एक
मुझे ठीक-ठीक याद नहीं, वह कौन-सा लम्हा था जब उसने पहली बार मेरे हाथों को मजबूती से थामा और मुझे अपने होने का बहुत साफ-साफ अहसास दिलाया। पर इतना मुझे जरूर याद है कि उसकी पैदाइश मेरी डायरी के पन्नों पर हुई थी। मैंने पहली बार अपने ही अनगढ़ हाथों से उसे गढ़ा था पर वह सही लकीरों की एक मुकम्मल तस्वीर बन पड़ी थी और कागज के पन्नों में शब्दों की आकृति से बाहर निकल जब-तब मेरे रू-ब-रू खड़ी हो जाती थी। कभी बुजुर्ग बन कर मुझे डाँटती, कभी साथी बन कर मुझे तसल्ली देती, कभी मेरी गाइड बन कर मुझे जीने के रास्ते दिखाती जैसे मैंने उसे नहीं, उसने ही मुझे खड़ा किया हो। मैं जानती थी, यह सच भी था। वह मेरी ताकत थी, मेरा संबल थी, मेरे होने की वजह थी, मेरी जरूरत थी। अपने वजूद की शुरुआत से ही वह मेरे लिए 'लाइफ सेविंग ड्रग' की तरह थी। हम दोनों ने साथ-साथ छत्तीस लंबे बरस जिए। इन छत्तीस बरसों के उतार-चढ़ाव साथ-साथ देखे। पर हम दोनों की सूरत और सीरत में छत्तीस का आँकड़ा था। वह जितनी अक्खड़, तुर्श, तुनकमिजाज, बेबाक और मुंबइया भाषा में बिंदास थी, मैं उतनी ही मरगिल्ली, कमजोर, डरपोक, आलसी और मूर्खता की हद तक भावुक। मैं वह थी जो मैं थी या वैसे माहौल में जैसी होना बहुत स्वाभाविक था, पर वह वह थी जो मैं होना चाहती थी। कभी-कभी तो हैरानी होती थी कि वह मेरे इस अव्यवस्थित खोल में किस तरह सुरक्षित रह लेती थी, पर यह तो उसे भी बहुत बाद में पता चला कि वह कितनी असुरक्षित थी मेरे साथ, उसे मेरे खोल में अपने को बनाए रखने में कितनी मशक्कत करनी पड़ती थी, पर उसके पास कोई और विकल्प भी तो नहीं था। भावुकता ने मेरे दिमाग के नट बोल्ट शुरू से ही थोड़े ढीले कर रखे थे जिन्हें वक्त-बेवक्त वह अपने पैने औजारों से दुरुस्त करती रहती थी ताकि मेरी रीढ़ की ढुलमुल हड्डी जरा सीधी रहे। मेरे प्रति उसकी सारी ईमानदारी के बावजूद मैंने उस पर कम जुल्म नहीं ढाए। मैंने उसे हमेशा निर्ममता से पीछे ढकेलने की कोशिश की। मैंने अपने भीतर के हर संभव कोने में उसे दफन करने की कोशिश की। वह जब तब मौके-बेमौके अपना सिर उठाना चाहती और मैं उससे कतराते हुए बड़ी बेरुखी से उसे नजरअंदाज कर आगे बढ़ लेती। बीच के एक लंबे अरसे तक हम दोनों के बीच अबोला भी रहा। वह अपने आप में एक लंबी गाथा है। जिंदगी के उस लंबे अध्याय की जिल्द खोलने से मैं हमेशा बचती रही। जब तक सच कहने की ताकत न हो, चुप रहना बेहतर होता है। अपने को सामने रख कर देखना और अपने बारे में लिखना जितना आसान लगता है, उतना होता नहीं। और फिर इसे लिखे बगैर भी तो जिंदगी, लेखन, सबकुछ चल ही रहा है। फिर अब इसे शब्दों में दर्ज करने का कारण? शायद यह, कि उम्र के इस मोड़ पर अपनी जिंदगी के इस 'सच' को कागज पर उतार कर अपने से अलग, अपने से बेगाना कर देना चाहती हूँ। बस, अपने बारे में लिखते हुए उस आत्ममुग्धता से बचना चाहती हूँ, जो एक लेखक की अनिवार्य कमजोरी होती है। आज डायरियों के वे बेशुमार पन्ने भी तो नहीं रहे जिन्हें ज्यों का त्यों रख देती तो कुछ कहने की जरूरत नहीं पड़ती। एक बार अपनी सधी हुई हैंडराइटिंग में लिखे कई सालों की डायरी के सारे पन्ने मैंने फाड़ कर जला दिए थे। पूरा सच उसके साथ राख हो गया था और रह गई थीं सिर्फ उस सच के इर्द-गिर्द बुनी हुई कुछेक कहानियाँ - जो छप चुकने के बाद मेरी नहीं रह गई थीं।
'यह लड़की हर वक्त पता नहीं लिखती क्या रहती है?' अक्सर मेरी दादी, जिन्हें हम झाईजी कहते थे, खीझती रहतीं। पर माँ जानती थीं क्योंकि उन्होंने ही मेरे हाथ में डायरी थमाई थी कि इसमें रोज सोने से पहले लिखा करो कि दिन भर में क्या किया। घर में सबसे बड़ी मैं और मुझसे छोटे छह भाई बहन, सारे घर की जिम्मेदारी माँ पर। माँ के पास इतना वक्त नहीं था कि मेरे सिरहाने बैठी रहें और मैं बीमार होती, जो मैं अक्सर होती थी, तो चाहती, वे कहीं न जाएँ, बस मेरे पास बैठी रहें। सो उन्होंने जान छुड़ाने के लिए हाथ में थमा दी डायरी। और पापा ने अपने बेहद अजीज दोस्त, राजेंद्र यादव (जिन्हें मैं चाचाजी कहा करती थी और जो मन्नू दी से शादी से पहले हर रविवार को माँ के हाथ के बने गोभी या मूली के पराँठे खाने घर आया करते थे) का उपन्यास 'उखड़े हुए लोग' पढ़ने के लिए तकिए के नीचे रख दिया। पर मैं पढ़ती थी 'गुनाहों का देवता' ताकि अपनी हमनाम की त्रासदी पर आँसू बहा सकूँ। और लिखती थी महादेवी वर्मा छाप कविताएँ जो कविता कम और 'नीर भरी दुख की बदली' अधिक होती थीं। (श्री शिक्षायतन स्कूल की मेरी प्रिय टीचर कौशल्या बहन जी और जयंती गुप्ता इन कविताओं से बड़ी प्रभावित थीं और उन्हें सगर्व स्कूल की पत्रिका में प्रकाशित किया करती थीं। कॉलेज के दिनों में हिंदी ऑनर्स की प्रो. डॉ. प्रतिभा अग्रवाल, सुकीर्ति गुप्ता और किरण जैन आजकल के आम प्राध्यापकों की तरह सिर्फ पाठ्यक्रम की पुस्तकें नहीं पढ़ाती थीं, नए से नए साहित्य की उन्हें जानकारी थी और सुकीर्ति दी ने तो एक पीरियड में, जब पढ़ाने का मूड नहीं था तो बाकायदा हम सब से पैंतालिस मिनट में एक स्वरचित मौलिक कहानी लिखवाई थी। शिक्षायतन कॉलेज में कथा समारोहों के साथ-साथ छात्राओं के लिए साहित्यिक रचनात्मक प्रतियोगिताओं का आयोजन भी होता रहता था।
हाँ, तो माँ बताती थीं कि बीमार मैं इसलिए रहती थी कि बचपन से ही मुझे दूध से एलर्जी थी। हमेशा मरगिल्ली-सी रही। सबसे बड़ी होने के कारण दादा-दादी की बड़ी लाड़ली थी। दूध नहीं पीती, खाना नहीं खाती तो दादा (कहानी 'इस्पात' के मामा) तिवारी के खीरमोहन या रसगुल्ले की हँड़िया ले आते कि दूध नहीं पीना, मत पीओ, जी भर कर रसगुल्ले या खीरमोहन खाओ। रसगुल्ले खा-खा कर पेट में कीड़ों का अंबार लग जाता। दादा मुझे ले कर वैद्य-हकीमों के चक्कर काटते रहते। देखने में बिल्कुल सींक-सलाई थी। हर दस दिन बाद खाँसी, सर्दी-बुखार और साँस की तकलीफ हो जाती। तेरह साल की उम्र में वह तकलीफ तो अपने आप ठीक हो गई, पर एक अजीब-सी बीमारी शुरू हो गई। बाएँ हाथ की कुहनी सूज कर पारदर्शी गुब्बारा हो जाती और दर्द से मैं बेचैन रहती। हाथ एक ही पोजीशन में रहता। न कपड़े बदले जाते, न करवट बदली जाती। यह स्थिति पाँच-छह दिन रहती फिर ठीक हो जाती। घर का इकलौता बर्मा टीक का वह नक्काशीदार एंटीक पलंग ठीक खिड़की के पास था, जहाँ से पीपल का पेड़ दिखाई देता था। उस पर लेटे-लेटे मैं डायरी लिखती। उन दिनों मेरा प्रिय विषय था मौत। मेरी सोच का दायरा उसी रूमानी किस्म की मौत के इर्द-गिर्द घूमता। डायरी की ओट में मौत का अहसास कुछ धुँधला-सा पड़ जाता।
वह दिन मुझे बहुत अच्छी तरह याद है - 27 मई 1964। मुझे कुहनीवाली बीमारी का अटैक हुआ था और सूजन अपने चरम पर थी। तभी पंडित नेहरू की मृत्यु का समाचार रेडियो पर आया था और सब लोग रेडियो के इर्द-गिर्द सिमट आए थे। रेडियो पर लोगों के रोने-बिलखने की आवाजों के बीच 'चाचा नेहरू अमर रहें' के नारे थे और उम्र के सत्रहवें साल में लगातार आत्महंता मनःस्थिति से गुजरते हुए सोच रही थी कि अगर मैं मर जाऊँ तो भी कहीं कोई फर्क नहीं पड़ेगा, एक पत्ता तक नहीं हिलेगा। माँ-बाप कुछ दिन रोएँगे, फिर भूल जाएँगे। मैं उस दिन जी भर कर रोई। सब समझ रहे थे कि मैं चाचा नेहरू की याद में रो रही हूँ। तभी मेरी डायरी के पन्नों पर उसने आकार लिया। वह मेरे भीतर एक जबरदस्त जिजीविषा की तरह उभरी, उसने मेरी 'डायरी' में से 'नीर भरी दुख की बदली' और तुकबंदियों को खारिज किया और डायरी तथा मौत दोनों का तर्पण कर पहली कहानी लिखी 'एक सेंटिमेंटल डायरी की मौत' जो डायरी के पन्नों में ही कुछ महीनों तक पड़ी रही, फिर एक दिन मैंने उसे 'सारिका' में भेज दिया। सारिका से, स्वीकृति के पत्र को मैंने पचासों बार हर कोण से परखा। लगभग एक साल बाद चंद्रगुप्त विद्यालंकार के संपादन में 'सारिका' : मार्च 1966 में प्रकाशित हुई। पर वह पहली प्रकाशित कहानी नहीं थी। मुझे उसने बाकायदा धमकी दे डाली थी, खबरदार, जो अब डायरी के पन्नों पर रोना-धोना किया।
मौत की निराशाजनक स्थितियाँ डायरी में से निकल कर काल्पनिक प्रेमकथाओं में स्थानांतरित होने लगीं। फिर तो यह एक सिलसिला ही बन गया। वह जब मुझे उदास देखती, मेरे हाथों से डायरी छीन 'कुछ भी' लिखने लगती और जैसा कि उस उम्र में स्वाभाविक था, व्यक्तिगत जीवन में किसी कथानायक की उपस्थिति के बिना ही उसने कुछ गढ़ी हुई प्रेम कथाएँ और कविताएँ लिखीं। उन्हीं में से एक कहानी थी 'मरी हुई चीज' जो उसकी पहली प्रकाशित कहानी थी और कलकत्ता से ही प्रकाशित पत्रिका 'ज्ञानोदय' : सितंबर 1965 में प्रकाशित हुई थी। उन दिनों उसे कहानी लेखन का क ख ग भी मालूम नहीं था पर कहानी पर मिली अप्रत्याशित प्रतिक्रियाओं ने एकाएक उसे 'लेखिका' के आसन पर बिठा दिया। एक वजह शायद यह भी रही होगी कि उस वक्त हिंदी लेखन के परिदृश्य पर लेखिकाएँ उँगलियों पर गिनी जाने लायक थीं। मन्नू भंडारी, कृष्णा सोबती और उषा प्रियंवदा के बाद उभरती पीढ़ी में एकमात्र नाम ममता अग्रवाल और अनीता औलक का था। उसे इन उभरते नामों के बीच अपनी उपस्थिति दर्ज कराने का जरा भी अंदेशा नहीं था। वह तो एक जुनून की तरह लिखती थी। मौत, निराशा और अवसाद से उबरने का उसे एक आउटलेट मिल गया था। 27 मई 1964 से अगस्त 1966 तक, यानी अठारह से बीस साल की उम्र के दौरान, उसने बीसेक कहानियाँ लिख डालीं।
काल्पनिक प्रेमकथाओं के परिदृश्य पर एक प्रेमी नायक का उभरना भी अनिवार्य हो गया। मैंने उसे बहुत मना किया कि अठारह साल की उम्र में इस पचड़े में मत पड़, पर वह तो जैसे प्रेम करने के लिए तैयार बैठी थी। जमाने की डरपोक मैं उसका कायापलट देख रही थी। बगैर देखे-सुने उसने खाईं में छलाँग लगाई और 'चरित्रहीन', 'एक अविवाहित पृष्ठ', 'बगैर तराशे हुए' (धर्मयुग : 12 जून 1966) जैसी अधकचरी प्रेम कहानियाँ लिखने लगी। पर यह सच है कि उसके इस प्रेम ने मेरे लिए संजीवनी का काम किया। मौत के मातमी माहौल से बाहर आ कर मैं उससे जिंदगी की बातें करने लगी। मेरे बीमार चेहरे पर उसकी मुस्कुराहट फैल रही थी। उस नक्काशीदार पलंग के कोने से उठा कर वह मुझे एक खूबसूरत रूमानी दुनिया की सैर करा रही थी जिसका पड़ाव उसके लिखने की मेज पर था। मैं तो शायद तब भी अपने घर की चहारदीवारी के किसी कोने में ('सलाखों के बीच' - शताब्दी : 1966), डरी हुई ('डर' - युयुत्सा :1966) दुबकी हुई बैठी थी पर वह मेरी आँखों की चमक बन कर चहक रही थी। कहानियाँ लिखना उसकी मरगिल्ली-सी काया में प्राण फूँक रहा था। उसे जीने का और अपनी बीमारी से लड़ने का एक कारण मिल गया था। अपने कॉलेज के हर क्षेत्र में वह अव्वल रही। बीए हिंदी ऑनर्स में वह प्रथम श्रेणी में प्रथम थी। एकेडेमिक कैरियर में (स्पोर्ट्स के अतिरिक्त, जिसमें वह बिल्कुल फिसड्डी थी) उसने बहुत-से मेडल जीते। 1965- 66 में उसने एक साल में बारह कहानियाँ लिखीं जो धर्मयुग और सारिका के अलावा श्रीपत राय संपादित 'कहानी' और अमृत राय संपादित 'नई कहानियाँ' से ले कर हैदराबाद से छपनेवाली कल्पना, लहर, शताब्दी, माध्यम, युयुत्सा, रूपांबरा, उत्कर्ष, अणिमा जैसी लघु अव्यायसायिक पत्रिकाओं में छपीं।
तब कहानियाँ लिखना उसके लिए कितना आसान था, इसका एक दिलचस्प वाकया याद आ रहा है। एक दिन अपने सपनों में डूबी मैं घर से यूनिवर्सिटी जाने के लिए निकली तो 2 B की जगह गलत नंबर की बस 8 B में बैठ गई जो सीधे यूनिवर्सिटी ले जाने की जगह हावड़ा स्टेशन ले गई। हावड़ा स्टेशन का भीमकाय पुल दिखा तो मेरा सपना टूटा। वह पुल जैसे मुझे निगलने को सामने बढ़ा चला आ रहा था। उतरते हुए मेरे पैर थरथरा रहे थे। मुझे काटो तो खून नहीं पर वह अपने इस नए अनुभव (एडवेंचर) पर खुश थी। घर लौटते ही वह अपनी मेज पर जम गई और एक कहानी 'बस स्टॉप पर खड़ी जिंदगी' लिख डाली जो डेढ़ साल बाद हैदराबाद से प्रकाशित बालकृष्ण राव संपादित 'माध्यम' के अक्टूबर 1967 में प्रकाशित हुई।
उस समय की ये रचनाएँ अब बेहद अपरिपक्व, अधकचरा लेखन लगता है, पर इस लेखन ने मुझे जीने का कारण दे दिया था। किताबों की दुनिया बड़ी खूबसूरत होती है। दादा-दादी अपनी सबसे बड़ी पोती की शादी के सपने सँजो रहे थे और मुझे अपनी पढ़ने-लिखने की दुनिया से बाहर झाँकने का जरा भी अवकाश न था। कलकत्ता विश्वविद्यालय का हिंदी विभाग भी अपने ढंग का अकेला था। वहाँ कामायनीमय प्रो. कल्याणमल लोढ़ा थे और तुलसीमय आचार्य विष्णुकांत शास्त्री। पढ़ाते हुए वे तुलसीदास में बिल्कुल रम जाते थे। मैं बीमार होती तो भी शास्त्री जी की क्लास मिस नहीं करती, पर महीने में मुश्किल से पंद्रह दिन ही कॉलेज जा पाती थी। बाकी समय घर में बिस्तर पर लेटे-लेटे किस्से-कहानियाँ लिखती थी। इसके साथ ही एमए में भी मैंने टॉप किया तो दादा-दादी बहुत खुश नहीं हुए और उन्होंने अल्टीमेटम दे दिया कि बहुत हुआ, अब इसे ठिकाने से लगाओ। एक बेहद दकियानूसी मध्यवर्गीय परिवार जहाँ दादा-दादी इसलिए घर की सबसे बड़ी बेटी को पढ़ने नहीं देना चाहते थे कि फिर उनके व्यवसायी तबके में उसके लिए लड़का ढूँढ़ना मुश्किल हो जाएगा। ऐसे मुश्किल वक्त में माँ उसका कवच बन कर खड़ी थीं। माँ, जो लाहौर में अपने कॉलेज की बड़ी जहीन छात्रा थीं और हिंदी में साहित्य रत्न कर रही थीं, कविताएँ लिख-लिख कर अपनी लंबी कापियों में छिपा कर रखती थीं कि कोई देख न ले क्योंकि उन दिनों लड़कियों का कविताएँ लिखने का मतलब था किसी के प्रेम में पड़ कर बिगड़ जाना। साहित्य रत्न करते-करते शादी हो गई और लाहौर से कलकत्ता आई माँ, अब अपनी सारी प्रतिभा और रचनात्मकता चूल्हे-चौके और दर्जी का खर्च बचाने के लिए, हम दोनों बहनों की झालरों और स्मोकिंगवाली फ्रॉक सिलने में खपा रही थीं। अब वे अपने सपने मुझमें - अपनी बेटी में - साकार होते देखना चाहती थीं। घर पर मेरी लड़ाई माँ लड़ रही थीं और बाहर वह।
इस बीच मुझे जीना सिखानेवाली मेरी उस हमकदम के साथ एक हादसा हो चुका था। वह जिसके साथ जिंदगी बिताने के सपने ले रही थी, वह शादीशुदा था और यह बात एक बड़ी साजिश के तौर पर वह छिपा गया था। इस सूचना ने उसे जड़ से हिला दिया था। यह धक्का उसके लिए आत्मघाती साबित हुआ। वह, जो सिर ऊँचा उठा कर घर से बाहर निकलती थी, मुझमें मुँह छिपाने के लिए ठौर ढूँढ़ने लगी। उसने अपनी जिंदगी को पूर्णविराम देने के लिए मुट्ठी भर नींद की गोलियाँ खा लीं। नींद की गोलियाँ खाने के बाद की उसकी हालत की मैं चश्मदीद गवाह हूँ। मैं उसे मौत की ओर बढ़ते देख रही थी। पर वह मौत को छू कर लौट आई और मैं दुबारा कुहनी की बीमारी ले कर। उस अनुभव से वह बरसों उबर नहीं पाई। अप्रैल 1966 के महीने में लिखी डायरी के पन्ने दिसंबर तक भर गए। बहुत बाद में भी यह अनुभव टुकड़ो-टुकड़ों में उसकी कई कहानियों (युद्धविराम - 1971 और बोलो, भ्रष्टाचार की जय - 1980) में आता रहा। पर इस अनुभव पर लिखी कहानी 'निर्मम' (ज्ञानोदय : अगस्त'66) छपने के बाद वह फिर मेरे खोल में सिमट गई।
उसने कभी कल्पना भी नहीं की थी कि कच्ची उम्र का वह प्रेम-प्रसंग इतना त्रासद, भयावह और जानलेवा साबित हो सकता है। यह प्रेम-संबंध मुश्किल से साल भर ही खिंचा होगा पर बाद की समूची जिंदगी पर यह संबंध गहरी काली परछाई की तरह फैला रहा। अगस्त 66 के बाद, उस शख्स से फिर कभी मुलाकात नहीं हुई, पर उसके आसपास के तमाशाई लोगों ने उस संबंध को मरने नहीं दिया। वह कहीं भी जाती, उसे दाएँ-बाएँ उस नाम की फुसफुसाहट सुनाई देती और दिखाई देती लोगों की आँखों में एक वितृष्णा, जिसे झेल पाना उस उम्र में ही नहीं, बाद में भी असंभव था। एक लड़की का एक भीना-सा कोमल प्रेम-प्रसंग भी ताउम्र उसके गले की फाँस बन कर रहता है। कोई उसे भूलने को तैयार नहीं होता। उस संबंध के नाम का कीचड़ आज भी जिसका मन करता है, मेरे चेहरे पर उछाल देता है।
इस हादसे ने उसकी उम्र में दस साल का इजाफा कर दिया था। अब मेरी उससे खटक गई थी। उसका यह हश्र तो होना ही था। उसकी मुस्कुराहट, उसकी आँखों की चमक गायब थी। यूजीसी की स्कॉलरशिप पर उसने 'आधुनिक हिंदी कविता में मिथक तत्व' विषय पर पीएचडी का काम शुरू किया पर वह कोरे कागजों के साथ घंटों नेशनल लायब्रेरी में अकेले बैठी रहती और मायथोलॉजी की परिभाषा में विदेशी किताबों से पन्ने दर पन्ने रँगती रहती। मुझे समझ में आ रहा था कि वह अब कुछ नहीं कर पाएगी। आखिर थी तो मेरे ही हाथों गढ़ी हुई मूरत! बेवकूफ भावुकता से कहाँ तक बचती! उसने खुद कोरे कागजों की नई डायरी उठाई और मेरे हाथ में थमा दी। कहानियों, पत्रिकाओं और लेखकों-संपादकों-पाठकों की वाहवाही की चमकदार दुनिया से निष्कासित वह फिर मेरी डायरी के निजी पन्नों पर सिमट गई थी।
एमए हो चुका था और परिवार की सबसे बड़ी पोती होने के कारण घर में शादी के लिए दबाव बढ़ रहा था। उससे तीन साल छोटी बहन भी एमए में आ गई थी और बेहद खूबसूरत होने के कारण छोटी बहन के लिए खूब रिश्ते आते थे पर माँ-बाप चाहते थे कि पहले बड़ी ठिकाने से लग जाए। तब तक उसका पहला कहानी संग्रह आ गया था - 'बगैर तराशे हुए' (जनवरी 1968) । उस संग्रह को शायद इसलिए हाथों-हाथ लिया गया क्योंकि वह एक महिला रचनाकार का था। डॉ. बच्चन सिंह, डॉ. लक्ष्मीसागर वार्ष्णेय, डॉ. इंद्रनाथ मदान, डॉ. धनंजय, डॉ. मधुरेश, डॉ. धनंजय वर्मा, निर्मला ठाकुर की समीक्षाएँ प्रोत्साहित करनेवाली थीं, पर वह अपना उत्साह खो चुकी थी। लेखन उसके लिए अजनबी बन रहा था। कलकत्ता की वह नेशनल लाइब्रेरी, जहाँ बैठ कर उसे अपने शोध का काम पूरा करना था, उसके लिए टीसती हुई यादों की कब्रगाह बन गई थी।
माँ-पापा की परेशानी, बूढ़े दादा-दादी का दबाव और उसका मुँह छिपा कर मेरे भीतर किसी कोने में दुबके रहना! आखिर मैंने बगैर लड़का देखे शादी के लिए हामी भर दी। लड़का दिल्ली में था और उनके परिवार से दूर की रिश्तेदारी थी। घर से लायब्रेरी और लायब्रेरी से घर की मशीनी भागदौड़ के बीच शादी की तैयारियाँ चल रही थीं, तभी वह लड़का किसी काम से कलकत्ता आया। दादा-दादी अपनी लाड़ली पोती के ब्याह के नाम से ही गदगद थे। उस जमाने के दकियानूसी मध्यवर्गीय व्यवसायी परिवार में लड़की का कॉलेज पास कर लेना, शादी के बाजार के लिए एक चमकदार तमगा था और उसका अपने स्तर के किसी संस्कारशील परिवार में रिश्ता तय हो जाना गंगा नहाने जैसा था। पर विधि का विधान कुछ और ही रच रहा था। शादी की तारीख तय होने के बीच उस लड़के से बड़ी नाटकीय मुलाकात हुई। उस लड़के ने मुझे सर से पाँव तक घूर कर देखा और कहा कि वह बहुत खुश है कि वह अपने दोस्तों और उनकी बीवियों के बीच अपनी एमए पास बीवी को ले कर शान से खड़ा हो सकता है।
उसका दूसरा सवाल सीधे मुझसे मुखातिब था, 'तुम्हें पाजामा सीना आता है?'
मैं सीधे आसमान से नीचे गिरी। किसी तरह अपने को सँभाला और उसकी ओर देखे बगैर मैंने ठंडे स्वर में कहा, 'मुझे सिलाई-कढ़ाई का शौक नहीं है।' जबकि सच तो यह था कि सिलाई और कढाई में भी मैंने पहला पुरस्कार जीता था पर कलम हाथ में आई तो सुई-धागे में दिलचस्पी जाती रही।
'अच्छा, कुलचे-छोले तो बनाने आते हैं न!' उसने बड़ी रियायत देते हुए दूसरा सवाल मेरी कनपटी पर दागा।
'नहीं!' मैंने बुझे मन से कहा।
'फिर आता क्या है?' उसने जिस तरह से मेरी ओर देखा, मैं एक ही साँस में छत की सारी सीढ़ियाँ नीचे उतर गई। माँ मुझे गुमसुम देख कर कुछ भाँप तो रही थीं पर घर के बुजुर्गों का आतंक उन्हें भी विचलित कर रहा था। दादा-दादी की कभी अवज्ञा न करनेवाली माँ ने फिर एक बड़ा मोर्चा सँभाला, घर-परिवार के तमाम लोगों के आक्षेपों को अपने सिर ले लिया और मुझे उस बेमेल शादी के मंडप में झोंके जाने से बचा लिया।
दादी ने सिर पीट लिया था और मेरी सूरत देखते ही वह माँ को जो-सो बोलने लगतीं। मैंने तय कर लिया था कि अब और कुछ भी करूँ, शादी नहीं करनी है। घर में कह दिया कि छोटी के लिए आप लोग रिश्ता देखें, मेरे लिए नहीं। पर यह बात माँ-बाप के गले नहीं उतर रही थी। छोटी बहन बेहद खूबसूरत, बेहद जहीन और अंतर्मुखी थी। मैं घर से कटने लगी और अपना अधिकांश समय लाइब्रेरी में 'आधुनिक हिंदी काव्य में मिथक तत्व' विषय के शोध पर लगाने लगी। मेरा वह सबसे प्रिय हिस्सा, जो कहानियाँ लिखता था, इस शोध के विषय पर सिर धुन रहा था। उसके लिए यह शोध कार्य किसी सजा से कम नहीं था।
इस बीच श्री शिक्षायतन कॉलेज की छात्राओं की बेहद चहेती प्रोफेसर श्रीमती पुष्पलता शर्मा (पुष्पा भारती - जिन्हें सुशील की देखादेखी हम सब 'दिद्दी' पुकारते थे) कलकत्ता आईं और अपनी मुँहबोली बहन सुशील गुप्ता से उसका परिचय करवाया। सुशील की दोस्ती ने उसे सँभाला, पर सुशील, जो अपना घर छोड़ कर अकेली रहती थी, को एमए करने के लिए राजी करना और फिर उसे एमए के लिए तैयार करना मेरे जीवन का एकमात्र और सर्वोपरि ध्येय रह गया था। आखिरकार मैंने आधे-अधूरे शोध कार्य को तिलांजलि दी और सुशील को एमए करवाने के बाद कॉलेज में लेक्चररशिप ले ली ताकि छात्राओं के बीच मन लगा रहे। कलकत्ता के सुप्रसिद्ध आशुतोष कॉलेज का यह प्रातःकालीन विभाग था जो लड़कियों के लिए था। यहाँ ज्यादातर अहिंदीभाषी लड़कियाँ या बड़ी उम्र की महिलाएँ थीं जो हिंदी में अहिंदीभाषी होने के नाते मिली स्कॉलरशिप के लिए हिंदी में डिग्री कोर्स करती थीं। अधिकांश छात्राएँ उम्र में मुझसे दस से पंद्रह साल बड़ी थीं और बंगाली संस्कृति की गुरु-शिष्य परंपरा के तहत राह चलते सामना होने पर सरे बाजार पैर छूने से नहीं हिचकती थीं। इस कॉलेज का समय सुबह छह से ग्यारह था। उसके बाद का पूरा समय फिर दादा-दादी की तीखी निगाहों का सामना करना पड़ता था, मुझसे ज्यादा माँ के लिए कि और पढ़ाओ बेटी को, नौकरी करवाओ, अब जिंदगी भर कुँआरी रखना इसे क्योंकि अपनी बिरादरी में तो बीकॉम पास भी मिलने से रहा।
माँ थीं कि बेटी के इन तमाम 'कारनामों' के बीच भी एक मजबूत स्तंभ की तरह खड़ी थीं। दादा-दादी और बाहरवालों के बीच कभी जवाबदेही के लिए नहीं बुलाया, न ही सबके सामने मुझे अपमानित होने दिया। घर के इस तनावपूर्ण माहौल से बचने के लिए कलकत्ता के अपने ही कॉलेज श्री शिक्षायतन में पार्ट टाइम नौकरी कर ली। एक कॉलेज से निकल कर आधे घंटे के लिए घर जाती और फौरन दूसरे कॉलेज। यह सिलसिला छह महीने चला। सेहत फिर पहलेवाली स्थिति पर पहुँच गई। मजबूरन एक कॉलेज छोड़ना पड़ा।
हाँ, तो बात अगस्त 1966 की हो रही थी, जिसके बाद अचानक वह मेरा साथ छोड़ कर मेरे भीतर कहीं लुक-छिप रही थी। अपने बिखरे हुए व्यक्तित्व को समेटने में लगभग दो साल लग गए थे। तभी अमृत राय का एक बहुत आग्रहपूर्ण पत्र आया। वह बड़े-छोटे शहरों, महानगरों पर 'नई कहानियाँ' में रेखाचित्र लिखवा रहे थे। इलाहाबाद पर दूधनाथ सिंह, दिल्ली पर कमलेश्वर, बंबई पर मोहन राकेश लिख रहे थे। अमृतराय जी चाहते थे कि कलकत्ता पर वह लिखे। कलकत्ता मेरा बहुत प्रिय शहर था। मेरी पैदाइश जरूर लाहौर की थी, पर होश सँभालते ही कलकत्ता को ही अपनी रगों में रचा-बसा पाया था। अमृतराय जी के उस आग्रह ने बुझती राख में चिनगारी का काम किया और 'नगरों के अंदर कैद एक महानगर : कलकत्ता' लिख कर वह छोटा-सा बंजर अंतराल भर गया। फिर नए सिरे से कहानियों की शुरुआत हुई। बस, 1966 के बाद फिर उसने कभी कोई प्रेम-कहानी नहीं लिखी। अब वह उम्र से भी बालिग हो गई थी और दिमाग से भी।
1969-70 कलकत्ता में राजनीतिक उथल-पुथल का माहौल था, उन दिनों अखबार में छपी एक छोटी-सी खबर ने उसे इतना परेशान कर दिया कि उसके इर्द-गिर्द एक लंबी कहानी बुनी गई - 'बलवा'। यह कहानी धर्मयुग में धारावाहिक छपी थी, फिर 'घर', 'विरुद्ध', 'युद्धविराम', 'तानाशाही' और 'सात सौ का कोट' भी धर्मयुग में ही छपीं। धर्मयुग में कहानियाँ छपने का अपना बहुत बड़ा सुख था। एक तो कहानी भेजने पर एक सप्ताह के भीतर ही धर्मयुग संपादक डॉ. धर्मवीर भारती की खूबसूरत हैंडराइटिंग में दो-चार पंक्तियों का जो हस्तलिखित पत्र मिलता था, उससे गजब का प्रोत्साहन मिलता था, दूसरा धर्मयुग की मार्फत पाठकों के बेशुमार खत आते थे। 'कहानी' के संपादक श्रीपत राय भी बहुत आत्मीयता से कहानियाँ मँगवाते थे, कहानी की स्वीकृति के साथ-साथ कहानी के बारे में अपनी प्रतिक्रिया भी देते थे। इन खतों से बहुत ऊर्जा मिलती थी। इन कहानियों के साथ-साथ उसका लेखन मेच्योर हो रहा था। वह अपने जीवन की बीती हुई त्रासदी से उबर रही थी और संख्या में हालाँकि कहानियाँ लिखना कम हो गया था पर यह लेखन उसकी व्यक्तिगत त्रासदी से ऊपर उठ कर उसके अपने सीमित दायरे में ही सही, पर सामाजिक सरोकारों को छू रहा था। वह ऐसा समय था जब साहित्य की पहुँच अपेक्षाकृत काफी बड़े समुदाय तक थी। 'सारिका' या 'साप्ताहिक हिंदुस्तान' (जिनमें कहानियों के साथ लेखकों के पते भी छपते थे) में एक कहानी छपने पर पाठकों के खतों का अंबार लग जाता था। उन दिनों कलकत्ता में जहाँ मैं रहती थी, नीलकोठी, संकारी पारा रोड, दिन में चार बार डाक आती थी, हर डाक में खत देखने मैं दिन में चार बार नीचे उतरती थी और लेटरबॉक्स में हाथ डालते ही खतों का जत्था हथेलियों को गर्माहट से भर देता था। साप्ताहिक हिंदुस्तान में प्रकाशित कहानी 'महानगर की मैथिली' कहानी पर करीब ढाई सौ खत आए थे। उस एक कहानी पर आए खतों की अलग फाइल बनाई गई थी। (आज सन 2013 में, यानी चालीस साल बाद, हाल यह है कि 'हंस' या 'कथादेश' में छपी एक कहानी पर अगर दस-बीस खत आ जाएँ तो लगता है, जहे नसीब, कि आपके इतने कद्रदान आज भी हैं जो कलम उठा कर पोस्टकार्ड या अंतर्देशीय पर चंद लाइनें लिखने का वक्त निकाल लेते हैं।)
1968 में दादी की और एक साल बाद दादा की मौत हो गई। वे दोनों अपनी लाडली और नालायक पोती की शादी का सपना आँखों में लिए ही चले गए। माँ का बस एक ही सपना था, मैं लिखूँ, खूब लिखूँ और अपना लिखना कभी न छोड़ूँ। माँ यह नहीं जानती थीं कि मैं किसी भी बात से बहुत जल्दी आहत हो जाती थी और जब भी छोटा-बड़ा कोई भी हादसा होता, मैं अपने भीतर के उस नाजुक हिस्से को, जो लिखता था और जो मेरा सबसे अजीज दोस्त था, सजा देने बैठ जाती थी। माँ मेरा अतिरिक्त खयाल रखने लगी थीं। मेरे न लिखने से माँ परेशान हो जाती थीं। माँ के पेट में अनगिनत बीमारियाँ थीं। 1968 में उनका गॉल ब्लैडर, हर्निया और अपेंडिक्स का एक बड़ा ऑपरेशन होनेवाला था पर वह अगर लिखने में जुटी होती तो माँ अपनी कराहें दबा कर भी पेट पकड़ कर ग्यारह प्राणियों के लिए पीढ़े पर बमुश्किल बैठी रोटियाँ बेल रही होतीं, पर उसे कभी घर का कोई भी काम नहीं कहतीं। (माँ के घर में कभी रसोई में न घुसने का खासा खामियाजा हालाँकि शादी के बाद भुगतना पड़ा।)
यह तो उसे बहुत बहुत बाद में समझ में आया कि माँ क्यों चाहती थीं कि वह लिखे, खूब लिखे, वह सब लिखे जो हर मध्यवर्गीय औरत झेलती है, पर कभी जबान खोल कर कहती नहीं। माँ ने भी अपनी जिंदगी के बारे में कभी कुछ नहीं बताया। मेरे बहुत कोंचने पर भी उनके होंठ भिंचे रहते थे, पर झुकी हुई आँखें और माथे की लकीरें बहुत कुछ कह जाती थीं और मैं कई-कई रातें जाग कर यह कयास लगाती रहती थी कि बहुत कुछ तो मुझे दिखाई भी देता है, समझ में भी आता है, पर उससे आगे और क्या कुछ खौफनाक माँ ने सहा होगा, जिसके बारे में वह इतनी सख्ती से अपने आप को जब्त किए हुए हैं। मेरे बहुत जिद करने पर उन्होंने एक बार बेहद टीसती हुई हँसी के साथ कहा था कि बहुत कुछ जिंदगी में ऐसा भी है जिसके बारे में वह कभी जबान नहीं खोल पाएँगी, लेकिन मुझे हमेशा लगता था कि कभी न कभी वे मेरे सामने अपना सबकुछ उड़ेल देंगी। उस दिन का मुझे इंतजार था। वह दिन कभी नहीं आया।
11 दिसंबर 1999 की रात माँ, कलकत्ता से इतनी दूर मेरे पास आईं भी और अपनी जिंदगी के सारे राज अपने भीतर समेटे हुए बंबई शहर में डॉक्टरों की लापरवाही से अचानक 16 दिसंबर,1999 की सुबह चली गईं - हमेशा के लिए। और मैं इस पूरे एक साल उस अपराधबोध से उबर नहीं पाई। उनके चेहरे का वह आखिरी भाव, वे कस कर भिंचे हुए होंठ, सहनशीलता का वह मूर्तिमान चेहरा मुझे बार-बार यासुनारी कवाबाता की कहानी 'मौत का चेहरा' की याद दिलाता है। माँ के जाने के साथ-साथ मेरे भीतर का एक कोना खाली हो गया था। शायद उसी कोने में उसकी जगह भी थी। उस हिस्से ने भी आँखें मूँद लीं। वह जाने कहाँ गुम हो गया। अभी तो दुबारा हाथ में कलम पकड़ना शुरू ही किया था उसने। बहुत चाह कर भी मैं उसे जिंदा नहीं कर पाई। माँ को खोने के बाद ही मैंने महसूस किया कि आज के इस कदर असंवेदनशील माहौल में माँ का होना मेरे लिए क्या अर्थ रखता था। आज माँ के जाने के बारह बाद यह सब लिख कर मैं माँ को श्रद्धांजलि देते हुए अपनी उस गुमशुदा दोस्त की तलाश कर रही हूँ, जो माँ के बहुत करीब थी और तहेदिल से चाहती हूँ कि वह मुझे मिल जाए क्योंकि माँ का बहुत बड़ा कर्ज है उस पर, जिसे लिख कर और सिर्फ लिख कर ही चुकाया जा सकता है। माँ को अपनी जिंदगी के सारे सपने उसमें साकार करने थे। उसके लेखन में, उसके काम में माँ अपने आप को ढूँढ़ती थी। उसका वह साप्ताहिक कॉलम 'वामा', जो महिलाओं के मुद्दे पर वह 'जनसत्ता' में लिखती थी, माँ को उसकी कहानियों से भी ज्यादा असरदार लगता था। जब 1993 में मैंने 'हेल्प' संस्था में काम शुरू किया, जब भी मैं कलकत्ता जाती, माँ अक्सर औरतों की समस्याएँ और उनकी विस्तृत काउन्सिलिंग का ब्यौरा बहुत ध्यान से सुनतीं, हर औरत की कहानी को अपने तक ला कर उसका सामान्यीकरण करतीं और हमेशा कहतीं कि लिखना अपनी जगह है, पर इस काम को कभी छोड़ना मत!
...पर यह तो बहुत बाद की बात है - तीस साल बाद की। इस बीच तो न जाने कितना पानी सर के ऊपर से गुजर गया।
16 दिसंबर 2000