प्रथम पर्व की समाप्ति
आजादी और स्वतंत्रता के लिए जो महाभारत मुल्क में युगों से चालू था उसका प्रथम पर्व पूरा हुआ, ऐसा, कहा जाता है। कहने वाले लोग दो तरह के हैं। एक तो वह हैं जो समाजवाद, साम्यवाद या किसान-मजदूर राज्य के नाम से ही अब तक नाक-भौं सिकोड़ते थे। उनके लिए पूर्ण स्वतंत्रता, स्वराज्य, आजादी आदि कहना ही पर्याप्त था। अधिक-से-अधिक वे इतना ही कहते थे कि भारतीयों का राज्य इस देश में आएगा। यहाँ के लोगों के हाथ में शासन-सूत्र आएगा। बस, इसके आगे जाना उन्हें बर्दाश्त न था। उनका यह भी कहना था कि समाजवाद या साम्यवाद की चर्चा आजादी की लड़ाई में बाधक होगी, इसे कमजोर बनाएगी क्योंकि इसके करते मुल्क में विचार-विभिन्नता का प्रसार होने से पारस्परिक तनाव बढ़ेगा और हम आपस में ही उलझ पड़ेंगे। गोया न करने से विचार-ऐक्य हो गया था!
दूसरे वे हैं, जो सदा समाजवाद, साम्यवाद तथा किसान-मजदूर राज्य के नारे लगाते रहे हैं। उन्होंने सदा यह माना है कि जब तक शासन सत्ता कमानेवाली जनता, संपत्ति को उत्पन्न करने वाली जनता-किसानों एवं मजदूरों-के हाथ सोलहों आने नहीं चली जाती, जब तक वर्ग-चेतनामूलक राजनीतिक चेतना के आधार पर किसान और मजदूर समूची शासन-सत्ता को मुस्तैदी के साथ बलात अपने हाथों में नहीं ले लेते, तब तक देश का उध्दार नहीं हो सकता, जनता का कल्याण असंभव है और ऐसी चेतना लाने के लिए युगों का संगठित प्रयत्न, सतत क्रियाशीलता अपेक्षित है। यह यकायक या कुछ समय में आनेवाली नहीं है। इसीलिए मुद्दत पहले से उन्होंने इस चेतना के प्रसार की कोशिश शुरू की थी। पहले दलवाले इस कोशिश को फूटी आँखों भी देख न सकते थे। उनकी चले, तो ऐसे लोगों को शूली पर ही चढ़ा दें।
फिर भी, दोनों ही मानते हैं कि राष्ट्रीय महाभारत का प्रथम पर्व पूरा हुआ। विदेशी आधिपत्य से आजाद होने के लिए होनेवाला संघर्ष सफल हुआ, यह दोनों ही मानते हैं हालाँकि दूसरे दलवालों का बराबर यही कहना रहा है कि समझौते का रास्ता छोड़ सीधी लड़ाई और क्रांतिकारी उथल-पुथल के फलस्वरूप ही यह आजादी हासिल होनी चाहिए। इसमें उन लोगों का महत्त्वपूर्ण मतलब था बेशक। सीधी लड़ाई से जो क्रांति होती, उसके फलस्वरूप न तो पाकिस्तान और हिंदुस्तान का ही प्रश्न उठता और न सांप्रदायिक कलह की ही गुंजाइश रहती। ब्रिटिश शासन के साथ ही इन अनर्थों को पैदा करनेवाली शक्तियाँ भी क्रांति के तूफान में जड़-मूल से उठाकरे फेंक दी जातीं। समस्त दकियानूस ताकतों को निर्मूल करना एवं धो बहाना ही तो क्रांति की लहर का एक बड़ा काम माना जाता है। इसी के साथ एक बड़ी बात यह होती कि विदेशी शासकों के स्थान पर जो भी स्वदेशी मालदार तथा पूँजीवादी गद्दीनशीन होते-क्योंकि राष्ट्रीय आजादी की लड़ाई के फलस्वरूप देश के धानियों के ही हाथ में शासन-सत्ता जाया करती है। ऐसे इतिहास बताता है─वे चैन से रह न पाते, उनका शासन दृढ़ नहीं हो पाता, जैसा कि 1917 की क्रांति के बाद रूसी पूँजीपतियों का शासन वहाँ डाँवाडोल ही रहा। फलत: किसान-मजदूरों के एक ही जबर्दस्त धाक्के में उनका सारा शासन-यंत्र चकनाचूर हो जाता और शासन सूत्रा किसानों एवं मजदूरों के हाथ में चला जाता। दूसरे दल ने जो इस संघर्ष और सीधी मुठभेड़ का मार्ग छोड़ा, उसका सीधा परिणाम यही हुआ है कि हम सांप्रदायिक दंगों एवं मुल्क के अंग-भंग के शिकार हो गए। साथ ही, किसान-मजदूरों के हाथ में सत्ता का जाना कठिन हो गया है। उस दल की आँखें खुली हैं और जो कुछ उसने किया है उसका नतीजा यही होगा, यह उसे अविदित था। यह कैसे कहा जाए? संसार का इतिहास तो हमें इसी नतीजे पर पहुँचने को बाध्य करता है कि जानबूझ करे ही यह समझौते का मार्ग उसने अपनाया है और उसके नतीजे के लिए वह पहले से ही तैयार है─वही यही चाहता ही है, बेअदबी माफ हो।
जनता के हाथ में सत्ता सौंपना
कहा जाने लगा है कि कांग्रेस का काम है अब किसानों तथा मजदूरों के हाथ में सत्ता सौंपना। मगर प्रश्न यह है कि वह सत्ता 15 अगस्त को ही क्यों न सौंपी गई? और अगर उसमें कोई दिक्कत थी, तो कौन सी? अगर श्री शंकरेराव देव के कथनानुसार अब आगे चलकर कांग्रेस का लक्ष्य होगा मजदूरों एवं किसानों के हाथ में वही सत्ता सौंपना, तो अब तक क्या दिक्कत थी उसके सौंपने में? आज तो कांग्रेस के सभी चुने-चुनाए, महारथी की गर्वनर के पद से ले करकेंद्र एवं प्रांतों के मंत्रियों की गद्दियों पर आसीन हैं। फिर भी किसान-मजदूरों के हाथ में सत्ता क्यों न आई? क्या वे किसानों के प्रतिनिधि या उनके अपने आदमी नहीं हैं? यदि हाँ, तो जब तक वे रहेंगे और उनकी प्रभुता कांग्रेस पर रहेगी, तब तक किसनों को आशा कैसे हो सकती है कि सत्ता उन्हें मिलेगी? यदि वे लीडर अब तक ऐसा होने न दे सके, तो आगे कैसे होने देंगे? तो क्या वे अब कांग्रेस से हट जाएँगे? यह तो असंभव है। वह तो दूसरों को ही हट जाने को कहते हैं। नहीं-नहीं, जो लोग किसान-मजदूर राज्य की बातें करते हैं,उन्हें कांग्रेस से गर्दनियाँ देने की नोटिस भी वह दे चुके हैं। यदि श्री शंकरेराव को दर्द है कि 15 अगस्त को किसानों के हाथ में सत्ता नहीं सौंपी गई, तो क्या उन्होंने इसका प्रतिवाद किया था? उन्होंने क्यों नहीं साफ-साफ कहा कि भारी अनर्थ हो रहा है कि किसान-मजदूर शासन-सत्ता से वंचित किए जा रहे हैं? उन्हें तो साफ कहना था कि सर्वत्र किसानों और मजदूरों को ही सत्ता सौंपी जाए और लीडर लोग उनका काम संभालने में चौकीदारी तथा सहायता का काम करें और अगर श्रीदेव ने या उनके साथी इन चोटी के लीडरों ने ऐसा नहीं किया, तो आगे उनसे क्या आशा की जा सकती है? लेकिन यदि ये लीडर सचमुच किसान-मजदूरों के ही आदमी हैं और उन्हीं के लिए मरे जाते हैं, तो फिर और बाकी क्या रहा, जिसके लिए कांग्रेस को जारी रखने में जमीन और आसमान को एक किया जा रहा है? लक्ष्य सिध्द हो जाने पर उसकी जरूरत क्या रही?
कहा जाएगा कि किसान और मजदूर सत्ता के योग्य नहीं हैं, उसके लिए अभी तैयार न थे तब सत्ता उन्हें सौंपी जाती कैसे? लेकिन उन्हें तैयार न होने देने के अपराधी भी हैं कौन? ये राष्ट्रीय नेता या दूसरे लोग? दूसरे लोग तो बराबर चिल्लाते थे कि श्रमजीवियों को राजनीतिक चेतना दी जाए, वे तैयार किए जाएँ। लेकिन ऐसा सुन कर ये नेता ही छाती पीटते थे कि ऐसा होने पर सब चौपट होगा! फिर वही नेता आज लोगों को कैसे तैयार करेंगे और क्या यह तैयारी बात-की-बात में ही हो जाएगी? उसके लिए तो युग लगेंगे। तब तक क्या शोषकगण हाथ-पर-हाथ धारे बैठे रहेंगे? क्या वे अपनी तैयारी न करेंगे और बाजी मार न ले जाएँगे? अगर वे रोके जाएँगे तो किस तरह, यह बात बताने के लिए क्या ये लीडर तैयार हैं? जिनने अब तक कांग्रेस कमेटियों, असेंबलियों ओर बोर्डों में शोषकों एवं उनके पिट्ठुओं को जाने से न रोकाप्रत्युत जान-बूझ करे भेजा, वही आज उन्हें रोकेंगे, यह विश्वास कौन करेगा? और जब आज तक किसान-मजदूरों को तैयार न किया गया तो आगे किया जाएगा, यह कौन मानेगा? तैयार करने का प्रोग्राम भी क्या है? वर्ग-चेतना से तो आप लोग भागते हैं। दूसरा रास्ता हुई नहीं। उसमें तो धोखा ही धोखा है। फलत: उनके हाथ में सत्ता सौंपने की बात प्रवंचना मात्र है, क्षमा हो।
शांतिपूर्ण क्रांति ?
कहा जाता है कि भारत में शांतिपूर्ण राजनीतिक क्रांति हो गई( अब उसी प्रकार की सामाजिक क्रांति के लिए कांग्रेस का कायम रहना जरूरी है। परंतु इसी को यदि क्रांति कहें, तो सुधार किसे कहेंगे? जिसमें बातचीत और सुलह-समझौते से काम लिया जाए उसे सुधार कहते हैं, न कि क्रांति। हम इसे शांतिपूर्ण क्रांति तो तब कहते, जब अंग्रेज लोग यकायक इस मुल्क को छोड़के भाग जाते और हमारे नेता आ कर उनकी जगह बैठते तथा काम संभालते। सौदा करने की जब हिम्मत भी अंग्रेजों को न होती और जान ले कर भाग जाते, तो क्रांति की बात कही जा सकती थी। अंग्रेजों का होश-हवाश दुरुस्त न रहता और चुपचाप भाग जाने के अलावे उनके पास रास्ता रही न जाता, तो कहने का मौका आता कि शांतिपूर्ण क्रांति हो गई। मगर यहाँ तो उलटी बात है। वे मौजूद हैं और दो बिल्लियों के बीच बंदर-बाँट करे रहे हैं! फिर भी यह क्रांति है? तब सुधार क्या होगा? याकि दोनों एक ही हैं? यों तो हरेक के पास दिमाग है, हाथ है और कागज, कलम, दवात भी हैं। फिर जो चाहे कह दे, लिख दे और दो-दो को मिला कर पाँच कह दे। उसे कौन रोके? क्रांति तो एक को हटा या मिटा कर सुनसान Vacuum छोड़ जाती है, जिसमें दूसरे आ कर बैठते हैं। उसमें हटने-मिटनेवाले अपने विरोधियों को हाथ पकड़कर बैठाते नहीं। क्रांति के भय से ही तो लड़ने का रास्ता छोड़ा गया। फिर भी उसी का नाम!
उसी क्रांति से बचने के लिए किसान-मजदूर राज्य या साम्यवाद के नाम से भी इन लीडरों को बुखार चढ़ जाता था और बहाने करते थे कि मुल्क में वर्ग-विद्वेष पैदा हो जाएगा। तो क्या अब वह विद्वेष न पैदा होगा? और, क्या सचमुच भारत के जमींदार-मालदार इतने भोले-भाले और भले हैं कि उन्हें अपने वर्ग-स्वार्थ का ज्ञान अब तक था ही नहीं? गाँधी टोपी, गाढ़ी खादी को पहन कर और जेल के भीतर कांग्रेस के नाम पर रह कर भी इन जमींदार-मालदारों ने किसानों और मजदूरों के खून पीने में जरा भी हिचक कभी नहीं दिखाई है। उन्हीं के वोट से असेंबलियों में जा कर भी उनका गला कुंद छुरी से पहले भी काटा है, आज भी काट रहे हैं। अपना वर्ग-स्वार्थ वे बखूबी समझते और तदनुसार ही मुस्तैदी से अमल करते हैं। यह उनका सनातन धर्म है। फिर भी किसानों को जानबूझ कर उसी वर्ग-स्वार्थ की जानकारी जिन लीडरों ने आज तक न होने दी, वही जब शांतिपूर्ण क्रांति एवं सत्ता सौंपने की बात बोलते हैं, तो खून में आग लग जाती है। यदि हमारे लीडर शुरू से ही श्रमजीवी किसानों और मजदूरों को वर्ग-स्वार्थ की जानकारी कराते रहते, तो सचमुच ही आज क्रांति हो गई होती, फिर चाहे वह शांतिपूर्ण ही क्यों न होती, और अंग्रेजों के दुम दबा कर भाग जाने पर उनकी जगह जमींदार-मालदारों की हिम्मत ही न होती कि बैठें। उनके बिठाने के लिए ही तो यह सारा पँवारा रचा गया। तब क्रांति की क्या बात? क्रांति तो सामुद्रिक तूफान की लहर है जो अपने सामने किसी भी मंदिर, मस्जिद, महल, मकान, जंगल, पहाड़ को नहीं छोड़ती और सबों को धो बहाती है। सभी भले-बुरे को, जो सीना ताने खड़ा हो, मिटा देती है।
कांग्रेस एक पार्टी है
कहा जाता है कि अब कांग्रेस को एक राजनीतिक पार्टी के रूप में ही रहना है। उसके भीतर अब विरोधी दलों की गुंजाइश नहीं रही। इतना ही नहीं, कांग्रेस की ओर से ही अब किसान सभा, मजदूर सभा आदि वर्ग-संस्थाओं का भी संगठन होगा! यह कथन उसके प्रधानमंत्री श्री शंकरेराव देव का है। जहाँ महात्मा गाँधी ने अभी-अभी स्पष्ट ही कहा है कि कांग्रेस यदि पार्टी बनेगी, तो आत्महत्या करे लेगी, तहाँ उनके मंत्री का ऐसा फरमाना है। यह भी विचित्र बात है। क्योंकि गाँधी जी और उसके सिध्दांत की दोहाई दे कर ही कांग्रेस को जिंदा रखने की कोशिश की जाती है। दरअसल पहले भी कांग्रेस एक पार्टी ही रही है। मगर खुल के नहीं, छिपे रुस्तम। तब इसी की जरूरत थी। पार्टी कहने से किसान-मजदूर भड़क जाते और अगर वे आते, तो अमीर भाग जाते। लड़ने-मरने का काम तो गरीब ही करते हैं। इसलिए उन्हें कांग्रेस में रखना जरूरी था मगर मालदारों को भी रखना था। आखिर 15 अगस्त का स्वराज्य कौन लेता यदि अमीर न रहते? श्रीयुत देव भी तो मानते ही हैं कि यह अमीरों का ही स्वराज्य है। तभी तो गरीबों को अभी स्वराज्य दिलाना बाकी ही है।
बेशक पहले उस पर नकाब थी, जो अब उतार फेंकी जा रही है। फिर भी कहा जा रहा है कि किसानों और मजदूरों का संगठन कांग्रेस की ओर से ही किया जाएगा। क्यों साहब, कांग्रेस की ओर से क्यों? स्वतंत्र क्यों नहीं? श्री देव कहते हैं कि, 'कांग्रेस में इंडियन नेशनल ट्रेड यूनियन कांग्रेस, किसान कांग्रेस या इसी तरह की कांग्रेस के द्वारा पुनरपि संगठित वर्ग-संस्थाओं के प्रतिनिधि भी लिए जाएँगे, ताकि वह जन-समूह की संस्था रहे।' इसका सीधा अर्थ यही है कि नेशनल ट्रेड यूनियन कांग्रेस और किसान कांग्रेस राष्ट्रीय कांग्रेस की मातहती में हैं─कांग्रेस के द्वारा संगठित हैं, और अगर कदाचित वह कांग्रेस की मातहती से इनकार करें, तो कांग्रेस द्वारा वैसी दूसरी संस्थाएँ बनाई जा सकती हैं। मगर हाल में ही श्री गुलजारी लाल नंदा जी ने इसकी सफाई देते हुए जो पुस्तिक 'आक्षेपों का उत्तर' Criticisms Answered छापी है, उसके चौथे पृष्ठ में लिखा है कि 'नई नेशनल ट्रेड यूनियन कांग्रेस राष्ट्रीय कांग्रेस या किसी भी राजनीतिक संस्था से स्वतंत्र है और रहेगी और उसकी स्वतंत्र हस्ती में कोई फर्क न होगा, वह कांग्रेस का पुछल्ला न बनेगी'-'The new organisation is and will remain independent of the Congress or any other political boby....does not affect the independent status of the organisation or make it an appendage of the National Congress.' अब प्रश्न होता है कि दोनों परस्पर विरोधी बातें कैसे होंगी? कांग्रेस के द्वारा संगठित होने पर उसका पुछल्ला बनना ही होगा। तभी श्री देव का कहना संगत होगा कि 'And in order to keep its mass basis it should include representatives of functional organisations such as I.N.T.U.C. or Kisan Congress or such other organisations re-organised by the Congress for the purpose.' या कि श्रीयुत देव कांग्रेस की ओर से कुछ दूसरी ही और नई वर्ग-संस्थाएँ खड़ी करेंगे और उस काम के लिए नए वर्ग भी ढूँढ़ निकालेंगे?
और, अगर वर्ग-संस्थाओं का स्वतंत्र संगठन करना ही है, तो पहले से संगठितों को ही प्रतिनिधित्व क्यों नहीं दिया जाता? अब आप ऐसा करने चले हैं। लेकिन अब तक कौन सी बाधा थी? यदि पहले से ही यह काम करते रहते, तो क्या आसमान टूट पड़ता? यदि वर्ग-युध्द का खतरा था, तो अब भी है और आप उससे भड़कते हैं। जो लोग अब तक वर्ग-संस्थाओं को फूट आँखों भी नहीं देख सकते थे, वही अब उनका संगठन करेंगे, यह भी निराली बात है। सचमुच संसार परिवर्तनशील है या कि केवल धोखे की टट्टी खड़ी की जाएगी? हम श्रीयुत देव से करबध्द प्रार्थना करेंगे कि यदि हमें वह अपनी किसान संस्था के संगठन का इंचार्ज किसी भी शर्त पर बना दें, तो हम उसके लिए तैयार हैं। केवल हम एक ही आजादी चाहते हैं और वह यह कि कांग्रेसी जमींदारों की जमींदारियों में जाकरे किसान-संगठन करने में कोई रुकावट न हो। तब उन्हें और दुनिया को पता चल जाएगा कि कांग्रेस की ओर से किसानों का संगठन किस प्रकार किया जा सकता है।
मुल्क और कांग्रेस मालदारों के हाथ में
कांग्रेस के कर्णधारों की जो बातें अब तक कही गई हैं, उनसे स्पष्ट है कि कांग्रेस को वे भी मालदारों की संस्था मानते हैं, यद्यपि स्पष्टत: इसे स्वीकार नहीं करते। उसके प्रधानमंत्री का कहना है कि अनेक दलों के बनने से कांग्रेस की ताकत घटेगी। नतीजा यह होगा कि स्थायी स्वार्थवाले पूँजीवादी अपनी संगठित शक्ति को मजबूत बना लेंगे-'The Vested interests will organise and consolidate their position'। लेकिन स्वतंत्र भारतीय सरकार के रेलवे विभाग के मंत्री डा. जॉन मथाई ने इसी अगस्त की 8 वीं तारीख को दिल्ली के रोटरी क्लब में जो भाषण दिया, उसे सही मानें या श्री देव की बात को? वे तो कहते हैं कि 'गत डेढ़ सौ साल के राष्ट्रीय आंदोलनों की प्रगति का दारमदार उस देश के स्थायी स्वार्थवालों के प्रभाव, साहाय्य और साधन-सामग्री पर ही रहता है। ये स्थायी स्वार्थवाले इसे एक प्रकार का व्यापार या पूँजी लगान ही मानते हैं और आंदोलन के दौरान में भी स्वदेशी आदि के प्रचार से लाभ उठाते हैं। लेकिन याद रखने की बात है कि जब इस तरह इनके ऊपर निर्भर रहने से उस आंदोलन को सफलता मिलती और देश आजाद होता है, तो मुल्क उनके चंगुल में पहले से भी ज्यादा फँस जाता है। भारत की यही दशा कुछ हद तक आज है। आजादी के कुछ मानी नहीं हैं, यदि स्थिर स्वार्थवालों का यह चंगुल कम-से-कम ढीला नहीं हो जाता, अगर खत्म न भी हो सके। इसके लिए लंबी मुद्दत तक सख्त और भारी लड़ाई लड़नी होगी। विदेशी सत्ता खत्म हो जाने पर भी राष्ट्रीयता की नकाब के भीतर जो स्वार्थपरायणता है, वह ठोस और निर्दय वस्तु है।'-'If we examine the progress of national movements in any country since the beginning of the 19th century, you will find that a national movement, While it is in progress, is almost inspite of itself, made to depend on the influence, support and resources which it gets from the vested interests of the country.
It is a very good investment for those large organised vested interests, nationalism invariably has an economic side to it and, while being engaged in a national movement, it is possible for vested interests to secure a certain amount of shelter from the competition that comes from foreign interests.
But the point to remember is that when you have established your national movement, when you have been able to achieve success as a result of being dependent to a large extent upon the support of vested interests, when you have achieved that victory, when you have come to the end of the struggle, you find you are more than in the grip of those vested interests on whom you had depended during the period of your struggle.
That to my mind, to some extent, is the stage that we have reached in India today and I think the main part of the task that remains before us today.
If freedom is to find full expression, we should carry our fight forward that the grip that vested interests have been able to establish over our people is loosened if not eliminated. That is going to be a long, hard and strenuous fight.
Although the foreign domination had disappeared or had almost entirely disappeared, the kind of selfishness that lay behind nationalism was a hard and cruel one.'
डा. मथाई ने जो कुछ कहा है, वह ठोस स्थिति का विश्लेषण-मात्र है। वह कोई अपनी निजी बात नहीं कहते हैं। उनने तो इतिहास के अनुभव को संक्षेप में बतला दिया है। उनके शब्दों में न सिर्फ कांग्रेस, प्रत्युत सारा मुल्क आज भारतीय मालदारों के चंगुल में है और जब इस चंगुल को ढीला करने की लड़ाई लंबी, सख्त और थका देनेवाली होगी, ऐसा वे खुद मानते हैं, तो फिर इस चंगुल को खत्म करे देने के लिए लड़ी जानेवाली लड़ाई कितनी भयंकर और खूनी होगी, कौन बताएगा? राष्ट्रीयता के पीछे कितना नीच स्वार्थ और कितनी हृदयहीनता है! फिर भी, इसी राष्ट्रीयता और इसी कांग्रेस के बल पर हमारे पुराने लीडर जनता को देश की सत्ता सौंपने के सुखद स्वप्न देख रहे हैं! मालदारों के हथकंडे के नीचे फली-फूली एवं तगड़ी बनी कांग्रेस उनके हाथ से कैसे निकलेगी? यह तो असंभव है। चाहे चवनियाँ मेंबरी रखिए या खत्म कीजिए, चाहे हजार उपाय कीजिए। मगर उनका हथकंडा हटने के बजाय दिनों दिन मजबूत होगा।
खूबी तो यह है कि उसी कांग्रेस के द्वारा अब वर्ग-संगठनों का पँवारा खड़ा किया जाएगा, धोके की टट्टी खड़ी की जाएगी। जमींदारों और मालदारों के पैसे से पालतू बहाल होंगे और किसान सभा एवं मजदूर सभा के नाम पर नकली संस्थाएँ खड़ी की जाएँगी। किसान सभा के नए स्वयंभू नेता मालदार-जमींदारों की मोटरों पर चढ़ कर उनके पैसे के ही बल पर बुलाईगई किसान मीटिंगों में लेक्चर तो देंगे खासा, किसानों के लिए गला फाड़ेंगे और आँसू भी बहाएँगे मगर काम करेंगे पैसा देने वाले प्रभुओं का ही। यह एक भयंकर जाल तैयार होगा, बड़ा खतरा खड़ा होगा। पहले कांग्रेस की शुध्दि हो लेती और उसके ऊपर से मालदार-जमींदारों का भूत उतर जाता, तो शायद किसान-मजदूर संगठन काम लायक बन सकते। मगर यह भूत तो तभी उतरेगा, जब वर्ग-संस्थाओं का प्रतिनिधित्व कांग्रेस में हो, जब किसान सभा और मजदूर सभा के प्रतिनिधि कांग्रेस में स्वतंत्र रूप से लिए जाएँ और जब उसकी चवनियाँ मेंबरी हटा कर काम करनेवाले किसानों और मजदूरों के बालिग मताधिकार के आधार पर ही कांग्रेस के प्रतिनिधि चुने जाएँ। मगर श्रीयुत देव तो इसी से घबराते हैं। वे तो घोड़े के आगे गाड़ी खड़ी कर के उसे खिंचवाना चाहते हैं! उनकी 'जनतांत्रिक समाजवाद' की आवाज, उसका नारा उनका अपना नहीं है। यह तो उन्हीं मालदारों की आवाज है, जिनका चंगुल कांग्रेस पर कसके जमा है।
अब यह राष्ट्रीयता कैसी ?
राष्ट्रीय कांग्रेस ने अपना काम कर दिया। फलत: उसे निर्वाण-मुक्ति का पूरा हक है। फिर भी, हमारे नेता उसे बरकरार रखना चाहते हैं। मगर इसमें कई अड़चनें हैं, कई खतरे हैं। ब्रिटिश शासन के विरुध्द लड़ने में, गुलामी को उखाड़ फेंकने की बगावत में राष्ट्रीयता अनिवार्य रूप से अपेक्षित थी। सारे राष्ट्र को एक साथ मिल कर लड़ना जो था। समूचे राष्ट्र को गुलामी की कोढ़ मिटानी जो थी। आजाद सभी होना चाहते थे, चाहे सभी वर्गों के अपने-अपने दृष्टिकोण इस मामले में अलग भले ही थे। आजादी का ख्याल हर एक वर्ग का जुदा-जुदा था कि वह कैसी होगी और उसमें हमारे हक क्या होंगे। मगर गुलामी के खिलाफ लड़ना सभी चाहते थे, सबों को मिल कर लड़ने की जरूरत थी। इसलिए राष्ट्रीयता का भूत सबों पर सवार होना अनिवार्य था। परस्पर विरोधी वर्गों का कंधो-से-कंधो भिड़ा कर लड़ना दूसरे रूप में असंभव था। दूसरी शक्ति इन्हें मिला नहीं सकती थी, एक सूत्र में बाँध नहीं सकती थी।
जहाँ इस राष्ट्रीयता से यह फायदा था, तहाँ हानि भी कम न थी। किसान-जमींदार आदि परस्पर विरोधी वर्गों के स्वार्थ-विरोध की स्पष्टता नहीं हो पाती थी। वह विरोध धूमिल और कमजोर नजर आता था। कभी-कभी तो वह लापता-सा हो जाता था। उस पर एक गहरा पर्दा पड़ा जाता था। चूहे और बिल्ली में या बाघ और बकरी में जो वर्ग-द्वेष है, जो स्पष्ट विरोध है, वह सदा स्पष्ट रहता है। कभी धूमिल या अस्पष्ट नहीं होता। मगर ऐसी हालत यहाँ नहीं होती। बाघ कितनी ही कंठी-माला पहने, टीका-चंदन लगाए, ध्यान धारे और खादी पहने, फिर भी बकरी उस पर विश्वास नहीं करती। उसके निकट नहीं जाती। लेकिन खादीधारी एवं जेलयात्री जमींदारों पर किसान का विश्वास हो जाता है कि वह उसकी भलाई करेंगे यह ठोस बात है और इसका एक बड़ा कारण राष्ट्रीयता है। बाघ और बकरी एक साथ मिल कर किसी से लड़ते नहीं । वे एक सभा में बैठ कर प्रस्ताव भी नहीं करते और न लेक्चर देते हैं। मगर कांग्रेस में ये बातें होती हैं। वहाँ जाकरे किसान और जमींदार दोनों ही ये बातें करते हैं ओर यह होता है राष्ट्रीयता के करते। जब तक यह रहती है, वर्ग-विद्वेष और वर्ग-संघर्ष के आधार पर बने आर्थिक प्रोग्राम चलने नहीं पाते। उनमें बाधा पड़ती है। आजादी की लड़ाई छिड़ी कि किसान-जमींदार के बीच चलनेवाला बकाश्त संघर्ष खत्म हुआ, बंद हुआ। उसे बंद करना ही पड़ता था। इसीलिए विवेकी जन सदा कहते आए हैं कि आर्थिक दृष्टि से होनेवाली मोर्चेबंदी के लिए यह राष्ट्रीयता महान अभिशाप है। फलत: आजादी प्राप्त कर के इस राष्ट्रीयता को मार डालने में ही, खत्म करने में ही शोषित-पीड़ित जनता का त्राण है, उद्धार है, कल्याण है।
लेकिन राष्ट्रीय नेताउसी राष्ट्रीयता को कायम रखने में आकाश-पाताल एक करे रहे हैं! इस 'मौर्फिया' को, मोहक मंत्र और जादू को बनाए रखने की कोशिशें भरपूर हो रही हैं। एक ओर डॉक्टर मथाई इस राष्ट्रीयता के सूत्र में लोगों को बाँध रख कर ही लोगों की गरीबी, बीमारी आदि के विरुध्द जेहाद बोलना चाहते हैं। दूसरी ओर, कांग्रेस के प्रधानमंत्री राष्ट्रीय कांग्रेस के अभाव में अराजकता, अंधेरखाता और विशृंखलता का भूत देखते हुए इसी राष्ट्रीयता की शरण लेना और इसे दीर्घ जीवन-दान देना चाहते हैं, जिला रखना चाहते हैं।
मगर जब राष्ट्र के भीतर ही शोषकों के विरुध्द शोषितों को युध्द-घोषणा कर के खून की नदी पार करनी है, तो यहाँ राष्ट्रीयता का अवसर कहाँ? उसकी गुंजाइश कहाँ है? राष्ट्र के भीतर तो शोषक एवं शोषित दोनों ही आ जाते हैं। ऐसी हालत में आमने-सामने लड़नेवाली सेना का वर्गीकरण राष्ट्रीयता के आधार पर कैसे होगा? राष्ट्रीय कांग्रेस शोषकों की न हो कर केवल शोषितों की कैसे होगी? शोषकों की जो छाप कांग्रेस पर लगी है। वह उतरेगी कैसे? मिटेगी कैसे? या कि राष्ट्रीय कांग्रेस के लिए जो जनसाधारण के दिलों में सत्कार-सम्मान है, उससे अनुचित लाभ उठाने की तैयारी मात्र यह है? लोगों को फाँसकर और बड़ी-बड़ी आशायें दिला कर कांग्रेस के साथ रखने की कोशिश के अलावे यह और कुछ नहीं है। उचित तो था कि सरकार के समर्थकों की एक नई पार्टी बनती। या यों कहिए कि मालदारों की पार्टी बनती और अपना आर्थिक या समाज-सुधार का कार्यक्रम लोगों के सामने रखती, जिसके आधार पर इसकी परीक्षा जनता करती। मगर ऐसा होने में जनता के भड़क जाने का भारी खतरा है। इसीलिए कांग्रेस को ही जिला रखने का भगीरथ प्रयत्न हो रहा है। किसान की भाषा में कह सकते हैं कि जो कांग्रेस आजतक तगड़े बैल के रूप में मौजूद थी, ऐसे बैल के रूप में, जिससे हल खींचने, गाड़ी चलाने और बोझा ढोने का काम लिया जा सकता था─उसे ही आज नांदिया या बसहा बैल के रूप में, रखने की कोशिश हो रही है और होगी। पहला काम तो इसके लिए असंभव है। अब तो यही कहा जाएगा कि यह मान्य है, पूज्य है इसके सामने सर झुकाओ और इसे कुछ दो-वोट दो, चंदा दो। कांग्रेस के नाम पर चुनावों में वोट माँगना और समय-समय पर चंदे माँगना यही दो काम इसका रह जाएगा। लड़ने या और कोई ठोस काम तो इससे अब किसान-मजदूर आदि ले न सकेंगे। यह बात असंभव है।
कांग्रेस को खत्म होना चाहिए
कुछ समय पूर्व-राष्ट्रपति के आसन पर आसीन होने के पहले-आचार्य कृपलानी ने एक लेखमाला तैयार की थी, जो अंग्रेजी अखबारों में छपी थी और जिसके अनुवाद भी छपे थे। अगर मेरी समझ मुझे धोखा नहीं दे रही है, तो उनने स्वीकार किया था कि आजादी मिलने के बाद कांग्रेस की जरूरत न रहेगी। मगर आज तो वह भी यह बात शायद नहीं मानते और उसे कायम रखना चाहते हैं। उनने तो यह भी माना था कि कांग्रेस के द्वारा समाजवाद की स्थापना नहीं की जा सकती। यह हैं उनके शब्द, 'For all these reasons the congress cannot be an organisation for the estableshment of socialism, not atleast till Purna Swaraj is attained. And afterwords the Congress as Congress that is as an organisation that works and fights for Indian national independence ceases to exist. The old name may be appropriated by a reforming or reactonary or neutral group, but, it will not be the congress whose goal is complete independence of India or Purna Swaraj, for the simplereason that has been achieved already.'
इसका आशय यह है कि 'इन्हीं कारणों से समाजवाद की स्थापना करनेवाली संस्था कांग्रेस नहीं हो सकती, कम-से-कम पूर्ण स्वराज्य की स्थापना तक तो यह नहीं ही हो सकती। और, उसके बाद तो यह कांग्रेस कांग्रेस के रूप में या यों कहिए कि उस संस्था के रूप में, जो भारत की राष्ट्रीय आजादी के लिए लड़ती है, रही न जाएगी, खत्म हो जाएगी। कोई सुधारवादी, प्रतिक्रियावादी या उदासीन दल कांग्रेस के इस नाम का उपयोग भले ही कर ले। लेकिन यह वह कांग्रेस हर्गिज न होगी, जिसका लक्ष्य है भारत की पूर्ण स्वतंत्रत या पूर्ण स्वराज्य और इसका सीधा कारण यही है कि वह लक्ष्य तो हासिल होई गया है।'
यहाँ आचार्य कृपलानी तीन बातें कहते हैं। पहली यह कि कांग्रेस के जरिए समाजवाद की स्थापना नहीं हो सकती कम-से-कम पूर्ण स्वराज्य की प्राप्ति तक तो नहीं ही। दूसरी यह कि उसके बाद कांग्रेस रही न जाएगी, खत्म हो जाएगी। तीसरी यह कि केवल सुधारवादी या प्रतिक्रियावादी ही दल कांग्रेस के नाम का उपयोग पूर्ण स्वराज्य-प्राप्ति के बाद भी करना चाहेंगे, न कि क्रांतिकारी। इनमें पहली बात में जो अंत में यह पंख लगा दिया है कि कम-से-कम स्वराज्य प्राप्ति तक तो नहीं ही, वह उनका निजी मत नहीं है। क्योंकि उसके बाद तो वह कांग्रेस की निर्वाणमुक्ति या उसका खात्मा मानते हैं। फलत: वह कहना केवल उन लोगों की दृष्टि से है, जो कांग्रेस को बाद में भी ठीक उसी तरह घसीटे फिरना या उससे चिपके रहना चाहते हैं, जैसे बंदरिया अपने मरे बच्चे के साथ चिपकी रहती है और उसे छोड़ती नहीं।
अब हमारा सीधा सवाल उन लोगों से है जो कांग्रेस के द्वारा ही जनतांत्रिक समाजवाद की स्थापना चाहते हैं, कि पूर्ण स्वराज्य गत 15 अगस्त को मिला या नहीं? यदि मिल गया, तो अपनी लक्ष्य सिध्दि के बाद कांग्रेस खत्म हो गई, मुक्त हो गई, जैसा कि राष्ट्रपति ने खुद माना है। और अगर वह नहीं मिला और उसकी स्थापना अभी बाकी ही है तो, उन्हीं के शब्दों में समाजवाद की स्थापना कांग्रेस के द्वारा तब तक नहीं हो सकती जब तक पूर्ण स्वराज्य स्थापित न हो ले। फलत: समाजवाद के रूप में कांग्रेस के लक्ष्य को बदल कर जो उसे आगे भी घसीटना और साथ ही क्रांतिकारी कहलाना चाहते हैं ऐसे लोग अपने भीतर ही पहले खुद तो निपट लें। यदि उसके प्रधानमंत्री श्री शंकरराव जी ऐसा चाहते हैं, तो राष्ट्रपति साफ कहते हैं कि नहीं-नहीं, यह तो असंभव है। आजादी मिलने के बाद तो कांग्रेस प्रतिगामी, प्रतिक्रियावादी और दकियानूसों की ही जमात हो सकती है, न कि क्रांतिकारियों की। यह तो केवल एक ही काम में क्रांतिकारी रह सकती है, क्रांतिकारियों की जमात रह सकती है, और वह है राष्ट्रीय आजादी की लड़ाई, जिसमें सारा राष्ट्र लड़ता है। यही बात राष्ट्रपति उसी लेख में यों कहते हैं, 'It can afford revolutionary action only on one front and that is the notional front.'
जो लोग अब कांग्रेस के द्वारा ही समाजवाद की स्थापना का सब्जबाग दिखा कर जनता को फाँसना चाहते हैं, उन्हें आचार्य कृपलानी की स्पष्टोक्तियों को गौर से विचारना और अपना विचार बदलना उचित है। यदि वे कोई और ही कांग्रेस बना कर उसके जरिए यह काम करना चाहें, तो बात दूसरी है। मगर गत 62 साल से जिस कांग्रेस ने आजादी का संघर्ष चलाया है, यदि उसी से उनका मतलब है, तो वे भूलते हैं, बेअदबी माफ हो। घरेलू मामले में उसने निरंतर वर्ग-सामंजस्य का पाठ पढ़ा है और सदा सुधारवादी रही है। वही अब बुढ़ापे में वर्ग-विद्वेष और क्रांति का पाठ इसी मामले में पढ़ेगी, यह असंभव है। बूढ़े तोते को रामनाम नहीं पढ़ाया जा सकता।
अच्छा, तो अब उसी लेखमाला में से कृपलानीजी के कुछ वचनों को सुनें। ये वचन यद्यपि उस बड़े लेख में जगह-जगह से लिए गए हैं, फिर भी इनका आशय गड़बड़ होने नहीं पाया है। वे यों हैं, 'The national movement must ever be anxious to eliminate internal conflicts and achieve unity of purpose. A national movement has, therefore, to strike a middle path. In removing internal injustices, whatever its theoretical beliefs and predilections, it must content itself with reformatory activity. Again, the origin and evolution of the Congress precludes it from being a purely class organisation. Socialism is based upon class antagonism, if not class hatred and class war. A national organisation is fundamentally bases upon class collaboration. An organisation working for the establishment of socialism cannot include as its members zamindars, capitalists and what are generally called bourgeois classes. In the present context an organisation for the establishment of socialism can only be a sectional organisation.'
अभिप्राय यह है कि 'राष्ट्रीय आंदोलन सदा फिक्रमंद रहता है कि देश के भीतर संघर्ष होने न पाए और सभी लोगों की दृष्टि एक ही चीज आजादी पर हो। इसीलिए उसे मध्यमार्ग या वर्ग-समन्वय का रास्ता अपनाना होता है। चाहे उसके सैध्दांतिक विचार और झुकाव कुछ भी क्यों न हों, फिर भी मुल्क के भीतरी संघर्षों को मिटाने के लिए उसे सुधारवादी मार्ग का ही अनुसरण करना पड़ता है। कांग्रेस की उत्पत्ति तथा विकास भी इसे किसी वर्ग-विशेष की संस्था होने में बाधक हैं। समाजवाद का आधार यदि वर्ग-युध्द एवं वर्गों की पारस्परिक घृणा न भी हो, तो उनके स्वार्थों का परस्पर विरोध तो उसका आधार हुई। राष्ट्रीय संस्था का आधार बुनियादी तौर पर वर्गों का पारस्परिक सामंजस्य ही है। समाजवाद की स्थापना के लिए प्रयत्नशील संस्था जमींदारों, पूँजीवादियों और आमतौर से 'बुर्जुवा' नामधारियों को अपने मेंबर नहीं बना सकती। वर्तमान दशा में समाजवाद की स्थापना के लिए उद्योगशील संस्था राष्ट्रीय न हो कर सिर्फ वर्ग-विशेष की ही हो सकती है।'
जो लोग सचमुच विश्वास रखते हैं कि राष्ट्रीय कांग्रेस को क्रांतिकारी जमात और समाजवाद की स्थापना का यंत्र बना लिया जा सकता है, उनके लिए भी ऊपर लिखे वचनों में काफी मसाला है, जिससे वे अपनी भूल सुधार सकते हैं। आजादी मिलने के बाद राष्ट्रीय संस्था प्रतिगामी बन जाती है, ऐसा मानने के लिए बुनियादी बातें ऊपर लिखी गई हैं। एक तो कांग्रेस का जन्मजात आधार ही इस बात का विरोधी है। तुर्रा यह कि बराबर 62 वर्षों तक वही कायम रह के अभ्यस्त हो गया है, उसके रग-रग में प्रविष्ट कर गया है। फलत: वह बदला नहीं जा सकता। जो लोग उसे बदलने का यत्न करेंगे वे खुद बदल दिए जाएँगे, अब ऐसी ताकत उसमें आ गई है। इसीलिए 'तजहु आस निज-निज गृह जाहू'। यह तो दरिया की धारा है, जिसके अनुकूल ही बवंडर भी बह रहा है। फिर भी उसके प्रतिकूल जाने का यत्न अपने आपको डुबाने के लिए दुस्साहस-मात्र है। इतना ही नहीं जनसाधारण में ऐसा विश्वास पैदा कर के उनके लिए इस प्रकार भविष्य में भारी खतरा भी खड़ा करे दिया जाएगा, जिसमें वे आसानी से जा फँसेंगे। लगातार एक बड़ी मुद्दत तक कांग्रेस को मानने-जानने का जादू तो जनसाधारण पर चढ़ा ही है। उन्हें विश्वास भी है कि अब उनके ही हाथ में सत्ता आ जाएगी। जनता भोली-भाली होती जो है। हमारा तो फर्ज है कि उस जनता के ऊपर से यह जादू हटाएँ और बताएँ कि यह विश्वास निराधार है, धोखा है, खतरनाक है। न कि उसे और भी मजबूत करे दें और इस प्रकार नया जादू चढ़ने का मौका दें। आज हमारी ताकत इस वस्तुस्थिति के स्पष्टी करण और नवीन मार्ग के निधर्रण में लगनी चाहिए, न कि इस भूलभुलैया को कायम रखने एवं स्थायी बनाने में। यह तो जनता के प्रति-किसानों एवं मजदूरों के प्रति-भारी विश्वासघात होगा, उन्हें ले डूबने की तैयारी होगी। इससे प्रतिगामियों को बड़ी ताकत मिलेगी।
लक्ष्य सिध्दि अपूर्ण या पूर्ण ?
कांग्रेस को कायम रखने के पक्षपाती कहते हैं कि उसका लक्ष्य पूर्ण स्वराज्य अभी कहाँ स्थापित हुआ? अभी तो सिर्फ गुलामी हटी है। असली स्वराज्य तो लाना बाकी ही है। कांग्रेस की लड़ाई के लक्ष्य के दो पहलू थे─गुलामी हटाना और जनता के हाथ में सत्ता सौंपना। इनमें एक पूरा हुआ। दूसरा तो बाकी ही है। फलत: उसके लिए कांग्रेस का रहना जरूरी है। उनका यह भी कथन है कि भारत दो भागों में विभक्त हो गया है, गो आजाद हुआ है। परंतु हमारा लक्ष्य तो अखंड भारत United India था। फलत: उसे प्राप्त करने के लिए भी कांग्रेस का रहना जरूरी है।
लेकिन इसका उत्तर एक प्रकार से पहले ही दे चुके हैं। 15 अगस्त को केवल गुलामी ही हटी थी, या सत्ता भी सौंपी गई थी? सौंपी तो गई थी जरूर। हथियायी गई थी जरूर तो फिर जनता को ही क्यों न अवसर दिया गया कि वही वह सत्ता हथिया ले? इसमें बाधा क्या थी? और अगर कोई बाधा थी तो वह आप ही लोगों की─नेताओं की─ही पैदा की हुई थी न? दूसरे तो थे नहीं। आप ही ने जनता को आगे आने से रोका। आप ही ने अप्रत्यक्ष चुनाव के जरिए विधान-परिषद बनाई-बनवायी, जिससे वास्तविक जनता कोसों दूर रहे, दूर है। फिर भी यदि नेता चाहते तो विधान परिषद के सदस्य टोपी-टोपवाले बाबू न चुने जा करे धोत्ती-लंगोटी धारी किसान-मजदूर ही चुने जा सकते थे। ऐसा होना कोई कठिन बात न थी। मगर ऐसा होने न दिया गया जानबूझ कर ही। बाबुओं को लीडर, मिनिस्टर, गवर्नर, दूत, एलची आदि खुद बनना जो था, अपने दोस्त-अहबाबों को बनाना जो था। नहीं तो कांग्रेस के भीतर ही बगावत जो हो जाती। क्या यह झूठ है? क्या सभी लीडरों और उनके भाई-बंधुओं को अपनी शान और अपने स्वराज्य की धान न थी? क्या उन पर इसका भूत सवार न था? फिर भी उन्हीं के बल पर ही, उन्हीं से बनी कांग्रेस के बल पर ही, उसी कांग्रेस के बल पर, जिसे जब चाहें ये बाबू लात मार दें, जनता को सत्ता सौंपने की बात क्या धोखे से भरी नहीं है? खतरनाक नहीं है? क्या 15 अगस्त को जनता के हाथ में सत्ता सौंपने का मुहूर्त ही न था जो पीछे आएगा? लंगोटी-धोती धारियों को उस दिन गद्दीनशीन कर के यदि ये नेता उनके सच्चे और ईमानदार सलाहकार बनने से ही संतुष्ट हो जाते तो सबकुछ ठीक हो जाता और अगर ऐसा न किया तो आगे भी न करेंगे यह ध्रुव सत्य है। अपने तथा अपनों के स्वार्थ के लिए अब कांग्रेस को कीचड़ में घसीटना तथा उसे नाहक बदनाम करना अच्छा नहीं। उसने शान से अपना काम कर दिया। अब शान से ही उसे मर जाने दीजिए और साफ-साफ बाबुओं की एक अलग पार्टी बना लीजिए। यकीन रखिए, जनता उसके भावी कारनामों से ही उसे अपनी या पराए की मानेगी। जिन किसान-मजदूरों ने आपको तख्त पर बिठाया उन्हें आगे गुमराह करना उचित नहीं। यह तो बुरी एहसान-फारमोशी होगी।
अधुरे लक्ष्य की बात तो यों ही है। आजादी का अर्थ ही माना जाता रहा है विदेशी शासन से छुटकारा। दूसरा अर्थ उसका रहा है नहीं, यही ईमानदारी की बात है। जब-जब यत्न किया गया कि आजादी या स्वराज्य का विधानात्मक पहलू क्या है, उसे स्पष्ट करे देना चाहिए, तब-तब छाती पीटी गई और हाय-तोबा मची कि ऐसा करने से आजादी की लड़ाई कमजोर हो जाएगी। आज उसका अर्थ बताया जाता है जनता को सत्ता सौंपना, जबकि मालदारों के हाथ में सत्ता जा चुकी है। भारत के मालदार क्या गधो हैं कि यही बात बहुत पहले स्पष्ट कह देने से वे भड़क जाते? वे तो जानते ही थे कि सत्ता किसे मिलती है। अगर लीडरों की नीयत यही रहती कि सत्ता मालदारों को ही मिले, तो सिर्फ इतना कह देने से ही कि जनता को मिलेगी, भारतीय पूँजीपति कभी बुरा न मानते। वह तो ऐसा कहने को नेताओं की निरी चाल समझ कर खामोश रह जाते। वे खूब जानते थे और जानते हैं कि कह देने मात्र से सत्ता नहीं मिलती। उसे अपनाने के लिए जनता को तैयार करना जरूरी है और वही बात नहीं की गई। जो जनता तैयार न हो, जिसे वर्ग-चेतनामूलक राजनीति का पूरा ज्ञान न हो, उससे तो सत्ता कभी भी छीनी जा सकती है। फलत: असल काम है तैयार करना और जनता को सत्ता देंगे ऐसा कहने पर उसी तैयारी की मजबूरी हमारे नेताओं को हो जाती। फलत: उनने कहना ही रोक दिया। न कह के भी वे तैयारी में लग सकते थे। कम-से-कम उनके रास्ते में बाधक न होते जो एतदर्थ जनता को तैयार करे रहे थे। मगर उनने कुछ न किया। प्रत्युत हजार बाधाएँ डालीं और आज मालदारों के हाथ में सत्ता एवं कांग्रेस दोनों ही को सौंप कर जनता को तैयार करने के मंसूबे बाँधे जाने लगे हैं─उसके सब्जबाग दिखाए जा रहे हैं! 'मसीहाई को रख छोड़ें हमें बीमार रहने दें,' हमारा इतना ही निवेदन है। उनने सदा यही माना है कि कांग्रेस का काम है, उसका लक्ष्य है विदेशी शासन को खत्म कर देना। अब तक का लीडरों का रवैया, उनके लेख और भाषण और आचार्य कृपलानी की लेखमाला जिसका जिक्र पहले आया है इसी बात के पोषक हैं। कांग्रेस का लक्ष्य था केवल नकारात्मक, निषेधात्मक-गुलामी को खत्म करना और वह पूरा हो गया 15 अगस्त को ही। तब लक्ष्य के अपूर्ण रहने का क्या प्रश्न?
रह गई संयुक्त या अखंड भारत की बात। सो तो अजीब है। जिन लोगों ने इस अंग-भंग की स्वयमेव अनुमति दी वही अब छाती पीटें और दोनों भागों को फिर से मिलाने के लिए कसमें खायें और मुहलत माँगें तो कुछ जँचता नहीं या कि उस पर मुहर केवल इसीलिए लगाईगई कि पीछे उसी के बहाने कांग्रेस और उसके द्वारा अपनी लीडरी बरकरार रखने का मौका मिलेगा? यही अवसर माँगने के लिए ही तो ऐसा नहीं किया गया था? इतिहास इस बात का साक्षी है कि किसी मुल्क के जो भाग राजनीतिक दाँव-पेंच में पड़ कर अलग हुए वह फिर नहीं मिलते, जब तक पूरा बलप्रयोग न किया जाए। जर्मनी के प्रशिया और रूमानिया के बेसराबिया का इतिहास बताता है कि विस्मार्क या स्टालिन या ऐसे ही लोगों की आसुरी शक्ति ने फिर से बिछुड़ों को एकत्र किया। पोलैंड के कई भागों की भी यही बात है तथ दूसरे देशों की भी। आयरलैंड का अल्स्टर आज 25 साल से बिछुड़ा ही है और बिना बलप्रयोग के मिस्टर डीवेलरा या कोई भी उसे मिला न सकेगा। तो क्या हमारे नेता ऐसा करने को तैयार हैं? फिर गाँधी जी का नाम कैसे लेंगे? भारत के कटे अंग को जोड़ने की उनकी आशा चाहे पवित्र भले ही हो, मगर है वह दुराशा-मात्र। जिस कांग्रेस ने अलग होने की स्वीकृति दी, वही अब पुनरपि मिलन कराएगी, यह अक्ल के बाहर की बात है। यदि यही था तो स्वीकृति ही क्यों दी? यदि लाचार हो कर ही, तो वह लाचारी और बढ़ेगी या मिटेगी?
कांग्रेस की सरकार मजबूत होगी
श्रीयुत देव कहते हैं कि 'भारतीय इतिहास के इस अत्यंत नाजुक वक्त पर इस मुल्क को एक ऐसी बड़ी राजनीतिक पार्टी की जरूरत है जो धीरे-धीरे शांतिपूर्ण सर्वांगीण राजनीतिक, आर्थिक तथा सामाजिक प्रगति कराने में समर्थ हो, जो इतनी विस्तृत हो कि एक जबर्दस्त सरकार को कायम रख सके और संगठन में ऐसी जबर्दस्त हो कि अपना असर जनता पर कायम रख सके, और यह काम सिर्फ कांग्रेस ही कर सकती है'-'Besides, at this critical period in her history India required for its gradual and orderly political, social and economic all round progress, one big political party, large enough to guarantee stable government and strong enough organiastionally to maintain its hold and influence over the people. The Congress alone could answer all the requirements.'
लेकिन सवाल यह है कि ये सब बातें इसीलिए जरूरी हैं कि किसान-मजदूरों के हाथ में सत्ता जाए और वे सुखी-संपन्न हों। तो क्या कांग्रेस यह करे सकेगी? अभी-अभी तो बता चुके हैं कि उसके लिए यह असंभव है। अंग्रेजी शासन भी खूब संगठित और मजबूत था और ये सभी बातें अपने ढंग से करवा सकता था। मगर हमने उसे उठा फेंका। क्यों? इसीलिए न, कि ये बातें हम अपने ढंग से करना चाहते थे, न कि शासकों के ढंग से? ठीक वही बात फिर भी लागू है। किसान-मजदूरों के ढंग से और उनकी मर्जी के मुताबिक आर्थिक, सामाजिक एवं राजनीतिक प्रगति कराने में कांग्रेस असमर्थ है। फलत: मजबूत सरकार बनाने या शांतिपूर्ण प्रगति का प्रलोभन बेकार है। जो बात हम अंग्रेजों से कहते थे कि तुम्हारे शासन की अपेक्षा हम अराजकता को पसंद करेंगे वही बात कांग्रेस लीडरों से भी क्यों न कहें जब कि हमारी आकांक्षाओं की पूर्ति कांग्रेस से संभव नहीं, जैसा कि बता चुके हैं?
कांग्रेस बदल जाएगी ?
कहा जाता है कि 'कांग्रेस ने अपने जीवन के इतिहास में सिध्द कर दिया है कि बदलते हुए समय की जरूरत के अनुसार ही वह अपना कायाकल्प कर लेती है, अपने को ढाल लेती है। उसके सामने एक ताजा ऐतिहासिक काम आया है जिसे उसे लगातार पूरा करना ही होगा बिना विराम के ही।' 'The Congress has proved its capacity to adapt itself to the needs of the changing times. A fresh historic task has to be taken up without any break in the continuity of the life of the congress."
लेकिन यहाँ भी कांग्रेस के इतिहास का या तो केवल तोड़-मरोड़ किया गया है, या उसकी बुनियादी बातें समझने में भूल की गई है। दुनिया की हर चीजें और हर संस्थाएँ कमबेश बदलती और अपने को नए साँचे में ढालती भी हैं, मगर सबों की एक मर्यादा होती है जिसके आगे वे इस मामले में जा नहीं सकती हैं। कांग्रेस की भी यही बात है। वह इस नियम का अपवाद नहीं हो सकती। कही चुके हैं कि कांग्रेस केवल आजादी के संग्राम में ही क्रांतिकारी बन सकती थी। मगर श्रीयुत देव देश के भीतरी काम, घरेलू काम में भी इसे क्रांतिकारी रखना और उसका पुराना स्वभाव बदलना चाहते हैं, जो असंभव है। उनकी रचनात्मक क्रांतिConstructive revolution केवल विदेशियों के हटाने में भले ही समर्थ हुई, वहीं उसकी गुंजाइश रही हो। लेकिन मुल्क के भीतर आर्थिक या सामाजिक मामलों में कांग्रेस के द्वारा वह असंभव है। ऐसा करने पर वह राष्ट्रीय कांग्रेस रहेगी ही नहीं। लेकिन उनके जवाब में हम आचार्य कृपलानी जी की लेखमाला को ही उध्दृत कर देना उचित समझते हैं। वह कहते हैं, 'It is true that the Congress has changed its from and shape often enough. It changed them after the leadership of Gandhiji. But the changes brought about under his leadership were comparatively conservative and in keeping with its natural evolution and its traditions. Even the non-violence of Gandhiji was in keeping with the traditions of the Congress. From constitutional agitation to non-violent direct action was not a sudden revolution, but an evolutionary revolution that did not change the nature of the Congress as a national organisation. But supposing Gandhiji had changed the Congress to violent and military organisation, such a change would have been too revolutionary for the very safety and existence of the Congress as an open mass organisation. It would not have been in keeping with its origin, history, tradition and direction of growth. In the language of religion this would not have been its Swa-Dharma, but Para-Dharma, in which it would have perished.'
इसका भाव यह है कि 'बेशक कांग्रेस ने अपना आकार-प्रकार अकसर बदला है। यह बात गाँधी जी के नेतृत्व के समय भी हुई। लेकिन उनके नेतृत्व में इसमें जो भी परिवर्तन हुए वे अपेक्षाकृत पुराने ढर्रे के ही थे जो इसके स्वाभाविक विकास एवं परंपरा के अनुकूल ही थे। यहाँ तक कि गाँधीजी की अहिंसा भी उसकी प्राचीन परंपरा के अनुसार ही थी। वैधानिक आंदोलन तो अहिंसात्मक ही होता है। उसे बदल कर अहिंसात्मक सीधी लड़ाई के रूप में ला देना कोई यकायक क्रांति न हो कर विकासात्मक क्रांति ही थी जिसने कांग्रेस के राष्ट्रीय संस्थात्मक रूप और स्वभाव को नहीं बदला। लेकिन यदि गाँधी जी उसे हिंसात्मक फौजी संस्था बना देते तो यह बात कांग्रेस की प्रत्यक्ष जन-समूह की संस्था के रूप में होनेवाली सत्ता एवं उसकी रक्षा के लिए भयंकर क्रांतिकारी सिध्द हो जाती। कांग्रेस की उत्पत्ति, इतिहास, परंपरा और विकास के विपरीत यह बात जा पड़ती। धार्मिक भाषा में यह 'स्वधर्म' न हो कर'परधर्म' हो जाता जिसके चलते वह खत्म हो जाती।' लेकिन श्रीयुत देव उसका स्वभाव ही बदल देना चाहते हैं। फिर भी इसे स्वाभाविक कहते हैं।
कांग्रेस का झंडा ही न रहा
और जब कांग्रेस का अपना झंडा भी जाता रहा, उसका त्याग कर दिया गया तो फिर वह जिंदा रहेगी क्यों कर? उस पर से चर्खे का चिद्द हट कर चक्र का बन गया। कांग्रेसी झंडे के सामने मुस्लिम लीगवाले कभी न झुके। मगर इसके सामने झुके, इसका आदर किया। इस थोड़े से परिवर्तन के फलस्वरूप वह झंडा बदल गया। पाकिस्तान में भी लीगी झंडे में जरा-सा परिवर्तन कर के ऐलान कर दिया गया कि यह सरकार का, राष्ट्र का झंडा है, न कि लीग का। वही बात यहाँ भी हो गई। यह सरकारी झंडा हो गया। कांग्रेस का निजी झंडा कोई न रहा। फिर श्रीयुत देव के शब्दों में सामाजिक क्रांतिSocial revolution वह किस झंडे के नीचे करेगी? क्या सरकारी झंडे के ही नीचे? तो क्या सरकार इसे होने देगी? क्या वह इसे बर्दाश्त भी कर सकती है? क्या भारत सरकार यह ऐलान करेगी कि वह जनतांत्रिक समाजवाद की स्थापना के लिए क्रांति करना चाहती है? और क्या कांग्रेस और सरकार एक ही है?
तबतो बला होगी और लोगों के गुस्से का ठिकाना न रहेगा। आज अन्न, वस्त्र, नमक, तेल, दवादारू, लोहालक्कड़ के लाले पड़े हैं और जनसाधारण की वेदना का अंत नहीं है। घूसखोरी और चोरबाजारी से नाकोदम है। पुलिस की मनमानी घरजानी आसमान छू रही है! खून-खराबी, लूट-पाट जारी है। तो क्या इन सभी बातों के लिए जनता अपना क्रोध कांग्रेस पर ही निकाले? मगर उस दशा में कांग्रेस सामाजिक क्रांति करने के बजाय आत्महत्या कर लेगी, उसे मर जाना होगा, उसका साथ देने को कोई तैयार न होगा! और अगर दोनों एक ही हैं तो कई प्रांतों में प्रधानमंत्रियो के साथ कांग्रेस के अधयक्षों की तनातनी क्यों चलती है? यदि प्रधानमंत्री झंडे की सलामी लेना चाहता है तो प्रांतीय कांग्रेस के सभापति क्यों बुरा मानते और खुद सलामी लेने को दौड़ पड़ते हैं? इसी तरह की सैकड़ों बातें चिल्ला-चिल्ला के बताती हैं कि कांग्रेस और सरकार दो संस्थाएँ हैं। इसीलिए कांग्रेस चाहती है, जैसा कि श्री देव कहते हैं, कि सरकार जो अपनी, किसान-मजदूरों की नहीं है उनकी बन जाए। मगर झंडे के अभाव में उनकी चाह केवल पवित्र इच्छा मात्र है। वह कुछ कर नहीं सकती।
आर्थिक राजनीति और राजनीतिक अर्थनीति
तो क्या इस दिमागी कसरत और माथापच्ची के फलस्वरूप दक्षिणपंथी नेता लोग कांग्रेस को बख्श देंगे और आर्थिक कार्यक्रम के आधार पर कोई दूसरी पार्टी बनाएँगे? आर्थिक कार्यक्रम से हमारा यह मतलब है कि उस दल का मुख्य कार्यक्रम आर्थिक एवं सामाजिक मसलों को लक्ष्य कर के ही बना हो। कांग्रेस का प्रधान कार्यक्रम राष्ट्रीय रहा है और आर्थिक बातें गौण रही हैं। जिसे हम अपनी भाषा में राजनीतिक अर्थनीति कहते हैं वही उसका असली कार्यक्रम रहा है। वह आर्थिक मसलों को भी समय-समय पर छेड़ती उठाती रही है। मगर उन पर राजनीति की छाप और प्रधानता रही है। उन्हें वह राजनीति के आईने में ही देखती रही है। सारांश, राजनीति उसका साध्य और आर्थिक बातें साधन मात्र रही हैं। इसके साफ मानी होते हैं कि कांग्रेस में आर्थिक मसले मजबूरन उठाए जाते थे और उनका मतलब यही था कि उन मसलों में दिलचस्पी रखनेवाले किसान-मजदूर कांग्रेस के भक्त बने रहें, उसके अनुयायी रहें और मौके पर उसकी राजनीति में मददगार हों, चाहे वोट दे कर, जेल जा कर या सदस्य बन कर। ऐसे मसले छेड़ने में खामखाह किसान-मजदूरों की स्वार्थसिध्दि कभी कांग्रेस का लक्ष्य नहीं रही। नहीं तो असेंबलियों एवं बोर्डों में मालदार, जमींदार या उनके आदमी ही अधिकांश क्यों भेजे जाते रहे हैं? खाँटी किसान मजदूरों को ही बहुसंख्या में क्यों न भेजा जाता रहा है? इससे कांग्रेस की मुख्य दृष्टि राजनीतिक दाँव-पेंच ही रहे हैं इस पर पूरा प्रकाश पड़ता है। फलत: वह राजनीतिक पार्टी है।
मगर हम तो चाहते हैं कि कांग्रेस के नेता अब आर्थिक पार्टी बनाएँ और उसके द्वारा अपना काम चलाते हुए कांग्रेस का पिंड छोड़ें। इसका मतलब यही है कि अब वह राजनीतिक अर्थनीति को छोड़ कर आर्थिक राजनीति का रास्ता अपनाएँ और इस प्रकार अब अपनी राजनीति को अर्थनीति या आर्थिक प्रश्नों के आईने में देखे। ऐसी दशा में अर्थनीति साध्य और राजनीति उसका साधन बन जाएगी। गोलमाल बातों से काम नहीं चलने का है, चाहे इनसे जनता गुमराह भले ही और खतरे में पड़ जाए। मगर 'उघरहिं अंत न होय निबाहू।' किसान-मजदूर देखना चाहते हैं कि ये नेता केवल 'डपोरशंखो स्मिवदामि न ददाम्यहम' को चरितार्थ करते हैं या सचमुच हमारे जटिल आर्थिक तथा सामाजिक प्रश्नों को सुलझाते हैं। यह बात दोटूक होगी और वे इसमें धोखे में पड़ न सकेंगे। नेताओं की जाँच भी खरी होगी। ईमानदारी का तकाजा है कि यही किया जाय और प्राचीन महर्षियों की प्रतिष्ठा और उनके लिए जनता में विद्यमान आदर की ओट में जिस प्रकार आज के पंडे-पुजारी और साधु-महात्मा अपनी कमजोरियाँ छिपाते और उन्हीं की दोहाई दे कर काम चलाते हैं वही बात कांग्रेस के नाम और उसकी दोहाई के पीछे ये हमारे नेता न करें। ये बहादुर हैं, मर्द हैं, धुनवाले हैं। फलत: यह द्रविण-प्राणायाम उन्हें शोभा नहीं देता, यह लुक्काचोरी उनकी शान में बट्टा लगाती है। जिन नेताओं को हमने आज तक सर-आँखों चढ़ाया उनके बारे में यह चीज हमसे बर्दाश्त नहीं हो सकती। इसीलिए हमारी यह तमन्ना है, उनसे हमारी दस्तबस्ता अर्ज है।
मौके की ताक में
मगर हमें आशा नहीं कि वे ऐसा करेंगे। राजनीति बड़ी गंदी चीज है, बुरी है और उनकी राजनीति का यह तकाजा है कि ऐसा ही करें। वह तो मौके की ताक में थे ही और देखा कि वह आ गया है। फिर चूकने क्यों लगे? नई पार्टी बनाने में उसे जनसाधारण के सामने लाने और प्रसिध्द करने में एक खासी मुद्दत लगेगी। तब तक क्या ये लोग दूसरों की मर्जी पर रहेंगे? दुनिया बेदर्द है। यहाँ किसी को कोई पूछता नहीं। बात की बात में पहले के सभी किए-कराए को लोग भूल जाते और बड़े-बड़े तक को दूध की मक्खी की तरह उठा फेंकते हैं। तब ये नेता खतरा क्यों मोल लें? एक बात और भी है। कांग्रेस की बातें गोल-मोल रही हैं और उसके बारे में लोगों की वैसी आदत भी पड़ गई है। फलत: ज्यादा परवाह नहीं करते। अत: आगे भी उसी की पूँछ पकड़ना हमारे नेता सुरक्षित समझते हैं। लेकिन नई आर्थिक पार्टी बनाने के बाद तो वे लोग अपने आप को जनता की बेमुरव्वत समालोचन की तोप के मुँह पर खड़ा कर देंगे। तब तो उनकी हर बात की जाँच-पड़ताल वह बेदर्दी के साथ करेगी। पुराने ऋषि-मुनियों के अनुयायी आज पाप भी करें तो लोग बर्दाश्त करे जाते हैं। मगर उनके विरुध्द जानेवालों की एक भी बात सुनने को रवादार नहीं जब तक वह पुराने साँचे में ढली न हो। जनता की इस मनोवृत्ति को हमारे नेता खूब समझते हैं और इससे लाभ उठाना चाहते हैं।
नेता लोग यह भी देखते हैं कि चाहे कुछ लोग मेढकों की तरह टर्र-टर्र भले ही करते रहें। फिर भी संगठित रूप से आज ऐसी कोई भी आवाज नहीं उठ सकती, जो हमें रोक सके, हमारी इस चातुरी का, इस कूटनीति का सफल भंडाफोड़ कर सके। वे स्पष्ट देखते हैं कि उनकी चाल के विरुध्द पर्याप्त प्रचार कर के जनता को उभाड़ने और इस तरह उन्हें रुक जाने को विवश करनेवाली कोई भी जबर्दस्त ताकत, संगठित शक्ति देश में रह नहीं गई है, और दरअसल किसान-मजदूरों के लिए यह सबसे बड़ा खतरा है। आज प्राय: सभी समाचारपत्र मालदारों के हाथ में होने से नेताओं की चाल का ही समर्थन करते हैं, करेंगे। रेडियो, सिनेमा और प्रेस उन्हीं के हाथ में हैं। सरकार की सारी मशीनरी उन्हीं के साथ है, उन्हीं की दासी है। वे चाहे जितना भी पैसा खर्च कर सकते हैं और 'ऊँट बिलैया ले गई, तो हाँ जी-हाँ जी कहना' को अक्षरश: चरितार्थ करे सकते हैं। चाहें तो अनंत प्रचारक भर्ती कर के उनसे भाड़े के टट्टू का काम ले सकते हैं। जाब्ता फौजदारी, क्रिमिनल प्रोसीजर कोड, जेल, पुलिस की लाठी और फौज की गोली भी आज उन्हीं के हाथ में है जिसके द्वारा विरोधिायों की आवाज को हजार बहाने कर के आसानी से कुचला जा सकता है। पंडित, पुजारी, मौलवी और पादरी भी जरूरत होने पर उन्हीं के इशारे पर नाच सकते हैं और दुर्भाग्य से इनका असर हमारे देश में बहुत ज्यादा है। फिर ऐसे मौके से ये लीडर चूकनेवाले कब हैं?
बड़े से बड़े खतरा
किसान-मजदूरों के लिए ये सभी खतरे तो हुई और ये ठोस हैं, जबर्दस्त हैं। मगर इन सबों से भी बढ़ कर दो खतरे हैं। राजनीतिक उथल-पुथल और खास कर दो महायुध्दों के चलते जनता में राजनीतिक चेतना आई है जरूर और काफी आई है। इससे इन्कार नहीं किया जा सकता है। मगर उसमें एक बड़ी कमी है, खामी है। उसे कोई निश्चित आकार नहीं मिला है। वह यों ही गोलमाल है, Vague है। फलत: उसे किसी भी रंग में रँगा जा सकता है, किसी ओरमोड़ा जा सकता है। जैसे गीली मिट्टी को घड़े, खपड़े-बर्तन, मूर्ति या किसी भी रूप में बदल सकते हैं। यह बड़ी खतरनाक चीज है। वे अपनी राजनीति को ठीक-ठीक समझ नहीं सकते। मुल्क की राजनीति का विश्लेषण, उसकी उधेड़्बुन भी नहीं करे सकते। फलत: आसानी से धोखे में पड़ सकते हैं। जोई गर्म लेक्चर झाड़े और आँसू बहा दे या जेल गया हो, उसी पर जनसाधारण लट्टू हो सकते हैं, उसी के मुरीद और चेले मूँड़े जा सकते हैं। नतीजा यह होगा कि आज तक जो लोग किसान सेवकों का बाना पहने हुए थे उन्हें भी दक्षिणपंथी लोग रुपए-पैसे, नौकरी-चाकरी, रोजगार-व्यापार आदि के जरिए खरीद कर भारी बला पैदा कर सकते हैं, बला पैदा करेंगे। जनता की आदत होती है बिना विचारे ही विश्वास कर लेना Unthinking trustfulness। लेनिन बार-बार ऐसा कहा करता था। खास कर राजनीतिक मामलों में तो इस नादानी के करते बड़ा खतरा पैदा हो जाएगा। आजादी की लड़ाई के सिलसिले में पुराने नेताओं पर विश्वास होना स्वाभाविक ठहरा क्योंकि वर्ग-चेतनामूलक राजनीतिक ज्ञान के अभाव का नतीजा दूसरा हो नहीं सकता। इसी के साथ पुराने किसान सेवक भी जब खरीद ही लिए गए तो फिर किसानों का खुदा ही हाफिज। ये उन पर विश्वास करेंगे और इस तरह अपना गला कटाएँगे। यह हुआ एक खतरा।
दूसरा बड़ा खतरा यह है कि मुल्क में जितने भी प्रगतिशील विचार करनेवाले या वामपंथी हैं सबों की अपनी-अपनी डफली, अपना-अपना गीत है। कम से कम जितनी पार्टियों में ये लोग बँटे हैं उतने रास्ते तो इनके हुई। आपस में इनका काम करना वैसा ही है, जैसा बाघ और बकरी का। एक-दूसरे से बातें करने में भी इन्हें नफरत है। दक्षिणपंथी नेताओं की सबसे बड़ी होशियारी यही रही कि उनने वामपंथियों में 'तीन कनौजिया तेरह चूल्हा' कर दिया और एक-दूसरे को हजार कोस दूर रखा। हमारी पार्टी सही, हमारी पालिसी दुरुस्त और हमारी पोलिटिकल थीसिस खरी है, इसी धुन में हरेक पार्टीवाला मस्त है। उस पर इसका नशा सवार है। वह दक्षिणपंथियों से मिलने और बातें करने में जरा भी नहीं हिचकता। मगर क्या मजाल कि एक पार्टी का लीडर दूसरी पार्टी के लीडर से बातें कर। कांग्रेस नेता सबों को कान पकड़ के एके बाद दीगरे नचाते हैं, नचाने की हिम्मत रखते हैं। उन्हें विश्वास है कि इन पार्टियों को जो भी चाहें खरीद सकते हैं। अब तक ऐसा होने नहीं दिया कि कोई पार्टी या सभी पार्टियाँ मिल कर भी उनका सफलता से सामना करे सकें। ऐसी हालत में उनके वर्तमान रवैये की असलियत जनता के सामने कौन रख सकता है? यदि आज वामपक्षीय एकता हो तभी उनका ठीक-ठीक जवाब मिल सकता है। जो लोग यहाँ तक कहने की हिम्मत करने लगे हैं कि किसान राज्य तो अब कायम हो गया। उनके भी होश दुरुस्त तभी हो सकते हैं जब सभी प्रगतिशील या समाजवादी विचारवाले एक हो कर काम करें। मगर आज इसी चीज का अभाव है और यही दूसरा बड़ा खतरा है।
आखिर हो क्या ?
तो क्या अब निराशा ही निराशा है? क्या शोषित-पीड़ितों के लिए अंधेरा ही अंधेरा है? क्या अब कुछ हो नहीं सकता? उत्तर सीधा है। हो भी सकता है, नहीं भी हो सकता है। सबकुछ निर्भर करता है कि शोषित-पीड़ितों की आवाज निरंतर उठानेवाले क्या करते हैं? जो लोग किसान-मजदूरों की ओर से बराबर चिल्लाते रहे हैं वह इस मौके पर क्या करते हैं? यह तो सभी मानते हैं कि इतिहास करेवट ले रहा है─भारतीय आजादी की लड़ाई का इतिहास। वह इतिहास दक्षिण करवट ले इसकी पूरी कोशिश है, पूरी तैयारी है, इसका पूरा आयोजन है। दुनिया की ऐसी लड़ाइयों का इतिहास भी यही बताता है कि ऐसे मौके पर वह दाहिनी करवट बदलता है-Right about turn करता है और भारत उसका अपवाद न होगा। यह करवट थोड़ी देर बाद बाईं हो जाए, यह बात जुदी है-Left about turn हो जाए, यह संभव है, जैसा कि रूस में हुआ था। मगर क्या रूस के जैसा लेनिन यहाँ कोई है? क्या उसके जैसा किसान-मजदूरों का मसीहा और क्रांति की कला का पारंगत कलाविद कोई है? अगर नहीं है तो क्या हम हाथ पर हाथ धार बैठे रहें? मगर, इतिहास तो बैठा रहेगा नहीं, समय तो रुकेगा नहीं और किसान-मजदूरों के शत्रु तो इंतजार करेंगे नहीं। वे तो अपनी राह चले जाएँगे। तो क्या यह दाहिनी करवट यों ही बदलने दी जाए और हम कुछ न करें?
करना तो होगा ही। यदि खुद न करेंगे तो मजबूरन करना पड़ेगा, मगर तब जब बहुत देर हो चुकी रहेगी और करना-धारना बेकार सिध्द होगा। यदि हममें-वामपंथी होने के दावेदारों में-जरा भी नेकनीयती और ईमानदारी होगी, जरा भी हया होगी, तो हमें कुछ न कुछ ठोस काम करना ही होगा, आगे कदम बढ़ाना ही होगा। 1934 में हमारे इतिहास की एक मामूली करवट थी, तो वामपक्ष ने कदम बढ़ाया और सोशलिस्ट पार्टी बनी। फिर 1939 में कुछ ऐसा ही मौका था, तो वामपक्षीय कमेटी Left consolidation committee और फार्वर्ड ब्लाक का जन्म हुआ। मगर, इस करवट के सामने वे दोनों कुछ न थे। तब तो लड़ाई के एक ही पर्व के दरम्यान यह करवट थी। मगर, अब यह पर्व खत्म हुआ और दहिनी करवट की जोरदार तैयारी है। फलत: हमें कुछ न कुछ ठोस कदम आगे बढ़ाना ही होगा, नहीं तो आगेवाली पीढ़ी हमें कोसेगी, धिक्कारेगी।
इस बार हमें कोई नयी पार्टी न बना कर मुस्तैदी से सभी दलों और पार्टियों का जो वर्ग-विहीन समाज की स्थापना माक्र्सवादी ढंग से करने को तैयार है, एक संयुक्त मोर्चा या प्लेटफार्म बनाना है। इस काम के लिए चाहे कोई कमेटी बने या उसे एक पार्टी का ही रूप दिया जाय यह बात दूसरी है। फ्रांस आदि देशों के संयुक्त मोर्चे की त्रुटियों से हम बचने का उपाय करें और कदम आगे बढ़ाएँ भी। इस काम के लिए एक केंद्रीय स्थान पर सभी दलों के प्रमुख व्यक्तियों की ओर ऐसे लोगों की भी, जो किसी पार्टी में नहीं हैं, मगर माक्र्सवादी विचार रखते हैं, एक बड़ी मीटिंग बुलाई जाए। यह काम जल्द होना चाहिए। देर की गुंजाइश नहीं है।
उस मीटिंग में एक सम्मिलित कार्यक्रम तैयार किया जाए। यह कार्यक्रम कम से कम छोटे से छोटा हो। इसमें एक ही दो बातें रहें। मगर वे सर्वसम्मत हों और खुले दिल से सभी उसे स्वीकार करें। दबी जवान और आधा दिल से स्वीकृति बातें इस प्रोग्राम में न रहें। दृष्टांत के लिए आज दक्षिणपंथी लीडरों का कांग्रेस संबंधी अगला कदम ले कर उसकी असलियत का प्रचार ही ले सकते हैं। उसका क्या रहस्य है और उसमें क्या खतरे हैं, इसके प्रचार में किसी को आनाकानी नहीं हो सकती है। फलत: संगठित रूप से इसका मुस्तैदी से प्रचार होने की बात तय कर सकते हैं। इसी तरह की दूसरी बातें ढूँढ़ी जा सकती हैं। मेरा अपना विचार है कि राष्ट्रीय आजादी के प्रश्न के एक करवट बैठ जाने के कारण अब किसी भी वामपक्षीय पार्टी के साथ दूसरी पार्टीवालों को संयुक्त मोर्चा बनाने में कोई खास अड़चन नहीं होनी चाहिए। मैं तो यह भी मानता हूँ कि सबों में माक्र्सवाद की इतनी भक्ति अपने लक्ष्य के प्रति इतनी ईमानदारी वफादारी और इतनी हया, इतनी लज्जा मौजूद है कि जरूर आगे बढ़ेंगे और अनायास होनेवाली हाराकिरी से लोगों को बचाएँगे। सबों को अपनी प्रतिष्ठा, आत्मसम्मान का ख्याल है और यह भी मालूम है कि कुछ न करने पर एक के बाद दीगरे भीगे जूते पड़ने हैं। सबों की शान में बट्टा लगना है, बेइज्जती होनी है जो गीता के शब्दों में मौत से भी बुरी है, 'संभावितस्य चाकीर्ति मरणादतिरिच्यते'