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रचनावली

स्वामी सहजानन्द सरस्वती रचनावली
खंड 3

सहजानन्द सरस्वती

संपादन - राघव शरण शर्मा

अनुक्रम पहला : अन्तरंग भाग पीछे     आगे

 

1. गीता के मुख्य मंतव्य

कर्तव्याकर्तव्य के प्रश्न

कर्तव्य-अकर्तव्य का झमेला, कर्म करें, न करें का सवाल, बुरे-भले की पहेली और इन दोनों का निर्णय कैसे हो यह जिज्ञासा - ये सभी - पुरानी बातें हैं, इतनी पुरानी जितनी पुरानी यह दुनिया है। कोई भी ऐसा देश नहीं है, समाज नहीं है जहाँ एक न एक समय यह उधेड़-बुन और समस्या लोगों के सामने - कम-से-कम उनके सामने तो अवश्य ही जिन्हें समझ हो और जो तह के भीतर घुसने की योग्यता रखते हों - आ न खड़ी हुई हो। सभी देशकाल के विद्वानों के समक्ष ये और इसी तरह के बहुतेरे प्रश्न बराबर आते रहे हैं और उनने अपनी-अपनी समझ तथा पहुँच के मुताबिक इनका उत्तर भी दिया है, समाधान भी किया है। मानवसमाज के इतिहास में यह एक ही बात ऐसी है जो बिना धर्म और संप्रदाय के भेद के, समान रूप से सभी जगह पाई गई है और, हमें आशा है, आगे भी पाई जाएगी। अकेले इस संबंध के प्रश्नों ने लोगों को जितना परेशान किया है और उन्हें इनके बारे में जितनी माथापच्ची करनी पड़ी है, शायद ही किसी एक विषय को लेकर यह बात हुई हो। इसी से पता चलता है कि यह विषय कितना महत्त्वपूर्ण है।

इन सवालों, इन प्रश्नों और इन जिज्ञासाओं के जो उत्तर आज तक दिए गए हैं और जिन्हें लोगों ने किसी न किसी रूप में लिख डाला है, उन्हें अगर एक जगह जमा कर दिया जाए तो खासा पहाड़ खड़ा हो जाए। नीतिशास्त्र और धर्मशास्त्र के ग्रंथों, वैदिक एवं दार्शनिक वचनों, कुरान एवं हदीस की किताबों, बाइबिल और जेन्दअवेस्ता की पोथियों, जैन तथा बौद्ध मतों की देशनाओं और चार्वाक आदि नास्तिकों के उपदेशों के अलावा गत कई हजार साल के भीतर विभिन्न देशों में जो आईन-कानून की किताबें तैयार की गई हैं वह सबकी-सब आखिर इन्हीं प्रश्नों का ही तो उत्तर देती हैं। खूबी तो यह कि इनमें बहुतेरे उत्तर और जवाब ऐसे हैं जो समय-समय पर बदलते रहे हैं। कम-से-कम आईन-कानून तो किसी देश या समाज के लिए हमेशा एक ही तरह के रहे नहीं। वे तो समाज के साथ ही बदलते रहे हैं। उनकी प्रगति और तरक्की समाज के साथ बँधी रही है। यदि इस नजर से देखते हैं तो यह समस्या, और भी पेचीदी हो जाती है, इसका महत्त्व और इसकी अहमियत हजार गुना बढ़ जाती है।

 

अध्‍यात्मवाद और भौतिकवाद

इन प्रश्नों पर सोचने और इनके उत्तर देने वाले लोग दो तरह के होते रहे हैं। चाहे उन्हें अध्‍यात्मवादी कहिए या नीति और एथिक्स (Ethics) के पैरो और प्रचारक कहिए। मगर भारत के धर्मशास्त्रियों और नीतिशास्त्र के आचार्यों से लेकर ग्रीस के प्राचीन तत्त्ववेत्‍ताओं और पश्चिमी देशों के आज तक के आचार शास्त्रों के आचार्यों तक को हम आमतौर से दो ही श्रेणियों में बाँट सकते हैं। इन्हीं के भीतर चीन के कन्फ्यूसियस आदि संप्रदायों के प्रवर्त्तक तथा विद्वान लोग भी आ जाते हैं। इनमें एक दल तो उनका रहा है और है भी जो केवल अध्‍यात्म दृष्टि या आत्मा-परमात्मा और लोक, परलोक की दृष्टि से, इसी खयाल से, कर्तव्य, अकर्तव्य या कर्म के त्याग और करने का निश्चय करते आए हैं, करते आ रहे हैं। ऐसी हर बात में उनकी नजर दुनियावी नफा-नुकसान और हानि-लाभ की कोई खास कीमत नहीं कूतती। वे तो ऐसे मौकों पर हमेशा सिर्फ उसी आत्मा, परमात्मा आदि की दृष्टि से इसका निर्णय करते चले आ रहे हैं कि क्या बुरा और क्या भला है। उनने भले-बुरे की कसौटी सिर्फ यही रखी है कि किस काम से आत्मा कितना नीचे गिरती या ऊँचे उठती है, उसका कितना पतन और उत्थान होता है और करनेवाला उससे परमात्मा के कितना नजदीक या दूर जाता है। उन लोगों ने इस बात की कसौटी भी अपनी-अपनी पहुँच और समझ के अनुसार बना रखी है जिससे इस बात की परख हो सके कि उत्थान या पतन आदि कहाँ तक और कैसे हो रहे हैं, अभी इस संबंध में अधिक लिखना अप्रासंगिक है।

दूसरे दलवाले इसके विपरीत उचित-अनुचित या कर्तव्य-अकर्तव्य वगैरह की जाँच केवल सांसारिक हानि-लाभ एवं नफा-नुकसान के ही तराजू पर करते हैं। उनकी नजरों में या तो आत्मा-परमात्मा या लोक-परलोक नाम की कोई चीज हुई नहीं, या अगर हो भी तो उसे इस मामले में खामख्वाह 'दालभात में मूसरचंद' बनने-बनाने की जरूरत नहीं। वे कहते हैं कि खासतौर से यदि कोई अपने परमात्मा, भगवान या खुदा की पूजा-परिस्तिश करना चाहे और उसकी ढूँढ़ खोज में परेशान हो, तो उसे आजादी है, आजादी हो सकती है, और इस तरह जो रास्ता उसने अख्तियार किया है उसकी जाँच-पड़ताल के लिए भले ही वह आत्मा-परमात्मा की कसौटी का इस्तेमाल कर सकता है। उसमें दूसरे को या दूसरे दलवालों को उज्र नहीं। उसकी यह अपनी निजी चीज जो ठहरी। मगर जनसाधारण या आम लोगों के कामों को तौलने के लिए उस तरह की नाप-जोख की इजाजत उसे हर्गिज दी नहीं जा सकती, और न ऐसा करने का उसे हक ही प्राप्त है। वे तो सिर्फ यही देखना चाहते हैं कि किस काम से ज्यादा लोगों को फायदा ही या नुकसान पहुँचता है। क्योंकि किसी भी काम से सभी का न तो फायदा हो सकता और न नुकसान ही। चोरी-डकैती से भी तो कुछ लोगों को लाभ होता ही है और रोकने से हानि भी होती है। यहाँ तक कि साँस लेने और पलक मारने में भी हजारों जीवधारी कीटाणु खत्म हो जाते हैं। इसीलिए अधिकांश लोगों के हानि-लाभ की ही कसौटी पर नेकी या बदी की जाँच की जा सकती है।

 

गीता का समन्वय

मगर गीता ने इन दोनों विचारों को एकांगी और अधूरा माना है। उसके मत से हमें आदमी के स्वभाव का खयाल करके दोनों ही को मिलाना और उन्हीं के आधार पर कर्म, अकर्म, कर्म के त्याग या ग्रहण और कर्तव्य-अकर्तव्य का निश्चय करना चाहिए। भौतिक हाड़-मांस और दिल-दिमाग से हम मनुष्य को जुदा कर सकते नहीं और ये भौतिक पदार्थ स्वभावत: दुनियाबी हानि-लाभों और बुरे-भलों की ही तरफ झुकते और दौड़ते हैं। उन्हीं को पहचानते और पकड़ते हैं और उन्हीं से अपना गँठजोड़ करते हैं, ठीक उसी तरह जिस तरह बच्चा माँ की सूरत-शकल या आवाज को सुनते ही उधर दौड़ पड़ता है और उसी से जा लिपटता है। इसमें दलील की तो गुंजाइश नहीं। यह तो कठोर सत्य है।

मगर इसमें धोखा और खामी रह जाती है, इस बात की इसमें पूरी संभावना बराबर बनी रहती है। कारण अधिकांश लोगों का सांसारिक लाभ या नुकसान किसमें है, इस बात का निर्णय प्राय: असंभव है। इसके लिए जितने भी तरीके सुझाए गए हैं, सबके-सब अधूरे एवं दोषपूर्ण हैं। अल्पमत और बहुमत का निश्चय वर्तमान मानव-समाज के लिए निहायत पेचीदा पहेली है। इसी झमेले में दुनिया तबाह हो रही है। ऐसा भी होता है कि तुच्छ निजी स्वार्थ ही कभी-कभी जनहित जँचने लगता है। इसीलिए सांसारिक हिताहित या हानि-लाभ के सिवाय आध्‍यात्मिक दृष्टि का भी पुट इसमें आ जाना जरूरी हो जाता है। इससे तुच्छ स्वार्थ का तो मौका रही नहीं जाता। साथ ही, बहुमत के निर्णय की परेशानी से भी पिंड छूट जाता है। गीता की जो अध्‍यात्म दृष्टि है उसमें कुछ ऐसी शक्ति और जड़ी-बूटी की ताकत है कि हर काम की बाहरी रूपरेखा को बदल के वह उसे सुंदर, निर्दोष और कल्याणमय बना देती है।

इसका यह मतलब हर्गिज नहीं है कि इसके चलते कर्तव्य-अकर्तव्य के संसार में अंधेर मच जाएगी; यह सभी के बाहरी रूप को पलटने वाली मानी जो जाती है। बात ऐसी नहीं है। इस दृष्टि के फलस्वरूप आमतौर से अच्छे माने जाने वाले कामों में प्रवृत्ति और दूसरों से निवृत्ति तो एक तरह का नियम बन जाती है, स्वभाव बन जाती है। मगर अपवादस्वरूप अगर कभी संयोगवश उलट-फेर भी हुई, तो भी गड़बड़ होने नहीं पाती और इसके करते वैसे ही मौके पर ऊपर से बुरे दीखने वाले कामों और अमलों की कायापलट हो जाती है। फलत: कहीं भी पश्चात्ताप या अफसोस की गुंजाइश रह नहीं जाती। यदि कहें तो कह सकते हैं कि सांसारिक दृष्टि और परख में जो कमी और मानव स्वभाव में जो त्रुटि रह जाती है उसी की पूर्ति कर्तव्याकर्तव्य के बारे में यह अध्‍यात्म दृष्टि करती है। यह बात प्रसंगवश आगे दिखाई जाएगी।

लेकिन एक बात यहीं पर जान लेना जरूरी है। गीता के सिद्धांत के अनुसार किसी भी क्रिया का, काम का, अमल का, ऐक्शन (action) का बाहरी रूप कोई चीज नहीं है। किसी भी काम को बाहर से, ऊपर से या यों ही देख-सुन के हम उसे भला या बुरा नहीं कह सकते। ठोस या स्थूल पदार्थों की बात है कि उनका जो रूप देखा-सुना जाता है आमतौर से वही सही और असली माना जाता है और उसी के मुताबिक उन्हें हेय या उपादेय, त्याज्य या ग्राह्य माना जाता है। मगर यह बात कर्मों या अमलों के बारे में लागू नहीं है। ऊपर से जिन कामों को हम सुंदर, कर्तव्य और ग्राह्य मानते हैं वह ठीक उलटे हो सकते हैं। यही हालत बुरे, कर्तव्य तथा त्याज्य कामों की भी समझी जानी चाहिए। गीता के मत से हिंसा अहिंसा और अहिंसा हिंसा हो सकती है, हो जाती है। यही बात सभी कर्मों के संबंध में लागू है। गीता तो इस संबंध में यह मानती है कि करने वालों की भावना, धारणा, निश्चय, मानसिक संकल्प और दिल की पुकार उन कर्मों के बारे में कैसी है, वे किस विचार और खयाल से उन कामों को करते हैं, उनके मानसिक पटल पर कौन-सा स्थान किस तरह का उन कर्मों को मिला है, उनके और उनके फलों के संबंध में उन्हें ममता और आसक्ति है या नहीं वे उन कर्मों से और उनके फलों से अपने दिल और दिमाग के जरिए लिपटे हैं या नहीं, इत्यादि बातों का फैसला ही, इन्हीं की असलियत ही उन कामों को बुरा या भला, उचित या अनुचित बनाती है।

 

श्रद्धा , दिल और दिमाग

जिस गीता में श्रद्धा कहा गया है वह भी इन्हीं के भीतर आ जाती है और कर्मों को बुरा या भला बनाने में श्रद्धा का बहुत बड़ा हाथ माना जाता है। यही बात 'श्रद्धामयोऽयं पुरुष:' (17। 3) आदि में गीता ने कही है। 'यस्य नाहंकृतो भाव:' (18। 17) आदि वचन भी यही बताते हैं। दिल के भीतर किसी काम के प्रति जो प्रेम और विश्वास होता है उन दोनों को मिला के ही श्रद्धा कही जाती है। श्रद्धा इस बात को सूचित करती है कि दिमाग दिल की मातहती में - उसके नीचे - आ गया है। विद्वत्ता में ठीक इसके उलटा दिल को ही दिमाग की मातहती करनी होती है। हाँ, आत्मज्ञान, आत्मदर्शन, तत्त्वज्ञान, ब्रह्मज्ञान, स्थितप्रज्ञता, गुणातीतता और ज्ञानस्वरूप भक्ति, (चतुर्थभक्ति) की दशा में दिल तथा दिमाग दोनों ही हिल-मिल जाते हैं। इसे ही ब्राह्मीस्थिति, समदर्शन ऐक्यज्ञान आदि नामों से भी पुकारा गया है। जब सिर्फ हृदय या दिल का निराबाध प्रसार होता है और उसका मददगार दिमाग नहीं होता तो अंध परंपरा को स्थान मिल जाता है, क्योंकि हृदय में अंधापन होता है। इसीलिए उसे दीपक की आवश्यकता होती है और यही काम दिमाग या बुद्धि करती है।

विपरीत इसके जब दिमाग या बुद्धि का घोड़ा बेलगाम सरपटें दौड़ता है और उस पर दिल का दबाव या हृदय का अंकुश नहीं रहता तो नास्तिकता, अनिश्चितता, संदेह आदि की काफी गुंजाइश होती है। क्योंकि तर्क और दलील को पहरेदार सिपाही जैसा मानते हैं। इसीलिए वह एक स्थान पर टिका रह सकता नहीं, अप्रतिष्ठ होता है, स्थान बदलता रहता है - 'तर्कोऽप्रतिष्ठ:।' फलत: सदा के लिए उसका किसी एक पदार्थ पर, एक निश्चय पर जम जाना असंभव होता है। अच्छे से अच्छे तर्क को भी मात करने के लिए उससे भी जबर्दस्त दलील आ खड़ी होती है और उसे भी पस्त करने के लिए तीसरी आती है। इस प्रकार तर्कों और दलीलों का ताँता तथा सिलसिला जारी रहता है, जिसका अंत कभी होता ही नहीं। फिर किसी बात का आखिरी निश्चय हो तो कैसे? संसार भर की बुद्धि आजमा के थक जाए, खत्म हो जाए, तभी तो ऐसा हो। मगर बुद्धि का अंत, परिधि, अवधि या सीमा तो है नहीं। बुद्धियाँ तो अनंत हैं और नई-नई बनती भी रहती हैं, उनका प्रसार होता रहता है - 'बहुशाखा ह्यनन्ताश्च बुद्धय:।'

यही कारण है कि दिल और दिमाग दोनों ही को अलग-अलग निरंकुश एवं बेलगाम छोड़ देने की अपेक्षा गीता ने दोनों को एक साथ कर दिया है, मिला दिया है। इससे परस्पर दोनों की कमी को एक दूसरा पूरा कर लेता है - दिल की कमी या उसके चलते होने वाले खतरे को दिमाग, और दिमाग की त्रुटि या उसके करते जिस अनर्थ की संभावना है उसे दिल हटा देता है। इस प्रकार पूर्णता आ जाती है। लालटेन या चिराग के नीचे, उसके अत्यंत नजदीक अँधेरा रहता ही है। मगर अगर दो लालटेनें पास-पास रख दी जाएँ तो दोनों के ही तले का अँधेरा जाता रहता है। यही बात यहाँ भी हो जाती है। कर्म-अकर्म, कर्तव्य-अकर्तव्य या कर्म के योग और उसके संन्यास जैसे पेचीदे एवं गहन मामले में जरा भी कमी, जरा भी गड़बड़ी बड़ी ही खतरनाक हो सकती है। यही कारण है कि दिल और दिमाग को मिला के गीता ने उस खतरे को खत्म कर दिया है।

 

कर्म के भेद

गीता के मुताबिक कर्म, क्रिया या अमल (action) की कई सीढ़ियाँ हैं। इनमें सबसे पहली या नीचे की सीढ़ी में वे सभी कर्म (काम) आ जाते हैं जो जीवन के लिए, या यों कहिए कि सांसारिक बातों के लिए जरूरी हैं और जिनके बिना न तो कोई जिंदा रह सकता है और न दुनिया का काम ही चल सकता है। गीता के 'कार्यतेह्यु वश: कर्म' (3। 5), 'शरीरयात्रापि च ते' (3। 8) आदि वचन इस बात के पोषक हैं। जब यही कर्म इसी खयाल से किए जाते हैं कि हमारा, करने वाले का या दुनिया का काम चले, सब कुछ कायम रहे, चालू रहे और जब करने वाले को अपने और पराए का विचार रहता है, तभी ये कर्म सबसे निचली सीढ़ी में आते हैं। उस दशा में ये सोलहों आना कर्म के रूप में रहते हैं और इनका नतीजा भुगतान होता है। जिनके बारे में धर्मशास्त्रों और पोथी पुराणों में बहुत कुछ लिखा गया है, जिन्हें सुख-दु:ख और नरक-स्वर्ग आदि देने वाले कहा गया है वे यही कर्म हैं। भाग्य, दैव, प्रारब्ध, संचित और तकदीर आदि नाम भी इन्हीं पहली सीढ़ी वालों को दिए गए हैं। जब बातचीत में कर्म का फेर कहते हैं तो इन्हीं से मतलब होता है। इनमें स्वार्थ और परार्थ - अपने लिए और दूसरों के लिए - का सवाल सदा लगा रहता है और वह कभी इनका और करने वालों का पिंड छोड़ता ही नहीं।

दूसरी सीढ़ी आती है उन कर्मों की जो मन की, हृदय की, अंत:करण की शुद्धि के लिए, पवित्रता के लिए किए जाते हैं। जैसे देह, कपड़े-लत्ते और घर-बार को कर्म या क्रिया के द्वारा ही निर्मल बनाते हैं, साफ-सुथरा करते हैं, झाड़ू, साबुन, पानी वगैरह के जरिए इनकी मैल हटा के इन्हें स्वच्छ, पवित्र और शुद्ध करते हैं; ठीक वैसे ही दिल, दिमाग को भी निर्मल किया जाता है कर्मों के ही जरिए। आत्मज्ञान और तत्त्वज्ञान से घर की गंदगी तो हटती नहीं। वह तो झाड़ू और पानी से धोए पोंछे बिना नहीं हट सकती। मन की मैल और गंदगी भी उसी प्रकार कर्मों के ही द्वारा मिटती है और वह शुद्ध एवं निर्मल होता है। जिस प्रकार पहली सीढ़ी वालों को गीता ने 'शरीरयात्रार्थ' कर्म 'शरीर यात्रापि च ते' (3। 8) में कहा है? उसी प्रकार इन्हें 'आत्मशुद्धये' या 'आत्मशुद्धयर्थ' कर्म 'संगं त्यक्त्वऽऽत्मशुद्धये (5। 11) आदि में कहा है।

मन की मैल भी समझ लेने की चीज है। देह या कपड़े-लत्ते जैसा ठोस और स्थूल पदार्थ तो मन या हृदय है नहीं। वह तो सूक्ष्म - अत्यंत सूक्ष्म - है और अनुमान से ही उसका अस्तित्व माना जाता है। इसलिए उसमें बाहरी या स्थूल मल (मैल) की संभावना नहीं है। यह मैल तो उसके पास पहुँच ही नहीं सकती। यही कारण है कि मन की चंचलता, उसका किसी भी पदार्थ में न टिक सकना, राग, द्वेष और भय आदि ही मैल कहे जाते हैं और इन्हीं को दूर करने की - कम करने की - जरूरत होती है। क्रिया या कर्म के प्रभाव से ही मन इन दुर्गुणों से छुट्टी पाता है और धीरे-धीरे इनकी कमी होने लगती है। ये सोलहों आना मिटते तो हैं आत्मदर्शन के बाद ही। मगर इनकी प्रचंडता और इनका वेग जाता रहता है। जैसे जंगली खूँखार और घरेलू पालतू जानवरों के स्वभाव में फर्क होता है वैसी ही दशा मन की हो जाती है और उसकी खूँखारी जाती रहती है। वह पालतू-सा बन जाता है, बनने लगता है। दिल या हृदय की जो दुर्बलता होती है और संकटों के आते ही जो पस्ती आ जाया करती है तथा निराशा हो जाती है वही दिल की मैल है। वह भी कर्म के फलस्वरूप कम हो जाती है, मिटने लगती है। काम करते-करते सफलता-विफलता का सामना बार-बार होता है, जिससे हिम्मत होती है, बढ़ती है। इस पर आगे संन्यास और त्याग प्रकरण प्रकाश में मिलेगा।

उसी के बाद कर्मों की तीसरी सीढ़ी आती है - यह तीसरी दर्जा नीचे का न हो के ऊँचे का है, उलटा है। इसलिए तीसरा दर्जा सुन के किसी को भ्रम नहीं होना चाहिए। पहली दो सीढ़ियों को पार कर लेने के बाद ही इस तीसरी पर पाँव देते हैं, दे सकते हैं। जब दिल और दिमाग पवित्र हो जाते हैं तो इनसान कुछ ऊपर उठता है और उसकी दृष्टि विस्तृत होने लगती है। जहाँ पहले अपने पराए की बात होने से वह संकुचित रहती है और कदम-कदम पर पदार्थों का बँटवारा-सा प्रतीत होता है कि यह अपना है और यह दूसरे का है, तहाँ ऊपर उठने पर यह विभाग, यह बँटवारा मिटने लगता है और अनेकता में एकता नजर आने लगती है। चाहे इसे 'वसुधैव कुटुम्बकम्' कहिए, या समदृष्टि कहिए। इसे ही गीता ने अपने ही समान सबों के - प्राणिमात्र के - सुख-दु:खों का अनुभव या 'आत्मौपम्य दृष्टि' भी नाम दिया है और 'समत्वबुद्धि' भी कहा है।

लेकिन सबका सारांश है संकुचित से विस्तृत की ओर, परिमित से अपरिमित की तरफ, पिंड से ब्रह्मांड की ओर और व्यष्टि से समष्टि की तरफ जाना। इसीलिए इसे ऊपर उठाना कहते हैं। इससे यह होता है कि व्यक्तित्व, शख्सियत या 'पर्सनलिटी' (personality) और व्यक्तिवादिता या 'इंडिविजुअलिटी' (individuality) का लोप समष्टि या विराट के भीतर हो जाता है - 'इंडिविजुअलिटी' मिल जाती है 'कलेक्टिविटी' (collectivity) में, समष्टि भाव में और मनुष्य अपने आपको विस्तृत संसार का एक अविच्छिन्न अंश समझने लगता है। जिस तरह शरीर के किसी भी अंग को जुदा किए जाने पर असह्य पीड़ा होती है, ठीक उसी तरह उस समय व्यक्ति को समस्त संसार से अलग करने, मानने तथा देखने में मर्मांतिक वेदना होती है। अंग की पुष्टि के लिए समस्त शरीर को ही पुष्ट करना जिस तरह अनिवार्य है वही हालत यहाँ भी हो जाती है। फलत: ऐसा ऊँचा उठा मनुष्य निजी तौर पर या व्यक्तिगत हानि-लाभ का कभी खयाल भी नहीं कर सकता। वह ऐसी बात के लिए सर्वथा अयोग्य हो जाता है। अत: दुनिया के सभी झगड़े मिट जाते हैं। जिस तरह बहुत ही ऊँचे पर्वत की चोटी पर खड़ा हो के देखने वाले को नीचे की बड़ी से बड़ी चीजें भी निहायत नन्ही-सी लगती हैं और कभी-कभी तो दीख तक नहीं पड़ती हैं, ठीक वही हालत उसके नजरों में व्यक्तित्व और अपनेपन की हो जाती है।

मगर यह हालत एकाएक नहीं होती। इसमें भी सीढ़ियाँ (stages) होती हैं और उन्हीं से हो के इनसान धीरे-धीरे ऊपर उठता हुआ आखिरी दशा (stage) में पहुँच जाता है जहाँ सभी एक और समान हो जाते हैं - जहाँ वह अपने को सबों से और सबों को अपने से पृथक देख नहीं सकता। यही है निर्वाण, मुक्ति या ब्राह्मी स्थिति। उस हालत में पूर्णतया पहुँचने के पहले जिन सीढ़ियों से हो के गुजरना पड़ता है उनमें पहली वही है जिसे कर्म की गणना में तीसरी कह चुके हैं। उस तीसरी या इस पहली में जो कर्म किया जाता है उसे गीता ने 'यज्ञार्थ' कर्म कहा है। 'यज्ञार्थत्कर्मणोऽन्यत्र' (3। 9) 'एवं प्रवर्त्तितं चक्रम' (3। 16) 'यज्ञायाचरत: कर्म' (4। 23) आदि श्लोकों में यही बात है। यज्ञार्थ का अर्थ है यज्ञ के लिए और गीता का यह यज्ञ बहुत ही व्यापक है। इसमें दुनिया आ जाती है। परमात्मा से लेकर छोटी-बड़ी सभी चीजों का समावेश इसमें हो जाता है। गीता के चौथे अध्‍याय के 24 से 30 श्लोकों में यह बात स्पष्ट है और अन्यत्र भी (परमात्मा और ज्ञान को तो यज्ञ कहते ही हैं। मगर व्यष्टि और समष्टि - व्यक्ति और समुदाय - रूप से संसार को कायम और चालू रखने के लिए जितने भी काम (कर्म) किए जाते हैं, सभी यज्ञ के अंतर्गत माने गए हैं। अतएव मन:शुद्धि के बाद ऊपर उठने वाला आदमी जो भी कुछ काम शरीरयात्रा के लिए या दूसरों के भले के लिए करता है सभी यज्ञ में आ जाता है।) जिसे आमतौर से हिंदू लोग यज्ञ कहते हैं उससे लेकर बड़े से बड़े और छोटे से छोटे कामों को - सबों को ही - यज्ञ का स्वरूप मिल जाता है।

 

यज्ञार्थ कर्म

वह मामूली यज्ञ से शुरू करके ही आगे बढ़ता है। यज्ञ में एक खूबी है कि इसके करने वाले को कुछ न कुछ घी, अन्न आदि का त्याग करना ही होता है। इसीलिए इसे सैक्रिफाइस (sacrifice) और कुर्बानी भी कहते हैं। इस प्रकार ऊपर उठने का काम इस त्यागबुद्धि से ही शुरू होता है और यह चीज आगे बढ़ती जाती है। गीता की यही तो खूबी है कि जो यज्ञ, कुर्बानी या सैक्रिफाइस सर्वजन प्रसिद्ध और सर्वप्रिय है और जिसमें आस्तिक-नास्तिक का भी कोई मतभेद नहीं - क्योंकि त्याग और कुर्बानी के कायल तो नास्तिक भी हैं - उसी से शुरू करके लोगों को आगे बढ़ाती है। फलत: इसमें दिक्कत नहीं होती। कर्म के गहन मार्ग को सरल बनाने का इससे सुंदर और बालबोध तरीका दूसरा हो ही नहीं सकता और जब एक बार उस चक्र में हमने पाँव दे दिया और उस लहर के भीतर पड़ गए तो फिर अंत तक, देर या अबेर से, पहुँचे बिना बीच में रुकना असंभव है। इसीलिए आमतौर से यज्ञार्थ कर्म करने की यह तीसरी सीढ़ी कर्म के सिलसिले में मानी जाती है और इसमें उस यज्ञ का कोई विश्लेषण या विवरण नहीं आता है।

लेकिन जब इस तीसरी सीढ़ी या दशा में भी कुछ प्रगति हो जाने पर खोद-विनोद शुरू हो जाती है और क्रमश: इस यज्ञ का असली महत्त्व लोगों को मालूम होने लगता है तो चसका लग जाता है, मजा आने लगता है। कुछ समय और गुजरने के बाद इनसान की समझ ऐसी होने लगती है कि वह जो कुछ करता-धरता है वह इस विराट एवं महाकाय संसार की स्थिति, वृद्धि तथा प्रगति के ही लिए हो रहा है। यहाँ तक कि वह अपने श्वास-प्रश्वास और पलक मारने तक को उसी प्रगति के लिए जरूरी एवं अनिवार्य क्रिया-कलाप का एक अंश देखता है। इस प्रकार उसका समस्त जीवन परोपकारमय बन जाता है। फिर भी यह सब कुछ होता है उस यज्ञ के ही रूप में। उसकी यह अविचल धारणा बराबर बनी रहती है कि जो महान यज्ञ संसार के कल्याण के लिए चालू है उसी की पूर्ति हमारे प्रत्येक कामों, प्रत्येक हलचलों तथा छोटी-बड़ी सभी क्रियाओं के द्वारा निरंतर हो रही है।

 

ईश्वरार्पण और मदर्थ कर्म

इस मनोवृत्ति का, इस दशा का पूरा परिपाक हो जाने पर चौथी सीढ़ी आती है, जो ऊपर उठने की दशा की दूसरी कही जा सकती है। इस दशा में पहुँचने पर संसार की विभिन्नता (diversity) का ज्ञान नहीं रहता है। जिस प्रकार मनुष्य व्यक्तित्व से शुरू करके समष्टि में पहुँच जाता है और वहाँ पहुँचते ही व्यक्तित्व लापता हो जाता है, ठीक उसी प्रकार समष्टि के ही थोड़ा और भी ऊपर उठने पर वह समष्टि भी विलीन हो जाती है। व्यक्तित्व या व्यष्टि और समष्टि ये दोनों ही सापेक्षिक चीजें हैं - इनमें एक को दूसरे की अपेक्षा है - ये दोनों परस्पर सापेक्ष हैं। जैसे पिता और पुत्र दोनों ही परस्पर सापेक्ष हैं। इसीलिए एक के ज्ञान के लिए दूसरे के ज्ञान की अपेक्षा है और इसीलिए यदि किसी को दूसरे की अपेक्षा न जानें तो उसे पिता या पुत्र न कह के आदमी, इनसान या मनुष्य ही कहेंगे और जानेंगे भी। यही बात व्यष्टि तथा समष्टि की भी है। जब तक ये दोनों हैं - जब तक इन दोनों का ज्ञान होता है -तभी तक इनकी हस्ती है, सत्ता है। मगर ऊपर उठते-उठते जब व्यष्टि का लोप सोलहों आना हो गया तो फिर समष्टि बुद्धि भी कहाँ रहेगी, कैसे होगी? इसीलिए सर्वत्र समरसता, एकरसता का ज्ञान होने लगा। गीता इसे ही ब्रह्मज्ञान या परमात्मा का ज्ञान कहती है। उस दशा में जो कुछ किया जाता है वह यज्ञार्थ होते हुए भी ईश्वरार्थ, ब्रह्मार्पण, मदर्पण या मदर्थ कर्म कहा जाता है। 'मयि सर्वाणि कर्माणि' (3 । 30), 'यत्करोषि' (9 । 27), 'स्वकर्मणा तमभ्यर्च्य' (18 । 46), 'चेतसा सर्वकर्माणि' (18 । 57), आदि गीता के वचनों में यही बात कही गई है। इसी के बारे में कहा जाता है कि भगवदर्पण बुद्धि से या भगवान की प्रसन्नता के लिए कर्म किया जा रहा है। असल में आत्मा और समस्त संसार - दोनों ही - जब परमात्मा बन गए और उसके सिवाय इनकी जुदा स्थिति रही नहीं गई, तब तो जो कुछ होता है उसे भगवदर्पण-बुद्धिपूर्वक ही माना जाना चाहिए।

 

कर्तव्य कर्म

सबके अंत में आती है पाँचवीं सीढ़ी, जिसे गीता में केवल कर्तव्य-बुद्धिपूर्वक या कर्तव्य समझ के कर्म करना कहते हैं। जब सारा भेद मिट गया और अद्वैतबुद्धि - 'एकोऽहं द्वितीयो नास्ति' की भावना - हो गई और वह निरंतर बनी रहती है, उसका विलोप कभी भी जब होता नहीं, तो फिर ईश्वरार्थ कर्म का प्रयोजन क्या है - मतलब क्या है? ब्रह्म या ईश्वर या भगवान के लिए कर्म करने का तब तो कोई मतलब रही नहीं जाता। भगवान उन कर्मों को ले के आखिर करेगा क्या? उसे तो उनका प्रयोजन कुछ भी रही नहीं गया। इसीलिए भगवदर्पण कर्म के कुछ मानी दरअसल हैं नहीं। जब तक अद्वैत भावना दृढ़ न हो और उसमें रह-रह के विराम आ जाता हो, तब तक तो इसके मानी कुछ हो भी सकते हैं। तब तक पहले वाला ऊँचे उठना और ऊपर चढ़ना अपने स्थान पर रह सकता है। मगर जब इस भावना और धारणा की पूर्ति हो गई, तब ब्रह्मार्पण कहना बेमानी है।

इसीलिए उस हालत में जो कुछ भी कर्म होता है वह केवल कर्तव्य समझ के ही होता है। जिसे अंग्रेजी में 'डयूटी फॉर डयूटीज सेक' (duty for duty`s sake) कहते हैं वही है कर्तव्य बुद्धि से कर्म करने का अर्थ। 'कार्यमित्येव' (18 । 9), 'यष्टव्यमेवेति' (17 । 11), 'दातव्यमिति' (17 । 20) आदि गीतोक्त वचनों का यही मतलब है। (चाहे किसी का कुछ भी प्रयोजन हो या न हो, मगर कर्म तो इस सृष्टि का नियम (law) है। क्रिया ही तो सृष्टि है। इसलिए कर्म तो होता ही रहेगा जब तक संसार बना है, सृष्टि बनी है। इससे छुटकारा तो किसी को मिल सकता है नहीं। हाथ-पाँव आदि इंद्रियों की तो यही बात है कि उनसे कोई न कोई क्रिया होती ही है। नहीं तो वे रहे ही नहीं। इसीलिए यह आत्मदर्शी पुरुष कर्मों की नाहक की उधेड़-बुन में तो पड़ता नहीं कि उनका प्रयोजन क्या है। उसे इसकी फुरसत कहाँ? उसका मन, उसका दिलदिमाग इस तुच्छ चीज के पास फटकने भी क्यों पाए? उसे आगा-पीछा सोचने की फुरसत ही नहीं होती - उसके पास इस चीज की गुंजाइश होती ही नहीं। इसलिए जो कुछ होता है उसे वह रोकता नहीं, होने देता है। इसे ही पुराने लोगों ने 'प्रवाहपतित कर्म' भी कहा है। इसका अर्थ वही है जो कर्तव्यबुद्धिपूर्वक कर्म का है।

(असल में बहुत समय तक यज्ञार्थ या ब्रह्मार्पण बुद्धि से कर्म करते-करते उस मनुष्य का कुछ स्वभाव ही ऐसा हो जाता है कि बिना किसी खयाल के भी वह ऐसे ही काम करता रहता है जिससे लोगों का कल्याण हो। अनजान में भी उससे दूसरे प्रकार का कर्म हो ही नहीं सकता। उसके जरिए ऐसा काम होने की संभावना रही नहीं जाती जिससे संसार में अमंगल हो, दुनिया का अनिष्ट हो, या सांसारिक लोग देखादेखी पथभ्रष्ट हों। उसने तो दीर्घकाल तक दुखी लोगों के ऊपर दयादृष्टि करके ही कर्म किया है। फलत: उसका अंग-प्रत्यंग दयार्द्र हो गया है। मैत्री, करुणा वगैरह दैवी संपत्तियाँ और उदात्त गुण उसके भीतर इस कदर प्रविष्ट हो गए हैं कि उनसे वह अनजान में भी लाख यत्न करने पर भी अलग हो नहीं सकता है। इसीलिए जहाँ पहले लोगों की भलाई का खयाल करके ही वह काम करता था, तहाँ अब बिना उस खयाल के ही काम करता ही है। ऐसे की कर्मों को 'लोकसंग्रहार्थ' कर्म कहते हैं, जैसा कि गीता ने कहा है - 'लोकसंग्रहमेवापि सम्पश्यन कर्तुमर्हसि'। यही कर्म पहले मनोयोगपूर्वक होते थे और अब स्वभाव से ही होते रहते हैं) दोनों ही दशा में ये रहते हैं 'लोकसंग्रह' के लिए ही। मगर पीछे उनमें और भी उदात्तता आ जाती है, वे और भी ऊँचे दर्जे के हो जाते हैं। क्योंकि ऐसे पहुँचे हुए महान पुरुषों की स्वरसवाही प्रवृत्तियों के फलस्वरूप होने के कारण उनमें कृत्रिमता नहीं रह जाती। इसीलिए उनमें ऐसा आकर्षण होता है कि जन-साधारण उधर ही बलात खिंच जाते हैं, एक प्रकार से उन्हीं कर्मों के साथ बँध जाते हैं और उन्हीं को करने लगते हैं। 'लोकसंग्रह' में जो संग्रह शब्द है उसका अर्थ है बाँधना या जमा करना और यह बात तभी चरितार्थ होती है। पहुँचे पुरुषों के कर्मों में तब अपूर्व शक्ति हो जाती है जिसका जादू आम लोगों पर होता है, हो के ही रहता है।

 

स्वभाव के प्रभाव

स्वभाव की बात कुछ ऐसी है कि मनुष्य संस्कारों के मजबूत हो जाने या मानस पटल पर जम जाने से सपने में चीजें देखने लगता है! वहाँ चीजें तो होती नहीं। लेकिन पहले देखी दिखाई चीजों का गहरा संस्कार ही उन्हें घसीट के दिमाग के सामने नींद के समय में ला देता है। हालाँकि स्वभाव जैसी मजबूती उस संस्कार में कभी होती नहीं। इसी से स्वभाव की ताकत समझी जा सकती है कि वह क्या कर सकता है। मेरे गुरु जी महाराज अत्यंत वृद्ध और प्राय: सौ साल के हो के मरे थे। उनका हृदय बच्चों जैसा सरल और प्रेम से ओत-प्रोत - सना हुआ - था। बचपन से ही उनकी आदत थी; स्वभाव था, अपनी ऊँगलियों पर ही माला की तरह ओंकार या भगवान के नाम के जपने का। उनका यह काम निरंतर धारावाही रूप से चलता रहता था जब तक नींद न आ जाए। मगर इसका परिणाम यह हो गया कि गाढ़ी नींद में भी ऊँगलियों कि वह क्रिया बराबर जारी रहती थी। कितनी ही बार जब मैं दिन में उनके दर्शनों के लिए गया और वे सोए थे, तो अविच्छिन्न रूप से चालू ऊँगलियों की वह क्रिया मैंने खुद-ब-खुद देखी है। महान आत्माओं के कर्मों की यही दशा होती ही है।

कहते हैं कि कविता है दरअसल कवि के हृदय का बहके - प्रवाहित हो के - बाहर निकल आना। बेशक सच्ची कविता तो इसी को कहते हैं। वाल्मीकि ने वन में एकाएक देखा कि क्रौंच पक्षियों का जोड़ा आपस में रमा हुआ है। इतने में ही एक शिकारी ने तीर से ऐसा मारा कि मादा वहीं लोट गई! यह देख के नर तिलमिला उठा और इधर दयाद्र मुनि वाल्मीकि का हृदय-स्त्रोत फूट निकला और उनके मुख से सहसा शब्द निकल पड़ा कि 'मा निषाद प्रतिष्ठां त्वमगम: शाश्वती: समा:' 'निषाद, तुझे भी बहुत दिनों तक चैन न मिलेगा' - क्योंकि तूने इस निरपराध पक्षियों में से एक को मार डाला है! कहा जाता है कि यही वाल्मीकि रामायण की रचना का श्रीगणेश है और इसी को ले के वह लंबी और सुंदर काव्य रचना हो गई। लोग जो कहते हैं कि कवि लोग लोकमत बदलने या जनता का दिमाग फेरने में कमाल करते हैं उसका कारण यही है कि उनका जिंदा दिल कविता के रूप में खयालों से बिंधा-बिंधाया बाहर आ के पुकारता है। मगर पहुँचे पुरुषों के कामों और शब्दों में तो कविता से लाख गुना शक्ति होती है अपनी ओर खींचने की। क्योंकि कविता में जहाँ कुछ कृत्रिमता होती ही है, तहाँ उनके काम और शब्द बिलकुल ही अकृत्रिम होते हैं।

स्वामी विवेकानंद ने परमहंस रामकृष्ण की जीवनी में लिखा है कि जब मैं उनके पास यह जान के दौड़ा-दौड़ाया पहुँचा कि भगवान के बड़े भक्त हैं और मुझे तो भगवान की सत्ता ही स्वीकार नहीं, इसलिए वे कुछ चीजें बताएँगे जिससे मैं उस सत्ता के संबंध में सोचूँ-विचारूँगा, तो वहाँ अजीब हालत देखी। उसने मेरे प्रश्न के उत्तर में कोई तर्क दलील न देके चट कह दिया कि 'हाँ, मैं तो भगवान को ठीक वैसे ही देखता हूँ जैसे तुम मुझे देखते हो।' मगर इन सीधे-सादे शब्दों में क्या जादू था! इनमें क्या गज़ब की ताकत थी! जहाँ बड़े से बड़े दिमागदार की दलीलें मुझ पर इस बारे में जरा भी असर न कर सकी थीं, तहाँ इन्हीं शब्दों ने कमाल किया और मुझे मजबूर किया कि उन परमहंस जी को मैं अपना गुरुदेव बना लूँ। हुआ भी ऐसा ही और मैं उसी क्षण से घोर नास्तिक और अनीश्वरवादी से परम आस्तिक एवं ईश्वरवादी बन गया! यह शक्ति उन शब्दों की नितांत अकृत्रमता में ही थी! परमहंस जी का बाहर-भीतर एकरस था। वे जैसा बोलते वैसा ही सोचते और करते भी थे। दिल, दिमाग, जबान और काम - इन चारों - में उनके यहाँ सामंजस्य था। यह नहीं कि दिल में कुछ, दिमाग में दूसरी ही, जबान पर तीसरी और काम में चौथी ही चीज हो जाए। यही महात्मापन है।

 

महात्मा और दुरात्मा

(पुराने लोगों ने कहा है कि महात्मा उसी को कहते हैं जो दिल-दिमाग में सोचे-विचारे जो कुछ वही जबान से भी बोले और वैसा ही काम भी करे। चाहे दुनिया इधर से उधर हो जाए और लोग हजार खुश या रंज हों, उसे किसी की परवाह नहीं होती। वह निर्भय और लापरवाह हो के एक ही तरह की बात सोचता-विचारता, बोलता और करता है।) विपरीत इसके दुरात्मा या दुष्ट सोचता-विचारता कुछ, कहता कुछ दूसरा ही और काम करता है तीसरे ही ढंग का। लोगों के दबाव, डर, भय और लाभ वगैरह का उस पर क्षण-क्षण में असर होता है। उसकी आत्मा पतित और कमजोर जो होती है - 'मनस्येकं वचस्येकं कर्मण्येकं महात्मनाम । मनस्यन्यद्वचस्य न्यत्कर्मण्यन्यद्दुरात्मनाम।' इसका सारांश यह है कि दिमाग का काम है सोचना-विचारना; दिल का काम है किसी बात को पकड़ रखना, उससे चिपक जाना, उसी पर डटे रहना; जबान का काम है बात बोलना और हाथ-पाँव वगैरह का काम है अमल करना। महान पुरुष में इन चारों - दिमाग, दिल, जबान और हाथ-पाँव आदि - का सामंजस्य होता है, इनकी एकता होती है, इनका मेल होता है। उसके दिल, दिमाग, जबान और अमल में एक ही बात पाई जाती है। जरा भी अंतर नहीं मिलता। शील-मुरव्वत, भय-प्रीति, लाज-शर्म या हानि-लाभ का कोई भी खयाल उसे डिगा नहीं सकता। वह पर्वत की तरह अडिग हो के मौत के मुख में जाता हुआ भी जो कुछ सोचता-विचारता उसे ही बेधड़क बोलता और तदनुकूल ही आचरण करता है। प्रह्लाद, ध्रुव, ईसा, हुसेन, मंसूर, आदि की गणना ऐसे ही महापुरुषों में है।

लेकिन दुरात्मा या छोटे आदमियों की ऐसी हालत होती है कि शील-मुरव्वत, हानि-लाभ, लाज-शर्म, डर दबाव आदि के चलते कदम-कदम पर बदलते रहते हैं - क्षण में कुछ और क्षण में कुछ करते रहते हैं। वे गिरे होने के कारण सांसारिक प्रलोभनों से ऊँचे उठ नहीं सकते। यह ठीक है कि उनमें भी सभी तरह के लोग होते हैं। कोई बिलकुल ही गिरे एवं दबे होते हैं तो कोई उनसे जरा ऊपर होते हैं और तीसरे होते हैं दूसरों से भी जरा और ऊपर। इसी प्रकार नीचे और ऊपर हजारों होते हैं। बात असल यह है कि महात्मापन के लिए उक्त जिन चारों का मेल जरूरी है उनमें यदि तीन या दो का ही मेल हो सका, या चारों का मेल भी पूरा-पूरा न हो सका और यही बात तीन और दो के मेल में भी हुई तो वे लोग महात्मा तो हो सकते नहीं। वे तो नीचे जा पड़े। मगर उसी हिसाब से उनका पतन कम या बेश माना जाएगा। मेल में जितनी ज्यादा कमी होगी पतन उतना ही अधिक होगा। विपरीत इसके मेल जितना ही अधिक होगा उतना ही वे अपेक्षाकृत ऊपर या ऊँचे माने जाएँगे।

संन्यास और लोकसंग्रह

कर्तव्यबुद्धि से या लोकसंग्रहार्थ कर्म करने वाले महापुरुषों के ही प्रसंग से गीता की एक और बात भी जानने योग्य है। समदर्शन या ब्रह्मनिष्ठा की हालत में महान पुरुषों की दो गतियाँ हो सकती हैं - ऐसे पुरुष दो प्रकार के हो सकते हैं। एक तो ऐसे जिनकी मानसिक दशा बहुत ऊँची हो, अत्यंत ऊँची हो। वह ऐसी दशा में हो कि उनकी वृत्तियाँ, उनके खयाल नीचे उतरते ही न हों, उतर सकते ही न हों आमतौर से ऐसे लोग आत्मानंद में सदा मग्न रहते हैं। इन्हीं को कहीं-कहीं मस्त राम भी कहा है। उनके लिए इस दुनिया की सारी बातें वैसी ही हैं जैसी भादों की अँधेरी रात में पड़ी चीजें। उन चीजों को कोई देख ही नहीं सकता। ऐसे महानुभाव भी सांसारिक पदार्थों और गतिविधियों को कभी देख सकते नहीं। इन चीजों का यथार्थ ज्ञान उन्हें कभी होता ही नहीं। अँधेरे की चीज को तो टो-टाके जान भी सकते हैं। मगर इनके लिए दुनियावी पदार्थ सर्वथा अज्ञेय हैं। इनके साथ उनका निकटवर्ती संबंध कभी हो ही नहीं सकता; हालाँकि ये पदार्थ औरों के देखने में चारों ओर पड़े मालूम होते हैं। जैसे पानी के भीतर ही पैदा हुआ और पड़ा रहने वाला कमल का पत्ता पानी से निर्लेप एवं असंबद्ध रहता है, वही दशा इनकी है। जहाँ दुनिया की जरा भी पहुँच नहीं उसी मस्ती के ये शिकार हैं - उसी में झूमते हैं और जिसमें दुनिया झूमती है उससे ये महात्मा लाख कोस दूर हैं। गीता ने इन्हें संयमी कहा है - 'तस्यां जागर्ति संयमी' (2। 69) और बताया है कि संसार की ओर से ये बेखबर होते हैं, उधर से सोते रहते हैं। संसार इनके लिए अँधेरी रात या रात की चीज है। इसी से दुनिया इन्हें पागल समझती है।

इन्हीं पागलों और मस्ताने लोगों की दशा को गीता ने सांख्यनिष्ठा और ज्ञान-निष्ठा नाम से भी पुकारा है। वे इतनी ऊँचाई पर होते हैं कि संसार की लपट उन तक पहुँच पाती ही नहीं। इसीलिए शरीरयात्रा की क्रियाओं के होते रहने पर भी इनके भीतर कर्तव्य-बुद्धि कभी पैदा होती ही नहीं। ये लोग कभी भी ऐसा नहीं समझते कि हमारे लिए अमुक कर्तव्य है। कर्तव्याकर्तव्य के खयाल से बहुत ज्यादा ऊपर होने के कारण उसकी सतह या धरातल मे उनका पहुँचना असंभव हो जाता है। उनकी तो दुनिया ही दूसरी होती है, निराली होती है यदि उसे दुनिया कहा जा सके। यही कारण है कि कर्म करने, न करने के जो विधिनिषेध हैं, इस तरह के जो विधान हैं वह उनके लिए हुई नहीं। ये संयमी महात्मा उन विधिनिषेधों और विधानों के दायरे से बाहर हैं। इसीलिए गीता ने साफ कह दिया है कि इन मस्तरामों का कोई भी कर्तव्य रह ही नहीं जाता। 'तस्य कार्यं न विद्यते' (3। 17)। यही है पक्का संन्यास, त्याग या कर्म का छोड़ना। जैसे मदिरा पी के मतवाला हुए आदमी को अपने तन की सुध-बुध नहीं होती, उससे लाख गुने बेसुध ये संन्यासी होते हैं। इनने ने तो महामदिरा की पान कर लिया है। कर्म के विधिनिषेध वचनों की हिम्मत नहीं कि उनके सामने जा सकें। उन्हें सामने जाने में आँच लगती है। इस प्रकार के संन्यासी या कर्मत्यागी कहे जाने वालों में शुकदेव, वामदेव, सनक, सनंदन आदि आ जाते हैं। यही एक प्रकार का कर्म संन्यास है, जिसका मतलब आमतौर से सभी कर्मों के त्याग से न होकर केवल विधानसिद्ध कर्मों के त्याग से ही है।

परंतु तत्त्वज्ञानी या समदर्शनवाले एक दूसरे प्रकार के भी महापुरुष होते हैं और जनक आदि इसी श्रेणी के माने जाते हैं। जिस प्रकार पहली श्रेणी वालों के कर्म अनायास ही छूट जाते हैं ठीक उसी तरह, जिस तरह पकने पर वृंत या वृक्षशाखा से छूट के फल गिर पड़ता है; ठीक उसी प्रकार दूसरी श्रेणीवालों के कर्म जारी ही रहते हैं, जैसे कच्चा फल वृंत या टहनी में लगा रहता है। अगर पका फल बलात टहनी में लगा रखा जाए तो वह सड़ने लगता है और यदि कच्चे को समय से पहले तोड़ा जाए तो वह भी या तो नीरस होता है या सड़ने ही लगता है। बहुत दिनों के संस्कार और अभ्यास के फलस्वरूप जैसे पहली श्रेणीवालों का मन कर्मों से सोलहों आना उपराम और विरागी हो जाता है, ठीक उसी तरह दूसरी श्रेणीवालों का मन कर्मों में ही मजा पाने लगता है। यदि यह बात न हो तो परले दर्जे का लोकसंग्रहार्थ कर्म कभी होई न सके। क्योंकि जो पहुँचे हुए हैं वे सबके-सब यदि विरागी हो जाएँ तो विधान प्राप्त कर्मों को करेगा कौन? और अगर वह न करें तो दूसरों का कर्म तो उस उच्चकोटि का होई नहीं सकता। उसमें कुछ न कुछ अपूर्णता रही जाएगी। करने वाले खुद जो पूर्ण नहीं ठहरे। सृष्टि के नियम के अनुसार इसीलिए एक दल ऐसा होता ही है। संन्यासियों के भी उस दूसरे दल की जरूरत इसीलिए है कि परले दर्जे की मस्ती का नमूना और कोई पेश कर नहीं सकता। फलत: वैसे आदर्श की ओर लोग खिंच नहीं सकते। यह भी एक निराले ढंग का 'लोकसंग्रह' ही है, जो मस्ती के संबंध में संन्यास के रूप में है। इसी को पुराने वृद्धों ने जीते ही पूरा मुर्दा बन जाना लिखा है, जिसमें सुख-दु:ख आदि का कुछ भी असर पड़ी न सके - ये सभी टक्कर मार के हार जाएँ।

गीता ने जिस प्रकार कर्म-संन्यास के इस उच्च आदर्श को माना है और बार-बार उसका उल्लेख किया है उसी प्रकार ज्ञानोत्तर कर्म करने वाली बात को भी स्वीकार करके उसे कई जगह कर्मयोग या योग नाम दिया है और उसे करने वालों को कर्मयोगी और योगी आदि शब्दों से याद किया है (गीता के भाष्य की भूमिका-में शंकराचार्य ने साफ ही कहा है कि समदर्शियों और ब्रह्मज्ञानियों के कर्म को तो हम कर्म मानते ही नहीं, उसे कर्म कहना ही भूल है। क्या भगवान कृष्ण के कर्म को कर्म कहना उचित है? - 'तत्त्वज्ञानिनां कर्म तु कर्मैव न भवति यथा भगवत: कृष्णस्य क्षात्रं चेष्टितम।' कर्म तो उसे ही कहते हैं जिसमें बाँधने, फँसाने या सुख-दु:ख देने की शक्ति हो। मगर समदर्शियों का कर्म तो ऐसा होता नहीं। वह तो ज्ञान के करते जड़-मूल से जल जाता है उससे बंधन नहीं होता, जैसाकि - 'ज्ञानाग्निदग्धकर्माणम्' (4। 19), 'कृत्त्वापि न निबद्धयते' (4। 22), 'समग्रं प्रविलीयते' (4। 23), 'ज्ञानाग्नि: सर्वकर्माणि भस्मसात् कुरुते' (4। 37), - आदि गीता वाक्य बताते हैं यही कारण है कि विधानसिद्ध कर्मों के संन्यासी होते हुए भी खुद शंकर लोकसंग्रहार्थ जीवनभर कर्म करते ही रहे। इसमें विधिविधान की तो कोई बात न थी। यह तो स्वभावसिद्ध चीज थी। विधिविधान के अनुसार किए गए कर्म तो बंधक होते हैं और ये वैसे नहीं होते। इसीलिए शंकर ने इन्हें त्यागने पर कभी ज़ोर न दिया।

इस विषय में एक प्रसंग आया है। हिरण्यकशिपु के मारने में नृसिंह को बड़ी दिक्कत का सामना करना पड़ा था। क्योंकि वह न दिन में मर सकता था, न रात में, न जमीन में, न आसमान में और न आदमी से न जानवर से ही। इसीलिए खिचड़ी रूप बना के संध्या समय में अपने हाथ में ले के ही उसे मारने की बात भगवान को सोचनी पड़ी, ऐसा कहा जाता है। आगे भी ऐसी परेशानी न हो इसी खयाल से उनने प्रह्लाद से कहा कि सब पँवारा छोड़ के मेरे साथ ही चलो। लोगों को ज्ञान-ध्यान सिखाना छोड़ो। इस पर प्रह्लाद का जो भोलाभाला, पर अत्यंत काम का, बहुत ही ऊँचे दर्जे का, उत्तर मिला वह इसी गीता के कर्मयोग का पोषक है। वह कहते हैं कि भगवन ऐसा तो अकसर होता है कि सभी ऋषि-मुनि दूसरों की परवाह छोड़ के चुपचाप एकांत में चले जाते और अपनी ही मुक्ति की फिक्र में लग जाते हैं। तो क्या मैं भी आपकी आज्ञा मान के ऐसा ही स्वार्थी बन जाऊँ? हरगिज नहीं। मैं ऐसा नहीं कर सकता। मुझे अकेले मुक्ति नहीं चाहिए। क्योंकि तब तो इन सांसारिक दुखियों-का पुर्साहाल कोई रही न जाएगा। जो आपको इनके हितार्थ बलात इसी तरह खींचे 'प्रायेण देवमुनय: स्वविमुक्तिकामा, मौनं चरन्ति विजने न परार्थनिष्ठा:। नैतान् विहाय कृपणान् विमुमुक्ष एको नान्यं त्वदस्य शरणं भ्रमतोsनुपश्ये।' (भागवत 7। 9। 44)। 'योगस्थ: कुरु कर्माणि' (2। 48) आदि श्लोकों में गीता ने भी यही कहा है।

आरुरुक्ष और आरूढ़

कर्म के त्याग या संन्यास की दशा एक और भी है। एक तो समदर्शन की अवस्था में जाने से पहले उसकी तैयारी करनी होती है। दूसरे वह अवस्था आने पर उसमें दृढ़ता लाने के लिए प्रयत्न किया जाता है। तैयारी में भी ऐसा होता है कि सबसे पहले उस ओर मन का जाना और लगना जरूरी है। जब मन चाहेगा कि हम उस दशा में आरूढ़ हों, पहुँचें और पक्के हों तभी तो दूसरे यत्न होंगे। इसे ही पुराने लोगों ने विविदिषा, जिज्ञासा वगैरह नामों से पुकारा है और ऐसी प्रवृत्ति वाले को विविदिषु, जिज्ञासु आदि कहा है। गीता में इसे आरुरुक्षा और ऐसे आदमी को आरुरुक्षु नाम दिया गया है। गीता के छठे अध्याय का 'आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं' यह तीसरा श्लोक इस बात को बहुत ही सफाई के साथ बताता है। समदर्शन या साम्यावस्था को गीता में योग या योगावस्था भी कहा है। उसी अध्याय के 18 से 23 तक के श्लोकों में और दूसरे स्थान पर भी यह बात लिखी है। खुद इसी तीसरे श्लोक में भी योग नाम ही आया है। उसी योग में आरूढ़ होने या पहुँचने की इच्छा वाले को 'योगारुरुक्षु' या 'योगमारुरुक्षु' कहा है और पक्कापक्की पहुँच के वहीं स्थिर हो जाने वाले को 'योगारूढ़' कहा है। तीसरे श्लोक में ही ये दोनों नाम आए हैं। लेकिन इसके स्पष्टीकरण के लिए हम उपनिषदों के एकाध वचनों पर भी विचार करेंगे। क्योंकि गीता को प्रत्येक अध्याय के अंत में 'गीतासूपनिषत्सु' शब्दों में उपनिषद भी कहा है।

बृहदारण्यक उपनिषद के चौथे अध्याय के चौथे ब्राह्मण की 22वें और पाँचवें ब्राह्मण के छठे मंत्रों के कुछ अंशों को ही हम यहाँ रखना चाहते हैं। क्योंकि विस्तार करना हमारा लक्ष्य नहीं है। 22वें में लिखा है कि 'तमेतं वेदानुवचनेन ब्राह्मणा विविदिषंति यज्ञेन दानेन तपसाsनाशकेन।' इसका आशय यही है कि 'उस आत्मा या ब्रह्म के ज्ञान की इच्छा (विविदिषा या जिज्ञासा) या यों कहिए कि लगन पैदा करने के लिए विवेकी लोग, वेदशास्त्रों के आधार पर, यही निश्चय करते हैं कि यज्ञ, दान और तप करना चाहिए - ऐसा तप जो शरीर का नाशक न हो या अनशन के रूप में न हो।' यहाँ यज्ञ, दान और तप से मतलब है सभी कर्मों से। गीता के अनुसार ये तीनों बहुत ही व्यापक हैं और इनमें सभी क्रियाओं का समावेश हो जाता है, जैसा कि सत्रहवें अध्याय के 11 से 22 तक के श्लोकों और चौथे अध्याय के 24 से 29 तक के श्लोकों से स्पष्ट है। इससे यह तो सिद्ध है कि जिज्ञासु या योगारुरुक्षु बनने के लिए - ज्ञान या योग के प्रति उत्कट अभिलाषा या लगन पैदा करने के लिए - कर्म जरूरी है, कारण हैं, साधन हैं, उपाय हैं। यही बात 'आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं' आदि आधे श्लोक में कही गई है। इस प्रकार योग या समदर्शन की तैयारी के लिए कर्मों की जरूरत सिद्ध हो जाती है। कर्मों के करते-करते ही यह लगन पैदा हो जाती है। कर्म जितनी ही मुस्तैदी एवं तत्परता के साथ किए जाएँगे उतनी ही जल्दी यह लगन पैदा हो के मनुष्य उस दिशा में पाँव देगा - उसके अत्यंत निकट आ जाएगा।

इसके बाद उसी 22वें मंत्र में पूर्वोक्त वचन के बाद ही उसी से मिला हुआ यह वचन मिलता है, 'एतमेव विदित्वा मुनिर्भवति एतमेव प्रव्राजिनो लोकमिच्छन्त: प्रव्रजन्ति।' इसका आशय यह है कि 'आत्मज्ञान के बाद ही मनुष्य को मुनि या मननशील हो जाना पड़ता है और उसी ज्ञान की पुष्टि या आत्मा की प्राप्ति के लिए लोग संन्यासी बनते हैं।' पाँचवें ब्राह्मण के छठे मंत्र में भी लिखा है कि 'आत्मा वा अरे द्रष्टव्य: श्रोतव्यो मंतव्यो निदिध्यासितव्यो मैत्रेयि।' इसका अर्थ यह है कि 'अरे मैत्रेयी, आत्मा के ज्ञान या दर्शन का होना सर्वथा सर्वदा वांछनीय है। उसके लिए श्रवण, मनन और निदिध्यासन करना होगा।' श्रवण का तात्पर्य है खूब ध्यान से पढ़ना और सुनना कि वह कैसा है। उसके बाद उस पर खूब मनन और विचार करना आवश्यक है। दोनों बातें कर लेने के बाद एकांत में समाधि लगा के उसी का निरंतर चिंतन करना होगा। तभी आत्मज्ञान हो सकता है। इसी समाधि या निदिध्यासन का विस्तृत वर्णन गीता के छठे अध्याय के 10 से 32, आठवें के 8 से 13, बारहवें के 6 से 19 और अठारहवें के 50 से 55 तक के और दूसरे श्लोकों में भी है। यही बात 'आरुरुक्षोर्मुनेर्योगं' श्लोक के उत्तरार्द्ध में भी कही गई है कि उसे मुनि और योगारूढ़ बनने-बनाने के लिए शम यानी कर्मों के त्याग की जरूरत है, त्याग ही उसका कारण है। उपनिषद के वचन में जो 'मुनि' शब्द है वही गीता के इस श्लोक में भी पाया जाता है। उपनिषद के वचनों में साफ ही संन्यास की बात कही गई है। यह भी बात है कि मनन एवं निदिध्यासन या समाधि के लिए तो जानें कितने समय तक कर्मों को कतई छोड़ देना आवश्यक हो जाता है। गीता के उक्त श्लोकों के पढ़नेवाले और समाधि की बातें जानने वाले ही बता सकते हैं कि उस समय कर्म की गुंजाइश कहाँ रह जाती है? सो भी युग लग जाते हैं फिर भी काम पूरा नहीं होता। इसीलिए कर्मों का त्याग या संन्यास खामख्वाह अनिवार्य हो जाता है।

जो लोग चौथे अध्याय के उक्त श्लोक के 'योगारूढ़स्य तस्यैव शम: कारणमुच्यते' में शम शब्द देख के एवं उसका अर्थ उपशम या मन की शांति लगा के संतोष कर लेते और कर्मों का त्याग जरूरी नहीं समझते उनकी समझ पर हमें तरस आता है। योगारूढ़ शब्द के भीतर तो मन की शांति या उसका निरोध आई जाता है। 'योगोsनिर्विण्णचेतसा' (6। 23) में भी साफ ही लिखा है कि योग की सिद्धि मन की शांति के बिना हो नहीं सकती है। और जब सभी कर्म करते रहें तो फिर मन की चंचलता मिटेगी कैसे? वह तो बराबर चक्कर लगाता ही रहेगा। हम यहाँ इतना ही कहना काफी समझते हैं कि योग के बारे में गीता के जिन वचनों का नाम हमने लिया है उन्हें पढ़ने और समझने के बाद यदि फिर भी किसी को यह कहने की हिम्मत हो कि समाधि के साथ-साथ विधान प्राप्त कर्म भी हो सकते हैं, तो हम अपनी भूल स्वीकार कर लेंगे। जो लोग यह कहते हैं कि शम का अर्थ कर्मत्याग या संन्यास नहीं होता उन्हें चौदहवें अध्याय के 'लोभ: प्रवृत्तिरांभ: कर्मणामशम: स्पृहा' (12) को पढ़ के संतोष करना चाहिए। वहाँ 'आरंभ:' और 'अशम:' के बीच में 'कर्मणां' शब्द आया है और यह बताता है कि रजोगुण की वृद्धि हो जाने पर आदमी को लोभ होता है, कर्मों के करने की इच्छा होती है, वह कर्म शुरू भी कर देता है, फिर उसका ताँता बराबर जारी रखता है और उसे बंद नहीं करता। 'शम' के साथ 'अ' लगने पर वह बंद करने या त्याग की विरोधी बात कहता है। 'शम' धातु का संस्कृत में अर्थ भी है सभी क्रिया की निवृत्ति। मन की शांति का अर्थ भी यही है कि उसकी सारी हलचलें मिट गईं। मगर शांति शब्द तो केवल मन के ही लिए आता नहीं। झगड़े की शांति तूफान की शांति आदि भी तो बोलते हैं। अत: उसका अर्थ है क्रिया की निवृत्ति। अग्नि शांत हो गई, लोग शांत हो गए या ठंडे पड़ गए, गुस्सा शांत हो गया आदि बोलचाल में तो हलचल और क्रिया की ही निवृत्ति से मतलब होता है।

 

पूजा के भेद

गीता की एक और बात भी बड़े ही मार्के की है। आमतौर से यही समझा जाता है कि कंठी-माला जपना, चंदन-अक्षत और पत्र-पुष्प आदि चढ़ाना तथा घंटा-घड़ियाल वगैरह बजा के धूप, दीप, आरती और भोगराग अर्पण करना यही भगवान की पूजा है। तीर्थ-व्रत आदि करने, भगवान के गुणों को वर्णन करने वाले ग्रंथों का पाठ करने, स्तुति करने और गीत-भजन ऊँचे स्वर से गाने को भी किसी कदर पूजा मान लेते हैं। आँखें बंद करके ध्‍यान में बैठना तो भगवान की भक्ति जरूर ही है। प्राय: देखा जाता है कि भगवान के प्रेम के नाम पर आँखों में नकली आँसू भर के कभी-कभी भक्त नामधारी लोग रोते भी हैं। रामलीला के नाम पर नाटक वगैरह का जो प्रपंच फैलाया जाता है उसे भी पूजा के भीतर ही मानते हैं। आजकल तो रसिक संप्रदाय और सखीसंप्रदाय के नाम पर नाचने-गाने के अलावा जानें क्या-क्या नकलें की जाती हैं और स्‍त्री बनने का भी स्वाँग रचा जाता है। इसे भी भगवद्भक्ति ही मानने की बीमारी तेजी के साथ फैल रही है।

मगर गीता ने एक निराला ही रास्ता निकाला है और इस तरह ऐसा करने वालों का सौदा ही फीका कर दिया है। बेशक, दुनिया को दिखाने के लिए नहीं, किंतु भीतरी श्रद्धा के साथ, जो कुछ पत्र, पुष्प आदि भगवान के नाम पर अर्पण किया जाता है उसे भी नवें अध्‍याय के 'पत्रं पुष्पं' (26) श्लोक में पूजा कहा है। मगर वहाँ 'भक्त्या' और 'प्रयतात्मन:' के साथ ही जो 'भक्त्युपहृतं' कहा है उससे एकदम स्पष्ट हो जाता है कि सरल स्वभाव और निष्कपट मन से श्रद्धा और प्रेम के साथ जो कुछ किया जाता है उसे ही भगवान स्वीकार करते हैं और वही उनकी पूजा है। श्रद्धा-भक्ति की जरा भी कमी हुई और यह बात चौपट हुई। तब तो यह कोरा रोजगार हो जाता है। दो बार 'भक्ति' शब्द एक ही श्लोक में कहने का मतलब ही यही है कि छलछलाते प्रेम और सच्ची श्रद्धा के साथ ही ऐसा करना पूजा मानी जा सकती है। नरसी मेहता और नामदेव आदि भक्तों के बारे में ऐसा ही कहा जाता है। शबरी तथा विदुर की ऐसी ही बात सर्वजन विदित है।

यह तो हुई एक पूजा। लेकिन यह है बहुत ही संकुचित। इसमें कितने ही बंधन जो लगे हुए हैं। पूजा के लिए पत्र, पुष्प आदि लाना और उसकी खासतौर से तैयारी करना इस बात के लिए जरूरी हो जाता है। इसलिए यह पूजा निराबाध नहीं चल सकती। इसका दिन-रात चलना भी असंभव है। आखिर घर-गिरस्ती संभालना तो पड़ता ही है। अपने शरीर-संबंधी मल-मूत्र त्याग आदि की क्रियाएँ तथा खान-पान वगैरह भी तो जरूरी हैं। समय-समय पर लोगों से बातचीत और सोना-जागना भी आवश्यक है। यदि कोई नौकरी-चाकरी या मजदूरी करते हैं तो उस समय भी यह काम नहीं हो सकता है। यदि हल चलाते, खेत खोदते, विद्यार्थी की दशा में पाठ का अभ्यास करते और सिपाही बन के पहरा देते हैं, तो भी यह पूजा नहीं हो सकती। बीमार हो जाने पर भी यह चीज असंभव है। इस प्रकार हजार बाधाएँ मौजूद हैं जिनसे यह पूजा खंडित हो जाती है। इसलिए गीता ने बहुत ही आसान और सर्वथा सर्वदा सुलभ मार्ग बताया है।

नवें अध्‍याय का जो 'पत्रं पुष्पं' श्लोक पहले बताया है उसी के बाद के 27 और 28 दो श्लोकों में जो कुछ भी कहा गया है उससे सभी दिक्कतें और बेबसियाँ दूर हो जाती हैं। हाँ, अपने मन की दिक्कतें रहती हैं जरूर। मगर इसका तो कोई बाहरी उपाय है नहीं। यह खुद हटाने की चीज है। मन की शैतानियत तो दूसरा कोई दूर कर सकता नहीं। हाँ, तो उन श्लोकों में पहले यज्ञ, दान और तप के नाम से तीन कामों को गिना के कहा है कि इन्हें करके भगवदर्पण, मदर्पण, मुझे अर्पण करो। मगर फिर इनमें भी वही दिक्कतें और बाधाएँ समझ के आखिर में कह दिया है कि इन्हें तो नमूने के तौर पर गिना दिया है। असल में जो कुछ भी करते हो, 'यत्करोषि', उसे ही भगवान को अर्पण करो। इसका सीधा मतलब यही है कि जो भी काम करते हो सभी कुछ भगवदर्पण बुद्धि से, यह समझ के कि यह भगवान की पूजा ही रूपांतर में हो रही है, करो। चौबीस घंटे में जो कुछ भी किया जाए - और इसमें सोना, मल-मूत्र त्याग आदि भी आ ही जाता है - सभी के मुतल्लिक एक ही भावना होनी चाहिए, एक ही खयाल होना उचित है कि यह तो और कुछ नहीं है; केवल भगवान की पूजा है। इसी खयाल का अभ्यास होने से ही काम चल जाता है। फिर तो लोक-परलोक के लिए दूसरी चिंता-फिक्र करने की जरूरत ही नहीं होती। काम का काम हुआ और भगवान की पूजा भी हो गई! 'आम के आम रहे और गुठली का दाम भी मिल गया!' इसे ही 'एक पंथ दुइ काज' कहते हैं।

गीता में यह बात किसी न किसी रूप में बार-बार आती गई है और अंत में अठारहवें अध्‍याय की समाप्ति के पहले भी 45 और 46 श्लोकों में यही बात कही गई है। वहाँ तो 'स्वकर्मणा तमभ्यचर्य' - ''अपने-अपने कर्मों से ही उस भगवान की पूजा अच्छी तरह करके" -ऐसा साफ ही कह दिया है। यज्ञ, दान आदि का वहाँ नाम भी नहीं ले के केवल 'स्वकर्म' को ही पूजा के रूप में बताया है। खूबी तो यह है कि 'स्वधर्म' भी नहीं कह के 'स्वकर्म' कहा है। धर्म और कर्म गीता की नजरों में तो पर्यायवाची हैं और दोनों का एक ही अर्थ है। मगर सर्वसाधारण का खयाल तो ऐसा है नहीं। वे तो धर्म कुछ और ही चीज मानते हैं। साधारण क्रिया को तो वे धर्म मानते नहीं। उनके लिए तो विशेष प्रकार का कर्म ही धर्म है। इसीलिए यहाँ 'स्वकर्म' कह दिया है। ताकि लोग भूलभुलैया में न पड़े रहें और क्रिया मात्र को ही पूजा के रूप में समझने एवं मानने की कोशिश करें, ऐसा ही मानें।

श्रीमद्भागवत में भी राजा रहूगण और मस्तराम जड़भरत के संवाद में कहा गया है कि 'स्वधर्म आराधनमच्युतस्य यदीहमानो विजहात्यघौघम्' (5। 10। 23)। इसका आशय यह है कि 'अपने कर्तव्यों का पालन करना ही भगवान की पूजा है, जिसके चलते पाप का पहाड़ भी खत्म हो जाता और नजदीक नहीं आता है'। रहूगण ने अपने राज्यकार्य संचालन और शासन आदि को ही लक्ष्य करके ऐसा कहा है। लोग यह न समझें कि दंड देने का काम तो बीभत्स है, इसीलिए उनने कह दिया है कि वह तो राजा का कर्तव्य होने के कारण भगवत्पूजा ही है। बेशक, यहाँ स्वकर्म न कह के स्वधर्म कहा है। मगर मतलब एक ही है। यदि दंड आदि रूप सख्त काम और अमल एवं मार-काट तथा युद्ध को पूजा कह सकते हैं, ये सभी काम यदि पूजा ही हैं, तो लोगों के सभी साधारण कामों का क्या कहना? वे तो आसानी से उस पूजा के भीतर आ ही जाते हैं।

यहाँ 'स्वधर्म' और गीता में जो 'स्वकर्म' कहा है इन दोनों में 'स्व' शब्द देकर यही बताया गया है कि खुद कर्मों के अच्छे-बुरे होने की कोई बात नहीं। अपने-अपने कर्म ही पूजा बन जाते हैं। उनकी बाहरी बनावट और रूपरेखा कोई चीज होती नहीं। इसीलिए अपने खराब कामों को छोड़ दूसरों के अच्छों की ओर झपट पड़ना भी ठीक नहीं। 'अपने' का अर्थ है हरेक के लिए जो निर्धारित या तयशुदा (assigned) हैं।

पूजा को ऐसा रूप देने में एक बहुत ही बड़ी खूबी और भी है। सभी चाहते हैं कि हरेक काम अच्छी तरह पूरा हो और सुंदरता के साथ किया जाए। हरेक चीज की सबसे बड़ी खूबी है उसकी पूर्णता। यदि अधूरापन किसी भी काम में रहने न पाए तो संसार मंगलमय बन के ही रहे। मगर यही बात नहीं हो पाती और लापरवाही, अन्यमनस्कता आदि कितनी ही चीजें इसकी वजह हैं। लोग अकसर यह भी समझते हैं, खासकर जब कोई कठिन, परंतु अप्रिय, काम उन्हें सौंपा जाए, कि 'गले पड़ी, बजाए फुरसत।' इसीलिए जैसे-तैसे उसे कर-कराके अपना पिंड छुड़ाना चाहते हैं। इसीलिए जरूरत है इस बात की कि लोगों में काम के लिए अनुराग पैदा किया जाए, उनमें उसकी धुन लाई जाए और ऐसा किया जाए कि काम के लिए उनमें आग पैदा हो। यही बात इस पूजा वाली प्रक्रिया से हो जाती है। जब लोग समझने लगते हैं कि हम जो कुछ भी करते हैं वह भगवान की पूजा ही है तो खामख्वाह मनोयोगपूर्वक करना चाहते हैं। दिल में यह खयाल हो आता है कि पूजा में कोई कोर-कसर न रह जाए। इसलिए धुन और लगन के साथ सच्चे प्रेम से अपने-अपने काम न सिर्फ करते हैं, बल्कि उन्हें पूर्ण बनाने के लिए सिरतोड़ परिश्रम करते हैं। जब आमतौर से किसी भी बड़े के लिए तैयार की गई भेंट को सुंदर से सुंदर बनाने की कोशिश की जाती है तो फिर बड़ों के भी बड़े - सबसे बड़े - के लिए होने वाली हमारे कामों की भेंट क्यों न सर्वात्मनां सुंदर बनाई जाए? इसमें बाहरी खर्च-वर्च और परेशानी की भी बात नहीं है। यहाँ तो केवल मनोयोग का प्रश्न है। इस प्रकार सभी काम पूर्ण होंगे और संसार सुखमय होगा।

 

गीता का योग

योग शब्द के कितने अर्थ गीता में माने गए हैं यह बात तो आगे बताई जाएगी। मगर गीता का जो अपना योग है, जिसका ताल्लुक कर्मयोग से है और जो गीता की अपनी खास देन है वह जानने की चीज है। यों तो उसका जिक्र कई स्थानों पर आगे भी आया है। लेकिन दूसरे अध्‍याय के 'एषा तेऽभिहिता' (39) श्लोक से जिस योग की भूमिका शुरू करके 'कर्मण्येवाधिकारस्ते' (47) तथा उसके बाद वाले (48वें) श्लोक में जिस योग का वर्णन है वही गीता का निजी योग है। इन दोनों श्लोकों को मिलाकर ही उसका रूप पूरा हुआ है। आगे के 50वें श्लोक में उसी योग का निचोड़ या संक्षिप्त रूप 'योग: कर्मसुकौशलम्' शब्दों में बताया है। लोग कहीं ऐसा न समझ बैठें कि पहले बताया गया योग कोई दूसरी ही चीज है, इसीलिए गीता साफ कहे देती है कि वह और कुछ नहीं है सिवाय कर्म करने की चातुरी, उसकी कुशलता, विशेषता (specialism) के। कोई मनुष्य कर्मों के करने में विशेषज्ञ (specialist) हो जाता है उसे ही योगी या कर्मयोगी कहते हैं। उसे ऐसी हिकमत मालूम हो जाती है कि कर्मों के करते रहने पर भी बंधन में नहीं फँस सकता और निर्वाणमुक्ति या ब्रह्मनिष्ठा प्राप्त कर लेता है। योग शब्द का यों भी युक्ति या उपाय अर्थ माना जाता है और कर्म के संबंध की यह हिकमत भी युक्ति ही तो है।

यह युक्ति, हिकमत या विशेषज्ञता क्या है और कैसे प्राप्त होती है, यही बात 47 और 48 श्लोकों में बताई गई है। अगर कर्म, क्रिया, काम या अमल को हम दायरे या वृत्त के रूप में मान लें तो यह बात समझने में आसानी होगी। तब तो कर्म करने का मतलब होगा मनुष्य का उस वृत्त में घुसना। गीता की नजरों में कर्म करने वाले के लिए कहा गया है कि 'उसका हक या अधिकार सिर्फ कर्म तक ही है' - "कर्मण्येवाधिकारस्ते।" इसका आशय यह है कि हमें उस वृत्त के भीतर ही सीमित या बंधे रहने का ही हक है - हमें उसके भीतर ही रहना चाहिए। परिधि को डाँकना नहीं चाहिए - परिधि डाँकने का यत्न हरगिज करना नहीं चाहिए। 'कर्मणि' के आगे जो 'एव' शब्द है वही डाँकने की मनाही करता है, हमें डाँकने से रोकता है। लेकिन यह तो सूत्र जैसी बात हो जाती है। इसका स्पष्टीकरण हो जाना जरूरी है। इसीलिए 47वें श्लोक के शेष तीन चरण (हिस्से) और पूरा 48वाँ - दोनों ही - यही स्पष्टीकरण करते हैं।

कर्म को वृत्त करार देने पर मान लें कि करने वाले के आगे वह वृत्त है और उसके तथा वृत्त के बीच में किसी और चीज की संभावना है जिससे उसका वृत्त के साथ अत्यंत निकट का संबंध न हो के बीच में वही चीज आ सकती है - आ जाती है और इस तरह वृत्त में घुसने में उसे बाधा पहुँचाती है। उसी तरह वृत्त के भीतर घुसने के बाद वृत्त के बाहर उस आदमी के सामने वृत्त के दूसरे किनारे के उस पार भी कोई वस्तु है। मतलब यों समझें कि हम पूर्व मुख खड़े हैं और हमारे आगे एक वृत्त है। मगर वृत्त और हमारे बीच में भी कोई चीज है या हो सकती है जो हमें वृत्त में जाने से या तो रोकती है, या इतना ही होता है कि हम वृत्त में जाने के पहले उस वस्तु से होकर ही गुजरते हैं और सामने की परिधि पार करके सीधे वृत्त में पूर्व मुख खड़े ही पहुँच जाते हैं। फिर वृत्त में जाने पर जब परिधि का पिछला भाग न देख के सामने वाला ही देखते हैं, तो उसके आगे - परिधि के पार - पूर्व ओर कोई दूसरी वस्तु भी नजर को आकृष्ट करती है, कर सकती है। साथ ही परिधि के भीतर वृत्त में पाँव देने के पहले जो यह कहा गया है कि किसी और चीज से गुजरने के बाद ही वृत्त में पाँव दे सकते हैं, वह चीज एक भी हो सकती है और दो भी। गीता ने शुरू में ज्यादे से ज्यादा दो चीजों की और पीछे चलकर वृत्त के बाहर आगे की एक चीज की संभावना करके उन्हीं तीनों की रोक लिखी है। कर्म करने वालों को उनमें एक पर भी दृष्टि नहीं दौड़ाना चाहिए, एक का भी खयाल - परवाह - नहीं करना चाहिए, यही आदेश 40 और 48 श्लोकों के शेष अंशों में दिया है। इन तीनों के सिवाय दायरे (वृत्त) के भीतर भी वृत्त के अलावा एक चीज है, एक खतरा है। उससे भी आगाह कर दिया गया है। जो इन चार खतरों से बच जाता है वही पक्का योगी या कर्मयोगी होता है, यही गीता का कहना है।

पहले की दो चीजों - दो खतरों - में एक है कर्म के फल का खयाल, उसका चिंतन, उसकी इच्छा, फलेच्छा या फल का संकल्प। मन में फल के स्वरूप की कल्पना करके ही किसी काम में आमतौर से हाथ बढ़ाते जो हैं। दूसरा है कर्म का त्याग या उसका न करना। ऐसा होता है कि या तो यों ही कर्म में जी नहीं लगने के कारण उसे करते ही नहीं; या यदि फल की इच्छा या संभावना ही न हो तो भी कर्म नहीं करते हैं। इसीलिए कर्म के फल की इच्छा की ही तरह अकर्म या कर्म का त्याग, उसे छोड़ देना भी कर्म के पहले ही आ जाता है - यह बात कर्म के दायरे में पाँव देने के पहले ही आ जाती है। दायरे के बाहर आगे जो चीज दायरे में पाँव देने पर आती है और जिससे खतरा है वह है उस कर्म का खुद फल ही। कर्म करने के पहले तो मन में फल का संकल्प मात्र करते हैं। मगर कर्म शुरू कर देने और पूरा करने तक तो साक्षात फल पर ही नजर जा पड़ती है। इसीलिए यह भी एक खतरा है। चौथा खतरा है खुद कर्म से ही - वृत्त या दायरे से ही, यदि कर्म में आसक्ति, संग ममता, अंधप्रेम (blind attachment) हो जाए। यह कर्म की आसक्ति भी भारी खतरनाक है। यह भी याद रखना चाहिए कि जो शुरू के दो खतरों में कर्मत्याग को गिनाया है उसका भी मतलब है कर्म के छोड़ देने की आसक्ति या हठ से ही। जैसे कर्म करने की आसक्ति या हठ बुरा है, ठीक उसी प्रकार उसके न करने का भी हठ खतरनाक है। हठ किसी ओर नहीं होना चाहिए। इसका स्पष्टीकरण अभी हुआ जाता है।

हाँ, तो अब जरा देखें कि इन चारों खतरों की रोक क्‍यों कर की गई है। 47वें श्लोक के दूसरे हिस्से को हम यों पाते हैं, 'मा फलेषु कदाचन' - ''कर्मों के फलों में तो हमारा अधिकार कभी नहीं है।'' इस तरह वृत्त में पाँव देने के बाद जो आगे वाला खतरा है परिधि के बाहर और जिसे हमने तीसरा कहा है उसे रोक दिया। कर्म के साथ फल का ताल्लुक स्वभावत: होता ही है। इसलिए कर्म के बाद चटपट उसी से रोकना उचित समझा गया। इसके बाद 47वें के शेष - उत्तरार्द्ध - में वृत्त के पहले वाले दो खतरों से रोका है 'मा कर्मफलहेतुभूर्मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि' - "कर्म के फल के कारण मत बनो, अर्थात कर्मफल का खयाल करके काम हर्गिज शुरू न करो।" फल के लिए संकल्प और चिंतन के जरिए ही तो फल तक पहुँचते हैं अब यदि वह संकल्प या चिंतन रहा ही नहीं, फल का खयाल हई नहीं तो 'रहा बाँस न बाजी बाँसुरी' वाली बात हो गई और फल से स्वयमेव ताल्लुक बँधा ही नहीं। यही कारण है कि पहले फल की बात रोक के उसके कारण-स्वरूप फलेच्छा या फल संकल्प की बात पीछे रोकी गई है। क्योंकि फल की इच्छा या संकल्प होने पर तो फल तक पहुँचना रुकी नहीं सकता।

इस पर सहसा यह कहा जा सकता है कि तो फिर कर्म करेंगे ही क्यों? जब न तो फल की परवाह है और फल का संकल्प ही है, तो कर्म की बला में नाहक फँसा क्यों जाए? इसी का उत्तर श्लोक का आखिरी हिस्सा 'मा ते संगोऽस्त्वकर्मणि' देता है कि खबरदार, अकर्म (कर्म छोड़ने) में आसक्ति या हठ हर्गिज होने न पाए। कर्म का न किया जाना एक चीज है और उसमें - न करने या छोड़ने में - हठ बिलकुल दूसरी ही चीज है। ऐसा हो सकता है कि समय पा के खुद-ब-खुद कर्म छूट जाए। परिस्थिति ऐसी हो जाए कि हजार चाहने पर भी कर्म छोड़ने के अलावा दूसरा चारा होई न। इसलिए अपने आप या मजबूरन कर्म छूट जाए। गीता यह बात मानती है और इसका विरोध उसे इष्ट नहीं। मगर कर्म के छोड़ने का हठ हर्गिज उसे बरदाश्त नहीं। हम कर्म कभी करेंगे ही नहीं चाहे जो भी हो जाए, यही चीज गीता को पसंद नहीं। कर्म के मार्ग में यही उसकी नजरों में तीसरा खतरा है और वह लोगों को इसी से सजग करती है।

लेकिन चौथे खतरे का सामना हो जा सकता है। वृत्त के बाहर परिधि के इधर-उधर के उक्त तीनों खतरों से बचने पर भी चौथा खतरा उसके भीतर ही - दायरे के अन्दर ही - हो सकता है। वह है कर्म के करने का हठ या आसक्ति। इसी को कर्म में संग, कर्म का संग, कर्मसंग या कर्मासंग भी कहते हैं। जैसे सक्ति और आसक्ति का अर्थ एक ही है चिपक जाना या सट जाना और जिसे अंग्रेजी में अटैचमेण्ट (attachment) कहते हैं; ठीक उसी प्रकार संग और आसंग का भी यही अर्थ है। दोनों शब्दों में 'आ' के जुट जाने से चिपकने या लिपटने में सिर्फ अंधापन या हठ (जिद्द) जुट जाता है और इसे 'ब्लाइण्ड अटैचमेण्ट' (blind attachment) कह सकते हैं। मगर 'आ' के न रहने पर भी यही अर्थ होता है। गीता के मत से जैसी ही बुरी अकर्म (कर्मत्याग) की जिद है वैसी ही कर्म की जिद भी। आसक्ति या हठ दोनों का ही बुरा है। इसी हठ को 'ऊँट की पकड़' कहते हैं। ऊँट किसी चीज को एक बार पकड़ने पर छोड़ता ही नहीं। बंदरिया की आसक्ति या अंधप्रीति अपने बच्चे के साथ होती है। फलत: बच्चे के मर जाने पर भी उसे नहीं छोड़ती। किंतु छाती से लिपटाये फिरती है जब तक कि वह खुद टुकड़े-टुकड़े हो के गिर नहीं पड़ता है। यह चीज बुरी है और यही रोकी गई है। हजार कोशिश और दृढ़ संकल्प (determination) के बाद भी कभी-कभी परिस्थितिवश कर्म का छूट जाना अनिवार्य हो जाता है। परिस्थितियाँ किसी के वश की जो नहीं होती हैं। फिर हठ या जिद क्यों? न करने की जिद हो और न तो न करने की ही। जिद ही तो बला है।

दृढ़ संकल्प और आसक्ति या हठ में फर्क है - दोनों दो चीजें हैं। दृढ़ संकल्प का तो इतना ही मतलब है कि विघ्न-बाधाओं से कदापि विचलित न हो के कर्म करते रहें - चट्टान की तरह अटल रहें - मगर इतने पर भी कर्म छूट जा सकता है। यह जरूरी नहीं कि हम उसे करते ही रहें। परिस्थितियाँ हमें मजबूर कर दे सकती हैं। फलत: दृढ़ संकल्प के होते हुए भी इस तरह कर्म के छूट जाने पर हमें कष्ट न होगा। क्योंकि हमारा तो यही रास्ता है और होना चाहिए कि 'आओ विपत्तियाँ तुम, दु:खों को साथ लाओ। पीटूँगा मैं तुम्हीं को, तुमसे ही या पिटूँगा।' मगर यदि कर्म में आसक्ति या करने की जिद रही, तो हमें मर्मांतक वेदना ऐसी दशा में जरूर हो जाएगी और सारा मजा ही किरकिरा हो जाएगा। ठीक इसी तरह कर्म के त्याग के हजार हठ करने पर भी उसे करने की मजबूरी कभी-कभी हो सकती है और हठ होने से हम उस दशा में तिलमिला जा सकते हैं। यही बात गीता रोकना चाहती है। इसीलिए कर्म के करने या न करने - कर्म या संन्यास दोनों ही - में आसक्ति, जिद या हठ को उसने खतरा करार दिया है और कहा है कि कर्म चाहे पूरा हो या अधूरा ही रह जाए या चाहे हम उसे शुरू ही न कर पाएँ - हर हालत में हमारे दिल-दिमाग की समता या गंभीरता (balance of mind) बिगड़ना नहीं चाहिए। हमें दोनों ही हालतों में, पूरा होने, न होने - कर्म की सिद्धि और असिद्धि - में सम रहना चाहिए - एकरस (unconcerned) रहना चाहिए, जैसा कि जनक ने मिथिलापुरी में आग लगने पर कहा था कि मिथिला जलती है तो जले, मेरा क्या जलता है? - 'मिथिलायां प्रदग्धायां न मे किंचन दह्यते।' यही है योग। इसी योग को प्राप्त करके, काबू में करके - योगस्थ हो के - हमें कर्म करना चाहिए। फल और उसके संकल्प के त्याग का भी असली प्रयोजन यही है कि दिल-दिमाग की गंभीरता और समता - एकरसता (balance) - न बिगड़े।

इन चारों खतरों से बचने का निचोड़ इसी सिद्धि, असिद्धि की समता में ही आ जाता है। इसीलिए इसे ही योग कहा है। फल की तरफ खयाल होने या फल का संकल्प होने पर कुछ भी गड़बड़ होते ही हायतोबा मचती ही है। इसीलिए उससे बचना जरूरी है। ऐसा भी होता है कि काम पूरा होने तथा विजय मिलने पर खुशी के मारे मनुष्य आपे से बाहर हो जाता है और ऐसा न होने या पराजय होने पर रंज के मारे ही आपे से बाहर या बेसुध हो जाता है। दोनों ही हालतों में दिल-दिमाग की समता खत्म हो जाती है। फलत: ऐसा करना चाहिए कि दोनों में एक का भी मौका ही आने न पाए। इसीलिए तो आसक्ति का त्याग जरूरी बताया गया है। पूरे 48वें श्लोक में यही बात खूब सफाई के साथ कही गई है। न रंज के मारे छाती पीटने का और न खुशी के मारे बेहोश होने का ही मौका इसी के चलते आने पाएगा। यही योग है।

इसमें सबसे बड़ी खूबी यह है कि जब कर्म करनेवाले का मन इधर-उधर कहीं भी जरा भी न जा के सिर्फ काम में ही लग जाएगा - वहीं केंद्रीभूत (concentrated) - हो जाएगा, तो वह काम होगा भी ठीक-ठीक। किसी भी काम की पूर्णता के लिए दिल और दिमाग का उसमें लग जाना, उसी में जा के अड़ जाना और लिपट जाना - उससे बाहर न जाना - बुनियादी और मौलिक कारण है। फिर तो वह सिद्ध और पूर्ण हो के ही रहेगा। अधूरेपन की गुंजाइश उसमें रहेगी ही नहीं। दिल और दिमाग में बड़ी ताकत है। जिसे इच्छाशक्ति (will-power) कहते हैं वह यही चीज है। योगियों और सिद्धों के जो अद्भुत काम कहे गए हैं और उनकी सिद्धियों का जो वर्णन मिलता है उसका रहस्य यही है। और जब मन के - दिल और दिमाग के - कहीं इधर-उधर जाने की गुंजाइश रखी ही नहीं गई है, तो वह केंद्रीभूत खामख्वाह होगा ही। फल, उसका संकल्प, कर्म के करने का आग्रह और उसके न करने का हठ - यही चार - ही तो ऐसी चीजें हैं जिनकी ओर मन कर्म के सिलसिले में भटक सकता है, भटकता फिरता है। मगर गीता ने इन चारों का दरवाजा बंद करके उसके लिए कोई रास्ता ही नहीं छोड़ा है कि भाग सके।

नतीजा यह होगा कि कर्म की सांगोपांग पूर्ति तो होगी ही। उसी के साथ उसका फल, परिणाम या नतीजा भी हो के ही रहेगा। उसमें दिक्कत की गुंजाइश रही कहाँ? गड़बड़ी के सभी रास्ते तो बंद होई गए। यह भी कितनी मौजूँ और युक्तियुक्त बात है कि कर्म के फलों को तो कोई सीधे पकड़ सकता नहीं। उन्हें तो कर्म के द्वारा ही पकड़ा जा सकता है। इनसान काम करता है और काम से फल होता है, चाहे बुरा हो या भला। हम सीधे फल तो पैदा करते ही नहीं। हमारे वश की चीज तो कर्म या क्रिया ही है। फल तो है नहीं। फिर हम क्रिया की ही फिक्र क्यों न करें? फल की ओर नाहक क्यों दौड़ें? यह तो मृगतृष्णा की बात ही ठहरी। जो चीज हमारे वश की नहीं, अधिकार की नहीं, उस पर नाहक क्यों दौड़ें और लट्टू हों? फलत: गीता ने जो कहा है कि सिर्फ कर्म में ही अधिकार है, वही तो युक्तिसंगत बात है। वह कोई आश्चर्य की चीज तो है नहीं। और कर्म या अकर्म का हठ तो महज नादानी है, जैसी कि सभी तरह के हठों की बात है।

इस उपदेश का फल यह हुआ कि एक तो कर्म का फल जरूर ही मिलेगा - उसका मिलना एक प्रकार से निश्चित ही समझिए, यदि कोई दैवी बाधा आ न पहुँचे। मगर यह बात फल की इच्छा, लालसा और संकल्प के होने पर संभव नहीं। क्‍योंकि 'मन न होय दस-बीस' के अनुसार एक ही मन कभी कर्म की ओर जाएगा तो कभी फल की ओर, कभी उसके त्याग की ओर और कभी उसके करने के हठ की तरफ। कभी उसे कर्म अपनी ओर खींचेगा तो कभी फलेच्छा अपनी तरफ। इस खींचतान में न तो वह कर्म में जमेगा, न वह पूरा उतरेगा और न फल मिलेगा। दूसरी बात - दूसरा लाभ - इससे यह हुआ कि जहाँ पहले फल मिलने पर या न मिलने पर भी कर्म बंधन का - जन्म-मरण का - कारण होता था, तहाँ अब वह बात जाती रही। जैसे भाड़ में डालने पर अन्न में - बीज में - अंकुर पैदा करने की ताकत जाती रहती है। वैसे ही इस योग के फलस्वरूप कर्मों में बंधन की ताकत रही नहीं जाती - वह खतम हो जाती है। दरअसल कर्मों का संस्कार मानसपटल पर जमने पाता ही नहीं। फिर वह जन्म-मरण में फँसायें तो कैसे? जन्म-मरण का तो अर्थ ही है कर्मों के करने का सिलसिला जारी रहना। और इस सिलसिले के लिए उसके संस्कार जरूरी हैं, जैसे बीज में अंकुरजनन की शक्ति। मगर यहाँ तो योग के चलते हम कर्मों के करने या न करने या उनके फलों से कतई प्रभावित होते ही नहीं - तटस्थ या उदासीन रह जाते हैं। तब मानसपटल पर - जो निर्लेप बन गया है - संस्कार कैसे पैदा होगा? संस्कार के लिए उदासीनता की नहीं, किंतु अनुराग, मैत्री या लालसा की जरूरत होती है। जिन चीजों से हम उदासीन हों उनके संस्कार मन में पैदा होते ही नहीं। हाँ, जिनमें मन लगा हो उनके संस्कार जरूर ही पैदा हो जाते हैं। यही कारण है कि इसी योग को कर्म का कौशल कहा है। यही तो कर्म करने की असली कला है - कर्म करने का जादू है, कारीगरी है।

जिस समत्वरूप योग का वर्णन अभी किया गया है उसके संबंध में अनेक बातें जानने की हैं। इसीलिए इस पर बहुत कुछ लिखना बाकी ही है। लेकिन आगे बढ़ने के पहले यहीं पर पूर्वोक्त 47वें श्लोक की एक महत्त्वपूर्ण बात और भी जान लेना जरूरी है। कर्म करने और उसके त्यागने का झमेला कुछ ऐसा है और इधर कुछ गीता के टीकाकारों ने उसे इतना ज्यादा बढ़ा दिया है कि हमें विवश हो के यह लिखना पड़ रहा है। उस श्लोक के पहले चरण के तीन शब्दों 'कर्मणि, एव, अधिकार:' में 'एव' शब्द कुछ विचित्र है। वह 'कर्मणि' के आगे आया है। 'अधिकार:' के आगे भी आ सकता था और ऐसा होने पर अर्थ में कुछ विशेषता आ जाती। एव शब्द किसी बात पर जोर (emphasis) देने के ही लिए आता है। फलत: जिस पदार्थ के वाचक शब्द के बाद आता है उसी पर जोर देता है। यहाँ स्वभावत: कर्म पर ही जोर देता है। उसी के बाद आया जो है। यदि 'अधिकार:' के बाद आता तो अधिकार, वश या काबू पर ही जोर देता। क्योंकि अधिकार शब्द इन्हीं का वाचक है। जोर देने का मतलब यही होता है कि जिस पर जोर होता है उससे अन्य चीजें रोकी जाती हैं। अन्य चीजों से मतलब है उन्हीं से जिनकी संभावना होती है - यानी उसकी विरोधी या संबंध वाली चीजें।

इसीलिए यहाँ कर्म-संबंधी फल, फलेच्छा, कर्मासक्ति आदि का निषेध हो जाता है, इन पर रोक आ जाती है और दोनों श्लोकों में यही बात आई भी है। यदि 'अधिकार:' के बाद 'एव' रहता तो हक या अधिकार या वश के विरोधी तथा संबंधी पदार्थों पर रोक हो जाती। मगर यहाँ वह बात हई नहीं। फिर भी असली बात जो हमें कहनी है वह तो यह है कि कर्म एवं अधिकार दो में एक के साथ 'एव' के लगने से यहाँ निरालापन आया है। जैसा है वैसी दशा में खामख्वाह कर्म करने में हठ नहीं हो सकता। लेकिन अधिकार के साथ आ जाने पर यही हठ आ जाता। क्‍योंकि तब तो स्पष्ट हो जाता कि हमें कर्म छोड़ने का कोई हक हई नहीं और हमें उससे लिपटे रहना होगा। जिस चीज पर आगे रोक लगी है वही चीज तब हो जाती। जहाँ अब अर्थ होता है कि कर्म के अतिरिक्त फलादि का हक हमें नहीं है, तहाँ उलट के अर्थ हो जाता कि हक के सिवाय किसी और का संबंध कर्म के साथ हई नहीं।

जिन दो पदार्थों के बीच में एक पर यह जोर रहता है उन्हीं में दूसरे के साथ एक को यानी पहले को बाँध देता है और बाकियों को, जिनकी संभावना हो, रोक देता है। इसे और भी साफ तौर से यों समझें कि कर्म पर ही यहाँ जोर देने के कारण उसी के अनुकूल या अधीन हक रहता है। कर्म की ही प्रधानता रहती है। हक उसकी छाती पर बैठ के उसे घसीट नहीं सकता। विपरीत इसके यदि अधिकार या हक पर जोर होता तो उसी की प्रधानता होती और कर्म की छाती पर बैठ के वह अपने साथ यानी आदमी के साथ कर्म को घसीटता फिरता। तब कर्म किसी भी दशा में त्याज्य या त्यागने योग्य नहीं रह सकता। मगर वर्तमान दशा में तो हक ही त्याज्य नहीं है। कर्म का त्याग तो हो सकता है। जब हम कर्म करते हैं तो यह कोई नहीं कह सकता कि उस पर हमारा हक नहीं है। इस तरह देखते हैं कि इस 'एव' शब्द का स्थान बदलने से दोनों श्लोकों के बाकी अंशों के साथ पहले चरण का कोई मेल होता ही नहीं।

इतना लिखने का हमारा मतलब दोनों श्लोकों के सभी अंशों में परस्पर मेल या सामंजस्य लाना नहीं है। यह तो गीता के रचयिता का ही काम था कि बेमेल बात न बोलें। हम उस कवि के वकील भी नहीं हैं कि जो कुछ त्रुटि मालूम हो उसे मिटाने की वकालत करें। गीता के कर्त्ता व्यास को वकील की जरूरत ही न थी। वह तो खुद इतने योग्य थे कि ऐसी मोटी भूल कर सकते न थे। हमारा मतलब सिर्फ यह दिखलाने का है कि गीता के अनुसार कर्म की आसक्ति या उससे खामख्वाह लिपटना ठीक नहीं है। उसने कर्म और धर्म के संन्यास - दोनों ही - के लिए गुंजाइश मानी है, दोनों के लिए पूरा स्थान रखा है। वे दोनों ही अपनी-अपनी जगह पर ठीक हैं, उचित हैं, कर्तव्य हैं। खूबी तो यह है कि जिस योग को ले के कुछ लोगों ने इस बात पर जोर दिया है कि गीता तो संन्यास की विरोधिनी है; वह तो कर्म पर ही जोर देती और उसी का समर्थन करती है, वही योग कर्म और कर्मत्याग - कर्म के योग और उसके त्याग - दोनों ही का प्रतिपादक है - उसके भीतर दोनों ही आ जाते हैं!

बेशक, यह बात उलटी-सी लगती है। योग शब्द तो जोड़ने, जुटने या संबंध को - संयोग को - ही कहता है, ऐसा साफ दीखता है। फलत: कर्मयोग का अर्थ है कर्म का संयोग या संबंध। यही उचित भी प्रतीत होता है। मगर कर्मयोग का अर्थ ही कर्म का वियोग या त्याग (संन्यास), यह तो निराली चीज है। लेकिन किया क्या जाए? खुद गीताकार को भी यह चीज सूझी थी - उन्हें इसी तरह का विरोध इस योग में या योग शब्द के अर्थों में प्रतीत हुआ था। फिर भी उसने उसका समर्थन किया। छठे अध्‍याय के 23वें श्लोक का पूर्वार्द्ध कुछ इसी तरह की पहेली का खयाल करके ही बनाया गया मालूम होता है। वह है 'तं विद्याद् दु:खसंयोग वियोगं योगसंज्ञितम्।'। इसका आशय यही है कि 'यद्यपि उसे योग कहा जाता है, तथापि वह तो दु:खों के संयोग (संबंध) का वियोग ही है - अर्थात दु:खों का वियोग करने वाला है।' इस तरह वियोग को ही योग नाम दिया गया है ऐसा वह मानते हैं। ठीक वही बात यहाँ भी है। अत: निर्विवाद है कि गीता कर्म करने के हठ की विरोधिनी है।

कर्म से चिपकने और लिपटने के इसी हठ को, जो गुड़ के साथ लिपटे चींटे की तरह अनर्थ और मृत्यु का कारण होता है, गीता ने दूसरे-दूसरे नामों से भी कह के बुरा ठहराया है। अठारहवें अध्‍याय के 24वें श्लोक में इसी को अहंकार कहा है और 27वें में राग - वहाँ 'रागी' शब्द है - कहा है। चौथे अध्‍याय के 19वें श्लोक में इसे ही संकल्प नाम दिया गया है। जिस प्रसंग में और जिस ढंग से ये बातें उन स्थानों में कही गई हैं उससे साफ है कि अहंकार आदि का आशय कर्म का हठ या आसक्ति ही है। इसीलिए निंदित अर्थ में ही उनका प्रयोग भी हुआ है। चौदहवें अध्‍याय के 22, 23 श्लोकों में द्वेष, राग और उदासीनता शब्द तथा बारहवें के दसवें में 'मदर्थ' शब्द भी इसी मानी में हैं। और भी ऐसे ही शब्द आए हैं।

मगर इतना ही नहीं है। ठेठ दूसरे अध्‍याय से ही शुरू करके अठारहवें अध्‍याय तक कम से कम बीस बार संग, आसक्ति, आसक्त आदि आए हैं और सिवाय कर्म में आसक्ति या करने के हठ के त्याग के और कोई अर्थ इनका हो ही नहीं सकता। ये बीस स्थान तो ऐसे हैं जहाँ निस्संदेह कर्मों का हठ बुरा ठहराया गया है। चौथे अध्‍याय के 21वें श्लोक में 'केवल' शब्द लिखके इस हठ के त्याग को बड़ी सफाई के साथ दिखाया है। इसी तरह उसी अध्‍याय के 14वें श्लोक में 'लिम्पंति' शब्द लेप, लीपने या लिपटने के मानी में लिख के बताया गया है कि कर्मों में हमारा लिपटना या कर्मों का हममें लिपटना ठीक नहीं है। यह तो स्पष्ट है कि कर्म तो कोई गुड़, गोबर या गीली मिट्टी नहीं है जो यों ही लिपटेंगे। वे तो हठ, राग या आसक्ति के द्वारा ही मन में लिपट जाते हैं।

लोग ऐसा न समझें कि हमने यों ही बीस जगहों का नाम ले लिया है, इसीलिए प्रत्येक अध्‍याय और श्लोकों के अंकों को जान लेना चाहिए ताकि कोई भी आसानी से यह बात जाँच सके। दूसरे अध्‍याय के 48वें श्लोक का तो व्याख्यान हो ही चुका है जहाँ 'संग' शब्द साफ ही आया है। तीसरे के 7, 9, 19, 25, 28, 29 श्लोकों में; चौथे के 10, 23 में; पाँचवें के 10, 11 में; छठे के 4 में नवें के 9 में और अठारहवें के 6, 9, 10, 22, 24, 26, 34, और 49 श्लोकों में यही बात है। यों ही, मोटामोटी नजर दौड़ाने पर भी यह स्पष्ट हो जाता है। यदि गौर से विचारा जाए तब तो कुछ कहना ही नहीं है। संदिग्ध श्लोकों का तो हमने जिक्र किया ही नहीं है। इस प्रकार कर्म संन्यास में कोई भी बाधा गीता की नजरों में हो नहीं सकती।

परंतु गीता ने तो और भी साफ-साफ यह बात कही है। चौथे अध्‍याय के 'योगसंन्यस्तकर्माणं ज्ञानसंच्छिन्नसंशयम्' (41) और पाँचवें अध्‍याय के 'संन्यासस्तु महाबाहो दु:खमाप्तुमयोगत:। योगयुक्तो मुनिर्ब्रह्म न चिरेणाधिगच्छति' (6) - इन दो - श्लोकों को देखने से ज्ञात होता है कि गीता संन्यास को न सिर्फ कर्तव्य मानती है, बल्कि उसका रास्ता और मौका भी बताती है। यदि गौर से दोनों श्लोकों को मिलायें तो एक तो यह पता चलता है कि संन्यास की बात दोनों ही में है। दूसरे यह कि संन्यास के पहले कर्म करना जरूरी है। आखिर संन्यास तो कर्मों का त्याग ही ठहरा और जब तक कर्म करें ही न, तबतक त्याग कैसा? जिनके पास जो चीज होई न, वही उसी चीज का त्याग कैसे करेगा? तब तो 'वृद्धा वेश्या तपस्विनी' वाली बात हो जाएगी न? यह भी तो पक्की ही बात है कि जब तक वर्णमाला नहीं सीख लें, तब तक जब कभी छोटी-बड़ी कोई भी पुस्तक पढ़ना चाहेंगे, वर्णमाला सामने खड़ी हो जाया करेगी। यदि उससे पिंड छुड़ाना है तो उसे एक बार पूरा कर लीजिए। दूसरा रास्ता हई नहीं। ऊपर लिखे दोनों श्लोकों का यही आशय है।

चौथे अध्‍याय वाले 'योगसंन्यस्तकर्माणं' - ''कर्मों (योग) के द्वारा ही कर्मों का त्याग या संन्यास हासिल करने वाले'' का अभिप्राय हमने अच्छी तरह साफ कर दिया है। उसके 'ज्ञानसंछिन्नसंशयम्' का प्रयोजन तो आगे है। वह तो इतना ही कहता है कि 'जिनका संशय ज्ञान के प्रताप से खत्म हो गया है।' ज्ञान तो संन्यास के बाद ही होता है। फलत: सभी प्रकार के संशयों तथा शक-शुभों का खात्मा संन्यास के बाद ही होता है, ऐसा माना गया है। यह भी सही है कि आत्मा-परमात्मा के यथार्थ एवं समयग्दर्शन के लिए शक-संदेहों का निर्मूल हो जाना आवश्यक है। इस प्रकार निर्वाण के लिए संन्यास जरूरी हो गया है। यही कारण है कि उस श्लोक के शेष आधे 'आत्मवन्तं न कर्माणि निबध्नन्ति धनंजय' से साफ पता चलता है कि ''इस प्रकार आत्मज्ञान या आत्मा की प्राप्ति हो जाने पर ही कर्मों की बंधनशक्ति जाती रहती है।''

पाँचवें अध्‍याय के उक्त श्लोक का तो साफ ही मतलब है कि 'संन्यास की प्राप्ति तो कर्म (योग) के बिना अत्यंत कष्टसाध्‍य - अर्थात असंभव - है। विपरीत इसके जो मननशील विवेकी कर्म करता है वह शीघ्र ही संन्यास के योग्य हो के उसे प्राप्त कर लेता है।' इसमें इस बात की पुष्टि कर दी गई है कि संन्यास के लिए कर्म करना जरूरी है। इसीलिए कर्म के बिना वह प्राप्त होता नहीं और कर्म से हो जाता है। कारण तो उसे ही कहते हैं जिसके बिना चीज होई न और जिसके रहने पर अवश्य हो जाए। इसी को पुराने लोगों ने अन्वय और व्यतिरेक कहा है। इस श्लोक के चौथे चरण में संन्यास न लिख के यद्यपि ब्रह्म लिखा है, तथापि ब्रह्म का अभिप्राय संन्यास ही है। श्लोक के शेष तीन चरणों से यह बात साफ हो जाती है। इसके पहले जो कई श्लोक आए हैं उन्हें गौर से पढ़ने से भी यही अभिप्राय निकलता है। इसके सिर्फ दो दृष्टांत गीता से ही देने से बात साफ हो जाएगी।

 

संन्यास और त्याग

अठारहवें अध्‍याय में 'नियतस्य तु संन्यास: कर्मणो नोपपद्यते। मोहात्तस्य परित्यागस्तामस: परिकीर्तित:' (7) और 'अनिष्टमिष्टं मिश्रं च त्रिविधं कर्मण: फलम्। भवत्यत्यागिनां प्रेत्य न तु संन्यासिना क्वचित्' (12) ये श्लोक आए हैं। इन दोनों में ही 'संन्यास' और 'त्याग' या 'संन्यासी' तथा 'त्यागी' शब्द आए हैं। इस अध्‍याय के पहले ही श्लोक में जो प्रश्न किया गया है उससे स्पष्ट है कि संन्यास और त्याग दो चीजें हैं। इसीलिए दोनों की हकीकत अलग-अलग जानने के खयाल से ही सवाल किया गया है। फलत: यह धारणा स्वभावत: हो जाती है कि आगे के श्लोकों में जहाँ कहीं ये दोनों शब्द आए हैं, अलग-अलग मानी में ही प्रयुक्त हुए हैं। मगर है यह बात गलत - यह धारणा निराधार है। यह ठीक है कि अठारहवें अध्‍याय में त्याग और संन्यास के स्वरूप अलग-अलग बताए गए हैं और हम भी उनके बारे में कुछ न कुछ कहेंगे। फिर भी उसका मतलब शब्दों के अर्थ से नहीं है। इन दोनों शब्दों का अर्थ तो अकसर एक ही माना जाता है। और गीता में एक ही अर्थ में दोनों ही प्राय: बोले गए हैं। फर्क तो त्याग और संन्यास नाम की चीजों की भीतरी बातों को लेकर ही माना जाता है। ऊपर से एक होने पर भी भीतर से इनमें कुछ बारीक भेद है - आमतौर से पुराने लोगों ने कुछ भेद इनमें किया है। उसी के जानने के लिए शुरू में प्रश्न किया गया है और जवाब भी दिया गया है।

फलत: यदि भ्रांत धारणा को जुदा करके या हटाके हम देखें तो पता लगेगा कि पूर्व लिखे 7वें और 12वें श्लोकों में त्याग तथा संन्यास एक ही अर्थ में प्रयुक्त हुए हैं और एक की जगह दूसरे को बदल देने से अर्थ में कोई फर्क न पड़ के और भी स्पष्टता हो जाएगी। पहले श्लोक का सीधा अर्थ यही है कि 'किसी के भी लिए जो कर्म निश्चित कर दिए गए हैं उनका संन्यास उचित नहीं है, और अगर भूल या धोखे में पड़ के उनका त्याग कर दिया जाए तो वह तामस (तमोगुणी) त्याग माना जाता है।' यहाँ पहले वाक्य में जिस मानी में संन्यास शब्द आया है, दूसरे में उसी मानी में त्याग शब्द है। दूसरा मानी संभव नहीं है। इसीलिए पहले लिखे संन्यास शब्द के ही अनुसार त्याग का भी अर्थ आगे लगता है। विपरीत इसके 12वें श्लोक के उत्तरार्द्ध में पहले त्यागी (त्यागिनाम्) लिख के पीछे संन्यासी (संन्यासिनाम्) लिखा है। श्लोक का अर्थ सिर्फ यही है कि 'बुरे, भले और मिश्रित - तीन प्रकार के - जो फल कर्मों के होते हैं वह उन्हीं को मिलते हैं जो त्यागी नहीं हैं, संन्यासियों को तो ये फल कभी नहीं मिलते।' यहाँ त्यागी के ही अनुसार संन्यासी का अर्थ भी त्यागी ही माना जाता है। यह बात बहुत साफ है। ठीक इसी तरह पाँचवें अध्‍याय के उक्त श्लोक में भी पीछे के ब्रह्म शब्द का अर्थ पूर्व लिखे संन्यास शब्द के बल से संन्यास ही होना ठीक है। उपनिषदों में भी 'संन्यासो हि ब्रह्म' आदि प्रयोग में ब्रह्म शब्द संन्यास के अर्थ में ही आया है और गीता तो उपनिषद् हई।

जैसा कि अभी-अभी कहा है, गीता के अठारहवें अध्‍याय में जो शंका त्याग और संन्यास की हकीकत या असलियत के बारे में की गई है, उससे भी संन्यास की कर्तव्यता सिद्ध हो जाती है। हम तो कही चुके हैं कि इन दोनों शब्दों के अर्थों में फर्क नहीं है। इसीलिए इस प्रश्न के बाद भी गीता में ही दोनों एक ही अर्थ में बोले गए हैं। सवाल तो हकीकत या बारीकी के बारे में ही है। इसीलिए प्रश्नवाले पहले श्लोक में, 'तत्त्वमिच्छामि वेदितुम्' लिखा है, जिसका अर्थ है कि ''इन दोनों की हकीकत, असलियत या भीतरी बारीकियाँ जानना चाहता हूँ।'' तत्त्व शब्द इसी मानी में बोला ही जाता है। शब्दार्थ को तत्त्व नहीं कहते। किंतु जब कभी तत्त्व कहना होगा तो जिनके तत्त्व से अभिप्राय होगा उन चीजों की परिभाषा कर दी जाएगी, उनका लक्षण कर दिया जाएगा। यही बात हमेशा होती आती है। यहाँ भी आमतौर से दोनों का एक ही अर्थ समझा जाने के कारण ही अर्जुन को पूछना पड़ा कि आया दोनों की परिभाषा एक ही है या जुदी-जुदी? दोनों की असलियत एक है या दो? दोनों में बारीकियाँ कुछ-कुछ हैं या नहीं? इसी हिसाब से उसे उत्तर भी दिया गया है।

उत्तर की हालत यह है कि त्याग के बारे में लोगों की चार रायें होने के कारण और कृष्ण का खुद अपना भी एक स्वतंत्र विचार होने के कारण पहले उसी की हकीकत कहनी पड़ी है। हालाँकि प्रश्न में पहले संन्यास ही आया है। संन्यास के बारे में मतभेद या अनेक रायें न होने के कारण ही उसकी बात उनने पीछे उठाई हैं। सो भी बहुत दूर जा के। असल में त्याग का ब्योरा और विवरण देने के बाद ही संन्यास की बात समझने में आसानी भी हो जाती है। इसलिए भी त्याग के मुतल्लिक सारी बातें कहने के बाद ही संन्यास की बात कहना उचित समझा गया है। यही कारण है कि आरंभ से लेकर पूरे 48 श्लोकों में कर्म के संबंध की ही सारी बातें ब्योरे के साथ कही गई हैं, जिनसे त्याग के स्वरूप और उसकी हकीकत पर पूरा प्रकाश पड़ जाता है। फिर 49वें और 57वें श्लोकों में संन्यास का जिक्र आया है। मगर 57वें श्लोक वाला संन्यास शब्द तो ठीक वैसा ही है जैसा कि तीसरे अध्‍याय के 'मयि सर्वाणि कर्माणि संन्यस्याध्‍यात्मचेतसा' (30) में आया है। क्योंकि वहाँ लिखा है कि 'चेतसा सर्वकर्माणि मयि संन्यस्य मत्पर:।' मालूम होता है कि प्राय: अक्षरश: एक ही श्लोक का यह हिस्सा दोनों जगह लिखा गया है। तीसरे अध्याय वाले में जो 'अध्‍यात्म' शब्द ज्यादा प्रतीत होता है, उसकी जगह अठारहवें वाले में आगे 'बुद्धियोगमुपाश्रित्य' लिख दिया है। और भी आगे-पीछे बहुत-सी बातें मिल जाती हैं। फलत: वहाँ भी संन्यास का वही पुराना सर्वजन विदित अर्थ ही है। जिसे ईश्वरार्पण या मदर्पण आदि नाम दिया गया है। संन्यास शब्द संन्यास की उस हकीकत को यहाँ नहीं बताता है जिसके बारे में सवाल हुआ है।

बाकी बचा 49वें श्लोक का संन्यास। ठीक है यह तो उसी बात को कहता है जिसकी - जिस हकीकत की - जानकारी के लिए शुरू में ही शंका की जा चुकी है, प्रश्न हो चुका है। यदि इस समूचे श्लोक को गौर से विचारा जाए तो यह बात साफ हो जाती है। हम खुद आगे यह विचार करेंगे। मगर इतना तो जान लेना ही होगा कि यह श्लोक भी उस संन्यास की हकीकत या उसके स्वरूप की ओर सिर्फ इशारा ही करता है और यही कहता है कि संन्यास के जरिए किस तरह परम नैष्कर्म्यसिद्धि या सर्वात्मना कर्मत्याग की तरफ आदमी जा सकता है। लेकिन उस संन्यास का स्पष्ट रूप तो बिना उस शब्द का उच्चारण किए ही आगे के 'सर्वधर्मान्परित्यज्य' नामक 66वें श्लोक में ही बताया गया है। इस बात पर भी प्रकाश डालेंगे। मगर अभी त्याग की बात जान लें, तो अच्छा हो।

जैसा कि कहा जा चुका है दूसरे से लेकर 48वें श्लोक तक त्याग के संबंध की ही बातें कही गई हैं। सबसे पहले दो और तीन - दो - श्लोकों के दो-दो हिस्से करके चारों हिस्सों में त्याग के संबंध के चार मत कहे गए हैं जो संसार के विद्वानों में प्रचलित हैं। उसके बाद चार से लेकर छ: तक के - तीन - श्लोकों में कृष्ण ने त्याग के बारे में अपना सिद्धांत निश्चित रूप से कहा है और उसी का स्पष्टीकरण किसी न किसी रूप में 48वें तक के श्लोकों में किया है। दूसरे श्लोक में 'न्यासं' और 'संन्यासं' शब्दों को देख के यह समझने की भूल हर्गिज नहीं की जानी चाहिए कि पूर्वार्द्ध में 'संन्यास' का लक्षण कहा है। न्यास और संन्यास शब्दों का तो एक ही अर्थ है। फलत: कामनापूर्वक किए गए (काम्य) कर्मों के संन्यास को संन्यास कहते हैं, इस कथन का कोई अर्थ नहीं है। इसीलिए हम तो यही मानते हैं कि दूसरे के पूर्वार्द्ध में 'कवयो विदु:' - 'सूक्ष्म बुद्धिवाले जानते हैं', उत्तरार्द्ध में 'विचक्षणा: प्राहु:' - 'कुशल लोग कहते हैं' तथा तीसरे के पूर्वार्द्ध में 'प्राहुर्मनीषिण:' - 'मनीषी लोग कहते हैं,' और उत्तरार्द्ध में 'अपरे प्राहु:' - 'दूसरे लोग कहते हैं' - ऐसा कह के चार मतवादों या सिद्धांतों का कर्मों के त्याग के बारे में वर्णन किया गया है। साफ ही चारों एक दूसरे से पृथक मालूम पड़ते हैं। प्रश्न में भी त्याग के बारे में 'पृथक' तत्त्व या अलग-अलग हकीकत पूछी गई है। इसीलिए उत्तर भी उसी ढंग का दिया गया है। इस प्रकार संक्षेप में पहला मत है केवल काम्य कर्मों के ही त्यागने का, दूसरा है केवल सभी कर्मों के फलों के ही त्याग का, न कि किसी भी कर्म के त्याग का, तीसरा है सभी कर्मों के ही त्याग का और चौथा है यज्ञ, दान तथा तप के सिवाय शेष कर्मों के त्याग का। इस प्रकार त्याग के बारे में चार तरह के सिद्धांत साफ हो जाते हैं।

आगे के 4 से 6 तक के श्लोकों में कृष्ण ने जो खुद अपना मत बताया है उसमें यह कहा है कि यज्ञ, दान तथा तप को भी कर्मासक्ति एवं फलासक्ति छोड़कर ही, करना यही त्याग कहा जाता है, कहा जाना चाहिए। उनने इन तीनों कर्मों की बड़ी बड़ाई की है और कहा है कि 'ये तो पवित्र करने वाले हैं ऐसा मनीषी लोग भी मानते हैं' - ''यज्ञो दानं तपश्चैव पावनानि मनीषिणाम्।'' फलत: इनके छोड़ने का सवाल तो उठी नहीं सकता। हाँ, यह किया जाना चाहिए जरूर कि इनमें तथा इनके फलों में आसक्ति रहने न पाए। जहाँ चौथा पक्ष इन तीनों के करने में कोई विशेष बात नहीं कहता, तहाँ कृष्ण का मत है कि इन तीनों को भी कर्मासक्ति तथा फलासक्ति छोड़कर ही करना होगा।

फिर 7 से लेकर 12 तक के श्लोकों में त्याग की सात्त्विक आदि किस्में बताके उसका विवरण दिया गया है। उसके बाद कर्म के पाँच कारणों का निरूपण करके 13 से 17 तक यह सिद्ध किया गया है कि आत्मा तो इन पाँचों में है नहीं। वह तो अलग और निर्लेप है। इसलिए कर्म का साथी उसे मानके सभी कर्मों से बचने की कोशिश बेकार है, नादानी है। बाद में 18 से 28 तक यह बात विचारी गई है कि आखिर कर्म होता है कैसे और वह रहता है कहाँ, और इस तरह प्रतिपादन किया गया है कि आत्मा से उसका ताल्लुक हई नहीं। वह तो दूसरी ही चीजें हैं जिनसे कर्म संबद्ध है। कर्म के करने में अंत:करण या बुद्धि और धृति (हिम्मत, धारणशक्ति) की जरूरत होती है। ये दोनों न रहें तो कर्म हवा में मिल जाए। बुद्धि रास्ता बताती है और धृति पस्ती आने न देकर कर्म मार्ग में डँटे रहना लाती है। इसलिए जरूरी हो गया है कि इन दोनों का भी विश्लेषण किया जाए। क्योंकि शायद इनमें किसी में कहीं आत्मा आ जाए। मगर 29 से 35 तक के श्लोकों में इन दोनों को त्रिगुणात्मक बताके आत्मा को अलग ही मान लिया है। जिस आराम और सुख के लिए कर्म करते हैं उसका निरूपण 36-39 श्लोकों में करके उनमें सात्त्विक सुख को आत्मानंद माना है सही; मगर वह कर्मजन्य हुई नहीं। उसके लिए केवल अपनी बुद्धि की निर्मलता अपेक्षित है - 'आत्म-बुद्धिप्रसादजम्।' वह भले ही कर्मजन्य हो सकती है। शेष दो सुख तो आत्मा से लाख कोस दूर हैं। इसके उपरांत आमतौर से 40वें में कह दिया है कि कर्म तो सांसारिक चीजों की सिद्धि के ही लिए किया जाता है और वह चीजें तो सभी की सभी त्रिगुणात्मक होने के कारण आत्मा से अलग हैं। प्रसंगवश चारों वर्णों के स्वाभाविक गुणों का 41-44 श्लोकों में दिग्दर्शन कराके दिखा दिया है कि आत्मा से इनका क्या ताल्लुक? इस प्रकार जब कर्मों से ही भय करने की कोई वजह न होने के कारण बंधन के डर से उन्हें स्वरूपत: त्याग करने का सवाल आता ही नहीं, तो यज्ञ, दान, तप के स्वरूपत: त्याग की बात कहाँ और क्यों आएगी? इस तरह त्याग का सविस्तार निरूपण पूरा हो जाता है। चारों वर्णों के कर्म जब स्वाभाविक (स्वभावज) ही हैं तो फिर उनके बुरे-भले या छोटे-बड़े होने का प्रश्न भी कहाँ आता है? जैसा कि आग का स्वाभाविक काम जलाना और पानी का भिगोना होने के कारण उनमें भले-बुरे या नीच-ऊँच का सवाल नहीं उठता; ठीक यही बात यहाँ भी है। इस तरह वर्ण-धर्मों और कर्मों की समानरूपता भी प्रसंगत: सिद्ध हो जाती है।

विपरीत इसके 45-48 श्लोकों में स्पष्ट कह दिया है कि स्वकर्म यदि ऊपर से बुरा भी प्रतीत हो तो भी उसे हर्गिज नहीं छोड़ना चाहिए। वह सहज (स्वाभाविक) जो ठहरा। उसी के द्वारा भगवान की पूजा भी तो होती है। कर्म ही तो भगवत्पूजा है। यदि भगवान को संतुष्ट करना या उसे जानना चाहते हो तो स्वकीय कर्मों को ही ठीक-ठीक करना चाहिए। इस तरह तो त्याग की जगह कर्मों का करना ही जरूरी हो जाता है। क्योंकि भगवत्पूजा तो आखिर करनी ही है न?

इसके बाद 49-55 तक संन्यास की उपयोगिता और उसकी दशा को बता के 56-65 तक उसके लिए ही कर्मों की उपयोगिता बताई गई है। अब रह गई संन्यास की बात। सो तो 49 से ही शुरू होती है और 66वें में उसका स्पष्ट रूप दिखाया गया है। 49वाँ श्लोक यों है, 'असक्तबुद्धि: सर्वत्र जितात्मा विगतस्पृह:। नैष्कर्म्य सिद्धिं परमां संन्यासेनाधिगच्छति।' इसका सीधा अर्थ यही है कि 'जिसकी बुद्धि कहीं लिपटी न हो, जिसका मन अपने वश में हो और जिसे कोई भी लोभ-लालच रह न गया हो वही संन्यास के द्वारा कर्मों के त्याग की अंतिम दशा को प्राप्त हो सकता है।' मन, बुद्धि आदि पर अपना अधिकार रखने से कर्मों के त्याग का रास्ता साफ हो जाता है और बहुतेरे काम छूट भी जाते हैं। फिर भी नियत या स्वाभाविक कर्म तो होते ही रहते हैं। फलत: जब तक उनका भी त्याग न हो जाए पूरी निष्कर्मता या कर्मों के त्याग की आखिरी और पूर्ण हालत पर पहुँच नहीं सकते। इसीलिए संन्यास या कर्मों का स्वरूपत: त्याग तब जरूरी हो जाता है।

कर्मत्याग की पूर्णता की जरूरत क्या है, यह सवाल हो सकता है। मगर इसका उत्तर तो 'आरुरुक्षोर्मुनर्यो' की व्याख्या के समय दिया जा चुका है। वही बात यहाँ भी 50 से लेकर 55 तक के श्लोकों में कही गई है। ये श्लोक समाधि का ही ब्योरेवार निरूपण करते हैं और कहते हैं कि अगर कुछ भी कर्मों का झमेला रहा तो समाधि हवा में ही मिल जाएगी। फिर तो योगारूढ़ या आत्मदर्शी होना असंभव हो जाएगा। समाधि के लिए प्राय: बहुत ज्यादा समय लगता है - दीर्घकाल की अपेक्षा है। सो भी जब वह निरंतर चालू रहे और बीच में विराम होने न पाए। मन के निरोध को ही तो समाधि कहते हैं। फलत: उसके निरोध के लिए जो अभ्यास किया जाता है उसके बारे में योगदर्शन के समाधिपाद में पतंजलि ने साफ ही कह दिया है कि श्रद्धापूर्वक निरंतर बहुत दिनों तक करते रहने पर ही वह दृढ़ होता है - 'स तु दीर्घकालनैरन्तर्यसत्कारसेवितो दृढ़भूमि:' (14)। तब इसमें कर्म की जरा भी गुंजाइश कहाँ रह जाती है? उसकी तो जरूरत तभी तक थी जब तक कि आत्मदर्शन की तरफ मन का झुकाव नहीं हुआ था। अब वैसा होने पर तो कर्मों का त्याग नितांत आवश्यक हो जाता है।

हाँ, आत्मदर्शन हो जाने के बाद भले ही कर्म कर सकते हैं। क्योंकि तब तो खामख्वाह कर्मों के छोड़ने का सवाल रही नहीं जाता। पुराने संस्कारों के बल से आत्मज्ञानी लोग दोनों ही तरह के होते हैं, जैसा कि पहले ही कहा जा चुका है। कर्मयोगी भी होते हैं, जैसे जनक आदि और संन्यासी भी, जैसे शुकदेव आदि। पहले तो भगवदर्पण बुद्धि वगैरह से ही कर्म करते हैं। फिर ज्ञान के बाद कर्तव्यबुद्धि से या विशुद्ध लोकसंग्रह की ही दृष्टि से। यही बात 56 से 65 तक के श्लोकों में कहके और इसी पर जोर देके 66वें में संन्यास के स्वरूप वाले प्रश्न का उत्तर देते हुए साफ कह दिया है कि 'सभी धर्मकर्मों को छोड़ के अद्वितीय परमात्मा (आत्मा) की शरण जाओ - आत्मज्ञान प्राप्त करो। उसी के फलस्वरूप सभी पुण्यपाप रूप बंधनों से छुटकारा हो जाएगा। फिक्र मत करो - 'सर्वधर्मान्परित्यज्य मामेकं शरणं व्रज। अहं त्वा सर्वपापेभ्यो मोक्षयिष्यामि मा शुच।' पहले इसी चीज को भक्ति के भी नाम से 54वें श्लोक में कहा है और 55वें में बताया है कि यह भक्ति अद्वैत ब्रह्मज्ञान के सिवाय और कुछ नहीं है। सातवें अध्‍याय के 'चतुर्विधा भजन्ते मां' आदि 16-19 श्लोकों में भी अद्वैत ज्ञान को ही सबसे ऊँचे दर्जे की भक्ति कहा है। इसीलिए जो लोग इस श्लोक में शरणागति और प्रपत्ति आदि के नामों से उपासना, श्रवण, कीर्त्तन आदि नामक भक्ति की बात सोचते हैं वह सत्य से बहुत दूर हैं। यदि पहले के ही कुछ श्लोकों पर अच्छी तरह गौर करें तो भी उन्हें पता लग जाएगा कि यहाँ सर्वकर्म - संन्यासपूर्वक अद्वैतज्ञान से ही मतलब है। उसी के बाद निर्वाण-मोक्ष के लिए कोई चिंता करने की गुंजाइश नहीं रहती। बाकी भक्ति आदि में तो रहती ही है। फलत: फिक्र मत करो, कहना गलत हो जाएगा। क्योंकि यदि और नहीं तो भगवान को प्रसन्न करने की ही चिंता रह जाती है।

जिस तरह कर्म और संन्यास की ही बात को लेके अठारहवें अध्‍याय का विश्लेषण करना जरूरी हो गया है, क्योंकि अंतिम एवं उपसंहारवाला वही है; उसी तरह दूसरे अध्‍याय की भी कुछ बातें विचारणीय हैं। पहला अध्‍याय पूरा का पूरा और दूसरे के शुरू के दस श्लोकों को गीतोपदेश की भूमिका मानते हैं, जिसमें उपदेश के लिए भूमि, क्षेत्र या प्रसंग तैयार किया गया है। यह बात तो श्लोकों के अर्थ के ही समय और आगे भी विदित होगी। 11वें श्लोक 'अशोच्यानन्वशोचस्त्वं' से उपदेश शुरू होता है। गीता पर शंकर का भाष्य भी इसी श्लोक से शुरू होता है। बेशक, उनने भी भाष्यारंभ में एक लंबी भूमिका लिखी है और उसी से हमने शुरू में 'तत्त्वज्ञानिनां कर्म तु' आदि एक छोटा-सा अवतरण दिया है। इस अध्‍याय के कुल 72 श्लोकों में शुरू के 10 तो यों ही - चले गए। उनके बाद से लेकर 38वें तक मुख्यत: आत्मा के स्वरूप आदि का विवेचन करके 39वें में लिखा है कि 'हमने अब तक सांख्य (तत्त्वज्ञान) की जानकारी तुम्हें बताई है। अब आगे योग की जानकारी की बात सुनो' - ''एषा तेऽभिहिता सांख्ये बुद्धिर्योगे त्विमां शृणु।'' इससे स्पष्ट है कि आगे दूसरी - योग की ही - बात कही गई है।

 

आत्मा का स्वरूप

यह ठीक है कि योग या कर्मयोग की बात तो 47वें श्लोक से ही शुरू होती है और 2 श्लोकों में उसके स्वरूप को अच्छी तरह बता के उसी का विवेचन आगे किया है। लेकिन 39-46 श्लोकों में उसी योग की महत्तासूचक स्वतंत्र प्रस्तावना दी गई है। यह समूचे गीतोपदेश की प्रस्तावना न होके सिर्फ उसी योग की है। इसीलिए हमने इसे स्वतंत्र कहा है। यह भी बड़े काम की चीज है, खासकर योग-संबंधी आगे की बातें समझने और पिछली बातों के साथ संबंध जानने के लिए। यह योग तो गीता की खास देन है यह पहले ही कहा जा चुका है। इसीलिए इस पर ज्यादा प्रकाश डालना जरूरी है। इसी दृष्टि से इसकी स्वतंत्र प्रस्तावना के 8 श्लोकों के साथ ही तत्त्वज्ञान संबंधी पहले के 11-38 श्लोकों पर भी एक निगाह डालने की आवश्यकता है। ऐसा करते ही मालूम हो जाता है कि 11-30 श्लोकों में तो आत्मा की अजरता, अमरता, निर्विकारिता और नित्यता का प्रतिपादन बहुत अच्छी तरह किया गया है। यह ठीक है कि वह प्रतिपादन यहाँ स्वतंत्र नहीं है; किंतु स्वधर्म और स्वकर्म की कर्तव्यता की पुष्टि के ही लिए किया गया है। इसी से यह भी निर्विवाद हो जाता है कि गीतोपदेश की भित्ति की बुनियाद अध्‍यात्मवाद से ही बनी है। इसीलिए शुरू में वही बात आई है। मरने-मारने के तथा हिंसा-अहिंसा के ही खयाल से तो अर्जुन स्वकर्म से विचलित हो रहा था। कृष्ण ने शुरू में ही उसकी जड़ ही काट दी।

उनने कह दिया है कि मरने-मारने तथा हिंसा-अहिंसा का खयाल तो महज नादानी है। भीष्मादि की आत्मा तो मरती नहीं और न दूसरों को मारती है। क्योंकि सभी आत्माएँ अविनाशी और निर्विकार हैं। फिर हिंसा-अहिंसा की बात ही कहाँ रही? रह गई उनके शरीरों की बात। सो तो आज खत्म हुए, कल खत्म हुए जैसे ही हैं। उनका नाश तो कोई भी शक्ति - परमेश्वर भी - रोक सकती नहीं। वह तो अनिवार्य है अवश्यंभावी है। यदि युद्ध में नहीं, तो ज्वर महामारी आदि से ही वे शरीर एक न एक दिन खत्म होंगे ही। फर्क यही है कि तब मरना केवल मरना होगा। लेकिन अब मरने में मजा है, बहादुरी है, नाम और यश है, आत्मसम्मान है, 'समर मरण अरु सुरसरि तीरा। रामकाज क्षणभंग शरीरा' वाली बात है। फिर चिंता कैसी? आगा-पीछा कैसा? यही तो फायदे का सौदा है।

19वें और 21वें श्लोकों में जो करारी डाँट उन लोगों को बताई है जो आत्मा के बारे में चिंता करते और हिंसा-अहिंसा की बातें करते हैं वह बहुत ही सुंदर है, निराली है, खूब है! साफ ही कह दिया है कि जो इस आत्मा को मारने वाली चीज मानते हैं और जो इसे मरने वाली समझते हैं, 'वे दोनों ही कुछ नहीं जानते, बेवकूफ हैं, नादान हैं, कोरे हैं' - ''उभौ तौ न विजानीत:'' (19)। इसी तरह 21वें में साफ ही कहते हैं कि 'जिसने इस प्रकार आत्मा को अजन्मा अविकार, सनातन और अविनाशी जान लिया भला वह किसी को मार-मरवा सकता है!' - ''वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम्। कथं स पुरुष: पार्थ कं घातयति हंति कम्!'' यहाँ 'कथं स पुरुष:' और भी सुंदर है। वह तो मर्द है, नामर्द तो है नहीं। तब भला वह कैसे मारने-मरवाने की बात सोचे! यह तो नामर्दी का रास्ता है, इससे तो नामर्दी और हिचक को प्रोत्साहन मिलता है और मर्द होके वह ऐसा काम करेगा! यह सारा का सारा वर्णन इतना सरस और युक्ति-दलीलों से भरा है कि लोट-पोट हो जाना पड़ता है। तर्क भी इतना जबर्दस्त और सामयिक (uptodate) एवं वैज्ञानिक है कि कुछ कहिए मत। एक नमूना सुनिए।

13वें श्लोक में आत्मा की अविनाशिता की दलील दी गई है। कहते हैं कि 'एक ही जन्म में कुमारावस्था, युवावस्था तथा वृद्धावस्था से हमें आमतौर से गुजरना होता है' - "देहिनोऽस्मिन्यथादेहे कौमारं यौवनं जरा।" यह याद रखना होगा कि इन तीनों अवस्थाओं का शरीर एक हर्गिज नहीं होता। कम से कम तीन तो होते ही हैं जो एक दूसरे से सोलहों आने जुदा होते हैं। यों तो एक-एक अवस्था में भी जानें कितने जुदा-जुदा शरीर हो जाते हैं। जिन अनंत परमाणुओं से खून, मांस, हड्डी आदि के जरिए किसी एक अवस्था का शरीर बना होता है दूसरी अवस्था में वह एक भी पाए नहीं जाते! वे तो जाने कहाँ गायब हो जाते हैं और उनकी जगह बिलकुल ही नए और निराले परमाणु (atoms) ले लेते हैं! नहीं तो तीनों अवस्थाओं में पार्थक्य क्यों होता? यों भी कुमारावस्था के शुरू में होने वाली देह के साथ युवावस्था के अंतिम परिपाक के समय के शरीर से कोई मिलान हो सकती है क्या? वे दोनों तो साफ ही जुदे हैं - जुदे मालूम होते हैं! फिर वृद्धावस्था से मिलान का सवाल क्या? विभिन्न अवस्थाओं के जुदे-जुदे और परस्पर विरोधी काम ही इस बात के सबूत हैं कि शरीर जुदे-जुदे हैं। बाल्यावस्था की निपट असमर्थता और जवानी की पूर्ण समर्थता के बाद बुढ़ापे की निराली असमर्थता ही पुकार-पुकार के अपने-अपने शरीरों को अलग बताती हैं।

इसे यों भी समझ सकते हैं। नया चावल कोठी के भीतर बंद करके रखते हैं और किसी भी तरफ से हवा न जा सके इसका पूरा प्रबंध करते हैं - कोई जरा भी छिद्र या सूराख रहने नहीं देते। नहीं तो बाहर से कीड़े घुस जाएँ और बरसाती हवा चावल को चौपट कर दे। फिर भी चार-छ: साल के बाद अगर उन्हीं चावलों को निकालें, पकाएँ और खाएँ तो निराला ही स्वाद, निराली गंध और निराली तृप्ति होती है जो बातें नयों में पाई ही न जाती थीं। पचने में तब भारी थे अब हलके हो गए; तब देर से पकते थे, अब फौरन पक जाते हैं, तब माँड़ को छोड़ते न थे, अब माँड़ से उनका कोई ताल्लुक ही नहीं ऐसा प्रतीत होता है! यह बात क्यों और कैसे हो गई! मोटी बुद्धि में तो यह बात समाती नहीं। मगर यह तो मानना ही होगा कि हजार कोशिश करने और हवा का प्रवेश रोकने पर भी परमाणुओं की आवाजाही रोकी जा सकती नहीं! वे तो सर्वशक्तिमान जैसे हैं! उनकी अपार महिमा है! फलत: चावल के भीतर जितने भी पुराने परमाणु थे, जिनसे वह बना था, एक-एक करके सभी भाग निकले, खिसक गए इन्हीं चार-छ: सालों में, और उनकी जगह बिलकुल ही नयों ने ले ली! दूसरी बात होई नहीं सकती! हमें पता ही न लगा और चावल दूसरे हो गए! पहलेवाले फरार हो गए और उनने अपनी जगह दूसरों को बिठा दिया - ऐसों को, कि कोई गिरफ्तार करी नहीं सकता, चाहे लाख यत्न करे! पुराने चंपत! नए हाजिर!

केवल अंदाजी बात नहीं है। अब विज्ञान की महिमा से ऐसी प्रयोगशालाएँ (Laboratories) बनी हैं कि उनमें घुस के आप यह सृष्टि का करिश्मा आँखों देख सकते हैं। यों तो हमें कुछ पता ही नहीं चलता कि क्या हो रहा है। मगर अगर किसी प्रयोगशाला के वैज्ञानिक यंत्रों के सामने अपना हाथ रख दें, तो हमें आश्चर्यचकित हो जाना होगा यह देखके, कि किस तेजी के साथ हमारे अपने हाथ से लक्ष-लक्ष परमाणु हर सेकंड में भागे जा रहे हैं और उनकी जगह नए घुस रहे हैं। हमें ताज्जुब होगा और अवाक रह जाना पड़ेगा। मगर इसी के साथ साफ-साफ दिखेगा कि किस प्रकार पुरानी चीज खत्म होके उसकी जगह एकदम नई और ताजी चीज तैयारी हो रही है, हो जाती है। उसी जगह यह भी मालूम हो जाएगा कि जानें कितने ही शरीर पचास-साठ साल के भीतर बने और बिगड़े। हालाँकि यों देखने से मालूम पड़ता है कि वही एक ही शरीर बराबर बना है - केवल कुछ मरम्मत हुई है या मुलम्मा चढ़ा है। यही बात वर्तमान साम्यवादी अंग्रेज विद्वान श्री जौन स्ट्रेची ने अपनी पुस्तक 'समाजवाद का सिद्धांत और व्यवहार' (The Theory and Practice of Socialism) के 392 पृष्ठ में लिखते हुए मार्क्‍सवाद के मूल नेता श्री फ्रेडरिख एंगेल्स के 'ड्यूहरिंग के विरुद्ध' (Anti Duhring) पुस्तक के एक अंश को ज्यों का त्यों उद्धृत कर दिया है। वह इस प्रकार है -

'In the same way Engels observes that the eating and excreting processes, which everyliving thing must continually maintain, mean that the actual physical structure of every man (for example) is continually changing. A man is not compased of the same cells as he was thirty years ago. Not a single one of the atoms of matter, which then constituted the man is left. And yet we say without hesitation that it is the same man. The movement or evolution, through time, of a living organism, seems to present an analogous contradiction to the movement of an object through space. Life is, therefore, also a contradiction, which is present in things and processes themselves and, which constantly asserts and soves itself; and as soon as the contradiction ceases, life too comes to an end, and death steps in - 'Anti-Duhring,' page 138.'

इसका आशय यह है, 'उसी तरह एंगेल्स का यह भी कहना है कि हरेक जानदार के लिए जिस खाने और पखाने का निरंतर जारी रहना लाजिमी है उसी का यह मतलब है कि हरेक इनसान वगैरह के जिस्म की बनावट निरंतर बदल रही है। तीस साल पहले जिन सजीव झिल्लियों से मनुष्य का शरीर बना होता है, वे उस मुद्दत के बाद रह नहीं जाती हैं। उस समय जिन परमाणुओं से शरीर बना था उनमें एक भी रह नहीं जाते। फिर भी बिना हिचक कह देते हैं कि यह वही आदमी है। किसी जीवित पदार्थ का समय पाके जो विकास होता है या उसमें जो गति हो जाती है, उसमें जो परस्पर विरोध होता है वह ठीक वैसा ही है जैसा कि किसी पदार्थ के एक स्थान से दूसरे स्थान में जाने में। ''इसलिए जीवन भी विरोधी चीज है और यह विरोध खुद पदार्थों और उनकी क्रियाओं में ही मौजूद है। यह विरोध अपने आप ऊपर आ जाता है और फिर इसका समाधान भी हो जाता है। यह विरोध ज्यों ही खत्म हुआ कि जीवनलीला का भी अंत हुआ और मौत आ धमकी।'

इस प्रकार अत्यंत वैज्ञानिक तर्क दलील के साथ गीता ने भी बहुत समय पहले एंगेल्स की ही तरह कह दिया था कि यदि इस प्रकार परस्पर विभिन्न शरीरों के होते हुए भी हम उन्हें एक ही मानते हैं, और सबसे बड़ी बात यह है कि आत्मा एक ही रहती है; उसका परिवर्तन या नाश नहीं होता; इसीलिए तो बचपन की देखी-सुनी बातों की याद बुढ़ापे में भी हो आती है; तो वर्तमान शरीर के मिलने के पूर्व और इसके खत्म होने के बाद जो शरीर थे और जो मिलेंगे उनमें भी उसी आत्मा की सत्ता मानने में क्या अड़चन है जो इस वर्तमान शरीर में है? जिस तरह एक जन्म के ही तीन विभिन्न शरीर बताए गए हैं वैसे ही तो तीन जन्मों के भी तीन हैं और आगे बढ़के तीस और तीन लाख जन्मों के भी होते हैं। बात तो सर्वत्र एक-सी है। यदि बचपन की सभी बातें बुढ़ापे में याद नहीं आती हैं और शायद ही एकाध का स्मरण होता है। तो दूसरे जन्म के शरीरों के बारे में भी ऐसा ही होता है। कोई बच्चा पढ़ने या दूसरे ही कामों में कुंद कोई तेज और कोई अत्यंत विलक्षण होता है। इससे मानना पड़ता है कि पूर्व जन्म के अभ्यास काम कर रहे हैं, ठीक जैसे निद्रा के बाद पहले पढ़ी-लिखी बात याद आ जाती है। मौत भी तो आखिर नींद की बड़ी बहन ही है न? इसमें तम या अँधेरे का परदा बहुत ही सख्त होने के कारण स्मृति और भी पतली पड़ जाती है या शायद ही कभी किसी को होती है। लेकिन हमारा प्रयोजन यहाँ इन बाहरी दलीलों से नहीं है। हमें तो एक ही युक्ति-तर्क को नमूने के तौर पर पेश कर देना था।

बीच के 'अथ चैनं नित्यजातं' (26) आदि श्लोकों में जो आत्मा के मरने या विनाश की बात कही गई है, वह तो केवल स्वधर्म से, विमुख न होने के ही लिए सहकारी तर्क (supplementary argument) के रूप में ही है। वहाँ तो इतना ही कहना है कि जैसे शरीर का नाश अनिवार्य है, इसीलिए उसे बचाने के खयाल से भी युद्ध रूप स्वधर्म से भागना मूर्खता है, ठीक उसी तरह यदि आत्मा को भी नश्वर और क्षणभंगुर ही मान लें, तो भी स्वधर्म से विमुख होना कभी वाजिब नहीं। क्योंकि जो बिगड़ेगा वह फिर बनेगा और जो बनेगा, जरूर ही बिगड़ेगा, यही संसार का नियम है और यह हमारे काबू की बात है नहीं कि इसे ही रोक दें। यदि हम न भी लड़ें, तो आत्मा का नाश तो होगा ही, यदि हमने उसे अनित्य मान लिया। बस, इसका इतना ही मतलब है। ऐसा समझने की भारी भूल कोई न करे कि ऐसा कहके गीता ने भी आत्मा को विनाशी माना है। सारी की सारी गीता इस सिद्धांत के खिलाफ है। सैकड़ों बार आत्मा की अमरता और एकरसता उसमें दुहराई गई है।

इसके बाद अध्‍यात्मवाद के बारे में कुछ भी कहना रह जाता नहीं। फलत: 31-37 श्लोकों में धर्मशास्त्रों के विधि-विधान और दुनिया में नेकनामी बदनामी एवं आत्मसम्मान के आधार पर उसी स्वधर्म के करने की पुष्टि की गई है। लोग ऐसा न समझ बैठें कि जब गीता ने अध्‍यात्म ज्ञान से ही शुरू किया है तो उसे सांसारिक हानि-लाभों से कोई वास्ता नहीं है; इसीलिए गीता की दृष्टि इनकी तरफ कतई नहीं है; यही वजह है कि इन सभी सांसारिक बातों और खयालों को भी उसने सामने ला दिया है। यदि ऐसा न होता तो गीता की बात एकांगी एवं अधूरी रह जाती जैसा कि शुरू में ही कहा है। गीता को सब तरह से पूर्ण और व्यावहारिक बनना था, पूर्ण अनुभवी बनके ही पथदर्शन करना था और वही चीज न हो पाती, अगर यश-अपयश, आत्मसम्मान आदि की ओर से वह नजर फेर लेती। उस दशा में अनुभवी लोग उसमें कमी पाते और उसकी ओर सहसा खिंच आते नहीं। इसीलिए इस पहलू को भी उसने नहीं छोड़ा है। विधि-विधान के अनुसार स्वर्ग-नरक आदि भी इसी पहलू के भीतर आ जाते हैं। इनका स्थान न तो अध्‍यात्म दृष्टि में है और न योगदृष्टि में ही। इसीलिए वे भी यहीं दिखाए गए हैं।

 

सांख्य और योग में अंतर

इसके बाद योग वाली दृष्टि की ओर जाने के पहले एक ही श्लोक - 38वाँ - रह जाता है। वह यों है; 'सुखदु:खे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ। ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि।' इसका अर्थ है कि 'जय पराजय, हानि-लाभ और सुख-दु:ख को समान समझ के - यानी इनकी परवाह न करके - लड़ाई के लिए तैयार हो जाओ। फिर तो तुम्हारे पास पाप फटकने भी न पाएगा।' लड़ाई में हार या जीत - दो में एक - जरूरी है। फलत: तदनुसार ही हानि या लाभ भी अनिवार्य है। फिर तो दु:ख या सुख खामख्वाह आता ही है। यही है साधारण नियम। ये चीजें बदली जा सकती हैं भी नहीं। इसलिए इन्हें समान बनाना असंभव है। इसीलिए गीता कहती है कि इनका बाहरी रूप ज्यों का त्यों रहते हुए भी हम इन्हें समान इस तरह बना सकते हैं कि दिल-दिमाग पर इनका कोई खास असर न होने दें। अध्‍यात्मवाद या वेदांत का यह अटल सिद्धांत है कि सुख-दु:ख के कारण बाहरी पदार्थ नहीं हैं। हम अपने दिल-दिमाग में उन्हें जो स्थान देते या उनका जैसा स्वरूप खड़ा करते हैं तदनुसार ही वे सुख-दु:ख आदि के कारण बनते हैं और नहीं भी बनते हैं। इन्हीं को मानसिक या मनोराज्य के पदार्थ कहते हैं।

दृष्टांत लिए किसी स्‍त्री को ले सकते हैं। वह तो एक ही प्रकार की होती है - उसका बाहरी रूप तो एक ही होता है। अब यदि वही भली या बुरी हो या सुख-दु:ख पहुँचाने वाली मानी जाए तो सभी को उसके करते समान रूप से ही सुख या दु:ख होना चाहिए। मगर ऐसा तो होता नहीं। एक ही स्‍त्री किसी के लिए सुखद, किसी के लिए दु:खद और किसी के लिए दोनों में एक भी नहीं होती। जो पुरुष उसे बहन, बेटी या माता मानता है उसकी कुछ और हालत होती है, जो उसे स्‍त्री मानता है उसकी दूसरी ही और जो उसकी तरफ से निरा उदासीन या लापरवाह है उसकी तीसरी ही दशा होती है। पहली दो हालतों में राग-द्वेष या प्रेम और जलन की जो बातें पाई जाती हैं। वह तीसरी दशा में कतई लापता हैं। वेश्या, धर्मपत्नी और माता के बाहरी रूप में कोई भी अंतर नहीं होता है। एक ही स्‍त्री किसी की माँ, किसी की पत्नी और किसी के लिए वेश्या भी परिस्थितिवश हो सकती है। इसी से वह आरामदेह या तकलीफदेह बन सकती है। सो भी एक ही समय में किसी को आराम देने वाली और किसी को तकलीफ देने वाली। क्यों? इसीलिए न कि पत्नी, वेश्या, माता, बहन आदि के रूप में एक ही स्‍त्री की जुदा-जुदा कल्पना अलग-अलग लोग अपने मनों में कर लेते हैं? और जो विरागी या मस्तराम ऐसी कोई भी कल्पना नहीं करके लापरवाह रहता है उसे उस स्‍त्री से सुख या दु:ख कुछ नहीं होता। इसलिए सिद्ध हो जाता है कि किसी भी पदार्थ का बाहरी रूप कुछ नहीं करता। किंतु उसका मानसिक रूप जैसा खड़ा किया जाता है तदनुसार ही वह सुख-दु:खादि का कारण बनता है - उसे वैसा बनना पड़ता है।

इसीलिए 38वें श्लोक में गीता ने इसकी जड़ ही काट दी है। उसने कह दिया है कि अपने दिल-दिमाग पर जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दु:ख का असर होने ही न दो, दिल-दिमाग को यह मौका ही न दो कि इन चीजों का रूप अपने भीतर खड़ा कर सके, ऐसा न होने पाए कि दिल-दिमाग की स्वाभाविक एकरसता, गंभीरता और शांति को, ये सभी अपनी छाया और अपना प्रतिबिंब उस पर डाल के, भंग करें, बिगाड़ें। फिर तो पौ बारह है, फिर तो सब कुछ ठीक है, फिर तो पाप-पुण्य की जड़ ही कट जाती है। पाप-पुण्य के बाप तो ये मानसिक रूप ही हैं, चीजों का मानस पटल पर पड़ा हुआ असर और प्रतिबिंब ही है, छाया ही है। इस प्रकार अध्‍यात्मवाद और वेदांत के सिद्धांत के ही आधार पर कर्म करने की बात का प्रतिपादन पूरा किया गया है। क्योंकि जब आत्मा निर्विकार और निर्गुण है, निर्लेप और अजर-अमर है तब तो मानसिक कल्पना के ही चलते वह भटकती है और पाप-पुण्य में पड़ती है, जैसे जंगल में भटक जाने वाला काँटेकुशों में बिधता या चोर-डाकुओं से लुटता है। और जब वही चीज नहीं रही, जब मानसिक समता (balance) बिगड़ने न पाई, तो फिर खतरा ही कहाँ रहा?

अब विचार पैदा होता है कि जिस समता का उल्लेख यहाँ किया गया है उसी का जिक्र आगे कर्मयोग के प्रकरण के 48वें श्लोक में आया है। यहाँ भी 'सुखदु:खे समे कृत्वा' है और वहाँ भी 'सिद्धयसिद्धयो: समो भूत्वा' लिखा है। ऐसी दशा में दोनों एक ही चीज हो जाती है। फिर अध्‍यात्मवाद के प्रकरण के अंत और योग के आरंभ के पहले जो 39 श्लोक में बड़ी तपाक के साथ कहा है कि 'तत्त्वज्ञान की बात कह चुके अब योग की बात सुनो', उसका तो कोई मतलब रही नहीं जाता। वह बेकार और निरर्थक मालूम पड़ता है। मगर ऐसा मान भी तो नहीं सकते। गीताकार को क्या इतनी मोटी भी बुद्धि न थी कि यह बात समझ जाएँ? और जो गीता में सांख्य एवं योग के दो मार्गों का बार-बार जिक्र आया है उसका क्या होगा? यह कोई बच्चों की तो बात है नहीं। इसीलिए कुछ अजीब-सा घपला यहाँ आ खड़ा होता है।

यह बात तो जरूर है। यहाँ दिक्कत तो मालूम होती ही है। इसीलिए जरा गौर से कई बातें विचारना है। पहली बात यह है कि हम अध्‍यात्मवाद के उपसंहार वाले 38वें श्लोक के 'नैवं पापमवाप्स्यसि' तथा कर्मयोग की भूमिका के 39वें श्लोक के 'कर्मबन्धं प्रहास्यसि' शब्दों पर भी विचार करें। पहले शब्द तो इतना ही कहते हैं कि 'ऐसा होने से तुम्हारे पास पाप फटकने न पाएगा।' उनका इस बात से कोई तात्पर्य नहीं है, कोई भी प्रयोजन नहीं है कि आया कर्म पाप-पुण्य पैदा करते हैं या नहीं, कर्मों में पाप-पुण्य पैदा करने की शक्ति है या नहीं। तत्त्वज्ञान और अध्‍यात्मवाद को इससे कोई भी गर्ज नहीं होती। वह इन बातों की ओर दृष्टि डालना फिजूल समझता है। बल्कि यों कहिए कि वह ऐसा करने को पतन एवं पथभ्रष्टता की निशानी मानता है। वह यह बाल की खाल क्यों खींचने लगा? वह तो इतना ही कहता है कि जब आत्मा निर्लेप है, अकर्त्ता है, जब उसमें कर्म हई नहीं, तो फिर कर्म का फल वह क्यों भोगे? कर्म का फल उसके निकट आए भी क्यों? आने की हिम्मत भी क्यों करे? हाँ, एक ही बात है कि मन में - दिल-दिमाग में - उसकी कल्पना कर ली जाए तो गड़बड़ हो सकती है, होती है। इसीलिए उसने उसी चीज को अंत में रोक दिया है और साफ कह दिया है कि खबरदार, दिल-दिमाग की गंभीरता (serenity) बिगड़ने न पाए। फिर मजाल किसकी कि फँसा सके? ऐसी दशा में जहाँ आग का संबंध ही नहीं वहाँ उसकी लपट, गरमी या आँच आएगी कैसे?

और 39वें श्लोक वाले शब्द? यह तो कुछ और ही कहते हैं। वह तो कहते हैं कि 'ऐसा होने पर कर्मों में जो बंधकता या बाँधने और फँसाने की शक्ति है वही खत्म हो जाएगी।' मतलब यह है कि ये शब्द आत्मा के अकर्त्तृत्व आदि का खयाल न करके कर्म के स्वरूप का ही खयाल करते हैं - इनकी नजर उसी तरफ है। वह कर्मों में फल देने की ताकत और शक्ति को मान के ही ऐसा उपाय सुझाते है कि वह शक्ति बेकार हो जाए, मारी जाए। जिस तरह भुने जाने पर बीज में अंकुर पैदा करने की ताकत नहीं रहती, खत्म हो जाती है, ठीक उसी तरह कर्म को भी भून देने की बात ये वचन बताते हैं। आत्मा निर्गुण है, कर्त्तृत्वशून्य है, निर्लेप या कि सगुण, कर्त्तृत्वयुक्त और लिपटनेवाली-लिपटानेवाली, इस खोद विनोद में वे नहीं पड़ते। इस गहरे पानी में वे उतरना नहीं चाहते - उतरते नहीं। आत्मा चाहे कुछ भी क्यों न हो, वह करने वाली ही क्यों न हो, फिर भी ऐसी युक्ति की जा सकती है कि कर्म ही भून दिए जाएँ और सब पँवारा ही खत्म हो जाए। अतएव यही कहना ठीक है कि इन वचनों की दृष्टि पहले वालों से ठीक उलटी दिशा में है - दूसरे किनारे है। यदि इसी श्लोक के बाद का 40वाँ श्लोक देखें तो वहाँ की 'प्रत्यवायो न विद्यते' - ''पाप होता ही नहीं रहता ही नहीं' - ऐसा ही लिखा है। इससे भी यही बात निकलती है कि योगवाली हिकमत या योग की जानकारी से पाप पैदा होने पाता ही नहीं - उसका अस्तित्व ही नहीं रह जाता - उसकी सत्ता होने ही नहीं पाती। फिर वह जाएगा किसके निकट? जो चीज हई नहीं, उससे किसी को खतरा ही क्या। इस प्रकार सांख्य और योग की विशेषता सिद्ध हो जाती है।

दूसरी बात भी है। 38वें श्लोक में युद्धरूप क्रिया या काम के बारे में समत्वबुद्धि की बात नहीं कही गई है। किंतु उसके फलों के ही बारे में। जय-पराजय, लाभ-हानि और सुख-दु:ख तो युद्ध के परिणामस्वरूप ही क्रमश: एक के बाद दीगरे होते हैं और उन्हीं के असर से दिल-दिमाग को बचा रखने को कहा है। मगर 48वें श्लोक में जो सिद्धि-असिद्धि में समता या एकरसता की बात कही गई है, वह कर्मों के ही बारे में है और प्रकृत में युद्ध को ही लेकर है। लड़ाई अंत तक हो या बीच में ही रह जाए, खत्म हो जाए इस बात की परवाह कतई न हो यही योग है। इस बात का दिल पर जरा भी असर न हो, यही चीज वहाँ कही गई है। इस प्रकार जहाँ पहली खूबी में कर्म को भूनने की बात है, तहाँ इसमें उसका कोई भी प्रभाव दिल पर न आने देने की बात है। इसी के फलस्वरूप कर्म भुने जाएँगे। यह बुनियादी चीज को ही पकड़ता है। कर्मों का ही असर न होने दिया जाए तो योग हो गया और उनके नतीजों को ही पास में फटकने न दिया गया तो सांख्य हो गया।

तीसरी बात भी है जिससे योग का निरूपण अलग किया गया है। यह ठीक है कि कर्म की सिद्धि-असिद्धि की लापरवाही को ही योग कहते हैं। मगर सवाल तो यह है कि वह हो क्योंकर? जरा देखिए तो सही यह कितनी कठिन चीज है। फल की इच्छा को स्थान न देना, फल की ओर से लापरवाह होना, कर्म में आसक्ति का न होना और कर्मत्याग में आग्रह न रहना - ये चार चीजें बताई गई हैं। इनके बताने और इन पर अमल करने का सीधा मतलब यही है कि हमारी दृष्टि कर्म के ऊपर इस हद तक बँधा गई हो, हमारे मन की एकाग्रता (concentration) कर्म के ऊपर इस तरह पूर्ण और इतनी पक्की हो गई हो कि वह फलेच्छा और फल की तो बात ही जाने दीजिए, वह तो जुदी चीजें हैं, कर्म के त्याग और उसके करने की ओर भी न जा सके! क्या कमाल है! कैसी लासानी एकाग्रता की बात है! किस अलौकिक मनोयोग का निरूपण है! मन कर्म में इतना बँधा है और उस बंधन की सीमा इतनी संकुचित एवं निर्धारित है कि कर्म के आगे जो उसका करना या न करना है उसे भी वह देख नहीं सकता, वहाँ भी वह जा नहीं सकता, वहाँ जाने की भी उसे इजाजत नहीं है! वहाँ भी उसके लिए 'नो एडमिशन' (No admission) ही है। जो बात दिमाग में आने वाली नहीं जँचती वही लिखी गई प्रतीत होती है! क्या खूब!

यह तो ऐसा ही है जैसा कि छुरे की धार पर होकर गुजरना और फिर भी पाँव को कटने से बाल-बाल बचा लेना! यह तो सबके लिए संभव नहीं। यह तो कोई बिरला ही माई का लाल कर सकता है! इस अनोखी दैवी कला का पारंगत तो शायद ही कोई होता है, हो सकता है। ऐसा वही हो सकता है जो प्राणायाम की क्रिया से समूचे शरीर को तौल के ऐसा ऊपर - इतना ऊपर उठा ले कि पाँवों का केवल संबंध ही उस धार पर हो और शरीर का जरा भी भार उस पर न होने पाए। शरीर न तो इतना ऊँचा उठ जाए कि छुरे से संबंध ही टूट जाए, क्योंकि तब तो उसकी धार पर का चलना कहा जाएगा नहीं! और न ऐसा ही उठे कि धार पर जरा भी - नामममात्र को भी - उसका बोझ पड़े, क्योंकि तब तो पाँव ही कट जाएगा! फिर भी पाँव के द्वारा शरीर का संबंध भी धार से बना रहे! उफ, गजब की करामात है! ठीक यही करामात कर्म के बारे में भी करने की बात 48वें श्लोक में कही गई है!

प्रश्न होता है कि यह हो कैसे? यहीं पर मदद करने और इस महान संकट से उबारने के लिए सांख्य या अध्‍यात्मज्ञान आ जाता है। ठीक, छुरे पर जुटे शरीर की ही तरह यहाँ मन को बहुत ऊँचा उठना होगा, ऊँचा उठाना होगा। वह इतना ऊपर चला जाए कि कर्म के अलावा बाकी सभी चीजें अनंत दूरी पर - बहुत नीचे दूर - पड़ जाएँ। उन सबों से मन बेलाग हो जाए। मगर उसी के साथ कर्म से संबंध भी जुटा रहे - वह टूटने न पाए। जब तक वह अध्‍यात्मदर्शन और तत्त्वज्ञान की पूर्णता के फलस्वरूप बड़ी ऊँचाई (high plane) पर चला नहीं जाता, खामख्वाह गड़बड़ी होगी और खतरा बराबर बना रहेगा कि कभी इधर और कभी उधर जाए। मन की इसी दशा को - इसी ऊँचाई को - चौथे अध्‍याय के 'गतसंगस्य मुक्तस्य ज्ञानावस्थितचेतस:' (23) श्लोक में 'ज्ञानावस्थितचेता:' या ज्ञानावस्थित चित्त कहा है। वह ज्ञान में डूब जाता है। तीसरे अध्‍याय के 'यस्त्वात्मरतिरेव' श्लोक में इसे ही 'आत्मरति:' और 'आत्मतृप्त:' कहा है। जो अमृत में डूबा है उसे शर्बत की परवाह क्यों हो? यही बात यहाँ है। जो आत्मानंद में मस्त है, उसी में तृप्त है, उसी में डूबा है वह इधर-उधर क्‍यों जाए? फिर भी एक ओर - सिर्फ कर्म की ओर - जाना भी है ! यही तो निरालापन है! गीता में इस हालत का वर्णन बार-बार आया है। यही ज्ञान की असली अवस्था है और इसी की मदद से मन कर्म के आगे-पीछे बाल भर भी नहीं बहकेगा। नहीं तो वहीं कट जाएगा! यही योग है जिसमें आत्मज्ञान मददगार है।

योग में आत्मज्ञान निहायत जरूरी है और उसी के फलस्वरूप जो सिर्फ कर्म तक ही मन पहुँचने दिया जाता है इसी युक्ति, इसी हिकमत और इसी कला की आगे भी प्रशंसा की गई है। दरअसल योग में तीन चीजें हैं। एक तो कर्म है। दूसरी उसी तक मन या बुद्धि की पहुँच और तीसरी चीज है इसी के लिए जरूरी तथा आधारभूत आत्मदर्शन या आत्मा का साक्षात्कार। इनमें कर्म के सिवाय शेष दो को ही एक साथ मिला के योग के संबंध की बुद्धि, जानकारी या कला कहा गया है 'बुद्धिर्योगेत्विमां शृणु' (2 ।39) में। इन दोनों में भी असली चीज वही आत्मज्ञान है। क्योंकि उसी के बल पर ऊँचे उठ के मन कर्म से आगे जा नहीं सकता है। इसीलिए 'दूरेण ह्यवरं कर्म' (2 ।49) और 'बुद्धियुक्तो जहातीहं' (2 । 50) श्लोकों में कह दिया है कि 'इस बुद्धि या ज्ञान के योग यानी संबंध को हटा देने पर बचा-बचाया कर्म तो रद्दी चीज है, बहुत बुरा है। इसलिए कर्म से पैदा होने वाले अनर्थों से बचने के लिए इसी बुद्धि की शरण जाओ। इसके बिना तो फल की आकांक्षा आदि के चलते दुर्दशा होती है।' 'विपरीत इसके यदि वह इस बुद्धि से युक्त - इससे संबंध - हो जाए, तो पुण्य-पाप दोनों से ही उसका पिंड छूट जाता है। अतएव योग की ही प्राप्ति के लिए कोशिश करो वही तो कर्म की कला, हिकमत या विशेषज्ञता है।'

यहाँ 50वें श्लोक में जो पुण्य-पाप से पिंड छूटने की बात कही गई है वह ठीक वैसी ही प्रतीत होती है जैसी आत्मज्ञान के फलस्वरूप 38वें श्लोक में बताई गई है। इससे यह खयाल हो सकता है कि ज्ञान और योग में कोई फर्क नहीं है। मगर इसी के बाद के 51वें श्लोक में जो 'हि' शब्द दिया गया है और जिसका अर्थ है 'क्योंकि' उससे पता लगता है कि वह श्लोक पहले के मतलब को स्पष्ट करता है। पहले में जो कुछ इस तरह के शक की गुंजाइश है उसे खुद समझ के ही वह इस पर और भी प्रकाश डालता है। अब जरा 'कर्मजं बुद्धियुक्ता हि' आदि उस श्लोक का अर्थ देखिए। वह यों है, 'क्योंकि बुद्धियुक्त (बुद्धिवाले) मनीषी लोग कर्मों से पैदा होने वाले फलों को छोड़ के जन्ममरण रूप बंधन से छुटकारा पा जाते और निरुपद्रव स्थान में पहुँच जाते हैं।' पहले श्लोकों में जो पुण्य-पाप के त्यागने या उनसे पिंड छूटने की बात कही गई है ठीक उसी का उल्लेख इस श्लोक में 'कर्मों से पैदा होने वाले फलों को छोड़ के' इन शब्दों में किया है और कहा है कि जन्ममरण रूप बंधन से वे छूट जाते हैं। पहले श्लोक के 'बुद्धियुक्ता:' की ही जगह यहाँ 'मनीषिण' कहा है।

अब यदि इन सभी बातों को मिला के गौर करें तो पता चलेगा कि भूमिका वाले 39, 40 श्लोकों में जो कुछ कहा गया है कि योग के करते कर्मों की बंधनशक्ति खत्म हो जाती है और पुण्य-पाप होने पाते ही नहीं, वही बात यहाँ समर्थन के रूप में दुहराई गई है। इसीलिए श्लोक में 'बंधा' शब्द भी आया है। असलियत यह है कि कर्मों में ही जो मन बुद्धि जम गई है उसका परिणाम यह होता है कि बंधन से छुटकारा मिलता है। कर्म से हट के एकाएक बंधन पर जा पहुँचे और उसे खत्म किया! कर्म और बंधन के बीच में कई सीढ़ियाँ पड़ती हैं। योगवाले उन्हें फाँद जाते हैं! कर्म का तो सबसे पहले तत्काल फल होता ही है जय-पराजय आदि के रूप में। फिर उसके बाद दूसरा फल आता है जिसे पुण्य-पाप कहते हैं। तब कहीं जाके बंधन आता है उन्हीं पुण्य-पापों के फलस्वरूप। योग के चलते कर्म और बंधन के बीच के इन दो फलों - दो सीढ़ियों से साबका पड़ता ही नहीं। उनसे कोई भी नाता नहीं होता - वह होते ही नहीं। फिर बंधन यानी जन्ममरण कैसा? सांख्य या ज्ञान में भी बंधन तो होता नहीं। मगर बीच के दो फल होते हैं जरूर; हालाँकि आत्मा से उनका कोई भी नाता न होने के कारण वे उसमें सटते नहीं। क्योंकि कर्म ही जब उसमें सटता नहीं, है नहीं, तो उसके फल कैसे आएँगे? विपरीत इसके योग में कर्म आत्मा में आए और सटे तो क्या और न सटे तो क्या? वहाँ इससे कोई मतलब हई नहीं। मगर बीचवाले फल नहीं सटते यह पक्का है। पहले पक्ष में पक्कापक्की कर्म ही नहीं सटता है और इसी से ये फल नहीं सटते। मगर इस पक्ष में पक्कापक्की यह नहीं सटते हैं। फिर कर्म सटके भी क्या करेगा? दोनों का यही मौलिक भेद - बुनियादी फर्क - यहाँ साफ हो जाता है।

 

व्यवसायात्मक बुद्धि

अब एक ही बात इस योग के मुतल्लिक रह जाती है जिसका जिक्र 'व्यवसायात्मिका' आदि 41वें श्लोक में है। उसी का स्पष्टीकरण आगे के 42-44 श्लोकों में भी किया गया है, बल्कि प्रकारांतर से 45-46 में भी। इन श्लोकों में कहा गया है कि योगवाली बुद्धि एक ही होती है, एक ही प्रकार की होती है और होती है वह निश्चित, निश्चयात्मक (definite)। उसमें संदेह आगा-पीछा या अनेकता की गुंजाइश होती ही नहीं। विपरीत इसके जो योग से अलग हैं, जिनका ताल्लुक योग से हई नहीं उनकी बुद्धियाँ बहुत होती हैं और एक-एक की अनेक शाखा-प्रशाखाएँ होती हैं। वे अनिश्चित तो होती ही हैं। कहने का मतलब यह है कि जहाँ योगी के खयाल पक्के और एक ही तरह के होते हैं तहाँ दूसरों के अनेक तरह के, कच्चे और संदिग्ध होते हैं।

बात सही भी है। पहले जो कुछ योग के बारे में कहा गया है उससे यह बात इतनी साफ हो जाती है कि समझने में जरा भी दिक्कत नहीं होती, जब यह कह दिया गया है कि सिवाय कर्म के उसके करने, न करने, छूटने, न छूटने, फल, उसकी इच्छा, कर्म की जिद या उसके न करने की जिद - इनमें किसी भी - की तरफ मन या बुद्धि को जाने का हक नहीं है, जाने देना नहीं चाहिए, जाने दिया जाता ही नहीं या यों कहिए कि जाने की गुंजाइश ही नहीं रह जाती, तो फिर बुद्धि या खयाल का एक ओर निश्चित होना अवश्यंभावी है। पहले से ही निश्चित एक ही चीज - कर्म - से जब वह डिगने पाता नहीं, तो फिर गड़बड़ी की गुंजाइश हो कैसे और अनेकता या संदेह इसमें घुसने भी पाए कैसे?

मगर जहाँ यह बात नहीं है और खयाल को - बुद्धि या मन को - आजादी और छूट है कि फलों की ओर दौडे, सो भी पहले से निश्चित फलों की ओर नहीं, किंतु मन में कल्पित फलों की ओर, वह बुद्धि तो हजार ढंग की खामख्वाह होगी ही। एक तो कर्मों के फलों की ही तादाद निश्चित है नहीं। तिस पर तुर्रा यह कि कर्म करने वाले रह-रह के अपनी-अपनी भावना के अनुसार फलों के बारे में हजार तरह की कल्पनाएँ - हजार तरह के खयाल - करते रहते हैं। यही कारण है कि फल और फल की इच्छा या कल्पना को जुदा-जुदा रखा है। क्योंकि कर्मों के फल तो पहले से निर्धारित या बने-बनाए होते नहीं। वे तो नए सिरे से बनते हैं, बनाए जाते हैं। हर आदमी चाहता है कि एक ही कर्म का फल अपने-अपने मन के अनुसार जुदी-जुदी किस्म का हो। यह भी होता है कि एक ही आदमी खुद रह-रह के अपने खयाल फलों के बारे में बदलता रहता है। परिस्थिति उसे मजबूर करती है। एक ही युद्ध के फलों की कल्पना हर लड़नेवाले जुदी-जुदी करते हैं। साथ ही एक आदमी की जो कल्पना शुरू में होती है मध्‍य या अंत में वह बदल जाती है, ठीक उसी हिसाब से जिस हिसाब से उसे अपनी शक्ति और मौके का अंदाज लगता है। इसी के साथ यदि कर्मों के करने न करने या उनके छोड़ने न छोड़ने के हठों की बात मिला दें, तब तो बुद्धि और खयालों के परिवार की अपार वृद्धि हो जाती है। वह पक्की चीज तो होती ही नहीं। कभी कुछ खयाल तो कभी कुछ। एक ही फल के विस्तार का रूप भी विभिन्न होता है।

मगर योग में तो सारा झमेला ही खत्म रहता है। वहाँ तो 'न नौ मन तेल होगा और न राधा नाचेगी' वाली बात होती है। इसीलिए उसकी महत्ता बताई गई है। 52 से लेकर 72 तक - अध्‍याय के अंत तक - के श्लोकों में उसी बुद्धि का विशद चित्र खींचा गया है। वह कितनी कठिन है, दु:साध्‍य है यह भी बताया गया है। मस्ती की अवस्था ही तो ठहरी आखिर। इसीलिए तीसरे अध्‍याय के पहले ही श्लोक में उसी बुद्धि की यह महिमा जान के अर्जुन ने कर्म के झमेलों से भागने और उस बुद्धि का ही सहारा लेने की इच्छा जाहिर की है। मगर यह तो ठीक ऐसी ही है जैसी कि किसी की एकाएक गुरु बन जाने की ही इच्छा।


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