वो आदमी है मगर, देखने की ताब नहीं
मैंने 1945 में जब किबला (माननीय) को पहले-पहल देखा तो उनका हुलिया ऐसा हो गया था जैसा अब मेरा है लेकिन बात हमारे अलबेले दोस्त बिशारत अली फारूकी के ससुर की है, इसलिए परिचय भी उन्हीं की जबान से ठीक रहेगा। हमने तो बहुत बार सुना, आप भी सुनिए :
वो हमेशा से मेरे कुछ न कुछ लगते थे। जिस जमाने में मेरे ससुर नहीं बने थे तो फूफा हुआ करते थे और फूफा बनने से पहले मैं उन्हें चचा हुजूर कहा करता था। इससे पहले भी वो मेरे कुछ और जुरूर लगते होंगे, मगर उस वक्त मैंने बोलना शुरू नहीं किया था। हमारे यहां मुरादाबाद और कानपुर में रिश्ते-नाते उबली हुई सिवइयों की तरह उलझे और पेच-दर-पेच गुंथे हुए होते हैं।
ऐसा रौद्ररूप, इतने गुस्से वाला आदमी जिंदगी में नहीं देखा। उनकी मृत्यु हुई तो मेरी उम्र, आधी इधर-आधी उधर, चालीस के लगभग तो होगी, लेकिन साहब! जैसा आतंकित मैं उनकी आंखें देख कर छुटपन में होता था, वैसा ही न सिर्फ उनके आखिरी दम तक रहा, बल्कि अपने आखिरी दम तक भी रहूंगा। बड़ी-बड़ी आंखें अपने साकेट से निकली पड़ती थीं -लाल, सुर्ख, ऐसी-वैसी? बिल्कुल कबूतर का खून। लगता था, बड़ी-बड़ी पुतलियों के गिर्द लाल डोरों से अभी खून के फव्वारे छूटने लगेंगे और मेरा मुंह खूनम-खून हो जायेगा। हर वक्त गुस्से में भरे रहते थे। जाने क्यों गाली उनका तकिया-कलाम थी और जो रंग बोलचाल का था, वही लिखायी का भी।
'रख हाथ निकलता है धुआं मग्जे - कलम से'
जाहिर है, कुछ ऐसे लोगों से भी पाला पड़ता था जिन्हें किसी कारण से गाली नहीं दे सकते थे। ऐसे अवसरों पर जबान से तो कुछ न कहते, लेकिन चेहरे पर ऐसा एक्सप्रेशन लाते कि सर से पांव तक गाली नजर आते। किसकी शामत आई थी कि उनकी किसी भी राय से असहमति व्यक्त करता। असहमति तो दर-किनार, अगर कोई व्यक्ति सिर्फ डर के मारे उनसे सहमत होता तो, अपनी राय बदल कर उल्टा उसके सर हो जाते।
अरे साहब! बातचीत तो बाद की बात है, कभी-कभी सिर्फ सलाम से भड़क उठते थे! आप कुछ भी कहें; कैसी ही सच्ची और सामने की बात कहें, वो उसका खंडन जरूर करेंगे। किसी से सहमत होने में अपनी हेठी समझते थे। उनका हर वाक्य 'नहीं' से शुरू होता था। एक दिन कानपुर में कड़ाके की सर्दी पड़ रही थी। मेरे मुंह से निकल गया कि आज बड़ी सर्दी है। बोले 'नहीं, कल इससे जियादा पड़ेगी।'
वो चचा से फूफा बने और फूफा से ससुर, लेकिन मेरी आखिरी वक्त तक निगाह उठा कर बात करने की हिम्मत न हुई। निकाह के वक्त वो काजी के पहलू में थे, काजी ने मुझसे पूछा 'कुबूल है?' उनके सामने मुंह से 'हां' कहने का साहस न हुआ - अपनी ठोड़ी से दो ठोंगें-सी मार दीं, जिन्हें काजी और किबला ने रिश्ते के लिए नाकाफी समझा। किबला कड़क कर बोले, 'लौंडे! बोलता क्यों नहीं?' डांट से मैं नर्वस हो गया। अभी काजी का सवाल पूरा भी नहीं हुआ था कि मैंने 'जी हां! कुबूल है' कह दिया। आवाज एकदम इतने जोर से निकली कि मैं खुद चौंक पड़ा। काजी उछल कर सेहरे में घुस गया, सब लोग खिलखिला कर हंसने लगे। अब किबला इस पर भिन्ना रहे हैं कि इतने जोर की 'हां' से बेटी वालों की हेठी होती है। बस तमाम-उम्र उनका यही हाल रहा, तमाम-उम्र मैं रिश्तेदारी के दर्द और निकटता में घिरा रहा।
हालांकि इकलौती बेटी, बल्कि इकलौती औलाद थी और बीबी को शादी के बड़े अरमान थे, लेकिन किबला ने 'माइयों' के दिन ठीक उस वक्त, जब मेरा रंग निखारने के लिए उबटन मला जा रहा था, कहला भेजा कि दूल्हा मेरी मौजूदगी में अपना मुंह सेहरे से बाहर नहीं निकालेगा। दो सौ कदम पहले सवारी से उतर जायेगा और पैदल चलकर अक्दगाह (निकाह के स्थान) तक आयेगा। अक्दगाह उन्होंने इस तरह कहा जैसे अपने फ़ैज साहब (शाइर फ़ैज अहमद फ़ैज) कत्लगाह का जिक्र करते हैं और सच तो यह है कि उनका आतंक दिल में कुछ ऐसा बैठ गया था कि मुझे छपरखट भी फांसी-घाट लग रहा था। उन्होंने यह शर्त भी लगाई कि बराती पुलाव-जर्दा ठूंसने के बाद यह हरगिज नहीं कहेंगे कि गोश्त कम डाला और शकर ड्योढ़ी नहीं पड़ी। खूब समझ लो, मेरी हवेली के सामने बैंड-बाजा हरगिज नहीं बजेगा और तुम्हें रंडी नचवानी है तो अपने कोठे पर नचवाओ।
किसी जमाने में राजपूतों और अरबों में लड़की की पैदाइश अपशकुन और खुदा के क्रोध की निशानी समझी जाती थी। उनका आत्माभिमान यह कैसे गवारा कर सकता था कि उनके घर बरात चढ़े। दामाद के खौफ से वो लड़की को जिंदा गाड़ आते थे। किबला इस वहशियाना रस्म के खिलाफ थे। वो दामाद को जिंदा गाड़ देने के पक्ष में थे।
चेहरे, चाल और तेवर से शहर के कोतवाल लगते थे। कौन कह सकता था कि बांस मंडी में उनकी इमारती लकड़ी की एक मामूली-सी दुकान है। निकलता हुआ कद। चलते तो कद, सीना और आंखें, तीनों एक साथ निकाल कर चलते थे। अरे साहब क्या पूछते हैं, अव्वल तो उनके चेहरे की तरफ देखने की हिम्मत नहीं होती थी और कभी जी कड़ा करके देख भी लिया तो बस लाल-भभूका आंखें-ही-आंखें नजर आती थीं,
'निगहे - गर्म से इक आग टपकती है असद'
रंग गेहुँआ, जिसे आप उस गेहूं जैसा बताते हैं, जिसे खाते ही हजरत आदम एकदम जन्नत से निकाल दिये गये। जब देखो झल्लाते, तिनतिनाते रहते। मिजाज, जबान और हाथ, किसी पर काबू न था, हमेशा गुस्से से कांपते रहते। इसलिए ईंट, पत्थर, लाठी, गोली, गाली किसी का भी निशाना ठीक नहीं लगता था। गछी-गछी मूंछें, जिन्हें गाली देने से पहले और बाद में ताव देते। आखिरी जमाने में भौंहों को भी बल देने लगे, गठा हुआ कसरती बदन मलमल के कुर्ते से झलकता था। चुनी हुई आस्तीन और उससे भी महीन चुनी हुई दुपलिया टोपी। गर्मियों में खस का इत्र लगाते। कीकरी की सिलाई का चूड़ीदार पाजामा - चूड़ियां इतनी अधिक कि पाजामा नजर नहीं आता था। धोबी उसे अलगनी पर नहीं सुखाता था, अलग बांस पर दस्ताने की तरह चढ़ा देता था। आप रात को दो बजे भी दरवाजा खटखटा कर बुलायें तो चूड़ीदार में ही बाहर निकलेंगे।
वल्लाह! मैं तो यह कल्पना करने का भी साहस नहीं कर सकता कि दाई ने भी उन्हें चूड़ीदार के बगैर देखा होगा। भरी-भरी पिंडलियों पर खूब जंचता था, हाथ के बुने रेशमी नाड़े में चाबियों का गुच्छा छनछनाता रहता था। जो ताले बरसों पहले बेकार हो गये थे, उनकी चाबियां भी इसी गुच्छे में सुरक्षित थीं। हद यह कि उस ताले की भी चाबी थी, जो पांच साल पहले चोरी हो गया था। मुहल्ले में इस चोरी की बरसों चर्चा रही, इसलिए कि चोर सिर्फ ताला, पहरा देने वाला कुत्ता और वंशावली चुरा कर ले गया। कहते थे कि इतनी जलील चोरी सिर्फ कोई रिश्तेदार ही कर सकता है। आखिरी जमाने में यह इजारबंदी गुच्छा बहुत वज्नी हो गया था और मौका-बेमौका फिल्मी गीत के बाजूबंद की तरह खुल-खुल जाता। कभी भावातिरेक में झुककर किसी से हाथ मिलाते तो दूसरे हाथ से इजारबंद थामते। मई-जून में टेंप्रेचर बहुत हो जाता और मुंह पर लू के थप्पड़ से पड़ने लगते तो पाजामे से एयर कंडीशनिंग कर लेते। मतलब यह कि चूड़ियों को घुटनों-घुटनों पानी से भिगो कर, सर पर अंगोछा डाले तरबूज खाते। खस की टट्टी और ठंडा पानी कहां से लाते। इसके मुहताज भी न थे। कितनी ही गर्मी पड़े, दुकान बंद नहीं करते थे, कहते थे, मियां! यह तो बिजनेस है, पेट का धंधा है, जब चमड़े की झोपड़ी में आग लगी रही हो तो क्या गर्मी, क्या सर्दी लेकिन ऐसे में कोई शामत का मारा ग्राहक आ निकले तो बुरा-भला कहकर भगा देते थे। इसके बावजूद वो खिंचा-खिंचा दुबारा उन्हीं के पास आता था, इसलिए कि जैसी उम्दा लकड़ी वो बेचते थे, वैसी सारे कानपुर में कहीं नहीं मिलती थी। फर्माते थे, दागी लकड़ी बंदे ने आज तक नहीं बेची, लकड़ी और दागी! दाग तो दो-ही चीजों पर सजता है, दिल और जवानी।
शब्द के लच्छन और बाजारी पान
तंबाकू, किवाम, खरबूजे और कढ़े हुए कुर्ते लखनऊ से, हुक्का मुरादाबाद और ताले अलीगढ़ से मंगवाते थे। हलवा सोहन और डिप्टी नजीर अहमद वाले मुहावरे दिल्ली से। दांत गिरने के बाद सिर्फ मुहावरों पर गुजारा था।
गालियां अलबत्ता स्थानीय बल्कि खुद की गढ़ी हुई देते, जिनमें रवानी पायी जाती थी। सलीम शाही जूतियां और चुनरी आपके जयपुर से मंगवाते थे। साहब! आपका राजस्थान भी खूब था, क्या-क्या उपहार गिनवाये थे उस दिन आपने खांड, सांड, भांड और रांड। यह भी खूब रही कि मारवाड़ियों को जिस चीज पर भी प्यार आता है उसके नाम में ठ, ड और ड़, लगा देते हैं मगर यह बात आपने अजीब बतायी कि राजस्थान में रांड का मतलब खूबसूरत औरत होता है। मारवाड़ी भाषा में सचमुच की विधवा के लिए भी कोई शब्द है कि नहीं लेकिन यह भी ठीक है कि सौ-सवा-सौ साल पहले तक रंडी का मतलब सिर्फ औरत होता था, जबसे मर्दों की नीयतें खराब हुईं, इस शब्द के लच्छन भी बिगड़ गये।
साहब! राजस्थान के तीन तुहफों के तो हम भी कायल और घायल हैं। मीराबाई, मेंहदी हसन और रेशमा। हां! तो मैं कह यह रहा था कि बाहर निकलते तो हाथ में पान की डिबिया और बटुवा रहता। बाजार का पान हरगिज नहीं खाते थे। कहते थे बाजारी पान सिर्फ रंडवे, ताक-झांक करने वाले और बंबई वाले खाते हैं। साहब! यह रखरखाव और परहेज मैंने उन्हीं से सीखा। डिबिया चांदी की, नक्शीन (बेल-बूटे बने हुए) भारी, ठोस। इसमें जगह-जगह डेंट नजर आते थे जो इंसानी सरों से टकराने की वज्ह से पड़े थे। गुस्से में अक्सर पानों भरी डिबिया फेंक के मारते। बड़ी देर तक तो यह पता ही नहीं चलता था कि घायल होने वालों के सर और चेहरे से खून निकल रहा है या बिखरे पानों की लाली ने गलत जगह रंग जमाया है। बटुवे खास-तौर से आपके जन्म-स्थान, टोंक से मंगवाते थे। कहते थे कि वहां के पटवे ऐसे डोरे डालते हैं कि इक जरा घुंडी को झूठों हाथ लगा दो तो बटुआ आप-ही-आप जी-हुजूर लोगों की बांछों की तरह खिलता चला जाता है। गुटका भोपाल से आता था, लेकिन खुद नहीं खाते थे। कहते थे, मीठा पान, ठुमरी, गुटका और नावेल, ये सब नाबालिगों के व्यसन हैं। शायरी से कोई खास दिलचस्पी न थी। रदीफ-काफिये से आजाद शायरी से खास-तौर पर चिढ़ते थे। यूं उर्दू-फारसी के जितने भी शेर लकड़ी, आग, धुएं, हेकड़ी, लड़-मरने, नाकामी और झगड़े के बारे में हैं, सब याद कर रखे थे। स्थिति कभी काबू से बाहर हो जाती तो शायरी से उसका बचाव करते। आखिरी जमाने में एकांतप्रिय इंसानों से हो गये थे और सिर्फ दुश्मनों के जनाजे को कंधा देने के लिए बाहर निकलते थे। खुद को कासनी और बीबी को मोतिया रंग पसंद था। अचकन हमेशा मोतिया रंग के टसर की पहनी।
वाह क्या बात कोरे बर्तन की
बिशारत की जबानी परिचय खत्म हुआ। अब कुछ मेरी, कुछ उनकी जबानी सुनिए और रही-सही आम लोगों की जबान से, जिसे कोई नहीं पकड़ सकता। कानपुर में पहले बांसमंडी और फिर कोपरगंज में किबला की लकड़ी की दुकान थी। इसी को आप उनका रोटी-रोजी कमाने और लोगों को सताने का साधन कह सकते हैं। थोड़ी-बहुत जलाने की लकड़ी भी रखते थे मगर उसे लकड़ी नहीं कहते। उनकी दुकान को अगर कभी कोई टाल कह देता तो दो सेरी लेकर दौड़ते। जवानी में पंसेरी लेकर दौड़ते थे। तमाम उम्र पत्थर के बाट इस्तेमाल किये। फर्माते थे कि लोहे के फिरंगी बाट बेबरकत होते हैं। इन देसी बाटों को बाजुओं में भर-के, सीने से लगा-के उठाना पड़ता है। कभी किसी को यह साहस नहीं हुआ कि उनके पत्थर के बाटों को तुलवा कर देख ले। किसकी बुरी घड़ी आयी थी कि उनकी दी हुई रकम या लौटायी हुई रेजगारी को गिन कर देखे। उस समय में, यानी इस सदी की तीसरी दहाई में इमारती लकड़ी की खपत बहुत कम थी। साल और चीड़ का रिवाज आम था। बहुत हुआ तो चौखट और दरवाजे शीशम के बनवा लिए। सागवान तो सिर्फ अमीरों और रईसों की डाइनिंग टेबल और गोरों के ताबूत में इस्तेमाल होती थी। फर्नीचर होता ही कहां था। भले घरों में फर्नीचर के नाम पर सिर्फ चारपाई होती थी। जहां तक हमें याद पड़ता है, उन दिनों कुर्सी सिर्फ दो अवसरों पर निकाली जाती थी। एक तो जब हकीम, वैद्य, होम्योपैथ, पीर, फकीर और सयानों से मायूस हो कर डाक्टर को घर बुलाया जाता था। उस पर बैठ कर वो जगह-जगह स्टेथेस्कोप लगा कर देखता कि मरीज और मौत के बीच जो खाई थी, उसे इन महानुभावों ने अपनी दवाओं और तावीज, गंडों से किस हद तक पाटा है। उस समय का दस्तूर था कि जिस घर में मुसम्मी या महीन लकड़ी की पिटारी में रुई में रखे हुए पांच अंगूर आयें या सोला-हैट पहने डाक्टर और उसके आगे-आगे हटो-बचो करता हुआ तीमारदार उसका चमड़े का बैग उठाये आये तो पड़ोस वाले जल्दी-जल्दी खाना खा कर खुद को शोक व्यक्त करने और कंधा देने के लिए तैयार कर लेते थे। सच तो यह है कि डाक्टर को सिर्फ उस अवस्था में बुला कर इस कुर्सी पर बिठाया जाता था, जब वह स्थिति पैदा हो जाये जिसमें दो हजार साल पहले लोग ईसा मसीह को आजमाते थे। कुर्सी के इस्तेमाल का दूसरा और आखिरी अवसर हमारे यहां खत्ने (लिंग की खाल काटना) के अवसर पर आता था, जब लड़कों को दूल्हा की तरह सजा, बना और मिट्टी का खिलौना हाथ में दे कर इस कुर्सी पर बिठा दिया जाता था। इस जल्लादी कुर्सी को देखकर अच्छे-अच्छों की घिग्घी बंध जाती थी। गरीबों में इस काम के लिए भाट या लंबे-वाले कोरे मटके को उल्टा करके लाल कपड़ा डाल देते थे।
चारपाई
सच तो यह है कि जहां चारपाई हो, वहां किसी फर्नीचर की जरूरत, न गुंजाइश, न तुक। इंग्लैंड का मौसम अगर इतना जलील न होता और अंग्रेजों ने वक्त पर चारपाई का आविष्कार कर लिया होता तो न सिर्फ ये कि वो मौजूदा फर्नीचर की खखेड़ से बच जाते, बल्कि फिर आरामदेह चारपाई छोड़ कर उपनिवेश बनाने की खातिर घर से बाहर निकलने को भी उनका दिल न चाहता। 'ओवरवर्क्ड' सूरज भी उनके साम्राज्य पर एक सदी तक हर वक्त चमकते रहने की ड्यूटी से बच जाता। कम से कम आजकल के हालात में अटवाटी-खटवाटी लेकर पड़े रहने के लिए उनके घर में कोई ढंग की चीज तो होती। हमने एक दिन प्रोफेसर काजी अब्दुल कुद्दूस, एम.ए.,बी.टी. से कहा कि आपके कथनानुसार सारी चीजें अंग्रेजों ने आविष्कृत की हैं, सुविधा-भोगी और बेहद प्रैक्टिकल लोग हैं - हैरत है कि चारपाई इस्तेमाल नहीं करते! बोले, अदवान कसने से जान चुराते हैं। हमारे खयाल में एक बुनियादी फर्क जह्न में जुरूर रखना चाहिए, वो ये कि यूरोपियन फर्नीचर सिर्फ बैठने के लिए होता है, जबकि हम किसी ऐसी चीज पर बैठते ही नहीं, जिस पर लेट न सकें। मिसाल में दरी, गदैले, कालीन, जाजिम, चांदनी, चारपाई, माशूक की गली और दिलदार के पहलू को पेश किया जा सकता है। एक चीज हमारे यहां अलबत्ता ऐसी थी जिसे सिर्फ बैठने के लिए इस्तेमाल किया जाता था। उसे हुक्मरानों का तख्त कहते थे, लेकिन जब उन्हें उसी पर लटका कर, फिर नहला दिया जाता तो यह तख्ता कहलाता था और इस काम को तख्ता उलटना कहते थे।
स्टेशन, लकड़मंडी और बाजारे - हुस्न में बिजोग
मकसद इस भूमिका का ये है कि जहां चारपाई का चलन हो वहां फर्नीचर का बिजनेस पनप नहीं सकता। अब इसे इमारती लकड़ी कहिए या कुछ और, धंधा इसका भी हमेशा मंदा ही रहता था कि दुकानों की तादाद ग्राहकों से जियादा थी। इसलिए कोई भी ऐसा नजर आ जाये तो हुलिए और चाल-ढाल से जरा भी ग्राहक मालूम हो तो लकड़मंडी के दुकानदार उस पर टूट पड़ते। जियादातर ग्राहक आस-पास के देहाती होते जो जिंदगी में पहली और आखिरी बार लकड़ी खरीदने कानपुर आते थे। इन बेचारों का लकड़ी से दो ही बार वास्ता पड़ता था। एक, अपना घर बनाते समय; दूसरे अपना क्रिया कर्म करवाते समय।
पाकिस्तान बनने से पहले जिन पाठकों ने दिल्ली या लाहौर के रेलवे स्टेशन का नक्शा देखा है, वो इस छीना-झपटी का बखूबी अंदाजा कर सकते हैं। 1945 में हमने देखा कि दिल्ली से लाहौर आने वाली ट्रेन के रुकते ही जैसे ही मुसाफिर ने अपने जिस्म का कोई हिस्सा दरवाजे या खिड़की से बाहर निकाला, कुली ने उसी को मजबूती से पकड़ कर पूरे मुसाफिर को हथेली पर रखा और हवा में उठा लिया और उठाकर प्लेटफार्म पर किसी सुराही या हुक्के की चिलम पर बिठा दिया लेकिन जो मुसाफिर दूसरे मुसाफिरों के धक्के से खुद-ब-खुद डिब्बे से बाहर निकल पड़े उनका हाल वैसा ही हुआ जैसा उर्दू की किसी नई-नवेली किताब का आलोचकों के हाथ होता है। जो चीज जितनी भी, जिसके हाथ लगी सर पर रख-कर हवा हो गया। दूसरे चरण में मुसाफिर पर होटलों के दलाल और एजेंट टूट पड़ते। सफेद कोट-पतलून, सफेद कमीज, सफेद रूमाल, सफेद कैनवस के जूते, सफेद मोछो, सफेद दांत मगर इसके बावजूद मुहम्मद हुसैन आजाद (19वीं शताब्दी के महान लेखक) के शब्दों में हम ये नहीं कह सकते कि चमेली का ढेर पड़ा हंस रहा है। उनकी हर चीज सफेद और उजली होती, सिवाय चेहरे के। हंसते तो मालूम होता तवा हंस रहा है। ये मुसाफिर पर इस तरह गिरते जैसे इंग्लैंड में रग्बी की गेंद और एक-दूसरे पर खिलाड़ी गिरते हैं। उनके इन तमाम प्रयत्नों का मकसद खुद कुछ पाना नहीं, बल्कि दूसरों को पाने से दूर रखना होता था। मुसलमान दलाल तुर्की टोपी से पहचाने जाते। वो दिल्ली और यू.पी. से आने वाले मुसलमान मुसाफिरों को टोंटीदार लोटे, पर्दादार औरतों, बहुत-से बच्चों और कीमे-परांठे के भबके से पहचान लेते और अस्सलामो-अलैकुम कहकर लिपट जाते। मुसलमान मुसाफिरों के साथ सिर्फ मुसलमान दलाल ही धींगा-मुश्ती कर सकते थे। (जिस दलाल का हाथ मुसाफिर के कपड़ों के सब से मजबूत हिस्से पर पड़ता वो वहीं से उसे घसीटता हुआ बाहर ले आता। जिनका हाथ लिबास के कमजोर या फटे-गले पुराने हिस्से पर पड़ता, वो बाद में उसको रूमाल की तरह इस्तेमाल करते।) अर्धनग्न मुसाफिर कदम-कदम पर अपने बाकी कपड़े भी उतरवाने पर मजबूर होता। स्टेशन के बाहर कदम रखता तो असंख्य पहलवान, जिन्होंने अखाड़े को नाकाफी पाकर तांगा चलाने का पेशा अपना लिया था, खुद को उस पर छोड़ देते। अगर मुसाफिर के तन पर कोई चीथड़ा संयोग से बच रहा होता तो उसे भी नोच कर तांगे की पिछली सीट पर रामचंद्र जी की खड़ाऊं की तरह सजा देते, अगर किसी के चूड़ीदार के नाड़े का सिरा तांगे वाले के हाथ लग जाता तो वो गरीब गांठ पे हाथ रखे उसी में बंधा चला आता। कोई मुसाफिर का दामन आगे से खींचता, कोई पीछे से फाड़ता।
अंतिम राउंड में एक तगड़ा-सा तांगे वाला सवारी का दायां हाथ और दूसरा मुस्टंडा उसका बायां हाथ पकड़ कर Tug of War खेलने लगते लेकिन इससे पहले कि दोनों दावेदार अपने-अपने हिस्से की रान और हाथ उखाड़ कर ले जायें, एक तीसरा फुर्तीला तांगे वाला टांगों के चिरे हुए चिमटे के नीचे बैठ कर मुसाफिर को एकाएक अपने कंधों पर उठा लेता और तांगे में जोतकर हवा हो जाता।
लगभग यही नक्शा कोपरगंज की लकड़मंडी का हुआ करता था जिसके बीच में किबला की दुकान थी। गोदाम आम-तौर पर दुकान से ही जुड़े हुए पीछे होते थे। ग्राहक पकड़ने के लिए किबला और दो-तीन चिड़ीमार दुकानदारों ने ये किया कि दुकानों के बाहर सड़क पर लकड़ी के छोटे-छोटे केबिन बना लिए। किबला का केबिन मसनद, तकिये, हुक्के, उगालदान और स्प्रिंग से खुलने वाले चाकू से सजा हुआ था। केबिन जैसे एक तरह का मचान था, जहां से वो ग्राहक को मार गिराते थे, फिर उसे चूम-पुचकार कर अंदर ले जाया जाता, जहां कोशिश यह होती थी खाली-हाथ और भरी-जेब वापस न जाने पाये।
जैसे ही कोई व्यक्ति जो अंदाजे से ग्राहक लगता, सामने से गुजरता तो दूर और नजदीक के दुकानदार उसे हाथ के इशारे से या आवाज देकर बुलाते : 'महाराज! महाराज!' इन महाराजों को दूसरे दुकानदारों के पंजे से छुड़ाने और खुद घसीटकर अपनी कछार में ले जाने के दौरान अक्सर उनकी पगड़ियां खुल कर पैरों में उलझ जातीं। इस सिलसिले में आपस में इतने झगड़े और हाथापाई हो चुकी थी कि मंडी के तमाम व्यापारियों ने पंचायती फैसला किया कि ग्राहक को सिर्फ वही दुकानदार आवाज देकर बुलायेगा, जिसकी दुकान के सामने से वो गुजर रहा हो, लेकिन जैसे ही वह किसी दूसरे दुकानदार के आक्रमण-क्षेत्र में दाखिल होगा तो उसे कोई और दुकानदार हरगिज आवाज न देगा। इसके बावजूद छीना-झपटी और कुश्तम-पछाड़ बढ़ती ही गई तो हर दुकान के आगे चूने से हदबंदी की लाइन खींच दी गई। इससे यह फर्क पड़ा कि कुश्ती बंद हो गई और कबड्डी होने लगी। कुछ दुकानदारों ने मार-पीट, ग्राहकों का हांका और उन्हें डंडा-डोली करके अंदर लाने के लिए बिगड़े पहलवान और शहर के छंटे हुए शुहदे और मुस्टंडे पार्ट-टाइम नौकरी पर रख लिये थे। आर्थिक मंदी अपनी चरम-सीमा तक पहुंची हुई थी। यह लोग दिन में लकड़-मंडी के ग्राहकों को डरा-धमका कर खराब और कंडम माल खरीदवाते और रात को यही फर्ज बाजारे-हुस्न में अंजाम देते। बहुत-सी तवायफों ने हर रात अपनी आबरू को जियादा से जियादा असुरक्षित रखने के उद्देश्य से इनको बतौर 'पिंप' नौकर रख छोड़ा था। किबला ने इस किस्म का कोई गुंडा या कुचरित्र पहलवान नौकर नहीं रखा, उन्हें अपने हाथों की ताकत पर पूरा भरोसा था लेकिन औरों की तरह माल की चिराई-कटाई में मार-कुटाई का खर्चा भी शामिल कर लेते थे।
खून निकालने के तरीके : जोंक, सींगी, लाठी
हर वक्त क्रोधावस्था में रहते थे। सोने से पहले ऐसा मूड बना कर लेटते कि आंख खुलते ही, गुस्सा करने में आसानी हो। माथे के तीन बल सोते में भी नहीं मिटते थे। गुस्से की सबसे खालिस किस्म वह होती है जो किसी बहाने की मुहताज न हो या किसी बहुत ही मामूली सी बात पर आ जाये। गुस्से के आखिर होते-होते यह भी याद नहीं रहता था कि आया किस बात पर था। बीबी उनको रोजा नहीं रखने देती थीं। यह शायद 1935 की बात है। एक दिन-रात की नमाज के बाद गिड़गिड़ा-गिड़गिड़ा कर अपनी पुरानी परेशानियां दूर होने की दुआएँ मांग रहे थे कि एक ताजा परेशानी का खयाल आते ही एकदम क्रोध आ गया। दुआ में ही कहने लगे कि तूने मेरी पुरानी परेशानियां ही कौन-सी दूर कर दीं, जो अब यह नई परेशानी दूर करेगा। उस रात मुसल्ला (नमाज पढ़ने की चादर) तह करने के बाद फिर कभी नमाज नहीं पढ़ी।
उनके गुस्से पर याद आया कि उस जमाने में कनमैलिए मुहल्लों, बाजारों में फेरी लगाते थे। कान का मैल निकालना ही क्या, दुनिया जहान के काम घर बैठे हो जाते थे। सब्जी, गोश्त और सौदा-सुलुफ की खरीदारी, हजामत, तालीम, प्रसव, पीढ़ी, खट-खटोले की-यहां तक कि खुद अपनी मरम्मत भी घर बैठे हो जाती। बीबियों के नाखून निहन्नी से काटने और पीठ मलने के लिए नाइनें घर आती थीं। कपड़े भी मुगलानियां घर आकर सीती थीं ताकि किसी को नाप तक की हवा न लगे। हालांकि उस समय के जनाना कपड़ों के जो नमूने हमारी नजर से गुजरे हैं वो ऐसे होते थे कि किसी बड़े लेटर-बक्स का नाप लेकर सिये जा सकते थे। मतलब ये कि सब काम घर ही में हो जाते थे। हद यह कि मौत तक घर में घटित होती थी। इसके लिए बाहर जा कर किसी ट्रक से अपनी आत्मा निकलवाने की जुरूरत नहीं पड़ती थी। खून की खराबी से किसी के बार-बार फोड़े-फुंसी निकलें, या दिमाग में बुरे खयालात की भीड़ दिन-दहाड़े भी रहने लगे तो घर पर ही फस्द (रगों से खून निकलवाना) खोल दी जाती थी। अधिक और खराब खून निकलवाने के उद्देश्य से अपना सर फुड़वाने या फोड़ने के लिए किसी राजनैतिक जलसे में जाने या सरकार के खिलाफ प्रदर्शन करके लाठी खाने की जुरूरत नहीं पड़ती थी। उस जमाने में लाठी को खून निकालने के हथियार के तौर पर इस्तेमाल नहीं किया जाता था। जोंक और सींगी लगाने वाली कंजरियां रोज फेरी लगाती थीं, अगर उस समय के किसी हकीम का हाथ आजकल के नौजवानों की नब्ज पर पड़ जाये तो कोई नौजवान ऐसा न बचे जिसके जहां-तहां सींगी लगी नजर न आये। रहे हम जैसे आजकल के बुजुर्ग कि
'की जिससे बात उसको हिदायत जुरूर की'
तो! कोई बुजुर्ग ऐसा न बचेगा, जिसकी जबान पर हकीम लोग जोंक न लगवा दें।
हम किस्सा यह बयान करने चले थे कि गर्मियों के दिन थे। किबला कोरमा और खरबूजा खाने के बाद केबिन में झपकी ले रहे थे कि अचानक कनमैलिए ने केबिन के दरवाजे पर बड़ी जोर से आवाज लगाई - 'कान का मैल'। खुदा जाने मीठी-नींद सो रहे थे या कोई बहुत-ही हसीन ख्वाब देख रहे थे, हड़बड़ा कर उठ बैठे। एक बार तो दहल गये। चिक के पास पड़ी हुई लकड़ी उठा कर उसके पीछे हो लिये। कमीने की यह हिम्मत कि उनके कान से सिर्फ गज भर दूर, बल्कि पास, ऐसी बेतमीजी से चीखे। यह कहना तो ठीक न होगा कि आगे-आगे वो और पीछे-पीछे ये, इसलिए कि किबला गुस्से में ऐसे भरे हुए थे कि कभी-कभी उससे आगे भी निकल जाते थे। सड़क पर कुछ दूर भागने के बाद कनमैलिया गलियों में निकल गया और आंखों से ओझल हो गया, मगर किबला सिर्फ अपनी छठी-इंद्रिय की बतायी हुई दिशा में दौड़ते रहे, और यह वो दिशा थी जिस तरफ कोई व्यक्ति, जिसकी पांचों इंद्रियां सलामत हों, हमला करने के चक्कर में लाठी घुमाता हरगिज न जाता कि ये थाने की तरफ जाती थी। इस वहशियाना दौड़ में किबला की लकड़ी और कनमैलिए का पग्गड़, जिसके हर पेच में उसने मैल निकालने के औजार उड़स रखे थे, जमीन पर गिर गया। उसमें से एक डिबिया भी निकली, जिसमें उसने कान का मैल जमा कर रखा था। नजर बचा कर उसी में से तोला भर मैल निकाल कर दिखा देता कि देखो तुम्हारे कान में जो भिन-भिन, तिन-तिन, की आवाजें आ रही थीं वो इन्हीं की थीं। लेकिन यह सच है कि वो कान की भूलभुलैयों में इतनी दूर तक सहज-सहज सलाई डालता चला जाता कि महसूस होता - अभी कान के रास्ते आंतें भी निकाल कर हथेली पर रख देगा। किबला ने इस पग्गड़ को बल्ली पर चढ़ा कर बल्ली अपने केबिन के सामने इस तरह गाड़ दी, जिस तरह पहले समय में कोई बेसब्र उत्तराधिकारी शहजादा या वो न हो तो फिर कोई दुश्मन, बादशाह सलामत का सर काट कर भाले पर हर खासो-आम की सूचना के लिए उठा देता था। इसका डर ऐसा बैठा कि दुकान के सामने से बढ़ई, खटबुने, सींगी लगाने वालियों और सहरी (रमजान के महीने में सूरज निकलने से पहले खाया जाने-वाला खाना) के लिए जगाने वालों ने भी निकलना छोड़ दिया। पड़ोस की मस्जिद का बुरी आवाज वाला मुअज्जिन (अजान देने वाला) भी पीछे वाली गली से आने जाने लगा।
कांसे की लुटिया, बाली उमरिया और चुग्गी दाढ़ी
किबला अपना माल बड़ी तवज्जो, मेहनत और मुहब्बत से दिखाते थे। मुहब्बत की बढ़ोत्तरी हमने इसलिए की कि वो ग्राहक को तो शेर की नजर से देखते थे मगर अपनी लकड़ी पर मुहब्बत से हाथ फेरते रहते थे। कोई सागौन का तख्ता ऐसा नहीं था, जिसके रेशों का जाल और रगों का तुगरा, (अरबी लिपि में पेचीदा मगर सुंदर लिखाई) अगर वो चाहें तो याददाश्त से कागज पर न बना सकते हों। लकड़मंडी में वो अकेले दुकानदार थे जो ग्राहक को अपनी और हर शहतीर-बल्ली की वंशावली याद करा देते थे। उनकी अपनी वंशावली बल्ली से भी जियादा लंबी थी। उस पर अपने परदादा को टांग रखा था। एक बल्ली की लंबाई की तरफ इशारा करते हुए कहते, सवा उनतालीस फुट लंबी है। गोंडा की है। अफसोस, असगर गोंडवी की शायरी ने गोंडा की बल्लियों की प्रसिद्धि का बेड़ा गर्क कर दिया। लाख कहो, अब किसी को यकीन नहीं आता कि गोंडा की प्रसिद्धि की अस्ल वज्ह खूबसूरत बल्लियां थीं। असगर गोंडवी से पहले ऐसी सीधी बेगांठ बल्ली मिलती थी कि चालीस फुट ऊंचे सिरे पर से छल्ला छोड़ दो तो बेरोक सीधा नीचे झन्न से आ कर ठहरता था। एक बार हाजी मुहम्मद इसहाक चमड़े-वाले, शीशम खरीदने आये। किबला यूं तो हर लकड़ी की प्रशंसा में जमीन-आसमान एक कर देते थे, लेकिन शीशम पर सचमुच फिदा थे। अक्सर फर्माते, तख्ते-ताऊस में शाहजहां ने शीशम ही लगवायी थी। शीशम के गुणग्राहक और कद्रदान तो कब्र में जा सोये, मगर क्या बात है शीशम की। जितना इस्तेमाल करो, उतनी ही खूबियां निखरती हैं। शीशम की जिस चारपाई पर मैं पैदा हुआ, उसी पर दादा मियां ने जन्म लिया था और इस इत्तफाक को वो चारपाई और दादाजान दोनों के लिए मान और सम्मान का कारण समझते थे। हाजी मुहम्मद इसहाक बोले, 'ये लकड़ी तो साफ मालूम नहीं होती।' किबला न जाने कितने बरसों बाद मुस्कुराये। हाजी साहब की दाढ़ी को टकटकी बांध कर देखते हुए बोले, 'यह बात हमने शीशम की लकड़ी, कांसे की लुटिया, बाली-उमरिया, और चुग्गी-दाढ़ी में ही देखी कि जितना हाथ फेरो उतनी ही चमकती है। बढ़िया क्वालिटी की शीशम की पहचान ये है कि आरा, रंदा, बरमा सब खुंडे और हाथ पत्थर हो जायें। यह चीड़ थोड़े ही हैं कि एक जरा कील ठोंको तो 'अलिफ' (उर्दू वर्णमाला का पहला अक्षर) से लेकर 'ये' (अंतिम अक्षर) तक चिर जाये। पर एक बात है कि ताजा कटी हुई चीड़ से जंगल की महक का एक झरना फूट पड़ता है। लगता है इसमें नहाया जा रहा हूं। जिस दिन कारखाने में चीड़ की कटाई होने वाली हो, उस दिन मैं इत्र लगा के नहीं आता।'
किबला का मूड बदला तो हाजी इसहाक की हिम्मत बंधी। कहने लगे, इसमें शक नहीं कि ये शीशम तो सबसे अच्छी मालूम होती है मगर सीजंड (Seasoned) नहीं लगती। किबला के तो आग ही लग गई। कहने लगे, 'सीजंड! कितना भूखा रहने के बाद सीखा है यह शब्द? सीजंड सामने वाली मस्जिद का, मय्यत को नहलाने वाला तख्ता है। बड़ा पानी पिया है उसने! लाऊं? उसी पे लिटा दूंगा।'
यूं तो उनकी जिंदगी डेल कार्नेगी के हर सिद्धांत की शुरु से आखिर तक अत्यधिक कामयाब अवहेलना थी, लेकिन बिजनेस में उन्होंने अपने हथकंडे अलग आविष्कार कर रखे थे। ग्राहक से जब तक यह न कहलवा लें कि लकड़ी पसंद है, उसकी कीमत नहीं बताते थे। वो पूछता भी तो साफ टाल जाते, 'आप भी कमाल करते हैं, आपको लकड़ी पसंद है, ले जाइए, घर की बात है।' ग्राहक जब पूरी तरह लकड़ी पसंद कर लेता तो किबला कीमत बताये बगैर हाथ फैला कर बयाना तलब करते। सस्ता जमाना था वो दुअन्नी या चवन्नी का बयाना पेश करता जो इस सौदे के लिए काफी होता। इशारे से दुत्कारते हुए कहते, चांदी दिखाओ। (यानी कम-से-कम एक कलदार रुपया निकालो।) वो बेचारा शर्मा-हुजूरी एक रुपया निकालता जो उस जमाने में पंद्रह सेर गेहूं या सेर-भर अस्ली घी के बराबर होता तो, किबला रुपया लेकर अपनी हथेली पर इस तरह रखते कि उसे तसल्ली के लिए नजर तो आता रहे, मगर झपट्टा न मार सके। हथेली को अपने जियादा करीब भी न लाते, कहीं ऐसा न हो कि सौदा पटने से पहले ही ग्राहक बिदक जाये। कुछ देर बाद खुद-ब-खुद कहते 'मुबारक हो! सौदा पक्का हो गया।' फिर कीमत बताते, जिसे सुन कर वो हक्का-बक्का रह जाता। वो कीमत पर हुज्जत करता, तो कहते 'अजीब घनचक्कर हो। बयाना दे के फिरते हो। अभी रुपया दे के सौदा पक्का किया है। अभी तो इसमें से तुम्हारे हाथ की गर्मी भी नहीं गई और अभी फिर गये। अच्छा कह दो कि यह रुपया तुम्हारा नहीं है। कहो! कहो! कीमत नाप-तौल कर ऐसी बताते कि काइयां से काइयां ग्राहक भी दुविधा में पड़ जाये और यह फैसला न कर सके कि पेशगी डूबने में जियादा नुकसान है या इस भाव लकड़ी खरीदने में।
हुज्जत के दौरान कितनी ही गर्मी बल्कि हाथापाई हो जाये वो अपनी हथेली को चित ही रखते। मुट्ठी कभी बंद नहीं करते थे ताकि जलील होते हुए ग्राहक को यह संतुष्टि रहे कि कम-से-कम बयाना तो सुरक्षित है। उनके बारे में एक किस्सा मशहूर था कि एक सरफिरे ग्राहक से झगड़ा हुआ तो धोबी-पाट का दांव लगा कर जमीन पर दे मारा और जती पर चढ़ कर बैठ गये लेकिन इस पोज में भी अपनी हथेली जिस पर रुपया रखा था, चित ही रखी ताकि उसे ये बदगुमानी न हो कि रुपया हथियाना चाहते हैं।
लेकिन इसमें शक नहीं कि जैसी बेदाग और बढ़िया लकड़ी वो बेचते थे, वैसी उनके कहे-अनुसार, 'बागे-बहिश्त में शाखे-तूबा (जन्नत का एक खूश्बूदार पेड़) से भी प्राप्त न होगी। दागी लकड़ी बंदे ने आज तक नहीं बेची। सौ साल बाद भी दीमक लग जाये तो पूरे दाम वापस कर दूंगा।' बात दरअस्ल ये थी कि वो अपने उसूल के पक्के थे। मतलब यह कि तमाम उम्र 'ऊंची-दुकान, सही-माल, गलत-दाम,' पर सख्ती से कायम रहे। सुना है कि दुनिया के सबसे बड़े फैशनेबल स्टोर हेरड्ज का दावा है कि हमारे यहां सूई से लेकर हाथी तक हर चीज मिलती है। कहने वाले कहते हैं कि कीमत भी दोनों की एक ही होती है। हेरड्ज अगर लकड़ी बेचता तो खुदा की कसम ऐसी ही और इन ही दामों बेचता।
ये छोड़ कर आये है
कानपुर से उजड़ के कराची आये तो दुनिया ही और थी। अजनबी माहौल, बेरोजगारी, सबसे बढ़कर बेघरी अपनी पुरखों की हवेली के दस-बारह फोटो खिंचवा लाये थे। 'जरा यह साइड पोज देखिए, और यह शाट तो कमाल का है।' हर आये-गये को फोटो दिखा कर कहते, 'यह छोड़ कर आये हैं।' जिन दफ्तरों में मकान के एलॉटमेंट के प्रार्थना-पत्र दिये थे, उनके बड़े अफसरों को भी कटघरे के इस पार से तस्वीरी प्रमाण दिखाते 'यह छोड़ कर आये हैं।' वास्कट और शेरवानी की जेब में और कुछ हो या न हो, हवेली का फोटो जुरूर होता था। अस्ल में यह उनका विजिटिंग-कार्ड था। कराची के फ्लैटों को कभी माचिस की डिब्बियां, कभी दड़बे, कभी काबुक कहते। लेकिन जब तीन महीने जूतियां चटखाने के बावजूद एक काबुक में भी सर छुपाने को जगह नहीं मिली तो आंखें खुलीं। दोस्तों ने समझाया, 'फ्लैट एक घंटे में मिल सकता है, कस्टोडियन की हथेली पर पैसा रखो और जिस फ्लैट की चाहो, चाबी ले लो।' मगर किबला तो अपनी हथेली पर पैसा रखवाने के आदी थे, वो कहां मानते। महीनों फ्लैट एलॉट करवाने के सिलसिले में भूखे-प्यासे, परेशान-हाल सरकारी दफ्तरों के चक्कर काटते रहे। जिंदगी भर किसी के मेहमान न रहे थे। अब बेटी-दामाद के यहां मेहमान रहने की तकलीफ भी सही।
'अब क्या होएगा?'
इंसान जब किसी घुला-देने-वाली पीड़ा या परीक्षा से गुजरता है तो एक-एक पल, एक-एक बरस बन जाता है और यूं लगता है जैसे। 'हर बरस के हों दिन पचास हजार'।
बेटी के घर टुकड़े तोड़ने या उस पर भार बनने की वो कल्पना भी नहीं कर सकते थे। कानपुर में कभी उसके यहां खड़े-खड़े एक गिलास पानी भी पीते तो हाथ पर पांच-दस रुपये रख देते। लेकिन अब? सुब्ह सर झुकाये नाश्ता करके निकलते तो, दिन-भर खाक जन-कर मगरिब (सूरज डूबने के बाद की नमाज) से जरा पहले लौटते। खाने के समय कह देते कि ईरानी होटल में खा आया हूं। जूते उन्होंने हमेशा रहीम बख्श से बनवाये, इसलिए कि उसके बनाये हुए जूते चरचराते बहुत थे। इन जूतों के तले अब इतने घिस गये थे कि चरचराने के लायक न रहे। पैरों में ठेकें पड़ गई, अचकनें ढीली हो गयीं। बीमार बीबी रात को दर्द से कराह भी नहीं सकती थी कि समधियाने वालों की नींद खराब होने का डर था। मलमल के कुर्तों की लखनवी कढ़ाई मैल में छुप गई। चुन्नटें निकलने के बाद आस्तीनें उंगलियों से एक-एक बालिश्त नीचे लटकी रहतीं। खिजाबी मूंछों का बल तो नहीं गया, लेकिन सिर्फ बल-खाई हुई नोकें सियाह रह गयीं। चार-चार दिन नहाने को पानी न मिलता। मोतिया का इत्र लगाये तीन महीने हो गये। बीबी घबरा कर बड़े भोलेपन से देहाती अंदाज में कहतीं 'अब क्या होयेगा? होगा के बजाय होयेगा उनके मुंह से बहुत प्यारा लगता था। इस एक वाक्य में वो अपनी सारी परेशानी, मासूमियत, बेबसी, सामने वाले के ज्योतिष-ज्ञान और उसकी बेमांगी मदद पर भरोसा-सभी कुछ समो देती थी। किबला इसके जवाब में बड़ा विश्वास से 'देखते हैं' कह कर उनकी तसल्ली कर देते थे।
बाहुबल और तेज काट की अवस्था
हर दुःख, हर परेशानी के बाद जिंदगी आदमी पर अपना एक रहस्य खोल देती है। बोधि-वृक्ष की छांव तले बुद्ध भी एक दुःख भरी तपस्या से गुजरे थे। जब पेट पीठ से लग गया, आंखें अंधे-कुंओं की तह में अंधेरी हो गयीं और हड्डियों की माला में बस सांस की डोरी अटकी रह गई तो गौतम बुद्ध पर भी एक भेद खुला था। जैसा, जितना और जिस कारण आदमी दुःख भोगता है, वैसा ही भेद उस पर खुलता है, निर्वाण ढूंढ़ने वाले को निर्वाण मिल जाता है और जो दुनिया के लिए कष्ट उठाता है दुनिया उसको रास्ता देती चलती जाती है।
गली-गली खाक फांकने और दफ्तर-दफ्तर धक्के खाने के बाद किबला के दुखी दिल पर कुछ खुला तो ये कि कायदे-कानून बुद्धिमानों और जालिमों ने कमजोर दिल वालों को काबू में रखने के लिए बनाये हैं। जो व्यक्ति हाथी की लगाम की तलाश करता रह जाये, वो कभी उस पर चढ़ नहीं सकता। जाम उसका है, जो बढ़कर खुद साकी को जाम-सुराही समेत उठा ले। दूसरे शब्दों में, जो बढ़कर ताला तोड़ डाले, मकान उसी का हो गया। कानपुर से चले तो अपनी जमा-जत्था, वंशावली, स्प्रिंग से खुलने वाला चाकू, अख्तरी बाई फैजाबादी के तीन रिकार्ड, मुरादाबादी हुक्के और सुराही के हरे कैरियर स्टेंड के अतिरिक्त अपनी दुकान का ताला भी ढो कर ले आये थे। अलीगढ़ से खास तौर पर बनवाकर मंगवाया था, तीन सेर से कम न होगा। ऊपर जो कुछ उन पर खुला, उसके बाद बर्नस रोड पर एक शानदार फ्लैट अपने लिए पसंद किया। मार्बल की टाइल्ज, समुद्र की ओर खुलने वाली खिड़कियां जिनमें रंगीन शीशे लगे थे, दरवाजे के जंग लगे ताले पर अपने अलीगढ़ी ताले की एक ही चोट से फ्लैट में खुद को सरकार का अहसानमंद हुए बगैर आबाद कर लिया। तख्ती दुबारा पेंट करवा के लगा दी। तख्ती पर नाम के आगे 'मुजतर कानपुरी' भी लिखवा दिया। पुराने परिचितों ने पूछा, आप शायर कब से हो गये? फरमाया, मैंने आज तक किसी शायर पर दीवानी मुकदमा चलते नहीं देखा, न डिग्री, कुर्की होते देखी! फ्लैट पर कब्जा करने के कोई चार महीने बाद अपने चूड़ीदार का घुटना रफू कर रहे थे कि किसी ने बड़ी बदतमीजी से दरवाजा खटखटाया। मतलब ये कि नाम की तख्ती को फटफटाया। जैसे ही उन्होंने हड़बड़ा कर दरवाजा खोला, आनेवाले ने अपना परिचय इस प्रकार करवाया जैसे अपने ओहदे की चपड़ास उठा के उनके मुंह पर दे मारी। 'अफसर कस्टोडियन इवैकुएट प्रापर्टी।' फिर डपट कर कहा, 'बड़े मियां! फ्लैट का एलाटमेंट आर्डर दिखाओ।' किबला ने वास्कट की जेब से हवेली का फोटो निकाल कर दिखाया, 'ये छोड़ कर आये हैं' उसने फोटो का नोटिस न लेते हुए सख्ती से कहा, 'बड़े मियां! सुना नहीं? एलॉटमेट आर्डर दिखाओ।' किबला ने बड़ी शांति से अपने बायें पैर का सलीम-शाही जूता उतारा और उतने ही आराम से कि उसे, खयाल तक न हुआ कि क्या करने वाले हैं, उसके मुंह पर मारते हुए बोले, 'यह है यारों का एलॉटमेंट आर्डर! कार्बन कॉपी भी देखेंगे?' उसने अब तक, यानी जलील होने तक, रिश्वत-ही-रिश्वत खाई थी, जूते नहीं खाये थे। फिर कभी इधर का रुख नहीं किया।
जिस हवेली में था हमारा घर
किबला ने बड़े जतन से मार्किट में एक छोटी-सी लकड़ी की दुकान का डोल डाला। बीबी के दहेज के छोवर और वेबले स्कॉट की बंदूक औने-पौने में बेच डाली। कुछ माल उधार खरीदा, अभी दुकान ठीक से जमी भी न थी कि एक इन्कम टैक्स इंस्पेक्टर आ निकला। खाता, रजिस्ट्रेशन, रोकड़-बही और रसीद बुक तलब कीं। दूसरे दिन, किबला हमसे कहने लगे, 'मियां! सुना आपने? महीनों जूतियां चटखाता, दफ्तरों में अपनी औकात खराब करवाता फिरा, किसी ने पलट कर न पूछा कि भैया कौन हो! अब दिल्लगी देखिए, कल एक इन्कम टैक्स का तीसमारखां दनदनाता आया। लक्का कबूतर की तरह सीना फुलाये। मैंने साले को यह दिखा दी - यह छोड़ कर आये हैं। चौंक के पूछने लगा - 'यह क्या है! मैंने कहा हमारे यहां इसे महलसरा कहते हैं।'
सच झूठ का हाल मिर्जा जानें, उन्हीं से सुना है कि इस महलसरा का एक बड़ा फोटो, फ्रेम करवा के अपने फ्लैट की कागजी-सी दीवार में कील ठोंक रहे थे कि दीवार के उस पार वाले पड़ोसी ने आ कर निवेदन किया कि कील एक फुट ऊपर ठोकिए ताकि दूसरे सिरे पर मैं अपनी शेरवानी लटका सकूं। दरवाजा जोर से खोलने और बंद करने की धमक से इस जंग खाई कील पर सारी महलसरा पेंडुलम की तरह झूलती रहती थी। घर में डाकिया या नई धोबिन भी आती तो उसे भी दिखाते 'यह छोड़ कर आये हैं'।
उस हवेली का फोटो हमने भी कई बार देखा था। उसे देखकर ऐसा लगता था जैसे कैमरे को मोटा नजर आने लगा है लेकिन कैमरे की आंख की कमजोरी को किबला अपनी बातों के जोर से दूर कर देते थे। यूं भी अतीत हर चीज के आस-पास एक रूमानी घेरा खींच देता है। आदमी का जब सब-कुछ छिन जाये तो वो या तो मस्त मलंग हो जाता है या किसी फेंटैसी-लैंड में शरण लेता है, वंशावली और हवेली भी ऐसे ही शरण-स्थल थे। संभव है धृष्ट-निगाहों को यह तस्वीर में ढंढार दिखाई दे लेकिन किबला जब इसके नाजुक पहलुओं की व्याख्या करते थे तो इसके आगे ताजमहल बिल्कुल सीधा-सपाटा, गंवारू घरौंदा मालूम होता था। मिसाल के तौर पर, दूसरी मंजिल पर एक दरवाजा नजर आता था, जिसकी चौखट और किवाड़ झड़ चुके थे। किबला उसे फ्रांसीसी दरीचा बताते थे, अगर यहां वाकई कोई यूरोपियन खिड़की थी तो यकीनी तौर पर ये वही खिड़की होगी जिसमें जड़े हुए कांच को तोड़ कर सारी-की-सारी ईस्ट इंडिया कंपनी आंखों में अपने जूतों की धूल झोंकती गुजर गई। ड्योढ़ी में दाखिल होने का जो बेकिवाड़ फाटक था वो दरअस्ल शाहजहानी मेहराब थी। उसके ऊपर एक टूटा हुआ छज्जा था, जिस पर तस्वीर में एक चील आराम कर रही थी। ये राजपूती झरोखे के बाकी-बचे चिह्न बताये जाते थे, जिनके पीछे उनके दादा के समय में ईरानी कालीनों पर आजरबाइजानी अंदाज की कव्वालियां होती थीं। पिछले पहर जब नींद से भारी आंखें मुंदने लगतीं तो थोड़ी-थोड़ी देर बाद चांदी के गुलाबपाशों से महफिल में आये लोगों पर गुलाबजल छिड़का जाता। फर्श और दीवारें कालीनों से ढकी रहतीं। कहते थे कि जित्ते फूल गलीचे पे थे, वित्ते ही बाहर बगीचे में थे, जहां इतालवी मखमल के कारचोबी कालीन पर गंगा-जमुनी काम के पीकदान रखे रहते थे, जिनमें चांदी के वरक में लिपटी हुई गिलौरियों की पीक जब थूकी जाती तो बिल्लौरी गले में उतरती-चढ़ती साफ नजर आती, जैसे थर्मामीटर में पारा।
वो भीड़ कि अक्ल धरने की जगह नहीं
हवेली के चंद अंदरूनी क्लोज-अप भी थे। कुछ कैमरे की आंख के और कुछ कल्पना की आंख के। एक तिदरी थी जिसकी दो मेहराबों की दरारों में ईंटों पर कानपुरी चिड़ियों के घोंसले नजर आ रहे थे। इन पर Moorish arches का अभियोग था, दिया रखने का एक ताक ऐसे आर्टिस्टिक ढंग से ढहा था कि पुर्तगाली आर्च के चिह्न दिखाई पड़ते थे। फोटो में उसके पहलू में एक लकड़ी की घड़ौंची नजर आ रही थी, जिसका शाहजहानी डिजाइन उनके परदादा ने बादशाह के पानी रखने की जगह से, अपने हाथ से चुराया था। शाहजहानी हो या न हो, उसके मुगल होने में कोई शक नहीं था, इसलिए कि उसकी एक टांग तैमूरी थी। हवेली की गर्दिशें फोटो में नजर आती थीं, लेकिन एक पड़ोसी का बयान था कि उनमें गर्दिश के मारे खानदानी बूढ़े रुले फिरते थे। उत्तरी हिस्से में एक खंभा, जो मुद्दत हुई छत का बोझ अपने ऊपर से ओछे के अहसान की तरह उतार चुका था, Roman pillars का अदुभुत नमूना बताया जाता था। आश्चर्य इस पर था कि छत से पहले क्यों न गिरा। इसका एक कारण यह हो सकता है कि चारों तरफ गर्दन तक मलबे में दबे होने की वज्ह से उसके गिरने के लिए कोई खाली जगह न थी। एक टूटी दीवार के सहारे लकड़ी की कमजोर सीढ़ी इस प्रकार खड़ी थी कि यह कहना मुश्किल था कि कौन किसके सहारे खड़ा है। उनके बयान के अनुसार जब दूसरी मंजिल नहीं गिरी थी तो यहां विक्टोरियन स्टाइल का Grand staircase हुआ करता था। उस छत पर, जहां अब चिमगादड़ें भी नहीं लटक सकती थीं, किबला लोहे की कड़ियों की ओर इशारा करते, जिनमें दादा के समय में बेल्जियम के फानूस लटके रहते थे, जिनकी चंपई रोशनी में वो घुंघराली खंजरियां बजतीं जो दो कूबड़ वाले बाख्तरी ऊंटों के साथ आई थीं। अगर फोटो उनकी रनिंग कमेंट्री के साथ न देखे होते तो किसी तरह यह खयाल में नहीं आ सकता था कि पांच सौ स्क्वायर गज की एक लड़खड़ाती हवेली में इतनी वास्तु कला और ढेर-सारी संस्कृतियों का ऐसा घमासान का दंगल होगा कि अक्ल धरने की जगह न रहेगी। पहली बार फोटो देखें तो लगता था कि कैमरा हिल गया है। फिर जरा गौर से देखें तो आश्चर्य होता था कि यह ढंढार हवेली अब तक कैसे खड़ी है। मिर्जा का विचार था कि इसमें गिरने की भी ताकत नहीं रही।
वो तिरा कोठे पे नंगे पांव आना याद है
हवेली के मुख्य दरवाजे से कुछ कदम के फासले पर जहां फोटो में घूरे पर एक काला मुर्गा गर्दन फुलाये अजान दे रहा था, वहां एक टूटे चबूतरे के चिह्न नजर आ रहे थे। उसके पत्थरों के जोड़ों और झिरियों में से पौधे रोशनी की तलाश में घबरा कर बाहर निकल रहे थे। एक दिन उस चबूतरे की ओर संकेत कर कहने लगे कि यहां साफ पानी से भरा हुआ पत्थर का आठ कोण वाला हौज हुआ करता था, जिसमें विलायती गोल्डफिश तैरती रहती थीं। आरिफ मियां उसमें पायनियर अखबार की किश्तियां तैराया करते थे। यह कहते-कहते किबला जोश में अपनी छड़ी लेकर उठ खड़े हुए। उससे फटी हुई दरी पर हौज का नक्शा खींचने लगे। एक जगह काल्पनिक लकीर कुछ टेढ़ी खिंची तो उसे पैर से रगड़ कर मिटाया। छड़ी की नोक से शैतान मछली की तरफ इशारा किया जो सबसे लड़ती फिरती थी। फिर एक कोने में उस मछली की ओर भी इशारा किया जिसका जी निढाल था। उन्होंने खुल कर तो नहीं कहा कि आखिर हम उनके छोटे थे, लेकिन हम समझ गये कि इस मछली का जी खट्टी चीजें और सोंधी मिट्टी खाने को चाह रहा होगा।
किबला कभी तरंग में आते तो अपने इकलौते बेतकल्लुफ दोस्त रईस अहमद किदवाई से कहते कि जवानी में मई-जून की ठीक दुपहरिया में एक हसीन कुंवारी लड़की का कोठों-कोठों नंगे पांव उनकी हवेली की तपती छत पर आना अब तक (मय डायलाग के) याद है। यह बात मिर्जा की समझ में आज तक न आई। इसलिए कि उनकी हवेली तीन मंजिला थी। जबकि दायें-बायें पड़ोस के दोनों मकान एक-एक मंजिल के थे। हसीन कुंवारी अगर नंगे पैर हो और लाज का गहना उतारने के लिए उतावली भी हो, तब भी यह करतब संभव नहीं (जब तक कि हसीना उनके इश्क में दो टुकड़ों में न बंट जाये।)
पिलखन
फोटो में हवेली के सामने एक ऊंची-घनी पिलखन उदास खड़ी थी। इसका बीज उनके परदादा काली टांगों वाले भूरे घोड़े पर सवार, कारचोबी काम के चोगे में छुपा कर अकाल के जमाने में दमिश्क से लाये थे। किबला के कहे अनुसार उनके परदादा के अब्बा जान कहा करते थे कि निर्धनता के आलम में यह नंगे-खलाइक, नंगे-असलाफ, नंगे-वतन (लोगों, बुजुर्गों और देश के लिए अपमान का कारण) नंगे सर, नंगे पैर, घोड़े की नंगी पीठ पर, नंगी तलवार हाथ में लिए, खैबर के नंगे पहाड़ों को फलांगता हिंदुस्तान आया। जो चित्र वो खींचते थे, उससे तो यही लगता था कि उस समय किबला के बुजुर्ग के पास बदन ढंकने के लिए घोड़े की दुम के सिवा और कुछ न था। जायदाद, महलसरा, नौकर-चाकर, सामान, रुपया पैसा सब कुछ वहीं छोड़ आये, परंतु सामान का सबसे कीमती हिस्सा यानी वंशावली और पिलखन का बीज साथ ले आये। घोड़ा जो उन्हीं की तरह खानदानी और वतन से बेजार था, बीज और वंशावली के बोझ से रानों-तले निकला पड़ रहा था।
जिंदगी की धूप जब कड़ी हुई और पैरों-तले से जमीन-जायदाद निकल गई तो आइंदा नस्लों ने उसी वृक्ष और वंशावली की छांव-तले विश्राम किया। किबला को अपने पुरखों की बुद्धि और समझ पर बड़ा मान था। उनका प्रत्येक पुरखा अदभुत था और उनकी वंशावली की हर शाख पर एक जीनियस बैठा ऊंघ रहा था। किबला ने एक फोटो उस पिलखन के नीचे ठीक उस जगह खड़े हो कर खिंचवाया था, जहां उनकी नाल गड़ी थी। कहते थे कि अगर किसी को मेरी हवेली की मिल्कियत में शक हो तो नाल निकाल कर देख ले। जब आदमी को यह न मालूम हो कि उसकी नाल कहां गड़ी है और पुरखों की हड्डियां कहां दफ्न हैं, तो वो मनीप्लांट की तरह हो जाता है, जो मिट्टी के बगैर सिर्फ बोतलों में फलता-फूलता है। अपनी नाल, पुरखों और पिलखन का जिक्र इतने गर्व के साथ और इतना अधिक करते-करते हाल यह हुआ कि पिलखन की जड़ें वंशावली में उतर आईं, जैसे घुटनों में पानी उतर आता है।
इंपोर्टिड बुजुर्ग और यूनानी नाक
वो जमाने और शराफत के ढंग और थे। जब तक बुजुर्ग अस्ली इंपोर्टिड यानी मध्य एशिया और खैबर के उस पार से आये हुए न हों, कोई हिंदुस्तानी मुसलमान खुद को इज्जतदार और शरीफ नहीं कहता था। गालिब को तो शेखी बघारने के लिए अपना (फर्जी) उस्ताद मुल्ला अब्दुस्समद तक ईरान से इंपोर्ट करना पड़ा। किबला के बुजुर्गों ने जब बेरोजगारी और गरीबी से तंग आकर वतन छोड़ा तो आंखें नम और दिल पिघले हुए थे। बार-बार अफसोस में अपना हाथ घोड़े की रान पर मारते और एक-दूसरे की दाढ़ी पर हाथ फेर के तौबा-तौबा कहते। यह नये आने वाले, जिससे भी मिले अपने आचरण से उसका दिल जीत लिया।
'पहले जां, फिर जाने - जां, फिर जाने - जानां हो गये'
फिर यही प्यारे लोग आहिस्ता-आहिस्ता पहले खां, फिर खाने-खां, फिर खाने-खानां हो गये।
हवेली के आर्किटेक्चर की भांति किबला के रोग भी राजसी होते थे। बचपन में दायें गाल पर शायद आमों की फस्ल में फुंसी निकली थी, जिसका दाग अभी तक बाकी था। कहते थे, जिस साल मेरे यह औरंगजेबी फोड़ा निकला, उसी साल बल्कि उसी हफ्ते महारानी विक्टोरिया रांड हुई। साठ के पेटे में आये तो शाहजहानी 'हब्से-बोल' (पेशाब का बंद हो जाना) में गिरफ्तार हो गये। फर्माते थे कि गालिब मुगल-बच्चा था। सितम-पेशा डोमनी को अपने इश्क के जहर से मार डाला मगर खुद इसी, यानी मेरी वाली बीमारी में मरा। एक खत में लिखता है कि घूंट-घूंट पीता हूं और कतरा-कतरा बाहर निकालता हूं। दमे का दौरा जरा थमता तो बड़े गर्व से कहते कि फैजी को यही रोग था। उसने एक जगह कहा है कि दो आलम मेरे सीने में समा गये, मगर आधा सांस किसी तौर नहीं समा रहा। अपने स्वर्गवासी पिता के बारे में बताते थे कि राज-रोग यानी अकबरी संग्रहणी में इंतकाल फर्माया। मतलब इससे, आंतों की टी.बी. था। मरज तो मरज, नाक तक अपनी नहीं थी - यूनानी बताते थे।
'मुर्दा अज गैब बरूं आयदो-कारे-बकुनद'
( मुर्दा परोक्ष से आया और काम कर गया )
किबला को दो गम थे। पहले गम का बयान बाद में आयेगा। दूसरा गम दरअस्ल इतना उनका अपना नहीं जितना बीबी का था, वो बेटे की इच्छा में घुल रही थीं। उस गरीब ने बड़ी मन्नतें मानीं, शर्बत में नक्श (कुरआन की आयतें लिखे पर्चे) घोल-घोल कर पिलाये। उनके तकिये के नीचे तावीज रखे। छुप-छुप कर मजारों पर चादरें चढ़ाई। हमारे यहां जब जीवित लोगों से मायूस हो जाते हैं तो बस यही आस बाकी रह जाती है। पचास मील के दायरे में कोई मजार ऐसा न बचा जिसके सिरहाने खड़े होकर वो इस तरह फूट-फूट कर न रोयी हों कि कब्र-वाले के रिश्तेदार भी दफ्न करते समय क्या रोये होंगे। उस जमाने में कब्र के अंदर वाले चमत्कारी हों या न हों, कम-से-कम कब्र के भीतर अवश्य होते थे। आजकल जैसा हाल नहीं था कि मजार अगर मैयत से खाली है तो गनीमत जानिये, वरना अल्लाह जाने अंदर क्या दफ्न है, जिसका इस धूम-धाम से उर्स मनाया जा रहा है। खैर यह तो एक वाक्य था जो रवानी में फैल कर पूरा पैरा बन गया। निवेदन यह करना था कि किबला खुद को किसी सिद्ध पुरुष से कम नहीं समझते थे। उन्हें जब यह पता चला कि बीबी लड़के की मन्नत मांगने चोरी-छुपे नामहरमों (जिनके साथ निकाह जायज हो) के मजारों पर जाने लगी है, तो बहुत नाराज हुए। वो जब बहुत नाराज होते तो खाना छोड़ देते थे। हलवाई की दुकान से रबड़ी, मोती-चूर के लड्डू और कचौड़ी लाकर खा लेते। दूसरे दिन बीबी कासनी रंग का दुपट्टा ओढ़ लेतीं और उनकी पसंद के खाने यानी दोप्याजा, डेढ़गुनी शक्कर वाला जर्दा, बहुत तेज मिर्च के उड़द के दही-बड़े खिला कर उन्हें मना लेतीं। किबला इन्हीं खानों पर अपने ईरानी और अरबी नस्ल के पुरखों की नियाज दिलवाते (श्राद्ध करते), लेकिन उनके दही-बड़ों में मिर्चें बस नाम को डलवाते।
मजारों पर जाने पर पाबंदी लगी। बीबी बहुत रोयीं-धोयीं तो किबला कुछ पिघले। मजारों पर जाने की इजाजत दे दी, लेकिन इस शर्त पर कि मजार में रहने वाला जाति का कंबोह न हो। कंबोह मर्द और गजल के शायर से पर्दा जुरूरी है चाहे वो मुर्दा ही क्यों न हो। 'मैं इनकी रग-रग पहचानता हूं।' उनके दुश्मनों का कहना है कि किबला खुद भी जवानी में शायर और ननिहाल की ओर से कंबोह थे। अक्सर कहते कि कंबोह के मरने पर तो जश्न मनाना चाहिए।
कटखने बिलाव के गले में घंटी
आहिस्ता-आहिस्ता बीबी को सब्र आ गया। एक बेटी थी। किबला को वह अत्यंत प्रिय होती गई। इस हद तक सब्र आ गया कि अक्सर कहते, 'खुदा बड़ा दयावान है। उसने बड़ी मेहरबानी की जो बेटा न दिया। अगर मुझ पर पड़ता तो सारी उम्र परेशान होता और अगर न पड़ता तो मैं नालायक को निकाल बाहर करता।'
सयानी बेटी कितनी भी चहेती हो, मां-बाप की छाती पर पहाड़ होती है। लड़की, रिश्तों के इश्तेहार के अनुसार देखने में ठीकठाक, सुशील, हंसमुख, घरेलू काम काज में माहिर, लेकिन किसका बुरा वक्त आया था कि किबला की बेटी के लिए रिश्ता भेजे। हमें नमरूद की आग में निर्भय होकर कूदने से कहीं जियादा खतरनाक काम नमरूद की वंशावली में कूद पड़ना लगता है। जैसा कि हम पहले बता चुके हैं, किबला हमारे मित्र बिशारत के फूफा, चचा और अल्लाह जाने! क्या-क्या लगते थे। दुकान और मकान दोनों-प्रकार से पड़ोसी भी थे। बिशारत के पिता भी रिश्ते के पक्ष में थे, लेकिन संदेशा भेजने से साफ इन्कार कर दिया कि बहू के बिना फिर भी गुजारा हो सकता है लेकिन नाक और टांग के बिना तो व्यक्तित्व अधूरा-सा लगेगा। बिशारत ने रेल की पटरी से खुद को बंधवा कर बड़ी लाइन के इंजन से आत्महत्या करने की धमकी दी। रस्सियों से बंधवाने की शर्त खुद इसलिए लगा दी कि कहीं ठीक समय पर डर कर भाग न जायें लेकिन उनके पिता ने साफ कह दिया कि उस कटखने बिलाव के गले में तुम्हीं घंटी बांधो।
किबला मुंहफट, बदतमीज मशहूर ही नहीं थे, थे भी। वो दिल से, बल्कि बेदिली से भी, किसी की इज्जत नहीं करते थे। दूसरे को जलील करने का कोई-न-कोई कारण जुरूर निकाल लेते। मिसाल के तौर पर अगर किसी की उम्र उनसे एक महीना भी कम हो तो उसे लौंडा कहते और अगर एक साल जियादा तो बुढ़ऊ।
ज्वालामुखी पहाड़ में छलांग
बिशारत ने इन दिनों बी.ए. का इम्तिहान दिया था और पास होने की संभावना फिप्टी-फिप्टी थी। फिप्टी-फिप्टी इतने गर्व और विश्वास से कहते थे जैसे अपनी कांटा-तौल की हुई आधी-नालायकी से इम्तिहान लेने वाले को कड़ी परीक्षा में डाल दिया है। फुर्सत-ही-फुर्सत थी। कैरम और कोट पीस खेलते। आत्माओं को बुलाते और उनसे ऐसे प्रश्न करते कि जिंदों को शर्म आती। कभी दिन-भर बैठे नजीर अकबराबादी के कविता संग्रह में बिंदुओं वाले ब्लैंक भरते रहते जो मुंशी नवल किशोर प्रेस ने सभ्यता की मांग और भारतीय कानून की वज्ह से खाली छोड़ दिये थे। बातचीत में हर वाक्य के बाद शेर का ठेका लगाते। कहानी लिखने का अभ्यास भी जारी था।
आखिरकार एक सुहानी सुब्ह बिशारत ने खुद अपने हाथ एक पर्चा लिखा और रजिस्ट्री से भिजवा दिया। हालांकि जिसे भेजा उसके मकान की दीवार उनके मकान की दीवार से मिली हुई थी। संदेशा 23 पृष्ठों और लगभग पचास शेरों पर आधारित था। इनमें से आधे शेर उनके अपने और आधे अंदलीब शादानी के थे, जिनसे किबला के भाइयों जैसे संबंध थे। उस जमाने में संदेशे केसर से लिखे जाते थे। लेकिन इस संदेश के लिए तो केसर का एक खेत भी अपर्याप्त होता। इसलिए सिर्फ सम्मानसूचक संबोधन केसर से और बाकी बातें लाल-सियाही से जैड के मोटे निब से लिखीं। जिन हिस्सों पर खास-तौर से ध्यान दिलाना था, उन्हें नीली सियाही से बारीक अक्षरों में लिखा। बात हालांकि धृष्टतापूर्ण थी, लेकिन भाव फिर भी ताबेदारी का और अंदाज बेहद चापलूसी का था। किबला के अच्छे स्वभाव, हंसमुखपन, मुहब्बत की जी खोल कर प्रशंसा की, जिसकी परछाईं तक किबला के चरित्र में न थी। साथ-साथ दुश्मनों की नाम ले-ले कर डट कर बुराई की। उनकी संख्या इतनी थी कि 23 पृष्ठों की मिट्टी के पियाले में रखकर खरल करना उन्हीं का काम था। बिशारत ने जी कड़ा करके ये तो लिख दिया कि मैं शादी करना चाहता हूं, लेकिन ये कहने की हिम्मत न पड़ी कि किससे। बात बिखरी-बिखरी सही लेकिन किबला अपनी अच्छी आदतों और दुश्मनों की हरमजदगियों के बयान से बहुत खुश हुए। इससे पहले किसी ने उनको खूबसूरत और सजीला भी नहीं कहा था। दो बार पढ़कर अपने मुंशी को पकड़ा दिया कि तुम्हीं पढ़कर बताओ कि साहबजादे किससे शादी करना चाहते हैं, अच्छाइयां तो मेरी बयान की हैं। ग्लेशियर था कि पिघला जा रहा था। मुस्कुराते हुए मुंशी जी से बोले, किसी-किसी बेउस्ताद शायर के शेर में कभी-कभी अलिफ गिरता है। इसके शेरों में तो अलिफ से लेकर ये तक सारे अक्षर एक-दूसरे पर गिर पड़ रहे हैं, जैसे ईदगाह में नमाजी एक-दूसरे की कमर पर सिजदा कर रहे हों।
बिशारत के साहस की कहानी जिसने सुनी, हैरान रह गया। खयाल था कि ज्वालामुखी फट पड़ेगा। किबला तरस खाकर सारे खानदान को कत्ल नहीं करेंगे तो कम से कम हरेक की टांगें जुरूर तोड़ देंगे, लेकिन यह सब कुछ नहीं हुआ। किबला ने बिशारत को अपनी गुलामी में लेना स्वीकार कर लिया।
रावण क्यों मारा गया
किबला की दुकानदारी और उनकी लायी हुई परेशानियों का कोई एक उदाहरण हो तो बतायें। कोई ग्राहक जरा-सा भी उनकी किसी बात या भाव पर शक करे तो फिर उसकी इज्जत ही नहीं, हाथ-पैर की भी खैर नहीं। एक बार जल्दी में थे। लकड़ी की कीमत छूटते ही दस रुपये बता दी। देहाती ग्राहक ने पौने दस रुपये लगाये और ये गाली देते हुए मारने को दौड़े कि जट गंवार की इतनी हिम्मत कैसे हुई। दुकान में एक टूटी हुई चारपाई पड़ी रहती थी जिसके बानों को चुरा-चुरा कर आरा खींचने वाले मजदूर चिलम में भरकर सुल्फे के दम लगाते थे। किबला जब बाकायदा सशस्त्र हो कर हमला करना चाहते तो इस चारपाई का सेरुवा यानी सिरहाने की पट्टी निकालकर अपने दुश्मन (ग्राहक) पर झपटते। अक्सर सेरुवे को पुचकारते हुए कहते, 'अजीब सख्तजान है, आज तक इसमें फ्रैक्चर नहीं हुआ। लठ रखना बुजदिलों और गंवारों का काम है और लाठी चलाना कसाई, कुजड़ों, गुंडों और पुलिस का।' प्रयोग में लाने के बाद सेरुवे की फर्स्ट एड करके यानी अंगोछे से अच्छी तरह झाड़-पोंछ कर वापस झिलंगे में लगा देते। इस तरीके में खास बात शायद यह थी कि चारपाई तक जाने और सेरुवा निकालने के बीच अगर गुस्से को ठंडा होना है तो हो जाये, और जिस पर गुस्सा किया जा रहा है वो अपनी टांगों का प्रयोग करने में कंजूसी से काम न ले। (एक पुरानी चीनी कहावत है कि लड़ाई के जो तीन सौ सतरह पैंतरे ज्ञानियों ने गिनवाये हैं, उनमें जो पैंतरा सबसे उपयोगी बताया गया है वो यह है कि भाग लो) इसकी पुष्टि हिंदू देवमाला से भी होती है। रावण के दस सर और बीस हाथ थे, फिर भी मारा गया। इसकी वज्ह हमारी समझ में तो यही आती है - भागने के लिए टांगें सिर्फ दो थीं। हमला करने से पहले किबला कुछ देर खौंखियाते ताकि विरोधी अपनी जान बचाना चाहता है तो बचा ले। बताते थे, आज तक ऐसा नहीं हुआ कि किसी की ठुकाई करने से पहले मैंने उसे गाली देकर खबरदार न किया हो।
हूं तो सजा का पात्र , पर इल्जाम गलत है
किबला का आतंक सबके दिलों पर बैठा था, बस दायीं तरफ वाला दुकानदार बचा हुआ था। वो कन्नौज का रहने वाला, अत्यधिक दंभी, हथछुट, दुर्व्यवहारी और बुरी जबान का आदमी था। उम्र में किबला से बीस साल कम होगा। यानी जवान और धृष्ट। कुछ साल पहले तक अखाड़े में बाकायदा जोर करता था। पहलवान सेठ कहलाता था। एक दिन ऐसा हुआ कि एक ग्राहक किबला की सीमा में 3/4 प्रवेश कर चुका था कि पहलवान सेठ उसे पकड़ कर घसीटता हुआ अपनी दुकान में ले गया और किबला 'महाराज! महाराज!' पुकारते ही रह गये। कुछ देर बाद वो उसकी दुकान में घुस कर ग्राहक को छुड़ाकर लाने की कोशिश कर रहे थे कि पहलवान सेठ ने उनको वो गाली दी जो वो खुद सबको दिया करते थे।
फिर क्या था। किबला ने अपने खास शस्त्र-भंडार से यानी चारपाई से पट्टी निकाली और नंगे-पैर दौड़ते हुए उसकी दुकान में दुबारा घुसे। ग्राहक ने बीच-बचाव कराने का प्रयास किया और पहली झपट में अपना दांत तुड़वाकर बीच-बचाव की कारवाई से रिटायर हो गया। बुरी जबान वाला पहलवान सेठ दुकान छोड़ कर बगटुट भागा। किबला उसके पीछे सरपट। थोड़ी दूर जा कर उसका पांव रेल की पटरी में उलझा और वो मुंह के बल गिरा। किबला ने जा लिया। पूरी ताकत से ऐसा वार किया कि पट्टी के दो टुकड़े हो गये। मालूम नहीं इससे चोट आई या रेल की पटरी पर गिरने से, वो देर तक बेहोश पड़ा रहा। उसके गिर्द खून की तलैया-सी बन गई।
पहलवान सेठ की टांग के मल्टीपल फ्रैक्चर में गैंग्रीन हो गया और टांग काट दी गई। फौजदारी का मुकदमा बन गया। उसने पुलिस को खूब पैसा खिलाया और पुलिस ने पुरानी दुश्मनी के आधार पर किबला का, कत्ल की कोशिश के इल्जाम में, चालान पेश कर दिया। लंबी चौड़ी चार्ज शीट सुनकर, किबला कहने लगे कि टांग का नहीं कानून का मल्टीपल फ्रैक्चर हुआ है। पुलिस गिरफ्तार करके ले जाने लगी तो बीबी ने पूछा, 'अब क्या होयेगा?' कंधे उचकाते हुए बोले 'देखेंगे।' अदालत में बीच-बचाव करने वाले ग्राहक का दांत और कत्ल का हथियार यानी चारपाई की खून पिलाई हुई पट्टी Exhibits के तौर पर पेश किये गये। मुकद्दमा सेशन के सुपुर्द हो गया। किबला कुछ अर्से रिमांड पर न्यायिक हिरासत में रहे थे। अब जेल में बाकायदा खूनियों, डाकुओं, जेबकतरों और आदी-मुजरिमों के साथ रहना पड़ा। तीन-चार मुचैटों के बाद वो भी किबला को अपना चचा कहने और मानने लगे।
उनकी ओर से यानी बचाव-पक्ष के वकील की हैसियत से कानपुर के एक योग्य बैरिस्टर मुस्तफा रजा किजिलबाश ने पैरवी की, मगर वकील और मुवक्किल की किसी एक बात पर भी सहमति न हो सकी। किबला को जिद थी कि मैं हलफ उठा कर यह बयान दूंगा कि शिकायत करने वाले ने अपनी वल्दियत गलत लिखवायी है, इसकी सूरत अपने बाप से नहीं, बाप के एक बदचलन दोस्त से मिलती है।
वकील साहब इस बात पर जोर देना चाहते थे कि चोट रेल की पटरी पर गिरने से आई है, मुल्जिम के मारने से नहीं, उधर किबला अदालत में फिल्मी बैरिस्टरों की तरह टहल-टहल कर कटहरे को झंझोड़-झंझोड़ कर ये एलान करना चाहते थे कि मैं सिपाही का बच्चा हूं। दुकानदारी मेरे लिए कभी मान-सम्मान पाने का जरिया नहीं रही, बल्कि काफी समय से आमदनी का जरिया भी नहीं रही। टांग पर वार करना हमारी सिपाहियाना शान और मर्दानगी की तौहीन है। मैं तो दरअस्ल इसका सर टुकड़े-टुकड़े करना चाहता था। इसलिए अगर मुझे सजा देना ही जुरूरी है तो टांग तोड़ने की नहीं, गलत निशाने की दीजिए। 'सजा का पात्र हूं, मगर इल्जाम गलत है।'
अंतिम समय और जूं का ब्लड टेस्ट
अदालत में फौजदारी मुकदमा चल रहा था। अनुमान यही था कि सजा हो जायेगी, खासी लंबी होगी। घर में हर पेशी के दिन रोना-पीटना मचता। दोस्त-रिश्तेदार अपनी जगह हैरान-परेशान कि जरा-सी बात पर यह नौबत आ गई। पुलिस उन्हें हथकड़ी पहनाये सारे शहर का चक्कर दिला कर अदालत में पेश करती और पहलवान से इस सेवा का मेहनताना वुसूल करती। भोली-भाली बीबी को विश्वास नहीं आता था। एक-एक से पूछतीं, 'भैया! क्या सचमुच की हथकड़ी पहनायी थी?' अदालत के अंदर और बाहर किबला के तमाम दुश्मनों यानी सारे शहर की भीड़ होती। सारे खानदान की नाक कट गई मगर किबला ने कभी मुंह पर तौलिया और हथकड़ी पर रूमाल नहीं डाला। गश्त के दौरान मूंछों पर ताव देते तो हथकड़ी झन-झन, झन-झन करती। रमजान का महीना आया तो किसी ने सलाह दी कि नमाज रोजा शुरू कर दीजिये। अपने कान ही पूर के मौलाना हसरत मोहानी तो रोजे में चक्की भी पीसते थे। किबला ने बड़ी हिकारत से जवाब दिया, 'लाहौल विला कुव्वत! मैं शायर थोड़े ही हूं। यह नाम होगा कि दुनिया के दुख न सह सका।'
बीबी ने कई बार पुछवाया, 'अब क्या होयेगा?' हर बार एक ही जवाब मिला, 'देख लेंगे।' क्रोधावस्था में जो बात मुंह से निकल जाये या जो काम हो जाये, उस पर उन्हें कभी लज्जित होते नहीं देखा। कहते थे कि आदमी के अस्ल चरित्र की झलक तो क्रोध के कौंदे में ही दिखाई देती है। इसलिए अपनी किसी करतूत यानी अस्ल चरित्र पर लज्जित या परेशान होने को मर्दों की शान के विरुद्ध समझते थे।
एक दिन उनका भतीजा शाम को जेल में खाना और जुएं मारने की दवा दे गया, दवा के विज्ञापन में लिखा था कि इसके मलने से जुऐं अंधी हो जाती हैं, फिर उन्हें आसानी से पकड़ कर मारा जा सकता है। जूं और लीख मारने की तरकीब भी लिखी थी, यानी जूं को बायें हाथ के अंगूठे पर रखो और दायें अंगूठे के नाखून से चट से कुचल दो। अगर जूं के पेट से काला या गहरा लाल खून निकले तो तुरंत हमारी दवा 'अक्सीरे-जालीनूस' (खून साफ करने वाली) पी कर अपना खून साफ कीजिए। पर्चे में यह निर्देश भी था कि दवा का कोर्स उस समय तक जारी रखिए जब तक कि जूं के पेट से साफ-सुर्ख खून न निकलने लगे। किबला ने जंगले के उस तरफ से इशारे से भतीजे को कहा कि अपना कान मेरे मुंह के पास लाओ। फिर उससे कहा कि बरखुरदार! जिंदगी का भरोसा नहीं, दुनिया इस जेल-समेत नश्वर है। गौर से सुनो, यह मेरा आदेश भी है और वसीयत भी। लोहे की अलमारी में दो हजार रुपये आड़े वक्त के लिए रद्दी अखबारों के नीचे छुपा आया था। रुपया निकाल कर अल्लन (शहर का नामी गुंडा) को दे देना। अपनी चची को मेरी ओर से तसल्ली देना। अल्लन को मेरी दुआ कहना और कहना कि छओं को ऐसी ठुकाई करे कि घर वाले सूरत न पहचान सकें। यह कहकर अखबार का एक मसला हुआ पुर्जा भतीजे को थमा दिया, जिसके किनारे पर उन छह गवाहों के नाम लिखे थे, जिन को पिटवाने की योजना उन्होंने जेल में उस समय बनायी थी जब ऐसी ही हरकत पर उन्हें आजकल में सजा होने वाली थी।
एक बार इतवार को उनका भतीजा जेल में मिलने आया और उनसे कहा कि जेलर तक आसानी से सिफारिश पहुंचायी जा सकती है। अगर आपका जी किसी खास खाने जैसे जर्दा या दही बड़े, शौक की मसनवी (एक पुराने शायर का महाकाव्य), सिगरेट या महोबे के पान को चाहे तो चोरी छुपे हफ्ते में कम-से-कम एक बार आसानी से पहुंचाया जा सकता है। चची ने याद करके कहने को कहा है। ईद करीब आ रही है, रो-रो कर उन्होंने आंखें सुजा ली हैं। किबला ने जेल के खद्दर के नेकर पर दौड़ता हुआ खटमल पकड़ते हुए कहा, मुझे किसी चीज की कोई जुरूरत नहीं। अगली बार आओ तो सिराज फोटोग्राफर से हवेली का फोटो खिंचवा के ले आना। कई महीने हो गये देखे हुए। जिधर तुम्हारी चची के कमरे की चिक है उस ओर से खींचे तो अच्छी आयेगी।
संतरी ने जमीन पर जोर से बूट की थाप लगाते और थ्री-नाट-थ्री की राइफल का कुंदा बजाते हुए डपट कर कहा कि मुलाकात का समय समाप्त हो चुका। ईद का खयाल करके भतीजे की आंखें डबडबा आईं और उसने नजरें नीची कर लीं। उसके होंठ कांप रहे थे। किबला ने उसका कान पकड़ा और खींच कर अपने मुंह तक लाने के बाद कहा, हां! हो सके तो जल्दी से एक तेज चाकू, कम से कम छह इंच के फल वाला, डबल रोटी या ईद की सिवैंयों में छुपा कर भिजवा दो। दूसरे, बंबई में Pentangular शुरू होने वाला है। किसी तरकीब से मुझे रोजाना स्कोर मालूम हो जाये तो वल्लाह! हर रोज ईद का दिन हो, हर रात शबे-बरात। खास तौर से वजीर अली का स्कोर दिन के दिन मालूम हो जाये तो क्या कहना। सजा हो गई, डेढ़ साल कैदे-बामुशक्कत (सश्रम करावास) फैसला सुना, सर उठा कर ऊपर देखा। मानो आसमान से पूछ रहे हों, 'तू देख रहा है! यह क्या हो रहा है?' How's that? पुलिस ने हथकड़ी डाली। किबला ने किसी प्रकार की प्रतिक्रिया जाहिर नहीं की। जेल जाते समय बीबी को कहला भेजा कि आज मेरे पुरखों की आत्मा कितनी प्रसन्न होगी, कितनी भाग्यशाली हो तुम कि तुम्हारा दूल्हा (जी हां! यही शब्द इस्तेमाल किया था) एक हरामजादे की ठुकाई करके मर्दों का जेवर पहने जेल जा रहा है। लकड़ी की टांग लगवा कर घर नहीं आ रहा। दो रकअत (नमाज में खड़े होने, झुकने और माथा टेकने को एक रकअत कहते हैं) नमाज शुकराने (धन्यवाद निवेदन) की पढ़ना। भतीजे को निर्देश दिया कि हवेली की मरम्मत कराते रहना, अपनी चची का खयाल रखना। उनसे कहना, ये दिन भी गुजर जायेंगे, दिल भारी न करें और जुमे को कासनी दुपट्टा ओढ़ना न छोड़ें।
बीबी ने पुछवाया, 'अब क्या होयेगा?'
जवाब मिला, 'देखा जायेगा।'
टार्जन की वापसी
दो साल तक दुकान में ताला पड़ा रहा। लोगों का विचार था कि जेल से छूटने के बाद छुपते-छुपाते कहीं और चले जायेंगे। किबला जेल से छूटे, जरा जो बदले हों। उनकी रीढ़ की हड्डी में जोड़ नहीं थे। जापानी भाषा में कहावत है कि बंदर पेड़ से जमीन पर गिर पड़े, फिर भी बंदर ही रहता है, सो वह भी टार्जन की तरह Auuuuuu चिंघाड़ते जेल से निकले। सीधे अपने खानदानी कब्रिस्तान गये। पिता की कब्र की पायंती की मिट्टी सर पर डाली। फातिहा (दुआ) पढ़ी और कुछ सोच कर मुस्कुरा दिये। दूसरे दिन दुकान खोली, केबिन के बाहर एक बल्ली गाड़ कर उस पर एक लकड़ी की टांग बढ़ई से बनवा कर लटका दी। सुब्ह शाम उसको रस्सी से खींच कर इस तरह चढ़ाते और उतारते थे, जिस तरह उस जमाने में छावनियों में यूनियन जैक चढ़ाया उतारा जाता था। जिन्होंने दो साल से पैसा दबा रखा था उन्हें धमकी-भरे खत लिखे और अपने हस्ताक्षर के बाद ब्रेकेट में सजायाफ्ता (सजा पाया हुआ) लिखा। जेल जाने से पहले पत्रों में खुद को बड़े गर्व से 'नंगे-असलाफ' (पूर्वजों के अपमान का कारण) लिखा करते थे। किसी की मजाल न थी कि इससे असहमत हो। असहमत होना तो दूर की बात है, मारे डर के सहमत भी नहीं हो सकता था। अब अपने नाम के साथ 'सजा-याफ्ता' इस प्रकार लिखने लगे जैसे लोग डिग्रियां या सम्मानसूचक शब्द लिखते हैं। कानून और जेल की झिझक निकल चुकी थी।
किबला जैसे गये थे, वैसे ही जेल काट कर वापस आ गये। तनतने और आवाज के कड़ाके में जरा अंतर न आया। इस बीच अगर जमाना बदल गया तो उसमें उनका कोई दोष न था। उनका कहा हुआ विश्वसनीय तो पहले ही था अब अंतिम सत्य भी हो गया। काले मखमल की रामपुरी टोपी और अधिक तिरछी हो गई, यानी इतनी झुका कर टेढ़ी ओढ़ने लगे कि दायीं आंख ठीक से नहीं खोल सकते थे। बीबी कभी घबरा के कहतीं, 'अब क्या होयेगा?' तो वह 'देखते हैं' की जगह 'देख लेंगे' और 'देखती जाओ' कहने लगे। रिहाई के दिन नजदीक आये तो दाढ़ी के बाल भी गुच्छेदार मूंछों में मिला लिए। जो अब इतनी घनी हो गई थीं कि एक हाथ से पकड़ कर उन्हें उठाते, तब कहीं दूसरे हाथ से मुंह में खाने का कौर रख पाते थे। जेल उनका कुछ बिगाड़ न सकी। कहते थे यहीं तीसरी बैरक में एक मुंशी फाजिल (B.A.) पास जालिया है, फसाहत खान। गबन और धोखाधड़ी में तीन साल की काट रहा है, बामुशक्कत। पहले 'शोला' अब 'हजीं' उपनाम रखा है। चक्की पीसते समय अपनी ही ताजा गजल गाता रहता है। मोटा पीसता है और पिटता है। अब यह कोई शायरी तो है नहीं, तिस पर खुद को गालिब से कम नहीं समझता। हालांकि एक जैसी बात सिर्फ इतनी है कि दोनों ने जेल की हवा खाई।
खुद को रुहेला बताता है। होगा, लगता नहीं। कैदियों से भी मुंह छुपाये फिरता है। अपने बेटे से कह रखा है कि मेरे बारे में कोई पूछे तो कह देना कि अब्बा कुछ दिनों के लिए बाहर गये हैं। जेल को कभी जेल नहीं कहता, जिंदां कहता है। (जेल के लिए फारसी शब्द) अरे साहब! गनीमत है कि जेलर को अजीजे-मिस्र (मिस्र का बादशाह) नहीं कहता। उसे तो चक्की को आसिया (चक्की के लिए अरबी शब्द) कहने में भी हिचक न होती मगर मैं जानूं पाट की अरबी मालूम नहीं। अरे साहब! मैं यहां किसी की जेब काट के थोड़े ही आया हूं। शेर को पिंजरे में कैद कर दो तब भी शेर ही रहता है। गीदड़ को कछार में आजाद छोड़ दो, और जियादा गीदड़ हो जायेगा। अब हम ऐसे भी गये-गुजरे नहीं कि जेल का घुटन्ना (घुटनों तक की निकर) पहनते ही स्वभाव बदल जाये। बल्कि हमें तो किबला की बातों से ऐसा लगता था कि फटा हुआ कपड़ा पहनने और जेल जाने को सुन्नते-यूसुफ़ी समझते हैं। उनके स्वभाव में जो टेढ़ थी वह कुछ और बढ़ गयीं। कव्वे पर कितनी तकलीफें गुजर जायें, कितना ही बूढ़ा हो जाये, उसके पर काले ही रहते हैं। खुरे, खुर्रे, खुरदरे, खरे या खोटे, वह जैसे कुछ भी थे, उनका बाहर और अंतर्मन एक था।
तन उजरा मन गादला , बगुला जैसा भेक
ऐसे से कागा भले , बाहर भीतर एक
कहते थे खुदा का करम है मैं मुनाफिक (पाखंडी) नहीं। मैंने गुनाह को हमेशा गुनाह समझकर किया।
दुकान दो साल से बंद पड़ी थी। छूट कर घर आये तो बीबी ने पूछा :
'अब क्या होयेगा?'
'बीबी, जरा तुम देखती जाओ'।
माशूक के होंठ
अबके दुकान चली और ऐसी चली कि औरों ही को नहीं स्वयं उन्हें भी आश्चर्य हुआ। दुकान के बाहर उसी शिकार की जगह यानी केबिन में उसी ठस्से से गावतकिये की टेक लगा कर बैठते, मगर आसन पसर गया था। पैरों की दिशा अब फर्श के मुकाबले आसमान की ओर अधिक हो गई थी। जेल में रहने से पहले किबला ग्राहक को हाथ से निवेदन करने वाले इशारे से बुलाते थे अब सिर्फ तर्जनी के हल्के से इशारे से तलब करने लगे। उंगली को इस तरह हिलाते जैसे डावांडोल पतंग को ठुमकी देकर उसकी दिशा दुरुस्त कर रहे हों। हुक्का पीते कम गुड़गुड़ाते जियादा थे। बदबूदार धुएं का छल्ला इस तरह छोड़ते कि ग्राहक की नाक में नथ की तरह लटक जाता। अक्सर कहते 'वाजिद अली शाह, जाने-आलम पिया ने, जो खूबसूरत नाम रखने में अपना जोड़ न रखते थे, हुक्के का कैसा प्यारा नाम रखा था... लबे-माशूक (माशूक के होंठ), जो व्यक्ति कभी हुक्के के पास से भी गुजरा है वो अच्छी तरह समझ सकता है कि जाने-आलम पिया का पाला कैसे होंठों से पड़ा होगा। चुनांचे अपदस्थ होने के बाद वो सिर्फ हुक्का अपने साथ मटियाबुर्ज ले गये। परीखाने के सारे माशूक लखनऊ में ही छोड़ दिये, चूंकि माशूक को नली पकड़ के गुड़गुड़ाया नहीं जा सकता।
बल्ली पे लटका दूंगा
कुछ दिन बाद उनका लंगड़ा दुश्मन यानी पहलवान सेठ दुकान बढ़ा कर कहीं और चला गया। किबला बात बेबात हरेक को धमकी देने लगे कि साले को बल्ली पे लटका दूंगा। आतंक का यह हाल कि इशारा तो बहुत बाद की बात है, किबला जिस ग्राहक की तरफ निगाह उठा कर भी देख लें, उसे कोई दूसरा नहीं बुलाता था। अगर वह खुद से दूसरी दुकान में चला भी जाये तो दुकानदार उसे लकड़ी नहीं दिखाता था। एक बार ऐसा भी हुआ कि सड़क पर यूं ही कोई राहगीर मुंह उठाये जा रहा था कि किबला ने उसे उंगली से अंदर आने का इशारा किया। जिस दुकान के सामने से वह गुजर रहा था, उसका मालिक और मुनीम उसे घसीटते हुए किबला की दुकान में अंदर धकेल गये। उसने रुआंसा हो कर कहा कि मैं तो मूलगंज पतंगों के पेच देखने जा रहा था।
वो इंतजार था जिसका, ये पेड़ वो तो नहीं
फिर यकायक उनका कारोबार ठप हो गया। वो कट्टर मुस्लिम लीगी थे। इसका असर उनके बिजनेस पर पड़ा। फिर पाकिस्तान बन गया। उन्होंने अपने नारे को हकीकत बनते देखा और दोनों की पूरी कीमत अदा की। ग्राहकों ने आंखें फेर लीं, दोस्त, रिश्तेदार जिनसे वो तमाम उम्र लड़ते झगड़ते और नफरत करते रहे, एक-एक करके पाकिस्तान चले गये, तो एक झटके के साथ यह खुला कि वो इन नफरतों के बगैर जिंदा नहीं रह सकते, और जब इकलौती बेटी और दामाद भी अपनी दुकान बेच के कराची सिधारे तो उन्होंने भी अपने तंबू की रस्सियां काट डालीं। दुकान औने-पौने एक दलाल के हाथ बेची। लोगों का कहना था कि 'बेनामी' सौदा है। दलाल की आड़ में दुकान दरअस्ल उसी लंगड़े पहलवान सेठ ने खरीद कर उनकी नाक काटी है। हल्का सा शक तो किबला को भी हुआ था मगर
'अपनी बला से, बूम ( उल्लू ) बसे या हुमा* रहे'
(वह चिड़िया जो किसी के सर पर साया कर दे , वह राजा हो जाता है )
वाली स्थिति थी। एक ही झटके में पीढ़ियों के रिश्ते नाते टूट गये और किबला ने पुरखों की जन्मभूमि छोड़ कर सपनों की जमीन की राह ली।
सारी उम्र शीशमहल में अपने मोरपंखी अभिमान का नाच देखते-देखते किबला कराची आये तो न सिर्फ जमीन अजनबी लगी, बल्कि अपने पैरों पर नजर पड़ी तो वो भी किसी और के लगे। खोलने को तो मार्किट में हरचंद राय रोड पर लश्तम पश्तम दुकान खोल ली, मगर बात नहीं बनी। गुजराती में कहावत है कि पुराने मटके पर नया मुंह नहीं चढ़ाया जा सकता। आने को तो वह एक नई हरी-भरी जमीन में आ गये, मगर उनकी बूढ़ी आंखें पिलखन को ढूंढ़ती रहीं। पिलखन तो दूर उन्हें कराची में नीम तक नजर न आया। लोग जिसे नीम बताते थे, वह दरअस्ल बकाइन थी, जिसकी निंबोली को लखनऊ में हकीम साहब पेचिश और बवासीर के नुस्खों में लिखा करते थे।
कहां कानपुर के देहाती ग्राहक, कहां कराची के नखरीले सागौन खरीदने वाले। वास्तव में उन्हें जिस बात से सबसे जियादा तकलीफ हुई वो ये कि यहां अपने आस-पास, यानी अपने दुखों की छांव में एक व्यक्ति भी ऐसा नजर नहीं आया जिसे वो अकारण और निर्भय होकर गाली दे सकें। एक दिन कहने लगे 'यहां तो बढ़ई आरी का काम जबान से लेता है। चार-पांच दिन हुए, एक बुरी जबान वाला, धृष्ट बढ़ई आया। इकबाल मसीह नाम था। मैंने कहा अबे परे हट कर खड़ा हो। कहने लगा ईसा मसीह भी तो तुरखान थे। मैंने कहा, क्या कुफ्र बकता है? अभी बल्ली पे लटका दूंगा। कहने लगा, ओह लोक वी ऐही, कहंदे सां! (वो लोग भी ईसा से यही कहते थे!)
मीर तक़ी मीर कराची में
पहली नजर में उन्होंने कराची को और कराची ने उनको रद्द कर दिया। उठते बैठते कराची में कीड़े डालते। शिकायत का अंदाज कुछ ऐसा होता था। हजरत! यह मच्छर हैं या मगरमच्छ? कराची का मच्छर डीडीटी से भी नहीं मरता, सिर्फ कव्वालों की तालियों से मरता है या गलती से किसी शायर को काट ले तो बावला होकर बेऔलाद मरता है। नमरूद (वह व्यक्ति जिसने पैगंबर इब्राहीम को जलाने की कोशिश की थी) की मौत नाक में मच्छर घुसने से हुई थी। कराची के मच्छरों की वंशावली कई नमरूदों से होती हुई उसी मच्छर की वंशावली से जा मिलती है और जरा जबान तो देखिए। मैंने पहली बार एक साहब को पट्टे वाला पुकारते सुना तो मैं समझा अपने कुत्ते को बुला रहे हैं। मालूम हुआ कि यहां चपरासी को पट्टे वाला कहते हैं। हर समय कुछ न कुछ फड्डा और लफड़ा होता रहता है, टोको तो कहते हैं उर्दू में इस स्थिति के लिए कोई शब्द नहीं है। भाई मेरे! उर्दू में यह स्थिति भी तो नहीं है। बंबई वाले शब्द और स्थितियां दोनों अपने साथ लाये हैं। मीर तकी मीर ऊंट गाड़ी में मुंह बांधे बैठे रहे, अपने हमसफर से इसलिए बात न की कि 'जबाने-गैर से अपनी जबां बिगड़ती है।' मीर साहब कराची में होते तो बखुदा मुंह पर सारी उम्र ढाटा बांधे फिरते। यहां तक कि डाकुओं का-सा भेस बनाये फिरने पर किसी डकैती में धर लिए जाते। अमां! टोंक वालों को अमरुद को सफरी (पित्त बनाने वाला) कहते तो हमने भी सुना था। यहां अमरूद को जाम कहते हैं और उस पर नमक-मिर्च की जगह साहब लगा दें तो अभिप्राय नवाब साहब लासबेला होते हैं। अपनी तरफ विक्टोरिया का मतलब मल्का टूरिया होता था। यहां किसी तरकीब से दस-बारह जने एक घोड़े पर सवारी गांठ लें तो उसे विक्टोरिया कहते हैं। मैं दो दिन लाहौर रुका था। वहां देखा कि जिस बाजार में कोयलों से मुंह काला किया जाता है वह हीरा मंडी कहलाती है। अब यहां नया फैशन चल पड़ा है। गाने वालों को गुलूकार और लिखने वाले को कलमकार कहने लगे हैं। मियां! हमारे समय में तो सिर्फ नेककार (अच्छे लोग) और बदकार (बुरे लोग) हुआ करते थे। कलम और गले से ये काम नहीं लिया जाता था। मैंने लालू खेत, बिहार-कालोनी, चाकीवाड़ा और गोलीमार का चप्पा-चप्पा देखा है। चौदह-पंद्रह लाख आदमी जुरूर रहते होंगे, लेकिन कहीं किताब और इत्र की दुकान न देखी। कागज तक के फूल नजर न आये। कानपुर में हम जैसे शरीफों के घराने में कहीं न कहीं मोतिया की बेल जुरूर चढ़ी होती थी। जनाब! यहां मोतिया सिर्फ आंखों में उतरता है। हद हो गई, कराची में लखपति, करोड़पति सेठ लकड़ी इस तरह नपवाता है जैसे किमख्वाब का टुकड़ा खरीद रहा हो। लकड़ी दिन में दो फुट बिकती है और बुरादा खरीदने वाले पचास! मैंने बरसों उपलों पर पकाया हुआ खाना भी खाया है लेकिन बुरादे की अंगीठी पर जो खाना पकेगा वो सिर्फ नर्क में जाने वाले मुर्दों के चालीसवें के लिए मुनासिब है।
भर पाये ऐसे बिजनेस से! माना कि रुपया बहुत कुछ होता है, मगर सभी कुछ तो नहीं। पैसे को जुरूरत पूरी करने वाला कहा गया है। बिल्कुल ठीक। मगर जब ये खुद सबसे बड़ी आवश्यकता बन जाये तो वो सिर्फ मौत से दूर होगी। मैंने तो जिदंगी में ऐसी कानी-खुतरी लकड़ी नहीं बेची। बढ़ई का ये साहस कि जती पे चढ़ के कमीशन मांगे। न दो तो माल को सड़े अंडे की तरह कयामत तक सेते रहो। हाय! न हुआ कानपुर। बिसौले से साले की नाक उतार कर हथेली पर रख देता कि जा! अपनी जुरवा (पत्नी) को महर में दे देना। वल्लाह! यहां का तो बाबा आदम ही निराला है। सुनता हूं, यहां के रेड लाइट एरिया नैपियर रोड और जापानी रोड पर तवायफें अपने-अपने दर्शनी झरोखों में लाल बत्तियां जलते ही कंटीली छातियों के पैड लगा कर बैठ जाती हैं। फिल्मों में भी इसी का प्रदर्शन होता है। यह तो वही बात हुई कि ओछे के घर तीतर, बाहर बांधूं कि भीतर। इस्लामी गणतंत्र की सरकार-बेसरोकार कुछ नहीं कहती, लेकिन किसी तवायफ को शादी ब्याह में मुजरे के लिए बुलाना हो तो पहले इसकी सूचना थाने को देनी पड़ती है। रंडी को परमिट राशनकार्ड पे मिलते हमने यहीं देखा। ऐश का सामान मांगने के वक्त न मिला तो किस काम का। दर्शनी मंडियों में दर्शनी हुंडियों का क्या काम।
मिर्जा अब्दुल बेग इस स्थिति की कुछ और ही व्याख्या करते हैं। कहते हैं कि तवायफ को थाने से N.O.C. इसलिए लेना पड़ता है कि पुलिस पूरी तरह इत्मीनान कर ले कि वो अपने धंधे पर ही जा रही है। धार्मिक प्रवचन सुनने या राजनीति में हिस्सा लेने नहीं जा रही।
एक दिन किबला कहने लगे, 'अभी कुछ दिन हुए कराची की एक नामी-गिरामी तवायफ का गाना सुनने का मौका मिला। अमां! उसका उच्चारण तो चाल-चलन से भी जियादा खराब निकला। हाय! एक जमाना था कि शरीफ लोग अपने बच्चों को शालीनता सीखने के लिए चौक की तवायफों के कोठों पर भेजते थे।' इस बारे में भी मिर्जा कहते हैं कि तवायफों के कोठों पर तो इसलिए भेजते थे कि बुजुर्गों के साथ रहने और घर के माहौल से बचे रहें।
दौड़ता हुआ पेड़
कराची शहर उन्हें किसी तरह और किसी तरफ से अच्छा नहीं लगा। झुंझला कर बार-बार कहते, 'अमां! यह शहर है या जहन्नुम?' मिर्जा किसी ज्ञानी के शब्दों में तब्दीली करके कहते हैं, 'किबला इस दुनिया से कूच करने के बाद अगर खुदा करे, वहीं पहुंच गये जिससे कराची की मिसाल दिया करते हैं तो चारों तरफ नजर दौड़ाने के बाद यह कहेंगे कि हमने तो सोचा था कराची छोटा-सा जहन्नुम है। जहन्नुम तो बड़ा-सा कराची निकला।'
एक बार उनके एक करीबी दोस्त ने उनसे कहा कि तुम्हें समाज में खराबियां ही खराबियां नजर आती हैं तो बैठे-बैठे इन पर कुढ़ने की जगह सुधार की सोचो। बोले, 'सुनो! मैंने एक जमाने में पी.डब्ल्यू.डी. के काम भी किये हैं, मगर नर्क की एयर-कंडीशनिंग का ठेका नहीं ले सकता।'
बात सिर्फ इतनी थी कि अपनी छाप, तिलक और छब छिनवाने से पहले वो जिस आईने में खुद को देख-देख कर सारी उम्र इतराया किये, उसमें जब नई दुनिया और नये वतन को देखा तो वह जमाने की गर्दिशों से Distorting Mirror बन चुका था, जिसमें हर शक्ल अपना ही मुंह चिढ़ाती नजर आती थी। उनके कारोबारी हालात तेजी से बिगड़ रहे थे। बिजनेस, न होने के बराबर था। उनकी दुकान पर एक तख्ती लटके देख कर हमें दुःख हुआ।
न पूछ हाल मिरा , चोबे - खुश्के - सहरा हूं
लगा के आग जिसे कारवां रवाना हुआ
(मेरा हाल न पूछ मैं रेगिस्तान की सूखी लकड़ी हूं , जिसे आग लगा कर कारवां चला गया )
हमने उनका दिल बढ़ाने के लिए कहा, आपको चोबे-खुश्क (सूखी लकड़ी) कौन कह सकता है? आपकी जवां हिम्मती और मुस्तैदी पर तो हमें ईर्ष्या ही होती है। अकस्मात् मुस्कुराये, जबसे डेन्चर्ज टूटे, मुंह पर रूमाल रख कर हंसने लगे थे। कहने लगे, आप जवान आदमी हैं। अपना तो यह हाल हुआ कि
मुन्फइल हो गये कवा गालिब
अब अनासिर में एतदाल कहां
(सारे अंग प्रत्यंग कमजोर हो गये। अब तत्वों में सामंजस्य कहां )
मैं वो पेड़ हूं जो ट्रेन में जाते हुए मुसाफिर को दौड़ता हुआ नजर आता है।
मेरे ही मन का मुझ पर धावा
यूं वो जहां तक मुमकिन हो अपने गुस्से को कम नहीं होने देते थे, कहते थे मैं ऐसी जगह एक मिनट भी नहीं रहना चाहता, जहां आदमी, किसी पर गुस्सा ही न हो सके और जब उन्हें ऐसी ही जगह रहना पड़ा तो वो जिंदगी में पहली बार अपने आपसे रूठे। अब वो आप ही आप कुढ़ते, अंदर ही अंदर खौलते, जलते, सुलगते रहते :
मेरे ही मन का मुझ पर धावा
मैं ही आग हूं , मैं ही ईंधन
उन्हीं का कहना है कि याद रखो, गुस्सा जितना कम होगा, उसकी जगह उदासी लेती जायेगी, और यह बड़ी बुजदिली की बात है। बुजदिली के ऐसे ही उदास लम्हों में अब उन्हें अपना गांव जहां बचपन गुजरा था, बेतहाशा याद आने लगता। बिखरी-बिखरी जिंदगी ने अतीत में शरण तलाश कर ली। जैसे अलबम खुल गया।
धुंधली, पीले से रंग की तस्वीरें विचार-दर्पण में बिखरती चली जातीं। हर तस्वीर के साथ जमाने का पृष्ठ उलटता चला गया। हर स्नेप शॉट की अपनी एक कहानी थी। धूप में अबरक के जर्रों से चिलकती कच्ची सड़क पर घोड़ों के पसीने की नर महकार, भेड़ के बच्चे को गले में मफलर की तरह डाले शाम को खुश-खुश लौटते किसान। पर्दों के पीछे हरसिंगार के फूलों से रंगे हुए दुपट्टे, अरहर के हरे-भरे खेत में पगडंडी की मांग, सूखे में सावन के थोथे बादलों को रह-रह कर ताकती निराश आंखें, जाड़े की उजाड़ रातों में ठिठुरते गीदड़ों की आवाजें, चिराग जले बाड़े में लौटती गायों के गले में बजती हुई घंटियां। काली भंवर रात में चौपाल की जलती बुझती गश्ती चिलम पर लंबे होते हुए कश, मोतिया के गजरों की लपट के साथ कुंवारे बदन की महक, डूबते सूरज की पीली रोशनी में ताजा कब्र पर जलती हुई अगरबत्ती का बल खाता धुआं, दहकती बालू में तड़कते चनों की सोंधी लपट से फड़कते हुए नथुने, म्यूनिस्पिल्टी की मिट्टी के तेल की लालटेन का भभका। यह थी उनके गांव की सत सुगंध। यह उनकी अपनी नाभि की महक थी, जो यादों के जंगल में बावली फिरती थी।
ओलती की टपाटप
सत्तर साल के बच्चे की सोच में तस्वीरें गडमड होने लगतीं। खुश्बुऐं, नरमाहटें और आवाजें भी तस्वीरें बन-बन कर उभरतीं। उसे अपने गांव में मेंह बरसने की एक-एक आवाज अलग सुनायी देती। टीन की छत पर तड़-तड़ बजते हुए ताशे, सूखे पत्तों पर करारी बूंदों का शोर, पक्के फर्श पर जहां उंगल भर पानी खड़ा हो जाता, वहां मोटी बूंद गिरती तो मोतियों का एक ताज-सा हवा में उछल पड़ता, तपती खपरैलों पर उड़ती बदली के झाले की सनसनाहट, गर्मी के दानों से उपेड़ बालक-बदन पर बरखा की पहली फुहार, जैसे किसी ने मेंथोल में नहला दिया हो, जवान बेटे की कब्र पर पहली बारिश और मां का नंगे सर आंगन में आ-आ कर आसमान की तरफ देखना, फबक उठने के लिए तैय्यार मिट्टी पर टूट के बरसने वाले बादल की हरावल गरम लपट, ढोलक पर सावन के गीत की ताल पर बजती चूड़ियां और बेताल ठहाके, सूखे तालाब के पेंदे की चिकनी मिट्टी में पड़ी हुई दराड़ों के जाल में तरसा-तरसा कर बरसने वाली बारिश के सरसराते रेले। खंबे से लटकी हुई लालटेन के सामने जहां तक रोशनी थी, मोतियों की रिमझिम झालर, हुमक-हुमक कर पराये आंगन में गिरते परनाले। आमों के पत्तों पर मंजीरे बजाती नर्सल बौजर और झूलों पर पींगे लेती लड़कियां और फिर रात के सन्नाटे में, पानी थमने के बाद, सोते जागते ओलती की टपाटप। ओलती की टपाटप तक पहुंचते-पहुंचते किबला की आंखें जल-थल हो जातीं। बारिश तो हम उन्हें लाहौर और नथैया गली की ऐसी दिखा सकते थे कि बीती उम्र की सारी टपाटप भूल जाते। पर ओलती कहां से लाते? इसी तरह आम तो हम मुलतान का एक से एक पेश कर सकते थे। दसहरी, लंगड़ा, समर बहिश्त, अनवर रटौल, लेकिन हमारे पंजाब में तो ऐसे पेड़ हैं ही नहीं जिनमें आमों की जगह लड़कियां लटकी हुई हों।
इसलिए ऐसे अवसर पर हम खामोश, हमातन-गोश (पूरा शरीर कान बन जाता) बल्कि खरगोश बने ओलती की टपाटप सुनते रहते।
किबला का रेडियो ऊंचा सुनता था
दरिया के बहाव के विरुद्ध तैरने में तो खैर कोई नुक्सान नहीं, हमारा मतलब है दरिया का नुक्सान नहीं, लेकिन किबला तो सैकड़ों फुट की ऊंचाई से गिरते हुए नियाग्रा फॉल पर तैर कर चढ़ना चाहते थे या यूं कहिये कि तमाम उम्र नीचे उतरने वाले एस्केलेटर से ऊपर चढ़ने की कोशिश करते रहे और एस्केलेटर बनाने वाले को गालियां देते रहे। एक दिन कहने लगे, 'मियां यह तुम्हारा शहर भी अजीब शहर है। न खरीदारी की तमीज, न छोटों के आदाब, न किसी के बड़प्पन का लिहाज। मैं जिस जमाने में बिशारत मियां के साथ बिहार कालोनी में रहता था, उस जमाने में रेडियो में कार की बैटरी लगानी पड़ती थी। बिहार कालोनी में बिजली नहीं थी। उसका रखना और चलाना एक दर्दे-सर था। बिशारत मियां रोजाना बैटरी अपने कारखाने ले जाते और चार्ज होने के लिए आरा मशीन में लगा देते। सात-आठ घंटे में इतनी चार्ज हो जाती थी कि बस एकाध घंटे बी.बी.सी. सुन लेता था। इसके बाद रेडियो से आरा मशीन की आवाजें आने लगतीं और मैं उठ कर चला आता। घर के पिछवाड़े एक पच्चीस फुट ऊंची, निहायत कीमती, बेगांठ बल्ली गाड़ कर एरियल लगा रखा था। इसके बावजूद वो रेडियो ऊंचा सुनता था। आये दिन पतंग उड़ाने वाले लौंडे मेरे एरियल से पेच लड़ाते। मतलब यह कि उसमें पतंग उलझा कर जोर आजमायी करते। डोर टूट जाती, एरियल खराब हो जाता। अरे साहब! एरियल क्या था, पतंगों का हवाई कब्रिस्तान था। उस पर यह कटी पतंगें चौबीस घंटे इस तरह फड़फड़ाती रहतीं जैसे सड़क के किनारे किसी नये मरे हुए पीर के मजार पर झंडियां। पच्चीस फुट की ऊंचाई पर चढ़ कर एरियल दोबारा लगाना, न पूछिये कैसा कष्टदायक था। बस यूं समझिये! सूली पे लटक के बी.बी.सी. सुनता था। बहरहाल, जब बर्नस रोड वाले फ्लैट में जाने लगा तो सोचा वहां तो बिजली है, चलो रेडियो बेचते चलें। बिशारत मियां भी तंग आ गये थे। कहते थे, इससे तो पतंगों की फड़फड़ाहट ब्रॉडकास्ट होती रहती है। एक दूर के पड़ोसी से 250 रुपये में सौदा पक्का हो गया। सवेरे-सवेरे वो नक्द रकम ले आया और मैंने रेडियो उसके हवाले कर दिया। रात को ग्यारह बजे फाटक बंद करने बाहर निकला तो क्या देखता हूं कि वो आदमी और उसके बैल जैसी गर्दन वाले दो बेटे कुदाल, फावड़ा लिए मजे से एरियल की बल्ली उखाड़ रहे हैं। मैंने डपट कर पूछा, ये क्या हो रहा है? सीनाजोरी देखिए! कहते हैं बड़े मियां, बल्ली उखाड़ रहे हैं, हमारी है।
'ढाई सौ रुपये में रेडियो बेचा है, बल्ली से क्या मतलब?
मतलब नहीं तो हमारे साथ चलो और जरा बल्ली के बिना बजा के दिखा दो। ये तो इसकी Accessory है।'
'न हुआ कानपुर, साले की जबान गुद्दी से खींच लेता और इन हरामी पिल्लों की बैल जैसी गर्दन एक ही बार में भुट्टा-सी उड़ा देता। मैंने तो जिंदगी में ऐसा बेईमान आदमी नहीं देखा। इस दौरान वो कमीन बल्ली उखाड़ के जमीन पे लिटा चुका था। एक बार जी में आया कि अंदर जा कर 12 बोर ले आऊं और इसे भी बल्ली के बराबर लंबा लिटा दूं, फिर खयाल आया कि बंदूक का लाइसेंस तो समाप्त हो चुका है और कमीने के मुंह क्या लगना, इसकी बेकुसूर बीबी रांड हो जायेगी। वो जियादा कानून छांटने लगा तो मैंने कहा, जा जा, तू क्या समझता है? बल्ली की हकीकत क्या है, ये देख, ये छोड़ के आये हैं।' किबला हवेली की तस्वीर दिखाते ही रह गये और वो तीनों बल्ली उठा कर ले गये।
अपाहिज बीबी और गश्ती चिलम
उनकी जिंदगी का एक पहलू ऐसा था जिसके बारे में किसी ने उन्हें इशारों में भी बात करते नहीं सुना। हम शुरु में बता चुके हैं कि उनकी शादी बड़े चाव-चोंचले से हुई थी। बीबी बहुत खूबसूरत, नेक और सुघड़ थीं। शादी के कुछ साल बाद एक ऐसी बीमारी हुई कि कलाइयों तक दोनों हाथों से अपंग हो गयीं। करीबी रिश्तेदार भी मिलने से बचने लगे। रोजमर्रा की मुलाकातें, शादी-गमी में जाना, सभी सिलसिले आहिस्ता-आहिस्ता टूट गये। घर का सारा काम आया और नौकर तो नहीं कर सकते। किबला ने जिस मुहब्बत और दर्दमंदी से तमाम उम्र उनकी सेवा और देख-रेख की, इसका उदाहरण मुश्किल से मिलेगा। कभी ऐसा नहीं हुआ कि उनकी चोटी बेगुंथी और दुपट्टा बेचुना हो, या जुमे को कासनी रंग का न हो। साल गुजरते चले गये, समय ने सर पर कासनी दुपट्टे के नीचे रुई के गाले जमा दिये। मगर उनकी सेवा और प्यार में जरा जो फर्क आया हो। विश्वास नहीं होता था कि दोस्ती और मुहब्बत का यह रूप उसी गुस्सैल आदमी का है जो घर के बाहर एक चलती हुई तलवार है। जिंदगी भर का साथ हो तो सब्र और स्वभाव की परीक्षा के हजार मोड़ आते हैं, मगर उन्होंने उस बीबी से कभी ऊंची आवाज में भी बात नहीं की।
कहने वाले कहते हैं कि उनकी झल्लाहट और गुस्से की शुरुआत इसी बीमारी से हुई। वो बीबी तो मुसल्ले (नमाज पढ़ने का कपड़ा) पर ऐसी बैठीं कि दुनिया ही में जन्नत मिल गई। किबला को नमाज पढ़ते किसी ने नहीं देखा, लेकिन जिंदगी भर जैसी सच्ची मुहब्बत और रातों को उठ-उठ कर जैसी रियाजत (तपस्या) उन्होंने की, वही उनका दुरूद वजीफा (एक तरह की दुआ) और वही उनकी आधी रात की दुआएँ थीं। वह बड़ा बख्शन-हार है, शायद यही उनकी मुक्ति का वसीला बन जाये। एक दौर ऐसा भी आया कि बीबी से उनकी परेशानी देखी न गई। खुद कहा, किसी रांड बेवा से शादी कर लो। बोले, हां! भगवान! करेंगे। कहीं दो गज जमीन का एक टुकड़ा है जो न जाने कब से हमारी बरात की राह देख रहा है। वहीं चार कांधों पर डोला उतरेगा। बीबी! मिट्टी सदा सुहागन है -
'सो जायेंगे इक रोज जमीं ओढ़ के हम भी'
बीबी की आंखों में आंसू देखे तो बात का रुख फेर दिया। वो अपनी सारी इमेजिरी, लकड़ी, हुक्के और तंबाकू से लिया करते थे। बोले, बीबी! यह रांड बेवा की कैद तुमने क्या सोच के लगाई? तुमने शायद वो पूरबी कहावत नहीं सुनी : पहले पीवे भकुवा, फिर पीवे तमकुवा, पीछे पीवे चिलम चाट यानी जो आदमी पहले हुक्का पीता है वो बुद्धू है कि दरअस्ल वो तो चिलम सुलगाने और ताव पर लाने में ही जुटा रहता है। तंबाकू का अस्ल मजा तो दूसरे आदमी के हिस्से में आता है और जो अंत में पीता है वो जले हुए तंबाकू से खाली भक-भक करता है।
हम जिधर जायें दहकते जायें
कराची में दुकान तो फिर भी थोड़ी बहुत चली, मगर किबला बिल्कुल नहीं चले। जमाने की गर्दिश पर किसका जोर चला है जो उनका चलता। हादसों को रोका नहीं जा सकता, हां, सोच से हादसों का जोर तोड़ा जा सकता है। व्यक्तित्व में पेच पड़ जायें तो दूसरों के अतिरिक्त खुद अपने-आप को भी तकलीफ देते हैं, लेकिन जब वो निकलने लगें तो और अधिक कष्ट होता है। कराची आने के बाद अक्सर कहते कि डेढ़ साल जेल में रह कर जो बदलाव मुझमें न आया, वो यहां एक हफ्ते में आ गया। यहां तो बिजनेस करना ऐसा है जैसे सिंघाड़े के तालाब में तैरना। कानपुर ही के छुटे हुए छाकटे यहां शेर बने दनदनाते फिरते हैं और अच्छे-अच्छे शरीफ हैं कि गीदड़ की तरह दुम कटवा के भट में जा बैठे। ऐसा बिजोग पड़ा कि 'खुद-ब-खुद बिल में है हर शख्स समाया जाता' जो बुद्धिमान हैं वो अपनी दुमें छुपाये बिलों में घुसे बैठे हैं, बाहर निकलने की हिम्मत नहीं पड़ती। इस पर मिर्जा ने हमारे कान में कहा :
'अनीस 'दुम' का भरोसा नहीं , ठहर जाओ'
एक दोस्त ने अपनी इज्जत-आबरू जोखिम में डालकर किबला से कहा कि गुजरा हुआ जमाना लौट कर नहीं आ सकता। हालात बदल गये हैं, आप भी खुद को बदलिए, मुस्कुरा के बोले खरबूजा खुद को गोल कर ले तब भी तरबूज नहीं बन सकता। बात यह थी कि जमाने का रुख पहचानने की शक्ति, क्षमता, नर्मी और लचक न उनके स्वभाव में थी और न जमींदाराना माहौल और समाज में इनकी गिनती गुणों में होती थी। सख्ती, अभिमान, गुरूर और गुस्सा अवगुण नहीं बल्कि सामंती चरित्र की मजबूती की दलील समझे जाते थे और जमींदार तो एक तरफ रहे, उस जमाने के धार्मिक स्कॉलर तक इन गुणों पर गर्व करते थे।
किबला के हालात तेजी से बिगड़ने लगे तो उनके हमदर्द मियां इनआम इलाही ने, जो छोटे होने के बावजूद उनके स्वभाव और मामलात में दख्ल रखते थे, कहा कि दुकान खत्म करके एक बस खरीद लीजिए। घर बैठे आमदनी होगी। रूट परमिट मेरा जिम्मा। आजकल इस धंधे में बड़ी चांदी है, एकदम जलाल (तेज गुस्सा) आ गया। फर्माया चांदी तो तबला सारंगी बजाने में भी है। एक रख-रखाव की रीत बुजुर्गों से चली आ रही है, जिसका तकाजा है कि बरबाद होना ही मुकद्दर में लिखा है तो अपने पुराने और आजमाये हुए तरीके से होंगे, बंदा ऐसी चांदी पर लात मारता है।
आखिरी गाली
कारोबार मंदा बल्कि बिल्कुल ठंडा, तबीयत में उदासी। दुकानदारी अब उनकी आर्थिक नहीं, मानसिक आवश्यकता थी। समझ में नहीं आता था कि दुकान बंद कर दी तो घर में पड़े क्या करेंगे, फिर एक दिन यह हुआ कि उनका नया पठान मुलाजिम जर्रीन गुल खान कई घंटे देर से आया। वो हर प्रकार से गुस्से को पीने की कोशिश करते थे लेकिन पुरानी आदत कहीं जाती है। चंद माह पहले उन्होंने एक साठ साला मुंशी आधी तनख्वाह पर रखा था, जो गेरुवे रंग का ढीला-ढाला लबादा पहने, नंगे पैर जमीन पर आल्थी-पाल्थी मारे हिसाब किताब करता था। कुर्सी या किसी भी ऊंची चीज पर बैठना उसके संप्रदाय में मना था।
वारसी सिलसिले के किसी बुजुर्ग से दीक्षा ली थी। मेहनती, ईमानदार, रोजे नमाज का पाबंद, तुनकमिजाज और काम में चौपट था। किबला ने तैश में आकर एक दिन उसे हरामखोर कह दिया। सफेद दाढ़ी का लिहाज भी न किया। उसने आराम से कहा, 'दुरुस्त! हुजूर के यहां जो चीज मिलती है वही तो फकीर खायेगा। सलाम अलैकुम' और ये जा वो जा। दूसरे दिन से मुंशी जी ने नौकरी पर आना और किबला ने हरामखोर कहना छोड़ दिया, लेकिन हरामखोर के अलावा और भी तो दिल दुखाने वाले बहुतेरे शब्द हैं। जर्रीन गुल खान को सख्त सुस्त कहते-कहते उनके मुंह से रवानी और गुस्से में वही गाली निकल गई जो अच्छे दिनों में उनका तकिया कलाम हुआ करती थी। गाली की भयानक गूंज दर्रा-आदम खेल के पहाड़ों तक ठनठनाती पहुंची, जहां जर्रीन गुल की विधवा मां रहती थी। वो छह साल का था जब मां ने वैधव्य की चादर ओढ़ी थी। बारह साल का हुआ तो उसने वादा किया था कि मां! मैं बड़ा हो जाऊंगा तो नौकरी करके तुझे पहली तनख्वाह से बगैर पैबंद की चादर भेजूंगा। उसे आज तक किसी ने यह गाली नहीं दी थी। जवान खून, गुस्सैल स्वभाव, पठान के स्वाभिमान का सवाल था। जर्रीन गुल खान ने उनकी तिरछी टोपी उतार कर फेंक दी और चाकू तान कर खड़ा हो गया। कहने लगा, 'बुड्ढे! मेरे सामने से हट जा, नहीं तो अभी तेरा पेट फाड़ के कलेजा कच्चा चबा जाऊंगा। तेरा पलीद मुर्दा बल्ली पे लटका दूंगा।'
एक ग्राहक ने बढ़कर चाकू छीना। बुड्ढे ने झुक कर जमीन से अपनी मखमली टोपी उठायी और गर्द झाड़े बगैर सर पर रख ली।
कौन कैसे टूटता है
दस पंद्रह मिनट बाद वो दुकान में ताला डाल कर घर चले आये और बीबी से कह दिया, अब हम दुकान नहीं जायेंगे। कुछ देर बाद मोहल्ले की मस्जिद से इशा (रात की नमाज) की आवाज बुलंद हुई और वो दूसरे ही 'अल्ला हो अकबर' पर हाथ-पांव धो कर कोई चालीस साल बाद नमाज के लिए खड़े हुए तो, बीबी धक-से रह गयीं कि खैर तो है। वो खुद भी धक से रह गये। इसलिए कि उन्हें दो सूरों के अलावा कुछ याद नहीं रहा था। वितरे भी अधूरे छोड़ कर सलाम फेर लिया कि यह तक याद नहीं आ रहा था कि दुआए-कुनूत (नमाज में पढ़ी जाने वाली दुआ) के शुरू के शब्द क्या हैं।
वो सोच भी नहीं सकते थे कि आदमी अंदर से टूट भी सकता है और यूं टूटता है। और जब टूटता है तो अपनों, बेगानों से, हद यह कि अपने सबसे बड़े दुश्मन से भी सुल्ह कर लेता है यानी अपने-आप से। इसी मंजिल पर अंतःदृष्टि खुलती है, बुद्धि और चेतना के दरवाजे खुलते हैं।
ऐसे भी लोग हैं जो जिंदगी की सख्तियों, परेशानियों से बचने की खातिर खुद को अकर्मण्यता के घेरे में कैद रखते हैं। ये भारी और कीमती पर्दों की तरह लटके-लटके ही लीर-लीर हो जाते हैं। कुछ गुम-सुम गम्भीर लोग उस दीवार की तरह तड़खते हैं जिसकी महीन-सी दरार, जो उम्दा पेंट या किसी सजावटी तस्वीर से आसानी से छुप जाती है, इस बात की चुगली खाती है कि नींव अंदर ही अंदर सदमे से जमीन में धंस रही है। कुछ लोग चीनी के बर्तन की तरह टूटते हैं कि मसाले से आसानी से जुड़ तो जाते हैं, मगर बाल और जोड़ पहले नजर आता है, बर्तन बाद में। कुछ ढीठ और चिपकू लोग ऐसे अटूट पदार्थ के बने होते हैं कि च्विंगम की तरह कितना ही चबाओ टूटने का नाम नहीं लेते।'खींचने से खिंचते हैं, छोड़े से जाते हैं सुकड़' आप उन्हें हिकारत से थूक दें तो जूते से इस बुरी तरह चिपकते हैं कि छुटाये नहीं छूटते। रह-रह कर खयाल आता है कि इससे तो दांतों तले ही भले थे कि पपोल तो लेते थे। ये च्विंगम लोग खुद आदमी नहीं पर आदमी की पहचान रखने वाले लोग हैं। यह कामयाब लोग हैं। इन्होंने इंसान को देखा, परखा और बरता है और उसे खोटा पाया तो खुद भी खोटे हो गये, और कुछ ऐसे भी हैं कि कार के विंड स्क्रीन की तरह होते हैं। साबुत और ठीक हैं तो ऐसे पारदर्शी कि दुनिया का नजारा कर लो और एकाएक टूटे तो ऐसे टूटे कि न बाल पड़ा न दरके, न तड़खे। ऐसे रेजा-रेजा हुए कि न वो पहचान रही, न दुनिया की जलवागरी रही, न आईने का पता कि कहां था, किधर गया।
और एक अभिमान है कि यूं टूटता है जैसे राजाओं का प्रताप। हजरत सुलेमान छड़ी की टेक लगाये खड़े थे कि मृत्यु आ गई लेकिन उनका बेजान शरीर एक मुद्दत तक उसी तरह खड़ा रहा और किसी को शक तक न गुजरा कि वो इंतकाल फर्मा चुके हैं। वो उसी तरह बेरूह खड़े रहे और उनके रोब व दबदबे से कारोबारे-सल्तनत नियम के अनुसार चलता रहा। उधर छड़ी को धीरे-धीरे घुन अंदर से खाता रहा। यहां तक कि एक दिन वो चटाख से टूट गई और हजरत सुलेमान की नश्वर देह जमीन पर आ गई। उस समय उनकी प्रजा पर खुला कि वो दुनिया से पर्दा फर्मा चुके हैं।
सो वो दीमक लगी गुरूर-गुस्से की छड़ी, जिसके बल किबला ने जिंदगी गुजारी थी, आज शाम टूट गई और जीने का वो जोश और हंगामा भी खत्म हो गया।
मैं पापन ऐसी जली कोयला भयी न राख
उन्हें उस रात नींद नहीं आई। फज्र (सूरज निकलने से पहले की नमाज) की अजान हो रही थी कि टिंबर मार्किट का एक चौकीदार हांपता-कांपता आया और खबर दी कि 'साहब जी! आपकी दुकान और गोदाम में आग लग गई है। आग बुझाने के इंजन तीन बजे ही आ गये थे। सारा माल कोयला हो गया। साहब जी! आग कोई आप ही आप थोड़ी लगती है।' वो जिस समय दुकान पर पहुंचे तो सरकारी जबान में आग पर काबू पाया जा चुका था, जिसमें फायर बिग्रेड की मुस्तैदी और भरपूर कार्यक्षमता के अलावा इसका भी बड़ा दख्ल था कि अब जलने के लिए कुछ रहा नहीं था। शोलों की लपलपाती जबानें काली हो चुकी थीं। अल्बत्ता चीड़ के तख्ते अभी तक धड़-धड़ जल रहे थे, और वातावरण दूर-दूर तक उनकी तेज खुशबू में नहाया हुआ था। माल जितना था सब जल कर राख हो चुका था, सिर्फ कोने में उनका छोटा सा दफ्तर बचा था।
अरसा हुआ, कानपुर में जब लाला रमेश चंद्र ने उनसे कहा कि हालात ठीक नहीं हैं, गोदाम की इंश्योरेंस पालिसी ले लो, तो उन्होंने मलमल के कुर्ते की चुनी हुई आस्तीन उलट कर अपने बाजू की फड़कती हुई मछलियां दिखाते हुए कहा था। 'ये रही यारों की इंश्योरेंस पालिसी!' फिर अपने डंटर फुला कर लाला रमेश चंद्र से कहा, 'जरा छू कर देखो' लाला जी ने अचंभे से कहा 'लोहा है लोहा!' बोले 'नहीं, फौलाद कहो।'
दुकान के सामने लोगों की भीड़ लगी थी। उनको लोगों ने इस तरह रास्ता दिया जैसे जनाजे को देते हैं। उनका चेहरा एकदम भावहीन था। उन्होंने अपने दफ्तर का ताला खोला। इन्कम टैक्स का हिसाब और रजिस्टर बगल में मारे और गोदाम के पश्चिमी हिस्से में जहां चीड़ से अभी शोले और खुशबू की लपटें उठ रही थीं, तेज-तेज कदमों से गये। पहले इंकमटैक्स के खाते और उनके बाद चाबियों का गुच्छा आग में डाला। फिर आहिस्ता-आहिस्ता दायें-बायें नजर उठाये बिना दुबारा अपने दफ्तर में दाखिल हुए। हवेली का फोटो दीवार से उतारा। रूमाल से पोंछ कर बगल में दबाया और दुकान जलती छोड़ कर घर चले आये।
बीबी ने पूछा 'अब क्या होयेगा?'
उन्होंने सर झुका लिया।
अक्सर खयाल आता है, अगर फरिश्ते उन्हें जन्नत की तरफ ले गये जहां मोतिया धूप होगी और कासनी बादल, तो वो जन्नत के दरवाजे पर कुछ सोच कर ठिठक जायेंगे। दरबान जल्दी अंदर दाखिल होने का इशारा करेगा तो वो सीना ताने उसके पास जा कर कुछ दिखाते हुए कहेंगे :
'ये छोड़ कर आये हैं।'

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('खोया पानी' का उर्दू से हिंदी में अनुवाद तुफ़ैल चतुर्वेदी ने किया है। उनका मूल नाम विनय कृष्ण हैं। वे उर्दू के कवि और अर्धवार्षिक पत्रिका 'लफ्ज' के संपादक हैं।)
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