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रचनावली

स्वामी सहजानन्द सरस्वती रचनावली
खंड 2

सहजानन्द सरस्वती

संपादन - राघव शरण शर्मा

अनुक्रम उत्तर भाग ─पूर्वखंड पीछे     आगे

(1)

गाँधी जी से वार्तालाप

मुझेखूब याद है, मैं पटना में ही था।गाँधी जी, मौलाना मुहम्मद अली, मौलाना अबुल कलाम आजाद आदि के साथ सन 1920 ई. के दिसंबर में खिलाफत और पंजाब कांड की बात को ले कर देश को असहयोग के लिए तैयार करने के विचार से दौरा करते हुए पटना पधारे थे। वहीं से बिहार का दौरा होने को था। मौलाना मजहरुल्हक के मकान पर वे सभी ठहरे थे। मैंने उन लोगों की स्पीचें भी 3 या 4 दिसंबर को सुनी थीं। मुझे उस समय मौलाना आजाद का भाषण सबसे अच्छा लगा। इसलिए नहीं कि उसमें गरमी या जोश ज्यादा था, या जानकारी की बातें अधिक थीं। यह बातें तो सभी भाषणों में थीं। मेरे लिए तो खास कर ऐसी बातें अधिक इसलिए थीं कि मैं राजनीति जानता ही क्या था?

असल में मैंने देखा कि मौलाना मुहम्मद अली आदि जो कुछ बोले उसमें मुल्क और देश की बात थी सही। पर, इसी के साथ उन्होंने बार-बार इस्लाम का नाम लिया। यह बात मुझे न जानें क्यों खटकी। इसमें मुझे खतरा नजर आया। मेरे दिल ने बताया कि जब देश में सभी धर्म संप्रदाय के लोग हैं और सभी को ले कर लड़ना है, तो एक धर्म का नाम लेने से बाकी लोग कहीं खटक न जाए। या इस्लाम की माँग पूरी हो जाने पर ये मौलाना लोग और उनके साथ ही सभी मुसलमान लोग लड़ाई के बीच में ही कहीं भाग न जाए। राजनीति में विशेष प्रवेश न होने पर भी न जाने यह ख्याल मुझे क्यों हो आया। इसीलिए मैंने मौलाना आजाद का भाषण पसंद किया। क्योंकि मैंने बड़े गौर से सुना और देखा कि शुरू से अंत तक उन्होंने एक बार भी इस्लाम का नाम न ले कर केवल देश और उसके प्रश्नों का ही बार-बार उल्लेख किया। हालाँकि घंटों बोलते रहे। इसीलिए गाँधी जी से बातचीत के समय मैंने यह प्रश्न उनसे किए कि ये मौलाना लोग बीच में ही छोड़ भागेंगे तो नहीं।

स्पीचों के बाद मेरे दिल में आया कि जरा गाँधी जी से बातें तो करूँ। सिर्फ कौतूहल और जानकारी के ही लिहाज से मैंने बातें करने को सोचा। न कि सपने में भी ख्याल था कि उनके फलस्वरूप मैं राजनीति में कूद ही पड़ूँगा। मित्रों से पूछा तो उन्होंने भी सम्मति जाहिर की। बस, फौरन गाँधी जी को पत्र लिख कर समय माँगा। उत्तर मिला कि 5 दिसंबर को सुबह दस बजे। मैं ठीक समय पर उनके डेरे पर पहुँच गया। खबर देने पर भीतर बुलाहट हुई। वे दूध में भिगा कर पावरोटी के टुकड़े खा रहे थे। खाट पर बैठे थे। सामने कुर्सी रखी थी। उन्होंने इशारा किया कि मैं उस पर बैठूँ। मगर मैंने नीचे बिछी फर्श पर ही बैठना पसंद किया।

फिर मेरी बातें उनसे शुरू हुईं जो घंटे भर चलती रहीं। मैंने उनसे बहुत से प्रश्न किए। संन्यासी का क्या धर्म है यह भी पूछा। उन्होंने कहा कि जिसमें घृणा, राग, द्वेष की गुंजाईश न हो वही संन्यासी हैं। इस पर मैंने नैयायिकों की तरह दलील शुरू करते हुए कहा कि जिस बुराई को अपने में से हटाना है उससे घृणा न हो तो वह हटे कैसे? और संन्यासी में भी तो बुराइयाँ हो सकती हैं। इस पर उनने कहा कि मैं उस घृणा को घृणा मानता ही नहीं। तब मेरा प्रश्न हुआ कि आखिर कैसे पता लगे कि कौन-सी घृणा घृणा है और कौन नहीं। जिससे संन्यासी के लक्षण का पता लग जाए? इस पर वे बोले, मैं दलीलें नहीं करता। मैं भी चुप हो गया।

फिर राजनीतिक बातें शुरू हुईं। मैंने पूछा कि कहीं ऐसा तो न होगा कि बीच में ही खिलाफत का प्रश्न हल हो जाने पर ये मौलाना लोग लड़ाई से हट जाएँगे और हिंदुओं की अकेले ही लड़ना पड़ेगा? मैंने उनसे साफ कहा कि मुझे मुसलिम जनता की फिक्र नहीं है। उसके बारे में शक भी नहीं है, मगर ये उसके लीडर और मौलाना ऐसा कर सकते हैं यह डर मुझे है जरूर। उन्होंने मुझे आश्वासन दिया कि ऐसा नहीं हो सकता। ये लोग भले और रईस हैं, ऐसा मैंने समझा है। भलेमानस की बात पर विश्वास करना चाहिए। वह पक्की होती है और ये लोग ऐसा ही विश्वास दिलाते हैं। इस पर उन्होंने दलीलें देनी चाहीं तो मैंने साफ कहा कि बस मैं आपका अनुभव इस मामले में जानना चाहता हूँ। दलीलें नहीं चाहता। उनने कहा कि मेरा अनुभव और विश्वास है कि ये लोग धोखा न देंगे हर्गिज हर्गिज।

फिर मैंने कहा कि आपकी बातें मान तो लेता हूँ। लेकिन यदि हिंदुओं की मदद से इन्होंने अपना काम निकाल लिया और पीछे मजबूत हो कर न सिर्फ साथ ही छोड़ा, प्रत्युत हिंदुओं पर हमले शुरू किए, तो क्या होगा? उनका इस पर यही उत्तर हुआ कि मुझे हिंदुओं की गीता पर विश्वास है। जब तक वह है हिंदू धर्म का कोई कुछ कर नहीं सकता। और अगर गीता भी सच्ची नहीं, तब तो ऐसे कच्चे हिंदू धर्म को जल्द मिट जाना ही चाहिए। इसके बाद मेरी बात पूरी हो गई। और मैं चला आया। पूरी बातचीत ज्यों की त्यों प्रश्नोत्तर के रूप में 6 या 7 दिसंबर सन 1920 ई. के पाटलिपुत्र में लिख कर मैंने छपवा दी थी।

बातचीत के बाद मेरे दिल पर यही प्रभाव पड़ा कि मुझे राजनीति में फौरन कूद पड़ना चाहिए। इसलिए नहीं कि देश का उपकार होगा। बल्कि इसलिए कि तभी मैं सच्चा संन्यासी बन सकूँगा। अभी तो कच्चा हूँ। साथियों से भी सलाह की। खास कर मुंगेर जिले के दुर्गापुर (खगड़िया) के श्री उमेश्वर बाबू और कन्हैयाचक के श्री सूर्यनारायण बाबू आदि से। सबों की यही राय ठहरी। यह भी तय पाया कि इसी दिसंबर में नागपुर में होनेवाली कांग्रेस में भी जरूर शामिल होना चाहिए। उमेश्वर बाबू से यह भी तय पाया कि नागपुर से लौट कर खगड़िया इलाके में ही रह के काम करूँगा।

यहाँ एक बात और कह देनी है। जब खिलाफत की समस्या सुलझ गई और सन 1925-1926 में मौलाना आजाद और डाँ. अंसारी जैसे दो-एक को छोड़ सभी मुसलिम लीडर और मौलाना बड़ी तेजी से तबलीग और तंजीब में पड़ गए, यहाँ तक कि हकीम अजमल खाँ भी उधर कुछ झुकते दिखे, तो मैंने गाँधी जी को एक पत्र अंग्रेजी में उलाहने के तौर पर लिखा कि आप तो पूरे अनुभवी आदमी है। फिर आपने क्यों धोखा खाया और मुझसे 1920 की 5 दिसंबर को कहा कि मौलाना मुहम्मद अली वगैरह कभी धोखा न देंगे? ये तो धोखा दे रहे हैं। सभी के सभी तंजीम में जी-जान से पड़े हैं। वह मेरा भय तो सही सिद्ध हुआ।

मैंने यह जो कुछ लिखा सिर्फ मुसलिम लीडरों के ही बारे में। क्योंकि पटना मे प्रश्न भी मैंने उन्हीं के बारे में किया था। मुसलिम जनता को तो वही गुमराह कर देते हैं, जैसा कि हिंदू लीडर हिंदू जनता को। जनता तो सब की सब भीतर से साफ और निर्दोष है। लेकिन गाँधी जी ने जो उत्तर दिया वह बिलकुल ही निराला और चालाकी से भरा था, जिसकी मैंने उन जैसे साफ कहनेवालों से आशा की थी नहीं! उन्होंने इस बारे में एक ही वाक्य लिख कर खत्म किया कि ''मुसलमानों के बारे में उस समय मैंने जो अंदाज लगाया था उसके लिए मुझे आज कोई पश्चात्ताप नहीं है'' ''I donot repent my estemate of mohammadans" भला क्या यह मेरे प्रश्न का उत्तर कहा जा सकता है? मैंने मुसलमानों के बारे में कब पूछा था? मेरा प्रश्न तो केवल कुछ मौलानाओं और नेताओं के बारे में था। तो क्या उसका उचित उत्तर यही है? इससे मेरे दिल पर गाँधी जी के संबंध में पहला धक्का लगा। मगर इसका कुछ विशेष फल न हुआ। असल में उस धक्के को मैं समझ भी न सका। पहला ही जो था।

(2)

नागपुर कांग्रेस के संस्मरण

बातचीत के बाद कुछ अधिक समय तो मिला नहीं। क्योंकि नागपुर की कांग्रेस उसी दिसंबर के अंत में होनेवाली थी। मैं शीघ्र ही उत्तर मुंगेर में खगड़िया के इलाके में गया और श्री उमेश्वर बाबू के साथ ही नागपुर रवाना हुआ। मुगलसराय से बंबई मेल के द्वारा जबलपुर जा कर सेठ गोविंद दासवाली धर्मशाले में ठहरा। वहाँ से रात में छोटी लाइन पकड़ के गोंदिया होते दूसरे दिन नागपुर पहुँचा। वहाँ डाँ. मुंजे ही कांग्रेस की तैयारी में प्रमुख भाग ले रहे थे। और लोगों के नाम तो याद नहीं। उस समय मैं उनके सिवाय दूसरों को जानता ही कहाँ था? वही स्वागताध्यक्ष थे। आज के और उस जमाने के मुंजे में जमीन-आसमान का अंतर हो गया! नागपुर में मुल्क ने चिरपरिचित 'भिक्षां देहि' और केवल गर्मा-गर्म लेक्चर झाड़ने का रास्ता छोड़ आत्मसम्मान का मार्ग पकड़ा। भारत के हक के दावे के साथ ही उसके पूर्ण न होने पर सरकार से 'युध्दं देहि' का पहली बार निश्चय किया और इस प्रकार देश को नव जीवन प्रदान किया। इसमें डाँ. मुंजे ने अपनी सामर्थ्य भर पूरा हाथ बँटाया। इतना ही नहीं। उसके फलस्वरूप असहयोग युद्ध में कूद पड़ने के कारण उनकी डाँक्टरीवाली बहुत अच्छी आमदनी जाती रही ऐसा लोगों ने पीछे कहा और बताया कि वह तो बर्बाद हो गए 'He is a ruined man' लेकिन आज उसी मार्ग की या यों कहिए कि जिस स्वातंत्रय संग्राम का नागपुर में बीजारोपण हुआ उसकी ही मुखालिफत वही मुंजे कर रहे हैं। सो भी सारी शक्ति लगा कर! जो शक्ति पहले उधर लगी थी वही अब विपरीत दिशा में लग रही है यद्यपि वह स्वयं ऐसा नहीं मानते! ठीक ही कहा है संसार परिवर्तनशील है।

नागपुर कांग्रेस की दो-एक बातें मुझे भूलती ही नहीं है। बिहार के मौलाना शफी दाऊदी को पहले पहल वहाँ देखा कि कितनी तत्परता कांग्रेस पंडाल में लोगों के बैठाने-उठाने में दिखा रहे हैं। कितनी सज्जनता एवं नम्रता से पेश आते हैं। उसके बाद लौट कर उन्होंने काफी काम भी किया। जब मैं लौट कर शाहाबाद जिले के बक्सर सबडिवीजन में काम में जा लगा तो बिहार प्रांतीय राजनीतिक सम्मेलन का आरा शहर में उन्हें ही सभापति चुना गया। मैंने धार्मिक कट्टरता उनमें उस समय कतई नहीं पाई, गो कि विशेष जानकारी न थी। मगर थोड़े दिनों बाद ही और मौलवियों के समान ही वह भी ऐसे बदले, ऐसे कट्टर बने कि मैं हैंरत में आ गया एक ओर शुद्धि और संगठन की और दूसरी ओर तबलीग और तंजीम की जो आँधी चली उसमें दूसरों के साथ वह भी हमारे बीच से उड़ के एक किनारे जा लगे! सुंदर वकालत को चौपट किया जिस काम के लिए उसे बीच में ही छोड़ कर तंजीम में जा फँसे!!

मैंने वहीं देखा कि पहले द्वारका के और अंत में जगन्नाथ के शंकराचार्य श्री भारती कृष्णतीर्थ लखनऊ के आर.एस. नारायण स्वामी आदि के साथ वहीं डँटे हुए हैं। कांग्रेस के ही लिए वह आए थे। मगर जब प्रतिनिधियों को कांग्रेस के ध्येय पर हस्ताक्षर करने का मौका आया तो उन्होंने इन्कार किया! साम्राज्य के भीतर स्वराज्यवाले ध्येय पर दस्तखत करने को वे तैयार न थे और वही उस समय तक कांग्रेस का लक्ष्य था। मैं तो उस समय ये सब बातें कुछ भी जानता-समझता न था कि साम्राज्य के भीतर और बाहर की बला क्या है। लेकिन वह दंडी और मैं भी दंडी। इसलिए उनके पास प्राय: जाता और बैठता था। यह देख कर खुशी भी थी कि आखिर इस राजनीति में मैं ही अकेला दंडी संन्यासी नहीं पड़ा हूँ। किंतु मुझसे बड़े और विद्वान शंकराचार्य तक पड़े हैं। उनके साथ और भी संन्यासी थे। जो पुराने झगड़े नरम और गरम दल के कांग्रेस के लक्ष्य को ले कर थे उन्हीं के अनुसार वे हस्ताक्षर से इन्कार कर रहे थे।

पीछे एक चलते-पुर्जे सज्जन ने जिनका नाम भूलता हूँ, और जो उन्हें प्रतिनिधि बनाने के लिए बहुत ही उत्सुक थे, यह कह के उन्हें राजी किया कि आप तो कांग्रेस के लक्ष्य पर हस्ताक्षर कर के ऐसा कहते हैं कि यही उसका ध्येय है। मगर उस ध्येय को आप स्वीकार कर लेते हैं यह उस हस्ताक्षर का मतलब कैसे हो जाता है? जो लोग उसे बदलना चाहते हैं वह भी तो आखिर कांग्रेस में बिना उस पर हस्ताक्षर किए घुस नहीं सकते। फलत: उसे बदल भी नहीं सकते। इसलिए यह तो केवल कायदे-कानून की पाबंदी (formality) मात्र हैं। इस पर उन्होंने हस्ताक्षर कर दिया। पीछे तो कराची में मौलाना मुहम्मद अली आदि सात नेताओं पर, जिन्हें कराची के सात 'Karachi seven' कहने की पीछे प्रणाली हो गई थी, जब खिलाफत की बात को ले कर मुकद्दमा चला था तो उनमें एक यह भारती कृष्णतीर्थ भी थे। यह खुशी की बात थी। यह देश के सौभाग्य की सूचना थी कि मुसलमानों के धर्म की रक्षा के लिए हिंदुओं का धर्माचार्य शंकराचार्य जेल जाए।

परंतु कुछ दिनों बाद जेल से लौटते ही वह राजनीति से विरागी हो कर फिर मठ और गद्दी के झगड़े में बुरी तरह जा फँसे। यहाँ तक कि राजनीति का नाम ही छोड़ दिया। हालाँकि साम्राज्य के बाहर तो क्या भीतरवाला भी स्वराज्य अभी नजर में भी न आता था। न जानें इस बात ने उनके दिल को कभी ईधर आ कर मसोसा भी या नहीं।

सन 1924 ई. वाली प्रसिद्ध अखिल भारतीय कांग्रेस कमिटी की जो बैठक अहमदाबाद में हुई थी उसमें मैं भी शामिल था। वहीं एक दंडी से, जो काफी चलते-पुर्जे थे, भेंट और बातें हुईं। उन्होंने कहा कि जेल से लौटने पर भारती कृष्णतीर्थ से हम लोग प्रायश्चित्त कराएँगे कि क्यों जानबूझ कर जेल गए। अपने सीधे विश्वास के करते उनकी यह बात मानना मेरे लिए असंभव था कि वह प्रायश्चित्त करेंगे। उन्हें ऐसा कमजोर मैं नहीं समझता था, लेकिन उस दंडी संन्यासी की दृढ़तापूर्ण बात ने सूचित किया कि मामला कुछ बेढब जरूर है। पीछे तो मैंने सुना कि जेल से लौट कर उनने शायद प्रायश्चित्त भी किया था। कदाचित वह राजनीति में जाने के महापाप का ही प्रायश्चित्त था। इसीलिए उससे अलग भी हुए।

नागपुर में यह भी देखा कि विषय समिति के सदस्यों के चुनाव के लिए बड़ी सरगर्मी है। क्योंकि पुरानी नियमावली के अनुसार कांग्रेस के अधिवेशन के ही समय प्रतिनिधियों में से ही कुछ लोगों को चुन कर विषय समिति बनती थी। इसीलिए हर प्रांतवाले पार्टी के इस विचार से व्यस्त थे कि अमुक दल के विचार के ही लोग चुने जाए। और प्रांतों की तो बात नहीं जानता। मगर बंगाल के प्रतिनिधि जब एकत्र हो कर अपने प्रांत के लिए मेंबरों को चुन रहे थे तो खूब हाथापाई हुई। कुर्सियाँ भी चलीं। कुछ के सिर फूटे भी, देशबंधु पार्टीवाले चाहते थे कि उनके ही समर्थक चुने जाए न कि गाँधी जी के विचार के अनुसार असहयोग के समर्थक। दास साहब असहयोग के पक्ष में तब तक न थे। हालाँकि कांग्रेस का अधिवेशन पूर्ण होने के पहले गाँधी जी से उनका कोई समझौता हो गया, ऐसा मालूम पड़ा।

उस अधिवेशन के अध्यक्ष थे सलेम (मद्रास प्रांत) के पुराने जनसेवक चक्रवर्ती विजय राघवाचार्य। थे वह पुराने नरम दलियों में ही। देखा कि उनके सिर पर आचारी वैष्णवों का लंबा तिलक लगा है। उनके डेरे में खाने-पीने में पूरा-पूरा पर्दा आचारियों जैसा ही था। छुआछूत भी हू-ब-हू वैसी ही थी। पर्दे में बैठ कर ही भोजन करते थे जैसा सभी आचारी करते हैं। अपने पुराने विचारों के अनुसार उन्होंने असहयोग का विरोध ही अपने भाषण में किया। भाषण छपा हुआ था। मगर वह तो नक्कारखाने में तूती की आवाज थी। कांग्रेस अधिवेशन में तो असहयोग का प्रस्ताव प्राय: सर्वसम्मति से ही पास हुआ था। विरोध का तो पता ही न लगा, सिवाय एकाध के जिसका उल्लेख आगे है। मैंने यह भी देखा कि कांग्रेस के अध्यक्ष समय के उपयुक्त न थे। वह उस विचारधारा के समर्थक थे जिसका समय बीत चुका था। इसीलिए नागपुर के बाद अध्यक्ष महाराज एक प्रकार से लापता से रहे। नाम भी कभी शायद ही सुनाई पड़ा।

वहीं पर मैंने मुहम्मद अली जिन्ना साहब को पहले पहल देखा। वहाँ से जो वह कांग्रेस से गायब हुए सो आज तक उन्हें देखने का मौका मुझे तो नहीं ही लगा। अब जमाना बदला था। अधिकांश लोग कुर्ता, टोपी, धोतीवाले ही कांग्रेस में थे। मगर जिन्ना साहब बाकायदा हैंट, कोट, पैंट आदि से सजे हुए थे। उन्होंने भर पेट असहयोग का विरोध किया। उनका भाषण अंग्रेजी में हुआ। उन्होंने उससे होनेवाली हानियों को विस्तार के साथ बताया, यह भी कह दिया कि असहयोग का प्रस्ताव पास हो जाने पर हमारे जैसों के लिए कांग्रेस में गुंजाईश रही नहीं जाती। हुआ भी वैसा ही। केवल वही नहीं, किंतु उन्हीं के साथ कांग्रेस के पुराने नरम दलीय नेता सबके-सब कांग्रेस से सदा के लिए अलग हो गए। उन्होंने अपनी एक अलग संस्था बनाई जिसका नाम अखिल भारतीय लिबरल फेडरेशन पड़ा।

कांग्रेस ने पुरानी दुनियाँ छोड़ अब नई में पदार्पण किया। नागपुर ने मुल्क की विचारधारा को सोलहो आने विपरीत दिशा में बहा दिया। नागपुर के बाद जो उमंग और जोश की लहरें मुल्क में हिलोरें मारने लगी थीं, वह वर्णनातीत थीं। मुल्क ने कांग्रेस के जरिए न सिर्फ स्वावलंबन का मार्ग पकड़ा, प्रत्युत उसके इतिहास में यह पहला ही मौका था जब देश की सबसे बड़ी राजनीतिक संस्था ने अपने राजनीतिक लक्ष्य की सिद्धि के लिए देश की मूक और पीड़ित जनता की ओर-किसानों, मजदूरों और कमानेवालों की ओर-अपना मुँह फेरा और निश्चय किया कि बिना उनकी सहायता के, बिना उन्हें सामूहिक रूप से राजनीति में लाए, देश की राजनीतिक माँग की पूर्ति हो नहीं सकती। उनने साफ स्वीकार किया कि बिना उस जनता के सक्रिय सहयोग के न तो कांग्रेस और न आजादी की लड़ाई ही जबर्दस्त होगी और न सरकार ही दबेगी। मेरे लिए खुशी की बात थी कि ठीक ऐसे ही समय में कांग्रेस में और राजनीति में भी पहले पहल शामिल हुआ। यही परिस्थिति और यही वायुमंडल मेरे स्वभाव के अनुकूल था भी। संन्यासी होते हुए भी 'भिक्षां देहि' का तो मैं सदा से ही विरोधी रहा हूँ।

कांग्रेस के इस मार्ग-परिवर्तन और जनता की ओर जाने का परिणाम भी ठीक ही हुआ। दुनियाँ ने और अपनी अपारशक्ति के मद में मत्त अंग्रेजी सरकार ने भी आश्चर्य चकित नेत्रों से देखा कि कांग्रेस एक साल के भीतर ही क्या से क्या हो गई ─उसकी शक्ति अप्रतिम हो गई! जो कांग्रेस सदा सरकार के सामने झुकती और हाथ जोड़ कर अर्ज करती थी वही सरकार को झुकानेवाली समझी जाने लगी। कमानेवाली जनता का किसानों और मजदूरों का ─आश्रय लेने का सदा यही परिणाम होता है। यह जनता चाहे स्वयं भीख ही क्यों न माँगती हो। फिर भी जो इसका आश्रय लेते हैं उन्हें शिव की तरह सब तरह से पूर्ण और शक्तिशाली बना देती है। यही बात कांग्रेस के बारे में भी हुई। फलत: भारत के वायसराय लार्ड रीडि को सन 1921 ई. के दिसंबर में कलकत्ता में कहना पड़ा कि मैं हैंरत में हूँ, परेशान हूँ 'I am puzzled and purplexed'!

(3)

असहयोग में बक्सर में

नागपुर से लौट कर मैं खगड़िया जाने को था। तय था कि वही हमारा कार्यक्षेत्र होगा। आल इंडिया कांग्रेस कमिटी के कार्यालय में हमने अपना पता प्रतिनिधि की हैंसियत से वहीं का दिया था भी। हमारे साथ कुछ किताबें थीं जिन्हें हमने वहीं भिजवाया भी। लेकिन बक्सर (शाहाबाद) के कुछ परिचित मित्रों ने आग्रह कर के मुझे कुछ ही दिनों के लिए बक्सर चलने को इसलिए कहा कि कौंसिल के चुनाव क्षेत्र की एक जगह उस इलाके में खाली थी और महाराजा हथुवा उम्मीदवार थे। वर्तमान प्रांतीय असेंबलियों की ही जगह तब कौंसिलें थीं। कांग्रेस ने उनके बहिष्कार का निश्चय किया था। महाराजा हथुवा कांग्रेस की बात न मान कर खड़े थे। इसीलिए उनका विरोध करना जरूरी था, ताकि लोग वोट न दें। मैं तैयार हो गया। सोचा कि वह काम खत्म कर के खगड़िया चला जाऊँगा। फलत: बक्सर पहुँच कर काम में लग गया। देहातों में उनके विरुद्ध प्रचार शुरू कर दिया। बक्सर और भभुआ दो सबडिवीजनों से उनका चुनाव था। आरा शहर के लोगों ने कुछ दिल्लगी की और महाराजा के खिलाफ एक धोबी को खड़ा कर दिया। वह चुन भी लिया जाता और महाराजा हार जाते यदि धोबी के लिए कांग्रेस का कुछ भी प्रयत्न हो जाता, मगर बायकाट का सिद्धांत पास हो जाने के कारण हम लोग उस ओर इशारा भी कैसे कर सकते थे? फिर भी उसके खड़े रहने मात्र से ही महाराजा पूरे अपमानित एवं परेशान हुए।

मैं उस काम में पड़ा तो दिलोजान से। दिन-रात कोई दूसरा काम न था। देहातों में घूम कर कांग्रेस का संदेश सुनाता और बताता कि उसके अनुसार कोई भी न तो वोट दे और न खड़ा हो और अगर महाराजा नहीं मानते तो उन्हें एक भी वोट नहीं मिलना चाहिए। पर दिक्कत यह थी कि इतने लंबे इलाके में न तो ज्यादा घूमनेवाले थे और न पैसा या सवारी आदि का प्रबंध ही था। नागपुर से लौटते ही तो यह काम पड़ा और अभी लोगों में वह गर्मी आई न थी। वह भी तो कुछ दिन बाद आई। समय भी कम था। फलत: मुझे ही सब जगह और खास कर भभुआ के इलाके के रामगढ़ थाने में तथा दूसरी जगहों में जाना था बक्सर का काम पूरा कर के। लेकिन समयाभाव से कहाँ-कहाँ जाता?

आखिर चुनाव के ठीक पहले दिन मैं खीरी और वहाँ से मानिकपुर गया। फिर शाम को बैलगाड़ी पर बैठ रातों-रात रामगढ़ जाने की बात तय कर पाई। बैलगाड़ी भी वहाँ तक जा न सकती थी। सिर्फ दुमदुमा तक जा सकी। उसे वहीं छोड़ा पैदल दो-एक आदमियों के साथ चले और सुबह 8 बजे के करीब रामगढ़ पहुँचे। स्कूल में ठहर के कुछ खाया-पिया। फिर गाँव में गए। समय तो था नहीं। शायद 10 ही बजे से वोट होने को था। गाँववालों से मीटिंग करने को कहा। मगर मीटिंग होती कैसे? आखिरकार एक उपाय सूझा। एक ने कहा कि बीच गाँव में सभा स्थान पर एक धौंसा (नगाड़ा) रखा हैं और कायदा यह है कि उसे जोर से बजाने पर जो सुनेगा वही दौड़ कर पहुँचेगा। वह धौंसा खतरे की घंटी (Alarm) का काम देता था। वही किया गया। बस, बात की बात में लोग आ धमके हमने अपना मतलब उन्हें समझाया। फिर तो बिजली सी दौड़ गई। लोग वोट पड़ने की जगह थाने के चारों ओर कुछ दूर सभी रास्तों पर खड़े हो गए कि वोटरों को रोका जाए। मैं भी जा डँटा।

पुलिस तो निश्चिंत थी और समझती थी कि यहाँ तो कुछ होगा नहीं, सब ठीक है। जब उसने एकाएक यह रंग देखा तो घबराई। सब-इंस्पेक्टर ने चौकीदार या कान्स्टेबुल से कहलाया कि स्वामी जी यहाँ से चले जाए। परंतु मैं कब जानेवाला था? तब दारोगा स्वयं आए और चले जाने को कहा। धमकाया भी। मैंने कहा कि लिख कर आज्ञा दीजिए तभी सोचूँगा कि क्या करना चाहिएव। फिर तो वे सहमे और अपना सा मुँह लेकर चलते बनेव। मैं सदल-बल डँटा रहाव। जो भी वोटर या दर्शक आते, पहले मेरे ही पास कौतूहलवश आते जब मैं समझा देता तो सभी लौट जाते। मुझे ख्याल नहीं कि महाराजा को दो-चार भी वोट मिले या नहीं। हालाँकि मैंने उस समय भी देखा कि देहात के कुछ चलते-पुर्जे टुकड़खोर इसके लिए आकाश-पाताल एक कर रहे थे। यह ठीक है कि धोबी हार गया और महाराजा चुने गए। कहीं से कुछ-न-कुछ वोट तो मिल ही गए।

वहाँ से लौट कर मैं बक्सर आ गया। वहीं पर मास्टर साहब कहे जानेवाले श्री जयप्रकाश लाल जी के साथ ठहरा। अब मैं चाहता था कि खगड़िया चला जाऊँ। लेकिन कुछ विशेष परिचय हो जाने से, और कांग्रेस प्रोग्राम के अनुसार एक करोड़ कांग्रेस के मेंबर, एक करोड़ रुपए तिलक स्वराज्य कोष में और एक लाख चरखे, ये तीनों चीजें मुल्क में जुलाई मास बीतते-न-बीतते पूरी हो जाए यह प्रश्न आ जाने से कुछ ऐसा हो गया कि उसी में फँस कर जाना असंभव हो गया। मैं चरखे के काम में लग गया। सिमरी (डुमराँव) थाने से सस्ते-से-सस्ते चरखे बनवा कर बक्सर लाया और प्रचार जारी किया। इस समय बक्सर के कई बनिए उस काम में पड़ गए। उनने काफी सहायता दी। लेकिन बाबू भगवान दास में कुछ ऐसा परिवर्तन हुआ कि वह मुझे अब तक भूला नहीं। वे बड़े ही शौकीन थे। कई बक्सों में उनने तरह-तरह के कीमती विलायती कपड़े भर रखे थे जिन्हें समय-समय पर अपने काम में लाते थे। लेकिन सब छोड़ कर खद्दर का व्रत कर लिया। उनने उन सब कपड़ों की होली जला दी।

उस समय तो गाँधी जी इस होली के बड़े ही हामी थे। उन्हें या उनके अनुयायियों को ऐसी बातों में हिंसा की गंध बिलकुल ही नहीं मालूम पड़ती थी। मगर आज तो जमाने ने ऐसा पलटा खाया है कि साम्राज्यवाद के नाश, पूँजीवाद के नाश तथा जमींदारी प्रथा के नाश में और इनके पुतले जलाने में भी उन लोगों को हिंसा की बू आने लगी है। मालूम होता है आजकल उन लोगों की नासिका बहुत ही तेज हो गई है! पहले ऐसी न थी! संसार परिवर्तनशील है!

यहाँ पर यह कह देना अनुचित न होगा कि मैं कट्टर गाँधीवादी के रूप में ही कांग्रेस में और राजनीति में शामिल हुआ। अत: गाँधी जी के हर एक आदेशों का पालन अक्षरश: करता करवाता था ─ कम-से-कम करवाने की कोशिश भरपूर करता था। इसलिए स्वयं चरखा भी चलाना फौरन सीख कर कातना शुरू कर दिया। पीछे तो तकली शुरू कर दी। इस प्रकार चरखा चलाने की जो प्रतिदिन की पाबंदी अपने ऊपर रखी थी वह इससे अच्छी तरह पूरी होने लगी। मैं यह आशा करता था कि जो पढ़े-लिखे और समझदार लोग कांग्रेस में शामिल होंगे वह तो गाँधी जी के आदेशों और उनके बताए नियमों की पाबंदी अवश्य ही करेंगे। लेकिन पीछे जब जेल में गया तब तो भयं कर निराशा हुई थी। पर उसके पहले भी तिलक स्वराज्य कोष का धन एकत्र होते-न-होते असलियत का पता मुझे लगने लगा और मेरी आँखें खुलने लगीं।

काम की हालत यह थी कि जाड़ा, गर्मी और बरसात की परवाह कतई न कर दिन-रात गाँव-गाँव घूमता रहा। आज भी उन गर्मियों की जलती लू की घटनाएँ याद हैं। पाँव की हालत यह हो गई कि जूते मैंने छोड़ दिए। असल में चमड़े के जूते तो पहले से ही छूटे थे। रह गए थे रोपसोलवाले वह भी छूट गए। वह अच्छे मिलते भी न थे। जो मिलते भी थे वह इस घुड़दौड़ में टिकते कहाँ? दस ही दिन में खत्म हो जाते और इस प्रकार पानी की तरह जूते में रुपए कौन बहाए? जनता का पैसा इस प्रकार क्यों खर्च किया जाए? आखिर गाँधी जी का रास्ता तो तप का रास्ता ठहरा। तो फिर स्वयं कष्ट क्यों न भोगा जाए? बस, इन्हीं ख्यालों ने जूतों से भी असहयोग कराया। परिणाम यह हुआ कि गर्मियों के दिनों में भी पाँवों में लंबी दरार जैसी बिवाई फटी और चलना असंभव हो गया। कभी-कभी उसमें मोम डाल कर आग से सेंकता। इससे जरा दर्द कम होने से आराम मिलता। तब घूम-फिर सकता था। यह प्रक्रिया न जाने कितने महीने जारी रही। बेशक, सभी बातों में सिमरी के पं. रामदर्श पांडेय, पं. रामसुभग पांडेय आदि जवानों ने इस समय मेरा पूरा साथ दिया।

लेकिन हमने अनुभव किया इस असहयोग की पवित्र धारा में स्नान करने के लिए न जाने कितने पुराने पापी घुस आए। वह ऐसे बगुला भगत और महात्मा बन गए कि लोगों को आश्चर्य भी हुआ और भक्ति भी हुई। बहुतों ने समझा कि गाँधी जी के जादू ने काम किया जिससे इन भलेमानुसों के दिल भी पलट गए। ये लोग इतने अनशन और व्रत भी करने लगे कि ताज्जुब होता था। कितनों ने तो गैरिक वस्त्र धारण कर लिया! ठीक ही है। सामूहिक आंदोलन में सभी प्रकार के लोग आ ही जाते हैं। उन्हें रोक कौन सकता है? बहती गंगा में नहाना कौन नहीं पसंद करता? परिस्थिति का कुछ ऐसा प्रभाव भी हो जाता है कि पापियों की हिम्मत नहीं होती कि अपना पापाचार जारी रखें। वायुमंडल की यही तो खूबी है। लेकिन यह बात-यह जादू-यह असर ज्यादा दिन टिकता नहीं। आखिर श्मशान में मुर्दा जलाने के समय वैराग्य तो होता ही है। मगर वह स्थाई तो होता नहीं। ठीक यही बात वायुमंडल के वशीभूत हो कर काम करनेवालों की है। वह भी पीछे कुछ ही समय गुजरने पर दूसरा मार्ग-वही पुराना चिर-परिचित मार्ग-अपनाने लगते हैं। इसे कोई शक्ति रोक नहीं सकती।

थोड़े की दिनों के बाद मैंने देखा कि इस प्रकार के लोग अपनी करवटें बदलने लगे। अपने विकराल रूप की सूचना देना उनने शुरू कर दिया। लेकिन मेरा काम चलता रहा और सबों का सम्मिलित प्रयत्न नहीं रुका। आखिर में जून आते-न-आते तिलक स्वराज्य कोष की पूर्ति में सभी पिल पड़े। बक्सर ही तो मेरा कार्य क्षेत्र रहा। शहर छोटा है। वहाँ कोई व्यापार भी नहीं चमकता था। साधारण व्यापारी थे। फिर भी आरा शहर के सामने उसने बाजी मार ली। मुझे याद है कि आखिरी तारीख 31 जुलाई को श्री राजेंद्र बाबू का दौरा आरा और बक्सर में इसीलिए हुआ। अगर मैं भूल नहीं करता तो उन्हें आरे से प्राय: तीन सौ और बक्सर से आठ सौ या एक हजार रुपए मिले थे! ये रुपए तो उनके साथ ही चले गए।

मगर बीच-बीच में जो रुपए वसूल होते थे वह कुछ प्रांतीय ऑफिस में जाते और कुछ जिले, सबडिवीजन या थाने में ही रह जाते। मैंने देखा कि इन्हीं रुपयों को ले कर गड़बड़ी शुरू हुई। कुछ भलेमानसों ने ईधर-उधर उड़ाना शुरू कर दिया। यह बात मुझे बर्दाश्त न थी। मैं तो सार्वजनिक पैसे को सबसे अधिक पवित्र चीज मानता हूँ। लेकिन पैसे आते ही लोगों ने अपना रूप पलटा। फलत: मुझसे और वहाँ के अनेक कार्य कर्ताओं से तनातनी शुरू हो गई। उसका अंत तब हुआ जब मैंने ऊब कर नवंबर के अंत में बक्सर छोड़ ही दिया। मैं गाजीपुर चला गया। वहाँवाले बहुत ही पीछे पड़े थे। मैंने भी सोचा कि यहाँ रह के खटपट करते रहना और काम में बाधा देखना ठीक नहीं। वहीं चलो।

सन 1921 ई. के गर्मियों में मौलाना मुहम्मद अली के साथ-साथ गाँधी जी का दौरा युक्त प्रांत में हो रहा था। वह बिहार भी आने को थे। हमने बहुत आग्रह और तैयारी के साथ उन्हें बक्सर बुलाया। प्रांतीय नेता इस शर्त पर तैयार हुए कि मोटर से ही उन्हें आरा पहुँचाया जाए। कम-से-कम दो अच्छी मोटरें चाहिए थीं। बक्सरवालों ने बात-की-बात में कई सौ रुपए इसके लिए एकत्र कर लिए। दो मोटरें किराए की ठीक हो गई। कोशिश की गई कि स्टेशन पर वह कब उतरेंगे यह सूचना किसी को न दी जाए। बात भी ऐसी हुई। मगर अंदाज से ही लोग रात के 3 बजे ही स्टेशन पर आ डँटे। अपार भीड़ हो गई। वे लोग सभी ठहराए गए श्री चुन्नी राम जी के कोठे पर। सभा का प्रबंध शहर से हट के पूर्व बाग के उत्तर मैदान में था। अंदाज था कि सवेरे ही 8 बजे तक सभा कर के वहाँ से चले जाएगे। फलत: लोग आधी रात से ही सभास्थान में एकत्र होने लगे। सुबह तक भारी भीड़ हो गई। बिना पाखाना, पेशाब किए ही लोग प्रतीक्षा में थे कि जल्द खत्म होने पर लौटेंगे।

मगर गाँधी जी ने एकाएक वज्रपात सा कर दिया। उनने ठीक सुबह कह दिया है कि आज गुरुवार होने से चार घंटे तक 'नवजीवन और यंग इंडिया' के लिए लेख लिखेंगे। अत: सभा दोपहर के पूर्व न हो सकेगी। मेरे सिर पर आफत थी। लोग गर्मियों के कारण प्यास और भूख से तड़प रहे थे। तिस पर तुर्रा यह कि कितनों को नहाने-धोने या पाखाने तक का मौका न मिला था। स्थान से हटना असंभव था अगर हटते तो पीछे दूर खड़े होने के कारण दर्शन ठीक-ठीक कर न सकते। फलत: सबने मुझे ही कोसना शुरू किया कि आपने ही धोखा दिया कि सुबह सभा होगी। मेरी दलील तो कोई सुनने को रवादार न था। मैं भी कभी यहाँ कभी वहाँ दौड़ता था। धूप के मारे लोग जल रहे थे। मैं भी विवश तलमल कर रहा था। पर करता क्या?

इतने में बलियावालों ने एक अलग तूफान बरपा किया।गाँधी जी का प्रोग्राम तो वहाँ के लिए था नहीं। पर, वे लोग खामख्वाह उन्हें ले जाने पर तुले थे। जब कुछ उपाय न देखा तो गाँधी जी के डेरे के सामनेवाली सड़क के दोनों छोरों पर सड़क घेर कर सैकड़ों आदमी लोट गए और कहा कि जब तक गाँधी जी चलने को वचन न देंगे हम न हटेंगे, उनकी मोटर जाने न देंगे।गाँधी जी माननेवाले थे नहीं। वे लोग भी सुननेवाले न थे। इससे सभा में और भी देर होने लगी। मेरे सिर और भी आफत थी। आखिर गाँधी जी ने जब यह वचन दिया कि बलिया जरूर चलेंगे, मगर पीछे, अभी नहीं, तब कहीं वे लोग हटे और वे सभा में जा सके। मगर दोपहर से ज्यादा हो रहा था और लोग ऊब चुके थे। फलत: गाँधी जी के सभास्थान में पहुँचते ही हो-हल्ला मचा। इससे किसी का भी भाषण न हो सका।

ठीक 17 नवंबर की बात है। बादशाहजादा साहब बंबई में जहाज से उतरनेवाले थे। उन्हें यहाँ उस नवीन विधान को लागू करना था जिसका बायकाट कांग्रेस ने किया था। इसलिए सर्वत्र हड़ताल की बात थी। बलिया (ददरी) के मेले में हम लोग थे। समस्या पेचीदा थी। मेले में हड़ताल हो तो हमारी सफलता समझी जाए। लेकिन मेला तो बहुत बड़ा होता है। फिर भी इतना प्रचार किया गया कि उस दिन एक दूकान भी न खुली! एक डिप्टी साहब सदल-बल घूम रहे थे यही देखने के लिए कि हड़ताल कैसी है। एक पानवाले से पान लेना चाहा तो उसने साफ इन्कार कर दिया। फिर चूड़ीवाली एक बुढ़िया के पास जा कर कपड़े के नीचे ढँकी चूड़ियों पर (क्योंकि हड़ताल के करते उसने उन्हें ढँक दिया था) उनने अपनी छड़ी से धीरे से ठोंका और कहा कि इन्हें बेचती क्यों नहीं? ढँक के क्यों रखे हैं? बुढ़िया ने इस प्रकार झल्ला कर जवाब दिया कि उन्हें काट खाएगी। फिर तो डिप्टी साहब भक्कू बन गए। हमने अपनी पूरी सफलता मानी। आखिर में तीसरे पहर के बाद मुनादी करवा दी गई कि अब दूकानें खुल सकती है और लोग खाने-पीने की चीजें खरीद-बेच सकते हैं। तब कहीं जा कर दूकानें खुलीं।

(4)

भारी भूल

उन्हीं दिनों ब्रह्मपुर के मेले में मुझे एक बड़ा ही कटु अनुभव हुआ और हिंदुओं की गोरक्षा की पोल मैंने बखूबी समझ ली। बक्सर सबडिवीजन के ब्रह्मपुर, जिसे काँटब्रह्मपुर भी कहते हैं और जो पुलिस स्टेशन भी हैं, में फाल्गुन और वैशाख के कृष्णपक्ष के अंत में, शिवरात्रि को, बहुत अच्छा मेला लगता है। वहाँ पशुओं की बिक्री काफी होती हैं। घोड़े, भैंसें, गायें तथा बैल खूब जमा होते और बिकते हैं। वहीं के क्षत्रिय जमींदारों की जमीन में मेला लगने से वे काफी पैसे भी कमाते हैं। फी पशु कुछ पैसे वे वसूल करते हैं। प्रधानतया पशुओं का ही वह मेला माना जाता हैं।

वहीं पर तालाब के किनारे बाबा ब्रह्मेश्वर या वर्मेश्वरनाथ का प्रसिद्ध मंदिर है। उसके पुजारी भी खूब हाथ गरमाते हैं। क्योंकि जितना ही मेला जमेगा उतने ही अधिक आदमी आएँगे और उतना ही ज्यादा चढ़ावा उन्हें मिलेगा ─ शिव बाबा पर उतनी ही ज्यादा (पूजा) चढ़ेगी। इसीलिए धर्म के ठेकेदार पुजारी लोग, जो ब्राह्मण कहे जाते हैं और क्षत्रिय जमींदार, जो हिंदुओं की पोथियों में धर्मरक्षक कहे गए हैं ─ ये दोनों ही चाहते हैं कि मेला बड़े से बड़ा हो। इसका सीधा अर्थ है कि पशु ज्यादा बिकें। यह भी तयशुदा बात है कि पशुओं में ज्यादातर गाय और बैल ही रहते हैं।

पैसा कमानेवाले इन दो दलों के सिवाय एक और भी दल हैं जो वहाँ से कुछ दूर उत्तर गंगा तट पर या तो गंगा में नाव चलाता या घाट का ठीका गवर्नमेंट से या डि. बोर्ड से लेता हैं। ठीकेदार और मल्लाह दोनों ही चाहते हैं कि जितने ज्यादा पशु नाव के द्वारा पार होंगे उतना ही ज्यादा पैसा हमें खेवा के रूप में मिलेगा। इसलिए पशुओं का मेला उस दल के फायदे का है। वह दिल से मेले में ज्यादा पशु चाहता है। उसी दल के जैसा एक चौथा दल पशुओं के व्यापारियों का है जो दूरदराज से झुंड के झुंड गाय-बैलों को खरीद कर मेले में लाता और इस प्रकार उनकी खरीद बिक्री से फायदा उठाता है। इसलिए यह भी स्वभावत: मेले की तरक्की चाहता है जिसका पुनरपि साफ अर्थ है ज्यादा गाय-बैलों की बिक्री। मैंने देखा कि सारन और खास कर चंपारन जिले के व्यापारी झुंड के झुंड पशुओं को गंगा पार कर के उस मेले में लाते हैं।

अब दो दल और रह जाते हैं जो इस पशु बिक्री के समर्थक हैं। एक तो आस-पास की देहात के खरीद-बिक्री करनेवाले या ऐसे लोग भी जो गिरोह के गिरोह पशु खरीद कर दूसरी देहात या और मेलों में बेचते हैं। सामान्यत: तो देहात के लोग आसानी से मेले में अपने गाय-बैलों को बेच-खरीद लेते हैं। लेकिन जिस प्रकार बेचनेवाले व्यापारी पशुओं के दल लाते हैं उसी प्रकार ऐसे खरीदार भी होते हैं जो वहाँ से खरीद कर अन्यत्रा बेचते हैं और इस तरह पैसे कमाते हैं। दूसरा दल कसाइयों का है जो आसानी से बेखटके मेलों में ही गाय-बैल खरीद कर कसाईखानों में बेचता है। उसके लिए मेले से बाहर खरीदना शायद ही संभव हो। उसमें खतरे और दिक्कतें भी हैं। चोरी से खरीदना होगा नाम बदल कर। खर्च भी ज्यादा पड़ेगा। परेशानी भी खूब होगी। कहीं पता लग गया तो लूटपाट, मारपीट और खून खराबी का भी डर है। इसलिए ये लोग भी मेलों की तरक्की चाहते हैं।

सबके ऊपर सरकार है जो इन मेलों की रक्षक बनी बैठी है। उसे यह भी देखना है कि कंटोन्मेंटों (फौजी छावनियों) में गोरे सिपाहियों को बराबर मांस मिल सके। इसलिए जहाँ वह एक ओर मेले की रक्षा चोर-बदमाशों से करती है, ताकि वह बेखटके खरीद कर पशुओं को छावनियों में पहुँचाया करें। अगर ये मेले न हों तो सरकार के लिए भी एक पहेली खड़ी जो जाए कि छावनियों के लिए पशु कहाँ से कैसे खरीदे जाएँगे। इस पहेली को सुलझाना उसके लिए भी आसान नहीं, अत्यंत कठिन, वरन असंभव सी बात है। इसलिए वह भी स्वभावत: मेलों की खैर मनाती ही है। इस प्रकार इन पशुमेलों के समर्थक पूरे सात दल हैं।

ऐसी परिस्थिति में मैंने ना समझी से सोचा कि आज हिंदू-मुसलिम मेल का युग है और यह गाय तथा कसाई का सवाल ही सबसे बड़ा बाधक इस मेले में हैं। क्योंकि तब मस्जिद के सामने बाजा और मंदिर में पूजा, आरती या घड़ियाल बजाने का प्रश्न उठा ही न था और अगर कहीं उठा भी हो तो किसी को उसका आम पता न था। यह तो पीछे उठा है। यह असहयोग युग के बाद की बात है जब 1924 में और उसके बाद शुद्धि और तंजीम की विकट समस्याएँ आ खड़ी हुईं। उसी समय उन्होंने इन पहेलियों को जन्म दिया जो शुद्धि और तंजीम के झगड़े खत्म हो जाने के बाद भी नहीं सुलझी है। प्रत्युत प्रतिदिन पेचीदा बनती जा रही है।

इसीलिए मैंने सोचा और साथियों से राय की कि कोशिश कर के इस सवाल को हल कर दिया जाए। राय बैठ गई और हमने आसपास के जिलों को भी खबर भेज दी कि आप लोग भी कोशिश कर के लोगों को अपने-अपने जिलों में समझा दें, कि ब्रह्मपुर में गाय, बैल न लाएँ। मगर असली काम तो था हमारा शाहाबाद जिले में ही मेले के चारों ओर के इलाके में प्रचार करना। इसके बाद मेले के समय हमने उसके चारों तरफ के रास्तों पर मेले से कुछ दूर कसके पिकेटिंग करवाई कि कोई भी आदमी गाय-बैल मेले में न ला सके। उधर हमने अपने स्वयंसेवकों के दल के दल मेले में लगा दिए कि जो पशु आ भी जाए उन्हें कसाइयों को खरीदने न दिया जाए। इसका सीधा रास्ता हमने यह निकाला कि यत्न कर के कसाइयों को जान लिया और उनके साथ-साथ अपने आदमी लगा दिए। जहाँ ये कसाई जाते वहीं पर धीरे से हमारे आदमी लोगों से कह देते कि यह कसाई है।

इस प्रकार हमने पूरी बंदिश तो की। लेकिन अब हमारी दिक्कतें सुनिए। कसाई लोग बेखटके और बड़ी ही शांति से रोक लिए तो गए। मगर वे नफे के लिए आए थे और अब घर का पैसा खर्च कर के लौटना उनके लिए मौत थी। उस पर खूबी यह कि सरकार और पुलिस उन्हें खरीदवाने के लिए तैयार थी और जरूरत होने से हमारे आदमियों की धरपकड़ भी करती। ऐसा हमें मालूम भी हुआ। मगर तब जब हमने किसी प्रकार कसाइयों को स्टेशन पहुँचा दिया। कसाई लोग डरते भी थे कि कहीं मारपीट न हो जाए। लेकिन पुलिस के बल पर हिम्मत भी रखते थे। इतना ही नहीं। हमने वहीं पर देखा कि कसाइयों के एजेंट ब्राह्मण और दूसरे हिंदू थे जो माथे पर चंदन की बड़ी टीका लगा तथा कंठी बाँध कर यह काम करते थे। हमने कइयों को पकड़ा भी था। इन एजेंटों के बल पर भी कसाइयों को हिम्मत होती थी। हमें डर था कि यदि सरकारी पुलिस ने जोर दे कर खरीद करवाई तो दंगा हो जाएगा और सारा गुड़ गोबर हो जाएगा। इसलिए हम भी डरते थे और कसाई भी। इस तरह वे लोग जैसे-तैसे राजी हुए कि कम-से-कम लौटने का टिकट तो कटवा दीजिए। क्योंकि नफा तो खत्म ही है। खैर, इतना भी तो हो। हमने भी गनीमत समझी और बड़ी दिक्कत से मेले में दो सौ से ज्यादा रुपए चटपट जमा कर उन्हें स्टेशन पहुँचाया तब कहीं साँस ली।

मगर इस बीच में जो असली संकट आया वही तो मजेदार है। हिंदू एजेंटों की बात तो मामूली थी। ज्यों ही हमने मेले के चारों ओर पिकेटिंग शुरू की, कि वहाँ के जमींदार हम पर आगबबूले हो गए। वे कहने लगे कि आप तो हमारा मेला तोड़ कर हमारी आमदनी चौपट कर रहे हैं! मंदिर के पंडे अलग बिगड़े! उन्होंने हो-हल्ला मचाना शुरू किया कि जब गाय-बैल यहाँ आएँगे ही नहीं तो आदमी क्या आएँगे? फिर तो हमारा चढ़ावा ही जाता रहेगा, हमारी आमदनी ही घट जाएगी! इसलिए आप लोग हमारे शत्रु हैं। जो लोग झुंड-के-झुंड पशु लाते थे रोकने पर उनने अलग रोना-चिल्लाना शुरू किया कि बाप रे बाप, हजारों रुपए लगा कर हमने पशु खरीदे हैं। हम तो एक ही बार लौटाने पर उजड़ जाएगे और हमारे बाल-बच्चे मर जाएगे। उधर गंगा के किनारे घाट का ठीकेदार और मल्लाह कहते थे कि पशुओं की आमदनी ही तो असल चीज है। अगर आपने यही रोक दी तो हमारा तो दिवाला ही समझिए लड़के-बाले भूखों मरेंगे। इतना ही नहीं, घर-बार बेच कर हमें सरकार को ठीके का पैसा चुकाना पड़ेगा। इन सबों के सिवाय देहात के लोग अलग बिगड़ते थे कि हम लोगों का तो बराबर का प्रोग्राम ही खत्म हो रहा है। हमारी खरीद-बिक्री, जो निहायत जरूरी और आसान है, मिट्टी में मिल रही है। मेले के दूकानदारों की भी कुछ ऐसी ही हायतौबा थी। सरकार तो रंज थी ही और कलेक्टर साहब के रोष से उस बार हम लोग कैसे बचे यह भी एक कहानी ही है।

यह भी जान लेना चाहिए कि सरकार को छोड़ कर, जो इतना खुल कर आगे आई भी नहीं, शेष सभी ऊपर के बताए अच्छी तरह आगे आए और हमारे खून के प्यासे बन गए। खूबी तो यह कि वे सभी के सभी हिंदू ही थे, सो भी ब्राह्मण क्षत्रियादि। यही लोग गोरक्षा और कसाई का तूफान बहुत मचाते हैं। अगर कसाई गौ खरीद ले तो इन्हीं का धर्म रसातल चला जाता है, इन्हीं के भगवान रंज हो जाते हैं और इन्हीं के लिए रौरव नरक का द्वार खुल जाता है! यही लोग गोरक्षा और गाय गुहार की पुकार दिन-रात मचाते रहते हैं। मगर इनने ही हमारे गोरक्षा के सर्वश्रेष्ठ मार्ग का जी-जान से विरोध किया। हम सबों को ही लाख समझाते रह गए कि आप ही के धर्म की बात है, जिसे आप ही पुकारते हैं। मगर सुने कौन? हमारी दलील, हमारी सरतोड़ कोशिश तो आँधी के सामने पंखे की हवा की तरह थी। फिर उसका असर क्यों होने लगा?

इसका कारण क्या था? यही न, कि धर्म और भगवान उनके सामने आए तो सही, रुपए-पैसे के खिलाफ, रुपए पैसे के विरोधी बन कर। इसीलिए उनका तिरस्कार हुआ। वे सँभल कर नहीं आए। उन्होंने और हमने भी यह नहीं सोचा कि किसके विरोध में खड़े हो रहे हैं। वही तो भारी भूल थी। छोटे धर्म और छोटे भगवान ने बड़े धर्म और बड़े भगवान ─पैसे का ─ विरोध किया और पछाड़े गए। अध्यात्मवाद (Spiritualism) की भौतिकवाद (materialism) से जम के भिड़ंत हुई और अध्यात्म बुरी तरह पछाड़ा गया। उसे आगे के लिए कसके चेतावनी दी गई कि खबरदार, ऐसी भूल फिर कभी न करना, नहीं तो नतीजा देखा न? मेरी तो आँखों का पर्दा ही खुल गया। मैंने साफ देखा कि धर्म का प्रश्न किस कदर बाहरी और दिखावटी है। यह कितने धोखे की चीज है। मेरी कट्टर धार्मिक भावना को बड़ी ठेस लगी और मैं तिलमिला गया।

यद्यपि यह एक ही दृष्टांत धर्म की असलियत पर काफी प्रकाश डालनेवाला था। तथापि उस समय मैंने उसे इतने व्यापक रूप में नहीं लिया। मैंने सिर्फ इतना ही परिणाम निकाला कि हिंदुओं का गोरक्षा का प्रश्न ढोंग और फरेब है, दिखाऊ और बनावटी है। अत: इसमें कभी साथ नहीं देना चाहिए। मैंने यह भी मान लिया कि इस प्रकार गोरक्षा का प्रश्न निरी नादानी है और हिंदू इसे कर भी नहीं सकते। मैंने इस गोहत्या का दोषी तब से सोलहों आने हिंदुओं को ही मानना शुरू कर दिया और आज भी मेरी वह स्थिति ज्यों की त्यों है।

यह ठीक हैं कि वह घटना समस्त धर्म के नाम और वास्तविक रूप पर पूरा प्रकाश डालनेवाली थी, न कि किसी खास धर्म के ऊपर। मैंने आगे चल कर यही समझा भी। मगर उस समय उसका इतना व्यापक निष्कर्ष निकालना मेरे लिए असंभव था। एक तो धर्म का भूत पहले से ही सिर पर सवार था। दूसरे उसी धर्म-भावना से प्रेरित हो कर राजनीति में आया था। तीसरे गाँधी जी राजनीति को धर्म से अलग मानते ही न थे और इसीलिए उसके सभी पहलुओं को धार्मिक रूप दे रहे थे। और मैं था उन दिनों उनका कट्टर हिमायती। नियमित रूप से यंग इंडिया पढ़ता था। इसलिए सहसा मेरे लिए यह असंभव था कि पूरे धर्म के संबंध में ही वैसा निष्कर्ष उस घटना से निकालूँ।

सच बात तो यह है कि बाहरी दुनिया का उस समय वैसा पूरा और निकट से अनुभव भी मुझे न था। लेकिन पीछे तो अनुभव ने बताया है कि धर्म की वही हालत ही है। फलत: आज धर्म के बारे में मेरी विचित्र परिस्थिति है। एक ओर तो पचासों वर्षों का पूरा संस्कार है और उसी के साथ गीता मेरी रगों में भिनी हुई है। दूसरी ओर ठीक उसके विपरीत जीवन भर के अनुभव हैं, सो भी अत्यंत निकट से। इसलिए आगे क्या होगा यह कह नहीं सकता। लेकिन यह ठीक है कि आज धर्म के संबंध की मेरी पुरानी धारणाएँ छिन्न और निर्मूल हो गई हैं और उसके बारे में मेरे विचारों में क्रांति हो गई है। उसके लिए जिस रूप में जैसा स्थान मेरे दिल में हैं उसका वर्णन अन्त में मिलेगा। फिर भी इतना तो ठीक ही हैं कि धर्म सार्वजनिक वस्तु नहीं है और न वह सबके लिए है भी। यह तो अपवाद-रूप ही किसी-किसी के लिए है, न कि नियम के रूप में। सो भी बिलकुल व्यक्तिगत चीज है। उसका भी रूप मैं कुछ निराला ही मानता हूँ जो प्रचलित धारणा से सर्वथा भिन्न है।

(5)

अहमदाबाद कांग्रेस

जैसा पहले कहा है, साल बीतते-न-बीतते मैं गाजीपुर चला गया और वहीं काम में लग गया। वहीं से हम कई साथियों के साथ अहमदाबाद कांग्रेस में शामिल होने के लिए रवाना हो गए। हमने रास्ते में कई बातें देखीं। एक तो जयपुर में उतर कर वहाँ का जेलखाना देखा। हमें यह देख कर खुशी और आश्चर्य दोनों ही हुए कि वहाँ के कैदी पशु बना कर या अपमानित कर के नहीं रखे जाते थे। उन्हें हमारी जेलों जैसे धारीदार कपड़े भी नहीं मिलते थे। गाँछिया, टोपी आदि न दे कर धोती, गमछी दी जाती थी। वायुमंडल ऐसा था कि वे अपने को उठा सकें, न कि और गिराते जाए जैसा कि ब्रिटिश-भारत की जेलों में होता है। सबसे बड़ी बात यह थी कि गलीचे, दरी आदि कारीगरी के ऐसे काम उन्हें सिखाए जाते थे कि बाहर जा कर दो-चार रुपए रोजाना आसानी से कमा सकें। ऐसा हमें बताया गया। हमने वहाँ की बनी चीजें देखी भी। यह भी कहा गया कि एक बार जो इस जेल से बाहर जाते है वे शायद ही फिर कभी आते हैं!

दूसरी बात यह थी कि रास्ते में हमारी गाड़ी जयपुर के आगे नहीं रुकती थी वहीं पंजाबियों का एक दल चट करताल आदि ले कर स्टेशन पर उतर पड़ता और,'नहि रखनी सरकार जालिम, नहि रखनी' गीत गाने लगता। इस उमंग और तानसुर के साथ मस्ती में यह गीत वह लोग गाते थे कि दंग रह जाना पड़ता था। इससे स्टेशनों पर भीड़ एकत्र हो जाती थी।

कांग्रेस के अध्यक्ष देशबंधु चितरंजन दास थे। मगर सरकार ने उन्हें पहले ही कैद कर लिया। फलत: हकीम साहब अजमल खाँ को सदारत करनी पड़ी। कांग्रेस में जोश की बात तो कहिए मत। लहरें उमड़ रही थीं। उसी अधिवेशन में सत्याग्रह के नियम और प्रतिज्ञा-पत्र पास हुए थे। वहीं मौलाना हसरत मुहानी ने कांग्रेस के ध्येय से (स्वराज्य) पद निकाल कर (पूर्ण स्वतंत्रता) रखने का संशोधन पेश किया था जो गाँधी जी की बातों का अंध भक्त था। अत: मुझे मौलाना की बात कुछ रुची नहीं। यह तो न जाने कितने दिनों के बाद ठीक जँची हैं और अब तो उतने से भी मेरा काम चलता नहीं दीखता। अब तो उस पूर्ण स्वतंत्रता की भी पूरी सफाई चाहता हूँ। मौलाना वहीं पर मुसलिम लीग के अधिवेशन के अध्यक्ष थे। उसी पद से जो भाषण उन्होंने दिया उसी पर पीछे उन पर केस चला और वे कैद हो गए। आज की मुसलिम लीग में और तबवाली में जमीन-आसमान का अंतर था। आज कवि के शब्दों में ''वह बुलंदी यह तबाही, वह जलाल और यह जवाल'' उसके बारे में अक्षरश: चरितार्थ होता है।

गाँधी जी का भाषण मैंने बहुत ही ध्यान से सुना, सुनने ही लायक था। टेबल पर बैठ कर बोल रहे थे। सारा शरीर खास कर चेहरा सुर्खी लिए हुए था। मालूम होता था बड़ी गंभीरता के साथ काल के रूप में कोई शक्ति सरकार को ललकार रही और चेतावनी दे रही है कि सँभल जाए। घंटों बोलते रहे। पंडाल में पूर्ण शांति बिराजती थी। उनका वैसा भाषण और वैसा चेहरा मैंने फिर कभी नहीं देखा। उनके एक-एक शब्द सरकार के लिए वज्र की तरह मालूम पड़ते थे। मालूम होता था कि कालाग्निरुद्र बोल रहा हैं, गर्ज रहा है और इसके बाद ही प्रलय लाएगा।

एक बात कहना मैं भूल ही गया। सरकार का रवैया दिसंबर आते-न-आते बदल चुका था। क्रिमिनल लाँ एमेंडमेंट कानून लागू कर के उसने स्वयं सेवक भर्ती करने या बनने की मनाही कर दी थी। इसलिए जगह-जगह से लोग जिलों के मजिस्ट्रेटों को पत्र लिखने लग गए थे इस बात की सूचना के रूप में, कि हम स्वयं सेवक भर्ती करते और बनते हैं। सरकार को ललकारने का सोचा गया था। अभी शीघ्र ही युक्त प्रांत की कांग्रेस कमिटी के 55 सदस्य मीटिंग के समय एक ही साथ पकड़े गए भी थे। कारण, वह गैर कानूनी संस्था करार दी गई थी। इसलिए सरकार को ललकारना जरूरी हो गया था। हम जो तीन-चार आदमी गाजीपुर से डेलिगेट हो कर अहमदाबाद गए थे उनमें कुछ ने रवाना होने के पहले ही मजिस्ट्रेट को यह सूचना भेज दी थी। बाकियों ने, जिनमें मैं भी था, ट्रेन से ही लिख भेजा। इसका परिणाम यह हुआ कि अहमदाबाद से लौटते ही मेरी जेल यात्रा की तैयारी हो गई।

यहाँ जेल यात्रा की तैयारी के संबंध में यह भी लिख देना है कि मैंने जेल की तकलीफों को सोच कर उनके लिए अपने को पूर्व से ही, कई महीने से, तैयार किया था। अभी तक तो जेल का मौका आया ही नहीं था। सिर्फ लोगों की जबानी उसके कष्ट सुने थे। तदनुसार ही तैयारी की थी।

मेरी एक आदत पढ़ने के समय से ही थी। मैं सिर में सोने के समय कोई ठंडा तेल, आम तौर से तिल का बराबर लगाया करता था। वह निहायत जरूरी था। हालत यह हो गई थी कि एक दिन भी न लगने पर सारा माथा ही गर्म हो जाता था और दर्द करने लगता था। मैंने सोचा कि बीसियों साल की यह आदत जेल में बहुत परेशान करेगी। इसलिए पहले से ही तेल छोड़ कर अभ्यास कर लेना चाहिए। ताकि उसके बिना काम चल सके। इसलिए बक्सर में रहने के समय से ही मैंने उसे छोड़ दिया था। मैंने पहली बार विशेष रूप से अनुभव किया कि मनुष्य के संकल्प और दृढ़ निश्चय में बड़ी ताकत है और इसके बल से वह जो चाहे कर सकता है। इसीलिए संकल्प कर के तेल का सेवन छोड़ देने पर मुझे एक दिन भी कष्ट नहीं प्रतीत हुआ। प्रत्युत बराबर तेल की चिंता उसे लगाने और कपड़ों के गंदे हो जाने की फिक्र से मैं सदा के लिए बच गया। तब से आज तक मैंने सिर में तो कभी तेल लगाया नहीं। देह में तो उससे पहले से ही लगाना और मालिश करना न जानें कब से छूटा था। आज भी छूटा ही है। फलस्वरूप ज्वर होने पर भी देह में दर्द भले ही हो। लेकिन सिर में दर्द होता ही नहीं। यों भीसिर दर्द ने मुझे तब से कभी नहीं सताया। जाड़े के दिनों में तेल न लगाने से शरीर में रुखड़ापन आने की बात भी मैंने नहीं पाई। बेशक ईधर दो वर्षों से दोनों पाँवों के तलवों में सोने के समय जरा सा कड़घआ तेल की मालिश करता हूँ। क्योंकि ईधर उम्र ज्यादा होने से जब कभी ज्यादा बोलता या लंबा भाषण करना पड़ता है तो सिर में एक तरह की खुश्की सी मालूम पड़ती है इस मालिश से खत्म हो जाती है। जाड़ों में खुश्की से होठ भी अब कभी नहीं फटते।

(6)

पहली जेल यात्रा गाजीपुर में

अहमदाबाद से लौटते ही गाजीपुर में स्टीमरघाट पर खुफियापुलिस के दर्शन हुए। वह परेशान सी नजर आई1 जनवरी 1922 की बात है। हमने समझ लिया कि अब गिरफ्तारी होगी। हुआ भी ऐसा ही। जहाँ तक याद है, 2 जनवरी को पुलिस के अफसर जिला कांग्रेस कमिटी के कार्यालय में सवेरे ही पहुँचे और दिन निकलते न निकलते उनने हमें तैयार हो जाने की सूचना दी। फिर क्या था? नहा-धो के और कुछ खा-पी के हम तैयार हो गए। मालाएँ पहन-पहना कर कोतवाली लाए गए और वहाँ से जेल के भीतर दाखिल हुए।

हमने अंदर जाते ही एक गूँजती आवाज सुनी जो बहुत ही तेज थी। हम समझ न सके कि यह क्या बला है। इतने में जेलर ने आ के कहा कि बलिया जिले से कुछ राजनीतिक बंदी यहाँ आए हैं। वे काम तो कुछ करते ही नहीं। उलटे तूफान मचाते और चिल्लाते हैं। मैं भौंचक सा रह गया। क्योंकि गाँधी जी की सख्त आज्ञा थी कि जेल के सभी नियम माने जाए और कोई गड़बड़ी न की जाए। जेलर ने कहा कि जरा चल के समझा दीजिए। मैं गया। वहाँ पर, चक्की घर में, बलिया के परिचित कार्यकर्ता मिले। उन्हें गेहूँ पीसने का काम मिला था। मगर वे तो गेहूँ पीसने के बजाए उसमें मिले एकाध चने को चुन-चुन कर खाते और 'महात्मा गाँधी की जय' चिल्लाते थे। मुझे देखते ही चुप हो गए। दंड प्रणाम के बाद अहमदाबाद कांग्रेस की बात उत्सुकता से पूछने लगे। मैंने संक्षेप में सब कुछ बता कर पूछा कि यह चिल्लाहट क्यों? काम करने से इन्कार क्यों? उत्तर मिला कि हम तो नारे लगाते हैं। पहले जो नारे लगाते थे उन्हें आज क्यों छोड़ दें? काम भी क्यों करें? मैंने कहा कि 'गाँधी जी की जय' बोलते हैं। उन्हीं की बात मान कर जेल आए हैं। यह उन्हीं की आज्ञा है कि जेल के सभी नियमों की पाबंदी होनी चाहिए। काम करना चाहिए और नारे बंद होने चाहिए। उन्होंने उत्तर दिया कि ''वाह हम दुश्मन की मदद काम कर के क्यों करें? नारे भी क्यों बंद करें?'' गो कि उस समय उन्होंने मेरे लिहाज से नारे बंद कर दिए। फिर भी मैं उन्हें समझा न सका। मैं इस काम में असमर्थ रहा। फलत: न तो उनके नारे बंद हुए और न उनने काम ही किया। तब तक तो शीघ्र ही मैं कुछ लोगों के साथ बनारस जेल भेज दिया गया।

इस घटना ने मुझे निराली दुनियाँ में पाया। मैं ताज्जुब में था कि यह क्या हो रहा है?गाँधी जी की आज्ञा का उल्लंघन पढ़े-लिखे लोग इस प्रकार क्यों करते हैं? मुझे 'गाँधी जी की जय' के साथ-साथ उनकी आज्ञा की यह भयंकर अवहेलना बुरी तरह खली। मुझे लक्षण अच्छे न दिखे। तब से मैंने बराबर यह बात पाई। दूसरी बार जब सन 1930 ई. में हजारीबाग जेल में था तो वही बात देखी।गाँधी जी का जहाँ तक जेल नियमों के बारे में आदेश था वहाँ तक वह कतई लापता थे। उनकी बातों की रत्तीभर भी परवाह प्रथम और दूसरे विभाग के राजबंदी नहीं करते थे, हालाँकि देश के वही नेता थे। आगे स्वराज्य की सरकार भी उन्हें ही चलानी है। मैंने देखा कि हजारीबाग जेल में राजेंद्र बाबू भी असमर्थ थे। उनकी परवाह कोई न करता था। इसीलिए तभी से मैंने बार-बार सोचा और ईधर और अनुभव होने पर मन-ही-मन कहा कि एक दिन 'गाँधी जी की जय' बोल कर उनकी हत्या लोग ठीक इसी प्रकार कर सकते हैं यदि जरूरत समझें, जिस तरह आज उनके आदेशों की हत्या कर रहे हैं।'महावीर की जय' बोल कर लूटपाट करने, आग लगाने या मुसलमानों के साथ मारपीट करने का अर्थ भी मैं उसी समय समझ पाया।

असल में चाहे हम लाख आदर्शवादी बनें और उसका प्रचार करना चाहें। लेकिन जनता की अपनी कसौटी होती है चीजों के तौलने की। उसके अपने रास्ते होते हैं काम करने के। अगर हमारी बातें उसकी कसौटी पर खरी उतरें तब तो ठीक है। तब तो वह उनकी पाबंदी अच्छी तरह करेगी। लेकिन खरी न उतरने पर उन बातों के अमल के नाम पर उलटी बातें करेगी। इसी प्रकार उसके अपने रास्ते से भिन्न रास्ते पर यदि आप उसे चलाना चाहेंगे तो यही खतरा होगा। कुछ समय तक या आपके सामने भले ही वह आपके रास्ते पर चलती नजर आए। लेकिन पीछे तो खामख्वाह वह अपना चिरपरिचित रास्ता ही पकड़ेगी। यह धा्रुव सत्य है। संसार का और उसमें पैदा होनेवाले अनेक धर्म, मजहबों एवं सभ्यताओं का इतिहास साफ बताता है कि समय-समय पर अवतार, पेशवा, पैगंबर, मसीहा या ऋषि-मुनि पैदा होते हैं सही। वे एड़ी-चोटी का पसीना एक करने के बाद बड़ी कठिनाई से कुछ ही समय के लिए कुछ लोगों को सत्य, नम्रता, दया आदि के रास्ते पर लाते हैं भी। लेकिन फिर उनके हटते ही ढीलापन और गड़बड़ घोटाला अपना सिर उठाने लगते हैं। यह बात पहले तो नहीं मालूम पड़ती। मगर पीछे साफ दीखने लगती है और कुछ दिनों के बाद 'वही रफ्तार बेढंगी' शुरू हो जाती है। हजारों और लाखों वर्षों की इन सबों की कोशिशों के बाद भी इस दुनिया में वही असत्य, वही निर्दयता, वही अनाचार-व्यभिचार आदि भीषण रूप से आज भी पाए जाते हैं! गोया कुछ हुआ ही नहीं!

जो सुधारक या पेशवा दुनियाँ की इस सहज प्रवृत्ति, उसकी अपनी कसौटी और उसकी निजी राह पर दृष्टि न कर के, या यों कहिए कि उसकी अवहेलना कर के अपने किसी भी आदर्शवाद का प्रचार करना चाहता है वह चट्टान से अपना माथा टकराता है! उस समय तो नहीं जिसका यहाँ जिक्र कर रहा हूँ, परंतु आज और कुछ दिन पहले से भी मैं इस परिणाम पर पहुँचा हूँ। खेद है, गाँधी जी आज भी इस प्रकट सत्य को, सुननेवालों के लिए पहाड़ की चोटी से पुकारनेवाले सत्य को, इन गत बीस वर्षों के अनुभवों के बाद भी , समझ न सके हैं। ऐसा लगता है कि वह शायद समझना भी नहीं चाहते!

खैर, तो जल्दी ही मेरा केस एक डिप्टी मजिस्ट्रेट के सामने पेश हुआ। न्याय का स्वांग किया जा कर, जैसा कि उस जमाने में बराबर होता था। क्योंकि कांग्रेसवाले पैरवी तो करते न थे और अपराध स्वीकार कर लेते थे, मुझे एक साल सख्त कैद और पच्चीस रुपए जुर्माना और न देने पर एक मास का और सख्त कैद-यों कुल मिला कर पूरे तेरह मास सख्त कैद-की सजा सुना दी गई! क्रिमिनल लॉ एमेंडमेंट की दूसरी या (ब) धारा के अनुसार यह दंड दिया गया। इसके बाद तो गले में बाकायदा तख्ती (तौक) जेल में पहुँचते हो पहना दी गई, जेल के कपड़े भी मिल गए और मैं पूरा कैदी बन गया। पीछे मेरे वे तीन-चार साथी भी इसी प्रकार पकड़ के आ गए और कैदी भी बन गए।

आगे बढ़ने के पूर्व एक बात कह देनी है। सदा से ही खाने-पीने में सफाई और तन्मूलक छुआछूत का तो मैं पक्का पक्षपाती था। यहाँ तक कि रेलगाड़ी में बैठ कर या हलवाई की दूकान की मिठाई तक न खाता था। यह बात ईधर कुछ वर्षों के भीतर और भी सख्त हो गई थी, खास कर बाजार की पकी-पकाई चीजें न खाने के बारे में। उधर जेल में घुसते ही मैंने देखा कि वही लोहे के बर्तन है जो ठीक-ठीक मले तो कभी जाते ही नहीं। यों ही कुछ धो-धा कर छोड़ दिए जाते हैं। धोने की सिर्फ रस्म अदाई होती है! पानी भी ऐसी जगह भरा रहता है कि जूठा तो होई जाता है। खामख्वाह जूठे हाथ और बर्तन उसमें डाल दिए जाते ही हैं। यह देखते ही मैं झल्ला गया। फलत: जेल का खाना खाने की हिम्मत हो न सकी। वह पानी भी न ले सका। इसलिए एक-दो दिन कुछ खाया-पिया ही नहीं। फिर तो जेलर ने दूध देने का प्रबंध किया। इसी बीच तो हमें बनारस भेजने की आज्ञा आ गई। फिर तो वहीं जाना पड़ा। इस प्रकार गाजीपुर जेल में चंद ही दिन कटे। यह अच्छा था कि जहाँ संन्यास से पूर्व पढ़ने-लिखने में कई साल गँवाए वहीं, राजनीतिक जीवन में प्रवेश करने पर पहले केस चला और जेल यात्रा हुई!

(7)

बनारस जेल-अनशन

गाजीपुर से बहुतेरे साथियों के साथ हम बनारस जेल भेजे गए। भेजने के पूर्व ही हमारे गले से वह तख्ती (तौक) हटा ली गई। हम इसका रहस्य समझ न सके। बनारस के जिला जेल में हम सभी पहुँचाए गए। वहाँ कुछ लोग पहले ही युक्त प्रांत के और जिलों से लाए जा चुके थे। उनकी संख्या अभी अधिक न थी। लेकिन रोज ही आनेवालों का ताँता बँधा रहता था। वहाँ हमें अपने कपड़े पहनने को मिल गए। खाने-पीने का वहाँ स्वतंत्र प्रबंधथा। लोग अपना खाना बनाने की फिक्र अलग कर लेते थे। इसलिए मेरे खाने का प्रश्न हल हो गया और अनशन की जरूरत नहीं रही। वहीं जेल में काशी के परिचित लोग भी कभी-कभी मिल जाया करते थे। हमारे दंडी साथी भी मिल गए। हाँ, मेरा दंड जेल में साथ ही गया और हिफाजत से पड़ा रहता था। वहीं पर पहले पहल विशेष रूप से श्री कृपलानी से परिचय हुआ। उनके साथ गाँधी-आश्रम (खादी केंद्र) के बीसियों युवक भी थे। श्री संपूर्णानंद जी से तो काशी में मेरा पहले का ही परिचय था। वह भी जेल में आ गए थे। गोरखपुर के बाबा राघव दास से मुलाकात वहीं हुई। युक्तप्रांत के हर जिले के प्राय: तीन-चार सौ राजबंदी वहाँ जमा हो गए थे। उनमें सभीधर्मोंऔर संप्रदायों के माननेवाले लोग थे।

आज जो लोग गाँधीवाद के पुजारी बन गए हैं वह उस समय क्या करते थे इसका नमूना मैंने वहाँ पाया। पता चला कि युक्तप्रांत के सभी जिलों के पहले दर्जे के राजबंदी वहीं रखे जाने को थे। सरकार का यही निश्चय था। इसलिए उसी श्रेणी के लोग वहाँ लाए गए थे। फलत: उनकी मनोवृत्ति से पूरा पता चल जाएगा कि कितनी दूर तक गाँधी जी के आदेशों को वे मानते थे।

एक दिन ऐसा हुआ कि शाम को नियमानुसार गिनती होने में गड़बड़ी हुई श्री कृपलानी जी का ही दलउसका कारण बना। उन लोगों ने अपने में से एकाधलड़कों को न जाने कैसे-कैसे कई बार छिपाया कि हर बार गिनती पूरी करने पर भी वह ठीक नहीं हो सकी। फिर सेंट्रल जेल के जेलर और उनके आदमी भी आए। रात ज्यादा हो गई, वे गिनती करने लगे। फिर भी सफल होते न देख अंत में'हो गई' कह के वे लोग चलते बने और द्वार बंद कर दिया। तब से उन्हें चिढ़ाने के लिए'हो गई, हो गई' निकाला गया। जेलवालों को देखते ही ये लोग हँस देते और'हो गई, हो गई' कह देते। लोहे के तसलों को कभी-कभी बहुत रात तक ये लोग बजाते रहते औरऊधममचाते रहते। वही एक दल था जो यह सब बातें करता था। आज तो वहीगाँधी जीका पक्का अनुयाई माना जाता है। मिस्टर हार्वी नामक एक ईसाई सज्जन वहाँ के सुपरिंटेंडेंट थे और थे भी बहुत भले। मगर सरकारी नौकर थे यही उनका भारी अपराध था। उन्हें किस कदर हमारे साथियों ने बार-बार दिक्तकिया यह कहा नहीं जा सकता। यह देख कर एक दिन मेरे जी में सहसा यह आया कि मिस्टर हार्वी ही गाँधी जी के आज्ञाधारी इस मानी में हैं कि इतने शांत हैं और हमीं लोग उनकी अपेक्षा जरायमपेशा जैसे मालूम पड़ते हैं।

बाँदा जिले के कुछ लोग वहाँ थे। पता लगा कि उनमें एक लंबी दाढ़ीवाले ब्रह्मचारी जी भी है। वह पीछे एकाएक अनशन करने लग गए। एक-दो दिनों के बाद इसकी चर्चा उनके साथियों में चली और वे लोग भी उसमें पड़ गए। तीन-चार या छ:-सात दिनों के बाद शेष लोगों में भी सनसनी मची और सबों की मीटिंग की तैयारी हुई कि अब बाकियों का क्या कर्त्तव्य है। उसी समय मैं भी बुलाया गया। तभी मुझे पता चला कि यह अनशन हफ्तों से चल रहा है। पहले यह बात इतनी न फैली थी। मीटिंग में मैंने देखा कि सभी लोग अनशन करने की ओर झुक रहे हैं।मुझे ठीक न जँचा न जाने क्यों मैं स्वभाव से ही अनशन का और खास कर जेल के अनशन का , विरोधीरहा हूँ।

मैंने प्रश्न किया कि आखिर जान देने की तैयारी क्यों की जाए? कोई बड़ा कारण भी तो हो। कहा गया कि जब साथी लोगों ने हफ्तों से कर रखा है तो हमें भी अब उसमें पड़ना ही चाहिए। मैंने कहा कि यह रास्ता ही गलत है। किसी के आगे बढ़ जाने से हमें भी उसमें पड़ना ठीक नहीं। हाँ, अगर जिस उद्देश्य से वे लोग इसमें पड़े हैं वह ठीकहैंऔर उसका तकाजाहैकि हम पड़ें तो जरूरी ही हमें भी अनशन करना चाहिए। लेकिन अगर वही गलतहैतो हमें साफ-साफ उनसे कह देना चाहिए कि वह भी अनशन तोड़ दें।

मगर शान की बात ले कर लोगों ने मेरी बात अनसुनी कर दी। बोले कि अब हफ्तों के बाद उन्हें मना करना ठीक नहीं, वे मानेंगे भी नहीं। अत: हमारी मर्यादा का तकाजा है कि हम इसमें पड़ जाए। यह अजीब दलील थी। लेकिन कुएँ में भाँग पड़ी थी। मेरी सुनता कौन? शान की बात ऐसी ही होती है और इसी ने न जानें कितनों को बर्बाद किया है, पथभ्रष्ट किया है।

बात यह थी कि उक्त ब्रह्मचारी जी का कहना था कि हम तो राजबंदी है, चोर-डाकू हैं नहीं। अत: हमें खूब घी, दूध, हलवा वगैरह खाने को मिलना चाहिए। उन्होंने कितना मिले यह भी कुछ बताया था जो मुझे ठीक याद नहीं। वे अनशन के दिनों में लोकमान्य तिलक का फोटो सामने रख के बराबर बैठे रहते थे। यह बात तो गलत थी, गाँधी जी के आदेश के विपरीत थी और हानिकर भी थी, जैसा कि आगे लिखा है। लेकिन कही तो चुके है कि गाँधी जी की परवाह किसे थी? मर्यादा एवं प्रतिष्ठा (prestige)की बात भी तो थी।

फलत: सबने खाना-पीना छोड़ दिया। लाचार हो कर मुझे भी छोड़ना पड़ा। यह भी बता दूँ कि इससे पूर्व भी दो-एक बार विवश हो कर जेल के बाहर कई वर्ष पूर्व मुझे अनशन करना पड़ा था। एक बार तो छ: दिनों तक कुछ भी खाया-पीया न था। एक बार शायद तीन दिनों तक। बस, यही दो बार। यह तीसरा मौका था। पहली दो बार तो अंतरात्मा की पुकार से मजबूर था। लेकिन इस बार दूसरी ही मजबूरी थी। इसीलिए जहाँ पहले अनशन कतई खले न थे, तहाँ यह तीसरा खूब ही खला। अनशन लगातार चार दिनों तक चलता रहा और चौथे दिन, जहाँ तक याद है, शाम को टूटा। जब भूख लगती तो ठंडा पानी पीने से कुछ शांति मिलती। अनशन का यही कायदा है।

तीन दिनों तक कष्ट बढ़ता गया। मगर चौथे दिन कम हो गया। कहते हैं कि प्राय: तीसरे दिन तक जठरानल तेज होता रहता है। पेट में जो कुछ स्थूल मल या पदार्थ बचा-बचाया रहता है उसे जलाता है। यह बात आम तौर से तीन दिन में हो जाती है। किसी-किसी को चार दिन लगते हैं। ज्यों ही यह काम पूरा हुआ कि जठरानल भीतर घुस के सूक्ष्म मल को जलाने लगता है। फलत: चौथे या पाँचवें दिन भूख की तकलीफ कम हो जाती है। फिर जब सभी मल को जला कर शरीर को शुद्ध और नीरोग कर देता है तो ऊपर आता है। उसकी कोई अवधि नहीं। वह तो संचित सूक्ष्म मल पर निर्भर करता है कि आँत और नाड़ियों में कितना है, कम है या ज्यादा। लेकिन जब मल को जला कर वह एक बार फिर बाहर (ऊपर) आता है तो शरीर में सनसनाहट मालूम होती है। वह झन-झन करता है। इस अवस्था में खाना न मिलने पर रक्त-मांस को जलाने लगता है। तब असली कमजोरी शुरू होती है। अगर देर तक भोजन न मिला तो मौत हो जाती है। क्योंकि खून और मांस को जलाने के बाद कुछ रह जाता नहीं जहाँ प्राण रह सके। उपवास चिकित्सावाले ये सब बातें बताते हैं।

हाँ, तो जब सबने उपवास शुरू किया तो बाहर के मित्र लोग आने लगे और समझाना-बुझाना शुरू हुआ। आखिर, यह तो बेसिर-पैर की बात थी। सो भी उन दिनों जब गाँधी की बातें सबकी जबानों पर थीं। जब नौकरी, कौंसिल की मेंबरी, वकालत, सरकारी रिआयेतें और पदवियाँ आदि सभी चीजों पर हमने लात मारी तो यह मामूली सी खान-पान की रिआयेत किस खेत की मूली ठहरी? फलत: इसे लोग कैसे महत्त्व देते? इसी से बाहर के सभी लोग ताज्जुब में थे कि यह क्या हो रहा है। जेल के बाहर सभी कष्टों को भोगने की तैयारी सबने की थी और जानबूझ कर जेल में आए थे कि यही खाना-पीना मिलेगा। अच्छे खाने-पीने का प्रश्न भी कभी न उठाया, न उठाया गया था। फिर एकाएक यह क्या? बात तो ठीक ही थी।

इसीलिए बाहरी दोस्तों और लोगों के समझाने के बाद आखिर चौथे दिन लोगों को अपनी नादानी सूझी और अनशन तोड़ना पड़ा। यदि मेरी बात मान लेते तो इस जिल्लत से तो बच जाते। यह कह कर संतोष करना कि हमारे बाहरी नेताओं और मित्रों ने विवश किया, कोई समझदारी नहीं। यह तो अनशन तोड़ने के लिए एक बहाना मात्र कहा जा सकता है। क्योंकि अनशन का जो ध्येय था वह तो पूरा न हुआ। सरकार के कानों पर जूँ तक, कम-से-कम उस समय, न रेंगी। पीछे उसके फलस्वरूप सरकार ने भले ही कुछ सोचा हो। क्योंकि शायद कहा जा सकता है कि लखनऊ में फर्स्टक्लास के राज बंदियों को जो खाने-पीने की सुविधा मिली उस पर इस अनशन का असर जरूर था। चाहे जो हो, लेकिन अनशन तोड़ने के समय तो यह बात कुछ भी न थी। फिर भी वह टूटा और सबने खाया-पीया। अगर मैं भूलता नहीं तो उस ब्रह्मचारी जी ने जल्दी में खाने-पीने में ऐसी गड़बड़ी कर दी कि उन्हें हैंजा भी हो गया और शायद वह मर भी गए।

लेकिन अनशन टूटते-न-टूटते सरकार ने तय कर लिया कि बनारस जेल अब फर्स्टक्लास के बंदियों के लिए न रख के लखनऊ जिला जेल ही उनके लिए ठीक किया जाए। यह भी चर्चा होने लगी कि उन्हें अच्छा खाना-पीना यहीं से दिया जाए, या जल्द यहाँ से लखनऊ ही भेजे जाए। ठीक इसी समय मैंने एक पेचीदा प्रश्न उठाया जिसके चलते मुझे दूसरा बड़ा कटु अनुभव हुआ।

हम सबों के साथ हर जिले से सैकड़ों लोग जेल गए थे। अब अगर अच्छे खाने-पीने की बात चलती है तो इसका नैतिक परिणाम बुरा होगा और हममें जो साधारण कैदी रह जाएगे वह क्या समझेंगे? यही न, कि जब बिना स्वराज्य मिले ही सरकार की दी हुई रियायतों को हमने स्वीकार कर लिया और साथियों को यों ही छोड़ दिया, तो स्वराज्य मिलने पर उसकी परवाह कौन करेगा? यही ख्याल रह-रह के मुझे सताता था। यह भी मैं सोचता कि हमारा कितना पतन हो जाएगा अगर हमने ये सुविधाएँ स्वीकार कीं। तब नौकरियाँ, वकालतें, कौंसिलें आदि क्यों छोड़ीं? वह भी तो आखिर सरकार की रिआयेतें ही हैं। यह तो वही हुआ कि 'जन्म भर सेई काशी, पर मरने की बेर मगह के बासी'! यह तो गुनाह बेलज्जतवाली ही बात हो जाएगी और सरकार की भेदनीति पूर्णतया सफल हो जाएगी। क्योंकि हमारे वे साथी जो साधारण कैदी बन के रहेंगे, पीछे हमारा साथ छोड़ देंगे।

मैंने श्री कृपलानी जी तथा औरों के समक्ष यह प्रश्न उठाया और कहा कि मैं तो ये रिआयेतें स्वीकार न करूँगा। उन्होंने भी कहा कि ठीक ही हैं, स्वीकार तो नहीं ही करना चाहिए। लेकिन जब अनशन की बात सोची तो समझना कठिन हो गया कि वह ऐसा क्यों कहते हैं। फिर भी जब सबों की, और खास कर नेताओं की राय हुई तो ठीक ही था। यों तो राय न होने पर भी मैं तो इन्कार करता ही। यह तो सिद्धांत की बात थी और जो आदमी संन्यासी हो कर भी सिद्धांत के ही लिए राजनीति में आया वह सिद्धांत को छोड़ने क्यों लगा? यह भी बात थी कि मैं तो गाँधी जी के आदेशों का पालन अक्षरश: करता था। कष्ट सहन का आदेश तो वे बराबर देते रहते ही थे।

बात यों हुई कि गाजीपुर के चार राजबंदियों को, जिनमें मैं भी एक था, फर्स्टक्लास या फर्स्टडिवीजन का सलूक किया जाना सरकार ने निश्चय किया। सौभाग्य या दुर्भाग्य से सबसे पहले यह बात हमीं लोगों के मत्थे गुजरी। पीछे औरों को भी यह सहूलियतें दी गईं। लेकिन तब तक तो हम बनारस जेल से फैजाबाद जेल में जा चुके थे। डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट मिस्टर खारे छाट के आने के पहले जेल सुपरिंटेंडेंट ने हमसे यह कहा। बाकी साथियों से अलग रहने की बात भी हुई। हमने साफ इन्कार किया कि न तो हमें आपके गद्दे चाहिए और न घी, दूध आदि। हम तो ऐसे ही भले हैं। हमारे तीन साथियों ने भी ऐसा ही कहा। इतना ही नहीं। हमने यहाँ तक कह दिया कि आप हमें अपना घी, दूध जबर्दस्ती खिला-पिला नहीं सकते यह याद रहे। फिर मजिस्ट्रेट भी आए। उन्हें भी हमने वही जवाब दिया। इस पर उनने कहा कि तो फिर चक्की चलानी होगी। हमने उत्तर दिया कि उसे तो पहले से ही सोच कर आए हैं। हमारे तीन साथियों ने तो यहाँ तक कह डाला कि चक्की चलाना क्या, गोली भी खाएँगे। हमने यह भी कह दिया कि गाजीपुर के 35 आदमी अब तक जेल में हैं। हम 31 को छोड़ क्यों दें? सब एक ही तरह रहेंगे। फिर तो मजिस्ट्रेट साहब चले गए।

इसके बाद फौरन ही वहाँ से कुल 105 बंदी फैजाबाद जेल भेजे गए जहाँ दूसरे दर्जे या सेकेंड क्लास के कैदी रखे जाने को थे। इस प्रकार हमें चक्की तो फिर भी न मिली। हमने उस समय भी देखा और अपने चले जाने पर तो खासतौर से सुना कि दूसरे जिलों के हमारे साथी बुरी तरह परेशान थे कि उन्हें फर्स्टक्लास मिला या नहीं उनकी बेचैनी का ठिकाना नहीं था। कभी जेलर से, तो कभी औरों से पूछने में सभी के सभी हैंरान थे। खूबी तो यह कि एक ने भी फर्स्ट क्लास इन्कार न किया, सिवाय बाबा राघव दास के, जो हठ करके मामूली कैदियों के लिए बना भोजन ही खाते थे। यह कितने दर्द, कितने आश्चर्य और कितने पतन की बात थी! यह मेरा दूसरा कड़घवा अनुभव था कि गाँधीजी की आज्ञा लोग कहाँ तक मानते हैं।

(8)

फैजाबाद जेल

अस्तु, हमें एक दिन सुबह तड़के तैयार होने को कहा गया। हमने सोचा बनारस कैंट स्टेशन पर गाड़ी में चढ़ना होगा। मगर प्रदर्शन से बचने केख्यालसे सरकार ने एक स्पेशल ट्रेन शिवपुर स्टेशन पर तैयार रखी थी। हम लारियों में भर-भर के वहीं पहुँचाए गए। गाजीपुर से आने के समय इस समय भी रेलगाड़ी की खिड़कियों पर जाली लगा दी गई थी! शायद हमारे भाग जाने का डर था! विदेशी सरकार की अक्ल पर हमें तरस आई। हम तो खुशी-खुशी जेल आए थे। जरा-सी जबान हिलाने से बाहर जा सकते थे। फिर भागते क्यों? मगर कायदे की पाबंदी तो होनी ही चाहिए और वे कायदे उस जमाने में बने थे जब राजबंदी नामधारी कोई चीज थी नहीं। तभी से बदले ही न गए। किसे गर्ज थी कि बदले? राजबंदी लोग कुछ अपमान समझेंगे तो सरकार के लिए उस समय यही क्या कम था? मगर बावजूद इस जाली के साथ चलनेवाली पुलिस को जो परेशानी रास्ते में हुई उसने इसे बेकार साबित कर दिया।

गाड़ी चली जा रही थी। जहाँ तक याद है, जब शाहगंज स्टेशन आया तो हमारे साथी, सभी बंदियों ने खाना माँगा। साथ के सार्जेंट और दूसरे पुलिसवालों ने कहा कि चना खा सकते हैं। लोगों ने इन्कार किया और पूड़ी चाही। पुलिसवालों ने पूड़ी देने से साफ नहीं की। इसी में बढ़ते-बढ़ते बात बढ़ गई। मैंने बीच में पड़ के किसी प्रकार उसे खत्म किया। याद नहीं, आखिर में पूड़ी ही खाने को मिली या क्या? लेकिन साथियों ने धमकाया कि अच्छा हम देखेंगे। इसके बाद मैं सो गया। मुझे तो खाना वाना कुछ था नहीं।

एकाएक रास्ते में स्टेशन आने के पहले ही शोरगुल मचा और मैं जगाया गया। बात यह थी कि एक ने गाड़ी रोकने की साँकल खींच दी और गाड़ी खड़ी हो गई क्रोध से लाल सार्जेंट और पुलिसवाले दौड़ कर वहाँ पहुँचे और पूछा किसने खींची? खींचनेवाले ने खम ठोंक कर कहा, हमने। सार्जेंट साहब आपे से बाहर हो कर बोले, ''ले चलो इन्हें अपने डब्बे में। इन पर रिपोर्ट होगी।'' इस पर औरों ने कहा, ''किसे-किसे कहाँ ले चलोगे? हम तो 105 हैं सभी एकेबाद दीगरे खींचेगे और ट्रेन चलने ही न देंगे। फिर हमें ले जाओगे कहाँ?'' अब तो बेचारा सा र्जेंट और उसके साथी बुरी तरह घबराए। आखिर मैं जगा तो समझा-बुझा कर शांत किया। फिर गाड़ी बढ़ी। मगर पुलिसवाले भी भीतर-ही-भीतर जलते और इस अपमान का बदला लेने की बात सोचते रहे। चाहे जो हो मगर साथियों ने तो पूड़ीवाले झगड़े का बदला भरपूर ही चुकाया।

जब गाड़ी फैजाबाद छावनी स्टेशन पर रुकी तो हमें उतरने का हुक्म हुआ। सभी उतर पड़े। सामान भी अपना-अपना साथ ही था। वह भी उतरा। अब पुलिस ने गाड़ी रोकने का बदला चुकाने के लिए कहा कि बिना दो-दो को एक साथ हथकड़ी लगाए चलने न देंगे। खूबी यह कि जेल ले चलने के लिए सवारी का प्रबंध भी न था। हम लोगों ने कहा, अच्छा हथकड़ी लगने लगी। शायद सबों को लग भी गई। लेकिन चलने के समय हमने सामान ले चलने से इन्कार कर दिया यह कह के हमारे एक-एक हाथ बँधे जो हैं। फिर तो पुलिसवाले पुनरपि बुरी तरह झिंपे और आखिर हथकड़ी खोलनी पड़ी। इस प्रकार हम लोग फैजाबाद जेल में, जो स्टेशन के पास ही है, दाखिल हो गए। रास्ते में गाना और नारे तो चलते ही थे। शहर के लोग भी देखने आ गए थे। हम लोग बैरकों में गए और डेरे डाले। मैंने सेल या तनहाईवाली बैरक पसंद की। हम 40-50 साथी, जो ज्यादा शांतिप्रिय थे, वहीं बराबर रहे। पीछे तो चारों ओर से दूसरे दर्जे के राजबंदी वहाँ ज्यादा आ गए थे। जेल खूब आबाद थी। गाजीपुर के कुछ हमारे साथी थे। वही मेरा खाना अलग पकाते थे। इसकी इजाजत मिली थी।

हम जो अलग तनहाई में रहते थे उसका खास कारण था। शोरगुल, झगड़े वगैरह बहुत होते थे। इस तरह लोग सारा समय, जो बड़ा कीमती था; यों ही बिताते थे। जेलवालों से भी बराबर झगड़े करते रहते थे। यह बातें मुझे असह्य थीं। इसलिए अलग रहना पसंद किया। जेल का सुपरिंटेंडंट दक्षिण भारत का रहनेवाला बड़ा ही भला आदमी था। मगर उसके भी नाकों दम थी।

एक बार ऐसा हुआ कि होली आ गई। हमारे दोस्तों ने कहा कि हम तो होली जलाएँगे। आखिर जेलवालों से झमेले खडे करने के बहाने तो चाहिए ही। बेचारा सुपरिन्टेंडेण्ट समझा कर थक गया। मगर माने कौन? धर्म के नाम पर दावा ठोंका गया कि हिंदुओं का त्योहार है! न जाने इनमें कितने लोग बाहर इस धर्म का पालन करते थे! उसने गाँधी जी की दुहाई दी। मगर कोई सुने भी तो। आखिर उसने हार कर लकड़ी मँगा दी और कहा कि सेण्टर में कहीं जला कर धर्म पूरा कीजिए। दोस्तों ने यहाँ तक किया कि उन लड़कियों की तो होली जलाई ही। इन्हीं के साथ पानी खींचने के लिए कुओं पर जो तख्ते वगैरह लगे थे उन्हें भी तोड़ताड़ कर जला दिया। लाख मना करने पर भी न माना। हमने तो अपने बैरक का दरवाजा बलात बंद कर उसे बचा लिया। मगर बाकी कुओं की लकड़ियाँ साफ हो गईं। यह तो निरा पागलपन था। भला पानी कैसे भरा जाएगा, यह भी सोचना था। दोस्त लोग इतने पागल थे कि सुनते न थे। फलत: 'अलार्म' कर के बाहर से हथियारबंद पुलिस बुलानी पड़ी। फिर तो होश फाख्ता! सभी मिट्टी के शेर बैरकों में जा घुसे। पूछने पर किसी का पता भी न लगा। कोई भी स्वीकार करने को तैयार न हुआ कि हमने कूएँ के तख्ते जलाए। यदि बाहर से पुलिस न आती तो जो पाते वही जलाने पर तुल गए थे। यह थी हमारी उस समय की भलमनसी। खैर, जैसे तैसे मामला ठंडा हुआ।

मुश्किल से हमारा एक मास गाजीपुर और बनारस मिला कर गुजरा होगा और शायद ही दो या तीन महीने हम फैजाबाद रह पाए। फिर तो हम भी लखनऊ भेज दिए गए। फैजाबाद जेल में हमारा एक दल था। वह नियमों की पूरी पाबंदी करता था। उससे जेलवाले कभी कोई शिकायत नहीं रखते थे ─ बराबर खुश रहते थे। हम सभी एक ही जगह रहते थे। मैं उन लोगों को गीता पढ़ाया करता था। दूसरी-दूसरी बातों पर भी प्राय: शाम को मैं उपदेश दिया करता था। दार्शनिक और हिंसा-अहिंसा की भी विवेचना हुआ करती थी। इस प्रकार हमारे दिन शांति से गुजरते थे।

उसी जेल में, जब एक दिन फैजाबाद के मारवाड़ी सज्जन लोगों से मिलने आए और हमसे भी मिले, तो हमने उनसे एक नन्हीं सी गीता भेज देने को कहा। उन्होंने फौरन खरीद कर भेज दिया। सचमुच वह नन्हीं सी है। उससे नन्हीं गीता मैंने नहीं देखी है। वही मेरे साथ तब से बराबर रही है। खास कर जेलों में तो जरूर रहती आई है। इस बार भी बगल में मौजूद है। यह पहली बार मिली ता. 26-3-22 को। इस पर जेल की तारीखें लिखी हैं। यह मेरी सबसे प्यारी चीज है। इसके पीछे इतिहास है।

(9)

गीता का अर्थ समझा

यों तो गीता मेरे जीवन का एक अभिन्न अंग सदा से ही रहीहै। मैंने गीता का विचार सब ग्रंथों की अपेक्षा कहीं ज्यादा कियाहै। इसे पढ़ा-पढ़ाया भी खूब हीहै। मगर एक बड़ी भारी कसर के साथ। जैसी कि परिपाटी संस्कृत के पंडितों और छात्रोंकी है, मैंने सदा ही उसका मनन भाष्यों और टीकाओं के आधार पर, उन्हीं की सहायता से किया था। पचासों टीकाएँ और भाष्य मेरे पास मौजूद हैं। संस्कृत में जितनी भी टीकाएँ और जितने भाष्य मिल सके हैं मैंने सबों का संग्रह कियाहै। उन्हीं की सहायता से गीता का अर्थ समझने-समझाने की बार-बार कोशिश मैंने तब तक की थी। स्वतंत्ररूप से समस्त गीता के मनन करने का शायद ही अवसर मिला हो। इसकी जरूरत भी नहीं समझी जाती थी। कभी मैंने स्वयं ऐसा सोचा भी नहीं। कभी-कभी कुछ श्लोकों के बारे में ऐसा हुआ। मगर सारी गीता के बारे में कभी नहीं। इसका एक परिणाम हुआ कि बुद्धि और विचारशक्ति पंगु हो गई। गीतार्थ के बारे में उसमें स्वतंत्रऊहापोह की शक्ति आने ही न पाई। यह बड़ी भारी भूल थी, जबर्दस्त कमी थी।

एक बात और थी। पहले से ही कुछ सिद्धांत निश्चित कर रखे थे, दूसरों से जान कर या अन्यान्य ग्रंथों को पढ़-पढ़ा कर। ऐसा तो होता ही रहता है। बिना पढ़े ही कुछ सिद्धांत तो लोग मानते ही हैं। आजकल तो भारतवर्ष के निरक्षर बूढ़े, जवान, मर्द, औरतें सभी कर्मवाद, प्ररब्धवाद और भगवानवाद की दुहाई देते रहते हैं। जिससे बातें कीजिए तकदीर, कर्म और भगवान की दया की बातें बघाड़ता है। बात करने का शऊर नहीं। फिर भी बड़ी-बड़ी दार्शनिक बातें इसी तरह छाँटता रहता है। यदि उनके विपरीत बोलिए तो बुरा मानता और हँस देता है। उसे समझाना साधारण काम नहीं।वंश परंपरागत संस्कार और बचपन की दकियानूसी मंडली का ही यह असर उस पर होताहै।

ठीक यही बात पढ़े-लिखों की भी होती है। कुछ बातों को पहले से ही दिल में रखते हैं और ग्रंथों में उन्हीं को ढूँढ़ते हैं। उन्हीं की पुष्टि करते हैं। हमारे भीतर भी यही बात थी। कुछ सिद्धांत हमने निश्चित किये थे और गीता में जब न तब उन्हीं की ढूँढ़ते थे, पाते थे। यह भी एक प्रकार की पंगुता ही हैं। इसके करते भी गीतार्थ स्वतंत्र रूप से हम समझ न सके।

गीता का महत्त्व तो बहुत सुना था, लोगों से भी और पोथी-पुराणों में भी। मगर हमें तब तक कुछ ऐसी खास बात उसमें मिली थी नहीं। इसीलिए हमें कभी-कभी आश्चर्य होता था कि ऐसा क्यों माना जाता है। कभी-कभी सुनते थे कि कुछ लोग ─ स्वदेश और विदेश ─ घूम-घूम कर आम जनता में गीता पर उपदेश देते रहते हैं हम यह समझ न पाते थे। हम तो जानते थे कि गीता में अद्वैत दर्शन और अध्यात्मवाद है। उसे जन साधारण कैसे समझते होंगे। यही सोचते थे। हिंदी, अंग्रेजी, मराठी आदि की टीकाओं ने भी हमें कुछ ऐसा न सुझाया था।

ऐसी दशा में फैजाबाद जेल में कुछ तो परिस्थितिवश और कुछ ऐसा ख्याल भी हो आया कि गीता का स्वतंत्र मंथन किया जाए। इसीलिए उस नन्हीं सी गीता का ही परायण, चिंतन, मंथन हमने शुरू किया। मजबूरी तो थी ही। आखिर भाष्यादि मिलते भी कहाँ से? जहाँ रखे थे वहाँ से मँगाना आसान तो था नहीं। आते-आते भी समय लग जाता। यह भी सोचा कि कौन यह फिक्र करने जाए? बहुत दिन भाष्य पढ़े, टीकाएँ पढ़ीं। जरा यों भी तो देखें। एक प्रकार की उत्सुकता भी थी। इस प्रकार हमने स्वतंत्र रूप से बिना किसी की सहायता के उसका मनन शुरू किया।

शुरू करते ही मजा आने लगा। फिर तो चसक गए। जो लोग हमसे पढ़ते थे प्रश्नोत्तर भी करते थे। उत्तर देना ही पड़ता था। इस तरह जब हमने गीता का अभ्यास शुरू कर दिया तो कुछ ही दिनों में हमारी आँखों के पर्दे खुल गए। हमें एक निराली दुनिया नजर आई। हमने नया अर्थ उसमें पाया। अर्थ तो प्राय: पुराना ही था। मगर उसमें नई रोशनी थी, नई आभा थी, नया तेज था, जिसने हृदय को खिला दिया। हमारे जीवन में यह पहला ही मौका था जब हमने गीता का रहस्य समझा और जीवन की बाधाओं तथा चिंताओं से निश्चिंत हो गए। जीवन भर वेदांत और अन्य दर्शनों के पढ़ने से जो शांति उपलब्ध न हो सकी वही हमें गीता की कृपा से फैजाबाद जेल में प्राप्त हो गई। हमारा जीवन स्थिर हो गया (My life be came settled) मैंने तब समझा कि गीता का महत्त्वइतना क्यों माना जाताहै। गीता पर उपदेश देनेवालों को भी तभी समझ पाया कि क्यों आम जनता में ऐसा वे लोग कहते हैं। यही कारणहै कि उस नन्हीं सी गीता से मेरा अपार प्रेमहै। सुंदर खादी की जिल्द बना कर बराबर एक बेठन में उसे लपेट रखता हूँ।

लखनऊ जाने के कुछ ही दिन पूर्व फैजाबाद में मुझे आम और अपच की शिकायत हो गई। अत: कुछ खा-पी न सकता था। हार कर जेलवाले रोज थोड़ा दही देते थे। उसे ही पीता था। इसी बीच सरकार ने जेलवालों से हमारे बारे में पूछताछ की, वे चारों फर्स्टक्लास के कैदी हैं। वे वहाँ कैसे हैं। उनका हाल लिखिये। जेलवालों ने हमसे पूछा तो हमने सारी दास्तान कही। उन्होंने यही बातें शायद सरकार को लिख दीं। क्योंकि दूसरा कारण तो कोई था नहीं। हमसे उनने यह भी कहा कि आप लोग यहाँ रहने न पाएँगे, लखनऊ भेज दिए जाएगे। यहाँ यह भी कह देना है कि हमारे तीन साथियों ने जब देखा कि शेष लोग तो लखनऊ चले गए, इन्कार न किया और मजा कर रहे हैं, तो उन्हें भीतर से ग्लानि हुई। वे अपनी भूल पर पश्चाताप भी करने लगे थे।

(10)

लखनऊ जेल

एक दिन अचानक जेलर ने आ कर कहा कि आप चारों ही लखनऊ जाने के लिए तैयार हो जाए। आप लोग तो फर्स्टक्लास के कैदी हैं। इसलिए सरकार का हुक्महैकि यहाँ नहीं रह सकते। उन्हें लखनऊ भेजो। हम लोग तैयार हो गए। मैं तो यह बात नापसंद करता था। लेकिन एक खुशी भी हुई कि साथियों को, जो कभी स्वतंत्रभारत केकर्ता-धार्ताबनेंगे, जरा नजदीक से देर तक देख सकेंगे और आगे के लिए निष्कर्ष निकालेंगे। हमारे तीन साथियों को तो खुशी हुई कि लखनऊ चल कर घी-दूध उड़ाएँगे औरों की तरह।

यह भी एक निराली बात थी कि बेमुरव्वती के साथ इन्कार करने पर भी प्रथम श्रेणी का व्यवहार हमसे हटाने को सरकार तैयार न थी। महाभारत में एक स्थान पर लिखा है कि जब मैं दुनिया के पदार्थों को तिरस्कार की दृष्टि से देखता और बेमुरव्वती से इन्कार करता हूँ तो वे मेरे पास गिरे पड़ते हैं। मगर जब चाहता हूँ तब न जाने कहाँ चले जाते हैं! उसी का नमूना हमें देखने को मिला।

हाँ, तो हम लोग ट्रेन में बैठे और लखनऊ स्टेशन पर जा धमके। वहाँ से जिला जेल में पहुँचाए गए। वहाँ सभी पुराने साथी फिर मिले। वहीं पर मुरादाबाद के एक साथी ने हमसे बातें कर के हमारी आम वाली तकलीफ के निवारणार्थ जल चिकित्सा का प्रयोग बताया। उनकी सब बातें सुन कर मैं उसके लिए तैयार हो गया। क्योंकि यह चीज मेरे स्वभाव के अनुकूल ही थी। मैं स्वभाव से ही दवाइयों का विरोधी एवं संयम का समर्थक हूँ और जलचिकित्सा में यही दोनों बातें हैं। फिर वह मुझे रुचती क्यों नहीं? फलत: उसके लिए टब मँगवाया और सोचा कि केवल रोटी खाऊँगा जो उस चिकित्सा के अनुकूल हैं। जलचिकित्सा की बात आगे लिखी हैं।

लेखनऊ जेल में हमारे तीन साथी तो सभी चीजें खाने-पीने लगे। मगर मैंने तो इन्कार किया था। फलत: यदि वह बात रखनी थी तो या तो जेलवालों से साफ कह देता कि मैं ये चीजें नहीं लेता जैसा कि बाबा राघव दास करते थे या चीजें आने देता। लेकिन उन्हें काम में न ला कर किसी कैदी को देता। मैंने दूसरा मार्ग स्वीकार किया। पहले रास्ते में मुझे ऐसा प्रतीत हुआ कि कुछ खास प्रचार भले ही हो जाए कि मैंने फिर भी इन्कार किया उन रिआयेतों को स्वीकार करना। परंतु कोई और लाभ नहीं। मैं ऐसे प्रचार और ऐसी ख्याति को ज्यादा पसंद नहीं करता। इसलिए सामान सभी आते थे। मगर मैं चुपचाप सब चीजें उस कैदी को देता था जो मेरा काम करने और पानी वगैरह लाने के लिए दिया गया था। सिर्फ आटा ले लेता। सो भी एक समय के खाने भर ही। पर, जलचिकित्सा में तो चोकर मिला हुआ आटा चाहिए। इसलिए थोड़ा आटा जेलवालों को लौटा कर बदले में चोकर लेता और उसे ही आटे में मिलाता था। केवल उसी की रोटी बिना साक, दाल, घी, दूध, आदि के ही खा लेता। एक ही समय भोजन करता। रोटी बनाने में तरद्दुद होता देख और जलचिकित्सा के लिए अनुकूल समझ मैंने कलकत्ते से 'इक मिककुकर मँगवा लिया। जलचिकित्सक ने भी इसे पसंद किया। मैं उसी में रोटी पकाता।

रोटी पकाना क्या था , आटा गूँध कर एक कटोरे में रखता और कुकर में चढ़ा देता था। भाफ से वह पूरा सिद्ध हो जाता था , वही मेरा भोजन था जिसे पूरे डेढ़ घंटे में खाता था। कभी-कभी पतली रोटियाँ बना के तले-ऊपर कटोरे में उन्हें रख देता। वे आपस में चिपक नजाएइसलिए दो रोटियों के बीच जरा सा सूखा आटा छिड़क देता। चाहे रोटियाँ हों या गूँधेआटे का एक ही पिंड हो, स्वाद समान ही होता था।बेशक मिठास बहुत होती थी। यह चीज बराबर आठ-नौ महीने चलती रही। इतना ही नहीं, जेल से बाहर आने पर भी प्राय: बहुत दिनों तक वही खाता रहा। कुकर से मेरा पहला परिचय लखनऊ जेल में हुआ और तभी से वह मेरा पक्का साथी हो गया है। कभी गेहूँ की दलिया भी पकाता और कभी-कभी खरा गेहूँ ही सिझा लेता। दलिया से भी मेरा प्रेम वहीं हुआ और तबसे फल के बाद वह मेराप्रधानभोजन बन गई। यदि फल हो तो ठीक हीहै। नहीं तो दलिया चाहिए।

लुईकुने ने , जो जलचिकित्सा के आविष्कर्ता हैं , कहा है कि मनुष्य को अपना स्वाभाविक भोजन करना चाहिए जो फल और साग-पात के सिवाय और कुछ नहीं है। सो भी पहले हरा फल, न होने पर सूखा, उसके अभाव में खड़ा-खड़ा कच्चा गेहूँ, उसके अभाव में उसका आटा चोकर के साथ ही और आटे के अभाव में उसकी रोटी। बस, एकेबाद दीगरे यही हमारा खाद्य है। मैंने कभी कच्चा आटा भी खाया और खड़ा गेहूँ भी। मैंने अनुभव किया कि थोड़े ही गेहूँ या आटे में तृप्ति हो जाती है। असल में देर करने पर खाद्य पदार्थ में एक प्रकार की स्वाभाविक मिठास भी प्रतीत होतीहै। खाने का मूलमंत्र है खूब चबा के खाना और पानी यादूधपीना जरा-जरा सा मुँह में चारों ओर चला-चला के, जिसे अंग्रेजी में सिप (Sip) करना कहते हैं। खाने और पीने में यदि ऐसा कियाजाएतो अपच आदि की शिकायत तो हर्गिज रह नहीं सकती।

प्रथम श्रेणी की सुविधाओं की बात निराली ही निकली। सरकार ने एक प्रकार से लोगों को ठग ही लिया जहाँ तक खाने-पीने का प्रश्न था। पहले तो, जहाँ तक याद है, हरेक आदमी को रोजाना डेढ़ रुपए मिलते थे। मगर थोड़े ही दिनों में वह बंद कर दिए गए। यह बात बनारस जेल में ही थी। लखनऊ जेल में आने पर, मेरे समय में तो रुपयों की जगह घी, चीनी, दूध वगैरह सामान मिलने लगा था। मैं नहीं जानता कहाँ तक सही है, क्योंकि मेरे सामने की बात नहीं है, लेकिन जैसा कि मुझे बताया गया कि जब रुपयों को केवल खाने-पीने में न लगा कर हमारे कुछ साथी और तरह से भी खर्च करने या जमा करने लगे तो सरकार ने उनके बजाए सामान (Ration) देना शुरू कर दिया। लेकिन यह बात भी बराबर जारी न रही। कुछ समय बीतने पर एकाएक सरकार की ओर से कहा गया कि मामूली कैदियों के ही खाने-पीने का सामान आप लोगों को भी मिलेगा। यदि ज्यादा खाना-पीना है तो घर से मँगा कर खा-पी सकते हैं!

मैंने देखा कि बहुतेरे लोग तो मुर्झा गए। वे बाहर से मँगा सकते न थे। फिर भी कुछ लोगों ने तो बाहर से मँगा-मँगा के खाया ही। आखिर करते भी क्या? आदत तो बिगड़ गई थी। बिना मँगाए काम चलता न था। सरकार ने भी हमारी कमजोरियाँ खूब समझीं। वह जान गई कि ये लोग अब चसक गए हैं। खामख्वाह घर से मँगा के खाएँगे ही, यदि चाहेंगे। इस प्रकार उसने भिगा-भिगा के हमें मारना चाहे तो हमें होश भले ही नहीं हुआ। मैंने तो देखा कि सब प्रकार से मैं ही अच्छा रहा। उस मौके पर जो आनंद मुझे हुआ वह वर्णनातीत था। मैंने साफ देखा कि यह तो 'गुनाह बेलज्जत' वाली बात थी और मैं बाल-बाल इससे बचा।

(11)

जेल के विशेष अनुभव

ऊपर लिखी अपने लोगों की कमजोरियों के अलावे और भी कई बातें वहाँ देखीं। जाने के थोड़े ही दिनों बाद हमने देखा कि कुछ लोगों की एक'हलवा पार्टी' बनी। उसे ही वे लोग 'राक्षस पार्टी' भी कहते थे। बहुत लोगों को घी, दूध, आदि एक जगह जमा कर के हलवा वगैरह पकता और खाया जाता था। इसी से'हलवा पार्टी नाम' पड़ा। हँसी-मजाक और ऊधमतो मचता ही रहता था। कभी नाटक, कभी स्वांग और कभी कुछ और हरकतें होती रहती थीं। दिन-रात कुहराम मचा रहता था। उसी से उसे'राक्षस पार्टी भी कहते थे। आखिर राक्षसों का तो काम ही हैभोग करना, ऊधममचाना। इस हलवे की बीमारी की यह हालत हो गई कि जब सरकार ने घी वगैरह देना बंद कर दिया तब भी हलवा बनना न रुका। सबों को जो थोड़ा-थोड़ा तेल मिलता था उसी को जमा कर के हलवा बनाते थे।

यह भी देखा कि जो लोग खान-पान में छूत-छात की बात रखते थे उनके चौके में राक्षस पार्टी के लोग बलात घुस कर भोजन छू देते और उन लोगों को दिकत करते थे। इससे भी हो-हल्ला होता था। बात बुरी भी थी, ऐसा कहा जा सकता है। मगर मैं भी तो छूत-छातवालों में ही था। पर, मुझे कभी किसी ने इस प्रकारदिक्कतन किया। बात असल यह थी कि और लोगों की छूत-छात एक प्रकार की बनावटी चीज थी। क्योंकि जब सुंदर मिठाइयाँ या इस प्रकार की चीजें कहीं से किसी के पास आती थीं तो वे लोग भी उनमें शामिल हो जाते थे। मगर रोटी, भात में छुआछूत मानते थे। लेकिन मैं तो सभी में समान व्यवहार रखता था। इसलिए उन लोगों के ढोंग को राक्षस लोग मिटाना चाहते थे। पर, मेरा तो ढोंग न था। फिर मुझे क्योंदिक्कतकरते?

जेल में ही पं. जवाहर लाल नेहरू से विशेष बातचीत और परिचय का मौका मिला। एक दिन हमारी-उनकी बातें दोपहर को, खाने के बाद, होने को थीं। वे दूसरे वार्ड में रहते थे। मैंने कहा कि धूप ज्यादा है, आपको आने में कष्ट होगा। मैं ही चला आऊँगा। मैंने समझा था कि आनंद भवन में पले हैं। उनने चट उत्तर दिया कि वकील की हैंसियत से खाने के बाद ही मध्य दोपहरी में कचहरियों में दौड़ने की तो आदत हुई। फिर तकलीफ का क्या प्रश्न? अत: मैं ही आऊँगा आप के पास। मैं इस उत्तर के लिए तैयार था नहीं। फलत: अवाक रह गया। उनकी इस एक ही बात ने मेरे दिल में उनके लिए बहुत उच्च स्थान बना दिया। बहुत कम लीडर और नेता ऐसे बेतकल्लुफ और बाहरी दिखावे से अलग रहते हैं। यह हमारी राजनीति की बड़ी भारी कमी है। जन साधारण का और साधारण कार्यकर्ताओं का जो असल में सब कुछ करनेवाले होते हैं, हृदय कभी जीता नहीं जा सकता बिना इस सादगी और दिखाऊपन के अभाव के। अमीरी तो हमारी राजनीति के लिए प्लेगहैं।

वहीं पर रहते समय असौढ़ा (मेरठ) के चौधरीरघुवीर नारायण सिंह भी आए।मेरा-उनका पुराना परिचय था। वे बहुत बड़े जमींदार और रईस हैं। अमीरी भी उनकी खूब रहीहैं। मैंने उनसे पूछा कि आप अपना आराम छोड़ कर भला इसमें क्यों पड़े? वे पढ़े-लिखे तो अच्छे हैं और बुद्धिभी उनकी काफी तेजहै, मगर अंग्रेजी-दाँ नहीं हैं। इसीलिए मुझे आश्चर्य हुआ कि इस राजनीति में वे कैसे फँसे मगर उनकी बातों से पता लगा कि वे खूब समझ बूझ के इसमें पड़े थे। उनकी तीक्ष्ण बुद्धिने जमाने का रुख उन्हें बता दिया था। फलत: उनने समझ लिया था कि जमींदार बच नहीं सकते यदि वे मुल्क की जन आजादी में न पड़ें। इसलिए उन्होंने अपना फर्ज अदा किया और अपने जमींदारभाईयों को भी न सिर्फ जबानी, बल्कि अमली उपदेश दिया। इससे उन पर मेरी श्रद्धाबढ़ गई। मैंने यह भी देखा कि आराम तलबधनाढय लोगों पर भी राजनीति का अच्छा असरहै। फलत: इस राजनीति में स्वयं मेरी लगन और तेज हो गई।

वहीं पर प्रोफेसर धर्मवीर जी एम.ए. मिले। शांत और पानी के जैसे ठंडे स्वभाव के आदमी और सादगी के मूर्ति स्वरूप मैंने उन्हें पाया। ऐसे योग्य सज्जन को पुलिस ने जब पकड़ा था तो कमर में रस्सी बाँध कर पैदल ही हिंदू काँलेज से सुनसान रास्ते से थाने लाई थी! इससे लोगों ने समझा कि कोई मुस्टंड चोर-डाकू हैं! वे दिन-रात स्लेट ले कर गणित में ही रमते रहते थे। उन्हें दूसरा काम रुचता ही न था।

बहुत से मौलाना लोग साथ ही थे। फलत: इस्लाम के बारे में चर्चा होती रहती थी। बात कुछ ऐसीहैकि हम लोग एक-दूसरे केधर्मोंको ठीक-ठीक जानते नहीं। इसीलिए उनके बारे में बहुत बदगुमानी रहतीहै। बेशक वह बेबुनियाद होतीहै। जो कट्टरधार्मिक होते हैं वह तो और भी अपनेधर्मके सिवाय अन्यधर्मोंको जानते ही नहीं। अगर कुछ जानते भी हैं तो उलटा ही। बचपन में मेरी भी यही हालत थी। मैंइस्लामसे सख्त नफरत करता था। उसे बुरा मानता था। मेराख्यालथा कि वह तो जोर-जबर्दस्ती और मारकाट सिखाताहै। उसमें अन्यधर्मोंके प्रति सहनशीलता तो कतईहैनहीं। बेशक आज तो यहधारणा जड़ से खत्म हो गईहै!मगर राजनीति में आने के पूर्व तक यह बनी थी।

असहयोग के युग में मौलानाओं के कुछ लेक्चर कहीं-कहीं सुन कर और हिदुओं की कदर करते उन्हें देख कर उस धारणा पर थोड़ा सा धक्का जरूर लगा था। मगर फिर भी वह बनी हुई थी। जेल में जाने पर वह निर्मूल हो गई। उसके बाद तो मुझमें धीरे-धीरे उस मामले में आमूल परिवर्तन हो गया। असल में वहाँ मौलाना लोगों ने कुरान शरीफ की आएतें पढ़ कर यह दिखाया कि मंदिर, और गिर्जे आदिधर्मस्थानों की इज्जत करने या उनकी तौहीनी (अप्रतिष्ठा) न करने का आदेश उसी कुरान में दिया गयाहै। उन्होंने यह भी कहा कि कुरान का कहनाहैकि हर मुल्क में समय-समय पर पैगंबर हुआ करते हैं। उसी मुल्क की भाषा में लोगों को उपदेश देते हैं। इससे उनने यह दिखाया कि राम, कृष्ण, ईसा आदि को पैगंबर न मानने की वजह कहाँहै? प्रत्युत इससे तो सिद्धहोताहैकि वह भी पैगंबर थे। संस्कृत या यहूदी भाषा में, जो उन मुल्कों की भाषा थी, लोगों को उपदेश दिया। इस प्रकार वह भी एक जमाना हमारे मुल्क में था जब हरेकधर्मोंके दोषों को न देख उनके गुणों को ही ढूँढ़ निकालने की कोशिश होती थी। मैंने तो स्वयं इसका अनुभव किया। और आज भी एक जमानाहैजब हम ठीक उलटे चलने लगे हैं।

हाँ, तो मुझे तो इससे बड़ा लाभ हुआ। पीछे तो मैंने स्वयमेव कुरान का हिंदी अनुवाद आद्योपांत पढ़ा और अपने दिल को साफ किया।

लखनऊ जेल में भी मैं साथियों के एक दल को गीता पढ़ाता था। वह दल अच्छे-अच्छे अंग्रेजी पढ़े-लिखे लोगों का था। उनमें अनेक लोकमान्य तिलक का गीता रहस्य पढ़ चुके थे। वह यह भी जानते थे, कम-से-कम उनमें कुछ तो जरूर ही, कि मैंने गीता रहस्य की कई बातों का युक्ति-युक्त खंडन समाचार-पत्रों के द्वारा किया था। इसलिए वे विशेष रूप से मुझसे तर्क-वितर्क करते थे। शांकर सिद्धांत से कहाँ क्या मतभेद तिलक को है यह जानना भी चाहते थे। इस प्रकार अच्छा आनंद आता था। मेरे पास तो वही नन्हीं सी गीता थी। उसी के आधार पर उनका समाधन करता था।

असल में गीता रहस्य के बारे में मेरी खास शिकायत एक ही हैं कि तिलक ने शंकर के सिद्धांत को न समझ कर ही उन पर कटाक्ष किए हैं। बात यहहैकि आम तौर से लोगों में श्री शंकराचार्य के मत के प्रति भ्रांत धारणाहै। लोग मोटी तौर से ही उनके सिद्धांत को जानते हैं। तिलक भी दुर्भाग्य से उसीधारणा के शिकार हो गए थे। शंकर का तो जीवन ही कर्ममय और कर्मयोगी का रहा। उनने अपने गीता भाष्य के आरंभ में ही साफ कह दियाहैकि ज्ञानियों के कर्म को तो मैं कर्म मानता ही नहीं , जिस प्रकार भगवानकृष्ण के क्षत्रियोचित कर्मों को कर्म नहीं मानता, 'ज्ञानिनां कर्म तु कर्मैव न भवति, यथा भगवत: कृष्णस्य क्षात्रां चेष्टितम'।शंकर तो कर्म उसे ही कहते हैं जो कर्ता को अपना फल सुखदुखादि देने में समर्थ हो। ज्ञानी का, और इसलिए कृष्ण का भी कर्म तो कर्महैंनहीं। क्योंकि वह उन्हें सुख-दुख बंधन में डाल नहीं सकता।इसीलिए जहाँ एक ओर शंकर ने ऐसे कर्म का समर्थन और आजीवन स्वयं अनुष्ठान किया, तहाँ दूसरी ओर अज्ञान या आसक्ति मूलक कर्म के त्याग या संन्यास का सारी शक्ति लगा कर समर्थन भी किया। ऐसी दशा मेंशंकर को कर्मयोग का विरोधीकहना उनके साथ घोर अन्याय नहीं तो और क्या है?

उस जेल में कुछ ऐसे साथी भी मिले जिनने आगरे की तरफ तथा संयुक्त प्रांत की दूसरी जगहों में शुद्धि का काम किया था। यों चाहे जो भी हो, लेकिन जब वे लोग अपने-अपने अनुभव सुनाते और बातें करते तो कम-से-कम उस समय कट्टरता का पता मालूम नहीं होता था। जिस प्रकार मुसलमानों की कट्टरता उस समय जाती रही। ठीक उसी प्रकार कट्टर से कट्टर आर्य समाजियों की कट्टरता भी मालूम न पड़ती थी। इसे ही कहते हैं एक ही विपत्ति (Common enemy) के मारे लोगों का एका तथा मतभेद का भुला देना। इसीलिए पांडवों की विजय के बाद जब कृष्ण मथुरा जाने लगे तो कुंती ने बहुत क्लेश से कहा कि हमारे लिए तो विपत्तियाँ ही अच्छी थीं जब बराबर आपका दर्शन होता रहता था। आज तो उनके हट जाने पर आप चलने को तैयार हैं'विपद:संतु न: शश्वत्तात्रा तत्रा जगद्गुरो। भवतो दर्शनं यस्मादपुनर्भव-दर्शनम्' आज जो फिरहिंदू-मुसलिम एक-दूसरे के खून के प्यासे से मालूम पड़ते हैं उनके लिए तो असहयोग युग ही ठीक था।काश, वह आज भी समझ पाते कि दोनों का उस समय का एक ही शत्रु आज भी बरकरारहैं।

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जल चिकित्सा

यहीं पर प्रसंगवश जलचिकित्सा का कुछ वर्णन कर देना जरूरीहै। असल में उसने मुझे न सिर्फ लाभ ही किया, प्रत्युत अपना भक्त सदा के लिए बना लिया। मैंने उसकी पूरी पद्धति का अच्छी तरह अभ्यास किया। उस पर नोट भी तैयार किए। उसके आचार्य लूईकुने (Louis kuhne) की दोनों किताबें'आरोग्यता की नई विद्या' (New science of Healing) और 'मुखाकृति विज्ञान' (Science of Facial Expression) मैं अच्छी तरह पढ़ के समझ चुका था। इतना ही नहीं। मैंने उसकीएकाधबातों और सिद्धांतों के आधार पर पीछेएकाधउपसिद्धांत ढूँढ़ निकाले और उनसे लाभ उठाया, उठवाया। दृष्टांत के लिए उसने जो कहा हैकि शुद्धरेत यदि भोजन के बाद ज्यादे-से-ज्यादाएक तोला चुभला कर खायाजाएतो कठिन-से-कठिनकोष्ठबद्धता(Constipation) को हटा देताहै,उसकी मैंने अनेक लोगों पर परीक्षा की। उसमें सफल होने पर पेट के दर्द और मसूढ़े फूलने पर भी मैंने उस बालू का प्रयोग कर के सफलता पाई। असल में विकृत वायु या अधिक वायु को सोख लेना बालू का कामहैऐसा समझते ही मैंने दर्द आदि में उसका प्रयोग किया। हाँ, बालू में मिट्टी का अंश जरा भी न हो। वह खूब धो के साफ किया गया हो। न बहुत मोटा हो और न अत्यंत महीन। गंगा की रेत सबसे अच्छी होतीहै। दाँत के दर्द, मसूढ़ों की सूजन और पेट की पीड़ा में भी वही विकृत वायु कारणहै। इसलिए उसका प्रयोग लाभदायकहै। हाँ, कुने ने जोदूध को मनुष्य का स्वाभाविक भोजन नहीं माना है मैं उसे नहीं मानता। मेराख्याल हैकि लाखों वर्ष तक बराबर दूधपीने के कारण मनुष्य का एक तरह का स्वाभाविक भोजन दूध भी बन गयाहै।

मैंने कुने की इस चिकित्सा का निरंतर प्रयोग कर के यह निष्कर्ष निकाला है कि यदि हम भोजन में संयम रखें, ऊलजलूल न खाएँ और अच्छी तरह भूख लगने पर खूब चबा कर खाएँ तो रुपए में बारह आने बीमारी तो इसी से ही दूर रहेगी। शेष में पौने चार आने नियमित रूप से व्यायाम करने या टहलने से। सिर्फ एक ही पैसा मौका रह जाता है औषधि के लिए। व्यायाम में भी टहलना सबसे उत्तम है ऐसा मेरा अनुभव हुआ है। मैंने दंड-बैठक, दौड़, आसन आदि सभी का अभ्यास कर के इस टहलने से मिलाया और इसे सर्वोत्तम पाया है। यह स्वाभाविक भी है। अगर ये बातें हम करें और जलचिकित्सा न करें तो भी सदा नीरोग रहेंगे ऐसा मेरा विश्वास है। मैंने अपने बारे में ऐसा कर के देखा है भी। केवल दिमागी ही बात नहीं करता हूँ। मेरा जो शरीर रोगों का घर हो गया था वही आज इतना स्वस्थ है कि 10-12 वर्षों से कभी बुखार आया ही नहीं। फोड़े, फुंसी या जख्म वगैरह का तो कहना ही क्या? इसके लिए मैं जलचिकित्सा का सदा ऋणी रहूँगा, हालाँकि बहुत दिनों से वह छूट गई है। मैं घड़ों में ठंडा पानी रख के उसी में हिप्वाथ लेता था। गर्मियों में सिट्ज बाथ तो होता ही नहीं। इसके लिए तो बहुत ठंडा जल चाहिए जो जाड़े में ही संभव है। इसीलिए जब जाड़ा आया तो सिट्जबाथ शुरू किया। हिप्बाथ में कमर को पानी में डुबो कर पेड़ई पर भीगे कपड़े से धीरे-धीरे रगड़ते हैं और सिट्जबाथ में मूत्रोंद्रिय पर। मगर सिट्जबाथ में पानी से ऊपर बैठना होता है। जब दाँतों में दर्द होता था तब या यों भी स्टीमबाथ (भाप से) लेता था। स्टीमबाथ के बाद तो हिप्बाथ जरूरी है। मैंने वहीं ऐसा करते देखा और पीछे तो स्वयं अनुभव भी किया कि सख्त-से-सख्त ज्वर भी तीन बार थोड़ी-थोड़ी देर या यों कहिए कि दिन भर में स्टीमबाथ के साथ हिप्बाथ लेने पर ज्वर खामख्वाह भाग जाता है। जल में भी ऐसा किया गया था। बाहर तो मैंने कई बार ऐसा किया, कराया है। इससे शीघ्र ही मेरी आमवाली शिकायत दूर हो गई और भूख तेज हो गई। बाथ दिन में तीन बार, सुबह, शाम, दोपहर को लेता था और खूब टहलता था। मैंने देखा कि बच्चों की तरह बाथ के बाद दौड़ने का जी चाहता था। बाथ के बाद शरीर में गर्मी लाना जरूरी है। फिर चाहे दौड़ के हो, टहल के हो या कसरत कर के। बीमार लोगों को तो कंबल वगैरह से देह ढँकने से ही ऐसा हो सकता है। मैंने यह देखा कि अगर दाँतों में दर्द हो या मसूढ़ों में सूजन हो तो किसी बर्तन में पानी खूब गर्म कर के उसका मुँह बंद रक्खा जाए और उसे खोल कर वह भाप मुँह के भीतर ली जाए तो फौरन दर्द भागता है। मगर ठंडा होने पर फिर हो जाता है। इसलिए रह-रह के बार-बार ऐसा करने पर सूजन भी चली जाती है और दर्द भी हट जाता है।

मुझे तो पहले-पहल बाथ के अभ्यास के बाद ही दाँतों में दर्द हुआ। उससे पूर्व कभी न हुआ था। फिर तो वह दर्द बराबर होता रहा है। सिर्फ कुछी दिनों से उसने पिंड छोड़ा है। सो भी जब मैं उसके बारे में काफी सजग हो गया हूँ। अब भी लापरवाही करने पर फौरन हो जाएगा। असल में पायरिया की बीमारी की यही हालत है। वह भीतर-ही-भीतर थी। बाथ लेने पर प्रकट हो गई। दबी बीमारियाँ उसमें अवश्य प्रकट होतीं और काफी तेज हो जाती है। इसे हीलिंग-क्राइसिस कहा जाता है। इसका अर्थ है कि वह बीमारी उभर गई और कुछी दिनों में सदा के लिए खत्म हो जाएगी, यदि हम घबड़ा कर जलचिकित्सा छोड़ न दें। जितनी ही जल्द और तेज यह हीलिंग-क्राइसिस होगी उतना ही शीघ्र वह रोग हटेगा यही माना जाता है। इसीलिए कम उम्र में इस चिकित्सा का ज्यादा असर होता है। शरीर में जीवन शक्ति जितना अधिक होगी उतना ही शीघ्र यह क्राइसिस हो कर बीमारी चली जाएगी। कुने की यह भी मान्यता है कि फॉरेन मैटर या मल ही बीमारी है। और वह एक है। ज्वर, दर्द, प्लेग, हैंजा आदि उसी के विभिन्न रूप है। इसलिए वह इसी बात की कोशिश करता है कि शरीर में नया मल जमा होने न पाए और पूर्व संचित मल निकाल दिया जाए। यही जलचिकित्सा का मूल सिद्धांत है। भोजनादि के संयम और दूसरी बातें इसी के लिए उसने बताई है। भोजन में गर्म मसाले का वह सख्त दुश्मन है। उससे भी ज्यादा नमक का। आयुर्वेद ने भी यही माना है कि सभी रोगों की जड़ मल ही है 'सर्वेषामेव रोगाणां निदानं कुपिता मला:'। इसीलिए संयम पर उसने भी जोर दिया है। पुराने वैद्य लोग तो ज्वरादि की दशा में अनशन को ही प्रधान उपाय मानते हैं। इसलिए कुने का मत बहुत कुछ आयुर्वेद से मिलता-जुलता है। कुने ने यह भी कहा कि बाथ का नागा भी सप्ताह में एक दिन या महीने में दो-चार दिन होना चाहिए। हमने यह देखा है कि हिंदी में बहुत सी किताबें इस बारे में लिख कर उनमें खाने-पीने के बारे में ऊलजलूल लिख मारा गया है। नमक आदि खाने की राय दी गई है। यह बात गलत है। यह ठीक हैं कि शीघ्र-से-शीघ्र ले कर देर-से-देर समय में बीमारियों से छुटकारा इस चिकित्सा से हो सकता है। शरीर की जीवन शक्ति और बीमारी के पुरानेपन ही पर यह निर्भर है। बहुतेरे तो 12 तथा 16 वर्ष निरंतर यह प्रयोग करने के बाद नीरोग हुए हैं।

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मेरा निष्कर्ष

खैर, लखनऊ जेल में निरंतर आठ-नौ महीने तक यह धामा-चौकड़ी, यह उच्छृंखलता और यह मनमानी घरजानी देख कर मैंने कुछ निष्कर्ष निकाला। वहाँ मैंने देखा कि शायद ही कोई जेल नियमों की अवहेलना न करता हो। चोरी से अखबार तो आते ही थे। सरकार जिन समाचार-पत्रों को भेजती थी उनके सिवाय दूसरे भी आते थे। आपस में चंदे कर के एक-एक अंक के चार-चार आने खर्चे जाते थे। यह भी देखा कि जेल अधिकारी जिसी पर रंज हुए उसी को हटा कर नैनी जेल भेज दिया। नैनी जेल तो उस समय जेलों का जेल माना जाता था। वहाँ लोगों को बड़े कष्ट दिए जाते थे। इसीलिए पीछे तो ऐसा देखा कि कितने ही लोग जेलवालों की चापलूसी में लगे रहते थे, ताकि नैनी जाना न पड़े। कोई किसी की सुनता तो था नहीं। चोरी से चिट्ठियाँ तो लिखी ही जाती थीं। इन सब बातों से शायद ही कोई बचा हो।

इससे मैं इस नतीजे पर जेल में ही पहुँचा कि राजनीति को नैतिक (Relegious and moral) रूप दे कर इतनी जल्दी जोगाँधी जी ने इसे सार्वजनिक बना दिया वह बड़ी गलती हुई। उन्हें अपना कदम पीछे ले जाना पड़ेगा। यदि इसे ठीक-ठीक ले चलना हैतो अब तक का बना-बनाया सारा महल गिरा देना होगा। सिर्फ नींव रखनी होगी। उसी पर धीरे-धीरे फिर से महल खड़ा करना होगा। नहीं तो यह आंदोलन कोरी राजनीति, दूषित राजनीति के सिवाय और कुछ रह नजाएगा। यदिगाँधी जीने शीघ्र पीछे कदम न उठाया तो उन्हें पछताना होगा। मैंने जो कुछ गुप्त समितियों के सख्त नियमों के बारे में सुना और रौलट रिपोर्ट में पढ़ा था उसी के आधार पर सोचता था किगाँधी जीको उसी सख्ती से काम लेना होगा। यदि मेंबरों के बनाने में वैसी कड़ाई न की गई तो बुरा होगा। मैंने साफ देखा कि हमारी राष्ट्रीयता केवल जुबान पर हीहै। हममें जाति-पाँति की बातें इतना ज्यादा घर कर गई दीखीं कि मुझे दर्द हुआ। ऐसी दशा में राजनीति को नैतिक बनाना तो सपने की चीज मालूम हुई। जब राजनीति ही अपना स्थान हमारे भीतर ठीक-ठीक न कर सकी , तो फिर उसे सुधारने का क्या अर्थ हो सकता था ?

मेरी धारणा तो थी कि ये सब त्रुटियाँ मालूम होते ही गाँधी जी उपाय करेंगे। हालाँकि पीछे के अनुभवों ने बताया कि मेरे ख्याल गलत थे।गाँधी जी ने सभी बातें जानीं और बखूबी जानीं।मगर क्या किया?अखबारों में लिखने और लेक्चर देने से सामूहिक आंदोलन में, जो जन-आंदोलनहै , नैतिक परिवर्तन हो नहीं सकता। वह तो कुछ चुने हुए लोगों में ही हो सकताहै। इसके लिए तो बेमुरव्वती से कसौटी तैयार कर के उसी पर परखना और तब कहीं सदस्य बनाना ठीक था। मगर तब तो यह जन-आंदोलन रही नहीं जाता।'हाँ' संभव था, धीरे-धीरे समय पा कर फिर जन-आंदोलन का रूप इसे मिल जाता। मगर कुछ साल तक तो यह बात होने की न थी।

गाँधी जी के लिए दूसरा रास्ता यही था कि राजनीति को नैतिकता या धर्म-नीति का जामा पहनाने का विचार ही वे छोड़ देते।मगर गण आंदोलन भी बनाए रखना और उसेधर्मनीति के मार्ग पर ले चलने की आशा भी करना, ये दोनों बातें , एक साथ चलने की नहीं। असंभव हैं। तो भीगाँधी जीने यही कियाहै। परिणामआँखों के सामनेहै। सत्य, अहिंसा और सदाचार के नाम पर कांग्रेस में केवल दंभ, प्रवंचना, हिंसा और असत्य का बाजार गर्म है। खूबी तो यह कि जो लोग स्पष्ट वक्ता हैं उनके लिए गाँधी जीके दल में स्थान नहीं और बगला भगत लोग सर्वेसर्वा बने बैठे हैं! धर्म के नाम पर ये चीजें होती ही थीं। मगर जबधर्म आ गया राजनीति में, तो यहाँ भी वही बाजार गर्महै।

इसे गाँधी जी जैसा अनुभवी एवं व्यवहारकुशल आदमी न जानता हो यह बात दिमाग में समाती ही नहीं। इसीलिए बहुतों के लिए यह एक भीषण पहेली हो रही है कि ऐसा क्यों होता हैं?गाँधी जी इसे क्यों चलने देते हैं? मेरे लिए भी बहुत दिनों तक यही पहेली थी। पर, अब तो मैं सही बातें समझ गया। सच्ची बात तो यह कि राजनीति और धर्म-नीति का विरोध पुराने लोग मानते आए हैं।याज्ञवल्क्य ने अपनी स्मृति में इसीलिएधर्मविरोधिनी राजनीति का मौका आने पर उसे छोड़ देने को कहाहै , 'अर्थशास्त्रतुबलवद्धर्मशास्त्रमिति स्थिति:'। दोनों का सामंजस्य करना ही भूलहै।

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जेल से बाहर

बारह महीने के बादसन 1923 ई. के शुरू में ही मैं लखनऊ जेल से बाहर आया। मेरा जुर्माना पच्चीस रुपए था। किसी ने बिना मुझसे पूछे ही दे दिया था। फलत: एक मास और जेल में रहने का मौका ही न लगा। बाहर आने पर पहले तो गाजीपुर आया। जुलूस बना कर लोग स्टेशन पर लेने आए। अच्छी उमंग थी।

मगर बाहर का वायुमंडल दूषित और मनहूस हो गया था। जेल से निकलने के बाद देशबंधु दास और पं. मोतीलाल नेहरू के उद्योग से सत्याग्रह जाँच कमिटी कांग्रेस की तरफ से बनी थी।उसने देश के कोने-कोने में जा कर सत्याग्रह की तैयारी की जाँच तो क्या की, उसे छोड़ फिर कौंसिलों में जाने का रास्ता साफ करना शुरू किया!गाँधीवादियों का तो खास कर, और दूसरों का भी, कहना था कि वह तो बड़ी ही मनहूस चीज थी। उसने देश के वायुमंडल को और भी दूषित कर दिया। इसी गड़बड़ी में गया में सन 1922 ई. के दिसंबर में देशबंधु की अध्यक्षता में कांग्रेस का अधिवेशन हुआ। मगर देशबंधु की कौंसिल ─प्रवेश-नीति उसमें स्वीकृत न हो सकने से और भी गड़बड़ी हुई।

उस समय कांग्रेस में दो प्रचंड दल थे। एक दास साहब और नेहरू का परिवर्तनवाही (Pro changer) और दूसरा श्री राजगोपालाचारी आदि का अपरिवर्तनवादी (No changer) दोनों की लड़ाई बहुत वर्षों तक चलती रही। आज तो समय ने ऐसा पलटा खायाहैकि राजगोपालाचारी पक्के से भी पक्केपरिवर्तनवादीबन गए हैं। दास, नेहरू की भी नाक काट रहे हैं!

मगर असली दिक्कत सत्याग्रह जाँच कमिटी के करते नहीं हुई। वह जिस परिस्थिति के फलस्वरूप थी वही परिस्थिति या उसके उत्पन्न करनेवाले लोग ही असल में जवाबदेह थे इस मनहूस वातावरण के लिए। हालाँकि, उस समय मैं इस बात को समझ न सका। जिस समय सेना उमंग से बढ़ती जा रही हो और सारे मुल्क में जोश लहरें मार रहा हो, ठीक उसी समय बिना लक्ष्य-प्राप्ति के ही, एकाएक 'रुक जाओ' की आज्ञा दे कर हथियार रखवा देने की बात का परिणाम दूसरा होई क्या सकता था? जब मैं बनारस जेल में था तभी चौरी-चौरी की घटना हुई। फलस्वरूप गाँधी जी ने बारदोली में सत्याग्रह स्थगित करने की घोषणा कर दी। उसी का परिणाम यह था। हम लोग तो यह घोषणा पढ़ कर स्तब्ध और क्षुब्ध थे। हालाँकि गाँधी जी जो करेंगे ठीक ही करेंगे यह अटल-विश्वास उस समय मेरा जरूर था। अचानक लड़ाई रोक देना जब कि हार का भी कोई लक्षण न हो, निराली बात थी! इसीलिए आगे बढ़नेवाली शक्तियाँ ईधर-उधरअपना रास्ता ढूँढ़ने लगीं।

अहिंसा के बाल की खाल गाँधी जी की तरह खींचना तो कोई जानता न था। अत: जन-साधारण के और देशबंधु तथा नेहरू जैसे नेताओं की भी समझ में यह बात न आ सकी। इसीलिए वे लोग क्षुब्ध थे और लड़ाई को ऐसा रूप देना चाहते थे जिसमें आंतरिक प्रेरणा या दैवी पुकार जैसी किसी चीज की जरूरत न हो। वह निरा भौतिक हो। इसीलिए उन लोगों ने पुन: कौंसिल प्रवेश का प्रश्न उठाया। सन 1923 के बीतते-न-बीतते वे लोग इसमें सफलीभूत भी हुए। रूस आदि देशों के इतिहास में भी यह देखा गया है कि जब बाहर कोई जबर्दस्त भिड़ंत नहीं होती और जनता में कुछ ठंडक रहती तो पार्लियामेंटोंऔरधारा सभाओं में ही घुस कर बाहर आग बनाए रखने की कोशिश की जाती थी।

हाँ, तो गाजीपुर में मैं काम करता रहा और लोगों को जगाने में तल्लीन था। लेकिन खाना-पीना अब कुछ ऐसा हो गया था कि बाहरी दौड़-धूप बर्दाश्त नहीं कर सकता था। मेरा ऐसा अनुभव हुआ कि दूध के बिना दिमागी काम करने के लायक आमतौर से हमलोग रही नहीं जाते। मैंने तो न सिर्फ दूध, किंतु मसाला वगैरह सभी छोड़ दिया था। मसाला तो बहुत पहले ही छूटा था। पर, नमक जेल में छूटा। वह अब तक छूटा ही है। शायद बाहर आने पर नमक खाने की कोशिश होती। मगर उसी साल नमक पर टैक्स बढ़ जाने से एक और भी कारण मिल गया और नमक का त्याग जारी रहा। इन सब चीजों का फल यह हुआ कि मैं कमजोर बहुत हो गया। फिर भी घूमना जारी था। फलत: सन 1923 ई. की गर्मियों में लू का थोड़ा असर हो जाने से खाना-पीना कुछ भी रुचता ही न था। प्यास लगती थी। मगर पानी भी अच्छा नहीं लगता था। बड़ी परेशानी हुई। अंत में मैं फिर बक्सर के इलाके में सिमरी चला गया। वहाँ जौ की पतली सी दलिया पानी में पका कर खाता और आम भून कर उसके गूदे से देह की मालिश करता रहा। इस प्रकार धीरे-धीरे लू का असर गया और मैं फिर काम करने लायक हो गया। इसके बाद मैंने गौ केदूधका सेवन पुन: शुरू कर दिया।बाकी खान-पान पूर्ववतरहा। मुझे फिर कोई बाधानहीं हुई।

लेकिन मैं गाजीपुर पुनरपि चला गया। वहाँ कुछ पैसे जिला कांग्रेस कमिटी के लिए जमा किए। इस समय दो घटनाएँ हुईं। एक तो मैंने पं. जवाहर लाल नेहरू से लिखा-पढ़ी शुरू की कि प्रांत के सभी जिलों और जिलों के भी सभी हिस्सों में काम जारी रखने के बजाए हमें थोड़े ही इलाके में सारी शक्ति लगानी चाहिए।गाँधी जी का तो यही बल है कि वह अपनी कमजोरी को साफ स्वीकार करते हैं। हमें भी वही करना चाहिए। मेरा अनुभव बताता था कि यदि हम थोड़ी दूर में ही जगह-जगह जम के (intesive)काम करें तथा सफलता प्राप्त करें तो बाकी जिले या जिलों के हिस्से-स्वयमेव आकृष्ट होजाएगे और हमारी पद्धति अपनाएँगे। इस प्रकार अंत में हम सफल होंगे।

मगर जवाहर लाल जी का कहना था कि जहीं पर काम न होगा उसी स्थान का बुरा असर (re-action) कामवाले इलाके में पड़ेगा और वहाँ भी गड़बड़ी होगी। इसीलिए वे समूचे प्रांत में विस्तृत (Extensive) काम के हिमायती थे। इस प्रकार जेल से आने के थोड़े ही दिनों बाद से ले कर बहुत दिनों तक मेरा-उनकापत्रव्यवहार बराबर चलता रहा। अंत में उन्होंने मेरे दृष्टिकोण को स्वीकार किया। मगर तब तक तो रही-सही शक्ति भी क्षीण हो चुकी थी और थोड़ी सी जगहों में भी जम के काम करना असंभव था।

लू से अच्छे होने और पैसा एकत्र करने के बाद दूसरी बात यह हुई कि हमारे कार्यकर्ता लोग इन पैसों को यों ही खर्च कर देना चाहते थे। मगर मैं इसका विरोधी था। जनता के पैसे की एक-एक कौड़ी मैं पवित्र मानता हूँ और उसे ज्यादे से ज्यादा लाभकारी कामों में खर्चने का हिमायती हूँ। इसलिए मैंने साथियों का विरोध किया। जब देखा कि वे लोग नहीं मानते तो जिला कांग्रेस कमिटी का आँफिस गाजीपुर शहर से हटा कर मुहम्मदाबाद (यूसूफपुर) में काजी निजामुलहक साहब के बँगले पर लाया। वे उसके प्रेसिडेंट थे। जमींदार होते हुए भी कांग्रेस के साथ बराबर रहे। शरीफ तो इतने बड़े कि कहिए मत।

प्रसिद्ध नेता डाँ. अंसारी का असली घर यूसूफपुर में ही था। काजी साहब के वे दामाद भी थे। उनसे मेरी खूब पटती थी। वहीं रह के मैंने सोचा कि जो भी पाँच-सात सौ रुपए हैं इन्हें खादी में लगा दूँ। नहीं तो खर्च होई जाएगे। कांग्रेस का कोई और कार्यक्रम था भी नहीं। सिमरी में मैंने पहले से ही खादी का काम शुरू कर दिया था। बस, वही काम बढ़ाया और सब पैसे उसी में लगा दिए। असल में गाजीपुर में खादी का कोई काम न होने से सिमरी में ही चालू करना पड़ा। वहाँ काम तो था ही। सिर्फ विस्तार किया और खादी तैयार होने लगी। वहाँ रूई भी होती थी, चर्खे भी चलते थे। अब खादी बुनी जाने भी लगी। लेकिन साथियों से तनातनी तो चलती ही रही। असल में ऐसे झमेले तो मुझे बराबर ही करने पड़े हैं। खास कर सार्वजनिक कोष को ही ले कर। आज भी उनसे पिंड नहीं छूटा है। आगे भी छूटने की आशा नहीं दीखती।

मैं 1923 और 1924 में गाजीपुर में ही रहा और वहीं से युक्त प्रांतीय कांग्रेस कमिटी और आल इंडिया कांग्रेस कमिटी का मेंबर था। वहीं से अहमदाबादवाली आल इंडिया कांग्रेस कमिटी की बैठक में गया था। इसका उल्लेख पहले हुआ है। आगे भी होगा। उन दिनों गाँधी जी का जोर था कि कांग्रेस के मेंबर वही हों जो चार आने के बजाए अपने हाथ का कता सूत दें। श्री पुरुषोत्तम दास टंडन इसके समर्थक थे। युक्त प्रांतीय राजनीतिक सम्मेलन जो गोरखपुर में 1924 में हुआ उसमें उन्होंने इसे पास करवाना चाहा। मगर वहाँ के प्रमुख लीडर बाबा राघव दास इसके विरोधी थे, हालाँकि जेल में चर्खे के पीछे उनने बड़े झमेले किए कि चर्खा मिले। वे बराबर कातते भी थे। पर ईधर उनकी धारा पलट गई थी। टंडन जी ने देखा कि मैं ही सूतवाला, जिसे 'यार्न फ्रेंचाइज' (yarn franchise) कहते थे, प्रस्ताव पेश करूँ तो ठीक हो। एक बाबा (संन्यासी) ईधर और दूसरे बाबाउधर। मैं बराबर तकली कातता भी था। वहाँ भी साथ ही थी। उनने मुझसे कहा कि वह प्रस्ताव न लाइएगा? मैं तैयार हो गया और लाया। राघव दास जी नेविरोधकिया। जिला भी उन्हीं का था फिर भी मेरा प्रस्ताव पास हो गया। इस पर कुछ प्रेसवालों ने मुझे अलग ले जा कर मुझेतकली कातते हुए का फोटो बलातलिया।

उसी समय एक मजेदार घटना हो गई। काशी के श्री शिवप्रसाद गुप्त ने मजाक में कहा कि संन्यासी हो कर यह क्या सूत की बात लाते हैं? मैंने चट उत्तर दिया कि मैं अपना धर्म बखूबी जानता हूँ और आपका भी। आपसे मुझे सीखना नहीं है। सभी हँस पड़े। वे चुप हो गए!

आखिरकार परिवर्तन और अपरिवर्तनवादियों का गृह-कलह किसी प्रकार शांत हो इसका रास्ता कोई न निकला। दास-नेहरू प्रयत्न जोरों से जारी था। उधर श्री भगवान दास जी काशी वाले बराबर गाँधी जी पर जोर देते रहे कि स्वराज्य की परिभाषा कर डालिए, नहीं तो खतरे हैं। मगर गाँधी जी ने तब तक न सुना। तब उनने अपनी योजना तैयार कर के दास साहब को दी। उनकी पार्टी ने उसे पास भी कर लिया। फिर सोचा गया कि कांग्रेस में बिना दो में एक पार्टी की जीत के शांति न होगी। सो भी दास साहब की ही पार्टी की जीत से यह संभावना थी। अंत में दिल्ली में कांग्रेस का विशेष अधिवेशन कर के फैसले की बात तय पाई। मौलाना अबुल कलाम आजाद उसके अध्यक्ष चुने गए। मैं भी उसमें शामिल था। बड़ी चहल-पहल थी।

मौलाना ने अपने भाषण में कौंसिल पक्ष का समर्थन किया। फिर क्या था, दास साहब को विजय की आशा हुई। अंत में गाँधी जी ने दोनों दलों का समझौता करा दिया। तय पाया कि कांग्रेस मैन चाहें तो कौंसिलों में जा सकते हैं या लोगों को भेज सकते हैं। मगर यह काम कांग्रेस के नाम से नहीं होगा। फलत: स्वराज्य-पार्टी के जन्म का सूत्रपात हुआ। उसी पार्टी की ओर से कौंसिल चुनाव की लड़ाई आगे लड़ी गई। यहाँ यह कह दूँ कि मैं उस समय पक्का अपरिवर्तनवादी था।

दिल्ली में यह जो दोनों दलों में समझौता हुआ वह दास-नेहरू के अधिक प्रयत्न का फल था। वहीं मैंने देखा कि स्वराज्य पार्टी का काम जोरों से चलाने के लिए दास साहब ने अंग्रेजी के नए फॉरवर्ड (Forward) नामक दैनिक पत्र का विज्ञापन आदि खूब बँटवाया। तभी से वहपत्रचालू हुआ। वही पीछे नाम बदल कर'लिबर्टी और एडवांस' के रूप में क्रमश: निकलता आयाहै। सरकार के आक्रमण के कारण नाम बदलने पड़े थे।

कलकत्ते के पं. श्यामसुंदर चक्रवत्ती कट्टर अपरिवर्तनवादी थे। जब उन्होंने दोनों दलों के समझौते की बात जानी तो अपने अंग्रेजी पत्र (Servant) में लिखा कि श्री चित्तरंजन दास और चक्रवर्ती राजगोपालाचारी में, जो दो विरोधीदलो के नेता हैं, कौन-सी समानता आ गई, सिवाय इस बात के कि दोनों ही संक्षेप में सी. आर. (C.R.) कहे जाते हैं? फिर दोनों में कैसे समझौता हो गया? बात तो ठीक ही थी।

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गाँधीजी जेल में और बाहर

सन 1922 से ले कर 1924 के बीच में दो प्रसिद्ध घटनाएँ और उल्लेखनीय हैं। बारदोली में सन 1922 की फरवरी में असहयोग की लड़ाई स्थगित कर के गाँधी जी ने दिल्ली में अखिल भारतीय कांग्रेस कमिटी की मीटिंग संभवत: मार्च में बुलाई थी। उसमें उन्होंने कांग्रेस के ध्येय का स्पष्टीकरण अपने मतानुसार करना चाहा। लड़ाई स्थगित करने के समर्थन में जो प्रस्ताव था उसमें उन्होंने यह जोड़ना चाहा कि कांग्रेस के ध्येय में जो लेजिटिमेट (Legitimate) और पीसफुल (Peaceful) शब्द है ─ उनके अर्थ हैं क्रमश: ट्रुथ फुल (Truth ful) और नानवायोलेंट (Non violent) मगर कमिटी ने इसे स्वीकार नहीं किया। इस पर अपने साप्ताहिक यंग इंडिया में उन्होंने एक लंबा लेख लिखा और कहा कि हम कहाँ-से-कहाँ चले जा रहे हैं इसका पता नहीं जानते। अगर हम समय रहते नहीं चेते तो अतल समुद्र में जा डूबेंगे। हम सरकार को कमजोर करने के बजाए देश की प्रगति के बाधक हो रहे हैं सत्य और अहिंसा को न मान कर।

मगर इसका लोगों पर तो कुछ असर हुआ नहीं। हाँ, सरकार ने बखूबी समझ लिया कि गाँधी जी का प्रभाव गिर गया है। बस,उसने 6 साल के लिए उन्हें जेल में ठूँस दिया! तबसे ले कर अब तक जहाँ तक मैं जानता हूँ कांग्रेस या आल इंडिया कांग्रेस कमिटी ने कभी भी कांग्रेस के ध्येय के उन दोनों शब्दों का गाँधी जी वाला अर्थ साफ-साफ स्वीकार नहीं किया हैं और न किसी ने इस बात की खुली कोशिश ही की है। मगर फिर भी आज तो कांग्रेस के ध्येय के नाम पर सत्य और अहिंसा का ढिंढोरा ही पीटा जाता है। इसे ही कहते हैं समय की गति!

दूसरी घटना हुई गाँधी जी के जेल से 2 साल के भीतर ही लौट आने पर। सन!1924 ईस्वी में अहमदाबाद में आल इंडिया कांग्रेस कमिटी की बैठक थी। मैं भी उसका सदस्य था। वहाँ गया था। मैंने जो नज्जारा वहाँ देखा वह भूलने का नहीं। बंगाल के श्री गोपीनाथ साहा नामक प्रसिद्ध क्रांतिकारी युवक को फाँसी हुई थी। दास साहब ने उसके हिंसात्मक कार्यों की नहीं, पर उसके ध्येय की प्रशंसा का एक प्रस्ताव पेश किया था गाँधी जी की हिंसा की भर्त्सना को मान कर ही। बहुत गर्मागर्म बहस हुई। अंत में राय लेने पर प्रस्ताव गिर गया। सभापति थे मौलाना मुहम्मद अली। बस,इतना होते ही देशबंधु, पं. मोतीलाल नेहरू आदि के साथ एक बड़ा दल कमिटी से उठ कर बाहर चला गया। इस पर गाँधी जी घबराए। उन्होंने यह भी कहा कि अब गिनिए कि कितने यहाँ हैं और कितने बाहर। गिनने पर पता लगा प्राय: दोनों ही बराबर है, थोड़ा ही अंतर है। यह देखते ही उन्होंने दास साहब आदि को बुलवाया और फिर से उस प्रस्ताव को रखवा कर पास करवा दिया! हालाँकि,उनके दिल पर गहरी चोट लगी।

इसके बाद ही उन्होंने एक और भी प्रस्ताव को, जो पहले गिर गया था, फिर से विचारने और पास करने की इच्छा प्रकट की थी। असल में कांग्रेसी लोग मुकदमों में पैरवी न करते थे। ऐसी ही सख्त आज्ञा कांग्रेस की थी उधर बेलगाँव में कांग्रेस होनेवाली थी। उसके कर्ताधर्ता श्री गंगाधर राव देशपांडे की सारी जाएदाद ले लेने पर सरकार तुली बैठी थी। क्योंकि वे केस तो लड़ते नहीं। इसीलिए प्रस्ताव कुछ ऐसा ही था कि खास-खास प्रकार के केसों में पैरवी की जाए। मगर कमिटी ने पहले इसे न माना था।गाँधी जी उसे ही दोबारा पेश कर के मनवाना चाहते थे। इस पर लोगों ने नियमों के आधार पर उज्र शुरू कर दिया और कहा कि इसी बैठक में गिरा हुआ प्रस्ताव फिर कैसे पेश होगा, आदि-आदि।गाँधी जी दलीलें सुनते थे और उनका चेहरा सुर्ख होता जा रहा था! एक धक्का गोपी साहावाले प्रस्ताव ने दिया था। अब दूसरा धक्का यह हुआ। वहाँ भी हारे और यहाँ भी वही नौबत थी। उन्होंने समझा था कि जैसे साहावाला गिरा हुआ प्रस्ताव फिर से पेश हो कर पास हो गया उसी प्रकार यह भी हो जाए तो थोड़ी शांति मिले। वह उसे पास कराने के पक्ष में थे। मगर लोग कब सुननेवाले थे?

आखिर में वह उबल ही तो पड़े। कुछ तो क्रोध और कुछ बेचैनी इन दोनों के करते बच्चों की तरह मुँह बना कर आग सी बरसाने लगे। उन्होंने कहा कि स्वराज्य मिलने पर यही कमिटी पार्लिमेंट बनेगी जो आज बच्चों का सा काम कर रही है। अभी-अभी जब साहावाला प्रस्ताव फिर पेश कर के पास किया गया तो किसी ने कायदा-कानून नहीं बघारा और धीरे से उसे गले के नीचे उतार लिया। मगर जब इस प्रस्ताव के बारे में मैंने कहा तो कानून और कायदों की बदहजमी सभी लोग मिटाने लगे! बात क्या है?उस प्रस्ताव के समय यह दलीलें कहाँ थीं जो एकाएक अभी आ धमकी है?देशपांडे जैसा दक्ष कार्यकर्ता और लीडर तबाह हो जाए और बेलगाँववाला कांग्रेस-सेशन होने न पाए इस बात की तैयारी हो गई है। इसे ही मैं रोकना चाहता हूँ। इसीलिए यह प्रस्ताव फिर ला कर पास कराना चाहा। मगर आप लोगों को सूझता ही नहीं। मुझे आपने कांग्रेस में कैद थोड़े ही कर लिया है। अभी छोड़ कर चला जाता हूँ। मेरे अपने विचार हैं जिन्हें छोड़ कर या जिनकी हत्या कर के कहीं भी रह नहीं सकता। देखें, कौन मुझे कांग्रेस में रखता है?आदि-आदि।

बस, अब क्या था?चारों ओर थोड़ी देर सन्नाटा सा रहा और गाँधी जी की सिसकियाँ खत्म भी न हो पाई थीं कि चारों ओर से आरजू-मिन्नत शुरू हुई। लोग ऐसा समझ न सके थे। इसलिए घबरा कर कहीं देशबंधु, कहीं पं. मोतीलाल,और कहीं अध्यक्ष मौलाना मुहम्मद अली हाथ जोड़ कर गाँधी जी को मनाने लगे! मगर जब देखा कि वह सुनने को तैयार नहीं, तो मौलाना मुहम्मद अली ने अपने सिर की टोपी उनके पाँव पर रख दी। तब कहीं जा कर वह पिघले। वह दृश्य देखने ही का था। लेखनी उसे अंकित कर नहीं सकती।

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मेरी छुआछूत

सन 1923 ई. के अंत की एक दिलचस्प और जरूरी घटना का उल्लेख कर मैं सन 1925 में पहुँचूँगा। मौलाना मुहम्मद अली की अध्यक्षता में काकिनाड़ा (Cocanada) (आंधार देश) में कांग्रेस का अधिवेशन होनेवाला था। एक दल के साथ मैं भी रवाना हुआ उसमें शामिल होने के लिए। मनमाड़ जंक्शन से हैंदराबाद स्टेट रेल्वे में जाना और बेजवाड़ा में फिर दूसरी ट्रेन पकड़ कर काकिनाड़ा पहुँचना था। हम लोगों ने मनमाड़ में बंबे मेल छोड़ दी। पास के धर्मशाले में गए। वहीं संयोगवश काशी के प्रसिद्ध देशसेवक श्री शिवप्रसाद गुप्त भी मिल गए। बातचीत में तय पाया कि रास्ते में एलोरा की बौद्धकालीन ऐतिहासिक गुफाएँ देखना जरूरी है। सवेरे स्नानादि के बाद खा-पी के हम लोग ट्रेन में बैठे।

मैंने वहीं पहले-पहल एक दल गाँधी टोपीवालों का देखा। पता लगा साबरमती के सत्याग्रह आश्रम के ये लोग हैं। मैंने सुना और पढ़ा था, वहाँ बहुत ही संयम चलता है। मिठाई वगैरह खाई नहीं जाती। मगर वहाँ तो लड्डू, बँदिया आदि का खजाना उन लोगों के पास देखा। उसे खूब उड़ा रहे थे। ताज्जुब तो हुआ कि क्या सचमुच यही लोग गाँधी जी के उस ऐतिहासिक आश्रम के निवासी हैं। फिर संतोष किया कि आश्रम से बाहर आने पर जो थोड़ी आजादी मिली है उसी का उपभोग ये लोग शायद कर रहे हों! मगर दिल ने बार-बार कहा कि यह क्या है?कुछ दाल में काला जरूर है!

गाड़ी जब एलोरा रोड स्टेशन पर लगी तो देखा कुछ लोग एलोरा जाने के लिए उतर रहे हैं। एलोरा वहाँ से शायद आठ मील है। मगर हमें बताया गया था कि अगले स्टेशन सिकंदराबाद ही उतरना ठीक होगा। वहाँ से ताँगे वगैरह मिल सकेंगे। हमने ऐसा ही किया। सिकंदबाद में उतर के गुप्त जी ने कई ताँगे सबों के लिए ठीक किए। खैर, हम लोग एलोरा गए। हमने घूमघूम कर पहाड़ के उदर में उसे ही काट कर दो-दो, तीन-तीन मंजिलों के मकान देखे जिन पर रंगीन चित्रकारी अभी भी ताजी ही मालूम पड़ती थी। सचमुच बौद्ध जमाने की यह रचना अब तक फीकी न पड़ी, यह आश्चर्य है। रंग बनाने का कौन सा विज्ञान उस समय था, कौन बताएगा? पहाड़ को काट कर कई तल्लों के लंबे मकानात कैसे बने? यह सब देख कर हम लोग मुग्ध हो गए। घूमते-घूमते थक भी गए। ईधर शाम भी हो चली। किसी ने कहा, पास ही गाँव हैं जहाँ पंडे रहते हैं। वहीं ठहरना चाहिए। सबने पसंद किया कि एलोरा गाँव में आज रात को ठहर लें। बस, वहीं किसी पंडे के मकान में जा ठहरे।

अगले दिन सुबह उठे। शौच, स्नानादि किया। गुप्त जी के साथ काशी का एक जवान ब्राह्मण रसोइया था। वही पूड़ी और साग भोजनार्थ बनाने लगा। उधर स्नान कर के उन्होंने पायजामा पहना यह कह के कि संध्या करेंगे। संध्या भी क्या? शायद प्राणायाम किया। फिर धोती पहन ली। मैं तो किसी के हाथ का बनाया जल्दी खाता न था। मगर वहाँ खाना पकाने में दिक्कत थी।गाड़ी पकड़ने के लिए जल्दी भी थी। समझा कि ब्राह्मण रसोइया है। गुप्त जी आर्य समाजी हैं। इसलिए यह सच्चरित्र तो होगा ही। भला दुश्चरित्र को वह कैसे रख सकते हैं? इसलिए उसके हाथ की बनी पूड़ी खा तो ली। मगर पीछे पता चला कि वह बड़ा ही दुश्चरित्र है। फिर तो बड़ी ग्लानि हुई। इसलिए मैंने हँसते-हँसते गुप्त जी से कहा कि मैंने तो आपके साथ रहने से सच्चरित्र ब्राह्मण समझ इसके हाथ की पूड़ी खा ली। मगर पीछे पता लगा कि यह है भीषण दुराचारी। इतना सुनते ही हँस के उनने कहा कि ''सच्चरित्र किसे कहते हैं?'' मैंने कहा, ''दुराचार, व्यभिचार आदि''। उनने चट कहा कि ''गाय से बच्चा पैदा हो के साँड़ बनता और उसी गाय पर चढ़ता है, तो क्या वह दुराचारी व्यभिचारी है?''

इतना सुनते ही मैं समझ गया कि यहाँ मामला बेढब है। मैं इन्हें गलती से आर्यसमाजी समझता था। इसीलिए मामूली दलील करना मैंने बेकार समझा और बोलने हीवाला था कि उनने पुन: कहा कि ''यदि यहाँ श्री प्रकाश होता तो आपको और भी हैंरान करता।'' मैंने कहा कि ''गुप्त जी मैं एक प्रश्न करता हूँ। अगर आपने उसका उत्तर दे दिया तो मैं हार जाऊँगा। मगर यह कह देता हूँ कि मुझे वैसे संन्यासी न समझिए जो अंध परंपरा के पिट्ठू होते हैं। मैं तो बुद्धिपूर्वक यह बात मानता हूँ।''

इसके बाद मैंने शुरू किया कि ''एक ऐसा ब्राह्मण कल्पना कीजिए जो अच्छा विद्वान वेदशास्त्रज्ञ, कर्मठ, देशभक्त, खादीधारी, परोपकारी है। वह देशसेवा में जेल भी गया है, कष्ट भोग चुका है। ऐसा आदमी संभव है। फलत: वह सभी लोगों को मान्य होगा। अब फिर कल्पना करें कि एक घोर जंगल में स्थित एक ग्राम के निकट झाड़ियों में दैवात पहुँच कर कुछ करता है या अपनी थकान ही हटा रहा है। आप भी कुछ दूर पर बैठे हैं और उसकी हरकतें देख रहे हैं। मगर मूक हैं। आपकी जिह्वा में बोलने की शक्ति किसी कारण से नहीं रह गई है। इतने में एक अमीर का नन्हा सा बच्चा सोने-जवाहरात से लदा भटक कर उस झाड़ी में आ जाता है। वह सोना जवाहरात देख के वह ब्राह्मण लोभग्रस्त हो जाता है। यह असंभव नहीं है। अब सोचता है कि यदि छीनने की कोशिश करूँ तो बच्चा चिल्लाएगा और शायद पास में कोई हो तो पकड़ा जाऊँगा। बस, जबर्दस्त चाकू निकाल के फौरन उसकी गर्दन साफ करता और सब माल ले कर फौरन नौ दो ग्यारह होता है। आप उसकी सारी हरकत देखते, उसे पहचानते भी हैं।''

''अब अगर भविष्य में आपको पानी पीने की इच्छा हो और संयोगवश वही ब्राह्मण मिल जाए और पीने को पानी लाए, तो क्या आपकी हिम्मत होगी कि पी लें?'' मैं रुक गया और उत्तर की प्रतीक्षा करने लगा। मगर गुप्त जी की तो बोलती बंद थी। मैंने बार-बार जोर दिया कि चुप क्यों हैं? बोलिए। मगर उनकी जबान न खुली और न खुली। मैंने कहा कि ऐसे बीसियों प्रश्न कर सकता हूँ। इसे ही चरित्र कहते हैं। मुझे यकीन है, मैंने आपको चरित्र का अर्थ समझा दिया।

इस प्रकार मैंने उन्हें निरुत्तर किया और अपने पक्ष का पूर्णत: समर्थन उन जैसे उच्छृंखल व्यक्ति के सामने कर दिया। उच्छृंखल केवल इस पानी में कि पोथी-पत्रो को जो न माने और कोरी दलील का जो कायल हो। मैंने उनसे यह भी कहा कि मैं इस छुआछूत में बाहरी और भीतरी दोनों ही प्रकार की, शुद्धियाँ मानता हूँ। बाहरी जो धोने-धाने, नहाने और स्थान आदि की सफाई को कहते हैं। भीतरी है चरित्र की शुद्धि के साथ ही सभी प्रकार के संक्रामक रोगों का अभाव। यह बात नितांत परिचित के सिवाय दूसरे आदमी के बारे में जानी नहीं जा सकती। इसीलिए अपरिचित के हाथ का खाना सनातनियों में मना है। मैंने कहा कि जेल में भी मैं खाना बनानेवाले कैदियों से खाना इसलिए नहीं बनवाता था। क्योंकि सोचता था कि न जाने क्या-क्या कुकर्म कर के जेल आए होंगे। नल (कल) का पानी भी मैं इसीलिए पीता हूँ नहीं। क्योंकि जहाँ लोटे वगैरह को बाहर-भीतर बराबर मलते हैं। नहीं तो धातु में जहर पैदा हो जाने और गंदा होने का डर रहता है। वहाँ नल के भीतर या बाहर कभी मला दला नहीं जाता। क्या कोई बिना मले-दले लोटे का पानी पीने की हिम्मत कर सकता है? फिर नल के पानी के पीने की हिम्मत मैं कैसे करूँ? काशी आदि शहरों में तो पाखाने आदि के नलों (drains) के साथ ही पानी के नल चलते हैं। इसीलिए और भी जी नहीं चाहता। नदियों में भी गंदी चीजें पड़ती हैं सही। मगर वहाँ धातु की बात नहीं है। साथ ही, धारा जारी रहने से पानी में आंतरिक (chemical action) क्रिया हो कर शुद्धि हो जाती है। इसी से कहा हैं ''बहता पानी निर्मल, बँधा सो गंदा होय''।

लेकिन तभी से मेरे दिल पर एक विचित्र असर हो गया, यह पहले न था। तभी से मैं छुआछूत के मामले में और भी सख्त और बेमुरव्वत हो गया। क्योंकि वह मेरी दलील मेरे दिमाग के सामने बराबर ताजी रहती है। पहले यह बात न थी। इसलिए आदमियों के आचरण की उतनी सख्ती से खोज ढूँढ़ नहीं करता था। बेशक, मेरे खान-पानी की छुआछूत का अर्थ यह नहीं कि मैं किसी आदमी या जाति को सदा के लिए अस्पृश्य मानता हूँ। यह तो गलत बात है। न तो पोथियों से ही इसकी सिद्धि मेरे विचार के अनुसार हो सकती हैं। और न स्वतंत्र रूप से विचार करने से ही। मैं तो केवल खाने-पीने में ही छुआछूत मानता हूँ। इसका कारण भी बताया ही है। मेरी यह छुआछूत विचार मूलक है, बुद्धिपूर्वक है। मैंने इस पर बार-बार सोचा है और जितना ही विचारा है उतना ही इस मामले में सख्त हो गया हूँ। हालाँकि वर्तमान युग में इससे बदगुमानी मेरे खिलाफ बहुत फैली है। यहाँ तक कि लोगों ने समझ लिया है कि नीच, ऊँच, हिंदू, मुसलिम आदि भेद बुद्धि के कारण ही मेरी यह छुआछूत चलती है। लेकिन यह लोगों की धारणा गलत है।

मैं जाति या वर्ण के करते नीच-ऊँच या स्पृश्य-अस्पृश्य किसी को नहीं मानता। मुसलमानों या अन्य धर्मवालों को अस्पृश्य मानने की नादानी भी नहीं कर सकता हूँ। मगर किसी को शक हो तो एक बार कोई भी जाति या धर्म का आदमी मेरी रोटी या मेरा पानी छू कर देख ले कि मैं उसे खाता-पीता हूँ या छोड़ देता हूँ। मगर सदा इस प्रकार का छुआ खाने-पीने की हिम्मत मुझमें होती ही नहीं। कुछ मेरा अब स्वभाव ही ऐसा हो गया है। आखिर लगातार 50 वर्षों तक जिसका पालन निरंतर किया, और ईधर आ कर तो अत्यंत बुद्धिपूर्वक किया, वह स्वभाव न हो जाए तो हो क्या? इससे स्वयं मुझे कष्ट होता है। मगर उसका आखिर परिणाम अच्छा ही होता है। इससे खान-पान में मेरा संयम बना रहता है। उससे स्वास्थ्य भी ठीक रहता है। इसलिए अब तो खान-पान की इस भीषण कट्टरता को मैं अपने स्वास्थ्य की रक्षा के लिए ढाल मानता हूँ। फलत: इसे छोड़ना नहीं चाहता, ताकि नीरोग रह के ज्यादा काम कर सकूँ। नीरोग भी रहता हूँ।

आगे बताऊँगा कि किस क्षण में मैं इस कट्टरता को त्याग दिया करता हूँ और क्यों? इसके दृष्टांत आगे मिलेंगे। बेशक, मेरी यह कट्टर छुआछूत की बात इस जमाने के लिए है नहीं। इस जमाने में यह असंभव सी चीज है। इसे बड़ी ही दिक्कत से मैं निभा रहा हूँ। इसीलिए इस अर्थ में मैं दकियानूसी हूँ। सो भी पक्का। ऐसा मानने में मुझे जरा भी हिचक या शर्म नहीं है। यही कारण है, कि मैंने और किसी को भी इसके पालन की राय कभी नहीं दी है! ऐसी भारी भूल मैं हर्गिज कर नहीं सकता। जो लोग कट्टर वैष्णव, आचारी हो कर भी बाजार की इमिरती आदि चीजें या डाँक्टरी दवाइयाँ खाते हैं उन्हें मैं ढोंगी मानता हूँ। वे चीजें कैसे बनती हैं और मीलों की चीनी कैसे तैयार होती हैं यदि वे यह सोचते तो शायद वह यह ढोंग नहीं करते। या तो साफ-साफ सभी खाद्य पदार्थ खाते या छोड़ देते। मैं तो येचीजें छूता भी नहीं। इसीलिए मैं यह भी मानता हूँ कि या तो मेरी जैसी छुआछूत हो या नहीं तो नए ढंग के खान-पान का तरीका जारी हो। बाजार और हलवाई की चीजें खा के और हिंदू होटलों में ब्राह्मण के हाथ का बना भोजन हजम कर के जो लोग मानते हैं कि छुआछूत का पालन करते हैं वे ढोंगी और नादान हैं। मुझे तो इस छुआछूत के चलते लंबी यात्रा में रेल में बड़ी दिक्कत होती है। अतएव या तो बीच में ट्रेन छोड़ के खाने-पीने का प्रबंध करता हूँ या चौबीस घंटे यों ही रह जाता हूँ। उसी यात्रा में सिकंदराबाद से चल कर बेजबाड़ा शाम को पहुँचा। तब कहीं पाखाना गया, दतवन की। फलत: दाँतों का दर्द बेतहाशा बढ़ गया।

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फिर पुरोहिती का प्रश्न

सन 1924 ई. बीतते-न-बीतते मेरा संबंध पुन: बिहार से स्थापित हो गया। यों तो यू. पी. में भी आता-जाता ही रहा। कांग्रेस का काम तो कुछ था नहीं। चर्खे और खादी का काम भी क्या कोई ऐसा काम है जो जनता को आकृष्ट कर सके? वह तो राजनीतिक चहल-पहल चाहती है। जन्म से मरणपर्यंत जिसे जीविकार्थ प्रति दिन जमीन, हवा, सूर्य, पानी और आदमियों के साथ भीषण संघर्ष करना पड़ता है वही जनता संघर्ष के सिवाय दूसरी चीज को अपना वास्तविक कल्याणकारी कैसे समझे? इसीलिए जहाँ एक ओर चुनावों का प्रश्न जोर पकड़ता जा रहा था, तहाँ कांग्रेस में वह पुरानी गंदगी फिर सिर उठाने लगी जो लड़ाई के समय दबी थी। कहते हैं कि संघर्ष के समय हमारी कमजोरियाँ जेल के भीतर चली जाती हैं। हम वहीं इनका प्रदर्शन करते और इनके शिकार होते हैं। मगर जब संघर्ष न हो तो बाहर ही वे कमजोरियाँ हमें धर दबाती हैं।

ईधर कांग्रेस संघर्ष में मेरे पड़ जाने के कारण भूमिहार ब्राह्मणों के पूर्व आंदोलन के विरोधियों की हिम्मत बढ़ गई थी। वे जहाँ-तहाँ इन्हें दबाने लगे थे। पुरोहितों ने न सिर्फ पुरोहिती न करने की धमकी दी, प्रत्युत बहुत जगह भूमिहार ब्राह्मणों की पुरोहिती विवाह श्राद्धादि ─कराना छोड़ ही दिया। इससे समाज में एक प्रकार का हाहाकार सा मच गया। विरोधी समझते थे कि अब तो स्वामी जी इस काम में पड़ेंगे नहीं। समाज के लोग भी कुछ ऐसा ही समझने लगे थे। इन लोगों ने बड़ी करुणवाणी में अपनी स्थिति बार-बार मुझे सुनाई। फलत: मेरा दिल फिर पसीज गया। एक तो कोई राजनीतिक काम था नहीं। दूसरे यदि जलियांवाले बाग के करुण-क्रंदन ने मुझे उधर घसीटा था तो इनका क्रंदन इधर घसीटने लगा।

जिस आत्मसम्मान पर चोट होने से मैं और मेरे साथ सहस्त्रों जेलों तक में हँसते-हँसते गए उसी आत्मसम्मान पर फिर दूसरी तरफ से दूसरे प्रकार का चोट हुआ जिससे लोग विचलित हुए। सरकार की धमकी यदि कुछ न कर सकी तो पुरोहितों की धमकी कैसे विचलित करती। पुरोहित समझते थे कि इनमें कोई पौरोहित्य तो जानता नहीं। फलत: हार कर इन्हें गिरना ही होगा। फिर तो मनमानी शतें मनाएँगे। ठीक जैसा सरकार समझती थी।

पुरोहितों ने और उनके साथियों ने यह भी प्रचार किया कि स्वामी जी तो सब काम यों ही बीच में ही छोड़ कर अलग हो जाते हैं। मैंने देखा कि इस प्रचार का असर भी हो रहा है। फिर तो यह ललकार मुझे बर्दाश्त न हो सकी और एक बार फिर सामाजिक काम में कूदना पड़ा। इसी समय एक चातुर्मास्य में परिश्रम कर के सिमरी में रह के बारह सौ पृष्ठों की पुस्तक 'कर्मकलाप' लिखी गई। इसका जिक्र पहले आया है। यह पुस्तक दूसरी बार इस काम में कूदने पर ही लिखी गई।

हाँ, तो मैंने युक्त प्रांत और बिहार में घूम-घूम कर सैकड़ों सभाएँ कीं और भूमिहार ब्राह्मणों को ललकारा कि आत्मसम्मान को तकाजा है कि स्वयं पुरोहिती करो। मैंने प्रयाग के पंडों आदि का दृष्टांत भी दिया कि आखिर वे भी तो भूमिहार ही हैं। बस, लोगों की आँखें खुलीं और इस काम में रुजू हो गए।

मगर, इसमें अब सबसे बड़े बाधक पुराने ख्याल के कुछ बूढ़े, जमींदार एवं राजे-महाराजे थे। ये लोग नादानी के कारण पुरोहिती को बुरा बताते थे। हालाँकि घृणित से घृणित काम भी पैसों के लिए कर डालते थे। दलीलों से वे मानते न थे। इसलिए सोचा गया कि भूमिहार ब्राह्मण सभा से ही इस बात को पास कराना चाहिए। सौभाग्य से युक्त प्रांतीय भूमिहार ब्राह्मण सभा का अधिवेशन 1925 की गर्मियों में काशी में होने को था। मैंने जोर लगाया कि वहाँ सफलता हो। सौभाग्य से मेरा साथ गाजीपुर के प्राय: सभी पढ़े-लिखे लोगों ने दिया, सिवाय एकाध के। लेकिन दुर्भाग्य से काशी में सभा के स्तंभ और अधिवेशन के प्रबंधक बाबू कवींद्र नारायण सिंह इस बात के विरोधी थे। उन्होंने वहाँ के लोगों को भी अपनी तरफ कर लिया। फिर भी युवक दल मेरे साथ ही था, यहाँ तक कि उन्हीं का बड़ा लड़का भी। आत्मसम्मान और स्वावलंबन की बात जो थी और चैलेंज का जवाब जो देना था। ऐसी बातें सदा युवकों को अपील करती हैं। उधर कविंद्र बाबू निश्चिंत बैठे कि काशी में वे बाजी मार ले जाएगे ही। मगर सभा में एकाएक प्रस्ताव पर मैंने हृदय में बिंध जानेवाला भाषण दिया। फलत: बहुत वाद-विवाद के बाद राय लेने पर प्रस्ताव पास हो गया। फिर तो खूब आनंद हुआ। मगर कवींद्र बाबू ने इसे अपना घोर अपमान समझा। क्योंकि बाघ की माँद में ही उसे नथिया पहनाई गई। इस लिए, चाहे जैसे हो, बदला चुकाने की उन्होंने ठान ली।

उनके सौभाग्य से उसी साल दिसंबर में युक्त प्रांत के बस्ती जिले में अखिल भारतीय भूमिहार ब्राह्मण महासभा का अधिवेशन होने को था। खलीलाबाद में हुआ भी। उन्होंने पूरी तैयारी शुरू कर दी। बस्तीवालों से सट्टा-पट्टा भी किया। ईधर मकसूदपुर (गया) के राजा चंद्रेश्वर प्रसाद नारायण सिंह को सभापति चुनवाया, यह कह के कि वह भूमिहार ब्राह्मण शिक्षा कोष के लिए साठ हजार रुपए देंगे। उनकी चाल थी कि इससे युवक लोगों पर असर होगा और राजा के भाषण में पुरोहिती का विरोध करवा के बाजी मार लेंगे। तैयारी होने लगी। मैं भी बस्ती में सभा के लिए जा डटा। क्योंकि आग्रह कर के लोगों ने बुलाया कि चंदे की वसूली में मदद दीजिए। बस्ती एक ऐसा जिला है जहाँ बस्ती शहर से कुछ ही मील दक्षिण-पूर्व के कई गाँवों के भूमिहार ब्राह्मणों का विवाह संबंध सरयूपारियों के साथ बराबर होता आया है। मगर फिर भी समय की ऐसी गति कि वे भूमिहार ब्राह्मण शेष बाबुओं की नजर में छोटे गिने जाने लगे थे। मैंने उनके घर जा के उन्हें उत्साहित किया। वे लोग भी सभा में आए। उधर कवींद्र बाबू ने अपनी तैयारी में कुछ भी कोर कसर न छोड़ी। बाहर से अपने पढ़े-लिखे दोस्तों को बुलाया जिनका एकमात्र काम था सभा के समय तरह-तरह से लोगों को फुसलाना और बरगलाना।

ईधर चारों ओर से मेरे समर्थक भी बहुत आए। बिहार से तो एक खासा दल पं. धनराज शर्मा के साथ आया। बाकायदा अपने काम में सभी लोग लग भी गए। अधिवेशन में सभापति जी ने जो लिखित भाषण पढ़ा उसमें दिल खोल कर पुरोहिती के प्रचार का विरोध किया। यहाँ तक लिख मारा कि ''कुछ मनचले लोग हमारे समाज में इसका प्रचार करना चाहते हैं।'' इस पर लोग बहुत बिगड़े। यहाँ तक कि भाषण से 'मनचले' शब्द जब तक निकाला न गया, उन्हें आगे बढ़ने न दिया! यह हमारी पहली विजय थी। इससे उस दल में खलबली मची, फिर तो भीतर-ही-भीतर स्थानीय लोगों को यह कहा गया कि सभा में सभी जात के लोगों को ला के भर दीजिए और विरोध में वोट दिलवाइए। दोस्तों ने इसकी पूरी तैयारी भी कर ली। मुझे यह बात पीछे विदित हुई, हालाँकि मेरे साथी पहले भी जानते थे।

सभा में जब प्रस्तावों का समय आया तो अपार भीड़ थी। बाबू कवींद्र नारायण सिंह ने स्वयं पुरोहिती के प्रस्ताव का विरोध किया और दबाव डाल कर राजा साहब तमकुही से उस विरोध का समर्थन कराया। तमकुही, गोरखपुर में है और बस्ती का पड़ोसी होने से उनका असर बस्ती जिलेवालों पर अच्छा था। वे राजा भी ठहरे। प्रस्ताव को मैंने ही खुद पेश किया था। पेश करने के समय भी मैंने अच्छा भाषण दिया। मगर पूरी बहस हो चुकने के बाद जब मुझे उत्तर देने को कहा गया तोपं. धनराज शर्मा ने कहा कि जरा भावुकता भरी (feeling) अपील कीजिए। सचमुच जो भाषण मैंने उस समय दिया,उस विषय का वैसा भाषण शायद ही कभी दिया हो। मैं देर तक बोला और ऐसा बोला कि पत्थर भी पसीज जाए। पता लगा कि उस भाषण के बाद कवींद्र बाबू के कट्टर समर्थकों तक ने उनसे कह दिया साफ-साफ, कि अब हममें हिम्मत नहीं है कि विरोध करें। सबों के दिल में बात बिंध गई।

तब कवींद्र बाबू ने सोचा कि सभापति तो हमारे आदमी हैं। अत: वोट लेने में गड़बड़ी करवा के,या यों ही,जैसे-तैसे, घोषणा करा ही देंगे कि प्रस्ताव पास न हो सका,यही हुआ भी। वोट का समय आया तो हाथ उठवाए गए। विरोध में थोड़े हाथ थे और पक्ष में असंख्य। फिर भी उन्होंने कान में सभापति जी से कुछ कह के घोषित करवा दिया कि, प्रस्ताव गिर गया! इस पर हमारे साथियों ने विभाग करवा के अलग-अलग गिनवाने की माँग पेश की। पर, एक न सुनी गई। तीन बार कोशिश करने के बाद हमने और यत्न करना बेकार समझा। इस प्रकार कवींद्र बाबू की मोंछ किसी प्रकार रह गई। सभा खत्म हुई। मगर हम लोग खत्म होने से पहले ही कानपुर कांग्रेस में सम्मिलित होने के लिए ट्रेन से भागे।

कानपुर से लौट कर मैंने साथियों से राय की कि कवींद्र बाबू की शैतानियत का बदला सूद सहित शीघ्र ही चुकाया जाना चाहिए। बात ठीक याद नहीं कि किस कारण से महासभा का अधिवेशन सन 1926 ई. की गर्मियों में ही करने का निश्चय हुआ। खलीलाबाद में निमंत्रण तो बिहार की ही तरफ से पड़ा था। मगर दिसंबर में न हो के गर्मियों में उसका अधिवेशन करने का निश्चय शायद इसलिए किया गया कि दिसंबर में कांग्रेस का अधिवेशन होने से कांग्रेसी भूमिहार ब्राह्मण महासभा में शामिल हो नहीं सकते। खलीलाबाद से कानपुर तो निकट था। इसलिए जा सके सो भी किसी प्रकार। मगर दूर-दराज प्रदेशों में होने पर जाना असंभव था। इसलिए गर्मियों के अलावे दूसरा समय था नहीं। कवींद्र बाबू के दुर्भाग्य से बदला लेने का समय जल्दी ही आ गया। अधिवेशन की तैयारी जोरों से होने लगी।

दुंदा सिंह की ठाकुरबाड़ी, बाकरगंज (पटना) में ही अधिवेशन करने का निश्चय हुआ। उसी में सर गणेशदत्त सिंह का डेरा था। एक बात बता दूँ कि प्राय: 1924 ई. में जब पुरोहिती का आंदोलन चल पड़ा तो कुछ जमींदारों ने उसके बाद सर गणेशदत्त सिंह से शिकायत की कि स्वामी जी तो बड़ी तेजी के साथ भूमिहार ब्राह्मणों को पुरोहिती की ओर घसीटे जा रहे हैं। एक दिन उनके डेरे पर कुछ लोगों के साथ मैं भी बैठा था कि इसी की चर्चा छिड़ गई। इस पर सर गणेश ने कहा कि आप तो हमारे समाज को चौपट कर रहे हैं। लड़कों और जवानों का पढ़ना छुड़ाया। उन्हें तथा औरों को ज्यादा तादाद में जेल भिजवाया। अब भिखमंगीवाला पुरोहिती का काम सिखा कर रहे-सहे को भी चौपट करना चाहते हैं! मैंने कुछ कहना चाहा कि यह क्या कह रहे हैं। मगर वह आवेश में बोलते ही गए। यहाँ तक कह डाला कि यदि बाभन (भूमिहार ब्राह्मणों को बिहार में बाभन ही कहते हैं) का बच्चा कथा बाँच कर पैसा ले और खाए तो शर्म की बात होगी,डूब मरने की चीज होगी।

इस पर मुझे भी आवेश आया। मैंने साफ-साफ सुना दिया कि बाभन का बच्चा यदि कथा बाँच कर जीविका करे तो वह उसके लिए डूब मरने के बजाए गौरव की बात होगी। कारण, वह तो ब्राह्मण है और कथा बाँचना ब्राह्मण का ही धर्म होने से वैसा करने के लिए अंततोगत्वा उसे मजबूरी है। अगर जो ब्राह्मणपन का दावा करे, चोंगा पहन के इजलास पर गंगा तुलसी उठवा के झूठी कसम खिलवाए और उसके मेहनताने के पैसे को ले तो उसे चिल्लू भर पानी में डूब मरना चाहिए। इतना कह के मैं वहाँ से चला आया। सर गणेश उन दिनों मिनिस्टर थे और पहले वकालत करते थे। मगर तब तक 'सर' न बने थे। उन्हीं को लक्ष्य कर के मैंने कहा था। इससे वह जल-भुन गए। मेरा और उनका तभी से खासा मनमुटाव हो गया था।

खैर,स्वागत-समिति के सदस्य सर गणेश भी थे। समिति के सामने सवाल था कि अधिवेशन का सभापति कौन हो?मैं चाहता था कि कोई राष्ट्रवादी कांग्रेसी हो। इसीलिए असौढ़ा (मेरठ) के चौधरी रघुवीर नारायण सिंह को मैं अध्यक्ष बनाना चाहता था। मगर अब तक सभा का सूत्र जिनके हाथों में था वे राजे-महाराजे और उनके सलाहकार सर गणेश वगैरह इसे सहन नहीं कर सकते थे। वह तो जी-हुजूर होने के नाते कोई वैसा ही सभापति चाहते थे। पहले सभा में हर साल राजभक्ति का प्रस्ताव पास होता था। उसे तो हमने कभी खत्म करवा दिया था। अब सभा को थोड़ा और सामयिक बनाना चाहते थे। मगर वह लोग विरोधी थे। असल में दृष्टिकोण और स्वार्थ का तकाजा यही था। इसमें दोष किसी का नहीं। चौधरी रघुवीर नारायण सिंह पुरोहिती के मामले में मेरा समर्थन करते ही। क्योंकि यह तो आत्मसम्मान का प्रश्न था और वह थे पक्के असहयोगी और जेलयात्री। उनके लड़के की शादी तो गौड़-जमींदार के ही घर हुई थी। फिर उन्हें हिचक क्यों होती?

जिस दिन आखिरी फैसला होने को था कि कौन चुना जाए,उस दिन की मीटिंग में सर गणेश न आए सही, पर, यह कह के टहलने चले गए कि मेरा समय तो अब टहलने का है। इसलिए बाकी लोगों की मीटिंग हुई। ज्यादातर धनी लोग ही थे। एक के बाद दीगरे नामों को लोग पेश करने लगे। महाराजा बनारस से शुरू कर के क्रमश: ग्यारह नाम रक्खे गए। उसके बाद भी जब चौधरी साहब का नाम न रख एक साधारण सज्जन का नाम रखा जाने लगा तो मैं इसे बर्दाश्त न कर सका और बोला कि यह तो अनर्थ हो गया। यहाँ मैं न मानूँगा और बारहवाँ नाम तो उनका ही रहेगा। खैर, लोगों ने मान लिया। आगे किसी का नाम नहीं दिया गया। सभी समझते थे कि ग्यारह में कोई-न-कोई होई जाएगा। सभी एक बारगी इन्कार थोड़े ही करेंगे। फलत: चौधरी साहब न होंगे। वे लोग सोचते थे कि सरकार का बागी यदि सभापति बना तो गजब हो जाएगा! पुश्त-दर-पुश्त की सरकार की खैरख्वाही खत्म हो जाएगी! लेकिन उन्हें क्या पता था कि उनके सभी लोग न आ सकेंगे और मजबूरन चौधरी साहब को ही सभापति बनाना पड़ेगा।

इस तरह सभापतियों के नामों को तय कर के जब हम लोग दूसरी बातों का विचार कर रहे थे तब सर गणेश भी मीटिंग में आ गए। आते ही पूछा कि क्या हो रहा है?बताया गया। चौधरी साहब का नाम सुनते ही वे चौंक पड़े और उसमें फिर कुछ गड़बड़ी करनी चाही। इस पर मैंने सभापति का ध्यान आकृष्ट किया कि वह बात तो खत्म हो चुकी। नियमानुसार हम लोग उसे उठा नहीं सकते। बस,इतने से ही सर गणेश चिढ़ कर बोले यदि आप मुझे नहीं चाहते तो जाता हूँ,और उठने लगे। इस पर मैंने कहा कि नहीं चाहने की तो कोई बात नहीं,मैं तो नियम की बात बोलता हूँ। फिर भी मगर आप चले जाएगे तो दुनियाँ खाली थोड़े ही हो जाएगी। खैर, उसके बाद वे चले गए या नहीं यह याद नहीं। मगर लोगों ने हम दोनों को ठंडा किया और काम पूरा किया। पर,सर गणेश ने बखूबी समझा कि यह संन्यासी बड़ा ही बेढंगा है। उसके बाद से उन्होंने उस ढंग से मेरे साथ पेश आना सदा के लिए छोड़ ही दिया। क्योंकि दो बार तो उन्हें करारा जवाब मिला था। मन में दु:ख तो था ही। मेरा प्रभाव समाज पर था तो करते क्या?यह ठीक है कि असहयोग युग में प्राय: पचहत्तर प्रतिशत जेल जानेवाले भूमिहार ब्राह्मण ही थे। प्राय: उसी प्रकार लड़कों ने भी स्कूल काँलेज छोड़े थे। मुझे तो इसका विश्वास था कि जिस समाज की सेवा के करते बदनाम हुआ उसने मौके पर मेरा साथ दिया और मुल्क का सिर ऊँचा करने में वह आगे रहा। मगर सर गणेश जैसों को तो इस बात का दुख था ही। फिर भी लाचारी थी।

इसके बाद यारों ने दौड़धूप शुरू की। ग्यारहों महाशयों के पास पत्र गए, याद दाश्तें गईं और कइयों के पास तो एक के बाद दीगरे आदमी भी भेजे गए। अगर इनकी बदकिस्मती से उनमें कोई भी आने को रवादार न हो सका। इससे बड़ी घबड़ाहट हुई। पुनरपि खास तौर से कोशिशें की गईं। मगर फिर भी बेकार! अब बुरी गत थी। सरकार के बागी को ये लोग चाहते न थे और शेष ग्यारहों में एक भी मिलता न था। इस प्रकार चौधरी साहब को रो गाके किसी प्रकार गले के नीचे उतारना ही पड़ा।

इसी दरम्यान में एक दिन सभा के काम से ही जब मैं उसके आँफिस में गया, जो सर गणेश के डेरे में ही था, तो उन्होंने कहा ''स्वामी जी, मुझे कोरा गया गुजरा ही न समझिए। मैं भी मानता हूँ कि पहले मुल्क, पीछे जातपाँत "First country, then community.'' ये उनके शब्द हू-ब-हू हैं। वह समझते थे कि मैं उन्हें देश का शत्रु और अपनी जाति की तरफदारी करनेवाला जानता था। बात थी भी कुछ ऐसी ही। इसीलिए उन्होंने ऐसा कहा। इस पर कुछ और बातें हुईं और जैसी कि मेरी आदत है मैंने उनकी बात मान ली। तब से मेरा रुख उनके प्रति बदला। इसीलिए आना-जाना जो बंद था वहाँ फिर जारी हो गया। फिर तो सन 1929 ई. की गर्मियों के बाद एक प्रकार से सदा के लिए बंद हो गया। इसकी कहानी आगे मिलेगी। सन 1926 और 1929 के बीच के 3 वर्षों तक मैं उनकी बात पर विश्वास कर के उन्हें बहुत नजदीक से देखता रहा।

अस्तु, सभापति चौधरी साहब पटना आए। उनका शानदार स्वागत हुआ। सभा स्थान खूब सजा-धजा और लंबा-चौड़ा था। लोग आश्चर्य में भी थे और खुश भी थे। मगर मुझे तो पुरोहितीवाली बात की फिक्र थी। कवींद्र बाबू से सूद के साथ बदला चुकाना था। इसीलिए उसी में लगा था। ईधर पटना में कवींद्र बाबू की नातेदारी होने और बिहार के अन्य जमींदारों से निकट का संबंध रहने के कारण वे भी पूरी तैयारी में थे। मुझे यहाँ तक पता चला कि टेकारी के महाराज कुमार श्री गोपाल शरण सिंह के पास ऐसी झूठी खबर भेजी गई थी कि आपके विरुद्ध सभा में प्रस्ताव लाया जाएगा। क्योंकि उनकी शिकायतें बहुत फैली थीं। इस प्रकार उनसे कहा गया कि रेलगाड़ी में हजारों आदमी भेजिए कि मौके पर आपके पक्ष में वोट दें। उधर पटना के धारहरा गाँव में उनके लड़के की शादी होने के कारण वहाँ के जालिम जमींदारों ने अपने किसानों के दल के दल सभा में आने के लिए तैयार किए। सबका एक ही मतलब था कि पुरोहितीवाले प्रस्ताव के विपक्ष में वोट दिलाया जाए। इतना ही नहीं। स्वयं कवींद्र बाबू ने ऐसी घोषणा की कि खलीलाबाद के बचन के अनुसार राजा चंद्रेश्वर प्रसाद नारायण सिंह से साठ हजार रुपए का कागज लिखवा कर ला रहा हूँ और महासभा को उसे सौंप दूँगा। शर्त केवल एक ही होगी कि पुरोहितीवाला प्रस्ताव गिर जाए।

सुना था कि तलवार के बल से धर्म का प्रचार पहले होता था। लोभ दिला कर लोग पथ भ्रष्ट किए जाते थे। मगर उसका ज्वलंत दृष्टांत सामने आया। फिर भी उनकी एक न चली। अंत में वे विफल मनोरथ हुए। बात यों हुई कि सभा के एकाध दिन पहले से ही उत्तर बिहार से हजारों हजार लोग रेल से, पैदल, नाव से आने लगे। ताँता बँध गया। उनसे जो ही पूछता कि कहाँ आए हैं और क्या करने,उसे साफ जवाब देते कि भूमिहार ब्राह्मण सभा में आए हैं पुरोहिती का प्रस्ताव पास करवाने! ये बातें सुनते-सुनते,कवींद्रबाबू के दल में खलबली और आतंक छा गया। उनने सोचा कि,दस-बीस हजार या जितने आ रहे हैं सभी का एक ही मंत्र है पुरोहिती। फिर तो खुली सभा में मुँह की खानी होगी। इसलिए सुलह की बात उन्होंने सोची। खैर,बाबू रामदयालु सिंह ने, जो मेरे पत्र के समर्थक थे,पर, जिन पर उनका भी विश्वास था,समझौते की बात मान ली और एक ऐसा प्रस्ताव बनाया जिसमें मेरी सभी बातें थीं। बल्कि जितना मैं चाहता था उससे ज्यादा थीं। यह प्रस्ताव दूसरे दल को भी स्वीकार था। अंत में वही पेश हुआ और बिना वाद-विवाद के ही सभापति की ओर से पास कर दिया गया। वे लोग डरते थे कि वाद-विवाद में मामला और भी बेढब हो जाएगा। इसलिए धीरे से पास करवा लेने में ही खैरियत समझी गई। ताकि कोई सुने, कोई न सुने। मैंने भी मान लिया। इस प्रकार पुराना झमेला खत्म हो गया और महासभा की मुहर पुरोहिती पर लग गई। चौधरी साहब ने अपने भाषण में भी इसका समर्थन बहुत सुंदर ढंग से किया था।

इसके बाद तो उसका काम ऐसा बढ़ा और लोगों की अपने ही दल के पुरोहितों की माँग इतनी बढ़ी कि यदि मेरा 'कर्यकलाप' न होता तो बड़ी कठिनाई होती। लोगों को निराशा होती जिसका परिणाम बुरा होता। बेशक, इस अधिक माँग के सिलसिले में कुछ लोग समाज में ऐसे भी निकल आए जिन्होंने पुरोहिती के नाम पर लोगों के नए जोश से अनुचित लाभ उठाया,उठाना चाहा। मगर यह अनिवार्य था। कुछ समझदार लोगों ने मुझसे यह भी कहा कि आपने मूर्खों और स्वार्थियों को जमने का यह मौका दे कर गलती की। एक ऐसा दल तो पहले से ही जमा था। अब आपने उसकी जगह एक वैसे ही दूसरे को जम जाने का मौका दे दिया। हम तो पहले दल को उखाड़ना चाहते थे। खैर,वह तो उखड़ा या उखड़ने लगा। मगर ये नए लोग तो न उखड़ सकेंगे। क्योंकि इनका नया दावा है। क्योंकि इनकी नई जरूरत आपने पैदा कर दी है। मैंने उन्हें उत्तर दिया कि जिन लोगों ने वंश परंपरा से गद्दी नशीन पुराने लोगों को उखाड़ फेंका वही नए लोगों को भी न रहने देंगे, यदि ये नालायक हुए। यहाँ तो ''बुढ़िया के मरने की बात नहीं हैं यम का रास्ता जो खुल गया।'' इसीलिए यकीन रखिए, जिन लोगों ने शालग्राम को भून दिया उन्हें बैंगन भूनने में देर न लगेगी। पुराने लोग यदि शालग्राम थे, तो नए लोग (पुरोहित) बैंगन हैं। बहुत जगह ऐसा ही हुआ भी और नए पुरोहित जी को हटा कर लोगों ने स्वयं अपनी पुरोहिती कर ली! इस प्रकार मेरी बात सच निकली!

(18)

श्री सीतारामश्रमक्रांति का प्रतीक

प्रसंगवश यहीं पर मैं एक महत्त्वपूर्ण बात कह देना चाहता हूँ। यद्यपि क्रम के हिसाब से सन 1927 ई. की घटनाओं के अवसर पर ही इसे कहना चाहिए। तथापि उपयुक्त अवसर यही है। उस अवसर पर यह मजा न आएगा। मैं पहले कही चुका हूँ कि आत्मसम्मान की भावना एवं पुकार ने ही मुझे भूमिहार ब्राह्मणों के सामाजिक कार्य में कुछ समय के लिए घसीटा। उसमें कोई प्रति हिंसा, स्वार्थ या तुच्छ राजनीति की भावना न थी। केवल गिरे या यों कहिए कि बलात गिराए गए समाज को उठाना था और उसमें आत्मगौरव की रूह फूँकनी थी जो बहुत अंशों में खत्म हो चुकी या हो रही थी। मैंने किताबें पढ़ के राजनीति, यहाँ तक कि उग्र राजनीति भी, नहीं सीखी है। इसका मुझे या तो मौका ही न मिला, या इसमें मेरी प्रवृत्ति ही नहीं हुई। मैं तो धीरे-धीरे आगे बढ़ा हूँ। मेरे अनुभवों ने ही मेरे गुरु, शिक्षक और पुस्तकों का काम दिया है। बेशक, स्वभावत: मेरी प्रवृत्ति बराबर अग्रसर होने की थी। आज भी है। मगर एकाएक अंधकाराच्छन्न राजनीतिक दुनियाँ में कूद कैसे जाता? हाँ, यदि बचपन से कुछ ऐसी शिक्षा मिली होती या ऐसा संसर्ग रहा होता, तो शायद एकाएक राजनीति में कूद सकता था। मगर सो तो था नहीं।25-30 वर्ष की उम्र तक की मेरी दुनिया तो कोरी धार्मिक और दार्शनिक थी। सो भी कट्टर सनातन धर्म की। फलत: संसर्ग भी ऐसे ही लोगों का रहा जो राजनीति को जानते तक न थे। वे तो उलटे ऐसे कार्यों के सख्त दुश्मन होते हैं। ऐसी दशा में स्वभाव के जोर मार पर भी, अन्य उपयुक्त साधनों के अभाव में, अनुभव प्राप्ति के बल पर ही एकाएक सीढ़ीं चढ़ते-चढ़ते ऊपर बढ़ सका हूँ। लेकिन इतना कह सकता हूँ कि बराबर आगे बढ़ता रहा हूँ यह प्रक्रिया बराबर जारी है। इसलिए बिहार के एक अखबार नवीस को, जो मेरा सख्त समालोचक है और मुझे जली-कटी सुनाने में लगा ही रहता है, एक बार स्वीकार करना पड़ा था कि ''स्वामी जी चाहे और कुछ हों या न हों, मगर निरंतर आगे बढ़नेवाले जरूर है, Swami is nothing if he is not progressive."

जो लोग मेरी इस कमी को, जिसे साधनों की कमी कह सकते हैं, मगर जिसे मैं कदापि कमी नहीं मानता, नहीं जानते कि राजनीतिक पुस्तकों के पढ़ने का मौका मुझे नहीं मिला, वह मुझे ठीक-ठीक समझने में भूल करते हैं। वे तन्मूलक भ्रांत समालोचना भी कर बैठते हैं। लेकिन अनुभवों के सहारे आगे बढ़ने का सुंदर परिणाम यह हुआ है कि मेरा आधार मजबूत हुआ है और पीछे जाने की संभावना रह नहीं गई है जिसका बहुत बड़ा खतरा राजनीति में रहता है।

हाँ, तो जब पुरोहित दल ने ईधर आ के सीधा तथा असहयोग शुरू किया और इस प्रकार भूमिहार ब्राह्मणों को और फलत: मुझे भी बलात झुकाना एवं गिराना चाहा, तो मैंने निश्चय कर लिया कि ऐसा होने न दूँगा। इसी के फलस्वरूप पुरोहितों के तीव्र आंदोलन की बात पहले कही गई है। मैंने सोचा कि पुरोहितों के विरुद्ध क्रांति या बगावत कर देना ही ठीक है। बस, क्रांति का झंडा मैंने बुलंद किया।

इसी बीच यह भी खबरें आईं कि काशी में तथा अन्य जगह भी भूमिहार ब्राह्मणों को संस्कृत पढ़ाना बंद सा है। जान कर तो कोई नहीं पढ़ाता। यों अनजान में कोई भले ही पढ़ा ले। इसी को यों कहते सुना कि इन्हें संस्कृत पढ़ाना साँप को दूध पिलाना है। इसका साफ अर्थ था कि सारे पुरोहित समाज ने बड़ा भारी षडयंत्र कर लिया था कि वे लोग कहीं भी संस्कृत पढ़ने न पाएँ। फिर देखें, अपनी पुरोहिती, अपने श्राद्ध-विवाहादि कैसे कराते हैं। यहाँ तक हालत थी कि यदि स्वतंत्र संस्कृत पाठशालाएँ खुलवा कर उनके लिए पंडित ढूँढ़े जाते तो या तो मिलते ही न थे और अगर बड़ी मुश्किल से अधिक वेतन पर मिलते भी तो पाठशाले में ही गड़बड़ी करते थे। भूमिहार ब्राह्मणों के बच्चों को या तो वहाँ भी ठीक-ठीक पढ़ाते ही न थे, या ईधर-उधर की बातें कर के उन्हें संस्कृत पढ़ने से विरक्त कर देते थे।

ऐसी दशा में मेरे सामने भारी समस्या थी। वह पहाड़ की तरह खड़ी थी, मुझे उसे या तो हल करना था या विरोधियों के सामने झुकना था। यह हल केवल कर्मकलाप के लिखने से आंशिक रूप में ही हल हो सका था। पूर्णतया हर्ज होना तो अभी बाकी ही था। ऐसी दशा में बगावत का झंडा कैसे ऊँचा हो यह सोचना पड़ा।श्री सीताराम श्रम, विहटा, पटना उसी सोच-विचार और चिंता के फलस्वरूप मेरी इस क्रांति के प्रतीक के रूप में ही स्थापित किया गया। यही कारण है, कि जेल में बैठे-बैठे भी उसी की चिंता मुझे बनी है, कारण, उसके साथ इस प्रतीक होने के नाते ही स्वभावत: मेरी अपार प्रीति है। हालाँकि अब इसके लिए विशेष रूप से कुछ करता-धरता नहीं। क्योंकि न तो ऐसा करने का अवसर ही मिलता और न अब ऐसी जरूरत ही समझता हूँ जैसा कि पहले उसके लिए करता था। फिर भी क्रांति का वह प्रतीक बराबर कायम रहे , वह झंडा बराबर उड़ता रहे यह तो चाहता ही हूँ।

बात यों है कि जब मैं सन 1926-27 में इसी चिंता में निमग्न था कि किस प्रकार सफलता के साथ इस बगावत का झंडा खड़ा करूँ तभी पटना के एक वकील पं. रामबहादुर शर्मा ने, जो मेरी इस वेदना को उस समय बखूबी समझते थे, एक दिन अचानक सन 1927 ई. की गर्मियों में मुझसे मिल कर कहा कि विहटा (राघवपुर) में एक परमहंस जी रहते हैं। उनका नाम श्री सीताराम दास हैं। उनका एक बाग और उसमें मकान वगैरह है। वह भूमिहार ब्राह्मण हैं। वह वृद्ध हैं और चाहते हैं कि मृत्यु से पूर्व उन सब चीजों को किसी ऐसे आदमी को सौंप दें जो वहाँ ब्रह्मचर्या श्रम बना कर भूमिहार ब्राह्मणों के बालकों को वेद, शास्त्रदि पढ़ा सके। उन्होंने कहा कि उनके पास प्राय: दो सह्त्र रुपए भी हैं। वे उन्हें भी सौंपने को तैयार हैं। फिर क्या था?सहसा मेरी आँखें चमक उठीं, जो चाहता था वही मिला। मैं तो चाहता ही था कि एक ब्रह्मचर्याश्रम खोल कर सैकड़ों को संस्कृत के प्रौढ़ विद्वान और वेद वेदांग-पारंगत बनाऊँ। जहाँ तक पंडित मिल सकें उनसे काम लूँ। नहीं तो स्वयं भी पढ़ाऊँ। तभी तो पुरोहितों के आक्रमण और असहयोग का ठीक उत्तर दिया जाएगा। बस, मैं राजी हो गया। शीघ्र ही परमहंस जी से मिलने की बात हुई। तारीख भी ठीक हो गई कि कब मिला जाए। पं. रामबहादुर शर्मा तथा एक फोटोग्राफर के साथ मैं एक दिन विहटा जा कर मिला भी। बातचीत भी हो गई। उस समय का मेरा और परमहंस जी का एक सम्मिलित फोटो मौजूद है। हाँ, यह बात ठीक याद नहीं कि फोटो पहली ही बार लिया गया या पीछे से, मगर लिया गया जरूर।

परमहंस जी से कई बार बातें हुईं। अंत में तय पाया कि सारी जाएदाद को एक पंचायत के हवाले कर दें और एक पंचायतनामा (trust deed) लिख दें। यही हुआ भी। सर गणेशदत्ता सिंह वगैरह नौ आदमियों की एक पंचायत कायम कर के उसी के नाम से लिखा-पढ़ी और रजिस्टरी हो गई। पंचायत में मेरा और पं. रामबहादुर शर्मा का भी नाम है। उसमें साफ-साफ लिखा गया कि ब्रह्मचर्याश्रम खोला जाएगा जिसमें केवल भूमिहार ब्राह्मणों के लड़कों को ही खर्च दिया जाएगा और वही पढ़ाए जाएगे। एक मंदिर बनाने की भी बात उसमें लिखी गई। मगर मैंने उनसे और दूसरों से साफ कह दिया कि यदि अन्य लोग चाहें तो ठाकुरबाड़ी बनवा दें। मुझे उज्र न होगा। मगर मैं तो सिर्फ ब्रह्मचर्या श्रम के ही चलाने और बढ़ाने की कोशिश करूँगा, हुआ भी यही। मंदिर तो किसी ने बनवाया नहीं। हाँ, आश्रम चला, आज भी जारी है। उक्त परमहंस जी की यादगार में ही मैंने उसका नाम श्री सीताराम श्रम तय करवाया, क्योंकि उनका नाम सीताराम दास था। परमहंस जी के पास पैसे तो थे जो ईधर-उधर पड़े थे, कुछ हैंडनोट आदि भी थे। मगर उन्होंने एक कौड़ी भी न दी, उनके मरने पर वह रुपए यों ही जहीं-तहीं रह गए। वह इतने सीधे थे कि इतना भी न समझ सके कि लिखा-पढ़ी कर दें तो मरने के बाद वसूल हो जाएगे। वह समझते थे कि लोग दे ही देंगे। मगर देता कौन है?

उस समय तो उतना नहीं, बीच में बहुत ज्यादा और आज भी लोग मेरे ऊपर कटाक्ष करते हैं कि मैं तो हृदय से जातिवादी और भूमिहार ब्राह्मणों का पक्षपाती हूँ। इसमें पुराने आंदोलन के अलावे आश्रम का ही सबूत देते हैं कि उसमें सिर्फ भूमिहार ब्राह्मणों के ही लड़के क्यों पड़ते हैं और उन्हें ही खर्च क्यों मिलता है। जबकि मैं ही उसका अध्यक्ष और सर्वेसर्वा हूँ।

लेकिन ऐसे लोग कई बातें भूल जाते हैं या जानबूझ कर भुला देते हैं। कुछ लोग तो वे बातें जान कर ही यह आक्षेप करते हैं। आंदोलन का रहस्य तो मैं बता ही चुका हूँ। रह गई आश्रम की बात। सो तो ऐसी ही है कि उसमें पढ़ने की मनाही किसी के लिए भी नहीं है। सरयूपारियों और कान्यकुब्जों के लड़के भी पढ़ते हैं। हाई स्कूल के और दूसरे कितने ही बनिए या दूसरे लड़के जब चाहते हैं वहाँ के पंडितों से पढ़ जाते हैं। खुशी से पंडित लोग पढ़ा देते हैं। अत: पढ़ने में कोई भेदभाव नहीं हैं।

रह गई खर्च की बात। सो तो जिस परिस्थिति में वह आश्रम खुला और पंचायतनामे में जो शतें लिखी गईं उन पर ध्यान देने पर अनिवार्य है। परिस्थिति उस समय ऐसी थी कि दूसरी बात लिखी जा सकती नहीं थी और पंचायतनामे के विरुद्ध मैं अब कुछ कर सकता नहीं।

मेरे सर्वेसर्वा होने की बात तो निराधार है। ठीक हैं कि प्रबंध और अर्थ संग्रह अधिकांश मैंने ही बराबर किया है। फिर भी सर्वेसर्वा तो पंचायत (trustees) ही है। मैं तो उन्हीं का नियत किया गया प्रबंधक मात्र हूँ। जिस समय चाहें वे मुझे वहाँ से हटा दे सकते हैं और पंचायत से भी निकाल सकते हैं। पंचायत (ट्रस्ट) का तो कानून ही ऐसा है। लोगों को यह कहाँ मालूम है कि यद्यपि आश्रम को राजनीति से कोई ताल्लुक नहीं, तथापि मेरी राजनीति और किसान आंदोलन के करते मुझे स्वयं डर बना रहता है कि मुझे भी वहाँ से हटाने की कोशिश ट्रस्टी लोग कहीं कर न बैठें। क्योंकि आज भी उन ट्रस्टियों में बहुमत ऐसे लोगों का ही है जो किसी न किसी कारण से मेरे विरोधी हैं। बहुतेरे तो बड़े जमींदार हैं या उन्हीं के पिट्ठू। इसीलिए मैं आश्रम को साक्षात रूप से राजनीति में जानबूझ कर पड़ने नहीं देता। यह ठीक है कि मुझे हटाना टेढ़ी खीर है। फिर भी वैसा वे लोग कर सकते हैं, अगर मौका पा जाए। फलत: मेरी दिक्कतें बढ़ सकती है।

फिर भी जब लोगों ने बार-बार मुझसे ये सवाल किए तो मैंने कहा और घोषणा भी कर दी कि उस आश्रम में तो दूसरे दलों के लड़कों को ट्रस्ट के नियमों के अनुसार खर्च नहीं मिल सकता। मगर, अगर आक्षेपकर्ता लोग कोशिश कर के कुछ धन एकत्र करें तो उसमें मैं भी सहायता कर दूँगा। फिर तो उसी धन से उस आश्रम का परिशिष्ट दूसरा आश्रम उसी से मिला हुआ खोल कर सभी जातियों को खर्च देने का प्रबंध करवा दूँगा। पढ़ना तो उसी में होता ही और पीछे भी होगा। मगर यह करता है कौन? हालाँकि मेरी यह घोषणा आज भी ज्यों की त्यों बनी है और मैं तैयार हूँ।

लेकिन मैं अकेला ही वह काम करूँ यह तो असंभव है। एक तो अब फुर्सत ही नहीं। जब उसके ही लिए अब धन संग्रह करना असंभव सा हो रहा है और पहले ही किए गए प्रबंध से जैसे-तैसे चल रहा है, तो नए के लिए क्यों और कैसे संग्रह करूँ? पहले के लिए जो कारण थे वह तो दूसरे के लिए है भी नहीं कि उसी ख्याल से पड़ जाऊँ। बेशक, यदि किसी और जाति या दल के साथ उसी प्रकार के आत्मसम्मान का सवाल आज भी होता और तदर्थ वेदवेदांग पढ़ना जरूरी होता तो मैं खामख्वाह वैसा काम आज भी कर देता। लेकिन सो तो है नहीं। तब उसमें क्यों पड़ी? यह भी तो सोचना चाहिए कि दूसरों के लिए तो हजार जगहें हैं, जहाँ, खाना, कपड़ा, मकान वगैरह भी मिलता है और पढ़ानेवाले भी हैं। मगर भूमिहार ब्राह्मणों के लिए तो दरवाजा बंद ही था जब आश्रम शुरू किया। आज भी तो थोड़ी-बहुत गड़बड़ी चलती ही रहती है।

यदि मैथिल, सरयूपारी आदि पंडित आश्रम में रहेंगे तो फिर भी खटपट और गड़बड़ी चलेगी जैसा कि और जगह हुई है। इसलिए सोचा गया कि आश्रम में केवल भूमिहार पंडित ही रखे जाए। ऐसा ही हुआ। वैयाकरण, ज्योतिषी, वैदिकत पंडित मिल गए भी। फिर भी मुझे समय-समय पर पढ़ाना भी पड़ता था, खास कर न्याय या अन्य दर्शन। लेकिन उसमें कोई राजनीतिक बातें कभी न आई। फलत: जातीय पक्षपात की दृष्टि से सोचने का अवसर ही कहाँ आया। और अगर कोई राजनीति अप्रत्यक्ष रूप से रही है या हैं तो केवल किसान और मजदूर सभा की। गुप्त जाँच कर के कोई भी पता लगा सकता है।

आश्रम के कितने ही मददगार भूमिहार ब्राह्मणों ने जो सभी मिला कर साल में हजारों रुपए देते थे, आज केवल इसीलिए न सिर्फ वह चंदा ही बंद किया और कराया है, वरन वे इस आश्रम के जानी दुश्मन हो गए हैं। इनमें से कितने ही तो उसके पड़ोस में ही रहते हैं। यह इसीलिए हुआ कि उनके जुल्मों से कराहनेवाले ग्वाले और दूसरे किसान मेरे पास आए और मैंने उनका पक्ष ले कर जमींदारों के विरुद्ध एक तूफान खड़ा किया। आज कोई भी आसपास में जा कर जाँच ले कि पीड़ित लोगों का, चाहे वह किसी जाति और धर्म के हों, मेरे ऊपर और इसीलिए आश्रम पर भी पूरा विश्वास है या नहीं। फिर जातीयता का प्रश्न वहाँ क्यों उठेगा?

वह आश्रम एक तो क्रांति का प्रतीक होने से मुझे प्रिय हैं। दूसरे किसान आंदोलन को ले कर जब जमींदार रंज हुए और उन्होंने खुद चंदा देना बंद किया और दूसरों का भी, जहाँ तक हो सका बंद करवाया, ताकि अर्थाभाव से वह आश्रम ही टूट जाए, तो मैंने तय कर लिया कि न तो जमींदारों के पैसे लेने किसी को कहीं भेजूँगा और न आश्रम को टूटने दूँगा। जमींदारों के मद को इस प्रकार चूर करने के लिए मैंने तय कर लिया और उनकी तनिक भी परवाह नहीं की। हाँ, जो जमींदार स्वयं चंदे दे जाए उसका चंदा लौटाया नहीं जाता। मगर जमींदारों के पास चंदे के लिए अब किसी को भी नहीं भेजता हूँ। फिर भी गृहस्थों और किसानों की सहायता से वह चलता ही है और चलता ही रहेगा। सैकड़ों रुपए से ज्यादा अभी भी मासिक व्यय होता है। इसलिए उसके साथ मेरा और भी प्रेम और ममत्व हो गया है।

आश्रम के प्रति जमींदारों के विरोध ने मुझे यह भी प्रत्यक्ष बताया कि जातीय सभाएँ और जाति और धर्म के नाम पर दिए जानेवाले दान का क्या अर्थ होता है। इन सभाओं को धनिक और चलते-पुर्जे लोग अपने हाथ के खिलौने बना कर रखते हैं और समय-समय पर कुछ पैसे दे कर अपनी जमींदारी, अपना व्यापार और अपना प्रभुत्व दृढ़ कर लेते हैं। न कि परलोक या उपकार के लिए कुछ भी करते हैं।'किसानों के फँसाने की तैयारियाँ' नामक पुस्तिका में मैंने इसी अनुभव का सविस्तर वर्णन किया है।

पहले जो चंदे से पैसे आते थे उनमें कुछ न कुछ हर साल बचते थे। चंदे के लिए मैं प्रत्यन भी अधिक करता था। मैंने जो चार-पाँच पुस्तकें लिखी हैं उनकी बिक्री के भी चार-पाँच हजार रुपए आश्रम फंड में ही जमा है। इस प्रकार सब मिला कर प्राय: सोलह हजार रुपए आश्रम के नाम से कई आदमियों के पास जमा हैं और कुछ रैयती जमीन लेने में लगा दिए गए हैं। इस प्रकार छ: रुपए सैकड़े सालाना सूद और जमीन की पैदावार से कुल मिला कर प्राय: सौ रुपए प्रति मास आ जाते हैं। अलावे चंदे से थोड़ा-बहुत रुपया और गल्ला मिल ही जाता है।सभी पुस्तकें मैंने आश्रम को सौंप दी है। उनकी बिक्री के भी कुछ पैसे आ जाते हैं। ' लोक-संग्रह' पत्र निकालने के समय जो प्रेस लिया था पीछे उसे चौबीस सौ रुपए में पं. यमुनाकार्यी जी के जिम्मे कर दिया और उन रुपयों की किस्त कर दी। फलत: कुछ रुपए उस तरह आ जाते हैं। इस प्रकार काम चलता रहता है। कोई विशेष यत्न मुझे न तो करना पड़ता है और न इसके लिए मेरे पास अवकाश ही है। जरूरत भी नहीं है।

इतना कह सकता हूँ कि आश्रम के लिए मैंने सब कुछ किया है सही। फिर भी उसका न तो एक पैसा और न एक छटाँक अन्न कभी अपने जानते अपने लिए खर्च किया है। आगे भी ऐसा ही विचार है। पुस्तकों के पैसे में से भी एक कौड़ी अपने काम में पहले भी नहीं लगाई।अब तो पुस्तकें आश्रम की संपत्ति बना दी गई है।

 

(19)

एक दु:खद घटना

सन 1926 ई. के ही अंत में कौंसिलों का चुनाव होने को था। स्वराज पार्टी के नाम से कांग्रेस के लोग चुनाव लड़नेवाले थे। कांग्रेस के नाम से तो कर नहीं सकते थे। ऐसा ही दिल्ली का समझौता हुआ था। लेकिन कम से कम बिहार में उस चुनाव में जो-जो अनर्थ हुए वे कभी भूलने को नहीं। भीतर ही भीतर गुटबंदी थी। कांग्रेस के प्रमुख लोग जाति पाँति की बात भीतर ही भीतर करते थे। खुल के तो कर सकते नहीं थे। वही चुनाव नहीं, उसके बाद भी आज तक कितने चुनाव हुए हैं उन सबों के अनुभव से मैं कह सकता हूँ 'गुस्ताखी माफ हो' कि अधिकांश बिहारी राष्ट्रवादी नेता भीतर ही भीतर जातिवादी भी है। ठीक भी है। राष्ट्रीयता और जातीयता में बहुत ही कम अंतर है। जाति छोटी है और राष्ट्र बड़ा। बस, इतना ही अंतर है। यह भी ठीक है कि 'ठगठग मौसेरे भाई' के अनुसार प्राय: सबों का अपनी-अपनी जाति के पक्षपात में सट्टा-पट्टा भी लग जाती है। इसीलिए कोई किसी को कुछ भी खुल के कहता नहीं। इसीलिए उस बार भी कुछ ऐसी ही बात देखने में आई।

मुझे तो पहले इसका पता न था। लेकिन पीछे मैंने देखा कि सर गणेशदत्त से कुछ कायस्थ लोग बुरी तरह खार खाते थे। यह बात आज भी है। कुछ लोग तो ऐसे हैं। जो भूमिहार ब्राह्मणों की तरक्की फूटी आँखों देख नहीं सकते। फलत: उन्हें गिराने की पूरी कोशिश करते रहते हैं। यह भी सही है कि कुछ भूमिहार भी कायस्थों या औरों को गिराने में नहीं चूकते। पहले किधर से यह बात शुरू हुई इसका विचार बेकार है। लेकिन स्थिति ऐसी ही है। खास कर 1926 में तो थी ही।

बिहार में दुर्भाग्य से राजनीति के भीतर दो पार्टियाँ हैं, हालाँकि प्रकट रूप से नहीं। फिर भी बड़ी मुस्तैदी से चलती है। एक पार्टी है कायस्थ, राजपूत, मैथिल, ग्वाला, कुर्मी आदि की जो भूमिहारों के खिलाफ है। दूसरी है भूमिहार और राजपूतों की जो कायस्थों के विरुद्ध है। कुछ भूमिहार मुसलमानों को मिला कर भी कायस्थों आदि का जवाब देना चाहते हैं। भीतर ही भीतर यह पैंतरेबाजी खूब चलती है। राजपूतों में दो दल है, एक कायस्थों के साथ, दूसरा भूमिहारों के साथ। यह हमारे लिए, प्रांत के लिए और मुल्क के लिए बड़ी बदकिस्मती की बात है। मगर साथ ही साथ यह बात है। इसे कोई ईमानदार आदमी इन्कार नहीं कर सकता, यदि वह भीतरी बात जानता है। यों तो बाहरी प्रमाण इस बारे में देना आसान नहीं।

इसी के अनुसार 1926 में कौंसिल के उम्मीदवार चुनने में कांग्रेसी लीडरों ने भूमिहार ब्राह्मणों के साथ अन्याय किया। पं. धनराज शर्मा जैसे पक्के कांग्रेसियों को न चुन कर ऐसों को चुना जिनसे कांग्रेस का कोई नाता नहीं था और जो पहले कांग्रेस के शत्रु थे। कुछ ऐसी ही बात और भी हुई। सर गणेशदत्त कहीं से भी चुने न जा सके इसकी भी पूरी बंदिश की गई। श्री नंदन बाबू (छपरेवाले) जिला कांग्रेस कमिटी के उप सभापति थे। पर, उन्हें न ले कर ऐसे सज्जन को लिया गया जिनकी योग्यता यही थी कि वह कुछ बड़े लोगों के संबंधी ठहरे। उनके बारे में और भी शिकायतें पीछे पाई गईं। कम से कम मुझे इसी प्रकार की बातें कही गईं। मेरे सामने ऐसा ही चित्र खड़ा किया गया क्योंकि उस समय भीतरी बातें जानता न था।

दुर्भाग्य या सौभाग्य से कहिए, लेकिन मैं तो इसे अब दुर्भाग्य ही मानता हूँ, कि उस समय सर गणेश के साथ मेरा मनमुटाव, जैसा कि बता चुका हूँ, कुछ समय के लिए हट चुका था। कभी-कभी मेरा आना-जाना भी उनके डेरे पर हो जाता था। एक दिन जो मैं सवेरे ही पहुँचा तो कुछ कांग्रेसी, कुछ जमींदार और अन्य भूमिहार ब्राह्मण सर गणेश के साथ बैठे यही बातें कर रहे थे। करम का मारा न जानें मैं क्यों पहुँच गया। लोगों ने मुझे खामख्वाह रोक के यह चुनाववाली दास्तान सुनाई। मैं तो कुछ जानता न था। मैं था अपरिवर्तनवादी। साथ ही ऐसी गंदी बातों से सदा अलग रहा। मैं तो राजनीति केवल कांग्रेस की ही चीज मानता था। फिर जानता कैसे ये बातें? मुझे विश्वास भी न था कि कांग्रेस के बड़े-बड़े लीडर कभी जातीय पक्षपात या द्वेष की बात उसमें लाएँगे। मैं उन्हें ऐसी बातों से बहुत ऊपर मानता था।

सच बात तो यह कि मैं समझ भी न सकता था कि कांग्रेस में जातिपाँति की बात कैसे लाई जा सकती है। सो भी जहाँ बड़े से बड़े त्यागी हैं। इसीलिए उन लोगों ने बार-बार मुझे समझाने और विश्वास दिलाने का प्रयत्न किया। कुछ कांग्रेसी भी वहाँ थे। उनकी बात सुन कर विश्वास होने लगा। साथ ही आश्चर्य भी हुआ। पीछे तो ऐसी बातें बताई गईं कि विश्वास होई गया। फिर तो मैंने साफ कह दिया कि अच्छा, तो मैं इसमें आप लोगों का साथ दूँगा और उन लोगों की नीचता का भंडाफोड़ करूँगा। वे लोग बहुत ही प्रसन्न हुए। जैसा मेरा स्वभाव है मुझे इस कपट और पक्षपात पर कांग्रेसी लीडरों के ऊपर बड़ा क्रोध हुआ। उसी का वह फल था कि मैंने वचन दे दिया। यह बात चारों ओर फैल गई। कांग्रेसी लोगों को कुछ घबराहट भी हुई जरूर।

मगर मुझे तो छिपाना न था। इसीलिए जब एक दिन स्टीमर पर बैठा बेगूसराय जाने के लिए पहले घाट जा रहा था तो स्टीमर पर ही कांग्रेस के एक चलता-पुर्जा लीडर मिले। वे इस तुंबाफेरी में बहुत रहते हैं। उनकी यह बात सभी जानते हैं। वे इसीलिए बदनाम भी हैं। उनने पूछा कि कहाँ चले महाराज! मैंने उत्तर दिया कि कांग्रेस में बैठ के आपने जो बेईमानी और पक्षपात किया है उसी का भंडाफोड़ करने। फिर तो वे चुप हो गए। मैंने उस चुनाव में तीन जगह खुल के स्वराज्य पार्टी का विरोध किया और जी जान से काम किया। फलत: श्री नंदन बाबू और सर गणेशदत्त सिंह चुने भी गए, हालाँकि मेरा ज्यादा जोर श्री नंदन बाबू के ही जितवाने में था।

यद्यपि यह चुनाव कांग्रेस के नाम में न था किंतु स्वराज्य पार्टी के नाम में। एक बात और थी। उस चुनाव में पंजाब केसरी लाला लाजपत राय और पं. मदनमोहन मालवीय ने भी स्वराज्य पार्टीं का विरोध किया और स्वतंत्र राष्ट्रीय दल के नाम से वह चुनाव वे लोग लड़ते रहे। उसी दल में श्री नंदन बाबू वगैरह भी शामिल थे। तथापि आज तो मैं मानता हूँ कि वह तोएक प्रकार से कांग्रेस की ही ओर से चुनाव था और स्वराज्य पार्टी का विरोध कांग्रेस का ही प्रकारांतर से विरोध था। मैं तो अब यह भी मानता हूँ कि मैंने गलती की। क्योंकि राजनीति का और दुनियाँ का भी पूरा अनुभव उस समय मुझे था नहीं। कांग्रेस के लीडरों को भी ठीक-ठीक समझ न सका था। अगर आज वैसी बात होती तो मैं कदापि विरोध नहीं करता। ऐसी बातें तो राजनीति में हुआ ही करती हैं।गाँधी जी के आने या कहने से राजनीति का दूषित रूप बदल थोड़े ही गया है। ईधर तो मैंने 1926 से भी गई-गुजरी बातें इस चुनाव में पाई हैं। फिर भी अलग ही रहा हूँ, या कांग्रेस की मदद की है।

इसलिए जिस आधार पर मैंने वह विरोध किया था वह कच्चा था। राजनीति में उसका ख्याल कभी नहीं करना चाहिए। हाँ, सिद्धांतों की बात हो तो उसका विचार होना चाहिए। मगर वे सिद्धांत बहुत ही ऊँचे हों, आर्थिक और सामाजिक हों, क्रांति के समर्थक या विरोधी हों। तभी उनके अनुसार समर्थन या विरोध करने का अधिकार हो सकता है। सो भी बहुत सोच-विचार कर। खुशी की बात यही है और संतोष भी मुझे इसी से है कि उसके बाद फिर कोई दूसरा मौका ऐसी भूल करने का नहीं हुआ। हालाँकि अनेक साथियों को जो क्रांति और रेवोल्यूशन की बातें करते हैं, ऐसी बातें कभी छिप के और कभी प्रकट रूप से बराबर करते देखा है। ये अवसर मुझे विचलित न कर सके, यह मैं अपना सौभाग्य मानता हूँ।

सन 1926 ई. की दो और घटनाएँ प्रसंगवश संक्षेप में बता के आगे बढ़ूँगा। इन दोनों का संबंध इस दु:खद घटना से साक्षात नही है। असल में जाति-पाँति की चिल्लाहट मचाने और धर्म की दोहाई देनेवाले धनियों एवं उनके समर्थकों के संसर्ग से ही मुझे इस शोचनीय घटना का शिकार होना पड़ा और उन्हीं से उन घटनाओं का भी संबंध है। जैसे उस घटना के संबंध में मैंने अनेक बातें देखीं और सीखीं, ठीक उसी तरह ये बातें भी सामने आईं।

एक तो 1926 वाली भूमिहार ब्राह्मण सभा के पंडाल की ही है। मेरी ही बगल में धारहरा के राय बहादुर बाबू चंद्रधारी सिंह सिर पर चंदन (भस्म) लगाए बैठे थे। उन्होंने मुझे एक बार कहा कि आप संन्यासी हैं। आपको तो काशी रहना चाहिए। मैं चुप रहा कि बूढ़े आदमी से क्या बोलूँ। फिर वह दुबारा यही बात कहने लगे। मैं पुनरपि चुप रहा और सोचने लगा कि इस आदमी को तमीज नहीं। मुझे धर्म सिखाने की हिम्मत करता है। हालाँकि इस धर्म के ढोंग के पीछे इसका भौतिक स्वार्थ हैं। क्योंकि एक तो इसने देखा कि पुरोहिती के मामले में इसी के संबंधी श्री कवींद्र नारायण सिंह ने मुँह की खाई है। दूसरे यह स्वयं पहले दर्जे का जुल्म अपनी जमींदारी में करता है, ऐसा सभी कहते हैं। तब तक तीसरी बार उनने फिर वही बात ज्यों ही निकाली कि मैंने साफ सुना दिया कि आपको शर्म नहीं आती? किससे बातें करते हैं? मैं आपसे अपना धर्म सीख नहीं सकता। फिर तो बेचारे एकाएक सटक गए। इन धनियों की अजीब खोपड़ी होती है। यह सबों को एक ही तराजू पर तौलना चाहते हैं। और है वह तराजू पैसे का।

दूसरी घटना का ताल्लुक भी उस सभा से ही है। यह पहला ही मौका था कि सरकार का बागी उसका सभापति था और यह पहला ही अवसर था जब सभी अमीर, गरीब एक ही सतह में बिछे एक ही प्रकार के बिछौने पर बैठे थे। सभापति के सिवाय किसी भी और के लिए ऊँची या खास जगह न थी। हो भी क्यों? वह तो जातीय सभा थी और जाति के नाते तो सभी बराबर हैं। फिर कोई ऊँचे और कोई नीचे क्यों बैठे? यह भेदभाव क्यों? इस प्रकार लड़ कर मैंने सभा में समानता और गणतंत्र ला दिया था।

लेकिन बाबुओं के लिए यह जहर की घूँट थी, ज्वलंत अपमान था कि साधारण लोगों के साथ एक ही बिछौने पर बैठें। वे लोग मर से गए थे और लाठी से पिटे, पर लोहे के पिंजड़े में बंद काले नाग की तरह भीतर ही भीतर फू-फू कर रहे थे। लेकिन आखिर करते क्या? बस सभा समाप्त होते ही उन लोगों का प्रस्ताव हुआ कि जो लोग साल में बारह रुपए दें वही इसके मेंबर और प्रतिनिधि हो सकते हैं। अब तक केवल एक ही आना चंदा था। इस प्रकार गरीबों को और जनता को सभा से निकाल कर फिर उसे अपना गढ़ बनाने की बात वे लोग करने लगे।

मैंने कहा कि यह नहीं हो सकता। हो भी क्यों? तब कहा गया कि राजा, महाराजे, धनी और गरीब सब बराबर बैठते हैं। किसी की इज्जत नहीं रह गई। मैंने कहा कि इसके लिए सभा को एकमात्र धनियों की चीज बनाने का यह द्रविड़ प्राणायाम क्यों किया जाए? दर्शकों के चंदे हजार-पाँच सौ से ले कर पचास-पचीस रुपए तक रख दीजिए। उसी के अनुसार कुर्सियों, गद्दों आदि का प्रबंध कर दिया कीजिए। जो जितना ज्यादा रुपए देगा वह उतने ही आराम से बैठेगा। ऐसा तो कांग्रेस में भी होता ही है। इतना सुनते ही वे लोग चुप हो गए। इस प्रकार उनकी कलई मैंने खोल दी और देख भी ली।

जातीय सभाएँ पहले तो सरकारी अफसरों को अभिनंदन पत्र देने और राजभक्ति का प्रस्ताव पास करने के लिए बनी थीं। इस प्रकार कुछ चलते-पुर्जे तथा अमीर लोग जातियों के नाम पर सरकार से अपना काम निकालते थे। अब जमाना पलटने से यदि वह न हो सके तो चुनावों में उनकी मदद से वोट तो मिलना ही चाहिए। मुझे खुशी है कि हमने भूमिहार ब्राह्मण सभा के जरिए दोनों कामों का होना बंद कर दिया। सन 1929 ई. की गर्मियों में मुंगेर में तो उसे दफना ही दिया। ताकि 'रहे बाँस न बाजे बाँसुरी'। फिर भी कुछ लोग यदि मेरे ऊपर जातीय पक्षपात का दोष लगाते हैं तो मैं उन्हें रोकने में असमर्थ हूँ।

(20)

लोकसंग्रह

सन 1926 ई. अंत में मैं दरभंगा जिले के समस्तीपुर में रहने लगा। वहाँ कुछ साथियों के कहने-सुनने तथा स्वयं अनुभव न रहने से मेरे ऊपर यह भूत सवार हुआ कि एक साप्ताहिक समाचार-पत्र हिंदी में निकालूँ और उसके लिए प्रेस आदि का प्रबंध करूँ। पीछे मेरे अनुभव ने बताया कि यह कितनी बड़ी भूल थी। मैंने प्राय: देखा है कि प्रेस चलाने की धुन बहुतों को हुआ करती है और अखबार निकालने की भी। लेकिन इतने दिनों के कटु अनुभव के बाद मैं यही कह सकता हूँ कि एक तो प्रेस रखना ही भूल है। लेकिन यदि वह किसी दशा में क्षम्य भी हो तो भी 'पत्र' निकालना तो साधारणत: अक्षम्य अपराध है!'लोक संग्रह' के अनुभव के बाद तो मैंने यही तय कर लिया था कि इन दो भूलों का शिकार हर्गिज न बनूँगा। लोगों को भी बराबर यही सिखाता रहा। खास कर 'पत्र' निकालने के झमेले से बचने की तो बराबर ही शिक्षा देता रहा हूँ। अगर ईधर आ कर 'जनता' में मैं फँसा, तो अपनी मर्जी के खिलाफ दोस्तों के द्वारा बलात फँसा दिया गया। मेरी भूल यही हुई कि मैंने बेमुरव्वती से अंत तक इन्कार नहीं किया। अगर इसका परिणाम और अनुभव तो कटुतम हुआ है, यह खेद की बात है। इस 'जनता' ने तो न सिर्फ मुझे, पर मेरे कितने ही सच्चे साथियों को भी रुलाया है, सो भी खून के आठ-आठ आँसू। पं. पद्म सिंह शर्मा कहा करते थे कि जिसे कोई काम न हो और लीडर बनना एवं नाम कमाना हो वह कोई संस्था खोल ले। लेकिन भले आदमी को तो ये संस्थाएँ मारे डालती हैं। मैंने इस कटुसत्य का अक्षरश: अनुभव रो-रो के किया है।

हाँ, तो पत्र निकालने की धुन सवार हुई। इसीलिए प्रेस की भी। सन 1926 के मेरे आखिरी चंद महीने और सन 1927 के शुरू के कुछ महीने इसी फिक्र में गुजरे। स्वभाव के अनुसार मैं सारी शक्ति लगा कर उसमें पड़ गया। यह मेरा दोष भी है और गुण भी कि एक समय एक ही काम कर सकता हूँ और उसमें सारी शक्ति लगा देता हूँ। सफलता भी उसी से मिलती है। यद्यपि श्री बच्चू नारायण सिंह, समस्तीपुर, ने यह प्रेरणा की और कुछ हद तक मेरा साथ भी दिया। फिर भी उनकी तो एक सीमा थी। उसके आगे जा नहीं सकते थे, लेकिन मैं तो अब पीछे हटनेवाला न था। वे तो यह काम भी करते और दूसरे भी। वह बहुकार्यी तो थे ही। आखिर सन 1927 ई. की गर्मियों के आते न आते प्रेस भी हो गया और साप्ताहिक समाचार- पत्र की तैयारी भी हो गई। गीता का 'लोक संग्रह मेवापि संपश्यन्कत्तुमर्हसि' श्लोक ही हमारा मोटो (पथ प्रदर्शक वाक्य) बना और 'पत्र' का नाम 'लोक संग्रह' रखना तय पाया। यह ठीक है कि इस प्रकार का नाम रखने में कुछ मराठी पत्रों से हमें प्रेरणा मिली थी। बाकायदा पत्र निकलने भी लगा। मैं ही उसका संपादक बना। मगर शुरू करते ही दिक्कतें आई। शीघ्र ही पता लगा कि समस्तीपुर जैसी जगह में प्रेस रखना और पत्र निकालना बड़ी भारी भूल थी। इसलिए थोड़े ही दिनों के बाद प्रेस और पत्र पटना लाना पड़ा।

मगर इस बीच की कुछ घटनाएँ उल्लेखनीय है। समस्तीपुर में एक पुराना प्रेस था जिसका नाम 'नेमनारायण प्रेस'। नरहन (विभूतपुर) के बाबू कामेश्वर नारायण सिंह, जमींदार, का वह प्रेस था। अपने स्वर्गीय पिता के नाम पर उन्होंने उसका नामकरण किया था। प्रेस खराब था। मगर इसका पता मुझे पीछे चला। प्राय: बंद ही रहता था। बच्चू बाबू की राय हुई कि विभूतपुर चल कर उक्त बाबू साहब से वही प्रेस माँगा जाए। वह चंदे में प्रेस ही दे दें। परिचय तो गाढ़ा था ही। हम दोनों गए और उनसे कहा। उन्होंने देने की राय जाहिर तो की। मगर शर्त यह रखी कि नाम 'नेमनारायण प्रेस' ही रहे। वह तो होशियार थे। देखा कि रद्दी प्रेस दे कर बाप का नाम तो अमर कर लें। मगर हम दोनों इसे समझ न सके। फलत: शर्त मानने को तैयार हो गए।

लेकिन अभी तो और शत्र्तों बाकी ही थीं। जब हम लोग खाने बैठे तो बाबू साहब ने यह कहा कि इस बात का भी पक्का इंतजाम हो जाना चाहिए कि किसके जिम्मे वह प्रेस रहेगा। इस पर मुझे गुस्सा आया और मैंने सुना दिया कि जिसे वह प्रेस मुझे देना हो वह दे, नहीं तो अपने पास रखे। मुझे नहीं चाहिए। बस, फिर तो वे ठंडे हो गए और प्रेस मिल गया।

लेकिन कुछ ही दिन बार उन्होंने बुरी तरह मुझे धोखा दिया। प्रेस की कीमत आठ या नौ सौ रुपए आँकी गई थी। उन्होंने मेरे साथी, जो उनके भी पूरे साथी हैं, बच्चू बाबू के द्वारा कहला भेजा कि एक सज्जन (जिनका नाम बताना मैं नहीं चाहता) एक पुस्तक मुझे समर्पित करनेवाले हैं। उनकी छपाई के रुपए मैं दे दूँ यही शर्त उनसे है। छपाई में वही आठ या नौ सौ रुपए लगनेवाले है। पीछे तो पुस्तक छपने पर बेच कर ये रुपए वह लौटा ही देंगे। मुझे इसमें खटका मालूम हुआ। आगा-पीछा में पड़ गया फौरन कोई उत्तर न दे सका। इसी बीच बच्चू बाबू (बच्चू नारायण सिंह) ने रुपए उन्हें दे दिए। क्योंकि उन्हीं के पास प्रेस के लिए एकत्रित रुपए जमा थे। उनने मुझसे पूछा तक नहीं! जब मालूम हुआ तो मुझे रंज तो बहुत हुआ। मगर आखिर करता क्या? जिन्होंने पुस्तक के लिए मुझसे वे रुपए लिए वे भी मेरे पूर्ण परिचित है। मगर हजार तकाजा करने पर भी उन्होंने रुपए नहीं ही लौटाए। पुस्तक भी नहीं छपवाई। पीछे तो ऊब कर मैंने माँगना ही छोड़ दिया। लेकिन इस घटना ने मुझे चौंका दिया। बच्चू बाबू के प्रति भी मेरा विश्वास जाता रहा। आखिर ये पैसे सार्वजनिक थे। फिर मैं उनके संबंध में यह हरकतें बेजा बर्दाश्त कैसे करता?

लेकिन उस रद्दी प्रेस से तो काम चलने का था नहीं। दूसरा प्रेस और टाइप चाहिए था। प्रेस के और भी सामान चाहिए थे। ईधर जो रुपए थे उन्हें बच्चू बाबू ने गँवा ही दिया। अब क्या हो? मुझे बड़ी चिंता हुई। यहाँ तक कि रात में नींद नहीं आती थी। यह नींद का न आना मेरे लिए खास बात थी। चाहे कैसा हूँ काम हो उसको करता हूँ खूब। मगर रात में बराबर भरपूर सोता हूँ। बावन साल की उम्र में भी पूरे सात घंटे की एक गाढ़ी नींद आती है! पहले भी ऐसे ही सोता था।रात में कोई फिक्र न रखता था। मगर यह फिक्र ऐसी हुई कि दिल में उसने घर कर लिया। इसी से रात की नींद हराम हो गई। यह खतरे की बात थी।

इसी बीच पटना में एक ने कह दिया कि आप तो यों ही शुरू करते मगर पूरा नहीं कर सकते। बात तो गलत थी। मगर चुभ गई। बस, कलकत्ते गया। वहाँ सोना पट्टी में श्री हरद्वार राय के यहाँ ठहरा। पहले भी वहाँ ठहरता था। वे पुराने परिचित हैं। कलकत्ते में और लोग भी परिचित हैं सोचा वहीं से जरूरत भर रुपए मिलें तो काम चले। रुपए मिले भी। मगर छोटी-मोटी नौकरी करनेवाले आखिर देते ही कितने? फिर भी हजारों रुपए जमा हुए। लेकिन तीन सौ की कमी रह गई। अब क्या हो? रात में बेचैन रहा। पर, यह बात श्री हरद्वार राय को मालूम हो गई कि चिंता से नींद नहीं आती। क्योंकि प्रेस लेने का संकल्प मैंने कर लिया है। बस फिर क्या था? उनने एक मुश्त तीन सौ रुपए फौरन दे दिए। उनकी चाँदी, सोने की अच्छी दूकान है। अब तो मेरा काम हो गया। वहाँ सारा सामान खरीद कर और पटना से एक और प्रेस ले कर समस्तीपुर आ गया।

इस प्रेसवाले झमेले के प्रसंग से एक पुरानी, लेकिन दिलचस्प बात याद आ गई। वह भी प्रेस से ही संबंध रखती है। जहाँ तक याद है, सन 1915 ई. में एक प्रेस में मैं काशी में और भी फँसा था। उससे मासिक पत्र 'भूमिहार ब्राह्मण' निकाला था। काशी के तीन युवकों ने जो विद्यार्थी थे और पीछे नौकरी-चाकरी में लग गए, अपने पास से बीस-बीस रुपए जमा किए। इस साठ ही रुपए की पूँजी से ही हमने वह पत्र निकाला। वह चल पड़ा और बहुत मुद्दत तक कायम भी रहा। मेरे साथ वह लोग भी लगे रहते थे।'पत्र' छपाया जाता था शुरू में किसी और प्रेस में। पीछे तो उसका अपना प्रेस हो गया। ईमानदारी के साथ यदि किसी काम में लगा जाए तो पैसे के बिना वह रुक नहीं सकता यह मेरा सदा का अनुभव है। फिर वह पत्र भी इसी का एक उदाहरण है।

पीछे जब मैंने 'भूमिहार ब्राह्मण परिचय' पुस्तक लिखी तो उन तीनों में एक ने उसके छपवाने वगैरह में कुछ ज्यादा परिश्रम किया। छपाई के कुछ रुपए बाकी भी रहे जो पीछे पुस्तक बेच कर दिए गए। मगर पुस्तक की बिक्री से जो और रुपए आए उन्हीं से यह प्रेस खरीदा गया। उसी से वह पत्र पीछे निकलने लगा था। बाद में मैंने पुस्तक के रुपयों का हिसाब माँगा और प्रेस तथा पत्र का भी। इस हिसाब माँगने में शेष दो साथी भी शामिल हो गए। बस उसी वक्त उस तीसरे सज्जन ने टालमटूल किया और अंत में हिसाब नहीं ही दिया। पुस्तक के प्राय: डेढ़ हजार रुपए उनने हड़प लिए। प्रेस एवं 'पत्र' को भी हथिया डाला। शेष दो साथी देखते ही रह गए!

खैर, बची-बचाई पुस्तकें उनसे जैसे-तैसे ले कर मैं अलग हुआ। काशी के ही एक भले आदमी के पास पुस्तकें रख दीं। पीछे तो उनके साथ भी झमेला हुआ और बड़ी दिक्कत से उनसे पुस्तकों के रुपए निकल सके। फिर भी कुछ तो रही गए। कुछ ही सौ रहे, ज्यादा नहीं। इसी प्रकार एक-दो और धर्मात्मा एवं धनी कहे जानेवालों ने पुस्तकों के दाम रख लिए और नहीं ही दिया! इस तरह प्राय: तीन सहस्त्र रुपए, जिन्हें मैं सार्वजनिक काम में ही लगाता, न कि अपने व्यक्तिगत मसरफ में, लोगों के गले के नीचे उतर गए और मैं देखता रह गया। इन बातों को बहुतेरे जानते हैं, ये कोई गुप्त नहीं हैं।

असल में रुपया ऐसी ही चीज है। यह बड़े-बड़ों के ईमान को हिला देनेवाली वस्तु है। इतने दिनों के अनुभव ने मुझे तो यही सिखाया है कि यदि किसी की परीक्षा लेनी हो तो उसके पास थाती के तौर पर कुछ रुपए रख दीजिए और पीछे माँगिए। रुपए मिलने में जो दिक्कतें होंगी वह आप ही जानेंगे। फिर भी शायद ही कहीं-कहीं से मिलें। अतएव रुपए-पैसे यदि किसी को उधार भी देना हो तो यह समझ के ही देना चाहिए कि वे वापस न मिलेंगे। फिर भी अगर मिल गए तो गनीमत।

अच्छा, तो अब फिर 'लोक संग्रह' की बात ले। समस्तीपुर से वह निकला तो सही। मगर जैसा कह चुका हूँ शीघ्र ही दिक्कतें पेश आई। जहाँ कई प्रेस न हों और जहाँ उसके सामान तथा कागज वगैरह इफरात से मिल सकते न हों वहाँ प्रेस खोलना बला मोल लेना है। यदि एक भी कंपोजीटर बीमार हो, या हटे तो काम ही बंद। यदि दुश्मन लोग बहकें तो प्रेसवालों को कह दें कि काम बंद कर दो तो आफत आई। छपाई के लिए काम भी ऐसी जगह कम ही मिलते हैं। इन्हीं सब बातों से मुझे हैंरानी पर हैंरानी होने लगी।

'पत्र' में विज्ञापन तो देता नहीं था। इसलिए उसके लिए दरबारदारी से तो जान बची थी। मेरा सदा से विचार रहा है कि विज्ञापन मालूम होता है, जैसे 'पत्रों' की छाती पर कोदो दलने बैठे हों। विज्ञापन देनेवाले भी नाकों चने चबवाते हैं। खुशामद करते-करते जी ऊबता है। फिर भी टाल देते हैं। स्वाती की बूँद को जैसे पपीहा देखे सोई हालत रहती है विज्ञापन चाहनेवालों की। भला यह जिल्लत की जिंदगी कौन स्वाभिमानी बर्दाश्त करे। सो भी सच्चा जनसेवक और राष्ट्रवादी। इसीलिए मैंने विज्ञापन को शुरू में ही प्रणाम कर लिया।

लेकिन ग्राहक बढ़ाने और समूचे पत्र में समाचार लिख आदि देने में ज्यादा मेहनत पड़ती थी। सभी कुछ प्राय: मुझे ही करना पड़ता था। मेरे साथी बच्चू बाबू की कुछ अजीब हालत थी। वे ज्यादा कुछ कर न सकते। हालाँकि, मैनेजर वही थे। इस तरह मैं ऊब गया और एकाध अंतरंग दोस्तों से राय कर के पटना उसे लाने का निश्चय कर लिया। मगर बच्चू बाबू इस बात को बर्दाश्त नहीं कर सकते थे कि समस्तीपुर से वह हटे। अब बड़ी दिक्कत थी कि क्या हो? कोई छोटी-मोटी चीज हो तो झटपट हटा भी दी जाए। यह तो ठहरा प्रेस। दो प्रेस और उनके सारे सामान को इतनी दूर भेजना खेल न था। दो मालगाड़ियों का सामान था। सो भी भारी लोहे का सामान। कहीं उठाने-पठाने में गिरे तो चलो काम ही तमाम हुआ।

इसी उधोड़बुन में था कि बच्चू बाबू कहीं बाहर दो-तीन दिनों के लिए चले गए। बस मैंने फुर्ती की और अंगारघाट स्टेशन के पास डिहुली ग्राम के श्री गया बाबू की मदद से चटपट समूचा प्रेस उखड़वा के सारा सामान रेल पर पहुँचवा दिया। वह पटना रवाना भी हो गया। असल में यदि गया बाबू न होते तो कुछ न होता। आदमी वगैरह की सहायता और रेलगाड़ी ठीक करने और लदवाने में उनने सारी ताकत लगा दी। लोगों को भी अचानक यह देख कर ताज्जुब हुआ। मगर करते क्या फलत: जब बच्चू बाबू लौटे तो सब सूना पा कर सन्न हो रह गए। क्योंकि यह तो छूमंतर जैसा काम हुआ। वे रंज तो बहुत हुए। पर, करते क्या? मैं तो सारे सामान के साथ तब तक पटना में मौजूद था। इस प्रकार पटना सामान आया और दुंदा सिंह की ठाकुरबाड़ी में किराए पर मकान ले कर वहीं रखा गया। फिर वहाँ जगह की तंगी के करते न्यू एरिया (कदमकुआँ) में एक मकान ले कर वहाँ लाया गया। आखिर तक वहीं रहा।

पटना में दिक्कतें कम तो हो गईं। मददगार भी मिले। श्री वशिष्ठनारायण राय 'एडवोकेट' मेरे पुराने परिचित हैं। काशी से ही उनसे साथ रहा है। उस समय एडवोकेट होने की तैयारी में थे।'लोक संग्रह' के संपादन में उन्होंने कई महीने तक मेरी भरपूर मदद की, खास कर समाचारों के संकलन में। इससे मेरा भार हल्का हुआ। असल में प्रेस का मैनेजर भी मैं ही खुद था।'संपादक' तो पत्र का था ही। इस पर भी तुर्रा यह कि मैं बराबर बिहटा चला जाया करता, जब से वहाँ आश्रम का श्रीगणेश हुआ। प्रेस आया सन 1927 ई. का आधा बीतते न बीतते और उसके पटना में पहुँचने पर बरसात जल्दी ही आई। ईधर बिहटा का आश्रम नियमित रूप से खुल गया श्रावण महीने की गुरु पूर्णिमा को ही। हालाँकि मैं रहने लगा था वहाँ पहले से ही।

पाँच बजने के पहले मैं प्रेस से चल पड़ता। पैदल ही स्टेशन प्राय: 20-25 मिनट में जाता। सुबह दस बजे के पहले ही ट्रेन से आ जाता और स्टेशन से पैदल ही प्रेस पहुँच जाता। मासिक टिकट ले कर आना-जाना होता था। हाँ, जिस दिन पत्र निकलना होता उसकी पहली रात को आधी रात की ट्रेन से ही आना पड़ता था। तब एक ट्रेन आधी रात में बिहटा से चलती थी। मगर प्रतिदिन बिहटा जाना जरूरी था। आश्रम की खबर लेने के सिवाय हमेशा देहात में ही रहने का मेरा स्वभाव सा रहा है। फलत: शहर में ठीक नींद ही नहीं लगती। पटना में मच्छरों की भरमार तो अलग ही है।

ऐसी दशा में प्रेस और पत्र का─दोनों का चलाना कितना कठिन था यह आसानी से समझा जा सकता है। मेरी मदद के लिए एक अर्दली रखा गया था। जो दौड़-धूप करता था। प्रेस में बाहरी छपाई भी कुछ न कुछ होती ही थी। क्या आज इतने थोड़े, या प्राय: नहीं के बराबर आदमी रख के साप्ताहिक पत्र और प्रेस चलाए जा सकते हैं? यह प्रश्न पूछा जा सकता है। इसका जवाब तो साफ है कि वर्षों से ज्यादा मैं चलाता रहा। केवल वशिष्ठ बाबू की थोड़ी सहायता और एक अर्दली की मदद से सारा काम किया। समय पर न पहुँचने या न मिलने की शिकायत 'लोक संग्रह' के बारे में शायद ही कभी होती। मैंने ऐसा प्रबंध ही कर रखा था। विज्ञापन न होने से सारा खर्च ग्राहकों से ही चलता था। बाहरी काम तो बहुत थोड़ा छपता था।

फिर भी जिस समय पं. यमुनाकार्यी को मैंने वह 'पत्र' और प्रेस चौबीस सौ रुपए में दिया उस समय और भी टाइप तथा नये सामान उसमें लगाए जा चुके थे। इसका सीधा अर्थ है कि सब खर्च चला कर बचत भी हुई थी। असल में मासिक टिकट के सिवाय मैं तो एक पैसा लेता न था, यहाँ तक कि खाना, कपड़ा भी नहीं। नौकर तो ज्यादा थे नहीं। मैंने यह भी देखा कि काम चलाने के लिए दो और आदमी जिनमें एक मैनेजर हो रख लेने पर भी घाटा नहीं हो सकता था। लेकिन आजकल तो विज्ञापन और चंदे के पैसे (ग्राहकों के पैसे के सिवाय) ले कर भी साप्ताहिक पत्र दिवालिए बने रहते हैं। वे बंद भी हो जाते हैं।

मैं तो मानता हूँ कि हम लोग पत्रों की और सार्वजनिक कार्यों की जवाबदेही ठीक-ठीक महसूस ही नहीं करते। सार्वजनिक पैसे के साथ तो हम एक प्रकार का खिलवाड़ करते हैं। यही कारण है पत्रों के दिवालिएपन था।'पत्र' न तो लीडरी के साधन हैं और न पैसे कमाने या कुछ लोगों के गुजर के लिए। ये तो लड़ाई के अस्त्र हैं। फलत: उनका उपयोग यदि उसी दृष्टि से हो तो कोई दिक्कत न हो। जनता के पैसे को साग-मूली या हलवा समझ के बेमुरव्वती से उड़ाने का नतीजा यही होता है कि सैकड़ों कुकर्म और घृणित उपायों से पैसे लाने पड़ते हैं। विज्ञापनों और दूसरी बातों के लिए झूठ-सच बोलना पड़ता है। फिर भी दरिद्रता बनी ही रहती है।

आखिर में एक वर्ष से ज्यादा काम करने के बाद मैंने देखा कि मैं किस बेढंगे काम में फँसा कि दूसरा काम बंद हो गया। न तो कही आ सकता, न जा सकता था! एक प्रकार से बिहटा से पटना तक के कैदखाने में बंद हो गया! परिश्रम भी अत्यधिक हुआ। अत: विश्राम के लिए दिल चाहने लगा। यह ठीक है कि काम से तो मैं कभी घबराया नहीं। उसके सिलसिले में कभी बीमार भी नहीं पड़ा। ईधर तो, खैर, बीमार पड़ता ही नहीं। लेकिन पहले भी जब कभी बीमार पड़ा तो उसी समय, जब प्राय: फुर्सत थी─जब कामों का भार सर पर न था। लेकिन उस समय एक ही तरह के निरंतर के काम से मैं ऊब गया। सो भी खास कर घूमना-फिरना बंद हो जाने से। यदि घूमना-फिरना जारी रहता तो कोई बात न थी। क्योंकि वह तो मेरे जीवन का खास अंग हैं। फलत: उसके रहने पर ऊब सकता नहीं और न थकता ही हूँ। मगर वह बंद हो जाने से ऊब सा गया और एक प्रकार की थकान आ गई। इसीलिए पं. यमुनाकार्यी बी.ए. दरभंगा के जिम्मे प्रेस और लोक-संग्रह दोनों ही कर दिया। प्रेस का दाम चौबीस सौ रुपए तय पाया। यह लिखा-पढ़ी भी हो गई कि किश्त कर के वह श्री सीतारामाश्रम को धीरे-धीरे दे देंगे। उन्होंने पत्र की नीति आदि ज्यों की त्यों रख उसे चलाने का वचन दिया। चलाते भी रहे। प्रेस मुजफ्फरपुर ले गए। वहीं उसका कारबार रखा। सन 1930-32 के सत्याग्रह के समय एक दूसरा प्रेस भी उन्होंने 'सुलभ प्रेस' के नाम से रख लिया। अब तो वहीं नाम रही गया और 'नेम नारायण प्रेस' नाम गायब सा हो गया। ठीक ही है। अब यह नाम रखने का तो कोई कारण है नहीं। जैसा कि कह चुके हैं। जब रुपए देने पड़े, सो भी घुमाफिरा कर लिए गए, तो फिर नाम क्यों रहे?तो भी मैंने अपने वचन के अनुसार नाम नहीं बदला। हाँ, कार्यी जी ने पीछे बदला तो बुरा क्या किया?

प्रेस और 'लोक संग्रह' के सिलसिले में एक बात और भी उल्लेखनीय है। जब मैं स्थिर हो के पटना में रहने लगा तो असौढ़ के चौ. रघुवीर नारायण सिंह ने अपने दोनो पोतों─श्री सुखवंश नारायण सिंह और श्री मुखवंश नारायण सिंह को मेरे पास भेज दिया कि उन्हें कुछ पढ़ा-लिखा दूँ और उनका चरित्र ठीक कर दूँ। उन्हें पढ़ने-लिखने की अपेक्षा चरित्र का ही अधिक ख्याल था। इस बारे में मेरे ऊपर उनका पूरा विश्वास था। वे राष्ट्रवादी बनें यह पहला ख्याल उनका था। सरकारी तथा नीम-सरकारी स्कूलों में पढ़ाने के खिलाफ वह थे। उनका यह विचार पक्का था कि स्कूलों में जाने पर लड़के किसी काम के नहीं रह जाते। भ्रष्टचरित्र तो अक्सर होई जाते हैं। इन्हीं सब कारणों से मेरे पास भेजा। मैंने मुरव्वत के कारण बड़ी कठिनाई के बाद कबूल कर लिया और बराबर पाँच-छ: महीने साथ ही पटना में प्रेस के मकान के ही एक भाग में उन्हें अलग रखा। लड़के अच्छी तरह रहे। असल में उनके उपनयन संस्कार में मैंने ही गायत्री की दीक्षा दी थी। इसीलिए मेरे ही पास खास तौर से भेजना और भी जरूरी हो गया और मेरा स्वीकार कर लेना भी। मैं भी खान-पान वगैरह में बड़ी सख्ती से पेश आता था ताकि लड़के वाहियात चीजें खा-पी के बीमार या रोगी न हो जाए। काम भी शुरू में चलता रहा ठीक। मगर मैंने देखा कि अमीर के बच्चे हैं और उनकी दादी की ज्यादा मुहब्बत है। फलत: कभी-कभी मेरा नियम चुपके से वे लोग तोड़ते भी थे। फलत: मैंने अपनी जवाब-देही से हाथ खींच लिया और उन्हें उनके घर वापस कर दिया।


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