hindisamay head


अ+ अ-

रचनावली

अज्ञेय रचनावली
खंड : 6
बारहखम्भा

अज्ञेय

संपादन - कृष्णदत्त पालीवाल

अनुक्रम चीड़ों का विस्तार पीछे     आगे

 

अहा! चीड़ों का विस्तार, सरसराहट टूटती लहरों की,

रोशनियों का धीमा खेल, अकेली घण्टी

साँझ की झिलमिली गिरती है तुम्हारी आँखों में, गुड़िया,

और भूपटल पर जिसमें यह धरती गाती है!


गाती हैं तुममें नदियाँ और मेरी आत्मा खो जाती है उनमें

जैसा चाहती हो तुम वैसा भेज देती हो इसे जहाँ चाहे

तुम्हारी उम्मीद के धनुष पर लक्ष्य करता हूँ अपनी राह

और एक उन्माद में छोड़ देता हूँ अपने तरकश के सारे तीर


हर तरफ़ से देखता हूँ धुंध से ढँका तुम्हारा कटि-प्रदेश

तुम्हारी चुप्पी पकड़ लेती है मेरे दुखी समय को;

मेरे चुंबन लंगर डाल देते हैं

और घरौंदा बना लेती है मेरी एक विनम्र इच्छा

तुम्हारे भीतर स्फटिक पत्थर-सी तुम्हारी पारदर्शी भुजाओं के पास


आह! भेद-भरी तुम्हारी आवाज़, जो प्रेम करती है

मृत्यु-सूचनाओं के घंट-निनादों से, और उदास हो जाती है

अनुगूँजित मरती हुई शाम में!

एक दुर्बोध समय में, इस तरह मैंने देखा खेतों के पार,

गेहूँ की बालियों की राहदारी करते हुए हवा के मुख में ।


>>पीछे>> >>आगे>>