कुविकास : विकास बीसवीं सदी के उत्तरार्ध से सामाजिक चिंतन, ज्ञान, सोद्देश्य सामूहिक प्रयासों और व्यवहार का केंद्रीय प्रश्न बना हुआ है। मूल रूप से पश्चिम के अग्रगण्य धनी और शक्तिशाली देशों द्वारा प्रवर्तित और संचालित विकास-विमर्श सारे संसार में प्रचलित हो चुका है। उल्लेखनीय यह भी है कि ठोस जमीनी धरातल पर इस विमर्श की विफलता जग-जाहिर हो चुकी है। इसकी सैद्धांतिक खामियों का भी अनेक रूपों में खुलासा किया जाता रहा है। फिर भी विकास-विमर्श की मुख्य धारा यह पश्चिमोन्मुख विमर्श ही बना हुआ है। वस्तुतः, विकास-विमर्श के जनक देशों ने अपने खुद के पिछली पांच-छः सदियों के अनुभव को विकास की सफल यात्रा की उच्चस्तरीय तथा अनुकरणीय कहानी के रूप में प्रस्थापित किया है। इस विमर्श में विकास को अपने आप में स्वयंसिद्ध रूप से सार्थक, सकारात्मक या श्रेयस-प्रयेस, कल्याणकारी तथा हर स्तर पर मानवीय-सामाजिक प्रयासों के उच्चतम वांछनीय केंद्र-बिंदु के रूप में प्रचारित किया जाता है।
इस विमर्श की कुछ घोषित-अघोषित विशेषताएं भी उल्लेखनीय हैं। विकास की धुरी इस विमर्श में आर्थिक जीवन, खासकर समस्त राष्ट्रव्यापी उत्पादन माना गया है। राष्ट्र-राज्य को विकास-विमर्श की प्रमुख इकाई माना गया है। किंतु विकास प्रक्रिया के मुख्य तत्त्वों और सिद्धांतों का निरुपण खासकर उत्पादन व्यवस्था संबंधी निर्णयों के अभिकर्ता के रूप में एक व्यक्ति को निर्णायक इकाई माना गया है। उत्पादन-प्रक्रिया की व्याख्या एक मनुष्य के सोच, उसके प्रेरक मूल्यों-मान्यताओं, संसाधनों तथा उन पर लागू सीमाओं-बंधनों आदि के आधार पर की गई है। इन सबके प्रभाव से विकास को आर्थिक विकास, आर्थिक विकास को उत्पादन, निवेश तथा उत्पादन तकनीकों की बढ़ोतरी और उत्पादन वृद्धि को स्वतः अपने आप राष्ट्रीय उपभोग स्तर अथवा राष्ट्रीय जीवन-स्तर के उन्नयन का समानार्थक बनाकर पेश किया जाता रहा है। राष्ट्रीय उत्पादन वृद्धि आर्थिक विकास और फलतः समस्त विकास का मूल तत्त्व माना गया है। जब यह वृद्धि थम जाती है, वह स्थिति आर्थिक अवरुद्धता या जड़ता मानी जाती है और गिरावट को आर्थिक पतन या पिछड़ना बताया जाता है। जिन देशों में आर्थिक वृद्धि तुलनात्मक रूप से अपर्याप्त या निम्नस्तरीय होती है उन्हें अल्पविकसित या पिछड़े और गरीब देश माना जाता है। ऐसे सोच की अदृश्य जड़ें इतनी गहरी पहुंच चुकी है कि आर्थिक वृद्धि के साथ ही यह मान लिया जाता है कि ये सब आपस में सकारात्मक, धनात्मक रूप से जुड़े पहलू भी राष्ट्रीय उत्पादन वृद्धि के साथ वांछनीयता तथा राष्ट्रीय उद्देश्यों की पूर्ति की दिशा में आगे बढ़ते हुए कदम हैं।
इस तरह विकास के परिणामों को राष्ट्र-राज्य की इकाई के स्तर पर पहचाना जाता है। इसे एक तरह का मेथोडोलोजिकल नैशनलिज्म अथवा कार्याविधिक राष्ट्रवाद माना जा सकता है। इस विवेचन पर टिका राष्ट्र-राज्य का विकास राष्ट्रीय विकास हो यह जरूरी नहीं है और न ही यह भी कि ऐसा विकास राष्ट्रीयता की भावना, मूल्यों और हितों पर भी आधारित हो। विकास की प्रक्रिया की क्रियाशील अभिकर्ता इकाई एक व्यक्ति अर्थात् उसकी मनोवृत्तियां, प्रेरणाएं, संसाधनों का स्वामित्व उसकी कार्यक्षमता तथा निर्णय, उस द्वारा किया गया उपभोग माना गया है। सारा आर्थिक और विकास विश्लेषण एकल व्यक्ति को चाहे वह हाड़-मांस का पुतला हो अथवा कानून, परंपरा आदि द्वारा स्थापित संस्थागत इकाई-धुरी मानकर चलता है। यह विचार पश्चिम के पूंजीवादी देशों में उदारवाद का ही प्रस्फुटन है। किंतु विडंबना यह है कि विकास का यह अभिमत आर्थिक वृद्धि हासिल करने को इतनी अहमियत देता है कि इसकी खातिर वह इन्हीं प्रक्रियाओं के सामाजिक प्रतिफलों के किसी भी रूप से (चाहे कितनी ही ऊंची सामाजिक लागत को) स्वीकार करने में नहीं हिचकिचाता है। कम से कम वह इन सामाजिक पक्षों के प्रति उदासीन तो रहता ही है।
एकल व्यक्ति केंद्रित विश्लेषण प्रणाली के अनुसार समाज तथा सामूहिक साझे हित नामक जंतु वस्तु जगत में नहीं मिलते हैं। वहां मात्र व्यक्ति होते हैं, अपनी प्रेरणा, प्रयोजनों-मंतव्यों के साथ। उन्हीं के आधार पर व्यक्ति निवेश नवाचार, उत्पादन, उपभोग आदि द्वारा आर्थिक विकास करते हैं। मार्गरेट थैचर के अनुसार समाज जैसी कोई चीज होती ही नहीं है। फिर भी अंर्तविरोध देखिए कि समाज जैसी अविद्यमान इकाई के विकास पर सारा मुख्यधारा एकल व्यक्ति विकास-विमर्श केंद्रित है। राष्ट्र-राज्य के विकास के लिए ही नीतियां बनती है। यह भी सर्वमान्य है कि व्यक्तिगत स्तर पर प्रेरक तत्त्व संकीर्ण और आत्मकेंद्रित होते हैं और मुख्यतः ज्यादा से ज्यादा निजी समृद्धि, वैभव, विलासिता को ही आनंद का पर्याय मानते हैं। जमाने से इस आधार पर यह प्रचारित किया गया है कि निजी खोट या बुराई सार्वजनिक भलाई-अच्छाई की उत्प्रेरक बनती है। शायद इसी आधार पर मुख्यधारा अर्थशास्त्र में निजी स्वार्थ-साधना को विवेकसम्मत व्यवहार का दर्जा बख्शा गया। ये निजी प्रेरक तत्त्व, जो सामाजिक संवेदना और मूल्यों रहित होते हैं, इस विकास विमर्श में सामाजिक राष्ट्रीय विकास के जनक माने जाते हैं। वैसे एडम स्मिथ के सिद्धांतों की यह व्याख्या हमेशा सही नहीं मानी जाती है क्योंकि, उसके मत के अनुसार, जब निजी निर्णय और काम साथ में समाजी जरूरतों को भी पूरा करते हैं तभी वे सामाजिक उत्कर्ष की कसौटी पर खरे उतर पाते हैं। इस दो विपरीत ध्रुवीय विवेचनात्मक विशेषता के पीछे छिपे अंर्तविरोध ही विकास की अवधारणा के एकांगीपन के साथ ही विकास शक्ति, सत्ता, सामर्थ्य के एक खास रूप के प्रतिफल के रूप में स्थापित मतवादितापूर्ण (आइडियोलोजी) स्वरूप की एक झलक देने को पर्याप्त है।
इस विचारधारा या मतवादिता आधारित विमर्श में विकास अनिवार्यतः व्यक्तियों द्वारा किए गए प्रयासों और निर्णयों का सुविकास, वांछनीय प्रतिफल माना जाता है, इन परिवर्तनों अथवा वृद्धि का प्रतिफल कुछ हाथों में केंद्रित हो तब भी यह इस व्यक्तिवादी या व्यक्तिगत स्वतंत्रता आधारित मत के अनुसार स्वाभाविक स्वीकार्य और न्याय संगत है। केवल मानवीय संवेदना के आधार पर पिछड़े लोगों की सहायता के प्रयास इस मत को नैतिक तथा व्यावहारिक आधार प्रदान करने के लिए पर्याप्त माने जाते हैं। जब तक धनात्मक वृद्धि होती है राष्ट्रीय उत्पादन में यह विकास, अथवा ज्यादा साफ शब्दों में समाज, राष्ट्र तथा इसकी सभी इकाईयों या घटकों के लिए कुल मिलाकर समन्वित रूप से, संभवतः एक दूरगामी परिपेक्ष्य में देखने पर सकारात्मक वांछनीय स्थिति का निर्माण करता है-खासकर विकास के सुफलों के स्वाभाविक और क्रमिक अधोदिशा प्रवाहों के कारण।
इस मुख्यधारा से कुविकास की अवधारणा नदारद है। संकीर्ण आर्थिक नजरिए के अनुसार भी यह अभाव एक गंभीर मसला है। वृद्धिमान उत्पादन का आधार उत्पादन के संसाधनों से आनुपातिक अथवा अनुपात से ज्यादा प्राप्ति हो तो इसे विकास का श्रेष्ठ तथा वांछनीय आधार माना जाता है। तकनीकी ज्ञान तथा सुधार का यह ठोस प्रतिबिंब है। इसके विपरीत, उत्पादन के संसाधनों के बढ़ते हुए इस्तेमाल के बावजूद यदि अनुपात से कम प्रतिफल मिलता है और प्रति इकाई लागत बढ़ती है तो इसे एक महंगा परिवर्तन माना जायेगा। ऐसे बदलाव को गुणात्मक स्तर पर विकास मानना अनुचित होगा। भारत की तथाकथित हरित-क्रांति कालांतर में इस प्रकार की महंगी (कु) वृद्धि का उदाहरण बन गई।
सामाजिक बदलाव का गुण-दोष विभेद-विहीन विश्लेषण एक गंभीर मसला है। बहुधा माना जाता है कि मानव समाज, अनेक उतारों-चढ़ावों, झंझावातों और पतन-अभ्युदय बंधुर पंथा के सत्य को स्वीकारने के बावजूद निरंतर बेहतर स्थिति और संभावनाओं की दिशा में बढ़ता जा रहा है। महत्ती उपलब्धियों के आगोश में कंटीले शूल भी बढ़े हैं, परंतु साथ में उन्हें पहचानने और उनसे दो-दो हाथ होने की क्षमताएं भी बढ़ी हैं। इस तरह निरंतर कुल मिलाकर निबल स्तर पर दुनियां भर में मानव मात्र की स्थिति में सुधार हुआ है, यह मान्यता काफी प्रचलित है। इसलिए निरंतर प्रगति मनुष्य समाज का अब तक का अनुभव, वर्तमान स्थिति और भविष्य के परिवर्तनों की दिशा-दशा माने जा रहे हैं।
उपरोक्त प्रचलित धारणाओं के बावजूद निरंतर विकास में विश्वास कई प्रश्नों को अनबूझा-अनुत्तरित छोड़ देता है। यूरोप में निरंतर विकास में विश्वास रेनांसा या पुनर्जागरण काल तथा वैज्ञानिकता की प्रबलता से जोड़ा गया। किंतु उपनिवेशी शासन तथा शोषण के शिकार देशों में यह विश्वास कहां तक व्यापक जनमानस का हिस्सा बन पाया है, स्पष्ट नहीं हो पाया है। प्रगति के ज्ञातव्य का एक आयाम मानव मात्र की बढ़ी और बढ़ती उत्तरजीवित मानी जाती रही है, जिसके साथ मानव-जीवन की गुणवत्ता को भी जोड़ा जाता है। औसत स्तर पर निस्संदेह मानव-जीवन की परिस्थितियों का परिष्कार हुआ है। विश्व मानव समुदाय की संख्या का 7 अरब तक पहुँचने की ओर उन्मुख अंक इन उन्नत हालात का प्रतिबिंब माना जा सकता है। किंतु इस स्थिति तक पहुंचने की कितनी कीमत चुकानी पड़ी है और किन पर इस कीमत का बोझा पड़ा है और किन तबकों ने विकास की बढ़ती गंगा में जी भरकर डुबकियां लगाई है, आदि सवालों का सामना करना पड़ेगा। क्या इन परिवर्तनों की लागत एवं उनके लिए किए गए स्वैच्छिक तथा अनैच्छिक त्याग का वितरण न्यायोचित हुआ है, खासकर इन परिवर्तनों से उत्पन्न वरदानों के वितरण की तुलना में। ऐसे ही अनेक कारणों, प्रभावों और उनसे जुड़ी प्रक्रियाओं के कारण आज मानव-समाज बहुत विविधता, विषमतामय, आपसी विद्वेष, हिंसा तथा शत्रुभाव से अटा पड़ा है। इन सबके साथ ही अपने प्राकृतिक परिवेश के साथ भी हमने कम मनमानी और खतरनाक छेड़छाड़ नही की है। सबसे ज्यादा चुभने वाली बात तो यह है कि इन निपह नकारात्मक प्रभावों, उनकी जड़ों तथा उनसे निजात पाने के तौर तरीकों के बारे में हमारी जानकारी बढ़ी है और इनसे बचने के लिए सशक्त वकालत भी की जा रही है। विश्वभर में सर्वहितकर, न्यायपूर्ण, सतत्, निरामय सुविकास की अनेक अवधारणाएं और सिद्धांत विकसित हो रहे हैं। इन आदर्श सिद्धांतों और परिकल्पनाओं के बावजूद इन वांछित दिशाओं में बढ़ना अति कंटकाकीर्ण बना हुआ है।
अतः, कहा जा सकता है कि वर्तमान वर्चस्ववान विकास-विमर्श प्रधानतः आर्थिक वृद्धि के भ्रमजाल में अटका हुआ है। वह सर्वस्वीकृत मानव मूल्यों पर आधारित सर्वसमावेशी सुविकास की ओर उन्मुख विकल्पों को नकारता है अथवा उनके शब्दिक स्तुति-वंदन मात्र तक ही सीमित है।
व्यापक सामाजिक मूल्यों और ठोस यथार्थ की जमीन पर जिसे कुविकास, अथवा कुत्सित या कलुषित सामाजिक बदलाव कहा जाएगा, जो पिछली तीन के सदियों के बहुआयामी परिवर्तनों का सटीक बयान करता है, उसे सम्पूर्ण राष्ट्रीय उत्पादन तथा उसके आगे-पीछे दिखाई देने वाले अनेक संभावनाओं युक्त आवरण के पीछे केवल विकास और उसके समानार्थक बनाई हुई आर्थिक संवृद्धि के रूप में प्रस्थापित कर दिया गया है। कुविकास का साया विकास-विमर्श पर भी छा गया है। इस तरह औद्योगिक, तकनीकी, वित्तीय, तिजारती तथा आर्थिक-सामाजिक आधारभूत सुविधाओं-सेवाओं के विस्तार की गुणवत्ता, उसके समाजी गुणदोषों और भावी प्रभावों तथा विस्तार की दिशाओं की साफ तौर पर अवहेलना की जाती है। यह स्थिति साक्षी है कि वर्तमान मुख्य विकास-विमर्श की प्रमुख और मूलभूत खामियों, अंतर्विरोधों तथा विडंबनाओं के पीछे छिपा मुख्य तत्त्व है कुविकास की अवधारणा की पहचान तक नहीं करना। कुविकास और सुविकास में अंतर किए बिना विकास-विमर्श को सार्थक और प्रभावी सामाजिक न्यायपूर्ण सामाजिक बदलावों का मार्गदर्शक प्रेरक तथा सहायक नहीं बनाया जा सकता है।
यह केवल वृद्धि-केंद्रित परिवर्तन नहीं होता है, बल्कि समन्वित, मूल्याधारित, विशेष रूप गुण वाले बहुआयामी समन्वित परिवर्तन होते हैं जो सामाजिक और व्यक्तिगत जीवन की गुणवत्ता बढ़ाते हैं। इसमें सामाजिक शक्ति उसके उपयोग और संसाधनों-क्षमताओं के निर्माण, विकास, वितरण आदि को एक साथ मिलाकर देखा जाता है। सीमित संख्या वाले तबकों की ज्यादा शक्ति और क्षमता इतिहास द्वारा दी गई एक विरासत है, जो समाज व्यवस्था पर विशेष वर्गों और तबकों के आधिपत्य का स्व-पोषक परिणाम है। सही है कि विभिन्न परिस्थितियों में परिवर्तन के विभिन्न पक्षों और तत्त्वों का सापेक्षिक महत्त्व बदलता रहता है, किंतु अंततोगत्वा एक समन्वित, समग्र स्थिति ही आकलन का आधार बनती है। यदि इन प्रक्रियाओं और प्रवृत्तियों के प्रतिफल अधिकांश लोगों, देशों या प्रदेशों, वर्गों-तबकों आदि के लिए कुल मिलाकर निबल-स्तर पर हानिप्रद होते हैं, लाभों का दायरा लागत अथवा हानि के मुकाबले कमतर रह जाता है और भविष्य में उसके सुधार के आसार घट जाते हैं तो ऐसे परिवर्तन सामाजिक, व्यापक हितों की कसौटी पर कुविकास की श्रेणी में ही आएंगे, चाहे तकनीक, उत्पादन, अन्य सामाजिक प्रक्रियाएं अपने निजी एकल स्वरूप और प्रभावों में कितनी ही स्तुत्य, क्रांतिकारी या युगांतरकारी (मानव क्षमता के महत्त्वपूर्ण प्रस्फुटन के रूप में) ही क्यों न हो। यह एक भ्रम है कि आधुनिक तकनीक, उत्पादन, जीवन-प्रणाली, नए संगठन-प्रबंधन मात्र अपनी आधुनिकता के कारण ही पूर्ववर्त्ती स्थितियों से श्रेष्ठ होते हैं। श्रेष्ठता का निर्धारण प्रवर्तन प्रचलन के काल-क्रम से नहीं बल्कि स्वतंत्र कसौटियों के आधार पर निर्धारित किया जाना चाहिए। स्पष्ट है विकास मूल्याधारित, सामाजिक, सर्वसमावेशी, ऐतिहासिक परिदृश्यों के तहत सोची-समझी और आंकलित की जाने वाली परिघटना और प्रक्रिया है जिसका सातत्य ही सामाजिक सातत्य और उत्तरजीविता निर्धारित किया जाना चाहिए। ऐसे सामाजिक परिवर्तन नागरी समाज की संस्थाओं, बाजार और राज्य के बीच संतुलित संबंध बना सकते हैं ताकि सुविकास की प्रक्रिया निरंतर जारी रह सके।
स्पष्ट है कि आधुनिक विकास-विमर्श खुले तौर पर कुविकास की अवधारणा का उल्लेख तक नहीं करता है। इस प्रवृत्ति के कई कारण और प्रतिफल होते हैं। यह बहुधा माना जाता है कि पिछली तीन शताब्दियों में खासकर प्रथम औद्योगिक क्रान्ति के बाद, जितना आर्थिक तथा फलस्वरूप चहुंमुखी विकास हुआ है, वह अभूतपूर्व है। इस प्रशंसात्मक दृष्टिकोण का एक पहलू है इस प्रगति के कुफलों, भारी लागतों, नकारात्मक पहलुओं तथा संभावनाओं को एकपक्षीय रूप में सिकराने जैसे अहम् पक्षों की उपेक्षा। इस प्रगति के केंद्र रहे हैं पश्चिमी यूरोप तथा उत्तरी अमेरिका के देश तथा वे देश जहां यहां के लोग वहां के स्थानीय लोगों को या तो खदेड़कर अथवा उन्हें पददलित करके या उनका भौतिक आर्थिक तथा सांस्कृतिक नर-संहार करके बस गए हैं (जैसे कनाडा, आस्ट्रेलिया, न्यूजीलैंड आदि) जापान शायद एकमेव गैर-पश्चिमी देश है जो अपने को विकास के ढांचे में पूरी तरह ढाल पाया है-चाहे यह कितना ही महंगा सौदा क्यों न रहा हो। इस प्रगति को इन देशों तथा वहां की राष्ट्रीयता और जातियों की श्रेष्ठता का प्रतिबिंब तथा उनकी उपलब्धि तथा इतिहास की एक नामचीन परिघटना भी माना गया है। इस तरह इन आर्थिक-औद्योगिक तथा समानार्थिक क्रांतियों के जनक तथा उद्गमकारी देशों ने अपनी तुलनात्मक आर्थिक, तकनीकी, तिजारती, शैक्षणिक, सैन्य तथा कूटनीतिक उपलब्धियों के बल पर शेष विश्व और वहां के लोगों तथा संसाधनों पर अपना एकछत्र कब्जा जमा लिया है विभिन्न रूपों तथा मॉडलों के अनुसार। इन प्रक्रियाओं और उनसे उत्पन्न बदलावों का एक खासमखास अंग है बाजार की शक्तियों का डार्विनी गलाकाटू प्रतिस्पर्द्धा के आधार पर जीवन के हर पहलू पर छा जाना-यहां तक कि लोकतांत्रिक राजनीतिक प्रक्रियाओं द्वारा प्रस्थापित राज्यव्यवस्था भी बाजार के अतिकेंद्रित शक्तिपुंजों के दबदबे में आ जाती है। ये आर्थिक (औद्योगिक, वित्तीय, तकनीकी) ताकतें नागरी समाज तथा उसकी संस्थाओं तथा उनके आर्थिकेतर पहलूओं पर भी अपना शिकंजा कस लेती हैं। जिन देशों में ऐसे आर्थिक बदलाव अग्रगण्य और प्रबल रहे हैं, जहां ऐतिहासिक काल-क्रम में पहले शुरू हुए हैं, उन्होंने अपनी प्रवर्त्तनजन्य शक्ति के कारण भी, बाकी समस्त देशों-समाजों, संस्कृतियों, वहां के बाजारों, राज्य तथा नागरी समाज की संस्थाओं पर अपना आधिपत्य अथवा प्रभुत्व जमा लिया है। इस तरह स्वाधिकार विहीन देशों की प्रभुसत्ता, वहां के जन-जन के मानवीय अधिकारों और सांस्कृतिक अस्मिता का हनन हुआ है। वहां की पारंपरिक अर्थव्यवस्था (यानी जनता की अपनी आजीविका अर्जित करके जीवनयापन करने की गतिविधियां और उनमें संतुलन के तरीके) छिन्न-भिन्न कर दी गई हैं। सन् 1750 ई० तक विश्व की अधिकतम प्रति व्यक्ति आय वाले चीन और भारत जैसे देशों का पराभव और पतन विश्वव्यापी कुविकासकारी प्रवृत्तियों का दुष्प्रभाव है। इतना ही नहीं, विश्वव्यापी कुविकास ने अनेक संस्कृतियों का हनन किया है, उन्हें अपनी भद्दी अनुकृति बनाते हुए मानसिक स्तर पर इन प्रभुत्वसंपन्न देशों ने करोड़ों लोगों में अकुशलता, हीनता, गंवारपन आदि की भावना कूट-कूट कर भर दी। उनकी सभी परंपराओं तथा मूल्यों पर घटियापन, यहां तक की क्रूरता और अमानवीयता का तमगा चस्पां कर दिया। इस तरह अपने विकास के दंभ के साथ-साथ मुट्ठी भर देशों के मुट्ठी भर शासकीय, अभिजात, संपन्न वर्ग ने अपने आपको उन्नत, मानवीयता, आधुनिकता, विकासधर्मिता आदि केंद्र और स्रोत घोषित कर रखा है।
इन प्रक्रियाओं को विकास-विमर्श के खास नवक्लासिकी, उदारवादी तथा नव-उदारवादी वैचारिक आधारों के सहारे सारी दुनिया पर बुनियादी स्तर पर कुविकास थोप दिया। ऊपर से तुर्रा यह कि इन कृत्यों को उच्च मानवीय संवेदना और सद्भावना प्रेरित बताया जाने लगा ताकि धनी देश भी गरीब देशों के साथ विकास के सहयात्री होने का सम्मान और संतोष पा सकें।
राष्ट्र-राज्य, राष्ट्रीय तथा, राष्ट्रवादी या राष्ट्रीयतापूर्ण चरित्र और प्रतिबद्धताओं के विभेद को स्पष्ट करने से कुविकास की पहचान और उसके विरुद्ध मुखालिफत का रास्ता स्पष्ट हो सकता है। समाजार्थिक परिवर्तनों का जायजा लेने, उनकी नाप-गौरव तथा व्याख्या करने की इकाई आमतौर पर एक राष्ट्र-राज्य होता है। कुविकास का हमारा विवेचन यह स्पष्ट करता है कि राष्ट्र-राज्य की आर्थिक-वृद्धि अनिवार्यतः वहां सर्वसमावेशी, समतामूलक, सतत विकास की शुरूआत नहीं कर पाती है और न ही उसकी सैद्धांतिक, नीतिगत तथा व्यवहारिक कमान राष्ट्रों की आंतरिक इकाईयों, संस्थाओं तथा ताकतों के हाथ में पूरी तरह आ पाती है। इस वृद्धिमूलक परिवर्तन का चरित्र इस विकास या परिवर्तन-क्रम के स्वावलंबी अथवा आत्म-निर्भर (आत्मपरिपूर्ण नहीं) हुये बिना इसे राष्ट्रीय विकास या वृद्धि (जो राष्ट्र अथवा राष्ट्र-राज्य वृद्धि से पृथक है) नहीं माना जा सकता है। इस प्रकार के राष्ट्र-विकास में वैश्विक वर्चस्वमान शक्तियों तथा राष्ट्र के आंतरिक सत्तासीन तबकों की मिली-जुली भूमिका भी हो सकती है और इसके प्रतिफल भी सीमित तथा विषम वितरण ग्रस्त हो सकते हैं। यह एक खास किस्म के कुविकास का ही नमूना होगा। जब इस तरह की वृद्धि तथा बहुआयामी समग्रतामय परिवर्तनों की कमान आम-जन के हाथ में हो, बिना किसी कें द्रीयभूत वर्चस्व के, तथा ये बदलाव समताकारी, सर्वसमावेशी तथा सामाजिक, तकनीकी और प्रवृत्ति संबंधी साम्य की गारंटी देने वाले हों तो ऐसे विकास को हम राष्ट्रवादी या राष्ट्रीयतापूर्ण अर्थात् राष्ट्रीयता की भावना पर आधारित सच्चा स्वदेशी आत्म-निर्भर विकास कह सकते हैं। ऐसा विकास कुविकास की जगह सुविकास की आधारशिला बनता है और एक समतामय वैश्विक सर्वहितकारी संदर्भ सचमुच राष्ट्रवादितामय विकास कहा जा सकता है। एक सच्चा राष्ट्रीयतापूर्ण विकास अपने आंतरिक स्वरूप में विभिन्न अस्मिताओं और लघुसमुदायों की स्वायत्तता की रक्षा करता है जो परस्पर समग्रमय या न्यायाधारित रिश्तों की जमीन पर ही खड़ा रह सकता है। स्पष्ट है भूतपूर्व औपनिवेशिक ताकतों तथा दूसरे महायुद्ध के मित्र देशों द्वारा शीतयुद्ध की रणनीति के तहत संचालित अनुकृतिकारक औद्योगीकरण और आर्थिक वृद्धि को राष्ट्रीयतापूर्ण विकास नहीं कहा जा सकता है। फलतः, ऐसे वृद्धिमान बदलाव वस्तुतः कुविकास ही माने जायेंगे। ऐसे परिवर्तन न तो राष्ट्रव्यापी, गहरी जड़ों वाली गम्भीर गरीबी को मिटा सकते हैं और न ही जन-जन की आजीविका की पर्याप्त सुरक्षा तथा उसके स्व-निर्धारित चरित्र की गारंटी दे सकते हैं।
युद्धोत्तर कुविकास के प्रसार का संक्षिप्त ब्योरा हमारे उपरोक्त विचारों की ठोस हकीकत को उजागर कर सकता है। ऐसा विकास युद्धोत्तर यूरोप के लिये संयुक्त राज्य अमेरिका द्वारा लागू की गयी मार्शल प्लान नव-निर्माण परियोजना का ही सहचर है। अल्प-विकसित देशों हेतु संचालित अंतर्राष्ट्रीय परियोजना शुरू की गई। इसके अंतर्गत तीसरी दुनिया के देशों ने अनेक अंतर्राष्ट्रीय संस्थाओं के सहयोग से अपने राष्ट्रीय अभियान चलाए। धनी देशों के पूंजी, तकनीक, प्रबंधन, वित्त, जीवन-शैली तथा उपभोग पैटर्न के आधार पर, या तो राज्य की बड़ी योजनाबद्ध भूमिका अथवा राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय पूंजीपतियों तथा बाजार व्यवस्था को अभिकर्ता भूमिका देकर, अपनी राष्ट्रीय आय, बचत, निवेश आय में उद्योग-धंधों के हिस्से, शिक्षा, स्वास्थ्य तथा अन्य आधारभूत सेवाओं आदि को तेजी से बढ़ाने के प्रयास शुरू किए गए। 1970 ई० के मध्य तक धनी तथा निर्धन दोनों राष्ट्र-समूहों ने तेज आर्थिक वृद्धि हासिल कर पूंजीवाद का स्वर्णिम काल रचा। जाहिर है इस तरह के आर्थिक तथा आर्थिकेतर परिवर्तनों ने तीसरी दुनिया की पर-निर्भर दोयम दर्जे की स्थिति को और गहरी जड़ें दी। कुछ देशों ने कुछ अंशों तक राष्ट्रीय स्वावलंबन का रास्ता अपनाया, किंतु धनी देशों के समकक्ष तथा सादृश्य बनने के उद्देश्य ने इन प्रयासों को आंशिक रूप से सफल होने दिया और उनको सातत्यविहीन बना दिया। वास्तव में कुविकास की अनुकृति बनने के प्रयास, कुविकसित देशों पर निर्भरता और राष्ट्रीय सुविकास प्रयासों के अभाव ने इस स्थिति से बचने के रास्ते रोक दिए।
ऐसे परिवर्तनों के फलस्वरूप न केवल प्रतिव्यक्ति आमदनी बढ़ी, बल्कि विश्व व्यापार अंर्तराष्ट्रीय निवेश, तकनीकों का प्रसार तथा आधुनिकीकरण सामाजिक और वित्तीय सेवाओं, अंर्तराष्ट्रीय आवागमन आदि में भी भारी बढ़ोतरी दर्ज की गई। इनके साथ-साथ वैश्विक आर्थिक लेन-देन भी बढ़ा। सन् 1948 ई० से 2007 ई० तक उदाहरण के लिए विश्व भर में निर्यात लगभग 240 गुणा बढ़े और पूंजीनिवेश व्यापार से भी काफी ज्यादा मात्रा में बढ़ा। कुल मिलाकर धनी देशों के पूंजीपति परिवारों की 65 हजार छोटी-बड़ी कंपनियां सारे संसार की अर्थव्यवस्थाओं के बड़े भाग को प्रत्यक्षतः नियंत्रित करने लगी। इस तरह पूंजी के स्वर्णिम काल तथा उसके पश्चात् उतार-चढ़ाव के चक्रवात जंजालों में फंसी अपेक्षाकृत धीमी रफ्तार से बढ़ती अर्थव्यवस्था के लाभ धनी तथा निर्धन देशों की बड़ी कंपनियों के नियंत्रक परिवारों के हाथ में केंद्रित होते रहे। कुपोषण, भूख, शिक्षा-स्वास्थ्य सेवाओं के लाभों से वंचित अपर्याप्त-अनियंत्रित आजीविका की शिकार विश्व की आबादी के 2 अरब से ज्यादा गरीब लोग इस विकास के लाभों से वंचित रहे : उनका दैनिक उपभोग व्यय और अमेरिकी डॉलर तक नहीं हो पाया। साथ में इन कुविकासकारी बढ़ती आर्थिक गतिविधियों ने गरीबों के परंपरागत तथा अपर्याप्त संसाधनों (जल, जंगल, जमीन, स्वच्छ पर्यावरण) से भी उनको वंचित कर दिया। सरकारी विकास सुविधाओं तथा संबंधों में भी इस विशाल जनशक्ति का आनुपातिक हिस्सा घटता गया। उनकी संस्कृति, बोलियां, भाषाएं, संगीत, जीवन-शैली तथा मूल्य विश्वभर पर छा रहे उपभोगवादी, स्थूल आनंदवादी, विलासिता तथा व्यर्थतामय उन्माद की चपेट में आकर विश्वव्यापी एकरूपता अथवा बहुआयामी वैश्वीकरण की वेदी पर बलि चढ़ते जा रहे हैं।
ऐसे कुविकास को न केवल मुख्य धारा के विमर्श में अल्पविकास के अतिरिक्त किसी अन्य सार्थक रूप में नहीं पहचाना गया, बल्कि कुविकास-कारी शक्तियों और देशों के दबदबे, धौंसपट्टी और शक्ति संचयन के कारण ढांचागत समायोजन, अथवा वाशिंगटन आम राय के द्वारा निजीकरण, वैश्वीकरण और उदारीकरण के रूप में जी०डी०पी० ग्रोथ के बाजारवादी कट्टरपंथ का रास्ता सारी दुनिया पर थोप दिया गया। पिछले पच्चीस सालों में विश्वव्यापी कुविकास तेजी से आगे बढ़ा। अंतर्राष्ट्रीय तथा राष्ट्रीय विषमताओं के व्यापक असमादेशीकरण के रूप में अरबों लोग आजीविका-अपर्याप्तता तथा असुरक्षा और पर्यावरणीय प्रदूषण के शिकार बन गए हैं। सभी की अर्थव्यवस्था और वित्तीय व्यवस्था इन्हीं कुप्रभावों के चलते एक अभूतपूर्व वैश्विक वित्तीय, आर्थिक तथा सामाजिक संकट की गिरफ्त में आ गई है।
फलतः, विकास-विमर्श के सामने कुविकास को चीन्हने, समझने और उससे दो-दो हाथ होने की चुनौती आज की युगीन जरूरत बन गए हैं। सर्वांगीण सर्वसमावेशीकरण तथा सर्वसशक्तिकरण की ओर लगातार बढ़ती हुई सामाजिक परिवर्तनों की प्रक्रिया की असली, सुविकास है। यह एक लंबी अनवरत प्रक्रिया है जो सर्वसमावेशीकरण-सशक्तिकरण की प्रक्रिया और उसके प्रतिफलों से मिलकर सातत्यपूर्ण बनती है। स्पष्ट है सदियों से संचित, विद्यमान प्रक्रिया और स्थिति के कुविकासकारी प्रभावों से एकमुश्त मुक्ति संभव नहीं है, किंतु वर्तमान सामाजिक परिवर्तनों की दिशा इन दिशाओं की ओर मोड़ना पहली शुरूआती आवश्यक शर्त है-सुविकास की ओर आगे बढ़ने तथा कुविकास से मुक्ति पाने की।
- प्रो० कमलनयन काबरा
कृष्णमूर्ति, जिद्दू : यह एक असाधारण घटना है कि जिस व्यक्ति की सारी शिक्षा-दीक्षा एक भावी विश्वगुरु के रूप में हुई हो और उसके लिए विश्व स्तर की संस्था का निर्माण किया गया हो, वही व्यक्ति न केवल उस संस्था को विघटित कर दे, बल्कि, साथ ही, अपने गुरुत्व को त्यागकर स्वयं को एक मित्र के रूप में प्रस्तुत कर दे। जिद्दू कृष्णमूर्ति (1895-1986 ई०) एक ऐसे ही व्यक्तित्व हैं। उनका जन्म एक तेलुगू ब्राह्मण परिवार में हुआ था। अपने बचपन में ही वह प्रसिद्ध थियोसोफिस्ट सी० डब्ल्यू० लीडबीटर के संपर्क में आए तथा उनकी प्रतिभा को पहचानते हुए उन्हें तथा उनके भाई नित्यानंद को लीडबीटर और श्रीमती एनीबीसेंट का संरक्षण प्राप्त हो गया। नित्यानंद की तो मृत्यु हो गई, लेकिन कृष्णमूर्ति को थियोसोफिकल सोसाइटी के विश्वास के अनुसार भावी विश्वगुरु के अवतरण का माध्यम बनाने की शिक्षा-दीक्षा दी गई। उनके समर्थन के लिए एक संस्था आर्डर ऑफ दि स्टार की स्थापना भी की गई। लेकिन युवा कृष्णमूर्ति को जब इस संगठन का प्रधान घोषित किया गया तो उन्होंने नीदरलैंड के ओमेन शहर में आयोजित सम्मेलन में न केवल आर्डर ऑफ दि स्टार को स्वयं लीडबीटर की उपस्थिति में विघटित कर दिया, बल्कि उस संस्था को मिले दान को भी मूल दाताओं को वापस कर दिया। कृष्णमूर्ति ने इस अवसर पर अपने व्याख्यान में कहा कि असीम, अबाधित और अगम्य होने के कारण सत्य को संगठित नहीं किया जा सकता; न ही कोई ऐसा संगठन बनाया जाना चाहिए जो लोगों को किसी विशेष रास्ते पर ले जाए या उस पर चलने के लिए उन्हें बाध्य करे। इसी व्याख्यान में उन्होंने कहा कि मैं अनुयायी नहीं चाहता क्योंकि जब भी आप किसी का अनुकरण करते हैं तो आप सत्य की तलाश छोड़ देते हैं। मेरा प्रयोजन मनुष्य की स्वतंत्रता है-सभी पिंजरों, भयों से स्वतंत्रता, न कि कोई नए धर्म या दर्शन की स्थापना।
कृष्णमूर्ति के इस विद्रोह ने बहुत-से थियो-सोफिवादियों को रुष्ट भी किया। थियोसोफिकल सोसाइटी से भी संबंध विच्छेद कर कृष्णमूर्ति एक स्वतंत्र चिंतक के रूप में जीवन भर यात्राएं करते हुए व्याख्यान और संवाद करते रहे। अपने पास आने वालों से उनका आग्रह था कि वे उन्हें गुरु नहीं, अपना मित्र समझकर बात करें। उनके विचारों का गहरा असर पड़ा तथा उनके प्रशंसकों का विश्व भर में एक बड़ा समूह तैयार हो गया, जो उनकी जरूरतों और विचारों के प्रसार की जिम्मेदारी उठाता रहा।
जिद्दू कृष्णमूर्ति की असल चिंता यही है कि मनुष्य अपने वास्तविक स्व की पहचान और सिद्धि कैसे करे क्योंकि आज वह केवल आदतों और पूर्वग्रहों का एक बंडल है-मानसिक और सामाजिक, निजी और संस्थागत आदतों-पूर्वग्रहों का बंडल। इसीलिए कृष्णमूति कहते हैं कि हम बासी लोग हैं-वी आर सैकेंडहैंड पीपुल। दुनिया की सारी समस्याएं, हिंसा, असमानता, शोषण के सभी प्रकार इसी एक स्थिति के परिणाम हैं। अपने वास्तविक स्व को पहचाने बिना हम लोग अपने को असुरक्षित अनुभव करते हैं और असुरक्षा का यह बोध हमें भौतिक साधनों, सामाजिक-राजनीतिक संस्थाओं और सांप्रदायिक संगठनों के सम्मुख समर्पण में ही सुरक्षा का आभास करवाता है। अपना आप न हो सकने की कुंठा हममें तनाव, आक्रामकता और घृणा पैदा करती है जो आज की दुनिया की मुख्य समस्याएं हैं। इसलिए कृष्णमूर्ति के लिए सभी समस्याओं का मूल कारण है व्यक्ति का अपने वास्तविक स्व को न पहचान पाना।
लेकिन यह वास्तविक स्व है क्या? अनादि काल से दर्शन इसी सवाल का उत्तर तलाशता रहा है। कृष्णमूति इसका कोई उत्तर नहीं देते क्योंकि इसकी कोई निश्चित परिभाषा नहीं हो सकती। प्रत्येक परिभाषा, अंततः, एक बौद्धिक पूर्र्वग्रह हो जाती है जो धीरे-धीरे हमारे संस्कारों में घुलकर एक आदत बन जाती है। कृष्णमूर्ति तो उन चिंतकों में है जो प्रत्येक बौद्धिक निष्कर्ष और आदत को स्व की वास्तविक पहचान में सबसे बड़ी बाधा मानते हैं, क्योंकि कोई भी पूर्वनिर्धारित बौद्धिक धारणा या आदत हमें मौलिक नहीं होने देती। वह हमारी मूल पहचान पर पड़ा एक पर्दा हो जाती है। चाहे कितना ही झीना सही, पर्दे का होना स्व की पहचान को धुंधला करता ही है। इसलिए कृष्णमूर्ति स्व की कोई परिभाषा नहीं करते। होने का वास्तविक बोध ही स्व का बोध है जिसके लिए सभी बौद्धिक, भावनात्मक और सामाजिक आदतों-पूर्वग्रहों से परे होना होता है। यहां आधुनिक अस्तित्ववादियों और कृष्णमूर्ति के बीच एक समानता देखी जा सकती है। अस्तित्ववाद भी मनुष्य की कोई परिभाषा नहीं करता, उसके अनुसार भी मनुष्य का होना प्राथमिक है, कोई पूर्वनिर्धारित परिभाषा उस पर नहीं थोपी जा सकती। लेकिन यह समानता भ्रामक है। अस्तित्ववाद भी मनुष्य के होने के अनुभव पर बल देता है, लेकिन, वहां होने का प्रमाण है निजता की, निजत्व की अनुभूति। इसीलिए विभिन्न निजताओं के बीच संघर्ष वहां अवश्यंभावी है। स्वतंत्रता इसीलिए वहां आनंद का नहीं, तनाव का, परिताप (एंग्विश) का कारण बनती है। लेकिन कृष्णमूर्ति तो निजता या निजत्व के आग्रह को भी व्यक्ति के वास्तविक स्व पर, वास्तविक होने पर पड़ा एक पर्दा ही मानते हैं जिसके हटने पर ही होने का प्रामाणिक बोध संभव है। कृष्णमूर्ति का मनुष्य एक व्यक्ति है, उसका होना ही उसका व्यक्तित्व है, इसलिए होने के बोध के अतिरिक्त सभी आग्रह, आदत या पूर्वनिर्धारित घटनाएं हैं-निजता की धारणा भी और इसी कारण विभिन्न व्यक्तियों के बीच कोई तनाव या संघर्ष नहीं है क्योंकि होने के साथ निजत्व का आग्रह कहीं जुड़ा नहीं है। सत्ता, अधिकार, ईर्ष्या और घृणा-सब निजता के इस आग्रह से ही तो उत्पन्न होते हैं।
कृष्णमूर्ति होने के बोध का प्रभाव तनाव और परिताप में नहीं बल्कि आनंद और प्रेम के अनुभव में मानते हैं। होने का वास्तविक बोध एक आनंद का अनुभव करवाता है। वहां परिताप नहीं है क्योंकि किसी का भी होना अपने आप में एक आनंद है, वह किसी अन्य के लिए बाधक नहीं बल्कि सहजीवी है, और इस आनंद से फूटती है प्रेम की अनुभूति क्योंकि आनंद तभी आनंद है जब दूसरे का होना उसके अनुभव में वृद्धि करे-अन्यथा वह लिप्साजन्य सुख है आौर लिप्सा केवल होने में नहीं, अधिकार-भाव में पोषित होती है। इसीलिए कृष्णमूर्ति का आग्रह प्रेम के अनुभव पर है-किसी व्यक्ति विशेष के प्रति प्रेम के अनुभव पर नहीं बल्कि होने मात्र के, सृष्टि मात्र के प्रति प्रेम के अनुभव पर जो निश्छल, निष्कलुष आनंद को और उज्ज्वल करता है, उसे और सृजनात्मक बनाता है।
स्वतंत्रता पर कृष्णमूर्ति का आग्रह इसीलिए है कि परतंत्र व्यक्ति न अपने होने का वास्तविक बोध कर सकता है और न आनंद और प्रेम का अनुभव-और यहां यह स्मरणीय है कि हमारे सभी बौद्धिक-नैतिक पूर्वग्रह और सामाजिक संस्थाएं-आदतें आदि हमें किसी-न-किसी सीमा तक परतंत्र करते हैं क्योंकि वे हमसे पूर्वनिर्धारित स्वीकारोक्ति चाहते हैं। इसीलिए स्वतंत्रता कृष्णमूर्ति के लिए कोई आदर्श नहीं है-आदर्श भी अंततः एक पूर्वग्रह ही है-बल्कि वह एक अनिवार्य परिस्थिति है, जिसके बिना मनुष्य होने का वास्तविक बोध नहीं कर सकता। इसीलिए कृष्णमूर्ति कहते हैं कि स्वतंत्रता कोई लक्ष्य नहीं है। स्वतंत्रता तो प्रारंभ में ही है, अंत में नहीं, वह कोई सुदूर स्थित आदर्श में प्राप्य नहीं है। स्वतंत्रता एक प्रारंभिक परिस्थिति है जिसके बिना होने की समग्रता का बोध संभव नहीं है और इस बोध का अभाव ही दुनिया की सभी समस्याओं के मूल में है। इसलिए कृष्णमूर्ति के अनुसार शिक्षा भी स्व की पहचान ही है क्योंकि हममें से प्रत्येक में समग्र सत्ता एकत्रित है। कृष्णमूर्ति वर्तमान शिक्षा-पद्धति को इस पहचान की सबसे बड़ी बाधा मानते हैं क्योंकि शिक्षा का अर्थ आज किताबों या अन्य ज्ञान-भंडारों से सूचना और ज्ञान प्राप्त करना है जो प्रत्येक समझदार व्यक्ति कर सकता है। यह शिक्षा-प्रणाली हमें अपने वास्तविक स्व होने से दूर ले जाती है और इस कारण सभी व्यक्तियों, संस्थाओं और वस्तुओं के साथ हम शुरू से ही संबंधों के एक जाल में फंस जाते हैं। कृष्णमूर्ति अपने लेख शिक्षा का सही रूप में कहते हैं कि आज की शिक्षा पूर्णतः असफल है क्योंकि यह तकनीकी पर अतिरिक्त बल देती है। तकनीकी ज्ञान हमारी विशेष प्रकार की कुछ समस्याओं को सुलझाता है, लेकिन, उस पर अतिरिक्त बल देना मनुष्य को नष्ट कर देना है। जीवन की समग्रता और उसकी प्रक्रिया के बोध के बिना तकनीकी कौशल और निपुणता हमें और अधिक असुरक्षित और दुःखी करती है। अपने हृदय में प्रेम के बिना अणु-विखंडन का कौशल जानने वाला व्यक्ति अतिक्रूर दैत्य हो जाता है।
इसलिए वास्तविक शिक्षा वह है जो तकनीकी कौशल देने के साथ-साथ जीवन की समग्रता को समझने में मनुष्य की सहायता करे। कई बार हम शिक्षा को बच्चों के मन में हमारे आदर्शों को रोपने का एक माध्यम बना लेते हैं-और यह अधिकांशतः शुभाशंसा के साथ किया जा सकता है। लेकिन कृष्णमूर्ति मानते है कि जब हम आदर्शों का आग्रह करते हैं तो हमारा संबंध जीवित और प्रत्यक्ष सत्ता से हटकर उस विचार से हो जाता है जिसे, हमारे अनुसार, सभी को स्वीकार कर लेना चाहिए। है से अधिक महत्त्वपूर्ण होना चाहिए हो जाता है। इसलिए शिक्षक और शिक्षा की प्रक्रिया को इस बात के प्रति सावधानी बरतनी होगी कि कहीं शिक्षा के नाम पर हम अपने पूर्वग्रहों और अवधारणाओं को बच्चे के मन में रोप कर उसकी स्वतंत्रता को नष्ट न कर दें। यदि हमारी शिक्षा अपनी प्रक्रिया में स्वतंत्रता के अनुभव को खंडित करने वाली होगी तो उससे स्वतंत्र व्यक्ति का विकास संभव नहीं हो सकेगा। इसलिए गहनतम तकनीकी प्रशिक्षण और अध्यापन की वैज्ञानिक विधियों से अधिक आवश्यक है शिक्षण-प्रक्रिया में उस स्वातंत्र्य के बोध का समावेश जो प्रत्येक व्यक्ति और जीवन की समग्रता के बोध की अनिवार्य परिस्थिति है।
लेकिन, ऐसा तभी संभव है जब हम में दूसरे के प्रति प्रेम और वास्तविक आदर का भाव हो क्योंकि प्रेम के बिना अपने से इतर की वास्तविक समझ संभव नहीं है। प्रेम हमें इस योग्य बनाता है कि हम दूसरे को समझ सकें और उसकी अपनी पहचान में सहायक हो सकें। इसलिए शिक्षा-प्रक्रिया में प्रेम के बोध का समावेश भी एक अनिवार्यता है। प्रेम-व्यक्ति विशेष के प्रति निजी प्रेम नहीं बल्कि सार्वभौम प्रेम-हमें दूसरे के होने का, उसके स्वतंत्र व्यक्तित्व का सम्मान करना सिखाता है क्योंकि उसके बिना अपने होने की स्वतंत्रता का अनुभव भी प्रामाणिक नहीं रहता। जब तक हमारा होना दूसरे के हमारे अनुकूल होने की धारणा पर आधारित है, तब तक वह होना भी प्रामाणिक नहीं है।
स्वतंत्रता के बोध को प्राथमिक महत्त्व देने के कारण स्वाभाविक है कि कृष्णमूर्ति अनुशासन की समस्या पर भी विस्तृत विचार करते हैं। शिक्षा को अनुशासन की एक प्रक्रिया माना जाता है और अनुशासन से सामान्यतया हमारा तात्पर्य होता है वर्तमान व्यवस्था और नियम-कायदों का आदर। कृष्णमूर्ति इससे सहमत नहीं हैं। वह इस प्रकार के अनुशासन को शिक्षा के बुनियादी उद्देश्य के ही विपरीत मानते हैं। उनके अनुसार बालक में शास्त्रों, वर्तमान सामाजिक मूल्यों, परंपराओं, राज्यतंत्रों, धार्मिक विश्वासों आदि पर प्रश्नचिह्न लगाने की प्रवृत्ति को उत्साहित किया जाना चाहिए। संभव है कि बालक में कुछ असंतोष पैदा हो, लेकिन, इस असंतोष से डरने का कोई कारण नहीं है क्योंकि यह असंतोष आत्म-ज्ञान की ओर ले जाएगा और उससे एक नई व्यवस्था, स्वतः, विकसित होगी। असंतोष स्वतंत्रता का माध्यम है; लेकिन यह असंतोष शुद्ध जिज्ञासामूलक होना चाहिए, किसी तरह का भावुकतापूर्ण आग्रह नहीं, जो अंततः किसी-न-किसी व्यक्ति या संगठन की शरण में ले जाता और इस प्रकार स्वतंत्रता का दमन कर देता हो।
इसलिए कृष्णमूर्ति शिक्षा का प्रथम कार्य यह मानते हैं कि वह प्रत्येक व्यक्ति को अपनी मानसिक प्रक्रिया को समझने में मदद करे। कैसे उसके विचारों, प्रवृत्तियों और आचरण पर पारिवारिक या सामाजिक-सांप्रदायिक पूर्वग्रहों का प्रभाव पड़ता है, तथा ये सारी बातें उसकी संवेदना, विचार और आचरण को किस प्रकार प्रभावित करती हैं आदि प्रक्रियाओं की अर्थात् अपने मन की बनावट और उसकी प्रक्रिया की सम्यक् जानकारी उसे होनी चाहिए। और यह तभी संभव है जब शिक्षा हमें अपने मन को देखना सिखाए। शिक्षा का प्रयोजन शांति है और वह अपने मन को जानने पर ही संभव है। पर आज दूर-दूर तक शिक्षा का यह उद्देश्य नहीं दिखता-बल्कि भरसक वह हमें अपने से इतना बाहर ले जाती है कि अपने में झांकने की प्रवृत्ति ही नहीं बचने पाती। सामाजिक वातावरण भी इसमें शिक्षा की मदद ही करता है-बल्कि शायद उसी के कारण, शिक्षा ने भी आत्मान्वेषण को अपने कार्यक्षेत्र से निकाल बाहर किया है। कृष्णमूर्ति के शब्दों में शिक्षा का उद्देश्य है सही रिश्तों की स्थापना, केवल व्यक्तियों के बीच ही नहीं बल्कि व्यक्ति और समाज के बीच भी, और इसीलिए यह आवश्यक है कि शिक्षा सबसे पहले अपनी मनोवैज्ञानिक प्रक्रिया को समझने में व्यक्ति की सहायक हो।
लेकिन, कृष्णमूर्ति भी मानते हैं कि केवल शिक्षा ही नहीं बल्कि हमारा सामाजिक संगठन भी व्यक्ति को स्वतंत्रता और समग्रता के बोध की ओर नहीं ले जाता। इसलिए न केवल अध्यापक को, और स्कूल अध्यापक को बदलना है, बल्कि माता-पिता को भी यह समझना होगा कि उन्हें भी अपने घर और स्कूल को सही शिक्षा के उद्देश्य से बदलने के लिए तत्पर होना है।
- नंदकिशोर आचार्य
केली, पेत्रा (1947-1992 ई०) : जर्मन राजनीतिज्ञ और कार्यकर्त्ता पेत्रा कैरिन कैली का जन्म 1947 ई० में तत्कालीन पश्चिम जर्मनी के गुइंसबर्ग में हुआ। पेत्रा के पिता के देहांत के बाद वर्ष 1958 ई० में उनकी मां ने अमरीकी सेना अधिकारी जॉन ई० कैली से विवाह कर लिया और उनका परिवार अमरीका आ गया। पेत्रा ने 1970 ई० में वाशिंगटन डीसी में अमरीकी विश्व विद्यालय से राजनीति विज्ञान, अंतरराष्ट्रीय संबंध, और विश्व राजनीति में स्नातक किया।
अमरीका में विद्यार्थी जीवन के दौरान उन्होंने 1968 ई० में राबर्ट कैनेडी के चुनाव अभियान में भाग लिया। कैनेडी की हत्या के बाद वे सीनेटर हर्बर्ट हंफ्री के चुनाव अभियान से भी जुड़ी रही। वियतनाम युद्ध और नस्लवादी राजनीति के विरोध में किए जाने वाले प्रदर्शनों में भी उन्होंने सक्रिय भूमिका निभाई। 1971 ई० में वे जर्मनी लौट आई, जहां उन्होंने एम्सटरडम विश्वविद्यालय से एम०ए० की डिग्री प्राप्त की और यूरोप की एकता विषय पर शोध प्रबंध लिखा। पेत्रा कैली ने विवाह नहीं किया, लेकिन वे अपने राजनीतिक सहयोगी गर्ट बास्तियान के साथ संगिनी की तरह रहती थीं और 1992 ई० में दोनों जर्मनी के बॉन स्थित अपने घर में मृत पाए गए। दोनों के शव 18 दिनों तक घर में पड़े रहे। उनकी मृत्यु के रहस्य पर से कभी परदा नहीं उठ पाया। जर्मन पुलिस ने इसे बास्तियान द्वारा की गई हत्या और आत्महत्या का मामला बताते हुए इस मामले में आगे छानबीन से इनकार कर दिया।
कैली का राजनीतिक जीवन शांति, अहिंसा, पर्यावरण, स्त्रीवादी आंदोलन और मानवाधिकार तथा इन सबके बीच अंतस्संबंधों की खोज पर केंद्रित रहा। पेत्रा पर्यावरण संरक्षण की जबरदस्त हिमायती और परमाणु ऊर्जा की घनघोर विरोधी थीं। उनके जीवन और विचारों पर मार्टिन लूथर किंग, महात्मा गांधी और डोरोथी डे के विचारों का गहरा प्रभाव रहा।
पैत्रा की छोटी बहन ग्रेस कैली की 1970 ई० में दस वर्ष की उम्र में आंख के कैंसर से मृत्यु हो गई। ग्रेस की मृत्यु ने पेत्रा को बहुत विचलित किया। उनका यह मानना था कि कैंसर एक खतरनाक आधुनिक सिंड्रोम है। दुनिया में कैंसर के फैलने के लिए मुख्यतः विश्व व्यापी परमाणु प्रदूषण जिम्मेदार है। ग्रेस की मौत के बाद नागरिक तथा सैन्य उद्देश्यों के लिए परमाणु ऊर्जा के इस्तेमाल के खिलाफ संघर्ष उनके राजनीतिक जीवन का प्रमुख सरोकार बन गया। उन्होंने अपनी नानी के साथ मिलकर 1974 ई० में न्यूरेमबर्ग में बच्चों में कैंसर पर अनुसंधान के लिए ग्रेस पी० कैली एसोसिएशन की स्थापना की। यूरोप भर में फैला यह नागरिक कार्य-समूह बच्चों में कैंसर और पर्यावरण, खासतौर से परमाणु उद्योग से जुड़े कारणों से उसके संबंध पर शोध करता है। यह समूह जर्मनी और अन्य स्थानों पर भी कैंसर पीड़ित बच्चों के वार्ड में मनोवैज्ञानिक सहायता प्रदान करता है। पैत्रा कैली जीवन भर इस एसोसिएशन की अध्यक्ष रही। उन्होंने गंभीर बीमारियों से जूझ रहे बच्चों के मानसिक और सामाजिक स्वास्थ्य के लिए स्वास्थ्य केंद्र चिल्ड्रन प्लानेट की भी स्थापना की।
पेत्रा यूरोप में शांति स्थापना और परमाणु ऊर्जा विरोधी आंदोलनों में संलग्न हो गई। राजनीति में पुरुष वर्चस्व और पितृसत्तावादी ढांचों के खिलाफ आवाज बुलंद करना उनका एक अन्य प्रमुख सरोकार रहा। चांसलर विली ब्रांट के समर्थन में वे 1972 ई० में सोशल डेमोक्रेटिक पार्टी में शामिल हुईं, लेकिन सात वर्ष बाद ब्रांट के उत्तराधिकारी हेल्मुट स्मिट की रक्षा तथा ऊर्जा नीतियों के विरोध में उन्होंने इस पार्टी की सदस्यता छोड़ दी। उनका यह मानना था कि थोड़ा सा कैंसर, थोड़ा सा कुपोषण, थोड़ी सी मौतें, थोड़ा सा सामाजिक अन्याय और थोड़ा सा शोषण भी स्वीकार नहीं किया जा सकता। यदि हम इन चीजों को इनके न्यूनतम स्तर पर भी स्वीकारने लगेंगे तो इससे हमारा कुछ भला होने वाला नहीं है, जैसे कि रेडियों विकीरणों का कोई भी न्यूनतम स्तर भी सुरक्षित नहीं हो सकता.......लेड और डायोक्सिन का भी नहीं। हमें साफ-साफ, जोर से और साहस के साथ कहना होगा कि इन सबका कोई न्यूनतम और सुरक्षित स्तर नहीं होता।
वह 1978-80 ई० के दौरान जर्मनी के पर्यावरणवादी नागरिक समूह द अंब्रेला की प्रवक्ता भी रहीं। इसी दौरान गर्ट बास्तियान के साथ मिलकर उन्होंने पेर्शिंग 2 और क्रूज मिसाइलों के प्रक्षेपण का विरोध किया। वे परमाणु मुक्त यूरोप के लिए बर्टेंड रसेल अभियान की सह संस्थापक भी रहीं। इन्हीं वर्षों के दौरान पेत्रा ने एक अहिंसा की पक्षधर पर्यावरणवादी राजनीतिक पार्टी की परिकल्पना की। इस तरह जर्मनी की द ग्रीन पार्टी की स्थापना 1979 ई० में पेत्रा ने अन्य पर्यावरणवादी नेताओं के साथ मिलकर की, जिनमें लुकास, बैकमैन, जोसफ बायेस, रूडी दुशेक, मिलान होरेक, रोलंड वोट, गेर्डा डैगेन, हैलो सैबोल्ड तथा अन्य शामिल थे। वे 1980 ई० में इस राजनीतिक दल की प्रवक्ता बनीं। जर्मनी में किसी राजनीतिक दल की वह पहली महिला प्रमुख थीं।
ग्रीन पार्टी की प्रतिनिधि के रुप में दो बार बुंदेस्ताग (जर्मन संसद) में पहुंची। बुंदेस्ताग में अपने सात वर्षीय कार्यकाल के दौरान वह ग्रीन पार्टी की प्रवक्ता के अलावा विदेश मामलों की समिति की सदस्य भी रहीं। वे बुंदेस्ताग में निरस्त्रीकरण संबंधी उप-समिति से भी जुड़ी रहीं, जिसका ध्यान मानवाधिकार, निरस्त्रीकरण, तटस्थता और विदेश नीति पर केंद्रित था। कैली ने जब यह देखा कि ग्रीन पार्टी भी राजनीतिक दौड़ में अपने वास्तविक उद्देश्यों से भटकने लगी है, तब उन्होंने इससे भी किनारा कर लिया।
फरवरी 1983 ई० में कैली ने ग्रीन पार्टी के अपने सहयोगी गर्ट बास्तियान के साथ मिलकर न्यूरेमबर्ग में युद्ध अपराध न्यायाधिकरण आयोजित किया। इसमें उन्होंने उन देशों पर अभियोग चलाया जिन्होंने अपने पास व्यापक जन संहार के हथियार और परमाणु हथियार जमा कर रखे थे। इन देशों में फ्रांस, चीन, ब्रिटेन, अमरीका और सोवियत रूस शामिल थे। इस रैली में दो हजार लोगों ने भाग लिया। इसी साल उन्होंने पूर्वी बर्लिन में युद्ध विरोधी प्रदर्शन किया, जिसके दौरान उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। इसी तरह का प्रदर्शन कुछ माह बाद मास्को में भी आयोजित किया गया। कैली और उनके साथियों ने इसके बाद यूरोप भर में जगह-जगह अमेरीका सैन्य ठिकानों पर इस तरह के प्रदर्शन आयोजित किए। इसी तरह के प्रदर्शन आस्ट्रेलिया, अमरीकी और जर्र्मन लोकतांत्रिक गणराज्य में भी हुए। दक्षिण अफ्रीका में नस्लवादी शासन के दौरान उसके साथ आर्थिक समझौतों को लेकर कैली, बास्तियान और ग्रीन पार्टी के सांसदों ने प्रिटोरिया में जर्मन दूतावास पर कब्जा कर लिया।
अपने नजरिए का खुलासा करते हुए पेत्रा कैली ने कहा था मैं जिस दृष्टि से देखती हूं, वह सिर्फ प्रत्यक्ष लोकतंत्र, स्व तथा सह-प्रतिबद्धता और अहिंसा के आंदोलन तक सीमित नहीं है, बल्कि यह एक ऐसा आंदोलन है, जिसमें राजनीति का अर्थ प्रेम करने का सामर्थ्य और इस धरती रूपी जहाज पर एकजुट रहने की ताकत है।...........एक ऐसी दुनिया जहां हिंसा और बेईमानी के साथ लगातार जूझना पड़ता है, उसमें अहिंसा के विचार को न सिर्फ एक जीवन-दर्शन बल्कि जीवन-शैली के रुप में सड़कों, बाजारों, मिसाइलों के ठिकानों, रासायनिक संयंत्रों और युद्ध उद्योग इन सबके विरोध में प्रबल ढंग से आगे ले जाना सबसे प्रमुख प्राथमिकता बन जाता है।...............इस दुनिया के दमित लोगों को अपने जीवन पर नियंत्रण पाने के लिए आगे आना होगा ताकि वे उन्हें विध्वंस की ओर धकेलने वाले अपने राजनीतिक आकाओं से राजनीतिक सत्ता को छीनकर खुद अपने हाथों में ले सकें। धरती के साथ दुर्व्यवहार किया जा रहा है और सिर्फ संतुलन बनाए रखते हुए, धरती के साथ सांमजस्य बनाकर जीते हुए, विशेषज्ञता और ज्ञान का उपयोग लोगों और जीवन के लिए उपयोगी तकनीक तथा ऊर्जा को बढ़ावा देकर ही इस पितृसत्तात्मक अहं से छुटकारा पाया जा सकता है। ग्रीन पार्टी और परमाणु विरोधी मुहीम को जीवित रखने के पीछे कैली की भूमिका का बड़ा हाथ रहा।
पेत्रा कैली ने 1970 ई० की शुरुआत में एक तिब्बती लड़की नीमा के भरण-पोषण की जिम्मेदारी ली थी। चीन द्वारा तिब्बत में मानवाधिकारों के हनन की निंदा करते हुए उन्होंने 1987 ई०, 1988 ई० और 1989 ई० में जर्मन संसद में प्रस्ताव रखे। उन्होंने 1989 ई० में पहली बार चीन द्वारा तिब्बत में मानवधिकार हनन को लेकर अंतरराष्ट्रीय सुनवाई का आयोजन किया। इस सुनवाई में 40 विशेषज्ञ और 600 लोगों ने हिस्सा लिया। यह सुनवाई बॉन के संसद भवन में हुई और इसके बाद अन्य देशों में भी इस तरह की सुनवाइयों का आयोजन किया गया।
स्वीडन की संसद ने पेत्रा कैली को वर्ष 1982 ई० में प्रतिष्ठित राइट्स लाइवलीहुड अवार्ड से सम्मानित किया। इस पुरस्कार को नोबल शांति पुरस्कार के विकल्प के रूप में भी देखा जाता है।
लंदन के संडे टाइम्स ने उन्हें 20 वीं शताब्दी के एक हजार सबसे प्रभावशाली व्यक्तियों की सूची में शामिल किया है।
पेत्रा कैली के विचारों को आगे बढ़ाने के लिए हेनरिख बॉल फाउंडेशन की एक शाखा के रुप में 1997 ई० में पेत्रा कैली फाउंडेशन की स्थापना की गई। वर्ष 1998 ई० से यह फाउंडेशन मानवाधिकार, पर्यावरण और अहिंसा के मुद्दों को लेकर पेत्रा कैली पुरस्कार भी देता है।
- देवयानी भारद्वाज
क्रांतिकारी हिंसा : सामान्यतः, जब हिंसा की बात की जाती है तो आक्रामक हिंसा और आत्म-रक्षात्मक हिंसा में भेद नहीं किया जाता और दोनों को एक ही वर्ग में रखकर देखा जाता है। आक्रामक हिंसा का एक प्रकार तो वह है जो प्रत्यक्ष हिंसक कार्रवाई के रूप में प्रकट होता है और उसके विरूद्ध आत्मरक्षा के साधन के रूप में हिंसक प्रतिरोध को भी कुछ सीमा तक उचित मान लिया जाता है। स्वयं महात्मा गांधी तक का मत है कि कायरतापूर्वक आक्रामक हिंसा को स्वीकार करने के बजाय हिंसक प्रतिकार अधिक उचित है-क्योंकि महात्मा गांधी की अहिंसा वीरता है, कायरता नहीं। लेकिन, प्रत्यक्ष हिंसा के अतिरिक्त हिंसा के कईं अन्य सूक्ष्म रूप होते हैं; आर्थिक शोषण, सामाजिक उत्पीड़न, राज्य संस्थान में निहित हिंसा, धार्मिक असहिष्णुता आदि हिंसा के सूक्ष्म रूप हैं, मनोवैज्ञानिक स्तर पर की जाने वाली हिंसा को भी इसमें शामिल किया जा सकता है। क्या इनसे पीड़ित व्यक्ति या समूह को आत्मरक्षा का अधिकार नहीं है? इसे ही क्रांतिकारी हिंसा कहा जाता है। इसे लेकर काफी विमर्श हुआ है।
महात्मा गांधी के ही समकालीन चिंतकों में बाल गंगाधर तिलक जैसे धार्मिक भावना में विश्वास करने वाले विद्वान की भी सम्मति इस संदर्भ में भिन्न है। तिलक सामान्य तौर पर तो अहिंसा को ही वरेण्य मानते हैं और हिंसा उनकी दृष्टि में भी पाप ही है; लेकिन, उनकी मान्यता है कि यदि निष्काम भाव के साथ हिंसा हो तो उसे पाप नहीं माना जा सकता। वह कर्मयोग की व्याख्या करते हुए बताते हैं कि गीता में जिस निष्काम कर्म का उपदेश किया गया है, उसका अर्थ है वैयक्तिक स्वार्थ और रागद्वेषादि से ऊपर उठकर फलाशा त्यागकर किया जाने वाला कर्म। तिलक मानते हैं कि निष्काम कर्म का प्रयोजन लोक-संग्रह है और यदि इस लोक-संग्रह में हिंसा हो भी तो उसके शुभ-अशुभ फल का बंधन या लेप नहीं लगता। यह एक प्रकार की निष्काम हिंसा है। इसी तरह तिलक यह तो मानते हैं कि दुष्टता का प्रतिकार यदि साधुता से हो सकता हो तो पहले वही करना चाहिए; लेकिन, यदि उसमें सफलता न मिले तो जैसे को तैसा बन कर दुष्टता का निवारण करना भी धर्मसम्मत है।
कार्ल मार्क्स और उनके अनुयायियों को भी आवश्यकता पड़ने पर हिंसा से गुरेज नहीं था। लेकिन कुछ नववामपंथी विचारक तो आत्मरक्षात्मक हिंसा को न केवल एक अन्याय से मुक्ति के एक उपाय के रूप में, बल्कि आत्मशुद्धि की प्रक्रिया की तरह व्याख्यायित करते हैं। इस संदर्भ में सर्वाधिक उल्लेखनीय फ्रेंज फेनन हैं, जिनकी स्थापना है कि हिंसा के माध्यम से ही आम लोग सामाजिक सत्यों को जान पाते हैं, हिंसा व्यक्तियों की शुद्धि करती है, और यह दबे हुए लोगों को उनकी हीन भावना और निराशा तथा निष्क्रियता से मुक्ति दिलाकर उन्हें अभय और आत्मसम्मान लौटाती है। ज्यां पाल सार्त्र शोषण या दमन से मुक्ति के लिए हिंसा की प्राथमिकता के सवाल पर फेनन की ही पुस्तक दि रेचेड ऑफ दि अर्थ की भूमिका में लिखते हैं कि जब कोई मूल अफ्रीकी किसी उपनिवेशी पर हिंसा का इस्तेमाल करता है तो अपनी खोई हुई निष्पापता का पुनराविष्कार करता है।
डोम हेल्डर कमारा का तर्क है कि अन्याय हिंसा का ही एक प्रमुख प्रकार है और इसी के कारण हिंसात्मक प्रतिरोध की उत्पत्ति होती है, जिसे दबाने के लिए फिर हिंसा की जाती है। इस प्रकार हिंसा का एक दुश्चक्र शुरू हो जाता है, लेकिन इसका प्राथमिक उत्तरदायित्व अन्याय में निहित हिंसा में है। हर्बर्ट मारक्यूज मानते हैं कि इस हिंसा का सामना करने के लिए हिंसा के अतिरिक्त दूसरा उपाय नहीं है। वह हिंसा को नैतिक नहीं मानते पर उनके अनुसार इतिहास का निर्माण नैतिक प्रतिमानों के आधार पर कब हो सका है। जेवियर लिओन दुफोर बाइबिल के आधार पर बुरी हिंसा और अच्छी हिंसा में भेद करते हैं क्योंकि हिंसक के खिलाफ की गई हिंसा को अच्छी हिंसा ही कहा जा सकता है। मौरिस मार्लोपोंटी तो यहां तक कह देते हैं कि अन्यायग्रस्त को अहिंसा सिखाना स्थापित हिंसा को और मजबूत करना है-उस उत्पादन व्यवस्था को जो गरीबी और युद्ध को अपरिहार्य बना देती है। मार्लोपोंटी अच्छी हिंसा की तर्ज पर प्रगतिशील और अनिवार्य हिंसा का समर्थन करते हैं क्योंकि, उनके अनुसार, उसी से उस प्रतिक्रियावादी हिंसा से आत्मरक्षा हो सकती है जो उदारवादी समाजों की नैतिकता में सुविचारित रूप से अंतर्निहित है। सोरेल, इसीलिए, सत्तासीन वर्ग की ताकत और क्रूरता के सम्मुख दलित वर्ग की स्वस्थ हिंसा की वकालत करते हैं।
लेकिन, अहिंसावादी और शांतिवादी विचारक इन तर्कों से सहमत नहीं हैं। इस बारे में स्वयं सार्त्र भी संदेहग्रस्त हैं। उनकी स्वीकारोक्ति है : मैं जानता हूं कि हिंसा आवश्यक है और समाज के एक दौर से दूसरे दौर के संक्रमण में सदैव ही आवश्यक रही है; लेकिन, मैं नहीं कह सकता कि उससे कैसा नया समाज बनेगा। शुद्ध व्यावहारिकता या उपयोगिता की दृष्टि से देखें तो भी क्रांतिकारी परिवर्तन के औजार के रूप में हिंसा सदैव ही असफल रही है। जयप्रकाश नारायण मानते हैं कि हिंसक क्रांति के लिए उन्हें कोई नैतिक आपत्ति नहीं है, लेकिन, न तो वह जल्दी हो पाती है और न ही कोई हिंसक क्रांति आज तक अपने मूल उद्देश्य को पा सकी है। क्रांतिकारी जमात के हाथ में सत्ता के आ जाने मात्र से क्रांति को सफल नहीं माना जा सकता क्योंकि वास्तविक लक्ष्य तो एक नई न्यायपूर्ण समाज-व्यवस्था का निर्माण करना होता है। अहिंसक प्रक्रिया में तो परिवर्तन ओर निर्माण दोनों साथ-साथ चल सकते हैं। यह भी देखा गया है कि राजनीतिक हिंसा के प्रति क्रांतिकारी होने की संभावना अधिक रहती है क्योंकि हिंसक क्रांति हमेशा किसी-न-किसी प्रकार की तानाशाही को जन्म देती है। जयप्रकाश नारायण तोलस्तोय की एक उक्ति को थोड़ा बदलकर कहते हैं कि क्रांतिकारियों ने जनता के लिए सब कुछ तो किया है, केवल उसकी पीठ पर से उतरने का कष्ट नहीं किया।
हन्ना अरान् नववामपंथियों द्वारा हिंसा के गुणगान को अनुचित मानते हुए कहती हैं कि वह सामाजिक विमर्श का कोई वैध विकल्प नहीं प्रस्तुत करती। वह एक ओर नववामपंथियों की हिंसा-प्रशस्ति की निंदा करती हैं तो, दूसरी ओर, दलनवादी शक्तियों की भी भर्त्सना करती हैं क्योंकि दोनों हिंसा के दुश्चक्र में फंस जाते हैं। लेकिन, इतना तो वह भी मानती है कि कुछ विशेष अपरिहार्य परिस्थिति में हिंसा के माध्यम से ही संतुलन कायम किया जा सकता है।
फ्रेंज फेनन स्वयं एक मनोचिकित्सक रहे। लेकिन, उनका और उनके नववामपंथी मित्रों का मनोविज्ञान पर आधारित तर्क स्वयं एक मानसिक विचलन को ही केंद्र में रखता है। फेनन का-और सार्त्र का भी-तर्क है कि हिंसा का प्रयोग दलित जाति या वर्ग में हीनभाव को मिटाकर आत्मसम्मान पैदा करता है। लेकिन यह तब विफलता-बोध से उत्पन्न एक क्रूर मानसिकता की अभिव्यक्ति हो जाता है-चाहे इस क्रूरता का कारण हमारी सामाजिक-आर्थिक-राजनीतिक परिस्थिति में रहा हो-इसलिए वह एक मानसिक विकृति है, जिससे, अंततः, फासीवाद पैदा होता है। जिस आत्मगौरव और आत्मसम्मान की बात नववामपंथी करते हैं, वह एक आक्रामक आत्मविश्वास है, जो किसी गहरी हीन भावना की अभिव्यक्ति होता है। अहिंसा जो आत्मविश्वास पैदा करती है, उसकी जड़ें एक गहरे नैतिक बोध और आत्मबल में होती है। यह आत्मविश्वास न तो आक्रामक होता है और न उसमें हीन भावना ही होती है। अहिंसा एक स्वस्थ मन का लक्षण है-यदि वह अहिंसा की आड़ में कायरता नहीं है। अतः, दलित वर्ग में जिस आत्मसम्मान के लौटने की बात फेनन और उसके साथी करते हैं, वह तो, हिंसा नहीं, अहिंसा के माध्यम से ही संभव है। इसलिए अन्याय का प्रतिरोध करने के राजनीतिक उपाय के रूप में भी अहिंसक प्रक्रियाओं की वांछनीयता अधिक स्पष्ट और प्रमाणित है।
तिलक जिस निष्काम हिंसा का संकेत करते हैं, उसे परिवर्तन के साधन के रूप में स्वीकार किया जाना संभव ही नहीं है। कोई भी परिवर्तन व्यापक जन-सहभागिता के बिना संभव नहीं है, और, निष्कामता और उससे प्रेरित हिंसा को व्यापक स्तर पर लागू किया जाना मुमकिन नहीं है। प्रथम तो बिना क्रोध या घृणा के हिंसा संभव ही नहीं है; अतः, उसका निष्काम होने का विचार स्वीकार्य नहीं हो सकता। दूसरे, यदि निजी स्तर पर कोई व्यक्ति रागद्वेषादि से मुक्त होकर निष्काम हिंसा संपादित कर भी सकता हो और धार्मिक या नैतिक दृष्टि से उसे पापमुक्त मान भी लिया जाए, तब भी यह नहीं कहा जा सकता कि बाकी समाज पर उसका प्रभाव अशुभ नहीं होगा क्योंकि संपूर्ण समाज के लिए निष्काम भाव को प्राप्त होना संभव नहीं लगता। तीसरे यह कि हिंसा निष्काम हो तो भी वह शक्ति के नियम से ही संचालित होगी; प्रथम तो उसमें सफलता संदेहास्पद ही रहेगी और यदि कभी सफलता मिलती भी है तो यह किसी न्याय या मूल्य की नहीं, हिंसा की ही जीत होगी जो अपने में अन्याय की मूल प्रेरणा है। हिंसा और हिंसा के बीच संघर्ष में-चाहे वह अच्छी हिंसा और बुरी हिंसा अथवा अन्यायी हिंसा और क्रांतिकारी हिंसा का संघर्ष हो-विजय अनिवार्यतः उसी की होगी जो अधिक हिंसक हो सके। अतः, यह हिंसा की ही जीत होगी, न कि उस नैतिक मूल्य या आदर्श की जिसके लिए संघर्ष किया जा रहा है। अहिंसा की जीत सदैव आत्मबल, करूणाबल-कहें कि मानवत्व-की जीत है-अपनी प्रक्रिया और परिणाम दोनों में। खोया हुआ आत्सम्मान और निष्पापता, जो अहिंसा के माध्यम से प्राप्त होते हैं, अपने आप में उस पाप और आत्महीनता पर विजय है, जिनकी स्थूल अभिव्यक्ति हिंसा में होती है। अहिंसक इसीलिए महावीर कहे जाते हैं।
- नंदकिशोर आचार्य
क्राइस्ट, जिसस : हिंदी-उर्दू दुनिया में ईसा के नाम से प्रसिद्ध जिसस क्राइस्ट को अहिंसा और प्रेम के मूल्य को दुनिया भर में प्रतिष्ठित करने वाले लोगों में महावीर और बुद्ध की पंक्ति में समझा जाता है। उनका जन्म यहूदी जोसेफ के यहां मरियम के गर्भ से नाजरेत में हुआ था। उनके जीवन के प्रारंभिक तीस वर्षों के बारे में कोई विशेष जानकारी नहीं मिलती।
कहा जाता है कि यहूदी परिवार में जन्म और परवरिश के बावजूद ईसा तत्कालीन यहूदी समाज के धार्मिक पाखंड और सामान्यतः प्रतिष्ठित समझे जाने वाले यहूदियों के आडंबरपूर्ण और विलासी जीवन से बहुत असंतुष्ट थे। जब उन्हें यह पता चला कि उन्हीं की तरह यहूदी येहन्ना भी धर्म के नाम पर यहूदियों के पाखंड से असंतुष्ट है तो उनके पास जाकर ईसा ने बपतिस्मा (दीक्षा) ग्रहण किया तथा दोनों मिलकर अपने उपदेशों का प्रसार करने लगे। इस पर येहन्ना को गिरफ्तार कर लिए जाने पर ईसा ने घूम-घूमकर उपदेश देना शुरू किया। जूडिया के रेगिस्तान में उन्होंने चालीस दिन तक उपवास सहित तपस्या की। इससे उनका यश बहुत फैल गया तथा उन्हें अलौकिक शक्तियों वाला व्यक्तित्व स्वीकार किया जाने लगा। उनकी इस अलौकिक शक्ति की कई कहानियां प्रचलित हो गई, जिनमें मृत व्यक्ति को जिलाने की घटना भी शामिल है।
ईसा का प्रभाव बढ़ने लगा तथा यहूदी पुजारी एवं अन्य कुलीन वर्ग के लोग उनके विचारों को अपने लिए खतरनाक मानने लगे। कई मौकों पर ईसा ने यहूदी पुजारियों एवं अधिकारियों का सीधा-यद्यपि अहिंसक-विरोध भी किया। अंततः यरुशलम में जब उनके प्रशंसकों और अनुयायियों द्वारा ईसा के अभिनंदन में उनका जुलूस निकाला गया तथा यहूदियों का राजा कहकर उन्हें संबोधित किया गया तो पुजारियों ने यह निश्चय किया कि गुपचुप रूप से ईसा को कैद कर लिया जाए। उन्हीं के एक शिष्य जुडास ने धोखे से उन्हें पकड़वा दिया। रोमन अदालत में उन पर मुकदमा चलाया गया तथा उन्हें कूस पर लटका कर मृत्यु दंड दे दिया गया। ऐसा विश्वास किया जाता है कि अपनी मृत्यु के तीसरे दिन ईसा पुनः जीवित होकर लोप हो गए। उन्हें मृत्युदंड मिलने के दिन को प्रतिवर्ष गुड फ्राइडे तथा उसके तीसरे दिन अर्थात् रविवार को ईस्टर के रूप में मनाया जाता है। ईसा का जन्म 25 दिसंबर को हुआ था, अतः उसे भी क्रिसमस दिवस के रूप में प्रतिवर्ष मनाया जाता है। ईसा की शहादत के बाद उनके सिद्धांतों का प्रचार-प्रसार उनके शिष्यों के द्वारा विश्व भर में किया गया।
ईसा के सिद्धांतों और उपदेशों में प्रेम का केंद्रीय स्थान है। प्रेम को ही ईश्वरानुभूति कहा गया है। ईसा को ईश्वर का पुत्र एवं पैगंबर माना जाता है और यह विश्वास किया जाता है कि ईश्वर ने मनुष्यों के प्रति अपने प्रेम के कारण उनका उद्धार करने के लिए अपने पुत्र ईसा को धरती पर भेजा तथा ईसा समस्त मनुष्य जाति के प्रति अपने प्रेम के कारण उन्हें मुक्ति दिलाने के लिए स्वयं यंत्रणादायक कूस पर चढ़ने के लिए प्रस्तुत हो गए। इसीलिए उन्हें करुणा की सजीव मूर्ति कहा जाता है।
ईसा के धर्म में करुणा, क्षमा और प्रेम का केंद्रीय महत्त्व है। जब हम किसी से प्रेम करते हैं तो उसे दंड नहीं दे सकते और अनुचित व्यवहार के लिए भी उसके प्रति मन करुणा से भरा होना चाहिए जैसे स्वयं ईश्वर का हृदय मनुष्य द्वारा पाप करने पर भी उसके प्रति करुणार्द्र है और इसीलिए उसने अपने पुत्र को समस्त मनुष्य जाति का कष्टों से मुक्त करने के प्रयोजन से स्वयं कष्ट-सहन करने के लिए भेजा है। ईसा अदृष्ट ईश्वर का दृष्ट रूप है; अतः, कह सकते हैं कि स्वयं ईश्वर ही जैसे स्वयं कष्ट सहन करके मानव-जाति को पापमुक्त कर रहा है क्योंकि ईसाइयत में जिसे त्रियेक परमेश्वर अर्थात् पिता, पुत्र और पवित्र आत्मा कहा जाता है, वह तीन होते हुए भी एक है।
ईसा के उपदेशों में प्रेम का भाव इतना केंद्रीय है कि वह अपने शत्रु से भी प्रेम करने का आग्रह करते हैं। सर्मन ऑन दि माऊंट में वह कहते हैं-अपने शत्रुओं से प्रेम करो। इससे तुम अपने स्वर्गिक पिता की संतान बन जाओगे; साथ ही, दूसरों से अपने साथ जैसा व्यवहार चाहते हो, तुम भी उसके साथ वैसा ही करो। अपनी इस बात को वह और भी स्पष्ट करते हैं-दोष न लगाओे, ताकि तुम पर दोष न लगाया जाए। क्योंकि जिस विचार से तुम विचार कर चुके हो, उसी से तुम्हारा विचार किया जाएगा; क्षमा करो और तुम भी क्षमा किए जाओगे। दो और तुम्हें दिया जाएगा; पूरी नाप, डबाडब कर, हिला-हिलाकर और उभरता हुआ, वे तुम्हारी गोद में डालेंगे; क्योंकि जिस नाप से तुम नापोगे, उसी नाप से तुम्हारे लिए भी नापा जाएगा। ईसा इसीलिए दुष्ट के प्रति भी अप्रतिकार और प्रेम का आग्रह करते हैं : यदि कोई तुम्हारे दांये गाल पर थप्पड़ मारता है तो अपना बांया गाल भी उसके आगे कर दो। (मैथ्यू (5) 39) क्रूस पर लटकाए जाने के वक्त ईसा की यह प्रार्थना उनके अप्रतिकार और प्रेम का ज्वलंत उदाहरण हैं, प्रभु, उन्हें क्षमा कर दो! वे नहीं जानते वे क्या कर रहे हैं। (सेंट ल्यूक 23.34) यह कहा गया है कि जो रोमन सैनिक क्रूस के नीचे खड़ा था, उसने ईसा के बारे में इसीलिए कहा कि सच ही वह ईश्वर का पुत्र था (मैथ्यू 2(7) 54; ल्यूक 23.47)।
ईसा के व्यक्तिगत जीवन में ऐसी बहुत-सी घटनाओं का विवरण मिल जाता है, जो उनके उपदेशों का सक्रिय रूप हैं और जिनसे प्रेम और करुणा ही ईश्वर के प्रति समर्पण के रूप में प्रतिष्ठापित होते हैं। जिस समय ईसा को गिरफ्तार किया गया तो उनके एक शिष्य सिमोन पेत्रुस ने तलवार चला दी, जिसके गिरफ्तार करने आए व्यक्तियों में से मलकुस नाम के एक दास का कान कट गया। पर ईसा ने उसे रोका तथा कहा जाता है कि अपने चमत्कार से उसका कान अच्छा कर दिया। पेत्रुस से उन्होंने कहा-अपनी तलवार म्यान में रख लो, क्योंकि जो तलवार उठाएंगे, वे सब तलवार ही से मरेंगे।
इसी तरह जब उनके आगे एक स्त्री को व्यभिचार के आरोप लगाकर लाया गया तो ईसा ने कहा कि उस पर पहला पत्थर वह मारे जिसने कभी कोई पाप न किया हो। उन्होंने उस महिला को भविष्य में सच्चरित्र रहने की सलाह देते हुए क्षमा कर दिया। ईसा के जीवन की घटनाएं बताती हैं कि उनका ध्यान पापियों को सुधारने और वंचितों-पीड़ितों की मदद करने की ओर अधिक रहता था। धन-संग्रह को भी वह पाप ही मानते थे क्योंकि उससे मनुष्य का ध्यान ईश्वर से हटकर संपत्ति और उससे उत्पन्न लौकिक सम्मान की ओर अधिक लग जाता है। एक सुई के छेद से ऊंट का गुजरना संभव हो सकता है, लेकिन स्वर्ग के द्वारा में धनी व्यक्ति का प्रवेश मुश्किल है। स्वैच्छिक निर्धनता ईश्वर की राह में सहायक है।
ईसा की शहादत के बाद उनके शिष्यों को भी बहुत कष्ट सहन करना पड़ा। लेकिन, वे ईसा की शिक्षाओं से नहीं डिगे और उनके विचारों का प्रसार करते रहे। शनैः शनैः ईसाई धर्म दुनिया के बड़े हिस्से पर प्रभावी हो गया-यद्यपि यह नहीं कहा जा सकता कि ईसाई विश्व पूरी तरह ईसा के उपदेशों का सही अनुसरण करता रहा है। महात्मा गांधी का कहना है कि ईसाइयत के नाम पर जो कुछ किया गया है, वह ईसा के पर्वत-उपदेशों का निषेध ही है। गांधीजी ईसा को विश्व के उन महानतम गुरुओं में मानते हैं, जिन्होंने स्वयं उनके जीवन पर भी गहरा प्रभाव डाला है।
द्रष्टव्य : ईसाई अहिंसा।
- नंदकिशोर आचार्य
क्रोपाटकिन, पीटर एलेकसीविच : प्रिंस क्रोपाटकिन(1842-1921 ई०)रूस के कुलीन राजवंशी होने के बावजूद एक अराजकतावादी क्रांतिकारी थे। बोल्शेविकवाद से अपनी असहमति के बावजूद उन्होंने क्रांतिकारी गतिविधियों में भाग लिया और जेल भी गए। जारशाही के पतन के बाद अस्थाई सरकार में मंत्री पद का प्रस्ताव उन्होंने अस्वीकार कर दिया। बोल्शेविकवाद को वह राज्य समाजवाद कहते थे। लेकिन, वह क्रांति में पश्चिमी हस्तक्षेप के भी विरोधी थे। 1921 ई० में दिमित्रोव में निमोनिया से उनकी मृत्यु हो गई।
क्रोपाटकिन का अराजकतावाद का सिद्धांत उनके द्वारा प्रस्तावित पारस्परिक सहयोग के सिद्धांत के आधार पर विकसित है। क्रोपाटकिन एक वैज्ञानिक भी थे। रूसी जिओग्राफिकल सोसाइटी में एक भूगोलवेता की हैसियत से उन्होंने साइबेरिया के अलावा फिनलैंड और स्वीडन में भी काम किया। यह समय डार्विन के विकासवादी सिद्धांत के प्रभाव का था और उसकी अवधारणाओं के आधार पर सामाजिक डार्विनवाद (Social Darwinism) का एक समुदाय बन गया था जो अस्तित्व के लिए संघर्ष (Struggle for Existence) को मानव-जाति के विकास में भी प्रमुख मान रहा था, जिसका तात्पर्य है कि मानव जाति के विकास में हिंसक मानवीय प्रतिद्वंद्विता मुख्य कारक रहा है। अपने काम के दौरान क्रोपाटकिन ने बहुत से जीवों के जीवन का निकटता से पर्यवेक्षण किया था। अपने अनुभव के आधार पर वह इस विकासवादी धारणा से सहमत नहीं हो पा रहे थे कि संघर्ष ही विकास का मुख्य कारक है। 1880 ई० में प्रोफेसर केसलर ने सेंट पीटर्सबर्ग विश्वविद्यालय में ऑन दि लॉ ऑफ म्युचुअल एड शीर्षक से एक व्याख्यान दिया, जिससे क्रोपाटकिन बहुत प्रेरित हुए और उन्हें शायद एक अलग रास्ते के संकेत दिखाई दिए।
सामाजिक डार्विनवादियों में टी०एच० हक्सले (1825-1895 ई०) बहुत उत्साही थे। उन्हें डार्विन का बुलडॉग कहा जाता है। टी०एच० हक्सले ने अपने प्रसिद्ध निबंध (The struggle for existence) में प्रतिपादित किया कि न केवल पशु-जाति बल्कि मनुष्य जाति के विकास का केंद्रीय कारक पारस्परिक संघर्ष रहा है। क्रोपाटकिन इस मत से सहमत नहीं थे। साइबेरिया में अपने पर्यवेक्षण, अनुभवों और अध्ययन विश्लेषण के आधार पर उनकी मान्यता थी कि विकास में एक प्रमुख कारक पारस्परिक सहयोग है। अपने विचारों को पहले क्रोपाटकिन ने एक लेख-माला के रूप में नाइनटींथ सेंचुरी नामक ब्रिटिश पत्रिका में प्रकाशित करवाया। अनंतर ये लेख म्युचुअल एड : ए फेक्टर इन इवोल्युशन शीर्षक से पुस्तकाकार प्रकाशित (1902 ई०) हुए।
इस पुस्तक में क्रोपाटकिन यह प्रतिपादित करते हैं कि विकास की प्रक्रिया में पारस्परिक सहयोग की भूमिका अत्यंत महत्त्वपूर्ण रही है। वह पहले मानवेतर प्राणियों में प्रत्येक पशु-जाति के संरक्षण और संवर्धन में उनके पारस्परिक सहकार के उदाहरण प्रस्तुत करते हैं, जिनके बिना उन प्राणि-जातियों का जीवित रहना ही संभव नहीं होता। इस प्रकार सहकार को वह जीव-वैज्ञानिक आधार पर एक जैविक प्रवृत्ति के रूप में स्थापित करते हैं। क्रोपाटकिन की स्थापना है कि अधिकांश पशु समुदायों में रहते हैं और प्रकृति की चुनौती का मुकाबला अकेले नहीं बल्कि मिलकर करते हैं। वे पशु जातियां ही अधिक संरक्षित और संवर्धित हुई हैं, जिन्होंने वैयक्तिक संघर्ष के बजाय पारस्परिक सहयोग का रास्ता अपनाया। उदाहरण के रूप में गुरिल्ला और चिंपाजी जातियों को लिया जा सकता है। जिन पशु-जातियों में सामुदायिकता की भावना कम पाई जाती हैं, वे धीरे-धीरे विलुप्ति के कगार की ओर जाती गई हैं। मनुष्य-जाति के इतिहास को भी वह जंगली, अर्ध-जंगली, ग्राम्य समाज, मध्यकालीन नगर और आधुनिक काल में विभाजित करते हुए प्रत्येक काल में मानव-अस्तित्व और उसके बहुआयामी विकास के लिए संघर्ष के बजाय सहकार की प्रवृत्ति को श्रेय देते हैं।
क्रोपाटकिन का मानना है कि आदिम मनुष्य के इतिहास में भी मानव-प्राणियों के अकेले या छोटे परिवार में रहने के बजाय उनके एक समूह में रहने के प्रमाण मिलते हैं। अकेला मनुष्य न तो प्रकृति की विपरीतताओं से पार पा सकता था और न ही परिवार या समाज का विकास हो सकता था। यह समाज चाहे जितना ढीला-ढाला संगठन रहा हो, पर समाज का होना ही पारस्परिकता की भावना का प्रमाण है। ग्राम्य समाजों और किलेबंद नगरों में रहने वाले समाजों का पारस्परिक सहयोग अधिक संस्थाबद्ध होता गया है और आधुनिक समाज भी-अपनी सारी कमजोरियों के बावजूद-संस्थाबद्ध पारस्परिक सहयोग के आधार पर ही टिका है।
क्रोपाटकिन का मानना है कि यह पारस्परिक सहयोग किसी वैयक्तिक प्रेम का परिणाम नहीं है। वह कहते हैं कि अपरिचित के प्रति प्रेम नहीं हो सकता, लेकिन सामाजिकता या सामाजिक एकप्राणता (Testimony) प्रेम से अलग एक उच्चतर नैतिकता है, जो विकास का प्रमुख कारक है। पूंजीवादी समाज की पीठिका है कि प्रत्येक अपने लिए है, जबकि राज्य सब के लिए है। इसमें सहकार का अवमूल्यन दिखाई देता है। इसलिए समाजवादी व्यवस्था के लिए राज्य नहीं, सहकार ही प्रमुख कारक हो सकता है। क्रोपाटकिन को इसीलिए न बोल्शेविकवादी कहा जा सकता है, न राज्यवादी। वह एक अराजकतावादी समाजवादी हैं, जो राज्य की नियंत्रक भूमिका को नकारते हुए इतिहाससिद्ध और विज्ञानसम्मत पारस्परिक सहयोगके आधार पर समाजवाद की कल्पना करते हैं। इस दृष्टि से उन्हें गांधी-विनोबा या सर्वोदय के अधिक निकट माना जा सकता है क्योंकि यहां भी पारस्परिक सहयोगया विनोबा के शब्दों में कहें तो सामूहिक साधना केंद्रीय आधार है।
क्रोपाटकिन के विचारों की समीक्षा करते हुए विकासवादी जैविकीविद् स्टीफन जे० गुल्क का कहना है कि क्रोपाटकिन का बुनियादी तर्क वैध है क्योंकि संघर्ष के कई रूप हैं और कई परिस्थितियों में सहकार किसी भी जाति के व्यक्तियों के लिए लाभदायक हो सकता है। एक और वैज्ञानिक डगलस एच० बाउचर की टिप्पणी है कि क्रोपाटकिन के विचार रूढ़िमुक्त हैं, पर वैज्ञानिक दृष्टि से सम्माननीय हैं और यह मान्यता आधुनिक सामाजिक जैविकी का अंग हो चुकी है कि पारस्परिक सहयोग सामर्थ्य को बढ़ाने का माध्यम हो सकता है।
- नंदकिशोर आचार्य
क्वेकरवाद :क्वेकर उस व्यक्ति को कहा जाता है, जो इंग्लैंड में सत्रहवीं शताब्दी में स्थापित रिलीजियस सोसाइटी ऑफ फ्रेंड्स का सदस्य हो। अब यह संगठन एक विश्वव्यापी संगठन बन चुका है और यह भी कि शुरू में जहां यह एक ईसाई संगठन था, वहीं अब अन्य धर्मों के अनुयायी भी इसके सदस्य हो सकते हैं, जो इस संगठन के बुनियादी सिद्धांतों से सहमत हों क्योंकि वे सिद्धांत ऐसे हैं, जिन्हें किसी भी धर्म का अनुयायी स्वीकार कर सकता है।
इस संगठन की स्थापना का श्रेय जार्ज फॉक्स को दिया जाता है, जिसका विश्वास था कि मनुष्य ईश्वर के साथ सीधे संबंध स्थापित कर सकता है, इसके लिए किसी मध्यस्थ-चर्च या पुरोहित आदि-की आवश्यकता नहीं है। क्वेकरवादी, इसीलिए, किन्हीं बाह्य धार्मिक संस्कारों में यकीन नहीं रखते। उनका विश्वास है कि जीवन अपने में ही पवित्र है और प्रत्येक संस्कार-बपतिस्मा तक-को मनुष्य को अपने अंदर अनुभव करना चाहिए। क्वेकरवाद के मूल सिद्धांत मूलतः चार वक्तव्यों में व्यक्त किए गए हैं, जिनमें समय-समय पर संशोधन-परिवर्धन भी होता रहता है। ये कथन हैं-(1) टेस्टिमनि ऑफ पीस, (2) टेस्टिमनि ऑफ इक्वेलिटी, (3) टेस्टिमनि ऑफ इंटिग्रिटी (ट्रूथ) और (4) टेस्टिमनि ऑफ सिंपलिसिटी।
इनका सारांश यही है कि प्रत्येक मनुष्य का जीवन शांति, समानता, प्रामाणिकता (सत्य) और सादगी के लिए समर्पित होना चाहिए। उसे वैयक्तिक स्तर पर तो ऐसा जीवन जीना ही है; साथ ही, इन आदर्शों के लिए काम भी करना है।
शांति के वक्तव्य का तात्पर्य है किसी भी तरह की हिंसा को अनुचित मानते हुए अहिंसक जीवन जीना। यही कारण है कि बहुत से क्वेकरवादी इस हद तक अहिंसा के समर्थक और युद्ध-विरोधी हैं कि वे अपने देशों में न केवल सैनिक सेवा से इनकार कर देते-बल्कि सैनिक कामों के लिए आय कर चुकाने से भी मना कर देते हैं क्योंकि उनकी राय में यदि उनके पैसे का इस्तेमाल सैनिक कर्म या युद्ध के लिए किया जाता है तो यह प्रकारांतर से उनके द्वारा हिंसा का समर्थन होगा। ऐसे लोग अमेरिका में अपने कर का हिस्सा आंतरिक रेवेन्यू सेवा के निलंब खाते में जमा करवा देते हैं, जिसका इस्तेमाल रेवेन्यू सेवा इस वादे के आधार पर कर सकती है कि उसे सैनिक कार्यों में नहीं लगाया जाएगा। यूरोपीय मामलों की क्वेकर कौंसिल यूरोपीय संसद में इस बात के लिए प्रयासरत हैं कि युद्ध का विरोध करने वाले लोगों का कर सेना के लिए खर्च न किया जाए। क्वेकर लोग कई प्रदेशों में शांति स्थापित करने का कार्य करते रहते हैं। उनके संगठन को 1947 ई० शांति का नोबल पुरस्कार भी दिया गया है।
समता के वक्तव्य के अनुसार सभी मनुष्यों में किसी भी कारण से कोई असमानता नहीं मानी जा सकती है क्योंकि आध्यात्मिक रूप से सब समान हैं-लिंग, जाति, संप्रदाय आदि किसी भी आधार पर असमानता का विरोध करने के कारण नारीवादी आंदोलनों, रंगभेद विरोधी आंदोलनों तथा गुलामी-विरोधी आंदोलनों में क्वेकरवादी हमेशा सक्रिय हिस्सा लेते रहे हैं।
प्रामाणिकता या सत्य के वक्तव्य का आशय यह है कि प्रत्येक क्वेकर को अपना निजी जीवन क्वेकरवाद के सिद्धांतों के अनुसार जीना होगा। इसी तरह, सादगी के वक्तव्य का तात्पर्य है कि प्रत्येक क्वेकर को अपनी जरूरत से अधिक इस्तेमाल नहीं करना चाहिए। यह एक प्रकार से जैन-अपरिग्रह के सिद्धांत से मिलता-जुलता है। इसके अंतर्गत पर्यावरण के सरोकार भी आ जाते हैं, क्योंकि यदि हम प्रकृति से उतना ही लेते हैं, जो हमारे लिए अत्यावश्यक है, तभी पर्यावरण विनाश से बचना संभव हो पाता है।
क्वेकरवाद का असर बहुत गहरा रहा है और खास तौर पर यूरोप और अमेरिका में शांति, समता और पर्यावरण-संरक्षण के लिए न केवल जागरूकता फैलाने बल्कि, उनके लिए किए गए सक्रिय आंदोलनों में क्वेकरवादियों की प्रभावी भूमिका रही है। एमनेस्टी इंटरनेशनल, ग्रीनपीस, ऑक्सफेम जैसे आंदोलनों में वे सक्रिय रहे हैं। जोन एडम्स, विलियम कूपर, पॉल डगलस, एडिंगटन, क्रिस्टोफर फ्राई, हर्बट हूवर, बेन किंग्सले, फिलिप नोल बेकर, थॉमस पेन और जोसेफ टेलर जैसे कई दार्शनिक वैज्ञानिक, लेखक-कलाकार तथा अर्थशास्त्री और राजनीतिज्ञ क्वेकर आंदोलन के सदस्य रहे हैं।
- नंदकिशोर आचार्य
खाद्य-कृषि हिंसा : दुनिया में बड़े पैमाने पर खाने का संकट एक बार फिर पैदा हो गया है। वर्ष 2007 ई० के प्रारंभ से अब तक अनाज की कीमतों में अचानक काफी उछाल आया है। अनाज के भंडार बहुत कम हो गए हैं। हैती, कैमरून, बुरकीनाफासो, सेनेगल, मिश्र, बांग्लादेश आदि देशों में भोजन को लेकर दंगे और संघर्ष हुए हैं। लातीनी अमरीका के कैरीबियन देश हैती से तो एक दारूण रिपोर्ट अखबार में छपी है कि वहां लोग मिट्टी खाकर अपना पेट भर रहे हैं। भूकंप ने तो उसे और बदहाल कर दिया है। संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव बान की मून ने बताया कि ताजा खाद्य संकट ने दुनिया के 10 करोड़ नए लोगों को भुखमरी की गोद में ढकेल दिया है। दुनिया के 85 करोड़ पहले से भूख से पीड़ित हैं। इनमें से लगभग 80 करोड़ दुनिया के गरीब देशों में रहते हैं। इस तरह दुनिया का हर सातवां आदमी भूख और कुपोषण का शिकार है।
दुनिया के ताजे खाद्यान्न संकट को समझने के लिए कई प्रयास लगाए जा रहे हैं। कुछ लोग तात्कालिक कारणों पर ज्यादा जोर दे रहे हैं जैसे आस्ट्रेलिया, यूक्रेन आदि कुछ देशों में पड़ा सूखा, अनाज का सट्टा व्यापार या तेल की कीमतों में वृद्धि। इन कारणों पर ध्यान केंद्रित करने से ऐसा प्रतीत होता है कि यह संकट तात्कालिक है और तात्कालिक कारणों को दूर हो जाने पर यह संकट भी दूर हो जाएगा। लेकिन इस संकट के पीछे वे ज्यादा बुनियादी एवं दीर्घकालीन प्रवृत्तियां हैं, जो दुनिया के कृषि विकास, कृषि व्यापार, खाद्य अर्थव्यवस्था और अमीरों के अंतहीन उपभोग वाली आधुनिक जीवन शैली में पिछले काफी समय से विकसित हो रही है।
ताजा खाद्यान्न संकट के पीछे जिस ताजी प्रवृत्ति पर काफी लोगों का ध्यान गया है, वह है जैव-ईंधन। जैव डीजल या इथेनॉल बनाने के लिए अनाज, खाद्य तेलों और खेती की जमीन का इस्तेमाल बढ़ता जा रहा है।
दुनिया में प्रति व्यक्ति अनाज उत्पादन घटकर 310 कि०ग्रा० रह गया है। किंतु यह भी मनुष्य के खाने के लिए पूरा उपलब्ध नहीं है। सिर्फ संयुक्त राज्य अमरीका में जैव-ईंधन के लिए इस्तेमाल किए जा रहे मक्का का हिसाब निकाला जाए, तो यह घटकर लगभग 300 कि०ग्रा० रह जाता है, जो कि 1966-70 ई० के बाद की सबसे कम मात्रा है। संयुक्त राज्य अमरीका में 2007-08 ई० में जितना मक्का पैदा हुआ, उसका एक-चौथाई जैव-ईधन बनाने में इस्तेमाल हुई। 2008-09 ई० में यह मात्रा एक तिहाई हो गई होगी। यह मक्का दुनिया के अनाज व्यापार के एक तिहाई और अनाज उत्पादन के 5 प्रतिशत के बराबर है। इसी तरह यूरोपीय संघ ने भी जैव-ईधन पर काफी जोर दिया है। यूरोपीय संघ ने तय किया है कि वर्ष 2010 ई० तक उसके यातायात के लिए (5) 75 प्रतिशत ईंधन तथा 2020 ई० तक 10 प्रतिशत ईधन जैविक स्रोतों से मिलना चाहिए। अमरीका-यूरोप के जैव-ईंधन पर जोर का असर पूरी दुनिया पर पड़ रहा है। ब्राजील, मलेशिया, इंडोनेशिया, फिलीपीन जैसे देश बड़ी मात्रा में जैव-ईंधन के निर्यात में जुट गए हैं। मक्का के अलावा सोयाबीन, पाम-तेल, सूरजमुखी, रेपसीड, गन्ना आदि से जैव-ईधन बनाया जा रहा है।
दिलचस्प बात यह है कि कुछ साल पहले तक जैव-ईंधन को एक चमत्कार के रूप में देखा गया था और माना गया था कि बढ़ते हुए ऊर्जा संकट का हल इसी से होगा। लेकिन ये दलीलें कितनी गलत और खोखली हैं, यह सब सामने आ रहा है। यह ठीक है कि गाड़ी में पेट्रोल-डीजल की जगह जैव-ईंधन के इस्तेमाल से कार्बन डाइर्-ऑक्साईड कुछ कम निकलती है, किंतु यह एक अधूरा सच है। जैव-ईंधन फसलों की खेती में इस्तेमाल किए जाने वाले उर्वरकों, कीटनाशकों, ट्रैक्टरों, हार्वेस्टरों, डीजल, बिजली, पानी, आदि का हिसाब लगाया जाए, फिर कच्चे माल को कारखाने तक तथा तैयार जैव-ईंधन को कारखाने से उपभोक्ता तक पहुंचाने में लगी ऊर्जा तथा कारखाने में लगी ऊर्जा का भी हिसाब लगाया जाए, तो पता चलेगा कि कोई विशेष बचत नहीं हुई, बल्कि कुछ मामलों में ज्यादा ऊर्जा खर्च हो गई।
इसके अतिरिक्त, जैव-ईंधन की फसलें उगाने के लिए दुनिया के कई हिस्सों में जंगल साफ किए जा रहे हैं। ब्राजील में सोयाबीन एवं गन्ने की नई बढ़ती मांग के लिए अमेजन के घने जंगलों का साफ करने की गति बढ़ गई है। सन् 2007 ई० के अंतिम छः महीनों में ब्राजील के 3000 वर्ग कि०मी० से अधिक जंगलों का नाश हो गया है। इसी तरह, मलेशिया और इंडोनेशिया में पाम के बगीचे लगाने के लिए जंगल काटे जा रहे हैं। अब उनकी गति भी बढ़ जाएगी।
जैव-ईंधन में सबसे बड़ा सवाल जमीन का ही है। उदाहरण के लिए यूरोपीय संघ ने 2010 ई० तक अपने यातायात के ईंधन की (5) 75 प्रतिशत आपूर्ति जैव ईंधन से करने का जो फैसला किया है और जो उसके कुछ ऊर्जा इस्तेमाल की मात्र 1.7 प्रतिशत होगा, उसके लिए 1.7 प्रतिशत करोड़ हेक्टेयर भूमि की जरूरत होगी। यूरोप में इतनी भूमि नहीं है, इसलिए बाहर के देशों में यह खेती करवाई जाएगी-यानी यह नव-उपनिवेशवाद और साम्राज्यवाद का एक और कदम होगा।
दुनिया के अमीरों के विलासितापूर्ण उपभोग का एक और पहलू खाद्य संकट से जुड़ा है, जिसकी ओर लोगों का कम ध्यान गया है। पिछले पचास वर्षों में खेती, जमीन और अनाज का उत्तरोत्तर ज्यादा हिस्सा सीधे मनुष्य के भोजन में लगने के बजाय पशुपालन और पशुआहार में लग रहा है। दुनिया के पशु-उत्पादों में काफी तेजी से वृद्धि हो रही है, जो कि कृषि उत्पादन से काफी ज्यादा है। वर्ष 1950 ई० से अभी तक मांस उत्पादन लगभग पांच गुना हो चुका है। प्रति व्यक्ति औसत मांस खपत दुगुनी से ज्यादा हो चुकी है। इसी अवधि में प्रति व्यक्ति अंडा उत्पादन और प्रति व्यक्ति मछली उत्पादन भी लगभग दुगुना हो चुका है। इसी तरह दूध व दुग्ध उत्पादों में भी काफी वृद्धि हुई है। दुनिया के कुल खाद्य उत्पादन में पशु-उत्पादों का हिस्सा बढ़कर 37 प्रतिशत हो गया है, जो दुनिया के इतिहास में एक अभूतपूर्व घटना है।
लेकिन विडंबना यह है कि इस पशुपालन क्रांति ने दुनिया के खाद्य संकट को कम करने में मदद करने के बजाय बढ़ाया है। आधुनिक पशुपालन उस पारंपरिक, विकेंद्रित, गांव-जंगल-खेत आधारित पशुपालन से काफी अलग है, जिसमें पशुओं को जंगल में, चरागाहों में या खाली खेतों में (फसलों के बीच ही अवधि में) चराया जाता था, और फसलों के सह-उत्पादों जैसे कड़वी, भूसा, छिलके, खली आदि को उन्हें खिलाया जाता था। खेती, मुनष्य के भोजन और पशु-आहार में कोई टकराव नहीं था। खेती व पशुपालन परस्पर एक दूसरे की पूरक गतिविधियां थी। लेकिन अब तो मुर्गी, सुअर, गाय व मछली के आधुनिक फार्म होते हैं जहां छोटी सी जगह में हजारों की संख्या में उन्हें पाला जाता है। उन्हें सीधे अनाज, तिलहन और अन्य पशुओं का मांस ठूंस-ठूंस कर खिलाया जाता है, ताकि चंद दिनों में उनसे ज्यादा से ज्यादा मांस, अंडे या दूध प्राप्त हो सके। मक्का और सोयाबीन की खेती का जो इतनी तेजी से विस्तार हुआ है, और उनका उत्पादन तेजी से बढ़ा है, वह भी मुख्य रूप से इसी आधुनिक पशुपालन के लिए ही है। सत्तर के दशक के बाद सारी फसलों में सोयाबीन का रकबा ही सबसे ज्यादा बढ़ा है। संयुक्त राज्य अमरीका में आज पैदा होने वाला 70 प्रतिशत से ज्यादा अनाज पशुओं को ही खिलाया जाता है।
जब दुनिया के बड़े हिस्से में बड़ी संख्या में लोग भूख और कुपोषण के शिकार हो रहे हैं, तब अनाज को पहले पशुओं को खिलाना और फिर उससे मांस, अंडे या दूध तैयार करके थोड़े से अमीर लोगों को परोसना अपने आप में अन्यायपूर्ण तो है ही, भोजन तैयार करने का अकुशल एवं फिजूलखर्ची वाला तरीका भी है। यह अनाज और सीमित संसाधनों की बर्बादी है। संयुक्त राज्य अमरीका में 7 कि०ग्रा० मक्का खिलाकर 1 कि०ग्रा० गोमांस तैयार किया जाता है। (6) 5 कि०ग्रा० मक्का से 1 कि०ग्रा० सुअर का मांस तैयार होता है। स्पष्ट है कि इस आधुनिक औद्योगिक पशुपालन के तरीके से भोजन तैयार करने के लिए काफी ज्यादा जमीन और संसाधनों की जरूरत होती है। अंदाज है कि दुनिया की लगभग आधी कृषि भूमि पशुआहार तैयार करने में लगी हुई है। फैक्टरीनुमा पशु फार्मों से तैयार होने वाले मांस-प्रोटीन में वनस्पति प्रोटीन के मुकाबले 100 गुना ज्यादा पानी लगता है तथा 8 गुना ज्यादा ऊर्जा लगती है। इसने दुनिया के भोजन के संकट को गहरा किया है।
अमीरों की कभी संतुष्ट नहीं होने वाली भूख, कंपनियों की मुनाफा-पिपासा और आधुनिक तकनालॉजी की विनाशलीला का एक शिकार सागरों व महासागरों की मछलियां भी हुई हैं। आज से कुछ दशक पहले कोई सोच भी नहीं सकता था कि समंदर में जहां मछलियों का अथाह भंडार होता है, वहां मछलियों खत्म भी हो सकती है। लेकिन मशीनी ट्रालरों ने आज दुनिया के अनेक महासागरों में मछलियों को खत्म होने की हालत में पहुंचा दिया है और वहां मछली उत्पादन घट रहा है। अपने सागरों व महासागरों के भंडार को खत्म करके अमीर देशों के ट्रालर्स अब गरीब देशों के समंदरों को लूटना चाहते हैं। जैसे भारत में मछुआरों के तीव्र विरोध के बावजूद गहरे समुद्र में मछली पकड़ने के नाम पर विदेशी ट्रालरों को घुसपैठ का मौका दिया जा रहा है। यूरोप के ट्रालर्स अपने सागरों की मछलियां खत्म करने के बाद पश्चिम अफ्रीका के समुद्र में घुस आए हैं इससे वहां की मछलियां भी खत्म होने लगी हैं।
पिछले काफी समय से विश्व बैंक और मुक्त व्यापार के अन्य समर्थक गरीब देशों को निर्यात आधारित विकास की घुट्टी पिला रहे हैं। भारत सरकार भी उसी की माला जप रही है। खेती में भी उन फसलों तथा उस तरह के पशुपालन पर जोर दिया जा रहा है, जिनकी अमीर देशों मे मांग है। इस चक्कर में गरीब देश के लोगों की खाद्य जरूरतों की उपेक्षा हो रही है।
अमरीका-यूरोप द्वारा अपने कृषि उत्पादकों को अनुदान और कृषि किसी भी अर्थशास्त्री सिद्धांत व तर्क के विपरीत है। गरीब देशों को अनुदान आधारित अर्थव्यवस्था को बंद करने का उपदेश देने वाली अमीर देशों की सरकारों और अर्थशास्त्रियों का दोहरा चेहरा इससे उजागर होता है। विश्व व्यापार संगठन बनने के बाद से अमीर देशों के कृषि अनुदान कम होने के बजाय और ज्यादा बढ़े हैं। दुनिया के अमीर देश सालाना करीब 300 अरब डॉलर से ज्यादा कृषि अनुदान देते हैं। इन भारी अनुदानों के कारण उनकी कृषि-वस्तुएं दुनिया के बाजार में बहुत सस्ती हो जाती है। गरीब देशों के किसान इससे प्रतिस्पर्धा नहीं कर पाते हैं और बरबाद होते जाते हैं।
दुनिया के खाद्य संकट को समझने के लिए आधुनिक औद्योगिक खेती के चरित्र को भी समझना पड़ेगा। इसमें मशीनों, ईंधन, रासायनिक खाद, कीटनाशकों आदि का उपयोग बहुत बढ़ चुका है। उतना ही उत्पादन लेने के लिए उत्तरोत्तर ज्यादा रासायनिक खाद डालना पड़ता है। एकल खेती (मोनोकल्चर यानी एक ही फसल और उसकी भी गिनी-चुनी किस्में) के कारण तथा रोगों-कीटों में प्रतिरोधक शक्ति विकसित होते जाने के कारण कीट-प्रकोप बढ़ रहा है तथा ज्यादा-ज्यादा व नए-नए कीटनाशकों का इस्तेमाल करना पड़ रहा है। पानी के अत्यधिक उपयोग से जमीन में पानी नीचे जा रहा है तथा पानी निकालने की लागते बढ़ रही हैं। जेरेमी रेफ्किन नामक एक अमरीकी विद्वान ने हिसाब लगाया है कि पहले पारंपरिक खेती में किसान श्रम या पशुश्रम के रूप में एक कैलोरी ऊर्जा खर्च करके दस कैलोरी के बराबर उपज मिलती थी, किंतु अब अमरीकी खेती में 10 कैलोरी ऊर्जा की खपत करके एक कैलोरी के बराबर उपज मिलती है।
खेत में पैदावार होने के बाद पैदावार को फैक्टरी में पहुंचने, प्रसंस्करण, पैकेजिंग, ठंडा रखने और उपभोक्ता के मुंह तक पहुंचने तक काफी ऊर्जा इस्तेमाल होती है। कुछ विद्वानों ने अनुमान लगाया है कि अमरीका और कनाडा में औसत खद्य सामग्री, खेत से खाने वाले के बीच 2000 से 2500 कि०मी० चल चुकी होती है। खेती में प्रयोग होने वाली वस्तुओं (जैसे रासायनिक खाद, कीटनाशक, तेल आदि) की मात्रा का हिसाब लगाया जाए, तो ये किलोमीटर काफी ज्यादा बढ़ जाएंगे। जो लोग अंतरराष्ट्रीय व्यापार को बढ़ाने की बात करते हैं ओर उसके फायदे गिनाते हैं, वे कभी यह हिसाब नहीं लगाते कि यह पूरी प्रक्रिया दुनिया के सीमित संसाधनों का कितना अपव्यय करने वाली है।
कुल मिलाकर खाद्य संकट एवं खेती का संकट आधुनिक पूंजीवादी औद्योगिक सभ्यता का संकट है। आधुनिक जीवन शैली, उपभोक्तावादी संस्कृति आधुनिक विकास नीति, आधुनिक तकनालाजी और आधुनिक अर्थव्यवस्था में इस संकट की जड़ें छिपी है। यदि इस सकंट से मुक्ति पाना है, तो पूरी आधुनिक सभ्यता की दिशा, सोच व बनावट के बारे में गंभीरता से पुनर्विचार करना होगा और इसके विकल्प की तलाश करनी होगा।
- सुनील
खान अब्दुल गफ्फार खान : सरहदी गांधी के नाम से मशहूर खान अब्दुल गफ्फार खान के साथ राजनैतिक संघर्षों का प्रतीक रूप बन गई जेल यात्रा का ऐसा रिकार्ड बन गया है जिसका एहसास स्वयं उनको भी नहीं होगा और न ही यह बहुत ज्यादा चर्चा में आया है। उन्होंने राजनैतिक लड़ाई लड़ते हुए अंगरेजी राज और बाद में पाकिस्तानी शासन की जेलों में 33 साल गुजारे जबकि दुनिया भर में राजनैतिक प्रतिरोध की मिसाल माने जाने वाले दक्षिण अफ्रीकी अश्वेत नेता नेल्सन मेंडेला ने 28 वर्ष पांच महीने की जेल भुगती है। अब आंकड़ों के इस खेल या जीवन के सबसे कीमती वक्त को जेल में गुजारने के त्याग की चर्चा को आगे न बढाएं तब भी यह कहना होगा कि सरहदी गांधी ने एक दिन की भी हिंसक राजनीति न की, न सोची जबकि वे जिस पख्तून कबीले से आते थे वहां हर विवाद हिंसक ढंग से ही निपटाने की परंपरा थी। खान साहब सिर्फ अपने तक अहिंसक नहीं रहे; उन्होंने अपनी कौम के लाखों लोगों को अहिंसा का पाठ पढ़ाया जिसमें से कई हजार जवान तो उनके साथ हर संघर्ष में रहे।
वैसे खान साहब के कौम को सिर्फ उत्तर पश्चिमी सीमांत प्रांत, जो अब पाकिस्तान का हिस्सा है, के पख्तूनों तक सीमित करना उनके साथ घोर अन्याय है क्योंकि पूरे अविभाजित हिन्दुस्तान के वे ऐसे नेता थे जिन्होंने भारत विभाजन को कभी स्वीकार नहीं किया। भारत विभाजन को बेमन से स्वीकारने वाले राष्ट्रपिता महात्मा गांधी भी इस मसले पर अपने इस अनुयायी के आगे शर्मिंदा थे और प्रायः आक्रोश न दिखाने वाले बादशाह खान ने भी विभाजन स्वीकार करने के बाद गांधी जी से शिकायत के स्वर में कहा था कि आपने हमें भेड़ियों के आगे छोड़ दिया है। खान साहब का गुस्सा सीमा प्रांत को पाकिस्तान के हिस्से में जाने देने पर था जबकि वे द्विराष्ट्र-सिद्धांत विश्वास नहीं करते थे। गांधी जी भी गफ्फार खान का दर्द जानते थे। उन्होंने लिखा है, मैं 125 साल जीवित रहूंगा तब भी गफ्फार के दिल का दर्द नहीं भूल सकता। उन्होंने साथ ही लिखा है, गफ्फार खान लड़ना जानता है। वह कभी हार नहीं मानेगा। वह हर तरह की कुर्बानी दे सकता है। बादशाह खान ने सचमुच संघर्ष किया और गांधी जी को यही लिखा, आप मेरी चिंता मत कीजिए। अपना आशीर्वाद दीजिए और मेरे लिए प्रार्थना कीजिए।
इतिहास गवाह है कि बादशाह खान ने अंग्रेजों के जाने के बाद पाकिस्तान में उससे भी ज्यादा बड़ी और मुश्किल लड़ाइयां लड़ीं और ज्याद कष्ट झेला। उन्होंने काफी लंबी उम्र पाई थी और शारीरिक डील-डौल उससे भी तगड़ा था। अक्सर उनकी कलाई और पैरों में हथकड़ियां और बेड़ियां तंग पड़ती थीं और इनसे भी उनको काफी कष्ट हुआ। वे 20 जनवरी 1988 ई० को पेशावर में मरे। उनके जन्म की तारीख बहुत स्पष्ट नहीं है, पर उन्होंने अपनी आत्मकथा में लिखा है, मेरे भाई डॉक्टर साहब का जब विवाह हुआ था तब मैं ग्यारह वर्ष का था। उनका विवाह सन् 1901 ई० में हुआ तो मान लिया गया कि मेरा जन्म 1890 ई० में हुआ होगा।
लेकिन उनके जन्म स्थान, खानदान, पढ़ाई-लिखाई और संघर्षों, उपलब्धियों के बारे में ऐसी कोई अस्पष्टता नहीं है। उनका जन्म हस्तनगर में एक प्रतिष्ठित और समृद्ध परिवार में हुआ था। आज यही हस्तनगर अनंतनगर के नाम से जाना जाता है। यहीं के उतमान जई गांव में उनका जन्म खान बहराम खान के यहां हुआ था। पिता बड़े खानदान के थे लेकिन दिखावों और शानों-शौकत से दूर बहुत उदार, दयावान और विनम्र थे। बादशाह खान की शुरूआती शिक्षा गांव के मौलवी के पास, जो निरक्षर था, हुई जिसने इन्हें अपनी स्मृति के आधार पर सियारह (कुरान का एक भाग) पढ़ाया। पर अक्षर ज्ञान तक आते-आते उन्हें अंग्रेजी के बोझ और अंग्रेजों द्वारा पठानों को अशिक्षित रखने की नीति, दोनों का एहसास ठीक से हो गया। उनके बड़े भाई पेशावर के मिशन स्कूल से पढ़े थे सो बादशाह खान ने भी वहां पढ़ना शुरू किया। उस समय उनकी इच्छा फौज में जाने की हुई और अच्छा डील-डौल भी था, पर बड़े भाई की इच्छा थी कि वे इंग्लैंड जाकर इंजीनियर बनें। मां बेटे को दूर नहीं जाने देना चाहती थी सो टिकट कटाकर भी वह इंग्लैंड नहीं गए।
तब तक खान साहब को पश्चिमोत्तर सीमा प्रांत और परख्तूनों के प्रति ब्रिटिश सरकार की नीतियों और कानूनों का मतलब समझ आने लगा था और वे पठान स्त्री-पुरुषों के साथ होने वाली ज्यादतियों को देख-सुन भी चुके थे। उनके मन में अपना कैरियर बनाने की जगह कौम की सेवा और अन्याय का प्रतिरोध करने का भाव आने लगा था। तभी उनकी मुलाकात सिंधी क्रांतिकारी मौलाना अबीदुल्लाह सिंधी से हुई और यह भावना ठोस रूप लेने लगी। 1913 ई० में उन्हें मुस्लिम लीग का पता चला और उसके दस्तावेजों को पढ़कर उन्हें उसके कार्यक्रमों में जाने का मन होने लगा, सो उन्होंने उसके आगरा सम्मेलन में हिस्सा लिया। 1915 ई० से 1918 ई० के बीच उन्होंने अपने क्षेत्र के सभी 500 गांवों की यात्रा कर ली थी। मजेदार बात यह है कि बेटे की राजनैतिक-सामाजिक गतिविधियों से बेहराम खान भी अप्रभावित न रहे और जब रौलट कानून के खिलाफ आंदोलन हुआ तो वही बेहराम जेल भी गए जिन्हें 1857 ई० के विद्रोह में अंग्रेजों का साथ देने के लिए बड़ी-बड़ी जागीरें मिली थीं।
अलीगढ़ से लौटने के बाद बादशाह खान ने पख्तूनों में शिक्षा के प्रचार-प्रसार के लिए कई स्कूल स्थापित किए पर रौलट कानून विरोध आंदोलन से बादशाह खान ने राष्ट्रवादी राजनीति की शुरूआत की। तब तक वे मौलाना अब्दुल कलाम आजाद द्वारा संपादित अल हिलाल और मौलाना जफर अली खान द्वारा संपादित जमींदार अखबार पढ़ने लगे थे। रौलट कानून के खिलाफ ही उन्होंने अपना पहला सार्वजनिक भाषण दिया और पहली जेल यात्रा की। 1920 ई० में नागपुर में हुए कांग्रेस के अधिवेशन में उन्होंने हिस्सा लिया और उसके फैसले के अनुसार अपने प्रदेश में खिलाफत आंदोलन चलाने वाले अगुवा लोगों में एक बने। 1921 ई० में उन्होंने उतमान जई में राष्ट्रीय स्कूल की स्थापना की। राजनैतिक गतिविधियों में संलिप्तता में चलते उन्हें जेल में डालकर काफी पीड़ित किया गया। 1924 ई० में जेल से छूटने के बाद वह फिर से शिक्षा और समाज सुधार के कार्यक्रमों में जुटे। 1929 ई० के लाहौर और 1931 ई० के कराची कांग्रेस अधिवेशनों में उन्होंने हिस्सा लिया और प्रभावशाली तकरीरों से सबका मन मोह लिया। उन्होंने सविनय अवज्ञा आंदोलन में अपने प्रदेश की अगुवाई की। उन्हें गिरफ्तार करके तरह-तरह की यातनाएं दी गई। सीमा प्रांत में कांग्रेस पर प्रतिबंध लग गया।
खान साहब और उनके द्वारा तैयार लाल कुर्ती पख्तून स्वयंसेवकों पर, जो खुद को खुदाई-खिदमदगार करते थे, इन बातों से ज्यादा फर्क नहीं पड़ा और वे अहिंसक ढंग से काम करते रहे। निष्ठावान मुसलमान खान साहब का तब तक हिंदू और सिख नेताओं से गहरा जुड़ाव हो चुका था। अपने नजरिए में वे तरक्की पसंद थे और लड़कियों की तालीम को उन्होंने बहुत महत्त्व दिया। उन्हें 1934 ई० में कांग्रेस का राष्ट्रीय अध्यक्ष बनाने का प्रस्ताव आया तो उन्होंने यह कहते हुए इनकार कर दिया कि मैं सिपाही ही जन्मा था और सिपाही के रूप में ही मरूंगा। वे गांधी के पक्के अनुयायी बन गए थे पर 1939 ई० में उनका कांग्रेस से मतभेद हुआ, उन्होंने इस्तीफा भी दिया लेकिन 1940 ई० में फिर से सदस्य बन गए। खादी, चरखा, ग्रामोद्योग, बुनियादी तालीम में उनकी गहरी आस्था थी। उन्होंने पश्तो में एक मासिक पत्रिका पख्तून का संपादन किया जो 1930 ई० में उनकी गिरफ्तारी के बाद बंद हो गई। 1938 ई० में उन्होंने दस रोजा का प्रकाशन शुरू किया जो 1941 ई० बंद हुआ। 1945 ई० में यह साप्ताहिक के रूप में निकलने लगा पर 1947 ई० में फिर से बंद हुआ।
1947 ई० में मुल्क के बंटवारे पर उनके नजरिए की चर्चा पहले हो चुकी है। 1946-47 ई० में मुल्क भर में फैले सांप्रदायिक दंगों को शांत करने में पूरे मन से काम किया। पाकिस्तान के गठन के समय वह सीमा प्रांत में प्रधानमंत्री थे। पर उनकी असली लड़ाई और यातनाओं का दौर इसके बाद आया। 29 अगस्त को उनकी सरकार भंग कर दी गई। अब उन्होंने स्वतंत्र पख्तूनिस्तान की मुहिम चलाई। अपने विभाजन-विरोधी नजरिए (जिसके चलते पाक सरकार उनको हिंदुस्तान का एजेंट कहती थी) और स्वतंत्र पख्तूनिस्तान की मांग के चलते उनको बार-बार जेल में डाला गया, उनके समर्थकों का दमन किया गया। सैनिक तानाशाही के दौर में एक दौर ऐसा भी आया जब उन्हें अफगानिस्तान में निर्वासित जीवन जीना पड़ा।
खान साहब ने अपना भारत प्रेम कभी नहीं छोड़ा और न ही आजादी और सर्वधर्म समानता वाला मूल्य। बाद में वही नहीं उनके पुत्र वली खान और परिवार में दूसरे लोगों को भी पाक हुक्मरानों की ज्यादतियां झेलनी पड़ीं। 1985 ई० में वे भारत आए और कांग्रेस स्थापना की सौवीं वर्षगांठ से जुड़े आयोजन में शामिल हुए। एक बार जब उनकी तबियत ज्यादा खराब हो गई तब भी उनको दिल्ली लाया गया और एम्स में उनका इलाज हुआ। 1987 ई० में उन्हें भारत के सर्वोच्य नागरिक सम्मान भारत रत्न से नवाजा गया। जनवरी 1988 ई० में पेशावर जेल के अस्पताल में उनका निधन हुआ। उनकी इच्छा के अनुसार ही उन्हें जलालाबाद में दफनाया गया। हजारों लोगों ने उन्हें सुपुर्दे खाक किया।
पख्तूनों में इतनी शांति और अनुशासन मानने का चलन न था। पर एकदम सादा जीवन (उनके कपड़ों में कभी इस्त्री नहीं हुआ और वे सदा दो जोड़ी खादी का कपड़ा रखते थे) और अहिंसक संघर्ष तथा रचनात्मक काम करने वाले इस खान ने पख्तूनों को बदल डाला और इसी चलते उन्हें असली बादशाह कहने वाले कम नहीं है। वे जितने सीधे और सरल थे, उन्हे बाचा खान भी कहा जाता था।
- अरविंद मोहन
गरिमा : आधुनिक नैतिक विमर्श में गरिमा (dignity) की अवधारणा का महत्त्वपूर्ण स्थान है। गरिमा का तात्पर्य है कि प्रत्येक मनुष्य अपनी गरिमा में अन्य सब मनुष्यों के समान है, इसलिए उसके साथ ऐसा कोई व्यवहार किया जाना अनैतिक, मानवाधिकार-विरोधी और कई राज्यों में कानूनी दृष्टि से भी अनुचित है। स्वतंत्रता, समानता और बंधुत्व की एक कसौटी प्रत्येक व्यक्ति की मानवीय गरिमा का सम्मान है, किसी भी तरह जिसका अतिक्रमण नहीं किया जा सकता। मानवाधिकारों की सार्वभौम घोषणा की प्रस्तावना का आरंभ ही इस वाक्य से होता है कि मानव परिवार के सभी सदस्यों की जन्मजात गरिमा तथा अनुल्लंघनीय अधिकार की स्वीकृति ही विश्व-शांति, न्याय और स्वतंत्रता की बुनियाद है। इस घोषणा के प्रथम अनुच्छेद में फिर इस बात को दोहराया गया है : सभी मानव-प्राणी जन्म से ही स्वतंत्र तथा गरिमा और अधिकारों में समान है। इसीलिए मानवाधिकार किसी व्यक्ति के किसी भी तरह के उत्पीड़न, प्रताड़ना या अपमान को मानवाधिकारों का उल्लंघन मानते हैं-चाहे उसका कारण कैसी भी परिस्थिति हो। मृत्युदंड के भागी व्यक्ति के साथ भी ऐसा कोई व्यवहार नहीं किया जा सकता जो मानव-गरिमा के विरुद्ध हो।
गरिमा के उल्लंघन को एक हिंसक प्रक्रिया माना गया, क्योंकि हिंसा का अर्थ केवल दैहिक हानि पहुंचाना ही नहीं है। मानसिक कष्ट देना, किसी के साथ अपमानजनक व्यवहार, गाली-गलौज, किसी को हीन समझना या घृणा करना आदि भी मानसिक हिंसा होने के कारण मानवीय गरिमा के विरुद्ध आचरण में परिगणित किए जाते हैं।
कांट गरिमा को केंद्रीय मूल्य मानते तथा सभी व्यक्तियों को गरिमा की दृष्टि से समान मानते हैं। उनके अनुसार किसी अच्छे प्रयोजन के लिए भी किसी की गरिमा को बलिदान नहीं किया जा सकता। इसका एक तात्पर्य यह भी है कि किसी भी मनुष्य को साधन या उपकरण समझकर इस्तेमाल नहीं किया जा सकता क्योंकि ऐसा करना मनुष्य होने के नाते उसकी गरिमा पर आघात करना है।
इसलिए ऐसी किसी भी सामाजिक-राजनीतिक या आर्थिक व्यवस्था को हिंसक ही मानना होगा जो किसी भी स्तर पर मानव-गरिमा के प्रतिकूल हो। काम करने की अनुचित परिस्थिति से गंदी बस्तियों में रहने की मजबूरी, बीमार के स्वास्थ्य की देखभाल उचित रूप से नहीं होना, स्त्रियों, दलितों या बच्चों के साथ अपमानजनक व्यवहार आदि सभी बातें मानव-गरिमा के विरुद्ध होने के कारण हिंसक तथा अनैतिक हैं। संभवतः, मानव-गरिमा की पुष्टि ही वह वजह है जिसके चलते जैव-नैतिकी (Bioethics) में अपने इलाज में रोगी की इच्छा और स्वीकृति को महत्त्व दिया जाने लगा है तथा कई लोग यंत्रणादायक जीवन जीने को मानव-गरिमा के खिलाफ मानते हुए सुख-मृत्यु के अधिकार का समर्थन करते हैं। यह तो लगभग सभी स्वीकार करते ही हैं कि कृत्रिम साधनों के सहारे जीवित रहने से मना करने पर रोगी की इच्छा से सहायक यंत्रों को हटाया जा सकता है। इसके पीछे भी यही भावना काम करती है कि गरिमा के साथ जीने के अधिकार में गरिमा के साथ मरने का अधिकार भी शामिल है।
गरिमाहीन जीवन का तात्पर्य मनुष्यत्व से गिर जाना है, अतः, एक अहिंसक समाज के लिए गरिमापूर्ण जीवन जीने का अधिकार एक बुनियादी शर्त है। आर्थिक शोषण और राजनीतिक दमन से मुक्ति जितनी जरूरी है, उतनी ही व्यक्ति की गरिमा की स्वीकृति।
- नंदकिशोर आचार्य
गहन पारिस्थितिकी : दर्शन की एक नवीन शाखा के रूप में पारिस्थितिकीय दर्शन (Ecology) ने अपना स्थान बनाया है। यह विचार मानवेतर प्रजातियों, पारिस्थितिकीय तंत्र और प्राकृतिक प्रक्रियाओं पर बल देता है। यह विचार वर्तमान में पर्यावरण को बचाये रखने के लिये पर्यावरण आंदोलन और हरित आंदोलन से ज्यादा गंभीर व दूरदर्शी है। गहन पारिस्थितिकी नयी पर्यावरणीय मूल्य व्यवस्था की स्थापना करती है। गहन पारिस्थितिकी विचारक पारिस्थितिकी को जीव-विज्ञान की एक शाखा के संकीर्ण अर्थ के रूप में नहीं देखते हैं, वरन उनके लिये पारिस्थितिकी एक मूल्य-व्यवस्था भी है, जिसमें सभी को समान महत्त्व है। गहन पारि-स्थितिकी निम्न कारणों से गहन है-
(1) यह क्यों और कैसे प्रश्नों के गंभीर सवालों से जूझती है।
(2) मानवीय जीवन के पारिस्थितिक मंडल पर पड़ने वाले मूलभूत दार्शनिक सवालों पर ध्यान केंद्रित करती है।
(3) उपयोगितावादी पर्यावरणवाद को खारिज करती है जो पर्यावरणीय संसाधनों को मात्र मानवीय उद्देश्य हेतु प्रयोग का तर्क देता है।
गहन पारिस्थितिकी को चलन में लाने का श्रेय 1973 ई० में नार्वे के दार्शनिक अर्ने नेस्स (27 जनवरी 1912-12 जनवरी 2009 ई०) को है। उन्होंने इसे सैद्धांतिक आधारभूमि प्रदान की। वह नार्वे के 20 वीं शताब्दी के सर्वाधिक प्रमुख दार्शनिक के रूप में माने जाते है। इन्होंने अपने दार्शनिक विचारों पर डच दार्शनिक स्पिनोजा, बौद्ध-दर्शन और महात्मा गांधी का प्रभाव अनुभव किया। वह ओस्लो विश्वविद्यालय के सर्वाधिक युवा प्रोफेसर भी चुने गये थे। 1962 ई० में प्रकाशित रिशेल कार्सन की साइलेंट स्प्रिंग पुस्तक ने नेस्स के गहन पारिस्थितिकी विचार को बहुत गहरे तौर पर प्रभावित किया। नेस्स ने एक स्तर पर अपने पर्यावरणीय दृष्टिकोण में अहिंसा तत्त्व को शामिल किया, वहीं दूसरी ओर व्यावहारिक स्तर पर कई अहिंसक विरोध प्रदर्शनों में भागीदारी की। 1972 ई० में थर्ड वर्ल्ड फ्यूचर कांफ्रेंस में नेस्स ने अपना पत्र प्रस्तुत किया, जिसमें पहली बार सतही और गहन (shallow and deep) पारिस्थितिकी में अंतर को बताया। अगले वर्ष उन्होंने The Shallow and The Deep, Long-Range Ecology Movements प्रकाशित कर विश्व समुदाय के सम्मुख अपने विचारों को सिलसिलेवार तरीके से प्रस्तुत किया। इस लेख में उन्होंने स्पष्ट किया कि सतही पारिस्थितिकी प्रदूषण और संसाधन क्षरण की बात प्रस्तुत करती है और इसका मुख्य उद्देश्य विकसित देशों के लोगों का स्वास्थ्य और समृद्धि है। गहन पारिस्थितिकी का सरोकार जैवमंडलीय समतावाद, विविधता आदि से है। जैवमंडलीय समतावाद (biospheric egalitarianism) मत से ही गहन पारिस्थितिकी अपने प्रमुख सिद्धांत ग्रहण करती है। जैवमंडलीय समतावाद के अनुसार मनुष्य (humanity) के अलावा अन्य सभी चराचर जगत (living environment) को भी मनुष्यों की भांति जीवन जीने और विकसित (flourish) होने का अधिकार है। पारिस्थितिकीय विज्ञान तर्क और तथ्य मात्र से अपना संबंध रखता है, मगर कैसे रहना चाहिये जैसे नैतिक प्रश्नों का जवाब नहीं देता है। ऐसे प्रश्नों के लिये एक पारिस्थितिकीय प्रज्ञा (wisdom) की आवश्यकता होती है। गहन पारिस्थितिकी पारिस्थितिकीय प्रज्ञा को गहन अनुभूति, गहन प्रश्नानुकूलता और गहन प्रतिबद्धता पर ध्यान केंद्रित कर विकसित करती है। यह एक अंतर्संबंधित व्यवस्था को जन्म देती है, जहां सब एक-दूसरे को सहायता देते हैं और आपस में मिलकर एक पारिस्थितिकीय दर्शन को जन्म देते हैं। पारि-स्थितिकीय दर्शन का अर्थ है : विश्व में होने, चिंतन और कर्म / क्रिया का एक विकसनशील किंतु सुसंगत दर्शन जो पारिस्थितिकीय प्रज्ञा व सौहार्द को समाहित करता है। नेस्स ने सापेक्षिक महत्ता के आधार पर जीवों की श्रेणी बनाने के विचार को खारिज करते हुये कहा कि आत्मा, तर्क, चेतना जैसी कसौटियां मनुष्य ने अपने को अन्यों से बेहतर बताने के लिए ही बनाई है।
गहन पारिस्थितिकी पारिस्थितिकी के प्रति गहन दृष्टि रखती है। मम व ममेतर के बीच गहरा आंतरिक लगाव ही गहन पारिस्थितिकी का आधार है, जो इसे आध्यात्मिक स्वरूप भी प्रदान करता है। अर्ने नेस्स इसे इकालॉजीकल सेल्फ कहते हैं और पारिस्थितिकीय दर्शन (ecosophy) को आत्मानुभूति (Self-realization as its core) के रूप में देखते हैं। मगर यह आत्मानुभूति संकीर्ण अर्थों में नहीं है, यह अपने आप को वृहद् अर्थों एवं संदर्भों में जानना है। यह अनुभूति इस संपूर्ण प्रकृति के एक अंग के रूप में पारिस्थितिकी को समझना है। उन्होंने अपनी पारिस्थितिकीय दृष्टि के आधार पर स्पष्ट किया कि जीवन के समस्त रूपों को जीवन जीने का सार्वभौमिक अधिकार है, इसे परिमाणित नहीं किया जा सकता है। जीवन की किसी विशेष प्रजाति को इस जीवन-अधिकार का इतना हिस्सा नहीं मिला है कि वह अन्य जीवों के जीवन-अधिकार में दखल दे। गहन पारिस्थितिकी एक तरह की जीवन-दृष्टि को प्रतिपादित करती है, जिसमें वह पर्यावरण एवं मानवों के बीच के संबंधों को निर्धारित करने के लिये तर्क को आधार बनाने पर कम जोर देने की वकालत करती और अन्य प्रजातियों, व्यवस्थाओं तथा प्राकृतिक प्रक्रियाओं के अंतनिर्हित मूल्यों पर जोर देती है।
गहन पारिस्थितिकी के अनुसार मानवीय गतिविधियां आत्म-विध्वंस की ओर ले जाने वाली हैं। गहन पारिस्थितिकी की आलोचनाएं पर्यावरणीय बहस को दार्शनिक आधार देती है। गहन पारि-स्थितिकी व पर्यावरणवाद दोनों इस बात से सहमत हैं कि पारिस्थितिकीय तंत्र मानवीय या अन्य प्रभावों द्वारा किए जाने वाले हस्तक्षेप को एक सीमा तक ही आत्मसात कर सकता है। आधुनिक सभ्यता के क्रियाकलापों ने वैश्विक पारिस्थितिकीय कल्याण को हानि पहुंचाई है। विशाल मानवीय आर्थिक गतिविधियों ने तो जैवमंडल को इसकी स्वाभाविक स्थिति से दूर कर दिया है। आज सभ्यता सामूहिक विनाश की ओर ढ़केल रही है। गहन पारि-स्थितिकीविदों को आशा है कि वे अपने दर्शन के जरिये सामाजिक व राजनैतिक परिवर्तन को प्रभावित कर सकते हैं।
गहन पारिस्थितिकी प्रस्तावकों के अनुसार यह विश्व मनुष्यों द्वारा दोहन करने हेतु संसाधन मात्र नहीं है। इस संपूर्ण व्यवस्था में व्यवस्था ही सर्वोपरि है, न कि इसका कोई अंग। अपने विचार स्पष्ट करने हेतु गहन पारिस्थितिकी प्रस्तावक आठ बिंदु गिनाते हैं—
(1) पृथ्वी पर मानव और मानवेतर जीवन का कल्याण एवं प्रस्फुटन / उन्नयन स्वयं में एक मूल्य है; समानार्थक- आंतरिक मूल्य, निहित मूल्य। यह मूल्य मानवीय उद्देश्यों हेतु मानवेतर दुनिया की उपयोगिता से स्वतंत्र है।
(2) जीवन रूपों की समृद्धि और विविधता इन मूल्यों को अनुभव करने में योगदान करती है और समृद्धि तथा विविधता अपने आप में भी मूल्य हैं।
(3) मनुष्य को कोई अधिकार नहीं है कि वह अपनी महत्वपूर्ण मानवीय आवश्यकताओं को पूरा करने के अलावा इस समृद्धि और विविधता को कम करे।
(4) मानव-जीवन और संस्कृति का पल्लवन जनसंख्या में पर्याप्त कमी के बिना संभव नहीं है। मानवेतर जीवन के पल्लवन के लिए भी यह आवश्यक है।
(5) मानवेतर जगत के साथ मानवीय हस्तक्षेप बहुत अधिक है और हालात बिगड़ रहे हैं।
(6) नीतियों को बदलने की जरूरत है। इन नीतियों द्वारा आधारभूत आर्थिक, तकनीकी और विचारधारात्मक संरचनाओं को प्रभावित करना जरूरी है। इन सबके परिणामस्वरूप भविष्य की स्थिति आज की स्थिति से भिन्न होगी।
(7) वैचारिक परिवर्तन यह लाना है कि जीवन की गुणवता, अंतनिर्हित मूल्यों को महत्त्व दे, न कि जीने के तेज उच्च मानकों को बढ़ाने को। बड़े (Big) और महान (Great) के मध्य अंतर के प्रति गहरी जागरूकता होनी चाहिये।
(8) जो पूर्व के बिंदुओं से सहमत हैं, उनका दायित्व है कि वे आवश्यक परिवर्तन को लागू करने हेतु प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष प्रयास करें।
गहन पारिस्थितिकी विकेन्द्रीकरण का समर्थन करती है, औद्योगिकीकरण के वर्तमान स्वरूप की निंदा करती है और सर्वसत्तावाद की समाप्ति पर बल देती है। हालांकि वर्तमान में इसे हरित आंदोलन (Green Movement) का ही एक भाग माना जाता है, परंतु हरित आंदोलन में ये ऐसी प्रवृत्ति है जो गहन पारिस्थितिकीय नजरिया रखती है। यह आधुनिक पारिस्थितिकीय आंदोलन से भी इस मायने में अलग है कि यह पर्यावरण संबंधी अवधारणा में मनुष्य-केंद्रिता की आलोचना करती है, साथ ही मनुष्यों के पर्यावरण के अधिकाधिक परिजन होने के दावे को भी खारिज करती है। गहन पारिस्थितिकी मनुष्य-केंद्रिता के स्थान पर पारिस्थितिकी केंद्रिता पर बल देती है। गहन पारिस्थितिकी विचारक इस बात को स्पष्ट करते हैं कि गहन पारिस्थितिकी द्वारा मनुष्य-केंद्रिता आलोचना का अर्थ गलत नहीं लिया जाना चाहिये। गहन पारिस्थितिकी द्वारा की जा रही मनुष्य केंद्रिता का अर्थ मनुष्यता से घृणा करना नहीं है। यह मनुष्य केंद्रिता को हटाकर प्रकृति को केंद्र में लाना है। यह गहन पारिस्थितिकी एक स्तर पर ईकोफेमिनिज्म से जुड़ती भी है और उससे आगे भी जाती है। ईकोफेमिनिज्म मनुष्य-केंद्रिता के साथ-साथ पुरूष-केंद्रिता की आलोचना करता है। गहन पारिस्थितिकी के अनुसार पर्यावरण / पारिस्थितिकी की समस्या का हल तब तक नहीं हो सकता है जब तक कि प्रकृति को एक उपभोग-वस्तु मात्र माना जाता रहेगा। पारिस्थितिकी को केंद्र-बिंदु बनाकर ही इस समस्या का हल किया जा सकता है। गहन पारिस्थितिकी अपने को प्रस्थापित करते समय पारिस्थितिकीय विज्ञान की भी सहायता लेती है जो यह बताता है कि अंततः सभी चीजें आपस में अंतर्संबंधित होती हैं। जिन विचारकों का नाम इसमें शामिल किया जाता है, उनमें रिशेल कार्सन, एल्डो लियोपोल्ड, बैरी कॉमनर, पॉल सिअर्स, फ्रिटजोफ काप्रा आदि हैं।
गहन पारिस्थितिकी आलोचना से परे नहीं है। सामाजिक पारिस्थितिकीय विचारकों ने, जिनमें मुरे बुकचिन का नाम प्रमुख है, यह कहकर आलोचना की है कि गहन पारिस्थितिकी के पास कोई सिद्धांत नहीं है कि वह पर्यावरणीय संकट को सर्वसत्तावाद, वर्चस्व आदि से जोड़कर प्रस्तुत कर सके। साथ ही, यह भी देखना जरूरी है कि पर्यावरणीय दृष्टि से टिकाऊ व्यवस्था, जिसकी बात गहन पारिस्थितिकी विचारक करते हैं, कहीं सामाजिक शोषण को बनाये न रखती हो। गहन पारिस्थितिकी विचारक इस आलोचना का जवाब देते हैं कि पर्यावरणीय दृष्टि आपसी व्यवहार से नहीं बल्कि प्रकृति के प्रति मनुष्य-केंद्रिता के दृष्टिकोण से तय होती है। साथ ही, यह भी हो सकता है कि सामाजिक समता को प्राप्त करने वाली व्यवस्था तब भी पर्यावरण के प्रति शोषण का नजरिया रखती हो। कुछ विचारकों ने यह आलोचना की कि वर्तमान में मनुष्य-केंद्रिता के विरोध में नई मूल्य व्यवस्था को बनाना एक ख्वाब के अलावा और कुछ नहीं है। गहन पारिस्थितिकी की एक आलोचना यह भी है कि यह असामाजिक है और मनुष्यों की जनसंख्या को कम से कम करने पर बल देती है, मगर प्राकृतिक आपदाओं, महामारी के संबंध में मौन है, जिसे आलोचक पारिस्थितिकीय तानाशाही कहते हैं। गहन पारिस्थितिकी विचारकों का इस संबंध में कहना है कि वे मनुष्य एवं पारिस्थितिकी के बीच एक नवीन रिश्ते की बात पर बल देते हैं।
अपनी वैचारिक उत्पत्ति के प्रारंभ में गहन पारिस्थितिकी विचारक रॉल्फ वाल्डो इमर्सन, हेनरी डेविड थोरो, जॉन म्यूर, एल्डो लियोपोल्ड आदि का प्रभाव स्वीकार करते हैं। गहन पारिस्थितिकी विचारक इस बात पर भी बल देते हैं कि स्वैच्छिक सादगी पर बल दिया जाना चाहिये। इस स्वैच्छिक सादगी अर्थ है कि व्यक्ति अपने उपभोग, जीवन स्तर और जीवन-शैली को ऐसा बनाये कि उसका कम से कम नकारात्मक प्रभाव पर्यावरण पर पड़े। फ्रिटजोफ काप्रा ने गहन पारिस्थितिकी के बारे में विचार करते हुये कहा कि सतही पारिस्थितिकी मनुष्य-केंद्रित है। यह मनुष्य को प्रकृति के ऊपर या उसके बाहर समझती है। उसे ही सभी मूल्यों का स्रोत मानती है। प्रकृति को एक यंत्र मात्र या उपयोगिता के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं समझती है। वहीं दूसरी ओर गहन पारिस्थितिकी मनुष्यों या किसी को भी प्राकृतिक वातावरण से अलग मानती ही नहीं है। गहन पारिस्थितिकीय दृष्टि इस संपूर्ण विश्व को अलग-अलग चीजों का समुच्चय मात्र नहीं मानती, बल्कि उसे ऐसी व्यवस्था के रूप में देखती है जो मूल रूप से ही अंतर्संबंधित एवं परस्पराश्रित है। गहन पारिस्थितिकी सभी चराचर जगत में एक निहित मूल्य को स्वीकार करती है और मनुष्यों को इस संपूर्ण व्यवस्था का एक अंग मात्र बनाती है।
- शंभू जोशी
गांधी, महात्मा : मोहनदास कर्मचंद गांधी (1869-1948 ई०) को सामान्यतः भारत के अहिंसक स्वाधीनता संघर्ष के सर्वोच्च नायक के रूप में देखा जाता है। लेकिन, महात्मा गांधी के संपूर्ण चिंतन और कर्म की केंद्रीय विषय-वस्तु सत्य का आग्रह है और यह सत्य कोई जटिल दार्शनिक अवधारणा नहीं है-बल्कि एक सीधी-सादी व्यावहारिक बात है। जब गांधीजी ने ईश्वर सत्य है के बजाय सत्य ईश्वर है कहना शुरू किया तब भी वह किसी दर्शनिक बहस में उलझने के बजाय एक आध्यात्मिक अनुभूति के व्यावहारिक रूप, उसके कर्मपक्ष पर ही जोर देना चाहते हैं क्योंकि उनके लिए कर्म या व्यवहार ही चिंतन और अनुभूति का उत्स है-और कसौटी या परख भी। इसी कारण जब महात्मा गांधी अपने जीवन की कथा को सत्य के साथ मेरे प्रयोग कहते हैं, तब वह प्रकारांतर से ईश्वर-प्राप्ति के लिए उनकी अनवरत साधना हो जाती है क्योंकि उन्हीं के शब्दों में ईश्वर की असंख्य परिभाषाएं हैं, क्योंकि उसके रूप भी असंख्य हैं। वे मुझे विस्मय और भय से विह्वल कर देते हैं। पर मैं सत्य के रूप में ही ईश्वर की पूजा करता हूं। दार्शनिक जटिलताओं के बजाय ईश्वरत्व की अवधारणा अर्थात् सत्य की संकल्पना के व्यावहारिक पहलू पर आग्रह की ही वजह से गांधीजी कहते हैं, मेरे लिए ईश्वर सत्य और प्रेम है, ईश्वर नीति और नैतिकता है, ईश्वर निर्भयता है, ईश्वर जीवन का आलोक और स्रोत है......ईश्वर अंतरात्मा है और इस ईश्वर को पाने का एक ही उपाय है कि उसे उसकी सृष्टि में देखा और उसके साथ एकाकार हुआ जाए। गांधीजी के सत्यचिंतन का व्यावहारिक पहलू इसीलिए अहिंसा के रूप में अभिव्यक्ति पाता है क्योंकि संपूर्ण सृष्टि के साथ अहिंसात्मक मनोवृत्ति और आचरण ही हमें उसके अर्थात् ईश्वर के साथ एक करता है। वह स्वयं कहते हैं, जब आप सत्य को ईश्वर-रूप में पाना चाहते हैं, तो एकमात्र अनिवार्य साधन प्रेम अर्थात् अहिंसा है। और क्योंकि मैं मानता हूं कि साधन और साध्य पर्यायवाची हैं, अतः मुझे यह कहने में कोई हिचक नहीं है कि ईश्वर प्रेम है।
गांधीजी की ये दार्शनिक प्रस्थापनाएं ही उनके सामाजिक-राजनीतिक चिंतन और कर्म का विन्यास करती हैं। सत्य अहिंसा के रूप में व्यंजित होता है, अतः, एक आदर्श समाज-व्यवस्था और उसके प्रत्येक व्यक्ति सदस्य के आचरण की कसौटी भी अहिंसा ही हो सकती है-स्थूल और निष्क्रिय अर्थों में ही नहीं, बल्कि सूक्ष्म और सक्रिय अर्थों में भी। इसलिए गांधीजी किसी भी प्रकार की पराधीनता को-चाहे उसका रूप राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक या मनोवैज्ञानिक कुछ भी हो-अनुचित और अन्यायपूर्ण मानते हैं क्योंकि वह किसी-न-किसी प्रकार की हिंसा पर टिकी होती है और हिंसक मनोवृत्ति को बढ़ावा देती है। किसी भी प्रकार का राजनीतिक दमन, सामाजिक उत्पीड़न और आर्थिक शोषण-चाहे वह मनुष्य, और मनुष्येतर प्राणियों का हो या प्रकृति का-गांधीजी के अनुसार हिंसा के ही विभिन्न रूप हैं और इसीलिए वह उनके खिलाफ सत्याग्रह अर्थात् अहिंसक या प्रेमपूर्ण प्रतिरोध का आग्रह करते हैं। दक्षिण अफ्रीका में सत्याग्रह तथा भारत में ब्रिटिश पराधीनता के खिलाफ असहयोग तथा सविनय-अवज्ञा आंदोलन तथा उनके द्वारा आयोजित अहिंसक प्रतिरोध के अन्य उदाहरण इस बात के प्रमाण हैं कि महात्मा गांधी के लिए अहिंसा या प्रेम का अर्थ तोलस्तोय वाला निष्क्रिय अप्रतिकार नहीं बल्कि सक्रिय अहिंसा है क्योंकि उसका प्रयोजन अन्याय अर्थात् हिंसा को मिटाना है। वह आर्थिक जीवन में केंद्रीकृत अर्थ-व्यवस्था और आधुनिक प्रौद्योगिकीवाद का विरोध इसीलिए करते हैं कि उनकी प्रवृत्ति और परिणाम हिंसा है क्योंकि वे अनिवार्यतया मनुष्य और प्रकृति के अन्यायपूर्ण दोहन पर आधारित हैं, तो दूसरी ओर केंद्रीकृत राजनीतिक व्यवस्था को भी हिंसक मानते हैं क्योंकि वह अनिवार्यतया नागरिक को राज्य-तंत्र के सम्मुख असहाय बनाती और उसकी स्वतंत्रता का दमन करती है।
इसलिए स्वाभाविक है कि महात्मा गांधी एक ऐसी समाज-व्यवस्था का प्रस्ताव करते हैं जो आर्थिक जीवन में स्वदेशी, विकेंद्रीकरण, ग्रामोद्योग और ट्रस्टीशिप पर आधारित हो तथा राजनीतिक जीवन में ग्राम-स्वराज्य पर। गांधीजी की समाज-व्यवस्था की आदर्श इकाई स्वावलंबी गांव है-इसी को राजनीति और अर्थशास्त्र में राजनीतिक और आर्थिक विकेंद्रीकरण कहा जाता है-जो गांधीजी की कल्पना के स्वराज का सांस्थानिक स्वरूप है। आत्मनिर्भर गांव ही एक आत्मनिर्भर और अहिंसक राष्ट्र का आधार हो सकता है क्योंकि हिंसा की जरूरत भी तभी पड़ती है, जब हम अपनी जरूरतों के लिए अन्य पर आश्रित हो। लेकिन, जाहिर है कि एक अहिंसक समाज और आत्मनिर्भर गांव के लिए हमें अहिंसक आचरण वाले स्वावलंबी व्यक्ति की जरूरत होगी। महात्मा गांधी मानते हैं कि अहिंसक व्यक्ति के निर्माण के लिए एक ओर अहिंसक सामाजिक व्यवस्था जरूरी है-क्योंकि व्यक्ति बड़ी हद तक अपने वातावरण की उपज होता है-तो, दूसरी ओर, एक अहिंसक शिक्षा-प्रणाली की भी जो व्यक्ति के समाज में शामिल होने की तैयारी है। एनसाइक्लापीडिया ऑफ सोशल साइंसेज में शिक्षा को परिभाषित करते हुए उसे बालक के संस्कृति में प्रवेश की प्रक्रिया कहा गया है। इसलिए महात्मा गांधी बुनियादी शिक्षा या नई तालीम का प्रस्ताव करते हैं, जिसका वास्तविक उद्देश्य एक ऐसे स्वावलंबी व्यक्ति का निर्माण करना है, जिसका अपने संपूर्ण परिवेश के साथ-प्राकृतिक और मानवीय देानों तरह के परिवेश के साथ अहिंसात्मक और सृजनात्मक संबंध हो। गांधीजी की शिक्षा-प्रक्रिया का उद्देश्य आत्म-निर्भर व्यक्ति का विकास है; अतः, यह जरूरी है कि उसकी प्रक्रिया भी संभव सीमा तक आत्मनिर्भर हो अर्थात् शिक्षा का व्यय भार शिक्षार्थी की शिक्षण-प्रक्रिया ही उठा सके। साध्य और साधन यदि एक हैं तो आत्मनिर्भर व्यक्ति और समाज का साध्य प्राप्त करने के लिए प्रयासरत शिक्षा को अपनी प्रक्रिया में भी अहिंसक और आत्मनिर्भर होना होगा।
महात्मा गांधी का पूरा जीवन अहिंसा की इस साधना की ही गाथा है। दक्षिण अफ्रीका में रेल के डिब्बे से बाहर फेंक दिए जाने से लेकर नाथूराम गोडसे की गोली का शिकार होने तक महात्मा गांधी के जीवन का हर पल अहिंसा की साधना रहा है। अपने सार्वजनिक जीवन में राजनीतिक पराधीनता के खिलाफ अहिंसक संघर्ष के साथ-साथ दलितोत्थान, सांप्रदायिक सौहार्द, स्त्री-स्वातंत्र्य, सांस्कृतिक स्वातंत्र्य आदि से संबंधित आंदोलनों और कार्यक्रमों के माध्यम से उन्होंने वास्तविक अर्थों में एक अहिंसक समाज के विकास की दिशा में जीवन भर अनवरत कार्य किया। अपने जीवन के अंतिम क्षण तक वह सांप्रदायिक हिंसा को मिटाकर शांति स्थापित करने के कार्य में लगे रहे।
महात्मा गांधी के व्यक्तित्व, कर्म और चिंतन का प्रभाव पूरी दुनिया पर पड़ा है। भारत में विनोबा, राममनोहर लोहिया, जयप्रकाश नारायण, कुमारप्पा प्रभृति राजनीतिक विचारक, अर्थशास्त्री तथा भारत से बाहर खान अब्दुल गफ्फार खान (बादशाह खान), ए०टी० आर्यरत्ने, मार्टिन लूथर किंग (जू), नेल्सन मंडेला, दलाई लामा आदि के अतिरिक्त भी ऐसे अगणित लोग और संगठन हैं, जो महात्मा गांधी की अहिंसा की व्यापक अवधारणा से प्रेरित होकर अपने जीवन को उसकी चरितार्थता के लिए समर्पित कर रहे हैं। यह उचित ही है कि संयुक्त राष्ट्र संघ ने उनके जन्मदिन 2 अक्टूबर को अहिंसा दिवस के रूप में स्वीकार किया है।
- नंदकिशोर आचार्य
गांधी-दर्शन-तुलनात्मक दृष्टि :तुलनात्मक अध्ययन की दृष्टि से आधुनिक भारतीय चिंतन में गांधी-दर्शन संभवतः सर्वाधिक उल्लेखनीय है क्योंकि जहां इस दर्शन की कई मूल अवधारणाएं अन्य कई देशी-विदेशी चिंतकों की अवधारणाओं से साम्य रखती हैं, वहीं प्रत्येक ऐसी अवधारणा में महात्मा गांधी कुछ ऐसा जोड़ देते हैं जो उसे अन्य से भिन्न और विशिष्ट बना देता है। प्रत्येक दर्शन सत्य की अमूर्त अवधारणा को एक मूर्त और व्यावहारिक रूप देने का प्रयास करता है और जीवन-व्यवहार तथा सत्य-साधना की दृष्टि से वही अधिक महत्त्वपूर्ण होता है। महात्मा गांधी के लिए यह अमूर्त सत्य व्यावहारिक स्तर पर प्रेम या अहिंसा के रूप में प्रकट होता है, क्योंकि यदि सत्य ही ईश्वर है तो इस सत्य-साधना का साधन प्रेम या अहिंसा है। प्रेम और अहिंसा की यह अवधारणा अन्य धर्म-दर्शनों में भी मिल जाती है। वैदिक परंपरा अहिंसा परमोधर्मः कहती है, तो जैन दर्शन में यही प्रेम अहिंसा और अनुकंपा के रूप में, बौद्ध दर्शन में करुणा के रूप में, ईसाइयत में प्रेम के रूप में, इस्लाम में समानता और बंधुत्व के रूप में तथा शुद्धाद्वैत में भक्ति और एरिकफ्राम जैसे आधुनिक मनोविदों में बांधव प्रेम (Brotherly love) की अवधारणा के रूप में अभिव्यक्ति पाता है। इन सभी अवधारणाओं का अपना-अपना वैशिष्ट्य होते हुए भी इनमें एक सारभूत अभिन्नता स्पष्ट है। गांधी-दर्शन की विशिष्टता इस बात में है कि जहां अन्य चिंतन-धाराओं में प्रेम या अहिंसा की ये विभिन्न अभिव्यक्तियां मूलतः वैयक्तिक साधना की प्रक्रिया होकर रह जाती है, वहां गांधी-दृष्टि के लिए यह साधना वैयक्तिक के साथ-साथ सामूहिक सामाजिक प्रक्रिया भी है। इसीलिए महात्मा गांधी एक ओर व्यक्ति से अहिंसक होने की अपेक्षा करते हैं तो, दूसरी ओर, न केवल सामाजिक संस्थाओं अर्थात् राज्य, आर्थिकी आदि से भी अहिंसक होने की मांग करते हैं बल्कि दमनकारी राज्य-व्यवस्था, शोषणमूलक अर्थ-व्यवस्था और उत्पीड़न समाज-संरचना का प्रतिकार करने के लिए प्रेमपूर्ण प्रतिरोध अर्थात् सत्याग्रह का प्रस्ताव करते हैं।
सामान्यतः, महात्मा गांधी की सत्याग्रह की अवधारणा पर लेव तोलस्तोय और थोरो का प्रभाव स्वीकार किया जाता है और स्वयं महात्मा गांधी भी इन दोनों विचारकों का ऋण स्वीकार करते हैं। लेकिन महात्मा गांधी की अवधारणा तोलस्तोय और थोरो से साम्य रखते हुए भी कुछ भिन्न हो जाती है। तोलस्तोय प्रेम को सत्य के व्यावहारिक रूप अर्थात् जीवन का नियम मानते हुए किसी भी तरह के प्रतिरोध को अस्वीकार कर देते हैं, क्योंकि, उनके अनुसार प्रतिरोध को मान लेने पर, प्रेम जीवन के नियम के रूप में नहीं रह सकता... और फिर केवल एक ही नियम बच सकता है, वह है शक्ति का नियम। महात्मा गांधी तोलस्तोय की इस अप्रतिरोध की अवधारणा में अंतनिर्हित प्रेम के भाव को स्वीकारते हुए भी अन्याय के सम्मुख प्रतिरोध की आवश्यकता की अनदेखी नहीं करते। इसीलिए वह सत्याग्रह का प्रस्ताव करते हैं जिसका अर्थ है अन्यायी के प्रति प्रेम रखते हुए अन्याय का प्रतिरोध।
सत्याग्रह की इस अवधारणा की विशिष्ट चारित्रिकता इस बात में है कि वह उसके प्रति भी दायित्व का बोध है जिसे हम सामान्यतया प्रतिपक्ष कह देते हैं। कह सकते हैं कि सत्याग्रह एक ऐसी प्रक्रिया है जिसमें प्रेम प्रतिपक्ष के अन्याय का प्रतिकार कष्ट-सहन की प्रक्रिया द्वारा इसलिए भी करता है कि अन्यायी का नैतिक उत्कर्ष भी उसका दायित्व है-क्योंकि जिसको हम प्रेम करते हैं उसे अनैतिक कैसे रहने दे सकते हैं। इस प्रकार महात्मा गांधी तोलस्तोय की अप्रतिरोध की अवधारणा के प्रेम-बोध से तत्त्वतः साम्य महसूस करते हुए भी उसे एक भिन्न और विशिष्ट आयाम दे देते हैं, जिसे अविरोधी और प्रेमपरक प्रतिरोध कह सकते हैं, जिसमें तोलस्तोय का वाक्य प्रतिरोध और प्रेम में मेल नहीं हो सकता उलट कर प्रतिरोध भी प्रेम हो सकता है का रूप ले लेता है।
महात्मा गांधी के सत्याग्रह में असहयोग या सविनय अवज्ञा का केंद्रीय महत्त्व है और इस पर हेनरी डेविड थोरो के निबंध आन सिविल डिसऑबिडिएंस का स्पष्ट प्रभाव देखा जा सकता है-यद्यपि यह नहीं भूलना चाहिए कि असहयोग की अवधारणा का मूल पारंपरिक भारतीय राजनीतिक चिंतन में भी खोजा जा सकता है, क्योंकि महाभारत के शांतिपर्व में भीष्म अन्यायी राजा के राज्य को छोड़कर अन्यत्र चले जाने का प्रस्ताव करते हैं। भारतीय इतिहास में इसके उदाहरण भी मिल जाते हैं; जिन्हें धर्मपाल ने अपने शोध-ग्रंथ सिविल डिसऑबिडिएंस ऐंड इंडियन ट्रेडिशन में बताया है। लेकिन, इससे इंकार नहीं किया जा सकता कि सविनय अवज्ञा की थोरो की अवधारणा का महात्मा गांधी की इस अवधारणा से बहुत साम्य है, क्योंकि दोनों ही अन्यायपूर्ण कारण से असहयोग करने पर बल देते हैं। लेकिन, थोरो का आग्रह जहां केवल वैयक्तिक रह जाता है, वहीं महात्मा गांधी उसे विकसित कर सामूहिक बना देते हैं। वह थोरो की इस बात से तो सहमत होते हैं कि कोई सरकार आत्मा को गिरफ्तार नहीं कर सकती, लेकिन आत्मा की इस स्वतंत्रता की संपुष्टि के लिए सत्याग्रह को सविनय अवज्ञा से आगे बढ़कर एक सक्रिय रचनात्मक कार्यक्रम में बदल देते हैं, ताकि वह व्यवस्था ही बदल जाए, जिसमें कोई किसी स्वतंत्र आत्मा का अतिक्रमण कर सके। उल्लेखनीय यह है कि गांधी-दर्शन में स्थापित अन्याय की नितांत अवज्ञा न केवल अधिकार बल्कि कर्तव्य हो जाता है-और केवल व्यक्ति ही नहीं, पूरे समाज का कर्तव्य बन जाता है। इसलिए इस कर्तव्य-पालन के लिए समूह को संघटित-प्रशिक्षित करना और उसके कार्यक्रम और आंदोलन भी कर्तव्य की प्रक्रिया बन जाते हैं। यहीं महात्मा गांधी का सत्याग्रह थोरो की सविनय अवज्ञा की अवधारणा का अतिक्रमण कर अपना विशिष्ट रूपग्रहण कर लेता है।
महात्मा गांधी की तुलना अक्सर कार्ल मार्क्स से की जाती रही है, क्योंकि दोनों ही इतिहास को एक विकास-प्रक्रिया के रूप में देखते हुए उसका चरम रूप एक वर्गहीन और राज्यविहीन समाज में देखते हैं। लेकिन दोनों के इतिहास-दर्शन में फर्क है। मार्क्स इतिहास का अध्ययन एक द्वंद्वात्मक आर्थिक प्रक्रिया के रूप में करते हैं, जबकि महात्मा गांधी के लिए वह एक द्वंद्वात्मक नैतिक प्रक्रिया है-हिंसा से अहिंसा की ओर उन्मुख प्रक्रिया। मार्क्स की दृष्टि में वर्ग-संघर्ष इतिहास का नियम है, जबकि गांधी उसे इसलिए अस्वीकार करते हैं कि जब स्वयं इतिहास की गति हिंसा से अहिंसा की ओर है तथा प्रेम इतिहास का नियम है तो हिंसा का सहारा लेना इतिहास के नियम और गति के विरुद्ध चलना अर्थात् प्रतिक्रियावादी होना है। यह उल्लेखनीय है कि महात्मा गांधी की इतिहास-दृष्टि का एक अन्य महत्त्वपूर्ण भारतीय चिंतक एम०ए० राय की इतिहास-दृष्टि से बहुत साम्य है, जबकि न केवल व्यावहारिक राजनीतिक जीवन बल्कि अपनी दार्शनिक-तात्त्विक पृष्ठभूमि में दोनों दो विपरीत दिशाओं से आते हैं। महात्मा गांधी को दर्शनशास्त्रीय वर्गीकरण की दृष्टि से एक प्रत्ययवादी या अध्यात्मवादी विचारक कहा जा सकता है, जबकि एम०एन० राय एक पूर्णतः भौतिकवादी चिंतक हैं। लेकिन राय यह कहते हैं कि वर्ग-संघर्ष का सिद्धांत इस तथ्य की अनदेखी करता है कि सहकार सदैव ही एक दृढ़तर सामाजिक कारक रहा है। अन्यथा, सभ्यता के आरंभ में ही समाज टुकड़े-टुकड़े हो जाता। लगभग ऐसी ही बात हिंद-स्वराज्य में महात्मा गांधी कहते हैं : अगर दुनिया की कथा लड़ाई से शुरू होती, तो आज एक भी आदमी जिंदा न बचता....दुनिया लड़ाई के हंगामों के बावजूद टिकी हुई है। इसलिए लड़ाई के बल के बजाय दूसरा ही बल उसका आधार है। फर्क यही है कि महात्मा गांधी प्रेम जैसे पद का इस्तेमाल करते हैं जो एक भावात्मक पद है जबकि एम०एन० राय का सहकार कुछ अधिक व्यावहारिक और संस्थानिक है।
यह भी स्मरणीय है कि गांधी और राय दोनों ही मनुष्य और उसके सांस्थानिक जीवन के नैतिक होने पर समान बल देते हैं। प्रत्ययवादी प्रवृत्ति के कारण महात्मा गांधी के लिए नैतिकता मानवीय आत्मा का गुण है, जबकि भौतिकवादी दार्शनिकता के आग्रह के चलते एम०एन० राय नैतिकता को भी भौतिक प्रक्रिया अर्थात् मानव-जीवन की विकास-प्रक्रिया में मनुष्य की जिजीविषा की गुणात्मक अभिव्यक्ति मानते हैं। महात्मा गांधी के लिए नैतिक होना आध्यात्मिक होना है और आध्यात्मिकता व्यक्ति की स्वतंत्रता का चरम उत्कर्ष है, वहीं राय के लिए स्वतंत्रता मनुष्य के बौद्धिक, नैतिक और सर्जनात्मक सामर्थ्य के पल्लवन को बाधित करने वाले भौतिक, सामाजिक, मनोवैज्ञानिक सभी कारणों का क्रमशः लोप होते जाना है। संभवतः, इसी कारण महात्मा गांधी और राय दोनों का समाज-दर्शन एक विकेंद्रीकृत राजनीतिक-आर्थिक व्यवस्था का प्रस्ताव करता है। दोनों ही विचारकों में संसदीय लोकतंत्र की समान आलोचना है और दोनों ही व्यक्ति के स्वातंत्र्य पर समान बल देते हैं, जो स्थानीय स्वायत्तता और सत्ता-रूपों के विकेंद्रीकरण और ऐसी मानव केंद्रित और प्रदूषण रहित प्रौद्योगिकी का प्रस्ताव करते हैं, जो किसी भी तरह के राजनीतिक-आर्थिक केंद्रीकरण का पूंजीवाद का निषेध करती है। कह सकते हैं कि अपनी तत्व-मीमांसा में वैपरीत्य के बावजूद अपनी मूल्य-मीमांसा में दोनों विचारकों में बहुत अधिक साम्य है। दोनों का आग्रह अहिंसक और नैतिक प्रक्रियाओं के माध्यम से एक अहिंसक और नैतिक व्यक्ति और समाज का विकास करना है।
- नंदकिशोर आचार्य
गाल्टुंग, जोहन : अहिंसा के क्षेत्र में जोहन गाल्टुंग एक ऐसे अंतर्राष्ट्रीय व्यक्तित्व के रूप में स्वीकारे जाते हैं जो सामाजिक विज्ञान, विकास की अवधारणा, वैश्विक मानवाधिकार, शैक्षिक असमानता, शांति-शिक्षा एवं शोध, सामाजिक संरचना आदि विषयों पर अपना मौलिक चिंतन प्रस्तुत करते हैं। 1930 ई० में ओस्लो में जन्मे गाल्टुंग ने गणित और सांख्यिकी विषय में उच्च शिक्षा की डिग्री प्राप्त की। कालांतर में सामाजिक विज्ञान और दर्शनशास्त्र भी उनकी रुचि के विषय बने। गांधी-विचारों के प्रति गहन रुचि एवं विशिष्ट ज्ञान के कारण वे ओस्लो विश्वविद्यालय में शांति एवं संघर्ष विषय के प्राध्यापक पद पर नियुक्त हुए। उन्होंने अपने शांति संबंधी शोध को वैज्ञानिक तरीके से आगे बढ़ाया, जिसके परिणामस्वरूप 1959 ई० में उन्होंने विश्व का प्रथम शांति शोध संस्थान स्थापित किया। इसके पश्चात् गाल्टुंग को आधुनिक शांति शोध एवं शांति शिक्षा का जनक कहा जाने लगा। 1966 ई० में यह संस्थान स्वतंत्र रूप से अंतर्राष्ट्रीय शोध संस्थान के रूप में परिवर्तित होकर आज विश्व स्तर पर अपनी विशिष्ट पहचान बना चुका है। इसी क्रम में गाल्टुंग ने 1969 ई० में इस संस्थान की गतिविधियों को मूर्त रूप देने के लिए शांति-शोध पत्रिका का प्रारंभ किया एवं सन् 2000 ई० में नार्डिक शांति शोध संस्थान की स्थापना की।
शांति शोध जैसे अंतर्नुशासित (Inter-diciplinery) विषय पर अपनी अद्वितीय विद्वता से गाल्टुंग विश्व-प्रसिद्ध समाजविज्ञानी के रूप में प्रतिष्ठित हो चुके हैं। उन्होंने 100 से अधिक पुस्तकों एवं 1000 से अधिक लेखों के द्वारा शांति की समस्या के बहु-आयामी स्वरूप को प्रस्तुत किया है। उनका बृहद् साहित्य समाजविज्ञान के सभी क्षेत्रों में उच्च स्तरीय शोध का एक बौद्धिक साधन है। गाल्टुंग ने अनेक अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालयों एवं संगठनों यथा कोलंबिया, सेटिंयागो, चिली आदि विश्वविद्यालयों के शैक्षिक विकास में अतिथि प्राध्यापक के रूप में अपनी सेवाएं दी हैं। इसके अतिरिक्त कई अंतर्राष्ट्रीय संगठनों यथा-यूनेस्को के शांति शोध, आर्थिक सहयोग एवं विकास संगठन (OCED) में शिक्षा, यूरोपियन काउंसिल में यूरोपियन सलाहकार, Dubraunik में अंतर्राष्ट्रीय विश्वविद्यालय के महानिदेशक, वर्ल्ड फ्यूचर स्टडीज फेडरेशन के अध्यक्ष आदि पदों पर अपनी सेवाएं दी हैं। 2004 ई० के बाद से गाल्टुंग लोकतांत्रिक संयुक्त राष्ट्र की सलाहकार परिषद् समिति के सदस्य हैं एवं वर्तमान में वे जर्मनी, जापान, इटली, चाइना, स्वीडन, नार्वे आदि स्थानों पर महत्त्वपूर्ण शैक्षणिक पदों पर भी कार्यरत हैं।
गाल्टुंग को उनके विश्व-शांति संबंधी कार्यों के लिए अनेक पुरस्कारों से सम्मानित किया गया जैसे-राइट लिवलीहुड अवार्ड 1987 ई०, दि नार्वेजियन ह्यूमेनिस्ट प्राइज 1988 ई०, सोक्रेटीज प्राइज फॉर एडल्ट एजुकेशन 1990 ई०, बजाज इंटरनेशनल अवार्ड फॉर प्रोमोटिंग गांधियन वैल्यूज 1993 ई०, अलाहा इंटरनेशनल अवार्ड 1995 ई० आदि। लगभग 10 मानद डाक्टरेट की उपाधियों से भी उन्हें सम्मानित किया गया है। वर्तमान में गाल्टुंग ट्रासेंड इंटरनेशनल के, जो अंतर्राष्ट्रीय शांति एवं विकास के नेटवर्क के रूप में कार्य कर रहा है, निदेशक के रूप में अपनी सेवाएं दे रहे हैं। इस संबंध में हाल में उनकी दो पुस्तकें सर्चिंग फॉर पीस : रोड टू ट्रासेंड 2002 ई०, व ट्रासेंड ट्रांजार्म प्रकाशित हुई हैं।
गाल्टुंग ने अपने विशिष्ट ज्ञान का प्रयोग अनेक संघर्षपूर्ण दशाओं के निराकरण में किया है। वे संघर्षपूर्ण दशाओं, संघर्ष निराकरण की बाधाओं एवं संघर्ष उपरांत सामान्य दशा में आने वाली व्यावहारिक कठिनाइयों पर अपना मौलिक चिंतन रखते हैं। अतएव, ऐसी समस्याओं के समाधान में उनके प्रयास व्यावहारिक धरातल पर आधारित होते हैं। गाल्टुंग ने सोमालिया, युगोस्लाविया, उत्तरी आयरलैंड, दक्षिणी काकेशस, स्पेन, फ्रांस, लेबनान, श्रीलंका, इजराइल एवं फिलीस्तीन आदि स्थानों पर संघर्षपूर्ण दशाओं के निवारण में एक विशेषज्ञ सलाहकार की भूमिका अदा की है। गाल्टुंग ने पेरू व इक्वाडो के मध्य चार सीमा-विवादों को समाप्त कर शांतिपूर्ण संघर्ष समाधान की प्रक्रिया में एक अहम् भूमिका का निर्वहन किया है। उनके द्वारा सुझाई गई योजना के परिणामस्वरूप दोनों देशों का विवादित क्षेत्र आज एक प्राकृतिक उद्यान के रूप में विकसित हो रहा है। हाल ही में अमेरिका में व्याप्त मंदी से निपटने के लिए भी गाल्टुंग ने कारगर सुझाव दिए हैं।
जोहन गाल्टुंग ने अहिंसाशास्त्र की अनेक विधाओं यथा-संघर्ष, संरचनात्मक हिंसा, संघर्ष निराकरण, शांति की अविभाज्यता, शांति शोध, शांति शिक्षा, शांति की संस्कृति, संघर्षपूर्ण स्थिति में संचार की भूमिका आदि पर अपना गहरा चिंतन प्रस्तुत किया है। गाल्टुंग अपना शांति संबंधी व्यापक चिंतन प्रस्तुत करते हुए कहते हैं-जब मैं खुद इस बात को कहता हूं कि युद्ध का अभाव तथा हिंसा का निषेध शांति की अवस्था है, तब मैं इसकी अपूर्ण परिभाषा प्रस्तुत करता हूं। युद्ध के अभाव से यद्यपि शांति प्रतीत होती है तथापि वास्तविक शांति समाज में तभी स्थापित हो सकती है जब हिंसा के अभाव के साथ विकासात्मक अहिंसा का भी प्रसार हो। अतः गाल्टुंग अहिंसक समाज की स्थापना हेतु संरचनात्मक हिंसा का अभाव एवं क्रियात्मक अहिंसा दोनों का प्रयोग अपेक्षित मानते हैं। शांति की परिभाषा देते हुए गाल्टुंग कहते हैं-शांति हिंसा के बिना संघर्षपूर्ण स्थितियों को रचनात्मक ढंग से नियंत्रित करने की क्षमता है। यहां उनका चिंतन संघर्ष एवं हिंसा के मध्य भेद को स्पष्ट करता है। उनके अनुसार संघर्ष पूर्णतया हिंसा सदृश नहीं होते हैं। संघर्ष केवल किसी समूह विशेष की आकांक्षाओं एवं उनके अपूर्ण लक्ष्यों आदि के आधार पर निर्धारित होते हैं। इन संघर्षों के आधार धार्मिक, वर्ण-भेद, राजनीतिक, आर्थिक, सामाजिक, सांस्कृतिक, सामरिक आदि हो सकते हैं। इन आधारों में भेद ही संघर्ष का कारण बनता है। इन संघर्षों के निराकरण के लिए गाल्टुंग उस विधि को स्वीकारते हैं, जिसमें दोनों पक्षों को अपनी जीत का अनुभव हो एवं बुनियादी मानव अधिकारों यथा-अस्तित्व, स्वतंत्रता और पहचान को पूर्ण महत्त्व दिया जाए। इस संबंध में गाल्टुंग संघर्ष निराकरण के निम्न आधार प्रस्तुत करते हैं-
(1) संघर्ष अथवा संघर्षरत पक्षों से अलग हो जाना।
(2) मनुष्य के बीच के सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक भेदों को अहिंसा की शक्ति से दूर करना।
(3)संघर्ष में जीत के पश्चात् समझौते हेतु तत्पर रहना।
(4) समाज में व्याप्त संघर्ष के कारणों को अहिंसक साधनों से परिवर्तित करना।
संघर्ष की प्रक्रिया एक श्रृंखला के रूप में व्यक्ति से लेकर अंतर्राष्ट्रीय स्तर तक अनवरत चलती रहती है। इसलिए, गाल्टुंग अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर संघर्ष के निवारण के लिए संवाद स्थापना, यथास्थिति निर्माण, प्रतिक्रिया निषेध, विभिन्न मतभेदों पर निरंतर विमर्श कर समाधान प्राप्त करना, वैश्विक शिक्षा, अन्य संस्कृति का सम्मान आदि अहिंसक सुझाव प्रस्तुत करते हैं।
गाल्टुंग के शांति संबंधी चिंतन में युद्ध, हिंसा, तनाव एवं शोषण के अभाव को निषेधात्मक शांति कह सकते हैं, जबकि मानवीय और सामाजिक विकास की प्रक्रिया भावात्मक शांति के रूप में देखी जा सकती है। यह शांति का समग्र रूप है। शांति का केंद्र मानव मस्तिष्क है; अतः, अंतिम रूप से व्यक्ति को उसकी अनुभूति होनी चाहिए। एक व्यक्ति जब शांति की अवस्था में होगा तब वह अवरोधों एवं तनावों से ही स्वतंत्र नहीं होगा, वरन् भावात्मक रूप से संतुष्टि व आनंद का भी अनुभव करेगा। अतः शांति का न्यूनतम रूप है-प्रत्यक्ष व संरचनात्मक हिंसा का अभाव और अधिकतम रूप है-पूर्ण शांति।
अहिंसाशास्त्र के अंतर्गत शांति का विश्लेषण करते समय निश्चित रूप से शांति को व्यापक दृष्टि से देखा जाता है और शांति को समग्र रूप से देखना ही प्रायः समस्त अहिंसाशास्त्रियों का मत रहा है। समग्र शांति की अवधारणा आध्यात्मिक जगत का जितना आधारभूत सत्य है, उतना ही व्यावहारिक जगत का अनिवार्य तत्त्व भी है। गाल्टुंग ने अस्तित्ववादी प्रमाण के आधार पर शांति की अविभाज्यता को स्पष्ट किया है। अस्तित्व विविध आयामी है और उसका लक्ष्य समग्र शांति है। प्रो० गाल्टुंग ने अस्तित्व के पांच प्रकार बताए हैं-प्रकृति, मानव, समाज, विश्व और संस्कृति। उनके अनुसार इन पांचों का साध्य भिन्न-भिन्न होते हुए भी ये परम साध्य के रूप में शांति की कामना करते हैं। प्रकृति का साध्य है-पारिस्थितिकीय संतुलन, मनुष्य का साध्य है-बोधि, समाज का साध्य है-विकास, विश्व का साध्य है-शांति एवं संस्कृति का साध्य है-पर्याप्तता। गहनता से विश्लेषण करने पर स्पष्ट होता है कि ये तत्त्व परस्पर अंतर्ग्रंथित हैं और समग्र रूप से इनका लक्ष्य शांति है। इन्हें विभक्त कर हम शांति के स्वरूप को नहीं जान सकते क्योंकि मनुष्य विश्व में घटित प्रत्येक घटना से प्रभावित होता है एवं प्रत्येक घटना को वह स्वयं प्रभावित करता भी है। अतएव किसी एक तत्त्व की अवहेलना कर शांति स्थापित नहीं की जा सकती। प्रत्येक तत्त्व दूसरे तत्त्व की शांति पर निर्भर करता है। शांति की समग्रता को स्पष्ट करते हुए गाल्टुंग ने कहा है-जब हम शांति के बारे में चर्चा या विचार-विमर्श करते हैं तो इसका आशय इतना ही नहीं है कि शांति केवल राष्ट्रों के बीच में ही हो; बल्कि, शांति को समाज की रग-रग में, मानव जातियों में और यहां तक कि प्रकृति में भी व्याप्त होना चाहिए। गाल्टुंग द्वारा प्रतिपादित उदार व सर्वश्रेष्ठ मूल्यों के आधार पर अखंड शांति का स्वरूप स्पष्ट होता है और यह भी ज्ञात होता है कि शांति को खंड-खंड कर नहीं देखा जा सकता है।
1970 ई० के दशक में शांति-शिक्षा के क्षेत्र में एक नई धारा का जन्म हुआ। गाल्टुंग के संरचनात्मक हिंसा के विचार एवं भावात्मक शांति की संकल्पना ने इसे वैश्विक शिक्षा का नाम दिया। संरचनात्मक हिंसा का तात्पर्य उस हिंसा से है, जो समाज में विद्यमान होती है, किंतु उसका कर्त्ता दृष्टिगोचर नहीं होता। ऐसी हिंसा समाज व समाज के सदस्यों की प्रगति में बाधक बनती है। गाल्टुंग के शांति-शिक्षा की इस वैश्विक अवधारणा का उद्देश्य समाज में व्याप्त संरचनात्मक हिंसा को दूर करना था। उनके विचार में वैश्विक शिक्षा राष्ट्रों के बीच रचनात्मक सहयोग पर बल देती है तथा अत्याचारियों द्वारा आरोपित प्रतिस्पर्धा एवं विरोधों को समाप्त करती है। समाज में व्याप्त गरीबी, रंग-भेद, शोषण, राजनैतिक दमन, पक्षपात आदि की समस्या के समाधान के लिए शांति-शिक्षा की यह अवधारणा मानवीय आवश्यकताओं की पूर्ति एवं मानव-अधिकारों के विकास पर बल देती है। वैश्विक नागरिकता, वैश्विक मानवाधिकार एवं निष्पक्ष वैश्विक व्यवस्था की स्थापना इस शांति शिक्षा का उद्देश्य रहा है। इस प्रकार दमन, शोषण, अन्याय, भेदभाव की समस्या का अध्ययन करना गाल्टुंग-प्रणीत शांति-शिक्षा का नकारात्मक पक्ष है, जबकि मानवीय स्वतंत्रता व समानता के विचार का पोषण इसका सकारात्मक पक्ष है। इस हेतु समाज के सभी पक्षों यथा-आर्थिक, सामाजिक, राजनैतिक, सामुदायिक, औद्योगिक शैक्षिक आदि की कार्य पद्धतियों को हिंसा विहीन बनना अपेक्षित है।
गाल्टुंग का चिंतन शांति-शोध के क्षेत्र में भी एक विशेष स्थान रखता है। वह स्वयं एक शिक्षाशास्त्री हैं; अतएव, विश्वशांति की स्थापना एवं सामाजिक हिंसा के उन्मूलन के लिए वह शांति-शिक्षा व शोध की अपेक्षा रखते हैं। गाल्टुंग का मानना है कि किसी भी देश की समस्या के आधार राजनैतिक के साथ-साथ आर्थिक, सामाजिक एवं सांस्कृतिक भी होते हैं। अतः, समस्या समाधान के लिए विभिन्न आधारों को ध्यान में रखना चाहिए, तभी शांति की प्राप्ति होगी। गाल्टुंग का मानना है कि शांति-शोध में यह आवश्यक है कि हम विषय-केंद्रित क्षेत्र को समस्या-केंद्रित क्षेत्र में परिवर्तित कर समाधान की ओर अग्रसर हों ताकि समस्या की गहनता को समझा जा सके। समस्या समाधान हेतु शांति-शोध अहिंसक साधनों के प्रयोग पर बल देता है। गाल्टुंग ने अपने एक निबंध ए क्रिटिकल डेफिनेशन ऑफ पीस में शांति-शोध को परिभाषित करते हुए कहा है कि शांति शोध उन स्थितियों को समझने का प्रयास है, जो हमें अंतर्राष्ट्रीय और अंतर्र्सामूहिक हिंसा को रोकने में योगदान करता है तथा राष्ट्रों और नागरिकों के बीच सामंजस्यपूर्ण तथा रचनात्मक संबंधों के विकास में सहायक होता है।
उपर्युक्त विवेचन के आधार पर यह कहना समीचीन प्रतीत होगा कि जोहन गाल्टुंग के अहिंसा एवं शांति संबंधी विचार इनके बहु-आयामी स्वरूप को सैद्धांतिक एवं प्रायोगिक दोनों ही स्वरूपों में स्पष्ट करते हैं। अहिंसा संबंधी अवधारणाओं के प्रचार-प्रसार में वह स्वयं विश्वभर में सक्रिय हैं तथा इस क्षेत्र में उत्पन्न शंकाओं का भी समाधान प्रस्तुत करते हैं। मानव जाति के भविष्य की स्थिति पर गाल्टुंग आशावादी दृष्टिकोण प्रस्तुत करते हुए कहते हैं कि मानव के सम्मुख समस्याएं विद्यमान है किंतु मानव जाति को इन समस्याओं को संकटपूर्ण स्थिति नहीं मानना चाहिए। मानव-समाज पिछले कुछ दशकों से ऐसी समस्याओं पर विचार कर समाधान प्राप्त करने का प्रयास कर रहा है। इस प्रकार गैर-भारतीय/पश्चिमी परंपरा में जोहन गाल्टुंग एक ऐसे अहिंसाशास्त्री के रूप में अपनी सेवाएं दे रहे हैं, जिन्होंने न केवल अहिंसा एवं शांति की संकल्पना को विस्तृत एवं व्यापक संदर्भ में प्रस्तुत किया वरन् अपने आशावादी दृष्टिकोण के द्वारा वे एक नवीन वैश्विक चिंतन प्रस्तुत कर अशांत विश्व को शांति का संदेश प्रदान कर रहे हैं।
- प्रो० बच्छराज दुग्गड़
गीता में अहिंसा : गीता की विषय-वस्तु आत्मज्ञान और उसके उपाय है, दो सेनाओं के बीच युद्ध का अवसर इस विषय-वस्तु के प्रतिपादन का एक अवसर है। कोई चाहे तो कह सकता है कि स्वयं कवि युद्ध या हिंसा के विरुद्ध नहीं थे और इसीलिए उन्होंने युद्ध के अवसर को इसके लिए चुनने में कोई संकोच नहीं किया। लेकिन, महाभारत के पठन ने मुझ पर दूसरा ही प्रभाव डाला है। कवि व्यास ने अद्भुत सुंदर इस महाकाव्य के माध्यम से युद्ध की व्यर्थता को प्रदर्शित किया है। वह पूछता है : कौरवों के नष्ट हो जाने और पांडवों के विजयी होने से क्या हुआ? विजेता पक्ष में कितने लोग बच पाए और उन्हें क्या मिला? माता कुंती का अंत क्या हुआ? और आज पांडव कहां है?
जब युद्ध और हिंसा का औचित्य-प्रतिपादन महाकाव्य की विषय-वस्तु नहीं है तो इन पक्षों पर बल देना अनुचित है। और यदि कुछ श्लोकों की अहिंसा की शिक्षा से संगति मुश्किल लगती है, तो पूरी गीता को हिंसा की चौखट में बिठा पाना और भी मुश्किल है।
कोई भी कवि रचना करते समय उसकी सभी व्याख्याओं के प्रति सजग नहीं होता। कविता की खूबसूरती यही है कि रचना रचयिता का अतिक्रमण कर जाती है। जिस सत्य तक वह पहुंचता है, वह उसकी कल्पना की परमोच्च उड़ान होती है, जो उसके जीवन में बहुधा नहीं मिलती। इसलिए कई कवियों की जीवन गाथा उसकी कविता को प्रमाणित नहीं करती। गीता की केंद्रीय शिक्षा हिंसा नहीं, अहिंसा है, यह दूसरे अध्याय में विषय-प्रतिपादन से ही भलीभांति प्रदर्शित हो जाता है, जिसका निष्कर्षात्मक सार अठाइसवें अध्याय में प्रकट हो जाता है। दूसरे अध्याय भी इसी बात का समर्थन करते हैं। हिंसा क्रोध, राग, घृणा के बिना असंभव है, जबकि गीता हमें सत्त्व, रजस् और तमस् के परे एक ऐसी स्थिति में ले जाने की बात करती है जिसमें क्रोध, घृणा आदि पूरी तरह बहिष्कृत हो जाते हैं। लेकिन, अभी भी मैं हर बार प्रत्यंचा पर तीर चढ़ाते हुए अर्जुन की लाल आंखों से झलकते क्रोध की अपने मन में कल्पना कर सकता हूं।
अर्जुन द्वारा युद्ध में जाने से इनकार का कारण अहिंसा की भावना नहीं था। वह पहले भी बहुत-सारे युद्ध लड़ चुका था। केवल इस दफा वह छद्म दया से घिर गया था। उसे अपने कुटुंबियों को मारने में संकोच था। उसने यह नहीं कहा कि वह किसी को भी दुष्ट समझने के बावजूद नहीं मारेगा। श्रीकृष्ण प्रत्येक मनुष्य के अंतर्तम के विचारों को जानते हैं और उन्होंने अर्जुन के इस क्षणिक सम्मोहन को भी जान लिया। इसीलिए उन्होंने कहा, वध तो तुम पहले ही कर चुके हो। अब तुम यकायक अहिंसा के पक्ष में नहीं बोल सकते। जो शुरू किया है, उसे पूरा करो। यदि स्कॉच एक्सप्रैस में यात्रा करने वाला कोई यात्री यात्रा से घबराकर ट्रेन से छलांग लगा लेता है, तो वह आत्महत्या का दोषी होगा। उसे यात्रा अथवा ट्रेन से यात्रा की व्यर्थता का ज्ञान नहीं हुआ है। अर्जुन के साथ भी ऐसा ही है। अहिंसक कृष्ण अर्जुन को और कोई सलाह नहीं दे सकते थे। लेकिन, क्योंकि एक किसी अवसर पर वध की सलाह दी गई थी, इसलिए गीता हिंसा की शिक्षा देती या युद्ध का औचित्य-प्रतिपादन करती है, यह कहना उतना ही गलत है, जितना यह कहना कि हिंसा ही जीवन का नियम है, क्योंकि हमारे दैनिक जीवन में वह कुछ-न-कुछ मात्रा में रहती ही है। जो भी गीता की भावना को समझता है, वह उसे अहिंसा की शिक्षा ही देती है-भौतिक देह के माध्यम से आत्म की सिद्धि का रहस्य।
धृतराष्ट्र, युधिष्ठिर और अर्जुन कौन हैं? कृष्ण कौन है? क्या ये सभी ऐतिहासिक चरित्र हैं? क्या गीता उन्हें इस रूप में चित्रित करती है? क्या यह सच है कि युद्ध के ऐन बीच रुककर अर्जुन ने कृष्ण से प्रश्न किया और कृष्ण ने समूची गीता उसके सम्मुख कही? और वह गीता क्या है-अपने सम्मोहन से उबरने के पश्चात् अर्जुन जिसे भूल गया और उसे दोहराने के लिए कहने पर कृष्ण वैसा नहीं कर पाए और तब उन्होंने उसे अनुगीता के रूप में कहा? मैं दुर्योधन और उसके पक्ष को मनुष्य के अधम आवेगों के रूप में देखता हूं तथा अर्जुन और उसके पक्ष को उत्तम आवेगों के रूप में। युद्ध का क्षेत्र हमारी अपनी देह है। इन दोनों के बीच एक सनातन युद्ध चल रहा है, जिसका द्रष्टा कवि ने बहुत जीवंत चित्रण किया है। कृष्ण इस देह का अंतेवासी है, शुद्ध अंतःकरण से फुसफुसाता हुआ। घड़ी की तरह अंतःकरण को भी हवा की शुद्धता चाहिए, अन्यथा अंतेवासी चुप हो जाता है।
यह नहीं है कि वास्तविक भौतिक युद्ध का कोई सवाल ही नहीं है। जो लोग अहिंसा से अजाने है, उन्हें गीता निराशा का पाठ नहीं पढ़ाती। जो डरता है, जो अपनी चमड़ी बचाता है, जो अपनी वासनाओं को समर्पित है, उसे भी युद्ध करना ही पड़ेगा-चाहे या अनचाहे-लेकिन वह उसका धर्म नहीं है। धर्म केवल एक है। अहिंसा का तात्पर्य है मोक्ष और मोक्ष सत्य की अनुभूति है। यहां कायरता के लिए कोई गुंजाइश नहीं है। इस अजीब विश्व में हिंसा सदैव रहेगी। गीता हमें उससे बाहर निकलने का मार्ग सुझाती है। साथ ही, यह बताती है कि कायरता और निराशा के कारण पलायन सही मार्ग नहीं है। युद्ध में मारना और मर जाना कायरता से बेहतर है।
- महात्मा गांधी
(हिंदी रूपांतर : नंदकिशोर आचार्य)
ग्राम-स्वराज्य :महात्मा गांधी की ग्राम-स्वराज्य की अवधारणा अहिंसक राज्य-व्यवस्था का मूलाधार है। महात्मा गांधी राज्य को संगठित हिंसा मानते हैं; लेकिन, किसी-न-किसी प्रकार की राजनीतिक व्यवस्था समाज की सुचारु गतिशीलता के लिए आवश्यक है। इसलिए एक ऐसी वैकल्पिक राज्य-व्यवस्था की आवश्यकता होती है, जो संगठित हिंसा के बजाय संगठित अहिंसा के सिद्धांत के आधार पर निर्मित हो। इसी संगठित अहिंसा के आधार पर विकसित राज्य को महात्मा गांधी ग्राम-स्वराज्य अथवा पंचायती राज की संज्ञा देते है।
महात्मा गांधी का मानना है कि स्वतंत्रता की शुरुआत एकदम बुनियाद से होनी चाहिए। इसलिए वह प्रत्येक गांव को एक आत्मनिर्भर आर्थिक इकाई के साथ-साथ आत्मनिर्भर राजनीतिक इकाई के रूप में भी देखना चाहते हैं, जिसका तात्पर्य है कि प्रत्येक ग्राम एक आत्मनिर्भर स्वतंत्र गणतंत्र की हैसियत रखेगा। उससे संबंधित समस्त राजनीतिक अधिकार उसकी पंचायत में निहित होंगे। गांधीजी का तो यहां तक कहना है कि प्रत्येक गांव को इतना आत्म-पालित होना चाहिए कि वह अपने सब मामलों का प्रबंध स्वयं कर सके और सारी दुनिया के मुकाबले अपनी रक्षा स्वयं कर सके। उसे इस तरह प्रशिक्षित किया जाना चाहिए कि वह किसी भी बाह्य आक्रमण की स्थिति में अपनी रक्षा के लिए मरमिटने को तैयार हो सके।
लेकिन, आत्मनिर्भरता से गांधीजी का तात्पर्य इस गणतंत्र को शेष दुनिया से काट देना नहीं है। उसका अपने पड़ौसी गांवों और शेष विश्व से भी संबंध तो रहेगा, लेकिन, वह स्वैच्छिक और पारस्परिक होगा। महात्मा गांधी यह मानते हैं कि प्रत्येक गांव का पहला कर्त्तव्य अपने लिए खाद्यान्न और कपड़े के लिए रुई उगाना होना चाहिए। अपने पशुओं के लिए पर्याप्त चरागाह तथा बालकों और बड़ों के मनोरंजन के लिए खेल के मैदान तथा नाट्यशाला की व्यवस्था भी होनी चाहिए। गांधी कहते हैं कि यदि इस सारी व्यवस्था के बाद कुछ भूमि बचती है तो उसे व्यापारिक खेती के लिए काम में लिया जा सकता है-लेकिन उस भूमि पर भी तंबाकू, गांजा, अफीम या ऐसी मादक और हानिकर चीजों की खेती नहीं की जानी चाहिए।
गांधीजी के अनुसार प्रत्येक गणतंत्र में पीने के स्वच्छ पानी तथा सफाई की पूर्ण व्यवस्था होनी चाहिए। प्राथमिक शिक्षा अनिवार्य होगी। वह यह भी निर्देश करते हैं कि गांव के लिए किए जाने वाले सारे कार्य सहकारी पद्धति से किए जाने चाहिए ताकि सभी ग्रामवासी अपने उत्तरदायित्व को समझने के साथ परस्पर सहकारमूलक संबंध विकसित कर सके। इस गांव में जातिमूलक ऊंच-नीच तथा अस्पृश्यता जैसी बुराइयों को कोई स्थान नहीं होगा।
इस गांव की व्यवस्था के संचालन के लिए महात्मा गांधी एक निर्वाचित पंचायत का प्रस्ताव करते हैं, जिसका चुनाव प्रतिवर्ष किया जाए। गांव के सारे बालिग स्त्री-पुरुष इस पंचायत के सदस्यों का चुनाव करेंगे। यह पंचायत विधायिका, कार्यपालिका और न्यायपालिका के सभी दायित्व निभाएगी। महात्मा गांधी यह भी स्पष्ट कर देते हैं यदि यह पंचायत ग्रामहित या गांव की इच्छा के खिलाफ कुछ करती है तो सत्याग्रह और असहयोग जैसे अहिंसक तरीकों से उसे शासित किया जा सकता है।
महात्मा गांधी पूरे देश को ऐसे ही गणतंत्रों के समुच्चय के रूप में देखते हैं और इसे कोरी कल्पना या ऐसा आदर्श नहीं मानते, जिसे कभी प्राप्त नहीं किया जा सकता। उनका मानना है कि प्रत्येक गांव आसानी से अपने को इस रूप में विकसित कर सकता है। मुख्य बात यह है कि वह अपनी जरूरतें स्वयं पूरी कर सके और अपने से संबंधित निर्णय स्वयं लेकर उन्हें क्रियान्वित कर सके। व्यवहार में ऐसा कर सकना मुश्किल नहीं है, यदि हम शहरी सभ्यता की चकाचौंध से अप्रभावित रह सकें।
ग्राम गणतंत्रों की इस व्यवस्था को महात्मा गांधी सामुद्रिक वलय कहते हैं, जिसमें लहरें एक वृत्त में एक-दूसरी का सहारा बनती हैं, लेकिन एक-दूसरी के ऊपर नहीं चढ़तीं। महात्मा गांधी उस बहुकथित पिरामिडाकार राजनीतिक संरचना को स्वीकार नहीं करते, जिसमें सत्ता शीर्ष पर होती है और जनता या गांव निम्नतम इकाई के रूप में निम्नतर स्तर पर।
महात्मा गांधी यह भी स्पष्ट कर देते हैं कि इस ग्राम-स्वराज्य में मानव-श्रम पर आधारित आर्थिकी ही स्वीकार्य होगी तथा मानव श्रम को बेकार कर देने वाली ऐसी मशीनों का कोई स्थान नहीं होगा, जिसमें सत्ता कुछ हाथों में केंद्रित हो जाती हो। गांधी जी के अनुसार प्रत्येक सुसंस्कृत परिवार में श्रम का अद्वितीय स्थान है। सामान्यतः, यह माना जाता है कि महात्मा गांधी ने सिंगर की सिलाई मशीन को स्वीकार कर लिया था। लेकिन, अपने इस आत्मनिर्भर गांव में वह इस सिलाई मशीन को भी महत्त्वपूर्ण नहीं मानते। 28 जुलाई, 1946 ई० के हरिजन में उन्होंने लिखा कि ग्राम-स्वराज्य के उनके आदर्श चित्र में उन्हें इस मशीन की भी कोई जरूरत नहीं है।
महात्मा गांधी की ग्राम-स्वराज्य, आत्मनिर्भर गांव या पंचायती राज की अवधारणा, दरअस्ल, अहिंसक राजनीति और अहिंसक अर्थ-व्यवस्था की संकल्पनाओं के आधार पर विकसित है, जिसमें किसी भी प्रकार की सत्ता-आर्थिक, राजनीतिक या सामाजिक-के केंद्रीकरण की कोई गुंजाइश नहीं रहती, जिसका सीधा तात्पर्य है कि ऐसी विकेंद्रीकृत व्यवस्था में कोई संस्था संगठित हिंसा का रूप ग्रहण नहीं कर सकती। अहिंसक राजनीति और अहिंसक आर्थिकी एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। द्रष्टव्य : सत्याग्रही राज्य; सत्याग्रही प्रौद्योगिकी।
-नंदकिशोर आचार्य
ग्रेग, रिचर्ड बी० : (1885-1974 ई०) रिचर्ड बी० ग्रेग पहले अमेरिकी चिंतक थे, जिन्होंने अहिंसा के क्षेत्र में अपना दृष्टिकोण प्रस्तुत किया था। समाज-दार्शनिक ग्रेग के लिए यह कहा जाता है कि वह अहिंसक प्रतिरोध के सिद्धांत को विकसित करने वाले प्रथम अमेरिकी थे। मार्टिन लूथर किंग (जूनियर), बेयार्ड रस्किन, अल्डॉस हक्सल से प्रभावित ग्रेग का जन्म 1885 ई० में कोलोरेंडो में हुआ था। 1907 ई० में हार्वर्ड से स्नातक कर 1911 ई० में वकालत की डिग्री प्राप्त की। हार्वर्ड के एक प्रशिक्षित वकील के रूप में तीन वर्ष तक कार्य करके वह व्यापारिक संगठनों से जुड़ गए। प्रथम विश्व युद्ध के दौरान ग्रेग ने रेलमार्ग कर्मचारियों के लिए प्रचार और मध्यस्थता का कार्य किया। 1920 ई० के प्रारंभ में उन्होंने गांधी के कार्यों के बारे में एक आलेख पढ़ा, जिससे प्रभावित होकर उन्होंने गांधी से मिलने और भारत की संस्कृति को जानने के लिए भारत जाने का निर्णय किया। भारत में अपने चार साल के प्रवास में ग्रेग ने भारतीय संस्कृति का अध्ययन किया और अहिंसा के भारतीय दृष्टिकोण को समझा। इस दौरान उन्होंने इकोनोमिक्स ऑफ खद्दर शीर्षक की किताब लिखकर अर्थशास्त्र को एक ऐसे रूप में व्यक्त किया, जिसे हर एक औसत भारतीय नागरिक समझ सके। भारत के चार वर्ष के प्रवास में उन्होंने सात माह का समय गांधी के सत्याग्रह आश्रम में व्यतीत किया था।
भारत से लौटने के बाद 1934 ई० में उनकी पावर ऑफ नॉन-वायलेंस नामक पुस्तक प्रकाशित हुई। इस पुस्तक में उन्होंने महात्मा गांधी के अहिंसक सिद्धांतों एवं उनके समाज-परिवर्तन के सिद्धांतों की प्रक्रिया का वर्णन किया है। यह पुस्तक सत्याग्रह, सत्याग्रह की व्यापकता और उसके अनुशासन पर एक प्रबंध है। इस पुस्तक के लिए मार्टिन लूथर किंग ने कहा था-मैंने जितनी पुस्तकें पढ़ी हैं, उनमें से जिन पांच पुस्तकों से मैं सर्वाधिक प्रभावित हुआ, यह उनमें से एक है। वास्तव में ग्रेग की यह रचना विश्व परिदृश्य को परिवर्तित करने के एक सशक्त साधन के रूप में अहिंसा को व्याख्यायित करती है।
एक लेखक, एक युद्ध-विरोधी चिंतक एवं सक्रिय कार्यकर्त्ता के रूप में कार्य करने वाले रिचर्ड बी० ग्रेग ने 1935 ई० में, पेंडल हिल केंद्र में जो कि एक धार्मिक और सामाजिक अध्ययन का स्थान था, कार्यकारी निदेशक के रूप में कार्य किया। इसके पश्चात् वह अंतर्राष्ट्रीय समुदाय में रहकर कार्य करने लगे। ग्रेग अपने जीवन के अधिकांश समय में फेलोशिप ऑफ रिकांसिलिएशन से जुड़े रहे और अपने उदात्त चिंतन एवं क्रियाकलापों से उन्होंने अमेरिकी कांग्रेस के जातीय समानता के संस्थापकों को प्रभावित किया।
ग्रेग का अहिंसा एवं शांति संबंधी चिंतन उनके सुदृढ़ साहित्य में उपलब्ध होता है। अहिंसक प्रतिरोध, स्वैच्छिक सादगी का महत्त्व आदि उनके लेखन के केंद्र बिंदु थे, किंतु इसके अतिरिक्त भी उन्होंने अहिंसा, शांति एवं गांधी विचार के संबंध में भी अपना चिंतन प्रस्तुत किया। ग्र्रेग द्वारा लिखित प्रमुख पुस्तकें हैं--पॉवर ऑफ नान-वायलेंस, ए कंपास फोर सिविलिनेशन, इकोनोमिक्स ऑफ खद्दर, वैल्यू ऑफ वालंटरी सिंपलिसिटी, गांधींज सत्याग्रह आदि।
ग्रेग ने साधारण तरीके से जीवन जीने की महत्ता पर एक दार्शनिक चिंतन प्रस्तुत किया, जिसे उन्होंने स्वैच्छिक सादगी का महत्त्व नाम दिया। विश्व के अनेक धर्म-दर्शनों में सादगीपूर्ण जीवन की महत्ता को स्पष्ट किया गया है और रिचर्ड बी० ग्रेग उसी परंपरा को आगे बढ़ाते हुए सादगीपूर्ण जीवन जीने की वकालत करते हैं। सादगी का तात्पर्य है-आंतरिक रूप से जीवन के उद्देश्य का एकाकी होना एवं ईमानदारी व निष्ठा की भावना होना तथा बाह्य रूप से अव्यवस्थाओं से प्रभावित न होना। तात्पर्य यह है कि सादगी व्यक्ति की इच्छा एवं शक्तियों का आदेशित व निर्देशित रूप है। ग्रेग के अनुसार सादगीपूर्ण जीवन जीना एक व्यक्ति के निवास स्थान की जलवायु, उसके चरित्र, रीति-रिवाज और संस्कृति पर निर्भर करता है।
आधुनिक भोगवादी युग की आलोचना करते हुए ग्रेग कहते हैं-वर्तमान के वैज्ञानिक-तकनीकी अन्वेषणों ने जहां एक ओर चमत्कारिक उपलब्धियां अर्जित की है वहीं, दूसरी ओर, आज भी कई देशों में आधारभूत सुविधाओं से वंचित लोगों की स्थिति अत्यंत दयनीय है। विश्व के सर्वाधिक संपन्न राष्ट्र अमेरिका की जनसंख्या का एक बड़ा भाग पानी और बिजली जैसी आधारभूत सुविधाओं से वंचित है। प्रौद्योगिकी के विकास ने संपूर्ण विश्व में बेरोजगारी को बढ़ाया है, नैतिक समस्याओं को जन्म दिया है। आधुनिक जीवन में गुणात्मक तत्त्व गौण होते जा रहे हैं और मात्रात्मक संबंधों की प्रधानता बढ़ती जा रही है, जबकि मनुष्य के सामाजिक जीवन का सार गुणात्मक संबंधों में हैं। सादगीपूर्ण जीवन इस लक्ष्य को पाने का एक उचित साधन है।
ग्रेग ने सादगीपूर्ण जीवन का आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक, आध्यात्मिक, व्यक्तित्व, स्वास्थ्य आदि कई आधारों पर महत्त्व स्पष्ट किया है। आर्थिक आधार पर ग्रेग सादगीपूर्ण जीवन की विशिष्टता को बतलाते हुए कहते है कि अर्थशास्त्र के तीन भाग हैं-उत्पादन, वितरण और उपभोग। सादगीपूर्ण जीवन उपभोग को प्रभावित कर एक मानक तय करता है। आधुनिक अर्थव्यवस्था के मुख्य दोषों-लालच और प्रतिस्पर्धा-का समाधान संयमित जीवन शैली ही कर सकती है। समाज में व्याप्त शोषण को रोकने का प्रथम उपाय यह है कि प्रत्येक व्यक्ति सादगीपूर्ण जीवन जिए। विलासिता की वस्तुओं का उत्पादन पूंजी और श्रम को समाजोत्पादक वस्तुओं के उत्पादन से विमुख कर देते हैं और उनका दुरुपयोग होने लगता है। यह प्रवृत्ति आधारभूत वस्तुओं की मांग को बढ़ा देती है और मजदूरी की दरें कम हो जाती है। फलस्वरूप, मजदूर का शोषण होता है और उसे निरंतर संघर्ष करना पड़ता है। अतः, जो व्यक्ति वर्तमान आर्थिक व्यवस्था में परिवर्तन चाहते हैं, उनके लिए आवश्यक है कि वे स्वयं सादगीपूर्ण जीवन जीकर इच्छित दिशा की ओर अपने जीवन को संचालित करें। सादगी के राजनैतिक आधार को स्पष्ट करते हुए ग्रेग कहते हैं-गांधी, लेनिन जैसे कई राजनैतिक व्यक्तित्व हुए हैं, जिन्होंने सादगीपूर्ण जीवन व्यतीत करके अपना अमिट राजनैतिक प्रभाव छोड़ा। उनकी सादगी उनकी राजनैतिक शक्ति का महत्त्वपूर्ण अंग थी। लंबे समय तक सादगी का जीवन जीकर एक नेता अपनी निःस्वार्थता और ईमानदारी को दर्शाकर जनसाधारण में विश्वास अर्जित कर लेता है, जो उसकी राजनैतिक शक्ति का मुख्य आधार बनता है। इस आधार पर अर्जित राजनैतिक शक्ति मजबूत और स्थाई होती है। अतएव, यदि सभी शासक-वर्ग सदैव सादगीपूर्ण जीवन व्यतीत करें तो संपूर्ण राष्ट्र की नैतिक एकता, आत्सम्मान एवं सहनशक्ति को बढ़ाया जा सकेगा।
धार्मिक दृष्टिकोण के आधार पर भी ग्रेग ने सादगीपूर्ण जीवन की महत्ता को स्पष्ट किया है। हिंदू, बौद्ध, ईसाई, इस्लाम आदि सभी धर्मों में सादगी की जीवन शैली पर बल दिया गया है। ग्रेग के अनुसार सादगीपूर्ण जीवन जीना उन लोगों के लिए अत्यावश्यक है, जो वास्तव में धर्म का पालन करते हैं, क्योंकि यह धर्म के प्रति विनम्रता का एक रूप है। जिसस के प्रवचनों का उल्लेख करते हुए ग्रेग ने कहा-मानव मात्र के प्रति प्रेम और मानवीय एकता के लिए सादगीपूर्ण जीवन एक महत्त्वपूर्ण तथ्य है। प्रेम मानवीय एकता को साकार करने की भावना है और सादगीपूर्ण जीवन से प्रेम की भावना बनी रहती है। समाज में व्याप्त अमीर व गरीब की खाई को पाटने के लिए एवं दोनों वर्गों में प्रेम की अभिव्यक्ति के लिए सादगीपूर्ण जीवन एक सशक्त कड़ी बन सकता है। ग्रेग मनोवैज्ञानिक दृष्टि से भी सादगी के महत्त्व को स्वीकार कर उसे मानसिक स्वास्थ्य का एक साधन मानते हैं। विपुल धन-संपदा की उपलब्धता निर्णयों और चुनाव की समस्या पैदा करती है, जिससे धीरे-धीरे तंत्रिका-तंत्र में तनाव पैदा होने लगता है और स्वास्थ्य पर विपरीत प्रभाव पड़ता है। सादगी का सिद्धांत इस तथ्य को समझता है कि प्रत्येक व्यक्ति अपने चारों ओर के पर्यावरण से प्रभावित होता है। सादगीपूर्ण व्यक्तित्व की व्याख्या करते हुए ग्रेग कहते हैं-विश्व में सादगी से जीवन जीने वाले कई ऐसे व्यक्ति हुए हैं जिन्होंने लंबे समय तक जनमानस को आकर्षित किया। जैसे--बुद्ध, जिसस, मोहम्मद साहब, सुकरात, संत फ्रांसिस, कन्फ्युश्यस, लेनिन, गांधी आदि। ग्रेग का मानना था-व्यक्तित्व का सार अन्य लोगों से भिन्नता में नहीं वरन् अन्य लोगों के साथ संबंधों में है। अपने उच्चतम रूप में यह प्रेम की क्षमता और उसका अभ्यास है। एक व्यक्ति प्रेम और सेवा से अन्य लोगों का विश्वास जीतता है तो वह उसकी खुशी एवं व्यक्त्त्वि की स्थाई सुंदरता बढ़ाने के रूप में अभिव्यक्त होता है।
ग्रेग का मत है कि सादगी का यह दृष्टिकोण मूलतः आंतरिक दृष्टिकोण पर निर्भर करता है। अतः सादगी का अर्थ है-कुछ निश्चित इच्छाओं को अन्य इच्छाओं में परिवर्तित कर देना और इस प्रक्रिया का सबसे अच्छा साधन है-व्यक्ति अपनी कल्पनाओं को नई इच्छाओं की ओर निर्देशित करे। सादगी को विकसित करने के लिए कुछ अन्य तत्त्वों की अपेक्षा है, जैसे-समूह के दबाव का विरोध करने की शक्ति, प्रतिकूल टिप्पणी का सामना करने की शक्ति, परस्पर संबंधों के बीच अधिक संवेदनशील, शारीरिक सुंदरता के बजाय नैतिक सुंदरता पर अधिक जोर, सहनशीलता एवं इच्छा शक्ति।
अहिंसा और सादगी के परस्पर संबंध को अभिव्यक्त करते हुए ग्रेग कहते हैं कि जो लोग अहिंसा में विश्वास करते हैं, उनके लिए सादगी अत्यंत आवश्यक है। अधिक संपत्ति की आकांक्षा व्यक्ति में अन्य लोगों के प्रति ईर्ष्या, असंतोष एवं हीनता की भावना को जन्म देती है, जो कालांतर में हिंसा का रूप ले लेती है। इस प्रकार अधिक संपत्ति अहिंसा के सिद्धांत के साथ असंगत हो जाती है। यदि व्यक्ति सादगीपूर्ण जीवन जीता है तो उसके पास उतना होगा ही नहीं, जिसे खोने का डर उसे होगा। अपनी इस जीवनशैली से व्यक्ति अपनी ईमानदारी व निःस्वार्थता से जनता पर अपना प्रभाव छोड़ेगा और अहिंसक प्रतिरोध में यह महत्त्वपूर्ण साबित होगा।
रिचर्ड बी० ग्रेग का सादगीपूर्ण जीवन का चिंतन जहां संयमित जीवन शैली की महत्ता को प्रस्तुत करता है, वहीं उनका अहिंसात्मक प्रतिरोध पर चिंतन ग्रेग की अहिंसा पर व्यापक दृष्टि को प्रस्तुत करता है। गांधी ऐसे व्यक्ति हुए जिन्होंने अहिंसात्मक प्रतिरोध के सिद्धांत को विकसित किया। गांधी ने संगठित एवं सामूहिक रूप से कठिन परिस्थितियों में अहिंसक प्रतिरोध का प्रयोग कर इस सिद्धांत के विस्तार को सिद्ध कर दिखाया। अहिंसक प्रतिरोध को स्पष्ट करते हुए ग्रेग कहते हैं : जब किसी व्यक्ति पर दूसरे द्वारा हिंसा या बल का प्रयोग किया जाता है तो वह भयभीत नहीं है। वह हिंसा द्वारा आक्रामक को कष्ट पहुंचाने की अपेक्षा स्वयं कष्ट सहन करके हिंसा का नैतिक विरोध करता है। यही नैतिक विरोध अहिंसक प्रतिरोध कहलाता है। जापान में एक विशेष प्रकार की जु-जुत्सु नामक कुश्ती होती है जिसमें विरोधी शारीरिक बल खर्च नहीं करता। वह आक्रमक को बल प्रयोग करने देता है और अंत में उसे थका कर हरा देता है। अहिंसक प्रतिरोध भी इस प्रकार का एक नैतिक द्वंद्व है। इसमें आक्रांत व्यक्ति की अहिंसा और सद्भावना के कारण आक्रामक की अनैतिक शक्ति थक जाती है। अहिंसात्मक प्रतिरोध में आक्रामक के शारीरिक बल प्रयोग को जीतने के लिए उच्च बुद्धि के साधन का प्रयोग किया जाता है।
अहिंसात्मक संघर्ष का उद्देश्य विरोधी को हानि पहुंचाना, दबाना, अपमानित करना अथवा उसकी इच्छा को कुचलना नहीं है। अहिंसात्मक प्रतिरोध का उद्देश्य विरोधी का हृदय-परिवर्तन कर उसकी धारणा और विचारधारा को बदलना होता है, जिससे वह अहिंसक प्रतिरोधी के साथ मिलकर संतोषजनक हल निकालने में सहयोग दे सके। ग्रेग के अनुसर : विचार, अनुभूति और कार्य में एकता या अविरोध उत्पन्न करना ही अहिंसक प्रतिरोध का उद्देश्य होता है। अहिंसक प्रतिरोधी की दृढ़तापूर्ण बातों से आक्रामक के मन में उच्च व कृपापूर्ण भावनाएं जागृत होने लगती हैं और उसकी स्वयं की हिंसात्मक भावनाओं से लड़ने लगती हैं। आक्रामक को यह प्रतीत होने लगता है कि शारीरिक शक्ति से भी उच्च कोई शक्ति है जो जीवन के लिए आधारभूत है।
अहिंसक प्रतिरोधी के गुणों के संबंध में अपना चिंतन प्रस्तुत करते हुए ग्रेग कहते हैं : उसके चरित्र गठन में अनेक नैतिक विशेषताएं होनी चाहिए, तभी वह अपना नैतिक संतुलन बनाए रख सकता है। प्रतिरोधी के स्वभाव में प्रेम की ऐसी तृप्ति हो जो लोगों के प्रति गहरा, दृढ़ व स्थायी प्रेम अभिव्यक्त कर उत्पादकता का परिचय दे। उसमें मानव स्वभाव की श्रेष्ठ वृत्तियां-जीवमात्र की एकता एवं मनुष्य मात्र के बंधुत्व-पर उसकी दृढ़ इच्छा और श्रद्धा होनी चाहिए। ग्रेग के अनुसार यद्यपि प्रेम, विश्वास, श्रद्धा, साहस, सचाई,नम्रता आदि गुण न्यूनाधिक मात्रा में प्रत्येक मनुष्य में होते ही हैं; तथापि, आत्मशिक्षण और अनुशासन द्वारा ये गुण इतने विकसित किए जा सकते हैं कि सामान्य मनुष्य को भी एक अच्छा अहिंसक सैनिक बनाया जा सकता है।
विश्व शांति के संबंध में अहिंसात्मक प्रतिरोध की उपादेयता को स्पष्ट कर ग्रेग ने यह चिंतन प्रस्तुत किया है कि अंतर्राष्ट्रीय शांति के लिए एक विश्व समाज और उसके लिए जिस पारस्परिक सहिष्णुता, सम्मान और सद्भावना की जरूरत है, वह व्यवहारतः अहिंसात्मक प्रतिरोध से ही उत्पन्न हो सकती है। विलियम जेम्स ने अपने लेख युद्ध का नैतिक पर्याय और वाल्टर लिपमैन ने युद्ध का राजनीतिक पर्याय में इस प्रश्न की चर्चा की है कि ऐसा कोई पर्याय खोजना होगा जिससे उन प्रश्नों का निपटारा हो सके जो अभी तक युद्ध द्वारा निपटाए जाते थे। युद्ध के अतिरिक्त कोई ऐसा उपाय होना चाहिए। इस संदर्भ में ग्रेग ने अहिंसक प्रतिरोध को युद्ध का श्रेष्ठ पर्याय बतलाते हुए स्पष्ट किया है : अहिंसक प्रतिरोध में केवल सैनिक गुणों का ही उपयोग नहीं होता, वरन् नैतिक धरातल पर युद्ध के अनेक तरीकों और सिद्धांतों का भी प्रयोग होता है। नेपोलियन के युद्ध संबंधी सिद्धांत-वह कार्य कभी नहीं करना चाहिए जो शत्रु करवाना चाहता हो-के अनुसार अहिंसक प्रतिरोधी हिंसा के मार्ग का अनुसरण न करके इस सिद्धांत की अनुपालना करता है। अहिंसात्मक प्रतिरोधी स्वयं आक्रमण न कर शत्रु को आक्रमण करने देता है और अपने संरक्षणात्मक कार्य से उसे हराने का प्रयत्न करता है। इस संबंध में अहिंसक प्रतिरोधी क्लॉजविट्स के युद्ध-सिद्धांत का पालन करता है। विवाद के संतोषजनक समाधान में अहिंसक प्रतिरोधी मनोवैज्ञानिक मार्ग खोजने के संबंध में फॉक के युद्ध-सिद्धांत पर अमल करता है। इस प्रकार युद्ध के अनेक अन्य सिद्धांतों यथा-भौतिक साधनों की अपेक्षा नैतिक साधनों पर अधिक बल देना, विजय की इच्छा करना, शक्ति की मितव्ययिता, सुरक्षिता, शीघ्रसंचालकता, कष्टसहिष्णुता आदि का पालन कर अहिंसक प्रतिरोध युद्ध का एक उत्तम विकल्प सिद्ध होता है।
आधुनिक काल के तथाकथित शांति के विचार को स्पष्ट करते हुए ग्रेग लिखते हैं-युद्ध तो जीवन की अनेक भिन्न-भिन्न क्रियाओं का अंतिम परिणाम है। हमारी वर्तमान शांति की अपेक्षा, जो कि वास्तव में पूंजीवाद को कायम रखने और बढ़ाने वाली शांति है, युद्ध अधिक तीव्र, स्पष्ट, अभिनयपूर्ण और प्रकट हिंसापूर्ण घटना है और इसलिए वह इस तथाकथित शांति से अधिक भयंकर है। किंतु वास्तव में मनुष्यों के प्रति आधारभूत धारणाओं, मान्यताओं और मनोवृत्तियों की दृष्टि से वर्तमान शांति और युद्ध दोनों एक-से हैं। सच पूछा जाए तो वर्तमान शांति में भी समाज में निरंतर संघर्ष या युद्ध चल रहा है। पूंजीवाद और युद्ध के तरीकों और मनोवृत्तियों में बड़ा संबंध और समानता प्रतीत होती है। पूंजीवाद से व्याप्त अशांति के संबंध में ग्रेग अहिंसात्मक प्रतिरोध की भूमिका को स्पष्ट करते हुए कहते हैं कि अहिंसात्मक प्रतिरोध हिंसा की अपेक्षा उच्चतर धारणाओं को उत्पन्न करता है। यह अपने विरोधियों और दर्शकों पर अपना जबरदस्त असर डालकर पूंजीवाद की पुरानी धारणाओं को दूर करता है तथा नवीन एवं उच्च मनोवृत्तियों को पुनर्जीवित करता है। फलस्वरूप, वे धारणाएं नष्ट हो जाएंगी, जिससे शासक वर्ग को बल मिलता है। ग्रेग के मतानुसार समाज में व्याप्त वर्ग-भेद को न तो हिंसा द्वारा और न ही शासक वर्ग की सत्ता छीन लेने से समाप्त किया जा सकता है। इसके लिए आवश्यक है कि शासक वर्ग के विचारादर्श, धारणाओं, मान्यताओं एवं उन दृष्टिकोणों को परिवर्तित किया जाए जिन पर उनका लोभ और अभिमान अवलंबित है और यह केवल अहिंसात्मक प्रतिरोध से ही संभव है।
अतः, रिचर्ड बी० ग्रेग का चिंतन अहिंसा एवं शांति के क्षेत्र में एक विशिष्ट स्थान रखता है। ग्रेग की सादगीपूर्ण जीवन शैली की अवधारणा एवं अहिंसात्मक प्रतिरोध की क्रियाविधि आधुनिक भौतिक जगत की समस्याओं का एक स्थायी समाधान प्रस्तुत कर सकती है। विश्व शांति की स्थापना एवं सामाजिक न्याय की प्राप्ति के लिए अहिंसात्मक प्रतिरोध एक ठोस माध्यम है। रिचर्ड बी० ग्रेग ने अहिंसा की शक्ति को व्यक्तिगत स्तर से लेकर वैश्विक समस्याओं तक के समाधान के संदर्भ में प्रस्तुत कर विश्व जगत को एक अनुपम मार्ग सुझाया है।
- प्रो० बच्छराज दुग्गड़
ग्रोशियस, ह्वूगो (Grotius, Hugo) :हॉलैंड के विचारक ह्वूगो ग्रोशियस (1583-1645 ई०) को अंतर्राष्ट्रीय कानून का पिता माना जाता है। वह प्राकृतिक विधि के प्रारंभिक सिद्धांतकारों में ऐसे विचारक हैं, जिन्होंने प्राकृतिक विधि को अंतर्राष्ट्रीय विवादों के संदर्भ में व्याख्यायित किया। यद्यपि ग्रोशियस के लेखन पर तत्कालीन औपनिवेशिक प्रतिद्वंद्विता में डच हितों की रक्षा का प्रभाव भी देखा जा सकता है, लेकिन उनकी वैचारिकी तात्कालिक हितों का अतिक्रमण करती हुई अंतर्राष्ट्रीय कानूनों की सैद्धांतिकी निर्मित कर देती है। 1609 ई० में प्रकाशित इन दि फ्री सी में वह यह सिद्धांत स्थापित करते हैं कि किसी भी समुद्र को किसी एक देश का क्षेत्र नहीं माना जा सकता और व्यापार के लिए किसी भी देश के जहाज उसका उपयोग कर सकते हैं। ग्रोशियस के इस विचार का ब्रिटिश सिद्धांतकारों ने विरोध किया। उनका भी प्रयोजन अंतर्राष्ट्रीय व्यापारिक प्रतिद्वंद्विता में ब्रिटिश हितों की रक्षा ही था। अंततः, काफी बहस के बाद यह तय हुआ कि अपनी सुरक्षा की दृष्टि से किसी भी देश की समुद्री सीमा उसके किनारे की ओर तीन मील तक की होगी।
ग्रोशियस का जीवन-काल स्पेन और नीदरलैंड्स के बीच अस्सी वर्षीय युद्धों तथा कैथो-लिक और प्रोटेस्टेंट देशों के बीच तीस वर्षीय युद्धों का समय था। अतः, स्वाभाविक ही था कि अंतर्राष्ट्रीय कानूनों का पिता होने के कारण ग्रोशियस का ध्यान युद्ध की समस्या की ओर आकर्षित होता। ग्रोशियस को लगता था कि युद्धों को लेकर सभ्य राष्ट्र बर्बर जातियों से भी अधिक असंयमी व्यवहार करते हैं तथा छोटी-छोटी बातों पर युद्ध के लिए मानो दौड़ पड़ते हैं और एक बार सशस्त्र-संघर्ष शुरू हो जाने पर वे किसी भी तरह के आपराधिक कृत्यों से नहीं हिचकते। 1625 ई० में प्रकाशित अपने ग्रंथ ऑन दि लॉ ऑफ वार एंड पीस में ग्रोशियस ने प्राकृतिक विधि के सिद्धांत की परिधि में अंतर्राष्ट्रीय संबंधों को सम्मिलित करते हुए यह तो माना कि कुछ परिस्थितियों में युद्ध उचित हो सकता है। उन्होंने इन परिस्थितियों का स्पष्टीकरण आत्मरक्षा, क्षतिपूर्ति तथा दंड के सिद्धांतों के आधार पर किया। लेकिन, साथ ही, यह स्थापना दी कि किसी भी परिस्थिति में युद्ध शुरू हो जाने पर भी कुछ नियमों का पालन सभी पक्षों के लिए आवश्यक है। अनंतर, युद्ध से संबंधित अंतर्राष्ट्रीय कानूनों और मानवाधिकारों के विकास पर ग्रोशियस की स्थापनाओं और प्रस्तावों का गहरा प्रभाव पड़ा।
ग्रोशियस की मूल मान्यता यह थी कि पारस्परिक संगति में शांतिपूर्ण जीवन जीने की आकांक्षा एक सामाजिक भावना है और सही विवेक के निर्देश में इस आकांक्षा की पूर्ति हो सकती है। थॉमस एक्विनास ने प्राकृतिक विधि को ईश्वरीय विधि के अंग के रूप में प्रस्तावित किया था। ह्वूगो ग्रोशियस ने उसका विस्तार अंतर्राष्ट्रीय कानूनों तथा युद्धों तक कर दिया।
ग्रोशियस ने युद्ध को वांछनीय न मानते हुए भी विशेष परिस्थितियों में उसका औचित्य तो स्वीकार कर लिया; लेकिन, युद्ध की परिस्थिति में भी प्राकृतिक विधि के अतिक्रमण के औचित्य को स्वीकार नहीं किया। शांति तथा पारस्परिक सहयोग की सामाजिक आवेग के रूप में स्वीकृति की अंतर्राष्ट्रीय राजनीति में प्रतिष्ठा का बीजारोपण ह्वूगो ग्रोशियस द्वारा किए जाने से ही यह स्थापित हो सका कि सभी राष्ट्र एक बिरादरी हैं, जिनके लिए एक सर्वनिष्ठ बंध-पत्र का पालन करना अनिवार्य है।
- नंदकिशोर आचार्य
चिकित्सकीय हिंसा : जो भी कर्म हम करें, यदि हम उससे संबंधित सभी पहलुओं पर ध्यान नहीं दें कि हमारे कर्म से हानि या क्षति कहां, कितनी होगी, हमारे कर्म से दूसरों की हिंसा या उन पर अत्याचार कितना होगा तथा जो भी कर्म हम करने जा रहे हैं उसमें हमें कितना सामर्थ्य या पौरुष चाहिए, इसका पूरा तोल-जोख किए बिना ही यदि हम उस कर्म को करें तो वह कर्म तामसी कर्म होता है। (गीता अ० 18 श्लो० 25)।
चिकित्सा मानव सेवा का उत्कृष्ट रूप माना जाता है और अपने शुद्ध और मूल रूप में है भी। लेकिन, आधुनिक चिकित्सा में उत्तरोत्तर बढ़ते व्यवसायीकरण, यंत्रीकरण और संवेदनहीनता के फलस्वरूप चिकित्साजनित हिंसा या चिकित्सकीय हिंसा आज एक महामारी हो गई है। वैसे अपने विकृत रूप में चिकित्सा सदा ही हिंसा थी।
सन् 1975 ई० में ईवान इलिच ने प्रचलित चिकित्सा के विस्तृत अध्ययन और शोध कर अपनी पुस्तक लिमिट्स ऑफ मेडिसिनः मेडिकल नेमेसिस (चिकित्सा की सीमाः चिकित्सीय प्रतिशोध) में आएट्रोजेनेसिस अर्थात चिकित्सा-जनित-व्याधियों का विस्तृत विवरण दिया है। व्याधियों के लिए चिकित्सा तो सभी जानते थे। इसके विपरीत, इलिच ने चिकित्सा से होने वाली व्याधियों के हिंसक रूप को प्रदर्शित किया और जाने-अनजाने में की गई इस चिकित्सकीय हिंसा को प्रामाणिक तथ्यों के साथ प्रस्तुत कर चिकित्सकों को कटघरे में खड़ा कर दिया। यह हिंसा अपने विविध रूप में इतनी व्यापक है, उसका अंदाज ही नहीं था।
उपचार के दौरान की जाने वाले हिंसा प्रमुख रूप से वह है जो बेअसर इलाज, असुरक्षित इलाज और विषैले इलाज के फलस्वरूप होती है। इलिच ने उसे क्लिनिकल आएट्रोजेनेसिस की संज्ञा दी है।
चिकित्सा में हिंसा का दूसरा रूप समाज और व्यवस्था से संबंध रखता है, जिसे इलिच ने सोशल आएट्रोजेनेसिस की संज्ञा दी। इसमें शरीर की सामान्य क्रियाओं और अवस्थाओं को रोग का रूप दिया जाता है और इन बेबात की बीमारियों के लिए महंगी दवाएं विकसित की जाती हैं।
हिंसा के तीसरे रूप को इलिच ने कल्चरल आएट्रोजेनेसिस की संज्ञा दी। इसमें सामान्य रोग और व्याधियों से जूझने के पारंपरिक और घरेलू उपचारों को खत्म कर इनके प्रति भ्रम और भय पैदा किया जाता है।
नारायण देवदासन (2003) और उनके साथियों ने चिकित्सा के एक नए हिंसक रूप को उद्घाटित किया है, जिसको उन्होंने आएट्रोजेनिक पॉवर्टी अर्थात चिकित्साजनित गरीबी की संज्ञा दी है। हारी-बीमारी में आपात खर्च को उन्होंने कैटास्ट्रोफिक हैल्थ केयर एक्सपेंडिचर अर्थात चिकित्सा के लिए अतिआपात खर्च कहा है। जो गरीब व्यक्ति आज मंहगी चिकित्सा का खर्च वहन नहीं कर सकते, वे चुपचाप मृत्यु का वरण करते हैं, और जो घर-बार गिरवी रखकर या बेचकर चिकित्सा करवाते है, खासकर रोजी रोटी कमाने वाले परिवार के मुखिया का इलाज, वे ऋण में डूबकर लुट जाते हैं, भूखे मरते हैं, आत्महत्या करते हैं। चिकित्सा में आपात खर्च गांवों में सदा ही ऋण में डूबने का प्रमुख कारण रहा है, जिसमें सर्वेक्षण और अनुमान के अनुसार करीब 30 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है। उचित सामाजिक या सरकारी व्यवस्था के अभाव में चिकित्साजनित गरीबी पारिवारिक हिंसा का रूप ले लेती है। विश्व के गरीब और विकासशील देशों में यह व्यापक रूप में विद्यमान है। सामान्य आय वाले बीमार होने पर, जो थोड़ा बहुत पैसा जमा होता है, उसे लेकर अस्पताल आते हैं। गंभीर अवस्था होने पर शहर के बड़े अस्पताल ले जाते हैं। सरकारी अस्पतालों की दुर्दशा के कारण निजी अस्पताल में ले जाते हैं। आधुनिक चिकित्सा वैसे ही काफी मंहगी हो गई है। उस पर निजी अस्पताल की व्यावसायिक व्यवस्था में निदान, उपचार और औषधियों का बेतहाशा पैसा लिया जाता है, किसी प्रकार का कोई नियंत्रण नहीं है। जो जमा पैसा लेकर आते हैं, वह तो भर्ती करवाने पर अग्रिम ही चला जाता है और मरीज के अभिभावकों के पास कोई और उपाय नहीं रहता सिवा इसके कि कर्ज लेकर, संपति बेचकर पैसा लाएं। मरीज की माली हालत के प्रति संवेदनहीनता क्रूर हिंसा का रूप ले लेती है। मरीज को लाभ हो या न हों, परिवार उस हिंसा से नहीं बच पाता।
अनावश्यक शल्य क्रिया द्वारा हिंसा का सबसे व्यापक रूप महिला चिकित्सा में मिलता है, जिसको काबरा (1993 ई०) ने मर्सीलेस असाल्ट ऑन मदर्स वूंब (कोख पर निर्दयी कुठाराघात) की संज्ञा दी है। ऋतुचक्र को रोग का रूप देकर अनावश्यक लाखों डी एंड सी आपरेशन, जिसे गर्भाशय की सफाई कहा जाता है, किए जाते हैं। इससे होने वाले संक्रमण से हजारों महिलाओं में गंभीर, घातक भी, परिणाम होते हैं। प्रसव को भी रोग का रूप दे दिया गया है और अनावश्यक सीजेरियन प्रसव का प्रचलन बढ़ रहा है। निजी अस्पतालों में तो 70 से 80 प्रतिशत तक प्रसव सीजेरियन आपरेशन से होने लगे हैं। रजोनिवृति के समय ऋतुचक्र में होने वाली अनियमितता और गड़बड़ी में भय दिखाकर और महिला की मनःस्थिति लाभ उठाकर गर्भाशय निकालने का गंभीर आपरेशन व्यापक हो गया है, जो चिकित्सकीय हिंसा का रूप है। इससे भी अधिक व्यापक और घातक हिंसा है अवैध गर्भपात। आज देश में प्रतिवर्ष पचास लाख गर्भपात करवाए जाते है, जिसमें से 80 प्रतिशत यानि 40 लाख अवैध होते हैं, अचिकित्सकों के द्वारा अवैध तरीको से किए जाते हैं, जिससे होने वाले गंभीर संक्रमण की बलि हजारों महिलाएं चढ़ती हैं। गर्भस्थ शिशु को जिस प्रक्रिया से नष्ट किया जाता है, वह तो स्वयं में क्रूर हिंसा है ही। अवैध, सुरक्षित गर्भपात भारत में चिकित्सीय हिंसा का सबसे घिनौना रूप है जिसके प्रति सरकार और समाज, जनसंख्या विस्फोट के दबाव में आंखे मूंदे हैं। जनसंख्या नियंत्रण के लिए, जिस तरह से महिलाओं में बंध्याकरण आपरेशन किए जाते हैं, जिन हालात में किए जाते हैं, वह अलग हिंसा है। कोख पर कुठाराघात का कोई मौका चिकित्सक नहीं छोड़ते, हिंसा की पूरी छूट है।
अपेंडिक्स और टॉन्सिल के अनावश्यक आपरेशन होना तो सर्वविदित है, आज अस्थि रोग, हृदय रोग में भी इनका प्रचलन बढ़ा है। चिकित्सा के क्षेत्र में अनावश्यक आपरेशन की लंबी सूची है, जो अब बहुत लंबी हो गई है। अनावश्यक और अत्यधिक दवाओं के कुप्रभाव और दुष्परिणामजनित व्याधियों की हिंसक महामारी सर्वविदित है। निदान के लिए टैस्ट-मंहगे टैस्ट-करवाना तो आधुनिक चिकित्सा का फैशन हो गया है। जितना बड़ा विशेषज्ञ डॉक्टर, उतने ही मंहगे और अधिक टैस्ट। अनावश्यक टैस्ट करवाना अनैतिक है, रोगी के प्रति हिंसा है। मरणासन्न, मृतप्रायः और ब्रेन डेड व्यक्ति पर अंत समय में आज सघन चिकित्सा इकाइयों में जो निरर्थक नाच होता है, वह हमारी मान्यताओं और मर्यादा के प्रति हिंसा है।
आज-कल अस्पताल में उपचार के दौरान अस्पताल के घातक रोगाणुओं से हुआ संक्रमण एक बड़ी समस्या है। समस्या की व्यापकता का अनुमान इसी से लग सकता है कि बड़े अस्पतालों में 20 से 25 प्रतिशत तक बिस्तरों पर वे रोगी होते हैं जिन्हें उपचारजनित व्याधि (आएट्रोजेनिक इलनेस) या अस्पतालीय संक्रमण (नोसो-कोमियल इन्फेक्शन) हुआ होता है। अस्पताल के रोगाणु बड़े घातक होते हैं। एंटीबायोटिक्स के प्रचुर संपर्क में आने के कारण उनमें प्रतिरोधात्मक शक्ति होती है, जिसके फलस्वरूप शक्तिशाली एंटीबायोटिक औषधियां भी काम नहीं करतीं। गहन चिकित्सा इकाई, आई०सी०यू० में उपचार की जो शरीरभेदक आक्रामक विधियां अपनाई जाती है, उनके फलस्वरूप अस्पतालीय संक्रमण की संभावना और अधिक हो जाती है। शल्य-चिकित्सा पर तो यह लागू है ही। आवश्यकता होती है जागरूकता, सतर्कता, सावधानी और उचित चिकित्सकीय एहतियात बरतने की। उसके अभाव में अस्पतालीय संक्रमण आज एक व्यापक हिंसा के रूप में व्याप्त है, जिसकी बलि सघन चिकित्सा इकाई में भर्ती, शल्य चिकित्सा करवाने वाले, प्रसव कक्ष और डायलिसस के रोगी विशेष रूप से होते हैं। इलाज में लाखों रूपये लगाकर परिवार नष्ट होते हैं, वे अलग से। जब तक, अस्पतालों को संक्रमण रोकने की सार्थक व्यवस्था करने के लिए बाध्य नहीं किया जाता तब तक यह हिंसा रुकेगी नहीं, वरन बढ़ेगी ही-क्योंकि अस्पतालीय संक्रमण के उपचार में होने वाली कमाई आज अस्पतालों की कमाई का मुख्य साधन हो गया है। यह देखा जाना चाहिए कि करोड़ों रूपये कमाने वालों अस्पतालों में ऐसे कितने रोगी आते हैं, जिन्हें चिकित्सा का कोई लाभ नहीं होता।
- डॉ० श्रीगोपाल काबरा
चेतना-मंडल (Noosphere) : पृथ्वी के विकास की प्रक्रिया में विविध भौतिक तत्त्वों से जीवन और उसके विविध रूपों का विकास संभव हुआ है। भौतिक तत्त्वों की दुनिया को भू-मंडल (Geosphere) और जीवन के विविध रूपों को जैव-मंडल (Biosphere) कहा जाता है। लेकिन, विकास की प्रक्रिया यदि एक वैज्ञानिक नियम है, तो यह रुक नहीं सकता। इसलिए जीवन और उसके उत्कृष्टतम रूप मनुष्य के उद्भव के बाद विकास का अगला चरण कैसा होगा, यह सवाल वैज्ञानिकों और विचारकों के ध्यानाकर्षण का केंद्र बनना स्वाभाविक है।
वैज्ञानिकों ने इस सवाल की ओर रूसी वैज्ञानिक व्लादिमीर इवानोविच वर्नाद्स्की (Vladimir Ivanovich Vernadsky) का ध्यान गया और विचारकों में फ्रांसीसी धर्मशास्त्री पियरे तेयार द शार्दे का। वर्नाद्स्की (1863-1945 ई०) एक रूसी खनन-विज्ञानी तथा भू-रसायनज्ञ थे। उन्होंने प्रतिपादित किया कि विकास की प्रक्रिया में भू-मंडल और जैव-मंडल के विकास के बाद विकास का नया आयाम चेतना-मंडल का विकास है। जीवन में चेतना है और जीवन भौतिक-तत्त्वों से उद्भूत है, अतः जाहिर है कि भौतिक-तत्त्वों या भू-मंडल में चेतना अंतर्निहित है। अतः, भू-मंडल और जैव-मंडल के विकास का स्वाभाविक आगामी आयाम चेतना-मंडल का विकास ही हो सकता है-यह किसी एक व्यक्ति की चेतना नहीं, बल्कि संपूर्ण पृथ्वी की चेतना है। इसीलिए इसे चेतना-मंडल की संज्ञा दी गई है। यह सिद्धांत समूची पृथ्वी के एकत्व-बोध की ओर संकेत करता है।
धर्मशास्त्रियों या दार्शनिकों में इस अवधारणा का प्रतिपादन पियरे तेयार द शार्दे और बर्गसां ने किया। शार्दे ने विकास की प्रक्रिया को समझने के लिए जटिलता/चेतना का नियम प्रतिपादित किया, जिसके अनुसार जीवन जितनी जटिल संघटना बनता जाता है, उतना ही चेतना का विकास होता जाता है। शार्दे यह मानते हैं कि मनुष्य जीवन की सबसे जटिल संघटना है, अतः उसमें चेतना का सर्वाधिक विकास है। शार्दे के अनुसार विकास का यह नया आयाम चेतना-मंडल है। यद्यपि चर्च द्वारा निंदित किंतु एक निष्ठावान धर्मशास्त्री होने के नाते वह मानते हैं कि चेतना-मंडल का विकास एक ओमेगा-बिंदु पर पहुंचकर ईश्वर से मिल जाता है; यह ईश्वर ही है जो विकास की इस यात्रा को अपनी ओर खींच रहा है। प्रसिद्ध दार्शनिक हेनरी बर्गसां भी सृजनात्मक विकास की धारणा प्रतिपादित करते हैं, जिसे लायड मोर्गन द्वारा इस तर्क के साथ और विकसित किया गया कि विकास एकरैखिक नहीं होता, उसमें उछाल भी होती है। भारतीय दार्शनिक श्री अरविंद की अतिमन की अवधारणा को भी इस संदर्भ में देखा जा सकता है।
आधुनिक वैज्ञानिकों में जेम्स लवलॉक का जिक्र भी इस संदर्भ में किया जा सकता है। लवलॉक भी पृथ्वी को एक स्व-नियमित अवयवी मानते हुए प्रतिपादित करते हैं कि भू-मंडल के विविध रूपों और विविध-वर्णी जैव-मंडल के बाद विकास का नया आयाम चेतना-मंडल है। संपूर्ण पृथ्वी को एक अवयवी मानते हुए उस पर बसे सभी भौतिक-जैविक रूपों को परस्पर-ग्रथित स्वीकार करने के कारण इस सिद्धांत से सहज उद्भूत नैतिकी अहिंसा के पक्ष में जाती है क्योंकि किसी पर भी हिंसा आत्महिंसा का रूप हो जाती है। एक चेतना-मंडल में होने का तात्पर्य पारस्परिकता और प्रेम का बोध होना है। इसी आधार पर जीवन और चेतना के सह-विकास की धारणा का प्रतिपादन करते हुए जैविक और सांस्कृतिक विकास को सहयात्री माना गया है। इस आधार पर राजनीति में भी चेतना-तंत्र (Noocracy) की अवधारणा प्रस्तावित की गई है।
द्रष्टव्यः पृथ्वी सिद्धांत; शार्दे, बर्गसां।
- नंदकिशोर आचार्य
चैतन्य महाप्रभु : चैतन्य महाप्रभु (1486-1534 ई०) का जन्म बंगाल के नवद्वीप (नदिया जिला) में हुआ था। उनके गौर वर्ण के सौंदर्य को देखकर नगरवासी उन्हें गौर हरि, गौरांग कहकर पुकारते और माता अनिष्ट से उन्हें बचाने के लिए निमाई कहती (जो यमराज के नीम की तरह कड़वा लगे)। उनका नाम विश्वंभर रखा गया। बालक निमाई अत्यंत मेधावी और श्रुतिधर थे। अल्पकाल में ही उन्होंने वेदांत, आगम, न्याय, अलंकार शास्त्र, व्याकरण व षड् दर्शन का अध्ययन कर लिया। वे निमाई पंडित हो गए। श्री रघुनाथ पंडित निमाई के सहपाठी थे। उन्होंने दीधिति नामक ग्रंथ की रचना की। जब उन्होंने निमाई द्वारा लिखित न्याय-ग्रंथ को सुना तो वह लज्जित होकर सोचने लगे कि निमाई के ग्रंथ के आगे मेरे ग्रंथ को कौन पूछेगा! इस बात को जानने पर निमाई ने अपने मित्र की आंखों में अश्रु देखकर उनकी प्रसन्नता के लिए तुरंत अपना ग्रंथ गंगा में प्रवाहित कर दिया और मित्र का प्रेम से आलिंगन किया। ऐसा था निमाई का मित्र के प्रति त्यागपूर्ण प्रेम। प्रेम और करुणा की भावना से ओतप्रोत उदार हृदय में ही अहिंसा की भावना स्वतः पल्लवित होती है।
गौरांग निमाई की विद्वता और शास्त्रीय ज्ञान की ख्याति फैलने लगी। दूर-दूर से आए अनेक विद्वान पंडित शास्त्रार्थ में उनके आगे पराजित होते थे। उनका विवाह लक्ष्मीप्रिया से हुआ। लक्ष्मीप्रिया के देहांत के बाद उनका पुनर्विवाह विष्णुप्रिया से हुआ। उन्होंने माध्वसंप्रदायी श्री माधवेंद्रपुरी के शिष्य श्री ईश्वरपुरी से गोपाल मंत्र की दीक्षा ली। तभी से उनके जीवन में महान परिवर्तन हुआ और वे कृष्ण-प्रेम में निमग्न रहने लगे। उन्होंने नाम-संकीर्तन द्वारा जीवोद्वार का कार्य किया। गौरांग प्रेम के साक्षात् स्वरूप थे। उनके भक्तों में उन्हें रसराज श्रीकृष्ण और उनकी आह्लादिनी शक्ति महाभाव स्वरूपा श्री राधा का सम्मिलित अवतार माना जाता है।
24 वर्ष की अवस्था में गौरांग ने केशव भारती से संन्यास की दीक्षा ली। तत्पश्चात् उनका नाम हुआ श्रीकृष्ण चैतन्य। उन्होंने जगन्नाथ पुरी और दक्षिण की यात्रा की। स्थान-स्थान पर अनेक पापियों, वेश्याओं, देवदासियों व दुर्दांत डाकुओं का कृष्ण भक्ति द्वारा उद्धार किया। चैतन्य ने अपने प्रमुख शिष्यों-षट् गोस्वामियों के साथ ब्रज की यात्रा की और अनेक अज्ञात कृष्ण लीला-स्थलों की खोज की। उनके प्रमुख सिद्धांतों के आधार पर चैतन्य संप्रदाय के आचार्यों कवियों ने संस्कृत, बंगला और ब्रजभाषा में विपुल मात्रा में महत्त्वपूर्ण भक्ति-दर्शन ग्रंथों व काव्यों की रचना की जिनमें कृष्णराज कविराज कृत चैतन्य चरितामृत, रूप गोस्वामी कृत भक्तिरसशास्त्रीय ग्रंथ-भक्तिरसामृतसिंधु व उज्ज्वलनीलमणि एवं जीव गोस्वामी कृत षट् संदर्भ विशेषतः उल्लेखनीय है। चैतन्य संप्रदाय के दार्शनिक सिद्धांत को अचिंत्य भेदाभेद दर्शन कहा जाता है। चैतन्य महाप्रभु ने अपने जीवन के अंतिम 18 वर्ष जगन्नाथपुरी-नीलाचल में बिताए मान्यतानुसार और अंत में प्र्रेमोत्कर्ष की चरम दशा में जगन्नाथजी के श्री विग्रह का आलिंगन कर उनमें लीन हो गए।
बंगभूमि जब वाममार्गीय तांत्रिक उपासना की हिंसात्मक व अनाचारपूर्ण एवं बाह्य आडंबरों व संकीर्ण विचारधाराओं में जकड़ी हुई थी, तब चैतन्य ने राधाकृष्ण की सात्विक व भावमयी उपासना से जीवन को ऊर्ध्वगामी करने का महत्त्वपूर्ण कार्य किया। उन्होंने नृत्य-गीत समन्वित महाभावपूर्ण संकीर्तन के द्वारा कृष्ण-प्रेम भक्ति की मधुर धारा से जन-मानस को आनंद-रस में निमग्न किया। यही प्रेम, यही अखंड आनंद अहिंसा और शांति का मूल स्रोत है।
चैतन्य महाप्रभु ने भगवद् प्रेम को परम पुरुषार्थ माना-प्रेमा पुमर्थों महान्। कृष्ण-प्रेम के माध्यम से उन्होंने जीव मात्र के प्रति प्रेम को प्रचारित किया।उन्होंने कहा-जीवेर दया नामे रूचि, वैष्णव सेवन/एइ त्रय धर्म आछे, सुनो सनातन। अर्थात् जीव मात्र पर दया, भगवान के प्रति प्रेम और मनुष्य मात्र की सेवा-ये ही तीन श्रेष्ठ धर्म हैं। (चैतन्य चरितामृत कृष्णदास कविराज कृत)।
सच्चे प्रेम में अहं का विसर्जन और आत्म समर्पण होता है। अभिमानशून्यता और सहिष्णुता का भाव ही हमें मन, वचन व कर्म से अहिंसक बनाता है। चैतन्य महाप्रभु का मूल मंत्र था-कीर्तनीयः सदा हरि। उन्होंने संकीर्तन का सच्चा अधिकारी उस व्यक्ति को माना जो तिनके से भी अपने को तुच्छ समझे, वृक्ष से भी अधिक सहिष्णु बने और स्वयं अभिमानरहित होकर दूसरों को सम्मान दे-तृणादपि सुनीचेन, तरोरपि सहिष्णुना/अमा-निना मानदेन, कीर्तनीयः सदा हरि।। (चैतन्य महाप्रभु कृत शिक्षाष्टक)।
वस्तुतः, चैतन्य ने संकीर्तन के माध्यम से प्रेम और अहिंसा का संदेश देकर अपने युग की समस्याओं का समाधान किया। उस समय की समस्याएं भी बहुत कुछ आज जैसी ही थीं। नाना प्रकार के विद्रोह, षड्यंत्र, हत्या, व्यभिचार व विद्वेष से भय-आतंक का वातावरण था। ऐसे समय में उन्होंने भारत के विभिन्न स्थलों में स्वयं घूम-घूमकर और अपने पार्षदों को भेजकर प्रेम का प्रचार करके हिंसात्मक उग्र प्रवृत्तियों को शांत किया। चैतन्य ने मंगलकारी संकीर्तन के अस्त्र से स्वेच्छाचारी व हिंसात्मक शक्तियों को झुकाया। उनके समय में जब काजी ने राजाज्ञा द्वारा कीर्तन पर प्रतिबंध लगाकर जनता की स्वतंत्रता को छीना और मनमाना अत्याचार किया तो उन्होंने उसका प्रतिरोध किया-लेकिन अहिंसक तरीके से। उन्होंने जन शक्ति को जाग्रत कर काजी के सामने विभिन्न मंडलियों के साथ सामूहिक कीर्तन किया और मामा कहकर काजी को आत्मीयता से संबोधित किया। प्रेमास्त्र से काजी का हृदय परिवर्तन हुआ और अंततः उसने अपनी निषेधाज्ञा वापिस ले ली। इसे महात्मा गांधी के अहिंसक प्रतिरोध या सत्याग्रह का पूर्वरूप कहा जा सकता है।
महाप्रभु ने काजी के द्वारा गोवध बंद कराया और उसे अहिंसा व प्रेम का उपदेश देते हुए कहा-गाय दूध देती है, अतः, तुम्हारी माता तुल्य है और बैल अन्न उत्पादन करते हैं, अतः, वे तुम्हारे पिता तुल्य है। माता-पिता का वध कर उनका भक्षण करना अधर्म और निदंनीय कर्म है। जब मनुष्य में किसी प्राणी को जीवित करने की शक्ति नहीं है तो किसी को मारने का भी उसे क्या अधिकार है? (चैतन्य चरितामृत, 1/17/147, 148, 158)
चैतन्य ने धर्म के नाम पर मूक, निरीह व निर्दोष पशुओं की बलि जैसी हिंसात्मक कुप्रथाओं की समाप्ति के लिए अनेक प्रयास किए। वे खंडला आौर नासिक होते हुए जब सुराट नगर पहुंचे तो वहां अष्टभुजा देवी के मंदिर में एक ब्राह्मण बकरे की बलि हेतु तत्पर था। उन्होंने उसे रोकते हुए अहिंसा का शास्त्रसम्मत उपदेश दिया कि कोई भी शास्त्र देवी को पशुबलि चढ़ाने के लिए नहीं कहते, शास्त्र तो अहिंसा धर्म का पालन करने और सब प्राणियों पर दया ही करने का उपदेश करते हैं। इस सदुपदेश से ब्राह्मण के मन में अहिंसात्मक सात्विक भावों का उदय हुआ। (चैतन्य लीलामृत, डॉ० अवध बिहारीलाल कपूर, पृ०, 269) चैतन्य भागवत-(वृंदावनदास रचित, मध्य लीला)।
चैतन्य के प्रेम ने जगाई-माधाई जैसे दुराचारियों-अन्यायियों का हृदय परिवर्तन किया। कृष्ण नाम संकीर्तन द्वारा उनकी हिंसक प्रवृत्तियों को समाप्त कर सात्विक प्रेम से परिपूर्ण किया-तोमा सभा लागिया कृष्ण अवतार/हेन कृष्ण भज, सब छाड अनाचार।। चैतन्य भागवत (वृंदावनदास रचित), मध्यलीला 13/81-82।
बगुला वन में पंथ भील आदि दुर्दांत डाकुओं के साथ तीन दिन रहकर चैतन्य महाप्रभु ने हरिनाम कीर्तन द्वारा उनके कठोर हृदय को द्रवीभूत किया। महाप्रभु ने उनकी प्रशंसा करते हुए कहा-कि तुम पत्नी, पुत्र आदि किसी के मोह में नहीं बंधे, गृहस्थियों की तरह विषय-वासनाओं में नहीं फंसे, जंगलों में विरक्त साधुओं की तरह घूमते हो, अतः तुम एक क्षण में सब कुछ त्यागकर प्रभु के भजन में लग सकते हो। इस प्रकार के प्रशंसापूर्ण वचनों को सुनकर डाकू के मन में आत्मग्लानि हुई और सहज रूप से पश्चाताप के भाव जाग्रत होते ही वह अपने पापों को स्वीकार कर महाप्रभु के चरणों में गिर पड़ा। इसी प्रकार चोरानंदी वन में नौरोजी डाकू ने भी संकीर्तनानंद के प्रभाव स्वरूप हिंसात्मक प्रवृत्तियां त्यागीं। (चैतन्य भागवत, मध्य लीला)
प्रेम और अहिंसा के द्वारा हृदय के परिष्कार पर चैतन्य ने सर्वाधिक बल दिया। उनका आचरण इसे भलीभांति प्रतिपादित करता है। उनके समय में सुबुद्धिराय को षड्यंत्र के द्वारा काशी के रूढ़िवादी पंडितों ने जाति से बहिष्कृत कर दिया था और उनके पश्चाताप के लिए उबलते हुए गर्म घी के पान का दंड विधान किया था। चैतन्य ने इस प्राणघातक हृदयहीन व्यवस्था को चुनौती दी और इस निर्मम विधान को ठुकराकर सुबुद्धिराय को वृंदावन भेज दिया, जहां संकीर्तनामृत के मधुर आस्वादन द्वारा उनके जीवन को सार्थक दिशा प्रदान की। (चैतन्य चरितामृत-मध्यलीला, 25/144-152)। चैतन्य ने प्रेम से परिपूर्ण मधुर वचनों द्वारा अहिंसात्मक प्रवृत्तियों को प्रोत्साहन दिया। नागर नगर में एक ईर्ष्यालु ब्राह्मण ने कुछ अपशब्द बोलकर चैतन्य का अपमान किया और उन्हें मारना चाहा। किंतु उनके मन में क्रोध का भाव नहीं आया। उन्होंने हंसकर कहा कि तुम मुझे मार भले ही लो, उससे मुझे तनिक भी दुःख नहीं होगा किंतु दयाकर एक बार मन से हरि बोलो, जिससे मेरे प्राण शीतल हों। मैं तुमसे यही भिक्षा मांगता हूं-आमारे आघात कर ताते दुःख नाईं/प्राण भरे हरि बोलो एइ भिक्षा चाई।। (अमिय निमाई चरित-शिशिर कु० घोष 6/3/70-71)।
प्रेम और करुणा के इस प्रवाह में ब्राह्मण की ईर्ष्याजन्य हिंसक वृत्तियां बह गईं और उसका हृदय प्रेम-रस से भर गया।
चैतन्य महाप्रभु के जीवन चरित्र में ऐसे अनेकानेक प्रसंग मिलते हैं, जिनसे यह ज्ञात होता है कि उन्होंने प्रेम के व्यापक, गहन व सहज प्रभाव द्वारा अहिंसा की भावना का प्रसार किया।
- डॉ० उषा गोयल
जपुजी : द्रष्टव्य : नानक, गुरु।
जरथुस्त्रवाद (Zoroastrianism) : प्राचीन ईरानी या पारसी धर्म को जरथुस्त्रवाद कहा जाता है क्योंकि इसके मूल उपदेश जरथुस्त्र द्वारा दिए गए माने जाते हैं। जरथुस्त्र का समय दसवीं शताब्दी ई०पू० से छठी शताब्दी ई०पू० के बीच माना जाता है। इस धर्म का मूल ग्रंथ जेंदअवेस्ता है। इस धर्म के अनुयायी अग्नि की पूजा करते हैं। इस्लाम के आगमन के साथ यह धर्म ईरान से विलुप्त होता गया और कई धर्मावलंबी भारत चले आए। अभी भी भारत में इस धर्म के अनुयायी पाए जाते हैं, जिन्हें पारसी कहा जाता है।
जरथुस्त्रवाद की मान्यता के अनुसार इस विश्व की रचना अहुरमज्द द्वारा की गई है, जिसका शाब्दिक अर्थ है बुद्धिमान प्रभु। पारसी लोग एकेश्वरवाद में आस्था रखते हैं तथा अग्नि के माध्यम से अहुर-मज्द की उपासना करते हैं, क्योंकि अहुरमज्द को कोई नहीं देख सकता, इसलिए उसकी मूर्तिपूजा का निषेध करते हैं।
अहुर-मज्द ने न केवल मनुष्य और शेष संसार की रचना की बल्कि मनुष्य के लिए नैतिक विधि का भी निर्माण किया। जरथुस्त्रवादियों की मान्यता है कि इन नैतिक नियमों का पालन करने से मनुष्य ईश्वर का सहकर्मी हो जाता है। ईश्वर मनुष्य से शुभ विचार, शुभ शब्द और शुभ कर्म की अपेक्षा करता है।
अहुरमज्द ने तो मनुष्य को शुभ कर्मों के लिए बनाया है, लेकिन अहरिमन, जो बुराई का प्रतीक है, मनुष्य को शुभ कर्मों से हटाकर पाप की ओर प्रेरित करता है। इस प्रकार अहुरमज्द और अहरिमन में निरंतर एक संघर्ष जारी रहता है। अहुरमज्द ने मनुष्य को स्वतंत्र इच्छा-शक्ति से संपन्न रखा है; अतः, मनुष्य अहरिमन से प्रेरित होकर पाप कर्मों की ओर भी आकर्षित हो सकता है। मनुष्य की सहायता के लिए ही अहुरमज्द जरथुस्त्र-पैगंबर को भेजता है, जिसकी बताई राह पर चलकर मनुष्य शुभ कर्मों के द्वारा बुराई से लड़कर ईश्वर का सहकर्मी बन सकता है। यह विश्व स्वयं में शुभ है तथा अंततः अहुरमज्द अर्थात् शुभ की ही जीत होनी है। इस जीत में सहायता करने वाला मनुष्य स्वर्ग प्राप्त करता तथा पाप-कर्मों में लिप्त अर्थात् अहरिमन का साथ देने वाला मनुष्य नरक को प्राप्त होता है।
अहुरमज्द के कई फरिश्ते माने गए हैं जो उसके गुणों के प्रतीक हैं : (1) वोहुमानु (शुभ बुद्धि), (2) अश (सम्यकत्व), (3) क्षेत्रवार (ईश्वरीय राज्य), (4) अरमैती (श्रद्धा), (5) हौर-वतल (पूर्णत्व) और (6) अमेरेलल (अमरत्व) आदि। इन गुणों को शीघ्र ही व्यक्तित्व-संपन्न मानकर ईश्वरीय फरिश्तों के रूप में देखा जाने लगा। अहुरमज्द ने सृष्टि-रचना के साथ उसके नियमों-वैदिक शब्दावली में ॠत और पारसी धर्म के अनुसार अश-का निर्माण किया तथा प्रत्येक मनुष्य से उसके अनुसार आचरण की अपेक्षा की। प्रलय या निर्णय के दिन अहुरमज्द इस बात का निर्णय करेगा कि कौन स्वर्ग का अधिकारी है और कौन नरक का। जरथुस्त्रवाद की यह अवधारणा ईसाइयत और इस्लाम के ही समान है।
यह उल्लेखनीय है कि जरथुस्त्रवाद इस जीवन और विश्व को महत्त्व देता है; इससे पलायन कर किसी मोक्ष या निर्वाण की कल्पना वहां नहीं है। इसीलिए न केवल इस जीवन को ही शुभ मार्ग पर ले जाना है, बल्कि पूरे विश्व को ही शुभ मार्ग का पथिक बनाने की आकांक्षा वहां स्वाभाविक है। कुछ विद्वानों के अनुसार यह पृथ्वी को ही स्वर्ग बनाने या पृथ्वी पर ईश्वर का राज्य स्थापित करने की बात है, जिसकी प्रतिध्वनि ईसाइयत और इस्लाम में भी देखी जा सकती है। विद्वानों का एक वर्ग इसे अद्वैत वेदांत की सर्वमुक्ति की अवधारणा के साथ रखकर देखता है।
इस जीवन को महत्त्व देने के कारण जरथुस्त्री धर्म में गृहस्थ जीवन को बहुत महत्त्व दिया गया है। एक गृहस्थ अपने सामान्य जीवन में शुभ या नैतिक नियमों का पालन करने के माध्यम से अहरिमन की प्रवृत्तियों के खिलाफ संघर्ष कर सकता है और नैतिक नियमों का मतलब है प्रकृति के नियमों के अनुकूल चलना। इस प्रकार जरथुस्त्री धर्म को पर्यावरण और पारिस्थितिकीय नियमों का समर्थक माना जा सकता है। पारसी परंपरा में ईश्वर को प्रेम करने के साथ मनुष्यों के पारस्परिक प्रेम को बहुत महत्त्व दिया गया है। इस धर्म में शत्रु को मित्र बनाने तथा दानव को मानव बनाने का प्रयास करना धार्मिक कर्त्तव्य है। जरथुस्त्री धर्म की आचार-संहिता में दूसरों की भलाई, दान, दया, विनम्रता, सत्य, अक्रोध, मैत्री, संतोष, धैर्य एवं आदर-भाव को महत्त्व दिया गया है, जो प्रकारांतर से प्रेम और अहिंसा की ही अभिव्यक्तियां है।
यह उल्लेखनीय है कि अग्नि-पूजक होते हुए जरथुस्त्रवाद पशु-बलि का निषेध करता है। यह माना जाता है कि पारसियों में पहले पशु-बलि का रिवाज था, लेकिन जरथुस्त्र के उपदेशों के प्रभाव से पशु-बलि का पूरी तरह निषेध कर दिया गया। जरथुस्त्रवादियों का अंत्येष्टि संस्कार भी अन्य धर्मों से अलग है। सामान्यतः, शव को जलाने, गाड़ने या पानी में बहा देने की प्रथाएं रही हैं। लेकिन पारसी अग्नि, जल और मिट्टी को पवित्र एवं शव को अपवित्र मानते हैं। अतः, वे अपवित्र को पवित्र में मिला देना उचित नहीं समझते। इसी कारण, वे शव को जंगल में खुले में छोड़ देते हैं, जो वहां मांसाहारी पशु-पक्षियों का खाद्य हो जाता है और पवित्र अग्नि, जल और मिट्टी प्रदूषित नहीं होते।
- नंदकिशोर आचार्य
जलवायु-परिवर्तन : जलवायु-परिवर्तन आज एक वैश्विक समस्या है। पृथ्वी एक निश्चित जलवायु-तंत्र से नियमित है और इसमें परिवर्तन भी प्रत्येक स्थान की प्राकृतिक परिस्थिति के अनुसार होता रहता है। लेकिन, पिछली दो शताब्दियों में इस परिवर्तन की अत्यंत तेज गति से ग्रीनहाउस गैसों में हो रही बढ़ोतरी ने जलवायु की स्थिरता के लिए बड़ा खतरा पैदा कर दिया है। ग्रीनहाउस गैसों में बढ़ोतरी का मुख्य कारण हमारी उत्पादन पद्धति एवं जीवन-शैली है, जिसका प्रकृति से प्रतिकूल संबंध है। अंधाधुंध औद्योगीकरण के परिणामस्वरूप जंगलों के कटने, बढ़ते शहरीकरण, कोयले-डीजल आदि के उद्योगों में प्रयोग से गैस-उत्सर्जन आदि ने ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन को बढ़ाया है। इसी प्रकार डीजल-पेट्रोल से चलने वाले वाहनों तथा एअरकंडीशनर-रेफ्रिजरेटर आदि के प्रयोग ने भी इन गैसों में बढ़ोतरी की है। इस बढ़ोतरी के कारण ग्रीनहाउस गैसों की तह मोटी होते चले जाने से गर्मी बढ़ रही है, जिसने पृथ्वी के जलवायु-तंत्र के लिए बड़ा खतरा पैदा कर दिया है और आज यह वैज्ञानिकों, अर्थशास्त्रियों, प्रौद्योगिकीविदों और शासकों की चिंता का प्रमुख विषय है। अंतर्राष्ट्रीय पर्यावरण सम्मेलनों में यह एक मुख्य मुद्दा रहा है तथा रियो डि जिनेरियो, क्योतो और कोपेनहेगन के अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों में इस बात की कोशिश की गई है कि हम अपनी जीवन-शैली और उत्पादन-पद्धति में सुधार करके इस समस्या का हल निकालने के लिए सचेष्ट हों।
दरअस्ल, हमारी उत्पादन-पद्धति और जीवन-शैली ऐसी है, जिसके लिए अत्यधिक ऊर्जा की जरूरत होती है। इस ऊर्जा को प्राप्त करने के लिए जीवाश्म-ईंधन का अत्यधिक प्रयोग हो रहा है। जंगल लगातार कट रहे हैं-लकड़ी प्राप्त करने तथा रिहायशी उद्देश्यों के लिए भी। इससे दुहरा नुक्सान होता है। जंगल कटने से पारिस्थितिकीय संतुलन बिगड़ता है, जो एक ओर जंगलों पर आश्रित लोगों की आजीविका को प्रभावित करता है और दूसरी ओर, जंगलों द्वारा कार्बनडाइऑक्साइड के अवशोषण की प्रक्रिया में कमी आती है। यह उल्लेखनीय है कि इस जीवन-शैली में मानवप्रसूत ऊर्जा का प्रयोग बहुत कम होता जा रहा है, जिसका परिणाम यह हुआ है कि एक ओर, हमारे स्वास्थ्य के लिए आवश्यक श्रम में कमी आती है जो हमारे स्वास्थ्य को प्रभावित करती है और उस श्रम के लिए हमें अतिरिक्त उपाय खोजने पड़ते हैं तथा, दूसरी ओर, अधिकांश मानव-ऊर्जा अनुत्पादक कार्यों में खर्च होती है।
ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में बढ़ोतरी और कार्बनडाइऑक्साइड के अवशोषण में कमी के कारण गर्मी या वैश्विक तपन में निरंतर वृद्धि हो रही है, जिसके परिणामस्वरूप ध्रुवीय हिमशिखर और हिमालय के हिमनद तेजी से सिकुड़ते जा रहे हैं, जिसका असर नदियों से प्राप्त होने वाले जल में कमी के रूप में पड़ता है। स्वयं भारत में गंगोत्री हिमनद के सिकुड़ने को उदाहरण के रूप में लिया जा सकता है। मालदीव के मंत्रिमंडल की बैठक समुद्र के अंदर और नेपाल के मंत्रिमंडल की बैठक एवरेस्ट की तलहटी में किए जाने की घटनाएं भविष्य के खतरे का प्रतीकात्मक संकेत हैं। यह आशंका तीव्र होती जा रही है कि समुद्र की सतह की ऊंचाई में वृद्धि होने से कई द्वीपों का अस्तित्व ही खतरे में पड़ गया है। यह अनुमान किया गया है कि सामुद्रिक सतह की ऊंचाई के बढ़ने से विश्व की जनसंख्या के लगभग 40 प्रतिशत लोगों को इस खतरे का सामना करना पड़ सकता है। इसी तरह, जलवायु परिवर्तन के कारण एक ओर लू, सूखा बढ़ेंगे तो, दूसरी ओर, चक्रवात और बाढ़ आदि की घटनाएं भी बढेगी। वैश्विक तपन के कारण रोगवाही कीटाणु बढ़ते हैं और नए प्रकार के रोग भी पैदा हो सकते हैं। इस संबंध में हुए अध्ययनों का निष्कर्ष है कि वैश्विक तपन के कारण आने वाले पचास-साठ वर्षों में वनस्पति जगत और पशु-जगत की प्रजातियों का लगभग चौथा हिस्सा लुप्त होने के करीब जा सकता है।
यहां इस बात की भी अनेदखी नहीं की जा सकती कि ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन के लिए विकसित देश अधिक जिम्मेदार हैं। विश्व बैंक की एक रिपोर्ट के अनुसार विकसित देशों में एक साल में प्रतिव्यक्ति उत्सर्जन 13 टन है, जबकि विकासशील देशों में यह 3 टन भी नहीं है। लेकिन, विडंबना यह है कि इसके परिणामों से दक्षिणपूर्व एशिया, अफ्रीका और लातिनी अमेरिका के लोग अधिक प्रभावित होंगे और इन प्रदेशों में भूख और जलजनित बीमारियों में अस्वाभाविक वृद्धि होंगी। इसके बावजूद, न केवल विकसित देश अपनी जीवन-शैली और उत्पादन पद्धति में किसी भी तरह के बुनियादी परिवर्तन के अनिच्छुक हैं, बल्कि आर्थिक विकास और वैश्वीकरण की प्रक्रियाएं उसी जीवन-शैली को इन प्रदेशों में भी स्थानांतरित करती जा रही हैं, जो विकसित देशों में ग्रीनहाउस गैसों के उत्सर्जन में खतरनाक बढ़ोतरी के लिए उत्तरदायी है।
इस तरह, जलवायु-परितर्वन एक ओर पारिस्थितिकीय असंतुलन से उत्पन्न खतरे के लिए जिम्मेदार है तो, दूसरी ओर, हमारे सामाजिक-आर्थिक जीवन पर भी इसके दुष्प्रभाव स्पष्ट है। संसाधनों में कमी, कृषि-उपज में कमी और जल का अभाव आदि हमारे निजी और सामाजिक जीवन पर दुष्प्रभाव डाल रहा है। पानी के लिए विभिन्न देशों में ही नहीं, एक ही देश के विभिन्न इलाकों में उभरते संघर्ष और विस्थापन के परिणामस्वरूप समाज में तनाव और हिंसात्मक संघर्ष बढ़ते जाते हैं। जलवायु-परिवर्तन, इस प्रकार, एक ओर, प्रकृति की स्वाभाविक गति में हिंसात्मक हस्तक्षेप का परिणाम है और, दूसरी ओर, यह व्यक्ति और समाज के जीवन पर भी हिंसा करता है।
लेकिन, इसका समाधान हमारी उत्पादन-पद्धति और जीवन-शैली में परिवर्तन से ही हो सकता है। इसके लिए हमें ऐसे उपस्करों की जरूरत है जो न केवल ऊर्जा की कम खपत करते हों बल्कि जिनके अपने निर्माण और रख-रखाव में भी ऊर्जा की कम खपत हो। इसका सीधा तात्पर्य है मानव-श्रम पर आधारित तकनीकी का आविष्कार और प्रचलन। इसी तरह, हमें अपनी जीवन-शैली को भी इस तरह रुपांतरित करना होगा जो प्रकृति के अनुकूल तथा उसके प्रति हिंसक व्यवहार का निषेध करती हो। प्रकृति हमारी पोषक है, शत्रु नहीं, इसलिए उसके साथ हमारा व्यवहार कृतज्ञता और प्रेम का होना ही हमें भी नैतिक और भावात्मक स्तर अधिक मानवीय बनाता है।
- नंदकिशोर आचार्य
जल-हिंसा : हाल के वर्षों में जलवायु परिवर्तन अन्य पर्यावरणीय मसलों को एक तरफ करके सबसे बड़ी वैश्विक समस्या दिखाई पड़ने लगी है। परंतु, विश्व भर में पानी की खतरनाक कमी भी उतना ही महत्त्वपूर्ण मसला है-बल्कि कई मायनों में तो यह और भी बड़ी तात्कालिक चुनौती है। एक दशक पूर्व माना जा रहा था कि सन् 2025 ई० तक विश्व की एक तिहाई आबादी पानी की कमी से जूझेगी। परंतु यह विकट स्थिति तो आज ही आ चुकी है। विभिन्न देशों में रहने वाले 2 अरब लोग पानी की कमी से त्रस्त हैं। अगर यही प्रवृत्ति चलती रही तो सन् 2025 ई० तक दुनिया की दो तिहाई आबादी पानी की कमी झेल रही होगी।
अक्सर कहा जाता है कि इस शताब्दी में पानी की वही स्थिति होगी जो पिछली शताब्दी में खनिज तेल की थी। जिस तरह पिछले दशकों में खनिज तेल को लेकर युद्ध चल रहे हैं, आने वाला समय और भी नाटकीय होगा जबकि पानी को लेकर युद्ध लड़े जाएंगे। वैश्विक जल संकट विशेषज्ञ एवं काउंसिल ऑफ कनाडा की सदस्य माउधी बारलो ने अपनी पुस्तक ब्लू कविनंट (नीला प्रतिज्ञापत्र) में लिखा है कि 20वीं शताब्दी में वैश्विक जनसंख्या तीन गुनी हो गई, लेकिन पानी का उपभोग सात गुना बढ़ गया। सन् 2025 ई० हमारी जनसंख्या में 3 अरब लोग और जुड़ चुके होंगे। मनुष्यों की जल आपूर्ति में 80 प्रतिशत वृद्धि की आवश्यकता होगी। कोई नहीं जानता कि ये पानी कहां से आएगा। ताजे शुद्धजल की मांग तेजी से बढ़ रही है। परंतु इसकी आपूर्ति न केवल सीमित है, बल्कि यह घट भी रही है।
जल-आपूर्ति में वनों के विनाश एवं पहाड़ियों में भू-स्खलन से काफी कमी आ रही है। भू-गर्भीय जल को बहुत नीचे से खींचकर कृषि एवं उद्योगों में इस्तेमाल करने से इसके स्तर में कमी आ रही है। भू-गर्भीय जल के खनन से भारत, चीन, पश्चिमी एशिया, रूस एवं अमेरिका के हिस्सों में जलस्तर में गिरावट आई है। उपलब्ध जल में से 70 प्रतिशत का उपयोग खेती में होता है। औद्योगिक कृषि में तो और अधिक पानी की आवश्यकता पड़ती है। एक किलो अनाज के उत्पादन में 3 घन मीटर पानी लगता है जबकि एक किलो गोमांस के लिए 15 घन मीटर पानी की आवश्यकता पड़ती है-क्योंकि गाय के लिए भी अन्न तो उपजाना ही पड़ता है। कई जगह सतह जल के प्रदूषित होने से वह भी मानव-उपभोग हेतु उपयुक्त नहीं होता। यदि फिर भी इसका प्रयोग किया जाता है तो स्वास्थ्य संबंधी समस्याएं खड़ी हो जाती हैं। विश्व में प्रतिवर्ष 50 लाख व्यक्ति जलजनित बीमारियों से मरते हैं।
जलवायु परिवर्तन ने भी जल-आपूर्ति को प्रभावित किया है। ग्लोबल वार्मिंग से ग्लेशियर तेजी से पिघलेंगे और भविष्य में वे दुर्लभ हो जाएंगे। उदाहरण के लिए देखें कि हिमालय के ग्लेशियर भारत, चीन और दक्षिण पूर्व एशिया की अनेक नदियों को जल उपलब्ध कराते हैं। चीन की एकेडमी ऑफ साइंस के याओ तानदोंग का कहना है कि पठार क्षेत्र में बड़े पैमाने पर ग्लेशियरों के सिकुड़ने से इस इलाके में वातावरणीय विप्लव आ जाएगा। लंदन में प्रकाशित गार्जियन ने यमन द्वारा पानी की अत्यधिक कमी का सामना करने पर लिखा है कि देश की राजधानी साना अ के बारे में अनुमान है कि सन् 2017 ई० से इस शहर को पानी उपलब्ध नहीं हो पाएगा क्योंकि समीप बह रही नदी से प्रतिवर्ष इसमें आने वाले पानी से चार गुना ज्यादा निकाला जा रहा है। एक तो अकाल के कारण यमन के 21 जलग्रहण क्षेत्रों में से 19 में जलभराव नहीं हुआ और इनसे पहले से ज्यादा पानी निकाल लिया गया। पानी की समस्या इतनी गंभीर है कि सरकार देश की राजधानी स्थानांतरित करने पर विचार कर रही है।
पानी की कमी विवाद का कारण बनती जा रही है-खासकर तब जबकि पानी के स्रोत, जैसे बड़ी नदियां एक से ज्यादा देशों में बहती हों। ऊपर के देश नीचे बहने वाले पानी की मात्रा को नियंत्रित कर देते हैं। अफ्रीका में 50 नदियां एक से ज्यादा देशों में बहती हैं। पापुलेशन रिपोर्ट के अनुसार नील, जात्बेजी, नाइगर और वोल्टा नदी बेसिन में विवाद प्रारंभ हो चुके हैं। इसी के साथ मध्य एशिया के अराल समुद्री बेसिन में तुर्कमेनिस्तान के मध्य अंतर्राष्ट्रीय जल-विवाद प्रारंभ हो गया है-क्योंकि ये सभी देश अमुदरिया और सीरदरिया नदियों के पानी पर ही जिंदा है।
मध्यपूर्व में भी जल समाप्त हो रहा है। इस परिस्थिति में विवाद की संभावनाएं बढ़ती जा रही हैं। स्टीवन सोलोमन ने अपनी नई पुस्तक वाटर में नील नदी के जल-संसाधनों को लेकर मिस्र एवं इथियोपिया के मध्य उपजे विवाद के बारे में लिखा है। वे लिखते हैं कि दुनिया के सबसे विस्फोटक राजनीतिक क्षेत्र में जिसमें इजराइल, फिलीस्तीन, जोर्डन एवं सीरिया शामिल हैं, दुर्लभ जल संसाधनों के नियंत्रण एवं बंटवारे के लिए बेचैनी है-क्योंकि यहां तो बहुत पहले सबके लिए शुद्ध जल अनुपलब्ध हो चुका था। पश्चिमी अमेरिका में भी ऐसे किसानों को, जो अपनी फसलों की सिंचाई के लिए अतिरिक्त पानी चाहते हैं, शहरी इलाकों के घरों एवं अन्य नगरीय क्षेत्रों में पानी को बढ़ती मांग की वजह से विरोध सहना पड़ रहा है। भारत में भी कर्नाटक एवं आंध्रप्रदेश के मध्य कृष्णा नदी का जल दोनों प्रदेशों के विवाद का कारण बना हुआ है।
पानी के घटते स्रोतों के मध्य पानी का वितरण भी विवाद का विषय बन गया है। बारला ने अपनी पुस्तक में पानी के निजीकरण की नीति की विवेचना की है। कुछ समय पूर्व तक पानी सरकारी प्रा-धिकारियों के सीधे नियंत्रण में था। पश्चिमी देशों में सर्वप्रथम जल का निजीकरण हुआ और बाद में विश्व बैंक के ऋण एवं परियोजनाओं द्वारा इसे विकासशील देशों में भी फैला दिया गया। इससे लोगों की पानी तक पहुंच पर विपरीत प्रभाव पड़ा एवं अनेक देशों में नागरिक समूहों ने पानी को सार्वजनिक वस्तु एवं पानी को मानव अधिकार का दर्जा देने के लिए संघर्ष भी शुरु कर दिया है।
उपरोक्त सभी विषयों को जलवायु-परिवर्तन जितनी ही गंभीरता से लेना चाहिए क्योंकि पानी प्रत्येक के लिए सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण है और इसकी कमी मानवीय स्वास्थ्य एवं वैश्विक राजनीति दोनों को ही प्रभावित करेगी। सोलोमन का कहना है कि वैश्विक राजनीतिक फलक पर जिनके पास पानी है और जिनके पास पानी नहीं है, उनके मध्य नया विस्फोटक क्षेत्र उभरा है। यह तेल समस्या की गंभीरता को भी पार कर चुका है। यह वैश्विक राजनीति को उस मोड़ पर ले आया है, जिस पर हमारी सभ्यता का भविष्य टिका है।
- मार्टिन खोर
जांभोजी : भारत के भक्तिकालीन संतों में विश्नोई संप्रदाय के प्रर्वत्तक जांभोजी (1451-1531 ई०) का विशिष्ट स्थान है। इनका जन्म राजस्थान के नागौर जिले में पीपासर गांव में हुआ था। कहा जाता है कि पिता लोहरजी और माता हांसा को जन्म से ही इस बालक के अलौकिक और अद्भुत चरित्र का आभास होने लगा था। बचपन से ही धार्मिक-आध्यात्मिक प्रवृत्ति तथा धीरे-धीरे गहरी आध्यात्मिक अनुभूतियां होने के कारण जांभोजी का ध्यान धर्म के नाम पर किए जाने वाले आडंबरों में नहीं था। वह धर्म के वास्तविक तत्त्व को समझने और उसके अनुरूप आचरण करने पर बल देते थे। 1485 ई० में अपनी अनुभूतियों के आलोक में उन्होंने समराथल नामक स्थान पर विश्नोई पंथ का प्रवर्तन किया। इस संप्रदाय के सदस्यों के लिए उनतीस धार्मिक नियमों की मर्यादा स्थापित की गई। इस संप्रदाय को स्वीकार करने वालों ने अपनी जाति का त्याग करते हुए स्वयं को केवल विश्नोई कहलाना स्वीकार किया। संप्रदाय-प्रवर्तन के समय बहुत-सी जातियों के लोगों ने इसे स्वीकार किया, जिसका विस्तृत विवरण विश्नोई संप्रदाय से संबंधित ग्रंथों में मिल जाता है।
यह उल्लेखनीय है कि भारत का मध्यकालीन इतिहास एक ओर तो युद्धों और हिंसा से भरा पड़ा है और दूसरी ओर-बल्कि शायद उसी कारण-वही समय उस भक्ति आंदोलन का है, जिसमें सभी संतों ने प्रेम और अहिंसा की आवश्यकता पर बल दिया-बल्कि उन पर चलने को ही वास्तविक धर्म माना। रामानंद, नामदेव, ज्ञानेश्वर, नानक, कबीर, चैतन्य, दादू, रैदास, पीपा आदि के साथ सूफी मत के सभी संतों की भी यही मान्यता रही। जांभोजी के उनतीस नियमों का विश्लेषण भी इसी बात का समर्थन करता है कि प्रेम और अहिंसा के मार्ग पर चलना ही वास्तविक धार्मिक आचरण है। अहिंसा के बिना हृदय निर्मल नहीं हो सकता तथा निर्मल हृदय के बिना भक्ति संभव नहीं।
विश्नोई संप्रदाय के नियमों में क्षमा, नम्रता, अचौर्य, अनिंदा, सत्य आदि के साथ स्पष्ट रूप से न केवल जीवों बल्कि वनस्पति-जगत के प्रति भी करुणा का व्यवहार करने का आदेश दिया गया है। जीवदया के साथ हरे वृक्ष काटने और मांस खाने की स्पष्ट मनाही की गई है और इन्हें धार्मिक नियम के रूप में स्थापित किया गया है। यहां तक कि पानी, दूध और ईंधन तक को छान-बीन कर के इस्तेमाल करने को भी उनतीस नियमों में शामिल किया गया है। बैल की बधिया करने का भी निषेध किया गया है। वनस्पति को न केवल लौकिक बल्कि स्वर्ग-सुख का भी रक्षक बताया गया है। दान और अन्य परोपकारी कार्यों का महत्त्व तो बताया ही है। यह उल्लेखनीय है कि 1485 ई० में ही मरुस्थल में घोर अकाल पड़ा। माना जाता है कि जांभोजी के प्रयासों की वजह से ही अकाल में लोगों की प्राण-रक्षा हो सकी। हरे वृक्ष न काटने और वृक्ष लगाने पर बल देने का एक प्रेरक कारण यह भी हो सकता है। सदाव्रत अथवा भंडारे को भी विश्नोई संप्रदाय में इसीलिए विशेष महत्त्व प्राप्त है क्योंकि ये जरूरतमंदों के लिए निःशुल्क भोजन के स्थान थे। यह परंपरा सिख पंथ के लंगर में भी मिलती है।
जांभोजी के उपदेश उनकी वाणी में मिलते हैं, जिसें सबदों में विभक्त किया गया है। सबद ग्यारह-बारह में कहा गया है कि यदि धार्मिक ग्रंथों का पठन-पाठन तथा अपने को धार्मिक आचरण करने वाला मानते हुए भी हम जीव-हत्या तथा मांस-भक्षण करते हैं तो हमें नरक में ही डाला जाएगा। जब हमारे शरीर में साधारण कांटा चुभने पर भी दर्द होता है तो पशु घास खाकर दूध देता है, उसका गला काटना कहां तक उचित है। यह बात दूध देने वाले पशु की उपयोगिता के आधार पर नहीं कही गई है क्योंकि जांभोजी हरिण के संरक्षण पर विशेष बल देते हैं। अभी भी विश्नाई समाज अपने को हरिण-रक्षा के लिए प्रतिबद्ध मानता है। सबद 16 और सबद 38 में जांभोजी कहते हैं कि जीवों को मारना अनुचित तो है ही, साथ ही, ऐसा करना ईश्वर के सम्मुख द्रोह करना है क्योंकि जिस जीव को उसने रचा है, हम उसकी हत्या कर रहे हैं। यह ईश्वर-द्रोह है। जांभोजी द्वारा स्थान-स्थान पर तालाब बनवाने और वृक्ष (खेजड़ी) लगाने का भी विस्तृत विवरण मिलता है। खेजड़ी का विशेष उल्लेख इसलिए है कि मरुस्थल में वही वृक्ष ऐसा है, जो वहां की प्राकृतिक स्थिति में भी बना रहता है। आधुनिक शब्दावली में कहें तो जांभोजी को पर्यावरण-विमर्श का एक अगुआ माना जा सकता है।
जांभोजी के जीवन से संबंधित बहुत-सी घटनाएं और चमत्कार बताए जाते हैं, जो उनके सिद्धांतों की लोकमानस और कुलीन वर्ग द्वारा स्वीकृति तथा उनके व्यक्तित्व के व्यापक प्रभाव प्रमाण हैं। उनके जीवन से संबंधित ग्रंथों में उनकी यात्राओं तथा तत्कालीन ऐतिहासिक व्यक्तियों से उनकी भेंट का वर्णन किया गया है। इन स्थानों का विवरण देखने से मोटे तौर पर यह कहा जा सकता है कि उन्होंने शायद विंध्य पार दक्षिणापथ को छोड़कर न केवल समूचे भारत बल्कि अफगानिस्तान तक की यात्राएं की तथा प्रेम और अहिंसा के अपने संदेश का व्यापक प्रचार-प्रसार किया। कुछ ग्रंथों के आधार पर उनकी ईरान व अरब यात्रा की भी संभावना प्रकट की गई है। उनके व्यक्तित्व और उपदेशों के प्रभाव का अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि मध्यकाल में ही नहीं ब्रिटिश शासन के दौरान और आज भी जांभोजी के प्रभाव वाले इलाके में हरिण के शिकार की सख्त मनाही रही है।
जांभोजी का निर्वाण 1536 ई० में बीकानेर रियासत के लालासर गांव में हुआ। उनका आदेश था कि उनका अंतिम संस्कार फलौदी के निकट उस जांभोलाव तालाब पर किया जाए, जिसका निर्माण स्वयं उन्होंने अपनी एक जैसलमेर यात्रा के दौरान 1509 ई० में किया था तथा उनके अंत्येष्टि संस्कार के लिए शिष्य पार्थिव शरीर को लेकर जांभोलाव के लिए चले भी; लेकिन, अंततः बीकानेर के तालवे गांव तक लाकर समाधि देनी पड़ी। यह स्थान बाद में मुकाम नाम से प्रसिद्ध हुआ तथा संप्रदाय के प्रवर्तन-स्थल समराथल के साथ इसे भी तीर्थ का दर्जा प्राप्त है।
- नंदकिशोर आचार्य
जिहाद : इस्लाम और मुसलमानों को हिंसा से जोड़कर देखा जाता है। इस दृष्टिकोण के लिए पश्चिमी विद्वान और मीडिया ही नहीं, कुछ हद तक स्वयं मुसलमान भी जिम्मेदार हैं। कुरआन के दृष्टिकोण या उसकी परिस्थिति को समझे बिना वे भी बहुत गैरजिम्मेदाराना तरीके से जिहाद की बात करते हैं। इसलिए स्वयं मुसलमानों को भी जिहाद की वास्तविक अवधारणा के बारे में पुनर्विचार की जरुरत है।
इस्लाम में शांति का केंद्रीय स्थान है और युद्ध (जिहाद नहीं, हर्ब या कित्ल) केवल आपात्कालीन। लेकिन सामान्य धारणा इसके बिल्कुल विपरीत बन गई है। इसके लिए, एक हद तक, मुस्लिम इतिहास (इस्लामी इतिहास नहीं) खुद जिम्मेदार है। इस्लाम का उद्भव कबीलाई युद्धों से ग्रस्त अरबी समाज में हुआ था-इसलिए शांति उसका पहला मिशन था। पैगंबर मोहम्मद शांति-संस्थापक के रुप में मक्का से मदीना गए थे। चालीस सालों से लगातार लड़ रहे मदीना के दो कबीलों ने आपस में शांति स्थापित करने के लिए पैगंबर को आमंत्रित किया था।
शांति के लिए अपने जबर्दस्त आग्रह के ही कारण पैगंबर ने मुसलमानों, यहूदियों और पैगनों के सह-अस्तित्व के लिए एक संविदा तैयार की थी। कुरआन में अंतःकरण की स्वतंत्रता का समर्थन है (2:256) और इसीलिए पैगंबर ने सभी लोगों को अपने-अपने धर्म का पालने करने और सह-अस्तित्व की अनुमति दी थी। कुरआन में विविधता को अल्लाह की इच्छा कहा गया है (5:48)। इसलिए इस्लाम अंतर-धार्मिक समरसता का समर्थन करता है। कुरआन के प्रमुख सरोकार हक (सत्य), अद्ल (इंसाफ, न्याय), रहम (करुणा, दया) और हिक्मः (बुद्धिमता, विवेक) हैं।
पैगंबर का शांति के प्रति लगाव इसी बात से जाहिर होता है कि दूसरों की नजर में अपमानजनक लगते हुए भी उन्होंने हुदैबिया में शांति को वरीयता दी। अपने दस हजार सशस्त्र अनुयायियों के साथ पैगंबर हज करने गए थे। लेकिन जब मक्कावासियों ने उनका विरोध किया तो पैगंबर ने रक्तपात के बजाय शांति को महत्त्व दिया और बिना हज किए लौट आए।
इससे स्पष्ट है कि पैगंबर शांति को कितना महत्त्व देते हैं। मक्का में एक विजेता की हैसियत से प्रवेश करने के बावजूद उन्होंने अपने सबसे बुरे दुश्मनों को भी माफ कर दिया-उस हिंदा को भी जिसने उनके चाचा हम्जा को मारकर उनका कलेजा चबा डाला था। किसस (प्रतिशोध) अरबों में सामान्य सामाजिक व्यवहार था, किंतु पैगंबर ने उससे ऊपर उठकर समाज को आध्यात्मिकता और नैतिकता के आधार पर संगठित करना चाहा। उन्होंने शत्रु को मारने के बजाय उसे माफी देकर अरबों के सम्मुख एक उदाहरण पेश किया।
यह सही है कि कुरआन की एक आयत में (2:179) प्रतिशोध का जिक्र किया गया है, लेकिन यह तत्कालीन अरबी समाज के यथार्थ के रुप में है, न कि मुसलमानों के लिए प्रतिशोध को एक आदर्श बताने के रुप में। अल्लाह मुसलमानों को ऐसे व्यवहार से ऊपर उठा देखना चाहता है क्योंकि वह गफूरुर्रहीम है, इसलिए अल्लाह की सच्ची इबादत करने वाले को भी उसका अनुकरण करते हुए करुणाशील होना होगा।
कुछ मुसलमान उन आयतों का जिक्र करते हैं, जिनमें युद्ध की अनुमति दी गई है तथा इस आधार पर वे शांति की अवहेलना करते हैं। लेकिन, कुरआन में जन्नत को शांति और सुरक्षा की जगह बताया गया है (15:46)। इसलिए पृथ्वी भी तभी स्वर्गतुल्य हो सकती है जब सभी को शांति और सुरक्षा उपलब्ध हो। हिंसा और असुरक्षा इसे नरक बना देंगे। कुरआन का लक्ष्य अस्तित्व का उच्चतर स्तर प्राप्त करना है, न कि प्रतिशोध और प्रत्याक्रमण का नीच स्तर।
कुरआन के पाठ में प्रदत्त स्थिति और वांछनीय के बीच तनाव साफ दिखता है। इस तनाव को समझे बिना हम कुरआन की वास्तविक आत्मा को नहीं समझ सकते। जिन मुस्लिम युवकों को शक्तिशाली निहित स्वार्थ जिहाद और शहादत के लिए बहका रहे हैं, वे कुरआन की शिक्षाओं के उच्चतर स्तर से पूरी तरह अनभिज्ञ हैं। शहादत की बात हर स्थिति में आसानी से नहीं की जा सकती। यह तभी की जानी चाहिए जब अन्य सारे विकल्प समाप्त हो चुके हों और उसमें भी अत्यंत आवश्यक होने पर न्यूनतम हिंसा की ही अनुमति है।
लेकिन आज हम अविचारित हिंसा का घृणास्पद प्रयोग देखते हैं जिसमें बड़ी संख्या में निर्दोष लोगों की हत्या की जाती है। दरअस्ल, हिंसा का इस्तेमाल इंसाफ के लिए लड़ने के बजाय आतंक फैलाने के लिए अधिक होता है। यह भी कौन तय कर सकता है कि मसले को हल करने के सारे अन्य उपाय असफल हो गए हैं? यह फैसला भी किसी स्व-नियुक्त समूह द्वारा नहीं, बल्कि लोकतांत्रिक प्रक्रिया से निर्वाचित संबंधित लोगों द्वारा ही लिया जा सकता है। लेकिन, सभी जिहादी समूह पूरे समाज के स्व-नियुक्त संरक्षक बन गए हैं और इसका विरोध करने वाला मौत के घाट उतार दिया जाता है। कुरआन द्वारा निर्दिष्ट नैतिकता की पूरी तरह अवज्ञा करते हुए निजी उद्देश्यों और प्रतिशोध के लिए हत्याएं की जाती हैं।
यहां हजरत अली के उदाहरण का जिक्र प्रासंगिक होगा। जब हजरत अली एक अरब लड़ाके को द्वंद्वयुद्ध में पराजित कर उसका सर कलम करने ही वाले थे कि प्रतिद्वंदी ने उन पर थूक दिया। उसको मारने के बजाय अली ने उसे छोड़ दिया। जब उसने अली से इसकी वजह पूछी तो अली का जवाब था कि थूक देने के बाद उसे मार डालना निजी प्रतिशोध के लिए होता, न कि अल्लाह के लिए।
स्पष्ट है कि इस्लाम युद्ध की परिस्थिति में भी उच्चतर नैतिकता को त्यागने का समर्थन नहीं करता। इस्लाम में विचारधारा के स्तर पर हिंसा से कोई समझौता नहीं है। मुस्लिम समाज में हिंसा, अधिकांश मामलों में, गैर-विचारधारात्मक है। कोई कह सकता है कि विचारधारात्मक और गैर-विचारधारात्मक में अंतर कैसे किया जाए, जबकि हिंसा करने वाला व्यक्ति या समूह अपने उद्देश्य को विचारधारा के लबादे में छुपा लेता हो। यह एक वैध आपत्ति है और ऐसी स्थिति में भ्रम होना स्वाभाविक है। इसका समाधान यही है कि हिंसा के प्रयोग की पूरी कड़ाई से आलोचनात्मक परीक्षा हो। इसमें कुछ मामलों में अस्पष्टता रह सकती है, लेकिन, कुछ सर्वमान्य कसौटी तय की जा सकती है। इसके अतिरिक्त, हिंसा का प्रयोग अधिकांशतः धार्मिक वजहों के बजाय राजनीतिक उद्देश्यों के लिए किया जाता है। लेकिन उसका प्रभाव यही पड़ता है मानो इस्लाम और हिंसा एक ही सिक्के के दो पहलू हों।
इसलिए धार्मिक शिक्षा और ऐतिहासिक अभिव्यक्तियों में फर्क करना जरूरी है। इतिहास में जो कुछ घटित होता है, उसका दायित्व धर्म पर नहीं डाला जा सकता। लेकिन विद्वान लोग भी संभ्रम में रहते हैं। धार्मिक ग्रंथों को भी सही संदर्भ में पढ़ना जरुरी होता है। सामान्यतः, कोई धर्म हिंसा का आदेश नहीं देता। हिंसा की अनुमति विशेष स्थिति में आत्मरक्षा के लिए ही दी जाती है और कुरआन तो आक्रामक प्रयोजन के लिए हिंसा का कड़ा निषेध है।
यह सही है कि अल-कायदा जैसे संगठन जिहाद और शहादत के विचारों की बात करते हुए हिंसा का इस्तेमाल करते हैं। इस्लाम की पृष्ठभूमि से अपरिचित बेरोजगार मुस्लिम युवकों को इस्लाम, जिहाद और शहादत के नाम पर मरने-मारने के लिए भड़काया जाता है। ऐसा करने वालों के अपने स्वार्थ होते हैं। जिहाद का संबंध नेकी फैलाना और बदी के खिलाफ संघर्ष है, न कि हथियारों से लड़ना। जिहाद को लेकर मुस्लिम समाज में काफी भ्रम है; जिसका लाभ निहित स्वार्थों द्वारा उठाया जाता है। अतीत में भी कई शासकों ने अपने राज्य-विस्तार के लिए युद्ध किए और इसमें सैनिकों को उत्साहित करने के लिए जिहाद की भावना का सहारा लिया।
इसी तरह शहादत की अवधारणा का भी बुरी तरह गलत प्रयोग किया गया है। लोकप्रिय इस्लाम में जिहाद और शहादत दोनों एक-दूसरे में अंर्तर्ग्रथित अवधारणाएं है और उलेमा द्वारा भी उनका पुनर्बलीकरण किया जाता है। दरअसल, कुरआन किसी गंभीर प्रयोजन के बिना जिंदगी का त्याग करने की अनुमति नहीं देता-बल्कि वह उसका विरोध करता है (2:195)। शहादत की अवधारणा को इस आयत के साथ रखकर पढ़ा जाना चाहिए। हुआ यह है कि ताहलुकात को शहादत कह दिया जाता है, जबकि अनावश्यक जान देने और शहादत में बड़ा फर्क है। उपर्युक्त आयत में दूसरों की भलाई करने का भी आदेश है। इसकी रोशनी में देखने पर फिदायीन बमबाज कुरआन की शिक्षा से विपरीत आचरण करते दिखाई देते हैं-बल्कि वे दोहरे गुनहगार हैं क्योंकि न केवल वे अनावश्यक रुप से अपनी जान दे रहे हैं, बल्कि दूसरे निर्दोष लोगों की जान भी ले रहे हैं-जो शरीयत के मुताबिक जिहाद के उसूलों के खिलाफ है।
यह आश्चर्यजनक है कि बहुत से उलेमा फिदायीन बमबारी को जिहाद का हिस्सा मानते और फियादीन को शहीद का खिताब दे देते हैं। यह दरअस्ल, अमेरिका और इजरायल की करतूतों के खिलाफ भावनात्मक उत्तेजना है, न कि कुरान की शिक्षाओं के प्रति लगाव। इस तरह की भावनात्मक उत्तेजना से वे इस्लाम और मुसलमानों को बदनाम करते हैं क्योंकि इस कारण इस्लाम को हिंसा और कट्टरता मान लिया जाता है।
इसके अलावा, हमें सातवीं शताब्दी के अरब हालात को समकालीन परिस्थिति पर यांत्रिक ढंग से लागू नहीं करना चाहिए। जब मक्का वालों ने मदीना पर हमला किया तो अपनी रक्षा के लिए कुरआन के अनुसार मदीना वालों से युद्ध में शहादत के लिए तैयार रहने को कहा गया-लेकिन इसमें युद्ध के मैदान से बाहर रहने वाले नागरिकों की जान लेना शामिल नहीं था। प्रारंभिक इस्लामी इतिहास में ऐसा कोई प्रमाण नहीं मिलता कि पैगंबर या शुरुआती खलीफाओं के दौर में निर्दोष नागरिकों पर जानलेवा हमले किए गए हों।
शहादत का गुणगान मक्का वालों के हमलों के खतरे को देखते हुए किया गया। आज परिस्थिति बिल्कुल भिन्न है। मुस्लिम सारी दुनिया में फैले हुए हैं। शहादत का दावा करने वाले किसी को भी नहीं बचा रहे हैं। कुछ मामलों में तो वे मुसलमानों की ही जान ले रहे हैं।
इसलिए फिदायीन बमबाजों को शहीद कहना उचित नहीं है। कुरआन की अवधारणाओं को कुरआन के आधार पर ही लागू किया जाना चाहिए। हम उन्हें आज की हमारी परिस्थिति में लागू नहीं कर सकते, जैसा कि फिदायीन बमबाज या उन्हें प्रेरित करने वाले कर रहे हैं। कोई भी मुस्लिम देश उस तरह के खतरे में भी नहीं है, जैसा कि प्रारंभिक मुस्लिम समाज था।
उन दिनों में पैगंबर अल्लाह से सीधे मार्गदर्शन (वही) प्राप्त कर रहे थे और उसके मुताबिक मुस्लिम समाज को निर्देशित कर रहे थे। इसलिए उनके निर्णय एक इंसान की हैसियत से नहीं, बल्कि अल्लाह के पैगंबर की हैसियत से लिए जा रहे थे। कुरआन के रुप में वही मार्गदर्शन आज हमें उपलब्ध है और कुरआन ऐसे मामलों में बिल्कुल स्पष्ट है। हमें अपने लिए कुरआन के आधार पर ही मार्गदर्शन प्राप्त करना और अपनी सांसारिक इच्छाओं की पूर्ति के लिए उसकी मनमानी व्याख्या से बचना चाहिए। लेकिन, दुर्भाग्य से जिहाद और शहादत के लिए ऐसे लोगों द्वारा कुरआन की कुव्याख्या का सहारा लिया जाता है।
इसलिए हमें एक तो उस संदर्भ को ध्यान में रखना चाहिए जिस में कुरआन का कोई समादेश उद्घाटित हुआ और, साथ ही, उसे पूरी जिम्मेदारी के साथ लागू करना चाहिए ताकि मनमानी व्याख्या किसी को हानि न पहुंचाए। इन समादेशों को लागू करते समय आज के संदर्भ का ध्यान रखा जाना भी वांछनीय है। कुरआन के केंद्रीय मूल्य हैं : अद्ल (न्याय), इहसन (परोपकारिता), रहम (करुणा), और हिक्मः (विवेक)-कोई भी व्याख्या इन मूल्यों पर आघात नहीं कर सकती।
कोई भी मनमानी व्याख्या इन मूल्यों को भारी हानि पहुंचाएगी और, कहना न होगा कि, फिदायीन बमबारी से निर्दोष लोगों की हत्या करना इन मूल्यों को घायल करना है। ऐसी हत्याएं न्याय, करुणा, परोपकारिता और विवेक के खिलाफ हैं। कुरआन को गौर से पढ़ा जाए तो पता चलता है कि आत्मरक्षा के लिए तो कुरआन हिंसा की अनुमति देता है, लेकिन, प्रतिशोध के लिए नहीं, जबकि सारी आतंकवादी हत्याएं या तो प्रतिशोध के लिए की जाती हैं या आतंकित करने के लिए। आतंकित करने वाली हिंसा को अल्लाह की राह में जिहाद नहीं माना जा सकता। ऐसी सब हत्याएं कुरआन की भावना को चोट पहुंचाती है।
मानव बम बनने के लिए तैयार युवकों को शहादत की अवधारणा से उकसाया जाता है कि यदि वे अल्लाह की राह में शहीद होंगे तो उन्हें जन्नत बख्शी जाएगी। उनके लिए यह प्रलोभन बहुत आकर्षक होता है और वे आसानी से आत्महंता प्रस्ताव को स्वीकार कर लेते हैं। यह हलाक होना है, शहादत नहीं।
शहादत को कैसे परिभाषित करें? शहीद वह है जो एक न्यायपूर्ण युद्ध में मारा जाता है-एक ऐसे युद्ध में जो इंसानी जिंदगियों और अल्लाह के दीन की रक्षा के लिए लड़ा जाता है। पैगंबर के वक्त में लड़े गए सारे युद्ध इन्हीं उद्देश्यों के लिए लड़े गए थे और स्वयं अल्लाह के पैगंबर ने अपने महत्त्वपूर्ण साथियों से परामर्श कर इन युद्धों का फैसला किया था। इन युद्धों में किसी भी तरह का व्यक्तिगत प्रतिशोध या क्रोध और निर्दोष जिंदगियों का संहार नहीं था। केवल सामने लड़ने वाले को ही मारा जाता था। इन युद्धों के पीछे कोई राजनीतिक प्रयोजन भी नहीं था। वे केवल दीन और इस्लाम के मूल्यों की रक्षा के लिए लड़े गए थे। कुरआन में ऐसे ही युद्धों में मारे गए लोगों को शहीद माना गया है (2:154)।
इस प्रकार जो अल्लाह की राह में शहीद होते हैं, वे कभी नहीं मरते। एक फिदायीन बमबाज सोचता है कि वह ऐसे ही किसी उद्देश्य के लिए मर रहा है-यदि यह सच हो तो भी वह निर्दोष और न लड़ने वाले लोगों की जान ले रहा है। कई बार तो मरने वाले खुद भी व्यवस्था से पीड़ित होते हैं। लोग इन फिदायीन बमबाजों को आदेश देने वाले अल्लाह की राह में होने के बजाय राजनीतिक खेल में उलझे हुए होते हैं। इस्लाम में हक (सत्य) और सब्र (साथ ही, सतत प्रयास) पर बहुत बल है और इनके लिए मरने वालों को ही शहीद कहा जा सकता है।
इस दृष्टि से एक फिदायीन बमबाज शहीद कहलाने का हकदार नहीं है। हर मुसलमान का यह प्राथमिक कर्त्तव्य है कि वह किसी निर्दोष को हानि न पहुंचाए और जो कुछ शांति से हासिल हो सकता है, उसके लिए युद्ध न करे। एक मोमिन के लिए युद्ध आखिरी उपाय है। शहीद वह है जो मरता है, मारता नहीं।
- असगर अली इंजीनियर
(अनुवाद : नंदकिशोर आचार्य)
जीवन का अधिकार : अहिंसा, वस्तुतः, प्रकारांतर से जीवन के अधिकार का सिद्धांत है। इसलिए मानवाधिकारों में इस अधिकार की कई कोणों से स्वीकृति दी गई और उसकी कई व्याख्याएं की गई हैं। मानवाधिकारों की विश्व घोषणा के अनुच्छेद तीन में प्रत्येक व्यक्ति को जीवन, स्वतंत्रता और व्यक्तिगत सुरक्षा की गारंटी दी गई हैं; साथ ही, अनुच्छेद पांच में स्पष्ट किया गया है कि किसी के भी साथ अत्याचार या निर्दयता अथवा क्रूर, अमानवीय और गरिमाहीन व्यवहार नहीं किया जा सकेगा। नागरिक और राजनीतिक अधिकारों की संविदा के अनुच्छेद छह (एक) में घोषणा की गई है कि प्रत्येक मानव-प्राणी को जीवन का नैसर्गिक अधिकार है। इस अधिकार की रक्षा कानून के जरिए की जाएगी। निरकुंश तरीके से किसी का भी जीवन नहीं लिया जा सकेगा। इसी को पुष्ट करने के लिए इसी अनुच्छेद के उपखंड दो का मंतव्य है कि मृत्यु, दंड, यदि कहीं समाप्त नहीं किया गया है तो भी गंभीरतम अपराधों के लिए ही यह सजा दी जा सकती है। मानवाधिकारवादी तो हर हालत में मृत्युदंड को समाप्त करने की ही मांग करते रहे हैं। नागरिक-राजनीतिक अधिकारों की संविदा में अनुच्छेद छह (पांच) में अठारह वर्ष से कम उम्र के बच्चों को मृत्युदंड न दिए जाने तथा गर्भवती स्त्रियों पर इसे क्रियान्वित न किए जाने का निर्देश किया गया है क्योंकि गर्भवती स्त्री पर यह सजा क्रियान्वित करने करने का सह-परिणाम एक भावी जीवन को नष्ट करना है।
यह भी उल्लेखनीय है कि जीवन के अधिकार में गरिमापूर्ण जीना शामिल है। गरिमा पर आघात भी हिंसा है। इसलिए जहां विश्व-घोषणा में निर्दय या क्रूर व्यवहार की मनाही की गई है, वहीं नागरिक-राजनीतिक अधिकारों की संविदा के अनुच्छेद सात में स्पष्ट कहा गया है कि किसी को भी यंत्रणा नहीं दी जाएगी, न उनके साथ क्रूर अमानवीय या मानव-गरिमा को नष्ट करने वाला व्यवहार किया जाएगा, न ऐसी सजा दी जाएगी। इसी अनुच्छेद में यह भी स्पष्ट कर दिया गया है कि खासतौर से किसी पर भी उसकी स्वतंत्र सहमति के बगैर, चिकित्सकीय या वैज्ञानिक परीक्षण नहीं किए जाएंगे।
जीवनाधिकार के बिना मानवाधिकार की कल्पना भी नहीं की जा सकती, इसलिए जीने का अधिकार बुनियादी मानवाधिकार है। लेकिन, जीने का अर्थ क्या है? मानवाधिकार मानवमात्र को गरिमा में समान मानते हैं। इसलिए जीवन तभी जीवन है, जब वह गरिमापूर्ण हो। केवल सांस लेते रहना जीना नहीं है। अमेरिकी न्यायमूर्ति फील्ड के शब्दों में, जीवन शब्द में महज पशु स्तर के अस्तित्व से कुछ अधिक निहित है। इसमें मनुष्य के सभी अंग और शारीरिक-मानसिक क्षमताएं आ जाती हैं, जिनसे जीवन का सुख भोगा जाता है। सिर्फ जीवन से वंचित करना ही नहीं बल्कि ईश्वर ने जीवन के विकास और सुखोपभोग के लिए जो कुछ दिया है, उससे वंचित करना भी इस अधिकार के अंतर्गत निषिद्ध है। भारतीय न्यायमूर्ति भगवती ने भी अपने एक निर्णय में कहा कि इस अधिकार में मानव-गरिमा के साथ और उससे संबंद्ध सभी बातों के साथ जीने का अधिकार भी शामिल है, जैसे जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं भोजन, वस्त्र और आवास की पर्याप्त सुविधा, पढ़ने-लिखने और विभिन्न रूपों में अपने को अभिव्यक्त करने, मुक्त रूप से आने-जाने और अन्य मनुष्यों से घुलने-मिलने की सुविधा। भारत के सर्वोच्च न्यायालय ने हिमाचल प्रदेश बनाम उमेदसिंह (1986 ई०) के अपने निर्णय में जीवन के अधिकार का आधार बहुत व्यापक करते हुए इसमें संचार-परिवहन आदि की व्यवस्थाओं को भी शामिल कर लिया क्योंकि उनके बिना मनुष्य का मुक्त विचरण बाधित होता है। न्यायमूर्ति पाठक ने अपने एक फैसले में अपूर्ण सामाजिक व्यवस्था के कारण उपेक्षित वर्ग के अनुरक्षण को भी मानवाधिकार मानते हुए उसे राज्य का कर्त्तव्य माना।
इसलिए जीवन के अधिकार की व्याख्या करते हुए मानवाधिकारवादी भोजन-वस्त्र, आवास, स्वास्थ्य और शिक्षा आदि की सुविधाओं को भी उसमें सम्मिलित कर लेते हैं। अमेरिकी न्यायमूर्ति डगलस ने अपने एक निर्णय में जीवन के अधिकार में रोजगार के अधिकार को भी शामिल कर लिया। उन्हीं के शब्दों में, काम का अधिकार सर्वाधिक मूल्यवान स्वतंत्रता का अधिकार है............काम करने का मतलब है खाना; इसका मतलब है जीना।
जीवन के अधिकार में स्वास्थ्य का अधिकार शामिल है, इसलिए न केवल बीमार होने पर चिकित्सा-सुविधा, बल्कि बीमारी से बचाव भी इसके अंतर्गत माना जाता है। इसीलिए किसी भी तरह के प्रदूषण से बचाव भी इस अधिकार का ही एक आयाम है-चाहे वह हवा, पानी, मिट्टी का प्रदूषण हो या शोर से पैदा होने वाला प्रदूषण आदि।
जीवन के अधिकार की व्याख्या करते समय और भी कई प्रश्न आ खड़े होते हैं। क्या मृत्युदंड को जीने के अधिकार का उल्लंघन माना जाना चाहिए? मृत्युदंड को लेकर बहुत विवाद रहा है और कई देशों ने अपने यहां मृत्युदंड पर रोक लगा रखी है। किंतु, कुछ विधिशास्त्रियों का मानना है कि मृत्युदंड को पूरी तरह निषिद्ध करने से अपराधों को बढ़ावा मिल सकता है। सवाल यह उठता है कि क्या मृत्युदंड देने के बाद कोई अपराधी सुधर सकता है, जो आधुनिक दंड-विधान का प्रमुख उद्देश्य है। यदि कोई अपराधी क्रूरतर अपराध भी करता है तो भी राज्य को उसके जीवन को समाप्त करने का अधिकार उचित नहीं माना जा सकता। दूसरे, मृत्युदंड एक ऐसा दंड है, जिसमें सजा पर पुनर्विचार की कोई गुंजाइश बाद में नहीं बचती। जबकि कई मामलों में बाद में निरपराध या कम दोषी पाए जाने पर फैसला बदला जा सकता है। यह भी ध्यातव्य है कि मृत्युदंड दे देने पर भी पीड़ित पक्ष को कोई वास्तविक लाभ नहीं मिलता। इसीलिए मानवाधि-कारों की विश्व-घोषणा और नागरिक-राजनीतिक अधिकारों की संविदा में भी बहुत अधिक क्रूरता वाले अपराधों पर ही निष्पक्ष सुनवाई के बाद मृत्युदंड को अवांछनीय मानते हुए स्वीकृति दी गई है। अठारह वर्ष से कम उम्र वालों और गर्भवती महिलाओं के लिए मृत्युदंड के क्रियान्वयन पर रोक का निर्देश है। यह भी ध्यातव्य है कि जिन राज्यों में मृत्युदंड प्रतिबंधित है, उनमें उसे दुबारा लागू नहीं किया गया है। यह भी नहीं पाया गया है कि मृत्युदंड निषेध वाले राज्यों में इस कारण अपराधों में कुछ वृद्धि हो गई हो। इसलिए मानवाधिकारवादी किसी भी स्थिति में मृत्युदंड को उचित नहीं मानते और जहां यह लागू है, वहां इसे हटाने के लिए प्रयासरत रहते हैं।
आत्महत्या, गर्भपात और सुख-मृत्यु (मर्सी-किलिंग) जैसे मामलों में भी जीवन के अधिकार का मसला उठता है। बंबई उच्च न्यायालय के एक फैसले में न्यायमूर्ति सावंत ने टिप्पणी की कि जीने के अधिकार में न जीने का अधिकार भी शामिल है। यदि कोई व्यक्ति किसी भी कारण से बिना किसी उत्तेजना के यह निर्णय करता है कि उसके जीवन का काम पूरा हो चुका है, या किसी परिस्थिति में मरकर ही वह अपनी गरिमा की रक्षा कर सकता है तो उसे करने का अधिकार क्यों नहीं होना चाहिए। लेकिन, इस बारे में भी बात यही आती है कि अपने इस फैसले पर क्रियान्वयन के बाद उस पर पुनर्विचार की कोई गुंजाइश नहीं बचती। किसी भी मामले में परिस्थिति बदल जाने पर अपने निर्णय पर पुनर्विचार की स्वतंत्रता है, लेकिन, आत्महत्या का अधिकार इस पुनर्विचार की स्वतंत्रता से व्यक्ति को हमेशा के लिए वंचित कर देता है। इस दृष्टि से इसे न्यायपूर्ण नहीं कहा जा सकता।
गर्भपात या मर्सी-किलिंग के मामलों में भी पर्याप्त विवाद है। इस बारे में देखिए गर्भपात और जीवन-त्याग।
- नंदकिशोर आचार्य
जीवन की गुणवत्ता : आधुनिक विकास-विमर्श में जीवन की गुणवत्ता (क्वालिटी ऑफ लाइफ) एक ऐसा प्रत्यय है, जो आर्थिक वृद्धि तक सीमित नहीं है। एक अर्से तक यह माना जाता रहा कि उत्पादन में वृद्धि सभी समस्याओं का समाधान है क्योंकि ट्रिकल डाउन थियरी के अनुसार उससे होने वाले लाभ स्वयंमेव एक अदृश्य हाथ के माध्यम से निम्नतम स्तर तक पहुंचते रहेंगे। लेकिन अनुभव ने प्रमाणित किया कि वृद्धि और विकास समानार्थी नहीं है। इसलिए विकास की एक नई अवधारणा विकसित हुई, जिसका व्यावहारिक रूप तकनीकी विकास हो गया। दरअस्ल, अभी भी अर्थशास्त्रियों का एक वर्ग विकास के बहाने वृद्धि की ही बात करता है।
विकास का तात्पर्य अब केवल किसी देश के आर्थिक विकास तक सीमित नहीं रह गया है। यह देखना आवश्यक समझा जाने लगा है कि विकास की प्रक्रिया और परिणामों का व्यक्ति और समाज के जीवन पर कितना और कैसा प्रभाव पड़ रहा है, जिसमें पर्यावरण को भी शामिल किया जाना चाहिए। डॉ० श्यामाचरण दुबे के शब्दों में अब समय आ गया है कि सकल राष्ट्रीय उत्पाद के बदले हम जी०एन०डब्ल्यू० (सकल राष्ट्रीय कल्याण) तथा सामाजिक विकास के बारे में सोचना शुरू करें।
जीवन की गुणवत्ता की अवधारणा इस दृष्टि पर आधारित है कि जीवन जीने का तात्पर्य एक सुखी, गरिमामय, सुखी और सांस्कृतिक जीवन जीने से है। इसलिए विकास का तात्पर्य है ऐसी परिस्थिति का विकास जिसमें प्रत्येक व्यक्ति ऐसा जीवन जी सके। इसके लिए यह सोचा जाना आवश्यक है कि मनुष्य की आवश्यकताएं क्या हैं। यहां आवश्यकता और आकांक्षा में भी फर्क समझना जरूरी है। अर्थशास्त्रियों और समाजशास्त्रियों द्वारा आवश्यक-ताओं की कई अवधारणाएं प्रस्तुत की गई हैं। यदि उन सबकी एक समन्वित अवधारणा बनाई जाए तो उसमें जीवन-यापन अर्थात् भोजन, आवास, स्वास्थ्य, रोजगार आदि, सामाजिक अर्थात् सामाजिक उत्पीड़न से मुक्ति, सहयोग, समरसता, धार्मिक सद्भाव आदि, सांस्कृतिक अर्थात् स्वतंत्रता, सर्जनात्मकता, विज्ञान, कला-साहित्य, मनोरंजन आदि, सामाजिक कल्याण अर्थात् किसी भी तरह वंचित वर्ग के लिए विशेष उपाय संबंधी जरूरतें शामिल की जा सकती हैं।
दरअस्ल, सुखी या गुणात्मक जीवन किसे माना जाए, इसे लेकर बहुत विचार हुआ है और प्रत्येक समाज और संस्कृति के दृष्टिकोणों में कुछ बातों में समानता के बावजूद कुछ भिन्नताएं भी रही हैं। प्रसिद्ध भारतीय समाजशास्त्री डॉ० श्यामाचरण दुबे की मान्यता है कि शक्तिशाली सभ्यताओं के काल-कवलित हो जाने और जनजातीय संस्कृतियों के बने रहने के पीछे अच्छाई, संतोष और जीवन-प्रयोजन और शैली के बारे में उनकी दृष्टि रही है। एक सभ्यता संपत्ति को सुख का कारण मानती है तो दूसरी उनके बीच कोई अनिवार्य संबंध नहीं देखती। प्रसिद्ध समाज वैज्ञानिक डॉ० रामाश्रय राय के एक अध्ययन में यह पाया गया कि अधिकांश लोगों ने सुख को संपत्ति से जोड़कर नही देखा। लेकिन यह तय है कि जीवन की गुणवत्ता की अवधारणा पर आधारित किसी भी कार्य-योजना में वैयक्तिक और सामाजिक दोनों ही प्रकार की बुनियादी आवश्यकताओं की पूर्ति को उचित स्थान देना होगा। यूनेस्को की परिभाषा में जीवन की गुणवत्ता को एक समावेशी प्रत्यय मानते हुए उसमें महत्त्वपूर्ण आवश्यकताओं की भौतिक तुष्टि के साथ जीवन के भौतिक पक्षों से परे स्थित व्यक्तिगत विकास, आत्मबोध तथा स्वस्थ पर्यावरण-व्यवस्था जैसे अन्य पक्ष भी समाविष्ट हैं। इसीलिए मालमैन जीवन की गुणवत्ता के प्रत्यय को व्यक्ति, उसके समाज तथा उसके परिवेश की सक्रिय अंतःक्रिया द्वारा निर्धारित बताते हैं। डॉ० दुबे की मान्यता है कि यह एक गत्यात्मक अवधारणा है, जिसकी अंतक्रिया में इन तीन प्रतिमानों को दृष्टिगत रखना जरूरी है : (1) सांस्कृतिक प्रतिमान जो प्रत्येक संस्कृति में कुछ भिन्न हो सकते हैं, (2) विज्ञानसम्मत अर्थात् सार्वभौमिक प्रतिमान तथा (3) पर्यावरण संबंधी प्रतिमान। डॉ० दुबे का मानना है कि सांस्कृतिक वैविध्य तो सदा बना ही रहेगा ओर रहना चाहिए भी-चाहे अंतःसांस्कृतिक विकास कितना भी हो-अतः जीवन की गुणवत्ता की अवधारणा के संदर्भ में सांस्कृतिक दृष्टि का महत्त्व सदा बना रहेगा।
प्रसिद्ध अर्थशास्त्री जे०डी० सेठी ने लिखा है कि जीवन की गुणवत्ता का आर्थिक आधार एक ऐसी व्यवस्था स्थापित करना है जिसमें दरिद्रता न हो-उसका तात्पर्य एक समृद्ध समाज होना नहीं है। सेठी मानते हैं कि विकास का अर्थ गरीबी का अभाव है, समृद्धि की रचना नहीं-खासतौर पर तब जबकि यह समृद्धि प्राकृतिक संसाधनों और पर्यावरणीय संतुलन की कीमत पर रची जाती है।
डॉ० सेठी की मान्यता है कि आत्मबोध का एक महत्त्वपूर्ण पहलू उस स्वार्थ के सिद्धांत का न्यूनीकरण है, जो आधुनिक आर्थिकी का आधार है। इसके लिए महात्मा गांधी द्वारा प्रस्तावित नैतिक आर्थिकी को स्वीकार करने की जरूरत है जो दलित-केंद्रित, पीड़ितोन्मुख और अध्यात्म-निर्देशित हो। वह मानते हैं कि मानवीय स्वातंत्र्य और मानवाधिकारों की गारंटी जीवन की गुणवत्ता की संपूर्ति के लिए आवश्यक शर्त है और इस मानवाधिकार विमर्श में शेष जीवन का संरक्षण अर्थात् पर्यावरण-संतुलन भी आवश्यक रूप से शामिल है। वह गुणात्मक जीवन की मूलभूत आवश्यकताओं में मास्लो की सूची से सहमति प्रकट करते हैं, जिसे मौटे तौर पर पांच भागों (1) भौतिक आवश्यकताओं (2) सामाजिक आवश्यकताओं, जो समाज के सदस्य के रूप में व्यक्ति के लिए जरूरी है (3) मानसिक आवश्यकताओं (4) सांस्कृतिक आवश्यकताओं तथा (5) आध्यात्मिक आवश्यकताओं में वर्गीकृत किया जा सकता है।
लेकिन प्रचलित आर्थिकी इन आवश्यकताओं को पूरा नहीं कर सकती क्योंकि वह सामाजिक स्तर भेद को स्वीकार कर चलती है। इसका विकल्प महात्मा गांधी द्वारा प्रस्तावित आर्थिकी ही हो सकती है क्योंकि वही एक ऐसा विचार है जो एक अहिंसक उत्पादन-पद्धति, शोषणरहित लाभ-वितरण तथा अहिंसक स्वामित्व का प्रस्ताव करता है। उसे, स्वयं गांधी जी की पदावली का सहारा लें तो, नैतिक राजनैतिक अर्थशास्त्र कहा जा सकता है। गुणात्मक जीवन का तात्पर्य है एक अहिंसक जीवन क्योंकि गुणवत्ता का प्रत्यय केवल आर्थिक नहीं, बल्कि मूलतः नैतिक है।
- नंदकिशोर आचार्य
जीवन-त्याग : जीवन-त्याग के कई प्रकार हैं। पहला है आत्महत्या। आत्महत्या हिंसा है, स्वयं के प्रति हिंसा। आत्महत्या दो प्रकार की होती है। क्षणिक आवेग में की गई आत्म-हत्या और मनोरोगी द्वारा मानसिक अवसाद में की गई आत्महत्या। दोनों में ही निर्णय मानसिक असंतुलन की स्थिति में लिया होता है। दोनों में ही उस समय-विशेष में पागलपन की मनःस्थिति में लिए निर्णय होते हैं और पागलपन की स्थिति में लिए गए निर्णय को कानूनी मान्यता नहीं है। यह व्यक्ति-विशेष का स्वेच्छा से लिया गया निर्णय नहीं माना जाता, क्योंकि उसका मन-मस्तिष्क ही उस समय स्वयं के वश में नहीं होता। यह टेंपररी इनसेनिटी में लिया गया निर्णय होता हैं। यह हिंसा की श्रेणी में आता है। आवेश, आवेग, अवसाद या मानसिक संताप में मनुष्य अपना विवेक खो बैठता है। आत्मघात के निर्णय और उसे क्रियान्वित करने के बीच सुविवेक से सोचने का समय नहीं होता। अतः, यह हत्या की श्रेणी में आता है, जो हिंसा है। आत्महत्या का प्रयास अपराध है। क्षणिक आवेग में आत्महत्या के प्रयास को, अगर संभव हो तो, रोकना व्यक्ति का दायित्व है। ऐसा न करना या किसी को आत्महत्या के लिए प्रेरित करना या उकसाना हिंसा है।
लेकिन, हर सक्षम व्यक्ति को भरपूर मर्यादित जीवन जीने और व्यक्तिगत स्वतंत्रता का मौलिक अधिकार है। अपने शरीर और जीवन-शैली पर पूर्ण अधिकार है, बशर्ते निर्णय तर्क संगत हों, मानसिक क्षमता और स्वतंत्रता से लिए गए हों और वे किसी दूसरे के मौलिक अधिकारों और स्वतंत्रता को प्रभावित न करते हों। अमर्यादित जीवन जीने के लिए किसी को बाध्य नहीं किया जा सकता। उसे देह-त्याग का अधिकार है। देह-त्याग का निर्णय सोच समझ कर सुविवेक से लिया गया निर्णय होता है जो व्यक्तिगत स्वतंत्रता के मौलिक अधिकार की श्रेणी में आता है। अपना अमर्यादित जीवन परिवार और समाज पर थोपना वे एक प्रकार की हिंसा मानते हैं।
तो क्या इच्छामृत्यु व्यक्ति का मौलिक अधिकार है? इच्छामृत्यु स्वयं में मौलिक अधिकार नहीं है। लेकिन, अपने जीवन और शरीर के बारे में निर्णय लेने का उसे मौलिक अधिकार है, अगर ऐसे निर्णय के फलस्वरूप उसकी मृत्यु भी हो तो भी, बशर्ते यह निर्णय सक्षम व्यक्ति द्वारा सुविवेक से लिया गया स्वतंत्र निर्णय हो।
जैसे अगर मैं खाना न खाऊं तो आप मुझे जबर्दस्ती नहीं खिला सकते। अगर मैं स्वेच्छा से, सोच विचार कर खाना छोड़ दूं, यह जानते हुए कि ऐसा करने से मेरी मृत्यु हो जाएगी, और ऐसा करने कि न आवश्यकता है और न बाध्यता, तो आप मुझे फोर्स फीड नहीं कर सकते। ऐसा करना शारीरिक आक्रमण होगा, व्यक्तिगत स्वंतत्रता का हनन व हिंसा होगी।
सवाल उठता है कि फिर अनशन करने वाले या भूख हड़ताल पर बैठने वालों को पकड़कर बलपूर्वक क्यों खिलाते हैं? क्या यह हिंसा नहीं है?
दरअस्ल, वे भूख हड़ताल या अनशन अपने शरीर के लिए नहीं करते, बल्कि दूसरे से अपनी बात मनवाने के लिए करते हैं। भूख हड़ताल अमर्यादित जीवन न जीने के लिए देह-त्याग के समकक्ष नहीं है। दूसरों के विरुद्ध यह एक हथियार के रूप में प्रयोग किया जाता हैं। जिनके विरुद्ध इसका प्रयोग किया जाता हैं, उनकी स्वतंत्रता को प्रभावित करता है। अतः, यह विधि सम्मत नहीं है, मान्य नहीं है। भूखहड़ताल हिंसा नहीं है। इसका अधिकार व्यक्ति को है। लेकिन इससे मरने की धमकी के आगे न झुकना या उचित हो तो फोर्स फीड करना भी हिंसा नहीं माना जाता।
क्या संथारा, संल्लेखना द्वारा देहत्याग आत्महत्या नहीं है और कानूनन मान्य है? संथारा आत्महत्या नहीं है, क्योंकि यह असंतुलित मानसिकता में आवेग या विषाद में लिया गया निर्णय नहीं है। धार्मिक आस्था में लिया गया निर्णय भी मान्य होता है। जैसे एक धार्मिक पंथ है, जे होवाज विटनेस। उसके अनुयाई ट्रांसफ्यूजन नहीं करवाते, इसे वे अपने धर्म के विपरीत मानते हैं। ऐसे व्यक्ति को अगर ब्लड ट़ंसफ्यूजन की आवश्यकता हो और यह बताने के बाद भी कि उसके बिना उसकी मृत्यु हो सकती है, वह मना कर दे, हम उसे ट्रांसफ्यूजन नहीं कर सकते। इसी प्रकार धर्म अनुयाइयों का संथारा का निर्णय लेकर खान-पान त्यागना उसका अधिकार है-बशर्ते ऐसा निर्णय स्वतंत्र हो और यह निश्चय हो कि यह किसी प्रकार के प्रभाव या दबाव में लिया गया निर्णय नहीं है। धार्मिक आधार पर ही नहीं, व्यक्तिगत स्वतंत्रता के आधार पर भी यह विधिसम्मत निर्णय है, कानूनन मान्य है। संथारा भूख हड़ताल या अनशन नहीं है।
जे होवाज विटनेस की मान्यता के आधार पर अगर कोई रोगी मरना चाहे तो उसकी मदद करना क्या चिकित्सक का दायित्व है? या मर्सी किलिंग का अधिकार चिकित्सक को है?
यह मर्सी किलिंग नहीं है। सवाल किसी को मारने या मरने में मदद का नहीं है। चिकित्सा में व्यक्ति-विशेष की स्वीकृति के बिना चिकित्सक कुछ नहीं कर सकते। अगर एक सक्षम व्यक्ति सोच-समझ कर साफ तौर से मना कर दे तो वे उसके निर्णय के विपरीत उसके शरीर पर चिकित्सक कुछ नहीं कर सकते-बशर्ते उसका यह निर्णय यह जानने के बाद हो कि उसे क्या नुकसान हो सकता है। सक्षम व्यक्ति की स्वीकृति के विपरीत कुछ भी करना हिंसा की श्रेणी में आता है।
अगर रोगी निर्णय लेने की स्थिति में न हो तो निर्णय अभिभावक का होता है। अगर अभिभावक भी न हो तो चिकित्सक निम्न चार परिस्थितियों में बिना स्वीकृति के भी इलाज कर सकता है बशर्ते-
(1) रोगी स्वयं निर्णय लेने में सक्षम नहीं है।
(2) कोई अभिभावक निर्णय लेने के लिए भी नहीं है।
(3) रोगी की अवस्था गंभीर है।
(4) उसकी जीवन रक्षा के लिए तुरंत कार्यवाही करना आवश्यक है।
यह जीवन रक्षा के लिए है, अतः सर्वथा अहिंसक है।
इच्छा मृत्यु और मर्सी किलिंग में मौलिक भेद है। मर्सी किलिंग में मृत्यु की इच्छा तो व्यक्ति विशेष की होती है, लेकिन उसको मारने का निर्णय और उपाय आपको करना है। उसे सकर्म कर मारना है या मरने में सकर्म सहयोग करना मर्र्सी किलिंग है। यथा, उसे घातक इंजेक्शन लगाकर मारना है या घातक दवा या साधन उपलब्ध करना है, जिससे वह मर सके। यहां मूल प्रश्न मरने के अधिकार का नहीं, वरन् मारने वाले के अधिकार और दायित्व का है। कानूनन किसी को भी मारा नहीं जा सकता, बिना निश्चित कानूनी प्रक्रिया को अपनाए।
किसी को मरने का अधिकार हैका मतलब यह नहीं है कि उसको मारने का उत्तरदायित्व चिकित्सक का है। मारने का अधिकार तो कतई नहीं है। पहले मरने के अधिकार को देखें।
संथारा या संल्लेखना द्वारा इच्छा मृत्यु के निर्णय के बारे में विचार कर चुके हैं। दूसरा एक व्यक्ति है, जो मानसिक रूप से सक्षम और संतुलित है और शारीरिक रूप से ऐसी व्याधि से ग्रस्त है जिसे वह अपनी राय में सार्थक जीवन, या मर्यादित जीवन जीने योग्य नहीं मानता। यथा, एक व्यक्ति जिसके दोनों गुर्दों ने काम करना बंद कर दिया है और वह डायलीसिस के सहारे जिंदा है। यह अंतःस्थिति (टर्मिनल कंडीशन) नहीं है। वह मरणासन्न भी नहीं है। लेकिन, जीने का सहारा डायलीसिस हटाते ही स्थिति मरणासन्न हो जाएगी। अगर ऐसा व्यक्ति पूरे होश-हवास में यह निर्णय करता है कि उसकी डायलीसिस न की जाए तो क्या जबरन उसकी डायलीसिस करना उचित होगा? क्या डॉक्टर उसकी इच्छा के विपरीत ऐसा कर सकता है? अन्य एक व्यक्ति, जिसका पूरा शरीर लकवाग्रस्त है और जो महज कृत्रिम श्वसन यंत्र के सहारे जिंदा है, अगर चाहता है, निर्णय करता है कि उसका यंत्र हटा दिया जाए तो क्या जबरन कृत्रिम यंत्र चालू रखना उचित होगा? क्या किसी को जबरन जिंदा रखना विधिसम्मत है?
सक्षम रोगी का निर्णय विधिसम्मत है, लेकिन उसको मारने की कार्यवाही को अंजाम देने वाला चिकित्सक होगा। क्या चिकित्सकों को इसकी वैधानिक छूट दी जानी चाहिए? ऐसी छूट के दुरुपयोग की सीमाएं काफी हैं। अतः, अंतिम कर्म जिससे मृत्यु होगी, वह चिकित्सक करे, यह उचित नहीं है। इसके विपरीत चिकित्सक ऐसे साधन उपलब्ध करा सकता है, जिससे मरने की अंतिम क्रिया स्वयं व्यक्ति को करनी पड़े, न कि चिकित्सक हो। यह पेसिव यूथिनेशिया है। विश्व के मात्र कुछ देशों में यह मान्य है, भारत में नहीं।
यहां पर यह भी ध्यान देने योग्य है कि उपरोक्त दोनों स्थितियों में डायलिसिस हटाने पर या वेंटीलेटर हटाने पर, व्यक्ति की मृत्यु बड़ी कष्टदायक और दर्दनाक होती है। शांत या सुखद मृत्यु नहीं। इसको दया मृत्यु की संज्ञा नहीं दी जा सकती। कानून सम्मत होने के बावजूद यह हिंसक कार्य होगा।
तो क्या ऐसे केस में घातक इंजेक्शन देकर उसे सुख की नींद सुलाना एक चिकित्सक के लिए उचित नहीं होगा?
शायद उचित हो। अपने आप में सही लगता है। लेकिन मारने के निर्णय की छूट, मान्यता, या अधिकार चिकित्सक को देना, खासकर हमारे देश में जहां कोई भी चिकित्सा कर सकता है, डॉक्टर बन सकता है, क्या उचित होगा? इसके दुरुपयोग की काफी संभावनाएं हैं, जो एक व्यापक हिंसा का रूप ले सकती है।
इसके विपरीत एक रोगी ऐसा है जो ब्रेन डैड है, ब्रेन स्टेम डैड है, जिसके अपने आप जीने के आसार नहीं हैं, जो केवल कृत्रिम श्वास यंत्र के सहारे महज श्वास लेता रहेगा और इसी वजह से उसका हृदय चलता रहेगा, ऐसे व्यक्ति को महज श्वास लेने के लिए रखना चिकित्सकीय कार्य नहीं हैं। महज इसलिए कि कोई इसके लिए खर्चा उठाने को तैयार है, यह चिकित्सा कर्म नहीं हो जाता। यह मृत व्यक्ति के प्रति हिंसा नहीं तो अमर्यादित कर्म अवश्य है।
उपरोक्त श्रेणी में वे रोगी नहीं आते, जिनका सेरीब्रल कोर्टेक्स (उच्च स्तरीय मस्तिष्क) गंभीर रूप से क्षतिग्रस्त हो चुका है, लेकिन ब्रेनस्टेम ठीक है, जो श्वास और हृदय का संचालन कर रहा है। ऐसा व्यक्ति संज्ञाहीन होता है, लेकिन श्वास और हृदय की प्रक्रिया यथावत् होती है। इसको वेजीटेटिव स्टेट कहते हैं। ऐसे व्यक्ति को टयूब से खाना देकर लंबे समय तक जिंदा रखा जा सकता है। वह एक जीवित लाश के बतौर होगा। उसका संज्ञा ज्ञान कभी नहीं लौटेगा, कम से कम यथेष्ठ संज्ञा ज्ञान तो कभी नहीं। उसकी टयूब हटाकर या टयूब से खाना देना बंद करने पर वह कुछ ही दिनों में मर जाएगा। टयूब से खाना न देने का निर्णय हिंसा होगी या दया, यह विवाद का विषय है।
यूथिनेशिया या दया मृत्यु भी इस संबंध में विचारणीय है। वे रोगी जिनका रोग लाइलाज है, जिससे समयोपरांत या अल्प समय में मृत्यु होना विदित है, रोग ऐसी स्थिति में पहुंच गया जो अत्यंत कष्टदायक है और ऐसा व्यक्ति चाहता है कि उसे मौत की नींद सुला दिया जाए तो क्या चिकित्सक को उसके कष्ट निवारण के लिए मारना चिकित्सकीय कर्म होगा? यथा, स्तन कैंसर जो हाथ को जाने वाली नब्ज तक पहुंच गया है और नब्ज को जकड़ने के कारण बड़ा कष्टदायक है। कैंसर स्वयं में अंत स्थिति में नहीं पहुंचा है, लेकिन कष्टदायक है। मात्र कष्ट निवारण के लिए ऐसे व्यक्ति को मारने की स्वतंत्रता या अधिकार अगर चिकित्सकों को दिया गया तो रोगी की बेचारगी का लाभ उठाकर वे इसका दुरुपयोग करेंगे। पीड़ा कम करने की आज अनेक औषधियां हैं और अनेक विधियां है। पीड़ा निवारण होना चाहिए, इसके लिए मनुष्य को मारने की स्वतंत्रता नहीं। मारना अचिकित्सकीय और अनैतिक कर्म है, हिंसा है।
चिकित्सक के लिए कुछ कर के रोगी को मारने की प्रक्रिया के खिलाफ आग्रह तो समझा जा सकता है क्योंकि मारना, बतौर चिकित्सकीय प्रक्रिया, खतरनाक है, जिसका घातक दुरुपयोग हो सकता है। लेकिन, निरर्थक और व्यर्थ की चिकित्सा कर एक मरणासन्न रोगी को जीवित रखना, जो वस्तुतः मृत्यु को लंबा करना मात्र है, क्या उचित है? ऐसे में चिकित्सक को या चिकित्सकों के एक समूह को क्या निर्णय लेने का अधिकार नहीं देना चाहिए?
यह जटिल प्रश्न है। आइए इस पर भी विचार कर लें। मैं अपना केस बताता हूं। मेरी मां 80 वर्ष से ऊपर की थी। उनका कहना था वह अपना भरपूर जीवन जी चुकी हैं। उन्होंने मुझ से कहा, कि जब मेरा समय आए तब तू मुझे अस्पताल मत ले जाना और आई०सी०यू० में भर्ती कर मेरी दुर्गति मत करना। मेरा सर अपने घुटने पर रखकर गीता पाठ करना।
यह हमारी संस्कृति के अनुरूप था। इसे आज की भाषा में अग्रिम आदेश या एडवांस डायेरेक्टिव या लिविंग विल कहते हैं। इसी प्रकार कोई गंभीर रोगग्रस्त व्यक्ति यथा जिसका हृदय काफी क्षतिग्रस्त हो चुका है, या जो लकवे से ग्रसित है, अगर ये कहता है कि मेरी हृदय गति या श्वास गति रुक जाए तो मुझे वापस जिलाने की चेष्टा मत करना तो उनका ऐसा निर्णय बतौर अग्रिम आदेश मान्य होना चाहिए। यह इच्छा मृत्यु नहीं है। इसे आज की चिकित्सकीय भाषा में डू नोट रिसेसीटेट ओर्डर (डी०एन०आर०) कहते हैं। ऐसा निर्णय करने का अधिकार एक मानसिक रूप से सक्षम व्यक्ति को है। उसे न मानना अनैतिक है, हिंसा है।
लेकिन क्या एक चिकित्सक ऐसे डी०एन०आर० के अग्रिम आदेश दे सकता है? ऐसे अग्रिम आदेश वह तभी देगा जब उसे मालूम है कि रिसेसीटेट करना (वापस जिलाना) एक व्यर्थ की प्रक्रिया होगी क्योंकि इससे उस रोगी को कोई सार्थक जीवन नहीं मिलने वाला। यथा, एक रोगी जो गंभीर मस्तिष्कघात के कारण भर्ती हुआ है। अगर उसको हृदयघात होता है, या उसकी हृदय गति रुक जाती है तो क्या उसे कार्डियाक मेसाज देकर जीवित करना उचित होगा? या ऐसा रोगी जिसका कैंसर काफी फैल चुका है और अब मस्तिष्क में फैलने के कारण लकवाग्रस्त होकर आया है, उसका श्वास या हृदय बंद हो जाए तो क्या चेष्ठा कर उसे जिलाना रोगी के प्रति उपकार होगा?
हमारे उच्चतम न्यायालय ने आत्महत्या के प्रयास को पुनः अपराध मानने वाले निर्णय में ऐसे ही रोगियों की ओर इंगित किया है, जहां ऐसा करना अपराध नहीं है। मरणासन्न व्यक्ति को मरने देना न मर्सी किलिंग है, न आत्म-हत्या में सहयोग और न ही किसी प्रकार का अपराध, वरन् व्यर्थ की चिकित्सा अवश्य ही अनैतिक है, हिंसा है और अपराध भी।
मरने के इच्छुक व्यक्ति को सकर्म सहयोग करके मारना अर्थात् दया मृत्यु, सुख मृत्यु नीदरलैंड, बेल्जियम में मान्य है। भारत में यह मान्य नहीं है और यहां इसे कंसेंट किलिंग (सहमति से मारना) माना जाता है। इसे भारतीय दंड संहिता की धारा 304 के तहत हत्या नहीं पर सदोष मानव हनन का अपराध माना जाता है।
इच्छुक व्यक्ति को मारने के साधन उपलब्ध करना, जो ओरेगोन, यू०एस०ए० में मान्य है, पैसिव यूथीनेशिया या फिजीशियन एसिस्टेड सुसाइड (पास) कहलाता है। भारत में यह मान्य नहीं है और भा०द०सं० की धारा 306 के तहत आत्महत्या में सहयोग का दंडनीय अपराध माना जाता है।
मुंबई उच्च न्यायालय ने एम०एस० दुबल बनाम महाराष्ट्र राज्य 1987 ई० में माना था कि भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 के तहत जीवन के मौलिक अधिकार में जीवित न रहने का, अर्थात मरने का, अधिकार निहित है। अतः न्यायालय का सुझाव था कि धारा 309 को, जिसके तहत आत्महत्या के प्रयास को अपराध माना गया है, अनुच्छेद 21 और 14 (जीने के अधिकार और व्यक्तिगत स्वतंत्रता व समानता के अधिकार) के विपरीत मानते हुए रद्द कर दिया जाए।
उच्चतम न्यायालय की खंड पीठ ने पी० रतिनम बनाम भारत संघ, 1994 ई० में मुंबई उच्च न्यायालय के निर्णय को सही ठहराया।
लेकिन उच्चतम न्यायालय की संविधान पीठ ने 1996 ई० में उपरोक्त निर्णय को उलट दिया। उच्चतम न्यायालय ने मुंबई न्यायालय के स्वेच्छा से देह-त्याग या आत्महत्या के अधिकार के निर्णय को गलत करार दिया। उच्चतम न्यायालय के मत में भारतीय संविधान के अनुच्छेद 21 में जीवन सुरक्षा के मौलिक अधिकार में मरने का अधिकार नहीं आता। (ज्ञान कौर बनाम पंजाब राज्य, 1996 ई०)
हां, उच्चतम न्यायालय ने अपने निर्णय में यह अवश्य कहा कि मरणासन्न व्यक्ति को निरर्थक चिकित्सा न करवाकर मर्यादित मृत्यु वरण करने की स्वतंत्रता है। उन्होंने इच्छा मृत्यु और मरणासन्न व्यक्ति द्वारा उपचार की सहमति न देकर मृत्यु वरण करना अलग-अलग माना। इसके लिए न्यायालय ने एअरेडेल एन०एच०ए० ट्रस्ट बनाम ब्लांड, 1993 ई० (यू०के०) का उल्लेख किया।
- डॉ० श्रीगोपाल काबरा
जैन अहिंसा की तत्त्वमीमांसा : जैन धर्म में समता, सर्वभूतदया, संयम जैसे अनेक शब्द अहिंसा आचरण के लिए प्रयुक्त हैं। वास्तव में जहां भी राग-द्वेषमयी प्रवृत्ति दिखलाई पड़ेगी, वहां हिंसा किसी न किसी रूप में उपस्थित हो जाएगी। संदेह, अविश्वास, विरोध, क्रूरता और घृणा का परिहार प्रेम, उदारता और सहानुभूति के बिना संभव नहीं है। प्रकृति और मानव दोनों की क्रूरताओं का निराकरण संयम द्वारा ही संभव है। इसी कारण जैनाचार्यों ने तीर्थ का विवेचन करते हुए कषायरहित निर्मल संयम की प्रवृत्ति को ही धर्म कहा है। यह संयमरूप अहिंसाधर्म वैयक्तिक और सामाजिक दोनों ही क्षेत्रों में समता और शांति स्थापित कर सकता है। इस धर्म का आचरण करने पर स्वार्थ, विद्वेष, संदेह और अविश्वास को कहीं भी स्थान नहीं है। व्यक्ति और समाज के संबंधों का परिष्कार भी संयम या अहिंसक प्रवृत्तियों द्वारा ही संभव है। कुंदकुंद स्वामी ने बताया है-जं णिम्मलं सुधम्मं सम्मत्तं संजमं तवं णामं।/तं तित्थं जिणमग्गे हवेई जदि संतिभावेण।। (बो०पा०गा० 27)।
आगम ग्रंथों में कहा गया है कि राग-द्वेष का अभावरूप समताचरण ही व्यक्ति और समूह के मूल्यों को सुस्थिर रख सकता है। आत्मोत्थान के लिए यह जितना आवश्यक है, उतना ही जीवन और जगत् की विभिन्न समस्याओं के समाधान के लिए भी। वर्गभेद, जातिभेद आदि विभिन्न विषमताओं में समत्व और शांति का समाधान समता या समताचार ही है। मानवीय मूल्यों में जीवन को नियंत्रित और नीतियुक्त बनाए रखने की क्षमता एकमात्र समता युक्त अहिंसा आचरण में ही है। युद्ध, विद्वेष और शत्रुता से मानव समाज की रक्षा करने के लिए हेतु विधायक शब्द का प्रयोग करें तो वह समाचार कुटुंब, समाज, शिक्षा, व्यापार, शासन, संगठन प्रभृति में मर्यादा और नियमों की प्रतिष्ठा करता है, मानवीय मूल्यों की स्थापना करता है और प्राणी जगत् में सुख-कल्याण का प्रादुर्भाव करता है।
मूलाचार ग्रंथ में समताचार की महत्ता को बतलाते हुए लिखा है-समदा समाचारो सम्माचारो समो वा आचारो।/सव्वेसिं हिसमाणं सामाचारो दु आचारो।। (गा० 123)।
अहिंसा की मूलभावना प्राणिमात्र को जीने का अधिकार प्रदान करती है। इसलिए आचारांग सूत्र में कहा है-सब जीव संसार में जीना चाहते हैं। मरना कोई नहीं चाहता। हेमचंद्र के अनुसार एक गंदगी के कीड़े और स्वर्ग के अधिपति-इंद्र दोनों के हृदय में जीवन की आकांक्षा और मृत्यु का भय समान है। अतः सबको अपना जीवन प्यारा है। इसीलिए कहा गया है कि सोते-उठते, चलते-फिरते तथा छोटे-बड़े प्रत्येक कार्य को करते हुए यह भावना हर व्यक्ति की होनी चाहिए कि जब मेरी आत्मा सुख चाहती है तो दूसरों को भी सुख भोगने का अधिकार है। जब मुझे दुख प्यारा नहीं है तो संसार के अन्य जीवों को कहां से प्यारा होगा? अतः स्वानुभूति के आधार पर हिंसात्मक प्रवृत्तियों से हमेशा बचकर रहना चाहिए।
जैन आचार्यों ने अहिंसा क्या है, इस प्रश्न को बड़ी सूक्ष्म और सरल विधि से समझाया है। सर्वप्रथम उन्होंने हिंसा का स्वरूप निर्धारित किया। तदुपरांत उससे विरत होने की क्रिया को अहिंसा का नाम दिया। बात ठीक भी है, जब तक हम वस्तु के स्वरूप को न समझ लें, उससे संभावित हानि-लाभ से अवगत न हो जाएं तब तक उसे छोड़ने का प्रश्न ही कहां उठता है।
हिंसा का सर्वांगपूर्ण लक्षण अमृतचंद्राचार्य के इस कथन में निहित है-कषाय के वशीभूत होकर द्रव्यरूप या भावरूप प्राणों का घात करना हिंसा है। यह लक्षण समंतभद्राचार्य द्वारा प्रणीत अहिंसाणुव्रत के लक्षण जैसा ही परिपूर्ण है। सर्वार्थसिद्धि एवं तत्वार्थ-राजवार्तिक में इसी का समर्थन किया गया है। अहिंसा और हिंसा का जैसा वर्णन पुरुषार्थ-सिद्धयुपाय में है वैसा पूर्व या उत्तर के ग्रंथों में नहीं मिलता है। हिंसा के लक्षण में मन की दुष्प्रवृत्ति पर अधिक जोर दिया गया है क्योंकि अंतस् की कलुषता ही हिंसा को जन्म देती है। इसी बात को आचार्य उमास्वामी ने इस कथन से स्पष्ट किया है-प्रमत्तयोगात्प्राणव्यपरोपणं हिंसा।
प्रमादवश प्राणों के घात करने को हिंसा कहते हैं। पं० आशाधरजी ने हिंसा की व्याख्या और सरल शब्दों मेंकी है। उनका कथन है-संकल्पपूर्वक व्यक्ति को हिंसात्मक कार्य नहीं करना चाहिए। उन सब कार्यों व साधनों को, जिनसे शरीर द्वारा हिंसा, हिंसा की प्रेरणा व अनुमोदन संभव हो, यत्नपूर्वक व्यक्ति को छोड़ देना चाहिए। यदि वह गृहस्थ जीवन में उन कार्यों को नहीं छोड़ सकता तो उसे प्रत्येक कार्य को करते समय सतर्क और सावधान करना चाहिए। देवता, अतिथि, मंत्र, औषधि आदि के निमित्त तथा अंधविश्वास और धर्म के नाम पर संकल्पपूर्वक प्राणियों का घात नहीं करना चाहिए क्योंकि अयत्नाचार पूर्वक की गई क्रिया में जीव मरे या न मरे हिंसा हो ही जाती है। जबकि यत्नाचार से कार्य कर रहे व्यक्ति को प्राणिवध हो जाने पर भी हिंसक नहीं कहा जाता। वस्तुतः हिंसा करने और हिंसा हो जाने में बहुत अंतर है। निष्कर्ष यह कि संकल्प-पूर्वक किया गया प्राणियों का घात हिंसा है, और उनकी रक्षा एवं बचाव करना अहिंसा।
जैनधर्म में अहिंसा को व्रत माना गया है। वस्तुतः, हिंसात्मक कार्यों से विरत होने में कठिनता का अनुभव होने से ही अहिंसा को व्रत कह दिया गया है, अन्यथा करुणा, अहिंसा तो दैनिक कार्यों एवं सुखी-जीवन का एक आवश्यक अंग है। यह मानव की स्वाभाविक परिणति है। उसे व्रत मानकर चलना उससे दूर होना है। अहिंसा तो भावों की शक्ति है। आत्मा की निर्मलता एवं अज्ञान का विनाश है।
हिंसा की निवृत्ति और अहिंसा के प्रसार के लिए जैन धर्म में गृहस्थों के अनेक व्रत-नियमों को पालन करने का उपदेश दिया गया है। प्रत्येक कार्य को सावधानी पूर्वक करने एवं प्रत्येक वस्तु को देख-शोधकर उपयोग में लाने का विधान गृहस्थ के लिए मात्र धार्मिक ही नहीं व्यावहारिक भी है। जीवों के घात के भय से जैन गृहस्थ अनेक व्यर्थ की क्रियाओं से मुक्ति पा जाता है। प्रत्येक वस्तु को देखभालकर काम में लाने की आदत डालने से मनुष्य हिंसा से ही नहीं बचता, किंतु वह बहुत-सी मुसीबतों से बच जाता है। इसी बात को ध्यान में रखते हुए आचार्यों ने अनर्थदंडव्रतों का विधान किया है। रात्रिभोजन त्याग का विधान भी इसी प्रसंग में है। इस अवलोकन से स्पष्ट है कि जैन धर्म की अहिंसा मात्र धार्मिक न होकर व्यावहारिक भी है।
जैन साहित्य व धर्म में अहिंसा के विविध रूपों के साथ एक बात भी देखने को मिलती है कि अहिंसा का मूल स्रोत खान-पान की शुद्धि की ओर अधिक प्रभावित हुआ है। हिंसा से बचने के लिए खान-पान में संयम रखने को अधिक प्रेरित किया गया है उतना राग, द्वेष, काम, क्रोध, (जो भावहिंसा के ही रूपांतर हैं) के विषय में नहीं। इसके मूल में शायद यही भावना रही हो कि यदि व्यक्ति का आचार-व्यवहार स्वच्छ और संयत होगा तो उसकी आत्मा एवं भावना पवित्र रहेगी। किंतु ऐसा हुआ बहुत कम मात्रा में है। आज अहिंसा के पुजारियों जैनों के खान-पान में जितनी शुद्धि दिखाई देती है, मन में उतनी पवित्रता और व्यवहार में वैसी अहिंसा के दर्शन नहीं होते। अतः, यदि व्यक्ति का अंतस् पवित्र हो, सरल हो तो उसके व्यवहार व खान-पान में पवित्रता स्वयं अपने-आप आ जाएगी। जिसका अंतर प्रकाशित हो, उसके बाहर अंधेरा टिकेगा कैसे?
अहिंसा के अतिचारों में जो पशुओं के छेदन और ताड़न की बात कही गई है, वह नया तथ्य उपस्थित करती है। वह यह कि, जैनाचार्यों का हृदय मूक पशुओं की वेदना से अधिक अनुप्राणित था। यदि ऐसा न होता तो वे अहिंसा के अतिचारों में खान-पान की त्रुटियों को गिना देते, जबकि उन्होंने प्राणीमात्र के कल्याण की बात कही है। यही भावना आगे चलकर वैदिक यज्ञों की हिंसा का विरोध करती है। प्राणीमात्र को अभय प्रदान करती है। उत्तराध्ययन सूत्र में उद्घोष किया गया है यदि सचमुच, तुम निर्भय रहना चाहते हो, तो दूसरों को तुम भी अभय देने वाले बनो, निर्भय बनाओ। इस अनित्य नश्वर संसार में चार दिन की जिंदगी पाकर क्यों हिंसा में डूबे हो? यह उसी का प्रतिफल है कि वैदिक युग के कर्मकांडों और आज के हिंदू धर्म अनुष्ठानों में जमीन आसमान का अंतर आ गया है। भारतीय समाज के विकास में अहिंसा का यह कम योगदान नहीं है।
अहिंसा समाजवाद और साम्यवाद की नींव है। न केवल मनुष्यों को, विश्व के समस्त प्राणियों को समान मानना, इससे भी बड़ा कोई साम्यवाद होगा? अहिंसा महाप्रदीप की किरणें विकिरित हो उद्घोष करती हैं, महावीर की वाणी गूंजती है-जो तुम अपने लिए चाहते हों, दूसरों के लिए, समूचे विश्व के लिए भी चाहो। और जो तुम अपने लिए नहीं चाहते, उसे दूसरों के लिए भी मत चाहो, मत करो। क्योंकि एक चेतना की ही धारा सबके अंदर प्रवाहित होती है। अतः, सबके साथ समता का व्यवहार करो, यही आचरण सर्वश्रेष्ठ है। इससे तुम्हारा जीवन विकार वासनाओं से मुक्त होता चला जाएगा और निष्पाप हो जाएगा।
जैनधर्म की यही उदार दृष्टि अहिंसा को इतना व्यापक बना देती है कि उसे समूचे विश्व के साथ संबंध स्थापित करने में देर नहीं लगेगी। क्योंकि उसने संसार से पराएपन को हटाकर अपनत्व जोड़ रखा है। संसार में परायेपन का ही अर्थ है-दुःख तथा हिंसा होना। और अपनत्व का अर्थ है-सुख एवं अहिंसा होना। इस प्रकार प्राणिमात्र समता के तत्वदर्शन के आधार पर ही अहिंसा जैन-दर्शन की नीति-मीमांसा में केंद्रीय स्थान पर प्रतिष्ठित है। क्योंकि जब समूचा विश्व ही व्यक्ति का हो जाता है तो कौन उसे सत्यं, शिवं और सुंदर नहीं बनाना चाहेगा? अतः प्रत्येक प्रयत्नशील मानव को दुःख के परिहार और सुख के स्वीकार के लिए जैन संस्कृति की मूल देन अहिंसा को अपने जीवन में उतारना होगा। इस संघर्षमय जीवन से संतप्त मानव को अहिंसा की घनी और शीतल छाया में ही शांति मिल सकेगी, अन्यत्र नहीं।
द्रष्टव्य : आचारांग; अमृतचंद्र; पुरुषार्थ-सिद्धयुपाय; तत्त्वार्थसूत्र; कुंदकुंदाचार्य।
- प्रो० प्रेम सुमन जैन
जैन कथाओं में अहिंसात्मक प्रयोग :इस देश की आचार-संहिता अहिंसा की नींव पर ही विकसित हुई है। अहिंसा को ही शुद्ध, नित्य और शाश्वत धर्म कहा गया है। अहिंसा का क्षेत्र व्यापक है। किसी भी प्राणी के अधिकार का हनन न हो, उसको परिताप न किया जाए, सही अहिंसा का स्वरूप है। इस अहिंसा को जीवन में उतार लिया जाए, यही ज्ञानी होने का सार है। जैनाचार्यों का कथन है कि उन सब कार्यों को, साधनों को, विचारों को व्यक्ति यत्नपूर्वक त्याग दे, जिनसे हिंसा की प्रेरणा व अनुमोदन संभव हो। देवता, अतिथि, मंत्र, औषधि, व्यापार आदि के निमित्त तथा अंधविश्वास और धर्म के नाम पर संकल्पपूर्वक प्राणियों का घात नहीं करना चाहिए। स्व एवं पर के प्राणों की सुरक्षा के प्रति सावधानी रखने का प्रयत्न करना ही अहिंसा है। इस प्रकार अहिंसा जितना आत्मधर्म है, उतना ही वह विश्व धर्म है। जैन कथा साहित्य में अहिंसा का व्यावहारिक रूप प्रकट हुआ है।
तीर्थंकर नेमिनाथ की प्राणियों के प्रति अनुकंपा इतिहास प्रसिद्ध है। उनके जीवन की कथा तो मात्र इतना ही कहती है कि पशुओं के बाड़े को देखकर उनके अकारण वध की सूचना से उन्होंने तपस्वी-जीवन धारण कर लिया। किंतु नेमिनाथ के जीवन में इतना बड़ा परिवर्तन अचानक और अकारण नहीं हुआ था। इस घटना के द्वारा कृष्ण उन्हें कुछ सिखाना चाहते थे, किंतु नेमिनाथ अपने अहिंसक चिंतन के द्वारा सारे जगत् को ही इस घटना द्वारा बहुत कुछ सिखा गए। जन-जन के अंतर-मानस में प्राणियों की पीड़ा की अनुभूति इतनी तीव्रता के साथ शायद पहली बार ही अनुभव की गई होगी। मांसाहार के विरोध में नेमिनाथ का यह एक सफल अहिंसक प्रयोग था और, संभवतः, उसका ही यह प्रभाव था कि नेमिनाथ के समय में साधुओं का जब चातुर्मास होता था, तो वासुदेव श्री कृष्ण ने चातुर्मास में राज्य-सभा के आयोजनों को बंद करा दिया था, ताकि आवागमन, भीड़-भाड़ आदि के कारण प्राणियों की अधिकतम हिंसा से बचा जा सके।
पार्श्वनाथ का जीवन अहिंसा का जीता-जागता उदाहरण है। उन्होंने अपने पूर्व-जन्म और तपस्वी जीवन में क्षमा की साकार मूर्ति को उपस्थित किया था। वध, क्रोध, वैर, बदला आदि अनेक हिंसा के कार्यों का सामना उन्होंने अहिंसात्मक साधनों से किया। तपस्वी कमठ द्वारा प्रज्वलित पंचाग्नि में जल रहे नाग की रक्षा उन्होंने अपने कुमार-जीवन में ही की थी। यह एक ऐसा प्रतीक है, जो अहिंसा के सूक्ष्म भावों को व्यक्त करता है। यदि नेमिनाथ ने जंगल के तृण खाने वाले मूक प्राणियों को हिंसा से बचाया था, तो पार्श्वनाथ ने एक कदम आगे बढ़कर विषैले नाग की रक्षा भी अहिंसक दृष्टि से आवश्यक मानी-क्योंकि प्राणी स्वभाव का कैसा भी हो, अकारण उसका वध करने का अधिकार किसी बड़े से बड़े और धार्मिक व्यक्ति को भी नहीं है।
भगवान महावीर का जीवन-चरित अहिंसा के स्वरूप को और अधिक उजागर बनाता है। उन्होंने सर्प या संगम देवता द्वारा निर्मित विषधर नाग पर सहजता से और निर्भयता पूर्वक विजय प्राप्त कर, यह स्पष्ट कर दिया था कि शक्तिशाली व्यक्ति की भी हिंसात्मक वृत्ति टिकाउ नहीं, क्षणिक ही होती है। अहिंसक चित्त निरंतर विजयी रह सकता है। महावीर अहिंसा के विस्तार के लिए उसके मूलभूत कारणों तक पहुंचे हैं। उनके जीवन की हर घटना दूसरे के अस्तित्व की रक्षा करते हुए एवं उसके भी मन को न दुखाते हुए घटित होती है। संभवतः, परिग्रह, अनावश्यक संग्रह, दूसरे को पीड़ा पहुंचाने में सबसे बड़ा कारण है। इसीलिए भगवान महावीर ने पांचवें व्रत अपरिग्रह को एक नई दिशा प्रदान की। अनेकांतवाद द्वारा उन्होंने मानसिक हिंसा को भी तिरोहित करने का प्रयत्न किया और वीतरागता द्वारा वे आत्मिक अहिंसा के प्रतिष्ठापक बने।
जैन कथा-साहित्य में संभवतः भरत-बाहुबली के जीवन-चरित से यह पहली बार पता चलता है कि युद्ध की भूमि में भी अहिंसक युद्ध का प्रस्ताव हो सकता है। दोनों ओर की सेनाओं के हजारों प्राणियों के वध के प्रति उत्पन्न करुणा इस कथा में साकार हो उठी है। दो राजाओं के व्यक्तिगत निपटारे के लिए लाखों व्यक्तियों के मरण के आंकड़ों से नहीं, अपितु व्यक्तिगत भावनाओं और शक्ति-परीक्षण से भी उनकी हार-जीत स्पष्ट हो सकती है। इस दृष्टि से दृष्टि-युद्ध, मल्ल-युद्ध और वाक्-युद्ध आदि का प्रस्ताव इस कथा में अहिंसा का प्रतीकात्मक घोषणा-पत्र है।
नायाधम्मकहा की दो कथाएं अहिंसा के संबंध में बहुत महत्त्वपूर्ण एवं बोधपूर्ण हैं। मेघकुमार के पूर्वभव के जीवन के वर्णन-प्रसंग में मेरूप्रभ हाथी की कथा वर्णित है। यह हाथी भी आग से घिरे हुए जंगल में एकत्र छोटे-बड़े प्राणियों के बीच में खड़ा है। हर प्राणी सुरक्षित स्थान खोज रहा है। इस मेरूप्रभ हाथी ने जैसे ही खुजली के लिए अपना एक पैर उठाया कि उसके नीचे एक खरगोश का बच्चा खाली स्थान देखकर वहां आकर बैठ गया। हाथी खुजली मिटाकर अपना पैर नीचे रखना चाहता है, किंतु जब उसे पता चला कि एक छोटा प्राणी उसके पैर के सरंक्षण में आया है, तो उसकी रक्षा के लिए मेरूप्रभ हाथी अपना पैर उठाए ही रखता है। और अंततः तीन दिन-रात वैसे ही खड़े रहने पर वह स्वयं मृत्यु को प्राप्त हो जाता है, किंतु वह उस छोटे से प्राणी खरगोश तक धूप और आग की गर्मी नहीं पहुंचने देता। अहिंसा का इससे बड़ा उदाहरण और क्या होगा?
प्राकृत-कथाओं में अहिंसा की प्रतिष्ठा के लिए कई प्रयोग किए गए हैं। मानव के जीवन में अहिंसा के महत्त्व की इतनी भावना थी कि व्यक्ति यह प्रयत्न करता था कि यथासंभव हिंसा का निषेध किया जाए। सूत्रकृतांगसूत्र में आर्द्र कुमार मुनि की कथा वर्णित है। उन्होंने हिंसा के मूल कारण मांसभक्षण का युक्तिपूर्वक निषेध किया है। आवश्यकचूर्णि में अरहमित्त श्रावक के पुत्र जिनदत्त की कथा है। वह एक बार भयंकर रोग से पीड़ित हो जाता है। वैद्य उसे औषधि के साथ मांस-भक्षण आवश्यक बताते हैं, किंतु वह अपने स्वास्थ्य के लिए अन्य प्राणियों के वध से प्राप्त होने वाले मांस का भक्षण करना स्वीकार नहीं करता है। वसुदेवहिंडी की एक कथा में चारुदत्त अपनी यात्रा के लिए बकरे को मारकर उसकी खाल लेना पसंद नहीं करता, जबकि उसका मित्र उस दुर्गम प्रदेश में उसे आवश्यक बताता है।
जैन कथा साहित्य ने प्राणी-वध को रोकने एवं दूसरे को न सताने की भावना को दृढ़ करने के लिए एक कार्य यह भी किया है कि हिंसक कार्यों में लिप्त व्यक्तियों को जन्म-जन्मातंरों में मिलने वाले फल की सही तस्वीर खींची है। विपाकसूत्र की कथाएं बताती हैं कि अंडे के व्यापारी निम्नक, प्राणीवध करने वाले छणिक कसाई एवं सूरदत्त मच्छीमार को अपने हिंसक कार्यों के कारण कितनी यातनाएं सहनी पड़ी हैं। वृहत्कल्पभाष्य आदि ग्रंथों में हत्या करने वाले के लिए अनेक प्रकार की सजाएं दिए जाने का उल्लेख है। कर्मपरिणाम एवं सजा की कठोरता ने भी हिंसक भावना को क्रमशः कम करने में मदद की है। एक हिंसा दूसरी हिंसा को जन्म देती है। अतः, इससे वैर की लंबी परंपरा विकसित हो जाती है। इस बात को कई प्राकृत-कथाओं में उदाहरण देकर स्पष्ट किया है।
प्राकृत की कुछ कथाएं अहिंसा के अभय तत्त्व को उजागर करती है। कितना ही भयंकर एवं क्रोधी हत्यारा क्यों न हो, उसकी यह स्थिति अधिक समय तक नहीं टिक सकती। उसके हृदय में भी किसी घटना विशेष के द्वारा परिवर्तन लाया जा सकता है। मोग्गरपाणि यक्ष से प्रभावित अर्जुन की कथा बहुत प्रसिद्ध है। वह अपनी पत्नी के अपमान का बदला देने के लिए प्रतिदिन छः पुरुष और एक स्त्री की हत्या करता था। उसके इस उत्पात के कारण लोगों का जीना मुश्किल हो गया था, किंतु अहिंसा और अभय के पुजारी सुदर्शन श्रावक ने अर्जुन मालाकार के हृदय को भी परिवर्तित कर उसे साधक बना दिया। हत्यारा अर्जुन क्षमा की मूर्ति बन गया।
अहिंसा का अर्थ केवल हिंसा से बचना ही नहीं है, अपितु अहिंसा के अतिचारों से भी दूर रहना है। प्राकृत कथाओं में यह स्पष्ट उल्लेख है कि वध, बंधन, छेदन, अतिभारारोपण एवं दूसरे प्राणी के खान-पान के निरोध की क्रियाएं भी हिंसा हैं। इनसे बचकर ही अहिंसा का पालन हो सकता है। कहारयणकोश में इनकी सुदंर कथाएं दी है। प्राणी-वध तो दुःख देने वाला है ही, किंतु यदि किसी को कष्ट पहुंचाने एवं किसी के वध करने की बात मन में भी उत्पन्न हो जाए अथवा किन्हीं प्रतीकों के द्वारा वध की क्रिया पूरी कर ली जाए, तो भी अनेक जन्मों तक उसके दुष्परिणाम भोगने पड़ते हैं। कालक कसाई, 500 भैंसों का प्रति दिन वध करता था, इस क्रिया को रोकने के लिए उसे बंदी बनाकर रखा गया, किंतु वहां पर भी उसने अपने शरीर के मैल के 500 भैंसे बनाकर उनकी हत्या करने का संकल्प पूरा किया और उसके कारण उसे नरकों की यातना सहनी पड़ी।
प्राकृत-कथाओं के उपर्युक्त कुछ प्रसंगों से स्पष्ट है कि अहिंसा किसी जाति या वर्ग-विशेष की बपौती नहीं है। जीवन के किसी भी स्तर और कोटि का व्यक्ति अहिंसा में विश्वास रख सकता है। यथा-शक्ति वह उसे अपने जीवन में उतार सकता है। पशु जगत भी अहिंसा, अनुकंपा, पर-पीड़ा आदि का अनुभव करता है। अतः उसका जीवन रक्षणीय है। ये कथाएं यह भी उजागर करती हैं कि हिंसा की परिणति दुःखदायी ही होती है। चाहे वह किसी भी स्तर या उद्देश्य से की जाए, किंतु हिंसक कार्यों में लिप्त व्यक्ति इतना दयनीय भी नहीं है कि उसे सुधारने का अवसर ही न मिले। वह किसी भी क्षण अपनी हिंसा की उर्जा को अहिंसा की ओर मोड़ सकता है। निर्भयता और प्रेम से उसे कोई प्रेरित करने वाला मिलना चाहिए।
- प्रो० प्रेम सुमन जैन
जैन व्रत : जैन श्रमणाचार, श्रावकाचार और साधना तथा जीवनशैली का आधार है पांच महाव्रत। जैन परंपरा के प्राचीनतम ग्रंथों, अंग सूत्रों में इनका उल्लेख इस रूप में है-सर्व प्राणातिपात, मृषावाद, अदत्तादान, मैथुन, परिग्रह विरमण (स्थानांग सूत्र 5,1,1)। कालांतर में ये जिस रूप में प्रसिद्ध हुए वह है-(1) हिंसा (2) अनृत (असत्य) (3) स्तेय (चोरी) (4) अब्रह्म और (5) परिग्रह-इनसे विरत होना व्रत है (तत्त्वार्थ सूत्र)। ये व्रत ही पातंजलि योगसूत्र में यम कहे जाते हैं और अन्य अनेक धर्म-दर्शनों में विभिन्न रूप में विद्यमान हैं।
राग-द्वेष तथा असावधानी से प्राणों को पीड़ा देना या हनन करना हिंसा है। मिथ्या में प्रवृत्त होना असत्य है। अपने अधिकार क्षेत्र के बाहर की वस्तु को लेना चौर्य है। मैथुन अथवा कामवासना में प्रवृत्त होना अब्रह्मचर्य है। मूर्च्छाजनित आसक्ति परिग्रह है। जिन ऋ णात्मक भावनाओं का यहां निषेध किया है, वे सभी हिंसा की प्रेरक हैं। असत्य भाषण तत्काल सुनने वाले को उत्तेजित करता है और हिंसक प्रतिक्रिया होती है। अनभिज्ञता के कारण प्रतिक्रिया न भी हो तो असत्य को सत्य मानकर जो कोई भी कार्य किया जाता है, वह अंततः हानिकारक होता है, अतः हिंसा की श्रेणी में आता है। स्तेय अर्थात् चोरी सीधे ही हिंसक कार्य है और वह चोट पहुंचाने या मार देने से भी अधिक गहरी हिंसा है क्योंकि वह दीर्घकाल तक एकाधिक प्राणियों को कष्ट देती है। अब्रह्मचर्य अथवा कामासक्ति भी हिंसा के व्यापक प्रसार का हेतु है। परिग्रह अर्थात् संग्रह करने का मोह सभी हिंसाओं का स्रोत है, क्योंकि यह मूलतः स्वार्थजनित है और अंधा स्वार्थ हिंसा को असीम उर्जा प्रदान करता है। इस प्रकार अहिंसा में शेष चारों व्रत समाविष्ट हो जाते हैं क्योंकि वे अहिंसा के प्रेरक और सहयोगी हैं। अहिंसा ही सब व्रतों का आधार और ध्येय दोनों है।
महत्ता के आधार पर उपरोक्त पांच महाव्रतों का क्रम है अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह। किंतु इनके पालन की दृष्टि से देखें तो क्रम उल्टा हो जाता है और सर्वप्रथम अपरिग्रह से शुरु करना होता है क्योंकि अपरिग्रह के पालन के अभाव में शेष व्रतों से होते हुए अहिंसा तक नहीं पहुंचा जा सकता। यों आत्मिक विकास के अहिंसा-आधारित मार्ग पर पहला चरण अपरिग्रह है। इस पांचवें व्रत को हम प्रथम व्रत अहिंसा के आचरण की आधारभूमि कह सकते हैं। जीवन व्यवहार में अहिंसा पालन की शुरुआत पांचवें व्रत अपरिग्रह से होती है।
अपरिग्रह का अर्थ परिग्रह का अभाव और परिग्रह का अर्थ है किसी वस्तु या भाव को घेरकर जकड़ कर पकड़ना। तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार मूर्छा परिग्रह है। किसी के प्रति असंयमित होने तक लगाव की अति ही परिग्रह है। इसमें लगाव, मोह आदि जुड़ाव के सभी भाव शामिल हैं। परिग्रह का सामान्य अर्थ है वस्तुओं के प्रतिमोह और उनके संकलन की प्रवृत्ति। यह मोह संकलन हेतु हिंसा करवाता है, उसमें बाधा आने पर हिंसा करवाता है और उससे वंचित किए जाने पर हिंसा करवाता है। यही नहीं अनियंत्रित उपभोग को भी यही मोह प्रेरित करता है।
परिग्रह केवल वस्तुओं का ही नहीं विचारों का भी होता है, जो अन्य सभी प्रकार के परिग्रह का प्रेरक होता है। इस मानसिक परिग्रह का स्रोत है व्यक्ति का अपने विचारों और धारणाओं पर मोह। यही मोहजनित परिग्रह हमारे विकास को भी अवरुद्ध करता है क्योंकि हम पुरातन के अनुपयोगी अंश से मात्र मोह के कारण चिपके रहते हैं। उपयोगी नूतन को अवकाश नहीं देते। इसी कारण विकास के पथ पर अग्रसर होने के लिए परिग्रह पर नियंत्रण का अभ्यास साधना की प्राथमिक भूमिका है।
जैन आचार-संहिता में मोक्ष-प्राप्ति की साधना के स्तर तक पहुंचने के लिए जो मार्ग निर्धारित किया है उसे समाहित रूप में देखा जाए तो विकास के हर स्तर के लिए उपयोगी क्रमिक आचार संहिता की अवधारणा प्रकट होती है। सर्वविरति के इस उच्चतम स्तर से जैसे-जैसे नीचे उतरते हैं तो व्रतों की एक सुगठित, श्रृंखलाबद्ध और सटीक व्यवस्था इन व्रतों के आयामों या शाखाओं के रूप में बताए गए अणुव्रत, शीलव्रत, उनकी सहयोगी समितियों, गुप्तियों आदि में दिखाई पड़ती है-
उपरोक्त पांच महाव्रत साधु के लिए हैं। श्रावक के लिए कम कठोरता लिए वे ही पांच अणुव्रत (स्थूल-प्राणातिपात विरमण अथवा अहिंसा अणुव्रत, स्थूल-मृषावाद विरमण अथवा सत्य अणुव्रत, स्थूल-अदत्तादान विरमण अथवा अस्तेय अणुव्रत, स्वदार संतोष अथवा ब्रह्मचर्य अणुव्रत, और इच्छा-परिमाण अथवा अपरिग्रह अणुव्रत-स्थानांग सूत्र) तथा इनके सहायक और पोषक व्रतों के रूप में सात शीलव्रत (तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत) बताए हैं। इस प्रकार सामान्य जन के लिए बारह श्रावक व्रत प्रचलित हैं।
श्रावक के बारह व्रत हैं : पांच अणुव्रत-(1) अहिंसा अणुव्रत : संक्षेप में इसका अर्थ है निरपराध जीवों की, हास्य, लोभ, धर्म, अर्थ, काम, मूढ़ता, दर्प, क्रोध, मोह, अज्ञानता इत्यादि कारणों से हिंसा न की जाए। (2) सत्य अणुव्रत : परिस्थिति के अनुसार यथा संभव मिथ्या का त्याग। (3) अस्तेय या अचौर्य अणुव्रत : जिस किसी भी वस्तु पर अपना भौतिक या नैतिक अधिकार नहीं बनता, उसे लेने का निषेध। (4) ब्रह्मचर्य अणुव्रत-सामाजिक नियमानुसार अपनी विवाहित पत्नी से संतोष। (5) अपरिग्रह अणुव्रत : अर्थ, वस्तु, सुविधा, साधन आदि के संग्रह को सीमित करना। तीन गुणव्रत-(6) अनर्थदंडविरमण : व्यर्थ की हिंसा का त्याग। (7) दिग्व्रत : सभी दिशाओं में अपने कार्य हेतु जाने-आने की सीमा का निर्धारण। (8) उपभोग-परिभोग-परिमाण व्रतः उपभोग-परिभाग की सभी वस्तुओं की आवश्यकतानुसार सीमा का निश्चिय। चार शिक्षाव्रतः (9) सामायिक : समस्त सांसारिक कायरें से परे हट कर कम से कम 48 मिनट (एक मुहूर्त) तक धर्मध्यान करना। (10) देशावकाशिकव्रत : दिग्व्रत में ग्रहण की हुई दिशाओं की सीमा तथा अन्य सभी व्रतों में ली हुई मर्यादाओं को और भी संक्षिप्त करना। (11) प्रोषधोपवास व्रत : आहार, शरीर-शृंगार, व्यापार आदि सभी कायरें को त्यागकर एक दिन-रात या अधिक समय के लिए उपाश्रय आदि शांत स्थान में रहकर धर्मचिंतन करना। 12) अतिथि संविभाग व्रत : द्वार पर आए अतिथि को अपने न्यायोपार्जित धन में से विधिपूर्वक आहार आदि देना।
इन व्रतों के पालन को स्थिरता प्रदान करने में सहायक (प्रत्येक व्रत की पांच-पांच के हिसाब से) पच्चीस भावनाएं कही गई है (समवायांग, 25) : (अ) अहिंसा व्रत की भावनाएं : ईर्यासमिति-स्व-पर को कष्ट न हो, इस विवेकपूर्वक सभी शारीरिक क्रियाएं करने का चिंतन। मनोगुप्ति-मन को अशुभ ध्यान से हटा कर शुभ ध्यान में लगाना। एषणा समिति-वस्तु के आवश्यकतानुसार खोज, ग्रहण व उपयोग करने में सावधानी रखना। आदान निक्षेपण समिति-वस्तु को लेने-त्यागने तथा उठाने-रखने में सावधानी रखना। आलोकित पान-भोजन-पूर्ण प्रकाश में ही देख-समझ कर भोजन लेना और खाना। (ब) सत्यव्रत की पांच भावनाएं : अनुवीचि भाषण-विचारपूर्वक बोलना। क्रोध-लोभ-भय-हास्य त्याग-क्रोध, लोभ, भय तथा हास्य, इन चारों के आवेग से परे होकर बोलना। (स) अस्तेय (अचौर्य) व्रत की पांच भावनाएं : अनुवीचि अवग्रह याचना-उपयोग हेतु स्थान की विचारपूर्वक याचना करना। अभीक्ष्णावग्रह याचना-अपने मांगने से उस स्थान या वस्तु के स्वामी को तनिक भी कष्ट न हो, इस बात का विचार रखना। अवग्रहावधारण-अपने अवग्रह (कल्प या मर्यादा) के परिमाण को मांगने के समय निश्चित करना। साधर्मिक अवग्रह याचना-जिस स्थान का उपयोग साधर्मिक पहले से कर रहा हो उस स्थान की याचना उससे ही करना। अनुज्ञापित भोजन-पान-विधिपूर्वक लाए हुए भोजन-पान को गुरु को दिखाकर, उनकी आज्ञा लेकर ग्रहण करना।
दिगंबर परंपरा में अस्तेयव्रत की पांच भावनाएं दूसरे प्रकार से कही गई हैं : शून्यागार-पर्वत कंदरा, आदि खाली स्थान को ग्रहण करना। विमो-चितावास-दूसरों द्वारा (त्यक्त) छोड़े हुए मकान आदि में रहना। परोपरोधाकरण-दूसरों को उस स्थान पर ठहरने से नहीं रोकना। भैक्ष्यशुद्धि-शास्त्रविहित भिक्षा की विधि में न्यूनाधिक नहीं करना। सधर्माऽविसंवाद-सधर्मियों में विसंवाद नहीं करना।
(द) ब्रह्मव्रत की पांच भावनाएं : असंसक्तवास समिति-अपने से विजातीय (पुरुष, स्त्री, पशु और नपुंसक) व्यक्ति ने जिस शय्या-आसन का उपयोग किया हो, उसका त्याग करना। स्त्रीकथाविरति-स्त्रियों के काम, मोह, श्रृंगार, सौंदर्य आदि संबंधी बातें न करना। स्त्रीरूपदर्शनविरति-विजातीय व्यक्ति के मनोहर और कामोत्तेजक अंगों को न देखना। पूर्वरत-पूर्वक्रीड़ितविरति-पहले की हुई रति-क्रीड़ाओं का स्मरण न करना। प्रणीत आहार त्याग-कामोत्तेक भोजन न करना।
(य) अपरिग्रह व्रत की पांच भावनाएं : स्पर्शन-रसना-घ्राण-चक्षु-श्रोत्र-इन पांच इंद्रियों के मनोज्ञ विषयों में राग और अमनोज्ञ विषयों में द्वेष की भावना न रखना।
जैन परंपरा में इन सब व्रतों के पालन के तीन आयामों और तीन साधनों पर बल दिया गया है। मन, वचन और काया से स्वयं न करना, अन्यों से न करवाना और किसी के करने का अनुमोदन नहीं करना। यह इन्हें मात्र भौतिक या दैहिक स्तर से उठाकर सामाजिक, मानसिक व आत्मिक स्तर पर ले जाता है। इन व्रतों के साथ सावधानी के लिए अतिचारों का उल्लेख भी है।
सामान्य अर्थ में ये व्रत निषेधात्मक लगते हैं और हैं भी, क्योंकि कठोर व्रत के पालन करने में निषेध सहयोगी होता है। किंतु व्रतों में निवृत्ति और प्रवृत्ति दोनों अंश अंतर्निहित होते हैं, तभी व्रत पूर्णता प्राप्त करता है। सत्कार्य में प्रवृत्ति के लिए प्राथमिक आवश्यकता यह है कि उसके विरोधी सभी दुष्कायरें से निवृत्ति की जाए। इस दुष्कार्य से निवृत्ति का वांछित विकास के रूप में फल तभी प्राप्त होता है जब साथ-साथ सत्कार्य में प्रवृत्ति हो। यह प्रवृत्ति ही निवृत्ति की भावना को दृढ़ता और स्थिरता प्रदान करती है। इसी दृष्टि से प्रवृत्ति की चार भावनाओं का व्रतों के साथ ही उल्लेख है। मैत्री भावना-मैत्री का अभिप्राय है सभी प्राणियों की हित चिंता करना। प्रमोद भावना-गुणों का विचार करके उन गुणों में हर्षित होना, प्रमोद भाव है। कारुण्य भावना-दीनव्यक्तियों पर अनुग्रह का भाव रखना, अथवा दुःखी प्राणियों के कष्ट को मिटाने का भाव करुणा है। माध्यस्थ भावना-दुर्जनों और अविनयी पुरुषों (प्राणियों) पर द्वेष न करना, अपितु माध्यस्थ्य भाव रखना।
इस आध्यात्मिक साधना का चरम या अंतिम व्रत है संलेखना। मृत्यु का समय निकट जानकर क्रमशः आहार त्यागकर क्रमशः कषायों और शरीर दोनों को मृत्युपर्यंत कृष करते रहना अर्थात् संपूर्ण आत्मोन्नमुखी चिंतन में लीन होकर कायोत्सर्ग करना। इस व्रात्य परंपरा में इन आधारभूत व्रतों के अतिरिक्त तपादि साधनाओं संबंधी अन्य अनेक व्रतों का उल्लेख भी है।
इस लंबी सूची के सभी व्रत अपनी सीमा में कठोर लगते हैं, किंतु जैसे ही स्तर परिवर्तन होता है, उनमें अंतर्निहित लचीलापन समझ में आने लगता है। व्रतों के उत्कृष्ट पालन का चरम बिंदु है-वीतराग अवस्था या केवलज्ञान प्राप्ति। उस स्तर पर व्रत स्वभाव बन जाते हैं और साधना के इस बिंदु पर पहुंचते-पहुंचते अन्य सभी व्रत अहिंसा में सिमट जाते हैं। इससे पूर्व इन व्रतों के व्यावहारिक और आध्यात्मिक पहलू एक अद्भुत सामंजस्य के साथ चलते हैं और योग्यतानुसार निचले स्तरों को बड़े सटीक रूप में परिभाषित किया गया है। साधक जीवन और गृहस्थ जीवन के किसी भी स्तर से आरंभ कर अहिंसक विकास की ओर बढ़ने का मार्ग इस व्रत व्यवस्था में साफ दिखाई पड़ता है।
- सुरेन्द्र बोथरा
झिग यांगकुओ : द्रष्टव्य : स्कॉट, जे०पी०; प्रकृति-पालन विवाद।
टेरेसा, मदर : मदर टेरेसा (1910-1997 ई०) का जन्म मेसिडोनिया के स्पोकजे नामक शहर में हुआ था। जन्म के समय उनके माता-पिता ने उनका नाम एग्नीज गोन्क्सा वोजाक्श्यू रखा था। उनके पिता एक सफल व्यापारी थे। मदर टेरेसा अपने माता-पिता की तीन संतानों में सबसे छोटी थीं। बारह वर्ष की उम्र में उन्होंने यह निर्णय कर लिया था कि उन्हें मिशनरी बन कर समाज में प्रभु यीशू के प्रेम का प्रसार करना है। अठारह वर्ष की होने तक वे स्पोकजे में अपने माता-पिता का घर छोड़ कर ननों के आयरिश समुदाय सिस्टर लोरेतो की सदस्य बन चुकी थीं, जिसका एक मिशन भारत में भी था।
डबलिन के ब्लैस्ड वर्जिन मैरी इंस्टीट्यूट में कुछ महीनों के प्रशिक्षण के बाद मदर टेरेसा भारत आ गईं। उन्होंने 24 मई 1931 ई० को एक नन के रूप में दीक्षा ली और वे कलकत्ता के सेंट मेरी हाई स्कूल में भूगोल और धर्मशास्त्र पढ़ाने लगीं। इस दौरान कलकत्ता की गरीबी ने उन्हें गहरे तक विचलित किया और अंततः वर्ष 1948 में उन्होंने अपने उच्चाधिकारियों की अनुमति ले कर कान्वेंट स्कूल में पढ़ाना छोड़ दिया और सीधे गरीब बस्तियों के लोगों के बीच काम करना शुरू कर दिया। मदर टेरेसा ने इसके लिए पटना में अमरीकी मेडिकल मिशनरीज से गहन प्रशिक्षण लिया। शुरुआत में उन्होंने झुग्गी-झोंपड़ियों के बीच रहने वाले बेघर बच्चों को पढाना शुरू किया। जल्दी ही अनेक लोग स्वेच्छा से उनके काम में शामिल होने लगे और चर्च तथा म्युनिसिपल अधिकारियों की ओर से उन्हें आर्थिक सहायता भी मिलने लगी। इस दौरान मदर टेरेसा अपनी डायरी में लिखती हैं : आज मैंने एक अच्छा सबक सीखा। गरीबों के लिए गरीबी बहुत कठिन होती है। एक घर की तलाश में मैं इतना चली कि मेरे हाथ पैर सब दुखने लगे। मैं सोचने लगी उनके शरीर और आत्मा में तो कितना दर्द होता होगा, जिन्हें रोजाना रोटी, कपड़े और स्वस्थ रहने के लिए इतनी मेहनत करनी पड़ती है।
सात अक्टूबर 1950 ई० को मदर टेरेसा ने गरीब और बीमार लोगों की सहायता के लिए मिशनरीज ऑफ चैरिटी की स्थापना की। मिशनरीज ऑफ चैरिटी का पहला लक्ष्य उन लोगों की देखभाल और सेवा करना था, जिनकी देखभाल के लिए और कोई तैयार नहीं था। मदर टेरेसा का जीवन गरीबों में भी जो सबसे गरीब है उसकी सेवा को समर्पित था। वे कहती थीं : ईश्वर अब भी इस दुनिया से प्रेम करता है और उसने आपको और मुझे हम सब को गरीबों के प्रति अपने प्रेम को बांटने के लिए भेजा है।
वह ऐसे परिवारों में गईं, उन्होंने खुद अपने हाथों से बच्चों के घावों को साफ किया, सड़क किनारे बेसहारा पड़े बीमार बुजुगरें की सेवा की, और तपेदिक और भूख से मर रही बूढ़ी औरतों की तीमारदारी की। जिसे कोई प्यार नहीं देता, जिसकी देखभाल के लिए कोई तैयार नहीं है, उनमें प्रभु यीशू को खोजने और उनकी सेवा करने के इरादे के साथ वे हर सुबह निकलतीं। एक-एक कर उनकी पुरानी छात्राएं इस मिशन में उनके साथ जुड़ती गईं। मदर टेरेसा का मानना था कि उनके समूह का काम अन्य जनकल्याणकारी कामों से बहुत अलग था। उनकी साथी ननें हर गरीब और जरूरतमंद में प्रभु यीशु की छवि देखती थीं। उनकी साथी ननों का पहला लक्ष्य गरीबी और बीमारी में मृत्यु के कगार पर खड़े लोगों के जीवन के अंतिम दिनों को प्रेम और गरिमा प्रदान करना था। उनके द्वारा स्थापित घरों में मृत्यु को प्राप्त होने वाले मुसलमानों को कुरान की आयतों के साथ, हिंदुओं को मुंह में गंगाजल की बूंदे देकर और ईसाइयों को ईश्वर के पंक्तियों के साथ अंतिम विदाई दी जाती थी। यह एक ईसाई संत की धार्मिक उदारता का प्रमाण था।
मदर टेरेसा ने वर्ष 1952 ई० में कलकत्ता के कालीघट में बीमार और मरणासन्न लोगों की सेवा के लिए सेक्रेड हार्ट इंस्टीट्यूट की स्थापना की। इसी साल उन्होंने पांच महाद्वीपों में भी अपने काम का प्रसार किया। उनके इन्हीं प्रयासों को मान्यता के रूप में उन्हें टेंपलटन पुरस्कार दिया गया। वर्ष 1957 ई० में मिशनरीज ऑफ चैरिटी ने कुष्ठ रोगियों की सेवा करना शुरू किया और इसी दौरान उनके शैक्षणिक कार्यक्रम का भी विस्तार हुआ। उस समय कलकत्ता में उनके नौ स्कूल चल रहे थे और उन्होंने अनाथ बच्चों के लिए निर्मल शिशु सदन नामक अनाथालय भी खोले। कलकत्ता में उस समय उनका ध्यान गरीब, अनाथ, मरणासन्न और कुष्ठरोग से पीड़ित लोगों पर केंद्रित था, जिन्हें समाज में अछूत मानकर छोड़ दिया जाता था। अब तक मिशनरीज ऑफ चैरिटी भारत के 22 शहरों में अपनी जगह बना चुका था और मदर टेरेसा तत्कालीन सिलोन (अब श्रीलंका), आस्ट्रेलिया, तंजानिया, वेनेजुएला और इटली जैसे अन्य देशों में भी अपनी संस्था के केंद्र शुरू करने लगी थीं।
वर्ष 1960 ई० के अंत तक आते-आते मदर टेरेसा अपनी साथी ननों को भारत के दूसरे भागों में गरीब और असहायों की सेवा के लिए भेजने लगीं। फरवरी 1965 ई० में पोप पॉल षष्ठ से मिली अनुशंसा ने उनका उत्साह बढ़ाया और उन्होंने वेनेजुएला में भी एक घर स्थापित किया। इस तरह यह शृंखला रोम और तंजानिया होते हुए सभी महाद्वीपों में फैल गई। वर्ष 1980 ई० से नब्बे के दशक के दौरान मदर टेरेसा ने सोवियत यूनियन, अल्बानिया और क्यूबा सहित सभी साम्यवादी देशों में भी अपने मिशन घर स्थापित कर लिए थे। दुनिया भर में मिशनरीज ऑफ चैरिटी की सौ से ज्यादा इकाइयों की स्थापना करने वाली मदर टेरेसा स्वयं सेवा का प्रतीक बन गई थीं।
गरीबों की आध्यत्मिक और भौतिक जरूरतों को ध्यान में रखते हुए मदर टेरेसा ने 1963 ई० में मिशनरीज ऑफचैरिटी ब्रदर्स की स्थापना की और काफी विचार करने के बाद 1976 ई० में इसकी सहोदर शाखा स्थापित की, 1979 ई० में ब्रदर्स और 1984 ई० में मिशनरीज ऑॅफ चैरिटी फादर्स शाखा की स्थापना की। उन्होंने बीमार और जरूरतमंद लोगों की मदद के लिए मदर टैरेसा के सहयोगी कार्यकर्ताओं के समूह को अपनी संस्था से जुड़ने की अनुमति दे दी। इन समूहों में विभिन्न राष्ट्रीयताओं से संबंधित और अलग-अलग धमरें को मानने वाले लोग शामिल थे।
मदर टेरेसा को अपने कायरें के लिए कई तरह के सम्मान और पुरस्कार भी मिले जिनमें 1962 ई० में भारत सरकार की ओर से दिया जाने वाला पद्मश्री सम्मान शामिल हैं। इसके अलावा 1971 ई० में पोप जॉन 13 शांति पुरस्कार, 1972 ई० में अंतरराष्ट्रीय शांति और सद्भावना की दिशा में काम करने के लिए नेहरू पुरस्कार, 1978 ई० में बाल्जान पुरस्कार, वर्ष 1979 ई० में उन्हें शांति के नोबल पुरस्कार, 1980 ई० में भारत रत्न और वर्ष 2005 ई० में अमरीकी सरकार ने उन्हें मेडल ऑफ फ्रीडम से सम्मानित किया। नोबेल पुरस्कार प्रदान किए जाने के अवसर पर आयोजित होने वाले भोज में मदर टेरेसा ने यह कह कर शामिल होने से इनकार कर दिया कि इसके बजाय 192,000 डॉलर की यह राशि भारत में गरीबों की मदद के लिए खर्च की जाए तो उसका ज्यादा सही उपयोग होगा। उनका कहना था कि दुनियावी पुरस्कार और सम्मान उनके लिए तभी मायने रखते हैं जब वे उन्हें गरीबों की मदद करने में मदद करते हों। यह पुरस्कार प्रदान किए जाने के अवसर पर एक साक्षात्कारकर्ता ने मदर टेरेसा से पूछा कि दुनिया में शांति स्थापित करने के लिए क्या किया जाना चाहिए? इस पर मदर टेरेसा का जवाब था अपने घर जाकर अपने बच्चों और परिवार से प्रेम करो। इस अवसर पर दिए गए अपने वक्तव्य में उन्होंने कहा दुनिया भर में, गरीब देशों में ही नहीं बल्कि पश्चिम के संपन्न देशों में मैंने पाया कि यहां कि गरीबी को मिटाना और भी ज्यादा मुश्किल है। जब सड़क पर कोई भूखा आदमी बैठा मिलता है, उसे थोड़े से चावल या एक रोटी दे कर उसकी भूख को मिटाया जा सकता है। लेकिन वह व्यक्ति जिसे निकाल बाहर कर दिया गया हो, जिसे अवांछित होने का अहसास कराया गया हो, जो भयभीत हो और जिसे कोई प्यार न करता हो, जिसे समाज से निकाल बाहर कर दिया गया हो, उसकी भूख को मिटाना सबसे मुश्किल है। मदर टेरेसा गर्भपात को दुनिया में शांति का सबसे बड़ा दुश्मन मानती थीं।
मदर टेरेसा का सारा जीवन और श्रम प्रेम में आनंद के दर्शन से संचालित था और वे मनुष्य मात्र की गरिमा और महानता में यकीन करती थीं और प्रेम तथा विश्वास के साथ की जाने वाली छोटी चीजों को भी बहुत महत्व देती थीं। मदर टेरेसा ने अपने गिरते स्वास्थ्य को ध्यान में रखते हुए 13 मार्च 1997 ई० को मिशनरीज ऑफ चैरिटी की प्रमुख का पद त्याग कर दिया और इसी साल 5 सितबर 1997 ई० को उनका देहांत हो गया। इस वक्त तक मिशनरीज ऑफ चैरिटी एक विश्वव्यापी संस्थान के रूप में स्थापित हो चुका था, जहां 4000 से ज्यादा ननें और 400 से ज्यादा ब्रदर्स 100 से ज्यादा देशों में जरूरतमंद लोगों की सेवा कर रहे थे। भारत सरकार ने उनके निधन पर राजकीय शोक घोषित किया। मदर टेरेसा के देहांत के बाद मदर टेरेसा को संत के रूप में मान्यता देने की प्रक्रिया भी वेटिकन चर्च ने शुरू कर दी। 20 दिसंबर 2002 ई० को पोप जॉन पॉल द्वितीय ने मदर टेरेसा को अलौकिक व्यक्ति के रूप में मान्यता प्रदान की।
सत्तर के दशक में मदर टेरेसा के काम का जबरदस्त प्रसार हो रहा था। यही वह समय था जब उन्हें पोप जॉन 23 ने शांति पुरस्कार प्रदान किया, इधर जोसेफ कैनेडी जूनियर फाउंडेशन की ओर से भी उन्हें सम्मानित किया गया। मीडिया में भी उनके काम की खूब चर्चा हो रही थी। इसी दौरान 1968 ई० में बीबीसी पर मैलकम मगरिज ने उनका एक विशेष साक्षात्कार प्रसारित किया। 1971 ई० में अपनी सहयोगी ननों से लंदन मिलने गई मदर टेरेसा ने उग्रवादी प्रोटेस्टेंट नेता इयान पैसली से भी मुलाकात की। इसी साल उन्होंने बांग्लादेश में पाकिस्तानी सैनिकों द्वारा की गई ज्यादतियों की शिकार महिलाओं के लिए भी एक घर की स्थापना की। 1986 ई० में उन्होंने फिदेल कास्त्रों को क्यूबा में अपना मिशन स्थापित करने के लिए भी राजी कर लिया।
मदर टेरेसा द्वारा संत भाव से की जाने वाली सेवाएं अक्सर लोगों को अचंभे में डाल देती थीं। मगरिज को इस बात पर आश्चर्य होता था कि दुनिया भर में अपने काम और नाम से पहचानी जाने वाली मदर टेरेसा के पांव जमीन पर टिके हुए थे। मदर टेरेसा को इसके अलावा कोई बात समझ में ही नहीं आती थी कि प्रत्येक मनुष्य दुर्लभ है और अत्यंत महत्वपूर्ण है। एक अन्य ब्रिटिश साक्षात्कारकर्ता पौली टायनबी इस बात पर स्तब्ध थे कि मदर टेरेसा के मन में किसी के भी प्रति कोई आक्रोश नहीं था। उन्हें इस बात से विचलित नहीं होती थीं कि वे जिन लोगों की सेवा कर रही हैं, किस राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था ने उन्हें इस हालत में पहुंचाया है। मदर टेरेसा का प्राथमिक सिद्धांत मात्र निरंतर प्रेम था। जब अन्य राजनीतिक और धार्मिक नेता इस बात पर नाराज होते थे कि व्यवस्था कैसे गरीबी और अभावों को बढ़ावा देती है, मदर टेरेसा इन सारे सवालों को ईश्वर और मनुष्य के बीच का मसला मान कर उन्हें छोड़ देती थीं। उनसे बात करते हुए किसी को भी यह आसानी से समझ में आ सकता था कि उन्हें राजनीतिक, आर्थिक और इस तरह के तमाम दुनियावी मसलों से कोई सरोकार ही नहीं था। उन्हें और उनके साथियों को ईश्वर ने सिर्फ एक ही काम सौंपा था : पूरे प्रेम और निष्ठा के साथ लोगों की सेवा करना।
मदर टेरेसा के विचार उनकी किताबों लाइफ इन द स्पिरिट (1983 ई०), अ सिंपल पाथ (1995 ई०), इन माई ओन वर्ड्स (1996 ई०), और नो ग्रेटर लव (1996 ई०) में संकलित हैं। वे कहती थीं कि सबसे बड़ी बीमारी कोढ़ या तपेदिक नहीं है, बल्कि सबसे बड़ी बीमारी अवांछित होने का अहसास है। अपनी किताब माई ओन वर्ड्स में वह लिखती हैं भूख सादा रोटी की होती है, भूख प्यार की होती है, भूख उदारता की होती है और भूख विचारशीलता की होती है, और इस सबका अभाव ही वह दारिद्रय है जिसके कारण लोगों को बहुत तकलीफ उठानी पड़ती है।
- देवयानी भारद्वाज
टैगोर, रवींद्रनाथ : आपका जीवन और कृतित्व सामंजस्य की भावना से प्रेरित रहा है.....और इस सामंजस्य के लिए ही मैं आपसे अनुरोध कर रहा हूं......आप चिंतक हैं और इस विक्षिप्त दुनिया में संसार के चिंतकों के अतिरिक्त और कोई नहीं है, जिससे एकता बनाए रखने की आशा की जा सके। फासीवाद के उत्थान और द्वितीय महायुद्ध की आशंका से ग्रस्त दौर में प्रसिद्ध चिंतक गिल्बर्ट मरे ने नोबल पुरस्कार से सम्मानित रवींद्रनाथ (1861-1941 ई०) को एक खुले पत्र में यह आग्रह किया। यह पत्र प्रकट करता है कि उनके जीवन और कृतित्व का सूत्र सामंजस्य की वह भावना है, जो सभी द्वंद्वों और विरोधों के बावजूद जीवन की एकता के सिद्धांत से प्रस्फुटित होती है। सामान्यतः, अहिंसा की चर्चा में रवींद्रनाथ टैगोर का उल्लेख नहीं किया जाता और उनकी कविता की रहस्य-भावना ही केंद्र में रहती है। लेकिन एक कवि-चिंतक और व्यक्ति दोनों ही रूपों में रवींद्रनाथ टैगोर प्रेम अथवा अहिंसा के मूल्य का ही प्रतिपादन करते दिखाई देते हैं, जो उनके लेखन में विरोधाभासी ध्रुवों के बीच सामंजस्य की तलाश करता है। सामंजस्य और अहिंसा यहां परस्परपोषी हो जाते हैं।
विश्वनाथ नरवणे महात्मा गांधी और टैगोर का तुलनात्मक विश्लेषण करते हुए इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं-गांधी और टैगोर दोनों की विश्व-दृष्टि में प्रेम के विचार का प्रमुख स्थान है; वे प्रेम को एक ऐसी जादू की छड़ी मानते थे, जो विपरीत तत्त्वों का विलय करके सत्य के द्वार खोल देती है।
टैगोर के प्रारंभिक जीवन में उन्हें सभी पूर्वी और पश्चिमी विचार-प्रणालियों से परिचित होने का अवसर उनके पिता देवेंद्रनाथ टैगोर द्वारा निर्मित पारिवारिक वातावरण से मिला था। उन पर एक ओर गहरा वैष्णव प्रभाव है तो, दूसरी ओर, उपनिषदों, बुद्ध और ईसा का भी। कहा गया है कि टैगोर-परिवार में वैदिक ऋचाओं का गान, उपनिषदों का पाठ तथा मार्लो और शेक्सपियर का पाठ एक साथ सुनाई पड़ता था। बाद में, एक ओर पूर्वी देशों तथा दूसरी ओर इंग्लैंड और अमेरिका की यात्राओं का भी उनकी दृष्टि के विस्तार और औदार्य पर गहरा प्रभाव पड़ा। इन यात्राओं में क्रोचे, बर्गसां, आइंस्टाइन, रोमांरोला, रसेल, श्विट्जर, ड्यूई आदि विचारकों के साथ व्यक्तिगत वार्तालाप ने भी निश्चय ही उन्हें प्रभावित किया-और अंत में महात्मा गांधी से कई मामलों में असहमत होते हुए भी उनके अहिंसा-सिद्धांत ने उन्हें गहराई से प्रभाावित किया। महात्मा गांधी की एक जयंती के अवसर पर दिए गए व्याख्यान में टैगोर ने माना कि उनका जीवन हमारे लिए एक महान् उदाहरण है। दुनिया में स्वाधीनता लाभ का इतिहास रक्त की धारा से पंकिल है। अपहरण और दस्यु-वृत्ति से कलंकित है। लेकिन महात्मा गांधी ने दिखाया है कि हत्याकांड को आश्रय दिए बगैर भी स्वाधीनता प्राप्त की जा सकती है।.....हमारे बीच ऐसे बहुत कम लोग हैं, जो हिंसा को अपने मन से दूर हटाकर किसी बात को देख सकें.....महात्माजी ने अपने समस्त जीवन द्वारा जिस नीति को प्रमाणित किया है, उसे हमें स्वीकार करना होगा, चाहे हम उस पर पूरी तरह न चल सकें। इसी तरह बुद्ध के अवदान का विश्लेषण करते हुए टैगोर ने कहा कि बौद्ध धर्म की मैत्री-भावना, उसकी करुणा और दया और बुद्ध के विश्व-प्रेम ने इंसान-इंसान के बीच से दीवारें हटाने में सहायता की है।
प्रेम को जीवन का केंद्र मानने के कारण टैगोर अद्वैत और द्वैत को विरोधी विचार-प्रणालियां नहीं मानते क्योंकि उनके अनुसार प्रेम में विरोधी तत्त्व एक हो जाते हैं। तत्त्वमीमांसीय चिंतन के क्षेत्र में अद्वैतवाद और द्वैतवाद परस्पर-विरोधी हैं। पर प्रेम उन दोनों की व्याख्या करता है क्योंकि प्रेम में एक और दो की एक साथ आवश्यकता होती है, क्योंकि प्रेम में सिद्धि के लिए दुई आवश्यक है। इस तरह टैगोर विभेद में तादात्म्य की अवधारणा प्रस्तावित करते हैं। सामंजस्य और विभेद में तादात्म्य के साथ टैगोर जीवन-देवता की अवधारणा भी प्रस्तावित करते हैं, जिसका तात्पर्य है प्रकृति और मनुष्य दोनों में सक्रिय प्राण-तत्त्व यह जीवन के एकत्व की अवधारणा है। टैगोर को, सामान्यतः, मानववादी कहा जाता है। लेकिन, यह मानव वह नहीं है, जो प्रकृति की सब शक्तियों पर विजय प्राप्त कर लेने के कारण सर्वोत्कृष्ट है। वह इसलिए श्रेष्ठतर है क्योंकि वह प्रकृति के नियामक नियतत्ववाद के बजाय स्वतंत्र इच्छा और कर्म सामर्थ्य से लैस है और क्योंकि उसकी सच्ची शक्ति पाशविक बल का त्यागकर उसके बदले आत्मा की स्वतंत्रता अपनाने में है। टैगोर इस स्वतंत्रता को ही मानवीय सृजनशीलता का आधार मानते हैं। इसीलिए वह नैतिक बोध को भी कोई थोपी गई अवधारणा नहीं, बल्कि मनुष्य होने का लक्षण मानते हैं, जिसका व्यावहारिक रूप प्रेम है। यह प्रेम ही एक ओर प्रकृति और ईश्वर के प्रति ममत्व और भक्ति के रूप में गीतांजलि में प्रकट होता है, तो दूसरी ओर, एक कविता में वह भजन-पूजन, आराधना छोड़कर ईश्वर को वहां देखता है, जहां कठोर धरती पर किसान खेती करता है। जहां श्रमिक पत्थर तोड़ता हुआ बारह महीने मेहनत करता है : वे धूप और वर्षा में सबके साथ हैं। उनके दोनों हाथों में धूल लगी है। उन्हीं की भांति पवित्र वस्त्र त्यागकर धूल में आ जाओ। पसीने से लथपथ कर्म में उनसे मिलो। और एक हो जाओ। इसे ही टैगोर सजग रूप में परोपकार के नियम को पहचानना तथा सबका जीवन जीना ही भलाई का जीवन जीना कहते हैं।
इसीलिए टैगोर मानते हैं कि सारा अस्तित्व परस्पर-संबद्ध है और इस बोध की अनदेखी करना ही मनुष्यत्व के मार्ग की, स्वतंत्रता और सर्जनात्मकता की बाधा है और इसका मूल कारण है अहं की उग्र भावना। टैगोर की दृष्टि में अहं स्वतंत्रता और सर्जनात्मकता का बाधक है, इसीलिए वह लिखते हैं-स्वतंत्रता के अभाव का कारण है विजातीयता की भावना, एकता की हमारी अपूर्ण प्रतीति।
टैगोर इसीलिए राष्ट्रवाद को विजातीयता की भावना तथा एकता की अपूर्ण प्रतीति मानते हैं। राष्ट्रीय स्वाधीनता के अहिंसक संघर्ष के प्रशंसक होते हुए भी वह राष्ट्रवाद की भर्त्सना करते हैं। वह राष्ट्रवाद को दुर्बुद्धि का परिणाम मानते हुए शिक्षा का एक प्रधान कर्त्तव्य राष्ट्रीय अहंकार से मुक्ति को मानते हैं। सामान्यतया, जिस राष्ट्र या जाति की गुलामी से मुक्त होने के लिए संघर्ष किया जाता है, उसके प्रति घृणा और उस सभ्यता के प्रति आक्रामक भाव विकसित होना स्वाभाविक ही है। गांधी की तरह टैगोर भी यह मानते हैं कि पाश्चात्य सभ्यता के आसन पर लोभ का राज्य है और लोभ भेदबुद्धि का कारण हैं-और परिणाम भी और जब तक इस लोभ के स्थान पर मंगल आसीन नहीं होता, तब तक एक शांतिमय मन और दुनिया संभव नहीं है और मंगल का आधार मानव-ऐक्य-बल्कि अस्तित्व के ऐक्य-की भावना ही हो सकती है।
- नंदकिशोर आचार्य
टुटू, डेसमंड : शिक्षक पिता की संतान थे बिशप डेसमंड टुटू। सात अक्टूबर 1931 ई० को क्लर्कसड्रॉप, ट्रांसवॉल में टुटू का जन्म उस समय हुआ जब समाज का बड़ा तबका अन्याय और शोषण का शिकार था। अश्वेतों के साथ अत्याचार हो रहे थे। बिजली और सीवरेज जैसी आधारभूत सुविधाओं का पूर्णतः अभाव था। अश्वेतों के साथ भेदभाव चरम पर था, सरकार की ओर से उन्हें पहचान स्वरूप पासबुक दी गई थी जो उनके परिचय का सबूत थी। यह पासबुक उन्हें हमेशा अपने साथ रखनी होती थी। उनके पिता शिक्षक थे और उनका समाज में काफी सम्मान था, बावजूद इसके पुलिस उन्हें कहीं भी रोककर उनसे परिचय पत्रों की जांच कर लेती थी। इन बातों से युवा डेसमंड काफी असहज हो जाया करते, उन्हें यह सब बर्दाश्त के बाहर नजर आने लगता। इसी वजह से अश्वेतों के प्रति सरकार के इस बर्ताव के विरोध में उन्होंने पुरजोर आवाज उठाने का संकल्प किया।
डेसमंड टुटू की शिक्षा जोहानिसबर्ग के बांठू हाईस्कूल में हुई। शिक्षा हासिल करने के बाद प्रिटोरिया के बांठू नॉर्मल कॉलेज में अध्यापक की शिक्षा हासिल करने वाले वह पहले व्यक्ति थे। 1954 ई० में उन्होंने साउथ अफ्रीका यूनिवर्सिटी से स्नातक की डिग्री हासिल करने और तीन सालों तक हाई स्कूल में बतौर अध्यापक रहने के बाद उन्होंने धार्मिक शिक्षा के अध्यापन का काम शुरू किया और 1960 ई० में बिशप बनने के बाद वे पूरी तरह धर्म को समर्पित हो चुके थे। इंग्लैंड में उन्होंने थियोलॉजी में स्नातकोत्तर डिग्री हासिल की। पांच साल तक टुटू ने साउथ अफ्रीका में थियोलॉजी के अध्यापन का कार्य किया और इंग्लैंड से लौटने से पहले वे लंदन के थियोलॉजिकल इंस्टीटयूट के असिस्टेंट डायरेक्टर रहे। 1975 ई० में उन्हें जोहानिसबर्ग के सेंट मैरी केथेड्रिल में डीन की उपाधि से नवाजा गया; यह सम्मान हासिल करने वाले वह पहले अश्वेत व्यक्ति थे। साउथ अफ्रीकन कौंसिल ऑव चर्चेज ने उन्हें महासचिव का दर्जा दिया। टुटू ने समाज के सभी वगरें के लिए असमानता को खत्म करने की कवायद शुरू की। प्रजातांत्रिक देश में लोगों के लिए उनकी कुछ मांगे थीं....
- लोगों के लिए समान नागरिक अधिकार हो।
- साउथ अफ्रीका के भेदभाव वाले पासपोर्ट कानून को रद्द किया जाए।
- सभी के लिए शिक्षा का सामान्य सिस्टम हो।
- तथाकथित होमलेंड के नाम पर साउथ अफ्रीका से मजदूरों का जबरदस्ती निर्वासन रोका जाए।
इस माहौल में बड़े हुए टुटू ने यह भी देखा कि सारे गोरे क्रूर नहीं हैं। एक दिन उनकी मुलाकात फादर ट्रेवर हडलस्टन से हुई, वे श्वेत थे। उनके व्यवहार ने डेसमंड के व्यक्तित्व पर अमिट छाप छोड़ी। इस समय डेसमंड तपेदिक के शिकार थे और मृत्यु के कगार पर पहुंच चुके थे, वह अस्पताल में भर्ती थे, उनके पास के पलंग पर तपेदिक का गंभीर मरीज भर्ती था और मौत के कगार पर पहुंच चुका था। ऐसे में फादर हडलस्टन उनसे रोजाना मिलने अस्पताल पहुंचते और बात करते। ईसाइयत के उदार विचारों ने टुटू को नया जीवनदान दिया और वे ठीक होने लगे।
1948 ई० में दक्षिण अफ्रीका को भयंकर तूफान का सामना करना पड़ा और चुनाव करीब ही थे। श्वेत अफ्रीकी नागरिकों को ही मतदान का अधिकार था, वे देश की सबसे बड़ी नेशनल पार्टी को सत्ता सौंपने जा रहे थे। यह पार्टी खुले तौर पर जातिवाद और रंगभेद की पक्षधर थी। उन्हें सत्ता सौंपने का अर्थ था अश्वेतों के खिलाफ और ज्यादा रंगभेद वाली नीतियां निर्धारित करना। दूसरे विश्वयुद्ध के बाद दुनिया भर में बदलाव आ रहे थे और दक्षिण अफ्रीका के गोरे इससे विपरीत अलग ही दिशा की ओर अग्रसर हो रहे थे। ऐसे में नई पार्टी समय बर्बाद किए बिना जातिवाद और रंगभेद की सरकारी नीतियों का विरोध करने और अपने लिए सम्मान हासिल करने के लिए नए कानून बनवाने में सरकार का ध्यान आकर्षित करने में जुट गई।
मिक्स मैरिज एक्ट पर प्रतिबंध और दुराचार कानून यह नए दो विधेयक पारित किए गए। इस विधेयक ने दूसरे समाज में शादी करने पर प्रतिबंध लगा दिया था जो पूरी तरह से गैर कानूनी था। इसके बाद पॉपुलेशन रजिस्ट्रेशन एक्ट आया जो देश के हर नागरिक को उसकी चमड़ी के रंग के आधार पर बांटने वाला था। यह वर्गीकरण लोगों के श्वेत, काले, एशियन या उनके मूल निवासी होने के आधार पर किया गया था। इनके आधार पर लोगों के सात अलग-अलग वर्ग बनाए गए। अफ्रीका के मूल जनजातीय निवासियों को भाषा के आधार पर आठ अलग वगरें में बांटा गया। जबकि श्वेत लोगों के लिए केवल एक श्रेणी निर्धारित की गई, जो दूसरे लोगों के साथ सरासर अन्याय था।
1955 ई० में डेसमंड टुटू ने प्रधानमंत्री को लिखे एक खत में इन नीतियों को पैशाचिक नीतियां संबोधित किया। शुरूआत के चार सालों में यह कानून लोगों के लिए दिल संबंधी बीमारियों का कारण बन गए क्योंकि व्यक्तिगत अवमानना का दर्द उनके दिलों को टीस रहा था। टुटू के राजनीतिक रूप से सक्रिय होने से पूर्व लोगों को अपनी पीड़ा खुलकर कहने का अवसर तक नहीं मिला था। टुटू ने व्यक्तिगत स्वतंत्रता और समानता की बात की। सरकारी नीतियों का विरोध किया। इसी दौरान टुटू और लीह टुटू शादी के बंधन में बंध गए; टुटू अकेले ऐसे अश्वेत थे जिन्हें यूनिवर्सिटी में आने की इजाजत दी गई थी। वह डॉक्टर बनना चाहते थे लेकिन गरीबी के चलते वे इसका खर्च उठाने में अक्षम थे।
1955 ई० में सरकार ने बांठू एजुकेशन एक्ट पारित किया। इस कानून के प्रणेता डॉ० हेंडरिक वेवॉर्ड थे, जिन्हें साउथ अफ्रीका के इतिहास में दुष्ट नेता के रूप में याद किया जाएगा; इस कानून का उद्देश्य अश्वेतों के बच्चों को विज्ञान, गणित जैसे महत्वपूर्ण विषयों की शिक्षा हासिल करने से रोकना था। अश्वेत लोगों ने इस कानून का पुरजोर विरोध किया। यह अग्रेंजों की उस मानसिकता का विरोध था जो अश्वेतों को अग्रेंजों के घरेलू नौकरों से ज्यादा लायक बनने ही नहीं देना चाहती थी।
टुटू अश्वेत लोगों को बेहतर शिक्षा के अवसर दिलाने के लिए वचनबद्ध थे और इस समस्या के समाधान के प्रति आश्वस्त भी। लोगों ने इस कानून के विरोध में कई शांति और विरोध प्रदर्शन किए।
कालांतर में यह शांति प्रदर्शन रक्तरंजित होते चले गए और लोगों की गिरफ्तारियां होने लगी। मार्च 1960 ई० में शार्पविले पुलिस स्टेशन के बाहर शांतिपूर्वक धरना देते हुए पांच हजार प्रदर्शनकारियों पर गोलियां बरसाई गईं जिसमें उनसठ स्त्री-पुरूषों की मौत हो गई। इस घटना से पूरी दुनिया स्तब्ध थी, लेकिन दक्षिण अफ्रीकी सरकार को इससे कोई फर्क नहीं पड़ा। टुटू ने देश छोड़ दिया और धार्मिक शिक्षा ग्रहण करने लंदन के किंग्स कॉलेज चले आए। लंदन आने के बाद यहां उनका एक नई दुनिया से परिचय हुआ जहां रंगभेद से परे हर वर्ण के लोगों के साथ सम्मानपूर्व व्यवहार किया जाता था। इसके विपरीत, दक्षिण अफ्रीका पूरी तरह एक पुलिस राज्य था जहां डॉ० हेंडरिक वेवॉर्ड जैसे दुश्चरित्र नेता को प्रधानमंत्री बनाकर सत्ता सौंपी जा चुकी थी। यह 1968 ई० का दौर था जब अश्वेतों पर प्रतिबंध इस हद तक बढ़ा दिए गए थे कि अगर कोई अश्वेत अंग्रेजों के लिए उपलब्ध शौचालय, पीने के पानी, बीच, और स्पोर्टस क्लब्स जैसी सुविधाओं का उपयोग करते पाया जाता तो उसे गिरफ्तार कर लिया जा सकता था। इन प्रतिबंधित सुविधा क्षेत्रों में जाने के लिए अश्वेतों को पहले विशेष अनुमति लेनी होगी।
इसी वर्ष अश्वेत विद्यार्थियों के शांतिपूर्ण मार्च पर पुलिस ने बर्बरता से हमला कर दिया। उन्हें दो बजे से पहले वहां से हट जाने की चेतावनी दी गई थी, लेकिन ठीक दो बजते ही पुलिस वहां पहुंची और छात्रों पर हथियारों से लैस वाहनों, खतरनाक कुत्तों और आसूं गैस से हमला बोल दिया। यह हमला सिर्फ इसलिए किया गया था कि अश्वेत विद्यार्थी शिक्षा प्राप्त करने का अधिकार मांग रहे थे। 1975 ई० में टुटू जोहानिसबर्र्ग विश्वविद्यालय के अधिष्ठाता चुन लिए गए। सार्वजनिक पद पर आने के बाद उन्होंने प्रधानमंत्री को पत्र लिखते हुए रंगभेद की आलोचना की और इसे खत्म करने की सिफारिश की। उन्होंने सरकारी नीतियों को अश्वेतों की स्वतंत्रता पर कुठाराघात बताते हुए इस नाइंसाफी के बारे में सरकार को खुली चेतावनी दी। उन्होंने लिखा कि सरकार अभी नहीं चेती तो आने वाला समय समस्त श्वेत और अश्वेत दक्षिण अफ्रीका वासियों, सभी के भविष्य के लिए रक्तरंजित होने वाला है। प्रधानमंत्री ने इस पत्र की अनदेखी कर दी और टुटू के पत्र का जवाब तक नहीं दिया।
टुटू को देशद्रोह फैलाने का आरोपी बना दिया गया, लेकिन अपने अहिंसात्मक तरीकों की वजह से वह बच गए। वह धीरे-धीरे पूरी दुनिया में पहचान बनाने लगे थे और इसी बात ने सरकार की नींद उड़ा रखी थी। 15 अक्टूबर 1984 ई० को टुटू को नोबेल शांति पुरस्कार से नवाजा गया। ये उत्साह से भरेपूरे क्षण थे। रंगभेद के खिलाफ यह पूरी दुनिया की जीत मानी जा रही थी लेकिन दक्षिण अफ्रीकी सरकार को इससे कोई सरोकार नहीं था। पुरस्कार समारोह से ठीक पहले टुटू को जोहानिसबर्ग का आर्कबिशप चुन लिया गया। समारोह अभी आधा ही हुआ था कि बीच में ही वहां बम की आशंका के बारे में घोषणा की वजह से सारे लोग हॉल से बाहर आ गए ताकि बम को तलाशा जा सके। इस दौरान वहां मौजूद लोगों ने टुटू के सम्मान में गाना शुरू कर दिया। बम जैसी कोई चीज वहां नहीं मिली, टुटू ने अपने भाषण में पूरी दुनिया से शांति, प्रेम और भाईचारा बनाए रखने का आह्वान किया। इसी के साथ वह एक शक्तिशाली नेता के रूप में उभरकर आए और दुनिया में उनकी आवाज सुनी जाने लगी। इससे दक्षिण अफ्रीकी सरकार की नाराजगी और बढ़ गई। अब प्रधानमंत्री बोथा थे। उन्होंने एक नई योजना बनाते हुए रेडइंडियंस और भारतीयों को मताधिकार दे दिया, लेकिन अश्वेतों को इससे वंचित रखा। सरकार का तर्क था कि अश्वेतों की यह मातृभूमि नहीं है, इसलिए वे यहां के नागरिक नहीं माने जा सकते। इस पर भारी हिंसात्मक प्रतिक्रिया हुई।
1986 ई० में टुटू को केपटाउन का आर्कबिशप चुना गया। यह अवसर नोबेल शांति पुरस्कार सम्मान समारोह से भी ज्यादा शानदार रूप से आयोजित किया गया, जहां गोरे और काले समान रूप से आमंत्रित किए गए। पूरी दुनिया बड़ी हस्तियों को इस समारोह में शामिल होने का योता भेजा गया, लेकिन सरकार ने उन्हें देश में प्रवेश की इजाजत नहीं दी। टुटू आश्वस्त थे कि आज नहीं तो कल वे आजाद होंगे और उन्होंने अश्वेतों के लिए इस मुहिम को जारी रखा।
डेसमंड टुटू भरोसे, एकता और सम्मान के प्रतीक कहे जा सकते हैं, जो हमेशा सच और अधिकारों के लिए मजबूती से खड़े रहे हैं। सही मायनों में उन्हें मानवता का चैंपियन कहा जा सकता है।
-डॉ० दुष्यंत
डे, डोरोथी : कैथोलिक वर्कर मूवमेंट की सह-संस्थापक डोरोथी डे (1897-1980 ई०) सामाजिक न्याय, आमूलचूल परिवर्तन और रोमन कैथोलिक आस्था में एक साथ विश्वास करती थीं। डोरोथी डे का जन्म 8 नवंबर 1897 ई० को ब्रुकलिन, न्यूयार्क में एक मध्यम वर्गीय प्रोटेस्टेंट परिवार में हुआ। उनके पिता पत्रकार थे। जीवन के शुरुआती वर्ष उन्होंने कैलिफोर्निया में बिताए, लेकिन 1906 ई० में सान फ्रांसिस्कों में आए भूकंप ने उनके परिवार को बुरी तरह प्रभावित किया। अब वे शिकागो आ गए, जहां कुछ समय उन्होंने गरीबी और परेशानियों के बीच बिताया। यह वह समय था जब पिता के पूर्वग्रहों के बावजूद कैथेलिक मत की ओर उनका झुकाव बढ़ने लगा था। किशोरावस्था के इन वषरें का जिक्र बहुत बाद में डोरोथी ने अपनी किताब द लांग लोनलीनिस (1952 ई०) में किया।
डोरोथी एक मेधावी छात्रा थीं। हाई स्कूल की पढ़ाई के दौरान ही उन्होंने न्यू टेस्टामेंट का अंग्रेजी में अनुवाद कर दिया था। इस उम्र में धर्म और अध्यात्म को लेकर भी वे कई तरह के अनुभवों से गुजर रही थीं, जिन्होंने आगे उनके जीवन पर गहरा असर डाला। वर्ष 1924 ई० में उन्हें उरबाना के इलिनोइस विश्वविद्यालय में जाकर पढ़ने के लिए छात्रवृत्ति मिलने लगी और डोरोथी परिवार के जकड़न भरे माहौल से बाहर आ गईं। यहां डोरोथी का संपर्क आमूलचूल परिवर्तनवादी विद्यार्थियों के समूह से हुआ, जिनमें ऐसे यहूदी-अमरीकी विद्यार्थी शामिल थे, जिन्हें विश्वविद्यालय के वातावरण में भेदभाव का सामना करना पड़ता था। दो साल बाद ही वे विश्वविद्यालय की पढ़ाई बीच में छोड़ न्यूयार्क आ गईं।
न्यूयार्क के बुद्धिजीवियों के बीच उन्होंने जल्दी ही जगह बना ली और उस समय के सबसे ज्यादा पढ़े जाने वाले समाजवादी अखबार द न्यूयार्क कॉल में उन्हें काम मिल गया। उस समय डोरोथी पर मार्क्सवाद का भी गहरा असर था। वे आमूल परिवर्तन में विश्वास करती थीं। शोषण के शिकार लोगों की मदद करने से कुछ नहीं होगा, जब तक कि अन्याय के कारणों को ही मिटाया नहीं जाता। न्यूयार्क में वे जल्दी ही परिवर्तनवादी राजनीतिक-सांस्कृतिक गतिविधियों का अभिन्न अंग बन गईं। इसी दौरान उनकी मित्रता अपने समय के कई महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों से हुई। यूजीन ओ नील के साथ उनकी गहरी मित्रता हुई। इसी दौर में वे अमरीका के प्रतिष्ठित समाजवादी अखबार द मासेज की सहयोगी संपादक भी बनीं। डोरोथी का यह शुरुआती जीवन बहुत उन्मुक्त किस्म का था। बोहेमियन जीवन जीने के इस दौर में वे एक असफल प्रेम, गर्भपात, अल्पकालिक वैवाहिक जीवन, बेटी तमारा का जन्म और कैथोलिक धर्म में बपतिस्मा के अनुभवों से गुजर चुकी थीं, जिनके बारे में बाद में उन्होंने अपने आत्मकथात्मक उपन्यास द इलेवंथ वर्जिन में लिखा।
डोरोथी ने अपनी बेटी की अकेले परवरिश की। इस दौरान उनके सामने एक चुनौती अपने धार्मिक विश्वास और सामाजिक प्रतिबद्धताओं के बीच सामंजस्य की खोज थी। उन्होंने देखा कि ज्यादातर परिवर्तनवादी नास्तिक हैं और ज्यादातर कैथोलिक सामाजिक अन्याय और उसके विरोध को लेकर उदासीन होते हैं। डोरोथी समाजवादी रुझान वाली कैथोलिक पत्रिकाओं कॉमनवील और अमेरिका के लिए लिखने लगीं। इन पत्रिकाओं के लिए लिखने के दौरान उन्होंने न्यूयार्क से वाशिंगटन तक बेरोजगारों की एक रैली पर रिपोर्ट लिखने के लिए उसमें हिस्सा लिया। इस रैली के साथ चलते हुए डोरोथी को यह अहसास हुआ कि एक कैथोलिक के रुप में उन्होंने खुद को कितना सीमित कर लिया है। उन्होंने महसूस किया कि रैली में चल रहे यह लोग भले ही खुद को नास्तिक कहें, लेकिन ईसा मसीह के सीने में इनके लिए अपार प्रेम होगा।
ठीक इसी समय में उनकी मुलाकात पीटर मौरिन से हुई। वे एक फ्रांसिसी किसान और सामाजिक कार्यकर्ता थे। पीटर के साथ मिलकर डोरोथी ने यह समझा कि रोमन कैथोलिक विश्वास और सामाजिक परिवर्तनवादी विचार एक-दूसरे के साथ चल सकते हैं और मई 1933 ई० में दोनों ने मिलकर द कैथोलिक वर्कर अखबार निकालना शुरु किया। ढाई हजार प्रतियों से शुरु हुए इस अखबार की मांग छह महीने में एक लाख प्रतियों तक पहुंच गई। इस अखबार में सामाजिक व्यवस्था के प्रति असंतोष और श्रमिक संघों की हिमायत की गई थी, लेकिन बेहतर भविष्य के लिए यह शहरीकरण और औद्योगीकरण दोनों को ही चुनौती देता था। यह अखबार न सिर्फ परिवर्तनकामी था, बल्कि अपनी प्रकृति में धार्मिक भी था। छह माह तक सिर्फ अखबार निकालता रहा, लेकिन जैसे-जैसे सर्दियां निकट आने लगीं, बेघर लेाग आश्रय के लिए अखबार के दफ्तर का दरवाजा खटखटाने लगे।
यहीं से कैथोलिक वर्कर मूवमेंट की स्थापना हुई। डोरोथी ने यह महसूस किया कि वह जिस गरीब वर्ग के लिए काम कर रही हैं, वह आर्थिक न्याय को तब तक नहीं समझ सकता, जब तक खुद उसके पास इसका कोई अनुभव नहीं हो। तब उन्होंने मौरिन के साथ मिलकर 1934 ई० में जोसफ हाउस आफ हास्पिटैलिटी की स्थापना की, जहां जरुरतमंद गरीबों को आश्रय दिया जाता था। उन्होंने कैथोलिकों के आतिथ्य सत्कार (हॉस्पिटैलिटी) को भी फिर परिभाषित किए जाने की जरुरत बताई। उन्होंने कहा कि आपके घर के दरवाजे सिर्फ दोस्तों-रिश्तेदारों के लिए ही नहीं, हर उस व्यक्ति के लिए खुले होने चाहिए, जिसे आश्रय की जरुरत है। डोरोथी ने ऐसे अजनबी अतिथियों के लिए अपने घर के दरवाजे खोले और उसके बाद ऐसे घरों की शृंखला बनती चली गई। न्यूयार्क शहर की झुग्गी-झोंपड़ियों में अतिथिघर शुरु हुए, जिनमें लोग मिलकर साथ रहते। इन घरों में आश्रय पाने वालों को यह देखकर हैरत होती कि अन्य सहायता घरों की तरह यहां कोई उन्हें सुधारने की कोशिश नहीं करता था, क्योंकि डोरोथी का यह मानना था कि गरीबों की अपनी गरिमा होती है। उन्हें भी अपने विकल्प खुद चुनने की आजादी होती है। इन घरों में प्रवेश पाने के लिए गरीबों की किसी खास योग्यता का निर्धारण नहीं किया गया था। इन घरों में आने वाले लोगों के लिए डोरोथी का कहना था कि उनके जीने और मरने में हम उनके साथ हैं और जब वे मर जाते हैं तब हम उनके लिए ईसाई कब्रगाहों में जगह सुरक्षित करते हैं। हम उनकी मृत्यु पर उनके लिए प्रार्थना करते हैं। वे आजीवन हमारे परिवार के सदस्य बन जाते हैं। वे हमारे ईसाई भाई-बहन हैं।
कुछ लोग बाइबिल का हवाला देते हुए कहते कि गरीबी तो हमेशा रहेगी, उन्हें डोरोथी का जवाब होता था, लेकिन हम इस बात से संतुष्ट तो नहीं हो सकते कि समाज में बहुत सारे लोग गरीब हों। वर्ग-व्यवस्था हमने बनाई है और वह हमारी सहमति से चल रहीं है। उसे ईश्वर ने हमें बनाकर नहीं दिया है। हम उसे बदलने के लिए जो भी कर सकते हैं, वह हमें करना चाहिए। हम एक परिवर्तनकारी बदलाव की मांग करते हैं। उनका यह मानना था कि दुनिया को थोड़ा सा सरल होना चाहिए ताकि उसमें लोग अपना पेट भर सकें, तन ढंक सकें और आश्रय पा सकें। यही ईश्वर भी चाहता था। यह आंदोलन बहुत जल्दी ही अमेरिका के अन्य शहरों में भी फैला-बाद में कनाडा और इंग्लैंड में भी। इस आंदोलन ने खेती के भी प्रयोग किए और 1935 ई० में अमेरिका के स्टेटन द्वीप में छोटे-से बगीचे के साथ एक घर किराए पर लिया गया। हालांकि खेतिहर समुदाय का प्रयोग बहुत सफल नहीं रहा, लेकिन गांवों में भी अतिथिघरों की जरुरत को महसूस किया गया। 1941 ई० तक अनेक देशों में ऐसे 30 स्वतंत्र लेकिन परस्पर संबद्ध समुदाय अस्तित्व में आ चुके थे। आज आस्ट्रेलिया, इंग्लैंड, कनाडा, जर्मनी, आयरलैंड, नीदरलैंड, मैक्सिको, न्यूजीलैंड और स्वीडन सहित दुनिया भर में ऐसे 100 से ज्यादा समुदाय सक्रिय हैं।
डोरोथी को सबसे ज्यादा मुश्किलों का सामना अपने शांतिवादी विचारों के कारण करना पड़ा। उनका यह मानना था कि गास्पल के मूल में अहिंसात्मक जीवन-शैली की बात की गई है। लेकिन पिछली कई सदियों से चर्च युद्धों में शामिल होता रहा था। सेनाएं पोप का आशीर्वाद लेती रहीं थीं। कैथोलिक वर्कर में इस तरह का पहला लेख एक देशभक्त और ईसा के बीच संवाद के रुप में प्रकाशित हुआ। इसमें ईसा के विचारों को महान लेकिन अव्यावहारिक बताते हुए देशभक्त व्यक्ति उसका विरोध कर रहा था। इस तरह के लेख पाठकों को दुविधा में डालते। इस बीच 1936 ई० में स्पेन में गृहयुद्ध शुरु हुआ, जिसमें फासिवादी फ्रैंकों और उसके समर्थक खुद को कैथोलिक आस्था के संरक्षकों के रुप में प्रस्तुत कर रहे थे। सभी कैथोलिक पत्र-पत्रिकाएं और बिशप फ्रैंकों के समर्थन में आगे आने लगे। ऐसे में कैथोलिक वर्कर ने युद्ध में शामिल किसी भी पक्ष का साथ देने से इनकार कर दिया। इससे उसके पाठकों की संख्या में दो-तिहाई तक गिरावट आ गई। डोरोथी ने चेतावनी दी कि जो आज फै्रंकों के साथ हैं, वे कल नाजियों के भी साथ होंगे। नाजी जर्मनी में यहूदियों के प्रति हो रहे अत्याचारों से भी डोरोथी बहुत विचलित थीं और उन्होंने आगे चलकर कैथोलिकों की सामीवाद विरोधी समिति की स्थापना की।
पर्ल हार्बर पर जापान के हमले और अमेरिका की युद्ध में शामिल होने की घोषणा पर भी डोरोथी ने यही कहा कि हम शांति के पक्ष लेना नहीं छोड़ेंगे। हम ईसा मसीह के शब्दों को छापेंगे, जो हमेशा हमारे साथ हैं। उन्होंने कहा कि युद्ध का साथ देने का यह अर्थ नहीं कि हम दुश्मनों के साथ हैं। हम अपने देश से प्यार करते हैं और हमारा देश ही वह देश है, जहां दुनिया भर के देशों से आए दमित, शोषित लोग आश्रय पाते रहे हैं। लेकिन कैथोलिक वर्कर युद्ध के नहीं, करुणा के कार्यों के साथ है। उन्होंने अपने मित्रों और सहयोगियों का आह्वान किया कि वे इस समय में भी घायलों ओर बीमारों की देखभाल करते रहें, भूखों के लिए अनाज का उत्पादन करते रहें, अतिथिघरों और खेतों पर करुणा के सारे काम चलते रहें।
सारे हॉस्पिटैलिटी हाउस डोरोथी के इन विचारों से सहमत नहीं थे और अमेरिका के युद्ध में शामिल होते ही ऐसे 15 घर बंद हो गए। लेकिन डोरोथी अपने विचारों पर अडिग रहीं। युद्ध के दौरान कैथोलिक वर्कर मूवमेंट से जुड़े अनेक युवाओं का अधिकांश समय जेलों में बीता। विश्वयुद्ध 1945 ई० में खत्म हुआ तो शीत युद्ध का दौर शुरु हो गया, जिसका अमेरिका एक पक्ष बना रहा। न्यूयार्क के कैथोलिक वर्कर समुदाय ने 1950 ई० में एक अन्य महत्त्वपूर्ण निर्णय किया कि वे सालाना नागरिक सुरक्षा युद्धाभ्यास में हिस्सा नहीं लेंगे। डोरोथी का मानना था कि यह युद्धाभ्यास परमाणु युद्ध की अनिवार्यता को स्वीकृति देते हैं। जून 15, 1955 ई० को जब युद्धाभ्यास के लिए सायरन बजा, तब डोरोथी सिटी हाल के सामने धरना दिए बैठे लोगों के समूह में शामिल थी, जिनके हाथ में थामें पर्चों में लिखा था प्रभु ईशू के नाम पर, जो कि भगवान हैं, जो कि प्रेम हैं, हम भागने, छुपने का दिखावा करने के इस आदेश का पालन नहीं करेंगे। हम भय को स्थापित करने के इस अभ्यास का हिस्सा नहीं बनेंगे। यदि हम परमाणु बम पर भरोसा करते हैं, तो यह समझना चाहिए कि हमारी आस्था ईश्वर में नहीं हैं। डोरोथी की अमरीकी सरकार के प्रति यह अवज्ञा अमेरिका के जापान पर बम गिराने के विरोध में भी थी। इस वर्ष विरोध प्रदर्शन करने वालों को चेतावनी देकर छोड़ दिया गया। अगले साल डोरोथी और उनके साथियों को पांच दिन के लिए जेल भेजा गया। डोरोथी और उनके साथी हर साल युद्धाभ्यास के दिन यही करते, और उनके समर्थकों की संख्या हर साल बढ़ती जा रही थी। अंततः 1961 ई० के बाद न्यूयार्क शहर में युद्धाभ्यास बंद कर दिए गए। नागरिक अधिकारों की रक्षा कैथोलिक वर्कर मूवमेंट का एक अन्य महत्त्वपूर्ण सरोकार रहा।
पीटर मौरिन का 1949 ई० में देहांत हो गया। उसके बाद डोरोथी अकेले ही कैथोलिक वर्कर मूवमेंट को आगे ले जाती रहीं। जिन गरीबों के बीच वे रहीं, उन्हीं के बीच 29 नवंबर 1980 ई० को न्यूयार्क शहर में उनका देहांत हो गया। जीवन भर स्वेच्छा से गरीबी का जीवन यापन करने वाली डोरोथी डे की मृत्यु के समय उनके पास अपने अंतिम संस्कार तक का पैसा नहीं था।
डोरोथी ने जीवन भर फासीवादी ताकतों, परमाणु हथियारों, वियतनाम युद्ध का विरोध किया और संयुक्त खेत मजदूरों, विस्थापित कामगारों के अधिकारों की हिमायत करती रहीं। परिवर्तनकामी सामाजिक प्रतिबद्धताओं और परंपरागत धार्मिक विचारों के बीच सामंजस्य के चलते उन्हें चर्च कभी पूरी तरह नकार नहीं सका। वे कैथोलिकों और सामाजिक न्याय के पक्षधर लोगों के बीच प्रेरणा का स्रोत बनी रही। 1971 ई० में उन्हें पासेग इन टैरिस पुरस्कार से सम्मानित किया गया। यह एक लातिन नाम है जिसका अर्थ है धरती पर शांति। उन्हें कैथोलिक चर्चा द्वारा संत की उपाधि दिए जाने का प्रस्ताव वर्ष 1983 ई० में रखा गया था। पोप जोन पॉल द्वितीय ने 2000 ई० में उन्हें ईश्वर की सेविका की उपाधि प्रदान की, जो संत की उपाधि पाने के हकदार व्यक्ति को दी जाती है। यह अलग बात है कि स्वयं डोरोथी यह कहती थीं मुझे संत मत कहो, मैं इतनी आसानी से खारिज होना नहीं चाहती।
- देवयानी भारद्वाज
ड्युई, जॉन : औद्योगिक क्रांति के बाद आर्थिक विकास की अपनी प्रक्रिया घटित हो रही थी और उससे मनुष्य के सम्मुख नई सामाजिक-राजनैतिक चुनौतियां प्रस्तुत हो रही थीं। कुछ विचारकों के अनुसार सैद्धांतिक मीमांसा से अधिक प्राथमिक और जरूरी था उनका व्यावहारिक समाधान-विशेष तौर पर इसलिए कि नई मीमांसा इन चुनौतियों का समाना करने में मदद नहीं कर रही थीं। विचारकों के इस वर्ग में जॉन ड्युई (1859-1952 ई०) का नाम प्रमुख है। ड्युई को प्रकृतिवादी कहा जा सकता है। लेकिन उनकी भी दर्शन से यही मांग है कि उसे मीमांसा होने के बजाय मनुष्य के व्यावहारिक जीवन में उसका सहायक होना चाहिए। ड्युई डार्विन के विचारों से बहुत अधिक प्रभावित रहे। उनकी मान्यता थी कि मनुष्य अपने परिवेश के साथ निरंतर संघर्षरत है और इस संघर्ष में वह तभी सफल हो सकता है, जब वह परिवेश पर नियंत्रण की क्षमता रखता हो। ड्युई के अनुसार मनुष्य का दिमाग दुनिया को जानने का नहीं, बल्कि उसके व्यवहार का यंत्र है। विचार के द्वारा मनुष्य अपने को पुनः रूपांतरित करता है ताकि वह परिवेश पर अपना नियंत्रण कायम रख सके। इसलिए दर्शन ज्ञान के आधार पर मनुष्य के विचारों और व्यवहार का इस दृष्टि से रूपांतरण करता है कि उसकी आकांक्षाओं की पूर्ति हो सके।
ड्युई के इन विचारों पर डार्विन के विकासवाद का स्पष्ट प्रभाव देखा जा सकता है। उनके अनुसार मनुष्य की देह की ही तरह उसका मस्तिष्क भी अस्तित्व के लिए संघर्ष की प्रक्रिया में विकसित होता गया है। इसलिए मनुष्य के विचारों और व्यवहार के औचित्य को उसके परिवेश के संदर्भ में ही परखा जा सकता है। ड्युई ने इसीलिए अतिप्राकृतिक या भूतातीत व्याख्याओं को धर्मशास्त्र के अंतर्गत मानते हुए उन्हें दर्शन का दरजा देना स्वीकार नहीं किया। वस्तुगत व्याख्या परिवेश में किसी चीज के मुकाम और व्यवहार से तय होती है।
विकासवाद को स्वीकार करने का एक नतीजा यह भी हुआ कि ड्युई के लिए किसी भी मूल्य को अंतिम स्वीकार करना संभव नहीं रह गया। सामाजिक-राजनीतिक क्षेत्र में भी सभी मूल्य और संस्थाएं अस्तित्व के लिए संघर्ष की अनवरत प्रक्रिया में एक विशेष स्थिति के सम्मुख विकसित होती हैं और उसमें परिवर्तन के साथ ही मूल्यों और उन्हें रूपायित करने के लिए विकसित संस्थाओं के स्वरूप में भी तदनुसार परिवर्तन जरूरी हो जाता है। इसीलिए अंतिम सत्य कुछ भी नहीं है, जिसके आधार पर मनुष्य के व्यवहार की सार्वकालिक और सार्वभौमिक कसौटी का निर्धारण किया जा सके।
और शायद यही कारण है कि ड्युई का राजनैतिक रुझान लोकतंत्र की ओर है, क्योंकि केवल लोकतांत्रिक व्यवस्था में ही किसी भी मान्यता को अंतिम स्वीकार नहीं किया जा सकता और इसलिए सभी को अपनी मान्यताओं को अभिव्यक्त करने और उनके अनुसार अहिंसक आचरण करने की छूट रहती है। तानाशाही या राजतंत्र हिंसा पर आधारित है और हिंसा असहिष्णुता से पैदा होती है, और उसे बढ़ावा देती है। असहिष्णुता वहीं होती है जहां अपनी मान्यता या स्वार्थ को अंतिम मानकर सभी से अनिवार्यतः उसके अनुसार आचरण करने की आकांक्षा बलवती होती है। डार्विन के सिद्धांतों को स्वीकार करते हुए भी ड्युई का लोकतंत्र की ओर रुझान कुछ अजीब लग सकता है, क्योंकि योग्यतम के अस्तित्व के सिद्धांत के आधार पर डार्विन के विचारों का राजनैतिक प्रतिफलन अधिकांशतः तानाशाही, सैनिकवाद, अंधराष्ट्रवाद और साम्राज्यवाद के रूप में ही सामने आया है। लेकिन विकास-क्रम में किसी भी स्थिति को अंतिम नहीं माना जा सकता, क्योंकि विकास एक निरंतर प्रक्रिया है; साथ ही, विज्ञान का विकास भी किसी निष्कर्ष और मान्यता को अंतिम समझने के खतरे के प्रति लगातार सावधान करता है। अतः, स्वाभाविक है कि मानवीय आचरण और संस्थाओं में भी विकास के इस सिद्धांत को समझते हुए किसी भी विचार, कानून या मूल्य को अंतिम न माना जाए। इसीलिए ड्युई राजतंत्र या एकतंत्र की बजाय लोकतंत्र को और सत्ता के राज्य में केंद्रीकरण की बजाय बहुलवादी व्यवस्था को वरीयता देते हैं। उनके मतानुसार मनुष्य का राजनैतिक विकास तभी संभव है।
एक शिक्षा-दार्शनिक के रूप में भी ड्युई का योगदान महत्त्वपूर्ण माना जाता है। विकासवाद को स्वीकार करने का तात्पर्य है मनुष्य को परिवेश के साथ निरंतर संघर्षरत मानना। इसलिए इस संघर्ष में सफल हो सकने के लिए मनुष्य को तैयार करना ही शिक्षा का प्रमुख उद्देश्य हो सकता है। लेकिन परिवेश और उसके साथ मनुष्य का संबंध अनवरत और गतिशील है, अतः शिक्षा भी एक अनवरत और गतिशील प्रक्रिया होनी चाहिए-तभी वह परिवेश को नियंत्रित कर सकने में मनुष्य को निंरतर योग्य बनाए रख सकती है। इसलिए शिकागो के शिक्षा-स्कूल में ड्युई ने निरंतर प्रयोग किए और उनके आधार पर बाद में डेमाक्रेसी एंड एजुकेशन नामक पुस्तक भी लिखी। ड्युई की मान्यता है कि आज जिस बच्चे को शिक्षा दी जानी है, उसे कल के परिवेश की नई चुनौतियों का सामना करना पड़ेगा-क्योंकि परिवेश निंरतर विकासशील है-और इन चुनौतियों से संघर्ष के माध्यम से ही मनुष्य का नया विकास संभव है। इसलिए यह आवश्यक है कि बालक की शिक्षा के लक्ष्यों और प्रक्रिया का निर्धारण कल के परिवेश की संभावित चुनौतियों के संदर्भ में किया जाना चाहिए। इन चुनौतियों का स्वरूप और प्रक्रिया अलग-अलग समाजों में अलग-अलग होना स्वाभाविक है, अतः शिक्षा का कोई सार्वभौमिक और सार्वकालिक मॉडेल भी तैयार नहीं किया जा सकता-उसमें प्रयोगशीलता और परिवर्तन की गुंजाइश बराबर रहनी चाहिए। शिक्षा के क्षेत्र में ये विचार क्रांतिकारी महत्त्व रखते हैं क्योंकि उनसे पहले शिक्षा की प्रक्रिया किसी भी समाज की रूढ़िबद्ध धारणाओं और अधिक-से-अधिक तात्कालिक आवश्यकताओं के आधार पर तय होती थी, इस अर्थ में ड्युई क्रांतिकारी शिक्षा-शास्त्री थे, जिन्होंने न केवल कल की चुनौतियों के संदर्भ में शिक्षा को तय करने पर बल दिया बल्कि यह माना कि स्कूल छोड़ने का तात्पर्य शिक्षा की प्रक्रिया का पूर्ण हो जाना नहीं है। शिक्षा एक अनवरत प्रक्रिया है क्योंकि विकास एक अनवरत प्रक्रिया है।
- नंदकिशोर आचार्य
ड्रमंड, हेनरी (Drummond Henry) :इंग्लैंड के स्टिरलिंग में जन्मे हेनरी ड्रमंड (1857-1867 ई०) एक प्रसिद्ध प्रकृति-विज्ञानी और विचारक हैं। एडिनबरा विश्वविद्यालय से शिक्षा प्राप्त करने के बाद वह 1877 ई० में फ्रीचर्च कॉलेज में प्रकृति-विज्ञान के अध्यापक हो गए। धर्मशास्त्र में भी उनकी गहरी रूचि थी और उन्हें लगता था कि प्रकृति-विज्ञान के नियम धार्मिक अनुभव की विकास-प्रक्रिया पर भी लागू होने चाहिए। इस दृष्टि से कई सालों के उनके अध्ययन-चिंतन का परिणाम एक ग्रंथ के रूप में 1883 ई० में सामने आया। ग्रंथ का नाम है नेचुरल लॉ इन दि स्प्रिचुअल वर्ल्ड। अपनी इस पुस्तक में हेनरी ड्रमंड ने यह प्रतिपादित किया कि प्रकृति-विज्ञान के नियम केवल भौतिक जगत पर ही लागू नहीं होते; बल्कि, यदि वे नियम हैं तो आध्यात्मिक जगत पर भी लागू होते हैं। ड्रमंड का मानना है कि प्रकृति-विज्ञान के नियमों में भी एक उच्चावच क्रम रहता है और कभी-कभी एक नियम दूसरे नियम के अधीन काम करता है। वह उदाहरण देते हैं कि गुरुत्वाकर्षण एक प्राकृतिक नियम है, लेकिन वह उगते हुए पौधे पर लागू नहीं होता क्योंकि वह किसी दूसरे नियम के अधीन उग रहा है। ड्रमंड का एक तर्क यह भी है कि कई प्राकृतिक नियम हो सकते हैं, लेकिन आधुनिक विज्ञान हमें बताता है कि इन कई नियमों का भी कोई एक नियम है, जिसके अंतर्गत वे काम करते हैं।
हेनरी ड्रमंड इस नियमों के नियम को निरंतरता का नियम कहते हैं क्योंकि इसके बिना हम विश्व की कल्पना ही नहीं कर सकते। यदि हम निरंतरता की अवधारणा को विश्व से अलग कर देते हैं तो विश्व एक विशृंखल स्थिति में आ जाता है, जिस पर कोई नियम लागू नहीं होता। उच्चावच क्रम के बावजूद, हेनरी ड्रमंड के अनुसार, सभी नियमों की सब स्तरों पर निरंतरता है। यदि वे किसी स्तर पर सक्रिय नहीं दिखते तो इसका तात्पर्य उनकी अनुपस्थिति या अभाव नहीं, बल्कि परिस्थिति-विशेष में सक्रियता की आवश्यकता नहीं होना है। इसलिए यदि कुछ प्राकृतिक नियम हमें आध्यात्मिक जगत में सक्रिय नहीं मिलते तो इसका कारण उनकी निरंतरता का अभाव नहीं। एक परिस्थिति विशेष में उनकी आवश्यकता नहीं रहती, लेकिन उनकी उपस्थिति बनी रहती है और जरूरत पड़ने पर वे सक्रिय हो जाते हैं। हेनरी ड्रमंड का मानना है कि प्रेम का नियम आध्यात्मिक जगत का सर्वोच्च नियम है। प्राकृतिक जगत में उसकी अनुपस्थिति नहीं है, पर वह वहां सक्रिय नहीं है क्योंकि वहां उसकी सक्रियता की कोई आवश्यकता नहीं है।
हेनरी ड्रमंड की एक स्थापना यह भी है कि जिन्हें हम आध्यात्मिक जगत के नियम कहते हैं, उनकी अभिव्यक्ति भी प्राकृतिक जगत से प्राप्त भाषा में ही हो सकती है क्योंकि भाषा प्राकृतिक परिवेश से ही अर्थाकार ग्रहण करती है। यह अपने आप में आध्यात्मिक जगत में प्राकृतिक जगत के नियमों की निरंतरता की ओर संकेत है।
यह उल्लेखनीय है कि महात्मा गांधी भी हेनरी ड्रमंड द्वारा प्रतिपादित नियमों की उच्चावचता की अवधारणा से बहुत प्रभावित थे। गीता पर अपनी एक टिप्पणी में अध्याय चौदह-पंद्रह का जिक्र करते हुए वह हेनरी ड्रमंड की पुस्तक दि नेचुरल लॉ इन दि स्प्रिचुअल वर्ल्ड का उल्लेख भी करते हैं। वह कहते हैं कि सभी प्राकृतिक नियमों को सत्व, रजस और तमस के अंतर्गत वर्गीकृत किया जा सकता है, जिसमें सत्व सर्वोच्च है, यद्यपि सत्व की ओर बढ़ने की यात्रा में अन्य दो की भी कुछ उपस्थिति तो बनी ही रहती है और तीनों का अतिक्रमण करने पर ही पूर्ण पुरुष की स्थिति में पहुंचना संभव हो पाता है।
हेनरी ड्रमंड की अन्य पुस्तकों में दि एसेंट ऑफ मैन, दि मंकी दैट वुड नॉट किल तथा दि आइडियल लाइफ एंड अदर एड्रेसेज तथा ट्रॉपिकल अफ्रीका अधिक प्रसिद्ध हैं। दि एसेंट ऑफ मैन में वह डार्विन के विकासवाद की प्रक्रिया में प्राणियों में एलट्रइज्म-परहितवाद की उपस्थिति का महत्त्व प्रतिपादित करते हैं।
द्रष्टव्य : परहित।
- नंदकिशोर आचार्य
तंत्र-सिद्धांत : द्रष्टव्य : साकल्यवादी जीवन।
तत्त्वार्थ सूत्र : तत्त्वार्थाधिगम अथवा तत्त्वार्थसूत्र जैन दर्शन की व्याख्या करने वाला ऐसा संस्कृत ग्रंथ है, जिसे साधारण पाठ भेद के साथ सभी जैन संप्रदायों में समान प्रतिष्ठा प्राप्त है। इस ग्रंथ के कृतित्व को लेकर कुछ मतभेद हैं; लेकिन, विद्वानों द्वारा, सामान्यतः, इसे कुंदकुंदाचार्य के प्रमुख शिष्य और उत्तराधिकारी आचार्य उमास्वाति की कृति स्वीकार किया जाता है। यह ग्रंथ मोक्षशास्त्र के नाम से भी प्रसिद्ध है क्योंकि यह उस मार्ग की व्याख्या करता है, जिस पर चलकर जीव मोक्ष की मंजिल तक पहुंच सकता है। तत्त्वार्थसूत्र को इसीलिए जैन-सिद्धांतों की पाठ्य-पुस्तक के रूप में पढ़ाया जाता है क्योंकि सूत्रशैली में लिखी होने के कारण यह सरलतापूर्वक बालकों को समझाई एवं कंठस्थ करवाई जा सकती है।
जैन-नीतिदर्शन का केंद्रीय व्रत अहिंसा है तथा अन्य सभी व्रत उसी के आयाम हैं। मुनियों के लिए विहित इन व्रतों को महाव्रत तथा सामान्य गृहस्थ के लिए अणुव्रत कहा जाता है। तत्त्वार्थसूत्र में अहिंसा और हिंसा की सम्यक् व्याख्या की गई है, जिसके आधार पर अहिंसा की जैन-दृष्टि को स्पष्ट समझा जा सकता है। सम्यक् दर्शन, सम्यक् ज्ञान और सम्यक् चरित्र मोक्षमार्ग या मोक्ष के साधन हैं। यह शंका की जाती है कि अकेला सम्यक् चरित्र ही मोक्ष तक क्यों नही पहुंचा सकता। लेकिन, सम्यक् चरित्र के विकास का कारण सम्यक् दर्शन और सम्यक् ज्ञान हैं; अतः, तीनों में एकत्व रहता है।
सम्यक् चरित्र का आधार अहिंसा का सिद्धांत है। तत्त्वार्थसूत्र के सातवें अध्याय में अहिंसा को हिंसा का अभाव बताते हुए हिंसा की वृत्ति और लक्षणों को स्पष्ट किया गया है। इस अध्याय में पांचों ही व्रतों के परिभाषासूत्र दिए गए हैं क्योंकि इन व्रतों का इनके सभी आयामों में पालन ही सम्यक् चरित्र है। हिंसा की परिभाषा करते हुए सूत्र 13 में कहा गया हैः प्रमत्तयोगात् प्राणव्यपरोपणं हिंसा। अर्थात् प्रमत्तयोग से प्राणों का विनाश करना हिंसा है। इसका तात्पर्य यह है कि यदि बिना किसी रागद्वेषादि के संयोगवश प्राणों का विनाश भी हो जाए तो उसे हिंसा नहीं कहा जा सकता। जैन आगम में अहिंसा के दो रूप हैं : द्रव्यहिंसा और भावहिंसा। दरअस्ल, द्रव्य और भाव का यह भेद सभी व्रतों पर लागू होता है क्योंकि भाव ही मूल है। प्रमत्तयोग अर्थात् रागद्वेषादि के अभाव में भी प्राणों का विनाश हो सकता है, लेकिन वह द्रव्यहिंसा है, भाव हिंसा नहीं। अतः, उसे वास्तविक अर्थों में हिंसा नहीं कहा जा सकता। लेकिन भावहिंसा में कभी प्राणों का विनाश न होने के बावजूद उसे हिंसा ही माना जाएगा। द्रव्य हिंसा वास्तविक अर्थों में हिंसा तभी मानी जाएगी जब वह भावहिंसा का परिणाम हो। लेकिन, द्रव्य हिंसा न होने पर भी भाव हिंसा हिंसा ही मानी जाएगी क्योंकि भाव हिंसा विकार है, जिससे प्रतिक्षण गुणह्रास होता है और आत्मा के अपने शुद्ध रूप का बोध होने में बाधा पैदा हो जाती है। रागद्वेषादि मिथ्या ज्ञान के परिणाम हैं, अतः, उनसे प्रेरित आचरण आत्मगुणों का हनन करने और इसलिए मोक्षमार्ग में बाधा हो जाने के कारण तात्विक रूप से हिंसा ही माना जाएगा।
हिंसा की व्याख्या करते हुए तत्त्वार्थसूत्र उसके कुछ अतिचारों का भी वर्णन करता है, जिससे स्पष्ट हो जाता है कि हिंसा को केवल प्राणों के विनाश तक ही सीमित नहीं माना जा सकता। इसके अनुसार बंध, वध, छेद, अतिभार का आरोपण और अन्नपान का निरोध अहिंसा अणु-व्रत के पांच अतिचार माने गए हैं (7/25)। इसका भावार्थ यही है कि प्राण-विनाश न करते हुए भी किसी को इरादतन कष्ट पहुंचाना हिंसा है और यह केवल मनुष्यों पर ही नहीं, सभी प्राणियों पर लागू होता है। तत्त्वार्थसूत्र की टीकाओं में इन अतिचारों की व्याख्या करते हुए बंध का तात्पर्य प्राणियों को इच्छित स्थान में जाने से रोकने के लिए रस्सी, पिंजर इत्यादि से बांधना, वध का तात्पर्य प्राणियों पर लकड़ी आदि से प्रहार करना, छेद का तात्पर्य नाक-कान या अंगछेद करना-जैसा पशुओं के साथ किया जाता है, अतिभारारोपण का तात्पर्य किसी शक्ति से अधिक बोझ लादना तथा अन्नपान निरोध का तात्पर्य प्राणियों को ठीक समय पर अथवा पर्याप्त मात्रा में भोजनादि न देना है। ये नियम केवल व्यक्तियों पर नहीं बल्कि पूरी व्यवस्था पर भी लागू होते हैं क्योंकि व्यवस्था भी व्यक्तियों द्वारा ही बनाई और संचालित की जाती है।
यह उल्लेखनीय है कि अहिंसा व्रत की तरह ही अन्य व्रतों और शीलों के अतिचारों का वर्णन भी तत्त्वार्थसूत्र में किया गया है। सभी व्रत और शील अहिंसा के ही आयाम होने की दृष्टि से देखें तो इस वर्णन से हिंसा के अनेकानेक स्थूल-सूक्ष्म भेद समझ में आते हैं क्योंकि सभी अतिचार रागद्वेषादि भावों से पैदा होने के कारण आत्मगुणों का हनन करने वाले अर्थात् हिंसक व्यवहार के अंतर्गत आ जाते हैं। तत्त्वार्थसूत्र का आग्रह इस पर भी है कि व्यवहार में रागद्वेषादि के दिखाई न देने पर भी यदि मन में ये भाव बने रहते हैं तो वह हिंसा ही है। इन भावों के बाह्य रूप के साथ-साथ उनके अंतरंग रूप की पहचान करते हुए उससे मुक्त होने के लिए प्रयासरत रहना ही उस अहिंसा-भाव की साधना है, जिसे तत्त्वार्थसूत्र मोक्षमार्ग कहता है।
- नंदकिशोर आचार्य
तिब्बत मुक्ति आंदोलन : द्रष्टव्य : दलाई लामा।
तिरुक्कुरल : यद्यपि तमिल ग्रंथ तिरुवळ्ळुवर का जीवन काल लगभग दो हजार वर्ष पूर्व का है, किंतु ऐसा प्रतीत नहीं होता है कि उनका अवसान हो चुका है। वे तमिल प्रदेश में सम-सामयिक जीवन में निरंतर विद्यमान हैं और यहां के लोगों की विचारधारा पर उनका प्रभाव सदा ही बना रहा जो उनके मानवीय आदर्श एवं आचार-व्यवहार को उनके द्वारा प्रस्तावित उच्चादर्शों के अनुरूप बनाने के लिए प्रेरित करता रहा। तिरुवळ्ळुवर का आविर्भाव मानव जाति के संवर्धन और चिंतन के लिए ही हुआ है। अधिकार और न्याय की संकल्पना एवं चिंतन मूल्यों की प्रस्तावना के लिए प्लेटो, अरस्तू, कन्फ्यूशियस एवं रूसो ने जिस धरातल पर विचार किया था, तिरुवळ्ळुवर भी उसी चिंतन पर विचार करते थे। तिरुवळ्ळुवर का चिंतन इतना असाधारण है कि हम जब उनकी जीवन-दृष्टि के आधार पर मानवीय जीवन का दर्शन करते हैं तो आश्चर्य चकित रह जाते हैं। जब तिरुवळ्ळुवर द्वारा प्रणीत तिरुक्कुरळ के 133 अध्यायों में सन्निविष्ट 133० कुरळों की संरचना पर दृष्टिपात करते हैं तो हमें उसकी समग्रता का बोध होता है। उन्होंने जीवन की गहराई को भी देखा है और उसके साथ ही साथ व्यंग्य, कपट तथा विभेद जैसी विसंगतियों का भी सूक्ष्म निरीक्षण किया है। उन्होंने समाज में व्याप्त धार्मिक उदात्त तत्वों का भी विश्लेषण किया है। उन्होंने मनुष्य को उसकी संपूर्णता में समाहित करने का प्रयत्न भी किया है। डॉ० जी०यू० पोप ने तिरुवळ्ळुवर को विश्व मानव का चारण निरूपित किया है।
तिरुवळ्ळुवर ने शाकाहारी समस्या पर बहुत गहराई में जाकर विचार किया और कहा है कि जब तक व्यक्ति हिंसा की भावना को मन और ह्रदय से दूर नहीं हटा देता तब तक वह छोटे-छोटे जीव जंतुओं के प्रति अपना प्रेम और औदार्य प्रकट नहीं कर सकता। हिंसा सुखमय जीवन में बाधक बनती है और वह जीवन की समरसता एवं एकता को विखंडित कर देती है। इसलिए हिंसा को मिटाए बिना इस पृथ्वी में शांति की स्थापना नहीं हो सकती। सभी जीवधारियों के जीवन-क्रम का विश्लेषण करते हुए ‘गुण’ पर विचार किया जाता है। केवल सद्गुणों की परिभाषा के आधार पर सभी प्राणियों की स्थिति का अनुमान नहीं किया जा सकता है।
वळ्ळुवर की मान्यता है कि यदि कोई व्यक्ति अहिंसा का पालन करता है और वह इस अहिंसा-पालन के विषय में केवल यंत्र-चालक की तरह विवेक शून्य नहीं है तथा वह सभी प्राणियों के प्रति अपना स्नेह, प्रेम और श्रद्वा का भाव प्रतिष्ठित करता है, तब ऐसा व्यक्ति उच्च गुण-संपन्न एवं औदार्य पूरित व्यक्तित्व वाला बन जाएगा। इसके विपरीत, जो व्यक्ति हिंसा पर विश्वास रखता है वह पशु-पक्षी अथवा अन्य प्राणियों के प्रति अपना प्रेम-भाव प्रकट नहीं करता, वह कठोर ह्रदय वाला होता है। ऐसा कठोर ह्रदय वाला व्यक्ति अपने व्यक्तित्व में चौर कर्म, व्यभिचार, डाका आदि दुर्गुणों का समावेश कर देता है। निम्नलिखित कुरळ में यही अर्थ समाविष्ट है। वळ्ळुवर ने हिंसा-अहिंसा के इस भाव को अत्यन्त सहज और सुन्दर रूप से व्यक्त किया है- जीवों को न मारने की अपेक्षा धर्म और क्या हो सकता है? / जीवों को मारने से सब प्रकार के भाव अपने आप आ जाते हैं। (कुरळ-321) वळ्ळुवर कहते हैं-जग में परम धर्म अहिंसा है। शास्त्रों का उल्लेख करते हुए कहते हैं-सेवा भाव अतिथि के प्रति हो / नहीं कष्ट दो किसी जीव को। (कुरळ-322) सत्य अहिंसा पर जोर देते हुए कुरळकार कहते हैं-सर्व श्रेष्ठ है तत्त्व अहिंसा / इसके बाद ही आता है क्रम सत्य का। (कुरळ-323) अहिंसा और सत्य-धर्म के रूप पर विचार करते हुए वह कहते हैं-जो पथ यहां अहिंसा का है / वही पंथ है सत्य-धर्म का। (कुरळ-324) हिंसा द्वारा प्राप्त संपदा को वळ्ळुवर उच्च नहीं समझते।
जिनका जीवन होता है यथार्थः महान / ऐसे जन हिंसा द्वारा प्राप्त संपदा को / नहीं देते हैं स्वीकृति-हेय समझते उसे। (कुरळ-328) जो अहिंसा धर्म का पालन करते हैं वे मरण देवता के भय से मुक्त रहते हैं। वळ्ळुवर कहते हैं-मरण देवता यम / नहीं आक्रमण करता है उस प्रदेश पर / जहां अहिंसा धर्म का होता है फैलाव / यहां पराजित होता आया मत्सर्य-अमर्त्स्थ से। (कुरळ-326) अहिंसा धर्म का पालन सबको करना चाहिए। इस पर अधिक जोर देते हुए वे कहते हैं-जिसने त्यागा इस असार संसार को, वे हैं त्यागी / किन्तु यहां उससे भी श्रेयस / वही मनुष्य कहा जाता है ‘मानव’ वह होता परिभाषित / जो करता अनुगमन यहां पर अहिंसा धर्म का। (कुरळ-325) जीवन सुखमय है और दुखमय है। लेकिन इस जीव को पीड़ा देना उससे दुखमय है। इसलिए वळ्ळुवर कहते है-भले तुम्हारा जीवन, घिरा हुआ हो दुख से / भले सामने हो, कितने ही संकट पथ पर / किंतु किसी भी अन्य जीव को / पीड़ा देना नहीं किसी को श्रेयस्कर।। (कुरळ-327) कुरळकार हत्यारों को त्याज्य, हेय और घृणा का पात्र मानते हैं। (कुरळ-329) जानवरों को पशु-पक्षियों को मारने वाले पापी हैं। ये लोग पूर्व जन्म में किए गए पाप का फल इस जन्म में भुगत रहे हैं। (कुरळ-330) कुरळकार कठोर शब्दों में मांस खाने वालों की निंदा करते हैं। किसी अन्य जीव का खाकर मांस देहयष्टि / जो करता हो पुष्ट-स्वयं की देहयष्टि को / नहीं जानता अर्थ अहिंसा का वह / नहीं समझता इस शाश्वत् जीवंत तत्त्व को। (कुरळ-251) मांसाहारी के मन में दयाभाव बिल्कुल नहीं रहता। इसे वे एक सुंदर उदाहरण से समझते हैं-जो होता है मांसाहारी / नहीं दया भाव रहता है उन ह्रदयों में / ठीक उसी तरह / जैसे किसी अस्त्र सज्जित योद्धा के मन में / दया शून्यता निर्दय भाव सदा रहते हैं। डॉ० पोप भी कहते है- To eat dead flesh can never worthy end fulfill मांसाहार पाप है। किसी भी जीव की हिंसा न हो यही अहिंसा भाव में निरूपित है। (कुरळ-254) मांसाहार न करने के विषय में वळ्ळुवर कृत संकल्प हैं वे कहते हैं-जहां कहीं भी होता मांसाहार / नहीं वहां मिलती जीवन की सच्ची आभा / ठीक उस तरह / जो होते हैं मांसाहारी / उनको मिलता नरक / नरक-गमन से कभी नहीं बच सकते हैं। (कुरळ-255) कुरळकार हिंसा-अहिंसा की परिभाषा देते हुए साफ शब्दों में कहते हैं-यदि मनुष्य यह अनुभव कर लें कि मांसजीव हिंसा का ही पर्याय रूप है, तब मनुष्य स्वयं ही हिंसा का त्याग करते हैं। (कुरळ-257) इतना ही नहीं आगे कुरळकार कहते हैं कि जिनकी दृष्टि सदा निर्मल, पावन होती है / वे कभी भी भक्षण करते ही नहीं किसी मृत प्राणी का। वळ्ळुवर कहते हैं कि याग-यज्ञ करना अर्थहीन है। उसमें जीव की हिंसा करना श्रेय नहीं है। भले यज्ञ के आयोजन हो / किंतु हजारों जीवधारियों की / करना अर्थहीन आहुतियां / नहीं श्रेय है / नहीं श्रेय है किसी जीव की करना हिंसा / नहीं श्रेय है किसी जीव का करना भक्षण। (कुरळ-259) कुरळकार की मान्यता है कि जैसे जो अपव्ययी होते हैं उनके पास कोई संपदा नहीं ठहरती। उसी तरह जो मांसाहारी होता है उनके ह्रदय में दया भाव उत्पन्न नहीं होता। (कुरळ-252) डॉ० पोप भी इस अहिंसा तत्व के बारे में कहते हैं- Who slays nought flesh rejects / His feet before / All living things will clasped hands adore. इसी भाव साम्य को हम वळ्ळुवर में भी देखते हैं-करते नहीं घात जो जग में किसी जीव को / मांसाहार त्याज्य समझते जो जीवन में / सारा विश्व उन्हें करता है नमन / और करता है संस्तुति / हो जाता है विश्व सामने उनके ही करबद्ध / जग करता उनकी ही स्तुति। (कुरळ-260) वळ्ळुवर की दृष्टि में दिव्यता के स्वरूप में उन्नयन का आशय यह है कि संसार में सभी प्राणियों के प्रति समान दया भाव का विकास हो। यही कारण है कि वळ्ळुवर प्रत्येक सद्-ग्रहस्थ को मांसाहार त्याग करने का परामर्श देते हैं। यदि सद्-ग्रहस्थ को अपने अंतर में दिव्यता का विकास करना है तो मांसाहार का त्याग आवश्यक है। कुछ लोग मांसाहार के औचित्य का प्रतिपादन करते हुए यह तर्क प्रस्तुत करते हैं कि मैं दूसरों के द्वारा मारे गए पशुओं का मांस खाता हूँ। मैं स्वयं जानवरों को मारता नहीं। इस तर्क का समाधान करते हुए वळ्ळुवर कहते हैं कि-यदि व्यक्ति अपने मांसाहार के लिए / प्राणियों को मारना बंद कर दे / तो क्या बाजार में मांस कभी बिक सकता है। (कुरळ-256) वळ्ळुवर ने धर्म के नाम पर पशु-बलि का घोर विरोध किया है। 133 अध्यायों में छब्बीसवां अध्याय और तैंतीसवां अध्याय में मांसाहार व अहिंसा के संदर्भ में अपना दृढ़ विचार व्यक्त किए हैं। आज से लगभग दो हज़ार वर्ष पूर्व विद्यमान तिरुवळ्ळुवर बड़े मनीषी रचनाकार और तमिल प्रदेश के कवियों में सिरमोर हैं। अपनी अमर रचना तिरुक्कुरळ के माध्यम से तमिलनाडु के बौद्धिक और साहित्यिक चिन्तन क्षेत्र पर उनका प्रभुत्व पिछली दो सहस्राब्दियों से भी अधिक समय से बना हुआ है। जी० यू० पोप ने ठीक ही कहा है कि वे विश्व मानवतावाद के अनुगायक हैं। आल्बर्ट श्वाइत्ज़र के अनुसार तिरुक्कुळ्ळुवर में अभिव्यक्त उदात्त भावना और प्रज्ञा शायद ही विश्व के किसी साहित्य में देखने को मिलेगी। अहिंसा तत्व पर वळ्ळुवर की विचारधारा मार्मिक एवं अनुकरणीय है।
- डॉ० एन० सुन्दरम
तुलसीदास : भारतीय लोक और शास्त्र की परंपराओं में जो भी सर्वश्रेष्ठ है-तुलसीदास उसके प्रतिनिधित्व में सबसे आगे हैं। संत, भक्त, कवि तुलसीदास वैष्णव-रस-चिंतन, भक्ति आंदोलन तथा दूरस्थ-भक्ति में प्रपत्तिवाद के बहुवचनात्मक पाठ हैं। गहरे अर्थों में इस पाठ के मूल में प्रेम ही परम पुरुषार्थ है और इस प्रेम पुरुषार्थ का आधार है-अहिंसा का अंतर्दर्शन। तुलसी के कवि-कर्म को प्रभावित करने वाले प्रेरणा स्रोत कई दिशाओं से प्रवाहित होकर आते हैं। इसलिए वे मूलतः भक्त कवि होते हुए भी कई दार्शनिक रंगों की रंगीनी लिए है। वे रामानुजाचार्य और रामानंद की चिंतन-परंपरा में श्री वृष्टि करने वाले विशिष्टाद्वैतवादी-प्रपत्तिवादी संत हैं। श्री संप्रदायी रामानुजाचार्य का ही परिष्कृत पुष्ट रूप रामानंदी-संप्रदाय है। इसी परंपरा में तुलसी की वैष्णव चेतना हिंदी काव्य में राम और कृष्ण दोनों महाकाव्यात्मक गाथाओं के मिथकों प्रतीकों को लेकर और समृद्ध मूल्य-चेतना के साथ लोकवाणी में लोक-धर्म लेकर आगे बढ़ी। यह लोक-धर्म वृहत्तर अर्थ-संदर्भों के भाष्य में अहिंसा और उसके प्रेमादर्श में वैष्णव-संस्कारों की उज्ज्वलनीलमणि का पावनताजनित प्रकाश है। यह प्रेमादर्श की वैष्णव परिधि इस अर्थ में भक्ति रसामृत सिंधु है कि इसमें कबीर, नानक, नामदेव, मीरा, रसखान, रहीम की वैष्णवता सहज-भाव से समा जाती है। इस दृष्टि से हिंदी-साहित्य के भक्तिकाल में तुलसीदास जैसा कवि, भक्त, ज्ञानी, दार्शनिक, मिथक-शास्त्री काव्य-शास्त्री और भारतीय सौंदर्यशास्त्र का भाव्यकाल कोई दूसरा नहीं है। उनमें अहिंसा या भक्तिरस प्रेरित वेद-उपनिषद, वेदांत , बौद्ध आदि के बीच भावों के दया-धर्म केंद्रित भाष्य मिलते हैं।
तुलसीदास की जन्म तिथि अनिश्चित है, मृत्यु तिथि भी अनिश्चित है। सच केवल इतना है कि रामानंद की राम-भक्ति-महिमा का तेज 17 वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में गोस्वामी तुलसीदास की वाणी द्वारा स्फुरित हुआ। उन्होंने रामानंद से प्रेरणा लेकर भाषाकाव्य की समस्त प्रचलित पद्धतियों के बीच अपनी सर्जनात्मक प्रतिभा का चमत्कार दिखाया। रामानंद की इसी परंपरा में तुलसीदास के गुरु का नाम नरहरिदास, मां का नाम हुलसी, पिता का नाम आत्माराम तथा बचपन का नाम रामबोला मिलता है। तुलसीचरित और गोसाईचरित दोनों चरितों में गोस्वामी का जन्म संवत् 1554 ई० दिया हुआ है। शिवसिंह सरोज में लिखा है कि गोस्वामी जी सं० 1583 ई० के लगभग उत्पन्न हुए। तुलसीदास ने अवधी और ब्रज दोनों में लगभग उनतालीस रचनाएं लिखी जिनमें रामचरितमानस, कवितावली, विनय पत्रिका, गीतावली, रामलला नहछू, रामाज्ञा प्रश्न, कृष्णगीतावली, हनुमान वाहुक, पार्वतीमंगल, बरवैरामायण, हनुमान चालीसा, हनुमान स्त्रोत, हनुमान पंचक, बजरंग साठिका, कुंडलिया रामायण आदि बहुत प्रसिद्ध हुईं। जानकी-मंगल नाम से एक महिमा काव्य भी लिखा है। उन्होंने प्रबंध एवं मुक्तक दोनों में रचना की लेकिन अमरता उन्हें रामचरित मानस से प्राप्त हुई। कुछ विद्वान विनय काव्यों की गीत-धारा में विनयपत्रिका को अद्वितीय मानते हैं। इस तरह राम-काव्य, भक्तिसाधना, लोक-धर्म, विरूद्धों के सामंजस्य की व्यवस्था में तुलसी को आचार्य रामचंद्र शुक्ल के शब्दों में हिंदी साहित्य का एक चमत्कार समझना चाहिए।
करुणा, प्रेम-दया-अहिंसा के कारण ही तुलसीदास की अहिंसा-दृष्टि (चराचर से प्रेम) को रामानंद संप्रदाय की एक शाखा वैरागी परंपरा में न समझना चाहिए। वे रामोपासक वैष्णव कवि अवश्य थे-पर थे स्मार्त वैष्णव। स्मार्त-वैष्णव की पहचान यह है कि जीव-मात्र पर प्रेम-दया के सिद्धांत और व्यवहार का पालन करता है तथा नर-नारी, ऊंच-नीच में भेदभाव नहीं करता। वह राम-रस पीता है और अहंकार को मारकर दास्य भक्ति के प्रपतिवाद में अपने को समर्पित कर देता है। कोई कुलीनतावादी, भेदभाववादी दास न होने के कारण तुलसी ने सूरदास का अनुसरण राम-कथा को लेकर गीतावली में किया। नस्लवाद, धर्मवाद, संप्रदायवाद,वंशवाद से मुक्त रहने के कारण ही वे रहीम के अनन्य सखा रहे। देानों की कविताई लोक में लोक-मंगल की सौंदर्य-साधना का साकार रूप लेकर गई। यह उनका अहिंसक लोक मन ही तो है जो वीरगाथाओं की छप्पय पद्धति, विद्यापति-सूरदास की गीत-पद्धति, गंग आदि भाटों की कवित-सवैया पद्धति, ईश्वरदास की दोहे-चौपाई वाली प्रबंध पद्धति अपनाकर अपने हृदय को लोक-हृदय बना देता है। काव्य और भक्ति का सबसे बड़ा प्रतिमान तो यही है न कि सच्चा कवि वही है जो अपने हृदय को लोक-हृदय में मिला देता है-लोक-संवाद करता है और ऊंच-नीच के भेदों की सभी दीवारें ढहा देता है। उसकी ताकत इन सभी के अतिक्रमण में निहित होती है। इन दृष्टियों से सुरसरि सम सब कहं हित होई वाली लोक-मंगल दृष्टि का मानववाद तुलसी के रचना कर्म में अपने शिखर पर स्थित है। रामहि केवल प्रेम पियारा का प्रेम-रस सिद्धांत या वैष्णव रस के आनंदघन शिवेतरक्षतये सिद्धांत से निकली नवधा-भक्ति धारा का प्रवाह ही इस अहिंसा में प्रवाहित है। रामचरित मानस, विनय-पत्रिका का बहुदेववाद राम, शिव, हनुमान, गौरी आदि के माध्यम से हमारी भारतीय संस्कृति की बहुलतावादी दृष्टि को व्यंजित करता है। तुलसी में कहीं भी कूटपरक एकेश्वरवादी जटिलता का हिंसा भाव नहीं है। जिस लोक-धर्म या अहिंसा भाव के संस्थापक तुलसीदास हैं, उसमें मूलतः प्रेम के आधार पर ही ईश्वर प्राप्ति एवं मुक्ति की प्राप्ति है। तुलसी साहित्य को भाववादी प्रतिक्रियावाद कहकर बिदकना बचकानापन है-क्योंकि वे जनता की जातीय अस्मिता, जातीय संस्कृति को विकसित करने वाले कवि हैं। उनमें घृणा फैलाने वाला धार्मिक कठमुल्लापन नहीं है। इसलिए तुलसी का कवि-कर्म भारतीय जनता की प्रेम-वेदना-करुणा का दर्पण है। इसकी शक्ति है लोक-संस्कृति का सौंदर्य। सीता के साथ ग्रामवधूटियों का प्रसंग, केवट औरषाद की प्रेम-कथा, सीता द्वारा पार्वती की पूजा, नारी अहिंसा का उद्धार जन-संस्कृति के अनुपम रूप हैं। तुलसी ने अन्याय का विरोध करने के लिए राम का आदर्श चरित्र रखा। जनता ने इसमें मर्यादा पुरुषोतम, जनरक्षक, लोकरक्षक, आज्ञाकारी पुत्र स्नेही भाई और मित्र के साथ धनुर्धर योद्धा को देखा। यह योद्धा अन्याय से धर्म युद्ध करता है-धर्म के रथ पर विराजमान है-सखा धरमभव असरथ जाके। रिपुदल जीति सकै नहि ताके।। (मानस-लंकाकांड) रावण को रथ पर और रघुवीर को रथरहित देखकर विभीषण अधीर हुआ। प्रेम के कारण अधीर हुआ विभीषण। राम ने विभीषण को समझाया जिससे जय होती है-वह रथ दूसरा है। शौर्य और धैर्य उस रथ के दो पहिए हैं। सत्य और शील (सदाचार) उसकी मजबूत ध्वजा और पताका हैं। बल, विवेक, दम (इंद्रियों का वश में होना) और परोपकार-ये चार उसके घोड़े हैं-जो क्षमा, दया और समतारूपी डोरी से रथ को जोड़े हुए हैं। ईश्वर का वचन ही चतुर सारथि है, वैराग्य ढाल है और संतोष तलवार, दान परसा है, बुद्धि प्रचंड शक्ति है, श्रेष्ठ विज्ञान कठिन धनुष है। निर्मम और अचल-मन तरकस के समान हैं। शम (मन का वश में होना) यम (अहिंसादि) और अन्य नियम यह बल हैं। गुरु तथा ब्राह्मण का पूजन अभेद्य कवच है। उनके सिवाय विजय का दूसरा उपाय नहीं। हे सखा, ऐसे धर्ममय रथ जिसके पास है, उसे शत्रु जीत नहीं सकता। जिसके पास धीर बुद्धि के साथ ऐसा रथ है-वह वीर संसार रूपी दुर्जय शत्रु को जीत सकता है। यहां राम के रथ नहीं राम-कथा के बीज भाव है और इन बीज भावों में अहिंसा का बल है। नीतिवाक्य मानस में आता है-राजनीति बिनु धन बिन धर्मा। हरहि समर्पे बिनु सत कर्मा।। विद्या बिनु विवेक उपजाएं। श्रम फल पढ़ें किएं अरु पाएं।।
डॉ० रामविलास शर्मा ने परंपरा का मूल्यांकन नामक पुस्तक में धर्म-प्रेम, करुणा, विनय, पूजा-भक्ति, शील-सौंदर्य-शक्ति सभी का सार निचोड़ने पर पाया है कि तुलसी को निकालकर हिंदी-साहित्य की परंपरा से संबंध जोड़ना असंभव है। इस परंपरा में जो कुछ मूल्यवान है, जो कुछ महत्त्वपूर्ण है, जो कुछ सदा के लिए संग्रह करने योग्य है, वह तुलसी में सुरक्षित है। यह तथ्य तुलसी की प्रतिभा का द्योतक है कि उन्हें त्यागकर कोई भी युग-प्रवर्तक कवि हो नहीं सकता। मैथिली शरण गुप्त, निराला और नवीन जी हिंदी की आधुनिक कविता में इसके प्रमाण हैं। तुलसी के लिए सबसे बड़ा धर्म है-दीनों-वंचितों अनाथों की सेवा। परहित सरस धर्म नहि भाई। पर पीड़ा सम नंहि अधमाई।। सबसे बड़ा पाप है-पर पीड़ा। इसलिए प्रजा को सताने वाले राजा के लिए नरक की व्यवस्था की है-जासुराज प्रिय प्रजा दुखारी। ते नृप अवसे नरक अधिकारी।। तुलसी की लोक-करुणा का अंत नहीं है। इस करुणा ने भक्ति से साधारणीकरण कर लिया है। भवभूति की करुणा का स्रोत तुलसी की भक्ति में मौजूद है। इसलिए भक्ति की परिणति मानवतावाद में होती है। यह भक्ति सभी जातियों-वर्णों को मिलाने वाली है और कहीं भी शूद्रों पर ब्राह्मणों के प्रभुत्व का समर्थन नहीं करती। रामानंद का भक्ति मंत्र जाति-पांति पूछै नहि कोई। हरि को भजै सो हरि का होई।। तुलसीदास ने पूरी तरह अपनाया है। यह भक्ति किसी का बहिष्कार नहीं करती। राम नाम का मंत्र सभी को पवित्र करता है-पतित पावन है। राम चित्रकूट जाते हैं तो कोल किरातों को नहीं भूलते। इसका कारण है रामहि केवल प्रेम पियारा दर्शन है। यह पूरा संसार सीयराम मय सब जग जानी मानकर तुलसी केवट और निषाद को भरत-लक्ष्मण का दर्जा देते हैं। इस प्रेम की महिमा वर्ण, जाति, धर्म से ऊपर है। तुलसी के राम ने उच्चवर्णों में किसी को सखा नहीं कहा, न भरत सम माना। निषाद को सखा कहा और केवट को गले लगाया। यह तुलसी का ही धर्म है कि उसने स्त्रियों के लिए उपासना के द्वारा खोल दिए। राम के स्वागत सत्कार में स्त्रियां सबसे आगे-यदि अयोध्या हो, जनकपुर या चित्रकूट। ग्रामीण स्त्रियां भी पीछे नहीं है। राम के अयोध्या लौटने पर नारी-समूह ऐसा उमड़ा कि राकाससि रघुवरपुर, सिंधु देख हरषान। बढ़ेउ कोलाहल करत जनु नाति तरंग समान।। तुलसी के राम गौतम-पत्नी को तारते हैं, शबरी के बेर खाते हैं और कैकेयी को क्षमादान देते हैं। वे नारी निंदक नहीं है,जानते हैं कि कत विधि सृजी नारि जग माही। पराधीन सपनेहु सुखनाही।। तुलसी ने ताड़न के अधिकारी वाली नीति वाक्य के रूप में समुद्र-प्रसंग में कही है। वे शूद्र और नारी के सम्मान के प्रति किसी तरह के निंदा भाव से मुक्त हैं। शूद्रों-ब्राह्मणों की दरिद्रता पर उनकी पीड़ा का अंत नहीं है-नहिं दरिद्र सम दुःख जग माही। वे बराबर संत-मिलन के सखाकांक्षी कवि हैं। तभी तो भगति विपति भजंन सुखदायक हैं। इस तरह पराधीनता से विद्रोह करने वाले तुलसी मानव-मुक्ति और लोक जागरण के कवि हैं।
महात्मा गांधी के चिंतन पर तुलसी के चिंतन की बहुत गहरी छाप है। इस चिंतन से गांधी ने समरसता या सामंजस्य स्थापित करने वाली दृष्टि विकसित की तथा अधर्म-अन्याय, दासता, शोषण के विरुद्ध सतत संघर्ष करने वाली दृष्टि का निर्माण किया। एक वैचारिक क्रांति वह थी जिसके विरुद्ध बुद्ध ने क्रांति की और दूसरी क्रांति वह बुद्ध के कमंडल से सहज रूप में लोक-धर्म बनकर फूट पड़ी। यह सभी जानते ही है कि गांधी ने रामराज्य की धारणा तुलसी के रामचरित मानस से ली थी। लेकिन हम गांधी के संपूर्ण लेखन को लेकर विचार मंथन करें तो पाते है कि हर क्षेत्र में तुलसी के सोच के गांधी पर अमिट प्रभाव हैं। रामचरित मानस को गांधी रामायण कहते थे और अपनी आत्मकथा में कहा कि जिस चीज का मेरे मन पर गहरा असर पड़ा, वह था रामायण का पारायण। रामायण पर मेरे आत्यंतिक प्रेम की बुनियाद है। मैं आज तुलसीदास की रामायण को भक्ति मार्ग का सर्वोत्तम ग्रंथ मानता हूं। (सत्य के प्रयोग पृ० 48-49) जीवन-भर गांधी ईश्वर-भक्ति में राम-रस छकते रहे। गांधी की पुस्तक हिंद स्वराज्य (1909 ई०) में पहली बार उपनिवेशवाद और यांत्रिक सभ्यता की सभ्यता-समीक्षा मिलती है। इस समय गांधी नस्लवाद, रंग-भेद के विरुद्ध दक्षिण-अफ्रीका में सत्याग्रह कर रहे थे। सत्याग्रह के संदर्भ में उन्हें तुलसी याद आए दया धरम को मूल है देह मूल अभिमान। तुलसी दया न छोड़िए जब लग घट में प्रान। दया-बल, आत्म-बल का महत्त्व तुलसी ने गांधी को सिखाया। साथ ही राजनीतिक-सामाजिक विसंगतियों-विरुपताओं को समझने में भी गांधी को तुलसी ने नेत्र दिए। दक्षिण अफ्रीका के सत्याग्रह का इतिहास लिखते समय गांधी को तुलसीदास फिर याद आए-पराधीन सपनेहु सुख नाही। हिंद स्वराज में थोरो, रस्किन, कारपेंटर, मैजिनी, तोल्स्तोय का हवाला देने वाले गांधी हर जगह तुलसी के लिए हुड़कते रहे। न जाने कितने अवसरों पर लेखों में उन्होंने दया धरम को मूल है सिद्धांत में निष्ठा व्यक्त की। यह दोहा आजादी के समय भयंकर हिंसा का तांडव देखकर 1947 ई० में भी याद आया-मैं जो कहता हूं धर्म की जड़ दया है।वह तो तुलसीदास का है। उससे कहो कि तू तो दीवाना है। लेकिन उसकी रामायण जितनी चलती है उतनी सारे हिंदुस्तान में दूसरी कोई पुस्तक नहीं चलती-शायद ही दुनिया में कोई दूसरी पुस्तक चली होगी, गांधी ने 1947 ई० में शरणार्थियों को संदेश देते हुए कहा-संत कवि तुलसीदास ने कहा था : दया धरम को मूल है। गांधी चिंतन का आध्यात्मिक-नैतिक स्त्रोत तुलसी में है। गीता, बाइबिल, कुरान आदि धर्म ग्रंथों के साथ वे रामचरितमानस को कभी नहीं भूलते। असहयोग-आंदोलन के दिनों में तुलसी याद आए और कहा तुलसीदास ने संतों को असंतों से दूर रहने की सलाह दी है। यह संत-भाव ही अहिंसा भाव है जिससे तुलसी को गांधी की दृष्टि में धर्मपद बना दिया है। उन्हें कहना पड़ा-इस देश में जो राज्य चल रहा है वह रावण राज्य है। उसमें शैतानियत भरी है। ऐसे राज्य को तुलसीदास ने राक्षसी राज्य कहा है। तुलसी के रामराज्य का लक्ष्य ही गांधी का स्वराज्य लक्ष्य बना है। गांधीजी ने साफ कहा यह रामराज्य ही स्वराज है। इस स्वराज्य का अर्थ है अपने मन पर शासन करना। इस तरह गांधी की अहिंसा-दृष्टि पर रस्किन और तोलस्तोय से ज्यादा तुलसी के प्रपत्तिवाद-दास्य-भक्तिभाव के दया सिद्धांत का प्रभाव है। गांधी तथा सुभाष में हल्के मतभेद उभरे तो गांधी ने कहा वे (सुभाष) हिंसा के पुजारी थे। मैं अहिंसा का पुजारी हूं। पर इसमें क्या? मेरे पास गुण की ही कीमत है। तुलसीदास ने कहा है-संत हंस गुन गहहिपय परिहरिवारि विकार इस तरह गांधी जी तुलसी के अहिंसा प्रेम सिद्धांत के ही नए पाठ विमर्श है। इसलिए आज तुलसी के नए पाठ का प्रश्न है जिसमें पूरी भारतीय परंपरा संस्कृति का तुलसी की कृतियों में एक पुनर्नवा राम सृजित होता रहता है। राम-रस का यह प्रपत्तिवाद ही तुलसी की अहिंसा का चरम-मूल्य है।
- डॉ० कृष्णदत्त पालीवाल
ते विति ओ रोंगोमाई (Te Whiti O Rongomai) : अहिंसक जीवन-शैली और अहिंसक प्रतिरोध के इतिहास में एक व्यक्ति अत्यंत अल्पज्ञात होने के बावजूद ऐतिहासिक दृष्टि से बहुत उल्लेखनीय है-यह व्यक्ति हैं न्यूजीलैंड के तारानाकी (Taranaki) प्रदेश के आदिवासी समुदाय माओरी (Maori) के नेता ते विति ओ रोंगोमाइ (1815-1907 ई०) जिन्होंने न्यूजीलैंड सरकार और उपनिवेशियों द्वारा माओरी भूमि के राज्यसात्करण के अहिंसक प्रतिरोध का नेतृत्व किया। 1840 ई० में माओरी जाति के मुखियाओं ने एक समझौते पर हस्ताक्षर किए जिसमें माओरी हितों के संरक्षण की शर्त के आधार पर ब्रिटिश सरकार की न्यूजीलैंड पर संप्रभुता स्वीकार कर ली गई। लेकिन, शीघ्र ही इस समझौते की व्याख्या को लेकर दोनों पक्षों में मतभेद उभर आए और न्यूजीलैंड प्रशासन ने माओरी भूमि के राज्यसात्करण और उसे श्वेत उपनिवेशियों को देने की नीति पर चलना शुरु कर दिया। माओरी लोगों ने इसके खिलाफ सशस्त्र विद्रोह शुरु कर दिया। एक माओरी कबीलों के मुखिया ते विति सरकारी नीति का विरोध शस्त्र-बल से नहीं बल्कि अहिंसक पद्धति से करने के पक्षधर थे। संघर्ष के दौर में 1862 ई० में जब लॉर्ड वर्सले नामक जहाज दुर्घटनाग्रस्त होकर तारानाकी किनारे पर पहुंचा तो ते विति ने न केवल उन्हें भोजन उपलब्ध करवाया बल्कि सुरक्षित रूप से न्यू प्लाइमाउथ पहुंचाया। लेकिन सरकार पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा और जब 1865 ई० में स्वयं ते विति का गांव भी जला दिया गया तो उन्होंने अपने लोगों के साथ आंतरिक प्रदेश में जाकर परिहाका (Parihaka) नाम की नई बस्ती बसा ली। उन्होंने अन्य माओरी समुदायों द्वारा जारी सशस्त्र संघर्ष में शामिल होने से इनकार कर दिया, यद्यपि वह श्वेत उपनिवेशियों को भूमि बेचने के पूर्ण विरोधी थे। ते विति के अनुयायी शांति के प्रतीक के रूप में एल्बाट्रोस पक्षी के श्वेत पंख का प्रयोग करने लगे। पांच-सात वर्षों में ही परिहाका एक आत्मनिर्भर बस्ती बन गया।
1878 ई० में सरकार ने माओरी भूमि के सर्वेक्षण का काम शुरु किया और इस प्रक्रिया में परिहाका में जोती हुई भूमि और फसलों को बर्बाद करने लगे, जिसके विरोध में ते विति ने अपने अनुयायियों से श्वेत उपनिवेशियों की चरागाह भूमि को जुतवाना शुरु कर दिया। जब सरकार द्वारा दमन-चक्र चलाया गया तो ते विति ने अहिंसक प्रतिरोध का रास्ता अपनाया। उन्होंने अपने अनुयायियों से कहा : जाओ, हल हाथों में लो। पीछे न देखो। यदि कोई बंदूक लेकर आता है, डरो मत। यदि वे तुम्हें चोट पहुंचाते हैं, तो बदले में चोट मत पहुंचाओ। यदि वे तुम्हें चीर भी दें, निराश मत होओ। उसका स्थान दूसरा ले ले। एक सत्याग्रही को गिरफ्तार करते ही दूसरा उसकी जगह आकर जोतने लगता। इसकी तुलना कुछ हद तक अगली शताब्दी के महात्मा गांधी के नमक सत्याग्रह से की जा सकती है। इस समस्या को सुलझाने के लिए गठित कमीशन ने माओरी जाति के प्रति सरकारी व्यवहार पर शर्मिंदगी अनुभव की। 1880 ई० में जब एक सड़क बनाने के लिए जोते हुए खेतों को उजाड़ा जाने लगा तो ते विति ने सड़क रोकने और बाड़ें लगाने का आंदोलन शुरु किया। 1881 ई० में 2674 सशस्त्र सैनिकों के साथ परिहाका पर आक्रमण कर दिया गया-परिहाका के निवासियों ने एक ओर उसके खिलाफ धरना दिया तो दूसरी ओर सैनिकों के लिए रोटियां भी बनाई। ते विति को गिरफ्तार करके क्राइस्ट चर्च बस्ती में ले जाया गया। वहां उन्हें आधुनिक प्रौद्योगिकी और यूरोपीय सभ्यता के नमूने दिखाए गए। ते विति ने कहा कि उपनिवेशियों के पास कुछ तकनीकी तो है, लेकिन वह दयालु हृदय नहीं जो माओरी तकनीकी को समझ सके, जिसे उपनिवेशियों द्वारा स्वीकार कर लिए जाने का परिणाम स्थिरता, शांति और एक महान नए समाज का निर्माण होगा।
1883 ई० में अंततः माओरी समस्या पर हाउस ऑफ कामंस में बहस हुई। ते विति को मुक्त करके परिहाका ले जाया गया, और उस बस्ती का अपनी तरह से जीने का अधिकार स्वीकार कर लिया गया। ते विति ने अपना बाकी जीवन अपने गांव के नवनिर्माण में लगाया, जो माओरी शैली ओर यूरोपीय शैली का एक समन्वय जैसा बना।
यह उल्लेखनीय है कि 1975 ई० में न्यूजीलैंड सरकार ने यह स्वीकार किया कि माओरी मामले में बहुत अन्याय हुआ है और माओरी लोगों के दावों को निपटाने के लिए एक ट्रिब्यूनल गठित किया गया। महात्मा गांधी के विवरणों में तो ते विति के आंदोलन का उल्लेख नहीं है, पर ऐसा माना जाता है कि दो आयरिश यात्रियों ने उन्हें इस आंदोलन की कुछ जानकारी दी थी।
- नंदकिशोर आचार्य
तोलस्तोय, लेव : रूस के ही नहीं, विश्व के महान कथाकार एवं विचारक लेव तोलस्तोय का जन्म 28 अगस्त (नए कैलेंडर के अनुसार 9 सितंबर, 1828) को मास्को के दक्षिणी भाग में स्थित तुला प्रोविंस के यास्याना पोल्याना नामक स्थान पर हुआ। तोलस्तोय के पिता नाटककार एलेक्सी तोलस्तोय के रिश्तेदारों में से थे और माता कवि पुश्किन की दूर की रिश्तेदार थी। यह कहा जा सकता है कि उन्हें साहित्यिक परंपरा उत्तराधिकार में प्राप्त हुई थी। 2 वर्ष व 9 वर्ष की उम्र में क्रमशः माता व पिता का देहांत होने के बाद आंटी तात्याना एलेक्जेंड्रा की देखरेख में प्रारंभिक शिक्षा घर पर हुई। तोलस्तोय ने कूटनीतिज्ञ बनने के लिए कजान विश्वविद्यालय के प्राच्य-विद्या विभाग में दाखिला लिया व मई 1844 ई० में मैट्रीकुलेशन पास किया। 1845 ई० में कानून विभाग में प्रवेश लिया। कानून का अध्ययन करते समय इनकी रूचि मृत्युदंड व तुलनात्मक विधिशास्त्र में हुई, जो आगे चलकर उनकी साहित्यिक रचनाओं में अनेक स्थानों पर प्रकट हुई। इसी समय अंग्रेजी उपन्यासकार लारेंस स्टर्न एवं चार्ल्स डिकेंस की रचनाओं का अध्ययन किया। फ्रेंच दार्शनिक रूसो ने उन्हें काफी प्रभावित किया। 1847 ई० में पुनः यास्याना पोल्याना आकर वह स्वाध्याय करते हुए जमींदारी को व्यवस्थित करने एवं अधीनस्थों की जीवन बेहतरी में लगे। 1851 ई० में सेना की परीक्षा पास की। उनकी नियुक्ति काकेशस के पर्वतीय कबीलों से होने वाली दीर्घकालीन लड़ाई में हुई। 1852 ई० को पहली रचना बचपन पूरी की। बाद में कैशोर्य (1854 ई०) व युवावस्था (1857 ई०) इसी शृंखला की रचनाएं थी। 1854 ई० में सेवस्तोपोल में नियुक्ति ली, जहां युद्ध व युद्ध संचालकों को निकट से देखने-परखने का पर्याप्त अवसर मिला। 1856 ई० में सेना से इस्तीफा देकर यास्याना पोल्याना आकर किसानों के बच्चों के लिए विद्यालय खोला। इसी संदर्भ में यूरोपीय शिक्षाशास्त्रीय सिद्धांतों व व्यवहारों का अध्ययन करने हेतु यूरोप की यात्रा की। इस समय तोलस्तोय प्रूधों से काफी प्रभावित थे।
1862 ई० में सोफिया बेर्हस नामक उच्चवर्गीय संभ्रांत महिला से शादी हुई। 1869 ई० में वार एंड पीस उपन्यास प्रकाशित हुआ। लगभग 600 चरित्रों को शामिल करने वाला यह उपन्यास आज भी अपनी भव्यता और विशालता में बेजोड़ माना जाता है। यह कई भाषाओं में अनुदित हुआ व तोलस्तोय विश्वप्रसिद्ध व्यक्तित्व बन गए। अन्ना केरेनिना उपन्यास लिखते समय (1875-77 ई०) वह एक तरह के आस्था के संकट से गुजर रहे थे। उन्होंने जीवन में मूल्यों की खोज और अस्तित्व के प्रयोजन के बारे में विचार करना शुरू किया। आगे चलकर माई कंफेशन नामक कृति की रचना की। माई कंफेशन में रूसी आर्थोडॉक्स चर्च पर तीखा प्रहार किया। उन्होंने अनुभव किया कि ईसा की सीख ही निश्चित तौर पर सच्चा ईसाई धर्म है। 1901 ई० में खुद को चर्च से अलग कर लिया। इसी पुस्तक में उन्होंने बताया कि धरती पर जीवन का उद्देश्य अपनी निम्न पशु प्रवृत्तियों की सेवा करना नहीं, अपितु अपने भीतर विद्यमान उच्च प्रकृति की सेवा करना है। यह शक्ति सबमें विद्यमान है। यह हमें बताती है कि अच्छा क्या है और हम उस शक्ति के संपर्क में रहते हैं। हमारा तर्क व चेतना इसी से उत्पन्न होती है और हमारी जिंदगी इसी के अनुसार बिताने पर आनंदपूर्ण होती है, यही जीवन का उद्देश्य है।
फैमिली हैप्पीनेस (1859 ई०) में सच्चे सुख की तलाश; द कोसेक (1859 ई०) में रूसोवादी प्राकृतिक व शुद्ध जीवन का दृष्टिकोण; वार एंड पीस (1869 ई०) में मूल्यों एवं प्रतिबद्धता की तलाश व अन्ना केरेनिना (1876 ई०) में लेविन के अबूझ प्रश्न व संदेह-सभी जीवन की अर्थवत्ता की तलाश ही है। 1880 ई० के दशक तक तोलस्तोय संपूर्ण विश्व में ख्याति प्राप्त कर चुके थे। 1880 ई० के दशक की शुरूआत में तोलस्तोय ने एन एक्जामिनेशन ऑफ डॉग्मैटिक थियोलॉजी (1880 ई०); यूनियन एंड ट्रांसलेशन ऑफ द फोर गास्पैल्स (1881 ई०); व्हाट आई बिलीव (1884 ई०) जैसी रचनाएं लिखी।
1893 ई० में एक अन्य महत्त्वपूर्ण कृति आई द किंगडम ऑफ गॉड इज विदीन यू। यह तोलस्तोय के ईसाई अराजकतावाद की सर्वोच्च घोषणा है। इस पूरे कार्य का केंद्र बुराई के प्रति अप्रतिरोध के सिद्धांत को सरकारों पर लागू करना है। सरकारें अनैतिक हैं, अमीरों और शक्तिशालियों के लिए बनी व टिकी हुई हैं। कर लेकर जेल बनाना; युद्ध में हिंसा का सहारा लेकर जनता को इसमें शामिल करना उनका काम है। इस पुस्तक की शुरूआत क्वेकर्स, विलियम लॉयड गैरीसन, एडिन बलाक जैसे व्यक्तियों व समूहों का विवेचन है, जिन्होंने उनके अनुसार अहिंसा के लिए जीवन समर्पित किया। साथ ही, इसमें सैनिक सेवा को धार्मिक आधार पर मना करने वाले व्यक्तियों व समूहों का भी जिक्र किया गया है। तोलस्तोय ने यह बताने का प्रयास किया कि बुराई के प्रति अप्रतिरोध कैसे बुराई को खत्म कर सकता है।
इस पुस्तक के पहले भाग में बुराई के प्रति अप्रतिरोध के मत की विभिन्न आलोचनाओं का विवेचन किया गया, साथ ही उन लोगों के प्रति भी श्रद्धा अर्पित की गई जिन्होंने सार्वजनिक रूप से इसका प्रचार-प्रसार किया। तोलस्तोय ने ईसाई चर्चों द्वारा ईसा की सीख को विकृत करने की आलोचना की, जिसके द्वारा वे आम जनता पर अपना प्रभुत्व रखते थे ताकि उनका आर्थिक लाभ बना रहे। पुस्तक के शेष भाग में सरकारों की उन शक्तियों एवं गतिविधियों का विश्लेषण है, जो इन सरकारों को लोगों की वर्तमान जिंदगी व उनके ईसाई चेतना के विरोधाभासों को ईसा की सीख के मुताबिक हल करने से रोकती है। सरकार बल या हिंसा द्वारा ही अपने आप को सत्ता में रखती है। तोलस्तोय ने सरकार के इस बल की अभिव्यक्ति का विरोध किया-विशेषतः सेना प्रशिक्षण व युद्ध का। तोलस्तोय ने क्रांति को सरकार से मुक्ति का उपाय नहीं माना। वह क्रांति की हिंसा के विरूद्ध थे एवं दूसरी ओर इतिहास से उन्होंने सीखा कि ऐसे परिवर्तन में सामान्य जन पीड़ित होता है और नई सरकार के आते ही हिंसा कम नहीं होती, बल्कि अधिक हो जाती है। केवल विवेकशील-चेतनाशील व्यक्ति ही ऐसी सरकार के विरूद्ध असहयोग कर सकता है।
तोलस्तोय ने रिलिजन एंड मॅारैलिटी (1893 ई०); द क्रिश्चियन टीचिंग्स (1898 ई०); रिप्लाई टू द साइडोनाड्स इडिक्ट ऑफ एक्स-कम्युनिकेशन (1901 ई०); वाट इज रिलीजन एंड वेअर इन लाइज इट्स एसेंस (1902 ई०) जैसी धार्मिक विचारों वाली रचनाएं लिखी। रिलिजन एंड मॅारैलिटी में अनेक धर्मों के माध्यम से यह उत्तर प्राप्त करने का प्रयास किया गया कि धर्म क्या है? क्या नैतिकता इसके बिना हो सकती है? रिप्लाई टू द साइडोनाड्स इडिक्ट ऑफ एक्स-कम्युनिकेशन चर्च से बाहर कर दिए जाने पर उनका प्रभावशाली प्रत्युत्तर है। व्हाट इज रिलीजन एंड वेअरइन लाइज इट्स एसेंस उनकी धर्म संबंधी विचारों की उपयोगी पुस्तक है। तोलस्तोय ने ईसा की सीख-विशेषतौर पर सरमन ऑफ द माउंट-को विशेष महत्त्वपूर्ण माना और इसे बाधा पहुंचाने वाले विचारों, कर्मकांड या चमत्कार आदि को नकार दिया।
तोलस्तोय का धार्मिक दर्शन विचारपूर्ण और प्रमुख दार्शनिक-धार्मिक मतों के समान साझे गुणों और मनुष्यता के नैतिक दर्शन की मौलिक विवेचना है। 1880 ई० के दशक में तोलस्तोय ने विश्व के सभी प्रमुख धर्मों-हिंदू, बौद्ध, ईसाई, यहूदी, इस्लाम, ताओ, बहाई आदि-का गहराई से विशद् अध्ययन किया। अपने जीवन के अंतिम वर्षों में तोलस्तोय ने शांति पर बहुत लिखा। अपने अप्रतिरोध के सिद्धांत के साथ उन्होंने लिखा कि विज्ञान के आश्चर्यजनक विकास का उपयोग युद्ध के विनाशक यंत्रों को बनाने में अधिक होगा। उन्होंने उन सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक ताकतों का भी खुलासा किया जो युद्धों को थोपती है। तोलस्तोय ने आधुनिक प्रगति को भी प्रश्नांकित किया। क्रिश्चियनिटी एंड मॅारैलिटी (1894 ई०) नामक निबंध में वह स्पष्ट करते है कि राष्ट्रवाद एक झूठा विचार है तथा ईसा की सीख के खिलाफ है। एड्रेस टू स्वीडिश पीस कांग्रेस (1909 ई०) निबंध तोलस्तोय की युद्ध व इसका समर्थन करने वाली शक्तियों के विरोध की सर्वाधिक सशक्त अभिव्यक्ति है। उन्होंने समस्या को मनुष्य की नैतिक मांग और वर्तमान सामाजिक व्यवस्था के बीच साफ अंतर्विरोध के रूप में देखा। इस लेख के अंत में उन्होंने लिखा कि कांग्रेस के हर सदस्य को अपनी-अपनी सरकारों पर जनता का नैतिक दबाव डालना होगा कि सरकार यह समझ सकें कि युद्ध राष्ट्रभक्ति नहीं है और न ही किसी देश की सेवा है, अपितु यह हत्या के नग्न अपराधी व्यवसाय की सेवा है।
तोलस्तोय हेनरी डेविड थोरो के साहित्य से परिचित थे। तोलस्तोय के अनेक पत्रों व लेखों में थोरो का उल्लेख मिलता है। तोलस्तोय ने महात्मा गांधी के साथ पत्र व्यवहार किया। महात्मा गांधी ने दक्षिणी अफ्रीका में चल रहे अपने अहिंसक आंदोलन के बारे में तोलस्तोय को पत्र लिखा था। तोलस्तोय द्वारा महात्मा गांधी को बाद में लिखा गया ए लैटर टू द हिंदू बहुत प्रसिद्ध हुआ।
1889 ई० में तोलस्तोय का महत्त्वपूर्ण उपन्यास रिजरेक्शन आया। इस उपन्यास की समस्त आय उन्होंने रूस की शांतिवादी जाति दुखोबार लोगों को रूस का परित्याग करके कनाडा में जाकर बसने के लिए दे दी। तोलस्तोय के वैवाहिक जीवन का उत्तरार्द्ध दुःखपूर्ण रहा। 1910 ई० में उन्होंने अपने पैतृक गांव यास्याना पोल्याना को हमेशा के लिए छोड़ने का निश्चय किया एवं अपनी पुत्री एलेक्जेंड्रिया व अपने डॉक्टर के साथ प्रस्थान किया। 7 नवबंर (नई तिथि 20 नवबंर) 1910 ई० को निमोनिया से हृदयगति बंद हो जाने के कारण ऐस्टापोवो नामक रेल्वे स्टेशन (रयाजान प्रोविंस) पर उनका देहांत हो गया।
तोलस्तोय मनुष्य, ईश्वर, समाज आदि पर विचार करते हुए प्रतिरोध के सूत्र प्रदान करते हैं। उनके अनुसार मनुष्य शरीर मात्र नहीं है; अगर वह शरीर मात्र होता तो नैतिक विचारों की जरूरत नहीं होती। शारीरिक जरूरत ही सब कुछ का पैमाना होता। लेकिन मनुष्य शरीर से कुछ अलग है। तोलस्तोय कहते हैं कि मनुष्य मूलतः आत्मा है यानि मनुष्य शरीर-आत्मा में विभक्त है। मनुष्य को धारण करने वाली शक्ति आत्मा ही है। यह आत्मा सभी में वैयक्तिक रूप से व्याप्त है, मगर सभी में समान रूप से है। विवेक इसी आत्मा की आवाज है। यही परम आत्मा, जो सभी में व्याप्त है, सम्मिलित रूप से ईश्वर है। ईश्वर एक आत्मा है जो शरीर के ऊपर है। जब यह परम आत्मा या विश्वात्मा दैहिक आवरण या दैहिक सीमा में आ जाती है तो आत्मा कहलाती है।
अतः, ईश्वर व आत्मा एक ही है और इनके बीच में अंतर दैहिक सीमा का है। जीवन का उद्देश्य सभी प्राणियों के साथ ही साथ इतर वस्तुओं में भी व्याप्त इस विश्वात्मा के अंश के साथ एकात्म स्थापित करना है, यही ईश्वर को प्राप्त करना है। अतः, सही जीवन दैहिक बोध से ग्रस्त होकर एक-दूसरे में विभेद पैदा करना नहीं, अपितु सभी में व्याप्त ईश्वर के साथ तादात्म्य है। तोलस्तोय अपनी इसी दार्शनिक मान्यता के आधार पर यह कह सकते है कि ईश्वर का राज्य आपके भीतर है।
उपरोक्त दार्शनिक आधारों पर तोलस्तोय तात्कालिक चर्च धर्म से खुद को अलग कर लेते हैं। यह अलगाव निम्न कारणों से है-
(1) एक परम विश्वात्मा सभी में व्याप्त है, यह मनुष्य के साथ-साथ सभी जीवित प्राणियों में भी है।
(2) तोलस्तोय के मुताबिक ईश्वरत्व स्वयं व्यक्ति के भीतर मौजूद है, वह स्वयं उसे प्रेम के नियम के जरिए, अन्य प्राणियों में व्याप्त उस अंश के साथ एकाकार होकर प्राप्त कर सकता है। यह अपने आपमें एक क्रांतिकारी व्याख्या थी, जिसका व्यावहारिक जीवन में अर्थ था कि जब ईश्वर आपके भीतर है तब ईश्वर व आपके बीच किसी भी मध्यस्थ की जरूरत नहीं है। यह मध्यस्थ चर्च, पादरी तथा वे कर्मकांड थे जिन्होंने, उनके अनुसार, ईसाईयत को ईसा की मूल शिक्षाओं के विपरीत ले जाकर खड़ा कर दिया था। तोलस्तोय की इस व्याख्या में मध्यस्थों के लिए कोई स्थान नहीं था।
तोलस्तोय के अनुसार अगर हम मात्र अपनी देह के लिए जीते हैं तो अनजान बने रहते हैं, मगर आत्मा के लिए जीते हैं तो संपूर्ण विश्व हमारा समुदाय हो जाता है। वस्तुतः, इस जीवन में उच्चतर उद्देश्य की प्राप्ति के लिए आवश्यक है कि आपका विश्वास (स्नड्डद्बह्लद्ध) सही हो। तोलस्तोय के लिए विश्वास का अर्थ है-ईश्वर में विश्वास। यह ईश्वर जो सभी में समान रूप से व्याप्त है। वह स्पष्ट करते हैं कि व्यक्ति के जीवन का उद्देश्य इसी ईश्वर को प्राप्त करना है। इसका व्यावहारिक तर्क यह उभरकर आता है कि प्रत्येक व्यक्ति के साथ एकात्म की अनुभूति करें। घृणा, हिंसा, द्वेष यह कार्य नहीं करा सकते क्योंकि वे भेद पैदा करते हैं। जबकि प्रेम, सहयोग, पारस्परिकता आदि तत्त्व ही एकात्म की अनुभूति कराते हैं। दूसरे शब्दों में, दार्शनिक स्तर पर एकात्मकता की अनुभूति व्यावहारिक जगत में प्रेम की अनुभूति द्वारा ही संभव है। तोलस्तोय कहते है इसीलिए ईश्वर ही प्रेम है। इसके अलावा जो कुछ भी है वह बुरा विश्वास है। ईश्वर और साथी प्राणियों से एकत्व ही प्रेम है। यह प्रेमानुभूति ही ईश्वरानुभूति है। इसे ही तोलस्तोय प्रेम/ईश्वर का नियम (Law of Love/God) कहते हैं जो हिंसा/मनुष्य के नियम (Law of Violence/Men) के विपरीत है। इसी बिंदु से तोलस्तोय का प्रतिरोध-विचार उत्पन्न होता है। यही प्रेम अप्रतिरोध (नॉन-रेजिस्टेंस) का सिद्धांत भी है। अगर कोई व्यक्ति बुराई के वशीभूत होकर आपके प्रति हिंसा करता है, तो आपका फर्ज है कि आप उसे प्रेम करें। यही अप्रतिरोध है। यदि हम हिंसा से प्रतिरोध कर रहे होते है तो प्रेम के उच्चतर नियम-ईश्वर-को भी अस्वीकार कर उसे खंडित कर रहे होते हैं। आक्रमणकर्ता के प्रति किसी तरह का बल, हिंसा का प्रयोग करके उसके भीतर विद्यमान ईश्वर के प्रति एकात्म अनुभूति से खुद को अलग करते हैं। तोलस्तोय के लिए सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण विचार ईसा के द्वारा प्रेम के सिद्धांत को सर्वोच्च नियम के रूप में स्वीकार करना था। तोलस्तोय के अनुसार बुराई के प्रति अप्रतिकार का अप्रतिरोध सिद्धांत न केवल बुराई का प्रतिकार करता है, बल्कि जीवन के उच्चतर उद्देश्य की पूर्ति भी करता है। यह प्रेम के नियम से ही प्रतिरोध को जन्म देता है क्योंकि हिंसा ईश्वरीय नियम/प्रेम से भटकाव है। प्रेम की स्वीकृति है तो उसकी अखंडता से एक क्षण भी च्युत होना पाप है। ईसा की शिक्षा प्रेम में अभिव्यक्त होती है। अहंकारजन्य अलगाव दूसरों के प्रति हिंसा तो है ही, स्वयं अपने प्रति भी हिंसा है क्योंकि ऐसा करके अपने भीतर विद्यमान आत्मा के प्रति हिंसा करते हैं। हिंसा में भागीदार होना भी पाप है।
तोलस्तोय ने धर्म को मानव-जीवन के लिए आवश्यक बताया। उनके लिए धर्म संस्थागत धर्म नहीं बल्कि ईसा की शिक्षाएं हैं जो प्रेमपूर्ण व्यवहार में अभिव्यक्त होती है। धर्म मानव को न्यायोचित ढंग से जीने का दिशा-निर्देश करता है। तोलस्तोय के मुताबिक प्रेम/ईसा की शिक्षा व्यक्तिगत मुक्ति के साथ-साथ सामूहिक मुक्ति का भी साधन है क्योंकि समाज व्यक्तियों का ही योग है। इसी आधार पर वह राज्य तथा अन्य संस्थाओं को हिंसा पर आधारित मानते हैं, क्योंकि ये संस्थाएं प्रेम के नियम के स्थान पर हिंसा के नियम को लागू करने का प्रयास करती है। तोलस्तोय के अनुसार हर व्यक्ति पापी है, अतः उसे यह अधिकार नहीं है कि वह दूसरों पर कोई निर्णय जारी करे जबकि न्यायालय फैसला देता, लादता एवं हिंसा के बल पर दंडित करवाता है। यह पूरा ढांचा प्रेमविरोधी तथा हिंसा पर आधारित है। चर्च संस्था भी ईसा की शिक्षाओं के विपरीत है; साथ ही, वह उनकी शिक्षाओं की ऐसी व्याख्या कर रही हैं जो युद्ध, पुलिस, न्यायालय के कार्यों को जायज ठहरा रही है। चर्च ने जीवन का उद्देश्य प्रेम के स्थान पर मात्र भौतिक उपलब्धियों की गणना में तब्दील कर दिया है। तोलस्तोय का विचार था कि आम लोग जब तक राज्य व चर्च से मिलने वाले हितों-स्वार्थों को नहीं छोड़ेंगे, तब तक ये संस्थाएं चलती रहेंगी। इसी तरह सरकार का सिद्धांत ही झूठ व फरेब पर आधारित है। अपने आप को बनाए रखने हेतु सरकारें दमन करती हैं। राज्य, पुलिस, न्यायालय, शिक्षण संस्थाएं, चर्च आदि में हिंसा के लिए व्यक्ति को शारीरिक एवं मानसिक तौर पर तैयार किया जाता है। तोलस्तोय ने स्पष्ट किया कि इन संस्थाओं के न रहने पर संसार को चलाने वाला व्यावहारिक नियम दूसरों के साथ वही व्यवहार करो, जो तुम दूसरों से अपने प्रति चाहते हो होगा। साथ ही यह समझना होगा कि अराजकता का मतलब अव्यस्था नहीं है। अव्यवस्था अशांति है, जबकि अराजकता एक सतत् शांति एवं प्राकृतिक आनंद की अवस्था है। अतः सरकारों के अभाव में अव्यवस्था नहीं पनपेगी, बल्कि लोगों में प्रेम भावना का संचरण होगा। राजकीय संगठनों की समाप्ति के उपरांत कानून, न्यायालय, संपत्ति, पुलिस, अर्थव्यवस्था, सार्वजनिक शिक्षा आदि बनी रहेगी, परंतु इनका आधार पशुबल नहीं होगा।
तोलस्तोय ने राष्ट्रप्रेम व युद्ध की आलोचना की। सरकारें राष्ट्रप्रेम, युद्ध, अनिवार्य सैन्य प्रशिक्षण आदि कार्यों का ढांचा खड़ा करती है ताकि अपने आप को बचाए रख सकें। राष्ट्रप्रेम को राष्ट्र संस्था चलाने वाले अपने स्वार्थों की पूर्ति हेतु इस्तेमाल करते हैं। हर सरकार अपने हिंसक कार्यों की वैधता ढूंढती है, यह राष्ट्रप्रेम उसे तर्क प्रदान करने में सहायता प्रदान करता है। जिस तरह अहंवाद में अपनी श्रेष्ठता-आत्मरति-का भाव निहित है उसी प्रकार राष्ट्रप्रेम में अपने राष्ट्र को तुलनात्मक रूप से अन्यों से श्रेष्ठ मानना निहित है। इसी कारण यह ईसा की शिक्षाओं के विपरीत है।
तोलस्तोय ने युद्ध व अन्य सभी हिंसात्मक क्रियाओं व उनका समर्थन करने वाली संस्थाओं के विरूद्ध असहयोग को महत्त्वपूर्ण माना। उन्होंने संपत्ति की आलोचना करते हुए इसे काल्पनिक संपत्ति कहा। वास्तविक संपत्ति मनुष्य के मस्तिष्क एवं शरीर को बताते हुए इसे विकसित करने पर जोर दिया। उनके अनुसार ईसाई धर्म की सारी त्रुटियां चर्च के धर्माचार्यों द्वारा श्रम के नियम की अवहेलना से प्रसूत हुई।
तोलस्तोय के मुताबिक हिंसा पर आधारित संस्थाओं को हिंसा के जरिए हटाने से कुछ हासिल नहीं होगा, अतः क्रांति करने से कुछ नहीं होगा। क्रांति तब तक असफल रहेगी जब तक कि जनता उस व्यवस्था को सहयोग देती रहेगी जो सत्ताशालियों एवं दमनकारियों को पैदा करती है। सच्चा परिवर्तन प्रेम के नियम को समझने व तदनुसार कार्य करने में निहित है।
यह दृष्टव्य है कि तोलस्तोय के प्रेम का अर्थ गलत को समर्थन करना नहीं, वरन प्रेम के विचार का समस्त क्रियाओं में क्रियान्वयन तथा गलत क्रियाओं से असहयोग है। यह अप्रतिरोध प्रेमपूर्ण है। यह अप्रतिरोध बुराई के समर्थन में खड़े लोगों का प्रेमपूर्ण प्रतिकार है, जिसमें विपक्षी लोगों के प्रति अपने मन में जो प्रेम है उसकी परख होती है, साथ ही, व्यक्ति विपक्षी के आत्मा के साथ तादात्म्य महसूस करता है। इस प्रेमपूर्ण प्रतिकार में आवश्यक है कि हर व्यक्ति अपने अंतःकरण के अनुसार प्रेम को आधार बनाकर काम करे और परिणाम की चिंता न करें क्योंकि परिणाम जो भी होगा वह व्यक्ति के प्रेम को बढ़ाने वाला ही होगा। तोलस्तोय अप्रतिरोध के सिद्धांत में असहयोग की बड़ी महत्त्वपूर्ण भूमिका पाते हैं क्योंकि एक ओर बुराई का प्रतिकार है, वहीं दूसरी ओर प्रेम के नियम को खंडित भी नहीं करता है।
कोई भी बुराई या सत्ता भय, लालच जैसी प्रवृत्तियों के आधार पर ही टिकी रहती है और अधिकांशतः जनता भय, लालच या दंड की यातनाओं से बचने के लिए ही इनका आदेश मानती है। इस संदर्भ में तोलस्तोय का अप्रतिरोध सिद्धांत एक सशक्त प्रतिरोध का स्वरूप है। व्यक्ति प्रेम के नियम के आधार पर बुराई, सत्ता के प्रति असहयोग करता है; साथ ही, प्रेमपूर्ण व्यवहार कर किसी भी परिणाम को स्वीकार करने को तैयार रहता है। बुराई लोगों के सहयोग पर ही टिकी है, जब लोग इससे असहयोग करेंगे यह स्वतः समाप्त हो जाएगी।
संक्षेप में, तोलस्तोय के अप्रतिरोध सिद्धांत में तीन बातें स्पष्ट होती हैं-
(1) बुराई के प्रति अप्रतिरोध (नानरेजिस्टेंस टु ईविल) को स्वीकार करते हैं और किसी भी हिंसक प्रतिकार का विरोध करते हैं।
(2) ईसा की सीख के विरूद्ध हर बात को अस्वीकार करने तथा उससे अपनी भागीदारी हटाने को कहते है। असहयोग को एक महत्त्वपूर्ण विचार मानकर इसके लिए प्रेरित करते हैं।
(3) अंतःकरण-आत्मा की आवाज-के अनुसार कार्य करो (यहां यह नहीं भूलना चाहिए कि यह आवाज प्रेम के नियम को पुष्ट करने वाली होनी चाहिए) और उसके जो भी परिणाम आए, उस भुगतने के लिए सहर्ष तैयार रहो।
अतः स्पष्ट है कि यह निष्क्रियता नहीं है। वर्तमान व्यवस्था का अस्वीकार व असहयोग भी प्रतिरोध का रूप है। शोषक, सत्ताशाली के अनुरूप न चलना ही उसकी अस्वीकृति का सबसे बड़ा तरीका है और सबसे बड़ा प्रतिरोध भी। तोलस्तोय के अनुसार हिंसा पर आधारित संस्थाओं से अपना सहयोग खींचना और प्रेम को इन सभी का मूल केंद्र बनाकर संचालित करना ही हिंसक व शक्तिशाली सत्ता से मुक्ति का उपाय है तथा इनसे छुटकारा पाने के सशक्त प्रतिरोध का स्वरूप भी।
- शंभू जोशी
थियोसाफीवादी अहिंसा : थियोसाफी साहित्य में एक पृथक अवधारणा के रूप में अहिंसा पर अधिक विचार नहीं किया गया है; लेकिन, करुणा के एक अंतर्निहित पहलू के रूप में वह थियोसाफी सिद्धांत की केंद्रीय अवधारणा है। करुणा के वृत्त में अक्षति और सक्रिय सहायता दोनों ही आ जाते और इस प्रकार निष्क्रिय और सक्रिय को समन्वित कर देते हैं। सक्रिय पहलू है चेतन प्राणियों द्वारा (अ) संभव सीमा तक वर्तमान पीड़ा से मुक्ति और (ब) भ्रम से सत्य का प्रभेद करने वाले विवेक की ओर ले जाने वाले मार्ग की शिक्षा के माध्यम से पीड़ा के कारण से बचने के लिए अपनी शक्ति का इस्तेमाल। विकास की प्रक्रिया में सभी प्राणियों में चेतना के नए पहलुओं के प्रकटन के कारण करुणा सारे अस्तित्व में निरंतर सक्रिय रहती है।
करुणा और अहिंसा दोनों स्वाभाविक रूप से परहित (Altruism) अर्थात् व्यक्तिगत और सामाजिक स्तरों पर सदैव अपने बजाय अन्य के कल्याण के लिए चिंतन और कर्म से प्रवाहित होती है। थियोसाफी सिद्धांत में सक्रिय कर्म से विलग होना उतना ही बड़ा पाप है जितना बुरे कर्मों में लिप्त होना। मैडम एच०पी० ब्लावट्स्की द्वारा लिखित थियोसाफी साहित्य के एक बीजग्रंथ दि वॉयस ऑफ साइलेंस में कहा गया है : यदि तुम्हें समझाया गया है कि कर्म से पाप और परम अकर्म से आनंद मिलता है तो उन्हें बता दो कि वे भूल कर रहे हैं। दीपक तभी अच्छा प्रकाश देता है, जब बत्ती और तेल साफ हों। उन्हें साफ करने के लिए मार्जक की आवश्यकता होती है। ज्वाला सफाई की प्रक्रिया को अनुभव नहीं करती। आंधी में पेड़ की शाखाएं हिलती हैं; तना अकंपित खड़ा रहता है। कर्म और अकर्म दोनों तुम्हारे अंदर हो सकते हैं, तुम्हारा शरीर अशांत, तुम्हारा मन शांत, तुम्हारी आत्मा पहाड़ी झील की तरह निर्मल। बुद्ध ने मानव दुख के वास्तविक कारण को समझते हुए शांत वनों के मधुर किंतु स्वार्थी विश्राम को तत्काल त्याग दिया। आरण्यक से वह मानवता के शिक्षक हो गए। दया की जरूरत के समय अकर्म घोर पाप का कर्म बन जाता है।
इसी ग्रंथ में करुणा को धर्मों का धर्म (Law of Laws) कहा गया है क्योंकि यह ब्रह्मांड के सभी उच्चतर आध्यात्मिक व्यक्तियों का सार-तत्त्व है-जिसमें हमारा अपना मर्म सम्मिलित है-चाहे उनके विशेष प्रकार्य अथवा चरित्र कुछ भी हो। इसलिए करुणा शक्ति के सभी रूपों की वाहक है तथा सभी जीवित प्राणियों का सार। इसलिए उच्चतम से निम्नतम स्तर के सभी प्राणी एक-दूसरे की सहायता के लिए अस्तित्व में हैं-तथा वे एक सार्वभौमिक अवयव संस्थान के अंश हैं। थियोसाफीवादियों के लिए उच्चतम उदाहरण वे स्त्री-पुरुष हैं, जो निर्वाण या शाश्वत शांति की देहरी पर पहुंचकर भी अपनी सारी अर्जित प्रज्ञा के साथ सब संघर्षरत और पीड़ित लोगों की मदद के लिए इस संसार के विक्षोभ में लौट आए हैं।
फिर हिंसा, और सामान्यतः बुराई, क्यों है? क्योंकि अभिव्यक्त अस्तित्व के दौरान सभी प्राणियों के कई पहलू होते हैं : स्थूल पदार्थ, सूक्ष्म या लिंग पदार्थ, कामना, निम्नतर और उच्चतर मन, अंतःप्रज्ञा और आत्मा। प्रत्येक प्राणी विकास की प्रक्रिया में अपने स्तर के अनुरूप एक-दूसरे का तथा हर संभव अंतःक्रिया का अनुभव करता है तथा पूर्वचक्र की अपेक्षा उच्चतर स्तर तक पहुंचता है, जिसका चरम स्तर उनका सापेक्ष निर्वाण या मोक्ष है। अनुभव के लिए अनुभव-कर्ता और अनुभूत का भेद, द्वैत की माया परमावश्यक है। द्वैत में विरोध और सापेक्षताएं होती हैं, इसलिए मतभेद, अंतक्रियाएं तथा इच्छाओं के संघर्ष होते हैं। इसलिए अहिंसा इस द्वैत या अलगाव के भ्रम को मिटाने से ही हो सकती है-जिसे निर्वाण कहा जा सकता है। अहिंसा का अर्थ है मन, भावना और प्राणों की गति में परम शांति।
अहिंसा का तात्पर्य किसी को हानि न पहुंचाना या किसी की प्राकृतिक और स्वार्जित सुखावस्था में हस्तक्षेप न करना भी है। एनसाइक्लोपीडिक थियोसाफिकल ग्लोसरी में अक्षति आधारभूत गुण कहा गया है। इसी तरह जीव के स्वाभाविक, स्ववरित आवेष्टन के क्रम में पदार्थ के विविध चरणों में अंतर्वलय और उसके माध्यम से विकास में अहस्तक्षेप थियोसाफी के अनुसार अहिंसा का प्रकार है। यह तभी संभव है जब अंतर्दृष्टि और साधना के द्वारा सदाशयी आध्यात्मिक मन निम्नतर, दुर्भावना, कामनापूर्ण तथा स्वार्थी भ्रमित मन को विजित कर ले।
शांति आंतरिक हो सकती है और बाह्य भी। हिंसा भी आंतरिक और बाह्य हो सकती है। धर्म का परम फल इस कल्प या विकास-चक्र में एक मनुष्य द्वारा संभाव्य सब कुछ की पूर्ण सिद्धि, अभिव्यक्त प्रकृति के सभी प्रदेशों में जीव के पूर्णानुभव और श्रेय सब कुछ के आत्मचेतस् ज्ञान पर आधारित पूर्ण आंतरिक शांति की अनुभूति है। दूसरे शब्दों में, जहां तक मानव-जाति का संबंध है पूर्ण मानव हो पाना।
थियोसाफी बंधुत्व की शिक्षा देती है, जिसका तात्पर्य है कि सभी मनुष्य-और निश्चय ही सभी प्राणी एक ही महान आध्यात्मिक और भौतिक अंगी के अंग है। इसी आधार पर पारस्परिक समझ और सम्मान संभव है। फिर भी हमारे मनों में द्वंद्व पैदा हो सकते हैं। ये द्वंद्व हमारे अंदर के विभिन्न दृष्टिकोणों की उपज होते हैं क्योंकि भौतिक मस्तिष्क के माध्यम से हमारे अवतरित मन अभी तक आभासित भिन्नताओं के एकात्मक तत्त्व को पूरी स्पष्टता तथा शुद्धता से देख पाने में असमर्थ है। इस प्रकार, यह स्पष्ट हो जाता है कि सापेक्ष स्तर के अपवाद के साथ अभी लोगों को आंतरिक शांति उपलब्ध नहीं है। मानवता के सम्मुख अभी दीर्घ संघर्ष है। लेकिन, यदि हमने व्यक्तिगत और सामूहिक मानवता के रूप में थोड़ा बहुत विवेक भी अर्जित किया है तो हम यह समझ सकते हैं कि ये सब आंतरिक संघर्ष जीवन का आवश्यक अंग है और इन्हें युृद्ध आदि के रूप में बाह्य संघर्षों के माध्यम से नहीं सुलझाया जा सकता। यद्यपि हमारे आंतरिक संघर्ष कल्पों तक जारी रह सकते हैं, लेकिन इस समझ से बहुत फर्क पड़ेगा कि प्रत्येक अन्य व्यक्ति और समुदाय को अपना बोझ स्वयं ही वहन करना होगा। हमें भविष्य में ऐसे संघर्षों में उलझना पड़ सकता है, जिनकी तनिक भी कल्पना फिलहाल किसी को नहीं है; लेकिन एक ही दैवी स्रोत से प्रेरित अपने बंधु सह-तीर्थयात्रियों के रूप में लड़ने के बजाय एक-दूसरे को मुस्कुराते हुए देख सकते हैं। मनुष्यों, पशुओं, तथा हमारे भूमंडलीय और भावात्मक पारिस्थितिकीय तंत्र में पीड़ा पैदा करने के कारण युद्ध व्यर्थ हैं। हमारी आंतरिक समस्याओं के समाधान से बहुत पूर्व ही हमारे बीच अथवा सभी जीवित प्रदेशों को सम्मिलित करते हुए ग्रहीय पारिस्थितिकीय तंत्र के साथ बाह्य युद्धों का अंत किया जा सकता है। हमारे उच्चतर मन की प्रकृति विकास का निर्देश करना है। समस्त वास्तविक नैतिकी का उत्स उच्चतर मन में है। विकास एक पूर्ण विकसित मानव मन की ओर यात्रा है। लेकिन मनुष्य को उच्चतर मन का वरण तथा उसके द्वारा अपने विचारों, भावनाओं और कर्मों को नियमित-नियंत्रित करना होगा। तभी युद्ध नहीं होंगे और मानवता उच्चाशयों का अतिक्रमण न करते हुए साथ रह सकेगी।
- रुडी यंस्मा
(हिंदी रूपांतर : नंदकिशोर आचार्य)
थोरो, हेनरी डेविड : हेनरी डेविड थोरो का जन्म 12 जुलाई 1817 ई० को मैसाचुसेट्स राज्य के कंकॉर्ड नामक स्थान पर हुआ। थोरो को कई विशेषणों से पुकारा जाता है, वे प्रकृतिप्रेमी, कवि, व्यावहारिक दार्शनिक, नवइंग्लैंड अंतर्प्रज्ञावाद के प्रसिद्ध व्यक्तित्व, अराजकतावादी व नागरिक स्वतंत्रताओं के समर्थक थे। थोरो को 1928 ई० में कंकॉर्ड अकादमी में अध्ययन के लिए भेजा गया। 1833 ई० में वह आगे की पढ़ाई हेतु हार्वर्ड चले गए। यहां रहते हुए उन्होंने वर्ड्सवर्थ, मिल्टन, कॉलरिज, कार्लाइल को पढ़ा, साथ ही, सोफोक्लीज, यूरीपीडीज, होमर, होरेस, सेनेका, जुवेनल का भी रूचिपूर्ण अध्ययन किया। उन्हें कई भाषाओं का ज्ञान था, जिनमें अंग्रेजी, इटालियन, फे्रंच, स्पेनिश प्रमुख थी। 1837 ई० में हार्वर्ड से ग्रेजुएशन पूरा होने पर उन्हें कंकॉर्ड में एक ग्रामर विद्यालय में नौकरी मिली मगर दो सप्ताह में ही इस्तीफा दे दिया। 1938 ई० में अपने भाई जॉन के साथ एक विद्यालय खोला, लेकिन भाई की मृत्यु के बाद 1841 ई० में उसे भी बंद कर दिया। इसके बाद भू-सर्वेक्षणकर्ता के तौर पर कार्य करने में सफलता पाई। थोरो के हार्वर्ड के अध्ययन के समय इमर्सन कंकॉर्ड में रहने लगे थे। थोरो व इमर्सन में मित्रता भी खूब चली। इमर्सन ने थोरो में एक सच्चा मित्र देखा और थोरो ने इमर्सन में एक निर्देशक मित्र देखा। आगे चलकर दोनों नवइंग्लैंड अंतर्प्रज्ञावाद के प्रमुख व्यक्तित्व बने। इमर्सन के जरिए ही थोरो ने प्राचीन भारतीय दर्शन की उस अतुलनीय वैचारिक दार्शनिक संपदा को प्राप्त किया जो जीवनपर्यंत उनकी आधारभूमि बनी रही। 1840 ई० में द डायल (यह नवइंग्लैंड अंतर्प्रज्ञावाद का मुखपत्र माना जाता था) जर्नल में प्रथम अंक में थोरो की सिंपैथी कविता छपी। 1842 ई० में नैचुरल हिस्ट्री ऑफ मैसुचुसैट्स एक लेख छपा। साथ ही बाद में कुछ अन्य कविता एवं टू द मैडन इन द ईस्ट जैसे बेहतरीन लेख व द विंटर वाल जैसे प्रकृति संबंधी निबंध भी प्रकाशित हुए।
1845 ई० में उन्होंने कंकॉर्ड के पास वाल्डेन नामक सरोवर के निकट स्वनिर्मित झोपड़ी में रहने का निर्णय लिया। यहां आकर थोरो ने आत्मनिर्भरता के अपने सिद्धांत को व्यावहारिक तौर पर जीने का प्रयास किया। थोरो इस स्थान पर 26 महीने रहे और 6 सितंबर 1847 ई० को वाल्डेन छोड़ा। उस समय के वैभवशाली व तेजी से धनवान होने की स्थिति में भी थोरो ने सादगी का जीवन जिया। यह इसलिए भी महत्त्वपूर्ण है कि यह स्वैच्छिक सादगी उनकी मजबूरी नहीं, बल्कि चुनाव थी। अपने वाल्डेन सरोवर के प्रवास के दौरान थोरो ने ए वीक आन द कंकॉर्ड एंड मैरीमेक रीवर्स (1849 ई०) पुस्तक लिखी। थोरो ने वाल्डेन सरोवर के अपने अनुभवों को कलमबद्ध किया और यहां से जाने के बाद लगभग सात बार ड्राफ्ट संशोधन के बाद उनकी प्रसिद्ध पुस्तक वाल्डेन ऑर लाइफ इन द वुड्स (1854 ई०) प्रकाशित हुई। यह पुस्तक थोरो की जिंदगी में उतनी प्रसिद्धि नहीं पा सकी, लेकिन उनकी मृत्यु के बाद यह पुस्तक विश्व प्रसिद्ध हो गई। वाल्डेन में 18 व्याख्यात्मक व वर्णनात्मक निबंध हैं, जिनमें प्राकृतिक जीवन व प्रकृति के अनुभवों का वर्णन है। वाल्डेन में थोरो ने जो वर्णन किया, वह साहित्यिक उत्कृष्टता का बेहतरीन नमूना है, साथ ही अंतर्प्रज्ञावाद के दर्शन की आधारभूमि भी है। वाल्डेन का प्रयास प्रकृति व अपने दैनंदिन जीवन में लगातार उससे दूर हो रहे मानव-जीवन के बीच सामंजस्य का प्रयास है।
वाल्डेन प्रवास के दौरान ही जुलाई, 1846 ई० को थोरो को एक रात जेल में बितानी पड़ी। उसके पीछे कारण यह था कि उन्होंने पिछले 6 वर्षों से अपना टैक्स जमा नहीं किया था। उनका तर्क था कि यह टैक्स सरकार अनैतिक उद्देश्यों पर खर्च करती है, जिसे वह उचित नहीं मानते; अतः टैक्स नहीं भरेंगे। टैक्स की राशि का प्रयोग सरकार दासता के विस्तार के प्रश्न पर मैक्सिको के साथ होने वाले युद्ध में करती है। थोरो ने दास-प्रथा का प्रारंभ से ही विरोध किया। थोरो ने एक रात जेल में बिताए अपने अनुभव को आधार बनाकर दासता को समाप्त करने के समर्थन में कई व्याख्यान दिए। थोरो ने अपने प्रसिद्ध निबंध सिविल डिस-ओबीडियंस को एक व्याख्यान के तौर पर लिखा जो फरवरी 1848 ई० को कंकॉर्ड सभाभवन में दिया गया था। इस निबंध के प्रथम प्रकाशन का शीर्षक रेजिस्टेंस टू सिविल गवर्न्मेंट था जो एस्थेटिक पेपर्स शीर्षक के अंतर्गत एक निबंध संग्रह में प्रकाशित हुआ। दासता विरोध में थोरो ने स्लेवरी इन मैसाचुसेट्स नामक भाषण 1854 ई० में दिया जो उनकी दासता विरोधी सर्वाधिक सशक्त अभिव्यक्ति मानी जाती है। थोरो की मृत्यु 6 मई 1862 ई० को टी०बी० के कारण हुई।
थोरो पर भारतीय दर्शन का बहुत प्रभाव था। उन पर सर्वाधिक प्रभाव भगवद्गीता का पड़ा। प्राचीन भारतीय ग्रंथों ने थोरो पर दो प्रकार से प्रभाव डाला, एक तो इन ग्रंथों ने तत्कालीन समय की उपभोगवादी संस्कृति के समक्ष त्याग, संयम, तपस्याशील संस्कृति की दार्शनिक विवेचना उपलब्ध कराई तथा दूसरा यह कि उपनिषदों व पुराणों के कल्पनात्मक व रचनात्मक आख्यानों ने थोरो की साहित्यिक रचनाओं को तीक्ष्णता व प्रभावशीलता प्रदान की। थोरो की मौलिकता को इन प्रभावों ने सुदृढ़ता प्रदान की। नवइंग्लैंड अंर्तप्रज्ञावाद आंदोलन की विशेषता आदर्शवाद थी। इसका अर्थ है इस प्रकार का आदर्शवाद जो इस बात पर बल देता है कि मनुष्य की प्राकृतिक संरचना में ही कुछ पराभौतिक गुणधर्म (Supernatural attributes) होते हैं। यह आंदोलन समूह के स्थान पर वैयक्तिकता, तर्क (Reason) के स्थान पर भाव (Emotion), मनुष्य के स्थान पर प्रकृति पर बल देता था क्योंकि मनुष्य उसका ही तो हिस्सा है।
इनके अनुसार ज्ञान प्राप्त करने के दो तरीके हैं-एक इंद्रियों द्वारा, दूसरा इंद्रीयातीत। लेकिन इनका इस बात पर विशेष जोर था कि भावावेग इंद्रियानुभव से परे जाता है। भौतिक जगत और आत्म-जगत दोनों का अस्तित्व है मगर आत्मतत्त्व भौतिक जगत से आगे की चीज है। अतः, यह रूमानीवाद को कुछ संशोधनों के साथ स्वीकार करता है। यह आधार बनाकर अंतर्प्रज्ञावाद मानता है कि समाज में कोई भी सुधार प्रथमतः व्यक्ति से ही शुरू होता है, न कि समूह या संस्था से।
वाल्डेन में प्रकृति के प्रति एकात्म की जो अनुभूति थोरो व्यक्त करते हैं, सविनय अवज्ञा उसी एकात्मकता का सामाजिक जीवन में विस्तार है। उच्चतर नियम अन्योन्याश्रिता, एकात्मकता की अनुभूति है जो प्रकृति के प्रति साहचर्य की ओर ले जाता है और यह केवल इंद्रियों से नहीं जाना जा सकता है। अतएव, व्यावहारिकता में इसका अर्थ है-सहयोग। यह प्रेम के रूप में ही प्रकट हो सकता है, जो थोरो अपनी रचनाओं तथा व्यावहारिक जिंदगी में प्रकट करते हैं। यह उच्चतर नियम ही उच्चतर सत्य है।
व्यक्ति और राज्य के आपसी संबंधों पर विचार करते हुए थोरो के विचारों के केंद्र में व्यक्ति था। वह व्यक्ति को ही समस्त व्यवस्था का आधार मानते हैं। मनुष्य को सामाजिक प्राणी के स्थान पर सार्वभौमिक अंगवाद यानी प्रकृति का एक अंग मानते हैं। वह स्पष्ट करते हैं कि न्याय किसी भी सत्ता से अधिक महत्त्वपूर्ण है, सत्ताशाली का हमेशा न्यायपूर्ण होना जरूरी नहीं है। व्यक्ति के विकास का तात्पर्य उसे इस राज्य व्यवस्था या समाज की वृहद प्रणाली का एक पुर्जा मात्र बना देना नहीं; बल्कि उसे वृहत्तर प्रकृति-सार्वभौमिक प्राणी के रूप में आगे बढ़ाना है। थोरो के अनुसार समाज व्यवस्था कृत्रिम है, अतएव व्यक्ति को सामाजिक प्राणी के स्थान पर सार्वभौमिक प्राणी मानना चाहिए।
थोरो के पूर्व सिविल डिसओबीडियंस, पैसिव रेजिस्टेंस जैसे प्रतिरोध के स्वरूप एक शक्ल अख्तियार करना शुरू कर चुके थे। पैसिव रेजिस्टेंस का उद्देश्य संवैधानिक अधिकारों के लिए शांतिपूर्ण आंदोलन से था-यानी कानून के ढाँचे के भीतर रहकर ही एक नैतिक दबाव तैयार किया जाय। सवनिय अवज्ञा या निष्क्रिय प्रतिरोध के सैद्धांतिक स्वरूप की चर्चा की शुरूआत संभवतः 16वीं शताब्दी में प्रारंभ हो चुकी थी। ला बोइती फ्रांस के राजनीतिज्ञ-विचारक थे, उनकी रचना Discourse la Servitude Volontaire (Discourse on Voluntary Servitude में उन्होंने कहा कि अत्याचार के मुकाबले का एक तरीका यह भी है कि उससे सहयोग न किया जाय। इमर्सन ने ला बोइती की प्रशंसा में एक कविता लिखी थी। इमर्सन थोरो के मित्र भी थे, अतः यह अनुमान लगाया जा सकता है कि संभवतः थोरो पर ला बोइती का प्रभाव रहा हो।
थोरो का महत्त्व इस बात में है कि जो भी प्रतिरोध की यह नई अहिंसक परंपरा चल रही थी, उसे उन्होंने एक सैद्धांतिक आधार प्रदान करने का प्रयास किया। थोरो के राजनैतिक विचारों को अराजकतावाद की संज्ञा दी जाती है, जिसके अनुसार न्याय सत्ता से बढ़कर है। ऑन द डयूटी ऑफ सिविल डिसओबीडियंस लेख उनके प्रतिरोध के आदर्श को सैद्धांतिक आधार प्रदान करने वाला प्रतिनिधि लेख है। वही सरकार सबसे अच्छी है जो सबसे कम शासन करती है, ऐसा कहते हुए वह राज्य सत्ता को संदेह की दृष्टि से देखते हैं।
थोरो सविनय अवज्ञा के अपने निबंध में महत्त्वपूर्ण दार्शनिक सवालों को उठाकर अपने तरीके से उनके उत्तर प्रस्तुत करते हैंः-
(1) व्यक्ति व राज्य पर विचार करते हुए व्यक्ति को प्रथम स्थान देते हैं। उनकी दृष्टि में हम पहले मनुष्य हैं, प्रजा बाद में। लेकिन राज्य के दृष्टिकोण से देखने पर हम पहले प्रजा हैं, उसकी आज्ञा का पालन करना ही नैतिकता है। थोरो इस द्वंद्व में स्पष्ट करते हैं कि राज्य-नागरिक संबंधों के निर्वाह में हमें मनुष्य होने के अधिकार को नहीं छोड़ना चाहिए। हम मनुष्य होने को प्राथमिकता देते हैं तो सत्य बड़ी चीज होता है, न कि विधान। अतः कानून का उल्लंघन अनिवार्यतः बुरी चीज नहीं है।
(2) राज्य व्यक्ति को एक यंत्र मात्र समझता है, व्यक्ति से आत्महीन अस्तित्व की भांति आदेशों का पालन करने की आशा करता है। व्यक्ति का अस्तित्व विवेकहीन होकर मात्र आदेशों का पालन करने में निहित है। थोरो स्पष्ट करते हैं कि सही गलत का निर्णय व्यक्ति के नैतिक विवेक के आधार पर लिया जाना चाहिए। शासन को यह स्वतंत्रता देनी चाहिए कि हर व्यक्ति अपनी राय रख सके और तदनुसार काम कर सके, फिर चाहे वह राज्य के आदेशों से भिन्न ही क्यों न हो।
(3) थोरो के अनुसार लोकतंत्र में प्रत्येक व्यक्ति को राय रखने का अधिकार है। लोकतंत्र बहुमत शासन नहीं है। बहुमत हमेशा सही होता तो सरकारें कभी नहीं बदलती। अतः सही गलत का निर्णय व्यक्ति के नैतिक विवेक के आधार पर लिया जाना चाहिए। मतदान का मतलब केवल कागज के टुकड़े को डालना नहीं होना चाहिए, अपितु मतदान में आपका पूरा व्यक्तित्व शामिल होना चाहिए। मतदान के पीछे भावनात्मक ताकत होनी चाहिए। अपनी असहमति को बिना किसी हिचक के अभिव्यक्त करना चाहिए। लोकतंत्र में यदि हर व्यक्ति की भागीदारी है तो हर व्यक्ति का दायित्व है कि वह राय को बहुमत के अधीन न छोड़े। अपने विवेक की कसौटी पर खरी उतरने वाली राय को न केवल अभिव्यक्ति करे, अपितु उसके लिए प्रयत्न भी करे। सत्य के प्रति सद्भावना काफी नहीं है; उसका क्रियात्मक होना भी जरूरी है।
(4) अगर कानून सत्य के पक्ष में नहीं है तो व्यक्ति को अपनी सत्यनिष्ठा और नैतिक विवेक पर दृढ़ रहकर असहयोग तत्काल शुरू करना होगा। तत्काल असहयोग ही किसी भी अन्याय के विरूद्ध आपकी सक्रिय एवं विवेकमयी प्रतिक्रिया है।
(5) जेल वस्तुतः राज्य की कमजोरी का प्रतीक है। राज्य इस तरह का व्यवहार करके यह स्पष्ट करता है कि वह आपका बौद्धिक-नैतिक स्तर पर मुकाबला नहीं कर पा रहा है। थोरो असहयोग के परिणाम-जेल जाने को तार्किकता प्रदान करते हैं। जेल जाने पर राज्य आपसे आपकी इच्छा के विरूद्ध किसी तरह का सहयोग नहीं ले सकता है, अतः जेल में रहने वाला व्यक्ति स्वतंत्र है। राज्य द्वारा आपको जेल भेजना अपनी हार स्वीकार करने के समान है।
(6) लोकतंत्र मात्र वोट का एक चलताऊ संस्कार नहीं, वह जागरूकता व संपूर्ण व्यक्तित्व का पोषक है। थोरो लोकतंत्र की इस सजगता व मूल भावना को ही प्रकट और स्पष्ट करते हैं कि अगर देय राशि का उपयोग अनैतिक कार्य के लिए होगा तो उसे पूरा अधिकार है कि वह उस राशि को राज्य को न दे।
(7) वही शासन सर्वोतम है, जो सबसे कम शासन करता है। थोरो सरकार के विरूद्ध है; किंतु वह बुरी या अयोग्य सरकार के विरूद्ध हैं। वह एक सुयोग्य एवं आदर्श सरकार की तलाश करते हुए उसका खाका भी प्रस्तुत करते हैं। वह ऐसी सरकार के विरूद्ध हैं जो व्यक्ति को एक पुर्जा एवं विवेकहीन मानकर कार्य करती है।
थोरो के विचारों को सार रूप में प्रस्तुत करें तो हम पाते हैं कि थोरो अपने प्रतिरोध स्वरूप में समूह के बजाय व्यक्ति पर बल देते हैं, व्यक्ति के वैयक्तिक अंतःकरण को जगाने की कोशिश करते हैं। यदि प्रत्येक व्यक्ति सचेत है तो समूह स्वतः सचेत हो जाएगा क्योंकि समूह व्यक्तियों का ही योग तो है। थोरो असहयोग के माध्यम से नैतिक भावात्मक व्यक्तित्व को पुष्ट करते हैं। यह एक प्रकार से अपने सत्य के प्रति अधिक निष्ठावान होना है। थोरो जब सत्य की बात करते हैं तो पहली बात पहले मनुष्य होने की, बाद में प्रजा होने की। कोई भी गतिविधि जो मनुष्य होने के भाव को खत्म करती हो, वह थोरो को स्वीकार्य नहीं है। दूसरी बात-सतत जागरूक होने की है, तीसरी-सादगी एवं सरलता, चौथी-शांति की तथा पांचवी प्रत्येक मनुष्य के अधिकार को स्वीकारने की है। अतः इन सभी को एक शब्द मे व्यक्त करने का प्रयास करे तो वह अहिंसा को ही कसौटी बनाते हैं।
थोरो लोकतंत्र को मानवीय विकास की एक अवस्था मानते हैं, अतः लोकतंत्र के सारतत्त्व-स्वतंत्रता, समानता, बंधुत्व, न्याय आदि को पुष्ट करने वाली व्यवस्था ही थोरो के लिए कसौटी हो जाती है। थोरो के लिए सविनय अवज्ञा या अहसयोग न केवल एक राजनैतिक अस्त्र है, बल्कि स्वयं के नैतिक उत्कर्ष की साधना प्रक्रिया भी है। मनुष्य होने के नाते पहला नैतिक प्रयोजन मनुष्य होने के भाव को बनाए रखना है। कोई भी नियम/कानून इसे अस्वीकार करता है तो थोरो उसे अनैतिक कहते हैं। अतः इस कानून नियम के साथ तात्कालिक असहयोग, उसकी सविनय अवज्ञा अपने मनुष्य होने के नैतिक प्रयोजन के लिए अनिवार्य है।
थोरो तात्कालिक सरकार की आलोचना इसलिए करते हैं कि यह यंत्रवत् है यानी मनुष्य को राज्य की यांत्रिक संरचना में केवल एक पुर्जा मानकर चलती है। इसमें कोई नैतिक चेतना, मानवीय संवेदना नहीं है और यह व्यक्ति को अपने से श्रेष्ठ नहीं मानती। थोरो ने इन्हीं कारणों से अमेरिकी राज्य को गुलाम राज्य कहा। थोरो के अनुसार जब तक राज्य व्यक्ति को अपने से उच्चतर शक्ति के रूप में स्वीकार नहीं करेगा, तब तक वह स्वतंत्र राज्य नहीं हो सकता। राज्य को ऐसा इसलिए स्वीकार करना ही होगा क्योंकि उसे अपनी समस्त शक्तियां व्यक्ति से ही प्राप्त हुई हैं, इस अर्थ में थोरो मानवाधिकारों के भी समर्थक हो जाते हैं।
थोरो का केंद्रीय प्रयास वैयक्तिक अंतःकरण को जगाने का ही है। वह सामूहिक आंदोलन का कोई ठोस प्रयास करते दिखाई नहीं देते हैं। इनके प्रतिरोध के स्वरूप में वैयक्तिक पहल महत्त्वपूर्ण हैं। गांधी थोरो से प्रभावित माने जाते हैं-खास तौर पर असहयोग के विचार के लिए-किंतु गांधी इस दृष्टि से भिन्न भी हैं कि वे असहयोग को सामूहिक प्रतिरोध का अस्त्र बना देते हैं।
- शंभू जोशी
दलाई लामा, चौदहवें : तिब्बती बौद्ध परंपरा के अनुसार दलाई लामा अवलोकितेश्वर बुद्ध के अवतार होने के कारण तिब्बती बौद्धों के धार्मिक एवं राजनीतिक अनुशास्ता माने जाते हैं। पारंपरिक विश्वास के अनुसार दिवंगत दलाई लामा पुनर्अवतरित होते हैं, और उनके बताए लक्षणों के आधार पर पुनर्जीवन में उन्हें पहचान लिया जाता है। चौदहवें दलाई लामा तेनजिंग ग्यात्सो का जन्म 6 जुलाई 1935 ई० को उत्तर-पूर्वी तिब्बत प्रदेश में हुआ। दो वर्ष की उम्र में ही उनकी पहचान कर ली गई थी तथा 5 वर्ष की उम्र में 1940 ई० में पीठारोहण हो गया। 1959 ई० तक उन्होंने अपनी शिक्षा पूरी कर ली। लेकिन, 1950 ई० में केवल पंद्रह वर्ष की उम्र में ही उन्हें सभी राजनीतिक दायित्व संभालने पड़े, जब चीनी सेना ने तिब्बत पर आक्रमण किया। 1954 ई० में केवल उन्नीस वर्ष की उर्म में वह चीनी नेताओं माओ, चाऊ-एन-लाई तथा देंग से वार्ता के लिए चीन गए; लेकिन, चीनी सरकार तिब्बत के अतिक्रमण से हटने के लिए तैयार नहीं हुई। 1959 ई० में ल्हासा में तिब्बतियों ने अपनी स्वतंत्रता के लिए चीनी शासन के खिलाफ विद्रोह कर दिया जिसका बर्बरतापूर्वक दमन कर दिया गया और लगभग अस्सी हजार अनुयायियों के साथ बहुत कष्टपूर्ण यात्रा करते हुए दलाई लामा ने भारत में राजनीतिक शरण ली। तब से वह धर्मशाला में रहते हुए चीनी कब्जे के विरुद्ध अहिंसक तिब्बती स्वाधीनता आंदोलन का नेतृत्व करते हुए समकालीन विश्व के एक महान अहिंसावादी व्यक्तित्व के रूप में समादृत है। 1989 ई० में उन्हें नोबल शांति पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। तिब्बत में चीनी अत्याचारों का उनका अहिंसक प्रतिरोध बेमिसाल है तथा तिब्बत के अंदर तथा भारत और अन्य देशों में रहने वाले सभी तिब्बती बौद्धों में धैर्य, सहिष्णुता और सकारात्मक प्रतिरोध की भावना कितनी मजबूत है, इसका संकेत चीनियों की कैद में रहे उनके एक बौद्ध अनुयायी के उस कथन से मिल जाता है, जिसमें उसने कैद के दौरान अपनी मनःस्थिति का वर्णन करते हुए कहा कि उसे डर था कि कहीं उसमें चीनियों के प्रति द्वेषभाव न पैदा हो जाए।
तिब्बत में चीनी बर्बरता लगभग जाति-संहार का रूप ले चुकी है। दो निष्पक्ष अंतर्राष्ट्रीय आयोगों-अंतर्राष्ट्रीय विधिवेता आयोग 1960 ई० तथा अंतर्राष्ट्रीय विधिवेता आयोग 1997 ई०-की रपटों में यह स्वीकार किया गया है कि जनसंख्या स्थानांतरण, तिब्बती संस्कृति का हनन, मनमानी नजरबंदियों, यातनाओं, मनमाने मृत्युदंड तथा नागरिक स्वतंत्रताओं के अपहरण आदि की विधियों के द्वारा इस धार्मिक समूह के विरुद्ध जातिसंहार किया गया है तथा मानवाधिकारों का हनन किया गया है। दोनों आयोगों की रपटें यह स्पष्ट सिफारिश करती है कि चीन को तिब्बत के लोगों की भावना का आदर करते हुए तिब्बत समस्या के समाधान हेतु दलाई लामा और तिब्बत की निर्वासित सरकार के साथ बातचीत शुरु करनी चाहिए तथा तिब्बतियों के मौलिक मानवाधिकारों का सम्मान सुनिश्चित किया जाना चाहिए। 1997 ई० की रिपोर्ट की मुख्य सिफारिश तिब्बत के लोगों की इच्छा ज्ञात करने के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ की देखरेख में जनमत संग्रह करवाने की है, जिसमें 1950 ई० से पूर्व तिब्बत में रहने वाले तिब्बतियों तथा अन्य लोगों और उनके उत्तराधिकारियों एवं तिब्बती शरणार्थियों और उनके उत्तराधिकारियों को मतदान का अधिकार मिलना चाहिए।
दलाई लामा के नेतृत्व में अहिंसा में निष्ठा से तिब्बत मुक्ति-साधना की सौम्य दृढ़ता ने विश्व-जनमत को प्रभावित किया है। यूरोपीय संसद, अमरीकी कांग्रेस व सीनेट, आस्ट्रेलिया की जन-प्रतिनिधि-सभा, कई लेटिन अमेरिकी देशों के साथ-साथ सभी प्रमुख धर्मों के धर्मगुरुओं ने तिब्बत की स्वतंत्रता को अपना समर्थन दिया है।
इस बीच दलाई लामा ने बार-बार यह स्पष्ट किया है कि यदि तिब्बत को स्वायत्तता (वह चीन से स्वतंत्रता की मांग नहीं कर रहे) मिल जाती है तो वह अपने पारंपरिक राजनीतिक अधिकार त्याग देंगे। उन्होंने इसी दृष्टि से भारत में एक लोकतांत्रिक निर्वासित सरकार की स्थापना भी की है, जिसे फिलहाल तिब्बत से बाहर रह रहे तिब्बतियों का समर्थन प्राप्त है। यह उल्लेखनीय है कि दलाई लामा पूरी तरह अहिंसक आंदोलन में विश्वास करते हैं। एक साक्षात्कार में जब उनसे पूछा गया कि उनके राष्ट्र का चीन के कब्जे में चला जाना और मठों को नष्ट कर दिया जाना क्या अहिंसा की असफलता नहीं है तो उनका विवेकसम्मत उत्तर था : किसी परिस्थिति में हिंसक पद्धति का औचित्य हो सकता है, लेकिन हिंसा सदैव प्रतिहिंसा पैदा करती है। यदि आप इसलिए हिंसा करते है कि आपके मठ या किसी स्मारक को नष्ट कर दिया गया है, तो आप न केवल अपने मठ को खोते हैं, बल्कि वैराग्य, प्रेम और करुणा की अपनी विशिष्ट बौद्ध प्रवृत्तियों को भी खो देते हैं। दलाई लामा अपने अहिंसक प्रतिरोध को आंतरिक निरस्त्रीकरण (Inner Disarmament) की संज्ञा देते हैं-क्योंकि सुविकसित सहनशीलता हमें प्रत्याक्रमण की अपरिहार्यता से मुक्त करती है। इसी अर्थ में वह सहनशीलता को उत्कृष्ट कवच (Best armour) कहते हैं क्योंकि वह हमें घृणा द्वारा विजित होने से बचाता है।
दलाई लामा तिब्बत के विकास के सवाल को तिब्बतियों पर छोड़ देने का आग्रह करते हुए कहते हैं कि यह विकास पर्यावरण-संरक्षण दीर्घजीवी आर्थिकी के लिए संसाधन-संरक्षण तथा श्रमिकों, किसानों और घूमंतू तिब्बतियों के हितों की पूर्ति करने वाला होना चाहिए। चीनी आर्थिक नीति ने तिब्बत के 75 प्रतिशत से भी अधिक वन काट डाले हैं और उससे जल-स्रोतों के लिए भ्ीा खतरा पैदा हो रहा है।
दलाई लामा का अहिंसक प्रतिरोध महात्मा गांधी के अहिंसक प्रतिरोध की तरह सकारात्मक है। उन्होंने तिब्बत के भविष्य की दृष्टि से नई राजनीतिक-प्रशासनिक संस्थाओं के साथ उत्कृष्ट विश्वविद्यालयों और शैक्षिक संस्थाओं का विकास किया है। तिब्बत की प्राचीन विद्याओ, चिकित्सा तथा औषधि विज्ञान के शोध को प्रोत्साहन देने वाली संस्थाओं का भी निर्माण किया है-और यह सब तिब्बत से बाहर रहते हुए। यह सब बताता है कि वह तिब्बत की अहिंसक संस्कृति के आधार पर एक नए तिब्बत का निर्माण करना चाहते हैं। इसीलिए वह स्वायत्त तिब्बत को सैन्यमुक्त और परमाणुमुक्त बनाना चाहते हैं। यह उल्लेखनीय है कि 1969 ई० में ही दलाई लामा ने यह घोषणा कर दी थी कि तिब्बत लौटने पर वे भविष्य की सरकार में कोई पद ग्रहण नहीं करेंगे तथा दलाई लामा की गद्दी के जारी रहने का निर्णय भी तिब्बत के लोग ही करेंगे।
- नंदकिशोर आचार्य
दादूदयाल : संत कवि दादूदयाल (1544-1603) मध्यकाल की निर्गुण भक्ति परंपरा के महत्त्वपूर्ण कवि हैं। वह मानते हैं कि सहमति के आधार पर मानवीय रिश्ते बनने चाहिए, परंतु वर्तमान समाज असहमति के हिंसक आधार पर संगठित है। इस अर्थ में वह अहिंसक समाज की परिकल्पना करते हैं। सबसे पहले दादू खान-पान की पवित्रता पर ध्यान देते हैं और वह मांसाहार का विरोध करते हैं। जो लोग मांस खाकर मोमिन बनते हैं या मदिरा का सेवन करते हैं, दादू उन्हें अच्छा आदमी नहीं मानते। अतः अहिंसा का प्राथमिक आधार है खान-पान में अहिंसा का पालन। यदि यह नहीं है तो दादू आपके समर्थन में कुछ नहीं कहते।
दूसरे स्तर पर अहिंसा नम्रता के रूप में आती है। हमारे व्यवहार में अहंकार नहीं होना चाहिए। अहंकार हिंसा का ही एक रूप है। यह अहंकार धन-संपत्ति से आता है, शरीर की ताकत से आता है, या राज सत्ता से आता है। दादू इन तीनों की आलोचना करते हैं। दादू कहते हैं कि मनुष्य जिस तन को जीवन भर संवारता रहता है, वह अंत में मिट्टी में मिल जाता है। जो तन क्षण भर में नष्ट हो जाता है, उसका क्या अहंकार?
जो तन देखि अधिक नर फूले, सो तन छाड़ि चल्या रे भूले। / जो तन देषि मन मैं गरबांना, मिलि गया माटी तज अभिमाना। / दादू तन की कहा बड़ाई, निमष मोही माटी मिलि जाई।
यह काया तो कच्ची है, इसको लेकर अहंकार का कोई मतलब नहीं है। यदि इस तर्क को दर्शन के स्तर पर स्वीकार कर लें, तो तन का अहंकार बचकाना लगने लगता है।
हिंसक व्यक्ति जब दूसरे व्यक्ति पर अत्याचार करता है तो उसे प्रताड़ित करने के लिए दो तर्क देता है। एक तो यह कि वह उसे कोई काम नहीं देगा-काम नहीं मिला तो वह भूखो मर जाएगा। अपने आपको जिंदा रखने के लिए वह हिंसा के सामने झुक जाता है। इसके अलावा दूसरा वह किस को मार सकता है। अहंकार और हिंसा अपना कार्य मृत्यु का भय दिखाकर करते हैं। दादू यहां ईश्वर की परिकल्पना प्रस्तुत करते हैं, जो मनुष्य को मृत्यु के भय से मुक्त करता है और निर्भय होकर नैतिक जीवन जीता है।
दादू जिनि पहुंचाया प्राण को, उदर उरध मुषि षीर। / जठर अगनि में राषिया, कोमल काया सरीर।। / सो सम्रथ संगी संगि है, विकट घाट घट भीर। / सो सोई सूगह गही, जिनि भूलै मन वीर।।
दादू ने तर्क दिया कि जिस परमात्मा ने गर्भ में दूध पहुंचा दिया और जठराग्नि के भीतर मनुष्य की कोमल काया को जिंदा रखा, वह समर्थ परमात्मा जब मनुष्य के साथ है, तब उसे इस संसार में भूखा मरने का डर मिथ्या है। इसलिए इस धमकी से डरो मत। जहां तक मृत्यु का प्रश्न है, वह तो सभी को आएगी। वह अनिवार्य है। ऐसा नहीं है कि हिंसक व्यक्ति स्वयं कभी मरेगा ही नहीं। राव रंक सब मरहिंगे जीवै नांहीं कोई। जो तुम्हें मारने की धमकी देते हैं, वे सब भी तो मर ही जाएंगे। दादू धरती करते एक डग, दरिया करते फाल। / हाकौं प्रवत फाड़ते, ते भी षाफ काल।।
जब सब मरते हैं तो मरने का डर निरर्थक है। यह भय हिंसा के विचार से आता है। अहिंसा मनुष्य को निर्भय बनाती है। अतः, हिंसा का मुकाबला अहिंसा से और भय का मुकाबला निर्भयता से करना चाहिए। इसलिए दादू के कथन का सार यह है कि दर्शन से दैनिक जीवन के कष्टों पर विजय पाई जा सकती है। समझदारी से अज्ञान का अंधकार दूर किया जा सकता है। यह अज्ञान ही भय प्रदान करता है। इसका फायदा हिंसा उठाती है। इसलिए दादू कहते हैं-राषनाहारा एक तूं, मारनहार अनेक। / दादू के दूजा नहीं, तूं आपै ही देख।।
इसलिए जिनके ईश्वर साथ है, उससे सारा संसार रूठ जाने पर भी कोई हानि नहीं हो सकती। वह कहते हैं कि यदि तुम किसी को मारने जाओगे, तो वह भी आपको मारने दौड़ेगा। यदि तुमने किसी की रक्षा की तो वह तुम्हारी रक्षा करेगा। इसलिए आपस की मारपीट अच्छी नहीं। एक दूसरे को मारने से खुदा नहीं मिलेगा। अतः, मन के भीतर छिपे हुए द्वंद्व और अहंकार को मारकर ही खुदा को पाया जा सकता है।
जवानी के जोश में आए हुए अहंकार का शमन करने के लिए दादू कहते हैं कि यह जवानी हमेशा नहीं रहेगी। शरीर का बल स्थाई नहीं है। एक दिन बुढ़ापा आएगा और ये पांचों इंद्रियां आपका कहना नहीं मानेंगी। कान से सुनाई नहीं देगा। आंखों से दिखाई नहीं देगा, मुंह से आवाज नहीं निकल पाएंगी। चरण और सिर कांपने लग जाएगा। अपने बालों का रंग बदल जाएगा तथा शरीर और मन की ताकत क्षीण हो जाएगी। अतः शरीर का अहंकार निरर्थक है। सूरज उदय होता है तो अस्त हो जाता है। पेड़ों की छाया भी घटती-बढ़ती रहती है। जब यह दुनिया और दुनिया के संबंध स्थाई नहीं है तो इसको लेकर हिंसा फैलाने का कोई अर्थ नहीं है।
जहां तक हिंदू-मुस्लिम विवाद का प्रश्न है, दादू मानते हैं कि मुसलमान हैं और अब वे इसी देश में रहेंगे। हिंदू भी हैं और वे भी इस देश में रहेंगे। दोनों को साथ-साथ रहना है। जब दोनों को साथ-साथ रहना है तो आपस में हिंसा क्यों करो? आराम से रहो। दोनों में कमियां हो सकती हैं, उनमें ऐसी बातें हो सकती हैं, जो हमें पसंद नहीं है। यदि उनकी आलोचना करनी है, उनकी कमियां बतानी है, उनसे अपनी असहमति दर्ज करनी है, तो उन्हें अपना मानकर करनी चाहिए। इस देश में अनेक धर्मों, संप्रदायों, मान्यताओं और विश्वासों को मानने वाले लोग रहते हैं। उन्हें यहां रहने का अधिकार है। इस अधिकार की रक्षा होनी चाहिए। उनमें से किसी को भी, चाहे वह हिंदू हो या मुसलमान, यह अधिकार नहीं है कि दूसरों को जबर्दस्ती अपनी आस्थाओं के अनुसार ढाल ले। यह हिंसा है। यह गलत है। दादू बलात् धर्म परिवर्तन का विरोध करते हैं। सवाल हिंदू या मुसलमान होने का नहीं है। सवाल मनुष्यता का है, साधुता का है। यह विवाद तो एकदम बेमानी है कि हिंदू अच्छा है या मुसलमान? सारी दुनिया इन दोनों में बंटी हुई तो है नहीं। यदि ऐसा है तो यह धरती, पवन, पानी, सूर्य, चंद्रमा आदि किसके पंथ में है। जिस प्रकार पानी के अनेक नाम दिए गए हैं, फिर भी पानी तो पानी ही है। कोई राम कहे, कोई अल्लाह कहे, परमात्मा तो एक ही है, क्योंकि एक ही ईश्वर सब जीवों में वास करता है। इसलिए न कोई छोटा है, न कोई बड़ा है। सभी बराबर है। नीच ऊंच मधिम को नांही, देषौ राम सबनि कै मोही। / दादू साच सर्बान मैं सोई, पेड़ पकड़ि जन नृभै होई। इस तरह दादू निर्भयता का उपदेश देते हैं, जो अहिंसक समाज की मुख्य विशेषता है।
- प्रो० रामबक्ष
द्रव्य हिंसा-भाव हिंसा : जीव अजर-अमर-अविनाशी है अतः जीव का विनाश होता ही नहीं। विनाश होता है-कान, नयन, नाक आदि इंद्रियों व तन-मन-वचन आदि प्राण शक्तियों का। इसीलिए जैनागमों में हिंसा के स्थान पर प्राणातिपात अर्थात् प्राणों का हनन करना शब्द आया है और अणुव्रत या महाव्रत की प्रतिज्ञा भी प्राणातिपात विरमण की ही ली जाती है जो सार्थक व उचित ही है। यह नियम है कि जिस जीव में जितनी अधिक प्राण-शक्ति है वह उतना ही अधिक विकसित प्राणी है। उसके हनन में उतना ही अधिक प्राणातिपात (हिंसा) है। एकेंद्रिय जीव वनस्पति आदि से द्वींद्रिय जीव लट, केंचुआ आदि की प्राण-शक्ति (संवेदनशीलता) अनंत-गुणी है। इसीलिए इन्हें एकेंद्रिय से अनंतगुणा पुण्यवान माना है। अतः, इनकी हिंसा में एकेंद्रिय जीव के प्राणातिपात से अनंतगुणा प्राणातिपात होता है-हिंसा होती है, पाप होता है। प्रश्न-व्याकरण सूत्र में यही आशय प्रकट किया गया है, यथा-एगं इसिं हणमाणे अणंते जीवे हणइ अर्थात् एक ऋषि को मारता हुआ अनंत जीवों को मारता है। इसी प्रकार द्वींद्रिय से त्रींद्रिय चींटी आदि, त्रींद्रिय से चतुरिंद्रिय मक्खी, मच्छर आदि और चतुरिंद्रिय से पंचेंद्रिय पशु-पक्षी-मनुष्य आदि क्रमशः अनंत-अनंत गुणी अधिक प्राण-शक्ति वाले हैं, पुण्यात्मा हैं। अतः उनके हनन में क्रमशः अनंत-अनंत गुणा अधिक प्राणातिपात होता है, अनंत-अनंत गुणी अधिक हिंसा होती है या पाप लगता है। अतः सब जीवों के मारने में समान पाप लगता है, समान हिंसा है, यह मानना भूल है।
इसी प्रकार एकेंद्रिय से पंचेंद्रिय तक ऊपर दिए गए क्रम में जीवों की रक्षा करने, दया करने में क्रमशः अनंत-अनंत गुणा धर्म व पुण्य है। अतः पशु-पक्षी, मनुष्य आदि पंचेंद्रिय प्राणियों को अन्न-जल देकर भूख-प्यास से मरने से बचाने, इनकी सेवा करने में अनंत गुणा धर्म व पुण्य है और इनके मारने में अनंत गुणा पाप व अधर्म है। इनकी रक्षा या सेवा में पाप या हिंसा मानना मिथ्यात्व है। तात्पर्य यह है कि सब जीवों के मारने में समान पाप या हिंसा नहीं है। बल्कि जो प्राणी जितना अधिक प्राणवान् है उसके हनन में उतना ही अधिक प्राणातिपात है, हिंसा है, पाप है, आत्म-पतन है और उसकी रक्षा में, दया में, सहायता में उतना ही अधिक धर्म है, पुण्य है, आत्मा का उत्थान है।
कोई जीव किसी दूसरे जीव को कष्ट दे रहा है या मार रहा है तो ऐसी स्थिति में जिसे कष्ट दिया जा रहा है-मारा जा रहा है उसे बचाने से जो जीव अपने सुख के लिए उसे कष्ट दे रहा है, मार रहा है उस जीव को आघात लगता है, दुःख होता है। अतः यह हिंसा है।
इस संबंध में विचारने से ऐसा लगता है कि किसी जीव को कष्ट होना हिंसा नहीं है। जैसे एक डॉक्टर पेट का ऑपरेशन करने के लिए किसी रोगी का पेट छुरी से काटता है और एक डाकू धन लूटने के लिए किसी व्यक्ति के पेट में छुरा घोंपता है। बाहरी दृष्टि से दोनों घटनाएं एक सी हैं, दोनों का काम एक-सा है, परंतु आंतरिक दृष्टि में बहुत अंतर है। डॉक्टर द्वारा छुरे से रोगी का पेट चीरना और उससे रोगी को कष्ट होना या मर जाना, हिंसा नहीं कहा जा सकता। डॉक्टर की भावना रोगी के हित में होती है और डाकू द्वारा व्यक्ति का पेट चीरना हिंसा है क्योंकि डाकू की भावना व्यक्ति का हित करने की नहीं, अहित करने की है। किसी प्राणी के हित के लिए किया गया कार्य मैत्री है, सेवा है, दया व अहिंसा है। अतः, पेट में छुरा घोंपने का डॉक्टर का कार्य हितकारक होने से अहिंसा व दया है तथा डाकू का कार्य अहित का हेतु होने से हिंसा व पाप है।
कोई जीव किसी दूसरे जीव को मार रहा है तो मरते हुए जीव को बचाने में न तो जिस जीव को बचाया जा रहा है उसके प्रति राग है और न जिससे बचाया जा रहा है उसके प्रति द्वेष है-बल्कि दोनों ही के प्रति हित की भावना है अर्थात् मैत्री-भावना है, वात्सल्य-भाव है। राग-द्वेष या कषाय वहीं होता है जहां विषय-सुख का भोगरूप स्वार्थ-भाव हो। अपने इंद्रिय-विषय के सुख-भोग के लिए किसी व्यक्ति, वस्तु आदि के प्रति आकर्षण होना राग है और राग की पूर्ति में बाधा पहुंचाने में रोष का उत्पन्न होना द्वेष है। राग-द्वेष, मोह या कषाय की उत्पत्ति भोग की इच्छा व स्वार्थपरता से ही होती है। किसी जीव को बचाने में राग-द्वेष व हिंसा नहीं होती है। राग तो तब होता है जब जिस जीव को बचाया जा रहा है। उससे सुख भोगने की या स्वार्थपूर्ति की लालसा हो और द्वेष तब होता है जब हत्यारे के प्रति अहित की भावना हो। बचाने वाले के हृदय में किसी प्रकार का स्वार्थ न होने से उसमें राग-द्वेष दोनों ही नहीं होते, वह तो दोनों ही प्राणियों का हित चाहता है। उसकी भावना किसी को भी कष्ट देने की, आघात पहुंचाने की, अहित करने की नहीं होती है। सभी का भला या हित करने की होती है। उसका सबके प्रति मैत्री-भाव होता है।
यथार्थ तो यह है कि मरते हुए जीव को बचाने वाले के हृदय में जो उस जीव को मार रहा है उसके प्रति द्वेष नहीं होता है। यदि उसके प्रति द्वेष होता तो जीव को कोई अन्य व्यक्ति उसे मारे या कष्ट पहुंचाए तो उसे बचाने की संभावना नहीं होती, परंतु दयावान व्यक्ति उसे भी मरने व कष्ट से बचाने का पूरा प्रयत्न करता है। इसी प्रकार जिस जीव को बचाया गया है यदि उसके प्रति राग होता तो वह बचाया गया जीव अन्य किसी जीव को मारता है या कष्ट पहुंचाता है तो उसकी इच्छा पूरी करने दी जाती, परंतु दयावान् व्यक्ति भी ऐसा करने से रोकता है। अतः दयावान् व्यक्ति के हृदय में मारने वाले व मरने वाले प्राणियों के प्रति राग-द्वेष नहीं होता है क्योंकि प्रथम तो वह दोनों से अपना विषय-कषायजन्य सुख नहीं चाहता है, दूसरा उसकी दोनों के प्रति हितकारी मैत्री-भावना होती है। इस प्रकार हिंसक को हिंसा करने से बचाने में न तो जिसकी हिंसा की जा रही है उस का अहित है और न जो हिंसा कर रहा है उसका अहित है और न बचाने वाले का अहित है-प्रत्युत सभी का हित है, सभी का भला है, लाभ है, अहित या हानि किसी की भी लेशमात्र भी नहीं है। किसी जीव को हिंसा, झूठ, चोरी, राग, द्वेष, विषय, कषाय आदि दुष्प्रवृत्तियों से, पापों से बचाने में किसी का भी अहित नहीं है। जिसमें सभी का हित है, वह अहिंसा है। उसे हिंसा मानना भयंकर भूल है।
जिनकी यह मान्यता है कि किसी जीव पर दया, उसकी रक्षा करने, मरने या कष्ट से बचाने में राग-द्वेष होता है अतः यह पाप है, धर्म नहीं है, हिंसा है, अहिंसा नहीं है। ऐसी मान्यता वाले व्यक्ति को कोई मरने, पीड़ा से, कष्ट से, दुःख से बचावे, रक्षा व सहायता करे तो वह उसके इस कार्य को भला समझता है या बुरा? यदि बुरा या पाप समझता है तो उसे उसकी सहायता नहीं लेनी चाहिए और उससे यह प्रार्थना या निवेदन करना चाहिए कि कृपा करके हमें बचाकर आप पाप के भागी मत बनिए। परंतु, कहीं पर भी किसी को भी ऐसा करते या कहते नहीं देखा या सुना गया है। सभी अपने को मृत्यु से, दुःख से, पीड़ा से, कष्ट से बचाने, रक्षा करने वाले को एवं उसके इस कार्य को अच्छा व भला ही समझकर स्वीकार करते हैं, निषेध नहीं करते हैं। इससे किसी भी जीव को मृत्यु, दुःख, पीड़ा आदि से बचाना, रक्षा करना, उसकी सहायता (दान) करना स्वतः अच्छा व भला सिद्ध हो जाता है। सत्य सिद्धांत सनातन, सार्वजनीन, सार्वकालिक, सार्वत्रिक-सार्वदेशिक होता है। अतः वह सब पर सदा-सर्वदा सर्वत्र समान रूप से लागू होता है। उसमें अपने-पराए का भेद नहीं होता है। जिसमें अपने-पराए का भेद-भाव है, वहां स्वार्थपरता-सत्यता नहीं।
- कन्हैयालाल लोढ़ा
धम्मपद : बौद्ध वाड्.मय में धम्मपद सुत्तपिटक के खुद्दकनिकाय का एक अंग है। धम्मपद में धम्म शब्द का सदाचार के अर्थ में प्रयोग हुआ है। पद का अर्थ मार्ग के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। अतः धम्मपद का अर्थ हुआ धर्म का मार्ग। इसीलिए इसका मुख्य प्रतिपाद्य विषय अप्रमाद, अक्रोध, अवैर, अहिंसा, अस्तेय, अपरिग्रह है। बौद्ध धर्म के पंचशील (प्राणातिपातविरमणं, मृषावादविरमणं, अदत्तादान-विरमणं, सुरापानविरमणं, कामेषुमिथ्याचार विरमणं) का वर्णन (मलवर्ग - 12,13) धम्मपद में पाया जाता है। धम्मपद में ज्ञानमीमांसीय, तत्त्वमीमांसीय समस्याओं पर विचार न करके नैतिक विधान का निर्देश किया गया है। इसमें बताया गया सदाचार का मार्ग बौद्ध दर्शन की औचित्य प्रणाली के अंतर्गत आता है। इसमें बताए गए सदाचार के विभिन्न अंग (अहिंसा, अक्रोध, अस्तेय) एक दूसरे से इस तरह अंर्तगुंफित हैं कि एक के पालन से दूसरे का पालन अवश्यमेव हो जाता है। सदाचार में बाधक तृष्णा के क्षय को धम्मपद में कल्याण का मार्ग कहा गया है। कहा गया है कि हे भिक्षुओ! जितने भी यहां उपस्थित हो, मैं तुम्हें कल्याण का एकतम मार्ग बताता हूं। तुम तृष्णा के मूल को खोद डालो; जैसे खस की इच्छा वाला मनुष्य वीरण की जड़ को खोद डालता है (तृष्णा वर्ग, 3)।
सदाचार के अंतर्गत अहिंसा का प्रमुख स्थान है। बौद्ध दर्शन के अनुसार, जो प्रेम, करुणा को अत्यधिक महत्त्व देता है, अहिंसा की स्थापना प्रतिहिंसा द्वारा नहीं होती। उसके अनुसार उसने मुझे अपशब्द कहा, पीटा, मेरे धन का हरण किया, जो ऐसे विचारों को मन में रखते हैं, उनका वैर शांत नहीं होता (यमक वर्ग 3)। वैर से वैर शांत नहीं होता, अवैर से ही शांत होता है। यह सनातन धर्म है (यमक वर्ग 5)।
धम्मपद में अहिंसा की स्थापना के लिए समान अनुभूति के तर्क का आश्रय लिया गया है अर्थात् हम जैसा अपने प्रति चाहते हैं, वही हमें दूसरों के लिए भी करना चाहिए। धम्मपद कहता है-सब दंड से डरते हैं। सब मृत्यु से भय करते हैं। दूसरों को अपनी तरह जान करके मनुष्य किसी दूसरे को न मारे, न मरवाए (दंड वर्ग, 1)। अहिंसा के इस व्रत का पालन न करने वाले के लिए धम्मपद में कहा गया है जो मनुष्य अपने सुख की कामना करता हुआ सुख की इच्छा करने वाले अन्य प्राणियों को दंड द्वारा पीड़ित करता है, वह मरकर कभी सुख प्राप्त नहीं करता (दंड वर्ग, 3)। तथा जो अन्य प्राणियों को दंड द्वारा पीड़ित नहीं करता, वह मरकर सुख को प्राप्त होता है (दंड वर्ग, 4)।
निर्दोष लोगों पर हिंसा करने वाले को निम्नांकित दस बुरी दशाओं में किसी एक से सामना करने की बात धम्मपद कहता है-
(1) वह तीव्र व्यथा, कठोर हानि, अंग-भंग, भारी बीमारी, विक्षेप के दुख (दंड वर्ग, 10)।
(2) राजदंड, भयानक अभियोग, संबंधियों का नाश, भोग्य पदार्थों का क्षय (दंड वर्ग, 10)।
(3)घर में आग लगना (दंड वर्ग, 12)।
धम्मपद (दंड वर्ग 14) में ब्राह्मण उसे कहा गया है जो ब्रह्मचर्य का पालन करने वाला, प्राणियों के प्रति हिंसा का त्याग कर चुका हो। सहिष्णुता को परम तप घोषित करते हुए धम्मपद (बुद्ध वर्ग, 6) में हिंसा करने वाले को प्रव्रज्या के योग्य नहीं माना गया।
हिंसा का सामना हिंसा से करने पर हिंसा खत्म न होकर और भ्ीा उग्र हो जाती है, जो हमारे चित्त को विचलित किए रहती है। इसीलिए धम्मपद में शस्त्र विजय की जगह धम्म विजय को महत्त्व दिया गया है। धम्मपद के अनुसार विजय बैर को पैदा करता है। पराजित हुआ व्यक्ति दुखी होकर सोता है। परंतु जय-पराजय से उदासीन हुआ शांत मुनि सुखपूर्वक नींद लेता है (सुख वर्ग, 5)। अहिंसा में रत और संयमी को वह स्थान प्राप्त होता है जहां जाकर शोक नहीं होता (क्रोध वर्ग, 5)।
धर्मनिष्ठ के लिए आवश्यक है कि वह आचरण के स्तर पर उपदेशों को उतारे, केवल वाक्जाल में न उलझा रहे। इसीलिए बूढ़ा हो जाने से कोई स्थविर नहीं हो जाता; अपितु स्थविर तो वह है जो सत्य, धर्म, अहिंसा, संयम, दमन को अपने आचरण में उतार चुका हो (धर्मिष्ठ वर्ग, 6)। श्रमण वह है जो सूक्ष्म स्थूल सभी पापों से दूर रहता है (धर्मिष्ठ वर्ग, 10)। यहां धम्मपद में अहिंसा के स्थूल अर्थ को न लेकर उसके सूक्ष्म अर्थ को लिया गया है, जैसे-इतने से कोई आर्य नहीं होता कि वह जीवधारियों की हिंसा नहीं करता। सब भूत मात्र के प्रति अक्रूरता वृत्ति रखने वाला पुरुष वस्तुतः आर्य कहा जाता है (धर्मिष्ठ वर्ग, 15)। इसीलिए केवल सदाचार, सत्यवादिता, एकांतसेवन से नैष्कर्म्य सुख की प्राप्ति न मानकर चित्तमल के क्षय को महत्त्वपूर्ण माना गया है (धर्मिष्ठ वर्ग, 16, 17) क्योंकि चित्तमल या अज्ञान से ही हम पाप करते हैं। जैसे ही चित्तमल का क्षय होता है, हमारी दृष्टि उन्मीलित होती है और हम पाप कर्मों से दूर हो जाते हैं।
धम्मपद में सत्य और धर्म से प्रतिष्ठित व्यक्ति को ब्राह्मण कहा गया है। ऐसे व्यक्ति से यह अपेक्षा की गई है कि यदि कोई उस पर प्रहार करे तो उसके प्रत्युत्तर में भी उसे हिंसा का सहारा नहीं लेना चाहिए (ब्राह्मण वर्ग, 7)। जो अपने प्रति अकारण की गई हिंसा को सहन करते हुए आरोपी को क्षमा करता है, वही ब्राह्मण है (ब्राह्मण वर्ग, 17)। जो चर अचर के प्रति हिंसा नहीं करता वही ब्राह्मण है (ब्राह्मण वर्ग, 23)।
धम्मपद में अहिंसा को सिर्फ कायिक अहिंसा तक सीमित नहीं किया गया है, अपितु इसका विस्तार भावपरक अहिंसा तक है। मन, वचन, कर्म से किसी के प्रति द्रोह न रखना इसी को शास्त्रों (योगसूत्र) में सर्वदा सर्वभूतेषु अनभिदोहः अहिंसा कहा गया है।
- प्रो० शत्रुघ्न चतुर्वेदी
नकारात्मक स्वतंत्रता : द्रष्टव्य : बर्लिन, आइजिया।
नरेंद्रदेव, आचार्य : आचार्य नरेंद्रदेव (1889-1956 ई०) अहिंसक भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के एक प्रमुख सेनानी और समाजवादी विचारक थे। वह कांग्रेस समाजवादी पार्टी (1934 ई०) के संस्थापकों में से एक तथा गांधीवादी पद्धति से समाजवाद की स्थापना का आग्रह एवं प्रयत्न करने वाले लोगों में डॉ० राममनोहर लोहिया और जयप्रकाश नारायण जैसे विचारक राजनीतिज्ञों की पंक्ति में प्रमुख हैं। स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान वह कई बार जेल गए और उत्तर प्रदेश विधानमंडल के सदस्य भी रहे। स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद उन्होंने लखनऊ विश्वविद्यालय के कुलपति का दायित्व निभाया। उन्हें बौद्ध-दर्शन का एक विशिष्ट विद्वान भी माना जाता है।
अहिंसा के संदर्भ में उनका योगदान भारत के अहिंसक स्वातंत्र्य-आंदोलन में सक्रिय सहभागिता तक ही सीमित नहीं है। समाजवाद की प्रक्रिया को अहिंसा से जोड़ने के आग्रह के कारण उन्हें मौलिक समाजवादी विचारक माना जाता है। आचार्य नरेंद्रदेव इतिहास की मार्क्सवादी व्याख्या से सहमत थे, लेकिन वह विचारों के महत्त्व को भी स्वीकार करते तथा द्वंद्वात्मक भौतिकवाद के बजाय भौतिक अद्वैतवाद का आग्रह करते थे, जिसमें जड़ और चेतन दोनों भौतिक प्रक्रिया से प्रसूत होते हैं। इसी तरह, समानता और स्वतंत्रता को समान महत्त्व देने के कारण वह समाजवाद और जनतंत्र दोनों को संयुक्त वर्ग (ष्टड्डह्लद्गद्दशह्म्4) के रूप में देखते थे और एक के अभाव में दूसरे को प्रभावहीन मानते थे। साम्यवाद के सोवियत रूप से उनका इसीलिए मतभेद रहा कि उस व्यवस्था में स्वतंत्रता के सवाल को उपेक्षित किया गया।
आचार्य नरेंद्रदेव की मान्यता थी कि लोक-तांत्रिक तरीके से भी समाजवाद लाया जा सकता है। उनके विचार में समाजवाद ही पूर्ण जनतंत्र है क्योंकि वह आर्थिक स्वतंत्रता पर जितना जोर देता है, उतना ही मानव-व्यक्तित्व के स्वतंत्र विकास पर। राजनीतिक-आर्थिक लोकतंत्र ही समाजवाद है और इसके लिए हिंसा का रास्ता उचित नहीं है, बल्कि धीरे-धीरे जनतांत्रिक तरीकों से सफलता मिल सकती है। यह उल्लेखनीय है कि एक भौतिकवादी होने के कारण आचार्य नरेंद्रदेव गांधीवाद को वैज्ञानिक नहीं मानते थे; लेकिन, वह गांधी के व्यक्तित्व से बहुत प्रभावित थे तथा गांधीवाद के नैतिक आग्रहों को पूरी तरह स्वीकार करते थे। इसी कारण वह समाजवाद की स्थापना के लिए अहिंसक उपायों अर्थात् सत्याग्रह को एक तारक अस्त्र मानते थे। उनका यह भी मानना था कि समाजवाद के लिए श्रमिक वर्ग के अधिनायकत्व को मानना आवश्यक नहीं है क्योंकि यह अधिनायकत्व किसी-न-किसी राजनीतिक दल के अधिनायकत्व में बदल जाता है। वह अर्थ-व्यवस्था पर राजकीय नियंत्रण के नाम पर नौकरशाही के नियंत्रण का विरोध करने के कारण यह मानते थे कि अर्थ-व्यवस्था का विकेंद्रीकरण होना चाहिए और आर्थिक व्यवस्था का नियमन श्रमिक वर्ग के स्वतंत्र संगठनों द्वारा होना चाहिए। विशिष्ट उद्योगों के लिए गैर-सरकारी संस्थाओं की स्थापना की जा सकती है।
इस तरह, उनके अर्थशास्त्रीय विचारों पर महात्मा गांधी के विकेंद्रीकृत अर्थ-व्यवस्था तथा न्यासिता के विचारों का गहरा प्रभाव दिखाई देता है। दरअस्ल, समाजवाद की अवधारणा को अहिंसक सत्याग्रह, विकेंद्रीकरण, राजकीय नियंत्रण से मुक्ति तथा लोकतांत्रिक प्रक्रियाओं से जोड़ने के कारण उन्हें अहिंसक समाजवादी कहा जा सकता है। यह बहुत संभव है कि बौद्ध-दर्शन के प्रति उनके आकर्षण ने उन्हें ईश्वरहीन आध्यात्मिकता की ओर उन्मुख किया हो, जिसका दार्शनिक परिणाम भौतिक अद्वैतवाद तथा राजनीतिक परिणाम नैतिक उपायों अर्थात् अहिंसक सत्याग्रह के लिए उनके आग्रह में दिखाई देता है। भारतीय समाजवादी विचार और आंदोलन को उनकी देन अप्रतिम मानी जाती है।
द्रष्टव्य : लोहिया, डॉ० राममनोहर; नारायण, जयप्रकाश।
- नंदकिशोर आचार्य
नव-मानववाद : द्रष्टव्य : राय, एम०एन०।
नानक, गुरु :गुरु नानक (1469-1539 ई०) को सिख धर्म का प्रवर्त्तक माना जाता है। खुशवंत सिंह ने सिख धर्म की उत्पत्ति पर विचार करते हुए लिखा है कि यह धर्म हिंदू धर्म और इस्लाम के परिणय से पैदा हुआ; लेकिन, जन्म के बाद उसका अपना व्यक्तित्व विकसित हुआ और कालांतर में वह एक ऐसे धर्म के रूप में परिवर्तित हो गया, जिसमें दोनों धर्मों से कई बातों में समानता होने के साथ उसकी अपनी कुछ विशेषताएं भी थीं। भक्ति आंदोलन और सूफीमत में कई समानताएं थीं-विशेषतया प्रेम की अवधारणा दोनों में समान रूप से स्वीकार्य रही। चैतन्य, रामानंद, कबीर, मीरा, तुकाराम, नामदेव, ज्ञानेश्वर, रैदास, दादू आदि संतों में इस भावना की प्रबलता देखी जा सकती है। इस प्रेम भाव की प्रबलता के ही कारण इन संतों ने मनुष्यों में जन्म के आधार पर हो रहे भेदभाव का निषेध किया। गुरु नानक रामानंद और कबीर को भी स्वीकार करते हैं और बाबा फरीद जैसे सूफी संत को भी। इसीलिए सिखों के आदिग्रंथ या गुरु ग्रंथ साहिब में जिन सोलह भक्त संतों और सूफियों के लेखन को सम्मिलित किया गया है, उनमें जयदेव, फरीद, नामदेव, त्रिलोचन, परमानंद, साधना, बेनी, रामानंद, धन्ना, पीपा, साई, कबीर, रैदास, मीरा, भीखन और सूरदास हैं। इससे यह स्पष्ट हो जाता है कि गुरु नानक प्रेम को ही सर्वाधिक महत्त्व देते और प्रेम का अर्थ ही है किसी भी प्रकार के भेद का निषेध। शायद यही कारण रहा कि नानक ने ईश्वर को केवल सत या आध्यात्मिक संकल्पना के रूप में देखा। यह उल्लेखनीय है कि महात्मा गांधी भी जब ईश्वर सत्य है के बजाय सत्य ईश्वर है कहने लगते हैं, तो उनका भी आशय यही है कि ईश्वर एक आध्यात्मिक संकल्पना है और उस संकल्पना के आधार पर ही जीवन-व्यवहार का विकास होना वांछनीय है। अमूर्त सत्य को जानने का साधन प्रेम या अहिंसा है, इसलिए हमारा जीवन और व्यवहार इसी प्रेम या अहिंसा के भाव से प्रेरित होना चाहिए। खुशवंत सिंह के शब्दों में नानक के उपदेश का सामाजिक सार यही है कि एक अच्छे सिख को न केवल इसमें विश्वास करना चाहिए कि ईश्वर ही एक सर्वशक्तिमान और सर्वदर्शी सचाई है, वरन् उसे अपने साथ के लोगों के साथ ऐसा व्यवहार करना चाहिए कि वह उन्हें कष्ट न दे, नुकसान न पहुंचाए क्योंकि झूठ, धोखाधड़ी, व्यभिचार किसी व्यक्ति के निजत्व में दखल अथवा उसकी संपत्ति का अतिक्रमण करना आदि ईश्वर के सत्य रूप को नकारना है। इसलिए यह स्वाभाविक लगता है कि नानक ने संन्यास के बजाय समाज में ग्रहस्थ जीवन बिताते हुए अपने को बुराइयों से मुक्त करने को धर्म कहा : धर्म उस पैबंद लगे चोगे में नहीं, जो योगी पहनता है / न ही उस छड़ी में जो उसके पास होती है / न ही उसके शरीर पर रमाई धूनी में / धर्म उसके कानों में लटकते कुंडलों में भी नहीं / न ही उसके मुंड़े सिर में / न ही शंख बजाने की आवाज में / अगर तुम्हें सच्चे धर्म की राह देखनी है / तो देखो दुनिया की बुराइयों में / और अपने आपको इन बुराइयों से मुक्त करो। (सूही)
समानता अहिंसा का ही एक व्यावहारिक आयाम है और जातिगत ऊंच-नीच की भावना समानता का निषेध होने के कारण सामाजिक हिंसा है। नानक इस जातिगत भेद का निषेध करते और मानव-मात्र की समानता का उपदेश करते हैं। खुशवंतसिंह के अनुसार गुरु-लंगर की प्रथा का एक प्रयोजन जातिगत भेदभाव को तोड़ना तथा सबमें परस्पर प्रेम और सहयोग की भावना का विकास करना था। इसी तरह निजी आचरण में नैतिक नियमों का पालन ही अहिंसा है क्योंकि सबसे बड़ा नैतिक नियम है किसी को कष्ट न पहुंचाना। हकु पराइआ नानका इसु सूअर उसु गाइ इस पंक्ति में नानक किसी के हक पर आघात करने को मुसलमान के लिए सूअर और हिंदू के लिए गाय का मांस खाने के बराबर पाप मानते हैं। यह केवल वैयक्तिक आचरण तक ही सीमित नहीं है, बल्कि एक ऐसी सामाजिक-आर्थिक व्यवस्था की वांछनीयता का प्रस्ताव भी है, जिसमें किसी व्यक्ति का शोषण संभव न हो सके।
जपुजी को गुरु नानक की ऐसी कृति माना जाता है, जिसमें उनके दर्शन का समस्त निचोड़ आ गया है। आदि ग्रंथ को संपादित करते हुए गुरु अर्जुन ने उसे सबसे पहले रखा है। उनका मानना था कि सारा आदिग्रंथ जपुजी की ही व्याख्या है। इसकी 18वीं पउड़ी में नानक कहते हैं : असंख अमर करि जाहि जोर तथा असंख गलवढ़ हातेआ कमाई। यहां नानक एक ओर जहां मजलूमों के साथ अत्याचार का निषेध करते हैं, वहां, साथ ही, जीव-हत्या की भर्त्सना भी करते हैं अर्थात् केवल मनुष्यों के साथ हिंसा ही अनुचित नहीं है, वरन् पशु-पक्षियों के प्रति हिंसा भी उतनी ही गलत है। इसीलिए नानक मांसाहार का निषेध करते हैं। उल्लेखनीय है कि कबीर जैसे संत भी मांसाहार का निषेध करते हैं। कबीर का कहना है कि जदसभ महि एक खुदाइ कहत हउतद किउ मुरगी मारै-यदि सभी प्राणियों में एक ही सर्जक का नूर है तो किसी भी जीव को भोजन के लिए मारना कैसे उचित कहा जा सकता है। नानक भी जपुजी की उपर्युक्त पउड़ी में ही कहते हैं कि असंख मलेछ मलु भखि खाही। इसमें भी मांसाहार तथा मद्यपान आदि की भर्त्सना की गई है। यहां फिर कबीर याद आते हैं जो कहते हैं कि यदि जीव-हत्या करने वाले लोग धार्मिक हैं, तो पापी और कसाई कौन है।
यह उल्लेखनीय है कि गुरु नानक के उपदेश प्रेम, अहिंसा और शांति का संदेश देते हैं, लेकिन आगे चलकर यदि सिख मत में युद्ध को अपनाना पड़ा तो इसकी वजह नानक के उपदेशों में नही बल्कि उस ऐतिहासिक परिस्थिति में देखी जानी चाहिए, जिसके कारण एक शांतिवादी धर्म, खुशवंत सिंह के शब्दों में, युद्धप्रिय खालसा में रुपांतरित हो गया।
- नंदकिशोर आचार्य
नारायण गुरु : नारायण गुरु का जन्म उन्नीसवीं शताब्दी के ऐसे सामाजिक माहौल में हुआ, जब केरल की बहुसंख्यक जनता जातिगत ऊंच-नीच की भावना के कारण गुलामों की तरह जीवन बिताने के लिए मजबूर थी। सार्वजनिक सड़कों पर चलने, पाठशालाओं में पढ़ने, देवालयों में दर्शन करने और सरकारी नौकरियों में सेवा करने के मौलिक अधिकारों से वे वंचित थे। श्रीनारायण गुरु ने जाति के आधार पर मानव को मानव से कम दर्जे का मानने वाले अमानवीय सामाजिक ढांचे को तोड़ने के लिए एक अहिंसात्मक क्रांति चलाई जिस का परिणाम आगे चलकर स्वातंत्र्य, समता और भ्रातृभावना पर आधारित भारतीय संविधान के रूप में सामने आया, जिसके मुख्य समायोजक डॉ० अंबेडकर बने।
श्रीनारायण गुरु सन् 1856 ई० के श्रावण मास में चतयं नक्षत्र के दिन तिरुवनंतपुरम के चेंपषंती गांव में पैदा हुए। वे जिस कुटियानुमा घर में पैदा हुए थे, वह घर आज भी सुरक्षित है। उनके पिता माडन आशान आयुर्वेद और ज्योतिष के ज्ञाता थे। उनकी माता कुट्टिअम्मा एक ग्रामीण साध्वी महिला थीं। उनके मामा कृष्णन उस समय के प्रसिद्ध परंपरागत वैद्य थे। बचपन में सब लोग नारायण को प्यार से नाणु पुकारते थे। बचपन में ही नाणु समतावादी निकला और छुआछूत के नियमों का उल्लंघन करता था। घर पर उन्हें मलयालय, संस्कृत ओर तमिल की परंपरागत शिक्षा दी गई। अपने भानजे की प्रतिभा से प्रेरित होकर उनके मामा ने उन्हें उच्च शिक्षा के लिए करुनागपल्ली के गुरुकुल में भेज दिया। वहां के विद्वान गुरु कुम्मंपिल्ला आशान ने मेधावी छात्र नारायण को साहित्य, ज्योतिष, वेदांत आदि की शिक्षा दी। स्वरचित कविताओं में उनकी काव्य-प्रतिभा प्रकाशित होने लगी। चार वर्ष अध्ययन करने के बाद नारायण ने अपना गांव लौटकर एक ऐसी पाठशाला शुरू की जिसमें सभी जातियों के बच्चों को समान रूप से शिक्षा दी जाती थी। वे भगवद्गीता पढ़ाते और सदाचार से जीने के लिए अपने शिष्यों को प्रेरित करते। इसलिए उनका नाम नाणु आशान या नाणु आचार्य पड़ा। सगे संबंधियों के दबाव के कारण नाणु का विवाह संपन्न हुआ। उन दिनों की परंपरा के अनुसार वे स्वयं ससुराल नहीं गए। उनकी बहन ने कन्या को वस्त्र देकर उसे बहु बनाने की प्रथा पूरी की। एक दिन नारायण सुसराल पहुंचे। उन्होंने अपनी पत्नी से कहा, प्रत्येक व्यक्ति के जन्म का एक लक्ष्य होता है। हम दोनों के जन्म के जो लक्ष्य हैं हमें भी उन लक्ष्यों की प्राप्ति के लिए प्रयास करना चाहिए। यह कहकर वे घर से निकल गए। माता-पिता के देहांत के बाद नारायण संसार से विरक्त होकर निकल पड़े। वे दक्षिण भारत के गांव-गांव में घूमकर लोगों के जीवन का अध्ययन करते रहे। वे एक अवधूत के रूप में जब जनता के दुःख दर्द से रूबरू हुए, तभी उन्हें उनके दुःखों का कारण समझ में आया और उनका समाधान ढूंढ़ने का उन्होंने प्रयास किया। कन्याकुमारी के पास स्थित मरुत्वामला नामक पहाड़ की गुफा में बैठकर कठिन तपस्या की, सत्य का साक्षात्कार किया और इसके बाद वे जनजीवन के बीच उतरे।
नाणु आशान दक्षिण केरल की नेय्यार नदी के किनारे एक गुफा में रहने लगे। अरुविप्पुरम नामक इस जगह पर उन दिनों घोर जंगल था। चीते और अन्य जंगली जानवर उनकी गुफा के आसपास घूमते हुए लोगों को दिखाई पड़ते थे। धीरे-धीरे इस सिद्ध योगी के पास लोग अपनी समस्याएं लेकर पहुंचने लगे। लोगों को सही मार्गदर्शन देने से श्रद्धा से लोग उन्हें नारायण गुरु कहने लगे। कुछ श्रद्धालु जनों ने उनके सामने मंदिर में दर्शन और उपासना करने से ऊंची जाति के लोगों द्वारा वंचित किए जाने की पीड़ा व्यक्त की। परंपरागत देवालयों में ईश्वर की पूजा-आराधना से वंचित ऐसे बहुसंख्यक लोगों के लिए सन् 1888 ई० की शिवरात्रि को अरुविप्पुरम की एक चट्टान को पीठ मानकर नारायण गुरु ने शिवलिंग की प्रतिष्ठा की। इस शिवलिंग को उन्होंने नेय्यार नदी के गहरी जलधारा से निकाला था। उन दिनों ब्राह्मणों के अतिरिक्त किसी दूसरे वर्ण का व्यक्ति मंदिर की स्थापना नहीं कर सकता था। जब ब्राह्मणों ने गुरु के द्वारा शिवलिंग स्थापित किए जाने की साधुता को चुनौती दी तो उन्होंने हंसते हुए यह जवाब दिया कि यह तो ईषव-पिछड़ी जातियों का शिव है। स्मृति ग्रंथों के नियमों और ब्राह्मण पुरोहितों के उपदेशों के अनुसार शासन करने वाले राजा की दृष्टि में भी दूसरे वर्णों के व्यक्ति द्वारा मंदिर बनाने का कार्य क्षम्य नहीं था। लेकिन श्रीनारायण गुरु के ऋषितुल्य आध्यात्मिक व्यक्तित्व और प्रखर बौद्धिक तेज के कारण ऐसी प्रतिक्रियाएं जल्दी शांत हो गईं। शताब्दियों से मानवीय अधिकारों से वंचित और उपेक्षित लोगों के लिए गुरु की यह अहिंसक क्रांति काफी प्रेरक सिद्ध हुई। वे निराशा और हीनता की ग्रंथि से मुक्त हुए और जगह-जगह ऐसे मंदिरों की स्थापना की मांग हुई। अरुविप्पुरम के मंदिर में धर्म को आडंबरों से मुक्त करने के लिए भेदभाव रहित अद्वैत तत्व और उपनिषदीय दर्शन को व्यवहार में लाया गया। उपनिषद् तो विश्वबंधुत्व, सार्वात्मता और समता पर जोर देते हैं। अरुविप्पुरम के मंदिर की दीवार पर गुरु ने जो संदेश लिखवाया, वह धर्म और जाति से परे आध्यात्मिकता पर आधारित विश्व भ्रातृभावना का संदेश है-यह वह आदर्श स्थान जहां, बिना किसी जातिभेद व धर्म द्वेष के, सभी जन रहते हैं भाईचारे से।
श्रीनारायण गुरु ने जन जीवन में शांतिपूर्ण परिवर्तन लाने के लिए केवल पूजा-अर्चना को ही महत्त्व नहीं दिया, अपितु देवालयों के साथ-साथ पाठशालाओं और हाथ करघा आदि कुटीर उद्योगों को भी बढ़ावा दिया। उन्होंने देवालयों के साथ उद्यान और पुस्तकालयों को भी बनाने का सुझाव दिया। उन्होंने एक ऐसा देवालय बनाया जिसमें उपनिषद् के तत्वमसि महावाक्य का स्मरण कराते हुए मूर्ति के स्थान पर दर्पण लगाया गया और सत्य, धर्म, दया, शांति ये शब्द लिखकर प्रभापूर्व फलक स्थापित किए गए थे। उन्होंने विद्या द्वारा प्रबुद्ध बनो, संगठन द्वारा शक्तिशाली बनो जैसे नारे प्रचारित किए।
उन दिनों केरल के मानवीय अधिकारों से वंचित और उपेक्षित शिक्षित युवकों को सरकारी नौकरियां दिलाने और तथाकथित अस्पृश्य जाति के छात्रों को विद्यालयों में प्रवेश दिलाने के लिए डॉ० पल्पू मैसूर रियासत के स्वास्थ्य विभाग में प्लेग पीड़ित लोगों की श्लाघनीय सेवा कर रहे थे। स्वामी विवेकानंद ने उन्हें उपदेश दिया कि यदि आप किसी श्रेष्ठ तपस्वी महात्मा के नेतृत्व में कार्य करें तो सामाजिक सुधार में सफलता मिलेगी। डॉ० पल्पू की प्रेरणा से सन् 1903 ई० में श्रीनारायण धर्म परिपालन संघ (एस एन डी पी) नामक संगठन बना जिसमें श्रीनारायण उसके अध्यक्ष बने। इस संगठन ने केरल में सामाजिक अधिकारों की स्थापना के लिए शांतिपूर्ण आंदोलन चलाए और सफलता भी प्राप्त हुई। श्रीनारायण गुरु के समय में केरल में धर्मांतरण का विवाद चल रहा था और ईसाई धर्म के लोग पोप की प्रेरणा के पद दलित जनवर्ग को ईसाई बनाने का प्रयास कर रहे थे और श्रीलंका के बौद्धों की प्रेरणा से बौद्ध धर्म में इन्हें परिवर्तित करने की चर्चा चल रही थी। लेकिन श्रीनारायण गुरु ने समझाया कि सभी धर्मों का उद्देश्य और सार एक है। उन्होंने बौद्ध धर्म से कई बातों को अपनाया, ईसाई मिशनरियों से उन्होंने शिक्षा-सुधार की प्रेरणा ग्रहण की। उन्होंने यह समझाया कि चूंकि सभी धर्मों का सार एवं उद्देश्य एक है, इसलिए धर्म के आधार पर कोई लड़ाई नहीं होना चाहिए। उन्होंने धर्म परिवर्तन को आवश्यक नहीं माना बल्कि यह कहा कि धर्म जो भी हो, लेकिन मानव का भला होना चाहिए, मनुष्य बेहतर बने। उनकी सूक्ति एक जाति, एक धर्म, एक ईश्वर मानव का, यह नए समाज के निर्माण के लिए एक लोकप्रिय नारा बन गया। सन् 1924 ई० में गुरु ने आलुवा के अपने अद्वैत आश्रम में सर्वधर्म सम्मेलन का आयोजन किया था। हिंदू, बौद्ध, जैन, इस्लाम, पारसी, सिख आदि सभी धर्मों के प्रतिनिधियों ने इसमें भाग लिया। सम्मेलन स्थल पर गुरु ने इस प्रकार लिखवाया-वाद-विवाद कर जीतने के लिए नहीं, एक दूसरे के धर्म को जानने के लिए और ज्ञान देने के लिए। सम्मेलन के समापन पर गुरु का संदेश पढ़ा गया-यहां जो विश्व धर्म सम्मेलन अभी संपन्न हुआ, उससे यह स्पष्ट हुआ कि सभी धर्मों का सार एक है। अतः धर्म को लेकर झगड़ा करना व्यर्थ है। हमें शिवगिरि में एक ऐसी पाठशाला की स्थापना करनी चाहिए जिसमें सारे धर्मों के अध्ययन की सुविधा हो। इस धर्म महापाठशाला को गुरु ने ब्रह्मविद्या मंदिर नाम दिया। श्रीनारायण गुरु ने कई संदर्भों में स्पष्ट किया कि भौतिक और आध्यात्मिक, जीवन के ये दोनों पहलू एक दूसरे से भिन्न नहीं हैं। उन्होंने कहा कि किसी समाज की आध्यात्मिक प्रगति के लिए देवालय सहायक हो सकते हैं। लेकिन समाज की आर्थिक प्रगति ही इन सबकी बुनियादी शर्त है और कृषि में सुधार, वाणिज्य और तकनीकी शिक्षा ही अािर्थक प्रगति का आधार है। अपनी सामाजिक सेवा के कार्यक्रमों में एस०एन०डी०पी० योग ने गुरु के इन आदर्शों को मानकर कार्य किया। गुरु के सामाजिक सुधार के कार्यक्रमों से केरल का पददलित और पिछड़ा समाज काफी उन्नति कर सका। केरल में नारायण गुरु द्वारा लाई गई सामाजिक क्रांति हिंसा पर आधारित नहीं थी। वे सामाजिक सुधार के कार्यक्रमों को सौहार्द के साथ कार्यान्वित करते थे जिससे विभिन्न जातियों के बीच मैत्री एवं सहयोग की भावना पनप सकी। 1924 ई० में वैक्यं सत्याग्रह और 1931 ई० मे गुरुवायूर सत्याग्रह आदि की सफलता इस सामूहिक सौहार्द पर आधारित है। सन् 1928 ई० में श्रीनारायण गुरु की समाधि वर्कला के शिवगिरि में हुई। लेकिन उनके आंदोलन से बड़ा सामाजिक और आध्यात्मिक परिवर्तन आया। कई क्रांतिपूर्ण आंदोलन हुए जिनके कारण सभी अवर्णों को 1936 ई० में मंदिरों में प्रवेश दिया गया। पत्नी को भी पति की संपत्ति की अधिकारी माना गया, कई अधिनियम त्रावनकोर रियासत से पास हुए। लगभग 40 वर्षों के अपने सामाजिक क्रांति के कार्यकलापों के दौरान श्री नारायण गुरु ने किसी के प्रति कोई कटु शब्द नहीं कहे, किसी का विद्वेष नहीं किया। अपने अनुयायियों को शांतिपूर्ण तरीके से सामाजिक आंदोलन चलाने की प्रेरणा दी। 1922 ई० में गुरु से मिलने के बाद विश्वकवि रविंद्रनाथ टैगोर ने लिखा, मुझे अपने जीवन में कई योगियों से मिलने का अवसर मिला। लेकिन श्रीनारायण गुरु ऐसा आध्यात्मिक तेज मैंने किसी योगी में नहीं पाया। जब महात्मा गांधी सन् 1925 ई० में गुरु से मिले तब उन्होंने स्वतंत्रता आंदोलन में सभी जनवगरें को स्थान देने का परामर्श दिया। समाज के सभी वर्गों को साथ लेकर चलने की बात और उपेक्षित और अधिकारों से वंचित कमजोर लोगों के सहयोग का महत्त्व उन्होंने गांधीजी को समझाया। वर्णाश्रम व्यवस्था की निरर्थकता और मानवीय एकता के तत्त्वों को भी उन्होंने गांधीजी को समझाया जिनका उन पर बड़ा प्रभाव पड़ा। श्रीनारायण गुरु ने जो मानववादी, वैज्ञानिक सामाजिक दर्शन दिया है उससे मलयालम साहित्य ही नहीं, संपूर्ण भारतीय दलित जनों का साहित्य और चिंतन प्रभावित हुआ।
- प्रो० जी० गोपीनाथन
नारायण, जयप्रकाश (जे पी) : जेपी के नाम से लोकप्रिय जयप्रकाश नारायण (1902-1979 ई०) का जीवन और विचार-यात्रा क्रमशः अहिंसा और उस पर आधारित समाज-व्यवस्था की ओर बढ़ते चले जाने की यात्रा है। अपने विद्यार्थी जीवन में ही भारत के स्वाधीनता आंदोलन में सक्रिय भागीदारी और असहयोग आंदोलन के दौर में सरकारी शिक्षा व्यवस्था के बहिष्कार के बाद अपनी शिक्षा पूरी करने के उद्देश्य से अमेरिका प्रवास के दौर में जेपी मार्क्सवाद की ओर आकर्षित हो गए थे। देश लौटकर गांधीजी के नेतृत्व में स्वाधीनता संघर्ष में शामिल होने और गांधीजी के प्रभाव से अपनी पत्नी प्रभावती देवी के ब्रह्चर्य जीवन के व्रत को स्वीकार कर लेने के बावजूद जेपी गांधी-विचार के समर्थक नहीं थे। स्वतंत्रता और समानता को आधारभूत मूल्यों के रूप में स्वीकार करते हुए भी जेपी का आदर्श सोवियत नमूने का समाजवाद था। कांग्रेस के अंदर रहते हुए ही अपने कुछ समानधर्म मित्रों के साथ उन्होंने कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी का गठन किया और उसके महासचिव पद की जिम्मेदारी संभाली। वाई सोशलिज्म नामक अपने चर्चित निबंध में जेपी ने महात्मा गांधी के ट्रस्टीशिप और मशीनों के बारे में उनकी अवधारणाओं की खुलकर आलोचना की थी। 1942 ई० के भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान गिरफ्तार किए जाने पर हजारी बाग जेल से भाग जाने और भूमिगत आंदोलन चलाने में उनकी महत्त्वपूर्ण भूमिका रही और इस घटना ने उन्हें भारतीय जनता के बीच अत्यंत लोकप्रिय बना दिया।
बाद में पकड़े जाकर लाहौर जेल में रहने के दौरान जेपी एक वैचारिक संक्रमण में से गुजरे। स्टालिन की नीतियों, सोवियत रूप में व्यक्तिगत स्वतंत्रता के हनन, रूस के अपने संकीर्ण राष्ट्रवाद और पूंजीवादी शक्तियों से उसकी सांठगांठ ने जेपी का सोवियत आदर्श से मोहभंग कर दिया। साथ ही, वह साध्य-साधन एकता के सवाल पर भी गंभीरता से विचार करने लगे। इस विचार-प्रक्रिया ने उन्हें तत्कालीन पश्चिमी समाजवादियों के बीच लोकप्रिय लोकतांत्रिक समाजवाद के सिद्धांत के प्रति आकर्षित किया। 1946-1947 ई० में लिखे अपने दो निबंधों समाजवाद की मेरी तस्वीर और समाजवाद की ओर में उन्होंने सर्वहारा के अधिनायकत्व की रूसी अवधारणा को पूरी तरह अस्वीकार करते हुए यह स्वीकार किया कि समाज-वाद के लिए हिंसक क्रांति न तो वांछनीय है और न अनिवार्य। लोकतंत्र में अपनी पूरी आस्था प्रकट करते हुए उन्होंने बड़े उद्योगों को राज्य के अंतर्गत लाने के लिए चुनाव के माध्यम से परिवर्तन की संभावना को स्वीकार किया। इस दौर में वह एक हद तक महात्मा गांधी के विचारों के प्रति भी सकारात्मक रुख अपनाने लगे।
इस बीच वह भूदान-आंदोलन के सिलसिले में विनोबा से भी मिले। सर्वोदय सिद्धांत ने उन्हें प्रभावित किया। 1952 ई० में पूना में आत्मशुद्धि के लिए 21 दिनों के उपवास के बाद जेपी ने द्वंद्वात्मक भौतिकवाद में अपनी आस्था पूरी तरह त्याग दी। उनका विचार बना कि भौतिकवाद में नैतिकता के लिए कोई तार्किक आधार नहीं है। 1954 ई० में उन्होंने अपने को विनोबा के आंदोलन में समर्पित करते हुए जीवन-दान की घोषणा कर दी। उनकी यह मान्यता बन गई कि सर्वोदय ही सच्चा समाजवाद है। सांख्य-दर्शन के त्रिगुणात्मक प्रकृति के सिद्धांत के आधार पर जेपी ने हिंसक प्रक्रिया के माध्यम वाले समाजवाद को तामसिक समाजवाद, राज्य-सत्ता द्वारा स्थापित समाजवाद को राजसिक समाजवाद तथा लोक-प्रक्रिया के माध्यम से सर्वोदय को सात्त्विक समाजवाद कहा। इस समय जेपी विनोबा के अनुकरण में लोक-शिक्षण को ही परिवर्तन का एक मात्र माध्यम मानते थे। भूदान-ग्रामदान आंदोलन के प्रयोगों में वह निरंतर सक्रिय रहे और इस बीच नागालैंड में शस्त्रविराम (1964 ई०), चंबल के दस्युओं के समर्पण (1972 ई०) तथा नक्सलवाद के रचनात्मक अहिंसक प्रतिरोध के लिए उनको मुशहरी प्रयोग (1970 ई०) उल्लेखनीय घटनाएं रहीं। इस बीच 1965 ई० में उन्हें मैगसेसे पुरस्कार से सम्मानित किया गया। अंतर्राष्ट्रीय मसलों पर भी वह निरंतर सक्रिय रहे। 1959 ई० में तिब्बत के सवाल पर दिल्ली में अंतर्राष्ट्रीय परिषद का आयोजन और बंगला देश के सवाल पर विश्व जनमत निर्माण के लिए उनकी यात्राएं बहुत सार्थक रही।
लेकिन, देश की आंतरिक स्थिति से भी वह बहुत चिंतित थे। श्रीमती गांधी की नीतियों को वह लोकतंत्र विरोधी मानने लगे थे और यह भी स्वीकार करने लगे थे कि संघर्ष के बिना केवल लोकशिक्षण से काम नहीं चल सकता है। इसीलिए उन्होंने छात्रों द्वारा आरंभ किए गए बिहार आंदोलन का नेतृत्व इस शर्त पर स्वीकार किया कि आंदोलन पूरी तरह अहिंसक रहेगा। बिहार आंदोलन देश भर में फैल गया और उसका दमन किए जाने के क्रम में स्वयं जेपी पर भी लाठी प्रहार किया गया। 1975 ई० में आपातकाल घोषणा के बाद उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया। 1977 ई० के चुनावों में विपक्षी दलों को एक कर जनता पार्टी के बनने और चुनावों में उसकी सफलता में जेपी की भूमिका सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण रही। जेल-यात्रा ने उन्हें बहुत अस्वस्थ कर दिया था। 8 अक्तूबर, 1979 ई० को पटना में उनका निधन हो गया।
विनोबा के सौम्य सत्याग्रह अर्थात् लोकशिक्षण के तरीके के अपर्याप्त होने तथा बिहार आंदोलन के दौर ने जेपी विचारों में बहुत परिवर्तन किया। उनकी मान्यता बनने लगी कि वर्ग-संघर्ष के बिना बुनियादी परिवर्तन संभव नहीं है, यद्यपि उसकी प्रक्रिया अहिंसक होनी चाहिए। इस प्रकार उन्होंने गांधी विचार में अब तक अछूत समझी जा रही वर्ग-संघर्ष की अवधारणा को अहिंसा के साथ जोड़कर एक नई शुरूआत की। इसी दौर में केवल राजनीतिक-आर्थिक परिवर्तन के बजाय समग्र परिवर्तन को दृष्टि-बिंदु में रखते हुए उन्होंने संपूर्ण क्रांति की अवधारणा प्रतिपादित की और उसके लिए अहिंसक संघर्ष एवं रचनात्मक कार्यक्रमों के समन्वय पर बल दिया-स्वयं महात्मा गांधी की भी यही प्रविधि तो रही थी।
संपूर्ण क्रांति की अवधारणा को पूरी तरह स्पष्ट करने और उसके लिए संगठित प्रयत्न करने का नेतृत्व करने का समय उन्हें नहीं मिला। लेकिन एक सपने के रूप में वह अब भी जीवित है। मोटे तौर पर संपूर्ण क्रांति को गांधी की अहिंसा, लोहिया की सप्तक्रांति तथा एम०एन० राय के नवमानववाद तथा लोक-समितियों द्वारा निर्वाचित प्रतिनिधियों पर देखरेख करने और दलविहीन विचार के समन्वित रूप में देखा जा सकता है। जेपी का विचार था कि केवल राजनीतिक या आर्थिक परिवर्तन पर्याप्त नहीं है। एक नए समाज की रचना के लिए जीवन के सभी पहलुओं में क्रांतिकारी समतामूलक और नैतिक बदलाव की आवश्यकता को समझना और उसके लिए प्रयत्नरत होना अनिवार्य है। संपूर्ण क्रांति को भी सात उपभागों में विभाजित किया गया : (1) सामाजिक; (2) आर्थिक; (3) राजनीतिक; और इसके साथ-साथ (4) सांस्कृतिक; (5) मानसिक; (6) नैतिक-आध्यात्मिक; और (7) शैक्षणिक क्रांति। गांधी, लोहिया और जयप्रकाशनारायण की विशेषता गणेश मंत्री इसी में मानते हैं कि व्यक्ति-जीवन में समता-स्वतंत्रता के नए मूल्यों को प्रतिष्ठित करने का अभियान क्रांति की सफलता तक नहीं रूकना चाहिए, वह क्रांति की प्रक्रिया का अविभाज्य अंग होना चाहिए। क्रांति के साथ-साथ चरित्र-निर्माण की यह शर्त गांधी, लोहिया और जयप्रकाश को उन लोगों से अलग करती है जो क्रांति को सत्ता के उलट-फेर के साथ जोड़कर उसके लक्ष्यों को सत्ता-परिवर्तन तक पूरी तरह स्थगित रखते हैं।
- नंदकिशोर आचार्य
नारीवाद : नारीवादी आंदोलन की नींव ही अहिंसा की इमारत पर खड़ी है। 8 मार्च को विश्वभर की महिलाएं अंतरराष्ट्रीय महिला वर्ष के रुप में मनाती हैं। उस वर्ष की घटना को ही यदि हम लें तो पाएगें महिलाएं कभी भी हिंसा का रास्ता नहीं अपनातीं, बल्कि उनके ऊपर हिंसा की जाती है। 8 मार्च 1857 ई० के दिन न्यूयार्क में कपड़ा मिलों में काम करने वाली मजदूर औरतों ने काम के घंटे 16 से घटाकर 10 घंटे करने की मांग को लेकर इतिहास में पहली बार महिला ट्रेड यूनियनों का प्रदर्शन था, जिसे तत्कालीन पुरुष ट्रेड यूनियन नेताओं ने भी पसंद नहीं किया। किसी भी समर्थन के अभाव में इस आंदोलन को पुलिस ने कुचल दिया। इस अहिंसात्मक प्रदर्शन पर हिंसा का प्रयोग सत्ताधारी वर्ग द्वारा करवाया गया। यह आंदोलन महिला आंदोलन के इतिहास में महिला मजदूर औरतों द्वारा संगठित प्रथम प्रदर्शन था। इसलिए इस दिन को ही आगे चलकर महिलाओं ने महिला वर्ष के रुप में मनाने की ठानी। इसके बाद 8 मार्च 1904 ई० में फिर से न्यूयार्क में जूते बनाने वाली कंपनियों से जुड़ी औरतें तथा रेडिमेड कपड़े बनाने वाली औरतों ने काम के घंटो को 16 से घटाकर 10 घंटे की मांग को लेकर मोर्चा निकाला। इस विशाल और शांतिप्रिय मोर्चे पर पुलिस ने लाठियां बरसाई, जूतों से मारा, कई औरतों को गिरफ्तार कर उन पर झूठे आरोप लगाकर उन्हें जेल में बंदी बनाकर रख गया। इस आंदोलन में भी महिलाएं अहिंसक रुप में ही देखी गईं। इसके बाद धीरे-धीरे औरतों में जागरुकता आने लगी। उन्होंने 8 मार्च 1908 ई० को इस रुप में मनाने की सोची कि इस दिन वे 8 मार्च 1857 ई० की याद में तथा अपनी मांगों को लेकर मोर्चा निकालेंगी। उन्होंने एक विशाल रैली का आयोजन किया, जिसमें न्यूयार्क की सुई उद्योग से जुड़ी कामगार औरतें चमड़ा उद्योग तथा रेडिमेड कपड़ों को बनाने वाली औरतों ने मिलकर एक विशाल रैली निकाली, जिसमें मताधिकार की मांग, बाल-मजदूरी बंद करने, घटिया बियर की दुकानें बंद करने की मांग को लेकर प्रदर्शन किया। 15,000 औरतों का मोर्चा न्यूयार्क की सड़कों पर जब नारेबाजी करते हुए निकला तो सभी इस मोर्चे को देखकर आश्चर्यचकित रह गए। मोर्चे के बाद समाजवादी पार्टी की औरतों ने विमेंस नेशनल कमिटी की स्थापना की और तय किया कि इसी बैनर तले महिला मताधिकार की मांग को लेकर संघर्ष किया जाएगा, साथ ही, 8 मार्च को संघर्ष दिवस की याद में महिला दिवस के रुप में मनाएंगें।
पश्चिम के देशों में इस बैठक के बाद नारी स्वतंत्रता के संघर्ष का विधिवत आरंभ महिला मताधिकार की मांग से हुआ है, जिसका एक सुदीर्घ इतिहास है। इंग्लैंड में 1897 ई० में नेशनल यूनियन ऑफ सफरेज सोसायटी की स्थापना हुई। अपने हक के लिए बरसते पानी में, कीचड़ में पैर फंस जाने पर भी इंग्लैंड की महिलाएं पार्लियामेंट के सामने मताधिकार की मांग करने पहुंची, परंतु परिणाम उल्टा निकला। ऐमेलीन पेकहेर्स्ट और उनकी पुत्रियों को जेल की हवा खानी पड़ी। इंग्लैंड में ऐसा है कि यदि किसी मांग को पार्लियामेंट में न सुना जाता हो तो वे राजमहल में अपनी मांग मंगवाने के लिए अपील कर सकती हैं। इंग्लैंड की महिलाओं ने सोचा कि पार्लियामेंट में उनकी सुनवाई नहीं हो रही है तो क्यों न वे राजमहल में अपील करें। जब महिलाएं मोर्चा लेकर राजमहल पहुंची तब ओमिली डेविड्स नामक महिला को सबक सिखाने के लिए उन पर, अश्वारोही सेना ने आक्रमण किया और घोड़े की टाप से वे रौंद दी गई। मताधिकार आंदोलन के लिए उन्होंने अपने जीवन का बलिदान दे डाला। यहां पर भी हम देख सकते हैं कि किस तरह महिलाओं पर हिंसा की गई। इसी तरह अमेरिका में भी मताधिकार आंदोलन के दौरान कई बार औरतों पर हिंसात्मक कार्यवाही सरकार द्वारा की गई। फ्रांस में जिसे क्रांति का देश कहा जाता है, वहां भी महिलाओं पर सरकार द्वारा हिंसा की गई।
पश्चिम के देशों में चूंकि औद्योगिक क्रांति पहले हुई, इस कारण नारीवादी आंदोलन भी पहले पश्चिम में ही शुरु हुआ। धीरे-धीरे औरतें मताधिकार के लिए लड़ते-लड़ते अपने ऊपर हो रहे अत्याचार को भी समझने लगीं। इसी दौरान प्रथम विश्व युद्ध शुरु हो गया था। मताधिकार आंदोलन के लिए लड़ने वाली महिला समूहों में फूट पड़ गई। कुछ समूह विश्वयुद्ध की तरफदारी करने में लगे, तो कुछ मताधिकार आंदोलन से जुड़े रहे। युद्ध के दौरान वे संपत्तियां ताश के पत्तों की तरह ढ़ह गईं, जिन्हें इंसान ने अपने श्रम से बनाया था। चारों ओर महामारी, भूखमरी, गरीबी की भयावहता व्याप्त थी। रिश्ते-नाते बिखर गए। इन सब अति दुखद अनुभवों से गुजर रही स्त्रियों ने तब विश्वशांति का परचम लहराया था।
मताधिकार आंदोलन के बाद बुर्जुआ महिला आंदोलन की औरतें केवल संभ्रांत वर्ग की महिलाओं के हितों का प्रतिनिधित्व कर रही थीं, वहीं श्रमिक वर्ग की औरतों ने, जो समाजवादी महिला आंदोलन की जनक थी, मेहनतकश महिलाओं को शोषण के खिलाफ लड़ने के लिए मार्गदर्शन का काम किया। इस धारा ने पितृसत्ता के खिलाफ संघर्ष में और शोषण-व्यवस्था के खिलाफ समग्र संघर्ष में औरतों को संगठित किया। रुस, चीन, वियतनाम, उ० कोरिया, मंगोलिया, रुमानिया, अल्बेनिया, बल्गेरिया, क्यूबा, हंगली, पौलेंड, पूर्व जर्मनी इत्यादि देशों में समाजवादी व्यवस्था कायम की गई, जहां स्त्री-पुरुष समानता पर आधारित शोषणविहीन समाज की स्थापना की गई। पृथ्वी के लगभग आधे हिस्से पर समाजवादी विचारधारा का प्रभुत्व था, इस कारण 20 वीं सदी के शुरु से लगभग अंत तक इस ताकत ने दुनियां में हिंसा न फैले, विश्वयुद्ध न हो, इसका पूरा-पूरा ख्याल रखा। काफी हद तक ये शक्तियां दुनियां में युद्ध न होने देने के लिए कारगर भी साबित हुईं। दूसरी ओर, दुनियां के पूंजीवादी देश थे, जिनमें इंग्लैंड, अमेरिका और फ्रांस मुख्य भूमिका में थे, उन्होंने तीसरी दुनियां के देशों को गुलाम बना रखा था और जहां गुलामी होती है वहां हिंसा तो की ही जाती है। हिंसा के जोर पर ही देशों को, कौमों को, स्त्री-पुरुष, बच्चों को दबाया जाता है।
द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान नाजी भस्मासुर के विरोध में युद्ध-विरोधी व नाजीवाद विरोधी अंतरराष्ट्रीय महिला समिति की स्थापना की गई थी। इस समिति की समाजवादी विचारधारा की औरतों ने अपनी जान पर खेलकर नाजियों का विरोध किया था। दूसरे विश्वयुद्ध की मार से निकलने के बाद जर्मन औरतों ने अण्वस्त्र विरोधी मुहिम तथा विश्वशांति के लिए बड़े पैमाने पर संघर्ष किया था। युद्ध के भयानक विध्वंस तथा अमानवीय अनुभवों से गुजरी हुई ब्रिटिश स्त्रियां युद्ध समाप्ति के लिए, शस्त्रास्त्र स्पर्धा से दूर रहने के लिए, विश्वशांति के लिए लगातार काम करती रहीं। फ्रांस की औरतें भी दूसरे विश्वयुद्ध के बाद विश्वशांति स्थापित करने में जुट गईं। लाखों लोग मरे, करोड़ों बेघर, अनाथ हो गए। संपत्ति का भयंकर नुकसान हुआ। फ्रांस के लोगों का जीवन ध्वस्त हो गया।
1950 ई० में उन्होंने यूनियन ऑफ फे्रंच विमेन नामक संस्था बनाई और विश्वशांति की मुहिम में जुट गई। दूसरे विश्वयुद्ध के खिलाफ जापान की आंखों ने जो तबाही देखी, भोगी, वह दुनिया के किसी देश की औरतों ने नहीं देखी। हिरोशिमा और नागासाकी पर जो एटम बम फेंके गए, उसके परिणामस्वरुप जो हाहाकार मचा व जो विध्वंस हुआ तथा उसके कारण जो दूरगामी परिणाम निकले, उसकी त्रासदी आज भी जापानी जनता भोग रही है। जापानी औरतों ने विश्व भर में अण्वस्त्र बंदी आंदोलन छेड़ रखा है।
द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद वे देश, जो इंग्लैंड, अमेरिका, फ्रांस, पुर्तगाल, डच, हॉलैंड जैसे देशों के गुलाम थे, आजाद हुए। इन देशों ने गुलामी की बेड़ियों से आजाद होने के लिए लंबे संघर्ष किए थे। इन देशों में जो स्वतंत्रता-संग्राम हुए, उनमें पुरुषों के साथ-साथ स्त्रियां भी शामिल थी। आजादी के बाद इन औरतों ने अपने अस्तित्व व अस्मिता के लिए लड़ाइयां लड़ीं। इन देशों की लाखों महिलाओं के खून, पसीने, आंसुओं, सपनों, विचारों, शक्तियों, संघर्षों और आंदोलनों से अपनी मांगें रखी। महिलाएं अपने ऊपर हो रहे अन्याय, हिंसा व शोषण को आंदोलन की भट्टी में भस्मीभूत करने का प्रयास कर रही है। महिलाएं विभिन्न प्रसंगों में अर्थपूर्ण सामाजिक, राजनीतिक तथा आर्थिक परिवर्तन का बीज अहिंसात्मक तरीके से बो रही है।
1930 ई० के बाद पश्चिम के देशों में नारी आंदोलन में अधिक सक्रियता नहीं दिखाई दी। 1960 ई० के आस-पास महिलाओं में नई चेतना जाग्रत हुई। वहां की महिलाओं ने देखा कि कानूनी हक तो मिला है, पर सामाजिक दर्जा नहीं मिला है। राजनीति में महिलाओं की भागीदारी तो स्वीकार की गई है, पर हकीकत में महिला प्रतिनिधि काफी कम हैं। रोजगार के क्षेत्र में महिलाओं की संख्या काफी कम हैं, समान काम के लिए समान वेतन के सिद्धांत कागजी पन्नों तक सीमित हैं। कामकाजी औरतें परिवार का खर्च उठाने के बावजूद घरेलू कार्यों का अधिकांश बोझ उठा रही थीं। महिलाओं को ही अक्सर सामूहिक हिंसा का शिकार बनना पड़ता है। इस प्रकार के अनेक प्रश्नों से पश्चिम के नारी मुक्ति आंदोलन का दूसरा चरण बहुआयामी शोषण के विरुद्ध संघर्ष के रुप में उदित हुआ। इसी बीच सीमोन द बोउआ की विश्व चर्चित पुस्तक द सेकेंड सेक्स 1949 ई० में प्रकाशित हो चुकी थी। इस पुस्तक ने नारी आंदोलन को वैचारिक परिप्रेक्ष्य प्रदान किया। 1963 ई० में अमेरिकी लेखिका बेट्टी फ्राइडन की पुस्तक द फेमेनिन मिस्टिक प्रकाशित हुई। इस पुस्तक ने पश्चिम के देशों में तहलका मचा दिया। इस पुस्तक द्वारा स्त्री जागृति आई, विमेन लिब नाम से पहचाने जाने वाली प्रवृत्ति सामने आई। इन्होंने नेशनल आर्गनाइजेशन ऑफ विमेन की स्थापना 1966 ई० में की तथा बेट्टी फ्राइडन इसकी प्रथम अध्यक्ष बनी। इन लोगों ने इतिहास से ऐसे नाम हटा दो, जिनमें केवल पुरुषों का बोलबाला हो, लैगिंग भेदभाव बंद करने, गर्भपात के अधिकार की मांग, समान काम के लिए समान वेतन की मांग, जैसे कई मांगें शांतिपूर्ण तरीके से रखी। इन मांगों के दौरान कहीं भी महिला संगठन की औरतों ने हिंसा नहीं की। इस पूरे आंदोलन के दौरान अहिंसक प्रवृत्ति ही दिखाई दी। अमेरिका में 60 के दशक में ही ब्लैक फेमनिज्म का जन्म हुआ। नस्लवाद तथा रंगभेद के खिलाफ मार्टिन लूथर किंग अहिंसात्मक तरीके से अपना आंदोलन चला रहे थे। मानव अधिकार आंदोलन की जनक रोजा पार्क को महात्मा गांधी की तरह ही बस में से इसलिए उतार दिया गया था कि वे गोरे मुसाफिर के आने पर अपनी सीट से उठी नहीं। अमेरिका में काले लोगों को बस की सीट पर तब तक बैठने का अधिकार था, जब तक कोई गोरा मुसाफिर न आ जाए। रोजा पार्क काली औरत थी तथा पोशाक कर्मचारी यूनियन की बड़ी नेता थी। उन्हें बस से उतर कर जेल में इस बात के लिए सजा काटनी पड़ी। उनके समर्थन में ब्लैक लोगों ने अहिंसात्मक तरीके से ब्लैक सिविल राइट्स मूवमेंट को जारी रखा। उसके बाद देशभर में वियतनाम युद्ध के खिलाफ आंदोलन हुए, जिसमें महिलाओं ने अमेरिका द्वारा वियतनाम में किए जा रहे युद्ध के खिलाफ आंदोलन छेड़ा। हजारों की संख्या में औरतें सड़कों पर युद्ध के खिलाफ उतरीं। अहिंसा अक्सर महिला आंदोलन के मूल में रहा।
जब हम भारत की, खासकर महिला आंदोलन की, बात करते हैं तो पाते हैं कि 19वीं सदी के उत्तरार्ध में जब बाल-विवाह, सती-प्रथा, बहु-विवाह, पर्दा-प्रथा, अनमेल-विवाह जैसी अनेक अमानुषिक दुष्प्रवृत्तियों के खिलाफ समाज सुधारकों ने जो आंदोलन छेड़े तो वे स्त्री पर हो रहे सामाजिक हिंसा के खिलाफ छेड़े गए अहिंसक आंदोलन थे। राजा राममोहन राय का ध्यान सबसे पहले स्त्रियों की दयनीय स्थिति पर गया। उसके बाद ईश्वरचंद्र विद्यासागर, महात्मा ज्योतिबा फूले, कर्वे पेरियार आगारकर, पंडिता रमाबाई, ऐनी बेसेंट, मार्गरेट नोबल जैसी अनेकानेक समाज सेवकों ने औरतों के सुधार के लिए काम किया। उसके बाद 1857 ई० की क्रांति के दौरान कुछ रानियों, बेगमों को स्वतंत्रता संग्राम में लड़ते हुए देखा गया, जिसमें झांसी की रानी, जीनत महल, रानी चेनन्मा, बेगम हजरत महल प्रमुख थीं। भारत में उसके बाद राष्ट्रीय स्वतंत्रता आंदोलन की शुरुआत हुई। स्वदेशी आंदोलन में औरतों ने बढ़-चढ़कर हिस्सा लिया। बंग-भंग आंदोलन, जलियांवाला बाग हत्याकांड, विदेशी वस्तु बहिष्कार आंदोलन, स्वदेशी प्रचार आंदोलन, होमरुल आंदोलन, दारूबंदी, इन सभी आंदोलनों में औरतें भाग लेती देखी गईं। स्वदेशी आंदोलन में महिलाओं ने जमकर हिस्सा लिया। 1920 ई० के बाद जब भारत की राजनीति पर महात्मा गांधी का रंग चढ़ा तब औरतों की इस देश में जितनी भागीदारी देखी गई, वह भारत के आधुनिक काल के इतिहास में कभी नहीं देखी गई थी। वरिष्ठ गांधीवादी समाज सेविका रमाबेन रुइया का कहना है कि-गांधीजी क्योंकि अहिंसा के पुजारी थे, इसलिए उनके अहिंसात्मक आंदोलन में हमारे घरों के पुरुष हमें जाने देते थे। उनके आंदोलन की खासियत यह थी कि वे महिलाओं के दिलों को छू लेते थे। वे आंदोलन में महिलाओं को इसलिए भी जुटा सके, क्योंकि उन्हें पुरुषों के रवैये का ध्यान था। गांधीजी के व्यक्तित्व की खासियत थी कि वे न केवल महिलाओं में विश्वास जगाने में सफल थे, वरन् महिलाओं के संरक्षकों पति, पिता, पुत्र, भाइयों का विश्वास भी उन्हें प्राप्त था। उनके नैतिक आदर्श इतने ऊंचे थे कि जब महिलाएं बाहर आकर राजनीति के क्षेत्र में काम करती थी तो उनके परिवार के सदस्य उनकी सुरक्षा के बारे में निश्चिंत रहते थे। गांधीजी के बारे में मधु किश्वर कहती हैं कि-गांधीजी ने महिलाओं को सार्वजनिक जीवन में एक नया आत्मसम्मान, एक नया विश्वास और एक नई आत्म छवि दिलाई। राष्ट्रीय आंदोलन में गांधीजी के आने से राष्ट्रीय स्तर पर महिलाओं के विषय में सोच बदली। गांधीजी ने महिलाओं को एक वस्तु के नजरिए से नहीं देखा कि उनका सुधार किया जाए या उनके साथ ज्यादा मानवीय व्यवहार किया जाए, बल्कि उन्हें एक जागरुक नागरिक और अपने भाग्य के निर्माता के रुप में देखा। इस तरह हम देखते हैं कि गांधीजी के नेतृत्व में हुए सत्याग्रह आंदोलनों-सविनय अवज्ञा आंदोलन, नमक सत्याग्रह, भारत छोड़ो आंदोलन आदि-में हजारों की संख्या में स्त्रियां जेल गईं। भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में असहयोग आंदोलन के दौरान सही मायने में गांधीजी के नेतृत्व में महिलाओं का आंदोलन आगे बढ़ा। गांधीजी की आवाज सुदूर गांवों तक पहुंची और देश की आजादी के उद्देश्य को लेकर महिलाओं ने रातों-रात पर्दे को तिलांजलि दे डाली।
गांधीजी के अहिंसात्मक आंदोलन के साथ-साथ ही उस समय कई क्रांतिकारी पार्टियां भी थी जो हिंसात्मक तरीकें से देश को आजाद करवाना चाहती थी, किंतु इन क्रांतिकारी संगठनों का हथियार उठाकर लड़ना भी मात्र एक राजनैतिक उद्देश्य की प्राप्ति के लिए था। इन क्रांतिकारी संगठनों ने मात्र रणनीति के तहत हिंसा का प्रयोग किया। अंबेडकर के नेतृत्व में, पेरियार के नेतृत्व में भी जितने भी आंदोलन हुए, वे सभी अहिंसात्मक तरीके से ही हुए, बल्कि इन आंदोलनों पर ऊंची जाति के लोगों ने हिंसा की।
स्वतंत्रता के बाद महिलाओं के जितने भी आंदोलन हुए, वे सभी अहिंसात्मक ही थे। शहरी औरतों ने समान काम के लिए वेतन, प्रसूति की छुट्टी के लिए, पालना घर के लिए आंदोलन किया, उत्तराखंड में चिपको आंदोलन हुआ, महाराष्ट्र में मंहगाई के विरोध में आंदोलन हुआ तो बेलन हाथ में लेकर औरतों ने मोर्चा निकाला, बोध गया में जो आंदोलन हुए वे भी मोर्चा, प्रदर्शन के रास्ते पर चलकर हुए। नवनिर्माण आंदोलन जय प्रकाश नारायण के नेतृत्व में हुआ, जो स्वयं गांधी, लोहिया के विचारों से प्रभावित थे, उन्होंने भी अहिंसात्मक तरीकें से आंदोलन किया, जिसमें हजारों की संख्या में छात्राओं ने भाग लिया था। 1960-1975 ई० के बीच देश में कई राजनैतिक आंदोलन हुए जिसमें औरतों की भागीदारी काफी मात्रा में थी। इन्हीं औरतों ने आधुनिक नारीवादी आंदोलन को जन्म दिया जिसमें बलात्कार, दहेज, घरेलू हिंसा, गर्मजल परीक्षण, लिंग परीक्षण, पर्सनल लॉ, परित्यक्ता आंदोलन, सती-प्रथा, शराबबंदी जैसे अनेकों प्रश्नों पर स्त्रियों ने संघर्ष किए। कानून बदलवाए, पर इन सभी आंदोलनों में मोर्चा-प्रदर्शन जैसे हथियारों का प्रयोग कर औरतों ने अपनी मांगे रखी। चिपको आंदोलन भी अहिंसात्मक तरीके से हुआ। उन पर हिंसा शासनतंत्र द्वारा की गई।
कुछ छुटपुट घटनाओं के बावजूद महिला आंदोलन मुख्य रुप से अहिंसात्मक ही रहा। महिलाओं ने हिंसा को कभी स्वीकार नहीं किया। महिलाएं चूंकि मां है, जननी है, सृष्टि का निर्माण करने वाली हैं, इस कारण वे अधिकतर स्वभाव से ही अहिंसक होती है। संपूर्ण मानव जाति के कुछ महत्त्वपूर्ण पड़ाव महिलाओं की रचनात्मकता पर ही आधारित थे। महिलाओं ने ही सर्वप्रथम स्थाई इकाइयां बनाई। मां-बच्चे की सामाजिक इकाई। मानव जाति को जानवरों के स्तर से अलग उठाने में महिलाओं की अहम् भूमिका रही। खाना पकाना, कपड़ा बनाना, घर बनाना, मिट्टी के बर्तन बनाना जड़ी-बूटी द्वारा उपचार करना, पशु-पालना, ये सब महिलाओं की देन रही। खेती-बाड़ी की खोज शुरुआत में महिलाओं ने ही की। इसके बाद पारिवारिक जीवन पनपने लगा। पर जैसे-जैसे महिलाओं पर पुरुषों का आधिपत्य स्थापित होता गया, उन पर भी पुरुषों ने हिंसा करना शुरु किया। आज महिला आंदोलन हिंसा के खिलाफ अभियान में सक्रिय रणनीति अपना रहा है ताकि हिंसा के कारणों और परिणामों को समझा जा सके।
- कुसुम त्रिपाठी
नीतिवाक्यामृत : दिगंबर जैन आचार्य सोमदेव सूरि का सहस्राब्दी पूर्व रचित नीतिवाक्यामृत ऐसा सार ग्रंथ है, जिसमें राज-व्यवस्था, युद्ध में जनता व राजा की भूमिका, मंत्रिपरिषद, सेना अथवा बल, दुर्ग, अंतर्राष्ट्रीय संबंध, करारोपण, न्याय-व्यवस्था आदि का विशद वर्णन है। जैनाचार्य ने अहिंसा को परमधर्म बताते हुए स्पष्ट किया कि अहिंसा धर्म का पालन करने वाले व्यक्ति के लिए किसी भी प्रकार के व्रत की आवश्यकता नहीं है। जो व्यक्ति प्राणियों से द्रोह करता है, उसकी कोई भी शुभ क्रिया कल्याणकारक नहीं हो सकती। जो व्यक्ति हिंसा रहित मनवाले हैं, उनका व्रतरहित चित्त भी स्वर्ग प्राप्ति के लिए समर्थ है-सर्व सत्त्वेषु हि समता सर्वाचरणानाम् परमम् चरणम्। नखलु भूतद्रहां कापि क्रिया प्रसूते श्रेयांसि। परत्राजिद्यांसुमनसां व्रत रिक्तमपि चित्तं स्वर्गाय जायते।
आचार्य सोमदेव की दृष्टि में प्राणीमात्र की सेवा करना तथा सबसे प्रेम करना ही महान् धर्म है, पुरुषार्थ है। जो व्यक्ति प्राणियों से द्रोह करते हैं, वे चाहे कितने ही शुभ कर्म करें, किंतु उनका फल उन्हें प्राप्त नहीं हो सकता। उनकी समस्त शुभ क्रियाएं भी अग्नि में डाले गए घृत के समान व्यर्थ ही होंगी। राज-व्यवस्था की चर्चा करते हुए राज के लिए आदेश है कि वह प्रत्येक कार्य मंत्रियों के परामर्श से करे और कभी दुराग्रह नहीं करे। वे स्वदेशवासियों को ही उच्च पदों पर नियुक्त करने के पक्ष में है। राजा को अपनी प्रजा का पालन पुत्रवत् करना चाहिए, अपराध के अनुकूल दंड देना चाहिए। पापियों का निवारण करने में राजा पाप का भागी नहीं होता। युद्ध तभी आवश्यक है, जब अन्य सभी उपाय निष्फल हो जाते हैं। शक्तिशाली से युद्ध करने की अपेक्षा संधि करना ही नीति-युक्त है। युद्ध में मारे गए सैनिकों के परिवारों का पोषण करना राजा का धर्म है।
आचार्य श्री ने त्रिवर्ग-धर्म-अर्थ और काम का उपदेश दिया है। त्रिवर्ग का समरूप से सेवन करना चाहिए। धर्म के बाद अर्थ पुरुषार्थ प्रयोजनों को सिद्ध करने वाला है। संसार में ऐसा कोई भी कार्य नहीं, जो धन से पूर्ण नहीं हो सके। अर्थ, व्यक्ति की समस्त कामनाओं को पूर्ण करने में समर्थ है। बुद्धिमान व्यक्ति व राजा का कर्तव्य है कि वह अप्राप्त धन की प्राप्ति, प्राप्त की रक्षा तथा रक्षित की वृद्धि करे। उसको आय के अनुकूल ही व्यय करना चाहिए। राजकोष ही राज्य का प्राण है। कोष निर्माण में प्रजा की स्थिति पर दृष्टि रखना जरूरी है। प्रजा की पीड़ा से कोष पीड़ित होता है। सोमदेव दलितों का समाज में महत्त्वपूर्ण स्थान मानते हुए सुरक्षा प्रदान करते हैं तथा ज्ञान का मार्ग सूर्यदर्शन के समान सबके लिए खुला रखने का आदेश देते हैं।
अर्थ को धर्म के समकक्ष मानते हुए आचार्य सोमदेव ने माना कि अर्थ का जो संचय अहिंसक होता है, वही कल्याणकारी है। उनकी दृष्टि में लेन-देन में झूठ का व्यवहार देश को अन्य देशों की दृष्टि में हीन व अविश्वसनीय बनाता है। इससे राज्य के व्यापार को महान क्षति होती है। जहां व्यापारी मनमाना मूल्य बढ़ाकर वस्तुओं को बेचते हैं और कम से कम मूल्य में खरीदते हैं, वहां की जनता दरिद्र हो जाती है। अन्न, वस्त्र और स्वर्ण आदि पदार्थों का मूल्य देश, काल और पदार्थों के ज्ञान की अपेक्षा से होना चाहिए। राजा का कर्तव्य है कि देश-कालादि की अपेक्षा का ज्ञान कर वस्तुओं का मूल्य निर्धारित करे, जिससे व्यापारी मूल्य बढ़ाकर प्रजा को निर्धन नहीं बना सकें।
आचार्य सोमदेव के अनुसार अर्थ-व्यवस्था का सुचारु होना अहिंसक समाज रचना के लिए आवश्यक है। अन्न-संग्रह करने वालों को राष्ट्रकंटकों की सूची में रखा है और उस पर पूर्ण नियंत्रण रखने का राजा को आदेश दिया है। जो राजा अन्नादि का संकट पैदा करने वालों की उपेक्षा करता है, उसका राज्य ही नष्ट हो जाता है। आचार्य का कथन है कि राजा को धान्य एवं लवण का संग्रह रखना चाहिए, क्योंकि दो वस्तुएं ही संकट काल मे प्रजा और सेना को जीवित रखती हैं। अन्न-संग्रह और उसका वितरण ही सब कार्यों में उत्तम है। उन्होंने सेना तथा बल के प्रयोजन को लेकर स्पष्ट किया है कि इनका प्रयोजन परराष्ट्र और शत्रु से अनुकूल व्यवहार के लिए होना चाहिए। बाहरी कोप से आंतरिक कोप अधिक कष्टदायक होता है। सैनिक संगठन का उद्देश्य प्रजा का दमन करना नहीं है, अपितु देश रक्षा तथा समाजकंटकों से सामान्यजन की रक्षा करना है। सैनिक शक्ति का उपयोग प्रजा के अपराधों के अभिप्राण से नहीं करना चाहिए। आचार्य सोमदेवसूरि ने नीति-वाक्यामृत में अहिंसा धर्म को परम-पुरुषार्थ मानते हुए त्रिवर्ग-धर्म-अर्थ-काम के समान उपयोग-उपभोग का भी निर्देश दिया है।
- विनयकुमार पापड़ीवाल
नुंद ऋषि (शेख नुरुद्दीन वली) : नुंद ऋषि या शेख नुरुद्दीन (1377-1438 ई०) कश्मीरी भाषा के कवि एवं प्रसिद्ध सूफी संत हैं, जिन्हें शेख-उल-आलम, अलमदारे-कश्मीर, शम्सुल आफरीन (ज्ञानियों का सूर्य) आदि नामों से भी पुकारा जाता है। उन्हें कश्मीर की ऋषि-परंपरा (सूफी संतों की परंपरा) का संस्थापक माना जाता है।
नुंद ऋषि 21 वर्ष की उम्र में घरबार छोड़कर एक गुफा में जाकर रहने लगे थे। उनकी मां ने उन्हें वापस लाने की बहुत कोशिश की, पर वे सफल नहीं हुई। बारह वर्ष बाद जब वे बाहर निकले तो उन्होंने भगवान बुद्ध के बारे में दो हजार शेरों की एक लंबी नज्म लिखी, जो अब अप्राप्य है।
कश्मीर में इस्लाम के प्रसार से पूर्व हिंदू (मुख्यतया शैव) और बौद्ध प्रभाव दीर्घकाल तक रहा, इसलिए वहां की सभ्यता में तीनों धर्मों का सम्मिलित प्रभाव एवं एक-दूसरे के संप्रदायों के प्रति सम्मान की परंपरा पाई जाती है। नुंद ऋषि ने अपना जीवन कश्मीर के विभिन्न इलाकों में घूमते हुए गुजारा। जीवन के अंतिम सात वर्ष उन्होंने रुपावन में गुजारे, जहां उन्होंने अंतिम सांस ली। यहीं से उनकी मय्यत चरारा-शरीफ लाई गई और वहीं उनका मकबरा बनाया गया, जहां हर साल अक्तूबर के महीने में उर्स मनाने के लिए बड़ी संख्या में श्रद्धालु जमा होते हैं।
नुंद ऋषि की शाइरी को कश्मीरी संस्कृति की आत्मा कहा जा सकता है। उनके लेखन और विचारों का गहरा प्रभाव देखने को मिलता है। उनकी शाइरी छोटी-छोटी नज्मों में है, जिन्हें शिर्की कहा जाता है। सामाजिक और नैतिक सेवाओं के लिए कश्मीरियों के मन में उन्हें बुलंद मुकाम हासिल है। नुंद ऋषि को कश्मीर की सर्वधर्म समभाव परंपरा का प्रतीक समझा जाता है। उनका संदेश सुल्हे-कुल का संदेश है। मुसलमान होने के बावजूद वह मांसाहार नहीं करते थे-शाकाहार में भी केवल पौधों से झड़े हुए पत्ते खाकर गुजारा करते थे-अधिकांश कश्मीरी ऋषियों का यही तरीका रहा।
उनकी शाइरी में सब्र, कनाअत (संतोष), गुस्से से इज्तिजाब (दूरी या परहेज), बर्दाश्त (सहनशीलता) और मानव-मैत्री की शिक्षा मिलती है। उनकी नजर में नफ्स (वासना) का काबू से बाहर होना ही तमाम बुराईयों की जड़ है। उनका लेखन नैतिक शिक्षा का ऐसा खजाना है, जिसे कश्मीरी कुरआन कहा जाता है, जैसे मौलाना रूम के लेखन को पहलवी कुरआन की संज्ञा प्राप्त है।
नुंद ऋषि अपने कलाम में नफ्स और कामनाओं को काबू में रखने का उपदेश करते हैं। तशद्दुद (हिंसा) से बचने का यही तरीका है कि मनुष्य अपनी वासना और कामना को नियंत्रण में रखे। वह गुस्से को काबू में रखने का उपदेश भी करते हैं-अधिकांशतः गुस्सा कामनापूर्ति न होने की वजह से ही आता है और हिंसा गुस्से का नतीजा है। कुरआने-करीम में भी कहा गया है कि गुस्से पर जब्त रखने वालों और दूसरे की गलतियों को माफ कर देने वालों को अल्लाह बहुत पसंद करता है। नुंद ऋषि बार-बार गुस्सा न करने का उपदेश करते हैं-और मुसलमान को खास तौर पर इससे दूर रहने का उपदेश करते हैं। अपनी शाइरी में वह कहते हैं : गुस्सा करने से तुम्हारी नेकियां जाया होंगी। गुस्सा तुम्हारी इबादत और अमल को जलाकर रख देगा। गुस्सा तुम्हारे खजाने को लूटेगा, इसलिए मुसलमान को कभी गुस्सा नहीं करना चाहिए। एक और कविता में वह लिखते हैं : जो कुछ दूसरों को दोगे, वही तुम्हारे अपने लिए होगा।
नुंद ऋषि ने तकब्बुर (अकड़) और गरुर (घमंड) से भी दूर रहने की सलाह दी और मानव-मैत्री अपनाने के लिए कहा है। ये ऐसी शिक्षाएं हैं जो इंसान को हिंसा से बचाती और अदमतशद्दुद (अहिंसा) की प्रतीक बन जाती हैं।
मानव-मैत्री, घंमड न करना, दूसरों के काम आना आदि शिक्षाएं नुंद ऋषि की शिक्षाओं के केंद्र में हैं; इसी तरह पराई औरत पर बुरी निगाह डालना, समाज में बुरी रस्मों को बढ़ावा देना, सांप्रदायिक पक्षपात, भाईचारे से काम न लेना आदि नुंद ऋषि की दृष्टि में ऐसे दुर्गुण हैं जो इंसान की नेकियों को जाया कर देते हैं।
नुंद ऋषि का लेखन पहले तो सीना-ब-सीना यानी मौखिक परंपरा से सुरक्षित रहा, फिर कुछ ऋषिनामों में सुरक्षित कर लिया गया। उसके आधार पर बाद में कई बार प्रकाशित किया गया। हाल ही में (अगस्त, 2009 ई०) असदुल्लाह आफाकी ने कल्लियाते-शेखउल आलम नाम से उनका समग्र साहित्य प्रकाशित किया है।
- प्रो० मुहम्मद जमान आजुर्दा
नेमिनाथ (अरिष्टनेमि) : सभी जैन तीर्थंकरों के जीवनवृत्त अहिंसा की भावना और अहिंसक आचरण से ओत-प्रोत हैं; किंतु, सहज करुणा की भावना के उद्वेलन से तत्काल जिसके जीवन में दिशा परिवर्तन हुआ, वह विशिष्ट नाम है अरिष्टनेमि, जो जैन परंपरा के बाईसवें तीर्थंकर भगवान नेमिनाथ के नाम से अधिक जाने जाते हैं।
अरिष्टनेमि उन तीन जैन तीर्थंकरों में हैं, जिनका उल्लेख प्राचीन जैनेतर ग्र्रंथों में अहिंसा मार्ग के प्रतिपादक के रूप में मिलता है। अरिष्टनेमि का उल्लेख ऋग्वेद में चार स्थानों पर मिलता है। प्रसिद्ध बौद्ध विद्वान धर्मानंद कौसांबी छांदोग्य उपनिषद के घोर आंगिरस ऋषि को अरिष्टनेमि मानते हैं। डॉ० राधाकृष्णन के अनुसार ऋषभ, अजित और अरिष्टनेमि का उल्लेख यजुर्वेद में तीर्थंकर के रूप में हुआ है। महाभारत के शांति पर्व में अरिष्टनेमि द्वारा राजा सगर को मोक्षमार्ग के उपदेश का उल्लेख है।
जैन पौराणिक कथाओं के अनुसार इस विभूति का जन्म हरिवंश में हुआ था। प्राचीन काल में यमुना नदी के तट पर शौर्यपुर (सौरिपुर) नामक राज्य था। इसके संस्थापक महाराज सौरी के दो पुत्र थे-अंधक वृष्णि और भोगवृष्णि। अंधक वृष्णि के समुद्रविजय, अशोक, स्तमित, सागर, हिमवान, अचल, धरण, पूरण, अभिचंद और वसुदेव ये दस पुत्र थे, जो दशार्ह नाम से प्रसिद्ध हुए। समुद्रविजय और वसुदेव विशेष प्रभावशाली व प्रसिद्ध हुए। समुद्रविजय के चार पुत्र थे-अरिष्टनेमि, रथनेमि, सत्यनेमि, एवं दृढ़नेमि। वसुदेव के मुख्य दो पुत्र थे-कृष्ण व बलराम। इस प्रकार अरिष्टनेमि और श्री कृष्ण चचेरे भाई थे।
अरिष्टनेमि युवा हुए तो उनके समक्ष विवाह का प्रस्ताव रखा गया। अनेक बार आग्रह करने पर भी विरक्त स्वभावी अरिष्टनेमि ने अपनी स्वीकृति नहीं दी। तब श्रीकृष्ण ने अपनी समस्त रानियों को कहा कि किसी भी प्रकार अरिष्टनेमि को विवाह के लिए सहमत कराओ। रुक्मिणी, सत्यभामा आदि रानियों ने चतुराई से अरिष्टनेमि को मना लिया और उग्रसेन की कन्या राजीमती से विवाह तय हो गया। बिना किसी विलंब के विवाह का मुहूर्त निकालकर समस्त तैयारी की गई। नियत तिथि को पूर्ण वैभव से बारात निकली। दूल्हे अरिष्टनेमि को श्रीकृष्ण के सर्वश्रेष्ठ गंधहस्ती पर बैठाया गया।
उधर उग्रसेन ने अतिथियों के स्वागत के लिए विभिन्न प्रकार के पकवान तो बनवाए ही थे, साथ ही सैंकड़ों पशुओं को भी एकत्र कर एक बाड़े में बंद किया था। जब बारात उस बाड़े के निकट पहुंची तब कुमार अरिष्टनेमि के कानों में भयाक्रांत मूक पशुओं के क्रंदन का स्वर पड़ा। इस करुण स्वर से दयालु कुमार का हृदय द्रवित हो गया। उन्होंने महावत से इस विषय में पूछा।
महावत ने बताया कि समीपस्थ एक बाड़े में कुछ पशु-पक्षियों को बांधकर रखा है, जिनका उपयोग विवाह के अवसर पर दिए जाने वाले भोज में किया जाएगा। कुमार ने जैसे ही यह सुना, उनके मन में दुःख का आवेग उठा और करुणा से उनका हृदय भर आया। मेरे कारण इतने निरीह प्राणियों की निमर्म हत्या? नहीं, यह उचित नहीं है। मुझे इस निर्दय परंपरा को समाप्त कर संसार को करुणा और अहिंसा का मार्ग दिखाना चाहिए। कुमार अरिष्टनेमि ने अपना हाथी रुकवाया और महावत से कहा कि वह जाकर सब पशु-पक्षियों को मुक्त कर दे। निरीह प्राणियों को मुक्त करके महावत वापस लौटा तो कुमार ने अपने सभी आभूषण उतारकर उसे दे दिए और द्वारका की ओर लौट चलने को कहा।
राजा समुद्रविजय श्रीकृष्ण आदि सभी गुरुजनों ने उन्हें रोककर मनाने का अथक प्रयत्न किया, किंतु उनके हाथ असफलता ही लगी। कुमार को नहीं रुकना था तो नहीं रुके। उन्होंने कहा, जैसे पशु-पक्षी बंधन में बंधे थे वैसे ही हम सभी कर्मों के बंधन में बंधे करुणाविहीन जीवन बिताते हैं। अन्यों को कष्ट देते हैं और फलस्वरूप स्वयं कष्ट पाते हैं। मुझे इन बंधनों से मुक्त होने के लिए करुणा और अहिंसा के पथ को प्रशस्त करना है। कृपया क्षमा करें।
स्व-दीक्षा के पश्चात् भगवान अरिष्टनेमि को चौवन दिन की साधना के बाद ही केवल ज्ञान प्राप्त हो गया। इसके बाद नेमिनाथ ने दीर्घ काल तक घूम-घूमकर अहिंसा का उपदेश दिया।
एक बार श्रीकृष्ण भोग-विलास में अनुरक्त यादवों के भविष्य की चिंता लेकर उनके पास पहुंचे। नेमिनाथ ने मद्य-मांस के सेवन में लिप्त यादवों का भविष्य अंधकारमय बताया और उसे रोकने को कहा। श्रीकृष्ण को बात समझ में आ गई। उन्होंने उस समय द्वारका में जितना भी मद्य था, वह सारा वन में फिंकवा दिया और मांस-मद्य को एक प्रकार से प्रतिबंधित कर दिया। किसी राज्य शासन द्वारा अमारी का नियम लागू करने का संभवतः यह प्रथम उदाहरण है और इसके प्रेरक थे भगवान् अरिष्टनेमि।
- सुरेंद्र बोथरा
नैस, अर्ने : द्रष्टव्य : गहन पारिस्थितिकी।
न्याय दर्शन : भारतीय षट्-दर्शनों में न्याय और वैशेषिक संप्रदाय आलोचनात्मक या विश्लेषणात्मक प्रवृत्ति के प्रतिनिधि माने जाते हैं क्योंकि ये दोनों ही प्राकृतिक ज्ञान-विज्ञान को स्वीकार करते हुए उनसे प्रसूत तर्क-पद्धति का अनुगमन करते हैं। डॉ०राधाकृष्णन् के अनुसार, न्याय-दर्शन की विशेषता यही है कि वह आध्यात्मिक समस्याओं का आलोचनात्मक दृष्टि से विवेचन करता है। न्याय-दर्शन अपनी ज्ञान-मीमांसा के माध्यम से उस संशयवाद का खंडन करता है, जो प्रत्येक पदार्थ की अनिश्चितता की घोषणा करता है। न्याय-दर्शन का स्रोत ग्रंथ पांच अध्यायों में विभाजित गौतम का न्यायसूत्र है। इसका दूसरा महत्त्वपूर्ण ग्रंथ वात्स्यायन का न्याय-भाष्य है। उद्योतकर, प्रशस्तपाद और अनंतर धर्मकीर्ति, वाचस्पति, गंगेश आदि इस संप्रदाय के प्रसिद्ध दार्शनिक है। यह उल्लेखनीय है कि न्याय पद का तात्पर्य यहां तर्क से है अर्थात् प्रमाणों के आधार पर किया गया आलोचनात्मक विवेचन न्याय कहलाता है।
वैशेषिक दर्शन से सहमत न्याय-दर्शन इस भौतिक विश्व को नित्य मानता है, जो उन परमाणुओं द्वारा बना है, जो हमारे विचारों से अप्रभावित रहते हैं। लेकिन, भौतिक से अलग भी कुछ घटित होता रहता है। ज्ञान, इच्छा, संकल्प, द्वेष, अनुराग, सुख-दुख का बोध आदि भौतिक नहीं कहे जा सकते, लेकिन उनके अस्तित्व से इनकार भी नहीं किया जा सकता। न्याय-दर्शन आत्मा को भी भौतिक जगत की तरह द्रव्य मानता है और इन सभी को उस द्रव्य के गुणों के रूप में देखता है। यहां भी वह वैशेषिक से सहमत है। न्यायशास्त्रियों का आत्मा के अस्तित्व के पक्ष में तर्क है कि आत्मा के अस्तित्व के बिना कोई भी ज्ञान अथवा स्मृति संभव नहीं है क्योंकि तब प्रत्येक बोध भिन्न होगा। दरअस्ल, हमारी सभी मानसिक अवस्थाएं और अन्य से संबंध की चेतना आत्मा के अस्तित्व के प्रमाण हैं। सांख्य सूत्र में कहा गया है कि यदि चेतना देह का ही गुण होता तो उसका स्थान देह के भिन्न-भिन्न भागों में और उसके भौतिक अंशों में भी होता। तब प्रकृति भी चेतन होती क्योंकि देह का आधार प्रकृति है और तब चेतना का कभी भी देह से अलग होना संभव नहीं हो सकता क्योंकि मृत देह भी भौतिक अस्तित्व तो है। इसलिए देह को न्यायसूत्र (1:1, 11) में केवल माध्यम माना गया है, जिसका कर्ता आत्मा है। वैशेषिक दर्शन की ही तरह न्याय भी जीवात्माओं के अनेकत्व और अपरिमित संख्या को स्वीकार करते हैं। लेकिन चेतना और आत्मा एक नहीं है, यद्यपि चेतनता आत्मा से परे नहीं है। जिस प्रकार परमाणुओं की क्रिया भौतिक पदार्थों की सृष्टि और उसमें परिवर्तन करती रहती है, उसी प्रकार की प्रक्रिया आत्माओं के मनों में, उनकी चेतनाओं में घटित होती रहती है। जैसे भौतिक पदार्थ में परिवर्तन का इतिहास होता है और प्रत्येक परिवर्तन उसका नया जन्म है, उसी प्रकार आत्मा का भी एक इतिहास होता है, जो उसकी चेतना की क्रियाओं के साथ जुड़ा रहता है। डॉ० राधाकृष्णन् के अनुसार प्रत्येक आत्मा के मूर्त इतिहास में अनेक जन्म अंतर्निहित होते हैं। इसीलिए न्यायभाष्य (3:2, 67) में वात्स्यायन कहते हैं कि जब सभी तरह के गुणावगुणों का कोष समाप्त हो जाता है, तो जीवात्मा संसार एवं पुनर्जन्म से मुक्त हो जाती है। न्यायभाष्य में मोक्ष को उससे छुटकारा पाना कहा गया है। जिसे सुख कहा जाता है, उसके साथ भी दुख अनिवार्यत जुड़ा ही रहता है, इसलिए न्यायभाष्य मोक्ष को सुख-दुख से अलग परमानंद की प्राप्ति के भाव से युत ब्रह्म कहता है।
स्पष्ट है कि इसके लिए चेतना के क्रियाशील होने की जरूरत होती है क्योंकि चेतना के होने का तात्पर्य ही यही है कि वह प्राकृतिक क्रिया में हस्तक्षेप का सामर्थ्य पा लेती है। वात्स्यायन मानते हैं कि कर्म परमात्मा की प्रेरणा से नहीं, बल्कि पुरुषार्थ से उत्पन्न होते हैं, इसलिए उनके लिए चेतना उत्तरदायी है। दरअस्ल, न्याय-शास्त्री इच्छा और बुद्धि दोनों को चेतना का गुण मानते और उसके बीच कोई कठोर विभाजन रेखा नहीं खींचते। बुद्धि इच्छा के अनुसार कार्य करती है और इच्छा भी बुद्धि द्वारा बाधित होती है। सिद्धांत मुक्तावली में विश्वनाथ का कहना है कि हम असंभव पदार्थों की इच्छा नहीं करते। ऐसा केवल बच्चे यानी अविकसित बुद्धि अथवा रोगदूषितचित्त ही कर सकते हैं।
इसीलिए नैय्यायिक पृथकत्व के बोध से मुक्ति को परम श्रेय मानते हैं क्योंकि सभी पाप-कर्म अपने पृथक होने के बोध से ही उत्पन्न होते हैं। इसलिए वे कर्म अच्छे हैं, सत्कर्म हैं, जो पृथकता के भाव को समाप्त करने की ओर ले जाते हैं तथा वे कर्म बुरे हैं, जो इस भाव को पुष्ट करते हैं। न्याय-वार्तिक (4:2, 2) में मिथ्याज्ञान और स्वार्थपरकता को सहचर बताया गया है, जिसका स्वाभाविक निष्कर्ष है कि अमिथ्या ज्ञान और निःस्वार्थ भाव भी साहचर्य में रहते और तदनुसार पुनर्जन्म का कारण बनते हैं। इस प्रकार इच्छा स्वातंत्र्य के आधार पर चयनित कर्म को ही पुनर्जन्म, दुख अथवा दुख-मुक्ति का आधार बनाने के कारण न्याय-दर्शन में केवल ज्ञान-मीमांसा का ही महत्त्व नहीं रहता-बल्कि उसका एक नीति-शास्त्र भी विकसित हो जाता है।
समस्त हिंसा का मूल कारण पृथकत्व का भाव है और न्याय-दर्शन वैशेषिक दर्शन की ही भांति, इस पृथकत्व के बोध का अतिक्रमण करने का आग्रह करता है। न्याय-सूत्र (4:1.64) बताता है कि पृथकत्व के भाव पर विजय के माध्यम से पुनर्जन्म के कारण-रूप सब दोषों पर विजय प्राप्त हो जाती है और तब कर्म उनके लिए बंधनकारी नहीं हो पाते। न्याय और वैशेषिक दार्शनिक संप्रदायों के एक युग्म में होने तथा दोनों की तत्त्व-मीमांसीय सहमति के कारण न्याय की मूल्य-मीमांसा या नीतिशास्त्र भी लगभग समान है। श्रीधर के न्याय-कंदली में अहिंसा को सभी देशकालों पर लागू होने वाला अर्थात् सनातन या नित्य कर्त्तव्य बताया गया है और माना गया है कि गृहस्थ भी संन्यासवत् जीवन बिता सकता है-क्योंकि संन्यास का अर्थ प्राणिमात्र के हित की भावना है, जिसमें हिंसा का कोई स्थान नहीं है। इस प्रकार, न्याय-दर्शन में मिथ्या-ज्ञान अर्थात् स्वार्थ से मुक्त-और इसलिए व्यापक अर्थों में अहिंसक कर्म ही जीवात्मा के मोक्ष का उपाय है।
- नंदकिशोर आचार्य
न्यासिता : ट्रस्टीशिप : वितरण की समस्या पर भी गांधीजी निरंतर विचार करते रहे हैं। इसीलिए जब वह संपत्ति के अपरिग्रह या संपूर्ण आर्थिक क्रियाशीलता को यज्ञ के भाव के साथ करने का आग्रह करते हैं तो इन समस्याओं और उनके हल के धार्मिक आयाम की ओर ही संकेत कर रहे होते हैं। गांधी जी के लिए यज्ञ का अर्थ है : कोई ऐसा कृत्य जो फल की कामना किए वगैर दूसरों के कल्याण के लिए किया गया हो; यह कृत्य लौकिक या आध्यात्मिक किसी भी प्रकार का हो सकता है....इसके अलावा मौलिक त्याग कोई ऐसा कृत्य होना चाहिए जो अधिकतम व्यापक क्षेत्र के अधिकतम जीवों का अधिकतम कल्याण करने वाला हो ओर जिसे अधिकतम स्त्री-पुरुष कम-से-कम कष्ट उठाकर कर सकते हों। तदनुसार, किसी तथाकथित ऊंचे उद्देश्य के लिए किया गया कृत्य यदि एक जीव को भी हानि पहुंचाने के उद्देश्य से किया गया हो तो वह यज्ञ नहीं कहला सकता, महायज्ञ तो और भी नहीं। गीता हमें उपदेश देती है तथा अनुभव इस बात को प्रमाणित करता है कि जो कर्म यज्ञ की कोटि में नहीं आता, वह केवल बंधन को बढ़ाने वाला होता है। ईशोपनिषद् के ईशावास्यमिद् सर्वम् मंत्र की व्याख्या करते हुए भी गांधी जी का निष्कर्ष था कि सभी कुछ को ईश्वर को समर्पित करने के बाद अपने लिए आवश्यकता से अधिक कुछ न लेने का निर्देश ही इस मंत्र में दिया गया है और ईश्वर के लिए तो गांधी जी की स्पष्ट धारणा है : ईश्वर को प्राप्त करने का एक ही उपाय है कि उसे उसकी सृष्टि में देखा और उसके साथ एकाकार हुआ जाए। इसलिए सभी कर्मों का फल ईश्वर को अर्पित करने का अर्थ हो जाता है उन्हें समस्त प्राणियों को अर्पित करना।
यज्ञ की अवधारणा और ईशावास्यमिदम् सर्वम् से गांधी जी स्वामित्व के सवाल का एक ऐसा समाधान प्रस्तुत करते हैं, जो केवल वैयक्तिक सदाशयता पर निर्भर नहीं रहता, बल्कि एक संस्थागत परिवर्तन बन जाता है। इसे गांधी जी ने न्यासिता कहा है। न्यासिता एक प्रकार का अनासक्त स्वामित्व है। जब सभी कार्य करते हुए उसके फलों का स्वामी हम अन्य को समझ लेते हैं तो हम एक प्रकार के न्यासी हो जाते हैं। महात्मा गांधी की मान्यता है कि वर्तमान में आर्थिक साधनों पर स्वामित्व रखने वाले पूंजीपतियों और भूमि मालिकों को एक न्यासी की तरह व्यवहार करना चाहिए और अपनी पूंजी को एक न्यास में परिवर्तित कर देना चाहिए। गांधी जी मानते हैं कि केवल न्यासिता के द्वारा ही आर्थिक समानता कायम हो सकती है। वह मालिकों का आह्वान करते हैं : मैं उन व्यक्तियों को जो आज अपने आपको मालिक समझ रहे हैं, न्यासी के रुप में काम करने के लिए आमंत्रित कर रहा हूं अर्थात् यह आग्रह कर रहा हूं कि वे स्वयं को अपने अधिकार की बदौलत मालिक न समझें, बल्कि उनके अधिकार की बदौलत मालिक समझें जिनका उन्होंने शोषण किया है। गांधी जी के इस कथन में यह ध्वनि भी निकलती है कि न्यासिता एक प्रकार से मालिकों द्वारा शोषण से उत्पन्न पाप का प्रायश्चित भी है। इस प्रकार गांधी जी मालिकों के नैतिक बोध को जागृत करने का प्रयास करते हैं। उनके अनुसार जैसे कोई धर्म के अनुकूल आचरण नहीं करता है तो यह धर्म की नहीं संदर्भित व्यक्ति की कमजोरी है, उसी प्रकार यदि धनवान लोग न्यासिता के सिद्धांत के अनुसार काम नहीं करते तो इससे सिद्धांत की नहीं, धनवानों की दुर्बलता सिद्ध होती है।
मालिकों के हृदय-परिवर्तन के प्रयास करने को ही अहिंसा का एक मंत्र रुप मान लेने के कारण यह भ्रम उत्पन्न होता है कि न्यासिता का सिद्धांत एक आदर्श कल्पना है, या उसे व्यावहारिक रूप नहीं दिया जा सकता क्योंकि बहुत कम उद्योगपति ऐसे होंगे जो इस सिद्धांत को वास्तव में स्वीकार करने को प्रस्तुत होंगे। लेकिन, हम अक्सर यह भूल जाते हैं कि समझाना-बुझाना या शिक्षण एक मात्र अहिंसक उपाय नहीं है। न्यासिता के सिद्धांत को व्यावहारिक रूप देने के लिए महात्मा गांधी त्रिआयामी योजना प्रस्तावित करते हैं। एक ओर, वह पूंजीपतियों से आग्रह करते ही हैं कि वे न्यासिता के सिद्धांत को स्वीकार कर अपने पाप का प्रायश्चित करें, लेकिन साथ ही वह श्रमिकों और राज्य को भी अपनी भूमिका निबाहने का निर्देश देते हैं। शिक्षण ही नहीं, अहिंसक असहयोग और सविनय अवज्ञा भी गांधी जी की दृष्टि में दो सही और अचूक उपाय हैं। गांधी जी श्रमिकों से अनुरोध करते हैं कि यदि मालिक उनके अभिभावकों की तरह व्यवहार करने को तैयार न हों तो उन्हें मालिकों के प्रति असहयोग और सविनय अवज्ञा का सहारा लेना चाहिए। जिन उपायों को ब्रिटिश साम्राज्य जैसी शक्ति के विरुद्ध काम में लिया जा सकता है, उन्हें पूंजीपतियों के शोषण और अन्याय को मिटाने और आर्थिक समानता लाने के लिए क्यों नहीं काम में लिया जा सकता? यह सिद्धांत की नहीं, उसे व्यवहार में लाने का प्रयत्न करने वाले कार्यकर्ताओं की ही कमी माननी चाहिए कि उन्होंने मात्र लोक-शिक्षण को तो महत्त्व दिया पर अहिंसक असहयोग और सविनय अवज्ञा को नहीं।
गांधी जी श्रमिकों के साथ-साथ राज्य से भी इस संबंध में कुछ सक्रियता की आशा रखते हैं। यद्यपि वह जहां तक संभव हो, पूंजीपतियों द्वारा स्वेच्छापूर्वक न्यासिता पर अमल को ही वरीयता देते हैं, लेकिन, पूंजीपतियों द्वारा किसी हृदय-परिवर्तन का प्रमाण न मिलने पर वह राज्य से भी यह आग्रह करते हैं कि वह कानून द्वारा न्यासिता के कार्यक्रम को लागू करे। इस संदर्भ में गांधी जी के एक लंबे उद्धरण को देखना बहुत उपयोगी होगा : मुझे बड़ी प्रसन्नता होगी अगर लोग न्यासी के रुप मे आचरण करें, लेकिन यदि वह ऐसा नहीं कर पाते तो हमें राज्य के जरिए न्यूनतम हिंसा का प्रयोग करते हुए उन्हें उनकी संपत्ति से वंचित करना होगा। इसीलिए मैंने गोलमेज सम्मेलन में कहा था कि प्रत्येक न्यस्त हित की जांच-पड़ताल की जानी चाहिए और जहां आवश्यक हो, राज्यसात्करण के आदेश दिए जाएं। जिनकी संपत्ति का राज्यसात्करण करना हो, उन्हें मुआवजा दिया जाए या नहीं, इसका निर्णय हर मामले की तफसील पर गौर करके किया जाए। मैं व्यक्तिगत रुप से इस बात को तरजीह दूंगा कि राज्य के हाथों में शक्ति के केंद्रीकरण के बजाय न्यासिता की भावना का विस्तार किया जाए क्योंकि, मेरी सम्मति में, निजी स्वामित्व की हिंसा राज्य की हिंसा से कम हानिकारक है। लेकिन अहपरिहार्य हो तो मैं न्यूनतम राज्य-स्वामित्व का समर्थन करूंगा।
इसके अलावा, यह भी स्मरणीय है कि राज्य के समर्थन के बिना किसी भी तरह का उद्योगवाद और पूंजीवाद पनप ही नहीं सकता है। आधुनिक उद्योगों के लिए कई तरह की राजकीय सुविधाओं और सार्वजनिक संसाधनों की आवश्यकता होती है, जिन्हें राज्य द्वारा निजी उद्योगों को मुहैय्या करवाया जाता है। इसी प्रकार सभी उद्योग पर्यावरण को हानि पहुंचाते हैं, जो उनकी निजी संपत्ति नहीं है और राज्य की अनुमति के बिना उन्हें ऐसा करने का कोई अधिकार नहीं है। यदि राज्य हिंसा का न्यूनतम भी प्रयोग न करना चाहे और केवल असहयोग करे तब भी पूंजीपतियों को न्यासिता के सिद्धांत को मानने के लिए प्रस्तुत हो जाना होगा। और इसे हिंसा नहीं कहा जा सकता क्योंकि कोई भी हिंसक व्यक्ति या संस्था को किसी दूसरे व्यक्ति या संस्था से उसके ही विरुद्ध की जाने वाली हिंसा में सहयोग लेने का नैतिक अधिकार नहीं है। वास्तविक लोकतांत्रिक राज्य सत्याग्रही भी होता है, इसलिए कम-से-कम पूंजीवादी व्यवस्था के खिलाफ सत्याग्रह तो उसका नैतिक कर्त्तव्य है, हिंसा नहीं।
इसके अतिरिक्त, महात्मा गांधी भी यह तो मानते ही हैं कि लौकिक जीवन में पूर्ण अहिंसा का पालन संभव नहीं है और कभी-कभी वह रक्षात्मक हिंसा को भी मान्यता देते हैं, इसलिए एक लोकतांत्रिक राज्य द्वारा न्यासिता के सिद्धांत को लागू करने के लिए की गई इस कानूनी हिंसा को क्षम्य माना जा सकता है। स्वयं गांधी जी के ही शब्दों में, दुनिया केवल तर्क के सहारे नहीं चलती। जीवन में थोड़ी बहुत हिंसा तो है ही। अतः, हमें न्यूनतम हिंसा के रास्ते को अपनाना है।
राज्य द्वारा कानून बनाकर न्यासिता के सिद्धांत को लागू करने के प्रयोजन से एक सरल और व्यावहारिक न्यासिता सूत्र किशोरलाल मश्रूवाला और नरहरि परीख द्वारा भेजा गया था (वस्तुतः यह दस्तावेज प्रोफेसर एम०एल० दांतवाला ने तैयार किया था) और किंचित संशोधनों के साथ गांधीजी ने उसका अनुमोदन भी कर दिया था। इस व्यावहारिक सूत्र में छः बिंदु हैं :
(1) न्यासिता समाज की वर्तमान पूंजीवादी व्यवस्था को समतावादी व्यवस्था में रूपांतरित करने का एक साधन है। न्यासिता पूंजीवाद को बख्शती नहीं है, पर वह वर्तमान मालिक वर्ग को सुधार का एक अवसर प्रदान करती है। यह इस विश्वास पर आधारित है कि मानव-प्रकृति कभी सुधार से परे नहीं होती।
(2) यह निजी स्वामित्व के किसी अधिकार को नहीं मानती, सिवा उसके जिसकी अनुमति समाज अपने कल्याण के लिए दे।
(3) यह धन-संपत्ति के स्वामित्व और उपयोग के कानूनी विनियमन की वर्जना नहीं करती।
(4) तदनुसार राज्य द्वारा विनियमित न्यासिता के तहत, कोई व्यक्ति अपनी स्वार्थसिद्धि के लिए अथवा समाज के हितों की अनदेखी करते हुए अपनी संपत्ति को धारण करने अथवा उसका इस्तेमाल करने के लिए स्वतंत्र नहीं होगा।
(5) जिस प्रकार एक समुचित न्यूनतम निर्वाह मजदूरी तय करने का प्रस्ताव है, उसी तरह समाज में व्यक्ति की अधिकतम आय भी नियत कर देनी चाहिए। न्यूनतम और अधिकतम आयों के बीच जो अंतर हो वह युक्तिसंगत और न्यायोचित हो ओर उसमें समय-समय पर इस दृष्टि से परिवर्तन किया जाए कि अंततः वह अंतर मिट जाए।
(6) गांधीवादी अर्थव्यवस्था में उत्पादन का स्वरूप, व्यक्तिगत सनक या लोभ द्वारा नहीं, सामाजिक आवश्यकता द्वारा निर्धारित होगा।
इस व्यावहारिक सूत्र के अनुमोदन से कुछ माह पूर्व ही गांधी जी स्वयं हरिजन में लिख चुके थे कि न्यासिता के सिद्धांत के अंतर्गत मालिकों को अपनी सेवा और समाज के लिए उसके मूल्य को देखते हुए कमीशन मिलेगा, जिसकी दर का नियमन राज्य द्वारा किया जाएगा। उनके बच्चों को उनके स्थान पर न्यासी बनने की आज्ञा तभी मिलेगी जबकि वे स्वयं को इसके योग्य सिद्ध कर सकेंगे।
यहां यह स्मरणीय है कि कुछ बड़े उद्योगों को तो गांधी जी सीधे राज्य के नियंत्रण में ही रखने के पक्ष में थे। कुछ बड़े उद्योगों की आवश्यकता को मानते हुए उन्होंने स्पष्ट कहा था : जिन उद्योगों में बड़ी संख्या में लोग एक साथ काम करते हों, वे राजकीय स्वामित्व में होने चाहिए। इनमें कुशल और अकुशल दोनों ही प्रकार के श्रमिक राज्य के माध्यम से अपने उत्पादों के स्वामी होंगे। यंत्रों के बारे में अपनी राय प्रकट करते हुए बड़े कारखानों की आवश्यकता से संबंधित एक सवाल के जवाब में रामचंद्रन् से उन्होंने कहा था : हां, लेकिन मैं इतना कहने की हद तक तो समाजवादी हूं ही कि ऐसे कारखानों का मालिक राष्ट्र हो या जनता की सरकार की ओर से ऐसे कारखाने चलाए जाएं। उनकी हस्ती नफे के लिए नहीं, बल्कि लोगों के भले के लिए हो। लोभ की जगह प्रेम को कायम करने का उसका उद्देश्य हो।
- नंदकिशोर आचार्य
पंच महायज्ञ : सामान्यतः, वैदिक धर्म या प्राचीन हिंदू धर्म को यज्ञ-प्रधान धर्म माना जाता है-जो वह है भी-लेकिन यज्ञ का आशय आवश्यक रूप से पशु-बलि वाला यज्ञ नहीं है। उपनिषद्-काल तक आते-आते तो यज्ञ की परिभाषा और व्याख्या में बहुत अंतर आ गया था-वैदिककालीन श्रौत यज्ञों की निंदा स्वयं उन उपनिषदों में ही की गई है, जिन्हें वेदांत कहा गया है। इन श्रौत-यज्ञों में पशुबंध भी सम्मिलित है। लेकिन उपनिषदों में पूरे जीवन को ही एक यज्ञ माना गया है। बृहदारण्यक उपनिषद् में मनुष्य को यज्ञस्वरूप कहा गया है तथा सत्य, उदारता, ऋजुता, आत्म-संयम, विनयशीलता और अहिंसा को इस यज्ञ में किया जाने वाला दान माना गया है। छांदोग्य उपनिषद में यज्ञ करवाने वाले पुरोहितों का बहुत ही निंदासूचक वर्णन करते हुए कहा गया है कि उनकी शोभायात्रा उन कुत्तों की शोभायात्रा के समान है जो एक-दूसरे की पूंछ पकड़े हुए ओम खाएं, ओम सुरा पिएं का जाप करते हुए चल रहे हैं।
लेकिन वैदिक यज्ञ केवल श्रौत-यज्ञ अथवा पशुबंध ही नहीं है। वैदिक परंपरा में सामान्य गृहस्थों के लिए पंच-महायज्ञों का विधान किया गया है। उल्लेखनीय यह भी है कि इन्हें महायज्ञ कहा गया है। ये महायज्ञ हैं-भूतयज्ञ, मनुष्ययज्ञ या नृयज्ञ, पितृयज्ञ, देवयज्ञ एवं ब्रह्मयज्ञ। शतपथ ब्राह्मण, तैत्तिरीयाण्यक, आश्वलायन गृहसूत्र, आप-स्तंबधर्मसूत्र आदि के साथ गौतम, बौधायन एवं अन्य कई स्मृतियों में भी इन महायज्ञों का उल्लेख करते हुए इन्हें नित्य संपादित करने का निर्देश दिया गया है। गौतम और मनु आदि ने तो इन्हें संस्कार अर्थात् मनुष्य के जीवन का परिष्कार करने वाली क्रियाएं माना है।
दरअस्ल, प्राचीन भारतीय जीवन में ऋणानुबंध की अवधारणा का बड़ा महत्त्व है। यह माना गया कि प्रत्येक मनुष्य पर तीन प्रकार के ऋण होते हैं, जिनसे उसे उऋण होना पड़ता है। ये तीन ऋण हैं-देवऋण, ऋषिऋण एवं पितृऋण। इसमें अनंतर मनुष्यऋण या नृऋण भी जोड़ दिया गया। इस अवधारणा का मंतव्य यह है कि मनुष्य के जीवन का प्रयोजन उन कर्तव्यों का पालन करना है, जिनसे वह उन सबके प्रति कृतज्ञता-ज्ञापन करते हुए उनसे उऋण हो सके, जिन्होंने उसके जीवन का निर्माण किया है। धार्मिक उपासना द्वारा देवऋण से मुक्ति मिलती है तो ज्ञान-परंपरा के अवगाहन द्वारा ऋषिऋण से और संतानोत्पत्ति द्वारा वंश-परंपरा को कायम रखने से पितृऋण से व्यक्ति मुक्त हो सकता है। मनुष्य के जीवन में अन्य मनुष्यों या समाज का भी सहयोग होता है, उससे भी दूसरों के साथ अच्छे व्यवहार अर्थात् उनके कष्टों को कम करने में सहयोग के माध्यम से मुक्त हुआ जाता है। इस प्रकार ऋण-शोध की यह अवधारणा पारस्परिकता की अवधारणा का ही एक प्रकार है, जो अहिंसा का सकारात्मक रूप है।
पंच महायज्ञ की अवधारणा ऋणानुबंध की अवधारणा से संयुक्त है। धर्मशास्त्र का इतिहास के प्रसिद्ध लेखक भारतरत्न डॉ० पांडुरंग वामन काणे ने पंच महायज्ञों का श्रौत यज्ञों से अंतर स्पष्ट करते हुए बताया है कि पंच-महायज्ञों का मुख्य उद्देश्य विधाता, प्राचीन ऋषियों, पितरों, जीवों एवं संपूर्ण ब्रह्मांड के प्रति (जिसमें असंख्य जीव रहते हैं) अपने कर्त्तव्यों का पालन है। उनके अनुसार श्रौत यज्ञों में कामना प्रधान है, जबकि पंच-महायज्ञों की व्यवस्था में श्रौत यज्ञों की अपेक्षा अधिक नैतिकता, आध्यात्मिकता, प्रगतिशीलता एवं सदाशयता देखने में आती है। दरअस्ल, संपूर्ण जीवन के तात्त्विक एकत्व और व्यावहारिक पारस्परिकता का बोध और उस बोध के माध्यम से सर्वात्म की अनुभूति ही पंच-महायज्ञों की अवधारणा की दार्शनिक पृष्ठभूमि में है। पंच-महायज्ञों के माध्यम से न केवल व्यक्ति अपनी ऋण-मुक्ति संभव करता है, बल्कि, साथ ही, अपने को सर्वात्म से जोड़कर अपनी आध्यात्मिक मुक्ति भी संभव कर सकता है।
ब्रह्मयज्ञ के माध्यम से व्यक्ति अपनी ज्ञान-परंपरा से जुड़ता अर्थात् ऋषि ऋण से उऋण होता है। शतपथ ब्राह्मण के अनुसार दैनंदिन वेदाध्ययन अथवा स्वाध्याय ही ब्रह्मयज्ञ है। यह भी कहा गया है कि इसे करने वालों को सुरक्षा, संपत्ति, आयु, बीज तथा सभी प्रकार के मंगलमय फल प्राप्त होते हैं। देवयज्ञ का प्रयोजन देवताओं की प्रार्थना एवं उनके प्रति कृतज्ञता-ज्ञापन है। इसके लिए अग्नि में देवता का नामाधार करते हुए समिधा डालना ही पर्याप्त समझा गया है। कालांतर में मूर्तिपूजा के प्रचलन के कारण होम के स्थान पर प्रत्येक घर में देवता की मूर्ति की स्थापना एवं नित्य उसकी पूजा करना पर्याप्त समझा जाने लगा। विष्णु या उनके अवतारों, शिव, गणेश, दुर्गा या लक्ष्मी आदि देवी-रूपों की पूजा का प्रयोजन कामना-पूर्ति के साथ-साथ सबके लिए मंगल की आकांक्षा भी माना गया। इस आकांक्षा का बोध मनुष्य को सभी प्राणियों से जोड़ देता है। पितृयज्ञ में पितरों के प्रति श्रद्धा-ज्ञापन एवं वंश-परंपरा का पालन करना आता है।
दो महायज्ञ ऐसे हैं जो वैयक्तिकता का अतिक्रमण करते हुए न केवल मानव-जगत बल्कि जीवन-मात्र से जुड़ जाते हैं। ये हैं-नृयज्ञ और भूतयज्ञ। सामान्यतः, नृयज्ञ का तात्पर्य अतिथि-सत्कार से लिया जाता है और अतिथि को देवता के समकक्ष माना गया है-अतिथिदेवोभव। लेकिन, यह उल्लेखनीय है कि अतिथि का अर्थ मित्र, रिश्तेदार या आमंत्रित व्यक्ति नहीं है। अतिथि-सत्कार का भी तात्पर्य केवल उसे भोजन करवाने तक सीमित नहीं है। दरअस्ल, नृयज्ञ की अवधारणा की पृष्ठभूमि में यह बोध सक्रिय रहता है कि मनुष्य-जाति एक है और इसलिए अपने सामर्थ्यानुसार किसी भी जरूरतमंद व्यक्ति की सहायता मनुष्य का धार्मिक कर्त्तव्य है क्योंकि सभी में एक ही आत्मा है। डॉ० काणे ने अतिथि-सत्कार के पीछे एकमात्र प्रेरक शक्ति सार्वभौम दया-भावना को माना है। किसी के लिए भोजन की व्यवस्था करना सर्वोत्तम हवि कहा गया है। धर्मसूत्रों में कहा गया है कि अन्य लोगों की पर्वाह न करते हुए स्वयं खाना पापों को निगलना है। आधुनिक काल में शिक्षा-स्वास्थ्य आदि की व्यवस्था भी नृयज्ञ के अंतर्गत आता है। इसी प्रकार भूतयज्ञ का तात्पर्य है संपूर्ण जीव-जगत के प्रति कृतज्ञता-ज्ञापन एवं मनुष्य के जीवन पर प्रकृति और अन्य प्राणियों के ऋण से उऋण होना। इसे बलिहरण भी कहा गया है। बलि का अर्थ पशुहिंसा नहीं, बल्कि उन प्राणियों एवं प्रकृति के लिए उपयुक्त पोषण है। श्रौतयज्ञ में बलि अग्नि में दी जाती है, लेकिन भूतयज्ञ में बलि अग्नि में न देकर पृथ्वी पर या जल में दी जाती है। आपस्तंबधर्मसूत्र में कहा गया है कि बलि-स्थान को स्वच्छ करके, जल से धोकर उस पर बलि रखी जानी चाहिए। यह बलि केवल प्राणी-जगत के लिए ही नहीं बल्कि वृक्षों, पौधों, जड़ी-बूटियों तथा जल और वायु के लिए भी है। स्पष्ट है कि यह बलि ऐसी होनी चाहिए जो इन सबका पोषण कर सके। पक्षियों और कीड़ों-मकोड़ों को भी बलि देने को मनुष्य का कर्त्तव्य माना गया है। आज भी धार्मिक लोग गायों, कुत्तों को रोटी, पक्षियों के लिए चुग्गा एवं चींटियों तक के लिए आटे आदि की व्यवस्था करते देखे जा सकते हैं। वृक्षों-पौधों को सींचना भी धार्मिक कर्तव्य में शामिल माना जाता है।
कालांतर में धार्मिक कारणों से यह भी माना जाने लगा कि मनुष्य के जीवन में कई कारणों से जाने-अजाने किसी-न-किसी प्रकार की हिंसा हो ही जाती है। नृयज्ञ या भूतयज्ञ ऐसी हिंसा से हुए पाप का प्रायश्चित है। दूसरे शब्दों में, प्रकृति या जीव-जगत को जाने-अजाने पहुंचे नुक्सान की भरपाई इस यज्ञ के माध्यम से हो जाती है। यह व्यवहार में हो गई अनिवारणीय हिंसा के पाप-बोध से मुक्ति की अहिंसात्मक प्रक्रिया है, जो जीवन मात्र के एकत्व की अनुभूति को संभव करती है। पंच-महायज्ञ की अवधारणा को प्रकारांतर से जीवन के प्रति कृतज्ञता-बोध से उत्पन्न अहिंसा भाव का क्रियान्वयन कहा जा सकता है।
- नंदकिशोर आचार्य
पंचशील : बौद्ध धर्म में आचार की प्रधानता है। उचित आचरण के बिना जीवन में शांति प्राप्त नहीं हो सकती। उचित आचरण को स्पष्ट करने के लिए प्रत्येक बौद्ध को पंचशीलों को पालन अनिवार्य है।
शील समाधौ अथवा शील उपधारणे (अभ्यासे) धातु से धन प्रत्ययपरक शील शब्द चित्त की एकाग्रता अथवा आचरण अभ्यास का अर्थ देता है। बौद्धों ने शील को ऐसे सदाचार के अर्थ में लिया है जो स्वभाव बन जाता है-किशीलंति? पाणातिपातादीहि वा विरमंतस्य वत्तपटिपत्तिं वा पूरेंतस्स चेतनादयो धम्मा।.....चेतनाशीलं चेतसिक सीलं संवरो सीलं अवीतिक्किमो सीलं ति (विसुद्धिमग्ग 1)।
अर्थात प्राणातिपातादि (हिंसा) से विरत रहने वाले अथवा वृत्तप्रतिपत्ति (सदाचार) को पूर्ण करने वाले ये चार धर्म शील कहे गए हैं-चेतनाशील, चैतसिकशील, संवरशील, अव्यतिक्रमशील।
यह पांच शील हैं-प्राणातिपात (प्राणीहिंसा) से विरति, अदत्तादान (चोरी) से विरति, काम-मिथ्याचार (व्यभिचार) से विरति, मृषावाद (असत्याभाषण) से विरति, सुरामेरयमद्य प्रमाद-स्थान (मादकद्रव्यों की मादकता) से विरति। इनमें से प्रथम अहिंसा अष्टांग मार्ग के दो भागों सम्यक संकल्प एवं सम्यक कर्मांत में विद्यमान है। सम्यक संकल्प के अंतर्गत तीन संकल्प हैं-निष्कामता सम्यक संकल्प-कामनाओं से रहित होना, अव्यापाद-घृणा न करना, मैत्री, करुणा की भावना होना, तथा अविहिंसा सम्यक संकल्प-हिंसा से विरत होना।
इसी तरह सम्यक कर्मांत के अंतर्गत हिंसा, चोरी से विरत होना है। इस समय के व्यापारों में पांच जीविकाओं को हिंसा प्रवण होने से अयोग्य ठहराया गया है-(अंगत्तर निकाय, 5 द्वारा बौद्ध दर्शन मीमांसा-बलदेव उपाध्याय)। सत्य वणिज्जा (शस्त्र का व्यापार), मंस वणिज्जा (मांस का व्यापार), सत्त वणिज्जा (प्राणी का व्यापार), मज्ज वणिज्जा (मद्य का व्यापार), तथा विस वणिज्जा (विष का व्यापार)।
प्रश्न यह है कि बुद्ध जैनों की तरह आत्यांतिक अहिंसक थे या फिर इस विषय में व्यवहारवादी थे? बुद्ध के बचपन की उस घटना से, जिसमें उन्होंने देवदत्त द्वारा घायल किए गए हंस को बचाया था और यह बात स्पष्ट हुई थी कि मारने वाले से बचाने वाला ज्यादा महत्त्वपूर्ण होता है, उनकी करुणा के उत्स का प्रारंभिक वर्णन मिलता है। इसके पश्चात् भी बुद्ध जगह-जगह अहिंसा, करुणा की बात करते हैं। जैसे शील के विषय में अजातशत्रु से वह कहते हैं-कोई भिक्षु हिंसा का त्यागकर उससे सर्वथा विरत रहता है। दंड शस्त्र को छोड़, लज्जा देने वाले पाप कर्मों को छोड़, सब पर करुणा भाव रखता हुआ सब प्राणियों के हित में लगा रहता है। ऐसे आचरण की शील में गणना है (दीघनिकाय, समंजफलसुत्त)।
इसी तरह विनय पिटक के चीवर स्कंधक में वह कहते हैं भिक्षुओ जो मेरी सेवा करना चाहे वह रोगी की सेवा करे।
बौद्ध अहिंसा केवल परपीड़न का निषेष भर नहीं है, अपितु मैत्री, करुणा की भावना भी है। दूसरे से घोर क्लेश पाने पर भी अप्रतिकार और सहिष्णुता के आदर्श की उपलब्धि मज्झिमनिकाय के ककचूपमोवाद में प्राप्त होती है।
इसी तरह वह कहते हैं हिंसा, अदत्तादान, मृषावाद, परस्त्रीगमन इनका विद्वतजन अनुगमन नहीं करते (दीघनिकाय, सिंगालसुत्त)। इसी क्रम में बुद्ध ने दीघनिकाय कूटदंतसुत्त में वैदिक हिंसा को गर्हित बताया है। अहिंसा विषयक उनकी दृष्टि सूक्ष्म जीवों, वनस्पति तक व्याप्त है। संयुक्तनिकाय (सत्वे सुत्तंत 54.8.8) में वह कहते हैं भिक्षुओ! ऐसे पुरुष बहुत कम हैं जो बीज वनस्पति को नष्ट करने में विरत रहते हैं। ऐसे पुरुष अधिक हैं जो बीज वनस्पति को नष्ट करने से विरत नहीं होते। विनय पिटक (भिक्खु पातिमोक्ख, पाचित्तिय 62) में जानबूझकर प्राणीयुक्त (अनछाने) पानी पीने वाले भिक्षु को पाचित्तिय दोष बताया गया है। इसी तरह भिक्षु को ग्रीष्मऋतु के अपवाद को छोड़कर पंद्रह दिनों से पूर्व स्नान करने को पाचित्तिय कहा है (विनय पिटक भिक्खु पातिमोक्ख, पाचित्तिय 57)। विनय पिटक में ही घास आदि जंतुओं की हिंसा से बचने के लिए वर्षावास का भी विधान है।
किंतु दूसरी ओर पालि साहित्य में भिक्षु और स्वयं बुद्ध भी मांस खाते वर्णित हैं। बुद्ध द्वारा चुंड के घर सूकर मद्दवके खाने का जिक्र (दीघनिकाय, महापरिनिब्बान सुत्त) मिलता है। हालांकि परवर्ती व्याख्याकारों ने सूकर मद्दव शब्द को मांस का बोधक नहीं माना है। जैसे अश्वघोष ने दीघनिकाय की अट्ठकथा में पाली शब्द सूकर मद्दवकी तीन व्याख्याओं का निर्देश किया है-स्निग्ध और मृदु सूकर मांस, पंचगोरस में से तैयार किया हुआ एक प्रकार का एक कोमल अन्न, एक प्रकार रसायन।
उदान की अट्ठकथा में दो और अर्थ मिलते है-सूकर द्वारा मर्दित बांस का अंकुर तथा वर्षा में उगने वाला कुकुरमुत्ता। इसके अतिरिक्त धर्मानंद कोसांबी (भगवान बुद्धः जीवन और दर्शन) ने चीनी परंपरा में इसका अर्थ शर्करा का बना हुआ शूकर के आकार का खिलौना भी बताया है।
सूकर मद्दव शब्द के विषय में बहुत मतभेद हैं, तथापि अंगुत्तरनिकाय के पंचकनिपात में इसके लिए प्रमाण मिलता है कि बुद्ध सुअर का मांस खाते थे। उग्ग गहपति कहता है-मनापं मे भंते संपन्नवर सूकर मंसं ते में भगवा पटिग्गण्हातु अनुकंपं उपादाया ति। पटिग्गहेसि भगवा अनुकंपं उपादया ति। अर्थात भदंत! बढ़िया सुअर का मांस उत्कृष्ट ढंग से पकाकर तैयार किया हुआ है। मुझ पर कृपा करके भगवान उसे ग्रहण करें। भगवान ने कृपा करके वह मांस ग्रहण किया।
बुद्ध के मांसाहार के विषय में मज्झिमनिकाय के जीवक सुत्तंत का वर्णन मांसाहार के विषय में उनकी दृष्टि को स्पष्ट करता है। जीवक द्वारा बुद्ध के मांस-ग्रहण के विषय में पूछे जाने पर बुद्ध कहते हैं कि जीवक मैं तीन प्रकार के मांस को अभोज्य कहता हूं-दृष्ट, श्रुत और परिशंकित अर्थात जीव का अपने लिए मारा जाना देखना, सुनना या शंका होना।......जीवक! तीन प्रकार के मांस को मैं भोज्य कहता हूं अदृष्ट, अश्रुत, अपरिशंकित। इस उदाहरण से यह पता चलता है कि बुद्ध जीवों की अपने लिए हत्या किए जाने या करने को तो पाप मानते हैं, किंतु यदि कोई दान में ऐसा मांस ग्रहण करता है, जिसमें उसके हेतु से प्राणी को नहीं मारा गया तो उसे पाप नहीं मानते।
यद्यपि उनके इस दृष्टिकोण को उनका मध्यममार्ग माना जा सकता है। किंतु यह मार्ग उनकी करुणा से मेल नहीं खाता। इसलिए आगे चलकर महायान में मांस भक्षण की आलोचना की गई है। हीनयान में आत्महत्या को भी हिंसा माना गया है। मज्झिमनिकाय के छन्नोवाद में भिक्षु छन्न द्वारा रोगग्रस्त होने पर पीड़ा से छुटकारा पाने के लिए आत्महत्या करने को बुद्ध अनुचित मानते हुए कहते हैं कि ऐसा करने वालों को जन्ममरण के चक्र से मुक्ति नहीं मिलती।
हीनयान में अहिंसा को एक मूल्य मानते हुए भी इसे परममूल्य न मानकर प्रज्ञा को परममूल्य माना गया है। दीघनिकाय के ब्रह्मजाल सुत्त में बुद्ध कहते हैं भिक्षुओ! कुछ साधारणजन तथागत की प्रशंसा करते हुए यह कहते हैं कि श्रमण गौतम जीव हिंसा को त्यागकर उससे सर्वथा दूर रहते हैं। वे दूसरों पर शस्त्र या दंड प्रहार नहीं करते। भिक्षुओ, ये शील बहुत छोटे और हीन हैं। जिनके कारण साधारण जन मेरी प्रशंसा के पुल बांधते हैं।
दीघनिकाय के कूटदंत सुत्त में बुद्ध अधिक महात्म्य वाले यज्ञों को क्रमशः बढ़ते हुए क्रम में बताते हैं; यह क्रम है-दान यज्ञ, त्रिशरण यज्ञ, शिक्षायज्ञ, पाठ्ययज्ञ (हिंसा, चोरी, झूठ, सुरा से विरति), शील यज्ञ, समाधियज्ञ, प्रज्ञायज्ञ।
- प्रो० शत्रुघ्न चतुर्वेदी
पंचायती राज : द्रष्टव्य : ग्राम-स्वराज्य।
परमहंस, रामकृष्ण : हिंसा उद्वेलित चित्त में दिव्य ज्योति का अवतरण संभव नहीं होता, यह बोध परमहंस रामकृष्ण देव (1836-1886 ई०) का नैसर्गिक बोध था। अहिंसा के अन्य विशिष्ट साधकों से भिन्न थी परमहंस रामकृष्ण देव की अहिंसा-निष्ठा। चेतना के स्तर पर क्रियाशील अहिंसा को परमहंस वरीयता देते थे। उसे पहचानने-परखने वाली सूक्ष्म दृष्टि उपलब्ध थी उन्हें। उनकी अहिंसा-निष्ठा इसीलिए अपेक्षाकृत स्पर्श-कातर थी। बूट पहनकर हरी घास को कुचलते चलने वाले के राजसिक गुमान को लक्ष्य कर परमहंस देव कराहने लगते थे, जैसे कोई उनके सीने की हड्डियों को नृशंसता पूर्वक कुचल रहा हो। भवतारिणी मां और शिव मंदिर के पुजारी गदाधर चटर्जी (श्री रामकृष्ण) के लिए गाछ से बेल-पत्र तोड़ना असंभव था। जैसे गाछ का चमड़ा उतार रहे हों, ऐसी हिंसा-प्रतीति और अपराधजनित सिहरन। इसी तरह किसी अपरिचित चरित्र की भी हिंसक लड़ाई परमहंस की सिद्ध अहिंसा को असह्य थी। वचनामृत का साक्ष्य है कि झगड़ते हुए एक मांझी ने दूसरे की पीठ पर जोर से आघात किया। उस हिंसक दृश्य को देखकर परमहंस कराहने लगे और देखा गया माना जाता है कि मांझी की पीठ के आघात की दाग ठाकुर की पीठ पर उग आई थी। ऐसी स्पर्श-कातर संवेदना थी परमहंस रामकृष्ण देव की।
अहिंसा में आग्नेय तेज भी होता है, श्री रामकृष्ण परमहंस और उनके अनन्यभक्त-चिकित्सक दुर्गाचरण नाग के मार्मिक जीवन-प्रसंग से यह सत्य प्रमाणित होता है। डरते-कांपते, फूंक-फूंक कर चलने वाले श्री रामकृष्ण ने कालना (पश्चिम बंगाल) के वैष्णव बाबाजी के सांप्रदायिक औद्धत्य को अपने दिव्य तेज से नमित कर दिया था। अपनी निरंकुश परमहंस-मुद्रा में श्री रामकृष्ण समाज-विशिष्ट बौद्धिकों के चारित्रिक पाखंड पर ललित कटाक्ष करते रहते थे-चाहे ब्रह्म समाज के शीर्षस्थ बौद्धिक नायक देवेंद्रनाथ ठाकुर हों या बांग्ला के महान गद्यशिल्पी बंकिम चंद्र चट्टोपाध्याय हों, चाहे अपने समय के प्रख्यात संस्कृतज्ञ, शास्त्रवेता भगवती शशधर पंडित हों। पाखंड को परमहंस हिंसा का घिनौना रूप मानते थे। कदाचित् यह एक बड़ा करण था कि पाखंड-शून्य चरित्र नाट्यशिल्पी गिरीश घोष ठाकुर के अंतरंग लीला-सहचर बन गए और उनके रंगमंच से जुड़ी नायिका कुख्यातशील नटी विनोदिनी उन्होंने आशीष-स्पर्श से आश्वस्त-समृद्ध कर दिया था। परमहंस रामकृष्ण देव की अहिंसा-बोध का यह एक मोहक मानवीय रूप था, जो आधुनिक विवेक को भी आलोकित कर देता है।
उस बौद्धिकता को श्री रामकृष्ण देव मनुष्य के लिए अपर्याप्त और मूल्यहीन मानते थे, जो मनुष्य को आश्वस्त नहीं, आतंकित करती है। आतंक रचना हिंसा-बुद्धि की प्रकृति है। किसी प्रकार की हिंसा परमहंस देव के विवेक को स्वीकार्य नहीं थी। वे अपनी आराध्या मां से प्रायः आर्त्त कंठ से प्रार्थना करते रहते थे कि मेरी तर्क बुद्धि हर ले मां! उनकी दिव्य प्रज्ञा के सामने यह सत्य उजागर था कि तर्क हिंसा की जमीन को पुष्ट करता है और साक्षात्कार में तमस् की दीवाल खड़ी कर देता है। बुद्धि की प्रकृति है प्रतिरोध कीतर्क रचना। इसीलिए कठोपनिषद् के ऋषि ने मेधा को सत्य-साक्षात्कार में बाधक माना है-न मेधया न बहुना श्रुतेन।
प्रतिरोध-बुद्धि के शमित होने पर अहिंसा की जमीन उपलब्ध होती है और तभी सत्य का साक्षात्कार संभव होता है। आधुनिक भारतीय राजनीति में अहिंसा का प्रयोग करने वाले महात्मा गांधी ने साम्राज्यवादी अंग्रेज जाति का नहीं, अंग्रेजों की साम्राज्यशाही का प्रतिरोध किया था। उनका अहिंसक संग्राम साम्राज्यशाही दैत्य के प्रतिरोध में क्रियाशील था, अंग्रेजों के प्रति उनकी मैत्री-भावना कभी क्षीण नहीं हुई। महात्मा गांधी की पुष्ट अहिंसा-निष्ठा का यह प्रमाण है, जो उनकी सत्य-उपलब्धि का भी संकेत है। महर्षि श्री अरविंद को वासुदेव (सत्य) के दर्शन का मुहूर्त्त उपलब्ध करने में एक साधना-अवधि पूरी करनी पड़ी थी। किंतु श्री रामकृष्ण की नैसर्गिक अहिंसा-दृष्टि ने बाल्यकाल में ही अपनी मां (सत्य) का साक्षात्कार कर लिया था और उस दिव्य-ज्योति पर, जो आकाश में उड़ते बगुलों की श्वेत लय में व्यंजित थी, दृष्टि पड़ते ही गदाधर (श्री राम कृष्ण देव) की भौतिक धरातल की प्रतीति लुप्त हो गई थी, और परालोक अपने आलोक-वैभव के साथ उनके सामने उद्घाटित था। अहिंसा-बोध की वह पराकाष्ठा थी, अध्यात्म-प्रतीति का उन्नत, उज्जवल सोपान था।
परमहंस रामकृष्ण की उपलब्धि के मूल में उनकी भाव-साधना थी। परमहंस की प्रज्ञा के सामने यह सत्य उजागर था कि ज्ञान कांड अपूर्ण कांड है। वह अपनी प्रकृति में अपर्याप्त होता है, क्योंकि ज्ञान के साथ अज्ञान की छाया लगी रहती है। भाव कांड स्वयं में पूर्ण होता है। कदाचित् इसी विवेक के आग्रह से परमहंस की आध्यात्मिक विभूति के संवाहक, प्रचंड बुद्धिवादी स्वामी विवेकानंद ने कहा था कि यदि हृदय और बुद्धि में विरोध उत्पन्न हो, तो तुम हृदय का अनुसरण करो, क्योंकि बुद्धि केवल एक तर्क के क्षेत्र में ही काम कर सकती है, वह उसके परे जा ही नहीं सकती। केवल हृदय ही उच्चतम भूमिका में ले जाता है, वहां तक बुद्धि कभी नहीं पहुंच सकती। हृदय बुद्धि का अतिक्रमण कर जिसे हम अंतःस्फुरण कहते हैं उसे पा लेता है। बुद्धि कभी अंतःस्फुरित नहीं हो सकती। केवल उद्बोधित हृदय ही अंतःस्फुरित हो सकता है। वह हृदय ही है जो अंतिम ध्येय तक पहुंच सकता है। इसी विश्वास-बल के साथ स्वामी विवेकानंद ने, अमरीका-यूरोप की सभ्यता-समृद्धि की सूक्ष्म पड़ताल करने के बाद पाश्चात्य जगत् को संबांधित कर उनकी भौतिक उपलब्धि की उस एक पक्षीय कमाई और संकीर्ण सीमा पर, जो अहिंसा की आबोहवा को हिंसा की स्पर्द्धा में बदलकर सारे मूल्यों को लीलने वाली बर्बरता की जमीन तैयार करने वाली थी, टिप्पणी की थी, तुम्हारी पाश्चात्य संस्कृति का एक बड़ा दोष यह है कि तुम केवल बौद्धिक शिक्षा की ही चिंता करते हो, हृदय की ओर ध्यान नहीं देते। इसका फल यह होता है कि मनुष्य दस गुना अधिक स्वार्थी बन जाता है। यही तुम्हारे नाश का कारण होगा। बुद्धि सुसंस्कृत की गई, फलतः मनुष्यों ने सैकड़ों विज्ञानों का आविष्कार किया और उसका परिणाम यह हुआ कि कुछ थोड़े मनुष्यों ने बहुत से मनुष्यों को अपना गुलाम बना डाला.....बस, यही लाभ इससे हुआ है। अनैसर्गिक आवश्यकताएं उत्पन्न कर दी गईं। प्रत्येक गरीब मनुष्य, चाहे फिर उसके पास पैसा हो या न हो, इन आवश्यकताओं को तृप्त करना चाहता है और जब उन्हें वह तृप्त नहीं कर पाता, तो संघर्ष करते-करते ही मर जाता है। यही है बुद्धि की अंतिम गति। दुःख दूर करने की समस्या बुद्धि से नहीं हल हो सकती है, वह केवल हृदय से ही हो सकेगी। .....वास्तव में हृदय का संस्कार ही इस दुनिया में दुःखों को कम करेगा, न कि बुद्धि का। विवेकानंद की विचारणा में श्री रामकृष्ण परमहंस की जीवन-लीला की ही प्रतिध्वनि गूंजती थी। परमहंस देव की आध्यात्मिक उपलब्धि के मूल में बौद्धिक साधना नहीं, सरल और निष्कलुष हृदय की ही एकांत भूमिका थी। और यही अहिंसा की उज्जवल भूमिका है। भारत के जातीय प्रत्यय की यही स्वकीय पहचान है।
आधुनिक जगत् की व्यावसायिक सभ्यता हिंसा और पाशव भाव को समृद्ध और उत्तेजित करने वाली है, जिसकी प्रकृति में भोग-उपकरणों के संग्रह की हिंसक स्पर्धा होती है और जो भारत की जातीय संस्कृति के लिए विजातीय है। न केवल भारत बल्कि मनुष्य जाति के लिए उस सभ्यता का कुछ भी विधायक मूल्य नहीं है, जो महज स्नायविक उत्तेजना पैदा कर मनुष्य को पशु के हिंसक धरातल पर उतार दे। श्री रामकृष्ण परमहंस द्वारा उन्मीलित स्वामी विवेकानंद की दृष्टि पाश्चात्य उपभोक्ता सभ्यता के मर्म को समझ रही थी। इसलिए मनुष्य जाति के मंगल की चिंता से पश्चिम के ब्याज से, उनके आंगन में खड़े होकर मानव जाति को बड़े बल के साथ पुनः पुनः सचेत किया था। यही प्रत्यय-संवेदना बीसवीं सदी के विश्व-ख्यात अहिंसा के मसीहा महात्मा गांधी के हिंद स्वराज में 1909 ई० में प्रकट हुई थी। बुद्धि विरचित उपभोक्ता सभ्यता के प्रति, जिसे गांधीजी आसुरी सभ्यता कहते थे, और जिसके मूल में उन्होंने लोभ को लक्ष्य किया था, मनुष्य जाति को आगाह किया था एक शताब्दी पूर्व। किंतु महात्मा गांधी की अहिंसा-संवेदना के मर्म को केवल अर्थ-समृद्ध पाश्चात्य लोक में नहीं बल्कि उनके अपने देश के भोग-संसक्त मानस ने भी यथा समय नहीं समझा, उनके घोषित राजनीतिक वारिस जवाहरलाल नेहरू की हिंद स्वराज की विचारणा में रूचि नहीं थी और न तो भारत के जातीय संस्कार पर खड़ा हिंद स्वराज का सत्य उनके जैसे विशिष्ट प्रतिभाशाली राजनेता की समझ में आया था।
लोभ के संदर्भ में हिंद स्वराज के दार्शनिक वकील और चिकित्सक को स्मरण करते हैं। और अपनी सत्संग-वार्ता में श्री रामकृष्ण परमहंस प्रायः कहा करते थे, वकील और चिकित्सक की सद्गति नहीं होती। उनकी दिव्य दृष्टि ने वकील और चिकित्सक के भीतर लोभ की व्याकुल और प्रदूषित जमीन लक्ष्य कर ली थी। आधुनिक भारत की दो महान विभूतियों का यह सोच-साम्य द्रष्टव्य है कि उदात्त चरित्र का विचार-कोण सनातन सत्य पर केंद्रित होता है, और उसका मूल्य सदा विधायक बना रहता है।
संप्रति जो अमेरिका लोकतंत्र और विचार-स्वातंत्र्य का सबसे अधिक हल्ला करने वाला है, वह अपनी प्रभुता के सामने सारे भूमंडल का माथा नमित करने को हिंसा-उद्धत है, और अपने हिंसक आयोजन से मनुष्य जाति को आंतकित किए रहना उसकी रणनीति का मुख्य कार्यक्रम है। भौतिक समृद्धि का दंभ विवेक को दुर्बल बना देता है और तब यह सत्य समझना कठिन हो जाता है कि लोकतंत्र की बुनियादी शर्त है अहिंसा। श्री रामकृष्ण देव अपनी अंतरंग बैठक में अपने करीबी लोगों को सचेत करते रहते थे, जिस सत्य में तू विश्वास करता है, वह पक्का होना चाहिए, लेकिन दूसरे के सत्य पर आघात करने का तुम्हें अधिकार नहीं है। परमहंस देव की अहिंसा-चेतना बेहद सूक्ष्म और संवेदनशील थी, जिसका गहरा संस्पर्श उनके अंतरंग चरित्रों में मुखर था। कैलिफोर्निया के सार्वभौमिक मंदिर-परिसर में 28 जनवरी 1900 ई० को उपलब्धि का मार्ग सुझाते उच्च स्वर में स्वामी विवेकानंद ने अपना चिंतन-पक्ष स्पष्ट किया था, यदि मैं विचारशील हूं तो मुझे इसमें आनंदित होना उचित है कि सब मेरी तरह नहीं सोचते।..........विचार-शील व्यक्तियों में ही मतभेद रहेगा; कारण भिन्नता ही विचार का प्रथम लक्षण है। यदि मैं विचारशील हूं तो मुझे विचारशील लोगों के साथ ही रहने की इच्छा होनी चाहिए, जहां मत की भिन्नता वर्तमान हो। अमेरिका के विभिन्न विचार-मंचों से स्वामीजी ने अपने गुरु परमहंस रामकृष्ण के साथ ही ईशदूत ईसा मसीह, भगवान बुद्ध और मुहम्मद साहब की दैवी विभूति-करुणा, मैत्री-का गहरी श्लाघा के साथ उच्चारण किया था। स्वामी विवेकानंद की अहिंसा-भूमिका का ही वह उज्जवल रूप था, जो परमहंस की आध्यात्मिक विभूति की ज्योति से संपन्न थी।
रानी रासमणि के जामाता और उनके राज्य के व्यवस्थापक मथुरनाथ विस्वास परमहंस रामकृष्ण देव को तीर्थटन-वैद्यनाथ धाम, काशी, प्रयाग और वृंदावन धाम की यात्रा-कराने ले गए थे। पहला पड़ाव वैद्यनाथ धाम था। वहां अपने सत्याग्रह से परमहंस ने दिव्य दृश्य रच दिया था। भगवान वैद्यनाथ के अभिषेक के बाद भी उन्हें तोष नहीं हो रहा था कि वैद्यनाथ धाम की पूजा पूरी हो गई। मंदिर के बाहर खड़े निरन्न-निर्वस्त्र संथालों पर दृष्टि पड़ते ही उन्होंने भाव-विगलित हो मथुरानाथ को संबोधित किया, तूने जल-दूध से किसे नहलवाया, शिव-पार्वती, कार्तिकेय-गणेश तो यहां भूखे खड़े हैं। इन्हें अन्न-वस्त्र से तुष्ट कर ताकि वैद्यनाथ धाम की पूजा पूरी हो। हठीले आग्रह के साथ श्री रामकृष्ण अनशन पर बैठ गए थे। परमहंस के दिव्य बोध और अहिंसा-निष्ठा का ही वह उज्ज्वल रूप था। परमहंस के सत्याग्रह के सामने मथुरानाथ का राजसिक गुमान अंततः झुक गया था। परमहंस की दृष्टि में वर्द्धमान राज्य के प्रधान पंडित, परम नैष्ठिक ब्राह्मण, मनीषी पद्मलोचन पंडित और दक्षिणेश्वर मंदिर के जमादार रसिक लाला हाडी में ऊंच-नीच का कोई भेद नहीं दिखाई पड़ता था। बीसवीं शताब्दी की भारतीय राजनीति में सत्याग्रह का प्रयोग करने वाले महात्मा गांधी की कर्म-चर्या और जीवन-प्रत्यय परमहंस-पथ का ही अगला राजनीतिक चरण था, जिसे लक्ष्य कर हिंदी के महान कथा-शिल्पी प्रेमचंद ने अपनी भार्या शिवरानीजी से कहा था कि जो मेहतर की लड़की को अपनी थाली में खिलाता है, उस महात्मा गांधी से बढ़कर और दूसरा ईश्वर कौन होगा! (द्रष्टव्यः प्रेमचंद-घर में) परमहंस और उनके द्वारा उन्मीलित अंतरंग लोगों, जिन्हें वे आपनजन कहते थे, की दृष्टि प्रत्येक नर में नारायण के दर्शन करती थी। वह वेदांत का सटीक बोध था। इस बोध को उपलब्ध किए बिना अहिंसा की सच्ची ज्योति उपलब्ध करना असंभव है।
एक पगली जाने कहां से चलकर अनर्गल राग में बोलते-गाते दक्षिणेश्वर परमहंस-कक्ष के बरामदे में पहुंच जाती थी। और उसके प्रति करुणाशील होते हुए ठाकुर उसके अर्जलाविहीन आचरण से कुछ क्षण के लिए विव्रत हो जाते थे। जब चिकित्सा के लिए काशीपुर उद्यान-भवन में परमहंस अपने लीला-सहचारों के साथ प्रवास कर रहे थे, पगली खोजते-खोजते वहां भी भवन के ऊपरी तल्ले पर ठाकुर के कमरे के सामने पहुंचने लगी थी। एक दिन किंचित् उद्विग्न हो अपनी सेवा में नियुक्त लोगों से पूछा कि तू सबकी कड़ी पहरेदारी के बाद भी वह पगली ऊपर चढ़ कैसे जाती है। निरंजनानंद ने तपाक से उत्तर दिया, ठाकुर अगली बार आई तो यहीं से उठाकर बाहर फेंक दूंगा। परमहंस ने बोध-स्पर्श दिया, तेरा घी जगा है। संन्यासी बनने चला है, अहिंसा-करुणा का अर्थ और मूल्य समझने की चेष्टा कर। विक्षेप की दवा ताड़ना नहीं करुणा है। पगली के मानस के छंद को जिस दंश ने छिन्न-भिन्न कर दिया है, उसका एक मात्र उपचार करुणा है, वह हिंसा नहीं, जो तेरे भीतर उद्धत हुई है। समझ इस सत्य को, हिंसा समाधान नहीं, समस्या रचती है। परमहंस श्री रामकृष्ण को समग्र लीला-प्रसंग में ऐसे ही प्रेरक प्रकाश-सूत्र हैं, जो हिंसा-विरति की बड़ी सहजता के साथ जमीन तैयार करते हैं।
अबौद्धिक परमहंस श्री रामकृष्ण के सत्य ने अपने समय को गहरे में स्पर्श किया था और शीर्ष बौद्धिक विभूतियां गंवई बोली-बानी में छंदित परमहंस लीला तथा सरल अध्यात्म-उद्भावना के सामने नमित हो गई थीं। किंतु परमहंस की अहिंसा और सत्य के सघन संस्पर्श का रूपांतकारी प्रभाव उनके अंतरंग लीला-सहचरों विशेषतः सरल आधार वाले शारदा मां, लाटू महाराज, नाग महाशय और नाट्य शिल्पी गिरीशचंद्र घोष के चरित्र पर दिखाई पड़ा। शारदा मां की तितिक्षा, लाटू महाराज की समर्पण-निष्ठा, नाग महाशय के अपरिग्रह तथा सेवा-निष्ठा और कदाचार में आकंठ डूबे, महान प्रतिभा के मालिक गिरीशचंद्र घोष की सरलता में श्री रामकृष्ण देव की अहिंसा की अनुगूंजें निरंतर मुखर रहती थीं, अपने जगत् की उद्धत हिंसा को अपनी अर्जित ज्योति से प्रशमित करते हुए।
- कृष्णबिहारी मिश्र
परहित (Altruism) : परहित के भाव को वैज्ञानिकों द्वारा विशिष्ट मानव-लक्षण बताया गया है। समस्त जीवों में मनुष्य का मस्तिष्क ही सबसे अधिक विकसित और उन्नत है। मस्तिष्क व शरीर के वजन का सर्वश्रेष्ठ अनुपात मानव में ही पाया जाता है। स्वाभाविक ही इससे सवाल उठता है कि अपने उद्विकास (evolution) की इस अवस्था में मानव मस्तिष्क की श्रेष्ठतम चारित्रिकता क्या है। मस्तिष्क की भौतिक संरचना के दायरे में हमारे बुद्धि-सामर्थ्य की पहुंच कहां तक हो सकती है? दूसरे शब्दों, में हमारे मस्तिष्क की क्या कोई क्षमता और प्रवृत्ति ऐसी है जो अन्य सभी जीवों में नगण्य है और इस वजह से हमारा वैज्ञानिक नामकरण होमोसेपियन यानि बुद्धिमान वानर न्यायोचित भी है?
20वीं सदी के अग्रणी तंत्रिका विज्ञानी सर-चार्ल्स शेरिंगटन (नोबेल पुरस्कार-चिकित्सा, 1932 ई०) अपने वर्षों के गहन शोध के आधार पर इस नतीजे पर पहुंचे कि मानव मस्तिष्क के उच्चतम चिंतन की परिणति है-परहित।
महती बात यह है कि परहित की अवधारणा एक सकारात्मक विचार एवं भावना है। अहिंसा या नोन-वायलेंस, एक नकारात्मक शब्द कहा गया है एवं निहित सारे भाव इससे प्रकट नहीं होते। अहिंसा की अवधारणा, परहित (altruism) या करुणा (compassion) की ही परिणति है। तुलसीदास जी ने लिखा भी है : परहित सरसधरम नहीं भाई/परपीड़ा सम नहीं अधमाई। पर यह हमारे स्वभाव और व्यवहार को अभी पूरी तरह नियंत्रित नहीं कर पा रहा।
मानव न केवल चेतन प्राणी है वरन् वह आत्म-जाग्रत भी है। हम यह जानते हैं कि हम क्या जानते हैं, या कि हम क्या नहीं जानते। हम यह भी जानते हैं कि एक न एक दिन हमारी मृत्यु अवश्य होगी। हम उस परिस्थिति का भी अनुभव कर सकते हैं जिसका कारण वास्तव में हमारे शरीर में ही नहीं बल्कि किसी और के साथ घटित हो रहा है। हम किसी निकट संबंधी यहां तक कि किसी पशु के दुख-सुख से भी प्रभावित होते हैं और उसके लिए कई बार प्रयास भी करते हैं। शेरिंगटन के अनुसार परहित-संवेदना अन्य अर्थों में अहिंसा है। किसी और जंतु का मस्तिष्क इस संदर्भ में मानव मस्तिष्क से तुलना योग्य नहीं है।
शेरिंगटन ने परहित के रहस्यमय उद्गम की और भी व्याख्या की है। उन्होंने यह भी रोचक प्रश्न किया कि-जैविक उद्विकास (evolution) में परहितवाद का क्या कोई उद्देश्य है या इसके पीछे केवल ईश्वर का हाथ है। परहित सभी महान धर्मों की शिक्षा का एक प्रमुख भाग रहा है। परहितानुकूल आचरण किसी भी कल्याणकारी समाज जैसे राम-राज्य या यूटोपिया (utopia) की अभिकल्पना का आधार है। परहित एवं संवेदना को नैतिक आचरण की एक विशेष अभिव्यक्ति के रूप में देखा जा सकता है। इसमें व्यक्ति बिना किसी व्यक्तिगत लाभ के दूसरों की भलाई करता है।
स्पष्टतया, सच्चे परहित के दो आवश्यक लक्षण है : (1) कर्म इरादतन (intentional) एवं नियोजित (planned) होना चाहिए। (2) कर्म का उद्देश्य दूसरों की सहायता करना होना चाहिए न कि अपना स्वार्थ। संवेदना या करुणा का संबंध बुद्धिमता से भी है। संवेदना, बिना प्रेम के संभव नहीं है। इसमें व्यक्तिगत ईर्ष्या एवं पूर्वग्रहों के लिए कोई स्थान नहीं होता। पूरे समुदाय की पूर्वनियोजित व्यवस्था के हित में अपनी आहुति देने की कई कीड़ों, मक्खियों आदि में जन्मजात प्रवृत्ति को परहित या altruism नहीं कहा जा सकता क्योंकि यह इरादतन निर्णय नहीं है।
चिकित्सा-विज्ञान तथा मानव-विज्ञान में अहिंसा शब्द यदा-कदा ही प्रयुक्त होता है। इसके स्थान पर उग्र आचरण व आक्रामकता का उल्लेख होता है। आक्रामक बर्ताव सभी प्राणियों में व्यक्तिगत सुरक्षा, प्रजनन व परिवार पोषण एवं भोजन प्राप्त करने हेतु आवश्यक प्रतीत होता है। प्रतिस्पर्धात्मक एवं जटिल पर्यावरण में आक्रामकता एक जैविक आवश्यकता जान पड़ती है। लेकिन इस आक्रामकता को अंतर्जात हिंसा नहीं कहा जा सकता क्योंकि यह स्व-पोषण एवं आत्म-सुरक्षा के प्रयोजन से होती है।
करुणा या सवंदेना के सबसे प्राचीन प्रमाण 60,000 से 80,000 वर्ष पूर्व पाए गए हैं-जैसे मानव का दूसरे जरूरतमंद साथियों की मदद करना, व मृत व्यक्ति का सम्मानजनक, आनुष्ठानिक अंतिम संस्कार करना है। मृत इंसानों के आनुष्ठानिक अंतिम संस्कार के आचरण को मानव इतिहास में संवेदना का सबसे पुराना प्रामाणिक लक्षण माना गया है।
क्या भविष्य में युद्ध, हिंसा व सामाजिक अशांति को समाप्त करने में परार्थ या करुणा का विकास परिव्याप्त हो सकेगा? क्या मानव वृत्ति में ऐसा आक्रामकता निरोध (aggressive inhibition) विकसित होगा जो हिंसा पर अहिंसा की विजय का साधन बने? क्या हमारा जन्मजात संयम हिंसा के नए-नए हथियारों को मात दे सकता है? अहिंसा व अपरिग्रह की अवधारणाएं, जो कि हजारों सालों से हमारी पथ-प्रदर्शक रही हैं, क्या हमारी सहज वृत्ति व रोजमर्रा के आचरण का हिस्सा बन सकती हैं?
सभ्यता की अरुणिमा से ही एक मौलिक प्रश्न हमें उद्वेलित किए हुए है, वह है-मानव मन का रहस्य। क्या मन, चेतना, आत्मा आदि मानव मस्तिष्क की एक कार्यप्रणाली मात्र हैं? या यह सब दिव्य, शाश्वत, हमारी समझ से परे, अनंत एवं कल्पनातीत हैं? मन और मस्तिष्क के गूढ़ संबंधों के बारे में हम सदियों से सोचते रहे हैं, परंतु कोई अंतिम सत्य नजर नहीं आता।
मानव मस्तिष्क में कोई 100 अरब (यानि 10,000,00,00,000) तंत्रिकाएं (Neurons) हैं। और हर तंत्रिका का 200 अन्य तंत्रिकाओं से संबंध हो सकता है। यह तंत्रिकाओं का अत्यंत जटिल जाल है, जिसकी सूक्ष्मता और विशालता हमें आश्चर्य चकित कर देती है। इस जाल में विद्युत संकेत विभिन्न दिशाओं में निरंतर प्रवाहित होते रहते हैं। विभिन्न रासायनिक तंत्रिका संप्रेषक (neurotransmitters) इन विद्युत संकेतों के संप्रेषण को नियंत्रित करते हुए उसे अर्थपूर्ण स्वरूप प्रदान करते हैं।
क्या मानव मन एवं चेतना तंत्रिकाओं के इस अनंत प्रतीत होने वाले जाल से उपजा है? या सत्य कुछ और ही है? मन या चेतना (consciousness) प्राथमिक है, और मस्तिष्क-यह तंत्रिकाओं का जाल-केवल उस चेतना की अभिव्यक्ति का एक साधन या उपकरण। क्या हम अनुमान एवं विश्लेषण करते ही रह जाएंगे एवं मानव मन सदैव विज्ञान के लिए अबूझ ही रहेगा।
कई मूर्धन्य वैज्ञानिक एवं नोबेल पुरस्कार से सम्मानित विद्वान, जिनमें जॉर्ज वॉल्ड, रोजर स्पैरी, चार्ल्स एकल्स, इरविन श्रोडिंगर भी शामिल हैं, यह मानते हैं कि मन एवं चेतना सदैव हमारी वैज्ञानिक समझ की परिधि से बाहर ही रहेंगे। अग्रणी तंत्रिका-विज्ञानी एवं शल्य चिकित्सक वाइल्डर पेनफिल्ड ने भी अपने जीवन भर के अनुभव के आधार पर यह माना है कि रोगियों के मस्तिष्क पर ऑपरेशन करते समय उन्हें कभी यह नहीं लगा कि मन को मस्तिष्क की संरचना के आधार पर समझाया जा सकता है। लेकिन उद्विकास की दृष्टि से हो या चेतना के रहस्यमय उद्गम की दृष्टि से हो-दोनों ही तरह परहितवाद मानवीय चारित्रिकता के रूप में स्वीकार किया जाता है और इसी के आगामी विकास में मानवीय भविष्य की संभावनाएं निहित है।
- डॉ० एल०के० कोठारी
परहितवाद को कई बार जीव पारिस्थितिकी, तंत्रिका-विज्ञान और आनुवंशिकी के आधार पर भी समझने की कोशिश की जाती है। रूसी वैज्ञानिक और अराजकतावादी दार्शनिक क्रोपाटकिन ने अपने शोध-ग्रंथ म्युचुअल एड : ए फेक्टर ऑफ इवोल्यूशन में पशु-जगत में सहकारी प्रवृत्तियों के बारे में लिखा। इसी तरह प्रसिद्ध तंत्रिका-वैज्ञानिक जोर्ज मोल और जोर्डन ग्राफमैन ने अपने शोध में प्रमाणित किया कि आर्थिक लाभ और पुरस्कार आदि मस्तिष्क के उस हिस्से को सक्रिय करते हैं, जिसका संबंध भोजन और यौन-संतुष्टि से है, जबकि अन्य की निस्वार्थ सहायता करते समय मस्तिष्क का सबजेनुअल कोर्टेक्स या पटीय प्रदेश (septal region) सक्रिय होता है, जो इस बात का संकेत है कि परहित मानव-मस्तिष्क के लिए बुनियादी तथा आनंदप्रद प्रवृत्ति है। इसी तरह आनुवंशिकी वैज्ञानिक सैमुअल बोल्स (Samuel Bowls) का शोध बताता है कि समूह के हित के लिए अपने हित को बलि देने की प्रवृत्ति कुल मिलाकर समूह और इस प्रकार व्यक्ति के लिए भी लाभप्रद पाई गई है, जिससे समूह का औसत सामर्थ्य और अंतस्संबंधत्व बढ़ता है। यह माना जा सकता है कि मनुष्यों के विभिन्न समूहों का इसी प्रकार का पारस्परिक सहकार सभी पक्षों के लिए लाभदायक सिद्ध हो सकता है।
द्रष्टव्य : क्रोपाटकिन।
- संपादक
पर्यावरण-चेतना : आचारांग सूत्र : किसी एक जीवन अथवा जीव समूह अथवा परिवेश को समेटे रखने वाली सभी भौतिक वस्तुओं और परिस्थिति का वह जाल जो अंततः उसके रूप तथा अस्तित्व को निर्धारित करता है, पर्यावरण कहलाता है। इस पर्यावरण को हानि न पहुंचे इस बात के प्रति जाग-रूकता अहिंसक जीवनशैली में अंतर्निहित है। अहिंसक आचार संहिता में व्यक्ति और समाज को प्राकृतिक पर्यावरण को हानि पहुंचाने का निषेध मात्र ही नहीं, समानता और मैत्री की भावना के माध्यम से बिगड़े पर्यावरण संतुलन को पुनर्स्थापित करने का उपाय भी निहित है।
दुनिया के जिस भी धर्म और जीवनशैली ने अहिंसा को जहां जितना स्थान दिया है, वह उतना ही पर्यावरण के सरंक्षण के निकट गया है, यह ऐसा प्रत्यक्ष यथार्थ है जिसे साक्ष्य की आवश्यकता नहीं। संसार के सभी धर्म-दर्शनों में दो ऐसे हैं जिनमें अहिंसा की सर्वाधिक चर्चा हुई है, बल्कि यह कहना अधिक उपयुक्त होगा कि उनका आधार ही अहिंसा है, वे हैं जैन दर्शन और बौद्ध दर्शन। इनमें भी अहिंसा पर आधारित जीवनशैली विकसित करने और उसे स्थापित करने का व्यापक और तर्कसंगत कार्य जैन धर्म ने किया है। महावीर के प्रथम और आधारभूत उपदेश के रूप में मान्य शास्त्र है आचारांग सूत्र। हम उसी में उपलब्ध, पर्यावरण का नाम लिए बिना ही उसके प्रति जागरूकता, और उससे प्रेरित पर्यावरण संरक्षण के बिंदुओं को देखें तो अहिंसा और पर्यावरण का घनिष्ठ संबंध स्पष्ट हो जाएगा।
आचारांग का आरंभ जीवन की गति की दिशा के प्रति जागरूकता से होता है। इस गति की प्रचलित परिभाषा जुड़ी है पुनर्जन्म से। पर उसे सामान्य जीवन की भौतिक तथा व्यावहारिक गति के संदर्भ में देखें तो पाते हैं कि किसी भी पदार्थ अथवा जीवन की गति की दिशा पर्यावरण की सुरक्षा और विनाश के लिए बहुत महत्त्वपूर्ण होती है। पर्यावरण में असंख्य जीवों-पदार्थों और शक्तियों का एक जटिल और जीवंत संतुलन सदैव विद्यमान रहता है। इनमें से किसी एक प्रणाली के असंख्य घटकों में से एक की स्वाभाविक या नैसर्गिक दिशा में परिवर्तन हो तो उस सारे संतुलन पर प्रभाव पड़ता है। ऐसी स्थिति में मनुष्य, जो अपने विचारों को कार्यरूप देने की अनोखी क्षमता रखता है, यदि अपनी तथा अपने आसपास की वस्तुओं की सहज-स्वाभाविक गति की दिशा से अनभिज्ञ हो तो उसका आचरण स्वयं उसके लिए ही नहीं, प्रकृति में रहे संतुलन के लिए भी घातक हो सकता है।
गति व दिशा के ज्ञान या उसके अभाव से जीवन और क्रियाएं प्रभावित होती हैं। यह स्थापित करने के बाद आचारांग में न करने योग्य क्रियाओं की बात की है। क्योंकि उन क्रियाओं का परिणाम व्यथा है, वेदना है, पीड़ा है, दुःख है और हनन है, अतः उन क्रियाओं को हिंसा की संज्ञा देकर त्याज्य बताया है। सब प्राणी, भूत, जीव और सत्त्वों के लिए अपरिनिर्वाण (अशांति) अप्रिय, महाभयंकर और दुःखरूप है-ऐसा मैं कहता हूं (1/6/122)। सब आत्माएं समान हैं-यह जानकर पुरुष समूचे जीव-लोक की हिंसा से उपरत हो जाए (3/1/3)।
यह हिंसा समस्त जीव जगत को प्रभावित करती है और जैन अवधारणा में यह जीव-जगत अत्यंत व्यापक है। इस जीव जगत के स्थूल या सूक्ष्म, किसी भी अंग के प्रति हिंसा पर यथाशक्ति संयम रखने की भावना पर आधारित है अहिंसक आचरण।
महावीर ने मानव इतिहास में सर्वप्रथम दृष्ट जगत से परे सूक्ष्म जीवन की अवधारणा को सशक्त व तर्कसंगत रूप से प्रस्तुत किया है। महावीर का षड्जीव निकाय का यह सिद्धांत आचारांग के इसी प्रथम अध्ययन में उपलब्ध है। उन्होंने पृथ्वी, जल, वायु और अग्नि तत्त्वों पर आधारित और पोषित सूक्ष्म जीवों के चैतन्य और उनके प्राणों की वेदना को मानवीय अनुभूति के आधार पर मार्मिक शब्दों में परिभाषित और स्थापित किया है। मैं कहता हूं-पृथ्वीकायिक जीव जन्मना इंद्रिय-विकल-अंध, बधिर, मूक, पंगु और अवयवहीन मनुष्य की भांति अव्यक्त चेतना वाले होते हैं। शस्त्र से भेदन-छेदन करने पर जैसे जन्मना इंद्रिय-विकल अंधे मनुष्य को कष्टानुभूति होती है, वैसे ही पृथ्वीकायिक जीवों को होती है। (1/2/280)। मनुष्य को मूर्च्छित करने या उसका प्राण-वियोजन करने पर उसे कष्टानुभूति होती है, वैसे ही पृथ्वीकायिक जीव को होती है। (1/2/30)
इस प्रकार सर्वप्रथम पृथ्वीकायिक जीवों के प्रति होने वाली हिंसा का वर्णन करके हिंसा के क्षेत्र के विस्तार में आचारांग में पर्यावरण के समस्त घटकों को समेट लिया गया है। इसी क्रम में जलकाय, वायुकाय और अग्निकाय के जीवों की बात की है। जीवों के इस सूक्ष्म जगत् में होने वाली क्रियाएं हमें प्रभावित करती हैं तथा हमसे प्रभावित होती हैं। ऐसी स्थिति में हमारी वह प्रत्येक क्रिया जो उस सूक्ष्म जगत् को हानि पहुंचाती है हिंसा है और त्याज्य है।
पृथ्वी, वायु, जल तथा अग्नि के बाद वनस्पति की रक्षा का उल्लेख है। वन-संरक्षण की ओर जागरूकता और संवेदनशीलता के लिए मानव शरीर से वनस्पति की तुलना पुष्ट प्रमाण के रूप में प्रस्तुत की है-मनुष्य शरीर और वनस्पति दोनों जन्मते हैं, बढ़ते हैं, चैतन्ययुक्त हैं, छिन्न होने पर म्लान होते हैं, आहार करते हैं, अनित्य हैं, अशाश्वत हैं, उपचित और अपचित होते हैं, और विविध अवस्थाओं को प्राप्त होते हैं। इसके बाद मनुष्य सहित दृष्ट जगत् के सभी गतिमान जीवों की रक्षा का उल्लेख है जिन्हें आचारांग में त्रसकाय कहा है।
हिंसा की पारंपरिक परिभाषा से कहीं विस्तृत और व्यापक है आचारांग में हिंसा की यह अवधारणा। प्रत्येक प्राणी को सुख इष्ट है, यह देखकर और जानकर तुम हिंसा से विरत होओ। (1/6/121)। यह अहिंसा धर्म शुद्ध, नित्य और शाश्वत है। आत्मज्ञ अर्हतों ने लोक को जानकर इसका प्रतिपादन किया। (4/1/2)
जिन सभी तत्त्वों पर प्राणिमात्र का जीवन आधारित है, उन्हें भी जीव की संज्ञा देने की बात में प्रकृति के प्रति मनुष्य के एक बहुत बड़े उत्तरदायित्व की बात निहित है। हिंसा केवल दृष्ट जीवन को नष्ट करने में नहीं है। आचारांग में परिभाषित हिंसा में दृष्ट जीवन की सुदूर भविष्य में विकसित होने की संभावना मात्र को नष्ट करना भी सम्मिलित है। पर्यावरण-संरक्षण के प्रति सैद्धांतिक तथा व्यावहारिक दोनों पक्षों की विस्तृत चर्चा की है आचारांग में।
हिंसा के माध्यम के रूप में आचारांग में शस्त्र का उल्लेख है। शस्त्र द्वारा घात कर हानि पहुंचाना हिंसा है। शस्त्र दो प्रकार का होता है-द्रव्यशस्त्र और भावशस्त्र। सभी मारक पदार्थ द्रव्यशस्त्र हैं और असंयम भावशस्त्र है। द्रव्यशस्त्र के तीन प्रकार हैं-स्वकायशस्त्र (काली मिट्टी, पीली मिट्टी के लिए), परकायशस्त्र (अग्नि मिट्टी के लिए) और तदुभय (मिट्टी मिश्रित जल अन्य मिट्टी के लिए)। अर्थात् प्रत्येक वस्तु वह शस्त्र है जो अन्य वस्तु के नैसर्गिक स्वभाव के विपरीत है, अतः घातक है। पृथ्वी, जल, वायु तथा अग्नि में अप्राकृतिक तथा विपरीत स्वभावी अन्य वस्तुओं को जबरन मिलाना हिंसा है।
हिंसा के क्षेत्र और साधनों की इस व्यापक चर्चा के साथ हिंसा में प्रवृत्त होने के कारणों का उल्लेख है। वे कारण हैं-वर्तमान जीवन में प्रशंसा, सम्मान और पूजा प्राप्त करने की अभिलाषा; जन्म, मरण और मोचन संबंधी कार्यों को संपन्न करने की आवश्यकता तथा अपने दुःखों के प्रतिकार की इच्छा।
इसके बाद आरंभ होती है ऐसी हिंसक अथवा पर्यावरण विरोधी क्रियाओं से निस्तार पाने के लिए बताई संयममय जीवन की विस्तृत चर्चा। इस चर्चा में निर्देशित जीवन शैली पूर्णतया पर्यावरण से जुड़ी है। इस जीवन शैली की विशेषता है मनुष्य के भौतिक और आत्मिक विकास की ऐसी राह जो पर्यावरण के संतुलन को अक्षुण्ण रख सके।
अहिंसक जीवनशैली का आधार है पांच व्रत (साधु के लिए महाव्रत और श्रावक के लिए अणुव्रत)-अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह। ये पातंजलि योगसूत्र में यम कहे जाते हैं और अन्य अनेक धर्म-दर्शनों में विभिन्न रूप में विद्यमान है। यों तो अहिंसा में शेष चारों व्रत समाविष्ट हो जाते हैं और व्रतों के रूप में प्रस्तुत इस अहिंसक जीवन शैली का प्रत्येक पहलू पर्यावरण संरक्षण को प्रेरित करता है, पर यहां उन व्रतों-नियमों का उल्लेख समीचीन होगा जो सीधे पर्यावरण संरक्षण से जुड़ते हैं। अदत्तादान या अचौर्य-जिस किसी भी वस्तु पर अपना भौतिक या नैतिक अधिकार नहीं बनता उसे लेने का निषेध। यह व्रत सीधा प्राकृतिक संसाधनों के अनियंत्रित दोहन से उत्पन्न समस्याओं के समाधान की भूमिका प्रस्तुत करता है। अपरिग्रह-परिग्रह का सामान्य अर्थ है वस्तुओं के प्रतिमोह और उनके संकलन की प्रवृत्ति। यह मोह संकलन हेतु हिंसा करवाता है, उसमें बाधा आने पर हिंसा करवाता है और उससे वंचित किए जाने पर हिंसा करवाता है। यही नहीं अनियंत्रित उपभोग को भी यही मोह प्रेरित करता है और यों यह सीधा पर्यावरण से जुड़ जाता है।
मूलतः, हमारा उपभोग अस्तित्व संरक्षण से जुड़ा है। वह संपन्न हो जाने पर सुविधा और महत्त्वाकांक्षा कारण बन जाते हैं। सामयिक आवश्यकताओं के लिए कोई वस्तु प्राप्त करना जीवन-जगत् की सामान्य प्रक्रिया है। कल के लिए कुछ बचाकर रखने के पीछे भी स्व-संरक्षण का भाव ही नैसर्गिक रूप में काम करता है। किंतु काल्पनिक और अविवेकपूर्ण रूप से आवश्यकताओं का आकलन कर भंडारण करना आवश्यकता नहीं लोभ है। आवश्यकता और उपभोग को महत्त्वाकांक्षा के आधार पर बढ़ाना ही परिग्रह है।
आधुनिक युग में पर्यावरण प्रदूषण का मुख्य कारण खोजा जाए तो स्पष्ट होता है कि उपभोक्तावाद ही वह कारण है; यह दुधारी तलवार है जो एक ओर तो योजनाबद्ध तरीके से प्राकृतिक स्रोतों को दोहन कर उन्हें क्षीण कर जीवानोपयोगी पर्यावरण को नष्ट करती है और दूसरी ओर अनावश्यक उपभोग से पैदा हुए उच्छिष्ट के अनियंत्रित निस्तारण से पर्यावरण को प्रदूषित करता है। यही नहीं, यह असंतोष, गरीबी और सामाजिक विषमता फैलाता है जिसका अंत वैचारिक प्रदूषण और हिंसा में होता है। उपभोक्तावाद की समस्या के हल के रूप में अपरिग्रह व्रत का बहुत महत्त्वपूर्ण स्थान है।
अणुव्रतों के सहायक और पोषक व्रतों के रूप में सात शीलव्रत भी बताए हैं जिनमें तीन पर्यावरण से सीधा संबंध रखते हैं क्योंकि ये स्वेच्छा से आवश्यकताओं और आकांक्षाओं को सीमित करने से संबंधित हैं। दिग्व्रत-आवागमन की दिशाओं को सीमित करना। देशावकाशिक व्रत-गतिविधियों के क्षेत्र को सीमित करना। उपभोग-परिभोग परिमाण व्रत-उपभोग-परिभोग को सीमित करना।
ये परिमाणव्रत अपरिग्रह व्रत के पोषक हैं। अपरिग्रह का संरक्षण की अवधारणा और सिद्धांत के प्रसार में बहुत महत्त्व है। व्यक्ति उपभोग की सीमा करेगा तो समाज में उस मानसिकता का विस्तार होगा और छोटे-छोटे परिमाण विशाल बन पर्यावरण संरक्षण की ओर एक बड़ा योगदान सिद्ध होंगे-क्योंकि जब स्वेच्छा से उपभोग की सीमा निर्धारित होती है तो प्राकृतिक संपदाओं का दोहन भी स्वतः ही सीमित हो जाता है।
इन व्रतों के पालन में कोई कमी न रह जाए, इसके लिए समितियों, गुप्तियों और अतिचार-निषेधों के रूप में अन्य नियम भी परिभाषित किए गए हैं। इनमें सामान्य लगती किंतु महत्त्वपूर्ण बातों की विस्तार से चर्चा की है उदाहरणार्थ-व्रतों में प्रथम अहिंसा के आचरण हेतु पांच समितियों का उल्लेख है। इन्हीं में से एक है उच्छिष्ट त्याग और उसके स्थान संबंधी सावधानी। सामान्यतया यह महत्त्वपूर्ण बात नहीं लगती पर पर्यावरण प्रदूषण के दृष्टिकोण से देखें तो इसका महत्त्व समझ में आता है। आज प्रदूषण का एक बड़ा कारण उच्छिष्ट का असावधानी से त्याग है। इस प्रकार यह स्पष्ट कहा जा सकता है कि पर्यावरण संरक्षण से अहिंसक जीवन पद्धति अभिन्न रूप से जुड़ी हुई है। इस संदर्भ में इसके तीन महत्त्वपूर्ण आधार हैं-समता अर्थात् संतुलन, अहिंसा अर्थात् संयमित अतिक्रमण और अपरिग्रह अर्थात् संतुलित व संयमित उपभोग।
द्रष्टव्य : आचारांग सूत्र।
- सुरेंद्र बोथरा
पर्यावरणीय अहिंसा : व्यापक वन-संहार में फलित प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध और लोलुप शोषण, जलाभाव, दमघोंटू प्रदूषण, तापमान की असहनीय वृद्धि और अन्य जलवायु-परिवर्तन, अनेक प्राणियों के विलोप तथा जीव-वैविध्य की क्षति तथा जीवन के लिए अन्य संकटपूर्ण परिणाम हमारे ग्रह के लिए एक बहुत डरावना वर्तमान तथा और भी अधिक भयंकर भविष्य का कारण बन रहे हैं। इस स्थिति ने वैश्विक स्तर पर उचित ही एक अभूतपूर्व चिंता पैदा कर दी है। इसके समाधान के लिए कई तरीके सुझाए और काम में लिए जा रहे हैं। तथापि, पारि-स्थितिकी के लिए इन समाधानों का आधार तत्त्वमीमांसीय अथवा नैतिक नहीं है। वे, मूलतः, उपयोगितावादी या व्यावहारिक हैं, अर्थात् यदि हम पर्यावरणीय समस्याओं पर ध्यान नहीं देंगे तो मानवता को खतरा है। मनुष्य-केंद्रीयता (्नठ्ठह्लद्धह्म्श-श्चशष्द्गठ्ठह्लह्म्द्बह्यद्व) जारी है तथा अन्य जीवन-रूपों की लगातार अवहेलना और अबाधित विनाश हो रहा है। यदि कहीं ऐसा नहीं भी हो रहा हो तो उसके पीछे मुख्य कारण कोई नैतिक बोध नहीं, बल्कि व्यापक तौर पर मानवता को नुकसान होने का एहसास है।
दूसरी ओर, महावीर तथा अन्य द्वारा प्रतिपादित अहिंसा-दर्शन पर्यावरणवाद की अवधारणा और व्यवहार में एक तत्त्वमीमांसीय और नैतिक आयाम जोड़कर उसे एक भिन्न और गहरे परिप्रेक्ष्य में प्रस्तुत करता है।
जैन-दर्शन के अनुसार, जीव और पुद्गल दो बुनियादी तत्त्व हैं। दोनों महत्त्वपूर्ण हैं और दोनों की चिंता करने की जरूरत है। इस दर्शन में सूक्ष्मातिसूक्ष्म स्तर से मानव तक जीवन के संपूर्ण स्वर-तंत्र का अभिज्ञान और सम्मान है। जीवन का प्रत्येक रूप पवित्र और अनतिक्रमणीय है। इस नियम काअपवाद केवल दारुण आवश्यकता की स्थिति में ही हो सकता है-वह भी संयम और सीमा के साथ।
अहिंसा की अवधारणा के अनुसार सभी जीवनरूपों में एकत्व का सूत्र सक्रिय है। सभी प्राणी-चाहे वे किसी भी विकास-स्तर पर हों-जीना और बढ़ना चाहते हैं, सभी मृत्यु या आघात पसंद नहीं करते, सुख की तलाश करते और दुख से बचना चाहते हैं। इसलिए, सार्वभौमिक नियम यही हो सकता है कि किसी को भी मारा या क्षत नहीं किया जाए तथा प्रत्येक को उसके सामर्थ्य के अनुसार विकसित होने की परिस्थिति मिले। यही अहिंसा है। बेलगाम निःशेषण, क्षति, विनाश और मृत्यु का यही उपचार है। यह प्रकृति के साथ संगतिपूर्ण संबंध स्थापित करता है। पर्यावरण के सरंक्षण और संपोषण का यही रास्ता है।
प्राचीन जैन-ग्रंथों के कथन इसी बात को विशेषतः प्रकाशित करते हैं। लगभग 2550 वर्ष पहले आचारांग सूत्र में वर्णित महावीर के प्रथम प्रवचनों में कहा गया है : यदि तुम कहते हो कि पीड़ा तुम्हारे लिए सुखदायक है तो यह स्पष्टतः स्वतः प्रमाणित के विरुद्ध है। और यदि तुम कहते हो कि पीड़ा से वेदना होती है तो तुम्हारा उत्तर सही है। मैं केवल इतना ही इसमें जोड़ना चाहता हूं कि जैसे पीड़ा तुम्हारे लिए वेदनाकारक है, उसी तरह यह सभी पशुओं, जीवों, शरीरों, संवेदनशील प्राणियों के लिए वेदनाकारक है।
कार्तिकेयानुप्रेक्षा में तो जीव-रक्षा को ही धर्म बताया गया है : सभी जीवों की रक्षा ही धर्म है। प्रश्नव्याकरण सूत्र के अनुसार, भगवान महावीर ने सभी जीवों की रक्षा तथा उनके प्रति करुणा का उपदेश किया है।
अहिंसा के विचार को और आगे बढ़ाते हुए आचारांग सूत्र तथा अन्य जैन ग्रंथों में बराबर कहा गया है कि किसी भी जीव को क्षति पहुंचाना या मारना (जिसमें पेड़ तथा अन्य निम्नस्तरीय जीव भी सम्मिलित हैं) स्वयं को मारने या क्षति पहुंचाने के समान है। यह विविध जीवों के एकत्व की अभिव्यक्ति का ही एक रूप है।
जैन-दर्शन में एक और उद्बोधक अभिव्यंजना अभय है, जिसका तात्पर्य है भय से मुक्ति के बोध का विकास अथवा, सकारात्मक रूप से कहें तो, अंतःक्रियाशील व्यक्ति में सम्मान का अनुभव। यह जीवन-रूपों के निम्न स्तरों पर भी लागू होता है। यह अवधारणा पर्यावरणवाद की वास्तविक संपोषक है।
यहां आचारांग सूत्र को पुनः उद्धृत करना समीचीन होगा जिसमें पर्यावरण-संरक्षण को सुनिश्चित करते हुए सभी जीवन-रूपों के संरक्षण पर विशेष बल दिया गया है। उदाहरणार्थ, पेड़ों या वनस्पति-जगत के लिए आचारांग मनुष्यों और वनस्पति-जगत की समानता का उल्लेख करते हुए कहता है : मनुष्य शरीर और वनस्पति दोनों जन्मते हैं, बढ़ते हैं, चैतन्ययुक्त हैं, छिन्न होने पर म्लान होते हैं, आहार करते हैं, अनित्य हैं, अशाश्वत हैं, उपचित और अपचित होते हैं और विविध अवस्थाओं को प्राप्त होते हैं (113.1)। यह भी कहा गया है कि यह विवेक हो जाने पर एक मुनि को वनस्पति पर आघात करने वाले किसी शस्त्र का प्रयोग नहीं करना चाहिए, न दूसरों को इसके लिए प्रेरित करना या उनके द्वारा प्रयोग करने को स्वीकृति देनी चाहिए (116)।
वायु, जल, पृथ्वी तथा विभिन्न स्तरों पर अन्य सभी जीवन-रूपों के संबंध में भी आचारांग में ऐसे ही श्लोक मिल जाते हैं-इस आग्रह के साथ कि ऐसे जीवन-रूपों की रक्षा की जानी चाहिए।
एक अन्य जैन-ग्रंथ सूत्रकृतांग भी आचारांग की बात को ही दुहराता है : हमारे शरीरों की तरह ही पेड़ पैदा होते हैं। जैसे हम बढ़ते हैं, पेड़ भी बढ़ते हैं। जैसे हम चैतन्ययुक्त हैं, पेड़ भी चैतन्ययुक्त हैं। काटे जाने पर जैसे हमारे शरीर क्षति होती हैं, वैसे ही काटे जाने पर पेड़ भी क्षत होते हैं।
व्यवहारतः, पर्यावरण-विनाश का एक बड़ा कारण प्राकृतिक संसाधनों का अति उपभोग है, जबकि, दूसरी ओर, जैन-दर्शन संतोष के दर्शन का संपोषण करता तथा सभी संसाधनों के सीमित उपभोग का आदेश करता है क्योंकि इस प्रकार जीवन और संसाधनों को बचाने का ही एक प्रकार होने के कारण यह अहिंसा ही है। सामान्य स्थिति यह है कि संसाधन सीमित हैं, उपभोक्ता अधिक तथा उपभोग की कामना असीमित। लेकिन जैन-दर्शन का आधारभूत सिद्धांत असीमित कामनाओं और उपभोग को सीमित करना है, जो पर्यावरणीय समस्याओं का एक आवश्यक उपचार है। इस संदर्भ में उन श्रावकव्रतों (5-अणुव्रत, 3-गुणव्रत, 4-शिक्षाव्रत) का स्मरण समीचीन होगा, जिनका उल्लेख श्वेतांबरों और दिगंबर दोनों ही जैन-संप्रदायों में समादृत तत्वार्थ-सूत्र के सातवें अध्याय में किया गया है। इनमें से एक व्रत दैनिक उपभोग की वस्तुओं को सीमित करने के बारे में है। इस पृष्ठभूमि के साथ अहिंसा के सिद्धांत का अनुगमन करने वाले का जीवन स्वतः हरा हो जाता है। यदि व्यापक स्तर पर इस अहिंसा-धर्म का पालन किया जाए तो यह हरित-जीवन शैली का एक सुस्पष्ट उदाहरण होगा तथा अहिंसा और पारिस्थितिकी में सहजीवी संबंध कायम हो सकेगा।
जैन-दर्शन का एक अपरिचित पहलू यह भी है कि महावीर पर्यावरणवाद के सिद्धांतों को (2550 वर्ष पूर्व) प्रतिपादित करने वाले प्रथम दार्शनिक हैं-चाहे आधुनिक पदावली में न भी सही-और वह भी एक व्यापक, विवेकसम्मत और प्रभावशाली रूप में। यह भी कि उन्होंने यह उस युग में किया जब इस विचार की व्यावहारिक विवशता नहीं थी और पर्यावरणवाद की ज्ञानमीमांसा तो और भी कम।
संक्षेपतः, महावीर द्वारा प्रतिपादित जीवन के एकत्व और पवित्रता पर आधारित अहिंसा के दर्शन तथा संतोष और सीमित उपभोग के सिद्धांत टिकाऊ पर्यावरण के सिद्धांत और व्यवहार को एक गहन नैतिक अंतर्वस्तु से अनुप्राणित कर देते हैं। अहिंसा सदैव हरी है।
द्रष्टव्य : आचारांग सूत्र; तत्वार्थसूत्र।
- डी०आर० मेहता
पर्यावरणीय नारीवाद : (इको-फेमिनिज्म) इसपद का जन्म विभिन्न नव-सामाजिक आंदोलनों-यथा नारीवादी, अहिंसात्मक तथा पारिस्थितिकीय आंदोलनों-के फलस्वरुप 1970 ई० के पूर्वार्द्ध में हुआ, जिसमें महिलाओं की सक्रिय भूमिका के महत्त्व को स्वीकार किया गया। हालांकि इस पद का प्रयोग सर्वप्रथम फ्रेंच लेखिका फ्रांस्वास दोबोन्न द्वारा 1974 ई० में उनकी पुस्तक डेथ ऑफ फेमिनिज्म में किया गया, परंतु इसका प्रचार-प्रसार विभिन्न जनांदोलनों एवं राजनैतिक गतिविधियों के दौरान हुआ। कुछ अन्य सिंद्धातकारों जैसे येन्स्त्रा किंग ने इसे नारीवाद की तीसरी लहर के रुप में व्याख्यायित किया। रोजमेरी रेडफोर्ट, राउथर, इवोने, गेबारा, वंदना शिवा, मरिया मीस, सुसेन ग्रिफिन, एलिस वाकर, स्टारहाक, सैली मिस्फाग, लुएस तेईश सन आइली, पार्क, पाउला गुन्न एलेन, मोनिका स्जू, ग्रेटा गार्ड, करेन वारेन तथा एनडी स्मिथ आदि ऐसे स्वर हैं, जिन्होंने पर्यावरणीय नारीवाद को भिन्न-भिन्न प्रकार से व्याख्यायित किया है। नारीवाद की विभिन्न धाराओं से प्रभावित होने के कारण इसे किसी एक परंपरागत पारिभाषिक खांचे में नहीं डाला जा सकता है।
पर्यावरणीय नारीवाद को वस्तुतः सामाजिक एवं राजनैतिक आंदोलन के रुप में व्याख्यायित किया जाता है, जो पर्यावरणवाद तथा नारीवाद के मध्य कुछ समानताएं तलाशता है। इकोनारीवादियों का मानना है कि पितृसत्तात्मक शोषण के फलस्वरुप समाज में स्त्रियों की अधीनता तथा पर्यावरण का लगातार होता क्षय समान पुरुष मानसिकता से संचालित हैं। इनका मानना है कि सभी प्रकार के शोषण का आपस में गहरा संबंध हैं, जिसकी संरचना को हमें समग्रता में समझने की जरुरत है। पर्यावरणीय नारीवाद की प्रथम कृति के रुप में मान्यता प्राप्त पुस्तक नई स्त्री/नई पृथ्वी सभी किस्म की वर्चस्वशाली असमानताओं जैसे नस्लवाद, लैंगिकता, वर्गीय संरचना, प्रकृति के दोहन, जातीय असमानता पर प्रश्न उठाती है तथा पितृसत्ता के जरिए स्त्रियों पर कायम वर्चस्व एवं पश्चिमी विकास के मॉडल पर प्रकृति के दोहन के विरुद्ध आलोचना प्रस्तुत करती है। इसके अनुसार पारिस्थितकीय संकट तथा स्त्रियों की अधीनता एक ही प्रकार की रुग्ण पुरुषवादी मानसिकता के परिचायक हैं।
पर्यावरणीय नारीवाद के अनुसार पितृसत्तात्मक संरचनाएं अपने वर्चस्व को विलोमार्थक श्रेणीबद्धता में विभाजन के जरिए न्यायोचित बताती हैं जैसे : स्वर्ग/पृथ्वी, बुद्धि/शरीर, पुरुष/स्त्री, मनुष्य/पशु, आध्यात्मिक/भौतिक, संस्कृति/प्रकृति, श्वेत/श्याम आदि। स्थापित वर्चस्वशाली व्यवस्था अपनी शोषणकारी सत्ता को इन विरोधाभासों के जरिए लगातार प्रकट करती रहती है। यहां तक कि इन्हें धार्मिक एवं वैज्ञानिक संरचनाओं के द्वारा पवित्र भी बनाने का प्रयास किया जाता है। इसलिए समतामूलक समाज की रचना हेतु इन विलोमार्थक / विरोधाभासी संरचनाओं का समाप्त होना आवश्यक है।
यह विचार मानता है कि स्त्री और पर्यावरण के बीच एक अटूट बंधन हैं, जो उन्होंने इस पितृसत्तात्मक व्यवस्था में साथ जिया है। दोनों के शोषण का इतिहास साझा है। दुनिया के विकासशील भागों में महिलाओं को प्राकृतिक संसाधनों की प्राथमिक उपभोक्ता के रुप में देखा जाता है, क्योंकि वे प्रतिदिन जलावन, भोजन तथा चारे के लिए जंगल पर आश्रित हैं। महिलाओं का पर्यावरण के प्रति नजरिया तथा जीवन-मूल्य पुरुषों की अपेक्षा भिन्न हैं। उनके अनुसार पर्यावरणीय प्रश्नों का सीधा संबंध हमारे स्वास्थ्यगत प्रश्नों एवं जीवनक्षमता से हैं। महिलाओं की महती प्राथमिकता प्रकृति का संरक्षण तथा उसका संवर्धन हैं, जिसे वे आने वाली पीढ़ियों के लिए सुरक्षित रखना चाहती है। परंतु इस रिश्ते को हमेशा नजरंदाज किया जाता है। पर्यावरणीय इतिहास के लेखन के दौरान अधिकतर पुरुषों की भूमिका की चर्चा की जाती रही है। प्रकृति के साथ महिलाओं के संबंध को हमेशा नजरंदाज किया जाता है। यहां तक कि पर्यावरणीय गतिविधियों में भी स्त्रियों की सहभागिता पर लेखन त्रुटिपूर्ण हैं। परिणामस्वरुप पर्यावरण के लिए किए गए संघर्षो एवं विवादों में महिलाओं की भूमिका का इतिहास गायब है।
बीसवीं शती के आठवें दशक में इस विचार ने आंदोलन का स्वरुप ग्रहण करना शुरु किया। 1972 ई० में स्टाकहोम में आयोजित अंतराष्ट्रीय पर्यावरण सम्मेलन में पर्यावरण को बतौर एजेंडा रखा गया और वैश्विक स्तर पर हो रहे पर्यावरणीय क्षरण के प्रति चिंता जाहिर की गई। संयुक्त राज्य अमेरिका में वृहद स्तर पर हिमखंडों के क्षरण ने पहली बार बड़ी संख्या में महिलाओं को एक मंच पर एकत्रित किया। मार्च 1980 ई० में एम्रेस्त में आयोजित सम्मेलन में, जिसका विषय पृथ्वी पर महिलाएं एवं जीवन था, इन महिलाओं ने शिरकत की और पर्यावरण के साथ अपने साझे सराकारों को रेखांकित किया। इसी सम्मेलन में पर्यावरण के नारीवाद, सैन्यीकरण तथा पारिस्थितिकी के साथ संबंधों की भी व्याख्या की की गई।
पिछले तीन दशकों (1972-2000 ई०) में पर्यावरणीय नारीवादियों ने अनेक धरनों, बहिष्कारों तथा अहिंसक आंदोलनों के द्वारा स्त्री तथा पर्यावरण के प्रति न्याय की गुहार लगाई है। उनका विरोध कंपनियों को बेची जा रही नदियों तथा उन पर बन रही विद्युत परियोजनाओं की विसंगतियो से है। उनका तर्क है कि प्राकृतिक संसाधनों का प्रयोग पूंजीवादी व्यवस्था के हित के बजाए जनहित में किया जाना चाहिए। लगातार घट रहे जलस्तर से पैदा हो रहा जलसंकट पर्यावरण के लिए खतरा है, जिस पर गंभीरता पूर्वक विचार किए जाने की आवश्यकता है। उनकी चिंता है कि विश्वव्यापी पर्यावरण के ह्रास से पृथ्वी के बहुत से भागों में जीवन की गुणवत्ता का ह्रास हुआ है। ग्रीन हाउस प्रभाव और महासागरीय प्रदूषण, वायुमंडलीय प्रदूषण इत्यादि मनुष्यों के कार्यकलापों से गहरे रुप से जुड़े हुए हैं, जो जीवनदायी पारिथितिकी-तंत्रों को संकट में डाल रहे हैं।
विगत सालों में आए पर्यावरणीय संकट के दौरान समाज के सभी वर्गों, नस्लों तथा राष्ट्रों की स्त्रियों ने खुले तौर पर पर्यावरण के साथ अपने सरोकारों की पैरवी की। इसी कारण उन्होंने स्थानीय तथा वैश्विक स्तर पर एकजुट होकर इस तथ्य को स्वीकार किया कि उनका अधिकार सिर्फ पर्यावरणीय संकटो में शामिल होना ही नहीं है, बल्कि प्रकृति के साथ उनका एक अटूट रिश्ता है। इसी कारण वे पुरुषों की अपेक्षा भिन्न तरह से पर्यावरणीय क्षरणो, वनों की कटाई, प्रदूषण तथा अधिक जनसंख्या से प्रभावित होती हैं। प्रकृति पर केंद्रित अपनी अनेक गतिविधियों के जरिए उन्होंने यह साबित कर दिखाया कि उनकी पहचान अलग है। वे पर्यावरण एवं खुद की दुनिया में बदलाव लाने में पूरी तरह सक्षम हैं।
पर्यावरणीय नारीवाद हमेशा से युद्ध-विरोधी रहा है। युद्ध पुरुषवादी एवं वर्चस्ववादी मानसिकता का परिचायक है। युद्ध के दौरान होने वाली हिंसाओं में सर्वाधिक बच्चे, बूढ़े तथा स्त्रियां प्रभावित होती हैं। उन्होंने हमेशा शांति अभियानो की हिमायत की है। महिलाओं के प्रति होने वाली हिंसा पिछले तीन दशकों में शांति अध्ययन में महत्त्वपूर्ण विषय के रुप में उभरी है। युद्ध एवं शांति विलोमार्थक पद हैं, जिसमें एक स्त्रीयोचित है तो दूसरा पुरुषोचित। ऐतिहासिक काल से नारी की छवि को ममता, दया, प्यार, भावुकता इत्यादि से जोड़कर देखे जाने की परंपरा रही है। इन सभी मान्यताओं ने शांति की अवधारणाओं को समृद्ध किया है। स्त्रियों की तुलना प्रकृति के साथ की जाती है क्योंकि उसमें भी ये सभी गुण विद्यमान हैं, परंतु पुरुष को भौतिक दुनिया का अंग माना जाता है, इसलिए उसे तार्किक माना जाता है।
भारत में पर्यावरणीय नारीवाद को पर्यावरणीय आंदोलनों के संदर्भ में समझा जाता है। भारत में पर्यावरणीय आंदोलनों की शुरुआत चिपको आंदोलन से हुई, जिसमें महिलाओं ने सक्रिय भागीदारी निभाई। यह आंदोलन एक सामाजिक-पारिस्थितिकीय आंदोलन था, जिसने गांधीवादी तरीका अपनाते हुए सत्याग्रह किया। यह पूर्णतः अहिंसक प्रतिरोध का आंदोलन था। इस आंदोलन की शुरुआत 1970 ई० में उत्तराखंड के गढ़वाल जिले में हुई। गौरा देवी की अगुवाई में स्त्रियों ने अपने गांव के पीछे स्थित जंगल जाने वाले मार्ग को अवरुद्ध कर दिया। उसके पश्चात इसने आंदोलन का स्वरुप ग्रहण कर लिया। यह आंदोलन राज्य सरकार द्वारा औद्योगिक प्रतिष्ठानों को जंगल के व्यावसायिक उपयोग हेतु दी गई अनुमति के विरुद्ध था। ग्रामीण महिलाओं ने इसका प्रतिरोध करते हुए स्वयं को पेड़ों से चिपका लिया था। उनके अनुसार वनों की कटाई से आस-पास के निवासियों का जीवन प्रभावित हो सकता था। खासतौर पर महिलाएं इससे ज्यादा प्रभावित होतीं। आजीविका के सवाल को लेकर पैदा हुए चिपको आंदोलन ने बाद में चलकर वन संरक्षण आंदोलन का रुप धारण कर लिया। यह आंदोलन जिस समय शुरु हुआ उस समय विकासशील दुनिया में पर्यावरण को लेकर कोई आंदोलन शुरु नहीं हुआ था। वर्तमान में इसे पर्यावरणीय समाजवादी आंदोलन से अधिक पर्यावरणीय नारीवादी आंदोलन के रुप में जाना जाता है।
पर्यावरण के लिए किए गए आंदोलनों में महत्त्वपूर्ण आंदोलन ग्रीन आंदोलन भी है, जिसका ऐतिहासिक महत्त्व है। इसे दुनिया का सबसे बड़ा पर्यावरणीय आंदोलन माना जाता है, जिसका उद्देश्य पर्यावरण संरक्षण एवं सामुदायिक विकास है। इसकी शुरुआत नोबेल पुरस्कार विजेता वंगारी मथाई ने 1977 ई० में अंतराष्ट्रीय पर्यावरण दिवस के रुप में की थी। जिसमें 30,000 महिलाओं को वन रोपण हेतु प्रशिक्षित किया गया था। 2005 ई० तक इस आंदोलन के तहत निजी एवं सार्वजनिक स्थलों पर लगभग 30 लाख पेड़ लगाए जा चुके हैं।
लेकिन, पर्यावरणीय नारीवाद आलोचना से परे नहीं है। पर्यावरणीय नारीवादी की सर्वाधिक आलोचना जैविक रुप से स्त्री के प्रकृति के साथ अटूट रिश्ते को अनिवार्य बताने के लिए होती है। वस्तुतः, यह वर्चस्वशाली पितृसत्तात्मक विचारधारा है, जो इकोनारीवाद के तार्किक प्रभाव को कम करती है। परिणामस्वरुप, यह अनंत काल से चली आ रही धारणा को ही पुष्ट करती है, जो स्त्री-पुरुष के मध्य सामाजिक असमानता के लिए जैविकीय रचना को जिम्मेवार मानती है। इस अनिवार्यता को न मानने वाली धारा यह भी मानती है कि स्त्री में स्त्रियोचित एवं पुरुषोचित दोनों गुण विद्यमान हैं, परंतु पितृसत्ता विशेष तौर पर उनके स्त्रियोचित गुणों को प्रोत्साहित करती है, जो स्वयं में पितृसत्तात्मक मूल्यों से लदी हुई अवधारणा है।
विगत बीस सालों से नारीवादी शरीर ही नियति है (anatomy is destiny) की धारणा के विरुद्ध संघर्षरत हैं। यदि हम इस तर्क में आस्था रखते हैं कि स्त्री ही प्रकृति के साथ बेहतर रुप से संबद्ध है एवं एकमात्र स्त्री ही अपने स्त्रीयोचित गुणों के कारण पर्यावरण/पृथ्वी की रक्षा करने में सक्षम है, तो यह स्वयं में एकांगी नजरिया है, जो समतामूलक समाज रचना के प्रयास में विफल प्रतीत होता है। लेकिन, अपनी समस्त कमजोरियों के बावजूद भी यह उग्र पर्यावरणीय विचारधाराओं के अंदर सर्वाधिक प्रभावी आंदोलन माना जाता है।
स्त्री स्वतंत्रता के संबंध में पर्यावरणीय नारीवादी सैद्धांतिक विमर्श पेश कर पाने में असफल रहा है। स्त्री शरीर के प्रकृति के साथ अटूट रिश्ते के अपने तर्क के कारण यह सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक स्तरों पर स्त्री-स्वतंत्रता का विकल्प प्रस्तुत नहीं करता और यही उसकी सीमा भी बन जाती है। लेकिन, निस्संदेह यह आंदोलन अहिंसक समाज की रचना के प्रयासों को आगे ले जाने वाला एक सार्थक प्रयास माना जाता है।
- सुप्रिया पाठक
पर्यावरणीय नैतिकी (Environmental Ethics) : पिछली शताब्दी के अंतिम तीन दशकों में नीति-मीमांसीय विमर्श में जिन विषयों ने सर्वाधिक ध्यान आकर्षित किया-वे पर्यावरणीय नैतिकी से संबंधित हैं-चाहे उसे पर्यावरणीय नारीवाद कहा जाए या भूमिनैतिकी अथवा गहन पारिस्थितिकी। ये सब पर्यावरणीय नैतिकी से ही जुड़े हैं। दरअस्ल, विकास की प्रचलित प्रक्रिया ने प्राकृतिक संसाधनों का जिस तेजी से इस्तेमाल किया तथा मिट्टी, पानी और वायु आदि को प्रदूषित किया है, उसने न केवल अर्थशास्त्रियों तथा वैज्ञानिकों को चिंता में डाला, बल्कि दार्शनिकों के सम्मुख भी यह नैतिक सवाल उपस्थित हो गया कि क्या मनुष्य को प्राकृतिक संसाधनों के इस्तेमाल का अबाधित अधिकार है और यह भी कि प्रकृति का ही एक अंग-बल्कि आत्मचेतन अंग-होने के नाते प्रकृति-जिसमें अजीव और जीव जगत दोनों सम्मिलित हैं-के प्रति मनुष्य का कोई नैतिक दायित्व है या नहीं; बल्कि मनुष्य के रूप में भी आने वाली पीढ़ियों के प्रति न्याय का सवाल भी विचारणीय बन गया, जिसे सनातन न्याय (Intergenerational Justice)) कहा गया और मानवाधिकारों के संदर्भ में भी उस पर विचार किया जाने लगा। इन्हीं सब सवालों के दबाव के परिणामस्वरूप लिन वाइट (Lynn White) ने हिस्टोरिकल रुट्स ऑफ अवर इकॉलोजिकल क्राइसिस, गैरेट हार्डिन ने दि ट्रेजेडी ऑफ कामंस, आल्डो लियोपोल्ड ने लैंड एथिक तथा अर्ने नैस ने दि शैलो एंड दि डीप जैसे निबंध लिखकर दार्शनिक जगत को पर्यावरणीय नैतिकता से जुड़े सवालों पर सोचने के लिए बाध्य कर दिया। 1979 ई० में यूजीनसी हारग्रोव ने एनवायरनमेंटल एथिक्स नाम का पत्र निकाला, जिसमें मानव-प्रकृति संबंधों के साथ-साथ पशुओं के अधिकारों को भी जोड़ा गया था। अनंतर पशु अधिकारों की एक अलग शाखा ही दार्शनिक विमर्श का हिस्सा बन गई, जिसके विचारकों में पीटर सिंगर का नाम सर्वाधिक उल्लेखनीय कहा जा सकता है। उपर्युक्त विचारकों तथा उनके सहयोगियों ने इन सवालों पर निरंतर विचार जारी रखा है। 14 अगस्त, 1970 ई० को पृथ्वी दिवस मनाए जाने के बाद इन सवालों की ओर संवेदनशील लोगों का ध्यान व्यापक तौर पर आकर्षित हुआ।
पारंपरिक नैतिकी का केंद्रीय सरोकार मनुष्य और मनुष्य के संबंधों से था। यह सोचा भी नहीं जा सकता था कि मनुष्येतर जगत के साथ रिश्तों को भी नैतिक श्रेणी के अंतर्गत समझा जाना चाहिए। कुछ पूर्वी और पश्चिमी धर्मो में अवश्य प्रकृति और मनुष्येतर जीव जगत के प्रति अहिंसक व्यवहार की बात कही गई है-उदाहरणार्थ जैन, बौद्ध, हिंदू ही नहीं एक सीमा तक ईसाइयत और इस्लाम में भी-लेकिन लौकिक या विज्ञानाधारित दार्शनिक विमर्श में मनुष्येतर जगत के प्रति नैतिक व्यवहार की कल्पना नहीं है। प्राकृतिक संसाधनों की बर्बादी के कारण स्वयं मानव-जीवन के नष्ट होने की आशंका से टिकाऊ विकास की जिस अवधारणा का विकास हुआ, उसका आधार भी मनुष्य का नैतिक होना नहीं, बल्कि आत्मरक्षा की चिंता है। यदि मानव-जीव के ही नष्ट होने की आशंका न हो, तो टिकाऊ विकास वालों के लिए कोई नैतिक संकट खड़ा नहीं होगा। प्रसिद्ध अर्थशास्त्री शुमाकर ने कहा है कि हम लोग, दरअस्ल, एक तत्त्वमीमांसीय रोग के शिकार हैं, और जब तक वह ठीक नहीं होता, तब तक समस्याएं बनी रहेगी।
पर्यावरणीय नैतिकी हमारे इसी तत्त्वमीमांसीय रोग को ठीक करने का विमर्श है। वह हमें बताती है कि प्रकृति से आत्मचेतन रूप में विकसित होने तथा उससे पोषित होने के नाते हम उसके लिए नैतिक रूप से कृतज्ञ एवं जिम्मेवार हैं, अतः उसका संरक्षण हमारा दायित्व है। मनुष्य किसके प्रति व्यवहार करता है, उससे पूर्व यह समझना आवश्यक है कि व्यवहार करने वाला कौन है। मनुष्य को अपने व्यवहार में सदैव मानवीयता, समझ, जिम्मेदारी और संवेदना का प्रमाण देना होगा, चाहे वह मनुष्य के साथ व्यवहार पर रहा हो या प्रकृति अथवा पशु के साथ। जब मनुष्य प्रकृति अथवा पशु के साथ भी हिंसक व्यवहार करता है तो सबसे पहले तो वह स्वयं को ही हिंसक बना रहा होता है। जैन-विमर्श की दृष्टि से देखें तो भाव-हिंसा तो हो ही रही होती है, जो सभी हिंसा का मूल है। इसलिए नैतिकी का सवाल मूलतः मनुष्य होने से जुड़ा सवाल है-चाहे उसका आचरण मनुष्य अथवा मनुष्येतर किसी से भी संबंधित हो।
पर्यावरणीय नैतिकी, इसलिए, इस बात को स्वीकार करती है कि पृथ्वी पर उपस्थित जीवन-मात्र को जीने का और पोषण-विकसन का अधिकार है, और यदि मनुष्य जीवन की इस पवित्रता का, जीवन के इस अधिकार का सम्मान नहीं करता तो वह अनैतिक आचरण का दोषी है। इसलिए, जिस तरह मनुष्य अन्य मनुष्यों के जीवन के प्रति उत्तरदायी है, उसी तरह पृथ्वी पर मौजूद जीवन के अन्य रूपों के प्रति भी। सारी पृथ्वी एक पारिस्थितिकी में आवृत्त है और उस पर रहने वाले सभी परस्पर-संबद्ध होने के नाते एक समुदाय के अंग हैं। इसलिए, हमारी जिम्मेदारी इस समुदाय के अन्य सदस्यों के प्रति भी उतनी ही है, जितनी मनुष्य-समुदाय के प्रति। मनुष्य यदि एक नैतिक प्राणी है तो वह इस पृथ्वी-समुदाय के प्रति अपनी जिम्मेदारी के निर्वाह के बिना नैतिक नहीं माना जा सकता-बल्कि आत्म-चेतन होने के नाते यह उसका विशेष उत्तरदायित्व है।
द्रष्टव्य : लियोपोल्ड, आल्डो; पर्यावरणीय नारीवाद; गहन पारिस्थितिकी; पशु-मुक्ति।
- नंदकिशोर आचार्य
पशु-मुक्ति : सामान्यतया सभी धर्मों में दया को धार्मिक आचरण के रूप में महत्त्व दिया गया है और इसमें जीव-दया भी सम्मिलित है-यद्यपि मांसाहार की अनुमति भी अधिकांश धर्म देते हैं। लेकिन, जैन धर्म में न केवल मांसाहार की अनुमति नहीं है, बल्कि जीव-दया का अर्थ किसी भी जीव को कष्ट पहुंचाना ही नहीं, बल्कि उनके कल्याण के लिए भी प्रयत्न करना है-और यह भी उल्लेखनीय है कि जीव-दया करने वाले को सर्वोच्च कल्याण के पद प्राप्त हो सकते हैं। कार्तिकेयानु प्रेक्षा में दयाभाव को धर्म बताया गया है (415, 478)। दशवैकालिक सूत्र (3.15) दूसरों की रक्षा करने वाले को मोक्ष का अधिकारी मानता है और ज्ञानार्णव (8.57) बताता है कि जिनेंद्र, देवेंद्र, चक्रवर्ती आदि कोई भी कल्याण-पद ऐसा नहीं है, जिसे जीवरक्षा के अनुराग में प्राप्त नहीं किया जा सकता।
आधुनिक काल में मुख्यतया पीटर सिंगर और उनके जैसे लोगों के प्रयत्नों के परिणास्वरूप पशुओं के प्रति किए जा रहे क्रूर व्यवहार और अपने स्वार्थ के लिए उनको मारने या पीड़ा पहुंचाने के प्रति व्यापक स्तर पर ध्यान आकर्षित हुआ है और राष्ट्रीय-अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर बहुत-सी संस्थाएं पशुओं के प्रति निर्दय व्यवहार को रोकने के लिए सक्रिय हुई हैं। कई देशों में, जिनमें भारत भी सम्मिलित है, पशुओं के प्रति क्रूर व्यवहार को रोकने के लिए कानूनी प्रावधान भी किए गए हैं। पशुओं के प्रति अनुचित व्यवहार के आलोचनात्मक विश्लेषण तथा उन्हें मनुष्यों के समान मानने की दृष्टि से पीटर सिंगर की पुस्तक एनिमल लिबरेशन ने नीति-शास्त्रियों के बीच काफी वैचारिक उत्तेजना पैदा की है। सिंगर मुख्यतः व्यावहारिक नीति-मीमांसक हैं और इस दृष्टि से उन्होंने कई व्यावहारिक नैतिक समस्याओं पर दार्शनिक दृष्टि से विचार किया है। उपर्युक्त पुस्तक के अतिरिक्त प्रेक्टिकल एथिक्स और दि लाइफ यू कैन सेव उनकी अन्य महत्त्वपूर्ण पुस्तकें है तथा अंतर्राष्ट्रीय शोध-पत्रों में प्रकाशित उनके निबंध व्यावहारिक नैतिक समस्याओं पर गहरा विमर्श प्रेरित करते रहे हैं।
पशु-मुक्ति की दृष्टि से एनिमल लिबरेशन को एक युगांतरकारी ग्रंथ माना जा सकता है, जिसके नए संस्करणों में सिंगर संशोधन भी करते रहे हैं, लेकिन उनका मुख्य तर्क यही है कि मनुष्य और पशु के समान अधिकार हैं तथा पशुओं को असमान मानकर उनके प्रति क्रुर व्यवहार अनैतिक तथा मनुष्य जाति के जातिवाद का प्रमाण है। सिंगर इसे मनुष्य जाति के स्पीसिसिज्म (Speciesism) की संज्ञा देते हैं। उनका मानना है कि हितों की समानता का सिद्धांत ही मानव-समानता का बुनियादी आधार है-अन्यथा अन्य बातों के आधार पर तो मनुष्यों में भी असमानता पाई जाती है। सिंगर कहते हैं कि इस दृष्टि से समानता के सिद्धांत की व्याप्ति मानवेतर जगत तक भी होती है, क्योंकि उनके भी कई हित मनुष्यों के हितों के समान हैं।
सभ्यता के विकास की दृष्टि से देखें तो जिन नस्लों, जातियों और वर्गों को कुछ वर्ग अपने से बुद्धि या सामर्थ्य में हीन मानकर उनके साथ असमान व्यवहार करते थे, आज उन्हें हितों की समानता के सिद्धांत के आधार पर समान माना जाने लगा है। गैर-श्वेत जातियों, स्त्रियों, अल्पसंख्यकों और दलितों तथा आदिवासियों आदि के साथ समानता के सिद्धांत के आधार पर व्यवहार न करना नैतिक दृष्टि से अनुचित, मानवीय दृष्टि से असंवेदनशील और कानूनी दृष्टि से अपराध माना जाने लगा है। पीटर सिंगर का कहना है कि हितों की समानता की यह कसौटी पशु-जगत पर लागू की जानी चाहिए। ऐसा नहीं है कि यह सवाल पहली बार सिंगर ने ही उठाया है। उनसे पहले भी कई विचारक इस ओर ध्यान आकर्षित करते रहे हैं, जिनमें उपयोगितावादी विचारक जेरेमी बेंथम का नाम विशेष तौर पर लिया जा सकता है। सिंगर स्वयं भी बेंथम को अपने विश्लेषण में उद्धृत करते हैं। अफ्रीकी गुलामों के साथ अमानवीय व्यवहार पर टिप्पणी करते हुए बेंथम ने कहा था कि जिस प्रकार त्वचा के रंग के आधार पर असमानता को उचित नहीं माना जाने लगा है, उसी प्रकार पांवों की संख्या, दीर्घरोमी त्वचा आदि के आधार पर भी किसी के साथ असमान व्यवहार नहीं किया जा सकता और कभी वह दिन आ सकता है जब शेष पशु-जगत भी वे अधिकार प्राप्त कर ले, जिनसे उसे अत्याचार के अलावा अन्य किसी तरह से वंचित नहीं किया जा सकता। बेंथम के अनुसार सवाल यह नहीं है कि वे तर्क या बातचीत कर सकते हैं अथवा नहीं; सवाल यह है कि क्या उन्हें पीड़ा महसूस होती है, जैसे मनुष्यों को होती है। यदि पशु पीड़ा महसूस कर सकते हैं तो इसका तात्पर्य है कि उनका हित पीड़ा से मुक्ति पाना है और इस दृष्टि से उनका हित मनुष्यों के हित के समान है। अतः, हित की समानता के आधार पर समता की अवधारण में उन्हें शामिल न किया जाना नीतिसम्मत नहीं होगा।
पीटर सिंगर कहते हैं कि जिस प्रकार नस्लवादी लोग अपनी नस्ल के हितों को दूसरी नस्ल के हितों पर वरीयता देते हैं, उसी प्रकार मानव-जाति अपने हितों के लिए पशु-जाति के प्रति भेदभावपूर्ण व्यवहार करती है। इसे ही वह मनुष्यों का जातिवाद (Speciesism) कहते हैं, जो उसी प्रकार अनैतिक है जैसे नस्लवाद या अन्य ऐसी ही असमानता मूलक अवधारणाएं तथा आचरण। सिंगर मानते हैं कि मनुष्यों और पशुओं में कुछ भेद हैं, लेकिन यह भेद उनके प्रति अमानवीय व्यवहार का नैतिक आधार नहीं माना जा सकता। सिंगर अपनी पुस्तक में मांसाहार के लिए पशु-हत्या, चिकित्सा-प्रयोगों में पशुओं के साथ क्रूर व्यवहार तथा अन्य प्रकार के दुर्व्यवहार का विस्तृत विश्लेषण करते हैं। उनका मानना है कि सामान्यतः मांसाहार मनुष्य की आवश्यकता अर्थात् उसका हित नहीं है। वह केवल स्वाद के लिए मांसाहार करता है। जब हम खाने के लिए पशु-पालन करते हैं तो उन्हें अनाज खिलाना पड़ता है और उस अनाज की पोषक क्षमता का केवल दस प्रतिशत ही पशु-मांस में बचता है। अतः, स्वास्थ्य और खाद्य उपलब्धि की दृष्टि से भी मांसाहार को उपयोगी नहीं माना जा सकता। हमारा स्वाद एक लघु हित है, जबकि पशु का जीवन उसका बड़ा हित। अपने लघु हित के लिए किसी के बड़े हित का बलिदान समानता के सिद्धांत के आधार पर नैतिक नहीं कहा जा सकता।
चिकित्सीय प्रयोगों के लिए पशुओं के इस्तेमाल का जिक्र करते हुए सिंगर कहते हैं कि इस इस्तेमाल से स्वयमेव ही यह सिद्ध हो जाता है कि मनुष्यों और पशुओं की प्रतिक्रिया में समानता है। एक तर्क अक्सर दिया जाता है कि मानव-रोगों से मुक्ति के लिए पशुओं को पीड़ा हो तो यह अनुचित नहीं है क्योंकि यह मानव की आत्मरक्षा का सवाल है। सिंगर का कहना है कि अधिकांश परीक्षण मनुष्य को पीड़ा-मुक्त करने के लिए नहीं होते, बल्कि केवल विलासिता की वस्तुओं के उत्पादन के लिए होते हैं। वह डेजी परीक्षण और एल50 परीक्षणों का हवाला देते हैं, जिनका मानव-पीड़ा कम करने से कोई संबंध नहीं है। अधिकांश परीक्षणों से मनुष्यों को होने वाले लाभ या तो शून्य होते हैं या अनिश्चित, जबकि पशुओं को होने वाली हानि स्पष्ट है। सिंगर कहते हैं कि यदि मनुष्यों को लाभ हो तो भी किसी पशु के साथ क्रूर व्यवहार उचित नहीं माना जा सकता। क्या हम किसी मनुष्य के साथ कोई ऐसा परीक्षण करने को उचित कहेंगे, जिससे अधिक लोगों को लाभ पहुंचता हो? यदि हम ऐसा नहीं करते तो स्पष्टतया यह हमारे स्पीसिज्म का प्रमाण है। सिंगर अपने समर्थन में यह तर्क भी देते हैं कि पशु-जगत का स्नायु-तंत्र पीड़ा महसूस करने के मामले में मनुष्य के स्नायु-तंत्र के समान ही है, जबकि वनस्पति-जगत के बारे में नहीं कहा जा सकता कि उन्हें पीड़ा की अनुभूति होती है। अभी तक इसके पक्ष में कोई पुष्ट प्रमाण नहीं मिल सका है-यद्यपि जैन-दर्शन में तो वनस्पति जगत के प्रति भी दयाभाव की बात कही गई है।
पीटर सिंगर की स्थापनाओं की प्रतिक्रिया में कई सवाल उठाए गए हैं। एक तो यही कि क्या पशुओं को पीड़ा की अनुभूति होती है। दूसरे यह कि जब पशु स्वयं अन्य पशुओं को खाते हैं तो मनुष्य क्यों नहीं खा सकते। तीसरा यह कि पशुओं के पास भाषा और बौद्धिक क्षमता नहीं है, अतः उन्हें मनुष्यों के समान नहीं माना जा सकता। जहां तक पहली आपत्ति का सवाल है, यह स्पष्ट है कि पशु पीड़ा की अनुभूति करते हैं-चाहे उसकी कल्पना वे न कर सकें। दूसरी आपत्ति के बारे में सिंगर का कहना है कि जो पशु अन्य पशुओं को खाते हैं, वह उनका चुनाव नहीं बल्कि अपरिहार्यता है और यह भी कि विवेक का प्रयोग न कर सकना उनकी सीमा है, जो मनुष्य की नहीं है। नैतिक-अनैतिक का सवाल तभी उठता है जब हम अपने विवेक का प्रयोग करने के लिए स्वतंत्र हों। यह ठीक है कि पशुओं के पास भाषा और बौद्धिक क्षमता नहीं है; लेकिन, वे अपनी पीड़ा की अभिव्यक्ति अन्य तरीकों से करते हैं। बौद्धिक क्षमता का न होना उनका दोष नहीं है। क्या हम किसी नवजात शिशु या मानसिक रूप से अविकसित व्यक्ति के साथ वैसा व्यवहार कर सकते हैं जैसा पशुओं के साथ करते हैं-यद्यपि भाषा और बौद्धिक क्षमता वहां भी नहीं होती।
नैतिकता, पीटर सिंगर के अनुसार, प्रतिदान का मामला नहीं है। कुछ लोग न्याय को पारस्परिक अनुबंध का मामला मानते हैं; जिसका तात्पर्य यह है कि मानवेतर प्राणियों के साथ मानव का कोई अनुबंध नहीं हो सकता, अतः, वहां न्याय-अन्याय का सवाल नहीं उठता। लेकिन सिंगर इस अनुबंधजन्य न्याय की अवधारणा से सहमत नहीं होते। उनकी मान्यता है कि न्याय की अवधारणा अब इस अनुबंधमूलकता से ऊपर उठ चुकी है। हम किसी के साथ नैतिक या उचित व्यवहार इसलिए करते हैं कि हम मनुष्य हैं; नैतिकता का बदले में कुछ पाने की लालसा से संबंध नहीं है। इसलिए नैतिकता अनुबंधजन्य नहीं बल्कि मनुष्य होने में ही निहित है। हम किसके प्रति आचरण करते हैं, उससे अधिक महत्त्वपूर्ण यह है कि आचरण करने वाला मनुष्य है, अतः उसके आचरण की कसौटी कोई ऐसा नैतिक सिद्धांत ही हो सकता है जो सब पर लागू होता है, केवल उन पर नहीं जिनके साथ हमारा अनुबंध है। कानूनी न्याय और नैतिक न्याय में फर्क है। कानून परिस्थितिगत होता है, अनुबंध बदलते रहते हैं, जबकि नैतिकता सार्वभौमिक-सार्वकालिक। पशु-मुक्ति का सवाल एक नैतिक सवाल है और उस पर उसकी दृष्टि से विचार और आचरण किया जा सकता है।
द्रष्टव्य : बेंथम, जेरेमी।
- नंदकिशोर आचार्य
पश्वालंभन : ब्राह्मण-ग्रंथों में यज्ञ में पशु के आलंभन को लेकर बहुत मत-भेद तो है ही, आलोचना-प्रत्यालोचना भी है। प्रायः अहिंसा के प्रश्न को लेकर यही बिंदु बारंबार उठाया जाता है। श्रौत-यज्ञ में पशु-आलंभन को स्मृतिकार कलियुग में वर्जित घोषित कर चुके हैं। ऐसी स्थिति में इस विषय का वर्तमान में कोई महत्त्व नहीं रह जाता। वर्तमान में पश्वालंभन रहित स्मार्त्त यज्ञ ही विहित हैं श्रौत-यज्ञ नहीं।
वैदिक परंपरा विकसनशील रही है। ब्राह्मण-ग्रंथों के मुख्य विषय, यज्ञ की अवधारणा का श्रीमद्भगवद्गीता में कर्म-योग के रूप में विकास हुआ। वह विकसित रूप ही आज प्रासङ्गिक है। परंपरा के अनुसार जनमेजय का सर्पयज्ञ ही अंतिम श्रौत यज्ञ है। इतिहास में समुद्रगुप्त के भी अश्वमेध यज्ञ करने का उल्लेख है। उसके अनंतर जयपुर महाराज के जिस अश्वमेध करने का उल्लेख है, उस अश्वमेध से जयपुर महाराज चक्रवर्ती सम्राट बन गये हों- ऐसा मानना अपने को धोखा देना ही होगा।
जोधपुर में अभी कुछ वर्ष पूर्व श्री विश्वनाथ श्रौती की देख-रेख में एक सोमयाग हुआ था। किंतु, उसमें उन्होंने पशु-आलंभन बिल्कुल नहीं किया। उनका इस विषय पर पूना के एक पंडित से शास्त्रार्थ भी हुआ। जिसमें उन्होंने पशु-आलंभन न करने का सांगोपांग कारण भी दिया। यह कहना भी प्रासङ्गिक होगा कि श्री विश्वनाथ श्रौती दक्षिण के चारों वेदों में पारंगत पारंपरिक सनातनी पंडित थे, आर्यसमाजी नहीं। अतः वे ब्राह्मण-ग्रंथों की सायणोक्त परंपरागत व्याख्या ही मानते थे किंतु फिर भी पश्वालंभन नहीं करते थे।
सारांश यह है कि अहिंसा का ब्राह्मण-ग्रंथों में जो विवेचन है उस पर वैज्ञानिक, सामाजिक तथा दार्शनिक दृष्टि से विचार करना तो लोकहित में है; किंतु, जिन प्रथाओं का केवल ऐतिहासिक महत्त्व है, उनकी चर्चा का उतना अंश ही ग्राह्य है जितना वर्तमान में प्रासङ्गिक है। वैसे भी भारतीय परंपरा विरोधों के बीच समन्वय पर बल देती रही है। यही मार्ग अहिंसा का है भी। पश्चिम के कुछ विद्वानों ने भारत की विविधता के बीच एकता की उपेक्षा करके सांप्रदायिक मतभेदों को उभारा है। यह न लोकहित में है न भारत की प्राचीन परंपरा के अनुकूल ही है, भले ही मध्यकाल में हमने भी ऐसी भूल की हो। आज वैष्णव विचाराधारा के प्रभाव के कारण वैदिक परंपरा में एक क्षेत्र-विशेष में शाकाहार पर इतना अधिक आग्रह हो गया कि वैदिक ग्रंथों में मांस-भक्षण का कोई भी प्रसंग आ जाने पर उसके प्रतीकार्थ किए जाते हैं अथवा उसे प्रक्षिप्तमान लिया जाता है। शायद यह कहना ठीक लगता है कि आज वैदिक परंपरा की मुख्य धारा का प्रतिनिधित्व श्रीमद् भगवद्गीता ही करती है जिसे ब्राह्मण-ग्रंथों के कर्मकांड को कर्मयोग की भाषा में परिभाषित करने का श्रेय प्राप्त है। पंडित मधुसूदन ओझा के वेद-विज्ञान प्रस्थान में ब्राह्मण ग्रंथ, उपनिषद् और गीता में एकवाक्यता प्रदर्शित करने का भागीरथ प्रयास किया गया है और ध्यातव्य है कि गीता में जहां यज्ञ का वर्णन है, वहां पश्वालंभन का साक्षात् या परोक्ष कोई भी उल्लेख नहीं है।
- प्रो० दयानन्द भार्गव
पाइथागोरस : प्राचीन ग्रीक दार्शनिकों में पाइथागोरस का महत्त्व उसके अंक-रहस्यवाद (ठ्ठह्वद्वड्ढद्गह्म्-द्व4ह्यह्लद्बष्द्बह्यद्व) के कारण तो है ही, लेकिन, साथ ही, उसे मांसाहार-निषेध के लिए भी जाना जाता है। उसके जन्म और मृत्यु की तिथियां पूरी तरह निश्चित नहीं हैं, पर सामान्यतया उसका जीवन काल लगभग 580-500 ईसापूर्व माना जाता रहा है। यह माना जाता है कि उसने अपने जीवन-काल में कई लंबी यात्राएं कीं और विभिन्न देशों की दार्शनिक पद्धतियों का अध्ययन किया। गणित और विशेषतया रेखागणित में उसके गहन अध्ययन और रुचि का कारण भी उसकी मिस्र-यात्रा को बताया जाता है। पाइथागोरस को एक धार्मिक संप्रदाय का प्रवर्तक भी माना जाता है, जो उसके देहावसान के बाद भी चलता रहा। उसके अनुयायियों को पाइथागोरियन कहा जाता है।
पाइथागोरस का विचार था कि अस्तित्व एक गणितीय सत्ता है और उसे मात्रात्मक पदावली में समझा जा सकता है। रेखागणित में भी उसकी थियोरम पाइथागोरियन थियोरम के नाम से विख्यात है। यह माना जाता है कि आधुनिक दर्शनों और समाजविज्ञानों में गणित के प्रभाव की शुरुआत पाइथागोरस से होती है, जिसकी परंपरा प्लेटो से होती हुई देकार्त, स्पिनोजा, लाइबनीत्ज, कांट और बर्ट्रेंड रसेल आदि तक आती है।
अपनी धार्मिक-आध्यात्मिक संकल्पनाओं में पाइथागोरस आत्म की अमरता और पुनर्जन्म में विश्वास करता है। भारतीय वेदांत की तरह वह इस दृश्य जगत को मिथ्या मानता तथा जैन और बौद्ध दर्शनों की तरह जन्म-चक्र को इसका कारण बताता है। मनुष्य के जीवन का उद्देश्य इसलिए इस जन्म-चक्र से मुक्ति प्राप्त करने का होना चाहिए।
पाइथागोरस का विश्वास है कि जगत के मिथ्यात्व का भान होने से ही इस जन्म-चक्र से छुटकारा हो सकता है-और इसके लिए वह ज्ञानमार्गी ध्यान का प्रस्ताव करता है। यह ध्यान एक तरह से वैज्ञानिक तटस्थता लिए हुए होता है, जिसमें भावात्मकता के बजाय ज्ञानात्मकता पर बल दिया गया है। पाइथागोरस द्वारा गणित पर बल दिए जाने का कारण भी शायद यही है।
जगत को मिथ्या मानने के कारण यह स्वाभाविक ही है कि पाइथागोरस सांसारिक तृष्णाओं और ऐंद्रिक लालसाओं के त्याग और संयमपूर्ण जीवन का आग्रह करे। उसके द्वारा स्थापित संप्रदाय में इसीलिए त्यागपूर्ण या संन्यासी जीवन को सर्वाधिक महत्त्व दिया गया। एनसाइक्लोपीडिया ऑफ रिलीजन एंड एथिक्स के अनुसार पाइथागोरस द्वारा स्थापित संप्रदाय का प्रयोजन नैतिक प्रशिक्षण देना था। उसके सदस्यों में अपनी भावनाओं पर नियंत्रण, मैत्री का विकास और आत्मनिरीक्षण को बहुत महत्त्व दिया गया ताकि वे अपने चरित्र का विकास कर सकें। उन्होंने एक समुदाय का गठन करके एक परिवार की तरह साथ रहने, एक जैसे वस्त्र, एक जैसा खान-पान रखने तथा कलाओं, विशेषतया संगीत और चिकित्सा तथा गणित के अध्ययन में अपने को लगा दिया।
अहिंसा की दृष्टि से पाइथागोरस का महत्त्व इस बात में माना जाता है कि उसने अपने अनुयायियों के लिए मांसाहार का निषेध किया। इस बात को लेकर कुछ विवाद है कि पाइथागोरस का निषेध सभी प्राणियों के मांस के लिए था या कुछ निश्चित पशुओं के मांस के लिए। इस सवाल पर इस दृष्टि से भी विचार किया जा सकता है कि जगत के अन्य प्राणियों के प्रति पाइथागोरस का क्या रुख था। पाइथागोरस के एक परवर्ती अनुयायी पोरफिरी ने लिखा है कि यह कोई नहीं बता सकता कि उसने अपने शिष्यों को क्या कहा था क्योंकि वे लोग इस बारे में पूरे मौन रहे। लेकिन जो सार्वभौमिक रूप से ज्ञात हैं, उसके अनुसार (1) वह आत्मा को अमर-मानता था (2) यह मानता था कि आत्मा मनुष्यों से पशुओं में प्रवेश कर सकती है, (3) अतीत एक चक्रीय नियम में पुनरावर्ती करता है, अतः मूलतः नया कुछ नहीं होता और (4) मनुष्य को सभी जीवित प्राणियों को अपना सगोत्र मानना चाहिए। सभी प्राणियों के भातृत्व का यह विचार हमें एंपीडोक्लीज में भी प्राप्त होता है। शायद इसीलिए पाइथागोरस के संप्रदाय में स्त्री-पुरुष समानता को भी स्वीकार किया जाता है। इसलिए यह निष्कर्ष स्वाभाविक लगता है कि पाइथागोरस की नीति-संहिता में मांसाहार-निषेध का महत्त्वपूर्ण स्थान है। पोरफिरी के अनुसार भी पाइथागोरस मांसाहार के विरुद्ध था, जैसे कि स्वयं पोरफिरी भी था।
पाइथागोरस के विचार लिखित रूप में हमें प्राप्त नहीं होते। लेकिन बाद के दार्शनिकों पर उसका जो प्रभाव पड़ा, वह इसी से समझा जा सकता है कि स्वयं प्लेटो की अकादमी पर उसका गहरा प्रभाव पड़ा और वहां पाइथागोरस की अंतर्दृष्टि की व्याख्या को ही सच्चा दर्शन माना जाने लगा। पाइथागोरसवाद और प्लेटोवाद एक माने जाने लगे। प्लेटो ने उसे एक जीवन-पद्धति का प्रतिपादक कहा। बाद के पाइथागोरसवादियों का उल्लेख अरिस्टॉटल ने भी किया है। ये पाइथागोरसवादी शाकाहारी माने जाते हैं।
द्रष्टव्य : एंपीडोक्लीज।
- नंदकिशोर आचार्य
पारिस्थितिकीय स्थापत्य : पारिस्थतिकीय स्थापत्य पद की निर्मिति 1970 ई० में तेल संकट के प्रत्युत्तर के रूप में हुई और उसका लक्ष्य अनवीकरणीय ऊर्जा-संसाधनों का संरक्षण था। बढ़ती जनसंख्या और नगरीकरण के दबाव के कारण इसकी परिधि का विस्तार होता गया, जिसमें जल, जमीन और भवन-निर्माण एवं नगरीय आधारिक संरचना से संबंधित सामग्री के सरंक्षण को भी शामिल कर लिया गया। जनसंख्या वृद्धि तथा आर्थिक विकास ने प्राकृतिक संसाधनों के अति उपयोग एवं कुउपयोग को इतना बढ़ावा दिया कि आज हम पारिस्थितिकीय स्थापत्य को प्रचलित प्रकृतिविरोधी विकास-प्रतिमान के सम्मुख गृह-स्थापत्य और नगर-योजना की अहिंसक शैली का प्रतीक मानते हैं। प्रकृति के प्रति हिंसा, जल एवं वायु के उच्च स्तरीय प्रदूषण, मृदा-अपरदन, कृषिभूमि की क्षति, वनोन्मूलन, वनस्पति एवं प्राणी जगत में विनाश आदि के माध्यम से मानव-जीवन की आधार-व्यवस्था के प्रति खतरा बनती जा रही है। व्यावहारिक पदावली में कहें तो, पारिस्थितिकीय स्थापत्य का तात्पर्य प्राकृतिक संसाधनों का ऐसा इस्तेमाल करना है कि वे अल्पतम हानि करते हुए धरती में वापस हो सकें। पारिस्थितिकीय स्थापत्य में टिकाऊपन, पर्यावरण-चेतना तथा नगर-योजना और गृह-निर्माण की हरित और आवयविक पद्धतियों के सभी सरोकार समाहित हो जाते हैं।
नगर-योजना और गृह-निर्माण स्थापत्य के दो मोटे प्रकार हैं, जिन्हें पारिस्थितिकीय स्थापत्य की दृष्टि से इकॉलॉजिकली साउंड अरबन प्लानिंग (ईएसयूपी)-पारिस्थितिकीय सुदृढ़ नगर योजना-तथा ग्रीन बिल्डिंग (जीबी)-हरित निर्माण-कहा जा सकता है।
नगरीय पारिस्थितिकी में परिवर्तनों की वजह आर्थिकी, समाज और प्रकृति के बीच वह अंतःक्रिया है, जिसमें उत्पादन, उपभोग एवं प्रतिरोधक प्रक्रियाएं उपर्युक्त तीनों ही में सक्रिय रहती हैं। नगरीय गतिकी नगरीय पारिस्थितिकी संजाल के चार प्रकारों से संचालित होती है-भौतिक, आर्थिक, सांस्थानिक तथा आध्यात्मिक-जो क्रमशः अपनी आधारिक शक्तियों ऊर्जा, धन, सत्ता और भावना से प्रेरित होती हैं। ये संजाल एक-दूसरे से अंतर्ग्रथित होते तथा नगरीय विकास, समस्याओं और संभावनाओं को निर्धारित करते हैं। नगर-योजना के विकास की पारंपरिक दृष्टि केवल दो प्रकारों-आर्थिक उत्पादन तथा सामाजिक उपभोग-पर ही ध्यान देती है। वास्तव में, नगरीय पारिस्थितिकी में उत्पादन प्रकार्य न केवल वस्तु-उत्पादनों और भावनात्मक उत्पादनों को, बल्कि श्रम और बुद्धि के प्रयोग तथा कचरे के उत्पादन को भी अपने में समाहित करता है। नगरीय पारिस्थितिकी में उपभोग प्रकार्य केवल वस्तुओं और आधार-संरचना को ही नहीं बल्कि पर्यावरण, जल-संभरों और पृष्ठ प्रदेशों जैसे उन संसाधनों के उपभोग को भी अपने में समाहित करता है, जिनका कोई प्रत्यक्ष आर्थिक मूल्य नहीं है। प्रकृति की अवहेलना का परिणाम जल, अनवीकरणीय ऊर्जा संसाधनों, निर्माण-सामग्री आदि के अभाव, नगरों के गर्म द्वीपों में बदलते जाने तथा हवा, जल और जमीन के स्थानीय प्रदूषण के रूप में सामने आया है। ईएसयूपी में प्रकृति शामिल है तथा उसमें मनुष्यों, संसाधनों और पर्यावरण के बीच आपूर्ति, समावेशन, परिचालन तथा प्रतिरोधक समाहित हो जाते हैं।
हरित स्थापत्य टिकाउपन, पर्यावरणीय चेतना, हरित और आवयविक पद्धतियों की दृष्टि से स्थान की विशेषताओं उसके पड़ौस एवं स्थानीय सूक्ष्म जलवायु और भौगोलिकी के अनुसार भवन-योजना के समाधान प्रस्तुत करता है। इसलिए, एक हरित भवन निर्माण-स्थल से प्रतिविशिष्ट होता है। भवन के स्थल का उसके प्रकार्य पर प्रत्यक्ष प्रभाव पड़ता है। स्थल की अपनी स्थानीय पारिस्थितिकी, उसकी ढाल, उन्मुखता तथा अभिदर्शन विशिष्ट परिस्थिति बनाते हैं, जबकि प्रादेशिक जलवायु योजना के लिए एक अधिक सामान्य संदर्भ प्रस्तुत करता है।
ये भवन प्रकृति के प्रति मैत्रीपूर्ण तथा अहिंसक होते हैं और इसके कारण हैं : कुशल उपयोग द्वारा प्राकृतिक संसाधनों का संरक्षण; परिवहन को कम करने के लिए स्थानीय सामग्री तथा तकनीकी का इस्तेमाल; नवीकरणीय, नवीकृत तथा बची हुई सामग्री का उपयोग; सीमेंट, एलम्यूनियम जैसे उच्च-ऊर्जा सामग्री के इस्तेमाल में कमी; प्राकृतिक प्रकाश और वायु-संचार के लिए अनुकूल अभिकल्पन, भू-दृश्य की अनुकूल विशेषताओं का संरक्षण तथा प्रतिकूल विशेषताओं का सुधार; जल संचयन, प्राकृतिक शीतन व्यवस्थाएं, पोले-टॉवर, मौसम की मार से भीतों को बचाने के लिए पर्याप्त पृथक्करण आदि।
पारिस्थितिकीय स्थापत्य वह शैली है जो किसी बस्ती, नगर या मकान में रहने वालों और प्रकृति के बीच एक आत्मीय संबंध का आधार बनती तथा उसका मानव-मन पर अहिंसक प्रभाव पड़ना स्वाभाविक है।
- प्रो० दिलीप के० जैन
पावन अर्थशास्त्र :ईडन उद्यान में आदम और हव्वा के रूप में मानवता के आरंभ की कथा आत्मचेतन मनुष्य के उद्भव की कथा कही जा सकती है। आत्मचेतन से तात्पर्य किसी तरह के असुरक्षा-बोध या अलगाव से नहीं, बल्कि अपने अस्तित्व के स्रोत से जुड़ने तथा संपूर्ण प्रकृति, ब्रह्मांड, भौतिक और अभौतिक अस्तित्व में व्याप्ति से है। यह आद्य प्रबोधन सहस्रों वर्ष पूर्व घटित हुआ था। इन पूर्वजों द्वारा ग्रहीत संस्कृतियां, ज्ञान और जीवन-शैलियां आज भी देशज संस्कृतियों के अवशेषों और पृथ्वी पर बिखरे हुए जनजातीय समाजों में देखी जा सकती है।
लेकिन, आधुनिक सभ्य दौर में, इन लोगों को आदिम नीम-हकीम कहकर खारिज कर दिया जाता है-ऐसे भोले जंगली, जो प्रकृति की खतरनाक शक्तियों का सामना कर पाने में असमर्थ होने के कारण विश्व में अलौकिक सत्ताओं की काल्पनिक दुनिया में भरोसा करने लगे। अपने परिवेश को समझने अथवा अपने अज्ञान को स्वीकार कर पाने की मनःशक्ति न होने के कारण उनके लिए ये अतिप्राकृतिक सत्ताएं काल्पनिक कथाओं या मिथकों में अर्थ खोजने की अपनी इच्छा को संतुष्ट करने के तरीके थे।
लेकिन, यह मानने के लिए पर्याप्त साक्ष्य उपलब्ध हैं कि इसका दूसरा पहलू भी है। ये लोग, वस्तुतः, अपनी चेतना के गहनतम तलों से संवाद कर रहे थे-वह चेतना जो शेष ब्रह्मांड के साथ एकमेक थी। वे स्वेच्छापूर्वक चेतना के उन स्तरों में प्रवेश करने में प्रवीण थे जो उन्हें एक अन्य यथार्थ, उस वैकल्पिक यथार्थ तक पहुंचा सकता, जो जाग्रत चेतना से भी अविच्छिन्न था। इस स्तर को स्वप्न-काल कहते थे क्योंकि यह शब्दशः शांति की वह अवस्था थी, जो हम अपने स्वप्नों में अनुभव करते हैं। इन पुरातन लोगों के लिए यह पावन ज्ञान था। यह केवल आस्था ही नहीं, बल्कि भौतिक ब्रह्मांड को रूपायित करने वाली आध्यात्मिक शक्तियों के साथ संबंधानुभूति थी। इस दिक्काल के पार लोकोत्तर शक्ति के साथ अपरोक्षानुभूति के परिणामस्वरूप प्रकृति तथा उन विस्मयकारी रहस्यात्मक शक्तियों, लयों तथा प्रतिरूपों के प्रति वह श्रद्धा विकसित होती है, जो उसके अविरत रूपांतरों को गढ़ती रहती है।
आधुनिक नगरों की दुनिया में, हमारी चेतना का पूर्ण-रूपेण दूसरा ही रूप सर्वोच्च स्थित है। पैगंबरी और उद्घाटक चेतना एक नए विकृत रूप से आच्छादित है-अर्थशास्त्र का धर्म। रूढ़िगत अर्थशास्त्र, लेकिन, एक बुनियादी दोष से ग्रस्त है : उसने जैव प्रणाली की समन्विति और पारस्परिक निर्भरता की पहचान और प्राथमिक श्रद्धा पर आधारित प्रकृति-मानव संबंध को सिकोड़कर हमें जीवन के उस मूल स्रोत से विच्छिन्न करते हुए उसे केवल भौतिक सुखों तथा शक्ति और प्रतिष्ठा के लिए हमारी अशमनीय लालसा को तृप्त करते रहने का साधन बना दिया है। आधुनिक अर्थ-व्यवस्था उसी उद्देश्य की पूर्ति के लिए रूपायित की गई है। यह वह लोकोक्तिमूलक शक्ति-वलय है, जिसमें देवोपम शक्तियों को, प्रकृति तथा अन्य मनुष्यों को अपेक्षाकृत अकथनीय रूप से अपरिपक्व और गैर-जिम्मेदार लघु-समूह के हाथों में देने के लिए उपयोग में लिया जा रहा है। यह आर्थिकी शेष मानवता तथा सामान्य प्रकृति के सभी पहलुओं पर निजी वित्त के प्रभुत्व का निर्लज्ज रूझान रखती है।
यदि अर्थशास्त्र धर्म है तो धन ईश्वर है। अंततः, एक अपावन श्रद्धा के सिवा धन है ही क्या? यह एक ऐसी प्रणाली में विश्वास रखता है, जो कमजोर और प्रतिद्वंद्विता न कर पाने वाले अचतुर लोगों की जीविका तथा हमारी उत्तरजीविता के लिए अपरिहार्य पारिस्थितिकीय प्रणाली को नष्ट कर देने वाली है।
प्रायः, सभी धर्म तथा आध्यात्मिक परंपराएं मानवता को चेतावनी देती है। हम इस पृथ्वी पर अपनी सृजनात्मक क्षमता का जितना विकास करते हैं, हमारे अंदर उससे अधिक सम्मान और श्रद्धा ब्रह्मांडीय तथा अज्ञात सक्रिय शक्तियों के लिए होनी चाहिए। धार्मिक ग्रंथों और मिथकों में मानवता के प्रकृति के साथ उस दैवनिर्दिष्ट संकटपूर्ण संघर्ष का उसका ज्ञान गड़ा है-यह पहचान कि यदि हम धन, पूंजी तथा आर्थिक विकास के उस पैंडोरा बक्से को दुनिया पर खोलते हैं, तो हम चीजों के प्राकृतिक संतुलन पर संघातक आघात कर रहे होंगे। हम धार्मिक भविष्यवाणियों में विश्वास करें अथवा नहीं, हमारा दौर प्रलयंकर खतरों से गढ़ा जा रहा हैः वैश्विक ऊष्णता, प्रजातियों का विलोपन, वैश्विक युद्ध, तेल पराकाष्ठा, वित्तीय विघटन तथा ये सब किसी एक सामान्य अनिर्वारणीय संगम-बिंदु की ओर अग्रसर हो रहे हैं।
इन घबराहट भरी सचाइयों के सामने हमारे लिए एकमात्र उम्मीद इस विनाश के लिए व्यापक तौर पर जिम्मेदार प्रणालियों को बदलने में है। उससे भी अधिक जरूरी है हमारे अंदर के उन तत्त्वों को बदलना जो हमें वैश्विक कोरपोरेटवाद, सैनिकवाद और निजी वित्त की अपवित्र इच्छा से जोड़ देते हैं। यह आर्थिक रूपांतरण केवल नए आर्थिक आचारण से ही संभव हो सकता है : पावन अर्थशास्त्र पर आचरण से। यह नया ज्ञानानुशासन सभी जीवों, जीवन मात्र की पावनता के ज्ञान और उसके प्रति आदर के हमारी आर्थिक संस्थाओं में सीधे सम्मिलन से ही संभव है। संपदा के माप और मूल्यांकन के उपाय भी हमारे पर्यावरण के स्वास्थ्य तथा समुदायों की सामूहिक संपदा और जीवनीशक्ति के संदर्भ में तय किए जाने चाहिए। निश्चय ही, इन सब मूल्यों को आंकड़ों में नही मापा जा सकता-न इसकी जरूरत ही है। ऊर्जा-परिवर्तन के लिखित लेखे-जोखे के बिना ही प्रकृति सभी जीवन रूपों के लिए सब कुछ मुहैया करती है। हमें केवल इसे ध्यान में रखना जरूरी है। इसके भुगतान की प्रक्रिया को समझाने वाले लोग यह प्रदर्शित करने में समर्थ हुए हैं कि किसी भी व्यक्ति में ये जादुई रूपांतरण संभव है, यदि वह देने की संभावना और शक्ति के प्रति सचेत हो। यहां पावन अर्थशास्त्र के कुछ सिद्धांत है। यह ऐसी अवधारणा और आचरण है, जिसे मैं अभी विकसित कर रहा हूं, और इसके लिए मुझे आपके पुनर्निवेशन की जरूरत है।
आदान-प्रदान : जीवन आदान-प्रदान की एक निरंतर प्रक्रिया है। जीवन के पनपने के लिए ऊर्जा-चक्र आवश्यक है। यह एक सामान्य सिद्धांत है कि किसी भी प्रणाली में ऊर्जा का जितना व्यय होता है, उसका पुनरुत्पादन भी उतना ही होना चाहिए। यह पारिस्थितिकीय पारस्परिकता जीवन की कुंजी है। प्रकृति में एक जैविक-संस्थान के अवशिष्ट का हर अंश दूसरे जैविक संस्थान का भोजन होता है।
हमारी बलात्कारी और लूट की आर्थिकी में हमने पर्यावरण को इतने अपशिष्ट से भर दिया है, जिसका इस्तेमाल नहीं हो सकता। इसलिए वह विषैला और विनाशक हो गया है। धन के साथ भी यही होता है, यदि धन मानव समाज का अंग बना रहे। सूर्य, पवन और जल की उदारता का मूल्य धन को चुकाना चाहिए। उसे प्रकृति का वास्तविक प्रतिबिंब होना होगा और यह निश्चित करना होगा कि जो कुछ हम प्रकृति से पाते हैं, उसे इस तरह लौटा सकें कि प्रकृति उन्हें जीवनदायी रूप में अपने में समाहित कर सके।
भूमि : सिएटल चीफ का प्रसिद्ध व्याख्यान है, तुम आकाश और भूमि की ऊष्मा को बेच या खरीद कैसे सकते हो? यह खयाल ही हमारे लिए अजाना है। यदि हम हवा की ताजगी और पानी की झिलमिलाहट के स्वामी नहीं हो सकते, तो तुम उसे खरीद कैसे सकते हो? यह सभी देशज लोगों में सर्वनिष्ठ तथा पावन अर्थशास्त्र के लिए केंद्रीय सिद्धांत है। भूमि या भूमि के अधिकार को बाजार की वस्तु बनाना प्रकृति से सांस्कृतिक विच्छिन्नता है क्योंकि कृत्रिम रूप से निर्धारित मौद्रिक कीमत मानने वाले लोग भूमि के वास्तविक मूल्य को नहीं समझ सकते-उसे केवल श्रद्धा और कृतज्ञता के साथ उससे जुड़ कर ही समझा जा सकता है। भूमि का संपदाकरण भूमि को भूंखडों तथा कृत्रिम सीमाओं में बांट देने के कारण प्राकृतिक अखंडता तथा पारिस्थितिकीय अंतस्संबंधता का निषेध है।
ज्ञान : जानकारी तभी दुर्लभ होती है, जब इसे लोग दुर्लभ बना देते हैं। बांटने से मैं ज्ञान से वंचित नहीं हो जाता, इससे हर कोई और संपन्न हो जाता है। दुर्भाग्य से, आधुनिक शिक्षा इससे विपरीत सिद्धांत पर चलती है : ज्ञान की कीमत तय कर देने से कुछ ही लोगों की उस तक पहुंच हो पाती है-इस तरह वह दुर्लभ हो जाता है। पावन आर्थिकी हमारे जीवन में ज्ञान की इस दुर्लभता को समाप्त करेगी। इसका अर्थ होगा स्कूलीकरण के एकाधिपत्य का तोड़ना तथा प्रत्येक व्यक्ति और समुदाय के सपनों, जरूरतों, सवालों और उमंगों को पूरा करने के लिए ज्ञान के असंख्य स्थलों का अन्वेषण और सृजन करना।
सूदखोरी : पावन अर्थशास्त्र सूद को धन-वृद्धि का मुख्य उपाय नहीं मानेगा। बहुत कम लोग इस तथ्य को पहचानते हैं कि सारा धन सूदशुदा ऋण से निर्मित होता है। इससे समाज चक्रवृद्धि ब्याज की कुल जमा से आगे निकलने के बुनियादी भार से तनाव भरे काम करने के लिए दबा रहता है, सूद का गणित स्पष्टतया बताता है कि अधिक धन वालों को अधिक लाभ होगा। यही हमारी सभी सामाजिक बुराइयों की केंद्रीय जड़ है। प्रायः, सभी धर्म सूदखोरी की निंदा करते हैं। कई इस्लामी देशों में तो इस पर कानूनी प्रतिबंध है-लेकिन पश्चिमी समाजों में इस चेतावनी की अनदेखी की गई है। कर्ज, वित्तीय सट्टेबाजी तथा भू-संपदा इतने बड़े हो जाते हैं कि वे भौतिक आर्थिकी को खाने लग जाते हैं, जैसे कैंसर शरीर को जीवन-शक्ति से वंचित करता जाता है, जब तक शरीर पूर्णतः निष्प्राण नहीं हो जाता।
एकत्वः आधुनिक अर्थशास्त्र लोगों को अलग और अकेला बना देता है। व्यवस्था में एक अंतर्भूत संपदा-भेद पैदा करके यह कम संपदा वाले लोगों में असंतोष, विषाद तथा अधिक संपदा वालों का भय पैदा कर देता है। यह बाजार में आगे बढ़ने के लिए भूमि का शोषण करने को बाध्य करता है। इसका परिणाम होता है : सामाजिक और पारिस्थितिकीय अलगाव और अवनतिकरण। जीने का यह ढंग भ्रामक और रोगात्मक है। आइंस्टाइन ने एक बार कहा था : एक मनुष्य उस समग्र का अंग है, जिसे हम ब्रह्मांड कहते हैं-दिक्काल में सीमित एक अंग-जबकि हम अपने को, अपने विचारों और भावनाओं को शेष सब कुछ से अलग अनुभव करते हैं : अपनी चेतना के दृष्टि-भ्रम का एक रूप। यह भ्रम हमारे लिए एक कैदखाना है, जो हमारी वैयक्तिक इच्छाओं और प्रेम को केवल हम तक और हमारे कुछ ही नजदीकी लोगों तक बंधित रखता है। हमारा काम है अपने को इस कैदखाने से मुक्त करते हुए अपनी संवेदना के वृत्त के विस्तार में सभी जीवित प्राणियों और समस्त प्रकृति को सम्मिलित करना।
इस काम के लिए जीवन के सभी आयामों में उदारता और प्रेम को घोलना होगा। मानवता की मुक्ति के लिए अलगाव को बढ़ाने वाली प्रभुतापरक व्यवस्थाओं को-नव-उदारवादी आर्थिकी ही नहीं, धर्म और राजनीति को भी-ध्वस्त करना सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण कदम है। लेकिन, यह प्रतिरोधमूलक तरीकों से नहीं होगा। इसके लिए हमें इन व्यवस्थाओं से अपने को अलग कर लेना होगा। नई प्रणालियों और नए सामाजिक संस्थानों के ऐसे निर्माण से, जिससे पुरानी व्यवस्था द्वारा उत्पादित ज्ञान, संसाधनों तथा ऊर्जा का पुनर्निवेशन हो सके-जैसे इल्ली से तितली पैदा होती है। एक बार शुरू हो जाने पर यह प्रक्रिया अबाधित हो जाएगी। मेरा विश्वास है कि यह, निश्चय ही, प्रारंभ हो चुकी है।
- क्रिस्टोफर आर० लिंडस्टोर्म
(हिंदी रूपांतर : नंदकिशोर आचार्य)