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कविता

साजिंदे

बसंत त्रिपाठी


साजिंदे बजाओ साज
कि धुनें शोर में गुम हो रहीं
गीतों की पंक्ति से सन्नाटा रिसता है
जीवन की गति में जीवन ही घिसता है
साजिंदे,
बजाओ साज कि कसावट की कोई
                                आवाज उभरे

रात यह काली और दिन सुफेद
रातों के उजाड़ में दिन सखेद
होते हैं बेबस, जाते हैं बिखर-बिखर
साजिंदे, बजाओ साज
कि रंगों का कोई मोल उभरे

 


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