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अहिंसा - विश्वकोश

संपादन - नंदकिशोर आचार्य

अनुक्रम अहिंसा - विश्वकोश खंड 5 पीछे    

राय, मानवेंद्रनाथ : (21 मार्च 1887 ई०-25 जनवरी 1954 ई०) मूल नाम : नरेंद्रनाथ भट्टाचार्य। प्रारंभिक युवावस्था से ही राष्ट्रवादी क्रांतिकारी संगठनों में सक्रिय। प्रथम महायुद्ध के दौरान विदेश-गमन। मैक्सिको में साम्यवादी पार्टी के संस्थापक, मास्को में भारत के साम्यवादी दल की संस्थापना। कम्युनिस्ट इंटरनेशनल के मोलिब्यूरो के सदस्य एवं उसके केंद्रीय एशियाई विभाग के प्रभारी। बोरोडिन के साथ मिलकर चीन में साम्यवादी आंदोलन का संगठन। 1929 ई० से साम्यवाद से मोहभंग की शुरुआत। 1931 ई० में भारत आगमन और छ वर्ष का कठोर कारावास। 1936 ई० में रिहा। लीग ऑफ रैडिकल कांग्रेसमैन की स्थापना। 1940 ई० में रैडिकल डेमोक्रटिक पार्टी की स्थापना। 1948 ई० में पार्टी का विघटन एवं नव मानववादी आंदोलन में रूपातंरण।

अन्य प्रमुख कृतियां : न्यू आरिएंटेशन, बियांड कम्युनिज्म (साम्यवाद के पार), हिस्टोरिकल रोल ऑफ इस्लाम (इस्लाम की ऐतिहासिक भूमिका), सांइस एंड फिलॉसॅफि, रीजन रोमोंटिसिज्म एंड रिवोल्यूशन, पीपुल्स प्लान फार इकॉनोमिक डेवलपमेंट ऑफ इंडिया, तथा ड्राफ्ट कांसटिट्यूशन ऑफ फ्री इंडिया आदि।

यह एक विडंबना ही है कि हमारे समय के मौलिक विचारकों के हरावल में होने के बावजूद-अज्ञेय तो उन्हें आधुनिक भारत का एकमात्र वास्तविक बौद्धिक कहते थे-मानवेंद्रनाथ राय के चिंतन की ओर राजनीतिक ओर अकादमिक दुनियाओं ने अपेक्षित ध्यान नहीं दिया। उग्र राष्ट्रवाद से शुरु होकर साम्यवाद से गुजरती हुई उनकी चिंतन-यात्रा का नव मानववाद या वैज्ञानिक मानववाद तक पहुंचना उनका निजी वैचारिक उत्कर्ष ही नहीं, वरन् औपनिवेशिक दासता से मुक्ति की आकांक्षा करने वाली स्वातंत्र्य-चेतना का अपने समय में प्रचलित विकल्पों की अपर्याप्तता का अनुभव करते हुए एक नए विकल्प का प्रस्तावक होना है। यह आश्चर्यजनक है कि आधुनिक भारत के कम से कम तीन चिंतकों ने साम्यवाद की सफलता के घटाटोप को भेदकर उसकी वास्तविक कमजोरियों का विश्लेषण करते हुए अंततः उसके विफल होने की भविष्यवाणी की थी। मानवेंद्रनाथ राय के अतिरिक्त अन्य दो भविष्यवक्ता थे महात्मा गांधी और उनके ही एक मौलिक अनुयायी राममनोहर लोहिया। यह भी उतना ही विस्मयकारी है कि महात्मा गांधी की दृष्टि के मूलतः आध्यात्मिक तथा एम० एन० राय के मूलतः बुद्धिवादी और भौतिक-वादी होने बावजूद दोनों मनुष्य की स्वतंत्रता, उसके नैतिक उत्कर्ष तथा मानव-मूल्यों को अपना लक्ष्य घोषित करते और अपने कार्यक्रम में कई मुद्दों पर लगभग समान प्रस्ताव रखते हैं। संपूर्ण क्रांति आंदोलन के दिनों में व्यक्त जयप्रकाश नारायण के विचारों में हम महात्मा गांधी और एम० एन० राय को कम से कम कार्यक्रम स्तर पर मिलते हुए अनुभव कर सकते हैं।

महात्मा गांधी और एम० एन० राय जैसे चिंतकों द्वारा प्रस्तावित विकल्पों की ओर ध्यान न दिए जाने के ही कारण सामान्यतः यह समझ लिया जाता रहा है कि साम्यवाद की असफलता पूंजीवाद की विजय है। लेकिन ऐसा है नहीं। साम्यवाद के एक सही विकल्प साबित न हो सकने का तात्पर्य पूंजीवादी व्यवस्था की अपरिहार्यता नहीं है। क्या साम्यवादी व्यवस्थाओं के असफल हो जाने के कारण पूंजीवाद की मानववादी आलोचना को भी व्यर्थ मान लिया जाना चाहिए? यदि पूंजीवाद में मानवीय संवेदना का ह्रास, शोषण-दमन-उत्पीड़न और अंततः एक हिंस्र मनोवृत्ति में डूबती हुई मानवता को देखा गया है तो वह देखना अब भी गलत नहीं है। इसलिए पूंजीवाद के विकल्प की तलाश की प्रासंगिकता और बढ़ जाती है तथा इस तलाश की प्रक्रिया में एम० एन० राय जैसे चिंतकों की ओर ध्यान जाना स्वाभाविक है।

दरअस्ल, साम्यवाद के प्रति एम० एन० राय के प्रारंभिक आकर्षण की प्रमुख वजह मनुष्य की स्वतंत्रता और गरिमा के प्रति उनके आकर्षण तथा उसके उत्कर्ष की उनकी कामना में ही तलाशी जा सकती है। मनुष्य की स्वतंत्रता पर राय किसी भी प्रकार का नियंत्रण-राजनीतिक-आर्थिक अथवा आध्यात्मिक-नहीं चाहते। साम्यवाद के किसी भी रहस्यवादी आस्था का निषेध करने, वैज्ञानिक चिंतन को बढ़ावा देने तथा मनुष्य की बेहतरी को अपना लक्ष्य घोषित करने के दावों ने ही शायद एम० एन० राय जैसे स्वातंत्र्य-कामी चिंतक को उसकी ओर आकर्षित किया होगा। साम्यवाद का व्यावहारिक अनुभव उनकी दृष्टि में स्वातंत्र्य-विरोधी ही नहीं, आततायी तक सिद्ध हुआ। इसे एक प्रयोग या प्रयोगकर्ता की असफलता माना जा सकता था। लेकिन, इस प्रायोगिक असफलता से अधिक महत्त्वपूर्ण कारण रहा साम्यवाद की कथित वैज्ञानिकता के दावे का गलत सिद्ध होना क्योंकि इस गलत समझ से प्रसूत होने के कारण साम्यवाद के बुनियादी सिद्धांत ही राय की दृष्टि में आधारहीन साबित हो गए। इन आधारहीन बुनियादी सिद्धांतों की बिना पर किए जाने वाले प्रयोग का अंततः असफल होना स्वाभाविक ही है, राय का यह निष्कर्ष संगत ही कहा जाना चाहिए।

यह स्मरणीय है कि एम० एन० राय का मोहभंग मार्क्सवाद की वैज्ञानिकता से हुआ था न कि विज्ञानसम्मत बौद्धिकता और मानववाद से। इसीलिए वह कार्ल मार्क्स के इन मंतव्यों को सदैव सादर स्मरण करते रहे कि मनुष्य मानवता का मूल है तथा समाजवाद स्वतंत्रता का राज्य है। लेकिन विज्ञान की अपनी गहरी समझ और उससे उत्पन्न दार्शनिक निष्कर्षों में वह मार्क्स से बहुत अलग और आगे निकल गए। एम० एन० राय भी यह तो मानते हैं कि यह ब्रह्मांड एक नियमशासित भौतिक सत्ता है। लेकिन, उनका बलबिंदु केवल भौतिक पर ही नहीं, बल्कि नियमशासित पर भी है, जिसका स्पष्ट तात्पर्य है कि इस नियमशासित भौतिक प्रकृति से विकसित होने के कारण मनुष्य जहां अपने अस्तित्व में भौतिक है, वहीं अपने आचरण तथा वृत्ति में वैज्ञानिक बुद्धिसंपन्न अथवा विवेकशील भी। विवेकशील होने का तात्पर्य ही स्वतंत्र चेतना से संपन्न होना है क्योंकि उसके बिना विवेक का प्रयोग ही संभव नहीं है। मनुष्य जिस कारण एक भौतिक अस्तित्व है, उसी कारण एक स्वतंत्र चेतनासंपन्न और परिणामतः एक सृजनशील प्राणी भी। इनमें से किसी एक पर दूसरे को वरीयता नहीं दी जा सकती। इसीलिए मनुष्य का जीवन, उसकी संस्थाएं और उसका इतिहास केवल आर्थिक कारणों द्वारा निर्धारित नहीं है-यद्यपि एक उचित सीमा तक उनका महत्त्व है-बल्कि स्वतंत्र रुप से विकसित विचार और मानवीय सृजनात्मकता उन्हें गहराई से प्रभावित करते हैं। राय के लिए स्वतंत्रता और सृजनात्मकता इसीलिए अस्तित्वगत मूल्य हैं। ये मूल्य मनुष्य की विकास प्रक्रिया से अविच्छिन्न हैं। राय कहते भी हैं : स्वतंत्रता की तलाश बुद्धि और भावना के उच्च स्तर पर अस्तित्व के लिए जैविक संघर्ष का ही नैरंतर्य है। बुद्धि और भावना को भी राय अपनी प्रकृति में प्राकृतिक या जैविक ही मानते हैं। स्मरणीय है कि गीता में भी मन, बुद्धि और अहंकार को अष्टधा प्रकृति में गिनाया गया है। राय की दृष्टि में मनुष्य की नैतिकता का स्रोत भी उसकी विवेकशीलता में है। मनुष्य नैतिक है क्योंकि वह विवेकशील है। नैतिक होने के लिए किसी रहस्यवाद में आस्था अनिवार्य नहीं है। इस प्रकार राय स्वतंत्रता, सृजनात्मकता और नैतिकता को मनुष्य के अस्तित्वगत गुण मानते हैं, जिनका मूल आधार जैविक या प्राकृतिक है, अतिप्राकृतिक या रहस्यवादी नहीं। उल्लेखनीय है कि महात्मा गांधी नैतिक को ही आध्यात्मिक मानते थे।

मार्क्सवादी वैज्ञानिकता को भी भ्रामक सिद्ध करते हुए राय नवमानववाद की तात्त्विक पृष्ठभूमि के रुप में जिस वैज्ञानिकता की अवधारणा विकसित करते हैं, वह मनुष्य और उसके इतिहास के प्रति एक नई दृष्टि की कारक है। मार्क्स के अनुसार द्वंद्वात्मकता प्रकृति का कानून है। इसी कारण प्रकृति से विकसित मनुष्य और उसकी संस्थाओं में द्वंद्वात्मकता का होना अनिवार्य है। मनुष्य का इतिहास इसी द्वंद्वात्मकता के विभिन्न रूपों का इतिहास है। सामाजिक जीवन में वर्ग-संघर्ष इसी द्वंद्वात्मकता का प्रतिफलन है। राय मार्क्सवाद की इस बुनियादी संकल्पना को ही अवैज्ञानिक मानते हुए इसे खारिज कर देते हैं। वह इतिहास की आर्थिक व्याख्या को भी अस्वीकार करते हैं। उनका कहना है कि द्वंद्वात्मक भौतिकवाद की परिकल्पना भ्रामक है क्योंकि वस्तुतः भौतिकवाद एकत्ववादी दर्शन है। मनुष्य के इतिहास को वर्ग-संघर्ष की अवधारणा के आधार पर नहीं समझा जा सकता। मनुष्य द्वारा समाज का विकास संघर्ष के आधार पर नहीं बल्कि सहकार की बुनियादी प्रवृत्ति के आधार पर हुआ है। राय के अपने शब्दों में : यह सही है कि मनुष्य का प्राथमिक सरोकार उसका अपना अस्तित्व है, लेकिन यह भी उतना ही सच है कि उसकी स्वार्थ-वृत्ति अपना ही अतिक्रमण करने के सामर्थ्य को भी उपजाती है। वर्ग-संघर्ष का सिद्धांत इस तथ्य की अनदेखी करता है कि सहकार सदैव ही एक दृढ़तर सामाजिक कारक रहा है। अन्यथा, सभ्यता के प्रारंभ में ही समाज टुकड़े-टुकड़े हो जाता। राय के इस कथन से लगभग वैसी ही इतिहास-दृष्टि (और इसीलिए समाज-दृष्टि भी) व्यंजित होती है जैसी हिंद-स्वराज्य में महात्मा गांधी के इस कथन से : अगर दुनिया की कथा लड़ाई से शुरु हुई होती, तो आज एक भी आदमी जिंदा न रहता........दुनिया लड़ाई के हंगामों के बावजूद टिकी हुई है। इसलिए लड़ाई के बल के बजाय दूसरा ही बल उसका आधार है। हजारों बल्कि लाखों लोग प्रेम के बल रहकर अपना जीवन बसर करते हैं। करोड़ों कुटुंबों का क्लेश प्रेम की भावना में समा जाता है, डूब जाता है। सैकड़ों राष्ट्र मेलजोल से रह रहे हैं, इसको हिस्टरी नोट नहीं करती, हिस्टरी कर भी नहीं सकती। जब इस दया की, प्रेम की और सत्य की धारा रुकती है, टूटती है, तभी इतिहास में लिखा जाता है। फर्क इतना ही है कि दया, प्रेम आदि भावात्मक शब्द हैं जबकि सहकार कुछ अधिक व्यावहारिक या सांस्थानिक। लेकिन आपसी मेलजोल समाज का निर्धारक नियम है, यह दोनों मानते हैं। यहां यह भी ध्यातव्य है कि उत्तर-सार्त्र में भी मार्क्स की वर्ग-संघर्ष की धारणा की जगह अभाव के विरुद्ध संघर्ष प्रकारांतर से स्वतंत्रता के लिए संघर्ष की ही एक शाखा है क्योंकि एम०एन० राय के अनुसार, स्वतंत्रता की तलाश आदिम मनुष्य के अस्तित्व के लिए संघर्ष का ही जारी रहना है। इस रूप में वह संपूर्ण सामाजिक प्रगति की बुनियादी प्रेरणा है। स्वतंत्रता मनुष्य के बौद्धिक, नैतिक और सृजनात्मक सामर्थ्य के पल्लवन को बाधित करने वाले भौतिक, सामाजिक, मनोवैज्ञानिक सभी कारणों का क्रमशः लोप होते जाना है।

उल्लेखनीय है कि एम०एन० राय भी, महात्मा गांधी की तरह, साध्य-साधन एकत्व अथवा राजनीति और नैतिकता के अनिवार्य संबंध की जरूरत पर बल देते हैं। साम्यवादी क्रांतियों का व्यवहार इसीलिए उनकी राय में, दुनिया को-स्वयं श्रमिकों को भी-स्वतंत्रता और सामाजिक न्याय के करीब नहीं ले जा सका है। राय मानते हैं कि एक नैतिक लक्ष्य को अनैतिक उपायों से हासिल कर पाना सदैव ही संदेहपूर्ण है। व्यापक मुद्दों के शामिल होने तथा बड़ी चीजों के दांव पर लगे होने के संकट की घड़ियों में कुछ व्यवहारगत विचलन की इजाजत हो भी सकती है; लेकिन, नैतिक सिद्धांतों और पारंपरिक मानव-मूल्यों के प्रति असंगत व्यवहार के क्रांतिकारी शासन का स्थायी चरित्र बन जाने पर साधन साध्य को विफल कर देते हैं। भौतिकवादी होने के नाते राय के लिए विवेक एक जैविक क्रिया है और नैतिकता एक विवेकसम्मत क्रिया।

मानवेंद्रनाथ राय के अनुसार सभी प्रचलित विचारधाराएं ओर व्यवस्थाएं मनुष्य की स्वतंत्रता के इस चरम उद्देश्य को अपनी प्रक्रिया में भुला ही नहीं देती, बल्कि अक्सर स्वयं उसके विरुद्ध हो जाती हैं। साम्यवाद की सफलता और उसके चरम प्रभाव के दिनों में भी राय ने यह अनुभव कर लिया था कि मनुष्य की स्वतंत्रता उसका लक्ष्य नहीं रह गया है। यह उल्लेखनीय है कि राय मैक्सिको में कम्युनिस्ट पार्टी के संस्थापक, कम्युनिस्ट इंटर-नेशनल के प्रभावशाली सदस्य तथा चीन में बोरोडिन के साथ साम्यवादी आंदोलन के संगठन के लिए काम करने वाले ऐसे नेता रहे जिनमें स्वयं लेनिन से असहमति व्यक्त करने का साहस था। उनके देखते-देखते साम्यवाद एक तरह की तानाशाही में रूपांतरित हो गया था। लेकिन, दूसरी ओर, औपचारिक संसदीय लोकतंत्र भी फासीवाद का ही रूप हो रहे थे। हिटलर जैसे अधिनायक लोकप्रिय समर्थन और संसदीय प्रक्रियाओं के माध्यम से सत्तारूढ़ हुए थे। जहां औपचारिक लोकतंत्र हो, वहां भी संसदें सत्तासीन नेताओं या दलों की गुलाम की तरह कार्य करने लगती हैं। राय का मंतव्य है कि आज असली संघर्ष पूंजीवाद और साम्यवाद के बीच अथवा औपचारिक लोकतंत्र और फासीवाद के बीच नहीं है क्योंकि औपचारिक संसदीय लोकतंत्र में भी पूंजीवादी व्यवस्था का नैरंतर्य अब घोषित सिद्धांत के रुप में नहीं भी तो कम से कम व्यवहार में उदारवाद के स्थान पर फासीवाद की मांग करता है। इसलिए राय का यह विश्लेषण संगत लगता है कि हमारे युग का संघर्ष सर्वसत्तावाद और लेाकंतत्र के बीच है, सर्वभक्षी सामूहिक अहं-राष्ट्र अथवा वर्ग-और स्वतंत्रता के लिए संघर्षरत व्यक्ति के बीच।

इसीलिए एम०एन० राय एक ऐसे राजनीतिक तंत्र और अर्थ-व्यवस्था का प्रस्ताव करते हैं, जिसमें सत्ता के किसी भी रूप का हस्तांतरण और केंद्रीकरण न हो सके और व्यक्ति अपनी संप्रभुता का वास्तविक भोग कर सके। ब्योरों में कुछ भिन्नता के बावजूद व्यवस्थागत स्तर पर महात्मा गांधी का उद्देश्य भी मोटे तौर पर यही लगता है। इसी कारण दोनों में स्थानीय स्वायत्तता और सत्ता-रुपों के विकेंद्रीकरण पर स्पष्ट आग्रह है। संसदीय लोकतंत्र के बारे में गांधी जी ने राय से भी बहुत पहले समान विचार प्रकट करते हुए संसद के लिए बांझ और वेश्या जैसे शब्दों का प्रयोग किया था।

एम०एन० राय के राजनीतिक दर्शन को मौलिक मानववाद-रैडिकल ह्वूमेनिज्म-कहा जाता है। वह एक ओर मनुष्य द्वारा मनुष्य के शोषण की संभावना का विलोपन करने के लिए समाज के आर्थिक पुनर्संगठन की कल्पना करता है तो, दूसरी ओर, राज्य द्वारा स्वतंत्रता-हरण के खतरे से बचाव के लिए जन-समितियों के माध्यम से संपूर्ण वयस्क जनसंख्या की प्रत्यक्ष सहभागिता की कल्पना समाज के ऐसे पुनर्संगठन के लिए राय नागरिक-शिक्षण को अत्यधिक महत्त्व देते हैं। वह सामाजिक प्रगति के एक व्यापक सिद्धांत का प्रस्ताव करते हैं, जिसमें आर्थिक नियतिवाद की द्वंद्वात्मकता और विचारों की गतिशीलता दोनों को उनकी उचित मान्यता मिल जाती है। राय सामाजिक पुनर्संगठन के लिए मनुष्य के नैतिक बोध और वैज्ञानिक चिंतन के विकास को महत्त्व देते हुए सांस्कृतिक पुनर्जागरण के एक ऐसे आंदोलन को उसका आधार बनाना चाहते हैं जो जनता में स्वतंत्रता की आकांक्षा जगाए, उनकी आत्मनिर्भरता को प्रोत्साहित करे तथा उनमें वैयक्तिक गरिमा का बोध उपजाए, विवेकवाद और लौकिक नैतिकता को उनके मन में बिठाए और वैश्विक मानववाद की भावना का प्रसार करे। सामाजिक पुनर्संगठन के लिए लोक-शिक्षण को महात्मा गांधी और विनोबा भी इतना ही महत्त्व देते हैं क्योंकि वही परिवर्तन की अहिंसात्मक प्रक्रिया हो सकती है।

- नंदकिशोर आचार्य

राल्स, जॉन : अमरीकी विचारक जॉन राल्स (1921 ई०) उन आधुनिक राजनीतिक दार्शनिकों में अग्रणी हैं, जो एक अहिंसक सामाजिक व्यवस्था के लिए न्याय को प्रमुख आधार मानते और उसे केवल कानून की तकनीकी व्याख्या नहीं बल्कि नैतिक दृष्टि से परिभाषित करते हैं। उनकी पुस्तक ए थियरी ऑफ जस्टिस (1971 ई०) न्याय की अवधारणा की नई व्याख्या करती है, जिसने कई वैचारिक बहसों को जन्म दिया है। उनकी दूसरी पुस्तक पॉलिटिकल लिबरलिज्म ने भी राजनीतिक विचारकों का पर्याप्त ध्यान आकर्षित किया है।

राल्स का मुख्य प्रतिपादन है कि न्याय सामाजिक संस्थाओं का प्रथम सद्गुण है और इसलिए प्रत्येक व्यक्ति न्याय पर आधारित अनुल्लंघनीयता का अधिकारी है। इसका सीधा तात्पर्य यह है कि सभी व्यक्तियों के कुछ ऐसे समान अधिकार हैं, जिनका अतिक्रमण करना न्याय की दृष्टि से अनुचित होगा। मानवाधिकार विमर्श में राल्स के न्याय-सिद्धांत को मानवाधिकारों की दार्शनिक पृष्ठभूमि में केंद्रीय महत्त्व प्राप्त है क्योंकि यह कुछ बुनियादी स्वतंत्रताओं को प्रत्येक व्यक्ति का न्याय-सिद्ध अधिकार मानता है। राल्स के अनुसार राज्य का विकास समान अधिकार वाले व्यक्तियों के बीच सहमति या सामाजिक समझौते के आधार पर होता है और इनमें से किसी एक को किसी दूसरे से हीन नहीं समझा जा सकता। समझौता वह है जो विवेकशील व्यक्तियों के बीच सभी सदस्यों के शुभ के लिए होता है और इसी के आधार पर न्याय के सनातन सिद्धांत विकसित किए जा सकते हैं। इन सनातन सिद्धांतों में मुख्य सिद्धांत यही है कि समान अधिकार वाले व्यक्तियों के बीच विवेकपूर्ण और शुभोन्मुखी समझौता होने के कारण सभी की अर्थात् प्रत्येक व्यक्ति की कुछ ऐसी स्वतंत्रताएं हैं, जो नैतिक स्तर पर सभी को मान्य होती हैं और केवल स्वतंत्रता की रक्षा के लिए ही उनको संयमित किया जा सकता है।

इस स्वतंत्रता की अवधारणा के साथ रॉल्स एक और अवधारणा का प्रतिपादन करते हैं जो सभी के लिए शुभोन्मुखी है। रॉल्स मानते हैं कि एक न्यायपूर्ण समाज में प्रत्येक व्यक्ति को अवसरों की समानता का अधिकार प्राप्त होना चाहिए। लेकिन, साथ ही, वह इस बात को भी नहीं भूलते कि सामाजिक-आर्थिक असमानताओं के चलते अवसरों की समानता की बात केवल औपचारिक या पाखंड बनकर रह जाती है क्योंकि अवसरों का वास्तविक लाभ वे वर्ग या व्यक्ति ही ले पाते हैं जो अपनी सामाजिक-आर्थिक या राजनीतिक हैसियत के कारण अन्य लोगों से अधिक सामर्थ्य या योग्यता अर्जित कर पाते हैं। यह भी एक तरह का अन्याय ही है। इस असंगति या अन्याय को दूर करने के लिए रॉल्स न्याय की अवधारणा में एक नए उप-सिद्धांत का समावेश करते हैं, जिसे वह भेद का सिद्धांत (डिफरेंस प्रिंसिपल) कहते है। उनका प्रसिद्ध वाक्य है कि उच्च आकांक्षा तभी न्यायपूर्ण होती है, जब निम्न स्तर की सुविधा प्राप्त करने वालों का विकास करती है-क्योंकि तभी वे न्याय-सम्मत स्वतंत्रताओं और अधिकारों का लाभ लेने की `िस्थ्ाित में हो सकेंगे। सामान्यतः, न्याय में समानता की अवधारणा को महत्त्व दिया जाता रहा है; लेकिन, उसका तात्पर्य कानूनी ही अधिक रहा है, जिसे रूल ऑफ लॉ कहा जाता है। लेकिन रॉल्स के लिए न्याय केवल कानूनी समानता में नहीं, बल्कि उन सामाजिक-आर्थिक दृष्टि से पिछड़े हुए वर्गों को विशेष अवसर देकर विकसित करने में है, जो अन्यथा कानूनी समानता का वास्तविक लाभ नहीं ले पाते। इस प्रकार रॉल्स समानता की अवधारणा की उदारवादी या कहें लोक-कल्याणकारी व्याख्या करते हैं और उसके बिना समानता को वास्तविक नहीं मानते। दि कैंब्रिज डिक्शनरी ऑफ फिलॉसफि के अनुसार रॉल्स न्याय के दो सिद्धांतों को मिलाकर एक ऐसे समाज की प्रस्तावना करते हैं जो सार्वभौमिक स्वतंत्रताओं में हिस्सेदार पर वंचित वर्ग को लाभ पहुंचाकर एक न्यायपूर्ण समाज हो सके। बुनियादी स्वतंत्रताओं की प्राथमिकता का तात्पर्य है एक उदार समतावादी समाज जिसमें प्रत्येक व्यक्ति के लिए वे उचित संसाधन सुरक्षित हों जिनसे वह आत्मनिर्भर और स्व-शासित बन सके। इसका सीधा मतलब यह है कि रॉल्स के लिए न्याय का तात्पर्य है प्रत्येक व्यक्ति को स्वस्थ जीवन और विकास की स्वतंत्रता की वास्तविक उपलब्धि; उदार राजनीतिक व्यवस्था और आय तथा संपदा का न्यायपूर्ण वितरण करने वाली ऐसी आर्थिक-व्यवस्था जिसमें उत्पादन के साधनों का व्यापक और विकेंद्रित स्वामित्व हो अथवा एक उदार समाजवाद। यह अहिंसा के ही सकारात्मक स्वरूप वाली व्यवस्था होगी।

- नंदकिशोर आचार्य

रीगन, टॉम : पशु-अधिकार के समर्थक विचारकों में जेरेमी बेंथम और पीटर सिंगर के बाद टॉम रीगन और स्टीवन एम० वाइज कोअत्यधिक महत्त्वपूर्ण माना जाता है। रीगन एक अमेरिकी दार्शनिक हैं, जिन्होंने पशु-अधिकारों पर निंरतर विस्तार और गहराई से विचार करते हुए अभी तक चार पुस्तकें लिखी हैं, जिनमें से दि केस फॉर एनिमल राइट्स को पीटर सिंगर की एनिमल लिब्रेशन के साथ याद किया जाता है और जिसका पशु-मुक्ति आंदोलन पर गहरा प्रभाव स्वीकार किया जाता है।

कांट से प्रभावित होते हुए भी टॉम रीगन पशु-अधिकारों के बारे में उनसे सहमत नहीं होते। कांट का विचार था कि पशुओं का महत्त्व और गरिमा मानव-जीवन के लिए उनकी उपयोगिता पर आधारित है। पशुओं के प्रति क्रूर होना केवल इसलिए गलत है कि इससे हम भी क्रूर बन जाते हैं, जो मनुष्य के रूप में हमारे लिए वांछनीय नहीं है। इसलिए पशुओं के प्रति हमारे कर्त्तव्य वस्तुतः मानवता के प्रति हमारे अप्रत्यक्ष कर्त्तव्य हैं। कांट की दृष्टि में आदर केवल विवेकशील प्राणियों के लिए हो सकता है। लेकिन, टॉम रीगन का तर्क है कि बच्चे और मानसिक विकलांग या मंदबुद्धि के बावजूद वयस्क मनुष्य भी आदर का हक रखते हैं। इसलिए आदर को मनुष्य की तर्क-क्षमता या विवेकशीलता के साथ जोड़कर नहीं देखा जा सकता। रीगन के शब्दों में कहें तो हम सभी के लिए जीवन स्वयं में और हमारे अपने लिए महत्त्वपूर्ण है। उसका महत्त्व अन्य के संदर्भ में नहीं है, इस तर्क के आधार पर पशुओं के जीवन के बारे में भी यही कहा जा सकता है कि उनके जीवन का महत्त्व उनके अपने लिए है, न कि मनुष्यों के लिए। जीवन के स्वयं अपने लिए महत्त्वपूर्ण होने का तर्क मानव और मानवेतर सभी पर समान रूप से लागू होता है। पशु का जीवन किसी अन्य का उपकरण नहीं है, इसलिए उसका आदर किया जाना चाहिए। उस पर आघात करना या उसे पीड़ा पहुंचाना इस आदर का उल्लंघन है।

लेकिन, रीगन यह अवश्य मानते हैं कि यदि पशु के जीवन के मुकाबले मनुष्य का जीवन हो तो मनुष्य-जीवन को प्राथमिकता दी जानी चाहिए। उनका तर्क है कि पशु के जीवन की संभावनाएं उतनी नहीं होतीं, जितनी मानव-जीवन की होती हैं। लेकिन मनुष्य की अपनी सुविधा, विलासिता, कपड़ों या खाने आदि के लिए पशु-जीवन का अनादर अनैतिक है।

द्रष्टव्य : अरस्तू; बेंथम, जेरेमी; पशु-मुक्ति; स्टीवन एम० वाइज; रशेल्स जेम्स।

- नंदकिशोर आचार्य

रूमी : रूमी नाम से प्रसिद्ध मौलाना रूम जलालुद्दीन मुहम्मद (1207-1273 ई०) बल्ख (मौजूदा तजाकिस्तान) में पैदा हुए थे, इसलिए उन्हें बलखी या अलबल्खी कहा जाता है। कुछ लोगों के मतानुसार इनका संबंध इस्लाम के पहले खलीफा हजरत अबू बकर सिद्दीकी से और कुछ के अनुसार चौथे खलीफा हजरत अली से था। इन्हें खुदावंदगार और हजरत मौलवी भी कहा जाता है। पिता का नाम बहाउदीन और दादा हुसैन बल्खी थे। दोनों ही विद्वान और प्रसिद्ध सूफी थे। मौलाना रूम का पहला विवाह 1225 ई० में हुआ, उससे दो पुत्र हुए। पहली पत्नी की मृत्यु के बाद दूसरा विवाह किया, जिससे एक लड़का और एक लड़की पैदा हुई। प्रारंभिक शिक्षा पिता की देखरेख में हुई। बड़े होने पर पिता ने अपने समय के विद्वान और अपने अनुयायी सैयद बह्हांउदीन मुहक्किक पर इनकी शिक्षा भार डाल दिया।

बताया जाता है कि नेशापुर में एक दिन मौलाना रूम अपने पिता के पीछे-पीछे चलते कहीं जा रहे थे तो फारसी के प्रसिद्ध शाइर और सूफी साधक ख्वाजा फरीदुदीन अत्तार ने रूमी को इंगित करते हुए कहा यहां समुद्र नदी के पीछे बह रहा है। फिर पिता से मुखातिब होकर कहा इस जौहरे-काबिल से गाफिल न होना। अत्तार ने अल्पायु रूम को अपनी एक पुस्तक असरारनामा (रहस्य-ग्रंथ) भेंट स्वरूप दी, जिसमें अध्यात्म, रहस्य और आत्मा-परमात्मा के संबंधों की चर्चा थी। अत्तार का यह ग्रंथ बाद में मंतक-उल-तीर के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इस पुस्तक ने छोटी उम्र के रूमी को बहुत प्रभावित किया। अत्तार के अलावा सूफी शाइर सन्नाई ने भी इन्हें प्रभावित किया।

मौलाना रूम सूफी साधक होने के साथ-साथ इस्लामी धर्म-शास्त्र के विद्वान और फारसी के श्रेष्ठतम शाइरों में थे। उनकी मस्नवी-ए-मानवी छः जिल्दों में है। इस मस्नवी में उन्होंने सन्नाई और अत्तार के प्रभाव को स्वीकार करते हुए उनकी प्रशंसा भी की है।

रूम की यह मस्नवी संसार के साहित्य की अमूल्य धरोहर है। इसमें रूम ने कविता के माध्यम से अपने सांसारिक व आध्यात्मिक अनुभवों के साथ-साथ कुरआनी आयतों की व्याख्याएं, नसीहतों तथा तसव्वुफ के रहस्यों का वर्णन किया है। उनकी मस्नवी को पहलवी भाषा में कुरान कहा गया है।

अत्तार ने जिसे जौहरे-काबिल कहा था उस पर प्रचलित धार्मिक-मान्यताओं ने धूल जमा दी थी। प्रसिद्ध सूफी संत शम्स तब्रेजी की संगत ने उस धूल को साफ किया। शम्स तब्रेजी की संगत से ही उन्होंने अनुभव किया कि मनुष्य का मानव होना ही पर्याप्त नहीं है, बल्कि उसे पूर्ण मानव होना चाहिए। और पूर्ण मानव होने के लिए उसमें प्रेम होना चाहिए। वे कहते हैं : तू बराए-वस्लकर्दा आमदी/न बराए-फस्लकर्दा आमदी। अर्थात् तू संसार में मेल-मिलाप करने के लिए आया है न कि अलगाव, दूरी और लड़ने-झगड़ने के लिए।

सूफी-साधना का मूल मंत्र है प्रेम। रूमी प्रेम (इश्क) ही को सब कुछ मानते हुए कहते हैं : ऐ इश्क (प्रेम) तेरा भला हो। तू ही हमारी आत्मिक, आध्यात्मिक और नैतिक बीमारियों का चिकित्सक और उपचार है। तुझ जैसा उपचारक और कहां है। ऐसा न चिकित्सकों से संभव है न दार्शनिकों और सामाजिक चिंतकों से।

अपरिग्रह का गुणगाान करते हुए मौलाना रूम लिखते हैं आवश्यकता से अधिक धन या सोना-चांदी का संग्रह करना अनैतिकता का द्योतक है। मनुष्य के पास इतना भर होना चाहिए कि उसकी आवश्यकताओं की पूर्ति हो जाए। पेट भर रोटी और तन भर कपड़ा मिल जाए इतना धन पर्याप्त है। इससे अधिक का होना ही झगड़े की जड़ है।

उनका कहना है कि लालची लोगों के पास कितना ही धन आ जाए, उन्हें संतोष नही मिलता। नादान देखते नहीं कि सीप एक बूंद पर ही संतोष करता है और बदले में संसार को मोती देता है। अगर वह लोभ या लालच करता तो संसार को कुछ भी न दे पाता।

रूम सदाचार को सर्वोपरि मानते और उसका महत्त्व बताते हुए कहते हैं कि आस्तिक से आस्तिक आदमी को भी आत्मिक बल तभी प्राप्त हो सकता है जब वह सदाचार के नियमों का दृढ़ता से पालन करे। बेअदब (रूम ने इस शब्द को पापी तथा अपराधी के अर्थों में भी प्रयोग किया है) व्यक्ति समाज या दूसरे प्राणियों को नुकसान पहुंचाता है, उन्हें दुख देता है और दूसरों को दुख देना या दिल दुखाना हिंसा है।

मौलाना रूम कुरआन, हदीस और इस्लामी धर्मशास्त्र के प्रामाणिक विद्वान थे। इसलिए उन्होंने जन-जन तक अपना संदेश पहुंचाने के लिए इस्लामी मान्यताओं तथा पात्रों का प्रतीक-स्वरूप सहारा लिया है। इस्लामी प्रतीक उनके यहां इतने सहज रूप से परंतु गुंथे हुए आए हैं कि उनका कहा संत वाणी के साथ-साथ कवि-वाणी भी मालूम होता है, और उनका कवि कब संत और संत कब कवि हो जाता है, यह पता लगाना कठिन हो जाता है।

उपनिषदों में आया है कि देवता होकर ही देवता को जाना जा सकता है। रूम कहते हैं कि आशिक (प्रेमी) होकर ही इश्क (प्रेम) जाना या पाया जा सकता है। साये से सूर्य की पहचान भौतिक ही हो सकती है। मैं तो ईश्वर को ईश्वर ही के माध्यम से जानता हूं। प्रत्यक्ष दिखाई देने वाला सूर्य तो अस्त भी होता हैं, परंतु वह सूर्य (ईश्वर) तो सदा से सदा के लिए स्थिर है।

रूम प्रेम और प्रार्थना को परमात्मा तक पहुंचने का मंत्र मानते हैं-सृष्टि से प्रेम करते हुए सृष्टा की या सृष्टा से प्रार्थना। आचरण का महत्त्व बताते हुए वह कहते हैं कि मानव हृदय में प्रेम का प्रकट होना आचरण ही से संभव है। यहां भी वह कहने से अधिक करने पर जोर देते हैं।

रूमी द्वेष को सबसे बुरी चीज मानते हैं। उनका कहना है हसद (द्वेष) मत करो। हसद शैतानी काम है और फसाद (विकार) की जड़ है। द्वेष मनुष्य की नेकियों और अच्छाइयों को ठीक वैसे ही जला डालता है, जैसे आग लकड़ी को भस्मीभूत कर देती है।

सूफी-संप्रदाय की बुनियाद इश्क (प्रेम) है। यह द्वैत से अद्वैत की यात्रा है। आत्मा की परमात्मा से मिलन की कामना है। मृत्यु विसाल (मिलन) है। उनकी पारिभाषिक शब्दावली में मृत्यु होना अब्द (सेवक) का माबूद (स्वामी) से विसाल होना है, लेकिन यह तभी संभव है जब नफ्स (काम, क्रोध, लोभ, मोह, वासना) का ईसार (त्याग) हो। इश्क का दायरा तंग नहीं। हजर-शजर सब शामिल है। वसुधैव कुटुंबकम्। उन्हें इंसान की भिन्न-भिन्न मनोदशाओं, एक में अनेक और अनेक में एक दिखाई देता है।

इस दुनिया में अगर कोई आशिक (प्रेमी) है तो वह मैं हूं। अगर कोई ईमान लाने वाला, नास्तिक या ईसाई संत है तो मैं हूं। पृथ्वी, हवा, जल, अग्नि, शरीर और आत्मा मैं हूं। नरकाग्नि और स्वर्ग का उद्यान मैं हूं। फरिश्ता, हूर, परी, शैतान और इंसान मैं हूं।

अपनी एक कविता में वह कहते हैं :

मैं जानता हूं कि दोनों जगह एक ही हैं। मैं उसी एक को खोजता हूं, उसी एक को जानता हूं, उसी को देखता हूं, उसी को पुकारता हूं। वह आदि है, वह अंत है। वह बाह्य है, वह अंतर है।

मौलाना रूम अपनी मस्नवी के माध्यम से यह संदेश देते हैं कि सभी धर्मों के अनुयायी सुख-शांति से एक दूसरे के धर्म का सम्मान करके ही रह सकते हैं। प्रेम और अहिंसा के मार्ग पर चलकर ही हम अपनी अंतरात्मा तक पहुंच सकते हैं। जब हम इस लक्ष्य को प्राप्त कर लेंगे, तभी संसार से शत्रुता और घृणा का वातावरण दूर हो सकेगा और सच्चे अर्थों में संपूर्ण संसार सुख से रह सकेगा अर्थात् विश्व-शांति की स्थापना हो सकेगी।

- शीन काफ निजाम

रोजेनबर्ग, मार्शल बी० : द्रष्टव्य : अहिंसक संप्रेषण।

रोतब्लात, जोसेफ : जोसेफ रोतब्लात का जन्म पोलैंड की राजधानी वारसा में 1908 ई० में हुआ। प्रथम विश्वयुद्ध से पहले जोसेफ के परिवार के दिन खुशनुमा थे। उनके पिता का ट्रांसपोर्ट का कारोबार था। युद्ध ने इस परिवार की खुशियां छीन लीं।

जोसेफ ने परिवार की तंगहाली के बावजूद अपनी पढ़ाई जारी रखी। उनकी विज्ञान में रुचि थी और वे एक भौतिकीविद् बनना चाहते थे। वह दिन के समय एक इलेक्ट्रिशियन का काम करते और रात को अपनी पढ़ाई करते। 1932 ई० में उन्होंने फ्री यूनिवर्सिटी, पोलैंड से विज्ञान में स्नातक की डिग्री हासिल की। उन्हें जल्दी ही वारसा की रेडियोलॉजिकल लेबोरेटरी में शोधकर्ता के पद का प्रस्ताव मिला। 1938 ई० में उन्होंने वारसा विश्वविद्यालय से डॉक्टरेट किया। उसके बाद उनकी मुलाकात टोला ग्रिन से हुई, जिससे उन्होंने विवाह किया।

इसी दौरान ब्रिटिश भौतिकीविद् जेम्स चाडविक ने न्यूट्रॉन की खोज की। उन्हें 1935 ई० में इसके लिए नोबल पुरस्कार दिया गया। चाडविक लिवरपूल विश्वविद्यालय में कार्यरत थे। जब उन्होंने जोसेफ के बारे में सुना तो 1939 ई० में उन्हें भौतिकी वैज्ञानिकों के अपने दल में शामिल होने के लिए आमंत्रित किया। रोतब्लात इससे बहुत खुश हुए। वारसा की तुलना में लिवरपूल में बेहतर उपकरण उपलब्ध थे। उनकी दिलचस्पी भौतिकी प्रयोगशाला के लिए विशेष रूप से साइक्लोट्रॉन में थी जो अणुओं को बहुत तेजी से विखंडित करती थी। उनका सपना एक दिन इस मशीन को वारसा के लिए जुटाना था। पहली बार उन्होंने पोलैंड से बाहर कदम रखा, वह बड़ी उम्मीदों के साथ लिवरपूल चले गए। 1939 ई० का वर्ष एक विशेष खोज के लिए प्रस्थान बिंदु था, जब दो जर्मन वैज्ञानिकों ने यूरेनियम के अणु को विखंडित किया। इससे दुनिया के और वैज्ञानिकों का ध्यान भी परमाणु विखंडन कर इससे उत्पन्न होने वाली मूल्यवान ऊर्जा की ओर गया। जोसेफ रोतब्लात उन चंद वैज्ञानिकों में से एक थे जिन्होंने सबसे पहले यह जाना कि यह प्रतिक्रिया अत्यधिक तीव्र और विस्फोटक है और बड़े पैमाने पर विध्वंसकारी बम के रूप में प्रयुक्त की जा सकती है। जोसेफ के शब्दों में, जैसे ही मुझे यह विचार आया, मैंने इसे दिमाग से निकालने की कोशिश की। लेकिन जल्दी ही मुझे महसूस हुआ कि जरूरी नहीं कि अन्य वैज्ञानिक भी ऐसे नैतिक द्वंद्व से गुजरें। सितंबर 1939 ई० में जर्मन फौजों ने पोलैंड पर चढ़ाई कर दी। अगस्त में जोसेफ रोतब्लात पोलैंड गए ताकि अपनी पत्नी को वहां से इंग्लैंड लाने का बंदोबस्त कर सकें। पोलैंड में खबरों पर सैंसर था, इसलिए यूरोप में युद्ध के हालात की खबरें पोलैंड के मुख्य समाचारों में नहीं थीं। इस कारण युवा दंपति हालात की नाजुकता से बेखबर था। जब जोसेफ रोतब्लात लिवरपूल अपने काम पर वापस लौट रहे थे तो उन्हें इस बात का अंदाजा तक नहीं था कि यह पोलैंड से रवाना होने वाली आखिरी ट्रेन है। सितंबर के आक्रमण के बाद, पोलैंड के प्रतिरोध को जर्मन सेना ने क्रूरता से कुचलना शुरू कर दिया। इस दौरान जोसेफ ने अपनी पत्नी को देश से बाहर लाने के कई प्रयास किए लेकिन हर बार उन्होंने देश की सीमाओं को अपने लिए बंद पाया। बाद में, उन्हें पता चला कि उनकी पत्नी उन अनेक पोल नागरिकों में से एक थी जो अपनी जान गंवा चुके थे।

पोलैंड पर हिटलर के आक्रमण के चलते जोसेफ रोतब्लात ने जेम्स चाडविक को सुझाव दिया कि उन्हें परमाणु बम के विकास पर काम शुरू करना चाहिए। उन्होंने अब तक जर्मन सेना की शक्ति और नृशंसता का अनुभव कर लिया था। उनको डर था कि जर्मनी के चंद भौतिकीविद् ऐसा बम बना चुके हैं और इसका उपयोग हिटलर दुनिया पर नाजीवाद थोपने के लिए कर सकता है। जोसेफ के अनुसार, यह मेरे को भयभीत करने वाला समय था, संभवतः एक वैज्ञानिक द्वारा अनुभव किया जाने वाला सबसे बदतर अंतर्द्वंद्व। जनसंहार के हथियार पर काम करना मेरे सभी विचारों के विरुद्ध था-मेरे विचारों में जो विज्ञान कर सकता था-ऐसे सभी विचारों को हिटलर के पास बम होने की आशंका ने तिरोहित कर दिया था।

जोसेफ रोतब्लात और कई दूसरे वैज्ञानिकों का विश्वास था कि इस बम का कभी प्रयोग नहीं किया जाएगा। वह सोचते थे कि इसे तैयार करने का केवल एक कारण है : जर्मनी को संतुलित करना। जोसेफ का मानना था, बाद में, मैंने महसूस किया कि परमाणु संतुलन की यह अवधारणा गलत साबित हुई। शुरूआत के बाद, यह विवेकहीन लोगों के साथ काम नहीं करती, बल्कि विवेकशील लोगों के साथ भी नहीं करती जब वे युद्ध में विवेकहीन व्यवहार कर रहे हों और विशेषकर तब जबकि वे हार का सामना कर रहे हों। ब्रिटेन में तुरंत परमाणु बम की परियोजना पर काम शुरू कर दिया गया। यह काम अन्य परियोजनओं के आवरण में छुपाकर किया जाता रहा और गुप्त रखा गया। जोसेफ के शब्दों में, एक विध्वंसक शक्ति के रूप में बम का विचार पहले ही तैयार था। हम विस्फोट के असर के बारे में जानते थे। हमें रेडियो विकिरण से होने वाले विनाश का पता था। लेकिन तब भी हमें यह यकीन नहीं था कि एक परमाणु बम मानव सभ्यता को खात्मे की ओर ले जा सकता है। हमारी गणना के अनुसार इसके लिए उस समय एक लाख ऐसे बमों की आवश्यकता थी। और उस समय के घोर नैराश्यपूर्ण परिदृश्य में भी हम ये सोचने में असमर्थ थे कि मनुष्य समाज इतना मूर्ख हो सकता है। लेकिन वक्त ने बताया कि ऐसा हो सकता है।

1942 ई० में ब्रिटेन और अमेरिका के बीच इस पर सहमति बनी कि बम के विकास पर दोनों को मिलकर काम करना चाहिए। यह काम युद्ध के रंगमंच से दूर अमेरिका में शुरू किया गया। 1944 ई० की शुरूआत में जोसेफ रोतब्लात गहरी असहज भावनाओं के साथ लोस अलामोस स्थित मनहट्टन परियोजना से जुड़ने के लिए न्यू मेक्सिको रवाना हो गए। यह परियोजना वैज्ञानिकों द्वारा नहीं बल्कि अमेरिकी सेना द्वारा संचालित की जा रही थी। जैसा कि रोतब्लात ने बाद में कहा, संभवतः ये हमारी सबसे बड़ी भूल थी कि हमने सेना पर भरोसा किया।

परियोजना के सैन्य निदेशक जनरल लेस्ली ग्रूव्स का अपना एजेंडा था जिसके अनुसार बम के निर्मित होने पर इसका प्रयोग भी किया जाना था। उसने खुले आम कहा था कि रूस हमारा शत्रु हैं और इसी आधार पर यह परियोजना चलाई जा रही है, जबकि तथ्य यह था कि रूस भी जर्मनी के विरुद्ध लड़ रहा था। यह जनरल ग्रूव्स ही था जिसने यह साफ होने के बाद भी कि किसी जर्मन बम का कोई अस्तित्व नहीं है, बम पर काम जारी रखने का आदेश दिया। जहां तक अमेरिकी सेना की सोच का सवाल है, इसका मानना था कि ये एक उपयोगी हथियार था और अब इसे जापान के विरुद्ध इस्तेमाल किया जा सकता था।

1944 ई० के आखिर में जैसे ही जोसेफ रोतब्लात ने सुना कि वैज्ञानिक खुफिया सूत्रों ने जर्मन वैज्ञानिकों द्वारा परमाणु बम कार्यक्रम के परित्याग करने की पुष्टि कर दी है, उन्होंने मनहट्टन परियोजना छोड़ दी और ब्रिटेन वापस आ गए। जैसा कि उनके एक साथी वैज्ञानिक ने बताया कि परमाणु बम के मामले में उनका इतना ही श्रेय था।

उन्होंने अपने साथी वैज्ञानिकों को बम बनाने के लिए दबाव में काम करने पर फिर से सोचने का आग्रह किया। उनमें से कुछ उनसे सहमत भी हुए और उन्होंने मसले को राष्ट्रपति के समक्ष रखने की कोशिश की। लेकिन, दूसरों ने इस पर कोई प्रतिरोध नहीं किया कि बम बनाया जा सकता है और इसकी शक्ति इस हद तक विनाशक है। अमेरिकी भौतिकीविद् रॉबर्ट ओपेनहाइमर ने मनहट्टन परियोजना के वैज्ञानिक अध्यक्ष के नाते अक्टूबर 1944 ई० में ग्रूव्स को स्पष्ट शब्दों में लिखा था : प्रयोगशाला शस्त्र निर्माण के निर्देश के अंतर्गत कार्य कर रही है, इस निर्देश का तुरंत प्रभाव से परित्याग कर देना चाहिए।

जापान के द्वितीय विश्वयुद्ध में शामिल होने और उसके द्वारा युद्धबंदियों से किए गए क्रूर व्यवहार की खबरों के चलते उन लोगों ने भी अपना विचार बदल दिया जो हाल तक जोसेफ रोतब्लात से सहमत थे। जोसेफ के अनुसार यह युद्ध का मनोविज्ञान था। अगर हम एक बार युद्ध में प्रवेश कर जाते हैं तो हमारे नैतिक मूल्य भी उसके गर्द-गुबार के तले दब जाते हैं। हम लोगों को मारना अपना साहस समझते हैं। जो लोग कल तक हमारे दोस्त थे, वे अब हमारे जानी दुश्मन बन जाते हैं।

लोस अलमोस के सैन्य अधिकारियों ने जोसेफ रोतब्लात को धमकी दी कि यदि उन्होंने किसी को परियोजना छोड़ने का कारण बताया तो उन्हें गिरफ्तार कर लिया जाएगा। उनके छोड़कर जाने के साथ एक शर्त यह लगाई गई कि वह यहां रहे अपने सहयोगियों के साथ किसी तरह का कोई संबंध नहीं रखेंगे। उन्होंने किसी को कुछ कहा भी नहीं, न तो अमेरिका में और न ही 1945 ई० के शुरू में लिवरपूल वापस आने के बाद, जहां उन्होंने खुद अपने लिए, अपनी मां, बहिन व एक भाई के लिए नागरिकता पाने के लिए अर्जी दी थी। उनके परिवार के ये लोग युद्ध में किसी तरह बच गए थे और किसी तरह उनको पास आने में सफल हो गए थे।

किंतु अगस्त में हिरोशिमा और नागासाकी पर बम डाले जाने के बाद उनके लिए मौन रह पाना संभव नहीं रह गया।

6 अगस्त को बी०बी०सी० पर समाचार सुनने तक मैं कुछ नहीं जानता था। इस खबर ने मुझे बुरी तरह हिलाकर रख दिया। मेरा विचार था कि बम बनाने पर भी इसका प्रयोग नहीं किया जाएगा। लेकिन यहां तो इसका बनाते ही प्रयोग किया गया था और वह भी निरीह नागरिक आबादी के विरुद्ध।

जोसेफ रोतब्लात ने देखा कि परमाणु बम तो भयावह विनाश के रास्ते पर सिर्फ एक कदम है। लोग इससे भी विनाशक बमों की ओर बढ़ रहे हैं। हाइड्रोजन बम का विचार पहले ही शक्ल ले चुका है। शस्त्रों की अंधी दौड़ शुरू हो चुकी है। उन्होंने तुरंत परमाणु शस्त्रों और युद्ध के विरुद्ध अपना अनवरत् अभियान शुरू कर दिया।

उन्होंने अपने अभियान की शुरूआत समूचे ब्रिटेन में वार्ताओं की एक शृंखला के साथ की। उन्होंने अपने साथी वैज्ञानिकों को परमाणु शोध का परित्याग करने का आग्रह किया। 1946 ई० में उनकी पहल पर ब्रिटेन की एटोमिक साइंटिस्ट एसोसिएशन का गठन हुआ, जिसके सदस्य परमाणु शक्ति के सैन्य इस्तेमाल के विरोधी थे। इसने नवगठित फेडरेशन ऑफ एटोमिक साइंटिस्ट्सि (अब दि फैडरेशन ऑफ अमेरिकन साइंटिस्ट्सि) के साथ मिलकर परमाणु शक्ति और शस्त्रों के लिए एक विश्व नीति तैयार कर प्रस्तुत की। इन वैज्ञानिकों के प्रभाव से ही संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा ने इस मुद्दे पर एक आयोग गठित करने का पहला प्रस्ताव पारित किया। दुर्भाग्य से संयुक्त राज्य अमेरिका और सोवियत संघ की पारस्परिक प्रतिद्वंदिता के चलते यह आयोग नहीं बन पाया।

जब हम सरकार के स्तर पर असफल हो जाते हैं, मैं सोचता हूं हमें जनता के बीच जाना चाहिए। ऐसा मानने वाले जोसेफ रोतब्लात ने 1947 ई० में एटम ट्रेन की पर्यटन प्रदर्शनी आयोजित की। इसमें ट्रेन के दो डिब्बों में परमाणु प्रयोग के खतरों और दुष्प्रभावों को प्रदर्शित किया गया था। इसके जरिए आम लोगों को परमाणु शक्ति के सैन्य प्रयोग और परमाणु ऊर्जा के शांतिपूर्ण उपयोग के खतरों व परिणामों से अवगत कराया गया था। मेरे जैसे वैज्ञानिक के लिए, जो विज्ञान के सही विकास में प्रयोग पर यकीन रखता है, यह जरूरी है कि जनता को सबसे पहले परमाणु शक्ति की महान खोज का विनाशक पहलू बताया जाए क्योंकि यह विज्ञान को भी कलंकित करता है। शुरू में हमने परमाणु शक्ति के लाभदायी पहलुओं को प्रदर्शित करने के लिए कठोर परिश्रम किया, बाद में ये काम उद्योग मालिकों ने अपने हाथ में ले लिया।

जहां तक जोसेफ रोतब्लात के अपने काम का सरोकार है, उन्होंने तुरंत अपनी दिशा बदल ली। उन्होंने विकिरण और स्वास्थ्य पर इसके दुष्प्रभावों पर अध्ययन शुरू किया। 1950 ई० से 1976 ई० के दरम्यान वह लंदन के सेंट बार्थोलोम्यु अस्पताल में भौतिकी के सर्वाधिक सम्मानित प्रोफेसर थे। यहां उनके अध्ययनों ने परमाणु जोखिमों को लेकर समझ विकसित करने में व्यापक योगदान किया। वह यह साबित कर पाए कि स्वच्छ समझे जाने वाले हाइड्रोजन बम के विकिरण भी महा-विनाशक हैं। उन्होंने यह बताया कि विकिरण युद्ध-पीड़ितों में कैंसर का प्रत्यक्ष कारण रहा है। एक परमाणु भौतिकीविद् के रूप में शांति के लिए अनथक कार्य करते हुए 96 वर्ष की आयु में जोसेफ रोतब्लात का निधन हुआ। 1995 ई० में प्रदत्त शांति के लिए नोबेल पुरस्कार में वह विज्ञान और विश्व संबंधों पर दुनुवाश कान्फेस के साथ हिस्सेदार थे। अपने प्रसिद्ध नोबेल व्याख्यान के अलावा उन्होंने दो दर्जन से अधिक पुस्तकों व आलेखों का लेखन-संपादन किया है। इनमें उन्होंने विश्व को परमाणु शस्त्रों के अस्तित्व के खतरे के विरुद्ध लगातार चेताया है।

- राजाराम भादू

लॉक, जॉन : आधुनिक दार्शनिक चिंतन के क्षेत्र में अनुभव को उसका प्राप्य दिलवाने का प्रारंभिक श्रेय ब्रिटिश दार्शनिक जॉन लॉक (1632-1704 ई०) को जाता है। जॉन लॉक की दार्शनिक प्रणाली वस्तुतः देकार्त द्वारा प्रवर्तित प्रणाली का निषेध नहीं बल्कि उसकी पूरक मानी जानी चाहिये। मानवीय अनुभव को ज्ञान का स्रोत मानने के कारण इसे अनुभववाद भी कहा जाता है। लॉक की मान्यता है कि कोई भी विचार प्रत्यय सहजात नहीं है इसलिये ऐसा कोई भी ज्ञान नहीं हो सकता जो सर्वस्वतंत्र, सार्वभौमिक एवं सर्वकालिक हो- इसका सीधा तात्पर्य यह हुआ कि कोई भी सत्य सार्वभौमिक या सार्वकालिक सत्य नहीं हो सकता।

अनुभववादी होने के कारण यह स्वाभाविक ही था कि लॉक ने ऐंद्रिक संवेदनाओं पर अधिक जोर दिया और उन्हें ही ज्ञान का प्रारंभिक स्रोत माना। लेकिन यह कहना गलत होगा कि चिंतन या विचार उनके दर्शन में कम महत्त्वपूर्ण है। अनुभव की धारणा को व्यापक आधार देते हुए लॉक ने संवेदनशील प्रत्यय के साथ-साथ चिंतनजन्य प्रत्यय को भी अनुभव की परिधि में ही शामिल किया और इस प्रकार ज्ञान की प्रक्रिया को वस्तुजगत् के साथ-साथ विचार-जगत् या मानसिक-जगत् पर भी बराबर आधारित स्वीकार किया गया। लॉक यह मानते थे कि इस ब्रह्मांड में दो प्रकार के सार द्रव्य हैं-भौतिक और आत्मिक। इसका सीधा तात्पर्य यह हुआ कि पूर्ण ज्ञान तभी संभव है जब इन दोनों सार द्रव्यों का संपूर्ण ज्ञान उपलब्ध हो- किसी एक द्रव्य पर आधारित ज्ञान इसलिए अधूरा ही माना जायेगा। मनुष्य की चेतना इन दोनों प्रकार के द्रव्यों का अनुभव कर सकती है, इसलिए लॉक के दर्शन में संवेदनशील प्रत्यय की ही तरह चिंतनजन्य प्रत्यय भी एक वास्तविकता है। लेकिन, वस्तुजगत और विचार के बीच एक फांक सदैव बनी रहती है क्योंकि जानने की प्रक्रिया में हम वास्तविकता को विचार में परिणत कर रहे होते हैं। इसलिए लॉक मानते थे कि हम भौतिक या आध्यात्मिक सत्ता के वास्तविक सार को पूरी तरह कभी नहीं समझ सकते। इसलिए ज्ञान एक संभावना है, वह अंतिम सत्य नहीं है। यही कारण रहा कि लॉक ने अरिस्टॉटल के निगमनात्मक हेत्वानुमान का विरोध किया क्योंकि यह पद्धति एक आधार वाक्य अर्थात् आंशिक सत्य को आधार बनाकर उसका साधारणीकरण कर व्यापक और निश्चित निष्कर्ष निकालती है। सच तो यह है कि लॉक इस प्रकार केवल अरिस्टॉटल का ही विरोध नहीं करते बल्कि वह सभी प्रकार की निश्चयात्मकवादी विचार-प्रवृत्तियों का विरोध करते हैं क्योंकि इन प्रवृत्तियों में ज्ञान और सत्य को सार्वकालिक, सार्वभौमिक और अंतिम मानने का आग्रह रहता है, जिसका तात्पर्य है मानवीय चेतना के भावी विकास की संभावनाओं को अस्वीकार करना।

यदि तत्त्व-चिंतन के क्षेत्र में कुछ भी अंतिम और निश्चित नहीं हो सकता तो स्पष्ट है कि मूल्यों, नीति और व्यवहार के क्षेत्र में भी किसी मान्यता को अंतिम या शाश्वत नहीं माना जा सकता। तो क्या नीति और धर्म के आचरण का कोई आधार नहीं है? अनुभववाद इसका क्या उत्तर देता है? लॉक का विचार था कि यदि मानवीय अनुभव में नीति का आधार खोजना हो तो वह सुख और दुःख की अनुभूतियों में ही हो सकता है। जिस कार्य से सुख का अनुभव हो, वह अच्छा है और जिससे दुःख का अनुभव हो, वह बुरा है। मनुष्य के लिए करणीय क्या है, इसका निर्णय इसी आधार पर हो सकता है कि किसी कार्य को करते हुए वह सुख का अनुभव करता है या दुःख का। लॉक सुख का अर्थ सुविधा नहीं करते बल्कि मानवीय अनुभव के विश्लेषण के ही आधार पर बतलाते हैं कि वास्तविक सुख स्वास्थ्य, प्रतिष्ठा, ज्ञान, सद्कार्य और एक शाश्वत तथा अनिर्वचनीय सुख-शांति की आकांक्षा में है। इस प्रकार लॉक की वास्तविक सुख की धारणा में भौतिक और आध्यात्मिक दोनों ही प्रवृत्तियों का समावेश हो जाता है। लेकिन, इन आधारों पर किन्हीं सार्वकालिक, सार्वभौमिक नैतिक नियमों का निर्माण नहीं किया जा सकता। व्यक्ति अपने वातावरण के अनुभव और विश्लेषणात्मक अवलोकन के माध्यम से अपने में उन्हें ग्रहण करता और उनके अनुकूल आचरण करने की ओर अभिमुख होता है।

मानवीय अनुभव को ज्ञान का स्रोत और ज्ञान को अर्थात् सत्य को एक संभावना की तरह स्वीकार करने का राजनैतिक-आर्थिक प्रतिफलन सभी मनुष्यों की समानता और लोकतंत्र के सिद्धांत में ही हो सकता है। निश्चयात्मकता का विरोध करने के कारण लॉक किसी भी प्रकार के सर्वसत्तावाद के घोर विरोधी थे और ऐसी राजनैतिक व्यवस्था को वरेण्य मानते थे जो मानवीय स्वातंत्र्य का सम्मान करती हो। इसीलिए उन्होंने राज्य की उत्पत्ति से संबंधित सामाजिक समझौते के सिद्धांत की व्याख्या इस प्रकार से की कि उसमें समाज और व्यक्ति के अधिकार सुरक्षित रहें। उनसे पहले हॉब्स का विचार था कि यद्यपि राज्य जनता और शासक के बीच एक समझौते का परिमाण है, लेकिन एक बार समझौता होने के बाद जनता शासक को हटा नहीं सकती, क्योंकि समझौते में उसने अपने सारे अधिकार शासक को सौंप दिये हैं। लॉक का मत था कि यदि शासक उस प्रयोजन को पूरा नहीं करता जिसके लिए समझौता किया गया है या उसके खिलाफ कार्य करता है तो जनता को उसे हटा देने का अधिकार है। इस प्रकार लॉक ने सामाजिक समझौते के सिद्धांत की व्याख्या लोकतंत्र के पक्ष में की जबकि हॉब्स उसका इस्तेमाल शासक की निरंकुशता कों समर्थन देने के लिए कर रहे थे। आर्थिक क्षेत्र में भी लॉक इसी कारण जहां एक ओर श्रेष्ठ श्रम करने वाले व्यक्ति को अधिक लाभ का समर्थन कर पूंजीवादी विचारों की ओर उन्मुख होते हैं, वहीं यह भी स्वीकार करते हैं कि भूमि जैसी प्राकृतिक संपदा के शोषण या उसे नष्ट करने का अधिकार किसी एक व्यक्ति को नहीं दिया जा सकता, इसलिए प्रत्येक व्यक्ति उतनी ही भूमि का स्वामी हो सकता है, जितनी पर वह स्वयं खेती कर सके। स्पष्ट है कि यह विचार अपने में एक समाजवादी प्रवृत्ति लिए हुए है और यदि इसे सारी प्राकृतिक संपदा के उपयोग पर लागू कर दिया जाए तो पूंजीवाद का आधार ही समाप्त हो जाता है।

लॉक उन दार्शनिकों में हैं जिन्होंने शिक्षा पर अलग से विस्तृत विचार किया। अपने निबन्ध सम थॉट्स कन्सर्निंग एजूकेशन में उन्होंने बताया कि शिक्षा का उद्देश्य बालक के व्यक्तित्व का सम्मान करते हुए उसके विकास में अपनी भूमिका निभाना होना चाहिए। निश्चयात्मकता के विरोधी होने के कारण यह स्वाभाविक ही था कि लॉक शिक्षा के औपचारिक नियमों को बालक पर थोपने का विरोध करते। उनकी धारणा थी कि उपदेश से नहीं, उदाहरण और संगति से ही बालक में सद्गुणों का विकास संभव है।

लॉक ने शिक्षण-प्रक्रिया में बल-प्रयोग को अनुचित ठहराया और अनुशासन के विकास के लिए भी बल-प्रयोग की बजाय सामाजिक प्रतिष्ठा और प्रशंसा की प्रेरणा पर जोर दिया। यह आश्चर्यजनक है कि भाषा-शिक्षण के बारे में लॉक के विचार बहुत आधुनिक थे। उनकी धारणा थी कि भाषा का सही और सहज ज्ञान उसके प्रयोग के वातावरण में ही संभव है। लॉक इस तर्क के द्वारा लेटिन को अनिवार्य तौर पर पढ़ाये जाने का विरोध कर रहे थे। वे किसी भी विदेशी भाषा को अनिवार्यतः थोपे जाने के विरोधी और पाठ्यक्रम में व्याकरण के नियमों की शिक्षा को कम से कम कर देने के समर्थक थे। लॉक के शिक्षा-दर्शन पर टिप्पणी करते हुए एक लेखक ने कहा है कि उनका मुख्य उद्देश्य एक उदार वैश्विकता की भावना का विकास तथा सभी प्रकार के पूर्वग्रहों, संकीर्णताओं और क्षेत्रीयताओं की अवमानना करना है।

- नंदकिशोर आचार्य

लवलॉक, जेम्स : द्रष्टव्य : पृथ्वी सिद्धांत, शार्दे।

लाइब्नीज, गॉटफ्रीड विल्हेल्म : गॉटफ्रीड विल्हेल्म लाइब्नीज (1646-1716 ई०), सत्रहवीं शताब्दी में जर्मनी में एक अत्यंत प्रभावशाली, बहुविद विचारक थे। दार्शनिक संदर्भ में वे बुद्धिवादी थे। उन्हें दकार्ते तथा स्पीनोजा की परंपरा में देखा जाता है। इन्हीं की भांति उन्होंने दर्शन का अध्यापन किसी संस्था में आचार्य के रूप में नहीं किया। वस्तुतः, वे किसी न किसी रूप में राज्य-शासन व्यवस्था से संबंधित रहे।

जिन विषयों पर उन्होंने लिखा, उनमें दर्शन तथा ईश्वरविद्या के अतिरिक्त गणित, भौतिकी, भाषाशास्त्र, शब्द-विज्ञान, वंशावली, इतिहास, राजनीति, औषधिशास्त्र तथा अर्थशास्त्र शामिल थे। ज्ञान-विज्ञान के इतने व्यापक फलक पर अधिकार के कारण उन्हें आधुनिक अरस्तू की संज्ञा भी दी गई। जिन क्षेत्रों में उन्होंने लिखा उनमें से अनेक में उन्होंने नवीन सिद्धान्त तथा विचारों को भी प्रस्तुत किया। इस प्रकार उनका लेखन न केवल शास्त्रीय व्याख्या तक ही रहा अपितु वह रचनात्मक भी था।

गणित में उन्होंने डिफ्रेंश्यल कैल्कुलस की पद्धति का आविष्कार किया। इस सन्दर्भ में इस आविष्कार की मौलिकता के प्रश्न को लेकर विवाद भी रहा है। कहा जाता है कि भौतिकी में उन्हें ऊर्जा के संरक्षण के सिद्धांत का पूर्वाभास था। भाषा-दर्शन में उनका प्रयास एक सार्वभौमिक संकेत-विज्ञान के विकास का था। वस्तुतः, यह विचार एक व्यापक प्रयोग की संभावना था। इसका संबंध जितना भाषा तथा व्याकरण से था, उतना ही तर्क की भाषा से भी था। लाइब्नीज ऐसी भाषा का निर्माण करना चाहते थे जिसमें संकेत तथा विचार का एकार्थक संबंध हो। यद्यपि वे यह कार्य पूरा नहीं कर पाये, बाद के कुछ दार्शनिक- जिनमें अमेरिका के पर्स तथा जर्मनी के विट्गेंनूटाइन प्रमुख थे, उनके इस विचार से प्रभावित हुए।

तर्कशास्त्र में उन्होंने एक प्रसिद्ध तथा महत्त्वपूर्ण सिद्धांत दिया जो दो सत्ताओं अथवा वस्तुओं के अभेद से संबंधित था, जिसे प्रिंसिपिल ऑव इंडिसंर्लिबिल्स (अभिन्नता का सिद्धांत) की संज्ञा दी गई। इस सिद्धांत के अनुसार यदि जो कुछ से जुड़ा है, की विशेषता है या उसका लक्षण है, तथा वह सब पूरी तरह से भी वही संबंध रखता है, तब और दो नहीं, अपितु एक अथवा अभिन्न हैं। लाइब्नीज का तर्कशास्त्र सरलतम पदों अथवा प्रत्ययों पर आश्रित था। उसकी इकाई प्रतिज्ञप्ति अथवा वाक्य नहीं था। यदि दो पदों अथवा प्रत्ययों में परस्पर संगति होती है तो उनकी संभावना स्वीकार की जा सकती है। अनिवार्य तथा शाश्वत सत्यों तथा ज्ञान की प्रामाणिकता का आधार व्याघात का सिद्धांत है। जिस कथन में व्याघात नहीं है, वह संभव है; जिस कथन के विरोधी में व्याघात है, वह अनिवार्य है। तादात्मय इसी सिद्धांत का विध्यात्मक रूप है। ‘क’ है। ‘क नहीं’ नहीं है।

लाइब्नीज का मत था कि तत्त्वमीमांसा अथवा ऑनटोलोजि चार प्रकार के संबंधों से संबद्ध है। द्रव्य तथा पर्यायों के बीच संबंध, अवयव का अवयवी के साथ संबंध, कारण तथा कार्य का संबंध एवं साधन एवं साध्य के बीच संबंध।

द्रव्य अथवा मॉनेड लाइब्नीज की तत्त्वमीमांसा का केंद्रीय प्रत्यय है। मॉनेडोलोजि जिसमें मॉनेड के संप्रत्यय का वर्णन है, 1714 ई० में लिखी गई थी परंतु उसका प्रकाशन, अन्य कृतियों की भांति, लाइब्नीज के निधन के बाद हुआ। प्रत्येक व्यक्ति द्रव्य का एक व्यक्तिक प्रत्यय होता है। किसी द्रव्य के सभी पर्याय इस एक प्रत्यय के अंतर्गत आते हैं। ये सभी पर्याय परस्पर संगत होते हैं। कोई भी अतिरिक्त पर्याय या प्रत्यय इस संयोजन में असंगति उत्पन्न कर सकता और इसलिए वह उसके अंतर्गत नहीं आता। मॉनेड आत्मिक द्रव्य होते हैं और उनके खंड नहीं होते। दो मॉनेडों के बीच कार्य-कारण का कोई संबंध नहीं होता। कोई मॉनेड किसी दूसरे पर कोई क्रिया नहीं कर सकता, कोई प्रभाव नहीं डाल सकता। प्रत्येक मॉनेड स्वयं में एक सम्पूर्ण आण्विक जगत् है। परंतु प्रत्येक मॉनेड एक प्रकार से समग्र का प्रतिनिधित्व करता है- पिंड में ब्रह्मांड सन्निहित होता है।

समस्त मॉनेड एक नैरंतरिक क्रम में आबद्ध है। साथ ही कोई दो मॉनेड समान अथवा सदृश नहीं होते हैं। प्रत्येक मॉनेड में होने वाली घटनाओं में भी एक नैनूंतर्य होती है। स्थिति तथा गति प्राकरतः भिन्न नहीं हैं। जो स्थिति प्रतीत होती है, वह अति सूक्ष्म रूप में गतिमान है। इसी प्रकार निष्क्रियता, अवरुद्ध सक्रियता, अशिव, न्यून शिव; अस्पष्ट प्रत्यय, पशु, पौधे, मनुष्य चेतना के न्यूनाधिक परिमाण से युक्त होते हैं। इनमें जो कुछ भी है अथवा घटता है, उसमें एक क्रम, एक नैरंतरिकता प्रकट होती है। मॉनेड सत् के वास्तविक रूप होते हैं; वे शाश्वत हैं, अनश्वर हैं, व्यक्तिक हैं, अपने ही नियमों के अधीन हैं, वे ऊर्जा के केन्द्र हैं। अणु की भांति मॉनेड भौतिक अथवा दिक्रूप नहीं होते। लाइब्नीज दिक्काल को स्वतंत्र वास्तविकताओं के रूप में नहीं मानते। वे उन्हें संबंधात्मक ही मानते थे।

स्पीनोजा के विपरीत, वैयक्तिकता तथा उसके साथ उसकी स्वायत्ता की रक्षा करते हुए, लाइब्नीज ने एक ऐसे जगत् की कल्पना की जिसमें अपरिमित सत्ताएं परस्पर असंबद्ध तथा स्वायत्त थी। परंतु, इसके विपरीत, विभिन्न सत्ताओं में क्रिया-प्रतिक्रिया अनुभव का विषय है। परस्पर संप्रेषण मानवीय व्यवहार का एक मौलिक व्यापार है। इन तथ्यों को ध्यान में रखते हुए लाइब्नीज ने इस प्रकार की घटनाओं का आधार व्यक्तियों के बीच क्रिया-प्रतिक्रिया को नहीं अपितु एक पूर्व स्थापित सामञ्जस्य के नियम को स्वीकार किया। इस नियम तथा मॉनेड के निज के कारण उस व्यापार तथा क्रिया-प्रतिक्रिया की प्रतीति होती है, जो मॉनेडों के बीच होता दिखता है।

लाइब्नीज का मानना था कि मॉनेड छोटे हों यह आवश्यक नहीं है। प्रत्येक मनुष्य एक मॉनेड है। (कदाचित वैयक्तिकता एवं एकत्व की दृष्टि से)। यही नहीं ईश्वर भी एक मॉनेड है। वह सर्वोत्कृष्ट मॉनेड है। उसे रानी मॉनेड भी कहा गया है। लाइब्नीज का विचार था कि समग्र मॉनेडों के बीच जो समरसता या सामंजस्य होता है, उससे ईश्वर के अस्तित्व का बोध होता है, उसी की इच्छा ‘पूर्व-निर्धारित सामंजस्य के सिद्धांत’ में अभिव्यक्त होती है। यह विचित्र बात है कि लाइब्नीज ने इस बात पर ध्यान नहीं दिया कि यदि मॉनेड भौतिक नहीं है, या दिक्रूप नहीं है, तो वे छोटे-बड़े कैसे हो सकते हैं।

लाइब्नीज का विचार था कि हम जिस जगत् में रहते हैं, वह सभी संभावनाओं में सर्वोत्कृष्ट है। ईश्वर परिपूर्ण है। अतः, सभी संभावनाओं में से वह ऐसी संभावना को चुनता है जो सर्वश्रेष्ठ हो। स्पष्ट है, इस तर्कणा से जगत् ईश्वर की सर्वोत्कृष्ट रचना है। परन्तु यह भी स्पष्ट है कि सर्वोत्कृष्ट होते हुए भी जगत् में अनेक अपूर्णताएं हैं, विसंगतियां हैं। लाइब्नीज ने इस कठिनाई को इस प्रकार दूर करने का प्रयास किया कि अनेक संभावनाओं में यह जगत् ही ऐसी संभावना है, जिसमें पूर्णता अधिक और विसंगतियां कम हैं। लाइब्नीज का यह आशावाद, उसी तक सीमित रहा। फ्रांस के प्रसिद्ध विचारक वॉल्तेयर ने अपनी एक हास्य उपन्यासिका में इस आशावाद को उपहास का विषय बनाया।

लाइब्नीज ने समस्त ज्ञान को सहजात अथवा उसे द्रव्य के तत्त्व का अंग मानकर बुद्धिवाद की एकांगी प्रतिष्ठा की। दकार्ते ने समस्त प्रसारमय जगत् को भौतिकी के निश्चित नियमों द्वारा संचालित माना था तथा उसके अंतर्गत मानवीय देह तथा पशुवर्ग को भी शामिल किया। स्पीनोजा ने इस यंत्रवाद अथवा निर्धारणवाद का यथार्थ के प्रसारमय पक्ष के अतिरिक्त चेतन पक्ष पर भी प्रयुक्त किया। स्पीनोजा के मत में ऐसा कुछ भी नहीं है जो उच्छृङ्खल हो अथवा अनियमित हो। इस विचार दिशा को, अर्थात् निर्धारणवाद को लाइब्नीज ने अत्यंत व्यापक तथा आधारभूत रूप में बढ़ाया। पूर्व-निर्धारित सामंजस्य के नियम के द्वारा समस्त अस्तित्व को पूर्णतया नियंत्रित मानकर समस्त सत् को एक यंत्र के रूप में परिवर्तित कर दिया।

दकार्ते के समय से चली आती जड़-चेतन के द्वैत की समस्या का लाइब्नीज ने एक मौलिक समाधान प्रस्तुत किया। लाइब्नीज ने जड़ को चेतना का ही अव्यक्त रूप माना। गति तथा क्रिया की लाइब्नीज की व्याख्या विशिष्ट है। उसका मत था कि गति तथा क्रिया को उस गति तथा क्रिया के रूप में नहीं समझना चाहिए, जैसा कि तथाकथित बाह्यता में देखा जाता है। इन्हें समझाने के लिये वह मानसिक अनुभव का आश्रय लेता है। मन में विचार चलते रहते हैं। बोध की यह ऐसी स्थिति है, जिसमें विषय तथा विषयी संपर्क में आते हैं। विषयों की अनेकता अथवा विविधता को चेतना एकात्म रूप में आत्मसात् करती है। मॉनेड की क्रिया प्रत्यक्षीकरण ही है। प्रयास या ऐपीटीशन के कारण मॉनेड में गति होती है। स्पष्ट है कि प्रत्यक्षीकरण से यहाँ सामान्य अर्थ नहीं लिया जा रहा है। लाइब्नीज प्रत्यक्षीकरण से उतना ही व्यापक अर्थ लेता है, जितना आधुनिक मनोविज्ञान में ‘चेतना’ से लिया जाता है। प्रत्यक्षीकरण से केवल मानवों के चेतन बोध का ही ग्रहण नहीं होता, अपितु निम्न स्तर के मॉनेडों के अचेतन प्रत्यक्षीकरण का संकेत भी मिलता है। सागर तट पर जब हम किसी बड़ी तरंग का प्रत्यक्ष करते हैं, तब ऐसा नहीं होता कि हम केवल बड़ी तरंग को ही देखते हैं। होता यह है कि अनेक छोटी-छोटी तरंगें हमारे मन पर प्रभाव डालती रहती हैं जो हमारे अवचेतन में पड़ता रहता है। इन्हीं छोटी-छोटी तरंगों के सघन रूप को हम एक बड़ी तरंग के रूप में प्रत्यक्ष करते हैं। अचेतन की यही स्थिति निम्नस्तर के मॉनेडों की स्थिति है।

चेतन-अचेतन के विभिन्न स्तरों की दृष्टि से सभी मॉनेड एक श्रेणीगत क्रम में देखे जा सकते हैं। इस संदर्भ में यह ध्यान रखने की बात है कि प्रत्यक्षीकरण की क्षमता, क्रियाशीलता, गत्यात्मकता अथवा ऊर्जायुक्त होना, लाइब्नीज की शब्दावली में पर्यायवाची शब्द हैं। जिस मॉनेड में ऐसी विशेषता जितनी मात्रा में सक्रिय होगी, वह श्रेणीक्रम में उतना ही उत्कृष्ट होगा। जिन मॉनेडों में गति अथवा क्रिया चेतन स्तर पर कभी नहीं आती वे सुप्त अथवा नग्न कहें जाते हैं। साधारण भाषा में उन्हें ही जड़ या जड़वत् कहा जाता है।

इसके विपरीत ईश्वर के प्रत्यक्ष पूर्णतया स्पष्ट एवं सक्रिय होते हैं। उसमें कुछ भी अव्यक्त नहीं होता। वह पूर्ण यथार्थ शुद्ध कर्म (प्यूरस ऐक्टस) है। इस रूप में ईश्वर आदर्श रूपी मॉनेड है। लाइब्नीज का मत था कि तत्त्वमीमांसा प्राकृतिक ईश्वर-दर्शन (नैचुरल थियौलोजि) है, अतः वह प्रोटेस्टेंट तथा कैथलिक उभय संप्रदायों को मान्य होनी चाहिए। धर्म के कर्मकाण्डीय पक्ष पर लाइब्नीज की कोई आस्था नहीं थी। मृत्यु के अंत समय उसने किसी धर्म पुजारी को किसी प्रकार का कर्मकांडीय अनुष्ठान करने नहीं दिया।

लाइब्नीज का दृष्टिकोण समन्वयवादी था। वह जिस प्रकार के चिन्तन में संलग्न था, उसमें विभिन्न समस्याओं के समाधानों की खोज, विरोधी दृष्टिकोणों के मध्य किसी समन्वयात्मक स्थिति की खोज प्रधान थे।

हॉब्ज़ के विपरीत, लाइब्नीज पूर्ण राजतंत्र के पक्ष में नहीं था। उसने किसी भी रूप में तानाशाही को स्वीकार नहीं किया। एक सामंत के बेटे फिलिप को लिखे पत्र से राज्य के विषय में उसकी दृष्टि का पता चलता है। उसका मत था कि जहां तक शासक की शक्ति तथा प्रजा की वफादारी का प्रश्न है, शासक के लिए यह समझना ठीक होगा कि प्रजा को उनका विरोध करने का अधिकार है, परंतु प्रजा का यह कर्त्तव्य है कि वह शासक के अनुकूल रहे। यह संभव है कि शासक ज्यादती करे और वह असहनीय हो जाए, राज्य का कल्याण एवं हित ख़तरे में पड़ जाए, तब ऐसे शासक को सहने का दायित्व समाप्त हो जाता है। परंतु इस पर बल देते हुए भी हिंसा की सिफारिश नहीं की जा सकती। लाइब्नीज ने ‘अति’ को ‘कमी’ की तुलना में अधिक भयावह माना और इसलिए अति से बचने की सलाह दी। स्पष्ट है कि हिंसा अति का रूप है। अति से बचना हिंसा से बचना है।

आज, जैसा सर्वविदित है, यूरोप के देशों ने परस्पर एक संगठन बना लिया है। यह आश्चर्य की बात है कि लाइब्नीज ने ऐसे संगठन की चर्चा 1677 ई० में उठाई थी। उसका विचार था कि समस्त यूरोप एकरूप धर्म को स्वीकार कर लेगा। यहां उसने इस बात पर विचार नहीं किया कि यदि संगठन में सदस्यों को विवेक की स्वतंत्रता है, तब एकरूपता पर बल कैसे दिया जा सकता है। परंतु इस प्रकार के चिंतन के आधार में समन्वयवादी दृष्टि तथा शांति की कामना के दर्शन तो होते ही हैं। लाइब्नीज का सोच था कि बुद्धि के आधार पर कैथलिक तथा लूथरी चर्चों के मध्य दूरी को पाटा जा सकता है।

लाइब्नीज ने युद्ध को सामान्यतः मूर्खतापूर्ण और अनुपयोगी मानते हुए उसे ईश्वर के नियम के विरुद्ध बताया। रक्षात्मक युद्ध की अनिवार्यता का स्वीकार करते हुए भी लाइब्नीज की स्पष्ट मान्यता थी कि वह कोई स्थायी उपचार नहीं हो सकता। ग्रोशियस की तरह लाइब्नीज भी अंतर्राष्ट्रीय कानून के विकास में दिलचस्पी लेते हुए यह मानता था कि अंतर्राष्ट्रीय संधियों की पालना का आधार शस्त्र बल नहीं, बल्कि उनका कानून होता है।

लाइब्नीज ने लेटिन, फ्रेंच तथा जर्मन भाषा में अपने विचार व्यक्त किए। अपने जीवन काल में अनेक वैज्ञानिकों तथा दार्शनिकों से उसका पत्र-व्यवहार चला। इस पत्र-व्यवहार तथा अनेक लेखों के द्वारा ज्ञान-विज्ञान के विविध क्षेत्रों तथा आयामों पर लाइब्नीज के आविष्कारी तथा नवीन विचारों का पता चलता है। गणित, तर्कशास्त्र, भाषा, भौतिकी, विधि, वंशावली, इतिहास, राजनीति, अर्थतंत्र आदि अनेक विषयों पर विचार को नई दिशाएं मिलीं। इनमें से अनेक, विशेषकर गणित तथा तर्कशास्त्र, पर उसके विचारों ने बाद के विचारकों को प्रभावित किया। एक गणनयंत्र के आविष्कार का श्रेय भी लाइब्नीज को दिया जाता है।

उसके जीवन काल में दो ही पुस्तकें प्रकाशित हुईं। कांबीनेटोरियल आर्ट (1666 ई०) तथा थिऔडिसि (1710 ई०)। लॉक के विचारों की प्रतिक्रिया करते हुए उसने न्यू ऐस्सेज़ ऑन ह्यूमन अंडस्टैंडिंग लिखी, परंतु लॉक के देहांत के कारण, यह पुस्तक बाद में प्रकाशित हुई। लाइब्नीज के समग्र लेखन के परिमाण का कुछ आभास इस तथ्य से हो सकता है कि उसके समस्त लेख, पत्रों के सहित, 25 खंडों में एकत्र किये गए हैं तथा प्रत्येक खंड में 800 से ऊपर पृष्ठ संख्या है।

- प्रो० राजेन्द्र स्वरूप भटनागर

लाओत्जे : लाओत्जे को ताओ दर्शन का प्रणेता और उसके आधार-ग्रंथ ताओ-ते-छिङ का लेखक माना जाता है। लेकिन, इस बात को लेकर कोई निश्चितता नहीं है कि लाओत्जे नाम किसी वास्तविक व्यक्ति का है या वह केवल एक कल्पना या लेखक की उपाधि है जो बाद में नाम की तरह इस्तेमाल की जाने लगी, जैसा कि हिंदू परंपरा में वेदव्यास अर्थात कृष्ण द्वैपायन के साथ हुआ है। लाओत्जे का असली नाम ली अर बताया जाता है। उनके बारे में कई किंवदंतियां प्रसिद्ध हैं। उनकी तिथियों के बारे में निश्चित जानकारी नहीं मिलती, लेकिन उन्हें कन्फ्यूश्यस से तीस वर्ष बड़ा माना जाता है। अतः, छठी शताब्दी ई०पू० उनका समय माना जा सकता है। कहा जाता है कि वह चीन के होनान प्रदेश के राजकीय ग्रंथागारी थे और उनकी विद्वता और गहन चिंतन का बहुत प्रभाव था। लेकिन उनका दर्शन व्यक्तित्व के प्रदर्शन का निषेध करता था, अतः, वह सब कुछ त्यागकर गुमनामी में रहने के लिए निकल पड़े। लेकिन राज्य की सीमा पर उन्हें पहचान लिया जाने पर यह आग्रह किया गया कि कहीं जाने से पूर्व वह अपने चिंतन को लिपिबद्ध कर दें। लाओत्जे ने अपने समग्र चिंतन को सूत्रात्मक रूप से लिपिबद्ध कर उसे सीमा-रक्षक को सौंप दिया। उनके इन सूत्रों को ही ताओ-ते-छिङ कहा जाता है और इनमें व्यंजित दर्शन को ताओ

ताओ इस सृष्टि का और इसलिए सृष्टि के साथ होकर जीवन जीने का नियम है। कहा जा सकता है कि यह वह नियम है जो स्वयं ईश्वर से पहले है-परम अनादि। एक अंग्रेजी अनुवाद में उसका वर्णन करते हुए उसे ईश्वर का पूर्वज कहा गया है- it images the forefathers of God. लेकिन उसे कोई नाम नहीं दिया जा सकता और न उसका वर्णन किया जा सकता है-क्योंकि नाम और वर्णन उसे सीमित या बाधित कर देंगे। इसलिए यह कहा गया है कि उसका वर्णन निषेधात्मक तरीके से ही किया जा सकता है-जैसा कि वेदांत दर्शन में ब्रह्म का वर्णन नेति-नेति के सहारे किया जाता है। ताओ, दरअस्ल, वह मार्ग है, जिसका अनुसरण यह ब्रह्मांड और मनुष्य करते हैं।

यह शून्य से प्रसूत है, इसलिए शून्य ही इसका लक्ष्य है। इसी कारण इसकी कार्यप्रणाली को निष्कर्म कहा जा सकता है, जिसमें स्वतः सब कुछ घटित होता है। शून्य को लक्ष्य मानने के कारण इसका साधन शक्ति नहीं बल्कि कोमलता और विनम्रता है। कोमलता जीवन है, जबकि कठोरता मृत्यु। इसीलिए लाओत्जे निष्क्रिय प्रतिरोध को वास्तविक दृढ़ता या मजबूती मानते हैं-जैसा कि तोलस्तोय भी मानते हैं। महात्मा गांधी का प्रतिरोध यद्यपि सक्रिय है, लेकिन प्रेम या अहिंसा उसमें कोमलता या विनम्रता का ही रूप है। सविनय अवज्ञा उनके प्रतिरोध-दर्शन का बीज है।

लाओत्जे का मानना है कि अंतिम विजय सदैव कोमलता और समर्पण की होती है, न कि कठोरता और नियंत्रण की। अप्रतिद्वंद्विता में ही सुख है क्योंकि जो किसी वस्तु पर दावा नहीं करता, वही सुखी है। लाओत्जे जीवन को बहुत महत्त्व देते हैं, लेकिन उसे निस्पृह भाव से जीना चाहते हैं-किसी भी प्रकार की कामना-महत्त्वाकांक्षा से रहित। अपने एक सूत्र में लाओत्जे लिखते हैं-कोई अपराध नहीं है बड़ा / बहुत सारी कामनाओं से / महाविपदा है असंतोष / सबसे बड़ा दुर्भाग्य है लालच।

इसलिए स्वाभाविक ही अहिंसा और शांति लाओत्जे के नीति-दर्शन के केंद्र में आ जाते हैं-इस नीति दर्शन में उनके राजनीतिक विचार भी सम्मिलित हैं। राज्य के बारे में अपनी अवधारणा को सूत्रबद्ध करते हुए वह कहते हैं कि राज्य को भी शेष सृष्टि की तरह स्वाभाविक गति-यानी निष्कर्म-का पालन करना चाहिए, जिसका अर्थ है कि जो राज्य जितना कम शासन करे वह उतना ही अच्छा है। एक बड़े राज्य का शासन करना एक बहुत छोटी मछली को उबालने की तरह है। सबसे आदर्श राज्य वह है जिसमें प्रजा निर्दोष ज्ञान से युक्त और आकांक्षाओं से मुक्त हो। इसीलिए लाओत्जे यह निर्देश भी देते हैं कि योग्य लोगों के प्रति सहज भाव रहना चाहिए। उनके प्रति सम्मान प्रदर्शित करना ईर्ष्या और महत्त्वाकांक्षा या लालच को जन्म दे सकता है। एक अच्छे शासक को बाहर एक सच्चा शासक और मन के अंदर एक संत होना चाहिए। ताओ का ज्ञान ही अच्छा शासक बना सकता है और एक शासक के लिए वह ज्ञान यह है कि इच्छाओं के रहस्य को जानते हुए अपने को उससे मुक्त रखो, लेकिन उनकी अभिव्यक्ति के लिए इच्छाएं रखो। अपने एक सूत्र में लाओत्जे लिखते हैं : कठोर शासन में असंतोष पनपता है, जबकि निष्क्रिय शासन में संतुष्टि। इसे महात्मा गांधी और थोरो के उस विचार से मिलाकर देखा जा सकता है कि सबसे अच्छी सरकार वह है जो सबसे कम शाासन करती है। लाओत्जे के शब्दों में शासक जिनको, नहीं जानती जनता / कि ये शासक हैं / सबसे बेहतर हैं / और सबसे निम्न कोटि के शासक / जनता / जिनसे नफरत करती। (अनुवाद : संजीव मिश्र)

यह उल्लेखनीय है कि चीन के प्राचीन साम्राज्यवादी इतिहास के दौर में लाओत्जे युद्ध और शस्त्रीकरण को अनुचित मानते हैं। वह शस्त्रों को अपशकुन कहते और सैनिक-शिविरों के कारण कांटेदार झाड़ियों के बढ़ने पर अफसोस जाहिर करते हैं। अपने एकसूत्र में वह मानव-वध से प्राप्त विजय को उत्सव का नहीं शोक में डूब जाने का अवसर बताते हैं क्योंकि मानव-वध में गर्व करना या प्रसन्न होना किसी ज्ञानी व्यक्ति का लक्षण नहीं हो सकता। इसी तरह सबको अपने ही विचार के अनुकूल बनाने को भी वह अज्ञान का लक्षण बताते हुए कहते हैं कि जो दुनिया को जीतना या उसे अपनी इच्छा के अनुरूप बनाना चाहता है, उसकी विफलता निश्चित है। यह प्रकारांतर से किसी भी प्रकार के साम्राज्यवाद, सैनिकवाद और विचारधारात्मक तानाशाही की आलोचना ही है।

लाओत्जे का दर्शन जिस शून्यवत् कोमलता, निष्कांक्षता, सहजता और सहिष्णुता तथा निरस्त्रीकरण एवं शांति के मूल्यों का जिक्र करता है, वे सब अहिंसक जीवन-दृष्टि और जीवन-शैली के ही रूप हैं। यह उल्लेखनीय है कि छठी शताब्दी ई०पू० में लाओत्जे महात्मा गांधी के इस कथन का पूर्वाभास करते हैं कि राज्य एक संगठित हिंसा है, और इसीलिए शासक से उदार और कम से कम कठोर अर्थात् अधिक से अधिक अहिंसक होने की अपेक्षा करते हैं। अहंकार, लालच और उनके लिए संघर्षरत रहना जीवन को हिंसक और दुखी बनाता है, इसलिए वह ऐसे जीवन की कामना करते हैं, जिसमें सब कामनारहित और निर्दोष ज्ञान से युक्त हों। ऐसा ही समाज एक आदर्श समाज हो सकता है।

- नंदकिशोर आचार्य

ला बोइसी, एतिने द (Etienne De La Boetie) : (1530-1563 ई०) : फ्रांसीसी राजनीतिक दार्शनिक ला बोइसी को आधुनिक राजनीतिक विमर्श में सविनय अवज्ञा, सिविल नाफरमानी या निष्क्रिय प्रतिरोध अर्थात् पैसिव रेजिस्टेंस की अवधारणा का प्रतिपादक कहा जा सकता है। यह आश्चर्यजनक है कि ला बोइसी ने इस अवधारणा का प्रतिपादन सोलहवीं शताब्दी में किया था। वैसे तो भारतीय राजनीतिक चिंतन में भी महाभारत के शांति पर्व में भीष्म अत्याचारी राजा के राज्य को छोड़कर चले जाने का निर्देश करते हैं, जो एक प्रकार से अत्याचारी शासक की आज्ञा मानने से इनकार करना ही है; लेकिन, बोइसी राज्य में रहते हुए न केवल अत्याचारी शासक की आज्ञा मानने से इनकार करने की बात करते हैं बल्कि एक राजनीतिक विचारक के रूप में उन कारणों की भी व्याख्या करते हैं जिनके चलते कोई एक व्यक्ति ही नहीं बल्कि पूरा समाज या देश स्वेच्छापूर्वक निरंकुश और अत्याचारी शासक की आज्ञा स्वीकार कर लेता है।

ला बोइसी का जन्म दक्षिणी फ्रांस के सरलात नामक स्थान पर एक कुलीन परिवार में हुआ था। पिता की असमय मृत्यु के कारण उनका लालन-पालन उनके चाचा ने किया। ओरलींस विश्वविद्यालय में कानून की शिक्षा पूरी करने के बाद उनकी नियुक्ति राजकीय सेवा में हो गई। 1563 ई० में अल्पायु में ही उनकी मृत्यु हो गई। बोइसी प्रसिद्ध फ्रांसीसी लेखक मोंतेन के घनिष्ठ मित्र थे। उन्होंने अपनी पांडुलिपियों का उत्तरदायित्व भी मोंतेन को ही सौंपा।

ओरलींस विश्वविद्यालय में कानून का अध्ययन करते हुए ही ला बोइसी ने अपना प्रसिद्ध निबंध The Discours sur la servitude volontaire लिखा था, जो अनंतर डिस्कोर्स ऑन वॉलंटरी सर्विट्यूड, विल टू बोंडेज और ऐंटी-डिक्टेटर शीर्षकों से अंग्रेजी में अनूदित होकर प्रकाशित हुआ। यह निबंध बोइसी को एक ऐसे मौलिक राजनीतिक दार्शनिक के रूप में स्थापित करता है, जिसका प्रभाव आने वाली शताब्दियों के राजनीतिक चिंतन पर देखा जा सकता है। लिखे जाने के बाद यह निंबध कुछ मित्रों के बीच निजी तौर पर वितरित किया गया था। लेकिन इसका प्रकाशन बोइसी की मृत्यु के उपरांत ही संभव हो सका। यह माना जाता है कि प्रकाशन में विलंब का कारण इस निबंध के क्रांतिकारी विचार थे, जो शायद तत्कालीन फ्रांस की राजनीतिक व्यवस्था के लिए अनुकूल नहीं थे और ला बोइसी स्वयं राजकीय सेवा में थे।

इस निबंध में ला बोइसी एक मौलिक सवाल उठाते हैं कि लोग किसी शासन की आज्ञा का पालन क्यों करते हैं। वह इस बात पर आश्चर्य प्रकट करते हैं कि किसी एक ऐसे अत्याचारी शासक की आज्ञा का पालन न जाने कितने लोग, कितने गांव-शहर, कितने राष्ट्र एक साथ करने लगते हैं, जिसकी शक्ति उसे स्वयं उनके द्वारा प्रदत्त होती है। वह कहते हैं कि कोई भी अधिनायक या अत्याचारी शासन हमें उतना ही नुकसान पहुंचा सकता है, जितनी शक्ति हम स्वेच्छा से उसे देते हैं। यह सामूहिक समर्पण, दरअस्ल, स्वेच्छा से होता है।

ला बोइसी पूछते हैं कि क्या ऐसे शासक के प्रति हमारे समर्पण को कायरता कहा जाना चाहिए। सामान्यतः, यही समझा जा सकता है। लेकिन इस दार्शनिक का तर्क है कि इस आज्ञापालन का कारण साहस का अभाव अर्थात् कायरता नहीं बल्कि विद्रोह करने की अनिच्छा है, जो एक प्रकार की उदासीनता से पैदा होती है। ला बोइसी के शब्दों में, जब लोग और हजारों शहर किसी एक व्यक्ति के प्रभुत्व से अपना बचाव नहीं करते तो यह किसी प्रकार की कायरता नहीं है क्योंकि कायरता भी इतने गहरे गर्त में नहीं गिर सकती.....यह कितना विकराल दुर्गुण है जिसे कायरता भी नहीं कहा जा सकता, एक ऐसा दुर्गुण जिसके लिए कोई शब्द पर्याप्त घिनौना नहीं है।

ला बोइसी मानते हैं कि अत्याचार को स्वीकार करने के लिए हमारा स्वैच्छिक समर्पण उत्तरदायी है। इसलिए यदि हम इस अत्याचार को मिटाना चाहते हैं तो अत्याचारी पर हिंसक आक्रमण के बजाय उसके प्रति स्वैच्छिक असहयोग ही पर्याप्त है। ला बोइसी मनुष्य मात्र के स्वतंत्रता के प्राकृतिक अधिकार के समर्थक हैं, अतः इस अधिकार का अतिक्रमण होने की दशा में वह सविनय अवज्ञा को मनुष्य के प्राकृतिक अधिकार के रूप में स्वीकार करते हैं क्योंकि यह उसकी प्राकृतिक स्वतंत्रता को बचाने के लिए है। डिस्कोर्स ऑन वॉलंटरी सर्विट्यूड के हैरी कुर्ज कृत अंग्रेजी अनुवाद के भूमिका-लेखक रोथबार्ड के अनुसार सविनय अवज्ञा के लिए ला बोइसी के मौलिक आह्वान की पृष्ठभूमि में दो सिद्धांत काम करते हैं : यह वास्तविकता कि प्रत्येक शासन प्रजा समूह की स्वीकृति पर निर्भर है और प्राकृतिक स्वतंत्रता का महान मूल्य। यदि अत्याचार सामूहिक स्वीकृति पर निर्भर है तो उसे मिटाने का स्पष्ट उपाय उस स्वीकृति को सामूहिक तौर पर वापस लेना है। इस अहिंसक क्रांति से अत्याचार तत्काल और अचानक ध्वस्त हो जाएगा।

ला बोइसी का कहना है कि समूह स्वतंत्र होने की इच्छा भर से स्वतंत्र हो सकता है, उसे कुछ करने या अपना खून बहाने की आवश्यकता नहीं है। चाकरी न करने का संकल्प करते ही तुम तत्काल स्वतंत्र हो जाते हो। मैं तुम्हें अत्याचारी की गर्दन पर हाथ डालने के लिए नहीं कहता, बस यही कि तुम उसे समर्थन देना बंद कर दो; और वह पीठिका के हटने पर किसी विशाल मूर्ति की तरह अपने ही भार से भरभराकर टुकड़े-टुकड़े हो जाएगा।

यह उल्लेखनीय है कि आगामी सविनय अवज्ञा या निष्क्रिय प्रतिरोध के विमर्श और आंदोलनों पर ला बोइसी के विचारों का गहरा प्रभाव पड़ा। वह अन्याय को विधिक स्तर पर नहीं बल्कि नैतिक स्तर पर परिभाषित करते हैं। इसलिए उनके लिए एक अधिनायक या अत्याचारी केवल वह नहीं है जिसने सत्ता पर गैरकानूनी तरह से कब्जा जमा लिया है अर्थात् एक गैर-कानूनी या अविधिक शासन। उनके विचार में सत्ता प्राप्त करने के तरीके के बजाय सत्ता का प्रयोग अधिक महत्त्वपूर्ण है। स्वयं बोइसी के अनुसार अधिनायक या अत्याचारी शासक तीन प्रकार के होते हैं जिनमें पैतृक परंपरा से सत्तासीन और शस्त्र-बल के आधार पर सत्तासीन होने वालों के साथ चुनाव से सत्तासीन होने वालों को भी शामिल किया गया है-यदि शासक करने की उनकी पद्धति बाकी दो जैसी ही हो। बोइसी का विचार है कि चुनाव के माध्यम से सत्तासीन होने वाले भी अपने चुनाव को पैतृक निरंकुशता में बदलने के लिए षड़यंत्र करते रहते हैं और इस दृष्टि से वे अन्य प्रकारों के अधिनायकों से अधिक निर्दयी हो जाते है; क्योंकि उनके पास अपनी निरंकुशता को थोपने के लिए कोई तर्क नहीं होता, इसलिए वे अपना नियंत्रण बढ़ाने और प्रजा को स्वतंत्रता की अवधारणा से इतनी दूर ले जाने का प्रयत्न करते रहते हैं कि उसमें उसकी स्मृति तक नष्ट हो जाय। वह कहते हैं कि आरंभ में निरंकुशता या अत्याचार को बल और बाध्यतावश ही स्वीकार किया जाता है, लेकिन उसके बाद आने वाले उसे बिना किसी अफसोस के स्वेच्छापूर्वक स्वीकार करने लग जाते हैं। निरंकुशता एक रिवाज हो जाती है और ला बोइसी के अनुसार मनुष्य के प्राकृतिक स्वतंत्रता के स्वभाव को रिवाज या प्रशिक्षण गुलामी में तब्दील कर देता है। ला बोइसी के शब्दों में, स्वैच्छिक अधीनता के लिए रिवाज पहला कारण बन जाता है, जिसे अन्य उपायों से और पुष्ट किया जाता रहता है। इसमें विचारधारात्मक सहयोग भी मिल जाता है क्योंकि कई मामलों में प्रजा स्वयं निरंकुश शासक को बुद्धिमान, उदार और न्यायप्रिय मानने लग जाती है। कुछ लोगों को पदलाभ और धनलाभ देकर निरंकुशता का समर्थक बना लिया जाता है, और वे निरंकुश शासन के स्तंभ बन जाते हैं। इस तरह के शासन-तंत्र को उखाड़ने के लिए प्रजा में राजनीतिक चेतना का विस्तार और सामूहिक सविनय अवज्ञा ही सही उपाय है। ला बोइसी का जीवनी-लेखक मेसनार्ड उसके निबंध की तुलना मैकियाविली के द प्रिंस से करते हुए निष्कर्षतः कहता है कि दोनों ही यह मानते हैं कि सत्ता प्रजा की स्वीकृति पर टिकी होती है; लेकिन मैकियाविली शासक को समझाता है कि इस स्वीकृति के लिए प्रजा को कैसे बाध्य किया जा सकता है, जबकि ला बोइसी प्रजा को यह बताते हैं कि सत्ता उसकी अस्वीकृति में है।

ला बोइसी के विचारों का प्रभाव आगामी राजनीतिक चिंतन पर स्पष्टतः देखा जा सकता है। हेरोल्ड लास्की के अनुसार ला बोइसी का चिंतन अपने समय से बहुत आगे का है। महात्मा गांधी के सत्याग्रह-चिंतन की पृष्ठभूमि में थोरो और तोलस्तोय के विचारों को देखा जाता है। लेकिन यह गौरतलब है कि थोरो अथवा तोलस्तोय दोनों ही किसी सामूहिक अवज्ञा का प्रस्ताव नहीं करते, जो कि महात्मा गांधी करते हैं। महात्मा गांधी तोलस्तोय के प्रशंसक हैं। उनके लेखन में कहीं ला बोइसी का उल्लेख देखने में नहीं आता, लेकिन तोलस्तोय स्वयं अपनी पुस्तक लॉ ऑफ लव एंड लॉ ऑफ वायलेंस में उनके अवदान का उल्लेख करते हैं। दरअस्ल, अहिंसक प्रतिरोध या सविनय अवज्ञा की अवधारणा के विकास में ला बोइसी का योगदान मौलिक और ऐतिहासिक महत्त्व का है।

द्रष्टव्य : तोलस्तोय।

- नंदकिशोर आचार्य

लियोपोल्ड, आल्डो : आल्डो लियोपोल्ड (1887-1948 ई०) एक अमेरिकी प्रकृतिविज्ञानी और पर्यावरणविद् थे, जिन्होंने वन्यजीवन-प्रबंधन में पारिस्थितिकीय सिद्धांतों के समावेश को लेकर अग्रणी योगदान दिया। वे बाह्य दुनिया के प्रति बहुत अनुराग रखते थे और मानते थे कि लोगों को वन्य जीवन का आनंद लेते हुए उन क्षेत्रों में मौजूद प्राकृतिक विशिष्टताओं के सरंक्षण का भी ध्यान रखना चाहिए।

लियोपोल्ड का जन्म 11 जनवरी, 1886 ई० को आयोवा बर्लिंगटन के मिसीसिपी खिर टाउन में हुआ था। उनके पिता कार्ल लियोपोल्ड कार्यालयों के लिए फर्निचर निर्माण करने वाली एक फर्म के मैनेजर थे। उनकी माता का नाम क्लारा (स्टार्कट) लियोपोल्ड था। प्रकृति के प्रति लियोपोल्ड का प्रेम बचपन में ही विकसित हो गया था, जब वह नदी के किनारे पक्षियों को किलोल करते देखा करते थे। उनके माता-पिता ने उन्हें पढ़ाई के लिए न्यूजर्सी में लोटेसविले स्कूल भेजा। बाद में लियोपोल्ड ने येल यूनिवर्सिटी के शेफील्ड वैज्ञानिक स्कूल में अध्ययन किया और वहां से 1908 ई० में बी०एस० की डिग्री प्राप्त की। आगामी वर्षों में उन्होंने येल यूनिवर्सिटी से वानिकी में स्नातकोत्तर डिग्री ली।

लियोपोल्ड ने अपना कैरियर 1909 ई० में संयुक्त राज्य वानिकी सेवा से शुरू किया। उन्हें ऐरिजोना क्षेत्र के अपाचे राष्ट्रीय वन का दायित्व सौंपा गया। लियोपोल्ड ने दक्षिण-पश्चिम अमेरिका में 15 वर्ष गुजारे। उनका स्थानांतरण 1911 ई० में न्यू मेक्सिको क्षेत्र के कार्सन राष्ट्रीय वन में हो गया।

अपने कार्य-दायित्व के दौरान शिकार, मत्स्य पालन और उत्पादन में सार्वजनिक भूमि का प्रबंध करते हुए लियापोल्ड ने वन्य क्षेत्र को सौंदर्य और विहार करने के लिए विकसित करने के पहलुओं पर विचार किया। उन्होंने वन-सेवा को शिकार में मदद करने के पारंपरिक दायित्व से हटाकर इसे दूसरे मूल्यों पर आधारित वन्य-संरक्षण पर केंद्रित किया।

दक्षिण-पश्चिम क्षेत्र में कार्य करते हुए लियोपोल्ड ने संघीय वन्य क्षेत्र के विकास का विचार प्रस्तावित किया। उनके लिए इसका पहला अवसर तब आया जब न्यू मेक्सिको के दक्षिण-पश्चिम क्षेत्र में मिला राष्ट्रीय वन से एक सड़क निकालने का मुद्दा सामने आया। लियोपोल्ड ने इस बड़े क्षेत्र को सड़क-विहीन रखने का सुझाव दिया। स्थानीय लोगों ने लियोपोल्ड के सुझाव का समर्थन करते हुए इस क्षेत्र को वन्य क्षेत्र रखने की मांग रखी। वन विभाग ने 1924 ई० में लियोपोल्ड के विचार को स्वीकार कर लिया और मिला वन्य क्षेत्र के करीब तीन लाख हेक्टेयर क्षेत्र को सुरक्षित छोड़ दिया गया, जो दुनिया का पहला नियोजित वन क्षेत्र है। इस देश में 1900 ई० तक 78 क्षेत्रों मे यह पहला क्षेत्र माना जाता है।

आने वाले वर्षों ने लियोपोल्ड की भूमिका बदल गई। वे वन-सेवा के क्षेत्र-कार्य से शोध के क्षेत्र में आ गए और विसकोंसिन में वन-उत्पाद प्रयोगशाला के सहायक निदेशक नियुक्त हो गए। इस पद पर वह 1928 ई० के आखिर तक रहे। लियोपोल्ड ने 1928 ई० से 1931 ई० में खेल शस्त्रों के निर्माण संस्थान के लिए सलाहकार के तौर पर काम किया। इस काम के दौरान उन्होंने उत्तर-केंद्रीय राज्य की शिकारी आबादियों का सर्वेक्षण किया। इस सर्वेक्षण के निष्कर्षों की रपट 1931 ई० में प्रकाशित हुई।

विसकोंसिन विश्वविद्यालय ने 1933 ई० में लियोपोल्ड के लिए विशेष रूप से वन्य जीवन प्रबंधन के प्रोफेसर का पद सृजित किया, जिस पर वह जीवनपर्यंत कार्य करते रहे।

पर्यावरण के विभिन्न पक्षों पर लियोपोल्ड के लेख 1930 ई० से 1940 ई० के बीच प्रकाशित होते रहे। शिकार-प्रबंधन पर उनकी पाठ्य पुस्तक एक क्लासिक का दर्जा रखती है। इसमें उन्होंने बताया है कि शिकार को वन्य जीवन के संरक्षण में प्रयुक्त किया जा सकता है। उन्होंने वन्य जीवन सोसायटी स्थापित करने में मदद की।

लियोपोल्ड की 21 अप्रैल 1948 ई० में पड़ौसी के फार्म में झाड़ियों के बीच लगी आग को बुझाते हुए हृदय गति रूकने से मृत्यु हुई। उनकी विरासत को 202, 016 एकड़ क्षेत्र के वन्य क्षेत्र को आल्डो लियोपोल्ड वन का नाम देकर संरक्षित किया गया है जो मिला वन्य क्षेत्र के बाद दूसरा इतना विशाल जंगल है। 1964 ई० में वन्य कानून पारित हुआ। 1993 ई० में अमेरिकी वन विभाग ने मिसौला में मौटाना विश्वविद्यालय के अंतर्गत आल्डो लियोपोल्ड वन्य शोध संस्थान स्थापित किया। ये राज्य का ऐसा अकेला संस्थान है जो प्राकृतिक क्षेत्रों और वन्य प्रबंधन में सुधार के लिए ज्ञान विकसित करने की दिशा में समर्पित है।

अमेरिका में कुछ लोगों द्वारा आल्डो लियोपोल्ड को वन्य जीवन संरक्षण का पितामह कहा जाता है। कुछ लोगों को यह जानकर आश्चर्य होगा कि वह अमेरिकी वन्य जीवन आंदोलन के शुरूआती नेताओं में से एक थे। उन्होंने अपने जीवन-काल में कई तरह की भूमिकाएं निभाईं, वन्य-जीवन प्रबंधक, शिकारी, पति, पिता, प्रकृतिविज्ञानी, वन्य जीवों के पैरोकार, कवि, वैज्ञानिक, दार्शनिक और भविष्यदृष्टा। वह अपनी विख्यात पुस्तकों ए सेंड काउंटी आल्मानाक और हेयर एंड देयर (रेखाचित्र) के लिए भी जाने जाते हैं। प्राकृतिक दुनिया के वर्णन से परे, अपने लेखन में लियोपोल्ड ने भूमि नैतिकी (Egemonia) के रूप में एक नवाचारी धारणा को स्थापित किया जो भूमि के प्रति सोचने और बर्ताव करने के सर्वथा नए तरीके प्रस्तावित करती है।

भूमि नैतिकी समुदाय की सीमाओं को विस्तारित करते हुए उसमें मिट्टी, पानी, वनस्पति और जीव-जंतुओं को समाहित करती है अथवा सारतः कहें : बेशक भूमि नैतिकी भूमि में परिवर्तन, प्रबंधन और संसाधन के रूप में इसके उपयोग को नहीं रोकती, लेकिन यह एक अधिकार के रूप में इसके अस्तित्व के बने रहने की बात करती है। भूमि की प्राकृतिक स्थिति को हमें निर्बाध रूप में बनाए रखना है।

संरक्षण वस्तुतः मनुष्य और भूमि के बीच एक समरसता है। भूमि के मायने हैं जो भी चीजें इस पर, इसके ऊपर और भीतर स्थित और अंतर्निहित हैं। भूमि अपने आप में एक संपूर्ण आवयविक संरचना है। इसके विभिन्न अंग हमारे शरीर के अंगों की ही भांति परस्पर स्पर्धा और सहयोग करते हैं। प्रतिस्पर्धा बाह्य सहयोग की तुलना में आंतरिक रूप से ज्यादा सक्रिय रहती है। आप इसका सचेत रूप से नियमन कर सकते हैं, लेकिन इसे खत्म नहीं कर सकते।

बीसवीं शताब्दी की सबसे बड़ी खोज टेलिविजन या रेडियो नहीं बल्कि भूमि की आवयविकता की जटिलता का संधान है। जो इसके बारे में कुछ ज्यादा जानते हैं वे हमें यही बता सकते हैं कि भूमि के बारे में हमारी कितनी कम जानकारी है। मनुष्य का अज्ञान अंतिमतः इन शब्दों में व्यक्त होता है जो वह किसी प्राणी या पेड़-पौधे को देखकर कहता है कि यह कितना सुंदर है! यदि भूमि का तंत्र ठीक है तो सब कुछ ठीक है, भले ही हम इसे समझते हों या नहीं।

वैज्ञानिक अवधारणाओं को विस्तार देने में लियोपोल्ड का अनुपम योगदान यह रहा कि उन्होंने सिद्धांतों को व्यावहारिकता प्रदान की। वन्य जीवन में विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं और संकलनों में उनके 300 से अधिक लेख प्रकाशित हुए। उनके जीवनीकार मेने के अनुसार वे वन्य जीव संरक्षण के देश में सबसे बड़े प्रवक्ता थे। उन्होंने वन्य जीवन संरक्षण की एक आदर्श के रूप में स्थापित करने के लिए राष्ट्रीय बहस चलाई।

लियोपोल्ड की मान्यता थी कि धर्म पर्यावरण की क्षति को रोकने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है। वे संरक्षण को ओल्ड टेस्टामेंट में भूमि की अब्राहम वाली धारणा के समकक्ष मानते थे। हम पृथ्वी को क्षति पहुंचाते हैं-लियोपोल्ड कहते थे, क्योंकि हम इसे अपने से जुड़ी दूसरी वस्तुओं की तरह बरतते हैं। जब हम इसे अपने से जुड़े समुदाय की तरह देखने लगें, हमारा इसके प्रति सम्मान बढ़ जाएगा और हम इसे प्यार से बरतने लगेंगे।

भूमि के प्रति प्रेम और सम्मान विकसित करने के लिए नीतिशास्त्र के विस्तार की आवश्यकता है। लियोपोल्ड ने पाया था कि नीतिशास्त्र पहले मनुष्यों के पारस्परिक संबंधों को विश्लेषित करता है, उसके बाद मनुष्य और समाज के बीच संबंधों की व्याख्या करता है। लेकिन, कोई नीतिशास्त्र मानवता और भूमि के रिश्ते की बात नहीं करता और न ही मनुष्य के वनस्पति और प्राणियों से संबंध को विश्लेषित करता है। नीतिशास्त्र का मनुष्य और प्रकृति के संबंधों तक विस्तार एक विकासमान संभावना और एक पारिस्थिकीय अनिवार्यता है।

लियोपोल्ड की भूमि नैतिकी इस परिक्षेत्र में स्थित है कि प्राणी जगत के समुदाय के सभी तत्त्व एक दूसरे पर निर्भर हैं। लियोपोल्ड को इस बात का अहसास पहली बार तब हुआ जब दक्षिण-पश्चिम की यात्रा के दौरान एक शिकारी ने मादा भेड़िए को मार डाला। लियोपोल्ड जिस समय इस जीव के पास पहुंचे, उसकी मरणासन्न आंखों में एक चमकीली हरी आभा मौजूद थी। तब मुझे महसूस हुआ और उसके बाद हमेशा लगता रहा कि उन आंखों में कुछ नया था, कुछ ऐसा जिसे सिर्फ वह मादा जीवन और यह पहाड़ी जानती थी।

ये कुछ बाद में इस समझ के रूप में विकसित हुआ कि पृथ्वी का प्रत्येक प्राणी और वनस्पति स्वस्थ प्राकृतिक पर्यावरण बनाए रखने के लिए आवश्यक है। निष्कर्षतः, प्रत्येक प्रजाति का बने रहना इस समग्र समुदाय की भलाई के लिए जरूरी है और एक वर्चस्वशील प्रजाति के रूप में हमारे ऊपर भूमि और उसके स्वास्थ्य की जिम्मेदारी है। लियोपोल्ड हमें एक पर्वत की तरह सोचने के लिए आमंत्रित करते हैं। इसके मायने हैं कि हम तात्कालिक निजी हितों से ऊपर उठकर पारिस्थितिकीय पहलुओं से सोचें। उनकी भूमि नैतिकी की अवधारणा हमसे सवाल करती है : प्रत्येक मुद्दे के आर्थिक पहलू के साथ ही उसके पारिस्थितिकीय और सौंदर्यात्मक पहलुओं के हिसाब से भी परीक्षण करें। कोई चीज तभी सही हो सकती है जब यह प्राणिजगत की समग्रता, स्थायित्व और सुंदरता को संरक्षित रखने में भी मदगार हो। यदि यह ऐसा नहीं करती तो इसे सही नहीं कहा जा सकता।

- राजाराम भादू

लोकप्रिय संप्रभुता : द्रष्टव्य : आल्थ्यूजियस, जोहानेस।

लोहिया, डॉ० राममनोहर : डॉ० राममनोहर लोहिया (1910-1967 ई०) भारत के स्वाधीनता आंदोलन के एक प्रमुख सेनानी और भारतीय समाजवादी चिंतन और राजनीति के प्रमुख पुरोधा थे। भारत छोड़ो आंदोलन में उनकी भूमिका केंद्रीय महत्त्व की थी। समाजवादी क्रांति में अहिंसात्मक प्रक्रिया पर बल भारतीय समाजवाद की प्रमुख विशेषता है। इस धारा की चिंतक-त्रयी में डॉ० लोहिया के साथ आचार्य नरेंद्र देव और जय प्रकाश नारायण को भी सम्मिलित किया जाता है। डॉ० राममनोहर लोहिया कृते, कारिते, अनुमोदिते, तीनों प्रकार की हिंसा के खिलाफ थे। यह बात बहुत विचित्र लग सकती है जब हम यह देखते हैं कि उनका जीवन निराशाओं और कटुताओं से भरा रहा जिसके कारण वे जलते हुए धूमकेतु की तरह भारतीय राजनीति के आकाश में विचरे तथा इससे पहले कि हमारी आंखें उन्हें देख-पहचान सकें, वे ओझल हो गए।

यह भी दिलचस्प बात है कि हिंसा-अहिंसा के विवेक के मामलों में उनके गुरु महात्मा गांधी हुए जिनके साथ उनके कई बातों को लेकर मतभेद रहे। इसलिए उन्होंने अपने को कुजात गांधीवादी माना-सरकारी गांधीवादियों और मठी गांधीवादियों के बरक्स जिन्होंने गांधीवाद के कर्मकांडी पक्ष को ग्रहण किया किंतु जीवन पक्ष को छोड़ दिया।

गांधी ने अहिंसा और सत्य को एक ही माना और इनका निर्गुण रूप ईश्वर में तथा सगुण रूप स्वतंत्रता में देखा। लोहिया ने भी अहिंसा और सत्य को, ईश्वर के रूप में तो नहीं किंतु आध्यात्मिक गुणों के रूप में देखा जो स्वतंऌत्रता, समता तथा बंधुता (विराट के साथ एकत्व) की सर्वोत्तम उपलब्धियों के साधन हैं। उन्होंने अपने तमाम संघर्षों के लिए, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय बुराईयों से लड़ने के लिए, अहिंसा पर आधारित सिविल नाफरमानी (सविनय अवज्ञा) को अपना हथियार बनाया और अत्यंत विकट परिस्थितियों में भी इस व्रत को निभाया।

गांधी की तरह लोहिया की अहिंसा भी सक्रिय थी, निष्क्रिय नहीं। यह अहिंसा अन्याय के प्रतिकार का हथियार था, अन्याय की तरफ से आंखें मूंद लेने वाली अहिंसा नहीं थी। यह अन्याय के प्रतिकार से बचने का बहाना नहीं थी बल्कि अन्याय के प्रतिकार में प्रवृत्त करने वाली ऊर्जा का स्रोत थी। यह अहिंसा कमजोरी की अभिव्यक्ति नहीं, शक्ति की अभिव्यक्ति थी। यह ऐसी अहिंसा थी जो यह जानते हुए भी कि उसकी प्रतिक्रिया हिंसा हो सकती है, मोर्चा छोड़कर भागती नहीं। अपनी अहिंसा के इस अड़ियलपन की अभिव्यक्ति उन्होंने सिविल नाफरमानी करने वाले की विशेषता बताते हुए की हैं कि वह जालिम के आगे घुटने नहीं टेकता लेकिन उसकी गर्दन भी नहीं काटता। मानेंगे नहीं, लेकिन मारेंगे भी नहीं का रवैया। यह जैन या बौद्ध साधुओं की अहिंसा नहीं जो शांतचित्त की निष्पति होती है अथवा धर्म के दसवें लक्षण की उपज होती है। यह व्याकुल चित्त और क्रोधित मन की लड़ाकू प्रवृत्ति होती है।

डॉ० लोहिया ने अहिंसा के इस उदात्त रूप को अपने चिंतन का आधार बनाया। अपने प्रसिद्ध हैदराबाद भाषण में (जो लोहिया रचनावली के मार्क्स गांधी और समाजवाद खंड एक का प्रमुख लेख है) वह क्रांति के अंतिम बिंदु पर हिंसा-अहिंसा की दुविधा से मुक्ति का सुझाव देते हुए लिखते हैं : क्रांति के अंतिम सोपान में हिंसा का प्रयोग हो या न हो यह एक निरर्थक और महत्त्वहीन प्रश्न है, जैसे किसी आदमी की अंत्येष्टि के बारे में बहस करना जिसे अभी वर्षों जीवित रहना हो। सवाल वास्तव में यह है कि क्रांति का संगठन अहिंसा पर आधारित होगा या हिंसा पर। अहिंसा के मार्ग में कभी अहिंसा का पलड़ा भारी हो सकता है, कभी क्रांति का। हमको न अहिंसा छोड़नी चाहिए और न क्रांति। (लोहिया रचनावली खंड 1, पृष्ठ 465)

भारत छोड़ो आंदोलन के दिनों में लोहिया तथा उनके अन्य साथियों ने न हत्या न चोट का व्रत लेकर सरकारी व्यवस्था के ध्वंस के जो काम शुरू किये उसमें कहीं-कहीं हिंसा भी हुई। जैसा मालगाड़ी को पटरी से उतारने में गार्ड आदि की मृत्यु (जिससे आहत होकर मधु लिमये ने तोड़फोड़ के कामों से बचने का इरादा किया)। जय प्रकाश नारायण और उनके कुछ अन्य साथियों ने तो गुरिला दस्ते तैयार करने का काम भी किया। फिर भी इस पूरे आंदोलन को हिंसक नहीं कहा जा सकता। इसी विचार को डॉ० लोहिया ने संसोपा के कोटा सम्मेलन में इस प्रकार रखा, या तो इस हिंसा को (सरकारी हिंसा को) अहिंसा के मार्ग से रोको और अगर अहिंसा के मार्ग से नहीं रोक सकते तो इसके लिए संगठित हिंसा की कोशिश करो। चाहे आकाशवाणी पर, शस्त्रगार पर या सचिवालय पर कब्जा करो। व्यवस्था को तोड़ना हिंसा नहीं है, मनुष्य की हत्या करना हिंसा है।

आजाद भारत में सरकारी गांधीवादियों और मठी गांधीवादियों ने यह विचार रखा था कि विरोधी पार्टियों द्वारा हड़तालों और बंद-घेरावों के माध्यम से यातायात भंग करने या कुछ अन्य तोड़फोड़ को हिंसक कार्रवाई कहकर उसे पुलिस या अर्द्ध सैनिक बलों की संगठित हिंसा से दबाना उचित है। लोहिया इसका जवाब दे रहे थे। उनका कहना था कि तमाम शस्त्रों से संपन्न सरकारी हिंसा के मुकाबले जनता की संगठित हिंसा, जिसका लक्ष्य किसी मनुष्य की हत्या करना नहीं है, अहिंसा ही है। अब तक सभी सरकारों का रवैया रहा है कि प्रतिरोध की कार्रवाई में संपत्ति का नाश या व्यवस्था भंग हिंसा है। लोहिया इसे नहीं मानते थे। उनके अनुसार यह साधुओं की अहिंसा है जो समाज को क्लीव बनाती है।

सरकारी और मठी गांधीवादियों की अहिंसा को लोहिया ने कमजोर हिंसा और अहिंसा का मिश्रण कहा। इसका अर्थ था सेनाएं भी रखो, लेकिन युद्ध में उनका ठीक से इस्तेमाल मत करो, (अपनी जनता के दमन के लिए भले ही इन्हें बहादुरी के पुरस्कार दो) इकतरफा निःशस्त्रीकरण की बात करो, मध्यस्थता पंच-फैसला, द्विपक्षी बातचीत, प्रतिरक्षा की तैयारी के बहाने युद्ध की चुनौती को टालो आदि-आदि। ये सब प्रतिरोध से बचने के तरीके हैं। लोहिया ने इसे कमजोर हिंसा और अहिंसा का मिश्रण इसलिए कहा कि उनके अनुसार अहिंसा के दो गुण हैं निहत्थापन और प्रतिरोध। इनमें से किसी एक को छोटा करना बड़ी भारी गलती होगा। अगर प्रतिरोध में कमी आई तो निहत्थापन कायरता और अन्याय के आगे सिर झुकाना होगा। यह आगे चलकर हथियारों और युद्ध को बढ़ावा देगा। (लोहिया रचनावली खंड एक, पृष्ठ 147-149)

अहिंसा वीरता का लक्षण है और हिंसा कायरता का। हिंसा करने वाले आदमी में वीरता नहीं होती, वह अपने हथियार की शक्ति को अपनी वीरता मानकर इठला सकता है, किंतु मन उसका कायर ही रहता है और इसलिए प्रतिद्वंद्वी के पास अधिक सुधरे और उन्नत हथियार को देखकर वह बिना शक्ति भर प्रतिरोध के हथियार डाल देता है। हत्या करने वाला कभी वीर नहीं हो सकता क्योंकि वह चुनौती से पलायन करता है। चुनौती तो होती है प्रतिद्वंद्वी को जीतने की, उसे अपने अनुकूल बनाने की, किंतु, हत्यारा उसकी हत्या कर उसके जीत जाने या अनुकूल बनने की सारी संभावनाओं को ही नष्ट कर देता है। वह अनुकूल बनाने, सुधारने की चुनौती से भागने का प्रयत्न करता है।

एक बार लोहिया ने गांधी के संस्मरण सुनाते हुए गांधी जी की एक महत्त्वपूर्ण बात बताई। 1916 ई० में गांधी जी ने कहा था कि मेरे देश के कायरता और पौरुषहीनता के कारण मार्शल लॉ के सामने झुकने के बजाय अगर कोई वाइसराय की हत्या करता है तो मैं उसे पसंद करूंगा। लोहिया जी ने इस प्रसंग को इस अर्थ में लिया कि कायरता और पौरुषहीनता अहिंसा का कभी आधार नहीं बन सकता। इसीलिए लोहिया ने क्रांति के लिये भय और घृणा के तत्त्व को खत्म करने का सुझाव दिया। यह क्रांति अहिंसात्मक सत्याग्रह और सिविल नाफरमानी से आए, इस बात पर उन्होंने जोर दिया। उन्होंने कहा-हमें अक्सर अहिंसा के प्रवक्ता कहते हैं कि हम प्रतिरोध के काम न करें क्योंकि इनका परिणाम हिंसा होती है। यह भी एक अनपढ़ धमकी होती है, जिसकी आड़ में अहिंसा अकर्मण्यता का पर्याय बनती है। (लोहिया रचनावली खंड एक, पृष्ठ 309)

अहिंसात्मक प्रतिरोध अर्थात् सिविल नाफरमनी को लोहिया ने न केवल सरकारों की संगठित हिंसा का उपचार माना बल्कि संपूर्ण विश्व में हथियारों के खात्मे और विश्व शांति का साधन भी माना। नस्ल-भेद, धार्मिक, भाषायी, क्षेत्रीय आदि विग्रहों के लिए भी उन्होंने अहिंसात्मक सत्याग्रह और सिविल नाफरमानी का सुझाव दिया। अमरीका में अश्वेतों के नागरिक अधिकारों के संघर्ष के लिए भी उन्होंने यही रास्ता सुझाया। अहिंसात्मक सत्याग्रह और सिविल नाफरमनी को उन्होंने नागरिकों का सतत् और स्थायी धर्म कहा क्योंकि इसमें ढिलाई बरतने पर हिंसा के रास्ते की ही गुंजाइश बचती है। बस्तर के राजा प्रवीरचंद्र भंजदेव की हत्या पर बोलते हुए उन्होंने लोकसभा में कहा था-हिंसा का एक खास गुण होता है कि वह अपने से कमजोर शत्रु को खोजती है। अपने से बलवान विरोधी से वह पिट जाती है। मैं हिंसा नापसंद करता हूं। मैं अभी भी इस मत का नहीं बना हूं कि सरकारी हिंसा का जवाब जनता की हिंसा से दिया जाए। लेकिन, इतिहास के विद्यार्थी के नाते कह रहा हूं कि हत्यारे का हाथ हमारे देश में चल पड़ा है। जनता का हत्यारा भी पैदा हो सकता है और पैदा होगा, और उसका हाथ प्रधानमंत्री तथा गृहमंत्री की गर्दन की ओर बढ़ता जा रहा है। (राममनोहर लोहिया-ले० इंदुमति केलकर, पृष्ठ 426)

उनका कहना था कि यदि संसदीय और संवैधानिक उपाय ही कष्टनिवारण का एकमात्र माध्यम बने तो जनता एसिड बल्व की हिंसा या विद्रोह पर विश्वास करने वाली प्रणालियों की ओर बढ़ेगी। (राममनोहर रचनावली खंड एक, पृष्ठ 253)

इसीलिए अन्याय के प्रतिरोध के लिए उन्होंने सतत् और स्थायी सिविल नाफरमनी को हर प्रकार की राज्य-व्यवस्थाओं में आवश्यक माना। अहिंसा का प्रयोग अगर अन्याय के प्रतिरोध के लिए न हो तो उस अहिंसा को नपुंसक अहिंसा ही कहा जाएगा जिसे गांधी जी भी सख्त नापसंद करते थे और लोहिया भी।

लोहिया जी की अहिंसा की परीक्षा भारत छोड़ो आंदोलन में गिरफ्तारी के बाद लाहौर किले के बंदी जीवन में हुई। यह किला ब्रिटिश साम्राज्य का सबसे भयानक यातना गृह माना जाता था। इस किले में लोहिया को जो यातनाएं दी गईं, उनका वर्णन उन्होंने स्वयं अपने एक निबंध ऐन एपिसोड इन योगा (एक योगानुभूति) में किया है। शुरू में उनकी यातना थी। वक्त-बेवक्त उन्हें जंजीरों से जकड़कर कोठरी से बाहर लाना और जेल के दफ्तर में कुर्सी पर बिना हिलेडुले बिठाए रखना और एक ही वाक्य को पचासों या सैंकड़ों बार दुहराना। फिर उन्हें जबर्दस्ती जगाए रखने की सजा देनी शुरू की। दिन भर या रातभर कुर्सी पर बिठाए रखते और लोहिया की पलकें बंद होने लगती तो हथकड़ी की जंजीर खींचकर या सिर को झटककर जगा देते। निद्राहीनता की अवधि कुछ घंटों या दिन और रात के चौबीस घंटों से शुरू होकर दूसरे और तीसरे महीने में तीन से पांच दिन तक और फिर दस दिन तक ले गए। ऐसी स्थिति में जब बरबस जागरण के कारण लोहिया ने प्रतिरोध की शारीरिक क्षमता खो दी तो उनके मुंह पर राष्ट्रीय नेताओं को गालियां देने का काम शुरू हुआ। लोहिया इस पर भी चुप रहे और सब सुनकर जहर के घूंट पीते रहे। लेकिन, जब उन्होंने गांधी जी के लिए अपशब्द कहे तो उनके धैर्य का बांध टूटा और उन्होंने पूरी ताकत से शटअप कहा जिससे जेल अधिकारी सकपका गया। लोहिया कहते हैं कि यह व्यवहार जेल में व्यर्थ ही था, जहां मेरा कोई दोस्त नहीं था। लेकिन, मैं समझता हूं कि ऐसे मौकों पर कोई तर्क करने नहीं लगता और यह अतार्किकता चमड़ी से निकलकर स्वस्थ मन की स्वाभाविक अभिव्यक्ति होती है। इस पर पुलिस के प्रहरी बहुत भुनभुनाए, जैसे वे मुझ पर अंतिम उपाय आजमाने वाले हों। लेकिन, उन्होंने मेरे सामने नेताओं को गालियां देने की रणनीति छोड़ दी। बरबस जागरण के पांचवे दिन लोहिया का सिर इतना गरम हो गया जैसे उसमें अंगार भरे हो। पुलिस का आदमी लकड़ी की मेज को जोर-जोर से बजाकर लोहिया को जगाए रखने की कोशिश कर रहा था। अचानक वह उठा और लोहिया की तरफ पिटाई करने की मुद्रा में बढ़ा। लोहिया ने इतना ही कहा था कि अकेले मुझसे हाथपाई करने की कोशिश मत करना। इससे वह पहरेदार जो उस समय अकेला ही था, इतना डर गया कि उसने चिल्लाकर दूसरे लोगों को मदद के लिए बुला लिया। लोहिया ने उसे किले का डरपोक कहा। बाद में यह अधिकारी इस नाम से मशहूर हो गया क्योंकि किले के अन्य कर्मचारी उस अधिकारी के घमंडी स्वभाव से परेशान थे। बहरहाल उस दिन लोहिया को तीन चार लोगों ने फर्श पर गिराकर और फिर टांगों से खींचकर तब तक रगड़ा, जब तक उनकी पीठ, टांगे और बांहें बुरी तरह छिल नहीं गई।

एक बार लोहिया को कई दिन और रात एक हजार वाट के बल्व के नीचे दीवार के साथ खड़ा करके तब तक रखा गया जब तक उनकी नाक और मुंह से खून नहीं आने लगा और वे बेहोश नहीं हो गए। गंदगी को देखकर लोहिया ने अन्न-जल ग्रहण करने से भी मना कर दिया था, जिसके कारण शारीरिक शक्ति पूरी तरह क्षीण हो चुकी थी। ऐसी ही स्थिति में उन्होंने जिंदगी और मौत के बीच के उस क्षण को पकड़ा (महसूस किया) जो सैंकड के भी हजारवें-लाखवें हिस्से के बराबर रहा होगा, और उसे प्रवहमान तथा शाश्वत क्षण का संधि-स्थल कहा जो आदमी को सारे द्वंद्वों से, सारी चिंताओं, भीतियों और पीड़ाओं से मुक्ति का एहसास देता है तथा महान विचारों से साक्षात्कार कराता है। इन तमाम यातनाओं को झेलते हुए भी लोहिया अपने इरादे से नहीं डिगे, उन्होंने भूमिगत आंदोलन से संबंधित जानकारी नहीं दी, दूसरे नेताओं के नाम नहीं बताए। यह उनके अहिंसात्मक सत्याग्रह का उत्कृष्ट रूप था। वे कुछ दिन क्रांतिकारी बनकर जेल में पहुंचते ही माफी मांगने वाले वीर नहीं थे।

वैसे मौत से आमना-सामना बाद में भी कई बार हुआ। उदाहरण के लिए, जब चिटगांव में सांप्रदायिक दंगों के वातावरण में सभा करने पर उन्हें पत्थरों की बौछार सहनी पड़ी, उनका एक साथी तो मर ही गया। या फिर जब वे गांधी जी के कहने पर कलकत्ता में दंगों के माहौल के बीच अपने मुस्लिम दोस्तों से मिलने उनके घर गए। या जब तमिलनाडु में द्रविड़ पार्टियों ने भाषा आंदोलन के दिनों में उन पर पत्थर बरसाए या जब उ०प्र० की जेल में उनकी पिटाई हुई और मजिस्ट्रेट के सम्मुख पेश होने से इंकार करने पर जबर्दस्ती उनका अंगूठा कागज पर लगवाया गया। लेकिन मौत से डर कर वे अपने कर्त्तव्य से पीछे नहीं हटे और न यातनाओं से डरकर सत्याग्रह का व्रत छोड़ा। हिंसा का जितना बड़ा खतरा हो, अहिंसा का व्रत उतना ही दृढ़ होता था।

इन अग्नि-परीक्षाओं से गुजरने के बाद भी सरकार के गृह विभाग ने उन पर आरोप लगाया कि उन्होंने नेहरू के मंत्रिमंडल का सफाया करने की योजना बनाई है, वैसी ही जिससे बर्मा के आंगसान मंत्रिमंडल का सफाया किया गया था। सरदार पटेल ने गुप्त सूचनाओं के आधार पर यह शिकायत गांधी जी से की और गांधी जी ने लोहिया से पूछा। तब लोहिया ने लिखित रूप में गांधी को बयान दिया (सरदार पटेल को देने से उन्होंने साफ मना किया) कि मैं जरूर इस मंत्रिमंडल को निकम्मा मानता हूं और इसे खत्म करना चाहता हूं, लेकिन उसके लिए हिंसा के रास्ते की बात तो कभी सोच भी नहीं सकता। यह किसी की गंदी शरारत है। इस सात्विक क्रोधमिश्रित अहिंसा की दीक्षा लोहिया को गांधी जी के सान्निध्य से ही मिली थी। गांधी जी को भी क्रोध आता था और कभी-कभी तो वे आपे से बाहर हो जाते थे जैसे पाखाना साफ करने से इंकार करने पर कस्तूरबा के प्रति दिखाया गया क्रोध। लोहिया ने अहिंसा को एक और आयाम भी दिया। यह है करुणामिश्रित क्रोध की अहिंसा। इसे भी बापू की देन ही कहा जा सकता है, जिसके वशीभूत होकर कभी बापू ने कहा था कि जिस वाइसराय पर असंख्य लोगों को भूखा-नंगा रखकर इतना अधिक खर्च किया जाता है, उसका तो मर जाना ही अच्छा है। लोहिया ने इसे खूबसूरत उपमा दी। एक आंख में करुणा के आंसू, एक में क्रोध की लाली। यह एक प्रकार से नीलकंठ शिव के अमूर्त आदर्श को यथार्थ में उतारने का ही प्रयत्न था। वास्तव में लोहिया ने वर्तमान सभ्यता को मृत मानकर उसके स्थान पर एक नई मानव-सभ्यता की तलाश का जो क्रम शुरू किया, उसका मूल मंत्र ही था करुणा-मिश्रित क्रोध की अहिंसा जिसे उन्होंने सत्य और सुंदर के मेल का मार्ग बताया। अपने एक निबंध एक दार्शनिक प्राक्कल्पना में वह कहते हैं : हो सकता है कि सभी मानवीय प्रयासों का यही हश्र हो, कम से कम इतिहास में तो यही हुआ है कि सच की विकृति क्रूरता में और सौंदर्य की भोग में हुई। मैं किसी ऐसी मानव सभ्यता को नहीं जानता, हमारे पूर्वजों द्वारा निर्मित महान सभ्यताभी इसमें शामिल है, जिसमें यह नियम लागू न हुआ हो। सत्य की विकृति क्रूरता में और सुंदर की भोग में हुई किंतु तलाश नहीं रुकी। अपने समय में ऐसे आदमी को पाकर जिसमें सत्य और सुंदर का मेल था, एक नई क्रांति की तलाश का काम बंद करना बुद्धिमत्तापूर्ण नहीं होगा। ऐसी क्रांति की तलाश जो वर्तमान सभ्यता को, जिसके प्रयोजन घृणित हैं अथवा इस कद्र ऊंचे है कि उन्हें प्राप्त करना असंभव है, खत्म करे और एक नई सभ्यता का निर्माण करे, जारी रहनी चाहिए। वास्तव में यह दार्शनिक आवश्यकता है। (लोहिया रचनावली खंड एक, पृष्ठ 306-307)

- मस्तराम कपूर

वर्चस्वशाली हिंसा : वर्चस्वशाली अथवा हेजमनीय हिंसा पर कुछ भी कहने से पहले यह जरूरी है कि हम हेजमनी के बारे में जानें। हेजमनी यूनानी शब्द ऐजोमेनिया (Egemonia) से व्युत्पन्न है। रूसी सोशल डेमोक्रेटों ने 1890 ई० से 1917 ई० के दौरान इसका प्रयोग क्रांति हेतु मजदूर वर्ग का अन्य सभी वंचितों एवं शोषितों के नेतृत्व के अर्थ में किया गया। इस क्रम में यह शब्द मार्क्सवादी पदावली का हिस्सा बन गया।

लेकिन, हेजमनी को लोकप्रिय एवं मार्क्सवाद के शब्दकोष में केंद्रीय स्थान दिलाने का श्रेय इटली के मार्क्सवादी चिंतक एंतोनियो ग्राम्शी को जाता है। पश्चिमी मार्क्सवाद के जनकों में से एक एवं बीसवीं सदी के सबसे ज्यादा मौलिक एवं रैडिकल के विशेषण से अभिनंदित ग्राम्शी इतालवी साम्यवादी पार्टी के संस्थापकों में सबसे महत्त्वपूर्ण हस्ती थे। अपने विचारों एवं गतिविधियों की वजह से वह मुसोलिनी की फासीवादी सत्ता के लिए चुनौती-से थे। यही कारण था कि उन्हें बीस साल के लिए कैद करने का निर्णय लिया गया। जेल में ही ग्राम्शी ने कम्यूनिस्ट पार्टियों की पराजय एवं फासीवाद के सत्ता पर काबिज होने के कारणों पर विचार किया और मार्क्सवाद को ठहराव एवं जड़ता की स्थिति से मुक्त किया। जेल-लेखन में ही ग्राम्शी ने हेजमनी के प्रचलित अर्थ के साथ सहमति अथवा औचित्य जोड़कर इसका कायांतरण कर दिया।

ग्राम्शी ने आधुनिक राष्ट्रों के संदर्भ में कहा कि सत्ता अथवा वर्चस्व की निरंतरता सहमति और दमन या हिंसा दोनों की संयुक्त बुनियाद पर निर्भर करती है। ग्राम्शी ने इस धारणा से असहमति जताई कि नेतृत्व अथवा वर्चस्व में आने एवं बने रहने के लिए सहमति एवं हिंसा का अलग-अलग क्षणों में अलग-अलग सहारा लिया जाता है जैसा कि तत्कालीन वामपंथी पार्टियां सोच रही थीं। उन्होंने यह उजागर किया कि सफल वर्चस्वता के लिए दोनों का साथ-साथ या संयुक्त सहारा जरूरी है। इसे स्पष्ट करने के लिए उन्होंने संविधान एवं चुनाव आधारित जनतांत्रिक व्यवस्था का उदाहरण दिया। जनतांत्रिक व्यवस्था अथवा आधुनिक राष्ट्र के दो अवयव हैं : राजनीतिक समाज अथवा राज्य एवं सिविल समाज। सहमति का माध्यम अथवा साधन सिविल समाज है तो दमन अथवा हिंसा का दायित्व राजनीतिक समाज पर रहता है। राजनीतिक समाज के तहत राज्य के वे तंत्र आते हैं जिन पर सामान्य समय में संविधान-सम्मत अनुशासन और असामान्य (युद्ध, गृह-युद्ध, हिंसक विद्रोह आदि) समय में यदि जरूरत पड़े तो सारे नियमों को ताक पर रखकर अनुशासन कायम करने का दायित्व है। यहां अनुशासन का तात्पर्य व्यवस्था के प्रति सहमति हासिल करने से है। पुलिस, न्यायपालिका, सेना जैसे तंत्रों का समुच्चय राज्य का दमन-तंत्र (राजनीतिक समाज) है।

गौरतलब है कि व्यवस्था को जन-सहमति मिलती रहे इसके लिए जरूरी है कि दमन-तंत्र चुस्त-चौकस रहे। दमन-तंत्र के द्वारा जो बल-प्रयोग किया जाता है उसे भी किसी-न-किसी स्तर से, कहीं-न-कहीं से सहमति प्राप्त रहती है, इसलिए इस तरह की हिंसा को हेजमनीय हिंसा कहा गया है। पुलिस, न्यायपालिका अथवा फौज को दंड देने अथवा हिंसा का अधिकार प्राप्त है। यह अधिकार संविधानसम्मत है और संविधान से असहमति व्यक्त करना दंड-योग्य हैं। ग्राम्शी ने दमन-तंत्र के दमन अथवा हिंसा को मिलने वाली सहमति की तरफ ध्यान दिलाते हुए स्पष्ट किया कि दमन एवं सहमति एक ही सिक्के के दो पहलू है। बिना दमन के सहमति और बिना सहमति के दमन संभव नहीं। आधुनिक व्यवस्थाओं में दोनों के बीच चोली-दामन का संबंध है। दंड का भय ही व्यवस्था में सहमति का आधार है और जो भी इससे डिगता है, उसे दंडित किया जाना चाहिए, इसे भी सहमति प्राप्त है। आधुनिक व्यवस्थाओं में संवैधानिक हिंसा हिंसा न भवति को सहमति मिली हुई है। संविधान सर्वोपरि है। उसे प्रश्नांकित करना, उसका उल्लंघन अपराध है। सेना अथवा पुलिस को इसकी रक्षा के नाम पर हिंसा का रास्ता अपनाने का अधिकार प्राप्त है। यह हिंसा हिंसा नहीं क्योंकि इसे जन-सहमति मिली हुई है।

गौरतलब है कि राज्य के दमन-तंत्र की हिंसा के साथ-साथ धर्म, संप्रदाय, नस्ल, जाति, जेंडर, समूह आदि पर आधारित हिंसाएं भी हेजमनीय हिंसा के तहत रखी जा सकती हैं, भले ही इन्हें आधुनिक राष्ट्र ने अवैधानिक क्यों न घोषित कर रखा हो। इन हिंसाओं के मामले में संविधान का खुलम-खुल्ला उल्लंघन होता है, लेकिन, राज्य का दमन तंत्र उल्लंघन करने वालों को दंड देने में वैसी गंभीरता, वैसी चुस्ती, वैसी सक्रियता नहीं दिखाता, जैसी कि वह सामान्यतः दिखाता है। इसका कारण यह है कि इन हिंसाओं की वजह से राज्य के दमनतंत्र को संविधान की रक्षा के नाम पर हिंसा करने के अधिकार को कोई आंच नहीं आती यानी उन्हें प्राप्त जन-सहमति में रत्ती पर भी कमी नहीं आती। धर्म, संप्रदाय, नस्ल, जाति आदि आधारित हिंसाओं को उनके पक्षधर उचित मानते हैं। हिंदू-मुस्लिम दंगों में हिंदुओं द्वारा मुसलमानों पर और मुसलमानों द्वारा हिंदुओं पर की गई हिंसाओं को दोनों ही समुदाय के सदस्य उचित मानकर ही पाशविक होने से (नैतिक व वैधानिक दोनों ही स्तरों पर) तनिक भी नहीं हिचकते। सिविल समाज के स्तर पर इन हिंसाओं को प्राप्त स्वीकृति इन्हें हेजमनिक हिंसा की कोटि में लाती है। राज्य के दमन-तंत्र को सिविल समाज से मिलने वाली सहमति और सिविल समाज के दायरे की सामूहिक हिंसाओं को सिविल समाज में मिलने वाली सहमति में सहमतों की संख्या में फर्क ही इनके जुदा होने की स्थिति उत्पन्न करता है। किसी समाज-व्यवस्था में बहुसंख्यकों द्वारा अल्पसंख्यकों पर की गई हिंसा के मामले में सहमतों अथवा समर्थकों की बड़ी संख्या इसमें राज्य के दमन-तंत्र की परोक्ष / अपरोक्ष संलग्नता की संभावना की स्थिति उत्पन्न करती है। खासकर, तब तो यह एकदम स्पष्ट हो जाता है जब हिंसा को अंजाम देने वालों को सजा नहीं मिलती। जाति / धर्म पंचायतों का अपने सदस्य को रूढियां तोड़ने के लिए सरेआम सजा देना सिविल समाज के स्तर पर की जाने वाली हेजमानिक हिंसा है। हिंसा के ऐसे कई उदाहरण हैं जिन्हें सिविल समाज के स्तर पर सहमति प्राप्त है और राज्य का दमन-तंत्र जो सिविल समाज की ही सहमति पर टिका है, इन हिंसाओं की तरफ उदासीनता बरतता है।

हेजमानिक हिंसा को हम सांस्थानिक हिंसा भी कह सकते हैं, क्योंकि राज्य के जिन अंगों को हिंसा का लाइसेंस एवं औचित्य प्राप्त है, वे संस्थान के रूप में खड़े किए जाते हैं। पुलिस, सेना, न्यायपालिका- ये सब संस्थान का रूप लिए हुए हैं। निश्चित कायदों और कर्मकांडीयता से लैस इन तंत्रों द्वारा वैधानिक के नाम पर की जाने वाली हिंसा सांस्थानिक हिंसा कही जा सकती है। साथ ही, शासक वर्ग अपना वर्चस्व बनाए रखने के लिए इनका बतौर साधन (Instrument) उपयोग करते हैं इसलिए ये साधनिक (Instrumental) हिंसा के तहत भी रखे जा सकते हैं।

ग्राम्शी की हेजमनी की धारणा को ही गहराई एवं विस्तार देकर फ्रांसीसी समाजशास्त्री पियरे बौर्द्यू ने सांकेतिक हिंसा (Symbolic Violence) की धारणा विकसित की।

- विजय कुमार झा

वाइज, स्टीवन एम० : अमरीकी विचारक स्टीवन एम० वाइज की प्रसिद्धि एक ऐसे विधि-दार्शनिक के रूप में है, जिसने विधिक आधार पर पशु-अधिकारों के आंदोलन को समर्थन दिया। उन्हें पशु-अधिकार आंदोलन की मुषलि (piston of the aimal rights movement) कहा जाता है। वाइज का तर्क है कि जो कसौटी एक विधिक व्यक्ति के रूप में मनुष्य पर लागू की जाती है, उसके आधार पर पशु को भी एक विधिक व्यक्ति माना जा सकता है; इसलिए एक विधिक व्यक्ति के रूप में पशु के अधिकारों को भी कानूनी मान्यता दी जानी चाहिए। वाइज के अनुसार एक विधिक व्यक्ति होने के लिए पशु को कुछ शर्ते पूरी करनी होती है-जैसे वस्तुओं के लिए इच्छा और उन्हें प्राप्त करने के लिए इरादतन कोशिश। उसे अपने होने का, अपने अस्तित्व का बोध भी होना चाहिए। चिंपाजी, हाथी, तोता, डाल्फिन, गुरिल्ला आदि कई पशुओं मे ये चारित्रिकताएं पाई जाती हैं; इसलिए एक विधिक व्यक्ति के रूप में मान्यता मिलना उनका कानूनी अधिकार है।

वाइज के अनुसार एक विधिक व्यक्ति के रूप में पशु को भी गरिमा का अधिकार है, जिसका उल्लंघन नहीं किया जा सकता और गरिमा तब तक निरर्थक है, जब तक उसे स्वायत्तता न प्राप्त हो। इसलिए वाइज दैहिक स्वतंत्रता और शारीरिक अक्षतता को पशु के गरिमा-अधिकारों में शामिल करते हैं।

वाइज यह तो स्वीकार करते हैं कि पशु को हर मामले में मनुष्य के समान स्तर का नहीं स्वीकार किया जा सकता, इसलिए उसके अधिकार मानव-अधिकारों से कुछ कम हो सकते हैं। लेकिन, वे कम-से-कम इतने होने चाहिए, जितने छोटे बच्चों और कुछ प्रजातियों के वयस्क स्तनपायियों के होते हैं। लेकिन सभी अधिकार प्राप्त प्राणी समान तात्त्विक महत्त्व रखते हैं।

वाइज की पुस्तकों में रैटलिंग दि केज सर्वाधिक प्रसिद्ध हुई। इस पुस्तक में वाइज कहते हैं कि पिछले चार हजार वर्षों में पशुओं और मनुष्यों के बीच एक मोटी विधिक दीवार खड़ी कर दी गई है, जिसके परिणामस्वरूप मनुष्य प्रजाति के तो छोटे-से-छोटे स्वार्थ का अत्यधिक ध्यान रखा जाता है, जबकि पशुओं को वस्तु ही माना जाता रहा है। दर्शन और विज्ञान तो अपनी पुरानी मान्यताओं को संशोधित कर मानवेतर पशुओं की गरिमा को स्वीकार कर रहे हैं, लेकिन कानून ने अभी तक अपने को संशोधित नहीं किया है।

वाइज जैसे विचारकों और उनके आंदोलनों का ही प्रभाव है कि कई देशों में पशु-अधिकारों को कुछ मान्यता मिलने लगी है-विशेषतया यंत्रणा और क्रूर व्यवहार के विरुद्ध-जिनमें भारत भी एक है।

द्रष्टव्य : अरस्तू; बेंथम, जेरेमी; पशु-मुक्ति; रीगन, टॉम ; रशेल्स, जैम्स।

- नंदकिशोर आचार्य

वाटसन, जॉन : द्रष्टव्य : प्रकृति-पालन विवाद।

वालेसा, लेक : लेक वालेसा का जन्म पोलेंड में वारसा और डांस्क के मध्य स्थित गांव पोपोव में 29 सितंबर, 1943 ई० को एक बढ़ई की झोंपड़ी में हुआ था। यह द्वितीय विश्व युद्ध का समय था जब नाजी जर्मनी ने पोलेंड पर कब्जा कर लिया था। उनके पिता की जबरन बेगार लेने और अत्यधिक उत्पीड़न से 1946 ई० में मृत्यु हो गई। वालेसा के जन्म के बाद उनकी मां बहुत कमजोर हो गई थी। पेरिश के पादरी उन्हें याद करते हुए कहते हैं, वह पेरिश की सबसे बुद्धिमान औरत थी।

पेरिश के स्कूल में अपनी आरंभिक पढ़ाई के दौरान वालेसा एक औसत छात्र थे। लिपनों के स्टेट वोकेशनल स्कूल से इलेक्ट्रिशयन ट्रेड में स्नातक होने के बाद उन्होंने 1961 ई० से 1965 ई० में एक मशीन सेंटर पर कार मैकेनिक का काम किया। उन्होंने दो साल सेना की नौकरी की जिसमें कार्पोरल के पद तक पहुंचे। 1967 ई० से वे लेनिन शिपयार्ड पर डांस्क में इलेक्ट्रिशियन का काम करने लगे।

अपने प्रभावशाली पड़ोसियों के बीच भौगोलिक स्थिति के कारण पोलेंड का इतिहास उथल-पुथल का और दुर्भाग्यशाली रहा है। 1800 ई० में रूसी और आस्ट्रियन साम्राज्य और प्रशा के मध्य खींचतान और गंभीर गृहयद्ध के बाद पोलेंड अस्तित्व में आया। इतिहास के विभिन्न चरणों में रोमन कैथोलिक चर्च ने पोलंड में प्रभावशाली भूमिका निभाई। इसके परिणामस्वरूप वहां पोलिस कैथोलिक राष्ट्रीयता बची रही। हालांकि 1921 ई० से 1939 ई० के मध्य पोलेंड का एक स्वतंत्र राष्ट्र के रूप में पुनर्गठन हुआ, लेकिन द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद फिर से इसकी सीमाओं में परिवर्तन हुआ और यह सोवियत संघ के वैचारिक वर्चस्व के प्रभाव में आ गया।

वारसा में अधिकांश पोलेंडवासी पोलेंड की कम्युनिस्ट पार्टी को सोवियत साम्राज्य की बाहरी चौकी की तरह मानते थे। 1956 ई० में वहां भोजन की कमी के कारण दंगे हुए। 1968 ई० में चेकोस्लोवाकिया में सोवियत दखल के बाद वहां बुद्धिजीवियों की स्वतंत्रता को प्रतिबंधित करने पर हुए प्रतिरोध आंदोलन को पोलेंड के बुद्धिजीवियों ने भी अपना समर्थन दिया। 1970 ई० में सरकार द्वारा खाद्य पदार्थों की कीमतें बढ़ाने से समूचे बाल्टिक तट में उबाल आ गया। इस समय डांस्क में मजदूरों के बीच लेक वालेसा प्रमुख नेतृत्वकारी भूमिका में उभरे। डांस्क और लेनिन शिपयार्ड सरकार के विरोध के केंद्र बन गए। लेक वालेसा सुधार के हामी थे, लेकिन इस सुधार को हासिल करने के लिए उन्होंने अपने कुछ तरीके ईजाद किए। एक उदाहरण के तौर पर उन्होंने 20 हजार लोगों की भीड़ को एक नजदीकी जेल पर हमला करने से रोका। यह सब उस समय घटित हुआ जब पोलेंड की कम्युनिस्ट पार्टी के नेता लाडस्ला गोमुल्का ने पुलिस और सेना को शक्ति बरतने का आदेश दे दिया था। इसके नतीजे में सैकड़ों लोगों की जानें गईं थीं। लेक वालेसा को सैकड़ों और लोगों के साथ गिरफ्तार कर लिया गया और नजरबंदी में रखा गया।

1970 ई० के दंगों के बाद गोमुल्का की जगह एडवर्ड गिरेक ने ले ली। उसने विदेशी पूंजी के निवेश से पोलेंड के लोगों का जीवन स्तर सुधारने का वादा किया। गिरेक ने सौ करोड़ मूल्य की आधुनिक पूंजीगत चीजें जुटाईं, लेकिन इन्हें बर्बाद कर दिया गया और पोलेंड की आर्थिकी में इससे कोई अंतर नहीं आया।

इसी दौरान, क्रेको में केरोल कार्डिनाल बोयतिला मानव अधिकारों के एक सशक्त पैरोकार के रूप में उभरे और उन्होंने स्वतंत्र बौद्धिक जीवन की वकालत की। 1974 ई० में बोयतिला जॉन पाल द्वितीय बन गए। पोलेंड से बने पहले पोप के चलते पोलेंड में राष्ट्रीय गर्व की एक लहर फैल गई। पहले भी ऐसा हो चुका था जब कोई धार्मिक कार्य पोलेंड में देशभक्ति की भावना का कारण बन गया था।

राष्ट्रीय अर्थ संकट से डरकर, गिरेक ने बढ़ते मूल्यों को रोकने के लिए बजट प्रावधानों के प्रति कठोर रुख अपना लिया। वह सही भी था। जब उसने 1976 ई० में आखिरी बार कीमतों में वृद्धि की तो रेडोम और उर्सस ट्रेक्टर की फैक्ट्री में व्यापक उपद्रव हुए। इन्हें क्रूरता से कुचल दिया गया। इस दमन के प्रतिरोध में सामाजिक स्व-सुरक्षा समिति (के०ओ०आर०) का गठन हुआ जो सोलिडेरिटी की पूर्व पीठिका थी। इस संगठन में जेसेक कुरोन जैसे असहमति रखने वाले बुद्धिजीवियों और उन मजदूरों के बीच एक उल्लेखनीय जुड़ाव था, जिन्होंने आगे चलकर सोलिडेरिटी ट्रेड यूनियन की स्थापना की। सामाजिक स्व-सुरक्षा समिति (के०ओ०आर०) से प्रेरित होकर देश के विभिन्न हिस्सों में कई स्वतंत्र छोटी इकाइयां ओर अवैध ट्रेड यूनियनें बन गईं। लेक वालेसा ऐसी ही एक ट्रेड यूनियन से जुड़े थे। उन्हें गिरफ्तार कर लिया गया और कुछ समय के लिए जेल भेज दिया गया।

1976 ई० में अपनी गतिविधियों के कारण वालेसा को दुकान के सहायक की नौकरी से निकाल दिया गया। अब वह आजीविका के लिए छुटपुट काम करने लगे। 1978 ई० में उन्होंने कुछ दूसरे कार्यकर्ताओं के साथ एक स्वतंत्र गैर-कम्युनिस्ट ट्रेड यूनियन बनाने का काम शुरू किया और तटीय क्षेत्र की अनेक कार्यवाहियों में हिस्सा लिया। उन्हें लगातार राज्य सुरक्षा सेवा की निगरानी में रहना पड़ा और कई बार नजरबंदी में रखा गया।

अगस्त 1980 ई० में उन्होंने डांस्क शिपयार्ड में शुरू हुई हड़ताल का नेतृत्व किया, जो करीबन पूरे देश में फैल गई, जिसमें वालेसा एक नेता के रूप में उभरे। इसकी मुख्य मांगें कामगारों के अधिकार थे। अंत में अधिकारियों को वालेसा के सामने झुकना पड़ा और 31 अगस्त, 1980 ई० का डांस्क समझौता हुआ। इसमें कामगारों को हड़ताल करने और अपनी स्वतंत्र यूनियन बनाने का अधिकार मिला।

यदि कोई एक ऐसी घटना है जिसने सोलिडेरिटी ट्रेड यूनियन को उभरने के लिए मनोवैज्ञानिक माहौल प्रदान किया तो यह जून 1979 ई० में पोप जॉन पाल द्वितीय की अपने गृह राज्य पोलेंड की यात्रा है। पोप ने जिस क्षण वारसा एयरपोर्ट पर उतरकर अपनी मातृभूमि का चुंबन लिया, हजारों पोलेंड वासियों ने जबर्दस्त हर्षध्वनि से उनका स्वागत किया। जॉन पाल ने कभी पोलेंड की कम्युनिस्ट सत्ता की प्रत्यक्ष अलोचना नहीं की थी। उन्होंने अभी भी ऐसा नहीं किया। लेकिन उनका आशय बहुत स्पष्ट था : मनुष्य के इतिहास से जिसस क्राइस्ट का निर्वासन एक मनुष्य विरोधी कृत्य है-वारसा की एक विशाल जनसभा में उन्होंने कहा था। साम्यवाद के प्रति यह एक अप्रत्यक्ष संकेत था तथापि सिटी स्क्वायर की भारी भीड़ ने जोरशोर से इस पर अपनी सहमति का इजहार किया। उस दिन पोलेंड के लिए विशप ने कहा : पोलेंड की जनता ने भय के अवरोधक को ध्वस्त कर दिया है। उन्होंने मार्क्सवादी सत्ता के समक्ष चुनौती प्रस्तुत कर दी है।

सितंबर 1981 ई० में डांस्क में संपन्न पहली राष्ट्रीय सोलिडेरिटी कांग्रेस में लेक वालेसा सोलिडेरिटी के चेयरमेन चुने गए। दुनिया यह सब देख रही थी और आश्चर्यचकित थी कि सोवियत टैंक इस सबको ध्वस्त क्यों नहीं कर रहे हैं। वालेसा और उनके साथी आंदोलनकारी दृढृता से अपनी जमीन पर खड़े थे। युद्ध से पूर्व सैनिकों की तरह वे खुले शिपयार्ड पर प्रार्थनाएं और अन्य धार्मिक अनुष्ठान कर रहे थे। हिंसा के खतरे से बचने के लिए वालेसा ने वहां शराब को निषिद्ध कर दिया और कड़े अनुशासन पर जोर दिया। इन सबके साथ, उनके साहस और जीवंत हास्य ने मजदूरों में संघर्ष की भावना को बनाए रखने में मदद की।

धैर्य और दृढ़ता ने अपना परिणाम दर्शाया : सरकार ने श्रमिकों की लगभग सभी मांगों को मान लिया। यूनियन बनाने और हड़ताल करने के अधिकार के साथ, वारसा की सरकार ऐसी असाधारण रियायतें देने वाली पहली कम्युनिस्ट सत्ता थी जिसने राज्य की प्रसारण सेवाओं से न केवल सेंसरशिप हटा ली बल्कि इनका उपयोग यूनियन और चर्च के लिए भी खोल दिया। टेलिविजन के एक राष्ट्रीय कार्यक्रम में आंदोलनकारी और सरकार के प्रतिनिधियों के एक साथ खड़े होकर राष्ट्रगान का प्रस्तुतिकरण किया। वालेसा ने विख्यात डांस्क समझौते पर हस्ताक्षर किए। कैथालिक चर्च ने सोलिडेरिटी आंदोलन का समर्थन किया। जनवरी 1981 ई० में पोप जॉन पाल द्वितीय ने वालेसा को वेटिकन में आमंत्रित किया। वालेसा खुद सदैव कैथोलिक आस्था का सम्मान करते थे और अपने लिए इसे शक्ति और प्रेरणा के रूप में देखते थे। वेटिकन में वालेसा ने पोप के प्रति सम्मान व्यक्त किया और पोप ने उन्हें स्नेह से गले लगा लिया। यहां वालेसा ने पोप के साथ आधे घंटे निजी बैठक में वार्ता की। बाद में, पोप जॉन पाल द्वितीय ने सार्वजनिक रूप से सोलिडेरिटी के प्रति उत्साहपूर्वक समर्थन व्यक्त करते हुए वालेसा से कहा : मैं आपको आश्वस्त करना चाहता हूं, आपकी मुश्किलों के दौरान अपनी तरह से मैं तुम्हारे साथ रहूंगा। मैं आपकी सफलता के लिए प्रार्थनाएं करूंगा। उन्होंने घोषणा की कि मुक्त संगठन बनाना एक मूलभूत मानव अधिकार है। लेकिन, पोप ने वालेसा को आंदोलन का विनम्र रास्ता अपनाने के प्रति आगाह भी किया।

देशभर में श्रमिक लोग यूनियन की स्थानीय इकाइयों के सदस्य बनने लगे। वालेसा और उनके वरिष्ठ साथियों ने इस फैडरेशन के नेतृत्व का दायित्व संभाला। जल्दी ही यूनियन की सदस्यता एक करोड़ हो गई, जो पोलेंड की कुल आबादी का चौथा हिस्सा थी। अब वालेसा और सोलिडेरिटी के सामने मुख्य सांगठनिक समस्या इसकी नीति ओर रणनीति का सवालों का परिभाषित करना था। शुरू में, वालेसा का जोर था कि सोलिडेरिटी एक शुद्ध और साधारण श्रमिक आंदोलन रहे, ये राजनीतिक विपक्ष की भूमिका नहीं निभाए। डांस्क अपार्टमेंट की एक इमारत में सोलिडेरिटी का मुख्यालय स्थापित किया। यहां रिपोर्टरों की एक भीड़ को संबोधित करते हुए वालेसा ने कहा, राजनीति में मेरी रूचि नहीं है, मैं यूनियन का आदमी हूं। मेरा काम अभी यूनियन को संगठित करना है?

पोलेंड में सोलिडेरिटी के बढ़ते प्रभाव को देखते हुए कम्युनिस्ट पार्टी में सुधारों के लिए जमीनी स्तर पर धर्म-युद्ध शुरू किया, जो पार्टी के भीतर जनतांत्रिकीकरण के रूप में देखा जा रहा था। नवीनीकरण के श्रमिक नारे को अख्तियार करते हुए सुधारों के साथ नेतृत्व को पद और दायित्वों के प्रति अधिक जिम्मेदार बनाया गया। सितंबर 1980 ई० में गिरेक का स्थान स्टानिराला केनिया ने लिया। इस परंपरावादी राजनीतिक नेता ने नवीनीकरण को इस उम्मीद से लागू किया था कि शीर्ष से इसे नियंत्रित और सीमित किया जा सकेगा। साथ ही, उसने सोलिडेरिटी से किसी संभावित टकराहट को टालते हुए सहयोग बनाए रखा।

पोलेंड में दशकों से छह कार्य दिवसों का सप्ताह था। 31 जनवरी, 1981 ई० को पांच कार्य दिवस के सप्ताह की अनुमति मिली। लेकिन इससे देश का आर्थिक संकट और बढ़ गया क्योंकि उत्पादकता पर इसका विपरीत असर पड़ा। कोयला खदानों का उत्पादन 1981 ई० में 10 प्रतिशत घट गया। साथ ही देश भर में स्थानीय मुद्दों पर हड़तालों की बाढ़ आ गई। कुछ मामलों में सोलिडेरिटी की इकाइयां भ्रष्ट अधिकारियों को बदलने और पार्टी की इमारतों में सार्वजनिक अस्पताल खोलने जैसी मांगों को लेकर आंदोलन चला रही थीं। वालेसा के बढ़ते प्रभाव का डर अब कम्युनिस्ट अधिकारियों को महसूस होने लगा था।

पोलेंड के बढ़ते आर्थिक संकट ने भी सोवियत प्रभाव-क्षेत्र को मुश्किल में डाल दिया था क्योंकि इसके सदस्य देशों की आर्थिकी परस्पर संबद्ध थी। मास्को के लिए सबसे चिंता की बात यह थी कि पोलेंड की बीमारी पूर्वी यूरोप के देशों और उक्रेन में फैल सकती है, जो सोवियत साम्राज्य के भविष्य के लिए खतरा होती।

18 अक्टूबर, 1981 ई० को कम्युनिस्ट पार्टी की केंद्रीय समिति ने कोनिया का त्यागपत्र स्वीकार कर लिया और जनरल जेरूजेस्की ने उनकी जगह ले ली। जेरूजेस्की पार्टी और सेना के मुखिया के तौर पर सर्वोच्च शक्ति केंद्र बन गए। अभी तक सैन्य तंत्र पर नागरिक पार्टी का नियंत्रण था लेकिन अब स्थिति उलट गई।

जेरूजेस्की ने राष्ट्रीय एकता की अपील की। उन्होंने सोलिडेरिटी और चर्च को पार्टी के साथ मिलकर एक राष्ट्रीय सहमति मंच बनाने का आमंत्रण दिया ताकि अर्थव्यवस्था की बहाली में सहयोग मिल सके। इससे पोल नागरिकों में यह आशा बंधी कि राजनीतिक तंत्र में वे जिस अहम तत्त्व को तीन दशकों से खोए हुए थे उसे फिर से पा सकते हैं, वह थी सच्ची सामाजिक भावना।

तब 12 दिसंबर, 1981 ई० को सोलिडेरिटी के नेताओं ने जेरूजेस्की को ये बताया कि कुल मिलाकर वे क्या सोच रहे हैं। शुरू से ही, पोलेंड की सरकार ओर क्रेमलिन ने यह साफ कर दिया था कि वे एक कम्युनिस्ट राज्य के रूप में पोलेंड के अस्तित्व और सोवियत संघ से उसके समझौतों को लेकर किसी परिवर्तन को बिल्कुल सहन नहीं कर सकते। इसी को ध्यान में रखकर डांस्क की बैठक में सोलिडेरिटी नेतृत्व ने अपनी राय व्यक्त की। एक तनावभरी चुप्पी के बाद वालेसा ने कम्युनिस्ट सरकार और सोवियत संघ से पोलेंड की सैनिक संधि को लेकर राष्ट्रीय जनमत संग्रह की मांग की।

सरकार के लिए देश में मार्शल ला लगाने के लिए यह पर्याप्त आधार था। सत्र की समाप्ति पर जबकि पोलेंड का संपर्क बाहरी दुनिया से कट चुका था, वालेसा निराशा व्यक्त करते हुए उठे और अपने साथियों से गुस्से से बोले, अब तुमने वह पा लिया है जिसका तुम इंतजार कर रहे थे।

अंत आ चुका था। कुछ ही घंटों में प्रमुख यूनियन नेता गिरफ्तार हो चुके थे। वालेसा वारसा चले गए थे। सेना के वाहन देश भर में दौड़ रहे थे। इसी समय जेरूजेस्की ने टेलिविजन पर घोषणा की कि सोलिडेरिटी के आंदोलन को प्रतिबंधित किया जा चुका है। कोई नहीं जानता था कि लोगों को आजादी देने की वारसा के नेताओं की प्रतिज्ञा अब कब पुनर्स्थापित होगी। लेकिन एक चीज तय थी, जो चिनगारी अगस्त 1980 ई० में प्रज्वलित हुई थी, उसने पूरे पोलेंड को रोशन कर दिया था, इसे पोलेंड की जनता आसानी से छोड़ने वाली नहीं थी। मार्शल पिल्सुदस्की के शब्दों में, पराजित होना और समर्पण नहीं करना ही विजय है।

यदि जनरल जेरूजेस्की ने यह नहीं किया होता तो निश्चित रूप से सोवियत सेना यह करती। वारसा में सोवियत उच्च अधिकारियों की उपस्थिति, जिनमें मार्शल विक्टर कुलिकोव भी शामिल थे, इस योजना में सोवियत दखल की गवाही दे रही थी। एक साल से अधिक समय में, क्रेमलिन ने यह स्पष्ट कर दिया कि ऐसे किसी ट्रेड यूनियन आंदोलन को सहन नहीं किया जा सकता जो कम्युनिस्ट सत्ता को ही चुनौती दे। सोलिडेरिटी जैसी आंदोलन कही जाने वाली कार्यवाही को सत्ता की सहमति से परिचालित होना चाहिए।

नवंबर 1982 ई० में वालेसा को रिहा किया गया और वे डांस्क शिपयार्ड पर वापस आ गए। हालांकि अभी भी वे नजरबंदी में थे। इसके बावजूद उन्होंने भूमिगत सोलिडेरिटी नेताओं से जीवंत संपर्क बना लिए। जब जुलाई, 1983 ई० में मार्शल ला समाप्त हुआ, तो भी नागरिक स्वतंत्रता को बाधित करने वाले कई प्रतिबंध लागू रहे। अक्टूबर 1983 ई० में वालेसा को शांति के लिए नोबेल पुरस्कार की घोषणा ने भूमिगत सोलिडेरिटी नेताओं में नए उत्साह का संचार कर दिया। लेकिन इस पुरस्कार की राष्ट्रीय प्रेस ने तीखी आलोचना की।

आने वाले वर्षों में जैसे-जैसे पोलेंड की अर्थव्यवस्था जर्जर होती गई, वैसे-वैसे जेरूजेस्की की अलोकप्रियता बढ़ती गई। मिर्खाइल गोर्बाचोव का सोवियत नेतृत्व सैनिक शक्ति के आधार पर दूरस्थ राष्ट्रों पर अपना आधिपत्य बनाए रखने के पक्ष में नहीं था। इससे पोलेंड की कम्युनिस्ट पार्टी को वालेसा और सोलिडेरिटी के उनके साथियों से एक बार फिर बात करने के लिए बाध्य होना पड़ा। इसकी परिणति सितंबर 1989 ई० के संसदीय चुनावों के रूप में हुई जिसमें सोलिडेरिटी के नेतृत्व में बनी सरकार अस्तित्व में आई। अब वालेसा पुनर्गठित सोलिडेरिटी श्रमिक यूनियन के मुखिया थे। उन्होंने विश्व के नेताओं के साथ कई बैठकें कीं। मार्कस डि लाफायेत और विंस्टन चर्चिल के बाद वे ऐसे तीसरे व्यक्ति थे जिन्होंने संयुक्त राज्य अमेरिका की कांग्रेस के संयुक्त सत्र को नवंबर 1989 ई० में संबोधित किया था।

अप्रैल 1990 ई० में सोलिडेरिटी की दूसरी कांग्रेस हुई। वालेसा 77.5 प्रतिशत मतों से इसके अध्यक्ष चुने गए। दिसंबर 1990 ई० में हुए आम चुनाव में वे पोलेंड गणराज्य के प्रेसीडेंट चुने गए। इस पद पर वे नवंबर 1995 ई० के चुनावों में पराजित होने तक बने रहे।

वालेसा को कई विश्वविद्यालयों ने मानद उपाधियां प्रदान कीं, इनमें हावर्ड और पेरिस विश्वविद्यालय शामिल हैं। उन्हें मिले सम्मानों में स्वतंत्रता पदक (मेडल ऑफ फ्रीडम, फिलाडेल्फिया यू०एस०ए०) मुक्त दुनिया पुरस्कार (फ्री वर्ल्ड अवार्ड, नार्वे), और मानव अधिकारों के लिए यूरोपियन अवार्ड प्रमुख हैं।

- डॉ० राजाराम भादू

विकास का अधिकार : विकास को एक बुनियादी मानवाधिकार माना गया है। संयुक्त राष्ट्र महासभा ने दिसंबर, 1986 में विकास के अधिकार का घोषणापत्र स्वीकार करते हुए उसे एक ऐसा अधिकार माना था जिससे किसी भी व्यक्ति या समूह को वंचित नहीं किया जा सकता। उसी घोषणापत्र के अनुच्छेद-दो में यह कहा गया था कि विकास का केंद्रीय विषय मानव है और वह विकास की प्रक्रिया का सक्रिय सहभागी और उसके लाभों का भोक्ता होना चाहिए। यही बात व्यक्तियों के विशिष्ट समूहों पर भी लागू होती है। जिसका सीधा तात्पर्य यह है कि किसी भी समूह की कीमत पर किसी भी दूसरे समूह का विकास वास्तविक अर्थात् ऐसा विकास नहीं कहा जा सकता जिसका केंद्रीय विषय मानव है। यही नहीं, मानव की भावी पीढ़ियों के हित को भी विकास की प्रक्रिया में समाहित करना होगा क्योंकि यदि विकास के नाम पर उनके अधिकारों का अतिक्रमण होता है तो इसे उनके साथ अन्याय समझा जाना चाहिए। इस अवधारणा को इंटरजेनेरेशनल जस्टिस-सनातन न्याय-कहा जाता है।

इसलिए यह तो तय है कि यदि राज्य विकास के लिए कार्यक्रम बनाता और लागू करता है तो वह मानवाधिकारों की अपेक्षा पर खरा उतरने का दावा कर सकता है, जैसा कि वह अकसर करता भी है। यह भी तय है कि विकास की कुछ कीमत भी देनी होती है। लेकिन तब मुख्य सवाल यह हो जाता है कि वह कीमत कौन दे रहा है? क्या यह कीमत वह समूह चुका रहा है जिसे उसका लाभ मिलने वाला है अथवा वह, जिसकी कीमत पर किसी दूसरे समूह को लाभ मिलेगा?

कहा जा सकता है कि पूरा समाज या कि राष्ट्र अपने में एक समूह है और विकास के लाभ पूरे देश के लाभ होने के कारण अंततः सभी के लाभ माने जाने चाहिए। लेकिन कोई भी समाज या राष्ट्र कई प्रकार के समूहों का समुदाय या संघ होता है और यदि उनमें से किसी एक के अधिकारों या हितों की अन्य द्वारा अनदेखी होती है, तो ऐसा करना प्रकारांतर से उस विशिष्ट समूह को राष्ट्र से बाहर मान लेना है। अपने अधिकारों के अतिक्रमण के परिणामस्वरुप किसी समूह का अलगाववादी होना या अन्य समूहों के अन्याय का विरोध करना आदि तो बाद की बातें हैं। पहली बात तो यही है कि अतिक्रमण करने वाले समूहों ने-जिनका प्रतिनिधित्व राज्य करता है-उसे मानसिक स्तर पर अपने से अलग मान लिया है। बहुमत समूहों द्वारा संचालित-नियंत्रित होने के कारण राज्य उनके हितों के प्रवक्ता और रक्षक के रुप में किसी एक समूह के साथ अन्याय कर सकता है। किसी भी व्यक्ति या समूह के साथ ऐसा अन्याय न हो सके, इसी दृष्टि से संविधानों में मौलिक अधिकारों और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर मानवाधिकारों की संकल्पना की जाती है। यह संकल्पना इसलिए भी जरूरी है कि कमजोर समूहों पर ऐसे अत्याचार किए जाते रहे हैं क्योंकि राज्य सभी के हितों के नाम पर अक्सर उन्हीं के साथ अन्याय करता है।

हमारे यहां-और हमारे यहां ही क्यों, अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी-विकास के नाम पर आदिवासी समूहों के साथ अन्याय ही होता रहा है। क्या इस विडंबना की ओर वैश्वीकरण के हामी नीति-निर्माताओं का ध्यान कभी गया है कि बढ़ती जनसंख्या से परेशान दुनिया में कई आदिवासी समूह लगभग नष्ट होने के कगार पर क्यों हैं?

यह भी एक विडंबना ही है कि मानवा-धिकारवादियों ने भी प्रारंभ में आदिवासियों के अधिकारों की तरफ कोई ध्यान नहीं दिया था और इसी कारण मानवाधिकारों की संयुक्त राष्ट्र की घोषणा में उनका कोई उल्लेख नहीं मिलता। लेकिन बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध में कथित विकास की प्रकिया में आदिवासियों के हितों पर किए गए कुठाराघातों ने ही मानवाधिकारवादियों को इस दिशा में सचेष्ट किया। हमारे यहां भी बड़े बांधों और जंगलों की अंधाधुंध कटाई और वनोपज पर राज्य के अधिकार की बढ़ती प्रवृत्ति के कारण जब आदिवासियों का जीना-रहना दूभर होने लगा तो कुछ मानवा-धिकारवादी उनके लिए आवाज उठाने लगे हैं-यद्यपि अभी राज्य अथवा राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग आदिवासियों के सामूहिक अधिकारों के प्रति लगभग उदासीन हैं-बल्कि यह राज्य ही है जो उनके अधिकारों का अतिक्रमण करता जा रहा है।

यह उल्लेखनीय है कि पर्यावरण और विकास पर केंद्रित संयुक्त राष्ट्र सम्मेलन में यह तथ्य स्वीकार किया गया था कि वैश्विक पर्यावरण की चुनौतियों का सामना करने के लिए आदिवासी समूहों और उनके पारंपरिक ज्ञान की अत्यंत महत्त्वपूर्ण भूमिका है। इसलिए विकास की किसी भी प्रक्रिया-विशेषतया उनके प्रदेशों से संबंधित विकास प्रक्रिया-में इन समूहों की सक्रिय भागीदारी को सुनिश्चित किया जाना चाहिए। इसी के साथ, यह भी स्मरणीय है कि विकास की वित्ताधारित रणनीतियों की असफलता को स्वीकार करते हुए स्वयं संयुक्त राष्ट्र के अंतरराष्ट्रीय आर्थिक सहयोग के घोषणापत्र और सामाजिक विकास के विश्व सम्मेलन में यह बात उभरकर आ गई है कि स्थानीय समूहों की सक्रिय सहभागिता के बिना विकास संभव नहीं है।

यही कारण है कि आज न केवल विकास की परिभाषा बदल गई है और सकल राष्ट्रीय उत्पाद या सकल राष्ट्रीय आय के बजाय सकल राष्ट्रीय कल्याण-जीएनडब्ल्यू-को विकास की कसौटी माना जाने लगा है-यद्यपि हमारे नीति-निर्माता अब भी विकास की बात करते हुए राष्ट्रीय उत्पादन या आय की कसौटी वाली भाषा का ही इस्तेमाल कर रहे हैं। इसका कारण यह हो सकता है कि जहां संयुक्त राष्ट्र विश्व-कल्याण की भाषा में सोचता है, वहीं विश्व बैंक जैसी संस्थाएं उत्पादन या आय की भाषा में सोचती हैं और जाहिर है कि हमारे नीति-निर्माता विश्व बैंक के प्रभाव में दिखाई देते हैं-संयुक्त राष्ट्र की मानव-कल्याण वाली दृष्टि के प्रभाव से बिल्कुल अछूते। इसी कारण वे आदिवासियों के हितों को मुआवजे की आर्थिकी से परखते हैं, संयुक्त राष्ट्र की नैतिक आर्थिकी से नहीं।

संयुक्त राष्ट्र के अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन द्वारा नब्बे के दशक के अंत में आदिवासी समूहों के हितों पर विचार के लिए आयोजित सम्मेलन में यह बात स्वीकार की गई थी कि आदिवासियों के जीवन को प्रभावित करने वाले कार्यक्रमों को बनाने और लागू करने में उन समूहों की स्वीकृति ली जानी चाहिए और राज्य को उनके और अन्य नागरिकों के बीच भेद को स्वीकार करते हुए उनके लिए कार्यक्रम बनाकर हुए इस भेद का सम्मान करना चाहिए। इस सम्मेलन में यह बात उभर कर आई और स्वीकार की गई थी कि आदिवासी समूहों को अपने और अपनी पारंपरिक भूमि के विकास में संभव सीमा तक नियंत्रण का अधिकार होना चाहिए। इसका एक तात्पर्य यह भी है कि उन्हें अपने इलाके में आंतरिक स्वायत्तता का अधिकार भी मान्य है। सरकारों से इस दिशा में सक्रिय कदम उठाने की अपेक्षा भी की गई थी।

यह उल्लेखनीय है कि इस अपेक्षा के अनुरूप निकारागुआ और पनामा जैसे देशों में ही नहीं, वर्तमान भारतीय अर्थनीतियों के आदर्श नियंता अमेरिका, कनाडा, डेनमार्क आदि देशों में भी आदिवासियों की स्वायत्तता के प्रयोग हुए हैं और उनके परिणाम आश्चर्यजनक रुप से लाभदायक सिद्ध हो रहे हैं। रियो डि जेनेरियो के सम्मेलन में भी प्राकृतिक संसाधनों के प्रबंधन में आदिवासी समूहों की भूमिका को स्वीकार किया गया था।

स्पष्ट है कि वित्ताधारित विकास के लिए यदि कोई राज्य मानवीय विकास और कल्याण की उपेक्षा या दमन करता है तो वह राज्य होने का नैतिक अधिकार खो देता है। राज्य केवल संवैधानिक संस्था नहीं है, वह प्रथमतः एक नैतिक संस्था है क्योंकि स्वयं संविधान एक नैतिक दस्तावेज ही हो सकता है। यदि राज्य संविधान-प्रदत्त अधिकारों की ऐसी व्याख्या या प्रयोग करता है जो नैतिकता के सनातन या कम-से-कम अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्वीकृत प्रतिमानों की दृष्टि से अन्यायपूर्ण हो तो ऐसे राज्य के विरोध को अनैतिक नहीं कहा जा सकता-बल्कि ऐसी स्थिति में यह विरोध एक नैतिक कर्त्तव्य हो जाता है। उल्लेखनीय है कि कोई यदि चाहे तो अपने अधिकारों को स्वेच्छापूर्वक छोड़ सकता है, लेकिन कर्त्तव्य से कोई छुटकारा नहीं है। यह बात केवल व्यक्ति या समूहों पर नहीं, मनुष्यों द्वारा निर्मित सभी संस्थाओं पर भी लागू होती है-और राज्य भी इसका अपवाद नहीं है।

राज्य यदि एक नैतिक शक्ति है तो उसे अपने व्यवहार से नैतिकता को अर्जित करना होगा। कानून राज्य की रचना है, लेकिन नैतिकता को उसे कमाना होता है-तभी वह अपने अस्तित्व का नैतिक औचित्य सिद्ध कर सकता है। विकास के नाम पर आदिवासी समूहों या कहें कि किसी भी इलाके के ऐसे निवासियों को उस भूमि से बेदखल कर देना, जहां वे हमेशा से रहते आए हैं, विकास के संयुक्त राष्ट्र के प्रतिमानों के आधार पर भी एक अनैतिक और हिंसक कर्म है-चाहे ऐसा करने का उसका कानूनी अधिकार मान भी लिया जाए-और किसी लोकतांत्रिक राज्य के अनैतिक और हिंसक होने का तात्पर्य यह है कि तब वह औपचारिक रुप से लोकतंत्र रहते हुए भी वस्तुतः एक सैनिक राज्य में तब्दील हो रहा है।

- नंदकिशोर आचार्य

विकासात्मक प्रकृति का प्रत्यय : वैज्ञानिक दृष्टि यह मानती है कि प्रकृति से उद्भूत और उसका अंग होने के नाते प्रकृति का नियम (लॉ ऑफ नेचर) मनुष्य और उसके व्यवहार पर भी लागू होता है और उसी को आधार बनाकर वह सही दिशा में अपने जीवन की प्रगति कर सकता है। इस आधार पर विभिन्न दार्शनिक प्रणालियों ने प्राकृतिक विज्ञानों द्वारा अन्वेषित प्रकृति के नियमों की दार्शनिक व्याख्याएं की हैं। श्री अरविंद भी ऐसे प्रमुख आधुनिक भारतीय दार्शनिक हैं, जो विकासवादी सिद्धांत की व्याख्या प्रकृति के विकासात्मक प्रत्यय के रूप में करते हैं। उनका कहना है कि प्रकृति कोई स्थिर वस्तु नहीं है। वह सदैव गत्यात्मक और विकासशील है। लेकिन, इस गत्यात्मकता में कुछ ऐसे सनातन सत्य या सिद्धांत अंतर्निहित हैं, जिनके आधार पर ही मनुष्य जाति का पूर्णता की ओर विकास हो सकता है। इस नियम के प्रतिकूल जाने पर असमाप्य अराजकता फैल सकती है।

अपनी प्रारंभिक स्थिति में जीवन के बारे में मानवीय विचार आवश्यकताओं, कामनाओं और हितों के रूप में प्रकट जीवन की प्रवृत्तियों और शक्तियों के मानसिक रूपांतर होते हैं। मानव बुद्धि अपने अनुभव के आधार पर इन्हें समझकर अपने प्राथमिकता-क्रम के अनुसार खारिज या स्वीकार करते हुए इन्हें उच्चावच क्रम में रखती है। लेकिन, इस आधार पर जीवन के बारे में मनुष्य के विचार एक दूसरे परिष्कृत स्तर को प्राप्त करते हैं, जहां वह उनका अध्ययन प्रकृति के स्थिर नियमों और प्रक्रियाओं के रूप में करता है-और उनके आधार पर जीवन का रूप-निर्धारण करता है। लेकिन, जीवन के नियमों के इस निर्धारण में इस बात पर ध्यान देना जरूरी हो जाता है कि हम क्योंकि अपूर्ण और विकासशील अस्तित्व हैं, इसलिए इन नियमों की भी दो कोटियां हो जाती हैं : हमारी वर्तमान वास्तविकता का नियम और हमारी संभावना का नियम।

प्रकृति और जीवन का विकासात्मक प्रत्यय हमें एक गूढ़तर प्रत्यय तक ले आता है। क्या है और क्या हो सकता है दोनों ही अस्तित्व और प्रकृति की इन शक्तियों के कुछ स्थिर तथ्यों की अभिव्यक्ति हैं और संपूर्ण जीवन प्रकृति का अपने को नष्ट या निषेध करना न होकर उसकी पूर्णता होने के कारण हम उन तथ्यों से विलग नहीं हो सकते। हमारी वास्तविकता हमारे जीवन के आज तक के विकास के स्तर की अभिव्यक्ति है; लेकिन हमारी संभावना नए रूपों का संकेत करती है। वास्तविकता और संभावना के बीच हमारी बुद्धि वर्तमान नियमों और रूपों को ही हमारी प्रकृति और अस्तित्व के सनातन नियम मानकर उससे किसी परिवर्तन को विचलन या पतन मान लेती है; या इसके विपरीत किसी भविष्य और संभाव्य नियम को सनातन आदर्श मानकर उससे हमारे विचलन को हमारी प्रकृति की गलती या पाप मान लेती है। वास्तव में, सनातन वही है जो सभी परिवर्तनों के बीच स्थिर रहता है और हमारा आदर्श उसकी प्रगत्यात्मक अभिव्यक्ति से अधिक कुछ नहीं हो सकता।

श्री अरविंद कहते हैं कि प्रकृति जीवन को तीन तरह से रचती है : वंश (जीनस), जाति और व्यक्ति। प्राणी-जगत में यह विभाजन बना रहता है; लेकिन, मानव जाति में प्रकृति इन विभाजनों का अतिक्रमण कर पूरी जाति में एकता और एकत्व के बोध के लिए निर्देशित करती है। मानव-समुदाय, एक ही वंश या जाति की सहज सामूहिकता के अलावा, स्थानीयता, हित-साधन और विचारों के आधार पर भी संगठित होते हैं और ये सीमाएं भी जातियों, राष्ट्रों, हितों, विचारों और संस्कृतियों के पारस्परिक संगमन से टूट जाती हैं। तब भी, इस अलगाव के टूट जाने पर भी उनका तथ्यात्मक अस्तित्व बना रहता है क्योंकि वे प्रकृति के एक आधारभूत नियम-एकता में विविधता-पर आधारित होते हैं। इसका तात्पर्य है कि प्रकृति का आदर्श या अंतिम लक्ष्य प्रत्येक व्यक्ति और सभी व्यक्तियों के संपूर्ण सामर्थ्य का पूर्ण परितोष तक विकास है; अर्थात् सभी व्यक्तियों, और समुदायों के बहुआयामी विकास के साथ ऐसे एकत्व का बोध जिसमें किसी व्यक्ति या छोटे समुदाय का दमन न हो-बल्कि उसकी भिन्नता का पूरा लाभ पूरी मानवता को मिले। श्री अरविंद की मान्यता है कि प्रकृति के इस नियम से संचालित न होने के कारण हमारे जीवन में परस्पर संघर्ष, विचारों, भावनाओं और हितों का विरोध तथा कई प्रकार के युद्धों या एक प्रकार की बौद्धिक, या भौतिक लूट अथवा चोरी-यहां तक कि दमन पर विनाश आदि द्वारा अपना हित साधने का प्रचलन दिखाई देता है। मानव-जाति जानती है कि उसे इस प्रवृत्ति का अतिक्रमण करना है, लेकिन अभी तक या तो वह इसके सही उपाय नहीं तलाश सकी है या उन्हें लागू करने का सामर्थ्य विकसित नहीं कर पाई है। इसलिए वह व्यक्ति को समूह की मजबूत अधीनता में डाल देने और समूहों के द्वंद्व से बचने के लिए उन्हें पूरी मानव-जाति के संगठन की कठोर अधीनता में ले आने की ओर उन्मुख दीखती है।

लेकिन, श्री अरविंद के अनुसार, स्वतंत्रता उतनी ही आवश्यक है जितना कानून और व्यवस्था; हमारी पूर्णता के लिए वैविध्य का सम्मान भी आवश्यक है और एकता का भी। चरम एकरूपता जीवन का रुक जाना है, जबकि जीवन के स्पंदन की ताकत उस संपन्नता से मापी जानी चाहिए जो उसके वैविध्य से आती है। अस्तित्व सारतः और समग्रतः एक है, पर अपनी लीला में विविध। हमें एकता तो चाहिए, एकरूपता नहीं। मनुष्य की जीवन-शक्ति विविधता की मांग करती है; लेकिन, उसकी बुद्धि एकरूपता की। वह एकरूपता को वरीयता देती है क्योंकि इससे एकत्व के वास्तविक बोध के लिए कड़े प्रयत्न करने के बजाय एकता का सरल भ्रम पैदा होता है। दूसरे, एकरूपता से कानून-व्यवस्था और सांगठनिक अनुशासन का मुश्किल काम सरल हो जाता है।

लेकिन, प्रकृति का वास्तविक नियम विविधता को बल देने वाली एकता है। उसका यह गुप्त संदेश इसी बात से उजागर है कि एक ही नियम से संचालित होने के बावजूद उसका आग्रह अनंत वैविध्य या भिन्नता पर है। उसकी मानव-योजना एक है, लेकिन कोई भी दो मनुष्य अपनी बनावट में बिल्कुल समान नहीं होते। मानव-प्रकृति मोटे तौर पर समान है; लेकिन, किन्हीं भी दो मनुष्यों का स्वभाव, चारित्रिकताएं और मनोवैज्ञानिक भाव एक सरीखे नहीं होते। जीवन अपनी आधारभूत योजना और सिद्धांत में एक है; यहां तक कि वनस्पति भी पशु की मान्य कुटुंबी है-लेकिन, जीवन की यह एकता अनंत विविधताओं को स्वीकार और प्रोत्साहित करती है। व्यक्तियों के समान प्रत्येक मानव-समुदाय भी अपनी विशिष्ट चारित्रिकता, रूपभेद सिद्धांत और प्राकृतिक विधि विकसित करते हैं। यह भिन्न चारित्रिकता और सिद्धांत न केवल उसके जीवन के लिए, बल्कि मानव-जाति के पूरे जीवन के लिए अनिवार्य है क्योंकि विविधता का सिद्धांत स्वतंत्र अंतस्संबंधों में बाधा नहीं है, वह जीवन की समग्रता के विरोध में नहीं जाता; बल्कि एक सुरक्षित विशिष्टता के बिना स्वतंत्र अंतस्संबंध और पारस्परिक समंजसता संभव ही नहीं रहते। श्री अरविंद के अनुसार, एकता और विविधता के बीच इस संगति में ही जीवन का रहस्य अंतनिर्हित है। प्रकृति अपने सभी कार्यों में एकता और वैविध्य पर समान बल देती है। यह भी ध्यातव्य है कि प्रकृति कोई नियम ऊपर से नहीं थोपती। वह जीवन को अंदर से विकसित करती है और परिवेश के अनुसार अपने नियम को संशोधित करती हुई उसका आग्रह करती है। अस्तित्व के इसी नियम के आधार पर वैयक्तिक, राष्ट्रीय, धार्मिक, सामाजिक और नैतिक स्वतंत्रता अवलंबित है। स्वतंत्रता का आशय है हमारे अस्तित्व के नियम की स्वीकृति, अपने प्राकृतिक आत्म-परितोष की उपलब्धि, अपने परिवेश के साथ अपनी सहज और स्वतंत्र संगति। कभी-कभी व्यवस्था के लिए कुछ आरोपण आवश्यक हो सकते हैं; लेकिन, उन्हें दूर तक खींचना प्राकृतिक विकास के सिद्धांत को निरुत्साहित और वास्तविक विकास के सामर्थ्य को नष्ट करना है। श्री अरविंद के अनुसार, मानव-समाज उसी हद तक वास्तविक विकास कर पाता है, जिस हद तक उसके कानून स्वतंत्रता की संतान होते हैं; वह अपनी पूर्णता को तभी पहुंच सकता है, जब मनुष्य अन्य मनुष्यों के साथ आध्यात्मिक स्तर पर एकत्व का बोध कर सके ओर उसके समाज का स्वतः स्फूर्त नियम उसके आत्मानुशासित आंतरिक स्वातंत्र्य का बाह्य रूप हो। श्री अरविंद का विकासात्मक प्रकृति का प्रत्यय और महात्मा गांधी का स्वराज-प्रत्यय यहां एक दूसरे के साथ हो जाते हैं।

- नंदकिशोर आचार्य

विकासात्मक शक्ति : द्रष्टव्य : मैक्सफर्सन, सी०बी०।

विनोबा : (11 सितंबर 1895 - 15 नवंबर 1982 ई०) विनोबा का मूल नाम विनायक नरहरि भावे है। विनोबा नाम उन्हें गांधीजी से मिला। उनके पूर्वज महाराष्ट्र के कोंकण विभाग के थे। विनोबा का जन्म कोंकण के कुलाबा जिले के छोटे से गांव गागोदे में एक ब्राह्मण परिवार में 11 सितंबर 1895 ई० को हुआ। माता रुक्मिणी तथा पिता नरहरि से उत्पन्न 3 बालक तथा एक बालिका में विनोबा ज्येष्ठ संतान थे। परिवार का वातावरण अत्यंत धार्मिक था। मां व्रत त्यौहार, दैनिक पूजा करने वाली परम भक्त हृदया थीं तो पिता विनोबा के शब्दों में ही योगी थे, गणितज्ञ थे, शास्त्रज्ञ थे। वे रसायनशास्त्री थे तथा रंगों के विविध प्रयोग करते रहते थे। विनोबा के घर का वातावरण धार्मिक और संस्कारमय था।

विनोबा पर उनकी मां का गहरा प्रभाव था। उन्ही के शब्दों में गीता, मां और तकली-मेरे जीवन की त्रिमूर्ति है। आचार धर्म की शिक्षा बचपन में विनोबा को मां से मिली। विनोबा ने गीता का मराठी में समश्लोकी भावानुवाद गीताई नाम से किया है। उसकी प्रेरणा भी उन्हें माता से ही प्राप्त हुई थी। गीताई मराठी साहित्य को विनोबा की महत्त्वपूर्ण देन है। बाबा को भूल जाओ, गीताई को याद रखो। ऐसा विनोबा ने कहा है।

विनोबा की औपचारिक शिक्षा अर्थात् स्कूल की शिक्षा लगभग 11 वर्ष तक बड़ौदा में हुई। इंटर तक की पढ़ाई उन्होंने की किंतु इंटर की परीक्षा नहीं दी। उन्हें इस प्रकार की शिक्षा, परीक्षा, उनसे मिलने वाली डिग्री इत्यादि से एक प्रकार की अरुचि ही रही। इसी कारण उन्होंने अपने मैट्रिक आदि के सारे सर्टिफिकेट तरुणावस्था में ही जला दिए। इंटर की परीक्षा देने के लिए उन दिनों मुंबई जाना पड़ता था। वे बड़ौदा से मुंबई जाने के लिए घर से निकले जरुर, किंतु बीच में ही सूरत स्टेशन पर उतर गए तथा वहां से काशी पहुंच गए। काशी पहुंचने पर पिताजी को तद्नुसार सूचित कर दिया। काशी का आकर्षण दो कारणों से था-एक तो यह कि काशी को ज्ञान का भंडार माना जाता था तथा दूसरा यह कि काशी से हिमालय (ऋषि मुनियों की भूमि) और बंगाल (क्रांतिकारियों की भूमि) दोनों के रास्ते थे। जिस दिन विनोबा ने काशी जाने के लिए गृहत्याग किया वह दिन था 25 मार्च 1916 ई० (25 मार्च ब्रह्मविद्या मंदिर नामक उनके द्वारा स्थापित पवनार स्थित आश्रम का भी स्थापना दिवस है)।

ब्रह्मसाक्षात्कार की जिज्ञासा लेकर गृहत्याग करने वाले इस मुमुक्षु का काशीवास लगभग दो माह तथा कुछ दिन ही रहा। काशी से निकलकर विनोबा, गांधी के अहमदाबाद स्थित सत्याग्रह आश्रम बापू के बुलाने पर आध्यात्मिक जिज्ञासा के निरसन के लिए पहुंच गए। वह दिन था 7 जून 1916 ई०। उन्हें गांधीजी में हिमालय की शांति और बंगाल की क्रांति दोनों मिली। विनोबा मानते थे कि वे बापू के द्वारा गढ़े गए अन्यथा तो मैं स्वभाव से एक जंगली जानवर जैसा रहा हूं। बापू के साथ रहकर उन्हें सेवा की लगन लगी तथा सेवा को भगवान की पूजा और जनता को अपना स्वामी समझने की दीक्षा मिली। विनोबा बापू पर जिस कारण मुग्ध हो गए वह था बापू की आंतर्बाह्य एकता। बापू के पास रहकर उन्हें यह भी दृष्टि मिली कि जीवन एकरस और अखंड है। लगभग 5 वर्ष सत्याग्रह आश्रम अहमदाबाद में बिताए। जमनालालजी बजाज के आग्रह पर बापू ने उन्हें वर्धा में सत्याग्रह आश्रम की शाखा की स्थापना के लिए वर्धा भेजा। तद्नुसार वे 8 अप्रैल 1921 ई० को वर्धा पहुंचे।

सन 1921 ई० से 1951 ई० तक का विनोबा का जीवन-अपरिहार्य जेलयात्रा छोड़कर-विधायक और रचनात्मक कार्य में ही बीता। शिक्षण, अध्ययन, अध्यापन, ध्यान, चिंतन, निरीक्षण इत्यादि कार्यों में उन्होंने अपने आप को डुबा लिया। 1940 ई० में व्यक्तिगत सत्याग्रह के समय जब गांधीजी ने प्रथम सत्याग्रही के रुप में उनके नाम की घोषणा की, तब तक एक प्रकार से विनोबा देशवासियों के लिए अपरिचित व्यक्ति ही थे। यहां तक कि गांधीजी को विनोबा कौन है? शीर्षक से उनका परिचय भी प्रकाशित करना पड़ा। इन तीस वर्षों में विनोबा ने दो आने आहार योजना अर्थात्, दो आने में रोज का गुजारा करना, नागपुर का 1923 ई० का झंडा सत्याग्रह, 1925 ई० में वायकोम (केरल) का मंदिर-प्रवेश सत्याग्रह इत्यादि काम किए। ग्राम-सेवा मंडल गोपुरी, वर्धा की स्थापना द्वारा ग्रामोपासना तथा तकली की उपासना (अर्थात् श्रम-प्रतिष्ठा का प्रयोग) इत्यादि प्रवृत्तियां कीं। वे अपने आपको मजदूर मानते थे तथा इसी कारण जीवन के 32 वर्ष जो (सर्वोत्तम काल) कहे जाते है, मजदूरी में बिताए। इन सबके पीछे भावना आत्मदर्शन की ही थी। उन्होंने कहा है कि प्रार्थना वाड.मयी उपासना है और तकली कर्ममयी उपासना है। सन् 18 अप्रैल 1951 ई० से 10 अप्रैल 1964 ई० तक का समय विनोबा का पदयात्रा काल था। 13 वर्ष 3 महिने ओर 3 दिन सारे भारत की पदयात्रा उन्होंने भूदान मांगते हुए की। लगभग 42 लाख एकड़ जमीन भूदान में मिली। सैंकड़ों ग्रामदान हुए। अहिंसा का एक प्रयोग विश्व ने देखा। इस दौरान उन्होंने पाकिस्तान की भी यात्रा की।

1964 ई० के बाद विनोबा पवनार आश्रम में ही रहे। इसे उन्होंने क्षेत्र-संन्यास का नाम दिया। आवश्यकता पड़ने पर सलाह मशविरा वे देते रहे। एक संपूर्ण वर्ष उन्होंने मौन रखा। इसी बीच भारत में संकट काल की घोषणा की गई। जयप्रकाश नारायण के साथ विनोबा के मतभेद उभरकर सामने आए। राजनीति से समस्याओं का समाधान नहीं हो सकता, ऐसा मानने वाले विनोबा तथा स्वतंत्रता के मूल्य पर किसी भी आघात को असह्य मानने वाले जयप्रकाश के विचारों का मिलाप नहीं हो सका। 15 नवंबर 1982 ई० को विनोबा ने स्वेच्छा से अन्न-जल का त्याग कर देह छोड़ी तथा ब्रह्मलीन हुए।

विनोबा ने अपने जीवन में अनेक कार्य किए। उनके जीवन की एक दिशा रही, जो उनके लिए सहज थी। गांधीजी और विनोबा में एक फर्क जो स्पष्ट दीखता है वह ऐसा कि विनोबा के कार्यों की दिशा उनके जीवन की आरंभ के वर्षों में निश्चित की गई दिशा के अनुरूप ही रही। ईश्वर पर पहली श्रद्धा रखने वाले विनोबा की द्वितीय श्रद्धा गणित पर थी। जीवन और मृत्यु का गणित उन्होंने बखूबी हल किया। अहिंसा की खोज करना मेरा जीवन कार्य रहा है। दिलों को जोड़ने का भी कार्य उनका जीवन कार्य रहा। उनकी ऊपर-ऊपर से भिन्न दिखाई देने वाली प्रवृत्तियों के मूल में अहिंसा की धारा बह रही थी। सामाजिक और व्यक्तिगत जीवन में अहिंसा की प्रतिष्ठा के लिए उन्होंने कार्य किया। गांधीजी को कदम-कदम पर अपने आप से संघर्ष करना पड़ा; खुद को संयमित और अनुशासित करने के लिए कड़ा प्रयास और संयम-तप करना पड़ा। विनोबा स्वभावतः ही संयमित थे, अनुशासित थे। गांधीजी को कई मायनों में साधक से सिद्ध की यात्रा करनी पड़ी, जबकी विनोबा कई अर्थों में जन्मतः तथा स्वभावतः ही सिद्ध थे। उदाहरण स्वरुप, ब्रह्मचर्य की प्रतिज्ञा विनोबा ने दस वर्ष की उम्र में ही ले ली थी, जबकि गांधीजी ने ब्रह्मचर्य व्रत पालन का निश्चय दक्षिण अफ्रीका में 37 वर्ष की उम्र में लिया।

किसी के भी श्रम पर जीवन निर्वाह करना शोषण करना है। अतः, आजीविका खुद के परिश्रम से उत्पन्न मजदूरी पर हो, यह मुद्दा विनोबा के जीवन में 1922-23 ई० से ही रहा। उन दिनों दिन भर की मजदूरी से जो मिलता था, उसका हिसाब लगाकर यह तय किया जाता था कि शाम का भोजन बनेगा या नहीं। कांचन-मुक्ति के प्रयोग के दिनों में आश्रम में नमक को छोड़कर अन्य सभी वस्तुएं आश्रम में ही पैदा की जाती रही। तकली तथा चरखे पर नौ घंटे कातने पर भी चरखा संघ की मजदूरी के हिसाब से सवा दो आने ही मजदूरी बनती है, जबकि रोज का खर्च आठ आना है, यह संशोधन गांधी के सामने विनोबा ने रखा। गांधी व्यथित हो गए तथा पर्याप्त रुप में मजदूरी देने का सिद्धांत स्वीकार हुआ। श्रम को पूर्ण मजदूरी देना ही मजदूरी की असली प्रतिष्ठा बढ़ाना है।

1951 ई० का भूदान आंदोलन एक तरह से अर्थशास्त्रीय प्रयोग था। इस कार्य को विनोबा ने भूदान-यज्ञ नाम दिया तथा दानं समविभागः शंकराचार्य की यह परिभाषा इस संदर्भ में रखीं। इसमें गरीबों पर उपकार की भावना नहीं थी-बल्कि इस बात का भान जागृत करने की कोशिश थी कि जैसे हवा-पानी-सूरज की रोशनी पर हर एक का हक है वैसे ही जमीन पर भी हर एक का हक है। विषमता का शांतिमय ढंग से निर्मूलन का यह जोरदार आंदोलन था। भूदान-गंगा का उद्गम आंध्रप्रदेश के तेलंगाना विभाग के पोचमपल्ली नामक गांव में हुआ। तेलंगाना भूमिहीनों और भूमिहीनों के रक्तरंजित संघर्ष के कारण अशांत क्षेत्र बना हुआ था। 18 अप्रैल 1951 ई० को विनोबा को पोचमपल्ली के गांव के कुछ हरिजन मिलने आए। उन्होंने लगभग 80 एकड़ जमीन की जरुरत अपने गुजर-बसर के लिए प्रकट की। विनोबा ने इस प्रश्न को ग्राम के समक्ष रखा। तुरंत ही रामचंद्र रेड्डी नामक एक व्यक्ति ने 100 एकड़ जमीन देने का वचन सबके सामने दिया। यही भूदान का उद्गम था। प्रेरणा ईश्वर की थी और गणित विनोबा का था। विनोबा ने भारत की कुल भूमि का हिसाब लगाकर भू मालिकों से छठवां हिस्सा दान मांगना शुरु किया जो भूमिहीनों में वितरित किया जाना था। महाभारत के देश में मांगने पर निर्धन भूमिहीनों के लिए जमीन मिलती है, ऐसा मानना भूदान आंदोलन के पहले मुश्किल ही लगा होगा, किंतु लगभग 42 लाख एकड़ भूमि दान में मिली। इस आंदोलन में भारत की भूमिसमस्या का हल था। भूदान से ग्रामदान पैदा हुआ जो राजनैतिक व्यवस्था तथा सामाजिक समरसता का प्रयोग है। इस आंदोलन के निमित्त विनोबा ने लगभग 14 वर्ष संपूर्ण भारत की पदयात्रा की। भारत की सभी भाषाओं के इस विद्वान ने जिस प्रदेश में वहां के लोगों से उन्हीं की भाषा में बात की। भूदान को भूदान यज्ञ में परिवर्तित किया जिसमें अत्यल्प भूधारक का भी दान स्वीकार किया गया क्योंकि मुख्य विचार स्वामित्व विसर्जन का था न कि यह कि कौन कितनी जमीन दान करता है। यह स्वामित्व विसर्जन अपरिग्रह तथा अहिंसक विचार की मांग रखता है। यह प्रेम की शक्ति द्वारा हृदय परिवर्तन का व्यापक प्रयोग था। प्रथम हृदय परिवर्तन, फिर जीवन परिवर्तन और बाद में समाज परिवर्तन। इस तरह त्रिविध परिवर्तन की योजना भूदान आंदोलन में थी।

भूदान यात्रा के ही दौरान चांडिल में 7 मार्च 1953 ई० को विनोबा ने तीसरी शक्ति का विचार इन शब्दों में व्यक्त किया हमें स्वतंत्र लोकशक्ति निर्माण करनी चाहिए। अर्थात् हिंसाशक्ति की विरोधी और दंडशक्ति से भिन्न लोकशक्ति हमें प्रकट करनी चाहिए। काफी अंतराल के पश्चात आचार्यकुल का विचार भी विनोबा ने देश के सामने रखा। तटस्थ बुद्धि के, निष्पक्ष, निर्वैर विद्वानों द्वारा आचार्य कुल के मार्फत समाज को मार्गदर्शन मिलना चाहिए, ऐसी भूमिका थी। आचार्यों के अनुशासन का सभी को आदर करना चाहिए-यह मूल संकल्पना थी।

मध्य प्रदेश के भिंड मुरैना का इलाका डाकुओं का इलाका है। इस इलाके की यात्रा के दौरान विनोबा को अहिंसा की शक्ति का साक्षात्कार हुआ। बागी भाईयों ने अपनी बंदूके रख दी तथा संत के चरणों में बिना शर्त आत्मसमर्पण कर दिया।

समाज में शांति और प्रेम की स्थापना के लिए विनोबा ने अन्य भी कई कार्यक्रमों का आविष्कार और प्रारंभ किया। शांति सेना, खादी, सर्वोदय पात्र, जीवन की प्रयोगशाला रुप भारत के भिन्न-भिन्न भागों में 6 आश्रमों की स्थापना, गोसेवा आंदोलन, भारत की एकता अक्षुण्ण रखने की दृष्टि से दिया गया त्रिभाषा फार्मूला इत्यादि उनमें से कुछ हैं।

गीता के कर्मयोगी तथा स्थितप्रज्ञ पुरुष की अवस्था के निकट पहुंचने वाले बिरले पुरुषों में विनोबा विशिष्ट स्थान रखते है। ऐसे पुरुष का जीवन सूत्र था स्नेहेन सहजीवन-मनुष्य को स्नेहपूर्वक सहजीवन जीना चाहिए। सत्य, प्रेम, करुणा इन शब्दों में इस विलक्षण पुरुष के जीवन का सार उनकी पवनार स्थित कुटी में अंकित है।

- भरत महोदय

विश्व पर्यावरण दिवस : पर्यावरण-प्रदूषण की विकराल समस्या पर अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सभी सरकारों द्वारा विचार-विमर्श के लिए संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा 1972 ई० में 5 से 16 जून तक एक मानव पर्यावरण सम्मेलन (United Nations Conference on the Human Environment) का आयोजन किया गया था। उसके अगले वर्ष अर्थात् 1973 ई० से 5 जून को विश्व पर्यावरण दिवस मनाने की शुरूआत की गई। प्रतिवर्ष पर्यावरण संबंधी किसी विशेष समस्या पर केंद्रित आयोजन कर उसकी ओर ध्यान आकर्षित करने की कोशिश की जाती है। पर्यावरण की समस्या के आर्थिक, राजनीतिक और सामाजिक रूपों की ओर ध्यान आकर्षित करते हुए इस समस्या की व्यापकतर दार्शनिक पृष्ठभूमि और आयामों तथा इसके समाधानों और जीवन-दृष्टि एवं जीवन-शैली में परिवर्तन की आवश्यकता की ओर ध्यान आकर्षित करने की दृष्टि से विश्व पर्यावरण-दिवस संयुक्त राष्ट्र के सदस्य देशों में न केवल सरकारी तौर पर बल्कि गैर-सरकारी स्तर पर भी अधिकांश शिक्षण-संस्थाओं और स्वैच्छिक गैर-सरकारी संगठनों द्वारा मनाया जाता और इस प्रकार पर्यावरण जागरूकता विकसित करने की कोशिश की जाती है।

पिछले वर्षों में विश्व-पर्यावरण दिवसों पर जिन समस्याओं की ओर ध्यान केंद्रित करने की कोशिश की गई, उनमें जलवायु-परिवर्तन (Climate change), अल्प कार्बन आर्थिकी (Low Carbon Economy), हिमगलन (Melting Ice), रेगिस्तानिकरण (Desertification) और हरित नगर (Green cities) आदि प्रमुख हैं, जो यह बताती हैं कि पर्यावरण समस्या के एक आयाम को चुनकर उस पर व्यापक विचार करते हुए समस्या की जटिलता को उसकी समग्रता में समझने पर ध्यान दिया जाता है। निश्चय ही, सामान्य जन और खास तौर पर युवाओं और छात्रों में पर्यावरण-चेतना जगाने में विश्व पर्यावरण दिवस का आयोजन एक हद तक सफल कहा जा सकता है।

द्रष्टव्य : पृथ्वी-दिवस।

- नंदकिशोर आचार्य

विश्व-नागरिकता : द्रष्टव्य : विश्व-सरकार।

विश्व-सरकार : विश्व को युद्धमुक्त करने को लेकर राजनीतिक विचारकों में जो विचार-विमर्श होता रहा है, उसमें विश्व राज्य या विश्व-सरकार की अवधारणा का अत्याधिक महत्त्व है। इस अवधारणा का तात्पर्य है कि जैसे एक राज्य के अंतर्गत कई प्रदेश या प्रांत और प्रदेश के अंतर्गत नगर या ग्राम होते हैं तथा एक केंद्रीय सरकार के अंतर्गत होने के कारण उनमें कोई हिंसक टकराहट संभव नहीं रहती, उसी प्रकार यदि पूरे विश्व की एक सरकार हो और विभिन्न राष्ट्र राज्य उसी के अंगों के रूप में रहें तो उनमें आपसी हिंसक टकराहट नहीं होगी। मानव-इतिहास में युद्ध प्रारंभ से ही होते रहे हैं और उसका कारण राजनीतिक मनोविज्ञान की दृष्टि से यह रहा है कि शुरू में प्रत्येक कबीला और बाद में प्रत्येक राज्य स्वयं को अन्य से अलग और प्रतिद्वंद्वी मानता रहा। राष्ट्रवाद की अवधारणा का विकास इसी आधार पर हुआ और पिछली दो शताब्दियों में राष्ट्रवाद को युद्ध का मुख्य कारण माना गया है। राष्ट्रवाद का अतिक्रमण करते हुए एक विश्व-सरकार की स्थापना ही युद्धमुक्त विश्व बनाने की दिशा में सर्वाधिक सार्थक समाधान हो सकता है।

विश्व-सरकार की कल्पना 17वीं शताब्दी के आखिर में विलियम पेन (William Penn) तथा अठारहवीं शताब्दी के शुरू में एबे द सेंट-पियरे (Abbe de Saint- Pierre) द्वारा यूरोप के संदर्भ में प्रस्तुत की गई थी। इन विचारकों का मत था कि पूरे यूरोप की एक संसद या सीनेट होनी चाहिए, जिसके निर्णय सभी सदस्य राज्यों के लिए बाध्यकारी हों-तभी स्थाई शांति स्थापित हो सकती है। अनंतर, बेंथम (Bentham) और रूसो (Roussaeu) ने भी तत्संबंधी अपने प्रस्ताव रखे। रूसो ने तो संपत्ति पर निजी स्वामित्व को युद्ध का मुख्य कारण मानते हुए पूरे विश्व में निजी संपत्ति की समाप्ति का आग्रह किया। मोंटेस्क्यू (Montesquieu) का मत है कि युद्ध का कारण मानव-प्रकृति में नहीं बल्कि राज्य की अवधारणा में है। राज्य का नागरिक होते ही मनुष्य सैनिक में तब्दील हो जाता है। कांट ने भी अपने प्रसिद्ध लेख पर्पेचुअल पीस में शस्त्रीकरण की होड़ की भर्त्सना करते हुए एक विश्व-संगठन की कल्पना की। उसके अनुसार यह संगठन स्वतंत्र राज्यों का एक संघ हो, जो अंतर्राष्ट्रीय कानून के अनुसार काम करे।

उन्नीसवीं शताब्दी के आरंभ में नेपोलियन बोनापार्ट के बाद यूरोप की संयुक्त-व्यवस्था (Concert of Europe) द्वारा तथा बीसवीं शताब्दी में प्रथम विश्वयुद्ध के बाद राष्ट्र संघ (League of Nations) द्वारा अंतर्राष्ट्रीय शांति संगठन के रूप में किए गए प्रयोग सफल नहीं हो सके। यही बात द्वितीय महायुद्ध के बाद स्थापित संयुक्त राष्ट्र संघ के बारे में कही जा सकती है। इसका मुख्य कारण यही है कि इन संगठनों की हैसियत विश्व-सरकार की नहीं रही है।

आज विश्व-सरकार की संभावनाएं और जरूरत पहले से अधिक है। वैज्ञानिक तकनीकी प्रगति और अर्थ-व्यवस्था के अंतर्राष्ट्रीयकरण ने विश्व को परस्पर इस प्रकार जोड़ दिया है कि किसी भी घटना का प्रभाव पूरे विश्व पर पड़ने लगा है, जिसका सीधा मतलब यह है कि उसके समाधान के लिए भी प्रयास विश्व स्तर पर किए जाने चाहिए, जो एक विश्व-सरकार द्वारा ही संभव है। अभी भी बहुत-सी समस्याओं को सुलझाने के लिए अंतर्राष्ट्रीय संगठन हैं, जिनके निर्णय उनके सदस्य राष्ट्रों के लिए बाध्यकारी माने जाते हैं-विश्व बैंक, आइ० एम०एफ०, विश्व-व्यापार संगठन, जैसे संगठनों के अतिरिक्त यूनेस्को, अंतर्राष्ट्रीय श्रमिक संगठन, विश्व स्वास्थ्य संगठन और वर्ल्ड सोशल फोरम आदि कई संगठन ऐसे हैं, जो पूरे विश्व को एक इकाई मानकर काम करते हैं ओर जिनके कारण बहुत-से लोग राष्ट्रीय स्वार्थों की सीमाओं से परे जाकर भी सोचने लगे हैं।

विश्व-सरकार के सम्मुख सबसे बड़ी बाधा यही है कि लोग राष्ट्रवादी भावना का अतिक्रमण नहीं कर पाते हैं। यह दरअस्ल, सांस्कृतिक मनोविज्ञान की समस्या है, जिसका समाधान शिक्षा और सांस्कृतिक स्तर पर किया जा सकता है। एक राष्ट्र में भी कई प्रदेश होते हैं, जो एक नागरिक से अपने प्रति वफादार होने की मांग करते हैं, लेकिन नागरिक उससे ऊपर उठकर संपूर्ण राष्ट्रीय हित की दृष्टि से विचार करने लगे हैं-इसलिए कोई कारण नहीं दिखता कि वे राष्ट्रीय हित से ऊपर उठकर अंतर्राष्ट्रीय हित या न्याय की दृष्टि से विचार नहीं कर सकें। विश्व-सरकार को लेकर एक आपत्ति यह की जाती है कि उसका स्वरूप इतना बड़ा होगा कि उसमें वास्तविक लोकतांत्रिक सहभागिता संभव नहीं रह पाएगी। राष्ट्रीय स्तर की सरकारें भी सत्ता के केंद्रीकरण के कारण लगभग निरंकुश हो जाती हैं और नागरिकों की सहभागिता कम होती चली जाती है। लेकिन, विश्व-सरकार समर्थकों का कहना है कि विश्व-सरकार के भी सत्ता के विकेंद्रीकरण के कई स्तर हो सकते हैं और जैसे फिलहाल स्थानीय, प्रादेशिक और केंद्रीय स्तर पर कार्य-सूचियां और सत्ता का संवैधानिक बंटवारा होता है, उसी प्रकार विश्व-सरकार के स्तर पर भी किया जा सकता है। हम देखते हैं कि विश्व-जनमत की अवहेलना करना आज भी नैतिक स्तर पर उचित नहीं माना जाता है। यदि एक विश्व-सरकार बनती है तो वह राजनीतिक स्तर पर संभव ही नहीं रहेगा क्योंकि किसी भी लोकतांत्रिक तरीके से चुनी गई विश्व-सरकार विश्व-जनमत की अवहेलना नहीं कर पाएगी।

डॉ० रामनोहर लोहिया ने वयस्क मताधिकार के आधार पर एक विश्व-संसद का प्रस्ताव किया था। उनका कहना था कि राष्ट्रों के बीच विवाद तभी सुलझ सकते हैं, जब किसी किस्म का कोई सिद्धांत या कानून हो जिसके आधार पर लोग अलग-अलग मुद्दों को समझ सकें और किसी किस्म की ऐसी संस्था हो जिसकी निष्पक्षता पर किसी को संदेह न हों। डॉ० लोहिया का मानना है कि इसके लिए हमें पूरी मानव-जाति को एक ही समष्टि और प्रत्येक वयस्क व्यक्ति को मताधिकार देना होगा। वह यह मानते हैं कि विश्व-संसद के कुछ निर्णयों से किसी पक्ष की असहमति भी हो सकती है, लेकिन इस तरह की कठिनाइयां तो संसदों के निर्णयों को लेकर भी होती रही हैं और उनके समाधान भी निकलते रहे हैं। हमें सिर्फ उस आधार की खोज करनी होगी जिस पर विश्व-सरकार बना सकते हैं, जो सब देशों को स्वीकार्य हो। डॉ० लोहिया मानते हैं कि विभिन्न राष्ट्रों और हर राष्ट्र के विभिन्न समूहों के बीच समानता ही विश्व-शांति को सुरक्षित रहने का आधार हो सकती है। डॉ० लोहिया ने अपनी पुस्तक इतिहास-चक्र में विश्व-सरकार को आज का सपना कहा है। वह सभी राष्ट्रीय सरकारों को मानव-जाति की एकता की दृष्टि से आततायी सरकारें मानते हैं; लेकिन, यह भी समझते हैं कि राष्ट्रीय सरकारों को खत्म कर उनका सारा काम विश्व-सरकार को सौंप दिए जाने पर वह भी आततायी हो जाएगी। इसलिए डॉ० लोहिया विश्व-सरकार को युद्ध और शांति, सशस्त्र सेनाओं तथा विदेशनीति के पहलुओं एवं विश्व के बुनियादी स्वास्थ्य के लिए न्यूनतम आर्थिक कार्यक्रमों तक ही सीमित रखना चाहते हैं-इसमें पर्यावरण और पारिस्थितिकीय प्रबंधन भी आ ही जाते हैं। उनका कथन है कि ऐसी विश्व-सरकार की पृष्ठभूमि में राष्ट्रीय सरकारें मानव-जाति को मनमाने ढंग से विभाजित नहीं करेंगी और लोकतंत्र को पहली बार स्वतंत्रता से काम करने का अवसर मिलेगा। वह इसके लिए पूंजी संसाधनों के अंतर्राष्ट्रीय कोष का भी प्रस्ताव करते हैं, जो प्रत्येक देश से उसकी क्षमता के अनुसार लेगा और प्रत्येक देश को उसकी जरूरत के मुताबिक देगा। उनके अनुसार जनता की, जनता द्वारा और जनता के लिए सरकार पहली बार धरती पर तब बनेगी जब एक तरफ समूह की, समूह द्वारा और समूह के लिए और दूसरी तरफ मानव-जाति की, मानव-जाति के द्वारा और मानव-जाति के लिए सरकारें अस्तित्व में आएंगी। स्पष्ट है कि इसके लिए प्रत्येक व्यक्ति को भी अपने को विश्व नागरिक मानना होगा, जैसा कि आइंस्टाइन जैसे वैज्ञानिक का आग्रह रहा है। विनोबा तो राष्ट्र की जय के बजाय जय जगत ही कहते थे।

यह भी स्मरणीय है कि परिवार और कबीले से राष्ट्र-राज्य तक राजनीतिक विकास मानव की विकास यात्रा का एक पहलू है। यदि विकासवाद एक वैज्ञानिक नियम है तो विकास की प्रक्रिया रुक नहीं गई है। जैसे-जैसे मनुष्य की चेतना का विकास होता है, वैसे-वैसे उसके पुराने राजनीतिक पूर्वग्रहों का भी अतिक्रमण होता रहता है, जो अभी नहीं तो भविष्य में कभी विश्व-राज्य या विश्व-सरकार तक जा सकता है। कुछ राजनीतिक विश्लेषकों का यह मंतव्य पूर्णतया संगत लगता है कि भविष्यवाद को केवल प्रौद्योगिकीय भविष्य तक सीमित रखना पर्याप्त नहीं है; उसमें राज्य और राष्ट्रीय सुरक्षा को भी समाहित किया जा सकता है। आज विश्व-सरकार की कल्पना दूर की कौड़ी लग सकती है, लेकिन, विश्व-शांति और युद्धमुक्त अहिंसक समाज के लिए ऐसी कल्पनाएं भी प्रेरक होती हैं।

- नंदकिशोर आचार्य

वेदांतीय सत् : शांकर वेदांत में निरुपित सत् (ब्रह्म) का स्वरूप अहिंसा का एक सशक्त तत्त्वमीमांसीय आधार है। हमारे इस विचार का विश्लेषण करने से पूर्व सत् के स्वरूप का विवेचन अपेक्षित है।

वेदों के अंतिम भाग और वैदिक ज्ञान का सार होने के कारण मूलतः उपनिषदों को वेदांत और ब्रह्मसूत्र को वेदांत सूत्र कहा जाता है। परंतु औपनिषद् दर्शन के अधिक समीप होने तथा भारतीय जनमानस में प्रतिष्ठित होने के कारण शांकर-अद्वैतवेदांत भी वेदांत नाम से लोकप्रसिद्ध है। सभी वेदांताचार्यों ने प्रस्थान त्रयी (उपनिषद्-ब्रह्मसूत्र-गीता) पर अपने-अपने भाष्य लिखे। इनमें शंकराचार्य का ब्रह्मसूत्र पर लिखा शारीरक भाष्य विद्वानों और सामान्य जन दोनों में समान रूप से सर्वाधिक लोकप्रिय है। शंकराचार्य के अद्वैत वेदांत का सार प्रायः इस अर्द्धश्लोक में अभिव्यक्त किया जाता है-ब्रह्मसत्यं जगन्मिथ्या, जीवो ब्रह्मैव नापरः (ब्रह्म सत्यं जगन्मिथ्येत्येवंरूपो विनिश्चयः-विवेक-चूड़ामणि-20)। उपनिषद् और वेदांत दोनों में ही सत्, सत्य और सत्ता ये तीनों पद समानार्थक है और परम सत्ता (Ultimate Reality) के लिए प्रयुक्त होते हैं (छांदोग्य उपनिषद् ङ्कढ्ढ.८.४ बृहदारण्यक उपनिषद् ढ्ढ.४.१) उपनिषद् और वेदांत दोनों मे सत्य पद का प्रयोग मुख्यतः वाक्यात्मक (Propositional) न होकर तत्त्वमीमांसीय (सत् या सत्ता) अर्थ में हुआ है।

सत् (सत्य, सत्ता), शंकर के अनुसार, वह है जो भूत वर्तमान और भविष्य में सर्वदा विद्यमान रहता है, तथा किसी अन्य ज्ञान द्वारा बाधित नहीं होता (शंकरभाष्य द्बद्ब.३.७, शंकर भाष्य द्बद्ब.१.१४) त्रिकाल में अबाधिक रूप से विद्यमान रहना पारमार्थिक सत्ता (परम सत्, पर-ब्रह्म) का लक्षण है। इसके विपरीत असत् वह है, जो शशशृंग अथवा रव-पुष्प (आकाश कुसुम) की भांति अलीक अर्थात् किसी भी समय विद्यमान नहीं है। जगत मिथ्या है पर अलीक नहीं। जगत सत् नहीं क्योंकि यह ब्रह्मज्ञान से बाधित है और असत् इसलिए नहीं है कि इसका ऐंद्रिक अनुभव होता है। सत्-असत् से विलक्षण होने के कारण यह मिथ्या कहलाता है। जगत व्यावहारिक सत्ता है। अज्ञान भेद दृष्टि है और ज्ञान अभेद अथवा एकत्व दृष्टि है। ब्रह्मज्ञान हो जाने पर संसार के विषय विलुप्त नहीं हो जाते जीवन्मुक्त के सामने भी यह जगत बना रहता है, परंतु उसके लिए नाभरूपात्मक नानात्व निरर्थक और उसके मूल में विद्यमान शुद्ध सत् का एकत्व सार्थक होता है। (जल में कुंभ है, कुंभ में जल है, फूटा कुंभ जल जल ही समाना........)। स्वप्न प्रातिभासिक सत्ता है, जो जाग्रतावस्था से बाधित है।

शांकर-वेदांत की एक महत्त्वपूर्ण विशेषता यह भी है कि यहां पारमार्थिक स्तर पर सत् और ज्ञान में अभेद है। ज्ञान आत्मा अथवा ब्रह्म का गुण नहीं (जैसा कि रामानुज मानते हैं) अपितु उसका स्वरूप है। इस दृष्टि से सत्, चित्, ज्ञान, प्रज्ञा, प्रज्ञानघन एक ही सत्ता के बोधक हैं (शंकर भाष्य द्बद्ब.२.२१, तैत्तिरीय उपनिषद् द्बद्ब.१.१) शंकर के अनुसार सत् चित् आनंद ब्रह्म का स्वरूप लक्षण और स्रष्टा, पालक, संहारक आदि तटस्थ लक्षण हैं।

यह एक रोचक तथ्य है कि शंकर-भाष्य में अहिंसा पद का उल्लेख नगण्य होते हुए भी सत् के स्वरूप में अहिंसा के फलितार्थ अद्भुत और तर्कसम्मत है। उपर्युक्त विचेचन से यह स्पष्ट हो जाता है कि सत् अथवा सत्य अस्तित्व वाचक है। हिंसा अस्तित्व का निषेध है। अतः, हिंसा सत् की प्रतिपक्षी अवधारणा है। सत् और हिंसा के परस्पर विरोधी अवधारणाएं होने के कारण दोनों को एक साथ स्वीकार नहीं किया जा सकता। यदि सत् सर्वोच्च वरेण्य मूल्य है तो हिंसा का त्याग तार्किक अनिवार्यता है। सत् को परमसत्ता स्वीकार करने पर हिंसा को त्याज्य होना ही होगा, भले ही वहां पर अहिंसा पद का उल्लेख हो अथवा न हो। वेदांत में सत् निर्जीव सत्ता नहीं है। सत् चित् रूप है। सत्ता और चैतन्य में आधार-आधेय संबंध नहीं है। चैतन्य सत् का स्वरूप है और चैतन्य स्वयं सत्-स्वरूप है। अतः सत् जीवन की अवधारणा है और हिंसा मृत्यु की अवधारणा। मृत्यु जीवन का निषेध है। सत् अस्तित्व है, जीवन है, हिंसा अनस्तित्व है, मृत्यु है। सत् को स्वीकार करने से अहिंसा की स्वीकारोक्ति स्वयं ही हो जाती है।

महाभारत के आदिपर्व, वनपर्व और अनुशासन पर्व में अहिंसा परमो धर्मः का अनेक बार उल्लेख हुआ है। अनुशासनपर्व में भीष्म युधिष्ठिर को उपदेश देते हुए कहते हैं कि अहिंसा परमोधर्मस्तहिंसा परमोदमः.......अहिंसा परमं सत्यं अहिंसा परमं श्रुतम् (13.117.37.41) अर्थात् अहिंसा परम धर्म है, अहिंसा परम आत्मसंयम है.....अहिंसा परम सत्य है, अहिंसा परम श्रुति है। हमारी संस्कृति में धर्म एक अनेकार्थक पद है। तथापि वेद और उपनिषदों में धर्म मुख्यतः वस्तुओं के स्वभाव के रूप में, उन्हें धारण करने वाले आश्रय के रूप में लिया है। इस अर्थ में धर्म, सत् अथवा सत्य ही कहा जा सकता है। बृहदारण्यक उपनिषद् का यह उद्धरण द्रष्टव्य है-यह धर्म सब प्राणियों को मधु समान प्रिय है और धर्म को सब प्राणी मधु समान प्रिय है (द्बद्ब.५.११) इसी उपनिषद् में हमें धर्म और सत्य की एकात्मकाता का स्पष्ट उल्लेख मिलता है, जहां कहा गया है कि जो धर्म है वह सत्य है, अतः जो व्यक्ति सत्य को कहता है वह धर्म को कहता है और जो धर्म को कहता है वह सत्य को कहता है (बृहदारण्यक उपनिषद् द्ब.४.१४)। उपर्युक्त विवरण का मंतव्य यह बतलाना है कि अहिंसा सर्वोच्च मूल्य (परम धर्म) के रूप में वेदांतीय परमसत्ता सत् से अभिन्न है। वेदांत में जिसे परम सत् कहा है वह परम धर्म भी है; और अहिंसा को परम धर्म मानने पर वह परम सत् भी हो जाता है। इससे सत्, धर्म और अहिंसा में एकात्मकता सिद्ध होती है। सत्य ही धर्म है और धर्म ही अहिंसा है।

वेदांत का सर्वचैतन्यवाद भी अहिंसा की सुदृढ़ तत्त्वमीमांसीय आधार भूमि है। सर्वचैतन्यवाद के अनुसार समस्त चर-अचर में एक ही चित्शक्ति व्याप्त है। यह स्वयं प्रतिष्ठित सत्य, सर्वात्म रूप में सर्वगत है (शंकर भाष्य द्ब.३.९) अद्वैत वेदांत का यह वैशिष्ट्य है कि यहां न केवल सबको चैतन्य रूप में स्वीकार किया है अपितु सबमें एक ही चित्शक्ति को समान रूप से सर्वगत माना है। सत्यद्रष्टा गुरु शिष्य से कहता है-यह सब आत्मा ही है (.....आत्मैवेदं सर्वमिति-छांदोग्य उपनिषद् 1द्बद्ब-२५.२) बृहदारण्यक उपनिषद् का ऋषि इतने मात्र से संतुष्ट न होकर शिष्य को बतलाता है कि यह कोई और नहीं तेरा ही आत्मा सबमें विद्यमान है (द्बद्बद्ब.४.१)। इस जगत में कहीं भी अनेकता नहीं है (बृहदारण्यक उपनिषद् द्ब1.४.१९) वेदांत का यह अद्वैतभाव अहिंसा की तर्क सम्मत तत्त्वमीमांसीय आधारभूमि है। कोई व्यक्ति जब यह विचार करता है कि जो चित्शक्ति मुझमें विद्यमान है वही मनुष्यों में ही नहीं अन्य समस्त प्राणियों में भी उपस्थित है, तो किसी अन्य के प्रति हिंसक मनोवृत्ति के उत्पन्न होने की संभावना क्षीण हो जाती है। कोई भी व्यक्ति स्वयं के प्रति हिंसक नहीं होता। स्वयं और अन्य का जब भेद मिट जाता है तब सभी अपने जैसे प्रिय लगने लग जाते हैं। इस प्रकार अहिंसा और प्रेम वेदांत के सर्वचैतन्यवाद का तात्त्विक और तार्किक फलितार्थ है।

सर्वचैतन्यवाद का हम तार्किक विश्लेषण भी कर सकते हैं : मैं यह मानता या विश्वास करता हूं कि जो चैतन्य मुझमें विद्यमान है वही चैतन्य अन्यों मे भी व्याप्त है। अतः मैं अन्यों से घृणा करता हूं-इन दोनों वाक्यों में हमें स्पष्ट विरोधाभास लगता है क्योंकि दूसरा वाक्य प्रथम वाक्य से अनुसरित नहीं हो रहा है। जबकि, मैं यह मानता हूं कि जो चैतन्य मुझमें विद्यमान है वही चैतन्य अन्यों में भी व्याप्त है अतः मैं अन्यों से प्रेम करता हूं। इन दोनों वाक्यों में परस्पर संगति है। इस दूसरे उदाहरण में दूसरा वाक्य प्रथम वाक्य का फलितार्थ है। प्रत्येक व्यक्ति स्वयं से प्रेम करता है, इसलिए जब वह दूसरों को अपने जैसा ही अनुभव करता है तो उनसे भी वह प्रेम और सद्भाव का ही व्यवहार करता है। यहां हम यह कह सकते हैं कि अहिंसा, प्रेम और सद्भाव सर्वचैतन्यवाद का तर्कसम्मत फलितार्थ है। वेदांत का सर्वचैतन्यवाद जीवन के प्रति संवेदनशीलता और सम्मान की अभिव्यक्ति है। चैतन्य रूप में जो परमसत् सर्वत्र विद्यमान है वह परमशुभ, शिव या कल्याण रूप है। हिंसा कभी भी परमशुभ नहीं हो सकती। परमशुभ और हिंसा में आत्यंतिक विरोध है। अहिंसा अपनी समग्रता में समता और सामंजस्य का सिद्धांत कहा जा सकता है। अद्वैतभाव भी अपनी समग्रता में समरसता का ही सिद्धांत है। अद्वैतवाद के मूल में वुसधैव कुटुंबकम् का भाव अंतर्निहित है। अतः अद्वैत के परम सत् से अहिंसा, प्रेम, सामंजस्य, समरसता के मनोभाव तार्किक रूप से अनुसरित होते हैं।

मांसाहार हेतु पशुवध का औचित्य बतलाने के लिए तर्क दिया जाता है कि पशु योनि मनुष्य योनि से हेय है, अतः मनुष्य पशुओं को साधन के रूप में अथवा उनका वध करके आहार के रूप में उपयोग कर सकते हैं। उन लोगों की यह मान्यता है कि दयालु ईश्वर ने पशुओं को मनुष्यों के पोषण और संतुष्टि हेतु ही बनाया है। इसके विपरीत, अहिंसा प्रधान संस्कृति में समस्त प्राणियों के प्रति करुणा का भाव वरेण्य मूल्य है। वेदांत का सर्वचैतन्यवाद इस बात की ओर स्पष्ट संकेत करता है कि जिस प्रकार मनुष्यों को शारीरिक पीड़ा होती है, वैसे ही पशुओं को भी प्रताड़ित करने पर पीड़ा होती है। इसलिए पशु हिंसा को उचित नहीं ठहराया जा सकता। यहां इस बात को उल्लेख करना प्रासंगिक होगा कि महाभारत के अनुशासन पर्व में भीष्म द्वारा बार-बार अहिंसापरमोधर्मः बतलाए जाने पर युधिष्ठिर यह शंका प्रकट करते हैं कि श्राद्ध में पितृों के लिए किए गए अनुष्ठान में मांस सेवन का प्रावधान है। ऐसी अवस्था में हिंसा से कैसे बचा जा सकता है? प्रत्युत्तर में भीष्म कहते हैं कि मांसभक्षण का त्याग महान् त्याग है, इसे छोड़ देना ही श्रेयस्कर है। तत्पश्चात् भीष्म महान तपस्वी अगस्त्य के वचनों का उल्लेख करते हैं कि उन्होंने देवताओं और पितृों को प्रसन्न करने के लिए पशुबलि को अस्वीकार किया है (महाभारत - 13.116.56-7)।

शांकर वेदांत के विरुद्ध प्रायः यह आक्षेप लगाया जाता है कि वहां नीतिदर्शन की पूर्णतः अवहेलना की गई है। यह सच है कि शंकर एकमात्र ज्ञान को ही मोक्ष का साक्षात् साधन स्वीकार करते हैं। पर यह सच नहीं है कि वेदांत में नैतिक सद्गुणों की अनदेखी की गई। ब्रह्मसूत्र के प्रथम सूत्र अथातो ब्रह्मजिज्ञासा के अपने भाष्य में अथ पद की व्याख्या के अंतर्गत ब्रह्मजिज्ञासा से पूर्व साधन चतुष्टय को चित्त शुद्धि के उपाय के रूप में स्वीकार करते हैं। विवेकचूड़ामणि में वे इस साधन-चतुष्टय की विस्तार से व्याख्या करते हैं। शमदमादि के एक अंग तितिक्षा की व्याख्या में शंकर कहते हैं कि (किसी के प्रति) बिना कोई प्रतिकार (द्वेष, हिंसा आदि) किए सब प्रकार के कष्टों को सहन करना तितिक्षा है (विवेकचूड़ामणि-25)। ब्रह्मज्ञान के उदय के लिए शंकर चित्तशुद्धि की पूर्वापेक्षा को अनिवार्य मानते हैं। सद्गुण और सदाचार से चित्त राग-द्वेष, काम-क्रोध, लोभ-मोह के मलों से शुद्ध होता है। शंकर बहुत स्पष्ट शब्दों में कहते हैं कि मोक्ष की इच्छा रखने वाला व्यक्ति संतोष, दया, क्षमा, सरलता, शम और दम का अमृत के समान नित्य आदरपूर्वक सेवन करे (विवेकचूड़ामणि-84)। ये समस्त अहिंसा के ही पोषक सद्गुण हैं। छांदोग्य उपनिषद् में भी कहा गया है कि जो व्यक्ति तप, दान, सरलता, अहिंसा और सत्य वचन का पालन करता है, उसका जीवन मानो दक्षिणा (त्यागमय) का जीवन है (अथ यत्तपोदानमार्जवमहिंसा सत्यवचनमिति ता अस्य दक्षिणाः - द्बद्बद्ब.१७.४)। द्वेष, हिंसा और असमानता के पोषक अहंकार को शंकर मूल दुर्गुण के रूप में स्वीकार करते है (विवेक चूड़ामणि- 299-310)। वे अहेतुक लोकहित का आचरण करने वाले शांत महापुरुष को ऋतुराज वसंत की संज्ञा देते हैं (विवेकचूड़ामणि - 39-40)। अद्वैत में समता और समरसता का भाव अंतर्निहित है। शंकर ब्रह्मज्ञान में किसी भी प्रकार के भेदभाव को स्वीकार नहीं करते हैं। वे कहते हैं कि कोई भी ब्रह्मज्ञानी भले ही वह चांडाल हो अथवा द्विज हो वह उनका (शंकराचार्य का) गुरु ही है। व्यावहारिक स्तर पर जगत सत्य है और समस्त नैतिक सद्गुण, यहां तक कि कर्म और भक्ति भी चित्तशुद्धि के उपाय के रूप में अनिवार्यतः अपेक्षित है।

पारमार्थिक स्तर पर नीतिमीमांसा और ज्ञानमीमांसा दोनों का ही अद्वैत की तत्त्वमीमांसा में अंतर्भाव हो जाता है। परम सत् का ज्ञान हो जाने पर सदाचार का पालन श्वास-प्रश्वास की भांति सहज हो जाता है। ब्रह्मज्ञानी के लिए सत्य, अहिंसा, करुणा, समता, परोपकार आदि के पालन के लिएचाहिए शब्द का प्रयोग बेमानी हो जाता है। चाहिए पद का प्रयोग उन सामान्य व्यक्तियों के लिए किया जाता है, जो नैतिकता का पालन सहजता से नहीं अपितु प्रयास पूर्वक करते हैं : अतः ब्रह्मज्ञान की अवस्था (जीवन्मुक्त) नैतिकताविहीन नहीं है, अपितु यह सहज नैतिकता की अवस्था है।

सर्वंखल्विदं ब्रह्म (यह सब कुछ ब्रह्म ही है-छांदोग्य उपनिषद् द्बद्बद्ब.१४.१) को केंद्रीय विचार-बिंदु के रूप में स्वीकार करने वाला अद्वैत वेदांत अनेकता में एकता का दर्शन है। इसकी आधार शिला इस वेद-वाक्य एकं सद्विप्रा बहुधा वदंति (सत्य एक है विद्वान उसे अनेक नामों से पुकारते हैं) की तत्त्वमीमांसीय अवधारणा है। यह विचारणीय है कि बिना अहिंसा के आदर्श को स्वीकार किए अनेकता में एकता संभव नहीं हो सकती। जो समाज अहिंसा को परममूल्य मानता है, उसी समाज में विविध विचारधारा वाली बहुआयामी संस्कृति विकसित हो सकती है क्योंकि अहिंसा और असहमति में आनुकूल्य भाव है। जिस समाज में अहिंसा और सहिष्णुता को वरेण्य मूल्य नहीं समझा जाता वहां विविध और विरोधी विचारों को विकसित होने का अवसर नहीं मिलता। इतिहास साक्षी है कि जिस समाज में एक ही विचारधारा को आग्रहपूर्वक स्वीकार किया गया है, वहां हिंसा का प्राधान्य रहा है। परस्पर असहमत होते हुए भी सौहार्द और सद्भावमय वातावरण में उसी अवस्था में रहा जा सकता है जबकि लोगों में विरोधी विचारों से असहमति होते हुए भी समाज में उसकी उपस्थिति को स्वीकार करने की अपेक्षित समझ हो। वेदांतीय अनेकता में एकता की मूल अवधारणा असहमति में सहमत होने की इसी समझ को विकसित करती है।

- प्रो० शिवनारायण जोशी ‘शिवजी’

वैकल्पिक आर्थिकी : पूंजीवादी व्यवस्था में दो विपरीत रुझानों का समागम है-(1) प्राकृतिक संपदा का अतिशय दोहन एवं अपव्यय और (2) कुछ हाथों में निजी धन का संचय, जो पूंजी के रूप में प्रकृति के विस्तारित दोहन का जरिया बन जाता है। जिसे आज विकास माना जाता है, वह इस प्रक्रिया का दिन दूना-रात चौगुना फैलाव है। इससे धरती के सीमित साधनों के ह्रास और प्रदूषण से मानव-जीवन का संकोच और क्षय अटलनीय बनता जा रहा है। भौतिकी के कंजरवेशन नियम-यानि यह अटल नियम कि संसार के कुल द्रव्य और ऊर्जा की मात्रा घट बढ़ नहीं सकती को निरस्त करने का उपाय अब तक पूंजीवादी व्यवस्था के लिए अप्राप्य रहा है। यह मनुष्य की दानवी आकांक्षा पर अल्लंघ्य सीमा हैं।

समाजवादी आंदोलन का यह प्रारंभिक विश्वास कि निजी स्वामित्व को खत्म कर राजकीय या तथाकथित सार्वजनिक स्वामित्व कायम कर देने भर से पूंजीवादी शोषण और विषमता खत्म हो जाएगी-जैसा ऊपर बतलाया गया है-एक भ्रम सिद्ध हुआ है। सार्वजनिक क्षेत्रों में भी व्यवस्था पूरी तरह एक नौकरशाही के हाथों में होती है, जो स्वयं जड़ता और शोषण का आधार बन जाता है। खासकर बड़ी व्यवस्था, चाहे वह राजकीय हो चाहे निजी क्षेत्र की, इसके दायरे में आने वाले आम लोगों के नियंत्रण से मुक्त हो जाती है और इसमें सदा एक छोटे व्यवस्थापक एवं नौकरशाही समूह के हित में काम होता है, जिनकी सुविधाएं बढ़ती रहती हैं और आम आदमी हाशिए पर ढकेल दिया जाता है। पश्चिमी देशों में सोशल डेमोक्रेटिक पार्टियों के नेतृत्व में बनीं सरकारें भी श्रमिकों और प्रतिष्ठानों के शीर्ष पर स्थापित लोगों के बीच का संचालित-संचालक विभाजन और इससे जुड़े सुविधाओं और वंचनाओं के भेद को मिटाने में अक्षम सिद्ध हुई हैं। बड़े संस्थानों की बनावट और कार्य प्रणाली में ही ऐसी विषमता के बीज हैं। अर्थतंत्र के केंद्रीकरण के समानांतर राजकीय व्यवस्था भी जितनी ही विशाल होती जाती है, लोकतंत्र के ढांचे के भीतर ही वह आम मतदाता के नियंत्रण से मुक्त शक्तिशाली समूहों का सेवक बनती जाती है। इसमें जन प्रतिनिधि भी आमजन के शोषण पर आधारित सुविधाभोगी समूह का हिस्सा बन जाते हैं। धीरे-धीरे लोकतांत्रिक संस्थाओं पर संपन्न वर्गों एवं नवोदित अभिजातों का शिकंजा मजबूत होता जाता है।

लेकिन यहां किसी व्यक्ति को दोष देना बेकार है। संपत्ति और राजसत्ता का गठबंधन सभी वर्ग विभाजित समाजों में रहा है और इससे निजात पाने के लिए आर्थिक विषमता के साथ केंद्रीकृत राज्य सत्ता को तोड़ना भी जरूरी है।

यहां हम एक दुश्चक्र के शिकार हैं। बड़े राज्यों में, जब तक किसी आंतरिक कारण से राज्य का विघटन नहीं हो जाता, केंद्रीकृत संवैधानिक तरीके से तोड़कर विकेंद्रित करना मुश्किल लगता है। इस जनतंत्र पर धनतंत्र पूरी तरह हावी है। इस ढांचे के भीतर सफलता के लिए सिर्फ चुनावी पहल-जो दिनोंदिन खर्चीली होती जा रही है-और इसका आयोजन अपर्याप्त है। दूसरी ओर इस व्यवस्था को तोड़ने के हिंसक तरीके राज्य के हिंसक औजारों को और भी मजबूत बनाते हैं। इसके लिए सैन्य शक्ति पर ज्यादा से ज्यादा निवेश होता है और दमनकारी नीतियों से राज्य अधिकनायकवादी बनता जाता है।

पिछले अनुभवों के आलोक में पारिवारिक या छोटे सहयोगी समूहों द्वारा चलाए जा रहे ऐसे छोटे उद्योग, अति लघु राजकीय इकाइयों-गांधी जी के आदर्श ग्राम गणतंत्र की तर्ज पर के गठन को लक्ष्य बनाकर राजनीतिक पहल ही समाज के निर्माण की दिशा में व्यावहारिक कदम हो सकता है। ऐसी ही व्यवस्था में समता और स्वशासन दोनों आम लोगों की पहुंच में हो पाएंगे। ऐसी ही व्यवस्था में बेगानेपन से मुक्त लोगों की भावनात्मक तुष्टि भी संभव है। आज के विशाल नागरी समाजों में भी अंततः लोगों के निजी संबंधों का तानाबाना उसी संख्या के भीतर सीमित होता है जो उनके प्रारंभिक कबीलों के थे। चूंकि यह उसके अनुवांशिकी (जीन) में अंकित है, इसी छोटे समूह में उसे अंतरंगता का बोध होता है। डेस्मौंड मौरिस ने भी अपनी चर्चित पुस्तक द ह्युमन जू में इस रुझान को चिह्नित किया है। मार्क्स ने आधुनिक उद्योगों की कार्य प्रणाली में श्रमिकों के जैसे बेगानेपन की बात ही है, वह आर्थिक संबंधों से बाहर वर्तमान औद्योगिक समाज के सामाजिक संबंधों में भी बनी रहती है, जिससे छुटकारे के लिए आदमी छोटे सामूहिक दायरों का निर्माण करता रहता है। इसका आकार उसके आदिम कबीलों जैसा बन जाता है। विख्यात समाजशास्त्री मैक्स बेबर ने भी आधुनिक औद्योगिक व्यवस्था में, जिसे वह लीगल रेशनल कहते हैं, इस भावशून्यता (डिसइंचैंटमेंट) को रेखांकित किया है। अंततः, मनुष्य अपने जीवन में संतुष्टि और पूर्णता की तलाश करता है। वह किसी यांत्रिक व्यवस्था के संचालन में पुर्जा बने रहने में जीवन की सार्थकता नहीं पा सकता। इसीलिए यांत्रिकता के पाश में बंधे अत्याधुनिक समाजों में भी वह साहित्य, कला, संगीत आदि में, जो कभी जीवन की स्वाभाविक विस्तार थे, पलायन ढूंढता है। लेकिन आज की व्यावसायिक संस्कृति हर संभव तरीके से इन कलात्मक विधाओं को भी यांत्रिक और बाजारू उपभोग की वस्तु बनाने की कोशिश करती है। इस प्रक्रिया में कलाकार स्वयं क्रेता-विक्रेता के ताने बाने में उलझकर उस भावानात्मक मुक्ति से वंचित हो जाता है, जिसकी तलाश उसे कला की ओर खींचती है। आदिम समाजों की सामूहिक कलात्मक अभिव्यक्ति में ही मनुष्य दूसरे मनुष्यों और परिवेश के नदी, पहाड़ों, पेड़-पौधों और विभिन्न जीवों के साथ लय बांध पाने में सक्षम होता था और जीवन में एक हद की आंतरिकता और पूर्णता का अनुभव करता था। जन्म, जरा, राग, मृत्यु जीवन की अपरिहार्य स्थितियां है। लेकिन आदिम समाजों या आधुनिकता से अछूते आज के ग्रामीण समाजों में भी लोग इन स्थितियों को (रिचुअल) अनुष्ठानों में लय में बांध अगम संसार के घोर एकाकीपन के भाव से उबर जाते हैं। आधुनिक समाज में इन स्थितियों से कोई भावनात्मक पनाह नहीं। अब बुढ़ापे और बीमारी में भी मानव संपर्क विरल होता जा रहा है और वृद्धों के लिए निर्मित आरामगाह और अस्पताल भी यंत्रों का तानबाना बनते जा रहे हैं जहां आदमी मानवीय संपर्क के लिए तरसता है।

आधुनिक सभ्यता में संपन्न लोग इस यांत्रिक संस्कृत के बेगानेपन से मुक्ति के लिए आदिम स्थितियों के अवशेष, गिने-चुने स्थानों में टूरिस्ट रिसोर्ट बनाते हैं और जीवन के रूखेपन से कुछ समय के लिए मुक्ति पाते हैं। लेकिन, इस प्रयास में इन स्थानों को भी होटलों, अत्याधुनिक यातायात के साधनों, गाइडों और व्यवस्थापकों की फौज से वैसा ही बना डालते हैं, जैसे परिवेश से पनाह खोजते हैं। वे भूल जाते हैं कि जीवन की स्वाभाविक लय को नष्ट कर कहीं बाहर इसे नहीं पाया जा सकता। मनुष्य को पूर्ण रूप से मानव बनने के लिए फिर वैसा मानवीय परिवेश निर्मित करना होगा, जिसे वह विगत शताब्दियों में नष्ट करता रहा है।

स्थायी युद्ध की अर्थव्यवस्था पूंजीवाद को एक हद तक स्थायी बाजार उपलब्ध कराती है, लेकिन नियंत्रण से बाहर हो रहा पर्यावरण संकट संकेत दे रहा है कि पूंजीवादी अर्थव्यवस्था के शीर्ष बिंदु पर सिर्फ मौत है, किसी क्रांति की संभावना नहीं। इसलिए क्रांतिकारी परिवर्तन की तलाश पूंजीवाद के शीर्ष पर नहीं हो सकता। इसके विकल्प में एक दूसरे तरह की व्यवस्था आज और अभी ढूंढना होगी। यह व्यवस्था भी पूंजीवाद की गिरफ्त में नहीं आए, इसके लिए ऐसा विकल्प सीमित उपभोग के लिए लघु उद्योगों पर आधारित स्वायत्त और आत्मनिर्भर छोटी इकाइयां हो सकती है-गांधीजी के ग्राम गणतंत्र की कल्पना के समीप। यह पारंपरिक सहयोग की भावना पर आधारित वैसी व्यवस्था ही होगी, जहां निचली ईकाइयां अपनी जरूरत की ज्यादा से ज्यादा वस्तुओं का उत्पादन करेंगी। लेकिन गांव के छोटे दायरे में सभी जरूरतों की पूर्ति संभव नहीं होगी। इसलिए गांवों के सहयोग के विभिन्न स्तरों के बड़े परिसर बनेंगे। आवश्यकता के अनुसार इनसे विनिमय होगा। ऐसी व्यवस्था को बाजार विशेषज्ञ गजानन खातू ने परिसराभिमुख विपणन व्यवस्था के रूप में परिकल्पित किया है। जो वस्तुएं निचले परिसर में उपलब्ध नहीं होगी, उनके लिए ऊपर के परिसर से संपर्क साधना होगा। प्राचीन ग्रामीण व्यवस्थाओं में विनिमय का कुछ ऐसा ही रूप था। ऊर्जा के लिए छोटी जल विद्युत परियोजनाओं, हवा चक्की से प्राप्त ऊर्जा, जैव पदार्थों से प्राप्त ऊर्जा और सारे ऊर्जा के ऐसे संयंत्र विकसित किए जाएंगे जिनमें खर्चीले और विरल धातुओं की खपत कम से कम हो। कोयला, तेल आदि से परिचालित यंत्र एवं मशीनों की संख्या नगण्य होंगी। अर्थव्यवस्था की स्थानीयता परिवहन पर खर्च को लघुतम मात्रा में सीमित कर देगी। कृषि पूरी तरह जैविक बन जाएगा। जिसमें लगभग पूरी तरह स्थानीय रूप से उपलब्ध खाद एवं जल आपूर्ति के उपक्रमों का प्रयोग होगा। जुताई के लिए घोड़े-बैल आदि का उपयोग होगा या ऐसे मशीनों का जो पूरी तरह प्रदूषण रहित हो। यह भूम अब टूटने लगा है कि रासायनिक उर्वरक खेती में अधिक उपज देने के लिए अपरिहार्य है। दरअसल जिसे आधुनिक खेती कहा जाता है जो उर्वरकों और मशीनों पर निर्भर है, वह अलाभकर सिद्ध हो रही है और डिमिनिशिंग रिर्टन यानी उत्तरोत्तर लागत के हिसाब से कम पैदावार देने वाली बन गई है। इसीलिए औद्योगिक देशों की खेती भारी अनुदानों पर आश्रित है। विश्व व्यापार के असंतुलन और गतिरोध का मुख्य कारण संपन्न औद्योगिक देशों की कृषि अनुदान ही है। नए समतामूलक समाज में कृषि उत्पादन का ऐसा चक्र विकसित होगा जो कृषि के लिए मिट्टी में आवश्यक उर्वरा शक्ति प्रदान करने वाले कीटाणुओं एवं केचुओं आदि को स्वयं विकसित करेगा। अभी यह प्रायोगिक स्तर पर जहां तहां हो रहा है, धीरे-धीरे यह कृषि में आम व्यवहार बन जाएगा।

भविष्य का समाज क्या बनेगा इसकी संपूर्ण रूपरेखा बनाने का प्रयास तो सर्वज्ञता और भविष्य का निर्धारक बनने का हास्यास्पद दावा होगा, लेकिन यह आशा की जा सकती है कि स्वाभाविक प्रतिभाओं को बांझ बनाने वाली नौकरशाही के वृहद् जाल से मुक्त होकर लोग अपनी सूझ-बूझ से स्वयं आवश्यक सांगठनिक ढांचा और कार्य संस्कृति विकसित करेंगे, जैसा पहले सदियों से करते आए थे। इसी में आदमी अपनी मनुष्यता और पास पड़ोस के जीव जगत एवं पर्यावरण की रक्षा कर उनसे साहचर्य स्थापित कर पाएगा।

- सच्चिदानंद सिन्हा

वैदिक अहिंसा : यज्ञ-प्रधान होने तथा यज्ञ में पशुबलि को मान्य करने के कारण, सामान्यतः, वैदिक साहित्य में अहिंसा की तलाश कम ही होती है और वैदिक हिंसा हिंसा न भवति को व्यंग्य के रूप में कहा जाता है। यह ठीक है कि वैदिक साहित्य में पशु-बलि तथा मांसाहार को मान्य किया गया है। जैन-धर्म को छोड़कर अन्य समाजों में भी मांसाहार को मान्यता दी गई है, लेकिन, जिस तरह न केवल इस आधार पर उन्हें अहिंसा से विरत नहीं माना जाता बल्कि ईसाइयत जैसे धर्मों को अहिंसा के पक्ष में उद्धृत किया जाता है, उसी प्रकार वैदिक साहित्य में भी पशु-बलि और मांसाहार की मान्यता के बावजूद अहिंसा और उसके सकारात्मक रूपों का प्रशंसात्मक उल्लेख मिलता तथा हिंसा और निर्दयता को पापकर्म घोषित किया गया है।

वैदिक नीति-दर्शन का आधार ऋत की अवधारणा है, जिसे अनंतर सत्य के रूप में वर्णित किया जाने लगा। ऋत वह त्रिकालाबाधित नियम है, जिस पर यह समस्त सृष्टि-चक्र टिका है तथा मनुष्य से यह अपेक्षा की गई है कि वह ऋत के नियम के अनुसार ही अपना आचरण करे। ऋत के विपरीत आचरण को अनृत कहा गया है। सत्पुरुष के लिए ऋत के अनुकूल आचरण करना आवश्यक शर्त है। सृष्टि में जो ऋत है, पारस्परिक मानवीय व्यवहार में वही नैतिक कर्तव्य है। ऋग्वेद में कहा गया है कि मनुष्य के कर्तव्य देवताओं के प्रति होने के साथ-साथ मनुष्य मात्र के लिए भी है (10:117) और इनमें दया को प्रमुख कर्तव्य माना गया है। कहा गया है : जो दाता है, उसका धन कभी क्षीण नहीं होता.......ऐसे मनुष्यों का कोई उद्धार नहीं कर सकता जो भोज्य पदार्थ पास में होते हुए भी भोजन की आवश्यकता वाले एक निर्बल व्यक्ति के प्रति निष्ठुर और कठोर रहता है (8 : 6, 5; 1 : 2, 6)। स्पष्ट रूप से बताया गया है कि किसी को भी हानि पहुंचाना पापकर्म है। पापकर्म से मुक्ति के लिए देवता से प्रार्थना करते हुए कहा गया है : यदि हमसे प्रेम करने वाले व्यक्ति, मित्र अथवा साथी, पड़ौसी अथवा किसी पराए का भी कोई अनिष्ट किया है, तो हे प्रभु! इस नियमोल्लंघन रूपी पाप से हमें मुक्त करो (5:85, 7)। ऋग्वेद में संपूर्ण सह-जीवन की जो कल्पना और उसके लिए प्रार्थना की गई है (10.191.2-4), वह स्पष्टतः मानव जाति के एकत्व के बोध को परिचायक है।

वैदिक साहित्य में शनैः शनैः पशु-बलि से मुक्त धार्मिक जीवन की ओर बढ़ने के संकेत भी मिलते हैं, जो शायद उपनिषदों में पूरी तरह अभिव्यक्ति पाते हैं। सामवेद में कहा गया है : हे देवताओं! हम यज्ञ संबंधी किसी खंभे का प्रयोग नहीं करते, हम किसी की हिंसा नहीं करते, हम केवल पवित्र मंत्रों का बार-बार उच्चारण करके पूजा करते हैं (1;2:9,2)। अथर्ववेद में प्रार्थना की गई है कि हे प्रभु! तुम्हारी कृपा से मैं ज्ञात और अज्ञात सभी मनुष्यों के प्रति सद्भावना रखूं (17. 1-7)। यजुर्वेद में तो पशु-पक्षियों के वध का निषेध करते हुए कहा गया है कि उनकी सेवा करने से सुख की प्राप्ति होती है (13.47) तथा प्रार्थना की गई है कि मैं सभी के प्रति मैत्रीभाव रखूं और सब मेरे प्रति मैत्रीभाव रखें तथा सभी परस्पर मैत्रीभाव रखें (36.18)।

ब्राह्मण ग्रंथों की नीति-मीमांसा में देवऋण, ऋषिऋण, पितृऋण के साथ नृऋण तथा भूतऋण का भी उल्लेख करते हुए सभी मनुष्यों और मनुष्येतर प्राणियों के प्रति अपने कर्तव्यों का पालन करने के लिए कहा गया है तथा इन कर्तव्यों में एक प्रमुख कर्तव्य है अपने दैनिक भोजन से पूर्व अतिथि तथा पशु-पक्षियों को भी भोजन अर्पित करना। शतपथ ब्राह्मण में सर्वमेघ अर्थात् सर्वस्व त्याग को मुक्ति का साधन बताया गया है। उपनिषदों, महाकाव्यों, पुराणों तथा अन्य वैदिक दर्शनों-संप्रदायों में इसी अहिंसा भाव का उत्तरोत्तर विकास होता गया है।

द्रष्टव्य : पश्वालंभन; महाभारत; पौराणिक अहिंसा; औपनिषदिक अहिंसा।

- नंदकिशोर आचार्य

वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति : हमारी सृष्टि का केंद्र सूर्य है। सूर्य किन नियमों से संचालित है, इसे देखा जाए। प्रथमतः सूर्य सदा अप्रमत्त रहता है, कभी आलस्य नहीं करता। द्वितीयतः सूर्य अपनी ऊर्जा बिना भेद-भाव सबको समान रूप से देता है। तृतीयतः सूर्य हमें जीवन देता है किंतु बदले में कुछ नहीं चाहता। चतुर्थतः सूर्य हमारा इतना उपकार करता है किंतु उसमें कोई अहंकार नहीं। पांचवें सूर्य उदित होते समय तथा अस्त होते समय समान रूप रखता है। छठे सूर्य न कभी बढ़ता है, न घटता है। सातवें सूर्य सबको शुद्ध कर देता है किंतु स्वयं कभी अशुद्ध नहीं होता। इसलिये प्रसिद्ध गायत्री मंत्र में सूर्य से ही बुद्धि को प्रेरित करने की प्रार्थना की गई है। वेद की अपौरुषेयता इसमें है कि वह धर्म का स्रोत किसी पुरुष को न मानकर सूर्य जैसे प्रकृति के स्वतः सिद्ध स्वरूप को मानता है। ब्राह्मण-ग्रंथ मानते हैं कि सूर्य मानो साक्षात् वेद-शास्त्र है। हम उसी से धर्म की शिक्षा प्राप्त कर सकते हैं।

ब्राह्मण-ग्रंथ हिंसा का यह लक्षण नहीं मानते कि जहां-जहां किसी को पीड़ा हो रही है, वहां-वहां हिंसा है, अपितु उनके अनुसार हिंसा का यह लक्षण है कि जहां-जहां शास्त्र का उल्लंघन है वहां-वहां हिंसा है। अब हिंसा-अहिंसा के संबंध में प्रकृति का स्वरूप देखा जाए। प्रकृति में एक भोक्ता है, एक भोग्य। भोक्ता का अग्नि कहा गया है और भोग्य को सोम (यहां अग्नि और सोम पारिभाषिक शब्द हैं, अतः उनका सर्वसामान्य में प्रचलित अर्थ नहीं समझना चाहिये।) हमने भोजन किया तो हम भोक्ता अग्नि हो गये और भोज्य सामग्री सोम हो गई। जठराग्नि में भोज्य सामग्री की आहुति पड़ी, यह एक यज्ञ हो गया। इस यज्ञ के बिना हमारा अस्तित्व ही संभव नहीं।

यह प्राकृतिक यज्ञ सर्वत्र चल रहा है। इसमें अग्नि सोम को आत्मसात् कर लेती है और इस प्रकार प्रज्वलित रहती है। इस प्रक्रिया में सोम अग्नि में विलीन हो जाता है, किंतु यह सोम की हिंसा नहीं कही जाती अपितु इसे सोम का आलंभन कहा जायेगा। आलंभन का अभिप्राय यह है कि एक तत्त्व सोम बनकर अपना अस्तित्व दूसरे में विलीन कर देता है ताकि उस दूसरे तत्त्व का अस्तित्व बना रहे। यही यज्ञ है जिसके बिना अस्तित्व टिक ही नहीं सकता। इस प्रक्रिया में जो तत्त्व दूसरे तत्त्व की रक्षा हेतु अपना विलय कर देता है, आपाततः तो यह उस तत्त्व की हिंसा हुई, किंतु क्योंकि प्रकृति का यह अपरिहार्य नियम है, अतः उस तत्त्व का विलय होने पर भी, उसकी हिंसा नहीं माना जायेगा। वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति का यह एक अर्थ है। अस्तित्व में एक दूसरे के हित में अपना त्याग करता है। तब ही अस्तित्व टिका है।

इस अर्थ को थोड़ा और विस्तार से समझें। समाज में समाज-कंटक हैं। यदि उन्हें नियंत्रित न किया जाए तो वे समाज के अस्तित्व के लिये ही खतरा बन जाऐंगे। अतः पुलिस और न्यायाधीश उसे दंडित भी करते हैं। कभी-कभी उसे फांसी भी देनी पड़ सकती है। इस प्रक्रिया में न्यायाधीश का अपना निजी कोई स्वार्थ नहीं रहता। अतः उसके द्वारा अपराधी को दंडित करना हिंसा नहीं है। यह वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति का दूसरा अर्थ है। इसी अर्थ का और विस्तार करें तो सैनिक का अन्याय के विरूद्ध युद्ध करना, अध्यापक अथवा माता-पिता का बालक को सुधारने के लिये दंडित करना आदि कर्मों में किसी की पीड़ा तो अंतर्निहित रहती है, किंतु इस पर भी यहां हिंसा नहीं है। यही वैदिकी हिंसा हिंसा न भवति का अर्थ है। तात्पर्य यह है कि हिंसा का मूल अविवेकपूर्वक अपने किसी सूक्ष्म अथवा स्थूल स्वार्थ की सिद्धि के लिये किसी को दुःख देना है न कि विवेकपूर्वक निःस्वार्थ भाव से सामाजिक हित में या किसी व्यक्तिगत हित में किसी को दंडित करना। कर्त्तव्य-पालन, राग-द्वेष-मुक्ति, निरहङ्कारिता आदि गुण धर्म का लक्षण हैं, किंतु किसी को पीड़ा न देना निरपेक्ष रूप में धर्म का लक्षण नहीं है। क्योंकि कर्त्तव्य पालन का मार्ग कठोर है जिसमें दयालु होते हुए भी किसी को दंडित तो किसी को पुरस्कृत करना पड़ सकता है।

यज्ञ का अर्थ है-आदान-प्रदान। हम किसी से कुछ लें तो किसी को कुछ दें भी। जब हम लेते हैं तो हम अग्नि हैं, जब हम देते हैं तो हम सोम हैं। दोनों के मिश्रण से यज्ञ होता है। प्रश्न होता है कितना लें और कितना दें। उत्तर है कि अपना अस्तित्व बनाये रखने के लिए जितना आवश्यक है उतना लें, शेष बचा हुआ दूसरों को दें। अपनी आवश्यकता पूरी करने पर बच जाता है उसे वेद ने उच्छिष्ट कहा है। इसे यज्ञशेष भी कहा जाता है। आज की भाषा में इसे प्रसाद कहते हैं। अपने लिए जो आवश्यक है, ब्राह्मण ग्रंथ उसे ब्रह्मौदन कहते हैं, जो बच जाए उसे प्रवर्ग्य कहते हैं। एक का प्रवर्ग्य दूसरे का ब्रह्मौदन बने-यह अहिंसक जीवन शैली का मार्ग है। हम दूसरे का ब्रह्मौदन छीनें, यह हिंसक जीवन शैली है।

एक उदाहरण लें। पेड़ कार्बनडाइआक्साईड लेता है, वह उसका ब्रह्मौदन है, वह जो ऑक्सीजन छोड़ता है, यह उसका प्रवर्ग्य है। पेड़ का वह प्रवर्ग्य ऑक्सीजन हमारा ब्रह्मौदन बन जाता है और हमारे द्वारा छोड़ा गया कार्बनडाइआक्साईड पेड़ का ब्रह्मौदन बन जाता है। प्राकृतिक जीवन शैली का यही अहिंसक आधार है कि एक का प्रवर्ग्य दूसरा का ब्रह्मौदन बनता रहे और आदान-प्रदान रूप यज्ञ चलता रहे।

किंतु सदा यह अहिंसक शैली व्यावहारिक नहीं होती। ऐसे में हमें किसी का ब्रह्मौदन ही लेना पड़े तो उसके प्रायश्चित के रूप में किसी को अपने स्वत्व का कुछ अंश दे भी देना चाहिये। अतः, यज्ञ के साथ तपस् और दान भी धर्म का अंग हैं। दान पदार्थ का त्याग है, तपस् सुख का त्याग है। ये दोनों प्रकार के त्याग यज्ञ में होने वाली न्यूनता की पूर्ति कर देते हैं।

- प्रो० दयानन्द भार्गव

वैशेषिक दर्शन : वैशेषिक दर्शन यथार्थवादी होते हुए भी भौतिकवादी नहीं है क्योंकि यह आत्मा अर्थात् अभौतिक तत्त्व को स्वीकार करता है। यह दर्शन नौ द्रव्यों को नित्य मानता है। ये नौ द्रव्य हैं : पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, काल, देश, मन और आत्मा। इन द्रव्यों में आत्मा के अलावा सभी के अस्तित्व का सामान्य तौर पर भौतिक सत्यापन किया जा सकता है-मन का भी। लेकिन आत्मा को भौतिक सत्यापन के बिना ही नित्य स्वीकार कर लिया गया है। चेतनता को वैशेषिक दर्शन आत्मा के अस्तित्व का प्रमाण मानता है। प्रशस्त पाद कृत पदार्थ धर्म संग्रह और कणाद के वैशेषिक सूत्र (3:1, 19) में आत्मा के अस्तित्व को इस आधार पर प्रमाणित माना है कि चेतनता अन्य किसी द्रव्य का गुण नहीं हो सकती है। वैशेषिक दर्शन आत्मा की अनेकता के सिद्धांत में विश्वास करता है, जिसका एक तात्पर्य यह भी है कि यह जगत् कभी विलयावस्था में नहीं पहुंच सकता क्योंकि यदि कुछ द्रव्य नित्य हैं और आत्माएं अनेक हैं तो कुछ आत्माओं के अपने चरम उत्कर्ष मोक्ष तक पहुंच जाने के बावजूद जगत् हमेशा बना ही रहेगा।

इस दृष्टि से अनेकत्व का स्वीकार वैशेषिक दर्शन के नीति-शास्त्र का प्रमुख आधार बन जाता है। आत्मा की प्रवृत्ति मन की प्रवृत्ति से जानी जाती है, इसलिए कर्म केवल अनैच्छिक नहीं, स्वैच्छिक भी होते हैं। नैतिकता का सवाल, वैशेषिक सूत्र के अनुसार, केवल स्वैच्छिक कर्म के संदर्भ में ही उठता है। प्रशस्तपाद बताते हैं कि अन्ैच्छिक कर्म वे हैं जो सहज शारीरिक हैं, लेकिन, इच्छापूर्वक किए जाने वाले कर्मों का प्रयोजन हितप्राप्ति है। हित का तात्पर्य है सुख। इसलिए सुख देने वाले पदार्थों के प्रति अनुराग रहता है और दुख या पीड़ा देने वाले पदार्थों के प्रति द्वेष पैदा होता है। वैशेषिक दर्शन अभ्युदय और निःश्रेयस दोनों को स्वीकार करता है, लेकिन अंतिम लक्ष्य या सर्वोच्च कोटि का सुख ज्ञान से प्रसूत वह सुख है जो पदार्थ या उसके गुणों की कल्पना से पूरी तरह स्वतंत्र होता है, जिसके लिए सद्गुणों का विकास अनिवार्य है।

कुछ कर्त्तव्य अवस्था-देश और काल-के अनुसार होते हैं, लेकिन, कुछ कर्त्तव्यों को हर देश-काल में अनिवार्य माना गया है। हर देश-काल में वांछनीय कर्त्तव्य हैं : (1) श्रद्धा, (2) अहिंसा, अर्थात् किसी पर को हानि न पहुंचाना, (3) सभी की हित चिंता, (4) सत्यभाषण, (5) अस्तेय, (6) ब्रह्मचर्य, (7) मन-शुद्धि, (8) क्रोध का वर्जन, (9) शरीर-शुद्धि या अभिषेचन, (10) शुद्धिकारकों का प्रयोग, (11) इष्ट-भक्ति, (12) उपवास और (13) अप्रमाद। प्रशस्तपाद ने तो उस सार्वभौम उपकार का व्रत लेने वाले को ही संन्यासी माना है, जो अहिंसा का ही सकारात्मक रूप है। इसलिए यूई वैशेषिक दर्शन के अपने अध्ययन वैशेषिक फिलॉसफि में इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि विस्तृत अर्थों में अहिंसा ही धर्म है, और हिंसा अर्थात् सृष्टि के प्रति विद्वेष हिंसा अर्थात् अधर्म है। जब तक हम इच्छा या द्वेष से प्रेरित कर्म करते रहते हैं तब तक आत्मा के अंतिम सोपान अर्थात् मोक्ष तक नहीं पहुंच पाते।

यह द्रष्टव्य है कि अनेकत्व होते हुए भी आत्मा द्रव्य अपने लक्षणों में समान है, इसलिए आत्माओं में एक प्रकार का एकत्व है। आत्मपृथकता की संकल्पना इसीलिए ज्ञान का अभाव है, जिसका आवश्यक परिणाम है वस्तुओं के यथार्थज्ञान का अभाव। वैशेषिक दर्शन के अनुसार ज्ञान आत्मा के अन्य द्रव्यों के संपर्क में आने से उत्पन्न होता है। इसलिए, डॉ० राधाकृष्णन् के अनुसार, पृथक आत्मसत्ता की भावना से प्रेरित कर्म वस्तुओं के यथार्थ ज्ञान के अभाव पर आश्रित होते हैं, किंतु ज्योंही हम अनुभव करते हैं कि पदार्थ, जो इतने अधिक आकर्षक अथवा अपकर्षक प्रतीत होते हैं, केवल परमाणुओं के क्षणिक मिश्रणमात्र हैं, हमारे ऊपर से उनका प्रभुत्व जाता रहता है। इसी प्रकार, जब हम यह अनुभव कर लेते हैं कि आत्मा का यथार्थ स्वरूप इन सब देहधारी सत्ताओं से सर्वथा पृथक और भिन्न है तो हम यह जान लेते हैं कि सब आत्माएं एक समान हैं। जब यथार्थज्ञान स्वार्थ-प्रेरणा को दूर भगा देता है, तो स्वार्थपरक कर्मों का अंत हो जाता है, कोई मौलिक मूल्य उत्पन्न नहीं होता और इसलिए फिर पुनर्जन्म भी नहीं होता।

वैशेषिक दर्शन यह स्वीकार करता है कि हम अपने कर्मों के कारण जीवन के उच्चतम स्तर तक भी पहुंच सकते हैं या अपने को निम्नतम स्तर तक भी गिरा सकते हैं। लेकिन, उत्कर्ष या पतन के कारण कर्म का कारण आत्माओं की भिन्नता के बावजूद उनके समत्व पर आश्रित अपृथकता या ऐंद्रिक सीमा में बद्ध पृथक आत्मसत्ता के बोध में होता है। समस्त हिंसा पृथकता के बोध से उत्पन्न होती है-जिससे वैशेषिक का युग्मज दर्शन न्याय भी सहमत है- और अहिंसा अपृथकता के बोध का सहज लक्षण है-यद्यपि वैशेषिक और न्याय की मोक्ष की अवधारणा में भेद है। न्याय मोक्षावस्था को आनंद और ज्ञान की अवस्था मानता है; लेकिन, वैशेषिक दर्शन के अुनसार मोक्ष का तात्पर्य है देह के संपर्क से उत्पन्न गुणों से आत्मा की पूर्णमुक्ति होकर उसका पुनः अपनी स्वतंत्रता प्राप्त कर लेना। वैशेषिक दर्शन के नीतिशास्त्र में अपने निषेधात्मक और सकारात्मक दोनों रूपों में अहिंसा उस अपृथकताबोध की सिद्धि का कारण गुण है, जो मोक्ष की ओर ले जाने वाला है।

- नंदकिशोर आचार्य

वैष्णव अहिंसा : सभी वैष्णव आचार्यों द्वारा स्वीकृत मूल ग्रंथ ब्रह्मसूत्र में ब्रह्मविद्या का, जिससे कि अविद्या का नाश है एवं जो ब्रह्मनुभव/ब्रह्मज्ञान के स्वरूप है, का विवेचन है, जिसका अनिवार्य अंग शम-दमादि साधनों को माना है। भारतीय दर्शनों में शम, दम, तितिक्षा, अनअंहकारितादि अहिंसा भाव के पर्याय या अहिंसा भाव के जनक माने गए हैं। दूसरे शब्दों में कहे तो हिंसा का मूल ही इंद्रिय एवं मन पर अनियंत्रण है जो राग, द्वेष, मोह एवं अंहकारादि तामसी गुण स्वरूप वाला है। ब्रह्म सूत्रों 3/1/11-13 में सुकृत-दुष्कृत, अशुभ अनिष्टादि, एवं संयम शब्दों का प्रयोग अहिंसा एवं हिंसा के पर्याय के रूप में किया गया प्रतीत होता है। वैष्णव वेदांतों एवं भारतीय दर्शनों में भी प्रायः अहंकार से रहित अवस्था चेतना की उदात्त अवस्था मानी गई है जो शांत, दुःखरहित शाश्वत सुख की अवस्था है।

अहिंसा के सकारात्मक एवं नकारात्मक आयामों में से जन सामान्य में अहिंसा का अर्थ उसमें नकारात्मक आयाम हिंसा का अभाव से ही लिया जाता है। वैष्णव वेदांतों में अहिंसा के भावात्मक सकारात्मक पक्ष को ही न केवल प्राथमिकता दी गई वरन् इस संप्रत्यय अहिंसा का विस्तार इष्ट के प्रति की गई भक्ति, सेवा, प्रेम, अहं का विराट में विसर्जन एवं प्राणीमात्र में इष्ट का भाव (सर्वात्मभाव) आदि भावों में किया गया है। इसे न केवल चरम साध्य या चरम साधन का प्रतिफल माना है वरन् मनुष्य का स्वभाव ही माना गया है जो अविद्यादि कारणों से जन्य दूषित आहार यथा हिंसादि से आवरित हो गया है। ऐसे में आत्मा भाववाची या भावप्राधान्य आयाम को लिए है एवं अहिंसा एवं दूसरे पर्याय करुणा, प्रेम आदि भी भावप्राधान्य संप्रत्यय है जो वैष्णव दर्शनों के पुरुषार्थ मीमांसा में केंद्रीय स्थान रखते है। यहां अहिंसा मात्र जीव हिंसा (मानसिक, वाचिक, कर्मणय) का अभाव ही नहीं है वरन् बंधुत्व, प्रेम, शांति व करुणा-सौहार्द की अनुभूति है। वैष्णव जन तो तेने कहिए पीर पराई जाणिरे में पराई शब्द में अन्य मनुष्य, पशु व जाति, जलवायु आदि भी सम्मिलित किए जा सकते हैं। सभी वैष्णव आचार्यों के मत में इष्ट (विष्णु/नारायण-/परब्रह्म) के प्रति आसक्ति, व्यसन, अनुरक्ति, निष्काम भक्ति ही अहिंसा के नकारात्मक एवं सकारात्मक आयाम सर्वात्मकता, करुणा, सर्वभूतोहितेरता आदि भावों की जननी है।

जहां योग सूत्र संख्या 2/35 में कही गई स्थितियां वैष्णव आचार्यों/संतों के व्यक्तिगत जीवन में तो सिद्ध/अभिव्यक्त होती ही है, वहीं अहिंसा का प्रयोग सामाजिक अन्याय एवं राजनीतिक-सामाजिक परिवर्तनों में शांतिप्रिय आंदोलनों के रूप में वैष्णव आचार्यों में कम ही मिलता है। अहिंसा का सार्वजनिक प्रयोग गांधी एवं गांधीवादी विचारकों में स्वतंत्रता संग्राम में स्पष्टतः देखा ही जा सकता है। इन आंदोलनों में प्रतिकार के प्रति अहिंसक वृत्ति बताती है कि अहिंसा निवृत्ति मार्ग नहीं है वरन् कठोर कर्मठता का मार्ग है जो आध्यात्मिक एवं नैतिक बल से युक्त व्यक्ति अर्थात् सम्यक् धार्मिक व्यक्ति ही अपना सकता है।

वैष्णव आचार्यों में बौद्धों के करुणा एवं महाकरुणा के अतिरिक्त (संत हृदय नवनीत समाना) प्रेम सेवा एवं (आनंदो ब्रह्म) आनंद की भी प्रधानता है जिसका तत्त्वमीमांसीय आधार परम अभिन्ननिमित्तोदासता में है। इष्ट के प्रति चरम अनुरक्ति, व्यसन एवं प्रियता न केवल शाकाहार एवं पर्यावरण संरक्षण एवं प्रवर्द्धन को सतत आधार प्रदान करती है-वरन् वैदिकी यज्ञ की अहिंसात्मक व्याख्या को आधार प्रदान करती है। ब्रह्म-सूत्र में यज्ञ का स्वरूप सूत्र 3/4/25 में ब्रह्मविद्या को बताया है जिसमें अग्नि, समिधा, घृत आदि पदार्थों की आवश्यकता नहीं है। (खाने की क्रिया के यज्ञ स्वरूप होने से छांदोग्य में अन्न खाना हिंसा नहीं माना गया है, 6/6/2)। इसी का संकेत गीता में कई स्थलों पर दिया है यथा 4/24 पुरुष सूक्त, ऋग्वेद संहिता, के मंत्र ङ्ग/90/6 में सृष्टि में मानस यज्ञ की बात की है जिसमें वसंत ऋतु आज्य के रूप में, ग्रीष्म ऋतु ईंधन के रूप में और शरद ऋतु द्रविस्य के रूप में संकल्पित की गई है। ऋग्वेद के इसी मंत्र का भावार्थ आर्यसमाज भाषा-भाष्य में बताया है। ऋतुओं के ब्रह्मांड में संवत्सर यज्ञ हो रहे हैं। जैसे घी से अग्नि प्रज्वलित होती है, उसी प्रकार बसंत के बाद ग्रीष्म अधिक तीव्रता पाता है व शरत् फलदायी होने से हावि तुल्य है।

भाष्यकार उव्वट ने यज्ञीय हिंसा (यज्ञ में की जाने वाली हिंसा जिसके बारे में यद्यपि यज्ञीय हिंसा न हिंसाभवति कहा है) के विपरीत कहा है : पुरुषमेध यज्ञ पुरुषोत्तम के प्रति पुरुष और उसके सर्वस्व का समर्पण हैं, अतः पुरुषमेध है। कहीं-कहीं यह भी कहा गया है कि यह शरीर ही यज्ञ है और इसमें ज्ञान-कर्म का समुच्चय होता है। ऋग्वेद के मंत्र ङ्ग/90/6 को यजुर्वेद (शुक्ल) वाजसनेयी संहिता में अध्याय 31 में मंत्र संख्या 14 में रखा गया है। उव्वट ने इसके भाष्य में कहा है कि जैसे देवताओं ने यज्ञ किया, वैसे ही योगी भी अमृत स्वरूप उद्दीप्त इस आत्मपुरुष के द्वारा ही आत्म-यज्ञ संपादन करते हैं। इनमें वसंत सात्विकगुण है, ग्रीष्म राजस और शरद् तामसीय गुण। योगी इन्हीं तीन गुणों का आत्म-यज्ञ में हवन करते है। इसी को गीता में निस्त्रैगुण्यता की बात एवं सांख्य योग में त्रिगुणातीत पुरुष की अपने शुद्ध चैतन्य स्वरूप में अवस्थिति के रूप में बताया है।

भक्ति में इस यज्ञ को भगवत कथा श्रवण एवं नाम संकीर्तन यज्ञ के रूप में बताया है जहां कीर्तन यज्ञ, सार्ववर्णिक, सार्वकालिक होने के साथ-साथ सर्वाधिक अहिंसात्मक रूप लिए है एवं वैष्णव आचार्यों में मनुष्य के मूल स्वभाव की प्राप्ति का सरल उपाय है। निम्न स्तर पर यह शमादि को प्राप्त करने का साधन है ही जो समाज की राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय समस्याओं का समाधान है।

- डॉ० योगेश गुप्त

वैष्णव ईश्वरानुराग : वैष्णव वेदांत का आधारभूत सिद्धांत ईश्वर की भक्ति है। भक्ति ईश्वर के प्रति अनन्य प्रेम है। ईश्वर सब प्राणियों में, चराचर में अंतर्यामी रूप से विद्यमान है। जगत ईश्वर की ही सृष्टि है। ईश्वर ही जगत का निमित्तोपादान कारण है। विश्व के कण-कण में ईश्वर की छवि के दर्शन करने वाला वैष्णव भक्त सबसे अहेतुक प्रेम करता है। प्रेम हिंसा का प्रतिपक्ष है। प्रेम के मनोभाव में हिंसा संभव नहीं। घृणा, क्रोध, द्वेष, अभिमान आदि हिंसा की पूर्वपीठिका है अथवा ये सब स्वयं हिंसक मनोभाव है। प्रेम में समर्पण है। समर्पण में अभिमान, क्रोध आदि हिंसक वृत्तियों का विगलन होता है।

वैष्णव वेदांत संप्रदायों में सबकी तत्त्वमीमांसीय पृष्ठभूमि में कुछ-कुछ भिन्नता होते हुए भी भक्ति को मुक्ति का प्रमुख साधन स्वीकार करने में इनमें मतैक्य है। वैष्णव वेदांत में अहिंसा पर विचार करते समय इनके तत्त्वमीमांसीय आग्रहों का गौण रूप से और सगुणोपासना की आधारशिला भक्ति का प्रमुखतः विवेचन अपेक्षित है।

वैष्णव वेदांती भक्ति को प्रायः ईश्वर प्राप्ति के साधन के रूप में स्वीकार करते हैं, परंतु वल्लभाचार्य का पुष्टिमार्ग भक्ति को फलरूपा अथवा साध्य रूप में स्वीकार करते हैं। श्रीमद्भागवतगीता, नारद-भक्ति सूत्र, शांडिल्य-भक्तिसूत्र, दक्षिण के आलवार संतों का तमिल भाषा में लिखा चार हजार पदों का संग्रह प्रबंधम् और पांचरात्र वैष्णवी भक्ति के प्रमुख स्रोत रहे हैं। रात्र का अर्थ ज्ञान है। परम तत्त्व, मुक्ति, भुक्ति योग और विषय (जगत) इन पांच विषयों का निरुपण करने के कारण इन्हें पांचरात्र कहते हैं। पांचरात्र के आराध्य देव नारायण है। नारायण ईश्वर है जो दयालु, कृपालु, करुणानिधान और भक्तों पर अनुग्रह करते हैं। यह भक्तिमार्ग का वैशिष्ट्य है कि ईश्वर में अगाध श्रद्धा रखने वाला कोई भी स्त्री-पुरुष भक्ति का अधिकारी हो सकता है। वर्गभेद, जातिभेद, लिंगभेद के लिए भक्ति में काई स्थान नहीं है। आलवार संतों में एक स्त्री और कुछ निम्न समझी जाने वाली जाति के थे और ये सभी संत समाज में समान रूप से पूज्य रहे हैं। ईश्वर की शरणागति ग्रहण करने वाले प्रत्येक स्त्री-पुरुष के लिए भक्ति के द्वार खुले हैं। भक्ति सामाजिक समरसता, सौहार्द और सद्भाव का आधार है। भक्ति ईश्वर के प्रति भक्त का निःस्वार्थ और कामनारहित प्रेम है। यह जगत ईश्वर की रचना है। ईश्वर सब प्राणियों में अंतर्यामी रूप से विद्यमान है। प्राणिमात्र से प्रेम करना वस्तुतः ईश्वर से प्रेम करना ही है। किसी भी व्यक्ति से द्वेष करना, उसका अपमान करना अथवा उसे कष्ट देने का अर्थ है ईश्वर की इच्छा के प्रतिकूल आचरण करना, ईश्वर को रुष्ट करना और कोई भी भक्त अपने आराध्य को कभी रुष्ट करना नहीं चाहेगा। लौकिक प्रेम में भी कोई भी सच्चा प्रेमी अपने साथी के प्रतिकूल व्यवहार नहीं करना चाहता, भक्ति तो दिव्य और परम उदात्त प्रेम है। प्रेम और हिंसा में परस्पर आत्यंतिक विरोध है। जहां प्रेम है वहां हिंसा नहीं पनप सकती और जहां हिंसा है वहां प्रेम नहीं रह सकता। इसलिए ईश्वर के सच्चे भक्त कभी हिंसक हो ही नहीं सकते। प्रेम एक सकारात्मक मनोभाव है। व्यक्ति जिससे प्रेम करता है उसकी सुख-सुविधा और प्रसन्नता के लिए वह हर प्रकार के त्याग के लिए स्वयं कष्ट उठाने के लिए तत्पर रहता है। इस भय से कि ईश्वर कहीं रुष्ट न हो जाए भक्त हिंसा, द्वैष आदि नकारात्मक भावों से दूर रहने की चेष्टा करता है।

नारद-भक्ति सूत्र में कहा गया है वह (भक्ति) ईश्वर के प्रति परम प्रेम रूपा है (सा त्वस्मिन् परमप्रेरूपा।। 2।।) शांडिल्य-भक्ति सूत्र में भी भक्ति को ईश्वर के प्रति परम अनुराग बतलाया है (सा परानु रत्किरीश्वरे।। 2।।)। प्रेमाभक्ति वेदोक्त विधि-निषेधात्मक अनुष्ठानों को नहीं मानती। प्रेमाभक्ति (पराभक्ति) में भक्त ईश्वर को सर्वस्व मानकर अपने श्वासोच्छवास में उसका निरंतर स्मरण करते हुए भाव विह्वल हो उठता है। प्रेमी भक्त ईश्वरीय प्रेम को पाकर सर्वत्र प्रेम को ही देखता है, प्रेम को ही सुनता है, प्रेम का ही वर्णन करता है और प्रेम का ही चिंतन करता है, ऐसी प्रेमाभक्ति के उदय होने पर विधि-निषेधपरक ज्ञान का क्षय हो जाता है (तयोपक्षयाच्च-शांडिल्य-भक्तिसूत्र 5) कुछ विद्वानों ने भक्ति को ज्ञानपरक बताया है। शांडिल्य ने इसी बात का विरोध करते हुए ज्ञान को भक्ति का विरोधी कहा है। यथार्थ में ज्ञान और भक्ति विरोधी नहीं है। वैष्णव वेदांत में ज्ञान को साधन और भक्ति को साध्य अथवा फल माना है। ज्ञान और सत्कर्म से चित्त शुद्ध होता है। शुद्ध चित्त में ईश्वर के प्रति प्रेम का उदय होता है। शांडिल्य सूत्र में ही आगे कहा गया है कि वह भक्ति ही मुख्य है; क्योंकि ज्ञान योगादि इतर साधन उसकी अपेक्षा रखते हैं। ज्ञानादि साधन अंग है और भक्ति अंगी है (सा मुख्येतरापेक्षितत्वात्-शांडिल्य-भक्ति सूत्र 10)।

सदाचार को प्रेमाभक्ति अथवा परभक्ति का साधन बतलाया है। विषय भोगों में तल्लीन व्यक्ति राग-द्वेष, काम-क्रोध, लोभ-मोह जैसे विपरीत आचरण से स्वयं को नहीं बचा पाता। यह विपरीत आचरण चित्त को मलिन बनाता है। मलिन अंतःकरण में कंचन-कामिनी के प्रति ही आसक्ति दृढ़ होती है, ईश्वर के प्रति प्रेम नहीं। ईश्वरानुराग तो शुद्ध अंतःकरण में ही उदित होता है। शुद्धांतःकरण के लिए सदाचार की अनिवार्यता को सभी संप्रदाय एकमत से स्वीकार करते हैं। नारद-भक्ति सूत्र अहिंसा, सत्य, शौच, दया, आस्तिकता के पालन पर बल देता है (अहिंसासत्यशौचदयास्तिक्यादि चारित्र्याणि परिपालनीयानि-नारद-भक्ति सूत्र-79) अहिंसा और सत्य प्रमुख सद्गुण है। अहिंसा और सत्य के पालन से अन्य सद्गुणों का पालन स्वतः ही हो जाता है। जहां अहिंसा और सत्य है वहां दया, अचौर्य, ब्रह्मचर्य का पालन अपने आप हो जाता है। अहिंसा और प्रेम में परस्पर सद्भाव है। सकारात्मक अहिंसा को प्रेम कह सकते हैं। प्राणियों के प्रति प्रेम भाव ही हमें उनके प्रति अहिसंक बनाता है। प्रेम राग का उदात्तीकरण है। राग में स्वार्थ निहित होने से संकुचित होता है; फलतः राग-द्वेष को जन्म देता है। निःस्वार्थ प्रेम सार्वजनिन स्वरूप का होता है। वैष्णवों का ईश्वरीय प्रेम नारायण, कृष्ण अथवा विष्णु के विग्रह तक सीमित नहीं है। यह अवश्य है कि अर्चावतार के रूप में वैष्णव प्रतिमा में ईश्वर को विद्यमान मानते हैं, परंतु साथ ही ईश्वर के सर्वव्यापी होने के कारण वे समस्त प्राणियों में दिव्यत्व का दर्शन भी करते हैं। यह सार्वभौम दिव्यत्व ही वैष्णवों के प्रेम का आधार है। इस दिव्य प्रेम की भाव-भूमि में अहिंसा पल्लवित और पुष्पित होती है। जो समस्त प्राणियों के प्रति निर्वैर है, जिसके मन में किसी के प्रति शत्रु भाव नहीं है, वही व्यक्ति ईश्वर को प्राप्त करने योग्य है (निर्वैर : सर्वभूतेषु यः स मामेति पांडव-गीता ङ्गढ्ढ-55) जो समस्त भूतों के प्रति द्वेष रहित है और उनके प्रति करुणा और मैत्री भाव रखने वाला है, वह ईश्वर को अति प्रिय है। (अद्वेष्टा सर्वभूतानां मैत्रः करुण एव च गीता-ङ्गढ्ढढ्ढ-13) ईश्वरानुराग में लीन भक्त का यह उदात्त आदर्श समस्त वैष्णव वेदांतियों को स्वीकार्य है।

कर्मकांडी पुरोहित वर्ग द्वारा ईश्वर के लिए बंद किए द्वार वैष्णवी भक्ति ने समाज के सब वर्गों के लिए खोल दिए। विधि-निषेध और विधि-विधान से उपजे लैंगिक, जातिगत, वर्गगत आदि समस्त भेदभाव प्रेमाभक्ति के प्रभाव के आगे धराशायी हो गए। प्रेम की उर्वरा भाव-भूमि में तो सद्भाव और समरसता का उपवन ही महक सकता है, भेदभाव और छुआछूत के दलदल को पनपने का वहां कोई अवसर नहीं। प्रेमाभक्ति ने भेदभाव, आडंबर और रूढ़ियों से रहित स्वस्थ सामाजिक-समरसता की संभावना के बीज बोकर भारतीय संस्कृति की उदारता में श्रीवृद्धि की। वैष्णव भक्तों ने यह सिद्ध कर दिया कि प्रेम ज्ञान से श्रेष्ठ है। प्रेम पर आधारित समाज में हिंसा, द्वेष, विषमता, आडंबर आदि को कोई प्रोत्साहन नहीं मिलता। नारद और शांडिल्य दोनों ही भक्ति में सामाजिक वैषम्य को स्पष्ट रूपेण नकारते हैं। नारद स्पष्ट रूप से कहते हैं कि उनमें (भक्तों में) जाति, विद्या, रूप, कुल, धन और क्रिया का भेद नहीं है; क्योंकि (सारे भक्त) उनके (भगवान के) ही हैं (नास्ति तेषु जातिविद्यारूपकुलधनक्रियादि भेदः।। 72।। यतस्तदीयाः।। 73।।) शांडिल्य के अनुसार जिस प्रकार अहिंसा, सत्य, अस्तेय आदि सामान्य धर्मों के ज्ञान और अनुष्ठान (पालन) में सबका समान अधिकार है, ठीक उसी प्रकार भक्ति में भी उच्च जाति से लेकर चाडांलादि निम्न जाति तक के सभी मनुष्यों का समान रूप से अधिकार है (आनिंद्ययोन्यधिक्रियते पारंपर्यात् सामान्यवत्-शांडिल्य-भक्ति सूत्र-78) कर्मकांडी पुरोहित वर्ग ने वैदिकी ज्ञान में स्त्रियों और निम्न समझी जाने वाली जातियों की भागीदारी को स्वीकार नहीं किया था इसी संदर्भ में गीता ईश्वर की भक्ति में सबके समान अधिकार का समर्थन करती है। स्त्रियां, वैश्य अथवा शूद्र, यहां तक कि महापापी भी, जो भी ईश्वर की शरण में जाता है वह परम गति अर्थात् मोक्ष को प्राप्त करता है (मां हि णर्थ व्यापाश्रित्य येऽपि स्युः पापयोन्यः। स्त्रियो वैश्यस्तथा शूद्रास्तेऽपि यांति परां गतिम्।। ढ्ढङ्ग-32 )

भक्ति को सर्वोच्च शिखर पर प्रतिष्ठित करने में वैष्णव वेदांताचार्य रामानुज और वल्लभाचार्य की प्रमुख भूमिका रही है। रामानुज मुख्य भक्ति की पूर्वपीठिका के रूप में चित्त शुद्धि के उपाय बतलाते हैं जो इस प्रकार है-विवेक, विमोक (विषयों से विमुख होना और ईश्वर के प्रति लगन) अभ्यास (ईश्वर का सतत स्मरण), क्रिया (परहितार्थ किए जाने वाले कर्म), कल्याण (सब प्राणियों के लिए शुभाकांक्षा), सत्य, आर्जव (सरलता), दया, अहिंसा, दान, अनवसाद (सर्वदर्शन संग्रह ढ्ढङ्क) यहां ध्यान देने योग्य बात यह है कि मुख्य भक्ति की उपर्युक्त पूर्वपीठिका के क्रिया (परहितार्थ कृत्य कर्म), कल्याण (समस्त प्राणियों के प्रति शुभाकांक्षा) दया (प्राणियों के प्रति मृदुता का भाव), अहिंसा (किसी भी प्राणी को किसी भी प्रकार की पीड़ा नहीं पहुंचाना) दान (परार्थ तन, मन, धन का त्याग) ये अंग व्यक्ति की आत्मकेंद्रित (व्यष्टि) चेतना को सामाजिक (समष्टि) चेतना में विकसित करते हैं। भक्ति के इस पूर्वाभ्यास से व्यक्ति अपने निजी स्वार्थ से परे जाकर लोक-कल्याण के लिए चिंतन, मनन और कर्म करता है। लोक-कल्याण त्याग, प्रेम, सद्भाव, सौहार्द, सहयोग, अहिंसा जैसे सामाजिक सद्गुणों के बिना संभव नहीं। इस रूप में भक्ति व्यक्ति को एक सहृदय सामाजिक-आध्यात्मिक मनुष्य में (Compassionate socio-spiritual man) रुपांतरित करती है, जिसका जीना अपने लिए न होकर दूसरों के लिए होता है। ईश्वर में आस्था रखने और सब में ईश्वर की उपस्थिति देखने के कारण भक्त कोरा सामाजिक ही न होकर आध्यात्मिक भी होता है। सच्चा ईश्वरानुराग अहिंसा ओर प्रेम का सुदृढ़ आधार सिद्ध होता है।

उपर्युक्त वैधी भक्ति से प्रपत्ति अर्थात् शरणागति उपजती है। शरणागति ही मुख्य या पराभक्ति है। रामानुज इस पराभक्ति को ही ज्ञान कहते हैं क्योंकि पराभक्ति से ही ईश्वर का साक्षात् अंतर्ज्ञान (ष्ठ Direct intuitive knowledge) होता है। अतः पराभक्ति (शरणागति) ज्ञान ही है। ईश्वर के प्रति अपनी निजता का पूर्ण समर्पण शरणागति है। ईश्वर की शरणागति ग्रहण करने वाला प्रसाद अर्थात् ईश्वर की अनुकंपा को प्राप्त करता है। अहिंसा, करुणा, प्रेम आदि सभी निःस्वार्थ भाव से परहितार्थ किए जाने वाले शुभ कर्म ईश्वर के अनुकूल अर्थात् उसे प्रसन्न करने वाले कर्म है। हिंसा, काम, क्रोध, द्वेष आदि अशुभ कर्म ईश्वर के प्रतिकूल है।

सभी वैष्णवाचार्य इस बात में एकमत है कि भक्ति ईश्वर के प्रति अनन्य प्रेम है। जगत ईश्वर की सृष्टि है तथा वह सबमें अंतर्यामी रूप से विद्यमान है। ईश्वर में अनुराग रखने वाला भक्त सब जीवों से प्रेम करता है और निःस्वार्थ भाव से लोकहितार्थ कर्म करना अपना धर्म समझता है। क्योंकि वह जानता है कि परोपकार, लोक-कल्याण, सत्य, अहिंसा, प्रेम आदि शुभकर्म ईश्वर के अनुकूल है। क्रोध, कपट, हिंसा, असत्य आदि ईश्वर के प्रतिकूल है। अतः ईश्वरानुराग के रूप में भक्ति अहिंसा का आध्यात्मिक आधार है।

- शिवनारायण जोशी ‘शिवजी’

व्यीगोत्स्की : द्रष्टव्य : सांस्कृतिक मनोविज्ञान।

व्लादिमीर वर्नाद्स्की : द्रष्टव्य : चेतना-मंडल।

शांति : अंतर्राष्ट्रीय क्षेत्र में विश्व शांति वर्तमान युग की प्रथम आवश्यकता है। दो विश्वयुद्धों की महाविभीषिका से यह सिद्ध हो चुका है कि मानव कल्याण युद्ध में न होकर शांति में है। युद्धों से क्रोध, घृणा एवं प्रतिशोध का जन्म होता है जबकि शांति से प्रेम, करुणा एवं मातृत्व का उदय होता है। युद्ध अपने पीछे कड़वाहट तथा भावी युद्धों के बीज छोड़ जाता है, जबकि शांति चिरस्थायी, प्रेम और सद्भाव पर आधारित दुनिया की नींव डालती है। शांति का दर्शन विश्व की सर्वाधिक प्राचीनतम अवधारणाओं में से एक है। शांति व्यक्तिगत स्तर से लेकर वैश्विक स्तर तक हमारे साथ रहती है। प्रायः, लोग इसे दुर्लभ एवं कल्पनीय वस्तु समझते हैं, परंतु वे मनुष्य के आंतरिक मन को समझ नहीं पाते हैं, जो हमेशा शांति की खोज में रहता है।

शांति की पहली धारणा है संघर्ष एवं युद्ध की स्थिति में अल्प विराम। दूसरी धारणा के अनुसार विरोधी राष्ट्रों के मध्य शांति-संधि। तीसरी धारणा के अनुसार संघर्ष, षडयंत्र एवं उत्तेजना से स्वतंत्रता। उपरोक्त तीन धारणाओं से यह कहा जा सकता है कि शांति मैत्री मानसिक शांति एवं स्थिरता का दूसरा नाम है।

हिंदू, जैन एवं बौद्ध परंपरा में शांति को मानसिक शांति, आंतरिक शांति, अंतर्वैयक्तिक शांति, अहिंसा, प्रकृति के साथ अहिंसक व्यवहार का नैतिक अस्त्र माना है। इसी प्रकार चीनी एवं जापानी परंपरा में संस्कृति में समरसता और वैयक्तिक, सामाजिक एवं वैश्विक स्तर पर अनुशासन के साथ ही साथ प्रकृति से संतुलन को शांति मानते है।

शांति अपने आप में एक विस्तृत अवधारणा है एवं उसके अनेक आयाम हैं। शांति, मूलतः, निश्चिंतता, संघर्ष रहित स्थिति के साथ प्रेम की स्थिति की घटना है। अवधारणा के रूप में शांति एक सामाजिक एवं सांस्कृतिक घटना है, जो कि सामाजिक हित एवं ब्रहांड के हितों को प्रदर्शित करती है।

प्रतिष्ठित शांति शोधक जोहान गालटुंग ने हिंसा रहित स्थिति को शांति बताया है। हमें शांति क्रिया, शांति आंदोलन एवं शांति शोध तीनों पर विचार करने की आवश्यकता है। शांति क्रिया, हिंसा की विरुद्ध की जाने वाली क्रिया है। शांति शोध एक निश्चित स्थान पर हो रही हिंसा को समझना एवं उसका निदान ढूंढना है एवं शांति आंदोलन समाज में हिंसा को कम करने का प्रयास है। शांति को निम्नलिखित स्तरों पर समझा जा सकता है। (1) शांति की अवधारणा सामाजिक एवं सांस्कृतिक प्रघटना है जो वैश्विक व्यवस्था एवं सामाजिक हित को प्रदर्शित करती है। (2) शांति को हम एक उपकरण एवं मजबूत प्रघटना के रूप में भी देख सकते है (3) शांति के लिए सिर्फ एक तथ्य पर विचार करना व अशांति का कारण मात्र खोजना पर्याप्त नहीं, वरन् समूचे ढांचे को समझना आवश्यक है और (4) शांति सतही नहीं व्यापक अवधारणा है, जिसे एक-एक समस्या के निदान के बजाए कभी न समाप्त होने वाली प्रक्रिया के रूप में देखा जाना चाहिए।

शांति एक ऐसा भाव है जिसे विभिन्न स्तरों पर स्थापित किया जा सकता है। केपलान ने शांति के चार प्रकार बताए है। प्रेक्षणात्मक (अवलोक-नात्मक), अप्रत्यक्ष अवलोकनीय, रचनात्मक एवं सैद्धांतिक। केपलान का शांति का वर्गीकरण कुछ मामलों में रचनात्मक है तो कुछ में सैद्धांतिक। जब हिंसा अथवा हिंसारहित स्थिति में आम स्तर पर तथ्यों का अवलोकन किया जाता है तो यह रचनात्मक पक्ष है। इसका अवलोकनात्मक पक्ष व्यावहारिक है, वहीं सैद्धांतिक पक्ष आदर्श है। इस प्रकार शांति के विविध प्रकार विविध स्थितियों में प्रयोग होते हैं। इस कारण इसका अर्थ कुछ जटिल-सा हो जाता है।

शांति एक मूल्य है तथा प्रत्येक मानव के मन में एक अहिंसापूर्ण समाज की स्थापना की इच्छा होगी। युद्ध का समय शांति के समय से कहीं अधिक है। इसी आधार पर स्थायी शांति की आशा का जन्म होता है। कुछ विचारक, जैसे कांट, इसी आधार पर स्थायी शांति की प्राप्ति के लिए मानव समाज को प्रयासरत मानते है। उनके अनुसार मानव इसकी प्राप्ति के लिए अपने आचरण में परिवर्तन लाता है और इसके अस्तित्व के स्थायित्व को वास्तविक बनाता है।

जोहन गालटुंग ने नकारात्मक शांति को युद्ध रहित स्थिति मानते हुए, इसे सकारात्मक शांति अर्थात् संस्थात्मक या सरंचनात्मक हिंसा रहित स्थिति, से अलग किया। यदि युद्ध नहीं हो रहा है, लेकिन घरों में महिलाओं एवं बच्चों के साथ दुर्व्यवहार हो रहा है या उन्हें भोजन, दवा, कपड़े उचित मात्रा में उपलब्ध नहीं हो रहे हैं, या लोगों के राजनीतिक एवं आर्थिक अधिकारों का हनन हो रहा है, सामाजिक ढांचा लड़खड़ा रहा है, मानवता जैसे मूल्य खतरें में है तो शांति का अस्तित्व खतरे में है। अतः, सकारात्मक शांति जीवन की गुणवत्ता में है।

विश्व शांति के मूलाधार निम्नलिखित माने जा सकते हैं-(1) मानवता-मानवता का धर्म संसार के सभी धर्मों से श्रेष्ठ है। यह धर्म हमें मानव से मानव के प्रेम की शिक्षा देता है। मानवता हमें प्रेम, करुणा, कल्याण का संदेश देता है और इससे हमारे हृदय में जलन, द्वेष एवं ईर्ष्या के भाव कभी नहीं पनपेंगे। मानवता व्यापक रूप लेकर शांति का केंद्रीय तत्त्व बनेगी। (2) धर्म-सभी धर्म हमें शांति, सहयोग एवं भ्रातृत्व की शिक्षा देते है। धर्म मनुष्य को एक श्रेष्ठ मनुष्य बनाने का माध्यम है। हम किसी भी धर्म का पालन करें, हमारे व्यक्तित्व में उदारता की प्रवृत्ति तो धर्म विश्व-शांति के मार्ग में साधन बन जाता है। (3) समानता-संसार के सभी व्यक्ति समान है। धर्म, जाति, वर्ण, लैंगिकता, धन के आधार पर असमानता को आधार बनाकर शोषण की प्रवृत्तियों को बढ़ावा दिया जाता है। अमीर राष्ट्र को गरीब राष्ट्रों का शोषण न करके उन्हें उन्नत करने का प्रयास करना चाहिए अन्यथा विश्व दो भागों में बंट जाएगा और युद्ध की संभावनाएं बढ़ जाएंगी। (4) अहिंसा-अहिंसा विश्व शांति का अमोघ अस्त्र है। अस्त्रों-शस्त्रों की होड़ एवं हिंसक प्रवृत्तियों ने शांति को छीन लिया है। विश्व-शांति की स्थापना के लिए किसी भी समस्या के समाधान के लिए शस्त्रों का उपयोग न हो तथा किसी के प्रति बुरी भावना न पनपे क्योंकि सच्ची अहिंसा मन, कर्म एवं वचन के पालन में निहित है। (5) सत्य-व्यक्ति शस्त्रों से शक्तिशाली नहीं होता अपितु सत्य की शक्ति उसे शक्तिशाली बनाती है। दुनिया में अशांति के कारण झूठ, छल, कपट, एवं द्वेष का जन्म होता है। हमारे सामाजिक ढांचे और अंतर्राष्ट्रीय संबंधों में सत्य के स्वरूप को सर्वमान्य एवं स्वीकार करना चाहिए। (6) सर्वोदय-सर्वोदय का तात्पर्य है सबका उदय अर्थात विश्व समाज के प्रत्येक तबके या समान रूप से विकास। राष्ट्र प्रतिस्पर्धा के स्थान पर सहयोग से अपनी आर्थिक एवं राजनीतिक गतिविधियां करें। संपन्न राष्ट्र गरीब राष्ट्रों के उत्थान का कार्य करेंगे तो सर्वोदय सफल सिद्ध होगा और विश्व शांति की स्थापना होगी। (7) अंतर्राष्ट्रीय-विश्व बंधुत्व ऐसी नींव है जिसकी इमारत पर विश्व शांति का परचम फहराएगा। अंतर्राष्ट्रीयतावाद सहयोग को बढ़ाता है, सौहार्द को बढ़ाता है तथा प्रेम और शांति के नवीन आयाम प्रस्तुत करता है। (8) सार्वभौमिकता-यह एक ऐसा तत्त्व है जो किसी भी राष्ट्र का किसी भी वस्तु के प्रति एकाधिकार समाप्त करता है। यदि संसाधनों पर सभी राष्ट्रों को अधिकार मिले तो उनके मध्य आर्थिक असंतुलन नहीं रहेगा तथा विश्व शांति का मार्ग प्रशस्त होगा। (9) सहिष्णुता-दूसरों की भावनाओं, संस्कृति, सभ्यता, धर्म विचार, आचरण मान्यताओं एवं विश्वास का सम्मान करना ही सहिष्णुता की भावना है। ऐसा करने से दूसरे व्यक्ति, समूह या राष्ट्रों के बीच विवाद होने पर आदर भाव एवं पारस्परिकता से उनका समाधान किया जा सकता है। (10) त्याग-अपने संकीर्ण या निजी स्वार्थों के लिए समाज या विश्व के हितों को भुला देने से शांति-स्थापना में चुनौतियां उपस्थिति होती हैं, जिन्हें त्याग एवं विश्व-कल्याण की भावना से हल किया जा सकता है। (11) सत्याग्रह-सत्याग्रह का अर्थ है सत्य के लिए आग्रह। अपने अधिकारों के लिए अहिंसा, असहयोग, सविनय अवज्ञा, हड़ताल, धरना, उपवास एवं हिजरत के माध्यम से संघर्ष करना ही सत्याग्रह है। अतः असत्य, अधर्म का अहिंसामय साधन से विद्रोह सत्याग्रह है। (12) साम्राज्यवाद एवं उपनिवेशवाद का उन्मूलन-विश्व शांति को सबसे ज्यादा क्षति साम्राज्यवादी एवं उपनिवेशवादी ताकतों से हुई है। इन ताकतों ने अपने हितों एवं स्वार्थों की पूर्ति के लिए कमजोर राष्ट्रों का शोषण किया, जिन्हें मुक्ति हेतु विद्रोह एवं हिंसा का मार्ग अपनाना पड़ा। इससे विश्व शांति को धक्का लगा। अतः, शांति की स्थापना के लिए साम्राज्यवादी एवं उपनिवेशवादी ताकतों पर रोक लगाना आवश्यक है।

विश्व में शांति स्थापना करने के लिए विविध प्रकार के प्रयास किए जा रहे हैं, लेकिन, अभी तक शांति-स्थापना का कार्य न के बराबर हुआ है क्योंकि इसके समक्ष अनेक चुनौतियां हैं जो निरंतर शांति के मार्ग को अवरुद्ध कर रही हैं। विश्व शांति के समक्ष जो वैश्विक समस्या बाधक हो रही हैं, उनका प्रमुख कारण व्यक्ति एवं समाज के मध्य होने वाली अंतःक्रियाएं हैं। वैश्विक समस्याएं स्थानीय भी हो सकती हैं, और क्षेत्रीय एवं राष्ट्रीय भी। इन समस्याओं को सामान्य क्षेत्रों में आसानी से पहचाना जा सकता है। जैसे, जनसंख्या एवं विकास, आर्थिक समस्या, शस्त्रीकरण, भोजन, ऊर्जा, सामाजिक समस्या, पर्यावरण, विज्ञान एवं तकनीक, आतंकवाद, साम्राज्यवाद, सांप्रदायिकता, भाषावाद एवं भ्रष्टाचार इत्यादि।

विश्व में अनेक प्रकार के शांति आंदोलन हुए है जो मनोराजनैतिक प्रघटना के आधार पर नींव के पत्थर साबित हुए। पश्चिम में शांति के स्थापना के लिए अनेक नेता हुए, जिन्होंने शांति आंदोलन को व्यापक जन-आंदोलन बनाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई।

कुछ प्रमुख शांतिवादी आंदोलन निम्नलिखित हैं-(1) नागरिक अधिकार आंदोलन 1964 ई०-नस्लभेद एवं काले गौरे के बीच पनपती घृणा से आहत मार्टिन लूथर किंग (जू) ने अमरीका के गांधी के अहिंसक तरीकों को अपनाते हुए आंदोलन किए जिससे प्रभावित हो अमरीकी संसद को सिविल राइट्स एक्ट ऑफ 1964 ई० पारित करना पड़ा। इस एक्ट में रंगभेद मिटाकर सभी नागरिकों को मतदान, शिक्षा, आवास, रोजगार एवं कानूनी संरक्षण के अधिकार दिए। (2) कैंपेन फॉर न्यूक्लियर डिसआर्मामेंट (सी०एन०डी०) आणविक निशस्त्रीकरण हेतु बनाई गई एक ब्रिटिश संस्था है। यह आंदोलन ब्रिटेन तक ही सीमित न रहकर पूरे महाद्वीप का आंदोलन बन गया। 1980 ई० में आणविक शस्त्रों को लेकर हो रही दोहरी रणनीति एवं ट्रिडेंट मिसाइल के विरोध में रैली निकाली गई। यूरोप के अनेक धार्मिक समितियों, चर्च, युवा संगठनों, लेबर पार्टी तथा अनेक संगठनों के प्रारंभिक सहयोग से यह आंदोलन सफल होता गया। (3) यूरोपीयन आणविक निःशस्त्रीकरण (इ०एन०डी०) की स्थापना 1980 ई० में ब्रिट्रेन में ई०पी० थांपसन ने की। यह एक ऐसा महाद्वीपीय आंदोलन था जो कि विविध प्रदर्शनों एवं प्रतीकों द्वारा निशस्त्रीकरण की गति को बढ़ा रहा था। ब्रिटेन की आणविक नीति अमरिकन आणविक नीति से जुड़ी थी। पर वे ब्रिटेन में पूर्ण निशस्त्रीकरण चाहते थे। इसके लिए उन्होंने सम्मेलन, सभाओं, नाटकों, प्रार्थनाओं, हस्ताक्षर अभियान, निशस्त्रीकरण से संबंधित साहित्य की बिक्री इत्यादि द्वारा आंदोलन के प्रभाव को विश्व भर में पहुंचाया। (4) द्वितीय विश्वयुद्ध की समाप्ति के बाद संपूर्ण विश्व दो महाशक्तियों के मध्य बंट गया। नव-स्वतंत्र राष्ट्रों के पास दो ही रास्ते थे या तो वे अमरीकी महाशक्ति या सोवियत रूस को अपना समर्थन दे। परंतु एक तीसरा विकल्प तटस्थता या गुट-निरपेक्षता का भी था। भारत के तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहरलाल नेहरू ने आव्हान किया कि गुटों की राजनीति से, जिसके कारण दो विश्व युद्ध हुए हैं, दूर रहो। गुट निरपेक्ष आंदोलन ने साम्राज्यवाद, उपनिवेशवाद, नस्लभेद, महाशक्तियों के दबाव इत्यादि के विरूद्ध आवाज उठाई, साथ ही, गुट-निरपेक्ष राष्ट्रों के मध्य मैत्री विकसित करने, परस्पर सामाजिक एवं आर्थिक सहयोग को बढ़ावा देने, गरीब राष्ट्रों को मुख्य धारा से जोड़ने, मानवाधिकारों के संरक्षण एवं शांति आधारित नई अंतर्राष्ट्रीय व्यवस्था की आवश्यकता पर बल दिया।

अंत में कहा जा सकता है कि विश्व भर में चल रहे शांति आंदोलनों पर गांधी दर्शन एवं प्रविधियों का गहरा प्रभाव रहा। शांति आंदोलनों को निम्नलिखित तीन स्वरूपों में समझा जा सकता है। पहले बौद्धिक प्रक्रिया के रूप में, जिससे उपलब्ध उदारवादी पूंजीवादी एवं मार्क्सवादी-लेनिनवादी प्रतिमान के स्थान पर वैकल्पिक शांति प्रतिमान स्थापित किया जा सके। दूसरे, एक सामाजिक आंदोलन के रूप में, जो शक्ति एवं सत्ता की संरचनाओं का विरूद्ध करती है और एक समतामूलक विश्व की संभावनाओं को तलाशती है। और तीसरे एक आध्यात्मिक अथवा सांस्कृतिक रूपांतरण के द्वारा, जिससे एक सांस्कृतिक आंदोलन खड़ा हो जो शांति की संस्कृति को स्थापित कर सके।

आज हम वैश्विक शांति क्रांति के युग में प्रवेश कर चुके है। विभिन्न देशों में कार्यरत शांति समुदाय निरंतर चिंतन-मनन, नेट वर्किंग, सम्मेलनों एवं जनमत द्वारा इस अंतिम मानवीय क्रांति शांति क्रांति की रूपरेखा तैयार कर रहे है, जिससे एक सुंदर दुनिया का निर्माण हो और मनुष्य ही नहीं, जीवन के सभी रूप सद्भाव एवं सहअस्तित्व के साथ रह सकें।

द्रष्टव्य : शांतिवाद।

- प्रो० विद्या जैन

शांति-आंदोलन : द्रष्टव्य : शांति।

शांति दिवस (अंतर्राष्ट्रीय) : 21 सितंबर प्रतिवर्ष अंतरराष्ट्रीय शांति दिवस के रूप में मनाया जाता है। यह दिन कई राष्ट्रों, राजनीतिक व सैन्य समुदायों और नागरिकों द्वारा शांति, विशेषकर युद्ध की अनुपस्थिति के रूप में मनाया जाता है। संयुक्त राष्ट्रसंघ के मुख्यालय में शांति घंटा (Peace Bell) बजाकर इस दिन का शुभारंभ किया जाता है। इस घंटे का निर्माण सभी महाद्वीपों के बच्चों के द्वारा एकत्रित और समर्पित सिक्कों को गलाकर बनाया गया है-जिसे जापान की डाइट ने संयुक्त राष्ट्र संघ को भेंट किया है, जिसके एक तरफ लिखा है Long Live Absolute Peace.

1981 ई० में संयुक्त राष्ट्र की साधारण सभा में कोस्टारिका देश ने एक प्रस्ताव प्रस्तुत किया जिसमें प्रतिवर्ष साधारण सभा के आहूत होने वाले सत्र के पहले दिन (सितंबर माह का तीसरे बुधवार) को अंतरराष्ट्रीय शांति दिवस के रूप में मनाए जाने का प्रस्ताव था ताकि एक दिन पूरे विश्व में अंतरराष्ट्रीय शांति को समर्पित हो और विश्व उस दिन युद्ध की विभीषिका को नहीं झेले। 2001 ई० में संयुक्त राष्ट्र की साधारण सभा में एक नया प्रस्ताव ब्रिटेन की तरफ से आया, जिसमें विश्व शांति दिवस के रूप में एक दिन विशेष निश्चित कर दिया जाए और इसे वैश्विक अयुद्ध दिवस के रूप में मनाया जाए। इसी क्रम में संयुक्त राष्ट्र की साधारण सभा ने वर्ष 2002 ई० में 21 सितंबर को स्थाई रूप से प्रतिवर्ष अंतरराष्ट्रीय शांति दिवस के रूप में मनाए जाने की घोषणा की।

प्रश्न है कि अंतरराष्ट्रीय शांति दिवस मनाने की आवश्यकता क्यों पड़ी? साधारणतया राज्यों के सशस्त्र अथवा हिंसात्मक संघर्ष को युद्ध कहते हैं। ओपेनहाइम के अनुसार युद्ध का अर्थ है संघर्ष; सशस्त्र सेनाओं द्वारा हिंसात्मक संघर्ष। उसका लक्ष्य एक राज्य द्वारा दूसरे राज्य को पराजित कर इसको अपनी बात मानने के लिए बाध्य करना है। अतः युद्ध की दो आवश्यकताएं हैं-(1) यह एक हिंसात्मक संघर्ष होता है और (2) यह संघर्ष राज्यों के मध्य होता है। केवल राज्यों के सशस्त्र संघर्ष को युद्ध कहते हैं; परंतु अनेक ऐतिहासिक दृष्टांत ऐसे मिलते हैं जिनमें-(1) राज्य एक-दूसरे के विरुद्ध युद्ध की घोषणा करके भी वास्तव में युद्धरत नहीं हुए परंतु वैधिक दृष्टि से युद्धकारी बन गये। उदाहरणार्थ, द्वितीय विश्व युद्ध की अवधि में जिन पचास राज्यों ने जर्मनी के विरुद्ध युद्ध की घोषणा की थी, उनमें से अधिकांश वास्तविक संघर्ष से अलग रहे और उनकी सेनाएं कभी शत्रु से युद्धरत नहीं हुईं, परंतु वैधिक दृष्टि से वे युद्धरत थे। (2) राज्य एक-दूसरे के विरुद्ध सैनिक कार्यवाही करते हुए भी अपने को युद्धरतनहीं मानते। 1947 ई० में पाकिस्तान द्वारा कश्मीर पर आक्रमण, 1962 ई० का भारत-चीन सशस्त्र संघर्ष, 1965 ई० के भारत-पाकिस्तान शस्त्र संघर्ष को अंतरराष्ट्रीय युद्ध नहीं माना गया। इसी प्रकार 1956 ई० ब्रिटिश सेनाओं ने फ्रांस और इजराइल के साथ मिलकर मिस्र पर आक्रमण किया था परंतु ब्रिटिश प्रधानमंत्री का दावा था कि-ब्रिटेन मिस्र में युद्धरत नहीं है। दोनों के बीच संघर्ष की स्थिति है, युद्ध की नहीं। इन दृष्टांतों से दो निष्कर्ष निकाले जाते हैं-(1) वैधिक रूप से युद्धावस्था न होते हुए भी राज्यों के मध्य सशस्त्र हिंसात्मक संघर्ष हो सकते हैं। और (2) वैधिक रूप से राज्यों के युद्धरत होते हुए भी उनके बीच सशस्त्र हिंसात्मक संघर्ष का होना आवश्यक नहीं है।

राष्ट्रसंघ की स्थापना (1919 ई०) से पूर्व राज्य युद्ध करने को वस्तुतः वैध समझते थे। राज्य न केवल अपने वैधिक अधिकारों के हनन होने पर अपितु अपने वर्तमान अधिकारों में परिवर्तन लाने के लिए भी युद्ध कर सकते थे। यद्यपि उस समय भी उचित और अनुचित युद्ध में भेद किया जाता था, परंतु यह निश्चित करने का कोई निष्पक्ष अथवा स्वतंत्र उपाय नहीं था कि कौन-सा युद्ध उचित है और कौन-सा अनुचित। अतः, युद्ध संबंधी अंतरराष्ट्रीय नियमावली सब युद्धकारियों को समान मानती थी, चाहे उनका पक्ष उचित हो अथवा अनुचित। इस प्रकार युद्ध अंतरराष्ट्रीय विवादों को निबटाने का अंतिम शस्त्र अथवा उपाय माना जाता था।

अंतरराष्ट्रीय विवाद तीन प्रकार के होते हैं- (1) तथ्यों से संबंधित विवाद (2) वैधिक विवाद जिनका संबंध पक्षों के हितों अथवा उनके सम्मान से होता है। इसलिए अंतरराष्ट्रीय विवादों के समाधान के उपायों को दो भागों-शांतिमय और बलकारी-में विभाजित किया जाता है। संयुक्त राष्ट्र के चार्टर में शांतिमय उपायों का अनुमोदन किया गया है। ये सात हैं-वार्तालाप, मध्यस्थता, जांच, संराधन, विवाचन, न्यायिक कार्यवाही और अंतरराष्ट्रीय और क्षेत्रीय संगठनों द्वारा प्रयत्न। संयुक्त राष्ट्र ने अपने चार्टर में अंतरराष्ट्रीय शांति और सुरक्षा के लिए विवादों का न्यायोचित एवं अंतरराष्ट्रीय विधि के अनुकूल शांतिमय समाधान किया जाना आवश्यक माना है। अनु० 2(3) के अंतर्गत यह व्यवस्था है कि, सदस्य राष्ट्र अपने अंतरराष्ट्रीय विवाद शांतिमय उपायों से इस प्रकार तय करेंगे कि अंतरराष्ट्रीय शांति और सुरक्षा अथवा न्याय भंग नहीं हो। अनु० 2(4) के अंतर्गत सदस्य राज्यों का कर्तव्य है कि वे अपने अंतरराष्ट्रीय संबंधों, एक-दूसरे की प्रादेशिक अखंडता अथवा राजनीतिक स्वतंत्रता के विरुद्ध अथवा चार्टर के उद्देश्यों के प्रतिकूल किसी प्रकार से बलप्रयोग नहीं करेंगे और न उसकी धमकी देंगे।

अंतरराष्ट्रीय संबंधों में विवादों के निबटारे के चार प्रकार के बलकारी दृष्टांत मिलते हैं-प्रत्यपहार, प्रतिशोध, शांतिकालीन नाकाबंदी और हस्तक्षेप। इन उपायों में किसी-न-किसी मात्रा में बलप्रयोग पाया जाता है और प्रत्याहार के अतिरिक्त ये अंतरराष्ट्रीय विधि के प्रतिकूल हैं, परंतु कुछ दशाओं में अंतरराष्ट्रीय विधि इनकी वैधता स्वीकार करती है। मुख्य बात यह है कि इन उपायों और युद्ध में भेद है, लेकिन चार्टर के अंतर्गत केवल आत्मरक्षा की स्थिति को छोड़कर अन्य किसी भी स्थिति में बलप्रयोग का एकाधिकार केवल सुरक्षा परिषद् को है। अतः, विवादों को तय करने के परंपरागत बलकारी उपायों में बलप्रयोगों के लिए कोई वैध स्थान नहीं रह गया है। ये उपाय आत्म-सहायता के आवरण में बलवान राज्यों को कानून अपने हाथ में लेने का निमंत्रण देते हैं। इसी संदर्भ में युद्ध के साथ-साथ आतंकवाद जैसे तत्त्वों को वर्तमान में देखा जा सकता है। वस्तुतः, अंतरराष्ट्रीय संबंधों के वलय में ही शांति संभव है क्योंकि अंतरराष्ट्रीय संबंधों में आज वे समस्त घटनाएं और परिस्थितियां सम्मिलित हैं। अंतरराष्ट्रीय संबंध सदैव से सैनिक, राजनीतिक तथा आर्थिक शक्ति से संचालित होते रहे हैं। विश्व के युद्धों में दबाव और सैनिक शक्ति का प्रयोग होता रहा है। शक्ति का बार-बार प्रयोग विश्व आतंकवाद का रूप ले चुका है, जिसके घेरे में अंतरराष्ट्रीय संबंधों व राष्ट्रों की सीमाएं और शक्तियां बेमानी हो गई हैं। मनमानी हिंसा, भय और आतंक का शिकार सामान्यजन बनता जा रहा है और अंतरराष्ट्रीय संबंधों ने आतंकित विश्व समाज का रूप ले लिया है। 11 सितंबर, 2001 ई० को अमेरिका में वर्ल्ड ट्रेड सेंटर पर हमला, 11 मार्च, 2004 ई० को स्पेन के मैड्रिड शहर में आतंकी हमला, 7 जुलाई, 2005 ई० को ब्रिटेन (लंदन)में बम धमाके, 13 दिसंबर, 2001 ई० को भारतीय संसद पर हमला व 26 नवंबर 2008 ई० को मुंबई के ताज होटल तथा अन्य स्थानों पर हमले आदि कुछ चंद उदाहरण हैं जिन्होंने आम लोगों में असुरक्षा और भय उत्पन्न करके उन्हें स्वाभाविक जीवन जीने से रोक दिया है। सेना और पुलिस बल के खर्चों में बढ़ोतरी, औद्योगिक प्रगति में बाधा, पर्यटन उद्योग पर नकारात्मक प्रभाव और जनकल्याणकारी कार्यक्रमों में बाधा इसके नकारात्मक प्रभाव हैं।

इस दृष्टि से निष्कर्ष रूप में अंतरराष्ट्रीय शांति दिवस को मनाए जाने का औचित्य समझ आता है। महात्मा गांधी के इन शब्दों से भी यह समर्थन मिलता है : दुनिया में इतने लोग आज भी जिंदा हैं, यह बताता है कि दुनिया का आधार हथियार बल पर नहीं है अपितु सत्य, दया या आत्मबल पर है। इसका सबसे बड़ा प्रमाण तो यही है कि दुनिया लड़ाई के हंगामों के बावजूद टिकी हुई है। इसलिए लड़ाई के बल के बजाय दूसरा ही बल उसका आधार है। (हिंद स्वराज्य)।

- डॉ० विद्यानंद सिंह

शांतिवाद : शांतिवाद की अवधारणा के कई रूप हैं। इसे किसी भी स्थिति में युद्ध या सैनिक कारर्वाई का विरोध माना जाता है। कुछ शांतिवादियों का मानना है कि किसी भी प्रयोजन के लिए शारीरिक या शस्त्र-बल का इस्तेमाल नहीं किया जाना चाहिए। एक वर्ग ऐसा भी है जो आत्मरक्षा के लिए भी शारीरिक या शस्त्र-बल के प्रयोग से इनकार करता है। शांतिवाद का आधार नैतिक है और व्यावहारिक भी। नैतिक दृष्टिकोण के अनुसार युद्ध, हिंसा या शारीरिक ताकत का किसी भी स्तर पर इस्तेमाल अनैतिक या नैतिक दृष्टि से अनिवार्यतः अनुचित है। व्यावहारिक दृष्टिकोण के अनुसार युद्ध तथा शस्त्र-बल समस्याओं को सुलझा नहीं पाते और साथ ही, वे बहुत महंगे भी पड़ते हैं। इसलिए युद्ध या हिंसा का त्याग ही व्यावहारिक है। ऐसे लोग किसी भी युद्ध को उचित नहीं मानते।

कैंबिज डिक्शनरी ऑफ फिलॉसफि में परम (Absolute) शांतिवाद और सशर्त (Conditional) शांतिवाद दो कोटियों का उल्लेख है। परम शांतिवाद का अर्थ है किसी भी परिस्थिति में युद्ध का अस्वीकार; जबकि सशर्त शांतिवाद युद्ध को अनुचित मानते हुए भी कुछ काल्पनिक परिस्थितियों में उसे स्वीकार्य मान लेता है। प्राचीन इतिहास में इसके उदाहरण के रूप में ईसा को लिया जाता है। सर्मन ऑन दि माउंट में वह कहते हैं कि बुराई का भी प्रतिरोध न करो-यदि कोई तुम्हारे दाएं गाल पर थप्पड़ मारता है तो बायां भी उसके आगे कर दो-जो तुमसे घृणा करते हैं, उनका भी भला करो; जो तुम्हें गाली देते हैं, उनके लिए प्रार्थना करो अर्थात् अपने शत्रुओं से भी प्यार करो। यह माना जाता है कि कोंस्टेंटाइन प्रथम से पूर्व अर्थात् चौथी शताब्दी तक ईसाई जगत में इस शिक्षा का ही पालन किया जाता था और आज भी क्वेकर संप्रदाय या तोलस्तोयवादी लोग इसी सिद्धांत के अनुसार चलते हैं। तोलस्तोय अप्रतिकार को ही स्वीकार करते तथा किसी भी तरह की सैनिक-सेवा को सच्चे ईसाई के लिए त्याज्य मानते हैं। 19वीं शताब्दी में न्यूजीलैंड के मूल निवासी माओरी (Maori) लोगों ने अपने नेता टे विटि-ओ-रोंगोमाइ (Te whiti-o-Rongomai) के नेतृत्व में अपनी जमीनों को सशस्त्र अंग्रेजों से बचाने के लिए न केवल उनका प्रतिरोध नहीं किया, बल्कि चुपचाप गिरफ्तारियां देते हुए भी उनका स्वागत करते हुए भोजन-पानी का प्रबंध भी किया।

लेकिन, महात्मा गांधी का शांतिवाद निष्क्रिय या अप्रतिकार वाला शांतिवाद नहीं, बल्कि सविनय अथवा अहिंसक प्रतिरोध का शांतिवाद है। दक्षिण अफ्रीका में रंग-भेद के खिलाफ तथा भारतवर्ष में स्वाधीनता के लिए उनके नेतृत्व वाले अहिंसक आंदोलन इसकी मिसाल हैं।

दरअस्ल, युद्ध के खतरों और उसके परिणामों के अधिक भीषण होते चले जाने के साथ-साथ हर स्थिति में युद्ध के परित्याग का आग्रह बढ़ता गया है। आणविक अस्त्रों के खतरे ने इस आग्रह को और भी बढ़ाया है। निरस्त्रीकरण के सारे प्रयास इस शांतिवादी आग्रह के ही रूप हैं। प्रथम तथा द्वितीय महायुद्धों के दौर में भी कई शांतिवादी आंदोलनों ने युद्धों में शामिल होने से इनकार कर दिया था। पारंपरिक शांति चर्चों के साथ-साथ वूमैंस पीस पार्टी, इंटरनेशनल कमिटी ऑफ वीमेन फॉर पर्मानेंट पीस तथा अमेरिकन यूनियन अगेंस्ट मिलिटरिज्म का नाम लिया जा सकता है। इस संदर्भ में अमेरिकी कांग्रेस की पहली महिला सदस्य जीनेट रानकिन (Jeanette Rankin) का नाम सदैव उल्लेखनीय रहेगा, जो अमेरिका के महायुद्धों में शामिल होने के प्रस्तावों का विरोध करने वाली एकमात्र कांग्रेस सदस्य थी। इस स्थिति में बर्ट्रेंड रसेल जैसे शांतिवादी ने स्वयं को सापेक्ष शांतिवादी कहा क्योंकि उनके विचार में युद्ध में शामिल होना बुरा होते भी नाजियों को पराजित करना आवश्यक था। एच०जी० वेल्स और अल्बर्ट आइंस्टाइन जैसे शांतिवादी भी द्वितीय महायुद्ध के दौर में, अनिच्छापूर्वक ही सही, युद्ध में शामिल होने को स्वीकार कर रहे थे। दूसरी ओर, डोरोथी डे और एम्मन होनेशी जैसे लोग भी थे जो किसी भी तरह के युद्ध में शामिल होने के विरुद्ध काम कर रहे थे।

शांतिवाद को बहुत आलोचना सहनी पड़ी है क्योंकि जब कुछ लोग युद्ध करने पर आमादा हो तो उससे अलग रह पाना किसी के लिए व्यावहारिक तौर पर संभव नहीं रहता। एक व्यक्ति अपने को अलग रख भी सकता है, लेकिन जिस राज्य पर अपने निर्दोष नागरिकों की रक्षा का दायित्व हो, वह परम शांतिवाद के रास्ते पर टिका नहीं रह सकता। रसेल के सापेक्ष शांतिवाद का यही तर्क था, यद्यपि रसेल की अध्यक्षता में ही अनंतर ब्रिटेन में आणविक निरस्त्रीकरण का आंदोलन चलाया गया।

शांतिवाद केवल युद्ध का विरोध ही नहीं है। वह एक सकारात्मक अवधारणा है, जो शांति के लिए आवश्यक सामाजिक-आर्थिक नीतियों और कार्यक्रमों की मांग करती है। युद्ध और हिंसा का सहारा केवल राष्ट्रवादी या नस्लवादी महत्त्वाकांक्षाओं के कारण ही नहीं लिया जाता; भूख, विषमता या अन्याय को मिटाने के लिए भी लिया जा सकता है। इसलिए शांतिवादी राजनीति ऐसे सामाजिक-आर्थिक नीतियों और कार्यक्रमों की मांग करती है, जिससे अशांति की परिस्थिति पैदा ही न हो सके। जर्मनी की ग्रीन पार्टी का उदाहरण के तौर पर उल्लेख किया जा सकता है। ऐसी ही राजनीति द्वारा विश्व-सरकार की स्थापना का आग्रह किया जाता है, जिससे युद्ध आवश्यक ही न रहे। यह उल्लेखनीय है कि इटली, फ्रांस, जर्मनी, डेनमार्क और कई अन्य देशों के संविधान में शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व तथा युद्ध के अस्वीकार का उल्लेख किया गया है, जो विश्व-जनमत पर शांतिवाद के नैतिक प्रभाव का दर्शाता है।

द्रष्टव्य : शांति; गाल्तुंग, जोहन।

- नंदकिशोर आचार्य

शांति-शिक्षा : इस विश्व में हम सभी किसी न किसी रूप में अपाहिज हैं। हममें से कुछ शारीरिक रूप से, कुछ प्राणिक रूप से, कुछ मानसिक रूप से, कुछ बौद्धिक रूप से और कुछ आध्यात्मिक रूप से पंगु हैं; तथा अधिकांश लोग अपने शरीर के सभी अंगों से अपंग हैं। इस दृष्टि से, सभी जगह धनवान, जो साधन संपन्न, और निर्धन, जो साधनविहीन हैं, अपने स्वयं के आत्म के बारे में अज्ञानता के कारण शारीरिक, प्राणिक, (प्राण संबंधी), मानसिक, बौद्धिक एवं आध्यात्मिक व्याधि से ग्रस्त हैं।

यद्यपि हम सभी किसी न किसी रूप में विकलांग हैं, फिर भी हम एक दूसरे का दमन, शोषण, हत्या, एवं आत्महत्या कर रहे हैं अथवा मानसिक रोगों का शिकार हो रहे हैं। हम देखते हैं कि पूरे विश्व में हर तरफ कुछ लोग धन के पीछे, कुछ लोग नाम के लिए, कुछ प्रसिद्धि के लिए, कुछ सौंदर्य के पीछे, कुछ उपवास करके, कुछ दूसरों की हत्या और कुछ आत्महत्या करने के पीछे पागल हैं। इस प्रकार, लगभग संपूर्ण विश्व पागलखाना बन चुका है। इन सबका कारण विश्व की वर्तमान एवं पूर्ववर्ती शिक्षा भी रही है, जो कतिपय सुविधा संपन्न लोगों की त्रुटिपूर्ण शिक्षा और अधिकांश की अशिक्षा रही है। यह शिक्षा जिन्हें मिली और जो इनसे वंचित रहे, दोनों की बर्बादी का कारण रही है। यह शिक्षा कुछ सीमा तक अमानवीय, मानव-विरूद्ध एवं मानवीयता विहीन है। अतः, आज संपूर्ण विश्व में शांति-शिक्षा स्वास्थ्य को बनाए रखने, अस्वस्थता के शिकार होने से रोकथाम करने तथा अस्वस्थता की स्थिति में उपचार के निमित्त लोगों की सहायता के लिए आवश्यक है।

वर्तमान प्रचलित शांति-शिक्षा किसी अन्य प्रकार की शिक्षा हो सकती है। परंतु, यह कदापि अध्यापक एवं विद्यार्थी को मनुष्य बनाने की दृष्टि से शांति-शिक्षा नहीं है। फिर भी यह शांति-शिक्षा अतिशय उच्च शुल्क देने वाले सक्षम व्यक्ति के लिए ही उपलब्ध है। सामयिक शांति-शिक्षा का अर्थ मानव-अधिकार शिक्षा, सहिष्णुता शिक्षा, शांतिवादी (पैसिफिस्ट) शिक्षा, निरस्त्रीकरण शिक्षा, स्त्री-शिक्षा, अहिंसा के लिए शिक्षा एवं अन्य उपचारात्मक शिक्षा है। इसका तात्पर्य यह है कि वर्तमान शांति-शिक्षा मूल्य-शिक्षा के रूप में मतारोपण एवं बाह्य अनुशासन की शिक्षा है। शांति प्रबोधकों द्वारा (जो स्वयं वास्तविक शांति-शिक्षा से अनभिज्ञ हैं) शांति के नौसिखियाओं को शांति के पूर्व निर्धारित मूल्यों को सीखने का आदेश दिया जाता है। इन मूल्यों के प्रति सकारात्मक मनोवृत्ति उनके चित्त में बैठा दी जाती है। उन्हें इन मूल्यों में कौशल्य के निमित्त यंत्रवत अभ्यास के लिए प्रशिक्षित किया जाता है। यद्यपि वे शांति के इन मूल्यों को सिखाने में वार्तालाप एवं चर्चा का उपयोग करते हैं; परंतु, शांति अध्यापन की विधि के रूप में अध्यापनशास्त्र का सहारा लेते हैं, जो शांति की और शांति के लिए पूर्णरूप से निषेधात्मक शिक्षा है, क्योंकि अध्यापन हिंसा है, और अध्ययन अहिंसा।

शांति-शिक्षा सिखाने हेतु पूर्व निर्धारित मूल्यों का समूह नहीं है। वास्तविक शांति-शिक्षा मानव-निर्मिति की शिक्षा है। इसलिए बिना किसी को पृथक किए यह सभी के लिए निःशुल्क एवं मानव में जो है, उसकी अभिव्यक्ति की शिक्षा है। शांति-शिक्षा समग्र मानव होने के निमित्त सतत् आत्म-अध्ययन, आत्मोत्कर्ष एवं आत्माभिव्यक्ति का ज्ञान एवं अभ्यास है। शांति-शिक्षा आत्म-ज्ञान की शिक्षा है। इसलिए संकल्पनात्मक दृष्टि से शांति-शिक्षा आत्म के, आत्म के द्वारा एवं आत्म के लिए शिक्षा है। और इस आत्म-ज्ञान की प्रक्रिया में प्रत्येक व्यक्ति अत्यंत अकेला है, एकांत है, तथा कोई अन्य व्यक्ति अथवा अध्यापक भी व्यक्ति के आत्म-ज्ञान के सीखने की प्रक्रिया में प्रवेश नहीं कर सकता है।

शांति शिक्षा की अवधारणा के स्रोत हमें छांदोग्य उपनिषद् में मिलते हैं। इस उपनिषद् की रचना का काल, वैदिक ब्राह्मण युग है, जिसे संभवतः ईसा पूर्व प्रथम सहस्राब्दि का मध्य माना जाता है। इसी उपनिषद् में हमें शांति-शिक्षा की वास्तविक अवधारणा एक दृष्टांत से मिलती है, अर्थात् शांति-शिक्षा की अवधारणा का मूल हमें श्रेष्ठ विद्वान संत नारद का अपने महान गुरू मनीषी सनतकुमार के समक्ष अपने आत्म की अज्ञानता की निष्कपट स्वीकारोक्ति एवं रस्योद्घाटन में मिलता है। नारद जी ने अपने गुरू सनतकुमार से कहाः भगवन! मुझे ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और चौथा अथर्ववेद याद है, (इनके सिवा) इतिहास-पुराणरूप पांचवा वेद, वेदों का वेद (व्याकरण), श्राद्धकल्प, गणित, उत्पातज्ञान, निधिशास्त्र, तर्कशास्त्र, नीति, देवविद्या, ब्रह्मविद्या, भूतविद्या, शत्रविद्या, नक्षत्रविद्या, सर्पविद्या (गरूड़ मंत्र) और देवजनविद्या-नृत्य-संगीत आदि-हे भगवन! यह सब मैं जानता हूं। हे भगवन! पर मैं केवल मंत्रवेत्ता ही हूं, आत्मवेत्ता नहीं हूं। मैंने आप जैसो से सुना है कि आत्मवेत्ता शोक को पार कर लेता है, और हे भगवन! मैं शोक करता हूं, ऐसे मुझको हे भगवन! शोक से पार कर दीजिए। तब सनतकुमार ने कहा-तुम यह जो कुछ जानते हो वह नाम ही है।

नारद जी को आत्म को छोड़कर, प्रत्येक चीज का ज्ञान था। वह स्वयं कहते है-मैं केवल शास्त्रज्ञ हूं, आत्मज्ञ नही हूं। बेशक, प्रत्येक चीज को जानने के लिए सभी भाग्यशाली नहीं होते हैं। फिर भी, नारद जी के समान कुछ लोग होते हैं जिन्हें आत्म को छोड़कर प्रत्येक चीज की जानकारी होती है। परंतु, अधिकांश लोगों को न तो प्रत्येक चीज की जानकारी होती है और न ही आत्म की। इस प्रकार से आज सभी जगह कुछ लोगों को अधिक जानकारी होती है, कुछ लोगों को अधिकतर और कुछ लोगों को अधिकतम, लेकिन इनमें से किसी को भी आत्म की जानकारी नहीं होती है। अतः इस दुनिया में महान विपत्ति का कारण आत्म के बारे में अज्ञान का होना है।

शायद उपनिषदों (जिसकी रचना ईसा के पूर्व 8वीं एवं 7वीं शताब्दी में हुई थी) के रचयिता ऋषियों के समक्ष यही कारण रहा होगा, जिससे उन्होंने लोगों को उपदेश दिया : अपने आत्म को जानो (नो दाइसेल्फ)। विश्वविख्यात् व्यक्तियों में कनफ्यूश्यस, सुकरात एवं ईसा ने भी इसी प्रकार के उपदेश दिए। चीन के कनफ्यूश्यस ने कहा कि मानवीय क्रियाकलाप के सारे विचार और सिद्धांत मनुष्य के बारे में समुचित समझदारी पर आधारित है। पोप ने कहा था कि मानवजाति का महानतम् अध्ययन मनुष्य स्वयं है। (राधाकृष्णन एवं राजू, 1966 ई०, पृ० 31)। एथेंस में जब सुकरात से उसके शिष्यों ने प्रज्ञा (विवेक) प्राप्ति की प्रथम सीढ़ी के बारे में पूछा तो उन्होंने कहा : नो दाइसेल्फ (अपने आत्म को जानो)। और जब कुछ शताब्दी बाद ईसा से इसी प्रकार के प्रश्न पूछे गए, तब उन्होंने भी समान उत्तर दिए : नो दाइसेल्फ (अपने आत्म को जानो)। जैक्स डेलॉर्स ने यूनेस्को के लिए लर्निंग : दॅ ट्रेजॅरॅ विदिन नाम से रिपोर्ट प्रस्तुत की जिसमें शिक्षा के चार स्तंभ-जानने हेतु सीखना, करने हेतु सीखना, एक साथ रहने हेतु सीखना और व्यक्ति जो है उसे बनने हेतु सीखना-घोषित किए हैं, जो आत्मज्ञान और आत्म व्यवहार से संबंधित हैं। अतः शांति शिक्षा की जड़ें हमें आत्म-ज्ञान में मिलती हैं। (यूनेस्को, 1996 ई० पृ० 85.96)।

आत्म क्या है? इस प्रश्न का उत्तर शांति-शिक्षा के वास्तविक, अति स्पष्ट, एवं मूर्त्त अर्थ की कड़ी हमें प्रदान करता है। जिस प्रकार शांति-शिक्षा की अवधारणा का स्रोत हमें छांदग्योपनिषद् में मिलता है, शांति-शिक्षा के अर्थ का सूत्र हमें तैत्तिरीयोपनिषद् (1965 ई०) और संत तुलसीदास (सं० 2020) कृत श्रीरामचरितमानस में मिलता है। तैत्तिरीयोपनिषद् का काल भी वही है जो छांदोग्योपनिषद् का अर्थात् ईसा पूर्व प्रथम सहस्राब्दि का मध्य। तुलसीदास ने श्रीरामचरितमानस का लेखन विक्रम संवत् 1631 (1574 ई०) में प्रारंभ किया और 2 वर्ष 7 महिने में पूर्ण किया। (रामचरितमानस इन, 2009 ई०, पृ० 1)। इस उपनिषद् और श्रीरामचरितमानस में हमें आत्म अथवा मनुष्य का अर्थ मिलता है जो शांति-शिक्षा को सही रूप में परिभाषित करने में हमें सहायता प्रदान करता है।

तैत्तिरीयोपनिषद् के अनुसार मनुष्य पांच कोषों-अन्नमय (शरीर), प्राणमय (प्राण), मनोमय (मन), विज्ञानमय (बुद्धि), आनंदमय (आत्मा) से बना है। तुलसीदासजी ने मनुष्य का परिभाषित करते हुए श्रीरामचरितमानस में लिखा है : छिति, जल, पावक, गगन, समीरा/पंच रचित अति अधम शरीरा।। अर्थात् मनुष्य पांच तत्त्वों-पृथ्वी, जल, अग्नि, आकाश और वायु से बना है। अतः मनुष्य की परिभाषा ही शांति-शिक्षा की परिभाषा है। इस प्रकार हम शांति-शिक्षा को प्रत्येक व्यक्ति में विद्यमान इन पांच कोषों अथवा तत्त्वों की समग्र अभिव्यक्ति के रूप में परिभाषित कर सकते हैं। यह अभिव्यक्ति प्रत्येक व्यक्ति के जीवन में जीवन-पर्यंत चलने वाली प्रक्रिया है, जो उसे सहज ही अहिंसक बना देती है जिससे वह शांति, समदृष्टि एवं न्याय का अभ्यासी हो जाता है।

निम्नलिखित ब्योरा हमें तैत्तिरीयोपनिषद् एवं तुलसीदास द्वारा रचित श्रीरामचरितमानस में वर्णित मनुष्य में निहित पांच कोषों एवं पांच तत्त्वों का सदृश अर्थ प्रदान करता है। तैत्तिरीयोपनिषद् के अनुसार श्रीरामचरितमानस में वर्णित मनुष्य में पांच कोष मनुष्य में पांच तत्त्व हैं : अन्नमय कोष (शरीर) छिति (पृथ्वी) प्राणमय कोष (प्राण) समीर (वायु) मनोमय कोष (मन) जल (पानी) विज्ञानमय कोष (बुद्धि) पावक (अग्नि) आनंदमय कोष (आत्मा) गगन (आकाश)।

तुलसीदास द्वारा रचित श्रीरामचरितमानस में वर्णित मनुष्य में व्याप्त ये पांचों तत्त्व संपूर्ण ब्रह्माड में प्रकीर्ण (बिखरे) रूप में पृथक-पृथक होते हैं, परंतु मनुष्य में ये सारे तत्त्व संघटित रूप से विद्यमान होते हैं। यही कारण है कि मनुष्य को ब्रह्मांड का लघु रूप कहा जाता है। और तैत्तिरीयोपरिषद् के अनुसार मनुष्य में प्रत्येक कोष परम ब्रह्म है, उदाहरणार्थ-अन्न ही ब्रह्म है, प्राण ही ब्रह्म है, मन ही ब्रह्म है, बुद्धि ही ब्रह्म है, आत्मा ही ब्रह्म है। प्रत्येक व्यक्ति में इन कोषों को समग्र रूप से अभिव्यक्त होना है। व्यक्ति को अपने प्रत्येक कोष को सतत् अभिव्यक्त करते हुए आगे बढ़ते जाना चाहिए, जैसे शारीरिक अभिव्यक्ति से प्राणिक, प्राणिक से मानसिक, मानसिक से बौद्धिक, बौद्धिक से आत्मिक, और इस प्रकार समग्र अभिव्यक्ति, जो उसे समग्र मानव, विश्व मानव, मनुष्य में ईश्वर का अवतार बना देती है, जिसे मांडूक्योपनिषद् के अनुसार पूर्ण रूप से कल्याणमय, पूर्ण आनंदमय, अद्वैत और आत्मा-आत्मन् माना है। स्वामी विवेकानंद ने मनुष्य की महिमा के बारे में इस प्रकार वर्णन किया है-अत्यंत यशस्वी ईश्वर जो सदैव था, मात्र ईश्वर जिसका अस्तित्व सदैव रहा, जिसका अस्तित्व है और जिसका अस्तित्व सदैव रहेगा-वह आत्म जो मनुष्य के रूप में अवतरित हुआ है, उसकी महिमा की कल्पना कोई पुस्तक, कोई धर्मग्रंथ, कोई विज्ञान कभी नहीं कर सकता है। अतः, मनुष्य बाह्य परवलंबन से अपने को मुक्त करने, अपने अंदर शांति एवं एकता प्राप्त करने और उसे अपने चारों ओर फैलाने में समर्थ है। मनुष्य में पांच कोषों की समग्र अभिव्यक्ति से उसे सुख और शांति प्राप्त होती है, और उसमें इन पांच तत्त्वों अथवा बीजों की अभिव्यक्ति में असफलता से अनेक प्रकार की असामान्यताएं एवं विसामान्यताएं उत्पन्न हो जाती है, और अंततः वे पूरे विश्व में फैल जाती हैं।

यदि कोई व्यक्ति अपने शारीरिक आत्म को पूर्णतः अभिव्यक्त करने में असमर्थ हो जाता है तो उसका शारीरिक रूप से निर्बल होना निश्चित है। उसके जीवित रहने के अवसर समाप्त हो जाते हैं, और यदि ऐसे लोगों की संख्या अधिक होती गई तो मानवजाति का अस्तित्व समाप्त हो सकता है। प्राणमय की पूर्ण अभिव्यक्ति की स्थिति में व्यक्ति वायु के रोगों का शिकार हो जाता है। वह वात, पित्त एवं कफ के व्याधियों से पीड़ित हो सकता है, और ये व्यक्ति के अन्य अंगों को प्रभावित कर सकते हैं। पूर्ण मानसिक अभिव्यक्ति व्यक्ति को अस्थिर बना देती है। पूर्ण बौद्धिक अभिव्यक्ति के अभाव में व्यक्ति मंदबुद्धि का हो जाता है। आध्यात्मिक रूप से अचेतन हो जाता है और अंधविश्वास का शिकार हो जाता है। समग्रतः, इन पांच कोषों की पूर्ण अनभिव्यक्ति व्यक्ति को दूसरों के द्वारा दमन, शोषण और हिंसा का शिकार बना देती है। विभिन्न कोषों की आंशिक अभिव्यक्ति से व्यक्ति अल्प शारीरिक व्याधि, वायु संबंधी रोग, मानसिक अस्थिरता एवं असामान्यता, बौद्धिक दंभ एवं अक्खड़पन, और धार्मिक कठोरता, रूढ़िवादिता, दकियानूसीपन तथा मतांधता उत्पन्न हो जाते है। और अंत में आंशिक अभिव्यक्त कोष व्यक्ति को उग्र, आक्रामक, अत्याचारी, शोषक और हिंसक बना देती है। इस प्रकार वह अपने स्वयं एवं अन्यों के प्रति अति क्रूर हो जाता है। परंतु पूर्ण अभिव्यक्त कोषों की स्थिति में, व्यक्ति शारीरिक रूप से तंदुरूस्त और सबल, प्राणवायु की दृष्टि से स्वस्थ, मानसिक रूप से संतुलित एवं स्थिर, बौद्धिक रूप से कुशाग्र एवं आध्यात्मिक रूप से जागरूक, परमार्थी, सहिष्णु, सार्वभौम, एवं विश्वजनीन हो जाता है। यदि ये पांचों कोष समग्र रूप से अभिव्यक्त होते हैं तो व्यक्ति न तो अत्याचारी और शोषक होता है और नही वह दलित और शोषित होता है; अर्थात् वह आक्रामक, सहिष्णु, परमार्थी, शांतिप्रिय एवं अहिंसक होता है।

अद्वैत आश्रम के स्वामी रंगनाथानंद ने कहा था : वेदांत मनुष्य को चेतावनी देता है, और विवेकानंद आज इसी पर जोर देते हैं कि यदि मनुष्य का मात्र शारीरिक एवं मानसिक विकास होता है, परंतु साथ-साथ उसका आध्यात्मिक विकास नहीं होता है, तब वह अपनी शक्ति का दूसरों का शोषण करने, अपने स्वयं को हिंसा एवं युद्ध में लिप्त करने, दूसरों एवं अपने स्वयं को भी चोट पहुंचाने एवं नष्ट करने में उपयोग करेगा। परंतु जब वह आध्यात्मिक रूप से भी विकसित है, और उसमें सदैव उपस्थित दैवी (ईश्वरीय) पहलू (आयाम) अभिव्यक्त होता है, तब वह स्वयं प्रेम एवं करुणा को प्रकट करने में समर्थ हो जाता है। वह न केवल मानव-जाति के प्रति बल्कि पशुओं के प्रति भी मानवीय अंतःप्रेरणा को फैलाने में समर्थ हो जाता है। यह उसी प्रकार की आध्यात्मिक ऊर्जा की अभिव्यक्ति है जिसे दुनिया ने एक बुद्ध में, एक जेसस में, एक श्री रामकृष्ण में और एक विवेकानंद में देखा था। इन्होंने प्रेम के माध्यम से घृणा पर विजय प्राप्त की थी और अशांत लोगों को शांति और दुःख पीड़ित लोगों को आनंद प्रदान किया, और यह सब उन्होंने लोगों को अपनी आध्यात्मिक समृद्धि में से दिया।

प्रत्येक मनुष्य में निहित इन पांच कोषों पर आधारित शांति-शिक्षा को लागू करने में किसी भी राष्ट्रीय राज्यों को, चाहे वे लोकतांत्रिक हो अथवा अलोकतांत्रिक, भय एवं विरोध नहीं होना चाहिए, क्योंकि भिन्न राष्ट्रों के लोग विविध धर्मों, राजनीतिक वादों, प्रजातियों, संस्कृतियों, लिंगों इत्यादि के होते हुए उन सभी में समान कोषों, तत्त्वों, जैसे-शरीर, प्राण, मन, बुद्धि और आत्मा विद्यमान होते हैं। अतः बिना किसी भेदभाव के न्याय, शांति एवं अहिंसा के निमित्त मनुष्य बनने हेतु इन सभी कोषों को समग्र रूप से अभिव्यक्त होने अथवा विकसित होने के लिए सभी को अवसर प्राप्त होना चाहिए। इस कार्य में समाज के अन्य संस्थाओं के अतिरिक्त राज्य का सक्रिय सहयोग आवश्यक है।

शांति-शिक्षा में जागरूकता का तात्पर्य है प्रत्येक व्यक्ति को अपने स्वयं के प्रति चेतन होना, अर्थात् वह (मनुष्य के रूप में) क्या है और उसके अनुसार बनने का प्रयास करना। अतः, सभी लोगों को अपने को जानने का अवसर एवं सुविधा मिले, जिससे कि वे अपने भौतिक, प्राणिक, मानसिक, बौद्धिक एवं आध्यात्मिक शरीर की अभिव्यक्ति एवं विकास के माध्यम से मानव बन सकें। और यदि सभी जगह मनुष्य के पांच कोषों पर आधारित शांति-शिक्षा को स्वीकार एवं लागू किया जाता है और व्यवहार में लाया जाता है तभी लोग वैदिक प्रार्थना में वर्णित : सर्वे भवंतु सुखिनः, सर्वे संतु निरामयाः/सर्वे भद्राणि पश्यंतु, मा कश्चिद् दुःख भाग्भवेत।। अर्थात् सभी सुखी हों, सभी नीरोग हों, सभी का कल्याण हो, कोई दुःखी न हो की कामना कर सकते हैं और जयशंकरप्रसाद के निम्नलिखित उपदेश का पालन कर सकते हैं : औरों को हंसते देखो मनु-हंसों और सुख पाओ, अपने सुख को विस्तृत कर लो, सबको सुखी बनाओ!

- डॉ० सूर्यनाथ प्रसाद

शांति सेना (Peace army) : शांति सेना से अभिप्राय स्वयंसेवकों के ऐसे संगठन से है जो हिंसक संघर्षों-खासकर सांप्रदायिक दंगों को शांत करने में अपने प्राणों तक की बाजी लगा दें। इस विचार के प्रतिपादक महात्मा गांधी थे तथा इसको विस्तारित स्वरूप विनोबा भावे ने प्रदान किया। महात्मा गांधी के विचारानुसार शांति सेना अहिंसात्मक संघर्ष में कामयाबी हासिल करने की कुंजी है। उनके विचार से यह सेना पुलिस ही नहीं बल्कि फौज तक का स्थान ले लेगी क्योंकि इस सेना में परिस्थितियों का शांतिपूर्वक मुकाबला करने की अभूतपूर्व क्षमता होगी। शांति सेना का लक्ष्य एक ऐसे स्थायी और संवादपूर्ण माहौल को पैदा करना है, जिसमें अहिंसा के माध्यम से सामाजिक और सांप्रदायिक संघर्ष की स्थिति में निर्भयता एवं सामंजस्यपूर्ण संकल्प के माध्यम से समस्याओं का समाधान किया जा सकता है। शांति सेना शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम 1922 ई० में गांधीजी द्वारा तब किया गया, जब हिंदू व मुसलमानों के बीच बड़ा सांप्रदायिक तनाव पैदा हो गया था।

महात्मा गांधी ने मेरे सपनों का भारत में शांति सैनिकों की निम्न योग्यताएं बताई हैं :

(1) शांति सैनिक की-चाहे वह पुरूष हो या स्त्री-पहली योग्यता यह होनी चाहिए कि उसे अहिंसा में परम विश्वास हो। एक शांति सैनिक में क्रोध, भय और बदले की भावना से मुक्त मानवीय मूल्य के लिए जीवन अर्पित करने का साहस होना चाहिए। (2) शांति सैनिक हमेशा सत्य की राह पर चले। सत्य का यह बोध ही उसे ईश्वर (यहां उल्लेखनीय है कि गांधी के लिए सत्य ही ईश्वर है तथा यह सत्य ही उसे अमानवीय होने से बचाता है) में विश्वास पैदा करेगा ताकि उसे सत्य/ईश्वर की सर्वव्यापकता का ज्ञान हो सके जिससे उसके अंदर पशुता का भाव उत्पन्न/हावी नहीं हो सकेगा। (3) शांति सेना का प्रत्येक सदस्य दुनिया के सभी धमरें के प्रति समान श्रद्धा रखेगा। (4) सामान्यतः, शांति सेना का काम स्थानीय लोगों द्वारा अपनी बस्तियों में हो सकता है। (5) शांति सेना का काम अकेले या समूह दोनों में हो सकता है। शांति सेना के कार्य प्रारंभ के लिए किसी के इंतजार की जरूरत नहीं है। शांति सेना का सदस्य अपनी बस्तियों से ढूंढकर स्थानीय सेना का निर्माण कर सकता है। (6) शांति सेना के लिए काम करने वाले प्रत्येक सदस्य का चरित्र ऐसा होना चाहिए कि कोई उस पर अंगुली न उठा सके और वह अपनी निष्पक्षता के लिए मशहूर हो। (7) शांति सेना के सदस्यों की एक खास पोशाक होनी चाहिए, जिससे कालांतर में उन्हें बिना किसी कठिनाई के पहचाना जा सके। (8) शांति सेना के सदस्यों को ऐसी तालीम होनी चाहिए जिससे वह जरूरत पड़ने पर घायलों को प्राथमिक चिकित्सा उपलब्ध करा सके। इसके अतिरिक्त आग बुझाने, बिना जले या झुलसे आग की जगह जाने, ऊपर चढ़ने तथा उतरने आदि की कला में वह निपूण हो। (9) शांति सेना का सदस्य अपने मुहल्ले के सब लोगों को अच्छी तरह जानता-पहचानता हो। संघर्ष के वक्त इससे बहुत सुविधा प्राप्त होती है।

महात्मा गांधी एवं विनोबा भावे ने समय-समय पर अपने भाषणों/लेखन द्वारा शांति सैनिकों के निम्नोक्त कार्य गिनाए हैं :

संघर्ष के समय शांति सैनिकों के कार्य हैं : (1) भय और हिंसा के माहौल में लोगों के अंदर विश्वास और समर्थन का भाव पैदा करना। (2) शत्रुतापूर्ण वातावरण में फंसे लोगों को मदद पहुंचाना और उन्हें सुरक्षित जगह पर ले जाना। (3) दैनिक आवश्यकताओं की चीजों को संग्रहित करना और आपातकालीन स्थितियों में उसका समतामूलक वितरण करना। (4) संघर्ष/सांप्रदायिक दंगों के समय गैर-राजनीतिक वातावरण का सृजन करना। (5) अफवाहों को फैलने से रोकना। (6) परस्पर विरोधी दलों/समूहों के बीच संवाद का माहौल बनाना। (7) निःस्वार्थ सेवा और सत्याग्रह के माध्यम से ऐसा वातावरण तैयार करना कि समुदाय की नैतिक शक्ति का विकास हो।

शांति के समय शांति सैनिकों के कार्य हैं : (1) शांति सैनिक व्यक्तिगत सेवा द्वारा अपनी बस्ती या किसी चुने हुए क्षेत्र में लोगों के साथ ऐसा संबंध स्थापित करेगा, जिससे वह प्रतिकूल परिस्थितियों में उपद्रवों को शांत कर सके तथा उपद्रवियों के लिए बिल्कुल अजनबी न हो, जिस पर वे शक न करें। (2) आमतौर पर दंगों से पहले उसका माहौल बनने लगता है ऐसी परिस्थिति में शांति सैनिक आग भड़कने का इंतजार न करके तभी से परिस्थितियों को संभालने का काम शुरू कर देगी जबसे उसकी संभावना दिखाई दे। (3) समुदाय में संघर्ष के मूल कारणों का अध्ययन करना। (4) स्थानीय इकाइयों को शांति सेना के प्रति संगठित करना और प्रशिक्षण शिविर आयोजित करना। (5) आपसी समझ को मजबूत करते हुए समुदाय के बीच परस्पर सहयोग का संबंध विकसित करना।

महात्मा गांधी के अनुसार शांति सैनिकों को पांच स्तरों पर संघषरें को हल करने के लिए दृष्टिकोण विकसित करना चाहिए : (1) सत्य के आधार पर विचारों एवं दृष्टिकोण में बदलाव। (2) निःस्वार्थ सेवाभाव, सत्याग्रह आदि से लोगों के हृदयपरिवर्तन द्वारा। (3) समुदाय के नैतिक शक्ति के विकास द्वारा। (4) नैतिक दबाव विकसित कर। (5) संघर्षरत समुदायों के बीच संवाद का माहौल विकसित कर।

शांति सेना की अवधारणा मूलतः इस बात से प्रेरित है कि समाज में संघर्ष का मूल कारण कु-व्यवस्था है। समाज में संघर्ष के मूल कारणों के निराकरण के प्रयासों तथा सेवा भाव से समाज में उत्पन्न होने वाले संघषरें को कम किया जा सकता है। इसके पश्चात् भी अगर कभी संघर्ष की स्थिति उत्पन्न होती है तो अहिंसात्मक तरीके से उसे सुलझाया जा सकता है। किसी समुदाय के सदस्य के रूप में प्रत्येक व्यक्ति, प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से सत्य और नैतिकता के प्रति जवाबदेह है। इस बोध से मनुष्य में कर्त्तव्य का भाव पैदा होता है। कर्त्तव्य की इस भावना से ओतप्रोत व्यक्ति ही शांति सैनिक हो सकता है। ऐसा व्यक्ति साहस एवं धैर्य के साथ जब असत्य एवं भय के वातावरण में कार्य करता है तब अहिंसा उसका साथ देती है। सत्य के निषेध के चलते ही विभिन्न रूपों में हिंसा उभरती है और भय का वातावरण बना रहता है। जो समाज अपनी समस्याओं को शांति और अहिंसा के माध्यम से हल नहीं करता, वह आर्थिक रूप से मजबूत तो हो सकता है; परंतु, ऐसा विकास सही मायने में समृद्धि का सूचक नहीं होता क्योंकि ऐसे माहौल में लोकतांत्रिक मूल्यों का संवर्धन नहीं हो पाता। एक ऐसे समाज के लिए जिसके प्रत्येक सदस्य को विकास का समान अवसर मिले और समुदाय के बीच सौहार्दपूर्ण रिश्ते बने। शांति सैनिकों के योगदान को महात्मा गांधी और विनोबा भावे ने स्पष्ट रूप से व्याख्यायित किया था।

- मिथिलेश कुमार

सिनिकवाद : सुकरात के शिष्य एंटिस्थेनीज (Antisthenes) ने पांचवी शताब्दी ई०पू० के अंत में इस विचारधारा का प्रवर्तन किया था। इस कारण सिनिक संप्रदाय और दर्शन का जनक एंटिस्थेनीज को कहा जाता है। एंटिस्थेनीज अपने विचारों को सुकरात की भांति ही संवादों में प्रकट करता था। वह अपने विचारों को एक व्यवस्थित सिद्धांत-निरुपण के रूप में रखने के स्थान पर वाग्मिता एवं अलंकारिक भाषा में व्यक्त करता था। विभिन्न समयों पर जो संवाद व्यक्त किए गए, वे उसके कथन, प्रत्युत्पन्नमति एवं व्यंग्य से पूर्ण उसकी असाधारण प्रतिमा का परिचय कराते थे। डायोजेनीज लाएर्शियस (Diogenes Laertius) के अनुसार एंटिस्थेनीज के विचारों को दस ग्रंथों में संकलित किया गया था, लेकिन आज उनके कुछ अंश ही प्राप्त हैं। यह कहा जाता है कि प्लेटो ने एंटिस्थेनीज के अनेक विचारों और कथनों को अपनी कृतियों में अंगीकार किया था।

एंटिस्थेनीज एथेंस की एक व्यायामशाला सिनोसेरजीस (Cynosarges) में व्याख्यान दिया करता था। ग्रीक-रोमन भाषा में इसका शब्दिक अर्थ श्वते-श्वान या वेगवान-श्वान (या श्वान का मांस भी) लिया जाता है। इस प्रकार इस संप्रदाय को व्यायामशाला के स्थान व नाम के कारण Cynics कहा जाने लगा। Cynics नामकरण का एक दूसरा आधार भी कहा जाता है। एंटिस्थेनीज का एक उपनाम Haprlokuon था Haprlokuon का अर्थ है विशुद्ध एवं सरल या पवित्र एवं सरल। Kuon या Kuons का शाब्दिक अर्थ भी श्वान या कुत्ता है। इसलिए Harprlokuon का शाब्दिक अर्थ भी विशुद्ध कुत्ता या कुत्ते की तरह सहज प्राकृतिक जीवन के अर्थ को प्रकट करने वाला पद है। अतः Cynic शब्द इसी के अनुरूप अर्थ को प्रकट करता है। फिर भी, स्वयं एंटिस्थेनीज ने औपचारिक रूप से यह नाम नहीं दिया था। एक अन्य मान्यता के अनुसार इस परंपरा का नामकरण का आधार डायोजेनीज की जीवन शैली को मानती है। यह डायोजेनीज (Diogenes of Sinope) के नाम के कारण हुआ। इस मान्यता के अनुसार सिनोप के डायोजेनीज को Kynos कहकर पुकारा जाता था। जिसका ग्रीक भाषा में अर्थ है कुत्ता या श्वान। सिनोप का डायोजेनीज एंटिस्थेनीज के शिष्य की तरह रहा (यद्यपि एंटिस्थेनीज ने कोई शिष्य नहीं बनाया था), अतः यह परंपरा सिनिककहलाने लगी।

उपरोक्त वर्णन से स्पष्ट है कि सिनिक विचारधारा के प्रणेता एंटिस्थेनीज है और उसकी पराकाष्ठा सिनोप के डायोजेनीज ने अपने जीवन में, अपनी जीवन शैली, स्पष्टवादिता, सार्वजनीन जीवन और एक घोर तपपूर्ण जीवन को साकार कर व्यक्त की थी। इसलिए सिनिक विचारधारा और संप्रदाय पर दो मौलिक दार्शनिक के विचार, जीवन और उनके समय-समय पर हुए वे घटनाक्रम एवं वृतांत हैं जिनकी छाप बाद के सिनिकवादियों पर पड़ी। इसके अतिरिक्त जो महत्त्वपूर्ण सिनिकवादी हुए उनमें झेनो का अध्यापक क्रेट्स (Crates) क्रेट्स की पत्नि हिप्पेर्किया (Hipparchia), बाइआन (Bion), सेर्सिडस (Cercidas), टेलेस (Teles) आदि प्रमुख हैं। इन ग्रीक Cynics के अतिरिक्त रोमन Cynics में प्रमुख हैं। सेनेका का मित्र डेमेट्रिस (Demetrius), डेमोनेक्स (Demonax) और पेरेग्रिनस (Peregrinus)।

सिनिकवाद का मूल दर्शन दो आदर्शों पर टिका था। एक arete अर्थात् कठोरतापूर्वक सद्गुणों से पूर्ण जीवन का अन्यास तथा दूसरा इस अभ्यास द्वारा आत्माभिव्यक्ति एवं आत्मविकास। वे मानव जीवन का उद्देश्य आत्मसाक्षात्कार (Know thyself) को मानते थे। अतः आत्मसाक्षात्कार के लिए केवल ज्ञान विशेष रूप से विवेक, तर्क एवं बौद्धिक ज्ञान के द्वारा जो सहज, सरल, प्राकृत एवं स्वभाव से है, उसे आवश्यक मानते थे ताकि जो प्राकृत है एवं जो कृत्रिम है, उनके भेद की चेतना बनी रहे। जो कृत्रिम है, वह मूल्यविहीन है और जो प्राकृत है, वह मूल्यवान हैं एवं सद्गुणयुक्त जीवन के साथ समायोजन, प्रकृति के साथ अनुकूलन तथा सहज जीवन के द्वारा आत्मविकास का स्वाभाविक साधन है। अतः, सामाजिक प्रतिमानों की उपेक्षा, संपदा, यश, इंन्द्रियसुख, मानव द्वारा निर्मित कृत्रिम वस्तुएं एवं संस्थाएं आदि के त्याग को वे आत्मत्याग के रूप में अंगीकार करते थे। सद्गुणी होने का अर्थ था कि व्यक्ति इन सभी प्रकार की वासनाओं और लालसाओं से मुक्त होकर जीए। क्योंकि इन सबको मूल्य मानने का कारण है सुख और विशेष कर इंद्रिय सुख को जीवन का लक्ष्य मानना। अतः, प्राकृतिक जीवन में सहज जैसा भी होता है उसे सहन करना, तपपूर्ण एवं आत्मसंयम से युक्त कठोर जीवन साधना के द्वारा अपनी इच्छाओं, वासनाओं, इंद्रियों के सुख और लोलुपता पर पूर्ण विजय पा लेने को वे आत्मसाक्षात्कार एवं आनंद की प्राप्ति के लिए अनिवार्य मानते थे। एंटिस्थेनीज का कथन है सुख न केवल अनावश्यक है, बल्कि एक सकारात्मक दुर्गुण है। इसी प्रकार उसका कहना था, मैं पागल होना चाहूंगा बजाय इसके कि सुख को प्राप्त करुं।

सिनिक ऐंद्रिकसुख भोग और कृत्रिम सुखों की इच्छा का तिरस्कार करना आदर्श जीवन के लिए आवश्यक मानते थे। उनकी मान्यता थी कि सुख और आनंद वही है जो आत्मा से उत्पन्न है तथा विवेकपूर्ण चुनाव द्वारा मित्रता का सहज आनंद है।

उनकेअनुसार मनुष्य अपनी वासना, भावना एवं इच्छाओं के द्वारा भ्रष्ट किया जा सकता है। आनंद या सुख केवल इस विवेक की जाग्रति एवं समझ से प्रत्याभूत है कि हम जाने कि हमारा मन इतना समर्थं है कि हम मन के सामर्थ्य को पहचाने कि न तो कुछ चाहिए और न ही कोई अभाव है। यह विवेक ही आत्म संयम है और इसके द्वारा व्यक्ति को आत्मपूर्णता या आत्मनिर्भरता (Autarkeia/Ataraxia) प्राप्त होती है।

इस विचारधारा और संप्रदाय के प्रतीक एवं आदर्श के रूप में सिनोप के डायोजिनीज (और उसके बारे में प्रसिद्ध वृत्तांत) का नाम महत्त्वपूर्ण है। जिसने कठोर तपपूर्ण जीवनचर्या द्वारा एवं अपनी प्रतिभा द्वारा सिनिकीय जीवन को साकार कर दिया। डायोजिनीज के अनुसार विवेक एवं तर्कना द्वारा प्रामाणिक एवं सैद्धांतिक ज्ञान प्राप्त होता है और हम सद्गुणों का वास्तविक स्वरूप और सत्य तब प्रकट होता है जब हम उन्हें जीवन में उतारते हैं। इसके लिए आत्मानुशासन एवं कठोर मानसिक एवं शारीरिक प्रशिक्षण एवं अभ्यास की आवश्यकता होती है। वह स्वयं एक पूर्ण आत्मसंयमी एवं गंभीरता से युक्त, मर्यादित जीवन जीता था। वह इतना प्राकृतिक जीवन जीता था कि जब प्लेटो से उसके बारे में पूछा गया कि वह किस प्रकार का जीवन जीता है तो प्लेटो ने कहा-एक सुकरात जो पागल हो गया। यह पागलपन उस विवेक की उपलब्धता है, जहां एक मनुष्य संपूर्ण सृष्टि के प्रति और स्वयं के प्रति एक-सा व्यवहार करता है। वह अपने को केवल सबसे अनिवार्य आवश्यकताओं तक सीमित कर देता है। वह सभी के साथ एक होकर जीने लगता है। वह सार्वजनीन हो जाता है। वह सामाजिक, धार्मिक या इसी प्रकार की परंपराओं (Eleutheria) से घृणा करता था। वह इसे मानव को पाखंडी बनाने वाली, भ्रष्ट करने वाली मानता था। इसलिए वह आत्म त्याग, आत्म संयम एवं पूर्ण अपरिग्रही जीवन के आदर्श को आत्मसाक्षात्कार के लिए आवश्यक मानता था। वह मानता था कि एक सच्चा मनुष्य वह है जो विवेकपूर्ण, आत्मसंयमी, आत्मपूर्ण, स्वतंत्र, सहज, प्राकृतिक एवं सद्गुण युक्त जीवन जीता है। ऐसा कहा जाता है कि वह एक दिन दोपहर के तेज प्रकाश में एक जली लालटेन लेकर निकला और पूछे जाने पर कहता मैं एक मनुष्य की खोज में हूं। उसका विचार था कि अपनी आत्मा की अपने जीवन से संगति कर लो। यह संगति है विवेक, मन, शरीर, आचरण, प्रकृति एंव आत्मा की। लेकिन ऐसा करने के लिए सुकरात जैसा सामर्थ्य चाहिए।

वह अपने प्रति की गई किसी क्रिया की प्रतिक्रिया नहीं करता था। डायोजिनीज के लिए स्वतंत्रता (Caut-arkeia), आत्मपूर्णता तथा निर्भयता-अपनी अभियक्ति की (Parrhesia) की स्वतंत्रता-महत्त्वपूर्ण थी। वह इसे सद्गुण मानता था। एक बार सिकंदर ने डायोजिनीज से पूछा कि वह उसके लिए क्या कर सकता है। डायोजेनीज ने उत्तर- Stand out of my light अर्थात् मेरे पर आ रहे सूर्य के प्रकाश के बीच से हट जाओ। इसी प्रकार जब सिकंदर ने उसे कहा कि वह सिकंदर महान है तो डायोजेनीज ने उत्तर दिया- I am diogenes the cynic अर्थात् मैं डायोजिनीज कुत्ता हूं। इसी प्रकार हिप्पेर्किया के बारे में अनेक प्रकार के कहानी किस्से हैं कि किस प्रकार वह सिनिक आदर्शों के अनुरूप स्वतंत्र जीवन जीती थी और उसी प्रकार अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता, सभी के साथ सार्वजनीन जीवन एवं व्यवहार, आत्मपूर्ण जीवन आदि को उसने जीवन में उतार लिया था।

सभी सिनिकवादी एक प्रकार से आदर्श जीवन का जीवंत उदाहरण प्रस्तुत करते थे। वे अंधविश्वास झूठ, पाखंड पर कटाक्ष करते थे। लोकोत्तर एवं परंपरावादी विश्वास और अविवेकपूर्ण ज्ञान और मूल्य, कृत्रिम जीवन, सुख आदि के परित्याग को महत्त्व देते थे। सभी के साथ प्राकृतिक, सहज एवं सामंजस्यपूर्ण जीवन को उन्होंने अपने जीवन को उदाहरण बनाकर चरितार्थ कर, अपने आदर्श, मनुष्य के वास्तविक जीवन और सामर्थ्य को प्रकट करते थे। अहिंसा की दृष्टि से मांसाहार को छोड़कर और किसी प्रकार की हिंसा का अनुमोदन उनके विचारों एवं उनके अपने जीवन में दिखाई नहीं देता। वस्तुतः जहां आत्मा, विवेक, मन, शरीर, क्रिया और संपूर्ण प्रकृति के साथ संगति ही मनुष्य होने का अर्थ है, वहां अहिंसा प्रकृति की पूर्णता में निहित हो जाती है। जहां तक आहार में अहिंसा का प्रश्न है यह विवेक और स्वरूप सिनिक दर्शन में प्रकट नहीं होता। डायोजेनीज और अन्य सिनिकवादियों के द्वारा मांस आदि का भक्षण करने के स्पष्ट उल्लेख हैं। इसलिए आत्मा और संवेदना के स्तर पर उनकी आत्मचेतना का इतना विकास नहीं हो पाया था कि वह अहिंसा के मूल्य को और उसके उदात्त स्वरूप को समझ पाते। एक वर्णन डायोजेनीज लाएर्शियस के बारे में है कि वह लगातार मसूर की दाल (Lentils) के सेवन पर निर्भर रहने का आग्रह करता था। लेकिन यह तपपूर्ण आहारचर्या और मितव्ययता के मूल्य को जीवन में उतारने की दृष्टि से था।

स्पष्ट है कि सिनिकवाद की अहिंसा परोक्ष रूप से मानव एवं मानवता के प्रति पूर्ण थी। वे हिंसक नहीं थे। सद्गुण और अपरिग्रह के मूल्य को स्वीकार करने एवं सभी प्रकार के कृत्रिम साधनों और सभी प्रकार के सुखों की उपेक्षा निश्चित रूप से अहिंसा के अवतरण का व्यावहारिक आदर्श है। एक व्यक्ति अपरिग्रह और सुख एवं दुख दोनों के प्रति उदासीन व्यवहार तभी कर सकता है, जब वह पूर्ण विवेकी, आत्मसंयमी और अहिंसक हो। अतः सिनिक दृष्टि में अहिंसा साहस की सहचरी है, तप की सहचरी है, पर कर्म का अंतिम मापदंड नहीं है जैसा जैन दर्शन में प्राप्त होता है। वे सामाजिक परंपरा, सभ्यता और व्यावहारिक मर्यादाओं को स्वीकार नहीं करते थे। फिर भी वे गंभीर, चिंतनशील तर्कना और विवेक से पूर्ण निर्णय और संपूर्ण जीवन के साथ एकात्म होकर जीने के आदर्श को जिस रूप में रखते है, उसकी पूर्णता अहिंसा में ही है।

- डॉ० चंद्रशेखर

शाकाहारवाद :शाकाहार अथवा मांसाहार-निषेध पर दो दृष्टियों से विचार किया जाता है-नैतिक-धार्मिक दृष्टि तथा स्वास्थ्य की दृष्टि से। इसे लेकर भी कुछ मतांतर है कि शुद्ध शाकाहार किसे माना जाए क्योंकि एक वर्ग ऐसा भी है जो दूध और दूध से बने उत्पादों को भी मांसाहार के अतंर्गत मानता है। स्वयं महात्मा गांधी भी गाय का दूध इसीलिए नहीं पीते थे कि उसमें गोमांस माना जाता है। लेकिन, सामान्यतया दुग्ध-उत्पादों को शाकाहार के अंतर्गत ही माना जाता है। दरअस्ल, शाकाहारियों के चार प्रकार माने जाते हैं : (1) ओवो-वेजीटेरिया : वे लोग जो मांस नहीं खाते, लेकिन अंडा खाते हैं; (2) लैक्टो-वेजीटेरिया : जो दुग्ध-उत्पादों और अंडे का सेवन करते हैं, पर मांसाहार नहीं करते; (3) लैक्टो-वेजीटेरिया : जो दुग्ध-उत्पादों को सेवन करते हैं, पर अंडे या मांस का नहीं; और (4) वे जन : जो सिर्फ वनस्पति-उत्पादों का सेवन करते हैं। स्वास्थ्य की दृष्टि से शाकाहार-मांसाहार विवाद का कोई अंतिम निष्कर्ष नहीं हो पाया है, लेकिन शाकाहारियों के मानसिक-शारीरिक स्वास्थ्य में आहार के कारण कोई कमजोरी नहीं पाई गई है। इसलिए इस सवाल पर मुख्यतया नैतिक-धार्मिक अर्थात् भावात्मक दृष्टि से ही विचार किया जाना उचित है, उपयोगिता की दृष्टि से नहीं।

यह उल्लेखनीय है कि दुनिया की अधिकांश सभ्यताओं में भी, जिनमें शिकार और मांस-भक्षण की अनुमति रही है, नैतिक-भावात्मक दृष्टि से शाकाहार को महत्त्व दिया गया है। सामान्यतः, जैन और बौद्ध परंपराओं को अहिंसावादी मानने के कारण शाकाहार को उनसे जोड़ा जाता है-यद्यपि बौद्ध परंपरा में विशेष मर्यादाओं के साथ मांस-भक्षण की अनुमति है। इस दृष्टि से जैन परंपरा अतुलनीय है क्योंकि वहां न केवल किसी भी तरह का मांसाहार किसी भी स्थिति में वर्जित है, बल्कि वनस्पति में भी जीव की उपस्थिति मानने के कारण उसके खाद्यात्मक उपयोग में भी कई तरह की मयादाएं निश्चित की गई हैं-विशेष समय में हरे फल या सब्जियों तक की मनाही है।

लेकिन, जैन और बौद्ध परंपरा के अतिरिक्त हिंदू धर्म के भी कई संप्रदायों-विशेषतया वैष्णव संप्रदाय में मांसाहार पूर्णतया निषिद्ध है। कई स्मृतियों और पुराणों में मांस-भक्षण को वर्जित किया गया है। वैदिक साहित्य में कई स्थलों पर गाय एवं कुछ अन्य पशुओं की बलि अथवा उनके खाए जाने का जो निषेध किया गया है, वह मूलतः उपयोगितापरक है। डॉ० पी०वी० काणे जैसे विद्वान का भी यही मत है कि दूध के विषय मेंगाय की अत्यधिक महत्ता, कृषि में बैलों की उपयोगिता तथा परिवार में आदान-प्रदान एवं विनिमय संबंधी अर्थनीतिक उपयोगिता एवं महत्ता के कारण गाय को देवत्व प्राप्त हो गया। लेकिन, वेदों एवं ब्राह्मण ग्रंथों में सामान्य तौर पर मांसाहार का निषेध नहीं है।

लेकिन, उपनिषदों, महाकाव्यों एवं स्मृतियों और पुराणों में कई स्थलों पर मांसाहार का निषेध किया गया है-यहां तक कि शतपथ ब्राह्मण भी यह मानता है कि मांस-भक्षण करने वाला व्यक्ति आगामी जन्मों में उन्हीं पशुओं के द्वारा खाया जाएगा, जिनका मांस वह खाता है। छांदोग्य उपनिषद में ब्रह्मज्ञानी के लिए सभी जीवों के प्रति अहिंसक व्यवहार आवश्यक बताया गया है। मनुस्मृति प्राणों पर आए संकट को टालने के लिए तो मांसाहार की अनुमति देती है, लेकिन यज्ञों में पशु-बलि का निषेध करती (5/46-55) तथा मांसाहार से दूर रहने वाले व्यक्ति को महाफल का अधिकारी बताती है। महाभारत में मृगया और मांस-भक्षण का कई स्थलों पर उल्लेख होते हुए भी उससे दूर रहने वाले की प्रशंसा की गई है।

वैष्णव संप्रदाय के विकास के साथ-साथ मांस-भक्षण का निषेध बढ़ता गया, क्योंकि उसके मूल ग्रंथ भागवत पुराण में मांस-भक्षण को वर्जित बताया गया है (7/15/7-8)। इसी तरह शिव पुराण (अध्याय 5) में हिंसा करने वाले को नरकगामी कहते हुए मांस-भक्षण का निषेध किया गया है। ब्रह्मांड पुराण, कूर्म पुराण, पद्म पुराण, वायु पुराण आदि में भी पशु-हिंसा को त्याज्य माना गया है; अतः मांसाहार का निषेध तो स्वतः ही हो जाता है। बहुत से मध्यकालीन संतों कबीर, नानक, चैतन्य आदि ने भी पशु-हिंसा एवं मांसाहार को पाप माना है। जरथुस्त्रवाद और कई प्रारंभिक ईसाई संप्रदायों में भी मांसाहार का निषेध किया गया है। इस्लाम के सूफी संप्रदाय में हमीदुद्दीन नागौरी तथा अमीर खुसरों जैसे कई सूफियों ने मांसाहार को उचित नहीं माना है।

पश्चिमी सभ्यता में भी प्रारंभ से ही मांसाहार-त्याग की एक परंपरा रही है। प्राचीन यूनानी सभ्यता में डायोजिनीज, सुकरात, प्लेटो, पाइथागोरस और प्लोटिनस को शाकाहार-समर्थक बताया गया है। पाइथागोरस को तो शाकाहारवाद का दार्शनिक ही कहा जा सकता है क्योंकि अठारहवीं शताब्दी तक तो शाकाहारियों को पाइथागोरियन संज्ञा से अभिहित किया जाता था। रोमन सभ्यता में पोरफिरी, प्लुटार्क और सेनेका को शाकाहार-समर्थक विचारक माना जाता है। सेनेका का कथन है कि पशुओं के मांस से दूर रहने से निष्पापता की वृद्धि होती है। वाल्तेयर, अलेक्जेंडर पोप, शैले, बैंथम, श्रीमति एनीबीसेंट, तोलस्तोय, जार्ज बर्नार्ड शॉ, सर रिचर्ड फिलिप और जॉन हारवर्ड जैसे लोग शाकाहार के समर्थक रहे हैं।

उन्नीसवीं सदी शाकाहार को एक आंदोलन का रूप देने के प्रयास आरंभ हो गए। 1807 ई० में इंग्लैंड में वेजीटेरियन सोसाइटी की स्थापना हुई तथा 1849 ई० में वेजीटेरियन मैसेंजर नामक मासिक पत्रिका का प्रकाशन आरंभ हुआ। बाद में, इस प्रयोजन से विश्व भर में कई संस्थाओं का निर्माण तथा साहित्य-प्रकाशन हुआ, जो आज तक जारी है, जिनमें पहले वेजीटेरियन फेडरल यूनियन तथा अनंतर इसकी उत्तराधिकारी दि इंटरनेशनल वेजीटेरियन यूनियन का नाम प्रमुख रूप से लिया जा सकता है। लगभग प्रत्येक देश में शाकाहारी समूह सक्रिय हैं। इस संबंध में तोलस्तोय का कथन सदैव स्मरणीय है कि पशु-मांस का उपभोग इसलिए स्पष्टतया अनैतिक है कि यह हमारी नैतिक भावनाओं पर हिंसा किए बिना संभव नहीं है।

समकालीन दुनिया में पीटर सिंगर जैसे विचारक पशु-अधिकारों एवं पशु-मुक्ति की अवधारणाओं के समर्थक हैं तथा मनुष्यों के समान ही पशुओं को भी पृथ्वी का समकक्ष निवासी मानते हैं।

द्रष्टव्य : बेंथम; पोरफिरी; पौराणिक अहिंसा, पंचमहाव्रत, बौद्धअहिंसा, नानक, कबीर, चैतन्य आदि।

- नंदकिशोर आचार्य

शार्दे, पियरे तेयार द : फ्रांसीसी धर्मशास्त्री, जीव-विज्ञानी, जीवाश्म-विज्ञानी तथा दार्शनिक पियरे तेयार द शार्दे (1881-1955 ई०) एक ऐसे कैथोलिक जेसुइट थे, जिन्होंने चर्च के प्रति पूरी आस्था रखते हुए भी उसके द्वारा अपनी भर्त्सना का खतरा उठाया क्योंकि उनके अनुसार ईसाइयत के सिद्धांतों को आधुनिक विज्ञान के संदर्भ में परिभाषित-व्याख्यायित करने की जरूरत थी। शार्दे डार्विन के विकासवाद के सिद्धांत से अत्यंत प्रभावित थे। इसलिए यह स्वाभाविक ही था कि वह बाइबिल में वर्णित मूल पाप और आदम के स्वर्ग से पृथ्वी पर फेंके जाने की अवधारणा को अस्वीकार करें क्योंकि डार्विन का विकासवाद जीवन को निरंतर विकसित होने वाली प्रक्रिया मानने के कारण ईसाइयत की मूल मान्यता ईश्वर द्वारा आदम और ईव की रचना तथा मूल पाप के कारण स्वर्ग-भ्रष्ट होने की कल्पना के बिल्कुल विरुद्ध जाता है। शार्दे की कोशिश यह थी कि वह विकासवाद को स्वीकार करते हुए उसके आलोक में ईसाइयत के मिथकों की नहीं, उसके मूल सिद्धांतों की व्याख्या करें। इसी कारण चर्च ने उन्हें अपने लेखन के प्रकाशन की जीवन-पर्यंत अनुमति नहीं दी। वह केवल कुछ मित्रों में विचारार्थ निजी वितरण तक सीमित रहा। चर्च के प्रति पूर्ण निष्ठावान होने के कारण शार्दे ने उसे प्रकाशित भी नहीं करवाया-यद्यपि अपने विचारों पर उनकी दृढ़ आस्था बनी रही और वे निरंतर अपनी विचार-यात्रा पर अग्रसर होते गए। 1955 ई० में उनकी मृत्यु के बाद ही यह संभव हो सका कि उनके मित्रों ने उसे प्रकाशित करवाया। उनकी किताबों की लंबी सूची में दि फिनोमना ऑफ मैन, मैंस प्लेस इन नेचर, हिम ऑफ दि युनिवर्स, साइंस एंड क्राइस्ट तथा बिल्डिंग दी अर्थ आदि अधिक प्रसिद्ध हैं।

विकासवाद के सिद्धांत को स्वीकार करते हुए शार्दे ने यह प्रतिपादित किया कि पूरी पृथ्वी का विकास एक उच्चगामी यात्रा है जो अंततः एक शिखर की ओर उन्मुख है-और यह शिखर ईश्वर है-जिसे उन्होंने ओमेगा-बिंदु कहा जो सारी पृथ्वी और उसके उच्चतम विकास मनुष्य को अपनी ओर खींच रहा है। शार्दे का मानना था कि विकासवाद एक अवधारणा मात्र नहीं, बल्कि वह अनिवार्य शर्त है, जिसकी कसौटी पर हर विज्ञान या किसी भी पद्धति को-धर्म को भी खरा उतरकर अपनी प्रामाणिकता सिद्ध करनी होगी। बर्गसां के क्रिएटिव इवोल्युशन से प्रभावित होने के कारण शार्दे ने पृथ्वी को एक निरंतर विकासशील सत्ता मानते हुए उसके विकास की एक नई व्याख्या की। उनके अनुसार विकास, दरअस्ल, चेतना का विकास है, जिसे जटिलता/चेतना के नियम के आधार पर समझा जा सकता है। यह नियम इस धारणा पर आधारित है कि पदार्थ में अपने को अधिकाधिक जटिल निर्मिति में रचते चले जाने की अंतर्जात प्रवृत्ति है। इसलिए न दिखते हुए भी चट्टान तक में चेतना है। वनस्पति प्राणी-जगत और मनुष्य में यह क्रमशः और जटिल होती हुई प्रकट होती है और यह जितनी जटिल होती जाती है, उतना ही चेतना का विकास होता जाता है। लेकिन यह चेतना पृथ्वी में अंतर्भूत है, जो विकसित होती हुई मनुष्य स्तर तक पहुंचती है। मनुष्य स्तर तक पहुंचने पर यह आत्म-सजग हो जाती है। जूलियन हक्सले के अनुसार, विकास पदार्थ का आत्मसजग हो जाना है। इसीलिए हक्सले ने स्वयं को लौकिक मानववादी मानते हुए शार्दे को धार्मिक मानववादी कहा क्योंकि शार्दे भी मनुष्य को चेतना का उच्चतम स्तर मानते हैं, लेकिन वह उसकी आगामी यात्रा को धार्मिक आयाम में देखते हैं।

शार्दे पृथ्वी के विकास में भूमंडल (Geos-phere) और जीव-मंडल (Biosphere) के बाद मनुष्य के विकास के साथ एक चेतनामंडल (Noosphere) की अवधारणा प्रतिपादित करते हैं, जिसका तात्पर्य है कि जटिलता/चेतना का नियम एक और उच्चतर स्तर की चेतना निर्मिति के लिए सक्रिय है। चेतना की उच्चगामी यात्रा का तात्पर्य है समूची मनुष्य जाति में एकत्व की चेतना का प्रकटन-क्योंकि तभी वह उस ओमेगा-बिंदु से मिल सकेगा, जिसे शार्दे ईश्वर कहते हैं, क्योंकि ईश्वर चेतना का सर्वोच्च रूप है, जो पृथ्वी में अंतर्निहित चेतना को उसकी विकास-यात्रा के माध्यम से अपनी ओर खींच रहा है। शार्दे विकास की प्रक्रिया के शुरु होने से पूर्व की स्थिति को प्राक्-जीवन (Pre-Life) कहते हैं क्योंकि वह जीवन की ओर उन्मुख है। पदार्थ प्राक्-जीवन की स्थिति है। शार्दे मानते हैं कि समूचा पदार्थ-जगत अर्थात् प्राक्-जीवन परस्पर अंतर्ग्रथित (Ecological relation) है, इसलिए समूचा जीवन भी अंतर्ग्रथित है। स्वाभाविक है कि तब चेतना के सभी प्रकट रूप भी अंतर्ग्रथित होने के लिए सक्रिय हैं। यही चेतना-मंडल (Noosphere) है जो मानवीय ओमेगा-बिंदु है, जिसका लक्ष्य ईश्वर है, जो स्वयं में एक ओमेगा-बिंदु है। शार्दे के अनुसार हमें विज्ञान के इस तथ्य को बिना हिचक स्वीकार कर लेना चाहिए कि मनुष्य पृथ्वी से उत्पन्न हुआ हैं, लेकिन इसका सीधा तात्पर्य यह है कि केवल उसकी मांस-मज्जा ही, नहीं उसकी चेतना भी पृथ्वी से उत्पन्न हुई है, अर्थात् उसकी आत्मा और देह एक ही पदार्थ के दो भिन्न रूप हैं। शार्दे की धार्मिकता केवल इस तथ्य के स्वीकार में है कि ईश्वर का अस्तित्व है और हमारी चेतना उसकी ओर प्रयाणरत है। यह ईसाइयत की विज्ञानसम्मत व्याख्या का प्रयत्न है।

शार्दे के शब्दों में कहें तो, हम मानव-विकास के उस संगम पर आ गए हैं, जहां से आगे ले जाने वाला एक ही रास्ता सर्वनिष्ठ उमंग (common passion) का है। इसलिए शार्दे यह मानते हैं कि चेतना की इस उच्चगामी यात्रा के बजाय यदि हम हिंसक साधनों के माध्यम से समाज-व्यवस्था को बदलने की कोशिश करते हैं तो वह मानव-एकता की यात्रा को भटका देने वाला होगा-यद्यपि विकास की प्रकिया कोई सीधी नहीं होती, उसमें भटकाव भी आते हैं; लेकिन, आत्मसजग होने के नाते मानव-चेतना उनसे बच सकती है। शार्दे कहते हैं, बाह्य हिंसा से उपलब्ध समाज-व्यवस्था में अपनी आशाओं को केंद्रित किए जाने का तात्पर्य पृथ्वी की आत्मा के अपने चरम तक पहुंचने की आशा को त्याग देना है।

- नंदकिशोर आचार्य

शार्प, जीन : पाश्चात्य जगत में अहिंसा शास्त्र के अध्येताओं में जीन शार्प (Gene Sharp) का नाम उल्लेखनीय है। जीन शार्प अल्बर्ट आइंसटाइन इंस्टीट्यूट में अहिंसा एवं शांति विषय के वरिष्ठ अध्येता हैं। वर्तमान में वे मैसाचूसेट्स विश्वविद्यालय में राजनीति शास्त्र के वरिष्ठ प्रोफेसर के रूप में भी कार्यरत हैं। 1949 ई० में ओहियो राज्य विश्वविद्यालय से सामाजिक विज्ञान में स्नातक करने के पश्चात् उन्होंने 1951 ई० में समाजशास्त्र विषय से स्नातकोत्तर की डिग्री प्राप्त की। शार्प ने 1968 ई० में आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय से राजनीति सिद्धांत पर पी.एच.डी. की डिग्री प्राप्त की। 1983 ई० में मनहट्टन कॉलेज ने उन्हें विधि के क्षेत्र में और 1996 ई० में रिवियर कॉलेज ने मानवीय सेवाओं के लिए डाक्ट्रेट की मानद् उपाधि प्रदान की। वे लगभग 10 वर्ष तक इंग्लैंड एवं नार्वे में रहे। अपना उच्च अध्ययन आक्सफोर्ड विश्वविद्यालय से करने के बाद उन्होंने ओस्लो विश्वविद्यालय और इंस्टीट्यूट ऑफ सोशल रिसर्च नार्वे में कई प्रतिष्ठित पदों पर कार्य किया। अहिंसक संघर्ष के क्लाजविट्ज कहे जाने वाले जीन शार्प ने 1983 ई० में तानाशाही, युद्ध, शोषण, जातिसंहार, दमन आदि के विरूद्ध अहिंसक संघर्ष, शांति शोध, शांति नीतियों, शांति शिक्षा एवं अहिंसक तकनीकों के विकास के लिए अल्बर्ट आइंस्टाइन इंस्टीट्यूट की स्थापना की।

जीन शार्प ने अहिंसक संघर्ष, शक्ति का सिद्धांत, राजनैतिक समस्याओं, तानाशाही एवं सुरक्षा नीतियों आदि विषयों को अपने लेखन का मुख्य केंद्र बनाया। अंग्रेजी भाषा के अतिरिक्त शार्प का साहित्य नार्वेजियन, जर्मन, फ्रांसीसी, इतालवी, अरबी, हिब्रू, तमिल, थाई, बर्मि, इस्पहानी, चीनी, कोरियाई एवं जापानी आदि भाषाओं में अनेक देशों में प्रकाशित हुआ। 1973 ई० में प्रकाशित दि पॉलिटिक्स ऑफ नान-वायलेंट एक्शन पुस्तक उनकी सर्वश्रेष्ठ प्रसिद्ध कृति है, जो अहिंसक प्रतिरोध को संघर्ष-निराकरण के एक व्यावहारिक तरीके के रूप में व्याख्यायित करती है। शार्प की इस पुस्तक को अहिंसक संघर्ष में एक शास्त्रीय कृति के रूप में स्वीकार किया गया। 1985 ई० में प्रकाशित उनकी पुस्तक मेकिंग यूरोप अनकॉन्करेबल मुख्य रूप से पश्चिमी यूरोप में नागरिक सुरक्षा की प्रासंगिकता पर आधारित है। शार्प की सिविलियन बेस्ड डिफेंस : पास्ट मिलिटरी वेपनसिस्टम पुस्तक मुख्यतः हिंसक विद्रोह एवं आक्रमण के विरूद्ध अहिंसक, असहयोग एवं सुरक्षा विषयों का विश्लेषण करती है। उल्लेखनीय है कि जीन शार्प की इस पुस्तक का प्रयोग 1991-92 ई० में एस्तोनिया, लेटविया व लिथुवानिया की सरकारों ने सोवियत रूस के विरूद्ध सुरक्षा नीतियों के निर्माण में किया था। 2005 ई० में प्रकाशित उनकी पुस्तक वेजिंग नान-वायलेंट स्ट्रगल : ट्वेंटीएथ सेंचुरी पोटेंशियल अहिंसक प्रतिरोधों के व्यावहारिक उदाहरणों की व्याख्या के साथ ही अहिंसक प्रतिरोध के प्रभावशाली प्रयोग के सबंध में जानकारी प्रदान करती है। इन पुस्तकों के अतिरिक्त भी शार्प ने कई पुस्तकों का लेखन किया है, जो उनके अहिंसा एवं शांति संबंधी चिंतन को स्पष्ट करती हैं, वे निम्नांकित हैं-सोशल पावर एंड पॉलिटिकल फ्रीडम, फ्रोम डिक्टेटरशिप टु डेमोक्रेसी, नान-वायलेंट एक्शन : ए रिसर्च गाइड, गांधी एज ए पॉलिटिकल स्ट्रेटेजिस्ट : विद इस्से ऑन एथिक्स एंड पोलिटिक्स, गांधी वील्ड्स दि वेपन ऑफ मोरल पावर, दि पावर एंड प्रेक्टिस ऑफ नान-वायलेंट स्ट्रगल, रेजिस्टेंस, पोलिटिक्स एंड दि अमेरिकन स्ट्रगल फोर इंडिपेंडेंस।

अहिंसात्मक व्यवहार के सिद्धांत और प्रयोग के संबंध में चिंतन प्रस्तुत करने वाले विचारकों की शृंखला में जीन शार्प दो दृष्टियों से महत्वपूर्ण माने जाते हैं। प्रथम, उन्होंने अहिंसक प्रतिरोध की विभिन्न तकनीकों को ऐतिहासिक उदाहरणों के साथ सूचीबद्ध रूप में वर्गीकृत किया। उनके इस वर्गीकरण ने अहिंसक व्यवहार के बिखरे और अव्यवस्थित रूप को व्यवस्थित रूप प्रदान किया। द्वितीय, जीन शार्प ने शक्ति/सत्ता के सिद्धांत की व्यापक व्याख्या की, जो अहिंसक व्यवहार को समझने का आधार प्रस्तुत करती है। उनके इस सिद्धांत के अनुसार समाज में नागरिकों को शासक और शासित के रूप में वर्गीकृत किया जाना तो उपयुक्त है, किंतु यहां यह ध्यान देने योग्य तथ्य है कि शासकों की शासन करने की शक्ति शासितों/जनता की सहमति से ही व्युत्पन्न होती है। अहिंसक प्रतिरोध वह प्रक्रिया है, जिससे शासित वर्ग अपनी इस सहमति को वापस ले सकता है और आधुनिक युग की समस्याओं यथा-तानाशाही, जाति-संहार, युद्ध, शोषण आदि को चुनौती दे सकता है। जीन शार्प राजनैतिक शक्ति को दो दृष्टियों से देखते हैं। पहली दृष्टि में शक्ति का अखंड रूप है, जिसमें जनता सहयोग के लिए अपने शासक पर निर्भर होती है। शक्ति के इस एकात्मक स्वरूप में सरकार एक स्वतंत्र, सुदृढ़, स्थायी एवं स्व-स्थायित्व वाला शक्ति का साधन है। यह प्रारूप युद्ध एवं हिंसक क्रांति को औचित्य प्रदान करता है। शक्ति के इस प्रारूप की क्रियान्विति तभी होती है जब शासक और शासित दोनों इस पर विश्वास करते हों। शार्प की राजनैतिक शक्ति की दूसरी दृष्टि यह है कि राजनैतिक शक्ति इस बात को प्रमाणित करती हो कि शासक शासन करने की शक्ति उनसे प्राप्त करता है, जिन पर वह शासन करता है। यदि शासक को शासन करना है तो उसके लिए शासितों का सहयोग निश्चित रूप से आवश्यक है। जनता के सहयोग के बिना सरकार और उसके सहायक सभी साधारण और शक्तिहीन हो जाते हैं। शार्प के अहिंसक व्यवहार की तकनीक शक्ति के इसी सिद्धांत पर आधारित है।

शार्प के विचारों में शासक का अर्थ केवल एक मुख्य शासक से नहीं है, अपितु शासन एक वर्ग या समूह के द्वारा भी हो सकता है। राजनैतिक शक्ति का विश्लेषण करते हुए शार्प का मानना है कि राज्य के तंत्र में अन्य कई तत्त्व भी होते हैं, जो शासक की स्थिति पर अपना महत्त्वपूर्ण अधिकार रखते हैं जैसे-पुलिस, सेना, अधिकारी आदि। शार्प ने सामाजिक शक्ति के समान राजनैतिक शक्ति के स्रोत अधिकार, मानवीय संसाधन, कुशलता, ज्ञान, प्रभाव, दबाव, पुरस्कार, अनुशंसा, अमूर्त तत्त्व आदि बताए हैं। शक्ति के इन स्रोतों के आधारों की व्याख्या करते हुए शार्प कहते हैं-अंततः, शासक की शक्ति के साधन जनता की आज्ञाकारिता और उसके सहयोग पर निर्भर करते हैं। यह शक्ति से सहमति का सिद्धांत कहा जाता है। जनता की सहमति और सक्रिय सहयोग के अभाव में शासक की शासन करने की शक्ति और शासन करने के आधार दोनों ही न्यून हो जाते हैं।

किसी भी शासन करने वाली सरकार की महत्त्वपूर्ण विशेषता है-उसकी प्रजा की आज्ञाकारिता और आत्मसमर्पण। जनता के इन गुणों के बिना सरकार का कोई अस्तित्व नहीं रह जाता है। जनता की आज्ञाकारिता राजनैतिक शक्ति का मूल है। राजनैतिक शक्ति के आयाम को समझने के लिए उन कारणों को जानना आवश्यक है जो जनता को शासक की आज्ञा मानने पर बाध्य करते हैं। जीन शार्प ने इन संबंध में सात कारणों की चर्चा की है : (1) आदत (Habit)-शार्प के अनुसार जनता की शासन के प्रति आज्ञाकारिता का प्रमुख कारण जनता की आदत है। प्रायः विश्व की सभी संस्कृतियों में आदतन आज्ञाकारिता का तत्त्व सन्निहित होता है और एक दृष्टि से संस्कृति का तात्पर्य ही है-आदतन व्यवहार (Habitual Behavior) (2) दंड का भय (Sanction of Fear)-शार्प की दृष्टि में प्रायः जनता में शासक के द्वारा दंड दिए जाने का भय विद्यमान रहता है। दंड के इस भय के कारण जनता की आज्ञाकारिता बनी रहती है। (3) नैतिक दबाव (Moral Obligation)-नैतिक दबाव वह शक्ति होती है जो प्रचलित संस्कृति का तत्त्व होती है और राज्य, मीडिया, शिक्षा आदि के द्वारा विवेचित होती है। नैतिक दबाव के कारण भी जनता शासक की आज्ञा को स्वीकारती है। (4) स्वार्थ/स्वहित (Self-Interest)-स्वार्थ की मूल प्रवृति के कारण भी जनता शासक की आज्ञा को मानती है। वित्तीय लाभ और मान-सम्मान एवं प्रतिष्ठा की आशा जनता को आज्ञापालन का प्रलोभन देती है। (5) शासक के प्रति मनोवैज्ञानिक लगाव (Psychological Indentification with the Ruler) शार्प के अनुसार जनता का शासक और शासन-व्यवस्था के प्रति भावनात्मक लगाव भी उनको आज्ञापालन के लिए बाध्य करता है। जनता द्वारा शासन की सफलता और असफलता को अनुभव किया हुआ हो सकता है। शार्प के अनुसार शासन के प्रति जनता की मनोवैज्ञानिक लगाव की अभिव्यक्ति देशभक्ति और राष्ट्रवाद के रूप में अभिव्यक्त होती है। (6) अधिकारों के प्रति उदासीनता (Zones of Indifference)-शार्प के अनुसार जनता की अपने अधिकारों के प्रति उदासीनता भी उन्हें शासन की आज्ञा को मानने के लिए बाध्य करती है। (7) आत्म-विश्वास का अभाव (Absence of Self-Confidence)-शार्प की दृष्टि में समाज में कुछ लोग ऐसे होते हैं जो अपने जीवन का नियंत्रण शासक वर्ग के हाथ में सौंप देना श्रेयस्कर मानते हैं। ऐसे लोग अपने हित में निर्णय लेने में असक्षम होते हैं; परिणामतः, उन लोगों को शासन की आज्ञा का पालन करना होता है।

इन कारणों का विश्लेषण करने पर यह ज्ञात होता है कि मनुष्य में आज्ञा पालन की प्रवृत्ति में मनोवैज्ञानिक कारण का तत्त्व निश्चित रूप से होता है। आधिपत्य और अधीनता दोनों ही मस्तिष्क की मनोवैज्ञानिक स्थितियां हैं। यद्यपि आज भी कई बार सत्ताधारी वर्ग अपनी शक्ति से अनजान होता है और सत्ताधारी वर्ग अखंड शक्ति के इस भ्रम को बनाए रखने के लिए जनता को असहाय्यता का अनुभव करवाती है।

शक्ति का सिद्धांत शार्प द्वारा अहिंसात्मक व्यवहार के क्षेत्र में लिए गए कार्यों का प्रारंभ है, जो उन्हें अहिंसात्मक व्यवहार की विधियों की ओर ले जाने में महत्त्वपूर्ण साबित हुआ। शक्ति के सिद्धांत पर शार्प के विचारों की कई परिप्रेक्ष्यों में समीक्षा की जा सकती है। अहिंसक समाज-स्थापना के संदर्भ में सामाजिक तंत्र एवं सामाजिक संस्थाओं हेतु उनका चिंतन विचारणीय है। मार्क्स के समान वह एक ओर सामाजिक संरचना में परिवर्तन की अपेक्षा रखते हैं तो दूसरी ओर परिवर्तन हेतु अहिंसक पद्धतियों का समर्थन करते हैं; यद्यपि शार्प यह स्वीकारते हैं कि अहिंसक संघर्ष की सीमा होती है व कई आधारों पर उसे शक्तिहीन भी किया जा सकता है। उदाहरणार्थ, संघर्षरत समूहों को वर्ग, कुशलता, पारिश्रमिक, प्रजाति आदि में विभक्त कर शोषितों के संघर्ष को दुर्बल बनाया जा सकता है। अतः, आवश्यकता इस बात की है कि शोषित वर्ग कुछ विशिष्ट आधारों पर प्रभावी कार्य-पद्धति का चिंतन कर इसे विकसित करें। जीन शार्प ने इस संबंध में वैज्ञानिक पद्धति के आधार पर कार्यप्रणाली विकसित की जिसे अहिंसा शास्त्र के क्षेत्र में व्यापक मान्यता प्राप्त हुई।

शार्प के द्वारा गहन अनुसंधान के उपरांत वैज्ञानिक पद्धति के आधार पर अहिंसक प्रतिरोध की 198 तकनीकों का प्रतिपादन किया गया जिनके प्रयोग से संघर्षरत समूहों की सफलता की संभावना में वृद्धि हो जाती है। संघर्षपूर्ण दशाओं में जीन शार्प द्वारा प्रतिपादित अहिंसक प्रतिरोध की प्रक्रिया के विभिन्न चरणों को निम्न तीन भागों में विभक्त किया गया है-

(1) विरोध-इसके अंतर्गत विरोधी पक्ष के प्रति विरोध की विभिन्न तकनीकों को सम्मिलित किया गया है जिसमें औपचारिक प्रतिवेदन, प्रदर्शन, प्रतिनिधित्व, प्रतीकात्मक कार्य, दबाव, जन सभाएं आदि तकनीकों का उल्लेख किया गया है। (2) सामाजिक, राजनैतिक एवं आर्थिक सहयोग-इसके अंतर्गत इन तीनों क्षेत्रों में असहयोग, हड़ताल, सविनय अवज्ञा, बहिष्कार आदि तकनीकों को सम्मिलित किया गया है। (3) अहिंसक हस्तक्षेप-अहिंसक हस्तक्षेप के अंतर्गत व्यक्ति विशेष द्वारा प्रयुक्त की जाने वाली मनोवैज्ञानिक, सामाजिक, शारीरिक, आर्थिक, राजनैतिक हस्तक्षेप की विभिन्न तकनीकों को वर्णित किया गया है।

अहिंसात्मक प्रतिरोध जनता द्वारा आज्ञा की अस्वीकृति का एक तरीका है। यदि जनता अपनी स्वीकृति क्रियात्मक तरीके से वापिस लेती है तो शासक की शासन करने की शक्ति समाप्त हो जाती है। अहिंसात्मक प्रतिरोध के संबंध में चिंतन व्यक्त करते हुए शार्प कहते हैं-जब शासक अहिंसक प्रतिरोधियों के विरूद्ध अपने सर्वोच्च बल-दंड का प्रयोग करते हैं तब कई बार उन्हें मनवांछित परिणाम प्राप्त नहीं होते हैं। प्रथमतया तो सभी दंडों का प्रयोग जनता पर शासक के नुमाइंदों के द्वारा किया जाता है, जो स्वयं भी शासन की अनुपालना नहीं भी कर सकते हैं या फिर अनुपालना का नाटक भी कर सकते हैं। जब शासक के प्रतिनिधि को निर्दोष जनता के प्रति नृशंस अत्याचार करने के आदेश प्राप्त होते हैं तो ये प्रतिनिधि निर्दोष जनता पर ऐसे अत्याचार करने में अनैच्छिक होते हैं। शासक के एजेंट यह भी अनुभव कर सकते हैं कि उनका शासक शासन करने की शक्ति खोता जा रहा है, परिणामतः, एजेंट की जनता के प्रति सहानुभूति हो जाती है। शासकों द्वारा हिंसक दंड का प्रयोग करने पर एक समस्या यह भी आती है कि शासितों के प्रति अत्यधिक क्रूरता के परिणामस्वरूप वे अपनी एकता और सहयोग को बढ़ाने की दिशा में प्रयत्नशील हो जाते हैं। ऐसा तब होता है जब संघर्ष के दौरान कुछ लोग शहीद हो जाते हैं और तब तीसरा निष्क्रिय पक्ष क्रूरता से भयभीत हो जाता और सहानुभूति प्रकट करने लग जाता है। शार्प के अनुसार दंड निर्धारित लक्ष्य की प्राप्ति में सहायक नहीं होते क्योंकि शारीरिक बल से आज्ञा का पालन नहीं करवाया जा सकता। शार्प कहते हैं-वह दंड नहीं है जो जनता में आज्ञाकारिता का उदभव करता है, अपितु दंड के प्रति उनका भय है। इतिहास में कई ऐेसे उदाहरण मिलते हैं, जो इस बात को प्रमाणित करते हैं कि बहुत बार जनता ने शासक की आज्ञा को अपनी जान जोखिम में डालकर भी ठुकराया है।

जीन शार्प अहिंसक प्रतिरोधों को प्रभावकारी बनाने के तीन मार्ग सुझाते हैं। प्रथम है-परिवर्तन। गांधी और अनेक लोगों ने विरोधी पक्ष के दृष्टिकोण को बदलने पर जोर दिया है। विरोधी पक्ष के हृदय और मस्तिष्क को जीतना ही सच्ची जीत है। दूसरा मार्ग है-समझौता। जब विरोधी पक्ष सहमत न हो तो संघर्ष को जारी रखना उचित नहीं होता है। समझौते के द्वारा संघर्ष को समाप्त किया जा सकता है। समझौता जीत का सर्वप्रचलित मार्ग है। शार्प अहिंसक प्रतिरोधियों को तीसरा मार्ग सुझाते हैं-अहिंसक बल प्रयोग। यह तब प्रयुक्त होता है जब विरोधी अपनी इच्छा में रियायत कर देता है क्योंकि उसका शक्ति का आधार खत्म होने लगता है। अतः, जब अहिंसक प्रतिरोधी विरोधी की नकारात्मक सोच को परिवर्तित नहीं कर पाता है तब भी वह घटनाओं पर अपना नियंत्रण एवं प्रभाव बनाए रख सकता है।

अहिंसक तकनीकों की व्याख्या करने के साथ शार्प यह भी स्वीकारते हैं कि आज तक भी अहिंसात्मक व्यवहार को संघर्ष निराकरण के कानूनी तरीके के रूप में मान्यता नहीं मिली है। इसके कारणों की विवेचना करते हुए शार्प कहते हैं कि आज तक अहिंसात्मक कार्यकर्ताओं को बहुत बार नायक या आदर्श के रूप में मान्यता मिली है जबकि योद्धाओं एवं आतंकवादियों की कार्यप्रणाली को भविष्य की पीढ़ी के लिए व्यवस्थित किया जाता है। इतिहासकार भी यह मानते हैं कि प्रभुत्वशाली संस्कृति का दृष्टिकोण यही है कि संघर्ष का कानूनी रूप हिंसात्मक ही है और पश्चिमी सभ्यता भी हिंसा के प्रति पूर्वग्रह से ग्रसित है। शार्प के अनुसार अहिंसक व्यवहार के लिए संपूर्ण विश्व की एक दृष्टि होनी चाहिये, जिसका समय अभी नहीं आया है। अहिंसा को अब तक सुसंगत व्यवस्था के रूप में नहीं देखा गया है, जिसके कारण अहिंसक व्यवहार के ऐतिहासिक उदाहरणों को संघर्ष-निराकरण की एक तकनीक के रूप में देखने के बजाय पृथक रूप से देखा गया है। जीन शार्प के अनुसार अहिंसा की अनुचित रूप से हिंसा से तुलना की जाती है। प्रायः, अहिंसा का प्रयोग तब किया जाता है जब हिंसा की सफलता संदिग्ध हो जाती है और जब अहिंसा असफल हो जाती है तो इस उपाय को ही दोषी ठहराया जाता है। अहिंसक व्यवहार से प्राप्त सफलताओं को संयोग माना गया और आंशिक सफलताओं को पूर्ण असफलता के रूप में विवेचित किया गया है। शार्प के अनुसार ये कुछ ऐसे कारण हैं जो अहिंसक व्यवहार में बाधा पहुंचाते हैं।

शार्प के विचार आलोचनात्मक विश्लेषण की दृष्टि से महत्वपूर्ण माने जाते हैं क्योंकि अनेक सामाजिक कार्यकर्ताओं के द्वारा शार्प के विचारों का प्रयोग उनके स्वयं की अहिंसक क्रियाओं के सिद्धांतों को मजबूती प्रदान करने के लिए किया जाता है। अहिंसा के प्रायोगिक प्रशिक्षण के स्रोतों में भी शक्ति के सिद्धांत के विभिन्न आयामों को प्रयुक्त किया जाता है। संरचनात्मक दृष्टिकोण से समाज-विश्लेषण के लिए शार्प का शक्ति का सिद्धांत समाज की सभी गतिविधियों को समग्र रूप से प्रदर्शित करने का उचित मार्ग है। शार्प के अनुसार समाज में दो तरह की स्थितियां पाई जाती हैं। प्रथम स्थिति वह है जब समाज का लक्ष्य उन लोगों की प्रगति करना है, जो समाज से अलग रहकर उसका अवलोकन तो करते हैं, किंतु समाज से पारस्परिक अंर्तक्रिया नहीं करते। उस स्थिति में समाज विश्लेषण के लिए जटिल और बहुश्रुत सिद्धांत ही उपयुक्त रहता है। दूसरी स्थिति वह है जहां समाज का लक्ष्य ऐसी दृष्टि प्रदान करना है जिसका प्रयोग कार्यकर्ताओं के द्वारा किया जा सके। इस स्थिति में समाज के विश्लेषण के लिए सीधे, सरल और स्पष्ट सिद्धांत की आवश्यकता होती है। इस संदर्भ में शार्प के सिद्धांत सफल सिद्ध होते हैं। शार्प के विचारों को बहुधा सामाजिक कार्यकर्ताओं के द्वारा प्रयोग में लाया जाता है। सिद्धांत से व्यवहार की परिणिति में सरलीकरण और रूपांतरण महत्त्वपूर्ण तत्त्व होता है। शार्प की विचारधारा की मजबूती इसमें है कि जहां उनके मूल विचार अहिंसक व्यवहार को विकसित करने में आदर्श रूप से सही बैठते हैं, वहीं प्रयोग रूप में भी उतने ही सही प्रतीत होते हैं।

जीन शार्प की बहुचर्चित पुस्तक दि पॉलिटिक्स ऑफ नान-वायलेंट एक्शन प्रकाशित हुई तब संघर्ष-निराकरण में अहिंसा की भूमिका पर जनता की जागरूकता बढ़ी। अहिंसक व्यवहार की तकनीक का प्रयोग कई वृहद् संघषरें यथा 1986 ई० में फिलीपींस से मार्कोस को बाहर निकालने में और 1991 ई० में रूस के सैनिक प्रहार को रोकने के लिए सफलतापूर्वक किया गया।

इतिहास अहिंसक प्रतिरोध के उदाहरणों से भरा पड़ा है और 21 वीं शताब्दी तक आते-आते अहिंसक प्रतिरोध के उदाहरण और भी बढ़े हैं। विश्व स्तर पर अब यह अनुभव किया जाने लगा है कि संघर्ष निराकरण के लिए हिंसा के अतिरिक्त भी कई प्रभावी विकल्प हो सकते हैं। अहिंसक व्यवहार के क्षेत्र में महत्त्वपूर्ण योगदान देने के कारण जीन शार्प को अहिंसात्मक व्यवहार के सिद्धांतों के जनक के रूप में जाना जाता है। उनके शक्ति सम्बंधी विचार नियमित रूप से अहिंसा के प्रायोगिक प्रशिक्षण कार्यक्रमों में प्रयुक्त किए जाते हैं। शार्प के अहिंसा-त्मक व्यवहार के उदाहरण आज भी वृहद् रूप से अहिंसक चर्चाओं और पुस्तकों का केंद्र रहते हैं। जीन शार्प द्वारा विधिवत् प्रतिपादित वैज्ञानिक पद्धति पर वर्गीकृत अहिंसक प्रतिरोध की 198 तकनीकों के प्रयोग से लोकतांत्रिक अधिकारों एवं न्याय के लिए संघर्षरत समूहों द्वारा सफलता प्राप्त की जा सकती है। हाल ही में ईरान सरकार द्वारा 2009 ई० में चुनावों के दौरान इन तकनीकों का प्रभावी रूप से प्रयोग किया गया था। पिछले वषरें में जीन शार्प ने अहिंसक संघर्ष के स्वरूप एवं इसके प्रयोग को सरलीकृत करने के लिए कई कार्यशालाएं आयोजित की हैं। संकटपूर्ण दशाओं के निवारण के लिए अहिंसक संघर्ष की नीति के विकास में उनका कार्य आज भी गतिशील है। यह कहा जा सकता है कि जीन शार्प द्वारा प्रतिपादित अहिंसक संघर्ष की वैज्ञानिक विधि का नियोजित रूप से प्रयोग किया जाए तो शोषण मुक्त एवं हिंसामुक्त समाज की संरचना की ओर प्रभावी कदम बढ़ाये जा सकते हैं।

- प्रो० बच्छराज दुग्गड़

शावेज, सीजर : सीजर शावेज (1927-1993 ई०) मैक्सिकन-अमेरिकन श्रम एक्टिविस्ट और संगठित किसानों और श्रम संगठनों की अगुआई करते हुए श्रमिक हितों के लिए लड़ते रहे। वह पहले व्यक्ति थे जिन्होंने बीसवीं सदी में काम की तलाश में घूमने वाले श्रमिकों के हितों के लिए आवाज उठाई। उनके नेतृत्व में चलने वाले इन आंदोलनों ने श्रमिकों के काम करने की खतरनाक स्थितियों पर और उनमें सुधार करने की ओर सरकार का ध्यान आकर्षित किया।

सीजर एस्ट्राडा शावेज का जन्म 31 मार्च 1927 ई० में एरिजोना के यूमा में हुआ। जीवन के शुरूआती सालों में ही वह इंसाफ और नाइंसाफी में अंतर समझ चुके थे। एरिजोना स्थित एक छोटे से घर में उनका बचपन बीता, जहां एंग्लोज अर्थात अंग्रेज ज्यादा थे। उनके पिता ने अपनी अस्सी एकड़ जमीन के सौदे के बदले अपने घर से जुड़ी चालीस एकड़ जमीन का अधिग्रहण किया था। कुछ ही समय में यह समझौता टूट गया और सामने वाले व्यक्ति ने उनके पिता के साथ विश्वासघात करते हुए इस जमीन को जुस्टस जैक्सन नामक व्यक्ति को बेच दिया। सीजर के पिता वकील के पास गए तो वकील ने उन्हें कहीं से कुछ पैसा उधार लेकर इस जमीन को खरीदने का सुझाव दिया। बाद में सीजर के पिता इस उधार ली गई राशि का ब्याज चुकाने में असमर्थ रहे और इस जमीन को उन्होंने इसके असली वारिस को बेच दिया। किसान के हितों को चोट पहुंचाने वाला यह वाकया सीजर की जिंदगी का पहला पाठ था जो उन्होंने सीखा था।

1938 ई० में उनका परिवार केलिफोर्निया चला गया। वे वहां सेन जोस में बस गए। जहां उन्हें प्रताड़ना का शिकार होना पड़ा। उनके परिवार से वहां से चले जाने को कहा गया। वह और उनके परिवार ने केलिफोर्निया के बेवर्ली से ऑक्नार्ड तक, और एस्टासकेडरिओ, गोंजेल्स, किंगसिटी, सेलिनास, मेकफारलेंड, वास्को, किंग्सबर्ग आदि जगहों पर खेतों में काम किया। दूसरे बच्चों की तरह वह स्कूल नहीं जा पाए क्योंकि वह घर पर केवल इस्पहानी ही बोला करते थे। वहां के सारे शिक्षक एंग्लो थे और केवल अंग्रेजी ही बोल-समझ सकते थे। वहां के स्कूलों में इस्पहानी पर प्रतिबंध था। वहां के शासकों का बर्ताव भी भेदभावपूर्ण था। बचपन में उन्हें जातिवादी और नस्लीय टिप्पणियां सुनने को मिलती थीं। वह और उनके भाई रिचर्ड ने कई स्कूल बदले थे और अब तक शावेज को यह महसूस हो चुका था कि मात्र स्कूली शिक्षा से इन किसानों और श्रमिकों का कुछ भला नहीं होने वाला, इससे इनकी जिंदगी की दिशा नहीं बदल पाएगी।

काम की तलाश में जगह-जगह भटकने वाले मजदूर बेहद बुरे हालात में जी रहे थे। वे तपती धूप में खेतों में अमानवीय परिस्थतियों में काम करने को मजबूर थे। धूप में वे मटर, अंगूर, बीटस, खीरे, टमाटर, कपास और दूसरी फसलों को तोड़ा करते। हर टोकरे पर उन्हें पचास सेंट अदा करने होते थे। खेतों के मालिक उनके काम के दौरान किए गए पानी तक के लिए शुल्क वसूला करते। रहने को घर नहीं होने की स्थिति में मालिक उन्हें रात को सोने के लिए बाहर या झोपड़ी में सोने को मजबूर करते।

1942 ई० में शावेज ने स्नातक की डिग्री हासिल की। हालांकि शुरूआती शिक्षा के उनके अनुभव खराब रहे और उनकी रूचि भी कम ही रही, लेकिन आगे चलकर शिक्षा उनकी उमंग बन चुकी थी, अब शिक्षा में उन्हें आनंद आने लगा था। ला पेज स्थित उनके दफ्तर की आलमारियों में हजारों किताबें करीने से लगी दिखाई दे जाती थीं। इनमें गांधी से लेकर जॉन एफ कैनेडी तक की आत्मकथाएं शामिल थीं।

1944 ई० में मात्र सत्रह की उम्र में वह जलसेना में भर्ती हो गए और दो साल तक वहां सेवाएं दी। 1948 ई० में उन्होंने हेलन फाबेला से शादी की और डीलानो में बस गए। उनके तीन बच्चे हुए, फर्नांडो, सेल्विया और फिर लिंडा। शावेज फिर से सेन जोस आए जहां उनकी मुलाकात फादर डोनाल्ड मैकडोनेल से हुई, उनसे वे बेहद प्रभावित हुए। उनके बीच मजदूरों के बारे में अक्सर बात हुआ करती। शावेज ने सेंट फ्रांसिस और गांधी के अहिंसावादी आंदोलनों के बारे में काफी कुछ सुन रखा था। फादर डोनाल्ड मैकडोनेल के बाद वे सबसे ज्यादा प्रभावित हुए फ्रेड रोज से। उन्होंने रॉस नामक संस्था की नींव रखी। यह एक सामुदायिक सेवा संगठन था।

1962 ई० में सीजर ने नेशनल फार्म वर्कर्स असोसिएशन की नींव रखी। इसके बाद उन्होंने यूनाइटेड फार्म वर्कर्स (यूएफडब्ल्यू) की स्थापना की। इसी साल रिचर्ड शावेज ने इसके शुभंकर के रूप में सियाह-सफेद रंग के गरुड़ को चुना। सीजर ने इसको चुनने के पीछे की कहानी सुनाते हुए गरुड़ के जन्म का किस्सा सुनाया। उन्होंने रिचर्ड को उसके झंडे की डिजाइन भी तय करने के लिए कहा। अंतिम रूप से उन्होंने एक भूरे रंग के पेपर को मोड़ते हुए उस पर इसका स्केच तैयार कर दिखा दिया। यूनियन के सदस्यों ने हाथ से लाल रंग के झंडे बनाए। यही झंडा उनकी एकता का प्रतीक बना और आंदोलन के लिए दिशा तैयार हुई। 1962 ई० से लंबे समय तक यूनियन के पास संस्था को चंदा देने वाले कुछ ही सदस्य थे, लेकिन 1970 ई० में अंगूर उत्पादन करने वाले किसानों के इससे जुड़ने के बाद संस्था के पास पैसा देने वाले सदस्यों की संख्या बढ़कर पचास हजार हो चुकी थी। यह सीजर के अथक प्रयास और अहिंसात्मक आंदोलन में लोगों के विश्वास का परिणाम था। अंगूर उत्पादक श्रमिकों के काम की परिस्थतियों को लेकर किए गए अहिंसात्मक आंदोलन ने पूरे देश की जनता का ध्यान अपनी ओर आकर्षित किया; आंदोलनकारियों की मांग थी कि सरकार खेतीहर मजदूरों को संगठित होने और उनके हितों ध्यान में रखते हुए कानून पास करे। अस्सी के दशक में सीजर ने उन अंगूर उत्पादकों के खिलाफ आवाज उठाई जो इसकी खेती में खतरनाक कीटनाशकों का इस्तेमाल करते थे। उनका कहना था कि यह खतरनाक रसायन न सिर्फ इन्हें तोड़ने वाले मजदूरों के स्वास्थ्य के लिए घातक हैं बल्कि इनका सेवन करने वाले लोगों के स्वास्थ्य को भी नुकसान पहुंचाएंगे। इसके विरोध में उन्होंने बॉयकाट के अलावा व्रत का अहिंसात्मक तरीका चुना और 35 दिनों तक अन्नजल त्याग दिया। उनका यह तरीका राष्ट्रीय स्तर पर लोगों का ध्यान खींचने में सफल रहा। आंदोलन में उनके अपनाए गए बॉयकाट, हड़ताल आदि के अहिंसात्मक तरीके काफी सफल भी रहे।

सीजर कहते थे कि व्रत करने का फैसला नितांत निजी है। यह मेरे शरीर को अंदर से शुद्ध बनाता है। यह मुझे प्रार्थना की शक्ति देता है जो श्रमिक हितों के लिए किए जाने वाले इस आंदोलन के लिए बेहद जरूरी है। उनके इन विचारों से आम लोगों में जागृति आई और अंगूर उत्पादन से जुड़े स्त्री-पुरूष उनके साथ हो लिए। सुपर मार्केटस में अंगूरों की बिक्री और मुनाफा कमाने के विरोध में उन्होंने भूख हड़ताल के माध्यम से असहयोग आंदोलन छेड़ा और इसमें काफी हद तक सफल भी रहे। शावेज कहते थे कि बुराई और बुरे लोग हमारी कल्पना से भी ज्यादा बुरे हो सकते हैं और हमारे सपनों पर कुठाराघात कर सकते हैं जिसके बारे में हम सोच भी नहीं सकते, लेकिन ऐसा नहीं है कि इनका कोई तोड़ नहीं है। हर समस्या का समाधान होता है, सत्ता और गर्व के नशे में चूर ऐसे लोगों से अपनी अंतरात्मा की मजबूती के बूते जीता जा सकता है। मैं ईश्वर से विनती करूंगा कि वे हमारे जैसे कमजोर और असहाय लोगों को इस अहिंसात्मक प्रतिरोध के लिए व्रत के रूप में खूब शक्ति दे। उनके इन चामत्कारिक विचारों ने श्रमिकों के इस गरीब तबके पर जादू-सा असर किया और इन्हीं में उन्हें उम्मीद की किरण नजर आती थी कि एकता के बूते हर चीज संभव है।

23 अप्रैल 1993 ई० को नींद में ही मौत ने सीजर शावेज को गले लगा लिया। उस रात सोने के बाद वे फिर कभी नहीं उठे। एरिजोना में गिला नदी घाटी स्थित अपने परिवार के फॉर्म से कुछ दूरी पर थे, जहां उन्होंने अपने जीवन के महत्वपूर्ण 66 साल व्यतीत किए थे।

श्रमिकों के हितों के लिए आवाज उठाने वाली एएफएलसीआईओ और यूएफडब्ल्यू जैसी संस्थाओं के संस्थापक सीजर ने अपनी क्षमताओं का अंतिम कतरा भी श्रमिकों के नाम कर दिया था। उनकी मौत उस जगह हुई जहां खड़े होकर उन्होंने श्रमिकों के अधिकारों के लिए पहली बार वक्तव्य दिया था, जहां उन्होंने अपनी लड़ाई शुरू की थी। उनके संघर्ष और हिम्मत ने आज उस जगह कई शावेज पैदा कर दिए हैं। 23 अप्रेल की रात साढ़े नौ बजे सीजर ने खाना खाया और सो गए, अगली सुबह अपने नियत समय तक नहीं उठे तो यूनियन स्टाफ सदस्यों को अजीब लगा क्योंकि आमतौर पर वे इतनी देर तक कभी नहीं सोए। उन्होंने सीजर के कमरे में जाकर देखा तो वे चिरनिद्रा में सोए हुए थे।

करिश्माई श्रमिक नेता सीजर शावेज की अंतिम यात्रा में पचास हजार लोग शामिल हुए। उन्हें चालीस एकड़ वाले यूनाईटेड फार्म वर्कर्स डीलानो फील्ड ऑफिस के परिसर में दफनाया गया। किसी भी श्रमिक नेता को इतिहास में मृत्युपरांत इतना बड़ा सम्मान शायद ही मिला हो। परिवार के लोगों के अलावा मित्रों, संस्था के सदस्यों, यूनियन स्टाफ के अलावा उन्हें श्रद्धाजंलि देने के लिए फ्लोरिडा से लेकर केलिफोर्निया तक से लोग आए। शावेज की मौत से एक युग का अंत हो गया। शावेज ने अमेरिका के कृषि क्षेत्र में एक बड़ी क्रांति का सूत्रपात्र किया था। शोक सभा को संबोधित करते हुए लुईस वाल्डेज ने कहा था, सीजर ने आपके दिलों में जिस बीज को रोपित किया है अब हमारा फर्ज उसे पल्लवित और पोषित करने का है। वह हमारे दिलों में हमेशा जीवित रहेंगे।

उनकी मृत्यु के बाद आठ अगस्त 1994 ई० को अमेरिका के राष्ट्रपति बिल क्ंिलटन ने वाइट हाउस में एक सम्मान समारोह आयोजित कर उनकी विधवा को मेडल ऑव फ्रीडम से सम्मानित किया। यह अमेरिका का सबसे बड़ा नागरिक सम्मान है। आने वाली शताब्दियों तक उनके संघर्ष को सम्मान से याद किया जाता रहेगा।

- डॉ० दुष्यंत

शाह लतीफ : सिंध के सूफी संत और सिंधी के महान कवि शाह अब्दुल लतीफ भिटाई (1689-1752 ई०) उन मध्यकालीन संतों में प्रमुख हैं, जिन्होंने प्रेम को अपना जीवन-दर्शन मानते हुए सभी जीवों में एक ही तत्त्व का स्पंदन अनुभव किया। उनके काव्य-संग्रह को रिसालो (दीवान) कहा जाता है, जिसे सिंधी भाषा में वही दर्जा हासिल है जो फारसी में हाफिज के दीवान को है। शाह लतीफ को प्रेममार्गी भक्त कवि कहा जा सकता है। उनके प्रेमाख्यानों में, अन्य सूफी कवियों के विपरीत, नायिका को आत्मा और नायक को परमात्मा के प्रतीक के रूप में चित्रित किया गया है। मूमल, सोहनी, नूरी आदि लोक-प्रसिद्ध नायिकाएं शाह लतीफ के काव्य के माध्यम से ही लोक-हृदय में प्रतिष्ठित हुई हैं।

शाह लतीफ के प्रेम का पहला लक्षण विनम्रता है। प्रेम अहंकार का विलोपित होना है, इसलिए विनम्रता उसकी आवश्यक पहचान है। इसे वह लाक्षणिक रूप से खाक हो जाना कहते हैं क्योंकि जो खाक में है, वह अन्य किसी चीज में नहीं है। अहंकार-मुक्ति आत्मा से परमात्मा के मिलन के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा है, इसलिए स्व के समर्पण और तत्प्रसूत सहिष्णुता में ही शाह लतीफ प्रेम की अभिव्यंजना पाते हैं। अहंकार से मुक्त होने पर किसी अनैतिक या हिंसक आचरण की मनःस्थिति ही नहीं रहती। अपनी एक कविता में वह कहते हैं कि अपना जीवन मुंह को घुटनों में डालकर विनीत भाव से बिताना चाहिए। वह अहंकारी व्यक्ति से भी दूर रहने की सलाह देते हें क्योंकि वह हमारी मनः स्थिति को प्रभावित कर सकता है। हिंसा प्रतिकार के भाव से भी पैदा होती है। इसलिए शाह लतीफ घृणा या प्रतिकार का निषेध करते हुए कहते हैं-अपनी बुराई सुनकर, बदला लेने की इच्छा न करो क्योंकि क्रोध दुखद है और सहिष्णुता कस्तूरी।

सहिष्णुता का यही भाव शाह लतीफ ने अपने धार्मिक जीवन में भी अपनाया। उन्होंने अपने जीवन में जो धार्मिक यात्राएं की, उनमें सूफी इस्लामी पवित्र स्थलों के साथ-साथ हिंदू तीर्थों की यात्राएं भी उल्लेखनीय है। उनके रिसालो से पता चलता है कि उन्होंने गिरनार, हिंगलाज और द्वारका की यात्राएं भी की। यह उल्लेखनीय है कि हिंगलाज पीठ के मुसलमान मुजावर हिंगलाज की देवी को नानी कहते हैं।

शाह लतीफ का प्रेमभाव केवल परमात्मा के लिए ही नहीं, सृष्टि मात्र के लिए था। शिकारियों को सावधान करते हुए वह अपनी एक कविता में कहते हैं कि जो शिकार करने में लगे हैं, वे खुद एक दिन बड़े शिकारी के शिकार हो जाएगें। व्याध के जालों में फंसे पक्षियों को देखकर उनका हृदय व्याकुल हो जाता था, जिसकी अभिव्यक्ति उन्होंने अपनी कविता में भी कई स्थलों पर की है, कहीं-कहीं उन्होंने खुद को भी क्रंदन करते हुए कूंज पक्षी की तरह वर्णित किया है। वह पक्षियों के समूह को भाईचारे के प्रतीक की तरह देखते हुए कहते हैं कि उनका समूह में उड़ना उनके अटूट प्रेम-बंधन का द्योतक है जो यह बताता है कि पक्षियों के आपसी संबंध मनुष्यों से अधिक मधुर हैं। शाह लतीफ ने दो मातृविहीन पिल्लों को स्वयं पालकर बड़ा किया, जो अनाथ जीवों के प्रति उनके प्रेम क ज्वलंत उदाहरण है।

शाह लतीफ के लिए प्रेम अपने प्रिय पात्र के लिए बलिदान की भावना है। वह केवल भौतिक मिलन नहीं है। यह बलिदान मुख्यतः अहं का बलिदान है। अहं के न रहने पर मनुष्य का घृणा और निंदा-प्रशंसा के भाव से उठ जाना केवल निरपेक्ष प्रेम की पूर्व शर्त है। इसीलिए शाह लतीफ कहते हैं कि जिस व्यक्ति को वास्तविक आत्मानुभूति होती है, वह प्रशस्ति का परित्याग करता और और प्रशंसा से ऊपर उठकर अपने में ईश्वरत्व का बोध करता हुआ अपार प्रेम के जल में विहार करता है। वही अच्छी तरह देखता हुआ सब को ईश्वर कहेगा। अतः, शाह लतीफ के यहां हिंसा को कोई स्थान नहीं हो सकता क्योंकि जहां प्रेम है, वहां हिंसा नहीं है।

- नंदकिशोर आचार्य

शुमाकर, ई०एफ० : शुमाकर (1911-1977 ई०) पश्चिम के अहिंसक दृष्टि वाले ऐसे अर्थशास्त्री हैं जिनकी पश्चिम के आधुनिक अर्थशास्त्री-व सरकारें-प्रारंभ में प्रतिगामी मानकर उपेक्षा करते रहे और बाद में निरंतर इस बात पर अफसोस जाहिर किया जाने लगा कि वे अपनी प्रतिभा और क्षमता का उपयोग पश्चिम के संपन्न और विकसित समाज के लिए करने के बजाय उन अविकसित व पिछड़े समाजों के विकास के लिए व्यर्थ ही कर रहे हैं जिन्हें तीसरी दुनिया कहा जाता है और बाकी दो दुनियाओ के लिए जो शोषण का-और इस प्रकार संपन्नता का भी-स्रोत है। लेकिन शुमाकर की चिंता किसी विशेष प्रकार के एक समाज या देश की चिंता नहीं है; वह पूरी मानवता की चिंता है। यदि तीसरी दुनिया की ओर उनका ध्यान अधिक आकृष्ट हुआ तो इसीलिए कि वहां उनके विचारों को व्यावहारिक स्तर पर प्रयोग में लिए जाने की गुंजाइश व सुविधा अधिक है।

स्माल इज ब्युटिफुल-पिछले सालों में जिसके कई संस्करण प्रकाशित हो चुके हैं व जो सभी प्रमुख भाषाओं में अनूदित की जा चुकी है-शुमाकर के अर्थशास्त्रीय चिंतन का निचोड़ है। भारत मे जयप्रकाश नारायण व अन्य सर्वोदयी चिंतकों का ध्यान उनकी ओर अधिक आकर्षित हुआ क्योंकि गांधीवादी आर्थिक विचारों को शुमाकर अर्थ-दर्शन की पृष्ठभूमि प्रदान करते हैं।

शुमाकर आधुनिक कहे जाने वाले उन अर्थशास्त्रियों की सर्वमान्य व प्रारंभिक संकल्पना को ही चुनौती देते हैं जो यह मानती है कि उत्पादन की समस्या हल कर ली गई है और एक अर्थशास्त्री के रूप में इस बात पर चिंता प्रकट करते हैं कि मानव-समाज अपनी बुनियादी पूंजी-प्रकृति-प्रदत्त संसाधनों-को आय समझकर अंधाधुंध खर्च किए जा रहा है और इसे ही वह भूल से उत्पादन की समस्या को हल करना समझ बैठा है। जिस रफ्तार से इन संसाधनों को खर्च किया जा रहा है, उसे देखते हुए यह पूंजी लंबे समय तक चलने वाली नहीं है-क्योंकि यह प्रतिस्थाप्य या रिप्लेसेबल नहीं है। अधिकांश अर्थशास्त्री इस खतरे की ओर से यह कहकर आंख मूंद लेते हैं कि इस समस्या का हल आणविक ऊर्जा व तदनंतर ऊर्जा के नए रूपों व संसाधनों की खोज द्वारा निकाल लिया जाएगा। शुमाकर अर्थशास्त्रीय तर्क-दर्शन के आधार पर इस तर्क को नकारते एवं खतरनाक भी मानते हैं क्योंकि भविष्य में कभी ऊर्जा के नए रूपों व संसाधनों की खोज अपने आप में एक अनिश्चित स्थिति है, जिसके आधार पर फिलहाल उपलब्ध पूंजी को विनष्ट नहीं किया जा सकता। इसके अतिरिक्त, आणविक ऊर्जा का प्रयोग पूरे पर्यावरण को दूषित करता है और इस प्रकार मनुष्य जाति के अस्तित्व को ही खतरे में डालता है।

शुमाकर उन अर्थशास्त्रियों में नहीं हैं जो अर्थ-व्यवस्था को किसी स्वचालित बाजार के नियमों से और मानव-जीवन को अर्थ-व्यवस्था से पूर्णतः व अनिवार्यतः नियंत्रित मानते हैं। वे ऐसे अर्थशास्त्री हैं जो अपने आर्थिक सिद्धांतों को मानववादी तत्त्वमीमांसा की बुनियाद पर विकसित करते हैं और इसलिए ऐसी किसी भी अर्थ-व्यवस्था की सिफारिश नहीं करते जो मनुष्य के आर्थिक कार्य-व्यापारों का संचालन स्वयं मनुष्य को कोई महत्त्व दिए बगैर करती है। वे आधुनिक उद्योगवाद का विरोध एक ओर जहां शुद्ध आर्थिक तर्कों के आधार पर करते हैं, वहीं, साथ ही साथ, इस तथ्य पर भी पूरा बल देते हैं कि वैज्ञानिक और तकनीकी शक्ति के अतिरेक में आधुनिक मानव ने प्रकृति के साथ अनाचार करने वाली उत्पादन-प्रणाली और मनुष्य को विकृत करने वाले समाज की रचना कर ली है। इसीलिए शुमाकर उस समुचित मानवमुखी प्रोद्योगिकी को तरजीह देते हैं जो मनुष्य के श्रम व सृजनात्मकता पर आधारित हो तथा प्रकृति प्रदत्त ऊर्जा के संसाधनों का अल्प प्रयोग करती हो। लेकिन इसके लिए हमें अर्थशास्त्र में उत्पादन के तर्क को छोड़ना होगा और जीवन में यह मानना होगा कि भौतिक वस्तुओं की उपलब्धि केवल एक सीमा तक सुखकारक है और उसके बाद वे अनेक बुराइयां पैदा करती हैं-इसीलिए शुमाकर अपने चिंतन को बौद्ध अर्थशास्त्र कहते हैं क्योंकि तकनीक व लक्ष्यों के बारे में वह मध्यम मार्गी है।

आर्थिक संगठन व स्वामित्व के सवालों पर भी शुमाकर ने विस्तार से विचार किया है। उनकी मान्यता है कि वर्तमान उद्योगवाद का संगठन व्यक्तिगत स्वामित्व पर आधारित और अधिनायकवादी है जबकि निजी उद्यम सार्वजनिक व्यय से खड़ी की गई दृश्य व अदृश्य दोनों प्रकार की आधारिक संरचना का बहुत अधिक लाभ उठाता है और इसीलिए इस प्रकार निर्मित परिसंपत्तियों को निजी नहीं बल्कि सार्वजनिक संपत्ति मानना चाहिए। इसीलिए वे स्वामित्व के ढांचे में परिवर्तन के लिए स्कॉट बेडर कॉमनवैल्थ का नमूना प्रस्तुत करते हैं जहां स्वामित्व एक कॉमनवैल्थ का है, पर उसके अलग-अलग सदस्यों को कोई व्यक्तिगत स्वामित्वाधिकार नहीं दिए गए हैं और इस प्रकार वह सामूहिक स्वामित्व की स्थापना न होकर निजी स्वामित्व का अंत है। यह प्रकारांतर से महात्मा गांधी के न्यासिता सिद्धांत का ही एक रूप है। सही स्थिति यह है कि इस फर्म में स्वामित्व का स्थान परिसंपत्तियों के प्रबंध और प्रयोग के विशिष्ट अधिकारों व उत्तरदायित्वों ने ले लिया है।इसमें फर्म के सामाजिक उत्तरदायित्व भी सन्निहित हैं।

इस प्रकार शुमाकर अर्थशास्त्र को एक तत्त्वमीमांसीय आधारभूमि देते हुए उत्पादन प्रणाली, आर्थिक-व्यवस्था व स्वामित्व आदि से सबंधित रूढ़िग्रस्त मान्यताओं में क्रांतिकारी परिवर्तन की मांग करते हैं। लेकिन, इसके लिए आधुनिक मानव के दृष्टिकोण में बुनियादी बदलाव की जरूरत है क्योंकि ......बुनियादी संसाधन मनुष्य है, प्रकृति नहीं। समस्त आर्थिक विकास का मूलमंत्र मानव-मस्तिष्क की उपज है और इसीलिए शिक्षा सबसे महान संसाधन है। शुमाकर उन अर्थशास्त्रियों में हैं जो अर्थशास्त्र को बाकी जीवन से काटकर स्वयं-भू बनाकर नहीं देखते और इसलिए अर्थ-व्यवस्था व जीवन के अन्य पक्षों के अंतस्संबंधों पर पूर्ण विचार करते हैं। वे ऐसे पहले अर्थशास्त्री हैं जो अर्थशास्त्रीय चिंतन की प्रक्रिया में तत्त्वमीमांसकों, संतों व लेखक-कलाकारों के मंतव्यों को पर्याप्त व उचित महत्व देते हैं और इसी कारण अपने अध्ययन में केवल आंकड़ों और आर्थिक रपटों तथा अर्थशास्त्रियों का ही नहीं बल्कि बुद्ध, कनफ्यूश्यस, रसेल, होइल, गांधी और आर०जी० कांलिगवुड तथा कीर्केगार्ड, काफ्का, बायरन, शेक्सपियर व आनंदकुमार स्वामी आदि का भी उल्लेख करते हैं और इसीलिए स्वाभाविक लगता है शुमाकर का यह निष्कर्ष कि हम दरअस्ल एक तत्त्वमीमांसीय रोग के शिकार हैं, इसलिए इसका इलाज भी तत्वमीमांसीय होना चाहिए। शुमाकर को अहिंसक अर्थशास्त्र का तत्त्वमीमांसक कहा जा सकता है।

- नंदकिशोर आचार्य

शैक्षिक हिंसा : आज जब हम शिक्षा में अभय और अहिंसा को तलाशने की कोशिश करते हैं तो हमें कदम-कदम पर हिंसा रास्ते के कांटों की तरह बिछी हुई मिलती है। हम सत्य की तलाश करने के लिए बड़ी सहजता के साथ हिंसा का रास्ता चुन लेते हैं। मेढ़क की आंतरिक शारीरिक संरचना क्या है? इसे जानने के लिए अब तक जाने कितने करोड़ मेंढ़क मारे गए होंगे। वनस्पति शास्त्र के विद्यार्थी फूलों तक की चीर-फाड़ करके देखते हैं और वे जो देखते हैं उसमें उनके मन में फूल की सुगंध, रूप, रंग आदि कहीं नहीं होता। पंखुड़ियों की स्निग्धता और उनसे बनी मनभावन आकृतियों से वे मुग्ध नहीं होते हैं। उनका मकसद केवल फूलों की आंतरिक संरचना को समझना और जो किताब में लिखा है उसे आंखों से देख लेना है। इसे शिक्षा की एक पद्धति के रूप में स्वीकार लिया गया है। इस पद्धति में सारी ज्ञान-मीमांसा चाक्षुष बिंबों पर टिकी है अथवा किसी को छूकर जान लेने के स्थूल इंपिरीकल अनुभव पर टिकी है। यहां कोई यह प्रश्न कर सकता है कि समझ के अथवा ज्ञान के आंतरिक अर्थ क्या हैं? ऐसा कब और कैसे संभव होता है, जब कोई ज्ञान हमारे आचार-विचार का अभिन्न अंग बन जाता है? उस समग्र अनुभूति के अर्थ क्या हैं जो आदमी को चेतना का उत्कर्ष करती है। ऐसे कुछ बुनियादी सवालों का आज की शिक्षा दर-किनार करती चलती है और अपने ही तौर-तरीकों के ऊहा-पोह में उलझती जा रही है। इतना ही नहीं, कई और कारण हैं कि आज शिक्षा में हर जगह हिंसा ही हिंसा दिखाई देती है।

शिक्षा के उद्देश्यों पर गौर करें तो हम पाते हैं कि शिक्षा का आंतरिक उद्देश्य तो अमन और अहिंसा की स्थापना है। प्रेम और परस्पर मैत्रीमय सहजीवन की स्थापना है, मगर स्थिति इससे कुछ अलग है। विपरीत है। ऐसा क्यों है? शिक्षा का अर्थ आज स्कूलों, कॉलेजों, विश्वविद्यालयों एवं शिक्षा की तमाम तकनीकी और गैर-तकनीकी संस्थाओं में दी जा रही तथाकथित शिक्षा से है। यह एक विडंबना है कि शिक्षा का अर्थ वहीं तक सीमित कर दिया गया है। आदमी काम करते हुए, समाज में रहते हुए, कुदरत से एवं परस्पर सहजीवन से अथवा अपने ही जीवन से आजीवन जो सीखता रहता है, उसे आज शिक्षा में शुमार नहीं किया जा रहा है। यह अत्यंत दुर्भाग्य की बात है, मगर जिसे शिक्षा के रूप में स्वीकार किया जा रहा है, वहां क्या हो रहा है?

ठीक से देखें तो पता चलता है कि छात्रों की किसी भी भागीदारी के बिना तैयार किए गए पाठ्यक्रमों को हर कक्षा अथवा कोर्स में आरोपित कर दिया गया है। जो छात्र फीस देकर जिस-जिस कोर्स में भरती होते हैं, वहां सब कुछ उन पर आरोपित है। पहले पाठ्यक्रमानुसार पढ़ाई और फिर परीक्षा। परीक्षा में छात्रों को केवल पूछे गए प्रश्नों का उत्तर देना है, उन्हें प्रश्न करने का कोई अधिकार नहीं है। अपनी जिज्ञासाओं को जताकर उत्तर पा लेने का कोई अवकाश नहीं है। पाठ्यक्रम के बाहर कुछ जानने की ज्ञान-पिपासा कहीं किसी छात्र में जग भी गई हो, तो उसे शांत करने का कोई अवसर नहीं है। यह स्थिति शिक्षा की छात्रों के प्रति पनपती यांत्रिक रिश्तेदारी एवं हिंसक बेरुखी की परिचायक है।

शिक्षा आज परीक्षा के बहाने प्रतिस्पर्द्धा को बढ़ावा दे रही है। सफलता को एक मानव मूल्य के रूप में स्थापित कर रही है। हकीकत में सफलता कोई मानव मूल्य है ही नहीं। प्रतिद्वंद्विता पर आधारित सफलता की अवधारणा ही मूलतया एक हिंसक अवधारणा है। एक जहां सफल होता है वहां दूसरे का असफल होना अवश्यंभावी है। यदि कोई भी प्रक्रिया एक को सफल होने का अवसर दूसरे की असफलता के साथ सुनिश्चित करती है तो यह स्थिति एक सामाजिक हिंसा की स्थिति है। प्रकारांतर से शिक्षा यहां द्वेष जगाने का काम करती है जबकि शिक्षा का मूल उद्देश्य मनुष्य को ईर्ष्या और द्वेष से मुक्त करते हुए परस्पर प्रेम जगाना है। अभय देना है। शिक्षा यदि ऐसा नहीं करती है तो वह विद्यार्थी-विरोधी और बाल-विरोधी है। हकीकत में तो शिक्षा को सदावत्सल होना चाहिए था और वात्सल्य की अविरल धारा में बालकों को सींचते हुए चलना चाहिए था।

शिक्षा के इस सदावत्सल स्वरूप के विपरीत आज की शालाएं इतनी हिंसक हो गई हैं कि शारीरिक यातना देकर, भय से आक्रांत कर सिखाने के तौर-तरीकों को अपनाने वाले अध्यापकों की मनःस्थिति की जांच करानी चाहिए। उन कानूनों को विशुद्ध शैक्षिक व गैर-हिंसक तरीकों से लागू किया जाना चाहिए जो सजा को अपराध मानते हैं।

आज शिक्षा द्वारा फैलाई जाने वाली प्रतिस्पर्द्धा और प्रतियोगिता छात्रों में कैसी मानसिकता का विकास करती है, यह भी हमें ठीक से जान लेना चाहिए। इस मानसिकता के दो रूप हैं : पहला रूप तो छात्र को विशुद्ध रूप से स्वार्थी और आत्मकेंद्रित बनाने का रूप है। यहां परमार्थ की भावना के विकास की कोई गुंजाइश नहीं है। यहां परोपकार भी कोई मूल्य नहीं है। स्वार्थ और शुद्ध स्वार्थ पहली प्राथमिकता है। यह स्वार्थ में लिप्त समाज कल किसी के काम नहीं आएगा और केवल एक आत्मकेंद्रित समाज की रचना करेगा जो अपने ही पतन की ओर जाने के लिए अभिशप्त होगा। क्या शिक्षा में संलग्न लोग इस दूरगामी परिणाम के प्रति सजग हैं?

प्रतिस्पर्द्धा की इस दौड़ में पीछे छूटने वाले छात्रों का एक अलग समाज विकसित हो रहा है और इसे आज साफ देखा जा सकता है कि इन पिछड़े हुए छात्रों का यह समाज पूर्णतः हताशा और निराशा से ग्रस्त समाज होगा। हृदयविदारक हताशा के शिकार छात्रों द्वारा की जाने वाली आत्महत्याओं की सूची दिनों दिन बढ़ रही है। कल यह और बढ़ेगी और जो छात्र आत्महत्या नहीं करेंगे, उन छात्रों में एक खास तरह की अपराध-वृत्ति विकसित होगी, जो कल समाज में विद्वेष और हिंसा फैलाएगी। छात्रों की इस जमात का मुख्य काम दुराचार और अनाचार में लिप्त होना ही बस शेष रह जाएगा।

आज के अधिसंख्य छात्र शिक्षा हासिल नहीं कर रहे हैं-बल्कि वे इसे हथिया लेना सीख रहे हैं और फिर इस शिक्षा के सहारे वे उन सामाजिक अवसरों को भी हथिया रहे हैं, जिन्हें सुविधापरस्त रोजगार अथवा पैकेजेज कहा जा रहा है। विचार हमें यह भी करना है कि शिक्षा में शिक्षा के द्वारा ही फैलाया गया भय भला सीखने का मोटिवेटिंग फैक्टर कैसे हो सकता है? सीखने की हर प्रक्रिया को दरअसल नैसर्गिक रूप से प्रेम करने की प्रक्रिया ही होना चाहिए था। तभी सीखने के आनंद की कोई अनुभूति हो सकती थी। तभी कोई छात्र यह जान सकता था कि सीखना बहुजन-हिताय, बहुजन-सुखाय की कोई प्रक्रिया है। यहां बुद्ध के उस उपदेश का स्मरण सर्वथा समीचीन होगा। जहां वे कहते थे-चरत्थ भिक्खवे चारिके, बहुजन हिताय बहुजन सुखाय लोकानुकंपाय...

बहुजन के इस साहचर्य में एक संबल है, जो छात्र को भयभीत नहीं, बल्कि उम्र भर के लिए अभय देकर आश्वस्त करता है। ऐसी आश्वस्ति के बाद कोई छात्र अकेला नहीं होता, बल्कि सबके साथ होता है और सब उसके साथ होते हैं। शिक्षा की ऐसी सच्ची प्रक्रिया तब एलिएनेशन को जन्म देने वाली प्रक्रिया नहीं होती। इस शिक्षा से गुजरा हुआ कोई भी छात्र कल अकेला नहीं होता। हर मुकाम पर लोग उसके साथ होते हैं। कुदरत भी उसके साथ होती है, मगर आज की शिक्षा ऐसा नहीं कर रही है। वह एक नई तरह की हिंसा को जन्म दे रही है अथवा स्वयं अपने स्वभाव में ही हिंसक बनती जा रही है।

सांख्य दर्शन की ओर मुड़कर देखें तो हम पाएंगे कि जानने की जिज्ञासा ही तीनों तरह के दुःखों की अनुभूति से उपजती है। दुःखत्रयाभिघाता जिज्ञासा जैसे श्लोक से शुरु होने वाली ईश्वरकृष्ण की सांख्यकारिका शिक्षा में करुणा की नींव रखती है। शिक्षा का सरोकार समाज को तीनों तरह के दुःखों से निजात दिलाना है। ऐसे समाज की रचना करना जहां दैहिक देविक भौतिक तापा को कोई स्थान नहीं हो। बुनियादी विश्वास यह है कि सच्ची जिज्ञासा स्व को सर्व से जोड़ती है, व्यष्टि को समष्टि का बोध देती है।

मूल प्रश्न यहां यह है कि कोई भी व्यक्ति अपने लिए सीखता है अथवा समाज के लिए। इससे भी आगे यह पूछा जा सकता है कि कोई भी छात्र जो शिक्षित हो रहा है, वह रोजगार पाने के लिए शिक्षित हो रहा है अथवा रोजगार देने के लिए शिक्षित हो रहा है। हुनर तो वह है जो दूसरे हाथों को भी हुनर दे दे। अपने ही हाथों तक सीमित रहा हुनर और अपने ही काम आने वाला हुनर भला हुनर कैसे कहलाएगा? हुनर वैसे स्किल का नाम है-हाथों को बख्शे गए रचने के इल्म का नाम है। इस इल्म को जानने वाला कल आलिम होगा यह सच है, मगर दूसरा सच यह भी है कि जो सच्चा आलिम होता है वह प्रकारांतर से दैवीय गुणों को प्राप्त करता हुआ निरंतर समाज का देवता बनने की ओर अग्रसर होता जाता है। प्रश्न दरअसल यह है कि सीखने वाला व्यक्ति कल सिर्फ लेने वाला बने अथवा देने वाला बने। वह स्वार्थ के लिए जीना सीखे अथवा परमार्थ के लिए जीना सीखे। परमार्थ मूल्य है, एक अहिंसक मूल्य है-जबकि स्वार्थ मूल्य नहीं है।

अब विचार की बात यह है कि आज की शिक्षा क्या कर रही है? क्या शिक्षा बहुत दूर-दृष्टि के साथ परस्पर सहजीवन में छात्रों को दीक्षित कर रही है? क्या शिक्षा करुणा एवं मैत्री के साथ एक दूसरे के लिए जीना सिखा रही है? क्या शिक्षा निस्वार्थ रूप से निरंतर एक-दूसरे से प्रेम करना सिखा रही है? क्या शिक्षा अपनी ही आबादी में डूबती इस दुनिया में कल के आदमी को अपने ही एकाकीपन से बचाने का कोई उपक्रम कर रही है? क्या शिक्षा छात्रों को एक स्थाई अभय देकर सच्चे सुखद जीवन के प्रति आश्वस्त कर रही है? क्या शिक्षा प्रतिस्पर्द्धा से छात्रों को बचाती हुई कल कोई प्रतियोगी समाज न बनाकर सच्चा सहयोगी समाज बनाने में पारंगत कर रही है? इन तमाम प्रश्नों का उत्तर यदि नकारात्मक है तो विशुद्ध रूप से आज की शिक्षा का स्वरूप एक हिंसक स्वरूप है और वह हिंसा उसके स्वभाव में बुनी हुई है।

- रमेश थानवी

शैव अहिंसा : भारतीय दर्शन परंपरा में शैव दर्शन प्राचीनतम परंपरा से मान्य है। इतिहास में जो संकेत प्राप्त होते हैं, वे दर्शाते हैं कि शिव एवं शक्ति का विचार मोहनजोदड़ो और उसके पश्चात् वैदिक संस्कृति में रूद्र और शिव नाम से उल्लेखित शिव को ही शंकर, शंभव एवं मयोभव कहकर उपासना की गई है। रूद्र (गिनती में ग्यारह) का शाब्दिक अर्थ भयानक, भयंकर या डरावना है। ये रूद्र शिव के ही अपकृष्ट रूप हैं। शिव का शाब्दिक अर्थ है शुभ, मांगलिक या कल्याणकारी। इसी प्रकार शिव का अर्थ आनंद के अर्थ में भी ग्रहण किया जाता है। पौराणिक दृष्टि से तीन प्रधान देवताओं में शिव तीसरे देवता या महादेव हैं, जिनका कार्य संहार करना है।

वैदिक एवं औपनिषदिक परंपरा में शिव का अर्थ कल्याणकारी के रूप में ही प्रमुखता से लिया गया है। उदाहरण के लिए शातं शिवमद्वैतं चतुर्थ मन्यते स आत्मा विज्ञेय तथा शिवोऽद्वैत एवमोङ्कार-वह कल्याणकारी, अद्वितीय, ओंकार, आत्मा और जानने योग्य है। इसी प्रकार श्वेताश्वर उपनिषद में सर्वव्यापी स भगवांस्तस्मात्सर्वगतः शिवः मंत्र में शिव को भगवान, समस्त प्राणियों के हृदय में निवास करने वाला सर्वव्यापी और सर्वगत कहा गया है? शिव को महेश्वर भी कहा गया है।

वैदिक काल के तदंतर भारतीय संस्कृति में दो महान धाराओं का प्रवाह हुआ, जिसे शैव एवं श्रमण संस्कृतियों के नाम से जाना जाता है। दोनों ही संस्कृतियां मूलतः आध्यात्मिक जीवन और आत्मा को या स्वयं को जानने को जीवन का लक्ष्य बनाती है। शैव दर्शन का मूल स्रोत शैव आगम हैं, वहीं श्रमण संस्कृति के मूल स्रोत जैन आगम है। लेकिन कालांतर में शैव आगमों का लोप हो गया और आज जो 28 शैव आगम प्राप्त हैं वे मौलिक रूप से बहुत बाद के हैं। वैदिक संस्कृति के पश्चात् शैव संस्कृति एवं दर्शन का स्वरूप शिव पुराण, महाभारत एवं अन्य पौराणिक आख्यानों में प्राप्त होता है। अतः, शैव दर्शन का सबसे प्राचीन एवं प्रामाणिक आधार पौराणिक और महाभारत में वर्णित शैव दर्शन ही है। इसके पश्चात् शैव दर्शन का विकास वस्तुतः वेदांत के विस्तार का सूचक है। शैव दर्शन की तत्त्वमीमांसा शिव तत्त्व के अद्वैत को स्वीकार करती है, तथा संपूर्ण संसार को उसी शिव का वास्तविक सविशेष स्वरूप मानती है, जिसके अनुसार माया को शिव की सृष्टि के उपादान कारण तथा शक्ति को निमित्तकारण तथा स्वयं शिव को मूल कारण के रूप में ग्रहण किया गया है।

सर्वदर्शन संग्रह में शैव सिद्धांत के विषय में दो मतों का वर्णन है, एक आगमिक तथा दो पाशुपत। आगमिक मत को मानने वाले संप्रदाय हैं, शैव सिद्धांत, वीर शैव, नयनार, प्रत्यभिज्ञा तथा पाशुपत मत को मानने वाले पाशुपत, नकुलीश, कापालिक एवं रसेश्वर हैं। वायवीय संहिता के अध्याय 31/173 में महाव्रतधारी संप्रदाय का भी उल्लेख है। इसी प्रकार अन्य संप्रदाय एवं भेद प्रभेद भी हैं, किंतु मूल रूप से सभी शैव दर्शन पशु, पाश एवं पति के ज्ञान द्वारा बोध या आत्मबोध या मुक्ति को स्वीकार करते हैं। सभी यह स्वीकार करते हैं कि पशु-आत्मा, पाश-प्रकृति है तथा पति शिव हैं। अतः सभी जीवों का परमलक्ष्य शिव की प्राप्ति है। उसका मार्ग है ज्ञान, तप, नित्यत्व, स्थिति, शुद्धि, जप, ध्यान, प्रपत्ति आदि। योग का प्रवर्तन भी शिव द्वारा माना गया है।

जहां तक अहिंसा का प्रश्न हैं, संपूर्ण भारतीय दर्शन में जो स्थान अहिंसा को प्राप्त है वह सर्वविदित है; किंतु शैव दर्शन में इसका मौलिक प्रतिपादन हुआ है, यह तथ्य जानने योग्य है। महाभारत के शांतिपर्व में नैतिक विवेक के विषय में स्पष्ट कहा गया है कि ब्रह्मा द्वारा विवेक का प्रकाशन सर्वप्रथम भगवान शिव को हुआ था। उस समय तक न तो राज्य, न संप्रभुता, न राजा, न दंड और न दंड देने वाला था। सभी लोग धर्मपूर्वक एक दूसरे की परस्पर रक्षा करते थे, लेकिन काल के प्रभाव में जब मनुष्यों के हृदय मलिन होने लगे तब मनुष्य का विवेक खोने लगा, सद्गुणों का क्षय होने लगा। विवेक की हानि से मनुष्य लोभ, लालसा और वासनाओं का दास बन गया। भक्ष्य-अभक्ष्य, गुण-अवगुण, शुचिता-अशुचिता आदि का विचार करना उसने बंद कर दिया। तब ब्रह्मा ने शिव को दस लाख अध्यायों में नैतिक विवेक का विवरण दिया ताकि सृष्टि की रक्षा हो। शिव ने इन दस लाख अध्यायों को सृष्टि की रक्षा के लिए सरल, संक्षिप्त एवं सुगम बनाकर पुनः प्रतिपादित किया यह संक्षिप्त दस हजार अध्यायों का स्वरूप वैशालाक्ष कहलाया। बाद में वैशालाक्ष को शुक्राचार्य ने पुनः संक्षिप्त कर एक हजार अध्याय में संपादित किया और यह वैशालाक्ष सनातन मतावलंबी या शैव अथवा वैष्णव मतावलंबियों के लिए ही नहीं अपितु सभी भारतीय नीतिकारों और नीति दर्शनों के लिए आधारभूत एवं अंतिम स्रोत के रूप में प्रतिष्ठित हुआ ऐसी मान्यता है।

वैशालाक्ष का मूल तत्त्व समता, निष्कामता, अक्रोध, निर्लोभिता एवं निर्हंकारता को धारण करना है। शैव दर्शन के अनुसार अनेकों बार, अनेकों द्वारा, अनेक-अनेक महान विवेकी पुरुषों द्वारा बार-बार धर्म के सार को कहा और सुना गया है। भगवान शिव कहते हैं : अहिंसा परमो धर्मो/अहिंसा परमं सुखम्। अहिंसा धर्मशास्त्रेषु/सर्वेषु परमं पदम्।। (अनुशासन पर्व, 145)

इस प्रकार अहिंसा परम धर्म है, अहिंसा परम सुख है, अहिंसा सभी धर्मशास्त्रियों में परम पद है। भगवान शिव कहते हैं कोई भी धर्म वाणी की सत्यनिष्ठा से श्रेष्ठ नहीं है और असत्य से बड़ा कोई पातक नहीं। इसी प्रकार शिवसंहिता के प्रथम अध्याय में अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य एवं अपरिग्रह को सभी मनुष्यों के लिए कर्त्तव्य कहा गया है। ये पांच व्रत सार्वभौमिक नैतिकता का प्रथम सूत्र हैं।

वस्तुतः, सभी सद्गुण, सभी नैतिक कर्म, सभी व्रत, सभी कर्त्तव्य आदि अहिंसा के द्वारा ही प्रतिष्ठित है। अहिंसा के द्वारा ही पूर्ण एवं योग्य है।

शैव दर्शन स्पष्ट रूप से दो परम पदों में जीवन के परम मूल्य को संश्लेषित करता है-एक अहिंसा जो अकर्मक मूल्य है और दूसरा सत्यनिष्ठा जो सकर्मक मूल्य है। ये दोनों मूल्य जब एक होकर प्रतिष्ठित हो जाते हैं तो मनुष्य पुरुषार्थ के अर्थ को प्रकट कर जीवन को सार्थक कर पाता है।

अतः, मनुष्य के लिए आवश्यक है कि वह मन, वचन और कर्म से सजीव एवं निर्जीव सबके प्रति पूर्ण अहिंसा का पालन करे। अहिंसा के सद्गुणों की प्रतिष्ठा, सद्गुणों के लिए ज्ञान की प्रतिष्ठा, ज्ञान के लिए सत्य एवं न्याय की प्रतिष्ठा होती है, जिससे योग्यता और दक्षता उत्पन्न होती है। परिणामस्वरूप, जीवन का प्रयोजन स्थापित होता है, विवेक जाग्रत होता है, सद्गुणों से साक्षात्कार होता है, जीवन का सत्य प्रकट होता है। जब जीवन का सत्य जाना और जिया जाने लगता है, तब मनुष्य की संपूर्ण शूद्रता एवं क्षुद्रता तिरोहित हो जाती है। वह पूर्णता में प्रतिष्ठित हो जाता है। फिर वह सभी प्रकार से अहिंसा में प्रतिष्ठित हो जाता है, वहां सारे मल, अहंकार, क्रोध, हिंसा, लोभ, मोह, वासना आदि भस्म हो जाते हैं। अतः अहिंसा ही परम पद है, परम धर्म है, परम गति है।

शैव दर्शन के अनुसार जिस-जिस ओर से भारी हिंसा की संभावना हो, उससे तथा मद्य और मांस से मनुष्य को निवृत हो जाना चाहिए। इससे हिंसा की संभावना बहुत कम हो जाती है। अतः, शैव दर्शन में अहिंसक-मन, अहिंसक-वचन, अहिंसक-कर्म, अहिंसक-आहार चर्या को हिंसा निषेध के लिए आवश्यक माना है। यह तथ्य सभी प्रकार से हिंसा की निवृत्ति के आदर्श को मनुष्य मात्र के लिए आवश्यक कर्त्तव्य एवं धर्म के रूप में प्रतिपादित करता है।

शैव दर्शन में आगे जाकर कुछ और संप्रदायों का विकास हुआ उनमें वाममार्ग, भैरव तंत्र आदि हैं। लेकिन वहां भी हिंसा का समर्थन नहीं है। पंच मकार में जहां मांस-मछली के भक्षण की चर्चा होती है, वह शास्त्र विरुद्ध होने पर उन संप्रदायों में वही मांस-मछली आदि खाने को कहा गया है, जो स्वतः मृत्यु को प्राप्त हुई है। यदि अहिंसा परम धर्म है तो वह सभी प्रकार से वरणीय है, आचरण योग्य, रक्षण योग्य है। यहां तक राजा जब युद्ध करता है, तो उसका मुख्य प्रयोजन प्रतिपक्षी की हिंसा को बलपूर्वक रोकना है न कि हिंसा के लिए युद्ध करना। महाभारत में पार्वती के पूछे जाने पर महेश्वर स्पष्ट करते हैं कि प्रजा के हित के लिए समस्त विरोधियों को अनुनय विनय के द्वारा अनुकूल बना लें। राजा को चाहिए कि कुशल शासन, उत्तमनीति, धर्मपूर्वक प्रजाजनों का इस प्रकार पालन करे कि प्रायः युद्ध न करना पड़े। संधि, विग्रह तथा अन्य नीतियों का विवेकपूर्वक भलीभांति विचार कर सभी को परस्पर भय मुक्त कर सभी को सुरक्षित रखने का उपाय निरंतर करे। सामूहिक एवं संगठित जीवन चर्या के लिए मनुष्य इसी उद्देश्य से समाज और राज्य की रचना के लिए तत्पर होता है, क्योंकि अंततः, सभी अहिंसा चाहते हैं, शांति चाहते हैं, सुख चाहते हैं। शैव दर्शन के अनुसार यह अहिंसा ही परम सुख, परम शांति और परमलाभ है। अतः अहिंसा से ही अहिंसा की प्रतिष्ठा होती है, हिंसा से नहीं। हिंसा परम अशांति, परमदुख और परम पाप का मूल है। हिंसा से निवृत्ति ही मनुष्य के समस्त पुरुषार्थों की पूर्ति और जीवन के पूर्णता का मूल मंत्र है। इसीलिए भगवान शिव ने अहिंसा परमो धर्म कहा है। यही शैव दर्शन के आचार एवं नीति की आत्मा है।

द्रष्टव्य : बसवेश्वर; महाभारत।

- डॉ० चंद्रशेखर

शोपेनहावर, आर्थर (Schopenhauer, Arthur) : सामान्यतः, नैतिकी के आधार के रूप में धर्म को स्वीकार किया जाता रहा है। लेकिन, जर्मन दार्शनिक आर्थर शोपेनहावर (1788-1860 ई०), अपने पूर्ववर्ती कांट की भांति, नैतिकता को धर्म पर आधारित नहीं मानते; लेकिन वह उसे विश्व की प्रकृतिवादी व्याख्या से भी नहीं जोड़ते। वह मानते हैं कि धर्म को नैतिकता का आधार बताना अज्ञानी लोगों के लिए ठीक हो सकता है-यह उनके लिए पुलिस बल की तरह है-और प्रकृतिवादी व्याख्या भौतिकी के नियमों को जानने के लिए उपयोगी हो सकती है, किंतु भौतिकी नैतिकी का आधार नहीं हो सकती क्योंकि भौतिकी के नियमों का कोई आंतरिक पक्ष नहीं है, जबकि नैतिकी का संबंध मनुष्य के आंतरिक जीवन से है। वह नैतिकी का स्रोत तत्त्व-मीमांसा में मानने के कारण उसकी एक अलग व्याख्या करते हैं।

शोपेनहावर ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ दि वर्ल्ड एज विल एंड आइडिया में प्रतिपादित किया कि यह विश्व मेरा प्रत्यय है क्योंकि यह मेरी चेतना के परिणाम स्वरूप अस्तित्व में है। देकार्त और बर्कले में भी इसी प्रकार का विचार विकसित होता है। लेकिन, शोपेनहावर इच्छा (Will) को भी महत्त्व देते हैं क्योंकि इच्छा ही वह तत्त्व है जो विश्व के साथ हमारे संबंध को तय करता है अर्थात् मनुष्य के आचरण की पृष्ठभूमि में इच्छा की केंद्रीय प्रेरणा रहती है। इसी कारण शोपेनहावर स्वहितवाद (Egoism) को मनुष्य की एक मूल प्रवृत्ति के रूप में स्वीकार करते हैं और उनके लिए स्वहितवाद का तात्पर्य है जीवेषणा तथा अधिकाधिक सुख। वह मानते हैं कि इसी के परिणामस्वरूप मनुष्य में एक बड़ी बुराई दुर्भावना (Malice) विकसित होती है, जो सभी क्रूर कर्मों में भी सुख प्राप्त करती या उनके प्रति उदासीन रहती है। इस तरह, स्वहितवाद और दुर्भावना मानवीय आचरण की प्रेरक प्रवृत्तियां हो जाती है। इनसे मुक्त हुए बिना नैतिक आचरण की अपेक्षा नहीं की जा सकती। शोपेनहावर मानते हैं कि धर्म या अलौकिक का भय वास्तविक मुक्ति नहीं दे सकता क्योंकि-भय भी अंततः स्वहितवाद से ही जुड़ा है। इसलिए नैतिक आचरण का स्रोत भी मनुष्य की बुनियादी प्रवृत्ति में ही होना चाहिए।

शोपेनहावर मनुष्य की इस बुनियादी प्रवृत्ति को करुणा (Compassion) कहते हैं तथा मानते हैं कि यह भी मनुष्य के आचरण की एक प्रेरक प्रवृत्ति है। करुणा के विकास द्वारा ही मनुष्य स्वहितवाद का अतिक्रमण कर सकता तथा अन्य की पीड़ा को अनुभव कर सकता है। करुणा का भाव हमारी निजता का अतिक्रमण करता हुआ हमें एक निरपेक्ष चेतना में रूपातंरित कर देता है। शोपेनहावर के अनुसार कला का महत्त्व भी इसी बात में है कि हम उसकी प्रक्रिया में अपने सीमित स्व का अतिक्रमण करते हुए ज्ञान के शुद्ध, अनाकांक्षी, निर्वेद तथा कालातीत विषयी हो जाते हैं। इस तरह कला हमें इच्छामुक्त करती है।

शोपेनहावर का मानना है कि करुणा भी इसी तरह हमें इच्छामुक्त होने में सहयोग करती है, जिसमें त्याग की भावना (Resignation) की सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका रहती है। यहां त्याग या इच्छामुक्ति का तात्पर्य है विश्व-वृत्ति का त्याग, जिसे भारतीय परंपरा में निवृत्ति मार्ग कहा गया है। शोपेनहावर उपनिषदों और बुद्ध से अत्यधिक प्रभावित हैं क्योंकि वे विश्व को माया मानकर उससे निवृत्त हो जाने में ही मुक्ति या निर्वाण संभव मानते हैं। इच्छा को वह उसी तरह दुख का कारण मानते हैं, जिस तरह बुद्ध तृष्णा को और जिस तरह तृष्णा अविद्या या अज्ञान की वजह से है, उसी प्रकार इच्छा भी अपने से प्रेरित ज्ञान की ही वजह से है। इच्छामुक्त निरपेक्ष ज्ञान निवृत्ति मार्ग की ओर ले जाकर मुक्ति का साधन बनता है। कैंब्रिज डिक्शनरी ऑफ फिलॉसफि में शोपेनहावर पर टिप्पणी करते हुए कहा गया है कि इस निवृत्ति या त्याग से परिपूर्ण व्यक्ति सभी की मूलभूत एकता की अंतर्दृष्टि के फलस्वरूप सभी धर्मों के नैतिक आदर्श सर्वभूत के प्रति करुणा का अनुभव करने लग जाता है।

संभवतः, यही कारण है कि बहुत-से प्रचलित राजनीतिक-सामाजिक पूर्वग्रहों-जैसे राजतंत्र, श्वेत जाति की श्रेष्ठता या स्त्रियों की दोयम दर्जे की हैसियत आदि के आग्रहों-के बावजूद वह किसी के भी साथ क्रूरता और अन्याय का निषेध करते हैं। उन्होंने न केवल दासता-विरोधी आंदोलन का समर्थन किया, बल्कि काली जातियों के प्रति अन्याय को मनुष्य जाति के आपराधिक दस्तावेज के कृष्णतम पृष्ठों में शुमार किया। सभी प्राणियों में एक ही इच्छा की अभिव्यक्ति होने के आधार पर शोपेनहावर ने मनुष्यों और मनुष्येतर प्राणियों में एकत्व देखते हुए पशु-पक्षियों के प्रति करुण व्यवहार की वांछनीयता पर बल दिया। वह तो यहां तक कह देते हैं कि मनुष्येतर प्राणियों के प्रति करुणा अच्छे चरित्र की पहचान है तथा जीवों के प्रति क्रूर व्यवहार करने वाला मनुष्य अच्छा हो ही नहीं सकता। वह पशुओं के अधिकारों तथा उनके प्रति व्यवहार के किसी नैतिक महत्त्व को न मानना पश्चिमी बर्बरता का नृशंस उदाहरण मानते हैं क्योंकि सार्वभौमिक करुणा नैतिकता का एकमात्र लक्षण है। वह तो यहां तक मानते थे कि भाषा में पशुओं के लिए इट का प्रयोग नहीं करना चाहिए क्योंकि इससे लगता है मानो वे निर्जीव वस्तु हैं। वह स्पिनोजा के इस विचार से सहमत नहीं थे कि जानवरों का उपयोग मनुष्य की संतुष्टि के लिए किया जाना उचित है।

- नंदकिशोर आचार्य

श्रीलंका सर्वोदय श्रमदान आंदोलन : द्रष्टव्य : आर्यरत्ने, ए०टी०।

श्विट्जर, अल्बर्ट : नोबल शांति पुरस्कार से सम्मानित (1952 ई०) जर्मन विचारक अल्बर्ट श्विट्जर (1815-1965 ई०) उन यूरोपीय विचारकों, ईसाई धर्मशास्त्रियों और विचारकों में अग्रणी कहे जा सकते हैं, जिन्होंने यूरोप द्वारा उपनिवेशों के प्रति की गई हिंसा की विकरालता को न केवल स्पष्ट पहचाना और उसकी कटु आलोचना की, बल्कि स्वयं एक यूरोपीय ईसाई होने के नाते उसका प्रायश्चित करना अपना धार्मिक कर्त्तव्य समझकर फ्रेंच इक्वेटोरियल अफ्रीका के लंबार्ने में एक मिशनरी चिकित्सक की हैसियत से अफ्रीकी लोगों की सेवा में अपना जीवन समर्पित कर दिया, जिसमें उनकी पत्नी हेलेन ब्रेस्सलाऊ (Helene Bresslau) ने भी उनका पूरा साथ निभाया।

अल्बर्ट श्विट्जर का जन्म एक ऐसे परिवार में हुआ था, जो कई पीढ़ियों से धर्म, शिक्षा और संगीत को समर्पित रहा था। उनकी अपनी रुचि धर्मशास्त्र में थी। दर्शन का अध्ययन करते हुए उन्होंने अपना शोध-प्रबंध कांट के धर्म-दर्शन पर लिखा। 1906 ई० में उन्होंने अपना शोधपूर्ण ग्रंथ दि क्वेस्ट ऑफ हिस्टोरिकल जीसस प्रकाशित किया, जिससे उन्हें एक धर्मशास्त्री के रूप में स्मरणीय ख्याति मिली। लेकिन, अल्बर्ट श्विट्जर केवल शोध-कर्ता नहीं थे। धर्मशास्त्र का अध्ययन उनके लिए बौद्धिक उपलब्धि मात्र नहीं था। इस अध्ययन ने उनकी अपनी संवेदना पर गहरा असर डाला और वह यह समझने में सफल हुए कि ईसाई यूरोप किस प्रकार ईसा की शिक्षाओं के खिलाफ पूरी दुनिया में प्रेम के बजाय हिंसा कर रहा है। उन्होंने अपने एक व्याख्यान में स्पष्ट कहा कि गोरी जातियों ने शताब्दियों तक गैर-श्वेत जातियों के साथ जो अन्याय और क्रूरता की है, उनका वर्णन कर सकना किसी के भी सामर्थ्य से परे है। यदि श्वेत और गैर-श्वेत जातियों के संबंधों का वर्णन करने वाला कोई दस्तावेज प्रकाशित किया जाय तो उसमें बहुत-से ऐसे पृष्ठ होंगे, जिनके भयानक वर्णन को पढ़ा भी नहीं जा सकेगा।

ईसाई यूरोप द्वारा गैर-श्वेत जातियों पर की गई क्रूरताओं ने ही अल्बर्ट श्विट्जर के भीतर बसे सच्चे ईसाई को प्रेरित किया कि एक ईसाई और यूरोपीय होने के नाते उन्हें इसका प्रायश्चित करना चाहिए। इसी के परिणामस्वरूप अफ्रीेका में जाकर चिकित्सा-सेवा करने के लिए उन्होंने चिकित्सा-विज्ञान का विधिवत् अध्ययन किया। इस अध्ययन के शोध-प्रबंध के रूप में उन्होंने दि साइकियेट्रिक स्टडी ऑफ जिसस का प्रकाशन किया, जो एक धर्मशास्त्री और चिकित्सक दोनों के रूपों में उन्हें प्रतिष्ठित करता है।

यह उल्लेखनीय है कि फ्रेंच इक्वेटोरियल अफ्रीका में एक चिकित्सक के रूप में काम करते हुए भी उन्हें प्रथम विश्वयुद्ध के दौरान पत्नी सहित फ्रेंच सेनाओं द्वारा गिरफ्तार (1914-1918 ई०) कर लिया गया था क्योंकि वे फ्रेंच उपनिवेश में रह रहे जर्मन थे, जबकि उपनिवेशवासियों पर किए गए अत्याचार में श्विट्जर सभी यूरोपीय उपनिवेशवादियों को समान अपराधी समझते थे। एक व्याख्यान में उन्होंने कहा कि यदि यह सारा दमन और पाप जर्मन ईश्वर या अमरीकी ईश्वर या ब्रिटिश ईश्वर की आंखों के सामने हुआ है और फिर भी हमारे राज्य अपने ईसाई होने का अपना दावा छोड़ नहीं देते तो यह ईसा के नाम को कलंकित करना और उसका मखौल बनाना है। ईसा का नाम एक शाप हो चुका है, और हमारी ईसाइयत-आपकी और मेरी-एक झूठ और अपमान बन चुकी है। युद्ध के समाप्त होने के बाद वह कुछ समय यूरोप में व्याख्यान देते हुए घूमते रहे और अंततः 1924 ई० में अपने अस्पताल में चिकित्सा सेवा के लिए लौट आए। इसके बाद वह सारा जीवन-बीच-बीच में व्याख्यानों के लिए भ्रमण के सिवा-वहीं रहे। उनके प्रमुख ग्रंथ हैं दि डिके एंड रेस्टोरेशन ऑफ सिविलिजेशन (दो खंड) तथा सिविलिजेशन एंड एथिक्स। इसी पुस्तक की भूमिका में उन्होंने अपने प्रसिद्ध दार्शनिक सिद्धांत जीवन-श्रद्धा (Reverence for life) का प्रतिपादन किया। अनंतर उन्होंने दि वर्ल्ड व्यू ऑफ रेवरेंस ऑफ लाइफ तथा सिविलाइज्ड स्टेट ग्रंथों का लेखन भी शुरू किया जो 1965 ई० उनकी मृत्यु के कारण पूरा नहीं हो सका।

अल्बर्ट श्विट्जर ने पश्चिमी दर्शन का विश्लेषण करते हुए यह प्रतिपादित किया कि आधुनिक पश्चिमी दर्शन मूलतः वस्तु जगत की व्याख्या में उलझा रहा-शायद इस विश्वास में कि उसी में मानवता के कल्याण का रास्ता निकलेगा; लेकिन ऐसा नहीं हो पाया। श्विट्जर का निष्कर्ष था कि स्पेंसर और डार्विन आदि के लेखन में प्रतिपादित वैज्ञानिक भौतिकवाद में नैतिकता के लिए कोई स्थान नहीं है। श्विट्जर के अनुसार भौतिक जगत नीति-निरपेक्ष है। इसलिए आज भौतिकवाद के बजाय आध्यात्मिक विवेकवाद (Spiritual Rationalism) की आवश्यकता है तथा उससे प्रसूत नैतिक आकांक्षा के आधार पर ही सभ्यता की संरचना संभव है। विश्व की जिजीविषा (Will-to-life) की अभिव्यक्ति होने के कारण जीवन-श्रद्धा (Reverence for life) सर्वोच्च सिद्धांत है।

श्विट्जर के लिए जीवन-श्रद्धा का तात्पर्य है जीवन के प्रत्येक रूप से प्रेम और उसके प्रति सम्मान। इस स्तर पर ईसाइयत में प्रतिपादित प्रेम और श्विट्जर का जीवन-श्रद्धा के सिद्धांत एक हो जाते हैं। इसके लिए श्विट्जर ने एक नए और गहन पुनर्जागरण और ज्ञानोदय की आवश्यकता पर बल दिया ताकि मानवता यह आविष्कृत कर सके कि नैतिक भावना जीवन का सर्वोच्च सत्य और सर्वोच्च उद्देश्य है। यह उल्लेखनीय है कि इस दृष्टि से श्विट्जर का विचार आधुनिक आध्यात्मिक विचारकों में महात्मा गांधी के विचार से साम्य रखता है जिनके लिए नैतिक ही आध्यात्मिक है; वहीं, दूसरी ओर भौतिकवादी एम०एन० राय भी नैतिकता को जिजीविषा की ही अभिव्यक्ति मानते और उनका नवमानववाद एक नैतिक मनुष्य के विकास में ही मानवता का भविष्य देखता है।

श्विट्जर के इस जीवन-श्रद्धा के सिद्धांत का ही व्यावहारिक रूप अहिंसा है-अपने सभी सकारात्मक अर्थों में। इसलिए श्विट्जर उपनिषदीय दर्शनों की आध्यात्मिकता में नैतिकता की अवहेलना देखते हैं, जिसका सफल खंडन डॉ० सर्वपल्लि राधाकृष्णन अपने ग्रंथ प्राच्य धर्म और पाश्चात्य विचार में कर चुके हैं; लेकिन, जैन धर्म की नैतिक आचार संहिता के वह प्रशंसक है क्योंकि जीवन के सूक्ष्मतम या लघुतम रूप के प्रति अहिंसा भाव का सकारात्मक रूप वहां देखने को मिलता है।

अल्बर्ट श्विट्जर के लिए नैतिक होने का तात्पर्य ही जीवन में श्रद्धा रखना है। कोई मनुष्य तभी नैतिक है, जब उसके लिए जीवन पवित्र है-न केवल मनुष्य बल्कि वनस्पतियों और जंतुओं का जीवन भी और जब वह प्रत्येक जरूरतमंद जीवन-रूप की सहायता के लिए समर्पित होता है। यह भी कि वह दूसरे के जीवन को अपने जीवन के समान अनुभव करता है। यदि कोई कीड़ा भी पानी में बहता हुआ जा रहा हो तो यह हमारा नैतिक कर्त्तव्य है कि उसकी रक्षा करें। इस प्रकार यह कहा जा सकता है कि श्विट्जर के जीवन-श्रद्धा के विचार को बाद के पर्यावरणवादी विमर्श एवं आंदोलनों का पूर्वज है।

यहां इस बात का उल्लेख भी अप्रासंगिक नहीं होगा कि एक संगीतज्ञ और संगीत विश्लेषक के रूप में भी श्विट्जर का योगदान महत्त्वपूर्ण है। उनके अपने संगीत अलबमों के अलावा बाख के संगीत के उनके अध्ययन और व्याख्या को भी संगीत के क्षेत्र में सम्मान के साथ देखा जाता है।

अपने जीवन-श्रद्धा के सिद्धांत के लिए अल्बर्ट श्विट्जर को 1952 ई० के नोबल शांति पुरस्कार से सम्मानित किया गया। पुरस्कार की समस्त राशि तथा अपनी अन्य आय उन्होंने लेंबार्ने में अपने अस्पताल के लिए समर्पित कर दी थी। पुरस्कार स्वीकार करते हुए अपने व्याख्यान में उन्होंने कहा, मानव आत्मा मर नहीं गई है। वह गुप्त रूप से जीवित है... उसका विश्वास है कि सब नैतिकता की मूल करुणा को अपना पूरा विस्तार और गहराई पा सकने के लिए केवल मनुष्य जीवन नहीं, बल्कि सभी जीवित प्राणियों को गले लगाना होगा।

- नंदकिशोर आचार्य

संपूरकता का सिद्धांत : मुख्य रूप से नील्स बोर द्वारा प्रतिपादित संपूरकता-कोंपलिमेंटेरिटी-का सिद्धांत, संभवतः, आधुनिकी भौतिकी का सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण और क्रांतिकारी सिद्धांत है। संपूरकता अधिगम हमें यह देख पाने के योग्य बनाता है कि प्रतीयमानतः असंगत दृष्टिकोणों का परस्पर विरोधी होना आवश्यक नहीं है। गहराई से जांचने पर वे संपूरक और परस्पर ज्योतित माने जा सकते हैं-एक ही समग्रता को भिन्न परिप्रेक्ष्यों से देखे जाने के कारण उसके दो परस्पर विरोधी पहलुओं की तरह इसमें यह संभावना अंतर्निहित है कि विभिन्न मानवीय अनुभवों को एक संगति में देखा जा सकता है, जिसके कारण मानवीय यातना के अन्वेषण और उपचार के लिए नए सामाजिक और नैतिक प्रदेश उजागर हो सकते हैं। बोर का विश्वास था कि एक दिन संपूरकता का सिद्धांत हर व्यक्ति की शिक्षा का अनिवार्य घटक होकर जीवन की समस्याओं और चुनौतियों के लिए मार्ग-दर्शन कर सकेगा।

हिदेकी युकावा से एक बार पूछा गया कि क्या पश्चिमी युवा भौतिकी विज्ञानियों की तरह जापानी युवा भौतिकी विज्ञानी भी संपूरकता के सिद्धांत को ठीक तरह से समझने में कठिनाई अनुभव करते हैं। युवाका का उत्तर था कि बोर का संपूरकता का सिद्धांत उनके लिए बिल्कुल स्पष्ट था क्योंकि हम जापानी अरस्तू द्वारा भ्रष्ट नहीं हुए हैं।

उपनिषदों, जैन धर्म और बौद्ध धर्म की गहन नैतिक और आध्यात्मिक अंतदृष्टियों का मर्म जीवन और अस्तित्व की समस्याओं के प्रति सारतः संपूरक अधिगम में ही है-चाहे उनका निरूपण भिन्न हो। हमारे समय में उपनिषदीय दर्शन के सवश्रेष्ठ प्रवक्ता श्री अरविंद ईशोपनिषद पर अपनी टीका में लिखते हैं :

इस उपनिषद में सर्वत्र व्याप्त सिद्धांत है अनम्य अतियों का अनम्य सामंजस्य.......उप-निषदों में जिन परस्पर विरोधी युग्मों का समाधान प्रस्तुत किया गया है वे हैं : (1) चेतन प्रभु और प्रकृति; (2) वैराग्य और भोग; (3) कर्म-प्रकृति और आत्मा में स्वातंत्र्य; (4) एक स्थिर ब्रह्मन् और बहुआयामी गतिमयता; (5) सत् और संभवन् (6) सक्रिय ईश्वर और निरपेक्ष अक्षर ब्रह्म; (7) विद्या और अविद्या; (8) जन्म और अजन्म; (9) कर्म और ज्ञान।

संपूरक अधिगम का जैन निरूपण स्याद्वाद की द्वंद्वात्मकता में मिलता है। विचार, शब्द और कर्म में अहिंसा के सिद्धांत और व्यवहार के लिए स्याद्वादी तर्क अपरिहार्य है। स्याद्वाद तथा अहिंसा में समन्विति है। स्याद्वाद का आग्रह है कि वास्तविकता का ज्ञान चरम निश्चयवादी प्रवृत्ति के निषेध से ही हो सकता है। क्वांटम भौतिकी और सापेक्षता के सिद्धांत में भी वही विचार-प्रवृत्ति बल पाती है, जो हम स्याद्वाद में पाते हैं। साथ ही, स्याद्वादी अधिगम भौतिकी संपूरकता के सिद्धांत की हमारी समझ को स्पष्ट करता है। पी०सी० महलनबीस और जे०बी०एस० हाल्डेन के अनुसार संभाव्यता का सिद्धांत-थियरी ऑफ प्रोबोबिलिटी-के आधार भी स्याद्वादी तर्क-पद्धति की संगति में है।

आणविक परिघटना में संपूरकता के सिद्धांत के क्रियान्वयन के निरूपण के आधार पर हमें अंततः पदार्थ और मन को अपनी परिधि में ले लेने वाले संपूरकता सिद्धांत के अधिक गहरे और संपन्नतर स्तरों के अन्वेषण की प्रेरणा मिल सकती है। अपने निबंध कारणता और संपूरकता के अंत में बोर लिखते हैं : सामान्य दार्शनिक परिप्रेक्ष्य में यह महत्त्वपूर्ण है कि ज्ञान की अन्य शाखाओं के विश्लेषण और संश्लेषण की परिस्थितियां क्वांटम भौतिकी की परिस्थितियों से मिलती-जुलती हैं। इस प्रकार, सजीव प्राणियों की अन्विति तथा सचेतन व्यक्तियों और मानव-संस्कृतियों की चारित्रिकता एक समग्रता के लक्षणों को प्रस्तुत करती है, जिसके वर्णन के लिए हमें एक विशिष्ट संपूरक कथन शैली अपनानी पड़ती है। अन्य क्षेत्रों में अनुभव के संप्रेषण के लिए उपलब्ध संपन्न शब्दकोश के बहुलार्थी उपयोग और सबसे अधिक दार्शनिक साहित्य में कारणता की विविध व्याख्याओं के कारण ऐसी तुलना को कई बार गलत समझा गया है। फिर भी, भौतिक विज्ञान में सरलतर परिस्थिति के वर्णन के लिए धीमे-धीमे एक समुचित पारिभाषिक शब्दावली के विकास से कमोबेश अस्पष्ट सादृश्यता का नहीं, बल्कि कुछ भिन्र संदर्भों में, व्यापक क्षेत्रों में तर्कसम्मत संबंधों के स्पष्ट उदाहरणों का संकेत मिलता है।

बोर की दार्शनिक समस्याओं से संबंधित पहली और निरंतर चिंता हमारे अनुभवों को स्पष्टतापूर्वक वर्णन कर सकने वाली भाषा का प्रयोग रही है। इस संबंध में एक बुनियादी कठिनाई इस अपरिहार्य सचाई से पैदा होती है कि इस ब्रह्मांड में मनुष्य कर्ता और दृष्टा दोनों है। इसलिए, जब मैं कोई चीज देख रहा हूं तो मैं उस समय कर्ता भी हूं : उस चीज को देखने का मेरा चुनाव मेरी ओर से एक कर्म है।

हम अपनी चेतना की एक स्थिति और उससे जुड़े देह के व्यवहार के लिए अक्सर एक ही शब्द का प्रयोग करते हैं। अस्पष्टता से कैसे बचा जाए? बोर हमारा ध्यान बहुविध प्रकायों और रीमान (Riemann) सतह की अवधारणा की सुंदर सादृश्यता की ओर आकर्षित करते हैं : किसी बहुविध प्रकार्य के भिन्न मूल्य रीमान सतह के भिन्न स्तरों पर बंट पाते हैं। इसी प्रकार, हम कह सकते हैं कि किसी एक शब्द के भिन्न अर्थ निरपेक्षता के भिन्न स्तरों से संबोधित होते हैं।

बोर बताया करते थे कि प्राचीन भारतीय चिंतक किस प्रकार अस्तित्व के अर्थ की हमारी समझ की व्यर्थता, को रेखांकित करते हैं। और वह इसमें अपनी ओर से यह जोड़ते हैं कि इतना निश्चित है कि अस्तित्व का अर्थ जैसा पद स्वयं कितना अर्थहीन है।

हाइजेनबर्ग ने बहुत स्पष्टतापूर्वक यह समझाया है कि आधुनिक विज्ञान के विकास के कारण सामान्य या स्वाभाविक भाषा की हमारी अवधारणाएं कितनी बदल चुकी हैं। निरंतर हो रहे विकास के परिणामस्वरूप भावी बदलावों का अनुमान लगाया जा सकता है। विज्ञान में अस्पष्टता और विरोधाभासों का कारण स्वाभाविक भाषा की शब्दावली का प्रयोग है। स्वाभाविक भाषा में विरोधाभास उतने ही अंतर्निहित हैं, जितने सुनिश्चित वैज्ञानिक भाषा में। स्याद्वादी तार्किकता और संपूरकता अधिगम की भूमिका स्वाभाविक भाषा की पारिभाषिक शब्दावली की अस्पष्टता को कम से कम करना तथा यथार्थ और मानवीय मन के अंतस्संबंधों में अधिकाधिक अंतर्दृष्टि विकसित करना है।

हाइजेन बर्ग द्वारा प्रस्तुत इस विचार प्रयोग या आदर्शीकृत परिस्थिति पर विचार करें। एक अणु एक विभाजक द्वारा समान कक्षों में विभाजित बॉक्स में बंद है। विभाजक में एक छोटा-सा छेद है, जिसमें से वह अणु गुजर सकता है। यह छेद एक कपाट द्वारा जब चाहे बंद किया जा सकता है। शास्त्रीय तर्क-शास्त्र के अनुसार अणु या तो बांए कक्ष में होगा या दाहिने कक्ष में। कोई तीसरा विकल्प संभव ही नहीं है। लेकिन, क्वांटम भौतिकीऐसे प्रयोग के परिणामों की व्याख्या कर सकने वाली अन्य संभावनाओं को स्वीकार करने के लिए बाध्य कर देती है। यदि हम बॉक्स और अणु शब्दों का ही प्रयोग करें तो हम यह स्वीकार करने से नहीं बच सकते कि शब्दों में वर्णन को पूरी तरह नकारते हुए एक अजीब तरीके से अणु दोनों कक्षों में एक साथ मौजूद है (यदि छेद खुला है)। इस स्थिति को सामान्य भाषा में व्यक्त नहीं किया जा सकता-इसकी अभिव्यक्ति केवल गणितीय भाषा में ही संभव है। स्याद्वाद की शब्दावली में यह अव्यक्त है। यह शब्दों से परे एक सनकी विचार है। लेकिन, इससे कोई बचाव नहीं है, क्योंकि बड़ी वस्तुओं के बिल्कुल विपरीत, आणविक स्तर पर कण अपने तरंग पक्ष के साथ ही साथ अपने कण पक्ष को भी प्रदर्शित करते हैं। सामान्य जीवन में विरोधाभासी और एक-दूसरे से बिल्कुल पृथक ये दोनों पक्ष आणविक परिघटना में संपूरक हैं।

बोर का प्रसिद्ध द्विरेखाछिद्रीय हस्तक्षेप प्रयोग (Two-slit interference experiment) संपूरकता को मात्रात्मक बनाकर प्रस्तुत करता है। ऐसा ही प्रयोग एक्सरे को लेकर भी किया जाता है। तात्पर्य यह कि लघु वस्तु का व्यवहार दृष्टिगत नहीं होता। उसे सामान्य भाषा में व्यक्त नहीं किया जा सकता।

वीलर की टिप्पणी है कि क्वांटम विश्व की अतीत और भविष्य के इस विचित्र युग्मीकरण से अधिक उल्लेखनीय कोई विशेषता नहीं है। दो भिन्न विकल्पों के बीच स्वतंत्र चयन (स्वतंत्र इच्छा) को अंतर्निहित करने वाला कोई भी प्रेक्षण एक प्रकार से उत्पत्ति-जेनेसिस-में सहभागिता करना है (अस्तित्व के नाटक में एक साथ हमारे कर्ता और दर्शक होने का नया अर्थ देते हुए)। संभवतः, जितना हम प्रकृति की समझ में और गहरे जाएंगे, संपूरकता के अन्य स्तर भी उजागर होते रहेंगे।

अब हमें कण-तरंग द्वैत के व्यवहार को स्याद्वादी निरूपण से समझना चाहिए। स्याद्वाद के अनुसार यथार्थ का कोई भी तथ्य सात प्रकार की वर्णन-प्रक्रिया की ओर ले जाता है। ये स्वीकार, निषेध और अव्यक्ति के संयोजन हैं : (1) अस्तित्व, (2) अनस्तित्व, (3) अस्तित्व और अनस्तित्व का घटना, (4) अव्यक्ति या अनिश्चय, (5) अस्तित्व से प्रतिविशिष्ट अव्यक्ति, (6) अनस्तित्व से प्रतिविशिष्ट अव्यक्ति, और (7) अस्तित्व और अनस्तित्व से प्रतिविशिष्ट अव्यक्ति।

चौथा प्रकार-अव्यक्त-स्याद्वादी द्वंद्ववाद का बीज-तत्त्व है। इसे आधुनिक विज्ञान के कण-तरंग द्वैत से संबंधित विमर्श में भली प्रकार से स्पष्ट कर दिया गया है। जैसा पूर्व में कहा जा चुका है, महालनबीस और हाल्डेन ने आधुनिक सांख्यिकी के आधार के रूप में स्याद्वाद के महत्त्व की चर्चा की है। अणु और बॉक्स के उदाहरण का एक चित्र बनाकर स्याद्वाद की सात भंगिमाओं से तुलना दिखाई जा सकती है।

किसी भी सार्थक वक्तव्य को लें। इसे कहें। यह एक अनुभव के तथ्य का वर्णन कर सकता है या तर्कशास्त्रीय अथवा गणितीय प्रतिज्ञप्ति का। स्याद्वादी द्वंद्वात्मकता की मांग यह है कि किसी भी स्थिति में किसी अन्य परिस्थिति में संबंधित वक्तव्य का विपरीतार्थी वक्तव्य भी उतना ही सत्य होना चाहिए। वक्तव्य के निषेध को नहीं कहें। जिन स्थितियों में ये दोनों वक्तव्य सत्य हो सकते हैं, वे समान नहीं हो सकतीं; सामान्यतः, संबंधित स्थितियां परस्पर भिन्न होगी। वक्तव्य के आधार पर अ-नहीं की स्थितियों को खोज निकालना आसान नहीं होगा। यह असंभव भी लग सकता है। लेकिन, स्याद्वाद में आस्था और आगे खोजने के लिए प्रोत्साहित करना है। उदाहरणार्थ, यूक्लीडीय रेखागणित में एक त्रिभुज के तीनों कोणों का योग दो दाहिने कोणों के योग के बराबर होगा। इस प्रमेय का निषेध एक नई रेखागणित है, जिसमें एक त्रिभुज के तीन कोणों का योग उसकी दो दाहिनी भुजाओं के योग के बराबर नहीं होगा। यूक्लिड के दो हजार साल बाद उन्नीसवीं शताब्दी तक इस अ-यूक्लिडीय रेखागणित को नहीं खोजा जा सका था; आइंस्टाइन के सामान्य सापेक्षता के सिद्धांत का आधार यही रेखागणित है।

विशेष सापेक्षता के सिद्धांत के लिए तो स्याद्वादी अधिगम प्रत्यक्षतः प्रयोजनसिद्ध है। किसी भी वेग के साथ यात्रा करनी हुई कोई भी वस्तु उसके साथ यात्रा करने वाले के लिए स्थिर है। स्याद्वादी तर्कशास्त्रों में इस प्रतिज्ञप्ति का निषेध अंतर्निहित है। इस प्रकार स्याद्वाद के अनुसार, वस्तु के साथ यात्रा करते प्रेक्षक की कल्पना कर सकने वाले किसी अस्तित्व की आवश्यकता में ही एक तर्कशास्त्रीय अंतर्विरोध निहित है। स्याद्वाद इसे प्रकाश के साथ जोड़ता है, जिसका अस्तित्व सापेक्षता के सिद्धांत का आधार है।

जब हम यह जान जाते हैं कि और अ-नहीं दोनों का अस्तित्व है, तो हम यथार्थ के उस गहरे या नए स्तर पर जाने के लिए प्रस्तुत हो जाते हैं जिसमें और अ-नहीं दोनों का समकालिक अस्तित्व है। इस नए स्तर का वर्णन उस वैचारिक चौखट के अंतर्गत नहीं हो सकता जिसमें और अ-नहीं का वर्णन किया जाता है। स्याद्वादी तर्कशास्त्र नैतिक और आध्यात्मिक तलाश तथा अहिंसा के लिए तो अपरिहार्य है ही, प्राकृतिक विज्ञानों के विकास के लिए भी उसका आत्यंतिक महत्त्व है।

सत्य-वैज्ञानिक, नैतिक और आध्यात्मिक सत्य-के अन्वेषण के लिए स्याद्वादी अथवा संपूरकता अधिगम महत्त्वपूर्ण है। सुस्पष्ट परिभाषाएं और वैकल्पिक विधियों की संख्या का महत्त्व उतना नहीं है।

- डॉ० डी०एस० कोठारी

(हिंदी रूपांतर : नंदकिशोर आचार्य)

(संपादकीय टिप्पणी : यह उल्लेखनीय है कि कार्ल मार्क्स द्वंद्वात्मकता को प्रकृति का नियम-लॉ ऑफ नेचर-मानते हैं और मनुष्य क्योंकि प्रकृति की संतान हैं, इसलिए मानवीय कार्य-व्यापार और सामाजिक संरचना तथा इतिहास को इसी द्वंद्वात्मकता के आधार पर समझने का उद्यम करते हैं। लेकिन, यदि संपूरकता का नियम भी लॉ ऑफ नेचर है, जो कि है, तो मानव समाज की संरचना और इतिहास को उसके आधार पर भी समझा जाना पूरी तरह वैध होगा। तब द्वंद्वात्मकता या संघर्ष नहीं, बल्कि सहकार और परस्पर पूरकता इतिहास की प्रक्रिया का नियम होगा। इसलिए संपूरकता के नियम के आधार पर इतिहास की प्रेरक शक्ति द्वंद्वात्मक संघर्ष नहीं, बल्कि सहकार या अहिंसा होगी, जैसा एम०एन० राय और महात्मा गांधी मानते हैं। - नंदकिशोर आचार्य)

संरचनागत हिंसा : सामान्यतया जब हिंसा की बात की जाती है तो उसका संदर्भ व्यवस्थागत परिवर्तन के लिए की जाने वाली अर्थात् आतंकवाद या साधनात्मक हिंसा से होता है। लेकिन इस बात की ओर पर्याप्त ध्यान नहीं दिया जाता कि किसी भी प्रकार का हिंसक विद्रोह अन्याय से असंतोष को न समझने और उसे मिटाने की अनिच्छा या असफलता के कारण प्रेरित होता है। यह सवाल दीगर है कि हिंसक विद्रोह स्वयं उस अन्याय को मिटाने में कहां तक सफल होता है या अपनी हिंसा के कारण व्यवस्था की दमनकारी हिंसा को कितना मजबूत कर देता है। विद्रोही की हिंसा को अनुचित मानते हुए भी इस बात की अनदेखी नहीं की जा सकती कि उसका मूल कारण संरचनागत या संस्थागत हिंसा होती है। अन्याय स्वयं हिंसा है। कभी यह अन्याय प्रत्यक्ष होता है, जो साफ दीख सकता है। लेकिन अप्रत्यक्ष या सामाजिक-राजनीतिक-आर्थिक संरचना में न्याय-अन्याय को देख पाना मुश्किल होता है क्योंकि सामान्यतया उस संरचना के बने रहने को ही हम उस के न्यायपूर्ण होने के प्रमाण की तरह स्वीकार कर लेते हैं। दरअस्ल, इस अन्याय की प्रतिक्रिया में उत्पन्न हिंसा अपनी प्रतिक्रिया में हिंसा ही उत्पन्न करती है और इस प्रकार हिंसा का एक दुश्चक्र बन जाता है, जिससे निकलना हिंसा के ही माध्यम से संभव नहीं हो सकता।

इसीलिए जोहन गाल्तुंग ने संरचनागत हिंसा (Structural violence) को समझना आवश्यक माना है। गाल्तुंग की परिभाषा के अनुसार बुनियादी मानव-आवश्यकताओं और सामान्यतः जीवन का निवारणीय अनादर हिंसा है। गाल्तुंग बुनियादी मानव आवश्यकताओं को चार श्रेणियों में विभाजित करते हैं : (1) जीविता, जिसका विलोम मृत्यु है; (2) कल्याण, जिसका विलोम गरीबी या कंगाली या रुग्णता है; (3) अस्मिता, जिसका विलोम विसंबंध या वियोज्यता है; (4)स्वतंत्रता, जिसका विलोम दमन है। इन चारों के कई विभेद हो सकते हैं। गाल्तुंग के अनुसार पारिस्थितिकीय संतुलन को भी हम एक श्रेणी मान सकते हैं क्योंकि इसकी अवहेलना का प्रभाव अन्य चारों श्रेणियों पर पड़ता है। वह मानते हैं कि इन पांचों का संयोग शांति को परिभाषित करता है।

गाल्तुंग के वर्गीकरण के आधार पर हिंसक सरंचना को पहचाना जा सकता है। जिस आर्थिक-सामाजिक-राजनीतिक संरचना में मनुष्य का (1) शोषण (2) निबर्लीकरण (3) विखंडीकरण या भेदन और (4) दमन संभव हो, वह एक हिंसक संरचना है। इस हिंसक संरचना के केंद्र में शोषण होता है, जिसका तात्पर्य है कि सामाजिक संसाधनों से एक वर्ग अधिक लाभ प्राप्त करता है और दूसरा वर्ग क्रमशः निचले स्तर तक वंचित होता चला जाता है; इसका परिणाम अशिक्षा, भूख, बीमारी से मृत्यु आदि के रूप में दिखाई देता है। इस हिंसक संरचना का प्रभाव मनुष्य के भावनात्मक और नैतिक-आध्यात्मिक जीवन पर भी पड़ता है। शोषण का बल दमन की ताकत से प्राप्त होता है, जो अपने में एक अलग हिंसक प्रक्रिया है। शोषण और दमन की यह प्रक्रिया केवल आर्थिक ही नहीं, सामाजिक-सांस्कृतिक स्तर पर भी होती है। आर्थिक संरचना में लाभ के न्यायपूर्ण वितरण को ही नहीं उत्पादन-पद्धति अर्थात् उस उद्योगीकरण को भी शामिल किया जाता है जो प्राकृतिक संसाधनों के अंधाधुंध दोहन से उत्पन्न पर्यावरणीय प्रदूषण और पारिस्थितिकीय असंतुलन का कारण बनता है। इसी प्रकार राजनीतिक दमन केवल सर्वसत्तावादी राज्यों में ही नहीं होता-वह तो स्पष्ट ही है-बल्कि औपचारिक रूप से लोकतांत्रिक कहे जाने वाली राजनीतिक व्यवस्थाओं में भी होता है।

लोकतांत्रिक शासन मूलतः बहुमत का शासन होता है अर्थात् उचित-अनुचित, न्याय-अन्याय का निर्णय किसी मूल्य के आधार पर होने के बजाय अंततः बहुमत के आधार पर होता है। न्यायालयों के निर्णय तक न्यायाधीशों के बहुमत के आधार पर लिए जाते हैं। अतः व्यक्ति की स्वतंत्रता, समानता और गरिमा को मूल्य मानने वाला लोकतंत्र व्यक्ति या व्यक्ति-समूहों को बहुमत के अधीन कर देता है। यह भी उल्लेखनीय है कि सभी लोकतांत्रिक संविधानों में ऐसी व्यवस्था होती है कि जरूरत पड़ने पर सरकारें विशेष आपातकालीन शक्तियों का प्रयोग कर सकती हैं। इस आपातकाल का निर्णय संबंधित सरकार को ही करना होता है। इसका तात्पर्य यह है कि एक लोकतांत्रिक सरकार भी सर्वसत्तावादी सरकार हो सकती और हुई है तथा लोकतंत्र एक औपचारिकता मात्र रह गया है। युद्ध जैसी हिंसा भी सरकारें नागरिकों पर थोपती रही हैं-चाहे उसके लिए कोई उचित कारण न भी हो और उसके लिए नागरिकों की राय लेने की कोई कोशिश नहीं की जाती।

यह भी उल्लेखनीय है कि सरकारें कभी भी स्वतंत्र अभिव्यक्ति के दमन और सूचनाओं को गुप्त रखने की प्रक्रियाएं अपनाती रही हैं और प्राइवेसी का अतिक्रमण भी एक सहज प्रशासनिक प्रक्रिया बनाया जाता रहा है।

यह ठीक है कि सभी लोकतांत्रिक समाजों में अन्याय या नागरिक अधिकारों के अतिक्रमण के खिलाफ न्यायिक प्रक्रियाओं का प्रावधान किया जाता है; लेकिन, यह भी एक तथ्य है कि प्रक्रियागत जटिलताओं, सत्ता के केंद्रीकरण और न्याय के महंगे होते चले जाने की वजह से सामान्य व्यक्ति विकराल राज्य-सत्ता के सम्मुख अपने को बौना और असहाय महसूस करता है और उसकी स्वतंत्रता केवल शाब्दिक स्तर पर ही रह जाती है।

इसी तरह आर्थिक संरचना में न्यस्त हिंसा को भी पहचानने की जरूरत है। दरअस्ल, किसी भी प्रकार का उत्पादन केवल वैयक्तिक प्रतिभा और संसाधनों से नहीं किया जा सकता। उत्पादन में लगी पूंजी मूलतः सार्वजनिक होती है तथा प्राकृतिक संसाधन और श्रम भी। ज्ञान भी, जिसके आधार पर उत्पादन-प्रौद्योगिकी का विकास होता है, सामाजिक पूंजी ही है। जिन प्राकृतिक संसाधनों भूमि, खनिज, वनस्पति, हवा, जल और अन्य वस्तुओं तथा ऊर्जा-स्रोतों के आधार पर उत्पादन संभव होता है, वे तो अपने अस्तित्व में ही सार्वजनिक हैं और उन पर किसी एक व्यक्ति या व्यक्ति-समूह का तो क्या, किसी युग-विशेष का भी स्वामित्व नहीं माना जा सकता क्योंकि उन पर संपूर्ण मानव-जाति का ही नहीं, जीव-जगत मात्र का सार्वकालिक या सनातन स्वामित्व है। इसीलिए यह माना जाता है कि भविष्य की अवहेलना करने वाला विकास न्यायोचित नहीं है। इसे इंटरजेनेरेशनल जस्टिस या सनातन न्याय कहा जाता है। अतः, स्पष्ट है कि इन संसाधनों से होने वाले उत्पादन के लाभ पर किसी एक व्यक्ति या समूह-सच कहें तो किसी राष्ट का भी-अधिकार नहीं हो सकता। इसलिए जो आर्थिक संरचना निम्नतम स्तर तक इस लाभ को न्यायपूर्ण तरीके से नहीं पहुंचाती और भविष्य की पीढ़ियों की भी अवहेलना करती है, उसे अन्यायपूर्ण यानी हिंसक संरचना ही कहा जा सकता है।

सामाजिक संरचना को भी इसी तरह समझने की जरूरत है। जिस सामाजिक संरचना में किसी भी व्यक्ति या व्यक्ति-समूह को जन्म, जाति, रंग, नस्ल, संप्रदाय, लिंग आदि के आधार पर असमान व्यवहार और अपमान-उत्पीड़न का शिकार होना पड़ता है, उसे न्यायपूर्ण या अहिंसक संरचना नहीं कहा जा सकता-चाहे यह असमान व्यवहार संस्कृति, रिवाज, धर्म-शास्त्र या अन्य किसी भी आधार पर किया जा रहा हो।

इस आर्थिक-राजनीतिक-सामाजिक संरचनाओं में हिंसा के कई रूप और प्रकार विन्यस्त होते हैं और उनके प्रति विद्रोह स्वाभाविक है। यह विद्रोह हिंसक हो या अहिंसक, यह एक अलग सवाल है। हिंसक विद्रोह अपनी प्रतिक्रिया में दमनकारी हिंसा को और प्रोत्साहित करता है। हिंसा और हिंसा के बीच युद्ध में वही विजयी होता है जो अधिक हिंसक हो सके। इसलिए किसी भी पक्ष की जीत किसी मूल्य की नहीं, हिंसा की ही जीत होती है। सोरेल, फ्रेंज फेनन और सार्त्र जैसे विचारकों की मान्यता है कि अन्यायग्रस्त या दमित-शोषित की हिंसा उसकी आत्मा का शुद्धीकरण करती है। तात्पर्य यही है कि वह अपने आप में साध्य हो जाती है, चाहे उसे अन्याय को मिटाने में सफलता न भी मिले। लेकिन सच तो यह है कि दोनों तरह की हिंसा अंततः हिंसा है और हिंसा कभी शुद्धीकरण या पवित्र नहीं करती। वह बीमार मन का लक्षण है-चाहे बीमारी का कारण कुछ भी हो-उसका उपचार नहीं है। लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता कि इस प्रकार की विद्रोही हिंसा का उत्स संरचनागत हिंसा में है और उसमें न्यायपूर्ण परिवर्तन के बिना हिंसा से निस्तार संभव नहीं है।

द्रष्टव्य : गाल्तुंग, जोहन; वर्चस्वशाली हिंसा।

- नंदकिशोर आचार्य

सखारोव, आंद्रेई दिमित्रीविच : आंद्रेई दिमित्रीविच सखारोव (मई 21, 1921-दिसंबर 14, 1989 ई०) विख्यात रूसी परमाणु भौतिकशास्त्री और मानवाधिकार समर्थक थे। इन्हें सोवियत हाइड्रोजन बम का जनक भी कहा जाता है। इनका जन्म 21 मई 1921 ई० को मास्को के एक बौद्धिक परिवार में हुआ। इनके पिता भी भौतिकशास्त्री थे। सखारोव प्रारंभ से ही प्रतिभाशाली विद्यार्थी रहे। मास्को विश्वविद्यालय में इगोर टाम के (Igor Tamm) अधीन अध्ययन किया। इगोर टाम को भौतिक सैद्धांतिकी का नोबल पुरस्कार 1958 ई० में मिला था। द्वितीय विश्वयुद्ध के दौरान सखारोव ने सैनिक कारखाने में अभियंता के रूप में कार्य किया। 1945 ई० में लेबदेव इंस्टीयट्यूट ऑफ फिजिक्स में भर्ती हुए और इसी वर्ष परमाणु हथियारों के शोध अध्ययन समूह का हिस्सा बने। 1953 ई० में मात्र 32 वर्ष की आयु में सोवियत एकेडमी ऑफ साइंसेस में सर्वाधिक युवा व्यक्ति के रूप में चुने गए। 1950 ई० से 1968 ई० तक थर्मोन्यूक्लियर हथियार संबंधी गुप्त शोध पर कार्य किया। 1950 ई० के दशक में नाभिकीय परीक्षण हेतु मना किया। खुश्चोव ने सोवियत शिक्षा व्यवस्था में व्यावहारिक कार्य पर बहुत बल दिया कि हर विद्यार्थी अपने विद्यालय समय का एक तिहाई हिस्सा मैदानों/कारखानों में बिताएं। खुश्चोव ने कला विषय के विशेष प्रतिभाशाली विद्यार्थियों को इससे छूट दी, अन्य किसी को नहीं। सखारोव तथा उनके साथी जेल्डोविच ने इसका विरोध किया और विज्ञान के विद्यार्थियों के लिए भी छूट की मांग की। उनका तर्क था कि विद्यार्थी जीवन बहुत ही सृजनात्मक होता है और किसी भी विषय में गहराई से अध्ययन करना एवं प्रायोगिक कार्य करके एक नवीन सिद्धांत की खोज करना एक प्रकार से समाज सेवा ही है। इसके साथ ही सखारोव ने रूसी गणित के पाठ्यक्रम में संशोधन का प्रस्ताव दिया कि गणित के नवीन सिद्धांतों जैसे-संभाव्यता सिद्धांत (Theory of Probability) आदि को समाविष्ट किया जाए। 1958 ई० में प्रावदा (दैनिक समाचार पत्र) ने उनका एक आलोचनात्मक लेख छापा जिसमें सखारोव ने गणित एवं भौतिकी के प्रतिभाशाली विद्यार्थियों को सुदूर क्षेत्र में जाकर खेतों में काम करने की अनिवार्यता से अलग रखने की बात कही थी। 1960 ई० के दशक के प्रारंभिक वर्षों में सखारोव ने विज्ञान अध्ययन में मेंडल और मार्गन सिद्धांतों का समर्थन किया। रूसी विद्वान इवान वी० मुचिरिन ने एक सिद्धांत दिया कि पर्यावरण वनस्पति की वंशानुगतता (हेरीडिटी) बदल सकता है। इसी सिद्धांत को रूसी कृषि विशेषज्ञ टी०डी० लाइसेंको ने काफी विस्तार प्रदान किया। स्टालिन का सहयोग पाकर लाइसेंको ने रूसी वैज्ञानिक क्षेत्र में एक तरह की तानाशाही स्थापित की। खुश्चेव के समय फिर कुछ समय के लिए इन्होंने अपनी पुरानी सत्ता बनाई। इस दौरान अपने से भिन्न मत रखने वाले बहुत से प्रतिभाशाली विद्वानों, वैज्ञानिकों को प्रताड़ित किया। सखारोव ने दो विशेषज्ञों वी०पी० इफ्रोइमिसिन व एफ०डी० श्येपोटयेव के साथ मिलकर सोवियत विज्ञान को सत्ता द्वारा नियंत्रित वैज्ञानिक दृष्टि से अलग करने का प्रयास किया। यह विज्ञान की स्वतंत्रता को राजनीतिक हस्तक्षेप से बचाने का जोरदार प्रयास था। उन्होंने स्पष्ट किया कि राज्य तय नहीं कर सकता वैज्ञानिक शोध कैसे हो? क्या हो? विज्ञान को राजनीतिक मतवाद (State doctrine) के अधीन नहीं रखा जा सकता है। विज्ञान की अपनी प्रक्रिया है जिसके जरिए वह अपने सिद्धांतों को प्राप्त करता है। इस प्रक्रिया को राजनीतिक सिद्धांतों के अधीन/द्वारा निर्धारित नहीं किया जा सकता है। 1963 ई० में उन्होंने सोवियत संघ के Partial Test Ban Treaty पर हस्ताक्षर करवाने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। सखारोव प्रारंभ से ही नाभिकीय ध्रुवीकरण एवं नाभिकीय हथियारों की दौड़ के प्रति सचेत रहे तथा समय-समय पर अपने विचारों से सोवियत रूस के लोगों एवं नीति-निर्धारकों को अवगत कराते रहे। ब्रेझनेव के शासन काल में स्टालिन-नीतियों के पुनः लागू किए जाने की संभावनाओं को लेकर अपनी असहमति दर्ज कराई। इसके लिए उन्होंने सोवियत रूस के 25 बौद्धिकों एवं रचनाकारों के साथ मिलकर हस्ताक्षर युक्त ज्ञापन दिया, जिसमें उल्लेख किया गया कि स्टालिन की नीतियों की पुनर्स्थापना सोवियत रूस के हितों के विरोध में होगी। कम्युनिस्ट पार्टी की 23 वीं बैठक में स्टालिन-नीतियों की पुनर्स्थापना को खारिज कर दिया गया। इससे स्पष्ट है कि सोवियत रूस के बौद्धिकों एवं रचनाकारों के उस ज्ञापन का महत्त्व स्वीकार किया गया जिसे बनाने में सखारोव ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। 1966-67 ई० में सखारोव ने स्टालिन की पुरानी नीतियों को लागू करने का विरोध करते हुए नागरिक स्वतंत्रताओं पर बल दिया। 1968 ई० में न्यूयार्क टाइम्स में छपे अपने निबंध Reflections of Progress, Peaceful Coexistence and Intellectual freedom लिखा जिसमें पूर्व-पश्चिम सहयोग, नागरिक स्वतंत्रताओं पर जोर एवं हथियारों की प्रतिस्पर्धा बंद करने की वकालत की गई। इसके प्रकाशित होते ही सखारोव को समस्त वैज्ञानिक शोधों से हटा लिया गया। 1970 ई० में वह मास्को ह्यूमन राइट्स कमिटी के सह-संस्थापक बने। उन्होंने दिसंबर 1979 ई० में अफगानिस्तान में सोवियत हमले की भर्त्सना की। जनवरी 1980 ई० से 1986 ई० तक उन्हें मास्को से गोर्की नामक स्थान पर निर्वासित कर दिया गया, जहां वह अपने परिवार, मित्रों और वैज्ञानिक साथियों से दूर रखे गए। सोवियत संघ की राजनीति में गोर्बाच्योव के आगमन के बाद उन्हें 1989 ई० मास्को आमंत्रित किया गया। सखारोव 1989 ई० में सोवियत संसद में चुने गए तथा नए संविधान को बनाने में उन्होंने भूमिका निभाई। अपने कार्यकाल में उन्होंने राजनीतिक बंदियों के लिए एमनेस्टी, निःशस्त्रीकरण, नस्लीय विवादों के शांतिपूर्ण समाधानों तथा सत्ता के प्रमुख केंद्रों की शक्तियों को सीमित करने पर जोर दिया। 1975 ई० में सखारोव नोबल शांति पुरस्कार पाने वाले पहले सोवियत नागरिक बने। यह शांति पुरस्कार उन्हें आणविक निःशस्त्रीकरण एवं मानवाधिकार-हनन के प्रति आवाज मुखर करने हेतु प्रदान किया गया। 1986 ई० में गोर्ब्याचोव शासनकाल में देश उन्हीं नीतियों पर चला जिनकी वकालत करने के आरोप में सखारोव को निर्वासित किया गया था। सखारोव ने अनुभव किया कि एक वैज्ञानिक होने के नाते सहानुभूति, स्वतंत्रता, सत्य जैसे जिन आदर्शों को उन्होंने आगे बढ़ाया, वे शस्त्रों की अंधी दौड़ या राज्य साम्यवाद के प्रभुसत्तावादी शिकंजे के साथ-साथ नहीं चल सकते हैं। अपने उदाहरण से सखारोव ने प्रस्तुत किया कि बौद्धिक वर्ग समाज में एक रचनात्मक भूमिका निभा सकता है। उन्होंने अन्य देशों में तानाशाही के अधीन काम करने वाले वैज्ञानिकों के समक्ष एक आदर्श रखा कि किस तरह से लोकतंत्र की लड़ाई में वैज्ञानिक अपनी भूमिका निभा सकते है।

एक वैज्ञानिक होने के नाते उनका विचार था कि विज्ञान तर्क के आधार पर संचालित है, अतः लोकतंत्र में भी वस्तुनिष्ठ सत्य पर वैज्ञानिक प्रक्रिया के जरिए पहुंचा जा सकता है। इसमें लोकतांत्रिक सहमति की बड़ी भूमिका है, जिसमें तथ्यों का अध्ययन, भ्रांत धारणाओं का नकार एवं खुला विमर्श सम्मिलित है। एक भौतिकशास्त्री होने के कारण उनका तर्क था कि क्योंकि भौतिकी के नियम स्थिर होते और समस्त प्रकृति पर लागू होते हैं, इसलिए कुछ निश्चित मानवीय मूल्य जैसे-स्वतंत्रता और वैयक्तिक सम्मान का आदर आदि सार्वभौमिक एवं अनुल्लंघनीय हैं।

सखारोव ने एक बेहतर विश्व का सपना देखा। यह स्वप्न ऐसे समय में आया जब विश्व दो ध्रुवों की आपसी प्रतिद्वंद्विता में स्वयं को आंतकित महसूस कर रहा था। युद्ध और संघर्ष की आकांक्षाएं लगातार लोगों को भयभीत कर रही थी। 1968 ई० में न्यूयार्क टाइम्स में छपे अपने निबंध Reflections of Progress, Peaceful Coexistence and Intellectual freedom में सखारोव ने निम्न खतरों के प्रति सचेत किया-

1) आणविक युद्ध का खतरा सारे विश्व पर छाया है। शक्तिशाली देशों द्वारा इन्हें विकसित करने पर अन्य देश भी बनाने को उद्यत होंगे। इतिहास बताता है कि शक्ति-संतुलन के तर्क पर ही शस्त्रीकरण तेजी से हुआ है। शस्त्रीकरण युद्ध के खतरे को बढ़ाता है।

2) भुखमरी समस्त मानवता के लिए खतरा है। दो ध्रुवों में विभाजित विश्व की जनता इससे मुक्त नहीं है। दोनों ही ध्रुवों की विचारधारा भुखमरी को समाप्त नहीं कर पाई है। भुखमरी का बने रहना एक तरह से युद्ध को आमंत्रण ही है।

3) मनुष्यता के भीतर मास कल्चर के नाम पर संवेदनहीनता पैदा की जा रही है। बड़े पैमाने पर यह मास कल्चर व्यक्ति के विवेक को कुंद कर रही है। उपभोक्ता संस्कृति का विवेकहीन समर्थन शांति के लिए खतरा है।

4) नौकरशाही/प्रशासन की कट्टरता मानवीय भावनाओं को तरजीह नहीं देती है। दोनों ध्रुवों की विचारधारा ने अमानवीय नियमों का पोषण किया है। प्रशासन मूलभूत मानवीय जरूरतों के प्रति असंवेदनशील है।

5) तानाशाह/सत्तापक्ष व्यापक मिथों का प्रसार कर वर्तमान व्यवस्था को सामान्य जन के सामने ऐसा प्रस्तुत करता है कि लगता है कि वर्तमान व्यवस्था ही सर्वश्रेष्ठ व्यवस्था है। आम जनता इन्हीं मिथों के धुंआधार प्रसार को सत्य मानकर व्यवहार करती है। ऐसा कर तानाशाह/सत्तापक्ष अपनी अधीनता जनता पर थोप देते हैं।

6) मानवता के लिए एक बहुत बड़ा खतरा पर्यावरण में होने वाला प्रदूषण एवं घातक परिवर्तन है, जिसने समस्त मानवता के अस्तित्व के लिए संकट खड़ा कर दिया है। औद्योगिक प्रगति के नाम पर सभी देशों ने पर्यावरण को अपूरणीय क्षति पहुंचाई है।

सखारोव स्पष्ट करते है कि एक ओर पूंजीवादी देशों को अनुभव हुआ है कि जनता को सामजिक सुरक्षा उपलब्ध कराना आवश्यक है, वहीं दूसरी ओर साम्यवादी देशों को लोकतांत्रिक व्यवस्था का महत्त्व अनुभव हो रहा है। दोनों ही ध्रुवों की व्यवस्थाएं यह समझने लगी हैं कि स्वयं में परिवर्तन करना जरूरी है। सखारोव मानवता के सम्मुख उपस्थित समस्याओं को हल करने हेतु एक प्रस्ताव प्रस्तुत करते हैं-

1) सभी देशों को शांतिपूर्ण सहअस्तित्व को बढ़ाने वाली रणनीतियां बनानी चाहिए। जिन बातों में विरोध है, उन्हें छोड़कर जिन बातों में सहमति है, उनके बारे में एक साझी रणनीति सभी देशों को बनानी चाहिए।

2) समस्त मानवता के लिए कलंक भुखमरी को समाप्त करने के लिए सभी पक्षों को साझा प्रयास करना चाहिए। शांतिपूर्ण सहअस्तित्व की ओर पहला प्रयास भुखमरी से लड़ने के लिए साझा रणनीति हो सकती है।

3) बौद्धिक स्वतंत्रता सबसे महत्त्वपूर्ण है। सभी तरह की शासन-व्यवस्थाओं में बौद्धिक स्वतंत्रता को सीमित किया गया है। यह एक तरह से तानाशाही को ही आमंत्रण है। एक ध्रुव में मासकल्चर एवं मीडिया ग्रुप पर प्रत्यक्ष सेंसरशिप है, वहीं दूसरे ध्रुव में अप्रत्यक्ष सेंसरशिप है; मुख्यधारा से अलग लेखक को परेशाान किया जाता है। केवल बौद्धिक स्वतंत्रता ही नहीं बल्कि यह स्वतंत्रता जिन साधनों के माध्यम से अभिव्यक्त होती है, उनकी उपलब्धता भी जरूरी है। सखारोव इस हेतु चार बिंदु बताते हैं- * स्व-अध्ययन, * निर्भीक विमर्श, * सत्य की तलाश, और * विचार स्वातंत्र्य हेतु भौतिक संसाधन।

4) विश्व स्तर पर किसी भी राष्ट्र के कानून को, जो मानव अधिकारों और लोकतांत्रिक मूल्यों का हनन करता हो, मानवता विरोधी कहना चाहिए।

5) कोई भी व्यवस्था हो, उसे अपने विचार एवं कार्य में संयुक्त राष्ट्र के सार्वभौमिक मानव अधिकारों के घोषणा पत्र का सम्मान करना चाहिए। राष्ट्र की आस्था इस पर होनी चाहिए।

6) जितने भी राजनीतिक बंदी हैं, उन्हें एमनेस्टी मिलनी चाहिए।

7) सभी देश आपस में आर्थिक, सांस्कृतिक, सांगठनिक समस्याओं को सुलझाने में सहयोग करें, ऐसी व्यवस्था बनाई जानी चाहिए।

8) भुखमरी को समाप्त करने एवं अविकसित राष्ट्रों के विकास हेतु विकसित राष्ट्रों पर 15 वर्ष के लिए एक कर लगाना चाहिए। यह कर विकसित राष्ट्रों की राष्ट्रीय आय का 20 प्रतिशत होना चाहिए।

सखारोव इसलिए भी महत्त्वपूर्ण हो जाते हैं कि सैनिक वैज्ञानिक शोधों-मूलतः हाइड्रोजन बम-में लगे रहने के कारण वह उसकी व्यर्थता एवं विनाशकारी परिणामों से अवगत हैं और उसका भान पूरे विश्व को कराना चाहते हैं। इसीलिए सखारोव ने शीतयुद्ध के समय में दोनों ध्रुवों के बीच तनाव कम करने का प्रयास किया। महत्त्वपूर्ण यह है कि जो मुद्दे सखारोव ने उठाए हैं, वे शीतयुद्ध की सीमाओं तक सीमित नहीं है; वे मानवीय कल्याण एवं अस्तित्व से जुड़े गंभीर मुद्दे हैं। आज शीतयुद्ध समाप्त हो चुका है और सोवियत संघ बिखर गया है, मगर जहां कहीं भी तानाशाही है, वहां सखारोव एक अंसतोष के प्रेरक है।

- शंभू जोशी

सत्य : सभी दर्शनों का प्रयोजन सत्य का ज्ञान, और सभी धर्मों का प्रयोजन सत्य का आचरण और अनुभूति रही है। लेकिन सत्य की परिभाषा और व्याख्या को लेकर सदैव ही असमंजस और मत-वैभिन्य रहा है। लेकिन, यह मत-वैभिन्य और असमंजस-या रहस्यपरक पदावली का प्रयोग-धर्मों-दर्शनों में तो है, पर उसके आचरणगत पक्ष में नहीं। सत्य का सीधा तात्पर्य है सत् अर्थात् अस्तित्व का नियम और इस नियम के मुताबिक आचरण ही सत्याचरण है। इसलिए जो बहस है वह नियम के स्वरूप को लेकर है। ईश्वरवादी धर्मों-दर्शनों के अनुसार ईश्वर की इच्छा के अनुकूल आचरण ही सत्य का आचरण है, जिसका विधान पैगंबरों के संदेश या शास्त्रों-आगमों में मिलता है। बुद्धिवादी धर्मों-दर्शनों के अनुसार यह सृष्टि कुछ निश्चित नियमों के अंतर्गत सक्रिय है, इसलिए उन नियमों को समझकर उनके अनुसार आचरण किया जाना चाहिए।

शास्त्रीय धर्मों-दर्शनों के आधार पर देखा जाए तो वहां सत्य का व्यावहारिक रूप प्रेम और अहिंसा के रूप में प्रकट होता है। ईश्वरवादी धर्मों के अनुसार समस्त जगत का पिता ईश्वर है, अतः, सभी उसकी संतान होने के नाते बंधु हैं और इसलिए उन सभी के आचरण में पारस्परिक प्रेम और बंधुत्व प्रतिफलित होना ही सत्य का आचरण कहा जा सकता है। ईसाई मान्यता के अनुसार ईश्वर स्वयं प्रेम है और इसी कारण प्रेम को ईसाई नीति-मीमांसा में केंद्रीय हैसियत प्राप्त है तथा अपने शत्रुओं तक से प्रेम करने को कहा गया है। यहूदियों के दस धर्मादेशों में, जिन्हें ईसाई भी स्वीकार करते ही हैं, किसी की हत्या, चोरी, व्यभिचार, झूठ बोलने तथा लालच को अनैतिक बताया गया है। इस्लाम में भी रहम और अद्ल को केंद्रीय हैसियत प्राप्त है क्योंकि स्वयं अल्लाह को रहीम, करीम (दया करने वाला) और आदिल (न्याय करने वाला) कहा गया है, जिसका सीधा अर्थ है कि सत्य के आचरण का तात्पर्य रहम और अद्ल की अवधारणाओं के अनुकूल आचरण से है। सूफी दर्शन की तो केंद्रीय अवधारणा ही इश्क (प्रेम) है।

भारतीय दर्शनों में जैन-दर्शन सत्य को पंच व्रतों में शामिल करता है, जिसका तात्पर्य केवल सत्य बोलने तक सीमित नहीं है। जैन-दर्शन का केंद्रीय मूल्य समता है, अतः वही आचरण सत्याचरण कहला सकता है, जिसमें समता का भाव प्रकट और परिपुष्ट होता हो। स्पष्ट है कि वहां समता अहिंसा का तात्विक आधार है। बौद्ध दर्शन के अनुसार सत्याचरण का तात्पर्य है अविद्या को मिटाने वाला सम्यक् आचरण और इस सम्यक् साधना में किसी को किसी भी तरह की क्षति पहुंचाने का तो निषेध है ही, बल्कि सब के कल्याण के लिए सक्रिय रहना ही करुणा के भाव का व्यावहारिक रूप है। हीनयान यद्यपि व्यक्तिकेंद्रित संप्रदाय है, लेकिन वहां भी अहंकार से मुक्त अकिंचनता को महत्त्व दिया गया है, जिसमें स्वयमेव ही अहिंसा सिद्ध हो जाती है। महायान तो स्पष्टतः सक्रिय अहिंसा का आग्रह करता है। जिन दसभूमियों का विधान महायान में किया गया है, उसमें शुद्ध आचरण अर्थात् विमलता, करुणा, दान, अनासक्ति अर्थात् प्रभाकरी आदि भूमियों से गुजरते हुए साधन धर्ममेघ की स्थिति में पहुंचता है, जो डॉ० राधाकृष्णन् के अनुसार मनुष्य एवं जीव-जंतु मात्र के प्रति सार्वभौम प्रेम की अभिव्यक्ति है। अंगुतरनिकाय के अनुसार अन्य के आध्यात्मिक कल्याण के प्रति भक्ति ही बोधिसत्त्व का साधन है (2.245)।

वैदिक दर्शनों में उपनिषदीय विचारधारा निरंतर सत्य का आग्रह करती है और उसका व्यावहारिक रूप अहिंसा का आचरण है। बृहदारण्यक (3:9,11) में परमेश्वर को प्रेम रूप कहा गया है तथा छांदोग्य (3:16) में तपस्या, दान, आर्जव (सत्य-व्यवहार), अहिंसा और सत्य की समन्वित साधना को ही मोक्ष-प्राप्ति का मार्ग बताया गया है। न्याय-दर्शन में पृथकता के भाव से मुक्ति आवश्यक मानी गई है (न्याय-सूत्र, 4: 164) और यह भाव ही हिंसा का मूल मनोवैज्ञानिक कारण है। वैशेषिक दर्शन यह मानता है कि जो कर्म पृथक आत्मसत्ता की भावना से किए जाते हैं, वे वस्तुओं के यथार्थज्ञान के अभाव के कारण होते हैं और स्पष्ट है कि हिंसा भी इसी प्रकार का कर्म है जो यथार्थज्ञान के अभाव के कारण होता है। इसलिए व्यापक दृष्टि से देखें तो वैशेषिक मान्यता के अनुसार अहिंसा ही धर्म है और हिंसा अर्थात् सृष्टि के प्रति विद्वेष भाव अधर्म है। वैशेषिक दर्शन इसीलिए अहिंसा को सभी देशकालों में लागू होने वाले कर्त्तव्यों में गिनता है। सांख्य दर्शन में मिथ्या ज्ञान, और अहंभाव से उत्पन्न भावनाओं और कार्यों को बंधन का कारण बताया गया है। सांख्यकारिका (1:82, 85) के अनुसार निःस्वार्थ कर्म मोक्ष का साधन है। सांख्य की त्रिगुणात्मक प्रकृति के सिद्धांत के आधार पर किसी भी प्रकार की हिंसा, क्रोध, द्वेष आदि तामसिक गुण हैं, जबकि सत्त्व गुण में विवेचनात्मकता, संतुलन और विचारशीलता रहती है और अहिंसा उसी का व्यावहारिक रूप है। इसी तरह योग-दर्शन भी कैवल्य अथवा परम स्वातंत्र्य के लिए जिस नैतिक साधना का विधान करता है, उसमें अहिंसा, सत्य, अस्तेय, जितेंद्रियता तथा अपरिग्रह को आवश्यक बताया गया है और अहिंसा केवल किसी को हानि न पहुंचाना ही नहीं, साथ ही, मैत्री का भाव, सहानुभूति और प्रसन्नचित्तता भी है। सभी गुणों को अहिंसा में ही स्वीकार किया गया है क्योंकि यह बंधन में डालने वाले सब भावों और कर्मों से मुक्ति की साधना है। अद्वैत वेदांत सत्य को पारमार्थिक, व्यावहारिक और प्रातिभासिक कोटियों में वर्गीकृत करता है। अभेद पारमार्थिक सत्य है, अतः उसकी साधना के व्यावहारिक पहलू में भी संभव सीमा तक अभेद-प्रेरित आचरण को ही सत्यानुकूल आचरण कहा जा सकता है। इसलिए, प्रकारांतर से, यहां भी अहिंसा ही सत्य के व्यावहारिक रूप में प्रकट होती है।

भारतीय मध्यकाल में भक्ति-आंदोलन का तो बीज ही प्रेम-भाव में है। रामानंद, कबीर, रैदास, नानक, दादू, चैतन्य, तुलसी, सूर आदि सभी संत कवियों का उपदेश सभी प्रकार के भेद-भाव को मिटाकर व्यापक प्रेम की प्रतिष्ठा करना है क्योंकि ईश्वर की सृष्टि से विद्वेष करके कोई ईश्वर-भक्त नहीं हो सकता।

आधुनिक काल में सत्य और अहिंसा का साध्य-साधन संबंध गांधी-दर्शन का केंद्रीय बीज है। उनके दर्शन को सत्याग्रह-दर्शन कहा जा सकता है। महात्मा गांधी सत्य को ईश्वर कहते हैं क्योंकि वह ईश्वर और उसके नियम में कोई फर्क नहीं मानते। वह कहते हैं-मेरे लिए ईश्वर सत्य और प्रेम है, ईश्वर नीति और नैतिकता है, ईश्वर निर्मलता है, ईश्वर जीवन का आलोक और स्रोत है........ईश्वर अंतरात्मा है और इस ईश्वर को पाने का एक ही उपाय है कि उसे उसकी सृष्टि में देखा और उसके साथ एकाकार हुआ जाए। गांधीजी के सत्यचिंतन का व्यावहारिक पहलू इसीलिए अहिंसा के रूप में अभिव्यक्ति पाता है क्योंकि संपूर्ण सृष्टि के साथ अहिंसात्मक मनोवृत्ति और आचरण ही हमें उसके अर्थात् ईश्वर के साथ एक करता है। वह स्वयं कहते हैं-जब आप सत्य को ईश्वर रूप में पाना चाहते हैं, तो एकमात्र अनिवार्य साधन प्रेम अर्थात् अहिंसा है और क्योंकि मैं मानता हूं कि साधन और साध्य पर्यायवाची हैं, अतः मुझे यह कहने में कोई हिचक नहीं है कि ईश्वर प्रेम है। सत्याग्रह अहिंसक या प्रेमपूर्ण प्रतिरोध का आग्रह है।

इस तरह कहा जा सकता है कि सत्य की दार्शनिक परिभाषाओं-व्याख्याओं को लेकर कितना भी मत-वैभिन्य रहा हो, लेकिन अधिकांश धर्म-दर्शनों में अहिंसा को ही सत्य का व्यावहारिक रूप स्वीकार किया गया है। मुक्ति , निर्वाण, कैवल्य, समता, स्वातंत्र्य आदि सभी लक्ष्यों का एक अनिवार्य लक्षण अहिंसा है-वही वास्तविक सत्याचरण है। जो दर्शन हिंसा के परिस्थितिगत औचित्य को स्वीकार करते भी हैं-क्योंकि वे साध्य-साधन की एकता की अपरिहार्यता को नहीं देख पाते-वे भी हिंसा को लक्ष्य नहीं मानते। उनका भी प्रयोजन, अंततः, एक अहिंसक मनुष्य और समाज का विकास करना ही रहता है-वे केवल यह नहीं समझ पाते कि अहिंसा अर्थात् उनके सत्य की प्रतिष्ठा भी उनके अपने सत्याचरण के बिना संभव नहीं है।

- नंदकिशोर आचार्य

सत्याग्रह : धर्म जीवन की सभी क्रियाशीलताओं का नैतिक आधार है। इसीलिए गांधी जी राजनीतिक कार्य को भी सामाजिक और नैतिक प्रगति के अर्थ में लेते हैं क्योंकि राजनीतिक शक्ति अपने आप में लक्ष्य नहीं है, बल्कि यह जीवन के हर क्षेत्र में लोगों की दशा सुधारने का एक साधन है। राजनीति को लोगों की दशा सुधारने का एक साधन मानने से शायद ही किसी को आपत्ति हो, लेकिन गांधी जी मानते हैं कि इसीलिए राजनीति का नैतिक होना आवश्यक है क्योंकि यदि साधन अनैतिक हुआ तो उससे नैतिक परिणामों की उम्मीद नहीं की जा सकती। मार्क्सवादी शब्दावली का प्रयोग करें तो कह सकते हैं कि अनैतिक और हिंसक राजनीतिक प्रौद्योगिकी के आधार पर नैतिक और अहिंसक अधिरचना संभव नहीं है।

इसीलिए गांधी जी एक ऐसी राजनीतिक प्रौद्योगिकी का आविष्कार करते हैं जो शक्ति अर्थात् हिंसा के नियम से नहीं बल्कि प्रेम अर्थात् नैतिकता के नियम से अनुप्राणित और संचालित होती हो। जब वह कहते हैं कि उनके लिए साधन ही सब कुछ है तब इसका तात्पर्य यही है कि यदि वह बुराई से लड़ने के लिए बुरे साधन को अपनाते हैं तो चाहे कोई तात्कालिक स्थूल लाभ हो भी जाए-यद्यपि वह भी जरुरी नहीं है क्योंकि तब लड़ाई अधिक ताकतवर और कम ताकतवर बुराई के बीच होगी और विजय अच्छाई-बुराई की नहीं बल्कि ताकत की ही होगी-पर अच्छाई और बुराई के द्वंद्व में तो अच्छाई की पराजय स्वीकार कर ही लेते हैं-और ताकत की विजय का अर्थ ही प्रेम के नियम के बजाय शक्ति के नियम की जीत है। प्रेम का नियम ही धर्म है क्योंकि ईश्वर प्रेम है और वही नैतिकता का एकमात्र स्रोत है। और इस प्रेम के नियम के आधार पर विकसित राजनीतिक प्रौद्योगिकी का ही नाम है सत्याग्रह!

सत्य का आग्रह-केवल लक्ष्य के रुप में ही नहीं, उस लक्ष्य को प्राप्त करने की प्रक्रिया के रुप में भी। सत्य आत्मा है, इसलिए यह आत्मबल भी है। सत्य प्रेम है, इसलिए यह प्रेम-बल भी है जिसका अर्थ है पीड़ा सहने का बल। लेकिन सत्य न्याय भी है इसलिए यह किसी भी प्रकार के अन्याय अर्थात् शोषण, दमन और उत्पीड़न के सम्मुख मानवीय समानता, स्वतंत्रता और गरिमा को भौतिक बल के बजाय आत्मबल, पीड़ा देने के बजाय पीड़ा सहकर और घृणा और हिंसा के बजाय प्रेम और अहिंसा के माध्यम से स्थापित करने का प्रयास है। वैयक्तिक जीवन में प्रेम और अहिंसा के माध्यम से परिवर्तन के उदाहरण तो मिल जाते थे, लेकिन सत्याग्रह एक अपूर्व राजनीतिक प्रौद्योगिकी है जो सामूहिक तौर पर भी काम में ली जा सकती और सामाजिक परिवर्तन के लिए कारगर सिद्ध हो सकती है क्योंकि कुछ हद तक इसकी सफलता के प्रमाण दक्षिण अफ्रीका में गांधी जी के नेतृत्व में चले सत्याग्रह और भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के मूलतः अहिंसक चरित्र में मिल जाते हैं। महात्मा गांधी उचित ही इसे राजनीति में धार्मिक भावना का समावेश कहते हैं।

इस सत्याग्रह का व्यावहारिक स्वरुप क्या होगा? सत्य और अहिंसा संघर्ष में कैसे रुपायित होंगे? गांधी जी मानते हैं कि असहयोग और सविनय प्रतिरोध ही सत्याग्रह की प्रशाखाएं हैं और ये और कुछ नहीं बल्कि पीड़ा के नियम के ही नए नाम हैं। सच तो यह है कि प्रत्येक सत्याग्रही कर्म के तीन उद्देश्य होते हैं। पहला तो यह कि वह तात्कालिक रुप से किसी न किसी अन्याय या हिंसा के विरुद्ध एक अहिंसक संघर्ष है; लेकिन उसका दूसरा और वास्तविक उद्देश्य अन्यायी के मन में दबे प्रेम को अंकुरित करना है और यह तभी संभव है जब हम जिसे प्रतिपक्ष मानते हैं उसके प्रति भी किसी तरह की घृणा या हिंसा का नहीं बल्कि सहानुभूति ओर प्रेम का भाव विकसित करें। और तीसरा उद्देश्य है स्वयं सत्याग्रही में आत्मबल का, उच्चतम नैतिक गुणों का निंरतर और विकास करना। असहयोग और सविनय अवज्ञा में भी इसीलिए अन्याय का प्रतिकार करते हुए भी मन में घृणा या क्रोध को स्थान न देने की बात कही गई है। इसीलिए सत्याग्रह की वास्तविक सफलता के लिए गांधी जी कुछ आवश्यक शर्तें गिनाते हैं :

(1) सत्याग्रही के मन मे विरोधी के लिए घृणा की भावना नहीं होनी चाहिए।

(2) सत्याग्रह का मुद्दा सच्चा और महत्त्वपूर्ण होना चाहिए।

(3) सत्याग्रही को अपने ध्येय की पूर्ति होने तक पीड़ा भोगने के लिए तैयार रहना चाहिए।

दरअस्ल, स्वेच्छापूर्वक दुःखसहन या पीड़ा भोगने का सत्याग्रह की धारणा में केंद्रीय महत्त्व है। गांधी जी की यह मान्यता सही है कि केवल तर्क द्वारा अन्यायी को नहीं समझाया जा सकता क्योंकि वह तर्क के कारण नहीं अपनी बुरी वृत्तियों के कारण अन्याय कर रहा है। लेकिन उसमें अच्छी वृत्तियां भी हैं, जिन्हें जगाने के लिए दुःखसहन ही सर्वोपरि उपाय है। वह कहते हैं : मुझे दिनोंदिन यह विश्वास होता जा रहा है कि लोगों के लिए बुनियादी महत्त्व की चीजें केवल तर्क के सहारे प्राप्त नहीं की जा सकतीं बल्कि दुःखसहन के रुप में मूल्य चुका कर खरीदनी पड़ती हैं। दुःखसहन मानवजाति का नियम है, युद्ध जंगल का नियम है। विरोधी का हृदय-परिवर्तन करने और विवेकसम्मत बात के लिए बंद उसके कानों को खोलने के वास्ते जंगल के नियम से कहीं ज्यादा शक्तिशाली नियम दुःखसहन का है। सत्याग्रह के इस रुप की एक विशेषता यह भी है कि इसमें स्वयं के गलत साबित होने पर भी कम-से-कम दूसरों को हानि पहुंचाने के दोष से तो बचा जा सकता है ओर दूसरी विशेषता यह है कि यदि विरोधी के मन में अनुकूल भावना जगाने में तात्कालिक सफलता न भी मिले तो कम-से-कम यह स्वयं सत्याग्रही के मन में दबे उच्चतम भावों और उसके आत्मबल को तो जाग्रत करता ही है।

सविनय अवज्ञा और असहयोग अपने लक्ष्य की प्राप्ति में तो देर-सबेर सफल होते ही हैं, साथ ही पीड़ित जनसमूह में भी आत्मविश्वास विकसित करने के उत्कृष्ट उपाय हैं। सच तो यह है कि असहयोग सतह पर नकारात्मक लगते हुए भी एक सकारात्मक धारणा है क्योंकि यह न केवल असहयोगी को उसके वास्तविक सामर्थ्य का एहसास कराती है बल्कि प्रतिपक्षी से भी सहयोग के लिए भूमिका तैयार करती है-एक पवित्र सहयोग के लिए। इसीलिए महात्मा गांधी असहयोग को सहयोग की शुरुआत मानते हैं क्योंकि असहयोग का उद्देश्य वस्तुतः सहयोग से सारी नीचता और झूठ को निकाल फेंकना होता है, क्योंकि मेरे विचार में ऐसा सहयोग किसी काम का नहीं है। सविनय अवज्ञा और असहयोग मूलतः एक ही भावना से अनुप्राणित हैं-फर्क बस इतना ही है कि सविनय अवज्ञा का संबंध किसी भी अनुचित कानून को मानने से इनकार करना है जबकि अहसयोग किसी भी अन्यायपूर्ण वृत्ति या व्यवस्था के साथ सहयोग करने से मना करना है। इसलिए सविनय अवज्ञा राज्य के अन्याय के विरुद्ध प्रतिकार है जबकि असहयोग राजकीय अथवा गैर-राजकीय किसी भी प्रकार के अनौचित्य का विरोध। अहिंसा दोनों में ही मूल शर्त है। गांधी जी मानते हैं कि सत्याग्रह में पराजय नाम की कोई चीज नहीं है क्योंकि सत्याग्रही के लिए समय की कोई सीमा नहीं होती और न उसकी दुःखसहन की क्षमता की ही कोई सीमा होती है। इसीलिए वह मानते हैं कि अगर एक सत्याग्रही भी अंत तक डटा रहे तो विजय सुनिश्चित है। लेकिन गांधी जी सत्याग्रह के सामूहिक प्रयोग पर बल इसलिए देते है कि उसके बिना समुदाय को अपनी सामूहिक शक्ति का बोध कभी नहीं हो सकता। गांधी जी की सत्याग्रह की अवधारणा में एक विशेष बात यह भी है कि इसमें किसी भी प्रकार के झूठ या गोपनीयता आदि को कोई स्थान नहीं है क्योंकि इससे न केवल वह सत्य का आग्रह नहीं रह जाता बल्कि सामूहिक तौर पर संदेह और भय पैदा करता है जिससे समुदाय के आत्मगौरव और आत्मविश्वास में कमी आती है; दूसरे यह कि सत्याग्रही अपने प्रतिपक्षी पर भी सदैव भरोसा करने के लिए तैयार रहता है-बार-बार भरोसा तोड़े जाने के बावजूद-क्योंकि मानव-प्रकृति में अडिग विश्वास ही सत्याग्रही के धर्म का सार है।

सत्याग्रह का तात्पर्य, सामान्यतः, अन्याय के अहिंसात्मक प्रतिरोध से लिया जाता है, जो निश्चय ही इसका एक आयाम-और जरुरत पड़ने पर सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण दृश्यमान आयाम है। यह भी ठीक है कि इस पद का आविष्कार एक शताब्दी पूर्व महात्मा गांधी ने दक्षिण अफ्रीका के अपने अहिंसात्मक संघर्ष के दौर में किया और अनंतर भारतीय स्वाधीनता संघर्ष का केंद्रीय आधार भी सत्याग्रह ही रहा। स्वाधीनता मिलने के बाद भी राजनीतिक प्रतिरोध के एक उपाय के रुप में इसका इस्तेमाल वे लोग भी करते आये हैं जो, अन्यथा, महात्मा गांधी के विचारों से घोषित असहमति रखते रहे हैं। ऐसे लोगों के लिए भी सत्याग्रह के विविध रुप एक प्रभावी रणनीति के रुप में स्वीकार्य रहे हैं। सच तो यह है कि स्वाधीनता आंदोलन के दौर में कांग्रेस ने भी सत्याग्रह को एक रणनीति के रुप में ही स्वीकार किया था, जबकि महात्मा गांधी के लिए सत्याग्रह एक जीवन-दृष्टि, एक संस्कृति था।

संस्कृति सत्य का अन्वेषण है-केवल वैचारिक नहीं, अनुभूत्यात्मक अन्वेषण अर्थात् जीवन-प्रक्रिया। लेकिन सत्य क्या है, इसे लेकर कोई निश्चित और एकायामी धारणा नहीं स्वीकार की जा सकती। सभी दर्शन और धर्म-संप्रदाय सत्य के अन्वेषण की प्रक्रिया में ही विकसित होते हैं; लेकिन, सत्य की उनकी अवधारणाएं इतनी भिन्न, बल्कि विपरीत होती हैं कि उनमें एकसूत्रता खोज पाना लगभग असंभव हो जाता है।

ऐसी स्थिति में सत्य के आग्रह का तात्पर्य क्या किसी एक दर्शन या धर्म-संप्रदाय या जीवन-पद्धति के अपने सत्य का आग्रह ही नहीं हो जाता? वह क्या चीज है जो धारणाओं की भिन्नता के बावजूद जीवन को चलाए रखती है? एक तरह से क्या वही सत्य नहीं है? महात्मा गांधी भी यह तो स्वीकार करते ही हैं कि सत्य के अनंत रुप हो सकते हैं और इसलिए किसी एक रुप को दूसरे पर वरीयता देना भी सही नहीं कहा जा सकेगा। वह भी यह समझते हैं कि निरपेक्ष सत्य को जानना मनुष्य के वश की बात नहीं है-और अब तो विज्ञान भी इसे लगभग स्वीकार कर चुका है-इसलिए यह मानने के सिवा कोई चारा नहीं रहता कि मनुष्य का कर्त्तव्य यह है कि, सत्य जैसा उसे दिखाई दे, उसका अनुगमन करे और ऐसा करते समय शुद्धतम साधन अर्थात् अहिंसा को अपनाए-क्योंकि अहिंसा ही वह साधन है जो सत्य के विभिन्न रुपों के अस्तित्व को स्वीकार करता है और यही वह उपाय है जिससे विभिन्न धारणाओं के पारस्परिक विरोध के बावजूद जीवन चलता रह सका है।

इसलिए गांधीजी के विचारानुसार सत्य के आग्रह का तात्पर्य अहिंसा का आग्रह है। जब अहिंसक प्रतिरोध की बात की जाती है तो उसमें भी बलबिंदु प्रतिरोध से अधिक अहिंसा पर है। प्रतिरोध तो प्रंसगवश करना पड़ सकता है, लेकिन अहिंसा वह बोध है जो हर स्थिति में वांछनीय अर्थात् सनातन मूल्य है। अहिंसा की इस सनातनता का आग्रह ही सत्याग्रह है।

अहिंसा, शब्द के निषेधात्मक रुप के बावजूद, एक धनात्मक बल्कि रचनात्मक बोध है। इसलिए अन्याय के प्रतिरोध के साथ-साथ वह अविरोध का बोध भी है। सत्याग्रह का लक्ष्य एवं प्रकार्य त्रिआयामी होता है। सत्याग्रह में अन्याय का प्रतिरोध या उसे मिटाना तो है ही; साथ ही, इस प्रक्रिया से गुजरते हुए वह सत्याग्रही के नैतिक उत्कर्ष के साथ-साथ उसके मन में भी अहिंसा और न्याय का बोध पैदा करने की कोशिश करता है, जिसे, सामान्यतः, प्रतिपक्ष समझा जाता है। दरअस्ल, सत्याग्रह में कोई प्रतिपक्ष होता ही नहीं-क्योंकि वहां कोई अन्य नहीं होता। सत्याग्रह प्रतिपक्ष के लिए भी एक नैतिक दायित्व का अनुभव करता है क्योंकि वह अपना ही एक रूप है। ऐसा न मानने पर अहिंसा केवल रणनीति रह जाती है, जीवन-मूल्य अर्थात् सत्य नहीं। अहिंसा की अनुभूति का आधार जीवन मात्र के एकत्व की अवधारणा है, जिसका व्यावहारिक रुप सबके प्रति दायित्व का निर्वाह करना है। इसलिए जिसे हम, सामान्यतः, अन्य या प्रतिपक्ष कह देते हैं, उसके प्रति दायित्व के निर्वाह के बिना जीवन मात्र के एकत्व के बोध या अहिंसा की अनुभूति संभव ही नहीं है।

जीवन मात्र या कहें कि अस्तित्व मात्र का एकत्व केवल एक अवधारणा ही रहेगा, यदि उसका प्रतिबिंबन या व्यावहारिक प्रतिफलन हमारे निजी एवं अंतर्वैयक्तिक व्यवहार और सभी प्रकार के सामाजिक व्यवहार एवं संस्थाओं यानी आर्थिक-राजनीतिक कार्य-व्यापार आदि में भी नहीं होता है। अस्तित्व के प्रति किसी भी प्रकार की हिंसा असत्य है, और इसलिए उसका अहिंसात्मक प्रतिकार एवं एक अहिंसक व्यवस्था की रचना सत्याग्रह की मांग करती है। विकल्प का अन्वेषण और सिद्धि की प्रक्रिया रचनात्मक प्रतिकार है। इन्हीं अर्थों में सत्याग्रह संस्कृति हो जाता है-एक ऐसी संस्कृति जो राज्य, प्रौद्योगिकी, अर्थ-व्यवस्था, सामाजिक-सांस्कृतिक एवं शैक्षणिक तथा हमारे निजी और अंतर्वैयक्तिक व्यवहार की प्रेरक एवं कसौटी भी हो। संस्कृति प्रेरक होती है, साथ ही, प्रक्रिया एवं प्रतिमान भी। एक उसका साध्य-रूप होता है और एक साधन-रुप। इन दोनों में जितना अंतर्ग्रंथन होता है, उतनी ही वह संस्कृति अपनी पूर्णता की और विकसित होती है। यदि साधन साध्य-मूल्य से विपरीत दिशा में जाने लगे तो घोषित मूल्य-निष्ठा के बावजूद हमारा व्यवहार विपरीत दिशा में जाने लगता है। दूसरे शब्दों में, हम एक सांस्कृतिक पाखंड के शिकार हो जाते हैं, जो कि आज हम होते जा रहे हैं।

इसलिए संस्कृति केवल धर्म-दर्शन, कला-साहित्य, रीति-रिवाज आदि का नाम नहीं है, और न सत्याग्रह केवल प्रतिरोध का एक तरीका-अहिंसात्मक तरीका ही सही। अहिंसा सत्यस्थानीय है और आग्रह केवल प्रतिरोध नहीं, रचना भी है। इसलिए तकनीकी, अर्थ-व्यवस्था, राजनीतिक व्यवहार एवं सामाजिक-धार्मिक व्यवहार एवं संस्थाएं आदि सब संस्कृति की अवधारणा के अंतर्गत आ जाने के कारण सत्याग्रह के विषय हो जाते हैं। जो कुछ अपनी प्रेरणा, प्रक्रिया और परिणाम में हिंसक है, वह असत्य है, गांधीजी की शब्दावली में कहें तो पाप है-और उसका प्रतिरोध तथा अहिंसक विकल्प का अन्वेषण ओर प्रतिष्ठा सत्याग्रह है। विनोबा ने इसीलिए विचार के माध्यम से परिवर्तन को भी सत्याग्रह-सौम्य या सौम्यतर सत्याग्रह-की संज्ञा दी थी। लेकिन, प्रतिरोध के अर्थ में भी सत्याग्रह असौम्य नहीं होता क्योंकि कोई भी नैतिक कर्म असौम्य नहीं हो सकता।

जब हम किसी अन्याय या हिंसा का सक्रिय अहिंसक प्रतिरोध भी करते हैं तो वह न केवल अन्याय को मिटाने के लिए होता है, बल्कि अन्यरुपी आत्म और स्वरुपी आत्म के द्वैत को भी मिटाता है क्योंकि अन्य के प्रति उत्तरदायित्व अनुभव करने का तात्पर्य अन्य में निहित स्व की तलाश करने में प्रवृत्त होना है। आत्म के बिना उत्तरदायित्व किसका और किसके प्रति? सत्याग्रह अन्यत्व को भेदकर आत्म का अन्वेषण और बोध है-कहें कि अन्य में आत्मानुभूति की प्रक्रिया। यही तो अद्वैत है जो सत्याग्रह की संस्कृति की प्रेरणा, प्रक्रिया और परिणाम है-और इसका सभी मानवीय संबंधों, संस्थाओं और व्यवहार में प्रतिफलित होना ही अर्थ-व्यवस्था, समाज, राज्य और संस्कृति का अहिंसक और सत्याग्रही होना है।

-नंदकिशोर आचार्य

सत्याग्रही प्रौद्योगिकी : विकास की वर्तमान प्रक्रिया को लेकर संवेदनशील अर्थशास्त्रियों की एक मुख्य चिंता यह है कि अब हम रोजगारविहीन विकास-जॉबलेस ग्रोथ-की स्थिति में आ रहे हैं; अर्थात् विकास का तात्पर्य उत्पादन में वृद्धि तो है, पर उसके साथ रोजगार के अवसरों की उपलब्धता घटती जा रही है। दरअस्ल, हमारे संवेदनशील अर्थशास्त्री रोजगारविहीन उत्पादन-वृद्धि की जिस समस्या से चिंतित दिखाई दे रहे हैं, वह, वास्तव में, विकास की वर्तमान प्रक्रिया की विफलता का नहीं, बल्कि बैरी कॉमनर के अनुसार, उसकी सफलता का अनिवार्य परिणाम है। उत्पादन में वृद्धि विकास का लक्षण है और इस वृद्धि की दर को निरंतर बढ़ाए जाते रहने के लिए नित नए प्रौद्योगिकीय परिवर्तन की जरूरत पड़ती है। इसे अर्थशास्त्र की भाषा में हाई रेट ऑफ डेवलपमेंट-एचआरडी-अर्थात् विकास की उच्च दर कहा जाता है और इसे हासिल करने के लिए प्रौद्योगिकीय रुपांतरण-टेक्नोलॉजिकल ट्रांसफॉरमेशन-अनिवार्य है। इस प्रौद्योगिकीय रुपांतरण का तात्पर्य है ऐसी प्रौद्योगिकी को अपनाना जिसमें कम-से कम मानवीय श्रम और सामाजिक समय के निवेश के माध्यम से अधिक-से-अधिक उत्पादन। स्पष्ट है कि इस एचआरडी की जरूरत की वजह से अपनाई गई प्रौद्योगिकी हमारे जीडीपी अर्थात् कुल उत्पादन में तो वृद्धि करती है, पर साथ ही, रोजगार की संभावनाओं को कम करती चली जाती है। कह सकते हैं कि हम एक प्रकार के प्रौद्योगिकीय नियतिवाद के शिकार हो रहे हैं क्योंकि विकास के प्रयोजन से जिस प्रौद्योगिकी को हम प्रसन्नतापूर्वक अपना रहे हैं, उसी का एक अनिवार्य परिणाम रोजगार के अवसरों में होती जा रही निरंतर कमी है। इसी को अर्थशास्त्री जॉबलेस ग्रोथ कह रहे हैं।

लेकिन यह समस्या सिर्फ रोजगार तक सीमित नहीं है। रोजगार कम होते जाने का वास्तविक तात्पर्य जनसंख्या के एक बड़े हिस्से का क्रयशक्ति से वंचित होते जाना है और क्रयशक्ति के कम होते चले जाने का मतलब है उत्पादन वृद्धि का व्यर्थ या एकांगी हो जाना। रोजगार न होने के कारण सामान्य समाज बाजार का बहुत कम हिस्सा रह जाएगा और ऐसी हालत में केवल उसी क्षेत्र में उत्पादन वृद्धि होगी जिसके लिए बाजार उपलब्ध होगा-अर्थात् उत्पादन केवल उस अल्पसंख्यक संपन्न वर्ग की आवश्यकताओं पर केंद्रित होगा जिसके पास क्रयशक्ति बची रहेगी।

यदि रोजगारविहीनता की इस स्थिति के साथ जनसंख्या विस्फोट को रखकर देखें तो चित्र और भयावह हो उठता है। पहली बात तो यही है कि जब वर्तमान जनसंख्या के लिए भी पर्याप्त रोजगार उपलब्ध नहीं हैं और हम निरंतर ऐसी प्रौद्योगिकी अपनाने को लालायित हैं जो रोजगार के अवसरों को और भी कम कर देगी, तो बढ़ती हुई जनसंख्या के लिए रोजगार कहां से उपलब्ध करवाया जा सकेगा? यदि इस बढ़ती हुई जनसंख्या को रोजगार उपलब्ध नहीं होगा तो सुखी जीवन की बात तो दूर, वह अपने रोटी,कपड़ा, मकान की बुनियादी जरूरतें भी कैसे पूरी कर सकेगी? दूसरी बात यह कि यदि येन-केन-प्रकारेण उसे रोजगार मिल भी जाता है तो भी जनसंख्या वृद्धि को देखते हुए वस्तुओं की मांग इतनी होगी कि उसको पूरा करना संभव नहीं हो सकेगा।

अर्थशास्त्रियों का मानना है कि हमें मांग को कम करने पर विचार करना होगा। उसके बिना निस्तार नहीं है। दरअस्ल, जनसंख्या नियंत्रण पर जो जबरदस्त आग्रह किया जाता है, उस का भी मूल कारण यही है कि इससे मांग कम रहेगी। क्या ऐसा नहीं लगता कि विकास की वर्तमान प्रक्रिया ने हमारे अर्थशास्त्रियों को अजीब-सी सांसत में डाल दिया है? किसी जमाने में एल्फ्रेड मार्सेल का कहना था-और वर्तमान विकास प्रक्रिया उसी कथन पर टिकी है-कि आर्थिक वृद्धि के लिए जरूरतों की पूर्ति करना ही नहीं, नई जरूरतों की सृष्टि करना भी आवश्यक होता है। नई जरूरतों की सृष्टि अर्थात् कृत्रिम मांग की सृष्टि, जिसके बिना आर्थिक वृद्धि की सारी प्रक्रिया ढह जा सकती है। मार्सेल के ही शब्दों में कहें तो यद्यपि अपने विकास के प्रारंभिक चरण में मनुष्य की जरूरतें ही उसे क्रियाशील करती हैं, लेकिन अनंतर हर नया कदम जरूरतों के लिए नई क्रियाशीलता के बजाय ऐसी क्रियाशीलता के रुप में आता है जो नई जरूरतों को पैदा करती है। कैसी विडंबना है कि जो विकास जरूरतों को बढ़ाने पर आश्रित था, उसी के अलमबरदार अब जरूरतों अर्थात् मांग पर नियंत्रण की बात कर रहे हैं।

मगर एक भारतीय अर्थशास्त्री मोहनदास करमचंद गांधी-जिसे कोई अर्थशास्त्री अपनी बिरादरी में शामिल नहीं करता-इस देश के विकास की आधुनिक प्रक्रिया की भूमिका के दौर से ही इस बात की ओर हमारा ध्यान आकर्षित करने का प्रयास करता रहा है कि उत्पादन का लक्ष्य हमारी बुनियादी आवश्यकताओं की पूर्ति करना है, न कि उपभोग की कृत्रिम मांगों को पैदा कर करके उनकी पूर्ति करना। यदि एक बार इस बात को भूल भी जाएं कि उपभोग की कृत्रिम मांगों के जाल में फंसना एक व्यक्ति या समाज के लिए नैतिक स्तर पर कितना पतनकारी हो सकता है, तो भी केवल भौतिकवादी दृष्टि अर्थात् अर्थव्यवस्था और शारीरिक-मानसिक स्वास्थ्य की दृष्टि से भी महात्मा गांधी के प्रस्ताव की प्रासंगिकता को कम करके नहीं आंका जा सकता। यह भी स्मरणीय है कि अपरिग्रह या त्यागपूर्वक भोग-तेन त्यक्तेन भुंजीथा-इस संदर्भ में केवल नैतिक या आध्यात्मिक उपदेश नहीं, बल्कि आर्थिक आवश्यकता बन जाते हैं क्योंकि परिग्रह या कृत्रिम भोग की लालसा ही मांगों को अनियंत्रित करती है। अपरिग्रह या त्याग को गरीबी से एक कर करके नहीं देखा जाना चाहिए क्योंकि गरीबी अभिशाप है, जिसमें हमारी बुनियादी जरूरतें भी पूरी नहीं हो पातीं, जबकि अपरिग्रह का अर्थ है कृत्रिम उपभोग की लालसा से मुक्ति। उसमें बुनियादी जरूरतों का तिरस्कार नहीं है। यह हो भी नहीं सकता था क्योंकि गांधी मानसिक स्वास्थ्य के साथ-साथ शारीरिक स्वास्थ्य पर भी बहुत जोर देते हैं। कम लोग महात्मा गांधी के उस कथन के बारे में जानते होंगे जिसमें वह कहते हैं गरीबों के लिए तो ईश्वर रोटी और मक्खन के रुप में ही प्रकट हो सकता है। उनका तो यहां तक मानना है कि गरीबों के लिए आर्थिक ही आध्यात्मिक है।

इसलिए महात्मा गांधी भी उत्पादन को बढ़ाने पर तो जोर देते हैं, लेकिन कृत्रिम मांगों के बजाय बुनियादी जरूरतों के लिए। इस उत्पादन वृद्धि की प्रक्रिया या प्रौद्योगिकी भी वही वरेण्य हो सकती है जो रोजगार के पर्याप्त अवसर उपलब्ध करवा सके। हमारे आधुनिक अर्थशास्त्रियों का मानना है कि आधुनिक प्रौद्योगिकी को अपनाए बिना उत्पादन वृद्धि नहीं हो सकती। लेकिन, जैसा कि हम देख चुके हैं, यह प्रौद्योगिकी रोजगार के अवसरों की उपलब्धता में निरंतर कमी करती जाती है, जो आर्थिक विकास की दृष्टि से भी हानिकारक है। गांधीजी, इसके बरक्स, जब स्वदेशी प्रौद्योगिकी का प्रस्ताव करते हैं तो वह उत्पादन वृद्धि के साथ-साथ रोजगार के अवसर बढ़ाने वाला प्रस्ताव भी हो जाता है। आधुनिक प्रौद्योगिकी के आधार पर होने वाले उत्पादन में, शुमाकर के निष्कर्ष के अनुसार, हमारे सामाजिक समय का केवल साढ़े तीन प्रतिशत हिस्सा ही वास्तविक उत्पादन में लगता है।

यदि हम अपने सामाजिक समय का एक बड़ा हिस्सा वास्तविक उत्पादन में लगाएं तो न केवल उत्पादन वृद्धि के लिए आधुनिक प्रौद्योगिकी और उसके चलते प्रौद्योगिकीय नियतिवाद के चंगुल से मुक्त हो सकते हैं, बल्कि प्रत्येक हाथ को रोजगार भी दे सकते हैं। स्वदेशी प्रौद्योगिकी के कई रुप हो सकते हैं-रोबिन क्लार्क और शुमाकर आदि के प्रयोगों से भी लाभ उठाया जा सकता है-मुख्य बात इतनी ही है कि वह मानव-श्रम को उचित और स्वस्थ महत्त्व देती हो। चाहें तो उसे सत्याग्रही प्रौद्योगिकी भी कह सकते हैं क्योंकि आग्रह शब्दों पर नहीं, उस दृष्टि पर है जो रोजगार, उत्पादन और वास्तविक जरूरत को अहिंसा के एक सूत्र में बांध देती है। इनमें से किसी एक की भी उपेक्षा से हो रहा विकास मनुष्य के लिए नहीं होगा-चाहे वह केवल उपभोक्ता मनुष्य ही क्यों न बन जाए-बल्कि तब मनुष्य के अस्तित्व का प्रयोजन आर्थिक विकास के लिए होगा, और तय है कि यदि कोई मनुष्य या मानव-समूह इस आर्थिक विकास के लिए अनुपयोगी या बोझ हो गया है तो उसका अस्तित्व ही अप्रासंगिक या व्यर्थ हो जाएगा। ऐसे में इस बात से कोई विशेष अंतर नहीं पड़ेगा कि ऐसे मनुष्यों को यह विकास-प्रकिया चाहे-अनचाहे बाहर फेंक देती है या वे स्वयं फिंक जाते हैं। इसलिए मुख्य सवाल उस प्रौद्योगिकी को चुनने का है जिसे हम विकास का आधार बनाते हैं। हमें याद रखना होगा कि बाजार की ही तरह प्रौद्योगिकी बहुत अच्छी नौकर हो सकती है, पर बहुत बुरी मालिक!

- नंदकिशोर आचार्य

सत्याग्रही राज्य : पिछले कुछ अरसे से सेकुलरवाद या धर्मनिरपेक्षता की अवधारणा को लेकर काफी बहस होती रही है। लेकिन इस बहस में अकसर यह बात भुला दी जाती है कि धर्मनिरपेक्षता पर कोई भी बहस वस्तुतः धर्म के संदर्भ में राज्य और समाज के रिश्तों पर बहस है। सेकुलरवाद का विकास यूरोप में राज्य की संप्रभुता के विकास के साथ-साथ हुआ है। संप्रभु राज्य की अवधारणा के अंतर्गत राज्य किसी समाज के बहुत-से संगठनों में से एक नहीं बल्कि समाज का स्वामी या संचालक हो जाता है। धर्म एक समाज की आध्यात्मिक-नैतिक संवेदना की अभिव्यक्ति है, जब कि राज्य उसकी राजनीतिक संवेदना की अभिव्यक्ति। लेकिन राज्य की संप्रभुता का अर्थ है समाज की आध्यात्मिक-नैतिक संवेदना और उसकी अभिव्यक्ति का राज्यतंत्र के अधीन आ जाना। राज्यतंत्र और राजनीतिक संवेदना में उतना ही अंतर है जितना नैतिक-आध्यात्मिक संवेदना और धर्मतंत्र में। यूरोप में भी राजनीतिक संवेदना और आध्यात्मिक संवेदना में वस्तुतः वह संघर्ष नहीं था, जो राज्यतंत्र और धर्मतंत्र में हुआ और अपनी-अपनी बुनियादी संवदेना से शून्य होते चले जाने के कारण दोनों ही जड़ होकर केवल तंत्र होते गए और इसी कारण तंत्र की प्रतिष्ठा के लिए दोनों ही अपने-अपने तरीके से अत्याचारी भी हुए।

धर्म किसी सभ्यता की अंतरात्मा है और राज्यतंत्र तथा धर्मतंत्र दोनों उसका बाह्यानुशासन है। लेकिन, जब हम बाह्यानुशासन को अंतरात्मा पर थोप देते हैं तो उससे एक प्रकार का फासीवाद पैदा होता है, जिसका बाह्य स्वरुप इस पर निर्भर करता है कि थोपा जाने वाला अनुशासन धर्मतंत्रीय है या राज्यतंत्रीय अर्थात् संप्रभुता धर्मतंत्र में है या राज्यतंत्र में। जब समाज अपनी आध्यात्मिक-नैतिक संवेदना को धर्मतंत्रीय संप्रभुता के संचालन में रखना स्वीकार कर लेता है तो उससे सांप्रदायिक राज्य अर्थात् थियोक्रैसी का जन्म होता है और जब संप्रभुता का स्वरुप पूरी तरह राज्यतंत्रीय होता है तो उससे सेकुलवरवाद या धर्मनिरपेक्ष राज्य का। लेकिन दोनों ही स्थितियों में समाज की संप्रभुता का अपहरण कर लिया जाता है और समाज धर्मतंत्र अथवा राज्यतंत्र का पिछलग्गू बना दिया जाता है। दोनों व्यवस्थाएं सर्वाधिकारवादी होती हैं। यही फासीवाद है।

यूरोप में सेकुलरवाद का संघर्ष वस्तुतः राज्यतंत्र और धर्मतंत्र के बीच संप्रभुता के लिए संघर्ष है, जिसमें धर्मतंत्र के संवेदनाहीन और जड़ होते चले जाने की वजह से समाज की गतिशीलता का समर्थन राज्यतंत्र को मिला गया-यद्यपि समाज धर्मतंत्र के चंगुल से निकलकर राज्यतंत्र और उसकी प्रेरक शक्ति अर्थतंत्र की संप्रभुता के चंगुल में फंसता चला गया। यह भुला दिया गया कि जीवन एक समग्रता है, इसलिए उसकी आध्यात्मिक संवेदना और राजनीतिक संवेदना को दो अलग-अलग खांचों में विभाजित नहीं किया जा सकता और यह भी कि आध्यात्मिक संवेदना से प्रसूत नैतिक संवेदना ही किसी समाज की राजनीतिक संवेदना की मूल प्रेरणा बन सकती है। इस आध्यात्मिक संवेदना से प्रसूत होने के कारण ही गांधीजी अपनी राजनीति को भी आध्यात्मिक साधना की एक प्रक्रिया मानते थे और इसी कारण राजनीति को धर्म से समन्वित करने का आग्रह करते थे। गांधीजी की राजनीति और धर्म के एक होने के बावजूद उन पर न धर्मतंत्र हावी था और न राज्यतंत्र। उनकी राजनीति आध्यात्मिक-नैतिक थी, न कि थियोक्रैटिक या सेकुलर। लेकिन थियोक्रैटिक और सेकुलर के द्वंद्व में फंसा हुआ आधुनिकतावादी मन इन दोनों कोटियों से अलग होकर सोच ही नहीं पाता।

राज्य यदि समाज की राजनीतिक अभिव्यक्ति है तो उसके लिए सेकुलर होना संभव ही नहीं है क्योंकि कोई भी समाज सेकुलर नहीं है। लेकिन समाज के धार्मिक या आध्यात्मिक होने का तात्पर्य उसका सांप्रदायिक या धर्मतंत्रीय होना कतई नहीं है। यह आवश्यक नहीं है कि एक समाज की धार्मिक संवेदना अनिवार्यतः किसी एक ही धर्मतंत्र या संगठन में प्रतिफलित हो। समाज के विभिन्न समूह विभिन्न धार्मिक संगठनों या पंथों के साथ जुड़े हो सकते हैं। यह भी हो सकता है कि किसी एक ऐतिहासिक धर्म के अंतर्गत उसकी कई शाखाएं हों और उनमें से प्रत्येक का अपना धर्मतंत्र हो। दुनिया में शायद ही कोई धर्म होगा जिसमें कुछ आंतरिक मत-मतांतर और उनके अपने धर्मतंत्र न हों। इसका तात्पर्य यह है कि प्रत्येक समाज को धार्मिक होते हुए अनिवार्यतः धर्म-सहिष्णु या धर्म-समभावी होना होगा। सच तो यह है कि धार्मिक होने पर ही अन्य धर्मों के प्रति वास्तविक सम्मान रह सकता है-धर्मनिरपेक्षता या सेकुलरवाद में तो धर्म के सम्मान का मतलब ही क्या है? राज्य भी इसीलिए धर्म-सहिष्णु या धर्म-समभावी होकर ही समाज का वास्तविक प्रतिनिधि हो सकता है। अन्यथा वह धर्म-निरपेक्षता के नाम पर धर्म को अपनी राजनीति का एक औजार बना लेता है क्योंकि धर्म के प्रति कोई वास्तविक सम्मान या लगाव का भाव उसमें रहता ही नहीं है। इस धर्म-समभाव का तात्पर्य यही है कि राज्य भी आध्यात्मिक संवेदना को तो स्वीकार करता है पर वह किसी एक धर्मतंत्र से प्रेरित, संचालित अथवा उसके अनुयायियों के प्रति पक्षपातपूर्ण नहीं है। राज्य की संप्रभुता धार्मिक संवेदना को स्वीकार करते हुए भी किसी धर्मतंत्र से निर्देशित या बाधित नहीं होगी और किन्हीं दो धर्मतंत्रों के बीच विवाद होने पर उसका निर्णय किसी एक धर्मतंत्र के नियमों या आग्रह के आधार पर नहीं बल्कि न्याय के प्रचलित सिद्धांतों ओर प्रक्रियाओं के आधार पर होगा।

लेकिन यहां कई सवाल आ उपस्थित होते हैं। क्या राज्य को किसी धर्मतंत्र और उसके अनुयायियों के बीच हस्तक्षेप का अधिकार है? यदि राज्यतंत्र और धर्मतंत्र के बीच कोई विवाद हो जाए तो उस धर्मतंत्र के अनुयायी की निष्ठा किसके साथ हो? क्या अपने धर्म को राज्य या राष्ट्र से अधिक महत्त्व देना राष्ट्रद्रोही होना है? कोई व्यक्ति अपने धर्म-विशेष का अनुयायी पहले है या राज्य अथवा राष्ट्र का नागरिक?

आज के संदर्भ में ये सभी सवाल महत्त्वपूर्ण हो उठे हैं-लेकिन ये पैदा तभी होते हैं जब धर्म की बुनियाद से हमारा विचलन हो जाता है। महात्मा गांधी ने एक बार कहा था कि एक विशेष अर्थ में वे हिंदू पहले हैं और एक राष्ट्रवादी बाद में-यद्यपि हिंदू होना और राष्ट्रवादी होना उनकी दृष्टि में एक-दूसरे के अनिवार्य विरोध में नहीं हैं, बल्कि हिंदू होना उन्हें एक बेहतर राष्ट्रवादी बनाता है। गांधीजी की यही बात कोई आस्थावान मुसलमान या ईसाई भी कह सकता है क्योंकि मोहम्मद साहब या ईसा में ईमान लाना और राष्ट्रवादी होना विरोधपूर्ण नहीं है। दरअस्ल, यह सवाल उसी तरह का एक कुतर्क है जैसे यह पूछना कि कोई अपनी मां का पुत्र पहले है या पिता का।

लेकिन यह सवाल तब महत्त्वपूर्ण हो जाता है, जब हम धार्मिक होने का अर्थ किसी धर्मतंत्र और धर्माधिकारियों का अंधानुयायी होना मान लेते हैं। राज्यतंत्र और धर्मतंत्र के बीच विवाद तभी पैदा होता है जब ये दोनों या कोई एक भी अपनी मर्यादा की परिधि लांघना चाहता है। मर्यादा लांघने की यह आवश्यकता अधिकांशतः तभी पड़ती है जब दोनों या उनमें से कोई एक अपने तंत्र को उस उद्देश्य से अधिक महत्त्व देने लगता है, जिसके लिए उसका विकास या निर्माण हुआ है। यदि धर्म केवल विश्वास या उपासना पद्धति ही होता तो शायद राज्य के साथ उसका अधिक विवाद नहीं होता-यद्यपि नरबलि जैसे विश्वासों या पद्धतियों का विरोध राज्य को तब भी करना पड़ता। लेकिन धर्मतंत्र अपने को एक सामाजिक व्यवस्था या जीवन प्रणाली भी मानते हैं, उनकी अपनी आचार-संहिताएं हैं और वे उनमें किसी भी प्रकार का हस्तक्षेप स्वीकार करने को तैयार नहीं हैं।

राज्य का मुख्य कर्त्तव्य इस तरह से कार्यों का संचालन करना है, जिससे समाज में एक न्यायपूर्ण व्यवस्था सुचारु रह सके। इसीलिए यह देखना उसकी परिधि में आता है कि किसी भी व्यक्ति के प्रति कोई अन्य व्यक्ति या तंत्र अन्याय न कर सके। राज्य स्वयं भी एक अन्यायी तंत्र में बदल सकता है, इसलिए राजनीतिक दर्शन में स्वयं राज्यतंत्र के अन्याय का विरोध कर सकने की भावना और व्यवस्था विकसित करने का आग्रह किया जाता रहा है। पारंपरिक और आधुनिक दोनों ही तरह के राजनीतिक दर्शनों में यह विचार मान्यता प्राप्त है। इसका स्पष्ट निहितार्थ यही है कि व्यक्ति या समाज की संप्रभुता स्वयं उसी में निहित है और राज्य को उसका उपयोग करने का नैतिक अधिकार तभी तक है जब तक वास्तविक संप्रभु वैसा चाहे। यदि राज्य समाज के वास्तविक हितों के विरुद्ध आचरण करे तो वह कम से कम नैतिक स्तर पर तो यह अधिकार खो ही देता है और तब वास्तविक संप्रभु को नैतिक स्तर पर ऐसे राज्य का विरोध करने का अधिकार मिल जाता है-चाहे वैधानिक व्यवस्था कुछ भी हो। गांधीजी के अुनसार तो ऐसे राज्य का विरोध करना उसका धर्म बन जाता है। सत्याग्रह अधिकार से पहले नागरिक का धर्म है।

जो बात राज्य और समाज के रिश्तों के लिए सच है, वही समाज और धर्मतंत्र के रिश्तों पर भी लागू होती है। धर्मतंत्र भी कई बार अपने अनुयायियों के वास्तविक हितों का विरोध करने लग जाता है। यदि कोई जैन, बौद्ध, हिंदू, ईसाई, मुस्लिम या सिख संगठन अपने अनुयायियों को हिंसक बनाने की कोशिश करता है, तो ऐसा करना इन धर्मों के मूल सिद्धांतों के खिलाफ काम करना है। यदि वह अपने आंतरिक आचरण में भी अपने अनुयायियों के बीच सामान्य मानवीय संवेदना, न्याय और करुणा के सिद्धांतों की अवहेलना करता है तो वह अपने अनुयायियों पर से नैतिक अधिकार खो देता है। ऐसी स्थिति में उसके अनुयायियों या उनके एक हिस्से को-बल्कि एक व्यक्ति तक को-नैतिक दृष्टि से यह अधिकार मिल जाता है कि वह अपने धर्मतंत्र के विरोध में या उससे अलग रास्ते पर जा सके और राज्य का भी तब यह कर्त्तव्य बन जाता है कि वह विरोध करने, संशोधन की मांग रखने या अलग रास्ते पर जाने के उसके अधिकार की रक्षा करे। कई बार इस संबंध में व्यक्ति और समाज के द्वैत का भी सवाल उठाया जाता है, लेकिन तब हम यह भूल रहे होते हैं कि तंत्र के विरुद्ध व्यक्ति को दिया गया अधिकार वस्तुतः समाज को ही दिया गया अधिकार है क्योंकि किसी-न-किसी व्यक्ति या व्यक्ति-समूह के माध्यम से ही समाज के अधिकार की पुष्टि होती है।

इसलिए राज्यतंत्र और धर्मतंत्र का संघर्ष, वस्तुतः, संप्रभुता के लिए किया जाने वाला संघर्ष है। दोनों अपनी संप्रभुता का अबाध विस्तार चाहते हैं, इसलिए दोनों में टकराहट अवश्यंभावी है। जिन देशों में राज्यतंत्र इस संघर्ष में सफल भी हुआ है, वहां स्वयं उसने धर्मतंत्र का स्थान लिया है और समूचे जीवन को उसकी कुंडली की लपेट में आना पड़ रहा है।

इसलिए सवाल राज्य के थियोक्रैटिक या सेकुलर होने का उतना नहीं है, जितना यह कि वास्तविक संप्रभु कौन है। गांधीजी की राजनीति यदि थियोक्रैटिक और सेकुलर के खांचों में नहीं अंट पाती और इनसे ऊपर उठकर सत्य या सत्याग्रह की राजनीति हो जाती है तो इसलिए कि वह अपनी मूल प्रेरणा में सदैव धार्मिक रहते हुए भी किसी धर्मतंत्र से प्रभावित नहीं होती। यही कारण है कि अपने को एक परंपरावादी हिंदू मानते हुए भी गांधीजी अस्पृश्यता जैसे सामाजिक अन्यायों का विरोध और वर्णाश्रम व्यवस्था को स्वीकार करते हुए भी अंतरजातीय विवाहों, यहां तक कि हरिजन के साथ सवर्ण के विवाह का मुक्तमन से समर्थन कर सके। व्यक्ति, राज्य और समाज-तीनों के लिए यह समझना आवश्यक है कि वास्तविक संप्रभु सत्य है और उसका प्रमाण व्यक्ति और समाज की अंतरात्मा है। राज्यतंत्र और धर्मतंत्र, दोनों बाह्य नियमानुशासन हैं, जिन्हें समय-समय पर सत्य अर्थात् अहिंसा और प्रेम की कसौटी पर परखते रहना आवश्यक हो जाता है।

इस अहिंसामूलक आध्यात्मिक संवेदना से प्रेरित गांधीजी की राजनीतिक संवेदना से राज्य की जिस अवधारणा का विकास होता है वह न थियोक्रैटिक है, न सेकुलर-बल्कि वह एक सत्याग्रही राज्य है और सत्याग्रही होने की वजह से ही वह संप्रभुता-संपन्न नहीं रहता। संप्रभुता कहीं रहती है तो समाज में और समाज तभी प्रामाणिक समाज है जब वह अपनी अभिवृत्ति और आचरण में अहिंसा से प्रेरित है। दरअस्ल, हमें एक धर्मतंत्रीय या धर्मनिरपेक्ष राज्य की नहीं, सत्याग्रही राज्य की जरुरत है क्योंकि सत्य ही धर्म की कसौटी है और धर्म है सत्य का आचरण।

- नंदकिशोर आचार्य

सत्याग्रही विकास : सत्याग्रही विकास या विकास की वैकल्पिक अवधारणा की तलाश की किसी भी प्रक्रिया में विकास की वर्तमान अवधारणा और प्रक्रिया की विफलता की स्वीकृति स्वयमेव अंतर्निहित है। इसलिए विकल्प के किसी भी विमर्श से पूर्व यह समझना आवश्यक है कि वर्तमान या प्रचलित अवधारणा की मूल खामी क्या है। यदि वर्तमान अवधारणा में कोई मूलगत खामी नहीं है तब तो हमें किसी विकल्प की तलाश करने के बजाय प्रचलित प्रक्रिया में कुछ आवश्यक सुधार की ही जरूरत है, विकल्प की नहीं। विकास पर हुए विमर्श में समय-समय पर जो संशोधन किए जाते रहे हैं-जीडीपी से लेकर जीएनडब्ल्यू और टिकाऊ विकास तक-वे सभी यह मानकर चलते हैं कि वर्तमान विकास-प्रक्रिया में थोड़े-बहुत संशोधन से ही काम चल सकता है और उसी को विकल्प की तरह प्रस्तुत किया जाता रहा है।

विकास का कोई भी विमर्श एक दुश्चक्र में फंस जाने के लिए अभिशप्त है-यदि वह इस बात पर पहले विचार नहीं कर लेता कि विकास का अर्थ मनुष्य का विकास है या वस्तुओं का विकास। हमें इस बात को सदैव स्मरण रखना होगा कि मनुष्य स्वयं जीवन की विकास-प्रक्रिया का एक परिणाम है और यह मानने का कोई कारण नहीं है कि मनुष्य की वर्तमान स्थिति जीवन की विकास-प्रक्रिया का अंतिम सोपान है। जीवन के मनुष्य रुप में विकसित होने का अर्थ जीवन का चेतना में रूपांतरण है। अतः, जीवन के भावी विकास का आयाम चेतना का विकास है। इसलिए जब हम आर्थिक संदर्भ में विकास की बात करते हैं, तब यह देखना जरूरी होगा कि मनुष्य की चेतना के विकास की दिशा क्या है और उसके समग्र संश्लिष्ट विकास पर इस आर्थिक विकास का प्रभाव कैसा होता है। जीवन एक संश्लिष्ट प्रक्रिया है, अतः उसके आर्थिक पक्ष का असर शेष पक्षों पर पड़ना स्वाभाविक ही है। इसलिए, किसी भी आर्थिक प्रक्रिया के लिए यह देखते रहना आवश्यक होना चाहिए कि वह जीवन के विकास की इस संश्लिष्ट प्रक्रिया में कोई सर्जनात्मक योगदान कर रही है या नहीं। कहीं ऐसा तो नहीं कि आर्थिक विकास जीवन के विकास की विपरीत दिशा की ओर उन्मुख हो। ऐसा विकास अवैज्ञानिक या पश्चगामी विकास होगा क्योंकि वह मनुष्य के विकास की प्रक्रिया को पीछे धकेलने के लिए सचेष्ट हो रहा होगा।

यदि अहिंसा जीवन की प्रेरणा, नियम और लक्ष्य है-और इन तीनों को अलग-अलग नहीं किया जा सकता-तो मानवीय चेतना के विकास का एक निहितार्थ मनुष्य और उसकी सभी क्रियाशीलताओं-संस्थाओं में अहिंसा का निंरतर विकास होगा और तब यह देखना होगा कि सभी मानवीय कार्य-व्यापार और संस्थाओं में हर स्तर पर अहिंसा का प्रतिफलन और प्रतिबिंबन होता है या नहीं। इस दृष्टि से आर्थिक जीवन और प्रक्रिया को-इसलिए विकास को भी-अहिंसा की परिधि के भीतर और उसकी कसौटी पर ही समझा जाना चाहिए। आधुनिक अर्थशास्त्र के पिता कहे जाने वाले एडम स्थिम को भी अंततः मोरल सेंटीमेंट्स में उठाए गए सवालों को दरकिनार कर वेल्थ ऑफ नेशंस में यह मानना पड़ा था कि मनुष्य का आर्थिक जीवन और विकास उसकी बुनियादी स्वार्थवृत्ति से प्रेरित और नियमित-निर्देशित है, इसलिए नैतिकता से उसका अनिवार्यतः विरोध का ही संबंध हो सकता है-जबकि अहिंसा तो समस्त नैतिकता का स्रोत है। नरहरि पारीख ने इसीलिए आुधनिक अर्थशास्त्र के विकास को यूरोप द्वारा दुनिया की लूट के औचित्य को प्रतिपादित करने वाला शास्त्र कहा है। उन्हीं के शब्दों में : भयंकर अत्याचार, अन्याय और शोषण के साथ वर्तमान अर्थशास्त्र के जन्म और विकास का गहरा संबंध है।

विकास की प्रचलित अवधारणा की मूल खामी यह है कि वह मनुष्य को केवल एक ऐंद्रिक अस्तित्व और इस नाते उपभोक्ता मात्र मानता है और इस उपभोग के लिए उसे उत्पादन करना और क्रयशक्ति को अर्जित करना पड़ता है। इस अवधारणा का एक अनिवार्य परिणाम यह होता है कि आर्थिक विकास मनुष्य के उपभोग को निरंतर बढ़ाते रहने पर आश्रित हो जाता है। इसलिए वह उपभोग में वृद्धि को एक जीवन-मूल्य के रुप में स्थापित करने का प्रयास करता है। उत्पादन केवल जरुरत की पूर्ति के लिए नहीं होता, बल्कि नई जरूरतों, नई मांगों की सृष्टि भी करनी पड़ती है, क्योंकि मनुष्य के विकास का तात्पर्य उसकी चेतना का नहीं, उसके ऐंद्रिक उपभोग का विकास हो जाता है। मनुष्य को उपभोक्ता मान लेने और उसके उपभोग को बढ़ाते रहकर अपना विकास करती रहने वाली अर्थव्यवस्था ने बहुत-सी सामाजिक-राजनीतिक हिंसा तो की ही; साथ ही, प्रकृति के प्रति भी उसका रुख अत्यंत हिंसक रहा है। यहां हमें यह बुनियादी बात नहीं भूलनी चाहिए कि जब हम किसी अन्य के प्रति हिंसा करते हैं-मनुष्य अथवा मनुष्येतर के प्रति-तो उसे नुकसान पहुंचाने से पहले स्वयं को हिंसक बना रहे होते अर्थात् अपने में मनुष्यत्व के विकास को कुंठित करते हुए जीवन के विकास की ऐतिहासिक प्रक्रिया में अपने को प्रतिक्रियावादी ओर अवैज्ञानिक सिद्ध कर रहे होते हैं।

लेकिन, इन सबके बावजूद, आधुनिक कहा जाने वाला विकास न केवल बुनियादी आर्थिक सवालों का समाधान करने में विफल रहा है, बल्कि बहुत-सी नई समस्याएं--जैसे पर्यावरण प्रदूषण और पारिस्थितिकीय असंतुलन-तो, जैसा कि प्रो० बैरी कॉमनर ने बताया है, प्रासंगिक विफलताओं के नहीं, बल्कि प्रौद्योगिकीय सफलताओं के परिणाम हैं। ये सफलताएं भी हमें ये सवाल पूछने से नहीं रोक सकतीं : क्या यह अर्थव्यवस्था हमारी जरूरतों को कृत्रिम रुप से बढ़ाते रहे बिना जीवित रह सकती है? क्या इन जरूरतों की निरंतर वृद्धि और उनकी पूर्ति हमारे हिंसक हुए बिना संभव है-अपने-आप के प्रति हिंसक और अपने मानवीय और प्राकृतिक परिवेश के प्रति हिंसक?

महात्मा गांधी अहिंसा को ईश्वरीय नियम कहते हैं, अर्थात् अस्तित्व का, जीवन का नियम। उनके लिए मनुष्य होने का तात्पर्य नैतिक होना है-जीवन के विकास की अहिंसक दिशा का यात्री होना। इसलिए स्वाभाविक ही है कि वह उपभोग में भी मनुष्य से नैतिक मूल्यों के निर्वाह की अपेक्षा करते हैं। जब वह शोषित श्रम द्वारा उत्पादित वस्तुओं की खरीद और इस्तेमाल को पाप की संज्ञा देते हैं तो वह प्रकारांतर से उपभोक्ता को भी सत्याग्रही बनने का आमंत्रण देते हैं। जब वह उपभोक्ता को अपरिग्रह का परामर्श देते हैं तब न केवल उसे ऐंद्रिक अस्तित्व मानने को खरिज करते हैं, बल्कि अनावश्यक उत्पादन और उपभोग के कारण प्रकृति की हिंसक बर्बादी को रोकने को उपाय कर रहे होते हैं। उनके लिए सभ्यता आवश्यकताओं के बहुलीकरण में नहीं, बल्कि उनमें स्वैच्छिक कमी करने में है। यह गरीबी को नहीं, स्वेच्छापूर्ण त्याग को चुनना है।

स्पष्ट है कि गांधीजी के लिए विकास का तात्पर्य उत्पादन और प्रकारांतर से उपभोग में वृद्धि नहीं हो सकता। एक अहिंसक आर्थिक विकास ही उनका लक्ष्य हो सकता है-जिसका अर्थ है उत्पादन के साधनों-प्रक्रियाओं के अहिंसक होने के साथ-साथ लाभ के वितरण और स्वामित्व का भी अहिंसक होना, क्योंकि ऐसा विकास ही जीवन के, चेतना के अहिंसक विकास की प्रकिया का माध्यम हो सकता है। विकास की वर्तमान प्रक्रिया, यदि वह सफल भी होनी है, तो हमें अधिक-से-अधिक, हर्बर्ट मारक्यूज के शब्दों में कहें तो, समृद्धि के नर्क में ही ढकेल सकती है, जिसमें हम एकायामी-यानी केवल ऐंद्रिक अस्तित्व-होकर रह जाते हैं, क्योंकि उसमें हमारी चेतना के क्रांतिकारी आयाम न जाने कहां बिला जाते हैं।

इसलिए गांधीजी का प्रस्ताव एक ऐसे विकास का है जिसमें हमारी आवश्यकताओं की पूर्ति की प्रक्रिया केवल आर्थिक प्रक्रिया नहीं, बल्कि जीवन के भावी विकास की प्रक्रिया का एक आवयविक हिस्सा बन जाए। अहिंसा या प्रेम का नियम ही गांधीजी के अर्थशास्त्र की मूल प्रेरणा है। ठोस आर्थिक आवश्यकताओं की कहीं भी अनदेखी न करते हुए भी महात्मा गांधी का अर्थशास्त्रीय चिंतन सत्य और अहिंसा की मूल प्रेरणाओं को सदैव केंद्र में रखता है। उत्पादन पद्धति के रुप में स्वदेशी और स्वामित्व के रुप में ट्रस्टीशिप की अवधारणाएं अहिंसक-बल्कि सत्याग्रही-आर्थिक विकास की प्रक्रिया के आधारभूत संस्थान हैं। ट्रस्टीशिप को एक यूटोपिया मानने वालों को यह स्मरण दिलाना अनुचित नहीं होगा कि कोई भी लोकतांत्रिक राज्य अंततः एक राजनीतिक ट्रस्टीशिप ही है। यदि ट्रस्टीशिप राजनीतिक क्षेत्र में-कई-सारे सुधारों की संभावना और जरूरत के बावजूद-सर्वाधिक उपयुक्त व्यवस्था है, तो आर्थिक क्षेत्र में उसकी व्यावहारिकता पर राजनीतिक क्षेत्र से अधिक संदेह नहीं किया जा सकता।

इसलिए मुख्य बात यह है कि हम विकास को केवल आर्थिक संदर्भ की परिधि में ही रख कर देखते हैं या उसे वृहत्तर और समग्र जीवन-विकास की संश्लिष्ट प्रक्रिया का एक अंग बनाना चाहते हैं। यदि मनुष्य जीवन-विकास का एक स्तर है और हम मानते हैं कि विकास की यह प्रक्रिया गतिमान है-जैसा कि श्री अरविंद और विनोबा जैसे विचारक सिद्ध करते हैं-तो हमें आर्थिक विकास के क्षेत्र में भी ऐसी प्रक्रिया की जरूरत होगी जो जीवन के भावी विकास की दिशा में हमारी सहयोगी हो। इसे ही विकास की वैज्ञानिक प्रक्रिया कहा जा सकता है।

स्थूल अथवा सूक्ष्म, किसी भी प्रकार की हिंसा के सहारे चलने वाला विकास जीवन-विरोधी ही हो सकता है। ऐसा विकास गांधीजी की शब्दावली में असत्य का वाहक ही होगा। अहिंसा सत्य का व्यावहारिक रुप है। क्या हम एक सत्याग्रही विकास की कल्पना नहीं कर सकते हैं?

- नंदकिशोर आचार्य

सत्याग्रही शिक्षा : शिक्षा का प्राथमिक उत्तरदायित्व किसके प्रति है? इस सवाल का लगभग सर्वसम्मत उत्तर होगा शिक्षार्थी के प्रति। लेकिन शिक्षार्थी के प्रति दायित्व का तात्पर्य क्या है? तात्पर्य है शिक्षार्थी में अंतर्निहित संभावनाओं के प्रस्फुटन और विकास का माध्यम होना। लेकिन जब हम कहते हैं कि शिक्षार्थी में अंतर्निहित संभावनाओं का विकास तो इसका तात्पर्य क्या है? शेखर : एक जीवनी से अज्ञेय के शब्द उधार लेकर कहें तो जो मैं हूं, वह मैं हो सकूं। यह हो सकना क्या है और इसके लिए क्या करणीय है?

यह सवाल किया जाना चाहिए कि यदि शिक्षा व्यक्ति की अंतर्निहित संभावनाओं के मूर्त होने की प्रक्रिया है तो इसके लिए ऐसा कोई पाठ्यक्रम या पाठ्यचर्या कैसे बनाई जा सकती है, जो सभी पर एक साथ लागू होती हो? क्या सभी एक जैसे हैं या होने चाहिए। इस एकरूपीकरण का समर्थन लोकतांत्रिक बोध वाला कोई व्यक्ति नहीं कर सकता-बल्कि ऐसा करना, यदि वैज्ञानिक दृष्टि से देखें तो, प्रकृति के नियम के भी विरुद्ध होगा। प्रकृति में कुछ भी ऐसा नहीं है जो एक जैसा हो। समान गुणधर्म यानी एक जाति की प्रत्येक इकाई का अपना अलग वैशिष्ट्य होता है। एक पेड़ की अनगिन पत्तियों में से कोई भी पत्ती किसी दूसरी पत्ती से पूरी तरह कभी नहीं मिलती। ऐसा ही मनुष्यों के साथ भी है। कोई मनुष्य किसी दूसरे मनुष्य जैसा नहीं होता। रघुवीर सहाय के शब्दों में कहें तो प्रत्येक व्यक्ति अद्वितीय होता है और जब हम उसे एक सामान्य शिक्षा-प्रक्रिया से गुजार रहे होते हैं तो उससे उसके अद्वितीय होने का अर्थ छीन नहीं सकते। अद्वितीय होना अन्य से अधिक अधिकारों या सुविधाओं का हकदार होना नहीं है। सामान्यतः, हम अद्वितीयता या निरालेपन या वैशिष्ट्य को समानता का विरोधी मान लेते हैं। समानता समरूपता नहीं है, बल्कि जहां प्रत्येक की अद्वितीयता सुरक्षित है, वहां समानता स्वयमेव सुरक्षित हो जाती है।

लेकिन हमारी सभी शिक्षा-नीतियां या कार्यक्रम कुछ इस तरह की व्यवस्था करते हैं कि समानता के नाम पर असमानता की आधार-भूमि अपने-आप ही तैयार हो जाती है-यद्यपि यह कहना मुश्किल है कि यह अपने-आप हो जाना अनजाने होना भी है। जब हम यह स्वीकार करते हैं कि प्रत्येक व्यक्ति की अपनी विशिष्ट अंतर्निहित संभावना होती है तो कोई भी समान पाठ्यक्रम कुछ व्यक्तियों के लिए अधिक अनुकूल होगा और उन लोगों के विकास में बाधा साबित होगा जिनकी संभावनाएं उस पाठ्यक्रम के अनुकूल नहीं हों। स्पष्ट है कि वे लोग इस पाठ्यक्रम के हिसाब से सफल या प्रतिभाशाली नहीं साबित हो सकेंगे और पिछड़ जाएंगे। ऐसा होने में शिक्षा असमानता पैदा करने का एक और कारण बन जाएगी।

दरअस्ल, इसका मूल कारण यह है कि पाठ्यक्रम या शिक्षा-कार्यक्रम का निर्धारण करते समय हमारा लक्ष्य शिक्षार्थी नहीं होता। हम उस समय शिक्षा के सामाजिक दायित्व की बात अधिक करते हैं और समाज की अपनी कल्पना के अनुरूप शिक्षार्थी का विकास करना चाहते हैं। सामाजिक दायित्व पद सुनने में बहुत आकर्षक और लगभग सर्वस्वीकृत लगता है-क्योंकि कौन होगा जो सामाजिक दायित्व को उपेक्षणीय कहने का साहस कर सकेगा? लेकिन, तब हमें इस पर विचार करना होगा कि सामाजिक दायित्व का तात्पर्य क्या है? वास्तव में, जब हम सामाजिक दायित्व की बात करते हैं तो हमारा तात्पर्य राज्य और नए संदर्भों में बाजार के प्रति दायित्व हो जाता है। दूसरे शब्दों में, हम उस शिक्षा को प्रासंगिक-बल्कि सार्थक-मानते हैं जो किसी भी व्यक्ति को बाजार और वर्तमान परिस्थिति में उसके एजेंट राज्य के अनुकूल बना सकती हो। सामाजिकता बाजार की राजनीति का पर्याय बन जाती है। यह कहा जा सकता है कि बाजार का प्रभुत्व आज की वास्तविकता है और कोई शिक्षा वास्तविकता से मुंह मोड़कर प्रासंगिक और सार्थक नहीं बनी रह सकती। यह शिक्षा का दायित्व क्यों नहीं है कि वह शिक्षार्थी को हकीकत से रूबरू होना सिखाए?

लेकिन तब हमें रूबरू होने के तात्पर्य पर विचार करना होगा। क्या रूबरू होने का मतलब घुटने टेक देना या अपने वैशिष्ट्य यानी अपनी पहचान को, अपने आत्म-सम्मान को नष्ट कर देना है? क्या रूबरू होने का वास्तविक तात्पर्य अपने अस्तित्व, अपनी स्वतंत्रता, अपनी अद्वितीयता का समर्पण है? जब हम किसी व्यक्ति की अंतर्निहित संभावनाओं को उसे बाजार के अनुकूल बनाने की प्रक्रिया में नष्ट कर रहे होते हैं तो क्या उसे वास्तविक अर्थों में शिक्षा कहा जा सकता है? शायद ही कोई वास्तविक शिक्षाशास्त्री बाजार के प्रति अनुकूलन की इस प्रक्रिया को शिक्षा कहने वालों की सूची में अपना नाम दर्ज करवाना चाहेगा। लेकिन, दूसरी ओर, यदि शिक्षा का नियमन ओर संचालन राज्य के नियंत्रण में रहेगा तो इस प्रक्रिया से बचाव तब तक संभव नहीं दीखता जब तक राज्य अपने को बाजार का एजेंट बनाने से इंकार न कर दे। ऐसा होना, कम से कम अभी तो, संभव नहीं दीखता।

दूसरा रास्ता शिक्षा को राज्य के नियंत्रण से मुक्त करना हो सकता है। लेकिन तब उसके वित्तीय संसाधनों की उपलब्धि कैसे हो? कहा जा सकता है कि उसके नियमन और वित्तीय प्रबंधन की जिम्मेदारी राज्य के बजाय समाज के हाथों में हो। लेकिन समाज एक अमूर्त अवधारणा हो गई है और खासतौर पर वित्तीय संसाधन जुटाने के मामले में तो उन संपन्न व्यावसायिक घरानों पर ही निर्भर होना पड़ेगा जो स्वयं बाजार का नेतृत्व कर रहे और राज्य पर शिक्षा को बाजार के अनुकूल बनाने का दबाव डालते रहे हैं। ऐसा होने की स्थिति में तो वह शर्म भी नहीं बची रहेगी जो कभी-कभी राज्य की आंखों में झलक जाती है-चाहे उसका प्रयोजन मतदाता को भुलावे में डालना ही क्यों न हो।

यह आश्चर्यजनक पर विडंबनापूर्ण है कि लगभग सभी शिक्षा-सम्मेलनों और संगोष्ठियों में बाजार, वैश्वीकरण और उदारीकरण की नीतियों और उनके परिणामों की घोर आलोचना के बावजूद शिक्षाशास्त्रियों की तरफ से राज्य पर ऐसा कोई दबाव नहीं डाला जा रहा है कि वह अपनी नीतियों पर शिक्षा के संदर्भ में पुनर्विचार करे-बल्कि शिक्षाशास्त्रियों पर ही बाजार के संदर्भ में शिक्षा में बदलाव के लिए दबाव डाला और उसे मनवाया जाता रहा है। क्या ऐसा संभव नहीं है कि यदि राज्य शिक्षाशास्त्रियों के मंतव्य पर विचार नहीं करता है तो उन्हें स्वयं को राज्य से अलग करते हुए ऐसे स्वायत्त संस्थानों का विकास और मदद करनी चाहिए जो इस जाल से निकलने के लिए वैकल्पिक प्रयत्न कर रहे हैं।

देश में, छोटे ही सही, ऐसे कई स्वायत्त संस्थान हैं जो इस दिशा में प्रयत्नशील हैं। ऐसे सभी संस्थानों के लिए एक विनम्र सुझाव है। शिक्षा में, सामान्यतः, अनुशासन का बहुत महत्त्व माना जाता है। लेकिन, मुझे लगता है कि आज के संदर्भ में शिक्षा का प्रमुख कर्तव्य विद्रोही बनाना है। प्रत्येक व्यक्ति का यह अधिकार है कि वह अपनी अद्वितीयता की अभिव्यक्ति कर सके, उसे सिद्ध कर सके। लेकिन, यदि कोई व्यवस्था बाजार या किसी राजनीति की आवश्यकता के कारण उसे वह होने से रोकती है जो वह है, तो उसके अंदर ऐसी व्यवस्था के प्रतिरोध का सामर्थ्य विकसित करना शिक्षा का ही दायित्व है। बहुत-से शिक्षा संस्थान अलग तरह की शिक्षा की बात तो करते हैं, लेकिन, अपने शिक्षार्थी को प्रतिरोध के लिए प्रेरित और उसके लिए सामर्थ्य जुटाने के लिए शिक्षित नहीं करते। कहा जा सकता है कि यह तो राजनीतिक संगठनों का काम है। लेकिन, जब राजनीतिक संगठन स्वयं बाजार के एजेंट बन गए हों तो यह दायित्व सीधे शिक्षा पर आ जाता है। शिक्षा की सार्थकता विद्रोही पैदा करने में भी हो सकती है-अहिंसक विद्रोही बनाने यानी शिक्षार्थी को प्रतिरोध के अहिंसक तरीकों में प्रशिक्षित करने में। महात्मा गांधी की नई तालीम, दरअस्ल, इसी दिशा में एक प्रयास था। उसका प्रयोजन केवल कुछ दस्तकारियों आदि का प्रशिक्षण देना या किसी व्यवसाय के योग्य बनाना मात्र नहीं था। यदि नई तालीम सत्य की शिक्षा है तो असत्य के खिलाफ सत्याग्रह भी उसका एक अनिवार्य दायित्व है। नई तालीम की योजना के ठुकरा दिए जाने का असल कारण भी शायद यही था कि लंबे समय तक चलने पर वह ऐसा समाज तैयार कर सकती थी जो राज्य और बाजार का मुखापेक्षी नहीं होता और इसलिए जरुरत पड़ने पर असत्य यानी अपने प्रति हिंसक बाजार और राज्य का अहिंसक प्रतिरोध कर सकता। क्या अपने को राज्य से स्वतंत्र मानने वाले शिक्षा संस्थान शिक्षार्थी में अपनी स्वतंत्रता को बचाने और अपने पर हो रहे अन्याय के विरुद्ध विद्रोह की प्रेरणा बन सकेंगे? यह नहीं भूलना चाहिए कि दुनिया में बहुत-सी क्रांतियों के बीज शिक्षा संस्थानों में ही बोए गए हैं। शिक्षा का प्रयोजन आत्मसृजन है। लेकिन, जिस व्यवस्था मे आत्म का ही लोप हो रहा हो, उसके खिलाफ सत्याग्रह फिलहाल शिक्षा-जगत्-बल्कि पूरे संस्कृति-जगत्-की पहली प्रासंगिकता है। उसके बिना स्वयं शिक्षा और संस्कृति कही कोई प्रसंगिकता नहीं रह जाएगी।

- नंदकिशोर आचार्य

सप्तक्रांति : जॉन गाल्तुंग द्वारा संरचनात्मक हिंसा (Structural violence) की अवधारणा प्रस्तुत करने से बहुत पहले डॉ० राममनोहर लोहिया ने पूरी वैश्विक व्यवस्था में व्याप्त संरचनात्मक अन्याय के विविध पहलुओं को ही नहीं, बल्कि उनके खिलाफ हो रहे अहिंसक संघर्ष के रूपों की भी पहचान की थी, जिसे उन्होंने मोटे तौर पर सात श्रेणियों में विभाजित करते हुए सप्तक्रांति की संज्ञा दी थी। डॉ० लोहिया ने इस संघर्ष को एक ऐतिहासिक आधार भी दिया था। अपने इतिहास-चक्र (Wheel of History) नामक ग्रंथ में लोहिया ने स्वतंत्रता और समानता को इतिहास की विकासशील प्रक्रिया के आधारभूत मूल्य मानते हुए यह स्पष्ट किया था कि इन मूल्यों की व्यावहारिक प्रतिष्ठा इतिहास की किसी अंधी प्रक्रिया द्वारा नहीं बल्कि मानवीय इच्छा के माध्यम अर्थात् इन मूल्यों के लिए निरंतर प्रयत्नरत होने से ही हो सकती है। आधुनिक समय का विश्लेषण करते हुए उन्होंने सप्तक्रांति नामक लंबे निबंध में अन्याय या हिंसा के उन रूपों की ओर ध्यान आकर्षित किया जो विषमता या गैर बराबरी को बढ़ावा देते हैं और इस तरह प्रकारांतर से स्वतंत्रता को भी बाधित करते या उसे औपचारिक मात्र बना देते हैं। लोहिया मानते थे कि इस हिंसा या अन्याय के खिलाफ त्रिसूत्री कार्यक्रम अर्थात् वोट, फावड़ा (रचनात्मक कार्य) और जेल (सिविल नाफरमानी अर्थात् सत्यागृह) के माध्यम से संघर्ष किया जाना चाहिए। लोहिया की धारणा है कि अन्याय कई किस्म का होता है, और सब किस्मों के खिलाफ साथ लड़ना पहले कभी नहीं हुआ है। किसी एक प्रकार के अन्याय के विरोध में लड़ाई तो मनुष्य ने पहले भी की है, लेकिन अब की बार सभी प्रकार, जो मनुष्य सोच सकता है या हैं, उनके खिलाफ एक साथ, कभी इस अन्याय के खिलाफ कभी उस अन्याय के खिलाफ, एक ही देश में कई अन्यायों के खिलाफ लड़ रहा है।

अन्याय के रूपों के जिक्र में वह गरीबी और अमीरी के फर्क से जो अन्याय निकलते हैं उनको व्याख्यायित करते हुए बताते हैं कि पुराने जमाने की लड़ाई से अब की बार की लड़ाई में भिन्नता यह है कि बराबरी की भावना बहुत जोरों के साथ आई है। इसी तरह वह आर्थिक मामलों में राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय गैर बराबरी की व्याख्या करते हुए बताते हैं इस आर्थिक असमानता की वजह से दोनों के नागरिकों में दिमागी फर्क भी आ जाता है और, साथ ही, दाम की गैर बराबरी तथा अधिकारों की गैर बराबरी प्रभु देश और जो दबे देश हैं, उनमें पाते हैं। इसी तरह अंतर्राष्ट्रीय व्यापार के लिए अंतर्राष्ट्रीय श्रम-विभाजन के सिद्धांत की आलोचना करते हुए डॉ० लोहिया ने, जो स्वयं एक अर्थशास्त्री थे, रेखांकित किया और उसे कींस के हवाले से पुष्ट किया कि संसार के लिए अंतर्राष्ट्रीय व्यापार तभी लाभदायक होता है, जब हरेक देश में संपूर्ण रोजगारी हो, यानी बेरोजगारी न हो। इसी के साथ उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि आज संसार में जितना भी व्यापार हो रहा है, उसमें जबर्दस्त लूट है क्योंकि चाहे अंतर्राष्ट्रीय व्यापार की राशि बराबर हो, लेकिन वास्तव में एक घंटे की मेहनत का विनिमय 10 घंटे की मेहनत से होता है और मेहनत भी ज्यादा होती है। इसी तरह इस लेख में डॉ० लोहिया रंग अथवा नस्ल और जाति के आधार पर व्याप्त असमानता की ओर भी ध्यान आकर्षित करते हैं और सभी अन्यायग्रस्त वर्गों को, जॉन राल्स के न्याय-सिद्धांत की ही तरह, विशेष अवसर मुहैय्या करवाने की भी मांग करते हैं। लोहिया यह भी रेखांकित करते हैं कि राज्य या समाज द्वारा निजी जीवन में अधिकाधिक बढ़ता जा रहा दखल भी एक प्रकार का अन्याय है, जिसके खिलाफ हो रहे संघर्ष को और बढ़ाया जाना चाहिए।

इस प्रकार डॉ० लोहिया द्वारा प्रस्तावित सप्तक्रांति के जो रूप बनते हैं वे हैं (1) नर-नारी समता के लिए; (2) त्वचा के रंग के आधार पर सभी तरह की विषमताओं के खिलाफ; (3) जातियों में गैर बराबरी के खिलाफ; (4) विदेशी दासता के विरुद्ध एवं लोकतांत्रिक तरीके से विश्व-सरकार की स्थापना के लिए; (5) आर्थिक समता एवं नियोजित उत्पादन के लिए; (6) शस्त्रों के विरुद्ध सत्याग्रह के लिए; और (7) निजी जीवन अन्यायपूर्ण हस्तक्षेप के विरुद्ध एवं लोकतांत्रिक उपायों के लिए। लोहिया की मान्यता थी कि एक स्वस्थ समाज के लिए इन क्रांतियों का सफल होना जरूरी है।

डॉ० लोहिया इस स्वस्थ समाज की स्थापना के लिए सत्याग्रह को सर्वाधिक प्रभावी उपाय मानते हैं। सत्याग्रह, उनकी दृष्टि में, मानव-समाज को बचाने का उपाय है और इसे हर व्यक्ति की आदत बन जाना चाहिए। वह सवाल उठाते हैं कि सच को कैसे मजबूत बनाया जा सकता है और उत्तर देते हैं कि कोई ऐसा अस्त्र ढूंढना चाहिए जो सच को मजबूत बनाए, लेकिन उसे झूठ का रूप न दे दे। परंपरागत हथियार के तरीके की आलोचना करते हुए वह रेखांकित करते हैं कि जैसे ही हथियार के सहारे सच को मजबूत बनाया जाता है, वह झूठ बन जाता है, उसका स्वरूप बदल जाता है। वह कहते हैं कि एक तरीका तर्क का है क्योंकि असल में आधुनिक समाज तर्क पर आधारित है, लेकिन हिंसक शक्ति तर्क को दबाकर खत्म कर देती है। इसलिए तर्क-बल को भी ताकत देने की जरूरत होती है, कि वह हिंसा-बल के सम्मुख खड़ा हो सके। इसलिए तर्क को कोई ऐसी ताकत मिलनी चाहिए जो पशुबल न हो, हिंसा न हो, लेकिन एक हिंसक मुकाबले में उस तर्क को खड़ा कर सके और वह वही ताकत है कि हम तुम को मारेंगे भी नहीं; मगर तुम्हारी बात मानेंगे भी नहीं। ऐसा तर्क हो जाए कि जो मनुष्य को न सिर्फ अपने विरोधी के मुकाबले में खड़ा करके बहस कराए, बहस में उसको खत्म करे और बहस में खत्म होने के बाद वह विरोधी अगर डंडे और अणुबम पर उतर आए, तब उससे कहे कि अच्छा करो जो तुम को करना है, हम तो तुम्हारी बात मानेंगे नहीं।

डॉ० लोहिया, इसलिए, सत्याग्रह को बली तर्क कहते हैं और उसे एक स्वतंत्र और समतामूलक समाज के सपने को सच करने की ऐसी प्रक्रिया के रूप में स्वीकार करते हैं जो सच के स्वरूप को बदलकर उसे झूठ नहीं बनाएगी। लोहिया का मानना है कि सातो क्रांतियां संसार में एक साथ चल रही है और उनको बढ़ाते-बढ़ाते शायद ऐसा संयोग हो जाए कि आज का इंसान सब नाइंसाफियों के खिलाफ लड़ता-जूझता ऐसे समाज और ऐसी दुनिया को बना पाए कि जिसमें आंतरिक शांति और बाहरी या भौतिक भरा-पूरा समाज बन पाए।

- नंदकिशोर आचार्य

समग्र परिवेश की राजनीति :मानव की एक परिभाषा यह भी है कि वह प्रकृत्या एक राजनैतिक प्राणी है, इसलिए यह माना जा सकता है कि यह परिस्थिति एक सीमा तक उसकी अनिवार्य नियति है। लेकिन उल्लेख्य बात यह है कि जिस राजनीति का तौक उसके गले में बंधा है, वह उस सामान्य अर्थ में राजनीति नहीं है, सभ्य मानव के सामाजिक विकास की राजनीति नहीं है; वह राजनीति भी एक विशेष प्रकार की राजनीति है : वह सत्ता की राजनीति है। मानव राजनैतिक प्राणी होने से पहले सामाजिक प्राणी है या नहीं, इस पर कुछ क्षेत्रों में सैद्धातिक विवाद हो सकता है, लेकिन इस प्रश्न पर चाहे जिसकी चाहे जो राय हो, इस तर्क का समर्थन बहुत कठिन होगा कि मानव की सामाजिक और राजनैतिक प्रकृति का मूल केंद्र सत्ता की खोज या कामना है। अंग्रेजी में राजनैतिक पशु और सामाजिक पशु की चर्चा का आम मुहावरा है, लेकिन मनुष्य को सत्ताकामी पशु नहीं कहा जा सकता-और नहीं तो इसीलिए कि वह पशु की अपेक्षा मनुष्य अधिक है। हम तो कहना चाहते कि मानव है इसलिए पशु नहीं है, लेकिन अंग्रेजी में एनिमल मानव और पशु दोनों ही प्रकार के प्राणियों के लिए व्यवह्रत होता है, इसलिए बात को यहीं छोड़ दें। यह स्वीकार करके कि मानव अनेक सामाजिक और असामजिक परंपराओं से बाधित होता है, मनुष्य होने के नाते हमें इस बात पर बल देना चाहिए कि कहां पर वह मानव अधिक है, इस पर नहीं कि कहां वह पशु है।

जो अपने को मानववादी कहता है उसके लिए तो यह स्पष्टता और भी आवश्यक है। मानव को प्राथमिकता दिए बिना, अपने चिंतन के केंद्र में मानव को रखे बिना कोई कैसे मानवावादी हो सकता है? और मौलिक अथवा बुनियादी मानववाद के लिए तो इस चिंतन के साथ मानव संस्कृति का चिंतन भी अनिवार्यतया जुड़ जाना चाहिए। अगर हम मनुष्य को मूल्यों के स्रष्टा के रूप में नहीं देखते तो हम उसे मनुष्य के ही रूप में नहीं देखते। मानव की मानवता मूलतः और सारतः उसकी सर्जनधर्मिता में है और इस सर्जनधर्मिता की पहली और मौलिक अभिव्यक्ति मूल्यों की सृष्टि में है। संस्कृति को इस मूल्य-सर्जन का नाम या पर्याय माना जा सकता है।

यदि मानव मूल्यों का स्रष्टा है तो उसका राजनैतिक दर्शन संपूर्ण परिवेश का दर्शन होना चाहिए। यहां हम परिवेश शब्द का उपयोग आज के परिवेशवादियों या परिवेश-विज्ञानियों की अपेक्षा व्यापकतर संदर्भ में कर रहे हैं। संपूर्ण मानवीय परिवेश का दर्शन एक समग्र दर्शन है और इस समग्र रूप में ही एक नए राजनैतिक दर्शन की भित्ति बन सकता है। हमारा राजनैतिक कर्म, हमारा सामाजिक कर्म और हमारा नागरिक कर्म सब इस परिवेश के साथ हमारे संबंध से ही निःसृत होते हैं; यानी उस समग्र परिवेश के साथ जैसा संबंध हमें वांछित होता है वही निर्धारित करता है कि हमारा राजनैतिक, सामाजिक अथवा नागरिक कर्म कैसा हो। राजनीति जब शुद्ध सत्ता की एषणा होती है, तब वह न केवल इस संबंध से निःसृत होने वाले उत्तरदायित्व की उपेक्षा करती है बल्कि उसका खंडन भी करती है और विरोध भी। संपूर्ण मानवीय परिवेश से संपृक्त होने पर अनिवार्यतया हमारी जिज्ञासा का केंद्र यह प्रश्न बन जाता है कि क्या मानव प्राणी के नाते हमारा जीवन इसलिए है कि हम अपने परिवेश को खा-पचा जाएं, अपने आस-पास की समग्र प्रकृति को अपनी भूख की आग में भस्म कर दें? दूसरे शब्दों में : क्या सत्ता की एषणा हमें यह अधिकार देती है कि हम सब-कुछ को खाते हुए अंततोगत्वा मनुष्य को ही खा जाएं-मानव जाति के अस्तित्व की संभावना को ही मिटा दें? या कि इसके प्रतिकूल हमारी राजनीति को इस बात की चिंता होनी चाहिए कि मानव के सतत और शाश्वत अस्तित्व के लिए आवश्यक संतुलन की खोज करें, मानव की उपलब्धियों की रक्षा, संवर्द्धना और स्थायित्व के लिए, उसकी चेतना के विकास के लिए, आवश्यक संतुलन की खोज और उसकी स्थापना करें?

समस्या को इस प्रश्न के रूप में रखना एक आलंकारिक युक्ति है, क्योंकि यह एक विशेष उत्तर मांगती है और प्रश्न ही उस उत्तर को स्पष्ट कर देता है। लेकिन युक्ति भले ही आलंकारिक हो, प्रश्न के मूल में जो चिंता है वह आलंकारिक नहीं है। अपनी स्थिति के वास्तविक ज्ञान की और उसकी पहचान से उदित होने वाले मार्ग-संकेत की ओर ध्यान दिलाने के लिए ही यह युक्ति अपनाई गई है। यह बिल्कुल संभव है कि हम यह स्वीकार कर लें कि संसार के सभी देश समग्र मानवीय परिवेश के प्रति समान रूप से उदासीन रहे हैं, बल्कि जो राष्ट्र जितने अधिक समर्थ रहे हैं, उन्होंने उतनी ही अधिक हृदयहीनता बरती है, लेकिन यह स्वीकार करने के बाद भी हम अनुभव करें कि मानव की प्रगति को अब अनेदखा करना अव्यावहारिक होगा। इतना ही नहीं, यह भी कि इसके बावजूद कि वह प्रगति हमें बहुत मंहगी पड़ी है, अब उसका परित्याग नहीं किया जा सकता कि जिस राह पर मानव जाति जितनी दूर तक चली आई है, जिस बिंदु पर आज वह खड़ी है, वहां से लौट जाना अब उसके लिए संभव नहीं है। इसलिए हमारी चिंता की कसौटी यह होनी चाहिए कि अतीत की भूलों का संशोधन और परिमार्जन कैसे किया जा सकता है, अपनी यात्रा की दिशा कैसे और किधर मोड़ी जानी चाहिए, तकनीकी उन्नति की अपनी अवधारणाओं में क्या परिवर्तन करना चाहिए, कैसे सुधार, संरक्षण और पुनर्निमाण और कहीं-कहीं पुनः प्रतिष्ठा की भी व्यवस्था करनी चाहिए। बहुत संभव है कि इसके लिए हमें ऐसे बिंदुओं से आरंभ करना पड़े जो नगण्य और अकिंचन जान पड़े। लेकिन समग्र परिवेश के साथ मानव के संबंध की सही समझ से यह भी स्पष्ट दीख जाएगा कि छोटे से छोटे बिंदु से आरंभ करके भी हमें अपने सरोकार को इतनी दूर तक फैलाना पड़ेगा कि उसमें देश, नदी-जाल, पर्वत शृंखलाएं, महासागर और यहां तक कि अंतरिक्ष का परिमंडल भी समा जाए।

हमारे ही जीवन काल में एक समय था जब एक ऐसा आदमी हुआ-और वह एक पूरे दर्शन का प्रवक्ता बना-जिसका कहना था कि जितनी बार मैं संस्कृति का नाम सुनता हूं उतनी बार अपनी पिस्तौल का घोड़ा तान लेता हूं। हमारा सौभाग्य है कि वह व्यक्ति आज जीवित नहीं है। लेकिन जिस राजनैतिक दर्शन का प्रतिनिधित्व कर रहा था क्या वह राजनीति भी मर चुकी है? क्या यह स्पष्ट नहीं है कि सत्ता की राजनीति की अनिवार्यता उसी की प्रेत-साधना करेगी? एक और इंसान था जिसके लिए सत्ता और बंदूक की नली का एकांत संबंध था। वह व्यक्ति भी आज जीवित नहीं है; लेकिन वह भी एक प्रत्यावर्तन या प्रतिमुखता की संभावना छोड़ गया है जिसमें संस्कृति, सत्ता और राजनीति तीनों में संबंध स्थापित करने का एक ही रास्ता है-बंदूक की नली का रास्ता या घोड़ा-तने पिस्तौल का रास्ता। ऐसी विभीषिका के समक्ष हर मानववादी का कांप उठना स्वाभाविक है, यद्यपि हम मान ले सकते है कि यह विभीषिका मानववादी की अथवा मानव जाति की वर्तमान अवस्थिति का थोड़ा-सा अतिरंजित चित्र है। बिना इस प्रतिज्ञा से आरंभ किए कि संस्कृति और सत्ता की राजनीति दो विरोधी ध्रुव हैं, यह स्पष्ट किया जा सकता है कि समग्र परिवेश की चिंता राजनीति का मानवीयकरण कर देती है, राजनीति के केंद्र में सत्ता न रह कर मानव प्रतिष्ठित हो जाता है, इतना ही नहीं, समग्र परिवेश के विचार से हम अनेक राजनैतिक कामों के प्रति नई विवेक-सम्मत दृष्टि पा लेते हैं।

- स० ही० वात्स्यायन अज्ञेय

समता : अहिंसा या प्रेम को मानव-आचरण का आधार मानने वाले सभी दर्शनों-धर्मों में समता को एक बुनियादी मूल्य के रूप में स्वीकृत किया गया है। जैन-दर्शन में अहिंसा का तात्त्विक आधार समता ही है। सभी क्योंकि समान है, अतः किसी अन्य के प्रति हिंसा इस बुनियादी समानता का अतिक्रमण है। अतः, कह सकते हैं कि इस समता के मूल्य की सिद्धि के लिए अपने समस्त रूपों और आयामों सहित अहिंसा साधन है। वेदांत दर्शन में एक ही परमात्मा सब में व्याप्त है, अतः वहां भी समता केंद्र में है। अहिंसा को परमधर्म घोषित करने वाला महाभारत जब आत्मानांप्रतिकूलानिपरेषांन-समाचरेत की बात करता है तो उसका भावार्थ यही है कि क्योंकि सभी अपने समान ही हैं, अतः, उनके साथ वैसा व्यवहार करना चाहिए, जैसा हम अपने साथ चाहते हैं। अनंतर, भक्ति-आंदोलन के भी सभी रूपों में समता केंद्रस्थ है क्योंकि सभी ईश्वर के समान प्रिय-पात्र हैं। ईसायत और इस्लाम में भी समता को केंद्रीय स्थान प्राप्त है क्योंकि सभी एक ही ईश्वर द्वारा रचे गए हैं; उसकी संतान होने के कारण सब समान हैं।

लेकिन, समता केवल धार्मिक या आध्यात्मिक मूल्य ही नहीं है। इसलिए धर्मनिरपेक्ष या लौकिक दर्शनों-विचारधाराओं में भी उसे स्वतंत्रता के साथ एक केंद्रीय मूल्य स्वीकार किया गया है तथा उसके आर्थिक-सामाजिक रूपों पर अधिक बल दिया गया है। डॉ० लोहिया तो मानते हैं कि स्वतंत्रता और समता इतिहास की दो प्रेरक प्रवृत्तियां रही हैं। फ्रांसीसी क्रांति का लक्ष्य स्वतंत्रता, समता तथा बंधुत्व की चरितार्थता रहा, यद्यपि उसकी अभिव्यक्ति हिंसक रूप में हुई। उसके बाद से समता को एक आर्थिक-सामाजिक-राजनीतिक संदर्भ में व्यापक स्वीकृति मिलने लगी।

लेकिन, समता की व्याख्या में कुछ मतभेद हमेशा रहे हैं। एक वर्ग के लिए यह कानून के समक्ष समता रही है तो कुछ लोग इसे अवसरों की समानता के रूप में देखते हैं। लेकिन, समाजवादी विचारधारा आर्थिक समता का आग्रह करती है। अवसरों की समानता का कोई विशेष अर्थ नहीं रह जाता, यदि उन अवसरों का लाभ उठाने की योग्यता विकसित नहीं हुई है। इसलिए योग्यता विकसित करने के अवसरों से वंचित रहे वर्ग के लिए अवसरों की समानता तक भ्रम मात्र रह जाती है। जान रॉल्स जैसे विचारक इसीलिए डिफरेंस प्रिंसिपल की बात करते हैं, जिसका आशय है कि कमजोर वर्ग के लिए विशेष व्यवस्था की जानी चाहिए ताकि वह मूलभूत स्वतंत्रताओं के समान अधिकार का वास्तविक उपभोग कर सके। रॉल्स की राय में उच्चतर आकांक्षाएं तभी न्यायपूर्ण हैं, जब वे कम लाभप्रद स्थिति वाले लोगों की स्थिति सुधारने के लिए उपयोगी हों।

राजनीतिक दार्शनिकों में समता और स्वतंत्रता के संबंधों को लेकर बहुत विवाद रहा है। लोकतंत्र स्वतंत्रता को केंद्र में रखता है, जिसका एक आशय यह माना जाता है कि प्रत्येक व्यक्ति को अपनी क्षमता एवं रूचि के अनुसार विकास करने और जीवन बिताने का अधिकार है। पूंजीवाद का दार्शनिक आधार स्वतंत्रता की यह अवधारणा ही है, जो आर्थिक स्वतंत्रता में राज्य के हस्तक्षेप को अनुचित मानती है। एडम स्मिथ इस विचार के पुरोधा हैं। लेकिन, इस पूंजीवादी स्वतंत्रता ने जो आर्थिक व्यवस्था विकसित की है, वह श्रमिक वर्ग और उपनिवेशों के शोषण-दमन पर आधारित रही है। इसलिए, समाजवादी विचारक आर्थिक समानता के बिना लोकतंऌत्र और स्वतंत्रता को भ्रम मात्र मानते हैं। लेकिन, समानता के लिए स्वतंत्रता के मूल्य की बलि देना भी सम्यक् नहीं कहा जा सकता। साम्यवादी राज्यों का दमनकारी रूप इसका प्रमाण है। तो क्या स्वतंत्रता और समानता के बीच कोई समन्वय संभव नहीं है? लोकतांत्रिक समाजवादी तथा कल्याणकारी राज्य की अवधारणा का विकास इस समन्वय के प्रयोजन से ही हुआ है। हेराल्ड लास्की ने इसके लिए आर्थिक शक्ति के लोकतंत्री-करण का प्रस्ताव किया है, जिसके अनुसार आर्थिक विषमताओं को कम करने के लिए पूंजीवादी स्वतंत्रता को नियमित किया जा सकता तथा अधिक कर लगाकर उससे राज्य द्वारा वंचित वर्ग के कल्याण के लिए कार्यक्रम लागू किए जा सकते हैं। वास्तव में, लास्की स्वतंत्रता की रक्षा के लिए ही राज्य के कल्याणकारी रूप का आग्रह करते हैं क्योंकि उसके बिना स्वतंत्रता और लोकतंत्र को बचा पाना संभव नहीं। समता और स्वतंत्रता के संतुलन पर विचार करते हुए एल० टी० हॉबहाउस ने तर्क दिया कि स्वतंत्रता की आधारशिला सामाजिक बंधन की आध्यात्मिक प्रवृत्ति तथा सर्वहित का युक्तियुक्त स्वरूप है। इसका तात्पर्य है कि सर्वहित और वैयक्तिक हित परस्पर संबद्ध है, इसलिए वैयक्तिक स्वातंत्र्य और सामाजिक समता परस्पर समर्थक हैं, न कि विरोधी। वैयक्तिक स्वातंत्र्य पर राज्य के नियंत्रण का प्रयोजन स्वतंत्रता का विस्तार है और वह सभी के लिए स्वतंत्रता की समान परिस्थिति निर्मित करने से ही हो सकता है। यह राज्य का दायित्व है और इसलिए उसे ऐसी व्यवस्था कायम करनी होगी, जिसमें कोई किसी अन्य की स्वतंत्रता में हस्तक्षेप न कर सके। इस संबंध में आर०एच० टॉनी ने समानता को सभी मनुष्यों की समान नैतिक मूल्यवत्ता के आधार पर स्थापित करने का प्रयास किया है। टॉनी स्वतंत्रता और समानता को परस्पर विरोधी नहीं मानते। वह मानते हैं समानता का अर्थ गणितीय समानता नहीं बल्कि सभी के आत्मविकास को बढ़ावा देना है और वह स्वतंत्रता का ही विस्तार है। इसलिए टॉनी एक ओर आर्थिक-सामाजिक विषमताओं को कम करते चले जाने पर बल देते और उसके लिए सार्वजनिक कार्रवाई को उचित मानते हैं। अपनी स्वतंत्रता के नाम पर अन्य की स्वतंत्रता का अतिक्रमण करने को उचित नहीं कहा जा सकता। यदि मैं अन्य की स्वतंत्रता का सम्मान नहीं करता और केवल अपनी स्वतंत्रता का आग्रह करता हूं तो इसका सीधा तात्पर्य यह है कि स्वतंत्रता मेरे लिए कोई मूल्य नहीं, बल्कि केवल एक सुविधा है। टॉनी एक साहचर्यमूलक समाज की कल्पना करते हैं, जिसमें समानता का अर्थ अन्य की स्वतंत्रता को उचित अवकाश देना है। उन्हीं के शब्दों में कहें तो वह बड़ी मछली की स्वतंत्रता को छोटी मछली के लिए मृत्यु का संदेश नहीं बनना देना चाहते। इसलिए वह समता को स्वतंत्रता का विरोधी नहीं बल्कि स्वतंत्रता की उस विशेष व्याख्या के विरुद्ध मानते हैं, जो बलशाली व्यक्ति को कमजोर के प्रति हिंसा करने की स्वतंत्रता है। इस दृष्टि से समता स्वतंत्रता की ही कवच सिद्ध होती है।

समता और स्वतंत्रता के इस मेल और साहचर्यमूलक समाज की कल्पना सर्वोदय सिद्धांत में भी की गई है। फर्क सिर्फ यह है कि वहां यह मेल राज्य शक्ति के माध्यम के बजाय लोक-शिक्षण, रचनात्मक कार्रवाई और लोक-पहल के आधार पर होना है। इसीलिए जयप्रकाश नारायण ने सर्वोदय को सात्त्विक समाजवाद की संज्ञा से अभिहित किया है।

द्रष्टव्य : स्वतंत्रता; कल्याणकारी राज्य; सर्वोदय।

- नंदकिशोर आचार्य

सर्वभूतहित : भारतीय नीति-मीमांसा में सर्वभूतहित को उच्चतम स्तर प्राप्त है। कुछ विद्वान इसे लोकहित की अवधारणा से अलग मानते हुए लोकहित को पश्चिमी मानववाद से मिलता-जुलता बताते हैं। लेकिन भारतीय चिंतन में लोक का अर्थ केवल मनुष्य से नहीं, बल्कि सृष्टि मात्र से है। इसलिए सर्वभूतहित और लोकहित में कोई बुनियादी अंतर नहीं है। केवल भ्रम से बचने के लिए सर्वभूतहित पद का इस्तेमाल बेहतर है। सर्वभूतहित का सीधा तात्पर्य सभी प्रकार के जीवन और प्रकृति के हित को केंद्र में रखना है। मानव-जीवन, जंतु-जीवन और वानस्पतिक जीवन तथा पर्यावरण सब इस की परिधि में आ जाते हैं।

पुराणों और धर्मशास्त्रों में पशु-हत्या और वनस्पति-जगत के प्रति हिंसक व्यवहार का कठोर निषेध किया गया है। लगभग सभी पुराणों में वृक्ष लगाने को पुण्य-कार्य माना तथा वृक्ष की अनावश्यक कटाई को अनुचित बताया गया है। वराह-पुराण के अनुसार वृक्ष लगाना भावी जन्मों के लिए शुभ तथा नरक से बचाने वाला है (172.38-42)। मनुस्मृति में भी अनावश्यक वृक्ष काटने वाले को प्रायश्चित करने के लिए कहा गया है। इसी तरह धर्मशास्त्रों या पुराणों एवं महाभारत में पशु-हत्या तथा मांसाहार से बचने का उपदेश किया गया है।

जैन एवं बौद्ध दोनों ही धर्मों में अहिंसा का केंद्रीय महत्त्व है और इस अहिंसा का विस्तार मनुष्य से लेकर वनस्पति-जगत-बल्कि जीव मात्र तक है। आचारांग सूत्र (2.3.1.1) और पुरुषार्थ सिद्धयुपाय (143) में चलते समय जीव-हिंसा से बचने का आग्रह करते हुए वर्षा ऋतु में एक ही स्थान पर रहने का नियम बताया गया है तथा बिना वास्तविक आवश्यकता के जमीन खोदने, फूल-पत्ती तोड़ने या घास पर घूमने आदि की भी मनाही की गई है। ईर्यासमिति (चलने में सावधानी) तथा अशन-समिति (खाने में सावधानी) को बहुत महत्त्व दिया गया है। यहां तक कि वस्तुओं को उठाने-रखने में भी सावधानी रखने की बात के आदान-निक्षेपण-समिति कहा गया है। इसी तरह बौद्ध ग्रंथों में भी पेड़ लगाने को स्वर्ग दिलाने वाला पुण्य-कार्य मानते हुए वनस्पति-जगत को नुकसान पहुंचाने पर प्रायश्चित का विधान किया गया है। मांसाहार को लेकर बौद्ध संप्रदायों में अवश्य कुछ मतभेद है। पालि बौद्ध धर्म के अनुसार किसी भिक्षु के खाने के लिए मारे गए पशु का मांस निषिद्ध है। लेकिन महायान संप्रदाय में शाकाहार को ही श्रेष्ठ माना गया है। लंकावतार-सूत्र में कहा गया है कि कोई भी बोधिसत्व किसी अन्य का मांस नहीं खा सकता क्योंकि वह अन्य भी उसी के समान है।

यह उल्लेखनीय है कि सभी भारतीय धर्म अहिंसा की दृष्टि से जीवों का एक उच्चावच क्रम तो स्वीकार करते हैं, लेकिन, साथ ही, यह निर्देशित करना भी नहीं भूलते कि छोटे-से-छोटे जीव के प्रति अनाश्यक हिंसा से बचना तथा जीव मात्र के कल्याण के लिए प्रयास करना श्रेयस्कर है। सनातन धर्म में केवल मनुष्यों के ही नहीं, बल्कि सभी प्राणियों के कल्याण की कामना की गई है। बौद्ध करुणा और जैन अनुकंपा तथा दोनों धर्मों में मैत्री की अवधारणा में संपूर्ण सृष्टि आ जाती है। पौराणिक हिंदू धर्म में पंच महा भूतयज्ञ का विधान सभी प्राणियों के कल्याण की कामना से किया गया है, जिसका तात्पर्य सभी प्रकार के प्राणियों के आहार चिकित्सा आदि की व्यवस्था करना है। इस तरह सर्वभूतहित या लोकहित की अवधारणा भारतीय जीव-दृष्टि के केंद्र में रही है, जिसे सभी प्रमुख धर्मों-संप्रदायों का समर्थन प्राप्त है।

द्रष्टव्य : पंच महायज्ञ; पौराणिक अहिंसा; अनुकंपा; आचारांग सूत्र।

- नंदकिशोर आचार्य

सर्वोदय : इस शब्द का प्रयोग सर्वप्रथम महात्मा गांधी ने जॉन रस्किन की पुस्तक अनटु दिस लास्ट के अनुवाद का शीर्षक देते हुए किया। रस्किन की किताब का महात्मा गांधी के विचारों पर गहरा प्रभाव था। बाद में, महात्मा गांधी की मृत्यु के बाद, मार्च 1948 ई० में सेवाग्राम में आयोजित गांधी प्रेरित रचनात्मक कार्यकर्ताओं के सम्मेलन में सर्वोदय समिति का गठन किया गया। 1949 ई० में इंदौर के समीप राऊ में हुए सम्मेलन में विनोबा भावे द्वारा सर्वोदय का सैद्धांतिक प्रतिपादन किया गया तथा अखिल भारत सर्वसेवा संघ की स्थापना की गई। अनंतर, सर्वोदय के विचार को दादा धर्माधिकारी तथा जयप्रकाश नारायण आदि द्वारा सैद्धांतिक स्तर पर और विकसित किया गया।

विनोबा के अनुसार सर्वोदय की अवधारणा किसी भी तरह के वर्गवाद अथवा बहुसंख्यक-अल्पसंख्यकवाद का निषेध करते हुए सर्वभूतहिते रता के लक्ष्य को वरीयता देती है। विनोबा उपयोगितावादियों के विचार अधिकतम का अधिकतम हित को अनुचित मानते हुए आपत्ति करते हैं कि इसमें कम-से-कम अर्थात् अल्पसंख्यक पर अन्याय होने की संभावना है, जबकि सर्वोदय का तात्पर्य है कि किसी भी मनुष्य के हित का अन्य मनुष्य के हित से विरोध नहीं हो सकता-जो विरोध दीखता है, वह वास्तविक हित का नहीं वरन् अनर्थ वृत्ति का या विचार-भेद है-अतः सभी का एक साथ हित-साधन संभव है। उनके ही शब्दों में लोगों के स्वार्थ से यदि मैं अपना स्वार्थ अलग करता हूं तो वह स्वार्थ नहीं है, अनर्थ है। उनके अनुसार व्यक्ति और समाज की भिन्न-भिन्न कल्पना नहीं की जा सकती क्योंकि किसी भी व्यक्ति का हित समाज के व्यापक हित से अलग नहीं हो सकता। इसलिए समाज की आर्थिक-सामाजिक-राजनीतिक व्यवस्था ऐसी होनी चाहिए, जिसमें किसी के भी हित की अनदेखी न हो सके। उन्होंने सर्वोदय के दो मुख्य सिद्धांत प्रतिपादित किए-(1) हर एक व्यक्ति अपनी सेवा समाज को अर्पण करे तथा (2) समाज से हर एक को समान रक्षण और विकास का अवसर मिले। विनोबा के इन विचारों का कम्युनिस्ट मैनीफेस्टो के उस विचार से अद्भुत साम्य है, जिसके अनुसार प्रत्येक से उसके सामर्थ्य के अनुसार लेना और उसकी जरूरत के मुताबिक देना चाहिए।

लेकिन, फर्क यही है, और कम महत्त्वपूर्ण नहीं है कि इस आदर्श की पूर्ति के लिए कम्युनिस्ट मैनीफेस्टो वर्ग-संघर्ष का रास्ता अपनाने की बात करता है और साध्य के आधार पर साधन का औचित्य मानते हुए इसके लिए हिंसा को भी अनुचित ही नहीं बल्कि वांछनीय भी मान लेता है, वहीं सर्वोदय में संघर्ष के बजाय सहकार और साधन-साध्य एकत्व के आधार पर अहिंसक एवं रचनात्मक उपायों की ही स्वीकार्यता है। दरअस्ल, सर्वोदय का तत्त्व-ज्ञान आत्मा की एकता है अर्थात् सभी की आत्मा समान है, अतः उनमें किसी भी प्रकार का हिंसक संबंध अस्वास्थ्यकारक है और अस्वास्थ्य को अस्वस्थ उपाय अर्थात् हिंसा से दूर नहीं किया जा सकता। हिंसा से कोई बात आरोपित की जा सकती है, पर मनोवृत्ति को नहीं बदला जा सकता। जयप्रकाश नारायण इसीलिए सर्वोदय और समाजवाद को अभिन्न मानते हुए उसे समाजवाद के उन अन्य प्रकारों से अलग करते हैं, जिनमें हिंसा की कोई भी संभावना दिखाई देती है। सांख्य-दर्शन की त्रिगुणात्मक प्रकृति की अवधारणा के आधार पर समाजवाद का वर्गीकरण करते हुए वह हिंसक क्रांति के माध्यम से स्थापित समाजवाद को तामसिक, राज्य-बल या कानून के माध्यम से स्थापित समाजवाद को राजसिक और सर्वोदय को सात्विक समाजवाद की संज्ञा देते हैं क्योंकि वह पूर्णतया अहिंसक और लोक-इच्छा का परिणाम है।

इस सात्त्विक समाजवाद की स्थापना के लिए विनोबा लोक-शिक्षण को सर्वाधिक महत्त्व देते हैं। भूदान-आंदोलन का प्रमुख उपाय भी लोक-शिक्षण रहा। विनोबा की मान्यता थी कि इसके लिए अहिंसक संघर्ष अर्थात् सत्याग्रह की भी आवश्यकता नहीं है। गणेश मंत्री के शब्दों में गांधी का जोर कृति पर था, तो विनोबा तथा दूसरे सर्वोदयी विचारकों ने अपना समूचा बल चिंतन पर दिया। विनोबा ने अपने तरीके को सत्याग्रह का ही एक प्रकार मानते हुए उसे सौम्य या सौम्यतर सत्याग्रह कहा। इस तरीके से भूदान-आंदोलन में कुछ सफलता भी मिली, लेकिन आर्थिक-सामाजिक संबंधों में लेशमात्र भी बुनियादी परिवर्तन नहीं दिखाई पड़ा। दरअस्ल, अपने आदर्श में सर्वथा वांछनीय होते हुए भी अपने साधनों में अहिंसक संघर्ष या गांधी प्रणीत सत्याग्रह को महत्त्व न देने और उसे स्थूल सत्याग्रह समझने के कारण सर्वोदय पीड़ित-वंचित वर्गों में उत्साह नहीं पैदा कर पाया। डॉ० राममनोहर लोहिया ने 1952 ई० में सर्वोदय के कामों में सहयोग की बात करते हुए भी उसके तरीकों की अपर्याप्तता की ओर इशारा कर दिया था कि यद्यपि घृणा पर आधारित क्रांतियों ने एक तरह की अत्याचारी व्यवस्था की जगह दूसरी तरह की अत्याचारी व्यवस्था लादी है, लेकिन प्रेम की क्रांतियां भी कभी साकार नहीं हो पाई। इसलिए अहिंसक रहते हुए भी संघर्ष आवश्यक है। उन्हीं के शब्दों में साम्यवाद घृणा का सिद्धांत है, जबकि सर्वोदय प्रेम का अपर्याप्त सिद्धांत है। जब किसी क्रांति में प्रेम और शेष, सबके लिए प्रेम और अन्याय के प्रति रोष की मिली-जुली अभिव्यक्ति होगी, तभी मनुष्यता आगे बढ़ेगी।

सर्वोदय-विचार के कई अनुयायियों को भी यह अपर्याप्तता दिखाई दे रही थी। इसमें सबसे बड़ा उदाहरण जयप्रकाश नारायण का है, जिनका अनुभव यह बता रहा था कि केवल लोक-शिक्षण या रचनात्मक कार्यक्रमों के माध्यम से सात्विक समाजवाद की स्थापना नहीं हो सकेगी। उसकी यह मान्यता बन गई थी कि आर्थिक-सामाजिक संबंधों में परिवर्तन के लिए वर्ग-संघर्ष से बचा नहीं जा सकता, लेकिन यह अहिंसक होना चाहिए। लोक-शिक्षण, रचनात्मक कार्यक्रम और अहिंसक संघर्ष या सत्याग्रह साथ-साथ चलने पर ही कोई बुनियादी परिवर्तन संभव है।

सर्वोदय-विचार में सत्याग्रह को जोड़ देने पर वह एक मुकम्मल अहिंसक क्रांति-दर्शन बन जाता है-गांधी-विचार का सच्चा प्रतिनिधि। सत्याग्रह अहिंसा की प्रत्यक्ष कारर्वाई है, जिसके बिना क्रांतिकारी परिवर्तन संभव नहीं-यदि सैद्धांतिक तौर पर संभव मान भी लें तो उसकी क्रियान्विति में कितने हजार साल लगेंगे, इस बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता। लेकिन, इसमें कोई संदेह नहीं कि सर्वोदय विचार समाज में अहिंसा के पक्ष का वातावरण बनाने में महती भूमिका अदा कर सकता है।

द्रष्टव्य : विनोबा; नारायण, जयप्रकाश।

- नंदकिशोर आचार्य

सांख्य दर्शन में अहिंसा : सांख्य दर्शन में अहिंसा (Non-violence/Non-injury) का क्या स्वरूप है, इसके निर्धारण के पूर्व यह निर्धारण करना आवश्यक-सा प्रतीत होता है कि अहिंसा से क्या अभिप्राय है-यद्यपि इस पर विचार करना एक नए अध्याय पर विचार करना होगा। ऐसे में अहिंसा या हिंसा का स्थूल एवं सूक्ष्मरूप जो बहुप्रचलित होने के साथ अधिकाशंतः सर्वस्वीकृत भी रहा है, दृष्टिगत रखते हुए सांख्य दर्शन में इस संप्रत्यय पर विचार करने का प्रयास किया गया है। इसका आधार ईश्वरकृष्ण सांख्य-कारिका, सांख्य तत्त्व कौमुदी एवं सांख्य प्रवचन भाष्य को प्रमुख रूप से माना है। सांख्य दर्शन कृत केंद्रीय ग्रंथ सांख्यकारिका में अहिंसा एवं हिंसा दोनों ही शब्दों का सीधा प्रयोग नहीं किया गया है। यद्यपि हिंसा की बात अप्रत्यक्ष रूप से सांख्य तत्त्व कौमुदी की कारिका व्याख्या 2 में कही गई है। कारिकाकार एवं कौमुदीकार के मत में सांख्य में दैहिक कर्मकांड यथा ज्योतिष्टोमादि यज्ञ, हिंसादिजन्य पाप से मिश्रित होने से अविशुद्ध एवं मलिन हैं। अतः कारिकाकार द्वारा प्रतिपादित मार्ग विवेकख्याति अथवा व्यक्त अव्यक्त एवं इसका भेद ज्ञान जो कैवल्य स्वरूप या पुरुष स्वरूप है दोषहीन है। यह मार्ग वैदिकी उपायों के दोष अविशुद्धि, मलिनता से शून्य हैं। वैदिक उपाय जो यज्ञादि में प्रयुक्त जीव/पशु-हिंसा है, वह हिंसा युक्त होने से दोषयुक्त कर्म, आपत्तिजनक उपाय है। वैदिक कर्मकांड या उपायों के प्रति व्यक्त की गई आपत्ति एवं त्याज्यता सांख्य में अहिंसा की प्राथमिकता को दर्शित करती है, जिसे सांख्यकारिका 2 एवं सांख्य प्रवचन भाष्य 1/6 में व्यक्त किया गया है।

अहिंसा का सूक्ष्म अर्थ इस दर्शन में संपूर्ण रूप से पदार्थ (त्रिगुणात्मक प्रकृति) एवं आत्म (त्रिगुणातीत पुरुष) दोनों ही स्तर पर देखा जा सकता है जहां शुद्ध चैतन्य पुरुष का अपने शुद्ध चैतन्य स्वभाव से विच्यूर्त न होना अहिंसा है वही त्रिगुण का सरूप परिणाम अविषम अवस्था में रहना अहिंसा है, जो दोनों ही स्तर पर अविकारी/अविकृत भाव है। अहिंसा का यह स्वरूप अनुभवातीत (Transcendental) अवस्था का है जहां वृत्ति सारूप्यता का पूर्ण अभाव है, एवं पुरुष की अपने स्वरूप में अवस्थिति है। यह योग में ध्यान की उच्चतम अवस्था या उच्चतम समाधि में ही प्राप्त की जा सकती है।

अनुभव का लौकिक स्तर जो दृष्टिसारूप्यता या त्रिगुणात्मकता का है वहां अहिंसा का प्रत्यय, हिंसा के समप्रत्यय के समान, तारतम्यता लिए हुए है। ऐसे में अहिंसा, हिंसा के साथ अविभोज्य है वैसे ही जैसे इस दर्शन में सत्व गुण, रज व तम के साथ या कोई एक गुण शेष अन्य दो गुणों के साथ। ऐसे में क्या सात्विक अहिंसा एवं तामसिक अहिंसा अथवा सात्विक हिंसा एवं तामसिक हिंसा को सार्थक पद कहा जा सकता है?

यह कहा जा सकता है कि अहिंसा एवं इसका विपरीत शब्द हिंसा दोनों ही भावात्मक या भावमूलक संप्रत्यय होने के साथ ही, अहिंसा का संप्रत्यय सांख्य दर्शन में एक मूल्यात्मक/आदर्शात्मक संप्रत्यय है। यदि द्वेषादि भावों के अविवेकाव्यादि धर्मो (पुरुष-प्रकृति-अभेदज्ञान) की उपस्थिति हिंसा की सूचक है एवं आत्मा की तटस्थ शांत विवेकी स्थिति, अहिंसा के भाव की सूचक है, तब सांख्य दर्शन में हिंसा का भाव अनिवार्यतः, जैसे ऊपर कहा गया, त्रिगुण का परिणाम होने से जगत का अंश होने के साथ ही अहिंसा से भी जुड़ा है, चाहे न्यून या नगण्य मात्रा में हो। सामान्य भाषा में हम यह कह सकते हैं कि यदि अहिंसा एक धर्म है (अहिंसा परमो धर्मः) एवं धर्म का एक मूल सर्वस्वीकृत भाव मन की (अंतःकरणयुक्त आत्म) की निर्मलता से है, ऐसे में हिंसा का सूक्ष्म रूप, मन की सफलता द्वेष, अहंकार (अस्मिता) मिथ्या ज्ञान या अविद्या से है। तब संपूर्ण जगत में कमोबेश (न्यूनाधिक) रूप से हिंसा ओतप्रोत है, क्योंकि द्वेष व अस्मितादि धर्म जो हिंसा के रूप या मूल है जो गुण एवं तमोगुण से जुड़े है एवं सांख्य दर्शन में त्रिगुण, जो द्रव्य रूप में जगत के उपादान है, चराचर नित्य संबद्धता लिए हैं, जहां किसी एक गुण के साथ अन्य शेष गुण भी अनिवार्यतः उपस्थित माने गए हैं। यद्यपि विचार के इस पक्ष में हिंसा-अहिंसा भी सांख्य में स्वीकृत सत्, रज, तम की भांति उच्च रूप, उपादान रूप हो जाएंगे। तब हिंसा एवं अहिंसा, जो क्रमशः रज, तम एवं सत्व गुण से जुड़े (संबंधित) हैं, का विस्तार सांख्य में प्रत्यय सर्ग (भाव सर्ग) एवं तन्मात्र सर्ग में है, जिसमें प्रत्यय सर्ग में 50 घटक यथा विपयर्य : 5, अशक्ति : 28, तुष्टि : 9 एवं सिद्धि : 8 प्रकार है एवं तन्मात्र (भौतिक सर्ग) में 14 प्रकार की सृष्टि यथा देव सृष्टि : 8 प्रकार, तिर्यक सृष्टि : 5 प्रकार एवं एक प्रकार की मनुष्य सृष्टि क्षमारहित है। प्रत्यय सर्ग (बुद्धि सर्ग) की प्रथम तीन यानी विपयर्य, अशक्ति एवं तुष्टि जो रज एवं तम गुण प्रधान है, चतुर्थ यानि सिद्धि की निवारक होने से हेय एवं त्याज्य है। इनमें अष्ट सिद्धियों में रम्यक सिद्धि जिसे सुहृत्प्राप्ति भी कहा है को गुरु-शिष्य एवं सहाध्यार्थियों से एक वाक्यता के रूप में वर्णित किए जाने से इसे अहिंसा के एक आयाम की अभिव्यक्ति मानी जा सकता है। भौतिक सर्ग में देव एवं तिर्यग् सृष्टि क्रमशः अहिंसा एवं हिंसा, जो मूलतः भारतीय परंपरा में शुभ-अशुभ या पाप-पुण्य के रूप में देखे गए हैं, के आयामों को अभिव्यक्त करती प्रतीत होती है।

अहिंसा के आयामों को, फलतः हिंसा के आयामों को भी, अहिंसा को हिंसा के अभाव रूप में देखे जाने से, सांख्य दर्शन के प्रमाण मीमांसा प्रमेय मीमांसा एवं पुरुषार्थ मीमांसा में अनेक स्थलों पर देखा जा सकता है। लौकिक स्तर पर बुद्धि के सात्विक भाव (धर्म) से लेकर तामस धर्मः अधर्म, राग, अशक्ति एवं अविवेक्यादि तक में जहां इन दोनों संप्रत्ययों की तारतम्यता को देखा जा सकता है, वहां इनके स्वयं के अनेक उपभेद त्रिगुण के आधार पर भी किए जा सकते हैं। यथा अहिंसा का राजसिक एवं तामसिक रूप तथा हिंसा का राजसिक एवं सात्विक स्वरूप। अनुभवातीत स्तर पर कहा जा सकता है कि आत्म, जो शुद्ध चैतन्य है, बुद्धि मानना (पौरुषेय बोध) या बुद्धि को जड़ होने पर भी चेतनवत् सी प्रतीत होने पर चेतन मानना, जहां हिंसा का मूल आरंभ है, वहीं पुरुष, जो स्वरूपतः कैवल्य, त्रिगुणातीत होने से उसकी आत्यंतिक निवृत्ति की अवस्था है, अहिंसा का शुद्ध रूप हैं।

वस्तुतः, चेतना के तीन आयामों की भांति ही हिंसा एवं अहिंसा के त्रिविध आयाम सत्व, रज एवं तम में न देखकर भाव, कर्म एवं ज्ञान में देखे जा सकते हैं : अहिंसा का भाव-परक या भाव प्राधान्य आयाम; अहिंसा का कर्म परक या कर्म प्राधान्य आयाम। सांख्य में अहिंसा के कर्म एवं ज्ञानपरक आयाम की प्राधान्यता है जिसे सांख्य दर्शन के विषय यथा वैदिकी उपायों का निषेध (कारिका 2), रम्यक सिद्धि (संवाद) की परिकल्पना (कारिका 51) एवं विवेक ख्याति रूपी उपाय (कारिका 2) में प्रमुख रूप से देखी जा सकती है। अहिंसा के भावपरक आयाम जो सुख, धर्म, मैत्री, आनंद, करुणा, प्रेम, सेवा, सर्वभूतहितरक्षा के संप्रत्ययों एवं भावों में अधिक होते है उसको अंश रूप में बुद्धि के 4 सात्विक धर्मों में देखा जा सकता है, यद्यपि वहां भी सांख्य की त्रिविध गुण की परिकल्पनानुसार उन भावपरक आयामों को सत्व गुण से जोड़कर तमोगुण की उपस्थिति से युक्त माना गया है जबकि ये आयाम अंश रूप में बौद्धों के महायान संप्रदाय एवं वेदांत दर्शनों विशेषतः, वैष्णव वेदांत दर्शनों में केंद्रीय रूप से देखा जा सकता है। वस्तुतः, इस दर्शन को प्रमुख रूप से अहिंसा (शांति व सर्वकल्याण) के स्थायी सकारात्मक एवं भावपरक व्याख्या के रूप में देखा जा सकता है।

- डॉ० योगेश गुप्त

सांस्कृतिक-ऐतिहासिक मनोविज्ञान : द्रष्टव्य : सांस्कृतिक मनोविज्ञान।

सांस्कृतिक मनोविज्ञान (संदर्भ हिंसा) :सामान्यतः, यह माना जाता है कि मनुष्यों का आचरण सामान्य मनोविज्ञान से प्रेरित होने के कारण सार्वभौमिक मनोवैज्ञानिक सिद्धांतों के आधार पर समझा जा सकता है। मनोविज्ञान की मुख्य धारा यही है। लेकिन, मनोवैज्ञानिकों के ही एक समूह का विचार है कि जिसे हम सार्वभौमिक मनोविज्ञान कहते हैं, उसके अध्ययन का आधार यूरो-अमरीकी मनुष्य होने के कारण उसके निष्कर्ष सिर्फ उन्हीं लोगों पर लागू होते हैं। उनका तात्पर्य यह है कि मनुष्य की भावनाएं और आचरण संस्कृति-सापेक्ष होने के कारण उनके बारे में कोई सार्वभौमिक सिद्धांत नहीं बनाए जा सकते। जिन सिद्धांतों को हम सार्वभौमिक कहते हैं, उनका भी आचरणगत रूप बड़ी हद तक संस्कृति-सापेक्ष होता है। यदि इस आधार पर हिंसा के मनोविज्ञान को समझने की कोशिश करें तो कहा जा सकता है कि किसी व्यक्ति का स्वभावतः हिंसक होना या न होना उस सांस्कृतिक मानसिकता पर निर्भर करता है, जिसमें उसका पालन-पोषण हुआ है। इस तरह के मनोवैज्ञानिक अध्ययन को सांस्कृतिक मनोविज्ञान कहा गया है। मनोविज्ञान की इस शाखा का विकास मुख्यतः, बीसवीं शताब्दी के उत्तरार्ध में ही हो पाया है। इस के विकास में लेविन (Levine), श्वीडर (Shweder) ब्रूनर (Bruner) आदि मनोवैज्ञानिकों का उल्लेखनीय योगदान माना जाता है। रिचर्ड श्वीडर का निष्कर्ष है कि पश्चिमी प्रयोग अक्सर गैर-पश्चिमी वातावरण में असफल रह जाते हैं।

मानव-आचरण के हिंसक पक्ष का अध्ययन भी सांस्कृतिक मनोविज्ञान को वैधता प्रदान करता है। एक मानव-प्रकृति के रूप में आक्रामकता का अध्ययन इस मान्यता की पुष्टि करता है। मनोवैज्ञानिकों में आक्रामकता की परिभाषा और व्याख्या को लेकर कुछ मतभेद रहे हैं-और कुछ लोग आत्मरक्षात्मक आक्रामकता को आक्रामकता के रूप में स्वीकार नहीं करते। लेकिन आत्मरक्षात्मक आक्रामकता भी यह तो सिद्ध करती ही है कि यह आक्रामकता अंतर्जात नहीं बल्कि स्थिति-सापेक्ष है और एक स्थिति में दो भिन्न संस्कृतियों में दीक्षित व्यक्ति भिन्न आचरण कर सकते हैं। अमेरिका में हिंसा की स्थिति पर एक विस्तृत अध्ययन का यह निष्कर्ष उल्लेखनीय है कि प्रकृति हमें केवल हिंसा के लिए समर्थ बनाती है; हम उस सामर्थ्य का इस्तेमाल करें या नहीं, अथवा कैसा करें, यह हमारी सामाजिक परिस्थिति द्वारा निर्धारित होता है। इस सामाजिक परिस्थिति में सांस्कृतिक मानसिकता एक प्रमुख घटक होता है। ओटो क्लाइनबर्ग इसी अध्ययन के आधार पर निष्कर्ष स्वरूप कहते हैं कि हिंसा न सार्वभौमिक है, न अनिवार्य और न ही प्रवृत्तिगत; कुछ व्यक्तियों या व्यक्ति-समूहों में यह अधिक परिलक्षित होती है और कुछ में अत्यंत कम। इसका क्या कारण है कि एक-सी परिस्थिति में एक व्यक्ति या समूह हिंसक हो उठता है और दूसरा नहीं?

इस सवाल का उत्तर देते हुए अमरीकी समाजशास्त्री वोल्फगांग (Wolfgang) और इतालवी मनोवैज्ञानिक फेराकुती (Ferracuti) की मान्यता है कि यह संबंधित व्यक्ति या समूह की उपसंस्कृति पर निर्भर करता है। कुछ संस्कृतियों या उपसंस्कृतियों में रूढ़िबद्ध नैतिक प्रतिमान या लोक-मान्यताएं हिंसा को उचित और सम्माननीय मानती हैं, जबकि अन्य में ऐसा नहीं होता। एंड्रयू और उनके साथियों का निष्कर्ष है कि जापानी लोगों की तुलना में अमेरिकी दैहिक हिंसा की ओर अधिक शीघ्रता से उन्मुख होते हैं, जबकि जापानी लोग शाब्दिक द्वंद्व को प्राथमिकता देते हैं। बाउडल एवं अन्य का अमरीकी समाज का अध्ययन बताता है कि उत्तरी अमेरिका के लोगों की अपेक्षा दक्षिणी अमेरिका के लोग अधिक हिंसक प्रतिक्रिया करते हैं। इसी प्रकार, जैन, वैष्णव आदि संप्रदायों के बारे में कहा जा सकता है कि उन संस्कृतियों में पोषित लोग सामान्य व्यवहार में कम हिंसक पाए गए हैं। स्त्रियों में पुरुषों की तुलना में स्पष्टतया कम हिंसक आचरण प्रदर्शित होना भी काफी हद तक उनकी सांस्कृतिक मनोरचना के कारण संभव होता है।

सांस्कृतिक-ऐतिहासिक मनोविज्ञान के शोध भी इस मान्यता की ही पुष्टि करते हैं कि मनुष्य का आचरण बड़ी हद तक सांस्कृतिक मनोरचना पर निर्भर है। मनोविज्ञान की इस शाखा के एक रूसी प्रवर्त्तक व्यीगोत्स्की (Vygotsky) के बाल-विकास के अध्ययन का निष्कर्ष है कि एक बच्चे की मनोरचना का विकास बड़ी हद तक उसकी संस्कृति और अंतर्वैयक्तिक संप्रेषण पर निर्भर करता है। उसका मानना है कि एक विशिष्ट सांस्कृतिक समूह में ऐतिहासिक परिस्थितिगत कारणों से कुछ उच्च मानसिक प्रकायों का विकास होता है और माता-पिता तथा अन्य वयस्क लोगों के साथ सामजिक अंतःक्रिया के माध्यम से व्यक्ति रूप में एक बालक अपनी सांस्कृतिक आदतें विकसित कर लेता है। व्यीगोत्स्की की इस मान्यता को सांस्कृतिक मध्यस्थता कहा जाता है। व्यीगोत्स्की इस सांस्कृतिक शिक्षण की मानव-विकास में सर्वाधिक महत्त्वपूर्ण भूमिका देखता है। स्पष्ट है कि सांस्कृतिक मनोविज्ञान के अनुसार हिंसक आचरण का विकास भी बहुत कुछ सांस्कृतिक वातावरण और तत्प्रेरित मनोरचना से प्रभावित होता है।

- नंदकिशोर आचार्य

सांस्कृतिक मानवाधिकार : मानवाधिकार विमर्श में सांस्कृतिक मानवाधिकारों को 1991 ई० में स्विट्जरलैंड के फ्रीबोर्ग विश्वविद्यालय में आयोजित एक सम्मेलन में मानवाधिकारों की एक अविकसित श्रेणी और अन्य मानवाधिकारों का गरीब रिश्तेदार कहा गया। इसका मूल कारण यह था कि मानवाधिकार आयोग की बहसों और रपटों में मानवाधिकारों का यह आयाम लगभग उपेक्षित ही रहा। मानवाधिकार घोषणा-पत्र में सांस्कृतिक अधिकार का उल्लेख तो है, पर सांस्कृतिक अस्मिता का नहीं और अल्पसंख्यकों के सांस्कृतिक अधिकारों का भी अलग से जिक्र नहीं है। 1966 ई० में पारित नागरिक-राजनीतिक अधिकारों की संविदा के अनुच्छेद 27 में यह जरूर कहा गया है कि अल्पसंख्यक समूहों के व्यक्तियों को अपने समूह के अन्य सदस्यों के साथ सामुदायिक रूप से अपनी संस्कृति का आनंद उठाने, अपने धर्म का पालन और भाषा का इस्तेमाल करने से वंचित नहीं किया जाएगा। आर्थिक-सामाजिक-सांस्कृतिक अधिकारों की संविदा (1966 ई०) में प्रत्येक व्यक्ति के लिए (1) सांस्कृतिक जीवन में हिस्सा लेने, (2) वैज्ञानिक प्रगति और उसके प्रयोगों का लाभ उठाने और (3) अपने द्वारा सृजित किसी भी वैज्ञानिक, साहित्यिक या कलात्मक कृति से उत्पन्न नैतिक और भौतिक हितों के संरक्षण से लाभान्वित होने के अधिकार की गारंटी दी गई है।

दरअस्ल, अल्पसंख्यकों या सांस्कृतिक समूहों के अधिकारों के अलग से जिक्र न करने के पीछे सरकारों की यह आशंका रही कि इससे उन समूहों में अलगाववादी भावनाओं को प्रोत्साहन मिल सकता और राष्ट्रीय एकता को खतरा पैदा हो सकता है। लेकिन 20वीं शताब्दी के अंतिम दशक में सांस्कृतिक अधिकारों की ओर विशेष ध्यान दिया जाने लगा। यह समझ बनने लगी कि सांस्कृतिक समूहों के आपसी झगड़ों को निपटाने के लिए सांस्कृतिक अधिकारों का संरक्षण जरूरी है। साथ ही, यह भी महसूस किया जाने लगा कि मानव-विकास के साथ-साथ आर्थिक विकास में भी संस्कृति की अत्यंत महत्त्वपूर्ण भूमिका है। कोपेनहेगन में 1995 ई० में सामाजिक विकास के लिए विश्व-सम्मेलन में इन दोनों बातों को स्वीकार किया गया। संयुक्त राष्ट्र संघ ने 1988-97 ई० को सांस्कृतिक विकास दशक घोषित किया। 1995 ई० में संस्कृति और विकास आयोग ने अपनी रपट में रचनात्मक वैविध्य पर बल देते हुए सांस्कृतिक अधिकारों को मानवाधिकारों की हैसियत से संरक्षण देने की सिफारिश की।

संस्कृति की परिभाषा और व्याख्या को लेकर कई तरह के मतांतर रहे हैं। संपूर्ण मनुष्य जाति की एक संस्कृति हो सकती है और एक समूह की भी। संस्कृति उपराष्ट्रीय, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय हो सकती है। उसे मानववादी और नृतत्त्वशास्त्रीय अर्थों में भी समझा जा सकता है। इन सब पर विचार करते हुए जाति और जातीय भेदभाव से संबंधित यूनेस्को घोषणा (1978 ई०) के अनुच्छेद एक में यह स्वीकार किया गया कि सभी व्यक्ति और समूह भिन्न या विशिष्ट होने और स्वयं को भिन्न समझने और समझे जाने का अधिकार रखते हैं। एक व्यक्ति की कई सांस्कृतिक अस्मिताएं हो सकती हैं-जैसे भाषा, धर्म, जाति या भौगोलिक आदि आधारों पर लेकिन उसे उन सबको किसी एक अस्मिता में विलय कर देने के लिए बाध्य नहीं किया जा सकता।

सांस्कृतिक अधिकारों की संविदा में सांस्कृतिक अस्मिता और सांस्कृतिक जीवन में सहभागिता के अधिकार के साथ-साथ कई अधिकारों की सूची दी गई है जिसमें शिक्षा का अधिकार, सर्जनात्मकता और उससे लाभ का अधिकार, सूचना का अधिकार, राष्ट्रीय और अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर सांस्कृतिक विरासत के नष्ट किए जाने के विरूद्ध संरक्षण का अधिकार, अंतर्राष्ट्रीय सांस्कृतिक सहयोग का अधिकार, बौद्धिक स्वतंत्रता का अधिकार, अकादमीय समुदाय का सदस्य बनने, शोध का विषय एवं प्रविधि चुनने, ज्ञान को मान्यता दिए जाने, सूचना प्राप्त करने और दुनिया में कहीं भी अपने समानधर्माओं से सलाह-मशविरा करने का अधिकार शामिल है।

संस्कृति और विकास पर विश्व-आयोग के प्रतिवेदन में कहा गया है कि सांस्कृतिक स्वतंत्रता वैयक्तिक स्वतंत्रता के उलट एक सामूहिक स्वतंत्रता है। यह व्यक्ति और समूह दोनों के लिए है। लेकिन इस पर यह सवाल उठाया जा सकता है कि क्या सांस्कृतिक मानवाधिकार के नाम पर समूह व्यक्ति की स्वतंत्रता को बाधित कर सकता है। इसका स्पष्ट उत्तर नकारात्मक है। प्रत्येक समूह अपनी सांस्कृतिक स्वतंत्रता का संरक्षण चाह सकता है, लेकिन उसे यह अधिकार नहीं है कि वह इस बहाने अपने किसी व्यक्ति-सदस्य के सांस्कृतिक एवं अन्य अधिकारों का हनन अथवा अतिक्रमण कर सके। मानवाधिकार मूलतः व्यक्ति मनुष्य के अधिकार हैं और कोई भी सामूहिक अधिकार उनका अतिक्रमण नहीं कर सकता। व्यक्ति समूह के निर्णय को मानने के लिए बाध्य नहीं है।

सांस्कृतिक मानवाधिकारों के विमर्श में सांस्कृतिक सापेक्षतावादियों के इस तर्क की भी पूरी तरह अनदेखी नहीं की जा सकती कि सभी संस्कृतियां समान रूप से मूल्यवान है, इसलिए उनके वैशिष्ट्य की अवहेलना करते हुए कोई सार्वभौम सांस्कृतिक या नैतिक प्रतिमान सब पर समान रूप से लागू नहीं किया जा सकता। लेवी-स्ट्रास की मान्यता है कि प्रत्येक संस्कृति की अपनी स्वतंत्र मूल्यवत्ता है। लेकिन, साथ ही, इस स्वतंत्र मूल्यवत्ता या वैशिष्ट्य को स्वीकार करते हुए भी संस्कृति को कोई जड़ वस्तु नहीं माना जा सकता। सापेक्षतावादियों को असहमति जताते हुए सार्वभौम सांस्कृतिक मूल्यों को महत्त्व देने वाले विचारकों-यथा जॉन फिन्निस आदि-का तर्क है कि संस्कृति एक गत्यात्मक प्रक्रिया है और विभिन्न संस्कृतियों के बीच अंतःक्रिया से इस गत्यात्मकता को बल मिलता है। यह भी उल्लेखनीय है कि सापेक्षतावादी भी मानवाधिकारों को अस्वीकार नहीं करते। वे इसके लिए अलग तर्क खोजते हैं। जैकब रोज मानते हैं कि मानवाधिकारों का आधार मूल्य-आधारित हितों में है, जबकि रिचर्ड रोर्टी मानवाधिकारों के लिए तर्क और सिद्धांतों के बजाय उत्साह और आस्था-प्रेरित साहस को अधिक महत्त्वपूर्ण मानते हैं।

द्रष्टव्यः सांस्कृतिक सापेक्षतावाद।

- नंदकिशोर आचार्य

सांस्कृतिक सापेक्षतावाद : हेगेल ने नैतिकता के दो प्रकार बताए हैं : सार्वभौमिक नैतिक नियम और विशेष नृजाति अथवा समुदाय के नैतिक मूल्य। सांस्कृतिक सापेक्षतावाद एक ऐसी अवधारणा है जो मानती हैं कि सांस्कृतिक अथवा नैतिक मूल्यों की कोई सार्वभौमिक अवधारणा नहीं हो सकती है। इस विचार के प्रमुख प्रवक्ता आर०ई० होवार्ड हैं और रिचर्ड रोर्टी और गुडमैन जैसे समकालीन चिंतक भी सापेक्षतावाद का समर्थन करते हैं। क्लॉड लेवी-स्ट्रॉस जैसे नृत्तत्वशास्त्री यह कहकर उनका समर्थन करते हैं कि सभी संस्कृतियों का अपना-अपना स्वतंत्र मूल्य है। इसका तात्पर्य यह होता है कि हम किसी भी संस्कृति पर किसी अन्य संस्कृति का मूल्य आरोपित नहीं कर सकते हैं। यह अवधारणा मानवाधिकार-विमर्श में एक प्रश्न पैदा करती है कि क्या मानवाधिकार सार्वभौमिक हो सकते हैं या उन्हें भी संस्कृति-सापेक्ष मानना होगा। इसी के साथ सांस्कृतिक अस्मिता की अवधारणा भी जुड़ी हुई है। दरअस्ल, सांस्कृतिक सापेक्षतावाद की अवधारणा इस पूर्व मान्यता पर आधारित है कि सार्वभौमिक संस्कृति जैसी कोई चीज नहीं होती-जिसका एक निहितार्थ यह भी हो सकता है कि सार्वभौमिक मानवाधिकार जैसी भी कोई चीज नहीं हो सकती-क्योंकि प्रत्येक संस्कृति का अपना विशिष्ट चरित्र होता है, जो उसके परंपरागत रिवाजों के रूप में अभिव्यक्त होता है और, इसलिए, उन रिवाजों में कोई भी परिवर्तन उस विशिष्ट चरित्र को, अर्थात् उस समाज की सांस्कृतिक अस्मिता को नष्ट करने की दिशा में उठाया जा रहा कदम है।

लेकिन सांस्कृतिक सापेक्षतावाद की इस अवधारणा पर सार्वभौमिक नैतिकतावादी कुछ बुनियादी सवाल उठाते हैं। इनमें जान फिन्निस का नाम प्रमुख रूप से लिया जा सकता है। इनका कहना है कि सांस्कृतिक सापेक्षतावाद संस्कृति को एक ठहरी हुई गतिहीन चीज मानता है। वह सांस्कृतिक गत्यात्मकता को महत्त्व नहीं देता। यह समझने की जरूरत है कि रिवाजों तथा बुनियादी सांस्कृतिक मूल्यों में फर्क होता है। रिवाज एक ऐतिहासिक प्रक्रिया की उपज होते हैं और इतिहास निरंतर चलता रहता है, अर्थात् रिवाजों में निरंतर परिवर्तन न केवल संभव, बल्कि काम्य है। यह देखा जाना चाहिए कि किसी संस्कृति का बीज किसी बुनियादी मूल्य बोध में है या इतिहास के एक विशेष दौर में विकसित किसी स्थिति-सापेक्ष रिवाज में। वह रिवाज आज उचित है या अनुचित, इसे आज के ऐतिहासिक संदर्भ के साथ-साथ उस बुनियादी मूल्य-दृष्टि की कसौटी पर भी परखने की आवश्यकता है जो किसी संस्कृति की बुनियाद है। इस दृष्टि से देखें तो किसी भी संस्कृति को बुनियादी नैतिक मूल्यों या बुनियादी मानवाधिकारों की विरोधी नहीं माना जा सकता क्योंकि सभी के मानवीय आशय साररूप में समान होते हैं। विकृति वहीं आती हैं; जहां मनुष्य के मनुष्य होने के आधार की अनदेखी की जाने लगती है। किसी विकृति के दीर्घकाल तक चलते रहकर एक रिवाज बन जाने से वह संस्कृति नहीं हो जाती।

सार्वभौमिक नैतिकतावादियों का मानना है कि किसी भी प्रकार की संस्कृति के लिए कुछ बुनियादी नैतिक शर्तें होती हैं, जिनकी अनेदखी नहीं की जा सकती; इसलिए, सभी प्रकार के सांस्कृतिक रिवाज सदैव वैध या न्यायपूर्ण नहीं कहे जा सकते। उनकी यह भी मान्यता है कि सांस्कृतिक विकास की गत्यात्मकता के लिए विभिन्न संस्कृतियों में स्वतंत्र विमर्श आवश्यक है।

सार्वभौमिक नैतिकतावादियों में भी मोटे तौर पर दो वर्ग देखे जा सकते हैं। एक अनम्य सार्वभौमिकतावादी है, जो मानता है कि सार्वभौम नैतिक नियमों में कोई शिथिलता स्वीकार्य नहीं हो सकती। मसीहाई धर्मों के बहुत से अनुयायी इसी मत को मानते हैं। दूसरा वर्ग नम्य सार्व-भौमिकतावादियों का है, जो यह मानता है कि कुछ बुनियादी नैतिक नियम हैं, जिन्हें मानना हर किसी के लिए आवश्यक हैं; लेकिन, साथ ही, विशेष समूह कुछ मामलों में अपने नियमों पर भी चल सकते हैं, उदाहरणार्थ, संपत्ति और यौनाचार से संबंधित मसलें लिए जा सकते हैं, जिनमें समुदाय विशेष को अपने नियमों के अनुसार चलने की अनुमति दी जा सकती है। यह, प्रकारांतर से, सार्वभौमिकतावाद या नैतिक निरपेक्षतावाद और सांस्कृतिक सापेक्षतावाद के बीच एक सामंजस्य का प्रयास करता है।

सांस्कृतिक सापेक्षतावाद से प्रसूत सांस्कृतिक अस्मिता की अवधारणा बहुत-से लोगों के लिए एक ऐसी पवित्र अवधारणा है कि उसका स्पर्श भी नहीं जा सकता। यहां इस तथ्य की भी अनदेखी नहीं की जा सकती कि आधुनिक काल में बहुत-से नए राष्ट्र-राज्यों का निर्माण सांस्कृतिक अस्मिता या किसी समाज के विशिष्ट सांस्कृतिक चरित्र के तर्क के आधार पर हुआ है, जिसका तात्पर्य यह है कि सांस्कृतिक अस्मिता की इस अवधारणा को बौद्धिक स्तर पर ही नहीं, राजनीतिक स्तर पर भी मान्यता मिल चुकी है। इसलिए यदि किसी समाज को सांस्कृतिक अस्मिता की रक्षा के नाम पर उत्तेजित किया जा सकता है तो किम आश्चर्यम्! यही कारण है कि सांस्कृतिक अस्मिता की रक्षा के नाम पर आए दिन न केवल दूसरे समूहों-बल्कि स्वयं अपने ही समूह के परिवर्तनकामी सदस्यों पर हिंसक आक्रमण की घटनाएं बढ़ती गई हैं।

यह ठीक है कि प्राकृतिक-ऐतिहासिक परिस्थितियों की वजह से प्रत्येक संस्कृति की अपनी विशिष्ट चारित्रिकता विकसित होती है, लेकिन यह चारित्रिकता संस्कृति की मूल अवधारणा पर आघात नहीं कर सकती। संस्कृति का तात्पर्य ही है मानवीय सर्जनात्मकता का उत्कर्ष। इसलिए विशिष्ट सांस्कृतिक चरित्र के नाम पर यदि मानवीय सर्जनात्मकता पर ही आघात होता है तो उसे संस्कृति नहीं माना जा सकता। किसी भी प्रकार की सर्जनात्मकता के लिए स्वतंत्रता एक पूर्वशर्त है क्योंकि जो व्यक्ति या समाज स्वतंत्रता का दमन करते हैं, वे सर्जनात्मकता के, और इसीलिए संस्कृति के विकास के विरोधी ही माने जाऐंगे। ब्रूनो गैलीलियो या मंसूर आदि के साथ जो व्यवहार हुआ-स्वयं ईसा और हजरत मोहम्मद के साथ भी-वह इसका ज्वलंत उदाहरण है। कोई समाज जिस सीमा तक स्वतंत्रता और सर्जनात्मकता का दमन करने की कोशिश करता है, उस सीमा तक वह एक संस्कृति-विरोधी समाज हो जाता है; यह दमन व्यक्ति के स्तर पर भी हो सकता है और वर्ग, जाति, संप्रदाय या राष्ट्र के स्तर पर भी। मानवीय स्वतंत्रता से वंचित समाज की कोई संस्कृति ही नहीं होती।

इसलिए सांस्कृतिक अस्मिता या सांस्कृतिक सापेक्षतावाद के आधार पर कोई संस्कृति विशेष की रक्षा का दायित्व लेना चाहता है तो उसकी प्रक्रिया अहिंसक ही हो सकती है क्योंकि यह समझना आवश्यक है कि संस्कृति की रक्षा की पूर्वशर्त प्रत्येक की स्वतंत्रता की रक्षा है और कोई विशिष्ट संस्कृति, दरअस्ल, संस्कृति है ही नहीं यदि वह संस्कृति मात्र की अवधारणा की कसौटी पर खरी नहीं उतरती। मानवाधिकार अर्थात् मानव स्वातंत्र्य-कहें कि प्रत्येक व्यक्ति मनुष्य का स्वातंत्र्य-इसलिए किसी भी संस्कृति की कसौटी है, उसके विशिष्ट चरित्र या अस्मिता की भी। जो अस्मिता स्वातंत्र्य को नकारती है, वह दरअस्ल, अपनी स्वतंत्रता और अस्मिता को भी नकार रही होती है। सांस्कृतिक सापेक्षतावाद का औचित्य इसी में है कि कोई सांस्कृतिक समूह अन्य सांस्कृतिक समूह की अस्मिता का उसी तरह सम्मान करे, जैसा वह अपना सम्मान चाहता है और इसलिए न केवल अन्य संस्कृति में बलपूर्वक हस्तक्षेप न करे बल्कि अपने समूह के सदस्यों भी की स्वतंत्रता और उनके साथ न्यायपूर्ण व्यवहार की गारंटी भी करे।

- नंदकिशोर आचार्य

सांस्कृतिक हिंसा : जोहन गाल्तुंग ने हिंसा के प्रकारों में सांस्कृतिक हिंसा की चारित्रिकता को परिभाषित करते हुए उसे धर्म, विचारधारा, भाषा और कला तथा आनुभविक और औपचारिक विज्ञानों के माध्यम से प्रत्यक्ष तथा संरचनागत हिंसा को समर्थन देने वाली अर्थात् उसे औचित्य प्रदान करने वाली हिंसा कहा है। उनके लिए हिंसा बुनियादी मानवीय आवश्यकताओं और सामान्यतः जीवन का अपमान है। प्रत्यक्ष हिंसा को वह घटना की तरह परिभाषित करते हैं, संरचनागत हिंसा को प्रक्रिया की तरह तथा सांस्कृतिक हिंसा को एक ऐसे स्थिर तत्त्व की तरह, जिसमें परिवर्तन अत्यंत धीमी गति से संभव होता है, जिसका तात्पर्य है कि वह दीर्घकाल तक वैसी ही बनी रहती है। सैनिकवाद को एक उदाहरण के रूप में लिया जा सकता है। सामान्यतया, सैनिकवाद का संबंध मुख्यतया सैनिक में साज-सामान और सैनिकों की वृद्धि और किसी समस्या को सुलझाने के लिए सैनिक कारर्वाई की धमकी या प्रयोग से है। लेकिन शिक्षा-संस्थानों की पाठ्यचर्या में सैनिक प्रशिक्षण तथा सैनिकवाद को एक संस्कृति की तरह प्रचारित किए बिना कोई राज्य अपनी सैनिक कारर्वाईयों का औचित्य नहीं प्रतिपादित कर पाता।

गाल्तुंग सांस्कृतिक हिंसा की चारित्रिकताओं में धर्म और विचारधारा को शामिल करते हैं। इतिहास में इसके समर्थन में मिलने वाले साक्ष्यों की कोई कमी नहीं है। संप्रदायवादी, राष्ट्रवादी तथा क्रांतिवादी हिंसा की घटनाएं इस बात को भलीभांति प्रमाणित करने के लिए पर्याप्त हैं। धर्म को अधिकांशतः संस्कृति का आधार माना जाता रहा है और प्रत्येक धार्मिक समूह अपने विश्वासों को ईश्वर-प्रदत्त मानता और अन्य धार्मिक समूहों को अन्य की तरह देखता है। धर्म एक संस्थान है और एक आस्था भी और ये दोनों व्यवहार में इस तरह घुल-मिल जाते हैं कि उन्हें अलगाना मुश्किल हो जाता है। एक-सी धार्मिक आस्था वाले समूह अपनी अस्मिता का मुख्य आधार उसी समूह से जुड़ा होना मानते हुए अन्य धार्मिक आस्था वाले समूहों को अपने से अलग मानते हैं, जिसका प्रभाव उनकी सामाजिक-राजनीतिक और आर्थिक प्रक्रियाओं पर भी पड़ता है। इजरायल-फिलीस्तीनी संघर्ष को इसके उदाहरण के रूप में लिया जा सकता है। हटिंगटन जिसे सभ्यताओं का संघर्ष कहते हैं, वह भी मूलतः धार्मिक समूहों का संघर्ष ही है। बहुत से देशों में अन्य धर्मावलंबियों को द्वितीय श्रेणी के नागरिकों का दर्जा दिया जाता है। कई देशों में सांप्रदायिक दंगों का मनोवैज्ञानिक कारण यही है कि एक संप्रदाय दूसरे संप्रदाय को अपना शत्रु समझता है और उसका विनाश अपना धार्मिक कर्त्तव्य मानता है। आजकल जिस सांस्कृतिक पहरेदारी के कई उदाहरण देखने में आते हैं, उनका भी सांस्कृतिक औचित्य विश्वासों से ही प्रमाणित किया जाता है। राष्ट्रवादी या विचारधारात्मक हिंसा भी इसी तरह अन्य राष्ट्रों और विचारधाराओं को अपने से हीन या शत्रु मानने का परिणाम होती है। विचारधारात्मक हिंसा अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर भी होती है और किसी राज्य में आंतरिक स्तर पर भी। प्रथम और द्वितीय महायुद्धों के आर्थिक-राजनीतिक कारणों की पृष्ठभूमि में राष्ट्रवाद और सैनिकवाद ने सांस्कृतिक आधार का काम किया था। शीतयुद्ध और मध्य-पूर्व तथा पूर्वी यूरोप के संघर्षों की पृष्ठभूमि में भी सांस्कृतिक हिंसा की मानसिकता ही सक्रिय है। श्रीलंका में तमिल-सिंहली संघर्ष और कई राष्ट्रों की अलगाववादी हिंसा में भी सांस्कृतिक आधारों पर निर्मित अस्मिता-छवि ही आधार का काम कर रही है। गाल्तुंग का कहना है कि राष्ट्र-राज्य की विचारधारा और ईश्वर द्वारा चयनित-समूह (संप्रदाय) के अंतर्ग्रथित हो जाने से भी कई तरह के हिंसात्मक संघर्ष पैदा होते हैं। वह इजरायल, ईरान, जापान, दक्षिण अफ्रीका, नाजी जर्मनी और संयुक्त राज्य अमेरिका तक को इस के उदाहरणों के रूप में गिनाते हैं।

भाषा के आधार पर हिंसा के दो रूप संभव होते हैं। पहला तो यह कि भाषा के अपने आंतरिक तंत्र में किसी वर्ग या समूह के प्रति अपमानजनक व्यवहार, जो संरचनागत हिंसा से तो जुड़ा ही होता है पर, साथ ही, प्रत्यक्ष हिंसा को भी औचित्य प्रदान करता है। भाषा का विन्यास और मुहावरे-कहावतें हमारी मानसिकता से संबंद्ध होते हैं। गाल्तुंग का मानना है कि लेटिन पर आधारित भाषाओं में पूरी मानव-प्रजाति के लिए पुरुषवाचकता का प्रयोग स्त्री-वर्ग को अदृश्य कर देता है। इसी तरह स्त्रियों, कथित निम्न वर्गों और कई अन्य जातियों के लिए जिस तरह की भाषा का सामान्यतया प्रयोग होता है, वह उनके प्रति हो रही संरचनागत हिंसा और उनके द्वारा कभी विरोध करने पर प्रत्यक्ष हिंसा को भी औचित्य प्रदान करने का भाषायी तर्क बन जाता है। उपनिवेशवादी दौर की यूरोपीय कला और साहित्य में काली जातियों और आदिवासी समूहों के चरित्रों को जिस प्रकार से आंका जाता है, वह भी इस प्रकार की सांस्कृतिक हिंसा की मानसिकता को ही दर्शाता है। आधुनिक मानव-विज्ञानी अब यह स्वीकार करने लगे हैं कि सभी संस्कृतियों का समान महत्त्व हैं, लेकिन उपनिवेशवादी दौर में इस तर्क ने साम्राज्यवाद को सांस्कृतिक औचित्य प्रदान किया था कि काली जातियां असभ्य और बर्बर हैं तथा उन्हें सभ्य बनाता श्वेत जातियों का दायित्व है, जिसके लिए उन्हें उपनिवेश बनाना आवश्यक है, एक राष्ट्र की आंतरिक व्यवस्था में भी दलित या वंचित समूहों को कथित भद्रकला और साहित्य में जिस तरह चित्रित किया जाता था, वह उनके आंतरिक उपनिवेशीकरण को सांस्कृतिक औचित्य देने की मानसिकता से ही प्रेरित रहा है। गाल्तुंग उन्नीसवीं शताब्दी फ्रांस में विकसित चित्रकला की एक विशेष शैली को पूर्वी निरंकुशतावाद से प्रेरित बताते हैं, जिस में पूर्वी सुल्तानों को यौन या हिंसा के प्रतिवेश में चित्रित किया गया है। यूरोपीय कार्टूनों में आज भी जिस प्रकार काली जातियों या अन्य धर्मों के चरित्रों को प्रस्तुत किया जाता है, उसे भी सांस्कृतिक हिंसा के उदाहरण के रूप में लिया जा सकता है।

सामाजिक विज्ञानों या प्राकृतिक विज्ञानों के अध्ययन में भी सांस्कृतिक हिंसा के बौद्धिक रूप के उदाहरण मिल जाते हैं। गाल्तुंग इसके उदाहरण के रूप में एडम स्मिथ की अर्थशास्त्रीय परंपरा में नवक्लासिकीय अर्थशास्त्र के व्यापार-सिद्धांत में रिकार्डों की तुलनात्मक अनुकूलता (comparative advantages) की अवधारणा का उदाहरण देते हैं, जिसके अनुसार प्रत्येक देश को उसी वस्तु के आधार पर विश्व-बाजार में प्रवेश करना चाहिए, जिसके लिए उसके पास अधिक अनुकूल परिस्थिति है। गाल्तुंग के अनुसार इसका तात्पर्य यह है कि कच्चे माल और अकुशल श्रम वाले देशों को विश्व-बाजार में केवल कच्चा माल लाना चाहिए, जबकि पूंजी, प्रौद्योगिकी और कुशल श्रम वाले समाजों को उसे तैयार करने में सक्रिय होना चाहिए। इसका सीधा मतलब कच्चे माल वाले अविकसित देशों का विकसित देशों के हक में शोषण को औचित्य प्रदान करना है।

इसी तरह, नारीवादी वैज्ञानिकों का मानना है कि निरपेक्ष बताए जाने वाले विज्ञान में भी लैंगिक पूर्वगृह सक्रिय रहते हैं। नैंसी हान का कहना है कि आब्जेक्टिविटी और न्यूट्रेलिटी एक ही बात नहीं है। आब्जेक्टिविटी के बावजूद आप मूल्य-निरपेक्ष नहीं हो सकते हैं। उनके अनुसार विकास के सिद्धांत में पुरुष-मानसिकता के कारण आखेटक अभिगम (hunter approach) को प्रधानता दी गई, और नारी की संग्रह-कर्ता (gatherer) भूमिका की अनदेखी की गई, जबकि सभ्यता के विकास में नारी की भूमिका कम महत्त्वपूर्ण नहीं है। इसलिए नारीवादी दृष्टि से विज्ञान के सवालों पर पुनः विचार की आवश्यकता है। हम जो सवाल करते हैं, वह हमारी सांस्कृतिक मानसिकता से प्रेरित होता है। गाल्तुंग तो यहां तक मानते हैं कि गणित जैसे विषय के माध्यम से भी सांस्कृतिक हिंसा संभव है। यदि गणित हमें यह बताती है कि कोई प्रमेय और उसका निषेधकर्ता प्रमेय दोनों एक साथ वैध नहीं हो सकते हैं, तो इस धारणा के परिणाम भी हिंसात्मक मानसिकता पैदा कर सकते हैं, क्योंकि यह तर्क-पद्धति एक ऐसी मानसिकता का निर्माण करती है, जिसमें अन्य के लिए कोई जगह नहीं बचती, जबकि संस्कृति में सबको पर्याप्त स्थान (adequatio) मिलना आवश्यक है।

गाल्तुंग की दृष्टि में सांस्कृतिक हिंसा का निराकरण गांधी-दृष्टि से संभव है। वह गांधी-दृष्टि को दो सूत्रों में व्याख्यायित करते हैं : (1) जीवन का एकत्व और (2) साधन-साध्य एकत्व। दूसरे सूत्र से पहला सूत्र स्वयमेव निकल आता है-यदि हम स्वीकार करते है कि जीवन, और विशेषतया मानवीय जीवन, को किसी साध्य के लिए साधन नहीं माना जा सकता।

द्रष्टव्य : गाल्तुंग, जोहन।

- नंदकिशोर आचार्य

साकल्यवादी जीवन (Wholistic Life) : अहिंसक जीवन का तात्पर्य है प्रकृति से संगत जीवन। इसके लिए प्रकृति के नियमों को जानना और उसके अनुकूल जीवन-व्यवस्था का विकास करना है। विज्ञान प्रकृति के नियमों को जानने की प्रविधि है। इस प्रविधि पर कार्टेसियन अवधारणा का गहरा प्रभाव रहा है, जिसके कारण यह अंश (Part) से पूर्ण (Whole) को समझने की चेष्टा करता रहा है। यह माना गया कि पूर्ण को संभव लघुतम अंश तक विभाजित कर देखने से उसका स्वरूप और नियम समझा जा सकता है क्योंकि अंश में भी पूर्ण के सभी गुण पाए जाएंगे। मोटे तौर पर, अभी भी इस अवधारणा का प्रभाव देखा जा सकता है। लेकिन, पिछले कुछ वर्षों में वैज्ञानिकों में यह धारणा बलवती होती गई है कि अंश के माध्यम से पूर्ण को नहीं समझा जा सकता क्योंकि पूर्ण अंशों का समुच्चय मात्र नहीं है और अंश में पूर्ण के गुण नहीं पाए जा सकते। पूर्ण, दरअस्ल, एक संबंध-विधान या तंत्र (System) है, जिसे कोई एक अंश व्याख्यायित नहीं कर सकता और इसलिए अंश को भी पूर्ण के सदंर्भ में ही समझा जा सकता है। विज्ञान की इस अवधारणा को साकल्यवाद (वास्तव में Wholism पर सामान्यतः Holism) कहा जाता है। कार्टेसियन अवधारणा में, अंततः, सारा बल भौतिकी पर आ टिकता है, जबकि साकल्यवादी अवधारणा सभी जीवन-विज्ञानों की पृष्ठभूमि में सक्रिय उन नियमों को समझना चाहती है, जो समस्त सृष्टि को एक तंत्र बनाते हैं। इसे विज्ञान में तंत्र-सिद्धांत (System Theory) कहा जाता है। भारतीय पदावली में इसे ऋत कहा जा सकता है।

गहन पारिस्थितिकी, जिसका प्रस्ताव अर्ने नेस्स करते हैं, यह मानती है कि सारी सृष्टि एक पारिस्थितिकीय तंत्र (Ecosystem) है, और मानव-जीवन उसी का एक अंश है; इसलिए मानव अर्थात् अंश को केंद्र में रखकर पूर्ण को समझने या उसके अनुसार ढालने के बजाय पूर्ण (तंत्र) संदर्भ में अंश (मानव) को समझना और उसी के नियमों के अनुसार मानव-जीवन का संचालन किया जाना विज्ञानसम्मत होगा। फ्रिट्जोफ काप्रा इसके लिए पारिस्थितिकीय साक्षरता (Ecoligical Literary) का प्रस्ताव करते हैं। वह पारिस्थितिकीय तंत्र को एक साकल्य मानते हुए उन नियमों का निर्वचन करते हैं, जो उसे एक साकल्य बनाते हैं।

पारिस्थितिकीय तंत्र का प्रथम नियम अन्योन्याश्रयता (Interdependence) माना जा सकता है क्योंकि एक तंत्र के सभी अंश एक-दूसरे पर निर्भर करते हैं, इसमें बल अलग-अलग अंशों पर नहीं बल्कि अंतस्संबंध के नियमों के बने रहने पर है क्योंकि अंश का अस्तित्व उन्हीं पर टिका है। काप्रा मानते हैं कि साकल्यवादी मानव-जीवन का आधार अन्योन्याश्रयता का यह सिद्धांत ही हो सकता है क्योंकि इसमें सब एक-दूसरे के लिए हैं तथा एक का कल्याण अन्य सबके कल्याण से अविच्छिन्न रूप से जुड़ा है-बल्कि कह सकते हैं कि दोनों का कल्याण एक है और वह है अन्योन्याश्रयता का सम्मान। अगर इसमें कहीं एक स्थल पर कोई बाधा या टूटन आती है तो वह परस्पर निर्भरता की वजह से शनैः शनैः पूरे तंत्र में फैल जाती है।

काप्रा जिस दूसरे नियम की बात करते हैं, वह है पारिस्थितिकीय प्रक्रिया की आवर्ती या चक्रीय प्रकृति, जिसके कारण पारिस्थितिकीय तंत्र में कुछ भी व्यर्थ नहीं जाता; सभी कुछ रूप-परिवर्तन के माध्यम से पुनः चक्रिक होता रहता है। लेकिन, आधुनिक औद्योगीकरण चक्रीय नहीं, रैखिक है। इसी कारण, पर्यावरण और पारिथितिकीय की समस्याएं पैदा हो रही हैं। अर्थ-व्यवस्था का आधार रैखिकता के बजाय चक्रीयता या आवृत्ति के अनुकूल होना साकल्यवादी दृष्टि पुष्ट करने वाला होगा।

इसी तरह साझेदारी या सहयोग पारिस्थितिकी तंत्र से निस्सृत एक और सिद्धांत है, जो साकल्यवादी जीवन का एक प्रमुख आधार है। पारिस्थितिकीय तंत्र के सभी अंश इस तंत्र में एक-दूसरे के साझेदार हैं और तंत्र के सुचारु संचालन में एक-दूसरे के साथ पूर्ण संदर्भ में सहयोग करते हैं। यदि एक अंश अपने को अन्य से अधिक या आनुपातिक महत्त्व देने लगे तो वह न केवल अन्य या पूर्ण के लिए बल्कि, अंततः, स्वयं उसके लिए भी विनाशकारी होगा। काप्रा का निष्कर्ष है कि मानव-समाज में साझेदारी का तात्पर्य लोकतंत्र तथा प्रत्येक का सबलीकरण है। विकास तथा परिवर्तन की प्रक्रिया से जोड़कर देखने पर इसे सह-विकास (Co-evolution) भी कहा जा सकता है। वह कहते हैं कि फिलहाल हमारी अर्थ-व्यवस्था प्रतिद्वंद्विता, विस्तार तथा प्रभुत्व पर बल देती है, जबकि पारिस्थितिकी सहयोग, संरक्षण और साझेदारी पर। ऐसा नहीं है कि पारिस्थितिकी तंत्र में कभी कोई परिवर्तन होता ही नहीं है; लेकिन, उसकी प्रक्रिया ऐसी होती है कि वह तंत्र को नष्ट या विकृत नहीं करती बल्कि तंत्र के दूसरे अंश नई परिस्थिति की जरूरतों को पूरा करने के लिए सहयोग करते हैं। काप्रा इसे पारिस्थितिकी तंत्र का लचीलापन (Flexibility) तथा वैविध्य (Diversity) कहते हैं। वह मानते हैं कि इसके कारण पारिस्थितिकीय परिवर्तन सहनीय सीमा के भीतर होते हैं। लचीलापन और वैविध्य मानव-समाज के विकास के लिए आवश्यक गुण हैं और उसमें इस वैविध्य के साथ समन्वय करने का सामर्थ्य होना चाहिए। यदि कोई समाज वास्तव में जीवंत और गतिशील है तो वह वैविध्य और अन्योन्याश्रयता में संतुलन बनाए रखता है क्योंकि यदि केवल वैविध्य को महत्त्व दिया जाए तो मानव-समाज कई बार उप-समाजों में बंट जाता है, जो साकल्यवादी जीवन पद्धति के लिए घातक है।

काप्रा मानते हैं कि अन्योन्याश्रयता, आवर्तन या पुनर्चक्रीयता, साझेदारी, लचीलापन, और वैविध्य पारिस्थतिकी से निस्सृत बुनियादी सिद्धांत हैं, जिनका वांछित परिणाम टिकाऊपन या सातव्य (Sustainability) है। ये ही साकल्यवादी जीवन-पद्धति के बुनियादी सिद्धांत हो सकते हैं, जो केवल भावनात्मक या काल्पनिक नहीं, बल्कि ठोस वैज्ञानिक नियमों पर आधारित हैं। साकल्यवाद प्रकारांतर से अहिंसा ही है।

द्रष्टव्य : गहन पारिस्थतिकी; पर्यावरणीय नारीवाद; पर्यावरणीय नैतिकता; पृथ्वी सिद्धांत; ऋत-केंद्रित नैतिकी; पर्यावरणीय अहिंसा।

- नंदकिशोर आचार्य

साधनात्मक हिंसा : द्रष्टव्य : क्रांतिकारी हिंसा।

साध्वी, यश कुंवर : अहिंसा श्रमण संस्कृति का हार्द है। तीर्थंकर महावीर और तथागत बुद्ध ने अपनी धर्म-देशना में अहिंसा और करुणा के सिद्धांत का निरूपण किया। अहिंसा को सीधे-सादे अर्थ में परिभाषित करते हुए महावीर ने कहा-सभी जीव जीना चाहते हैं, मरना कोई नहीं। इसलिए किसी भी जीव को काटना-मारना अपने आपको काटने-मारने जैसा है। जैसा दुःख हमें होता है वैसा ही दुःख सभी को होता है। इसी विचार दर्शन के आधार पर महावीर ने अपने देश-काल में होने वाली पशु-बलि का विरोध किया और अहिंसा के जीवनमूलक सिद्धांत की स्थापना की।

बलि प्रथा भारत ही नहीं, कई विदेशी संस्कृतियों में भी सदियों से प्रचलित थी। बलि प्रथा के पीछे यह सोच थी कि पशुओं को देवताओं के सामने काटने-मारने से वे प्रसन्न होते हैं। इस अंधविश्वास के निर्मूलन के लिए समय-समय पर श्रमण धर्मों ने अपने प्रयास किए। ये प्रयत्न उपदेश-संदेश से लेकर आपसी समझाइश से जुड़े होते थे। परिणामतः श्रमण धर्मों के प्रभाव में आने वाले राजाओं ने भी अहिंसा को राजधर्म माना। इस तरह सदियों से चली आ रही बलि प्रथा का विरोध भी सदियों से होता आया है।

इसी श्रृंखला में चित्तौड़गढ़ जिले के शक्ति पीठ जोगणिया माता मंदिर में होने वाली पशु-बलि के विरुद्ध प्रमुख जैन साध्वी यश कुंवर का योगदान उल्लेखनीय और अविस्मरणीय है। साध्वी यश कुंवर ने बीसवीं शती के 7 वें दशक में जोगणिया माता मंदिर में होने वाली पशु-बलि के विरुद्ध अहिंसक आंदोलन चलाया। इस शक्ति पीठ पर बलि प्रथा के गहन प्रचलन का अंदाज इसी बात से लगाया जा सकता है कि प्रतिवर्ष नवरात्र में करीब 2,000 जानवरों को देवी की मूर्ति के आगे काटा-मारा जाता था। इस नृशंस कृत्य को बलिदान कहा जाता था।

अहिंसा की प्रतिमूर्ति साध्वी यश कुंवर ने आम जन-मानस के सहयोग से, बलि रोकने के लिए हृदय-परिवर्तन आंदोलन का सूत्रपात किया। उन्होंने अपने प्रवचनों के माध्यम से लोक मानस को समझाया कि-देवी तो मां होती है। साध्वी आम बोल-चाल की भाषा में कहती थी कि-मां बेटा जणै के हणै? यानी कि मां बेटों को जन्म देती है या उनके प्राण लेती है।

साध्वी यश कुंवर ने पांव-पांव, गांव-गांव की यात्रा की। उन्होंने जन-आस्था पर प्रहार किए बिना सभी को साथ लेकर सैंकड़ों गांवों में घूमकर एक ऐसा अहिंसक प्रयोग किया कि वह सामंती वर्ग भी उनके साथ हो गया, जो प्रारंभ में उनके अहिंसक अभियान के विरुद्ध था। विरोधी वर्ग प्रारंभ में यहां तक कहता था कि जब हजारों जानवरों की बलि दी जा सकती है तो एक साध्वी की बलि करने में भी कोई कठिनाई नहीं है।

उनके इस प्रतिरोधात्मक आह्वान को साध्वी यश कुंवर ने सविनय स्वीकारा। वे जोगणिया माता मंदिर की वेदी के सामने जा बैठी। उन्होंने कहा-अगर देवी उनके वध से प्रसन्न होती है, तो वह सहर्ष बलिदान को तैयार है। अहिंसा मारना नहीं, किसी की रक्षा में मरना सिखाती है।

साध्वी की इन बातों का चामत्कारिक प्रभाव हुआ। विरोधी वर्ग भी बलिप्रथा-निषेध समितियों से जुड़ गया। जोगणिया माता मंदिर में सदियों से चली आ रही बलि-प्रथा के निर्मूलन के लिए, हिंसा की ताकत के सामने साध्वी यश कुंवर ने अहिंसा और हृदय-परिवर्तन को हथियार बनाया। उनका अहिंसा-आंदोलन-अभियान सामाजिक समरसता का अनूठा उदाहरण है, वे हर जाति-वर्ग को साथ लेकर चलीं।

जैन संप्रदाय से जुड़े होकर भी उन्होंने देवी भक्तों की आस्था का सम्मान करते हुए कहा-जोगणिया माता का प्राचीन नाम अन्नपूर्णा है। अन्नपूर्णा जीवनदायिनी शक्ति है। ऐसी अन्नपूर्णा देवी प्राणहारिणी कैसे हो सकती है? उनके इन विचारों से जन-मन प्रभावित हुआ।

जोगणिया माता का मंदिर वि० संवत् 1165 ई० से पूर्व अस्तित्व में था। इतने प्राचीन शक्ति पीठ पर सैंकड़ों वर्षों से चली आ रही बलि-प्रथा को जड़-मूल से उखाड़ने के लिए साध्वी यश कुंवर ने महावीर के एकात्मवाद की अवधारणा का सहारा लिया। उन्होंने लोकमानस को समझाते हुए कहा कि-जैसा सुख आप अपने लिए चाहते हैं, वैसा ही सभी जीव चाहते हैं। जैसे हम दुःख नहीं चाहते हैं, वैसे ही दूसरे प्राणी भी दुःख नहीं चाहते हैं। इसीलिए किसी को सुई चुभने जितनी पीड़ा भी नहीं दी जानी चाहिए।। पशु-वध करने का अपराध मानव-वध की तरह ही है। मूक जीवों की अंतर-वेदना से अनजान न बनें। साध्वी का कहना था कि प्राणियों की जीवेषणा के सम्मान को अहिंसा कहेंगे और किसी की जीने की इच्छा में बाधा डालने को हिंसा।

साध्वी यश कुंवर अहिंसक समाज की संरचना की आधार भूमि तैयार करने वाली एक ऐसी साध्वी हैं, जिन्होंने बीसवीं सदी में महावीर की अहिंसा का सकारात्मक स्वरूप सामने रखा। साध्वी यश कुंवर ने सक्रिय अहिंसात्मक संघर्ष के परिणाम स्वरूप 1975 ई० में राजस्थान विधानसभा ने पशु-बलि बंदी विधेयक पारित किया। संवत् 2031 में जोगणिया माता में पशु-बलि के संपूर्ण समापन के बाद उन्होंने इस हिंसा-भूमि को सेवा-भूमि बनाने का संकल्प किया। साध्वी यश कुंवर ने जोगणिया माता को सेवा केंद्र के रूप में विराजित करने के लिए समाज के संपन्न वर्ग से कहा कि वे अभाव के अंधकार को दूर करने के लिए अपनी आय का एक हिस्सा लोक-कल्याण के लिए खर्च करें।

अपरिग्रह को अहिंसा का उपकरण बनाते हुए उन्होंने समाज के समृद्ध वर्ग की अंतर चेतना में यह भाव जगाया कि अर्जन के साथ विसर्जन करना अपरिग्रह है। अहिंसा की आधारभूमि भी अपरिग्रह है। अहिंसा, व्यष्टिनिष्ठ है, वहीं अपरिग्रह समष्टिनिष्ठ। व्यष्टि और समष्टि एक-दूसरे के परस्पर सहयोग से संचालित हैं।

साध्वी यश कुंवर के इस दिशा बोध के आधार पर जोगणिया माता को साक्षात् सेवा भूमि बनाने के लिए कई श्रेष्ठि आगे आए। जोगणिया माता के शक्ति पीठ में जहां हर रोज अनेकानेक जीवन-ज्योति बुझती थी, वहां आशा की एक नई किरण उमगी। बलि-बंदी-दिवस की याद में हर वर्ष हजारों नेत्र रोगियों के मुफ्त इलाज, भोजन और आवास सुविधा संपन्न शिविर लगने लगे। इन शिविरों से लोकचेतना में इस भाव का प्रसार हुआ कि साध्वी यश कुंवर सेवा को रचनात्मक अहिंसा मानती है।

आज जोगणिया माता के आस-पास गांव-गांव में साध्वी यश कुंवर के लोक कल्याणकारी, अहिंसामय व्यक्तित्व की पूजा होती है। ग्रामीणों की भाषा में वे जोगणिया की माता की अवतार हैं। इस सार्थक सफल अहिंसक अभियान के बाद साध्वी यश कुंवर की प्रतिष्ठा अहिंसा की अधिष्ठायिका के रूप में हुई।

साध्वी यश कुंवर का जीवन संदेश है-विज्ञान का काम मनुष्य को बाहर से जोड़ना है और अहिंसा का काम मनुष्य को भीतर से जोड़ना।

- डॉ० राजेंद्र रत्नेश

सामाजिक न्याय : सामाजिक न्याय पद का प्रयोग सर्वप्रथम उन्नीसवीं शताब्दी में जेसुइट लुई तपरेल्ली (Luigi Taparalli)) ने किया था। थॉमस एक्विनास के विचारों से प्रभावित होने के कारण उनकी प्रेम की अवधारणा का आर्थिक आयाम में विस्तार करते हुए उन्होंने इस पर आधारित ऐसी व्यवस्था की कल्पना की, जिसमें गरीब और वंचित तबकों को न्यायपूर्ण जीवन मिल सके और जिससे समाज की एकता-जो प्रेम का ही आयाम है-का आर्थिक आधार पुष्ट हो सके। अनंतर, रोमन कैथोलिक चर्च ने भी इस धारणा को समर्थन दिया। पोप लियो अष्टम् ने राज्य से यह अपेक्षा की कि वह सामाजिक न्याय की स्थापना के लिए कार्य करे। रोमन कैथोलिक चर्च द्वारा 2004 ई० में एक कंपोडियम ऑफ दि सोशल डॉक्ट्रिन ऑफ दि चर्च प्रकाशित की गई है, जिसमें सामाजिक न्याय पर भी विचार किया गया है। यहूदी विचारक रब्बी जोनाथन सैक्स ने अपनी पुस्तक टु हील ए फ्रेक्चर्ड वर्ल्ड : दि एथिक्स ऑफ रेसपांसिबिलिटी में यहूदी दृष्टि से सामाजिक न्याय पर विचार करते हुए इसे प्रत्येक व्यक्ति के धार्मिक उत्तरदायित्व के रूप में देखा है।

आधुनिक विचारकों में जॉन रॉल्स ने न्याय की अपनी अवधारणा में सामाजिक न्याय को सम्मिलित करते हुए समाज को एक सहकारी व्यवस्था के रूप में परिभाषित-व्याख्यायित किया है, जिसका प्रयोजन समाज के प्रत्येक सदस्य की बुनियादी स्वतंत्रताओं और अधिकारों को पुष्ट करना है। डिफरेंस प्रिंसिपल की अपनी अवधारणा में वह इस बात पर जोर देते हैं कि उच्च आकाक्षाएं तभी न्यायपूर्ण हैं जब वे कमजोर वर्गों के लिए लाभदायक हों।

सामाजिक न्याय का सिद्धांत आर्थिक जीवन में अहिंसा की भावना है। प्रत्येक राजनीतिक-आर्थिक सिद्धांत एक न्यायपूर्ण समाज को अपना लक्ष्य बनाता है। लेकिन न्यायपूर्णकी व्याख्याएं अलग-अलग हो जाती हैं। सामाजिक न्याय का सिद्धांत इस बात पर बल देता है कि राजनीतिक-आर्थिक प्रक्रियाओं में भेद के बाजवूद ऐसी किसी व्यवस्था को न्यायपूर्ण नहीं माना जा सकता, जिसमें आर्थिक असमानता और शोषण संभव हो सके। सामाजिक न्याय का सिद्धांत मूलतः मानवाधिकारों और आर्थिक-सामाजिक समता का सिद्धांत है। शायद यही कारण है कि सामान्य तौर पर अपने को लोकतांत्रिक समाजवादी, वामपंथी या साम्यवादी कहने वाले दल भी सामाजिक न्याय की अवधारणा को स्वीकार करते हैं-यद्यपि उसे स्थापित करने के लिए किए जाने वाले उपायों या उनकी दार्शनिक पृष्ठभूमि में मतभेद-बल्कि परस्पर विरोध-भी हो सकते हैं।

सामाजिक न्याय की अवधारणा ने जैवनैतिकी (Bioethics) को भी प्रभावित किया है। निम्न वर्गों के लिए निशुल्क स्वास्थ्य-सेवा की व्यवस्था करना आदि इसी का परिणाम है। पर्यावरण-आंदोलन और ग्रीन पार्टी जैसे पर्यावरणवादी राजनीतिक दलों ने भी सामाजिक न्याय को अपने एक मुख्य सिद्धांत के रूप में स्वीकार किया है। उनका मानना है कि सामाजिक न्याय संसाधनों का ऐसा न्यायसंगत वितरण है जिसमें सभी के व्यक्तिगत और सामाजिक विकास के पूर्ण अवसरों की उपलब्धता की गारंटी हो।

द्रष्टव्य : रॉल्स, जॉन।

- नंदकिशोर आचार्य

सामाजिक पारिस्थितिकी (Social Ecology) : सामाजिक पारिस्थितिकी की अवधारणा प्रसिद्ध भारतीय समाज वैज्ञानिक प्रो० राधाकमल मुखर्जी द्वारा विकसित की गई थी। इस अवधारणा का आशय यह है कि मनुष्य जिस भूगोल में रहता है, वह कोई निष्क्रिय सत्ता नहीं, बल्कि एक जीवित संघटन है, जिसमें विभिन्न जीव-पद्धतियों जैसे वानस्पतिक जीवन, जंतु-जीवन और मानव-जीवन की पारस्परिक संगति प्रकट होती है। जीवन के ये सब रूप एक-दूसरे को परस्पर प्रभावित करते हुए एक प्रकार का संतुलन स्थापित करते हैं। प्रो० मुखर्जी के अनुसार पारिस्थितिकी, प्रजातियों के संतुलन का विज्ञान या सभी रूपों में जीवन की व्यापक दैहिकी है, जो सामाजिक उत्पत्ति पर प्रकाश डालने के साथ जनसंख्या के प्रादेशिक संतुलन की समझ का सूत्र भी प्रस्तुत करती है।

मनुष्य को सम्मिलित करते हुए जंतु-जगत, वनस्पति-जगत और प्राकृति क जगत के बीच एक संतुलन है, जो कई प्रकार की ऐसी क्रियाओं-अंतर्क्रियाओं द्वारा बनाए रखा जाता है, जो मनुष्य को शेष जीवन के साथ जोड़ती हुई उसके संपूर्ण जैविक परिवेश और सामाजिक नियति को अपने घेरे में ले लेती है। मुखर्जी के अनुसार भारत और चीन जैसी पुरानी संस्कृतियों में इस संतुलन का केंद्रीय महत्त्व स्वीकार किया गया है। भारत में ऋत् और चीन में ताओ की अवधारणाओं का विकास इसी महत्त्व को केंद्र में रखता है।

जे० डब्ल्यू० फोलसम (J.W. Folsom) जैसे पारिस्थितिकीविद् का मानना है कि किसी भी प्रदेश का जंतु-जगत और वानस्पतिक जगत मिलकर एक जटिल संरचना बन जाते हैं, जिसमें दोनों एक-दूसरे को प्रत्यक्ष अथवा परोक्ष परस्पर प्रभावित करते और शेष अन्य से भी प्रभावित होते हैं। पारिस्थितिकी के अनुसार सभी दैहिक संघटन अपने पर्यावरण से प्रभावित होते और पर्यावरण की चारित्रिकता को प्रभावित करते हैं। सभी संघटनाएं एक-दूसरे के साथ इस तरह अंतर्ग्रथित हैं कि उन्हें हमारा दिमाग आंशिक रूप में ही समझ पाता है।

वानस्पतिक और जंतु पारिस्थितिकी विज्ञान का इस अध्ययन से गहरा संबंध है कि मानव और जंतु जनसंख्या किसी प्रदेश की प्राकृतिक और जंतु-पारिस्थितिकी में कितना और कैसा परिवर्तन संभव कर सकती है। प्रसिद्ध पारिस्थितिकीविद् रिचर्ड्स के शोध का निष्कर्ष बताता है कि यूरोप के कई भागों में खरगोशों के बाहुल्य से चीड़ों की झाड़ियों में तब्दीली हुई, झाड़ियों को जलबेंतों ने विस्थापित किया और अंततः जलबेंतों की जगह घास ने ले ली। घास में पनपने वाले विविध प्रकार के लघु कीटों ने वनस्पतिकरण में अवरोध पैदा किया। इसी प्रकार भारत के नदीय मैदानों में मनुष्य के घरेलू पशुओं द्वारा अत्यधिक चराई और रौंदाई का परिणाम वनस्पति जगत का विनाश तथा मौसमी अथवा सर्वकालिक अपतृण का प्राकट्य रहा। जंगलों को जलाने और खेती के लिए मैदान को साफ करने से मनुष्य ने ऐसे प्राथमिक और द्वितीयक अनुक्रम का आरंभ किया, जिसमें पादप-प्रजातियों और समूहों की एक पूरी शृंखला उलझ गई। इस तरह के अन्य कई उदाहरण दिए जा सकते हैं।

प्रो० मुखर्जी का निष्कर्ष है कि जंगलों को जलाने, साफ करने, अत्यधिक पशु-पालन और सघन खेती ने पर्यावरण की स्थितियों को इतना बदल दिया कि बहुत-सी पादप और जंतु प्रजातियां इसमें जीवित नहीं रह सकीं। मनुष्य ने ऐसे पादपों का कृत्रिम विकास भी किया जो इस नए जलवायु और भूमि के अनुकूल हों। मनुष्य लगातार अपने खाद्यान्न और कृषि के क्षेत्र को बढ़ाता गया है। अपने लिए अनुपयोगी या प्रतिकूल पादपों को हम अपतृण कह देते हैं। कई तरह के अपतृण कई कारणों से बाहर से आयातित हो जाते हैं। यह अनुमान किया जाता है कि अमेरिका के पचास प्रतिशत से भी अधिक अपतृण यूरोप के कृषि एवं पादप-उत्पादों के आयात का परिणाम है। मुखर्जी ने पूर्वी आस्ट्रेलिया, पूर्वी बंगाल (बांग्लादेश) आदि से कई उदाहरण देकर यह बताया है कि मनुष्य की स्वकेंद्रित वृत्ति तथा लापर्वाही ने कैसे कई प्रजातियों को नष्ट कर दिया और भूमि को नुकसान पहुंचाया है। मुखर्जी जे० आर्थर थामसन के हवाले से यह भी बताते हैं कि जहां-जहां भी मनुष्य रहा है, उन जगहों को वहां पर उगने वाले पौधों और उन तक जाने वाले पशुओं के माध्यम से पहचाना जा सकता है, जबकि मनुष्य के वहां रहने के निशान पूरी तरह मिट चुके हैं। कई पशु-जातियां लुप्त हो चुकी हैं और व्यापारिक कृषि के चलते भूमि में रासायनिक प्रदूषण इतना बढ़ गया है कि अब उसे मिटा पाना लगभग असंभव-सा है।

मुखर्जी का प्रसिद्ध पारिस्थितिकीविद् एल्टन से भी घनिष्ठ संबंध रहा। एल्टन के हवाले से वह इस बात की ओर संकेत करते है कि मानव-पारिस्थितिकी ने मनुष्येतर जीवन की ओर कोई ध्यान नहीं दिया। आज भी पर्यावरण की चिंता में मनुष्य ही प्रधान है। लेकिन, यदि हम संपूर्ण पारिस्थितिकी के साथ, प्रकृति के नियमों के अनुसार नहीं चलते तो सामाजिक विनाश के खतरे से नहीं बचा जा सकता। इसलिए, हमें पारिस्थितिकी-प्रबंधन में केवल मनुष्य की चिंता छोड़कर सारे प्राकृतिक, वानस्पतिक और जंतु-जगत की चिंता करनी होगी। जल-प्रबंधन, कृषि-प्रबंधन आदि में इन सबके सरोकारों के साथ सहयोग किए बिना जीवन का संरक्षण संभव नहीं है। इसे ही प्रो० मुखर्जी सामाजिक पारिस्थितिकी का दायित्व मानते हैं।

सामाजिक पारिस्थितिकी में, मुखर्जी के अनुसार, मानव, जंतु और वानस्पतिक समुदाय समान नियमों से संचालित होते हैं, जिससे सबके लिए विकास का संतुलन और लय बने रहते हैं। वह मानते हैं कि पृथ्वी पर इनमें से प्रत्येक समुदाय को इस लय को बनाए रखने के लिए अपने हिस्से से अधिक का उपभोग करने की कोशिश नहीं करनी चाहिए। मुखर्जी इन सबको एक ही जटिल जाल के अंतर्ग्रंथित सूत्र मानते हैं। उनका कहना है कि जीवन के जटिल अंतर्ग्रंथन में किसी भी धागे को अकेला नहीं कहा जा सकता। एक अंजीर के पेड़, कीड़े, चूहे और एक चिड़िया में कई सूत्र गुंथे हो सकते हैं, लेकिन जब हम मनुष्य की आर्थिकी तक आते हैं तो ये और भी जटिल रूप से अंतर्ग्रंथित हो जाते हैं। मुखर्जी का मानना है कि प्रकृति और समाज सहकार की आर्थिक बारीक संरचना में बुने जाने चाहिए। उन्हीं के शब्दों में कहें तो जीवन जाल की जटिलता का बोध और सम्मान ही मनुष्य को उच्चतर नियति के लिए निर्देशित कर सकता है।

द्रष्टव्य : लियोपोल्ड आल्डो; गहन पारिस्थितिकी; पृथ्वी सिद्धांत; शार्दे।

- नंदकिशोर आचार्य

सामाजिक हिंसा : द्रष्टव्य : संरचनागत हिंसा।

सामूहिक अहिंसा : अहिंसा का एक साधारण अर्थ है पर-पीड़न से विरति। कहा जा सकता है कि इस अर्थ के अनुसार अहिंसा एक नकारात्मक अवधारणा है। किंतु ऐसा नहीं है, यद्यपि नकारात्मक अवधारणा होने से किसी अवधारणा का महत्त्व कम हो जाता है, ऐसा नहीं है। पर-पीड़न एक मनःस्थिति है, एक अभिवृत्ति है। और इसी प्रकार, उससे विरति भी एक अभिवृत्ति है। किंतु इन मनःस्थितियों में मनोवैज्ञानिक दृष्टि से एक गंभीर अंतर है-पर-पीड़न की मनःस्थिति एक सहज-प्राकृतिक मनःस्थिति है, जबकि पर-पीड़न से विरति मनुष्य के स्वभाव में विद्यमान कुछ अति-मानसिक तत्त्वों-मूल्यान्वेषण, विवेक तथा संकल्प आदि-का प्रकृति के ऊपर अपना अनुशासन आरोपित करने का आग्रह है।

यह द्रष्टव्य है कि पर-पीड़न में रति जीव-स्वभाव नहीं है, यह रति केवल मानसिक व्याधि-ग्रस्त मनुष्य में ही पाई जाती है। यह स्थिति व्यक्ति के मूल्य-संस्थान के एकाएक विक्षुब्ध होने के कारण, अथवा भ्रांत मूल्यदृष्टि से, उत्पन्न होती है। इस प्रकार पर-पीड़न में रति भी एक मूल्यात्मक स्थिति ही है, केवल यह विपर्यस्त मूल्य-स्थिति है। सहज स्थिति रति और विरति दोनों से रहित होती है।

किंतु तब भी पर-पीड़न जीव मात्र करता है, और जीव-धर्मी मनुष्य भी करता है। यह पीड़न प्रयोजनवश होता है-शेर क्षुधा-शमन के लिए हरिण को मारता है। इसी प्रकार अन्य जीवों के लिए भी कहा जा सकता है। मनुष्य भी क्रोधवश, अथवा भोजन के लिए, अथवा आत्मरक्षा के लिए, पर-पीड़न करता है।

यह निर्विवाद है कि मनुष्य में भी जीव-धर्मिता है, अथवा कहें, मनुष्य और पशु में बहुत कुछ सामान्य है। किंतु उतना ही निर्विवाद यह भी होना चाहिए कि मनुष्य में बहुत कुछ जीवोत्तर है-अतिमानसिक है, यद्यपि इस तथाकथित वैज्ञानिक युग में बहुत से लोग यह मानने को तैयार नहीं है। इस जीवोत्तर तत्व के होने का प्रमाण यही है कि अत्यंत आदिमतम अवस्थाओं में भी मनुष्य को हम अपनी प्रवृत्ति से किसी न किसी स्तर पर संघर्ष-रत पाते हैं, वह सर्वत्र हमें मूल्य-सर्जन करता हुआ मिलता है। मनुष्य के इस स्वभाव में, इस अतिमानसिकता में ही पर-पीड़न से विरति की प्रतिष्ठा है। अर्थात्, पर-पीड़न से विरति मानव-स्वभाव नहीं है, यह मानव का पुरुषार्थ है, उसका अन्वेषण है, आदर्श-स्थिति है जिस पर वह पहुंचना चाहता है।

अहिंसा के मूल्य या पुरुषार्थ होने का अर्थ है कि यह व्यवहार-कौशल या उपयोगितामूलक सिद्धांत नहीं है-अर्थात् पर-पीड़न से विरति इसलिए आवश्यक नहीं है कि इस नियम को व्यवहार के लिए यदि सब स्वीकार नहीं करेंगे तो मैं भी चैन से नहीं रह सकूंगा। इस दृष्टि से यह एक निरपेक्ष सिद्धांत है; इसमें कबीर के निम्नलिखित दोहे में व्यक्त भावना अभिप्रेत है-कबिरा आप ठगाइये, और न ठगिए कोय/आप ठगे दुख होत है, और ठगे सुख होय।।

यह आप ठगाने का उपदेश सब मूल्यों का एक अनिवार्य घटक है। इस बात को समझना आज के इस विक्षिप्त युग के लिए विशेष रुप से महत्त्वपूर्ण है जो शांति के लिए शस्त्र-सज्जा और शांति के लिए युद्ध की बात करता है। शस्त्र-सज्जा से स्थापित शांति अहिंसा-मूलक नहीं होगी, यह भयमूलक होगी। परिणामतः, यह हमें पाशव स्तर से उठाएगी नहीं, बल्कि उसमें सहस्रधा अधिक गहरे डुबा देगी।

यद्यपि अहिंसा को मूल्य के रुप में सब जातियों और धर्मों ने आदिमतम अवस्थाओं में भी पहचाना था किंतु इसके तर्क को उन्होनें बहुत कम समझा था। उनमें इसकी धारणा गौण व्यावहारिक नियम के स्तर से ऊपर नहीं उठ सकी। भारत से बाहर मुख्यतः ईसाई धर्म ही ऐसा है, जिसमें अहिंसा को एक आत्यंतिक मूल्य के रुप में स्वीकार किया गया था। भारत में भी सर्वप्रथम जैन तीर्थंकरों ने इसे आत्यंतिक मूल्य के रुप में स्वीकार किया और पीछे महात्मा बुद्ध ने। संभवतः ब्राह्मण-धर्म में व्यक्तित्व-साधना के आदर्श के रुप में यह पीछे स्वीकार किया गया। किंतु एक सम्राट अशोक के अपवाद के साथ, महात्मा गांधी से पूर्व अन्य किसी ने इसे सामूहिक और राजनैतिक जीवन में मूल्य के रुप में स्थापित नहीं किया था। अशोक ने भी कहां तक इसे राजनैतिक जीवन में मूल्य के रूप में अपनाया था, यह कहना संदेहास्पद है, क्योंकि उसके बाद भारत में राजनैतिक और सामाजिक आचरण पर उसका कोई प्रभाव दिखाई नहीं देता, सैद्धांतिक चर्चाओं में भी। किंतु तब भी, यदि मनुष्य की मूल्य-दृष्टि पर्याप्त पैनी होती तो वह यह देखने से चूक नहीं सकता था कि जो वैयक्तिक जीवन में मूल्यवान् है वह सामजिक और राजनैतिक जीवन में भी अनिवार्यतः मूल्यवान् है। वैयक्तिक और सामूहिक जीवन के आचरणों में व्यावहारिक उपयोगिता की दृष्टि से तो भेद होता है, मूल्य की दृष्टि से नहीं। इसे स्पष्टतम रुप में सर्वप्रथम महात्मा गांधी ने ही देखा था।

इसे नहीं देख पाने का एक बड़ा कारण है। वास्तव में, यह कारण उतना ही वैयक्तिक जीवन के स्तर पर भी विद्यमान है; किंतु सामूहिक जीवन के स्तर पर यह शतधा मुखर हो उठता है। यह कारण है अहिंसा का आत्म-रक्षा के मूल्य से विरोध। आत्म-रक्षा वैयक्तिक जीवन में आध्यात्मिक मूल्य हो या नहीं हो, यह एक महत्त्वपूर्ण जैव मूल्य अवश्य है। किंतु जातीय जीवन में यह मात्र जैव मूल्य से बहुत अधिक है, क्योंकि एक जाति की पराजय एक संस्कृति के विनाश और विघटन का आरंभ हो सकता है और संस्कृति एक जैव सत्ता नहीं होकर आध्यात्मिक सत्ता है। उदाहरणतः, इंग्लैंड-अमरीका आदि की नाजी जर्मनी से पराजय दानवीय आदर्श की विजय होती, और उससे बहुत अधिक भी वह हो सकती थी।

यह कहा जा सकता है कि यदि ये देश अहिंसात्मक प्रतिरोध करते तो जर्मनी उन्हें पराजित नहीं कर सकता था, अधिक से अधिक वह उनका पीड़न कर सकता था, क्योंकि मूल्यात्मक दृष्टि से इतनी प्रबुद्ध जाति अपराजेय होती है। किंतु इतना मात्र सही नहीं है, निहत्थे यहूदियों की निर्मम हत्या इसका प्रमाण है कि हिटलर में मूल्य-विपर्यय पूर्ण मात्रा में हो चुका था। इतिहास में इसके अन्य भी अनेक उदाहरण हैं-मुसलमानों का यह धार्मिक कर्त्तव्य था कि वे काफिरों का विनाश करते, और उन्होंने काफिरों का और काफिर-संस्कृतियों का समूल नाश करने का पूर्ण प्रयत्न किया। यदि नाजी जर्मनी विजय प्राप्त कर लेता तो जो भयानक परिणाम होते उनकी कल्पना कंपा देने वाली है। अब, प्रश्न है कि क्या ऐसी परिस्थितियों में अहिंसा का आश्रय उचित है?

अहिंसात्मक दृष्टिकोण से यहां दो वैकल्पिक उत्तर संभव है। एक तो यह कि व्यवहार की कुछ स्थितियां मूल्यात्मक स्थितियां नहीं होतीं। उदाहरणतः, कहा जा सकता है कि आखेट के लिए शेर की हत्या हिंसा है, किंतु आत्मरक्षा के लिए शेर की हत्या हिंसा नहीं है, क्योंकि जहां तक शेर का संबंध है, वह मूल्यानुभूति से शून्य है, उसके लिए हिंसा-अहिंसा का कोई अर्थ नहीं है, यह केवल हनन करने वाले मनुष्य के लिए ही अर्थपूर्ण है। आखेट के लिए हनन करने वाले मनुष्य के पतन का कारण बनता है, वह उसे महात्मा की अपेक्षा व्याध बनाता है। किंतु शेर के आक्रमण करने पर उसकी हत्या नहीं करना मानव और पाशव-सत्ता में से पाशव-सत्ता की अतिजीविता का कारण बनता है। शेर के हनन से केवल जैव स्तर की पीड़ा घटित होती है, जबकि महात्मा व्यक्ति की मृत्यु से न केवल उससे कहीं अधिक जैव पीड़ा ही घटित होती है बल्कि असंख्य अन्य व्यक्तियों में संबंध-जन्य संताप भी घटित होता है, और इस सबके ऊपर, शेर से कहीं अधिक मूल्यवान् वस्तु की हानि होती है। ऐसी स्थिति में यदि शेर का हनन करने वाला व्यक्ति शेर के प्रति निर्भर होकर आत्मरक्षा के लिए उसकी हत्या करता है और उसके मरने पर परिस्थिति की क्रूरता से पसीज कर करुणा-द्रवित होता है तब वास्तव में उसने हिंसा नहीं की। यही बात जातियों के लिए भी कही जा सकती है। यदि कोई आक्रमणकारी दानव-वृत्ति से परिचालित होकर हत्या, लूट और विनाश करता है, तब उसे मानव-व्यक्ति या मानव-समुदाय नहीं मानना चाहिए और उसका सशस्त्र प्रतिरोध करना चाहिए। केवल शर्त यही है कि ऐसे आक्रामक को भी पराभूत करने के बाद परिस्थिति की विवशता के प्रति मन में खेद तथा पराभूत के प्रति करुणा का भाव ही मन में होना चाहिए। यदि हमारी ऐसी अभिवृत्ति होगी तो हम दस्यु को तात्कालिक रुप से जीत कर भी अंततः उसके मन को जीतेंगे, जो कि हमारा वास्तविक लक्ष्य होना चाहिए। एक प्रकार से, पाकिस्तान द्वारा काश्मीर पर आक्रमण होने के समय गांधीजी की स्थिति कुछ ऐसी ही थी।

दूसरा विकल्प होगा कि, जहां तक पशु द्वारा आक्रमण का संबंध है वहां तक तो उपर्युक्त विश्लेषण सही है, किंतु मनुष्य द्वारा आक्रमण होने पर यह रवैया उचित नहीं है। क्योंकि मनुष्य कभी मूल्य-बोध से शून्य नहीं होता, वह या तो मूल्योन्मुख होता है या मूल्य-विमुख। मूल्य-विमुखता मूल्य-विपर्यय का ही दूसरा नाम है, यह मनोविकार अथवा भ्रम का परिणाम होता है। इसलिए मनुष्य के सम्मुख कभी शस्त्र नहीं उठाने चाहिए, उसके सम्मुख केवल मूल्यात्मक कर्म का ही आश्रय करना चाहिए। महमूद गजनवी ने तथा मुस्लिम आक्रांताओं ने जो लूटमार की थी, वह यद्यपि निहत्थे लोगों पर की थी किंतु वे हत लोग मूल्य-बोध से अनुविद्ध नहीं थे, वे असहाय और असमर्थ लोग थे। यदि ये आक्रांत लोग मूल्य-बुद्ध होते, यदि ये स्वेच्छा और विचारपूर्वक निश्शस्त्र होते तब आक्रामक इस प्रकार मारकाट नहीं कर सकते थे, और यदि वे करते भी तो वे बहुत जल्दी अनुभव करते कि वे अनुचित कर्म कर रहे हैं। इस प्रकार से कुछ लोगों की मृत्यु वास्तव में उच्च आदर्श के लिए बलिदान-रुप होती। यही बात नाजी जर्मनी द्वारा इंग्लैंड आदि पर आक्रमण के संबंध में भी कही जा सकती है।

मेरे विचार में महात्मा गांधी को यह दूसरा विकल्प ही मान्य था, जिसका साक्ष्य उनके कार्यों और कथनों में पर्याप्त मात्रा में हमें मिलता है। यही विकल्प निश्चित रुप से महावीर, बुद्ध और ईसा को भी मान्य होता, यदि ऐसी स्थिति उनके सम्मुख गंभीर रुप से उपस्थित होती।

किंतु तब भी संभवतः गांधीजी ने काश्मीर पर हमारे सशस्त्र प्रतिरोध को स्वीकृति दी थी-वह क्यों दी, यदि उन्होंने दी तो? अथवा कहें, इस दूसरे विकल्प की निश्शस्त्र-प्रतिरोध के साथ किस प्रकार संगति बैठाई जा सकती है?

इसकी संगति इस बात में है कि वास्तव में एक पूरे समाज में, अथवा समाज के बड़े भाग में भी, कभी इतना सबल मूल्य-बोध उजागर करना कठिन है कि वह विकट परिस्थिति में भी भय और क्रोध से अभिभूत नहीं हो। यद्यपि आदर्श यही है। भय से समर्पण अहिंसा नहीं है, अहिंसा तो परम साहस की अपेक्षा करती है। इसलिए यदि कोई समाज इसके लिए सज्जित नहीं है तो प्रबुद्ध व्यक्ति का कार्य उसे इस आदर्श के अनुसरण के लिए प्रेरित करना होता है। किंतु अवस्था-विशेष में महत्तम मूल्य के रुप में चरितार्थ किया जा सके, यद्यपि वह निरपेक्षतः महत्तम मूल्य नहीं होगा। अवस्था-विशेष में निर्वैर होकर सशस्त्र युद्ध ऐसा ही महत्तम मूल्य है। महात्मा गांधी ने आंग्ल शासन से लड़ने के लिए संपूर्ण देश को अहिंसा-वृत्ति का आश्रय लेने के लिए ही प्रेरित किया था। नाजी आक्रमण के समय वे अनिश्चित रहे कि ऐसे समय में इंग्लैंड को क्या करना चाहिए, किंतु काश्मीर पर आक्रमण के समय उन्हें अपना रास्ता स्पष्ट दिखाई दिया।

यहां एक स्पष्टीकरण अपेक्षित है : गांधीजी के इन निर्णयों में एक विरोध दिखाई देता है। विरोध यहां है भी, किंतु यह विरोध नैतिक निर्णयों में नहीं होकर केवल संज्ञानात्मक निर्णयों (कोग्नीटिव जजमेंट्स) में है। सामाजिक संदर्भ में नैतिक निर्णय अधिकतम हित, अथवा अल्पतम अहित, को लक्ष कर प्रवर्तित होते हैं। इनका यह पक्ष, और कुछ दूसरे पक्ष भी, कारण-कार्यात्मक क्षेत्र में व्यापारित होते हैं। कारण-कार्यात्मक क्षेत्र संज्ञानात्मक निर्णयों का क्षेत्र है। संज्ञानात्मक निर्णयों में भूल की संभावना परिस्थिति-विशेष के घटक तत्वों में किसी एक के, अथवा कुछेक के, ध्यान में नहीं आने पर, अथवा उनके प्रभाव के अनुपात का सही अनुमान नहीं होने पर, होती है, और यह स्पष्ट है कि हम कभी भी किसी क्रिया के सभी परिणामों को नहीं जान सकते। नैतिक कर्त्ता के दो कार्यों में जब इस आधार पर विरोध होता है तब इसे नैतिक निर्णयों में विरोध नहीं कहना चाहिए। जब नैतिक कर्मों में विरोध वासना-जन्य दृष्टि-धूमिलता के कारण होता है, तब वह विरोध नैतिक निर्णयों में विरोध होता है। सुखवादी (हिडोनिस्टिक) नीतिशास्त्र नैतिक कर्मों में उपर्युक्त भेदकर ही नहीं सकते, किंतु अन्य किसी दार्शनिक ने भी यह भेद स्पष्टतः किया है, हमें नहीं मालूम। जो भी हो, गांधीजी के उपर्युक्त निर्णयों में विरोध का कारण संज्ञानात्मक परिस्थिति का जायजा एक बार एक तरह से लेना है और नैतिक रुप से कुछ भी दूसरी बार दूसरी तरह से लेना, अतः यह विरोध नैतिक कर्त्ता के रुप में उनमें नहीं है। निश्चय ही यदि हमारा देश (और काश्मीर भी) नैतिक रुप से कुछ भी उद्बुद्ध होता, जोकि उसे स्वतंत्रता-संग्राम के अभ्यास से होना चाहिए था, तो वे हमें काश्मीर पर अपनी सेनाएं भेजने का परामर्श नहीं देते। किंतु हमारे देश ने स्वतंत्रता के बाद यह स्पष्ट दिखा दिया था कि उसने अहिंसा को नैतिक बोध के रुप में नहीं, उपयोगी नीति के रुप में ही स्वीकार किया था। यह जितना सही हमारे सामान्य लोगों के लिए था, उतना ही हमारे नेताओं के लिए भी था। गांधीजी की आंखों के सामने ही उन लोगों ने, जिन्हें कि उन्होंने मूल्य-बोध देने का अथक प्रयत्न किया था, पशुता का नग्न नृत्य प्रदर्शित किया। ऐसे देश को काश्मीर पर आक्रमण के समय अहिंसक प्रतिरोध का परामर्श देने का अर्थ ही क्या रह जाता था।

- यशदेव शल्य

सार्वभौमिक जीवन-तत्त्व : समस्त जीवन-रूपों में एकत्व की अवधारणा अहिंसा का आधार है। बहुत-से धर्मों और दर्शनों ने इस पहलू का प्रतिपादन किया है। विज्ञान, विशेषतः, आनुवंशिकी ने जीवन-रूपों के एकत्व को आनुभाविक प्रामाणिकता दे दी है।

यह ब्रह्मांड पदार्थ के आत्मसंगठन से विकसित होकर अधिकाधिक जटिल संरचनाओं की ओर अग्रसर होता गया है। सैकड़ों रासायनिक प्रतिक्रियाएं एक साथ समूचे विश्व में घटित हो रही थीं और वह भी लाखों वर्षों तक; सही रासायनिक और भौतिक परिस्थितियों के एक साथ आने से प्रथम पूर्व-कोशाणु (डीएनए) अस्तित्व में आया। जीवन इस कोशाणु के लिए लाखों वर्षों तक बहुत खतरनाक बना रहा। यह अत्यंत सूक्ष्म और कोमल था-अपनी जरूरतों के लिए संयोग पर निर्भर-केवल अपने को पुनरुत्पादित करने में समर्थ। खतरनाक वातावरण में अपने जीवन-संघर्ष में यह एक कोशाणु के रूप में विकसित हुआ। अब इसे एक सुरक्षात्मक आधान और आवश्यक पोषक तत्त्व उपलब्ध थे। विकास की दीर्घ अवधि में इस आदिम कोशाणु में विकसित प्रजनन तत्त्व के कूटबद्ध सूत्र शनैः शनैः अपनी लंबाई बढ़ाते गए। कूटबद्ध सूत्र-डीएनए-जीवन का सार-तत्त्व है। जीवन की सारभूत कूटता इसमें निबद्ध है। इस अनिवार्य कूट-सूत्र में निरंतर अतिरिक्त कूट इसमें जुड़ते गए तथा जीवन के लाखों संश्लिष्ट रूप विकसित होते गए, जिसके शिखर पर मानव-प्राणी आसीन है। इस तरह सभी जीवन-रुपों की कुलोत्पत्ति एक है। दूसरी तरह से कहें तो, सभी जीवन-रुप परस्पर संबद्ध हैं-चाहे विकास का उनका वर्तमान स्तर कैसा भी हो।

1953 ई० में वाटसन और क्रिक द्वारा डीएनए की दोहरी कुंडलीय संरचना की घोषणा के साथ विभिन्न जीवन-रुपों का आणविक स्तर पर अध्ययन किया गया। मनुष्य और अन्य महत्त्वपूर्ण पशुओं तथा वनस्पतियों की जीनोम परियोजना की रिपोर्ट पूरी की गई। कई प्रजातियों का तुलनात्मक अध्ययन किया गया। जीवन के विविध रुपों के डीएनए अनुक्रम में उल्लेखनीय समानताएं प्रदर्शित हुई; उदाहरणार्थ, मानव और चिंपाजी गुणसूत्रों (डीएनए और कुछ प्रोटीन से निर्मित) में बहुत समानता है। फर्क केवल इतना है कि मानव में अन्य वानरों एक जोड़ा गुणसूत्र कम है-मानवों में 23 जोड़ा गुणसूत्र है और वानरों में 24; चिंपाजी हमारे सर्वाधिक निकट संबंधी हैं तथा मानव और चिंपाजी में 96 प्रतिशत डीएनए समानता है। मानव तथा सूअर जीनोम की तुलना से प्रकट हुआ कि सुअर भी मानव के बहुत करीब है। मानव और सूअर में लगभग सभी जीन समान हैं। इसीलिए वैज्ञानिक मानव-अंगों में प्रत्यारोपण के लिए सूअर-अंगों के उपयोग की संभावना की खोज कर रहे हैं। यहां हमारा प्रयोजन इस प्रत्यारोपण का समर्थन करना नहीं है-क्योंकि यह अहिंसा के सिद्धांत के विरुद्ध है-बल्कि केवल मनुष्य और सुअर के नजदीकी को प्रदर्शित करना है। वनस्पति सहित सजीव प्राणियों की डीएनए संरचना और प्रोटीन-निर्माण के तत्त्व वही अथवा समान हैं। जीवन के अन्य निम्नतर रूपों के तुलनात्मक अध्ययन से भी मानव और मानवेतर सजीवों में समान करीबी सिद्ध होती है। मानव-चेतना में इस वैज्ञानिक ज्ञान के प्रवेश के कारण जीवन के अन्य रुपों के प्रति अधिक सकारात्मक और मानवीय अभिवृत्ति का विकास होना चाहिए।

ये वैज्ञानिक और जननिक जानकारियां महावीर और बुद्ध द्वारा प्रदत्त अहिंसा की अवधारणा के आधार के बहुत करीब है। जैन आगम आचारांग में महावीर तथा अन्यों द्वारा अन्यत्र भी कहा गया है कि किसी भी जीव पर आघात स्वयं पर आघात के समान है। बुद्ध भी अहिंसा को इसी तर्क आधार पर स्थापित करते हैं। किसी को भी विज्ञान और तर्कसम्मत धर्मों के इस सम्मिलन पर आश्चर्य हो सकता है।

निष्कर्षतः, सभी जीवन-रुपों का उत्स समान है। जीवन का सार एक है क्योंकि समान डीएनए सभी जीवनरुपों में व्याप्त है। जीवन के प्रथम उद्भव से ही यह निरंतरता बनी हुई है। इस बोध का व्यवहार में अनुवाद अहिंसा के सार्वभौमिक आचरण की ओर ले जाएगा।

- डॉ० एस०एल० कोठारी

(हिंदी रूपांतरण : नंदकिशोर आचार्य)

सार्वभौमिक भाषिकी : भाषा-ज्ञान और भाषिक योग्यता के प्रतिरुपों को दो सामान्य श्रेणियों में रखा जा सकता है : प्रथम, स्किनर और पियाजे आदि द्वारा प्रतिपादित व्यवहारवादी प्रतिरुप जो भाषिक योग्यता को अर्जित व्यवहार की तरह देखता है तथा, द्वितीय, चॉमस्की प्रतिरुप जिसका सुझाव है कि भाषिक संभावना मनुष्य में अंतर्जात है। यद्यपि प्राचीन भारतीय अध्ययन में ऋग्वेद में वाक् की अवधारणा लगभग चौथी शताब्दी ई०पू० की पाणिनी की अष्टाध्यायी में भाषा के लिए अंतर्जात क्षमता की जो अवधारणा मिल जाती है, वह पश्चिम में नोम चॉमस्की द्वारा 1950 ई० में भाषा की गहन संरचना के अध्ययनोपरांत प्रचलन में आई है। इस अध्ययन ने चॉमस्की को क्रमशः वाक्यात्मक तथा शब्दार्थात्मक संरचनाओं, गहन और सतही संरचनाओं तथा रुपांतरात्मक और प्रजनक व्याकरण की ओर उन्मुख किया जिसका विकास अंततः संदर्भमुक्त भाषा तथा सार्वभौमिक व्याकरण की अवधारणाओं के रुप में हुआ।

पिछली शताब्दी के पांचवें दशक के शुरुआती दौर में चॉमस्की ने प्रजनक व्याकरण को विकसित करना आरंभ किया, जिसका बल सभी मानव-प्राणियों में अंतर्जात समान भाषिक सिद्धांतों पर था-जिसे सार्वभौमिक व्याकरण कहा गया। 1959 ई० में बी०एफ० स्किनर की पुस्तक वर्बल बिहेवियर की समीक्षा करते हुए चॉमस्की ने मनोविज्ञान तथा भाषिकी में उन दिनों प्रचलित व्यवहारवादी प्रतिरुपों को चुनौती दी, अन्य कारकों के साथ अनंतर जिसका परिणाम मनोविज्ञान में एक संज्ञानात्मक क्रांति के रुप में सामने आया, जिसने, एक ओर, मन और भाषा के दर्शन को उल्लेखनीय रुप से प्रभावित किया तथा, दूसरी ओर, मानव-मन के विकास और जीवन के एकत्व के सिद्धांत के पक्ष में साक्ष्य प्रस्तुत किया।

सभी प्रकार के भेदों-विभेदों का अतिक्रमण करते हुए भाषिकी के ये अंतर्जात सिद्धांत मनुष्य-जाति की एकता की नींव बन जाते तथा जीवन को एक निरंतरता में देखने के सबल तर्क के माध्यम से मानवीय स्वतंत्रता, समता और बंधुत्व का तर्कसम्मत आधार करते हैं।

चॉमस्कीय विचार के अनुसार मानव-मन में उपलब्ध जानकारी को संसाधित कर सार्थक संप्रेषण की अंतर्जात योग्यता है। सार्वभौमिक अथवा संदर्भमुक्त व्याकरण की यह क्षमता भाषा-शिक्षणार्थी के प्रारंभिक स्तर पर मिलती है, जो गहन भाषिकी या गहन व्याकरण को रचती है। यह फिर सतही व्याकरण तथा भाषा (उच्चारित एवं लिखित) की रुपांतरकारी प्रक्रियाओं के माध्यम से संप्रेषणीय बनती है, जो अभिव्यक्ति या कथन की सतही संरचना की निर्मिति है।

भाषा की इस अंतर्जात क्षमता का प्रत्यय, संभवतः, उतना ही महत्त्वपूर्ण है जितना विकास तथा अचेत के प्रत्यय तथा दर्शन, मनोविज्ञान, सामाजिकी, राजनीति, संगीत, साहित्य तथा कलाओं में इसके निहितार्थ दिन-ब-दिन उभरते जा रहे हैं।

अपने सैद्धांतिकी-निर्माण के प्रारंभ में चॉमस्की ने पाया कि एक मानव-शिशु और एक बिलौटा दोनों समान रुप से आगमिक तर्क की योग्यता रखते हैं, लेकिन, यदि दोनों के सम्मुख समान भाषिक सामग्री प्रस्तुत की जाए तो मानव-शिशु उस भाषा के ग्रहण तथा पुनरुत्पादन की योग्यता विकसित कर लेता है, जबकि बिलौटे के साथ ऐसा नहीं होता। चॉमस्की ने इसे भाषा-अर्जन-युक्ति (Language acquisition device-LAD कहा जिसमें सार्वभौमिक चारित्रिकता है तथा जो सभी भाषाओं में सार्वभौमिक उपस्थिति रखती है। इसके आधार पर सिद्धांत और पैरामीटर पद्धति का विकास हुआ, जिसने इस बात पर बल दिया कि बच्चे तेजी से भाषा सीखते हैं और यदि भाषा-अर्जन की क्षमता अंतर्जात न हो तो उद्दीपन-दरिद्रता के बावजूद ऐसा होना संभव नहीं है। यह विचार चॉमस्की के अनुवर्ती अध्ययनों में विकसित होता रहा तथा 1995 ई० में उनकी कृति मिनिमलिस्ट प्रोग्राम ने भाषिक निर्मितियों में मितव्ययिता तथा इष्टतम अभिकल्पन के सिद्धांतों पर बल दिया।

चॉमस्की की भाषिकी तीन बीज-अवधारणाओं के इर्द-गिर्द घूमती है। प्रथम, मन संज्ञानमूलक है अर्थात् मन में वास्तव में मानसिक स्तर, विश्वास और संदेह तथा अन्य संज्ञानात्मक तत्त्व अंतनिर्मित हैं। द्वितीय, मन और भाषा के लगभग सारे महत्त्वपूर्ण धर्म अंतर्जात हैं तथा भाषा का अर्जन और विकास इन अंतर्जात गुण-धर्मों के बाह्य वातावरण द्वारा किए गए आनुभविक निवेश से प्रेरित प्राकट्य है। तृतीय है मापकीयता, जिसका तात्पर्य है कि मन अंतःक्रियात्मक विशेषीकृत उपतंत्रों के विन्यास से संगठित है, जिसमें अंतःसंप्रेषण का सीमित प्रवाह मन के संज्ञानात्मक स्थापत्य में एक क्रांतिक बिंदु रचता है। यह प्रत्यय उस पूर्व-प्रत्यय का प्रत्याख्यान है, जिसके अनुसार मन में संचित किसी सूचना को अन्य किसी संज्ञानात्मक प्रक्रिया से भी जाना जा सकता है।

अंतर्जात भाषिक क्षमता के सिद्धांत की स्वीकृति का द्विस्तरीय निहितार्थ अहिंसा की अवधारणा के पक्ष में जाता है। यह सभी जीवन-रुपों में एकत्व की अवधारणा की पुष्टि है क्योंकि प्रयोगों ने यह सिद्ध कर दिया कर दिया है कि बड़े वानर तथा अन्य कई स्तनपायी अपने परिवेश के विविध पहलुओं के आधार पर अपना व्यवहार तय करते हैं। भाषा के बगैर विचार संभव नहीं है, इस तथ्य का निहितार्थ यह भी है कि संप्रेषण का एक बुनियादी स्तर वानर-पूर्व प्राणी में भी है जो वानरों एवं अन्य स्तनपायियों में प्रारंभिक गहन व्याकरण के रुप में विकसित होता है तथा मनुष्य के जटिल और संश्लिष्ट विकास के साथ उसका भी समरुप विकास इस तरह होता है कि मानव का अवतरण भाषा का अवतरण हो जाता है तथा जीवन को एक सातत्य के रुप में अनुभव किया जा सकता है-केवल जैविक रुप नहीं, बल्कि मानसिक गुणधर्मों के रूप में भी।

इसका द्वितीय निहितार्थ यह है कि अंतर्जात क्षमता होने के कारण यह भाषिकी जीवन के साथ आवयविक स्तर पर संबद्ध है। इस प्रत्यय के मनो-सामाजिक तथा राजनीतिक-वैधिक निहितार्थ दूरगामी हैं क्योंकि अंतर्जात होने तथा जीवन से आवयविक संबद्धता की वजह से अभिव्यक्ति तथा ज्ञानार्जन की स्वतंत्रता का अधिकार स्वयमेव ही एक प्राकृतिक अधिकार की हैसियत प्राप्त कर लेता है, जिसका अतिक्रमण प्रकारांतर से जीवन के अधिकार का ही अतिक्रमण है। इसलिए यह संगत ही है कि चॉमस्की अराजक-श्रमाधिपत्यवादी (Anarco-syndicalism) तथा उदार समाजवादी विचारों के पक्ष में खड़े दिखाई देते हैं। बौद्धिक वर्ग के उत्तरदायित्व पर उनका आग्रह भी संज्ञान और अभिव्यक्ति की अंतर्जात मानवीय क्षमता का ही विशेषीकृत प्रतिफलन है।

चॉमस्की की सैद्धांतिकी का एक और निहितार्थ यह भी है कि भाषाएं प्रजनक हैं और विचार की सहगामी होने के कारण भाषा का विकास विचार का विकास तो है ही, वह जीवन का भी विकास है क्योंकि वह जीवन में अंतर्जात है तथा एक का अतिक्रमण दूसरे का भी अतिक्रमण हो जाता है। इस प्रकार चॉमस्की की भाषिकी मानव-भाषा और चित्त के विकास की प्रक्रियाओं के निरंतर प्राकट्य का एक नैतिक और सौंदर्यात्मक तंत्र में बदल जाना है-एक अहिंसक तंत्र में।

- डॉ० अंजू ढड्ढा मिश्र

(हिंदी रूपांतरण : नंदकिशोर आचार्य)

सिवरक्ष, सुलक (Sulak Sivaraksa) : बौद्ध धर्म को, सामान्यतः, वैराग्यमूलक धर्म माना जाता है; लेकिन, अन्य कई आधुनिक एशियाई बौद्ध विचारकों की तरह थाइलैंड के बौद्ध भिक्षु सुलक सिवरक्ष (जन्म 1933 ई०) इसे समाज-प्रतिबद्ध धर्म मानते हुए उसके आधार पर समाज-परिवर्तन की अहिंसात्मक प्रक्रिया के प्रवक्ता हैं। इस प्रक्रिया में उन्हें महाघोषानंद, थिच न्हाट हान्ह तथा दलाई लामा के साथ रखा जा सकता है। सिवरक्ष के लिए धर्म की सामाजिक प्रतिबद्धता का तात्पर्य है-जहां कहीं भी अन्याय दिखाई दे, उसका अहिंसात्मक प्रतिरोध करना। एक चीनी प्रवासी परिवार में जन्मे सिवरक्ष ने अपनी शिक्षा पूरी करने के उपरांत सोशल साइंस रिव्यू नामक पत्रिका का संपादन किया, जिसे थाईलैंड की बौद्धिक आवाज माना जाता है।सत्ता परिवर्तन से उत्पन्न परिस्थितियों ने सिवरक्ष को पूरी तरह अहिंसा के सिद्धांत और व्यवहार का कायल कर दिया। इसके कारण स्वयं उन्हें दो साल निर्वासन में गुजारने पड़े। देश लौटने पर वह अहिंसात्मक परिवर्तन की दिशा में अधिक उत्साहपूर्वक सक्रिय हो गए। उन्होंने टिकाऊ विकास और आर्थिक-सामाजिक परिवर्तन के प्रारूप विकसित करने में भी अत्यधिक रुचि प्रदर्शित की। थाईलैंड में लोकतंत्र के दमन का अहिंसात्मक प्रतिरोध करने पर जब 1984 ई० में उन्हें गिरफ्तार किया गया तो विश्व-जनमत के दबाव के कारण सरकार को उन्हें रिहा करने पर मजबूर होना पड़ा। 1991 ई० में उन्हें कुछ समय के लिए देश छोड़ने के लिए विवश होना पड़ा। सिवरक्ष कई अंतर्राष्ट्रीय स्वैच्छिक संगठनों से भी जुड़े हैं, जो शांति और मानवाधिकारों के लिए काम करते हैं। 1989 ई० में उन्होंने दलाई लामा, महाघोषानंद और थिच न्हाट हान्ह के साथ मिलकर आइएनईटी (इंटरनेशनल नेटवर्क ऑफ इंगेज्ड बुद्धिस्ट्स) की स्थापना की। उन्हें नोबुल पुरस्कार के समकक्ष माने जाने वाले राइट लिवलिहुड अवार्ड से भी सम्मानित किया गया।

सुलक सिवरक्ष ने कई पुस्तकें लिखी हैं। वह अहिंसा को एक सक्रिय या सकारात्मक अवधारणा मानते हैं। यदि कोई व्यक्ति किसी अन्य पर हिंसा या अन्याय होते हुए देखता है और उसे रोकने के लिए हस्तक्षेप नहीं करता तो सिवरक्ष के अनुसार ऐसा करना भी हिंसा ही है। वह अनुष्ठानों के बजाय बुद्ध की मूल शिक्षाओं के आधार पर ही धर्म को समझते व उसकी व्याख्या करते हैं। इसलिए सामाजिक न्याय के लिए काम करना वह अहिंसक व्यक्ति का कर्तव्य मानते हैं। धर्म के अनुष्ठानमूलक रूप के बजाय इसे मूल्यगत स्वरूप में समझने के कारण सिवरक्ष सभी धर्मों की समानता तथा उनके पारस्परिक संवाद में आस्था रखते हैं। इसी प्रयोजन से उन्होंने थाइलैंड में इंटर-रिलीजियस कमीशन फॉर डेवलपमेंट की स्थापना की। उन्हें एसियन कल्चरल फोरम फॉर डेवलपमेंट का भी अध्यक्ष चुना गया। सिवरक्ष के सभी धर्मों के प्रति समान सम्मान का सर्वोत्कृष्ट प्रमाण यह है कि स्वयं बौद्ध होते हुए भी थाइलैंड के नए संविधान में बौद्ध धर्म को राष्ट्रीय धर्म घोषित करने के प्रस्ताव का उन्होंने विरोध किया। अपनी पुस्तक कानफ्लिक्ट, कल्चर, चेंज : इंगेज्ड बुद्धिज्म इन ए ग्लोब-लाइजिंग वर्ल्ड में वह अहिंसा के बौद्ध सिद्धांत में वैश्वीकरण से उत्पन्न समस्याओं के समाधान के लिए उपाय खोजते हैं तथा सामाजिक अन्याय के विरुद्ध अहिंसक प्रतिरोध की सलाह देते हैं। सादगी उनके लिए आसक्ति-मुक्ति के बौद्ध सिद्धांत का ही रूप है और वही जीवन की पर्यावरण-मित्र शैली हो सकती है। उनकी पुस्तकों में उपर्युक्त पुस्तक के अलावा उनकी आत्मकथा लॉयल्टी डिमांड्स डिसेंट, ए बुद्धिस्ट विजन फॉर रिन्यूइंग सोसाइटी, रिलीजन एंड डेवलपमेंट तथा ग्लोबल हीलिंग प्रमुख रूप से उल्लेखनीय हैं।

- नंदकिशोर आचार्य

सू की, आंग सान : आंग सान सू की का जन्म 19 जून, 1945 ई० को रंगून में हुआ। वह बर्मा की लोकतांत्रिक एक्टिविस्ट और नेशनल लीग फोर डेमोक्रेसी की नेता हैं। वह अपनी स्वतंत्र चेतना और अहिंसक प्रतिरोध की प्रवक्ता के तौर पर लंबे समय से कैदी का जीवन गुजार रही हैं। सू की अपने मां-बाप की तीसरी संतान हैं। उनका नाम तीन संबंधियों के नाम से बना है। आंग सान उनके पिता का नाम है, की उनकी मां का नाम है और ू उनकी दादी का नाम है। सू की को वैचारिक स्वतंत्रता के लिए 1990 ई० में रेफ्टो और सखारोव पुरस्कार मिले। 1991 ई० में उन्हें शांति के लिए नोबल पुरस्कार मिला। 1992 ई० में भारत सरकार ने उन्हें सैन्य तानाशाही के विरुद्ध शांतिपूर्ण और अहिंसक संघर्ष के लिए जवाहर लाल नेहरू शांति पुरस्कार प्रदान किया। इस समय वह नजरबंदी में हैं। बर्मा का सैन्य जुंटा उनकी नजरबंदी की अवधि को लगातार बढ़ाता रहा है। 1990 ई० में हुए आम चुनाव में सू की के नेतृत्व में नेशनल लीग फोर डेमोक्रेसी को बहुमत मिला था; लेकिन, जुंटा की सैनिक तानाशाही ने उन्हें प्रधानमंत्री का कार्यभार नहीं संभालने दिया।

अक्सर उन्हें दा आंग सान सू की पुकारा जाता है। दा उनके नाम का हिस्सा नहीं है; यह उन्हें मिला हुआ आदर सूचक संबोधन है, जिसका मतलब वरिष्ठ, सम्मानित महिला होता है। इसका शाब्दिक अर्थ चाची है। उन्हें दिया गया यह संबोधन उनके प्रति लोगों के प्यार और सम्मान को दर्शाता है। उन्हें सुश्री सू की या डॉक्टर सू की संबोधनों से भी पुकारा जाता है जो उन्हें उनके पिता की पहचान से अलग करता है। उनके पिता जनरल आंग सान को आधुनिक बर्मा का पिता माना जाता है।

सू की के पिता आंग सान आधुनिक बर्मी सेना के संस्थापक थे। उन्होंने 1947 ई० में इंग्लैंड (यू०के०) से बर्मा को आजाद कराया। उसी साल एक प्रतिद्वंद्वी ने उनकी हत्या कर दी। सू की मां ने उन्हें दो भाईयों के साथ पाला-पोसा। अपने भाइयों आंग सान लिन और आंग सान ओ के साथ सू की का बचपन रंगून में बीता। जब सू की आठ साल की थी तभी उसका प्यारा भाई आंग सान लिन एक तालाब में डूबकर मर गया। उसका बड़ा भाई सान डियागो केलिफोर्निया चला गया और उसने अमेरिका की नागरिकता ले ली। सू की ने अपनी आरंभिक शिक्षा एक अंग्रेजी कैथोलिक स्कूल में पाई।

सू की मां दा किन की ने नवगठित बर्मा सरकार में एक प्रमुख हैसियत प्राप्त कर ली। उन्हें 1960 ई० में भारत और नेपाल का राजदूत बनाकर भेजा गया। सू की मां के साथ भारत आ गईं। उन्होंने 1964 ई० में दिल्ली के लेडी श्रीराम कॉलेज से राजनीतिशास्त्र में डिग्री हासिल की।

सू की ने आगे ऑक्सफोर्ड के सेंट ह्यूज कॉलेज से दर्शन, राजनीति और अर्थशास्त्र में बी०ए० किया। उन्होंने 1985 ई० में लंदन यूनिवर्सिटी के ऑरियेंटल एंड अफ्रीकन स्टडीज स्कूल से पी०एच०डी० की उपाधि ली। 1990 ई० में वे मानद फैलो चुनी गईं। उन्होंने म्यांमार की संघीय सरकार के लिए काम किया। 1972 ई० में सू की ने भूटान में रहने वाले तिब्बती संस्कृति के अध्येता डॉ० माइकेल एरिस से शादी की। शादी के अगले वर्ष लंदन में सू की का पहला बेटा अलेक्जेंडर पैदा हुआ। 1977 ई० में दूसरे बेटे किम का जन्म हुआ। सू की के ब्रिटिश नागरिक पति को 1990 ई० में प्रोस्टेट कैंसर हो गया। जब वे 1995 ई० में बर्मा आना चाहते थे तो बर्मा सरकार ने उन्हें आने के लिए वीसा नहीं दिया। सू की बर्मा में ही नजरबंद रहीं और अपने पति से आखिरी बार भी नहीं मिल सकी। मार्च 1999 ई० में माइकेल एरिस की मृत्यु हो गई। सू की को उनके बच्चों से भी अलग रखा गया है। दोनों बच्चे इंग्लैंड में रहते हैं।

सू की बौद्ध थेरवाद की अनुयायी हैं। 2 मई, 2008 ई० को जब बर्मा में नरगिस नाम का तूफान आया तो उसमें उनके आवास की छत उड़ गई। झील के किनारे अंधेरे में डूबे अपने क्षत-विक्षत घर में सू की ने अनेक दिन गुजारे। वे मोमबत्ती की रोशनी से काम चलातीं। उन्हें जेनरेटर भी उपलब्ध नहीं करवाया गया।

सू की 1988 ई० में अपनी मां की देखभाल के लिए बर्मा लौटी थीं। संयोग से इन्हीं दिनों लंबे समय से सत्ताधारी सोशलिस्ट पार्टी के जनरल ने विन के विरुद्ध जनता ने आंदोलन शुरु कर दिया। बर्मा में लोकतंत्र की स्थापना के लिए 8 अगस्त, 1988 ई० (8.8.88 जिसे एक पवित्र दिन माना गया) को एक बड़ा प्रदर्शन किया गया, जिसे सरकार ने बर्बरता से कुचल दिया। राजधानी में श्वेदेगोन पेगोडा के सामने 26 अगस्त, 1988 ई० को सू की ने पांच लाख लोगों की विशाल रैली को संबोधित किया और लोकतांत्रिक सरकार की मांग की। सितंबर 1980 ई० में नई सैन्य जुंटा ने सत्ता संभाल ली। इसी माह बाद के दिनों में नेशनल लीग फोर डेमोक्रेसी की स्थापना की गई, सू की जिसकी महासचिव चुनी गईं।

सू की महात्मा गांधी के अहिंसा-दर्शन से प्रभावित हैं। वे बुद्ध के विचारों को भी अपने लिए प्रेरक मानती हैं। इनसे बने सोच के आधार पर सू की ने 27 सितंबर, 1988 ई० से नेशनल लीग फोर डेमोक्रेसी के माध्यम से लोकतंत्रीकरण के अपने काम को आगे बढ़ाया। उन्हें 20 जुलाई, 1998 ई० को उनके घर में नजरबंद कर दिया गया। उन्हें इस शर्त पर रिहा करने के लिए कहा गया कि वे देश छोड़ देंगी; लेकिन, इसके लिए सू की ने मना कर दिया।

सू की का प्रसिद्ध भाषण है-भय से स्वतंत्रता, जो इस प्रकार शुरु होता है : यह शक्ति नहीं है जो भ्रष्ट करती है, बल्कि यह भय है। शक्ति खोने का भय उन्हें भ्रष्ट करता है, जो शक्तिमान हैं और शक्ति के डर से वे लोग भ्रष्ट हो जाते हैं, जिनके लिए इसे अर्जित किया गया होता है।

अपने राजनीतिक जीवन की शुरुआत से अब तक सू की को बार-बार नजरबंद रखा गया है। उनका अधिकांश समय एक अलग-थलग कैदी के तौर पर गुजरा है। इस दौरान उन्हें अपनी पार्टी के सदस्यों और दूसरे देशों से आने वाले लोगों से नहीं मिलने दिया जाता है। विदेशी आगंतुकों और पत्रकारों को भी उनसे मिलने से रोका जाता है। मई 2009 ई० में जॉन विलियम येटा नामक अमेरिकी व्यक्ति को उस समय गिरफ्तार किया, जब वह इन्या लेक से वापस लौट रहा था। वह 3 मई, 2009 ई० को इस झील से तैरकर सू की के आवास पहुंचा और 6 मई, 2009 ई० को तैर कर वापस लौट रहा था, जहां उसे गिरफ्तार कर लिया गया। अभी यह स्पष्ट नहीं हुआ है कि वह सू की से मिल पाया या नहीं, जबकि 13 मई, 2009 ई० को सू की इस व्यक्ति से मिलने के जुर्म में गिरफ्तार कर ली गई। अभी उन पर नजरबंदी के नियमों का उल्लंघन करने का मामला चल रहा है। जुंटा सरकार के अनुसार इसके लिए उन्हें 5 साल तक की सजा हो सकती है। विश्व भर में जुंटा सैन्य सत्ता की इस कार्यवाही का विरोध हो रहा है।

1988 ई० में एक पत्रकार मोरिजियो गिलियानो ने सू की के कुछ फोटो खींचे। उसे कस्टम वालों ने रोक लिया तथा उसके टेप व रीलें नष्ट कर दीं। 20 सितंबर, 1994 ई० को बर्मा के नेता जनरल थान श्वे और जनरल खिन न्यंट घर में नजरबंद सू की से मिले। नजरबंदी के लंबे काल में सू की की उनसे यह पहली मुलाकात थी। 10 जुलाई, 1995 ई० को सू की को सरकार ने नजरबंदी से रिहा कर दिया। लेकिन उन्हें यह साफ बता दिया कि यदि वह अपने परिवार से मिलने विदेश जाएंगी तो फिर उन्हें देश में वापस आने की अनुमति नहीं मिलेगी। उन्हें सितंबर 2000 ई० से फिर घर में नजरबंद कर दिया गया।

सू की की लंबी नजरबंदी के दौरान संयुक्त राष्ट्र संघ के प्रतिनिधियों और कई स्वतंत्र शख्सियतों द्वारा बर्मा की सैन्य जुंटा सत्ता से वार्ता और मध्यस्थता के अनेकों प्रयास किए गए हैं। लेकिन इन प्रयासों को अभी तक कोई सफलता नहीं मिली है। 24 अक्टूबर, 2007 ई० को सू की और दूसरे राजनीतिक कैदियों की नजरबंदी के 12 वर्ष पूरे होने पर बर्मा के 12 शहरों में विरोध प्रदर्शन आयोजित किए गए। 25 अक्टूबर, 2008 ई० को नेशनल लीग फोर डेमोक्रेसी के नेता न्या विन ने कहा : पार्टी के छह सदस्यों में से प्रत्येक को 2 से 13 साल की कैद की सजा हुई थी....उन पर राज्य की शांति व्यवस्था के विरुद्ध लोगों को भड़काने का आरोप लगाया गया था। मांडले से नेशनल लीग फोर डेमोक्रेसी के वरिष्ठ नेता विन म्या म्या के साथ कान तुन को 12 साल की जेल हुई थी। मिन थुन को 13 साल, थान लेविन को 8 साल और विन श्वे को 11 वर्ष की जेल हुई थी जबकि तिन को दो साल के लिए जेल भेजी गई। हम इन सबके लिए अपील करेंगे। सू की ने 25 अक्टूबर, 2008 ई० तक घर में नजरबंदी के 13 साल पूरे कर लिए थे। यूरोपियन यूनियन में म्यांमार के विशेष प्रभारी इटालियन पीटो फेसिनो, संयुक्त राज्य के गृह विभाग के प्रतिनिधि और संयुक्त राष्ट्र संघ के नेताओं ने बर्मा की सैन्य सरकार से सू की सहित 2000 राजनीतिक कैदियों की रिहाई की मांग की।

16 मई, 2007 ई० को विश्व के 59 नेताओं ने म्यांमार की सैनिक सत्ता को सू की और अन्य राजनैतिक बंदियों की रिहाई के लिए एक पत्र लिखा। इस पत्र पर पूर्व अमेरिकी राष्ट्रपति जिमी कार्टर, जार्ज बुश; बिल क्लिंटन, ब्रिटेन की पूर्व प्रधानमंत्री मार्गरेट थेचर, पौलेंड के पूर्व राष्ट्राध्यक्ष नोबेल विजेता लेक वालेसा, दक्षिण कोरिया के राष्ट्रपति किम डे जुंग और फिलिपीन की पूर्व राष्ट्राध्यक्ष कोराजोन एक्विनो जैसे व्यक्तियों के हस्ताक्षर थे। सू की की नजरबंदी बढ़ाए जाने पर संयुक्त राष्ट्र संघ के वर्तमान महासचिव बान की मून ने अन्य राजनीतिक बंदियों के साथ उनकी रिहाई की मांग की। साथ ही उन्होंने म्यांमार में लोकतंत्र की बहाली और मानव अधिकारों को गरिमा प्रदान करने की मांग की।

30 मई, 2007 ई० को एसियान के देशों ने सैन्य शासन से सू की की नजरबंदी बढ़ाने के निर्णय पर पुनर्विचार का आग्रह किया। भारतीय संसद के दोनों सदनों ने सू की के 62 वे जन्मदिन पर एक पत्र लिखा। प्रसिद्ध गांधीवादी और राज्य सभा सदस्य निर्मला देशपांडे के नेतृत्व में लिखे इस पत्र में कहा गया : आप म्यांमार की वास्तविक प्रधानमंत्री हैं।

अपनी पुस्तक साहस : आठ व्यक्ति चित्र में ब्रिटिश प्रधानमंत्री गार्डन ब्राउन लिखते हैं : असल में सू की का साहस अपनी खुशियों और आरामदेह जिंदगी के त्याग का साहस है ताकि इस संघर्ष के माध्यम से वे पूरे राष्ट्र के लिए खुशियां और खुशनुमा जिंदगियां जीने का अधिकार जीत सकें। ये अपने आत्म को तिरोहित कर देने की एक उत्कृष्ट अभिव्यक्ति है। इसी का परिणाम है कि अपनी स्वतंत्रता की कीमत पर उन्होंने उन सब लोगों की आवाज और उनके दावे को मजबूती प्रदान की है।

दिसंबर 2007 ई० में अमेरिकी प्रतिनिधि सदन ने सर्वसम्मति से सू की को कांग्रेसनल गोल्ड मैडल प्रदान किया। 25 अप्रैल, 2008 ई० को सीनेट ने इसकी पुष्टि की। 6 मई, 2008 ई० को राष्ट्रपति बुश ने इस मैडल पर अपने हस्ताक्षर कर दिए। अमेरिकी इतिहास में वह ऐसी पहली महिला हैं जो यह मैडल पाने के समय बंदी हैं। इस मैडल को पाने वाले गैर-अमेरिकनों की सूची में सर विंस्टन चर्चिल, पोप जॉन पॉल द्वितीय, नेल्सन मंडेला, दलाई लामा और मदर टेरेसा शामिल हैं। 25 जुलाई, 2008 ई० को डावोस में आयोजित विश्व आर्थिक मंच में बोलते हुए फिलीपीन की राष्ट्रपति ग्लोरिया मोकापोगल आरायो ने दक्षिण एशिया में पूर्व लोकतंत्रीकरण और राजनीतिक व आर्थिक स्थिरता के लिए सू की की रिहाई की मांग की। म्यांमार के पड़ौसी बंगला देश के 432 प्रमुख नागरिकों ने सू की की रिहाई के लिए एक अपील पर हस्ताक्षर किए। 18 जून, 2007 ई० को सीनेटर मिच मेक्कोनेल और डायने फेंस्टीन ने अमेरिकी सीनेट में कहा : सू की को आज के दिन हम सबसे अच्छा उपहार यही दे सकते हैं कि विश्व की जनता से सू की और उनके साथियों की रिहाई के लिए अंतर्राष्ट्रीय दबाव बनाने की गुजारिश करें। ब्रिटिश विदेश मंत्री डेविड मिलिवेंड ने लेबर पार्टी के सम्मेलन में 25 सितंबर, 2007 ई० को कहा : सू की को पिछले हफ्ते उनके घर के बाहर जिंदा और ठीक-ठाक देखना आह्लादकारी था। वह स्वतंत्र व लोकतांत्रिक बर्मा की निर्वाचित नेता से सैंकड़ों गुना ज्यादा प्रभावशाली लग रही थीं।

सू की को 1991 ई० में शांति के लिए नोबेल पुरस्कार मिला। पुरस्कार समिति का कहना था : नॉर्वे की नोबेल समिति ने म्यांमार (बर्मा) की आंग सान सू की को लेाकतंत्र और मानव अधिकारों की बहाली हेतु उनके द्वारा चलाए गए अहिंसक संघर्ष के लिए शांति का नोबेल पुरस्कार देने का निर्णय किया है।

...सू की का संघर्ष हाल के वर्षों में एशिया में नागरिक साहस का एक असाधारण उदाहरण है। सू की शोषण के विरूद्ध संघर्ष का महत्त्वपूर्ण प्रतीक बन गई हैं...

...सू की को 1991 ई० के नोबेल शांति पुरस्कार से सम्मानित करते हुए नार्वे की नोबेल समिति यह महसूस करती है कि विश्व में जो भी लोकतंत्र की बहाली, मानव अधिकारों और नैतिक मूल्यों के लिए शांतिपूर्ण साधनों से संघर्ष कर रहे हैं, सू की के दुधुर्ष प्रयासों ने उन सभी लोगों के साथ समर्थन जताया है। इसलिए उनका सम्मान उन सभी संघर्षों का भी सम्मान है। (ओस्लो, 14 अक्टूबर, 1991)

19 फरवरी, 2008 ई० को नौ नोबेल पुरस्कार विजेताओं (आर्कविशप डेसमंड टूटू, दलाईलामा, शिरीन आबदी, अडोल्फो पेरेज एस्क्वेवेल, माइरीड कॉरिगेन, रिगोवेर्टा मेंचू, प्रो० ऐली वीसेल, वेट्टी विलयम्स ओर जोड़ी विलियम्स) ने बर्मा की सैन्य सत्ता को संबोधित एक वक्तव्य में कहा कि वह संयुक्त राष्ट्र के सीधे सहयोग से राष्ट्रीय शांति व्यवस्था कायम करने के लिए आंग सान सू की और सभी संबंधित दलों व समूहों से सार्थक बातचीत के लिए आवश्यक स्थितियां पैदा करें।

कनाडा की सरकार ने सू की को कनाडा मानद नागरिकता प्रदान की। यह सम्मान पाने वाली वह चौथी महिला हैं। सू की आइडिया (IDEA)और आर्टिकल 19 (ARTICLE) जैसे संगठनों की सदस्य रही है। उन्हें ब्रसेल्स की विर्जे यूनिवर्सिटी और बेल्जियम की कैथोलिक डि लुवेन यूनिवर्सिटी ने डॉक्टरेक्ट की मानद उपधियां प्रदान की हैं। अमेरिका में प्रति वर्ष जून महीने में एक अभियान चलाया जाता है, जिसमें लोग अपने आपको 24 घंटे के लिए अपने घर में बंदी बनाते हैं। ये अभियान सू की के संघर्ष को समझने और उसके साथ एकजुटता जाहिर करने के लिए किया जाता है। विभिन्न देशों में लोगों ने अपनी-अपनी तरह से सू की के प्रति समर्थन और एकजुटता जाहिर की है। स्वीडन में बर्मा के निर्वाचित प्रतिनिधियों ने 1995 ई० और 2002 ई० में सम्मेलन आयोजित किए। इन सम्मेलनों में जारी की गई घोषणाएं अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं।

पहली घोषणा : हम, 27 मई, 1990 ई० के आम चुनावों में निर्वाचित बर्मी जनता के प्रतिनिधि, इस पहले सम्मेलन में 1991 ई० की शांति के लिए नोबेल पुरस्कार विजेता आंग सान सू की की बिना शर्त रिहाई चाहते हैं। हम उन सबका हार्दिक आभार व्यक्त करते हैं, जो निरंतर अनथक रूप से सू की रिहाई और बर्मा में लोकतंत्र की बहाली के लिए कोशिशें कर रहें हैं। सू की बर्मा में सच्चे लोकतंत्र की स्थापना के संघर्ष के लिए नजरबंदी में छह साल गुजार चुकी हैं। हम सू की के पिता जनरल आंग सान के बाद दा आंग सान सू की की राजनीति में वापसी का स्वागत करेंगे। यह बर्मा की स्वतंत्रता के लिए दूसरी लड़ाई है....

दूसरी घोषणा : हम, 27 मई, 1990 ई० के आम चुनावों में निर्वाचित बर्मी जनता के प्रतिनिधि, जो वर्तमान में बर्मा संघ की राष्ट्रीय गठबंधन सरकार के सदस्य अथवा/या संसदीय संघ के सदस्य हैं, बोमर्स्विक के इस दूसरे सम्मेलन में घोषणा करते हैं कि हम बर्मी जनता के जनादेश, स्थिति और रणनीतिक उद्देश्यों को, जो उन्होंने मई 1990 ई० के आम चुनावों में व्यक्त किए हैं, उनको कभी नहीं भूलेंगे। भले ही सैनिक सत्ता ने इन नतीजों का सम्मान नहीं किया है और इनकी वैधता को नष्ट करने की कोशिश की है....(बर्मा के निर्वाचित प्रतिनिधियों का संघ)

सू की दर्जनों पुस्तकों की लेखक अथवा सहलेखक रही हैं। इनमें प्रमुख हैं-लेटर्स फ्रोम बर्मा (1998 ई०), फ्रीडम फ्रॉम फीयर एंड अदर राइटिंग्स (1995 ई) दि वॉयस ऑफ होप (1998 ई०) लेटर टू डेनियल : डिस्पेंचेज टू हर्ट (1996 ई०) आदि। सू की के जीवन और उनके संघर्ष पर भी अनेकों पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं और अभी यह क्रम जारी है।

- डॉ० राजाराम भादू

सूफी हमीदुद्दीन नागौरी (र०अ०) : भारतवर्ष में मुसलमान सूफी संतों के आगमन के संकेत 1400 वर्ष पूर्व से ही मिलते हैं। इनमें बड़े-बड़े धर्म के जानकार विद्वान, फकीर, दरवेश, पीर और बुजुर्ग शामिल थे। इनमें आम जनता के दिलों को जीतने वाले सूफियों में सबसे महत्त्वपूर्ण नाम ख्वाजा मोईनुद्दीन चिश्ती (र०अ०) का है, जो साढ़े आठ सौ वर्ष पूर्व भारत आए और लगभग 50 वर्ष अजमेर में रहकर मानवता की सेवा करते रहे और यहीं आखिरी सांस ली। उनके आने से भारत वर्ष में एक सामाजिक शैक्षिक और आध्यात्मिक क्रांति की शुरुआत हुई। उन्होंने जात-पात, धर्म, रंग, नस्ल की कठोरता पर करारी चोट की। इन्होंने सूफी मत को आम आदमियों तक फैलाया और बताया कि खुदा की बनाई हुई चीजों से मोहब्बत करना खुदा से मोहब्बत करने के बराबर और इबादत में शामिल है। उनके बाद उनके मिशन को उनके रूहानी वंशजों ने फैलाया, जिससे शांति, भाईचारे, देश भक्ति, एकता और सदभावना का पैगाम दूर-दूर तक फैला दिया गया।

यूं तो ख्वाजा साहब के बहुत से खुलफा और मुरीदी हैं, मगर इनमें विशेष स्थान ख्वाजा कुतुबुद्दीन बखतियार काकी उशी (र०अ०) का है, जिनकी दरगाह दिल्ली की महरोली बस्ती में है तथा दूसरे नंबर के खलीफा सूफी हमीदुद्दीन नागौरी हैं। खुद ख्वाजा साहब की नजर में इनका क्या स्थान था, इसका अंदाजा ख्वाजा साहब ही के इस कथन से हो जाता है कि मेरे तमाम मुरीदों में तीन मुरीद खासुल खास हैं। एक मुरीद हजरत ख्वाजा कुतुबुद्दीन उशी दहवली, एक मुरीद सुल्तानुल तारिकीन हजरत शेख हमीद सुफी सईद, आधे मुरीद शेख अब्दुल्लाह बयाबानी, पाव मुरीद बीबी हाफिज जमाल और पाव मुरीद हजरत सालार मसूद गाजी

सूफी साहब के पिता शेख अहमद सूफी तारिक लाहौरी एक कामिल दरवेश थे। इनकी माता भी बहुत विद्वान बुजुर्ग थीं। इनके बारे में खुद सूफी साहब का यह कथन बहुत मानी रखता है कि जिस वक्त मेरी पैदाइश हुई उस जमाने में मेरी वालिदा से बेहतर और बुजुर्ग अगर कोई दूसरी औरत होती तो मैं उसके बतन से पैदा होता

आपके वालदैन लाहौर से दिल्ली आकर बस गए थे और वहीं 588 हिजरी/1192 ई० में आपकी पैदाइश हुई जब ही शहाबुद्दीन गौरी ने दिल्ली को फतह किया था। इस बारे में सूफी साहब का यह कौल भी है कि फतह दिल्ली के बाद मुसलमानों के घर में पैदा होने वाला मैं पहला बच्चा हूं। दिल्ली से आप पलायन करके नागौर चले गए थे। आपने मौलाना शमशुद्दीन हलवाई और शेख मौहम्मद जुवेनी से अरबी-फारसी और स्थानीय बोलियों के अलावा फिका और हदीस की शिक्षा भी प्राप्त की। आपके घर में आम तौर से हिंदवी जबान (प्रारंभिक दौर की उर्दू) बोली जाती थी। आप अनेक किताबों के लेखक और कई जबानों के शायर थे। आप अपनी पूज्य माताजी और पत्नी से बड़े प्रभावित थे, जिन्होंने सूफियाना पद्धति अपनाने में आपको हर प्रकार का सहयोग दिया तथा कदम-कदम पर आपका हौसला बढ़ाया। हमीदुद्दीन सुवाली ने अजमेर में ख्वाजा साहब से मुरीद होने का सौभाग्य प्राप्त किया और यहीं ख्वाजा साहब ने उन्हें खिलाफत अता की। फिर आप काफी समय तक ख्वाजा साहब की सेवा में रहे और दिल्ली की यात्रा में भी उनको साथ रखा। एक बार ख्वाजा साहब ने उनसे पूछा कि क्या वह अपने दिल में कोई इच्छा रखते हैं तो आपने जवाब दिया बंदा ना ख्वास्ते न बाशद ख्वास्ते मौला यानी बंदे की अपनी कोई इच्छा नहीं है, उसकी इच्छा वही है जो अल्लाह की मर्जी है। ख्वाजा साहब इस जवाब से बहुत खुश हुए और उन्हें सुल्तानुल तारिकीन (दुनिया के सारे मजे त्याग देने वालों में सर्वश्रेष्ठ) की उपाधि से सम्मानित किया। सूफी साहब ने ख्वाजा साहब के मिशन की नींव को मजबूत किया। आपकी आदत, तौर-तरीके और मेहनत से जनता में एक नए समाज के गठन की उमंग पैदा हो गई। आपने स्वयं को शासकों के हर दबाव से दूर रखा और आम इंसानों से अटूट रिश्ते कायम किए। नागौर जिले के मोजा सुवाल में आपने एक बीघा जमीन खरीदी और दूसरे किसानों के साथ खेती-बाड़ी करने लगे। इसीलिए आप सूफी हमीदुद्दीन सुवाली के नाम से भी मशहूर हैं। स्थानीय लोगों से मेलजोल की कोशिश में आपका यह हाल था कि आपकी पत्नी ने अपने पड़ौसियों की तरह एक गाय पाल ली और जिस प्रकार उनकी महिलाएं प्रतिदिन करती थीं, उसी प्रकार वह खुद भी अपनी गाय का दूध दुहने लगी। पति और पत्नी दोनों ने ही स्थानीय निवासियों की भावनाओं का आदर करते हुए उन्हीं की तरह खादी पहनना प्रारंभ कर दिया। इसी प्रकार जब यह महसूस किया कि उनकी बस्ती वाले मांस खाने से परहेज करते हैं, तो स्वयं उन्होंने भी मांस खाना बिल्कुल छोड़ दिया और इस तरह आपने किरदार और अमल से स्थानीय लोगों के दिल जीत लिए। यह हकीकत भी बड़ी दिलचस्प है कि 750 वर्ष से अधिक का समय बीत जाने पर भी सूफी साहब की दरगाह शरीफ की सीमा में मांस खाना पकाना और खिलाना वर्जित है। आदर और आस्था की दृष्टि से जायरीन नागौर पहुंचकर जियारत से फारिग होने तक कतई मांस नहीं खाते हैं। आपने यह वसीयत भी फरमाई कि अगर तुम मेरी रूह को कोई चीज बख्शना चाहो तो गोश्त नहीं बख्शना (यानी मेरी फातेहा गोश्त पर मत दिलाना) उस समय आपके पास जो लोग बैठे थे उनमें से किसी ने पूछा कि बाबा अगर हम बाजार से हलाल किया हुआ गोश्त खरीद लें? आपने फरमाया कि एक ही बात है, तुम जितना खरीदोगे, वह लोग उतना ही हलाल करेंगे। मतलब साफ था आप नहीं चाहते थे कि उनके वास्ते कोई बेजान हो।

सूफी साहब से आदमी ही नहीं, जंगल के जानवर और परिंदे भी प्यार करते थे। कहा जाता है कि शेर हो या बकरी, आपके पास काफी देर बैठे रहते थे। किसी को किसी से कोई डर नहीं था। सूफी साहब के कंधे पर एक बार कोई जख्म हो गया। आप आंख बंद किए लेटे थे कि एक चिड़िया आई और जख्म पर चोंच मारने लगी। आप बगैर हिले-डुले चुपचाप लेटे रहे कि कहीं चिड़िया डर कर उड़ नहीं जाय। उनके मुरीद की नजर पड़ गई तो उसे तुरंत चिड़िया को उड़ा दिया आपने फौरन आंख खोल दी और मुरीद से कहा कि यह तूने क्या कर दिया। वह चिड़िया तो अपने हिस्से का रिज्क चुग रही थी जो खुदा ने इस जख्म के बहाने उसके लिए उतारा था।

सूफी हमीदुद्दीन इस्लामी कानून के मान्यता प्राप्त आलिम थे। आपके कुछ कथन आपके नवीरा और जानशीन फरीदुद्दीन चाक पर्रां (र०अ०) ने सुरूरूल सुदूर नामी संकलन में जमा किए हैं। उनसे भलीभांति अंदाजा लगाया जा सकता है कि आप किस प्रकार इल्म के समंदर में गहराई तक गोते लगा सकते थे। आपके पौते और जानशीन एक दिन हजरत निजामुद्दीन औलिया से मिलने गए। उन्होंने बेहद इज्जत की और फरमाया अगर आपके पास अपने दादा की कोई किताब हो तो पढ़ने को दीजिए। फरीदुल औलिया ने उन्हें उसूले तरीकत नाम की किताब भेंट की। हजरत निजामुद्दीन औलिया ने इसे खोला तो सबसे पहले इस शेर पर नजर पड़ी। दरवेश न आनस्त कि मशहूरे जहांनस्त/दरवेश हमानस्त कि बे नामो निशांनस्त यानि दरवेश वह नहीं है, जो दुनिया में मशहूर हो बल्कि दरवेश तो वह है जो बे नामोनिशान रहे। हजरत निजामुद्दीन औलिया ने इस शेर को अपने हस्बे हाल पाया और फरमाया सुब्हानल्लाह पीराने मा हनोज दर तरबियते माहस्तंद यानि सुब्हानल्लाह हमारे पीर अब भी हमारी तरबियत फरमा रहे हैं।

वृद्धावस्था में अपनी वफात के तीन वर्ष पूर्व ख्वाजा साहब ने सूफी साहब को नागौर से दिल्ली अपने पास बुला लिया। जहां आपने जामिया अलतमश (ढ़ाई दिन का झोंपड़ा) में पांचों वक्त की नमाजों की इमामत की। यहां ख्वाजा साहब खुद नमाज पढ़ाते थे। ख्वाजा साहब ने इस अवधि में आपके पीछे नमाज पढ़ी, इससे आपकी बुजुर्गी का अंदाजा लगाया जा सकता है।

29 रबीउल आखिर 673 हिजरी 01 अक्टूबर 1274 ई० को आप की वफात हुई। इस मौके पर हर वर्ष आपका उर्स धूमधाम से मनाया जाता है। नागौर में आपकी दरगाह में उर्स के अवसर पर हजारों जायरीन जमा होते हैं और दिल की मुरादें पाते हैं। आपके मजार पर कोई गुंबद नहीं है। पक्का मजार मौहम्मद तुगलक ने 1330 ई० में बनवाया। बाद में दूसरी तामीरात, जिनमें एक बड़ा दरवाजा भी शामिल है, शेख हुसैन नागौरी ने कराई। आपके बाद आपके पोते शेख फरीदुद्दीन महमूद आपके सज्जादानशीन (उत्तराधिकारी) बने क्योंकि आपके पुत्र अजीजुद्दीन आपके जीवन काल में ही फौत हो गए थे। मौहम्मद बिन तुगलक आपका बहुत आदर करता था, उन्हें अपने दरबार में एक सम्मानजनक स्थान दे रखा था। सुल्तान तुगलक ने अपनी एक लड़की की शादी भी शेख फरीद के पोते से कर दी थी।

उस समय से नागौर चिश्ती सिलसिले और सूफी मत का एक बहुत बड़ा केंद्र बनता चला गया और बड़े-बड़े विद्वान और सूफी यहां आकर बसने लगे इन्हीं में से एक शेख खिजर थे जो शेख मुबारक के पिता और शेख अबुल फज्ल और फैजी के दादा थे।

सूफी हमीदुद्दीन नागौरी ने फारसी के अलावा हिंदी में भी सूफियाना कलाम लिखा और पसंद किया है जो कव्वालियों की महफिलों में प्रचलित रहा है इनके कुछ शेर जो सुरूरूल सुदूर में दर्ज हैं इस प्रकार हैंः- जो बिस्तरें तो सबै, सिकत (जो) संकोय/सौ सौ एक पुरुष के नांव बिरला जाने कोयऌ/बिरले चीन जो रोगिन गई जोगिन करी गुन गई को दोस/श्रयन रसायन संचरै रंग जो मारे ओस/औवदि भेजन घनि गई ओउ भई बिरहीन/औषधि घेश न जानई, नारि न चेले तीन।

- के० डी० खान

सूफीवाद : सूफीवाद या तसव्वुफ इस्लाम का रहस्यवादी आयाम है। कुछ लोग सूफीवाद को पारंपरिक इस्लाम की दृष्टि से सहमत नहीं मानते और कई प्रारंभिक सूफी संतों को दी गई सजाओं का उल्लेख इस बात के प्रमाण के तौर पर करते हैं कि वह पारंपरिक इस्लाम से अलग है। लेकिन, स्वयं सूफी साधक और सूफीवाद के कई अध्येता यह मानते हैं कि सूफीवाद के स्रोत स्वयं कुरान और हजरत मुहम्मद के वचनों में ही मिल जाते हैं। सूफीवाद का विकास मोटे तौर पर आठवीं से ग्यारहवीं शताब्दियों के बीच हुआ माना जाता है और अंततः इसे इस्लाम में स्वीकार कर लिया गया-यद्यपि अभी भी कुछ लोग-उनकी संख्या अधिक नहीं है-उसे इस्लामी परंपरा के पूरी तरह अनुकूल नहीं मानते।

सूफी मत ईश्वर के एकत्व में विश्वास करता है तथा सूफी साधक उस ईश्वर के साथ एक हो जाने की कामना करता है, जैसे बूंद समुद्र में मिल जाती है। ईश्वर ही स्रोत है और वही मंजिल भी। इस मिलन (विसाल) के लिए साधक प्रेम (इश्क) की प्रक्रियाओं के माध्यम से अपने को पवित्र करके ईश्वरीय मिलन के लिए तैयार करता है-यद्यपि यह मिलन ईश्वरीय कृपा से ही होता है, लेकिन, साधक को अपने को इस कृपा के योग्य बनाना होता है। अपने को ईश्वरीय कृपा के योग्य बनाने की प्रक्रिया ने विभिन्न चरण, दरअस्ल, सकारात्मक अर्थों में अहिंसा की ही साधना हैं। उल्लेखनीय है कि महात्मा गांधी भी प्रेम और अहिंसा को समानार्थी ही मानते हैं और केवल प्रेम शब्द के वासनात्मक अर्थों से बचने के लिए अहिंसा शब्द को वरीयता देते हैं।

सूफी साधना की इस अहिंसक प्रक्रिया के कई चरण हैं : तौबा (पश्चाताप या प्रायश्चित), जुह्द (पवित्रता, संपदा) तवक्कुल (ईश्वर में आस्था), फक्र (गरीबी), जिक्र (ईश्वर-स्मरण), सब्र (धैर्य, सहनशीलता), शुक्र (कृतज्ञता), रिहा (संतोष), मोहब्बत (प्रेम), मारिफत (आध्यात्मिक ज्ञान)। इन सब चरणों से गुजरने के लिए आत्मत्याग या आत्मबलिदान की भावना एक आवश्यक शर्त है। (द्रष्टव्य : सादिया देहलवी; सूफीज्म; दि हर्ट ऑफ इस्लाम, 125)।

इन सब प्रक्रियाओं का विश्लेषण यह स्पष्ट कर देता है कि सूफीवाद अहिंसा का धर्म है क्योंकि यह वासनाजन्य हिंसा से तौबा करता, स्वैच्छिक निर्धनता में विश्वास करता (अर्थात् लालचजन्य हिंसा से बचता),सब्र और शुक्र का आचरण करता (अर्थात् अन्य के प्रति सहनशीलता और कृतज्ञता का भाव रखता) और इस प्रकार अपने मन में निरपेक्ष प्रेम की अनुभूति करता है, जो आध्यात्मिक ज्ञान की सर्वोच्च स्थिति है। इसलिए आत्मत्याग जो अहिंसा या प्रेम का सर्वोच्च रूप है, इस आध्यात्मिक अनुभूति तक पहुंचने की अनिवार्य शर्त है। यही कारण है कि सूफी संतों के उपदेशों में प्रतिशोध, अन्य को कष्ट पहुंचाने, अहंकार तथा भौतिक संपदा से दूर रहने का बार-बार आग्रह किया गया है। प्रारंभिक सूफियों में प्रसिद्ध बायजीद कहते हैं कि यदि तुम ईश्वर से मिलन चाहते हो तो दयालु, विशाल हृदय, और सबके प्रति न्यायशील बनो; यदि तुम उषा की तरह दीप्तिवान होना चाहते हो तो सूरज जैसे उदार हो जाओ। मंसूर अल हल्लाज का कहना है कि मैं, हम, तू और वह सब एक ही हैं ऐसे में किसी के प्रति हिंसा का सवाल ही कहां उठ सकता है। अबू सईद अबि खैर ने लिखा है : जो मेरा मित्र नहीं है, ईश्वर उसका मित्र हो और जो मेरा बुरा चाहता है, उसके सुख में वृद्धि हो, जो दुश्मनी के कारण मेरे रास्ते में कांटे बिछाता है, उसके जीवन के बगीचे में खिलने वाला हर फूल शूलरहित हो जाए।

यह उल्लेखनीय है कि ख्वाजा मुइनुद्दीन चिश्ती को तो गरीबनवाज नाम से ही पुकारा जाता है। अमीर खुसरो लिखते हैं-जब तुम अपने शरीर पर नश्तर नहीं झेल सकते तो दूसरे की गर्दन पर तलवार चलाने का अधिकार तुम्हें नहीं है या यह क्या कि जंग में सैंकड़ों के कत्ल पर गर्व कर रहे हो-हम तो तुम्हें तब मर्द जाने जब किसी को जीवित करके दिखाओ। बाबा फरीद का तो स्पष्ट कहना है-फरीद, उन्हें चोट मत पहुंचा जो तुम्हें चोट पहुंचाते हैं-बल्कि विनयपूर्वक उनके पांव चूम ले। एक और पद में वह कहते हैं-फरीद, बुराई का प्रतिदान भलाई से कर; अपने हृदय में प्रतिशोध को मत पाल-तभी तुम्हारी देह रोगों से मुक्त होगी और तुम्हारा जीवन धन्य या किसी को कठोर वचन न बोलो-क्योंकि सभी में वही ईश्वर है, किसी को हृदय न तोड़ो, प्रत्येक अमूल्य मणि है। सूफी संत हमीदुद्दीन नागौरी के खानकाह में तो मांसाहार की मनाही थी और आज भी यह परंपरा वहां चालू है। नानक और कबीर जैसे संत भी अहिंसा का संदेश देते और जीव-हत्या की भर्त्सना करते हैं। जपुजी की 18वीं पउड़ी में नानक कहते हैं : असंख अमर करि जाहि जोर या असंख गलवढ़ हातेआ कमाई। नानक मजलूमों के साथ अत्याचार का निषेध करते हैं; साथ ही, पशु-पक्षियों के प्रति हिंसा को भी गलत बताते हैं। कबीर भी कहते हैं : जदसम महि एक खुदाई कहत हउतद किद मुरगी मारै-यदि सभी प्राणियों में एक ही सर्जक का नूर है तो किसी भी जीव को भोजन के लिए मारना कहां तक उचित कहा जा सकता है। वह पूछते हैं कि यदि जीव हत्या करने वाले लोग धार्मिक हैं तो पापी और कसाई कौन है।

प्रसिद्ध सूफी संत शाह लतीफ भी घृणा और प्रतिकार का निषेध करते हुए लिखते हैं : अपनी बुराई सुनकर बदला लेने की इच्छा न करो क्योंकि क्रोध दुखद है और सहिष्णुता कस्तूरी। शिकारियों को सावधान करते हुए वह कहते हैं कि जो शिकार में लगे हैं, वे खुद एक दिन बड़े शिकारी के शिकार हो जाएंगे।

यह उल्लेखनीय है कि सूफी संतों द्वारा सजाओं का स्वीकार अपने विश्वास के लिए उनके आत्मत्याग का प्रमाण है और शायद यही कारण रहा कि धीरे-धीरे इस्लामी समाज में ही नहीं, गैर-इस्लामी समाजों में भी सूफी संतों की प्रतिष्ठा और प्रभाव बढ़ते रहे और आज पूरे विश्व में सूफीवाद को गहन आध्यात्मिक ज्ञान के साथ-साथ आपसी मेलजोल, शांति, सहिष्णुता और सर्वकल्याण की भावनाओं को परिपुष्ट करने वाले अहिंसामूलक विचार के रूप में स्वीकार किया जाता है तथा केवल धार्मिक लोग ही नहीं, बल्कि स्वयं को धर्मनिरपेक्ष कहने वाले भी सूफी संतो के प्रशंसक हैं।

द्रष्टव्य : फरीद, शेख; नानक; कबीर; लतीफ, शाह; खुसरो, अमीर; औलिया, निजामुद्दीन; नागौरी, हमीदुद्दीन।

- नंदकिशोर आचार्य

सृजनात्मक स्वतंत्रता : द्रष्टव्य : मैक्फर्सन, सी०बी०।

सेविले उद्घोषणा (The Seville Statement on Violence) : हिंसा पर सेविले उद्घोषणा एक वैज्ञानिक वक्तव्य है। इसे संयुक्त राष्ट्रसंघ के शांति के अंतरराष्ट्रीय वर्ष के अंतर्गत निर्मित किया गया। 16 मई 1986 ई० को सेविले (स्पेन) में विश्व के श्रेष्ठ वैज्ञानिकों की अंतरराष्ट्रीय सभा ने इस उद्घोषणा को स्वीकार किया। यह अंतरराष्ट्रीय सभा यूनेस्को के लिए स्पेनिश राष्ट्रीय आयोग द्वारा गठित की गई। इस उद्घोषणा को 16 नवंबर 1989 ई० को यूनेस्को की सामान्य सभा के 25 वें सत्र में स्वीकार किया गया। विश्व की अनेक वैज्ञानिक एवं अकादमिक संस्थाओं ने भी इस उद्घोषणा का समर्थन किया है, जिसमें मनोवैज्ञानिकों, मानव जीववैज्ञानिकों, समाजशास्त्रियों, नृतत्त्वशास्त्रियों, राजनीतिशास्त्रियों आदि के समूह शामिल हैं।

हिंसा पर सेविले उद्घोषणा के वैज्ञानिक समूह के सदस्य एवं महत्वपूर्ण टिप्पणीकार डेविड एडम्स ने इस उद्घोषणा की पृष्ठभूमि एवं यूनेस्को के प्रयासों के बारे में काफी विस्तार से लिखा है। उनके अनुसार यूनेस्को द्वारा अपनी स्थापना से ही यह प्रयास किया गया कि वैज्ञानिक नियमों एवं तथ्यों का प्रयोग असमानता या अमानवीय व्यवहार को उचित ठहराने में न किया जाए। नस्ल जैसे महत्त्वपूर्ण एवं संवेदनशील मुद्दे पर यूनेस्को ने अपनी स्थापना के कुछ समय बाद ही एक अंतरराष्ट्रीय संगोष्ठी में विश्व के श्रेष्ठ वैज्ञानिकों को एकत्रित किया और एक उद्घोषणा की गई कि मानव जाति समान और एक ही प्रजाति से उत्पन्न है। यह उद्घोषणा भी वैज्ञानिक तथ्यों पर आधारित थी। 1978 ई० में यूनेस्को ने घोषणा कि कि सभी वैज्ञानिकों का एक विशिष्ट उत्तरदायित्व है कि उनके शोध का प्रयोग नस्लीय पूर्वग्रह और उसे बनाए रखने में न हो। यूनेस्को ने इस बात को गंभीरता से लिया कि जिस तरह से नस्लीय भेदभाव को बनाए रखने में वैज्ञानिक नियमों का गलत प्रयोग हुआ, उसी तरह से हिंसा एवं युद्ध को उचित ठहराने के लिए भी वैज्ञानिक तथ्यों का प्रयोग होता रहा है। इसी पृष्ठभूमि में हिंसा पर सेविले उद्घोषणा संपन्न हुई।

इस उद्घोषणा के तीन भाग हैं : भूमिका, पांच प्रस्थापनाएं (Propositions) एवं निष्कर्ष। प्रस्तावना में कहा गया है कि यह उद्घोषणा शांति का संदेश है। युद्ध समाप्त किए जा सकते हैं और शांति स्थापित की जा सकती है। मानव अस्तित्व के समक्ष उपस्थित हिंसा एवं युद्ध जैसी विभीषिकाओं से मुक्ति पाई जा सकती है। वैज्ञानिकों का यह समूह अद्यतन ज्ञान के आधार पर अपने तर्क प्रस्तुत करता है और मानता है कि भविष्य में विकसित होने वाले सिद्धांत इसमें नवीन विचार जोड़ सकेंगे। इस वैज्ञानिक समूह के तर्क उद्विकास, जेनेटिक्स, पशुव्यवहार अध्ययन, मस्तिष्क अध्ययन, सामाजिक मनोविज्ञान, समाजविज्ञान आदि के अंतरानुशासनिक अध्ययन पर आधारित हैं। इसी आधार पर यह उद्घोषणा उन वैज्ञानिक तथ्यों को चुनौती देती है, जो अन्य वैज्ञानिकों द्वारा युद्ध एवं हिंसा के समर्थन में प्रयुक्त किए जाते हैं। युद्ध और हिंसा के समर्थन में प्रयुक्त किए जाने वाले वैज्ञानिक तथ्यों ने निराशावाद को जन्म दिया है, जिससे लगता है कि मनुष्य जाति इन विभीषिकाओं से कभी भी मुक्त नहीं हो पाएगी। सेविले उद्घोषणा के वैज्ञानिक समूहों का मत है कि युद्ध व हिंसा के समर्थक वैज्ञानिक तथ्यों की स्पष्ट एवं गंभीर आलोचना कर शांति के अंतरराष्ट्रीय वर्ष में एक सशक्त योगदान कर सकेंगे। इनके अनुसार आधुनिक विज्ञान की शुरूआत से ही वैज्ञानिक सिद्धांतों एवं तथ्यों का प्रयोग युद्ध और हिंसा को न्यायोचित ठहराने में किया गया है। इसका उदाहरण उद्विकास (Evolution) का सिद्धांत है, जिसका प्रयोग युद्ध, नरसंहार, उपनिवेशवाद एवं कमजोर तबकों के दमन को न्यायोचित ठहराने के लिए किया गया। यह समूह पाँच प्रस्थापनाओं में अपनी बात प्रस्तुत करता है।

1) वैज्ञानिक रूप से यह कहना गलत है कि हमें अपने विकास के क्रम में युद्ध की प्रवृत्ति पशुओं के रूप में रह रहे पूर्वजों से मिली है। वस्तुतः पशुओं के बीच लड़ाई होती थी मगर युद्ध नहीं होता था और न ही पशु हथियारों का इस्तेमाल करते थे। पशुओं में भी सामूहिक लड़ाई के उदाहरण नहीं मिलते हैं। युद्ध एक मानवकृत परिघटना है। युद्ध के स्वरूप मानव समाज में लगातार बदलते रहे हैं, युद्ध भाषा के जरिए लोगों को एकत्र करता है, तकनीक और यंत्रों का प्रयोग करता है। इससे स्पष्ट है कि संस्कृति इसमें महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। ऐसी कई संस्कृतियां है जो कई शताब्दियों तक युद्ध से अछूती रही, कुछ समाज (जैसे वाइकिंग्स) ऐसे भी है, जो एक शताब्दी में युद्धरत रहे मगर अगली शताब्दी में उन्होंने युद्ध नहीं किया। ये सभी स्थितियां स्पष्ट करती है कि युद्ध से छुटकारा पाया जा सकता है।

2) वैज्ञानिक रूप से यह कहना गलत है कि मानव में हिंसक प्रवृत्ति जीन (Genes) के रूप में विद्यमान है। जीन के साथ-साथ प्राकृतिक एवं सामाजिक वातावरण का भी प्रभाव पड़ता है। हर व्यक्ति अनुभव से अलग-अलग सीखता है। व्यक्ति के जीन एवं पालन-पोषण की परिस्थितियों के बीच अंतर्क्रिया ही व्यक्तित्त्व का निर्माण करती है। जीन व्यक्ति को अनिवार्य रूप से हिंसा की ओर प्रवृत्त नहीं करते हैं। जीन व्यक्ति के व्यवहार-क्षमताओं को बनाने में भूमिका निभाते हैं, परंतु वे सीधे परिणाम नहीं प्रकट करते हैं।

3) वैज्ञानिक रूप से यह कहना गलत है कि मानव विकास (Human Evolution) में हिंसक व्यवहार अन्य व्यवहारों की तुलना में ज्यादा योग्य माना गया है। विभिन्न प्रजातियों का अध्ययन स्पष्ट करता है कि एक समूह के भीतर श्रेष्ठता एक-दूसरे के सहयोग करने की क्षमता और प्रदत्त सामाजिक कार्यों को सम्पन्न करने का परिणाम है। प्रभुत्व (Dominance) में सामाजिक जुड़ाव और स्नेह भी शामिल होता है। प्रभुत्व का अर्थ केवल परिग्रह और शारीरिक शक्ति का प्रयोग मात्र नहीं है और न ही इसमें अनिवार्यतः आक्रामक व्यवहार शामिल है। आक्रामकता योग्यता का प्रमाण नहीं है। सहयोग की महत्त्वपूर्ण भूमिका को नजरअंदाज किया गया है।

4) वैज्ञानिक रूप से यह कहना गलत है कि मनुष्य के पास हिंसक मस्तिष्क है। यद्यपि मनुष्य अपनी तंत्रिकाओं की प्रतिक्रियास्वरूप हिंसक व्यवहार करने लगते हैं, परंतु हमारे शरीर में ही इन प्रतिक्रियाओं को रोका जा सकता है। हम कैसे व्यवहार/प्रतिक्रिया करते हैं, यह इस बात पर भी निर्भर करता है कि हमारा परिवेश और समाजीकरण (Conditioned and Socialized) कैसा है। हमारे तंत्रिका शरीर में ऐसा कुछ नहीं है, जो हमें अनिवार्यतः हिंसक प्रत्युत्तर/व्यवहार के लिए बाध्य करे।

5) वैज्ञानिक रूप से यह कहना गलत है कि युद्ध मनुष्य की मूल प्रवृत्ति (Instinct) या केवल एक अभिप्रेरणा (Motivation) का परिणाम है। प्रारंभिक समय में युद्ध भावनात्मक और अभिप्रेरणात्मक तत्त्वों के आधार पर लड़ा जाता था, जिसे अधिकांशतः मूल प्रवृत्ति कह दिया जाता है। परंतु आज यह हमारे संज्ञानात्मक तत्वों (Cognitive Factors) का परिणाम है। दूसरे शब्दों में, यह हमारी सोची समझी साजिशों का परिणाम है। आधुनिक युद्ध आज्ञापालन, आदर्शवाद भाषा जैसे सामाजिक कौशल, साथ ही लागत-अनुमान, योजना एवं सूचना-प्रक्रिया जैसे तार्किक तथ्यों का इस्तेमाल करता है। वर्तमान युद्ध-प्रौद्योगिकी का हिंसा से अनिवार्य संबंध है। यह सैनिकों को ज्यादा हिंसक बनाने तथा लोगों को युद्ध के पक्ष में खड़ा करने में आसानी से देखा जा सकता है।

निष्कर्ष के रूप में इस समूह द्वारा यह कहा गया कि हमारी जैविकी युद्ध के लिए उत्तरदायी नहीं है। मानवता इस जैविकीय निराशावाद से मुक्त हो सकती है। इस प्रयास में वैयक्तिक एवं सामूहिक पहलकदमियां शामिल हैं। जिस तरह से युद्ध मस्तिष्क में पैदा होता है, शांति भी मस्तिष्क में पैदा होती है। युद्ध को खोजने वाली इस प्रजाति में शांति की खोज एवं स्थापित करने की अपार क्षमता है।

इस वैज्ञानिक समूह में आशीष नंदी (भारत), बोनी फ्रेंक कार्टर (अमेरिका), बेनसन इ० गिंसबर्ग (अमेरिका), डायना एल० मेंडोजा (स्पेन), समीर कुमार घोष (भारत), सेनटिआगो जिओवेस (मैक्सिको), जे० मार्टिन रामिरेज (स्पेन), डेविड एडम्स (अमेरिका), जोसे लुई डिआस (मेक्सिको), जॉन पॉल स्कॉट (अमेरिका), रिट्टा वाल्सट्रोम (फिनलैंड), एस०ए० बारनेट (आस्ट्रेलिया), एन०पी० बेचटेरेवा (यूएसएसआर), जोसे एम०आर० डेलगाडो (स्पेन), आंद्रेजे इलिऐज (पौलेंड), जो ग्रोइबेल (जर्मनी), रॉबर्ट हिंडे (यूके), रिचर्ड ई० लेकी (केन्या), तहा एच० मलासी (कुवैत), फ्रेडरिको मेयोर जारागोजा (स्पेन) शामिल थे।

- शंभू जोशी

सोरोकिन, पितरम अलेक्जेंड्रोविच : रूस में जन्मे अमरीकी समाज-वैज्ञानिक पितरम ए० सोरोकिन (1889-1968 ई०) का जीवन जितना घटनापूर्ण रहा, उनकी बौद्धिकता भी उतनी ही बहुआयामी। सोरोकिन की उच्च शिक्षा सेंट पीटर्सबर्ग विश्वविद्यालय और पीटर्सबर्ग शहर के साइको-न्यूरोलॉजिकल इंस्टीट्यूट में हुई और अनंतर 1914 ई० से 1922 ई० तक उन्होंने दोनों जगहों पर अध्यापन भी किया। पीटर्सबर्ग विश्वविद्यालय में वह 1919 ई० से 1922 ई० तक समाज-विज्ञान के प्रोफेसर रहे।

लेकिन, सोरोकिन एक अकादमिक समाज-विज्ञानी मात्र नहीं थे। क्रांतिपूर्व रूस की क्रांतिकारी राजनीतिक गतिविधियों में उनकी पूरी सक्रिय सहभागिता रही। जारशाही ने उन्हें तीन बार जेल भेजा। जुलाई, 1917 ई० में बनी केरेंस्की सरकार में वह शामिल हुए और केरेंस्की के सचिव पद पर कार्य किया। लेकिन अक्टूबर क्रांति के बाद बोल्शेविक विरोधी होने के कारण उन्हें मृत्यु-दंड दिया गया, जिसे अनंतर देश-निर्वासन में बदल दिया गया। इस कारण 1923 ई० में वह संयुक्त राज्य अमेरिका आ गए, जहां उन्हें मिनेसोटा विश्वविद्यालय में समाज-विज्ञान के प्रोफेसर पद पर नियुक्त किया गया। अनंतर उन्होंने हार्वर्ड विश्वविद्यालय में समाज-विज्ञान विभाग की स्थापना की और वहां प्रोफेसर पद (1930-55 ई०) पर कार्य करते रहे।

सोरोकिन की ख्याति मुख्यतः एक ऐसे समाज-वैज्ञानिक के रूप में है, जो समाजों के विकास को सांस्कृतिक प्रवृत्तियों के आधार पर समझना चाहता है। उनका महत्त्वपूर्ण ग्रंथ सोशल एंड कल्चरल डाइनैमिक्स संस्कृति के विकास को सांस्कृतिक मानसिकता के आधार पर व्याख्यायित करते हुए आध्यात्मिक, ऐंद्रिक और समन्वयवादी दौरों में उनकी विकास-प्रक्रिया का विभाजन करता है। सोरोकिन अपने इस विश्लेषण के माध्यम से आधुनिक पश्चिमी सभ्यता को ऐंद्रिक मानते हुए उसके पतन और एक समन्वयवादी संस्कृति के उदय की संभावना व्यक्त करते हैं।

दरअस्ल, सोरोकिन अखंड ज्ञान (Integral knowledge) की अवधारणा के आधार पर समाज और संस्कृति को जानना-समझना चाहते हैं, जिसकी एक परंपरा रूसी विचारकों में रही थी। इन विचारकों में प्रिंस क्रोपाटकिन और सोलोव्योव का स्पष्ट प्रभाव सोरोकिन पर देखा जा सकता है, जिसे वह स्वयं भी स्वीकार करते हैं। इस रूसी परंपरा में पारस्परिक सहयोग (mutual aid) और सर्व सहभाव ((all-togetherness) की अवधारणाओं का प्रभाव था, जिन्हें परहितवाद का आधार माना जाता है। इसलिए यह अस्वाभाविक नहीं लगता कि सोरोकिन के जीवन के अंतिम दो दशक अकादमिक समाज-वैज्ञानिक अध्ययन के बजाय परहितवाद (altruism) और प्रेम की अवधारणाओं के विश्लेषण और प्रसार में बीते। सोरोकिन के लिए प्रेम की अवधारणा में ही सभी समस्याओं का समाधान है-यदि हम प्रेम को ठीक से समझ सकें और अपने में उसका अखंड विकास कर सके। सोरोकिन ने हार्वड में रिसर्च सेंटर इन क्रिएटिव आलट्रुइज्म की स्थापना भी की। इस संबंध में अपने अध्ययन को उन्होंने तीन ग्रंथों के रूप में प्रकाशित किया : आलट्रुइस्टिक लव (1950 ई०), फॉर्म्स एंड टेक्नीक्स ऑफ आलट्रुइस्टिक एंड स्पिरिचुअल ग्रोथ (1954 ई०) तथा वेज एंड पॉवर ऑफ लव (1954 ई०)। इस अंतिम पुस्तक को उनके विचारों का निचोड़ कहा जा सकता है।

सोलोव्योव की मान्यता थी कि प्रेम जीवन में हमारी समस्त रुचि का अन्य में केंद्रीकरण है। मनुष्य की त्रासदी यह है कि वह अपने को केंद्र में रखते हुए अन्य सब कुछ को परिधि में रखता और उनके बाह्य और सापेक्षिक मूल्य को ही स्वीकार करता है। सोरोकिन प्रेम की इस अवधारणा की विस्तृत व्याख्या करते और उसकी विविधवर्णी अखंडता पर बल देते हैं। वह प्रेम के सात पहलुओं का जिक्र करते हैं : (1) धार्मिक पहलू-जो एक उच्चतर उपस्थिति (Higher presence) के लिए होता है, (2) नैतिक पहलू-जो शुभत्व या कल्याण है, (3) तत्त्वमीमांसीय पहलू-जो भौतिक, जैविक और मनोवैज्ञानिक विश्व में सक्रिय सृजनात्मक ऊर्जा को एकत्व, अखंडता और संगति प्रदान करता है, (4) भौतिक पहलू-जो अणु से लेकर पूरे ब्रह्मांड को एकत्व देता है, (5) जैविक पहलू-जो प्रजनन और संतति का पालन-पोषण है, (6) मनोवैज्ञानिक पहलू-जहां मैं प्रेमपात्र के तू में विलय हो जाता है, सोरोकिन के अनुसार प्रेम उदात्ततम स्वतंत्रता है, और (7) सामाजिक पहलू-जिसका तात्पर्य दो पक्षों के बीच सार्थक अंतःक्रिया और संबंधानुभूति है, जिसमें दोनों अपने उद्देश्यों और आकांक्षाओं का साझा करते और उनकी सिद्धि में परस्पर सहयोगी होते हैं। सोरोकिन इन आकांक्षाओं और उद्देश्यों का विवेकपूर्ण होना आवश्यक मानते है।

सोरोकिन प्रेम के सात पहलुओं के साथ उसके पांच आयामों का उल्लेख भी करते हैं। ये पांच आयाम हैं : तीव्रता या प्रगाढ़ता, विस्तार, अवधि, शुद्धता और औचित्य। ये पांचों आयाम प्रेम के सातों प्रकारों पर लागू होते हैं और उनके कम-ज्यादा होने की कसौटी पर प्रेम को परखा जा सकता है। सोरोकिन की राय में इतिहास में ऐसे कई व्यक्तित्व हुए हैं, जिनमें ये पांचों आयाम लगभग पूर्ण अभिव्यक्ति पाते हैं-महात्मा गांधी उनकी राय में ऐसे ही एक महान व्यक्तित्व है। सोरोकिन का मानना है कि सफल प्रेम सदैव प्रभावी होता है।

सोरोकिन प्रेम की अवधारणा के पक्ष में शायद वैज्ञानिक पद्धति से तो कोई प्रामाणिक साक्ष्य नहीं जुटा पाते, लेकिन उनकी ज्ञान-मीमांसा मूलतः अनुभववादी है। ऐसे कई उदाहरण विभिन्न पहलुओं और आयामों के बारे में दिए जा सकते हैं, जिनमें बहुत से व्यक्तियों ने अपने प्रेम की खातिर जीवन तक बलिदान कर दिया। लेकिन सोरोकिन यह भी मानते हैं कि परहितवाद का जैविक आधार भी है; वह विकसित जैविक अचेतन से उद्भूत होता है। शेरिंगटन जैसे जीव-वैज्ञानिक का भी मानना है कि परहितवाद का भाव जीवन के मनुष्य स्तर के विकास में ही पाया जाता है। सोरोकिन के अनुसार मनुष्य की चेतना जैविक से सामाजिक स्तर पर होती हुई अंततः एक उच्चतर अवस्था में परिणत होती है-यद्यपि यह अभी बहुत कम मात्रा में है-जिसे अतिचेतना, अतिमन (supraconscious) कहा जाता है। यह अवधारणा कुछ भेद के साथ श्री अरविंद में भी पाई जाती है। उल्लेख है कि श्री अरविंद भी अखंड ज्ञानवादी कहे जा सकते हैं।

सोरोकिन का मानना है कि प्रेम की अनुभूति के विविधवर्णी विकास के लिए अहं का बोध सबसे बड़ी बाधा है, अतः उसे पार करने के लिए ऐसी विधियों का आविष्कार और विकास किया जाना चाहिए, जिनसे अहं का अतिक्रमण किया जा सके। इसके लिए एक ओर ईश्वरीय कृपा में विश्वास आवश्यक है; लेकिन, साथ ही, इनमें विज्ञान भी बहुत मदद कर सकता है। सोरोकिन मानते हैं कि विज्ञान के विकास के साथ मनुष्य-मन का ज्ञान बढ़ेगा और इससे उन विधियों के आविष्कार में सहायता मिलेगी, जिनसे अहं का अतिक्रमण हो सकेगा। इस तरह, सोरोकिन प्रकारांतर से विज्ञान और धर्म के समन्वय का संकेत भी करते हैं, जो उनके जैसे अखंड ज्ञानवादी के लिए स्वाभाविक ही है।

प्रेम, सोरोकिन के अनुसार, जीवन का प्रयोजन है और इसी में जीवन की सार्थकता है-यह प्रेम जितना निरपेक्ष और सर्वसमावेशी, स्थायी और सघन और विविध आयामी तथा जीवन के सब पक्षों का प्रेरक होता जाता है, उतना ही एक अहिंसक संस्कृति वाले समाज के विकास की संभावना मूर्त होती जाती है।

द्रष्टव्यः सोलोव्योव।

- नंदकिशोर आचार्य

सोलोव्योव, ब्लादिमीर सर्गेयेविच : उन्नीसवीं शताब्दी में रूसी दार्शनिक एवं साहित्यिक विकास में ब्लादिमीर सर्गेयेविच सोलोव्योव (1853-1900 ई०) की बहुत महत्त्वपूर्ण भूमिका मानी जाती है। 19वीं शताब्दी रूस में आध्यात्मिक दर्शन का जो विकास हुआ, वह, पश्चिमी प्रत्यक्षवादी दर्शन के विपरीत, तथ्याधारित तर्क के बजाय अंतःप्रज्ञाप्रसूत ज्ञान को वरीयता देता था, जिसे न समझ पाने के कारण पश्चिमी बुद्धि, सोलोव्योव जैसे दार्शनिकों के प्रति नकारात्मक रुख रखती थी। सोलोव्योव के अनुसार मनुष्य की चेतना में अंतःप्रज्ञात्मक यथार्थ का निषेध नहीं किया जा सकता। उन्नीसवीं शताब्दी के रूसी-दर्शन में सर्वसहभाव (sobornost) की अवधारणा का विकास बहुत महत्त्व रखता है। इसी के आधार पर अखंड ज्ञान (integral knowledge) की अवधारणा का भी विकास हुआ, जिसका तात्पर्य यह है कि ज्ञान को अलग-अलग विभागों में बांटकर नहीं देखा जा सकता-उसे समग्रतः एक अखंड या समेकित दृष्टि से समझने की आवश्यकता होती है-अलग-अलग विभागों में विभाजित करने और उनका अलग खांचों में अध्ययन ज्ञान के वास्तविक स्वरूप तक नहीं जाता। इसी अवधारणा के समर्थक होने के कारण सोलोव्योव संपूर्ण ज्ञान को एक आध्यात्मिक परिप्रेक्ष्य में रखकर देखते हैं।

सोलोव्योव ने एक ऐसे दर्शन का विकास करने का प्रयत्न किया, जिसमें ज्ञान के विभिन्न अनुशासनों और विचार-प्रणालियों के बीच मिलाप हो सके। सोलोव्योव की मान्यता थी कि ऐसी सामान्य भूमि खोजी जा सकती है, जिस पर विरोधी विचारों में समन्वय स्थापित किया जा सके। सोबरनोस्ट या सर्वसहभाव की अवधारणा ही वह भूमिका है, जिस पर विरोधी विचारों में भी समन्वय किया जा सकता है। अखंड ज्ञानवादी रूसी दार्शनिकों में इस अवधारणा का बहुत महत्त्व रहा है।

सोलोव्योव की पुस्तकों में दि क्राइसिस ऑफ वेस्टर्न फिलासफि, दि जस्टीफिकेशन ऑफ दि गुड, दि मीनिंग ऑफ लव आदि अत्यधिक महत्त्वपूर्ण है। वह एक प्रतीकवादी कवि भी थे और रूसी प्रतीकवाद पर उनका गहरा प्रभाव रहा। माना जाता है कि दोस्तोयेस्की, तोलस्तोय और अलेक्जेंडर ब्लोक जैसे लेखकों को भी उन्होंने प्रभावित किया।

सोलोव्योव की पुस्तक दि मीनिंग ऑफ लव ने पितरम सोरोकिन को भी बहुत प्रभावित किया। उनकी पुस्तक वेज एंड पॉवर ऑफ लव पर सोलोव्योव की पुस्तक का स्पष्ट प्रभाव देखा जा सकता है। सोलोव्योव कहते हैं कि मनुष्य अपने को केंद्र में रखते हुए अन्य को परिधि में रखने के कारण उन्हें बाह्य और सापेक्षिक महत्त्व का समझता है, जबकि प्रेम जीवन में हमारी समस्त रुचि को अन्य में केंद्रित कर देना है। यह प्रेम हमें सार्थकता प्रदान करता है; साथ ही, हमारी अधिकांश समस्याओं-तनावों का समाधान भी करता है। सोलोव्योव दि मीनिंग ऑफ लव में कहते हैं कि प्रेम हमारी अहंबद्धता का अतिक्रमण करता और मनुष्य को समग्र का लघु रूप बना देता है। यह किताब प्रेम को दो व्यक्तियों के पारस्परिक आकर्षण, या शिशु-प्रजनन से बहुत बड़ी अनुभूति मानती है, जिसमें संपूर्ण अस्तित्व की एकता का एहसास होता है। अहंबद्धता सभी मानसिक हिंसा का मूल है, जिसका उपचार प्रेम की वह अनुभूति है जिसका विस्तार न केवल सभी प्राणियों बल्कि पूरे ब्रह्मांड को अपने घेरे में ले लेता है।

सोलोव्योव के विचार आध्यात्मिक रुझान की वजह से आधुनिक पश्चिमी दार्शनिकों को स्वीकार नहीं होते। लेकिन सोलोव्योव का कहना है कि जब तक हम अपने सर्व-समावेशी अहंवाद या स्वहितवाद की काली छाया के प्रभाव से बाहर नहीं आते अर्थात् जब तक अपने को शेष से अलग मानने का मूल पाप हमारे अंदर अस्तित्व में रहता है, तब तक हमारे अपने अस्तित्व के लिए कोई तर्कसम्मत उत्तर नहीं है। यदि कोई बीमार पूछता है कि उसे क्या करना है तो उसका समाधान केवल उपचार ही हो सकता है। लेकिन जब तक बीमारी को स्वीकार न किया जाए, जब तक उपचार भी संभव नहीं है।

यह उल्लेखनीय है कि सोलोव्योव यूरोपीय साम्राज्यवाद का कट्टर विरोधी रहा और विशेषतया ब्रिटेन का। वह एक ओर ब्रिटेन की सांस्कृतिक-साहित्यिक उपलब्धियों का प्रशंसक रहे तो, दूसरी ओर, ब्रिटिश साम्राज्यवाद के प्रसार और उसके दमनकारी तरीकों की तीखी आलोचना भी करता रहे। अपनी मृत्यु के समय वह बेघर और पूरी तरह कंगाल थे।

सोलोव्योव की पुस्तकें सोवियत व्यवस्था के दौरान प्रकाशित नहीं की जा रही थीं। इस कारण उन्हें अधिक लोकप्रियता नहीं मिल सकी। लेकिन सोवियत व्यवस्था के पतन के बाद सोलोव्योव का लेखन पुनः प्रकाशित होकर अध्ययन का विषय बनता जा रहा है।

द्रष्टव्यः सोरोकिन।

- नंदकिशोर आचार्य

स्कॉट, जे०पी० (Scott, J.P.) आक्रामकता मनुष्य में अंतर्जात है अथवा यह सीखा गया व्यवहार है, इसे लेकर मनोवैज्ञानिकों में पर्याप्त मतभेद रहा है। प्रसिद्ध तंत्रिका-विज्ञानी प्रो० जे०पी० स्कॉट का निष्कर्ष है कि आक्रामकता की प्रवृत्ति अंतर्जात नहीं है। अपनी चर्चित पुस्तक एग्रेसन में कई मामलों में शोध करने के पश्चात् वह कहते हैं कि प्रत्येक मामले में कारण-शृंखला का अध्ययन यह बताता है कि आक्रामकता बाह्य कारणों से होती है क्योंकि ऐसा कोई शरीर-क्रियात्मक साक्ष्य नहीं है जो लड़ाई के लिए शरीर में किसी स्वतःस्फूर्त उत्तेजना की ओर इंगित करता हो। इसके आधार पर स्कॉट यह निष्कर्ष निकालते हैं कि बाह्य परिवेश में जो कुछ घटित होता है, उसके अतिरिक्त आक्रामक या रक्षात्मक लड़ाई की कोई जरूरत ही नहीं है। इसका सीधा तात्पर्य यह है कि यदि व्यक्ति के परिवेश में आक्रामकता को उत्तेजित करने वाली स्थितियां न हो तो उसमें कभी लड़ने की मानसिकता विकसित नहीं होगी। इसे भूख, प्यास या यौनेच्छा की तरह अंतर्जात नहीं कहा जा सकता।

इसलिए, स्कॉट के अनुसार, युयुत्सा की प्रवृत्ति को कोई ऐसी आंतरिक प्रेरक तनाव नहीं माना जा सकता, जिसे संतुष्ट करना अनिवार्य हो। लेकिन, स्कॉट यह जरूर मानते हैं कि मानव-शरीर में कुछ ऐसी आंतरिक शरीर-क्रियात्मकता अवश्य है, जिसे लड़ाई के लिए बाहर से उत्तेजित किया जा सकता है। स्कॉट के अनुसार यह भेद व्यावहारिक परिस्थिति में अधिक महत्त्व नहीं रखता; लेकिन, इसके आधार पर यह आशा अवश्य की जा सकती है कि बाह्य परिवेश को बदलकर आक्रामकता को संयमित किया जा सकता है। यदि हमारी सामाजिक संरचना में हिंसात्मक प्रतिक्रिया का उत्तेजन पैदा करने वाली स्थितियां न हों, तो मनुष्य में आक्रामकता के उभरने का अवकाश ही नहीं होगा। दूसरे शब्दों में, आक्रामकता और उससे उत्पन्न हिंसा का कारण मनुष्य की शारीरिक या मानसिक रचना में नहीं, बल्कि बाह्य परिस्थिति में है, जिससे मनुष्य आक्रामकता सीखता या जिससे उत्पन्न शरीर-क्रियात्मकता की उत्तेजना आक्रामकता का कारण बनती है।

जिंग यांग कुओ र्(Zing Yang Kuo) का निष्कर्ष भी स्कॉट से मिलता-जुलता है। अपने प्रसिद्ध प्रयोग के द्वारा कुओ ने यह सिद्ध किया कि यदि एक बिल्ली को एक चूहे के साथ प्रारंभ से ही रखा जाए तो वह बिल्ली चूहे को अपने साथी के रूप में स्वीकार कर लेती है और तब उसे कभी भी चूहों पर आक्रमण करने के लिए उत्तेजित नहीं किया जा सकता। कुओ कहते हैं कि अवयव-संस्थान का व्यवहार अपने में एक निष्क्रिय मामला है। एक प्रदत्त परिस्थिति में कोई मनुष्य या पशु किस तरह का आचरण करेगा, यह इस पर निर्भर करता है कि उसे किस तरह पाला गया और किस तरह उत्तेजित किया जा सकता है।

इस पर आपत्ति करते हुए यह कहा गया है कि इन प्रयोगों से यह सिद्ध नहीं होता कि आक्रामक व्यवहार बाह्य परिवेश से सीखा जाता है; इससे सिर्फ यही प्रमाणित होता है कि अनुभव के द्वारा आक्रामकता को कम-ज्यादा किया जा सकता है। लेकिन स्कॉट का मानना है कि यदि बच्चों का लालन-पालन ऐसे वातावरण में किया जाए जिसमें लड़ने के लिए उत्तेजना न हो तो वे शांत ही रहेंगे।

द्रष्टव्यः सेविले उद्घोषणा।

- नंदकिशोर आचार्य

स्टोइकवाद (Stoicism) : स्टोइकवाद अथवा सम्बुद्धिवाद एक यूनानी दर्शन है। इसकी स्थापना सिटियम (Citium) के दार्शनिक झेनो र्(Zeno) ने तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व के आरंभ में की थी। इस दर्शन की पूर्वमान्यता यह थी कि नैतिक एवं बौद्धिक पूर्णता के साथ मनुष्य का वैयक्तिक तथा राजनीतिक जीवन उसी प्रकार व्यवस्थित है, जिस प्रकार प्रकृति में अन्य प्रकार से समस्त जीवन। इसलिए वैश्विक नियतिवाद एवं मानवीय स्वातंत्र्य में एक अंतर्निहित संबंध है। यह एक ऐसा सामंजस्य है जो सद्गुणों एवं शुभ संकल्प को एक साथ समस्त विश्व की व्यवस्था में एक साम्य स्थापित कर देता है। अतः, सभी मनुष्यों के लिए नैतिकता, शुभ संकल्प एवं सद्गुण युक्त जीवन को यह बाह्ल विश्व या स्थूल विश्व से सूक्ष्म विश्व के रूप में निरूपित करता है। यही नैतिकता, शुभ संकल्प एवं सद्गुण से युक्त जीवन ही जीवन जीने की कला का सार तत्त्व है। इसी कारण आगे जाकर रोमन स्टोइक सिनेका (Seneca) एवं एपिक्टेटस (Epictetus) ने इस बात पर बल दिया कि सुख के लिए सद्गुण पर्याप्त है। यहां सद्गुण भारतीय दर्शन में वैशेषिक की धर्म की परिभाषा के समान ही है जिसके अंतर्गत अभ्युदय एवं निश्रेयस धर्म से प्राप्त होते हैं।

सभी स्टोइक एक पूर्व-मान्यता को समान रूप से अपने दर्शन का आधार बनाते हैं कि मनुष्य को इस सृष्टि में अंतर्निहित नैतिक नियम एवं प्रकृति के नियमों द्वारा स्वयं को अनुशासित करना चाहिए, अतः संपूर्ण स्टोइकवाद का विकास इसी केंद्रीय पूर्व मान्यता से प्रसूत है। लेकिन फिर भी स्टोइक विचारक इसे एक परिपूर्ण दर्शन के रूप में विकसित नहीं कर पाए। स्टोइक (Stoic) शब्द का नामकरण एक यूनानी शब्द Stoa से हुआ है जिसका अर्थ है Porch अर्थात् ड्योढी। ओसारा जो एक तरफ दीवार और सामने की ओर दो खंबो पर छत डालकर बनाया जाता है। यूनान में इस प्रकार के सार्वजनिक ओसारे बनाए जाते थे जिनकी दीवारें भित्ति चित्रों से सजी होती थी। एथेंस के ऐसे ही एक ओसारे में जिसका नाम Stoa Poecile था, झेनो ने अपने संप्रदाय की शिक्षा एवं व्याख्यान की व्यवस्था की थी। इसी के कारण इन्हें एथेंस में Stoics कहने का प्रचलन हो गया। झेनो ने संभवतः ओसारे विशेषकर Stoa Poecile को इसलिए चुना होगा क्योंकि इसके भिति चित्रों में यूनानी सद्गुणों का प्रदर्शन करने वाली शैली के सबसे सुंदर चित्र थे। लगभग सभी ओसारों में सद्गुणों और मानव जीवन की श्रेष्ठता को व्यक्त करने वाले प्रेरक चित्र हुआ करते थे।

अपने आरंभ काल में जब स्टोइक औपचारिक दृष्टि से अपने दार्शनिक आंदोलन को चला रहे थे, उस समय एथेंस में यूनानी दर्शन, प्रचलित धार्मिक मान्यताएं एवं अन्य वैचारिक संप्रदाय शिथिल हो चुके थे। झेनो स्वयं साइप्रस से यूनान आया था तथा उसके समकालीन और बाद के अनेक महत्त्वपूर्ण स्टोइक भी यूनान के बाहर से आए थे। इस प्रकार स्टोइक-वाद के विकास क्रम में बाहर से आए दार्शनिकों ने अपने वैचारिक वैभव एवं प्राचीन यूनानी दर्शन, विशेष रूप से सुकरात के दर्शन को पूर्ण रूप से आत्मसात कर अपने जीवन दर्शन का विकास किया।

महत्त्वपूर्ण स्टोइक दार्शनिकों में कालक्रम की दृष्टि से आरंभ, मध्य और बाद के स्टोइक विचारों के इतिहास को दृष्टि गोचर करने पर ज्ञात होता है कि आरंभ में झेनो, एसोस (Assos) का क्लिथेंस (Cleanthes) 331 से 232 ई०पू० तथा सौरल (Soil) का क्रिसिप्स (Chrysippus) 280 से 206 ई०पू० ने स्टोइकवाद के प्राथमिक सिद्धांतों का विकास किया। झेनो Ischus rai kratos अर्थात् चारित्रिक बल को नैतिक एवं सार्वजनिक जीवन के प्रत्येक व्यवहार और कर्म के लिए अनिवार्य तत्व के रूप में देखता था। जीवन के मूल्यांकन का आधार चारित्रिक श्रेष्ठता है न कि केवल आदर्शों और मूल्यों को जानना। मध्यकाल में सेलेयूसिया (Seleucia) के डायोजीनीस (Diogenes) ने क्रिटोलौस तथा कार्नीडेस (Critolaus and Cardeades) के साथ यह मत स्पष्ट किया कि सैन्य अथवा योद्धापन साहस नहीं है इसलिए सद्गुण नहीं हो सकता। एथेंस के विचारक केटो (Cato) ने इसका विरोध किया लेकिन फिर भी स्टोइक दर्शन को समाज का समर्थन प्राप्त होता रहा। यह प्रथम अवसर था जब यूनान के परंपरावादी मुख्य सद्गुण विवेक, साहस, न्याय एवं संयम [Wisdom-(Gr. - Sophia), Courage-(Gr. Andreia), Justice-(Gr.-Di Kaiosyne) and Temperance-(Gr.-Sophrosyne)] जैसा कि प्लेटो ने वर्गीकरण किया है, के साहस की व्याख्या में से साहस के प्रतीक सैन्य/योद्धा होने के गुण को अस्वीकार कर संगठित हिंसा अथवा हिंसक स्वभाव के गुण को मूल्य नहीं माना गया। यह एक प्रकार से अहिंसा को मूल्यवान मानना है जिसे स्टोइक विचार सरणी में स्टोइक शांति कहा जाता है। यह एक प्रकार की आंतरिक शांति है इसे वही उपलब्ध कर सकता है जो किसी ऋषि, संत या मुनि की पूर्णता प्राप्त कर लेता है। बाद के काल के एपिक्टेटस (Epictetus) और सेनेका (Seneca) व मारकस (Marcus) आदि ने इस शांति को समता एवं बाह्य घटनाओं से अप्रभावित हरने के गुण के रूप में प्रतिपादित किया। एपिक्टेटस का प्रसिद्ध वचन है कि, हम घटनाओं से नहीं बल्कि उस दृष्टि से व्याकुल होते हैं जो उन घटनाओं के बारे में हम रखते है। एक अहिंसक जीवन की यह अनिवार्यता है कि वह बाह्य एवं आंतरिक घटनाओं, वेदनाओं इत्यादि से अप्रभावित रहे और इनके प्रति कोई प्रतिक्रिया न करे। वह विवेक से पूर्ण निर्णय ले और अपने आप को प्रकृति को सौंप दे।

इस प्रकार यह दर्शन केवल यूनानी दार्शनिकों का न होकर विभिन्न देशों से आए दार्शनिकों के विचारों और मतों का समेकित वैचारिक सम्मेलन था। सुकरात की भांति ही यह विचारधारा मनुष्य जीवन आदर्श और उसे व्यवहार में अपनाने पर बल देती है। जीवन जीने की कला इन दार्शनिकों के संवाद एवं व्याख्यानों का मूल विषय होती थी। जीवन जीने की कला से उनका अभिप्राय प्रकृति एवं मनुष्य के बीच साम्य, संतुलन एवं साम्य से पूर्ण जीवन का विचार था। यह मनुष्य की पूर्ण स्वतंत्रता वैश्विक जीवन के साथ पूर्ण समायोजित, शांत, समरस एवं प्रतिक्रिया रहित जीवन जीने को मनुष्य जीवन का उद्देश्य मानते थे। स्टोइक दर्शन के अनुसार केवल एक ऋषितुल्य व्यक्ति ही इस अर्थ में स्वतंत्र है। जिस प्रकार सुकरात, सद्गुणों को परस्पर पूर्ण, एक व ज्ञान एवं सद्गुणों की एकता का सिद्धांत प्रतिपादित करता है उसी प्रकार स्टोइक मत के अनुसार सभी प्रकार का नैतिक कदाचार समानरूप से पापपूर्ण है।

अहिंसा की दृष्टि से स्टोइकवाद की दो अवधारणाओं एक ज्ञानमीमांसा व दूसरी तत्त्वमीमांसा तथा संसृति-विज्ञान को जानना आवश्यक है। ज्ञानमीमांसीय दृष्टि से वे सार्वभौमिक प्रज्ञा के अस्तित्व को मानव की तर्क बुद्धि और ज्ञान की पूर्णता के लिए आवश्यक मानते हैं। वे यह मानते हैं कि सभी प्रकार के निर्णयों को उचित प्रकार से जानने के लिए प्रत्येक मनुष्य में क्षमता है। इसलिए प्रत्येक मनुष्य को उचित एवं विवेक पूर्ण जीवन जीने के लिए अपने मत/विश्वासों (Doxa) से उपर उठना चाहिए। लेकिन निश्चाय एवं सत्य ज्ञान (Episteme) की प्राप्ति केवल उसे होती है जो स्टोइक संत है। जिसने सार्वभौमिक एवं वैश्विक प्रज्ञा को सद्गुण युक्त जीवन की साधना से अर्जित कर लिया है। जो व्यष्टि एवं समष्टिगत मूल्यों को एक साथ जानता है। इस प्रकार वह एक सद्गुणी, श्रेष्ठ धर्म से युक्त जीवन जीता है। जिसका ज्ञान एवं आचार एक है।

तत्वमीमांसीय एवं संसृति विज्ञान की दृष्टि से स्टोइक यह मानते हैं कि यह विश्व ईश्वर का शरीर एवं ईश्वर दूसरी आत्मा है। अन्य सभी जीवात्मा भी ईश्वरीय आत्मा के अंश हैं। यह संसार निरंतर दो गतियों में रमण करता है पहली अधोगामी और दूसरी उर्ध्वगामी। यह संसार लक्ष्य-एवं-कारण की एक परम एकता से युक्त है। स्वरूप की दृष्टि से यह ईश्वर और द्रव्य की दृष्टि से यह प्रकृति है या जगत है। मनुष्य की आत्मा इस नियतिवादी परम लक्ष्य एवं कारण विधान के साथ पूर्ण तादात्म्य एवं समायोजन कर सकती है। ऐसा होने पर व्यक्ति सहज, सरल, समता एवं सद्गुण से पूर्ण हो जाता है।

स्टोइक पूर्णतया प्रयोजनवादी एवं अनुभववादी थे। इसलिए उनकी अवधारणा में मनुष्य को सद्गुणी होकर, निस्पृह जीवन तो जीना है, लेकिन साथ सांसारिक व्यवहार में गरिमायुक्त सामाजिक जीवन का निर्वाह भी करना है। वे तप एवं परिषह जय से पूर्ण जीवन जीने की इच्छा से युक्त सामाजिक जीवन जीने पर बल देते हैं। यह अवधारणा भारतीय दर्शन में आध्यात्मिक जीवन के समान ही तप, त्याग, उपेक्षा, समता, निस्पृह एवं वीतरागी जीवन चर्या को जीवन की पूर्णता, श्रेष्ठता के लिए आवश्यक एवं अनिवार्य मानती हैं। स्टोइक के अनुसार एक व्यक्ति के जीवन का मूल्यांकन इससे नहीं होता कि कितना अधिक जिया, कितने अधिक सुख भोगे, शक्ति अर्जित की आदि-आदि, बल्कि इससे होता है कि उसने कितना श्रेष्ठ और सद्गुणों, समता, सरलता, उपेक्षा, निर्वसनता और विवेक पूर्ण जीवन जिया।

स्टोइक दर्शन से युक्त व्यक्ति को निस्संदेह अहिंसक जीवन जीना चाहिए। हिंसा पर विजय वही व्यक्ति प्राप्त करेगा जो शुभ-अशुभ, घृणा-प्रेम, अनुकूल-प्रतिकूल वेदना, प्रिय-अप्रिय, अपना-पराया, ऊंच-नीच, आदि-आदि प्रकार की दृष्टि और संकल्प-विकल्पों से, द्वंद्व से मुक्त होगा। इस प्रकार की दृष्टि और संकल्प-विकल्प से मुक्त, निस्पृह जीवन के लिए इस सब प्रकार का परिणाम जीवन का लक्ष्य नहीं हो सकते। इन सभी अवस्थाओं से उपर उठना होगा संकल्प-विकल्प पर विजय प्राप्त करनी होगी। भारतीय दर्शन की भाषा में कहें तो मन को जीतना होगा। जिसने मन को जीत लिया उसने सभी, इच्छाओं, वासनाओं पर विजय पाली। मन को जीत लेने का अर्थ है निस्पृह, अप्रमत्त, समता एवं वीतरागी हो जाना।

इस संबंध में स्टोइक एक शब्द का प्रयोग करते हैं, जिसे वे लालसा (Passion) कहते हैं स्टोइकों के अनुसार लालसा आत्मा को व्याकुल करती है और मनुष्य जीवन के लिए हानिकारक है। एक विवेकपूर्ण और उपयुक्त जीवन जीने के लिए लालसा से मुक्ति अनिवार्य है। इसका अर्थ व्यक्ति के आस-पास के संपूर्ण पर्यावरण में व्यक्ति द्वारा निश्चेष्ट हो जाना है, लेकिन क्रियाहीन होना नहीं है। अतः, यह समझना होगा कि यह प्रतिक्रियाविहीन लेकिन विवेकपूर्ण जीवन का आग्रह है। प्रतिक्रिया रहित हो मन को जीत लेने का अर्थ है जीवन को आध्यात्मिकता से पूर्ण करना। यह अप्रमादी, निस्पृही, वीतरागी और स्वयं के प्रति सदैव जागृति का फल है। स्टोइक मारकस के अनुसार अरुणोदय में स्वयं से कहो, मैं आज कृतघ्न, हिंसक, कपटी, ईर्ष्यालु, अछूत व्यक्तियों से मिलूंगा। उनके साथ यह सब कुछ वास्तविक शुभ एवं अशुभ के प्रति अज्ञान के कारण घटित हुआ है.....मैं न तो किसी द्वारा कष्ट पाऊंगा क्योंकि कोई भी व्यक्ति मुझे कुमार्ग में नहीं लगा सकता, और न ही मैं किसी संबंधी के प्रति क्रोधित अथवा घृणा से युक्त हो सकता हूं; इसलिए कि हम सभी इस संसार में एक साथ कार्य करने के लिए आए हैं।

स्टोइक एपिक्टेटस के अनुसार स्वतंत्रता व्यक्ति की वासनाओं की पूर्ति होना नहीं है, वरन् वासनाओं से निवृत्त होना है। स्टोइक इस निवृत्ति को शुभ, अशुभ एवं अन्य सभी प्रकार की सकर्मक प्रवृत्तियों से निवृत्ति के रूप में देखते हैं। अतः हिंसा जीवन का न तो साधन मूल्य हो सकता है न साध्य। वे संपूर्ण विश्व, मानव जाति को एक समग्र, समान एवं स्वतंत्र, परस्पर उपकारक इकाई के रूप में देखता है। वे मनुष्य के अतिरिक्त वनस्पति एवं अन्य प्राणियों में भी आत्मा (Pheuma) को स्वीकार करते हैं। अंतर केवल इतना है कि मनुष्य में शुभ-अशुभ में भेद एवं निर्णय करने की तथा संकल्प की स्वतंत्रता अधिक है। भारतीय दृष्टि में धर्म ही मनुष्य को अन्य प्राणियों से विशिष्ट करता है। लगभग यही विचार स्टोइक दर्शन में मिलता है। वहां धर्म के स्थान पर विवेक, सद्गुण एक निस्पृह आध्यात्मिक जीवन द्वारा यह भाव व्यक्त हुआ है।

सहनशीलता, निश्चेष्टा और प्रतिक्रिया रहित होकर जीना हिंसा से परे हो जाना है। लेकिन इस प्रकार से जीवन को वे मानवीय जीवन एवं पर्यावरण तक सीमित मानते थे। मानव को वे सभी प्रकार के व्यसन, भेदभाव, दुर्गुणों आदि से मुक्त करने के लिए आध्यात्मिक जीवन का निरंतर अभ्यास करने के लिए प्रेरित करते थे। फिर भी, हिंसा से मुक्त जीवन में अहिंसा की उनकी दृष्टि इतनी उदात्त एवं सूक्ष्म नही थी जितनी भारतीय दर्शनों में उपलब्ध है। मनुष्य के द्वारा मनुष्य के प्रति हिंसा न करने, वैर न करने, किसी प्रकार का भेदभाव न करने आदि के आदर्श तक वे सहज एवं सामान्य थे। अहिंसा उनके आध्यात्मिक जीवन एवं मनुष्य की श्रेष्ठता का परिचायक थी। हिंसा से मुक्त समाज, राजनीति, अन्यों के प्रति मर्यादा एवं गरिमामय व्यवहार आदि को स्वीकार करते हुए भी प्राणी मात्र के प्रति अहिंसा का विचार उनके जीवन दर्शन में उस रूप में प्राप्त नहीं है। इसका उदाहरण उनके द्वारा मांसाहार किया जाना है। अथवा अन्य प्राणियों के प्रति गरिमामय व्यवहार की सीमा परम आध्यात्मिक जीवन में उसके संयमित उपयोग तक सीमित है। फिर मानवीय परिप्रेक्ष्य में एक श्रेष्ठ जीवन वही है जो प्रतिक्रिया रहित, निश्चेष्ट एवं समता से पूर्ण अहिंसा से युक्त है। अतः स्टोइकवाद ने अहिंसा पर लगभग उसी प्रकार बल दिया है जिस प्रकार भारत के सभी दर्शनों ने सामान्य रूप से अहिंसा को जीवन का मूल्य माना है।

- डॉ० चंद्रशेखर

स्वदेशी : द्रष्टव्य : सत्याग्रही प्रौद्योगिकी।

हान्ह, थिच न्हाट : थिच न्हाट हान्ह वियतनामी बौद्ध संत हैं। उनका जन्म 11 अक्टूबर 1926 ई० को हुआ था। बौद्ध धर्मगुरू दलाई नामा के बाद दुनियाभर में सबसे ज्यादा उन्हें जाना जाता है। वियतनाम युद्ध के दौरान उत्तर और दक्षिण वियतनाम के बीच समझौता कराने के लिए उन्होंने दिन-रात एक कर दिए। वियतनाम के गांवों में युद्ध प्रभावित लोगों के पुनर्वास के लिए थिच ने आधार शिविरों की स्थापना की, स्कूल खोले, स्वास्थ्य सेवाओं का विस्तार किया, बेघर लोगों को दोबारा बसाया और कृषि सहकारी संस्थाओं का गठन किया; ताकि किसानों को उनकी फसलों का सीधा लाभ मिल सके।

उन्होंने बौद्ध धर्म की विचारधारा का प्रचार-प्रसार किया और अहिंसा एवं अमनशांति का संदेश दिया। थिच ने लोगों को माइंडफुलनेस अर्थात अतीत और भविष्य की चिंताओं से दूर रहकर वर्तमान में जीना सिखाने का काम किया है। उनकी माइंडफुल लिविंग की विचारधारा से लाखों लोग प्रभावित हुए और उनसे जुड़े। चालीस साल की उम्र में उन्हें देश से निर्वासित कर दिया गया। इस दौरान वे फ्रांस में रहे। उन्होंने एक छोटा सा सम्प्रदाय बनाया जहां वे अपने शांति संदेश का प्रचार-प्रसार करते, लिखते, बागवानी करते और पूरी दुनिया में शरणार्थियों की मदद करने का काम किया। उन्होंने यूरोप और नॉर्थ अमेरिका में असंख्य माइंडफुलनेस गोष्ठियों, सेमिनारों और कार्यशालाओं का आयोजन कर बुर्जुगों, बच्चों, पर्यावरणविदों, मनोचिकित्सकों, कलाकारों, और हजारों लोगों को मानसिक शांति से जीना सिखाया, इसके माध्यम से वे पूरी दुनिया में अमन कायम करने का लक्ष्य रखते हैं।

हान्ह अमेरिकी समाज से अनजान नहीं थे, प्रिंसटन में पढ़ाई के दौरान वह वहां के कल्चर से पूरी तरह परिचित हो चुके थे। कोलंबिया में बतौर प्रोफेसर उन्होंने लोगों को बौद्ध धर्म पर संदेश देने शुरू किए और इसी के माध्यम से वियतनाम समस्या पर लोगों का ध्यान आकर्षित किया। 1967 ई० में उन्हें डॉ० मार्टिन लूथर किंग जूनियर के साथ नोबेल शांति पुरस्कार के लिए चुना गया। पेरिस शांतिवार्ता के लिए गए बौद्ध प्रतिनिधिमंडल में हान्ह भी शामिल थे लेकिन उस वार्ता के परिणाम आशानुकूल नहीं निकल सके कि युद्धविराम किया जा सके। हान्ह ने एक सौ से ज्यादा गद्य, कविता और प्रार्थना संग्रह लिखे हैं।

सीएमएल एक बौद्ध विचारधारा है जो टाइपे हाइन ऑर्डर के रूप में परिचालित होती है। टाइपे का अर्थ है स्पर्श और हाइन महसूस। जब वियतनाम युद्ध और गहराता जा रहा था ऐसे में हिंसा को रोकने में भगवान बुद्ध के शांति संदेशों की बेहद आवश्यकता महसूस की जाने लगी थीं। लोग उनसे जुड़ने लगे। इस संप्रदाय की सदस्यता चाहने वालों को चार श्रेणियों में- मठाधीश या महंत, नन, गृहस्थ पुरूबा और गृहस्थ महिलाओं की श्रेणी में शामिल किया जाता था।

वियतनाम से निर्वासन का समय उन्होंने उत्तर फ्रांस के एक प्लम विलेज में बिताया। वहां उनका घर था। सालों के निर्वासन के बाद 2005 ई० में उन्हें फिर से देश में आने की अनुमति दी गई। 1966 ई० में ट्यू हियू मंदिर में मास्टर चान थॉट की ओर से थिच न्हाट हान्ह को धर्माचार्य की उपाधि प्रदान की गई। उन्हें महायान बौद्ध धर्म की ध्यान सहित कई विद्याओं का ज्ञान था। उन्होंने इन विद्याओं को पाश्चात्य साइकोलॉजी के साथ मेल करके लोगों तक पहुंचाया। पश्चिमी देशों में वेस्टर्न बुद्धिज्म का विकास और प्रचार-प्रसार का श्रेय थिच न्हाट हान्ह को ही जाता है।

1956-1997 ई० में वे वियतनामी बुद्धिज्म अर्थात वियतनाम बुद्धिस्ट असोसिएशन के मुख्य संपादक बने।

1997 ई० में उन्होंने वरमोंट में ग्रीन माउंटेन धर्म केंद्र और मेपल वृक्षों की बहुतायत वाले स्थान पर मठ की स्थापना की। तीन साल बाद उन्होंने स्कोनडिडो, केलिफोर्निया में हिरण पार्क की आधारशिला रखी। दुनियाभर के अनेक हिस्सों में थिच न्हाट हान्ह ने दो सौ से ज्यादा महंत या मठाधीशों और ननों को दीक्षा दी।

संयुक्त राष्ट्र संघ की महासभा ने वर्बा 2001-2010 ई० को इंटरनेशनल डिकेड फॉर ए कल्चर ऑव पीस एंड नॉन वॉयलेंस फॉर द चिल्ड्न ऑव द वर्ल्ड घोषित किया। उन्हें अमेरिका में व्हाइट हाउस में आयोजित एचआईवी एंड एड्स पर वर्ल्ड समिट कांफ्रेंस में आमंत्रित किया गया। उन्हें दावोस, स्विटजरलैंड में वर्ल्ड इकोनॉमिक समिट में वक्ता के रूप में आमंत्रित किया गया।

थिच कहते हैं, हम सोचते हैं कि जब हम मर जाएंगे तो क्या होगा! हमें इसके उत्तर की प्रतीक्षा होती है, लेकिन जब हम जी रहे होते हैं तब तो यह सवाल नहीं उठता। वह कहते हैं, अपने बचपन की तस्वीर देखो, वह आज से बिलकुल अलग है। आज आप वैसे नहीं हैं जैसे पांच साल पहले थे; ऐसे ही आपके दिमाग की मनःस्थिति भी लगातार बदलती रहती है। आपको लगता है कि आप जी रहे हैं लेकिन सच यह है कि आप हर रोज, हर मिनट मरते हैं। शरीर की कोशिकाएं रोज पैदा होती हैं और मर जाती हैं। जीवन के साथ ही मृत्यु भी तय है। मौत नहीं तो जन्म भी नहीं होगा।

जब आप मां-बाप बनते हैं, आप मरते हैं और अपने बच्चों के रूप में जन्म लेते हैं। यह प्रक्रिया अनवरत चलती रहती है। वह कहते हैं, अगर बादल प्रदूषित होंगे तो बारिश भी प्रदूषित होगी। ठीक ऐसे ही अपने विचारों को शुद्ध रखने की कोशिश करें। आपके शब्द, विचार और कार्य सुंदर प्रक्रिया के रूप में लेते रहें। संसार में कर्मों की महत्ता है। मेरे कर्म संसार में चलते रहते हैं; कर्म का अभिप्राय ही क्रिया करने से है।

ध्यान हमें भयमुक्त बनाता है। हम हमेशा व्यस्त रहते हैं इसलिए बेहद भयग्रस्त, क्रोधित और आशंकाओं से घिरे होते हैं। अगर हम वाकई हमारे स्वभाव को जान पाएं, समझ पाएं कि न जन्म होता है और न मृत्यु तो हम समझ पाएंगे कि कैसे हम हर पल मरते हैं। अगर हम हर पल को जीना सीख जाएं तो ही यह शाश्वत सत्य समझ पाएंगे।

वे कहते हैं, अगर रोजमर्रा की जिंदगी में हम हंसते-मुस्कुराते रहे तो हम हमेशा शांत और प्रसन्नचित्त बने रहते हैं। केवल हम ही नहीं बल्कि हमारे संपर्क में आने वाले किसी भी व्यक्ति को हमारी प्रसन्नचित्तता का लाभ होता है। अगर हम वाकई यह जान जाएं कि हमें कैसे जीना चाहिए, किस तरह से दिन की शुरूआत की जाए कि पूरा दिन हंसते-मुस्कुराते बीते । हमारी यह मुस्कान जिंदगी को सुख और खुशी से परिपूर्ण बना सकती है। और इस सच्ची मुस्कान का स्रोत हमारे मानस के अंदर ही छुपा हुआ है। थिच की किताब पीस इज एवरी स्टेप से ली गई यह सूक्ति माइंडफुलनेस के सिद्धांतो से परिचित कराती है।

थाइलैंड के एक वाकए को दृष्टांत बनाते हुए उन्होंने इसे अपने तरीके से समझाने का प्रयास किया। थिच कहते हैं, नाव में सवार लोग और कई युवा लड़कियां समुद्री डाकुओं की लूट का शिकार होते थे। यहां तक कि संयुक्त राष्ट्र संघ और कई देशों ने थाईलैंड सरकार की सहायता की लेकिन समुद्री डाकुओं से नहीं बचा पाएं। इन युवतियों के साथ बलात्कार किया गया। एक दिन हमें उस लड़की के साथ एक छोटी नाव पर समुद्री डाकुओं के द्वारा किए गए बलात्कार की घटना के बारे में पत्र मिला। वह मात्र बारह साल की थी और इस घटना के बाद उसने समुद्र में कूदकर जान दे दी थी।

थिच कहते हैं, इस तरह की घटना के बारे में जानकारी मिलने पर हमारी पहली प्रतिक्रिया क्रोध और बदले की भावना से ओत-प्रोत होती है। आप स्वाभाविक रूप से उस लड़की के प्रति सहानुभूति से भरे होंगे। लेकिन अगर आप गहराई से इस प्रकरण पर विचार करें तो मामले का दूसरा पक्ष भी जान पाएंगे। अगर आप उस लड़की का ही पक्ष देखते हैं तो फैसला भी आसानी से उसके पक्ष में कर देते हैं कि ऐसे समुद्री डाकुओं को गोली मार देनी चाहिए। लेकिन हम ऐसा नहीं कर सकते। मेरा ध्यान या मेडिटेशन यह दिखाने में सक्षम है, कि हमारा जन्म उन डाकुओं के गांव में हुआ है और हम दूसरों से बिलकुल अलग स्थितियों के बीच बड़े हुए; हर दिन नया संघर्ष करते हुए। अगर उन्हें भी हमारी तरह की शिक्षा, समाज, पॉलिटिकल माहौल, और ऐसी ही परिस्थतियां मिली होती तो वे आज यह सब नहीं कर रहे होते। पच्चीस साल वे जिन परिस्थतियों के बीच बड़े हुए हैं, उन परिस्थतियों ने उन्हें यह सब सिखाया और करने पर मजबूर किया है। अगर आज आप न्याय के नाम पर उन डाकुओं को गोली मार देने का फैसला सुना देते हैं तो हम सभी इस तरह की घटनाओं के जिम्मेदार माने जाएंगे।

इस तरह थिच के विचार लोगों के बीच जगह बनाते गए। वे किसी भी घटना को सही परिप्रेक्ष्य में देखने की शिक्षा देते हैं। वियतनाम युद्ध के दौरान सत्तर के दशक का समय उन्होंने परदे के पीछे रहकर ही बौद्ध धर्म के प्रसार में गुजारा, उस समय उन्हें जेल में डाल दिए जाने का डर था क्योंकि उनके संगठन ने वियतनाम के युद्ध प्रभावित बच्चों को भोजन सामग्री उपलब्ध कराई थी। अस्सी के दशक की शुरूआत में वे अमेरिका आए, जब उन्होंने अमेरिकी लोगों के बीच बौद्धधर्म के प्रति रूचि उत्पन्न की। बाद में उन्होंने वरमोंट, केलिफोर्निया और न्यूयार्क में मठों की आधारशिला भी रखी और बौद्ध धर्म का प्रचार किया। आज वे 82 साल के हो चुके हैं। आने वाले समय में उन्हें बौद्ध धर्मालंबियों के महान उपदेशक और धर्मगुरू के रूप में हमेशा याद किया जाएगा। आधुनिक समाज में जहां भौतिकवादी वस्तुओं, तेज गति से विकास और कार्यदक्षता आदि पर सबसे ज्यादा जोर दिया जा रहा है वहीं थिच न्हाट हान्ह लोगों को शांति से धीरे चलने की शिक्षा देते हैं। यद्यपि उनके समझाने का तरीका बेहद साधारण है, उनके संदेश समझाते हैं कि पांचों तत्त्वों का सार और भी बेहतर तरीके से ग्रहण करना है तो यह मेडिटेशन यानी ध्यान, उनकी बौद्ध शिक्षा से ही संभव है।

- डॉ० दुष्यंत

हिंसा की सभ्यता : डॉ० राममनोहर लोहिया का कहना है कि हथियार उठाने के दो ही प्रयोजन होते हैं : या तो अन्याय करना या अन्याय का प्रतिकार करना। मानव सभ्यता का इतिहास बताता है कि हथियारों का जितना इस्तेमाल अन्याय का प्रतिवाद करने के लिए हुआ है, उससे कई-कई गुना ज्यादा इस्तेमाल अन्याय करने या अन्यायी व्यवस्था को बनाए रखने के लिए किया गया है। इसका स्वाभाविक कारण यह है कि हिंसा के साधनों पर ताकतवर लोगों का अक्सर एकाधिकार होता है। जो कमजोर होता है, वह स्वाभाविक रूप से अहिंसक भले ही न हो, पर अहिंसक रहने को बाध्य जरूर होता है। कार्ल मार्क्स के अनुसार यदि सभ्यता का इतिहास वर्ग-संघर्ष का इतिहास है, तो यह इतिहास एक हिंसक इतिहास ही हुआ। फिर भी, आधुनिक युग के पूर्व हिंसा इतने प्रत्यक्ष रूप में और लगातार होती नहीं दिखाई देती थी, तो इसलिए कि हिंसा में सक्रिय हिंसा ही नहीं, उसकी वास्तविक धमकी भी शामिल है। यानी जहां-जहां शांति थी, वह इसलिए थी कि उसे चुनौती देने का मतलब था, हिंसा को आमंत्रित करना और अन्याय का शिकार व्यक्ति का वर्ग इस हिंसा का शिकार हो ही सकता था, वह इसका लाभ नहीं उठा सकता था।

इसलिए, आज हिंसा के दृश्य ज्यादा दिखाई पड़ रहे हैं, तो इसका एक कारण उन लोगों का सिर उठाना भी है, जो सदियों से दबा-कुचला कर रखे गए हैं। भारत में इसका एक महत्त्वपूर्ण उदाहरण दलितों द्वारा और उनके विरुद्ध जाने वाली हिंसा है। पहले इस हिंसा की जरूरत नहीं होती थी, क्योंकि दलित वर्ग अपनी स्थिति को ईश्वर-प्रदत्त मानता था और शासक वर्ग की गुलामी का उसने आभ्यंतरीकरण कर लिया था। अब वह अन्याय का विरोध या प्रतिकार करता है, तो उस पर हिंसक आक्रमण किया जाता है। स्त्रियों द्वारा की जाने वाली कुछ हिंसा को भी इसी कोटि में रखा जा सकता है-यह हिंसा वस्तुतः प्रतिवाद की जरूरत से पैदा हुई है। कुछ क्रांतिकारी समूह अब भी हिंसा के माध्यम को निर्णायक ही नहीं, जरूरी भी मानते हैं। कई बार पुलिस और प्रशासन के क्रूर रुख के कारण निहत्थे सत्याग्रहियों और आंदोलनकारियों को भी हिंसक होने का उकसावा मिलता है।

लेकिन, हिंसा की यह कोटि बहुत व्यापक नहीं है और न ही इसके व्यापक होने की संभावना है, क्योंकि आज के युग में हिंसा कोई स्वतःस्फूर्त घटना नहीं रह गई है। कारगर हिंसा के लिए उसकी पहले से तैयारी करनी होती है, हिंसा के साधन जुटाने होते हैं। तिस पर भी इस बात की कोई गारंटी नहीं है कि ऐसी हिंसा सफल होगी ही, क्योंकि अन्याय करने वाले ज्यादा संगठित हैं, उनके पास ज्यादा संसाधन हैं और इसलिए उनकी हिंसक क्षमता हमेशा ज्यादा होती है। इसीलिए प्रतिवाद के औजार के रूप में अहिंसा की उपयोगिता क्रमशः बढ़ती जाती है। अहिंसक प्रतिकार का अर्थ है सत्याग्रह, जिसके कुछ बहुत ही उल्लेखनीय और ऐतिहासिक महत्त्व के प्रयोग महात्मा गांधी ने दक्षिण अफ्रीका में रंगभेदी शासन के विरुद्ध तथा भारत के स्वतंत्रता संघर्ष के दौरान ब्रिटिश सरकार के विरुद्ध किए। अमेरिका में मार्टिन लूथर किंग ने नीग्रो संघर्ष में और यूरोप में हरित आंदोलन के समर्थकों ने पर्यावरण की रक्षा के संघर्ष में इस पद्धति का उपयोग किया और उन्हें सफलता भी मिली। अहिंसक संघर्ष का दूरगामी महत्त्व इस बात में है कि सत्याग्रही, अंततः, एक अहिंसक समाज की रचना करना चाहता है और यह तभी संभव है जब आदमी सिर्फ राजनीति के स्तर पर नहीं, बल्कि आदतन अहिंसक हो।

जिस प्रकार की हिंसा ज्यादा व्यापक है और व्यापकतर होती जाती है, वह व्यक्तियों और व्यक्तियों के बीच, राष्ट्र और व्यक्तियों या समूहों के बीच तथा राष्ट्र तथा राष्ट्रों के बीच है। व्यक्तिगत या सामाजिक जीवन में बढ़ती हुई हिंसा पश्चिमी संस्कृति की देन है, जहां व्यक्तिवाद की कोई सीमा नहीं रह गई है तथा हर आदमी का यह बुनियादी हक माना जाता है कि वह हथियार रख सके। ऐसा समाज दुनिया में कभी देखा नहीं गया था। समृद्धि और प्रतिद्वंद्विता के कारण इस समाज में आदमी की उंगली मानो हमेशा पिस्तौल की ट्रिगर पर होती है और कभी भी, कहीं भी गोली चल सकती है। यहां तक कि स्कूली बच्चे भी अब सामूहिक हत्याकांड करने लगे हैं। कहने की जरूरत नहीं कि यह हिंसा की सभ्यता है, जिसका प्रसार करने में जनसंचार माध्यमों ने निर्णायक भूमिका निभाई है। जनसंचार माध्यमों की बुनियाद में ही सनसनी है-अखबार वही बिकेगा और रेडियो या टीवी पर वही चीज ज्यादा देखी जाएगी, जो सनसनी पैदा कर सके। सेक्स के बाद हिंसा में ही यह संभावना ज्यादा है। कहा जा सकता है कि ऐसे समाज में हिंसा भी एक सेक्सी चीज जान पड़ती है और दूसरी ओर सेक्स में भी हिंसा का तत्त्व घुलता जाता है।

अतः, यह स्वाभाविक ही है कि हिंसा को पूजने वाले समाज की विदेश नीति भी हिंसक हो। अमेरिका इस समय दुनिया का सबसे ज्यादा हिंसक समाज है और उसकी विश्व नीति भी सबसे ज्यादा हिंसक तथा आक्रामक है। पिछले डेढ़ दशकों में जिस एक राष्ट्र ने दुनिया भर में सबसे ज्यादा खून बहाया है, उसका नाम संयुक्त राज्य अमेरिका ही है। हिरोशिमा और नागसाकी में दिल दहला देने वाला परमाणु-प्रसंग अमेरिकी शासकों ने ही रचा था। इतिहास बताता है कि गोरी जातियों ने हिंसा के बल पर ही दुनिया भर की अश्वेत जातियों को अपना उपनिवेश बनाया और यह दृष्टिकोण अभी तक निःशेष नहीं हुआ है। परमाणु प्रसंग के बाद गोरी जातियों ने अपनी जमीन पर तो कोई युद्ध नहीं लड़ा, पर दुनिया के दूसरे हिस्सों में वे युद्ध का निर्यात जरूर करते रहते हैं। इसका एक बड़ा कारण उनका हथियार उद्योग है, जिसके बिना उनकी अर्थव्यवस्था इतनी मजबूत नहीं रह जाएगी। इसी के बल पर पहले तो वे तीसरी दुनिया में संघर्ष की स्थितियां पैदा करते हैं और फिर युद्ध के माध्यम से या उसके बिना मध्यस्थ की भूमिका निभाने लगते हैं। इस मान्यता का भी पर्याप्त तार्किक आधार है कि भूंडलीकरण की नई नीति भी वस्तुतः एक हिंसक विश्व आर्थिक व्यवस्था को बनाए रखने का औजार है, क्योंकि शोषण हिंसा का ही एक सूक्ष्म रूप है।

इसके विपरीत, गैर-पश्चिमी दुनिया में व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन में हिंसा कम ही रही है-सिवाय कबायली लड़ाइयों के। राजसत्ता के हस्तांतरण में हिंसा की भूमिका अवश्य रही है, पर इन समाजों में राजसत्ता का दखल भी कम रहा है। खास तौर से पूर्व और दक्षिण एशिया के समाज अपेक्षाकृत अहिंसक समाज रहे हैं, हालांकि इसका मतलब यह नही है कि वे न्यायपूर्ण समाज भी थे। लेकिन आधुनिक सभ्यता के संक्रमण से अब ये समाज भी लगातार हिंसक होते जा रहे हैं। गांव और शहर, दोनों समान रूप से बेलगाम हिंसा की आग में जल रहे हैं। पारिवारिक हिंसा के नए-नए रूप सामने आ रहे हैं। स्त्री आज सबसे ज्यादा वेध्य है। बताया जाता है कि भारत में हर एक मिनट पर एक बलात्कार होता है। सड़कों पर अमीरजादे निरीह लोगों को अपनी गाड़ी से कुचल कर निर्द्वंद्व भाव से आगे बढ़ जाते हैं और उच्च वर्ग के क्लब में एक मॉडल आधी रात के बाद शराब देने से इन्कार कर देती है, तो उसे गोली से भून दिया जाता है। हिंसा की इस संस्कृति का असर निम्न मध्य वर्ग पर भी हो रहा है और वह भी अब किसी से कम हिंसक नहीं रह गया है। उदारीकरण की भोगवादी संस्कृति ने इस हिंसकता को और उकसाया है, जिसकी शुरुआती अभिव्यक्ति दहेज हत्याओं में हुई थी, लेकिन अब जिसके नए-नए रूप रोज सामने आ रहे हैं। यह दिलचस्प है कि भारत में पिछले एक दशक में पुलिस की संगठित हिंसा कम हुई है और नागरिक क्षेत्र की हिंसा बेतहाशा बढ़ी हैं। हम एक खूनी समय में और एक खूनी समाज में रह रहे हैं, जिसमें वे भी सुरक्षित नहीं हैं जिनकी सुरक्षा का प्रबंध सबसे आला है। इस सिलसिले में इंदिरा गांधी और राजीव गांधी की बेसाख्ता याद आती है।

इन हिंसाओं का भले ही एक सामाजिक या सांस्कृतिक पैटर्न हो, फिर भी इन्हें छिटपुट हिंसा की ही श्रेणी में रखा जा सकता है। इसके रू-ब-रू हिंसा के दो महास्वप्न भी हैं। एक महास्वप्न का नाम है आधुनिक विकास, जिसकी बलिवेदी पर ग्रामीण समुदाय और आदिवासियों को लगातार शहीद किया जा रहा हैं। बड़े बांधों और बड़े कारखानों के कारण, जिनका ज्यादा लाभ संपन्न वर्ग को ही मिलता है। 1947 ई० से आज तक कितने लोगों का विस्थापन हुआ और कितने विस्थापित लोग अपनी जड़ों से काट दिए जाकर किसी तरह जिंदगी के हाशिए पर डाल दिए गए, इसकी करुण कथा अभी तक लिखी नहीं गई है। यह कथा आंसुओं और बिवाइयों की कथा होगी। हिंसा का दूसरा महास्वप्न है फासीवाद, जिसका खतरा लगातार बढ़ा जा रहा है। सांप्रदायिक हिंसा की कड़ियां, बाबरी मस्जिद का विध्वंस और ईसाइयों तथा उनके चर्चों पर हमला तो इसका महज संक्षिप्त रिहर्सल है। विश्वव्यापी आतंकवाद, जिसमें राजकीय आतंकवाद भी सम्मिलित है, इस फासीवादी प्रवृत्ति का ही अवतार है।

तो क्या हिंसा की यह सभ्यता मानव जाति का आखिरी अध्याय है? कोई निराशावादी ही ऐसा सोच सकता है। हिंसा की समस्या पर गंभीरता से सोचा जा रहा है और उसके खिलाफ मोर्चा खोला जा रहा है। लेकिन यह प्रकिया अभी शुरू ही हुई है। हिंसा के मनोविज्ञान को हम आज बेहतर समझते हैं। पर हिंसा का एक अर्थशास्त्र भी है, एक समाजशास्त्र भी और राजनीति तो है ही। पूंजीवादी व्यवस्था हिंसा से संघर्ष नहीं कर सकती, क्योंकि प्रतिद्वंद्विता उसके मूल में है और प्रतिद्वंद्विता स्वयं हिंसा का एक स्रोत है। परिवार के मौजूदा ढांचे में हिंसा सन्निहित है, क्योंकि इसकी नींव में तानाशाही है-उम्र की तानाशाही, लिंग की तानाशाही और धन की तानाशाही। जरूरत एक ऐसा सामाजिक ढांचा विकसित करने की है, जिसमें हर स्तर पर लोकतंत्र और समानता हो। कोई भी व्यक्ति अपनी नैतिक सत्ता के बल पर ऊंचा माना जाए, न कि शारीरिक बल, दौलत, पद या किसी अन्य प्रकार की ताकत के कारण। फ्रायड के अनुसार, मनुष्य के चित्त में ही हिंसा के बीच हैं। लेकिन, यह चित्त करोड़ों वर्षों के ऐसे जीवन संघर्ष से बना है, जिसके दौरान उसे अभाव से लड़ना पड़ा था। आज प्रचुरता की संस्कृति हमारे सामने है और गरीब देशों के नागरिकों को भी शालीन जीवन स्तर मुहैया कराया जा सकता है। हिंसा की कुछ समस्या शायद हमेशा रहेगी, क्योंकि मनुष्य मशीन नहीं है और साथ ही, जीवन ही जीवन का आहार है। लेकिन भौतिक और सांस्कृतिक परिस्थितियों का उचित नियोजन कर हिंसा की चुनौती का काफी हद तक सामना किया जा सकता है। धर्म ने यह काम अपने हाथ में लिया था, पर क्योंकि उसके पास नैतिक प्रेरणा के अलावा कोई और शक्ति नहीं थी, अतः, वह पूरी तरह सफल नहीं हो सका। एक अहिंसक समाज बनाने के लिए नैतिक प्रेरणा के साथ-साथ व्यवस्थागत परिवर्तन भी जरूरी है, क्योंकि हिंसा मन में भले ही पैदा होती हो, पर उसका संदर्भ ठोस जीवन स्थितियां हैं। ब्रेश्त के एक नाटक में एक युवती पुलिस से कहती है : मुझे तुमसे डर लग रहा है, यह देखकर तुम्हें शर्म नहीं आती है? ऐसी सभ्यता बनाई जा सकती है, जिसमें किसी को किसी से डर न लगे। जरूरत हिंसा के शास्त्र को उसके सभी आयामों में समझने और संगठित और निष्ठावान प्रयास करने की है।

- राजकिशोर

हेमचंद्र, आचार्य : श्रमण भगवान महावीर ने अपनी देशना के माध्यम से अनेकांत, अपरिग्रह और अहिंसात्मक त्रिवेणी की रसधारा बहाई थी। वह रसधारा केवल उस समय ही उपयुक्त नहीं थी अपितु, आज के समय में भी परमोपयुक्त है। इस त्रिवेणी की रसधारा में गणधर, गीतार्थ और आचार्यगण भी डुबकी लगाकर पवित्र होते रहे और जनमानस को भी पवित्र करते रहे। कलिकाल सर्वज्ञ आचार्य हेमचंद्र भी इस त्रिवेणी में डुबकी लगा चुके थे और उसके पावन जल से गुर्जर धरा को पवित्र कर रहे थे।

गुजरात के विद्वान् आचार्य हेमचंद्र को ज्योतिर्धर आचार्य कहते हैं। उनका कथन है कि आचार्य हेमचंद्र का समग्र जीवन तत्कालीन गुजरात के इतिहास के साथ जुड़ा हुआ है। उन्होंने अपने ओजपूर्ण और सर्वाङ्ग परिपूर्ण व्यक्तित्व से गुजरात को एक नया रूप दिया है। उसे संवारा, सजाया और उसमें युग-युग तक जीवंत रहने की शक्ति भरी है।

हेमचंद्र का जन्म धुंधुका नगर में विक्रम संवत् 1145 ई० कार्तिक पूर्णिमा को हुआ था। मोढ वंशीय चाचिग और पाहिणी देवी हेमचंद्र के माता-पिता थे। हेमचंद्र ने बाल्यावस्था में ही दीक्षा ग्रहण कर ली थी और आचार्य देवचंद्रसूरि के शिष्य बने थे। इनका दीक्षा नाम सोमचंद्र रखा गया था। माता सरस्वती की साधना कर ये सिद्ध सारस्वत बने थे। विक्रम संवत् 1229 ई० में धर्मोपदेश देते हुए स्वर्ग की ओर प्रस्थान किया था। कहा जाता है कि उनके योग्यतम 100 शिष्य माने जाते हैं, जिनमें से अनेकों ने अनेक ग्रंथों का निर्माण किया है।

हेमचंद्र ने अपने जीवनकाल में महावीर वाणी का प्रचार-प्रसार करते हुए अपने प्रभाव एवं उपदेशों से तैंतीस हजार कुटुंब अर्थात् लगभग डेढ़ लाख व्यक्तियों को महावीर के अहिंसा मार्ग का अनुयायी बनाया था।

युगानुसार तर्क, लक्षण और साहित्य इन तीन महाविद्याओं का अधिकृत अध्ययन कर राज्य सभा का सदस्य बन जाना उत्तम कोटि का माना जा सकता है। किसी एक-दो विधा पर अपनी प्रकर्ष प्रतिभा के बल पर नूतन साहित्य का निर्माण कर महाकवि या महालेखक बनना उत्तमोत्तम माना जा सकता है। किंतु, अनेक विधाओं पर अधिकारपूर्ण मौलिक साहित्य का निर्माण करने का कार्य सर्वोत्कृष्ट या सिद्धसारस्वत ही कर सकता है। इस तीसरी कोटि में आचार्य हेमचंद्र को रखना ही न्यायसंगत होगा। इन्होंने जो कुछ भी साहित्य सर्जन किया वह मौलिक ही रहा, कोई टीका या टिप्पणी नहीं।

उन्होंने अनेक विधाओं पर मौलिक सर्जन करते हुए शब्दानुशासन (पंचागी सहित), कोष, अनेकार्थी कोष, देशी नाममाला, महाकाव्य, द्विसंधान काव्य, अलंकार शास्त्र, छंदःशास्त्र, न्याय शास्त्र, योग शास्त्र और स्तोत्र आदि विविध विषयों पर रचनाएं की हैं जो कि यह सिद्धसारस्वत ही कर सकता है। दूसरी बात यह कि साहित्य सर्जन के अतिरिक्त दो-दो महाराजाओं पर अपने वैदुष्य का प्रभाव डालना और एक को तो अपना वशंवद ही बना लेना, उन जैसे प्रभावक आचार्यों का ही कार्य है।

कहा जाता है कि इन्होंने 3.5 करोड़ श्लोकों का निर्माण किया था; किंतु, आज उसका लगभग शतांश ही 2,07,000 श्लोक प्रमाण ही साहित्य प्राप्त होता है। विदेशी आक्रांताओं द्वारा कुछ साहित्य जला दिया होगा, कुछ नष्ट हो गया होगा और कुछ भंडारों में उपेक्षित पड़ा हुआ होगा।

गुर्जर नरेश सिद्धराज जयसिंह और नरेश कुमारपाल जैसे नृपति भी आचार्य का परम सम्मान करते और अपने श्रद्धेयरूप में इनको ग्रहण करते थे। यह निर्विवाद सत्य है कि गुर्जर नरेश सिद्धराज जयसिंह ने आचार्य हेमचंद्र के संपर्क में आकर उन्हें नवीन व्याकरण बनाने का आग्रह किया था। ज्योतिर्धर आचार्य ने भी उनके अनुरोध को स्वीकार कर सिद्धहेम शब्दानुशासन की रचना कर सिद्धराज जयसिंह के नाम को भी साहित्य जगत में अमर कर दिया। व्याकरण का नाम भी हेमचंद्र ने सिद्धहेम शब्दानुशासन रखा। सिद्ध अर्थात् सिद्धराज जयसिंह और हेम अर्थात् हेमचंद्र। इन दोनों का संयुक्त नाम होने से व्याकरण जगत् में इनका नाम अजर-अमर हो गया।

आचार्य के संपर्क में आने के कारण सिद्धराज जयसिंह ने सिद्धपुर में महावीर स्वामी के मंदिर का निर्माण भी करवाया था और सिद्धपुर में ही चार जिनप्रतिमाओं से समृद्ध सिद्ध विहार भी बनवाया था। ऐसा होते हुए भी वह स्वयं शिवोपासक ही रहा।

हेमचंद्र चाहते तो वे सिद्धराज जयसिंह जैसे राजा को जैन धर्म का उपदेश देकर, जैन धर्म में दीक्षित होने के लिए प्रेरित कर सकते थे और अपना अनुयायी बना सकते थे। किंतु, हेमचंद्रसूरि ने ऐसा नहीं किया, ऐसा करते तो वे अनेकांतवाद के पोषक न होकर सांप्रदायिक सीमा में ही बने रहते। सिद्धराज जयसिंह अंत तक शैव परंपरा के अनुयायी ही रहे। किंतु, जैन दर्शन के साथ धर्म चर्चा में उनके अनुरक्ति जैनों के प्रति भी बनी रही। सामान्यतः उनके लिए मिथ्यात्वमोहितमति विशेषण मिलता है।

द्रष्टव्य : कुमारपाल।

- सा०वा० महोपाध्याय विनयसागर

हेवल, वाक्लाव : वह चेक गणतंत्र के राष्ट्रपति हैं, नाट्यलेखक हैं और कवि भी। वाक्लाव हेवल बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं और समूचे पूर्वी यूरोप के बुद्धिजीवी वर्ग के लोगों में उन्हें सम्मानित स्थान दिया जाता है। राजनेता के रूप में जनता के लिए किए गए कामों की प्रसिद्धि उनके नाटकलेखक या कवि की छवि पर भी छा रही है। लोगों के बीच वह अपना एक खास मुकाम रखते हैं।

असल में देखा जाए तो वाक्लाव की प्रतिभा के बखान के लिए शब्द कम पड़ जाते हैं। उनका सेंस ऑव ह्यूमर कमाल का है, चीजों को देखने की उनकी क्षमता कमाल की है। दूसरों के साथ वह खुद पर हंसने का माद्दा रखते हैं। दूसरे शब्दों में कहा जाए तो वह बेहद बुद्धिमान हैं, विनयशील भी और चीजों को देखने का सकारात्मक नजरिया उन्हें दूसरों से खास बनाता है। जिंदगी को ईश्वर का उपहार मानने वाले वाक्लाव उसके प्रति अपने फर्ज को बेहतर समझते हैं और उसी के अनुरूप फैसले भी लेते हैं। इसी प्रतिभा को वेजिलेंस ऑव स्पिरिट सम्मान से वर्बा 1999 ई० में सेंट्रल यूरोपियन यूनिवर्सिटी ने नवाजा।

चेक गणराज्य की राजधानी प्राग के संपन्न परिवार में उनका जन्म हुआ। उनके पिता बारानडोव एक व्यवसायी थे और माता बोजीना हेवलोवा राजदूत और पत्रकार पिता की बेटी थीं। माता-पिता ने बचपन से ही वाक्लाव की बुद्धिजीविता और कलात्मक नजरिए को खूब प्रोत्साहित किया। पन्द्रह साल की उम्र से ही उन्हें कविता करने में मजा आने लगा। फिल्म निर्देशक मिलोस फॉरमेन के साथ वह मशहूर कवि जारोशलाव सेफर्ट से मिले, जिन्होंने सबसे पहले वाक्लाव के लिखे गद्य और कविताओं को पढ़ा और उन्हें प्रोत्साहित किया।

1951 ई० में वे लेबोरेट्री टेक्निशियन के रूप में काम करने लगे। उन्होंने टेक्नीकल कॉलेज में दाखिला लिया और पढ़ाई के बाद वे चेकोस्लोवाक सेना में भर्ती हो गए। वह ग्रुपपट के सदस्य हो गए। पुरानी पीढ़ी के लेखकों की चुनौती को उन्होंने गंभीरता से लेते हुए मैग्जीन केवटीन का काम संभाला। यही वह समय था जब लोगों के सामने उनके लेखक होने की प्रतिभा सामने आई। 1964 ई० में उन्होंने ओल्गा स्पिचालोवा से विवाह किया। शादी के बाद उन्होंने पोलेंड सीमा के नजदीक एक फॉर्म हाउस खरीदा, जहां यह दंपति अपने दोस्तों के साथ फुर्सत के पल बिताया करते। पत्नी ओलगा की मृत्यु के बाद वाक्लाव ने अभिनेत्री डेग्मार वेस्कारनोवा से ब्याह रचाया।

1960 ई० तक वे अपने तरीके से थिएटर करते रहे। इस दौरान उन्होंने प्राग एकेडमी ऑव आर्ट से अपनी शिक्षा पूरी की। उनका पहला नाटक द गार्डन पार्टी था। इसने उन्हें न सिर्फ देश में बल्कि विदेशों में भी लोकप्रियता दिलाई। इस क्षेत्र में लोकप्रियता के झंडे गाडने के बाद उन्होंने पत्रकारिता के क्षेत्र में कदम रखा और साक्षरता मैग्जीन तवार के संपादकीय बोर्ड में शामिल हो गए। वहां वे जल्दी ही कन्जर्वेटिव राइटर्स एसोसिएशन की राजनीति का शिकार हो गए। वाक्लेव क्लाउस जिन्होंने वाक्लेव हेवल के चेक रिपब्लिक के राष्ट्रपति बनने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई, के साथ मिलकर इस मैग्जीन के लिए उन्होंने कई महत्वपूर्ण आर्थिक लेख लिखे।

1968 ई० में सोवियत संघ की ओर से की गई वारसा संधि ने प्राग को गहरे तक प्रभावित किया और इसके विरोध में प्रदर्शन शुरू हो गए जो दस सालों तक जारी रहे। इस दौरान वाक्लाव ने एकांकी नाटकों की सीरिज लिखी। ऑडियंसए प्राइवेट व्यू और प्रोटेस्ट नाटकों के माध्यम से आवाज उठाई गई जिन्होंने चेक गणराज्य की जनता के मानस को झकझोर कर रख दिया।

साठ के दशक में वाक्लाव को कम्युनिस्ट नौकरशाही और प्राग स्प्रिंग रिफॉर्म मूवमेंट का समर्थन हासिल हुआ। उन्होंने चेक राष्ट्रपति गुस्ताव हुसाक को पत्र लिखा। इस पत्र को दबाने की काफी चेष्टा की गई, लेकिन, इसका ब्योरा लोगों में बड़े पैमाने पर पहुंच गया। इस तरह से वाक्लाव हेवल मानवाधिकारों के पैरोकार के रूप में सामने आए। उनके कामों पर सरकार की ओर से प्रतिबंध लगा दिया गया। लेकिन इनकी हस्तलिखित कॉपियां निजी तौर पर बांटी गई और पश्चिम यूरोप में छापी जाने लगी। चेकोस्लोवाकिया के संघर्ष में वाक्लाव का अहम योगदान रहा। इस दौरान उन्हें गिरफ्तारी और पुलिस दमन का शिकार होना पड़ा। उन्हें साढ़े चार साल के लिए जेल में डाल दिया गया। उन्हें आत्मनिर्वासन या जेल का विकल्प दिया गया था, लेकिन उन्होंने देश छोड़कर जाने की जगह जेल जाना मंजूर किया था। 1983 ई० में उन्हें बीमारी के कारण रिहा कर दिया गया।

बाहर आकर उन्होंने नए सिरे से कामों को अंजाम देना शुरू किया और प्रजातंत्र की राह पर चल पड़े। उनकी सबसे पहली और बड़ी हार 1992 ई० में चेकोस्लोवाकिया का विभाजन थी। उन्होंने इस्तीफा दे दिया, लेकिन उन्हें तुरंत ही नए चेक गणराज्य का राष्ट्रपति चुन लिया गया। उन्होंने देश में स्वस्थ प्रजातंत्र की स्थापना की पहल की। नए साल के अवसर पर उनका संबोधन लोगों को चकित कर देने वाला रहा। बकौल वाक्लाव, सबसे बुरी चीज यह है कि हम एक प्रदूषित नैतिक वातावरण में रह रहे हैं। उन्होंने कहा कि हम नैतिक रूप से बीमार हैं क्योंकि हम जो कहते हैं वह हमारी सोच से ठीक उलट होता है।

वाक्लाव ने जर्मनी के साथ संबंध सुधारने के प्रयासों की पहल करते हुए चेक गणराज्य की नाटो और यूरोपियन यूनियन में प्रवेश हासिल कर लिया।

वर्बा 2002 ई० में वह पत्नी डेग्मार के साथ अमेरिका की यात्रा पर आए जहां उनकी मुलाकात राष्ट्रपति जॉर्ज बुश के साथ हुई। उनकी मुलाकात चेक-अमेरिकी संबंधों के इर्दगिर्द ही केंद्रित रही। साथ ही उन्होंने प्राग में नवंबर में होने वाली नाटो की बैठक और आतंकवाद, विदेश नीति और मानवाधिकारों सहित दूसरे कई महत्वपूर्ण मुद्दों पर भी बुश से चर्चा की। कुल मिलाकर उनकी यह यात्रा कई मायनों में महत्वपूर्ण और पूरी तरह से सफल रही।

इस यात्रा पर हेवल ने वाशिंगटन डीसी में चेकोस्लोवाकिया के पहले राष्ट्रपति और लिबरेटर थॉमस गैरीज मासर्येक की मूर्ति का अनावरण भी किया। थॉमस को चेक गणराज्य में वही दर्जा दिया जाता है जो भारत में महात्मा गांधी को। इस मूर्ति को कुछ अमेरिकी मित्र प्राग की नेशनल गैलेरी से वाशिंगटन डी सी लेकर आए और वहां एक महत्त्वपूर्ण जगह का चुनाव कर उसे स्थापित किया।

वाक्लाव हेवल कहते हैं कि जो राज्य अपने नागरिकों को स्वतंत्रता और सुरक्षा को लेकर न ज्यादा और न कम गारंटी देता है तो उन्हें समझना चाहिए कि राज्य और उसका तंत्र उनके पीछे हैं और इससे नागरिकों की राष्ट्र के प्रति जिम्मेदारी और ज्यादा बढ़ जाती है। अगर आप यह मानकर अपनी जिम्मेदारियों का निर्वहन करेंगे कि यह आपके अपने घर का मामला है और डरने की कोई जरूरत नहीं है तो वे खुलकर अपने कामों को बिना डर, शर्म और प्यार से ऐसा कर पाएंगे क्योंकि आप अपने भविष्य की नींव खुद रखने जा रहे हैं। उन्होंने सत्ता के विकेंद्रीकरण का रास्ता चुना। वे प्रजातंत्र में ज्यादा से ज्यादा जनता की भागीदारी चाहते थे ताकि लोगों तक सत्ता के फैसलों का फायदा पहुंच सके। वह अर्थव्यवस्था में भी व्यावहारिक निर्णय लेने के पक्षधर हैं।

वाक्लाव का कहना है कि गांवों-कस्बों की जिंदगी से अंधेरा दूर होना बाकी है। इसके लिए मानवीय दृष्टिकोण से सोचना होगा। हर मुख्य सड़क पर कम से कम दो बेकरीज, दो मिठाइंयों की दुकानें, दो पब्स और दूसरी कई जरूरतों की दुकानें होनी ही चाहिए। इसके अलावा हर तरह का विकास यहां किया जाए, ताकि जनता को आधारभूत सुविधाएं मिल सकें। सफाई का पूरा ध्यान रखा जाना जरूरी है, ताकि कस्बे भी साफ-सुथरे और खूबसूरती के मामले में पिछड़े न रहें। देश के विकास के लिए वह निचले स्तर से सोचना शुरू करते हैं।

कोई विशेष बात नहीं है कि सत्ता के विकेंद्रीकरण का वाक्लाव का फार्मूला इतना सफल रहा है। खास बात यह है कि इसके बूते केंद्र की संघ सरकार अपनी जिम्मेदारियों के निर्वहन में पूरी तरह सफल रही। संघ सरकार ने पर्यावरण के रखरखाव में विशेष भूमिका अदा की है। यह सरकारी नीतियों का एक हिस्सा रही है। यह नीतियां पूरे विश्व में पर्यावरण के प्रति सम्मान का प्रतीक बन गई। पर्यावरण नीतियों के कारण वाक्लाव को विशेष नजरिए से देखा गया। इसके अलावा शिक्षा, संस्कृति, अर्थव्यवस्था आदि के क्षेत्र में भी उनका योगदान सराहनीय रहा है।

इतनी सफलताओं और अच्छी नीतियों के बावजूद वाक्लाव भी आलोचनाओं से अछूते नहीं रहे हैं। उन पर जरूरत से ज्यादा आदर्शवादी होने के आरोप लगाए गए; उनके लिए यहां तक कहा गया कि सिविल सोसायटी के लिए इतने आदर्श काम करने के बावजूद क्यों नहीं वह देश का विभाजन को रोक पाएं! उनके प्रयासों में कहां कमी रह गई थी! आलोचकों को वाक्लाव पॉलिटिकल लीडर कम और नैतिकता रखने वाले व्यक्ति ज्यादा नजर आते थे। लेकिन राष्ट्रपति के रूप में उन्होंने लोगों के हितों से जुड़े फैसले ज्यादा लिए। लोगों की हर समस्या को उन्होंने खुद के नजरिए से देखा और दूर करने की हर संभव कोशिश की-और प्रजातंत्र में वही नेता सफल होता है जो लोगों के करीब रहे। इन मायनों में वाक्लाव अपने फन में माहिर कहे गए। उनकी कही बातों को लोगों ने सूक्तियां बना डाला। वह सही मायनों में देश के सच्चे नेता हैं और इन्हीं खूबियों के कारण इतिहास के पन्नों पर हमेशा उनका नाम सुनहरे अक्षरों में दर्ज किया जाएगा।

- डॉ० दुष्यंत


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