अनुवादक की बात
सीमोन द बोउवार के आत्मकथात्मक उपन्यास 'ए वेरी ईजी डेथ' को पढ़ने से पहले मैंने सिर्फ 'सेकेंड सेक्स' का हिंदी अनुवाद पढ़ा था। भारत सरकार के सांस्कृतिक संबंध परिषद की ओर से जब क्रोएशिया (दक्षिण-मध्य यूरोप) के जाग्रेब विश्वविद्यालय में हिंदी भाषा विभाग स्थापित करने की पेशकश हुई तो अतिथि अध्यापक के तौर पर उस यूरोप से रू-ब-रू होने का सपना पूरा होता दिखाई देने लगा जो अपनी बौद्धिकता और वैचारिकता से भारत और एशियाई समाज को टक्कर और चुनौती देता चला आया है। बर्फानी यूरोप के जनवरी महीने में पहले तो लगा कि, यहाँ भारतीय संबंधों की ऊष्मा खोजना व्यर्थ है। भारतीय दूतावास के आडम्बरी माहौल से अलग भाषा और स्वधर्म के गर्व से युक्त क्रोएिशाई स्वाभिमानी चरित्रों से रू-ब-रू होते-होते कब धुर यूरोप की अकेली, दुकेली, लिपी-पुती, मेहनतकश, सर्बियाई, बोस्नियाई, बाल्कन, मस्तमौला, वृद्धाएँ, प्रौढ़ा, कुमारियाँ मुझसे अपनी जीवन-कथाएँ कहने लगीं, कब मेरे अवकाश का समय उनकी निजी जिंदगी के पन्नों से भर उठा पता ही नहीं चला। जहाँ सहजीवन, तलाक, प्रेम, विवाह बिल्कुल गैर-रोमांचकारी घटनाएँ हों, वहाँ की औरतें मेरी अब तक की देखी दुनिया से अलग थीं - सोचने-विचारने के क्रम में इटली, फ्रांस, जर्मनी और (तब के) यूगोस्लाविया (पहले) की कई स्त्रियों से बातचीत हुई और प्रस्थान बिंदु बनी - सीमोन द बोउवार।
दक्षिण-मध्य यूरोप के प्राचीनतम विश्वविद्यालयों में से स्वेस्लिस्ते उ जागरेबु (जाग्रेब विश्वविद्यालय) की स्थापना सन 1669 में हुई थी। इवाना उलीचीचा के दसवें मार्ग पर मुद्रोस्लोवनी फाकुल्तेत (दर्शन विभाग) के परिसर का वातानुकूलित पुस्तकालय मेरे लिए शरणस्थली बना था। धूप की हल्की किरणों को चारों ओर से घेरते बादल दिन में अँधेरा कर देते, बर्फीली बारिश चुपचाप टपकती और सब शांत, पेड़-पौधे स्वच्छ, और श्वेत बर्फ की चादर तले दिन और रात का फर्क कहीं गुम हो जाता। सड़कों, गलियों में इक्का-दुक्का लोग सिर से पैर तक ओवरकोट में ढँके हुए, कोई आत्मीय तो क्या परिचित चेहरा भी नहीं, ऐसे में पुस्तकालय की गर्माहट, बैठने, पुस्तकें देखने की सुरुचिपूर्ण व्यवस्था और आठ कूना (मुद्रा) की गर्म काफी का प्याला सीमोन के और नजदीक ले आता। सीमोन के रचनात्मक साहित्य ने घर से दूर होने की बेचैनी को कभी बढ़ाया, कभी थपथपा कर शांत किया। उसके उपन्यासों और आत्मकथाओं से हो कर गुजरना एक मधुर त्रासदी से हो कर गुजरना था। भारतीय मन और फ्रांसीसी सीमोन देश-काल-वातावरण से परे संग उठने-बैठने लगे। काफी हाउस का अपरिचित शोर समझ में आने लगा, धुएँ के छल्लों से भरे कहवाघर की मेज पर सीमोन बैठी दीखने लगी। स्काइप पर मिलने आते मित्र, परिजन, छात्र सीमोन को और न पढ़ने की ताकीद करने लगे - उन्हें मेरा होना खतरे में दीखने लगा। मैंने भी कई बार कोशिश की, सीमोन से बाहर निकलने की लेकिन... अनुवाद करते हुए एक-एक पंक्ति पर घंटों पहरा-सा बैठ जाता, कभी कलम फिसलती चली जाती। अपना ही लिखा फिर-फिर नया लगता। यहाँ तक कि फाइनल ड्राफ्ट करने की ताकत बची ही नहीं।
सीमोन का रचा पढ़ना एक ऐसे अनुभव लोक से गुजरना लगा जिसके कारण बीसवीं शती के विचारक और पाठक बड़े पैमाने पर उसकी ओर आकर्षित हुए थे। उसकी आत्मकथाएँ और उपन्यास पढ़ते हुए स्त्रीवाद को वैचारिक और राजनैतिक आंदोलन के तौर पर देखने का नजरिया मिला, जीवन जीने के लिए एक निर्देश का काम करता हुआ लगा। जहाँ 'सेकेंड सेक्स' मनुष्य की स्वतंत्रता की, मनुष्य के रूप में स्त्री की पराधीनता के कारणों की पड़ताल करता है, वहाँ सीमोन की आत्मकथाएँ यह बताने में कारगर लगने लगीं कि स्त्री स्वाधीनता कैसे पाई जा सकती है, यानी 'सेकेंड सेक्स' स्त्रीवाद के जिस सैद्धांतिक पक्ष को प्रस्तुत करता है वहीं आत्मकथाएँ स्त्रीवाद का व्यावहारिक रूप प्रस्तुत करती हैं हालाँकि बोउवार का कहना है कि उन्होंने पहले आत्मकथा लिखना शुरू किया, बाद में 'सेकेंड सेक्स' लिखा। 'वांटिंग टू टॉक अबाउट माइसेल्फ' में उनका कहना है कि ''मुझे यह बात अच्छी तरह मालूम हो गई थी कि पहले सामान्य तौर पर स्त्रियों की स्थिति के बारे में बात करनी चाहिए।'' उनकी आत्मकथाएँ 'मेमोआयर्स ऑफ ए ड्यूटीफुल डाटर', 'द प्राइम ऑफ लाइफ , 'फोर्स ऑफ सरकमस्टासेंज तथा 'आल सेड एण्ड डन' और उपन्यास 'शी केम टू स्टे' और 'द मेन्डरीन' हमारे लिए नए दौर के स्त्रीवादी चेहरे को पहचानने की निर्देशिका का काम करते हैं। इनमें एक बौद्धिक के रूप में, एक लेखक के रूप में, एक स्त्री की दृष्टि से लिखे विस्तृत ब्यौरे मिलते हैं। इनमें व्यक्त सीमोन का जीवन इसका उदाहरण है कि हम चाहे भारतीय हों या यूरोपीय, अपने माता-पिता की पीढ़ी से अलग अपने आसपास के समाज को देखते और समझते हुए कैसे जी सकते हैं। फोकाल्ट के शब्दों में कहें तो 'द यूज ऑफ प्लेजर' और 'द केयर ऑफ द सेल्फ', जिससे मिल कर ही आत्मनिर्भरता की अवधारणा बनती है, को सीमोन के साहित्य में देखा जा सकता है।
सीमोन की आत्मकथाओं से हो कर गुजरना दिलचस्प और ईमानदार अनुभव है, 'मेमोआयर्स ऑफ ए ड्यूटीफुल डॉटर' में विश्वविद्यालय में पढ़ने के दौरान 'पुरुष की तरह दिमाग होने की' इच्छा अभिव्यक्त करते हुए अपनी तुलना सार्त्र से करती है और इस निष्कर्ष पर पहुँचती है कि स्त्री के लिए पुरुष जैसी सोच होना संभव नहीं है। इसी तरह 'प्राइम ऑफ लाइफ' में उन्होंने अपने होटलों में रहने, एक के बाद दूसरा होटल बदलने का ज़िक्र किया है - जिन अनुभवों से गुजरते हुए लगता है कि सीमोन कैसे अपनी आर्थिक स्थिति का प्रबंधन करती होगी, यह भी कि होटलों में रहने का अर्थ हुआ कि आप हमेशा मेहमान हैं - बिस्तर, परदे, कुर्सी-टेबल कुछ भी आपका अपना नहीं। सीमोन के अनुभव पढ़ते हुए पाठक सीखता है कि कैफेटेरिया में कैसे बैठना चाहिए, लोगों से कैसे मिलना चाहिए, बहसें, पढ़ना-लिखना और सोचने का सलीका भी। सीमोन कहती है कि कैफे में घुसते हुए यदि आप अपने ही दो आत्मीय मित्रों को आपस में बात करते हुए देखें तो उनके निकट बैठ कर बातचीत में बाधा न डालें, बेहतर हो चुपचाप वहाँ से हट जाएँ। कहवाघर सामाजिकीकरण या बैठ कर पढ़ने-लिखने की जगह हो सकता है - इसे सीमोन साबित करती है और यह भी कैसे। वह बिना किसी संग-साथ की अपेक्षा के 1930 के आसपास मार्सिले और रोउन जैसे कस्बों में अध्यापन के वर्षों में, लंबी सैरों के लिए निकट जाया करती थी।
'फोर्स ऑफ सरकमस्टांसेज' में सीमोन द बोउवार ने युद्धोत्तर पेरिस का चित्रण किया है, जिसमें नए और बेहतर समाज के निर्माण का स्वप्न है। स्वतंत्रता के प्रति उत्तरदायित्व का बोध है। आत्मकथा के इसी भाग में अपने प्रकाशकों से हुई बातचीत, नेल्सन एल्ग्रेन के साथ संपर्क की चर्चा है। नेल्सन एल्ग्रेन के साथ फायरप्लेस के समक्ष संभोग और फिर पेरिस और शिकागो में दोनों का अलग-अलग जीवन बिताना भी वर्णित है। भौगोलिक दूरी के कारण कैसे इस आत्मीय संबंध का अंत हुआ, यह भी कि लिखने के लिए सीमोन ने पेरिस छोड़ना पसंद नहीं किया, इसके साथ ही बोउवार की उत्तर अफ्रीका, अमेरिका की वे लंबी यात्राएँ जो उसने अकेले कीं। एक जगह सीमोन ने यह भी लिखा कि इतने सारे व्यापक जीवनानुभव, जीवन-यात्राएँ ये सब उसके साथ ही खत्म हो जाएँगे। वह उन पत्रों का भी उल्लेख करती है जो जीवन के उत्तरार्ध में, दुनिया के अलग-अलग देशों की स्त्रियों ने उसे लिखे हैं। 'ऑल सेड एण्ड डन' में अपने मित्र सिल्विए बॉन के साथ आत्मीय संपर्क के विषय में उसका कहना है कि उसने कभी कल्पना भी नहीं की थी कि उम्र के साठवें वर्ष में उसे कोई सहयोगी और मित्र मिलेगा, लेकिन मिला। इन आत्मकथाओं में सबसे महत्वपूर्ण दो बातें उभर कर सामने आती हैं, या यों कह लें कि आत्मकथाएँ समग्र रूप से दो बातों पर केंद्रित हैं - एक तो आत्मनिर्भरता, अपनी जिम्मेदारी स्वयं उठाना और दूसरे, अपने को हमेशा बेहतर ढंग से समझने का प्रयास।
'प्राइम ऑफ लाइफ' में सीमोन के जीवन का वह कालखंड केंद्र में है जब वह माता-पिता का घर छोड़ कर अपना वयस्क जीवन प्रारंभ करती है - वह अपने उस कमरे का चित्रण करती है, जो पेरिस में अपनी दादी के मकान में उसे रहने के लिए मिला, जहाँ अति साधारण किस्म का फर्नीचर है, नारंगी कागजों से दीवारें ढँकी हैं, दीवान और किरोसीन का हीटर है। पैसे बचाने के लिए सस्ता भोजन करती है - दोपहर के भोजन में 'डोमिनिक' का एक कटोरी दलिया और शाम में 'ला कपोले' से एक कप गर्म चाकलेट खरीदती है और सबसे दिलचस्प बात जो वह लिखती है - ''कपड़ों और प्रसाधन में मेरी अतिरिक्त रुचि कभी नहीं रही और अपने को सजाने में कभी आनंद नहीं आया, मैंने अपनी रुचि के अनुसार पूरा जीवन ऊनी या सूती फ्रॉक पहना, इसलिए अब उसी की प्रतिक्रियास्वरूप मैंने चाइना क्रेप और वेलवेट से बनी पोशाक चुनी जो पूरी सर्दियाँ पहनी जाती... मैं हमेशा एक जैसे कपड़े पहना करती और इसे मैं आत्मनियंत्रण से जोड़ कर देखती हूँ। यदि हम स्वयं को पूरी तरह आत्मनिर्भर एजेंट मानते हैं, तब यह करना जरूरी है, साथ ही एक लेखक होने के लिए आपका अपने ऊपर, अपनी इच्छाओं पर पूरी तरह नियंत्रण होना जरूरी है।''
सार्त्र के बारे में सीमोन ने लिखा है कि उनके पास बहुत कम धन था, लेकिन बेपरवाही उनके स्वभाव में थी। धन की चिंता से बेखबर वे पीते बहुत थे, और सीमोन के साथ लंबी सैरों में विचारोत्तेजक बहसें हुआ करतीं - ''ऐसा कभी-कभी ही होता था कि मैं रात के दो बजे से पहले सोने जाती, इसलिए पूरा दिन जल्दी ही बीत जाता था, क्योंकि मैं सोई होती थी।'' सार्त्र की पहल पर वे दोनों एक दीर्घकालिक संबंध के लिए राजी हुए, जिसमें दूसरों के लिए भी जगह होनी थी। वे दोनों एक-दूसरे को हर बात बताएँगे, कुछ छिपाएँगे नहीं और ईमानदार संबंध बनाएँगे। बाद में, सार्त्र ने उससे विवाह का प्रस्ताव किया ताकि दोनों की नियुक्ति एक ही शहर में हो जाए, लेकिन सीमोन का निर्णय अटल था कि वह कभी बच्चे पैदा नहीं करेगी। विवाह संस्था में उसकी गहरी अनास्था थी। उसने सार्त्र के साथ बहुत-सी चीजें, संवेदनाएँ बाँटीं, लेकिन स्वतंत्रता के मायने दोनों के लिए अलग-अलग थे। सीमोन के लिए जो स्वाधीनता थी, वह सार्त्र के लिए उबाऊ कर्तव्य था। सीमोन ने लिखा - ''अद्भुत थी स्वाधीनता! मैं अपने अतीत से मुक्त हो गई थी और स्वयं में परिपूर्ण और दृढ़निश्चयी अनुभव करती थी। मैंने अपनी सत्ता एक बार में ही स्थापित कर ली थी, उससे मुझे अब कोई वंचित नहीं कर सकता था। दूसरी ओर सार्त्र एक पुरुष होने के नाते बमुश्किल ही किसी ऐसी स्थिति में पहुँचा था, जिसके बारे में उसने बहुत दिन पहले कल्पना की हो... वह वयस्कों के उस संसार में प्रविष्ट हो रहा था, जिससे उसे हमेशा से घृणा थी।'' उस समय तक सीमोन की दिलचस्पी राजनीति में बहुत कम थी, विशेषकर संसदीय राजनीति में या यह हो सकता है कि इसका उल्लेख ही सीमोन ने बहुत कम किया हो। उस समय तक, जब फ्रांस में स्त्रियाँ मताधिकार से वंचित थीं - ''कैबिनेट में परिवर्तन और लीग ऑफ नेशन्स की बहसें हमें निरर्थक लगतीं... बड़े-बड़े आर्थिक घोटाले हमें चौंकाते नहीं, क्योंकि हमारे लिए पूँजीवाद और भ्रष्टाचार दोनों पर्यायवाची थे।''
सीमोन ने रोउन-प्रवास के दौरान रविवार और बृहस्पतिवार की अपनी लंबी सैरों का जिक्र किया है। वह नई दिनचर्या के बारे में लिखती है - ''मैं काम करती, कॉपियाँ जाँचती और ब्राएस्सर में खाना खाती जहाँ बहुत कम लोग आते क्योंकि वहाँ खाना अच्छा नहीं मिलता था - वहाँ की निश्शब्दता, अनौपचारिक-सा व्यवहार, मंद पीली रोशनी सब मुझे अपनी ओर आकर्षित करते।" यहीं पर ओल्गा से सीमोन की मित्रता हुई जो बाद में चल कर सार्त्र से प्रेम करने लगी - उन्होंने एक तिकड़ी बनाई जो बाद में टूट गई - ''रविवार की भीड़, फैशनेबल औरतें-मर्द, कस्बाई जीवन, मनुष्यता, हमें रोमांचक संगीत अच्छा लगता और रात की निस्तब्धता भी।"
पेरिस लौट कर वापस वह उसी होटल में रहने लगी जहाँ एक दीवान था, किताबों की रैक थी और आरामदेह डेस्क थी। सीमोन ने किताबों की रैक और डेस्क का जो विवरण दिया है वह महत्वपूर्ण है। उसके लिए किसी भी और चीज से अधिक महत्वपूर्ण थी - लिखने की लालसा। उसके लिए लेखन और स्वावलंबन से ज्यादा अहम कुछ भी नहीं था। वह लिखती है - ''मैंने अपने स्त्रीत्व को नकारा नहीं, बल्कि उसे महत्व नहीं दिया, बस उपेक्षा की, मुझे पुरुषों जैसी स्वतंत्रता और जिम्मेदारियाँ थी।'' 'फोर्स ऑफ सरकमस्टांसेज' में सीमोन अपनी चिंता व्यक्त करते हुए लिखती है - ''मुझे यह सोच कर उदासी होती है कि मैंने जो इतनी किताबें पढ़ी हैं, इतनी जगहें देखी हैं, इतनी सारी जो जानकारी जुटाई है - इनमें से कुछ भी बचा नहीं रहेगा। सारा संगीत, सारे चित्र, सारी संस्कृति... इतनी सारी जगहें और अचानक कुछ भी नहीं।''
सीमोन ने सन 1964 में बतौर उपन्यासिका आत्मकथा लिखी - 'ए वेरी ईजी डेथ' जिसका प्रकाशन उसकी माँ की मृत्यु के साल भर बाद हुआ। छह सप्ताह के कालखंड में मरणशय्या पर मामन और सीमोन के साथ बातचीत में यह आत्मकथा गहरे निजत्व, दुख, पश्चात्ताप, पीड़ा के क्षणों का आख्यान है, माँ-बेटी की बदलती भूमिकाएँ, डॉक्टर और मरीज के संबंध, नैतिकता अस्पतालों की आंतरिक राजनीति के विविध पड़ावों से गुजरती हैं। मामन पिछले चौबीस वर्षों से विधवा और एकाकी है - सीमोन भी अपने स्वतंत्र जीवन और लेखन में व्यस्त है। मामन को अंत तक मालूम नहीं कि उसे प्राणघातक 'कैंसर' है - वह मरना नहीं चाहती - ठीक हो कर 78 वर्ष की अवस्था में जीवन को नए सिरे से जीना चाहती है। जीवन ही उसके लिए सत्य है - स्मृति के आईने में वह और सीमोन अपना अतीत देखते हैं। ताउम्र मामन से तमाम शिकायतों के बावजूद बतौर बेटी वह मामन को अंतिम समय में 'सहज मृत्यु' के पलों से ही गुजारना चाहती है। सीमोन का कहना है - 'मामन के प्रति पूरे सम्मान के साथ मैं यह महसूस करती हूँ कि हमने मामन के प्रति कोई अपराध नहीं किया, वे अंतिम वर्ष जिनमें उसकी देखभाल नहीं की गई, मामन के प्रति बेरुखी, विलोपन और अनुपस्थिति के वे पिछले कुछ वर्ष जिनमें मामन की उतनी देखभाल हमने नहीं की, उसके अंतिम समय में शांति दे कर, उसके पास रह कर, भय और पीड़ा पर विजय पाने में उसका साथ दे कर हमने उसका प्रायश्चित कर लिया, ऐसा हमें लगता है। हमारी लगभग दु:साध्य रात-दिन की देखभाल के बिना वह ज्यादा यंत्रणा झेलती। सच है, बल्कि तुलनात्मक दृष्टि से मैं कह सकती हूँ कि उसकी मृत्यु एक सहज और आसान मृत्यु थी।''
भावानुवाद पाठकों के सामने है - जिसकी प्रेरणा सर्जी मिखाइलिच ने दी, जिन्होंने बताया कि दूर से देखने पर कभी-कभी चीजें ज्यादा साफ दीखती हैं और ये भी कि हम सब जीवन के रंगमंच पर अपना-अपना पार्ट अदा करने को अभिशप्त हैं। सीमोन को पढ़ने और आत्मकथा के पुनर्प्रस्तुतीकरण की प्रक्रिया ने मुझे भीतर से अकेला कर दिया था - लेकिन फिर वही अकेलापन ही तो रचनाकार की उपलब्धि है।
गरिमा श्रीवास्तव
ए वेरी ईजी डेथ
24 अक्टूबर सन 1963 को फोन पर मामन के चोटिल होने की खबर, बोस्ट ने दी। बो़स्ट और ओल्गा ने मामन को अस्पताल पहुँचाया। बेचारी मामन - पाँच हफ्ते पहले मैंने उसे देखा था - वह मास्को से तुरंत लौटी थी और बेहद थकी हुई दिखाई दे रही थी। कौन कह सकता था कि ये वही स्त्री है जो हमेशा खुद को युवती समझती और समझाती आई थी। युद्ध के बाद ही मामन को गठिए ने जकड़ लिया था, तमाम मालिश और दवा-दारू के बावजूद वह बमुश्किल चल-फिर पाती थी, फिर भी मामन ने कभी हार नहीं मानी। गिरने से उसकी जाँघ की हड्डी खिसक गई थी। नर्सिंग होम में शांत लेटी मामन जिंदगी के तमाम झंझावातों को झेल कर चुकी-थकी हुई सतहत्तर वर्षीया वृद्धा, मुझे अपरिचित-सी लगी। मुझे देख बोली - ''तुमने मुझे दो महीनों से कोई पत्र नहीं लिखा।'' मैंने बताया कि मैं रोम से, लगातार पत्र देती रही हूँ, मामन ने बहुत अविश्वस्त भाव से यह सब कुछ सुना। उसकी आँतों में कमजोरी थी। डॉक्टर का कहना था लगातार तीन महीने बिस्तर में आराम करने से वह पूरी तरह ठीक हो जाएगी। बोस्ट को मामन के पूर्ण स्वस्थ होने में संदेह था। बिस्तर पर लगातार लेटने से पीठ में घाव होने का खतरा था, इस उम्र में घाव भी तो जल्दी ठीक नहीं होते। लेटने से फेफड़े थक जाते हैं और न्यूमोनिया का खतरा बढ़ जाता है। लेकिन मैं, मामन की बेटी, जानती थी कि माँ सख्तजान है, वैसे भी वह बहुत बूढ़ी हो चली थी, उस उम्र तक पहुँच चुकी थी, जब मृत्यु की प्रतीक्षा ही बच रहती है।
मेरी बहन पपेट! उसे पहले से ही आशंका थी। पिछली बार मामन जब पपेट के घर गई थी तो उसने एक रात तेज पेट-दर्द की शिकायत की। सुबह तक दर्द कम हो गया। मामन वहाँ से लौटते वक्त खुश थी, मगर अभी दसेक दिन पहले फ्रांसिस दिआतो ने पपेट से फोन पर कहा, ''आज मैं तुम्हारी माँ के साथ 'लंच' कर रहा था। वह बहुत ही अस्वस्थ और जीर्ण दीख रही थी, सोचा, तुम्हें आगाह कर दूँ।'' पेरिस आ कर पपेट ने मामन को रेडियोलॉजिस्ट को दिखाया, डॉक्टर ने कब्जियत दूर करने की और शक्तिवर्धक दवाइयाँ दीं। हम चाहते थे कि अपने फ्लैट में वह अकेली न रहे, कम से कम रात में कोई औरत साथ में रहे, लेकिन मामन कभी तैयार नहीं हुई।
अस्पताल में एक रात गुजार कर, मामन शहर के सबसे अच्छे नर्सिंग होम में ले आई गई। लगातार कंपन करनेवाले उपकरण से जुड़ा बिस्तर, खिड़की के पार हरा-भरा बगीचा, आरामदेह और साफ-सुथरा कमरा, देखभाल के लिए हरदम तैनात नर्सें, सुस्वादु भोजन - कुल मिला कर मामन की देखभाल बहुत अच्छे ढंग से हो रही थी।
मामन आज कुछ बेहतर ढंग से बात कर पा रही थी, लेकिन क्या वह कभी ऊँची आवाज में बोल पाएगी? इतनी ऊँची आवाज - जो उसे खुद सुनाई दे! शायद नहीं, कभी नहीं। लेकिन उसमें जीने की अदम्य इच्छा है - अपरिमित जिजीविषा - अभी भी। पपेट को दु:स्वप्न के बारे में सुनाया उसने - ''लगता है कोई मेरा पीछा कर रहा है, दौड़ रही हूँ। दौड़ती ही जा रही हूँ। दौड़ते-हाँफते एक दीवार तक आ पहुँची हूँ, मुझे बचने के लिए दीवार के पार कूदना है। दीवार के पार क्या है - मालूम नहीं! ये स्वप्न डराता है मुझे। वैसे, मृत्यु अपने-आप में मुझे डराती नहीं, पर उस छलाँग से डरती हूँ, आतंकित रहती हूँ जो जीवन के पार, मृत्यु की सीमा में ले जाएगी मुझे! दुर्घटना के बाद जब मैं टेलीफोन तक पहुँचने के लिए फर्श पर रेंग रही थी, तो लगा कि यही वक्त 'छलाँग' का है - जो अब आन पहुँचा है।''
मामन गिरने के वक्त को याद नहीं करना चाहती, न ही अपने फ्लैट में वापस जाना चाहती थी, जहाँ वह चोटिल हुई। हालाँकि वह फ्लैट उसे बहुत प्रिय था, जिसे उसने पति की मृत्यु के बाद अपने ढंग से सजाया था। ये बात और थी कि मुझे वहाँ रहना अच्छा नहीं लगा, एक अजीब-सी मनहूसियत की गंध थी, उस फ्लैट में। अब मामन की चिंता थी कि नर्सिंग होम से वह कहाँ जाएगी! उसके लिए 'रेस्ट हाउस' ढूँढ़ने की जिम्मेदारी मेरी थी।
मामन कभी-कभी स्वस्थ-सी दिखाई देती लेकिन कभी-कभी असम्बद्ध बातें करती। रविवार को तो उसकी जुबान भी लड़खड़ाने लगी, आँखें अधमुँदी हो गईं, लेकिन सोमवार की सुबह वह आसानी से आसपास की चीजों को पहचान और बातचीत कर पा रही थी। वह उन पुलिसवालों को धन्यवाद देना चाहती थी, जिन्होंने दुर्घटना के बाद मामन की सहायता की, उन लोगों और पड़ोसियों के प्रति कृतज्ञता ज्ञापित करना चाहती थी, जिन्होंने हमें दुर्घटना की सूचना दी।
तकिए के सहारे पीठ टिकाए, मेरी ओर सीधे देखती हुई भी वह कहीं और थी - ''जरूरत से ज्यादा ही काम किया, मैंने इतने साल। खुद को थका डाला, बेइंतहा! सोचा नहीं था कि इतनी बूढ़ी और लाचार हो जाऊँगी। लेकिन उम्र तो सभी को स्वीकार करनी ही पड़ती है। कुछ ही दिनों में अठहत्तर की हो जाऊँगी। परिपक्व उम्र है, अब इसी के हिसाब से मुझे अपना जीवन व्यवस्थित कर लेना चाहिए। यहाँ से निकल कर जीवन का नया अध्याय शुरू करने की सोच रही हूँ...।'' मेरी निगाह में उसके लिए तारीफ थी। यह वही स्त्री थी, जिसे कभी उम्र याद दिलाया जाना पसंद नहीं आया, आज वह बड़ी बहादुरी के साथ अपनी उम्र स्वीकार कर रही थी। पिछले तीन दिनों के धुँधलके के बाद उसे अपना चेहरा साफ दिखाई देने लगा था - उसने अपनी अठहत्तर वर्ष की उम्र स्वीकार करने की शक्ति बटोर ली थी। वह भविष्योन्मुख थी, इस निश्चय के साथ कि 'मैं अपने जीवन का नया अध्याय शुरू करने की सोच रही हूँ।'
पति के मरने के बाद भी दुखी, व्यथित अकेली मामन ने जीवन का नया अध्याय शुरू किया था। चौवन वर्ष की उम्र, दो बेटियाँ, निर्धनता - मामन ने साहस दिखाया। पढ़ाई-लिखाई की, लाइब्रेरियन बनी, ऑफिस जाने के लिए फिर से साइकिल चलाना सीखा। मामन कभी बेकार नहीं बैठी। मेरे आत्मनिर्भर होने और हमारी आर्थिक स्थिति सुधरने के बाद भी मामन काम करती रही, कभी लाइब्रेरी में, कभी चैरिटी शो में। उसे तकरीरें सुनना, यात्रा करना, लोगों से घुलना-मिलना खूब पसंद था। फ्लोरेंस, रोम, मिलान घूमी, हॉलैंड और बेल्जियम के संग्रहालयों में भी गई। गठिए के बावजूद, यात्रा के नाम से ही उसमें स्फूर्ति आ जाती, उसे कार में घूमना बेहद भाता लेकिन मित्रों और रिश्तेदारों के आमंत्रण पर ट्रेन से भी यात्रा करती। मेरे पिता की बदमिजाजी के कारण दोस्तों ने उनसे दूरी बना ली थी, उनकी मृत्यु के बाद मामन ने टूटे हुए संबंधों और संपर्कों को साधा, उन्हें घर बुलाया और मान-सम्मान दिया।
मामन के जीवट और साहस के प्रति मुझमें आश्चर्य-मिश्रित सम्मान का भाव था। इन दिनों, मामन कई बार असम्बद्ध बातें भी करती। अभी कल ही तो वह गरीब, निचले तबके की औरतों के प्रति अस्पतालवालों के दुर्व्यवहार की आलोचना कर रही थी, फिर कुछ बुदबुदाई जो मुझे समझ में नहीं आया। उसका रोगी शरीर और उसके दिमाग में भरी ये बातें विरोधाभासी लगीं। मुझे उदासी और चिंता हुई।
फिजियोथेरिपिस्ट मामन को देखने आया। मामन के शरीर पर पड़ी चादर को सरका कर बायाँ पैर उठाया। मामन ने सामने से खुली नाइट ड्रेस पहन रखी थी। वह लगभग अनावृत्त थी - पेट की चमड़ी सूख गई थी - आड़ी-तिरछी लकीरें, अनगिन झुर्रियाँ थीं, पेड़ू और उसके नीचे रोमहीन-सूखी-सी योनि - सब कुछ दिखाई दे रहा था - ''अब मुझमें किसी चीज को ले कर कोई शर्मिंदगी नहीं बची है।''- उसके नि:संकोच, असम्पृक्त स्वर ने आश्चर्य में डाल दिया। ''तुम बिल्कुल ठीक कहती हो,''- मैंने कहा तो, पर बागीचे की तरफ आँखें घुमा लीं। नग्नप्राय माँ!! नग्नता, मामन की नग्नता ने मुझे विचलित कर दिया। बचपन में, मैं इसी शरीर के कितने नजदीक थी। कैशोर्य में, मामन से शारीरिक नैकट्य कुछ संकुचित कर देता। लेकिन बुढ़ापे का यह 'शरीर' मुझे वितृष्ण और असहज कर गया। क्या मैं मामन को हमेशा युवा और स्वस्थ देखना चाहती थी? लेकिन मामन भी तो साधारण स्त्री ही थी ना! तो फिर मैं उसके जीर्ण-नग्न शरीर को देख इतनी व्यथित क्यों हूँ? ऐसा - जैसे कोई तिलिस्म टूट गया हो! मामन - मेरी मामन, नित्यप्रति छीजते जा रहे शरीर को वहन कर रही है - वह सामान्या है, विशेषा नहीं - क्या इस सत्य के साक्षात्कार से विचलित हूँ, या मामन का निर्लिप्त स्वर, शरीर से परे हो कर बात करना मुझे डरा गया?
मामन उस शरीर से मुक्ति पा रही थी, जिसने इतने दिनों उसे बाँधे रखा था - वह स्त्री-सुलभ संकोच और लज्जा - जो प्रत्येक स्त्री के बंधन और दमन के कारण हैं - को भी त्याग रही थी। 'औरतपने' के बंधन से मुक्ति की भूमिका ही तो थी यह - शरीर के मोह से मुक्ति - अनंत आकाश में विचरण की स्वच्छंदता - अब मुझे अपने-आपको उसके शरीर का अंत, जीवन का अंत देखने के लिए तैयार करना होगा। इससे पहले मैं जब कहती, 'अरे उसकी तो मरने की उम्र हो चली है' तो खुद को समझाने के लिए कहती - उसमें मामन से विलगाव की व्यंजना नहीं होती। पहली बार, उसकी कल्पना, 'मृत शरीर' के रूप में मूर्तिमान हो उठी और वह वाक्य - मेरा खुद का वाक्य, अर्थवान हो कर भीतर तक, गहरे धँसता चला गया।
अस्पताल में नर्सों, परिचारिकाओं का व्यवहार बहुत अच्छा था, कम से कम डॉक्टरों की अपेक्षा। नर्सें आत्मीयता से पेश आतीं, और मामन का हौसला बढ़ातीं। एक्सरे करने के पहले उसे बेरियम मिल्क पिलाया जाता, जिसे वह बिल्कुल पसंद नहीं करती। वह हमेशा भोजन के बारे में चर्चा करती, बिल्कुल बच्चों की तरह - मुझे अजीब-सा लगता। पेट और फेफड़ों की एक्सरे रिपोर्ट सामान्य आने पर वह संतुष्ट दिखाई दी। धुले कपड़े पहने, वर्ग पहेलियाँ सुलझाती, किताबें पढ़ती, 'वाल्टेयर इन लव' और 'जीन द लेटी' की ब्राजील यात्रा का वृत्तांत उसने इसी दौरान पढ़ डाला। मिलने, हाल-चाल पूछने बहुत-से लोग आते, कमरा फूलों, चाकलेट के डिब्बों और उपहारों से भर जाता, उसे यह सब अच्छा लगता। नर्सिंग होम में लोगों के आकर्षण का केंद्र थी, खूब बातें करती, यहाँ से जाना उसके लिए अकल्पनीय था। एक नर्स, जो उससे हमेशा यहाँ से जाने के बारे में पूछा करती, उस पर कुपित रहती। उसे डर था कि अगर वह ठीक हो गई तो घर वापस लौटना पड़ेगा, जहाँ वह बिल्कुल अकेली रहेगी। नर्सिंग होम के सुविधाजनक दिन उसे रास आ रहे थे। मैंने बताया कि नर्सिंग होम से निकलने पर 'ऐई' (पेरिस का एक उपनगर) में हम किराए का घर लेंगे, जहाँ वह खुली धूप में किताबें पढ़ेगी और सिलाई-बुनाई करेगी और जीवन के दिन आराम से गुजार सकेगी। वह आश्वस्त हो बोली - ''अब तक तो मैं सिर्फ दूसरों के लिए ही जीती आई। इसके बाद सिर्फ अपने लिए जीना चाहती हूँ।''
एक अन्य युवा डॉक्टर मामन के पेट का एक्सरे दुबारा करना चाहते थे। मुझे तीन-चार दिनों के लिए बाहर जाना पड़ा, लौट कर देखा मामन अत्यंत दुर्बल और बीमार दीख रही थी। उसकी आवाज खरखरा रही थी - ''उन्होंने मुझे समूचा निचोड़ लिया।'' एक्सरे के चौबीस घंटे पहले से उसे खाली पेट रखा गया था। वह चिंतित और भयभीत थी। रात को, पपेट पेरिस आनेवाली थी। घर लौट कर मुझे फोन पर सूचना मिली - मामन की रिपोर्ट चिंताजनक है, छोटी आँत में एक ट्यूमर है। मामन को कैंसर था।
कैंसर! तो यह कैंसर था! मामन की गिरती तबीयत, आँखों के गिर्द काले साए! लेकिन हम इतने दिनों से डॉक्टरों के पास दौड़ रहे थे, सब ने कैंसर की आशंका से भी इनकार किया था। आँतों की कमजोरी, कब्ज, गठिया आदि की दवाएँ चलती रहीं, लेकिन अंतत: निकला 'कैंसर' - लाइलाज रोग, जिसे मेरा मन स्वीकार करने को प्रस्तुत नहीं। 'कैंसर' - जिस रोग से वह जीवन भर डरती रही। तीस साल पहले वह छाती के बल गिर गई थी, तब से वह कहा करती -''अब मुझे छाती में कैंसर हो जाएगा।'' एक मित्र के पेट के कैंसर का ऑपरेशन हुआ था, तो मामन बोली - ''मेरे साथ भी यही होनेवाला है।'' मैंने बेपरवाही से कहा था - ''कब्ज और कैंसर में बहुत अंतर होता है, तुम्हारे लिए तो इमली की जेली ही काफी है।'' क्या पता था मामन की दुराशंका ही सच निकलेगी। वह अपने शरीर की बदलती गंध से कैंसर को पहचान गई थी।
पपेट - उसे कैसे बताऊँ। वह मेरी अपेक्षा मामन के ज्यादा करीब थी। वह बुधवार 6 नवम्बर का दिन था, गैस, बिजली, परिवहन की सार्वजनिक हड़ताल थी, अस्पताल से फोन आया कि मामन ने रात भर कै की है और शायद अधिक दिन न जी पाएगी। वहाँ पहुँच कर देखा पपेट आ चुकी है, रो-रो कर बेहाल है और नया डॉक्टर मामन की नाक में नली लगा कर पेट की सफाई कर रहा है। पपेट की गुजारिश थी, ''मामन तो वैसे ही मरनेवाली है, तो उसे और तकलीफ देने से क्या लाभ!'' मैंने, उस सपाट, प्रतिक्रियाहीन चेहरेवाले युवा डॉक्टर की ओर देखा, जिसके लिए मामन मनुष्य नहीं बल्कि परीक्षण की वस्तु थी। ''जब कैंसर का पता चल ही गया है, और उम्मीद की कोई किरण भी बाकी नहीं तो उसे इतनी यंत्रणा देने से क्या लाभ?'' ''जो करना चाहिए मुझे, वही कर रहा हूँ...'' रूखा उत्तर मिला।
मामन का बिस्तर फिर से पुरानी जगह पर खिसका दिया गया था। उसकी बाईं ओर इन्ट्रावेनस ड्रिप, नाक में पारदर्शी नली, जिसका दूसरा सिरा एक बड़ी-सी मशीन से हो कर शीशे के मर्तबान में डला हुआ था। मामन ने धीमी आवाज में बताया कि ट्यूब से कोई खास दिक्कत नहीं है, लेकिन उसे बड़ी प्यास लग रही है। नर्स होंठों को थोड़ा-सा गीला-भर कर दे रही थी। मामन पानी की बूँद को चाटने के लिए होंठों को गोल कर ले रही थी। मुझे उसके गोल होंठ देख कर याद आया कि जब भी वह शर्मिंदा होती थी, यूँ ही होंठों को गोल कर लिया करती थी। डॉक्टर ने जार में भरते जा रहे पीले लिसलिसे पदार्थ की ओर इंगित करते हुए कहा - ''क्या आप चाहती हैं कि मैं ये सारा कचरा इनके पेट में ही छोड़ दूँ?'' मैंने कोई उत्तर नहीं दिया। डॉक्टर का कहना था शाम तक मामन के पास बमुश्किल चार घंटे की जिंन्दगी बची थी, उसने उसे पुनर्जीवन दे दिया।
''जीवन... किसलिए?'' उसकी ओर देख कर पूछने का साहस मैं जुटा नहीं पाई।
विशेषज्ञों से सलाह-मशविरे का दौर चलता रहा। सूजे हुए पेट और दर्द से कराहती रही मामन। राहत के लिए मारफीन के इंजेक्शन दिए जाते, लेकिन उसकी भी तो एक सीमा थी। ज्यादा मारफीन उसकी आँतों को सुन्न कर सकता था। डॉक्टर मामन के ऑपरेशन का विचार कर रहे थे। सर्जन का कहना था रोगी बहुत कमजोर है अत: ऑपरेशन तत्काल संभव नहीं। एक बुजुर्ग और अनुभवी नर्स गोन्ट्राँ के मुँह से अचानक निकला - ''उसे ऑपरेशन से दूर रखो।'' मेरे बार-बार कारण पूछने पर भी वह चुप रही और मैं सोचती रही आखिरकार नर्स ने ऐसा क्यों कहा!
पाँच बजे शाम को पपेट ने मुझे सार्त्र के घर फोन किया। वह आशान्वित थी - ''सर्जन ऑपरेशन करना चाहते हैं। खून की रिपोर्ट ठीक-ठाक है। डॉक्टर का कहना है मामन ऑपरेशन झेल लेगी। और वैसे भी, यह तो पक्का नहीं कि उसे कैंसर ही है, हो सकता है यह सिर्फ पेरिटोनाइटिस (पेट की झिल्ली का रोग) हो। क्या तुम सहमत हो?''
मैंने कहा तो कि 'मैं सहमत हूँ' लेकिन कानों में नर्स की चेतावनी गूँज रही थी - ''उसका ऑपरेशन मत कराओ।'' ''तुम दो बजे तक आ जाओ। मामन को ऑपरेशन के बारे में नहीं बताएँगे, कहेंगे कि उसका एक्सरे लिया जाना है।''
उन्हें आपरेशन मत करने दो -
विशेषज्ञों, डॉक्टरों के ठोस निर्णय के विरुद्ध एक रुँधा, टूटा-सा प्रतिवादी स्वर कानों में फिर गूँज गया। बहन की आशाओं का मद्धिम प्रतिवाद भी नहीं कर सकी, बावजूद यह जानने के, कि संभव है यह मामन की अंतिम नींद हो !
तो...तो क्या बीमारी इतनी बढ़ गई कि तुरंत ऑपरेशन जरूरी है? ऐसा तो नहीं कि मामन मौत के बहुत करीब है? या... या इस ऑपरेशन के बाद वह तुरंत मर सकती है - क्या उस नर्स का यही मतलब तो नहीं था?
एक घंटे के भीतर ही पपेट फोन पर सुबकती हुई बोली - ''जल्दी आओ सीमोन! मामन के पेट से कैंसर की बड़ी गाँठ निकली है...।'' मेरे हाथ से रिसीवर छूट गया। सार्त्र ने मुझे सहारा दिया और नीचे आ कर नर्सिंग होम के लिए टैक्सी में बिठा दिया। मेरा गला रुँधा जा रहा था।
नर्सिंग होम पहुँचने पर, व्यथित पपेट को देख जी उमड़ आया। डॉक्टरों ने मामन को स्वाभाविक ढंग से सिर्फ यही बताया कि उसे एक्सरे के लिए ले जा रहे हैं, एनीस्थिसिया के दौरान पपेट उसका दाहिना हाथ थामे रही। पपेट किस मानसिक तनाव से गुजरी होगी, इसका अंदाजा मुझे था। बूढ़ी, थकी, कमजोर, पूरी तरह नग्न स्त्री - जो उसकी माँ थी - उसे देखना और आश्वस्त करना - कितना कठिन रहा होगा यह सब! कुछ देर में मामन की आँखें मुँद गईं और मुँह थोड़ा खुल गया। पपेट कैसे भुला पाएगी वह दृश्य! डॉक्टरों का कहना था पेट में जगह-जगह मवाद जमा बैठा है, झिल्ली फट गई है और एक बड़ी गाँठ है - बहुत ही भयंकर किस्म का कैंसर! सर्जन पेट का वो-वो हिस्सा काट कर अलग कर रहा था, जिसे अलग किया जा सकता था।
युवा डॉक्टर ऑपरेशन की सफलता से आह्लादित था। ऑपरेशन के बाद पैदा होनेवाली दिक्कतों से उसका कोई लेना-देना नहीं था। पपेट ने उससे पहले ही कह दिया था - ''ऑपरेशन कीजिए, लेकिन यदि कैंसर निकला तो वायदा कीजिए आप उसे और यंत्रणा नहीं देंगे, उसे चुपचाप छोड़ देंगे बाकी दिन शांति से जीने के लिए मृत्यु की प्रतीक्षा में।'' सर्जन ने वादा तो किया, लेकिन निभाया क्या?
मामन एनीस्थिसिया के प्रभाव से अभी भी सो रही थी, मोम-सा निष्प्रभ चेहरा, सूखी नाक, मुँह खुला हुआ - मैं घर लौट आई। सार्त्र से बातें कीं, फिर हमने संगीत सुना। अचानक लगभग ग्यारह बजे भीतर से रुदन का आवेग आया, लगा मैं उन्माद के दौर से गुजर रही हूँ। इतना रोई कि खुद पर आश्चर्य हुआ। पिता के मरने पर तो मेरी आँख से एक बूँद आँसू न टपका। मुझे लगा था मामन के वक्त भी मैं रोऊँगी नहीं। पता नहीं, कैसे उस एक रात में, सभी दु:ख बाढ़ की तरह उमड़ आए। पीड़ा, उदासी, यंत्रणा, रुदन - किसी पर मेरा वश नहीं था। जैसे मेरे भीतर ही कोई दूसरी औरत समा गई थी जो चुप होने का नाम ही नहीं ले रही थी, बिलखती जा रही थी अनवरत!
सार्त्र को बताया मैंने सब कुछ - मामन का खुला मुँह - जो सुबह देखा था, अपना लालच - मामन को और जीता देखने का लालच, दीनता, नम्रता, आशा, व्यथा और पीड़ायुक्त मामन का करुण चेहरा, उसके समूचे जीवन का सूनापन, मृत्यु का भय - और न जाने क्या-क्या। सार्त्र का कहना था मैं खुद को मामन समझ रही हूँ, उसकी प्रतिलिपि। उसकी पीड़ा, व्यथा सब अपने ऊपर ओढ़ ली है - मेरे भीतर मेरी माँ ही समा गई है, इसलिए मेरा रुदन मेरे भीतर की मामन का रुदन है।
मुझे नहीं लगता कि मामन का बचपन खुशनुमा रहा होगा। वह बचपन की चर्चा बहुत कम करती। उसकी यादें मधुर न थीं। उसके पिता हमारी लिलि मौसी को मामन से ज्यादा प्यार करते, वह बचपन में गुलाबी खूबसूरत गुड़िया लगती, उसके सामने मामन अति साधारण थी। लिलि मौसी उससे पाँच साल छोटी थी, फिर भी मामन हमेशा उससे ईर्ष्या करती। स्कूल के दिनों में वह मदर सुपीरियर से बहुत प्रभावित थी, पुराने फोटो में अन्य लड़कियों के साथ बंद गले के स्वेटर, लम्बी स्कर्ट और टोपी में मामन भावहीन चेहरे समेत कैद थी। ननों द्वारा थोपे आचार-विचार, नैतिक कायदे-कानून उसने बाने की तरह ओढ़ लिए थे। बीस वर्ष की उम्र में प्रेम की असफलता से उसे गहरा आघात लगा, जिसे वह ताउम्र भुला नहीं पाई।
विवाह के प्रारंभिक वर्षों में उसने शारीरिक, मानसिक और भौतिक रूप से परितृप्त जीवन जिया। पिता के अनेक प्रेम-संबंध थे, फिर भी मामन पति से बहुत प्रेम करती। पिता का विश्वास था कि रखैल और युवा पत्नी से समभाव से प्रेम करना चाहिए। मामन उनके संबंधों के बारे में जान गई थी। वे कई बार उसे प्रताड़ित भी करते, लेकिन वह किसी के सामने वास्तविकता जाहिर नहीं करती। याद है एक सुबह - मैं छह या सात वर्ष की रही होऊँगी - मामन कारीडोर के लाल कालीन पर नंगे पाँव, सफेद गाउन में चल रही थी, मैं उसका आह्लादित मुख देखती ही रह गई। उसकी मुस्कान में एक रहस्य था - जिसे मैं आज तक भूल नहीं पाई - वह रहस्य उस शयनकक्ष से जुड़ा था, जिससे वह अभी-अभी निकल कर आ रही थी। वयस्क होने पर ही मैं उस परितृप्त स्त्री की आह्लादित रहस्यमयी मुस्कान का अर्थ समझ पाई - जो मेरी माँ थी।
पिता स्वार्थी थे, मामन उदार। मामन को बहुत-सी इच्छाएँ पति के कारण दबानी पड़तीं। वे अहम्मन्य और कड़े स्वभाव के थे। नाना के दिवालिया हो जाने के कारण उन्हें शादी में वायदे के अनुरूप दहेज नहीं मिला था, मामन को ताजिंदगी इसका अपराधबोध रहा, इसलिए और ज्यादा क्योंकि पिता ने इसके लिए पत्नी को कभी जिम्मेदार नहीं ठहराया।
इन सबके बावजूद वह अपने वैवाहिक जीवन, खूब प्यार करनेवाली दो बेटियों और थोड़ी समृद्धि से - कम से कम युद्ध समाप्त होने तक, संतुष्ट थी। उसे अपने भाग्य से कोई खास शिकायत नहीं थी। मिलनसार, हँसमुख, स्नेही मामन - जिसकी मुस्कान बहुत अच्छी लगती।
बचपन की कई स्मृतियों को भुलाना संभव नहीं। मामन की खुशियाँ भी थोड़े दिन की ही थीं। हनीमून के दौरान ही पिता का स्वार्थीपन उसने देख लिया, वह इटली की झीलें देखना चाहती थी, वे नाइस से आगे गए ही नहीं, क्योंकि वहाँ घुड़दौड़ का मौसम शुरू हो गया था। मामन को घूमना बहुत पसंद था - 'मुझे खानाबदोश होना चाहिए था' वह कहती। वोस्गास से लग्जमबर्ग तक के रास्ते पर पैदल या साइकिल यात्रा का आयोजन उसके पिता किया करते - यह मामन के बचपन के सबसे खुशनुमा दिन थे। ऐसी कई चीजें उसे छोड़नी पड़ीं जिनका सपना वह बचपन से देखती आई थी। पिता की इच्छा सर्वोपरि थी। जिन सहेलियों के पति मेरे पिता को उबाऊ लगते, मामन को उन सहेलियों से मेल-मिलाप बंद कर देना होता। पिता को ड्राइंगरूम या मंच पर अभिनय करना पसंद था, यानी, पिता हमेशा आकर्षण का केंद्र बने रहना चाहते। वह प्रसन्नतापूर्वक पति का अनुगमन करती। उसे सामाजिक मेलजोल पसंद था, लेकिन वह इतनी आकर्षक और हाजिरजवाब नहीं थी। पैरिसियन समाज के लोग उसे गँवार समझते और मुस्कराते। वहाँ वह जिन औरतों से मिलती उनमें से कुछ के मेरे पिता से प्रेम संबंध थे। मैं कनफुसकियों, चुगलियों और धोखेबाजियों का अनुमान लगा सकती हूँ। पिता की मेज पर उनकी एक भूतपूर्व सुंदर और मेधावी प्रेमिका की फ्रेम जड़ी तस्वीर रखी थी, जो कभी-कभी अपने पति के साथ घर पर आती थी। तीस वर्ष बाद उन्होंने हँसते हुए मामन से कहा था - तुम उस तस्वीर की वजह से मुझसे दूर हो गयीं। उसके इनकार पर उन्हें विश्वास नहीं हुआ। यह बात तो तय है कि मामन ने प्रेम और विवाह - दोनों में बहुत झेला, वह भावुक और हठी थी इसलिए उसके घाव धीरे-धीरे भरे।
यह कितना दयनीय है कि उसने अपने ऊपर उन पुराने मूल्यों को लादा, जिन्होंने उसे अपने बारे में, स्वतंत्र अस्तित्व के बारे में सोचने से रोका। जो काम उसने आगे चल कर, बीस साल बाद किया - यानी आर्थिक स्वावलंबन की चेष्टा - वह तो पहले भी किया जा सकता था, क्योंकि उसकी याददाश्त अच्छी थी, वह कहीं निजी सहायक या क्लर्क हो सकती थी, घर का काम खुद कर के, स्वयं को हीन समझने के बजाय बाहर काम कर के आत्मसम्मान को बनाए रखने में सफल हो सकती थी। उसके अपने निजी संपर्क हो सकते थे, वह परंपराबद्ध आश्रिता स्त्री की भूमिका से निकल कर स्वतंत्र व्यक्त्विशालिनी बन सकती थी। इसमें संदेह नहीं कि यदि वह ऐसा करती तो वह अपने भीतर की अनेक कुण्ठाओं से बच सकती थी।
मैं अपने पिता को दोष नहीं देती। यह एक कड़वा सच है कि पुरुष की इच्छाएँ क्षणभंगुर होती हैं। मामन ने यौवन की ताजगी खोई और पति ने ललक। मामन की आत्मा बड़ी आकुलता से पति से अपने प्रेम का प्रतिदान चाहती, लेकिन पति 'कैफे दी वैरिली' की युवतियों का सहारा लिया करता। मैं देखती, वे कई बार पूरी रात बाहर गुजार कर सुबह आठ बजे घर आते, शराब पी कर बड़बड़ाते और ऊटपटाँग किस्से सुनाते। मामन कभी कोई काण्ड नहीं करती, बल्कि उन किस्सों पर विश्वास कर लिया करती। लेकिन इस आपसी दूरी को वह मन से कभी स्वीकार नहीं कर सकी । मामन की स्थिति देख कर काफी हद तक मेरा विश्वास पुख्ता हो गया था कि बुर्जुआ विवाह संस्था बेहद अस्वाभाविक है। उँगली में पहनी विवाह की अँगूठी उसके सुखमय वैवाहिक जीवन का प्रमाण थी, उसकी इंद्रियाँ तृप्त होने के लिए व्याकुल थीं, पैंतीस वर्ष की अवस्था, यौवन के चरम समय में वह इंद्रियों को संतुष्ट करने के लिए स्वतंत्र नहीं थी। वह ऐसे आदमी के बगल में सोती रही, जिससे वह प्यार करती थी और वह जो उससे अब कभी प्यार जतलाता तक नहीं था। उसने प्रतीक्षा की, लालायित हुई, पर सब व्यर्थ। अपने ऊपर पूरी तरह संयम रखना उसके आत्मसम्मान के लिए, संकीर्ण सोच से ज्यादा आसान होता। मुझे आश्चर्य नहीं कि वह उससे चिड़चिड़ी हो गई, मारपीट, कांड, शिकायतें अकेले में ही नहीं, मेहमानों के सामने भी चलने लगीं। 'फ्रैंकोइस से विरक्ति होने लगी है,' मेरे पिता कहा करते। उसे खुद लगता कि वह अपने भावावेगों पर नियंत्रण नहीं रख पा रही है। परंतु उस दिन वह बुरी तरह आहत हुई जब सुना कि लोग कह रहे हैं कि 'फ्रैंकोइस बहुत निराशावादी है!' या 'फ्रैंकोइस विक्षिप्त हो रही है।'
युवावस्था में वह तरह-तरह के कपड़े पहनना पसंद करती थी। लोग जब कहते थे कि वह तो मेरी बड़ी बहन जैसी दीखती है, उसका चेहरा दीप्त हो उठता। पिता के एक चचेरे भाई जो सेलो बजाते थे, मामन पियानो पर जिनकी संगत कर चुकी थी, मामन के प्रति आदरपूर्ण अनुरक्ति दिखाते। उनकी शादी के बाद मामन ने उनकी पत्नी के प्रति नफरत जताई। यौन जीवन और सामाजिक मेल-जोल गड़बड़ा जाने के बाद मामन ने अपने कपड़ों, रूप-रंग पर ध्यान देना बंद कर दिया। अब वह अति महत्वपूर्ण अवसरों पर ही अच्छे कपड़े पहनती, वहीँ जाती, जहाँ जाना अनिवार्य होता। मुझे याद है एक बार छुट्टियों से लौटते हुए वह हमें स्टेशन पर मिली। उसने एक सुंदर मखमली टोपा, जिसमें छोटी-सी झालर थी, पहना था, थोड़ा पाउडर भी लगाया हुआ था। मेरी बहन खुश हो कर चिल्लाई, 'मामन, तुम बिल्कुल फैशनेबल लेडी दीखती हो!'' वह ठठा कर हँसी, अब उसने गरिमापूर्ण व्यवहार का दंभ छोड़ दिया था। उसने स्वयं और अपनी बेटियों को साफ-सुथरा रहना सिखाया था - ठीक वैसे ही जैसा उसने कान्वेंट में सीखा था। अभी तक उसमें खुशामद करने-करवाने की इच्छा बाकी थी। खुशामदियों को वह नखरे और चोंचले भी दिखाती। पिता के मित्र ने अपनी लिखी किताब (जो उन्होंने खुद छपवाई थी) मामन को समर्पित की। ''फ्रैंकोइस द बोउवार जिसके जीवन का मैं प्रशंसक हूँ'' - यह एक श्लिष्ट और द्वयर्थक प्रशंसा थी, लेकिन मामन ने इससे बहुत गौरवान्वित अनुभव किया। उसने दूसरों से पाई प्रशंसा में अपने को भुला दिया।
शारीरिक आनंद से वंचित, आत्मप्रदर्शन के संतोष से भी वंचित, थकाऊ और उबाऊ अपमानजनक काम करने को विवश इस गर्वीली और हठी स्त्री ने कभी हार नहीं मानी। भावावेग और क्रोध के दौरों के बीच वह गाया करती, गप्पें मारती, चुटकुले सुनाती और मन में भरी शिकायतों के अंबार को शोर में डुबो देती। पिता की मृत्यु के बाद मेरी एक आंटी के कहने पर कि ''वह एक आदर्श पति नहीं था'' मामन बिफर पड़ी। 'उन्होंने मुझे हमेशा खुश रखा', यही बात तो वह खुद से भी कहती आई थी, लेकिन यह जबरन का आशावाद उसकी भूख मिटाने के लिए काफी नहीं था, उसे अपने ऊपर निर्भर बच्चों का पेट भरना था। 'कम से कम इतना तो है कि मैं आत्मकेंद्रित कभी नहीं रही, हमेशा दूसरों के लिए जी' - एक बार उसने मुझ से कहा था। इससे दूसरों पर जरूर प्रभाव पड़ा होगा, लेकिन दूसरे यानी मैं और पपेट इसके बारे में क्या सोचते हैं - यह मामन के लिए महत्वपूर्ण नहीं था, वह एकाधिपत्य चाहती थी। ऐसा संभव नहीं हो पाया क्योंकि बड़े होते ही हमने अपने-अपने एकांत और स्वतंत्रता का चयन कर लिया। मामन की दखलअंदाजी और बेटियों का निजी स्पेस - दोनों में टकराहटें भी हुईं और इससे पहले कि वह खुद को समझा पाती हम दोनों, उससे परे अपनी स्वतंत्र इयत्ताओं की खोज में निकल चुके थे।
फिर भी, वह सबसे ज्यादा ताकतवर थी, उसकी इच्छाओं की ही विजय होती। घर में, हमें हमेशा अपने-अपने कमरे का दरवाजा खुला रखना होता, ताकि वह बैठी-बैठी हम पर नजर रख सके। रात को, पपेट और मैं गप्पें लड़ाते, एक बिस्तर से दूसरे पर जाते बोलने-बतियाने। मामन हमारे कमरे की दीवार से कान लगाए बातें सुनती और कहती - 'चुप रहो'। वह हमें तैरना नहीं सीखने देती, पिता को हमें साइकिल खरीद कर देने से मामन ने ही मना किया। वह मेरे और पपेट के बीच की हर बात जानना चाहती, हमारे कार्यकलाप में हिस्सा लेना चाहती। ऐसा नहीं कि उसके पास अपना 'निजी' कुछ नहीं था, पर वह अकेली छूटना नहीं चाहती थी। वह जानबूझ कर हमारी हर बात में टाँग अड़ाती, जानते हुए कि हमें कई बार उसकी उपस्थिति पसंद नहीं आती। एक रात 'द ग्रिलर' में हम सब चचेरे-ममेरे भाई-बहन इकट्ठा हुए और मैंने किचन में क्रेफ्रिश पकाने की योजना बनाई। ऐन वक्त मामन आ धमकी। वहाँ लड़के-लड़कियों के अलावा और कोई नहीं था, कोई वयस्क नहीं, ऐसे में मामन का अचानक आना अजीब-सा लगा - 'तुम्हारे साथ भोजन करने का मुझे पूरा अधिकार है' - कह कर उसने सब के उत्साह पर पानी उड़ेल दिया। एक बार हमारे चचेरे भाई जैक्स के साथ मेरा और पपेट का 'सैलून द आटम' के पास मिलने का कार्यक्रम तय हुआ। मामन ने हमें अकेला नहीं छोड़ा, वह भी हमारे साथ गई, जैक्स आया ही नहीं। बाद में बताया कि मामन को हमारे साथ, उसने दूर से देख लिया था, सो वापस लौट गया। मामन हमेशा अपनी उपस्थिति जतलाती थी। हम जब भी अपने मित्रों को घर बुलाते मामन टपक पड़ती, उसके आने से दोस्त चुप्पी साध लेते और मामन बोलती जाती। वियेना और मिलान के औपचारिक भोजों में वह स्वयं को बड़े अनौपचारिक ढंग से प्रस्तुत करती और मेरी बहन शर्मिंदा होती।
अपनी उपस्थिति दर्ज करने, खुद को दूसरों पर थोपने के अवसर अनेक नहीं थे, उसके निजी संपर्क बहुत कम बचे थे। जब तक पिता जीवित थे, वे ही हमेशा केंद्र में बने रहते। मामन का यह कहना कि 'यह मेरा अधिकार है' वस्तुत: स्वयं को पुनराश्वस्त करने का प्रयास भर था। कभी-कभी वह आत्मनियंत्रण खो कर कर्कश व्यवहार करती, लेकिन सामान्यत: वह अपमानित होने की सीमा तक दखलअंदाजी करती। मुझे याद है वह मेरे पिता से थोड़े-से पैसों के लिए भी झगड़ती, लेकिन कभी पैसे माँगती नहीं। यथासंभव अपने ऊपर खर्च नहीं करती - बच्चों के खर्चों में भी किफायत करती। उसने पति को पैसा उड़ाते देखा - मूक रही। हर शाम और साप्ताहिक अवकाश को घर से बाहर गुजारते देखा - पर कुछ बोली नहीं। उनकी मृत्यु के बाद जब वह मेरे और मेरी बहन पर आश्रित हुई तब भी उसमें वही झिझक बरकरार रही - दूसरे के लिए कभी परेशानी का कारण न बनने की कोशिश। ऐसा करके वह हमारे प्रति आभार व्यक्त करती थी, क्योंकि भावनाएँ जताने का और कोई तरीका उसके पास नहीं था।
मामन का प्यार हमारे लिए गहन और विशिष्ट था, इस प्यार के कारण हमें जितनी भी पीड़ा मिली वह मामन के व्यक्त्वि के अंतर्विरोधों के कारण थी। वह कभी-कभी आत्महंता-सी भी हो उठती। तीस-चालीस वर्ष पुरानी घटनाएँ और मन पर लगी चोटों को वह बड़ी शिद्दत के साथ याद करती थी, परिणामत: रुक्षता की हद तक खुला व्यवहार और ताने-तिश्ने उसके व्यवहार का अंग बन गए। हमारे प्रति उसका व्यवहार बिल्कुल अविचारित-सा होता। कभी-कभी वह हमें दुखी भी नहीं करना चाहती थी लेकिन स्वयं को अपनी ताकत दिखाना चाहती थी। एक बार पपेट ने मुझे पत्र में अपने किशोर सपनों, आशाओं, आकांक्षाओं, भावनाओं और समस्याओं के बारे में लिखा। उन दिनों मैं जाज के साथ छुट्टियाँ मना रही थी, मैंने भी उसका भावात्मक प्रत्युत्तर दिया, जिसे मामन ने पपेट के सामने खोल कर पढ़ा और बेइंतहा मजाक उड़ाया। पपेट क्रोध और अपमान से सुलग उठी और उसने मामन को कभी भी क्षमा न करने की कसम खाई। रो-रो कर बेहाल मामन ने मुझे पत्र लिख कर कहा कि पपेट के मन में उसके लिए जो कड़वाहट आ गई है उसे भुलाने में मैं मदद करूँ। मैंने यह किया भी।
हम दोनों बहनों के मैत्री संबंध से मामन को ईर्ष्या थी, क्योंकि वह पपेट को पूरी तरह अपने आधिपत्य में रखना चाहती थी। मैं अब उस पर विश्वास नहीं करती - यह सुन कर उसने पपेट से कहा- ''मैं तुम्हें उसके प्रभाव से बचाऊँगी और तुम्हारी रक्षा करूँगी।'' छुट्टियों में उसने हमारे आपस में मिलने पर पाबंदी लगा दी। हम मामन से और वह हमारे पारस्परिक सौहार्द से ईर्ष्या ही करती रही और अंत तक उससे हम अपनी अधिकांश बातें छुपाने की आदी बनी रहीं।
लेकिन कभी-कभी मामन हम पर अपना वात्सल्य भी लुटाती। अनजाने में ही सत्तरह वर्षीया पपेट पिता और उनके परम मित्र अंकल एड्रियन के बीच झगड़े का मुद्दा बन गई थी। मामन ने पति के विरुद्ध जा कर पपेट का पक्ष लिया, क्रोध में पिता ने कई महीने अपनी बेटी से बात नहीं की। बाद में, मामन ने चित्रकार बनने में पपेट की मदद की। रोजी-रोटी के लिए अपनी प्रतिभा का गला दबाने से रोका और भरसक उसका सहारा बनी। याद है, पिता की मृत्यु के बाद उसने मित्र के साथ मुझे यात्रा पर जाने के लिए प्रोत्साहित किया, तब जबकि उसकी एक हल्की उदासी, ठंडी-सी आह भी मुझे यात्रा पर जाने से रोकने के लिए काफी थी।
मामन ने अपने संबंध फूहड़पन के कारण खराब कर लिए थे। इससे ज्यादा दयनीय और क्या हो सकता था कि उसने अपनी ही दो बेटियों को एक-दूसरे से अलग करने की कोशिश की। जैक्स जब भी आता - मामन, मजाक में ही सही, उससे ऐसा व्यवहार करती कि वह चिढ़ जाता। धीरे-धीरे उसने आना बंद कर दिया। जब मैं दादी के घर रहने लगी, वह रोई तो, मगर कोई कांड उपस्थित नहीं किया। शायद आत्मसम्मान ने उसे ऐसा करने से रोका होगा। जब भी मामन के पास जाती, वह शिकायत करती कि मैं परिवार की उपेक्षा कर रही हूँ, जबकि यह सच नहीं था - मैं बार-बार घर जाया करती थी मामन और पपेट से मिलने के लिए। वो कभी मुँह खोल कर कुछ माँगती नहीं थी। इसके पीछे उसका मूल्यबोध हो या स्वाभिमान, लेकिन उसे हमेशा शिकायत रहती थी।
मामन अपनी समस्याओं पर किसी से बात नहीं कर पाती थी, यहाँ तक कि खुद से भी। किसी कार्य के निहित उद्देश्य और अपने निर्णयों पर पुनर्विचार करने की क्षमता उसमें नहीं थी। अधीनस्थता उसकी प्रकृति बन गई थी, लेकिन जिनका आधिपत्य वह ग्रहण करना चाह रही थी, वे खुद इतने ऊँचे नहीं थे कि मामन को अपनी छत्रछाया दे सकें। बचपन में, उसने कान्वेंट में,
लेस आइसिअक्स में, मदर सुपीरियर की छत्रछाया पाई थी - पति और मदर सुपीरियर में कोई मेल नहीं था - फिर भी वह पति की गुलामी करती रही। अधीनता की पीड़ा को मैं समझ गई थी, इसलिए बचपन से आत्मविश्वास पैदा किया और अपने रास्ते पर खुद चली। मामन के लिए यह रास्ता बंद था, वह बहुत-से लोगों से बातचीत कर के एक सामान्य राय कायम करती थी, उसकी याददाश्त बहुत अच्छी थी, चाहने पर वह स्मृति और अर्जित ज्ञान के बल पर अपना व्यक्तित्व बेहतरीन ढंग से निखारने का प्रयास कर सकती थी। पिता की मृत्यु के बाद उसने बुद्धिमत्ता से लोगों से व्यवहार किया। वह उन लोगों से मिलती जो उसके जैसा सोचते-विचारते थे। उसने उन्हें कैथोलिक और इन्टीग्रीट दो खाँचों में बाँट दिया था। परंपरावादी थी वह, फिर भी मेरी राय उसके लिए महत्वपूर्ण थी। पपेट और लॉयनल तथा मेरी आँखों के सामने वह खुद को मूर्ख नहीं दिखाना चाहती थी। इसलिए वह हर बात में हामी भरती और किसी बात से आश्चर्यचकित नहीं होती थी (यदि होती तो दिखाती नहीं थी), इसलिए उसकी दिमागी उलझनें कभी खत्म नहीं हुईं। विगत वर्षों में जब वह अधीनस्थ थी - उस दौरान उसने अपना कोई निजी विचार, सिद्धांत कायम नहीं किया, अपनी अवधारणाओं को भी व्यक्त नहीं कर सकी, यही उसकी व्यग्रता और बेचैनी का कारण था।
स्व के विरुद्ध विचार करना कई बार अच्छे परिणाम भी सामने लाता है, लेकिन मामन के लिए प्रश्न दूसरा था - उसने तो वही जीवन जिया था जो उसके खुद के खिलाफ था। इच्छाएँ, लालसाएँ अनन्त थीं, जिन्हें दबाया और कुचला - जिन्होंने बचपन में क्रोध का रूप धारण कर लिया। बालपन में उसके तन, मन और मस्तिष्क - तीनों को सिद्धांत और नैतिकता के चौखटे में फिट करने के लिए निचोड़ा गया। उसे खुद से भी अपनी इच्छाओं को कहने से रोका गया, नैतिकता, मर्यादा के धागों से कसना सिखाया गया। रक्तमज्जा से बनी एक जीवंत स्त्री उसी के भीतर जीती रही, स्वयं से अपरिचित, विखंडित और विकृत।
सुबह उठते ही मैंने बहन को फोन किया। मामन को मध्य रात्रि में ही ऑपरेशन के लिए ले जाया गया था। उसे अपने ऑपरेशन के बारे में पता चल गया था पर उसने कोई आश्चर्य व्यक्त नहीं किया। मैंने नर्सिंग होम के लिए टैक्सी ली, वही यात्रा, वही नीला निरभ्र आकाश, वही नर्सिंग होम। लेकिन मुझे दूसरी मंजिल पर जाना था, पहले मामन को जिस मंजिल पर रखा गया था वहाँ पर 'अंदर आना मना है' की तख्ती लटका दी गई थी और बिस्तर पहलेवाली जगह पर खिसका दिया गया था। ऑपरेशन थियेटर-वाले हॉल को पार कर के, सीढ़ियों को जितनी जल्दी और साथ ही जितनी देर में हो सका पार करके, मैं मामन के इस कमरे में पहुँची जहाँ उसे ऑपरेशन के बाद वापस ले आया गया था। कमरा वही था, दृश्य बदल गया था। मिठाई के डिब्बे और किताबें रैक पर रख दिए गए थे, किनारे की बड़ी मेज पर पहले की तरह फूलों के गुच्छे नहीं थे, उनकी जगह बोतलों और परखनलियों ने ले ली थी। मामन सो रही थी, नाक और मुँह में कोई नली नहीं थी, जिससे अब उसकी ओर देखना कम पीड़ादायक था। बिस्तर के नीचे पेट और आँतों से जुड़ी नलियाँ और जार दीख रहे थे, बाईं बाँह में ड्रिप लगी हुई थी। उसके शरीर पर कोई कपड़ा नहीं था, जैकेट उसकी छाती पर रखी हुई थी, निरावृत्त कंधे दिखाई दे रहे थे। अत्यंत शालीन प्राइवेट नर्स मादामोसाइले लेबलोम, जिसने सिर पर स्कार्फ बाँध रखा था, ड्रिप की जाँच की और फ्लास्क को हिलाया-डुलाया ताकि प्लाज्मा उसमें जम न जाए। प्रो. बी ने पपेट को बताया कि मामन कुछ हफ्ते या कुछ महीने और जी सकती है और अगर कुछ महीने बाद रोग किसी और अंग में उभरा तब हम मामन से क्या कहेंगे - पपेट का सवाल था। ''चिंता मत करो, हम कुछ न कुछ कह देंगे, हम हमेशा ऐसा करते हैं और रोगी हम पर विश्वास भी कर लेता है।'' प्रो. बी ने समाधान किया।
शाम को मामन कुछ होश में आई, अस्पष्ट स्वर में कुछ बोली, जिसे समझना मुश्किल था। मैंने कहा - ''तुम्हारी टाँग टूट गई और डॉक्टरों ने तुम्हारे अपेंडिसाइटिस का ऑपरेशन कर दिया...''
उसने उँगली उठाई - फुसफुसी आवाज में बोली - अपेंडिसाइटिस नहीं पेरिटोनाइटिस...
क्या? पेरिटोनाइटिस?
हाँ...
इस क्लीनिक में आने से वह बच पाई तो धोखा शुरू हो गया था - मामन नहीं जानती थी कि उसे कैंसर है, वह खुश थी कि अब कोई ट्यूब उसके शरीर से नहीं लगी थी।
पेट की गंदगी बाहर निकल जाने से सूजन कम हो गई थी और अब दर्द भी नहीं था। अपनी दोनों बेटियों को बिस्तर के पास देख कर वह सुरक्षित अनुभव कर रही थी। डॉ. पी. और डॉ. एन. मामन की प्रगति से आश्वस्त थे - 'मरीज ने आश्चर्यजनक प्रगति दिखाई है।' वास्तव में यह अचंभे में डालनेवाली बात थी। कल तक की जराजीर्ण, गठरी-सी बुढ़िया वापस जीवन की ओर लौट रही थी।
शंताल की लाई वर्ग पहेली की किताब मैंने मामन को दिखाई। मामन ने तुरंत नर्स को बताया - मेरे पास नई द राउजे डिक्शनरी है, मैं उस में से देख कर ये सारी वर्ग पहेलियाँ सुलझा लेती हूँ। वह डिक्शनरी उसकी अंतिम इच्छित वस्तुओं में से एक थी। मैंने उसे ला कर देने का वायदा किया।
''और हाँ, वो उपन्यास 'एडिपे' भी लाना - वह तो मुझे मिला ही नहीं।''
मामन की आवाज सुनने के लिए बहुत धैर्य और एकाग्रचित्तता की जरूरत थी, वह बमुश्किल बोल पा रही थी, शब्द अनसुने ही हवा में विलीन हो जाते थे। उसकी स्मृतियाँ, इच्छाएँ समय और काल से परे थीं। मौत का नैकट्य और बच्चों-सी आवाज में इच्छाओं की अभिव्यक्ति उसे किसी अन्य लोक का प्राणी बना रहे थे।
लेटे-लेटे ही नली के द्वारा कुछ बूँदें उसके गले में डाली जातीं, वह कागज के नैपकिन में थूकती जो नर्स उसके मुँह के पास ला कर लगा देती। मादामोसाइले लौरेन्ट उसको सीधा लिटा देती, क्योंकि बीच-बीच में खाँसते-खाँसते मामन दोहरी हो जाती। आज मामन के चेहरे पर चार दिनों के बाद हँसी देखी।
पपेट नर्सिंग होम में मामन के साथ रात में रुकना चाहती थी - ''दादी और पापा के अंतिम समय में तुम उनके पास थीं, मैं तो बहुत दूर थी, अब मामन के अंतिम वक्त में उसके पास सिर्फ मैं रहूँगी और उसकी देखभाल करूँगी।'' मैं राजी थी, लेकिन मामन ने हतप्रभ हो कर पूछा - ''तुम यहाँ किसलिए सोओगी?''
'जब लॉयनल का ऑपरेशन हुआ था, तो मैं ही उसके कमरे में सोई थी, इसमें चौंकने की क्या बात है?''
'अच्छा, ऐसा है।'
घर पहुँचते-पहुँचते मुझे कँपकँपी के साथ बुखार आ गया। क्लीनिक के भीतर बहुत गर्मी थी और उसके मुकाबले बाहर नमी भरी ठंड थी, नतीजतन मुझे फ्लू हो गया। मैं दवा ले कर बिस्तर पर लेट गई, फोन बंद नहीं किया : मामन किसी भी क्षण मर सकती थी, डॉक्टरों का कहना था - मोमबत्ती की डूबती हुई लौ है अब मामन की जिंदगी। भोर में चार बजे घंटी बजी - 'तो मामन चली गई।'- फोन उठाया, स्वर अपरिचित था, कोई राँग नम्बर था। फिर सूर्योदय तक नींद नहीं आई। लगभग साढ़े आठ बजे टेलीफोन बजने पर मैं दौड़ी। किसी और ने यूँ ही फोन किया था।
जब से मामन का ऑपरेशन हुआ था - हर क्षण कानों में यही गूँजा करता था -
'यह अंत है! यह मामन का अंत है।'
मामन को लगता था वह ठीक हो जाएगी। उसने डॉक्टरों की आपसी बातचीत सुनी थी। एक ने कहा था - 'यह आश्चर्य की बात है।'- मामन को बहुत कमजोरी थी। और खुद भी वह थोड़ी-सी भी मेहनत नहीं करना चाहती थी, वह चाहती थी कि ताजिंदगी नली से तरल पदार्थ उसके पेट में उतरता रहे।
'मैं अब कभी नहीं खाऊँगी।'
लेकिन तुम्हें तो खाना बहुत पसंद था।
मादामोसाइले लेबलोन कंघी ले कर मामन के बाल सुलझाने बैठी, मामन ने दृढ़ता से आदेश दिया - 'इन्हें काट कर फेंक दो।' शायद वह बालों को काट कर फेंकने से अपने आराम को जोड़ कर देख रही थी। अब आराम उसके लिए सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण था, उसके आगे केश-सज्जा का क्या काम था। नर्स ने चुपचाप बाल सुलझा कर चोटी बाँध दी और सिर पर चाँदी के रंग का रिबन बाँध दिया। मामन का निश्चिन्त चेहरा एक अप्रतिम पवित्रता से दमकने लगा। मुझे लगा यह लियोनार्डो की बनाई हुई खूबसूरत वृद्ध स्त्री की पेंटिंग है।
'तुम बहुत सुंदर हो।'
वह मुस्कुराई, 'मैं कुरूप कभी नहीं थी,' लगभग रहस्यमयी आवाज में वह नर्स को बताने लगी - 'जवानी के दिनों में मेरे बाल बड़े सुंदर थे, जिन्हें मैं जूड़े में बाँधा करती,' वह बहुत देर तक खुद के बारे में ही बात करती रही। कैसे उसने लाइब्रेरियन का डिप्लोमा लिया, पुस्तक-प्रेम वगैरह। नर्स ग्लूकोज और अन्य जरूरी पोषक पदार्थों का मिश्रण तैयार कर रही थी 'ये तो पौष्टिक काकटेल था,' - मैंने लक्ष्य किया।
मैं और पपेट पूरे दिन मामन को भावी योजनाओं के बारे में बताते रहे, वह आँखें मूँदे चुपचाप सुनती रही। अल्सेस में पपेट और उसके पति ने अभी-अभी एक पुराना फार्म हाउस खरीदा था। अब वे उसे सजाने और व्यवस्थित करने जा रहे थे। मामन वहीं जा कर रहेगी - उसके पास बड़ा निजी कमरा होगा जहाँ वह पूरी तरह स्वास्थ्य-लाभ कर सकेगी।
'लॉयनल ऊब तो नहीं जाएगा, अगर मैं बहुत लंबे समय तक वहाँ रही?'
'नहीं, वहाँ तो खूब सारी जगह है - तुमसे उन्हें क्या परेशानी होगी? शरबर्जन तो बहुत छोटा था ना, वैसी परेशानी अल्सेस में नहीं होगी।'
फिर हम मेरीगेन के बारे में बातें करने लगे! मामन विगत यौवन की स्मृतियों में खो गई। स्मृतियों ने उसे चैतन्य कर दिया। जीन को वह बहुत चाहती थी जिसकी सुंदर-सुंदर तीन बेटियाँ थीं।
'मुझे नातिनों का बड़ा शौक था और उन बच्चियों की नानी नहीं थी, सो मैं उनकी नानी बन गई।'
वह ऊँघ रही थी। मैं अखबार पढ़ने लगी। आँखें खोल कर उसने पूछा - शैगन में क्या हो रहा है? मैं समाचार सुनाने लगी, इतने में डॉक्टर पी. आए जिनसे उसने कहा- 'मुझे मालूम है मेरी पीठ का ऑपरेशन हुआ है।' हँसते हुए डॉ. पी. की तरफ देख बोली - 'यही हैं जिम्मेदार।' मैंने सुना कि डॉ. पी. ने उससे थोड़ी देर बातचीत की। मैंने मजाक में कहा - 'तुम वास्तव में विशिष्ट हो। तुम यहाँ अपनी जाँघ की हड्डी ठीक कराने आई और उन्होंने पेरिटोनाइटिस का ऑपरेशन कर डाला।
'बिल्कुल सही कहा, मैं असाधारण स्त्री हूँ।'
हम काफी दिनों तक इस बात पर मजाक करते रहे - प्रो. बी. पैर का ऑपरेशन करने आए लेकिन डॉ. पी. ने पेरिटोनाइटिस का ऑपरेशन कर डाला।
और जिस दिन मामन ने स्पर्श अनुभव करना शुरू किया, वह दृश्य हम सबके दिलों को छू गया। अठहत्तर वर्ष की उम्र में रूप, रस, गंध, स्पर्श को नए सिरे से अनुभव करना वैसा ही था जैसे पुनर्जन्म लेना। हुआ यों कि नर्स द्वारा तकिए को ठीक-ठाक करने के क्रम में ट्यूब का धातुवाला हिस्सा उसकी जाँघ से छू गया - 'ये शीतल है, बिल्कुल शीतल, कितना अच्छा लग रहा है।' यूडीकोलोन और टेल्कम पाउडर की गंध को सूँघ कर बोल उठी - 'कितनी सुगंध!' पहिएदार मेज पर फूलों का गुच्छा रखा गया, गुच्छे में गुँथे गुलाबों को देख बोल उठी - मेरीगेन में इस मौसम में भी गुलाब मिल रहे हैं! ये वहीं के हैं। उसने खिड़की से पर्दे खिसका देने को कहा ताकि वह वृक्षों के सुनहरे पत्तों को देख सके। 'कितना खूबसूरत! अपने फ्लैट से तो मैं उन्हें कभी देख नहीं पाती। वह मुस्कुराई - यह वही मुस्कान थी, जिसे हमने बचपन में उसके चेहरे पर देखा था। वह कांतिमयी - युवा मुस्कान! ये अब तक कहाँ थी?
यदि वह ऐसे ही खुश रहना चाहती है, यदि उसके जीवन के कुछ ही दिन बचे हैं तो उसे खुश होने देना चाहिए। जीवन के इन अंतिम दिनों में हम उसे इतनी खुशी तो दे ही सकते हैं - पपेट ने कहा : लेकिन यह सब किस कीमत पर?
अगले दिन रोगी का कमरा देख कर अचानक मुझे लगा कि वह "मृत्यु-कक्ष" है। खिड़की के ऊपर गहरा नीला पर्दा था। खिड़की का शटर टूटा हुआ था, जिसे खिसकाया नहीं जा सकता था (पहले तो टूटी खिड़की के पार से आती रोशनी से मामन को कोई तकलीफ नहीं थी, वह अँधेरे में आँखें मूँद लेती थी)। मेरे द्वारा अपने हाथ में उसका हाथ लेते ही वह धीमी आवाज में बोली - "यह सीमोन है! मैं तुम्हें देख ही नहीं पा रही।" पपेट के जाने के बाद मैंने एक जासूसी कहानी निकाली। बीच-बीच में मामन उच्छ्वास भरती थी, "मेरा दिमाग नहीं है, डॉ. पी. के आने पर बोली - "मैं कोमा से गुजर रही हूँ।"
"तुम्हें कैसे मालूम?"
"कोमा में जानेवाले को खुद कैसे मालूम होगा कि वह कोमा में है?"
इस उत्तर ने उसे आश्वस्त किया। मामन का कहना था कि उसका बहुत बड़ा ऑपरेशन हुआ है। एक शाम पहले ही उसने अपने स्वप्न के बारे में बताया कि कई डरावने आदमी नीले वस्त्र पहने हुए उसे लेने के लिए आए हैं और कॉकटेल पिलाने ले जाना चाहते हैं। तुम्हारी बहन ने उन्हें वापस भेज दिया - मुझे नहीं ले जाने दिया। वास्तव में, मामन की अर्धचेतनावस्था में जो बातें हुई थीं उन्हें वह स्वप्न समझ रही थी। नीली यूनिफार्मवाले पुरुष नर्स उसे ऑपरेशन के बाद कमरे में लाए थे, कॉकटेल तो मैंने ही कहा था, जब नर्स उसके लिए पोषक मिश्रण तैयार कर रही थी।
मामन ने मुझसे फिर खिड़की खोलने को कहा, खिड़की तो खुली हुई थी- "ताजा हवा कितनी सुखद है - पंछी गा रहे हैं, उनका गीत मुझे बड़ा अच्छा लग रहा है।" "पक्षी!" मैं बाहर देखने लगी कि पक्षी कहाँ हैं?
तभी वह बोली - "अजीब बात है मुझे अपने बाएँ गाल पर एक पीले प्रकाश का अनुभव हो रहा है।"
डॉ. पी. से मैंने पूछ ही लिया - "क्या ऑपरेशन सफल था?"
"अगर आँतें अपना काम दो-तीन दिनों में करना शुरू कर दें तो कहा जा सकता है कि ऑपरेशन सफल हुआ, पर इसके लिए तो हमें दो-तीन दिन प्रतीक्षा करनी पड़ेगी।"
अच्छे लगे डॉ. पी., उनका आशावाद, रोगी को भी 'मनुष्य' समझने की मानवीयता, हमारी जिज्ञासाओं का समाधान करने को पर्युत्सुक। जबकि डॉ. एन. स्मार्ट, जानकार, तकनीकी रूप से कुशल होते हुए भी मुझे अच्छे नहीं लगे, वे मामन को प्रयोगशाला के नमूने के तौर पर देखते थे, हाड़-मांस के जीते-जागते मनुष्य के रूप में नहीं। उन्होंने तो हमें डरा ही दिया था।
मामन की एक रिश्तेदार थी, जो छह महीनों से कोमा में थी। मामन ने उसी संदर्भ में कहा था - "मुझे ऐसे मत रखना, ये बहुत डरावना है।"
पपेट ने रविवार सुबह मुझे फोन पर बताया कि उन्होंने मामन को एनिमा देने की कोशिश की, नाकामयाबी हाथ लगी।
डॉ. एन. कभी अपनी ओर से बातचीत की पहल नहीं करते थे, उन्हें रोक कर मैंने ही पूछ लिया - "मामन को यंत्रणा देना जरूरी है क्या?" मैंने उनसे मामन को और यंत्रणा न देने की भीख माँगी।
अत्यंत प्रतिहिंसक स्वर में उत्तर मिला - "यातना नहीं दे रहा हूँ, जो करना चाहिए वही कर रहा हूँ।"
नीला पर्दा खिसका देने से मामन के कमरे में थोड़ा ज्यादा प्रकाश आ रहा था। मेरे जाते ही उसने वह काला चश्मा उतार दिया जिसे वह अपने साथ ही लाई थी - "ओह, आज मैं तुमको देख पा रही हूँ।"
आज वह बेहतर महसूस कर रही थी। बड़ी शांत आवाज में उसने पूछा - "बताओ तो मेरा दाहिना पासंग है कि नहीं?"
"क्या मतलब! दाहिना पासंग वो क्यों नहीं होगा।"
"बड़ा हास्यास्पद है, कल वे बोले कि मैं ठीक लग रही हूँ। लेकिन मैं सिर्फ बाईं ओर से ठीक लग रही थी। दूसरी ओर तो बिल्कुल सुन्न-सा लगा। ऐसा लगा मेरा दाहिना पासंग है ही नहीं, अब कुछ-कुछ महसूस हो रहा है।"
मैंने उसका दाहिना गाल स्पर्श किया - "कुछ महसूस हुआ?"
"हाँ, लेकिन जैसे ये कोई सपना है।"
बायाँ गाल छुआ।
"हाँ ये तो महसूस हुआ।"
जाँघ की टूटी हड्डी, ऑपरेशन की चीड़फाड़, दवा-पट्टी, ट्यूब, इंजेक्शन - सब कुछ बाईं तरफ ही हुआ। क्या इसीलिए मामन को लगा कि उसका दाहिना पासंग है ही नहीं?
"तुम खूब अच्छी दीख रही हो, डॉक्टर तुमसे बहुत प्रसन्न हैं।"
"ना, ना डॉक्टर मुझसे प्रसन्न नहीं। वो चाहता है मैं उसे पाद कर दिखाऊँ।" और हँस कर बोली - वापस लौट कर मैं उसे कुत्तोंवाली चॉकलेट का डिब्बा भेजूँगी।
यद्यपि उसके दोनों घुटनों के बीच रूई के पैड थे, पैर बिस्तर पर न टकराएँ इसकी पूरी व्यवस्था थी। फिर भी, उसकी पीठ में "बेड सोर" हो गए। दोनों पैर गँठिया से जकड़े, दाहिनी बाँह शक्तिहीन, बाईं बाँह में ड्रिप लगी थी। वह स्वयं हिलने-डुलने में बिल्कुल असमर्थ थी।
"मुझे जरा ऊपर खींचो तो।"
मुझ में यह साहस नहीं था, उसकी नग्नता के कारण नहीं, अब वह मेरी माँ नहीं रह गई थी, रह गई थी यंत्रणा पाते एक शरीर की स्वामिनी, मुझे डर था, डर था उस भयानक रहस्य के खुलने का, पट्टियों में बँधे शरीर को मैं और तकलीफ नहीं पहुँचाना चाहती थी।
अगली सुबह उसका एनिमा लेना जरूरी था। मादामोसाइले लेबलॉन को इसमें मेरी सहायता चाहिए थी। कंकाल मात्र... जिसके ऊपर नीली चमड़ी का खोल चढ़ा था, उसकी दोनों बगलों के नीचे हाथ लगा कर मैंने उसे धरा। हम जब मामन को दूसरी करवट दिलाने लगे तो वह डर से रोने लगी, उसे लगा वह गिर जाएगी। हमने उसे सावधानी के साथ फिर से बिठा दिया। एक क्षण बाद ही बोली -
"मैंने अभी हवा निकाली है... जल्दी बेड-पैन!"
मादामोसाइले लेबलॉन और लाल बालोंवाली नर्स ने उसे बेड-पैन पर बिठाने की कोशिश की। मामन रोने लगी। मुझे लगा वो दोनों उसे घुटनों के बल बिठा रही हैं। मामन चीख रही थी, उसका शरीर दर्द से खिंच रहा था। "उसे अकेला छोड़ दो!" मैंने कहा।
मैंने नर्स से कहा - "कोई बात नहीं, उसे अपने बिस्तर में ही निवृत्त हो लेने दो।"
"ये तो बड़ा शर्मनाक है। फिर बिस्तर से दुर्गंध उठेगी और दूसरे रोगी यहाँ कैसे रह पाएँगे - नर्स ने प्रतिवाद किया। बिस्तर पर मल त्यागने से उसकी पीठ के घाव और बदतर हो जाएँगे - ऐसा ललछौंहें बालोंवाली नर्स का कहना था।
"तुम कपड़े तुरंत बदल देना।"
"लाल बालोंवाली नर्स दुष्टा है," मेरे लौटने पर मामन ने छोटे बच्चे जैसी आवाज में शिकायत की।
वह बिस्तर में ही निवृत्त होने के लिए तैयार थी, यहाँ तक कि बेहद पीड़ादायक इंजेक्शन लेने के लिए भी। वह दर्दनाक इंजेक्शन लेने के पहले कहती - चूँकि यह मेरे लिए अच्छा है, मेरे ठीक होने के लिए यह जरूरी है।
शाम को उसका मुस्कुराना बंद था। बार-बार बस एक ही बात दोहरा रही थी - "देखा मैंने शीशे में खुद को, मुझे लगा कि मैं बहुत ही बदसूरत हो गई हूँ।" वह इन्ट्रावेनस ड्रिप नहीं ले पा रही थी, बाएँ हाथ की नसें बुरी तरह सूज गई थीं, अब दाहिने हाथ की बारी थी। वह रात से डरती थी, रात में हाथ के हिलने-डुलने से इन्ट्रावेनस ड्रिप की सुई इधर-उधर खिसकने पर दर्द होता था और वह दर्द से कराहती रह जाती। उसकी गुजारिश थी - रात को ड्रिप का ध्यान रखा जाए। उसकी सूजी हुई नसें, जिनमें जबरदस्ती जिंदगी के बहाने दर्द प्रवाहित किया जा रहा था - उसे देख कर मैंने खुद से पूछा - "किसलिए यह सब?"
नर्सिंग होम में मामन को मेरे सहारे की आवश्यकता थी, थूकने, शौच निवृत्ति के लिए, करवट बदलवाने के लिए, कपड़े पहनने, तकिए के सहाने बैठने, खिड़की खोलने-बंद करने, उसकी ड्रिप न हिल जाए इसका ध्यान रखने में समय कट जाता था। मामन को निर्भर होना रास आ रहा था। वह बार-बार हर काम के लिए हमें पुकारती, लेकिन ज्यों ही मैं घर लौटती, दु:सह व्यथा और उदासी से मेरा सिर फटने लगता। मेरे भीतर भी एक कैंसर पल रहा था... वह था अनुताप।
"उसका ऑपरेशन मत कराओ" रह-रह कर यही आवाज मेरे कानों में गूँजती थी। मैं ऐसे कई परिवारों को जानती थी जहाँ कोई सदस्य किसी असाध्य या लंबी बीमारी से जूझ रहा होता - तब रोगी के प्रति परिवार के सदस्यों की उपेक्षा और वितृष्णा मुझे हमेशा व्यथित करती। सोचती इससे तो अच्छी थी "मर्सी किलिंग" - कम से कम वह सुख से मर तो जाता, रोज-रोज की यातना से तो बचता, लेकिन हमारा समाज, नैतिकता, मूल्य "मर्सी किलिंग" की इजाजत देते हैं क्या भला! शायद मुझे मौका दिया जाए तो, उनको, जिनके लिए जीवन असहृा है, एक क्षण में मार दूँ - जीवन की यंत्रणा से मुक्त कर दूँ।
सार्त्र का कहना है कि मैं ऐसा कर नहीं पाऊँगी। ठीक ही तो कहता है, मैंने ही ऑपरेशन के लिए सहमति दी थी। सार्त्र कहता है - तकनीक मुझ पर हावी हो गई है - नई तकनीक, डॉक्टरी खोजें, डॉक्टरों की भविष्यवाणी। एक बार अस्पताल पहुँच जाने पर रोगी उनकी संपत्ति है - उनके हाथ से रोगी को निकाल लेना तुम्हारे वश की बात नहीं।
उस बुधवार को दो ही विकल्प थे - ऑपरेशन या मर्सी किलिंग।
मामन का दिल बहुत मजबूत था। हो सकता है कि वह आत्मबल से कुछ दिन, यूँ ही बिना ऑपरेशन के जी जाती या डॉक्टर उसे मर्सी किलिंग की इजाजत नहीं देते और उसका जीवन मृत्यु से भी बदतर हो जाता। मैं तो ऑपरेशन के एक घंटे पहले तक नर्सिंग होम में थी न, क्यों नहीं कह पाई कि छोड़ दीजिए मामन को। बल्कि उसकी जगह मैंने क्षीण याचना की कि उसे और यंत्रणा मत दीजिए। उस युवा डाक्टर ने मुझे डाँट दिया, पूरी पुरुषोचित आक्रामकता से जो निश्चय ही उसका कर्तव्य था। डॉक्टर मुझ से कह सकते थे कि मैं ऑपरेशन का विरोध कर उससे कई वर्ष और जीने का अवसर छीन रही हूँ। भीतर की ऊहापोह, सवाल-जवाब ने मेरी मानसिक शांति छीन ली थी। पंद्रह वर्ष की थी तो देखा, अंकल मौरिस पेट के कैंसर से मरे। अंतिम दिनों में कहते थे - "मुझे खत्म कर दो, लाओ मेरी पिस्तौल। मार दो मुझे... " - उनकी आवाज कानों में गूँजती है।
डॉक्टर ने पपेट से वायदा किया था - मामन और नहीं भुगतेगी। उन्होंने वायदा नहीं निभाया। मृत्यु और यंत्रणा के बीच दौड़ शुरू हो गई थी। खुद से पूछती हूँ कि कोई प्रियजन जब खुद पर दया करने की याचना करे तो क्या करना चाहिए?
और अंतत: यदि मृत्यु को ही विजयी होना था तो फिर यह लज्जाजनक घृणित धोखा क्यों! मामन को लगता था कि हम उसके साथ हैं - बने रहेंगे जबकि हम अपने-आपको बहुत दूर कर चुके थे, वह अपनी पीड़ा-यंत्रणा में बिल्कुल एकाकी थी - नितांत असहाय और निरुपाय, स्वस्थ होने की तीव्र इच्छा उसकी सहनशीलता, उसका साहस - सब धोखा! इतनी यंत्रणा सह कर भी उसे क्या मिलेगा! कुछ नहीं...। वह दर्द सह रही थी यह सोच कर कि यह उसके ठीक हो उठने के लिए जरूरी है। मैं ऐसे पापकर्म की भागी थी, जिसके लिए मैं उत्तरदायी नहीं थी और जिसका प्रायश्चित असंभव था।
मामन ने वह रात आराम से काटी, लेकिन नर्स उसका हाथ थामे रहती क्योंकि मामन आधी रात को डर जाती। इन परिस्थितियों में मामन के पास रात को किसी का होना जरूरी था। पपेट रात को अपनी मित्र के पास सोती, सुबह नर्सिंग होम आती। सार्त्र अगले दिन प्राग के लिए रवाना होना चाहते थे। मैं उनके साथ जाऊँ या नहीं - ऊहापोह में थी। कभी भी कुछ हो सकता था, या उसी स्थिति में मामन महीनों पड़ी रह सकती थी। सार्त्र का कहना था प्राग से पेरिस पहुँचने में बस डेढ़ घंटे लगते हैं, फिर टेलीफोन तो है ही।
मामन मेरे प्राग जाने के पक्ष में थी। मेरे जाने ने उसे आश्वस्त कर दिया कि वह अब खतरे से बाहर है।
मामन, जिसे पहले कभी अपना ध्यान रखने की आदत ही नहीं थी - उसकी शारीरिक स्थिति ने इस बात के लिए विवश कर दिया था कि वह अपने अंग-प्रत्यंग के बारे में खूब गौर से सोचे। बिस्तर पर लेटी-लेटी वह जनरल वार्ड के रोगियों से खूब सहानुभूति जतलाती। उसका कहना था, बुढ़ापे में, उसे स्वस्थ रखने में ढेर सारा युवा रक्त खर्च हो गया, बीमारी ने बहुत-सा समय नष्ट कर दिया। उसे लगता कि उसकी अस्वस्थता ने हमें आतंकित कर दिया है और इसके लिए वह शर्मिंदा थी। उसकी चिंता की परिधि में, मैं और पपेट थे। उसे याद था कि पपेट नाश्ते में जैम खाना पसंद करती थी।
मेरी पुस्तक की बिक्री के परिणामों से मामन चिंचित रहती। मकान-मालिक द्वारा मादामोसाइले लेबलॉन को घर से निकाल दिए जाने पर मेरी बहन ने मामन से कहा कि लेबलॉन को मामन का स्टूडियोवाला फ्लैट रहने के लिए दिया जा सकता है। पहलेवाली बात होती तो मामन साफ इनकार कर देती, अपने फ्लैट में किसी को भी पैर न धरने देती। लेकिन, बीमारी ने उसके अभिमान और आभिजात्य गर्व के कवच को तोड़ डाला था। अब उसका एक ही एजेंडा था - जल्दी से जल्दी स्वस्थ होना। शारीरिक यंत्रणा ने उसे मानसिक रूप से परिष्कृत कर दिया था। देर से ही सही, पर अब उसमें ईर्ष्या-द्वेष का लेशमात्र भी नहीं बचा था। उसने हृदय से सबको क्षमा कर दिया था, उदारमना हो आई थी, इसलिए रोगिणी होते हुए भी उसकी मुस्कान में शांति और पवित्रता की झलक थी - मृत्यु शय्या पर विशिष्ट किस्म की प्रसन्नता।
ऑपरेशन से पहले उसने मार्था से कहा था - मेरे लिए प्रार्थना करना, क्योंकि जब हम बीमार और असहाय होते हैं - कुछ भी करने में अक्षम - तो प्रार्थना भी नहीं कर सकते। ईश्वरीय शक्ति में अगाध आस्था उसने संस्कारवश पाई थी, डॉक्टर ने भी कहा था इतने शीघ्र स्वास्थ्य लाभ करने का अर्थ ही है कि ईश्वर आप पर विशेष कृपालु हैं।
"हाँ, मेरे संबंध ईश्वर से बहुत अच्छे हैं, लेकिन अभी मैं उसके पास जाना नहीं चाहती।"
मामन मरना नहीं चाहती थी। मरने के पहले प्रायश्चित भी नहीं करना चाहती थी, चाहती तो निश्चित तौर पर किसी पादरी से मिलना चाहती, लेकिन अभी तक उसने किसी पादरी को बुलाने की इच्छा जाहिर नहीं की थी।
मैं दोपहर को, मामन की हालत जानने के लिए नर्सिंग होम फोन करती। उसकी तबीयत बेहतर थी। बृहस्पतिवार और शुक्रवार को वह स्वस्थ महसूस कर रही थी। मेरे फोन से वह खुश हो जाती थी, क्योंकि उसे लगता था इतनी दूर से मैं सिर्फ उसी की हालत जानने के लिए फोन कर रही हूँ। शनिवार को, मैं उसे फोन नहीं कर सकी। रविवार को टेलीग्राम मिला, "मामन बहुत बीमार है, तुम वापस आ सकती हो क्या?" रात को पपेट नर्सिंग होम में मामन के पास ही सोती थी, उसी ने बाद में मुझे बताया कि मामन को ऐसा लग रहा था कि वह सीमोन को देख नहीं पाएगी। इसलिए मुझे तार भेज कर बुलाना पड़ा।
मैंने अगली सुबह साढ़े दस बजे की उड़ान में, लौटने की सीट बुक करने के लिए एजेंट से कहा। यूँ ही, अचानक सारे कार्यक्रम बीच में छोड़ कर चले जाने के पक्ष में सार्त्र नहीं थे, वे चाहते थे, मैं एकाध दिन रुक कर सारे काम पूरे कर के जाऊँ। दरअसल, मृत्यु से पहले अंतिम बार मामन को देखने की, मेरी कोई इच्छा नहीं थी, लेकिन यह मेरे लिए अकल्पनीय था कि मामन अपनी आँखों से, अंतिम बार मुझे देखने की अतृप्त इच्छा लिए मर जाए। अंतिम इच्छा इतनी महत्वपूर्ण क्यों हो उठती है, जबकि हम जानते हैं कि उसकी कोई स्मृति नहीं रहेगी - जब मनुष्य ही जीवित नहीं रहेगा तो... और ऐसा कोई अनुबंध भी तो हमारे बीच बचेगा नहीं। मुझे लगता है, मेरे अस्तित्व का सबसे आंतरिक तंतु उस मरणासन्न स्त्री से कहीं अविच्छिन्न रूप से संपृक्त है - अंतिम क्षणों में, मेरा उसके पास होना - शायद उसे मुक्ति दे।
सोमवार को डेढ़ बजे मैं कमरा नं. 114 में पहुँची। मामन को मेरे आगमन के बारे में पहले से ही बता दिया गया था, उसे लगा मेरा लौटना पूर्वनिर्धारित कार्यक्रम के अनुसार ही है। मुझे देख कर, अपना काला चश्मा उतार कर वह मुस्कुराई। नींद की दवाएँ लेते रहने से, वह जैसे एक संभ्रम की स्थिति में थी। उसका चेहरा बदला-सा लग रहा था, आँखों के पपोटे कुछ सूजे-से और चेहरे का रंग पीलापन लिए हुए था। मेज पर, वापस फूल रख दिए गए थे। मादामोसाइले लेबलॉन जा चुकी थी, क्योंकि अब मामन को इन्ट्रावेनस ड्रिप नहीं दी जा रही थी और अब रात भर किसी नर्स के रुकने की जरूरत नहीं थी। जिस दिन मैं गई थी उसी दिन मादामोसाइले लेबलॉन ने ट्रांस्फ्यूजन के लिए ड्रिप लगाई - मामन को ड्रिप लेने में असहनीय यंत्रणा हो रही थी। उसकी नसें इतनी कमजोर हो गई थीं कि वे रक्त का बोझ भी वहन नहीं कर पा रही थीं, मामन के रुदन से पपेट बहुत व्यथित थी, उसने नर्स से ट्रांस्फ्यूजन रोकने के लिए कहा। नर्स ने कहा कि वह डॉक्टर को क्या जवाब देगी। पपेट का कहना था - "उसकी चिंता तुम्हें नहीं करनी होगी, वह मेरी जिम्मेदारी है।" डॉक्टर भली भाँति जानते थे कि घाव का भरना अब मुश्किल है। आँतों के मुहाने पर फिश्तुला बन रहा था, उनके खुलने-सिकुड़ने का मार्ग अवरुद्ध हो गया था और वे पूरी तरह काम नहीं कर पा रही थीं। मामन और कितने वक्त तक सँभाल पाएगी?
जाँच से पता लगा था कि ट्यूमर निकाले जाने के बाद भी शरीर में मवाद फैला हुआ था और उसने पूरे शरीर को अपनी गिरफ्त में ले लिया था।
वह अपने पिछले दो दिनों का लेखा-जोखा मुझे देने लगी। शनिवार को उसने सीमेनन का एक उपन्यास पढ़ना शुरू किया और वर्ग पहेली हल करने में पपेट को हरा दिया। उसकी टेबल पर कटे हुए कागजों का ढेर लगा हुआ था, वह "पेपर आर्ट" का अभ्यास कर रही थी। शनिवार को उसने आलू का भुर्ता खाया जिसे पचाने में उसे दिक्कत हुई - एक लंबा स्वप्न देखा, जिसने उसे नींद से जगा दिया, कि वह एक गड्ढे के ऊपर नीली चादर में लिपटी पड़ी है - पपेट ने चादर का एक सिरा पकड़ रखा है, मामन पपेट से आरजू कर रही है, मुझे गड्ढे में गिरने से बचा लो और पपेट कह रही है, डरो मत, मैंने तुम्हें अच्छी तरह पकड़ा हुआ है- तुम गिरोगी नहीं।
पपेट ने वह रात आरामकुर्सी पर बैठे-बैठे गुजारी। आम तौर पर मामन, जो हमेशा पपेट के आराम के लिए चिंतित रहा करती थी, बोली- "जागती रहो, मुझे जाने मत देना। अगर मैं सो जाऊँ तो मुझे जरूर जगा देना। मैं नींद में ही मर नहीं जाना चाहती।" मामन ने अपनी आँखें बंद कर लीं, वह थकी हुई थी - उसने चादर को मुट्ठियों में ज़ोर से पकड़ा और बोली - मैं जिंदा हूँ, जिंदा हूँ।
तनाव और चिंता से बचने तथा नींद के लिए डॉक्टर ने नींद की दवा और इक्वानिल के इंजेक्शन भी दिए। मामन दवा और इंजेक्शन लेने में उत्साह दिखाती। पूरा दिन वह अच्छे मूड में रहती। बीच-बीच में उसे अजीबो-गरीब चीजें दिखाई पड़तीं। उसे मेरी अपेक्षा पपेट पर ज्यादा भरोसा था। उसे लगता था कि पपेट को चूँकि लॉयनेल की देखभाल का अनुभव है, इसलिए वह चाहती थी कि हर रात पपेट ही उसके पास रहे।
मंगलवार अच्छी तरह गुजर गया। रात में, मामन को डरावने स्वप्न आते, उन्होंने उसे एक बक्से में बंद कर दिया है, वे बक्से को उठा कर ले जानेवाले हैं। पपेट से उसने कहा, मुझे लोगों को उठा कर मत ले जाने दो। कुछ देर तक पपेट मामन के माथे पर हाथ रखे रही - "तुम से वादा करती हूँ तुम्हें बक्से में नहीं ले जाने दिया जाएगा।"
उसने इक्वानिल के एक और इंजेक्शन की माँग की, सो गई। बाद में पपेट से उसका सवाल था - उस सब का क्या मतलब है, उस बक्से का, और वो लोग? "कुछ नहीं, वो तुम्हारे भीतर ऑपरेशन की स्मृतियाँ हैं, पुरुष नर्स तुम्हें स्ट्रेचर पर ले कर गए न ,वही है।"
मामन सो गई, लेकिन अगली सुबह बलि के लिए ले जाए जा रहे पशु की-सी कातरता उसकी आँखों में उतर आई थी। नर्स बिस्तर बदलने आई, मामन को करवट बदलते वक्त थोड़ी तकलीफ हुई। उसने पूछा डॉक्टर से, "आपको क्या लगता है, मैं बच पाऊँगी?"
मैंने डाँटा उसे - "ये सब क्या बोलती हो।"
मामन की चिंता थी, कहीं डॉक्टर नाराज न हो जाएँ उससे।
मामन डॉक्टर से पूछे बिना नहीं रह पाई -
"आप खुश हैं मुझसे?"
डॉक्टर ने तो यूँ ही "हाँ" में जवाब दे दिया, लेकिन मामन तो ऐसी हो गई जैसे डूबते को तिनके का सहारा। वह अपनी थकान का कोई न कोई बहाना ढूँढ़ ही लेती, जैसी डिहाइड्रेसन या आलू का भुर्ता पेट में भारी हो गया। एक दिन तो उसने नर्स पर इल्जाम ही लगा दिया कि उसने दिन में चार बार के बजाय तीन बार ही ड्रेसिंग की। उसने बताया - "डॉक्टर तो आग बबूला हो गया, शाम को नर्स पर खूब चिल्लाया।" कई बार मामन यही दोहराती रही, "डॉक्टर आग बबूला था।" उसके स्वर में प्रच्छन्न तुष्टि थी। मामन के चेहरे की सारी सुन्दरता नष्ट हो चुकी थी, चेहरे की मांसपेशियाँ अजीब ढंग से सिकुड़ गई थीं, घृणा, कड़वाहट और तरह-तरह की माँगें, वापस उसके स्वर में सुनी जा सकती थीं।
"मैं बहुत थक गई हूँ," उसने नि:श्वास भरा। आज दोपहर को मार्था का छोटा भाई, जो युवा पादरी था, आनेवाला था। "तुम कहो तो उसे आने को मना कर दूँ।"
"नहीं, तुम्हारी बहन उससे मिलना चाहती है। वे थियोलॉजी पर बात करेंगे। मैं अपनी आँखें बंद कर लूँगी, मुझे बोलने की जरूरत नहीं।"
उसने खाना नहीं खाया, यूँ ही सिर को सामने की ओर झुका कर सो गई, पपेट ने दरवाजा खोला - उसे लगा सब खत्म हो गया। चार्ल्स कोर्डोनियर सिर्फ पाँच मिनट रुका। वह उन दावतों का याद करता रहा, जिन पर उसके पिता हर सप्ताह मामन को बुलाया करते थे।
"मैं किसी बृहस्पतिवार को रास्पैल के पार्क में तुम्हें फिर से देखने की उम्मीद करता हूँ।"
...मामन ने आश्चर्य से ताका, उस ताकने में अविश्वास और यंत्रणा थी -
"तुम्हें लगता है मैं वहाँ फिर कभी जा पाऊँगी?"
मैंने इससे पहले कभी भी ऐसी नाउम्मीदी और दु:ख भरी दृष्टि नहीं देखी थी, उस दिन अनुमान लगा लिया था कि अब कोई उम्मीद उसके लिए बची नहीं। हमने उसके अंत को इतना नजदीक पाया कि जब पपेट वापस आ गई, तब भी मैं नहीं गई -
"तो मेरी हालत बदतर हो रही है, क्योंकि तुम दोनों हो यहाँ।" वह फुसफुसाई।
"हम हमेशा यहीं हैं।"
"पर कभी भी एक साथ एक ही समय में नहीं।"
एक बार फिर मैंने उसकी बात काटने की कोशिश की - "मैं यहाँ रुकी क्योंकि तुम मन से कुछ कमजोर दिखाई दे रही हो। लेकिन इससे अगर तुम्हें चिंता होती है तो मैं चली जाऊँगी।"
"नहीं, नहीं," वह डूबती आवाज में बोली।
अपने रूखेपन से मेरा ही हृदय ऐंठ गया। ऐसे समय में जब सत्य उसे रौंद रहा था, तब जबकि वह बचना चाहती थी, वह इस बारे में बात करके अपना डर कम करना चाहती थी, ऐसे में हम उसे चुप रहने के लिए कह रहे थे। हम उस पर अपनी चिंताएँ साझा न करने के लिए दबाव डाल रहे थे, उससे कहा जा रहा था कि वो अपने संदेहों का दमन करे, जैसा कि उसके साथ जिंदगी में हमेशा से होता चला आया था, वह अपराधी और गलत समझी गई थी। लेकिन हमारे पास और कोई रास्ता भी तो नहीं था, आशा उसके लिए अपरिहार्य थी।
पपेट बुरी तरह थक गई थी। मैंने आज रात यहीं सोने का फैसला किया।
मामन अविश्वस्त भाव से बोली - "क्या तुम कर पाओगी? क्या तुम्हें मालूम है कि मेरे माथे पर कैसे अपना हाथ रखना है, जब मुझे डरावने सपने आएँ? "
""हाँ... जरूर.. जानती हूँ मैं..."
वह इस पर सोचती रही, फिर सीधे मेरी ओर देख कर बोली - "मुझे तुमसे डर लगता है।"
संभवत: मेरी बौद्धिकता ने मामन को हमेशा भयभीत किया, उस भय में सम्मान भी छुपा हुआ था, लेकिन अपनी छोटी बेटी के प्रति इस भाव का अभाव था। मामन के कपट व्यवहार ने मुझे पहले ही स्तब्ध कर दिया था। बच्ची के रूप में मैं एक उन्मुक्त छोटी लड़की थी, मैंने देखा कि वयस्क कैसे रहते हैं - निज की दीवारों में कैद। कभी-कभी मामन उन दीवारों के छेदों में से झाँकती - वे छेद तुरंत बंद भी हो जाते। "उसने अपने राज की बात मुझे बताई," मामन बड़े अर्थपूर्ण अंदाज में फुसफुसाती या कभी उन बंद दीवारों के बाहर से जब कोई दरार दिखाई दे जाती - "वह बहुत निकट है लेकिन कुछ बताती नहीं, पर ऐसा मालूम होता है कि..." वे आत्मस्वीकृतियाँ और गप्पें कुछ ऐसी रहस्यपूर्ण होतीं कि मैं उनके प्रतिरोध में, निजत्व की दीवारें अभेद्य कर लेना चाहती, ताकि कम से कम मामन उनके भीतर ताक-झाँक न कर सके। जल्दी ही, उसने मुझसे सवाल करना बंद कर दिया। एक-दूसरे के प्रति अनास्था का मूल्य हम दोनों को ही चुकाना पड़ा। आँसुओं ने मुझे दु:ख से भर दिया। जल्द ही मुझे यह अहसास हो गया कि उसके आँसू उसकी अपनी असफलता के थे, बिना इस बात की परवाह किए कि मुझ पर क्या गुजरी है। वह मुझ पर जबरन मित्रता थोपना चाहती थी। दूसरों से यह कहने के बजाय कि वे मेरी आत्मोन्नति के लिए प्रार्थना करें, यदि वह मुझे थोड़ी सहानुभूति और विश्वास देती तो हम में आपसी समझ विकसित हो सकती थी। आज मुझे मालूम है कि वो क्या चीज थी, जो उसे ऐसा करने से रोकती थी, उसे बहुत कुछ चुकाना था, बहुतेरे घावों को भरना था, खुद को दूसरे की जगह रखना था, सतह पर तो उसने सबके लिए बहुत-से त्याग किए, लेकिन वह कभी अपने से बाहर नहीं निकल पाई। इसके अलावा, वह मुझे समझने का प्रयास कैसे करती जबकि वह अपने-आप से बाहर निकल कर, खुद अपनी भावनाओं को ही समझ नहीं पाई, क्योंकि वह अपने भीतर झाँकने से कतराती रही। उसे लगा कि हमारे जीवन का ढाँचा ही ऐसा है कि हम कभी अलग हो ही नहीं सकते, अप्रत्याशितता ने उसे आतंकित कर दिया, वह जीवन में कभी इसके लिए प्रस्तुत नहीं थी, क्योंकि उसे हमेशा बने-बनाए फ्रेम के भीतर महसूस करना और कार्य करना सिखाया गया था, सोचना तो कभी सिखाया ही नहीं गया।
हमारे बीच अभेद्य सन्नाटा पसरा रहा। मेरे उपन्यास "शी केम टू स्टे" के आने तक उसे मेरे जीवन के बारे में लगभग कुछ नहीं मालूम चला। उसके नैतिकताबोध के अनुसार मैं "अच्छी लड़की" थी, अफवाहों ने उसके भ्रमों को तोड़ दिया, लेकिन उस बिंदु तक हमारे संबंध बदल गए थे। वह आर्थिक रूप से हम पर आश्रित थी, मुझसे सलाह लिए बिना वह कोई काम नहीं करती थी। मैं पूरे परिवार का खर्च चलाती थी - किसी बेटे जैसा ही। इन परिस्थितियों के कारण एक सीमा तक मुझे अपने जीवन की अनियमितताओं के लिए छूट भी मिली। स्वतंत्र रूप से सहजीवन का निर्णय अंतत: सिविल मैरिज से तो कम ही अपवित्र था। कभी-कभी मेरी किताबों में जो है - देख कर उसे सदमा लगता, लेकिन उनकी सफलता और ख्याति से वह खुश थी। लेकिन मेरी सत्ता की स्वीकृति ने संबंध और बदतर बना दिए, मैं बहसों से भागती और उसे लगता कि मैं उसके बारे में फैसले दे रही हूँ। "बच्ची" पपेट को मेरी अपेक्षा कम सम्मान मिला इसलिए उसे मामन की-सी दृढ़ता भी नहीं मिली, मामन के साथ उसके संबंध ज्यादा मुक्त थे। पपेट ने उससे वे सारे वायदे किए जिनकी कल्पना वह कर सकती थी, जिसका उल्लेख मैंने "मेमोआयर्स ऑफ ए ड्यूटीफुल डॉटर" में किया है। अपनी ओर से तो, मैंने फूलों का एक गुच्छा दे कर, सबसे सरल ढंग से क्षमा माँग ली। मैं यह भी जोड़ना चाहूँगी कि इससे वह उद्वेलित और स्तंभित भी हो गई। एक दिन वह मुझसे बोली, "अभिभावक अपने बच्चों को समझ नहीं पाते... इसमें दोनों पक्षों का योगदान होता है..." हमने आपसी गलतफहमियों के बारे में बात की, पर बहुत ही सामान्य तौर पर, हम मूल प्रश्न की ओर लौटे ही नहीं। मैं खटखटा सकती थी मौन का द्वार, कुछ सुबकियाँ, एक और नि:श्वास और वायदा, अपने आप से वायदा... कि इस बार हम आपस में बातें करेंगे, आपसी समझ विकसित करेंगे, परंतु पाँच मिनट बीतते न बीतते खेल खत्म हो जाता। हमारे बीच बहुत कम बातें ऐसी थीं जिन्हें हम बाँट सकें। हम अलग ढंग की किताबें पढ़ते थे। मैं उसे बातें करने के लिए उकसाती, उसे सुनती, विचार प्रकट करती लेकिन बेटी होने के नाते उसके बेकार के मुहावरे मुझे खिझा देते, शायद ऐसी हरकत कोई बाहर का व्यक्ति करता तो मेरी प्रतिक्रिया ऐसी नहीं होती और मैं उतनी ही जिद्दी अब भी थी, जितनी बीस वर्ष की उम्र में हुआ करती थी - "मुझे मालूम है तुम्हारी नजर में मैं बुद्धिहीन हूँ पर तुम्हें यह ओजस्विता मुझी से मिली है। यह विचार मुझे खुश कर देता है।" मुझे तो खुश होना चाहिए था कि मुझमें ये ओजस्विता उसी से आई है, लेकिन टिप्पणी की शुरुआत ने ही मुझे बिल्कुल बर्फ बना दिया। इस तरह हम दोनों ने एक-दूसरे को पंगु बना दिया। जब उसने कहा, तुमसे डर लगता है मुझे - मेरी आँखों में सीधे देख कर- तो उसका मतलब यही था।
मैंने पपेट की नाइटड्रेस पहनी। मामन के बिस्तर के बगलवाले काउच पर ही मैं लेट गई। ज्यों-ज्यों शाम ढली, कमरे में अँधेरा छा गया, सिर्फ बेडसाइड लैंप की रोशनी, जो मंद थी, पूरे कमरे को मनहूस और मौत-सा रहस्यमय बना रही थी। वास्तव में, मैं उस रात बेहतर ढंग से सोई, अगली तीन रातों को भी क्योंकि घर पर तो हमेशा फोन आने की चिंता, अनेकानेक दुश्चिंताएँ थी, जबकि यहाँ होने पर, सोचने को कुछ था ही नहीं।
मामन को कोई दु:स्वप्न नहीं आया। पहली रात वह प्यास से जगी। दूसरी रात वह रीढ़ की सबसे निचली तिकोनी हड्डी की टीस से परेशान थी। मादामोसाइले ने उसे दाहिनी ओर लिटाया, तो उसकी बाँह दुखने लगी, उसे एक गोल रबर कुशन पर बिठाया गया, ताकि उसे हड्डी में दर्द न हो, लेकिन फिर यह डर था कि कहीं इससे उसके नितम्बों की चमड़ी चोटिल न हो जाए, नीली झुरझुरी चमड़ी! शुक्रवार और शनिवार को वह आराम से सोई, बृहस्पतिवार से ही उसमें फिर से आत्मविश्वास आना शुरू हो गया, वो भी "इक्वानिल" के कारण, "तुम्हें लगता है कि मैं फिर से सामान्य जीवन जी पाऊँगी? आज मैं तुम्हें देख पा रही हूँ," उसने बड़ी खुशनुमा आवाज में मुझसे कहा - "कल मैं तुमको बिल्कुल देख ही नहीं पा रही थी।"
अगले दिन लिमोजेस जीनी आई जिसे मामन आशंका से कम अस्वस्थ दिखाई दी। उन दोनों ने लगभग घंटे भर गपशप की। शनिवार की सुबह जब वह शंताल के साथ आई तो मामन ने मजाक में कहा - "मैं कल ही थोड़े मरने जा रही हूँ, मैं तो सौ साल तक जिऊँगी।" डॉक्टर पी. का उलझन भरी आवाज में कहना था - "इनके बारे में कोई भी भविष्यवाणी करना संभव नहीं, पर इनकी जिजीविषा की दाद देनी पड़ेगी।"
मैंने जिजीविषावाली बात मामन को बताई, "हाँ, मुझ में जिजीविषा बहुत है।" उसने इसे प्रसन्नतापूर्वक ग्रहण किया, बल्कि उसे आश्चर्य था कि उसकी आँतें बेकाम होने पर भी डाक्टर जरा भी चौंकते नहीं।
"सब से महत्वपूर्ण बात यह है कि वे काम कर रही हैं - जो इनके पूरी तरह बेकाम न होने का प्रमाण है - डॉक्टर बहुत खुश हैं।"
"अगर वे खुश हैं, तो यह बड़ी बात है।"
शनिवार की शाम सोने से पहले हमने बातचीत की - "ये बड़ा अजीब है।" वह विचारवान सुर में बोली, "जब मैं मादामोसाइले लेबलोन के बारे में सोचती हूँ तो ऐसा लगता है वह मेरे फ्लैट में है, फूले हुए पुतले-सी जिसके हाथ न हों - जैसे ड्राइक्लीनर्स के यहाँ देखे होंगे तुमने।" "मैंने उससे कहा - "तुम्हें मेरी उपस्थिति की आदत हो गई है, अब मेरा होना तुम्हें डराता नहीं।"
"बिल्कुल नहीं।"
"लेकिन तुमने बताया था कि मैं तुम्हें डराती हूँ।"
"क्या ऐसा कहा? कभी-कभी कोई अजीब बात मुँह से निकल ही जाती है।"
मैं भी इस तरह के जीवन की आदी होने लगी। शाम के आठ बजे पहुँचने पर पपेट ने मुझे बताया कि दिन कैसा बीता, डॉ. एन. आए, मादामोसाइले कॉर्नेट आई, तब तक मैं लॉबी मैं बैठ कर पढ़ती रही, जब तक वह ड्रेसिंग करती रही। दिन में चार बार पट्टियाँ, गाज, रूई, स्टिकिंग प्लास्टर, टिन, बेसिन और कैंचियों से भरी मेज कमरे के भीतर ले जाई जाती। मादामोसाइले कॉर्नेट ने जान-पहचान की एक नर्स की सहायता से मामन को नहलाया और रात के लिए तैयार किया। मैं सोने चली गई। उसने मामन को बहुत-से इंजेक्शन दिए, फिर वह काफी पीने चली गई - तब तक मैं बेडसाइड लैम्प की रोशनी में पढ़ती रही। वह वापस लौट कर दरवाजे के निकट बैठ गई। दरवाजे को उसने ऐसे उड़काया कि रोशनी की एक पतली रेखा कमरे में आती रहे - वह पढ़ती और बुनती रही। कमरे में सिर्फ एक हल्की-सी आवाज थी जो बिस्तर से लगे स्वचालित कंपन करनेवाले उपकरण से आ रही थी। मैं सो गई। सात बजे, मामन की ड्रेसिंग के वक्त ईश्वर को धन्यवाद देते हुए अपना चेहरा दीवार की ओर घुमा लिया, जुकाम के कारण मेरी नाक बंद हो गई थी। लेकिन यह मेरे पक्ष में था कि मुझे कुछ पता ही नहीं चलता था, सिवाय यूडीकोलोन की गंध के जो मैं मामन के माथे और गालों पर अक्सर लगा देती थी। वह गंध, जो मुझे स्वदेयुक्त और रोगिणी लगती, मैं अब कभी भी उस ब्रांड का इस्तेमाल नहीं कर पाऊँगी।
मादामोसाइले कार्नेट चली गई, मैं तैयार हुई, नाश्ता किया, मामन के लिए एक सफेद-सी दवा का मिश्रण तैयार किया, जिसे उसने कुरुचिपूर्ण बताया, लेकिन उसकी पाचन शक्ति को इस दवा ने ही बढ़ाया। एक-एक चम्मच दवा मैंने उसे पिलाई, जिसमें एक बिस्कुट को चूरा कर के मिलाया हुआ था, नौकरानी ने कमरा झाड़ा-पोंछा। मैंने फूलों के गुच्छे पर पानी का छिड़काव कर के उन्हें सँवार कर व्यवस्थित कर दिया । टेलीफोन की घंटी बार-बार बजती थी, मैं दौड़ कर लॉबी में चली जाती, अपने पीछे से दरवाजा भी बंद कर देती, लेकिन मुझे पक्का यकीन नहीं था कि मामन बातचीत सुन नहीं पाती थी, मैं बहुत धीमे और सावधानी से बोलती। वह हँस पड़ी जब मैंने उससे कहा कि मादाम रेमण्ड ने मुझसे पूछा है कि तुम्हारे कूल्हे की हड्डी का दर्द अब कैसा है?
"वे इसके बारे में कुछ नहीं समझते।"
अक्सर ही एक नर्स, मामन के मित्र, रिश्तेदार मुझे उसकी हालत के बारे में जानने के लिए फोन करते। एक-एक से मिल सकने की ताकत उसमें नहीं थी, परंतु वह तो बस सबके ध्यान का केंद्र बन कर ही प्रसन्न थी। ड्रेसिंग के दौरान मैं बाहर चली गई। फिर मैंने उसे खाना खिलाया, वह चबाने में असमर्थ थी - मसली हुई सब्जियाँ, पिसे और उबले हुए फल, कस्टर्ड, उसने जबरन अपनी पूरी प्लेट खाली की - "मुझे अच्छी तरह खाना चाहिए।" - भोजन के बीच-बीच में वह ताजा फल के रस के घूँट भरती रही - इसमें विटामिन है, मेरे लिए अच्छा है ये।" तकरीबन दो बजे पपेट आई। "ये दिनचर्या मुझे पसंद आई।" मामन ने बड़े ही पछतावे से एक दिन कहा - "कैसा मूर्खतापूर्ण! अब जबकि तुम दोनों पहली बार मेरे पास एक साथ हो, मैं बीमार हूँ।"
प्राग की अपेक्षा मैं अधिक शांत थी। इसके पीछे मेरी माँ का जिंदा लाश में बदलते जाना भी एक कारण था। संसार जैसे उसके कमरे में आ कर सिमट गया था, जैसे ही मैंने टैक्सी से पेरिस की सीमा को पार किया, ऐसा लगा जैसे मंच पर अतिरिक्त लोग यूँ ही चहलकदमी कर रहे हैं, मेरा असल जीवन तो मामन के पास था, जिसका एकमात्र उद्देश्य था- उसे बचाना। रात को धीमी से धीमी आवाज भी मुझे बड़ी लगती, मादामोसाइले कार्नेट के कागज मोड़ने की फड़फड़ाहट, बिजली की मोटर की घुरघुराहट, मैं पूरे दिन कमरे में जुराबें पहन कर ही चला करती। सीढ़ियों पर चलने की आवाज, ग्यारह बजे और दोपहर के बीच ले जाई जानेवाली पहिएदार मेजें, जो धातु की थालियों और कटोरियों से भरी रहतीं - बड़ी षडयंत्रकारी-सी लगती उनकी खड़खड़ाहट। एक मूर्खा नौकरानी ने मामन को झपकी से जगा कर पूछा कि वह अगले दिन क्या खाना पसंद करेगी, मुझे उस पर बड़ा क्रोध आया और तब भी जब वह वायदा कर के गई कुछ और, पर लाई कुछ और। मुझे मामन की पसंद रास आने लगी। हम दोनों को मादामोसाइले कार्नेट पसंद थी, वह औरों से बेहतर थी।
अब हमें यह नर्सिंग होम पसंद नहीं आ रहा था। खुशमिजाज, दर्द को हर लेनेवाली नर्सें अतिरिक्त कार्यभार के तले दबी हुई थीं, वे बहुत कम तनख्वाह और रूखा व्यवहार पातीं। मादामोसाइले लेबलॉन अपनी काफी अपने साथ लाती, उसे यहाँ गर्म पानी के अलावा कुछ नहीं दिया जाता। रात्रि-नर्सों के आराम करने, नहाने या तरोताजा होने के लिए कोई जगह नहीं थी यहाँ, जहाँ वे निद्राहीन रात्रि के बाद कम से कम ताजा-दम हो लें। एक सुबह मादामोसाइले कार्नेट बड़ी परेशान थी, सिस्टर ने ड्यूटी के समय भूरे जूते पहनने का इल्जाम लगाया है। "उनकी हील नहीं है।" मादामोसाइले कार्नेट बोली - "लेकिन सफेद ही चाहिए।" मादामोसाइले दुखी थी, सिस्टर चिल्लाई - "दिन शुरू करने के पहले ही ऐसा चेहरा मत बनाओ।"
मामन यह बात दो दिनों तक बार-बार दुहराती रही : उसे जोरदार पक्षधरता करने में हमेशा आनंद आता। एक शाम मादामोसाइले कार्नेट की एक मित्र कमरे में आई, रोती हुई : उसका रोगी उससे बात करने के लिए तैयार नहीं था। इस पेशे ने इन लड़कियों को त्रासदियों के बहुत नजदीक ला कर रख दिया था, लेकिन निजी जीवन के इन छोटे-छोटे नाटकों को झेलने के लायक कठोर नहीं बनाया था।
"क्या तुमको ऐसा लग रहा है कि तुम कमअक्ल होती जा रही हो," पपेट बोली।
मेरे लिए ये सारी बातें मूर्खतापूर्ण थीं लेकिन दूर से, ऊपरी तौर पर कुछ कह देना कितना आसान होता है...
"इस काले चश्मे को लगा कर तुम बिल्कुल ग्रेटा गार्बो जैसी दीख रही हो।"
रेस्टोरेंट के मैनेजर से जब मैंने कहा - "बहुत अच्छा।" तब भी मुझे मालूम था कि यह सफेद झूठ है। मुझे हमेशा लगता था कि बाहरी दुनिया एक रंगमंच है, जिस पर मैं अभिनय कर रही हूँ। मैंने होटल को नर्सिंग होम के रूप में, होटल में काम करनेवालों को नर्सों के रूप में देखा। अब मैंने लोगों को नई दृष्टि से देखा, उनके कपड़ों के भीतर छिपी ट्यूबों को देखा। मैंने खुद को बदलते देखा।
पपेट हमेशा घबराई रहती। मेरा रक्तचाप बढ़ गया, माथे की रग तकतकाती रहती। मामन का मृत्युभय, उसे बार-बार आश्वासन देना और स्थिरता की कमी ने हमें थका डाला। पीड़ा और मृत्यु की इस दौड़ में हमने उम्मीद की थी कि मृत्यु पहले आएगी। मामन जब स्पंदनहीन चेहरा लिए सो चुकी होगी तब हम मृत्यु के उस काले फीते को उसकी सफेद बेड-जैकेट से पकड़ लेंगे। वह फीता - काला फीता - हमारे गले को भी ऐंठ देगा।
रविवार की मध्याह्न जब मैं वहाँ से चली, वह चंगी थी, सोमवार को उसके विकृत चेहरे ने मुझे आतंकित कर दिया, यह समझना मुश्किल न था कि उसकी हड्डियों और चमड़ी के बीच कोई अघट रहस्य चल रहा है, स्वस्थ कोशिकाएँ दिनोंदिन मरती जा रही हैं। रात के दस बजे पपेट ने नर्स को चुपके से एक पर्ची पर लिख कर पूछा "अपनी बहन को बुलाऊँ क्या?" नर्स ने सिर हिला दिया। मामन का दिल तेज़ी से धड़क रहा था लेकिन अभी तो घृणित पक्ष आना बाकी था, मादाम गानट्रांड ने मुझे मामन की दाहिनी करवट दिखलाई : त्वचा के छिद्रों से तरल द्रव्य टप-टप टपक रहा था - चादर भीग गई थी। उसने मुश्किल से पेशाब किया था, उसकी त्वचा फूल-सी गई थी, अपनी सूजी हुई उँगलियों को उसने उलझन भरी निगाह से देखा - "ऐसा इसलिए हुआ कि तुम हाथ को हिलातीं-डुलाती नहीं," मैंने बताया।
इक्वानिल और मार्फिया की बेहोशी के बावजूद वह अपनी बीमारी से परिचित थी, लेकिन धैयपूर्वक स्थिति को स्वीकार कर रही थी। "एक दिन जब मैं बेहतर थी तब तुम्हारी बहन ने मुझ से ऐसा कुछ कहा जो मेरे लिए बड़े काम का था, उसने कहा मुझे फिर से बीमार हो जाना चाहिए, इसलिए मुझे मालूम है ये सामान्य-सी बात है।"
उसने मादाम दि सेंतेज को एक क्षण के लिए देखा और बोली - "ओह मैं ठीक चल रही हूँ!"
मुस्कुराने से उसके मसूढ़े दीखने लगे, पहले ही वह हड्डियों के ढाँचे में प्रेतनी-सी दीख रही थी, अब उसकी आँखें बुखार से मुँदी चली जा रही थीं। खाना खाने के तुरंत बाद उसकी हालत बदतर हो गई थी - मैं नर्स को बुलाने के लिए घंटी पर घंटी बजाने लगी : जो मैं चाहती थी वह हो रहा था, वह मर रही थी और इसने मुझे बुरी तरह डरा दिया था। दवा की एक गोली उसे वापस ले आई।
शाम को मैंने जैसे ही उसकी कल्पना मृतक के रूप में की - मेरा हृदय ऐंठ गया। पपेट से सुबह ही कहा था - स्थिति बेहतर हो रही है, यह कहने का मुझे बड़ा पश्चात्ताप हो रहा है। मामन इतनी चंगी थी कि वह सिमेनन के कुछ पन्ने पढ़ सकी। रात को उसने शरीर में दर्द की शिकायत की, उन्होंने मार्फिया का इंजेक्शन दिया, दिन में जब उसने आँखें खोलीं, उन आँखों में अनदेखी, काँच की-सी पारदर्शक दृष्टि थी। मैंने सोचा - "अब यह अंत है," वह फिर सो गई। मैंने एन. से पूछा - "क्या यह अंत है?"
"अरे नहीं," उसने थोड़ी कृपा, थोड़े उत्साह-मिश्रित सुर में कहा - "दवा ने अपना असर दिखाया है।"
"तो क्या दर्द जीत जाएगा?" "खत्म कर दो मुझे, मेरी रिवॉल्वर दो, मुझ पर दया करो।"
वह बोली - "सब तरफ दर्द करता है।"
उसने चिंता से अपनी सूजी हुई उँगलियों को देखा। "ये डॉक्टर मुझे चिढ़ा रहे हैं - अब मुझे इनसे चिढ़ होने लगी है, ये हमेशा कहते रहते हैं कि मैं ठीक हो रही हूँ लेकिन मेरी हालत तो बदतर होती जा रही है।"
यह मृत्यु-उन्मुख स्त्री मुझे अपनी ओर खींचती थी। त्रिसंध्या के समय जब हम बातें कर रहे थे, मुझे ऐसा लगा कि हम सब अपनी पुरानी बातें करें - जैसे मैं अपनी किशोरावस्था में मामन से किया करती थी, लेकिन वक्त के साथ-साथ बातें भी बदल जाती हैं। मेरी ही बातचीत में, वह किशोरावस्था का कच्चापन कहाँ रह गया था।
मैंने उसकी ओर देखा। वह थी वहीं - चेतन, जागृत और इस सब से बेखबर कि वह कैसे जी रही है। अपनी ही त्वचा के नीचे क्या हो रहा है - इससे अनजान रहना ही तो स्वाभाविक है। लेकिन उसके लिए शरीर के बाहर - उसका चोटिल पेट, फिश्तुला और उससे निकलता मवाद, उसकी त्वचा का नीलापन और रोमछिद्रों से टपकता द्रव्य, वह इन सब को लगभग पंगु हो चुके अपने हाथों से महसूस नहीं कर पा रही थी। और जब उन्होंने इलाज किया, उसके घाव की ड्रेसिंग कर दी, उसका सिर पीछे की ओर लटक-सा गया था। उसने देखने के लिए आईना नहीं माँगा, अपने मृतप्राय चेहरे का कोई अस्तित्व अब उसके लिए था नहीं। उसने आराम किया, सपने देखे, शरीर का एक-एक अंग बारी-बारी से गल रहा था, और उसके कान मेरे द्वारा बोले गए असत्य की ध्वनियों से भर गए थे, उसका पूरा व्यक्तित्व हमारी आत्मीय आकांक्षा के इर्द-गिर्द केंद्रित हो गया था - वह ठीक हो रही थी, मुझे उसकी अनिच्छाओं से सहमति जतानी चाहिए थी -
"तुम्हें इस दवा को अब और खाने की जरूरत नहीं।"
"यह लेना तुम्हारे लिए बेहतर होगा।"
और वह पानी में घुला सफेद खड़िया के बुरादे जैसा दीखनेवाला पाउडर झट से पी जाती। उसे खाने में दिक्कत होती, "जबरदस्ती मत खाओ, इतना काफी है, और मत खाओ।"
क्या तुम्हें ऐसा लगता है?
उसने प्लेट की तरफ देखा, संभ्रम से बोली - "थोड़ा और दो मुझे।" अंत में, मैं उसके सामने से प्लेट हटा लेती।
"तुम पूरा खा चुकी हो।" उसने अपने-आप जबदरस्ती शाम को दही खाया। वह अक्सर फल का रस चाहती, उसने अपनी बाँह को थोड़ा हिलाया, धीरे से बहुत ही सावधानी के साथ अपने हाथों को थोड़ा ऊपर उठाया और मेरे हाथ से जूस के गिलास को थाम लिया, दोनों हाथों से गिलास को पकड़ कर मुँह के पास ले गई, जिसे मैंने अब भी पकड़ा हुआ था, लाभकारी विटामिनों को गिलास से जुड़ी स्ट्रॉ से मुँह के भीतर ले गई :
"पिशाच का लालायित मुख जिन्दगी को चूस रहा था।"
आँखें उसके वीरान चेहरे पर पूरी फैल गईं, उसने आँखों को पूरा खोला, जिसके लिए बहुत यत्न करना पड़ा, अपने-आपको मद्धम प्रकाशवाले निजी संसार से उठा कर उजाले में लाने का प्रयास किया, अपना पूरा अस्तित्व वहाँ संकेंद्रित कर दिया, मेरी तरफ मुलमुला कर अत्यंत नाटकीय स्थिरता से देख बोली - "मैं तुमको देख सकती हूँ।" हर बार उसे अंधकार पर विजय पानी होती थी। अपनी आँखों से ही वह इस संसार से संबद्ध और संपृक्त थी, जैसे अपनी मुट्ठियों की जकड़ से वह बिस्तर की चादर से जुड़ी थी - इससे वह खो जाने से बचती थी -
जियो! जियो!
मैं अकेली हो गई थी, बुधवार की शाम जब टैक्सी मुझे दूर ले जा रही थी - यात्रा लैंकोमे, हॉबीगेट, हर्मेस, लैंविन से गुजर रही थी, मैंने आलोचनात्मक निगाह से गरिमापूर्ण टोपियों, वेस्टकोट्स, रंगीन स्कार्फों, चप्पलों, जूतों को देखा। कुछ ही दूर पर सुंदर ड्रेसिंग गाउन थे - कोमल रंगोंवाले - सोचा, "मैं मामन के लिए एक खरीदूँगी।" इत्र, फर, अंत:वस्त्र, आभूषण-रत्न, एक परिपूर्ण, परितृप्त आक्रामक संसार जिसमें मृत्यु का कोई स्थान न था। लेकिन सच इसके पीछे छुपा हुआ था। नर्सिंग होम के अँधियारे रहस्य, अस्पताल, रोगियों के कमरे और मेरे लिए यही एकमात्र सत्य था।
बृहस्पतिवार को मामन के चेहरे ने मुझे सहमा दिया, हालाँकि वह हमेशा ऐसा करती थी, फिर भी इस बार तो उसने मुझे बहुत ज्यादा डरा दिया, लेकिन वह देख सकती थी, उसने मेरा निरीक्षण कर कहा - "मैं तुम्हें देख रही हूँ, तुम्हारे बाल ज्यादा ही भूरे हो गए हैं।""
"ठीक बात है, लेकिन तुम्हें तो ये हमेशा से मालूम था।"
"क्योंकि तुम दोनों बहनों के बालों में बड़ी सफेद धारी है, उसे मैं हमेशा ठीक से सँवारती थी।" उसने अपनी उँगलियाँ हिलाईं।
"सफेद बाल गिर रहे हैं, ऐसा नहीं है क्या?"
वह सो गई, फिर अपनी आँखें खोलीं - "जब मैं अपनी कलाई पर बँधा फीता देखती हूँ तब मुझे पता लगता है कि जागने का समय हो गया, सोते समय पेटीकोट पहन कर सो जाती हूँ - कौन-सी स्मृतियाँ उसे अपने आगोश में ले रही थीं? उसका जीवन हमेशा बाहर की ओर खुलता था और मैंने पाया कि बड़ा दुखदायी था यह देखना कि वह अचानक अपने ही भीतर गुम हो गई थी। वह अपना ध्यान बँटाया जाना पसंद नहीं करती थी। उस दिन एक मित्र मादामोसाइले वाधियर ने एक स्त्री की जिजीविषा के बारे में बताना शुरू किया, मैंने जल्द ही उससे अपना पीछा छुड़ा लिया। मामन ने तो अपनी आँखें ही बंद कर लीं। जब मैं वापस लौटी तो वह बोली, "तुम्हें समझना चाहिए कि बीमार लोगों को ऐसी कहानियाँ नहीं सुनानी चाहिए, उन्हें इसमें कोई दिलचस्पी नहीं होती।""
उस रात मैं मामन के साथ ही रही, वह दु:स्वप्नों से उतना ही डरती थी जितना दर्द से। डॉ. एन. के आने पर उसने अनुनय किया, बल्कि लगभग गिड़गिड़ा कर बोली कि वे चाहे जितने इंजेक्शन उसे दे सकते हैं और उसने नर्स के सुई भोंकने की मुद्रा का अनुकरण कर के दिखाया।
"हा-हा, तुम असली ड्रग एडिक्ट बन गई हो," - डॉ. एन. ने दिल्लगी की - "मार्फिया बहुत ही सस्ते दामों में दिलवा सकता हूँ मैं।" फिर मेरी तरफ तुरंत उन्मुख हो गंभीरता से कहा - "कोई भी स्वाभिमानी चिकित्सक दो मुद्दों पर कभी समझौता नहीं करता - दवाएँ और गर्भपात।"
शुक्रवार का दिन यूँ ही निकल गया, शनिवार को वह पूरा दिन सोती रही, पपेट को यह अभूतपूर्व लगा। उसने मामन से पूछा -
"तुमने विश्राम किया?"
मामन ने नि:श्वास फेंकते हुए कहा - "आज मैंने जिया नहीं।"
मरण कितना कष्टकर है, जबकि कोई जीवन को इतनी शिद्दत के साथ प्रेम करता हो। डॉक्टरों का अंदाजा था वह दो-तीन महीने और खींच लेगी। इसलिए हमें अपनी दिनचर्या इसी हिसाब से व्यवस्थित करने की जरूरत थी, साथ ही मामन को हमारे बिना भी कुछ घंटे रह पाने की आदत भी डालनी थी। पपेट का पति परसों रात ही पेरिस आया था, इसलिए उसने मामन के पास मादामोसाइले कार्नेट को छोड़ने का निर्णय लिया। उसे सुबह लौट आना था, मार्था को ढाई बजे दिन में और उसे पाँच बजे शाम तक मामन के पास पहुँचना था।
पाँच बजे मैं भीतर घुसी। पर्दे पसरे हुए थे और कमरे में घुप्प अँधेरा था। मार्था ने मामन का हाथ थामा हुआ था और मामन आँखों में कातर भाव लिए सिकुड़ी-सहमी लेटी हुई थी।
वह दाहिनी करवट इसलिए लेटी हुई थी, ताकि बाईं तरफ के "बेड सोर्स" उसे तकलीफ न दें। लेकिन इस तरह से सिर्फ दाहिनी करवट लेटे रहना भी उसके लिए पीड़ादायक था। उसने ग्यारह बजे तक बड़ी बेसब्री से पपेट और लॉयनल का इंतजार किया क्योंकि नर्सें घंटी के तार को बिस्तर से जोड़ना भूल गई थीं, स्विच बोर्ड उसकी पहुँच से दूर था और वह किसी को बुला पाने में असमर्थ थी। उसकी मित्र मादाम तारापिड उससे मिलने भी आई फिर भी उसने पपेट से शिकायत की कि वह उसे बर्बर नर्सों के बीच अकेला छोड़ गई (दरअसल, वह रविवार की ड्यूटी- नर्सों को पसंद नहीं करती थी)। फिर किसी तरह लॉयनेल से बोली - "तो तुम्हें उम्मीद थी कि तुम्हें सास से छुटकारा मिल जाएगा! लेकिन ऐसा नहीं है, जल्द होनेवाला भी नहीं।" लंच के बाद वह एक घंटे के लिए जैसे ही अकेली हुई, दुश्चिंताओं और डर ने हमला कर दिया। बीमार आवाज में उसने मुझसे कहा - किसी भी हालत में मुझे अकेला नहीं छोड़ा जाना चाहिए, मैं अभी भी बहुत कमजोर हूँ, मुझे बर्बर नर्सों के भरोसे मत छोड़ो।
"तुम्हें अब नहीं छोड़ेंगे अकेला।"
मार्था चली गई, मामन झपकियाँ लेने लगी और जगी तो एक नई शुरुआत के साथ - उसके दाहिने कूल्हे में दर्द था। मादाम गोनट्रेंड ने उसके कपड़े बदले, फिर भी मामन की शिकायत दूर नहीं हुई। मैंने सोचा कि दूसरी नर्स को बुलाया जाए - "कोई फायदा नहीं, वह मादाम गोनट्रेंड ही दुबारा आएगी, वह बिल्कुल बेकार है।"
मामन को वास्तव में दर्द था, उसके शरीर में तकलीफ थी, हाँ, इसके साथ ही यह भी सच था कि उसकी पसंदीदा नर्सें जैसे मादामोसाइले मार्टिन या मादामोसाइले पेरेंट आतीं तो उसका दर्द कुछ कम हो जाता। जो भी हो वह दोबारा सो गई। साढ़े छह बजे थोड़ा कस्टर्ड और सूप खाने से उसे तृप्ति मिली। तभी वह चिल्ला उठी : उसके बाएँ कूल्हे में भयंकर दर्द उठा था, यह आश्चर्यजनक नहीं था क्योंकि शरीर से ही निकले यूरिक एसिड से सारे अंग भीग गए थे, नर्सों की उँगलियाँ चादर बदलते वक्त यूरिक एसिड से जल रही थीं। मैं घबरा कर बार-बार घंटी बजाती, खैर मामन के कपड़े बदल दिए गए, मामन का हाथ थाम कर मैंने कहा - "तुम्हें अब इंजेक्शन दिया जाएगा, उससे दर्द में आराम होगा, बस एक मिनट।"
मामन चीखती हुई बोली - "बहुत जलन हो रही है, भयंकर दर्द है, मैं अब और सहन नहीं कर सकती," और लगभग सुबकती हुई बोली, "क्या कमबख्ती है?"
इस शिशुवत स्वर ने मेरा हृदय बींध दिया। कितनी अकेली थी वह! उसे छुआ मैंने, बात की, लेकिन उसका दर्द बाँट लेना असंभव था।
उसका दिल तेजी से धड़क रहा था, आँखों में कलौंछ-सी छा गई थी, मैंने "सोचा" - वह मर रही है।" तभी वह बुदबुदाई - "मैं बेहोश हो रही हूँ..." अंतत: मादाम गोनट्रेंड ने उसे मार्फिया का इंजेक्शन दे दिया। मुझे डर था कि इंजेक्शन का असर सुबह तक खत्म होते-होते दर्द लौट आएगा, जब मामन के पास कोई नहीं होगा और वह किसी को आवाज भी नहीं दे पाएगी। अब मामन को क्षण भर भी अकेला छोड़ने का सवाल ही नहीं पैदा होता था। इस बार नर्सों ने मामन के कपड़े और बिस्तर बदल कर इक्वॉनिल दिया, साथ ही उसके खुले अंगों पर एक क्रीम भी लगा दी थी, जिससे उसकी त्वचा चमकने लगी थी। जलन अब बुझ गई थी लेकिन चौथाई घंटे की जलन अनंत काल की पीड़ा दे गई थी। इस पृथ्वी पर कोई भी... न मेरी बहन, न डॉक्टर, न ही मैं, इस व्यर्थ की पीड़ा का औचित्य समझ सकने में सक्षम था।
सोमवार की सुबह मैंने पपेट को फोन कर के मामन की दशा बताई, अंत निकट था। उदर की क्रियाएँ लगभग ठप थीं, आँतों का खुलना-बंद होना रुक गया था और शोथ से निकलते द्रव्य को सोख पाने में शरीर अक्षम हो गया था। डॉक्टर ने नर्सों को मामन को सिर्फ सेडेटिव्ज देने को कहा था, यही एक रास्ता बच रहा था।
दो बजे पपेट एक सौ चौदह नम्बर कमरे के बाहर दिखाई दी, वह बहुत परेशान थी। मादामोसाइले मार्टिन से बोली - "कल की तरह मामन को तकलीफ में अकेला छोड़ कर चली मत जाना।"
"लेकिन अगर मार्फीन के इंजेक्शन सिर्फ बेडसोर्स के दर्द को दबाने के लिए दिए जाएँगे तो बाद में चल कर मार्फीन काम नहीं करेगा।"
ये उसका आम जवाब था, जो वह सैकड़ों रोगियों को दे चुकी थी। वास्तविकता तो यह थी कि मामन जैसे अनेक रोगी मार्फिया के दौरान ही मौत की नींद सो गए थे। "मेरे ऊपर तरस खाओ, मार डालो मुझको," - वह ऐसी आवाजें सुनने की अभ्यस्त थी। अगर डॉक्टर पी. ने झूठ कहा हो तो? "एक रिवॉल्वर लाओ : मार दो मामन को, घोंट दो उसका गला!" ये सब स्वैर कल्पनाएँ मात्र थीं। लेकिन मेरे लिए उसकी घंटों दर्द भरी चीखें घंटों बर्दाश्त करना संभव नहीं था।
"हम डॉक्टर पी. से बात करेंगे।" उनके आते ही हमने उन्हें घेर लिया।
"आपने वायदा किया था कि उसे और कष्ट नहीं होगा।"
"उसे कष्ट नहीं होगा," क्योंकि वे किसी भी कीमत पर मामन की जिन्दगी लंबी करना चाहते थे इसलिए जरूरत पड़ने पर एक और ऑपरेशन और साथ ही ब्लड ट्रांस्फ्यूजन और जीवनरक्षक इंजेक्शन देंगे।
"हाँ।"
उसी सुबह डॉक्टर एन. ने पपेट से कहा था कि वे मामन को बचाने के लिए जो भी करना चाहते थे, कर चुके। अब मामन की पीड़ादायक जिंदगी को और लंबा करना परपीड़न के अलावा कुछ नहीं।" लेकिन सिर्फ इतने भर से हमारी शंकाओं का परिमार्जन संभव नहीं था। हमने पूछा डॉक्टर पी. से, "क्या मार्फिया उसके दर्द को खत्म कर देगा?"
"जितनी जरूरत है उतना मार्फिया उसे दिया जाएगा।"
उनकी दृढ़ता ने हमें साहस दिया। हम थोड़े शांत हो गए। वे मामन के कमरे में ड्रेसिंग देखने गए।
"वह सो रही है।" हमने बताया।
"उसे पता भी नहीं चलेगा कि मैं यहाँ हूँ।" इसमें कोई शक नहीं था कि डॉक्टर के जाने तक मामन गहरी नींद में थी। लेकिन पिछले दिन उसके डर को याद कर के मैंने पपेट से कहा कि हम में से कोई न कोई उसके पास जरूर होना चाहिए जब वह नींद से जागे।
मेरी बहन ने दरवाजा खोला, मेरी तरफ मुड़ी, पीला-जर्द चेहरा लिए बेंच पर लगभग गिर पड़ी।
"मैंने उसका पेट देखा है। मैं उसके लिए इक्वानिल लाने गई थी। उसी समय डॉक्टर पी. लौटे थे वहीं। उसने मामन का पेट देखा था!
"कितनी बुरी स्थिति है।"
ओह नहीं, डॉक्टर पी. ने कहा तो, ऐसे रोगियों में ये सामान्य-सी बात है, लेकिन उनके चेहरे पर भी असमंजस का भाव था।
"वह जीते जी सड़ रही है।" पपेट बोली।
मैंने उससे कोई सवाल नहीं किया। हम ने बातें कीं, फिर मैं मामन के बगल में बैठ गई, लगभग छह बजे उसने आँखें खोलीं।
"समय क्या हुआ? समझ में कुछ नहीं आ रहा है, क्या रात हो चुकी है? "
"तुम पूरी दोपहर सोती रहीं।"
"मैं अड़तालीस घंटे सोई!"
"नहीं-नहीं," मैंने कहा और पिछले दिन की बातें याद दिलाईं। खिड़की के पार के अँधेरे और नियॉन बत्तियों की ओर देख कर बुदबुदाई - "मुझे समझ नहीं आ रहा।" आवाज में नाराजगी थी। उसे बताया मैंने, आनेवाले लोगों और फोन कॉल्स के बारे में।
"मुझे क्या फर्क पड़ता है इससे," वह बोली।
उसके कानों में अधूरी पड़ी आवाजें गूँज रही थीं।
मैंने डॉक्टरों की आवाजें सुनी थीं, वे कह रहे थे - "इसे नीम-बेहोशी की दवा दी गई है।"
वे सावधानी बरतना पहली बार भूले थे। मैंने समझाया कि डॉक्टर कह रहे थे कि जब तक उसके बेड सोर्स सूख नहीं जाते तब तक उसका गहरी नींद में सोना अच्छा है।
"हाँ, लेकिन इतने दिन तो मेरे हाथ से निकल गए न।"
"आज का दिन मैंने नहीं जिया। मेरे दिन घटते जा रहे हैं।" हर दिन उसके लिए अमूल्य था और वह मरने जा रही थी।
वो ये नहीं जानती थी : लेकिन मुझे मालूम था उसके नाम पर मैं रिवॉल्वर की गोली दाग चुकी थी।
उसने थोड़ा सूप लिया, हम पपेट की प्रतीक्षा कर रहे थे।
"यहाँ सोने से वह थक जाती है," मामन बोली।
"नहीं, ऐसा नहीं है," मैंने कहा
उसने नि:श्वास भरा - "अब मेरे लिए कोई फर्क नहीं पड़ता तो मुझे चिंता किस बात की है।"
सोने जाने से पहले उसने कुछ शंका से पूछा - "लेकिन क्या लोगों को ऐसे बेहोश किया जा सकता है! ऐसे?"
क्या ये प्रतिरोध था?
मुझे लगता है वह पुनराश्वासन चाहती थी।
मादामोसाइले कार्नेट के आने पर मामन ने आँखें खोलीं। वे भटकीं, थोड़ी ही देर उसने नजर को नर्स पर टिका पाने में सफलता पाई, जैसे नवजात शिशु पहली बार सृष्टि को चकित नेत्रों से देखता है - यह कुछ-कुछ वैसा ही था।
"तुम, वहाँ हो, कौन हो तुम?"
"मैं मादामोसाइले कार्नेट हूँ।"
"तुम इस वक्त यहाँ क्या कर रही हो?
"अब रात हो चुकी है," -मैंने फिर बताया उसे। उसने मादामोसाइले के चेहरे पर अपनी चौड़ी आँखें टिका कर फिर पूछा।
"तुम यहाँ क्यों आईं?"
"आप को जरूर याद होगा मैंने आप के बगल में बैठ कर कई रातें गुजारी हैं।"
"वास्तव में! क्या बात है! " मामन ने कहा।
मैं ज्यों ही चलने को प्रस्तुत हुई तो मामन ने पूछा -
"क्या जा रही हो तुम?"
"मेरे जाने से तुमको परेशानी होगी? "
एक बार फिर उसने वही जवाब दिया - "मेरे लिए अब सब बराबर है।"
उसी समय मुझ से जाया नहीं गया : दिनवाली नर्स ने कहा था कि मामन ये रात गुजार नहीं पाएगी, उसकी नब्ज अड़तालीस से सौ के बीच गिरती-उठती रही थी। दस बजे के करीब नब्ज की गति स्थिर हुई। पपेट वहीं लेटी, मैं घर लौट आई। मामन एक-दो दिन में ही मर जाएगी बिना किसी विशेष कष्ट के।
सुबह उसका दिमाग बिल्कुल साफ था। जैसे ही वह दर्द से कराहती, वे उसे एक "सेडेटिव" दे देते। तीन बजे लौटने पर मैंने देखा वह शंताल के साथ बिस्तर पर गहरी नींद में सोई हुई है।
बेचारा शंताल!
थोड़ी देर बाद ही उसने मुझसे कहा - "उसे इतना काम रहता है मैं उसका इतना समय ले लेती हूँ।"
"लेकिन वह तुम्हारे पास आना पसंद करता है, उसे तुमसे लगाव है।"
आश्चर्य और दुख मिश्रित आवाज में मामन ने कहा - "मेरे लिए तो.. मैं अब बिल्कुल जानती नहीं कि मैं किसी को पसंद करती भी हूँ या नहीं।"
मुझे उसका अभिमान याद आया - "लोग मुझे इसलिए पसंद करते हैं क्योंकि मैं खुशमिजाज हूँ।" धीरे-धीरे कई लोग उसके प्रति उदासीन हो गए थे। अब उसका हृदय बिल्कुल जड़-सा हो गया था : थकान उससे उसका सब कुछ छीन चुकी थी। अब भी उसके प्यारे शब्द मेरे दिल को हिला देते थे, ठीक वैसे ही जैसे इस निर्लिप्ततापूर्ण कथन ने मेरे दिल को हिला दिया। पहले तो बने-बताए मुहावरे और पुरानी भाव-भंगिमाएँ उसकी सच्ची भावनाओं को ढँक लेते थे लेकिन अब उसमें दिखावे की गर्माहट भी नहीं बची थी इसलिए मुझे संवेदना के ठंडेपन की अनुभूति हो रही थी।
उसकी धड़कन बिल्कुल धीमी थी, ठीक उसी समय मैंने सोचा - अगर यहीं सब खत्म हो जाए, बिना किसी शोर-शराबे के। लेकिन काला रिबन उठा और गिर गया, छलाँग इतनी आसान नहीं थी। पाँच बजे जगाया, उसी के कहने पर क्योंकि वह दही खाना चाहती थी - "तुम्हारी बहन चाहती है कि मैं दही खाऊँ, यह मेरे लिए अच्छा है।"
उसने दो-तीन चम्मच दही खाया, कई देशों में मृतक को खाना देने का रिवाज है, मैंने उसके बारे में सोचा। सूँघने को एक गुलाब का फूल दिया, जो कैथरीन पिछले दिन ले कर आई थी। मामन ने उस पर व्यस्त-सा दृष्टिपात किया और दुबारा गहरी नींद में डूब गई, उसके कूल्हों के जलते हुए दर्द ने उसे जगा दिया। मार्फिया इंजेक्शन का कोई प्रभाव उस पर नहीं दीख रहा था। दो दिन पहले जैसे मैंने उसका हाथ थामा था, वैसे ही फिर थामा और उससे गुजारिश की - "एक मिनट और! एक मिनट में ही इंजेक्शन काम करनेवाला है - बस एक मिनट!"
मैंने नर्स से दूसरा इंजेक्शन देने की गुजारिश की। नर्स ने मामन को थोड़ा खिसका कर बिस्तर ठीक कर दिया। मामन फिर से सो गई, उसके हाथ बुरी तरह ठंडे थे - बिल्कुल बर्फीले। नौकरानी झुँझलाई हुई थी क्योंकि वह शाम छह बजे ही रात का भोजन ले कर चली आई थी, जिसे मैंने लौटा दिया था। मृत्यु और मृत्युशय्याएँ ही इस क्लीनिक का जीवन थीं। साढ़े सात बजे मामन बोली - "ओह, अब मुझे कुछ ठीक लग रहा है। सच में ठीक। एक लंबे समय बाद मैं अपने-आप को ठीक-ठाक स्वस्थ महसूस कर पा रही हूँ। जीन की बड़ी बेटी आई थी, जिसने मामन को काफी, कस्टर्ड और थोड़ा सूप पिलाने में मेरी मदद की। खाँसी के कारण उसे कुछ तरल पिलाना कठिन हो रहा था, उसका गला रुँध जाता था। पपेट और मादामोसाइले कार्नेट ने मुझे लौटने का सुझाव दिया। रात को कुछ नहीं होगा, संभावना इसी की थी और मेरा रात को वहाँ होना मामन को चिंतित कर देगा। मैंने उसे चूमा तो वह अपनी धुली-सी मुस्कान में बोली - "मैं खुश हूँ, तुम मुझे स्वस्थ देख कर जा रही हो!
आधे घंटे के बाद मैं बिस्तर पर थी। मैंने नींद की गोलियाँ ली हुई थीं। जब जगी, टेलीफोन बज रहा था - "सिर्फ कुछ ही मिनट में मार्शल तुम्हें लेने कार से आ रहा है।" आधी रात को लॉयनेल का चचेरा भाई पेरिस की सुनसान सड़कों पर मुझे कार में ले जा रहा था। हमने पोर्ट शैंपरेट में थोड़ी कॉफी गुटकी। पपेट नर्सिंग होम के बगीचे में हमसे मिलने आई - "सब खत्म हो गया।"
हम सीढ़ियों से ऊपर गए। यह सब अचानक नहीं था पर अकल्पनीय था, कि मामन के बिस्तर पर एक मृत शरीर लेटा हुआ था।
उसके हाथ और माथा बिल्कुल ठंडे थे। वह अभी तक मामन थी, लेकिन अब वह हमेशा के लिए अनुपस्थित थी। उसकी ठोढ़ी पर एक पट्टी बँधी हुई थी, जिससे उसका चेहरा फ्रेम में बँधा हुआ-सा लग रहा था। मेरी बहन र्-यू यब्लोमेट जा कर कुछ कपड़े लाना चाहती थी।
"क्या फायदा?"
"ऐसा ही किया जाता है।"
मुझे यह विचार ही अजीब-सा लग रहा था कि मामन को हम वो जूते और कपड़े पहनाएँ, जैसे कि वह डिनर पार्टी पर जा रही हो, और मुझे लगा कि वह भी ऐसा तो नहीं ही चाहती होगी - वह हमेशा कहा करती कि मृत्यु के बाद उसके शरीर का क्या होगा, इससे उसे कुछ फर्क नहीं पड़ता।
"उसे लंबीवाली रात्रिपोशाक पहना दो।" मैंने मादामोसाइले कार्नेट से कहा।
"और उसकी शादीवाली अँगूठी का क्या होगा?" पपेट ने पूछा। टेबल के ड्राअर में से वह अँगूठी निकाल कर उसकी उँगली में पहना दी गई।
क्यों?
इसमें क्या शक था कि वह सोने का गोल टुकड़ा धरती पर किसी का भी नहीं था।
पपेट बुरी तरह थक गई थी। मामन की मृत देह को एक बार दिखा कर मैं उसे जल्दी से बाहर ले गई। हमने मार्शल के साथ बार में जा कर एक ड्रिंक लिया जहाँ उसने बताया कि हुआ क्या था।
लगभग नौ बजे डॉक्टर एन. कमरे से बाहर आ कर गुस्से में बोले - "दूसरी क्लिप भी निकल गई है, आखिर ये सब तो उसी के लिए किया गया है, झुँझलाहट हो रही है!" वे चले गए, मेरी बहन बुत की तरह खड़ी की खड़ी रह गई। मामन ने अचानक गर्मी लगने की शिकायत की थी, उसे साँस लेने में थोड़ी दिक्कत पेश आ रही थी, उसे इंजेक्शन दिया गया और वह सो गई। पपेट ने कपड़े बदले, बिस्तर में लेट कर एक जासूसी कहानी पढ़ने लगी। आधी रात के करीब मामन जगी, पपेट और नर्स उसके बिस्तर के बगल में खड़ी थीं, उसने आँखें खोलीं - "तुम यहाँ क्या कर रही हो? इतनी चिंतित क्यों दिखाई देती हो? मैं बिल्कुल ठीक हूँ।"
"तुम कोई बुरा सपना देख रही थी," कहते हुए मादामोसाइले कार्नेट ने मामन के बिस्तर की सलवटें ठीक कीं, इतने में उसका हाथ मामन के पाँवों से छू गया, पाँव बर्फ की तरह ठंडे थे, मेरी बहन यह तय नहीं कर पा रही थी कि मुझे फोन करे या नहीं, लेकिन रात के इस पहर में अचानक मेरी उपस्थिति मामन को डरा सकती थी, जिसका दिमाग बिल्कुल साफ था, वह सब कुछ ठीक से समझ रही थी। पपेट वापस सोने चली गई। रात के एक बजे मामन फिर बेचैन हो गई, बड़ी ही कर्कश और खुरदुरी आवाज में उसने एक पुरानी टेक के शब्द फुसफुसाए जो पापा गाया करते थे - "तुम दूर जा रहे हो... और तुम हमें छोड़ जाओगे..."
"नहीं... नहीं," पपेट बोली - "मैं तुमको नहीं छोड़ूँगी।" मामन ने अर्थपूर्ण मुस्कुराहट फेंकी।
उसे साँस लेने में दिक्कत थी। दूसरे इंजेक्शन के बाद थोड़ी स्पष्ट आवाज में बुदबुदाई - "हमें जरूर.... जरूर... वापस।"
"हमें डेस्क पर वापस आना चाहिए।"
"नहीं," मामन ने कहा- "डेस्क नहीं, डेथ।"
उसने "डेथ" शब्द पर ज्यादा जोर दिया। फिर बोली - "मैं मरना नहीं चाहती।"
"लेकिन तुम पहले से बेहतर हो? तुम ठीक हो रही हो।"
इसके बाद वह थोड़ा टलमलाई, कुछ अनर्गल बोलने लगी। मेरी बहन ने कपड़े पहने : मामन लगभग अचेत हो चुकी थी। अचानक वह चिल्लाई - "मैं साँस नहीं ले पा रही।"
उसका मुँह खुल गया, आँखें फट कर बाहर निकलने को हो गईं, सिकुड़न भरा चेहरा, जोर से उसका शरीर ऐंठा और वह कोमा में चली गई।
"जाओ, टेलीफोन करो," मादामोसाइले कार्नेट बोली, पपेट ने मुझे फोन किया : मैंने फोन नहीं उठाया। ऑपरेटर लगातार मुझे फोन करती रही, आधे घंटे बाद मेरी नींद खुली थी।
इस बीच पपेट वापस मामन के पास गई : अब वो वहाँ नहीं थी- उसका दिल धड़क रहा था, वह साँस भी ले पा रही थी, शून्य आँखों से वह किसी को देख नहीं पा सकती थी, और इसके बाद सब कुछ खत्म था।
डॉक्टरों ने कहा - "उसे मोमबत्ती की तरह ही जाना था।"
"यह ऐसा नहीं होना था, ऐसा नहीं होना था..." सुबकती हुई पपेट बोली।
"लेकिन मादाम," नर्स ने कहा - "मैं इतना कह सकती हूँ कि इट वाज ए वेरी ईजी डेथ।"
मामन पूरा जीवन कैंसर से बुरी तरह भयभीत रही, हो सकता है जब वह नर्सिंग होम में थी तब भी उसे कैंसर का भय हो, जब वे लोग उसे एक्स-रे के लिए ले कर गए थे। ऑपरेशन के बाद तो उसने कभी एक क्षण के लिए भी इसके बारे में नहीं सोचा। कुछ दिन ऐसे भी थे जब वह लगातार हमेशा कैंसर के बारे में सोचती रही थी, उसे कैंसर ने धर दबोचा है। यदि उसे मालूम हो जाता तो शायद वह इस सदमे को बर्दाश्त नहीं कर पाती और तभी मर जाती। लेकिन उसके दिमाग में इस संदेह का लेशमात्र भी न था : उसका ऑपरेशन पेरिटोनाइटिस के लिए ही हुआ है - जो भयंकर तो है, लाइलाज नहीं।
जिस बात ने हमें इससे भी ज्यादा आश्चर्यचकित किया वह थी कि उसने अंत समय में भी किसी धर्मगुरु से मिलने की कोई इच्छा जाहिर नहीं की, उस दिन भी नहीं जब उसे लगा कि उसका अंत इतना निकट है कि "मैं फिर कभी सीमोन को देख नहीं पाऊँगी!" मार्था उसके लिए एक ताबीज, क्रॉस और रोजरी ले कर आई थी, जिसे मामन ने कभी ड्रॉअर से निकाला ही नहीं। एक सुबह जीन बोली - "आज रविवार है, आंट फ्रैंकोइस, क्या तुम चर्च चलोगी?" "ओह प्यारी जीन, मैं बहुत थकी हूँ, प्रार्थना नहीं कर पाऊँगी, ईश्वर तो दयालु है!" मादाम तारदिउ ने तो और भी जोर दे कर पपेट के सामने ही पूछा कि क्या उसे "कन्फेशन" के लिए पादरी की जरूरत नहीं : मामन की प्रतिक्रिया जबरदस्त थी - "बहुत थक गई हूँ।" और बातचीत पर विराम लगाने के लिए उसने आँखें मूँद लीं।
मादाम-द-सेंट आँगे ने हमीं से कहा- "वह इतनी तकलीफ और चिंता में है, जरूर चाहती होगी कि धर्म उसे थोड़ी राहत दे।"
"लेकिन वह नहीं चाहती थी।"
"उसने हम कुछ मित्रों से वादा लिया था कि हम उसके अंत समय में उसकी सहायता करेंगे और जितना हो सके उसके जीवन के अंत को सुखद बनाएँगे।
"वह सिर्फ इतना चाहती थी कि वह जल्दी से जल्दी स्वस्थ हो जाए।"
आरोप हमारे ऊपर लगा। ये तो तय था कि मामन को अंतिम समय में पादरी से संस्कार ग्रहण करने से हमने नहीं रोका, लेकिन हमने इसके लिए प्रेरित भी तो नहीं किया। हमें उसे बता देना चाहिए था - "तुम्हें कैंसर है, तुम मरनेवाली हो," कोई न कोई धर्मप्रवण औरत उसे सूचना दे ही देती अगर हमने उसे अकेला छोड़ा होता हो (उसकी जगह मामन में विद्रोही भाव जगाने का पाप मैंने किया, यह आरोप मुझ पर लगाया जाता, जिसका परिशोधन करने में मामन को सदियाँ लग जातीं)। मामन को ऐसे प्रसंगों पर बात करना पसंद नहीं था। वह तो अपने आस-पास मुस्कुराते-हँसते ताजा युवा चेहरे देखना चाहती थी। "विश्राम गृह जाने पर तो मेरे पास ढेर-सा समय होगा अपने जैसी ढेरों बुढ़ियाओं को देखने का..." उसने अपनी नातिनों से कहा था। वह जीन, मार्था तथा अपनी दो-तीन धार्मिक लेकिन समझदार मित्रों की संगति पसंद करती, जिन्हें मालूम था कि हम मामन से असलियत छिपा रहे हैं। वह दूसरे कइयों पर विश्वास नहीं करती, कइयों के बारे में तो उसके मन में दुर्भाव भी था - ये बड़ा आश्चर्यजनक था कि वह संवेदना के बल पर ऐसे लोगों को पहचान जाती जो किसी न किसी रूप में उसकी दिमागी शांति को भंग कर सकते थे। ऐसी जगहों पर वह दुबारा जाती भी नहीं, जैसे क्लब की औरतें, "जिनसे मिलने मैं दोबारा कभी नहीं जाऊँगी, कभी नहीं जाऊँगी।"
लोगों को लग सकता है - उसका विश्वास सतही था, सिर्फ शब्दों तक, क्योंकि पीड़ा और मृत्यु के क्षणों में वह खंडित हो गया, टिक नहीं सका। "मुझे मालूम नहीं आस्था किसे कहते हैं। लेकिन उसका पूरा जीवन धर्म पर आधारित था : धर्म उसके भीतर था, उसके डेस्क में मिले कागज इस बात की पुष्टि करते हैं। यदि वह ईश्वर की प्रार्थना को यांत्रिक मानती थी या माला फेरने की जगह उसे क्रॉसवर्ड सुलझाना ज्यादा अच्छा लगता था तो मेरा मानना है कि वह प्रार्थना-पूजा या आत्मस्वीकृति को अभ्यास की वस्तु नहीं बल्कि आत्मा की एक विशिष्ट अवस्था मानती थी, उसने मरने के पहले कोई प्रार्थना नहीं की, और मैं उससे सहमत हूँ। मुझे मालूम है उसने ईश्वर से क्या कहा होगा - "मुझे स्वस्थ कर दो लेकिन क्या ऐसा होगा : मैं मृत्य-उन्मुख हूँ।" उसने समर्पण नहीं किया, सत्य के इन क्षणों में उसने मिथ्या शब्दों को कहना निश्चित रूप से स्वीकार नहीं किया। लेकिन ठीक इसी समय उसने स्वयं को विद्रोह करने की छूट भी नहीं दी। वह मूक रही : "ईश्वर दयालु है।"
"मेरी समझ में नहीं आता," - झुँझलाई और संशयमिश्रित आवाज में मादामोसाइले वाउथियर ने कहा, "तुम्हारी माँ इतनी धार्मिक और पवित्र हो कर भी मृत्यु से इतना डरती है!" क्या उसे मालूम नहीं था कि संत भी मरते वक्त चीखते-चिल्लाते हैं।
इसके अलावा मामन देवता या राक्षस किसी से भी नहीं डरी : केवल जीवित व्यक्तियों को छोड़ कर। मेरी दादी मरने के ठीक पहले जानती थी कि वह मरने जा रही है। बड़ी तृप्ति से उसने कहा - "मैं उबला हुआ अंडा अंतिम बार खाने जा रही हूँ, उसके बाद मैं फिर से गुस्ताव से मिलने चली जाऊँगी।" उसने जीवन से कभी बहुत ज्यादा लगाव नहीं दिखाया, चौरासी वर्ष की अवस्था में वह परिस्थितिवश शाकाहारी थी, मृत्यु ने उसे बिल्कुल व्यथित या उत्पीडि़त नहीं किया। मेरे पिता ने भी कुछ कम साहस नहीं दिखाया, "अपनी माँ से कहो मेरे लिए पादरी को न बुलाए।" वह मुझसे बोले - "मैं किसी नाटक में पार्ट अदा नहीं करना चाहता।" और उन्होंने कुछ मुद्दों पर व्यावहारिक निर्देश दिए। ध्वस्त और जीवन के प्रति कड़वाहट से भरे पिता ने अपनी मृत्यु ठीक उसी शांति के साथ स्वीकार कर ली, जिस शांति से दादी ने परलोक स्वीकार कर लिया था। मामन ने जिंदगी को मेरी ही तरह प्यार किया और मृत्यु के सम्मुख आ कर उसमें प्रतिरोध का भाव वैसे ही उपजा, जैसा मुझमें है। उसके अंतिम दिनों में, मेरी ताजातरीन पुस्तक पर मुझे कई लोगों ने पत्र-टिप्पणियाँ भेजीं - "अगर तुमने अपनी आस्था नहीं खोई होती तो मृत्यु तुमको इतना डराती नहीं।" - यह किसी धर्मप्रवण की विद्वेषपूर्ण सहानुभूति थी, दृढ़-निश्चयी पाठकों का इसरार था - "अदृश्य हो जाना कुछ कम महत्वपूर्ण नहीं है, तुम्हारे बाद तुम्हारा लेखन तो रहेगा।" मन ही मन मैंने उन सबको बताया कि वे गलत हैं - धर्म मेरी माँ के लिए उससे ज्यादा कुछ नहीं कर सकता जितनी मरणोपरांत मेरी सफलता। मेरे लिए, मरने के बाद मेरी सफलता का क्या अर्थ रह जाएगा - कम से कम मेरे लिए! आप इसे चाहे जैसे लें -इहलौकिक या पारलौकिक, यदि आप जीवन से प्रेम करते हैं तो अमरता मृत्यु के लिए सांत्वना नहीं हो सकती।
क्या होता अगर मामन के चिकित्सक शुरुआती दौर में ही कैंसर का पता लगा लेते? कोई संदेह नहीं कि रेडियोथेरेपी चलती और मामन दो-तीन साल और जी पाती। लेकिन जब वह अपने रोग की प्रकृति जान पाती, या कम से कम संदेह तो कर ही लेती, तब वह अपने जीवन का अंतिम समय भीषण भय में पार करती। हमें जो खेद है वह यही कि डॉक्टरों की गलती ने हमें धोखा दिया नहीं तो मामन को खुश रखने पर ही हमारा पूरा ध्यान केंद्रित रहता। जीन और पपेट गर्मियों में मामन को अपनी समस्याओं की वजह से नहीं ले जा सकी थीं, शायद ऐसी स्थिति में मामन को वे ले जातीं, मैं कुछ और दिन उसे देख पाती, उसे प्रसन्न रखने के नए तरीके खोज पातीं।
डॉक्टरों ने ऑपरेशन करके गलत किया या सही? वह, जो एक दिन भी व्यर्थ में खोना नहीं चाहती थी, डॉक्टर उसे जीवन की ओर लौटा कर उसके लिए खुशियाँ लाए, लेकिन साथ ही चिंताएँ-यंत्रणा और पीड़ा भी। वह शहादत से बच गई, जबकि कभी-कभी मुझे लगता था कि शहादत उसके ऊपर मँडरा रही है, दरअसल मैं उसके लिए कुछ ठीक-ठीक निर्णय ले नहीं पाती। मेरी बहन के लिए मामन को खोना एक सदमा था। यह सदमा उसे उसी दिन लगा चुका था, जिस दिन उसने मामन को अस्पताल में देखा था और उससे वह किसी तरह बाहर निकल ही आती।
और मेरे लिए? वे चार हफ्ते मेरे लिए कई तस्वीरें, दु:स्वप्न, उदासी छोड़ गए, जिन्हें मैं कभी जान नहीं पाती, यदि मामन बुधवार की उसी सुबह मर जाती। लेकिन मैं उस व्यवधान को कभी नहीं माप सकती, जो मैंने महसूस किया क्योंकि मेरा दु:ख उस तरह से फट ही पड़ा था, जिसके बारे में मुझे स्वयं भी अंदाजा नहीं था। नि:संदेह इन सबमें हमारे लिए कुछ न कुछ अच्छा ही हुआ : इसने हमें पूरी तरह से या लगभग अनुताप से तो बचा ही लिया। जब कोई प्रियजन मरता है तो आप बहुत-से अनुतापों के साथ उसके पास होते हैं, मृत्यु उसकी विशिष्टताओं को प्रकाशन में ले आती है, वह बढ़ कर संसार जितनी व्यापक हो जाती है कि उसकी अनुपस्थिति उसके समक्ष नगण्य हो जाती है और वह, जिसका संसार में अस्तित्व ही उसकी वजह से है, महसूस करती है कि काश उसके जीवन में उसकी और बड़ी जगह होती - यदि जरूरी हो तो उसी की जगह सबसे बड़ी होती। लेकिन क्योंकि तुम किसी के लिए इतना सब नहीं करते - उतना भी नहीं जितना तुम कर सकते थे, कम से कम अपनी सीमा में रहते हुए जितना तुम कर सकते थे - अपने पुनरीक्षण के लिए तुम्हारे पास ढेर सारी जगह बच रहती है। मामन के प्रति पूरे सम्मान के साथ मैं यह महसूस करती हूँ कि हमने मामन के प्रति कोई अपराध नहीं किया, वे अंतिम वर्ष जिनमें उसकी देखभाल नहीं की गई, मामन के प्रति बेरुखी, विलोपन और अनुपस्थिति के वे पिछले कुछ वर्ष जिनमें मामन की उतनी देखभाल हमने नहीं की, उसके अंतिम समय में शांति दे कर, उसके पास रह कर, भय और पीड़ा पर विजय पाने में उसका साथ दे कर हमने उसका प्रायश्चित कर लिया, ऐसा हमें लगता है। हमारी लगभग दु:साध्य रात-दिन की निरंतर देखभाल के बिना वह ज्यादा यंत्रणा झेलती।
सच है, बल्कि तुलनात्मक दृष्टि से मैं कह सकती हूँ कि उसकी मृत्यु एक सहज और आसान मृत्यु थी - "मुझे निर्दयी और क्रूर लोगों के भरोसे मत छोड़ो।" सोचती हूँ उन लोगों के बारे में जिनके निकट ऐसा कोई नहीं होता, जिससे वे ऐसी विनती कर सकें, कैसा लगता होगा उन्हें, जो स्वयं को अंतिम समय में अरक्षित महसूस करते होंगे।
हृदयहीन डॉक्टरों और थकी चिड़चिड़ाई नर्सों पर पूरी तरह से निर्भर, माथे पर कोई हाथ नहीं जो भय के चरम क्षणों में दिलासा दे सके, बक-बक करनेवाला कोई नहीं जो सूनेपन को आवाजों से भर दे| "रातों-रात उसके बाल सफ़ेद हो गए" - जैसी उक्ति ने मेरे दिमाग को आच्छादित कर लिया। आज भी क्यों बहुत-से लोग भयानक, दर्दनाक मृत्यु को प्राप्त करते हैं? जनरल वार्डों में जब कोई रोगी मरनेवाला होता है, तो उसे चारों ओर से पर्दों से घेर देते हैं - वह जानता है इसका मतलब, पर्दे खिंच जाते हैं और अगले दिन वह बिस्तर खाली मिलता है। मेरी आँखों में मामन की तस्वीर है - उसकी फटी, निष्प्रभ, सूरज की ओर भी सीधे देख सकनेवाली आँखें, घूरती हुई, भयभीत करनेवाली स्थिर, निष्प्रभ, स्थिर पलकोंवाली आँखें। उसे एक बहुत सहज मृत्यु मिली, एक उच्च कोटि की मृत्यु।
पपेट मेरे घर ही सो गई। सुबह दस बजे हम वापस नर्सिंग होम को चले : होटल की तरह ही दोपहर से पहले यहाँ भी कमरा छोड़ना पड़ता है। एक बार हम फिर से सीढ़ी चढ़े, दरवाजा खुलने पर बिस्तर खाली था, दीवारें, खिड़कियाँ, लैंप, फर्नीचर सब कुछ अपनी-अपनी जगह पर था, चादर की सफेदी पर कुछ नहीं था। हम मामन की मृत्यु के लिए जैसे तैयार ही नहीं थे। हमने आलमारी से सूटकेस निकाले, किताबें, कपड़े, साबुन वगैरह, कागज-पत्तर, छह सप्ताह की आत्मीयता का क्षय अचानक धोखे से हुआ था। हमने लाल रंगवाला ड्रेसिंग गाउन वहीं छोड़ दिया। बागीचा पार करके, कहीं नीचे हरियाली से घिरे एक शवगृह के अंदर ठुड्डी पर पट्टी बाँधे मामन का शरीर पड़ा है। पपेट ने संत्रास भोगा - अपनी इच्छा से भी और कुछ संयोगवश, जिससे बाहर निकलने में उसे बड़ी तकलीफ हुई। वह इतनी संत्रस्त थी कि वह मुझे मामन को दुबारा देखने के लिए कह नहीं पाई और खुद अपनी इच्छा मुझे मालूम नहीं थी कि मैं मामन को देखना चाहती थी या नहीं।
हमने "रूब्लोमेट" जा कर केयरटेकर के पास सूटकेस रखवा दिए। काले कपड़ेवाले दो भद्र पुरुषों ने हमारी इच्छा पूछी, उन्होंने हमें विभिन्न प्रकार के कौफीन दिखाए। "ये ज्यादा सुंदर है," पपेट सिसकते-सिसकते हँस पड़ी।
"ज्यादा सुंदर! वह डिब्बा! वो डिब्बे के भीतर जाना कभी पसंद नहीं करती!"
शुक्रवार का दिन अन्त्येष्टि के लिए नियत हुआ। दो दिन बाद! क्या हमें फूल चाहिए? इसके जवाब में हमने हामी भरी, बिना कारण जाने हमने इसके जवाब में हामी भरी : न माला, न क्रॉस, बस एक बड़ा-सा गुच्छा। बहुत अच्छा : बाकी सारी व्यवस्था वे स्वयं कर लेंगे। अपराह्न में हम सूटकेसों को फ्लैट में ऊपर ले आए; मादामोसयिले लेबलान ने फ्लैट का रूप ही बदल दिया था, वह अब पहले से ज्यादा साफ-सुथरा और खुशनुमा था, हम तो पहले फ्लैट को पहचान ही नहीं पाए - पहले से बहुत बेहतर, हमने बैग में बेडजैकेट और रात्रि-पोशाक भरी और आलमारी में ठूँस दी। किताबें आलमारी में रखीं, यूडीकोलोन, चॉकलेट और साबुन वगैरह फेंक दिया और बाकी चीजें मैं अपने साथ ले आई। उस रात मैं सो नहीं सकी। मुझे इस बात का खेद नहीं था कि मैंने मामन को अंतिम समय से पहले "मैं इस बात से खुश हूँ कि तुमने मुझे ठीक-ठाक अच्छी हालत में देखा" कहते सुना और वही उससे मेरा अंतिम मिलना था, वही अंतिम शब्द मैंने सुने थे। बल्कि मुझे ऐसा लग रहा था कि मैंने मामन के शरीर को यूँ ही इतनी जल्दी अकेला छोड़ दिया। उसने, और मेरी बहन ने भी कहा था - "देह मृत हो कर निरर्थक हो जाती है।" फिर भी ये उसकी अस्थिमज्जा थी, कुछ और समय के लिए उसका चेहरा भी। अपने पिता के पास तो मैं उस क्षण तक रही जब तक वे सिर्फ वस्तु के रूप में परिवर्तित न हो गए। मैं वर्तमान और शून्य के बीच संचरण कर रही थी। मामन के साथ तो, मैंने उसे चूमा और तुरंत चली गई थी। यही कारण था कि मुझे लग रहा था कि वह शवगृह की ठण्डक में लेटी, अकेली ठिठुर रही होगी। कौफीन में शव रखे जानेवाला संस्कार अगले दिन अपराह्न में होगा : क्या मैं जाऊँगी?
लगभग चार बजे मैं बिल भुगतान करने नर्सिंग होम गई। मामन के लिए चिट्ठी और फलों का थैला आया था। मैं नर्सों को विदा कहने ऊपर गई। मार्टिन और पेरेंट कारीडोर में दीखीं - वे खुश थीं। मेरा गला रुँध गया था और मैं बड़ी कठिनाई से दो-चार शब्द बोल पाई। मैं एक सौ चौदह नम्बर कमरे के सामने से गुजरी - "नो विजिटर्स" वाला नोटिस हटा लिया गया था। बागीचे में, मुझे क्षण भर के लिए संकोच-सा हुआ, मेरा साहस जाता रहा : और अब फायदा भी क्या था? मैं चली आई। मैंने कार्डिन को फिर देखा और सुंदर ड्रेसिंग गाउन को भी, खुद को बताया कि मुझे अब कभी यहाँ तक की यात्रा नहीं करनी चाहिए : मैं इन आदतों को खुशी से छोड़ देती अगर मामन स्वस्थ हो जाती, लेकिन मुझमें इनके लिए मोह था, क्योंकि उसे खो देने से मैंने इन सबको खो दिया था।
हम उसकी चीजों को उसके नजदीकी मित्रों को स्मृति के तौर पर देना चाहते थे। हमने उसकी सींकवाली डलिया देखी जो ऊन के गोलों से भरी थी, अधबना स्वेटर, उँगली में पहननेवाली कैप, सुई, कैंची, भावनाओं का ज्वार उठा और हम डूब गये। हर व्यक्ति वस्तुओं की अहमियत को जानता है, जिंदगी उन्हीं में ठोस रूप ग्रहण करती है, किसी भी अन्य घटना से ज्यादा वस्तुएं हमें उसकी याद दिलाती है। वे मेरी मेज पर पड़ी हैं , अनाथ, बेकार, कूड़े के ढेर में तब्दील होने या किसी और पहचान को पाने के लिए प्रतीक्षारत। मामन की घड़ी हमने मार्था के लिए अलग रख दी। पपेट काला रिबन उठाते वक्त रो पड़ी -
"हाँ ये बड़ी बेवकूफी है और मैं ऐसे, चीजों की पूजा भी नहीं करती, फिर भी मैं रिबन को फेंक नहीं सकती।"
"रख लो।"
एक ही समय में जिंदगी और मौत को एकीकृत करने की बेकार कोशिश और तर्क सम्मत दृष्टि से व्यवहार करना किसी के लिए संभव नहीं है : प्रत्येक व्यक्ति को अपने विक्षुब्ध क्षणों में, क्षोभ के चरम क्षणों में भी स्वयं को ज्यादा से ज्यादा नियंत्रित करने की कोशिश करनी चाहिए। समझ सकती हूँ उसकी सारी अंतिम इच्छाओं को और अचानक उन इच्छाओं का न रहना भी : मृतक की हड्डियों का आलिंगन - जिसे हम प्रेम करते हैं यह वैसा ही है जैसे हम मृतक के साथ-साथ जिंदा दफन हो जाएँ। फिर मेरी बहन, जो मामन की मृत देह को सुंदर-सुंदर नए कपड़े और शादी की अँगूठी पहनाना चाह रही थी, उसकी इच्छाओं को मुझे स्वीकार कर लेना चाहिए था जैसे वह मेरी भी इच्छा हो। हमें अंतिम संस्कार के लिए आपस में एक-दूसरे को कुछ पूछने की आवश्यकता नहीं थी। हमें मालूम था कि मामन क्या चाहती थी, और हमने उसका ध्यान रखा।
लेकिन हमें कुछ भीषण समस्याओं का सामना करना पड़ा। पेरेलाइचे कब्रग्राह जो हमारी पैतृक कब्रगाह थी, जहाँ हमारे पारिवारिक सदस्यों को अनंत समय तक किफायती दरों पर दफनाए जाने की सुविधा थी, जिसे एक सौ तीस साल पहले मिगनोट द्वारा - जो हमारे परदादा की बहन थी - खरीदा गया था। वह वहीं दफन थी। इसके अलावा हमारे दादा, उनकी पत्नी, भाई, मेरे चाचा गेस्तोन और पापा भी वहीं दफन थे। अब कोई जगह नहीं बची थी। ऐसी दशा में अक्सर नए मृतक को अस्थायी कब्रगाह में दफन कर दिया जाता था। पुरानी कब्रों में से मृतकों की अस्थियाँ चुन कर एक ही कौफीन में रख दी जाती थीं, इस तरह पारिवारिक कब्रगाह में पुन: नए मृतक को दफन किया जा सकता था। सिमेट्री की जमीन काफी महँगी होती है और प्रबंधन की यह कोशिश रहती है कि वे किफायती दरवाली जमीन को वापस अपने नियंत्रण में ले लें, प्रबंधन इस बात पर बल देता है कि हर तीस साल में मालिकाना हक दाखिला किया जाए। लेकिन वह अवधि बीत चुकी थी। हमें समय पर नोटिस नहीं मिला इसलिए अब यह डर था कि हम सिमेट्री की जमीन पर से मालिकाना हक खो देंगे - यदि लेडी मिगनोट का कोई वंशज आ कर सिमेट्री की जमीन पर अपना दावा पेश कर दे तो विवाद हो जाएगा। जब तक कोई वकील मिगनोट के किसी वंशज के बचे न होने को प्रमाणित नहीं कर देता तब तक मामन का शरीर शवगृह में ही रखा रहेगा।
हम अगले दिन के संस्कार से डरे हुए थे। हमने मन को शांत रखने की दवाएँ लीं, सात बजे सुबह तक सोए, थोड़ी चाय पी, कुछ खाया, कुछ और दवाएँ निगलीं। आठ के थोड़ा पहले सुनसान गली में काले रंग की शवगाड़ी रुकी, भोर से पहले ही यह गाड़ी मामन की देह को लेने नर्सिंग होम को गई थी। सुबह के ठंडे कोहरे को पार कर हम गाड़ी में बैठे, चालक और मेजीउर्स डूरण्ड के बीच पपेट, पीछे मैं, धातु के एक तालाबंद केबिन के पास बैठ गई। "क्या वह वहाँ है?" अपनी बहन से पूछा।
"हाँ, वह वहाँ है।" एक नन्ही सिसकी के साथ उसने कहा - "मेरे लिए बस यही एक तसल्ली है कि मुझे लगता है कि ऐसा ही एक दिन मेरे साथ भी होगा, नहीं तो यह कितना बड़ा अन्याय होता।"
"हाँ," हम अपने ही अंतिम संस्कार में भाग लेने के लिए ड्रेस रिहर्सल कर रहे थे। जबकि दुर्भाग्यवश हर व्यक्ति को यहीं आना होता है, तब भी हरेक अपने अनुभव में एकाकी होता है।
गहराई से हम मामन से अलग थे, फिर भी उसके अंतिम दिनों में हमने उसे कभी अकेला नहीं छोड़ा।
हम पेरिस के बीच से गुजर रहे थे, मैंने गलियों, रास्तों और उन पर चलते लोगों को देखा, सावधानीपूर्वक किसी चीज के बारे में न सोचते हुए मैं रास्तों और लोगों को देखती रही। सिमेट्री के गेट पर कारें प्रतीक्षारत थीं : परिवार भी : वे हमारे साथ चैपल तक आए। इसके बाद सब बाहर ही ठहर गए। जब कौफीन अंदर ले जाया जा रहा था, मैंने और पपेट ने मामन की बहन को देखा जिसका चेहरा लाल और रोते-रोते सूजा हुआ था। हम अंदर गए, प्रोसेशन में शामिल हो गए। चैपल लोगों से भरा हुआ था। कौफीन अंदर लाया गया। उस पर फूल नहीं थे, फूल गाड़ी में ही रह गए थे - कोई बात नहीं।
एक युवा पादरी, जिसने अपने चोगे के नीचे ट्राउजर पहन रखा था, भीड़ को संबोधित किया और एक बहुत छोटा, अजीब शोकयुक्त उपदेश दिया। "ईश्वर बहुत दूर है," उसने कहा, "यहाँ तक कि आपमें से, जिनकी आस्था ईश्वर में अटूट है, उन्हें भी लगता है कि ईश्वर उनसे बहुत दूर है, इतना कि जैसे लगता है कि वह है ही नहीं। किसी को ऐसा लग सकता है कि ईश्वर लापरवाह है, हमारी ओर देखता नहीं। लेकिन उसने अपना पुत्र भेज दिया है।"
दो नीची कुर्सियाँ रखी गई थीं, शोक संदेश के लिए। लगभग सभी ने शोक संदेश दिया। पादरी ने संक्षेप में फिर कुछ कहा। जैसे ही उसने "फ्रैंकोइस द बोउवार" कहा, भावना के उद्वेग से हम दोनों बहनों के गले रुँध गए : शब्दों ने उसे जीवित कर दिया, शब्दों में उसका इतिहास, जन्म से विवाह, वैधव्य से कब्र तक, पुनर्जीवित हो उठा, फ्रैंकोइस द बोउवार - वह अवकाशप्राप्त स्त्री और जिसे बमुश्किल लोग जानते थे - अचानक महत्वपूर्ण व्यक्ति बन गई।
लोग कतारबद्ध ही बाहर निकले। औरतों में से कुछ रो रही थीं। हम लोगों से हाथ मिला ही रहे थे, इसी बीच मामन का कौफीन चैपल से बाहर ले जाया गया। पपेट उसे देखते ही मेरे कंधे पर भहरा गई, "मैंने मामन से वायदा किया था कि उसे बक्से में नहीं रखा जाएगा।" मैंने स्वयं को बधाई दी कि उसे मामन की दूसरी प्रार्थना याद नहीं आई - "मुझे गड्ढे में मत गिरने देना।"
मैजीउर्स डूरण्ड के किसी आदमी ने लोगों को बताया कि वे अब जा सकते हैं - सब कुछ खत्म हो गया है। शव गाड़ी अपने-आप चलने लगी, मुझे पता भी नहीं चला कि वह किस ओर गई।
मामन के हाथ का लिखा कागज का टुकड़ा, जिसे मैं क्लीनिक से ले आई थी उस पर सधे हाथों, सुघड़ अक्षरों जैसे कि वह युवावस्था में लिखा करती थी में - "मैं चाहती हूँ कि मेरा अंतिम संस्कार बहुत सादगीपूर्ण हो, फूल मालाएँ कुछ भी नहीं, बस ढेर सारी प्रार्थनाएँ - तो हमने उसकी अंतिम इच्छा पूरी कर दी और भी ज्यादा आज्ञाकारी भाव से, क्योंकि फूल तो भूल से रह गए थे।
मेरी माँ की मृत्यु ने मुझे भीतर तक क्यों हिला दिया? जब से मैंने घर छोड़ा तब से माँ के प्रति भावुकता के क्षण बहुत ही कम आए। जब उसने मेरे पिता को खोया तब उसके दु:ख की सादगी और गहराई ने मुझे हिला दिया, वैसे ही उसके दूसरों के प्रति जुड़ाव ने भी - अपने बारे में सोचो - उसने कहा था मुझसे, उसे लग रहा था कि मैंने अपने आँसुओं को इसलिए छिपा रखा है ताकि वह और तकलीफ न पाए, एक वर्ष के बाद उसकी माँ की मृत्यु, पति की दुखद स्मृति बन कर आई, अन्त्येष्टि के दिन नर्वस ब्रेकडाउन के कारण उसे बिस्तर पर ही पड़े रहना पड़ा। मैं रात भर उसके बगल में लेटी : उस सुहागशय्या के प्रति अपनी जुगुप्सा को भूल कर, जिस पर मैं जन्मी, जिस पर मेरे पिता मरे, मैंने उसे सोते हुए देखा, पचपन की उम्र, बंद आँखों और शांत चेहरेवाली मामन अब भी खूबसूरत थी। मुझे आश्चर्य हुआ उसके भावाद्रेक ने कैसे उसकी इच्छाशक्ति पर विजय पाई। सही तो यह है कि उसके बारे में बगैर किसी विशेष भावना के मैंने सोचा फिर भी मेरे सपनों में (हालाँकि मेरे पिता सपनों में गाहे-बगाहे ही दीखते थे) उसकी सबसे महत्वपूर्ण भूमिका थी। वह सार्त्र के साथ घुल-मिल गई, हम सब साथ में खुश थे और तभी वह स्वप्न दु:स्वप्न में तब्दील हो जाता, क्यों एक बार फिर मैं उसके साथ रह रही हूँ? मैं कैसे उसके प्रभाव में एक बार फिर आ गई? तो हमारा अतीत का संबंध मुझमें दो आयामों में जिंदा रहा - एक दासता जिससे मैं प्यार और घृणा - दोनों करती थी। वो सब पुनरुज्जीवित हो गया - अपनी पूरी ताकत के साथ।
मामन के साथ हुई दुर्घटना, उसकी बीमारी और उसकी मृत्यु ने पूरी दिनचर्या अस्त-व्यस्त कर दी और हमारे संपर्कों को भी प्रभावित किया। जो संसार छोड़ कर चले जाते हैं समय उनके पीछे से सब कुछ धो-पोंछ देता है, उम्र बढ़ने के साथ मेरे अतीत के वर्ष और नजदीक दिखाई देते हैं।
मेरे दस वर्ष की उम्र की मामन डार्लिंग की तुलना मेरी किशोरावस्था की विरोधी औरत से की नहीं जा सकती थी, जिसने मेरी समूची किशोरावस्था का दमन कर दिया था, मैं उन दोनों के लिए भी रोई जब मैं अपनी बूढ़ी माँ के लिए रोई। मुझे लगा था कि अपनी असफलताओं को स्वीकार कर, समझा कर अपने-आपको तसल्ली दे दी है, लेकिन दु:ख मेरे हृदय में बार-बार लौट आता है, कुछ फोटो हैं हम दोनों के, मैं अठारह की और वह लगभग चालीस की : आज मैं लगभग उसकी माँ और उदास आँखोंवाली दादी की उम्र की हूँ। मुझे उन दोनों के लिए खेद है - अपने लिए तो इसलिए क्योंकि मैं इतनी छोटी हूँ कि कुछ नहीं समझती, उस के लिए इसलिए कि उसका कोई भविष्य नहीं है और वह कभी कुछ नहीं समझी, लेकिन मुझे ये मालूम नहीं कि मैं उन्हें समझाती कैसे! ये मेरी शक्ति के बाहर था कि मैं उसके बचपन के सारे दुखों को पोंछ दूँ, जो मामन ने उसे अपने दुखों के बदले दिए, जिसने मेरे जीवन के अनेक वर्षों को कड़वाहट से भर दिया, मैं उन्हें वापस जरूर दे देती अगर ये मेरे वश में होता। वह मेरी आत्मा के विषय में बहुत चिंतित थी। जहाँ तक इहलोक की बात है वह मेरी सफलताओं से बहुत खुश थी, लेकिन वह उस अपयश से आहत थी जो उसकी जान-पहचान के लोगों में मैंने अर्जित किया था। किसी रिश्तेदार के कहने पर - "सीमोन परिवार की बदनामी का कारण है..." मामन को बुरा लगा था।
बीमारी के दौरान मामन में आए परिवर्तनों ने मेरा दु:ख और बढ़ा दिया। जैसा कि मैंने पहले ही कहा है, वह बहुत ही व्यग्र और तीव्र मनोवेगोंवाली स्त्री थी, आत्मत्यागी बनते ही वह बहुत ही कठिन और उलझ-सी गई, बिस्तर तक ही सीमित, बिस्तर पर पड़े-पड़े उसने सिर्फ अपने लिए जीने का फैसला किया और साथ ही उसमें दूसरों की परवाह करने की भावना भी थी। उसके अपने अंतर्विरोधों में एक तरह की संगति दिखाई पड़ने लगी। मेरे पिता और उनका सामाजिक चरित्र - दोनों एक दूसरे के अनुरूप थे : उनका वर्गीय चरित्र और वे स्वयं एक समय में एक जैसी बात ही मुँह से निकालते : उनके अंतिम शब्द "तुमने बहुत कम उम्र में ही अपने खर्च के लिए कमाना शुरू कर दिया, सीमोन, तुम्हारी बहन के ऊपर मेरे बहुत पैसे खर्च हो गए।" इन शब्दों को सुन कर किसी तरह भी आँसू नहीं आ सकते थे। मेरी माँ एक आध्यात्मिक आदर्श में जकड़ी हुई थी, लेकिन उसमें एक तरह की पशुवत जिजीविषा थी जो उसके साहस का स्रोत थी। उसके लिखे कागजों में मुझे उसकी आत्मीयता और प्रेम की गर्माहट मिली जिसे अक्सर ईर्ष्या के कारण वह बुरी तरह से अभिव्यक्त करती। उसके कागजों में मुझे बड़े आत्मीय प्रमाण मिले, उसने दो चिट्ठियाँ अलग करके रख दी थीं जिनमें से एक जेसुट और दूसरी एक मित्र द्वारा लिखी गई थी, दोनों ने उसे सांत्वना दी थी कि एक दिन मैं खुदा की राह पर वापस लौट आऊँगी। उसने सैक्सन के अंश की प्रतिलिपि भी की थी, जिसमें वह "प्रभाव" में कहता है - "अगर मैं बीस वर्ष की उम्र में उस बुजुर्ग आदमी से मिलता, जिसने मुझे नीत्शे और मुक्ति के विषय में बाद में बताया था, तो घर से भाग जाता।" उसी फाइल में एक लेख जिसका शीर्षक था - "ज्याँ पाल सार्त्र ने एक आत्मा की रक्षा की," जिसमें "बहुत ही अविश्वास के साथ "बारिओना" के स्तालॅग XII द में मंचन के बाद एक नास्तिक चिकित्सक आस्तिक बन गया।" मैं अच्छी तरह जानती थी कि वह कागज के इन टुकड़ों से क्या चाहती थी - वह स्वयं को आश्वस्त करना चाहती थी मेरे बारे में, लेकिन वह मेरी "मुक्ति" की जरूरत को महसूस नहीं कर सकती थी, उसने एक युवा नन को लिखा था - "हाँ, मैं स्वर्ग जरूर जाना चाहूँगी, पर अकेली नहीं, अपनी बेटियों के बिना नहीं।"
कभी-कभी, हालाँकि विरल, ये होता है कि प्रेम, दोस्ती या सहयोगिता की भावनाएँ मृत्यु के अकेलेपन से उबार लेती हैं। शरीर से सामने रह कर भी, यहाँ तक कि जब मैंने मामन का हाथ थामा हुआ था, मैं उसके साथ नहीं थी। मैं उससे झूठ बोल रही थी, क्योंकि उसे हमेशा धोखा ही दिया गया, ये अंतिम धोखा मुझे बड़ा ही घिनौना लगा, उसके भाग्य के साथ-साथ मैं भी उसका दुरुपयोग करने में बराबर की अपराधी थी, साथ ही मैं अपने शरीर के प्रत्येक अणु के साथ उसकी अस्वीकृति, उसके विद्रोह में उसके साथ थी, शायद यही कारण था कि उसकी पराजय में मैं भी पराजित महसूस कर रही थी। यद्यपि मामन के मरते वक्त मैं उसके पास नहीं थी और यह भी कि मैं इससे पहले तीन आत्मीयों की मृत्यु के समय उनके नजदीक थी लेकिन मामन की शय्या के निकट ही मैंने वास्तविक "मृत्यु" को देखा, मृत्यु का नर्तन, वास्तविक नर्तन, विकराल जबड़ों में अट्ठहास करती मृत्यु, बचपन में अलाव के निकट सुनी कहानियों की डरावनी "मृत्यु", "हाथ में फावड़ा लिए मृत्यु" जो पता नहीं कहाँ से आती है - अजनबी और अमानवीय : उसका चेहरा मामन के उस चेहरे-मसूढ़े दिखाती विकराल हँसी, अपरिचित आँखों - से मेल खाता था।
"अह उसकी तो यह मरने की उम्र है।" वृद्धावस्था की उदासी, निर्वासन की पीड़ा, ज्यादातर लोग यह नहीं सोचते कि यह अवस्था एक न एक दिन उनकी भी होगी। मैं भी ये शब्द मामन के संदर्भ में बार-बार दोहराती थी। ये मेरी समझ के बाहर था कि कोई अपने आत्मीय के लिए वास्तव में रो सकता है जो संबंधी उसका दादा हो और सत्तर वर्ष से ऊपर का हो चुका हो। अगर मैं एक ऐसी स्त्री से मिलती जो पचास की हो चुकी और अपनी माँ को खोने के दु:ख से बाहर नहीं आ पा रही हो तो मैं उसे विक्षिप्त समझती। हम सब नश्वर हैं, अस्सी वर्ष की उम्र काफी है मृतकों में शुमार होने के लिए...
लेकिन यह सच नहीं है, तुम इसलिए नहीं मरते कि तुम पैदा हुए, न ही इसलिए कि तुम पर्याप्त जीवन जी चुके हो, न ही बुढ़ापे के कारण। तुम "किसी चीज" से मरते हो, यह जान लेने से कि मेरी माँ की उम्र हो चली है, इसलिए उसकी मृत्यु भयावह आश्चर्य नहीं लाएगी, उसे सरकोमा था, कैंसर, थ्राम्ब्रोसिस, न्यूमोनिया : यह इतना हिंसक और अनपेक्षित था कि जैसे बीच आकाश में किसी जहाज का इंजन अचानक रुक जाए। मेरी माँ ने आशावादी सोच, सकारात्मक विचार रखने के लिए तब भी कहा था जबकि वह गँठिए से बुरी तरह पीड़ित और मरणासन्न थी लेकिन उसका हठ निरर्थक था, जिसने नगण्यता पर पड़ा हुआ पर्दा चीर कर फाड़ डाला। नैसर्गिक मृत्यु जैसी कोई चीज नहीं होती : मनुष्य के साथ जो भी होता है वह कुछ भी नैसर्गिक नहीं, क्योंकि उसका होना सृष्टि के समझ प्रश्न उपस्थित करता है। सभी मनुष्यों को मरना जरूर है, लेकिन प्रत्येक व्यक्ति के लिए उसकी मृत्यु एक दुर्घटना है, लेकिन वह जीवन के इस अनौचित्यपूर्ण अपमान को झेलता है।
|
गरिमा श्रीवास्तव हैदराबाद केंद्रीय विश्वविद्यालय के मानविकी स्कूल के हिंदी विभाग में प्रोफेसर हैं।
|