(1)
पश्चिम पटना किसान-सभा
इस प्रकार मैंसन 1927 ई. के उत्तरार्ध्द में आ जाता हूँ। वह साल बीतने के पहले तथा प्रेस एवंपत्रको भी दूसरे को सौंपने के पूर्व ही एक अन्य जरूरी और ऐतिहासिक कार्य का भीसूत्रपात मैंने किया,जिसका रूप आज न केवल बिहार में,वरनभारत भर में विस्तृत हो गया और हो रहाहै। मेरा मतलबहैकिसान-सभा से।
पटना जिले के जिस इलाके में बिहटा-आश्रम है, वह पटना जिले का पश्चिमी भाग होने के साथ ही जालिम जमींदारों का इलाका भी है। पटना और शाहाबाद जिले की प्राकृतिक सीमा, सोन नदी बिहटा से तीन ही मील पश्चिम है। ईस्ट इंडियन रेल्वे की कलकत्ता-दिल्लीवाली मुख्यलाइन का बिहटा स्टेशन पटना जिले का आखिरी है। उससे पश्चिम का स्टेशन कोइलवर सोन के पश्चिम पार शाहाबाद जिले में पड़ता है। वैसे तो अब रेल के सिवाय पटना से बस सर्विस भी बिहटा के लिए है। वहाँ तारघर के सिवाय चीनी की एक बड़ी मिल, साउथ बिहार सूगर मिल्स के नाम से कई वर्षों से चल रही है।लेकिन पहले वह इलाका गुड़ बनाने का प्रधान केंद्र था। साल में कई लाख मन गुड़ भारत के सभी भागों में वहाँ से जाता था। आज भी लाखों मन जाता है। मगर अब पुरानी बात नहीं है। वहाँ की मनेरिया ऊख,जो मनेर परगने के नाम से प्रसिद्ध थी,बहुत ही नामी ऊख थी। पुराने जमाने से ही वह इलाका उस ऊख के लिए प्रसिद्ध है। अब तो वह खत्म हो गई। अब देश के सभी भागों की तरह उस मनेर में भी कोयंबटूरवाली ऊख आ गई। गुड़ वहाँ का बहुत अच्छा होता है। और भारत की दो-चार गिनी-चुनी जगहों में एक बिहटा भी अच्छे गुड़ के लिए मशहूर है। उसके अलावे, पहले भी और अब भी,हफ्ते में दो बार वहाँ गल्ले का बाजार होता है खासकर चावल का। 40-50 मील तक के गाड़ीवान बैलगाड़ियों पर चावल लाते और बेचकर चले जाते हैं।
उसी बिहटा से दक्षिण सात-आठ मील जाने पर मसौढ़ा परगना शुरू हो जाता है। वह दक्षिण में दूर तक गया जिले में भी चला गया है। इस मसौढ़ा परगने के जमींदार बहुत पहले से ही जालिम मशहूर हैं। आज भी उनका बहुत कुछ जुल्म चलता ही है। हालाँकि, किसान-सभा ने न सिर्फ उनके होश दुरुस्त किए हैं,प्रत्युत किसानों को भी काफी जगा दिया है और उनमें हिम्मत ला दी है। मगर जिस समय की बात मैं कह रहा हूँ उस समय तो वहाँ के किसान इतने पस्तहिम्मत थे कि जमींदारी जुल्म के विरुद्ध खुल के जबान भी नहीं हिला सकते थे। यह वही जमींदार हैं जिन्होंने किसानों की लड़कियाँ और बहनें बिकवा कर लगान वसूल किया है। इसकी दास्तान कांग्रेस जाँच कमिटी के सामने सन 1937 के पहले पेश हुई थी,जब वह उस इलाके में गई थी। वहाँ जमींदारों के (पटवारी, बराहिल, अमले आदि) ही सब कुछ थे और उनसे किसान थर्राते रहते थे। वहीं के एक जमींदार ने सरौती (गया) के सभी किसानों को सिर्फ एक कटहल के फल के करते बर्बाद कर दिया! उनने ही सन 1921 ई. में कांग्रेस के कुछ लीडरों की मीटिंग तक वहाँ न होने दी!
उनका ऐसा कायदा था कि किसानों के घरों पर पारी बँधी रहती थी कि किस दिन कौन-कौन से किसान उनके दरबार में दिन-रात बेगार करने के लिए जाएँगे। जिसके द्वार पर जमींदार का आदमी मोटा सा डंडा शाम को रख आया, बस उसे नोटिस हुई और दूसरे दिन सुबह सारा काम छोड़कर जाना ही होगा, चाहे वज्र ही क्यों न गिरता हो। अगले दिन वह डंडा दूसरे के द्वार जा धमकता था। यही क्रम था। एक दिन दुर्भाग्य से रात में ही डंडेवाले किसान के घर में कोई मर गया। फलत: सुबह बेगारी में जाने के बदले मृतक को जलाने और संस्कार के लिए सारे परिवार को बीस माईल दूर गंगा किनारे जाना पड़ा। धर्म की आखिर बात थी न?फिर तो गजब हुआ। जमींदार ने गुस्से में आकर सारे गाँव को अनेक उपायों से तहस-नहस कर दिया। मसौढ़ा के जमींदारों का जुल्म वहाँ और पास के इलाकों में दूर तक प्रसिद्ध हैं। यहाँ तक कि कोई भला किसान अपनी लड़की उस मसौढ़ा में पहले ब्याहता न था। फलत: बड़ी दिक्कत से शादी हो पाती थी। लड़की की इज्जत खतरे में कौन डाले?
उनके जुल्म के दो-एक नमूने और सुनिए। फसल तैयार होकर खलिहान में जमा हैं और जमींदार के आदमी ने उस पर गोबर लगा दिया जिसे छापा कहते हैं। फिर जब तक जमींदार का हुक्म न होगा तब तक किसान की क्या बिसात कि उसे छुए,चाहे वह सड़,गल या जल ही क्यों न जाए ?इस प्रकार एक गाँव,पैपुरा की सारी फसल खलिहान में जल गई और किसानों को दाना न मिला। रब्बी की फसल कई महीने उस छापे के चलते पड़ी रही और बरसात में सड़ने लगी फिर भी जमींदार ने हुक्म न दिया कि उसे दौनी करके ले जाओ। फलत: किसी ने आग लगा दी।
वहाँ एक तरीका है दानाबंदी का। वहाँ ज्यादातर जमीनों का लगान नकद न होकर भावली हैं। इससे किसानों को रुपए के बदले जमींदार को तयशुदा गल्ला ही देना पड़ता है। वह कितना हो इसको ठीक करने का तरीका दानाबंदी कहा जाता है। जमींदार के अमले (नौकर) ने फसलवाले खेत पर जाकर अंदाज से कह दिया कि इस खेत में इतने मन गल्ला होगा और वही बज्रलीक हो गया! यदि अमले की पूजा किसान ने न की तो पाँच मन की जगह आठ मन तो वह अमला जरूरी ही कहेगा। वही बात एक कागज पर नोट कर लेता है। उसे खेसरा कहते हैं। कभी-कभी तो जमींदार की कचहरी में बैठकर जाली खेसरे बना करते हैं। खासकर भावली खेतों के लगान की नालिश के समय। और असली खसरे फाड़ दिए जाते हैं! क्योंकि नालिश के समय पाँच मन की जगह पचीस मन तो बताना ही होगा, ताकि ज्यादा रुपयों की डिग्री हो। वही खसरे अदालत में सबूत के तौर पर पेश किए जाते हैं। इस दानाबंदी का नतीजा होता है कि किसान को खेत के साथ-साथ, गाय,बैल, बकरी आदि और कभी-कभी तो लड़कियाँ तक बेचकर, जमींदार का पावना चुकाना होता है! जमींदार की शान ऐसी कि यदि वह कुर्सी या चारपाई पर बैठा हो तो किसान चाहे ब्राह्मण ही क्यों न हो, बहुत दूर हट के नीचे खाली जमीन पर ही बैठेगा। सो भी हाथ जोड़कर!
सन 1927 ई. के अंत तक मुझे इन जुल्मों का पूरा ब्योरा तो ज्ञात न था। मगर इतना जरूर जानता था कि वहाँ किसानों पर जुल्म बहुत होता है। कुछ खास जुल्मों का पता भी था। ऐसी दशा में मैंने सोचा कि यहाँ बराबर रहना है और गंगा स्नान,कचहरी जाने, मुर्दे को गंगा किनारे ले जाने, बाजार में आने तथा मेले में (क्योंकि वहाँ फागुन और वैशाख में शिवरात्रि का बड़ा मेला ब्रह्मपुर की ही तरह लगता है) आने के समय किसान खामख्वाह अपनी बातें सुनाया करेंगे। अगर उनके दु:ख सुनकर कोई तेज आंदोलन चलाया गया तो जमींदार और किसान के झगड़े खड़े हो जाएगे और इस तरह आजादी की लड़ाई में बाधा पहुँचेगी। कारण गृहकलह और आपसी झगड़े तो उसे कमजोर करेंगे ही। और अगर मैं यह सब बातें सोचकर न भी पड़ा तो बहुत से लोग जिनका यही पेशा है कि झगड़े लगाया करें और इस प्रकार लीडरी और नाम दोनों ही कमा लें, यह काम जरूर ही करेंगे। फिर तो कांग्रेस और उसकी लड़ाई खामख्वाह कमजोर होगी और मेरी दिक्कतें बढ़ेंगी। तब तक किसानों के नाम पर झूठे आंदोलन चलाकर कइयों ने किसानों को काफी ठग लिया था और इसकी जानकारी भी मुझे हो चुकी थी। इसीलिए यह खतरा मुझे मालूम हुआ। मैंने देखा, यहाँ तो बारूद का खजाना है। कहीं से अगर एक चिनगारी भी उसमें पड़ गई, जो बहुत संभव है,तो बड़ा भयंकर भड़ाका होगा और सारा गुड़ गोबर हो जाएगा। इसीलिए कोई उपाय होना चाहिए यह फिक्र मुझे हुई। कुछ और साथियों से भी राय की।
अंत में तय पाया कि यदि हम स्वयं किसानों की एक सभा यहाँ कायम करें और उनका आंदोलन चलाएँ तभी खैरियत होगी। क्योंकि ऐसी दशा में एक तो समझ-बूझकर हम पाँव बढ़ाएँगे जिससे किसान-जमींदार संघर्ष न होगा, गृहकलह न होगी और दोनों को समझा-बुझाकर झमेला तय करा दिया जाएगा जैसा कि कांग्रेस का सिद्धांत है। खासकर गाँधी जी तो ऐसा ही मानते और कहते हैं। मेरे लिए तो वही पथ दर्शक थे भी। दूसरे ऐसी दशा में गैरजवाबदेह गैर लोगों को यहाँ घुसने और उत्पात मचाने का मौका ही न मिलेगा। क्योंकि वह हमारे आंदोलन और हमारी सभा को देखकर यहाँ आने की हिम्मत न करेंगे। बस,इसी निश्चय के अनुसार हमने किसानों की सभाएँ जहाँ-तहाँ करना शुरू कर दिया और उनका आंदोलन जारी किया।
यह भी सोचा गया कि कौंसिल के लिए पटना जिला दो चुनाव क्षेत्रों में बँटा है, पूर्व पटना और पश्चिम पटना। लेकिन हम तो पश्चिम पटना में ही थे। वहीं काम भी करना था। चुनाव में वोट को लेकर झगड़े होते हैं। गर्मी भी किसानों के बीच काफी पैदा की जाती है। फलत: उस चुनाव के समय भी हम फायदा उठा सकते हैं अगर हमारी सभा यहाँ हो। सारे जिले की फिक्र क्यों करें?हमें तो सिर्फ पश्चिम पटना को देखना है। इसी ख्याल से पश्चिम पटना में ही हमारा किसान आंदोलन सन 1927 ई. के बीतते-न-बीतते शुरू हो गया। इसके कुछ ही दिन चलने के बाद हमने नियमित रूप से पश्चिम पटना किसान-सभा का जन्म ता. 4-3-28 को दिया। हमने उस समय उसकी नियमावली आदि बनाई। उसका उद्देश्य क्या हो, उसके मेंबर कौन हों इत्यादि बातें भी तय पाईं।
जो लोग यह तारीख देखकर किसान-सभा का जन्म सन 1928 में मानते हैं, वह भूलते हैं। उस समय तो उसका विधान आदि बन गया और पूरा रूप खड़ा हो गया। मगर इसके लिए तैयारी भी तो चाहिए और उसमें कुछ समय तो लगता ही है। इसीलिए किसान-सभा का जन्म असल में सन 1927 ई. के अंतिम दिनों में ही, आखिरी महीनों में ही, हुआ इतना तो पक्का है। हाँ, ठीक तारीख और महीना याद नहीं कि कब हुआ। असल में ऐसी बातों की ठीक तारीखें याद रहती हैं भी नहीं। वह तो तभी याद होती हैं जब संस्थाओं की बैठकें बाकायदा शुरू होती हैं।
इस प्रकार साफ है कि शुरू में जब हमने किसान-सभा का जन्म दिया तो किसानों तथा जमींदारों के समझौते और उनके हकों के सामंजस्य को सामने रखकर ही यह काम किया यही कांग्रेस का उस समय सिद्धांत था और आज भी हैं कि किसान,जमींदार, पूँजीपति-मजदूर, अमीर-गरीब आदि सभी के परस्पर विरोधी हकों, अधिकारों और हितों का सामंजस्य करना और उन्हें मिलाना। उसके मत से जो असल में ये अधिकार, ये हक और ये हित परस्पर विरोधी हईं नहीं। किंतु केवल ऊपर से ऐसे मालूम पड़ते हैं। अत: उसका काम है इसी मालूम पड़ने को हटा देना। वह इन दलों के संघर्ष को बहुत बुरा मानती और इससे डरती है। इसे वह आजादी की लड़ाई का बड़ा बाधक समझती है। मेरी भी दृष्टि उस समय ठीक इसी तरह की थी। मैं सपने में भी दूसरे प्रकार का ख्याल कर न सकता। मैं सोचता था कि हमारे यत्न से यह सामंजस्य हो जाएगा और यह संघर्ष असंभव हो जाएगा।
लेकिन मुझे क्या पता था कि एक दिन यही किसान-सभा परिस्थिति के वश हो इस विचार को त्यागने को मजबूर होगी और इस विरोध को स्वाभाविक तथा असली चीज समझ इस संघर्ष का स्वागत करेगी। यहाँ तक मैं कैसे पहुँचा और मेरे साथ किसान-सभा भी कैसे पहुँची, आगे के पृष्ठ इसी बात को बताएँगे। पर, यहाँ इतना ही कहना हैं कि मेरे मन में जो पहले पहल किसान आंदोलन और किसान-सभा का ख्याल आया वह पक्के और कट्टर सुधारक या सुधारवादी (Reformist) कीहैंसियत से ही न कि सपने में भी क्रांतिकारी कीहैंसियत से। तब तो मैं क्रांति (revolution) को समझता भी न था कि वह असल में क्या चीजहै?
(2)
विश्राम ─ बुलंदशहर में
'लोक संग्रह'और प्रेसकार्यी जी को सौंप कर मैं विश्राम के लिए सुलतानपुर (शाहाबाद) चला गया। फिर सोचा कि पास में रहने से बराबर लोग आते ही जाते रहेंगे। इसलिए वहाँ से भी राँची चला गया और सर गणेश के डेरे में महीनों पड़ा रहा। फिर वहाँ से लौटकर सिमरी रहा। सर गणेश के यहाँ जाने की बात आगे विस्तार से लिखी है। उसका सिलसिला आगे की बातों से मिलेगा। यहाँ एक प्रासंगिक बात लिख देता हूँ। मैं सन 1929 की गर्मियों में बुलंदशहर जिले के तौली ग्राम में जो अनूपशहर से 6-7 मील पश्चिम है, चला गया। बरसात के दो महीने वहीं कटे। मेरे एक चिर परिचित दंडी जी हैं स्वामी सोमतीर्थ जी। वे पहले योगाभ्यास करते थे। उसमें उन्हें कुछ सफलता भी मिली। मगर उसका एक दुष्परिणाम यह हुआ कि गर्मियों में उन्हें कष्ट ज्यादा रहता है। क्योंकि शरीर में गर्मी का असर उस अभ्यास के करते ज्यादा हो गया। फिर भी बड़े ही शांत और एकांतवासी है। ईधर कुछ दिनों से पता नहीं उनकी क्या हालत है?उसी अभ्यास के चलते रोगी तो होई गए है। हाँ, तो इस बार हम और वह दोनों ही एक ही साथ तौली गए और वहीं रहे। वहाँ के रईस चौधरी रघुवीर सिंह वगैरह असौढ़े के चौधरी रघुवीरनारायण सिंह के नातेदार पड़ते हैं। इसलिए उन लोगों से पहले ही परिचय था। उनसे आग्रह किया कि उन्हीं के गाँव पर कुछ समय रहा जाए। इसी से वहाँ गए। सचमुच ही वह निरी एकांत जगह मिली। स्टेशन से बीसियों मील दूर! बुलंदशहर से ही वहाँ जाना पड़ता है। सड़क तो पक्की है। पर, उन दिनों बहुत ही खराब थी। सिर्फ, ताँगे से ही वहाँ जाना पड़ा।
वहाँ दो चीजें देखने में आईं। एक तो जिनके यहाँ हम लोग गाँव से अलग हटकर एक बगीचे में ठहरे थे,उनके ही यहाँ नील की खेती देखी। पहले तो बिहार में और दूसरी जगह भी नील की खेती खूब होती थी। इससे रंग तैयार होता था। मगर पीछे जब विलायती रंग चला तो वह चीज जाती रही। फलत: हमें उसका दर्शन वहीं मिला। उन लोगों ने उसकी खेती जारी रखी थी। उससे कुछ नील का रंग भी तैयार करते थे। मगर उन्होंने जो नील की खेती का असली लाभ बताया उससे मैं बहुत आकृष्ट हुआ। बात आज भी ताजी ही हैं। वे लोग खूब ज्यादा खेती करते हैं। खेतों में खाद देने का सबसे उत्तम साधन नील की खेती समझ उन्होंने उसे नहीं छोड़ा। पारी-पारी से सभी खेतों में नील बोते हैं। उसकी जड़ें जमीन में सड़ कर अलग खाद का काम देती है और खेत में गिरी हुई पत्तियाँ जुदाही खेत की पैदावार बढ़ाती है। ये दोनों बातें अनिवार्य है अगर नील बोया जाए। पत्तियाँ गिरेंगी ही और जड़ें सड़ेंगी ही।
फिर जब नील काट कर हौज में सड़ाते और उसके बाद सड़ा हुआ पानी छानकर बहा देते हैं तो वह भी जमीन को सोना बना देता है। मैं उस पानी की बात तो पहले सुन चुका था। लेकिन जड़ों और पत्तियों की नहीं। यों तो सन की खेती करके थोड़ा बढ़ने पर ही यदि खेत जोत दें जिससे सन का पौधा मिट्टी के नीचे पड़ के सड़ जाए तो अच्छी खाद होती है। इसे ही हरी खाद (green manure) कहते हैं। मगर नील तो उससे कहीं अच्छी हरी खाद का काम देताहै। अफसोस कि किसान नील और सन की खाद भूलकर विलायती खादें पैसे से खरीद कर देने लगे हैं।
वहाँ मैंने दूसरी चीज देखी गुड़ और भूरा बनाने का चूल्हा। बिहार और यू. पी. के दूसरे जिलों में मैंने मामूली चूल्हे देखे हैं। इनमें ईंधन ज्यादा लगता है। आँच खराब भी जाती है। मगर वहाँ तो निराला चूल्हा देखा जिसमें ईंधन कम लगता, आँच कहीं तेज होती और वह नुकसान भी नहीं होती। एक चूल्हे के पीछे थोड़ी आँच निकलने के लिए एक जरूरी सूराख होता है। उससे जो आँच निकलती है वह जाया ही होती है। इसलिए वहाँ वह सूराख न बना कर पहले चूल्हे के पीछे थोड़ी ऊँचाई पर दूसरा चूल्हा,उसके पीछे इसी तरह तीसरा, फिर चौथा, पाँचवाँ आदि सात चूल्हे बने थे। भीतर-ही-भीतर एक से दूसरे का संबंध था। फलत: ईंधन पहले में देने से ही आँच भीतरी संबंध से दूसरे में, वहाँ से तीसरे में इस प्रकार सभी चूल्हों में जाती थी। पहले चूल्हे पर कड़ाही में ऊख का रस देते थे। थोड़ा गर्म होते ही ऊपरवाले चूल्हे की कड़ाही में उसे बदलकर पहली में नया रस देते थे। फिर दूसरावाला तीसरी में, चौथी में। इस तरह बदलते-बदलते आखिर में जाकर गुड़ या रवा (राब) की चासनी तैयार हो जाती थी। तब उसे निकालकर नीचे से क्रमश: दूसरा, तीसरा रस लाते रहते थे। इस प्रकार आँच जरा भी जाया होती न थी। वह तेज तो इतनी होती थी कि ऊख की पत्तियों को जलाने पर उन्हीं की राख की झामा बना मैंने वहीं देखा! सभी किसानों को इस प्रकार के चूल्हे का ही प्रयोग करना चाहिए।
मैं वहाँ एक और चीज देखकर मुग्ध हुआ। पुराने ढंग के चरखे वहाँ बराबर चलते पाए। देहाती हाटों में बहुत ज्यादा सूत ला-लाकर औरतें बेचा करती थीं। उन्हीं की बनी शुद्ध खादी भी बहुत ही सस्ती वहाँ मिलती थी। कपास तो उधर बहुत ही काफी होती हैं। चरखे भी बंद हुए न थे। इसलिए खादी के लिए वहाँ नए उद्योग की जरूरत ही न थी। सिर्फ सूत खरीदने का काम था। फिर तो जितना चाहिए कता-कताया पाइएगा। तब तक तो गाँधी आश्रम और चरखा संघवालों का वहाँ दर्शन न हुआ। शायद पीछे पहुँचे हों। वहाँ का बहुत ही सस्ता सूत और सस्ती खादी काम की चीज थी। यह ठीक है कि मोटी खादी ही बनती थी। महीन सूत नहीं कतता था। यह भी मालूम हुआ कि लिहाफ या रजाई में एक-दो साल तक रूई रख के उसे निकाल लेते और उसमें नई रूई देते थे। उसी निकली रूई को धुलाकर धुन लेते और सूत कातते थे। इससे सूत भी सस्ता पड़ता था और रूई का अच्छा आर्थिक उपयोग भी होता था। वह जरा भी खराब या नष्ट होने न पाती थी। किसानों को ऐसी समझ हो ताकि अपनी हरेक चीज का खूब ही उपयोग करें तो कितना अच्छा हो।
एक साधु की कहानी है कि वह कपड़े की पहले धोती बनाता। धोती फटने पर उसके गमछे। गमछे फटें तो लँगोटियाँ। लँगोटियाँ फटीं तो उन्हें बाटकर रस्सी और रस्सी टूटने पर उसे जलाकर भस्म बनाता और सिर तथा देह में उस भस्म को लगा लेता था। यह कितनी सुंदर बात है। वहाँ कि किसान थोड़ा-बहुत ऐसा ही करते थे। अस्तु, वर्ष के बाद मैं वहाँ से पुन: बिहार लौट आया।
(3)
सर गणेश से मनमुटाव
पहले कहा जा चुकाहैकि सर गणेशदत्त सिंह सेसन 1926 की गर्मियों में मेरा कुछ हेलमेल हो गया था कई वर्षों के मनमुटाव के बाद। इसीलिए'लोक संग्रह'से छुटकारा पाते हीसन 1928 की गर्मियों में मैं राँची गया उनके ही आग्रह से, और कुछ दिन वहाँ ठहरा। गर्मियों के दिन बीत रहे थे और बरसात आने ही वाली थी। मैंने अगस्तवाला कौंसिल का अधिवेशन भी वहीं देखा। फिर वापस आया।
राँची में रह के मैं बराबर सुबह-शाम आस-पास के गाँवों में दूर-दूर तक घूमने जाया करता था। मैं हर मुंडा या उरांव को जो वहाँ के निवासी है,देखकर उनके सिर पर नजर दौड़ाता यह देखने के लिए कि चोटी (शिखा) है या नहीं। वहाँ ईसाई काफी है। उस समय भी थे। इसीलिए देखता था। चोटी देखकर मैं एकाएक अनायास रो पड़ता और सोचता था कि हिंदुओं की शिखा उनके पूर्वजों के सिर पर न जानें कब आई थी। ईधर तो हजारों वर्षों तक हिंदुओं के धर्म के ठेकेदारों ने इनकी खबर भी न ली! फिर भी चुटिया कैसे पड़ी हैं! आश्चर्य है! धर्म तो सिखाया सही, मगर पशुवत जीवन बना रहने दिया! मुद्दतों तक पूछा भी नहीं कि मरते हो या जीवित हो। फिर भी अंधविश्वास के करते यह शिखा पड़ी है। मगर सभ्यता का एक धक्का लगते ही उड़ जाएगी यह ख्याल होता था।
मैं स्त्री, पुरुष, सबों को हट्टा कट्टा देखकर मुग्ध हो जाता था और सोचता कि यदि इन्हें सुंदर भोजन मिलता तो कैसे अच्छे जवान और मजबूत होते। स्त्रियाँ भी कितनी तगड़ी होतीं। चाहे धर्म-प्रचार के ही ख्याल से सही, मगर घोर जंगलों में सैकड़ों वर्ष पूर्व, जब न रेल थी और न तार, ईसाई यहाँ आए। उन्होंने डेरा जमाया! यह गैरमामूली हिम्मत और बहादुरी थी, अध्यवसाय प्रियता थी। इसीलिए उनकी इस मर्दानगी, धुन और कर्तव्यपरायणता के सामने मैंने सिर झुकाया। लोगों का केवल दोषोद्धाटन और छिद्रान्वेषण कदापि उचित नहीं कि मिशनरी लोग सीधे लोगों को तरह-तरह से फुसलाकर ईसाई बनाते हैं। उन्हीं की तरह त्याग और हिम्मत चाहिए लगन चाहिए और धुन का पक्का होना चाहिए। तभी काम चलेगा। केवल ऐसे ही धुनी को हक है कि ईसाइयों का दोष दिखाए!
मुझे वहाँ पहले-पहल मालूम हुआ कि छोटा नागपुर के आदिवासी (मुंडा, उराँव) आदि में तीन गुण थे, जो अब धीरे-धीरे लुप्त हो रहे हैं। जैसे-जैसे सभ्यता की हवा पहुँचती जाती है! एक समझदार आदमी ने मुझसे एक बार वहीं कहा था कि हिंदुओं ने तो इन लोगों को पशु बना रखा था। मगर मिशनरियों ने उन्हें, या कम-से-कम उन लोगों को, जो ईसाई बने, आदमी तो बनाया। बात तो ठीक ही है। इससे इन्कार नहीं किया जा सकता कि उनका पशु जीवन मिटाकर सभ्य बनाया। उनके पढ़ने-लिखने का प्रबंध् किया। मगर खेद इतना ही है कि इसी के साथ उनमें पहले से चले आनेवाले तीन अपूर्व गुणों को भी खत्म कर दिया! लेकिन इसमें उनका क्या दोष?सभ्यता तो इसे ही कहते हैं और अगर ईसाई वहाँ न भी जाते तो भी ये तीन गुण मिट ही जाते, जैसा कि अन्यत्रा हुआ है। सभ्यता पिशाची उन्हें मिटा ही छोड़ती!
वे तीन गुण है झूठ कभी न बोलना, व्यभिचार से दूर रहना और मर्दानगी। कहते हैं कि चाहे कुछ भी हो जाए लेकिन वे लोग बात कभी छुपाते न थे। असत्य कभी बोलना जानते न थे। इसीलिए चोरी कर न सकते थे। वह तो छिपाने की चीज है। मर्दानगी की तो यह बात बताई जाती है कि यदि चाहे पड़ोसी से या किसी गैर से मारपीट हो गई और कोई मर गया तो मारनेवाला डर के छिपने के बजाए, पुलिस या अधिकारियों से जा के साफ कह देता कि हमने मारा है। किसी के धमकाने-डराने से वे डरते न थे। इसी प्रकार व्यभिचार के वे सख्त दुश्मन थे। व्यभिचारी की जान तक ले लेते थे।
इस संबंध में दो कहानियाँ प्राय: उसी समय मुझे बताई गईं। जब सरकारी मकान बन गए और मिनिस्टर तथा गवर्नर गर्मियों में वहाँ रहने लगे तो आम सड़क के पास खड़े किसी मिनिस्टर के अर्दली ने सड़क से जानेवाली एक स्त्री से दिल्लगी की। इतने ही पर पीछे से आनेवाले एक आदिवासी ने अर्दली पर धावा बोलकर उसे पछाड़ ही तो दिया। अनंतर मजबूर करके जमीन पर नाक रगड़वाई तथा प्रतिज्ञा करवाई कि फिर कभी ऐसा न करेंगे! तब कहीं उसकी जान बख्शी! दूसरी घटना गवर्नर की कोठी की बताई जाती है। उसमें झाड़ू देनेवाली एक स्त्री पर किसी चपरासी ने आक्रमण करना चाहा तो बगल में रखे लंबे चाकू को निकालकर वह दुर्गा जैसी उस पर कूद पड़ी। अगर वह नौ-दो ग्यारह न हो जाता तो खैरियत न थी! मगर अब ये गुण चले गए, चले जा रहे हैं। सभ्यता के लिए हमें यह बड़ी गहरी कीमत चुकानी पड़ी है!
हाँ, तो सर गणेश की बात सुनिए। बेशक सरकार परस्ती उन्होंने खूब ही की। नहीं, तो उनका त्याग बिहार में तो सानी नहीं रखता। साथ ही, उन जैसा अतिथि-सत्कार करनेवाला और प्रतिज्ञा को पूरा करनेवाला मनुष्य मैंने नहीं देखा। जो दान देना बोलेंगे उसे फौरन पूरा करेंगे। समझ भी सुंदर। चालाक भी काफी।
एक दिन उन्होंने गया के डिस्ट्रिक्ट बोर्ड की बात मुझसे राँची में ही छेड़ी। बोले कि श्री अनुग्रह नारायण सिंह,चेयरमैन के करते बहुत गड़बड़ी हुई है। फलत: उस बोर्ड के तोड़ने (Superession) की बात चल रहीहै। मैंने पूछा कि आखिर इलजाम क्याहै?उनसे उन पर कोई कैफियत (reply) भी माँगी गई हैया नहीं?उन्होंने कहा कि अभी तक नहीं। लेकिन सारे इलजाम कौंसिल मेंबरों के पास भेजेजाएगे। मैंने पूछा कि यह तो बहुत ही अच्छी बात होगी। मगर सबसे बड़ी बात यह होगी कि उनसे उन आरोपों (Charges) के बारे में सफाई जरूर तलब कीजाए। बिना सफाई का मौका दिए बोर्ड के खिलाफ कोई भी काम करना निहायत नामुनासिब होगा। उन्होंने स्वीकार किया और कहा कि आरोप और उनकी सफाई दोनों ही कौंसिल के मेंबरों के पास भेजने के बाद ही कोई काम बोर्ड के बारे में कियाजाएगा।
बस इतनी बात के बाद मैं तो राँची से आ गया और श्री अनिरुद्ध शर्मा के पास उनके गाँव पर नए बगीचे में बने नए मकान में जा के रहने लगा। शर्मा जी ने मेरे ही लिए गाँव से बाहर एक सुंदर बँगला और उसके भीतर एक तहखाना (गुफा) बना दिया था। वहाँ मैं गर्मियों में बहुत बार रहा हूँ। उसमें हवा तो जाती ही थी। तरी भी बनी रहती, जब कि बाहर लू चला करती थी। बक्सर से सोलह मील दक्षिण वह जगह है। वहाँ इक्के भी आसानी से नहीं जा सकते। वैसी सड़क नहीं है। वर्ष में तो वह स्थान और भी दुष्प्रवेश है। उसका नाम सुलतानपुर है। वहाँ का डाकखाना धनसोई है। वह बाजार भी है। शर्मा जी ने तब से न सिर्फ मेरी अपार सेवा की है, वरन कांग्रेस और खासकर किसान-सभा के मामले में मेरा पूरा साथ दिया है। वे सुखी और चलता-पुर्जा आदमी भी है,खासकर उस इलाके में।
इस समय कह नहीं सकता, कि सन 1928 का दिसंबर था, या कि 1929 ई. की जनवरी। तारीख याद नहीं। भरसक 1929के जाड़े का ही समय था, जब पटना में कौंसिल की बैठक हो रही थी। कौंसिल जनवरी से मार्च तक प्राय: हुआ करती थी। मैं गंगा के उत्तर किसी सभा में जा रहा था और पटना उतरा। उसी समय पता लगा कि गया के डिस्ट्रिक्ट बोर्ड को सरकार ने हथिया लिया और चेयरमैन वगैरह हटाए गए। मैं घबराया कि यह क्या बात! न तो उनसे सफाई तलब होने की बात कहीं पढ़ी और न कौंसिल के मेंबरों के पास सारी बातें भेजने की ही। फिर अचानक यह क्या हो गया?मैं फौरन सर गणेश के बँगले पर गया। वहाँ नीचे ही बैठा। खबर भिजवाई कि मैं आया हूँ। थोड़ी देर में वे ऊपर से उतर कर आए। कहीं बाहर जाने की तैयारी में थे। मुझसे खड़े-खड़े बातें हुईं। मैंने तो देर तक काफी बातें करने की सोची थी। मगर वे शायद जल्दी में थे। इसीलिए खड़े-खड़े बातें हुईं।
मैंने पूछा, ''यह गया के बोर्ड का क्या माजरा है?'' उत्तर मिला,''तोड़ दिया गया।'' मैंने कहा कि ''सो तो ठीक है। मगर क्या आपने उन्हें सफाई का मौका दिया था!'' उनने कहा, ''नहीं।'' 'क्यों?'' मैंने पूछा। उत्तर दिया कि ''ऐसी बात हो गई कि गवर्नर राँची से गया आने को थे। वहाँ कोई अभिनंदन-पत्र उन्हें मिलनेवाला था। उसके उत्तर में बोर्ड के बारे में सरकार का क्या फैसला है उन्हें यह भी सुनाना जरूरी था। इसीलिए उन्होंने मुझसे फौरन कोई निर्णय करने को कहा। जब मैं स्वयं इतनी जल्दी कुछ न कर सका तो कार्यकारिणी की मीटिंग में उन्होंने यह मामला पेश कर दिया। उसमें हम दो मिनिस्टर फौरन तोड़ने के फैसले के विरुद्ध रहे। बाकी वे तीन पक्ष में हो गए। फलत: मैं लाचार हो गया।'' मैंने उत्तर दिया कि ''लेकिन वह विभाग तो आपका है। अत: जवाबदेही आप ही की मानी जाएगी न?'' उन्होंने कहा, ''सो तो ठीक है। मगर गवर्नर की बात भी तो आखिर थी। मैं करता क्या?'' मैंने फिर कहा, ''आप ही ने इसी कौंसिल के चुनाव के जमाने में एक गोपनीय बात मुझसे कही थी कि गवर्नर ने झरिया के कोयले की खानों की सभावाले अंग्रेजों को वचन दे दिया था कि मानभूम से झरिया को अलग करके स्वतंत्र जिला उसे बना देंगे। मगर मैं इस बात पर डट गया कि ऐसा नहीं हो सकता। क्योंकि तब तो झरिया जिला काफी पैसेवाला होने से अफड़ के मरेगा और बाकी मानभूम पैसे बिना भूखों मर जाएगा। फलस्वरूप,आखिर गवर्नर को झुकना पड़ा। गो उनकी बात झूठी हुई। तो फिर यहाँ भी वही क्यों न किया?'' तब उन्होंने कहा कि मैं कारण बताऊँगा। इस पर मैंने कहा कि मुझसे तो आपकी यही बात थी। सो उसका क्या हुआ? उन्होंने कहा कि यह भी पीछे बताऊँगा। ऐसा कह के वे चलते बने।
मुझे बड़ा गुस्सा आया। सोचा कि उस समय तो मुझे ठगने के लिए इस शख्स ने अपनी शाबासी की कितनी ही बातें सुनाईं। यों हम भी देशभक्त हैं इसका प्रमाण पेश किया। मगर आज क्या हुआ। माना कि अनुग्रह बाबू या औरों से हमारा मनमुटाव है। मगर यह तो समूचे कांग्रेस की और न्याय की बात थी। फिर इसको कैसे बर्दाश्त किया जा सकता है? बस, मैंने तय कर लिया कि अब फिर सर गणेश के पास नहीं आऊँगा। मैंने इनका असली रूप पहचान लिया। मुझे शायद सीधा-सादा और बेवकूफ समझते हैं। इसी से पीछे कहने और समझाने की बात कर गए हैं। उसके बाद जो वहाँ से आया तो फिर कभी गया ही नहीं। पीछे 'सर्च लाइट' में तथा दूसरे समाचार-पत्रों में एक लंबा खुला पत्र भी छपवाया। उसमें सारी बातें लिख दीं। उसके बाद सुना कि लोगों से सर गणेश कहते थे कि स्वामी जी तो तानाशाही (Dictatorship) चाहते हैं। जो उनका हुक्म न माने उस पर रंज हो जाते हैं। भला, इसमें तानाशाही का क्या सवाल था? मगर मुझे तो बहुतों ने ऐसा समझा है! सो भी ऐसी ही बातों को लेकर! ताज्जुब!
(4)
भूमिहार-ब्राह्मण-सभा का खात्मा
सन 1929 ई. के गर्मियों के दिन थे। मैं सुरताँपुर (सुलतानपुर) में श्री अनिरुद्ध शर्मा के बँगले में था। पहले से बात तय थी कि इस बार चातुर्मास्य में मेरठ की तरफ जा के स्वामी सोमतीर्थ जी के साथ रहूँगा। जैसा कि बुलंदशहर के तौली मौजे में जाने और रहने की बात पहले ही कह चुका हूँ।ईधरअखबारों में पढ़ा था किश्री सुंदर लाल जी की 'भारत मेंअँग्रेजीराज्य'पुस्तक शीघ्र ही प्रकाशित होनेवालीहै। वह सोलह रुपए में मिलेगी। लेकिन जो पहले ही ग्राहक बनेंगे उन्हें बारही रुपए में लब्ध होगी। इसलिए मैं ग्राहक बन चुका था और उसके आने की प्रतीक्षा में ही था कि एकाएक उड़ती खबर मिली कि मुंगेर में भूमिहार ब्राह्मण महासभा का अधिवेशन होगा और सर गणेशदत्त सिंह उसके सभापति होंगे। मैं ताज्जुब में आया और घबराया भी। मेरी समझ में यह बात असंभव थी!
बाबू श्री कृष्ण सिंह और बाबू रामचरित्र सिंह ये दोनों ही उस जिले के कांग्रेस नेता और कौंसिल के सदस्य थे। सर गणेश रामचरित्र बाबू के विरुद्ध कौंसिल के उम्मीदवार भी हुए थे। कौंसिल में ये दोनों सर गणोश को खूब खरी-खोटी सुनाते भी। ईधर श्री कृष्ण सिंह ही भूमिहार ब्राह्मण सभा की स्वागत समिति के अध्यक्ष थे। इसीलिए विश्वास नहीं होता था कि जीती मक्खी वे लोग निगलेंगे और अपने विरोधी एवं पक्के सरकार परस्त आदमी को सभापति बनाने को राजी होंगे। मैंने सोचा कि और न सही, तो बाहरी दुनिया में होनेवाली बदनामी से तो डरेंगे। क्योंकि लोग खामख्वाह कहेंगे कि कौंसिल में तो विरोध करते हैं पर,घर में उसी आदमी को सिर चढ़ाते हैं! फिर ऐसों का विश्वास क्या! एक बात और भी थी। आगे एकाध ही वर्ष में फिर कौंसिल चुनाव होने को था। ऐसी दशा में सर गणेश को सभापति बनाना साँप को दूध पिलाना ही था। क्योंकि उसके करते समाज में प्रिय और ऊँचे बन के फिर कौंसिल के चुनाव के समय विरोध करेंगे।
इसी उधोड़बुन में था कि सभा का समय आ धमका। उधर दैवात'भारत में अंग्रेजी राज्य' की बी.पी. आ गई। फिर तो,बी.पी. छुड़ा के पास में पुस्तक
रखी और मुंगेर जाने के लिए बक्सर स्टेशन को रवाना हो गया। पीछे पता चला कि बी.पी. छुड़ाने के फौरन ही बाद पुलिस डाकखाने में पहुँची कि वह बी.पी. कहाँ गई, इसका पता लगाए। मगर तब तक तो 'चिड़ियाँ चुग गई खेत'। मैं सुलतानपुर में था भी नहीं कि पुलिस दौड़-धूप करती और पुस्तक उठा ले जाती। छपते-छपते ही वह जब्त हो गई यह निराली बात थी। हालाँकि जो बातें उसमें लिखी हैं वह अंग्रेजी की मेजर बोस की 'राईज आँफ दी क्रिश्चियन पॉवर इन दी ईस्ट' में मिलती हैं। मगर वह जब्त नहीं हैं! असल में हिंदी में होने से जनसाधारण के लिए यह सुलभ हो गई। इसीलिए सरकार सतर्क हो गई कि कहीं जनता की आँखें खुल न जाए। वह तो अब तक आँख मूँदे तेली के बैल की तरह एक निश्चित दायरे के भीतर ही घूमती थी। अब कहीं फाँद के बाहर न निकल जाए, यह डर था।
जब मैं गाड़ी में बैठ के मोकामा आया तो गाड़ी में चढ़ के मुंगेर सभा में चलनेवाले परिचित लोगों से ही पता लग गया कि सर गणेशदत्त सिंह ही सभापति होंगे, यह तय पाया गया है। अब तो मेरे क्रोध का ठिकाना नहीं रहा। सिर्फ इसलिए नहीं कि मेरा उनके साथ विरोध था। यह कोई व्यक्तिगत बात या कारण न था। असल में मैंने देखा कि ईधर लगातार चार-पाँच सभाओं में फिर चाहे वे प्रांतीय हों या अखिल भारतीय, वह एक ही आदमी सभापति होता चला आता था। यह बात बुरी तरह खटकनेवाली थी। क्या समाज में कोई और पढ़े-लिखे, योग्य या धनी नहीं रह गए कि एक ही आदमी के हाथ में वह बिक गई? यह एक बड़ा अपमान उस समाज का था जिसे जगाने और स्वात्माभिमान युक्त बनाने में मैंने काफी परिश्रम किया था और जिसे बगावत का झंडा गाड़ने के लिए भी तैयार किया था।
एक बात और थी। अगले वर्ष कौंसिल चुनाव होने को था। एक बड़े समाज का सरताज बन के वह चुनाव में काफी गड़बड़ी करते और कांग्रेस के विरुद्ध समाज की जनता को सफलतापूर्वक भड़काते। ताकि फिर मिनिस्टर बन जाएँ। तीसरी बात थी, श्री कृष्ण बाबू की बड़ी बदनामी की। लोग खामख्वाह कहते कि ये ऊपर से तो राष्ट्रवादी बनते हैं। मगर भीतर से कांग्रेसी और जी हुजूर सब एक है। यदि यह अक्ल उन्हें न आई तो मैं क्यों अंध बनूँ और उन्हें न बचाऊँ! आखिरउनको बचाना तो कांग्रेस को बचाना था। बस,इन्हीं सब कारणों से मैंने तय कर लिया कि जब खुली सभा में सभापतित्व के लिए सर गणेश का नाम आएगा तो मैं उसका विरोध जरूर करूँगा। यह बात मैंने न सिर्फ गाड़ी में ही लोगों से कह दी। प्रत्युत मुंगेर के पूर्व सराय स्टेशन पर जो लोग प्रबंधकर्ता के रूप में मिले उनसे भी कहदी।
एक दिन जो आदमी कांग्रेस या, यों कहिए कि स्वराज्य पार्टी के खिलाफ सर गणेश को कौंसिल में जिताने गया था, वही दो ही वर्ष के बाद आज उन्हीं सर गणेश को देख नहीं सकता और भरी सभा में उन्हें अपमानित करने पर तुला बैठा है! वह नहीं चाहता कि वह फिर कौंसिल में जाए और मिनिस्टर बनें! ऐसा आदमी जातिवादी (communalist) हो सकताहैया नहीं, यह निष्पक्षपात लोग ही बता सकते हैं।
अब तो मुंगेर पहुँचते ही हो-हल्ला मच गया। ऐसी सनसनी फैली कि सभी लोग बेचैन थे। लोगों को यह तो निश्चय होई गया कि मैं विरोध करूँगा ही और उसके वोट लेने पर सर गणेशदत्त सिंह कदापि सभापति चुने न जाएगे। लोग दल के दल मुझे समझाने आए। मगर निरुत्तर हो के चले गए। अब हमारे दोस्तों और लीडरों को, रामचरित्र बाबू को और श्री कृष्ण बाबू को, यह फिक्र हुई कि उनके जिले में आकर यदि सर गणेश की छीछालेदर हुई तो समाज में उनकी बदनामी होगी। मगर इसका अपराधी कौन! उन्होंने ऐसा होने ही क्यों दिया? वे लोग समझाने आए तो मैंने साफ कह दिया कि मुझे तो यह कह के बदनाम किया गया कि मैं कांग्रेस-विरोधी और सर गणेश का पिट्ठू हूँ। मगर आप तो कांग्रेस के लीडर है। फिर यह उलटी बात क्यों? मैं सर गणेश का विरोध करूँ और आप लोग उससे हैंरान हों? आप उनके समर्थक हों? मैंने अनजान में उनका समर्थन किया और जान लेने पर आज उनका पक्का विरोधी हूँ। मगर आप लोग जानकर क्यों उनके साथी बनते हैं? दुनिया आपको क्या कहेगी? इसका उत्तर वे लोग क्या देते? मैंने उनसे साफ कह दिया कि इतना ही नहीं। चुनाव में वे जहाँ खड़े होंगे मैं उनका विरोध सारी ताकत लगा के करूँगा और देखूँगा कि मिनिस्टर बन के वे आगे सरकार-परस्ती कैसे करते हैं। इस पर वे लोग चले गए। फिर बाबू राम दयालु सिंह को मेरे पास भेजा। क्योंकि जानते थे कि उनकी बात मैं शायद मान सकूँ।
श्री राम दयालु सिंह मेरे पास आए। देर तक बातें होती रहीं। आखिर में मैंने यह कहा कि सभा में जाने पर तो मैं उनके सभापतित्व का विरोध अवश्य करूँगा। क्योंकि यह बात कह चुका हूँ। उसे टाल नहीं सकता। पर यदि आप लोगों की यही मर्जी है कि वे सभापति बनें ही तो लीजिए मैं सभा में जाऊँगा ही नहीं। आप लोग सँभालें और करें। वह खुश हुए। यह जानकर औरों की चिंता घटी। मगर
सभा में जब लोग खचाखच भर गए और मुझे न पाया तो कानाफूँसी होने लगी कि स्वामी जी क्यों नहीं आए? सर गणेश सभापति तो बन ही चुके थे। किसी ने उनसे पूछा कि स्वामी जी यहाँ आ के भी सभा में क्यों नहीं आए? उनका जैसा स्वभाव है,रंज हो के कह दिया कि स्वामी जी की बात मैं क्या जानूँ! आप उनसे पूछिए! फिर क्या था? कोई ईधर उठा, कोई उधर और सवाल होने लगे। आवाज आई कि स्वामी जी को बुलाकर लाया जाए। बराबर लोगों ने कहा। उन्होंने कहा कि स्वामी जी के बिना सभा का काम रुक नहीं सकता। इस पर और गड़बड़ी मची और मेरे बूढ़े गुरु भाई स्वामी परमानंद सरस्वती ने उठ के कहा कि स्वामी जी ने समाज को जगाया, और उन्हीं के बिना काम नहीं रुकेगा? आप ही काम चलाइएगा? और क्रोध से सभापति की ओर वह बढ़े। फिर तो ऐसी गड़बड़ी मची कि सर गणेश को अपने ऊपर खतरा मालूम पड़ा। फलत: सभा भंग कर दी और पुलिस! पुलिस!! पुकार के उठ खड़े हुए। किसी प्रकार लोगों ने घेर-घार कर उन्हें बचाया और डेरे पर पहुँचाया।
इस प्रकार भूमिहार ब्राह्मण महासभा भंग हो गई। हालाँकि, मैं बाहर ही था। मेरे पास दौड़े-दौड़े एक सज्जन पहुँचे कि'सभा में तूफान है, चलिए शांत कीजिए' मैं समझ न सका। पीछे उनसे कहा कि मैं जल्दी में चला आया हूँ। शायद सर गणेश पिट गए। हालत नाजुक है। इस पर मैं दौड़ के सभा में पहुँचा तो हंगामा देखा। मुझे देखते ही लोग ठंडे हो गए। लोग यही तो चाहते थे कि मैं आऊँ। खैर मैंने समझा-बुझा के शांत किया और न आने का कारण बताया। गड़बड़ी करनेवालों को फटकारा भी। लेकिन यह तो ठीक ही है कि सभा सदा के लिए भंग हो गई। अच्छा ही हुआ। उससे भलाई तो कुछ होती न थी। हाँ बुराई जरूर हो जाया करती। अब ईधर सुना है, दस वर्षों के बाद उसे फिर जिलाने का यत्न हो रहा है। नहीं जानता कि वह सफल होगा या नहीं। दस वर्षों तक तो मेरे डर से सभा का नाम लेने की किसी को हिम्मत होती न थी। लोग जानते थे कि यदि उन्होंने सभा की मैं जाकर उसमें विरोध करूँगा और उनकी एक न चलने दूँगा। इस प्रकार उसे फिर भंग कर दूँगा। मगर अब जब सबों को पता लग गया है कि मुझे उससे अब कोई वास्ता नहीं है और उसमें जाऊँगा ही नहीं। तब शायद हिम्मत बँधा रही है!
(5)
बिहार प्रांतीय किसान-सभा
मुंगेर की घटना के बाद सर गणेश के पिट्ठू लोग अखबारों में कुछ ऊलजलूल बातें लिखते रहे। उसका जवाब उन्हें दिया गया, सो भी मुँहतोड़। फिर तो वे लोग चुप्पी साधा गए। मुंगेर के बाद श्री कृष्ण सिंह को पटनामें लोगों की बातें, उन लोगों की जो कटु समालोचक और छिद्रान्वेषी थे, सुनने के बाद मैंने यह कहते खुद ही सुना या यों कहिए मेरे ही सामने उन्होंने कहा कि विरोधीलोगों ने भी स्वीकार कियाहैकि आप लोगों ने साफ सिद्धकर दिया कि आपका समाज पक्का राष्ट्रवादीहै, "They have proved that they are nationalists" लेकिन यदि मैं न रहता तो यकीन करना चाहिए कि ठीक उलटी बात कही जाती। क्योंकि वह कांड होता ही नहीं। फिर तो एक ही नतीजा निकाला जाता कि ये सभी जातिवादी हैं।
उसके बाद, जैसा कि लिख चुका हूँ, तौली चला गया। वहाँ से सितंबर में लौटा। ठीक उसी समय कौंसिल के मेंबर स्वराज्य पार्टी की तरफ से श्री रामदयालु सिंह, बाबू श्री कृष्ण सिंह, श्री बलदेव सहाय वगैरह थे। काश्तकारी कानून में सुधार करने के लिए उसी कौंसिल में एक बिल सरकार की तरफ से आनेवाला था। चारों ओर उसकी चर्चा थी। क्या किया जाना चाहिए यह सोचा जा रहा था। इतने ही में नवंबर का महीना आ गया। सन 1929 ई. के नवंबर का महीना बिहार प्रांतीय किसान-सभा के इतिहास में चिरस्मरणीय रहेगा। मैं अचानक किसी कार्यवश मुजफ्फरपुर गया हुआ था। पं. यमुनाकार्यी के मकान में जहाँ प्रेस भी था, ठहरा था। छत के ऊपरवाली कोठरी में था। वह मकान 'कल्याणी चौक' पर था। भूकंप में धवस्त हो गया। सवेरे का समय था। श्री रामदयालु बाबू आ गए और कार्यी जी के साथ मेरे स्थान पर पहुँच कर बातों के सिलसिले में शुरू किया कि बिहार प्रांतीय किसान-सभा की नींव दी जानी चाहिए। उन लोगों ने समझ लिया था कि बिना किसान-सभा के सरकार मानेगी नहीं, काश्तकारी कानून में खतरनाक तरमीम (संशोधन) करके किसानों का गला रेत देगी और हम लोग कुछ कर भी न सकेंगे। कारण, बहुमत कौंसिल में है नहीं। इसीलिए बिहार प्रांतीय किसान-सभा की बात सूझी।
मैंने कहा, ठीक है बनाइए। सभा तो बननी ही चाहिए। फिर सोचा गया कि उसके पदाधिकारी कौन हों। उन्हीं लोगों ने बाबू श्री कृष्ण सिंह को जेनरल सिक्रेटरी तथा पं. यमुनाकार्यी, श्री गुरु सहाय लाल, श्री कैलाशबिहारी लाल को डिवीजनल सेक्रेटरी चुना। इसीलिए कि यदि हर डिवीजन या कमिश्नरी के लिए एक-एक मंत्री रहें तो काम ठीक चले। इसके बाद सभापति कौन हो यह सवाल आया। मैंने कहा कि बाबू राजेंद्र प्रसाद को सभापति बना लीजिए। इस पर वे लोग कुछ देर चुप रहे। फिर रामदयालु बाबू ने कहा कि सभापति तो आपको ही बनना चाहिए। मैं ताज्जुब में आया कि मेरा नाम क्यों लेने लगे। मैंने सपने में भी यह सोचा न था कि प्रांतीय किसान-सभा बनेगी और मैं उसका अध्यक्ष बनूँगा। इसीलिए तैयार होने की बात सोची तक न थी। मैंने फौरन इन्कार किया कि मैं इसमें पड़ नहीं सकता। फिर तो कहा-सुनी चली। दोनों आदमियों का हठ होने लगा कि मेरे बिना सभा का काम ठीक नहीं चल सकता। वह जैसी चाहिए बन नहीं सकती।
लेकिन मेरा जैसा स्वभाव है धीरे-धीरे आगे बढ़ता हूँ। मैं उसी की जवाबदेही लेता हूँ जिसे अच्छी तरह सँभाल सकूँ। अभी तक तो एक जिले की भी किसान-सभा न चलाकर सिर्फ आधे पटनाकी ही पश्चिम पटना किसान-सभा चलाता रहा। फिर एकाएक प्रांत भर की जवाबदेही कैसे लेता? इसीलिए मैं बराबर नाहीं करता रहा। उधरवह लोग भी कहते ही रह गए कि आप ही को बनना होगा। बात तय न पाई। फिर सोचा गया कि सोनपुर का मेला इसी नवंबर में ही होनेवालाहै। इसलिए अभी से नोटिसें बाँटीजाए और तैयारी कीजाएकि मेले में ही इस सभा को बाकायदा जन्म दियाजाए। तदनुसार ही नोटिसें छपीं और बँटने लगीं। अखबारों में भी खबर निकली। तैयारी भी होने लगी। मेला भी आ गया। वहाँ हम लोग ठीक समय पर पहुँच भी गए।
खासा लंबा शामियाना खड़ा था। लोगों का जमावड़ा भी अच्छा था। एक तो सभा, दूसरे मेला। फिर जमावड़े में कमी क्यों हो? मैं ही उस मीटिंग का सभापति चुना गया। रामदयालु बाबू बहुत मुस्तैद थे। मेरा भी भाषण हुआ और बाकी लोगों का भी। बिहार प्रांत में किसान-सभा की जरूरत बताई गई। काश्तकारी कानून में किए जानेवाले खतरनाक संशोधनों का भी जिक्र किया गया। यदि किसान-सभा के द्वारा किसानों का संगठन न होगा तो काश्तकारी कानून बहुत ही खराब बन जाएगा। लोगों में काफी जोश था। नई चीज थी। सभी चाहते थे। कुछ लोगों ने सभा बनाने का विरोध भी किया औरों की तो याद नहीं। लेकिन श्री रामवृक्ष बेनीपुरी ने तो खासा विरोध किया। कांग्रेस के रहते किसान-सभा कायम करने की कोई जरूरत नहीं यह बात उन्होंने कही। उनका ख्याल था कि कांग्रेस ही सब कुछ कर सकती है। फिर किसान-सभा अलग क्यों बनें? कांग्रेस में तो अधिकांश किसान ही हैं। असल में वही तो किसान-सभा है। अलग किसान-सभा बनने से कांग्रेस कमजोर हो जाएगी। क्योंकि जो लोग किसान-सभा में काम करेंगे वह कांग्रेस का पूरा काम न कर सकेंगे। कांग्रेस के लिए आगे खतरा भी किसान-सभा से हो सकता है, यह भी कहा गया। उन दिनों श्री बेनीपुरी से मेरा कोई विशेष परिचय न था। विशेष परिचय तो हुआ तब जब वह सोशलिस्ट नेता बने और भूकंप के बाद सन 1934-35 में किसान-सभा के समर्थक हुए।
आखिर में राय ली गई और सभा स्थापित करने का फैसला हुआ। इसके बाद पदाधिकारी चुने गए। मैं बराबर ही अस्वीकार करता रहा। लेकिन मैं ही सभापति और पूर्वोक्त सज्जन मंत्री आदि चुने गए। सदस्यों में बाबू राजेंद्र प्रसाद से लेकर जितने प्रमुख कांग्रेसी थे सभी का नाम दिया गया। तय किया गया कि सभी लोगों से फौरन इसके बाद ही पूछकर स्वीकृति भी ले ली जाएगी। किया भी ऐसा ही गया। सबने स्वीकार किया। किसी ने भी इन्कार नहीं किया सिवाय बाबू ब्रजकिशोर प्रसाद के। उन्होंने कहला भेजा कि मेरा नाम हटा दिया जाए। सोनपुरवाली इस मीटिंग की पूरी कार्यवाही लिखी-लिखाई पड़ी है, जिसमें सभी के नाम है। इतना ही नहीं। उसके बाद की हर मीटिंगों की कार्यवाही लिपिबद्ध पड़ी हुई है।
एक दिलचस्प बात इसी संबंध में हुई। कुछ कांग्रेसी लोगों के नाम मेंबरों में न दिए जा सके और छूट गए। दृष्टांत के लिए बाबू मथुरा प्रसाद का नाम छूटा था। उन्होंने इसका उलाहना दिया। फिर तो बाबू बलदेव सहाय के डेरे पर जो मीटिंग शीघ्र ही हुई उसमें उनका नाम भी सदस्यों में जोड़ दिया गया।
आज तो मेरे और कार्यी जी के सिवाय उन लोगों में शायद ही कोई हैं जो इस बिहार प्रांतीय किसान-सभा के प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष विरोधी न हों। अब तो वे लोग इसे फूटी आँखों देख नहीं सकते, इसे बर्दाश्त नहीं कर सकते और जड़-मूल से मिटा देना चाहते हैं। मगर इसका इतिहास साफ कहताहैकि शुरू में वही लोग इसके आश्रयदाता औरकर्ता धर्ता थे। शुरू में ही क्यों? सन1934 ई. तक बराबर इस सभा के साथ रहे, इससे सहानुभूति रखते रहे और इसमें रहना चाहते थे। उन्होंने इसकी बड़ाई की,इसका समर्थन किया। लेकिन समय एक सा नहीं रहता। वह तो बदलता रहताहै। पाँच-छ: वर्षों तक जिस सभा का समर्थन किया उसका विरोध उन्हीं लोगों को करना होगा और उसके खिलाफ जेहाद करना होगा यह पता उस समय किसी को भी कहाँ था? जिन लोगों ने मुझे घसीट कर इसमें आगे किया, आज वही मेरी टाँग पकड़ के बेमुरव्वती से खींच रहे हैं। यह भी एक जमानाहैऔर वह भी एक समय था। पता नहीं मैं आगे गया, सभा आगे गई, या वही लोग पीछे चले गए? कौन बताएगा? शायद इतिहास लिखनेवाले बताएँ! समय तो बताएगा ही। लेकिन इसमें तो शक नहीं कि मैं और सभा दोनों ही आगे गए। हाँ, उन लोगों के हिसाब से हो सकताहै,हम बहुत आगे चले गए हों।
(6)
श्री बल्लभ भाई का दौरा
सोनपुर के बाद हमनेपटनामें कार्यकारिणी की मीटिंग की और कुछ लोगों के नाम और जोड़े। एक प्रस्ताव के द्वारा यह भी तय पाया कि राजनीतिक मामलों में किसान-सभा कांग्रेस के विरुद्धनजाएगी। इस प्रकार किसान-सभा कांग्रेस की समकक्ष स्वतंत्रराजनीतिक संस्था न बनजाएइस खतरे को रोकने या मिटा देने की कोशिश हुई।
लेकिन, हम संबंध में एक बहुत जरूरी बात कहनी है। सन 1929 ई. के दिसंबर में लाहौर में कांग्रेस का अधिवेशन होनेवाला था। उसके ठीक पहले और सोनपुर के बाद ही सरदार बल्लभ भाई पटेल का दौरा बिहार में हुआ। उनके लिए हर जिले में मीटिंगों का प्रबंध किया गया। ठीक उसी अवसर पर मैंने भी दौरा किया और उनके आने के पहले हर जगह किसानों को किसान-सभा का महत्त्व समझाया। यह भी जान लेना चाहिए कि उस समय के बल्लभ भाई आजवाले न थे। दोनों में जमीन-आसमान का अंतर है। उस बल्लभ भाई ने तो हाल में ही बारदौली में किसानों की लड़ाई जीती थी─उनके हकों के लिए सत्याग्रह संग्राम लड़कर उसमें विजय पाई थी। फलत: सब जगह किसानों की ही बातें बोलते थे। उन्होंने एक सभा में तो 'एक संन्यासी'कह के हमारी किसान-सभा का उल्लेख भी किया था और अगर मैं भूलता नहीं तो इस संन्यासी के काम का स्वागत किया था। लोगों को यह भी कहा था कि इसमें मदद करें। हालाँकि, आज तो इस संन्यासी को और इस किसान-सभा को वे सहन नहीं कर सकते।
उन्होंने सीतामढ़ी की सभा में साफ ही कहा था कि बिहार में या हमारे मुल्क में इन जमींदारों की क्या जरूरत है? ये लोग कौन-सा काम हमारे मुल्क के लिए करते हैं? सुना है, किसानों को बहुत सताते हैं और इनसे किसान बहुत डरते हैं। इनसे क्या डरना? ये तो बड़े कमजोर हैं। यदि हाथ से इनका सिर पकड़ के दबा दिया जाए तो भेजा बाहर निकल आए।
इतना ही नहीं। मुंगेर में बिहार प्रांतीय राजनीतिक सम्मेलन था। और किसान सम्मेलन भी। वे जब किसान सम्मेलन में शामिल हुए तो उन्होंने साफ कहा कि किसानों की जो माँगें वहाँ पेश की जा रही हैं वह राजनीतिक सम्मेलन में ही क्यों नहीं पेश की जाती हैं? और अगर जैसा कि बताया गया है, वहाँ ये पेश की जा सकती हैं नहीं, तो फिर राजनीतिक सम्मेलन की जरूरत ही क्या है। लेकिन वही बल्लभ भाई अब ऐसी भूल शायद ही करेंगे। कदाचित उस समय उन्हें इतना अनुभव न था जितना अब है! अनुभव ने शायद उन्हें गंभीर और दूरंदेश बना दिया है। वह बारदौलीवाली गर्मी भी तो थी। 'सरदार' भी तो हाल में ही उसी के करते बने थे। फिर इतनी जल्दी उसे भूल कैसे जाते? बंबई में, बिहार जैसी प्रत्यक्ष रूप में जमींदारी प्रथा न रहने के कारण वे इसे समझ भी नहीं सकते थे कि क्या बला है, भारत के तीन चौथाई से अधिक बाशिंदे तो किसान ही हैं और उनकी मदद से कांग्रेस को शक्तिशाली बनाना अभी बाकी ही था भी तो। खैर, चाहे जो भी हो। उनके दौरे से हमारी बिहार प्रांतीय किसान-सभा को काफी सहायता मिली। हमें प्रोत्साहन भी पूरा प्राप्त हुआ।
उसके बाद ही हम लोग लाहौर कांग्रेस में सम्मिलित होने के लिए गए। वहाँ जो जोश और उमंग देखने का मौका मिला वह अकथनीय है। खासकर पूर्ण स्वतंत्रता के प्रस्ताव के पास होने पर तो दुनियाँ ही पलट गई, ऐसा प्रतीत हुआ। मैं तो चुपचाप गौर से कांग्रेस की कार्यवाही को देखता रहा। अखिल भारतीय कांग्रेस कमिटी का मेंबर होते हुए भी कुछ बोला-चाला नहीं। मैं तो शुरू से ही प्राय: उस कमिटी का सदस्य और कांग्रेस का प्रतिनिधि बराबर ही रहा हूँ। मगर सन् 1934 ई. वाली बंबई की कांग्रेस के पहले कभी न बोला था।
1934 ई. में गाँधी जी कांग्रेस से हटने के पूर्व उसके विधान का जो आमूल परिवर्तन कर रहे थे, उसमें मुझे खतरा दीखा किसानों और गरीबों के लिए। इसीलिए पहले-पहल वहीं बोला और उसका विरोध किया। तब से यह बोलना और विरोध किसी-न-किसी रूप में बराबर जारी रहा है। मुझे इस बात की प्रसन्नता है कि कांग्रेस के विवाद में अगर मेरी दिलचस्पी शुरू हुई तो किसानों और शोषितों की बात को लेकर ही। यह संयोग की बात है कि कांग्रेस को विशेष रूप से जब पहले मैंने देखा और पहचाना तो किसानों या दलितों के विरोध के रूप में ही। फिर चाहे वह विरोध आंशिक ही क्यों न हो? लेकिन था बुनियादी। क्योंकि मैंने कांग्रेस की उस नई मेंबरी को ही ऐसा देखा, जिसे गाँधी जी नए सिरे से कांग्रेस में ला रहे थे। आज वह मेरा भय कितना सच्चा निकला!
लाहौर कांग्रेस से लौटते ही ता. 26-1-30 को पहले-पहल 'पूर्ण स्वतंत्रता दिवस' देश भर में मनाए जाने को था। इसलिए उससे पहले ही हमने किसान-सभा की मीटिंग की और उसमें दो जरूरी काम किए। एक तो एक प्रस्ताव के जरिए हमने कौंसिल में पेश नए काश्तकारी कानून के संशोधान बिल को अस्वीकार किया और उसका विरोध किया। सरकार से यह भी माँग की कि उसे वापस ले ले। दूसरा काम यह किया कि देश के वातावरण का खयाल करते हुए कुछ समय के लिए किसान-सभा का काम एक प्रस्ताव के जरिए स्थगित कर दिया। ताकि अबाध रूप से सभी लोग आजादी की आनेवाली लड़ाई में भाग ले सकें। किसान-सभा का काम चालू रहने से कुछ लोग तो उसमें फँस जाते ही। इस प्रकार शुरू में जो कुछ लोग यह सोचते थे कि किसान-सभा के करते कांग्रेस के काम में बाधा पहुँचेगी उनके डर को हमने व्यवहारत: निर्मूल सिध्द कर दिया।
असल बात तो यह थी कि बिहार प्रांतीय किसान-सभा को जो जन्म दिया गया उसमें यह खयाल ही था कि इसके द्वारा कांग्रेस काफी मजबूत हो। सभी लोग यही सोचते थे। अपना विचार तो मैं पहले ही कह चुका हूँ। लेकिन हमें तो इतने दिनों बाद मालूम हुआ है कि कांग्रेस को कैसा होना चाहिए, यदि वह किसान-सभा की सहायता बराबर चाहती है। पहले यह बात कौन समझ सकता था? कांग्रेस की प्रतिद्वंद्विता किसान-सभा न करे, यह प्रस्ताव पास होने की भी बात तो पहले ही कह चुका हूँ।
हमारी बैठक के बाद ही स्वराज्य पार्टी ने कौंसिल में जाकर उस काश्तकारी कानून के संशोधान का विरोध किया। फिर तो सरकार ने यह कह के उस बिल को लौटा लिया कि जब किसान-सभा और कांग्रेस दोनों ही उसके विरोधी हैं तो सरकार को क्या पड़ी है कि उसे पेश करे या पास करे इस प्रकार किसान-सभा के जन्म के साथ ही एक तो उसे पहली खासी सफलता यही मिली और वह बिल खत्म हुआ। दूसरे, सरकार ने किसान-सभा के अस्तित्व को मान लिया कि वह किसानों की ओर से बोलनेवाली संस्था है, सभा के इतिहास से यह सिध्द है कि उसने अपने इसर कर्तव्य को कितनी सुंदरता से पाला है। उससे यह भी सिध्द है कि पहले पहल टेनेन्सी बिल को खत्म करने के रूप में जो विजय इसे जन्म काल में मिली वह बार-बार मिलती रही। न जानें,कितने ऐसे बिलों को या तो इसने धवंस किया, या उनके जहर का अधिकांश खत्म किया।
इतना तो पक्का ही है कि लड़नेवाली संस्था के रूप में इसका जन्म हुआ और आज भी वह लड़नेवाली ही है। अंतर इतना ही है कि शुरू में हम लोगों ने जिस लड़ाई का सपने में भी खयाल न किया था वही लड़ाई आज इसकी अपनी हो गई है। इसीलिए इसके पुराने सूत्रधार प्राय: सभी के सभी आज इसके शत्रु हैं। लड़ाई के दौरान में जन्म लेने के कारण ही यह लड़ाकू सिध्द हुई है। यह भी खुशी की बात है कि किसी भी उद्योग में इसे अब तक विफलता नहीं मिली है। पूरी यह आंशिक सफलता बराबर मिलने से ही आज यह इतनी मजबूत भी है।
(7)
सन 1930 वाला स्वातंत्र्य - संग्राम
किसान-सभा का काम समेट कर भी स्वतंत्रता के संग्राम के लिए कमर बाँध के तैयार हो गया। बिहार प्रांतीय किसान-सभा के कायम होते ही पश्चिम पटना किसान-सभा की अलग जरूरत न रही। वहीधीरे-धीरेपटना जिला किसान-सभा बन गई। इसमें शक नहीं कि किसानों के लक्ष्य, किसान-सभा की सदस्यता आदि के बारे में जो कुछ उस सभा में पहले सोचा और तय किया था उससे प्रांतीय सभा के विधान आदि के बनाने में पर्याप्त सहायता प्राप्त हुई। लेकिन अब तो सरकार से मुठभेड़ की बात सोची जा रही थी। किसान-सभा की बात कौन सोचता?
न जाने जन्म से ही मेरा स्वभाव कुछ ऐसा क्यों हो रहा है कि संघर्षवाली जगहें मुझे सदा पसंद आई हैं। कांग्रेस में भी शुरू में खूब लगा रहा, जब तक वहाँ असली संघर्ष और गुत्थमगुत्थ था। मगर जैसे-जैसे वह भिड़ंत उससे जाती रही वैसे-वैसे मैं भी उससे कुछ उदासीन होता गया। यहाँ तक कि बीच के दो-एक अधिवेशनों में गया तक भी नहीं। लेकिन ज्यों ही 1930 में वह फिर जबर्दस्त संघर्ष की ओर बढ़ी, त्यों ही मैं सब काम छोड़ के, यहाँ तक कि सबसे प्यारी किसान-सभा और श्री सीतारामाश्रम को भी छोड़ के उसमें जुटने के लिए तैयार हो गया और बड़ी तेजी से चारों तरफ घूम के लोगों को तैयार करने लगा। मेरा कार्य क्षेत्र तो पटना जिला ही था। खासकर बिहटा के चारों ओर का इलाका। इधर यह भी घोषणा हो गई कि गाँधी जी अपने आश्रमवासियों के साथ डाँडी के लिए मार्च करेंगे और वहीं नमक का कानून तोड़ेंगे। उसी के बाद बाकी लोगों को सबसे पहले बिना लाइसेंस नमक बना-बना के उस कानून को तोड़ना होगा।
तब तक 26 जनवरी आ गई। बड़ी मुस्तैदी से सभाएँ करके और जुलूस आदि निकाल के'पूर्ण स्वतंत्रता दिवस' मनाया गया। पूर्ण स्वतंत्रता की प्रतिज्ञा की छपी लाखों प्रतियाँ बँटीं और एक लहर-सी उमड़ पड़ी। लेकिन मैंने एक अजीब ढिलाई देखी। अप्रैल आते-न-आते मुल्क की काया पलट हो गई और धरपकड़ जारी हुई। राष्ट्रीय सप्ताह में ही गाँधी जी डाँडी पहुँच के नमक कानून भंग करनेवाले थे। उसके बाद ही 9 से 13 अप्रैल तक सत्याग्रह की धूम मचनेवाली थी। मगर देखा कि पटना जिले के नामधारी लीडरान के कानों पर जूँ तक नहीं रेंगती है! बाबू जगतनारायण लाल जिला कांग्रेस कमिटी के सभापति थे। मगर उनका पता न था। चारों ओर मुर्दानगी छाई थी। वायुमंडल काटे लेता था। मैंने ऊबकर इधर-उधर से कहलवाया कि वे आगे आएँ। मगर कौन सुनता था। लोग अनेक प्रकार की बातें उनके बारे में कहते थे। लाचार, मैंने हारकर सोचा, चलो मुजफ्फरपुर या दरभंगा जिले में जहाँ झूम-झूम के सभी लोग मस्ती से काम में जुटे हैं। वहीं से जेल जाना ठीक है। यहाँ मुर्दानगी के बीच कौन मरे? एक दिन शाम के समय पटना पहुँच भी गया कि गंगा पार जाऊँ। लोगों को यह खबर लगी और दल बाँधा के मेरे पास रोकने आए कि न जाए। मैंने कहा कि एक ही शर्त पर रह सकता हूँ कि जगत बाबू आगे आएँ और मुझसे पहले जेल जाए! आखिर हारकर वे राजी हुए तब मैं रुका। फिर तो बिहटा के पास बड़ा गाँव (अमहरा) में ही नमक कानून तोड़ने की तैयारी में लग गया।
बहुत स्वयंसेवक आनेवाले थे। अत: उनके खाने और रहने का प्रबंध चाहिए था। सो तो गाँववालों ने ही आपस में बाँट लिया। रुपया-पैसा रखने के लिए एक'प्रबंधक समिति' भी बना दी। इधर-उधर से मैंने दौड़ धूप के काफी पैसे भी जमा कर लिए। अमहरा पुराना गाँव माना जाता है। रईसी के लिए प्रसिध्द भी था। हालाँकि, अब तो वह हालत नहीं। ऐसी दशा में वहीं के कुछ लोगों ने कहा कि ''स्वामी जी, आप का साथ अमहरा न दे के धोखा देगा।'' खानदानी कहे जानेवाले गाँव सरकार से डरते हैं। इसीलिए उनका भय ठीक ही था। मगर मेरे मुँह से निकल पड़ा कि मेरा विश्वास है कि मुझे अमहरा हर्गिज धोखा न देगा। आखिर, गत दस वर्षों के और उस समय के भी अनुभव ने बताया कि अमहरा ने बराबर साथ दिया और जम के दिया। सत्याग्रह के जमाने में तो उसने कमाल किया। लोग जेल गए सो तो गए ही। तबाह किए गए। यहाँ तक कि मिस्टर डॉनी (Danluey) नाम के असिस्टेंट सुपरिंटेंडेंट पुलिस ने बाबू रामजी सिंह के घर के खपड़े उजड़वा दिए। क्योंकि उन्हीं का दरवाजा इस संघर्ष का केंद्र था। मगर फिर भी अमहरा डटा रहा। पीछे जेल से लौटकर मैंने उन सज्जन से कहा कि मेरी बात सच निकली या आपकी?वे हार गए।
आखिर राष्ट्रीय सप्ताह में ही वहीं बाग में बाबू जगत नारायण लाल ने नमक कानून तोड़ा और जेल गए। इसके बाद मैंने तय कर लिया कि अब मुझे भी जाना चाहिए। जहाँ तक याद है, वह तो 13 अप्रैल को पकड़े गए। उसके फौरन बाद ही मैंने भी तैयारी कर ली। लेकिन मैंने अमहरा के बजाए विक्रम के आश्रम में ही जो वहाँ से 6 मील दक्षिण कांग्रेस की जगह है, नमक बनाने की तैयारी और घोषणा कर दी। तारीख भी नियत हो गई और समय भी। मैंने खारा जल एक हँड़िया में आग पर चढ़ाकर पकाना शुरू किया। मेरे साथ और भी कार्यकर्ता थे। पुलिस का ए.एस.पी. सदल-बल हाजिर हो गया। इधर पहले से ही तय था कि नमक छीनने न दिया जाएगा। ऐसी ही गाँधी जी की आज्ञा थी। जब पुलिस ने मुझसे अंग्रेजी में सवाल किया तो मैंने कहा कि हिंदी बोलिए तभी उत्तर दूँगा। फिर हिंदी में उसने पूछा कि नमक क्यों बनाते हैं? आदि-आदि। मैंने उचित उत्तर दिया। फिर हँड़िया छीनने की कोशिश उसने की। मैंने रोका। मुझे धीरे से पुलिस ने अलग कर लिया। फिर तो अमहरा के श्री रामचंद्र शर्मा के साथ औरों ने हँड़िया पकड़ ली और पुलिस के साथ गुत्थमगुत्थी में भी न छोड़ी। फलत: रामचंद्र जी के हाथ में चोट आ गई। अंत में हँड़िया टूट-फूट गई। वही टुकड़े उठाकर मेरे साथ पुलिस ले ही गई। मुझे पुलिस दल के साथ बस में बैठा के वहाँ से मनेर थाने में ले जाया जाकर वहीं रख दिया गया। शाम हो गई थी। रात में वहीं रहा।
अगले दिन वहाँ से श्री आर. जगमोहन, एस. डी. ओ., दानापुर के सामने मैं एकाएक पेश किया गया और जब तक कोई पहुँचे-न-पहुँचे तभी तक छ: महीने की सख्त सजा देकर बाँकीपुर जेल में भेज दिया गया। जहाँ तक मुझे याद हैएस.डी.ओ. के डेरे पर ही मेरा केस हुआ। उसी समय मैंने देखा कि कसम खा के पुलिस के अफसर कैसी झूठी गवाही देते थे! ताकि कानूनी रस्म पूरा हो। हालाँकि, न तो मुझे केस लड़ना था और न उस अदालत को ही मैं न्याय की जगह समझता था। मैंने तो साफ-साफ नमक बनाना स्वीकार कर लिया। फिर भी ये झूठी गवाहियाँ, सो भी बाइबिल की कसम खा के, एक अंग्रेज को देते देख मुझे हँसी आई और दया भी। देखा कि सरकारी नौकरों की कितनी दयनीय दशा है। उनसे, जैसा चाहा कहवाया गया। सरकार डरती भी इतनी थी कि चुपके से केस कराया, जो कानूनन जाएज न था, अगर हम इतराज करते। एक तरफ तो सारा काम चुपके-चुपके कानून की अवहेलना, करके किया गया और दूसरी ओर झूठी गवाही दिलाई गई। बात तो ठीक ही थी। मगर कई बातें इधर-उधर से जोड़नी पड़ीं। इसीलिए सच-झूठ की खिचड़ी बनी।
(8)
फिर जेल में ─ बाँकीपुर
जब मैं बाँकीपुर जेल में पहुँचा तो दो-एक साथी वहाँ पहले से ही थे। जहाँ तक मुझे याद है, वहाँ महीनों रहना पड़ा। मजिस्ट्रेट ने शायद फैसले में मेरे लिए कोई श्रेणी न लिखी थी और गवर्नमेंट को ही फैसला करना था। ठीक नहीं याद है। लेकिन देर होने से यही कहना उचित होगा कि सरकार को ही फैसला करना था। गर्मी के दिन और पुराने मच्छरों की सेवा इन दो बातों के खयाल के साथ शाम को ही बैरक में बंद हो जाने की मिलान करने पर कैदियों के कष्टों का कुछ आभास मिल सकता है। मैं और हमारे साथी तो मसहरी लगाने के आदी थे। इधर गर्मी की हालत यह कि शाम को ही ज्यादा होती है। जैसे-जैसे रात बीतती जाती है वह कम होने लगती है। लेकिन अप्रैल का अंत और मई ये काफी गर्म होते हैं। उधर मच्छरों का ज्यादा जोर भी शाम को ही होता है। ज्यादा रात बीतने पर उसका हमलाधीमा पड़ जाता है। फिर सुबह होने के पहले कुछ जोर लगाते हैं। उनकी ज्यादा हनहनाहट शाम को और प्रकाश के पहले सवेरे रहती है।
पटने के मच्छर भी पुराने मुछंदर हैं। ये जाड़े में भी मरते नहीं। इसलिए अपने काम में काफी अनुभव रखते हैं। जब कि और जगहों में जाड़े में नाममात्र को ही या बिलकुल ही मच्छर रह नहीं जाते। तभी पटने में सबसे ज्यादा होते हैं! और जब बरसात में अन्यत्र उनकी महती सेना अजेय बन के खड़ी हो जाती है, तो पटने में ये सबसे कम पाए जाते हैं। गर्मियों में जाड़े की अपेक्षा पटने में कम रहते हैं और बाकी दुनिया में जाड़े से ज्यादा। बरसात से कम गर्मियों में पाए जाते हैं। लोगों को यह जानकर आश्चर्य होगा कि क्या इस बात में सचमुच पटना 'तीन लोक से मथुरा न्यारी' को चरितार्थ करता है? लेकिन बात सही है। सभी का यह अनुभव है। बिहार के गया, मुजफ्फरपुर आदि प्रमुख शहरों की भी प्राय: यही दशा है। मगर पटने की तो ठीक ही यही है। इसका कारण भी है।
म्युनिसिपलिटी का प्रबंध ऐसा रद्दी है कि गंदे पानी की नालियाँ खुली हुई रहती हैं। उनमें बराबर पानी रहने से वहीं मच्छर पैदा होते हैं। इन नालियों को भीतर जमीन में बंद रखने का कोई प्रबंध अब तक भी नहीं हो सका है। हालाँकि, पटना बिहार की राजधानी है। गया आदि भी की यही दशा है। ये नालियाँ जाड़े में ज्यादा गंदा पानी रखती हैं। इसीलिए सबसे ज्यादा मच्छर जाड़े में पाए जाते हैं। गर्मियों में धूप के कारण प्राय: छोटी नालियाँ सूख जाती हैं और बड़ी नालियों में भी कम गंदीगी रह पाती है। इसी से मच्छरों की सेना कम हो जाती है। लेकिन वर्षा में तो पानी पड़ने से बराबर ही नालियाँ यों ही धुलती रहती हैं और गंदा पानी रख पाती हैं नहीं। इसीलिए सबसे कम मच्छर उसी समय रह जाते हैं।
हाँ, बैरक में बंद हो जाने पर नींद कैसे आए और मच्छरों से पिंड कैसे छूटे, यह भारी समस्या आ खड़ी हुई। मसहरी तो मिल नहीं सकती थी, जैसी कि अब मिल रही है। गर्मी का तो कोई उपाय और भी न था। पंखा भी मिले तो रात भर चलाता कौन रहे? फिर तो नींद ही हराम हो जाए। पंखे मिलें भी कैसे? सरकार का कानून भी तो कुछ निराला ही था।
कहते हैं कि जरूरत ही सब चीजें पैदा करती हैं। हमें भी नींद की जरूरत थी। नहीं तो मर ही जाते। यह भी ठीक ही है कि नींद और मौत समान ही हैं, जहाँ तक तकलीफों के महसूस करने का सवाल है। और अगर इन्सान खूब थका-माँदा और पस्त हो तो नींद बिना बुलाए ही आती है। इसीलिए मैं बैरक के भीतर ही घंटों टहलता रहता। इससे व्यायाम भी होता और कुछ समय भी कट जाता था। थकावट तो होई जाती थी। फिर तो गहरी नींद आ जाती और न मच्छर ही मालूम पड़ते, न गर्मी। इसी प्रकार हमने उस भारी समस्या को सुलझा ही तो लिया।
बाहर जाना तो जेल में यों ही मना है सिवाय काम के लिए जाने के। अपने ही बैरक में या उसके हाते में रहो। तिस पर तुर्रा यह कि हम तो ठहरे राजनीतिक बंदी। इसलिए हमारे लिए तो और भी मनाही थी कि किसी से मिल न सकें। बैरक में ही चरखा चलाने का काम करते थे।
जेल में जाते ही मेरे साथ एक और समस्या खड़ी हुई। वह थी खान-पान की। पहली बार तो उसमें सख्ती रही। अपने ही हाथ से पानी भर के कुएँ से लाता था। खाना-पीना पूर्ववत चलता था। उसमें छूतछात चलती ही थी। वह निभ भी गई। अब यह दूसरा मौका यू.पी. के बजाए बिहार में पड़ा, जहाँ क्षमा हो, खान-पान में हजार चौका-चूल्हा रखने पर भी बड़ी गंदगी रहती है। सनातनी लोग छूतछात का ढोंग तो बहुत करते हैं। मगर लोहे की बालटी जो शुरू में आई तो टूट जाने तक मिट्टी से कभी मली नहीं जाती! कुएँ पर पड़ा या लटका हुआ डोल या कुंडी तो गंगा की धारा ही होती है! उसमें तो सभी जाति और धर्म के लोग पानी पीते हैं! यहाँ तक कि हाथ से निकाल-निकाल के पीते हैं! मैंने दरभंगा और दूसरी जगहों की संस्कृत पाठशालाओं तक में यही देखा है। हालाँकि, वहाँ कुलीनता की नाक काटनेवाले ब्राह्मण पंडितों के जत्थे रहते हैं। फिर भी छुआछूत का पाखंड बहुत रहता है। विपरीत इसके, ज्यों-ज्यों पश्चिम में जाइए त्यों-त्यों यह ढोंग और चौके की लीपा-पोती कम होती जाती है। मेरठ वगैरह में तो प्राय: खत्म ही है। मगर जगह कपड़े और बर्तनों की सफाई वहाँ खूब रहती है। बिहार के भनसिया (रसोइया) का कपड़ा जितना ही गंदा होता है, पश्चिमवाले का उतना ही साफ। जगह भी साफ रखते हैं, बर्तन की तो एक दास्तान ही सुनाए देता हूँ।
बिहार के एक साथी के साथ मैं मुजफ्फर नगर जा रहा था। मेरठ में गाड़ी से उतर के पास की धर्मशाले में गया। कुएँ पर डोल पड़ा था। बगल में साफ मिट्टी भी थी। जोई आता था वह मिट्टी डोल में लगाता, उसे पानी से धोता और पानी निकाल के पीता। फिर चला जाता। घंटों यह बात मैं देखता रहा। साथी को भी दिखाया। डोल भी ताँबे का था। जो चमचमाता था। फिर भी कुएँ पर पड़ा रहने के कारण जो ही आता उसे पानी पीने के पूर्व धो लेना जरूरी समझता। यों भी ज्यादातर पक्की कलईवाले बर्तन ही वे लोग काम में लाते हैं। वे देखने में साफ मालूम होते हैं। यहाँ तो लोटा, थाली वगैरह देखते ही तबीयत बिगड़ जाती है। मालूम पड़ता है कभी धोए जाते ही नहीं। कभी राख या मिट्टी से मले ही नहीं जाते। गंदे धातु के बर्तन तो जहरीले होते हैं। हाँ,यह ठीक है कि धीरे-धीरे धोने-धाने का यह रिवाज भी उठता जा रहा है।
मैंने असहयोग के जमाने में छूतछात की यह सख्ती तो की थी और उसे निभाया भी था। मगर कई कटु अनुभव मुझे हुए। एक तो मैंने देखा कि मेरी देखादेखी और लोगों ने दूसरी बातों के लिए जेल में अड़ंगे डाले और नाहक जेलवालों को बारबार तंग किया। अड़ंगे तो दो-एक बार मुझे भी डालने पड़े। मगर सिर्फ खान-पान की सफाई और छूतछात के ही लिए। जेलवालों ने इसे समझ कर माना भी। मगर दूसरे लोगों ने इस बात को उन्हें दिक करके के मानी में लिया और तरह-तरह से दिक किया। गोया,मैंने उनके लिए एक प्रकार से रास्ता साफ कर दिया! यह बात मुझे खटकी। यह भी देखा कि जब जेल में लोग यों ही सैकड़ों तरह के अड़ंगे खड़े कर रहे हैं तो मैं भी उसी श्रेणी में खामख्वाह गिना जाऊँगा। क्योंकि दुनिया उस छुआछूत को तो समझ सकती नहीं। साथ ही, जेलवालों को मेरे चलते कभी-कभी बड़ी दिक्कतें उठानी पड़ीं। क्योंकि कुएँ का पानी मिलना सर्वत्र आसान न था। जेल में कुएँ रहें और वे खुले हों तो साधारण कैदी उनमें गिर के मर जाए। इसलिए जेलवालों को इसका खयाल करके ही सब प्रबन्ध करना पड़ता है। और फिर मेरे जैसे वहाँ जाते ही कौन हैं?
इसलिए मैंने सोचा कि कोई रास्ता आपध्दर्म का निकालकर इस बला से बचना चाहिए। मैंने पहले बृहदारण्यकोपनिषद में एक आख्यान पढ़ा था कि लगातार सख्त ओले पड़ने से एक बार कुरु देश में बारह वर्ष के लिए अकाल पड़ गया। दाने बिना लोग मरने लगे। मर-मिटे। वहाँ'रैक्व' नाम के एक ऋषि अच्छे विद्वान थे। वे कई दिनों के भूखे थे। इसी बीच कहीं किसी को वैदिक योग कराने का मौका आया। फलत:, दूर से दूत आया उन्हें लेने। मगर भूखों चलना असंभव था और उन दिनों सवारी कहाँ?अगर हो भी तो ऋषि लोगों को उससे क्या काम? उन्होंने सोचा, कहीं से कुछ खाना ढूँढ़ लाऊँ और खाकर देह में बल लाऊँ। तब चलूँ। मगर खाना मिलता कहाँ? बड़ी मुश्किल से हाथीवानों के गाँव में गए और एक से कहा कि खाने की कोई चीज दो। उसने उत्तर दिया कि मेरे पास इस समय कुछ है नहीं। यही उड़द थी जो हाथी के सामने पड़ी है और वह खा रहा है। उन्होंने उस जूठी उड़द में से ही माँगा। हाथीवान ने दे दी। उसके बाद जब वह अपने घड़े से पीने का पानी देने लगा तो ऋषि ने कहा कि तुम्हारे घड़े के जल को पीने से मेरा ब्राह्मणधर्म चला जाएगा! इस पर उसने पूछा कि इसी घड़े के जल में भिंगी हुई जूठी उड़द के खाने से तो धर्म नहीं गया। मगर यही पानी पीने से चला जाएगा? ऋषि ने उत्तर दिया कि हाँ, चला जाएगा। प्राण की रक्षा करनी है और खाना तो और कहीं कुछ मिला नहीं। इसलिए उड़द ले ली। मगर पानी तो बहुत मिलता है। तब यदि तुम्हारा पानी लूँगा तो जरूर धर्म नष्ट हो जाएगा। यह कह के चलते बने। मनु आदि ने भी कहा कि 'प्राणस्यान्नमिंदं सर्वम'। जरूरत पड़ने पर प्राणरक्षार्थ सभी चीजें खाई जा सकती हैं। उन्होंने विश्वामित्रा आदि अनेक ऋषियों के अभक्ष्यभक्षण का उल्लेख भी किया है जो उन लोगों ने आपत्काल में किया था।
बस, इन्हीं सबों के आधार पर मैंने जेल आने से पूर्व ही तय कर लिया था कि इस बार जेल के भीतर वैसी छुआछूत नहीं रखूँगा। वहीं की बनी रसोई खा लूँगा और कल का जल पी लूँगा। हाँ, स्वयं जितनी सफाई कर सकता हूँ उतनी फिर भी करूँगा। मगर जेल में गड़बड़ी का मौका न दूँगा। फलत:, बाँकीपुर जेल से ही मैंने वैसा ही खाना-पीना शुरू कर दिया। हाँ, यह ठीक है कि पानी लाकर अलग सुराही में रखता था और साथियों को कह दिया था कि आप लोग अलग सुराही रख लें। जूठे या गंदे हाथों से कृपया मेरी सुराही न छुएँ। इस प्रकार वह संकट तो टला। नहीं तो अनशन करना ही पड़ता जैसा पहली बार यू.पी. में करना पड़ा था। तब कहीं मेरा प्रबंध हो सका था।
मैंने यह भी तय कर लिया था कि जेल में भरसक कभी अनशन नहीं करना चाहिए। एक तो बनारस के अनशन का कटुतम अनुभव था। दूसरे बात-बात में लोग अनशन करते रहते थे और इस प्रकार उसके महत्त्व को खत्म कर दिया था। मैंने सोचा कि इस बार न तो स्वयं यह काम करूँगा और न औरों को ही मौका दूँगा। मगर खानपान के नियमों की सख्ती रखने से तो खामख्वाह करना ही पड़ता। इसलिए 'रहे बाँस न बाजे बाँसुरी' हो गई।
(9)
हजारीबाग सेंट्रल-जेल
प्राय: एक महीने के बाद एक दिन हुक्म आया कि 'ए' और 'बी' डिवीजनवालों को हजारीबाग जाना होगा। हम दो-चार साथी रेल से रवाना हो गए। वह हजारी बाग रोड स्टेशन पर सवेरे पहुँच गई। हम लोग पुलिस के साथ वहीं उतरे। मेरे साथ जगत बाबू भी थे। हमें न तो हथकड़ी-बेड़ी लगाई गई और न कमर में हमारे रस्सी ही बाँधी, जेल से लेकर यहाँ तक, या हजारीबाग जेल तक। मगर थोड़ी देर में भागलपुर से श्री रामेश्वनारायण अग्रवाल उतरे, तो देखा कि उनकी कमर में रस्सा बँधा हुआ है! ताज्जुब हुआ। एक ही सरकार और यह विचित्रता! वही कानून, वही पुलिस और उसी प्रकार के हम सभी राजबंदी! फिर यह विषमता हम समझ न सके। मगर सरकार को समझना आसान नहीं। यही समझ के संतोष किया। खैर, अग्रवालजी से दंड-प्रणाम हुआ। सबने वहीं स्नानादि किया।
वहीं पर मैंने बाबू जगतनारायण लाल की विचित्र पूजा देखी। घंटों सिर झुमाना और रम,रम,रम, रम, (राम, राम, राम,राम) करना सो भी निराले ढंग से,मेरी समझ में न आया। हालाँकि,मेरा जीवन पूजा में ही बीता है। उन्होंने कहा कि भगवान को रिझाता हूँ। मैंने रिझाने का यह तरीका अनोखा पाया,जो तमाम शास्त्र,वेदों और पुराणों में कहीं नहीं मिला था। सबसे आश्चर्य की बात तो यह थी कि वह प्रत्यक्ष ही कोई झूठी बात बोलते या खराब काम करते थे। फिर यह कह के संतोष कर लेते थे कि मैं अपने भगवान को रिझाकर क्षमा करवा लूँगा। ऐसा मौका उसके बाद कई बार जेल में लगा था। मैं तो ऐसे भगवान को भी समझ न पाया। मेरे लिए वह भगवान, उनके रिझाने के लिए वह पूजा और वह पुजारी तीनों ही पहेली ही रहे और आज तक भी हैं।
हाँ, तो स्टेशन से हम हजारीबाग सेंट्रल जेल में पहुँचे। ऑफिस में ही हमारी सब चीजें रख ली गईं। मैंने अपना'दंड'पहली बार और इस बार भी साथ ही रखा था। इसलिए जेल में भी वह रहा। वह ऑफिस के एक कमरे में पहले ही की तरह टँगा था। कपड़े तो जेल के ही मिले। केवल मेरे दो लँगोटे मेरे साथ रहने पाए। अब तो नियम बदल गए हैं। मगर पहले कुछ वैसी ही बातें थीं। सिर्फ 'ए' डिवीजनवाले ही अपने कपड़े रख सकते थे। कुर्सी,मेज, गद्दें, खाट आदि तब नहीं मिलते थे। मामूली कैदियों जैसे ही सामान रहते थे। पीछे,जहाँ तक खयाल है,बदले। मगर मैं तो बराबर वही कपड़े रखता था और वही सामान। इसका कारण बताऊँगा। जेल के ऑफिस से मैं स्पेशल सेलों के दो नंबर के वार्ड में लाया गया। वहीं एक सेल में डेरा डाला। कुछ परिचित लोग पहले ही से थे। उनसे भेंट और बातें भी हुईं।
मगर पहुँचते न पहुँचते मुझे वहाँ बदली हुई दुनियाँ मालूम पड़ी। मालूम पड़ता था मैं एक निराले संसार में पड़ गया हूँ। पहले ही बता चुका हूँ कि सन 1922 ई. में जेल में मुझे कटु अनुभव हुए और सोचा कि गाँधी जी की बात तो चलती नहीं। लोगों पर उनका असर है नहीं आदि-आदि। मगर सोचता था कि गत दो वर्षों में लोगों ने उन सिध्दांतों को हृदयंगम किया होगा और बहुत कुछ उस मामले में आगे बढ़े होंगे। गाँधी जी तो अपने को बड़ा ही सख्त और बेमुरव्वत बताते हैं, जहाँ तक वसूलों की बात है। वह स्वराज्य को छोड़ दे सकते हैं। मगर अपने सिध्दांत छोड़ नहीं सकते। ऐसी हालत में लड़ाई शुरू करने के पहले उन्होंने जरूर ही देख लिया होगा कि पहले की खामियाँ अब नहीं हैं, या नाममात्र को ही हैं। तभी तो लड़ाई छेड़ी होगी। वे तो इस बात का दावा करते हैं कि उनका जीवन ही अनुभव का है और वे सभी बातें बखूबी समझते हैं,चाहे हम लोग भले ही छिपाएँ।
ऐसी दशा में स्वभावत: मुझे आशा थी कि लोग नियमों की पाबंदी और सत्य आदि के मामले में बहुत कुछ उन्नति कर गए होंगे। मगर यहाँ तो उल्टा ही पाया और देखा कि दस साल के भीतर लोग ठीक उलटे चले हैं। फलत: जहाँ सन 1922 में थे वहाँ से बहुत पीछे हट गए हैं। मेरे लिए यह बड़ा ही दर्दनाक दृश्य था। उस समय मेरे दिल की क्या दशा थी यह कौन समझ सकता था? मेरे जैसा आदमी जो अनुभवों के सहारे आगे बढ़ता आया हो और जिसे गाँधीवाद में अटूट श्रध्दा हो कैसे इस पतन के लिए तैयार हो सकता था? इस भीषण दृश्य को बर्दाश्त कैसे कर सकता था? आखिर, मैं तो धर्म दृष्टि से ही राजनीति में कूदा था। मगर यहाँ तो ऐसी गंदगी पाई कि हैरान हो गया। मुझे मालूम पड़ा कि मैंधोखे में पड़ गया।
बात यह है कि मुझे सन 1922 ई. के अंत तक होनेवाले अनुभवों के आधार पर यह खयाल हो आया था कि एकाएक गाँधी जी ने तथा परिस्थितियों ने भी कस के धक्का मारा और सारा मुल्क बहुत आगे बढ़ गया। लीडर भी और जनता भी दोनों ही बहुत आगे चले गए। उसके बाद लीडर लोग तो धीरे-धीरे पीछे खिसकने लगे मगर जनता जहीं की तहीं रह गई। प्रत्युत वह धीरे-धीरे आगे ही जा रही है।
यह जान लेना चाहिए कि जनता जितनी दूर बढ़ी थी उससे कहीं आगे कई अर्थों में लीडर लोग चले गए थे। जनता में राजनीतिक चेतना और प्रगति बहुत हुई थी। मगर सत्य और अहिंसा आदि को उसने उतना कभी नहीं समझा था। वह समझती भी नहीं। उसका ऐसा स्वभाव ही नहीं कि इन गहरी बातों में माथापच्ची करे। उसका उसे मौका ही नहीं। भौतिक और आर्थिक मामलों को वह खूब समझती है। मगर दार्शनिक रहस्यों को वह क्या जानने गई ? उन्हें वह बेकार से समझती है। इनसे उसकी रोटी तो हल होती है नहीं। वह तो यह भी मानती है न , कि धर्म के ये सभी मामले उसकी पहुँच के बाहर हैं ? इसीलिए यह भी मानती है कि बड़े लोगों को खिला-पिलादेने , पैसे दान करने , और उनकी आज्ञा से थोड़ा कष्ट भोग लेने से ही उसका काम चल जाएगा ─ उसका कल्याण हो जाएगा। क्योंकि बड़े लोग ये बातें जानते ही हैं और उन्हीं के पुण्य प्रताप में से कुछ मिल ही जाएगा , उन्हें इस तरह मानने से। मगर बड़े लोग,नेता लोग,कार्यकर्तालोग─सारांश, चुने लोग─तो शौक से और चाह के साथ सत्य,अहिंसा आदि में पड़ते हैं। उन्हें जनता को ले चलना जो है। इसीलिए वह इस मामले में जनता से आगे बढ़ जाते हैं। कम-से-कम ऐसे प्रतीत होते हैं।
लेकिन वह बढ़े थे अपने बल से नहीं,दूसरे के बल से परिस्थितियों के दबाव से। फलत: जब तक वह दबाव था वे अपनी जगह पर रहे। मगर दबाव कम होते ही निराधार वस्तु की तरह गिरने लगे। कमजोरियाँ थोड़ी देर दबी रहीं। मगर अब मौका पाकर उन्होंने नेताओं को दबाना शुरू किया। इसीलिए मैंने कहा है कि वह गिरने लगे। उनकी अहिंसा और उनके सत्य का पर्दाफाश होने लगा! उनकी कलई खुलने लगी। मगर जनता का क्या? उसकी कलई क्या खुले? अगर कोई हो तब न? इसीलिए वह पीछे हटना नहीं जानती। किंतु धीरे-धीरे आगे ही बढ़ती है। मगर नेता पीछे हटने लगते हैं। जनता यदि धीरे-धीरे न बढ़े तो उसमें मजबूती न आवे और उसकी मजबूती से तो काम चलता है। लीडर तो आते जाते हैं। एक नहीं तो दूसरा लीडर होगा।
गिरने का मौका जेल में सबसे ज्यादा होता है। यानी असलियत यहीं आसानी से खुलती है। जेल में कुछी लोग ऊपर जाते हैं। कुछी अपनी जगह पर रह जाते हैं। मगर ज्यादा लोग नीचे चले जाते हैं। यह पक्की बात है। अब तक यही हुआ है। आगे की राम जानें। गाँधी जी कब इस बात को समझेंगे पता नहीं? कभी भी समझ सकेंगे या नहीं यह भी कौन बताए?
दूसरी बार जेल में आते ही जो नजारा देखा उससे मेरी पुरानी आशाओं पर पानी फिर गया और मेरा जो पुराना खयाल था जिसे अभी बताया है वह पक्का हो गया। मैंने मान लिया कि यह नाव तो डूबने वाली है। गाँधी जी का सत्य और उनकी अहिंसा,ये चीजें हर्गिज चलने की नहीं। जरा-जरा सी बातों के लिए लोग क्या-क्या न कर डालते थे? जरा सी सुविधा के लिए आकाश-पाताल एक कर डालते थे। पावरोटी, मक्खन और अंडे के लिए अनेक फरेब रचे जाते थे, अनेक बहानेबाजी होती थी। कोई किसी की सुनता न था। सब अपने-अपने मालिक। गाँधी जी के बताए नियम, कायदे तो कतई भूली गए थे। मानों, उन्हें कभी किसी ने सुना या जाना ही न हो! उनकी परवाह तो सचमुच किसी को भी न थी। चाहे गाँधी जी भले ही समझते थे कि साबरमती आश्रम के कुछी लोगों ने, या उनके एकाध परिचित ने ही किताबें पढ़ने के लिए जेल का काम करना बंद कर दिया और नियम तोड़ा! जैसा कि सत्याग्रह स्थगित करने के कारणों में उन्होंने सन 1934 ई. में बताया था। उन्हें क्या पता था कि पद-पद पर सभी नियमों की धाज्जियाँ बेरमुरव्वत से जानबूझकर उड़ाई जाती थीं। इसके अपवाद शायद हो दो-चार हों। जबर्दस्ती किसी की शिखा काट लेना और जनेऊ (यज्ञोपवीत) तोड़ देना तो मामूली बात थी। जिसके हाथ में गीता देखी, बस, लोग उसी के पीछे पड़ गए और उसके नाकों दम कर छोड़ा। अजीब हालत थी। मैंने देखा कि बाबू राजेंद्र प्रसाद परेशान और लाचार थे। उनकी कोई सुनता ही न था। फिर दूसरे की कौन गिनती?
मेरे सामने तो वहाँ जाते ही एक और प्रश्न आया। मैंने सन 1922 ई. में ही विशेष प्रकार का खाना वगैरह इनकार कर दिया था। उसके कारण भी बताई चुका हूँ। हजारीबाग आने पर मैंने फिर इनकार किया। और मामूली खाना वगैरह ही लेना शुरू किया। इस पर बड़ा तोबातिल्ला मचा। लोगों ने इधर-उधर से बहुत कुछ समझाना चाहा। मगर किसी की न चली। फिर तो सभी चुप रहे।
खैर, यह तो एक बात थी। मगर जब मैंने पीछे यह जाना कि बहुतों को यह मेरी बात बुरी तरह खटकती थी। इसमें वे अपनी अप्रतिष्ठा देखते थे। वह समझते थे कि इससे उनका प्रभाव साधारण कार्यकर्ताओं में कम हो जाएगा और इस एक आदमी का बढ़ेगा। और भी जाने क्या-क्या सोचते थे। फलत: अप्रत्यक्ष रूप से न जानें उनने कितने उपाय किए कि मैं भी उन्हीं जैसा खान-पान स्वीकार करके पथभ्रष्ट हो जाऊँ। लेकिन वे लोग अंत तक सफल न हुए। तब झूठी बातें फैला के मुझे बदनाम करना चाहा। मुझे इस नीचता का पता लगा तब तो अपार वेदना हुई और सोचा कि कहाँ चला जाऊँ। पर बेबस था।
परिणाम यह हुआ कि मैं अपने सेल से बाहर निकलता ही न था। केवल पाखाने और स्नान के समय को छोड़, शेष समय उसी के भीतर ही पड़ा रहता था। ऐसी तकलीफ थी और बाहर का दृश्य इतना असहनीय था कि बाहर निकलने की हिम्मत ही न होती थी। भीतर ही बैठा सूत कातता और पढ़ने-लिखने का काम करता रहता था। एकाध जवानों को कुछ पढ़ाता भी था। सूत तो मैंने काफी काता और बाहर जाने के समय पैसे देकर जेल से उसे खरीद लिया भी। चालीस नंबर (काउंट) का सूत काता था। उसका बारह गज कपड़ा चौवालीस इंच अरजवाला तैयार कराया। छ: आने गज बुनाई देनी पड़ी।
मेरी मानसिक वेदना कभी-कभी इतनी बढ़ जाती कि माफी माँग कर बाहर चले जाने की बात सोचने लग जाता। माफी केवल इसलिए, कि मुझे देशद्रोही समझ फिर ये लोग न मेरे पास कांग्रेस के संबंध में आएँगे और न फिर मैं कभी आगे इस नरक यातना में पड़ूँगा। यों तो खामख्वाह आएगे और घसीटकर फिर मुझे इस दोजख में लाएँगे। लेकिन फिर सोचता कि माफी माँगने का परिणाम देश के लिए घातक सिध्द होगा। जिस देश के लिए इतना किया उसी की हानि करूँ यह ठीक नहीं। उसने क्या बिगाड़ा है कि उसे हानि पहुँचाऊँ?बिगाड़नेवाले तो ये लोग हैं। तो फिर इन पर होनेवाला क्रोध देश के मत्थे नाहक क्यों उतरे? बस यही समझकर रुक जाता।
लेकिन चलने से पहले, और छ: ही महीने की तो सजा थी यह तय कर लिया कि चाहे जो हो मगर कांग्रेस में न रहूँगा। उससे तो अलग होई जाऊँगा। उसका या देश का तो कोई नुकसान जानबूझकर नहीं करूँगा। लेकिन कांग्रेस से अलग जरूर हो जाऊँगा। उसकी राजनीति से कोई नाता नहीं रखूँगा। यह बात लोगों को मालूम भी हो गई कि स्वामी जी लोगों पर बहुत ही रंज हैं। उन्हें डर हुआ कि बाहर जाकर कहीं कांग्रेस का विरोध न करें। क्योंकि मेरे स्वभाव से वे लोग परिचित थे और मानते थे कि यदि मैंने ऐसा तय कर लिया तो फिर मुझे कोई रोक नहीं सकता। इसलिए जब जेल से चलने के समय लोगों ने यह प्रश्न किया तो मैंने यही उत्तर दिया कि वर्तमान समय में कांग्रेस और देश का तो कभी भी विरोध आत्मघात है और मैं आत्मघाती नहीं बन सकता। तब कहीं जाकर लोगों को चैन मिला।
मेरे स्वास्थ्य की हालत यह हो गई कि मैं काला पड़ गया। केवल हड्डियाँ रह गईं। मानसिक वेदना और चिंता ऐसी ही वस्तु होती है। पहले पढ़ा था कि 'जल गए लोहू-मांस गई रह हाड़ की ठट्टी'। लेकिन उसका प्रत्यक्ष अनुभव जेल में इस बार हुआ। जेलवाले घबरा गए। श्री नारायण बाबू जेलर ने मुझसे पूछा कि हमें आपको मरने से बचाना है। हमारे ऊपर जिम्मेदारी है। इसलिए बतलाइए कि आप बाहर क्या खाते-पीते थे? जेल में मैं रोटी मात्र लेता था और थोड़ा दूध लेकर खा लेता था। नमक,दाल, साग, चटनी तो खाता न था। उनकी जगह दूध लेता था। जब उनने पूछा तो कुकर की चर्चा मैंने की और कहा कि उसी में पका के दलिया खाता था और कभी-कभी केले आदि फल भी। फिर तो बिहटा लिखवा कर मेरा कुकर उन्होंने मँगवा दिया और दलिया वगैरह का प्रबंध कर दिया। इससे, जो स्वास्थ्य गिर रहा था वह रुक गया सही। मगर उसमें उन्नति न हो सकी।
लेकिन जब और कुछ न मिला तो यह कुकर वगैरह देख के ही कुछ दोस्तों ने चुपके-चुपके कहना शुरू किया कि आखिर रिआयतें तो स्वामी जी ने भी स्वीकार किया ही! इससे मुझे बड़ा दर्द हुआ और इतना भी मौका न देने के लिए मैं तैयार हो गया। इसलिए जेलर को लिखा कि आप कृपा करके वे सभी चीजें, जो रिआयत के रूप में हैं, लौटा लें। इस पर उसने कहा कि यहाँ रिआयत का सवाल है कहाँ? हमने जेल के कायदे के अनुसार प्रबंध किया है। उसे वापस नहीं ले सकते। क्योंकि आपकी शरीर रक्षा की जवाबदेही भी तो आखिर हमारे ऊपर है। इस पर विवश हो के मैं चुप हो गया।
आज तो मैं मानता हूँ कि मेरी वह सख्ती कुछ दृष्टियों से गलत थी। राजनीतिक बंद, जिन्हें जेलों में, ज्यादा समय अक्सर गुजारना पड़ता है,यदि सुविधाएँ न पाएँ तो मर ही जाए और खत्म ही हो जाए। उनके लिए तो यह जरूरी है कि आराम से रहें। बाहर रहने पर तो कामों के भार से फुर्सत रहती ही नहीं। स्वास्थ्य गँवाकर ही उन्हें काम करना पड़ता है। ऐसी दशा में तो जेल में ही स्वास्थ्य सुधारने का मौका उन्हें मिल सकता है। और अगर ये सुविधाएँ न रहीं तो आमतौर से सबका स्वास्थ्य सुधारने के बजाए चौपट ही हो जाएगा। इसीलिए तो जेल में जहाँ तक हो सके अधिकारियों से कोई खटपट न होने देने का मैं कट्टर पक्षपाती हूँ। क्योंकि नाहक परेशानी उठानी पड़ती है और दिल, दिमाग एवं शरीर तीनों पर ही उसका बुरा असर पड़े बिना नहीं रहता। जेल में अनशन का कट्टर विरोधी भी मैं इसीलिए हूँ कि दिल, दिमाग और शरीर तीनों पर ही उससे आघात होता है। सिवाय प्राणों से भी प्यारी चीज के और बात के लिए तो अनशन करना ही न चाहिए। प्राणों से प्रिय वस्तु के लिए भी बहुत सोच-विचार की जरूरत है। भरसक उसे भी टालना ही चाहिए। खूब पढ़ना-लिखना, पुराने विचारों को नए सिरे से फिर उधेड़बुन करके उन्हें पक्का करना या छोड़ना, नए विचारों को स्थान देना और व्यायाम, संयमादि के द्वारा शरीर को मजबूत करना यही काम जेल में होना चाहिए। बाहर के काम की चिंता छोड़ ही देना चाहिए। नहीं तो नाहक परेशानी होती है। कुछ कर भी तो पाते नहीं।
लेकिन जन-आंदोलन में जेल की सुविधाओं का विचार जरूरी हो जाता है। क्योंकि आम जनता पर हमारे जेल के व्यवहारों का काफी असर हो जाता है। और भी कई कारण मैं पहले ही कह चुका हूँ। फिर भी यह बात चल नहीं सकती। जब गाँधी जी जैसों का प्रभाव कुछ कर न सका तो औरों की क्या बात? और हमें तो व्यावहारिक बनना चाहिए। केवल आदर्शवादी बनने से इस भौतिक दुनिया का काम कभी नहीं चल सकता। इसीलिए मैंने अपने को अब ऐसा बना लिया है कि जेल में कोई कुछ भी ऊधाम करे या सच-झूठ से काम ले , मेरे दिल पर उसका पहले जैसा असर अब नहीं होता। मैं तो मानता हूँ कि दुनिया का यही रूप ही है। इसके बिना वह एक क्षण भी टिक नहीं सकती। गाँधीवाद का भूत और आदर्शवाद की सनक ये दोनों चीजें अब मेरे ऊपर से उतर गई हैं। इनके लिए बेकार माथापच्ची करना मैं भूल समझता हूँ फिर भी स्वयं ऐसी बातें कर नहीं सकता। मेरी हिम्मत ही नहीं होती कि झूठ बोलूँ या कोई जाल-फरेब करूँ। ऐसा खयाल मन में लाते ही आत्माधंसती सी मालूम पड़ती है।
जेल में मुझे और भी अनुभव हुए। आज जो लोग राजनीति के लीडर बने हुए हैं और बिहार के अनेक जिलों या समूचे प्रांत के कर्ता-धर्ता होने का दावा करते हैं, जहाँ तक राजनीति से संबंध है, वह प्राय: सभी हजारीबाग जेल में ही थे। जिस प्रकार युक्त प्रांत के कई सौ चुने-चुनाए लोगों से फैजाबाद,लखनऊ और बनारस जेलों में साबका पड़ा था और मैंने अनेक अनुभव प्राप्त किए। ठीक उसी प्रकार बिहार के कई सौ दोस्तों से हजारीबाग जेल में काम पड़ा था। वे तो आज प्राय: सभी लीडर हो गए हैं। इसलिए इन्हें नजदीक से जिस प्रकार आचरण और गाँधीवाद के सिध्दांतों के पालन के संबंध में मैंने देखा, ठीक उसी तरह उनकी राजनीतिक मनोवृत्ति के अंतस्तल की झाँकी करने का भी मौका मिला। इस मामले में उनके दिल और दिमाग कैसे हैं,उनकी मानसिक रचना कैसी है, इसके जानने का खासा अवसर वहाँ मिला। फलत: मैं उनकी ऊँची-ऊँची बातों से धोखे में पड़ नहीं सकता।
चाहे किसी भी कारण से हो, लेकिन मेरी धारणा, उस समय थी कि वह लड़ाई जल्दी ही खत्म होगी─एक साल से ज्यादा न चलेगी। मैंने दो-एक समझदार लोगों से, जो मुलाकात करने आये थे, कहा भी था। बात भी कुछ ऐसी ही हुई। तब से तो मेरी यह पक्की धारणा हो गई है कि गाँधी जी के नेतृत्व में चलनेवाली आजादी की लड़ाई लगातार जारी रह नहीं सकती। खैर, उन दिनों तो मैं समझौता, सुधार और क्रांति की बातें विशेष रूप से जानता भी न था। और न यही जानता था किगाँधीजी समझौतावादी एवं सुधारवादी हैं। मैं तो उन्हें पक्का क्रांतिकारी मानता था, जैसा कि आज भी कुछ अच्छे और समझदार लोग मानते हैं। फिर भीयह धारणा दृढ़ हो चली थी कि जम के लड़ते रहनागाँधीजी के लिए असंभव है। लेकिन जो आजादी हम चाहते हैं वह तो बिना मुड़े, झुके और समझौता किए ही लड़ाई जारी रखने से ही मिल सकती है।
हाँ, तो जब कभी अखबारों में कोई समझौते की बात आती और गाँधी जी उसमें'नहीं' कर देते या अन्यमनस्कता दिखाते तो हमारे दोस्त लोग जो उन्हीं के नाम पर जेल गए थे और आज भी उन्हीं की एकमात्र दुहाई देते हैं, उन पर कुढ़-कुढ़ के मरते थे। वे लोग रंज हो के कह दिया करते थे कि वह सुलह क्यों नहीं कर लेते? बाल की खाल क्यों खींचते हैं? हठ क्यों करते हैं?बहुत बार यह भनक और यह खबर मुझे मिलती रही। बातचीत भी तो आखिर कभी-कभी होई जाती थी और साफ मालूम होई जाता था। मगर दूसरे लोग भी सुनाया करते थे। गाँधीजी तो यों भी कहते हैं कि मेरी रग-रग में समझौते का भाव भरा है। वह तो मेरे स्वभाव का एक भाग ही है। मगर उनसे भी जो लोग हजार कदम आगे बढ़े हों उन्हें क्या माना जाए? वह पीड़ित जनता को आजादी दिलाएँगे, यह कौन मान सकता है? उस आजादी को समझौते से भला क्या ताल्लुक? आज तो यह साफ है कि उस आजादी के चाहनेवाले मानते हैं किगाँधी-अरविन समझौता एक भारी भूल थी। फिर भी हमारे दोस्तों का दावा है कि वह पीड़ितों के लिए─ही मर रहे हैं और उन्हें आजादी दिला कर ही दम लेंगे।
जहाँ तक पढ़ने-लिखने का मेरा ताल्लुक था, जैसा कह चुका हूँ, कुछ लोगों को गीता या संस्कृत पढ़ाता था। मौलनिया (चंपारन) की राजनीतिक डकैती केस के तीन राजबंदी वहाँ थे। उनमें एक को मैं संस्कृत पढ़ाने के साथ ही आतंकवाद के विपरीत शिक्षा भी देता था। इस बात का उसके दिल पर कुछ असर भी हुआ था। वह अभी बहुत ही कम उम्र का था। आजकल वह घर पर है। उसका नाम कपिलदेव है। दूसरा'गुलाली' नाम का जवान कभी-कभी कुछ बातें कर जाता था। श्री ननकू सिंह नाम के तीसरे सज्जन कुछ गीतें कभी-कभी सुना जाते थे। ''घूँघट के पट खोल रे तोहि राम मिलेंगे!''को बड़े प्रेम से वे गाते थे। इस समय ये तीनों ही राजनीति से विरक्त से हैं और शायद घर-गिरस्ती की चिंता में हैं।
मैंने स्वयं वही चिरपरिचित नन्हीं-सी गीता का आलोड़न-प्रत्यालोड़न किया। उस पर बहुत से महत्त्व पूर्ण नोट 'गीता हृदय' के लिए तैयार किए। आज भी पुन: इस जेल में वे नोट मेरे सामने पड़े हुए हैं। महाभारत का मैंने आद्योपांत पारायण किया। उससे भी कई स्फुट एवं उपयोगी बातों के नोट तैयार किए। ज्यादा समय मिल न सका कि और कुछ करता। मानसिक स्थिरता भी न थी कि कुछ ज्यादा कर पाता। इस प्रकार जैसे-तैसे छ: महीने गुजर गए। लखनऊ जेल में अमेरिका के श्री जेम्सएलेन को 'the by ways to bliss' का हिंदी अनुवाद 'आनंद की पगडंडियाँ' और दूसरी किताबें पढ़ने का जैसा मौका मिला था और रूसो, रस्किन आदि की भी कुछ किताबें पढ़ी थीं, वैसा मौका यहाँ न लगा। क्योंकि मानसिक अशांति बहुत थी।
प्रसंगवश एक बात कह के जेल की यह दास्तान खत्म करूँगा। जेल की तीन बातों ने मुझे सदा आकृष्ट किया है और जब-जब मौका लगा है,मैंने इन पर विचारा है,इन्हें गौर से देखा है। वे तीन बातें हैं सफाई, समय का पालन (punctuality) और चोरी। जितना जोर पहली दो बातों पर जेल में दिया जाता है उतना शायद ही और कहीं होता हो। वहाँ सफाई और समय को पाबंदी ये दोनों, मौजूदा हालत में एक तरह से आदर्श कहे जाते हैं। समय की पाबंदी की तो इतनी सख्ती है कि कभी-कभी तो आदमी मशीन की तरह काम करते हैं और तबीयत झल्ला उठती है। चोरी की भी वही दशा है। मैंने देखा है कि तमाखू की सख्त मनाही होने पर भी सभी कैदी उसे पा ही जाते थे। इसी प्रकार और-और बातों को ले लीजिए। मैंने लखनऊ जेल की बातें पहले लिखी ही हैं। कहते हैं जेलवाले भी सभी प्रकार की चोरी करते हैं। इन तीन बातों के सिवाय एक और भी कैदियों को आदमी न समझने की। जेलवाले उन्हें पशु से भी बदतर समझते थे। मगर वह बात अब प्राय: खत्म हो गई। पाँचवीं बात है कैदियों के मार्के (Remission)की। रेमिशन को'मार्का' कहा जाता है। वे दिन-रात उसी के लिए मरते रहते हैं। मारपीट भले ही बर्दाश्त कर लेंगे। मगर एक दिन का मार्का नहीं कटना चाहिए! राजनीतिक हलचलों के करते रात में सोने के समय उनका हिसाब तो बराबर लगता ही रहता है कि हम लोग अब छूटेंगे तब छूटेंगे। इसके बारे में तरह-तरह की बेसिर-पैर की बातें उनमें चलती रहती है
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जेल से बाहर ─ राजनीति से विराग
जहाँ तक याद है सितंबर के महीने में मैं रिहा हुआ और कोडरमा तक बस में जा के वहीं से रेल से रवाना हुआ। दूसरे ही दिन सवेरे बिहटा पहुँच गया। पटने से ले कर बिहटा तक बहुत लोग मिलते गए रिहाई की खबर सभी को थी। बिहटा में तो स्वागत के लिए अपार भीड़ थी। अभी तक सत्याग्रह जारी रहने के कारण जोश बना था। उस दिन आश्रम के बगल में एक अच्छी सभा हुई थी। मगर मैं उस सभा में नहीं गया। लोगों के प्रेम और उमंग का आभारी मैं जरूर बना। हालाँकि दिल के भीतर जो वेदना थी वह अवर्णनीय थी। मैं उसे किस पर प्रकट करता? खुशी इस बात की थी कि उस इलाके के लोगों ने जैसा साथ दिया था वैसी ही मुस्तैदी नजर आती थी! मैंने सभी से मिल-मिलाके और उनके चंदन,फूल,माला आदि को स्वीकार कर के उन्हें खुश किया। मेरा स्वास्थ्य देख कर लोगों को घबराहट बहुत हुई। मगर अब तो चिंता न थी। उसे ठीक होने में ज्यादा देर न लगी। फिर भी कई महीने तो लगी गए। इस बीच कोई भी साथी मुझे छेड़ने न आए कि काम में लगिए। आते भी कैसे? शरीर की हालत तो देखते ही थे। फिर भी सरकार तो सतर्क थी ही।
अखबारों के द्वारा ही मेरा राजनीतिक संसार से संबंध था। इसी बीच पं. मोतीलाल नेहरू की हालत खराब हुई। वे मरणासन्न हुए। इधर गाँधी जी समझौते में लगे थे। दिल्ली में जमावड़ा था और बातें होती थीं। गाँधी जी, वायसराय लार्ड अरविन से प्राय: मिलते थे। पं. नेहरू को यह जानकर खुशी हुई कि वे मर तो रहे हैं, मगर उनका ध्येय सिध्द हो रहा है। उन्हें क्या पता था कि वह मृगमरीचिका थी और उसका बदला सूद सहित देश को, खासकर उनके प्रांत को आगे चुकाना पड़ा। खैर उनका शरीरांत हुआ।
मैंने पढ़ा कि मरण से पूर्व गायत्री जपने में वे लगे थे। हम लोगों में─आदमियों में─धार्मिक भावना कितनी निरूढ़ और मूलबध्द है इसका इससे बड़ा प्रमाण क्या हो सकता है कि जो जीवन भरधर्मकी बातों से अलग रहे वह भी मरण काल में गायत्रीया नमाज पढ़ने लगे। यह हमारी कमजोरी की निशानी है कि जिंदगी भर कुछ खयाल न कर केअंत में उसे सोचें और मानें। कुछ कट्टर नास्तिकों के बारे में भी सुना है कि अंत में उन्हें कहना पड़ा कि ''यदि कोई भगवान है तो वह मुझे बचाए-If there be any God, O god save me" लेकिन क्रांतिकारी और गैरक्रांतिकारी नेतृत्व का पता भी इसी से लग जाता है। यह न होता तो सभी नेता क्रांतिकारी ही माने जाते।
हाँ तो, राम-राम कर के सन 1931 ई. के प्रथम चतुर्थांश के बीतते-न-बीतते सरकार से सुलह हो गई और सभी लोग जेल से बाहर आ गए। सरकार ने जो सपनों में भी न सोचा था वह जागृति और त्याग देख कर वह चक्कर में बह पड़ी। फिर तो उसने उससे निकलने का अच्छा मौका ढूँढ़ा ताकि आगे के लिए तैयारी कर ले। इस बार तो अनजान में और धोखे में वह भरपूर तैयारी न कर सकी थी। कांग्रेस ने आक्रमण किया और उसने अपनी रक्षा की। अब आगे उसने स्वयं आक्रमण करने की ठानी और कांग्रेस को अपनी रक्षा करने की फिक्र में डालने का विचार कर लिया। इसीलिए साइमन कमीशन की रिपोर्ट को बेकार समझ गोलमेज कॉन्फ्रेंस का पँवारा उसने फैलाया। ताकि उसी में फँसा के उसके पर्दे में इसी दरम्यान में अपनी पूरी तैयारी कर ले। तब एकाएक कांग्रेस पर छापा मारे।
कहते हैं, नमक कानून का राजनीति से क्या संबंध? फिर भी उसी के करते हमारे देश में नवजीवन आया। मगर उसी जाल में फँस के सन 1932 ई. में हमने धोखा भी तो खाया। सरकार ने नमक की रियायतें कुछ मान लीं और हमने अपनी जीत समझी। यदि यह बात न रहती और कोई असली राजनीतिक या आर्थिक प्रश्न को ले करलड़ाई जारी हुई रहती तो न सरकार उस पर झुकती और न हम घपले में पड़ते। इसीलिए बुध्दिमानी इसी में है कि राजनीति में सदा वैसे ही प्रश्न सामने लाये जायें और उन्हीं को ले कर लड़ा जाए। गैर-राजनीतिक सवाल खड़े कर के लड़ाई कभी न छेड़ी जाय। इसमें सदा खतरा है।
इधर मेरा ज्यादा समय आश्रम में ही उसी के कार्य में बीतता था। राजनीति से तो मैं अलग था ही। लड़ाई बंद होने पर तो उसकी जरूरत भी न थी। मगर बिहार प्रांतीय कांग्रेस कमिटी की ओर से बाबू श्री कृष्ण सिंह बाबू राजेंद्र प्रसाद आदि ने गया जिले में और पटने के मसौढ़ा परगने में जिसका वर्णन पहले कर चुका हूँ, दौरे किए और किसानों की समस्याओं की जाँच की। बल्कि एक प्रकार की जाँच कमिटी बनाकर जाँच की गई। उनके सामने बड़ी भीषण बातें पेश हुईं। किसानों से उनने प्रतिज्ञा की कि हम तुम्हारे दु:ख दूर करेंगे। कहते हैं कि वे लोग हालात देख-देख कर सचमुच रोये! यह भी बताया जाता है कि गया जिले में जब वे लोग गए तो एक विधावा बाभनी (ब्राह्मणी) सामने आई और कहने लगी कि एक बकरी पाली थी कि उसे बेच कर गुजर करती। लेकिन टेकारी राज के कर्मचारी उसे बलात ले जाकर चट्ट कर गए! अब मैं क्या करूँ? इस पर उन लोगों को खून के आँसू बहाने पड़े। मगर इसका नतीजा क्या हुआ सो तो आगे बताएँगे। असल में गरजनेवाले तो बरसते नहीं!
बात असल में यह थी कि सन 1930 ई. में जो लहर मुल्क में आई उसके करते किसानों में अभूतपूर्व जागृति हुई। फलत: उनकी समस्याएँ खामख्वाह ऊपर आ गईं, जो अब तक दबी पड़ी थीं। जब उन्होंने नेताओं के कहने से त्याग और बलिदान किया तो उन्हें हिम्मत हुई कि नेताओं से भी हम कुछ कहें और अपने दुखड़े सुनाएँ। इसी का नतीजा था कि यह जाँच-पड़ताल हुई। आखिर नेता लोग इनकार कैसे कर सकते? अभी तो किसानों से उन्हें बहुत काम लेने थे। इसीलिए उनकी बातों को ले कर जाँच-पड़ताल की और उन्हें आश्वासन दिया। इसी बीच युक्त प्रांत में भी किसानों का यह प्रश्न उठा और बड़ा भीषण हो गया। यहाँ तक कि युक्तप्रांत की सन 1932 ई. वाली लड़ाई किसानों के प्रश्नों को ले कर ही हुई और कर बंदी चली। और-और प्रांतों में भी यह बात जरूर आई। मगर जहाँ किसानों में जागृति ज्यादा थी वहाँ यह प्रश्न भी तेज हो गया।
लेकिन इस जाँच-पड़ताल से मेरा कोई संबंध न था। न मैं पूछा गया और न उसमें शामिल हुआ। यह ठीक है कि गया जिले के डॉ. युगलकिशोर सिंह मुझसे हजारीबाग जेल में किसानों की बातें बहुत करते थे। वहाँ किसान-सभा तथा किसान आंदोलन को चलाने की चर्चा बराबर होती थी। मगर मैं तो अब विरागी था। कांग्रेस या राजनीति से जो भीषण विराग हुआ उसने किसान-सभा से भी विरागी बना दिया। मुझे भी ताज्जुब है कि उस विराग से किसान-सभा का तो कोई नाता था नहीं?कांग्रेस का भले ही था, किसान-सभा तो उस समय राजनीतिक संस्था थी भी नहीं। सपने में भी यह सोचा न जा सका था कि उसे राजनीति में घसीटा जाय। फिर राजनीति से होनेवाले विराग का शिकार वह क्यों हुई यह एक पहेली है।
मालूम पड़ता है, यह स्वाभाविक सूचना थी इस बात की, कि सभा को गहरी राजनीति में पड़ना है। शायद इसीलिए यह न जानते हुए भी मैं उससे विरागी बन गया। मैं सबको एक ही समझता था, और मानता था कि किसान आंदोलन में जाने पर फिर वहीं खिंचकर चला जाऊँगा। इसीलिए किसान-सभा से भी अलग ही रहा।
इसी बीच सन् 1932 ई. के आते-न-आते दूसरा सत्याग्रह संग्राम छिड़ गया। सरकार का दमन चक्र तेजी से चलने लगा। वह चक्र ऐसा तेज था कि जरा सा शक होते ही किसी की भी खैरियत न थी! मैंने देखा कि शायद मैं भी न बच सकूँ और खामख्वाह सरकार का कोपभाजन बनूँ। फलत: आश्रम को भी सरकार हड़प लेगी और मैं पूरा बेवकूफ बनूँगा! इसीलिए मैंने आश्रम औरों को सौंपा और उन्हें पत्रादि लिख दिया। इसके बाद अलग जा बैठा। कुछ दिनों तक तो बिहटा आया ही नहीं। कभी सुरतापुर, कभी सिमरी और कभी और जगह रहा। मेरे पास अभी तक कोई जाता भी न था। मगर जब फिर आश्रम में आकर रहने लगा और प्रांत के सभी नेता लोग पकड़े जा चुके, कुछ ही बचे थे, तो मेरे पास पैगाम पर पैगाम आने लगे। कई बार लोग आकर मिले कि चलिए और प्रांत को डिक्टेटरशिप स्वीकार कीजिए। जिस चीज से मैं हजारीबाग जेल में डरता था वही हुई और दबाव पड़ने लगा। मगर मेरा वैराग्य और क्रोध इतना ज्यादा था कि अभी तक शांत न हो पाया था। इसलिए हजार कहने पर भी मैंने साफ इनकार कर दिया और नहीं ही शामिल हुआ।
उस समय कुछ लोगों से इस बारे में जो मेरी बहस हुई और मैंने अपना जो दृष्टिकोण उनके सामने रखा वह बड़ा ही मजेदार तथा सुनने लायक है। मेरा कहना था कि कांग्रेस के भीतर बहुत ही अनाचार और धाँली है। उसके नाम पर अनेक कुकर्म किए जाते हैं। यद्यपि मैं कट्टर गाँधीवादी था। तथापि ये शिकायतें तो गाँधीवादी न होने पर भी नैतिक दृष्टि से उचित ही थीं। मगर गाँधीवादी होने के कारण ये मुझे विशेष अखरती थीं। मैंने यह भी कहा कि मैं जैसे चाहूँ उस संस्था को चला सकता हूँ नहीं। क्योंकि मेरी आवाज वहाँ सुनता कौन है? और जिस संस्था को अपनी मर्जी के अनुसार न चला सकें उसमें रहना उचित नहीं। क्योंकि रहने का सीधा अर्थ होता है उन अनाचारों और कुकर्मों की जवाबदेही लेना। अनजान में यह बात हो भी सकती थी। लेकिन जब मैंने ये बातें जान लीं तब कैसे रह सकता हूँ? जान-बूझ कर जवाबदेही लेना होगा ही। अगर इस प्रकार समझने वाले लोग संस्था से हट जाए तो वह खत्म हो जाय। फिर तो उसके नाम पर कोई गड़बड़ी ही न हो सके। इसीलिए जान-बूझ कर उसमें रहनेवालों के ऊपर जवाबदेही खामख्वाह आ ही जाती है। वह उससे बच नहीं सकते। इसलिए मेरे विचार से उन सब बातों की सबसे बड़ी जवाबदेही गाँधी जी पर ही होनी चाहिए।
मुझे अच्छी तरह याद है कि मैं हजार कोशिश करने पर भी लोगों को इस मामले में समझा न सका। आज भी शायद ही किसी को समझा सकूँ। मगर मेरा कुछ ऐसा स्वभाव है कि आज भी मैं ऐसी बात किसी-न-किसी प्रकार मानता ही हूँ। तब से ले कर आज तक के अनुभवों ने मुझे बताया है कि जान-बूझकर तरह देने का नतीजा बहुत बुरा होता है। यह ठीक है कि उस समय मैं अतिवादी था और अनेक बातों को सिध्दांत के रूप में मानता था। यह बात आज नहीं है। फिर भी सार्वजनिक चरित्र(Public Morality - Character) नाम की एक चीज ऐसी है, जिसके बिना कोई सार्वजनिक संस्था चल नहीं सकती, अपना ठीक उद्देश्य पूरा कर नहीं सकती। फलत: अगर उसमें ऐसे लोग ज्यादातर आ जाए, तो इस बड़ी सी बात से, इस महान गुण से शून्य हों तो या तो उससे अलग हो जाना या उसे तोड़ देना, दो में एक ही चीज होनी चाहिए। नहीं तो नष्ट चरित्र लोग दूसरों के नाम पर मजा उड़ाते ही रहेंगे। इस मामले में मनुष्य कमजोरियाँ बहुत दिखाता है। कभी-कभी मुझे भी इन कमजोरियों का शिकार होना पड़ा है। मगर अंत में मैंने सीखा है कि कमजोरी दिखाना भी वैसा ही अपराध है बल्कि उससे भी भारी। आखिर सार्वजनिक सेवकों की और क्या बात हो सकती है जिसके बल पर लक्ष्यसिध्दि की आशा की जाय, यदि यह पब्लिक मोरैलिटी और कैरेक्टर ही न रहा? हममें तो इसकी आज बड़ी कमी है। शायद गुलाम देशों में ऐसा ही होता है। लेकिन हमें आजाद भी तो आखिर होना है। इसीलिए तो यह चरित्र निहायत जरूरी है।
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युनाइटेड पार्टी और नकली किसान-सभा
इस प्रकार मैंने जो पहले ही संकल्प कर लिया था वह ज्यों का त्यों बना रहा। लाख कोशिश होने पर भी मैं कांग्रेस में या उसकी लड़ाई में सन 1932 ई. में शामिल न हुआ। मगर जो तूफान था और जनता के जोश को ठंडा करने के लिए आर्डिनेन्स राज्य के जरिए सरकार ने जो आतंक कायम कर रखा था वह वर्णनातीत था। लाठीचार्ज, गोली कांड, जेल, जायदाद की जब्ती और जुर्माने आदि के जरिये सरकार ने इस बार आंदोलन को दबाया ही आखिर। फलत: सन 1930 ई. वाला रंग न रहा। बेशक इस बार जो प्रोग्राम एके बाद दीगरे लड़ाई के लिए आते गए वह शुध्द राजनीतिक थे। युक्त प्रांत की लगान बंदी और बिहार में चौकीदारी टैक्स का जहाँ-तहाँ बंद किया जाना, नमक बनाने जैसी अराजनीतिक चीज थोड़े ही थी। रेलगाड़ियों की जंजीर खींचकर उन्हें रोक देना तो और भी उग्र चीज थी। सारांश आंदोलन गहराई में पहुँच रहा था। उसी के साथ दमन भी भीषण रूप धरण कर रहा था।
ऐसी हालत में सत्य की बात कहाँ तक निभ सकती थी और अहिंसा भी कहाँ तक चल सकती थी? यह ठीक है कि हिंसा का बाहरी रूप असंभव और घातक था। मगर भीतर से दबाव डाल के करवाना और धमकी आदि से काम लेना जरूरी हो गया। अगर सरकार अधीर एवं उतावली (desperate) थी तो नेताओं और कार्यकर्ताओं का भी वैसा ही हो जाना स्वाभाविक था। इसलिए छिपकर काम होने लगा। विलायती कपड़े पर शराब डालकर पहनना तथा इस प्रकार डाक ले जाने में सुविधा प्राप्त करना आम बात थी। इसी प्रकार चोरी-चोरी सभी काम होने लगे। यह बात अनिवार्य थी। जब आजादी की लड़ाई गहराई में पहुँचती है तो ऐसा होता ही है। यह बात गाँधीजी को भी मालूम होती रही। सत्याग्रह स्थगित करने में यह भी एक कारण उन्होंने बताया था।
खैर, मैं लड़ाई में तो शामिल न हुआ। मगर उसका परिणाम भी दूसरे रूप में अच्छा ही होनेवाला था। जब बिहार की सरकार ने देखा कि कांग्रेस इसमें फँसी है और प्राय: सभी नेता जेलों में बंद हैं तो उसने एक चाल चली। उसने अपने दोस्त जमींदारों की पीठ ठोंक के खड़ा किया कि यही मौका है, बिहार प्रांत में अपना नेतृत्व और अपनी धाक जमा ले। मैदान खाली है। इसलिए एक नई पार्टी बनाकर उसके द्वारा अपना प्रभुत्व कायम करें। पटने में तो सलाह हुई ही। मगर जाड़ा आते-न-आते राँची में भी सभी बड़े जमींदार और सरकार के पिट्ठू जमा हुए। वहीं गवर्नर से गुपचुप सलाह-मशविरा कर के 'युनाइटेड पार्टी' (संयुक्त दल) की स्थापना की घोषण की गई। यह प्रचार किया गया कि इस पार्टी में जमींदार, किसान, पूँजीपति, मजदूर,हिंदू, मुस्लिम, ईसाई सभी शामिल हैं। इसीलिए यही तो असली संयुक्त दल है। सीधा मतलब इसका यह था कि कांग्रेस को भी नीचा दिखाया जाय। जहाँ-तहाँ इसके लेक्चर भी हुए और समाचार-पत्रों आदि के द्वारा खूब ढिंढोरा भी पीटा गया।
मगर इतने से ही तो कुछ होने-जाने का था नहीं। पार्टी को आगे बढ़ाने के लिए कोई आधार और जरिया भी तो होना चाहिए। फिर सोचा गया कि सिवाय टेनेन्सी (काश्तकारी) कानून के संशोधान के और हो क्या सकता है? यह झमेला बहुत दिनों से चलता था कि किसानों को पेड़ों में हक मिले या नहीं, जमीन की खरीद-बिक्री वे बेरोकटोक करें या नहीं,ईंट, खपड़ा, कुआँ,तालाब और पक्का मकान अपनी कायमी जमीन में बनावें या नहीं। जमींदार भी चाहते थे कि सर्टिफिकेट का हक उन्हें आसानी से मिले, सलामी काफी पाएँ और जोत जमीन का दस प्रतिशत तक जीरात बना सकें। ये और इसी प्रकार की बातें किसान जमींदार समस्या को सदा पेचीदा बनाए रहती थी। यारों ने सोचा कि यही मौका है, किसानों को थोड़ी-बहुत ये चीजें देकर अपनी जड़ मजबूत कर लें, खास कर जीरात और सर्टिफिकेट के बारे में।
मौजूदा कानून के अनुसार जमींदार की जीरात, जिसे कामत और सीर भी कहते हैं, एक इंच भी बढ़ नहीं सकती थी। जो पहले थी, वही रह सकती है। सर्टिफिकेट का अधिकार कहने को तो था मगर मिलता न था। उसके लिए जो दिक्कतें थीं, उन्हें दूर करना जमींदारों के लिए जरूरी था। ऐसा होने पर, बकाया लगान की नालिश करने की जरूरत रही न जायगी। बेखटके वसूली हो जायगी। इसके लिए किसानों को कायमी जमीन में मकान,ईंट, खपड़ा वगैरह बनाने का हक कुछ शर्तों के साथ देने, पेड़ों और बाँसों में भी कुछ ऐसा ही करने और एक मुकर्रर सलामी देने पर जमीन की खरीद-बिक्री का हक स्वीकार कर लेने में भी कोई हर्ज नहीं, ऐसा उन्होंने तय किया। ये अधिकार देने में कुछ-न-कुछ कानूनी दाँव-पेंच तो रखे ही जाते। कान छेदने के समय जब बच्चे रोते हैं और छटपट कर के छेदने नहीं देते तो गुड़ या मिठाई के बहाने वे शांत किए जाते हैं। वही चाल यहाँ भी चलने के लिए सोचा गया।
मगर, आखिर यह हो कैसे? सोचा गया, कांग्रेस ने तो संशोधान का विरोध किया था। किसान-सभा का तो कहना ही क्या?लेकिन कांग्रेस तो लड़ाई में फँसी है। फलत: वह तो कुछ कर सकती नहीं। वह किसान-सभा भी तो इस समय खटाई में पड़ी है। उसका काम बंद है। उसका सभापति इन कामों से विरागी हो रहा है। ऐसी दशा में जो उसके एकाध और आदमी हैं उन्हें मिलाकर एक नकली (bogus) किसान-सभा खड़ी की जाय। फिर जो बिल युनाइटेड पार्टी के नाम से जमींदार तैयार करें उस पर उसी बनावटी किसान-सभा और उसके स्वयंभू लीडरों की मुहर दिला कर उसे ही कौंसिल में पास कर लिया जाय। कौंसिल में कांग्रेस पार्टी के न रहने से जैसा भी बिल चाहेंगे पास कर ही लेंगे। इस प्रकार जमींदारों और सरकार के दोस्तों का काम भी बन आयगा और यह ढिंढोरा भी चारों तरफ पिट जायगा कि किसानों को जो हक कांग्रेस और पुरानी किसान-सभा न दिला सकी उसे ही युनाइटेड पार्टी ने इस नई किसान-सभा और उसके नेताओं की सहायता से दे दिया। इसका अनिवार्य परिणाम यही होगा कि यूनाइटेड पार्टी और उसकी पुछल्ला यह नकली किसान-सभा, ये दोनों ही, किसानों में प्रिय बनजाएँगी। बस, यही तो चाहिए। इतने से ही तो काम बन जायगा।
इसके बाद उन लोगों ने─जमींदारों और उनके सलाहकारों ने दो काम किए। एक तो किसानों के नाम पर कभी-कभी कौंसिल में बोलकर सस्ती किसान लीडरी का सेहरा अपने सिर बाँधनेवाले श्री शिवशंकर झा, जो पहले भी करते थे और आज भी जमींदारों की सहायता और मैनेजरी करते हैं को, और बाबू गुरुसहाय लाल, जो हमारी सभा के सहायक मंत्रियों में एक थे को,युनाइटेड पार्टी का मेंबर बना लिया। गो यह बात छिपाई गई। क्योंकि इससे किसान और दूसरे लोग भड़क जाते। दूसरे उन्हें और खासकर श्री गुरुसहाय बाबू को उकसाकर तैयार किया गया कि चटपट एक नकली किसान-सभा बना डालें। बाद में उसी की ओर से बिहार के किसानों के नाम पर जमींदारों से टेनेन्सी कानून के बारे में समझौता करने का ढोंग रचकर युनाइटेड पार्टी का मनोरथ पूरा करें। जहाँ तक याद पड़ता है सन 1933 ई. के शुरू में ही बनावटी सभा खड़ी की गई।
आगे बढ़ने के पहले प्रसंगवश एक बात कह देना जरूरी है। सन 1931 ई. में पहला सत्याग्रह स्थगित होने के बाद जब कांग्रेस की तरफ से पटना एवं गया में किसानों की तकलीफों की जाँच हुई तो उस समय कुछ नए लोग, जिनका कांग्रेस से संबंध था और पीछे तो सोशलिस्ट बनने का भी दावा करने लगे थे, किसान सेवक बन बैठे। ये लोग किसान-सभा चलाने के स्वप्न भी देखने लगे थे। उनकी हरकतें यों तो बाहर खुली तौर पर मालूम न हुईं। फिर भी इधर-उधर की बातों से उनकी इस दिली अरमान और तमन्ना का पता लगता रहता था। उनमें कुछ ने एकाध बार मुझसे भी शिष्टाचार के नाते कहा कि हमारा पथ प्रदर्शन करें। श्री अंबिकाकांत सिन्हा ने तो यह भी कहा कि हमें जमींदार फुसला लेंगे। इसलिए हमें रास्ता बताते चलिए। मैं तो खूब समझता था कि उनके कथन का क्या मतलब है और वे कहाँ तक किसानों की सेवा कर सकते हैं। फिर भी मैंने उसमें पड़ने से साफ इनकार किया। उन्हीं की तरह एक और भी सज्जन, श्री देवकी प्रसाद सिन्हा किसान नेता होने का सपना देखते थे। कभी-कभी वह भी किसानों की भाषा बोल चुके थे। वकील तो थे ही। बस, नए सिरे से सेहरा बाँधने के लिए इतना ही पर्याप्त था।
जमींदार तो इस ताक में थे ही कि कुछ लोग मिल जाएँ जिससे बिहार प्रांतीय किसान-सभा के नाम पर आसानी से धोखे की टट्टी खड़ी की जा सके। उनके लिए ये दोनों सिन्हा और गुरुसहाय बाबू पर्याप्त थे। उनने इनकी पीठ ठोंक दी। इन्हें पैसे भी दिए। ताकि उसी से ये लोग सभा बनाएँ। फलत: एक दिन अचानक सन 1932 के अंत या सन 1933 के शुरू में अखबारों में पढ़ा कि पटने में बाबू गुरुसहाय लाल के घर पर किसानों और किसान सेवकों का जमाव हुआ और पुनपुन (पटने के निकट) के श्री डोमा सिंह किसान की अध्यक्षता में सभा होकर बिहार प्रांतीय किसान-सभा की स्थापना हुई। जिसके सभापति वही डोमा बाबू बने और मंत्री पूर्वोक्त तीन महारथी─श्री अंबिकाकांत सिन्हा, श्री देवकी प्रसाद सिन्हा और श्री गुरुसहाय लाल बनाएगए। किसी अजनबी स्वामी का भी नाम पढ़ा कि मीटिंग में मौजूद थे। पहले तो एक किसान को कहीं से ढूँढ़ लिया, ताकि लोग समझें कि सचमुच किसान-सभा बनी। दूसरे असली चीज─मंत्री ─यार लोग जो बने!
मुझे पढ़ कर हवा के रुख का कुछ पता लगा। क्योंकि हजार अलग रहने पर भी किसानों की बात थी न? इसलिए उस पर दृष्टि रखना मेरे लिए स्वाभाविक था। युनाइटेड पार्टी की बातों को भी बड़ी सतर्कता से देख रहा था। मुझे सारा अंदाज लग गया कि कैसा षडयंत्र है और क्या होने जा रहा है। मगर थोड़ा ताज्जुब जरूर हुआ कि श्री गुरुसहाय लाल जैसे वकील और पढ़े-लिखे आदमी ने, जो अभी तक हमारी सभा के सहायक मंत्री थे, ऐसा काम कैसे कर डाला और एक प्रतिद्वंद्वी किसान-सभा बना डाली। तुर्रा तो यह कि न तो हमसे पूछा ही और न हमारी सभा से इस्तीफा ही दिया। वे कौंसिल में स्वराज्य पार्टी के मेंबर भी रह चुके थे और उसी की आज्ञा से कौंसिल से इस्तीफा भी दिया था। उन्हें ऐसा करने के पूर्व या तो हमारी सभा से पहले इस्तीफा देना था, या कम-से-कम हमसे पूछना तो था। नहीं तो उसी की मीटिंग बुलाकर यह प्रश्न उसी में पेश करना था। इससे मरी धारणा और भी दृढ़ हो गई कि इन लोगों ने पूरी तैयारी कर ली है और कुछ-न-कुछ होनेवाला है। लेकिन फिर भी मैं तटस्थ ही रहा और इसकी परवाह न की कि क्या हो रहा है। हालाँकि, न जाने क्यों दिल थोड़ा सा बेचैन सा हो जाता था।
इसके बाद एकाएक एक दिन पूर्व के अखबारों में पढ़ा कि ता. 14-2-33 को बिहार प्रांतीय किसान-सभा की बैठक गुलाबबाग, पटना में दोपहर के बाद होगी। उसी में किसान-जमींदार समझौते पर विचार होगा। मुझे पीछे यह भी मालूम हुआ कि इस बारे में एक छोटी सी छपी नोटिस भी हिंदी में बँटी थी। खास कर बिहटा के आस-पास के इलाके में। लेकिन मुझे इस सभा की खबर न मिले इसकी पूरी कोशिश की गई। इसीलिए न तो मेरे पास ही नोटिस पहुँची और न बिहटा में ही या पास के गाँवों में ही। हाँ, उसी रास्ते बिक्रम और मसौढ़ा में जाकर कोई बाँट आया। यह भी पता लगा कि कुछ लोगों ने किसानों के नाम पर जमींदारों से कोई समझौता किया है। उसकी कुछ शर्ते भी ठीक की गई हैं। मगर सिवाय आश्चर्य करने के मैंने और कुछ नहीं किया। देखता रहा कि क्या होता है।
इस बीच एक घटना घटी, जिसने यारों के सारे किए-किराए पर पानी ही फेर दिया। किसान-सभा के इतिहास में इससे एक भारी पलटा भी हुआ। इसी के करते मैं उसमें फिर सारी शक्ति के साथ खिंच आया। या यों कहना ज्यादा ठीक होगा कि असली बिहार प्रांतीय किसान-सभा और किसान-आंदोलन का इसी से सूत्र पात हुआ। मैं पहले गया के डॉ. युगल किशोर सिंह का जिक्र कर चुका हूँ। ठीक 13 फरवरी को ही, पं. यदुनंदन शर्मा ने जो आज हमारे किसान आंदोलन के प्रधान स्तंभ हैं, तथा अन्य कई किसान सेवकों ने भी पटने की इस किसान-सभा में किसानों के लिए भारी खतरा देखा और क्या अब करना चाहिए,सोचा। अंत में यही तय किया कि डॉ. युगल किशोर सिंह फौरन स्वामी जी के पास जाकर यदि किसी प्रकार उन्हें उस किसान-सभा में लाने में सफल हों तभी यह खतरा टल सकता है। दूसरा उपाय है नहीं; फलत: डॉक्टर साहब को मेरे पास भेजा। उनके पाँव में भारी जख्म था। फिर भी न जानें कैसे वे मरते-जीते चल पड़े और पटने में पहुँचे। सबसे पहले देवकी बाबू के डेरे में गए जहाँ अंबिका बाबू भी हाजिर थे। उन्होंने सभा के बारे में पूछताछ की खासतौर से यह जानना चाहा कि स्वामी जी और कार्यी जी को खबर दी गई है या नहीं और वे लोग इसमें शामिल होंगे या नहीं। उनसे मिथ्या ही कहा गया कि जरूर खबर दी गई है और वे लोग जरूर आएँगे। आप निश्चिंत रहें। डॉक्टर साहब ने मिलने पर मुझसे ये बातें कही थीं। लेकिन उन्हें कुछ शक हुआ। फलत: बिहटा चलने के लिए इच्छा जाहिर की। इस पर वे रोके गए कि जाने की जरूरत नहीं। स्वामी जी तो कल आएँगे ही। मगर जब उन्होंने हठ किया कि खामख्वाह जाएगे तो हारकर वे लोग चुप हो गए। इस प्रकार डॉक्टर साहब 13 फरवरी सन 1933 ई. की शाम को मेरे पास पहुँचे और दंड प्रणाम के बाद बैठे।
जब मैंने उनसे आने का कारण पूछा तो सारी दास्तान उनने सुनाई। पटना कल जरूर चलिए यह भी कहा। मैंने साफ इनकार किया और कहा कि नहीं जाता। एक तो मैं किसान-सभा से अलग हूँ, गो इस्तीफा नहीं दिया है। दूसरे जब मुझे उन लोगों ने खबर तक देना उचित नहीं समझा, हालाँकि, सभी जानते हैं कि यहीं हूँ, तो फिर मेरा वहाँ बिना बुलाए जाना उचित नहीं। इसलिए हर्गिज नहीं जा सकता। इस पर उस बेचारे की मानसिक दशा क्या हुई यह कौन बताए? मैंने कोरा उत्तर दे तो दिया मगर वे ठंडे न पड़े। रह-रह के आह भरने जैसे एकाध शब्द बोलकर चलने का आग्रह करते। वह शब्द भी आधा बाहर होता और आधा मुँह के भीतर ही रह जाता। पाँव के जख्म से उन्हें ज्वर भी हो आया था। इसलिए दो कष्टों के बीच आहें भरते थे। कभी कहते 'किसान मारे जाएगे'। कभी बोलते 'चलते तो भला होता' फिर कराहते कि 'उन्हें कौन बचाएगा?' सारांश, जब तक मैं जगा रहा वह ऐसा ही करते रहे। पर मैं इनकार ही करता रहा। फिर सो गया। मगर उनकी मार्मिक व्यथा पूर्ण अपील ने धीरे-धीरे मुझ पर असर किया। खासकर बीमारी की दशा में जो आह निकलती थी वह हृदय में जा बिंधी। फलत: सवेरे उठने पर नित्य कर्म करते-करते मैं पिघला और उनसे कह दिया कि ''लो अब चलूँगा।'' फिर तो उनका चेहरा खिल गया।
आखिर, खा-पी के दोनों ही दस बजे के करीब ट्रेन से रवाना हुए और पटने में पहुँचकर इधर-उधर घूमते-घामते निश्चित समय से पूर्व ही गुलाब बाग में पहुँचे। वहाँ देखा कि तीनों मंत्री बैठे हैं और सारी तैयारी है। देखते ही, 'आइए आइए' हुआ। मैंने गुरु सहाय बाबू और अंबिका बाबू के पास बैठकर फौरन कहा कि ''भई, खबर भी न दी। यह क्या? यह तो डॉक्टर का काम था कि सत्याग्रह कर के बलात घसीट लाया''। इस पर जो भी बहानेबाजी हो सकती थी दोस्तों ने की। इतने में ही मेरी ऑंख एक लेटरपेपर पर सहसा गई तो देखा कि बाबू गुरु सहाय लाल का नाम धाम उस पर छपा है और उसी के नीचे अंग्रेजी में कई बातें हाथ से लिखी हुई हैं। नीचे किसी का हस्ताक्षर नहीं था। तब तक उन्होंने उसे उठाकर उस पर छपा हुआ अपना नाम और पता फाड़ दिया। बाकी छोड़ दिया। उस समय मैं इसे समझ न सका। परंतु पीछे इसका रहस्य मालूम हो गया।
असल में तथाकथित समझौते की शर्ते उस पर लिखी थीं और कहीं मैं यह न समझ लूँ कि गुरु सहाय बाबू ने ही वह शर्ते तय की हैं फलत: वह भी उनमें एक पार्टी हैं,इसीलिए अपना नाम-धाम उनने फाड़ लिया। इतने में ही देखा कि बिहार लैंड होल्डर्स असोसियेशन के स्तंभ श्री सच्चिदानंद सिन्हा और राजा सूर्यपुरा,श्री राधिकारमण प्रसाद सिंह भी सभा में पधारे। मैं आश्चर्य में था और कुछ समझ न सका कि ये महानुभाव यहाँ क्यों पधारे जब कि यह किसान-सभा है। मगर कुछ बोला नहीं।
(12)
नकली का भंडाफोड़ और असली सभा फिर
फिर सभा का काम शुरू हुआ। बिहार प्रांतीय किसानों की सभा क्या थी, खासी दिल्लगी थी। थोड़े से शहर के लोग थे। दो-चार बाहर के भी थे और शायद दस-बीस किसान। चटपट गुरु सहाय बाबू ने कहा कि किसान-सभा का अध्यक्ष किसी किसान को ही होना चाहिए। अत: मैं बाबू डोमा सिंह का नाम इसके लिए पेश करता हूँ। देवकी बाबू ने समर्थन किया और श्री डोमा सिंहअध्यक्षबने। उसी समय मैंने जाना कि यही डोमा सिंह हैं। इसके बाद फौरन मैंने सवाल उठाया कि एक बिहार प्रांतीय किसान-सभा पहले से है। हममें कुछ लोग उसके पदाधिकारी आदि भी हैं। ऐसी दशा में बिना उसे या उसके मेंबरों और पदाधिकारयों को एक मौका दिए ही दूसरी सभा खड़ी करने से आगे खतरा हो सकता है। इसलिए या तो दोनों को मिलाकर नई सभा बने या कम-से-कम पुराने लोगों को एक मौका दिया जाय कि वे क्या करना चाहते हैं? ताकि पीछे उन्हें कुछ करने का न्यायोचित हक न रह जाए। इस पर गुरु सहाय बाबू ने कहा कि''ठीक''।
मगर देवकी बाबू घबराए। वे अपनी लीडरी खतरे में देख बोल बैठे कि वे लोग तो कुछ करते-धरते नहीं। फिर हम क्यों रुकें रहें?मैंने कहा कि सो तो ठीक है। मगर कायदे के अनुसार उन्हें मौका देने के लिए रुकना ही चाहिए। वे बोले,क्या हम लोग भी बैठे ही रहें, यदि वे लोग कुछ नहीं करते?मैंने कहा,खुशी से काम कीजिए,खूब कीजिए,बैठने को कौन कहता है?मगर दो सभाएँ बन के आपस में ही न लड़ें,इसके लिए एक मौका उन्हें दीजिए। इसमें आप ही को लाभ है। इस पर लोगों ने मान लिया और पुराने पदाधिकारियों आदि को खबर देने की ठहरी। जहाँ तक याद है, 29 फरवरी को फिर दोनों की संयुक्त मीटिंग करने का निश्चय हुआ। इससे वहाँ बैठे राजा सूर्यपुरा और दूसरे लोग घबराए सही। मगर करते क्या?यह तो कायदे की बात ठहरी।
फिर प्रश्न उठा कि जमींदारों के साथ किसानों के समझौते की जो शर्ते हैं, उन पर विचार हो। लोग हाँ-हाँ कर बैठे और अंबिका बाबू ने चटपट वही कागज पर लिखी उसकी तथाकथित शर्ते पढ़ सुनाईं। फिर राय देने लगे कि जहाँ तक ये शर्ते किसानों को अधिकार देती हैं वहाँ तक तो मान ही लेना चाहिए और ज्यादे के लिए आंदोलन भी जारी रखना चाहिए। यह निराली दलील थी। मैं हैरान था कि समझौता भी हो और उसके बाद उससे अधिक हक के लिए आंदोलन भी जारी रहे वह अजीब समझौता है। इसे विरोधी (जमींदार) कैसे मानेंगे कि हम आंदोलन जारी रखेंगे।
लेकिन इस पचड़े में पड़ने के बजाय मैंने फिर कायदे-कानून का ही प्रश्न उठाया और इस सवाल को फिलहाल स्थगित करना चाहा। मैंने कहा कि कुछ भी निश्चय करने के पूर्व आखिर हमें मालूम भी तो हो कि क्या शर्ते हैं। आप यहाँ एक कागज पर लिखी बातें सुना रहे हैं और कहते हैं कि यही शर्ते हैं। मैं माने लेता हूँ कि यही हैं। मगर जब तक इन्हें छाप कर आपने किसानों में बाँटा नहीं और उन्हें इनकी जानकारी कराई नहीं, तब तक उन्हीं के नाम पर इन्हें स्वीकार करने की बात आप कैसे कर सकते हैं?आखिर लोगों को पहले से इनकी जानकारी भी तो हो। साथ ही पहले से जानकारी रहने पर इनके बारे में सोच-समझ कर यहाँ लोग आते। मगर जो लोग यहाँ हैं उन्हें भी तो इनकी जानकारी पहले थी नहीं ताकि वे तैयार होकर आते और अपनी राय इनके बारे में देते। भला यह भी कोई तरीका है कि इतने महत्त्व पूर्ण और प्रांत भर के किसानों के जीवन-मरण से संबंध रखनेवाले प्रश्नों के बारे में हम फैसला करने बैठे और उन पर पहले जरा सा गौर भी नहीं किया?
अब तो लोग दंग थे। सबों के मनोरथ पर पाला पड़ता नजर आया। केवल गुरुसहाय बाबू बोले कि हाँ, यह तो ठीक है। मगर देखा कि राजा सूर्यपुरा बुरी तरह बेचैन हैं और चाहते हैं कि शर्तों के बारे में कुछ-न-कुछ फैसला यहीं हो जाय। उन्हें गुरुसहाय बाबू से बड़ी आशा थी। मगर वह तो मेरे चंगुल में आ गए। बाकी दो उनके बिना बेकार साबित हुए। इससे राजा साहब को गुरुसहाय बाबू पर गुस्सा हुआ जो भीतर ही रहा। बाहर आता भी कैसे? तब तो सारी कलई जो खुल जाती। मगर पीछे निकाला गया जब कौंसिल में उनका नामिनेशन न करवा के बाबू शिवशंकर झा का करवाया गया। क्योंकि,जैसा पीछे पता चला,गुरुसहाय बाबू को नामजद कराने का वचन जमींदार दे चुके थे।
यद्यपि राजा साहब मजबूर थे और कुछ कर न सकते थे। तथापि उनने दलील शुरू की और कहा कि अच्छे काम में देर करना ठीक नहीं,खतरा हो सकता है। मैंने कहा कि''राजा साहब,मजबूरी है, या करें?'' बोले, ''शर्ते तो सामने हैं''। मैंने कहा कि''आखिर सोचें भी तो, क्या यों ही राय दें। कहीं किसानों का गला कटा तो?'' उनने फिर कहा, ''आखिर समझौता ही तो है। इसमें'गिव एंड टेक' (Give and take) की बात है। कुछ आप छोड़ें,कुछ हम छोड़ें,और काम चले।'' मैंने कहा, ''राजा साहब,सो तो ठीक है। मगर,यही तो सोचना है कि किसे कितना छोड़ना है। आपका और गरीब किसानों का छोड़ना-दोनों बराबर नहीं हो सकता। हाथी के सामने पाँच मन खाने के लिए चावल पड़ा था और चींटी के सामने सिर्फ एक चावल था। बात-ही-बात में हाथी ने चींटी से कहा कि ले मैं भी एक चावल छोड़ता हूँ और तू भी छोड़ दे। बस, हमारी और तेरी बहस खत्म। तो क्या यह ठीक होगा? देखने में तो दोनों का समान ही त्याग है। मगर एक चावल छोड़ने से जहाँ हाथी का कुछ न होगा,वहाँ चींटी का सारा परिवार भूखों मर जायगा। फलत: हमें यही तो सोचना है कि येशर्तेचींटी के परिवार को कहीं मारनेवाली तो नहीं हैं?इसीलिए समय चाहते हैं। साथ ही, जमींदार-सभा के प्रतिनिधि आप लोग चुनें और किसान-सभा के हम चुनें और जरूरत हो तो काफी बातचीत कर के कमी-बेशी या उज्र पूरा किया जाय, यहाँ किससे पूछें? जमींदार-सभा ने किसी को चुना है या नहीं कौन कहे? यह कौन है यह भी कैसे जानें?''
बस फिर तो राजा साहब की बोलती बंद हो गई। उन्होंने पहली बार देखा कि यह तो गजब के आदमी से पाला पड़ा। मैंने भी पहली ही बार उन्हें देखा और उनकी दलील सुनी। यों तो बहुत सुन रखा था कि वे खूब ही होशियार और चलते-पुर्जे हैं। मैंने देखा कि वे निराश-से हो रहे हैं। लेकिन इससे क्या? आखिर उसी 29 फरवरी को ही तो मिल कर फैसला करने का निश्चय हुआ। तब तक मंत्री जी को हुक्म हुआ कि समझौते की शर्ते छपवा कर बाँटें। उन्हीं के साथ 29वीं की मीटिंग की सूचना भी हो। यह भी आदेश रहे कि लोग अपने-अपने इलाकों में सभाएँ कर के किसानों को ये शर्ते समझाएँ और उनकी राय ले कर आयें। खूब आंदोलन और प्रचार हो यह बात भी तय पाई। ये शर्ते छपीं और बँटीं भी।
मगर अब जो सबसे बड़ी दिक्कत पेश आई वह यह कि ये शर्ते किसके दरम्यान तय पाईं और इनमें पार्टी कौन-कौन हुए। यह प्रश्न उठना जरूरी था। मैं तो चाहता ही था कि सब बातों की सफाई हो। इसीलिए तो मौका लिया गया। मगर यहाँ तो तबेले में लतियाहुज शुरू हो गई। पता ही नहीं चलता था कि कब और किसके दरम्यान ये शर्ते तय पाई थीं। यह भी नहीं पता चला कि आया यही शर्ते थीं या कि कुछ और। यह भी नहीं मालूम हुआ कि कभी ये या और शर्ते दो पार्टियों के बीच किसी कागज पर लिखकर उस पर उन दोनों के हस्ताक्षर भी हुए थे। यहाँ तक नौबत पहुँची कि कुछ शर्तों के बारे में गुरुसहाय बाबू का कहना कुछ था और चंद्रेश्वर बाबू का कुछ दूसरा ही। यही नहीं,जमींदारों की तरफ से भी इन शर्तों के विभिन्न रूप छपे और अंत में मैंने देखा कि तथाकथित समझौते की शर्तों के तीन स्वरूप लोगों के सामने समय-समय पर आए जिनमें एक दूसरे में कुछ-न-कुछ अंतर जरूर था। बात यह थी कि यों ही जबानी गोलमटोल बातें कर के जमींदार लोग किसानों को ठगना चाहते थे। उधर जो लोग किसानों की तरफ से बोलने का दम भरते थे उन्हें न तो इसकी तमीज थी और न परवाह। उन्हें तो अपना मतलब अलग ही साधाना था। जमींदारों की अक्ल के सामने वह टिक भी नहीं सकते। फलत:,आसानी से चकमे में आ गए।
खैर,सभा का काम तो इस प्रकार पूरा हुआ और मेरा जो मतलब था वह सिध्द हो गया। डॉ. युगलकिशोर सिंह जिस मतलब से मुझे लेने बिहटा गए थे वह सोलहों आना पूरा हुआ। साथ ही जिन लोगों ने अपना मतलब गाँठने के लिए यह कुचक्र रचा था वे भग्न मनोरथ भी हो गए। उनके दिल पर क्या गुजरती थी इसका पता गैरों को क्या हो सकता था?लेकिन अभी कुछ होना बाकी था और वह भी पूरा हो के रहा।
अब तक हममें किसे पता था कि बिहार लैंडहोल्डर्स असोसियेशन के कर्णधारों के पैसे से ही यह किसान-सभा बुलाई गई थी और यही किसानों के भाग्य का निपटारा टेनेन्सी कानून के पेचीदे मामले में करनेवाली थी। सो चलते-चलाते उसका भी भंडाफोड़ होई गया। बात यों हुई कि यारों ने सोचा,शिष्टाचार के अनुसार कुछ लोगों को धन्यवाद तो दे लें। इसलिए विसर्जन होने के पूर्व धन्यवाद दान चला और याद नहीं कि किसे-किसे धन्यवाद दिएगए। मगर आखिर में देवकी बाबू ने कहा कि सिन्हा साहब (श्री सच्चिदानंद सिन्हा) को भी धन्यवाद दिया जाय। मैंने कहा, किसान-सभा को उन्हें धन्यवाद देने से क्या ताल्लुक?उन्होंने पुनरपि हठ किया कि नहीं,धन्यवाद तो देना ही चाहिए उन्हें भी। मैंने साफ कहा कि यह अनुचित है। तब हारकर चुपके से उनने मुझसे कह दिया कि उन्होंने सभा के काम के लिए रुपए जो दिए थे। इस पर मैंने धीरे से उनसे कह दिया कि तब तो और भी बुरा होगा,यदि आपने उनका नाम लिया। क्योंकि लोग समझ जाएगे कि आपकी यह सभा जमींदारों के ही पैसे से बनी है। इस पर चुप हो गए और सभा विसर्जन हुई।
इसी दरम्यान तथाकथित समझौते के आधार पर एक टेनेन्सी बिल तैयार कर के श्री रायबहादुर श्यामनंदन सहाय ने जमींदारों की तरफ से कौंसिल में पेश भी कर दिया था। उसका अधिवेशन चालू था। और खासतौर से बाबू शिवशंकर झा वकील (मधुबनी, दरभंगा) इसके समर्थन के लिए किसानों के प्रतिनिधि के नाम में जमींदारों के ही द्वारा नामजद भी करवाएगए थे। बाबू गुरुसहाय लाल ने जो कमजोरी हमारी सभा में उस दिन दिखाई उसके करते जमींदारों ने उन्हें पहले नामजद नहीं कराया। मगर पीछे मालूम होता है,भीतर-ही-भीतर उनने भी दरबारदारी की। अत: आखिर में वह भी नामजद किएगए। उस सभा के बाद एक दिन वह मेरे पास बिहटा आश्रम में भी आए और पूछने लगे कि क्या करना चाहिए। मैंने कहा कि आप तो हमारे आदमी हैं। इसलिए युनाइटेड पार्टी में हर्गिज शामिल न हों। नहीं तो बुरा होगा। उन्होंने कहा,मैं ऐसा कभी कर नहीं सकता। वहीं पहली बार मैंने उनसे कहा कि आपका और सर गणेश का चुनाव क्षेत्र एक ही है और मैं चाहता हूँ कि उनके मुकाबले में आप आगामी चुनाव में जीतें, मैं आपको जिताऊँ। इसीलिए आपको सजग किए देता हूँ। इसके बाद वह चले गए।
उसके उपरांत समझौते के नाम पर जो शर्ते छपीं और बँटीं उनका जिक्र पहले ही कर चुका हूँ। याद रहे,सत्याग्रह जारी था और धरपकड़ चलती ही थी। फिर भी मैंने सारी शक्ति लगाकर उस समझौते का भंडाफोड़ किया। प्रांत में जगह-जगह सभाएँ कीं। इधर देखा कि जमींदार के दलाल भी काफी मुस्तैद थे। कभी-कभी अखबारों में पढ़ते थे कि पूर्णिया तथा और जगहों में किसान-सभाओं के नाम से उस समझौते के समर्थन हो रहे हैं। ऐसी सभाओं की खबर कई बार पढ़ी और चौंके भी। उधर बाबू गुरुसहाय लाल भी धीरे-धीरे जमींदारों की गोद में चले गए, मगर चुपके से। क्योंकि प्रत्यक्ष होने पर कहीं के न रहते। फिर तो उनकी कोशिश होने लगी कि प्रांतीय किसान-सभा मीटिंग में उस समझौते का समर्थन हो जाय। इसीलिए अपने साथियों को तैयार किया कि उस दिन सबको जमा करो और ज्यादा किसान लाओ जो पक्ष में वोट दें। इससे दूसरे लोग घबराए। एक दिन बाबू बलदेव सहाय,वकील शाम को बिहटा तक पहुँचे भी यही खबर लेने कि ऐसा न हो कि मैं हार जाऊँ। उन दिनों बाबू विनोदानंद झा प्रांतीय कांग्रेस के डिक्टेटर थे। उनका संदेशा भी मिला कि चाहें तो कुछ खास मदद की तैयारी की जाय। मैंने सबों को धन्यवाद दिया और निश्चिंत रहने को कहा। हाँ,सभी जिलों में प्रचार हो जाय और समझदार लोग आ जाए, यही बात कर देने को मैंने कहा। फिर वे चले गए।
ठीक समय और तारीख पर मीटिंग हुई। जोश बहुत था। उधर तैयारी थी कि आज जीतना है चाहे जैसे हो। इसीलिए गुरुसहाय बाबू के दोस्त नौजवान वकील लोग बहुत गर्म हो रहे थे और मुस्तैदी दिखा रहे थे। 5-6 घंटे तक झमेला और वाद-विवाद होता रहा। बड़ी तनातनी थी। आखिर में मजबूर होकर गुरुसहाय बाबू को मेरी यह दलील माननी पड़ी कि यों जब चाहें जिस किसी को यों ही खड़ा कर के जमींदार इसी तरह समझौते का ढोंग रच सकते हैं। यही समझौता उनके लिए पक्का दृष्टांत हो जायगा। और इस तरह वे किसानों को तबाह करते रहेंगे। इसलिए आज इस समझौते के गुण-दोष को न देख इस सिध्दांत के आधार पर ही इसका विरोध होना चाहिए। इसीलिए मैंने कहा कि जमींदार लोग फिलहाल इसे रद्द करें। फिर फौरन बाकायदा किसान-सभा से समझौता करें। उसमें आप ही हमारे प्रतिनिधि रह सकते हैं। हमें उज्र न होगा। आज तो इसका समर्थन करना किसानों के लिए भविष्य में भारी खतरा तैयार करना होगा। बस, वे चुप रहे। करते भी क्या?वोट लेने पर भी जब हारने का लक्षण उन्होंने देखा तो यही बात मान ली।
फिर जो प्रस्ताव पास हुआ उसमें साफ लिखा गया कि किसान-सभा सिध्दांत की दृष्टि से इस समझौते को गलत समझ इसका घोर विरोध करती है और सरकार से माँग पेश करती है कि इसके आधार पर टेनेन्सी बिल को रोक दे। गुरुसहाय बाबू को सभा के मंत्री की हैसियत से कौंसिल में इस बिल के विरोध करने का आदेश दिया गया। पर सरकार यदि न माने और बिल पर विचार होने ही लगे तो उन्हें इस्तीफा देने की आज्ञा दी गई। एक ही प्रस्ताव में यह सभी बातें लिखी गईं और अंत में यह भी कहा गया कि श्री शिवशंकर झा किसानों के प्रतिनिधि नहीं हैं।
अगले ही दिन कौंसिल में बिल पेश होने को था और उससे पहले यह प्रस्ताव सरकार को और सभी मेंबरों को मिल जाना चाहिए था। इधर रात के नौ बजे थे। और प्रेस बंद थे। फिर राय हुई कि रातोंरात किसी प्रेस में छपवाने की कोशिश हो। एक पत्र(Covering letter) के साथ ही यह प्रस्ताव अंग्रेजी में छपे और तड़के मैं बिहटा से आ के सभापति की हैसियत से पत्र पर हस्ताक्षर करूँ। उसके बाद फौरन ही कौंसिल में इसे पहुँचाया जाय। यही हुआ। रात में मैं बिहटा गया। वहाँ से सवेरे ही आकर पत्र पर हस्ताक्षर किया। मगर करते-कराते देर हो गई।
फिर जब स्वयं एक आदमी के साथ कौंसिल भवन में गया तो उसका काम शुरू हो चुका था। इसलिए मेंबरों को साक्षात देना असंभव समझ उसके सभापति के द्वारा बँटवाने का प्रबंध किया गया। तब तक तो सनसनी मची ही थी और सभी जान रहे थे। सभापति थे बाबू निरसू नारायण सिंह। उन्होंने उसे मेंबरों को दिया ही नहीं। कौंसिल के बीच में स्थगित होने पर बाहर इसके लिए मुझसे उन्होंने यह कह के क्षमा माँगी कि कौंसिल के एक मेंबर पर (उनका अभिप्राय श्री शिवशंकर झा से था) इस प्रस्ताव में आक्षेप होने के कारण मैं इसे बँटवा न सका। यह जान कर मुझे गुस्सा आया और सोचा कि जब यह हजरत अगले चुनाव में खड़े होंगे तो देखूँगा कि कैसे चुने जाते हैं। मगर संयोग ऐसा हुआ कि उसके बाद वे गवर्नर की कार्यकारिणी के सदस्य बन गए। इससे खड़े ही न हुए। उस सदस्यता से हटने पर तो वह चुनाव से अलग ही हो गए।
कौंसिल भवन में ही मैं श्री गुरु सहाय बाबू से मिला और पूछा कि आप तो ठीक हैं न? रात में जो तय हुआ उसी के अनुसार चलेंगे न? क्योंकि उन्होंने पहले ही कह दिया था कि सरकार न मानेगी और बिल पर विचार जरूर ही होगा। इसलिए मैंने उनसे पूछा कि इस्तीफा देंगे न? इस पर वे कुछ बिगड़कर बोलने लगे। मैंने उनका रंग बदरंग देखा। फिर तो साफ कहा कि आप बिगड़ते किस पर हैं? आप ही ने सभा की। आप उसके मंत्री हैं। सर्वसम्मति से गत रात्रि में ही प्रस्ताव पास हुआ। आपने उसे माना और इस्तीफे का वचन भी दिया। अब बिगड़ने की क्या बात है? सभा का प्रस्ताव और सबके सामने दिया हुआ अपना वचन इन दोनों को ही तोड़ कर कहाँ रहिएगा? आप ही खत्म होइएगा। मैं तो आप ही के लिए यह कह रहा हूँ। मगर उलटे आप बिगड़ रहे हैं?मुझे क्या? मैं जाता हूँ। आपकी जो मर्जी हो कीजिए।
बस,इसके बाद मैं हट गया और वह कौंसिल में चले गए। मुझे पता चल गया कि सभा के बाद जमींदारों से उनकी भेंट हुई और इन्हें समझाया गया कि सभा में तो आपने भूल की। स्वामी ने आपको फिर ठग लिया,अब अगर विरोध करेंगे या इस्तीफा देंगे तो ठीक न होगा। असल में किसानों के नाम से समझौते के कर्ता-धर्ता तो वही हजरत बने ही थे। हालाँकि,छिपाते चलते थे?इसलिए जमींदारों के सामने उसका विरोध या उससे इनकार करने की उनमें हिम्मत कहाँ थी?इसीलिए उसका समर्थन किया और कहीं के न रहे?
उसी दिन वहीं राजा,सूर्यपूरा से बहुत कुछ बातें हो गईं। वे तो बहुत ही चतुर और व्यवहारकुशल आदमी हैं। इसलिए उन्होंने चाहा कि बाबा गुरु सहाय लाल की ही तरह मुझे भी अपने चंगुल में फँसा लें। जहाँ तक याद है,वही युनाइटेड पार्टी के मंत्री थे। मगर उस पार्टी और जमींदारों की सभा (लैंड होल्डर्स असोसिएशन) में दरअसल कोई फर्क न था। कहने मात्रा के ही लिए दो संस्थाएँ और दो नाम थे। बेशक,युनाइटेड पार्टी में कुछ ऐसे लोगों के भी नाम थे जो जमींदार न थे और कहने के लिए किसानों का प्रतिनिधित्व करते थे। मगर यह सब काम चलाने के तरीके थे। इसीलिए वह बिल उस पार्टी की ही तरफ से,कहने के लिए पेश किया गया था।
हाँ,तो बातचीत में राजा साहब ने कहा कि ये किसान-जमींदार झगड़े कब तक चलाइएगा?क्या ये खत्म नहीं किए जा सकते?मैंने कहा,मैं तो एक क्षण भी इन्हें चलने देना नहीं चाहता। इससे तो किसानों की हानि ज्यादा है। आप लोग तो बड़े हैं,धानी हैं। इसलिए हानियों को बर्दाश्त कर सकते हैं,कर लेते हैं। मगर किसान तो तबाह हो जाते हैं। कारण,वे गरीब जो ठहरे। इस पर वे बहुत खुश हुए और बोले कि तो फिर यह झगड़ा आखिर मिटेगा कैसे?मैंने कहा, आप युनाइटेड पार्टी या जमींदार सभा की तरफ से पाँच आदमी चुन दें और हम किसान-सभा की ओर से। उन्हें पूरा अधिकार हो कि जो कुछ तय कर लें हम दोनों दलवाले उसे ही मान लें। यह सुनकर कम-से-कम ऊपर से तो वह खुश ही हुए और बोले कि हाँ,कुछ तो होना ही चाहिए। मैंने कहा कि मेरा तो यह प्रस्ताव ही है। क्या आप इसे स्वीकार करते हैं?उन्होंने कहा,सोचकर जवाब दूँगा। मैंने कहा,अच्छा। उन्होंने उसी दिन रेल में या पटना स्टेशन पर उत्तर देने को कहा, जब मैंने उत्तर की अवधि पूछी। स्टेशन पर वे मिले भी और उसी ट्रेन से आरा गए, जिससे मैं बिहटा गया। दानापुर में उनने मुझसे कहा कि महाराजा दरभंगा से पूछकर मैं लिखूँगा।
इसके बाद तो मैंने उन्हें कितने ही पत्र लिखे कि क्या आपने महाराजा से पूछा? और अगर हाँ तो क्या तय पाया? पहले तो वे अब मिलूँगा,तब मिलूँगा करते रहे। लेकिन मैं कब छोड़नेवाला था। सन 1933 ई. की गर्मियों में जब वे नैनीताल थे,मेरा पत्र वहीं उन्हें मिला था जो सूर्यपुरा भेजा गया था। उन्होंने वहाँ से आने पर महाराजा से मिलने की बात लिखी। उसके बाद मैंने अखबारों में पढ़ा कि वे वहाँ से लौटे और महाराजा के ही पास दरभंगा गए भी। मगर कोई पत्र नहीं लिखा। मैंने कुछ दिन और प्रतीक्षा कर के आखिरी पत्र उन्हें लिख दिया कि शायद आप लोग किसान-सभा के सभापति से पत्रव्यवहार करना अपनी शान के खिलाफ समझते हैं। इसीलिए तो वचन दे-देकर भी न तो उत्तर देते और न साफ बातें लिखते हैं। आखिर, नहीं या हाँ लिखने में क्या लगा है? यह तो मामूली शिष्टाचार मात्र है। इससे तो मैं अब यह भी मानने को विवश हूँ कि मेरा प्रस्ताव आप लोगों को स्वीकृत नहीं। इसीलिए अब और पत्र आपको न लिखूँगा।
हमारी और उनकी इस संबंध की लिखा-पढ़ी की फाइलें मेरे पास सुरक्षित हैं। किसान-सभा के विस्तृत इतिहास में उन्हें स्थान दिया जायगा, या कभी जरूरत होने पर प्रकाशित की जाएगी। इस आखिरी पत्र की स्वीकृति तक उनने न भेजी।
असल बात तो यह थी कि वह मुझे व्यक्तिगत रूप से बातचीत में फाँसकर अपना काम निकाल लेना चाहते थे, जैसा कि जमींदार लोग तब तक बराबर करते आए थे। इसीलिए चर्चा उनने छेड़ी भी थी। मगर मैं तो इस चकमे में फँसनेवाला था नहीं। मेरी व्यक्तिगत हैसियत थी भी और आज भी क्या है, सिवा एक घर-बारहीन भिक्षुक के? फिर उस हैसियत से मैं सोचता भी कैसे? और बिहार प्रांतीय किसान-सभा को जब तक धोखा देना नहीं चाहता तब तक सिवाय सभापति की हैंसियत के दूसरे रूप में बात भी कैसे कर सकता था? मेरी दृष्टि में तो केवल सभा ही थी और अगर मैं कुछ भी था या अगर मुझे उन्होंने पूछा भी तो उसी के करते। ऐसी हालत में मैं उसे ही कैसे भूल जाता? उन लोगों का ऐसा सोचना ही भूल थी। मगर वह तो इस चाल में पहले सफल हो चुके थे। इसीलिए इस बार भी वही चाल चली गई। पर उन्हें पता क्या था कि पहले की सभाएँ नकली और धोखे की थीं और यह असली है? साथ ही, वे यह न समझ सके कि इस बार निराले आदमी से काम पड़ा है जो घर-बार, और यहाँ तक कि भगवान के ढूँढ़ने का पुराना तरीका भी छोड़ के इस काम में पड़ा है। इसीलिए, इस बार उन्हें ही धोखा हुआ और मुँह की खानी पड़ी। लेकिन,हमेशा के लिए यह चाल तभी से खत्म भी हो गई
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गया के किसानों की करुण कहानी
पहले कहा जा चुका है कि सन् 1931 ई. में प्रांतीय कांग्रेस ने गया जिले के प्रमुख किसान सेवकों के आग्रह से वहाँ और पटने में भी किसानों की दयनीय दशा की जाँच की थी। मगर उसका फल क्या हुआ यह आज तक पता न चला। न तो उन लोगों ने कोई रिपोर्ट ही प्रकाशित की और न अखबारों में ही एक अक्षर भी उसकेसंबंधमें लिखा।असल में प्रांतीय कांग्रेस नेताओं की तो सदा से ही यह चाल रही है कि मौके पर किसानों से काम ले लेना,उनके दु:खों को हटाने के लिए सब कुछ करने का आश्वासन दे देना, और अंत में चुप्पी मार जाना। जिस प्रकार पहली जाँच का कोई फल न निकला और पीछे बहाना ढूँढ़ निकाला गया कि सन 1932 के सत्याग्रह संग्राम में पुलिस वे सब कागजात ऑफिस से ले गई और वापस न कर सकी। ठीक उसी प्रकार दूसरी लंबी जाँच का भी नतीजा कुछ न हुआ,हालाँकि,इस बार तो कागजों के चले जाने का बहाना भी न था। ये बातें आगे आएँगी।
अब सन 1933 ई. की गर्मियों के बीतते-न-बीतते प्रांतीय किसान-सभा की कार्यकारिणी (किसान कौंसिल) की एक मीटिंग पटने में हुई। उसमें तय पाया कि गया के किसानों के दु:ख-दर्द की पूरी जाँच करके उसकी रिपोर्ट किसान-सभा छपवाए और उचित कार्यवाही करे। उसके लिए एक जाँच-कमिटी भी पाँच सदस्यों की बनी,जिसमें मैं,पं. यमुना कार्यी,पं. यदुनंदन शर्मा, डॉ. युगल किशोर सिंहऔर बाबू बदरी नारायण सिंह यही लोग थे। कार्यी जीमंत्रीऔर संयोजक थे।
बरसात सिर पर थी। मगर यह भी सोचा गया कि जाँच में देर न हो। उसका काम खामख्वाह शुरू होई जाए। फलत:,जिले में चारों ओर खबर देने,कहाँ-कहाँजाएयह ठीक करने, किसानों को पहले से ही वहाँ जमा करने, सभा करने और प्रोग्राम को ठीक-ठीक पूरा करने के लिएप्रबंधकरने आदि का भार पं. यदुनंदन शर्मा पर डाला गया। उन्होंने अपनी स्वभावसिध्द तत्परता से यह काम ऐसा ठीक किया कि हम सब हैरत में थे। बरसात के समय में भी घोर देहात का एक प्रोग्राम भी सफल होने बिना न रहा। ऐसी कामयाबी हुई कि हम दंग रह गए। जहाँ पहुँचते वहाँ आगे के लिए पहले से ही सवारी आदि का प्रबंधरहता। सोलह-सोलह , बीस-बीस मील तक के फासले पर विकट देहात में लगातार जाना पड़ा! यह भी नहीं कि बीच में एकाध दिन विश्राम हो। वर्षा के दिनों में पालकी , घोड़ी आदि ही सवारियाँ हो सकती थीं और उनका पूरा प्रबंध रहता था।
पाँच सदस्यों में बदरी बाबू तो आए ही नहीं। हम समझ भी न सके कि गया के दोस्तों ने उनका नाम क्यों दिलवाया था?शुरू से अंत तक न तो वे जाँच में ही या कमिटी की बैठक में ही आए और न पत्रादि के द्वारा कोई कारण ही बताया। मगर शेष चार जाँच में शामिल रहे। डॉ. युगल किशोर सिंह बीच-बीच में गैरहाजिर भी रहे। मगर मैं, कार्यी जी और शर्मा जी ये तीनों शुरू से अंत तक साथ रहे, यहाँ तक कि पीछे विचारने और रिपोर्ट की तैयारी के समय भी। लेकिन रिपोर्ट तो मैंने और कार्यी जी ने ही तैयार की।
जहाँ तक मुझे याद है,ता. 15 जुलाई को हमने जाँच का काम शुरू किया। हम चारों ही जहानाबाद स्टेशन से उतरकर उससे पूर्व और उत्तर के इलाके के धनगाँवा आदि गाँवों के दो केंद्रों में दो दिन रहे। उसके बाद मखदुमपुर के इलाके में महम्मदपुर गए। वह कुर्था थाने में पड़ता है। उसके बाद, जब कि पानी पड़ रहा ही था,हम मझियावाँ (पं. यदुनंदन शर्मा के गाँव) के लिए सवेरे ही रवाना हो गए और भीगते-भीगते पैद ही वहाँ पहुँचे। रास्तेवाले नाले में गर्दन भर पानी था। उसमें घुसकर ही उसे पार किया। मझियावाँ की दशा वर्णनातीत थी। फिर टेकारी थाने में भोरी गए। वहाँ से परसावाँ और परैया जाना पड़ा। उसके बाद फतहपुर थाने में खास फतहपुर गए।जाँच की बात तो, 'गया के किसानों की करुण कहानी' के रूप में पुस्तकाकार प्रकाशित हुई। वह पढ़ने ही लाएक है। वे बातें यहाँ नहीं लिखी जा सकती हैं। लेकिन दो-चार खास बातें लिखेंगे।
हमने प्राय: दस दिन लगाए? इस बीच ज्यादातर मौजे टेकारी राज के ही मिले जो अब सोलहों आने राजा अमावाँ के ही हाथ में हैं। उनके साठ मौजे हमने देखे। वहाँ किसानों के लिखित बयानों के सिवाय गवाहियाँ भी लीं। दूसरे छोटे-मोटे जमींदारों के और खास महाल के भी कुछ मौजे खासकर परैया में हमें मिले। टेकारी के जो मौजे श्रीमती शहीदा खातून को मिले हैं, उन्हें भी देखा। अमावाँ के एक पटवारी ने हमसे कहा कि यहाँ तो हम बेमुरव्वती से लगान वसूलते हैं। मगर हमारे घर पर लगान में ही हमारी जमीन बिक गई। क्योंकि ज्यादा होने से दे न सके और पैदावार भी मारी गई थी।
अमावाँ राज के ऐसे भी गाँव मिले जहाँ किसान की जमीन जबर्दस्ती छीनकर राज की कचहरी उसी पर बना ली गई थी। मगर लगान किसान से उस जमीन का लिया जाता ही था।
ईकिल में एक नाई ने कहा कि हम जमींदार (अमावाँ राज) के बराहिल (नौकर) को रोजाना रात में तेल लगाया करते थे। एक दिन ऐसा हुआ कि वह कहीं चले गए थे। अत: हम राज की कचहरी में न गए। लौटने पर उनने पता लगाया और बुलवा कर हमें गैरहाजिरी के लिए सजा दी। हमने जब कहा कि आप थे ही न, फिर आते क्यों? तो उत्तर मिला कि आते और इस खंभे में तेल लगा कर चले जाते। क्योंकि आने और तेल लगाने की आदत तो बनी रहती।
कई जगह यह शिकायत आई कि जमींदार के अमले किसानों के बकरों के गले में लाल धागा बँधवा देते हैं। फिर तो वह उनका हो जाता है। किसान पालपोस के सयाना करता है। पीछे चार आने देकर उसे ले जाते हैं?कहीं गड़बड़ हुई तो दंड होता है।
पैंतालीस प्रकार की गैरकानूनी वसूलियों का पता लगा। धनगाँवा में पास ही पास के दो खेतों को देखा तो पता चला कि एक का लगान साल में पूरे साढ़े बारह रुपए और दूसरे का साढ़े तीन ही है। दूसरा पुराना था और पहला हाल का बंदोबस्त किया हुआ। हालाँकि, जमीन एक ही तरह की और पैदावार भी बराबर ही थी।
मझियावाँ में कंकड़ीदार खेत का लगान फी बीघा साढ़े तेरह रुपया पाया! उसमें पाँच मन पैदा होना भी असंभव था! हजार रुपए साल में लगान देनेवाले किसान का घर पाखाने से भी बदतर था। वह खाने बिना तबाह था! परसामा में नदी के किनारे निरी बालूवाली जमीन हमने आँखों देखी। उसमें जंगली बेर लगे थे। मगर लगान संभवत: पूरे ग्यारह या तेरह रुपया फी बीघा! परैया के इलाके में देखा कि खास महाल में मिट्टी दिलाने और आब पाशी का प्रबंध होता है। मगर पास ही में अन्य जमींदार कुछ नहीं करते। कई गाँवों में खास महाल और टेकारीराज की शामिल ही जमींदारी मिली। उसमें खास महाल का लगान नगद पाया और जमींदार की भावली। जहाँ किसानों के साथ ही जमींदार की भी खेती (जिरात) होती है, वहाँ का जुल्म देखा कि किसानों के हल-बैल मौके पर जमींदार बेगार में ले जाते हैं। फलत:, किसानों की खेती बिगड़ जाती है। धान के लिए पानी पहले जमींदार लेता है और बचने पर ही किसान पाता है। नहीं तो उसका धान सूख जाता है।
इस प्रकार जाँच कर के हम लोग पटने लौट आए। इस जाँच से किसानों की भीतरी जर्जर दशा की और जमींदारों के जुल्मों की भी प्रत्यक्ष जानकारी तो हुई ही। साथ ही,हमने किसानों को जो स्वयं मुस्तैदी से हमारी जाँच-सभा और अन्य बातों का प्रबंध करते देखा उससे हमारे दिल पर पहले पहल यह असर हो गया कि यदि कोशिश हो तो किसान जल्द जग पड़ेंगे। क्योंकि क्षेत्र तैयार है। हमें चट्टान से सिर टकराना या निरे मुर्दों को जगाना नहीं है। हमारा अंदाज हुआ कि समय के धक्के से उनकी नींद टूटी है। वे आलस्य में पड़े हैं। किसी जगानेवाले की प्रतीक्षा में हैं। यह उसी समय की हमारी धारणा है जो ज्यों की त्यों याद है।
लौटकर एक तरफ तो हम विस्तृत रिपोर्ट की तैयारी में लगे। दूसरी ओर राजा अमावाँ को एक पत्र लिखा। वह मसूरी गए थे। वहीं पत्र भेजा। पत्र और उसके उत्तर दोनों ही सुरक्षित हैं। कई वर्षों के बाद जब एक दिन अकस्मात वह पत्र मुझे मिल गया और मैंने पढ़ा तो मुझे अपार आश्चर्य हुआ। मैंने सोचा कि मैं वही हूँ या दूसरा, मैं बदल गया या दुनिया ही बदली। पत्र की भाषा और बातें ऐसी हैं कि आज मुझे उसे पढ़ने में शर्म आती है और यदि उसे कोई आज का साथी, जो प्रगतिशील विचार वाला है,देखे तो मुझे पक्के दकियानूसी के सिवाय दूसरा समझ सकता ही नहीं। फलत: या तो मुझ पर और मेरी बातों पर आज सहसा विश्वास ही न करेगा, या यह मानेगा कि यह स्वामी सहजानंद सरस्वती कोई और है, न कि उस पत्र का लेखक। फिर भी बात ऐसी नहीं है।
असल में उन दिनों मेरे विचार वैसे ही थे। मैं ईमानदारी से मानता था कि जमींदारों को समझाकर तथा उनसे मिल-मिलाकर किसानों के कष्ट दूर किए जा सकते हैं। उसके आगे न तो मैंने कुछ जाना था और न सोचा ही था। इसी भाव से मैंने राजा सूर्यपुरा से भी समझौते की कोशिशें की थीं। पर विफल रहा। इसी भाव से एक बार मैंने राजा अमावाँ को पहले भी समझाया था कि बेगार और दूध-दही वगैरह वसूलना बंद करें। वे ऐसा न करें कि उनके ग्वाले (यादव) किसान अपने को अपमानित समझें। मेरे पास बिहार शरीफ की एक शिकायत यादव-सभा के मंत्री ने लिखी थी कि राजा अमावाँ के अमले यादवों के स्त्री-पुरुषों के सिर पर दही की हँड़ियाँ रखवा कर उन्हें दही पहुँचाने को बुलाते हैं। यह आत्मसम्मान के खिलाफ है।
उसी भाव से मैंने सन 1933 के उत्तरार्ध में मसूरी पत्र भी लिखा कि मेरे सामने अंधेरा है कि क्या करूँ, कोई रास्ता नहीं सूझता कि किसानों के कष्ट कैसे दूर करूँ। मेरा खयाल है कि सारी बातें जानकर आपका दिल अवश्य द्रवीभूत होगा और उनके कष्ट आप दूर कर देंगे। आपके यहाँ से निराश होने पर ही दूसरा उपाय ढूँढ़एगा जो अभी तो कतई नजर आता ही नहीं। भला इससे ज्यादा दकियानूसीपन और क्या चाहिए? लेकिन यह ठीक है। मैंने अपने हृदय के सच्चे भाव लिखे थे। क्योंकि 'मन में आन और मुख में आन' वाली बात मैंने आज तक जानी ही नहीं। पर इसका परिणाम क्या हुआ सो तो आज सबों के सामने ही है।
राजा अमावाँ का उत्तर ले कर उनके प्राइवेट सेक्रेटरी और मेरे पुराने परिचित पं. रामबहादुर शर्मा एम. ए. आए। राजा साहब भी तो पुराने परिचित ही थे। शायद इसीलिए ऐसा हुआ। उन्होंने अपने पत्र में साफ लिखा भी कि मैं आपको पहले से ही जानता हूँ। इसलिए आपकी बात में मुझे विश्वास है, अधिक विश्वास दिलाने की जरूरत नहीं, जैसा कि पत्र के द्वारा आपने किया है आदि-आदि। मगर उन्होंने पूरी रिपोर्ट की एक प्रति माँगी ताकि अपने ऑफिस में भेज कर सारी बातों की जाँच पहले से करवा लें और अफसरों एवं अमलों से कैफियत पूछ लें। उन्होंने यह भी लिखा कि इस बीच में यह कर केसितंबर में पटने में आपसे मुलाकात तथा बातें करूँगा।
आखिर,हमें रिपार्ट की दो प्रतियाँ लिखनी पड़ीं। बहुत बड़ी चीज थी। मगर करते क्या?जल्द-से-जल्द एक प्रति उनके पास भेजी गई। उसके बाद सितंबर में जब वे पटने लौटे तो चौधारी टोलेवाले टेकारी के मकान में ठहरे। वहीं मिलने के लिए मेरे पास संदेश गया। मैं गया और पूरे साढ़े तीन घंटे तक बातें होती रहीं। मगर नतीजा कुछ न निकला। बातचीत के समय उनके मैनेजर बाबू केदारनाथ सिंह भी मौजूद थे। राजा साहब की अजीब हालत थी। कभी तो इलजामों को मानते और कहते कि हो सकता है ऐसा होता हो और कभी कहते कि इतना बड़ा इंतजाम है। इसमें स्थायी नौकरों पर विश्वास करना ही पड़ता है। उसके बिना काम चल नहीं सकता।
मैंने जो कुछ आरोप लगाए थे वह तो मौके पर जा के देखने के बाद ही। मैंने यह भी कहा कि अगर कभी-कभी अचानक किसी मौके पर आप खुद पहुँच जाएँ और किसान को एकांत में बुलाकर उसके सुख-दु:ख पूछें तो बहुत कुछ पता लग जाए कि मेरी बातें सही हैं या नहीं। इससे यह भी होगा कि आपके अमले थर्राते रहेंगे। मैंने फिर कहा कि यदि किसानों का विश्वास अपने ऊपर लाना या कायम रखना है तो मजिस्ट्रेट वगैरह के कहने से दस-बीस हजार रुपए अस्पताल में देने की अपेक्षा, अपनी जमींदारी के गाँवों में हैजे आदि के समय दस ही पाँच रुपए की दवा किसानों में अपनी ओर से बँटवाइए और उसका असर देखिए। बातें तो ठीक थीं और थीं उन्हीं के काम की। मगर इन्हें स्वीकार करना उनके लिए असंभव था।
मैंने कहा, आपके जो नौकर दस-बीव रुपए महीना पाते हैं जरा उनका ठाटबाट देखें। वह तो सैकड़ों कमानेवालों को मात करता है। फिर ये रुपए आते कहाँ से हैं यदि वे जुल्म नहीं करते? उनके पास इसका उत्तर क्या था, सिवाय मौन हो जाने के? मैंने फिर कहा, जमींदारी आपकी खराब होगी या बिक जाएगी। इसमें नौकरों की क्या हानि है? वह तो उसी के यहाँ नौकरी करेंगे जो आपकी जमींदारी खरीदेगा। इसलिए उसकी फिक्र आप नहीं करें,और उस नौकर से उमीद करें यह तो आपकी भूल है। मगर वे चुपचाप सुनते रहे।
फिर मैनेजर साहब ने कोशिश की कि सारा प्रबंध दूध का धोया सिध्द करें और यह बताएँ कि मैं ही भ्रम में हूँ। इसलिए उनने बहुत भूमिका बाँधी। अंत में कहा कि आप दूसरे दिन फिर बातें करें तो मैं कागज वगैरह लाकर अपना पक्ष साबित करूँगा और आपको विश्वास दिलाऊँगा, "I shall convince you" कि कोई गड़बड़ी नहीं है। मैंनेउत्तरदिया कि जो बातें आँखों देख आया,उन्हें सोलहों आना गलत और भ्रम मान लूँ, यह तो अजीब बात है! यह दूसरी बात है कि सौ इलजामों में दस-पाँच या दो-चार को भी आप सही मान लें तो आगे बातें कर सकता हूँ। मगर सभी गलत मान कर बातें करने की उम्मीद मुझसे आप करें, या चाहें कि मुझे विश्वास दिलाएँगे, यह ठीक नहीं। मैं ऐसी बात के लिए तैयार नहीं। यकीन रखिए, आपके द्वारा ऐसे यकीन को प्राप्त करने के लिए मैं हर्गिज तैयार नहीं, "I am not going to be convinced by you" ऐसी दशा में और बातें करना बेकार है। यही कह के मैं चला आया और फिर कभी आज तक उन लोगों से मिला ही नहीं।
मुझे आश्चर्य हुआ कि ये लोग कितने बेशर्म और पक्के हैं। जरा भी टस से मस होने को तैयार नहीं। उलटा मुझे ही बेवकूफ बनाने की कोशिश कर रहे थे! मगर मेरी आँखों का तो पर्दा ही खुल गया। सारी आशाओं पर पानी फिर गया। मुझे साफ दीखा कि ये लोग लाइलाज मर्ज में फँसे हैं। अब समझौते से शायद काम न चलेगा। उसकी कोई आशा ही नहीं। अब तो कोई दूसरा रास्ता सोचना ही पड़ेगा। मुझे ताज्जुब हुआ कि मैंने किस भाव से और किन शब्दों में उन्हें लिखा था और उसका नतीजा क्या हुआ! असल में मुझे यही अनुभव हुआ है कि जो लोग इन्हें दबाएँ उनके सामने तो ये झुकते हैं। मगर जो दोस्ताना ढंग से इनसे बातें कर के इन्हें समझाना और मनाना चाहें उन्हें उलटे ये लोग उल्लू बनाने की कोशिशें करते हैं। ऐसे मौके अनेक मिले हैं, जिनसे मेरी यह धारणा हुई है। खैर, उस बातचीत के बाद पहला काम मैंने यह किया कि उस रिपोर्ट की सभी प्रमुख बातें ले कर 'गया के किसानों की करुण कहानी' लिखी और फौरन छपवा डाली।
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आंदोलन , टेनेन्सी बिल आदि
सन 1933 ई. के बीतने के पहले कई बातें हुईं। एक तो हमने ऐसा घोर आंदोलन किया कि जमींदार और सरकार दोनों ही को घबराहट हुई। उनके मददगार नामधारी नेता कुछ न कर सके। कई जगह उनकी मीटिंगें हो न सकीं। खुल के किसी सभा में वे लोग अपना समर्थन कर न सके।
दरभंगा जिले के फूलपरास (थाने) में एक विचित्र घटना हो गई जिसने
श्री शिवशंकर झा और उनके दोस्तों को निराश कर दिया। जाड़े के दिन थे। दरभंगा जिले में मेरा दौरा था। कमतौल की मीटिंग के बाद अगली मीटिंग फूलपरास में थी। उसी दिन रात की ट्रेन से मुझे पटना लौटना भी जरूरी था। क्योंकि अगले दिन देहात में वहाँ सभा थी।
प्रोग्राम के मामले में मैं इतना पक्का रहता हूँ कि मर-जी के चाहे जैसे हो उसे पूरा करता ही हूँ। मैंने किसानों और कार्यकर्ताओं को कह रखा है कि जो मीटिंग मैं ठीक करूँगा उसमें या तो जिंदा पहुँचूँगा , नहीं तो , मेरी लाश तो जरूर ही पहुँचेगी! इसीलिए चाहे देर भले ही हो , मगर उन्हें सर्वत्र विश्वास रहता है कि मैं जरूर पहुँचूँगा। आज तक मैं ऐसी एक भी मीटिंग में पहुँचे बिना न रहा।
इसीलिए फूलपरास भी जाना जरूरी था और पटना पहुँचना भी,मगर बिना मोटर के उस दिन समय पर रेल पकड़ना असंभव था। सवा सौ माईल की दौड़ लगा के समस्तीपुर गाड़ी पकड़नी थी। मोटर का प्रबंध पहले था नहीं। फूलपरास जाने की इसी से आशा भी न थी। मगर मैं तो संकल्प किए बैठा था। खैर, पं. यमुना कार्यी के दोस्त एक मुसलमान सज्जन ने अचानक मोटर दी और कमतौल से लहेरियासराय आ के पेट्रोल लिया गया। फिर हम लोग फूलपरास चले। मैं था और कार्यी जी। वह तो शुरू से ले कर आज तक मेरे साथी रहे हैं। किसान-सभा में अभी तक वे मेरे सबसे पुराने साथी हैं।
आगे जाने पर जहाँ मधुवनीवाली सड़क हमारी सड़क में मिली वहीं एक मोटर मधुवनी की ओर से आ कर आगे चली गई। हमने सोचा, कौन है। पीछे अंदाज लगा कि बाबू शिवशंकर झा शायद उसी सभा में अपने पक्ष के समर्थन में जा रहे हैं। फूलपरास के निकट जाने पर तो ठीक ही हो गया कि अपने मित्र श्री कपिलेश्वर शास्त्री के साथ विजय का सेहरा अपने माथे बाँधने झा जी आए हैं। उन्हें शास्त्री ने कहा था कि वह मेरा इलाका है और वहाँ मैथिली ही अधिकांश बसते हैं। इसलिए आज स्वामी जी को जरूर पछाड़ा जाए। लोग खामख्वाह हमारी बात मान लेंगे। हमें भी कुछ घबराहट हुई कि यह अचानक हमला हुआ। खैर,डाकबँगले में जा कर ठहरे। सभा में काफी भीड़ हुई। हम खाने-पीने में लगे। मगर कार्यी जी से कहा कि सभा में पहले ही चलना चाहिए। नहीं तो कहीं, वही उस पर दखल जमा ले तो बुरा होगा। मगर जब तक हम लोग वहाँ जाने ही को थे तभी तक श्री शिवशंकर झा और उनके दोस्त जा कर जम गए और अपने ही एक मित्र को सभापति भी चटपट बना लिया! हम तो बुरी तरह छके। यद्यपि हमने सभा बुलाई थी,इसलिए उन्हें ऐसा करना उचित न था। मगर वह तो युध्द कर केविजयी बनने आए थे और युध्द में औचित्य की क्या बात? वहाँ तो घात लगने की ही बात असल है और घात उन्होंने लगा ही लिया। खैर,खबर पा के हम लोग भी फौरन जा पहुँचे।
अजीब परिस्थिति थी। हम दोनों ही आमने-सामने डँटे थे। मगर सभा पर उनका दखल था। सभापति उनके अपने थे। बात उठी कि पहले कौन बोलेगा। मैं चुप रहा। झा ने कहा कि पहले स्वामी जी ही बोलें। वह समझते थे कि पीछे वह बोलेंगे और मेरी बातों को काट छाँटकर परिस्थिति अपने अनुकूल बना लेंगे। मैं भीतर ही भीतर खुश हुआ। मगर कार्यी जी कुछ बोलना चाहते थे कि पहले झा ही बोलें। मैंने उन्हें धीरे से रोक दिया। अंत में सभापति ने तए कर दिया कि पहले स्वामी जी ही अपनी बात कहें। मैंने देखा कि अब तो सभापति की आज्ञा हो जाने पर यह बात टलेगी नहीं। तब मैंने कहा कि मैं आपकी आज्ञा मानूँगा। मगर जो पहले बोलता और प्रस्ताव लाता है उसे पीछे उत्तर देने का हक होता है। झा और उनके दोस्त चौंके। मगर करते क्या? अंत में मानना ही पड़ा कि पीछे मैं उत्तर दूँगा।
इसके बाद मैंने लोगों को सारी चीजें समझाईं। खास तौर से बकास्त और जिरात तथा सर्टिफिकेटवाली धाराओं के खतरे लोगों के सामने रखे। जिस तरीके से यह समझौता किया गया उसकी भी पोल खोली और बताया कि अगर आज यह समझौता किसानों के पूरे फायदे का हो तब भी इसे मानना भूल होगी। किसानों की पीठ के पीछे फिर कभी ऐसे ही समझौते के द्वारा ये सभी चीजें छीनी जा सकती हैं और किसानों का गला काटा जा सकता है। तब हमें बोलने का मुँह न रहेगा। क्योंकि'मीठा-मीठा गप्प, कड़वा-कड़वा थू'कर नहीं सकते। फिर झा जी बोलने उठे तो उन्हें कुछ उत्तर तो देना था। कुछ बेसिर-पैर की बातें बोलने के बाद लोगों को अपने पक्ष में लाने के लिए उन्हें उभाड़ने और कलह की बातें बोलने लगे। मुझे ताज्जुब हुआ जब उन्होंने खुदकास्त और बकाश्त को दो चीजें माना और वकील होकर ऐसी मोटी गलती की। मैंने टोका भी। मगर कुछ बेशर्मों की सी बात करते रहे।
इसके बाद जब मैं उत्तर देने उठा तो सभापति से कहलवाया कि पाँच मिनट से ज्यादा वक्त न लें, खैर, मैंने मान लिया और इस प्रकार कहना शुरू किया कि किसानों के दिल में बातें धँस गईं। पाँच मिनट होने पर जब सभापति ने इशारा किया कि समय हो गया तो श्रोताओं ने तूफान किया कि और बोलिए, और बोलिए। सभापति जी मजबूर हो गए और मेरी धारा चली। जब कुछ देर के बाद फिर रोकना चाहा तो सभी लोग उन्हीं पर बिगड़ गए। नतीजा हुआ कि सभापति और झा जी को तथा उनके दोस्तों को मामला बदरंग नजर आया। तब उनने सोचा कि बीच में ही उठ चलें और सभा में हुल्लड़ मचा कर उसे तोड़ दें। फलत:,वे लोग बीच में ही उठे। मगर उनके दुर्भाग्य से उनके साथ शायद ही दस-बीस लोग उठे हों। बाकी मंत्र मुग्धवत सुनते रहे। फिर वे बाहर जा कर अपनी मोटर से देर तक गरगराहट की आवाज निकालते रहे। लेकिन जब इतने पर भी कुछ होते न देखा तो धीरे से मोटर पर चढ़ के निकल भागे। फिर तो हमारी विजय हुई। सभा के बाद मैं भी खुशी-खुशी मोटर से भागा। क्योंकि ट्रेन पकड़नी थी बहुत दूर जा कर रात के ग्यारह बजे ठेठ समस्तीपुर में। ट्रेन पकड़ी भी।
इस सभा से दिल पर पहलेपहल जबर्दस्त असर हुआ और मुझे विश्वास हो गया किअब ये अपढ़ और सीधे-सादे किसान ज्यादा दिनों तक ठगे नहीं जा सकते। जहाँ मैं जीवन में पहली ही बार गया और किसान-सभा की जहाँ चर्चा तक न थी, यहाँ तक कि जहाँ के लोगों से खास परिचय भी हमारा न था, वहीं बाघ अपनी माँद में पछाड़ा गया। झा जी की बातें न सुनकर किसानों ने हमारी बातें सुनीं यह घटना किसी की भी आँखें खोल सकती थीं , श्री शिवशंकर झा के दिल पर क्या गुजरी यह कौन बताए?
इसका और इस बढ़ते आंदोलन का नतीजा यह हुआ कि वह टेनेन्सी बिल लटकता रहा। किसी की हिम्मत नहीं हुई कि वह पास किया जा सके। प्राय: दो वर्ष के बाद सिर्फ सर्टिफिकेट की धारा रख के जिरातवाली निकाल दी गई। दूसरे भी अनेक सुधार कर के तब कहीं वह सन 1934 ई. के अंत में कानूनी जामा पहन सका। जिरात के बारे में अंतिम बार बिहारी जमींदार हारे और सदा के लिए हारे। युगों से इसका आंदोलन कर रहे थे। मगर आखिर में निराश हो गए। इसी आंदोलन का फल हुआ कि इधर आ कर सर्टिफिकेट की धारा भी खत्म हो गई। अनेक और बातें भी उसी समय हुईं। फलत: बिहार का काश्तकारी कानूनी सभी प्रांतों से अपेक्षाकृत कहीं अच्छा है।
सन 1933 ई. के अंत में जेल से बाहर आने पर बाबू श्री कृष्ण सिंह ने हमारे आंदोलन की सराहना करते हुए एक सभा में साफ कह दिया कि''प्रांत ने आंदोलनकर के बता दिया है कि वह जीवित है और सब कुछ कर सकता है।'' इतना ही नहीं। युनाइटेड पार्टी को तो हमने दफना ही दिया। कुछ लोगों ने जो उसके बड़े हामी थे,थोड़े दिनों बाद ही ऐसी गर्म आहें उसके नाम पर अखबारों में भरी थीं कि दया सी आ जाए। पीछे तो हमें यह भी मालूम हुआ कि प्रांत के दो-एक प्रसिध्द कांग्रेसी नेताओं ने,जिनकी दोस्ती जमींदारों के साथ गहरी थी और है,इशाराभी किया था कि हाँ,इस समझौते के आधार पर बना हुआ बिल कानून बन सकताहै! इसीलिए तो जमींदारों को हिम्मत थी और देर तक डटे रह के मजबूरन पीछे हटे।
उस समय एक बात और हुई। प्रांत के एक डिक्टेटर ने जहाँ मेरी मदद शुरू में करनी चाही थी वहाँ पीछे दूसरे डिक्टेटर श्री सत्य नारायण सिंह ने ऐसी एक नोटिस छपवा दी कि कोई कांग्रेसी कांग्रेस के सिवाय और किसी भी आंदोलन में इस समय भाग न ले। इससे कांग्रेस और उसकी लड़ाई कमजोर होगी। इसका सीधा अर्थ था किसान आंदोलन से रोकने का और जमींदारों की हिम्मत बढ़ाने का। इन भलेमानसों ने इतना भी न समझा कि उनकी हरकतों के करते न सिर्फ रद्दी सा कानून बन के किसानों को सताएगा, प्रत्युत इससे युनाइटेड पार्टी सदा के लिए मजबूत होकर कांग्रेस की जड़ खोदेगी। यदि इसे राजनीतिक दिवालियापन कहें तो?
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प्रथम प्रांतीय किसान कॉन्फ्रेंसऔर वाद
आगे बढ़ने के पूर्व पहली बिहार प्रांतीय किसान कॉन्फ्रेंस की बात कह देना जरूरी है। वह सन1933 ई. की बरसात में बिहटा में ही हुई। मैं ही उसका सभापति था। उसमें बाबू सुधाकर प्रसाद सिंह, मुजफ्फरपुर ने मेरी बहुत सहायता की। हालाँकि वे रायबहादुर श्यामनंदन सहाय के पक्के दोस्त थे और सहाय जी नए टेनेन्सी बिल और युनाइटेड पार्टी के असली स्तंभ थे। एक तो हमारी सभा की प्रारंभिक दशा थी। दूसरे कांग्रेस के भीतर और बाहर जो स्वार्थों का संघर्ष चल रहा था उसके फलस्वरूप भी उनने मेरी सहायता की थी और अंत तक करते रहे। हालाँकि शीघ्र ही उनका देहांत हो गया। वे कॉन्फ्रेंसमें शामिल भी हुए। मगर दूसरे ऐसे लोग भी शामिल थे जो किसानों के कागजी लीडर कभी बन चुके थे और उस समय भी दावा करते थे। बहुत बड़ी रुकावट और बाधा की परवाह न कर के सुधाकर बाबू आए थे। एक ही दिन में कॉन्फ्रेंसका काम पूरा हुआ। आश्रम के पास ही श्री नारायण साहु के गोले में वह हुई थी।
हमने पीछे अनुभव किया कि डिस्ट्रिक्ट बोर्ड और कौंसिल की मेंबरी में मदद मिलने के खयाल से ही कितने लोग हमारी सभा में उस समय मिले थे। दलबंदी और किसी जमींदार के साथ लड़ाई हो जाने पर उसे बदनाम करने और बदला चुकाने के लिए भी कुछ शामिल हुए। यह भी देखा कि कांग्रेस के लीडरों ने टेनेन्सी बिल का सवाल हल हो जाने पर लोगों को किसान-सभा से यह कह के रोका और उसका विरोध किया कि वह तो सिर्फ टेनेन्सी बिल के विरोध के लिए बनी थी अब उसकी जरूरत ही क्या है?
इधर निरा यह रवैया था कि आगे बढ़ते जाना। लेकिन उसी के साथ प्रांत के ख्यातनामा नेताओं से कोई भी विरोध न होने देना। मेरी बराबर कोशिश थी कि सभा के बारे में उन लोगों के दिल में कोई बदगुमानी कभी होने न पाए। इसीलिए कभी एक शब्द भी ऐसा न बोला और न भरसक बोलने दिया जिससे वे लोग खुलम-खुल्ला चिहुँक जाए। क्योंकि मैं जानता था कि कुछ लीडर ऐसे हैं जो शुरू से ही इसे नहीं चाहते। ऐसी हालत में अगर उन्हें जरा भी मौका मिला तो तूफान खड़ा कर के हमें आगे बढ़ने न देंगे इसीलिए ऐसे कामों और शब्दों से उनका हाथ अनजान में ही सही मजबूत करने के बजाए हमें ऐसा व्यवहार करना चाहिए कि मुँह खोलने का मौका ही उन्हें न मिले। फलत: वे इक्के-दुक्के ही रह जाए। अपने साथी बढ़ा न सकें। मुझे आनंद है कि इस काम में मुझे पूरी सफलता मिली और वे लोग विरोध करने के लिए तब खड़े हुए जब किसान-सभा काफी मजबूत हो चुकी थी।
सन 1934-35 में ऐसे भी मौके आए जब मेरे साथियों ने जमींदारी मिटाने के प्रस्ताव किसान कौंसिल और किसान सम्मेलन में कई बार पेश किए। मगर मैंने सख्त विरोध किया और वे गिर गए। लेकिन एक बार तो जवानों ने जोश में आ कर किसान कौंसिल में सन 1934 ई. में पास भी कर दिया बहुमत से एक प्रस्ताव। तब मैंने कहा कि सभापतित्व से मेरा इस्तीफा ले लीजिए। मैं मेंबर रहूँगा सही। मगर इस प्रस्ताव पर अमल करने की जिम्मेदारी नहीं ले सकता। इसके बाद फिर उन लोगों ने मेरी बात मान ली और इस प्रस्ताव को फिर से लाकर गिरा गया। मैं यह बात कह दूँ कि उन जवानों में प्राय: सभी ऐसे ही थे जो तुरंत ही सभा में शामिल हुए थे। कुछ ने तो पहले खुद सभा की ही मुखालफत की थी कि उसकी जरूरत नहीं है और कुछ पीछे इससे न सिर्फ हटे ही, वरन आज इसके सख्त शत्रु हैं और इसके गिराने के लिए कोई भी कुकर्म कर सकते हैं।
जेल से रिहा होने के बाद सन1934 ई. की जनवरी में बाबू श्री कृष्ण सिंह ने मुझसे कहा कि ''स्वामी जी,किसान-सभा में हमारे भी कुछ आदमी रखिएगा या नहीं।'' मैंने कहा सभा तो आपकी है। आज भी इसे आपको सुपुर्द करने को तैयार हूँ। फिर तय पाया कि इसके बारे में तथा आगे कैसे काम हो इसके संबंध में भी बातें की जाए। मगर जरा निश्चित रूप से बैठकर इस तरह कुछ लोगों के
मन में इस सभा को ले कर जो शक हैं वह दूर किएजाए। मैं तैयार हो गया। ता. 13-1-34 को दोपहर के बाद हरिजन संघ के कार्यालय,कदमकुआँ, पटना में बातें करने का निश्चय हुआ और तय पाया कि बाबू ब्रज किशोर प्रसाद और श्री बद्रीनाथ वर्मा भी बातचीत में रहेंगे। इन्हीं लोगों को ज्यादा शक था। पहले महानुभाव ने तो शुरू में ही अपना नाम किसान-सभा से हटवा लिया था।
इसी निश्चय के अनुसार 13 जनवरी को हम लोग ठीक समय पर वहीं मिले। श्री शार्ड़्गधर प्रसाद सिंह भी थे। देर तक बातें होती रहीं। उन लोगों को जो कुछ पूछना था उन्होंने पूछा और मैंने साफ-साफउत्तरदिया। मैंने कुछ छिपाया नहीं। छिपाने की कोई बात भी तो हो। मैंने फिर कहा कि अब तक मैंने सभा चलाई और जहाँ तक बन पड़ा उसे मजबूत किया। आप लोग तो जेल में थे। इसीलिए मुझ से जो हो सका किया। मगर अब बाहर आ गए। लीजिए, आज ही इसे आपको सौंपता हूँ। खुद थोड़ा विश्राम करने जाता हूँ। क्योंकि बहुत हैरान हुआ हूँ। लेकिन इस काम में सदा साथ दूँगा।
इस पर श्री बाबू आदि ने कहा कि नहीं,नहीं,सभा की जिम्मेदारी तो आप ही के ऊपर रहेगी। हाँ, हम लोग और हमारे आदमी भी उसमें रहेंगे। इसके बाद कुछ काम की बातें और एक वक्तव्य निकालने का निश्चय हुआ,ताकि काम तेज हो और मुझसे कहा गया कि ये सभी बातें और वक्तव्य लिख कर हम लोगों के पास शीघ्र भेज दें। फिर मैं बिहटा चला गया।
सन 1934 ई. की पंद्रहवीं जनवरी कभी भूलने की नहीं। उसी दिन दोपहर को बिहार में ऐसा भूकंप आया कि 'न भूतो न भविष्यति'मैंने ठीक उसी दिन भूकंप से पहले उन लोगों के कहने के मुताबिक सारी बातों को और वक्तव्य को भी लिखा था। आश्रम के मकान में बैठ कर उसी पत्र के लिफाफे पर गोंद लगा के चिपका ही रहा था जिसमें यह बातें लिख कर भेजी जाने को थीं, कि एकाएक धरती हिल गई और मैं बाहर भाग आया। वह चिट्ठी तो खटाई में ही पड़ी रह गई और एक दूसरा ही तूफान सामने आ गया। अब चिट्टी की परवाह किसे थी? नहीं कह सकता उस वक्तव्य और पत्र का हमारी सभा पर क्या असर पड़ता। वक्तव्य तो प्रेस में जानेवाला था, सो भी सबों की राय से और सबों की ओर से। उसमें यह दैवी बाधा आ गई। फलत:, वह रुका ही रह गया। सभा में एक नया कदम बढ़ रहा था। शायद आगे इसका परिणाम अच्छा न होता। इसीलिए यह विघ्न आया, या क्या बात थी कौन बताए?
मेरी इस नीति का सबसे बड़ा नतीजा यह हुआ कि भूकंप के बाद जब पटने की पीली कोठी में रिलीफ कमिटी का ऑफिस था तो महाराजा दरभंगा ने चाहा कि श्री राजेंद्र बाबू से बातें कर के टेनेन्सी बिल का प्रश्न ऊपर ही ऊपर हल कर लें और किसान-सभा ताकती ही रह जाए। वह बातचीत हुई भी। मगर राजेंद्र बाबू ने महाराजा और जमींदारों से कहा कि मैं किसान-सभा के नेताओं से बातें कर के ही आपको कोई जवाब दे सकता हूँ कि क्या हो क्या न हो। उन्होंने हम लोगों से खास तौर से बातें की भी। अंत में हमारा दृष्टिकोण जानकर उन्होंने इस झमेले में पड़ने से इनकार करते हुए महाराजा को जो पत्र इसके संबंध में लिखा था उसमें और बातों के सिवाए यह साफ ही लिखा था कि''असल कठिनाई इस झमेले के सुलझाने में यह है कि आप लोग बिहार प्रांतीय किसान-सभा के संचालकों को किसानों का प्रतिनिधित्व करनेवाले मानने को तैयार नहीं!'' यह पत्र अखबारों में उसी समय निकला था। राजेंद्र बाबू उसी के बाद सन 1934 ई. में ही कांग्रेस के सभापति चुने गए थे। इस प्रकार उनके द्वारा हमारी सभा के बारे में यह कहा जाना हमारी बड़ी भारी नैतिक जीत थी।
(16)
गाँधी जी से बातें ─ मैं गाँधी जी से अलग
हाँ, तो भूकंप के बाद तो सारी बातें भूल गईं। हम सभी जनता को मदद देने में लग गए। मैं चटपट चारों ओर दौड़ गया।उत्तरबिहार में जो भयंकर दुर्दशा थी उसका पता देहातों में जा कर लगाया। कुछ पैसे भी बिहटा के इलाके से वसूले। जगह-जगह सहायता भी पहुँचाता रहा। चीनी की मिलों के खराब हो जाने से किसानों की ऊख जो खेतों में पड़ी रह गई। उसका गुड़ बने इसके लिए अच्छी और सस्ती कलें बनवाने का काम बिहटा में श्री भत्तू मिस्त्रीके द्वारा मैंने ही बिहार रिलीफ कमिटी की ओर से शुरू किया और कलेंउत्तरबिहार में पहुँचाई गईं।
भूकंप के बाद मुझे ऐसे मौके मिले जब निराश्रय गरीबों को देहातों में सहायता देने के समय कुछ जमींदार ऐसा कहते पाएगए कि यदि इन्हें खाना मिल जाएगा तो ये हमारा काम न करेंगे! उनका मतलब था नाममात्र को कुछ देकर सारे दिन उन्हें खटाने से और भूकंप ने उन्हें इसका अच्छा मौका दिया था! सिर्फ हमीं लोग इन निराश्रयों को सहायता देकर इन बाबुओं के इस रास्ते में बाधक हो रहे थे!
मैंने देखा कि लाखों किसान बर्बाद हैं। उनके झोंपड़े और घर गिर गए हैं। घरों में पड़ा थोड़ा-बहुत अन्न जमीन की दरारों में घुस गया है। खेतों में बालू आने से वे खराब हो गए हैं। खलिहान में ही पड़ा गल्ला जमीन में धंस गया है और खेत में ही खड़ा बालू के नीचे चौपट है। वे दाने-दाने को मुहताज हैं। फिर जमींदारों के द्वारा बेमुरव्वती से लगान की वसूली बची-बचाई लोटा-थाली,बकरी,मवेशी आदि बेचवाकर और कर्ज लिवाकर जैसे हो जारी है। यहाँ तक कि रिलीफ कमिटी से या सरकार के द्वारा खेतों से बालू हटाने के लिए जो भी पैसे किसानों को मिलते हैं वह फौरन ही उसी जगह जमींदारों के अमलों द्वारा छीने जा रहे हैं। मैंने एक जमींदार का ऐसा ही हुक्मनामा पकड़कर उसे अखबारों में छपवा दिया भी था। उसमें उसने अपने अमलों को लिखा था कि रिलीफ या बालूवाले कर्ज के मिलने पर किसानों से लगान वसूली का अच्छा मौका है। उसे हर्गिज गँवाया न जाए। झोंपड़ों को फिर से छाने के लिए लकड़ी,बाँस, फूस आदि किसानों को जमींदार लेने न देते थे। रोक देते थे। इसके लिए हमें बड़ा हो-हल्ला मचाना पड़ा।
इन सब बातों को देखकर मेरे दिल में खयाल आया कि एक ओर तो दो-चार, दस-बीस या कुछ ज्यादे रुपए से हम किसानों को सहायता देते हैं। दूसरी ओर जमींदार उनकी जमीनें और पशु आदि धाड़ाधड़ नीलाम करवा रहे हैं। सहायता के पैसे भी तो छीन ही लेते हैं। इसलिए यह तो धोखा है। फलत: जब तक हम किसानों की सभाएँ जगह-जगह कर के धूम न मचाएँ तब तक उनकी खैरियत नहीं। हम देख ही चुके थे कि आंदोलन से ही वे लोग दबते हैं। मगर दिक्कत यह थी कि सभी लोग रिलीफ के काम में फँसे थे। फिर सभाएँ कौन करे?इसलिए सोचा कि रिलीफ के कार्यकर्ताओं से ही इस काम में मदद ली जाए तभी ठीक होगा। मगर इसमें नेताओं की मंजूरी चाहिए और राजेंद्र बाबू ने साफ कहा कि गाँधी जी की आज्ञा के बिना यह हो नहीं सकता। इसलिए मैंने तए किया कि गाँधी जी से ही बातें कर के हुक्म ले लूँ। वे तो दरिद्रनारायण के सेवक ठहरे ही। अत: यह आज्ञा सहर्ष देंगे। बात करने की तारीख और समय भी ठीक हो गए। वह पटने में ही बिहार रिलीफ कमिटी के ऑफिस, पीलीकोठी में ही उस समय ठहरे थे।
आखिर,बातें हुईं और मुझे भयंकर निराशा हुई। जब मैंने सारी बातें उनसे कह सुनाईं तो बोले कि आर्डिनेन्स के करते मीटिंगें नहीं हो सकती हैं। उन्हें यह पता क्या था कि हमने गत दो वर्षों में मीटिंगों के द्वारा जमींदारों के नाकों दम कर दिया था! मैंने कहा कि हम करेंगे और सरकार रोकेगी तो देखेंगे। फिर बोले, चुपके से नहीं करना होगा, किंतु नोटिसें बाँट के। मैंने कहा,जी हाँ,नोटिसें जरूर बँटेंगी और खूब बँटेंगी। तब कहने लगे कि सच्ची शिकायतें ही सामने लाई जाएँ। मैंने उत्तर दिया कि झूठी क्यों लाएँगे?सच्ची ही इतनी ज्यादा हैं कि सबको ऊपर कर नहीं सकते। कहने लगे,लेकिन हरेक शिकायत की खूब जाँच हो ले। तब कुछ कहा जाए। मैंने कहा, कार्यकर्ता जाँचकर बताएँगे। तब कहने लगे कि वह गलती कर सकते हैं। मैंने इस पर साफ कह दिया कि लाखों-करोड़ों शिकायतें हैं। अगर सत्य की ऐसी फिक्र में हम पड़ें कि खुद जाँचें तो असंभव है। ऐसी दशा में किसानों को फायदा पहुँचा नहीं सकते। फलत:,कार्यकर्ताओं पर तो विश्वास करना ही होगा।
फिर उन्होंने कहा कि ये शिकायतें यदि महाराजा दरभंगा को मालूम हो जाए तो (क्योंकि मैंने उनका ही नाम लिया था) मुझे विश्वास है,वे जरूर इन्हें दूर करेंगे। श्री गिरींद्रमोहन मिश्र उनके मैनेजर हैं। वे कांग्रेसी हैं। मैंने कहा, देखूँगा। मैं तो चाहता ही हूँ कि वह दूर कर दें। फिर कह उठे कि गोल-मोल बातें न कर के किस किसान को क्या कष्ट है यह नाम-ब-नाम बताना होगा। इस पर मैंने कह दिया कि मैं हर्गिज ऐसा कर नहीं सकता। क्योंकि दो-चार किसानों के नाम मिलते ही वह उनके कष्ट तो क्या दूर करेंगे, उलटे उन्हें ऐसा दबाएँगे कि फिर कोई किसान शिकायतों का नाम भी न लेगा। मैं जमींदारों के हथकंडे और तरीके खूब जानता हूँ। बस, बात यहीं पर खत्म हो गई।
इस वार्तालाप से मुझे बड़ा धक्का लगा! इससे मेरी आँखें खुल गईं। उनके ''जमींदार किसानों के कष्ट दूर करेंगे। उनके मैनेजर कांग्रेसी हैं। इसलिए कष्टों को जरूर हटा देंगे,'' इत्यादि बातों से पता चला कि जमींदारी मशीनरी कैसे काम करती है इसका पता उन्हें कतई नहीं था! किसानों को वह कैसे रौंदती है वह जानते तक न थे। कांग्रेसी होकर क्या कोई मशीन को बदल देगा? वह तो उसका एक पुर्जा बनेगा, यह मोटी बात भी वह समझते न थे। हमने तो हजारों कांग्रेसियों को किसानों को बर्बाद करते देखा। मगर उन्हें यह मालूम ही नहीं। सत्य की फिक्र उन्हें इतनी कि उसके करते काम असंभव हो जाने का उन्हें खयाल तक नहीं। यदि जमींदार या उनके नौकर शिकायत करनेवालों का सुराग पा जाए तो उन पर झपट पड़ते हैं, यह मामूली बात भी वे नहीं जानते थे। जो किसानों को निर्दयता के साथ आज भी लूटता है और उन्हें भूखों मार के अपनी मोटर दौड़ाता है वही उनके दुख दूर करेगा, यह उनकी धारणा मुझे आश्चर्यचकित करनेवाली थी। मेरे दिल ने पुकारा कि क्या यही दरिद्रनारायण के सेवक हैं?
मेरी धारणा हो गई कि ये चीजें गाँधी जी जरा भी नहीं जानते, हालाँकि, जानकारी की बातें बहुत करते हैं। उस दिन की बात के बाद उन पर मेरी अश्रध्दा हो गई और उसी दिन से मैं सदा के लिए उनसे अलग हो गया। उस भूकंप के बाद ही यह दूसरा मानसिक भूकंप मुझमें हुआ। एक धक्का तो मुसलिम नेताओं के संबंध के पत्र के उनके उत्तर से लग ही चुका था। यह दूसरा और आखिरी धक्का था। पीछे पता लगा कि मधुबनी में जाने पर एक सभा में लोगों ने उनसे जब जमींदार महाराजा दरभंगा के अत्याचार की बात कही तो वही उत्तर उन्होंने दिया जो मुझे दिया था। खैर, अच्छा ही हुआ। प्राय: चौदह वर्षों की बनी-बनाई गाँधी भक्ति आज खत्म हुई।
(17)
जीवन की तीन घटनाएँ
जमींदारों की लूट और गाँधीजी के सत्य की पुकार के प्रसंग में मैं यहाँ अपने जीवन को तीनमहत्त्वपूर्ण घटनाएँ लिख देना चाहता हूँ जिन्होंने मेरे हृदय पर अमिट छाप डाली, बहुत अंशों में मेरे जीवन को पलटा, और मुझे उग्रपंथी बनाया। पहली घटना सन 1917 ई. की है, जब मैं गाजीपुर जिले के विश्वंभरपुर गाँव में रहता था। वहाँ सुखी जमींदार रहते हैं। उनके मौजे मौरा में जो 3-4 मील पर है,मैंने जाड़ों में एक हलवाहे को मरा देखा। 60-70 साल का रहा होगा। टूटी झोंपड़ी में जमीन पर पड़ा था। इनफ्लुएंजा से मौत हुई थी। यह बीमारी और जाड़े का दिन। मगर कमर में सिर्फ एक लँगोटी थी! ओढ़ने को कुछ नहीं! कहीं से एक फटा बोरा मिला था। उसी में सिर और टाँगें डाल के पड़ा-पड़ा मर गया! पीठ और चूतड़ खुले ही थे! बिस्तर, चारपाई, दवा वगैरह की तो बात ही नदारद! मेरा दिल रोया। मैंने सोचा कि इसने इन 60-70 वर्षों में लाखों आदमियों की खुराक का गेहूँ,चावल,दूध, घी पैदा किया होगा और अपार धन कमाया होगा! मगर दुनिया कैसी जल्लाद और लुटेरी है कि इसने शायद ही जीवन-भर में कभी गेहूँ,घी खाया हो, अच्छा कपड़ा पहना हो! और मरने के समय नंगा ही रह गया,सो भी जाड़े में। टूटी खाट भी नहीं। अब इसे कफन भी देनेवाला कोई नहीं! यह दुनिया डूब जाए! ऐसा घोर अन्याय! यह अंधेर! ऐसी निर्दयता! यह लूट!!
दूसरी घटना सन 1935 ई. की है। मुंगेर जिले में चकाय थाना है, ठेठ पहाड़ों में। वहाँ से संथाल परगना और हजारीबाग जिले निकट हैं। वहाँ देहातों में काले-काले प्राय: नंगे और बिष्टी पहने पहाड़ी संथाल वगैरह रहते हैं। वहीं एक-दो दिन रहना पड़ा। शाम को देहातों में टहलने जाया करता था। जब उन नग्नप्राय गरीब और परिश्रमी किसानों को दशा की पूछताछ की तो पता चला कि पहाड़ और जंगल काट के खेत बनाते और धान उपजाते हैं। मगर कभी एक आना पैसा और कभी सेर भर चावल दे के दोई चार साल में सारे खेत बनिए लिखवा लेते हैं। फलत: वे या तो बनियों के हलवाहे बन जाते या कहीं और जा कर फिर उसी तरह खेत बनाते, जिन्हें पुनरपि बनिए ले लेते हैं। यही क्रिया सैकड़ों वर्षों से चालू है। वे इतने परिश्रमी, सच्चे और सीधे हैं! इसी से लुट जाते हैं और बराबर नंगे ही रहते हैं! मेरे दिल से आवाज आई कि इस दुनिया में सत्य और न्याय कहाँ है? अहिंसा कहाँ है?दीनबंधु भगवान कहाँ हैं? इनसे बढ़ के दीन कौन है? इनका सत्य तो इन्हें लुटवाता है और बनिए का जाल और छल उसे हलवा देता है। क्या भगवान,सत्य,न्याय नाम की कोई वस्तु सचमुच है?
तीसरी घटना मुंगेर के बेगूसराय इलाके की है, सन 1937 ई. की। मैंने रास्ते में देखा कि एक मुर्दे को टूटी खाट में सुलाये और चिथड़ा ओढ़ाए कुछ लोग गंगा की ओर लिए जा रहे हैं। उनके पास न तो मुर्दा जलाने के लिए लकड़ी है और न दूसरा ही सामान। एक मुट्ठी या मामूली सी रद्दी लकड़ी है। मेरे दिल ने पुकारा कि ओह यह जुल्म! यह लूट! यह हृदय हीनता! जिसने जीवन में धानियों तथा सत्ताधारियों के लिए भोग-विलास का सामान और लाखों के खाने के लिए गेहूँ, मलाई पैदा की उसकी ही यह दशा कि कफन तक नदारद! ऐसा तपस्वी और त्यागी कि दूध, गेहूँ पैदा कर के भी स्वयं न खाया, किंतु मदमत्तो को दिया। उन्हीं का इसके प्रति ऐसा व्यवहार! इस समाज को मिटाना होगा। यही सबसे बड़ा धर्म, सबसे बड़ी अहिंसा, सबसे बड़ा सत्य है। इन्हीं गरीबों की सेवा करते-करते मरना होगा। इन्हें छोड़ मेरे दिल में भगवान कहाँ? मेरे भगवान तो यही हैं!
(18)
सरकार से भिड़ंत ─ पहली बार 144
एक महत्त्वपूर्ण बात छूट गई। उसका जिक्र जरूरी है। सन 1929 के बाद जो सस्ती शुरू हुई और उसके चलते तो बर्बादी किसानों की हुई वह वर्णानातीत है। हमने लगान घटाने का आंदोलन तभी से जोरों से चलाया था। भूकंप के चलते उसके लिए और भी कारण मिल गया। हमने तो भूकंप के बाद जमींदारों की मालगुजारी में भी कमी करानी कुछ काल के लिए जरूर ही चाही। मगर उन लोगों ने, जरूरत होते हुए भी, इसकाविरोधकिया। क्योंकि उन्हें डर था कि यदि हमने कमी करा ली तो परमानेंट सेट्लमेंट (दमामी बंदोबस्त) टूट जाएगा और जरूरत होने से पीछे हमारी जमा सरकार बढ़ा भी सकेगी।
लेकिन किसानों के बारे में तो हमें कोई ऐसा खतरा था नहीं? साथ ही हम तो 1933 से ही इस पर जोर दे रहे थे जब भूकंप आया था नहीं। इस पर सरकार ने कमिश्नरों की मीटिंग कर के उनकी राए माँगी। मीटिंग हुई और हमने अखबारों में पढ़ा कि जब तक किसानों में बहुत ज्यादा असंतोष 'A serious type of unrest' नहीं होता तब तक लगान घटाने का सवाल नहीं हो सकता। यह बात हमें बुरी तरह खटकी। अतएव,हमने फौरन ही सरकार को ललकारा कि हम इस भयंकर असंतोष का प्रमाण दिए देते हैं। सन 1933 के अगस्त में ही हमने पं. यदुनंदन शर्मा वगैरह से राय कर के एक नोटिस छपवाई। उसे गया जिले में बाँट कर लाखों किसानों को गया शहर में जमा होने का ऐलान किया। जहाँ तक याद है, 15 अगस्त इसके लिए नियत किया गया। हमारा यह पहला ही प्रयत्न इस तरह के जमाव के लिए था।
लेकिन जिले के कोने-कोने में बिजली दौड़ गई और हमारे आश्चर्य की सीमा न रही। जब हमने देखा कि सचमुच लाखों किसान जमा हो गए। गया शहर की गलियों में चारों ओर किसान ही किसान नजर आते थे। गयावालों ने आश्चर्यचकित नेत्रों से देखा कि बिना पितृपक्ष के ही यह कैसी भीड़! यह कैसा निराला पितृपक्ष! लेकिन उन्हें क्या पता कि आज सरकार को किसान-सभा की शक्ति का प्रमाण दिया जा रहा है! वे जानते क्या थे कि लगान की अधिकता आदि सैकड़ों जुल्मों से कराहनेवाले किसान अपनी सभा की एक पुकार पर अपने भयंकर असंतोष का ज्वलंत प्रमाण देने आए हैं? आश्विन का महीना था। कई दिनों से लगातार पानी पड़ रहा था। हवा भी तेज चल रही थी। जगह-जगह नदी-नाले एकाएक भर गए थे। नावें न थीं कि पार हो सकें। रेलों के लिए सरकार की मनाही से टिकट मिलते न थे! बसें और दूसरी सवारियों पर भी रोक थी कि किसानों को यहाँ ला नहीं सकते। जगह-जगह थानों में पुलिस का दल किसानों को रोकता और डरवाता था कि मत जाओ। वहाँ गोली चलेगी। गया शहर के बाहर चारों ओर पुलिस की सेना गश्त लगाकर सबों को आने से रोक रही थी। पास में वस्त्रा नहीं कि पानी और हवा के संयोग से पैदा होनेवाली कँपकँपी से तन को किसान बचा सकें। हजारों जगह जमींदारों के नौकर अलग ही रोकते और धमकाते थे।
फिर भी जैसे-तैसे बिना टिकट के ही रेल पर चढ़ के,पैदल,बैलगाड़ी से,नदी नाले तैर कर सचमुच ही लाखों किसान पहुँचे। सरकार चकित और स्तब्ध थी। हमने कचहरी में जमा होने के लिए नोटिस में लिखा था। इसलिए कचहरी के चारों ओर संगीन लिए लाल पगड़ी ही नजर आती थी। हमने दूसरे दूसरे लोगों से पूछा कि कितने लोग होंगे। सबों ने साठ हजार से ले कर एक लाख तक बताया। सो भी घर बैठे नहीं। घूम के,देख के,जाँच के कहा।
पं. यमुना कार्यी के साथ मैं उस दिन सवेरे की ट्रेन से पटने से गया पहुँचा था। स्टेशन के पास के धर्मशाले में पहली बार ठहरा। तब से तो वहाँ सैकड़ों बार ठहरने का मौका लगा है। सरकार बेचैन थी। उसके हवास दुरुस्त न थे। डरती थी कि कहीं कचहरी और खजाना न लूट लें। उसे भय था कि यदि मैं कुछ बोला तो आफत हो जाएगी। बस,सदल-बल पुलिस धर्मशाले में पहुँची और दफा 144 की नोटिस मुझे दे गई। यह पहला ही मौका था,जब 144 का ताला लगाकर हमारा मुँह बंद करने की कोशिश सरकार ने की।
अब हमारे सामने गंभीर प्रश्न उठा कि क्या करें। स्वभाव के अनुसार मजिस्ट्रेट की इस हरकत से झल्लाहट हुई और चाहा कि,फौरन इस नोटिस की धज्जियाँ उड़ाएँ और जरूर उड़ाएँ। मगर दूसरी ओर देखा कि लाखों किसान जमा हैं। ऐसी हालत में इसे तोड़ने पर धर-पकड़ होगी। फिर तो किसान खामख्वाह उत्तेजित होंगे। न भी हों तो सरकार कोई बहाना लगाकर कहीं गोली चलवा दे तो?तब तो जिले भर में आतंक छा जाएगा और उसका असर प्रांत में भी फैले बिना रहेगा नहीं। सरकार इस मौके पर कुछ-न-कुछ चाल चलेगी,ताकि किसानों की बढ़ती हुई लहर दब जाए। फिर तो हमें पछताना होगा।
इस प्रकार दोनों विचारों की चक्की में मैं पिस रहा था। बड़ी बेचैनी थी। आत्म प्रतिष्ठा मजबूर कर रही थी कि दबना ठीक नहीं। जुलूस में चलो और सभा करो। नतीजा कुछ भी हो। साथियों से भी सलाह की। वह भी अजीब घपले में थे। अंत में, बहुत सोच-विचार के बाद मैंने तय कर लिया कि आज 144 को तोड़ना भूल होगी। इसमें खतरा है। फिर जीवन भर पछताना होगा। साथियों ने भी समर्थन किया। मगर पुलिस बेचैन थी। उसका आना-जाना दौड़-धूप जारी थी।
मगर किसान किसी की सुननेवाले थोड़े ही थे। उन्होंने कचहरी में मेरी पूछताछ की। जब पता लगा कि धर्मशाले में हूँ तो कुछ देर प्रतीक्षा कर के एक दल मेरे पास आया और बाहर ही से डाँटकर बोला कि हमें बुलाकर यहाँ क्यों बैठे हैं?बाहर आना,जुलूस ले चलना और सभा करना ही होगा। ठीक ही था। वह तो मेरे मालिक ही ठहरे। मेरे भगवान ठहरे। उनकी आज्ञा तो वैसी चाहिए ही। मैं भीतर-ही-भीतर खुश हुआ कि ये किसी को भी छोड़नेवाले नहीं। देखिए,आज मेरे पर भी बिगड़ रहे हैं। ठीक है,जब तक नेता लोगों की छाती पर भी चढ़ने और उन्हें तमाचे लगाने की जरूरत होने पर ये तैयार न होंगे तब तक इनका निस्तार होगा। इसलिए उस दिन की उनकी इस मनोवृत्ति का,इस गुस्से का मैंने हृदय से स्वागत किया और भीतर बुला कर समझाना चाहा। लेकिन यह काम आसान नहीं था। ऐसी पेचीदगी वे क्या जानने गए?बड़ी कोशिश और घंटों की मेहनत के बाद तब कहीं कुछ लोगों को समझा पाया। फिर दूसरा,तीसरा,चौथा जत्था-एके बाद दीगरे आता ही रहा। अंत में सबों ने समझा। इसलिए मुझे छोड़ बाकी लोग जुलूस एवं मीटिंग में गए और सब काम किया। मैं क्यों न आया यह भी उनने ही सबों को समझाया। इस प्रकार वह रैली,वह पहला जमाव सफल हुआ और सरकार को तमाचे लगे।
लेकिन मैंने जो इस बार 144 धारा को मान लिया इससे जमींदारों की,मजिस्ट्रेट की और पुलिस की हिम्मत बढ़ गई। फलत:,सन 1934 ई. में और 1935 में कुछ समय तक-सब मिलाकर प्राय: 2 वर्ष तक-गया जिले में मेरी मीटिंगें उनने असंभव कर दीं। जभी ऐसा हो,तभी 144 का ताला लग जाए और मैं चुप रह जाऊँ। एक बार तो यहाँ तक कर दिया कि न तो मैं जहानाबाद के इलाके में गया ही और न मेरा प्रोग्राम ही बना। फिर भी वह धारा लगाईगई। पढ़ के क्रोध और ताज्जुब हुआ। सरकार की नादानी पर हँसी भी आई।
जमींदार लोगों को तो अब खासा बहाना ही मिल गया कि स्वामी जी तो यहाँ अब आने ही न पाएँगे। आखिरी नोटिस सन1934 ई. के अंत में अरवल में हुई, जब एक बड़ी सभा में वहीं भाषण देने के लिए बिहटा से ही नहर के रास्ते मोटर से आ रहा था। एकाएक अरवल से पहले ही पुलिस ने मोटर रोक के नोटिस तामिल की। फलत:,वहाँ की सभा का सभापतित्व कर न सका। जा कर चुपचाप बैठा रहा। मगर मैंने तय कर लिया कि इसके बाद अब न मानूँगा। और अगर फिर नोटिस हुई तो उसे जरूर तोडेगा। इसीलिए कुछ दिनों के बाद जब फिर अरवल में ही सभा की गई तो जमींदारों ने तूफान मचाया और प्रचार किया कि स्वामी जी आने न पाएँगे। क्योंकि उन पर तो 144 की नोटिस तामील हो गई। मगर मैं पहुँचा और इस प्रचार का पता लगने पर सभा में ही कह दिया कि यदि फिर कभी सरकार ने 144 की हिम्मत की तो उसकी धज्जियाँ उड़ेंगी,याद रहे। लेकिन तब से आज तक यह मौका लगा ही नहीं।
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सोशलिस्ट दोस्त किसान-सभा में
सन 1934 में ही बिहार में ही आल इंडिया कांग्रेस कमिटी की बैठक हुई और अंतिम बार पूर्ण रूप से सत्याग्रह स्थगित किया गया। हालाँकि, व्यक्तिगत सत्याग्रह भी कुछ सफल न रहा और एक प्रकार से उसे पहले से ही बंद कहना चाहिए। मगर बाकायदा अंत्येष्टि वहीं की गई जाड़े के दिनों में। साथ ही कौंसिल और असेंबली का प्रश्न पुनरपि कांग्रेस में उठा। अखिल भारतीय सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना और कॉंफ्रेंस भी उसी समय हुई। असेंबली में प्रवेश और उस पार्टी का जन्म ये दोनों चीजें परस्पर विरोधी सी हैं। मगर दोनों ही शाखाएँ कांग्रेस से ही निकलीं सत्याग्रह बंद होने पर ही। खैर,सत्याग्रह के बाद कौंसिलें तो पहले भी आई थीं। मगर सोशलिस्ट पार्टी नई चीज थी। यों तो सोशलिस्ट पार्टी बिहार में पहले से ही थी। मगर भारत भर में उसी समय बनी। उसी वक्त बिहार के कुछ सोशलिस्टमित्रोने,जिन्होंने पहले किसान-सभा काविरोधकिया था,मुझसे एक-दो बार कहा कि क्या हमें किसान-सभा में शामिल न कीजिएगा?मैंने कहा कि सदा'स्वागतम'है। आइए भी तो। मैं तोगाँधी वादियों के लिए सदा ही हाजिर रहा। फिर सोशलिस्टों की क्या बात?ठीक याद नहीं,शायद1934के बीतते-न-बीतते ही वे लोग किसान-सभा में आ गए। मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई कि मेरा भार हल्का हुआ। अब ये लोग काम सँभालेंगे। उन्होंने खूब उत्साह दिखाया भी।
गाँधी जी की एक बात का पहले ही जिक्र कर चुका हूँ कि उन्होंने कहा था कि मुझे पता लगा है कि मेरे कुछ विश्वसनीय लोगों ने भी जेल के नियम न माने और जेल के काम छोड़ कर पढ़ते रहे। इसीलिए सत्याग्रह का समय नहीं रहा। क्योंकि ऐसी कमजोरियाँ सत्याग्रह की विरोधिनी हैं। मुझे हँसी आई और आश्चर्य भी हुआ कि उनके जैसा अनुभवी आदमी इस मोटी तथा सर्वप्रसिध्द बात को,जो सन 1921 से ही न सिर्फ चालू है वरन उत्तरोत्तर वृध्दि पर है,आज तक नहीं जाना। लेकिन गाँधी जी महात्मा ठहरे और लाला जी के शब्दों में'वह सबों को महात्मा ही मानते हैं!'
मुझे सन 1934 ई. की उनकी एक और चीज भी समझ में नहीं आई। बिहार रिलीफ कमिटी की मीटिंग थी। उसमें उन्होंने रिलीफ (भूकंप में सहायता) के लिए सरकार से सहयोग का प्रस्ताव किया। यह तो ठीक ही था। मगर'सम्मानपूर्वक सहयोग'(Respectful Cooperation) में जो उन्होंने'सम्मानपूर्वक' (Respectful) विशेषण लगाया वह मुझे बुरी तरह खटका। मुझे याद है कि नागपुर के डॉ. खरे भी मेंबर थे। उन्हें भी खटका था। मैंने पीछेपत्रलिख केगाँधीजी के पास भेजा और लिखा कि जिस सरकार के प्रति सम्मान का और ससम्मान सहयोग के अभाव का पाठ आपने 14 वर्ष तक पढ़ाया उसी के प्रति आज सम्मान कैसा?उसका सम्मान तो हम भूल ही गए। यहाँ तो उसकी जरूरत भी नहीं थी। केवल'सहयोग'शब्द ही काफी था। उन्होंनेउत्तरदिया कि यह तो शिष्टाचार मात्र है। पर यह चीज मैं समझ न सका और इसी कारण एकपत्रलिख के मैंने उस कमिटी से इस्तीफा भी दे दिया। बिना जरूरत और बेमौके ऐसा शिष्टाचार मेरे लिए बराबर पहेली ही रही है। मगरअब पता लगा है किगाँधीजी की अहिंसा के भीतर यह भी आता है और इसी की घूँट हमें बराबर बच्चों की तरह वे जबर्दस्ती पिलाते रहे हैं। हालाँकि फल , कुछ न हुआ है। जिसे उन्होंने बराबर शैतान कहा उसी के प्रति सम्मान की बात वही बोल सकते हैं। यह बात साधारणजनों के तो सामर्थ्य से बाहर की ही चीज है।
सन 1934 की गर्मियों के बीतने पर गया में कुछ नये सोशलिस्टों के क्षणिक जोश के करते किसान-सभा में एक नई बात होनेवाली थी। बिहार के एक ऐसे ही सज्जन,जो प्राय: सोशलिज्म की बातें करते और श्री जवाहर लाल का जिक्र बार-बार करते थे,ऐसा स्वप्न देख रहे थे कि आल इंडिया किसान-सभा बने और श्री पुरुषोत्तम दास जी टंडनके साथ इसी सिलसिले में वे भारत भर की यात्रा करें। शायद अखिल भारतीय सभा केमंत्रीबनने कीभी उनकी लालसा थी। टंडन जी तो सभापति होते ही।इधरमैं उसका सख्त दुश्मन था। मेरी धारणा थी कि अभी उसका समय नहीं है। तब तक, जब तक प्रांतों में किसान-सभाएँ नहीं बन जाती हैं। क्योंकि ऐसी दशा में उस सभा में गलत आदमी आजाएँगे,जिन्हें हम जानते तक नहीं और जिनके बारे में कह नहीं सकते कि आया वे किसान-सेवक सचमुच हैं या अपने मतलब के यार! प्रांतों में सभाएँ बन जाने पर सभी जगह असली किसान-सेवक निकल आएँगे,और उनके कामों से हम उन्हें जान लेंगे। तब कहीं भारतीय किसान-सभा के संगठन का मौका आएगा। नहीं तोधोखा होगा और हम गलत रास्ते परजाएगे,यही डर है। मगर टंडन जी की तो एक केंद्रीय किसान-सभा उस समय भीथी। या यों कहिए कि उसका एक ऑफिस उनने खोल रखा था।उनकी तरफ से सन 1935 में हमें समझाने के लिए पटने में श्री मोहनलाल गौतम भी एक बार आए थे। मगर हमारी किसान कौंसिल का रवैया देख चुपके से चले गए।
हाँ, तो वे सज्जन यह भी समझते थे कि बिना हमारे सहयोग के कुछ हो नहीं सकता। क्योंकि हमारी ही सभा पुरानी और काम करनेवाली है। वह भी हमारी सभा में आ गए थे। न जाने किस प्रकार श्री पुरुषोत्तम दास टंडन को उन्होंने द्वितीय बिहार प्रांतीय किसान सम्मेलन का सभापति अखबारों में घोषित करवा दिया। क्योंकि नियमानुसार न तो वह चुने ही गए और न हमारी किसान-सभा ने इस बारे में कोई राय ही दी। हम बड़े पसोपेश में पड़े। विरोध करना भी ठीक न था। गया में सम्मेलन था और वह हजरत गया में घूमकर कुछकार्यकर्ताओं से सट्टा-पट्टा कर चुके थे। हम चुप रहे। सम्मेलन की तैयारी हुई। टंडन जी आए। सभापति बने। भाषण हुआ। यहाँ तक तो ठीक।
मगर जब जमींदारी प्रथा मिटाने की बात उठी और उसका एक प्रस्ताव टंडनजी की राय से उक्त सज्जन तथा दूसरों ने तैयार किया तो दिक्कत पैदा हुई। टंडनजी जमींदारी प्रथा को मुआवजा या दाम देकर मिटाने के पक्ष में थे। ऐसा ही प्रस्ताव भी लिखा गया। इधर हमारी किसान-सभा अभी तक जमींदारी प्रथा हटाने के पक्ष में न थी। यह सिध्दांत की तथा बड़ी बात थी। मेरा व्यक्तिगत खयाल यह था कि जमींदारी अगर मिटानी हो तो फिर उसका दाम कैसा?यों ही छीन ली जानी चाहिए। मगर अभी वह सवाल उठाने का समय मेरे जानते नहीं आया था।
नतीजा यह हुआ कि हमारे सभी साथी इस बात के विरोधी बन गए। उसके और भी कारण थे जिनका उल्लेख यहाँ करना ही चाहता। अंत में प्रस्ताव तो विषय समिति में ही पास न हो सका। मगर टंडन जी इसके बारे में बोल तो चुके ही थे। इसलिए दूसरे दिन मैंने भाषण किया और किसान-सभा की एवं अपनी स्थिति स्पष्ट कर दी। मैंने साफ-साफ कह दिया कि व्यक्तिगत रूप से मैं क्या चाहता हूँ और क्यों?टंडन जी को मेरा भाषण सुनके आश्चर्य हुआ और लोगों से उनने कहा भी कि यह विचित्र संन्यासी है। एक और तो जमींदारी छीनना चाहता है और दूसरी ओर अभी दाम देकर भी उसे मिटाने की बात किसान-सभा में आने देने को रवादार नहीं। लेकिन मेरा पहला विरोध सुनकर जो धारणा मेरे बारे में उन्हें पहले हुई थी, वह तो मिट गई। क्योंकि किसान-सभा में यह प्रश्न न लाने का कारण भी मैंने स्पष्ट कर दिया था।
मुझे खयाल है कि गौतम जी से मैंने वहीं एकांत में पूछा था कि क्या टंडन जी भी अंत तक क्रांति में साथ देंगे?उनने कहा कि गणतंत्रक्रांति (Democratic revolution) तक तो साथ देंगे ही। लेकिन सच बात तो यह कि मैं क्रांति की भीतरी बातें जानता, समझता ही न था। खैर, सम्मेलन हो गया और टंडन जी वगैरह इलाहाबाद चले भी गए। मगर उसका विवरण हमारे पास लिखा ही न गया। शायद उक्त गड़बड़ियों के ही करते। फलत:,अखबारों में जो छपा,वही रहा।
सन1934 के अंत में बंबई अखिल भारतीय कांग्रेस का अधिवेशन हुआ और मैं पहली बार बंबई गया। जहाँ वर्ली में कांग्रेस थी, वहीं पास की एक ठाकुरबाड़ी में बंबई के मित्रो ने मेरे लिए स्थान नियत किया था। क्योंकि मुझे तो कूप-जल चाहिए था। और वहाँ सुंदर बावड़ी थी। बाबू राजेंद्र प्रसाद उस अधिवेशन में सभापति थे। उसी के बाद गाँधी जी कांग्रेस से अलग हो रहे थे। इसीलिए चर्खा संघ के सिवाय ग्रामोद्योग संघ को वहीं उनने जन्म दिया। ताकि,इधर से छुट्टी पाकर उसके काम वह चलाते रहें। मगर आज तक का इतिहास बताता है कि वस्तुत: कांग्रेस से अलग हुए या और भी उसे अपने हाथ में कर लिया। खूबी तो यह कि उसके चवनियाँ सदस्य तक नहीं हैं। यह भी एक पहेली ही है। लोगों ने पीछे उन्हें यह बातें लिखीं भी और उन्होंने अपने पक्ष का समर्थन भी किया कि ऐसा क्यों करते हैं। मगर हमारे जैसे आदमी तो उनकी यह महिमा और यह अपरंपार माया समझ न सके। हमारे जैसों के समझने की यह बात है भी नहीं! फलत: , हम इस माथापच्ची में नाहक क्यों मरें ?
उसी कांग्रेस में असेंबली प्रवेश की भी बात आई। कांग्रेस में उसे स्थान भी मिला। साथ ही, गाँधी जी की राय से ही वह बात आई। समय में कितना अंतर हो गया! कहाँ तो वे पहले उसके कट्टर शत्रु थे और कहाँ आज उसके समर्थक बन गए!कांग्रेस का विधान भी वहीं ढाला गया। इस प्रकार स्थिर स्वार्थवाले जमींदारों और पूँजीपतियों की जड़ कांग्रेस में जमाने का सूत्रपात वहीं हुआ। मैं आल इंडिया कांग्रेस कमिटी का सदस्य था। अत: विषयसमिति में मैंने इस बात काविरोधकिया और यह खतरा सुझाया। मैं पहली बार वहीं कांग्रेस में बोला। मैंने कहा कि अब जब चार आने पैसे देकर बने-बनाए मेंबर ही कांग्रेस पर अधिकार जमा सकते हैं, तो किसानों और गरीबों को उसमें कहाँ गुंजाइश होगी?वह तो जमींदारों और धनियों के हाथ में चली जाएगी। क्योंकि मालदार लोग अपने पास से रुपए खर्च कर के नकली मेंबर ज्यादा बना लेंगे और इस तरह कांग्रेस पर कब्जा कर लेंगे। पूने के एक सदस्य ने मेरी इस बात को समझा और अपने भाषण में इसका उल्लेख भी किया। मगर सुनता कौन था?बात वही हुई जोगाँधीजी ने चाही।
लोगों ने यह भी सोचा, गाँधी जी जब कांग्रेस छोड़ ही रहे हैं, तो यह आखिरी बार उनकी बात मान ही ली जाए। मगर तब से मेरी यह धारणा बराबर दृढ़ होती गई कि''परतेहुँ बार कटक संहारा''। आज तो कांग्रेस उन्हीं के हाथ की चीज है जो न क्रांति चाहते, न किसान-सभा को फूटी आँखों देख सकते और न मजदूर सभा को बर्दाश्त कर सकते। हाँ,नकली किसान-मजदूर सभाएँ अवश्य चाहते हैं। क्योंकि समय की पुकार जो ठहरी। इससे जनता आसानी से भुलावे में पड़ सकती है। इसीलिए मेरा डर अक्षरश: सही निकला। मैंने अनुभव के बल से ही यह आशंका की थी।
अंत में यहाँ पर सन 1935 ई. के शुरू की एक महत्त्व पूर्ण घटना कह के दूसरे खंड में पदार्पण करना है। महीना तो ठीक याद नहीं। पटने की ही बात है। बिहार प्रांतीय किसान कौंसिल की एक महत्त्व पूर्ण बैठक थी। उसमें हमारे सोशलिस्ट दोस्तों के सिवाय वह सज्जन भी, जो अखिल भारतीय किसान-सभा बनाने के लिए उतावले थे,सदस्य की हैसियत से हाजिर थे। विचारणीय विषयों में कई बातों के सिवाय जमींदारी प्रथा मिटाने का प्रश्न भी था। इसलिए सभी तैयार होकर आए थे। बहुत बहस हुई। सबने अपना दृष्टिकोण रखा। मैंने भी रखा। इसका विरोध करते हुए मैंने कहा कि मेरे जानते अभी समय नहीं आया है कि हम यह बात उठाएँ। क्योंकि किसान-सभा की बात है। जब हम निर्णय करेंगे तो सारी शक्ति से उसमें पड़ना होगा। मगर मैं उसके सामान दुर्भाग्य से अभी नहीं देखता और न परिस्थिति ही अनुकूल पाता हूँ। लेकिन यदि आप लोग या बहुमत चाहे तो मैं खामख्वाह अड़ंगा नहीं डाल सकता। अंत में राय ली गई और बहुमत आया जमींदारी मिटाने के पक्ष में।
मैंने कहा ठीक है। मुझे खुशी है, आप लोगों ने यह निर्णय किया। मगर इसका उत्तरदायित्व भी लीजिए। मैं तो ले नहीं सकता जैसा कि कह चुका हूँ,हाँ, इसमें आप लोगों की सहायता जरूर करूँगा। इसलिए कौंसिल का सदस्य तो जरूर रहूँगा। मगर सभापति नहीं रह सकता। तब तो जवाबदेही लेनी होगी। सभापति किसी और को बनाइए। इस पर सन्नाटा हो गया। कोई भी तैयार न हुआ कि सभापति बने। मुझे ताज्जुब हुआ कि मेरे विरोध पर भी प्रस्ताव पास करना और जवाबदेही न लेना यह निराली बात है। फलत:, मित्रो को विवश हो के यह प्रस्ताव वापस लेना पड़ा। मैंने उन्हें दिल से इसके लिए धन्यवाद दिया। पर क्या पता था कि इसी सन 1935 ई. के बीतने से पहले ही मैं स्वयं बिना एक पैसा दिए ही इस जमींदारी पिशाची का नाश करने का