ का खेल है। असहयोग ने हजारों धनी कार्यकर्ता भी दिए जो ऊपर आ गए-मैदान में आ गए। असहयोग की सफलता के मुख्य आधार किसान ही थे, जो पहली बार सामूहिक रूप से कांग्रेस में आए थे। इसलिए वे तथा उनके लिए कार्यकर्ता ─दोनों ही─आत्मविश्वास प्राप्त कर के आगे बढ़े।
यद्यपि ये बातें कुछ देर में हुईं। क्योंकि आत्मविश्वास और दृढ़ निश्चय के लिए समय और मनन की आवश्यकता होती है। तथापि ये हुईं अवश्य। इसीलिए, और राजनीतिक उलझनों के चलते भी, संगठित किसान-आंदोलन किसान-सभा के रूप में 1926-27 में बिहार में तथा अन्यत्र शुरू हुआ। इतनी देर कोई बड़ी चीज न थी। 1928 वाला बारदोली का आंदोलन भी इसी का परिणाम था। वह सफल भी रहा।
इस प्रकार हम आधुनिक संगठित किसान-आंदोलन के युग में प्रवेश करते हैं। असहयोग आंदोलन ने हमें─सारे देश को─जो जनांदोलन का अमली सबक सिखाया और अपार शक्ति हृदयंगम कराई, उसके फलस्वरूप आगे चलकर किसान-आंदोलन को भी जनांदोलन का रूप मिला, यह सबसे बड़ी बात थी।
असहयोग के कारण कांग्रेसी लोग प्रांतीय कौंसिलों से बाहर रहे। फलतः मद्रास, बंबई आदि में अब्राह्मण दल के मंत्री बने और उनने अपना प्रभुत्व जमाया। उसे कायम रखने के लिए उन्हीं लोगों ने आंध्र में आंध्र प्रांतीय रैयत असोसियेशन के नाम से एक किसान-सभा उस समय, 1923-24 में बनाई, ऐसा कहा जाता है। मगर उसकी कोई विशेष कार्यशीलता पाई न गई। अलबत्ता बिहार में इस लेखक ने अपने कांग्रेसी साथियों के सहयोग से 1927 में नियमित रूप से, सदस्यता के आधार पर,किसान-सभा की स्थापना पटना जिले में कर के धीरे-धीरे 1929 में उसे बिहार प्रांतीय किसान-सभा का रूप दिया। उस समय बिहार की कौंसिल में किसान-हित-विरोधी एक बिल सरकार की ओर से पेश था और जरूरत इस बात की थी कि किसान उसका संगठित विरोध करें। इसीलिए कांग्रेसी नेताओं ने बिहार प्रांतीय किसान-सभा की जरूरत महसूस की और इसीलिए उसका जन्म हुआ। उसमें कांग्रेस के सभी लीडर शामिल थे , सिवाय स्वर्गीय ब्रजकिशोर बाबू के। उस सभा का काम लेखक की अध्यक्षता में खूब जोरों से चला और अंत में सरकार को वह बिल लौटा लेना पड़ा। इस तरह जन्म लेते ही सभा को अभूतपूर्व सफलता मिली। वर्तमान प्रधानमंत्री बा. श्रीकृष्ण सिंह उस समय किसान-सभा के मंत्री थे।आगे चलकर सभा को और भी संघर्ष करने पड़े। इस प्रकार संघर्षों के बीच वह फूली, फली और सयानी हुई।
सन 1918-19 में ही इलाहाबाद में श्री पुरुषोत्तमदास जी टंडन की देख-रेख में किसान-आंदोलन शुरू हुआ था और उसने कुछ काम भी किया। उसके बाद, असहयोग के उपरांत, कांग्रेस जन इस काम में और भी लगे, यहाँ तक कि 1932 के सत्याग्रह से पूर्व वहाँ की प्रांतीय कांग्रेस कमेटी ही एक किसान समिति के द्वारा किसानों में आंदोलन चलाती रही, तथा जरूरत होने पर उन्हें करबंदी के लिए भी तैयार करती रही, जिसके फलस्वरूप वहाँ किसानों ने 1932 के कांग्रेस संघर्ष में करबंदी को तेजी से चलाया। श्री टंडन जी ने ही उसी के बाद प्रयाग में 'केंद्रीय किसान संघ' की स्थापना की, जो भावी अखिल भारतीय किसान-सभा के सूत्र रूप में ही था। पं. नेहरू, टंडन जी प्रभृति कांग्रेस नेता सदा से महसूस करते थे कि किसान-संगठन कांग्रेस से जुदा ही रहना ठीक है। इसीलिए यू. पी. में पहले किसान समिति बनी और पीछे केंद्रीय किसान संघ का जन्म हुआ।
फिर लखनऊ कांग्रेस के अवसर पर 1936 में अखिल भारतीय किसान-सभा की नियमित रूप से स्थापना हुई। पहला अधिवेशन वहीं पर लेखक की ही अध्यक्षता में हुआ। यह बात अब महसूस की जाने लगी थी कि संगठित किसान-आंदोलन को अखिल भारतीय रूप दिए बिना काम चलने का नहीं। इसीलिए यह बात हुई। 1936 से ले कर1943 तक इसका काम चलता रहा और कोई गड़बड़ी न हुई। 1936, 1938 और 1943 में लेखक इसका अध्यक्ष और शेष वर्षों में प्रधानमंत्री रहा। 1937 में प्रोफेसर रंगा, 1939 में आचार्य नरेंद्रदेव, 1940 में बाबा सोहन सिंह भखना, 1942 श्री इंदुलाल याज्ञिक अध्यक्ष थे।
उसके बाद कम्यूनिस्टों की नीति ने ऐसी परिस्थिति पैदा कर दी कि वे अकेले रह गए और शेष सभी प्रगतिशील विचारवाले वामपक्षी उनसे जुदा हो गए। कुछ दिन यों ही गुजरे। इसी दरम्यान 1942 के राजबंदी जेलों से बाहर आने लगे और 1945 के मध्य से ही आल इंडिया किसान-सभा के पुनः संगठन का काम लेखक तथा टंडन जी के अथक उद्योग से शुरू हो कर गत 9 जुलाई 1946 को बंबई में 'हिंद किसान-सभा' के नाम से पुनरपि उसका संगठन हो गया है। उसके सभापति श्री पुरुषोत्तमदास जी टंडन और संगठन मंत्री यह लेखक हैं। अन्यान्य मंत्रियों तथा मेंबरों को मिलाकर 25 सज्जनों की कमिटी भी बनी है, जिनमें चार सदस्य अभी तक चुने नहीं गए हैं।
संक्षेप में भारतीय किसान-आंदोलन का यही क्रमबद्ध विकास है, यही उसकी रूपरेखा है। भारत के विभिन्न प्रांतों में उसकी शाखाएँ हैं, जिनमें कुछ तो सक्रिय हैं और कुछ शिथिल। परंतु सबों को पूर्ण सक्रिय बनाने का भार संगठन-मंत्री पर दिया गया है। वह इस महान कार्य में पूर्णतः संलग्न भी हैं। आज भारत के कोने-कोने में किसान संगठन की पुकार है, तेज आवाज है और यह शुभ लक्षण है।
( ब)
किसान-सभा किसानों की वर्ग संस्था है। वर्ग से अभिप्राय है आर्थिक वर्ग से, न कि धार्मिक या जातीय वर्ग से। किसान वर्ग के शत्रुओं, जमींदार-मालदारों से किसानों की रक्षा करना और उनके संगठित प्रयत्न के द्वारा उनके हकों को हासिल करना इस सभा का ध्येय है। जब तक सभी प्रकार के आर्थिक, राजनीतिक एवं सामाजिक शोषणों का अंतहो कर वर्गविहीन समाज नहीं बन जाता तब तक यह लक्ष्य हासिल नहीं होगा। फलतः इस ध्येय का, इस लक्ष्य और मकसद का पर्यवसान इस वर्ग-विहीन समाज में ही होता है जिसमें मनुष्य का शोषण मनुष्य न कर सके, सबों को अपने सर्वांगीण विकास की पूरी सुविधा हो और इस प्रकार मनुष्य मात्र की सारी जरूरतों की पूर्ति निरबाध और बेखटके होती रहे।
इसलिए सभी जाति, धर्म और संप्रदाय के उन लोगों की यह संस्था है जिन्हें खेती करनी पड़ती है, जो खेतिहर हैं और प्रधानतया खेती करे बिना जिनकी जीविका नहीं चल सकती है। इस प्रकार खेत-मजदूरों की भी संस्था यह किसान-सभा है। खेत-मजदूर किसानों के भीतर आ जाते हैं। वे दरअसल किसान हैं, जमीन जोतने-बोनेवाले हैं, tillers of the Soil हैं। फिर वे किसान वर्ग से पृथक कैसे रह सकते हैं? यह भी नहीं कि खेत-मजदूर हरिजन, अछूत या किसी धार्मिक संप्रदाय विशेष के भीतर आते हैं। आज परिस्थिति ऐसी है कि हर साल पूरे नौ लाख से भी ज्यादा किसान अपनी जोत-जमीन गँवा कर, बिना खेत के या यों कहिए कि खेत-मजदूर बनते जा रहे हैं और वे सभी जातियों और धर्मों के हैं। उनमें कुछी लोग दूसरी जीविका कर पाते हैं। अधिकांश खेत-मजदूर ही बनते हैं─अधिकांश को मजबूरन खेत-मजदूर ही बनना पड़ता है।
धार्मिक और जातीय आधार पर किया गया मनुष्यों का वर्गीकरण धोखा देता है और झूठा है, गलत है। कानून की नजरों में टेनेन्ट या किसान मात्र के हक समान ही हैं, फिर चाहे वह क्रिस्तान, मुसलमान, हिंदू आदि कुछ भी क्यों न हों; ब्राह्मण, शूद्र, शेख, पठान वगैरह क्यों न हों। जमींदारों के हक की भी यही हालत है। अपने-अपने हकों की लड़ाई भी इसी दृष्टि से होती है। न तो कोई हिंदू जमींदार हिंदू किसान के साथ रिआयत करता है और न मुसलमान मुसलमान के साथ। चाहे किसी भी धर्म का किसान क्यों न हो, उसके विरुद्ध सभी हिंदू-मुसलमान जमींदार एक हो जाते हैं, एक ही आवाज उठाते हैं। जमींदारों के खिलाफ सभी धर्म, जाति और संप्रदाय के किसानों को भी ऐसा ही करना चाहिए, ऐसा ही करना होगा। इसी तरह एक ओर संगठित हो कर अपनी आवाज बुलंद करनी होगी और हक के लिए मिलकर लड़ना होगा। यही वर्ग संस्था के मानी हैं और यही संगठन किसान-सभा है। जब तक किसान एक सूत्र में बँधे नहीं हैं, संगठित नहीं हैं, तब तक अपने वर्ग के शत्रुओं के विरुद्ध वे जो कुछ भी चीख-पुकार करते हैं वह निरा आंदोलन कहा जाता है। मगर ज्यों ही वे एक सूत्र में बँध कर यही काम करते हैं त्यों ही उसका नाम किसान-सभा हो जाता है। जितना ही जबर्दस्त उनका यह एक सूत्र में बँधना होता है उतनी ही मजबूत यह किसान-सभा होती है। इसमें उनके भी वर्ग शत्रुओं और उन शत्रुओं के मददगार साथियों के लिए कोई भी गुंजाइश नहीं है। क्योंकि तब यह वर्ग संस्था रहेगी कैसे? संस्था तो गढ़ है न? फिर उसमें शत्रु या उनके संगी-साथी कैसे घुसने पाएँगे? घुसने पर तो वह गढ़ ही शत्रुओं का हो जाएगा और जिस कार्य के लिए वह बनाया गया था वही न हो सकेगा।
जिस प्रकार चूहे और बिल्ली के दो परस्पर विरोधी वर्ग हैं और एक वर्ग दूसरे को देखना नहीं चाहता, चूहे बिल्ली को और वह चूहों को खत्म कर देना चाहती है, ठीक यही बात जमींदारों और किसानों की भी है। वे एक-दूसरे को मिटा देना चाहते हैं। चाहे किसान परिवार भूखों मर जाय, दवा के बिना और कपड़े के अभाव में कराहता फिरे; फिर भी उसी की कमाई पर गुलछर्रे उड़ानेवाले जमींदार उसके साथ जरा सी भी रिआयत करने को रवादार नहीं होते, एक कौड़ी भी लगान या अपने पावने में छोड़ना नहीं चाहते। सैलाब या अनावृष्टि से फसल खत्म हो गई और महाजनों से कर्ज ले कर किया हुआ किसान का सारा खर्च मिट्टी में मिल गया। फिर भी जमींदार अपना लगान पाई-पाई वसूल करता ही है। और न्यायालय भी उसी की मदद करते हैं। किसान की फरियाद अनसुनी कर दी जाती है। विपरीत इसके यदि किसान के पास रुपए-पैसे हों तो भी वह जमींदार को एक कौड़ी भी देना नहीं चाहता, अगर उसके बस की बात हो। यदि देता है तो विवश हो कर ही, कानून और लाठी के डर से ही। वह दिल से चाहता है कि जमींदार नाम का जीव पृथ्वी से मिट जाए। जमींदार भी किसान से न सिर्फ लगान चाहता है, वरन उसकी सारी जमीन किसी भी तरह छीन कर खुदकाश्त-बकाश्त बनाना और अपने कब्जे में रखना चाहता है। इससे बढ़कर परस्पर वर्ग-शत्रुता और क्या हो सकती है? फलतः जैसे जमींदारों ने अपने वर्ग के हितों की रक्षा के लिए जमींदार सभाएँ अनेक नामों से मुद्दत से बना रखी हैं और उन्हीं के द्वारा अपने हकों के लिए वे लड़ते हैं; ठीक उसी तरह किसानों के वर्ग-हित की रक्षा के लिए किसान-सभा है, किसान-सभा की जरूरत है, किसान-सभा चाहिए। तभी उनका निस्तार होगा। जमींदार तो मालदार और काइयाँ होने से बिना अपनी सभा के भी अपनी हित-रक्षा कर सकते हैं। वह चालाकी से दूसरी सभाओं में घुसकर या उन पर अपना असर डाल कर उनके जरिए भी अपना काम बना सकते हैं। रुपया-पैसा, अक्ल और प्रभाव क्या नहीं कर सकते? मगर किसान के पास तो इनमें एक चीज भी नहीं है। इसीलिए किसान-सभा जरूरी है।
कहा जाता है कि जब अंग्रेजों से लड़ने और उन्हें पछाड़ने के लिए कांग्रेस मौजूद ही है और उसके 90 फीसदी मेंबर किसान ही हैं, तो फिर उससे जुदी किसान-सभा क्यों बने? यह भी नहीं कि कांग्रेस किसानों के लिए लड़ती न हो।फैजपुरवाला उसका किसान-कार्यक्रम (Agrarian Programme) और हाल में जमींदारी मिटाने का उसका निश्चय इस बात के ज्वलंत प्रमाण हैं कि वह किसानों की अपनी संस्था है। यदि उसमें जमींदार या उनके मददगार भी हैं तो इससे क्या? वह फिक्र तो रखती है किसानों के लिए। यदि कहा जाए कि कांग्रेस कमिटियों पर ज्यादातर कब्जा और प्रभुत्व मालदारों का ही रहता है, तो यह भी कोई बात नहीं है। यह तो किसानों की भूल है, उनकी नादानी है कि चुनावों में चूकते हैं। जब अधिकांश कांग्रेस-सदस्य वही हैं तो फिर सजग हो के चुनाव लड़ें और सभी कमिटियों पर कब्जा करें। जब देश के लिए कांग्रेस के द्वारा लड़ने-मरनेवाले अधिकांश किसान ही हैं तो फिर कांग्रेस उनकी नहीं तो और किसकी है, किसकी हो सकती है? इसीलिए मानना ही होगा कि कांग्रेस ही सबसे बढ़कर किसानों की संस्था है, किसान-सभा है─Congress is the Kisan organisation par excellence.
ऊपर से देखने से बात तो कुछ ऐसी ही मालूम पड़ती है। यह सही है कि कांग्रेस ने जमींदारी मिटाने का निश्चय किया है। इससे पहले किसान-हित के प्रोग्राम भी उसने बनाए हैं। आगे भी वह ऐसा करेगी, इसमें भी विवाद नहीं। वह प्रगतिशील संस्था है, यह भी मानते हैं। तभी तो प्रतिदिन बदलती दुनिया में वह टिक सकती और आजादी का सफल संग्राम चला सकती है। इसीलिए किसान उस कांग्रेस से चिपकते हैं, उन्हें उससे चिपके रहना चाहिए जब तक जंगे आजादी जारी है और हम स्वतंत्र नहीं होते। कांग्रेस कमजोर हुई कि आजादी की आशा गई। गुलामी के विरुद्ध समस्त राष्ट्र के विद्रोह की प्रतीक और प्रतिमूर्ति ही कांग्रेस है। आजादी के लिए सारे देश की दृढ़ प्रतिज्ञ और बेचैनी का बाहरी या मूर्त रूप ही कांग्रेस है। राष्ट्रीयता ने हममें हरेक की रगों में प्रवेश किया है, हमारे खून में वह ओत-प्रोत है। वह हमारी रग-रग में व्याप्त है। यह राष्ट्रीयता जितनी ही व्यापक और संघर्ष के लिए व्याकुल-लालायित (militant) होगी, आजादी हमें उतनी ही शीघ्रता से मिलेगी। इसीलिए हर किसान को इस राष्ट्रीयता से ओत-प्रोत होना ही और कांग्रेसी बनना ही चाहिए ताकि हमारा मुल्क जल्द-से-जल्द पूर्ण स्वतंत्र हो। गुलाम भारत में किसान-राज्य या समाजवाद की आशा महज नादानी है।
इस प्रकार जब किसान कांग्रेस को शक्तिशाली बनाएँगे सीधी लड़ाई के द्वारा और चुनावों में मत देकर भी, तो इसके बदले में कांग्रेस को भी उनका खयाल करना ही होगा। और उनके हकों के लिए समय-समय पर लड़ना ही होगा। इन कार्यक्रमों को और जमींदारी मिटाने की बात मानकर कांग्रेस यही करती भी है। कांग्रेसी नेता खूब समझते हैं कि यदि वे ऐसा न करेंगे और जमींदारी न मिटाएँगे, तो उन्हें खुद मिट जाना होगा, उनकी लीडरी जाती रहेगी और कांग्रेस भी खत्म हो जाएगी। यह ठोस सत्य है। राष्ट्रीयता सर्वथा उपादेय और सुंदर चीज होने पर भी वह भावुकता की वस्तु है, भावना और दिमाग की चीज है, महज खयाली पदार्थ है। वह कोई ठोस भौतिक पदार्थ नहीं है, ठीक जिस प्रकार धर्म, ईश्वर और स्वर्ग-नर्क आदि हैं। ये भी महज खयाली हैं। इसीलिए समय-समय पर भौतिक पदार्थों-जर, जोरू, जमीन के सामने ये टिक नहीं सकते, इनकी अवहेलना होती है और लोग जमीन-जायदाद के लिए गंगा-तुलसी, कुरान-पुरान आदि उठाकर झूठी कसमें खाते हैं। इसी प्रकार भौतिक हितों के निरंतर विरोध में यह राष्ट्रीयता टिक नहीं सकती, इसे मिट जाना होगा। यही वजह है कि कांग्रेसी लीडर किसानों के भौतिक हितों की बातें समयानुसार करते रहते हैं। भावनामय कोरी राष्ट्रीयता भौतिक स्वार्थों को साथ ले कर ही टिक सकती है, लक्ष्य-सिद्धि में कामयाब हो सकती है। यदि इन भौतिक स्वार्थों को वह छोड़ दे या उनसे टकरा जाए, तो उनके लिए भारी खतरा बेशक पैदा हो जाएगा।
मौत बुरी है, बड़ी खतरनाक है। उसके मुकाबले में जूते की काँटी का चुभना कोई चीज नहीं है। फिर भी मौत से बचने के लिए कोई शायद ही फिक्रमंद दिखता है। मगर काँटी के कष्ट से बचने का यत्न सभी करते हैं। यही ठोस सत्य है और हम इसे भुलाकर भारी धोका खाएँगे। ठीक राष्ट्रीयता को भी इसी तरह भारी धक्का लगे, अगर वह किसानों की तात्कालिक माँगों और तकलीफों का खयाल कर के उनके संबंध में अपना प्रोग्राम स्थिर न करे। राष्ट्रीयता को अमली और व्यावहारिक जामा पहनना ही होगा और भौतिक दुनिया को देखकर ही चलना होगा। तभी वह पूर्ण स्वतंत्रता के युद्ध में सफल होगी। यही वजह है कि राष्ट्रीय नेता जमींदारी मिटाने की बातें करते और जमींदारों के गुस्से का सामना करते हैं। इसमें उनकी चालाकी और व्यवहार-कुशलता की झाँकी मिलती है।
यह भी न भूलना होगा कि फ्रांस में जमींदारी का खात्मा नेपोलियन जैसे साम्राज्यवादी के हाथ से हुई। उसे कोई नहीं कह सकता कि वह किसान मनोवृत्ति का था, या उसकी संस्था किसान-सभा जैसी थी। उसकी सरकार घोर अनुदार, पर दूरंदेश थी। उसने देखा कि फ्रांस के प्राचीन राजघराने के लोग दो दलों में विभक्त हो कर एक जमींदार वर्ग का समर्थक है तो दूसरा मध्यमवर्ग, बुर्जुवा या कल-कारखानेवालों का। किसानों का पुर्सां किसी को न पा उसने जमींदारी मिटाकर उन्हें अपने साथ किया और फौज में किसान युवकों को भर्ती कर के महान विजयों के द्वारा साम्राज्य-विस्तार किया। इसमें उसकी व्यवहार-कुशलता एवं दूरंदेशी के सिवाय और कुछ न था। वह न तो किसान था और न किसान-मनोवृत्ति का, और इसका पता एक मुद्दत गुजरने पर किसानों को तथा दुनिया को भी लग गया जब उसी के बनाए'नेपोलियनवाले कानूनों' के द्वारा उन्हीं किसानों की जमीनें धड़ाधड़ बैंकों एवं महाजनों के पास चली गईं। संयुक्त-राष्ट्र अमेरिका की सरकार ने तो वहाँ जमींदारी प्रथा होने ही न दी और अधिकांश किसानों को, विशेषतः पश्चिमी भाग में, मुफ्त जमीनें दीं। यह बात लेनिन की चुनी लेखमाला के अंग्रेजी संस्करण के बारहवें भाग के 194 पृष्ठ में स्पष्ट लिखी गई है। अन्यान्य देशों में भी अनुदार या दकियानूस दलवालों ने ही जमींदारी मिटाई है।
दरअसल देशों में उद्योग-धंधों की अबाध प्रगति के लिए जिस कच्चे माल की प्रचुर परिमाण में जरूरत होती है उसके उत्पादन में यह जमींदारी प्रथा बाधक होती है। यह प्रथा भूमि की उत्पादन शक्ति को बेड़ी की तरह जकड़नेवाली मानी जाती है। फलतः मध्यमवर्गीय मालदार ही इसका उन्मूलन करते हैं और भारत में भी 'बंबई-पद्धति'(Bombay Plan) के प्रचारक एवं निर्माण-कर्ता, टाटा, बिड़ला आदि करोड़पतियों ने ही जमींदारी मिटाने की आवाज गत महायुद्ध के जमाने में ही बुलंद की थी। पीछे चलकर कांग्रेस नेताओं ने उसे ही माना है और टाटा-बिड़ला का संगठन कोई किसान-सभा नहीं है, यह सभी जानते हैं। अतः जमींदारी मिटाने की बात इसका प्रमाण नहीं है कि कांग्रेस किसान-सभा बन गई। हाँ, यदि क्रांतिकारी ढंग से जमींदारी मिटाने की बात वह बोलती और वैसा ही करती, जैसा सोवियत रूस में हुआ, तो एक बात थी। तब ऐसा सोचा जा सकता था; हालाँकि फ्रांस में क्रांतिकारी ढंग से ही ऐसा होने पर भी उसके करानेवाले किसान-विरोधी ही सिद्ध हुए। क्रांतिकारी तरीके के मानी ही हैं जबर्दस्ती जमीनें और जमींदारों की सारी संपत्तियाँ छीन लेना और उन्हें राह का भिखारी या महाप्रस्थान का यात्री बना देना।
यह भी सोचना चाहिए कि कांग्रेस तो 1936-37 वाले चुनावों में भी पड़ी थी। उसी समय उसने फैजपुर का एक अत्यंतलचर कार्यक्रम भी इसी सिलसिले में स्वीकार किया था, पर वह भी कांग्रेसी-मंत्रिमंडलों के बनने पर सर्वत्र खटाई में ही पड़ा रह गया। प्रत्युत युक्तप्रांत में ऐसा काश्तकारी कानून बनाया उन्हीं मंत्रियों ने जिसके चलते गत महायुद्ध के जमाने में, सरकारी बयान के अनुसार ही, पूरे दस लाख एकड़ जमीनें किसानों से जमींदारों ने छीन ली और किसानों में हाहाकार मच गया। उसी का प्रायश्चित्त इस बार वहाँ कांग्रेसी मंत्रियों को करना पड़ रहा है। बिहार में भी ऐसी ही बातें होनेवाली थीं। मगर यहाँ किसान-सभा की जागरूकता और उसके प्रबल आंदोलन ने बहुत कुछ रोका। फिर भी बहुत कुछ अनर्थ हो गए। यदि कांग्रेस ही किसान-सभा होती, तो क्या ऐसा होता? उलटे बिहार की किसान-सभा को कांग्रेसी मंत्रियों और लीडरों ने इसलिए कोसा कि वह कांग्रेस विरोधी है। परंतु प्रश्न तो यह है कि इस निर्जीव और लचर किसान-कार्यक्रम की जगह उसी समय कांग्रेस ने जमींदारी मिटाने का प्रोग्राम क्यों न कबूल किया था? क्या पहले वह दूसरी थी और आज बदल गई?
दरअसल उस समय किसान-सभा ऐसी जोरदार न थी और उसने भी जमींदारी मिटाने का प्रश्न अभी तेज न बना पाया था, जिससे कांग्रेस पर उसका दबाव पड़ता और वह उसे मानने को मजबूर होती। तब समय का रुख ऐसा बेढंगा न था इस जमींदारी के बारे में। तब कांग्रेस के आधार-स्तंभ किसान-समाज में जमींदारी के मिटा देने के बारे में ऐसी भीषण मनोवृत्ति न थी जैसी आज है। उनमें इसके प्रति ऐसा रोष-क्षोभ न था जो आज है। फलतः उसके मिटाने का प्रश्न न उठाकर भी कांग्रेस उस समय किसानों को अपने साथ ले सकती थी। अब जमींदारी न मिटाकर कांग्रेस का टिकना या किसानों को अपने साथ ले सकता असंभव है। इसीलिए पूरे दस साल बाद उसने जमींदारी मिटाने की बात अपनाई है। सो भी मुआवजा या कीमत देकर।
इससे कई बातें सिद्ध होती हैं। एक यह कि कांग्रेस ने खुद ऐसा न कर के किसान-सभा, किसान-आंदोलन और किसानों के दबाव से ही ऐसा किया है या यों कहिए कि उसने समय का रुख पहचाना है। इससे उसकी और उसके नेताओं की अवसरवादिता सिद्ध होती है, जो बेशक किसान-सभा या किसान नेता होने का लक्षण कदापि नहीं। किसानों का हित तो 1936-37 में ही पुकारता था कि जमींदारी मिटाओ।
इससे किसान-सभा और कांग्रेस का मौलिक एवं बुनियादी भेद भी सिद्ध हो जाता है।जहाँ किसान-सभा अर्थनीति और आर्थिक कार्यक्रम को राजनीति के द्वारा देखती हुई उसे साधन और आर्थिक बातों को, अर्थ-नीति को साध्य मानती है, और इसीलिए राजनीतिक हार-जीत की वैसी परवाह न कर के सदा किसानों की आर्थिक बातों को ही देखती रहती है और वैसा ही कार्यक्रम चाहती है, तहाँ कांग्रेस राजनीति को ही अर्थनीति के द्वारा, इसी आईने में देखती है। फलतः उसके लिए ये आर्थिक बातें तथा प्रोग्राम साधन हैं और राजनीति साध्य या लक्ष्य। यही वजह है कि जब 1936-37 में मामूली आर्थिक प्रोग्राम से ही उस राजनीतिक चुनावों में जीत संभव थी तो उसने वैसा ही प्रोग्राम बनाया। लेकिन इस बार वैसा संभव न देख जमींदारी मिटाने की बात उठाई।
सारांश, हर हालत में किसानों को साथ ले कर उसे राजनीति में सफल होना है। फलतः उनका हित कांग्रेस लीडरों का लक्ष्य न हो कर साधन मात्र है। किसान-हित की बातों और वैसे कामों के द्वारा वे अपना मतलब निकालना चाहते हैं। यह बात किसान नेताओं एवं किसान-सभा में नहीं हो सकती। उनका तो काम ही है किसानों के हित को ही अपना अंतिम लक्ष्य बनाना और आगे बढ़ाना और इस प्रकार एक न एक दिन उसी रास्ते राजनीति में भी विजयी होना।
दूसरी बात यह है कि यदि कांग्रेस से जुदा स्वतंत्र रूप से कोई किसान-आंदोलन और किसान-सभा न हो तो फिर कांग्रेस पर दबाव किसका पड़ेगा? आज जो कांग्रेस प्रगतिशील मानी जाती है वह इसीलिए न, कि वह समय की गति पहचान कर तदनुसार ही कदम बढ़ाती है? यही उसकी सबसे बड़ी खूबी है, उसमें यह गुंजाइश है, यही उसकी जान और शान के लिए बड़ी चीज है। मगर, अगर दबाव न हो तब? तब तो वह दकियानूस ही बन जाय, उसकी प्रगति जाती रहे और वह निर्जीव हो जाय, जैसी नरम दलियों की संस्थाएँ हैं। ऐसी दशा में आजादी के संग्राम में पूर्ण सफलता की आशा की जाती रहे। इसीलिए कांग्रेस की प्रगतिशीलता एवं लक्ष्य की सफलता के लिए भी जिस किसान दबाव की सख्त जरूरत है, उसके लिए स्वतंत्र किसान-सभा का होना नितांत आवश्यक है। क्योंकि तभी किसान-हित की दृष्टि से स्वतंत्रआंदोलनकर के ऐसा वायुमंडल बनाया जा सकता है जिसका दबाव कांग्रेस पर पड़े और वह प्रगतिशील कार्यक्रम बनाकर किसान समूह को अपनी ओर खींचे। इसके अभाव में वह नरम दलियों एवं लिबरलों की तरह निर्जीव प्रोग्राम बनाकर किसानों को अपने साथ अंततोगत्वा ले चलने में समर्थ नहीं हो सकती, यह ध्रुव सत्य है।
यदि किसान-सभा स्वतंत्र न हो कर कांग्रेस का अंग या उसका एक विभाग मात्र हो तो वह न तो स्वतंत्रआंदोलन ही कर सकती और न वैसा प्रचंड वायुमंडल ही बना सकती, जो कांग्रेस पर दबाव डाल कर उसे आगे बढ़ाए और प्रगतिशील बनाए। क्योंकि ऐसी किसान-सभा कांग्रेस के निश्चय का ही मुँह देखेगी और तदनुसार ही चलेगी अनुशासन के खयाल से। वह स्वतंत्र रूप से कोई भी काम या आंदोलन कर नहीं सकती।
और आखिर यह मुआविजा क्या बला है? क्या इससे किसानों का लाभ है? क्या यह किसान-हित की दृष्टि से दिया जाने को है? साफ शब्दों में कहा जा सकता है कि यह तो किसानों के भविष्य को पहले से ही मुस्तगर्क करना या जकड़ देना है। उनके भविष्य को पहले से ही बंधक रख देना है। आगे चलकर उनके लिए यह बड़ा रोड़ा सिद्ध होगा। आखिर ये रुपए किसानों से ही तो वसूल होंगे। आज जो भी कर्ज इस मुआविजे को चुकाने के लिए सरकार लेगी उसका भार किसानों पर ही तो पड़ेगा, वह उन्हीं से तो सूद के साथ वसूल होगा। जो भी रुपया कर्ज ले कर या सरकारी खजाने से दिया जाएगा वही अगर किसान-हित के कामों में खर्च होता तो वे कितने आगे बढ़ते? यही रुपए यदि उनकी शिक्षा, स्वास्थ्य-सुधार, ग्रामीण सड़कों, सिंचाई, खेती की तरक्की, मार्केटिंग के प्रबंध आदि में खर्च हों तो सचमुच किसान प्रगति की छलाँग मारने लगेंगे। यही वजह है कि किसान-सभा इस मुआवजे की सख्त मुखालिफत करती है।
कहा जाता है कि किसान-सभा ने 1937 में बने कांग्रेसी-मंत्रिमंडलों को काफी परेशान और बदनाम किया। मगर यही तो कहने का भद्दा तरीका है। विरोध का सदा स्वागत किया जाता है। जब तक विरोध न हो ठीक रास्ते पर कोई नहीं चलता। विरोधी ही अधिकारारूढ़ दल की कमजोरियों को बताकर उन्हें सँभलने का मौका देते हैं। यदि मोटर और इंजन में ब्रेक न हो तो पता नहीं मोटर और रेल कहाँ जा गिरें? और आखिर यह ब्रेक है क्या चीज, यदि विरोध, रुकावट या 'अपोजीशन' नहीं है? उन दिनों किसान-सभा कांग्रेसी मंत्रियों को क्या गिराना या पदच्युत करना चाहती थी? क्या इसका कोई प्रमाण है? उसने तो सिर्फ खतरे और खामियाँ सुझाकर मंत्रियों को समय-समय पर सजग किया कि सँभल कर काम करें, जमींदारों के माया-जाल और चकमे में पड़कर पथ-भ्रष्ट न हों। फलतः मंत्री लोग सँभलें जरूर और इस तरह किसानों को अपने साथ रख सके। आखिर तेली के बैल की तरह किसानों की आँखें मूँद कर हमेशा के लिए रखी नहीं जा सकती थीं। वे खुलतीं कभी न कभी जरूर और कांग्रेस के लिए बुरा होता। यदि अपने आप खुलतीं या यदि कहीं कांग्रेस के शत्रु खोलते तो तब तो भारी खतरा होता। किसान-सभा ने इन दोनों से कांग्रेस को बचाया। फलतः इसके लिए उसका कृतज्ञ होने के बजाय यह उलाहना और गुस्सा? उसने मित्र का काम किया। फिर भी यह नाराजगी?
यह भी बात है कि राष्ट्रीय संस्था होने के नाते कांग्रेस सभी वर्गों की संस्था है। उसमें सभी वर्ग शरीक हैं, वह सभी दलों और श्रेणियों का प्रतिनिधित्व करती है। यही उसका दावा है। यही चाहिए भी। तभी सभी वर्ग के लोग उससे चिपकेंगे, उसे अपनी संस्था मानेंगे और फलस्वरूप उसे मजबूत बनाने की कोशिश करेंगे। ऐसी दशा में वह किसानों की संस्था या सभा कैसे हो सकती है। वह केवल एक वर्ग का प्रतिनिधित्व कैसे कर सकती है? यह तो उसकी कमजोरी का सबसे बड़ा कारण होगा; कारण, तब जमींदार, मालदार आदि दूसरे वर्ग उसका न सिर्फ साथ न देंगे, प्रत्युत उसके घोर शत्रु हो जाएँगे। जमींदारी मिटाने का प्रश्न जो मुआविजा देकर उठाया गया है, उसका भी यही तात्पर्य है। जमाना बदल रहा है और अपार धन-संपत्ति ले कर जमींदार उसे उद्योग-धंधों में लगाएँगे और मालामाल होंगे। जमीन से होनेवाली एक बँधी-बँधाई आमदनी की जगह कल-कारखानों से होनेवाली उत्तरोत्तर वृद्धिशील आमदनी होगी इन जमींदारों को, फिर चाहिए क्या? उस दशा में जमींदार कांग्रेस के शत्रु क्यों बनें? यदि वे विरोध करते हैं तो या तो नादानी से या यह उनकी चालबाजी है। ऐसा न करते तो शायद किसानों के दबाव से कांग्रेस उन्हें मुआविजा भी न देती। आखिर कांग्रेस दल में अधिकांश जमींदार मालदार और उनके संगी-साथी ही तो हैं। किसान-मनोवृत्ति के हैं कितने एम. एल. ए.? और यही लोग जमींदारी मिटाने की बात का इस रूप में समर्थन करते हैं। तो क्या वे सनक गए हैं?
ऐसी दशा में न तो वह किसान जैसे एक वर्ग की संस्था बन सकती और न किसान-सभा कांग्रेस के अधीन या उसकी मातहती में ही रह सकती है, रखी जा सकती है। ये दोनों बातें परस्पर विरोधी हैं। जब कभी किसान-सभा किसान-हितों के लिए जमींदारों से भिड़ना चाहेगी, तभी कांग्रेस के अनुशासन की नंगी तलवार उस पर आ गिरेगी। उसे कांग्रेस का रुख देखकर ही प्रतिपल चलना होगा। कांग्रेस का मुख्य काम है विभिन्न वर्गों के स्वार्थों का सामंजस्य रखना और ऐसा करते हुए ही आगे बढ़ना। वह तो एक वर्ग को दूसरे के विरुद्ध संघर्ष करने देना नहीं चाहती, नहीं चाहेगी। वह होगा वर्ग-युद्ध या श्रेणी-संघर्ष और वैसा होने पर कांग्रेस को किसी एक वर्ग का साथ उसमें देना ही पड़ेगा। फलतः उसकी राष्ट्रीयता जाती रहेगी। जिस वर्ग के विपरीत दूसरे का साथ देगी वह उससे हट जाएगा। यह हटना समय-समय पर होता ही रहेगा, कारण, वर्ग-संघर्ष एक ही बार न हो कर बार-बार होगा। तब उसकी राष्ट्रीयता कैसे निभेगी और सभी वर्गों की संस्था होने का सफल दावा वह कर सकेगी कैसे? इसी से उसे वर्ग-सामंजस्य का रास्ता पकड़ना ही है। वह यही करती भी है। अतएव उसकी मातहत किसान-सभा को या उसके किसान-विभाग को भी यही करना होगा। उसे भी वर्ग-सामंजस्य की माला जपनी होगी। फिर भी उसे किसान-सभा का नाम देना उसका उपहास करना है, जब तक कि स्वतंत्रता-पूर्वक यह किसान-हितों के लिए संघर्ष न कर सके, ऐसा करने की पूरी आज़ादी न हो।
कहा जा सकता है कि इस वर्ग-सामंजस्य की नीति के फलस्वरूप जमींदार वर्ग की भी हित-हानि हो सकती है। क्योंकि उनके लिए भी तो कांग्रेस कभी संघर्ष न करेगी। तब घबराहट क्यों? बात ऊपर से ठीक दीखती है। मगर असलियत कुछ और ही है। कभी किसी ने देखा-सुना ही नहीं कि कांग्रेस जमींदार सभा को भी अपनी मातहती में रखे या अपना एक जमींदार-डिपार्टमेंट खोले। उसका यत्न तो केवल किसान-सभा को ही न होने देने तथा अपने मातहत रखने में है। मजदूर-सभा की भी स्वतंत्र सत्ता वह स्वीकार करती है और जमींदार-सभा की भी। पूँजीपतियों की सभा का तो कुछ कहना ही नहीं। बल्कि यों कहिए कि पूँजीपतियों एवं जमींदारों की सभाएँ कांग्रेस की परवाह भी नहीं करती हैं। वह अपना स्वतंत्र कार्य किएजाती हैं। इसीलिए कांग्रेस के वर्ग-सामंजस्यवाले सिद्धांत से उनकी हानि नहीं होती, नहीं हो सकती। उनकी संस्थाएँ निरंतर लड़ती जो रहती हैं। बस, सारी बला किसानों पर ही आती है, आनेवाली है। क्योंकि उनकी स्वतंत्र संस्था रहने न पाए इसी के लिए कांग्रेसी नेता परेशान रहते हैं और इस तरह किसान-सभा को पनपने नहीं देते। तब किसानों के हित चौपट न हों तो होगा क्या? वे सभी वर्ग संस्थाओं को समान रूप से पनपने न देते तो एक बात थी। मगर सो तो होता नहीं। ऐसी दशा में कांग्रेस के अधीन किसान-सभा का ढाँचा खड़ा करना निरी प्रवंचना है। दरअसल कांग्रेस में जमींदारों का प्रभुत्व ठहरा और वह इसी ढंग से किसानों को उठने देना नहीं चाहते। यह उनकी चाल है कि अनेक वर्गीय संस्थाओं के अधीन किसानों की वर्ग संस्था को बनाने का ढोंग रचकर उन्हें सदा पंगु ही रखें। पहले तो किसान-सभा के नाम से ही नाक-भौं सिकोड़ते थे। मगर उससे कुछ होता-जाता न देख अब यह दूसरा प्रपंच खड़ा किया जा रहा है।
कहा जा सकता है कि कांग्रेस में दूसरे वर्ग─जमींदार, पूँजीपति और मजदूर─-नगण्य से हैं; फलतः वे अपनी अलग सभाएँ बनाकर भी कांग्रेस का कुछ बिगाड़ नहीं सकते जब तक किसान कांग्रेस के साथ हैं। हाँ, यदि किसान भी अलग हों तो भारी खतरा होगा और उनकी स्वतंत्र संस्था-किसान-सभा-बन जाने में इसकी पूरी संभावना है। किसानों ने यदि कांग्रेस को छोड़ा तो उसकी जड़ ही कट जाएगी।
लेकिन यह कोई दलील नहीं है, यदि किसान-सभा का संचालन कांग्रेस-जन ही करें तो क्या हर्ज है? तब किसानों को उसके विरुद्ध जाने का मार्ग कौन सिखाएगा? क्या वही कांग्रेसी ही? यह तो विचित्र बात है। और अगर यह बात हो तो आखिर बकरे की माँ कब तक खैर मनाएगी? किसानों को सदा कांग्रेस की दुम में बाँध रखना असंभव है। संसार में और भारत में भी वर्ग संस्थाएँ हैं, यह ठोस सत्य है। फिर किसान इससे अछूते रहें, उन्हें यह वर्ग संस्था की हवा न लगे, यह गैर-मुमकिन है। परिणाम यह होगा कि अभी तो कांग्रेस-जन ही वह वर्ग संस्था बना सकते हैं, बनाते हैं। मगर पीछे कांग्रेस के विरोधी बना के ही दम लेंगे और ये कांग्रेसी लीडर उनका कुछ कर न सकेंगे। फलतः कांग्रेस-विरोधियों का प्रभुत्व किसान-सभाओं पर न हो, सिर्फ यही देखभाल कांग्रेस की दृष्टि से अवश्य की जानी चाहिए जब तक आजादी की लड़ाई जारी है और मुल्क स्वतंत्र नहीं हो जाता। इसके आगे जाना अनुचित काम एवं अनधिकार चेष्टा है। जमींदार हजार उपायों से किसानों को तबाह करते रहें और आप से कुछ नहीं होता मगर ज्यों ही किसान अपनी संघ-शक्ति के द्वारा उनका संगठित रूप से सामना करने की तैयारी करता और एतदर्थ किसान-सभा बनाता है कि आप लोग हाय-तोबा मचाने लगते हैं। यह बात अब किसान भी समझने लगा है और कांग्रेस के लिए यह अच्छा नहीं है।
यदि किसान-सभा कांग्रेस का पुछल्ला नहीं बनती, यदि इसमें किसानों के लिए खतरा है और इसीलिए स्वतंत्र किसान-सभा का बनना अनिवार्य है, तो वह अनेक राजनीतिक दलों तथा पार्टियों की भी दुम न बनेगी। यदि उस पर कांग्रेसी लीडरों की हुकूमत असह्य है, तो फिर पार्टी लीडरों की मुहर भी क्यों लगे? उसकी स्वतंत्रता तो दोनों ही तरह से चौपट होती है और वह मजबूत हो पाती नहीं। हम उसे बलवती वर्ग संस्था बनाना चाहते हैं और ऐसा करने में यदि कांग्रेस बाधक है तो ये पार्टियाँ कम बाधक नहीं हैं। गत पन्द्रह साल के अनुभव से हम यह बात कहने को विवश हैं। पार्टियों की पहली कोशिश यही होती है कि किसान-सभा या मजदूर-सभा उनका पुछल्ला बनें, उनका प्रभुत्व और उनकी छाप इन सभाओं पर लगे। यदि ऐसा हो गया, तो ये सभाएँ बनें; नहीं तो जहन्नुम में जाएँ। यदि कई पार्टियाँ हुईं-और हमारे देश में दुर्भाग्य से सोशलिस्टों, कम्युनिस्टों, फारवर्ड ब्लाकिस्टों, क्रांतिकारी सोशलिस्टों, बोल्शेविकों आदि की अलग-अलग पार्टियाँ हैं-तो किसान-सभा उनके आपसी महाभारत का अखाड़ा बन जाती है। उनकी आपसी खींच-तान से यह ठीक-ठीक पनप पाती नहीं, तगड़ी और जबर्दस्त बन पाती नहीं। हरेक पार्टी का अपना-अपना मंतव्य होता है। वह भला होता है या बुरा, इससे हमें कोई मतलब नहीं। मगर वह परस्पर विरोधी तो होता ही है। यह बात चाहे ऊपर से देखने कहने के लिए न भी हो, फिर भी भीतर से होती ही है। यह ठोस सत्य है। यदि मंतव्य का परस्पर विरोध न हो तो फिर कलह कैसी? फिर ये पार्टियाँ आपस में मिल जाती हैं क्यों नहीं? कम से कम लीडरी का विरोध तो रहता ही। हरेक पार्टी अपनी लीडरी चाहती है और यह और भी बुरी बात है। ऐसी दशा में बेचारी किसान-सभा इनके आपसी झगड़े का अखाड़ा क्यों बने, क्यों बनने दी जाए? और अगर किसी कल, बल, छल से एक पार्टी ने सभा में अपना बहुमत बनाना चाहा, तो ऐसा क्यों होने दिया जाए? इन्हें तो अपनी लीडरी का मर्ज है। किसान और उनकी सभा जाएँ जहन्नुम में। किसानों और उनकी सभा का नाम यदि इन्होंने भी कभी लिया है तो केवल अपनी लीडरी साधने के लिए। नाम चाहिए, काम जाए जूल्हे में। एकांत में बैठकर ये पार्टी लीडर कोई बात तय करें, कोई मंतव्य ठहराएँ, और किसान-सभा में आकर उस पर उसे ही लादें यह बुरी बात है, असह्य चीज है। सभा में ही बैठकर वह मंतव्य ठीक क्यों नहीं करते? शायद तब उनकी लीडरी न रहे। मगर किसान-सभा तो रहेगी और जबर्दस्त रहेगी। यदि ये पार्टी लीडर ईमानदार हों तो उन्हें यही करना चाहिए। नहीं तो सभा को बख्श देना चाहिए।
एक बात और भी है। इन सभी पार्टियों का दावा है कि ये मजदूरों की पार्टियाँ हैं। कम्युनिस्ट पार्टी का तो यही दावा है। लेनिन की कम्युनिस्ट पार्टी का नामकरण या जन्म बोल्शेविक पार्टी से ही हुआ रूस की अक्टूबर 1917 की क्रांति की सफलता के बाद। और यह बोल्शेविक पार्टी बनी थी रूस की सोशल डेमोक्रेटिक लेबर पार्टी के ही बहुमत से। उस लेबर या मजदूर पार्टी के बहुमत ने जो निर्णय किया उसे अल्पमत ने न माना और वह अलग हो गया। इस तरह स्पष्ट है कि आज की कम्युनिस्ट पार्टी मजदूरों की ही पार्टी है। लेनिन के लेखों में सर्वत्र यही बात पाई जाती है। मार्क्स और एंगेल्स ने भी शुरू-शुरू में दूसरे-दूसरे नामों से इसे मजदूर पार्टी के रूप में ही बनाया। ऐसी दशा में किसानों की वर्ग संस्था उस मजदूर पार्टी की छत्रछाया या लीडरी में कैसे बन सकती और सबल हो सकती है? मजदूर पार्टी की अधीनस्थ किसान-सभा किसानों की स्वतंत्र वर्ग संस्था वास्तविक रूप से बन पाएगी कैसे? और अगर कम्युनिस्ट पार्टी इस ठोस सत्य को मिटाकर यह दावा करे कि वह किसानों तथा मजदूरों की-दोनों की-पार्टी है, तो प्रश्न होता है कि वह अनेक वर्गों की संस्था हो कर किसानों की वर्ग संस्था को अपने अधीन कैसे रख सकेगी और उसके साथ न्याय कर सकेगी? किसान-सभा की नकल वह भले ही खड़ी करे। मगर असली और बलवती किसान-सभा वह हर्गिज न बनने देगी। बहुवर्गीय संस्था होने के नाते यदि कांग्रेस के मातहत किसान-सभा नहीं बन सकती तो कम्युनिस्ट पार्टी का पुछल्ला क्यों बनेगी?
कहा जा सकता है कि कांग्रेस के भीतर रहनेवाले वर्ग परस्पर विरोधी हैं। दृष्टांत के लिए जमींदारों का विरोध किसानों से है। फलतः उसकी मातहती में किसान-सभा नहीं बन सकती है। मगर किसानों तथा मजदूरों के स्वार्थों का तो परस्पर विरोध है नहीं, किसान और मजदूर भी परस्पर विरोधी वर्ग इसीलिए नहीं हैं। तब इन दोनों की संस्था स्वरूप इस कम्युनिस्ट पार्टी के अधीन किसान-सभा क्यों न होगी?
मगर यह दलील लचर है। अंततोगत्वा इन दोनों के स्वार्थ जरूर मिल जाते हैं; समाजवाद या साम्यवाद की दशा में इनका परस्पर विरोध नहीं होता, यह बात सही है। मगर प्रश्न तो वर्तमान दशा और समय का है और आज इनके स्वार्थों का विरोध स्पष्ट है। यदि गल्ले, साग-भाजी और फल-फूल आदि महँगे बिकें तो किसान सुखी हों और खुश रहें, मगर कारखाने के मजदूर नाखुश और तबाह हों। विपरीत इसके यदि कारखाने के बने माल─कपड़े आदि─महँगे बिकें और कारखानेदारों को ज्यादा लाभ हो तो मजदूरों के वेतन बढ़ें, उन्हें बोनस मिले और दूसरी सुविधाएँ मिलें। लेकिन इसमें किसान की तबाही है। उसकी पैदा की गई सारी चीजों की कीमत कपड़े आदि में ही लग जाती है और वह तबाह रहता है। यदि मजदूर अपनी माँग मनवाने के लिए महीनों हड़ताल करें तो मिल-मालिक उनके सामने झुकें। मगर ऐसा होने पर मिल के बने कपड़े आदि महँगे होते और किसानों के ज्यादा पैसे इनमें लग जाते हैं। फलतः वह ये हड़तालें नहीं चाहते। ऐसी ही सैकड़ों बातें हो सकती हैं जिनसे दोनों के तात्कालिक स्वार्थों का परस्पर विरोध स्पष्ट है और ये तात्कालिक स्वार्थ ही उनकी दृष्टि को किसी रास्ते पर लाते हैं। ये भौतिक स्वार्थ हैं, प्रत्यक्ष हैं, आँखों के सामने हैं। इनके मुकाबले में समाजवाद और साम्यवाद वैसे ही परोक्ष और केवल भावनामय हैं, दिमागी हैं, जैसी आजादी और स्वतंत्रता। जिस प्रकार तात्कालिक स्वार्थों को भूलकर हम इन्हें स्वराज्य संग्राम में सामूहिक रूप से आकृष्ट नहीं कर सकते, ठीक वैसे ही इन परस्पर विरोधी तात्कालिक स्वार्थों को अलग कर के, इनकी परवाह न कर के हम किसानों या मजदूरों को सामूहिक रूप से अपनी सभा में आकृष्ट नहीं कर सकते। फिर समाजवाद के लिए यह तैयार कैसे किएजाएँगे? फलतः न्याय,ईमानदारी,दूरंदेशी और व्यावहारिकता का तकाजा यही है कि इन दोनों की सभाएँ एक-दूसरे से स्वतंत्र हों और किसी भी पार्टी का उन पर नियंत्रण न हो। तभी उनमें बल आएगा। कम से कम किसान-सभा तो तभी सबल और सजीव बन सकेगी और पीछे मजदूर-सभा के सहयोग से साम्यवाद स्थापित करेगी।
एक बात और। मार्क्सवादियों ने किसानों को मध्यम या बुर्जुवा वर्ग में माना है और प्रतिक्रियावादी कहा है। यह ठीक है कि परिस्थिति विशेष में यह बूर्जुवा वर्ग भी क्रांतिकारी तथा आमूल परिवर्तनवादी (Revolutonary and Radical) होता है। यही बात किसान पर भी लागू है। यही बात लेनिन ने अपनी चुनी लेखमाला के अंग्रेजी संस्करण के 12वें भाग में अंत में लिखी है कि ''In Russia we have a 'radical bourgeois'.That radical bourgeois is the Russian Peasant.'' मगर मजदूरों को तो सबों ने क्रांतिकारी माना है। ऐसी दशा में ये दो वर्ग परस्पर विरोधी स्वयं सिद्ध हो जाते हैं। फिर इन दोनों की एक पार्टी कैसी? इन दोनों का एक संगठन कैसा? वर्तमान सामाजिक परिस्थिति में ये स्पष्ट ही दो परस्पर विरोधी दिशाओं में चलनेवाले हैं। फलतः इनके स्वतंत्र संगठन बनाकर ही धीरे-धीरे इन्हें रास्ते पर लाना होगा।
कम्युनिस्ट पार्टी के संबंध में जो बातें अभी-अभी कही गई हैं वही अक्षरशः सोशलिस्ट पार्टी, फारवर्ड ब्लाक आदि पार्टियों के बारे में भी लागू हैं। क्योंकि उनका भी दावा वैसा ही है। जैसा कम्युनिस्ट पार्टी का। यदि इनमें कोई यह भी दावा करती है कि उनके भीतर फटेहाल बाबुओं का वर्ग भी आ जाता है, या मध्यमवर्ग भी समाविष्ट हो जाता है, तो इसमें हालत जरा और भी बदतर हो जाती है। फलतः सच्ची और स्वतंत्र किसान-सभा बनाने का उनका भी दावा वैसे ही गलत है जैसे कम्युनिस्टों का। कम्युनिस्टों और रायिस्टों में इतनी विशेषता और भी है कि वह भारत की व्यापक, दहकती और सर्वत्र ओत-प्रोत हो कर'युद्धं देहि' करनेवाली राष्ट्रीयता का अपमान करते और उसकी अवहेलना कर के भी कायम रहना चाहते हैं। वे अपनी अंतर्राष्ट्रीयता के साँचे में इस राष्ट्रीयता को ढालने की भारी भूल करते हैं। यह बात इन पार्टियों में नहीं है। वे न तो ऐसी भूल करती हैं और न राष्ट्रीयता की अवहेलना ही करती हैं। वे राष्ट्रीयता को उसका उचित स्थान देती हैं। फिर भी किसान-सभा की स्वतंत्रता, बलवत्ता और वास्तविकता की दृष्टि से सबों का स्थान समान ही है। समान तो पार्टियों की किसान-सभा के बैल बसहा बैल है पुजवाने के लिए, मगर किसानों को तो हल चलानेवाला बैल चाहिए।
एक महत्त्वपूर्ण बात और भी कहनी है। आखिर क्रांति करते हैं किसान और मजदूर ही। एतदर्थ उनकी वर्ग संस्थाएँ अत्यावश्यक हैं; कारण, वही उन्हें इसके लिए संगठित और तैयार करती हैं। बिना इन संस्थाओं के किसान और मजदूर सामूहिक रूप से तैयार किए जा सकते नहीं। यह बात सभी क्रांतिकारियों को मान्य है, तो फिर राजनीतिक दलों और पार्टियों की जरूरत क्या है? इन दोनों सभाओं की कार्यकारिणी समितियाँ आपस में सहयोग कर केक्रांति का संचालन एवं उसका नेतृत्व बखूबी कर सकती हैं। केवल दोनों के सहयोग की व्यवस्था होना जरूरी है और यह बात बिना पार्टियों के भी वे दोनों खुद ही कर सकती हैं। एक समय था जब राजनीतिक विचारों का पूर्ण विकास न होने के कारण पार्टियों की आवश्यकता मानी जाती थी ताकि वर्ग संस्थाएँ पथ-भ्रष्ट न हो जाएँ और उन्हें गलत नेतृत्व न मिले। लेकिन इसी के साथ यह भी जरूरी माना जाता था कि सभी देशों की इन पार्टियों की भी एक अंतर्राष्ट्रीय (International) पार्टी हो, जो सबों को सूत्रबद्ध रखकर उन्हें भी उचित नेतृत्व दे, ठीक रास्ते पर ले चले। यातायात और समाचार के साधनों के पूर्ण विकास के अभाव के चलते भी पथ-भ्रष्टता का खतरा था। एक-दूसरे से सीधा संपर्क रखना असंभवप्राय जो था। मगर आज तो इनमें एक भी बात नहीं है। राजनीति का विकास पराकाष्ठा को पहुँच चुका है, यातायात के साधन अत्यंत तेज और सुलभ हैं, फोन, तार और रेडियो ने समाचार के संसार में क्रांति कर दी है और छपाई की कला ऐसी प्रगति कर गई है कि कुछ न पूछिये। इसलिए राजनीति का अंतर्बहिर्विश्लेषण भी ऐसा हो चुका है कि अब उसमें भ्रम की गुंजाइश नहीं, किसी पार्टी के नेतृत्व की जरूरत नहीं। मौजूदा साधनों के सहारे किसानों तथा मजदूरों की संस्थाएँ अपने कर्तव्य का नियमित निर्धारण अच्छी तरह कर सकती हैं।
इसीलिए अंतर्राष्ट्रीय के सबसे बड़े पोषक एवं सूत्रधार मो. स्तालीन ने कई साल पूर्व ऐलान कर दिया कि ऐसी संस्था या पार्टी की अब जरूरत नहीं है। जिस तृतीय अंतर्राष्ट्रीय की देखा-देखी दूसरे अंतर्राष्ट्रीय बने, जब वही बेकार है, तो इनकी क्या जरूरत? सोशलिस्ट पार्टी, फारवर्ड ब्लाक और क्रांतिकारी सोशलिस्ट पार्टी का तो अंतर्राष्ट्रीय से कोई संबंध है भी नहीं। ऐसी दशा में एक कदम और नीचे उतरकर इन सभी पार्टियों को भी खत्म क्यों न कर दिया जाए? इनकी क्या जरूरत रह गई? और जब कम्युनिस्ट पार्टी का सूत्रधार तृतीय अंतर्राष्ट्रीय न रहा, तो फिर यह पार्टी भी नाहक क्यों रहे? अगर सिर्फ बाल की खाल खींचने, वामपक्षियों को टुकड़े-टुकड़े करने, नेतागिरी का हौसला पूरा करने और सभी वर्ग संस्थाओं में कलह और जूतापैजार ही इनका उद्देश्य हो तो बात दूसरी है। अब तो पार्टियों के भीतर भी आपस में ही लीडरी के झगड़े प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से चलने लगे हैं।
क्रांतिकारी राजनीति और मार्क्सवाद के यथार्थ ज्ञान और तदनुसार अमल करने की ठेकेदारी इन पार्टियों को ही मिली है, ऐसा दावा दूर की कौड़ी लाना है और बीसवीं सदी के बीच में भी दुनिया को उल्लू समझने की अनधिकार चेष्ट करना है। और अगर यही बात हो तो फिर वह ठेका किस एक पार्टी को मिला है और कैसे, कहाँ से, यह भी सवाल उठता है। क्योंकि इसी ठेकेदारी की लड़ाई तो आखिर वे आपस में भी करती ही हैं। तब फैसला कैसे हो कि फलाँ पार्टी ही के पास वह ठेका है?
किसान-सभा और मजदूर-सभा आपस में मिलकर यदि आवश्यकता समझें कि दोनों के सहयोग के लिए एक सम्मिलित समिति चाहिए तो उसका भी चुनाव दोनों की राय से हो सकता है। जैसे इन सभाओं की समितियाँ नीचे से ऊपर तक चुनाव से बनती हैं तैसे दोनों की या ऐसी ही और सभा को भी मिलाकर अनेक की एक समिति चुनाव से बन सकती है। उसी को पार्टी भी कहना चाहें तो भले ही कहें, मगर यह बाहर से इन पर लदने वाली, लादे जानेवाली पार्टी कौन-सी बला है? हम इसी से पनाह माँगते हैं।
कहा जाता है कि जब कांग्रेस के 90 प्रतिशत सदस्य और लड़नेवाले किसान ही हैं तो चुनाव के जरिए उसकी सभी कमिटियों पर वे आसानी से अधिकार जमा सकते हैं, और अगर वे ऐसा नहीं करते तो उनकी भूल है। हर हालत में किसान-सभा का स्वतंत्र संगठन फिजूल है। मगर अनुभव कुछ और ही है। इतिहास भी ऐसा ही बताता है। कांग्रेस मध्यमवर्गीयों की संस्था इस मानी में है कि इस पर उन्हीं का अधिकार है, प्रभुत्व है और यह उन्हीं की राय से चलती है, इसमें उन्हीं का नेतृत्व है। संसार में आजादी के लिए लड़नेवाली संस्थाएँ ऐसी ही होती हैं, अभी तक यही पाया गया है। यहाँ तक कि सबसे ताजा जो रूस का दृष्टांत है वहाँ भी जारशाही के विरुद्ध जनतंत्र, शासन के लिए लड़ने वाली सोवियत नाम की संस्था मालदारों और मध्यमवर्गीयों के ही अधिकार में थी; हालाँकि उसके सदस्य केवल किसान, मजदूर और सिपाही थे और तीनों ही पूरे शोषित थे। यही वजह है कि1917 की मार्चवाली क्रांति के फलस्वरूप जारशाही का अंत हो के रूस में जनतंत्र के नाम पर धनियों का ही शासन कायम हुआ, जिसके विरुद्ध लड़ते रह के लेनिन को अक्टूबरवाली क्रांति करनी पड़ी और उसके फलस्वरूप किसान-मजदूरों का शासन वहाँ स्थापित हुआ। लेनिन जैसे महापुरुष और क्रांतिकारी के रहते भी जब सोवियत पर किसान-मजदूरों का अधिकार और नेतृत्व न हो सका, हालाँकि उसके सदस्य धनी लोग न थे, तो हम जैसों की क्या बिसात कि कांग्रेस पर अधिकार जमा सकें, जबकि उसमें धनी और उनके पोषक काफी सदस्य हैं? सोवियत का विधान चवनिया मेंबरीवाला या इस तरह का न था, जिसमें जाल-फरेब हो और फर्जी मेंबर बनाकर कमिटियों पर अधिकार किया जा सके। उसके सदस्य तो बालिग किसान, मजदूर और सिपाही मात्र थे। फलतः बनावटी मेंबर बनने-बनाने की गुंजाइश वहाँ न थी, मगर कांग्रेस में खूब है और यह रोज की देखी बात है। लेकिन जब लेनिन विफल रहा तो यहाँ कौन सफलता की आशा करे? इन चुनावों में हजार प्रलोभनों, जाल-फरेबों और दबावों से काम ले कर धनी लोग ही आमतौर से विजयी हो सकते हैं, होते हैं। यही कटु और ठोस सत्य है और यह कोई नई बात नहीं है। कांग्रेस पर किसानों के नेतृत्व और अधिकार की बात, ऐसी हालत में, निरा पागलपन है और धोका है। फलतः किसान-सभा का स्वतंत्र संगठन होना ही चाहिए।
जब कराची तथा फैजपुर में कांग्रेस ने स्वतंत्र किसान संगठन के सिद्धांत को मान लिया है तो उसका विरोध क्यों? यदि किसान-सभा को कांग्रेस कमिटियों की मातहत या उनके अंग की ही तरह बनाने की बात न होती तो फिर कांग्रेस के द्वारा उनके स्वीकृत होने की बात क्यों कही जाती? विभिन्न मातहत कमिटियों के स्वीकृत होने का प्रश्न तो उठता ही नहीं। लेकिन फैजपुर के किसान प्रोग्राम की आखिरी, 13वीं, चीज यही है कि कांग्रेस किसान-सभाओं को स्वीकार करे─''Peasant unions should be recognised.''
कहा जाता है कि अभी किसान-सभा की क्या जरूरत है? अभी तो अंग्रेजी सरकार हटी नहीं और स्वराज्य आया नहीं, बीच में ही यह बेसुरा राग कैसा? विदेशी सरकार के हटने पर ही प्रश्न उठेगा कि किसका राज्य हो? किसानों का हो? दूसरों का हो? या कि औरों का? उससे पहले ही यह तूफाने बदतमीजी कैसी? यह तो मुसलिम लीग की जैसी ही बात हो गई कि पहले ही बँटवारा कर दो, अंग्रेजी शासन के रहते ही हमारा हिस्सा दे दो। इस आपसी झगड़े में तो वह स्वराज्य मिलने का नहीं। फिर अभी वह हमारा हो, हमारा हो, ऐसा हो, वैसा हो, की तैयारी कैसी? यह वर्ग-संघर्ष और श्रेणी-युद्ध तो उसमें बाधक होगा न? तब तदर्थ किसान-सभा का यह हो-हल्ला एवं महान प्रयास क्यों?
लेकिन यदि इन प्रश्नों की तह में घुस के देखा जाय तो किसान-सभा की असलियत, अहमियत और आवश्यकता साफ हो जाती है। दरअसल स्वराज्य के दो पहलू हैं─विदेशी शासन का अंत और अपने शासन, अपने राज्य, 'स्व-राज्य' की स्थापना। इनमें पहला निषेधात्मक और दूसरा विधानात्मक या निर्माण स्वरूप है। 'स्वराज्य' कहने से उसके निर्माणात्मक पहलू पर ही सर्वप्रथम दृष्टि जाती है और वही प्रधान है, मुख्य है, असल है। निर्माण के बिना कुछ हो नहीं सकता। लेकिन निर्माण के पूर्व ध्वंस आवश्यक है, कूड़े-करकट और रास्ते के रोड़ों को हटाना जरूरी है। नींव खोदने पर ही मजबूत महल खड़ा होता है। नींव के स्थान पर पड़ी हुई मिट्टी बाधक होती है उस महल के निर्माण में। इसीलिए खोदकर उसे हटाना पड़ता है। विदेशी शासन भी अपने शासन के निर्माण में बाधक है। इसीलिए उसको हटाना जरूरी हो जाता है और स्वराज्य के भीतर वह अर्थात आ जाता है। इसीलिए वह गौण है, अप्रधान है।
मगर हमारे कांग्रेसी नेता उसी पर ज्यादा जोर देते हैं, हालाँकि चाहिए जोर देना निर्माणात्मक पहलू पर। यही उनकी भारी भूल है। आखिर विदेशी शासन के हटने पर कोई शासन बनेगा, या कि अराजकता ही उसका स्थान लेगी? 'अपनी-अपनी डफली, अपनी-अपनी गीत' होगी क्या? यह तो कोई नहीं चाहता। प्रत्युत विदेशी शासन हटाने-मिटाने के सिलसिले में ही कोई-न-कोई शासन बनाना ही पड़ेगा, कोई सरकार खड़ी होगी ही। तभी आसानी से सफलतापूर्वक विदेशी हुकूमत को हम मिटा सकते हैं। वही सरकार समानांतर सरकार कही जाती है राजनीति की भाषा में। पीछे चलकर उसी सरकार को मजबूत बनाते हैं, यह बुनियादी बात है।
अब प्रश्न होता है कि वह सरकार किसकी होगी? कैसी होगी, कौन सी होगी? यह बड़े प्रश्न हैं और महत्त्व रखते हैं। यह कहने से तो काम चलता नहीं कि वह सरकार हिंदुस्तानियों की होगी? हिंदुस्तानी तो चालीस करोड़ हैं न? तब इनमें किनकी होगी? ये चालीस करोड़ भी जमींदार, किसान, पूँजीपति, मजदूर आदि परस्पर विरोधी वर्गों में बँटे हैं, तो फिर इनमें किन वर्गों की होगी? जमींदारों की? पूँजीपतियों की? तब किसान या मजदूर उस स्वराज्य की सरकार की स्थापना के लिए, उस स्वराज्य के लिए क्यों लड़ें? उस सरकार और विदेशी सरकार में नाममात्र का ही फर्क होगा। असलियत प्रायः एक सी ही होगी। किसान-मजदूरों की कमाई की लूट तो उसमें भी जारी ही रहेगी। अंतर सिर्फ यही होगा कि इस समय जो लूट का माल लंकाशायर, मैंचेस्टर या इंग्लैंड जाता है, वही तब बंबई, अहमदाबाद, कानपुर, छतारी, दरभंगा जाएगा। कमानेवाले किसान-मजदूरों को क्या मिलेगा? ये प्रश्न स्वाभाविक हैं और सारी दुनिया में किए जा चुके हैं। किसान-मजदूरों को सारी शक्ति के साथ प्राण-पण से स्वराज्य के युद्ध में आकृष्ट करने के लिए इनका उनके लिए संतोषजनक उत्तर मिलना आज जरूरी है। किसान-सभा इन्हीं प्रश्नों का मूर्त्त उत्तर है।
मुस्लिम लीग की बात दूसरी है। उसे लड़ना नहीं है या तो उसे यथाशक्ति बाधा डालना है , या अंत में बिना कुछ किए ही आधा हिस्सा लेना है , इसीलिए वह अभी से बँटवारा चाहती है। मगर किसानों को लड़ना है और जम के लड़ना है। उसी लड़ाई को प्राण-पण से चलाने के लिए वह अभी से तय कर लेना चाहते हैं कि लड़ाई का नतीजा उनके लिए क्या होगा। इस प्रकार दोनों में बड़ा फर्क है, यह स्पष्ट है। दोनों के दो रास्ते हैं। एक को लड़ना है और दूसरे को बाधा देना।
यदि उत्तर दें कि कांग्रेस का राज्य होगा तो खयाल होगा कि कांग्रेस में मालदारों का प्रभुत्व होने के कारण उसका राज्य तो नामांतर से उन्हीं मालदारों का होगा। यदि कहा जाय कि किसानों और मजदूरों का राज्य होगा तो प्रश्न होगा कि क्या कहीं भी यह बात अब तक हो पाई है? फ्रांस, जर्मनी, अमेरिका, इंग्लैंड, रूस, इटली आदि सभी देशों में आजादी की लड़ाई के लीडर यही कहते थे कि किसान-मजदूरों के हाथ में शासन होगा। अमेरिका में अंग्रेजी शासन को हटाने के समय ऐसा ही कहा जाता था जैसा यहाँ कहते हैं। मगर वहाँ मालदारों का ही राज्य हुआ और किसान-मजदूर दुखिया के दुखिया ही रह गए, सर्वत्र यही हुआ। यहाँ तक कि रूस में भी यही हुआ और पीछे किसान-मजदूरों को पुनरपि लड़कर ही शासन-सत्ता उनके हाथ से छीननी पड़ी। शेष देशों में वे विफल ही रहे। क्यों? कारण हमें ढूँढ़ना होगा और रूस के दृष्टांत में वह मिलेगा। अन्य देशों में आजादी के युद्ध के समय किसानों ने राष्ट्रीय नेताओं की प्रतिज्ञाओं पर विश्वास कर के अपनी अलग तैयारी न की, अपना स्वतंत्र संगठन न किया। फलतः अंत में धोके में रहे, मुँह ताकते रह गए। विपरीत इसके रूस में लेनिन ने मजदूरों का स्वतंत्र संगठन किया और किसानों का भी। अमेरिका आदि से उसने यही सीखा था। वहाँ इस संगठन का अभाव होने से ही धोका हुआ था, अतः रूस में उसने इसी अभाव को मिटाया। यहाँ तक कि किसानों के संगठन में तब तक उसे सफलता न मिल सकने के कारण उसने वामपक्षी सोशल रेवोल्यूशनरी दल को जो किसान-सभावादी था, अपने साथ मिलाया और अक्टूबर की क्रांति के बाद अपनी सरकार बनाकर इस दल को भी उस सरकार में स्थान दिया। उसकी सफलता की यही कुंजी थी।
सोशल रेवोल्यूशनरी दल को साथ लेने से यह भी सिद्ध हो जाता है कि बोल्शेविक और कम्युनिस्ट पार्टी किसानों की पार्टी नहीं थी , न ही हो सकती है। जब लेनिन सफल किसान-सभा न बना सका तो आज के कम्युनिस्ट किस खेत की मूली हैं? हाँ, अधिकार मिलने पर भले ही बना सकते हैं, मगर उससे पहले नहीं, यह ध्रुव सत्य है।
भारत में भी हमें वही करना है, हम वही करते हैं। किसानों का स्वतंत्र संगठन वही तैयारी है जो लेनिन ने की थी। यदि वह सोवियत के नेताओं की प्रतिज्ञाओं, प्रस्तावों और घोषणाओं पर विश्वास कर के मान बैठता कि जारशाही के अंत के बाद किसान-मजदूर-राज्य या किसान-मजदूर प्रजा-राज्य अवश्यमेव स्थापित हो जाएगा, जैसा कि हमारे यहाँ भी कुछ तथाकथित किसान नेता कहते फिरते हैं, तो वह धोका खाता और पछता के मरता। राजनीति में किसी भी संस्था की और विशेषतः आजादी के लिए लड़नेवाली राष्ट्रीय संस्था की महज प्रतिज्ञा, उसके प्रस्ताव या उसकी घोषणा एवं उसके कुछ प्रगतिशील नेताओं के उदात्त विचारों तथा उद्गारों पर विश्वास कर केबैठे रह जाना सबसे बड़ी नादानी है। ऐन मौके पर या तो ये सारी प्रतिज्ञाएँ, घोषणाएँ और प्रस्ताव-उद्गार उनके करनेवाले ही स्वयं भूल जाते हैं या उनके न भूलने पर भी उन्हें विवश और असमर्थ बना दिया जाता है कि वे तदनुसार कुछ भी न कर सकें। परिस्थिति और मालदारों के षड्यंत्र उन्हें बेकार और पंगु बना देते हैं। अमेरिका प्रभृति देशों के स्वातंत्रय-संग्राम ने हमें यही पाठ पढ़ाया है।हमें आजादी लेने के बाद पुनरपि अपने ही मालदार भाइयों और उनके संगी-साथियों से जमकर प्राण-पण से युद्ध करना ही होगा, खून का दरिया तैर कर पार करना ही होगा। तभी किसानों का राज्य होगा, उनके हाथ में शासन-सत्ता आएगी ; न कि महात्मा गाँधी या पं. नेहरू के कहने या कांग्रेस के प्रस्ताव मात्र से ठीक समय पर उस कथन या प्रस्ताव पर अमल कराने के लिए हमारी अपनी शक्ति चाहिए , तैयारी चाहिए , और यह स्वतंत्र किसान-सभा वही तैयारी है , उसी शक्ति का अभी से संचय है। क्योंकि मौके पर एकाएक शक्ति नहीं आ सकती। जो पहलवान अखाड़े में लड़ने का अभ्यास पहले से नहीं करता, वह एकाएक दूसरे पहलवान को पछाड़ नहीं सकता। स्वतंत्र किसान-सभा किसानों के मल्ल युद्ध, अभ्यास और तैयारी का अखाड़ा है।
कांग्रेस की मजबूती भी इसी प्रकार होगी। किसान-सभा के द्वारा किसानोंके हकों के लिए सामूहिक रूप से लड़कर हम किसानों का पूर्ण विश्वास प्राप्त कर सकेंगे और इस प्रकार उन्हें किसान-सभा में सामूहिक रूप से आकृष्ट करेंगे। जो वर्ग-संघर्ष कांग्रेस कर नहीं सकती, जिसके करने में उसे दिक्कत है, जैसा कि कहा जा चुका है, उसे ही हम कांग्रेसजन किसान-सभा के जरिएकर के किसानों के दिल-दिमागों को जीत लेंगे। क्योंकि भौतिक स्वार्थ की सिद्धि उन्हें हमारे साथ खिंच आने को विवश करेगी। यही मानव स्वभाव है। फिर विदेशी सरकार से प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष संघर्ष के समय देश के राजनीतिक मामले में हम आसानी से इसी किसान-सभा के जरिए किसानों को सामूहिक रूप से कांग्रेस के साथी, भक्त और अनुयायी बना डालेंगे। फलतः संगठित एवं शक्तिशाली किसान-सभा शक्तिशाली कांग्रेस का मूलाधार है, उसके लिए अनिवार्य रूप से आवश्यक है।
जो लोग किसान-सभा के विरुद्ध कमर बाँधे खड़े रहकर भी कांग्रेस-कांग्रेस चिल्लाते हैं, उन्हें एक बुनियादी बात याद रखनी होगी। इस ओर हमने पहले इशारा किया भी है। यहाँ जरा उसका विस्तार करना जरूरी है। किसान-सभाओं को हम असहयोग युग के बाद ही पाते हैं। किसान-आंदोलन का संगठित रूप उसके बाद ही मिलता है। क्यों? यह प्रश्न विचारणीय है। उसके पहले न तो मुल्क में और न किसानों में ही यह आत्मविश्वास था कि अपने शत्रुओं के विरुद्ध कोई संघर्ष सफलतापूर्वक चला सकते हैं, और न संगठित जनांदोलन का महत्त्व ही उन्हें विदित था। 1857 के विफल विद्रोह के बाद लोगों में जो भयंकर पस्ती और निराशा आई थी वह दिनोंदिन गहरी होती जाती थी। देश की सबसे बड़ी संस्था थी कांग्रेस, परंतु वह भी केवल 'भिक्षां देहि' का मंत्र जपती थी। उसकी माँगों के पीछे कोई शक्ति न थी। विदेशी शासन जेठ के मध्याद्द सूर्य की तरह तपता था। लाल पगड़ी और गोरे चमड़े को देख लोगों के देवता कूच कर जाते थे। चारों ओर अंधकार ही था। रौलट कानून और पंजाब के मार्शल लॉ के बाद शासकों की अकड़ और भी तेज हो चुकी थी। तुर्कों के अंग-भंग को मुसलमान संसार रोकने में असमर्थ था। हमारी न्यायतम माँगों पर भी हमारे आका घृणा एवं अपमान की हँसी हँस देते थे और बस। तब तक हमने यही सीखा था कि अखबारों और सभाओं के द्वारा पढ़े-लिखे शहरी लोग ही कुछ भी कर सकते हैं। मगर उनसे भी कुछ होता-जाता दीखता न था। जलियाँवाला बाग के बाद हण्टर कमिटी की लीपा-पोती ने जले पर नमक छिड़क दिया था। सारा देश किंकर्तव्यविमूढ़ था।
ठीक उसी समय महात्मा गाँधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने नागपुर में 1920 के दिसंबर में गाँवों की ओर मुँह मोड़ा और शांतिपूर्ण सीधी लड़ाई का रास्ता पकड़ा। नेताओं ने कहा कि हम निहत्थे भारतीय चाहें तो एक साल के भीतर अंग्रेजी सल्तनत को भगाकर अपनी सरकार कायम कर लें। यह अजीब दावा था , अफीमची की पिनक जैसी बात थी। मगर बार-बार कहने पर देश ने इसे सुना और सचमुच ही सरकार का आसन डिगा दिया। ब्रिटिश सरकार जैसे काँप उठी। सम्राट के प्रतिनिधि लार्ड रीडिंग ने 1921 के दिसंबर में कलकत्ते में कहा कि '' मेरी अक्ल हैरान है कि यह क्या हो गया " ─''I am puzzled and purplexed''जो देश पस्त था, सदियों से अंटाचित्त पड़ा था वह एकाएक अँगड़ाई ले के अपने पाँवों पर खड़ा हो गया। उसे अपनी अंतर्निहित अपार शक्ति का एक बार प्रत्यक्ष भान हो उठा। यह कांग्रेस की बड़ी जीत थी कि निहत्थी जनता ने जेलों, जुर्मानों और फाँसी का भय छोड़ दिया। मुल्क की सुप्त आत्मा जग उठी। जो पहलवान साधारण मर्दों से भी भयभीत हो उठता था वही सबसे बड़े मल्ल को पछाड़ कर अपने अपार बल का अनुभव करने लगा।
इसका अनिवार्य परिणाम ऐसा हुआ जिसका किसी को सपने में भी खयाल था नहीं। जब भारतीय किसानों ने ब्रिटिश सिंह को एक बार धर दबोचा, तो उन्होंने स्वभावतः सोचा कि ये राजे-महाराजे, जमींदार और साहूकार उसी के बनाए तथा उसी की छत्रछाया में पलने-पनपनेवाले हैं; ये उसके सामने बिल्ली और चुहिया से भी गए-गुजरे हैं। फिर भी इनकी हिम्मत कि हमें लूटते रहे? 'अबलौं नसानी तो अब ना नसैहौं' के अनुसार उनने सोचा कि अब तक हम सोए थे और अपनी प्रसुप्त शक्ति को समझते थे नहीं, जिससे इनने हमें लूटा, सताया। मगर अब ऐसा हर्गिज होने न देंगे। जब इनके आका को हम निहत्थों ने पछाड़ा तो इनकी क्या हस्ती? बस, उस असहयोग आंदोलन की महान विजय की यही प्रतिक्रिया किसान जनता में हुई जो क्रमशः दृढ़ होती गई। उसी का फल और व्यावहारिक रूप यह किसान-सभा है। और अगर हमारे लीडर आज इससे घबराते हैं तो वह बेकार है। यह बात उन्हें पहले ही सोचनी थी जब किसानों को अंग्रेजी सल्तनत के साथ जूझने को उभाड़ा था। व्यभिचारिणी स्त्री पेट में गर्भ होने पर पछताती है सही; लेकिन यह उसकी मूर्खता है। उसे तो व्यभिचार के ही समय यह परिणाम सोचना था।
बात दरअसल यह होती है कि स्थिर स्वार्थवाले संपत्तिजीवी तब तक जनांदोलन से नहीं घबराते जब तक उनके स्वार्थों पर आघात की आशंका न हो, प्रत्युत स्वार्थ-सिद्धि के लिए जनांदोलन और क्रांतिकारी संघर्षों तक को प्रोत्साहित कर के अपना काम निकालते हैं। फ्रांस, रूस आदि क्रांतियाँ इसका ज्वलंत प्रमाण हैं। बिना जनता की सीधी लड़ाई के मालदारों को पूरे हक नहीं मिलते, ताकि उद्योग-धंधों का बेतहाशा प्रसार कर माल बटोरें। इसी से उसको प्रोत्साहन देते हैं। उस समय तो उन्हें लाभ ही नजर आता है। यही बात 1921 वाले और बाद के कांग्रेसी संघर्षों में भी हुई। नेताओं ने खुश हो के जनता को ललकारा-उभाड़ा। उन्हें कोई खतरा तब तो दिखा, नहीं मगर अब जब जनता अपनी शक्ति का अनुभव कर के उनसे भी दो-दो हाथ करने को आमादा हो गई तो लगे बगले झाँकने और बहानेबाजियाँ करने। अब उन्हें अपने लिए खतरा नजर आ रहा है। इसीलिए किसान-सभा को कोसते हैं। उन्हें अपने ही बनाएजनांदोलन से भय होने लगा है। मगर अब तो उनकी भी लाचारी है। अब तो तीर छूट चुका। फिर पछताने से क्या? चीख-पुकार मचाने से क्या? प्रत्युत वे जितना ही इसका विरोध करेंगे किसान-सभा उतनी ही तेज होगी, यह अटल बात है। हमें दर्द के साथ यह भी कहना पड़ता है कि लोगों को कांग्रेस से चिपकाए रखने के लिए वस्तुस्थिति और व्यावहारिकता का आश्रय न ले कर अनुशासन की तलवार का सहारा लिया जाना ही अच्छा समझा जाने लगा है। यदि कांग्रेस की भीतरी खूबियाँ, उसके अंतर्निहित गुण तथा उसकी ऐतिहासिक आवश्यकता हमें उसकी ओर आकृष्ट नहीं कर सकती हैं, एतन्मूलक उसमें होनेवाली यदि हमारी भक्ति पूरे पचीस साल की उसकी लगातार की कशमकश के बाद भी नाकाफी है तो अनुशासन की नंगी तलवार उसकी पूर्ति कभी कर नहीं सकती। तब तो कहना ही होगा कि कांग्रेस के नेता अपना हृदय-मंथन करें और पता लगाएँ कि उनकी तपस्या एवं कांग्रेस के कार्यक्रम में कौन सी बड़ी खामी है, जिससे यह खतरा बना है कि लोग उससे भड़क जाएँ, बिचल जाएँ। असली शक्ति किसी संस्था की भीतरी खूबी और ऐतिहासिक आवश्यकता ही है। उसी के करते वह शक्तिशाली होती है और यह बात कांग्रेस में मौजूद है। फिर बात-बात में अंदेशा क्यों? कांग्रेस कोई छुईमुई नहीं है। वह तो इस्पात की बनी है। किसान-सभा की भी ऐतिहासिक आवश्यकता है, जैसा कह चुके हैं।
कहा जा सकता है कि कांग्रेस के सफल असहयोग आंदोलन तथा संघर्ष का परिणाम ही यदि किसान-सभा है तो 1922-23 के बाद ही उसकी स्थापना न हो कर1927-28 या 29 में क्यों हुई? इतनी देर क्यों? बात यह है कि विचारों के परिपक्व एवं स्थायी बनने में विलंब होने के नियमानुसार ही यहाँ भी देर हुई। प्रतिक्रिया तो हुई, मगर उसे कार्यरूप में परिणत करने के पूर्व उसमें स्थिरता और परस्पर विचार-विमर्श आवश्यक था, उसे परिपक्व होना जरूरी था। यह भी बात है कि इन बातों के लिए समय आवश्यक है। ये एकाएक नहीं होते। इसके अलावा किसान-सभाओं के चलाने को लिए जो किसानों के हजारों युवक और पढ़े-लिखे लोग जरूरी थे वे भी असहयोग के करते बाहर आए सही, ऊपर आ गए जरूर। मगर उनका भी पारस्परिक विचार विनिमय जरूरी था इस काम को चालू करने के लिए। राजनीतिक परिस्थिति का डाँवाडोल होना, परिवर्तन-अपरिवर्तनवाद वाली उस समय की कलह और सत्याग्रह जाँच समिति की कार्यवाही आदि बातों के चलते भी काफी गड़बड़ रही और इस काम में देर हुई। फलतः यदि दो-चार साल इसी उधेड़बुन में लग गए तो यह कोई बड़ी बात न थी। इससे प्रत्युत इस काम में दृढ़ता आई। कम-से-कम बिहार में कांग्रेस के सभी नेता प्रारंभ में इसमें खिंच आए और उनसे पर्याप्त प्रेरणा भी मिली, यह भी इसका सबूत है कि किसान-सभा का अविच्छिन्न संबंध कार्य-कारण के रूप में कांग्रेस के साथ है, यह कांग्रेस-संघर्ष का स्वाभाविक परिणाम है। अतएव अब उसका विरोध करना केवल चट्टान से सर टकराना है। अब इसमें बहुत देर हो चुकी है। और जब गत वर्ष श्री पुरुषोत्तमदास जी टंडन की अध्यक्षता में हिद-किसान-सभा ने यह स्पष्ट घोषित कर दिया कि स्वातंत्रय संग्राम से संबंध रखनेवाली राजनीतिक बातों में साधारणतः किसान-सभा का प्रत्येक सदस्य कांग्रेस से ही प्रेरणा और नेतृत्व प्राप्त करेगा , तो फिर हाय-तोबा मचाने की वजह क्या रही ?
एक ही बात जो निहायत जरूरी है, रह जाती है। बड़े-बड़े नेता तक कह डालते हैं कि जभी कांग्रेसी-मंत्रिमंडल बनते हैंतभी बकाश्त के संघर्ष छेड़ कर ये किसान-सभावादी सिर्फ उन्हें परेशान करते हैं। ये संघर्ष इन मंत्रिमंडलों के अभाव में नहीं होते। इससे इस सभा की बदनीयती सिद्ध होती है। इसीलिए इसे रहने देना कांग्रेस के रास्ते के रोड़े को कायम रखना है।
मगर यह बात गलत है। बिहार में ही ये बकाश्त संघर्ष ज्यादातर होते हैं और हुए हैं और वहाँ इनका श्रीगणेश मुंगेर जिले के बड़हिया टाल में 1936 में ही हुआ था जब इन मंत्रियों का पता भी न था, जब असेंबली के चुनाव हुए भी न थे। चुनाव के बाद कांग्रेसी मंत्री न हो कर जब दूसरे ही लोग मंत्री के रूप में कुछ महीने गद्दी पर थे , उस समय यह संघर्ष काफी तेज था। किसान-स्त्री-पुरुषों और सेवकों पर घुड़सवारों ने घोड़े दौड़ाए थे उसी समय। यह एक ठोस ऐतिहासिक बात है, जिससे इनकार किया जा नहीं सकता। इसी प्रकार 1941 में और 1942 के शुरू में डुमराव में जो बियाईं का संघर्ष किसान-सभा के नेतृत्व में चला और जंगल सत्याग्रह चलता रहा, वह भी कांग्रेसी मंत्रियों के अभाव में ही था। फिर सरासर झूठी बात क्यों कही जाती है?
यह ठीक है कि कांग्रेसी मंत्रियों के समय में ये संघर्ष अधिक होते हैं और यह उचित भी है। जब इन मंत्रियों को चुनकर किसान ही गद्दी पर बिठाते हैं तो इन्हें अपना समझ किसानों का हौसला बढ़ना स्वाभाविक है और इसी के फलस्वरूप ये संघर्ष होते हैं। किसान समझते हैं कि हमारे बनाएमंत्री इन मामलों में हमारी सहायता करेंगे। नौकरशाही सरकार से उन्हें यह आशा तो होती नहीं, इसी से उस समय ये संघर्ष कठिन हो जाते हैं और कम होते हैं। और जब जनप्रिय सरकार बनी तो जनता को स्वभावतः आजादी ज्यादा होती ही है। वह अपने हाथ-पाँव जरा फैला पाती है, फैलाने की कोशिश करती है। उसकी छाती की चट्टान जरा हटी सी मालूम पड़ती है, उसकी हथकड़ी-बेड़ियाँ जरा ढीली और टूटी सी लगती हैं। फिर हाथ-पाँव फैलाए क्यों न? और ये संघर्ष उसी फैलाने के मूर्त्त-रूप हैं, फिर इन्हें देख गुस्सा क्यों? इनके लिए उलाहना और इल्जाम क्यों? ये कांग्रेसी मंत्रियों को परेशान करने के सुबूत न हो कर उलटे कांग्रेस में और उसके मंत्रियों में जनता के अपार विश्वास के ही सुबूत हैं।
अंत में हमें कहना है कि कांग्रेस की असली ताकत न तो उसके अनुशासन की तलवार है, न उसकी कमिटियाँ और न उसके चवनियाँ मेंबर, प्रतिनिधि आदि। उसकी असली शक्ति अपार जनसमूह की उसमें अटूट भक्ति है─उस भारतीय जनसमूह की भक्ति, जो चवनियाँ मेंबर तक नहीं है, मगर जो उसे चुनाव में जिताता और संघर्ष में विजयी बनाता है। अच्छा हो कि कांग्रेस के कर्णधार यह न हो, वह न हो, किसान-सभा न बने, मजदूर यूनियन न बने और अगर बने तो कांग्रेस की मातहती में, आदि फिजूल बातें छोड़ उस अपार जनता के कष्टों को समझें और उन्हें दूर करने में कोर-कसर न रखें। फिर देखेंगे कि कांग्रेस अजेय है और ऐसा न होने पर वह दुर्ग ढह जाएगा, यह कटु सत्य है।
स्वामी सहजानंद सरस्वती
विहटा, पटना
वसंत पंचमी 27-1-47
1
जब पहले-पहले किसान-सभा और किसान-संगठन का खयाल हमारे और हमारे कुछ साथियों के दिमाग में आया तो वह धुँधला सा ही था। उसकी रूपरेखा भी कुछ साफ नजर न आ रही थी। यह हमारा आकस्मिक प्रयास था , ऐसे अथाह समुद्र में जहाज चलाने का जिसमें न तो दिशाओं का ज्ञान था और न किनारे का पता। पास में दिग्दर्शक यंत्र (कुतुबनुमा) भी न था कि ठीक-ठीक जहाज को चलाते। इतने दिनों बाद याद भी नहीं आता कि किस प्रेरणा ने हमें उस ओर अग्रसर किया। बेशक , कुछ उद्देश्य ले कर तो हमने श्रीगणेश किया ही था। मगर वह था निरा गोल-मोल। फिर भी उस ओर हमारी प्रेरणा एकाएक कैसे हुई यह एक पहेली ही है और रहेगी। ऐसा मालूम होता है कि अकस्मात हम उस ओर बह गए! मगर जरा इस बात की सफाई कर लें तो अच्छा हो।
किसान-सभा के स्थापन का पहला विचार सन 1927 ई. के अंतिम दिनों में हुआ था। उस समय मैं कांग्रेस की स्थानीय नीति से , या यों कहिए कि बिहार के कुछ बड़े नेताओं के कारनामों से झल्लाया-सा था , जो उन्होंने सन 1926 ई. के कौंसिल चुनाव के सिलसिले में दिखलाए थे। इसीलिए तो स्वराज्य पार्टी के उम्मीदवारों का समर्थन न कर लाला लाजपतराय और पं. मदनमोहन मालवीय की इंडिपेंडेंट पार्टी का ही समर्थक रहा। जो उम्मीदवार बिहार में थे उन्हें लाला जी तथा मालवीय जी के आशीर्वाद प्राप्त थे। साथ ही गाँधीवादी भी मैं खाँटी था। इसलिए कांग्रेस से एक प्रकार की विरक्ति के साथ ही गाँधीवाद में अनुरक्ति भी पूरी थी। यह भी नहीं कि मैं गाँधीवादी ढंग की किसान-सभा बनाने का खयाल न रखता था। उस समय तो यह सवाल कतई था ही नहीं। जब किसान-सभा की ही बात उससे पहले न थी तो फिर गाँधीवादी सभा की कौन कहे ? फिर भी किसान-सभा का सूत्रपात हुआ।
ठीक कुछ ऐसी ही बात सन 1932-33 में भी हुई। उस समय भी मैं , सन 1930 ई. की लड़ाई के बाद , कांग्रेस से विरागी था ; राजनीति से अलग था , किसान-सभा से संबंध रखता न था। इस बार के विराग का कारण भी कुछ अजीब था। मैंने सन 1922 ई. और 1930 में भी जेलों में जाने पर देखा था कि जो लोग गाँधी जी के नाम पर ही जेल में गए हैं , वही उनकी सभी बातें एक-एक कर के ठुकराते हैं और किसी की भी सुनते नहीं। इससे मुझे बेहद तकलीफ हुई , मैंने सोचा कि जहाँ कोई व्यवस्था और नियम-पालन नहीं , अनुशासन नहीं , ' डिसिप्लीन ' नहीं , वह संस्था बहुत ही खतरनाक है। इसीलिए विरागी बन गया और 1932 की लड़ाई से अलग ही रहा। मगर ठीक उसी समय , हजार अनिच्छा के होते हुए भी , जबर्दस्ती किसान-सभा में खिंच ही तो गया। जहाँ सन 1927 ई. किसान-सभा के जन्म का समय था , तहाँ सन 1933 ई. उसके पुनर्जन्म का। क्योंकि दरम्यान के दो-तीन वर्षों में वह मरी पड़ी थी।
इस प्रकार जब देखता हूँ तो राजनीति के विराग के ही समय मैं किसान-सभा में खिंच गया नजर आता हूँ। यह भी एक अजीब-सी बात है कि राजनीति का वैराग्य किसान-सभा से विरागी न बना सका। दोनों बार के वैराग्य के भीतर प्रायः एक ही बात थी भी , और वह यह कि जो लोग कांग्रेस और गाँधी जी को धोखा दे सकते हैं , भुलावे में डाल सकते हैं , वह जनता के साथ क्या न करेंगे ? फलतः उनसे मेरा साथ , मेरा सहयोग नहीं हो सकता है। फिर भी किसान-सभा में वही आए और रहे। लेकिन इसकी कोशिश मैंने उस समय की ही नहीं कि वे लोग उसमें आने न पाएँ। मुझे आज यह पहेली सी मालूम हो रही है कि मैंने ऐसा क्यों न किया। इसी से तो कहता हूँ कि किस प्रेरणा ने मुझे उसमें घसीटा यह स्पष्ट दीखता नहीं। यह कहा जा सकता है कि यह वैराग्य शायद अज्ञात सूचना थी भविष्य के लिए और इस बात की ओर इशारा कर रही थी कि ऐसे लोगों से किसानों का हित नहीं हो सकता ─ फलतः उनसे एक न एक दिन किनाराकशी करनी ही होगी। यह बात कुछ जँचती-सी है।
उस समय एक और बात भी थी , जो ऊपर से ऐसी ही बेढंगी लगती है। आखिर किसान-सभा भी तो राजनीतिक वस्तु ही है आज तो यह स्पष्ट हो गया है। यह तो सभी मानते हैं , फिर राजनीति का निचोड़ है रोटी , और उसी सवाल को किसान-सभा के द्वारा हल करना है। फिर राजनीति से होनेवाला वैराग्य , जिसके भीतर कम से कम 1932-33 में किसान-सभा के प्रति अरुचि भी शामिल है। मुझे उस सभा में पुनरपि कूदने से क्यों न रोक सका जो कि कांग्रेस से रोके रहा , यह समझ में नहीं आता। किसान-सभा की राजनीति निराली ही होगी , वह अर्थनीति (रोटी) मूलक ही होगी ,शायद वह इस बात की सूचना रही हो। राजनीति हमारा साधन भले हो , मगर साध्य तो रोटी ही है , यही दृष्टि संभवतः भीतर-ही-भीतर , अप्रकट रूप से काम करती थी , जो पीछे साफ हुई। लेकिन इतने से उस समय की परिस्थिति की बाहरी पेचीदगी खत्म तो हो जाती नहीं। वह तो साफ ही नजर आती है। मेरी आंतरिक भावना किसानों के रंग में रँगी थी , इतना तो फिर भी स्पष्ट होई जाता है।
लेकिन गाँधीवाद के वर्ग सामंजस्य ( Class-collaboration) का किसान-सभा से क्या ताल्लुक , यह प्रश्न तो बना ही है। मैं तो उन दिनों पूरा-पूरा गाँधीवादी था। राजनीति को धर्म के रूप में ही देखता था। यद्यपि इधर कई साल के अनुभवों ने बार-बार बताया है कि राजनीति पर धर्म का रंग चढ़ाना असंभव है , बेकार है , खतरनाक है इसीलिए विराग भी हुआ। फिर भी धुन वही थी और धर्म में तो वर्ग सामंजस्य हई। वहाँ वर्ग-संघर्ष ( Class-struggle) की गुंजाइश कहाँ ? फलतः किसान-सभा भी उसी दृष्टिकोण को ले कर बनी। लेकिन उसमें भी एक विचित्रता थी जो भविष्य की सूचना देती थी। गोया उस ओर कोई इशारा था।
असल में सन 1927 ई. के आखिरी दिनों में पहले पहल किसान-सभा का आयोजन और श्रीगणेश होने पर और तत्संबंधी कितनी ही मीटिंगें करने पर भी जब सन 1928 ई. के 4 मार्च को नियमित रूप से किसान-सभा बनाईगई तो उसकी नियमावली में एक यह भी धारा जुटी कि '' जिन लोगों ने अपने प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष कामों से अपने को किसान-हित का शत्रु सिद्ध कर दिया है वे इस सभा के सदस्य नहीं हो सकते। '' एक ओर तो मेल-मिलाप और सामंजस्य का खयाल और दूसरी ओर किसान-सभा की ऐसी गढ़बंदी कि किसानों में भी वही उसके मेंबर हों जो असली तौर पर किसान-हित के शत्रु साबित न हों। यह एक अजीब बात थी। आखिर ऐसे लोग किसान-सभा में आ के क्या करते ? जब जमींदारों से कोई युद्ध करना न था तब इतनी चौकसी का मतलब क्या ? जमींदारों के खुफिष्या और ' फिफ्थकौलम ' उसमें रह के भी क्या बिगाड़ डालते ? खूबी तो यह कि शुरू वाली सभा में जो यह बात तय पाई वह ठेठ बिहार प्रांतीय किसान-सभा तथा आल-इंडिया किसान-सभा की नियमावली में भी जा घुसी। मेरे दिमाग में वह बात जमी तो थी ही। फलतः सर्वत्र मैं उसकी जरूरत सुझाता गया। इस प्रकार हम अनजान में ही हजार न चाहने पर भी , या तो वर्ग संघर्ष की तैयारी शुरू से ही करते थे या उस ओर कम-से-कम अंतर्दृष्टि से देख तो रहे थे ही , ऐसा जान पड़ता है।
जो पहली सभा बनी वह प्रांत भर की नहीं ही थी। पटना जिले भर की भी न थी। उसका सूत्रपात बिहटा-आश्रम में ही हुआ था और यह बिहटा पटना जिले के पश्चिमी हिस्से के प्रायः किनारे पर ही है। वहाँ से तीन मील पच्छिम के बाद ही शाहाबाद जिला शुरू हो जाता है। उस समय प्रांतीय कौंसिल के लिए दो मेंबर चुने जाते थे ─ एक पूर्वी भाग से और दूसरा पश्चिमी से। इसी चुनाव के खयाल से पटना जिला दो हिस्सों में बँटा था और यह सभा पश्चिमी भाग की ही थी। इसीलिए उसे पश्चिम पटना किसान-सभा नाम दिया गया था। कोई क्रांतिकारी भावना तो काम कर रही थी ही नहीं। वैधानिक ढंग से जोर डालकर किसानों का कुछ भला करवाने और उनकी तकलीफें मिटवाने का खयाल ही इसके पीछे था। अन्यथा वर्ग सामंजस्य नहीं रह जाता। सोचा गया था कि जो ही वोट माँगने आएगा उसे ही विवश किया जाएगा कि किसानों के लिए कुछ करने का स्पष्ट वचन दे।
पश्चिम पटना में भरतपुरा , धरहरा आदि की पुरानी जमींदारियाँ हैं। उस समय उनका किसानों पर होनेवाला जुल्म बिहार प्रांत में अपना सानी शायद ही रखता हो। किसान पशु से भी बदतर बना दिएगए थे और छोटी-बड़ी कही जानेवाली जातियों के किसान एक ही लाठी से हाँके जाते थे। इस दृष्टि से वहाँ पूरा साम्यवाद था। यद्यपि उनके जुल्मों की पूरी जानकारी हमें उस समय न थी ; वह तो पीछे चलकर हुई। उस समय विशेष जानने की मनोवृत्ति थी भी नहीं। फिर भी वे इतने ज्यादा , ज्वलंत और साफ थे कि छन-छन के कुछ-न-कुछ हमारे पास भी पहुँच ही जाते थे। हमें यह भी मालूम हुआ था कि सन 1921 ई. के असहयोग युग में पटने के नामधारी नेता उन जमींदारियों में सफल मीटिंग एक भी न कर सके थे। जमींदारों के इशारे से उन पर गोबर आदि गंदी चीजें तक फेंकी गईं। सभा में लाठी के बल से किसान आने से रोक दिएगए। वे इतने पस्त थे कि जमींदार का नाम सुनते ही सपक जाते थे। हमने सोचा , एक-न-एक दिन यह जुल्म दोनों में भिड़ंत कराएगा और इस प्रकार के गृह-कलह से आजादी की लड़ाई कमजोर हो जाएगी। फलतः आंदोलन के दबाव से जुल्म कम करवाने और इस तरह गृह-कलह रोकने की बात हमें सूझी। धरहरा के ही एक जमींदार हाल में ही कौंसिल में चुने गए थे। उनका काफी दबदबा था। हमने सोचा कि संगठित रूप से काम करने पर वोट के खयाल से वे दबेंगे और काम हो जाएगा। बात कुछ थी भी ऐसी ही। वे जमींदार साहब इस सभा से बेहद चौंके और इसके खिलाफ उनने प्रचार-कोशिश भी की। शोषक तो खटमल की तरह काफी काइयाँ होते हैं। इसी से वे सजग थे। हमें भी यह बात बुरी लगी कि वे इतने सख्त दुश्मन क्यों बनें। मगर बात तो ठीक ही थी। हम उस समय असल में जमींदारी को ऐसा समझते न थे जैसा पीछे समझने लगे। फिर भी यह झल्लाहट बनी ही रही और वे सन 1930 ई. में हजारीबाग जेल में इसी की सफाई देने हमारे पास आए थे। बहुत डरे से मालूम होते थे। मगर उनका डर अंततोगत्वा सच्चा निकला , गो देर से। क्योंकि किसान-सभा ने ही उन्हें सन 1936-37 के चुनाव में बुरी तरह पहले असेंबली में पछाड़ा और पीछे डिस्ट्रिक्टबोर्ड में भी। मालदार लोग दूरंदेश होते हैं। फलतः इस खतरे को वे पहले से ही ताड़ रहे थे कि हो न हो एक दिन भिड़ंत होगी।
सभा जो जिले भर की भी नहीं बनी उसका कारण था हमारा फूँक-फूँक के पाँव देना ही। जितनी शक्ति हो उतनी ही जवाबदेही लो , ताकि उसे बखूबी सँभाल सको , इसी वसूल ने हमें हमेशा जल्दबाज़ी से रोका है। इसी खयाल से हम आल-इंडिया किसान-सभा बनाने में बहुत आगा-पीछा करते रहे। इसी वजह से ही हमने प्रांतीय किसान-सभा में पड़ने से भी ─ उसकी जवाबदेही लेने से भी ─ बहुत ज्यादा हिचक दिखाई थी। यही कारण था कि जिले भर की जवाबदेही लेने को हम उस समय तैयार न थे। मगर पता किसे था कि दो वर्ष बीतते-बीतते बिहार प्रांतीय किसान-सभा बन के ही रहेगी और न सिर्फ उसके स्थापनार्थ हमें आगे बढ़ना होगा , बल्कि उसकी पूरी जवाबदेही भी लेनी होगी ? आखिरकार सन 1929 ई. के नवंबर महीने में यही हुआ और सोनपुर मेले में प्रांतीय किसान-सभा बनी।
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सन 1929 ई. के दिसंबर का महीना था। लाहौर कांग्रेस के पूर्व और हमारी बिहार प्रांतीय किसान-सभा बन जाने के बाद ही सरदार बल्लभभाई का दौरा बिहार में हुआ। दौरा प्रांत के सभी मुख्य-मुख्य स्थानों में हुआ। राय हुई कि नवजात किसान-सभा इससे लाभ क्यों न उठाए। श्री बल्लभभाई हाल में ही किसान आंदोलन और लड़ाई के नाम पर ही सरदार बने थे। बारदौली के किसानों की लड़ाई के संचालक की हैसियत से ही उन्हें सरदार की पदवी मिली थी। हमने सोचा कि हमारा किसान आंदोलन उनसे प्रोत्साहन प्राप्त करे। हुआ भी ऐसा ही। जहाँ-जहाँ उनके दौरे का प्रोग्राम था तहाँ-तहाँ ठीक उनके पहले हम किसान-सभा कर लेते और पीछे उसी सभा में वह बोलते जाते थे। कहीं-कहीं उनने हमारा और हमारी किसान-सभा का नाम भी लिया था और उसे सहायता देने को कहा था। मगर हम तो सभा की तैयारी और लोगों की उपस्थिति से लाभ उठा के किसान का पैगाम लोगों को सुना देना ही बहुत बड़ा फायदा मानते थे।
मुजफ्फरपुर जिले के सीतामढ़ी कसबे में भी एक बड़ी सभा हुई। हमने अपना काम कर लिया था। वह बोलने उठे तो दूसरी-दूसरी बातों के साथ जमींदारी प्रथा पर उनने बहुत कुछ कहा और उसकी कोई जरूरत नहीं है , यह साफ-साफ सुना दिया। उनका कहना था कि सुना है , ये जमींदार बहुत जुल्म करते हैं। ये लोग गरीब किसानों को खूब ही सताते हैं , ये भलेमानस अपने को जबर्दस्त माने बैठे हैं। लोग भी इन्हें ऐसा ही मानते हैं। इसीलिए डरते भी इनसे हैं। मगर ये तो निहायत ही कमजोर हैं। यदि एक बार कसके इनका माथा दबा दिया जाए तो भेजा (दिमाग की गुदी) बाहर निकल आए। फिर इनसे क्या डरना ? इनकी ज़रूरत भी क्या है ? ये तो कुछ करते नहीं ! हाँ , रास्ते में अड़ंगे जरूर लगाते हैं , पता नहीं , आज वही बदल गए , दुनिया ही बदल गई या जमींदार ही दूसरे हो गए। क्योंकि अब वह ये बातें बोलते नहीं , बल्कि जमींदारों के समर्थक बन गए हैं , ऐसा कहा जाता है। समय-समय पर परिवर्तन होते ही रहते हैं और नेता इस परिवर्तन के अपवाद नहीं हैं। शायद वे अब संजीदा और दूरंदेशी बन गए हैं , जब कि पहले सिर्फ आंदोलनकारी agitator थे। मगर , गुस्ताखी माफ हो। हमें तो संजीदा के बदले ' एजीटेटर ' ही चाहिए। अपनी-अपनी समझ और जरूरत ही तो ठहरी।
हाँ , तो उसी सभा से हम लोग रात में लौरी के जरिए मुजफ्फरपुर रवाना हुए। हमें आधी रात की गाड़ी पकड़ के छपरा जाना था। बा. रामदयालु सिंह , पं. यमुना कार्यी और मैं , ये तीनों ही उस लौरी में बैठे थे। मैं था प्रांतीय किसान-सभा का सभापति और कार्यी जी उसके संयुक्त मंत्री (डिविजनल सेक्रेटरी) थे। बाबू रामदयालु सिंह ने प्रांतीय किसान-सभा की स्थापना में बहुत बड़ा भाग लिया था। वे उसकी प्रगति में लगे थे। इस तरह हम तीनों ही सभा के कर्ता-धर्ता थे ─ सब कुछ थे। हमीं तीनों ने उसे बनाया था और अगर हम तीनों खत्म होते तो सभा का खात्मा ही हो जाता यह पक्की बात थी।
लौरी रवाना हो गई। रात के दस बजे होंगे। बाबू रामदयालु सिंह ड्राइवर की बगल में आगेवाली सीट पर थे और हम लोग भीतर थे। लौरी चलते-चलते एक तिहाई रास्ता पार कर के रुनीसैदपुर में लगी। ड्राइवर उसे छोड़ कहीं गया और थोड़ी देर बाद वापस आया। हम चल पड़े। कुछ दूर चलने के बाद ड्राइवर को ऊँघ सी आने लगी। नतीजा यह हुआ कि लौरी डगमग करती जाती थी। कभी इधर फिसल पड़ती तो कभी उधर। ड्राइवर उसे ठीक सँभाल न सकता था। वह सड़क भी ऐसी खतरनाक है कि कितनी ही घटनाएँ ( accidents) हो चुकी हैं , कितनी ही मोटरें उलट चुकी हैं। और कई मर चुके हैं। था भी रात का वक्त। खतरे की संभावना पद-पद-पर थी।
बाबू रामदयालु सिंह बात ताड़ गए। उनने ड्राइवर को ऊँघता देख पहले दो-चार बार उसे सँभाला था सही। मगर वह नींद में थोड़े ही था। उस पर नींद की सवारी न होकर नशा की सवारी थी। रुनीसैदपुर में उसने शराब पी ली थी। अब तो वे घबराए। मारे डर के वे पसीने-पसीने थे। हालाँकि दिसंबर की कड़ाके की सर्दी थी। सो भी उस इलाके में तो और भी तेज होती है। वे बार-बार ड्राइवर को सजग करते थे। मगर वह नशा ही क्या कि सर पर न चढ़ जाए और बेकार न बना दे ? आखिर उनसे रहा न गया और उनने लौरी जबर्दस्ती रुकवाई। तब कहीं हमें पता चला कि कुछ बेढंगा मामला है। अब तक हम भी बेखबर थे।
हम सभी उतर पड़े और उनने कहा कि रास्ते में शराब पीके हम सबों को यह मारना चाहता है। देखिए न , मैं पसीने-पसीने हो रहा हूँ हालाँकि इस कड़ाके के जाड़े में लौरी पर हवा भी लगती है। फलतः काँपना चाहिए। हम सबों की जान पद-पद पर खतरे में देख के मैं थर्रा रहा था। मगर जब देखा कि अब कोई उपाय नहीं है तो रोका है। यदि कोई घटना हो जाती और लौरी उलट जाती या नीचे जा गिरती तो सारी की सारी बिहार प्रांतीय किसान-सभा ही खत्म हो जाती। हम सभी इसी पर बैठे जो हैं। कल हमारे शत्रुओं के घर घी के चिराग जलते। इसलिए मैं तो इसका नाम-धाम नोट कर के जिला मजिस्ट्रेट को इस बात की रिपोर्ट करूँगा। ताकि आइंदा इस प्रकार की शैतानियत ये ड्राइवर न करें और नाहक लोगों की जानें जोखिम में न डालें।
उनने उसका नाम-वाम लिखा सही और वह डर भी गया। इससे हम सभी सकुशल मुजफ्फरपुर स्टेशन पर पहुँच गए। हमने ट्रेन भी पकड़ ली। न जाने मजिस्ट्रेट के यहाँ रिपोर्ट हुई या नहीं। मगर ' समूची किसान-सभा ही खत्म हो जाती ' यह बात मुझे भूलती नहीं! इसकी स्मृति कितनी मधुर है। (5-8-41)
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कुछ लोगों की धारणा है कि उनने कभी भूल की ही नहीं और न उनके विचारों में विकास हुआ। उनके विचार तो पके-पकाए शुरू से ही थे। इसीलिए जिनके विचारों का क्रम विकास हुआ है उनकी वे लोग मौके-मौके पर , अपनी जरूरत के मुताबिक , हँसी भी उड़ाया करते हैं। इधर उन्हीं दोस्तों ने यह भी तरीका अख्तियार किया है कि जिस प्रगतिशील कार्य पर उनकी मुहर न हो वह नाकारा और रद्दी है। वह यह भी कहने की हिम्मत करते हैं कि बिहार प्रांतीय किसान-सभा को बनाया कांग्रेस ने ही। या यों कहिए कि उसके स्थापक कट्टर ( Orthodox) कांग्रेसी ही हैं। उनका मतलब उन कांग्रेसियों से है जो गाँधीवादी कहे जाते हैं। यह आवाज अभी-अभी निकलने लगी है। इसके पीछे क्या रहस्य है कौन जाने ?
मगर असल बात तो यही है कि मैं , पं. यमुना कार्यी और बाबू रामदयालु सिंह , यही तीन उसकी जड़ में थे ─ इन्हीं तीन ने उसका विचार किया , कैसे वह शुरू की जाए यह सोचा , सोनपुर के मेले में ही सुंदर मौका है ऐसा तय किया , लोगों के पास दौड़-धूप की , नोटिसें छपवाईं और बँटवाईं और मेले में इसका पूरा आयोजन किया। कोई बता नहीं सकता कि इसमें चौथा आदमी भी था। यह तो कठोर सत्य है , अडिग बात है। और इन तीनों में रामदयालु बाबू ही एक गाँधीवादी कहे जा सकते हैं। ऐसी हालत में बेबुनियाद बातों की गुंजाइश ही कहाँ है ?
यह ठीक है कि नाममात्र के लिए प्रमुख कांग्रेसी सभा के साथ थे , या यों कहिए कि उसके मेंबर थे। मगर यह मेंबरी तो कोई बाकायदा थी नहीं। किसान-सभा के लक्ष्य पर दस्तखत कर के और सदस्य शुल्क दे के कितने लोग मेंबर रहे क्या यह बात कोई बताएगा ? ऐसे मेंबर बनने के लिए उनमें एक भी तैयार न था। बल्कि बनने के बहुत पहले ही उनमें प्रमुख लोगों ने विरोध शुरू कर दिया। यहाँ तक कि इसमें शामिल होने के विरुद्ध सूचना बाँटी गईप्रांतीय कांग्रेस कमिटी की ओर से। इतना ही नहीं। सोनपुर के बाद ही जब उन लोगों की सम्मति चाही गई तो बाबू ब्रजकिशोर प्रसाद ने , जो उस समय कांग्रेस के दिमाग माने जाते थे , इसका सख्त विरोध किया और साफ कह दिया कि यह खतरनाक चीज बनने जा रही है। अतः मैं इसके साथ नहीं हूँ। यह ठीक है कि और लोगों ने उस समय इन्कार नहीं किया। सच तो यह है कि ऐसा करने का मौका ही उन्हें नहीं मिला। वे समझी न सके कि किसान-सभा ऐसी चीज बन जाएगी। क्योंकि पीछे यह बात समझते ही कुड़बुड़ाहट और विरोधी प्रोपैगैंडा शुरू हो गया। यह भी ठीक है कि औरों का नाम देख एकाध ने उलाहना भी दिया कि हमारा नाम क्यों नहीं दिया गया। इसीलिए उनका नाम पीछे जोड़ा गया भी। मगर इससे वस्तुस्थिति में कोई फर्क नहीं आता। नाम दे देने से कोई भी सभा का स्थापक नहीं कहा जा सकता। सौ बात की एक बात तो यह है कि यदि सभा की स्थापना का श्रेय कोई चौथा भी लेना चाहता है तो उसका नाम क्यों बताया नहीं जाता ? क्योंकि तब तो स्पष्ट पूछा जा सकता है कि उसने इस संबंध में कब क्या किया ? यह तो उसे बताना ही होगा। इसलिए केवल गोल-गोल बातों से काम नहीं चलेगा। नाम और काम बताना होगा।
मगर हमें तो इसमें भी झगड़ा नहीं है कि किसने यह काम किया। इतना तो असलियत के लिहाज से ही हमने कहा है। फिर भी यदि किसी को वैसा दावा हो तो हम उसकी खुशी में गड़बड़ी क्यों डालें ? हमें क्या ? सभा चाहे किसी ने बनाई। मगर वह जिस सूरत में या जिस प्रकट विचार से पहले बनी अब वह बात नहीं रही। धीरे-धीरे अनुभव के आधार पर वह आगे बढ़ी है और अब उसमें सोलहों आने रूपांतर आ गया है। यह ठीक है कि वह किताबी ज्ञान के आधार पर न तो बनी ही थी और न वर्तमान रूप में आई ही है। इसीलिए इसका आधार बहुत ही ठोस है। संघर्ष के मध्य में वह जन्मी और संघर्ष ही में पलते-पलते सयानी हुई है। इसीलिए वह काफी मजबूत है भी। शोषित जनता की वर्ग संस्थाओं को इसी प्रकार बनना और बढ़ना चाहिए , यही क्रांतिकारी मार्ग है। लेनिन ने कहा भी है कि हमें जनता से और अपने अनुभवों से सीखकर ही जनता का पथ-प्रदर्शन करना चाहिए। जनता अपने ही अनुभव से सीखकर जब नेताओं की बातों पर विश्वास करती है और उन्हें मानने लगती है तभी वह हमारा साथ देती है , ऐसा स्तालिन ने चीन के संबंध के विवरण में कहा है ─
" The masses themselves should become convinced from their own experience of the correctness of the instructions, policy and slogans of the vanguard."
इसीलिए बजाय शर्म के खुशी की बात है कि अनुभव के बल पर ही हम आगे बढ़े हैं और इसमें किसानों को भी साथ ले सके हैं।
मगर हमारे क्रांतिकारी नामधारी दोस्तों की एक बात तो हमारे लिए पहेली ही रहेगी। जब हम उसे याद करते हैं तो एक अजीब घपले में पड़ जाते हैं। हमारे दोस्तों का दावा है कि किसान-सभा को वही क्रांतिकारी मार्ग पर ला सके हैं ; उन्होंने ही उसे क्रांतिकारी प्रोग्राम दिया है आदि-आदि। जब हम पहली और ठेठ आज की उनकी ही कार्यवाहियों का खयाल करते हैं तो उनका यह दावा समझ में नहीं आता। उनमें एक भाई का दावा है ─ और बाकी उनकी हाँ में हाँ मिलाते हैं ─ कि उनने ही जमींदारी मिटाने का प्रस्ताव पहले-पहल किसान-सभा में पेश किया था। शायद उन्हें यह बात याद नहीं है कि उनकी पार्टी के जन्म के बहुत पहले युक्त प्रांत में श्री पुरुषोत्तमदास टंडन ने एक केंद्रीय किसान संघ बनाया था और दूसरी-दूसरी अनेक बातों के साथ ही जमींदारी मिटाने की बात उस संघ ने मान ली थी। जब सन 1934 ई. की गर्मियों में वे द्वितीय प्रांतीय किसान सम्मेलन का सभापतित्व करने गया में आए थे। तो वहाँ भी उनने वह प्रस्ताव पास कराना चाहा था। मगर हम सबने ─ जिनमें सोशलिस्ट नेता भी शामिल थे ─ उसका विरोध किया था। फलतः वह गिर गया। उनके प्रस्ताव की खूबी यह थी कि मुआविजा (मूल्य) देकर ही जमींदारी मिटाने की बात उसमें थी।
टंडन जी भी इस बात के साक्षी हैं कि मैंने दूसरे दिन सम्मेलन में जो भाषण दिया था उसमें स्पष्ट कह दिया था कि जहाँ तक बिहार प्रांतीय किसान-सभा का ताल्लुक है , उसने जमींदारी मिटाने का प्रस्ताव अभी तक नहीं माना है ; क्योंकि इसमें अभी उसे हानि नजर आती है। मगर जहाँ तक मेरा व्यक्तिगत सवाल है , मैं उसके मिटाने का पूर्ण पक्षपाती हूँ। लेकिन मूल्य देकर नहीं किंतु यों ही छीन कर। यही हमारे सामने सबसे बड़ी दिक्कत है इसके संबंध में। टंडन जी को इस बात से आश्चर्य भी हुआ था कि छीनने के पक्ष में तो हैं। मगर मुआविजा दे के खत्म करने के पक्ष में नहीं।
एक बात और। सन 1934 ई. के आखिर में सिलौत (मनियारी-मुजफ्फरपुर) में जो किसान कॉन्फ्रेंस हुई थी उसमें कहा जाता है , जमींदारी मिटाने का प्रस्ताव एक किसान लीडर ने , जो अपने को इस बात के लिए मसीहा घोषित करते हैं पेश किया था। मैं भी वहाँ मौजूद था। प्रस्ताव का वह अंश यों था कि किसान और सरकार के बीच में कोई शोषक वर्ग न रहे इस सिद्धांत को प्रांतीय किसान-सभा स्वीकार करे। यहाँ विचारना है कि टंडन जी वाले प्रस्ताव में इसमें विलक्षणता क्या है ? मुआविजा की बात पर यह चुप है। इसलिए ज्यादा-से-ज्यादा यही कहा जाता है कि गोल-मोल बात ही इसमें कही गई है , जबकि टंडन जी ने स्पष्ट कह दिया था। मगर असल बात तो यह है कि जमींदारी का नाम इसमें है नहीं। यह भी खूबी ही है। शोषक कहने से जमींदार भी आ जाते हैं , मगर स्पष्ट नहीं। यहाँ भी गोल बात ही है। फलतः गाँधी जी के ─ ट्रस्टी वाले सिद्धांत की भी इसमें गुंजाइश है। क्योंकि ट्रस्टी होने पर तो जमींदार शोषक रहेगा नहीं। फिर जमींदारी मिटाने का क्या सवाल ? यही कारण है कि खासमहाल में , जहाँ सरकार ही जमींदार है , जमींदारी मिटाने की बात इस प्रस्ताव के पास होने पर भी नहीं उठती। अतएव जो लोग जमींदारी को सर्वत्र ही खासमहाल बना देना चाहते हैं उनके लिए यह प्रस्ताव स्वागतम है। फिर भी इसी पर दोस्तों की इतनी उछल-कूद है।
उस सभा में जमींदारों के दोस्त काफी थे। वहीं पर एक चलते-पुर्जे जमींदार हैं जो एक मठ के महंत हैं। उनके इष्ट-मित्रों की संख्या काफी थी और जी-हुजूरों की भी। उनने उसका खूब ही विरोध किया। मगर सफलता की आशा न देख यह प्रश्न किया और करवाया कि स्वामी जी भी यहीं हैं। अतः उनसे भी इस प्रस्ताव के बारे में राय पूछी जाए कि वे इसके पक्ष में हैं या नहीं और यह प्रस्ताव प्रांतीय किसान-सभा के सिद्धांत के विपरीत है या नहीं। उन लोगों का खयाल था कि मैं तो इसका विरोध करूँगा ही और प्रांतीय सभा के मंतव्य का विरोधी भी इसे जरूरी ही बताऊँगा। मगर मैं नहीं चाहता था कि बीच में पड़ईँ। मैं चाहता था कि मेरे या किसी दूसरे के प्रभाव के बिना ही लोग खुद स्वतंत्र रूप से राय कायम करें। मुझे तो किसानों की और जनता की भी मनोवृत्ति का ठीक-ठीक पता लगाना था , जो मेरे कुछ भी कहने से नहीं लग सकता था। कारण , लोग पक्ष या विपक्ष में प्रभावित हो जाते।
परंतु विरोधियों ने इस पर जोर दिया हालाँकि प्रस्ताववाले शायद डरते थे कि मेरा बोलना ठीक नहीं। जब मैंने देखा कि बड़ा जोर दिया जा रहा है और न बोलने पर यदि कहीं प्रस्ताव गिर गया तो बुरा होगा , तो अंत में मैंने कह दिया कि मैं व्यक्तिगत रूप में इस प्रस्ताव का विरोधी तो नहीं हूँ। साथ ही , प्रांतीय किसान-सभा के सिद्धांत के प्रतिकूल भी यह है नहीं। क्योंकि यह तो सभा से सिफारिश ही करता है कि यह बात मान ले। बस , फिर क्या था , बिजली सी दौड़ गई और बहुत बड़े बहुमत से प्रस्ताव पास हुआ। मैंने यह भी साफ ही कह दिया कि यह प्रस्ताव तो लोकमत तैयार करता है और उसे जाहिर भी करता है , जहाँ तक जमींदारी या शोषण मिटाने का सवाल है। ऐसी हालत में हमारी सभा इसका स्वागत ही करेगी। क्योंकि हम लोकमत को जानना तो चाहते ही हैं। साथ ही , उसे तैयार करना भी पसंद करते हैं। हमें खुद लोगों पर किसी सिद्धांत को लादने के बजाय लोकमत के अनुसार ही सिद्धांत तय करना पसंद है। यही कारण है , कि अब तक हमारी प्रांतीय किसान-सभा इस बारे में मौन है। वह अभी तक अनुकूल लोकमत जो नहीं पा रही है।
इस प्रसंग से एक और भी बात याद आती है। हमारे कुछ दोस्त जमींदारी मिटाने के अग्रदूत अपने को मानते हैं ─ कम-से-कम यह दावा आज वे और उनके साथी करते हैं। मगर इस संबंध में कुछ बातें स्मरणीय हैं। जब सन 1929 ई. के नवंबर में सोनपुर के मेले में बिहार प्रांतीय किसान-सभा की स्थापना हो रही थी , और उन लोगों के मत से आज के गाँधीवादी ही उसे कर रहे थे तो उनने खुली सभा में उसका विरोध किया था। उनकी दलील थी कि किसान-सभा की जरूरत ही नहीं। कांग्रेस से ही वह सभी काम हो जाएँगे जिनके लिए यह सभा बनाई जाने को है। उनने यह भी कहा कि किसान-सभा बनने पर किसान उसी ओर बहक जाएँगे और इस प्रकार कांग्रेस कमजोर हो जाएगी। मैं ही उस समय सभापति था और मैंने ही उनका उचित उत्तर भी दिया था। इसीलिए ये बातें मुझे याद हैं! इन दलीलों को पढ़ के कोई भी कह बैठेगा कि कोई गाँधीवादी आज (सन 1941 ई. में) किसान-सभा का विरोध कर रहा था। वह यह समझी नहीं सकता कि भावी क्रांतिकारी (क्योंकि पता नहीं कि वे उस समय क्रांतिकारी थे या नहीं) यह दलीलें पेश कर रहा है जो आगे चलकर जमींदारी मिटाने का अग्रदूत बनने का दावा करेगा।
शायद कहा जाए कि उस समय उन्हें इतना ज्ञान न था और क्रांतिकारी पार्टी भी पीछे बनी! खैर ऐसा कहनेवाले यह तो मानी लेते हैं कि ये मसीहा लोग भी एक दिन कट्टर दकियानूस थे। क्योंकि उनकी नजरों में आज जो एकाएक दकियानूस दीखने लगे हैं वही जब किसान-सभा के विरोध के बजाय उसके समर्थक थे तब मसीहा लोग विरोधी थे! यह निराली बात है।
लेकिन लखनऊ का ' संघर्ष ' नामक साप्ताहिक हिंदी-पत्र तो क्रांतिकारी ही है। उसने जब सन 1938 में अपने अग्रलेख में यहाँ तक लिख मारा कि हमें किसान-सभा का भी उपयोग करना चाहिए , तो मुझे विवश हो के संपादक महोदय को पटना में ही उलाहना देना पड़ा और इसके लिए सख्त रंजिश जाहिर करनी पड़ी। यह अजीब बात है कि क्रांति के अग्रदूत बनने के दावेदार कांग्रेस के मुकाबिले में किसान-सभा जैसी वर्ग संस्थाओं को गौण मानें। उनने हजार सफाई दी। मगर मैं मान न सका।
6-8-41
आगे चकिए। कुछ महीने पूर्व एक सर्क्यूलर देखने को मिला था। उसमें और और बातों के साथ लिखा गया है कि '' आज तक किसान-सभाओं का संगठन स्वतंत्र होते हुए भी राजनीतिक क्षेत्र में वह कांग्रेस की मददगार मात्र और उसके नीचे रही है! यहाँ ' मददगार मात्र ' में ' मात्र ' शब्द बड़े काम का है। जो लोग किसान-सभाओं को सन 1941 ई. के शुरू होने तक राजनीतिक बातों में कांग्रेस की सिर्फ मददगार और उसके नीचे मानते रहे हैं वही जब दावा करते हैं कि किसान-सभा में जमींदारी मिटाने का प्रस्ताव पहले-पहल लानेवाले वही हैं तो हम हैरत में पड़ जाते हैं। जमींदारी मिटाने की बात तो जबर्दस्त राजनीति है। कांग्रेस ने आज तक खुल के इस बात का नाम नहीं लिया है। प्रत्युत उसका नीति-निर्धारण जिस पुरुष के हाथ में है वह तथा कांग्रेस के दिग्गज नेता एवं कर्णधार ─ सब-के-सब ─ जमींदारी का समर्थन ही करते हैं। गाँधी जी ने तो यहाँ तक किया कि सन 1934 ई. में युक्त प्रांत के जमींदारों के प्रतिनिधि मंडल ; कमचनजंजपवदद्ध को खुले शब्दों में कह दिया था कि ''Better relations between the landlords and tenants could be brought about by a change of heart on both sides. He was never in favour of abolition of the Taluqdari or zamindari system.'' ('Mahratta', 12-8-1934)
'' किसानों और जमींदारों के पारस्परिक संबंध अच्छे हो जाएँगे दोनों के हृदय परिवर्तन से ही। मैं नहीं चाहता कि जमींदारी या ताल्लुकेदारी मिटा दी जाय। '' ऐसी दशा में एक ओर तो किसान-सभा को कांग्रेस के नीचे और उसकी मददगार मात्र मानना और दूसरी ओर सभा के जरिए ही जमींदारी मिटाने का दावा करना ये दोनों बातें पहेली सी हैं। इनका रहस्य समझना साधारण बुद्धि का काम नहीं है! कुछ ऐसा मालूम पड़ता है कि शुरू में ही किसान-सभा की स्थापना के विरोध से ले कर आज तक जो नीति हमारे ये क्रांतिकारी दोस्त अपने लिए निश्चित करते आ रहे हैं। उसमें मेल है-कोई विरोध नहीं है। और अगर जमींदारी मिटाने जैसी बात की चर्चा देख के विरोध मालूम भी पड़ता हो , तो वह सिर्फ ऊपरी या दिखावटी है। क्योंकि राजनीति तो पेचीदा चीज है और हमारे दोस्त लोग इस पेचीदगी में पूरे प्रवीण हैं! यह तो एक कला है और बिना कलाबाजी के सबको खुश करना या सर्वत्र वाहवाही लूटना गैर-मुमकिन है।
लेकिन जब मैं खुद आज तक की बातों का खयाल करता हूँ तो मेरे दिमाग में यह बात आती ही नहीं कि कैसे किसान-सभा कांग्रेस के नीचे और उसकी मददगार मात्र रही है। हमने तो कभी ऐसा सोचा तक नहीं। हमारे इन दोस्तों ने भी आज तक किसी भी मौके पर यह बात नहीं कही है। मुझे तो हाल के उनके इस सर्क्यूलर से ही पहले-पहल पता चला कि वे ऐसा मानते रहे हैं। यह जानकर तो मैं हैरत में पड़ गया। आखिर कभी भी तो वे इस बात का जिक्र हमारी मीटिंगों में करते। इतनी महत्त्वपूर्ण बात यों ही क्यों गुपचुप रखी गई यह कौन कहे ? कांग्रेस मिनिस्ट्री के जमाने में हमने बकाश्त संघर्ष सैकड़ों चलाए और दो हजार से कम किसानों या किसान सेवकों को इस तरह जेल जाना नहीं पड़ा! मिनिस्ट्री इसके चलते बेहद परेशान भी हुई। इसीलिए तो सन 1939 ई. के जून में बंबई में ऐसी लड़ाइयाँ रोकी गईं और न माननेवालों को कांग्रेस से निकालने की धमकी दी गई। फिर भी हमने न माना। जिसके फलस्वरूप हम कितनों को ही कांग्रेस से अलग होना पड़ा। इतने पर भी किसान-सभा को कांग्रेस के नीचे और उसकी मददगार मात्र बना देने की समझ और हिम्मत की तारीफ है।
चाहे पहले किसी को ऐसा खयाल करने की गुंजाइश रही भी हो ; क्योंकि शुरू में जान-बूझकर किसान-सभा इसी प्रकार चलाई गई थी कि किसी को शक न हो कि यह सोलहों आने स्वतंत्र चीज है , संस्था है ; इससे इसके प्रति बाल्यावस्था में ही भयंकर विरोध जो हो जाता इसीलिए एक प्रस्ताव के द्वारा यह कहा गया था कि राजनीतिक मामलों में सभा कांग्रेस का विरोध न करेगी। मगर फिर भी यह कभी न कहा गया कि उसकी मातहत है या उसकी मदद करेगी। मगर जब हमनेसन 1935 ई. के बीतते-न-बीतते हाजीपुरवाले सम्मेलन में जमींदारी मिटाने का निश्चय कर लिया तब भी इसे ऐसा समझना कि यह कांग्रेस की मातहत है , निराली सी बात है। जमींदारी मिटा देने की बात एक ऐसी चीज है जो बता देती है साफ-साफ कि किसान-सभा और कांग्रेस दो जुदी संस्थाएँ हैं जिनके लक्ष्य और रास्ते भी जुदे हैं , भले ही मौके-बे-मौके मतलब-वेश दोनों का मेल हो जाए। हम तो जमींदारी वगैरह के बारे में साफ जानते हैं कि ता. 12-2-22 ई. को बारदौली में कांग्रेस की कार्यकारिणी ने असहयोग आंदोलन को स्थगित करते हुए इस संबंध में जो कहा था वही आज तक कांग्रेस की निश्चित नीति है। उस कमिटी के प्रस्ताव की छठीं और सातवीं धाराओं में यह बात साफ लिखी है। यह यों है ─
"The working committee advises Congress workers and organisaions to inform the ryots (peasants) that withholding of rent-payment to the zamindars (land-lords) is contrary to the Congress resolution and injurious to the best interest of the country.
The Working Committee assures the zamindars that the Congress movement is in no way intended to attack their legal rights, and that, even when the ryots have grievances, the committee desires that redress be sought by mutual consulation and arbitration."
इसका अर्थ यह है , '' वर्किंग कमिटी (कार्य-कारिणी कमिटी) कांग्रेस कार्य-कर्ताओं और संस्थाओं को यह सलाह देती है कि वे किसानों (रैयतों) से कह दें कि जमींदारों को लगान न देना कांग्रेस के प्रस्ताव के विरुद्ध तथा देश-हित का घातक है।
"कमिटी जमींदारों को विश्वास दिलाती है कि कांग्रेस आंदोलन की मंशा यह हर्गिज नहीं है कि उनके कानूनी अधिकारों पर वार किया जाए। कमिटी की यह भी इच्छा है कि यदि कहीं किसानों की शिकायतें जमींदारों के खिलाफ हों तो वे भी दोनों की राय , सलाह और पंचायत की सहायता से ही दूर की जाएँ।"
हम समझ नहीं सकते कि जमींदारी और जमींदारी के अन्यान्य कानूनी हकों की इससे ज्यादा और कौन सी ताईद कांग्रेस कर सकती है। (7-8-41)
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सन 1932 ई. के आखिरी और सन 1933 ई. के आरंभ के दिन थे। कांग्रेस का सत्याग्रह आंदोलन धुआँधार चल रहा था। सरकार ने इस बार जम के पूरी तैयारी के साथ छापा मारा था। इसलिए दमन का दावानल धाँय-धाँय जल रहा था। सरकार ने कांग्रेस को कुचल डालने का कोई दकीका उठा रखा न था। लार्ड विलिंगटन भारत के वायसराय के पद पर आसीन थे। उनने पक्का हिसाब लगा के काम शुरू किया था। ऊपर से , बाहरी तौर पर , तो मालूम होता था सरकार ज्येष्ठ के मध्याद्द के सूर्य की तरह तप रही है। इसीलिए प्रत्यक्ष देखने में आंदोलन लापता सा हो रहा था। मीटिंगों का कोई नाम भी नहीं लेता था। यहाँ तक कि मुंगेर डिस्ट्रिक्ट बोर्ड का चुनाव जब सन 1933 में होने लगा और सभी नेताओं के जेल में बंद रहने के कारण उस जिले में मेरे दौरे की जरूरत पड़ी तो लोगों को भय था कि मीटिंगें होई न सकेंगी। बड़हिया में पहली और लक्खीसराय में दूसरी मीटिंग की तैयारी थी। उस समय बड़हिया में अतिरिक्त पुलिस डेरा डाले पड़ी थी। जब मैं मीटिंग करने गया तो अफसरों के कान खड़े हो गए। वे सदल-बल मीटिंग में जा जमे। मेरे भाषण के अक्षर-अक्षर नोट किए जा रहे थे। जब मेरा बोलना खत्म हुआ और सबने देखा कि यह तो केवल चुनाव की ही बातें बोल गया जो निर्दोष हैं तब कहीं जा कर उनमें ठंडक आई। यही बात कम-बेश लखीसराय में भी पाई गई।
देश के और बिहार के भी सभी प्रमुख नेता और कार्यकर्ता जेलों में बंद थे। बाहर का मैदान साफ था। सिर्फ मैं बाहर था। कही चुका हूँ कि सन 1930 ई. में जेल में मैंने जो कुछ कांग्रेसी नेताओं के बारे में देखा था ─ ठेठ उनके बारे में जो फर्स्ट और सेकंड डिविजन में रखे गए थे ─ उससे मेरा मन जल गया था और मैं कांग्रेसी राजनीति से विरागी बन गया था। क्योंकि कहने के लिए कुछ और व्यवहार में कुछ दूसरा ही पाया। यही सन 1922 ई. में भी देख चुका था। मैं सोचता कि 1922 की बात तो पहले-पहल की थी। अतः भूलें संभव थीं। मगर जब 8-10 साल के बाद बजाय उन्नति के उसमें बुरी अवनति देखी। तो विराग होना स्वाभाविक था। सोचता था , ऐसी संस्था में क्यों रहूँ जिसकी बातें केवल दिखावटी हों और सख्ती के साथ हर हालत में जिसके सदस्यों की नियम-पाबंदी का कोई इंतजाम न हो। ऐसी संस्था तो धोखे की चीज होगी और टिक न सकेगी। हम अपने ईमान को धोखा देते-देते जनता को भी जिसकी सेवा का दम हम भरते हैं , धोखा देने लग जाएँगे। इसीलिए सन 1932 ई. में पुराने दोस्तों और साथियों के हजार कहने-सुनने पर भी मैं संघर्ष में न पड़ा। फलतः बाहर ही पड़ा तमाशा देखता था।
बिहार ही ऐसा प्रांत उस समय था जहाँ कांग्रेस के सिवाय कोई भी सार्वजनिक संस्था जमने पाती न थी। मुसलिम लीग , हिंदू सभा या लिबरल फिडरेशन तक का यहाँ पता न था। किसान-सभा तो यों बन सकी कि उसमें दूसरे लोग थे ही न। यह भी बात थी कि लोग समझते थे कि यह तो खुद ही खत्म हो जाएगी। क्योंकि किसी खास मतलब से ही बनी मानी जाती थी और वह मतलब शीघ्र ही पूरा हो जानेवाला माना जाता था। हर हालत में इसे कांग्रेस के विरुद्ध न जाने देने का इरादा लोगों ने कर लिया था। यही कारण है कि शुरू के 5-6 वर्षों में हमें भी फूँक-फूँक के पाँव देने पड़े थे। और यह सभा भी सन 1930 के शुरू में ही स्थगित कर दी गई थी तथा तब तक इसे पुनर्जीवित करने की चेष्टा भी न की गई थी।
इसलिए सरकार ने , जमींदारों ने , मालदारों ने और उनके दोस्त जी-हुजूरों ने सोचा कि यही सुनहला मौका है। इससे फायदा उठा के एक ऐसी संस्था बना दी जाए जो कांग्रेस का मुकाबिला कर सके। सभी प्रमुख नेता और कार्यकर्ता एक तो जेल में थे। दूसरे जो बाहर थे भी उन्हें कांग्रेस की लड़ाई के प्रबंध से फुर्सत कहाँ थी कि और कुछ करते या इस नई संस्था का विरोध करते ? जैसा कि जन-आंदोलन की सनातन रीति है कि दमन होने पर भीतर चला जाता है और ऊपर से नजर नहीं आता , ठीक वही बात कांग्रेस की लड़ाई की थी। वह भी भीतर ही भीतर आग की तरह धक-धक जल रही थी इसीलिए उसे चलाने में ज्यादा दिक्कतें थीं। पुलिस परछाईं की तरह सर्वत्र घूमती जो थी पता पाने के लिए , ताकि छपक पड़े। वह इस तरह अनजान में ही अपनी मर्जी के खिलाफ जनता को गुप्त रीति से आंदोलन चलाने को न सिर्फ प्रोत्साहित कर रही थी , वरन उसे इस काम में शिक्षित और दृढ़ बना रही थी। आखिर जरूरत पड़ने पर ही तो आदमी सब कुछ कर डालता है। इस तरह देश का आंदोलन असली क्रांतिकारी मार्ग पकड़ के जा रहा था। गाँधी जी ने जो इसे सन 1934 ई. के शुरू में ही बंद कर दिया उसका भी यही कारण था। वे इस बात को ताड़ गए थे। वे समझते थे कि यदि न रोका गया तो उनके और मध्यम वर्ग के हाथों से यह निकल जाएगा। और सचमुच जन-आंदोलन बन जाएगा , और ऐसा होने में स्थिर स्वार्थों ( Vested interests) की सरासर हानि थी।
हाँ , तो यारों की दौड़-धूप शुरू हो गई। कभी पटना और कभी राँची में , जहीं पर गवर्नर साहब के चरण विराजते वहीं महाराजा दरभंगा वगैरह बड़े-बड़े जमींदार बार-बार तशरीफ ले जाते , बातें होतीं और सरकार का आशीर्वाद इस मामले में प्राप्त करने की कोशिश होती थी। आशीर्वाद तो सुलभ था ही। मगर सरकार भी देखना चाहती थी कि ये लोग उसके पात्र हैं या नहीं। उसे भी गर्ज तो थी ही कि कांग्रेस की प्रतिद्वंद्वी कोई भी संस्था खड़ी की जाए। इसलिए बड़ी दौड़-धूप के बाद और महीनों सलाह-मशविरा के फलस्वरूप जहाँ तक याद है , राँची में यह बात तय पाईगई कि यूनाइटेड पार्टी (संयुक्त दल) के नाम से ऐसी संस्था बनाई जाए। बेशक जमींदारों के भीतर भी इस बारे में दो दल थे जिनके बीच सिर्फ नेतृत्व का झगड़ा था कि कौन इसका नेता बने। मगर नेतृत्व तो सबसे बड़े जमींदार और पूँजीपति महाराजा दरभंगा को ही मिलना था। असल में उनके सहायक और निकट सलाहकार कौन हों यही तय नहीं हो सकता था। आखिरश राजा सूर्यपुरा (शाहाबाद) उनके निकट सलाहकार (मंत्री) बने। भीतरी मतभेद के रहते हुए भी आपस की दलबंदी जमींदारों के इस महान कार्य में ─ इस महाजाल में ─ बाधक कैसे हो सकती थी ? इस प्रकार यूनाइटेड पार्टी का जन्म हो गया।
इस संबंध की एक और बात है। जब हमारी प्रांतीय किसान-सभा पहले-पहल बनी तो पटने के वकील वा. गुरुसहाय लाल भी उसके एक संयुक्त मंत्री बनाएगए , हालाँकि काम-वाम तो उनने कुछ किया नहीं। असल में तब तक की हालत यह थी कि पुरानी कौंसिल में किसानों के नाम पर जोई दो-चार आँसू बहा देता , दो-एक गर्म बातें बोल देता या ज्यादे से ज्यादा किसान-हित की दृष्टि से काश्तकारी कानून में सुधार के लिए एकाध मामूली बिल पेश कर देता , वही किसानों का नेता माना जाता था। गोया किसान लावारिस माल थे , उनका पुर्सांहाल कोई न था। इसलिए ' दे खुदा की राह पर ' के मुताबिक जिसने उनकी ओर अपने स्वार्थ साधन के लिए भी जरा नजर उठाई कि वही उनका मुखिया ( spokes man) माना जाने लगा। प्रायः सब के सब ऐसे मुखिया जमींदारों से मिले-जुले ही रहते थे और दो-एक गर्म बातें बोल के और भी अपना उल्लू सीधा कर लिया करते थे। ऐसे ही लोगों ने सन 1929 ई. में भी एक बिल पेश किया था किसानों के नाम पर टेनेन्सी कानून की तरमीम के लिए , जिसके करते जमींदारों ने एक उलटा बिल ठोंक दिया था। फलतः दोनों को ताक पर रख के सरकार ने अपनी ओर से एक तीसरा बिल पेश किया था और उसी के विरोध को तात्कालिक कारण बना के प्रांतीय किसान को जन्म दिया गया था।
सरकार का हमेशा यही कहना था कि काश्तकारी कानून का संशोधन दोई तरह से हो सकता है ─ या तो किसान और जमींदार या इन दोनों के प्रतिनिधि मिल-जुल के कोई मसविदा (बिल) पेश करें और उसे पास कर लें , या यदि ऐसा न हो सके तो सरकार ही पेश करे और उसे दोनों मानें। ठीक दो बिल्लियों के झगड़े में बंदर की पंचायतवाली बात थी। सन 1929 ई. में भी ऐसा ही हुआ था और दोनों की राय न मिलने के कारण ही सरकार बीच में कूदी थी। मगर जब किसानों के नाम पर किसान-सभा ने उसका जोरदार विरोध किया तो उसने यह कह के उसे वापस ले लिया कि जब किसान-सभा भी इसकी मुखालिफ है तो सरकार को क्या गर्ज है कि इस पर जोर दे ? इस तरह किसान-सभा ने जनमते ही दो काम किए। एक तो उस बिल को चौपट करवा के किसानों का गला बचाया। दूसरे सरकार को विवश किया कि न चाहते हुए भी किसान-सभा को किसानों की संस्था मान ले।
इसी के मुताबिक सरकार और जमींदारों को भी फिक्र पड़ी कि यूनाइटेड पार्टी को मजबूत बनाने के लिए सबसे पहले उसकी ओर से काश्तकारी कानून का संशोधन कराके किसानों को कुछ नाममात्र के हक दे दिए जाएँ। साथ ही , जमींदारों का भी मतलब साध जाए। मगर अब तक जो तरीका था उसके अनुसार तो जो बिल किसान और जमींदार दोनों की रजामंदी से पेश न हो उसे सरकार मान नहीं सकती थी। इसीलिए जरूरत इस बात की हुई कि जिस यूनाइटेड पार्टी को बनाया जा रहा है उसमें किसानों के नाम पर बोलनेवाले भी रखे जाएँ। नहीं तो सब गुड़ गोबर हो जाएगा। यूनाइटेड पार्टी का तो अर्थ ही यही था कि जिसमें सभी दल और फिर्के के लोग शामिल हों। उसके जिन खास-खास मेंबरों की लिस्ट उस समय निकली थी उससे भी मालूम पड़ता था कि सभी धर्म , दल और स्वार्थ के लोग उसमें शरीक है। फलतः उसे ही बिहार प्रांत के नाम में बोलने का हक है।
अब उसके सूत्रधारों को इस बात की फिक्र पड़ी कि किसानों के प्रतिनिधि कौन-कौन से महाशय इसमें लाए जाएँ। उनके सौभाग्य से श्री शिव शंकर झावकील मिल ही तो गए। वे उसी प्रकार के किसान नेता हैं जिनका जिक्र पहले हो चुका है। यह ठीक है कि बाबू गुरुसहाय लाल भी उस पार्टी के साथ थे। मगर चालाकी यह सोची गई कि अगर खुली तौर पर उनका नाम शुरू में ऐलान किया जाएगा तो बड़ा हो-हल्ला मचेगा और मजा किरकिरा हो जाएगा। वे भी शायद डरते थे। इसलिए तय यह पाया कि वह पहले एक बिहार प्रांतीय किसान-सभा खड़ी कर दें। पीछे बिल में जो बातें काश्तकारी के संशोधन के लिए दी जानेवाली हों उन्हें यह कह के अपनी सभा से स्वीकार कराएँ कि इन्हीं शर्तों पर जमींदारों के साथ किसानों का समझौता हुआ है। इसके बाद तो कानून बना के यह दमामा बजाया ही जाएगा कि उनने और झा जी ने किसानों को बड़े-बड़े हक दिलाए। इस तरह यूनाइटेट पार्टी की धाक भी किसानों में जम जाएगी। क्योंकि पार्टी की ही तरफ से कानून का संशोधन कराया जाएगा। साथ ही गुरुसहाय बाबू भी इसका सेहरा पहने-पहनाए उस पार्टी में खुल्लमखुल्ला आ जाएँगे!
उनने किया भी ऐसा ही। जिस सभा के एक मंत्री वह भी थे उसके रहते ही एक दूसरी सभा खड़ी कर देने की हिम्मत उनने कर डाली! पीछे तो गुलाब बाग (पटना) की मीटिंग में यह भी बात खुली कि इस नकली सभा के बनाने में न सिर्फ जमींदारों का इशारा था , प्रत्युत उनके पैसे भी लगे थे। उस समय इस किसान-द्रोह में उनके साथ एकाध और भी सोशलिस्ट नामधारी जमींदारों के साथ षड्यंत्र कर रहे थे। खूबी तो यह कि यह सारा काम इस खूबी से चुपके-चुपके किया जा रहा था कि बाहरी दुनिया इसे समझ न सके। यहाँ तक कि पटने से 15-20 मील पर ही बिहटा में मैं मौजूद था। मगर सारी चीज मुझसे भरपूर छिपाई गई , मुझे खबर देना या मुझसे राय लेना तो दूर रहा। उन्हें असली किसान-सभा का भूत बुरी तरह परेशान जो कर रहा था। वे समझते थे खूब ही , कि यदि इस स्वामी को खबर लग गई तो विरागी होते हुए भी कहीं ऐसा न हो कि उस पुरानी सभा को ही जाग्रत कर दे जिसने जनमते ही सरकार और जमींदारों से भिड़ के एक पछाड़ उन्हें फौरन ही दी थी। तब तो सारी उम्मीदों पर पानी ही फिर जाएगा। इसे ही कहते हैं गरीबों की सेवा और किसान-हितैषिता! खुदा किसानों की हिफाजत ऐसे दोस्तों से करे।
लेकिन आखिर भंडा फूट के ही रहा और ये बेचारे ' टुक-टुक दीदम , दम न कसीदम ' के अनुसार हाय मार के रह गए। इनकी किसान-सभा में विपत्ति का मारा न जाने मैं क्यों पहुँच गया जिससे इन पर पाला पड़ गया। वहाँ जब मैंने जमींदारों और जमींदार सभा के लीडरों को देखा तो चौंक पड़ा कि यह कैसी किसान-सभा। मगर जब किसानों के नामधारी नेता उन जमींदार लीडरों को इसीलिए सभा में धन्यवाद देना चाहते थे कि उनने पैसे से सहायता की थी , तो बिल्ली थैले से बाहर आ गई। आखिर पाप छिप न सका और मैंने मन ही मन कहा कि यह तो भयंकर किसान-सभा है। खुशी है कि वहीं उसका श्राद्ध हो गया और पुरानी सभा जाग खड़ी हुई। इस तरह जो मैं अब तक सभा से उदासीन सा था वही अब फिर सारी शक्ति से उसमें पड़ गया। वे किसान नेता उसके बाद कुछी दिनों में अपने असली रूप में आ गए औैर जमींदारों से साफ-साफ जा मिले। फिर भी किसी की एक न चली और दोई साल के भीतर ऐसा तूफान मचा कि उसमें न सिर्फ यूनाइटेड पार्टी उड़ गई , बल्कि जमींदारों के मनोरथों पर पानी फिर गया। जो बिल उनने पेश किया उसमें किसान-हित की अनेक बातों को दे के और जहरीली बातें उससे निकाल के उसे कानून का जामा पहनाने के लिए उन्हें मजबूर होना पड़ा। उसी समय से जमींदारों ने अपनी जिरात जमीन के बढ़ाने का पुराना दावा सदा के लिए छोड़ दिया।
इस प्रकार अब तक जो अपने को किसानों के नेता कहते थे ऐसे नए-पुराने सभी लोगों का पर्दाफाश हो गया और वे मुँह दिखाने के लायक भी नहीं रह गए। लोग इस झमेले में भयभीत थे कि कही मैं दबा तो अनर्थ होगा। क्योंकि अब तक के किसान नेताओं तथा जमींदारों की एक गुटबंदी किसान-सभा के खिलाफ थी। मगर मुझे तो पूरा विश्वास था कि विजय होगी और वह हो के ही रही। साथ ही , चौकन्ना होने की जरूरत भी पड़ी। यह किसान नेताओं का पहला भंडाफोड़ था। अभी न जाने ऐसे कितने ही भंडाफोड़ भविष्य के गर्भ में छिपे थे। (8-8-41)
5
सन 1933 ई. में किसान-सभा के पुनर्जीवन के बाद का समय था और मैं दिन-रात बेचैन था कि कैसे यूनाइटेड पार्टी , उसके छिपे रुस्तम दोस्तों और जमींदारों के नाकों चने चबवाऊँ और उनके द्वारा पेश किए गए काश्तकारी कानून के संशोधन को जहन्नुम पहुँचाऊँ। इसीलिए रात-दिन प्रांत व्यापी दौरे में लगा था। इसी सिलसिले में दरभंगा जिले के मधुबनी इलाके में भी पहुँचा। खास मधुबनी में हाई इंगलिश स्कूल के मैदान में एक सभा का आयोजन था। किसानों की और शहरवालों की भी अपार भीड़ थी। मैंने खूब ही जम के व्याख्यान दिया जिसमें किसानों के गले पर फिरनेवाली महाराजा दरभंगा तथा अन्य जमींदारों की तीखी तलवार का हाल कह सुनाया। देखा कि किसानों का चेहरा खिल उठा , मानो उन्हीं के दिल की बात कोई कह रहा हो।
लेकिन किसानों के नेता बन जाने पर भी अभी मुझे उनकी विपदाओं की असलियत का पता था कहाँ ? मैं तो यों ही सुनी-सुनाई बातों पर ही जमीन और आसमान एक कर रहा था। बात दरअसल यह है कि किसानों और मजदूरों का नेता इतना जल्द कोई बन नहीं सकता। जिसे उनके लिए सचमुच लड़ना और संघर्ष करना है उसे तो सबसे पहले उनमें घूम-घूम के उन्हीं की जबानी उनके दुःख-दर्दों की कहानी सुनना चाहिए। यह बड़ी चीज है जरा चाव से उनकी दास्तान सुनिए और देखिए कि आप उनके दिलों में घुस जाते हैं या नहीं , उनके साथ आपका गहरा नाता फौरन जुट जाता है या नहीं यही इसका रहस्य है।
हाँ , तो मेरे आश्चर्य का ठिकाना न रहा जब किसानों के मध्य से ही एक चंदन टीकावाले ने उठ के सभा के बाद ही अपनी राम कहानी सुनाई-अपनी यानी किसानों की। तब तक मोटा-मोटी समझा जाता था कि ज्यादातर मजलूम किसान तथाकथित पिछड़ी जातियों के ही होते हैं। कम-से-कम यह खयाल तो था ही कि मैथिल ब्राह्मणों का एकच्छत्र नेता माने जानेवाला महाराजा दरभंगा उन ब्राह्मण किसानों के साथ रिआयत तो करता ही होगा-दूसरे किसानों को हाँकने के लिए बनी लाठी से उन्हें भी हाँकता न होगा। नहीं तो सभी मैथिल उसे नेता क्यों मानते ? क्या अपने शोषक और शत्रु को कोई अपना मुखिया मानता है ?
मगर उस किसान ने कहा कि मैं मैथिल ब्राह्मण हूँ और महाराजा का सताया हूँ मेरे गाँव या देहात में या यों कहिए कि इस मधुबनी के इलाके में बरसात के दिनों में हमारे नाकों दम हो जाती है , हम अशरण हो जाते हैं। यही हालत महाराजा की सारी जमींदारी की है। हमारे यहाँ पानी बहुत बरसता है , नदी-नाले भी बहुत हैं। फलतः सैलाब (बाढ़) का पदार्पण रह-रह के होता रहता है जिससे हमारी फसलें तो चौपट होती ही हैं , हमारे झोंपड़े और मकान भी डूब जाते हैं , पानी के करते गिर जाते हैं। पानी रोकने के लिए जगह-जगह बाँध बने हैं। यदि वे फौरन जगह-जगह काट दिए जाएँ तो चटपट पानी निकल जाए और हम , हमारे घर , हमारे पशु , हमारी खेती सभी बच जाएँ। मगर हम ऐसा नहीं कर सकते। महाराजा की सख्त मनाही है।
मैंने पूछा , क्यों ? उसने उत्तर दिया कि यदि पानी बह जाए तो मछलियाँ कैसे पैदा होंगी ? वह जमा हो तो पैदा हों। जितना ही ज्यादा दूर तक पानी रहेगा , सो भी देर तक जमा रहेगा , उतनी ही अधिक मछलियाँ होंगी और उतनी ही ज्यादा आमदनी महाराजा को जल-कर से होगी। सिंघाड़े वगैरह से भी आय होगी ही। यह जल-कर उनका कानूनी हक है यदि हम लोग न मानें और जान बचाने के लिए पाटी काट दें तो हम पर आफत आ जाए। हम सैकड़ों तरह के मुकदमों में फँसा के तबाह कर दिए जाए। उनके अमलों और नौकरों की गालियों की तो कुछ कहिए मत। उनकी लाल आँखें तो मानो हमें खाई जाएँगी।
उसने और भी कहा कि जब यहाँ सर्वे सेट्लमेंट हुआ तो हम किसानों को कुछ ज्ञान था नहीं। हम उसका ठीक-ठीक मतलब समझ सकते न थे। बस , हमारी नादानी से फायदा उठा के अपने पैसे और प्रभाव के बल पर महाराजा ने सर्वे के कागजों में यह दर्ज करवा दिया कि जमीनों पर तो किसानों का रैयती हक है। मगर उनमें लगे पेड़ों में जमींदार का हक आधा या नौ आने और हमारा बाकी। नतीजा यह होता है कि अपने ही बाप-दादों के लगाए पेड़ों से न तो एक दतवन और न एक पत्ता तोड़ने का हमें कानूनी हक है। यदि कानून की चले तो हर दतवन और हर पत्ते के तोड़ने की जब-जब जरूरत हो तब-तब हमें उनसे मंजूरी लेनी होगी , जो आसान नहीं। इसमें उनके नौकरों को घूस देने और उनकी पूजा-प्रतिष्ठा करने की बड़ी गुंजाइश है। इसीलिए जब तक वे खुश हैं तब तक तो ठीक। मगर ज्योंही किसी भी वजह से वे जरा भी नाखुश हुए कि हम पर मुकदमों की झड़ लग गई और हम उजड़े। नहीं तो काफी रुपए-पैसे दे के सुलह करने को विवश हुए। मगर इस तरह भी हमारी जमीनें बिक जाती हैं। क्योंकि हमारे पास पैसे कहाँ ? पीछे चल के तो हमें इस बात के हजारों प्रत्यक्ष उदाहरण मिले जिनमें किसान-सभा के कार्यकर्ता इसी कारण परेशान किएगए कि उनने क्यों महाराजा की जमींदारी में सभा करने की हिम्मत की।
उसने यह भी कहा , और पीछे तो दरभंगा , पूर्णिया , भागलपुर के किसानों ने खून के आँसुओं से यही बात बताई , कि चाहे हमारे घर में पड़े मुर्दे सड़ जाएँ , मगर उन्हें जलाने के लिए लकड़ी तोड़ने या काटने की इजाजत उन पेड़ों से नहीं है जो सर्वे के समय थे। यही नहीं। सर्वे के वक्त के पेड़ चाहे कभी के खत्म क्यों न हों और उनकी जगह नए ही क्यों न लगे हों। फिर भी हम उन्हें काट नहीं सकते बिना महाराजा के हुक्म के। क्योंकि इसका सबूत क्या है कि पुराने पेड़ खत्म हो गए और नए लगे हैं। इसका हिसाब तो सरकार या जमींदार के घर लिखा जाता नहीं और किसानों की बातें कौन माने ? वे तो झूठे ठहरे ही। ईमानदारी और सच्चाई तो रुपयों के पास कैद है न ? इसीलिए आज कानून के सुधार होने पर भी , जब कि किसानों को अपने लगाए पेड़ों में पूरा हक प्राप्त है , यह दुर्दशा बनी ही रहती है। क्योंकि पुराने पेड़ों में तो बात ज्यों-की-त्यों है।
इस प्रकार एक दर्दनाक नजारा एकाएक हमारी आँखों के सामने खड़ा हो गया और हम ठक्क से रह गए। सोचा कि धर्म-कर्म और जाति-पाँति की ठेकेदारी लेनेवाले ये जमींदार और राजे-महाराजे , क्योंकि महाराजा दरभंगा भारत धर्म महामंडल के सभापति थे , इन अपने अन्नदाता मनुष्यों को मछलियों से भी गए-बीते मानते हैं। उफ , कितना अनर्थ है और यह कानून है या धोखे की टट्टी या गरीबों के पीसने की मशीन जाति-सभा और धर्म मंडलों का रहस्य खुल गया और हमने पहले-पहल उनका नग्न रूप देखा। हमने माना कि जमींदारों और मालदारों का धर्म और भगवान और कोई नहीं है , सिवाय रुपए और शान के। हमें यह भी पता चल गया कि उनकी बाहरी जाति और धर्म केवल दिखावटी चीजें हैं ताकि लोग आसानी से ठगे जाएँ। मगर असली जाति और धर्म कुछ और ही चीजें हैं। हमें यह भी विश्वास हो गया कि किसान-किसान सब एक हैं , जमींदार सबों को एक ही लाठी से हाँकता है , यों कहने के लिए ये ऊँच-नीच जाति के भले ही हों। इसी में उनके उद्धार की आशा की झलक भी हमें साफ मालूम पड़ी।
(6)
उन्हीं दिनों मधुबनी के निकट ही उससे पच्छिम मच्छी नामक मौजे में एक बार मीटिंग की तैयारी हुई। खूबी तो यह कि दूसरे जिलों के भी कुछ प्रमुख कार्यकर्ता और किसान-सभा के पदाधिकारी निमंत्रित किएगए थे। हमें सार्वजनिक मीटिंग के अलावे किसान-सभा की स्वतंत्र मीटिंग भी करनी और कई महत्त्वपूर्ण बातों पर विचार करना था। उस मौजे में बा. चतुरानन दास रहते थे। अभी दो ही तीन साल हुए कि वे मरे हैं। दरभंगा जिले और मधुबनी इलाके के वे एक बड़े नेता तथा कांग्रेस-कर्मी माने जाते थे। स्वराज्य की लड़ाई के योद्धाओं में उनकी गिनती थी ─ उस स्वराज्य के योद्धाओं में जिसे गाँधी जी ने दरिद्रनारायण का स्वराज्य कहा था और जिसकी दुहाई कांग्रेस के सभी बड़े लीडर देते थे , अब भी देते हैं। हमें भी इस बात की खुशी थी कि ऐसे बड़े किसान-सेवक के यहाँ सभा करनी है। हमें यकीन था कि हमें वहाँ पूरी सफलता मिलेगी।
हम लोग मधुबनी से लद-फँद के वहाँ जा धमके। हमारे कुछ साथी तो चतुरानन बाबू के यहाँ ठहरे भी थे। मगर हम तो मधुबनी में ही खा-पी के ठेठ सभा स्थान में पहुँचे थे। हमारे साथ कुछ और भी किसान-सेवक थे। मगर वहाँ जाते ही हमें मालूम हुआ कि मामला बेढब है लक्षणों से झलक रहा था कि हमारी मीटिंग में महाराजा दरभंगा की ओर से बाधा डाली जाएगी। धीरे-धीरे यहाँ तक पता लग गया कि उनके आदमियों ने तय कर लिया है कि चाहे जैसे हो मीटिंग होने न दी जाए। हम घबराए सही। मगर आखिर मीटिंग तो करनी ही थी। यदि वहाँ से बिना मीटिंग के ही हट जाते तो उन्हें हिम्मत जो हो जाती। फिर तो बिहार प्रांत के सभी जमींदारों के हौसले बढ़ जाते और हमारा काम ही खत्म हो जाता। इसीलिए हम अपने साथियों के साथ सभा स्थान में डँटे रहे। इस बात की इंतजार भी हम कर रहे थे कि किसान आ जाएँ तो मीटिंग हो। बा. चतुरानन दास भी न आए थे। उनकी भी प्रतीक्षा थी।
मगर हमें पता लगा कि जमींदार ने पूरी बंदिश की है कि कोई भी मीटिंग में न आए। चारों ओर धमकी के सिवाय तरह-तरह की झूठी अफवाहें फैलाई गई हैं कि सभा में गोली चलेगी , मार-पीट होगी , गिरफ्तारी होगी। यह भी कहा गया है कि जानेवालों का नाम दर्ज कर लिया जाएगा और पीछे उनकी खबर ली जाएगी। इसके सिवाय सभा स्थान के चारों ओर कुछ दूर से ही पिकेटिंग हो रही है कि कोई आए तो लौटा दिया जाए। रास्ते में और जगह-जगह पर उनके दलाल बैठे हुए हैं जो लोगों को रोक रहे हैं। सारांश , मीटिंग रोकने का एक भी उपाय छोड़ा नहीं गया है।
हम इन सब बातों के लिए तो तैयार थे ही ; आखिर जमींदारों के न सिर्फ स्वार्थ का सवाल था , बल्कि उनकी शान भी मिट्टी में मिल रही थी। आइंदा उनकी हस्ती भी खतरे में थी ऐसा सोचा जा रहा था। मगर सबसे बड़ी बात यह थी कि हिंदुस्थान में सबसे बड़े जमींदार महाराजा दरभंगा की ही जमींदारी में हम जा डटे थे। महाराजा लाठी मारे काले नाग की तरह फू-फू कर रहे थे। उनकी नाक जो कट रही थी। वे डर रहे थे कि मजलूम इलाका सभा में ऐसा टूट पड़ेगा , जैसा कि पहले की मीटिंगों में उनने देखा था। नतीजा यह होगा कि दुखिया किसानों की आँखें खुल जाएँगी। इसलिए अगर जान पर खेल के उनके नौकर-चाकरों और टुकड़खोरों ने हमारी मीटिंग रोकना चाहा तो इसमें आश्चर्य की बात क्या थी ? ( 9-8-41)
उन लोगों ने यह किया सो तो किया ही। मगर खास चतुरानन जी के मकान पर भी चढ़ गए और उन्हें तरह-तरह से धमकाया। आखिर वह भी तो महाराजा की ही जमींदारी में बसते थे। उनके घर घेरा डाले वे सब पड़े रहे। नतीजा यह हुआ कि चतुरानन जी मीटिंग का प्रबंध और उसकी सफलता की कोशिश तो क्या करेंगे , खुद मीटिंग में आने की हिम्मत न कर सकते थे। इस प्रकार ज्यादा देर होने पर हम घबराए। जब बार-बार खबर भेजी तो बड़ी मुश्किल से आए। मगर चेहरा फक्क था। सारी आई-बाई हजम थी। जब नेताओं की यह हालत थी तो किसानों का क्या कहना ? बड़ी दिक्कत से कुछी लोग आ सके थे।
मगर जमींदार के दलाल और गुंडे हमारी मीटिंग में भी आ गए और शोरगुल मचाना शुरू कर दिया। कभी ' महाराजा बहादुर की जय ' चिल्लाते , तो कभी मुँह बनाते थे। उनकी खुशकिस्मती से हमारी इस मीटिंग के आठ-दस साल पूर्व उस इलाके में और बीहपुर (भागलपुर) में भी तथा और भी एकाध जगह एक हजरत किसान लीडर बन के किसानों को धोखा दे चुके थे। उनका नाम था असल में मुंशी घरभरनप्रसाद। वे निवासी थे सारन जिले के। मगर अपने को प्रसिद्ध किया था उनने स्वामी विद्यानंद के नाम से। उनने एक तो किसानों को धोखा दे के कौंसिल चुनाव में वोट लिया था। दूसरे उनसे पैसे भी खूब ठगे थे। पीछे तो जमींदारों से भी जगह-जगह उनने काफी रुपए ले के अपना प्रेस मुजफ्फरपुर में चला लिया। फिर लापता हो गए। पीछे सुना , बंबई चले गए। एक बार जब पटना शहर (गुलाब बाग) की सभा में उनका दर्शन अकस्मात मिला था तो सिर पर गुजरातियों की ऊँची टोपी नजर आई थी।
हाँ , तो महाराजा के आदमियों ने चारों ओर और उस मीटिंग में भी हल्ला किया कि एक स्वामी पहले आए तो हमें महाराजा से लड़ाके खुद उनने रुपए ले किए। अब ये दूसरे स्वामी वैसे ही आए हैं। यह भी हमारी लड़ाई महाराजा से कराके अपना उल्लू सीधा करेंगे और पीछे हम पिस जाएँगे आदि-आदि। मुझसे भी वे लोग कुछ इसी तरह के सवाल करते थे। कहते थे कि हम किसान-सभा नहीं चाहते। आप जाइए , हमें यों ही रहने दीजिए। मीटिंग में जितने श्रोता होंगे उतने ये गुलगपाड़ा मचाने वाले थे। जब हम बोलने उठते तो वे बहुत ज्यादा शोर मचाते। यह पहला नजारा था जो हमें देखने को मिला। मगर हम भी तो वैसे ही हठी निकले। वहाँ से भागने के बजाय जैसे-तैसे मीटिंग कर के ही हटना हमने तय किया और यही किया भी। आखिर वे कब तक बोलते रहते ?
इस प्रकार हमने सभा तो कर ली। लेकिन हमें बड़ा कटु अनुभव उन नेताओं के बारे में हुआ जो दिल से किसानों के लिए काम न करते हों , जो उन्हीं के लिए मरने-जीनेवाले न हों। ऐसे लोग मौके पर टिक नहीं सकते और फिसल जाते हैं। इस बात का ताजा नमूना हमें मच्छी में मिल गया। यह ठीक है कि इस मीटिंग के बाद हमने बाबू चतुरानन दास की आशा छोड़ दी। ऐसे लोग तो बीच में ही नाव को डुबा देते हैं। यह भी ठीक है कि जमींदार के आदमी भी दंग रह गए हमारी मुस्तैदी देख के। उनके भी जोश में कुछ ठंडक आई। हालाँकि उसके बाद मधुबनी इलाके की एक मीटिंग में और भी उनकी कोशिश हुई कि वह न हो सके। मगर पहली बात न रही। बहेरा , मधेपुर के इलाकों में भी कई मीटिंगों में उन लोगों ने बाधाएँ डालीं। मगर हम तो आगे बढ़ते ही गए और वे दबते गए। यह सही है कि मच्छी जैसी हालत हमारी मीटिंगों की और कहीं न हुई। (10-8-41)
7
सन 1939 ई. की बरसात थी। दरभंगा जिले के मधुबनी इलाके में ही सकरी स्टेशन से दो मील के फासले पर सागरपुर मौजे में किसानों का संघर्ष जारी था। दरभंगा महाराज की ही जमींदारी है। सागरपुर के पास में ही पंडौल में उनका ऑफिस है। वहीं पर हजारों बीघे में ट्रैक्टर की सहायता से उनकी खेती भी होती है। वहाँ चीनी की कई मिले हैं जिनमें महाराजा का भी बड़ा शेयर कुछेक में है। सकरी में ही एक मिल है। इसलिए हजारों बीघे में ऊख की खेती करने से जमींदार को खूब ही लाभ होता है। दूसरी चीजों की भी खेती होती है। इसीलिए जमींदार की इच्छा होती है कि अच्छी-अच्छी जमीनें किसानों के हाथों से निकल जाएँ तो ठीक। लगान दे सकना तो हमेशा मुमकिन नहीं होता। इसीलिए जमीनें नीलाम होई जाती हैं। मगर पहले जमींदार लोग खुद खेती में चसके न थे। इसीलिए घुमा-फिरा के जमीनें फिर किसानों को ही दी जाती थीं। हाँ , चालाकी यह की जाती थी कि जो लगान गल्ले के रूप में या नगद उनसे इन जमीनों की ली जाए उसकी साफ-साफ रसीदें उन्हें न दी जा कर गोल-मोल ही दी जाएँ , ताकि मौके पर जमीनों पर किसान दावा करने पर भी सबूत पेश न कर सकें कि वही जोतते हैं। कारण , सबूत होने पर कानून के अनुसार उन पर उनका कायमी रैयती हक ( occupancy right) हो जाता है। यही बात सागरपुर की जमीनों के बारे में भी थी।
वहाँ की बकाश्त जमीनों को जोतते तो थे किसान ही। इसीलिए उन पर उनका दावा स्वाभाविक था। कोई भी आदमी जरा सी भी अक्ल रखने पर बता सकता था कि बात यही थी भी। गाँव के तीन तरफ करीब-करीब ओलती के पास तक की जमीनें नीलाम हुई बताई जाती थीं। किसानों के बाहर निकलने का भी रास्ता न था। यदि ज़मीनें उनकी न होतीं तो ओलती कहाँ गिरती ? जमींदार अपनी जमीन में ऐसा होने देता थोड़े ही। उनके पशु मवेशी भी आखिर कहाँ जाते ? क्या खाते थे। जो ग्वाले लोग पास के टोले में बसे थे उनकी तो झोंपड़ियाँ उन्हीं जमीनों में थीं। भला इससे बड़ा सबूत और क्या चाहिए ?
एक बात और थी। महाराजा की खेती ट्रैक्टर से होती है और उसके लिए बड़े-बड़े खेत चाहिए। छोटे-छोटे खेतों में उसका चलना असंभव है। मगर कोई भी देखनेवाला बता सकता था कि अभी तक छोटे-छोटे खेत साफ नजर आ रहे थे। खेतों के बीच की सीमाएँ (मेंड़ें) साफ-साफ नजर आती थीं। बेशक , उन सीमाओं के मिटाने की कोशिश जमींदार ने जबर्दस्ती की थी और सभी खेतों पर ट्रैक्टर चलवा के उन्हें एक करना चाहा था। मगर हमने खुद जाके देखा कि खेत अलग-अलग साफ ही नजर आ रहे थे। असल में एकाध बार के जोतने से ही वे सीमाएँ मिट सकती नहीं हैं। कम-से-कम दस-पाँच बार जोतिए तो मिटेंगी। मगर यहाँ तो कहने के लिए एक बार ट्रैक्टर घुमा दिया गया था। फिर भी इतने से आँख में धूल झोंकी जा सकती न थी।
हाँ , तो सागरपुर में बकाश्त संघर्ष के इस सिलसिले में मुझे दो बार जाना पड़ा था। दोनों बार ऐसी जबर्दस्त मीटिंगें हुईं कि जमींदार के दाँत खट्टे हो गए। एक बार तो भरी सभा में ही जमींदार के आदमी कुछ गड़बड़ी करना चाहते थे। उनने कुछ गुल-गपाड़ा करने या सवाल-जवाब करने की कोशिश की भी। हिम्मत तो भला देखिए कि दस-बीस हजार किसानों के बीच में खड़े होकर कुछ आदमी शोरगुल करें। जोश इतना था कि किसान उन्हें चटनी बना डालते। मगर इसमें तो हमारी ही हानि थी। शत्रु लोग तो मार-पीट चाहते ही थे। उससे उनने दो लाभ सोचा था। एक तो मीटिंग खत्म हो जाती। दूसरे झूठ-सच मुकद्दमों में फँसा के सभी प्रमुख लोगों को परेशान करते। इसलिए हमने यह बात होने न दी और किसानों को शांत रखा। अंत में हार के वे लोग चलते बने जब समूह का रुख बुरा देखा। मीटिंग में मौजूद पुलिस तथा दूसरे सरकारी अफष्सरों से भी हमने कहा कि आखिर दस-बीस ही लोग ऊधम करें और आप लोग चुप्प रहें यह क्या बात है ? इस पर उन लोगों ने भी उन्हें डाँटा। अब वे लोग करते क्या ? मजबूर थे।
मगर दूसरी बार तो उन लोगों ने दूसरा ही रास्ता अख्तियार किया। इस बार पहले ही से सजग थे। ज्योंही हम स्टेशन से उतरे और हमारी सवारी आगे बढ़ी कि एक बड़ा सा दल टुकड़खोरों का बाहर आया। सकरी में ही पुलिस का एक दल पड़ा था। बकाश्त की लड़ाई में धर-पकड़ करने के लिए उसकी तैनाती थी। हम जब सकरी से बाहर डाक बँगले से आगे बढ़े कि शोरगुल मचानेवाले बाहर आ गए। जानें क्या-क्या बकने लगे। ' महाराजा बहादुर की जय ', ' किसान-सभा की क्षय ', ' स्वामी जी लौट जाइए , हम आपके धोखे में न पड़ेंगे ', ' झगड़ा लगानेवालों से सावधान ' आदि पुकारें वे लोग मचाते थे। मजा तो तब आया जब हम आगे बढ़े और हमारे पीछे वे लोग दौड़ते जाते और चिल्लाते भी रहते। अजीब सभा थी। वह तमाशा देखने ही लायक था। वैसी बात हमें और कहीं देखने को न मिली। उनने लगातार हमारा पीछा किया। यहाँ तक कि गाँव के किनारे तक आ गए। मगर जब हम गाँव के भीतर चले तो वे लोग दूसरी ओर मुड़ गए। पता चला कि पास में ही जो महाराजा की कचहरी है वहीं चले गए इस बात का प्रमाण देने कि उनने खूब ही पीछा किया , गाँव तक न छोड़ा। इसलिए उन्हें पूरा मिहनताना मिल जाना चाहिए। जमींदार की खैरखाही जो जरूरी थी ही। हमने यह भी देखा कि कुत्तों की तरह भौंकने और हमारा पीछा करनेवालों में टीका-चंदनधारी ब्राह्मण काफी थे।
हमें हँसी आती थी और उनकी इस नादानी पर तरस भी होता था। मधुबनीवाले उस ब्राह्मण किसान के शब्द हमारे कानों में रह-रह के गूँजते थे। हम सोचते कि आखिर यह भी उसी तरह के गरीब और मजलूम हैं। मगर फर्क यही है कि चाहे उसकी जमीन वगैरह भले ही बिकी हो , मगर आत्मा और इज्जत न बिकी थी। उसने अपना आत्मसम्मान बचा रखा था। मगर इनने तो अपना सब कुछ जमींदार के टुकड़ों पर ही बेच दिया है। इसीलिए जहाँ इनसे कोई आशा नहीं , तहाँ उससे और उसके जैसों से हमें किसानों के उद्धार की आशा है।
हम यह कहना भूली गए कि सागरपुर में उस समय दरभंगा जिला-किसान कॉन्फ्रेंस थी। इसलिए किसानों के सिवाय जिले भर के कार्यकर्ताओं का भी काफी जमाव था। प्रस्ताव तो अनेक पास हुए। स्पीचें भी गर्मागर्म हुईं। यों तो मैं खुद काफी गर्म माना जाता हूँ और मेरी स्पीचें बहुत ही सख्त समझी जाती हैं। मगर जब वहाँ मैंने दो-एक जवाबदेह किसान-सभावादियों की तकरीरें सुनीं तो दंग रह गया। मालूम होता था , उनके हाथ में सभी किसान और सारी शक्तियाँ मौजूद हैं। फलतः वे जोई चाहेंगे कर डालेंगे। इसीलिए महाराजा दरभंगा को रह-रहके ललकारते जाते थे। मानो वह कच्चे धागे हों कि एक झकोरे में ही खत्म हो जाएँगे। दस-बारह साल तक काम कर चुकने के बाद जब कि किसान आंदोलन किसान संघर्ष में जुटा हो , ठीक उसी समय ऐसी गैरजवाबदेही की बातें सुनने को मैं तैयार न था। फलतः अपने भाषण में मैंने इसके लिए फटकार सुना दी और साफ कह दिया कि दरभंगा महाराज ऐसे कमजोर नहीं हैं जैसा आपने समझ लिया है।
मेरे इस कथन पर जब जमींदारों के अखबार ' इंडियन नेशन ' में टीका-टिप्पणी निकली तो मुझे और भी हैरत हुई और हँसी आई , लिखा गया कि स्वामी जी डर गए हैं। सच्ची बात तो यह है कि जमींदार इतने नादान हैं कि मेरी बात का मतलब न समझ सकेंगे , इसके लिए मैं तैयार न था। किस आधार पर मुझे डरा हुआ माना गया मैं आज तक समझ न सका।
(8)
सन 1936 ई. की गर्मियों की बात थी। लखनऊ कांग्रेस से लौटकर मैं मुंगेर जिले के सिमरी बखतियारपुर में मीटिंग करने गया। उसके पहले एक बार भूकंप के बाद वहाँ गया था। सैलाब बड़े जोरों का था। वहाँ तो बाढ़ आती है कोशी की कृपा से और यह नदी ऐसी भयंकर है कि जून में ही तूफान मचाती है। उसने उस इलाके को उजाड़ बना दिया है। पहली यात्रा में बाढ़ का प्रकोप और लोगों की भयंकर दरिद्रता देख के मैं दंग था। मेरा दिल रोया। मेरे कलेजे में वह बात धँस गई। वहाँ के लोगों और कार्यकर्ताओं से जो कुछ मैंने सुना उससे तय कर लिया कि दूसरी बार इस इलाके में घूमना होगा। तभी अपनी आँखों असली हालत देख सकूँगा।
इसीलिए बरसात आने के बहुत पहले सन 1936 ई. की मई में ही , जहाँ तक याद है , मैं वहाँ गया। इस बार खास बखतियारपुर के अलावे धेनुपुरा , केबरा आदि में भी मीटिंगों का प्रबंध था। मगर आसानी से उन जगहों में पहुँच न सकते थे। कड़ाके की गर्मी पड़ रही थी और सभी जगह पानी की पुकार थी। मगर उस इलाके में बिना नाव के घूमना असंभव था। कोसी माई की कृपा से सारी जमीनें पानी के भीतर चली गई हैं। जिधर देखिए उधर ही सिर्फ जल नजर आता था। समुद्र में बने टापुओं की ही तरह गाँव नजर आते थे। गाँव के किनारे थोड़ी-बहुत जमीन नजर आती थी , जहाँ थोड़ी सी खेती हो सकती थी। बाकी तो निरा जल ही था। लोग मछलियों और जल-जंतुओं को खा के ही ज्यादातर गुजर करते हैं। अन्न तो उन्हें नाममात्र को ही कभी-कभी मिल जाता है , सो भी केवल कदन्न , जिसे जमींदारों के कुत्ते सूँघना भी पसंद न करेंगे , खाना तो दूर रहा। उस इलाके में कुछी दूर बैलगाड़ी पर चल के बाकी सर्वत्र केवल नाव पर या पैदल ही यात्रा करनी पड़ी जहाँ पानी न था वहाँ घुटने तक कीचड़ होने के कारण बैलगाड़ी का चलना भी तो असंभव था।
हाँ , यह कहना तो भूली गए कि उस इलाके के सबसे बड़े और चलते-पुर्जे जमींदार हैं बखतियारपुर के चौधरी साहब। उनका पूरा नाम है चौधरी मुहम्मद नजीरुलहसन मुतवली। वहाँ एक दरगाह है बहुत ही प्रसिद्ध और उसी के मुताल्लिक एक खासी जमींदारी है जिसकी आमदनी कुल मिला के उस समय सत्तर अस्सी हजार बताई जाती थी। चौधरी साहब उसी के मुतवली या अधिकारी हैं। इस प्रकार मुसलमानों की धार्मिक संपत्ति के ही वह मालिक हैं और उसी का उपभोग करते हैं। बड़े ठाटबाट वाले शानदार महल बने हैं। हाथी , घोड़े , मोटर वगैरह सभी सवारियाँ हैं। शिकार खेलने में आप बड़े ही कामिल हैं , यहाँ तक कि गरीब किसानों की इज्जत जान और माल का भी शिकार खेलने में उन्हें जरा भी हिचक नहीं , बशर्त्ते कि उसका मौका मिले। और जालिम जमींदारों को तो ऐसे मौके मिलते ही रहते हैं। उन जैसे जालिम जमींदार मैंने बहुत ही कम पाए हैं , यों तो बिना जुल्म ज्यादती के जमींदारी टिकी नहीं सकती। मेरी तो धारणा है कि किसानों और किसान-हितैषियों को , किसान-सेवकों को मिट्टी के बने जमींदार के पुतले से भी सजग रहना चाहिए। वह भी कम खतरनाक नहीं होता। और नहीं , तो यदि कहीं देह पर गिर जाए तो हाथ-पाँव तोड़ ही देगा।
चौधरी की जमींदारी में मैं बहुत घूमा हूँ। किसानों के झोंपड़े-झोंपड़े में जाके मैंने उनकी विपदा आँखों देखी है और एकांत में उनके भीषण दुख-दर्द की कहानियाँ सुनी हैं। दिल दहलाने वाली घटनाओं को सुनते-सुनते मेरा खून खौल उठा है। जमींदार ने किसानों को दबाने के लिए सैकड़ों तरीके निकाल रखे हैं। कूटनीति के तो वे हजरत गोया अवतार ही ठहरे। भेदनीति से खूब ही काम लेते हैं। सैकड़ों क्या हजारों तो उनके दलाल हैं जो खुफिया का भी काम करते हैं। किसान उनके मारे तो हईं। वे चुपके से क्या बातें करते हैं इसका भी पता बराबर लगाया जाता है। हमारे पीछे भी उनके गुप्तचर काफी लगे थे। इसलिए हमें सतर्क होके बहुत ही एकांत में बातें करने और उनकी हालत जानने की जरूरत हुई। फिर भी गरीब और मजलूम किसान इतने भयभीत थे कि गोया हवा से भी डरते थे। किसी में भी हिम्मत रही नहीं गई है। जरा भी शिकायत की कि न जाने कौन सी भारी बला कब सिर पर आ धमकेगी और चौधरी की जाल में फँस के मरना होगा , सो भी घुल घुल के।
जिन किसानों के झोंपड़े भी उजड़े हैं और जिनसे वृष्टि तथा धूप छन-छन के भीतर आती है , जिनके तन पर वस्त्र तक नदारद , जिनने अपनी लज्जा बचाने का काम हजार टुकड़ों से बने चिथड़ों से ले रखा है , जिन्हें अन्न शायद ही छठे-छमास मयस्सर होता हो प्रायः उन्हीं से साल में पूरे अस्सी हजार रुपए की वसूली मामूली बात नहीं है। बालू से तेल और पत्थर से दूध निकालना भी इसकी अपेक्षा आसान बात है। किन-किन उपायों और तरीकों से ये रुपए वसूल होते हैं यदि इसका ब्योरा लिखा जाय तो पोथा तैयार हो जाएगा। इसलिए नमूने के तौर पर ही कुछ बातें लिखी जाती हैं।
उसी इलाके में मुझे पहले-पहल पता चला कि पहले चौधरी की जमींदारी में चार चीजों की ' मोनोपली ' (monopaly) थी। यानी चार चीजों पर उनका सर्वाधिकार था और उनकी मर्जी के खिलाफ ये चीजें बिक न सकती थीं। नमक , किरासन तेल , नया चमड़ा और सुँगठी मछली यही हैं वे चार चीजें। इनमें सिर्फ नमक की मोनोपली मेरे जाने के समय उठ चुकी थी। बाकी तीन तो थीं ही , जो मेरे आंदोलन के करते खत्म हुईं। अपनी लंबी जमींदारी के भीतर उनने सबों को यह कह रखा था कि बिना उनकी मर्जी के कोई आदमी नमक , किरासन इन दो चीजों की बिक्री कर नहीं सकता। फलतः किसी को हिम्मत न थी। और जमींदार साहब किन्हीं एक-दो मोटे असामियों से दो-चार हजार रुपए ले के उन्हीं को बेचने का हक देते थे। नतीजा यह होता था कि वे ठेकेदार ये दोनों चीजें और जगहों की अपेक्षा महँगी बेचते थे। क्योंकि ठेकेवाला पैसा तो वसूल कर लेते ही थे एकाधिकार होने से दाम और भी चढ़ा देते थे। मैंने पूछा तो पता चला कि जो किरासन तेल और जगह पाँच पैसे में मिलता है वही उस जमींदारी में सात-आठ पैसे में। उफ , यह लूट!
अगर कोई आदमी बाहर से यह तेल लाए तो उसकी सख्त सजा होती और जाने उसे क्या-क्या दंड देने पड़ते थे। इसीलिए तो इस बात का पहरा दिया जाता था कि कोई बाहर से ला न सके। दो-चार को सख्त दण्ड देने पड़े तो उसका भी नतीजा कुछ ऐसा होता है कि दूसरों की भी हिम्मत जाती रहती है। यह गैरकानूनी काम सरेआम चलता था। यह भी नहीं कि पुलिस दूर हो। वहीं थाना भी तो है। फिर भी इस सीनाजोरी का पता चलता न था। चले भी क्यों ? आखिर किसी को गर्ज भी तो हो। किसानों को या गरीबों को गर्ज जरूर थी। मगर उनकी कौन सुने ? धनी लोग तो बाहर से ही टिन मँगा लेते थे। और वहाँ धनी हैं भी तो इने-गिने ही। बनिए वगैरह तो डर के मारे चूँ भी नहीं करते थे। चौधरी के रैयत चाहे धनी हों या गरीब उनकी आज्ञा के विरुद्ध जाते तो कैसे ? मगर सरकार को इस धाँधली का पता क्यों न चला जब तक मैं वहाँ न गया , यह ताज्जुब की बात जरूर है।
नमक की बिक्री पर भी पहले चौधरी का एकाधिकार जरूर था। लेकिन सन 1930 ई. वाले नमक सत्याग्रह के चलते वह जाता रहा। जब लोग सरकार की भी बात सुनने को तैयार न थे और कानून की धज्जियाँ उड़ा रहे थे तो फिर एक जमींदार की परवाह कौन करता ? और अगर कहीं जमींदार साहब इस मामले में टाँग अड़ाते तो उस समय का वायु-मंडल ही ऐसा था कि उन्हें लेने के देने पड़ते। क्योंकि गैरकानूनी हरकत का भंडाफोड़ जो हो जाता। फलतः न सिर्फ नमकवाला उनका एकाधिकार चला जाता , बल्कि किरासन वगैरह के भी मिट जाते। इसीलिए उनने चालाकी की और चुप्पी मार ली। लोग भी नमक की खरीद-बिक्री की स्वतंत्रता से ही संतुष्ट होके आगे न बढ़े। इसीलिए उनकी काली करतूतों का पता बाहरी दुनिया को न चल सका और बाकी चीजों पर उनका एकाधिकार बना ही रह गया।
सुँगठी मछली की भी कुछ ऐसी ही बात है। मैं तो उसके बारे में खुद कुछ जानता नहीं कि वह कैसी चीज है। मगर लोगों ने बताया कि वह कोई उमदा मछली है जिसे खानेवाले बहुत चाव से खाते हैं। इसीलिए बाजार में उसकी बिक्री बहुत होती है। वह तो पानीवाला इलाका है। इसलिए वहाँ मछलियाँ बहुत होती हैं। सुखाकर दूर-दूर जगहों में उनकी चालान भी जाती है। इसीलिए पकड़नेवालों को तो फायदा होता ही है , जमींदार को भी खूब नफा मिलता है। उसकी आमदनी बढ़ती है। मछली वगैरह की आय को ही जल-कर कहते हैं। अब सभी लोग या जोई चाहे वही उन मछलियों को पकड़ नहीं सकता तो खामख्वाह ठीका लेनेवालों में आपस में चढ़ाबढ़ी होगी ही। इसी से जमींदार फायदा उठाता है। और इने-गिने लोगों को ही मछलियों का ठेका देके साल में न जाने कितने हजार रुपए बना लेता है। दूसरी मछलियों की उतनी पूछ न होने से उन पर रोक-टोक नहीं है। फलतः जोई पकड़ेगा वही जल-कर देगा।
जल-कर का भी एक बँधाबँधाया नियम होता है। उस जमींदारी में और उसी प्रकार महाराजा दरभंगा से ले कर दूसरे जमींदारों की जमींदारियों में इस जल-कर के बारे में ऐसा अंधेरखाता है कि कुछ कहिए मत। खासकर कोशी नदी जहाँ-जहाँ बहती है वहीं यह बात ज्यादातर पाई जाती है। वह यह कि जमीन में तो नदी बह रही है और फसल होती ही नहीं। फिर भी लगान तो किसान को देना ही पड़ता है। कानून जो ठहरा। मगर पानी में मछली वगैरह के लिए जल-कर अलग ही देना पड़ता है। एक ही जमीन पर दो टैक्स , दो लगान। जल-कर तो उस जमीन में जमा पानी पर होना चाहिए जिसमें कभी खेती नहीं होती। मगर यहाँ तो उलटी गंगा बहती है। इसीलिए चौधरी अपनी जमींदारी में यही करते हैं।
अब रही आखिरी बात जो नए चमड़े के एकाधिकार की है। बात यों होती है कि देहातों में जब पशु मरते हैं तो आमतौर से मुर्दार मांस खानेवाले लोग उन्हें उठा ले जाते और उनका चमड़ा निकाल के बेच देते हैं। पशुवालों को ज्यादे से ज्यादा एकाध जोड़े जूते दे दिया करते हैं या कहीं-कहीं बँधे-बँधाए दो-चार आने पैसे। यही तरीका सर्वत्र चालू है। बचपन से ही मेरा ऐसा अनुभव है। मगर उत्तरी बिहार के पूर्वी जिलों में कुछ उलटी बात पाई जाती है। चौधरी के सिवाय महाराजा दरभंगा की जमींदारी में पूर्णियाँ आदि में भी मुझे पता चला है कि बड़े जमींदार इन चमड़ों का एक खासतौर का बंदोबस्त करते हैं। जिसे ' चरसा महाल ' कहा जाता है। उससे होनेवाली आमदनी को चरसा महाल की आमदनी कहते हैं। तरीका यह होता है कि पशुओं से चमड़े निकालने के बाद निकालनेवाला चाहे जिसी के हाथ बेच नहीं सकता। किंतु जमींदार को साल में हजारों रुपए दे के इन चमड़ों की खरीद के ठेकेदार हर इलाके में एक , दो , चार मुकर्रर होते हैं और वही ये चमड़े खरीद सकते हैं। अगर दूसरे लोग खरीदें या दूसरों के यहाँ चमड़ेवाले बेच दें तो दंड के भागी बन जाते हैं। इस प्रकार खरीददार लोग रुपए-दो रुपए के चमड़े को भी दोई-चार आने में पा जाते हैं। बेचनेवाले को तो गर्ज होती ही है और दूसरा खरीदार न होने पर गर्ज का बावला जोई मिले उसी दाम पर बेचता है। इस प्रकार हजारों गरीबों को लूट कर चंद ठेकेदार और जमींदार अपनी जेबें गर्म करते हैं। यही तरीका चौधरी की जमींदारी में भी था।
इस चरसा महाल के खिलाफ हमारा आंदोलन सभी जमींदारियों में हुआ। मगर चौधरी की जमींदारी में हमारे तीन-चार दौरे हुए और बहुत ज्यादे मीटिंगें हुईं। वहाँ किरासन तेल और सुँगठी मछलीवाला सवाल भी था। इसलिए वहाँ का आंदोलन बहुत ही जोरदार हुआ। लोग दबे भी थे सबसे ज्यादा। हमने वैसा या उससे भी दबा इलाका बिहार में एक ही और पाया है। वह है महाराजा दरभंगा की ही जमींदारी में दरभंगा जिले के ही पंडरी परगने का इलाका। वह भी इसी प्रकार बारह महीने पानी में डूबा रहता है और प्रायः तथाकथित छोटी जाति के ही लोग वहाँ बसते हैं। इसीलिए चौधरी की जमींदारी की ही तरह हमारे आंदोलन की गति वहाँ भी खूब तेज थी। दो-तीन बार हम खुद गए। नतीजा हुआ कि वहाँ के गरीब भी उठ खड़े हुए। यही हालत बखतियारपुर की जमींदारी में भी हुई और हमें पता लगा कि किरासन तेल आदि सभी चीजों का एकाधिकार खत्म हो गया।
चौधरी की तेजी ऐसी थी कि वह हमारा वहाँ जाना बर्दाश्त कर नहीं सकता था। सभा के लिए कोई जगह हमें न मिले और न ठहरने ही के लिए यह भी उसने किया। कार्यकर्ताओं ने जो आश्रम बनाया था उसे भी तोड़ डालने की भरपूर कोशिश उसने की। मगर इन कोशिशों में वह सदा विफल रहा। हमें भी वहाँ जाने की एक प्रकार की जिद हो गई। एक बार तो सलखुवा गाँव में हमारी मीटिंग होने को थी। मगर उसने कोशिश कर के नाहक हम पर 144 की नोटिस ऐन मौके पर करवा दी। फिर भी मीटिंग तो हुई ही। उसके पेट में हमारे नाम से गोया ऊँट कूदने लगता था। हिंदू-मुसलिम प्रश्न को भी अपने फायदे के लिए उठाता था , मगर मुसलमानों का दबाने के ही समय। वह चाहता था कि हिंदू उनकी मदद न करें। पर हमने हिंदुओं को सजग कर दिया कि ऐसी भूल वे लोग न करें।
(9)
सन 1936 ई. की बरसात के , जहाँ तक याद है , भादों का महीना था। मगर वृष्टि अच्छी नहीं हुई थी और दिन में धूपछाँहीं होती थी ─ बादल के टुकड़े आसमान में पड़े रहते थे। फिर भी धूप ऐसी तेज होती थी कि शरीर का चमड़ा जलने सा लगता था। यों तो बरसात की धूप खुद काफी तेज होती है। मगर भादों में उसकी तेजी और भी बढ़ जाती है। खासकर वर्षा की कमी के समय वह देह को झुलसाने लगती है। ठीक उसी समय सारन (छपरा) जिले के अर्कपुर मौजे में किसानों की एक जबर्दस्त मीटिंग की आयोजना हुई थी। तारीख तो याद नहीं। मगर दैवसंयोग से वह ऐसी पड़ी कि उसी दिन मीटिंग करके रात में सवा दस बजे की ट्रेन पकड़ कर बिहटा के लिए रवाना हो जाना जरूरी था। असल में अगले दिन बिहटा आश्रम में एक सज्जन किसानों के सवाल को लेकर ही आने और बातें करनेवाले थे। यह बात पहले से ही तय थी। खास उनकी ही जमींदारी का सवाल था। जमींदारी तो कोई बड़ी न थी। मगर थे वह सज्जन हमारे पुराने परिचित। डेहरी के नजदीक दरिहट मौजा उनका ही है। वहीं किसानों का आंदोलन तेज हो गया था। उसमें मुझे भी कई बार जाना पड़ा था। किसानों के प्रश्न के सामने परिचित या अपरिचित जमींदार की बात ही मेरे मन में उठ सकती न थी। उन्हें शायद विश्वास रहा हो। इसीलिए उनने दूसरों के द्वारा मुझे उलाहना भी दिया था। पर मुझे उसकी परवाह क्यों होने लगी ? मैं तो अपना काम कर रहा था। ताहम जब उनने उसी के बारे में मेरे पास खुद आ के बातें करनी चाहीं तो मैंने खुशी-खुशी उसकी तारीख तय कर दी।
यह अर्कपुर गाँव बंगालनार्थ वेस्टर्न रेलवे (ओ. टी. रेलवे) के भाटापोखर स्टेशन से 9 मील दक्षिण पड़ता है। बाबू राजेंद्र प्रसाद की जन्मभूमि जीरादेई के पास से ही एक सड़क अर्कपुर चली जाती है। वहाँ जाने के लिए सवेरे की ही ट्रेन से मैं पहुँचा था। मेरे साथ एक आदमी और था। छपरे से श्री लक्ष्मीनारायण सिंह कांग्रेस कर्मी के सिवाय दो और वकील सज्जन थे जिनका घर उसी इलाके में पड़ता है। भाटापोखर स्टेशन से करीब एक मील दक्षिण-पच्छिम बाजार में ही हमारे ठहरने और खाने-पीने का प्रबंध था। हम लोग वहीं गए , स्नान भी किया , भोजन किया और दोपहर के पहले ही अर्कपुर के लिए चल पड़े। हाथी की सवारी थी। मैं तो इसे पसंद नहीं करता। मगर किसानों की सभा ही तो थी। अगर उसमें जाने के लिए सवारी मिली तो यही क्या कम गनीमत की बात थी ? न जाने कितनी सभाओं में मुझे दूर-दूर तक पैदल ही जाना पड़ा है , ताकि मीटिंग ठीक वक्त पर हो ─ उसमें गड़बड़ी न हो। यदि किसी धनी महाशय की मिहरबानी से हाथी ही मिला तो नापसंदी का सवाल ही कहाँ था ? इसलिए सबों के साथ मैं भी उसी पर बैठ के चल पड़ा। मगर रास्ते की धूप ने हमें जला दिया। बड़ी दिक्कत से दोपहर के लगभग अर्कपुर पहुँच सके। मैंने रास्ते में ही तय कर लिया था कि लौटने के समय पैदल ही आऊँगा। सवेरे ही रवाना हो जाऊँगा। रास्ते में तो कोई गड़बड़ी होगी नहीं। वह तो देखा ठहरा ही। लालटेन साथ रहेगी। ताकि अँधेरा हो जाने पर भी दिक्कत न हो। इसीलिए सभी लोग अपना कपड़ा-लत्ता वग़ैरह सामान स्टेशन के पास उसी बाजार में ही रख आए थे , ताकि लौटने में आसानी हो।
सभा तो वहाँ हुई और अच्छी हुई। लोग पीड़ित जो बहुत हैं। सरयूमाई निकट में ही दर्शन देती हैं। बरसात में उनकी बाढ़ से सारा इलाका जलमय होता है , फसल मारी जाती है , घर-बार चौपट हो जाते हैं और किसानों में हाहाकार मच जाता है। फिर भी जमींदार लोग अपनी वसूलियाँ सख्ती के साथ करते ही जाते हैं। मेरे जाने से शायद किसानों को कुछ राहत मिले और उनकी आह बाहरी दुनिया को सुनाई पड़े इसीलिए मैं बुलाया गया था। ऐसी दशा में सभा की सफलता तो होनी ही थी। उसे रोक कौन सकता था ? वहाँ के जमींदार महाराजा दरभंगा या चौधरी बखतियारपुर जैसे शानियल और हिम्मतवर भी न थे कि कोई खास बाधा डालते।
सभा के समय खास जिले के उस इलाके के कई कांग्रेस कर्मी और भी आ गए थे और उन्हीं में थे चैनपुर के एक युवक जमींदार साहब भी , वह थे तो मेरे परिचित। उनके चचा वगैरह से मेरी पुरानी मुलाकात थी। मगर मैं तो चिंहुँका कि यह क्या ? किसानों की सभा में बड़े-बड़े जमींदारों के पदार्पण का क्या अर्थ है ? लोगों ने कहा कि ये तो कांग्रेसी हैं। कांग्रेस में तो सबों की गुंजाइश हुई उसी नाते यहाँ भी आ गए हैं। मैंने बात तो सुन ली। मगर मेरे दिल , दिमाग में किसान-सभा का कांग्रेस से यह नाता कुछ समा न सका। मेरी आँखों के सामने उस समय भारतीय भावी स्वराज्य की एक झलक सी आ गई। मुझे मालूम पड़ा कि इन जमींदारों का भी तो आखिर वही स्वराज्य होगा। इनके लिए वह कोई और तो होगा नहीं। फिर वही स्वराज्य किसानों का भी कैसे होगा यह अजीब बात है। बाघ और बकरी का एक ही स्वराज्य हो तो यह नायाब बात और अघटित घटना होगी। लेकिन मेरे भीतर के इस उथल-पुथल और महाभारत को वे लोग क्या समझें ? फिर मैं अपने काम में लग गया और यह बात तो भूली गया। उस युवक जमींदार के पास एक बहुत अच्छी और नई मोटर भी थी जिस पर चढ़ के वे आए थे।
सभा का काम पूरा होने पर जब हमने दो घंटा दिन रहते ही रवाना होने की बात कही तो वहाँ के कांग्रेसी दोस्त पहले तो अब चलते हैं , तब चलते हैं करते रहे। पीछे उनने कहा कि अभी काफी समय है। जरा ठहर के चलेंगे। असल में वे लोग पैदल नौ मील चलने को तैयार न थे। ठीक ही था। मेरी और उनकी किसान-सभा एक तो थी नहीं। उन्हें तो स्वराज्य की फिक्र ज्यादा थी ─ गोल-मोल स्वराज्य की , जिसमें किसानों का स्थान क्या होगा इस बात का अब तक पता ही नहीं। उसी स्वराज्य की लड़ाई में किसानों को साथ लेने के ही लिए वे लोग आए थे। साथ ही , उन लोगों का स्वराज्य तो फौरन ही असेंबली , डिस्ट्रिक्ट बोर्ड आदि की मेंबरी वगैरह के रूप में आनेवाला था जिसमें किसानों की मदद निहायत जरूरी थी। उसके बिना उन्हें यह स्वराज्य मिल सकता था नहीं। यही तो ठोस बात थी जिसे वे लोग खूब समझते थे। मोटरवाले बाबू साहब की भी कांग्रेस भक्ति का पता मुझे पूरा-पूरा तब लगा जब मैंने उन्हें डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के लिए कांग्रेसी उम्मीदवार एक मुसलमान सज्जन के खिलाफ महावीरी झंडावाली मोटर में बैठ के बुरी तरह परेशान देखा!
अंत में जब ज्यादा देर हो गई और मैं घबराया तो उन लोगों ने कहा कि बाबू साहब की मोटर हमने मँगनी कर ली है , आपको उसी से पहुँचा देंगे। इस पर मैं चौंक के बोला कि मैं एक जमींदार की मोटर में चलूँ और फिर भी किसान-सभा करनेवाला बनूँ ? यह नहीं होने का। इस पर वे लोग थोड़ी देर चुप रहे। मैं भी परेशान था। आखिर इंतजाम उन्हें ही करना था। अब देर भी हो चुकी थी। लालटेन बिना चलना गैरमुमकिन था और मेरे पास खुद लालटेन थी नहीं। नहीं तो भाग निकलता। जब फिर मैंने सवाल उठाया तो उनने वही मोटरवाली बात पुनरपि उठाई और बोले कि यह तो हमारा इंतजाम है। इसमें आपका क्या है ? आपने तो मोटर माँगी है नहीं। मैंने उन्हें इसका उत्तर दिया सही। मगर वे तो तुले थे और मैं अब लाचार था। कुछ दिन रहते यदि यह बात उठती तो मैं अकेला ही भाग जाता। पर , तब तो शाम हो रही थी। वे लोग भी मेरे स्वभाव से परिचित थे। इसीलिए पहले तो मोटर का सवाल उनने उठाया नहीं , और पीछे जब देखा कि अब मैं अकेला भाग नहीं सकता , तो उस सवाल पर डट गए। मैंने भी अंत में कमजोरी दिखाई और मोटर से ही जाने की बात ठहरी!
रात के आठ बजे हम सबों को लेके मोटर चली। बाबू साहब ही उसे चला रहे थे। मालूम हुआ , नजदीक में ही उनकी ससुराल है। उन्हें वहीं उतार के मोटर हमें स्टेशन ले जाएगी। मोटर में चलने के कारण ही हमने लालटेन साथ में ली ही नहीं। खैर , मोटर उनकी ससुराल में पहुँची। वे उतर गए। ड्राइवर आगे बैठा। उनने ताकीद कर दी कि खूब आराम से ले जाना। रास्ते में गड़बड़ी न हो। बस , वह स्टेशन की ओर चल पड़ी। मगर रास्ता वह न था जिससे हम दिन में आए थे। किंतु सोलहों आने नई सड़क थी। रात के साढ़े आठ बज रहे थे। हमें पता नहीं किधर जा रहे थे। एकाएक कीचड़ में मोटर फँसी। वर्षा के दिन तो थे ही। सड़क भी कच्ची थी। ड्राइवर ने जोर मारा। मगर नतीजा कुछ नहीं। बहुत देर तक मोटर की कुश्ती उस कीचड़ से होती रही। हम घबरा रहे थे। धीरे-धीरे निराशा बढ़ रही थी। हमें शक भी हो रहा था कि ड्राइवर रात में जाना नहीं चाहता है। इसीलिए ईमानदारी से काम नहीं कर रहा है। मगर करते क्या ? बोलते तो बात और भी बिगड़ती। वह इनकार कर देता तो स्टेशन पहुँचना असंभव था। आखिर जब घड़ी में हमने साढ़े आठ देखा तो मोटर से निराश हो के पैदल चलने की सोचने लगे।
परंतु एक तो भादों की अँधेरी रात , दूसरे रास्ता बिलकुल ही अनजान , तीसरे साथ में लालटेन भी नहीं! मोटर के खयाल से हमने लालटेन की जरूरत न समझी और अब '' चौबे गए छब्बे बनने , दूबे बन के लौटे '' वाली बात हो गई! फिर भी मुझे तो चाहे जैसे हो स्टेशन पहुँचना ही था। अगले दिन का प्रोग्राम जो था। आज तक मैंने ऐसा कभी होने न दिया कि मेरा निश्चित प्रोग्राम फेल हो जाए। मैंने हमेशा अपने कार्यकर्ताओं से कहा है कि यकीन रखें , मेरा प्रोग्राम फेल हो नहीं सकता। या तो मैं पहले ही खबर दे दूँगा कि किसी कारण से आ नहीं सकता ; ताकि समय रहते लोग सजग हो जाएँ। नहीं तो मैं खुद ही पहुँच जाऊँगा। और अगर ये दोनों बातें न तो सकीं तो मेरी लाश ही वहाँ जरूर पहुँचेगी! इसका नतीजा यह हुआ है कि मेरे प्रोग्राम के बारे में किसानों को पूरा विश्वास हो गया है कि वह कभी गड़बड़ होने का नहीं।
इसी के मुताबिक मुझे तो सवा दस बजे रात की ट्रेन पकड़नी ही थी। मगर रास्ता मोटे अंदाज से सात मील से कम न था। क्योंकि हम उत्तर ओर मोटर से चल रहे थे और दो मील से ज्यादा चले न थे जब वह खराब हो गई। हमें इतना मालूम था कि जिस सड़क से हम दिन में गए थे वह इस मोटरवाली सड़क से पच्छिम है और कुछ दूर जाने पर शायद यह उसी में मिल जाए। क्योंकि आखिर स्टेशन और पास की जमीन का नक्शा तो आँखों के सामने नाचता ही था। और अब समय था कुल डेढ़ घंटे। इतने ही में उस बाजार में पहुँचना था जहाँ सामान रखा था। फिर वहाँ से एक मील स्टेशन चलना था सामान लेकर। यदि दस बजे बाजार में पहुँच जाते तो आशा थी कि पन्द्रह मिनट में वहाँ से स्टेशन पहुँच के ट्रेन पकड़ लेते।
जब मैंने साथियों से पूछा तो दो ने तो साफ हिम्मत हारी , हालाँकि उन्हें भी छपरा पहुँचना जरूरी था। वे लोग वकील थे और कचहरी में उनका काम था। अब तो मैं और भी घबराया। मगर जब लक्ष्मी बाबू से पूछा तो उनने कहा कि जरूर चलेंगे। फिर क्या था ? मेरा कलेजा बाँसों उछल पड़ा। मैं तो अकेले भी चल पड़ने का निश्चय करी चुका था और अब लक्ष्मी बाबू ने भी साथ देने को कह दिया। इसके बाद तो उन दोनों सज्जनों को भी हिम्मत आई और हम सबने मोटर महारानी को सलाम कर उत्तर का रास्ता पकड़ा।
रास्ता अनजान था। तिस पर तुर्रा यह कि मिट्टी सफेद थी। रास्ते में जहाँ-तहाँ कीचड़ और पानी भी था। हमने कमर में धोती लपेटी। जूते हाथ में लिए। मेरे एक हाथ में मेरा दंड भी था। फिर हमारी ' क्विक मार्च ' शुरू हुई। यदि दौड़ते नहीं , तो समूची परेशानी के बाद भी ट्रेन पकड़ न पाते। इसलिए दौड़ते चलते थे। रास्ते में कहाँ क्या है इसकी परवाह हमें कहाँ थी ? साँप-बिच्छू का तो खयाल ही जाता रहा। सिर्फ रास्ते में समय-समय पर पड़नेवाले झोंपड़ों में आदमी की आहट लेने की फिक्र हमें इसलिए थी कि रास्ते का पता पूछें कि ठीक तो जा रहे हैं ? कहीं दूसरी ओर बहक तो नहीं रहे हैं ? भाटापोखर अभी कितनी दूर है यह जानने की भी तीव्र उत्कंठा थी। मगर झोंपड़ों और गाँवों में तमाम सन्नाटा छाया मिलता था। बहुत दूर जाने पर एक गाँव में एकाध आदमी मिले जिनने फासला दूर बताया। बहुतेरे लोग तो रास्ते में हमें दौड़ते देख या पैरों की आहट सुन सटक जाते थे। उन्हें भय हो जाता था कि इस घोर अँधियाली में चोर-डाकुओं के सिवाय और कौन ऐसी दौड़धूप करेगा। हम भी ताड़ जाते और हँसते-हँसते आगे बढ़ जाते थे ?
रास्ते में एक बड़ी मजेदार बात हुई। हमने महाभारत में पढ़ा था कि मयदानव ने ऐसा सभा भवन बनाया कि दुर्योधन को सूखी जमीन में पानी का और पानी में सूखी जमीन का भ्रम हो जाता था। इससे पांडवों के कुछ आदमी उस पर हँस पड़े थे। इसी का बदला उसने पीछे लड़ाई के मौके पर लिया था। मगर हमें खुद इस भ्रम का शिकार होना पड़ा। अँधेरी रात में आसमान साफ होने के कारण तारे खिले थे। फलतः रास्ता चमकता था। नतीजा यह हुआ कि हम लोगों को सैकड़ों बार सूखी जमीन में पानी का भ्रम हो गया और हमने धोती उठा ली। पर , पाँव सूखी जमीन पर ही पड़ता गया। इसके उलटा पानी को सूखी जमीन समझ हम बेधड़क बढ़े तो घुटने तक डूब गए। जल्दबाजी और दौड़ की हालत में यह गौर करने का तो मौका ही नहीं मिलता था कि पानी है या सूखी जमीन। मगर इसमें हमें खूब मजा आता था। मजा तो अपने दिल में होता है। वह बाहर थोड़े ही होता है। हम लथपथ थे। कीचड़ से सारा बदन लिपटा था। मगर धुन थी ठीक समय पर पहुँच जाने की। इसीलिए सारी तकलीफ भूल गई और हम हँसते-हँसते बढ़ते थे।
कुछ दूर जाकर जब पहली सड़क मिली तब कहीं हमें यकीन हुआ कि ठीक रास्ते जा रहे हैं। मगर अभी प्रायः चार मील चलना था। अतः हमें साँस लेने की फुर्सत भी कहाँ थी। खैर , दौड़ते-दौड़ते दस बजे से पहले ही बाजार में पहुँच ही तो गए। पूछने पर पता चला कि जहाँ सामान है उसे बंद करके हमारे परिचित सज्जन घर सोने चले गए। क्योंकि गाड़ी का समय नजदीक देख उनने मान लिया कि हम अब न आएँगे। उनका घर भी कुछ फासले पर था। यह दूसरी दिक्कत पेश आई। खैर , हममें एक दौड़ के वहाँ गया और जैसे-तैसे उन्हें जगा लाया। उनके आते ही हमने अपने-अपने सामान निकाले। मेरा सामान कुछ ज्यादा था। मगर उस समय स्टेशन तक सामानों को पहुँचानेवाला कहाँ मिलता ? फलतः हमने गधे की तरह अपने-अपने सामान सर पर लादे। मेरी सहायता साथियों ने और साथ के आदमी ने भी की। इस तरह लद-फँद के हमने फिर वही ' क्विक मार्च ' शुरू किया। क्योंकि ट्रेन आ जाने का खतरा था। हमें अपनी घड़ी पर विश्वास होता न था। संकट के समय ऐसा ही होता है। अत्यंत विश्वासों पर से भी विश्वास उठ जाता है।
मगर जब स्टेशन पहुँचे और वहाँ की घड़ी में देखा कि पूरे दस बजे हैं तब हमारी जान में जान आई! फिर तो हमारी खुशी का ठिकाना न रहा। निश्चित हो के हमने हाथ-पाँव वगैरह धोए , कपड़े बदले और देह साफ की। इतने खतरे का काम हमने किया , ऐसी लंबी राह , जो आठ मील से कम न थी , हमने डेढ़ घंटे में तय की और बाजार में पंद्रह मिनट ठहरे भी , यह याद करके हमारा आनंद बेहद बढ़ गया। खूबी यह कि हमें न तो कोई थकावट मालूम होती थी और न परेशानी। सख्त-से-सख्त काम और मिहनत के बाद भी यदि सफलता मिल जाए तो सारी हैरानी हवा में मिल जाती है। लेकिन यदि थोड़ी भी परेशानी के बाद विफल होना पड़े तो ऐसी थकावट होती है कि कुछ पूछिए मत। और हम तो इस साहस (adventure) के बाद सफल हो चुके थे। तब थकावट क्यों होती ? कम से कम हमें उसका अनुभव क्यों होता ?
(10)
सन 1935 ई. की मई का महीना था। उसी समय पूर्णियाँ जिले में बरसात शुरू हो जाया करती है। कांग्रेस के पुराने कार्यकर्ता पं. पुण्यानंद झा पूर्णियाँ जिले के अररिया सब डिविजन के जहानपुर में रहते हैं। उनके ही आग्रह और प्रबंध से उस जिले का पहले-पहल दौरा करने का मौका मिला। कटिहार स्टेशन से ही पहले किशनगंज जाने का प्रोग्राम था। कटिहार में डॉ. किशोरीलाल कुंडू के यहाँ ठहर के किशनगंज की ट्रेन पकड़नी थी। किशनगंज पूर्णियाँ जिले का सब डिविजन और बिहार प्रांत का सबसे आखिरी पूर्वीय इलाका है। यों तो उस जिले में 75 फीसदी मुसलमान ही बाशिंदे माने जाते हैं। मगर किशनगंज में उनकी संख्या 95 प्रतिशत कही जाती है। किसानों के आंदोलन के सिलसिले में ऐसे इलाके में जाने का यह पहला ही अवसर था। मुझे इस बात की बड़ी प्रसन्नता थी।
झा जी कटिहार में ही साथ हो लिए और बरसोई होते हम किशनगंज पहुँचे। वहाँ के प्रसिद्ध कांग्रेसकर्मी श्री अनाथकांत बसु के यहाँ हम लोग ठहरे। पहली सभा वहीं शहर में ही होनेवाली थी। सभा हुई भी। मगर वृष्टि के चलते जैसी हम चाहते थे हो न सकी। इसका पश्चाताप सबों को था। मगर मजबूरी थी किशनगंज में दोई दिन ठहरने का हमारा प्रोग्राम था। तो भी अनाथ बाबू ने भीतर-ही-भीतर तय कर लिया कि मुझे एक दिन और ठहरा के शहर में फिर सभा की जाए जो सफल हो। उनने देहात में भी खबर भेज दी और इसका खासा प्रचार किया। जब मैं तीसरे दिन चलने के लिए तैयार था तभी कुछ लोगों के डेप्युटेशन ने हठ करके मुझे रोक लिया और खासी अच्छी सभा कराई। मुझे भी झा जी के साथ देहात में हो के ही उनके घर (जहानपुर) जाना था। इसलिए कोई खास प्रोग्राम न होने के कारण एक दिन रुकने में विशेष बाधा नहीं हुई। यदि कहीं का निश्चित प्रोग्राम होता , तब तो तीसरे दिन रुकना गैर-मुमकिन था।
हाँ , किशनगंज से 6-7 मील उत्तर देहात में दूसरे दिन जाना था। पांजीपाड़ा नामक एक हाट में मीटिंग करनी थी। किशनगंज से जो सड़क उत्तर ओर जाती है उसी के किनारे पांजीपाड़ा बस्ती है। किशनगंज से एक लाइट रेलवे दार्जिलिंग जाती है। मगर वह तो अजीब सी है। मालूम होता है बैलगाड़ी चलती है। हम लोग , जहाँ तक याद है , घोड़ागाड़ी से ही पांजीपाड़ा गए। बाजार का दिन था। जिस जगह बैठ के लोग चीजें बेचते और खरीदते थे उसके पास ही एक फूँस का झोंपड़ा था। हम तो कही चुके हैं कि वह इलाका प्रायः मुसलमानों का ही है। हाट में भी हमें वही नजर आ रहे थे। यह भी देखा कि उस झोंपड़े में उनका एक खासा मजमा है , यों तो उसमें भी आना-जाना लगा ही था। हमें पता लगा कि वह झोंपड़ा ही मस्जिद थी जिसमें दोपहर के बाद की नमाज पढ़ी जा रही थी। घोर देहात में इस प्रकार धार्मिक भावना देख के मैं प्रभावित हुआ। ऐसा देखना पहली ही बार था! मैंने सोचा कि इन्हीं के सामने किसान-समस्याओं पर स्पीच देनी है। कहीं ऐसा न हो कि सारा परिश्रम बेकार जाए।
मगर बात उलटी ही हुई। मेरे आश्चर्य का ठिकाना नहीं रहा जब मैंने देखा कि वे सभी बहुत ही गौर से मेरी बातें सुनते थे। मैं जैसे-जैसे बोलता जाता था वैसे-वैसे उनके चेहरे खिलते जाते थे। मेरी बातों की पसंदगी जानने के लिए कितनों के सर हिलते थे। बहुतेरे तो मस्त हो रहे थे और झूमते थे। एक तो मुझे डर यह था कि मुसलमान किसानों में बोलना है। कहीं ऐसा न हो कि गेरुवा वस्त्र देखते ही वे भड़क उठें कि यह कोई हिंदू फकीर अपने धर्म-वर्म की बात बोलने आया है। जमात बाँध के नमाज पढ़ते देख मेरा यह डर और भी बढ़ गया था। दूसरा अंदेशा यह था कि बंगाल की सरहद पर बसनेवाले लोगों में बंगला बोलते हैं और जिनकी रहन-सहन बिलकुल ही बंगालियों की है , मेरी हिंदुस्तानी भाषा कुछ ठीक न होगी। और बंगाली बोलना तो मैं जानता नहीं , गो पढ़ या समझ लेता हूँ। तीसरा खयाल यह था कि उनके खास सवालों को तो मैं जानता नहीं कि उन्हीं के बारे में बोल के उनके खयाल अपनी ओर खींच सकूँ। इसलिए सिर्फ उन्हीं बातों पर बोलता रहा जो सभी किसानों को आमतौर से खलती हैं और जिनसे अपना छुटकारा सभी चाहते हैं। जैसे जमींदारों के जुल्म , लगान की सख्ती , वसूली में ज्यादतियाँ , कर्ज की तकलीफें , बकाश्त जमीन की दिक्कतें वगैरह-वगैरह।
मगर मेरा डर और अंदेशा बेबुनियाद साबित हुआ। उनने मेरी बातें दिल से सुनीं , गोया मैं वही बोलता था जो वह चाहते थे। बोलने में मेरी जबान और भाषा ऐसी होती ही है कि सभी आसानी से समझ लें। गुजरात से लेके पूर्व बंगाल और आसाम तक मैं यही भाषा बोलता रहा हूँ और किसान समझते रहे हैं असल में उनके दिल की बात सीधी-साधी और चुभती भाषा में अपने दिल से बोलिए तो वे खामख्वाह आधी या तीन चौथाई समझते ही हैं और इतने से ही काम चल जाता है। किशनगंजवाले तो सोलह आना समझते खासकर मुसलमान कहीं भी रहें , तो भी हिंदुस्तानी जबान वे समझते ही हैं। यह एक खास बात है।
इसलिए जब मैंने मीटिंग खत्म की तो उनने मुझे घेर लिया और कहने लगे कि आपने तो बड़ी अच्छी बातें कही हैं। ये तो हमें खूब ही पसंद हैं। यह हमारे काम की ही हैं। हमने बहुत से लेक्चर मौलवियों के आज तक सुने हैं। मगर मौलवी लोग तो ऐसी बातें बोलते नहीं। आप तो रोटी का सवाल ही उठाते हैं और उसी की बातें बोलते हैं। आप हमारे पेट भरने और आराम की बातें ही बोलते हैं जिन्हें हम खूब समझते हैं। ये बातें हमें रुचती हैं। सो आप हमारे गाँवों में चलिए। कई चलते-पुर्जे लोगों ने हठ किया कि मैं उनके गाँवों में चल के ये बातें सबों को सुनाऊँ। क्योंकि वे लोग दूर-दूर से आए थे और हर गाँव के एक-दो , चार ही वहाँ थे। बाकी तो खेती-गिरस्ती में ही लगे थे। मगर मैंने उनसे उस समय तो यह कह के छुट्टी ली कि कभी पीछे आऊँगा। इस समय मेरा प्रोग्राम दूसरी जगह तय हो गया है। हालाँकि मैं वह वादा अभी तक पूरा कर न सका , इसका सख्त अफसोस मुझे है।
इस प्रकार उस मीटिंग और मुस्लिम किसानों की मनोवृत्ति का बहुत ही अच्छा असर लेके हम लोग शाम तक किशनगंज वापस आए। किसानों और मजदूरों के आए दिन के जो आर्थिक प्रश्न हैं और जो उनकी रोजमर्रा की मुसीबतें हैं यह ऐसी चीजें हैं कि इन्हीं की बुनियाद पर सभी किसान मजदूर , चाहे उनका धर्म और मजहब कुछ भी क्यों न हो , एक हो सकते हैं। आसानी से एक सूत्र में बेखटके बँध सकते हैं , उनकी जत्थेबंदी हो सकती है , यह बात हमारे दिमाग में उस दिन से अच्छी तरह बैठ गई। हमें वहाँ इसका नमूना ही मिल गया। यह हमारी जिंदगी और उनके जीवन में शायद पहला ही मौका था जब मुसलमान किसानों ने हमारे जैसे हिंदू कहे जानेवाले फकीर को अपना आदमी समझा और हमें अपने घर गाँव में मुहब्बत से ले जाना चाहा। हालाँकि हमारी और उनकी मुलाकात पहले-पहल सिर्फ उसी दिन एक-दो ही घंटे के लिए हुई थी। आखिर आर्थिक प्रश्नों के सिवाय दूसरा कौन जादू था जिसने उन पर ऐसा असर किया ? हमारी बातें के सामने मौलवियों की बातों को जो उनने उतना पसंद नहीं किया इसकी वजह आखिर दूसरी और क्या थी ?
कहते हैं कि सारंगी और सितार के तारों की झनकार जब कहीं दूर से भी आती है तो सभी इन्सान , फिर चाहे वह किसी भी धर्म मजहब के क्यों न हों , मुग्ध होके जबर्दस्ती खिंच आते हैं। सारी बातें , सारे काम भूल के एकटक सुनते रहते हैं। लेकिन अगर खुद उन्हीं को घर के-दिलों के-तार झनक उठें तो ? तब तो और भी मजा आएगा और वे लट्टू होके ही रहेंगे। असल में दुनियाबी विपदाएँ सभी गरीबों की एक ही हैं। वे सभी हिंदू-मुस्लिम को बराबर सताती हैं। इसीलिए एक तरह सभी के दिलों में चुभती हैं। ऐसी हालत में ज्योंही उनकी चर्चा हमने उठाई कि सभी के दिलों के तार साथ ही झनक उठे। फलतः सभी एक ही हाँ में हाँ मिलाते , सुर में सुर मिलाते और एक ही राग गा उठते हैं कि '' कमानेवाला खाएगा , इसके चलते जो कुछ हो '' । इस राग में हिंदू-मुस्लिम भेद खामख्वाह मिट जाता है। इस पवित्र धारा में हिंदू-मुस्लिम कलह की मैल बिना धुले रही नहीं सकती वह पक्की बात है। इसका ताजा-ताजा नमूना हमारी आँखों के सामने उस दिन पांजीपाड़े में नजर आया और हमें भविष्य के लिए पूरी उम्मीद हो गई कि गरीबों के दुख जरूर कटेंगे और उनके अच्छे दिन जरूर आएँगे , सो भी जल्द-से-जल्द , अगर हमने अपना यही रास्ता , यही काम जारी रखा।
खैर , तो किशनगंज लौटने के बाद , जैसा कि पहले कहा है , एक दिन वहाँ ठहर के उस सब डिविजन की देहात का अनुभव करते और मजा लूटते पं. पुण्यानंद जी के गाँव पर पहुँचने की बात तय पाई। उनका गाँव जहानपुर अंदाजन 25-30 मील के फासले पर है। बरसात का समय था। देहात की सड़कें तो यों ही चौपट होती हैं। तिस पर खूबी यह कि वह इलाका सबसे पिछड़ा हुआ है। इसलिए रास्ते का भी ठिकाना न था , सवारी का तो पूछना ही नहीं। बड़ी दिक्कत से बैलगाड़ी मिल सकती थी। मगर रास्ता खराब होने से बैल कैसे गाड़ी खींचेंगे यह पेचीदा सवाल था। एक तो ऐसी दशा में उन्हें गाड़ी में जोतना कसाईपन होगा। दूसरे वे चल सकते नहीं चाहे हम कितने भी निर्दय क्यों न बनें। असल में गाड़ी या हल में जोतने के समय हम लोग बैलों के साथ ठीक वही सलूक करते हैं जो जमींदार हम किसानों के साथ बर्तते हैं। अगर जमींदार उन्हें आदमी न समझ लावारिस पशु मानते हैं , और इसीलिए वे खाएँ-पिएँगे या नहीं इसकी जरा भी फिक्र न कर उनकी सारी कमाई जैसे-तैसे वसूल लेने की फिक्र करते ही रहते हैं , तो किसान अपने बैलों के साथ भी कुछ वैसा ही सलूक करते हैं , हालाँकि किसानों के लिए जमींदारों जैसी निर्दयता गैर-मुमकिन है। वे बैलों के खाने-पीने की कोशिश तो करते हैं। बेशक उनकी कमाई का अन्न पास रख के उन्हें भूसा , पुआल वगैरह वही चीजें खिलाते हैं जो किसानों के लिए प्रायः बेकार सी हैं। बदले में जमींदार भी किसानों की कमाई के गेहूँ , बासमती , घी , मलाई आदि खुद ले के उनके लिए मंड़घवा , खेसरी , मठा आदि ही छोड़ते हैं। मगर जहाँ तक जोतने का सवाल है किसान बैलों के साथ बड़ी निर्दयता से पेश आते हैं।
नतीजा यह हुआ कि मेरी ये बातें कुछ काम न कर सकीं और एक बैलगाड़ी तैयार की गई। अनाथ बाबू को भी साथ ही चलना था। जहानपुर और किशनगंज के बीच में ही कांग्रेस के पुराने सेवक श्री शराफत अली मस्तान का गाँव कटहल बाड़ी चैनपुर पड़ता है। बीच में वहीं एक रात ठहरने और मीटिंग करने की बात तय पाई थी पहले से ही। मस्तान को भी यह बात मालूम थी। मगर ठीक दिन और वक्त का पता न था। हमें भी खुशी थी कि सन 1921 ई. से ही जिसने मुल्क की खिदमत में अपने को बर्बाद कर दिया और जमीन-जाएदाद वगैरह सब कुछ तहस-नहस और नीलाम-तिलाम होने दिया उस शख्स से मिलना होगा , सो भी खांटी किसान से। बर्बादी की परवाह न करने के कारण ही तो उस शख्स का नाम सचमुच मस्तान पड़ा है। ' शराफत अली ' तो शायद ही कोई जानता हो। सिर्फ मस्तान के ही नाम से वह पुराना देश सेवक प्रसिद्ध है। कांग्रेस का आंदोलन शुरू होते ही उसे धुन सवार हुई कि किसान किसी को लगान क्यों देंगे , और खुद क्यों भूखों मरेंगे ? लोगों को उसने यही कहना शुरू किया। खुद भी यही किया। फिर जमीन-जाएदाद बचती तो कैसे ? जमीन थी काफी। मगर सभी यों ही खत्म हो गई और वह बहादुर दर-दर का भिखारी बन गया। उसके परिवार को भूखों मरते रहने की नौबत आई! फिर भी यह धुन बराबर मुद्दत तक बनी रही। आज भी आग वही है , जो भीतर-भीतर दबी पड़ी है। अगर किसान सिर्फ इतना ही समझ लें कि उन्हें भी खाने का हक है। वे भूखे मर नहीं सकते। और अगर इसी के अनुसार यदि वे अपनी कमाई को खाने-पीने लग जाएँ तो बिना किसी की परवाह किए ही , तो उनकी सारी तकलीफें हवा में मिल जाएँ।
जो कुछ हो , हम सवेरे ही खा-पी के बैलगाड़ी पर बैठे और मस्तान के गाँव की ओर चल पड़े। रास्ते में चारों ओर सिर्फ मुसलमान किसानों के ही गाँव पड़ते थे। हिंदुओं की बस्ती तो हमें शायद ही मिली। ऐसी यात्रा मेरी जिंदगी में पहली ही थी। सच बात तो यह है कि हजार जानने-सुनने और समझने-बूझने पर भी मेरे दिल में यह खयाल बना था कि हिंदुओं की अपेक्षा मुसलमान जनता खामख्वाह सख्त मिजाज झगड़ालू और घमंडीहोती है। इसीलिए रास्ते में पड़नेवाले गाँवों में बराबर इस बात की तलाश में था कि ऐसी बातें मिलेंगी। उनके मकान वगैरह में भी कुछ खास बातें देखना चाहता था। इसीलिए जब मुसलमान मिलते थे तो उनकी ओर मैं निहायत गौर से देखता था। गाँव के बाद गाँव आते गए और एक के बाद दीगरे न जानें , कितने व्यक्ति और कितने गिरोह रास्ते में मिले। हमने बार-बार उनसे मस्तान के गाँव की राह पूछी। उनने बताई भी। मगर हमें कोई खास बात उनमें मालूम न हुई। वही सादगी , वही सीधापन , वही मुलायम बातें और वही रहन-सहन! जरा भी फर्क नहीं! दाढ़ी भी तो सबों को न थी कि फर्क मालूम पड़ता। कपड़े भी वैसे ही थे। मकानों की बनावट में तो कोई अंतर था ही नहीं। मुर्गे-मुर्गियाँ नजर न आएँ तो और कोई फर्क गाँवों में न था। यदि किसी और मुल्क का आदमी ये चीजें देखता तो वह यह समझी नहीं सकता कि ये हिंदू हैं या मुस्लिम! ठीक ही है किसान तो किसान ही है। वह हिंदू या मुस्लिम क्यों बनने लगा। बीमारी , भूख , गरीबी , तबाही वगैरह भी तो न कलमा और नमाज ही पढ़ती है और न गायत्री संध्या ही जानती है और इन्हीं सबों के शिकार सभी किसान हैं ─ इन्हीं की छाप सभी किसानों पर लगी हुई है। फिर उन्हें चाहे आप हिंदू कहें या मुस्लिम! हैं तो दरअसल वे भूखे , गरीब , मजलूम , तबाह , बर्बाद।
यह देख के मेरे दिल पर इस यात्रा में जो अमिट छाप पड़ी वह हमेशा ताजा बनी है। पांजीपाड़े के बाद यह दूसरा अनुभव फौरन ही हुआ जिसने मेरी आँखें सदा के लिए खोल दीं। इससे मेरी आँखों के सामने असलियत नाचने लगी। '' जनता , अवाम ( masses) एक हैं , इनमें कोई भी धर्म , मजहब का फर्क नहीं। वे भीतर से दुरुस्त हैं। '' यह दृश्य मैंने देखा! इसने किसान-सभा के काम में मुझे बहुत बड़ी हिम्मत दी और आज जब कि बड़े-से-बड़े और क्रांतिकारी से भी क्रांतिकारी कहे जानेवाले हिंदू-मुसलमान तनातनी से बुरी तरह घबरा रहे हैं , भविष्य के लिए निराश हो रहे हैं , मैं निश्चिंत हूँ। मैं इनकी बातें सुन के हँसता हूँ। इन्हें इन झगड़ों की दवा मालूम नहीं है। उसे तो मैंने न सिर्फ किताबों में पाया है , बल्कि किशनगंज के इस दौरे में देखा है।
इस प्रकार कुछ दूर जाने के बाद बैलगाड़ी छोड़ देने की नौबत आई। असल में बैल थे तो कमजोर और रास्ता ऐसा बेढंगा था कि न सिर्फ बैलगाड़ी के पहिये कीचड़ में डूब जाते थे , बल्कि बैलों की टाँगें भी। जब वे चल न पाते तो गाड़ीवान उन्हें पीटता था। यह दृश्य बर्दाश्त के बाहर था। मगर इतने पर भी बैल आगे बढ़ पाते न थे। बढ़ते भी आखिर कैसे ? रास्ता वैसा हो तब न ? इसलिए तय हुआ कि गाड़ी छोड़ के पैदल चलें। नहीं तो रास्ते में ही रह जाएँगे और मस्तान के गाँव तक भी आज पहुँच न सकेंगे। फलतः कपड़ा-लत्ता एक आदमी के सर पर गट्ठर बाँध के रख दिया गया और जूते हाथ में ले के हम सभी उत्तर-पच्छिम रुख पैदल ही बढ़े। कीचड़ में फँसते , पानी पार करते , गिरते-पड़ते हम लोग बराबर बढ़ते जाते थे। यह भी मजेदार यात्रा थी। हममें जरा भी मनहूसी नजर न आई। हँसते हुए चल रहे थे। यह कितना सुंदर ' प्लेजर ट्रिप ' था , सैर-सपाटा था। आखिर कीचड़ पानी से लथपथ और वृष्टि से भी भीगते-भागते शाम होते न होते हम लोग मस्तान के गाँव पर पहुँची तो गए।
मस्तान साहब खबर पाते ही दौड़े-दौड़ाए हाजिर आए और हम सभी गले मिले। शाम का तो वक्त था ही। हम लोग थके-माँदे भी थे। मैं तो रात में कुछ खाता-पीता न था , सिवाय गाय के दूध के और वह अचानक मिल सकता न था। अगर पहले से खबर होती तो उसका इंतजाम शायद हुआ रहता। मस्तान और उनके साथी कोशिश करके थक गए। मगर दूध न मिला। बाकी लोगों ने खाना-वाना खाया। रात में थकावट के चलते हम सभी सो रहे। तय पाया कि बहुत तड़के लोग जमा हों और हमारी मीटिंग हो। उसी दिन जल्द-से-जल्द सभा करके और खा-पी के हमें जहानपुर पहुँचने के लिए आगे चल पड़ना भी था। हाँ , मस्तान साहब इधर-उधर खबरें भेजते रहे उस दिन शाम से ही , कि कल तड़के लोग जुट जाएँ। पता लगा कि उनने हमारे बारे में पहले से ही लोगों में प्रचार भी कर रखा था।
दूसरे दिन नित्यक्रिया स्नानादि के बाद हमारी सभा की तैयारी हुई। लोग जमा हुए। हमने उन्हें घंटों समझाया। हम तो सिर्फ उनकी भूख और गरीबी की बातें ही करना जानते थे और वे बातें उन्हें रुचती भी थीं। मस्तान साहब शेर (कविता) के प्रेमी हैं। बहुत से पद मौके-मौके के वे जानते भी हैं। हमारे बारे में भी उनका यही खयाल था। उनने हमें भी कहा कि बीच-बीच में कुछ चुभते हुए पद सुनाते चलेंगे तो अच्छा असर होगा। जहाँ तक हो सका हमने उनकी मर्जी को पूरा किया। मगर हमें खुशी थी कि एक सच्चे जन-सेवक के घर पर ठेठ देहात में मरते-जीते जा पहुँचे थे , जैसे लोग तीर्थ और हज की यात्रा में पैदल ही जाते हैं! जहीं सच्चे और मस्ताने जनसेवक हों असल तीर्थ तो वही है। पुराने लोगों ने तो कहा भी है कि सत्पुरुष और जनसेवक तीर्थों तक को पवित्र कर देते हैं अपने पाँवों की धूलों से ─ ' स्वयं हि तीर्थानि पुनंति संत। ' तीर्थ बने भी तो हैं आखिर सत्पुरुषों के रहने के ही कारण। इस युग में किसानों के तीर्थ कुछ और ही ढंग के होंगे।
जहानपुर चलने के लिए भी एक बैलगाड़ी का इंतजाम हुआ , हालाँकि पहले दिन के अनुभव से हम डरते थे कि फिर वही हालत होगी। कुछ तो पहले दिन की थकावट और कुछ लोगों के हठ के करते बैलगाड़ी फिर भी ठीक होई गई और उसी पर लद-फँद के हम लोग दोपहर के पहले ही चल पड़े। शाम तक जैसे-तैसे झा जी के घर पर पहुँचना जो था। लेकिन हमारा डर सही निकला। आगे का रास्ता और भी विकट था। नदी-नाले भी काफी थे। आखिरकार जहाँ तक जाते बना हम लोग गए। मगर जब गाड़ी का आगे जाना गैर-मुमकिन हो गया तो उसे लौटा के हम आगे बढ़े। नदियों में गाड़ी पार करने में दिक्कत भी काफी थी। इसलिए हमने पैदल ही चलना ठीक समझा। नहीं तो शाम तक रास्ते में ही पड़े रह जाते और जहानपुर पहुँची न पाते। आज की यात्रा गुजरे दिन की यात्रा से भी मज़ेदार थी। हमें इन घोर देहातों का अनुभव करना जरूरी था। यह भी जाँच करनी थी कि हम खुद कहाँ तक पार पा सकते हैं। क्योंकि बिना ऐसा किए और ऐसी तकलीफें बर्दाश्त किए किसान-आंदोलन चलाया जा सकता नहीं। यह मजदूर सभा थोड़े ही है कि शहरों में ही मोटर दौड़ा के और रेलगाड़ियों से ही चल के कर लेंगे। इसीलिए सैकड़ों बार हमने छोटी-मोटी ऐसी यात्राएँ जान-बूझ के की हैं।
आखिर दूसरे दिन की हमारी यात्रा भी पूरी हुई और जहानपुर पहुँच गए। पं. पुण्यानंद झा एक लगन के आदमी हैं। हमने देखा कि गाँव बीच में सबसे ऊँची जमीन पर बने झोंपड़े को उनने आश्रम बना रखा है। चरखे वगैरह का काम वहाँ बराबर होता था। कुछ लड़के पढ़ते भी थे। पंडित जी के एक ही लड़का है। मगर उसे उनने कहीं और जगह जा के पढ़ने न दिया! सरकारी स्कूलों का बायकाट जो किया था! इसीलिए उसे अंत तक निभाया। हमने प्रायः सभी लीडरों को देखा है कि सन 1921 ई. के बायकाट के बाद फिर उनके लड़के वगैरह उन्हीं सरकारी स्कूलों में भर्त्ती हुए हैं। मगर झा जी ने ऐसा करना पाप समझ अपने लड़के को घर पर ही रखा और पढ़ने के बदले लोगों की जो भी सेवा वह अपने ढंग से उस देहात में कर सके उसे ही पसंद किया। उनका आश्रम बहुत ही साफ-सुथरा और रमणीय था। तबीअत खूब ही रमी , गोया अपने घर पहुँच आए। खासकर मैं सफाई बहुत ही पसंद करता हूँ। जरा भी गंदगी हो तो मुझे नींद ही नहीं आती। बेचैन हो जाता हूँ। स्नानादि के बाद दूध पी के रात में सो गए। अगले दिन सभा होगी यही निश्चय हुआ था।
किसानों की सभा भी अगले दिन बहुत ही अच्छी हुई। हमने अपने दिल का बुखार निकाल लिया। उन्हें उनके मसले बहुत ही अच्छी तरह समझाए। उनकी आँखों के समक्ष न सिर्फ उनकी हालत की नंगी तसवीर खींची , बल्कि उसके कारण भी साफ-साफ बता दिए। उन्हें यह झलका दिया कि उनकी नासमझी और कमजोरी से ही उनकी यह अबतर हालत है और दूसरे तरीके से यह दूर भी नहीं हो सकती जब तक वे खुद तैयार न होंगे , अपने में हिम्मत न लाएँगे और अपने हकों को न समझेंगे। उनका सबसे पहला हक है कि भर पेट खाएँ-पिएँ , दवादारू का पूरा इंतजाम करें , जरूरत भर कपड़े पहनें-ओढ़ें और स्वास्थ्य के लिए जरूरी सामान तथा मकान वगैरह बनाएँ। दुनिया की कोई सरकार और कोई ताकत इस बात से इनकार कर नहीं सकती अगर डँट के वे इस हक का अमली तौर से दावा करने लगें। जब वे खुद कमा के अपने आप खाना और अपनों को खिलाना चाहते हैं , और बाकी दुनियाँ को भी , तो फिर किसे हिम्मत है कि वे खुद भूखे रहें और दुनिया को खिलाएँ ऐसा दावा पेश करें ? आखिर जिस गाय से दूध चाहते हैं उसे पहले खूब खिलाते-पिलाते और आराम से रखते ही हैं। नहीं तो दूध के बजाय लात ही देती है।
अब किसी प्रकार अररिया चल के रेलगाड़ी पकड़ना और कटिहार पहुँचना था। बरसात के दिन और रास्ते में छोटी-बड़ी नदियाँ थीं। फिर वही बैलगाड़ी हमारी मददगार बनी। मगर इस बार दो गाड़ियाँ लाई गईं। ऊपर वे छाई भी गई थीं। पहले की गाड़ियाँ तो मामूली ही थीं। मगर इस बार जरा देखभाल के गाड़ी और बैल लाएगए। एक में मैं खुद अपने सामान के साथ बैठा और दूसरी में झा जी और अनाथ बाबू। रात में ही रवाना हुए। नहीं तो अगले दिन कहीं राह में ही रह जाना पड़ता। किस हैरानी और परेशानी के साथ यह बाकी यात्रा पूरी हुई वह वही समझ सकता है जिसे उधर ऐसे समय में जाने का मौका मिला हो। इसका यह मतलब नहीं कि हममें मनहूसी थी , या हमने इस दिक्कत को अपने दिल में जरा भी स्थान दिया। देते भी क्यों ? हमने खुद जान-बूझ के ही यह यात्रा की थी। उन विकट देहातों का अनुभव जो लेना था। हमें खुद इस सख्त इम्तहान में पास जो होना था। और हमें खुशी है कि अच्छी तरह उत्तीर्ण हुए।
अररिया में पहुँच के सीधे स्टेशन चले गए। स्टेशन शहर से दूर पड़ता है। वहीं ठहरे , स्नानादि किया , कुछ खाया-पिया। फिर ट्रेन आई और हमें ले के उसने कटिहार पहुँचाया।
(11)
सन 1935 ई. की किशनगंजवाली यात्रा के ही सिलसिले में हमें कटिहार के बाद कुरसैला स्टेशन जाना और वहाँ से उतर के नजदीक के ही उमेशपुर या महेशपुर में होनेवाली विराट किसान-सभा में भाषण देना था। वहाँ से फिर टीकापट्टी आश्रम में जाने का प्रोग्राम था। वहीं रात को ठहरना भी था। हम लोग सदल-बल ट्रेन से रवाना हो गए। स्टेशन पर बाजे-गाजे , झंडे और जुलूस की अपार भीड़ थी। लोगों में उमंगें लहरें मार रही थीं। किसान-सभा और किसानों के नारों और आजादी की पुकार से आसमान फटा जा रहा था। स्टेशन के नजदीक ही एक बड़े जमींदार साहब का महल है और सभा-स्थान में जाने का रास्ता भी महल की बगल से ही था। पता नहीं वे वहाँ उस समय थे , या कहीं चले गए थे। यदि थे भी तो उन पर क्या गुजरती थी यह कौन बताए। वे बड़े सख्त जमींदार हैं जो जेठ की दुपहरी के सूर्य की तरह तपते हैं! उनकी जमींदारी में रहनेवाले किसानों का तो खुदा ही हाफिज!
मगर माने जाते हैं वे भी कांग्रेसी। कांग्रेसीजनों में उनकी पूछ है। शायद टीकापट्टी आश्रम तथा कांग्रेस की और संस्थाओं को साल में काफी अन्न और पैसे उनसे मिलते हैं। जिले के कांग्रेसी लीडरों का सत्कार भी उनके यहाँ होता है। लीडरों को तो आखिर स्वराज्य लेना है पहले , और जब तक जमींदारों को साथ न लेंगे तब तक स्वराज्य मिलने में बाधा जो खड़ी होगी। अगर उनके बिना वह भी मिल गया तो शायद लँगड़ा होगा। लेकिन यदि किसानों की तकलीफों का खयाल करें तो ये जमींदार कांग्रेस में आ नहीं सकते। इसीलिए बहरहाल उस ओर ध्यान नहीं दिया जाता। सभी को ले के चलना जो ठहरा। यह भी सुना है कि वे जमींदार साहब और उन जैसे दो-एक और भी साल में कांग्रेस के बहुत मेंबर इधर बनाने लगे हैं। बात तो आसान है। जोई किसान लगान देने आए उससे ही लगान के सिवाय चार आना और ले लेना कोई बड़ी बात नहीं है। चार आना दिए बिना बाकी रुपयों की भी रसीद न मिले तो ? तब तो सभी गायब हो जाते हैं। इसीलिए मजबूरन वे गरीब चार आना देते ही हैं। नजराना , शुकराना , रसीदाना , फारख या फरखती वगै़रह के नाम पर जब बहुत कुछ गैर-कानूनी वसूलियाँ उनसे की जाती हैं , तो इस चार आने की क्या गिनती ? खतरा यही है कि जब चवन्नी की वसूली जारी हो जाएगी तो कुछ दिनों के बाद कांग्रेस के नाम की भी जरूरत न रहेगी और ये पैसे जमींदार हमेशा लेते रहेंगे। आखिर नए-नए अबवाब इसी तरह तो बने हैं ? अबवाबों का इतिहास हमें यही सिखाता है। मगर इससे क्या ? इसकी परवाह है किसे ? सुरसंड (मुजफ्फरपुर) के एक जमींदार सर चंद्रेश्वर प्र. न. सिंह यों ही अन्नी के नाम पर न जानें कितने दिनों से गैर कानूनी वसूली किसानों से करते आ रहे हैं! हालाँकि उनके भाई कांग्रेसी हैं श्री राजेश्वर प्र. ना. सिंह और अब तो जेल भी हो आए हैं। यह अन्नी भी इसी तरह बनी होगी।
हाँ , तो हम स्टेशन पर उतरे और सीधे सभा-स्थान की ओर चल पड़े। हमें ठीक याद नहीं कि बैलगाड़ी पर गए या हाथी पर। शायद बैलगाड़ी ही थी। हाथी पर चलना हमें कई कारणों से पसंद नहीं। वह एक तो धनियों के ही यहाँ होता है। दूसरे वह रोबदाब और शानबान की चीज और सवारी है और किसानों की सभा में यह चीज मुझे बुरी तरह खटकती है। इसीलिए बिना किसी मजबूरी के मैं उसे कभी कबूल नहीं करता। किसानों की अपनी चीज होने के कारण मुझे बैलगाड़ी दिल से पसंद है। कभी-कभी पालकी में भी , आदमियों के कंधों पर , चलना ही पड़ता है। मगर जब कोई चारा नहीं होता और कहारों के खाने-वाने तथा उनकी पूरी मजदूरी का पक्का इंतजाम हो लेता है तभी मैं उस पर चढ़ता हूँ। मैं कहारों से खामख्वाह पूछ लेता हूँ कि उन्हें जो कुछ मिला उससे वे पूरे संतुष्ट हैं या नहीं। यदि जरा भी कसर मालूम हुई तो उसे पूरा करवाता हूँ। सभी जगह मैंने देखा है कि कहारों के साथ बड़ी ही लापरवाही और बेमुरव्वती से व्यवहार किया जाता है। इसीलिए मैं उनसे खुद पूछता हूँ। कई जगह तो मारे प्रेम के उनने मुझे अपने कंधों पर खामख्वाह चढ़ा लिया है।
इस प्रकार जोश-खरोश और उछलते उत्साह के साथ हम लोग सभा-स्थान में पहुँचे। बरसात की कड़ी धूप ने हमें रास्ते में काफी तपाया था और दुपहरी का समय भी था। मेघ न होने के कारण सूर्य अपना तेज वैसे ही दिखा रहा था और लोगों को झुलसा रहा जैसे जमींदार किसानों के संबंध में करता है। पेड़ों की छाया में हमें शांति मिली। ठंडे हो के और पानी-वानी पी-पा के हम लोग मीटिंग में पहुँचे। जहाँ मीटिंग थी उसे धर्मपुर का परगना कहते हैं। इसमें पूर्णियाँ जिले का बहुत बड़ा हिस्सा आ जाता है। यहाँ के जमींदार महाराजा दरभंगा हैं। कुरसैला के जमींदार और बिशुनपुर के जमींदार वग़ैरह दो-एक ही और हैं। मगर महाराजा के सामने इनकी हस्ती नहीं के बराबर है। ये लोग महाराजा की हजारों बीघा रैयती जमीनें रखते हैं। खास कर बिशुनपुरवाले तो बीसियों हजार बीघे रैयती जमीनें रखते हैं , जो दर रैयतों( undertenants) या शिकमी किसानों को बँटाई पर जोतने को देते हैं। कहीं-कहीं नगद लगान भी लेते हैं। मगर जब चाहें जमीन छीन लें इसकी पूरी बंदिश कर रखते हैं। इसलिए इस मामले में जमींदारों से भी ये मालदार लोग जो अपने को मौका पड़ने पर किसान भी कह डालते हैं , ज्यादा जालिम और खतरनाक हैं।
महाराजा की जमींदारी के और जुल्म तो हईं , जो आमतौर से सभी जमींदारियों में पाए जाते हैं। उनके सिवाय एक खास जुल्म चरसा महाल वाला पहले ही बताया जा चुका है। लेकिन धर्मपुर में ही पता चला कि सर्वे खतियान में जमीन तो किसान की कायमी रैयती लिखी है। फिर भी उस पर जो पेड़ हैं वह सोलहों आने जमींदार के लिखे हैं। असल में पूर्णियाँ जिले में ज्यों-ज्यों उत्तर जाइए नेपाल की तराई की ओर त्यों-त्यों मधुमक्खियाँ पेड़ों पर शहद के बड़े-बड़े छत्ते लगाती दिखेंगी। वहाँ शहद का खासा व्यापार होता है। इसीलिए जमींदार ने चालाकी से पेड़ों पर अपना अधिकार सर्वे के समय लिखवा लिया। किसानों को तो उस समय इसका ज्ञान था ही नहीं। वे सर्वे का महत्त्व भी ठीक समझ न सके थे , और वही लिखा-पढ़ा आज उनका गला कतर रहा है। वहाँ अक्ल और दलील की गुंजाइश हई नहीं कि किसान की जमीन पर जमींदार के पेड़ कैसे हो गए ? और अगर आज भी शहद उतारनेवालों को किसान कह दे कि खबरदार , मेरी जमीन पर पाँव न देना , नहीं तो हड्डियाँ टूटेंगी। हवाई जहाज से जैसे हो ऊपर ही ऊपर उड़ के पेड़ पर चढ़ जाओ और शहद ले जाओ , तो क्या हो ? आखिर कुछ तो करना ही होगा। नहीं तो काम कैसे चलेगा ? जब वे लोग बातें नहीं सुनते तो जैसे को तैसा जवाब देना ही होगा।
दूसरा जुल्म यह मालूम हुआ कि वहाँ घाट के नाम से एक टैक्स लगता है। यह टैक्स दूसरी जमींदारियों में भी पाया जाता है। एक बार तो ऐसा मौका लगा कि हम अपने साथियों के साथ फार्विसगंज के इलाके में बैलगाड़ी से देहात में जा रहे थे। रास्ते में एकाएक कोई आया और गाड़ी रोक के घाट माँगने लगा। पीछे जब उसे पता चला कि गाड़ी में कौन बैठा है तब सरक गया और हम आगे बढ़े। बात यह है कि कुछ दिन पहले जहाँ-तहाँ पानी की धाराएँ उस जिले में बहुत थीं। नतीजा यह होता था कि लोगों को हाट-बाजार जाने या दूसरे मौकों पर बड़ी दिक्कतें होती थीं। पार करना मुश्किल था। जान पर खतरा था। इसलिए जमींदार लोग अपनी-अपनी जमींदारियों में ऐसी धाराओं के घाटों पर नावों का इंतजाम करते थे , ताकि लोगों को आराम मिले। शुरू-शुरू में यह काम मुफ्त ही होता था। फिर उनने धीरे-धीरे नाव वग़ैरह का खर्च पार होनेवालों से वसूलना शुरू किया। उसके बाद ठीकेदार मुकर्रर कर दिएगए जो अपनी नावें रखते और आर-पार जाने वालों से खेवा ले लेते थे! अंततोगत्वा जमींदारों ने घाटों को नीलाम करना शुरू किया और जोई ज्यादा पैसे देता वही घटवार या घाट के ठेकेदार बनता था। वह अपना खर्च मुनाफे के साथ खेवा के रूप में लोगों से वसूलता था। यही तरीका बराबर चलता रहा। धीरे-धीरे घटवार मौरूसी बन गए। उसके बाद वे धाराएँ सूख गई और नाव की जरूरत ही न रही। मगर घटवार तो रही गए। वे जमींदारों को पैसे देते और लोगों से वसूल लेते। भला यह लूट और अंधेरखाता नहीं है तो और हई क्या ? हमें इसके खिलाफ भी तूफान खड़ा करना पड़ा।
दरभंगा महाराज की जमींदारी में ही हमें सबसे पहले वहीं पर पता चला कि ' टरेस ' के नाम पर गरीबों पर एक बला आई है और जमींदार सबों को परेशान कर रहा है। पहले तो हम समझी न सके कि यह ' टरेस ' कौन सी बला है। मगर बातचीत से पता लगा कि असल में ' ट्रेस पास ' या दूसरे की जमीन पर जबर्दस्ती कब्जा से ही मतलब है। ' पास ' शब्द को तो हटा दिया और ' ट्रेस ' का ' टरेस ' कर दिया है। आखिर अनाड़ी देहाती क्या जानें कि असल शब्द क्या है। बात यों होती है कि इधर कुछ दिनों से , खासकर किसान-सभा के आंदोलन के शुरू होने पर , जमींदार के आदमियों ने किसानों को तंग करने के नए-नए तरीके सोचने शुरू कर दिए हैं। इस प्रकार एक तो महाराजा की आमदनी बढ़ रही है। दूसरे किसान लोग पस्त हो जाते हैं और सिर उठा नहीं सकते। इसी सिलसिले में यह ट्रेस पासवाला हथियार भी ढूँढ़ निकाला गया है।
असल में सर्वे के समय किसानों के मकानों की जमीन खतियान में लिखी गई है। मगर मकान या झोंपड़े दूर-दूर करने से बीच-बीच में खाली जमीनें भी रह गई हैं जिन्हें कहीं-कहीं गैर मजरुआ आम और कहीं-कहीं खास लिखा गया है। मुमकिन है कि समय पा के कुछ ज्यादा जमीन पर किसानों के पशु वग़ैरह बाँधे जाते हों। यह बात तो सर्वे के समय भी होती होगी। आखिर कलकत्ता जैसे श्हार में तो किसान बसते ही नहीं कि इंच-इंच जमीन की खोज हो। मगर सर्वे में इसका जिक्र नहीं हुआ। चौबीसों घंटे पशु घर में ही तो रहते नहीं। बाहर भी बँधते ही हैं। यह भी हो सकता है कि खामख्वाह कहीं किसान ने कुछ जमीन हथिया ली हो। आखिर इफरात जो ठहरी। मगर जमींदार को तो मौका चाहिए तंग करने का। उसके अमले तो घूस और सिफारिश चाहते हैं जो अब किसानों से आमतौर से होना असंभव है। इसलिए रंज हो के खतियान के मुताबिक जमीन नापी जाती है। नापनेवाला वही अमला होता है। कोई सरकारी ओवरसियर या अमीन नहीं आता। और अगर नाप में ज्यादा जमीन कुछ भी निकली तो किसान पर आफत आई। अमले नाप-जोख में गड़बड़ी करके भी ज्यादा जमीन साबित कर देते हैं। इस प्रकार किसान पर ट्रेस पास का केस चलाया जाता है। यदि उसने डर से अमलों की पूजा-प्रतिष्ठा पहले ही कर ली और जमींदार को भी कुछ नजर या सलामी दे दी तब तो खैरियत। नहीं तो लड़ते-लड़ते तबाही की नौबत आती है। इस ' टरेस ' के करते मैंने किसानों में एक प्रकार का आतंक वहाँ देखा। पीछे तो भागलपुर , दरभंगा आदि में भी यही बात मिली।
यों तो सैकड़ों प्रकार की गैर-कानूनी वसूलियाँ समय-समय पर चलती ही रहती हैं। मगर दो-एक तो वहाँ की खास हैं। मवेशियों की खरीद-बिक्री पर खुद किसानों से एक प्रकार का टैक्स लिया जाता था और शायद अब भी हो। और गल्ले की बिक्री पर भी और इस प्रकार उनके नाकों दम थी। मगर पुनाही खर्च के नाम से जो वसूली होती है वह बड़ी ही बुरी है इसी प्रकार कोसी नदी के जंगलों में सूअर या हिरन का शिकार खेलने के लिए जब कभी महाराजा का , उनके दोस्तों का या उनके मैनेजर का कैम्प देहातों में जाता है तो किसानों से बकरी , बकरे , दूध , घी , मुर्गी , मुर्गे वग़ैरह की शकल में सैकड़ों चीजें वसूल की जाती हैं। यों कहने के लिए शायद उन चीजों की कीमत हिसाब में लिखी जाती है। मगर गरीब किसानों को मिलती तो है नहीं। और अगर कहीं कभी एकाध को मिली भी , तो नाममात्र को ही। बाकी तो अमलों के ही पेट में चली जाती है। यह भी होता है कि दो की जगह चार बकरे मँगाए जाते हैं और उनमें कुछ कैंप खर्च में लिखे जाते ही नहीं। उन्हें तो ऊपर ही ऊपर वे अमले उड़ा ही लेते हैं। फिर उनका खर्च मिले तो कैसे ? कुम्हारों से मुफ्त बर्तन और कहारों से बेगार में काम करवाना तो आम बात है। दूसरे गरीब भी इसी प्रकार खटते रहते हैं।
पुनाही की बात यों है कि साल में एक बार महाराजा के हर सर्किल ऑफिस में बहुत बड़ा उत्सव मनाया जाता है और हवन-पूजा होती है। खूब खान-पान भी चलता है। बहुत लोग जमा होते हैं। यह उत्सव प्रायः दशहरा (दुर्गापूजा) के समय ही या उसी के आस-पास होता है। बिहार के अन्यान्य जिलों में जो तौजी की प्रथा है वह तो ठीक दशहरे के दिन ही होती है। यह पुनाही उसी तौजी का कुछ विस्तृत रूप है। असल में संस्कृत के पुण्याह शब्द का अर्थ है पवित्र दिन। इसी का अपभ्रंश पुनाह हो गया। पुनाही उसी पुनाह या पुण्याह का सूचक है। इसके मानी हैं पुण्याहवाला। जमींदार अगले साल के लगान की वसूली उसी दिन से शुरू करता है जैसा कि और जगह तौजी के दिन शुरू करता है। हिंदी साल भी तो दशहरे के बाद ही शुरू कार्तिक से ही आरंभ होता है। इसीलिए अगले साल के लगान की वसूली का श्रीगणेश उस दिन ठीक ही है। और जमींदार के लिए इससे पवित्र दिन और क्या होगा कि उसने लगान की वसूली साल शुरू होने के पहले ही जारी कर दी। किसानों के लिए यह दिन भले ही बुरा हो। मगर जमींदार के लिए तो सोना है। इसी से वह उत्सव पुनाही का उत्सव कहा जाता है।
उसके खर्च का एक इस्टिमेट या अंदाज ( Budget) तैयार होता है। वह हर साल की ही तरह होता है। हाँ , कुछ घट-बढ़ तो होती ही है। इसके बाद वह हर तहसीलदार के हिस्से में बाँट दिया जाता है कि कौन कितना वसूल करेगा किसानों से। अब तहसीलदार लोगों को मौका मिलता है कि इसी बहाने कुछ अपने लिए भी वसूल कर लें। इसलिए सर्किल से उनके जिम्मे जितना रुपया या घी वग़ैरह वसूलने को दिया गया था। उसका ड्योढ़ा-दूना करके उसे अपने पटवारी आदि मातहतों के जिम्मे बाँट देते हैं कि कौन कितना वसूल करेगा। फिर वे पटवारी वग़ैरह भी अपना हिस्सा उसी तरह ड्योढ़ा-दूना करके अपने अधीनस्थ नौकरों के हिस्से लगाते हैं जो कुछ बढ़ा-चढ़ा के हर किसान से वसूल करते हैं। इस तरह वसूली के समय असल खर्च कई गुना बन के वसूल होता है और गरीब किसान मारे जाते हैं। जो कुछ उन्हें घी-दूध आदि के रूप में या नगद देना पड़ता है वह ऐसा टैक्स है कि कुछ कहिए मत। उसके बदले में उन्हें मिलता कुछ भी नहीं। वह तो लुट जाते हैं। शायद एकाध मिठाई मिलती हो!
इस प्रकार के जुल्मों और धींगामुश्तियों को कहाँ तक गिनाया जाए ? सिर्फ नमूने के तौर पर कुछेक को दिखला दिया है। असल में जब जमींदार लोग किसानों को आदमी समझते ही नहीं , इन्सान मानते ही नहीं , तो मुसीबतों की गिनती क्या ? वे तो जितनी हैं सब मिलके थोड़ी ही हैं! उनके भार से दबे किसानों का गिरोह उस सभा में हाजिर था। हमने जमींदार और उसके नौकरों कह खिदमत सभा में की तो काफी। जले तो पहले से ही थे। किसानों के करुण-क्रंदन , उनकी चीख-पुकार ने उस पर नमक का काम कर दिया। फिर तो उबल पड़ना स्वाभाविक था। हमने जालिमों को ऐसा ललकारा और उनकी धज्जियाँ इस तरह उड़ाईं कि एक बार मुर्दे किसानों में भी जान आ गई। उनने समझ लिया कि उनकी तकलीफों का खात्मा हो सकता है। पहले तो समझते थे कि '' कोउ नृप होइ हमैं का हानी। चेरि छाँड़ि न होउब रानी! '' पर एक बार उनकी रगों में गर्मी आ गई।
सभा के बाद टीकापट्टी आश्रम में गए जो कुछ दूर है। रात को वहीं ठहरे। सुबह घूम-घाम के आश्रम देखा। वह तो गाँधीवाद का अखाड़ा है। चर्खे , करघे का कार-बार खूब फैला नजर आया। वहाँ के रहनेवाले कभी-कभी जमींदारों के अत्याचारों के खिलाफ पहले आवाज उठाते थे। देहातों में घूम के मीटिंगें भी करते थे। मगर धीरे-धीरे यह बात कम होती गई। अब तो यह बात शायद ही होती है। शायद प्रारंभिक दशा में वहाँ जमना था। इसीलिए किसान जनता की सहायता जरूरी थी। अब तो काफी जम गए! संभवतः अब वह प्रश्न छेड़ने की जरूरत इसीलिए नहीं पड़ती! किसान-सभा का वह जमाना था भी शुरू का ही। लोग समझी न सके थे कि यह किधर जाएगी। वर्ग चेतना किसानों में पैदा करेगी और वर्ग संघर्ष को काफी प्रोत्साहन देगी यह बात तब तक लोगों के दिमाग में आई न थी। इसीलिए मुझे भी उस आश्रम में निमंत्रित किया गया। स्टेशन के पास की सभा का प्रबंध भी उन लोगों ने ही किया था। मगर अब तो किसान-सभा से लोग भय खाते हैं। वर्ग विद्वेष की बात बहुत फैली है। ऐसी हालत में वैसे आश्रम यदि सतर्क हो जाएँ तो कोई ताज्जुब नहीं। असल में ज्यों-ज्यों किसानहित और जमींदारहित के बीचवाली चौड़ी एवं गहरी खाई साफ-साफ दीखने लगी है त्यों-त्यों दुभाषिए लोगों-दोनों तरफ की बातें मौके-मौके से करनेवाले लोगों के लिए इन बातों की गुंजाइश कम होती जाती है। अब तो गाँधीवादी हमारे साथ बैठने से भी डरते हैं कि कहीं लीडर लोग जवाब न तलब करें। ऐसा हुआ भी है। चलो अच्छा ही हुआ। किसानों को सबसे ज्यादा धोखा उन्हीं लोगों से है जो ऊपर से उनके हितू होते हुए भी भीतर से वर्ग सामंजस्य के हामी हैं और चाहते हैं कि किसानों और जमींदारों में कोई समझौता हो जाए। नहीं तो अंततोगत्वा वे कहीं के न रह जाएँगे। क्योंकि आखिर अब तो किसानों के ही हाथों में अन्न देने के सिवाय वोट देने की भी शक्ति है।
टीकापट्टी से हमें बनमनखी जाना था। यह रेलवे जंकशन मुरलीगंज और बिहारीगंज स्टेशनों से , जो पूर्णियाँ और भागलपुर जिलों की सीमा पर पड़ते हैं , आनेवाली लाइनों का है। वहीं से पूर्णियाँ होती कटिहार को लाइन जाती है। हमें बड़हरा स्टेशन पर ट्रेन सवेरे ही पकड़नी थी। अगले दिन रवाना होने की बात तय पाई थी। बड़हरा वहाँ से दूर है। सड़क-वड़क तो कोई है नहीं। सवारी भी सिवाय बैलगाड़ी के दूसरी संभव न थी। अगर दोपहर के बाद रवाना हुआ जाए और रातोंरात चलते जाएँ तो ठीक समय पर शायद पहुँच जाएँ। किसनगंज से जहानपुरवाली यात्रा से यह कठिन थी। वहाँ केवल दिन में ही चलना पड़ा। मगर यहाँ तो रात में बराबर चलना था! मगर करना भी क्या था ? कोई उपाय न था आखिर किसान-आंदोलन की बात जो ठहरी!
यही हुआ भी। हमारी बैलगाड़ी रवाना हो गई। बदकिस्मती से जो बैलगाड़ी मिली वह छोटी सी थी। उस पर पर्दा भी न था कि धूप या पानी से बच सकें। अकसर उस ओर ऊपर से छाई हुई गाड़ियाँ मिलती हैं। मगर वह तो थी निरी सामान ढोनेवाली। उसमें एक और भी कमी थी। गाड़ियों के दोनों तरफ बाँस की बल्लियाँ लगी रहती हैं जिनमें मज़बूत रस्सी लगा कि गाड़ी के साथ बाँधते हैं। किनारों पर लगे खूँटों पर वह बल्लियाँ लगाई जाती हैं। इस प्रकार गाड़ी में बैठने पर भूल-चूक से नीचे गिरने का खतरा नहीं रहता। सामान भी हिफाजत से रहता है। मगर हमारी गाड़ी में यह एक भी न था। इससे खुद भी गिर पड़ने का डर था और सामान के भी लुढ़क जाने का अंदेशा था। गाड़ीवान के अलावे हम तीन आदमी उस पर बैठे थे। सामान भी था।
हालत यह हुई कि हम सभी दिन में तो पलथी मारे बैठे ही रहे। रात में भी वही करना पड़ा। सोने की बात तो छोड़िए। जरा सा लेटना या झुकना भी गैर-मुमकिन था। यह तकलीफ बर्दाश्त के बाहर थी। जिंदगी में मेरे लिए यह पहला ही मौका था जब सोलह घंटे से ज्यादा बैलगाड़ी पर बैठे-बैठे सारी रात गँवाई। बैलगाड़ी की सवारी तो यों भी बहुत बुरी होती है। उसमें उठाव-पटक तो कदम-कदम पर होता ही रहता है। धक्के ऐसे लगते हैं कि कलेजा दहल जाता है। यदि उस पर पुआल वग़ैरह कोई नर्म चीज न हो तो काफी चोट लगती है। चूतड़ जखमी हो जाते हैं। इतने पर भी यदि लेटने या सोने का जरा भी मौका न मिले तो मौत ही समझिए। मगर वहाँ ये सारे सामान मौजूद थे! मैं मन ही मन हँसता था कि लोग समझते होंगे कि किसान-सभा का काम बहुत ही आराम वाला है। मैं यदि एक दिन भी सारी रात जग जाऊँ तो अगले दिन जरूर ही बीमार पड़ जाऊँ , यह बात जान लेने पर उस रात की तकलीफ का अंदाज लगाया जा सकता है। तिस पर भी डर था कि कहीं ट्रेन न छूट जाए। इसलिए गाड़ीवान को सारी रात ताकीद करते रहे। इस प्रकार गाड़ी आने के पहले ही जैसे-तैसे बड़हरा स्टेशन पहुँची तो गए।
(12)
पूर्णियाँ जिले की ही घटना है। सो भी उसी सन 1935 ई. की। यह सन 1935 किसान-सभा के इतिहास में बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। इसी साल पहले-पहल बिहार प्रांतीय किसान-सभा ने जमींदारी-प्रथा के मिटाने का निश्चय नवंबर महीने के अंत में हाजीपुर में किया था। प्रांतीय किसान कॉन्फ्रेंस का चौथा अधिवेशन वहीं हुआ था। मैं ही उसका सभापति था। उसी साल उसी नवंबर महीने में ही हाजीपुर के अधिवेशन के पहले ही , जहाँ तक याद है , 11-12 नवंबर को धर्मपुर परगने के राजनीतिक-सम्मेलन और किसान-सम्मेलन बनमनखी में ही हुए थे। पहले सम्मेलन के अध्यक्ष बाबू अनुग्रह नारायण सिंह और दूसरे के बाबू श्रीकृष्ण सिंह थे। यही दोनों सज्जन पीछे कांग्रेसी-मंत्रिमंडल के जमाने में अर्थमंत्री और प्रधानमंत्री बिहार प्रांत में बने थे। इसी भविष्य की तैयारी में जो अनेक बातें होती रहीं उन्हीं में वे दोनों सम्मेलन भी थे। हमें भी वहाँ से निमंत्रण मिला था। यह भी आग्रह किया गया था कि यदि किसी अनिवार्य कारण से कदाचित हम न आ सकें तो किसान-सभा के किसी नामी-गरामी लीडर को ही भेज दें।
मगर हमने जान-बूझ के दो में एक भी न किया। न खुद गए और न किसी को भेजा ही। इसके लिए वहाँ के साथियों से क्षमा माँग ली अपनी मजबूरी दिखा के। बात दरअसल यह थी कि अब किसान-सभा ने जड़ पकड़ ली थी। उसकी आवाज अब कुछ निडर सी होने लगी थी। वह अब किसानों की स्वतंत्र आवाज उठाने का न सिर्फ दावा रखती थी , बल्कि हिम्मत भी। इसीलिए कांग्रेसी लीडरों में उसके खिलाफ कानाफूँसी होने लगी थी। भीतर-भीतर से विरोध भी हो रहा था। लोग समझते थे कि हमारे जैसे कुछ इने-गिने लोग ही यह तूफान खड़ा कर रहे हैं। नहीं तो कांग्रेस के अलावे और किसी संस्था को किसान खुद पसंद नहीं करते। जन-आंदोलन के बारे में ऐसा खयाल कोई नयी बात न थी। यह सनातनधर्म है। आखिर कांग्रेस को भी तो सरकारी अधिकारी और दकियानूस दल के लोग पहले ऐसा ही कहते थे।
इसलिए हमने और हमारे साथियों ने सोचा कि यदि बनमनखी जाएँगे तो कांग्रेस के प्रमुख लीडरों से प्रत्यक्ष संघर्ष हो सकता है। हम जानते थे कि स्वतंत्र किसान-सभा बनाने और जमींदारी मिटाने का सवाल वहाँ उठेगा। खासकर हमारे रहने पर। ऐसी हालत में संघर्ष अनिवार्य है। हमारी मौजूदगी में भी यदि ये प्रश्न न उठे तो राजनीतिक-सम्मेलन से अलग किसान-सम्मेलन करने के कुछ मानी नहीं। और आखिरत में वहाँ के मजलूम किसान समझेंगे क्या ? यही न कि हम भी जमींदारों से डरते हैं , उनके दलाल हैं और सिर्फ इसीलिए किसान-सभा बना रखी है ? यह तो हमारे लिए डूब मरने की बात होगी। इसलिए हर पहलू से सोचने पर यही तय पाया कि वहाँ न जाना ही अच्छा। हमने यह भी सोच लिया कि यदि इतने पर भी वहाँ जमींदारी मिटाने और बिहार प्रांतीय किसान-सभा की छत्र-छाया में उस जिले में किसान संगठन करने के सवाल उठे तो यह हमारी सबसे बड़ी जीत होगी। तब तो हमारे विरोधियों को यह कहने का मौका ही न मिलेगा कि किसान-सभा के नाम पर हमीं लोग खामख्वाह टाँग अड़ाते फिरते हैं ─ किसान यह सब नहीं चाहते। तब तो दुनिया की आँखें खुलने का मौका मिलेगा कि किसानों की जरूरत ने ही किसान-सभा को पैदा किया है। और अगर ये सवाल उठे और बहुमत ने इनके पक्ष में ही राय दी , जैसा कि हमारा दृढ़ विश्वास था , तब तो बेड़ा ही पार समझिए। तब तो हमारी दूनी जीत समझी जाएगी। हम वहाँ रहने पर तो शायद लोगों को दबाएँ और मुरव्वत से काम लें। मगर न रहने पर तो लोग बेखटके अपने विचारों से पूरा काम लेंगे। असल में कभी-कभी नेताओं की दूरंदेशी , उनका दब्बूपन जिसे वे लोग समझदारी कहते हैं , उनकी उदारता ─ ये बातें जनता का बहुत नुकसान करती हैं। इनके चलते उनके दिल , दिमाग पर वाहियात लगाम सी लग जाती है और जनता के विचार का निरबाध प्रवाह रुक जाता है। हमने सोचा कि यह महा पाप हमें न करना चाहिए।
जहाँ तक स्मरण है , हम पटने में बिहार प्रांतीय किसान कौंसिल (कार्यकारिणी) की मीटिंग कर रहे थे। क्योंकि हाजीपुर के संबंध में सारी तैयारी करनी थी , सब बातें सोचनी थीं। बनमनखी के सम्मेलनों के फौरन ही बाद यह मीटिंग थी। वहीं पर जब हमने बनमनखी से लौटे किसी व्यक्ति के मुख से यह सुना कि वहाँ किसान-सम्मेलन में न सिर्फ बिहार प्रांतीय किसान-सभा की मातहती में स्वतंत्र किसान-सभा बनाने का प्रस्ताव पास हुआ , बल्कि जमींदारी-प्रथा मिटाने का भी निश्चय हो गया , तो हम उछल पड़े। हमने यह भी सुना कि प्रायः पंद्रह हजार किसान उपस्थित होंगे। क्योंकि बनमनखी तो घोर देहात है। और लीडरों के हजार कुड़बुड़ाने , सरतोड़ परिश्रम करके विरोध करने पर भी केवल तीन-चार सौ लोगों ने विरोध में राय दी। बाकियों ने ' इन्किलाब जिंदाबाद ', ' जमींदारी-प्रथा नाश हो ', ' किसान राज्य कायम हो ', ' किसान-सभा जिंदाबाद ' आदि नारों के बीच इन प्रस्तावों के पक्ष में राय दी। विरोध करनेवाले न सिर्फ पूर्णियाँ जिले के कांग्रेसी लीडर थे , प्रत्युत बाहरवाले भी। किसी ने खुल के विरोध किया और सारी ताकत लगा दी , तो किसी ने भीतर ही भीतर यही काम किया। मगर विरोध में चूके एक भी नहीं। किसान-सभावादियों पर करारी डाँट भी पड़ी। मगर नतीजा कुछ न हुआ।
इस निराली घटना ने , जो अपने ढंग की पहली ही थी , हममें बहुतों की आँखें खोल दीं , चाहे इससे कांग्रेसी लीडरों की आँखें भले ही न खुली हों। मेरे सामने तो इसके बहुत पहले कुछ ऐसी बातें हो गई थीं जिनसे मेरा विश्वास किसानों में , किसान-सभा में और उसके लक्ष्य में पक्का हो गया था। मगर इस घटना ने हमारे दूसरे साथियों को भी ऐसा विश्वासी बनने का मौका दिया।
(13)
ठीक याद नहीं , किस साल की बात है। शायद सन 1936 ई. की गर्मी के दिन थे। मगर कोसी नदी के इलाके में तो उस समय बरसात शुरू होई जाती है। भागलपुर के मधेपुरा शहर में , जिसे कोसी ने न सिर्फ चारों ओर से घेर रखा है , बल्कि ऊजड़ सा बना दिया है , हमारी एक मीटिंग का प्रबंध किया गया था। भागलपुर जिले के उत्तरी भाग में सुपौल और मधेपुरा ये दो सब-डिविजन पड़ते हैं। सुपौल से दक्षिण मधेपुरा है। मगर कोसी का कोपभाजन होने से वह शहर तबाह , बर्बाद है। अब तो कोसी ने उसका पिंड छोड़ा है। इसलिए शायद पहले जैसा फिर बन जाए।
हाँ , तो हमें उस दिन वहाँ किसानों की सभा करनी थी। उसके पहले दिन , जहाँ तक याद है , सुपौल से बैलगाड़ी में बैठ के रवाना हुए थे। क्योंकि रास्ते में एक और मीटिंग करनी थी। उस स्थान का नाम शायद गमहरिया है। एक बाजार है। जहाँ बनिए लोग भी काफी बसते हैं। वहाँ भी काफी उत्साह था। मीटिंग भी अच्छी हुई थी। वहीं से हम मधेपुरा के लिए सवेरे ही खा-पी के रवाना हुए थे , ताकि तीसरे पहर मीटिंग में पहुँच जाएँ। मगर बैलगाड़ी की सवारी थी। मालूम पड़ता था , रास्ता खत्म ही न होगा। जब तीन-चार बजे तो हमारी घबराहट का ठिकाना न रहा। गाड़ी छोड़ के दौड़ना चाहते थे। पर , आखिर दौड़ के जाते कहाँ ? अकेले तो रास्ता भी मालूम न था। नदी-नालों का प्रदेश ठहरा। यह दूसरी दिक्कत थी। रास्ते में मक्की , अरहर वग़ैरह की फसल खड़ी थी और रास्ता उन्हीं खेतों से हो के था। कहीं उसी जंगल में भटक जाएँ तो और भी बुरा हो। हमारे साथ में वहाँ के प्रमुख कार्यकर्ता श्री महताबलाल यादव थे। वह हमारी दौड़ में साथ दे न सकते थे। जैसे सारन जिले की अर्कपुरवाली सभा से लौटने पर हमारे साथी हिम्मतवाले मिले थे वह बात यहाँ न थी। इसीलिए सिवाय गाड़ीवान को बार-बार ललकारने के कि ' जरा तेज हाँको भई ' और कोई चारा न था।
मगर देहात का बरसाती रास्ता घूम-घुमाववाला था। वह गाड़ीवान बेचारा भी क्या करता ? उसने काफी मुस्तैदी दिखाई। बैल भी काफी परेशान हुए। फिर भी मधुपुरा दूर ही रहा। बड़ी दिक्कत और परेशानी के बाद शाम होते-होते हम कोसी के किनारे पहुँचे। अब हमारे बीच में यह नदी ही खड़ी थी। नहीं तो मीटिंग में दौड़ जाते। झटपट पार होने की कोशिश करने लगे। यह नदी भी बड़ी बुरी है। धारा चौड़ी और तेज है। हमने वहीं देखा कि किसान लोग निराश हो के सभा-स्थान से लौट रहे हैं। कुछ तो नाव से इस पार आ गए हैं। कुछ उस पार किनारे नाव की आशा में खड़े हैं। दूर-दूर से आए थे। अँधेरा हो रहा था। घर न लौटें तो वहाँ पशु-मवेशियों की हिफाजत कौन करेगा , यह विकट प्रश्न था। खाना-वाना भी साथ न लाए थे। मगर जब उन्हें पता लगा कि हमीं स्वामी जी हैं तो बहुतेरे तो ' दर्शन ' से ही संतुष्ट हो के चलते बने। लेकिन कुछ साथ ही नाव पर फिर वापस लौटे। पार होते-होते काफी अँधेरा हो गया। फिर भी हिम्मत थी कि सभा होगी ही। उस पारवाले भी साथ हो लिए। मैं था आगे-आगे। पीछे किसानों का झुंड था। हम लोग बेतहाशा दौड़ रहे थे। खेतों से ही हो के जाना था। फसल खड़ी थी। सभा-स्थान काफी दूर था। हालाँकि हम मधेपुरा में ही दौड़ रहे थे। लोगों ने ' स्वामी जी की जय ', ' लौट चलो ' आदि की आवाजें लगानी शुरू कीं। ताकि जो लोग दूसरे रास्तों से लौटते हों घर की तरफ , वे भी सभा में वापस आएँ। अजीब सभा थी। एक बार तो कुछ देर तक दिशाएँ पुकार से गूँज गईं। जब तक हमारी दौड़ जारी रही पुकार भी होती ही रही। जो जहाँ था वहीं से जय-जय करता लौट पड़ा। सूखती फसल को गोया बारिश मिली। निराश लोगों में खुशी का ठिकाना न रहा। चाहे भूखे भले ही रहें , मगर स्वामी जी का व्याख्यान तो सुन लें , यही खयाल उनके दिलों में उछालें मार रहा था।
खैर , यह पहुँचे , वह पहुँचे , ऐसा करते-कराते हम लोग बेतहाशा दौड़ रहे थे। लोग भी चारों ओर से आवाज सुनते ही दौड़ पड़े थे। जोई सुनता था वही आवाज लगाता था। उस दिन हमने दिखला दिया कि सभा करने और उसे चलाने में ही हम आगे-आगे नहीं रहते , मौका पड़ने पर दौड़ने में भी आगे ही रहते हैं। उस दिन कहाँ से उतनी ताकत हममें आ गई , यह कौन बताए ? मैं सब चीजें बर्दाश्त कर सकता हूँ। मगर एक भी मीटिंग से किसान निराश हो के लौट जाएँ और मैं ठीक समय पर मीटिंग में पहुँच न सकूँ , यह बात मेरे लिए बर्दाश्त के बाहर है , मौत से भी बुरी है। उस समय मेरी मनोवृत्ति कैसी होती है इसे दूसरा समझी नहीं सकता। यदि हमारे कार्यकर्ता भी मेरी उस वेदना को समझ पाते तो भविष्य में ऐसी गलतियाँ न करते। उस मनोवृत्ति के फलस्वरूप मुझमें निराशा के बदले काफी बल आता है ताकि किसी भी प्रकार मीटिंग में पहुँच तो जाऊँ। क्योंकि यदि कुछ भी किसान मुझे वहाँ देख लेंगे तो उनके द्वारा धीरे-धीरे सबों में खबर फैल जायगी कि मैं मीटिंग में पहुँचा था जरूर। देरी का कारण सवारी ही थी।
सभा-स्थान राष्ट्रीय स्कूल और कांग्रेस ऑफिस के पास का मैदान था। मैं भी पहुँचा और लोग भी आए , गोकि बहुतेरे चले गए थे। मैंने उन्हें उपदेश दिया और देरी के लिए माफी माँगी। यह भी तय पाया कि अगले दिन फिर सभा होगी। रातों-रात खबर फिरा दी गई। लोग अगले दिन भी काफी आए। आएँ भी क्यों नहीं ? कोसी ने तो उनकी कचूमर निकाल ही ली है। मगर बचे-बचाए रक्त को जमींदारों ने चूस लिया है। केवल कंकाल खड़ा है। यही हैं जमींदारी-प्रथा के मारे हमारे किसान!
(14)
भागलपुर जिले के उत्तरी हिस्से में कोसी नदी और जमींदारों ने कुछ ऐसी गुटबंदी की है कि किसान लोग पनाह माँगते हैं। दोनों ही निर्दय और किसानों की ओर से ऐसे लापरवाह हैं कि कुछ कहिए मत। कोसी को तो खैर न समझ है और न चेतनता। इसलिए वह जो भी अनर्थ करे समझ में आ सकता है। वह तो अंधी ठहरी। मगर इन्सान और सभ्य कहे जानेवाले ये जमींदार! इन्हें क्या कहा जाए ? जब कोसी से भी बाजी मार ले जाते हुए ये भलेमानस देखे जाते हैं तो आश्चर्य होता है। मालूम होता है , ये लोग नादिरशाह हैं। इन्हें मनुष्यता से कोई नाता ही नहीं। इनके लिए कोई आईन कानून भी नहीं हैं! इन निराले जीवों को कुदरत ने क्यों पैदा किया यह पता ही नहीं चलता!
किसान-सभा के ही आंदोलन के सिलसिले में मैं कई बार उस इलाके में गया जिसे कोसी ने उजाड़ दिया है। उसकी धारा को कोई ठिकाना नहीं है। रहती है रहती है , एकाएक पलट जाती है और आबाद भू-भाग को अपने पेट में बीसियों साल तक लगातार डाल लेती है। यह ठीक है कि जिस जमीन को छोड़ देती है वहाँ पैदावार तो खूब ही हो जाती है। मगर झौआ , खरही , वग़ैरह का ऐसा घोर जंगल हो जाता है कि कुछ पूछिए मत। जंगली सूअर , हिरण और दूसरे जानवरों के अड्डे उस जंगल में बन जाते हैं। फिर तो वे लोग दूर तक धावा मारते हैं। किसानों की फसलें बचने पाती ही नहीं हैं। वे लोग पनाह माँगते फिरते हैं। यह भी नहीं कि वह जंगल कट जाए। किसानों की क्या ताकत कि उसे काट सकें ? हजारों , लाखों बीघे में लगातार जंगल ही जंगल होता है। यदि काटिए भी तो फिर खड़ा हो जाता है। जब तक उसकी जड़ें न खोद डाली जाएँ तब तक कुछ होने जाने का नहीं। और यह काम मामूली नहीं है। इसी से किसान तबाह रहते हैं।
कोसी की धारा जिधर जाती है उधर एक तो लक्ष-लक्ष बीघा जमीन पानी के पेट में समा जाती है। दूसरे जंगल हो जाने से दिक्कत बढ़ती है। तीसरे मलेरिया का प्रकोप ऐसा होता है कि सबों के चेहरे पीले पड़ जाते हैं। यह भी नहीं कि धारा सर्वत्र बनी रहे। लाखों-करोड़ों बीघे में स्थिर पानी पड़ा रहता है। इसी से जंगल तैयार होता है और मच्छरों की फौज पैदा होती है। उस पानी में एक प्रकार का धान बोया जा सकता है। मगर उस पर यह आफत होती है कि जब धान में बालें लगती और पकती हैं तो रात में जलवाले पक्षियों का गिरोह लाखों की तादाद में आ के खा डालता है। यह यम-सेना कहाँ से आती है कौन बताए ? मगर आती है जरूर। एक तो रात में रोज-रोज इनसे फसल की रखवाली आसान नहीं है ─ गैर-मुमकिन है। बिना नाव के काम चलता नहीं। सो भी बहुत ज्यादा नावें हों और सैकड़ों-हजारों आदमी सारी रात जगते तथा हू हू करते रहें , तब कहीं जा के शायद पिंड छूटे। किंतु आश्चर्य तो यह है कि जमींदार उन्हें ऐसा करने भी नहीं देते। उस इलाके में नौगछियाँ के जमींदार हैं बा. भूपेंद्र नारायण सिंह उर्फ लाल साहब। उन्हें चिड़ियों के शिकार का बड़ा शौक है। खुद तो खुद दूर-दूर से अपने दोस्तों को भी बुलाते हैं इसी काम के लिए। सरकारी अफसर भी अक्सर निमंत्रित किए जाते हैं। रात में पानी में चारा डाला जाता है ताकि पक्षियों के दल के दल उसी लोभ से आएँ। अब यदि कहीं किसान ने उन्हें उड़ाना शुरू किया अपनी फसल बचाने के लिए , तो जमींदार साहब और उनके दोस्त शिकार कैसे खेलेंगे ? तब तो उनका सारा मजा ही किरकिरा हो जाएगा। इसीलिए तो खास तौर से चारा फेंका जाता है , ताकि यदि धान के लोभ से पक्षी न भी आएँ तो उस चारे के लोभ से तो आएँगे ही। यही कारण है कि किसानों को सख्त मनाही है कि चिड़ियों को हर्गिज रात में या दिन में उड़ाएँ न। कैसी नवाबी और तानाशाही है! चाहे किसानों के प्राण पखेरू इसके चलते अन्न बिना भले ही उड़ जाएँ। मगर चिड़ियाँ उड़ाई जा नहीं सकती हैं। उनका उड़ना जमींदार को बर्दाश्त नहीं है! खूबी यह है कि यही जमींदार साहब लीडरों की कोशिश से गत असेंबली चुनाव में कांग्रेस के उम्मीदवार करीब-करीब बनाए जा चुके थे। बड़ी मुश्किल से रोके जा सके।
उसी इलाके में महाराजा दरभंगा की जमींदारी में दो बड़े गाँव हैं , जैसे शहर हों। उनका नाम है महिषी और बनगाँव। दोनों एक-दूसरे से काफी दूर हैं , जो बीच में तीसरा गाँव है नहीं। फिर भी प्रायः दोनों साथ ही बोले जाते हैं। वहाँ मैथिल ब्राह्मणों की ─ महाराजा दरभंगा के खास भाई-बंधुओं की-बड़ी आबादी है। मधेपुरा के लिए जिस सहरसा स्टेशन से एक छोटी सी लाइन जाती है उसी के पास ही वे दोनों गाँव पड़ते हैं। वहीं उतर के वहाँ जाना पड़ता है। बनगाँव के मजलूम किसानों ने हमारी मीटिंग का प्रबंध कर रखा था। मगर हमें यह भी पता था कि महिषी में भी वैसी ही मीटिंग है। वहाँ भी जाना होगा। जाना तो जरूर था , पर रास्ते में कोसी की जलराशि जो बाधक थी। इसलिए बहुत दूर पैदल जाके नाव पर चलना था। दूसरा रास्ता था ही नहीं। आखिरकार बनगाँव की शानदार सभा को पूरा करके हम लोग महिषी के लिए चल पड़े। यों तो पानी सर्वत्र खेतों में फैला था और बनगाँववाले भी काफी तबाह थे। फिर भी कम पानी होने से छोटी से भी छोटी डोंगी उन खेतों में चल न सकती थी। इसीलिए दूर तक कीचड़ और पानी पार करके हमने डोंगी पकड़ी और चल पड़े।
रास्ते में जो दृश्य देखा वह कभी भूलने का नहीं। जो कभी धान के हरे-भरे खेत थे वही आज अपार जलराशि और जंगल देखा। जहाँ कभी धान लहराते और किसानों के कलेजों को बाँसों उछालते थे वहीं आज कोसी हिलोरें मारती थी ─ वहीं आज जंगल लहराता था। नाव पर चलते-चलते बहुत देर हुई। मगर फिर भी यात्रा का अंत नहीं। उन खेतों वाले किसान कैसे जीते होंगे यह सवाल स्वाभाविक है। हमें पता लगा-किसानों ने खून के आँसू रोके हमें अपनी दुःख-दर्द की गाथा सुनाई-कि गाँव की चौदह आना जमीन पानी के भीतर है। अच्छे से अच्छे विद्वान और कुलीन ब्राह्मण गाँव से दौड़ के बाजे-गाजे के साथ घुटने भर पानी में हमें लेने आए थे। उन्हें आज खुशी की घड़ी मालूम पड़ती थी। उन्हें किसान-सभा से आशा थी। इसलिए चाहते थे कि मैं खुद अपनी आँखों उनकी दुर्दशा देख जाऊँ। उनने अपना किसान सुलभ निर्मल एवं कोमल हृदय मेरे सामने बिछा दिया था। सच्ची बात तो यह है कि वह भयावनी हालत देख के मेरा खून खौलता था , मेरी आँखों से आग निकलती थी। जी चाहता था कि इस राक्षसी जमींदारी को कैसे रसातल भेज दूँ ─ मटियामेट कर दूँ। मैंने दिल भर के वहाँ की सभा में जमींदारी-प्रथा को कोसा! मीटिंग में वहाँ के ब्राह्मणों ने जो अभिनंदन किया वह कभी भूलनेवाला नहीं। उसने मेरा संकल्प और भी दृढ़ कर दिया कि जमींदारी को जहन्नुम में पहुँचा के ही दम लूँगा।
वहीं मुझे पता लगा कि बीसियों साल से जमीन में बारहों मास पानी रहता है। खेती हो पाती नहीं। फिर भी जमींदार का लगान देना ही पड़ता है! वाह रे लगान और वाह रे कानून! न देने पर महाराजा नालिश करते हैं और माल-मवेशी ले जाते हैं। उन्हें तो नालिश करने की भी जरूरत नहीं है। सर्टिफिकेट का अधिकार जो प्राप्त है। जैसे सरकारी पावना बिना नालिश के ही वसूल होता है। क्योंकि जोई चीज मिली जब्त , कुर्क कर ली जाती है। ठीक वैसे ही सर्टिफिकेट के बल पर महाराजाधिराज भी करते हैं। केवल सरकारी माल-मुहकमे के अफसर को बाकायदा सूचना देने से ही उनका काम बन जाता है और खर्र-खर्र रुपए वसूल हो जाते हैं। नहीं तो एक रुपए में पचीस-पचास की चीज नीलाम हो जाती है। इसीलिए किसान जेवर , जमीन बेच के , कर्ज ले के , यहाँ तक कि लड़कियाँ बेच के भी खामख्वाह रुपया अदा करी देते हैं।
सवाल हो सकता है कि जमीन ही क्यों नीलाम हो जाने नहीं देते जब उसमें कुछ होता ही नहीं ? बात तो ठीक है। मगर सर्टिफिकेट में जमीन तो पीछे नीलाम होती है। पहले तो और ही चीजें लुटती हैं। एक बात और। किसान को आशा बनी रहती है कि शायद कोसी की धारा यहाँ से चली जाए तो फिर खेतों में खेती हो सकेगी। तब तो कुछ साल तक वे काफी पैदावार भी पाते रहेंगे! इसीलिए उन्हें नीलाम होने देना वह नहीं चाहता! आशा में ही साल पर साल गुजरता जाता है। वह निराश नहीं होता। असल में उसमें जितनी हिम्मत है उतनी शायद ही किसी ऋषि-मुनियों और पैगंबर औलियों में भी पाई गई हो! एक ही दो साल या एक-दो बार ही घाटा होने पर व्यापारियों का दिवाला बोल जाता है। मगर लगातार पाँच , सात या दस साल तक फसल मारी जाती है , मजदूरी , बीज और दूसरे खर्च भी जाया होते हैं। फिर भी मौसिम आने पर वह खेती किए जाता है। खूबी तो यह कि इतने पर भी इस कदर लुट जाने पर भी , न तो सरकार को और न दूसरों को ही अपराधी ठहराता है! केवल अपनी तकदीर और पूर्व जन्म की कमाई को ही कोस के संतोष कर लेता है।
यह भी बताया गया कि जिनकी जमीनें और जगह हैं वे उन जमीनों से अन्न पैदा कर के इन पानीवाली जमीनों का लगान चुकता करते हैं। ऐसे कई किसानों के नाम भी मुझे बताए गए। यह भी मैंने वहीं जाना कि यदि किसान उन जमीनों में भरे पानी में मछली मार के अपनी जीविका किसी प्रकार चलाना चाहें तो जमींदार को उसके लिए जल-कर जुदा देना पड़ता है। क्या खूब! इसे जले पर नमक डालना कहें या क्या ? पैदावार होती नहीं। फिर भी लगान होता जा रहा है। और अगर उसी जमीनवाले पानी में पैदा होनेवाली मछली किसान मार लेता है या उसमें मखाना पैदा कर लेता है तो उसके लिए अलग जल-कर वसूल किया जाय! यह अंधेरखाता कब तक चलता रहेगा ? उन मजलूमों का कोई पुर्सांहाल आखिर कभी होगा या नहीं ? जो लोग यह समझे बैठे हैं कि वे यों ही इन अन्नदाता किसानों का शिकार करते रहेंगे वे भूलते हैं। वह दिन दूर नहीं जब उनके पाप का घड़ा फूटेगा-उनका पाप सर पर चढ़ के नाचेगा।
खैर , हमने किसानों को जहाँ तक हो सका आश्वासन दिया और वहाँ से फिर उसी डोंगी पर चढ़ के रवाना हो गए। अगले दिन हमारा प्रोग्राम कहीं और जगह था। शायद चौधरी बखतियापुर की जमींदारी में मीटिंग करनी थी जहाँ हमारे ऊपर दफा 144 की पाबंदी लगी थी। पटने पहुँच के अखबारों में हमने वहाँ का सारा कच्चा चिट्ठा छपवा दिया।
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भागलपुर जिले की ही एक और दिलचस्प यात्रा है। वह भी उसी कोसी के इलाके में थी। कोसी की धारा के बराबर बदलते रहने के कारण बहुत सी जमीन भागलपुर और पूर्णियाँ जिलों के बीच में जंगल से घिरी है। मगर बीच-बीच में खेती होती है। वही कोसी का दियारा कहा जाता है। राजपूताने के अपार रेगिस्तान की-सी उसकी हालत है। चलते जाइए , मगर खात्मा नहीं होता। उस दियारे में कदवा नाम का एक गाँव या गाँवों का समूह है। दस-दस , बीस-बीस या अधिक झोंपड़ों के अनेक टोले बसते हैं। कोसों चले जाइए। पर , एक ही गाँव पाइएगा। नदियों के हट जाने पर जो जमीनें नए सिरे से बनती हैं वही हैं दियारे की जमीनें। ऐसी जमीनों में आबादी की यही हालत सर्वत्र पाई जाती है। लगातार मीलों लंबे गाँव तो कहीं शायद ही मिलेंगे। खेती करने की आसानी के खयाल से दो-चार झोंपड़े पड़ गए और काम चालू हो गया। फिर कुछ दूर हट के कुछ छप्पर डाल दिएगए और उन्हीं के इर्द-गिर्द खेती होने लगी। इसी तरह गाँव बसते हैं। कदवा भी ऐसे ही गाँवों में एक है।
भागलपुर जिले के उत्तरी भाग में श्री नागेश्वर सेन जी एक गठीले युवक और लगनवाले किसान-सेवक हैं। कदवा उन्हीं का कार्यक्षेत्र उस समय था। उनने ही वहाँ मीटिंग का प्रबंध किया था। उन्हीं के अनुरोध और आग्रह से हमने भी वहाँ जाना स्वीकार कर लिया था। लेकिन हमें इस बात का पता न था कि कदवा है किधर और वहाँ पहुँचेंगे किस तरहख किस रास्ते से ? कोसी दियारे में कहीं है , सिर्फ इतनी ही जानकारी थी। जब तक वहाँ के लिए हम रवाना न हो गए तब तक जानते थे कि कहीं बैलगाड़ी के रास्ते पर होगा। मगर जब मीटिंग के पहले दिन नौगछिया से रवाना होने की तैयारी हुई और कहा गया कि नाव से रातोंरात चलना है , तब कहीं जा कर हमें अंदाज लगा कि यात्रा विकट जरूर होगी।
शाम का वक्त था। बादल घिरे थे। बूँदा-बाँदी भी हो रही थी। पर वही टिप-टिप-टिप। नौगछिया स्टेशन के पास ही जो नदी की धारा है उसी में एक नाव तैयार खड़ी थी। वह धारा चालू नहीं बताई जाती है। मगर बरसात में तो विकट रूप उसका होई गया था। नाव पर ऊपर से छावनी भी थी ताकि पानी पड़ने पर कपड़े-लत्ते बचाए जा सकें। छोटी-सी डोंगी थी जिस पर ज्यादे से ज्यादे दस-पाँच आदमी ही चल सकते थे। ज्यादा लोग हों तो शायद डूब ही जाए। उस धारा में घड़ियाल वगैरह खतरनाक जानवरों का बाहुल्य बताया जाता है। इसलिए नाव पर भी लोग होशियार हो के यात्रा करते हैं। कहीं वह फँस जाए तो खूँखार जलचर धावा ही बोल दें। तिस पर तुर्रा यह कि रात का समय था। बरसात अलग ही थी। बूँदें भी उसके खतरे को और बढ़ा रही थीं। सारांश यह कि सभी सामान इस बात के मौजूद थे कि चलनेवाले हिम्मत ही हार जाएँ।
हुआ भी ऐसा ही। नागेश्वर सेन तो साथ थे नहीं। वे तो कदवा में ही सभा की तैयारी में लगे थे। मगर और जितने साथी वहाँ चलनेवाले थे एक के अलावे सबने पस्त-हिम्मती दिखाई। मौत के मुँह में जान-बूझ के कौन जाए ? यदि रात में मूसलाधार बारिश हो गई और नाव के ही डूबने की नौबत आ गई तो ? सचमुच ही ऐसा हुआ भी और रास्ते में हमें कई बार नाव किनारे लगा के रोकनी पड़ी। किंतु साथी लोग तो हिसाब लगा रहे थे कि ठेठ घड़ियालों के मुँह में ही चला जाना होगा ; हाँ , यह बात सीधे कहते न थे। किंतु दूसरे दूसरे बहाने कर रहे थे। ' नावक्त है , मौसम बुरा है , न जानें रास्ते में क्या हो जाए , बरसात के चलते मीटिंग भी शायद ही हो सके , यदि हो भी तो ज्यादा किसान शायद ही आ सकें ' आदि दलीलें न चलने के सिलसिले में ज्यों-ज्यों पेश की जाती थीं त्यों-त्यों मेरा खून खौलता था और डर भी लगता था कि अगर इनने अंततोगत्वा न जाने का ही फैसला कर लिया तो बात बुरी होगी। मेरा प्रोग्राम और पूरा न हो। मैं यह बात सोचने को भी तैयार न था इसीलिए साथियों की इस नामर्दी पर भीतर-ही-भीतर कुढ़ता था और तरस भी खाता था। सब के सब किसान-सेवक ही थे। सो भी पुराने। मगर सेवा की ऐन परीक्षा में फेल हो रहे थे।
रेल , मोटर या दूसरी सवारियों से शान से पहुँच के फूल-मालाएँ पहनना , नेता बनना , पुजवाना और गर्मागर्म लेक्चर झाड़ना इसे किसान-सेवा नहीं कहते। यह तो दूकानदारी भी हो सकती है और सेवा भी। इससे तो किसानों को धोखा हो सकता है। दस-बीस मील पैदल चल के , कीचड़-पानी के साथ कुश्ती कर के , जान की बाजी लगा के , दौड़-धूप के और भूखों रह के भी जब अपना प्रोग्राम पूरा किया जाए , किसानों का उत्साह बढ़ाया जाए , उनका संघर्ष चलाया जाए और उन्हें रास्ता दिखाया जाए तभी किसान-सेवा की बात उठ सकती है। यही है उस सेवा की अग्नि-परीक्षा। इसमें बार-बार उत्तीर्ण होने पर ही किसान-सेवक बनने का हक किसी को हो सकता है। दूर-दूर के गाँवों से अपना काम-धाम छोड़ के किसान लोग तो भीगते-भागते और धूप में जलते या जाड़े में काँपते हुए मीटिंग में इस आशा से आए कि अपने काम की बातें सुनेंगे , अँधेरे में अपना रास्ता देखेंगे। मगर बातें सुनाने और रास्ता बतानेवाले नेता ही गैरहाजिर! उनने अपने दिल में पक्की वजह बना ली कि सवारी न मिली , मौसम ही बुरा था वगैरह-वगैरह। मगर किसान को क्या मालूम ? उसे किसने कहा था कि मौसम खराब होने पर सभा न होगी , या उसे ही (हर किसान को ही) सवारी का प्रबंध करना होगा ? ये बातें तो जान-बूझ के उनसे कही जाती हैं नहीं। सिर्फ अन्न-पानी या पैसे उनसे इस काम के लिए माँगे जाते हैं और ये गरीब खुशी-खुशी देते भी हैं। चाहे खुद भूखे रह जाएँ भले ही! ऐसी हालत में उन्हें निराश करने या ऐन मौके पर मीटिंग में न पहुँचने का हक किस किसान-नेता या किसान-सेवक को रह जाता है ? ऐसा करना न सिर्फ गैर-जिम्मेदारी का काम है , बल्कि किसानों के हितों के साथ खिलवाड़ करना है। ऐसी दशा में तो किसान-आंदोलन सिर्फ दूकानदारी हो जाती है।
मगर हमें इस दिक्कत का सामना करना न पड़ा और अंत में तय पाया कि खामख्वाह चलना ही होगा। हमें इससे जितनी ही खुशी हुई वह कौन बताएगा ? नाव चल पड़ी। बातें करते-कराते और सोते-जागते हम लोग उस कोयले से भी काली रात में नदी की भयंकर धार में नाव लिए चले जा रहे थे। रास्ते में कई बार किनारे लगे यह तो कही चुके हैं। कोई बता नहीं सकता कि हमें कितने मील तय करने पड़े। मगर जब सुबह हुई तो पता चला कि अभी दूर चलना है। दिक्कत यह थी कि रास्ते में धाराएँ कई मिलीं और कौन कदवा जाएगी यह तय करने में दिक्कतें पेश आईं। तो भी जैसे-तैसे हम ठीक रास्ते से चलते गए। जानवरों का सामना तो कभी हुआ नहीं। मगर रास्ते में कई बार ऐसा हुआ कि पानी बिलकुल ही कम था और हमारी छोटी-सी नाव भी जमीन से टकरा जाती थी। फिर आगे बढ़ें तो कैसे ? तब हर बार हम लोग उससे उतर पड़ते जिससे हल्की हो के ऊपर उठ आती। साथ ही आगे-पीछे लग के ठेलते जाते भी थे। इस तरह इस यात्रा का मजा हमें मिला। इसी ठेला-ठाली ने नाव को ठिकाने लगाया।
एक दिक्कत यह भी थी कि रास्ते में गाँव तो शायद ही कहीं मिले। सिर्फ मक्की आदि के खेत चारों ओर खड़े थे। हाँ , कहीं-कहीं उनकी रखवाली करनेवाले किसान झोंपड़े डाले पड़े थे। उनसे ही रास्ते का पता हमें जरूरत के वक्त लग जाता था। हाँ , उन्हें भी यह देख के हैरत होती थी कि आखिर कैसे पागलों की हमारी टोली थी , जो मस्ती में झूमती चली जाती थी। वे तो समझते थे कि उधर तो उन जैसे सख्ती के बर्दाश्त करनेवाले लोग ही जा सकते हैं और हमें वे समझते थे कोरे बाबू। और बाबुओं की गुजर उधर थी कहाँ ? इससे वे ताज्जुब में पड़ते थे। उन्हें क्या मालूम कि हम बाबुओं को ठीक रास्ते पर लानेवाले हैं ? वे क्या जानते गए कि हमसे बाबू भी खार खाते और डरते हैं ? वे जानते न थे कि हम जन-सेवा के नाम पर होनेवाली दूकानदारी को मिटानेवाले हैं। यदि उन्हें मालूम होता कि हम जमींदारी-प्रथा को उसी घारे में डुबा के घड़ियालों के हवाले करने वाले हैं तो वे बिचारे कितने खुश होते! क्योंकि सभी के सभी जमींदारों के द्वारा बुरी तरह सताएगए थे।
इस प्रकार चक्कर काटते और घूमघुमाव करते-करते हम लोग वहाँ पहुँचे जहाँ नाव लगनी थी और पैदल चलना था। हमें खुशी हुई कि आ तो गए। मगर अभी कई मील पैदल खेतों से हो के गुजरना था। उसी जगह नित्य कर्म , स्नानादि से फुर्सत पा के हम लोग ' क्विक मार्च ' चल पड़े। दौड़ते तो नहीं ही थे। हाँ , खूब तेज चलते थे। रात भर नाव में पड़े-पड़े एक तरह की थकावट आ गई थी। उसे मिटाना और सवेरे टहलना ये दोनों ही काम हमें करने थे। इसीलिए कुछ तेज चलना जरूरी था। रास्ते में पता लगना मुश्किल था कि किधर जा रहे थे। चारों ओर मक्की ही मक्की खड़ी थी। उस इलाके में यह फसल खूब होती है और बरसात शुरू होते ही तैयार भी हो जाती है। जब और जगह देहातों में मक्की का भुट्टा देखने को भी नहीं मिलता तभी वहाँ उसकी फसल पक के तैयार हो जाती है।
इस तरह नौ-दस बजे उस आश्रम पर पहुँचे जहाँ श्री नागेश्वर सेन ने सभा की तैयारी कर रखी थी। वहाँ देखा कि दूध-दही का टाल लगा था। बहुत लोगों के खाने-पीने की तैयारी थी। दूर-दूर से आनेवाले किसानों को भी खिलाने-पिलाने का इंतजाम था। इसीलिए इतना सामान मौजूद था। किसान गाय-भैंसें पालते ही हैं। एक वक्त का दूध दे दिया और काफी हो गया। गरीब और पीड़ित होने पर भी किसान कितना उदार है इसका अनुभव मुझे बहुत ज्यादा है। मगर जो कोई अनजान आदमी भी वहाँ जाता वह यह देख के हैरत में पड़ जाता। या तो धनियों की ही सभा की तैयारी समझता , या किसानों की उदारता पर ही मुग्ध होता।
तीसरे पहर वहाँ बहुत बड़ी मीटिंग हुई। जमींदारों के हाथों किसान वहाँ किस प्रकार सताए जाते हैं और उनकी खास शिकायतें क्या हैं ये सब बातें मुझे मालूम हुईं। मैंने उनका उपाय सुझाया और किसान खुशी-खुशी सुनते रहे। इस प्रकार सभा का कार्य कर चुकने पर दूसरे दिन कहारों के कंधे पर बैठ के मैं नारायणपुर स्टेशन तक गया। वहीं गाड़ी पकड़ के बिहटा लौटा। साथ में आश्रम के लड़कों के लिए एक बोरा भुट्टा भी लेता गया।
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सन 1933 ई. वाला जुलाई का महीना था। जहाँ तक याद है , 15वीं जुलाई की बात है। तारीख इसलिए याद है कि किसान-सभा की तरफ से गया के किसानों की जाँच का काम हमने पहले-पहल शुरू किया था। सो भी ऐन बरसात में। उसकी लंबी रिपोर्ट की दुहरी प्रति तैयार करने में हमें महीनों लग गए थे। असल में अमावाँ टेकारी के जमींदार राजा हरिहरप्रसाद , नारायण सिंह की ही जमींदारी गया जिले में चारों ओर फैली है। इसलिए उनके साठ गाँवों में जा के हमें कच्चे चिट्ठे का पता लगाना जरूरी था। जिले भर के साठ गाँवों से सारी जमींदारी की कलई पूरी तरह खुल जाती थी। इसलिए उतने गाँवों में जाना पड़ा। जब राजा साहब ने हमारी रिपोर्ट माँगी , ताकि हालत जान के कुछ कर सकें , तो हमें मजबूरन दो प्रतियाँ तैयार करनी पड़ीं। बेशक , इस परेशानी का और बाद में बातचीत वग़ैरह में जो वक्त बीता उसका कुछ भी नतीजा नहीं हुआ। सबसे बड़ी बात यह हुई कि इस समूची घटना ने मेरे दिल पर यह अमिट छाप लगा दी कि जमींदारी मिटाने के सिवाय किसानों को अत्याचार और मुसीबतों से उबारने का और कोई रास्ता हई नहीं। मेरे दिल में जो यह खयाल कभी-कभी हो आता था कि शायद गाँधी जी की बातें सही हों और जमींदार सुधर जाएँ , वह इस घटना के बाद सदा के लिए मिट गया और मैंने दिल से मान लिया कि जमींदारी ला-इलाज मर्ज है। ' गया के किसानों की करुण कहानी ' के नाम से उस रिपोर्ट की प्रधान बातें पुस्तक के रूप में पीछे छापी भी गईं। इन्हीं सब कारणों से और आगे लिखी वजहों से भी वह बरसात की 15वीं जुलाई अभी तक भूली नहीं।
उसी दिन मैं , पं. यमुना कार्यी , पं. यदुनंदन शर्मा और डॉ युगलकिशोर सिंह किसानों की हालत जाँचने के लिए प्रांतीय किसान-सभा की तरफ से जहानाबाद पहुँचे थे। पं. यदुनंदन शर्मा ने गया जिले में हमारा रोज-रोज का प्रोग्राम ठीक किया था। घोर देहातों में वर्षा के दिनों में जाँच का प्रोग्राम पूरा होना , जो अपने ढंग का पहला ही था , आसान न था। दस-दस , पंद्रह-पंद्रह मील और इससे भी ज्यादा दूरी पर हमें ठीक समय पर पहुँचना था। नहीं तो जाँच असंभव हो जाती। फिर किसानों को जमा करना गैर-मुमकिन जो हो जाता अगर हम एक दिन भी चूक जाते। जाँच के काम के बाद हमें उनकी बड़ी-बड़ी सभाओं में उपदेश देना भी जरूरी था। इसलिए शर्मा जी ने ऐसा सुंदर प्रबंध किया था कि एक दिन भी हमारे काम में गड़बड़ी न हो सकी। देहाती रास्तों को तय कर के हम बराबर ही ठीक समय पर सभी जगह पहुँचते गए। एक जगह हमारा काम पूरा भी नहीं हो पाता कि दूसरी जगह से सवारी आ जाती। यह भी था कि सवारी की जहाँ कोई भी आशा न होती वहाँ हम पैदल ही जा धमकते। आखिर मूसलाधार वृष्टि में सवारी कौन मिलती और कैसे ? जो काम बाबुआनी ढंग से कांग्रेस की जाँच कमेटी गर्मियों और जाड़ों में कर न सकी वही हमने मध्य बरसात में इस खूबी से पूरा किया कि हम खुद हैरत में थे कि यह कैसे हो सका! दूसरे लोग तो इसे असंभव ही समझे बैठे रहे। सबसे बड़ी बात यह हुई कि किसानों की मुस्तैदी और तैयारी का हमें विश्वास हो गया , बशर्ते कि पं. यदुनंदन शर्मा जैसे कार्यकर्ता उन्हें मिल जाएँ। हमने मान लिया कि क्षेत्र तैयार है। सिर्फ धुनी किसान-सेवकों और पथ-दर्शकों की जरूरत है। यह हमारा विश्वास , जो उस समय की किसानों की आकस्मिक मुस्तैदी से हुआ था , तब से बराबर मजबूत होता ही गया है।
यह मानी हुई बात है कि किसान-सभा के पास कोई कोष न था। अभी-अभी तो वह पुनजीर्वित हुई थी। और सच्ची बात तो यह है कि सभा में कोष कभी रहा ही नहीं है , हालाँकि मौके पर उसके नाम से हजारों रुपए खर्च होते रहे हैं। असल में जनता की संस्थाओं के पास स्थायी कोष होना भी नहीं चाहिए। यह तो मध्यम वर्ग की संस्थाओं की ही चीज है कि रुपए जमा हों। उनका काम रुपयों के बिना चली नहीं सकता। मगर विपरीत इसके जनता की संस्थाओं का असली कोष है उन पर जनता का पूरा-पूरा विश्वास और प्रेम। फिर तो अन्न-धन की कमी हो सकती नहीं। हाँ , वह मिलता रहता है उतना ही जितने की समय-समय पर जरूरत हो। न ज्यादा मिलता है और न कम। सिर्फ काम चलाऊ मिलता है। ईमानदार संस्थाएँ ज्यादा वसूली खुद ही नहीं करती हैं। अगर कहीं ज्यादा हो गई तो खामख्वाह उसका सदुपयोग होना असंभव हो जाता है। कुछ-न-कुछ ऐसा उपयोग होता ही है जिसकी कोई जरूरत न हो। नतीजा यह होता है कि यह पाप छिपता नहीं और संस्था में घुन लग जाता है। पैसा जमा हो जाने पर सेवा की जगह एक तरह की महंथी ले लेती है और कोढ़ी लोगों का प्रवेश उन संस्थाओं में होने लगता है , जब कि पहले केवल धुनी और परिश्रमी लोग ही आते थे।
हमारी उस जाँच में किसानों ने न सिर्फ सवारी और हमारे खान-पान आदि का ही प्रबंध किया , बल्कि जाँच के हर केंद्र में उनने यथाशक्ति पैसे का भी पूरा प्रबंध किया जो चुपचाप शर्मा जी के हवाले कर दिया करते थे। हमें रेल से भी कभी-कभी जाने का मौका मिला। पटने से तो रेल से ही गए थे। शहर में जाने पर सवारी और खान-पान का भी खर्च जरूरी था , इसीलिए उनने पैसे का प्रबंध किया था। जब एक जाँच खत्म कर के रवाना होने लगते तो पैसे मिल जाते। हमें यह भी पता लगा कि वे पैसे सभी किसानों से थोड़ा-थोड़ा कर के ही वसूल किएगए थे। जाँच के केंद्र में हमारे खान-पान या सवारी के खर्च का प्रबंध कर लेने पर जो बच जाता वही हमें मिलता। वही हमारी जरूरत के लिए काफी होता। जाँच का आखिरी काम हमने फतहपुर थाना , गया के सदर सब-डिविजन में किया था। वह निरा जंगली और पहाड़ी इलाका है। अमावाँ , महंथ गया आदि की जमींदारियाँ हैं। महंथ ने तो किसानों को पस्त और पामाल कर दिया है। अमावाँ के भी जुल्म कम नहीं हैं। पिछड़े हुए इलाके में जुल्म खामख्वाह ज्यादा होते ही हैं। मगर हमें यह जानकर ताज्जुब हुआ कि वहाँ भी हमारी खर्च के लिए काफी पैसे वसूल हो गए थे। असल में वहीं हमें पता चला कि सभी जगह किसान जाँच के बाद शर्माजी को पैसे देते रहे हैं। कोई जाँच-केंद्र नागा नहीं गया है।
बाहरी दुनियाँ को शायद विश्वास न हो और ताज्जुब हो कि किसान-सभा की प्रारंभिक हालत में ही यह बात कैसे हो सकी। मगर मैं बिहार प्रांतीय किसान-सभा के बारे में पक्की-पक्की बात कह सकता हूँ कि मुश्किल से सौ-दो सौ रुपए आज तक हमें हमारे शुभचिंतकों से मिले होंगे , सो भी दस-बीस के ही रूप में , न कि एक बार। ज्यादे से ज्यादा पचास रुपए एक बार एक ने दिए , सो भी यूनाइटेड पार्टी के झमेले के ही समय सन 1933 ई. के शुरू में ही। लेकिन आज तक हमारी सभा ने लाखों रुपए जरूर ही खर्चे होंगे। केवल मेरी सफर में ही , जो महीने में पचीस दिन तो जरूर ही होती रहती है और कभी-कभी ज्यादे दिन भी , साल में कम-से-कम पाँच-छः हजार रुपए खर्च होई जाते होंगे। यह सिलसिला प्रायः दस साल से जारी है। होता है यही कि जहाँ जिसे मुझे बुलाना होता है वहीं से मेरे सफर खर्च का प्रबंध जरूरी है। अंदाज से उतने पैसे या तो पहले ही भेज दिए जाते हैं या वहाँ जाने पर मिल जाते हैं वहाँ के लोग पूछ लेते हैं कि खर्च कितना चाहिए। मैं भी जितने से काम चले उतना बता देता हूँ। कभी दो-चार रुपए ज्यादा भी मिल जाते हैं जब वे लोग खुद देते हैं बिना पूछे ही। दूसरे प्रांतों में दौरा करने पर भी यही होता है। फलतः ' कुआँ खोदो और पानी पियो ' वाला सिद्धांत ही मेरे साथ चलता है। न तो ज्यादा बचता है और न काम रुकता है। यदि बचता भी है तो साल में दस-बीस ही , सो भी एक-दो के हिसाब से ही। ठीक ही है , ' बासी बचे न कुत्ता खाए। ' अब तो यह सभी जानते हैं कि मेरे दौरे का खर्च किसानों को ही करना पड़ता है। इसीलिए पहले से ही जमा कर रखते हैं। हाँ , जमींदारों और उनके दोस्तों को शायद यह मालूम न हो। किंतु हमें उससे गर्ज ही क्या है ? वे मेरे खर्च के बारे में अंदाज लगाते रहें कि कौन देता है। जो किसान उन्हें और दुनियाँ को देता है वही मुझे क्यों न दे यदि मैं उसी का काम करने जाऊँ ? उसे विश्वास होना चाहिए कि मैं उसके लिए मरता हूँ या उसके दुश्मनों के लिए , और यह विश्वास उसे है यह मेरा यकीन है। तब और चाहिए क्या ? और अगर मैं उस किसान की आशा छोड़ पैसे के लिए औरों का , जो प्रायः प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से उसके शत्रु ही हो सकते हैं , मुँह देखूँ तो मुझ-सा धोखेबाज और पापी कौन होगा ? यदि किसान-सभा भी ऐसा करे तो वह किसानों की सभा हर्गिज नहीं हो सकती है , ऐसा मैं मानता हूँ।
हाँ , तो जहानाबाद से पहले दिन अलगाना और दूसरे दिन धनगाँवा जाना था। ये दोनों गाँव जहानाबाद से पूर्वोत्तर और पूर्व हैं। कभी हरे-भरे थे। मगर अब वीरान हैं। उन गाँवों में जाँच के सिलसिले में जो बातें मालूम हुईं उनका वर्णन हमें यहाँ नहीं करना है और न दूसरे गाँवों का ही। ' करुण कहानी ' में ये सभी बातें लिखी हैं। मगर दो-एक घटनाएँ ऐसी हैं जिन्हें यहाँ लिख देना है। कहते हैं कि जीव एक दूसरे को खा के ही कायम रह सकते हैं ' जीवो जीवस्य जीवनम। ' अलगाना में टेकारी की जमींदारी के एक पटवारी हमें मिले। वह किसानों के साथ लगान की वसूली में खूब सख्ती करते थे। फिर भी कबूल करने को तैयार न थे। एक दिन बातों बात में वे बोल बैठे कि टेकारी की ही जमींदारी में किसी और मौजे में रहते हैं। बकाया लगान में जमीन नीलाम हो गई , तो यहाँ नौकरी करने लगे। पूछने पर यह बात भी उनने कबूल की कि लगान एक तो ज्यादा था। दूसरे फसल भी मारी गई लगातार। इसीलिए चुकता न कर सके जिससे खेत नीलाम हो गए। मगर अलगाना में वे खुद दूसरों की जमीन नीलाम करवाने में लगे थे और इस तरह अपनी जीविका चलाते थे। असल में जमींदारी की मशीन के लिए तेल का काम ये उजड़े किसान ही करते हैं। वही इसे चलाते हैं। इसका प्रत्यक्ष दृष्टांत हमें वे पटवारी साहब मिले। इसीलिए जान-बूझ के किसानों को तबाह किया जाता है। नहीं तो जमींदार की नौकरी कौन करता , सो भी दस-पाँच रुपए महीने की ? जमींदारी का पौधा पनपता और फूलता-फलता है किसानों के खून से ही!
धनगाँवा में हमें पता चला कि एक तो साग-तरकारी के खेतों को सींचने के लिए पुराने जमाने में जमींदार ने जो चार बड़े कुएँ बनवाए थे वे खराब हो गए और उनकी मरम्मत न हुई। दूसरे चुनाव के जमाने में जमींदार के तहसीलदार या सर्किल अफसर उम्मीदवार होते और मुफ्त ही साग-तरकारी वोटरों को खिलाने के लिए ले जाते हैं। क्योंकि धनगाँवा जहानाबाद से निकट है। इसलिए हार कर कोइरी लोगों ने साग तरकारी की खेती ही बंद कर दी। अब सभी केवल धान की खेती करते हैं। वह भी कभी चौपट होती और कभी कुछ सँभलती है। क्योंकि नदी का बाँध खत्म हो जाने से पानी के बिना धान मर जाता है। जमींदार बाँध की मरम्मत करता नहीं और दस-पाँच हजार रुपए लगाना किसानों के लिए गैर-मुमकिन है।
हमें मझियावाँ जाना था। रात में महमदपुर ठहरे थे ─ वही महमदपुर जहाँ के किसानों ने अपने संगठन और मुस्तैदी से पीछे चलके जमींदारों के नाकों चने चबा दिए और आखिरकार पूरे अस्सी बीघे नीलाम जमीन जमींदारों ने उन्हें ही जोतने-बोने दी। क्योंकि नीलामी के बाद जो जो कांड हुए उसमें जमींदारों को लेने के देने पड़े और काफी घाटा हुआ। जब किसानों ने उनका मद अपनी मुस्तैदी से उतार दिया तो आखिर करते क्या ? इसका पूरा वृत्तांत तो ' किसान कैसे लड़ते हैं ' पुस्तक में मिलेगा। रात में खूब पानी पड़ा था और सुबह भी जारी था। मझियावाँ आठ-नौ मील से कम न था , सो भी बरसात में , यों तो देहाती लोग नजदीक ही कह देते हैं। सवारी का प्रबंध असंभव था। पानी में होता भी क्या ? वहाँ की मिट्टी केवाल की (काली-चिकनी) है। पाँव फिसलते देर नहीं , इतनी सख्त होती है। कहीं-कहीं नर्म भी इतनी होती है कि पाँव को छोड़ना ही नहीं चाहती। घुटने तक जा लिपटती है। रास्ते में एक गहरा नाला भी है। मगर हमें तो प्रोग्राम पूरा करना था। सो भी मझियावाँ बहुत ही मजलूम है। राजा अमावाँ ने उसे भून डाला है। अभी-अभी बकाश्त संघर्ष के बाद कुछ सँभलने लगा है। इसी गाँव ने पं. यदुनंदन शर्मा को जन्म दिया है। उस समय लाखों रुपए लगान के बाकी थे ऐसा कहा जाता था।
ऐसे गाँव में यदि न जाते तो सारा गुड़ गोबर ही हो जाता। वहाँ जल्दी कोई पहुँचता भी नहीं। वहाँ का रास्ता कुछ ऐसा है। इसलिए हम लोग हिम्मत कर के चल पड़े। उछलते-कूदते , गिरते-पड़ते बढ़ते जाते थे। यात्रा बेशक बड़ी भयंकर थी। हमारी उस दिन आग्नि-परीक्षा थी। यदि फेल होते तो कहीं के न रहते। मझियावाँ ने सन 1939 ई. की बरसात के समय जो बहादुरी बकाश्त की लड़ाई में दिखाई और विशेषतः वहाँ की स्त्रियाँ जिस मुस्तैदी से लड़ के विजय पाने में समर्थ हुईं उसका बीज हमने सन 1933 ई. की बरसात में ही उसी जाँचवाली यात्रा में बोया था। वही छः साल के बाद फल-फूल के साथ तैयार हो गया। तब तो साफ ही है कि उस दिन चूकने से काम खराब हो जाता। इसलिए हँसी-खुशी चल पड़े थे। तारीफ की बात यही थी कि हममें कोई भी हिचकनेवाला न दीखा। सभी ने उत्साह के साथ आगे बढ़ना ही पसंद किया। नहीं तो मजा किरकिरा हो जाता। ऐसे समय में दुविधे से काम बिगड़ता है।
नतीजा यह हुआ कि हम दोपहर के पहले ही मझियावाँ ठाकुरबाड़ी पर जा पहुँचे। लोग तो निराश थे कि हम पहुँच न सकेंगे। मगर हमें देख किसानों में बिजली दौड़ गई। जो काम हमारे हजार लेक्चरों और उपदेशों से नहीं होता वही उस दिन की हमारी हिम्मत ने कर दिया। इसे ही कहते हैं मौन या अमली उपदेश। ' कह सुनाऊँ या कर दिखाऊँ ' में ' कर दिखाऊँ ' इसी का नाम है।
मझियावाँ के किसानों की जो दरिद्रता हमने पहले-पहल देखी वह कभी भूलने की नहीं। जमींदार कितने निर्दय और वज्र हृदय हो सकते हैं। यह चित्र हमारी आँखों के सामने पहले-पहल खिंचा वहीं पर। हमने घर-घर घूम के उनकी दशा देखी , उस पर खून के आँसू बहाए और जमींदारी को पेट भर के कोसा।
(17)
सन 1938 ई. की बरसात गुजर चुकी थी। आश्विन या कार्तिक का महीना होगा। अभी तक देहाती सड़कों की मरम्मत न हो सकी थी। किसान रबी की फसल बोने में लगे थे। रास्तों में कीचड़ और पानी की कमी न थी। ठीक उसी समय श्री विश्वनाथ प्रसाद मर्दाना ने बलिया जिले में हमारे दौरे का प्रोग्राम बनाया। हमें युक्तप्रांत के कई जिलों में दौरा करना था। श्री हर्षदेव मालवीय (इलाहाबाद) ने उसका प्रबंध किया था। बदकिस्मती से कहिए या खुश-किस्मती से , बलिया जिले के लिए केवल एक ही दिन का समय मिला था और मर्दाना ने एक ही दिन में एक छोर से दूसरे छोर तक तीन-चार मीटिंगों का प्रबंध किया था। मोटर से चलना था। पर सड़कें तो न मोटर के बस की थीं और न मर्दाना के ही कब्जे की। उन सड़कों के ही बल पर चार मीटिंगों का इंतजाम करना खतरे को मोल लेना था। हुआ भी ऐसा ही। मगर मर्दाना तो मर्दाना ही ठहरे। उनमें जोश और हिम्मत काफी है। उम्र थोड़ी होने से खतरे का सोच-विचार जरा कम करते हैं। जो होगा सो देखा जाएगा , यही खयाल रहता है। इसीलिए खतरे के साथ खेलने में उन्हें मजा आता है। हमारे कार्यकर्ताओं में आमतौर से जवाबदेही का उतना खयाल नहीं है जितना होना चाहिए और यह बात आंदोलन के लिए बहुत बुरी है। देहात की सभाओं के प्रबंध के सिलसिले में बहुत बड़े और जवाबदेह कहे जानेवालों की खतरनाक गैर-जवाबदेही देख के मुझे हैरत में आ जाना पड़ा है , सो भी बार-बार। यह हमारी बहुत बड़ी कमी है जो मुझे रह-रह के बुरी तरह अखरती है।
हाँ , तो बलिया स्टेशन पर आधी रात के बाद ही हम लोग उतरे थे और वेटिंग रूम में ही ठहर गए। सवेरे ही खा-पी के रवाना हो जाने की तैयारी थी। एक ही मोटर थी। उसी पर जितने लोग लद सके लद के रवाना हो गए। रेवती , सहतवार , बाँसडीह और मनियार इन चार स्थानों में सभाएँकर के अगले दिन सुबह के पहले ही प्रायः दो ही बजे बेलथरा रोड स्टेशन पहुँच के बस्ती जाने की ट्रेन पकड़नी थी। जिले के पूर्वी सिरे के करीब पहुँच के पहली मीटिंग थी और उत्तर-पश्चिमी किनारे पर पहुँच के रेलगाड़ी पकड़नी थी। सड़कें तो सब की सब कच्ची ही थीं केवल शुरू में ही थोड़ी सी पक्की मिली। बरसात ने उनकी ऐसी फजीती कर डाली थी कि रास्ते भर मोटर उछाल मारती थी। मुझे तो सबसे ज्यादा ताज्जुब उस मोटर की मजबूती पर था जो टूटी नहीं और अंत तक काम करती ही गई।
दोहपर के करीब हम लोग रेवती पहुँचे। एक बाग में मीटिंग का प्रबंध था। पास में ही एक डिप्टी साहब का खेमा था। शायद तकावी या इसी प्रकार का कर्ज वे बाँट रहे थे गरीब किसानों को। मगर उनने कृपा की और हमारी मीटिंग में बाधा नहीं हुई। हमने अपनी बात किसानों को कह सुनाई और बाँसडीह के लिए चल पड़े। रास्ते में ही सहतवार गाँव पड़ा। जाने के समय भी पड़ा था और वहाँ के लोगों ने हमें रोकने का तय कर लिया था। जब लौटे तो मजबूर होना पड़ा। देहात का यह एक अच्छा बाजार है। लोग जमा हो गए। दूसरे गाँवों के भी लोग थे। पेड़ों के बीच एक ऊँची पक्की जगह पर , जो शायद एक मंदिर की है , हमने उन्हें अपना कर्त्तव्य समझाया और किसानों के लिए क्या करना जरूरी है यह बताया। फिर फौरन ही बाँसडीह का रास्ता लिया।
बाँसडीह में बड़ी तैयारी थी। कोठे पर ठहरे। बहुत लोग वहीं जमा हो गए। उनसे बातें होती रहीं। फिर नीचे काफी भीड़ हुई। हमें मजबूरन कोठे पर ही छत के किनारे से उपदेश देना पड़ा ताकि नीचे और ऊपर के सभी लोग अच्छी तरह सुन सकें। दूसरी जगह जाने में देर होती और हमें अभी मनियर जाना था , जो वहाँ से काफी दूर था। इसीलिए कोठे पर से ही उपदेश देने का प्रबंध किया गया था। हमने वहाँ का काम भी जल्दी-जल्दी में खत्म किया और चटपट मनियर के लिए रवाना हो गए। असल में सबसे बड़ी और तैयारीवाली सभा मनियर में ही थी। खुशी यही थी कि वह सभा रात में होने को थी। यदि दिन में होती तो हम हर्गिज वहाँ पहुँची न सकते। अँधेरा तो हो गया पहुँचते ही पहुँचते। मर्दाना ने रात में उसका प्रबंधकर के दूरंदेशी और जवाबदेही का परिचय जरूर दिया था।
बेशक , जैसी आशा थी नहीं वैसी सभा वहाँ हुई। हमने स्थान की तैयारी वगैरह देखी सो तो देखी ही। हमें उस चीज ने आकृष्ट नहीं किया। हाँ , जब देखा कि सैकड़ों किसान-सेवक (वालंटियर) वर्दी पहने और हाथ में लाठी लिए चारों तरफ तैनात थे और भीड़ को कब्जे में रख रहे थे तो हमें बड़ी ही खुशी हुई। मीटिंग का प्रबंध , बोलने आदि का तरीका ये सभी बातें सराहनीय थीं। वहाँ पर हम घंटों बोलते रहे और किसानों की समस्याओं को खोल के लोगों के सामने रख दिया। असल में उस दिन की चार मीटिंगों में पहली में हम अच्छी तरह बोल सके थे हालाँकि जल्दी में जरूर थे। मगर मनियर में तो निश्चिंत हो के बोलते रहे। लोग भी ऐसे शांत थे कि गोया हमारी बातें मस्त हो के पीते जाते थे। कांग्रेसी मंत्रिमंडल के युग में भी किसानों की तकलीफें पहलें जैसी ही रह गईं यह देख के लोगों में बहुत ही क्षोभ था। लोग अब असलियत समझने लग गए थे। अब तो बातों से नहीं , किंतु कामों से मंत्री लोगों की जाँच कर रहे थे और साफ देख रहे थे कि उनकी बातें डपोरशंखी निकलीं। इसीलिए मुझसे इसका रहस्य सुनने और समझने में उन्हें मजा आ रहा था। किसान-सभा की जरूरत वे लोग अब समझने लगे थे।
खैर , सभा तो खत्म हुई और हम लोग डेरे पर आए। मैंने दूध पिया और साथियों ने खाना खाया। इतने में रात के दस-ग्यारह बज गए। हम चलने की जल्दी में थे। बस्ती जिले का प्रोग्राम बड़ा ही महत्त्वपूर्ण था। असल में वहाँ की यह यात्रा पहली ही थी। बलिया में तो कई बार आ चुके थे। सो भी एक जालिम जमींदारी के किसानों का जमाव था। इसलिए मुझे बड़ी चिंता थी ट्रेन पकड़ने की। मगर मोटर के करते साथी जरा निश्चिंत थे। फलतः खा-पी के रवाना हो गए। मोटर पच्छिम की ओर चल पड़ी। हाँ , यह कहना तो भूली गया कि सरयू नदी की बाढ़ ने लोगों के घरों और उनकी फसलों को बर्बाद कर दिया था। सड़कें भी उसने चौपट कर दी थीं। रास्ते में बर्बाद गाँवों और घरों को देखते चले जा रहे थे। लोग बाहर निकल-निकल के हमें अभिवादन करते थे। उन्हें हमारी खबर तो थी ही। कुछ लोग सभा में लौटे भी थे। इस प्रकार हम आगे जाई रहे थे कि पता लगा कि आगे सड़क टूटी है। मोटर ' पास ' नहीं कर सकती। यदि बगल से जा सकें तो जाएँ। मगर पक्का रास्ता बतानेवाला कोई न था। बस , मैं तो सन्न हो गया और जान पड़ा कि कोई गड़बड़ी होनेवाली है। कलेजा धक-धक कर रहा था।
मोटर रास्ता छोड़ के खेतों से चली। अंदाज से ही ड्राइवर चला रहा था। एक तो रात , दूसरे अनजान रास्ता , तीसरे मोटर और खेतों से उसका चलना! यह गजब की बात थी! हम लोग सचमुच ही मौत के साथ उस समय खेल रहे थे। खेतों से घूमती-घामती और बागों से होती मोटर धीरे-धीरे इस ढंग से चल रही थी कि आगे फिर सड़क मिल जाएगी , जो ठीक होगी। जरूरत होने पर हममें से एकाध उतर के आगे रास्ता देख आते। तब मोटर बढ़ती। ऐसा होते-होते एक बार एकाएक हममें से एक बोल उठा कि '' कुआँ है , कुआँ है! '' ड्राइवर ने मोटर फौरन रोक दी। असल में बहुत ही धीमी चाल से चलती थी तभी हम बच सके। नहीं तो मोटर ही कुएँ में जा गिरती। कुआँ बरसात में घास से छिपा था। जब उसके ऐन किनारे में पहुँचे तभी वह नजर आया और हम लोग बाल-बाल बचे।
फिर आगे बढ़े। मगर सड़क लापता थी। हालाँकि अपने खयाल से हम लोग उसके नजदीक से ही चल रहे थे। असल में तो हमें रास्ता ही नहीं मिला कि सड़क की ओर बढ़ें। सर्वत्र कीचड़-पानी से ही भेंट होती रही। इसी तरह आगे बढ़ते और घूम-घुमाव करते जा रहे थे। नतीजा यह हुआ कि हम लोग सड़क से एक तो बहुत दूर हट गए। दूसरे पच्छिम ओर चलते-चलते पूर्व की ओर हो गए। मोटर के चक्कर और घुमाव के करते ही ड्राइवर को भी और हमें भी पता ही न लगा कि किधर से किधर जा रहे हैं। यों ही चलते-चलाते हालत यह हुई कि जोते खेतों से हम गुजरने लगे। यह थी तो हमारी सरासर नादानी। मोटर की सवारी में अँधेरी रात में ऐसा काम करने की हिम्मत भला कौन रकेगा कि रास्ता छोड़ के खेतों से अनजान दिशा में अंदाज के ही बल चले ? मगर '' आरत करहिं विचार न काऊ '' वाली बात थी। हमें अगले दिन का प्रोग्राम पूरा करना था। और मर्दाना ने पक्का पता सड़क का न लगा के हमें जो यों ही कह दिया कि सड़क ठीक है वह उसी का प्रायश्चित्त हमें किसी प्रकार ठीक समय बेलथरा पहुँचा के करना चाहते थे। इसीलिए उस समय हमें मौत भी भूल गई थी। नहीं तो कुएँवाली घटना के बाद तो खामख्वाह रुक जाते।
इतने में एकाएक एक झील के किनारे हमारी मोटर जा पहुँची। जोते हुए खेतों से चलते-चलते हम समझी न सके कि किधर जा रहे हैं। तब तक पानी के किनारे जा पहुँचे। यह भी अंदाज हुआ कि यह झील लंबी है। अब हम निराश हो गए और घड़ी देखने लगे। पता चला कि दो से ज्यादा समय हो गया है। अब तक हम इस फिराक में थे कि रेल की सीटी सुनें या ट्रेन की आहट पाएँ। खयाल था कि स्टेशन निकट है। मगर अब निराश हो गए। जो तकलीफ उस समय हमें हुई कि आज का प्रोग्राम चौपट हुआ उसे कौन समझ सकता था ? यदि समझनेवाले होते तो अब तक किसान कहाँ-से-कहाँ चले गए होते! अब सोचा गया कि यहीं रुक जाएँ। क्योंकि पता ही न था कि किधर जा रहे हैं। आगे पानी भी तो था। सारी रात जगे थे। पहले दिन चार सभाओं में बोलते-बोलते पस्त भी हो चुके थे। सोने का कोई सामान न था। चिंता अलग प्राण ले रही थी। इतने में फिर देखा कि तीन से भी ज्यादा बज चुके थे।
लाचार , सोचा गया कि सुबह चलेंगे। मगर नींद कहाँ ? वह भी तो तभी आती है जब आराम और मौज के सामान मौजूद रहते हैं। अकेली तो आना जानती नहीं। लाचार किसी प्रकार कुछ घंटे काटे। फिर खयाल आया कि सारे साज-सामान के साथ चलना है। इसलिए बैलगाड़ी तो जरूर ही चाहिए। उसके लिए दो-एक साथी पास के गाँव में गए भी। मगर मेरे साथ तो एक और बला आ लगी। पहले दिन की दौड़-धूप और परेशानी के बाद भी रात में नींद हराम रही। इसलिए मेरी आवाज कतई बंद हो गई। गला ऐसा रुँधा कि ताज्जुब होता था। मेरी जिंदगी में गले की यह हालत पहली ही बार हुई और शायद आखिरी बार भी। जरा भी आवाज निकल न सकती थी। मेरी आवाज बड़ी तेज मानी जाती है। मगर वह एकाएक कहाँ-क्यों चली गई-यह कौन बताए सिवाय डॉक्टरों और वैद्य-हकीमों के ? बुखार भी हो आया। फिर भी जैसे-तैसे बैलगाड़ी पर बैठ के बेलथरा रोड पहुँचना तो था ही। पहुँच भी गए। उसी समय युक्तप्रांत के श्री मोहनलाल सक्सेना कांग्रेसी मंत्रिमंडल का दमामा बजाते बेलथरा पहुँचे थे। उनकी सभा थी। लोगों ने बोलने का हठ मुझसे भी किया। हालाँकि सक्सेना चौंकते थे। मगर यहाँ तो आवाज ही बंद थी। इसलिए बला टली।
स्टेशन पर ही बस्तीवालों को अपनी लाचारी का तार दे के संतोष करना पड़ा। दूसरा चारा था भी नहीं। फिर तय पाया कि बनारस चल के गला ठीक करें। तब दौरा करेंगे। सभी जगह खबर भेज के प्रोग्राम स्थगित किया गया और हम लोग काशी में बाबू बेनीप्रसाद सिंह के यहाँ पहुँचे। वहीं दो या तीन दिनों में गला ठीक कर के फिर दौरा आरंभ किया गया।
(18)
ठीक तारीख और साल याद नहीं। बिहार की ही घटना है। सो भी पटना जिले की ही , बिहटा से दक्षिण मसौढ़ा परगने के नामी जालिम जमींदारों की जमींदारी की। भरतपुरा , धरहरा के जमींदारों से कोई भी जमींदार इस बात की तालीम पा सकता है कि जुल्म कितने प्रकार के और कैसे किए जा सकते हैं। खूबी तो यह कि सरकार और उसके कानूनों की एक न चले और किसान की कचूमर भी निकल आए। अब तो किसान-सभा के प्रताप से जमाना बदल गया है और उन्हीं जमींदारों को वहीं के पस्त किसानों ने नाकों चने चबवा दिए हैं। जो जमींदार भावली लगान की नगदी न करने में आकाश-पाताल एक कर डालते थे , क्योंकि भावली (दानाबंदी) के चलते उन्हें पूरा फायदा था। उससे किसान तबाह भी हो जाते थे। वही आज झखमार के नगदी करने को उतारू हो गए। किसानों ने थोड़ी सी हिम्मत , समझदारी और दूरंदेशी से काम लिया और वे जीत गए। किसानों की सचाई और ईमानदारी से बेजा फायदा उठा के उन्हें ही तंग करनेवाले जमींदारों के साथ कैसा सलूक करना ठीक है यह बात किसानों की समझ में आ गई और काम बन गया। उनने समझ लिया कि सबके साथ युधिष्ठिर और धर्मराज बनना भारी भूल है। इतने ही से पासा पलट गया।
हाँ , तो धरहरा के ही एक जमींदार की कोठी ऐन पक्की सड़क पर ही अछुवा मौजे में बनी है। मौजा उन्हीं हजरत का है। वहाँ के किसान अधिकांश कोइरी हैं। यह एक पक्की किसान जाति है। कोइरी लोग सीधे-सादे , प्रायः अपढ़ और बड़े ही ईमानदार होते हैं। झगड़ा करना तो जानते ही नहीं , सो भी जमींदारों या उनके मामूली अमलों तक के साथ। मैं अपने अनुभव से कह सकता हूँ कि मनुष्यों में यह जाति गौ है। इतनी परिश्रमी और खून को पानी बना के खेती करनेवाली कि कुछ कहिए मत। जेठ की धूप की लपट और धू-धू करती दुपहरी के समय मैदान में साग-तरकारी के खेतों को ये दिन-रात सींचते रहते हैं। तब कहीं जमींदार का कड़े से कड़ा पावना चुका पाते हैं। धान या रबी की पैदावार से काम नहीं चलता। इसीलिए अपने आपको झुलसा डालते हैं। फिर भी जमींदार ऐसा जल्लाद होता है कि हर घड़ी इनके खून का ही प्यासा रहता है। उसका पेट तो कभी भरता नहीं। वह तो कुंभकर्ण ठहरा। फिर पेट भरे तो कैसे ? उसे जितना ही ज्यादा मिलता है उसकी माँगें उतनी ही ज्यादा बढ़ती जाती हैं। इसीलिए स्त्री-पुरुषों , बाल-बच्चों और बूढ़ों तक के बदन को झुलसा के भी जमींदार की माँगों को पूरा करना किसान के लिए गैर-मुम्किन है। इसी से अछुवा के गरीब कोइरी किसान भी जमींदारी जुल्म के शिकार हो चुके थे।
असल में वहाँ के जमींदार सभी किसानों से , खासकर पिछड़ी जातिवालों से , दिन भर मुफ्त काम करवाते रहते थे। बहुत तड़के उनके दरवाजे पर किसानों का पहुँच जाना लाजिमी था। फिर रात होने पर घर जाते थे। और तो क्या मिलेगा , दिन में एक बार भोजन तक मुहाल था यदि खुद घर से खाने के लिए साग-सत्तू न लाते। यदि जमींदार ने भूखे और लावारिस कुत्तों के टुकड़ों की तरह कभी दो-चार पैसे या पाव-आध सेर दे दिया तो गनीमत! फिर भी हिम्मत न थी की चूँ करें या दूसरी बार काम पर न आएँ। चाहे हजार काम बिगड़े तो बिगड़े। मगर जमींदार के यहाँ बेगारी करने जाना ही होगा! एक बार मजबूरन एक किसान नहीं जा सका। इसी के फलस्वरूप न सिर्फ वह , बल्कि सारा गाँव तबाह किया गया। इसीलिए अछुवावाले थर्र मारते रहते थे। जमींदार के नाम पर उनकी रूह काँपती थी।
जमींदार ने तरीका ऐसा निकाला था कि पारी-पारी से हर किसान को उसके यहाँ पहुँचना ही पड़ता था। इसके लिए उसने एक बड़ा ही निराला ढंग निकाला था जिससे किसानों पर खौफ भी छा जाए और काम भी चलता रहे। जमींदार का एक मोटा और लंबा डंडा एक के बाद दीगरे किसानों के दरवाजे पर शाम को ही पहुँच जाया करता था। जिस किसान के घर पर आज पहुँचा वही कल जमींदार के यहाँ जाएगा। फिर कल शाम को उसके घरवाले बगल के पड़ोसी के द्वार पर चुपके से रख आएँगे जिससे अगले दिन उसे जाने की खबर मिल जाए। यही रवैया बराबर जारी था। जहाँ डंडा महाराज पधारे कि उसे हजार काम छोड़ के जाना ही होगा। एक बार अचानक किसी किसान के घर कोई बड़ा बूढ़ा डंडा जी के पदार्पण के बाद रात में मर गया। रिवाज के मुताबिक उस घर के सभी लोग मुर्दे को गंगा-किनारे ले गए। फलतः जमींदार के यहाँ कोई जा न सका। जब यह बात उसे मालूम हुई तो आगबबूला हो गया। किसान की पुकार हुई। वह आया। हाथ जोड़ के भरे हुए गले से उसने सारी कहानी सुनाई और लाचारी के लिए माफी चाही। मगर माफी कौन दे ? फिर तो जमींदार का भारी गुस्सा उसके सिर उतरा और गाँव के लोग उजाड़े गए। न जाने कितने जाल-फरेब कर के किसानों पर तरह-तरह के मुकदमे चलाएगए , मार-पीट कराई गई और इस प्रकार उन्हें रुला मारा गया। यह एक ऐतिहासिक घटना है जिसे उस इलाके का बच्चा-बच्चा जानता है।
असेंबली के चुनाव में धरहरा के ही एक चलते-पुर्जे जमींदार , जो डिस्ट्रिक्ट बोर्ड के चेयरमैन , पुरानी कौंसिल के लगातार मेंबर और अंत में प्रेसिडेंट भी रह चुके थे , बुरी तरह हारे। चुनाव में सभी किसानों ने दिल खोल के हमारा साथ दिया था। जिस जमींदार के खिलाफ खड़े होने की हिम्मत जल्दी कोई करता न था और करने पर भी बुरी तरह हारता था , यहाँ तक कि एक बार एक कांग्रेसी उम्मीदवार भी स्वराज्य पार्टी के जमाने में अपनी जमानत जब्त करा चुके थे , वही हारा और उसी की जमानत जैसे-तैसे बचते-बचते बची। यदि किसान दिल खोल के हमारा साथ न देते तो यह कब हो सकता था ? इसीलिए हमारा सिर उनकी इस हिम्मत के सामने झुक गया। जमींदार की सारी खूँखारी और धमकी की परवाह न कर के उनने निराली हिम्मत दिखाई। जमींदार के खिलाफ वोट देना क्या था गोया म्याऊँ की ठौर पकड़नी थी चूहों को। मगर उनने ऐसा ही कर के सबको हैरत में डाल दिया। जो लोग यह कह के किसान-संघर्ष से भागना चाहते हैं कि मौके पर वे साथ न देंगे उनके मुँह में करारा तमाचा वहाँ के किसानों ने लगाया और अमली तौर से यह बात सिद्ध कर दी कि यह इल्जाम सरासर झूठा है। मुझे तो उसी बिहटा के इलाके में ऐसे और भी कई मौके मिले हैं जब किसानों ने आशा से हजार गुना ज्यादा कर दिखाया है। इसीलिए मेरा उनमें अटूट विश्वास है। मैं मानता हूँ कि यदि वे कभी हमारा साथ नहीं देते , तो इसमें उनका कसूर न हो के हमारा ही रहता है। जब हमीं में उनके बारे में विश्वास नहीं है , तो फिर हो क्या ? हम खुद ही जब लड़ना नहीं चाहते और आगे-पीछे करते रहते हैं तो किसान क्या करें ? तब वे कैसे पूरा-पूरा साथ दें ? और साथ न देने पर भी वे दोषी क्योंकर बन सकते हैं ? और तो और-जिस महाशय को जमींदार के खिलाफ किसानों ने शान से जिताया , उन्हें खुद किसानों पर यकीन न हुआ। इसका सबूत हमें उसके बाद दो मौकों पर साफ-साफ मिला। पीछे उनने स्वयं माना कि उन्हें विश्वास न था। जब मैं विश्वास रखता था। इसीलिए उनने मेरे खयाल को हार कर सही माना। खूबी तो यह कि वह किसानों के क्रांतिकारी नेता माने जाते हैं , या अपने आपको कम-से-कम ऐसा समझते जरूर हैं। यही है हमारा किसान-नेतृत्व! फिर भी घमंड रखते हैं कि क्रांति करेंगे और किसान-मजदूर राज्य लाएँगे!
हाँ , तो कांग्रेसी मंत्रिमंडल बन चुकने के बाद शायद सन 1938 या 39 में उसी अछुवा का एक जवान कोइरी किसान बिहटा आश्रम में मेरे पास एक दिन आया। अठारह , बीस साल की उम्र होगी। गठीला जवान , छरहरा बदन , काला रंग और हँसता चेहरा। उस दिन की घटना कुछ ऐसी थी कि मुझे सारी जिंदगी भूलेगी नहीं। इसलिए उसका चित्र मेरी आँखों के सामने नाचता है। उसे मैं पहचानता भी न था। मगर वह तो मुझे पहचानता था ही।
वह आया था मेरे पास अपनी दुख-गाथा सुनाने। शायद घर में कोई बड़े-बूढ़े न होंगे। पढ़ा-लिखा भी न था। कांग्रेसी मंत्रियों ने लगान कम करवाने और बकाश्त जमीन की वापसी के नाम पर जो बंटाढार किया था और इस तरह कांग्रेस की लुटिया डुबा दी थी , उसी के फलस्वरूप उस गरीब की फरियाद मेरे सामने थी। सारी कोशिश कर के वह थक चुका था। मगर जमींदार के पैसे और कानून की पेचीदगी के सामने उसकी एक भी चल न सकी थी। फलतः उसकी आँखें खुल गई थीं। चुनाव के समय कांग्रेस के नाम से जो डंका पिटा था कि लगान काफी घटाया जाएगा और बकाश्त जमीनें वापस दिलाई जाएँगी , उस पर सीधे-सादे किसानों ने पूरा विश्वास किया था। मगर जब मौका पड़ने पर उन्हें असलियत का पता चला और मालूम हुआ कि बरसनेवाले बादल तो और ही होते हैं ; वे तो सिर्फ गर्जनेवाले थे , तो उनके क्रोध का ठिकाना न रहा। एक तो कुछ हुआ भी नहीं! दूसरे जमींदारों और उनके दलालों की धमकियाँ और तानाजनी उन्हें फिर मिलने लगी। इसलिए उनका क्षोभ और क्रोध उचित ही था। वह जवान भी इसी क्षोभ और क्रोध को उतारने के लिए मेरे पास आया था।
सामने आते ही मैंने उससे पूछा कि ' कहो भाई , क्या हुक्म है ?' मैं हमेशा नए या आकस्मिक मिलनेवालों से ' क्या हुक्म है ' ही कहता हूँ। किसानों से खामख्वाह यही कहता हूँ। मैं मानता हूँ कि उन्हें मुझे हुक्म देने का पूरा हक है। जब मौके पर मेरी बातों पर विश्वास कर के वे लोग मेरा कहना मान लेते हैं , तो दूसरे मौके पर मुझे वे हुक्म क्यों न दें ? यदि उन्हें यह अधिकार न हो तो फिर मेरी बातें वे क्यों मानने लगें ? कोई जोर-जुल्म या दबाव तो है नहीं! यहाँ तो परस्पर समझौता ( understanding) ही हो सकता है। यही बात है भी। इसीलिए तो मेरे काम में रुकावट होती नहीं। मैं बराबर माने बैठा हूँ कि किसान मेरा साथ जरूर देगा। क्योंकि मैं उसका साथ जो देता हूँ।
उसने अपनी लंबी दास्तान सुनाई और कहा कि कैसी-कैसी दौड़धूप के बाद भी उसकी एक बात भी न चल सकी। जो खेत उसे मिलना चाहिए खामख्वाह , वह मिल न सका। उसने कई दृष्टांत इस बात के सुनाए कि न तो बकाश्त जमीनें लोगों को मिलीं और न लगान ही घटा। फिर बोला कि '' सुना था , सब कुछ हो जाएगा। वोट भी इसी आशा पर जान पर खेलकर दिया था। मगर यह तो धोखा ही निकला ,'' आदि-आदि। उसके मुँह से जो बातें धड़ाके से निकलती थीं मैं उन्हें गौर से सुनता था और उसकी भावभंगी भी देखता जाता था। मालूम होता था किसी बहुत बड़े धोखे से उसकी आँखें खुली हैं और झूठी प्रतिज्ञा करनेवालों को-खासकर कांग्रेस मंत्रियों को-कच्चा ही खा जाना चाहता है। गोकि बाहर से उसके इस भयंकर क्रोध का पता नहीं चलता था। मगर भीतर-ही-भीतर यह आग जल रही थी यह मुझे साफ झलकता था। वह महान विस्मय में गोते लगा रहा था कि ऐसे लोग भी झूठी बातें करते हैं उस समय उसका चेहरा देखने ही लायक था। मुझे इसीलिए वह नहीं भूलता है।
उसकी बातें सुनने के बाद मैंने उससे साफ़-साफ़ कबूल कर लिया कि ' हाँ भई , धोखा तो हुआ। यहाँ तो ऊँची दुकान के फीके पकवान ही नजर आए। ' इसके बाद मैंने ब्योरे के साथ सारी बातें उसे सुनाईं और समझाया कि बकाश्त की वापसी और लगान की कमी के नाम पर जो कानून अभी बने हैं वे कितने कच्चे हैं और केवल रुपएवाले जमींदार किस प्रकार बाजी मार ले जाते हैं। मैंने उसे खासा लेक्चर ही सुना दिया। क्योंकि मेरा भी दिल जला ही था। उसके सामने मैंने इस बात की बहुतेरी मिसालें भी पेश कीं और कहा कि धोखा तो दिया ही जा रहा है।
इस पर उसने चटपट सुना दिया कि "आप ही ने तो कहा था कि कांग्रेस को वोट दीजिए। हम क्या जानते थे कि कौन क्या है ? आपने जैसा कहा हमने वैसा ही किया!" इस पर मैं ठक सा हो गया। मेरे पास इस बात का तो कोई उत्तर था नहीं। वह बातें तो सरासर सच्ची कह रहा था। किसानों ने तो मेरे ही कहने से अपनी मर्जी के खिलाफ कांग्रेस के नाम पर उन नर-पिशाच जमींदारों तक को वोट दिया था जिनके हाथों किसानों की एक भी गत बाकी न रही थी। मुझे याद है कि वोट देने के पहले उसी धरहरा के इलाके के एक किसान ने एक सभा में लेक्चर सुनने के बाद ही मुझसे धीरे से कहा था कि आपकी बातें तो हम मान लेंगे और वोट देंगे जरूर। मगर जिन्हें वोट देने को आप कहते हैं वह भी जमींदार ही तो नहीं है ? इस पर मैंने उसे समझा-बुझा के ठीक किया था। आज उस कोइरी नौजवान की बातें सुन के वह घटना भी आँखों के सामने नाच गई।
मैंने उससे साफ-साफ स्वीकार किया कि '' हाँ जी , यह तो बात सही है। तुम्हारा इल्जाम मैं मानता हूँ। असल में मैं भी धोखे में था। देश की सबसे बड़ी राजनीतिक संस्था की ओर से डंके की चोट जो बातें कही जा रही थीं और जिन्हें बड़े-बड़े महात्मा और लीडर बार-बार लाखों लोगों के सामने दुहरा रहे थे मैं उन पर विश्वास करता कैसे नहीं ? इसी से तो धोखा हुआ। मैं किसानों के सामने अपने आपको इस दृष्टि से अपराधी कबूल करता हूँ। मगर इतना कहे देता हूँ कि इस घटना से मैंने बहुत कुछ सीखा है और किसानों को भी सीखना चाहिए। हाँ , आगे के लिए यही कह सकता हूँ कि फिर ऐसी बात होने न दूँगा। ''
मैंने देखा कि मेरी इन साफ बातों से उसे संतोष हो गया। यदि मैं दलीलें दे के अपनी वकालत करने लगता तो उसे शायद ही यह संतोष होता। मगर ईमानदारी से अपनी भूल कबूल कर लेने पर उसने समझ लिया कि गलती तो सभी से होती ही है। स्वामी जी को भी धोखा हो गया था। इनने जान-बूझ के कुछ नहीं किया। वह कोई बड़ा राजनीतिज्ञ तो था नहीं कि मैं उसे राजनीति की पेचीदगियाँ समझाने लगता और कहता कि यदि तुम ऐसा न करते और कांग्रेस को वोट न देते तो जमींदार जीत जाते। फिर तो और भी बुरा होता आदि आदि। इन बारीकियों को भला वह अपढ़ और सीधा-सादा किसान क्या समझने लगा ? मेरा तो यह भी खयाल है कि उन लोगों से ये बातें कहने से वे इन्हें समझ तो पाते नहीं। उल्टे नेताओं को तौलने की जो उनकी सीधी सी कसौटी है कि जो कहें उसे खामख्वाह पूरा करें उसका भी इस्तेमाल करना वे लोग भूल जा सकते हैं। फलतः इसी राजनीति की ओट में धोखेबाज लोग उन्हें बराबर चकमा दे सकते हैं। इसीलिए मैंने सीधी बात की और अपनी गलती मान ली।
मगर इस घटना से मेरे दिल पर इस बात की गहरी छाप पड़ गई कि किसानों ने अपने हित-अहित को पहचानना शुरू कर दिया। वे लोग बड़ी-बड़ी बातें बनानेवाले नेताओं और वोट के भिखारियों के चकमे में आसानी से नहीं आ सकते , यदि उनका नेतृत्व ठीक-ठीक किया जाए। वे भविष्य में वोट माँगनेवालों के नाकों दम कर दे सकते हैं यदि किसान-सभा उस मौके से मुनासिब फायदा उठा के उन्हें पहले ही से आगाह कर दे। जो लोग कहा करते हैं कि किसान बुद्धू हैं और वे आसानी से फाँसे जा सकते हैं वे कितने धोखे में हैं यह बात मैंने उस दिन आँखों देख ली। अत्यंत पिछड़ी भोली-भाली जाति का एक अपढ़ युवक अगर यह बात बेखटके बोल सकता है और मुझे भी मीठे-मीठे सुना दे सकता है तो औरों का क्या कहना ? असल में जनता की मनोवृत्ति का ठीक-ठीक पता लगाना सबका काम नहीं है। यह बड़ा ही मुश्किल मसला है। इसका थाह बिरले ही पाते हैं जिन्होंने अपने आपको जनता के बीच खपा दिया है , दिन-रात उसके हवाले कर दिया है और जो उसी की नींद जागते और सोते हैं। रूसी किसानों की इसी संबंध की घटना मुझे याद आ गई।
श्री लांसलाट ओयन ( Launcelot A. owen) ने अपनी अंग्रेजी किताब ' दी रशियन पेजेंट मूवमेंट 1906-1917 ' में रूस के किसानों की सबसे पहली संगठित मीटिंग का जिक्र किया है जो ता. 31-7-1905 को एलेग्जैंडर बैकुनिन नामक जमींदार की जमींदारी में तोरजोक जिले में हुई थी। उस मीटिंग की कार्यवाही पूरी होने के बाद जो आपस में बातचीत जारी हुई थी उसमें किसानों ने भाग लिया था। सिर्फ सत्रह गाँवों के किसान जमा थे। जिले के सरकारी बोर्ड के मेंबरों को जो यह शक था कि अभी तक किसान उत्तरदायी शासन के लिए तैयार नहीं हैं , अतः उसकी माँग बेकार है , उसका मुँहतोड़ उत्तर वहीं एक किसान ने चट दे दिया कि '' नहीं नहीं , यह बात नहीं है! असल बात तो यह है कि किसान उसके लिए जरूरत से ज्यादा योग्य और तैयार हैं। इसी से सरकार डरती है " ''Another (peasant) confuting the Zemstoomen's doubts as to peasant ripeness for responsibility, asserted that the trouble was that they were over ripe."
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सन 1938-39 की घटना है। हरिपुरा कांग्रेस के पहले और उसके बाद भी मुझे गुजरात में दौरा करने का मौका किसान-आंदोलन के सिलसिले में लगा था। हरिपुरा के पहले गुजरात के हमारे प्रमुख किसान कर्मी श्री इंदुलाल याज्ञिक ने अपने सहकर्मियों की सम्मति से तय किया था कि कांग्रेस के अवसर पर किसानों का एक विराट जुलूस निकाला जाए और मीटिंग भी हो। फैजपुर के समय से ही यह प्रथा हमने चलाई थी जो अब तक लगातार जारी रही है। हमने भी उनकी राय मानी थी। इसीलिए निश्चय किया गया था कि उसके पहले मेरा दौरा हो जाए। क्योंकि वहाँ तो अभी किसान-आंदोलन को जन्म देना था। अब तक तो वह वहाँ पनप पाया न था। गाँधी जी का वह प्रांत जो ठहरा। सो भी ठेठ बारदौली के पड़ोस में ही कांग्रेस हो जाने जा रही थी। सरदार बल्लभ भाई का तो हम पर प्रचंड कोप भी था। यह भी खबर अखबारों में छप चुकी थी कि कांग्रेस के अवसर पर ही अखिल भारतीय खेत-मजदूर सम्मेलन श्री बल्लभ भाई की अध्यक्षता में होगा। यह खेत-मजदूर आंदोलन किसान-सभा का विरोधी बनाया जा रहा था। बिहार तथा आंध्र आदि प्रांतों में इस बात की खुली कोशिश पहले ही की जा रही थी कि खेत-मजदूरों को उभाड़ कर या कम-से-कम उनके नाम पर ही कोई आंदोलन खड़ा कर के बढ़ते हुए किसान-आंदोलन को दबाया जाए। खुलेआम जमींदारों के आदमियों और पैसे के द्वारा यह बात की जा रही थी। हमें इसका पता था।
मगर हमें इसकी परवाह जरा भी न थी। हम बखूबी जानते थे कि ये बातें टिक नहीं सकती हैं। फिर भी सजग हो के किसानों का खासा जमावड़ा हरिपुरा में करना जरूरी हो गया। इसीलिए दौरे की जरूरत विशेष रूप से थी। आखिर किसानों को यह पैगाम तो सुनाना ही था कि किसान-सभा की क्यों जरूरत है जबकि कांग्रेस मौजूद ही है। साधारण पढ़े-लिखों से ले कर ऊपर के प्रायः सभी लोग वहाँ किसान-सभा को देख भी न सकते थे। ऐसी-ऐसी दलीलें करते थे कि सुन के दंग हो जाना पड़ता था। बारदौलीवाली जो किसानों के नाम की लड़ाई पहले लड़ी जा चुकी थी उसके करते यह गलतफहमी और भी ज्यादा बढ़ गई थी कि कांग्रेस ही किसान-सभा है और श्री बल्लभ भाई किसानों के असली नेता हैं। श्री इंदुलाल जी की बातें से हमें तो कुछ पता चल गया कि वह लड़ाई असली किसानों की न हो के उनके शोषकों की ही थी जो असली किसानों को हटा के उनकी जगह जा बैठे हैं और जिनकी संख्या मुट्ठी भर ही है। मगर इस बात की पूरी जानकारी तभी हो सकती थी जब वहाँ खुद घूमा जाए। इसीलिए हम बड़े चाव के साथ उस दौरे के लिए रवाना हुए थे। वहाँ जा के हमने खुद अनुभव किया। किसानों की जमीनें करीब-करीब मुफ्त में ही हथिया लेनेवाले जो दस-पंद्रह फीसदी बनिए पारसी या पटेल वग़ैरह हैं वही किसान कहे जाते हैं। वे काफी मालदार हैं और उनके पास बहुत जमीनें हैं। पहले के किसान उन्हीं के हलवाहे और गुलाम हो के नर्क की जिंदगी गुजारते हैं। उन्हीं दस-पंद्रह फीसदी लोगों की मालगुजारी घटाने के लिए बारदौली में लड़ाई लड़ी गई थी , ताकि असली किसानों की छिनी जमीनें उन्हें वापस दिलाने या कम-से-कम उनकी गुलामी मिटाने के लिए।
भुसावल से हमने ताप्ती वैली रेलवे पकड़ी और रवाना हो गए। यह रेलवे बहुत ही धीमी और दुःखद है। पर , मजबूरी थी। मढ़ी स्टेशन , जहाँ से हरिपुरा जाना था , कि वे बहुत पहले ही सोनगढ़ के इलाके में हमें पहली मीटिंग करनी थी और यह सोनगढ़ उसी ताप्त वैली रेलवे में पड़ता है। बड़ौदा का राज्य है। किसान बहुत ही मजलूम और दुखिया हैं। वहीं से श्रीगणेश करने का विचार था। मगर बड़ौदा राज्य के हाकिमों को यह बात बर्दाश्त न हो सकी और वे लोग इस फिक्र में लगे कि किसी प्रकार हमारी सभा होने न दी जाए। उनने इस बारे में अपना काफी दिमाग लगाया। साफ-साफ नोटिस दे के हमारी सभा रोकने में उन्हें शायद खतरा नजर आया। इसलिए एक चाल चली गई। ठीक सभा के दिन बहुत ही सवेरे उस इलाके के सभी गाँवों के पटेलों और मुखियों को राज्य की कचहरी पर पहुँच जाने की खबर ऐन मौके पर दी गई जब हमारे आदमी सभा की तारीख बदल न सकते थे। पटेल और मुखिया लोग होते हैं एक तरह के राज्य के नौकर। इसलिए उसका कचहरी में पहुँच जाना जरूरी हो गया , और जब सभी गाँवों के मुखिया ही चले गए तो फिर सभा में आता कौन ? अभी तक किसान-सभा वहाँ जमी तो थी नहीं। सीधे-सादे खेड़ईत (किसान) उसका महत्त्व क्या जानने गए ? और अगर इतने पर भी गाँव के प्रमुख लोग सभा में चलते , तो दूसरे भी आते। मगर वह तो कचहरी चले गए। फलतः सभा की कोई संभावना रही न गई। इस प्रकार बड़ौदा राज्य का यत्न सफल हो गया।
जब हम स्टेशन पर पहुँचे तो इंदुलाल जी ने सब बातें कहीं। फिर तय पाया कि रात में पास के ही एक गाँव में ठहरना होगा। ठहरने का प्रबंध पहले से ही था। उस इलाके में रानीपरज के नाम से प्रसिद्ध जाति के लोग ज्यादातर बसते हैं। वही वहाँ के असली किसान हैं। उनके नेता श्री जीवन भाई हमारे साथ थे। वे अब कहीं बाहर कारबार कर के गुजर करते हैं। मगर हमारी सहायता के लिए आ गए थे। उन्हीं के साथ हम सभी उस गाँव में गए। जब हमने की दशा पूछी तो उनने सारी दास्तान कह सुनाई। यह भी बताया कि ' रानीपरज प्रगतिमंडल ' के नाम से एक संस्था खुली है जो उन लोगों की उन्नति का यत्न करती है। स्कूल आदि के जरिए उन्हें कुछ पढ़ाया-लिखाया जाता है। चरखा भी सिखाया जाता है। सरदार बल्लभ भाई वगैरह उसमें मदद करते हैं। ' रानी परज ' या किसी ऐसे ही नाम का कोई पत्र भी निकलता है। सारांश , वह ' प्रगति-मंडल ' समाज-सुधार की संस्था है। इसीलिए शराब वगै़रह पीने से लोगों को रोकती है।
मुझे आश्चर्य जरूर हुआ कि यहीं पास में बारदौली में किसानों की लड़ाई हुई ऐसा सभी जानते सुनते हैं। फिर भी रानीपरज के लोग आज बिना जमीन के हैं और दूसरों की गुलामी करते हैं। दुबला के नाम से प्रसिद्ध हैं। उन्हें जमीन दिलाने या उनकी गुलामी मिटाने की लड़ाई लड़ी न जा कर यह समाज-सुधार ( Social reform) का काम एक निराली बात है। गोया ये लोग जरायम पेशा कौम हैं , जो Criminal Tribes हैं। जैसे जयराम पेशा लोगों को धर्म के नाम पर सुधारने की कोशिश की जाती है और शराब बंदी का प्रचार होता है ठीक वही हालत यहाँ है। मैंने समझ लिया कि असली काम न कर के यह बाहर मरहम-पट्टी लोगों की आँख में धूल झोंकने के ही लिए की जा रही है। जंगल में रहनेवाली बहादुर कौम पेट के लिए मुफ्तखोरों और लुटेरों की गुलामी करे और नेता लोग इसके भीतर समाज-सुधार का प्रचार करें! यह निराली बात निकली। ब्याह-शादी वगै़रह के समय बनिए साहूकार या शराब बेचनेवाले इन सीधे किसानों को चढ़ा के कर्ज देते-दिलाते और शराब पिलवाते हैं , और पीछे उसी कर्ज में न सिर्फ इनकी जमीनें ले लेते बल्कि पुश्त-दर-पुश्त इन्हें गुलाम बना डालते हैं। इस लूट और धोखेबाजी के खिलाफ इनमें बगावत का प्रचार किया जाना चाहता था। इन्हें बताना था कि उस बनावटी कर्ज को साफ कर दें और सुना दें कि अब हम गुलाम किसी के भी नहीं हैं। यही तो इस मर्ज की असली दवा है। मगर नकली नेता लोग दूसरी ही बात करते हैं। असल में इसी बात में उनका भी स्वार्थ है। वह भी या तो साहूकार आदि हैं , या उनके दोस्त और दलाल!
वहाँ से हमें अगले दिन सूरत जाना था। रेल पकड़ के सूरत पहुँचे भी और वहाँ शाम को एक मीटिंग भी की। फिर सीधे पंचमहाल जिले के दाहोद शहर के लिए फ्रांटियर मेल से रवाना हो के अगले दिन सवेरे रात रहते ही पहुँचे। वहाँ एक तो म्युनिसिपैलिटी की ओर से हमें मान-पत्र मिलना था। दूसरे एक सार्वजनिक सभा में भाषण करना था। बांबे , बड़ौदा और सेंत्रल इंडिया रेलवे का वहाँ एक बड़ा कारखाना होने से मजदूरों की सभा में बोलना था। मगर सबसे सुंदर चील थी दाहोद से दूर देहात में भीलों की एक बड़ी सभा। म्युनिसिपैलिटी के अध्यक्ष थे एक बहोरा मुसलमान सज्जन। मगर जो अभिनंदन-पत्र उनने गुजराती में पढ़ा और जो संक्षिप्त भाषण दिया वह मार्के का था मैंने भी उचित उत्तर दिया। संन्यासी हो के किसानों के काम में मैं क्यों पड़ा इस बात का स्पष्टीकरण वहाँ मैंने निराले ढंग से किया। असल में शहरों के लोगों का पेट जैसे-तैसे भरी जाता है। इसलिए उन्हें धर्म की परवाह ज्यादा रहती है। मैंने भी धर्म की ही दृष्टि से उन्हें समझाया। मैंने कहा कि यद्यपि भगवान सभी जगह है , फिर भी उसे विशेषरूप से शोषितों में ही पाता हूँ और वहीं ढूँढ़ने से वह मिलता है। जिस प्रकार फोड़े वाले के सारे शरीर में दवा न लगा के दर्द की ही जगह दवा लगाने से उसे विशेष आनंद मिलता है , क्योंकि उसका मन वहीं केंद्रीभूत है। उसका मन , उसकी आत्मा वहीं मिलती है , पकड़ी जाती है हालाँकि वह है दरअसल सारे शरीर में। वही हालत भगवान की है।
जब हम लोग दूसरे दिन भीलों की मीटिंग में गए तो हमें बड़ा मजा आया। स्थान का नाम भूलता हूँ। मैदान में सभा थी। खासी भीड़ थी। चारों ओर आदमी ही आदमी थे। मर्द भी थे , औरतें भी थीं। थे तो दूसरे लोग भी। मगर भीलों की ही प्रधानता वहाँ थी। बचपन में सुना करता था कि द्वारका की यात्रा करनेवाले यात्री लोग जब डाकोर की ओर चलते हैं तो दाउद गुहरा (दाहोद-गोध्रा) की झाड़ियाँ मिलती हैं। यानी दाहोद और गोध्रा के बीच में लगातार झाड़ियाँ हैं , जंगल हैं जहाँ भील लोग तीर चलाते हैं और यात्री को मार के लूट लेते हैं। मैं समझता था कि बड़े ही खूँखार और भयंकर होंगे। मगर जब उन्हें देखा कि भले आदमियों की सी सूरत-शक्लवाले हैं तो आश्चर्य हुआ। हाँ , अधिकांश के हाथ में धनुष और तीरों के गुच्छे जरूर देखे। इनसे उन्हें अपार प्रेम है। इसीलिए साथ में रखते हैं। उनने कहा कि रास्ते में कहीं चोर-बदमाशों या जंगली जानवरों का खतरा हो तो यही तीर धनुष काम आते हैं। जंगली प्रदेश तो हई। यह दृश्य मैंने पहले-पहल देखा। मगर यह भी देखा कि वे मेरी बातें मस्त होके सुनते और झूमते थे। मेरी भाषा तो उनकी न थी। फिर भी मैं इस तरह बोलता था कि वे समझ जावें। बातें तो उन्हीं के दिल की बोलता था। फिर झूमें क्यों नहीं ?
हमें वहीं पर यह भी पता चला कि उसी इलाके में बहुत पहले से ' भील सेवा-मंडल ' काम कर रहा है। वहाँ जाने का तो हमें मौका न लग सका। क्योंकि शाम तक दाहोद वापस आना जरूरी था। रेलवे मजदूरों की सभा में बोलना जो था। मगर लौटते समय रास्ते में ही हमें दूर से ' सेवा-मंडल ' के मकान दिखाए गए। सेवा-मंडल का काम भीलों के विकास से ताल्लुक रखता था। मंडल के कार्यकर्ताओं में अच्छे से अच्छे त्यागी लोग रहे हैं। हमारे साथी श्री इंदुलाल जी का भी उसमें हाथ रहा है। यह काम उस समय शुरू हुआ जब हमारे देश में राजनीतिक चेतना नाममात्र को ही थी। इसलिए समाज सेवा के नाम पर यह मंडल खुला। मगर आज जब राजनीतिक चेतना की एक बड़ी बाढ़ हमारे देश में आ गई है और उसी के साथ उसका आर्थिक पहलू स्पष्ट हो गया है , तब ऐसे संस्थाओं का खास महत्त्व है या नहीं , यही प्रश्न पैदा होता है। यदि महत्त्व हो भी तो क्या उनके काम का तरीका वही रहे या बदला जाए , यह दूसरा सवाल भी खड़ा होता है। भीलों की वह असभ्यता तो जाती रही। समय ने पलटा खाया और वह सभ्यता की वायु में साँस लेने को बाध्य है। इस झकोरे से वे बच नहीं सकते , यदि हजार चाहें। ऐसी हालत में आर्थिक प्रोग्राम के आधार पर ही उनमें अब काम क्यों न किया जाए ? मेरा तो विश्वास है कि असभ्य और जरायम पेशा कही जानेवाली जातियों में अब भी मर्दानगी औरों से कहीं ज्यादा है। फिर तो आर्थिक प्रोग्राम की बिना पर ज्यों ही उनमें काम शुरू हुआ और इसका महत्त्व उनने समझ लिया कि हक की लड़ाई में जूझने के लिए सबसे आगे वही लोग मिलेंगे।
खैर , शाम तक उस सभा से हम लोग लौटे और मजदूरों की मीटिंग में गए। मीटिंग खासी अच्छी थी। सफेदपोश बाबुओं की एक अच्छी तादाद वहाँ हाजिर थी। मैले और काले कपड़ेवाले भी थे ही। श्रमिकों के क्या हक हैं और उनकी प्राप्ति के लिए उन्हें क्या करना होगा यही बात मैंने उन्हें बताई। सभा के बाद हम अपने स्थान पर वापस आए।
दूसरे दिन गोध्रा के नजदीक , उसके बादवाले बैजलपुर स्टेशन से उत्तर जीतपुरा में हमारी मीटिंग थी। यह खासी देहात की सभा थी! दूर-दूर के किसान उसमें हाजिर थे। बहुत ही उत्साह और उमंग से हमें वे लोग वहाँ ले गए। बाजे-गाजे और तैयारी की कमी न थी। सभा भी पूर्ण सफल हुई। जिस जमीन में सभा हुई उसे किसान ने किसान-आश्रम बनाने के लिए दे दिया। आगे के स्थायी काम के लिए इस प्रकार वहाँ नींव डाली गई , यही उसकी सबसे बड़ी विशेषता थी। मुझे इस बात से अत्यंत प्रसन्नता हुई कि मेरी हिंदी भाषा वहाँ के खेड़ईत भी बखूबी समझ लेते थे। बेशक मेरी कुछ ऐसी आदत हो गई है कि किसानों के ही समझने योग्य भाषा बोलता हूँ , सो भी धीरे-धीरे। असल में बातें तो उनके दिल की ही बोलता हूँ। इसीलिए उन्हें समझने में आसानी होती है। हाँ , तो जीतपुरा से लौट के हमने रात में गाड़ी पकड़ी और मढ़ी चल पड़े। मढ़ी से ही हरिपुरा जाना था।
मढ़ी और हरिपुरा के बीच में ही हमारी एक और भी सभा थी खासी देहात में। हमने वह सभा की तीसरे पहर। कांग्रेसी मंत्रिमंडल तो बनी चुका था। पहले-पहल हमने उसी सभा में एक बात कही जिसे हम पीछे चल के कई जगह दुहराते रहे। दरअसल गुजरात और महाराष्ट्र में कर्ज और साहूकारों के जुल्म का ही प्रश्न सबसे पेचीदा और महत्त्वपूर्ण है। कहा जाता है कि वहाँ जमींदारी-प्रथा नहीं है। वहाँ के किसानों का सरकार के साथ सीधा संबंध है। इसे रैयतवारी कहते हैं। मगर बनियों और साहूकारों ने सूद-दर सूद के जाल में फाँस के किसानों की प्रायः सारी जमीनें ले ली हैं और वे खुद जमींदार बन बैठे हैं। अर्द्धभाग या बँटाई पर फिर उन्हीं किसानों को वही जमीनें ये साहूकार जोतने को देते हैं। और अगर फसल मारी जाय तो खामख्वाह नगद मालगुजारी ही वसूल कर लेते हैं। डरा और दबा किसान चूँ भी नहीं करता है। बँटाई की हालत यह है कि मूँगफली जैसी कीमती और किराना चीजों की पैदावार का भी आधा हिस्सा ले लेते हैं। किसानों की गुलामी भी इसी के करते हैं।
इसीलिए उनकी खुशी का ठिकाना नहीं रहता अगर इस कर्ज के असह्य भार को उनके सिर से उठा फेंकने की बात की जाए। यदि उनकी छाती से यह चट्टान हटे तो जरा साँस लें। मुझे यह बात मालूम तो थी ही। इसीलिए मैंने कहा कि पड़ोस में ही कांग्रेस हो रही है। उसका दावा भी है कि वह गरीबों और सताएगए लोगों की ही संस्था है। श्री बल्लभ भाई अपने को किसानों का नेता कहते भी हैं। और आज तो इस बंबई प्रांत में कांग्रेस के ही मंत्री शासन चला रहे हैं , ऐसा माना जाता है। उन्हीं की मर्जी से कानून बनते हैं। इसलिए हरिपुरा में लाखों की तादाद में किसान जमा हो के साफ-साफ कह दें कि इस मनहूस कर्ज ने हमारी रीढ़ तोड़ डाली। हमने एक के दस अदा किए। फिर भी साहूकार की बही (चौपड़ी) में घीस बाकी पड़े हैं। हमारी जमीन और इज्जत इसी के चलते चली गईं। हम गुलाम भी बन गए। यहाँ एक नए प्रकार के '' साहूकार जमींदार '' पैदा हो गए। इसलिए कांग्रेस के मंत्री लोग कृपा कर के इन साहूकारों के सभी कागज-पत्र अपने पास मँगवा लें। फिर या तो उन्हें बंबई के पास के ही समुद्र में डुबा दें , या नहीं तो होली जला दें। और अगर हुक्म दें तो हमीं लोग उन्हें ले के ताप्ती नदी में ही डुबा दें। नहीं तो हमारा जो जीवन भार बन गया है वह खत्म हो जाएगा।
हमने देखा कि इन शब्दों के सुनते ही किसानों के चेहरे खिल उठे। उसके बाद सभा का काम पूरा कर के हमने हरिपुरा पहुँचने की सोची। खयाल आया कि मोटर लारियाँ तो बराबर दौड़ रही हैं। हम लोग पल मारते पहुँच जाएँगे। फिर वहाँ से सड़क पर आए और लारियों का इंतजार करने लगे। घंटों यों ही बीता। बीच में बीसियों लारियाँ आईं और चली गईं। हमने हजार कोशिश की कि रुकें , मगर एक भी न रुकी। लाचार जीवन भाई के साथ पैदल ही आगे बढ़े। उनने कहा कि आगे कुछ दूरी पर जो गाँव पक्की सड़क से हट के पड़ता है वहीं से एक बैलगाड़ी ले के उसी पर हरिपुरा चलेंगे। बस , गाँव की ओर चल पड़े। दो-तीन मील चलने पर गाँव आया।
गाँव पहुँचने के पहले ही हमने जीवन भाई से रानीपरज तथा और किसानों की हालत पूछी। वे भी रानीपरज बिरादरी के ही थे। इसीलिए उनकी दशा ठीक- ठीक बता सकते थे। ऊपर से जान पड़ता था कि गाँधी जी और सरदार बल्लभ भाई के बड़े भक्त थे। पहले कांग्रेस में उनने काफी काम भी किया था , मगर उनने जो हृदय विद्रावक वर्णन अपने भाइयों के कष्टों का किया उससे हमारा तो खून उबल पड़ा। उनकी भी भावभंगी अजीब हो गई थी। उनने कहा कि यदि किसी रानीपरज के पास काफी जमीन हो और अपने गरीब भाई से खेती का काम वह कराए तो काम करनेवाले के परिवार को अपने ही मकान के एक भाग में रख के अपने ही परिवार में उस परिवार को शामिल कर लेगा। मगर , अगर साहूकार , पारसी या पटेल वही काम गरीब रानीपरज से कराए तो दिन में ज्वार की रोटी और कोई साग उसे खाने को देगा जिसमें मसाले के नाम पर सिर्फ लाल मिर्च के बीज पड़े होंगे , न कि लाल मिर्च। असल में गुजरात में उन बीजों को निकाल के फेंक देते हैं खाते नहीं। इसीलिए साहूकार उन बेकार चीजों को उन गरीबों के साग में डाल देते हैं। शाम को दो सेर ज्वार या एक-डेढ़ आने पैसे दे देते हैं।
इसके बाद जो कुछ उनने कहा या कहना चाहा वह बड़ा ही बीभत्स था। उनकी आँखें डबडबा आईं। आखिर अपनी ही बिरादरी की प्रतिष्ठा की बात जो ठहरी। उनने कहा कि हमारे जो भाई साहूकारों के ऋण में फँसे हैं उनकी जवान लड़कियों और पुत्र-वधुओं को भी ये राक्षस कभी-कभी जबर्दस्ती काम करवाने के लिए बुलवा लेते हैं। अब आप ही सोच सकते हैं कि उनका धर्म कैसे बचने पाता होगा , आदि-आदि। उनने इस बात पर बहुत ही जोर दिया और कहा कि दुबला के नाम से प्रसिद्ध गरीब किसानों और उनकी बहू-बेटियों की इज्जत की खैरियत नहीं है।
इस पर हमने कहा कि '' लेकिन हम जो यह किसान-सभा कर रहे हैं उसे सरदार बल्लभ भाई तो पसंद नहीं करते। हालाँकि उन्हें चाहिए तो यह था कि वह खुद दुबला लोगों के लिए यह काम करते और गाँधी जी भी उन्हें इस बात का आदेश देते। यह क्या बात है कि गाँधी जी इस बात पर मौन हैं ? क्या उन्हें भी यह बात पसंद है ?'' तब उनने कहा कि '' इसमें गाँधी जी का दोष नहीं है। असल में लीडर लोग गड़बड़ी करते हैं। '' हमने फिर कहा कि '' मगर गाँधी जी भी हमारी किसान-सभा को पसंद नहीं करते , यह पक्की बात है। तब हम कैसे मानें कि केवल लीडरों की ही भूल है , उनकी नहीं ? और अगर ऐसी हालत में आप किसान-सभा में पड़ेंगे , तो गाँधी जी जरूर आप पर रंज होंगे। '' अब क्या था , अब तो वे साफ खुल गए और कहने लगे कि '' गाँधी जी अपना काम करते हैं और हम अपना। हमें किसान-सभा में ही किसानों का उद्धार दीखता है। कांग्रेस से कुछ होने जाने का नहीं। इसलिए यदि गाँधी जी हम पर बिगड़े तों हम क्या करें ? हम तो यह काम करेंगे ही। '' बस , मैंने समझ लिया कि किसान-सभा गुजरात में भी जीती-जागती संस्था बन के ही रहेगी , जब कि शुरू में ही जीवन भाई जैसे किसान इसकी जरूरत और महत्ता को यों ही समझने लगे हैं। क्योंकि सभा का काम तो उनने अभी देखा भी नहीं। इससे स्पष्ट है कि परिस्थिति ( Objective conditions) उसके अनुकूल है। सिर्फ पथदर्शकों और सच्चे कार्यकर्ता ( Subjective conditions) की कमी है।
इतने ही में हम उस गाँव में जा पहुँचे और एक किसान के दरवाजे पर ठहरे। बैलगाड़ी का प्रबंध होने लगा। शाम भी होई रही थी। थोड़ी देर में गाड़ी तैयार हो के आ गई और हम लोग उस पर बैठ के रवाना हो गए। रास्ते में हमने गाड़ी हाँकनेवाले किसान से हरिपुरा की बात चलाई और पूछा कि वहाँ बिट्ठल नगर में काम करने के लिए यहाँ के लोग जाते हैं या नहीं , और अगर जाते हैं तो क्या मजदूरी उन्हें प्रतिदिन मिलती है ? इस पर उसने कहा कि रेलवे या सड़क वग़ैरह में काम करनेवालों को दस आने पैसे मिलते हैं। कांग्रेस में भी पहले कुछी कम पैसे मिलते थे। मगर पीछे जब ज्यादा तादाद में काम करनेवाले जाने लगे तो छः आने ही दिए जाने लगे! इसके लिए हो-हल्ला भी हुआ। मगर सुनता कौन है ? शायद तूफान मचने पर सुनवाई हो। मगर मजदूर तो भूखे हैं इसलिए जोई मिलता है उसी पर संतोष कर लेते हैं। उसने इसी तरह की और भी बातें सुनाईं। मुझे यह सुनके ताज्जुब तो हुआ नहीं। क्योंकि मैं तो कांग्रेसी लीडरों की मनोवृत्ति जानता था। मगर उनकी इस हिम्मत , बेशर्मी और हृदय-हीनता पर क्रोध जरूर हुआ। मैंने दिल में सोचा कि यही लोग गरीबों को स्वराज्य दिलाएँगे। यही देहात की कांग्रेस है जिसमें देहातियों को उतनी भी मजदूरी नहीं मिलती जितनी सरकारी ठेकेदार देते हैं। इसी बूते पर यह दावा गाँधी जी तक कर डालते हैं कि किसानों की सबसे अच्छी संस्था कांग्रेस ही है-- "The Congress is the Kisan organisation parexcellence!" मुझे खुशी इस बात की थी कि न सिर्फ वह गाड़ी हाँकनेवाला , बल्कि उस देहात के सभी लोग इस पोल को बखूबी समझ रहे थे जैसा कि उसकी बातों से साफ झलकता था।
रात में हम बिट्ठल नगर पहुँचे और वहीं ठहरे। पूरे अठारह रुपए में हमने एक झोंपड़ा लिया जिसमें सिर्फ तीन चारपाइयाँ पड़ सकती थीं। यही है गरीबों की कांग्रेस! वहाँ एक रुपए से कम में तो एक दिन में एक आदमी का पेट भरी नहीं सकता था। चीजें इतनी महँगी कि कुछ कहिए मत। जल्लाद की तरह बेमुरव्वती से तो दूकानदारों से सख्त किराया लिया जाता है। देहात में होनेवाली सभी कांग्रेसों की यही हालत होती है। दिन-ब-दिन चीजें महँगी ही मिलती हैं।
खैर , हरिपुरा में हमें तो अपना काम करना था। वहाँ किसानों का लंबा जुलूस निकालना था। मीटिंग भी करनी थी। मगर पता चला कि सरदार बल्लभ भाई का सख्त हुक्म है कि बिना उनकी आज्ञा के बिट्ठल नगर के भीतर कोई भी मीटिंग या प्रदर्शन होने न पाए। हमें यह चीज बुरी लगी। हमने कहा कि सरदार साहब या उनकी स्वागत समिति को यह हक हर्गिज नहीं है कि आम सड़क पर जुलूस रोक दें। जब तक पुलिस या मजिस्ट्रेट की ऐसी मुनादी न हो तब तक तो हमें कोई रोक सकता नहीं। हाँ , मुनादी हो जाने पर कानून तोड़ने की नौबत आएगी। मगर सरदार या उनके साथियों को न तो पुलिस का अधिकार प्राप्त है और न मजिस्ट्रेट का ही। फिर उनकी नादिरशाही के सामने हम क्यों सिर झुकाएँ।
नतीजा यह हुआ कि हम और हमारे साथी श्री इंदुलाल याज्ञिक वगैरह किसी से भी पूछने न गए और जुलूस निकला खूब ठाट के साथ। पचीस-तीस हजार से कम लोगों का जुलूस नहीं था। साहूकारों से त्राण दिलाने और हाली प्रथा मिटाने आदि के नारे मुख्य थे। हाली और दुबला या गुलाम ये सब एक ही हैं। मीटिंग भी बहुत ही जम के हुई। मैं ही अध्यक्ष था। मेरे सिवाय याज्ञिक , डॉ सुमंत मेहता आदि अनेक सज्जन बोले।
सरदार बल्लभ भाई यह बात देख के भीतर ही भीतर आगबबूला हो गए सही। मगर मजबूर थे। इसीलिए किसी न किसी बहाने से अपने दिल का बुखार निकालते रहे। रह-रह के बिना मौके के ही हम लोगों पर तानाजनी करते रहे। एक बार तो वहाँ पली गायों के बारे में यों ही लेक्चर देते हुए बोल बैठे कि हम तो इन गायों को पसंद करते हैं जो न तो प्रस्ताव करती हैं और न उनमें सुधार पेश करती हैं। ये तो क्रांति और जमींदारी या पूँजीवाद मिटाने की भी बातें नहीं करती हैं। किंतु दूध दिए चली जाती हैं। जिससे हमारा काम चलता है। इसी तरह के अनेक मौके आए।
एक बार तो खास विषय समिति में ही बिना वजह और बिना किसी प्रसंग के ही विशेषतः मुझे और साधारणतः सभी वामपक्षियों को लक्ष्य कर के न जाने वह क्या-क्या बक गए। यहाँ तक हो गया कि सभी लोग जल के खाक हो गए। फलतः हमने बहुत ही शोर किया और सभापति श्री सुभाष बाबू पर जोर दिया कि उन्हें रोकें। पहले तो सभापति जी हिचकते रहे और सरदार साहब भी लापरवाह हो के बकते जाते थे। मगर जब परिस्थिति बेढब हो गई और शोर बहुत बढ़ा तो उनने रोका , जिससे वे एकाएक अपना सा मुँह ले के बैठ गए। इस प्रकार बारदौली की भूमि में ही उनकी नाक कट गई सिंह अपनी माँद में ही सर हो गया।
हरिपुरा के पीछे कुछ महीने गुजर जाने पर फिर गुजरात में दौरा करने का मौका आया। इस बार श्री इंदुलाल याज्ञिक और उनके साथियों ने संगठित किसानों की सभाएँ प्रायः गुजरात के हर जिले में कीं। अहमदाबाद शहर में ही नहीं , किंतु देहात में भी एक सभा हुई। हरिपुरा के बाद किसानों की कई संगठित लड़ाइयाँ भी हो चुकी थीं और विशेष-रूप से बड़ौदा राज्य के घोर दमन का शिकार उन्हें तथा हमारे प्रमुख किसान सेवकों को होना पड़ा था। उनकी कितनी ही मीटिंगें दफा 144 की नोटिस और पुलिस की मुस्तैदी के करते रोकी गईं। फिर भी लड़ाई चलती रही। यद्यपि बड़ौदा सरकार का कानून है कि किसान से नगद लगान ही लेना होगा , न कि बँटाई। फिर भी साहूकार जमींदार यह बात मानते न थे। खूबी तो यह कि यदि साल में दो फसलें हों तो दोनों में ही आधा हिस्सा लेते थे। फलतः किसानों ने बँटाई देने से इनकार कर दिया। सरकार को इस पर उनका और किसान-सभा का कृतज्ञ होना चाहता था। मगर उल्टे दमन-चक्र चालू हो गया। असल में सरकारें तो मालदारों की ही होती हैं। इसलिए उनका फर्ज हर हालत में यही होता है कि धनियों की रक्षा करें। वे कानून तोड़ते हैं तो बला से। शोषित जनता को सिर उठाने नहीं देते। असली चीज कानून नहीं है , किंतु कमानेवाली , पर लुटी जानेवाली , जनता को चाहे जैसे हो सके दबा रखना ही असल चीज है। कानून भी इसी गर्ज से बनाए जाते हैं। मगर अगर कहीं कानून की पाबंदी के चलते ही जनता सिर उठा ले तो उसकी पाबंदी से बढ़ के भूल और क्या हो सकती है ? यही कारण है कि जमींदारों और मालदारों के कानून तोड़ने पर भी सरकार तरह दे जाती है। उनके रुपए और प्रभाव के चलते इसके लिए बहाने तो सरकार को मिली जाते हैं। पुलिस उसकी रिपोर्ट करती ही नहीं। फिर सरकार क्या करे ? और अगर कहीं एक-दो जगह किसान सिर उठाने पाए तो फिर गजब हो जाने का डर जो रहता है। क्योंकि '' बुढ़िया के मरने का उतना डर नहीं , जितना यम का रास्ता खुल जाने का रहता है! '' बड़ौदा राज्य में किसानों की उन लड़ाइयों ने यह बात साफ कर दी।
अहमदाबाद की सभा के बाद हमारा दौरा था खेड़ा जिले में ─ उसी खेड़ा जिले में जो न सिर्फ श्री इंदुलाल जी का जिला है , बल्कि सरदार बल्लभ भाई का भी जन्म उसी जिले में हुआ है। हमारी मीटिंगें ठेठ देहातों में थीं। स्टेशन से उतर के हमें कई दिन देहात-देहात ही घूमते रहने और इस तरह डाकोर के पास रेलवे लाइन पकड़ने का मौका मिला। कुछ दूर लारी से और बाकी ज्यादा जगहें बैलगाड़ी से ही तय करनी पड़ीं। इस बार हम ऐसे इलाके में गए जहाँ आज तक कांग्रेस का कोई खास असर होई न पाया है। इसलिए हमें इस बात से बड़ी प्रसन्नता हुई। अनुभव भी बहुत ही मजेदार हुए।
असल में खेड़ा जिले के बहुत बड़े हिस्से में क्षत्रियों की एक बहादुर कौम बसती है जिसे धाराला कहते हैं। ये लोग अहमदाबाद जिले में भी खासी तादाद में पाए जाते हैं। हमें इस बात से बड़ी तकलीफ हुई कि सरकार ने इस दिलेर कौम को जरायम पेशा करार दे रखा है। असल में विदेशी सरकार की तो सदा से यही नीति रही है कि लोगों में मर्दानगी का माद्दा रहने ही न दिया जाए। पर अफसोस है कि कांग्रेसी मंत्रियों ने भी इस कलंक को मिटाने की कोशिश न की , जिससे धाराला लोग अब भी वैसे ही माने जाते हैं। पहले गाँधी जी के ' नवजीवन ' और ' यंग इंडिया ' में पढ़ के हमें भी इनके बारे में यही गलत धारणा थी। परंतु दौरा करने पर हमें पता चला कि सारी बातें गलत हैं। ये लोग अपने पास लंबे-लंबे दाव लाठी में लगा के रखते हैं जिसे धारिया कहते हैं। धाराला नाम इसी धारिया के रखने से पड़ा है। जंगल में लकड़ी वगैरह काटने में इससे बड़ी आसानी होती है। हमें इस बात से खुशी हुई कि इन लोगों ने , जो सदा कांग्रेस के विरोधी रहे , न सिर्फ हमारी किसान-सभा को अपनाया , बल्कि इस काम में बड़ी मुस्तैदी दिखाई। उनने इसे अपनी चीज मान ली। इसका प्रमाण हमें उसी यात्रा में प्रत्यक्ष मिला। साहूकारों ने जो उन्हें आज तक बेखटके लूटा था उससे बचने का रास्ता उन्हें किसान-सभा में ही दीखा। क्योंकि सभा की नीति इस मामले में साफ है। यही कारण है कि वे इस ओर झुके , गो कांग्रेस से अलग रहे। उसकी नीति गोल-मोल जो ठहरी।
खेड़ा जिले के गाँवों में घूमते-घामते हम डाकोर से सात ही आठ मील के फासलेवाले रेलवे स्टेशन कालोल पहुँचे। यह एक अच्छा शहर है। यहाँ व्यापारी और साहूकार बहुत ज्यादा बसते हैं। हमारे दौरे से इनके भीतर एक प्रकार की हड़कंप मच चुकी थी , गोकि हमें इसका पूरा पता न था। सरदार बल्लभ भाई के गण लोग भी चुपचाप बैठे न थे। हम उनके गढ़ पर ही धावा जो बोल रहे थे। जो गुजरात आज तक गाँधीवाद का किला माना जाता था वहीं किसान-सभा की प्रखर प्रगति उन नेताओं को बुरी तरह खल रही थी। इसीलिए हमारे खिलाफ अंट-संट प्रचार कर के और हमें कांग्रेस-विरोधी करार देके उनके गण मध्यमवर्गीय लोगों को हमारे विरुद्ध खूब ही उभाड़ रहे थे। और कालोल शहर तो मध्यवर्गीय लोगों का अड्डा ही ठहरा।
एक बात और भी हो गई थी। उसके पूर्व देहातों में जो हमारे कई लेक्चर हो चुके थे उनमें साहूकारों और सूदखोरों की लूट का हमने खासा भंडाफोड़ किया था। हमने कहा था कि किसानों के सभी कर्ज मंसूख कर दिए जाएँ। इससे साहूकारों में खलबली मचना स्वाभाविक था। उनने समझा कि यह तो हमारा भारी दुश्मन खड़ा हो गया। वे मानते थे कि यदि ऐसे लेक्चर किसानों में होने लग जाएँ तो वे हमारी एक न सुनेंगे , निडर हो जाएँगे और हमारा दिवाला ही बुलवा देंगे। पंचमहाल जिले के गुसर मौजे में पीछे चल के श्री जबेर भाई नामक किसान ने ऐसा किया भी। और जगह भी ऐसी घटनाएँ हुईं। इसीलिए उनका डरना और सतर्क होना जरूरी था।
जिस दिन हम कालोल पहुँचे उसके ठीक पहले दिन एक गाँव में एक साहूकार से कुछ बातें भी ऐसी हो गईं कि वह चौंक पड़ा , और बहुत संभव है कि उसने भी कालोल में सनसनी पैदा की हो। बात यों हुई कि उसने किसानों की फिजूलखर्ची की शिकायत करते हुए यह कह डाला कि ये लोग शहरों जा के सैलूनों में बाल कटवाया करते हैं। सैलून अंग्रेजी ढंग की जगहें होती हैं जहाँ बाबू आनी ढंग से नाऊ लोग हजामत बनाते और ज्यादा पैसे मजदूरी में लेते हैं। साहूकार को खटकता था कि ये लोग मेरा कर्ज और सूद चुकता न कर के फिजूल पैसे खर्च डालते हैं। इसी से उसने मुझसे उनकी शिकायत की।
मगर मैंने झल्ला के कहा कि क्या ऐसा बराबर होता है या कभी-कभी ? उसने उत्तर दिया कि केवल कभी-कभी। इस पर मैंने उसे डाँटा कि यही चीज तुम्हें चुभ गई ? आखिर किसान लोग पत्थर तो हैं नहीं। ये भी मनुष्य हैं। इन्हें भी अभिलाषाएँ और वासनाएँ हैं। इसीलिए कभी-कभी उन्हें पूरा कर लेते हैं। जो लोग इन्हीं की कमाई के पैसे सूद , कर्ज , लगान आदि के रूप में लूट के बराबर ही सैलूनों में जाते और गुलछर्रे उड़ाते हैं उन्हें शर्म होनी चाहिए , न कि इन किसानों को। ये तो अपने ही कमाई के पैसे से कभी-कभी ऐसा करते हैं और यह अनिवार्य है। मगर आपको अमीरों की बात नहीं खटक के इनकी ही क्यों खटकती है ? ये किसे लूट के सैलून में जाते हैं ? इस पर वह साहूकार हक्का-बक्का हो गया। उसे यह आशा न थी कि मैं ऐसा कहूँगा। वह तो मुझे गाँधीवादियों की तरह समाज-सुधारक समझता था। फलतः मेरी बात सुन के उसे अचंभा हुआ। शायद उसी ने कालोल में ज्यादा सनसनी फैलाई।
हाँ , तो कालोल में पहुँचने पर शहर से बाहर एक बाग में जो रेलवे स्टेशन के पास ही है , हम जा ठहरे। हमारे ठहरने का प्रबंध पहले से ही वहीं था। बाग में पहले एक कारखाना था तो तहस-नहस की हालत में पड़ा रो रहा था। शहर के दो एक प्रतिष्ठित और पढ़े-लिखे लोग हमसे वहाँ मिलने आए। यह भी पता चला कि उन्हें लोगों ने हमारी सभा का भी प्रबंध किया है। श्री इंदुलाल जी से उनका पुराना परिचय था। हमें खुशी इस बात की थी कि मध्यमवर्गीय पढ़े-लिखे लोग हमारे भी साथ हैं। उन्हीं के नाम से सभा की नोटिसें भी बँटी थीं। सभा का समय शाम होने पर था जब कि चिराग जल जाएँ। हम भी निश्चिंत थे। क्योंकि भीतरी सनसनी और हमारे खिलाफ की गई तैयारी का हमें पता न था। दूसरों को भी शायद न था। नहीं तो हमें बता तो देते ताकि हम पहले से ही सजग हो जाएँ। मगर विरोधियों ने गुपचुप अपनी तैयारी कर ली थी जरूर।
जब शाम होने के बाद हम सभा में चले तो शहर के बीच में जाना पड़ा। हमें ताज्जुब हुआ कि यह क्या बात है ? घने मकानों के बीच कहाँ जा रहे हैं यह समझना असंभव था। इतने में हम ऐसी जगह जा पहुँचे जो चारों ओर ऊँचे मकानों से घिरी थी। बीच में जो जगह खाली थी वहीं देखा कि बहुत से सफेद-पोश लोग जमा हैं। सब के सब खड़े थे। बैठने के लिए कोई दरी-वरी या बिछावन भी वहाँ न दीखा। हमने समझा कि यों ही किसी काम से ये लोग खड़े हैं और आगे चलने लगे। लेकिन हमें बताया गया कि यही सभा-स्थान है। हमें ताज्जुब हुआ कि शहर की सभा और उसकी ऐसी तैयारी! हम समझी न सके कि क्या बात है। इतने में किसी ने इशारा कर दिया कि यही स्वामी जी हैं। इशारे का पता हमें तो न लगा। मगर विरोधियों की तैयारी ऐसी थी कि वे किसी के इशारे से समझ जा सकते थे।
बस , फिर कुछ कहिये मत। हमें कोई बैठने को भी कहनेवाला न दीखा। यहाँ तक कि किसी ने बात भी न की और चारों ओर से एक अजीब ' सी सी ' की आवाज आने लगी। वह आवाज हमें पहले ही पहल सुनने को मिली। हमने हजारों किसान-सभाएँ कीं। विरोधियों के मजमे में हमने व्याख्यान दिए यहाँ तक कि हरिपुरा के पहले सूरत जिले में बिलिमोड़ा स्टेशन से एक दूर बसे शहर में भी हमारी सभा हुई जिसमें गाँधीवादी भरे पड़े थे। मगर ऐसी हालत वहाँ न देखी। उनने सभ्यता से आदरपूर्वक हमसे सवाल जरूर किए जिनके उत्तर हमने दिए। मगर ऐसा न किया। यहाँ तो कोई सुननेवाला ही न था। मालूम होता था कि यों ही ' सी सी ' और ' हू हू ' कर के या ताने मार के हमें ये लोग भगा देने पर तुले बैठे थे। तानेजनी की बातें भी बोली जा रही थीं। कोई-कोई हमें संन्यासी का धर्म सिखा रहे थे। मगर अप्रत्यक्ष रूप से जैसा कि हुआ करता है।
पहले तो हम और याज्ञिक दोनों ही अकचका गए। मगर पीछे खयाल किया कि यहाँ तो जैसे हो निपटना ही होगा। हम मार भले ही खा जाएँ। मगर सभा तो कर के ही हटेंगे। इतने में एक दीवार के बगलवाले चबूतरे पर हम दोनों जा खड़े हुए और याज्ञिक ने बोलने की कोशिश की। पहले तो वे लोग सुनने को रवादार थे ही नहीं। इसीलिए उनकी सिसकारी चलती रही। मगर हम या याज्ञिक भी बच्चे या थकनेवाले तो थे नहीं। इसलिए याज्ञिक ने बोलने की कोशिश बराबर जारी रखी। नतीजा यह हुआ कि बाधा डालनेवाले थक के सुनने को बाध्य हुए। आखिर कब तक ऐसा करते रहते ? उनका थकना जरूरी था। हमारा तो एक पवित्र लक्ष्य है जिसमें मस्त होने से हम थकना क्या जानें ? वह लक्ष्य भी महान है। शोषितों एवं पीड़ितों का उद्धार ही हमारा लक्ष्य है। उसमें हमारा अटल विश्वास भी है। फिर हम क्यों थकते ? बल्कि ऐसी बाधाओं से तो उल्टे हमारी हिम्मत और भी बढ़ती है। मगर उन लोगों का तो कोई महान और पवित्र लक्ष्य था नहीं। फिर थकते क्यों नहीं ?
जब वे चुप हो गए तो हमें और भी हिम्मत हुई। फिर तो श्री इंदुलाल ने अपना लेक्चर तेज किया और धीरे-धीरे उन लोगों को ऐसा बनाया कि कुछ कहिए मत। आखिर वह भी उसी खेड़ा जिले के ही रहनेवाले ठहरे। कालोल के बहुतेरे लोग उनके त्याग और उनकी जन-सेवा को खूब ही जानते हैं। वे गाँधी जी के प्राइवेट सेक्रेटरी बहुत दिनों तक रह चुके हैं। पढ़-लिख के और वकालत पास कर के उनने अपने को दलितों की सेवा के लिए समर्पित किया। यहाँ तक कि शादी भी न की। यह बात खेड़ावालों से ही छिपी रहे यह कब संभव था ? यही वजह थी कि उनने विरोधियों की मीठे-मीठे खूब ही मरम्मत की।
फिर मेरा मौका आया। मैं खड़ा हुआ और भाषण का प्रवाह चला। मैंने देखा कि इन्हें कांग्रेस के ही मंतव्यों और प्रस्तावों के द्वारा पानी-पानी करना ठीक होगा। इसलिए कांग्रेस की चुनाव घोषणा , फैजपुर के प्रस्ताव और लखनऊ के प्रस्ताव का उल्लेख कर के मैंने उन्हें बताया कि यदि वे कांग्रेस के भक्त हैं तो फौरन ही किसानों को कर्ज से और जमींदारों के जुल्मों तथा बढ़े हुए लगान के बोझ से मुक्त करना होगा। वे बेचारे क्या जानने गए कि प्रस्ताव क्या हैं और लीडर लोग कांग्रेस के मंतव्यों के ही विरुद्ध काम कर रहे हैं ? उन्हें तो जैसा समझाया गया वैसा ही उनने मान के मुझे कांग्रेस का बागी करार दे दिया! मैंने उनसे कहा कि गुनाह कोई करे और अपराधी कोई बने ? मैंने उन्हें ललकारा कि मेरी एक बात का भी उत्तर दे दें तो मैं हार जाने को तैयार हूँ। मैं तो घंटों बोलता रहा और वहाँ ऐसी शांति रही कि कुछ पूछिए मत। अब तो कोई चूँ भी नहीं करता था। मेरे बाद स्थानीय एक सज्जन भी बोले और सभा बर्खास्त की गई।
पीछे तो ' सी सी ' करनेवालों को खूब ही पता चला कि वे धोखे में थे। जब मैंने न सिर्फ उनकी बल्कि उनके बड़े-से-बड़े लीडरों की भी खासी खबर ली तो आखिर वे करते भी क्या ? दरअसल मध्यमवर्गीय लोगों को तो यों ही भटका के गुरुघंटाल लोग अपना उल्लू सीधा करते हैं। वहीं मैंने प्रत्यक्ष देखा कि मध्यमवर्गीय लोग कितने खतरनाक और किस तरह बेपेंदी के लोटे की तरह इधर-से-उधर ढुलकते हैं। पहले तो मेरे दुश्मन थे। मगर पीछे ऐसे सरके कि कुछ कहिए मत। चाहे जो हो पर उनके करते हमारी किसान-सभा की धाक खूब ही जमी।
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लखनऊ की कांग्रेस के बाद ही सन 1936 ई. में बिहार प्रांतीय वर्किंग कमिटी की मीटिंग थी। मैं भी मौजूद था। लखनऊ में कांग्रेस ने जो प्रस्ताव किसानों की हालत की जाँच के लिए पास किया था और प्रांतीय कमिटियों से जाँच की यह रिपोर्ट माँगी थी कि विभिन्न प्रांतों में किसानों के लिए किन-किन सुधारों की जरूरत है जिससे उनकी तकलीफें घटें और उन्हें आराम मिले , उसी संबंध में यह खास मीटिंग हुई थी। उसी मीटिंग में किसान जाँच कमिटी बनानी थी। वह बनाई भी गई। बहुत देर तक विचार और बहस-मुबाहसा होता रहा। समस्या ठहरी पेचीदा। इसीलिए कमिटी का काम आसान न था। अंत में तय पाया कि नौ मेंबरों की कमिटी बने और जाँच का काम फौरन शुरू कर दे। तभी फैजपुर कांग्रेस के पहले ही दिसंबर आते-आते रिपोर्ट तैयार हो सकेगी।
अब सवाल पैदा हुआ कि मेंबर हों कौन-कौन से ? यह तो जरूरी था कि बिहार के सभी प्रमुख लीडर जो वर्किंग कमिटी में थे उसके मेंबर बन जाते। हुआ भी ऐसा ही। मगर एक दिक्कत पेश हुई मैं भी वर्किंग कमिटी का सदस्य था। साथ ही , किसानों के संबंध में मुझसे ज्यादा जानकारी किसी और को थी भी नहीं। जाँच कमिटी में रह के किसानों से ऐसी बातें तो मैं ही पूछ सकता था जिनसे जमींदारों के ऐसे अत्याचारों पर भी प्रकाश पड़ता जो अब तक छिपे थे। कहाँ क्या सवाल किया जाए और कब किया जाए इस बात की जानकारी सबसे ज्यादा मुझी को थी। इतना ही नहीं। रिपोर्ट तैयार करने के समय मैं उसे किसानों के पक्ष में प्रभावित कर सकता था। मेरे न रहने पर तो शेष लोग या तो जमींदारों के ही तरफदार होते , या ज्यादे-से-ज्यादा दो भाषिए हो सकते थे। मगर किसानों को यदि कुछ भी भलाई करनी थी तो कुल नौ मेंबरों में एक का ऐसा होना अनिवार्य था जो किसानों की बातें ठीक-ठीक जानता और उनकी सभी समस्याएँ समझता हो। कोई वजह भी न थी कि मैं जाँच कमिटी में न रहूँ। यह हिम्मत भी किसे हो सकती थी कि मुझे रहने से रोके ? आखीर चुनाव में जो अगले साल शुरू में ही होने को था , किसान-सभा की सहायता भी तो कांग्रेस के लिए जरूरी थी। इसीलिए भी मुझे रखना ही पड़ता।
मगर मुझे क्या मालूम कि खुद बा. राजेंद्र प्रसाद धर्मसंकट में पड़े डूबते-उतराते थे। मैं तो समझता था , और दूसरे भी समझते थे , कि मुझे जाँच कमिटी में रहना ही है। दूसरी बात होई न सकती थी। लेकिन जब राजेंद्र बाबू ने दबी जबान से कहा कि स्वामी जी के रहने पर जमींदार और सरकार दोनों ही कहेंगे कि जाँच कमिटी की रिपोर्ट तो दरअसल किसान-सभा की रिपोर्ट है , न कि कांग्रेस की। कहने के लिए भले ही उसकी हो , तो मुझे ताज्जुब हुआ कि यह क्या बोल रहे हैं। मगर उनने और भी कह डाला कि हम नहीं चाहते कि किसी को ऐसा कहने का मौका मिले। हम चाहते हैं कि सभी की नजरों में हमारी रिपोर्ट की कीमत और अहमियत हो। अब तो मैं और भी हैरान हुआ और उनसे पूछा कि आप क्या दलील दे रहे हैं ? नौ में मैं ही अकेला किसान-सभा का ठहरा। बाकी तो खाँटी कांग्रेसी हैं , जमींदार और जमींदारों के दोस्त हैं। फिर यह कैसे होगा कि उनकी कीमत न हो और अकेले मेरे ही करते आपकी रिपोर्ट किसान-सभा की बन जाए ? खुद राजेंद्र बाबू भी उसमें होंगे। तो क्या मेरे सामने उनकी भी कोई कीमत न होगी। क्या किसान-सभा का या मेरा इतना महत्त्व सरकार और जमींदारों की नजरों में बढ़ गया ? मैं तो यह सुन के हैरान हूँ।
मेरी इन बातों का उत्तर वे लोग क्या देते ? आखिर कोई बात भी तो हो। और अगर किसान-सभा की या मेरी अहमियत इतनी मान लें , तो फिर कांग्रेस को क्या कहें ? उसे तो उन्हें सबके ऊपर रखना था। फिर दलीलों का जवाब देते हो क्या ? इसीलिए यह कहना शुरू किया कि आपके रहने से रिपोर्ट सर्वसम्मत ( unanimous) ने होगी और उसकी कीमत पूरी-पूरी होने के लिए उसका सर्वसम्मत होना जरूरी है। इस पर मैं बोल बैठा कि आपने अभी से यह कैसे मान लिया कि रिपोर्ट ऐसी न होगी और उसमें मेरा मतभेद खामख्वाह होगा ? मैं तो बहुत दिनों से वर्किंग कमिटी का मेंबर हूँ और उसके सामने बहुत से पेचीदा प्रश्न आते ही रहे हैं। किसानों के भी कितने ही सवाल जब न तब आए हैं। मगर आप लोग क्या एक भी ऐसा मौका बता सकते हैं जब मेरा मतभेद रहा हो ? या जब मैंने अंत में अलग राय दी हो ? यह दूसरी बात है कि बहस-मुबाहसे होते रहे हैं। तो भी अंत में फैसला तो हमने एक राय से ही किया है। फिर भी यदि आप लोग अभी से यह माने बैठे हैं कि जाँच कमिटी की रिपोर्ट में मेरा रिपोर्ट खामख्वाह होगा , तो माफ कीजिए , मुझे कुछ दूसरी ही बात दीखती है। मैं हैरत में हूँ कि यह क्या बातें सुन रहा हूँ।
एक बात और है। मान लीजिए कि मेरा मतभेद बाकी मेंबरों से होगा ही। तो इससे क्या ? यह तो बराबर होता ही है। क्या सभी कमिटियों की रिपोर्टें एक राय से ही लिखी जाती हैं ? शायद निन्नानबे फीसदी तो कभी एक मत नहीं होती है। मुश्किल से सौ में एक रिपोर्ट ऐसी होती होगी। तो क्या कभी ऐसा भी होता है कि शुरू में ही ऐसे लोग मेंबर बनाए जाएँ जिनके विचार एक से ही हों ? उलटे हमने देखा है , हम बराबर देखते हैं कि ऐसी कमिटियों में खासकर अनेक खयाल के लोग ही रखे जाते हैं। बल्कि उनकी रिपोर्टों की ज्यादा कीमत , ज्यादा अहमियत इसी से होती है कि अनेक मत के लोग उनमें थे। फिर भी आप लोग उल्टी ही बात बोल रहे हैं। आखिर आपकी यह जाँच कमिटी कोई निराली चीज तो है नहीं। फिर मैं यह क्या सुनता हूँ कि रिपोर्ट एक मत न होगी ?
अब तो किसी के बोलने के लिए और भी गुंजाइश न थी। सभी चुप थे। और लोगों की भावभंगीमा से और खासकर राजेंद्र बाबू के चेहरे से मुझे साफ-साफ झलका कि उन लोगों पर कोई भारी आफत आ गई है। वे नहीं चाहते कि मैं जाँच कमिटी में रहूँ। मगर उसी के साथ उनकी दिक्कत यह है कि मुझे रखने के लिए मजबूर हो रहे हैं , जब तक कि मैं खुद रहने से इनकार न कर दूँ। मैं समझने में लाचार था कि ऐसा क्यों हो रहा है मुझे क्या पता था कि उन लोगों के भीतर पाप भरा था कि न रिपोर्ट तैयार होगी और न छपेगी। सिर्फ चुनाव के पहले जाँच का ढकोसला खड़ा करके वे लोग किसानों को केवल ठगना चाहते थे कि वोट दें। यह भंडाफोड़ पीछे हुआ जब कि उनने रिपोर्ट का नाम ही लेना बंद कर दिया। बल्कि जब मैंने पीछे उनकी यह हालत देख के फैजपुर में आल इंडिया कांग्रेस कमिटी में यह सवाल उठाया तो वे लोग बुरी तरह बिगड़ बैठे। मैंने वहाँ भी उन्हें फटकारा और ऐसा सुनाया कि बोलती ही बंद थी।
हाँ , तो यह हालत देख के मैंने खुद कहा कि यदि आप लोगों की यही मर्जी है तो लीजिए मैं खुद रहने से इनकार करता हूँ। क्योंकि देखता हूँ कि यदि ऐसा नहीं करता तो जाँच कमिटी ही न बनेगी और पीछे सब लोग मुझी को इसके लिए कसूरवार ठहरा के खुद पाक बनने की कोशिश करेंगे। मगर मैं ऐसा नहीं होने दूँगा। इसीलिए खुद हट जाता हूँ। लेकिन यह कैसे होगा कि आप लोग जोई रिपोर्ट चाहेंगे छाप देंगे और मैं मान लूँगा ? मुझे रिपोर्ट की तैयारी के पहले और छपने के पहले भी पूरा मौका तो मिलना ही चाहिए कि बहस कर केसंभव हो तो उसे कुछ दूसरा रूप दिला सकूँ। इस पर सभी एकाएक बोल बैठे कि यह तो होगा ही। जाँच के समय भी आप रह सकते हैं। मगर जाँच का काम पूरा होने और रिपोर्ट लिखने के पहले एक बार कमिटी आपसे सभी बातों पर काफी विचार कर लेगी और आपको पूरा मौका देगी कि उसे प्रभावित करें। फिर जब रिपोर्ट तैयार होगी तो छपने के पहले आपके पास उसकी एक कॉपी जरूर भेजी जाएगी और यदि आप चाहेंगे तो कमिटी से फिर बहस कर के उसमें रद्द-बदल करवा सकेंगे। इस पर मैंने कह दिया कि धन्यवाद! मैं इतने से ही संतोष कर लेता हूँ। तब कहीं जाकर राजेंद्र बाबू और दूसरों का धर्मसंकट टला।
अब एक दूसरा सवाल पैदा हुआ। जितने मेंबर चुने गए उनमें पटना और शाहाबाद जिलों के एक भी न थे और किसानों के प्रश्नों के खयाल से ये जिले बहुत ही महत्त्व रखते हैं। सच बात तो यह है कि मैं इस सवाल को न तो उसी समय समझ सका और न अब तक समझ पाया हूँ। यदि सभी जिलों के मेंबर न होंगे तो उससे क्या ? मैं तो अच्छी तरह जानता हूँ कि अपने जिले की किसान समस्याओं की पूरी जानकारी शायद किसी को आज तक भी हो। जानकारी तो उन्हें हो जो उसमें दिलचस्पी रखते हों और उसकी टटोल में बराबर रहते हों। इधर किसी को न तो इसकी परवाह है और न इसके लिए फुर्सत। फिर इस सवाल से क्या मतलब ? बिहार के कुल सोलह जिलों को मिलाकर जब सिर्फ नौ मेंबरों की ही जाँच कमिटी बनी तो यह सवाल उठता ही कैसे कि फलां जिले का कोई नहीं है ? हाँ , किसी का नाम कमिटी के मेंबरों में होने से अखबारों में छपे और वह इस प्रकार नामवरी हासिल करे यह बात जुदा है और अगर इस दृष्टि से पटना शाहाबाद से किसी को देना हो तो हो।
खैर , कुछ देर के बाद किसी ने कहा कि बाबू गंगाशरण सिंह पटने के ही हैं। उन्हें क्यों न दिया जाए ? इस पर प्रायः सभी बोल बैठे कि ठीक है , ठीक है। अंत में तय भी पाया गया कि वह भी एक मेंबर रहें और वह तथा बाबू कृष्णबल्लभ सहाय-दोनों ही-जाँच कमिटी के मंत्री हों। मैं चुपचाप बैठा आश्चर्य में डूब रहा था। बाबू गंगाशरण सिंह न सिर्फ बिहार प्रांतीय किसान कौंसिल के मेंबर थे , बल्कि बिहार प्रांतीय कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की कौंसिल ऑफ ऐक्सन के भी सदस्य और पक्के सोशलिस्ट माने जाते हैं। मैं तो जाँच कमिटी में इसलिए खतरनाक माना गया कि किसान-सभावादी हूँ। मगर सोशलिस्ट लोग तो ठेठ क्रांति तक पहुँच जानेवाले माने जाते हैं। वह तो क्रांति से नीचे की बात करते ही नहीं। फिर भी गंगा बाबू , बाबू राजेंद्र प्रसाद और उनके साथियों को न सिर्फ कबूल थे , बल्कि उन लोगों ने खुद उनका नाम पेश किया। यह एक निराली बात थी कि सोशलिस्ट तो कबूल हो , मगर मेरे जैसा आदमी , जो सोशलिस्ट बनने का दावा कभी नहीं करता , कबूल न हो। यह मेरा आश्चर्य आज तक बराबर बना है। इतना ही नहीं जब मैंने सोशलिस्ट नेता जयप्रकाश बाबू से यह चर्चा की तो उनने खुद कहा कि गंगा बाबू तो सोशलिस्ट भी हैं , तब कैसे कबूल हो गए ? इसीलिए यह सवाल आज भी ज्यों का त्यों बना है और कौन कहे कि कब तक बना रहेगा ?
(21)
हजारीबाग जेल में इस बार हमें जो घटनाएँ मिलीं वह भी काफी मजेदार हैं। हमें कुछ ऐसे गाँधीवादी यहाँ मिले जो हिटलर की जीत से केवल इसलिए खुश होते थे कि वह हिंदुस्तान पर चला आएगा और इस प्रकार किसान-सभा और मजदूर-सभा का गला घोंट देगा। सोवियत रूस पर होनेवाले उसके आक्रमण से तो वे लोग और भी ज्यादा खुश थे। वह यहाँ तक बढ़ गए थे कि सोवियत की हार अब हुई , तब हुई ऐसा कहने लगे थे। भारत में हिटलर के पदार्पण से उनकी क्या हालत होगी यह बात भी शायद वह सोचते हों , मगर क्या सोचते थे यह हमने न जाना। किसान आंदोलन खत्म हो जाएगा उन्हें इसी की खुशी थी। यदि वे खुद भी उसी के साथ खत्म हो जाएँ तो भी उन्हें परवाह न थी। फिक्र उन्हें अगर कोई दिखी तो यही कि किसान-सभा कैसे मिटेगी। बेशक उनमें कुछ लोग तो ऐसे भी थे जो स्वराज्य लेना नहीं चाहते थे , किंतु उन्हें चिंता थी उसके बचाने की। उनके जानते उनका अपना स्वराज्य तो हई। जमींदारी बड़ी है और रुपए-पैसे भी काफी जमा हैं। ठाट-बाट और शान-बान भी पूरी है। किसानों पर रोब भी खूब डाँटते हैं। फिर और स्वराज्य कहते हैं किसे ? उनने तो स्वराज्य का यही मतलब समझा है। उन्हें भय है कि उनका यह स्वराज्य कहीं किसान और पीड़ित लोग छीन न लें , इसीलिए कांग्रेस और गाँधी जी की दुम पकड़ के वे इस बला से पार होने के लिए यहाँ पधारे थे। क्योंकि उन्हें विश्वास है कि यहाँ आ जाने पर उनके स्वराज्य की रक्षा गाँधी जी और कांग्रेस-दोनों ही-ठीक वैसे ही करेंगे जैसे हिंदुओं की गाय की दुम उन्हें वैतरणी में डूबने से बचाती है।
मगर उनमें जो जमींदार या मालदार न थे उनकी इस मनोवृत्ति पर हमें तरस आया और हँसी भी आई। हिटलर के पदार्पण से उन्हें अपना स्वराज्य कैसे मिलेगा यह समझ में न आया। शायद उन्हें अपने स्वराज्य की परवाह कतई थी नहीं। कदाचित जेल आए थे वे इसीलिए कि उनकी लीडरी खतरे में थी ─ छिन जाती। अगर उसे उनने बचा लिया तो यही क्या कम है ? उसी से कमा-खाएँगे। आज लीडरी भी एक पेशा जो बन गई है। मगर , अगर हिटलर के आ जाने से वह लीडरी भी छिन जाए , तो छिन जाए बला से। उसी के साथ किसान-सभा भी तो खत्म होगी। बस , इतने से ही उन्हें संतोष था। इसे ही कहते हैं '' आप गए अरु घालहिं आनहि '' या '' दुश्मन की दोनों आँखें फोड़ने के लिए अपनी एक फोड़ लेना! '' हमें तो साफ ही मालूम हुआ कि कांग्रेस एक अजाएबघर या चिड़ियाखाना ( Museum or zoo) है जिसमें रंग-बिरंगे जीव पाए जाते हैं! गुलाम भारत की विकट परिस्थिति के चलते ही उसकी स्थिति है। क्योंकि राष्ट्रीय संस्था के अलावे और कोई भी संस्था अंग्रेजों का मुँहतोड़ दे नहीं सकती , उनसे सफलतापूर्वक लोहा ले नहीं सकती। इसीलिए कांग्रेस को हर हालत में मजबूत बनाना हर विचारशील माननीय का फर्ज हो जाता है। अंग्रेजी सरकार की मनोवृत्ति और सलूक उसे लड़ने को विवश भी करते हैं। यही है परिस्थितिवश कांग्रेस की विलक्षणता और मान्यता। मगर उसमें रंग-बिरंगे जीव तो हई।
हजारीबाग जेल में रोजाना दस आना मिलता है खुराक के लिए। कपड़े-लत्ते , टूथ-ब्रश , पाउडर , साबुन वग़ैरह अलग ही मिलते हैं। इतने पर भी एक ' टुटपुँजिए ' जमींदार महोदय को तमक के कहते पाया कि '' कष्ट भोगने के लिए तो हम जमींदार लोग हैं और स्वराज्य लेने या जमींदारी मिटाने की बात किसान करते हैं। देखिए न , यह कितनी अंधेर है! '' क्या खूब! वे हजरत इतने कष्ट में थे कि कुछ कहिए मत। दस आने हजम करने में क्या कम कष्ट है ? और ये पाउडर , ब्रश आदि ? इनका प्रयोग तो उन्हें बाहर शायद ही कभी मुअस्सर हुआ हो। इसीलिए इससे भी उन्हें काफी कष्ट था। प्रतिदिन दस आना खामख्वाह हजम करना यह तो आफत ही थी। यदि कभी कम-बेश होता तो एक बात थी। मगर रोज ही पूरे दस आने! यही तो गजब था! पता नहीं , छूटने के दिन वे 30-40 पौंड वजन में बढ़े हुए गए या कि कुछ कम! उनके बारे में हमें केवल इतना ही कहना है कि किसानों ने उन्हें कभी नहीं कहा था कि जेल के ये कष्ट वे भोगें। वे तो खुद आए थे। फिर किसान उनके साथ क्यों रिआयत करेंगे , यही समझ में न आया। दरअसल बात तो कुछ दूसरी ही थी। वह तो पहले समझते थे कि स्वराज्य होगा किसानों और जमींदारों के साझे का , और बँटवारे के समय हम किसानों को ग्वाले के छोटे भाई की तरह ठग लेंगे। मगर किसान-सभा ने इस बात का पर्दाफाश कर दिया और कह दिया है कि साझे का स्वराज्य होई नहीं सकता। बस , इसी से उन्हें क्रोध था।
कहते हैं कि किसी गाँव में दो भाई ग्वाले साथ ही रहते और कमाते-खाते थे। बड़ा भाई था काफी चालाक। कमाता वह था नहीं। कमाते-कमाते मरता था छोटा भाई ही। मगर खान-पान में बड़ा आगे ही रहता था। फिर भी छोटे को परवाह न थी। मगर यह बात आखिर चलती कब तक ? अंततोगत्वा एक दिन छोटे को भी गुस्सा आया और उसने कहा कि हमें जुदा कर दो , साथ न रहेंगे। बड़े ने पहले तो काफी कोशिश की कि यह बात न हो। मगर छोटे को जिद्द थी। इसलिए लाचार सभी चीजों का बँटवारा करना ही पड़ा। और चीजों में तो कोई दिक्कत न थी। मगर दस-पंद्रह सेर दूध देनेवाली ताजी ब्याई एक भैंस थी। उसका बँटवारा कैसे हो , यह बात उठी। लोटा-थाली हो तो एक-एक बाँट लें। अन्न और पैसे आदि में भी यही बात थी। मगर भैंस तो एक ही थी। दो होतीं तो और बात थी। अब क्या हो ? दोनों को कुछ सूझता न था। अक्ल के पूरे तो थे ही बड़े हजरत। उनने रास्ता सुझाया। भैंस का आधा भाग तुम्हारा और आधा हमारा रहे , जैसे घर में आधा-आधा दोनों ने लिया है। छोटे ने मान लिया। अब सवाल उठा कि भैंस का कौन हिस्सा किसे मिले ?
यहाँ पर बड़े भाई ने चालाकी की और छोटे से कहा कि देखो भाई , तुम्हें मैं बहुत मानता हूँ। इसीलिए चाहता हूँ कि यहाँ भी तुम्हें अच्छा ही हिस्सा दूँ। यह तो जानते ही हो कि भैंस का मुँह कितना सुंदर है , किस प्रकार पगुरी करती है। उसकी सींगें कितनी चमकीली और मुड़ी हुई हैं , कान , आँख वगैरह भी देखते ही बनते हैं। विपरीत इसके चूतड़ का हिस्सा कितना गंदा है। उस पर बराबर गोबर-मूत लगा रहता है जिसे रोज धोना पड़ता है। भैंस बार-बार गोबर-मूत निकालती ही रहती है। अगर एक दिन उसे उठा के न फेंकें तो रहने ही जगह नर्क ही हो जाए! लेकिन तुम्हारे करते मैं लाचार हो के उसका पिछला हिस्सा ही लूँगा और गोबर-मूत फेंकूँगा। तुम्हें अगला भाग देता हूँ। बस , बँटवारा हो गया। खुश हो न ? छोटे ने हामी भर दी।
अब तो ऐसा हुआ कि छोटा भाई रोज भैंस को खूब खिलाता-पिलाता और बड़ा धीरे से दोनों समय उसका दूध निकालता और मजा करता। यह बात कुछ दिन चलती रही। छोटे को इस बीच दही , दूध कुछ भी देखने तक को न मिला। कभी-कभी वह घबराता था जरूर। मगर सीधा तो था ही। अतः संतोष कर लेता कि क्या किया जाए ? बँटवारा जो हो गया है। बस , फिर काम में लग जाता था। इस प्रकार मिहनत करते-करते मरता था वह और मजा मारता था बड़ा। कितना सुंदर न्याय था! कैसा सुंदर प्रेम बड़े ने छोटे भाई के प्रति दिखाया! उसके सीधेपन से उसने कैसा बेजा नफा उठाया! मगर यह अंधेर टिक न सकी। टिकती भी क्यों ?
एक दिन छोटे भाई का परिचित कोई सयाना आदमी उसके घर आया। छोटे ने उसका आदर-सत्कार किया। भोजन भी अच्छा खिलाया। मगर दही-दूध नदारद! आगंतुक को ताज्जुब हुआ कि हाल की ब्याई सुंदर भैंस दरवाजे पर बँधी है। दूध भी काफी देती होगी। यह शख्स मेरा सच्चा दोस्त भी है। फिर भी मुझे इसने न दूध दिया और न दही! मैंने गौर कर के देखा तो इसके घर में ये चीजें नजर भी न आईं। यह क्या बात है ? उसने छोटे से यही सवाल किया भी। उसने उत्तर दिया कि सो तो सही है। भैंस तो है। मगर बँटवारे में मेरे पल्ले उसका अगला हिस्सा जो पड़ा है पिछला तो भैया का है। फिर मैं दूध पाता तो कैसे ? हाँ , सींग वगैरह की सुंदरता से संतोष करता हूँ। गोबर-मूत से भी बचता हूँ। यही क्या कम है ? भैया ने बड़ी कृपा कर के मुझे अगला भाग ही दिया है। भाई हो तो ऐसा हो। इतने से ही आगंतुक ने समझ लिया कि इसमें चाल क्या है।
उसने छोटे भाई से कहा कि तो फिर बड़ा भाई भी दूध क्यों निकाल लेता है ? यदि तुम अगले हिस्से को खिलाते-पिलाते हो तो वह भी पिछले हिस्से का गोबर-मूत फेंके। यह क्या बात है कि तुम तो कमाते-कमाते और खिलाते-खिलाते मरो और वह मजा चखे ? जब एक काम तुम करते हो तो वह भी एक ही करे। भैंस के दुह लेने का दूसरा काम वह क्यों करता है ? उसे जा के रोकते क्यों नहीं हो ? आखिर दोनों को पूरा-पूरा काम करना होगा। क्योंकि हिस्सा तो बराबर ही है न! उसका यह कहना था कि उस सीधे भाई के समझ में बात आ गई। आगंतुक ने इसके पहले जो दूध के बँटवारे आदि की बातें कही थीं वह उसके दिमाग में नहीं धँसी और नहीं धँसी। हालाँकि बातें थीं सही। हमने देखा है कि किसान ही जोत-बो के फसल पैदा करते हैं। मगर जब तक जमींदार हुक्म न दे एक दाना भी नहीं छूते और पशुओं को तथा बाल-बच्चों को भी भूखों मारते हैं। यदि उनसे कहिए कि ऐसा क्यों करते हो ? खाते-पीते क्यों नहीं हो ? तो बोल बैठते हैं कि राम-राम , ऐसा कैसे होगा ? ऐसा करने से पाप होगा। जमींदार का उसमें हिस्सा जो है। चाहे हजार माथापच्ची कीजिए कि जमींदार तो कुछ करता-धरता नहीं। जमीन भी उसकी बनाई न होके भगवान या प्रकृति की है। इस पर न जाने कितने मालिक बने और गए। जोई बली होता है वही जमीन पर दखल करता है ─ ' वीर भोग्या वसुंधरा। ' मगर उनके दिमाग में एक भी बात घुसती नहीं और यह धर्म , पाप और हिस्से का भूत उन्हें सताता ही रहता है। यही हालत छोटे भाई की भी थी। और जैसे सीधी बात उसके दिल में धँस गई उसी तरह सीधी बात किसानों को भी जँच जाती है।
फिर तो वह दौड़ा-दौड़ाया बड़े भाई के पास फौरन गया और ऐन भैंस दुहने के समय उससे कहने लगा कि आप यह ज्यादा काम करते हैं। एक काम मेरा है भैंस के खिलाने का। एक ही आपका होना चाहिए उसके गोबर-मूत को साफ करने का। फिर यह दूसरा काम आप क्यों कर रहे हैं ? पहले मैं यह समझ न सका था। अभी-अभी यह बात मैंने जानी है। इसीलिए आपको यह काम करने न दूँगा। नहीं तो मुझे एक काम इसके बदले में दीजिए।
इस पर बड़ा भाई घबराया सही। लेकिन सोच के बोला कि पिछला आधा भाग मेरा है और अगला आधा तुम्हारा। अपने-अपने भाग में जिसे जो करना है करे। इसमें रोक-टोक का क्या सवाल ? काम का बँटवारा तो नहीं है। यहाँ तो भैंस का बँटवारा है और उसके दो हिस्से किए हैं। यदि तुम खामख्वाह काम ही चाहते हो तो भैंस के मुँह और आँखों पर तेल-वेल लगाया करो और सींगों पर भी। या जब मैं इसे दुहता हूँ तो इसके मुँह पर से मक्खियाँ और मच्छर वगैरह हाँका करो। बस , और ज्यादा चाहिए क्या ?
इस पर छोटा भाई निरुत्तर हो के चला गया और आगंतुक से सारी बात उसने कह सुनाई। इस पर आगंतुक ने कहा कि घबराओ मत। अभी काम हुआ जाता है। अगले हिस्से के लिए जो काम उसने बताया है वह तो उसी के फायदे का है। इससे तो दूध निकालने में उसे और भी आसानी होगी। लेकिन जब उसने भैंस को दुहने का काम शुरू किया था तो तुमसे पूछा तो था नहीं कि यह काम करूँ या न करूँ। पिछला भाग उसी का होने के कारण उसने उस पर जो काम चाहा किया। दुहने से उसे फायदा होता है। इसलिए वही काम करता है। ठीक उसी प्रकार तुम भी अपने फायदे का काम आगे के भाग में करो। उससे पूछने की क्या बात ?
इस पर छोटे ने पूछा कि अच्छा आप ही बताइए कि किस काम के करने से मेरा फायदा होगा ? उसने उत्तर दिया कि ज्योंही वह हजरत दूहने बैठें त्यों ही भैंस के मुँह पर धड़ाधड़ लाठियाँ लगाने लगो। इससे भैंस भड़क के भाग जाएगी और वे हजरत दूध निकाल न सकेंगे। यह बात छोटे को पसंदआई और उसने फौरन ' अच्छा ' कह दिया। इसके बाद भैंस दुहने के समय घर लाठी लिए तैयार बैठा रहा और ज्यों ही बड़े भैया दुहने की तैयारी करने लगे कि उसने दौड़ के उसके मुँह पर तड़ातड़ लाठियाँ बरसानी शुरू कीं। बड़े साहब हैरत में थे और जब तक '' हैं , हैं '' कर के उसे रोकने की कोशिश करें तब तक भैंस जाने कहाँ भाग गई। बड़े भैया को इसके रहस्य का पता न लगा। उनने छोटे से पूछा तो उत्तर मिला कि मुँह तो मेरे हिस्से का है न ? फिर उस पर मैंने जो चाहा किया , जैसा आपने अपने हिस्से पर मन चाहा अब तक किया है। फिर ' हैं हैं ' करने या बिगड़ने का क्या सवाल ? बड़े भाई ने समझा कि यह सनक तो नहीं गया है। उसने छोटे को समझा-बुझा के तथा हिंसा करने और भैंस को कष्ट देने को अनुचित बता के उसे ठंडा किया। उसने समझा कि अब आगे ऐसा न करेगा। मगर दूसरे समय ज्यों ही दुहना शुरू हुआ कि उसने फिर वही लाठीकांड शुरू किया। पूछने पर जवाब भी वही दिया।
अब तो बड़े भैया की पिलही चमकी। उनने सोचा कि हो न हो दाल में काला अवश्य है। इसे कोई गहरा गुरु मिल गया है। नहीं तो यह तो भोला-भाला आदमी है। खुद ऐसा कभी नहीं करता। और जब उसने अच्छी तरह पता लगाया तो मालूम हो गया कि छोटे भाई का कोई काइयाँ दोस्त आया है जिसने उसे यह बात सुझा दी है। अब वह बिना आधा दूध लिए नहीं मानने का। अब मेरी दाल हर्गिज न गलेगी। इसीलिए हार कर उसने छोटे भाई से कहा कि क्यों तूफान करते हो ? भैंस भी खराब हो रही है और दूध भी किसी को मिल नहीं रहा है ─ न तुम्हें और न मुझे। जाओ आज से जितना दूध होगा उसका आधा तुम्हें जरूर बाँट दिया करूँगा। तुमने मुझसे यही बात पहले ही क्यों न कह दी कि आधा दूध चाहते हो ? मैं उसी समय तुम्हारी बात मान लेता।
इस पर छोटा भाई खुशी-खुशी अपने मित्र के पास गया और उससे उसने कह सुनाया कि आपका बताया उपाय सही निकला। अब हमें रोज आधा दूध दुहने के बाद ही मिल जाया करेगा। आपका उपाय तो बहुत ही सुंदर और आसान निकला। यह सुन के मित्र को भी खुशी हुई कि उस बेचारे का लुटा-लुटाया हक मिल गया।
किसान-सभा ने भी ठीक इसी तरह आसान उपाय किसानों को बता दिया है जिससे अपनी कमाई को पा सकें और अपने परिवार का भरण-पोषण कर सकें। जमींदार इसीलिए सभा से घबराते हैं और उसे कोसा करते हैं। वह तो साझेवाली भैंस की तरह साझे का स्वराज्य चाहते थे , जिसमें पीछे चल के किसानों को वैसे ही ठग सकें जैसे छोटे भाई को बड़े ने मीठी-मीठी बातों से ठग लिया था। किसान-सभा ने इसी ठगी से किसानों को पहले ही से आगाह कर दिया है। उसने कह दिया है साफ-साफ , कि साझे का स्वराज्य धोखे की चीज होगी। खबरदार , किसान और जमींदार का स्वराज्य साझे का या एक नहीं हो सकता है। वह तो जुदा जुदा होगा। जो किसान का होगा वह जमींदार का नहीं और जो जमींदार का होगा उससे किसान कत्ल हो जाएँगे , जैसा कि भैंस के बारे में साफ देखा गया है।
जमींदारों और उनके दोस्तों को इस बात का मलाल है कि किसान अब चेत गए हैं। वे यह बात मानने को तैयार नहीं कि जमींदारों और उनके दोस्तों की मदद से किसानों को स्वराज्य मिलेगा। वह तो मानते हैं कि अपने ही त्याग और परिश्रम से किसान-राज्य कायम होगा। यही कारण है कि जेल में पड़े-पड़े वह टुटपुँजिए जमींदार साहब उन पर कुढ़ते थे।
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जेल में हमें और भी कई मजेदार बातें देखने को मिलीं। किसान-सभा वादियों को तो यह पक्की धारणा है कि किसानों की आर्थिक लड़ाई के जरिए ही उनके हक उन्हें दिलाए जा सकते हैं। उनका स्वराज्य भी इसी तरह आएगा। वह यह भी मानते हैं कि किसानों के बीच जहाँ धर्म-वर्म का नाम लिया कि सारा गुड़ गोबर हो गया। धर्म के मामले में जिसे जो करना होगा करेगा , या नहीं करेगा। यह तो हरेक आदमी की व्यक्तिगत बात है कि धर्म माने या न माने और माने तो कौन सा धर्म और किस प्रकार माने। मंदिर , मस्जिद या गिर्जे में जाएगा या कि न जाएगा यह फैसला हरेक आदमी को अपने लिए खुद करना होगा। किसान-सभा इस मामले में हर्गिज न पड़ेगी। वह इससे कोसों दूर रहेगी। नहीं तो सारा गुड़ गोबर हो जाएगा। हम किसानों और मजदूरों या दूसरे शोषितों की लड़ाई में पंडित , मौलवी और पादरी की गुंजाइश रहने देना नहीं चाहते। हमें ऐसा मौका देना ही नहीं है जिसमें वे लोग किसानों की बातों में ' दाल-भात में मूसरचंद ' बनें। नहीं तो बना-बनाया काम बिगड़ जाएगा। क्योंकि धर्म की बात आते ही किसान-सभावालों को बोलने का हक रही न जाएगा। और पंडित , मौलवी आ टपकेंगे। धर्म उन्हीं के अधिकार की चीज जो है। वहाँ दूसरों की सुनेगा भी कौन ?
इस बात का करारा अनुभव हमें इस बार जेल में हुआ। जो लोग गाँधी जी के नाम पर ही जेल आए थे और अपने आपको पक्के गाँधीवादी मानते थे उन्हीं की हरकतों ने हमें साफ सुझा दिया कि आजादी के मामले में लड़ाई लड़नेवाले लोगों के सामने हर बात को धर्म के रूप में बार-बार लाके गाँधी जी मुल्क का कितना बड़ा अहित कर रहे हैं। राजनीति में धर्म का चाहे किसी भी ऊँचे से ऊँचे और आदर्श रूप में भी मिला देने से कितना अनर्थ हो सकता है यह हमने साफ देखा। राजनीति या रोटी के प्रश्न का कोरी दुनियावी चीज मानना कितनी अच्छी चीज है यह हम बखूबी देख पाए।
चंपारण जिले के मेहसी थाने के एक मुसलमान सज्जन सत्याग्रही के रूप में ही जेल पधारे थे। नीचे से ऊपर तक खादीमय दिखे। सीधे-सादे आदमी थे देखने से मालूम होता था कोई पक्का देहाती है। धोती और कुर्ते के साथ गाँधी टोपी बराबर ही नजर आती थी। हमने पाँच-छः महीने के दरम्यान उनका सर गाँधी टोपी से सूना कभी न देखा। एक बार तो यहाँ तक सुना कि उनने जेल के कपड़े लेने से इनकार कर दिया। सिर्फ इसलिए कि वे खादी के न थे। हालाँकि गाँधी जी का हुक्म है कि जेल में खादी का आग्रह न कर के जो कपड़े मिलें उन्हीं को कबूल करना होगा। जब चंपारन के प्रमुख गाँधीवादी नेता ने उन्हें यह बात समझाई तो उनने उत्तर दिया कि आप और गाँधी जी समर्थ हैं। इसलिए चाहे जो कपड़े पहनें मगर मैं तो ना चीज हूँ। फिर मुझसे कैसी ऐसी उम्मीद करते हैं ? पीछे उनने जेल के कपड़े मजबूरन लिए सही। मगर वे कितने पक्के गाँधी भक्त हैं इसका पूरा सबूत इससे मिल जाता है। नमाजी तो वे पक्के हैं यह सबने देखा है। गाँधी जी तो धर्म पर जोर देते ही हैं। फिर वे ऐसे होते क्यों नहीं ? मगर धर्म की बात कैसी अंधी है इसका भी प्रमाण इसी से मिल जाता है कि जब उनने धर्म बुद्धि से एक बार खादी पहन ली , तो फिर गाँधी जी की हजार दुहाई देने पर भी वे दूसरा कपड़ा लेने को तब तक राजी न हुए जब तक मजबूर न हो गए। राजनीति में धर्म को घुसेड़नेवाले गाँधी जी को भी इससे सीखना चाहिए कि वह उनकी बात भी मानने को तैयार न थे। उनने एक ऐसा अस्त्र धर्म के नाम पर अपने अनुयायियों को दे दिया है कि खुद उनकी बातें भी वे लोग नहीं मानते और दलील देते हैं धर्म की ही। यह दुधारी तलवार दोनों ओर चलती है यह गाँधी जी याद रखें। उन हजरत की तो मोटी दलील यही थी कि जब एक बार खादी को पहनना धर्म हो गया तो फिर उसका त्याग कैसे उचित होगा। गाँधी जी को यह भी न भूलना चाहिए कि आम लोग ऐसे ही होते हैं गाँधी जी की बुद्धि सब को तो होती नहीं कि धर्म की पेचीदगियाँ समझ सकें। इसलिए यह बड़ी खतरनाक चीज है , खासकर दुनियावी और राजनीतिक मामलों में।
अच्छा आगे चलिए। वे हजरत ज्यों ही हजारीबाग जेल में आए उसके एकी दो दिनों बाद एक मुसलमान सज्जन ने उनके बारे में मुझसे आ के कहा कि एक मुसलमान आए हैं। उनने गोदाम में मुझे देखते ही आतुर भाव से कहा है कि भई , मुझे भी मुसलमान के हाथ का पकाया खाना खिलाओ। इतने दिनों तक तो मैं फल-फूल खाते-खाते घबरा गया हूँ। सभी लोग तो हिंदू ही मिले। फिर उनके हाथ की पकाई चीजें खाता तो कैसे खाता ? तुम मुसलमान हो और अपना खाना अलग पकवाते हो। इसलिए मुझे भी उसी में शामिल कर लो तो मैं बहुत ही उपकार मानूँगा , आदि-आदि। जिस मुसलमान ने मुझसे ये बातें कहीं वह भी उनकी बातें सुन के हैरत में था। हैरत की बात भी थी। यह बात आमतौर से यहाँ देखी गई है कि कुछेक को छोड़ सभी हिंदुओं को मुसलमानों के हाथों पकी चीजें खाने में कोई उज्र नजर नहीं हुआ। कइयों ने तो खामख्वाह मुसलमान पकाने वाले रखे हैं। इसलिए उनकी बातों से चौंकने का पूरा मौका था। मगर मैं सुन के हँसा और फौरन समझ गया कि हो न हो यह धर्म महाराज की महिमा है। खैर , वह मुसलिम सज्जन उस मुसलमान के चौके में ही कई साथियों के साथ बहुत दिनों तक खाते रहे यह मैंने अपनी आँखों देखा।
अब एक दूसरी ऐसी ही घटना सुनिए। बड़ी असेंबली के एक हिंदू जमींदार मेंबर भी इसी जेल में थे। पहले तो मुझे कुछ पता न चला। मगर पीछे कई बातों के सिलसिले में पता चला कि यदि मुसलमान उनकी खाने-पीने की चीजों के पास चला जाए या छू दे तो वह उन्हें खाते नहीं थे। वे अपना खाना एक आदमी के साथ अलग ही पकवाते थे। कहने के लिए कट्टर गाँधीवादी। गाँधी जी के विरुद्ध एक शब्द भी सुनने को तैयार नहीं। किसान-सभा या समाजवाद के भी ऐसे दुश्मन कि कुछ कहिए मत। मगर धर्म के भक्त ऐसे कि मुसलमान के स्पर्श से हिचक! मुसलमान की छाया से उनका खाना अपवित्र हो गया। मेरे लिए यह समझना गैरमुमकिन था। मैं भी खुद बना के खाता हूँ और छुआ-छूत से परहेज करता हूँ खाने-पीने में। मगर इसका यह अर्थ नहीं कि किसी मुसलमान , ईसाई या अस्पृश्य कहे जानेवाले के स्पर्श से खाद्य पदार्थों को अखाद्य मान लेता हूँ। मेरी छुआछूत का धर्म से कोई ताल्लुक नहीं है। यदि कभी कोई मुसलिम या अछूत मेरी रोटी , मेरा भात छू दे तो भी मैं उसे खा लूँगा। मगर सदा ऐसा नहीं करता। वह इसलिए कि आमतौर से लोगों की भीतरी और बाहरी शुद्धि के बारे में कहाँ ज्ञान रहता कि कौन कैसा है ? किसने घृणिततम काम किया है या नहीं कौन कैसी संक्रामक बीमारी में फँसा है या नहीं यह जाना नहीं जा सकता। इसलिए साधारणतः मैं किसी का छुआ हुआ नहीं खाता हूँ , जिसे बखूबी नहीं जानता। यही मेरी छुआछूत का रहस्य है।
मगर उन गाँधीवादी महोदय को मैं खूब जानता हूँ। वह इस तरह की छुआछूत नहीं मानते हैं। उनके लिए ऐसा मानना असंभव भी है। उनकी छुआछूत तो वैसी ही है जैसी आम हिंदुओं की। जब एक मुसलिम सज्जन ने मौलवी ने जो मेरी इस बात को अच्छी तरह जानते हैं उन्हें पकड़ा तो वे हजरत मेरा दृष्टांत दे के ही पार हो जाना चाहते थे। मगर मौलवी ने उनकी एक न चलने दी और आखिर निरुत्तर कर दिया।
एक तीसरी घटना भी सुनने योग्य ही है। जेल में कुछ प्रमुख लोग श्रीकृष्ण जन्माष्टमी को धार्मिक ढंग से मनाने की तैयारी कर रहे थे। उसमें शामिल तो सभी थे एक मुझको छोड़ के। क्योंकि मैं कृष्ण को धर्म की कट्टरता से कहीं परे और बाहर मानता हँ। मेरे जानते वह एक बड़े भारी जन-सुधारक और नायक थे। उन्हें या उनकी गीता को धार्मिक जामा पहनाना उनकी महत्ता को कम करना है। वह और उनकी गीता सार्वभौम पदार्थ हैं। इसीलिए मैं उन्हें धार्मिक रूप देने में साथी बनना नहीं चाहता। इसी से उस उत्सव से अलग रहा। कोई दूसरा कारण न था। मगर और लोग तो शरीक थे ही।
जिन मौलवी साहब का जिक्र अभी किया है उन्हीं को दो-एक प्रमुख लोगों ने उस उत्सव में निमंत्रित किया कि कृष्ण के बारे में उनका कुछ प्रवचन हो। मौलवी साहब ने कबूल भी कर लिया। कुछी दिन पहले जब हजरत मुहम्मद साहब का जन्मोत्सव मुसलमानों ने मनाया था तो उनने सभी हिंदुओं को बुलाया था। कइयों ने उनके जीवन पर कुछ प्रवचन किया भी था। इसलिए इस बार मौलवी साहब का बुलाया जाना और उनका कबूल करना इस खयाल से भी मुनासिब ही था। लोग कहते हैं कि दोनों के धार्मिक उत्सवों में अगर दोनों ही योग दें या दिल से शरीक हों तो धार्मिक झगड़े खुद मिट जाएँ। बात चाहे कुछ भी हो। लेकिन कांग्रेसी लोग ऐसा जरूर मानते हैं। इसीलिए तो जन्माष्टमी में मौलवी साहब का शामिल होना गौरव की बात थी , खुशी की चीज थी।
मगर इस बात में कई सत्याग्रही हिंदू सख्त विरोधी हो गए। उनमें एकाध तो निहायत सीधे और अनजान थे। मगर दो-एक तो ऐसे थे कि दिन-रात गाँधी जी की ही दुहाई देते रहते हैं। सबसे मजे की बात यह थी कि जिन जमींदार गाँधीवादी की बात खाने-पीने के बारे में अभी कह चुके हैं वह इस बात के सख्त विरोधी थे कि मौलवी साहब उसमें शामिल हों या कुछ भी बोलें। कृष्ण के बारे में मौलवी साहब को बोलने देना वे हर्गिज नहीं चाहते थे और इस बात पर उनने घुमा-फिरा के चालाकी से बहुत जोर दिया। साफ तो बोलते न थे कि धर्म की बात है। क्योंकि इसमें बदनाम जो हो जाते। इसलिए घुमा-फिरा के बराबर कहते फिरते थे। उन्हें बड़ी तकलीफ हुई। जब उन्हें पता लगा कि मौलवी गए और बोले भी। उनने पीछे उलाहने के तौर पर कहा कि आखिर आप गए और बोले भी ? माना नहीं ? एकाध को तो यहाँ तक साफ ही कहते सुना कि धर्म ही चौपट हो गया।
मगर ये सभी घटनाएँ वाजिब हुईं , इस मानी में कि जब धर्म की ही छाप हमारे सारे राजनीतिक और आर्थिक कामों पर लगी हुई हैं तो दूसरी बात होई कैसे सकती है ? गाँधी जी चाहे धर्म की हजार व्याख्या करें और उसे बिलकुल ही नया जामा पहना डालें जो राजनीति में आ के भी उसे आदर्श बनाए रखे , उसे विकृत होने न दे , जैसा कि ऊपर की घटनाओं से स्पष्ट होता है। फिर भी जन-साधारण के दिल में हजारों वर्षों से धर्म के संबंध में जो धारणा है वह बदल नहीं सकती। उसका बदलना करीब-करीब गैर-मुमकिन है। धर्म के नाम पर होनेवाली खराबियों और बुराइयों को दूर करने के लिए कितने ही धर्म-सुधारक आए और चले गए। मगर वे ज्यों की त्यों पड़ी हैं। नहीं , नहीं , वह तो और भी बढ़ती गई हैं। सुधारकों ने सुधार के बदले एक और भी नया संप्रदाय पैदा कर दिया जो गुत्थियों को और ज्यादा उलझाने का ही काम करने लगा। गाँधी जी के नाम पर तो एक ऐसा ही संप्रदाय पैदा हो चुका है जो दूसरों की बातें सुनने तक को रवादार नहीं। असल में धर्म की तो खासियत ही है अंधपरंपरा पैदा करना और उसे प्रश्रय देना। तर्क दलील की गुंजाइश वहाँ हई नहीं। और अगर कोई यह बात न माने तो उसे मान लेना होगा कि जहाँ तर्क दलील और अक्ल की गुंजाइश हो वह यदि धर्म हो भी तो किसी खास व्यक्ति या कुछ चुने लोगों के ही लिए हो सकता है। ज्यों ही उसे आपने सार्वजनिक रूप देने की कोशिश की कि अक्ल के लिए मनाही का सख्त ऑर्डर जारी हुआ और अंधपरंपरा आ घुसी। धर्मों और धार्मिक आंदोलनों के इतिहास से यह बात साफ-साफ जाहिर है। गाँधी जी इस बात को न मान कर और राजनीति पर धर्म की छाप लगाकर यह बड़ी भारी भूल कर रहे हैं , जिसका नतीजा आनेवाली पीढ़ियों को सूद के साथ भुगतना ही होगा।
इस तरह हम देखते हैं कि ज्यों ही किसी बात में धर्म का नाम आया कि धर्म के नाम पर ही गुजर करनेवाले और उसके सर्व जन-सम्मत ठेकेदार पंडित और मौलवी आ घुसे। उस बात में टाँग अड़ाने का मौका तो उन्हें तभी तक नहीं मिलता जब तक वे बातें शुद्ध राजनीतिक या आर्थिक हैं और उन पर धर्म मजहब की मुहर नहीं लगी है। तब तक ये लोग मजबूरन दूर रहते हैं और ताक में रहते हैं कि हमारे घुसने का मौका कब आएगा। इसलिए धर्म का नाम लेते ही कूद पड़ते हैं। उन्हें इस बात से क्या गर्ज कि आपने धर्म का नाम किस मानी में लिया है ? उनके लिए धर्म का जिक्र ही काफी है। उसका अर्थ तो वे खुद लगाते हैं और उनका यह भी दावा है कि उनके सिवाय दूसरा न तो धर्म का मतलब समझ सकता है और न समझने का हक ही रखता है। खूबी तो यह कि उनके इस दावे का समर्थन , इसकी ताईद , जन-साधारण भी करते हैं , इसीलिए उन्हीं की बात मानी जाती है और दूसरों की हवा में मिल जाती है चाहे वे कितने ही बड़े महात्मा और पैगंबर क्यों न कहे जाएँ।
और जब पंडित और मौलवी उस मामले में आ घुसे तो फिर लोगों को अपने ही रास्ते पर ले जाएँगे। वे जो कहेंगे आमतौर से वही बात मान्य होगी। यही कारण है कि खान-पान आदि के मामले में उन्हीं की बात चलती है और ऊपर लिखी घटनाएँ होती हैं , होती रहेंगी। लेकिन अगर कुछ लोग ऐसा नहीं करते तो यह स्पष्ट है कि गाँधी जी के हजार चिल्लाने पर भी उनके दिल में धार्मिक भाव है नहीं , उनने धर्म को कभी समझा या माना है नहीं। तब आज क्यों मानने लगे ? यदि धर्म की बात बोलते हैं तो सिर्फ जबान से ही। चाहे गाँधी जी इसे मानें या न मानें। मगर यह कटु सत्य है।
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हमने जो कुछ पूर्व प्रसंग के अंत में कहा है उसका स्पष्टीकरण एक दूसरी घटना से हो जाता है। एक दिन जेल के भीतर ही हमें आश्चर्य में डूबने के साथ ही बहुत तकलीफ हुई जब हमने कुछ हिंदुओं को एक मौलवी साहब की आलोचना करते सुना। उनने बोलते-बोलते कृष्ण जी को ' हजरत ' कह दिया था। यही उनका महान अपराध था। हम तो समझी न सके कि माजरा क्या है। मगर पीछे बहुत-सी बातें याद आईं। उसके पहले एक सज्जन ने बोलने में जब ' दृष्टिकोण ' शब्द का प्रयोग किया था तो एक मुसलमान साहब ने पूछा कि इसका मतलब क्या है ? जब उनने मतलब समझाया तो मुसलमान बोले कि बोलने में भी ऐसा ही क्यों नहीं बोलते ताकि सभी लोग समझ सकें। उनका इतना कहना था कि वह हिंदू सज्जन आपे से बाहर हो गए और तमक के कहने लगे कि हम आपके लिए या हिंदू-मुसलिम मेल के , हिंदुओं की संस्कृत और उनके साहित्य को चौपट न करेंगे। इस पर मामला बढ़ गया। मगर हमें उससे यहाँ मतलब नहीं है। हमें इतना कह देना है कि सचमुच ही ' दृष्टिकोण ' का अर्थ आसानी से न तो आम हिंदू जनता ही समझ सकती है और न मुसलिम लोग ही जान सकते हैं। और अगर कोई इस पर एतराज करता है तो गाँधीवाद की माला जपने वाले साहित्य और हिंदू संस्कृति के नाश का हौवा खड़ा करते हैं। हालाँकि किसानों और गरीबों की भलाई के ही लिए वे जेल आए हैं ऐसी दुहाई देते रहते हैं। मगर जरा भी नहीं सोचते कि उनकी यह भाषा कितने प्रतिशत किसान समझ सकते हैं। और जब बात ही न समझेंगे तो साथ कहाँ तक देंगे।
लेकिन अगर ' हजरत ' शब्द को देखा जाए तो उस पर इसलिए उज्र नहीं हुआ कि लोग समझ न सके। हम तो देखते हैं कि बराबर ही ' आइए हजरत , हजरत की हरकत तो देखिए ' आदि बोला करते हैं। यह तो मामूली बोल-चाल का शब्द हिंदी भाषा में हो गया है। इसलिए अगर उस पर एतराज
हुआ तो सिर्फ इसलिए कि कृष्ण को उनने हजरत कह दिया। यह तो गजब हो गया। वही मुसलमान अपने बड़े-से-बड़े नेता को , पैगंबर साहब को हजरत कहता है और हम लोग सुनते रहते हैं। फिर भी जिन्हें हिंदू अवतार मानते हैं उन्हें वही मुसलमान हजरत कहे तो आफत हो गई। इस बात का इससे सबूत मिलता है कि हम लोग असल में कितने गहरे पानी में हैं। इसी प्रकार ' सीता को बेगम और राम को बादशाह ' कहने का भी विरोध करते हमने जेल में सुना। बाहर तो सुनते ही थे। अगर अंग्रेजी में क्वीन ( Queen) और किंग ( King) कहा जाए तो हमें जरा भी दर्द नहीं होता। हालाँकि इन शब्दों का मतलब वही है जो बेगम और बादशाह का। हमने यह नजारा देखा और अफसोस किया।
आजकल हिंदी पढ़ने का शौक बढ़ गया है। इसीलिए जो जेल में भी यह बात देखने को मिली ज्यादातर गाँधीवादी लोग ही ऐसे दिखे। यों तो तथाकथित वामपक्षी और क्रांतिकारी लोग भी इस तरह के पाएगए। हिंदी और हिंदुस्तानी पर विचार-विमर्श भी होता रहा। कुछ लोगों ने जो अपने को राजनीतिक नेता मानते हैं , यह तय किया कि मिडिल क्लास के ऊपर तो हिंदुस्तानी की किताबें पढ़ाई जाएँ। मगर नीचे की कक्षाओं में वही ' दृष्टिकोण ' वाली हिंदी ही पढ़ाई जाए। शायद इसमें उनने एक ही तीर से दोनों शिकार मारे। हिंदी साहित्य और हिंदू संस्कृति भी बचा ली गईऔर हिंदू-मुसलिम एकता के जरिए राजनीति की भी रक्षा हो गई। मगर वे यह समझी न सके कि यह रक्षा नकली है। इससे काम नहीं चलने का।
मैंने ऐसे एकाध दोस्तों से पूछा कि जो लोग मिडिल से आगे नहीं जा सकते उनकी राजनीति कैसे बचेगी ? उनका हिंदू-मुसलिम मेल क्योंकर हो सकेगा ? और भी तो सोचने की बात है कि अधिकांश तो मिडिल तक ही रुक जाते हैं। बहुतेरे तो लोअर और अपर तक ही इतिश्री कर लेते हैं। प्रायः नब्बे फीसदी तो पढ़ने का नाम ही नहीं जानते हैं। एक बात यह भी है कि जो जवान और बूढ़े हो चुके हैं वह यों ही रह जाएँगे। उन्हें तो ' काला अक्षर भैंस बराबर ' है। तो फिर उनके लिए आपकी हिंदी या हिंदुस्तानी किस काम की ? वे लोग संस्कृति और साहित्य की रक्षा कैसे कर पाएँगे ? मगर वे चुप रहे। उत्तर देई न सके। बिचारे देते भी क्या ?
असल बात दूसरी ही है। जहाँ मैं या मेरे जैसे कुछ लोग हर बात को ' जनता ' (mass) की नजर से देखते और सोचते हैं , न कि संस्कृति और साहित्य की दृष्टि से। क्योंकि जनता को तो सबसे पहले रोटी , कपड़े , दवा आदि से मतलब है। हाँ , जब पेट भरेगा तो ये बातें सूझेंगी मगर अभी तो उनका मौका ही नहीं है। तहाँ साधारण कांग्रेसवादी-फिर चाहे वह गाँधीवादी हों या तथाकथित क्रांतिकारी और वामपक्षी-सबसे पहले साहित्य और संस्कृति की ही ओर नजर दौड़ाते हैं। और याद रहे कि इन दोनों के पीछे धर्म छिपा हुआ है। खुल के आने की या उसे लाने की हिम्मत नहीं है। इसीलिए साहित्य और संस्कृति का ढकोसला खड़ा किया जाता है। असल में न सिर्फ वे लोग मध्यमवर्गीय हैं , किंतु उनकी मनोवृत्ति भी वैसी ही है। इसलिए मध्यम वर्ग की ही नजर से हर बात को वे लोग स्वभावतः देखते और तौलते हैं। मध्यम वर्ग का पेट तो भरता ही है। कपड़ा और दवा-दारू भी अप्राप्य नहीं है। फिर उन्हें साहित्य और संस्कृति न सूझे तो सूझे क्या खाक ?
मगर वे यह नहीं सोचते कि साहित्य की अगर कोई जरूरत है तो जनसमूह के लिए ही। आम लोगों को जगाना और तैयार करना ही साहित्य का काम होना चाहिए , खासकर गुलाम देश में। बिना जगे और पूरी तरह तैयार हुए जन-साधारण आजादी की लड़ाई में भाग क्योंकर ले सकते हैं ? और आजाद हो जाने पर भी उन्हें ही ऊपर उठाना और आगे ले चलना जरूरी है। नहीं तो दुनियाँ की घुड़दौड़ में हमारा मुल्क पीछे पड़ जाएगा। जब तक समूचे देश के बाशिंदों की शारीरिक और मानसिक उन्नति नहीं तो जाए तब तक देश पिछड़ा का पिछड़ा ही रह जाएगा। इसलिए उस समय भी साहित्य का निर्माण आम लोगों की ही दृष्टि से होना चाहिए। मुट्ठी भर मध्यमवर्गीय लोग साहित्य पढ़-पढ़ा के क्या कर लेंगे ? उनसे तो कुछ होने जाने का नहीं , जब तक किसान , मजदूर और अन्य श्रमजीवी उनका साथ न दें। इसीलिए हर हालत में साहित्य की असली उपयोगिता शोषित जनता के ही लिए है। मगर '' दिवस का अवसान समीप था , गगन था कुछ लोहित हो चला। तरुशिखा पर थी तब राजती , कमलिनी कुल बल्लभ की प्रभा '', या '' पूर्वजों की चरित चिंता की तरंगों में बहो '' जैसे साहित्य को , जिस पर मध्यमवर्गीय बाबुओं को नाज है और जिसके ही लिए हिंदीहिंदुस्तानी की कलह खड़ा कर के आकाश-पाताल एक कर रहे हैं , कितने किसान या मजदूर समझ सकते हैं ? यही हालत है '' नहीं मिन्नतकशे ताबे शुनीदन दास्ताँ मेरी। खामोशी गुफ्तगू है बे जबानी है जबां मेरी '' की भी। दोनों ही साहित्य , जिनके लिए हिंदू और मुसलिम के नाम पर माथाफुड़ौवल हो रही है , किसानों और मजदूरों से , कमानेवालों से , आम जनता से लाख कोस दूर हैं।
मगर इससे क्या ? मुट्ठी भर मध्यमवर्गीय लोग तो इन्हें समझते ही हैं। बाकियों की फिक्र उन्हें हई कहाँ ? असल में साहित्य की ओट में संस्कृति छिपी है और उसकी आड़ में धर्म बैठा है , जिनका उपयोग आम जनता को उभाड़ने में किया जाकर मुट्ठी भर बाबुओं और सफेदपोशों का उल्लू सीधा किया जाता है। जब तक संस्कृति और धर्म , तमद्दुत और मजहब के नाश का हौवा ये मध्यमवर्गीय लोग खड़ा न करें किसान-मजदूर उनके चकमे में आ नहीं सकते और बिना इसके काम बनने का नहीं। आखिर आम हिंदुओं और मुसलमानों के नाम पर ही तो इन्हें नौकरियाँ लेना , सीटों का बँटवारा करना और पैक्ट या समझौता करना है। सीधे लोगों की धार्मिक भावनाओं को उत्तेजित कर के , उन्हें उभाड़ कर ही ये काइयाँ लोग अपना काम बना लेते हैं , हालाँकि ऊपर से पक्के बगुला भगत बने रहते हैं। गरीबों के नाम पर ऐसा आँसू बहाते हैं कि कुछ पूछिए मत।
जैसा कि कह चुके हैं , साहित्य का काम है आम लोगों को जाग्रत करना , तैयार करना और उनकी मानसिक-उन्नति करना , जिससे सच्चे नागरिक बन सकें। साहित्य का दूसरा काम है नहीं। थोड़े से लोगों का मनोरंजन करना या उन्हें काल्पनिक संसार में विचरण करने का मौका देना यह काम साहित्य का नहीं है। पुराने साहित्यकारों ने उसका लक्षण करते हुए साफ ही कहा है कि दिमाग पर ज्यादा दबाव न डाल कर और इसीलिए सुकुमार मस्तिष्कवालों के लिए भी बातें सुगम बनाने वाला ही ठीक साहित्य है। इसीलिए पढ़ते या सुनते जाइए और बिना दिक्कत मतलब समझते जाइए। जहाँ समझने में विशेष दिक्कत हुई कि वह दूषित साहित्य हो गया। बातें जो सरस बना के कही जाती हैं उसका मतलब यही है कि वे आसानी से हृदयंगम हो जाएँ।
इस दृष्टि से तो जन-साधारण के लिए सुलभ और सुगम साहित्य तैयार करने के दो ही रास्ते हैं। या तो वह ऐसी भाषा में लिखा जाए जो बचपन से हम बोलते और सुनते हैं , जिसे माताएँ और बहनें बोलती आ रही हैं। या अगर यह न हो सके या इसमें बड़ी कठिनाई हो तो ऐसी खड़ी बोलीवाली भाषा तैयार की जाए जिसे सभी देहाती-हिंदू-मुसलमान बेखटके समझ सकें। '' इस दृष्टि बिंदु को सम्मुख रख के यदि हम पर्यवेक्षण करते हैं तो मर्मांतक वेदना होती है '', या "पहाड़ों की चोटियाँ गोशे सहाब से सरगोशियाँ कर रही हैं" , को कौन सी आम जनता समझती है , समझ सकती है ? हिंदी और उर्दू के नामी लिक्खाड़ चाहे खुद कुछ समझें। मगर उनकी बातें आम लोगों के लिए वैसी ही हैं जैसा वन में पका बेल बंदरों के लिए। न तो उनकी हिंदी समझ सकती है हिंदू जनता और न उर्दू मुसलिम जनता। फिर हिंदी को मुसलिम या उर्दू को हिंदू जन समूह क्योंकर समझ पाएगा ? या तो सिर्फ ' लिखें ईसा , पढ़ें मूसा ' जैसी कुछ बात है। वे लोग खुद लिखते और खुद ही समझते हैं , या ज्यादे से ज्यादा उन्हीं जैसे कुछ इने-गिने लोग। मगर वह लोग जनता नहीं है। वह तो निराले ही हैं यह याद रहे।
इसीलिए अगर बिहार में हम ऐसा साहित्य बनाना चाहते हैं , तो या तो भोजपुरी , मगही , मैथली , बंगाली , संथाली और उरांव आदि भाषाओं में ही जुदे-जुदे इलाकों के लिए अलग-अलग साहित्य रचें या हिंदी और उर्दू मिला के एक ऐसी सरल भाषा बना दें जो सभी समझ सकें। हिंदी-उर्दू मिलाने से हमारा मतलब है संस्कृत शब्दों की भरमारवाली हिंदी और अरबी-फ़ारसी के शब्दों से लदी उर्दू की जगह सरल और सबके समझने लायक भाषा तैयार करने से। दृष्टांत के लिए ' अजीजम ' या ' अजीजमन ' और ' प्रियवर ' या ' प्रिय मित्र ' की जगह ' मेरे प्यारे दोस्त ' या ' मेरे प्यारे भाई ' वगैरह लिखें तो कितना सुंदर हो और काम चले। जरूरत होने से नए-नए शब्दों को भी या तो गढ़ के या दूसरी तरह से प्रचार करते जाएँगे।
जो लोग ' हजरत ' आदि शब्दों को देख-सुन के चिहुँकते हैं उन्हें याद रखना चाहिए कि हमने , हमारी हिंदी ने और हमारी जनता ने अरबी-फरसी के हजारों शब्दों को हजम कर के अपने को मजबूत बनाया है। इतने पर भी अभी यह भाषा अधूरी सी लगती है। अगर हजारों शब्दों को अपने में मिलाए न होती तो न जानें इसकी क्या हालत होती। हाजिरी , मतलब , हिफाजत , हाल , हालत , फुर्सत , कसूर , दावा , मुद्दई , अर्ज , गर्ज , तकदीर , असर , जरूरत , फसल , रबी , खरीफ , कयदा , कानून , अदालत , इन्साफ , तरह , सदर , दिमाग , जमीन वगै़रह शब्दों को नमूने की तरह देखें तो पता चलेगा कि ये और इनके जैसे हजारों शब्द ठेठ अरबी और फारसी के हैं। मगर इन्हें बोलते और समझते हैं न सिर्फ हिंदी साहित्यवाले , बल्कि बिलकुल देहात में रहने और पलनेवाले गँवार किसान और मजदूर भी। समय-समय पर इनने और हमने इन्हें हजम कर के अपने को मजबूत और बड़ा बनाया है। इससे हमारी संस्कृति बिगड़ने के बजाए सुधरी है , बनी है। वह कोई छुईमुई नहीं है कि हजरत , बेगम और बादशाह वगैरह बोलने से ही खत्म हो जाएगी। यह भी हमारी नादानी है कि सीता को बेगम और राम को बादशाह कहने से नाक-भौं सिकोड़ते हैं। तुलसीदास तो श्रीरामजी को अवतार मानते थे। वह उनके और जानकीजी के अनन्य भक्त थे। मगर अपनी रामायण में उनने ' राजा राम जानकी रानी ' लिखा है। वे हिंदी के श्रेष्ठ साहित्यकार माने जाते हैं। उन्हें राजा और रानी कहने में तो जरा भी हिचक न हुई। आज तक हमारे हिंदी-साहित्य-सेवियों ने भी इस बारे में अपनी जबान न हिलाई। मगर राजा की जगह बादशाह और रानी की जगह बेगम कहते ही तूफान सा आ गया। क्या इसका यह मतलब है कि अब हिंदी की भी शुद्धि होगी ? उसमें से पूर्व बताए हजारों शब्दों को गर्दनियाँ दे के निकाला जाएगा क्या ? अगर ऐसा है तो ' खुदा हाफिज। '
बात तो साफ-साफ कहना चाहिए। असल में राष्ट्रवादी लोग अधिकांश मध्यम श्रेणी के ही हैं। उनमें भी जो आज खाँटी कांग्रेसी या गाँधीवादी कहे जाते हैं वह तो गिन-गिन के मध्यमवर्गीय हैं , मिडिल क्लास के हैं। वे चाहे अपने को हजार बार कहें कि वे न तो हिंदू हैं और न मुसलमान , किंतुहिंदुस्थानी , पहले हिंदुस्थानी और पीछे हिंदू या मुसलमान। मगर दरअसल हैं वे पहले हिंदू या मुसलिम और पीछे हिंदुस्थानी या राष्ट्रवादी। इसका प्रमाण उनकी सँभली-सँभलाई बातों से न मिल के उनके कामों और अचानक की बातों से मिल जाता है। यह हिंदी , उर्दू या हिंदुस्थानी का झगड़ा इस बात का जबर्दस्त सबूत है। जब वह लेक्चर देने बैठते हैं तो उनकी तकरीर इस बात की गवाही देती है कि वे क्या हैं। उनकी बातेंआम लोग समझते हैं या नहीं इसकी उन्हें जरा भी फिक्र नहीं रहती है। वे तो धड़ल्ले से बोलते चले जाते हैं , गोया उनकी बातें सुननेवाले सभी लोग या तो पंडित या मौलवी हैं। उनने आलिम-फाजिल या साहित्य-सम्मेलन की परीक्षाएँ पास कर ली हैं। यदि वे ऐसा नहीं मानते तो लच्छेदार संस्कृत या फरसी के शब्दों को क्यों उगलते जाते ?
अगर हिंदुस्थानी कमिटी अपनी किताबों में कुछ उर्दू फरसी के शब्द नए सिरे से डालती है या पंजाब के हिंदू लोग उर्दू में संस्कृत के शब्द घुसेड़ते हैं तो उनका कलेजा कहने लगता है कि हाय हिंदी चौपट हुई , उर्दू बर्बाद हुई! साहित्य चौपट हुआ! संस्कृति मटियामेट हो गई! मालूम होता है अब हिंदी को अजीर्ण हो गया है , या उसकी पाचन-शक्ति ही जाती रही है। यही हालत उर्दू की भी है। हमें आश्चर्य तो इस बात का है कि यही लोग मुल्क को आजाद करने का बीड़ा उठाए हुए हैं। हिंदू-मुसलिम मेल की हाय-तोबा भी यही सज्जन बराबर मचाते रहते हैं। अगर कहीं हिंदू-मुसलिम दंगा हो गया तो हिंदू-मुसलिम जनता को भर पेट कोसने में थकते भी नहीं। लेकिन कभी भी नहीं सोचते , सोचने का कष्ट उठाते कि इन सब अनर्थों की जड़ उनकी ही दूषित मनोवृत्ति है। ' मुख पर आन , मन में आन ' वाला जो उनका रवैया है उसी के चलते ये सारी चीजें होती हैं। सभी बातों में भीतरी दिल से हिंदूपन और मुसलिमपन की छाप लगाने की जो उनकी वाहियात आदत है उसी के चलते ये सारी बातें होती हैं। अपने को चाहे वह हजार छिपाएँ। फिर भी उनका जो यह हिंदी , उर्दू और हिंदुस्थानी का झमेला है वही उनकी असलियत को जाहिर कर देने के लिए काफी है।
इस कहने से मेरा यह मतलब हर्गिज नहीं कि मैं हिंदुस्थानी कमिटी की या दूसरों की सारी बातों का समर्थन करता हूँ। मैं कृत्रिम या बनावटी भाषा का सख्त दुश्मन हूँ और मुझे डर है कि हिंदुस्थानी कमेटी कहीं ऐसी ही भाषा न गढ़ डाले। असलियत तो यह है कि मुझे उनकी किताबें वगैरह पढ़ने का मौका ही नहीं मिलता। हाँ , कभी-कभी कुछ बातें सामने खामख्वाह आई जाती हैं। इसलिए उनकी जानकारी निहायत जरूरी हो जाती है। मगर अखबारों में जो बातें इस सिलसिले में बराबर निकलती रहती हैं और कुछ दोस्तों से भी जो कुछ सुनता रहता हूँ उसी के आधार पर मैंने यह निश्चय किया है। मैंने देखा है कि इन झगड़ों के पीछे दूसरी ही मनोवृत्ति काम कर रही है। इसलिए हमें सभी जगह और ही चीजें दीखती हैं। अगर मनोवृत्ति ठीक हो जाए तो हिंदीहिंदुस्थानी के झगड़े फौरन मिट जाएँ या कम-से-कम उनके मिटने का रास्ता तो जरूर ही साफ जो जाए।
मगर इस हिंदी और हिंदुस्थानी के झमेले में हमें बड़ा खतरा नजर आ रहा है। अभी तो यह सिर्फ सफेदपोश बाबुओं के ही बीच होने के कारण उन्हीं की चीज है। मगर अंदेशा है कि वे लोग किसानों और मजदूरों के भीतर इसे फैलाएँगे। शिक्षा का संबंध ज्यादातर इन्हीं के हाथ में है। फलतः वे इसी साँचे में सबों को ढालना चाहेंगे ही। वैसी ही किताबें , वैसे ही लेख , वैसे ही अखबार तैयार होंगे जनता को पढ़ाने के लिए। अधिक कोशिश इस बात की होगी कि यह जहर देहातों में और मजदूरों के इलाकों में फैले। जो जिस चीज को पसंद करता है वह उसे ही सर्वप्रिय बनाना चाहता है। इसलिए इसका नतीजा सीधे धार्मिक झगड़ों के मुकाबिले में और भी बुरा होगा। क्योंकि यह जहर राजनीति की गोली के साथ लोगों के भीतर घुसेगा। आज तो राजनीति हमारे जीवन का प्रधान अंग बन गई है।और अगर उसी के साथ यह झगड़ा हमारे किसानों तथा मजदूरों के भीतर घुसा , तो गजब हो जाएगा। क्योंकि धार्मिक अंधता को घुसाने का नया तरीका और नया रूप यही हो जाएगा। फिर तो हम हमेशा कट मरेंगे। अतएव हमें अभी से इसके लिए सजग हो जाना होगा , ताकि इस साँचे में हमारी जनता का भावी जीवन ढलने न पाए।
हमें ताज्जुब है कि यह बात क्यों हो रही है। भाषा का विकास तो नदी के विस्तार की तरह होता है। जैसे नदी खुद ही आगे बढ़ती जाती है। वह अपना रास्ता खुद बना लेती है। हम हजार चाहें , मगर वह हमारी मर्जी के मुताबिक कभी नहीं चलती। तभी उसका फैलाव काफी होता है। भाषा की भी यही हालत होती है। आज अंग्रेजों के संसर्ग से हम अपनी भाषा में कितने ही शब्दों को घुसाते जा रहे हैं। प्रोग्राम , कमिटी , कॉन्फ्रेंस आदि शब्द हमने अपना लिए हैं।
कांग्रेस और मिनिस्ट्री शब्द हमारी जान पर हमेशा ही मौके-बे-बौके पाए जाते हैं। देहाती लोग भी इन्हें समझते और बोलते हैं। लालटेन और रेल शब्द गोया हिंदी भाषा के ही हों ऐसे मालूम पड़ते हैं। हमें पता ही न चला कि हम इन्हेंहजम कर रहे हैं। सभा की जगह मीटिंग कहना हमें अच्छा लगता है। ठीक इसी प्रकार मुसलमानों के जमाने में हमने फारसी और अरबी शब्दों से अपनी भाषा का खजाना भरा है। तब आज हिचक कैसी ?
आज जिस खड़ी बोली में साहित्य तैयार करने पर हम तुले बैठे हैं आखिर वह भी तो यों ही धीरे-धीरे बनी है , बनती जा रही है। संस्कृत , पाली या प्राकृत को यह रूप धीरे-धीरे मिला है हजारों साल के बाद। इसी तरह अरबी या फारसी को उर्दू की शकल मिली है। विकास तो संसार का नियम ही है। हिंदी और उर्दू के सम्मिश्रण से जो नई भाषा तैयार होगी वही हमारी जरूरत को पूरा कर सकेगी। उसी के सहारे यह मुल्क आगे बढ़ेगा। हम हजार चिल्लाएँ और छाती पीटें। मगर यह बात हो के रहेगी। फिर समय रहते ही हम क्यों न चेत जाएँ और इसी काम में मददगार बन जाएँ। यह जो नाहक का बवंडर हम खड़ा कर रहे हैं उससे हाथ तो खिंच जाए। भाषा हमारे लिए है , न कि हमीं भाषा के लिए हैं। लेकिन हमारी आपसी तू-तू , मैं मैं , में कहीं हमीं पिछड़ न जाएँ , मिट न जाएँ , यह सोचने की बात है।
आज तो पशु-पक्षियों और पेड़-पौधों में सम्मिश्रण के जरिए नई-नई नसलें पैदा की जा रही हैं। जो हमारी बढ़ती हुई जरूरतों को पूरा कर रही हैं। पुराने पशु-पक्षी और पेड़ पौधे इस बात के लिए नाकाबिल सिद्ध हो चुके हैं कि अब हमारी जरूरतों को पूरा कर सकें। इसीलिए इस युग को ' क्रासब्रीड्स ' (cross-breeds) का युग कहते हैं। यही बात हमारी भाषा के बारे में क्यों न लागू हो ? आज हजार यत्न कर के भी लैटिन को प्रचलित नहीं कर सकते हैं। वह पुरानी पड़ गई है। इसी प्रकार संस्कृत , अरबी और फारसी की माया आम जनता के लिए हमें छोड़ देना होगा। सो भी आधे मन से नहीं , सच्चे दिल से। खामख्वाह संस्कृत और अरबी-फारसी के नए-नए शब्दों को ढूँढ़ या गढ़ के सार्वजनिक भाषा की तोंद फुलाना उसके लिए बलगम का काम करेगा। हमारा दिमाग उसके बजाए ऐसे शब्दों के ढूँढ़ने में और बनाने में लगना चाहिए जिन्हें सभी जाति और धर्म के जन-साधारण आसानी से समझ सकें। इस प्रकार जो साहित्य तैयार होगा वही हमारा उद्धार करेगा , वही हमारे असली काम का होगा। नहीं तो मध्यमवर्गीय मनोवृत्ति हमें जानें कहाँ उठा फेंकेगी। मगर इसी के साथ हमें याद रखना होगा कि भाषा का स्वाभाविक विकास हो और उसमें कृत्रिमता आने न पावे। नदी के प्रवाह का दृष्टांत दे ही चुके हैं। जैसे शरीर में मांस वृद्धि होती है वैसे ही बाहरी शब्द भाषा में लटके रहें यह बुरा है। अन्न-पानीको जैसे शरीर हजम करता है वैसे ही शब्दों को भाषा खुद हजम कर लेतभी ठीक होगा।
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कांग्रेसी मंत्रिमंडल के जमाने की बात है। भरसक सन 1938-39 की दास्तान है। युक्तप्रांत में पंत जी की मिनिस्ट्री थी। गाँधी जी अहिंसा की बात बार-बार कहते हैं। अब तो और भी ज्यादा जोर देने लगे हैं। कांग्रेस ने अहिंसा को ही अपना सिद्धांत रखा है यह बात भी वह कहते ही जाते हैं। मगर कांग्रेसी वजारतों के जमाने में बंबई और कानपुर में मजदूरों पर जो गोलियाँ चलीं , लाठीचार्ज हुए और बंबई में तो आँसू बहानेवाले बम भी चलाएगए , न जाने अहिंसा की परिभाषा के भीतर ये बातें कैसे समा जाती हैं। नागपुर में जब श्री मंचेरशाह अवारी अस्त्र ग्रहण के लिए सत्याग्रह कर रहे थे तो गाँधी जी ने यह कह के उसका विरोध किया था कि सशस्त्र सत्याग्रह कैसा ? जब शस्त्र ले के चलिएगा तो अहिंसा मूलक सत्याग्रह संभव नहीं। सत्याग्रह और शस्त्र ग्रहण ये दोनों परस्पर विरोधी बातें हैं। इसलिए यह चीज बंद होनी चाहिए। हमारे दिमाग में तो उनकी यह दलील उस समय भी समा न सकी थी। इस समय तो और भी नहीं समाती। सिर्फ शस्त्रा लेकर चलने से हिंसा कैसे होगी ? जब उसे नहीं चलाने का प्रण कर लिया तो फिर हिंसा का क्या सवाल ? नहीं तो फिर अकाली सिख कभी सत्याग्रही होई नहीं सकते। क्योंकि वे तो कृपाण के बिना एक मिनट रही नहीं सकते। मगर गाँधी जी ने उन्हें भी बार-बार सत्याग्रह में भर्ती किया है। लेकिन जब यह बात है तो फिर लाठी , गोली और बम चला के भी कांग्रेसी मंत्रिगण अहिंसक कैसे रह गए ? और अगर नहीं रहे तो गाँधी जी ने उनका विरोध न कर के समर्थन क्यों किया ? उनके इन कामों पर उनने मुहर क्यों लगा दी ? इसीलिए हमें तो उनकी अहिंसा अजीब घपला मालूम होती है।
यही कारण है कि उनके अहिंसक अनुयायी उन्हें खूब ही ठगते हैं। मजा तो यह है कि गाँधी जी यह बात न तो समझते और न मानते हैं। मुझे तो उनके और उनके प्राइवेट सेक्रेटरी श्री महादेव देसाई के क्रोध और डाँट-फटकार का शिकार केवल इसीलिए बनना पड़ा है कि मैं यह बातें साफ बोलता हूँ और काम भी वही करता हूँ जो बाहर-भीतर एक रस हो। किसानों को भी यही सिखाता हूँ कि जाब्ता फौजदारी के अनुसार अपनी और अपनी जाएदाद वगैरह की हिफाजत के लिए उतनी हिंसा भी कर सकते हो जितनी जरूरी हो जाए। मैं किसानों या आप लोगों को पहले से ही मिला यह कानूनी हक छोड़ने और छुड़वाने के लिए किसी भी हालत में तैयार नहीं हूँ। इसीलिए सन 1938 वाली हरिपुरा की कांग्रेस से पहले हरिजन में श्री महादेव देसाई ने मेरे खिलाफ लंबा लेख भी लिखा था जिसका उत्तर मुझे देना पड़ा। मगर यह जान के मुझे निहायत ताज्जुब हुआ जब कि ठीक उसी समय हरिपुरा जाते हुए मध्य प्रांत में दौरे के लिए वर्धा जाने पर और अहिंसा के अवतार श्री बिनोवा भावे से बातें करने पर पता चला कि किसान-सभा के बारे में हिंसा का निश्चय करने के पहले उन लोगों ने सारी बातें जानने की कोशिश तक न की थी।
उन्हीं के आश्रम में श्री बिनोवा जी से मेरी घंटों बातें होती रहीं। हरिजन में वह लेख ताजा ही निकला था। इसलिए बातचीत का विषय वही बात थी। वे लोग वास्तविक दुनिया से कितने कोरे हैं इसकी जानकारी मुझे वहीं हुई। किसान-सभा के किसी कार्यकर्ता ने कोई बात हिंसा-अहिंसा के बारे में कही या न कही। मगर गाँधी जी के भक्तों ने उनके पास रिपोर्ट पहुँचा दी और उनने उसे ध्रुव सत्य मान लिया। दूसरों को तो हजार बार कहते हैं कि पूरी जाँच के बाद ही बातें मानो। सचाई का पता लगाओ। मगर मेरे बारे में यह इलजाम लगाने के पहले उनने मुझसे एक बार पूछना तक उचित न समझा। किसान-सभा पर भी यही दोषारोपण किया गया। लेकिन सभा को सफाई देने का मौका तक न दिया गया। यह है गाँधी जी का न्याय! यह है उनका सत्य! न सिर्फ उनने निश्चय कर लिया बल्कि अपने संगी-साथियों के दिमाग में इसे भर दिया।
जब मुझे श्री बिनोवा जी ने ये बातें पूछीं तो मैंने ऐसा जवाब दिया कि वे अवाक हो गए। मैंने सबूत में पक्का प्रमाण पेश करने को भी कह दिया कि इल्जाम निराधार हैं। मैंने कहा , कि मैंने जिस हिंसा का आश्रय लिया है वह न सिर्फ कानून के भीतर है , प्रत्युत गाँधी जी ने भी वैसी हिंसा का उपदेश बराबर किया है। फिर मैंने देसाई के आक्षेप का लिखित उत्तर भी उन्हें दिखाया। और भी बातें होती रहीं। अंत में उनने यही कहा कि इस बारे में क्या गाँधी जी से आपकी बातें हुई हैं ? मैंने उत्तर दिया कि नहीं। तब उनने कहा कि बातें जरूर करें। मगर मैंने यही कह के टाल दिया कि मौका मिलेगा तो देखूँगा। मैंने वह भी कह दिया कि जो लोग यों ही एकतरफा बातों से निश्चय कर लेते हैं उनसे बातें कर के होगा ही क्या ? फिर भी बातें करने पर उनने बहुत जोर दिया। मगर मुझे मौका ही कहाँ था ? मुझे तो शाम को वर्धा के सोशलिस्ट चौक में एक अच्छी मीटिंग कर के आगे बढ़ना था।
लेकिन यहाँ पर मुझे गाँधीवादी नेताओं की अहिंसा के दो सुंदर नमूने पेश करने हैं। पंत मिनिस्ट्री के समय इलाहाबाद में बड़ा सा दंगा हो गया था। बड़ी सनसनी थी। तूफान भी काफी मचा था। उस समय गाँधी जी के सिद्धांत के अनुसार कांग्रेस के प्रमुख लोगों का यह फर्ज था कि अपनी जान को जोखिम में डाल के भी दंगे को शांत कर , ठीक उसी तरह जिस तरह सन 1931 ई. वाले कानपुर के दंगे में स्वर्गीय श्री गणेशशंकर विद्यार्थी ने किया था। ऐसे ही मौके गाँधी जी और कांग्रेस की अहिंसा की परीक्षा करते हैं। गाँधी जी का जोर भी यही रहता है कि ऐसे समय कांग्रेसी नेता निडर हो के हिंदू-मुसलिम महल्लों में जाएँ और उन्हें ठंडा करें। नियमानुसार इलाहाबाद का दंगा उन नेताओं की बाट देख रहा था। खुशकिस्मती से वहीं पर स्वराज्य-भवन में आल इंडिया कांग्रेस कमिटी का ऑफिस भी था। अब भी है। उसके जेनरल सेक्रेटरी आचार्य कृपलानी वहीं मौजूद थे , दूसरे बड़े लोग भी।
मगर उनने क्या किया ? मेरे दो मुसलिम साथी जो किसान-सभा और मजदूर आंदोलन में खासी दिलचस्पी लेते हैं और जो अच्छे पढ़े-लिखे हैं , वहीं थे। जब दंगा शुरू हो गया तो वे स्वराज्य-भवन में फौरन गए और बड़े नेताओं से कहने लगे कि आइए चलें और शहर में घूम के लोगों को समझाएँ-बुझाएँ , उन्हें ठंडा करें। चाहे वे ठंडा हों या न हों। मगर हम लोग कोशिश तो करें। हमारे एक मुसलिम दोस्त टाउन कांग्रेस कमिटी के सभापति थे। इसलिए उन्हें अपना फर्ज भी अदा करना था। मगर उन नेताओं में एक सबसे बड़े नेता ने , जिनका नाम लेना मैं उचित नहीं समझता , मगर जो अखिल भारतीय नेता हैं और गाँधी जी का ढोल आज भी मुल्क में घूम-घूम के पीटते हैं , चटपट यह कह डाला कि '' ऐं , घूमने चलें ? यह क्या बात है ? यह नादानी कौन करे ? क्या बिगड़े दिमाग लोग हमें पाने पर सोचेंगे कि नेता हैं ? हमें वहीं खत्म न कर देंगे ? मैं तो हर्गिज नहीं जाता। आप लोग भी मत जाएँ। '' और फौरन पंत जी के पास लखनऊ फोन करने लगे कि मिलिटरी भेजें। नहीं तो खैरियत नहीं। हमारे मुसलिम जवान साथी को उनकी इस बात पर ताज्जुब हुआ। हैरत भी हुई। मगर वे तो अपना फर्ज अदा करने चली पड़े। भला वे नेता की बात क्यों सुनते ? जो कुछ उनसे बन सका घूम घूम के किया भी। हिंदू-मुसलिम सभी महल्लों में निडर हो के घूमते रहे।
पीछे मुलाकात होने पर उनने अहिंसा की ही चर्चा के सिलसिले में यह अजीब दास्तान मुझे सुनायी। वे गाँधीवादियों की अहिंसा पर हँसते थे मैं भी हँसता था। हम किसान-सभावाले तो गाँधी जी के दरबार में काफी बदनाम हैं कि कांग्रेस के वसूलों की पाबंदी नहीं करते। साथ ही , जो नेता साहब और उनके साथी न सिर्फ दुम दबा के ऐन मौके पर सटक रहे , बल्कि हथियारबंद पुलिस और फौज की गोलियों और संगीनों से दंगे को शांत करने के लिए श्री पंत जी पर बार-बार जोर देते रहे , उन्हें गाँधी जी का ऐसा दवामी सर्टिफिकेट अहिंसा के बारे में मिल चुका है कि कुछ पूछिए मत! मगर ऐसी ही टूटी नाव पर चढ़ के न सिर्फ गाँधी जी खुद पार होना चाहते हैं , बल्कि सारे मुल्क को भी पार ले जाना चाहते हैं तो उन्हें मुबारक हो। किसान-सभावाले अगर गाँधी जी की अहिंसा को नहीं मानते तो उन्हें साफ कह तो देते हैं। मौके पर अमली तौर से धोखा तो नहीं देते। बल्कि ईमानदारी से जहाँ तक होता है उसके अनुसार काम करते हैं।
इसी संबंध की एक दूसरी घटना बिहार की है। बिहार पर और खासकर उसकी अहिंसा पर गाँधी जी को नाज है। अकसर वे इस बात को लिखते और कहते रहते हैं। मगर बिहार के नामी-गरामी नेता लोग कहाँ तक अहिंसा को मानते और गाँधी जी को कितना धोखा देते हैं इसका ताजा नमूना हाल के बिहार शरीफवाले दंगे में मिला है। इसका पता हमें जेल में ही लगा है जबकि पटना जिले के एक कांग्रेसी साथी जेल में हाल में ही आए हैं। उनने आप बीती हमें एक दिन सुनाई। उनका और जिन नेताओं से उन्हें साबका पड़ा उनका नाम लेना ठीक नहीं।
बिहार शरीफ में हिंदू-मुसलिम दंगा शुरू हो जाने के बाद सदाकत आश्रम के दो बड़े नेता , जो न सिर्फ प्रांतीय कांग्रेस के ऑफिस के चलाने के लिए बहुत पुराने जवाबदेह आदमी माने जाते हैं , बल्कि खाँटी गाँधीवादी भी हैं , मोटर पर चढ़ के बिहार शरीफ जाने के लिए तैयार हुए। उनमें एक हिंदू है और एक मुसलमान। उनने सोचा कि पटना जिले के किसी हिंदू कार्यकर्ता को भी साथ ले लें तो ठीक हो। संयोग से हमारे वे कांग्रेसी साथी वहीं थे। बस , हुक्म हुआ कि साथ चलना होगा। साथी को सारी बातें मालूम थीं। उनने कहा कि मेरे पास रिवॉल्वर तो है नहीं। मैं कैसे चलूँगा ? याद रहे कि हमारे साथी सत्याग्रह कर के जेल आए हैं। उनने फिर कहा कि अगर मुझे भी आप लोग एक रिवॉल्वर दें तो साथ चलने को तैयार हूँ। इस पर लीडरों ने कहा कि आप हम दोनों के बीच में हमारी ही मोटर पर बैठ के चलिए। हम जो अलग मोटर पर पीछे-पीछे चलने को कहते थे वह इसीलिए कि आपके पास रिवाल्वर है नहीं। मगर अगर आप इसके लिए तैयार नहीं हैं तो हमारे बीच में बैठ के हमारी ही मोटर पर चलिए। मगर इस पर भी साथी तैयार न हुए। तब उनसे कहा गया कि आपके घरवालों के पास बंदूक तो हई। उसे ही लेकर चलिए। इस पर साथी ने उत्तर दिया कि बंदूक ले के चलना तो और भी बुरा है। मैं ऐसा न करूँगा।
इस पर हार मान के दोनों नेता रवाना हो गए। साथी ने कहा कि मुझे तो मालूम था ही कि उन दोनों के पास एक-एक रिवॉल्वर था। दोनों रिवॉल्वर किसी नवाब साहब के यहाँ से उनने मँगाए थे। मैं उनमें से एक माँगता था। मगर वे लोग इसके लिए तैयार न थे। उनने साफ कह भी दिया कि दोई तो रिवॉल्वर हैं और हम दो खुदी जा रहे हैं। फिर आपको कैसे दें ? खूबी यह कि रिवॉल्वर ले के जाने पर भी वे लोग बिहार शरीफ में घूम न सके। जहाँ कांग्रेसियों का गिरोह था वहीं गए और दल के साथ ही इधर-उधर आए-गए।
कितना सुंदर नमूना गाँधी जी की अहिंसा का है। आज तो जगह-जगह कांग्रेसी नेता शांति दल बना रहे हैं जिसका काम ही है कि हिंसा करनेवालों के बीच जा के उन्हें समझाना और शांत करना। उन्हें न तो हथियार रखना होगा और न जान की परवाह करनी होगी। इस बात की प्रतिज्ञा शांतिदलवाले करते हैं। मगर जब उनके नेताओं की यही दशा है तो बाकियों का क्या कहना ? पॉकेट में रिवॉल्वर ले के शांति दल का काम करना अजीब चीज है। फिर भी इस पाखंड को गाँधी जी समझें तब न ? यदि मैं रहता तो जरूर बंदूक ले के चलता और धीरे से लोगों को इशारा कर देता कि देखिए हमारी अहिंसा!
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सन 1937 ई. की जनवरी का महीना था। फैजपुर कांग्रेस से हम ताजे-ताजे वापस आए थे। असेंबली-चुनाव की तारीखें सर पर थीं। जल्दी-जल्दी एक बार पटना जिले का दौरा ऐन चुनाव से पहले कर लेना था। मेरे साथ कांग्रेस के दूसरे भी नेता उस दौरे में शरीक थे। बखतियारपुर में एक मीटिंग कर के बिहार शरीफ जाना था। शाम को वहीं मीटिंग थी। इस दरम्यान हरनौत थानेवालों का हठ था कि रास्ते में ही यह जगह है और ऐन सड़क पर ही। इसलिए यहाँ भी एक सभा जरूर हो ले। हमने इसकी मंजूरी दे दी थी। लोगों ने मीटिंग की तैयारी खासी कर ली थी। मगर हमारे विरोधी भी चुप न थे। वह इलाका ज्यादातर उन लोगों का है जिन्हें कुर्मी, कुर्मवंशी आदि कहते हैं। और जातियों की अपेक्षा कुर्मी लोग उधर ज्यादा बसते हैं। चुनाव के जमाने में बदकिस्मती से जाति-पाँति की बातें खूब चलती हैं। मगर वहाँ तो एक और भी वजह थी जिससे ये बातें तेज हो गईं।
बखतियारपुर बाढ़ सब-डिविजन में पड़ता है और उससे दक्षिण बिहार सब-डिविजन है। कांग्रेस के भीतर ही बाढ़ और बिहार की सीटों को लेकर तनातनी चलती रही। बाढ़ के ही एक कुर्मी सज्जन, जो वकील हैं, चुने जाने के लिए बहुत ही लालायित थे। मगर कांग्रेसी नेताओं ने जब किसी कारण से उन्हें बिहार के लिए नामजद करना चाहा था तो वे तैयार न हुए और भीतर-ही-भीतर उनने गुटबंदी ऐसी कर ली थी कि बिहार से एक गैर-कांग्रेसी कुर्मी चुन लिए जाएँ। तैयारी ऐसी थी कि ऐन मौके पर कोई गलती जान-बूझ के कर दी जाए और दूसरा होने न पाए। इसीलिए उनने पीछे कबूल कर लिया था कि अच्छा, मैं बिहार की ही सीट से तैयार हो जाता हूँ। फिर भी भीतर-ही-भीतर तैयारी कुछ और ही थी। उनकी बदबख्ती से ठीक नामिनेशन के ही समय उस तैयारी का पता चल जाने के कारण उनका नामिनेशन कांग्रेस की तरफ से दाखिल न किया जा के एक और कुर्मी सज्जन का ही दाखिल किया गया। इससे कुर्मी समाज में कुछ खलबली मची। क्योंकि चुनाव को ले के उस जाति के भीतर ही दो दल हो चुके थे। कांग्रेस विरोधी कुर्मी सज्जन का भी नामिनेशन दाखिल हुआ था। उनका असर उस इलाके में ज्यादा था।
जिला कांग्रेस कमिटी का सभापति भी मैं ही था। किसान-सभा की तो बात थी ही। विरोधी लोग जीत जाते अगर मैं जरा भी उदासीन हो जाता। इसकी कोशिश भी की गई। कांग्रेसी उम्मीदवार एक जालिम जमींदार हैं। इसलिए भी वे लोग सोचते थे कि अगर मैं उनकी मदद में न जाऊँ तो वे हारेंगे जरूर। मैंने उनकी जमींदारी में उन्हीं की जाति के किसानों का पक्ष ले के काफी आंदोलन भी पहले किया था। इससे भी विरोधियों को आशा थी कि मैं चुनाव के मामले में ढीला पड़ जाऊँगा। मगर मेरी तो मजबूरी थी। जिला कांग्रेस कमिटी की तरफ से मुझे काम करना ही था। जवाबदेही भी मेरे ऊपर विजय के संबंध की थी ही। फिर बेईमानी कैसे कर सकता था? यदि ऐन मौके पर जिला के सभापतित्व से हटता तो भी ठीक न होता। हाँ, मैं चाहता तो था कि वे जालिम हजरत नामजद न हों। मगर कांग्रेसी नेता लोगों को इसकी परवाह कहाँ थी? वे तो सभी लोगों को उस समय असेंबली में भेज रहे थे─ऐसों को भी जो न सिर्फ जालिम जमींदार थे, बल्कि दरअसल कांग्रेस से अब तक जिनका कोई ताल्लुक न था। इस धाँधली के विरुद्ध प्रांतीय वर्किंग कमिटी में मैं बराबर लड़ता था। मगर अकेला ही था। बाकियों ने तो वैसा ही तय कर लिया था। अजीब हालत थी। पर करता ही आखिर क्या?
ऐसी दशा में मेरे ही ऊपर वहाँ के कांग्रेस विरोधियों का क्रोध था। वे जानते थे कि अगर मैं वहाँ न जाऊँ तो कांग्रेसी उम्मीदवार को चुटकी मार के वे हरा देंगे। कुर्मी जाति में भी दोनों उमीदवार दो अलग बिरादरियों के थे और अपनी-अपनी बिरादरी को ले के लोग परेशान थे। इसलिए बखतियारपुर में ही मुझे पता चला कि हरनौत की मीटिंग में कुछ गड़बड़ी होगी और विरोधी लोग ऊधम मचाएँगे। यही कारण था कि मैं पहले से ही तैयार होके गया था। गाँव के नजदीक पहुँचते ही देखा कि जहाँ एक दल लाल और तिरंगे झंडे के साथ बाजे-गाजे से हमारा स्वागत करने को तैयार है, तहाँ उसके बाद ही काले झंडेवाला दूसरा दल 'स्वामी जी, लौट जाएँ' आदि के साथ हमारा विरोध कर रहा है। हम हँसते थे। हमारी मोटर विरोधियों के बीच से आगे बढ़ गई। हम लोग सड़क से कुछ हट के एक बाग में गए जहाँ सभा की तैयारी थी। लोग तो पहले से थे ही। अब और भी जम गए।
सभा-स्थान में कई चौकियाँ एक साथ मिला के पड़ी थीं और उन पर दरी, कालीन वगैरह पड़े थे। हम लोग उन्हीं पर उत्तर रुख बैठे थे। स्पीचें हो रही थीं। और लोग बोल चुके थे। मगर मैं अभी बोल चुका था नहीं। अभी बोलने का सिलसिला जारी ही था। सभी का ध्यान उसी ओर था। इतने में एकाएक मुझे पता लगा कि मेरे दाएँ कंधे पर जैसे तेज जलन सी हो गई। तेज दर्द था। मगर लोगों ने देखा कि कोई आदमी अपनी लाठी मुझ पर चलाके बेतहाशा भागा जा रहा है। दौड़ो-दौड़ो, पकड़ो-पकड़ो की आवाज हुई। कुछ लोग दौड़ भी पड़े। मगर मैंने हठ कर के सबों को लौटा लिया। मारनेवाला निश्चिंत निकल गया। असल में लाठी तो उसने मेरे माथे पर ही चलाई थी। मगर माथा बच गया बाल-बाल और वह जा लगी कंधे पर। उससे पहले मैंने लाठी की चोट खायी न थी। इसी से मालूम पड़ा कि जैसे जलता अंगार गिर गया।
मैंने मारनेवाले को पकड़ने से लोगों को इसलिए रोका कि उसमें खतरा था। अगर वह पकड़ा जाता, जैसा कि निश्चय था, तो लोग क्रोध में उतावले हो के जानें उससे कैसे पेश आते। भीड़ तो थी ही। अंदेशा था कि उसकी जान ही चली जाती। कम-से-कम इसका खतरा तो था ही। उसके बाद उसके दलवाले जानें क्या करते। हो सकता था कि वहीं करारी मार-पीट हो जाती। यही सोच के मैंने लोगों को रोका। परिणाम हमारे लिए सुंदर हुआ। मीटिंग बेखटके होती रही। मेरी चोट पर लोगों को दवा की सूझी, पर, मैंने रोक दिया। चोट की जगह सूज गई जरूर, वह काली भी हो आई। मगर मैं ठंडा रहा और सभा में खड़ा होके बोला भी। लोग ताज्जुब में थे। पर मुझे परवाह न थी। हाय-हाय करना या चिल्लाना तो मैंने आज तक जाना ही नहीं। फिर वहाँ कैसे हाय-हाय करता? मीटिंग के बाद बिहार शरीफ जाने पर चोट को धीरे-धीरे गर्म पानी से धोया गया ताकि दर्द शांत हो। वहाँ भी सनसनी थी। मगर मैं तो वहाँ की सभा में भी बराबर बैठा रहा। बोला भी। इस प्रकार वह दौरा पूरा हुआ। कांग्रेसी उम्मीदवार तो जीते और अच्छी तरह जीते।
मगर दो साल गुजरने के बाद हालत कुछ और ही हो गई। मुझे निमंत्रण मिला कि हरनौत में किसान-सभा होगी। खूबी तो यह कि जो लोग पहली बार मेरे सख्त दुश्मन थे वही इस बार मेरी सभा करा रहे थे। उनने मेरे स्वागत की तैयारी भी सुंदर की थी। मैंने निमंत्रण स्वीकार किया खुशी-खुशी। वहाँ जा के देखा तो सचमुच समाँ ही कुछ और थी। मीटिंग भी ठाठ-बाट से हुई। उनने प्रेम से मेरा अभिनंदन भी किया। स्वागताध्यक्ष ने जो भाषण दिया वह दूसरे ढंग का था। लोग हैरत में थे। मैं भी चकित था। इतना तो सबने माना कि दो साल के भीतर किसान-सभा की ताकत बढ़ी है काफी। इसीलिए पहले के दुश्मनों को भी लोहा मानना पड़ा है, चाहे उनका मतलब इस बार कुछ भी क्यों न हो। हमारे लिए यही क्या कम गौरव की बात थी कि हमारे दुश्मन भी हमारे ही झंडे के नीचे आके मतलब साधने की कोशिश करें? हाँ, हमें सजग रहना जरूरी था कि कहीं किसान-सभा बदनाम न हो जाए। सो तो हम थे ही और आज भी हैं। उस बदली हालत को देख के हमने यह समझने की भूल कभी न की कि वे लोग किसान-सभा के पक्के भक्त बन गए। ऐसा जानने में ही तो खतरा था और हमने ऐसा किया नहीं। लेकिन उन्हें मजबूरन किसान-सभा का नारा बुलंद करना पड़ा है यह हमने माना। वह उनकी मजबूरी किसान-सभा के महत्त्व को समझ कर हुई और उनने समझा कि इसी का पल्ला पकड़ो तो काम चलेगा, या सचमुच किसान-सभा की सच्ची भक्ति के करते हुई, यह निराला प्रश्न है। इसका उत्तर उस समय दिया जा सकता भी न था। यह तो समय ही बता सकता था कि असल बात क्या है।
लेकिन वहाँ जो आशाजनक असली बात दिखी वह कुछ और ही थी। हमें वहाँ कुछ नौजवान और विद्यार्थी मिले जो कुर्मी समाज के ही थे। हमने उनमें जो कुछ पाया वही दरअसल हमारे काम की चीज थी। उसी पर हम मुग्ध भी हुए। अपनी उस यात्रा की सफलता भी हमने प्रधानतया उसी जानकारी से मानी। उन छात्रों और युवकों में हमने किसान-सभा और किसान-आंदोलन की मनोवृत्ति पाई। हमने यह देखा कि वह लोग इसे अपनी चीज समझने लगे हैं। वह यह मानते नजर आए कि हम किसान हैं और हमारी असल संस्था किसान-सभा ही हो सकती है। इसमें वह अपने किसान समाज का उद्धार देखने लगे थे। यह मेरे लिए काले बादलों में सुनहली रेखा नजर आई।
एक ओर चीज भी थी। उनने मुझे हस्तलिखित एक मासिक पत्र दिखाया। मैं उसका नाम भूलता हूँ। उनने कहा कि प्रतिमास लिख के वे लोग उसे खुद तैयार करते हैं। लेख और चित्र दोनों ही दिखे। दोनों ही हस्तलिखित-हस्तनिर्मित थे। उनने मुझसे आग्रह किया कि मैं उसे आद्योपांत पढ़ के अपनी सम्मति लिख दूँ। समय मेरे पास न था। मगर मैंने उनकी इच्छापूर्ति जरूरी समझ उस 'पत्र' को शुरू से आखिरी तक पढ़ा। लेखक नए-नए छात्र और जवान लोग ही थे जिन्हें उसकी शिक्षा कभी नहीं मिली थी। व्याकरण वगैरह का ज्ञान भी उन्हें उतना न था। फिर भी जिन भावों को मैंने उन लेखों में पाया उनने मुझे मुग्ध कर दिया। लेखों की गलतियाँ तो मैं भूल ही गया। मेरे सामने तो भाव ही खड़े थे। देश के और कांग्रेस के बड़े-से-बड़े नेताओं के बारे में निर्भीक समालोचना उस मासिक पत्र के लेखों में थी, सो भी अनेक में। समालोचना भी ऐसी सुंदर कि तबीअत खुश हो जाए। चुभनेवाली बात बहुत ही अच्छे ढंग से दर्शाई गई थी।
इतना ही नहीं। मुझे ताज्जुब तो तब हुआ जब मैंने देखा कि लेखों में मेरा और अन्य कई किसान-नेताओं का भी जिक्र है, उनकी बड़ाई है, उनके कामों की तारीफ है। साथ ही यह भी पाया कि कांग्रेसी नेताओं के मुकाबिले में हमारे को जन-हित की दृष्टि से अच्छा और महत्त्वपूर्ण बताया गया था। बातें कहने और लिखने का तरीका उनका अपना था। और यही ठीक भी था। बनावटी ढंग से बातें लिखना या लिखने में दूसरों की नकल करना कभी ठीक नहीं होता। हर बात में मौलिकता का मूल्य होता है। चाहे शैली कुछ भी हो-और मैंने तो निराली शैली को हृदय से पसंद किया-मगर बातें तो मार्के की थीं, दुरुस्त थीं। यह भी नहीं कि हमसे उनकी कोई घनिष्ठता थी। हम तो उनमें किसी को जानते-पहचानते भी न थे। इसीलिए उनने जो कुछ लिखा वह उनके हृदयों का उद्गार था। कइयों ने लिखा था, न कि एक दो ने ही। कांग्रेसी नेताओं पर कुछ चुटकियाँ भी थीं, जो भद्दी न थीं। किंतु अच्छी थीं।
लोग कहते हैं कि हमारे देश में जातीयता का अभिशाप कुछ करने न देगा। मैं तो निराशावादी हूँ नहीं, किंतु पक्का आशावादी हूँ। मैंने वहाँ निराशावाद से उल्टी बातें पाईं। हालाँकि घोर जाति पक्षपात का इलाका वह है। हरनौत इसका अड्डा माना जाता है। मेरे खिलाफ तो वहाँ बवंडर खड़ा हो चुका था। फिर भी युवकों के वे स्वाभाविक उद्गार हवा का रुख कुछ दूसरा ही बताते थे। मैं मानता हूँ कि सयाने होने पर उनके दिमाग में जहर भरने की कोशिश होगी,होती है। मगर मैंने वहाँ जो कुछ पाया वह बताता था कि वह जहर मिटेगा जरूर ही।
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सन 1938 ई. के गर्मियों का मौसम था। मेरा दौरा किसान-आंदोलन के सिलसिले में ही बाढ़ और बिहार सब-डिविजनों में हो रहा था। बाढ़ शहर के पास के ही एक बड़े गाँव में सभा करने के बाद मैं घोर देहात में गया। वह देहात बाढ़ से दक्षिण है जिसे टाल का इलाका कहते हैं। मिट्टी निहायत ही चिकनी और काली है। बरसात में तो पाँव में चिपक जाती है ऐसी, कि जल्द छूटना जानती ही नहीं। मगर गर्मियों में सूख के ऐसी सख्त बन जाती है कि कंकड़ों की तरह पाँवों में चुभती है और काट खाती है। दूर-दूर तक पेड़-वेड़ नजर आते नहीं। कहीं-कहीं गाँव होते हैं। बरसात में पचासों मील लंबी और बीसियों मील चौड़ी उस जमीन पर केवल जल ही नजर आता है। बीच-बीच में गाँव ऐसे ही देखते हैं जैसे समुद्र में टापू। लगातार तीन-चार महीने यही नजारा दीखता है। सिर्फ किश्तियों पर चढ़ के ही उन गाँवों में जा सकते हैं। उसी टाल के इलाके का एक भाग, जो बाढ़ से बहुत ज्यादा पूर्व और टाल के आखिरी हिस्से पर पड़ता है, बड़हिया टाल कहा जाता है। बड़हिया एक बड़ा सा गाँव जमींदारों का टाल के उत्तरी सिरे पर रेलवे का स्टेशन है, जैसे बाढ़, मुकामा वगैरह। इन बड़े-बड़े गाँवों की जमींदारियाँ उस टाल में हैं। इसलिए उस टाल के बनावटी टुकड़े बन गए हैं सिर्फ जमींदारियों को जनाने के लिए। उन्हें ही बड़हिया टाल, मुकामा टाल वगैरह कहा करते हैं। उसी टाल की जमीनों को लेकर बड़हिया इलाके के किसानों, जो अधिकांश केवल खेत-मजदूर और तथाकथित छोटी जाति के ही हैं, की लड़ाई हमारी किसान-सभा लगातार कई साल तक लड़ती रही है। इस लड़ाई में किसानों पर घोड़े दौड़ाएगए, लाठियाँ पड़ीं, भाले-बर्छे लगे, सैकड़ों केस चले, कई सौ जेल गए और क्या-क्या न हुआ। हमारे कार्यकर्ता और नेता भी जेल गए। वहीं लालकुर्त्तोंवाले किसान-सेवकों के दल पहले-पहल तैयार किएगए। उनके बारे में तो उस टाल में तैनात अफसरों तक ने कह दिया कि सचमुच ही ये लोग शांतिदल (Peace Brigade) के आदमी हैं। जमींदारों के द्वारा लाठीराज और गुंडाराज कायम कर देने पर भी उन्हीं ने वहाँ किसानों को हर तरह से शांत रखा। वे भी उन्हीं किसानों के बच्चे थे। यही तो उस दल की खूबी रही है। हमने लड़ाई के नेतृत्व के लिए भी उन्हीं पिछड़े किसानों को स्वावलंबी बनाया। पैसे वगैरह का काम भी उनने जैसे-तैसे ज्यादातर खुद ही चलाया।
हाँ, तो उसी टाल के दो गाँवों में हमने मीटिंगें कीं। पहले से ही उन मीटिंगों की तैयारी थी। उसके बाद फिर बाढ़ लौटने के बजाय बाहर ही बाहर बिहार के इलाके में हमें नूरसराय जाना था। रास्ता विकट था। बैलगाड़ी वगैरह से जैसे-तैसे हमें हरनौत जाना था। वहाँ से टमटम से नूरसराय आसानी से जा सकते थे। ठीक याद नहीं कि हमें टमटम की सवारी हरनौत में ही मिली, या उससे पहले ही पहुँची थी। मगर हरनौत के बाद तो हम जरूर ही टमटम से गए यह बखूबी याद है। असल में हरनौत के बाद की ही यात्रा महत्त्वपूर्ण थी। इसीलिए वह अच्छी तरह याद है।
हरनौत से बहुत दूर तक हम पक्की सड़क से ही गए। मगर आगे हमें पक्की सड़क छोड़ देना पड़ा। टमटम कच्ची सड़क से चलने लगा। हम कई साथी उस पर बैठे थे। शायद तीन थे। कुछ दूर जाने के बाद हमें एक अजीब लड़ाई देखने को मिली। जिस गाँव के पास यह हो रही थी उसका नाम-धाम तो हमें याद नहीं। हमने बहुत दूर से देखा कि तीन-चार छोटे-छोटे जानवरों की आपस में ही कुछ खटपट चल रही है। कभी एक खदेड़ता है बाकियों को, जो तीन की तादाद में थे, तो कभी वे तीन उस पर हमला करते हैं। बहुत देर तक मैं यह चीज देखता रहा। जब तक टमटम नजदीक न पहुँचा तब तक तो मुझे पता भी न चल सका कि ये कौन से जानवर आपस में लड़ रहे हैं। मगर धीरे-धीरे चक्कर काटता हुआ टमटम जब कुछ नजदीक आया तो मालूम हुआ कि एक छोटी सी बकरी अपने तीन नन्हें बच्चों के साथ एक ओर है, और तीन कुत्ते दूसरी ओर। इन्हीं दोनों के बीच वह कुश्तमकुश्ता चालू है। वह घंतों चलता रहा, यह मैंने खुद देखा। पहले कब से था कौन बताए। मगर जबसे मेरी नजर उस पर गई मैं बराबर वह निराली समाँ देखता था।
लड़ाई यों चलती थी। तीनों कुत्ते उस बकरी पर हमला कर के चाहते थे कि बच्चों के साथ उसे मार के खा जाएँ। मगर उनके जवाब में उन बच्चों को अपने पेट के पास जमा कर के वह बकरी मारे गुस्से के अपना माथा और सींगें झुकाती और उन पर धावा बोलती थी जिससे वे तीनों ही भाग जाते थे। असल में जान पर खेल के जब वह उन पर टूट पड़ती थी तो वे हिम्मत हार के भाग जाते थे। मगर जब वह रुक जाती थी तो फिर उस पर टूट पड़ते थे। यही तरीका बराबर घंटों चलता रहा। मेरी नजर एकटक उसी पर टिकी थी। ज्यों-ज्यों मैं नजदीक आता जाता था, त्यों-त्यों वह दृश्य देख-देख के मग्न होता था। मेरे शरीर के अंग-अंग और रोम-रोम खिलते जाते थे। नजदीक आने पर देखा कि बकरी छोटी सी ही थी। मगर गुस्से के मारे मौत की सूरत बनी थी, रणचंडी बनी वह भी काफी परेशान थी। कुत्ते तो थे ही। उसकी अब तक जीत रही, इसलिए हिम्मत बनी थी। मगर कुत्तों का इरादा पूरा न हो सका था। वे तो उसका ही और अगर वह न हो तो कम-से-कम उसके तीनों बच्चों का ही गर्मागर्म खून पीना चाहते थे जो मिल न सका। इसलिए स्वभावतः उनमें पस्ती थी। फिर भी वह कुश्ती चालू थी। इतने में मेरे सामने ही बकरी का मालिक आ पहुँचा। उसने कुत्तों को मार भगाया और बकरी को घर पहुँचाया।
मेरे लिए वह दृश्य क्यों रोमांचकारी था और मैं उस पर क्यों मुग्ध था, इसकी वजह है। मेरे सामने हमेशा ही यह प्रश्न आया करता था कि किसान सब तरह से पस्त और पागल होने के कारण जमींदारों से डँट के मुकाबिला कर नहीं सकते और बिना मुकाबिला किए न तो जुल्मों से ही उन्हें छुटकारा मिल सकेगा और न उन्हें अपना अधिकार ही हासिल हो सकेगा। मैं जहीं जाता वहीं यह सवाल उठता था। मैं भी परेशान था। जवाब तो मैं देई देता। पूछनेवालों को और आम किसानों को भी समझा देता कि वे कैसे विजयी हो सकते हैं, हो जाएँगे। संसार में किसान कहाँ, कैसे विजयी हो चुके हैं यह बातें उन्हें कह के समझाता था। मगर आखिर यह सब कुछ परोक्ष और दिमागी दुनिया की ही बात होती थी। न तो मैंने ही कहीं किसानों की विजय देखी थी और न किसानों ने ही। सारी-की-सारी सुनी सुनाई बातें ही थीं। इसलिए मुझे खुद अपने जवाब से संतोष न होता था। मैं तो प्रत्यक्ष मिसाल चाहता था कि किस प्रकार अत्यंत कमजोर भी जबर्दस्तों को हरा देते हैं। बराबर इसी उधेड़-बुन में रहता था कि बकरी की यह अनोखी और ऐतिहासिक लड़ाई देखने को मिल गई! इससे मेरा काम बन गया। फिर तो यह भी देखा कि अकेली बिल्ली कैसे किसी आदमी पर विजय प्राप्त करती है।
मैंने आँखों देखा कि मामूली सी बकरी अपने तीन बच्चों को और अपने आपको भी, घंटों दिलोजान से तीन कुत्तों के साथ करारी भिड़ंत करने के बाद भी, बचा सकी। यह तो प्रत्यक्ष चीज थी। अगर एक ही कुत्ता चाहता तो डरपोक और पस्त हिम्मत बकरी की हड्डियाँ चबा जाता। और वहाँ तो बकरी के तीन बच्चे भी थे। बकरी को ऐसी हालत में चबा जाना और भी आसान था। क्योंकि उसकी ताकत न सिर्फ अपने बचाने में खर्च हो रही थी, बल्कि उन तीन बच्चों के बचाने की परेशानी में भी बहुत कुछ खर्च होई जाती थी। फिर भी वह सफल रही और अच्छी तरह रही। क्यों? क्या वजह थी कि वह ऐसा कर सकी? इसका जवाब बातों से क्या दिया जाए? जिसने उस समय उस बकरी की सूरत और चेहरा-मुहरा नहीं देखा है और जिसने यह अपनी आँखों नहीं देखा कि वह किस तरह लड़ती थी, उसके दिमाग में इस सवाल का जवाब कैसे समायेगा, बैठ जाएगा यह मुश्किल बात है। इसे ठीक-ठीक समझने के लिए वैसी घटनाओं को खुद देख लेना निहायत जरूरी है। वह एक घटना हजार लेक्चरों का काम करती है। क्योंकि वह तो 'कह सुनाऊँ' नहीं है। किंतु'कर दिखाऊँ' है। और बिना 'कर दिखाऊँ' के कोई बात दिल पर नक्श हो सकती नहीं।
असल में जब कोई पक्का मंसूबा और दृढ़ संकल्प कर के जान पर खेल जाता है तो उसके भीतर छिपी अपार शक्ति बाहर आ जाती है। यही दुनियाँ का कायदा है। ताकत बाहर से नहीं आती। वह हरेक के भीतर ही छिपी पड़ी रहती है, जैसे दूध में मक्खन। जिस प्रकार मथने से मक्खन बाहर आ जाता है, ठीक उसी तरह जान पर खेल के लड़ जाने, भिड़ जाने पर वही भिड़ंत मथानी का काम करती है। फलतः छिपी हुई ताकत को बाहर ला खड़ा करती है। बकरी की लड़ाई से यह साफ हो जाता है। कहते भी हैं कि 'मरता क्या न करता?' अगर मामूली बकरी डट जाने पर सपरिवार अपने को तीन कुत्तों से बचा सकती है, तो किसान डँट जाने पर अपने हक की रक्षा क्यों न कर सकेगा?
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जब जवाबदेह कार्यकर्ता और लीडर ऐसा काम कर डालते हैं जिसे व्यवहार-बुद्धि (Common-Sense)मना करती है तो बड़ी दिक्कत पैदा हो जाती है। जनता में काम करना एक चीज है और केवल राजनीतिक चालबाजी दूसरी चीज। अखबारों में खबर छपवा देना कि फलाँ-फलाँ जगह मीटिंगें हुईं और अमुक-अमुक सज्जन बोले, यह एक ऐसी बात है जिसे हमारे कार्यकर्ता और लीडर आमतौर से पसंद करते हैं। मीटिंग कैसी थी, उसमें ठोस काम क्या हुआ, या नहीं हुआ, इस बात की उन्हें शायद ही परवाह होती है। मैं इसे न सिर्फ गैर जवाबदेही मानता हूँ, बल्कि ठगी समझता हूँ। बाहरी दुनिया पर चंद लोगों के प्रभाव और नेतृत्व का असर इससे भले ही जमे। मगर धोखा होता है। जनता का काम इससे कुछ भी होता नहीं। फिर भी हम इस प्रवाह में बहे चले जाते हैं। अखबारों की रिपोर्टें इसी तरह की अक्सर हुआ करती हैं। हम इतने से ही संतोष करते हैं। अपनी सालाना रिपोर्टों की तोंदें भी इन्हीं बलगमीं रिपोर्टों से भर डालते हैं। बाहरी दुनियाँ हमारी बड़ाई करती है कि हम बहुत काम करते हैं। यदि एक ही दिन में हमारी कई मीटिंगों की खबरें छप जायँ तब तो कहना ही क्या? तब तो हमारी महत्ता और लीडरी आसमान छू लेती है।
जब अपनी सफलता का हिसाब हम खुद इन्हीं झूठी रिपोर्टों से लगाते हैं तब तो किसानों और मजदूरों का भला भगवान ही करे! तब पता लग जाता है कि हम कैसे सच्चे जन-सेवक हैं। हमारे दिलों में पीड़ित जनता की वास्तविक सेवा की आग कैसी जल रही है इसका सबूत हमें मिल जाता है। मगर असलियत तो यह है कि इन हरकतों से गरीबों का उद्धार सात जन्म में भी नहीं हो सकता। वे तो बावजूद इन मीटिंगों के भेड़-बकरियों की तरह कभी एक दल के और कभी दूसरे के हाथों मँड़ते ही रहेंगे। इस तरह हम उनके नेता बन के अपने तुच्छ स्वार्थ के लिए उन्हें उनके शत्रुओं के हाथ बराबर बेचते ही रहेंगे। उनके उद्धार का रास्ता यह हर्गिज है नहीं। मगर बदकिस्मती से इस बात के कड़घवे अनुभव मुझे किसान आंदोलन के सिलसिले में इतने ज्यादा हुए हैं कि गिनाना बेकार है।
एक बात और है। जवाबदेही का मतलब भी हम ठीक समझ पाते नहीं। किसी काम के पूरा करने में क्या-क्या करना होगा, कौन-कौन दिक्कतें आएँगी, उनका सामना कैसे किया जाएगा, उस संबंध में किस पर विश्वास करें, किस पर न करें, विश्वास करें भी तो कहाँ तक करें, वगैरह-वगैरह पहलुओं पर पूरा विचार करना भी जवाबदेही के भीतर ही आता है और यही उसके असली पहलू हैं। इन पर पूरा गौर किये बिना हम जवाबदेही को पूरा कर नहीं सकते और अगर हम इसमें चूकते हैं तो इसकी वजह या तो यही है कि हमने जवाबदेही को अभी तक जाना नहीं, या हमें इस बात का अनुभव नहीं कि कौन क्या कर सकता है, किसकी कौन सी दिक्कतें और अड़चनें हैं जिन्हें पहले समझ लेना जरूरी है। जब देहात के किसान या कार्यकर्ता किसी मीटिंग के प्रबंध की पूरी जवाबदेही ले लेते हैं तो हम निश्चिंत हो जाते हैं कि अब हमें कुछ करना है नहीं। हम तो मजे से चलेंगे और मीटिंग कर के लौट आएँगे।
मगर यह भारी भूल है। देहात के लोगों के लिए यह समझ लेना और सब बातों का पूरा-पूरा हिसाब लगा लेना आसान नहीं है। सब बातों के तौलने की जवाबदेही उन पर डालना ही भूल है। उस तौल का उनका तराजू भी देहाती ही होता है जो पूरा नहीं पड़ता। इसीलिए हमें खुद सारी चीजों की देख-भाल करना जरूरी है। मैंने देखा है कि हर मीटिंग के करने-करानेवाले आमतौर से यही समझते हैं कि दुनियाँ में बस यही एक मीटिंग है। इसी से सबका काम चल जाएगा। इसके बाद आज ही कहीं और भी मीटिंग हमारे लीडर को करना है या नहीं इसकी परवाह उन्हें होती ही नहीं। कल, परसों भी उन्हें कहीं इसी तरह जाना है या नहीं, और अगर वे नहीं जा सके तो लोगों को वैसी ही निराशा होगी या नहीं, लोग वैसे ही बुरा मानेंगे या नहीं, जैसा कि तैयारी हो जाने पर हमारे यहाँ नेताओं के न आ सकने पर हम मानते हैं, यह बात भी वे लोग साधारणतया सोचते ही नहीं। फिर ठीक समय मीटिंग को पूरा करने की सारी तैयारी वे करें तो कैसे करें? लेकिन यह तो हमारे जवाबदेह कार्यकर्ताओं का ही काम है कि ये सारी बातें सोचें और उसी हिसाब से ऐसा प्रबंध करें कि ठीक समय पर सारा काम पूरा हो जाए। देहात के लोगों के कह देने पर ही सारी बात का विश्वास कर लेना बड़ी भारी गलती है। हमें उन लोगों की कमजोरियों को बिना कहे ही अपने ही अनुभव के आधार पर समझ लेना और तदनुसार ही काम करना चाहिए।
इस संबंध के कटु अनुभव मुझे यों तो हजारों हुए हैं और उनसे काफी तकलीफ भी हुई है। मगर कभी-कभी भीतर-ही-भीतर जल जाना पड़ा है। खास कर जब बड़े लीडर कहे जानेवालों ने ऐसी नादानी की है। इस बात की चर्चा एकाध बार पहले ही की जा चुकी है। मगर एक घटना बहुत ही मार्के की है। सन 1939 ई. की बरसात गुजर चुकी थी। किसान लोग रबी बोने की तैयारी में खेतों को ठीक कर रहे थे। धान की फसल अभी तैयार न हुई थी। खेतों में ही खड़ी थी। मगर बरसात का पानी रास्तों से आमतौर से सूख चुका था। जहाँ तक अंदाज है कार्तिक महीने की पूर्णमासी अभी बीती न थी। ठीक उसी समय पटना जिले के बाढ़ सब-डिविजन के हमारे एक किसान-नेता ने मेरे दौरे का प्रोग्राम तय किया। और मीटिंगों के अलावे उनने एक ही दिन दो मीटिंगों का प्रबंध किया। एक फतुहा थाने के उसफा गाँव में और दूसरी हिलसा थाने में हिलसा में ही। जब मुझे पता चला तो मैंने कहा कि देहात की मीटिंग के साथ दूसरी मीटिंग भी हो यह शायद ही सोचा जा सकता है जब तक कि मोटर का रास्ता न हो। लेकिन उनने न माना।
जब मीटिंग के दिन हम फतुहा स्टेशन पर आए तो मैंने उसफा के बारे में बार-बार पूछा कि कितनी दूर है, रास्ता कैसा है, आदि-आदि। उत्तर मिला कि बहुत दूर तक तो टमटम जाएगा। फिर नदी के बाद तीन-चार मील हाथी से जाना होगा। मगर मेरे दिल ने यह बात नहीं कबूल की। खूबी तो यह थी कि मीटिंग के बाद हाथी से ही 4-5 मील चल के लाइट रेलवे की गाड़ी पकड़ना और शाम तक हिलसा भी पहुँचना जरूरी था। मैंने उनसे साफ कहा कि यह बात गैर-मुमकिन है। मुझे जो देहातों का अनुभव है उसके बल पर मैंने उन्हें साथ चलने से रोका और हिलसा जाने को कहा। उनसे यह भी साफ कह दिया कि हिलसा आने की मेरी उम्मीद छोड़ के आप खुद मीटिंग कर लेंगे। हाँ, अगर मुमकिन हुआ तो मैं भी आ जाऊँगा। मगर मेरी इंतजार में आप कहीं बैठे ही न रह जाएँ। इसी समझौते के अनुसार मैं टमटम पर बैठ के एक कार्यकर्ता के साथ उसफा की ओर चला, इस आशा से कि जहाँ हाथी खड़ा रहने का इंतजाम है वहाँ तक जल्दी पहुँच जाऊँ।
मगर गैर-जवाबदेही का एक नमूना फतुहा में ही मिला, जब हमारा टमटम सदर सड़क छोड़ के गली से चलने लगा। कुछ देर के बाद गली बंद थी और उसकी मरम्मत के लिए पत्थर की गिट्टियाँ पड़ी थीं। बड़ी दिक्कत हुई। टमटम जाने की उम्मीद न थी। बहुत ही परेशानी के बाद जैसे-तैसे टमटम पार किया गया। वह परेशानी हमीं जानते हैं। फिर टमटम बड़ा कुछ दूर-कुछ ज्यादा दूर-जाने के बाद साइकिल से दौड़ा हुआ एक आदमी हमारे पीछे आता था और हमें पुकारता था। मगर देर तक हम उसकी आवाज सुन न सके और बढ़ते गए। जब वह नजदीक आ गया तो उसकी पुकार हमने सुनी। उसने कहा कि हाथी तो स्टेशन पर आ गया है, आप वहीं लौट चलें। हम घबराये और सोचा कि यह दूसरा संकट आया। लौटेंगे तो फिर उसी गली में टमटम निकालने की बला आएगी। इसलिए साइकिलवाले से कह दिया कि जाओ और हाथी वहीं भेजो जहाँ पहले भेजने का तय पाया था। क्योंकि तुम भी तो कहते ही हो कि भूल से हाथीवान उसे स्टेशन ले गया है। इस पर वह बेचारा लौट गया। हम आगे बढ़े। मगर कुछी दूर और चलके टमटमवाले ने कह दिया कि ''बस, बाबूजी, अब आगे टमटम जा न सकेगा। यहीं तक की बात तय पाई थी।''
हम लोग उतर पड़े और पैदल चल पड़े। कुछ दूर चलने के बाद मालूम हुआ कि इधर नदी-वदी कोई है नहीं। उसफा का रास्ता आगे से खेतों से हो के जाएगा, यह कच्ची सड़क छूट जाएगी। हम लोग कुछ दूर और चल के धान के खेतों के बीच एक पीपल के नीचे जा ठहरे। वहीं इंतजार करने लगे कि हाथी आए तो चलें। पेड़ की छाया में कुछ लेटे भी। मगर चैन नहीं। मीटिंग में पहुँचने की फिक्र जो थी। इसीलिए रह-रह के हाथी का रास्ता देखते। कभी खड़े होते, कभी बैठ जाते। देखते-देखते एक घंटा बीता, दो बीते। मगर हाथी लापता ही रहा। ताकते-ताकते आँखें पथरा गईं। हम परेशान हो गए। मगर फिर भी हाथी नदारद! इधर दिन के दस-ग्यारह बज भी रहे थे। हमने सोचा कि कहीं ऐसा न हो कि हाथी की इंतजार में बैठे-बैठे उसफा की भी मीटिंग चौपट हो। हिलसा जाने का तो अब सवाल ही नहीं। हमारे सामने यह तीसरी दिक्कत आई। मगर हमने तय किया कि पैदल ही आगे बढ़ना होगा। रास्ता भी तो देखा था नहीं। फिर भी हिम्मत की कि पूछते-पाछते चले जाएँगे। हमने पहले से ही होशियारी की थी कि साथ में कोई सामान नहीं लिया था। नहीं तो वहीं बैठे रह जाते। उसका जाना तो दूर रहा। फतुहा लौटना भी दूभर हो जाता। सामान कौन ले चलता? उस घोर देहात में कुली कहाँ मिलता? मुझे तो ऐसे मौके कई पड़े थे। इसीलिए तैयार हो के आया था कि पैदल भी चलूँगा यदि जरूरत होगी। फिर सामान साथ लाता क्योंकर?
हाँ, तो हम चल पड़े। रास्ते की बात पूछिए मत। केवाल की काली मिट्टी सूखी थी। वह पाँवों को कतरे जाती थी। जूता पहनने में दिक्कत यह थी कि रह-रह के कीचड़-पानी पार करना पड़ता था। इसलिए जूता महाराज हाथों की ही शोभा बढ़ा रहे थे। कभी-कभी पाँवों में भी जा पहुँचते थे। रास्ता भी कोई बना बनाया था नहीं। कहीं खेत और कहीं दो खेतों की मेंड़ (आर) से ही चलना पड़ता था। पूछने पर लोगों ने यही बताया कि फलाँ कोने में उसफा है। बस, वही दिशा देख के चल रहे थे। फिर भी काफी भटके। दूर-दूर तक कहीं गाँव नजर आते न थे कि किसी से रास्ता पूछें। सूनी जगह में पेड़ भी थे नहीं कि रामचंद्र की तरह सीता का हाल उन्हीं से पूछते। पशु भी नदारद ही थे। यही हालत पक्षियों की थी। बहुत चलने पर कहीं-कहीं एकाध हल चलानेवाले किसान मिलते तो उन्हीं से पूछ लेते कि उसफा का रास्ता कौन है? फिर उसी अंदाज से आगे बढ़ते। कातिक की धूप भी ऐसी तेज थी कि चमड़ा जला जाता था। प्यास भी लगी थी। मगर रास्ते में पानी पीना आसान न था। कहीं गाँव में कुआँ मिले तभी तो पिया जाए। मगर कुओं की हालत यह थी कि उनमें मुँह तक पानी भरा था। ऐसी हालत में उनका पानी पीना बीमारी बुलाना था। इसलिए प्यासे बढ़ते जाते थे। रास्ते में एक-दो गाँव भी मिले। वहाँ हमने उसफा की राह पूछ ली और बढ़ते गए।
चार या छः मील की तो बात ही मत पूछिये। आठ-नौ मील से कम हमें चलना न पड़ा। बराबर चलते ही रहे। फिर भी तीन घंटे से ज्यादा ही वक्त वहाँ पहुँचने में लगा। हम परेशान थे। मगर चारा भी दूसरा था नहीं। मीटिंग में तो पहुँचना ही था, चाहे जो हो जाए। अंत में एक गाँव मिला। हमने समझा यही उसफा है। किंतु हमारा खयाल गलत निकला। आगे बढ़े। पता चला कि आगेवाला उसफा है। मगर नदी-नाले और पानी कीचड़ के करते रास्ता चक्कर काटता था। अंत में कुछ लोग मिले जो सभा में जा रहे थे। तब हमें हिम्मत हुई कि अब नजदीक आ गए। अंत में बाजे-गाजेवालों की भीड़ मिली। ये लोग स्वागतार्थ जमा थे। हमें इनके भोले-भाले पन पर दया आई। हम पहुँचेंगे भी या नहीं इसका खयाल तो इनने किया नहीं और स्वागतार्थ बाजे-गाजे के साथ जम गए। हमने समझा कि अब सभा-स्थान पास में ही होगा। मगर सो बात तो थी नहीं। अभी मीलों चलना था। बहुत देर के बाद गाँव में पहुँचे तो सारे गाँव में जुलूस घूमता फिरा। हमें क्या मालूम कि जुलूस घुमाया जा रहा है? गाँव भी शैतान की आँत की तरह लंबा है। हम तो प्यासे मरे जा रहे थे और लोगों को जुलूस की पड़ी थी। पर, किया क्या जाए? देहात के लोग तो सीधे होते हैं। वे अगर सारी बातें समझ जाएँ तो फिर जमींदारी कैसे रहने पाएगी? महाजनों की लूट चालू क्योंकर रहेगी? उनकी नासमझी और उनका भोलापन यही तो लूटनेवालों की─शोषकों की-पूँजी है, यही उनका हथियार है।
जैसे-तैसे जुलूस का काम पूरा हुआ और हम लोग गाँव से बाहर बाग में पहुँचे जहाँ सभा का प्रबंध था। मगर मेरा तो गला सूख रहा था। इसलिए कुएँ से पानी मँगवा के भरपूर स्नान किया तब कहीं कुछ ठंडक आई। फिर पानी पिया। जरा लेटा। इतने में लोग भी जमा होते रहे। मुझे पता चला कि वहाँ शायद ही कोई पहुँच पाता है। बरसात में फतुहा से ले कर वहाँ तक केवल जलमय रहता है। जाड़े में भी आना गैरमुमकिन ही है। हाँ, गर्मी में शायद ही कोई आ जाते हैं। आमतौर से यही होता है कि मीटिंगों की नोटिसें बँट जाती हैं, लोग जमा भी होई जाते हैं। मगर नेता लोग ही नहीं पहुँच पाते। फलतः लोग निराश लौटते हैं। इस बात की आदत सी वहाँ के लोगों में हो गई है। मोटर वगैरह का आना तो असंभव है। बैलगाड़ी की भी यही हालत है। हाथी या घोड़े से आ सकते हैं। नहीं तो पैदल। मगर नेता और पैदल? मेरे बारे में भी लोग समझते थे कि शायद ही पहुँचूँ। इसीलिए मरता-जीता, थका-प्यासा जब मैं पहुँच गया तो लोगों को ताज्जुब हुआ!
यों तो उसफा में मिडिल स्कूल है। लाइब्रेरी भी है। फुटबाल वगैरह की खेल भी होती है। कांग्रेस की लड़ाई में वहाँ के कुछ लोग कई बार जेल भी गए हैं। फिर भी वह समूचा इलाका ही पिछड़ा हुआ है। सभाएँ शायद ही होती हैं। छोटे-मोटे जमींदार, जो उस इलाके में हैं, खूब जुल्म करते हैं। पुलिस का भी वहाँ पहुँचना आसान नहीं है। इसलिए जालिम लोग स्वच्छंद विचरते हैं। लगातार कई साल के बीच मेरी वही एक मीटिंग थी जहाँ पुलिस पहुँच न सकी, सी. आई. डी. रिपोर्टरों का पहुँचना तो और असंभव था। वे लोग हिलसा की मीटिंग में चले गए। यह भी एक अजीब बात थी। तमाशा तो यह हुआ कि मुझे लेने के लिए भेजा गया हाथी मीटिंग खत्म होते न होते वहाँ लौटा।
सभापति उस सभा में बनाएगए इलाके के एक छोटे से जमींदार। मुझे यह बात पीछे मालूम हुई। नहीं तो शायद ही ऐसा होने पाता। मगर मैंने लेक्चर जो दिया वह तो जमींदारी-प्रथा और जमींदारों के जुल्मों के खिलाफ ही था। फिर भी न जाने सभापति जी कैसे पत्थर का कलेजा बना के सुनते रहे। मुझे उनके चेहरे से मालूम ही न पड़ा कि वे मेरे भाषण से घबरा रहे हैं। यदि घबराते भी तो मुझे परवाह क्या थी? मैं तो अपना काम करता ही। मैंने यह जरूर देखा कि लोग मस्त होके मेरी एक-एक बातें सुनते थे। मालूम पड़ता था, उन्हें पीते जाते हैं। उनका चेहरा खिलता जाता था, ज्यों-ज्यों सुनते जाते थे। मुझे यह भी पता चला कि उसफा के किसान जमींदारों के जुल्मों के खिलाफ लड़ने में जरा भी नहीं हिचकते। औरों की तरह पुलिस से भी वे भयभीत नहीं होते। यदि पुलिस जमींदारों या महाजनों का पक्ष अन्यायपूर्वक ले, तो उससे भी उनकी दो-दो हाथ हो जाती है। भविष्य के खयाल से यह सुंदर बात है। हक के लिए मर-मिटने की लगन के बिना किसानों के निस्तार का दूसरा रास्ता हई नहीं।
हाँ, सभा के अंत में एक मजेदार घटना हो गई। कुछ नौजवान लोग स्कूलों या कॉलिजों के पढ़नेवाले से प्रतीत हुए। उनने यह कहा कि बिना स्वराज्य मिले ही यह आप जमींदार-किसान कलह क्यों लगा रहे हैं? थे वे जमींदारों के ही लड़के। मगर चालाकी से उनने आजादी की दलील की शरण ली और कांग्रेसी बन बैठे। मैंने उत्तर दिया कि झगड़े के लगाने की क्या बात? यह तो पहले से मौजूद ही है। अगर आपकी जायदाद कोई लूटने लगे तो क्या स्वराज्य की फिक्र में उससे लिपट न पड़िएगा? क्योंकि झगड़ने पर तो आपकी ही दलील से स्वराज्य की प्राप्ति में बाधा होगी। हम तो किसानों को यही बताते हैं कि जो स्वराज्य उन्हें लाना है वह कैसा होगा, क्योंकि जमींदारों और किसानों का स्वराज्य एक न होगा-अलग-अलग होगा। जो एक का स्वराज्य होगा, वह दूसरे के लिए बला बन जाएगा।
वे फिर बोले कि आप तो मिस्टर जिन्ना की सी बात कर रहे हैं। जैसे वह स्वराज्य मिलने के पहले उसका बँटवारा कर रहे हैं आप भी वैसा ही कर रहे हैं। इस पर मैंने उन्हें बताया कि आप मेरी स्थिति को ठीक समझी न सके। मैं तो किसानों को सिर्फ यही बताता हूँ कि सजग हो के स्वराज्य के लिए लड़ो ताकि वह उनका स्वराज्य हो, न कि जमींदारों और सूदखोरों का। मगर वह लड़ें जरूर। जमींदार वगैरह न भी लड़ें, तो भी वे अकेले ही लड़ें। अगर वे लोग भी लड़ें तो साथ मिल के ही लड़ें। मगर चौंकन्ने रहें ताकि मौके पर जमींदार लोग उन्हें चकमा दे के स्वराज्य को सोलहों आने हथिया न लें। लेकिन मिस्टर जिन्ना तो मुसलमानों को लड़ने से ही रोकते हैं। वे तो नौकरियों और असेंबली की सीटों का बँटवारा चाहते हैं। उसके लिए हिंदुओं से मिल के लड़ना नहीं चाहते। बल्कि बार-बार मुसलमानों को लड़ने से रोकते हैं। फिर मेरी उनके साथ तुलना कैसी? क्या कोई कह सकता है कि मैंने, किसान-सभा ने या किसानों ने कांग्रेस की लड़ाई में साथ नहीं दिया है? क्या मैंने कभी किसानों को रोका है?
इसके बाद वे लोग चुप हो गए। मगर किसानों ने सभी बातें समझ लीं। मैंने उनसे पूछ दिया कि तुम्हारे गाँव के जमींदार जो नवाब साहब हैं उनके स्वराज्य के लिए लड़ोगे या अपने स्वराज्य के लिए। उनने एक स्वर से सुना दिया कि अपने स्वराज्य के लिए! तब मैंने कहा कि ये सवाल करनेवाले तो नवाब साहब का ही स्वराज्य चाहते हैं, गोकि साफ-साफ बोलते नहीं। मगर गोलमोल स्वराज्य का तो यही मतलब ही है। इन्हें डर है कि गोलमोल न कह के अगर स्वराज्य का स्वरूप बनाने लगेंगे तो किसान हिचक जायँगे। जिस स्वराज्य में जमीन के मालिक किसान न हों, अपनी कमाई को पहले स्वयं सपरिवार भोगें नहीं, उन्हें काफी जमीन मिले नहीं, सूदखोरों से उनका पिंड छूटे नहीं, जमींदारों के जुल्म से उनका पल्ला छूटे नहीं और भूखों मर के भी लगान, कर्ज वगैरह चुकाना ही पड़े वह उनका स्वराज्य कैसा? और अगर यह बातें न हों तो फिर जमींदार मालदारों का स्वराज्य कैसा? इसीलिए कहता हूँ कि किसान और जमींदार मालदार का स्वराज्य एक हो नहीं सकता। इस पर जय-जयकार के साथ सभा विसर्जित हुई। सभी अपने-अपने गाँव-घर गए।
अब सवाल आया वापस जाने और फतुहा में ठीक समय पर गाड़ी पकड़ने का। क्योंकि प्रायः शाम हो चली थी। हिलसा पहुँचने का तो प्रश्न ही न था। खतरा यह था कि फतुहा में भी बिहटा जानेवाली ट्रेन मिल सकेगी नहीं। यदि तेज सवारी मिलती तो मुमकिन था उसका मिलना। इसलिए मैंने इस बात पर जोर दिया कि अच्छी सवारी जल्द लाई जाए। मैंने सभा के पहले भी वहाँ पहुँचते ही कह दिया था कि सवारी का इंतजाम ठीक रहे। आने में जो हुआ सो तो हुआ ही, जाने का तो ठीक रहे। नहीं तो कल का प्रोग्राम भी चौपट होगा। हिलसा तो रही गया। लोगों ने हाँ-हाँ कर दिया और सब ठीक है सुनाया। लेकिन मुझे तो शक था ही। क्योंकि ''सब ठीक है'' वाला जवाब जो फौरन मिल जाता है, बड़ा ही खतरनाक होता है। ऐसा मेरा अनुभव है सैकड़ों जगहों का। फिर भी करता ही आखिर क्या? इसलिए मीटिंग खत्म होते ही सवारी की चिल्लाहट मैंने मचाई। जवाब मिला, आ रही है। कुछ देर बाद फिर पूछा, तो वही 'आ रही है' का उत्तर मिला। कई बार यही सुनते-सुनते ऊब गया। आने के समय की पस्ती होने के कारण ही सवारी के लिए परेशानी थी। नहीं तो पैदल ही चल पड़ता। मगर जब देखा कि कुछ होता जाता नहीं, तो आखिर चल देना ही पड़ा पैदल ही। लोग रोकने लगे कि रुकिए, सवारी आती है। मगर मुझे अब यकीन न रहा। अतः रवाना हो गया। पीछे देखा कि वही पुराना हाथी चींटी की चाल से चला आ रहा है। मुझे रंज तो बहुत हुआ कि ये लोग धोखा देते हैं। भला इस मुर्दा सवारी से फतुहा कब पहुँचूँगा। ऐसी गैर जवाबदेही! इसके पीछे से लोग पुकारते जाते थे कि मैं रुकूँ। मगर मैं बढ़ता ही चला जाता था। सवारी की यह आखिरी दिक्कत ऐन मौके पर बहुत ही अखरी। किंतु लाचार था। एक-दो मील चला गया। शाम हो रही थी। दूध भी न पी सका था। अतएव आगे के गाँववालों ने रोका। वे भी सभा में गए थे। एक वैष्णव ब्राह्मण ने बाहर ही कुएँ पर कंबल डाल के मुझे बिठाया और फौरन ही गाय का दूध दुहवा के मुझे पीने को दिया। इतने में कुछ देर हो गई और बूढ़ा हाथी भी आ पहुँचा। मैं उस पर चढ़ने में हिचकता था। इसके लिए तैयार न था। मगर लोगों ने हठ किया। रात का समय और अनजान रास्ता। कीचड़-पानी से हो के गुजरना, सो भी आठ-दस मील। टेढ़ी समस्या थी। दिन रहता तो पैदल ही चल देता खामख्वाह। मगर अँधेरी रात जो थी। इसलिए मजबूरन हाथी पर बैठना ही पड़ा। एक लालटेन भी आई रास्ता दिखाने के लिए, मगर वह ऐसी मनहूस थी कि रोशनी मालूम ही न होती थी। फिर भी दूसरी थी नहीं। इसलिए वही साथ ली गई। लेकिन वह फौरन ही बुझ गई। अतएव पुकार के उसके मालिक के हवाले उसे हमने कर दिया और अँधेरे में ही अंदाज से चल पड़े। आखिर करते ही क्या? हाथी एक तो बूढ़ा और कमजोर था। दूसरे थका भी था हमारी ही तरह। क्योंकि अभी-अभी स्टेशन से वापस आया था। तीसरे भूखा था। भलेमानसों ने उसके खाने का कोई प्रबंध किया ही नहीं और मेरे साथ उसे फिर चला दिया। यह अजीब बात थी। और अगर रात न होती तो वह भूखों ही मरता। एक कदम बढ़ता भी नहीं, लेकिन रात होने से उसका काम चालू था। हाथी तो रास्ते के खेतों में खड़ी फसल को नोचता-खाता ही चलता है। यही तो उसकी गुजर है। दिन में खेतवाले सजग रहते और चिल्लाते हैं, तूफान करते हैं। इसलिए पीलवान हाथी को रोकता-डाँटता चलता है जिससे उसका घात शायद ही लगता है। मगर रात में तो यह खतरा था नहीं। इसलिए हाथी का स्वराज्य था। धान के हरे-हरे खेत खड़े थे। उन्हीं से हो के हम गुजर रहे थे। हाथी खाता चलता था। किसानों की फसल की इस तरह तबाही हमें खलती जरूर थी। इसलिए आमतौर से हम हाथी पर चढ़ते नहीं। मगर हाथी की भूख को देख के हम भी मजबूर थे और हाथीवान से उसे रोकने की बात कहने की हिम्मत हमें न थी।
इस प्रकार चलते-चलाते एक नदी के किनारे चलने लगे। मालूम हुआ कि यह आम रास्ता फतुहा जाने का है। अब हमें यकीन हुआ कि रास्ता भूले नहीं हैं। ठीक ही जा रहे हैं। कुछ दूर यों ही चलते रहे फिर वह नदी हमें छोड़ के जाने कहाँ भाग निकली। नदियों की तो चाल ही टेढ़ी-मेढ़ी होती है। फिर उनकी किससे पटे? जो वैसी ही चाल के अभ्यासी हों वही उनके साथ निभ सकते हैं। हमें तो जल्दी थी फतुहा पहुँचने की। घड़ी पास ही थी। रह-रह के वक्त देखते जाते थे। अब हमें डर हो गया कि ट्रेन पकड़ न सकेंगे। क्योंकि अंदाजा था कि फतुहा अभी दूर है। इतने में ही ट्रेन की रोशनी नजर आई। हमने देखा कि पूरब से पच्छिम धक्धक-चकमक करती रेलगाड़ी चलती जा रही है। उसे हमारी क्या परवाह थी। अगर उसके भीतर दिल नाम की कोई चीज होती और हमारा पता उसे होता तो शायद हमारे भीतर मचनेवाले महाभारत को वह महसूस कर पाती। फिर भी हमारे लिए रुकती थोड़े ही। जो लोग समय के पाबंद हैं और उसकी पुकार सुनते हैं वह किसी की परवाह न कर के आगे बढ़ चलते हैं, बढ़ते ही जाते हैं। यही खयाल उस समय हमारे माथे में घूम गया। अपनी विफलता में भी इतनी सफलता, यह शिक्षा हमें मिली। हमने इसी से संतोष किया।
हाथी चलता रहा। इतने में लाइट रेलवे की ट्रेन भी दक्षिण से आई और चली गई। हम टुक-टुक देखते ही रह गए। आखिर चलते-चलाते हम भी फतुहा के नजदीक पहुँचे। जब हम पक्की सड़क पर आए तो हमें दो साल पहले की एक घटना याद आई। हमें ऐसा लगा कि फतुहा के पास हमें बराबर दिक्कतें होती हैं, खासकर हिलसा के प्रोग्राम में। दो साल पहले भी ऐसा ही हुआ था कि हिलसा में मीटिग कर के हम लोग टमटम से ही फतुहा चले थे ट्रेन पकड़ने। ट्रेन तो हमें मिली थी। मगर पास में पहुँचने पर उसी पक्की सड़क पर मरते-मरते बचे थे। बात यों हुई कि रात हो गई थी और जिस टमटम से हम लोग आ रहे थे वह था हिलसा का ही। ज्यों ही वह उस स्थान पर पहुँचा जहाँ एक पुल है और दो सड़कें मिलती हैं त्यों ही एक बैलगाड़ी आगे मिली। टमटमवाले ने चाहा कि टमटम को बगल से निकाल दें। मगर उसके ऐसा करते ही घोड़ा पटरी के नीचे उतर गया और औंधे मुँह गिर पड़ा। असल में वहाँ सड़क के बगल में बहुत गहराई है। अगर टमटम उलटता तो हममें एक की भी जान न बच पाती। सभी खत्म हो जाते। मगर घोड़े के गिर जाने पर भी टमटम कैसे रुक गया यह अजीब बात है। हमारे साथी नीचे गिर पड़े। टमटम लटक के ही रह गया। उलटा नहीं। मगर मैं उसी पर बैठा ही रह गया। मेरे सिवाय सबों को चोट भी थोड़ी-बहुत आई। घोड़ा तो मरी जाता अगर झटपट हम लोग टमटम से अलग उसे न कर देते और उठा न देते। खैर, वह उठाया गया और जैसे-तैसे स्टेशन के नजदीक पहुँचा। उस दिन की घटना हमें कभी नहीं भूलती। ऐसी ही घटनाएँ किसान-सभा के दौरे में दो-एक बार और भी हुई हैं। मगर इस बार की थी सबसे भयानक। हम तो बाल-बाल बचे। सो भी मुझे कुछ भी न हुआ। वही घटना हमें उस दिन स्टेशन पर फिर याद आ गई कि हम उसी मनहूस स्थान पर पहुँच गए।
हाथी वहाँ से आगे बढ़ा और हम स्टेशन के दक्षिण रेलवे लाइन की गुमटी पर ही हाथी से उतर पड़े। हमें ऐसा मालूम हुआ कि किसी वीरान से आ रहे हैं जहाँ न रास्ता हो और न कोई सवारी-शिकारी। गाड़ी तो कभी की छूट चुकी थी। अब हमें उसकी फिक्र न थी। बल्कि इस बात की खुशी थी कि खैरियत से हम इस भयंकर यात्रा से लौट के स्टेशन तो पहुँचे। असल में एक चिंता के रहते ही अगर उससे भी खतरनाक बात सामने आ जाए तो चिंता खुद काफूर हो जाती है और नया खतरा आँखों के सामने नाचने लगता है। हमारी यही हालत हो गई थी। हम स्टेशन पहुँचेंगे या नहीं, पहुँचेंगे भी तो कब और किस सूरत में, हाथ-पाँव टूटे होंगे, या खैरियत से होंगे, आदि बातें हमारे दिमाग में भर रही थीं। हमें फिक्र यही थी कि किसी सूरत से स्टेशन पर सकुशल पहुँच जाएँ। यही वजह है कि पहुँच जाने पर हमारी खुशी का ठिकाना न रहा।
स्टेशन पर जाने के बाद दिक्कत हुई सोने की। सोने का सामान तो पास था नहीं। वह तो ट्रेन से चला गया था। यहाँ तक कि हाथ-पाँव धोने के लिए पानी लाने का लोटा भी नहीं था। इसलिए वेटिंग रूम में चुपके से अँधेरे में ही जा पड़े। मगर थोड़ी देर बाद स्थानीय कबीर-पंथी मठ के कुछ विद्यार्थी हमें ढूँढ़ते आए । वे महंत के जुल्म से ऊबे थे और हमारी प्रतीक्षा में थे। ट्रेन के समय खोज के लौट गए थे। वे फिर आए और हमें अपनी जगह लिवा ले गए। उस समय हम उनकी कुछ खास मदद कर न सके। फिर भी रास्ता बता दिया। सुबह की ट्रेन से हम बिहटा चले गए।
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किसान-सभा की स्मृतियाँ हैं तो इतनी कि पोथे लिखे जा सकते हैं। यह भी नहीं कि केवल कहानियों जैसी हैं। हरेक स्मृति मजेदार है। घटनाओं से पता चलता है कि किन-किन संकटों को, कब-कब, कैसे पार कर के सभा की नींव मजबूत की गई थी। कई बार तीन-तीन, चार-चार मील लगातार दौड़ते रह के ही किसी प्रकार सभा-स्थान में पहुँच सका, जैसा कि एक बार पटना जिले के दांतपुर इलाके मगर पाल दियारे की रामपुरवाली सभा में हुआ था। सवारी का प्रबंध वे लोग न कर सके और जब देर से हम शेरपुर पहुँचे तो शाम हो चली थी। यदि कस के चार मील दौड़ते नहीं तो लोग निराश हो के चले जाते।
इसी प्रकार एक बार खटांगी में, गया जिले में, सभा करनी थी। गया से मोटर से चले। पानी पड़ चुका था। सड़क पर नई मिट्टी पड़ी थी─कच्ची सड़क नई-नई बनी थी। मोटर धँस जाती थी। छः मील में छः घंटे लग गए। रात हो गई। अंत में मोटर छोड़ के कई मील पैदल रात में ही अंदाज से गए। तब तक सभा से लोग चले गए थे। मगर चारों ओर पुकारते हुए लोग दौड़े और मीटिंग की तैयारी में लगे। नतीजा यह हुआ कि रास्ते से ही लोग लौट पड़े। देर से तो खटांगी से लोग चले ही थे। इसीलिए रास्ते में ही थे। सभा भी दस-ग्यारह बजे रात में जम के हुई और खूब हुई।
सबसे मजेदार बात तो मझियावाँ बकाश्त संघर्ष के वक्त हुई। मझियावाँ खटांगी से उत्तर दो-तीन मील है। दोपहर को टेकारी पहुँचे थे। वहाँ से मझियावाँ चौदह मील है। बरसात का दिन, कच्ची सड़क, सवारी आने में देर। बस, पैदल ही चल पड़े। छः-सात मील चल चुकने पर सवारी मिली। बड़ी दिक्कत से अँधेरा होते-होते मझियावाँ पहुँचे। संघर्ष चालू था। चटपट लोगों को जमा किया। मीटिंग की, और सबों को समझा के चल पड़े। आधी रात को गया में गाड़ी पकड़नी थी। अगले दिन का प्रोग्राम फेल न हो इसीलिए ऐसा करना पड़ा। सवारी उतनी जल्दी कहाँ मिलती? पैदल ही चल पड़े। वह मामूली रास्ता नहीं है। केवाल की मिट्टी थी। पानी खूब पड़ा था। रात का वक्त था। ट्रेन पकड़ने की फिक्र थी। साथ में कुछ लोग थे। यही अच्छा था। एक टट्टू भी साथ कर दिया गया। ताकि थकने पर उस पर चढ़ लूँ। मेरी तो आदत टट्टू पर चढ़ने की नहीं। जब एक बार चढ़ा तो थोड़ी देर बाद मारे तकलीफ के उतर पड़ा। एक बजे के करीब जैसे-तैसे टेकारी पहुँचा। मोटर खड़ी थी। चढ़ के मोटर दौड़ाई। ट्रेन खुलते न खुलते दो बजे के करीब गया पहुँच के गाड़ी पकड़ी और पटना आया। खुशी इस बात से हुई कि इस परेशानी ने काम किया और मझियावाँ के किसानों ने-मर्दों से ज्यादा औरतों ने-लड़ के अमावाँ राज्य को अपनी माँगें स्वीकार करने को मजबूर किया। लाखों रुपए बकाया लगान के छूट गए और सस्ते लगान पर नीलाम जमीन वापस मिली। मझियावाँ श्री यदुनंदन शर्मा की जन्मभूमि है।
लेकिन जितनी स्मृतियाँ अब तक लिपिबद्ध की जा चुकी हैं, उनसे हमारे आंदोलन की प्रगति पर काफी प्रकाश पड़ता है और जाननेवालों को मालूम हो जाता है कि यह किसान-सभा किस ढंग से बनी है। आसाम, बंगाल, पंजाब और खानदेश आदि की यात्राओं से इन्हीं बातों पर प्रकाश पड़ता है। उनका वर्णन स्थानांतर में है भी। इसीलिए यहाँ लिखना आवश्यक समझा नहीं गया है। बिना खास जरूरत के पुनरुक्ति ठीक नहीं। इसीलिए चलते-चलाते एक मजेदार और महत्त्वपूर्ण घटना का जिक्र कर के इसे समाप्त करना चाहता हूँ। वह घटना बहुत पुरानी नहीं है। बल्कि यूरोपीय युद्ध छिड़ जाने के बाद की है। अब तक मेरे साथ मिल के जिन लोगों ने किसान-सभा और किसान-आंदोलन के चलाने की खास तौर से बिहार में और दूसरी जगह भी जिम्मेदारी ली थी उनकी मनोवृत्ति पर इस घटना से काफी प्रकाश पड़ता है। किसान-आंदोलन को आगे ठीक रास्ते पर चलानेवालों के लिए इस बात का जान लेना निहायत ही जरूरी है। नहीं तो वे लोग धोखे में पड़ सकते हैं, गुमराह हो सकते हैं। असल में मुझे खुद इन बातों को समझने में कम से कम आधे दर्जन साल लग गए हैं तब कहीं इन्हें बखूबी समझ पाया हूँ। इसीलिए दूसरों के सामने इन्हें रख देना मुनासिब समझता हूँ। ताकि उन्हें भी आधे या एक दर्जन साल इनकी जानकारी के लिए गुजारने न पड़ें। यह पहले ही कह देना चाहता हूँ कि किसी का नाम न लूँगा। मुझे यह बात लाभकारी नहीं जँचती है।
जब कांग्रेस की वर्किंग कमेटी ने अपनी अहिंसा का जामा उतार फेंका और गाँधी जी को सलाम कर के यह फैसला सन 1940 के मध्य में कर लिया कि यदि('मेरा जीवन संघर्ष' में स्वामीजी ने जयप्रकाश नारायण का नाम लिया है─संपादक)अंग्रेजी सरकार भारत में भी राष्ट्रीय सरकार (Natioal Governmeat) बना दे और यह घोषित कर दे कि भारत को पूर्ण आजादी का हक है तो कांग्रेस इस यूरोपीय लड़ाई की सफलता के लिए मदद करेगी। गोकि प्रस्ताव के शब्द कुछ गोल-मटोल और वकालती थे। फिर भी राष्ट्रपति और दूसरे जिम्मेदार नेताओं के वक्तव्यों से उनका आशय यही निकला। ठीक उस समय जेल में हमारे साथ ही रहनेवाले कुछ सोशलिस्ट नेताओं को एक नई पार्टी बनाने की सूझी। इसके लिए उनने लंबी-चौड़ी दलीलें दीं। और उनके आधार पर एक कार्य-पद्धति भी तैयार की। उनने यह भी साफ-साफ स्वीकार किया कि अब कांग्रेस एक प्रकार से खत्म हो गई। अब वह आजादी के लिए नहीं लड़ेगी। वह हमारे काम की अब रह नहीं गई। गो सरकार ने फिलहाल वर्किंग कमेटी की माँग कबूल नहीं की जिससे वह दफना दी गई है। मगर किसी भी समय वह कब्र से खोद निकाली जाकर जिलाई जा सकती है। अब कांग्रेसी नेता अंग्रेजी साम्राज्यशाही से गँठजोड़ा कर के उसी के हथियारों से उठती हुई जनता को दबाना चाहते हैं। क्योंकि अब उन्हें इस मुल्क की आम जनता (Masses)से भय होने लगा है। इसलिए उनके साथ संयुक्त मोर्चे का सवाल अब रही नहीं गया।
ऐसी हालत में अब हमें क्या करना चाहिए, इसके बारे में उनने अपना निश्चित मत प्रकट किया कि अब हमें किसान-सभा को ही किसानों की राजनीतिक संस्था के रूप में संगठित करना होगा। इसी बात पर हमें पूरा जोर देना जरूरी है। साथ ही, मजदूरों के भी संगठन पर काफी जोर देंगे और समय पा के इन दोनों संस्थाओं को एक सूत्र में बाँधेंगे। इस तरह जो एक सम्मिलित संस्था बनेगी वही भारत की पूर्ण आजादी के लिए लड़ेगी और उसे लाएगी भी। इसलिए अब हम लोगों की सारी शक्ति उसी और लगनी चाहिए। इसीलिए उनने यह भी निश्चय किया कि एकाध को छोड़ बाकी सभी वामपक्षी दलों का भी एक सम्मिलित दल बनना चाहिए। वही दल इस नए कार्यक्रम को अच्छी तरह पूरा करने में सफल होगा। सब दलों के मिल जाने से हमारी ताकत बढ़ जाएगी। उन्हें इस बात का विश्वास भी था कि एक को छोड़ सभी दल मिल जाएँगे।
उनने अपना यह मंतव्य मुझसे भी प्रकट किया। मैंने भी उस पर पूरा गौर किया। लेकिन वामपक्षी कमिटी (Left consolidation committee) के इतिहास को देखकर मुझे विश्वास न था कि सबको मिला के कोई ऐसा एक दल बन सकेगा। वामपक्ष कमिटी का जितना दर्दनाक और कटु अनुभव मुझे है उतना शायद ही किसी को होगा। मैंने उसके सिलसिले में वामपक्षियों की हरकतों से ऊब के कभी-कभी रो तक दिया था। किसी का दिल उसमें लगता न था। मालूम होता था जबर्दस्ती फँसाएगए हैं। सभी भागना चाहते थे। यदि एक दल उसमें दिलचस्पी लेता तो दूसरा और भी दूर भागता था। अजीब हालत थी। पहले तो मुझे उसमें लोगों ने फँसा दिया। मगर पीछे पार्टियों के नेता इधर-उधर करने लगे। सभी भाग निकलने का मौका देखते थे। भला फँसा के भी कोई संयुक्त दल बन सकता है?
जब मुझसे उनने राय पूछी, तो मैंने अपना पक्का खयाल कह सुनाया। मैंने कहा कि वामपक्षी दलों को एक-दूसरे पर विश्वास हई नहीं। और जब तक यह बात न हो मेल मुवाफिकत कैसी? वह तो परस्पर विश्वास के आधार पर ही बन सकती और टिक सकती है। लेफ्टकंसोलिडेशन की बात मैंने उन्हें याद दिलाई और कहा कि मेरे जानते उसके विफल होने की बात वजह यही थी उस समय एक दल उसकी जरूरत समझता था तो दूसरा नहीं। अगर दो ने जरूरत समझी तो बाकियों ने नहीं। यही हालत आज है। आज आप लोग उसकी जरूरत समझते हैं सही। मगर दूसरे नहीं समझते। और जब तक सभी दल इस बात को महसूस न करेंगे कि एक पार्टी सबकों को मिलाकर बनाए बिना गुजर नहीं, तब तक कुछ होने-जाने का नहीं। तब तक आपकी यह नई पार्टी बनी नहीं सकती। मैंने यह भी कह दिया कि मैं तो अब किसी पार्टी में शामिल हो नहीं सकता। मैंने तो यही तय कर लिया है कि किसान-सभा के अलावे और किसी पार्टी-वार्टी से नाता न रखूँगा। मैं पार्टियों की हरकतें देख के ऊब सा गया हूँ। इसलिए मैं पार्टी से अलग ही अच्छा। मिहरबानी कर के मुझे बख्श दें। इसके बाद उस समय तो मुझ पर इसके लिए जोर न दिया गया और दूसरी-दूसरी बातें होती रहीं। मगर पीछे जब तक एक बार कइयों ने मिला के फिर दबाव डालने की कोशिश की, तो मैंने धीरे से उत्तर दे दिया कि पहले और पार्टियाँ मिल लें तो देखा जाएगा। अगर मैं अभी उस नई पार्टी में शामिल हो जाऊँ तो किसान-सभा की मजबूती में बाधा होगी। क्योंकि आप लोग पार्टी की ओर से मुझ पर दबाव डालेंगे ही कि जिम्मेदार जगहों पर उसी पार्टी के आदमी किसान-सभा में रखे जाएँ, और पार्टी-मेंबर की हैसियत से मुझे यह मानना ही पड़ेगा। नतीजा यह होगा कि दूसरी पार्टियों के अच्छे से अच्छे कार्यकर्ताओं के साथ मैं न्याय न कर सकूँगा और वे ऊब के हमारी सभा से खामख्वाह हट जाएँगे। फिर सभा मजबूत हो कैसे सकेगी? इसलिए मैं इस झमेले में नहीं पड़ता।
मगर इस आखिरी बात के पहले ही कुछ और भी बातें हुईं। नई पार्टी के बारे में उनके दो महत्त्वपूर्ण निश्चय थे और वे थे भी कुछ ऐसे कि मैं घबराया। मुझे पता चला कि उनके वे दोनों ही निश्चय अटल से हैं। इसीलिए मुझे ज्यादा घबराहट हुई। फिर भी उन पर मैंने इसे प्रकट न किया। मैं भी चाहता था कि जरा उनके हृदय को टटोल देखूँ। उन दोनों में एक बात यह थी कि बहुत ही विश्वासपूर्वक तीन ही महीने के भीतर वे कम से कम पच्चीस हजार पक्के क्रांतिकारियों का सुसंगठित दल तैयार करने का मंसूबा बाँध चुके थे। उनकी बातों से साफ झलकता था कि यह कोई बड़ी बात न थी। इस बारे में उनने औरों को कितनी ही दलीलें दी थीं। वह इस मामले में इतने विश्वस्त और निश्चिंत मालूम पड़ते थे कि मुझे आश्चर्य होता था।
इसीलिए मैंने उससे दलीलें शुरू कीं। कहा कि मैं तो जिंदगी में अभी पहली ही बार सुनता हूँ कि तीन ही महीने में अव्वल दर्जे के क्रांतिकारियों की पचीस हजार की संख्या में तैयारी आसानी से की जा सकती है? क्या आप इतिहास में ऐसी एक भी मिसाल पेश कर सकते हैं? कांग्रेस के चवन्नियाँ मेंबर भी अगर हम किसानों और मजदूरों के भीतर बनाने लगें तो तीन महीने में पचीस हजार सदस्य बनाना आसान न होगा। मगर उसी मुद्दत में उन्हें संगठित भी कर देना जिससे जवाबदेही का कोई काम कर सकें, यह असंभव सी बात है। क्रांतिकारियों का संगठन और भेड़-बकरियों का जमावड़ा क्या दोनों एक ही बातें हैं। मुझे तो हैरत मालूम पड़ती है। किसी भी क्रांतिकारी पार्टी में आने के लिए बरसों परीक्षा करना ही चाहिए। तभी हम मेंबरों की असलियत और उनकी कमजोरियाँ समझ सकते हैं, उन्हें हमें बरसों सख्ती से जाँचना होगा। तब कहीं कुछी लोग खरे उतर सकते हैं। यह कोई खोगीर की भर्ती तो है नहीं कि जिसे ही पाया भर्ती कर लिया।
उनसे दलीलें करने के साथ ही मेरे दिल में यह खौफ पैदा हो गया कि क्रांति और रेवोल्यूशन के नाम पर यह एक निहायत ही खतरनाक पार्टी बनेगी अगर उसके मेंबर इसी ढंग से बनाएगए। मध्यम वर्ग और काम-धाम से खाली लोगों में जोई बहुत ऊँचे मनोरथ रखता होगा, जिसे ही लीडरी का नशा होगा, जोई देश-सेवा और क्रांति के नाम पर न सिर्फ अपनी पूजा करवाना चाहेगा, बल्कि मौज उड़ाने की फिक्र रखेगा, जोई लंबी-लंबी बातें हाँक के लोगों को धोखा देना चाहेगा, जिसी के भीतर कोई मजबूती न होगी, किंतु सिर्फ देखावटी और बाहरी वेश-भूषा ही जिसकी सारी संपत्ति होगी ऐसे ही भयंकर और खतरनाक लोग इसमें आसानी से आ धमकेंगे, यदि उनके आराम का सामान मुहैया हो जाए। मैंने सोचा कि किसानों और मजदूरों की सेवा के नाम पर ये लोग उनके लिए प्लेग बन जाएँगे। जो लोग कहीं चोरी-डकैती वगैरह की शरण लेते उनके लिए यह बहुत ही सुंदर पेशा हो जाएगा। हाँ, पैसे की आसानी होना जरूरी है।
मेरी दलीलों का उन पर कुछ ज्यादा असर होता न दिखा। ऊपर से उनने सर हिलाया जरूर और कबूल किया कि यह दिक्कतें तो हैं। फिर बोले कि अच्छा देखा जाएगा। उतने नहीं तो कम लोग ही मेंबर होंगे। यह कोई जरूरी नहीं कि पचीस ही हजार खामख्वाह बनें। मैंने देखा कि मेरे विचारों का उन पर कोई असर न पड़ा। उनने केवल संख्या को ही पकड़ा है। मैं इस प्रकार की मेंबरी की बुनियाद को ही बुरा और खतरनाक मान कर उनसे बातें करता था। मगर उनने इतना ही माना कि इतनी बड़ी तादाद शायद आसानी से मिल न सके। उनने यह गलती महसूस ही न की कि मेंबरीवाला उनका सारा खयाल और रास्ता ही गलत है, धोखे का है। हम दोनों इस मामले में, उतनी बातचीत के बाद भी दोनों ध्रुवों पर रहे। हम दोनों की नजरें एक-दूसरे के खिलाफ थीं। उनका मेल न था। फिर भी मैंने उन्हें याद दिलाया कि ऐसे ही कच्चे मेंबरों को लेके तो आप ही लोग अब तक झगड़ते रहे हैं। ऐसे लोग तो बराबर बेपेंदी के लोटे की तरह कभी इधर कभी उधर लुढ़कते ही रहते हैं। कभी इस पार्टी में तो कभी उसमें जाते रहते हैं। इसी से झगड़े होते हैं कि दूसरे दल आपके मेंबरों को फोड़ते हैं। हालाँकि इसमें भूल आप ही की है कि कच्चे लोगों को सदस्य बनाते हैं। आप खुद 'रहे बाँस न बाजे बाँसरी' क्यों नहीं करते? उनने कहा कि ''हाँ, यह तो ठीक है।''
फिर उनके एक दूसरे खयाल पर भी मैंने उज्र किया। नयी पार्टी के लिए पैसे का प्रश्न था। बिना आर्थिक संकट पार किए कोई भी पार्टी चल नहीं सकती। इसीलिए उनने इस मसले का भी हल सुझाया था। मगर मैं उससे और भी चौंका। मुझे साफ मालूम हो गया कि ऐसा होने पर ऐरे-गैरे मनचले लोगों की भर्ती आसानी से हो सकेगी। आर्थिक झमेले हल हुए और पैसे की दिक्कत नहीं कि मेंबर बननेवालों का ताँता बँधेगा। वह तो यही मजा चाहेंगे-''जो रोगी को भाए सोई वैद्य बताए'' वाली बात यहाँ सोलहों आने ठीक उतरेगी।
असल में पैसा जमा करने का जो उपाय उनने सुझाया वह यह न था कि हम किसान-मजदूर जनता से थोड़ा-थोड़ा कर के जमा करेंगे। इस बात का तो उनने नाम ही न लिया। बूँद-बूँद कर के तालाब भरने का खयाल उन्हें रहा ही नहीं। उनके सामने लंबे-लंबे प्रोग्राम और खर्च के मद थे। पार्टी का प्रेस, अखबार, ऑफिस, साहित्य, दौरा वगैरह ऐसी बातें थीं जो उनके दिमाग में चक्कर काट रही थीं। और इनके लिए तो काफी पैसा चाहिए ही। मेंबरों को भी तो आराम से रखना ही होगा। नहीं तो उनके डटने में दिक्कत का खयाल था। और पचीस हजार की तादाद भी काफी बड़ी होती। वर्तमान समय के मुताबिक उनका खर्च-वर्च भी कम नहीं ही चाहिए। चबेनी और सत्तू या सूखी रोटी खा के तो क्रांति हो नहीं सकती। इस प्रकार तो क्रांतिकारी लोग गुजर कर सकते नहीं। इसलिए महीने में कई लाख रुपए उनके खर्च के ही लिए चाहिए।
यह साफ ही है कि इतना रुपया गरीब लोग दे सकते नहीं। पैसे-पैसे कर के उनसे इतनी लंबी रकम वसूल करना गैर-मुमकिन ही है। क्रांतिकारी लोग ऐसा मामूली काम करने के लिए होते भी नहीं। उनका काम बहुत बड़ा होता है। यह तो छोटे लोगों का-मामूली वर्करों का काम होता है। इसलिए पैसा जमा करने का कोई दूसरा ही रास्ता होना चाहिए, उनने यही सोचा। बताया भी ऐसा ही। खासी रकम हाथ लगने का रास्ता ही उनने ढूँढ़ निकाला था और उसी का जिक्र मुझसे भी किया था। मैं सुनता था। साथ ही हँसता भी और घबराता भी। उनके लिए वह क्रांति का चाहे सुगम से भी सुगम मार्ग क्यों न हो, मगर मेरे लिए तो वह बहुत ही खतरनाक दीखा। वैसे पैसे से उनकी नई पार्टी मठ भले ही बन जाए जहाँ मौज उड़ानेवाले ही रहते हैं। मगर मेरे जानते वह किसानों और मजदूरों की पार्टी हर्गिज नहीं बन सकती थी।
मैंने उनसे बातें शुरू कीं। मैंने कहा कि यह भी कि निराली सी बात है कि आपकी पार्टी के लिए पैसे का मुख्य जरिया किसान-मजदूर या शोषित जनता हो नहीं, किंतु कुछ दूसरा ही हो। आपने मेंबरों की भर्त्ती ही जो बात बताई है उससे तो स्पष्ट ही है कि केवल मध्यमवर्गीय लोग ही उसमें आएँगे। किसान-मजदूर तो आएँगे नहीं, शायद ही एकाध आएँ तो आएँ। इस प्रकार जितने नेता होंगे वह तो उनमें से आएँगे नहीं। वह तो बाहरी ही होंगे। और पैसे की दिक्कत जब पूरी हो जाती है तब तो खामख्वाह बाहरी ही लोग रहेंगे ही। इसे कोई रोक नहीं सकता।
अब रही पैसे की बात। सो भी उस दुखिया जनता से आनेवाला है नहीं जैसा कि आप ही बताते हैं। वह भी तो बाहर से ही आएगा-बाहरी ही होगा। उसी पैसे से काम का सारा सामान मुहैया किया जाएगा-पेपर, लिटरेचर, ऑफिस वगैरह। इस प्रकार आदमी, पैसा और सामान ये तीनों चीजें बाहर की ही होंगी। किसानों और मजदूरों के भीतर से तीन में एक भी चीज न होगी। हरेक लड़ाई के लिए जरूरी भी यही तीन हैं─आदमी, पैसा और सामान। और ये तीनों ही बाहर से ही मिल गए। इन्हीं से क्रांतिकारी लड़ाई चलाई जाएगी ऐसा आप कहते हैं चलाई जा सकती है और संभव है उसे सफलता भी मिले और क्रांति भी आ जाए। मगर वह क्रांति किसानों और मजदूरों की होगी यह समझना मेरे लिए गैर-मुमकिन है। वह तो उसी की होगी जिसके आदमी, पैसे और सामान से वह आएगी। दूसरे के सामान से दूसरे के लिए कोई भी चीज आए यह देखा नहीं गया। फिर क्रांति जैसी चीज के बारे में ऐसा सोचना निरी नादानी होगी।
मैं तो यही जानता हूँ और पढ़ा भी ऐसा ही है कि अगर किसानों और मजदूरों के हाथ में हुकूमत की बागडोर लानी है जिसे क्रांति कहिए या कुछ और ही कहिए, तो उन्हीं को इससे लड़ना और कट मरना होगा। जब तक उन्हीं के बीच से नेता और योद्धा पैदा न होंगे, पैदा न किए जाएँगे तब तक उनका निस्तार नहीं। लड़ते तो वे हईं। जेल जाते हैं, लाठी खाते हैं, गोलियों के शिकार होते हैं मगर उनके नेता बाहरी होते हैं। उनके बीच से नहीं आते। अब तक एकाध जगह को छोड़ सर्वत्र ऐसा ही होता रहा है। नतीजा यह हुआ है कि क्रांति होने पर भी उन्हें कुछ हासिल नहीं हुआ है। उनकी गरीबी, लूट, परेशानी, भूख, बीमारी, निरक्षरता ज्यों की त्यों बनी रह गई हैं। दुनियाँ की क्रांतियाँ इस बात का सबूत हैं। फ्रांस, इंगलैंड, जर्मनी, अमेरिका, इटली वगैरह देशों में क्रांतियाँ तो हुईं। मगर कमानेवाले सुखी होने के बजाय और भी तकलीफ में पड़ गए। गोकि लड़ने और मरने में वही आगे थे। यह क्यों हुआ। इसीलिए न, कि उन लड़ाइयों और क्रांतियों का नेतृत्व, उसकी बागडोर दूसरे के हाथ में थी? इसलिए मैं यही मानता हूँ कि जो बाहरी नेता हैं उनका काम यही होना चाहिए कि किसानों और मजदूरों के भीतर से ही नेता पैदा कर दें। उसके बाद क्रांति वही खुद लाएँगे। हमारा प्रधान काम क्रांति लाना न होकर उसके लिए किसानों और मजदूरों के भीतर से ही नेता पैदा कर देना मात्र है। इतना कर देने के बाद उन्हीं के नेतृत्व में जो क्रांति होगी उसमें हम जो भी सहायता कर सकेंगे वह उचित ही होगी। मगर अपने ही नेतृत्व में क्रांति लाने के मर्ज से हमें सबसे पहले बरी होना होगा। यह दूसरी बात है कि किसानों और मजदूरों के भीतर से ही पैदा होनेवाले नेताओं के नेतृत्व और हमारे नेतृत्व में कोई अंतर हो-दोनों एक ही हो। यह खुशी की बात होगी। मगर नेतृत्व की जाँच की कसौटी हमारा नेतृत्व न हो कर उन्हीं वाला होगा यह याद रहे। हमारे नेतृत्व से उनका नेतृत्व मिलने के बजाय उनके ही नेतृत्व से हमारा नेतृत्व मिलना चाहिए।
यही बात पैसे-रुपए की भी है। जिसे विजयी होना है उसको अपने ही पैसे रुपए से-उसी के बल पर-लड़ना होगा। तभी सफलता मिल सकती है। उधार या मँगनी की रकम से लड़ने में धोखा होगा-अगर बीच में नहीं तो जीत के बाद तो जरूर ही होगा। कहने के लिए वह जीत किसान-मजदूरों की होगी। मगर होगी वह दरअसल उन्हीं की जिनके पैसे लड़ाई में खर्च हुए हैं। पैसेवाले आदमियों को, उनके ईमान को, उनकी आत्मा को ही खरीदने की कोशिश करते हैं और आमतौर से खरीद भी लेते हैं। ऊपर से चाहे यह भले ही न मालूम हो। मगर भीतर से तो हमारी आत्मा बिक जाती ही है अगर हम दूसरों के पैसों का भरोसा करें। जबान से हम हजार इन्किलाब और किसान-मजदूर राज्य की बातें बोलें। मगर इनमें जान नहीं होती। ये बातें कुछ कर नहीं सकतीं। दिल से हम पैसे वालों की ही जय बोलते हैं, उन्हीं की राय से, उन्हीं के इशारे पर चलते हैं जैसे मोटर का हाँकनेवाला उसे अपने कब्जे में रखता है, नहीं तो वह कहीं की कहीं जा गिरेगी, किसी से लड़ जाएगी। ठीक वैसे ही पैसेवाला हमें और हमारी लड़ाई को अपने काबू में ही सोलहों आने रखता है। यही वजह है कि हमारी राय में किसानों और मजदूरों की लड़ाई उन्हीं के पैसे से चलाई जानी चाहिए। उस लड़ाई के लिए असली और खासा भरोसा किसान मजदूरों के ही पैसे पर होना चाहिए। दूसरों की परवाह हर्गिज नहीं चाहिए। इतने पर भी अगर कहीं से कुछ आ जाए तो उसे खामख्वाह फेंक देने से हमारा मतलब नहीं है। मगर उस पर दारमदार होने में ही खतरा है। उधर से लापरवाही चाहिए।
सामान की भी यही बात है। खाना, कपड़ा, अखबार, साहित्य, ऑफिस वगैरह सभी चीजें जिसके हाथ में रहेंगी वही लड़ाई को चाहे जैसे चलाएगा। ये सामान लड़ाई के मूलाधार हैं, बुनियाद हैं, प्राण हैं। इसीलिए हम इनके लिए गैरों पर निर्भर कर नहीं सकते। नहीं तो ऐन मौके पर खतरा होगा, रह-रह के खतरे खड़े होते रहेंगे। जब न तब इन सामानों के जुटानेवाले नाक-भौं सिकोड़ते रहेंगे और हमसे मनमानी शर्तें करवाना खामख्वाह चाहेंगे। यही दुनियाँ का कायदा है─यही मानव-स्वभाव है। आखिर कोई दूसरा आपको पैसा क्यों देगा? या कहीं और जगह से पैसा लाने में हजार खतरे का सामना करने के बाद पैसा मिलने पर उसे हमें क्यों देगा? अपने लिए, अपने बाल-बच्चों के लिए उसी पैसे से जमीन-जायदाद क्यों न खरीद लेगा? कोई रोजगार, व्यापार क्यों न चलाएगा? धर्म और परोपकार का नाम इस संबंध में, इस स्वार्थी और व्यवहारतः जड़वादी (materialist in practice)संसार में, लेना अपने आपको धोखा देना है, व्यावहारिकता से आँख मोड़ लेना है। झूठी कसमें खाई जाती हैं और कचहरियों में गंगा-तुलसी, कुरान-पुरान तक की शपथें जो आए दिन ली जाती हैं वह क्या धर्म और परोपकार के ही लिए?वह काम दुनियावी फायदे और जमीन-जायदाद के ही लिए किया जाता है यह कौन नहीं जानता? इसी प्रकार धर्म और परोपकार के नाम पर देनेवाले धनी और चतुर आमतौर से हजार गुना फायदे को सोचकर ही देते हैं चाहे कहीं चुनाव में वोट मिलने में आसानी हो, कारबार में आसानी हो या मौके पर बड़ी जमा और बड़ा अधिकार मिल जाने में ही उससे मदद मिले। मगर यही बात होती है जरूर। वे लोग पहले से ही हिसाब-किताब लगा के और दूर तक सोच के ही इस धर्म और उपकार के काम में पड़ते हैं, यह हमें हर्गिज भूलना न चाहिए।
इसीलिए हमारा तो पक्का मन्त्रा होना चाहिए कि अपने हकों के हासिल करने के लिए जो लड़ाई किसान-मजदूर लड़ना चाहते हैं उसके लिए आदमी, रुपया और सामान (Men, Money and Material) खुद जुटाएँ, अपने पास से ही मुहय्या करें। खुद भूखे नंगे रहके यह काम उन्हें करना ही होगा। दूसरा रास्ता है नहीं। हमें उनसे दो टूक कह देना चाहिए कि अगर वे ऐसा नहीं करते, इसके लिए तैयार नहीं हैं तो हम उनकी लड़ाई से बाजी दावा देते हैं─हम उसमें हर्गिज न पड़ेंगे। हम उनसे साफ-साफ कह दें कि इस तरह उसमें पड़ने पर तो हम उन्हें खामख्वाह धोखा देंगे, गो हमें सस्ती लीडरी जरूर ही मिल जाएगी। इतना ही नहीं, बिना किसानों के धन, जन के गैरों की आशा पर उनकी लड़ाई छेड़ने में हमें जमींदार मालदारों से सौदा करने में भी आसानी हो जाएगी और हमारा अपना काम बन जाएगा। मगर ऐसा घोर पाप और धोखेबाजी करने को हम तैयार नहीं।
मगर मेरी इतनी लंबी-चौड़ी दलील और बातचीत का असर उन पर कहाँ तक पड़ा यह कहना आसान नहीं है। मुझे तो कुछ ऐसा मालूम पड़ा, लक्षण कुछ ऐसे ही दिखे कि मेरी बातों को कोई विशेष महत्त्व नहीं दिया गया। मुझे खुश करने के लिए कुछ मीठी बातें जरूर कह दी गईं। मगर उनके दिले में मेरी बात घुस न सकी ऐसी मेरी पक्की धारणा है। ऐसी बात मानने और कहने के लिए मेरे पास सबूत भी है। उनने जो कुछ निश्चय किया था वह न तो किसी के दबाव से और न झोंक में आ के। वह तो वर्षों ठंडे दिल से सोचने-विचारने और महीनों बार-बार अपने दिल-दिमाग के मथने के बाद इस नतीजे पर पहुँचे थे। यह कोई नई बात भी नहीं थी। पढ़े-लिखे भी वह काफी हैं। इसीलिए इन बातों की पूरी जानकारी रखते हैं। ऐसी हालत में यह तो उनके दिल की आवाज थी, दिल का प्रवाह था जो इस रूप में प्रकट हुआ था। उनके विचार की जो सरसवाही धारा थी, खयाल का जो कुदरती बहाव था वही इस तरह जाहिर हुआ था, उसी की यह शक्ल बाहर आई थी। इन्सान के दिल-दिमाग की जैसी बनावट और तैयारी होती है वह ठीक वैसा ही सोचता है। लोगों के जो विचार और खयाल बनते-बनते पक्के होते और बाहर आते हैं वह आसानी से बदले जा नहीं सकते। फिर मेरी बातों का असर क्यों होने लगा?इतना ही नहीं। उसके बाद जो बातें उनने इधर-उधर कीं उसमें यहाँ तक कह डाला कि स्वामी जी भी हमारे साथ हैं। इस पर मैंने उलाहना भी दिया। मगर चुप्प! इतना ही नहीं। एक बार उसके बाद भी फिर ऐसा ही कह डाला।
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अंत में इन संस्मरणों के संबंध में दो एक बातें कह के इस लंबी गाथा को, जिसका खात्मा होना आसान नहीं, खत्म कर देना चाहता हूँ। हो सकता है कि कभी मौका आने पर बची बचाई हजारों घटनाओं को लिपिबद्ध किया जा सके। क्योंकि वे बहुत कुछ महत्त्व रखती हैं। सबों में कुछ न कुछ खूबी है। सबकी सब किसान-आंदोलन के किसी न किसी पहलू पर प्रकाश डालती हैं। यों तो जाने कितनी हजार मीटिंगें हो गई हैं जो कोई खास महत्त्व नहीं रखती हैं। असल में हमारे मुल्क में यह किसानों का संगठित आंदोलन-किसान-सभा का आंदोलन-बिलकुल ही नया है। इसीलिए इसमें हजारों दिक्कतें आती गई हैं। हम सभी इस मामले में एकदम नए रहे हैं─हमें इसकी कुछ भी जानकारी नहीं रही है। अनुभव के बल पर ही आगे बढ़े हैं इसीलिए मुसीबतों का सामना होना जरूरी था। दूसरे देशों के आंदोलनों की भी हमें जानकारी विशेषरूप से थी नहीं। मोटी-मोटी बातें जहाँ-तहाँ लिखी मिलती थीं। वह भी अधूरी ही थी। आंदोलन की प्रगति कैसे हुई, इसका पता कतई न था। कब, किन दिक्कतों का मुकाबला, किस परिस्थिति में वहाँवालों ने कैसे किया, इसे हममें से कौन जानता था? मैंने हजार कोशिशें कीं, एतत्संबंधी साहित्य ढूँढ़ने में सर मारता रहा। जाने कितने ही क्रांतिकारी कहे जानेवालों से ऐसी किताबें बताने या देने को कहा। मगर कौन सुनता था? असल में पता भी किसे था कि वहाँ कब, क्या हुआ। इसीलिए सभी मजबूर थे। इसीलिए फूँक-फूँक के हम आगे बढ़े।
जब आज चौदह साल के बाद पीछे नजर घुमाते हैं तो हमें पता लगता है कि हम कहाँ से कहाँ चले गए। हमें यह भी आश्चर्य होता है कि हमें क्यों इतनी कम दिक्कतों और मुसीबतों से जूझना पड़ा। अनजान आदमी के रास्ते में तो पग-पग पर रोड़े अटकते हैं। सो भी किसान-आंदोलन जैसी विकट चीज की कोशिश में। हमारे चारों ओर विरोधियों का गुट था। सभी कमरबंद खड़े थे कि कब मौका पाएँ और सारी चीज खत्म कर दें। हम तो पहले-पहल सन 1920 ई. में कांग्रेसी राजनीति में ही आए थे। वहीं से सन 1927 ई. में किसान-सभा बनाने की ओर झुके। मगर हमारे इस काम में कांग्रेसी साथियों ने और नेताओं ने भी, पहले तो कम पीछे ज्यादा, विरोध किया। पहले वे लोग समझी न सके कि क्या हो रहा है। इसलिए यदि किसी का विरोध भी था तो वह दबा था। पीछे तो जैसे-जैसे किसान-सभा मजबूत होती गई वैसे-वैसे विरोध भी प्रबल होता गया। यहाँ तक कि इधर कुछ दिनों से कांग्रेस की सारी ताकत सभा के खिलाफ हो गई। हमारे पुराने साथियों में भी बहुतेरे डूब के पानी पीने लगे। वे भी इस आंदोलन से भयभीत हो गए। मगर हम बढ़ते ही रहे हैं और बढ़ते ही जाएँगे यही विश्वास है।
अब तक जो कुछ संस्मरण लिखे गएहैं वे मधुर तो हईं। साथ ही पढ़नेवालों के लिए आंदोलन के भीतर झाँकी का काम देते हैं। जिन्हें कुछ भी किसान-सभा में चसका है उन्हें इनसे काफी हिम्मत और सहायता मिलेगी जिससे काम बढ़ा सकें। वे देखेंगे कि किसान-आंदोलन कोई फूलों का ताज नहीं है। इसीलिए कमजोर लोग शुरू में ही हिचक जाएँगे। यह ठीक ही है। इसमें कितना धोखा है इसकी भी जानकारी पढ़नेवालों को हुए बिना न रहेगी। इससे सच्चे और ईमानदार किसान-सेवकों को खुशी होगी और खतरे की जानकारी भी। तभी तो उससे मौके पर बच सकेंगे। अब तक तो सभा की जड़ कायम करनी थी। मगर अब उसे आगे बढ़ के असली काम करना है। इसलिए बहुत ढंग के खतरों से खामख्वाह बचना होगा। इस बात में संस्मरणों से मदद मिलेगी। गरम बातें और नरम काम का खतरा हमें अब ज्यादा है। इसलिए अभी से सजग हो जाना होगा। हमें मन भर बातें नहीं चाहिए। बल्कि बिना उन बातों के यदि केवल काम ही हो और रत्ती भर भी हो तो कोई हर्ज नहीं। उसमें धोखा नहीं होगा। बातें तो धोखा देती हैं। किसान-सभा का पूरा इतिहास और उस सिलसिले की सारी मुसीबतें मैंने अपनी जीवनी में लिखी हैं।
अंत में एक बात कह देनी है। हमारी आदत है तारीखें भूल जाने की। ठीक साल और तारीख याद रखी नहीं सकते। इसी तरह स्थानों के नाम भी भूल जाते हैं। ये संस्मरण इस भूल से मुक्त नहीं हो सकते। इसीलिए क्षमा चाहते हैं। हमें इस बात से थोड़ा ढाँढ़स मिला जब हमने चीन के महान कम्युनिस्ट नेता के बारे में पढ़ा कि वे तारीखें याद रख नहीं सकते हैं। मगर क्षमा तो फिर भी हम चाहते ही हैं।