हर व्यक्ति के मन में ऐश्वर्य और भोग-विलास का एक नक्शा होता है। ये नक्शा दरअस्ल उस ठाट-बाट की नक्ल होता है जो दूसरों के हिस्से में आया है, परंतु जो दुख आदमी सहता है वो अकेला उसका अपना होता है, बिना किसी साझेदारी के, एकदम निजी, एकदम अनोखा। हड्डियों को पिघला देने वाली जिस आग से वो गुजरता है, उसका अनुमान कौन लगा सकता है। नर्क की आग में ये गर्मी कहां। जैसा दाढ़ का दर्द मुझे हुआ है, वैसा किसी और को न कभी हुआ, न होगा। इसके विपरीत ठाट-बाट का ब्लू-प्रिंट हमेशा दूसरों से चुराया हुआ होता है। बिशारत के दिमाग में ऐश्वर्य और विलास का जो सौरंगा और हजार पैवंद लगा चित्र था, वो बड़ी-बूढ़ियों की उस रंगारंग रल्ली की भांति था जो वो भिन्न-भिन्न रंगों की कतरनों को जोड़-जोड़ कर बनाती हैं। उसमें, उस समय का जागीरदाराना दबदबा और ठाट, बिगड़े रईसों का जोश और ठस्सा, मिडिल-क्लास दिखावा, कस्बाती-उतरौनापन, नौकरी-पेशा हुस्न, सादा-दिली और नदीदापन सब बुरी तरह गडमड हो गए थे। उन्हीं का कहना है कि बचपन में मेरी सबसे बड़ी इच्छा थी कि तख्ती फेंक-फांक, किताब फाड़-फूड़ मदारी बन जाऊं, शहर-शहर डुगडुगी बजाता, बंदर, भालू, जमूरा नचाता और 'बच्चा लोग' से ताली बजवाता फिरूं। जब जरा अक्ल आई अर्थात बुरे और बहुत बुरे की समझ पैदा हुई तो मदारी की जगह स्कूल मास्टर ने ले ली और जब धीरजगंज में सच में मास्टर बन गया तो मेरी राय में अय्याशी की चरम-सीमा ये थी कि मक्खन जीन की पतलून, दो-घोड़ा बोस्की की कमीज, डबल कफों में सोने के छटांक-छटांक भर के बटन, नया सोला हैट और पेटेंट लैदर के पंप-शूज पहनकर स्कूल जाऊं और लड़कों को केवल अपनी गजलें पढ़ाऊं। सफेद सिल्क की अचकन जिसमें बिदरी के काम वाले बटन गले तक लगे हों, जेब में गंगा-जमनी काम की पानों की डिबिया, सर पर सफेद किमख्वाब की रामपुरी टोपी, तिरछी मगर जरा शरीफना ढंग से लेकिन ऐसा भी नहीं कि निरे शरीफ ही हो के रह जायें। छोटी बूटी की चिकन का सफेद कुर्ता जो मौसम के लिहाज से हिना या खस की खुशबू में बसा हो। चूड़ीदार पाजामे में सुंदर लड़की के हाथ का बुना हुआ रेशमी कमरबंद। सफेद सलीमशाही जूता। पैरों पर डालने के लिए इटालियन कंबल, जो फिटन में जुते हुए सफेद घोड़े की दुम और उससे दूर तक उड़ने वाले पेशाब-पाखाने के छींटों से पाजामे को सुरक्षित रखे। फिटन के पिछले पायदान पर 'हटो! बचो!' करते और उस पर लटकने का प्रयास करने वाले बच्चों को चाबुक मारता हुआ साईस। जिसकी कमर पर जरदोजी के काम की पेटी और टखने से घुटने तक खाकी नम्दे की पट्टियां बंधी हों। बच्चा अब सयाना हो गया था। बचपन विदा हो गया था, पर बचपना नहीं गया था।
बच्चा अपने खेल में जिस उत्साह और सच्ची लगन के साथ तल्लीन होता है कि अपने-आप को भूल जाता है, बड़ों के किसी मिशन और मुहिम में इसका दसवें का दसवां भाग भी दिखाई नहीं पड़ता। इसमें शक नहीं कि संसार का बड़े-से-बड़ा दार्शनिक भी किसी खेल में मग्न बच्चे से अधिक गंभीर नहीं हो सकता।
खिलौना टूटने पर बच्चे ने रोते-रोते अचानक रौशनी की ओर देखा तो आंसू में इंद्रधनुष झिलमिल-झिलमिल करने लगा। फिर वो सुबकियां लेते-लेते सो गया। वही खिलौना बुढ़ापे में किसी जादू के जोर से उसके सामने लाकर रख दिया जाये तो वो भौंचक्का रह जायेगा कि इसके टूटने पर भला कोई इस तरह जी-जान से रोता है। यही हाल उन खिलौनों का होता है, जिनसे आदमी जीवन भर खेलता रहता है। हां, उम्र के साथ-साथ यह भी बदलते और बड़े होते रहते हैं। कुछ खिलौने अपने-आप टूट जाते हैं, कुछ को दूसरे तोड़ देते हैं। कुछ खिलौने प्रमोट होकर देवता बन जाते हैं और कुछ देवियां दिल से उतरने के बाद गूदड़ भरी गुड़ियां निकलती हैं। फिर एक अभागिन घड़ी ऐसी आती है, जब वो इन सबको तोड़ देता है। उस घड़ी वो खुद भी टूट जाता है।
'तराशीदम, परस्तीदम, शिकस्तम'
(मैंने तराशा, मैंने पूजा, मैंने तोड़ दिया)
आज इन बचकानी इच्छाओं पर स्वयं उनको हंसी आती है। मगर यह उस समय की हकीकत थीं। बच्चे के लिए उसके खिलौने से अधिक ठोस और अस्ल हकीकत पूरे ब्रह्मांड में कुछ और नहीं हो सकती। सपना, चाहे वह आधी रात का सपना हो या जागते में देखा जाने वाला सपना हो, देखा जा रहा होता है तो वही और केवल वही उस क्षण की एकमात्र वास्तविकता होती है। यह टूटा खिलौना, यह आंसुओं में भीगी पतंग और उलझी डोर, जिस पर अभी इतनी मार-कुटाई हुई, यह जलता-बुझता जुगनू, यह तना हुआ गुब्बारा जो अगले पल रबड़ के लिजलिजे टुकड़ों में बदल जायेगा, मेरी हथेली पर सरसराती यह मखमली बीरबहूटी, आवाज की रफ्तार से भी तेज चलने वाली यह माचिस की डिब्बियों की रेलगाड़ी, यह साबुन का बुलबुला - जिसमें मेरा सांस थर्रा रहा है, इंद्रधनुष पर यह परियों का रथ - जिसे तितलियां खींच रही हैं इस पल, इस क्षण बस यही और केवल यही हकीकत है।
यह किस्सा खिलौना टूटने से पहले का है
उन दिनों वो नये-नये स्कूल मास्टर नियुक्त हुए थे और फिटन उनकी सर्वोच्च आकांक्षा थी। सच तो यह है कि इस यूनिफार्म यानी सफेद अचकन, सफेद जूते, सफेद कुर्ते-पाजामे और सफेद कमरबंद की खखेड़ केवल अपने आपको सफेद घोड़े से मैच करने के लिए थी। वरना इस बत्तखा भेस पर कोई बत्तख ही आशिक हो सकती थी। उन्हें चूड़ीदार से सख्त चिढ़ थी। केवल सुंदर कन्या के हाथ के बुने सफेद कमरबंद का प्रयोग करने के लिए यह सितार का गिलाफ टांगों पर चढ़ाना पड़ा। इस हवाई किले की हर ईंट सामंती गारे से निर्मित हुई थी, जो संपन्न सपनों से गुंथा था। केवल इतना ही नहीं कि प्रत्येक ईंट का साइज और रंग भिन्न था, बल्कि उनकी आकृति भी उकेरी हुई थी। कुछ ईंटें गोल भी थीं। बारीक-से-बारीक बात यहां तक कि शालीनता की उस सीमा को भी तय कर दिया गया था कि उनकी उपस्थिति में सफेद घोड़े की दुम कितनी डिग्री के कोण तक उठ सकती है और उनकी सवारी के रूट पर किस-किस खिड़की की चिक के पीछे किस कलाई में किस रंग की चूड़ियां छनक रही हैं, किसकी हथेली पर उनका नाम मय बी.ए. की डिग्री, मेंहदी से लिखा है और किस-किस की सुरमई आंखें पर्दे से लगी राह तक रही हैं कि कब इंकलाबी शाहजादा ये दावत देता हुआ आता है कि -
तुम परचम लहराना साथी मैं बरबत पर गाऊंगा
यहां ये निवेदन करता चलूं कि इससे बढ़िया तथा सुरक्षित कार्य विभाजन क्या होगा कि घमासान के रण में परचम (युद्ध ध्वज) तो साथी उठाये, कटता-मरता फिरे और खुद शायर दूर किसी संगे-मरमर के मीनार पर बैठा एक फटीचर और वाहियात वाद्य 'बरबत' पर वैसी ही कविता यानी खुद अपनी-ही कविता गा रहा है। गद्य में इसी सिचुएशन को 'चढ़ जा बेटा सूली पर भली करेंगे राम' में जियादा फूहड़ ईमानदारी से बयान किया गया है।
लीजिये! प्रारंभ में ही गड़बड़ हो गयी, वरना कहना सिर्फ इतना था कि मजे की बात यह थी कि इस सोते-जागते सपने के दौरान बिशारत ने स्वयं को स्कूल मास्टर के ही 'शैल' में देखा, पद बदलने का साहस सपने में भी न हुआ! संभवतः इसलिए भी कि फिटन और रेशमी कमरबंद से केवल स्कूल मास्टरों पर ही रोब डाल सकते थे। जमींदारों और जागीरदारों के लिए इन चीजों की क्या हैसियत थी। अपनी पीठ पर बीस वर्ष बाद भी उस आग की लकीर की जलन वो अनुभव करते थे जो चाबुक लगने से उस समय उभरी थी जब मुहल्ले के लौंडों के साथ शोर मचाते और चाबुक खाते वो एक रईस की सफेद घोड़े वाली फिटन का पीछा कर रहे थे।
चौराहे बल्कि संकोच - राहे पर
शेरो-शायरी छोड़कर स्कूल-मास्टरी अपनायी। स्कूल मास्टरी को धता बताकर दुकानदारी की और अंततः दुकान बेच खोंच कर कराची आ गये, जहां हरचंद राय रोड पर दोबारा लकड़ी का कारोबार शुरू किया। नया देश, बदला-बदला सा रहन-सहन, एक नयी और व्यस्त दुनिया में कदम रखा, मगर उस सफेद घोड़े और फिटन वाली फेंटेसी ने पीछा नहीं छोड़ा। Day dreaming और फेंटेसी से दो ही सूरतों में छुटकारा मिल सकता है। पहली जब वह फेंटेसी न रहे, वास्तविकता बन जाये, दूसरे इंसान किसी चौराहे बल्कि संकोच-राहे पर अपने सारे सपने माफ करवा के विदा हो जाये Heart breaker, dreammaker, thank you for the dream और उस खूंट निकल जाये, जहां से कोई नहीं लौटा यानी घर-गृहस्थी की ओर, परंतु बिशारत को इससे भी लाभ नहीं हुआ। वो भरा-पूरा घर औने-पौने बेचकर अपने हिसाब से लुटे-पिटे आये थे। यहां एक-दो साल में खुदा ने ऐसी कृपा की कि कानपुर तुच्छ लगने लगा। सारी इच्छायें पूरी हो गयीं, अर्थात घर अनावश्यक वस्तुओं से अटाअट भर गया। बस एक कमी थी।
सब कुछ अल्लाह ने दे रक्खा है घोड़े के सिवा
अब वो चाहते तो नयी न सही, सेकेंड-हैंड कार आसानी से खरीद सकते थे। जितनी रकम में आज कल चार टायर आते हैं, इससे कम में उस जमाने में कार मिल जाती थी, लेकिन कार में उन्हें वह रईसाना ठाट और जमींदाराना ठस्सा नजर नहीं आता था, जो फिटन और बग्घी में होता है। घोड़े की बात ही कुछ और है।
घोड़े के साथ वीरता भी गयी
मिर्जा अब्दुल वुदूद बेग कहते हैं कि मनुष्य जब बिल्कुल भावुक हो जाये तो उससे बुद्धिमानी की कोई बात कहना ऐसा ही है जैसे बगूले में बीज बोना। इसलिए बिशारत को इस फिजूल शौक से दूर रखने के बजाय उन्होंने उल्टा खूब चढ़ाया। एक दिन आग को पेट्रोल से बुझाते हुए कहने लगे कि जबसे घोड़ा रुखसत हुआ, संसार से बहादुरी, जांबाजी और दिलेरी की रीत भी उठ गयी। जानवरों में कुत्ता और घोड़ा इंसान के सबसे पहले और पक्के मित्र हैं जिन्होंने उसकी खातिर हमेशा के लिए जंगल छोड़ा। कुत्ता तो खैर अपने कुत्तेपन के कारण चिपटा रहा, लेकिन इंसान ने घोड़े के साथ बेवफाई की। घोड़े के जाने से मानव-संस्कृति का एक सामंती-अध्याय समाप्त होता है।
वो अध्याय जब योद्धा अपने शत्रु को ललकार कर आंखों में आंखें डाल के लड़ते थे। मौत एक भाले की दूरी पर होती थी और यह भाला दोनों के हाथ में होता था। मृत्यु का स्वाद अजनबी सही, पर मरने वाला और मारने वाला दोनों एक-दूसरे का चेहरा पहचान सकते थे। बेखबर सोते हुए, बेचेहरा शहरों पर मशरूम-बादल की ओट से आग और एटमी मौत नहीं बरसती थी। घोड़ा केवल उस समय बुजदिल हो जाता है, जब उसका सवार बुजदिल हो। बहादुर घोड़े की टाप के साथ दिल धक-धक करते और धरती थर्राती थी। पीछे दौड़ते हुए बगूले, नालों से उड़ती चिंगारियां, भालों की नोक पर किरण-किरण बिखरते सूरज और सांसों की हांफती आंधियां कोसों दूर से शहसवारों के आक्रमण की घोषणा कर देती थीं। घोड़ों के एक साथ दौड़ने की आवाज से आज भी लहू में हजारों साल पुराने उन्माद के अलाव भड़क उठते हैं।
हमारी सवारी : केले का छिलका
फिटन और घोड़े से बिशारत के लगाव की चर्चा करते-करते हम कहां आ गये। मिर्जा अब्दुल वुदूद बेग ने एक बार बड़े अनुभव की बात कही कि 'जब आदमी केले के छिलके पर फिसल जाये तो फिर रुकने, ब्रेक लगाने का प्रयास कदापि नहीं करना चाहिये, क्योंकि इससे और अधिक चोट आयेगी। बस आराम से फिसलते रहना चाहिये और फिसलने का आनंद लेना चाहिये। तुम्हारे उस्ताद जौक के कथनानुसार -
तुम भी चले चलो ये जहां तक चली चले
केले का छिलका जब रुक जायेगा तो स्वयं रुक जायेगा। Just relax! इसलिए केवल कलम ही नहीं कदम या कल्पना भी फिसल जाये तो हम इसी नियम पर अमल करते हैं। बल्कि साफ-साफ क्यों न मान लें कि इस लंबी जीवन-यात्रा में केले का छिलका ही हमारी एक मात्र सवारी रहा है। ये जो कभी-कभी हमारी चाल में जवानों की-सी तेजी और स्वस्थ प्रकार की चलत-फिरत आ जाती है तो यह उसी के कारण है। एक बार रपट जायें तो फिर यह कदम चाल जो भी कुएं झंकवाये और जिन गलियों-गलियारों में ले जाये, वहां बिना इरादे के लेकिन बड़े शौक से जाते हैं। खुद को रोकने-थामने का जरा भी प्रयास नहीं करते और जब दवात फूट कर कागज पर बिखर जाती है तो हमारी मिसाल उस बच्चे की-सी होती है, जिसकी ठसाठस-भरी जेब के सारे राज कोई अचानक निकालकर सबके सामने मेज पर नुमाइश लगा दे। सबसे अधिक संकोच बड़ों को होता है, क्योंकि उन्हें अपना भूला-बिसरा बचपन और अपनी वर्तमान मेज की दराजें याद आ जाती हैं। जिस दिन बच्चे की जेब से फिजूल चीजों की बजाय पैसे बरामद हों तो समझ लेना चाहिये कि अब उसे चिंता-मुक्त नींद कभी नसीब नहीं होगी।
रेसकोर्स से तांगे तक
जैसे-जैसे बिजनेस में मुनाफा बढ़ता गया, फिटन की इच्छा भी तीव्र होती गयी। बिशारत महीनों घोड़े की तलाश में भटकते रहे। ऐसा लगता था जैसे घोड़े के बिना उनके सारे काम बंद हैं और राजा रिचर्ड तृतीय की भांति घोड़े के लिए वह हर चीज का त्याग करने के लिए तैयार हैं -
"A horse! a horse! my kingdom for a horse!"
उनके पड़ौसी चौधरी करम इलाही ने सलाह दी कि जिला सरगोधा के पुलिस स्टड-फार्म से संपर्क कीजिये। वहां पुलिस की निगरानी में धारू ब्रीड और ऊंची जात के घोड़ों से नस्ल बढ़वाते हैं। घोड़ों का बाप, विशुद्ध और अस्ली हो तो बेटा उसी पर पड़ेगा। कहावत है कि बाप पर पूत, घोड़े पर घोड़ा, बहुत नहीं तो थोड़ा-थोड़ा। मगर बिशारत कहने लगे, 'मेरा दिल नहीं ठुकता। बात यह है कि जिस घोड़े की पैदाइश में पुलिस का हस्तक्षेप बल्कि गर्भक्षेप हो, वो विशुद्ध हो ही नहीं सकता। वो घोड़ा पुलिस पर पड़ेगा।'
घोड़े के बारे में यह बातचीत सुनकर प्रोफेसर काजी अब्दुल कुद्दूस एम.ए.बी.टी. ने वो मशहूर शेर पढ़ा और हमेशा की तरह गलत अवसर पर पढ़ा, जिसमें देखने वाले की पैदाइश में होने वाली पेचीदगियों के डर से नर्गिस हजारों साल रोती है। मिर्जा कहते हैं कि प्रोफेसर काजी अब्दुल कुद्दूस अपनी समझ में कोई बहुत ही बुद्धिमानी की बात कहने के लिए अगर बीच में बोलें तो बेवकूफ लगने लगते हैं, अगर न बोलें तो अपने चेहरे के सामान्य भाव के कारण और अधिक बेवकूफ दिखाई पड़ते हैं।
प्रोफेसर साहब के सामान्य-भाव से तात्पर्य चेहरे पर वो रंग हैं जो उस समय आते और जाते हैं जब किसी की जिप अध-बीच में अटक जाती है।
खुदा-खुदा करके एक घोड़ा पसंद आया जो एक स्टील री-रोलिंग मिल के सेठ का था। तीन-चार बार उसे देखने गये और हर बार पहले से अधिक संतुष्ट लौटे। उसका सफेद रंग ऐसा भाया कि उठते-बैठते उसी के चर्चे, उसी की स्तुति। हमने एक बार पूछा 'पंच-कल्याण है?'
'पंच-कल्याण तो भैंस भी हो सकती है। केवल चेहरा और हाथ-पैर सफेद होने से घोड़े की दुम में सुर्खाब का पर नहीं लग जाता। घोड़ा वो, जो आठों-गांठ कुमैत हो, चारों टखनों और चारों घुटनों के जोड़ मजबूत होने चाहिये। यह भाड़े का टट्टू नहीं, रेस का खानदानी घोड़ा है। यह घोड़ा उनके दिमाग पर इस बुरी तरह सवार था कि अब उसे उन पर से कोई घोड़ी ही उतार सकती थी।
सेठ ने उन्हें ऐसोसिएटिड प्रिंटर्ज में प्रकाशित कराची रेस क्लब की वो किताब भी दिखाई जो उस रेस से संबंधित थी, जिसमें उस घोड़े ने हिस्सा लिया और प्रथम आया था। इसमें उसकी तस्वीर और स्थिति पूरी वंशावली के साथ दर्ज थी। नाम - व्हाइट रोज, पिता - वाइल्ड ओक, दादा ओल्ड डेविल। जब से यह ऊंची-नस्ल का घोड़ा देखा, उन्होंने अपने पुरखों पर गर्व करना छोड़ दिया। उनके कथनानुसार, इसके दादा ने मुंबई में तीन रेसें जीतीं। चौथी में दौड़ते हुए हार्ट फेल हो गया। इसकी दादी बड़ी नरचुग थी। अपने समय के नामी घोड़ों से उसका संबंध रह चुका था। उनसे फायदा उठाने के नतीजे में उसकी छः पुत्र संतानें हुई। प्रत्येक अपने संबंधित बाप पर पड़ी। सेठ से पहले व्हाइट रोज एक बिगड़े रईस की संपत्ति था। जो बाथ आइलैंड में 'वंडर-लैंड' नाम की एक कोठी अपनी एंग्लो इंडियन पत्नी ऐलिस के लिए बनवा रहा था। री-रोलिंग मिल से जो सरिया खरीद कर ले गया, उसकी रकम कई महीने से उसके नाम खड़ी थी। रेस और सट्टे में दीवाला निकलने के कारण वंडर-लैंड का निर्माण रुक गया और एलिस उसे वंडर की लैंड में छोड़ कर, मुल्तान के एक जमींदार के साथ यूरोप की सैर को चली गयी। सेठ को एक दिन जैसे ही यह खबर मिली कि एक कर्ज लेने वाला अपनी रकम के बदले प्लाट पर पड़ी सीमेंट की बोरियां और सरिया उठवा के ले गया, उसने अपने मैनेजर को पांच लट्ठ-बंद चौकीदारों को साथ लेकर बाथ-आइलैंड भेजा कि भागते भूत की जो भी चीज हाथ लगे खसोट लायें। इसलिए वो यह घोड़ा अस्तबल से खोल लाये। वहीं एक सियामी बिल्ली नजर आ गयी, उसे भी बोरी में भर कर ले आये। घोड़े की ट्रेजडी को पूरी तरह समझाने के लिए बिशारत ने हमसे हमदर्दी जताते हुए कहा 'यह घोड़ा तांगे में जुतने के लिए तो पैदा नहीं हुआ था। सेठ ने बड़ी जियादती की, मगर भाग्य की बात है। साहब! तीन साल पहले कौन कह सकता था कि आप यूं बैंक में जोत दिये जायेंगे। कहां डिप्टी कमिश्नर और डिस्ट्रिक्ट मजिस्ट्रेट की कुर्सी और कहां बैंक का चार फुट ऊंचा स्टूल!'
शाही सवारी
उन्हें इस घोड़े से पहली नजर में मुहब्बत हो गयी और मुहब्बत अंधी होती है, चाहे घोड़े से ही क्यों न हो। उन्हें यह तक सुझायी न दिया कि घोड़े की प्रशंसा में उस्तादों के जो शेर वो ऊटपटांग पढ़ते फिरते थे, उनका संबंध तांगे के घोड़े से नहीं था। यह मान लेने में कोई हरज नहीं कि घोड़ा शाही सवारी है। शाही रोब और राजसी आन-बान की कल्पना घोड़े के बिना अधूरी, बल्कि आधी रह जाती है। बादशाह के कद में घोड़े का कद भी बढ़ाया जाये, तब कहीं जा के वो कद्दे-आदम दिखाई पड़ता है। परंतु जरा ध्यान से देखा जाये तो शाही सवारियों में घोड़ा दूसरे नंबर पर आता है। इसलिए कि बादशाहों और तानाशाहों की मनपसंद सवारी दरअस्ल जनता होती है। ये एक बार उस पर सवारी गांठ लें तो फिर उन्हें सामने कोई कुआं, खाई, बाड़ और रुकावट दिखाई नहीं देती। जोश में वो दीवार भी फलांग जाते हैं। ये लेख वो तब तक नहीं पढ़ सकते जब तक वो Brailie में न लिखा हो।
जिसे वो अपना दरबार समझते हैं, वो वास्तव में उनका घेराव होता है, जो उन्हें यह समझने नहीं देता कि जिस मुंहजोर, सरकश घोड़े को केवल हिनहिनाने की इजाजत दे कर सरलता के साथ आगे से काबू किया जा सकता है, उसे वो पीछे से काबू करने की चेष्टा करते हैं, अर्थात लगाम की बजाय दुम मरोड़ते हैं। लेकिन इस सीधी-सादी लगने वाली सवारी का भरोसा नहीं, क्योंकि यह अबलका सदा एक चाल नहीं चलती। परंतु जो शासक होशियार, पारखी, और शासन में भले-बुरे के भेद से परिचित होते हैं वो पहले ही दिन गरीबों का सर कुचल कर सभी को पाठ समझा देते हैं।
वैसे बड़े और विशिष्ट व्यक्तियों को किसी और अंकुश की आवश्यकता नहीं होती। जो भी उन पर सोने का हौल, चांदी की घंटियां, जरबफ्त की झूल और तमगों की माला डाल दे, उसी के निशान का हाथी बनने के लिए कमर बांधे रहते हैं। चार दिन की जिंदगी मिली थी, सो दो जीहुजूरी की इच्छा में कट गये, दो जीहुजूरी में।
हमारा कजावा :
हमने एक दिन घोड़ों की शान में कुछ कह दिया तो बिशारत भिन्ना गये। हमने तो ठिठोली के उद्देश्य से एक ऐतिहासिक हवाला दिया कि जब मंगोल हजारों के झुंड बना कर घोड़ों पर निकलते तो बदबू के ऐसे भभके उठते थे कि बीस मील दूर से पता चल जाता था। कहने लगे, क्षमा कीजिये, आपने राजस्थान में, जहां आपने जवानी गंवायी, ऊंट ही ऊंट देखे। जिनकी पीठ पर कलफदार राजपूती साफे, चढ़वां दाढ़ियां और दस फुट लंबी नाल वाली तोड़ेदार बंदूकें सजी होती थीं और नीचे... कंधे पर रखी लाठी के सिरे पर तेल पिलाये हुए कच्चे चमड़े के जूतों को लटकाये अर्दली में नंगे पैर जाट।
'कमर बांधे, और हाथ पैर बांधे, फिर मुंह बांधे'
घोड़ा तो आपने यहां आन के देखा है। मियां अहसान इलाही गवाह हैं, उन्हीं के सामने आपने उन ठाकुर साहब का किस्सा सुनाया था जो महाराजा की ऊंटों की पल्टन में रिसालदार थे। जब रिटायर होकर अपने पुरखों के कस्बे... क्या नाम था उसका - उदयपुर तोरावाटी - पहुंचे तो अपनी गढ़ी में भेंट करने आने वालों के लिए दस-बारह मूढ़े डलवा दिये और अपने लिए अपने सरकारी ऊंट जंग बहादुर का पुराना कजावा, उसी पर अपनी पल्टन का लाल रंग का साफा बांधे, सीने पर तमगे सजाये, सुब्ह से शाम तक बैठे हिलते रहते। एक दिन हिल-हिल कर जंग बहादुर के कारनामे बयान कर रहे थे और मैडल झन-झन कर रहे थे कि दिल का दौरा पड़ा। कजावे पर ही आत्मा का पंछी पंचभूत-रूपी पिंजड़े से उड़ कर अपनी यात्रा पर रवाना हो गया। वापसी के क्षणों में होंठों पर मुस्कान और जंग बहादुर का नाम, क्षमा कीजिये, ये सब आप ही के द्वारा लिए गये स्नेप शाट्स हैं। आप भी तो अपने कजावे से नीचे नहीं उतरते। न उतरें! मगर यह कजावा इस अधम की पीठ पर रखा हुआ है। साहब! आप घोड़े का मूल्य क्या जानें। आप तो यह भी नहीं जानते कि खच्चर का 'क्रास' कैसे होता है? खरेरा किस शक्ल का होता है? कनौतियां कहां होती है? बैल के आर कहां चुभोई जाती हैं? चिल्गोजा किस भाषा का शब्द है? अंतिम दो प्रश्न आवश्यक और निर्णायक थे क्योंकि इनसे पता चलता था कि बहस किस नाजुक मोड़ पर आ चुकी है।
यह बहस हमें इसलिए और अधिक नागवार गुजरी कि हमें एक भी सवाल का जवाब नहीं आता था। स्वभाव के लिहाज से वो टेढ़े नहीं, बड़े धीमे और मीठे आदमी हैं, लेकिन जब इस प्रकार पटरी से उतर जायें तो हमें दूर तक कच्चे में खदेड़ते, घसीटते ले जाते हैं। कहने लगे जो व्यक्ति घोड़े पर न बैठा हो वो कभी संतुष्ट स्वाभिमानी और शेर, दिलेर नहीं हो सकता। ठीक ही कहते होंगे क्योंकि वो स्वयं भी कभी घोड़े पर नहीं बैठे थे।
जनाजे से दूर रखना
लंबे समय से उन्हें जीवन में जो खालीपन खटकता था वो इस घोड़े ने पूरा किया। उन्हें बड़ा आश्यर्च होता था कि इसके बिना अब तक कैसे बल्कि काहे को जी रहे थे।
I wonder by my troth what thou and I did till we loved-done.
इस घोड़े से उनका प्रेम इस हद तक बढ़ चुका था कि फिटन का विचार छोड़ कर सेठ का तांगा भी साढ़े चार सौ रुपये में खरीद लिया, हालांकि तांगा उन्हें जरा-भी पसंद नहीं आया था। बहुत बड़ा और गंवारू-सा था, लेकिन क्या किया जाये। सारे कराची में एक भी फिटन नहीं थी। सेठ घोड़ा और तांगा साथ बेचना चाहता था। यही नहीं उसने दाने की दो बोरियों, घास के पांच पूलों, घोड़े के फ्रेम किये हुए फोटो, हाज्मे के नमक, दवा और तेल पिलाने की नाल, खरेरे और तोबड़े का मूल्य - साढ़े उंतीस रुपये - अलग से धरवा लिया। वो इस धांधली को 'पैकेज-डील' कहता था। घोड़े के भी मुंहमांगे दाम देने पड़े। घोड़ा यदि अपने मुंह से दाम मांग सकता तो सेठ के मांगे हुए दामों यानी नौ सौ रुपये से कम ही होते। घोड़े की खातिर बिशारत को सेठ का तकिया कलाम 'क्या' और 'साला' भी सहन करना पड़ा। हिसाब चुकता करके जब उन्होंने लगाम अपने हाथ में ले ली और उन्हें यह विश्वास हो गया कि अब संसार की कोई शक्ति उनसे उनकी इच्छा के स्वप्नफल को नहीं छीन सकती, तो उन्होंने सेठ से पूछा कि आपने इतना अच्छा घोड़ा बेच क्यों दिया? कोई ऐब है?
उसने जवाब दिया, 'दो महीने पहले की बात है। मैं तांगे में लारेंस-रोड से ली-मार्केट जा रहा था। म्यूनिस्पिल वर्कशाप के पास पहुंचा होगा कि सामने से एक साला जनाजा आता दिखाई पड़ा... क्या? किसी पुलिस अफसर का था। घोड़ा आल-आफ-ए-सडन बिदक गया, पर कंधा देने वाले इससे भी अधिक बिदके। बेफिजूल डर के भाग खड़े हुए... क्या? बीच सड़क पे जनाजे की मिट्टी खराब हुई। हम साला उल्लू के माफिक बैठा देखता पड़ा। वो दिन है और आज का दिन, बेकार बंधा खा रहा है। दिल से उतर गया... क्या? वैसे ऐब कोई नहीं, बस जनाजे से दूर रखना। अच्छा, सलामालेकुम।' 'आपने पहले क्यों नहीं बताया?' 'तुमने पहले क्यों नहीं पूछा? सलामालेकुम।'
जग में चले पवन की चाल
उन्होंने रहीम बख्श नाम का एक कोचवान नौकर रख लिया। तन्ख्वाह मुंह-मांगी, यानी पैंतालीस रुपये और खाना कपड़ा। घोड़ा उन्होंने केवल रंग, दांत और घनी दुम देखकर खरीदा था। वो इनसे इतने संतुष्ट थे कि बाकी घोड़े की जांच-पड़ताल आवश्यकता न समझी। कोचवान भी कुछ इसी प्रकार रखा अर्थात केवल जबान पर रीझ कर। बातें बनाने में माहिर था। घोड़े जैसा चेहरा, हंसता तो लगता कि घोड़ा हिनहिना रहा है। तीस वर्ष घोड़ों की संगत में रहते-रहते उनकी सारी आदतें, बुराइयां, और बदबुएँ अपना ली थीं। घोड़े की अगर दो टांगें होतीं तो इसी प्रकार चलता, बच्चों को कई बार अपना बायां कान हिला कर दिखाता। फुटबाल को एड़ी से दुलत्ती मारकर पीछे की ओर गोल करता तो बच्चे खुशी से तालियां बजाते। घोड़े के चने की चोरी करता था। बिशारत कहते थे, 'यह मनहूस चोरी-छुपे घास भी खाता है। वरना एक घोड़ा इतनी घास खा ही नहीं सकता। जभी तो इसके बाल अभी तक काले हैं। देखते नहीं, हरामखोर तीन औरतें कर चुका है!' विषय कुछ भी हो, सारी बातचीत साईसी भाषा में करता और रात को चाबुक साथ लेकर सोता। दो मील के भीतर कहीं भी घोड़ा या घोड़ी हो, वो तुरंत बू सूंघ लेता और उसके नथुने फड़कने लगते। रास्ते में कोई सुंदर घोड़ी दिखाई पड़ जाये तो वहीं रुक जाता और आंख मार-के तांगे वाले से उसकी उम्र पूछता। फिर अपने घोड़े से कहता 'प्यारे! तू भी जलवा देख ले, क्या याद करेगा!' और पंकज मलिक की आवाज, अपनी लय और घोड़े की टाप की ताल पर 'जग में चले पवन की चाल' गाता हुआ आगे बढ़ जाता। मिर्जा कहते थे कि यह व्यक्ति पूर्व-जन्म में घोड़ा था और अगले जन्म में भी घोड़ा ही होगा। ऐसा केवल महात्माओं और ऋषियों, मुनियों के साथ होता है कि वो जो पिछले जन्म में थे, अगले में भी वहीं हों। वरना ऐसे-वैसों की तो एक ही बार में जून पलट जाती है।
घोड़े-तांगे का उद्घाटन कहिये, मुहूर्त कहिये, जो कहिये - बिशारत के पिता के हाथों हुआ। सत्तर के पेटे बल्कि लपेटे में आने के पश्चात, लगातार बीमार रहने लगे थे। कराची आने के उपरांत उन्होंने बहुत हाथ-पांव मारे, मगर न कोई मकान और जायदाद अलाट करा सके, न कोई ढंग का बिजनेस शुरू कर पाये। बुनियादी तौर पर वो बहुत सीधे आदमी थे। बदली हुई परिस्थितियों में वो अपने बंधे-टिके उसूलों और आउट-आफ-डेट जीवन-शैली में परिवर्तन लाने को सरासर बदमाशी मानते थे। इसलिए असफलता के कारण दुखी अथवा शर्मिंदा होने की बजाय एक गौरव और संतोष अनुभव करते। वो उन लोगों में से थे, जो जीवन में नाकाम होने को अपनी नेकी और सच्चाई की सबसे रोशन दलील समझते हैं।
अत्यंत भावुक और स्वाभिमानी व्यक्ति थे, किसी से अधिक मिलते-जुलते भी न थे। कभी किसी के सामने हाथ नहीं फैलाया था, पॉमिस्ट के सामने भी नहीं। अब यह भी किया। खुशामद से जबान को कभी दूषित नहीं किया था। यह कसम भी टूटी मगर, काम न बनना था, न बना। मिर्जा अब्दुल वुदूद बेग का कहना है कि, जब स्वाभिमानी और बाउसूल व्यक्ति अपनी हिम्मतानुसार धक्के खाने के पश्चात डीमॉरलाइज होकर कामयाब लोगों के हथकंडे अपनाने का भोंडा प्रयास करता है तो रही-सही बात और बिगड़ जाती है। एकाएक उनको लकवा मार गया। शरीर के बायें भाग ने काम करना बंद कर दिया। डाइबिटीज, एलर्जी, पार्किंसन और खुदा जाने कौन-कौन से रोगों ने घेर लिया। कुछ ने कहा उनके घायल स्वाभिमान ने रोगों में शरण ढूंढ़ ली है। स्वयं स्वस्थ नहीं होना चाहते कि फिर कोई तरस नहीं खायेगा। अब उन्हें अपनी असफलता का इतना अफसोस नहीं था जितना कि अपनी जीवनशैली हाथ से जाने का दुख। लोग आ-आ कर उनका साहस बढ़ाते और कामयाब होने के तरीके सुझाते तो उनके आंसू बहने लगते।
लज्जा और अपमान की सबसे जलील सूरत यह है कि व्यक्ति स्वयं अपनी दृष्टि में भी कुछ न रहे। सो वो इस नर्क से भी गुजरे - उनका बायां बेजान हाथ अलग लटका इस गुजरने की तस्वीर खींचता रहता। लेकिन बेबसी का चित्रण करने के लिए उन्हें कुछ अधिक चेष्टा करने की आवश्यकता न थी। वो सारी उम्र दाग की गजलों पर सर धुनते रहे थे। उन्होंने कभी किसी तवायफ को फानी या मीर की गजल गाते नहीं सुना था। दरअस्ल उन दिनों नृत्य और गायन की महफिलों में किसी हसीना से फानी या मीर की गजल गवाना ऐसा ही था जैसे शराब में बराबर का नींबू का रस निचोड़ कर पीना, पिलाना। गुस्ताखी माफ, ऐसी शराब पीने के बाद तो आदमी केवल तबला बजाने योग्य रह जायेगा! तो साहब! बाबा सारी उम्र फानी और मीर से दूर रहे। अब जो शरण मिली तो उन्हीं के शेरों में मिली। वो मजबूत और बहादुर आदमी थे। मैं कल्पना भी नहीं कर सकता था कि उनको कभी रोते हुए देखूंगा। मगर देखा, इन आंखों से, कई बार।'
अलाहदीन अष्टम
उनके रोग न केवल बहुत से थे, बल्कि बहुत बढ़े हुए भी थे। इनमें सबसे खतरनाक रोग बुढ़ापा था। उनका एक दामाद विलायत से सर्जरी में नया-नया एफ.आर.सी.एस. करके आया था। उसने अपनी ससुराल में किसी का एपेंडिक्स बाकी नहीं छोड़ा। किसी की आंख में भी तकलीफ होती तो उसका एपेंडिक्स निकाल देता था। आश्चर्य इस पर होता कि आंख की तकलीफ जाती रहती। हालांकि वो सारी उम्र पेट के दर्द से परेशान रहे लेकिन अपने पेट पर हाथ रखकर सौगंध उठा कर कहते थे कि मैंने आज तक किसी डॉक्टर को अपने एपेंडिक्स पर हाथ नहीं डालने दिया। लंबे समय से बिस्तर पर पड़े थे लेकिन उनकी लाचारी अभी अपूर्ण थी। मतलब यह कि सहारे से चल-फिर सकते थे।
उन्होंने उद्घाटन इस प्रकार किया कि अपने कमरे के दरवाजे, जिससे निकले उन्हें कई महीने हो गये थे, एक लाल-रिबन बांध कर अपने डांवाडोल हाथ से कैंची से काटा। ताली बजाने वाले बच्चों में लड्डू बांटने के बाद शुक्राने (धन्यवाद) की नमाज अदा की। फिर घोड़े को अपने हाथ से गेंदे का हार पहनाया, उसके माथे पर एक बड़ी-सी भौंरी थी। केसर में उंगली डुबोकर उस पर 'अल्लाह' लिखा और कुछ पढ़कर फूंक मारी। चारों सुमों और दोनों पहियों पर शगुन के लिए सिंदूर लगाकर दुआ दी कि जीते रहो, सदा सरपट चलते रहो। रहीम बख्श कोचवान का मुंह खुलवा कर उसमें पूरा लड्डू फिट किया। खुद चांदी के वरक में लिपटा हुआ पान कल्ले में दबाया। पुरानी कश्मीरी शाल ओढ़-लपेट कर तांगे की पिछली सीट पर बैठे और अगली सीट पर अपना बीस साल पुराना हार्मोनियम रखवा कर उसकी मरम्मत कराने मास्टर बाकर अली की दुकान रवाना हो गये।
घोड़े का नाम बदल कर उन्होंने बलबन रखा। कोचवान से कहा, हमें तुम्हारा नाम रहीम बख्श बिल्कुल पसंद नहीं। तुम्हें अलादीन कह कर पुकारेंगे। जब से उनकी याददाश्त खराब हुई थी वो हर नौकर को अलादीन कह कर बुलाते थे। यह अलादीन-अष्टम था। इससे पहले वाला अलादीन सप्तम कई बच्चों का बाप था। हुक्के के तंबाकू और रोटियों की चोरी में निकाला गया। गरम रोटियां पेट पर बांध कर ले जा रहा था, चाल से पकड़ा गया। मान्यवर इस अलादीन अर्थात रहीम बख्श को आमतौर से अलादीन ही कहते थे। हां, यदि कोई खास काम जैसे पैर दबवाने हों या बेवक्त चिलम भरवानी हो या महज प्यार जताना हो तो अलादीन मियां कहकर बुलाते। परंतु गाली देना हो तो अस्ल नाम लेकर गाली देते थे।
हाफ मास्ट चाबुक
दूसरे दिन से तांगा सुब्ह बच्चों को स्कूल ले जाने लगा। उसके बाद बिशारत को दुकान छोड़ने जाता। तीन दिन यही नियम रहा। चौथे दिन कोचवान बच्चों को स्कूल छोड़कर वापस आया तो बहुत परेशान दिखाई पड़ा। घोड़ा फाटक से बांधकर सीधा बिशारत के पास आया। हाथ में चाबुक ऐसे उठा रखा था जैसे पुराने समय में ध्वजवाहक युद्धध्वज लेकर चलता था, बल्कि यूं कहना चाहिये, जिस प्रकार न्यूयार्क की स्टेच्यू ऑफ लिबर्टी ने अपने हाथ को आखिरी सेंटीमीटर तक ऊंचा करवा कर आजादी की मशाल बुलंद कर रखी है। आगे चलकर मालूम हुआ कि कोई बिजोग पड़ जाये या अशुभ समाचार सुनाना हो तो वो इसी प्रकार चाबुक का झंडा ऊंचा किये आता था। चाबुक को सीधी हालत में देख बिशारत ऐसे व्याकुल होते, जैसे हेमलेट घोस्ट देखकर होता था।
Here it cometh, my Lord!
बिशारत के निकट आकर उसने चाबुक को हाफ-मास्ट किया और पंद्रह रुपये मांगे। कहने लगा 'स्कूल की गली के नुक्कड़ पे अचानक चालान हो गया। घोड़े के बायें पैर में लंगड़ापन है! स्कूल से निकला ही था कि अत्याचार वालों ने धर लिया। बड़ी मिन्नतों से पंद्रह रुपये देकर घोड़ा छुड़ाया है वरना उसके साथ सरकार भी बेफिजूल खिंचे-खिंचे फिरते। मेरी आंखों के सामने 'अत्याचार' वाले एक गधागाड़ी के मालिक को चाबुक से मारते हुए हंकाल के थाने ले गये। उसके गधे का लंग तो अपने घोड़े के मुकाबले कुछ भी नहीं 'कोचवान ने गधे के लंग की बात इतने मामूली ढंग से कही और अपने घोड़े का लंग इतना बढ़ा-चढ़ा कर बयान किया कि बिशारत ने क्रोध से कांपते हाथ से पंद्रह रुपये देकर उसे चुप किया।
शेर की नीयत और बकरी की अक्ल में फितूर
उसी समय एक सलोतरी को बुलाकर घोड़े को दिखाया। उसने बायीं नली हाथ से सूंती तो घोड़ा चमका। पता चला कि पुराना लंग है। सारा घपला अब कुछ-कुछ समझ में आने लगा। संभवतः, नहीं निःसंदेह, घोड़ा इसी कारण रेस में डिसक्वालिफाई हुआ होगा। ऐसे घोड़े को तो उसी समय गोली मार दी जाती है और यह उसके लिए तांगे में जुतकर जलील होने से कई गुना बेहतर सूरत होती है, लेकिन सलोतरी ने उम्मीद दिलाई कि छः महीने तक मुर्गाबी के तेल की मालिश करायें। मालिश का मेहनताना पांच रुपये रोज! यानी डेढ़ सौ रुपया माहवार। छह महीने के नौ सौ रुपये हुए। नौ सौ का घोड़ा, नौ सौ की मालिश अर्थात टाट की गुदड़ी में मखमल का पैवंद! अभी कुछ दिन हुए अपने अब्बा की मालिश और पैर दबाने के लिए एक आदमी को अस्सी रुपये माहवार पर रखा था। इसका मतलब तो यह हुआ कि उनकी कमाई का आधा हिस्सा तो इन्कम टैक्स वाले रखवा लेंगे और एक-तिहाई चंपी मालिश वाले खा जायेंगे। हलाल की कमाई के बारे में उन्होंने कभी नहीं सुना था कि वो इस अनुपात से गैर हकदारों में बंटती है। चार बजे तांगा जुतवा कर वो सेठ से निपटने के लिए रवाना हो गये। तांगे में बैठने से पहले उन्होंने गहरे रंग का धूप का चश्मा लगा लिया, ताकि कड़ी, खरी, खोटी सुनाने में झिझकें नहीं और चेहरे पर एक रहस्यमय खूंखारी का भाव आ जाये। आधा रास्ता ही तय किया होगा कि एक व्यक्ति ने बम पकड़ कर तांगा रोक लिया। कहने लगा, आपका घोड़ा बुरी तरह लंगड़ा रहा है, चालान होगा। बिशारत भौंचक्के रह गये। पता चला 'अत्याचार' वाले आजकल बहुत सख्ती कर रहे हैं। हर मोड़ पर बात-बेबात चालान हो रहा है। वो किसी प्रकार न माना तो बिशारत ने कानूनी पेंच निकाला कि आज सुब्ह ही इसका चालान हो चुका है। सात घंटे में एक ही अपराध में दो चालान नहीं हो सकते। इंस्पेक्टर ने यह बात भी चार्जशीट में टांक ली और कहा कि इससे तो अपराध और संगीन हो गया। बचने का कोई मार्ग न सूझा तो बिशारत ने कहा, 'अच्छा बाबा! तुम्हीं सच्चे सही, दस रुपये पे मामला रफा-दफा करो। ब्रांड न्यू घोड़ा है, खरीदे हुए तीसरा दिन है। 'यह सुनते ही वो व्यक्ति आग बबूला हो गया।' कहने लगा 'बड़े साब! गागल्ज के बावजूद आप भले आदमी मालूम होते हैं, मगर आपको पता होना चाहिये कि आप पैसे से लंगड़ा घोड़ा खरीद सकते हैं', आदमी नहीं खरीद सकते। चालान हो गया।
स्टील री-रोलिंग मिल पहुंचे तो सेठ घर जाने की तैयारी कर रहा था। आज इसके यहां एक पीर की याद में डेढ़-दो सौ फकीरों को पुलाव खिलाया जा रहा था। उसका मानना था कि इससे महीने-भर की कमाई पाक हो जाती है और यह Laundering कोई अनोखी बात नहीं थी। एक बैंक में पंद्रह बीस वर्ष तक यह नियम रहा कि प्रत्येक ब्रांच में जितने नये खाते खुलते, शाम को उतने ही फकीर खिलाये जाते। यह पता नहीं चल पाया कि यह खाना, खाते खुलने की खुशी में खिलाया जाता था या ब्याज के व्यापार में बढ़ोतरी के प्रायश्चित में। हमारा एक बार मुल्तान जाना हुआ। वहां उस दिन बैंक के मालिकों में से एक बहुत सीनियर सेठ इंस्पेक्शन पर आये हुए थे। शाम को ब्रांच में बराबरी का यह दृश्य देखकर हमारी खुशी की सीमा न रही कि सेठ साहब पंद्रह-बीस फकीरों के साथ जमीन पर पंजों के बल बैठे पुलाव खा रहे हैं और हर फकीर और उसके बीबी-बच्चों का अकुशल-अमंगल पूछ रहे हैं। परंतु मिर्जा अब्दुल वुदूद बेग को गुब्बारे पंक्चर करने की बड़ी बुरी आदत है। उन्होंने यह कहकर हमारी सारी खुशी किरकिरी कर दी कि जब शेर और बकरी एक ही घाट पानी पीने लगें तो समझ लो कि शेर की नीयत और बकरी की अक्ल में फितूर है। महमूद व अयाज का एक ही पंक्ति में बैठकर खाना भी 'ऑडिट एंड इंस्पेक्शन' का हिस्सा है। सेठ साहब वास्तव में यह पता लगाना चाहते हैं कि खाने वाले अस्ली फकीर हैं या मैनेजर ने अपने यारों-रिश्तेदारों की पंगत बिठा दी है।
हम कहां से कहां आ गये। बात स्टील मिल वाले सेठ की थी, जो सात-आठ वर्ष से काले धन को प्रत्येक महीने नियाज के लोबान की धूनी से पाक और 'व्हाइट' करता रहता था।
महात्मा बुद्ध बिहारी थे
सेठ ने घोड़े के लंग के बारे में एकदम अज्ञानता व्यक्त की। उल्टा उन्हीं के सर हो गया कि 'तुम घोड़े को देखने हाफ-डजन टाइम तो आये होगे। घोड़ा तलक तुम को पिछानने लगा था। दस-दफे घोड़े के दांत गिने... क्या? तुमने हमको यहां तलक बोला कि घोड़ा नौ हाथ लंबा हैं उस समय तुम्हें यह नौ-गजा दिखलाई पड़ता था। आज चार-पांच दिन बाद घोड़े के गॉगल्ज खुद पहन के इल्जाम लगाने आये हो... क्या? तीन दिन में तो कब्र में मुर्दे का भी हिसाब-किताब बरोबर खल्लास हो जाता है। उस टेम आपको माल में यह डिफेक्ट दिखलाई नहीं पड़ा। तांगे में जोत के गरीबखाने ले गये तब भी नजर नहीं आया।' बिशारत सेठ के सामने अपने घर को इतनी बार गरीबखाना कह चुके थे कि वो यह समझा कि यह उनके घर का नाम है।
बिशारत ने कुछ कहना चाहा तो बात काटते हुए बोला - अरे बाबा! घोड़े का कोई पार्ट, कोई पुर्जा ऐसा नहीं बचा, जिसपे तुमने दस-दस दफे हाथ नहीं फेरा हो! क्या? तुम बिजनेसमेन हो के ऐसी कच्ची बात मुंह से निकालेगा तो हम किधर को जायेंगा? बोलो जी! हल्कट मानुस के माफिक बात नहीं करो... क्या?' सेठ जिम्मेदारी से बरी हो गया।
बिशारत ने तंग आकर कहा, 'हद तो यह कि सौदा करने से पहले यह भी न बताया कि घोड़ा जनाजा उलट चुका है। आप खुद को मुसलमान कहते हैं' सीने पर हाथ रखते हुए सेठ बोला तो क्या तुम्हारे को बुद्धिष्ट दिखलाई पड़ता हूं? हमने जूनागढ़ काठियावाड़ से माइग्रेट किया है... क्या? अपने पास बरोबर सिंध का डोमेसाइल है। महात्मा बुद्ध तो बिहारी था। (अपने मुंह के पान की ओर संकेत करते हुए) मेरे मुंह में रोजी है। तुम भी बच्चों की कसम खा के बोलो। जब तुमने पूछा - घोड़ा काये को बेच रहे हो, हमने तुरंत बोल दिया। सौदा पक्का करने से पहले पूछते तो हम पहले बोल देते। तुम लकड़ी बेचते हो तो क्या ग्राहक को लक्कड़ की हर गांठ, हर दाग पे उंगली रख-रख के बताते हो कि पहले इसे देखो? हम साला अपना व्यापार करे कि तुम्हारे को घोड़े की बयाग्राफी (बायोग्राफी) बताये। फादर मेरे को हमेशा बोलता था कि ग्राहक 420 हो तो पहले देखो भालो, फिर सौदे की टेम बोलो कम, तोलो जियादा। पर तुम्हारे ऊपर तो -खोलो, अभी खोलो! - की धुन सवार थी। तुम्हारे मुंह में पैसे बज रहे थे। गुजराती में कहावत है कि पैसा तो शेरनी का दूध है! इसे हासिल करना और पचाना दोनों बराबर मुश्किल है। पर तुम तो साला शेर को ही दुहना मांगता है। हम करोड़ों का बिजनेस करेला है। आज दिन-तलक जबान दे-के नईं फिरेला। अच्छा अगर तुम कुरान पर हाथ रख के बोल दो कि तुम घोड़ा खरीदते टेम पियेला था तो हम तुरंत एक-एक पाई रिफंड कर देगा।'
बिशारत ने मिन्नतें करते हुए कहा 'सेठ, सौ-डेढ़ सौ कम में घोड़ा वापस ले लो। मैं बीबी-बच्चों वाला आदमी हूं। जिंदगी भर अहसानमंद रहूंगा।' सेठ आपे-से बाहर हो गया, 'अरे बाबा! खच्चर के माफिक हमसे अड़ी नईं करो। हमसे एक दम कड़क उर्दू में डायलाग मत बोलो। तुम फिलम के विलन के माफिक गॉगल्ज लगा के इधर काये को तड़ी देता पड़ा हैं। भाई साहब! तुम पढ़ेला मानुस हो। कोई फड्डेबाज मवाली, मल्बारी नईं, जो शरीफों से दादागीरी करे। तुमने साइन-बोर्ड नईं पढ़ा। बाबा! यह री-रोलिंग मिल है। इसटील री-रोलिंग मिल। इधर घोड़े का धंधा नईं होता... क्या? कल को तुम बोलेंगा कि तांगा भी वापस ले लो। हम साला अक्खा उम्र इधर बैठा घोड़े-तांगे का धंधा करेंगा तो हमारा फेमिली क्या घर में बैठा कव्वाली करेंगा? भाई साब! अपुन का घर तो गिरस्तियों का घर है, किसी बुजुर्ग का मजार नईं कि बाई लोग गज-गज भर के लंबे बाल खोल के धम्माल डाल दें। धमा धम मस्त कलंदर!'
बिशारत ने तांगा स्टील री-रोलिंग मिल के बाहर खड़ा कर दिया और स्वयं एक थड़े पर पैर लटकाये प्रतीक्षा करने लगे कि अंधेरा जरा गहरा हो जाये तो वापस जायें, ताकि नौ घंटे में तीसरी बार चालान न हो। गुस्से से अभी तक उनके कानों की लवें तप रही थीं और हल्क में कैक्टस उग रहे थे। बलबन गुलमोहर के पेड़ से बंधा सर झुकाये खड़ा था। उन्होंने पान की दुकान से एक लोमोनेड की गोली वाली बोतल खरीदी। एक ही घूंट में उन्होंने अनुमान लगा लिया कि उनकी प्रतीक्षा में यह बोतल कई महीनों से धूप में तप रही थी। फिर अचानक याद आया कि इस परेशानी में आज दोपहर बलबन को चारा और पानी भी नहीं मिला। उन्होंने बोतल रेत पर उंडेल दी और गॉगल्ज उतार दिये।
जादू मंत्र द्वारा उपचार
रिश्वत और मालिश की रकम अब घोड़े की कीमत और उनकी सहनशक्ति की सीमा को पार कर चुकी थी। पकड़-धकड़ का सिलसिला किसी प्रकार समाप्त होने में नहीं आता था। तंग आकर उन्होंने रहीम बख्श की जबानी इंस्पेक्टर को यह तक कहलाया कि तुम मेरी दुकान में उगाही की नौकरी कर लो। तुम्हारी तन्ख्वाह से अधिक दूंगा। उसने कहला भेजा 'सेठ को मेरा सलाम बोलना और कहना कि हम तीन हैं।'
उन्होंने घोड़ा-तांगा बेचना चाहा तो किसी ने सौ रुपये भी न लगाये। अंततः अपने वालिद से इस बारे में बात की। वो सारा हाल सुनकर कहने लगे 'इसमें परेशानी की कोई बात नहीं। हम दुआ करेंगे। तांगे में जोतने से पहले एक गिलास फूंक मारा हुआ दूध पिला दिया करो। अल्लाह ने चाहा तो लंग जाता रहेगा और चालानों का सिलसिला भी बंद हो जायेगा। एक बार वजीफे का प्रभाव तो देखो।
पिताश्री ने उसी समय रहीम बख्श से बिस्तर पर हार्मोनियम मंगाया। वो धोंकनी से हवा भरता रहा और पिताश्री कांपती-कंपकंपाती आवाज में हम्द (ईश्वर की स्तुति) गाने लगे।
आंख जहां पड़ती, वहां उंगली नहीं पड़ रही थी और जिस पर्दे पर उंगली पड़ती, उस पर पड़ी ही रह जाती। एक पंक्ति गाने और बजाने के बाद यह कहकर लेट गये कि इस हार्मोनियम के काले पर्दे के जोड़ अकड़ गये हैं। मास्टर बाकर अली ने क्या खाक मरम्मत की है!
दूसरे दिन किबला की चारपायी ड्राइंग रूम में आ गयी। क्योंकि यही ऐसा कमरा था जहां घोड़ा रोज-सुब्ह अपने माथे पर 'अल्लाह' लिखवाने और फूंक मारने के लिए अंदर लाया जा सकता था। तड़के किबला ने नमाज के बाद गुलाब जल में उंगली डुबो कर घोड़े के माथे पर 'अल्लाह' लिखा और खुरों को लोबान की धूनी दी। कुछ देर बाद उस पर साज कसा जाने लगा तो बिशारत दौड़े-दौड़े किबला के पास आये और कहने लगे घोड़ा दूध नहीं पी रहा। किबला हैरान हुए। फिर आंखें बंद करके सोच में पड़ गये। कुछ पलों के बाद आंखें अधखुली करके बोले, कोई हरज नहीं कोचवान को पिला दो, घोड़ा दांतों के दर्द से पीड़ित है। इसके बाद यह नियम बन गया कि दुआ पढ़कर फूंका गया दूध रहीम बख्श पीने लगा। ऐसी अरुचि के साथ पीता जैसे उन दिनों यूनानी दवाओं के पियाले पिये जाते थे अर्थात नाक पकड़ के, मुंह बना बना के। दूध के लिए न जाने कहां से धातु का बहुत लंबा गिलास ले आया जो उसकी नाभि तक पहुंचता था। किबला के उपचार का प्रभाव पहले ही दिन नजर आ गया। वह इस प्रकार कि उस दिन चालान एक दाढ़ी वाले ने किया। रहीम बख्श अपना लहराता हुआ चाबुक हाफ मास्ट करके कहने लगा 'सरकार! बावजूद धर लिया' फिर उसने विस्तार से बताया कि एक दाढ़ी वाला आज ही जमशेद रोड के हल्के से तबादला होकर आया है। बड़ा ही दयालु, अल्लाह-वाला व्यक्ति है। इसलिए केवल साढ़े तीन रुपये लिए, वह भी चंदे के तौर पर। पड़ोस में एक विधवा के बच्चे के इलाज के लिए। आप चाहें तो चल के मिल लीजिये। मिल के बहुत खुश होंगे। हर समय भीतर ही भीतर जाप करता रहता है। अंधेरी रात में सिजदे के निशान से ऐसी रौशनी निकलती है कि सुई पिरो लो। (अपने बाजू से तावीज खोलते हुए) घोड़े के लिए ये तावीज दिया है।
कहां पच्चीस रुपये, कहां साढ़े तीन रुपये! किबला ने रिश्वत में कमी को अपने आशीर्वाद और उसके चमत्कार का परिणाम समझा और कहने लगे कि तुम देखते जाओ। इंशाल्लाह चालीसवें दिन 'अत्याचार' के इंस्पेक्टर को घोड़े की टांग नजर आनी बंद हो जायेगी। उनकी चारपायी के चारों ओर उनका सामान भी ड्राइंग रूम में सजा दिया गया। दवाएँ, बैडपैन, हुक्का, सिलफ्ची, हार्मोनियम, आगा हश्र के ड्रामे, एनीमा का उपकरण और कज्जन एक्ट्रेस का फोटो। ड्राइंग रूम अब इस योग्य नहीं रहा था कि उसमें घोड़े, किबला और इन दोनों का पाखाना उठाने वाली मेहतरानी के अतिरिक्त कोई और पांच मिनट भी ठहर सके। बिशारत के दोस्तों ने आना छोड़ दिया परंतु वो घोड़े की खातिर किबला को सहन कर रहे थे।
एक घोड़ा भरेगा कितने पेट ?
जिस दिन से दाढ़ी वाले मौलाना नियुक्त हुए, रहीम बख्श हर चौथे-पांचवें दिन आ के सर पे खड़ा हो जाता। 'चंदा दीजिये।' परंतु ढाई-तीन रुपये या अधिक-से-अधिक पांच में आई बला टल जाती। उससे जिरह की तो पता चला कि कराची में तांगे अब केवल इसी इलाके में चलते हैं। तांगे वालों का हाल घोड़ों से भी खराब है। उन्होंने पुलिस और 'अत्याचार' वालों का नाम-मात्र को महीना बांध रखा है, जो उनकी गुजर बसर के लिए बिल्कुल अपर्याप्त है। उधर नंगे, भूखे गधागाड़ी वाले मकरानी सर फाड़ने पर उतर आते हैं। घायल गधा, पसीने में तर-ब-तर गधागाड़ी वाला और फटे हाल 'अत्याचार' का इंस्पेक्टर। यह निर्णय करना मुश्किल था कि इनमें कौन अधिक बदहाल और जुल्म का शिकार है। यह तो ऐसा ही था जैसे एक सूखी-भूखी जोंक, दूसरी सूखी-भूखी जोंक का खून पीना चाहे। नतीजा यह कि 'अत्याचार वाले' तड़के ही इकलौती मोटी आसामी यानी उनके तांगे की प्रतीक्षा में गली के नुक्कड़ पे खड़े हो जाते और अपने पैसे खरे करके चल देते। अकेला घोड़ा सारे स्टाफ के बाल-बच्चों का पेट पाल रहा था। लेकिन करामत हुसैन (दाढ़ी वाले मौलाना का यही नाम था) का मामला कुछ अलग था। वो अपने हुलिए और फटे-हाल होने के कारण ऐसे दिखाई पड़ते थे कि लगता था उन्हें रिश्वत देना पुण्य का काम है और वो रिश्वत लेकर वास्तव में रिश्वत देने वाले को पुण्य कमाने का अवसर प्रदान कर रहे हैं। वो रिश्वत मांगते भी ऐसे थे जैसे दान मांग रहे हों। ऐसा प्रतीत होता था कि उनके भाग का सारा अन्न घोड़े की लंगड़ी टांग के माध्यम से ही उतरता है। ऐसे फटीचर रिश्वत लेने वाले के लिए उनके भीतर न कोई सहानुभूति थी न डर।
कुत्तों के चाल चलन की चौकीदारी
दोस्तों ने सलाह दी कि घोड़े को इंजेक्शन से ठिकाने लगवा दो, लेकिन उनका मन नहीं मानता था। किबला तो सुनते ही रुआंसे हो गये। कहने लगे आज लंगड़े घोड़े की बारी है, कल अपाहिज बाप की होगी। शरीफ घरानों में आई हुई दुल्हन और जानवर तो मर कर ही निकलते हैं। वो स्वयं तीन दुल्हनों के जनाजे निकाल चुके थे, इसलिए घोड़े के बारे में भी ठीक ही कहते होंगे। रहीम बख्श भी घोड़े की हत्या कराने का कड़ा विरोध करता था। जैसे ही बात चलती, अपना तीस वर्ष के अनुभव बताने बैठ जाता। यह तो हमने भी सुना था कि इतिहास अस्ल में बड़े लोगों की बायोग्राफी है परंतु रहीम बख्श कोचवान की सारी आटोबायोग्राफी दरअस्ल घोड़ों की बायोग्राफी थी। उसके जीवन से एक घोड़ा पूरी तरह निकल नहीं पाता था कि दूसरा आ जाता। कहता था कि उसके तीन पूर्व-मालिकों ने 'वैट' से घोड़ों को जहर के इंजेक्शन लगवाये थे। पहला मालिक तीन दिन के भीतर चटपट हो गया। दूसरे का चेहरा लक्वे से ऐसा टेढ़ा हुआ कि दायीं बांछ कान की लौ से जा मिली। एक दिन गलती से आईने में खुद पर नजर पड़ी तो घिग्घी बंध गयी। तीसरे की बीबी जॅाकी के साथ भाग गयी। देखा जाये तो इन तीनों में - जो तुरंत मर गया, उसी का अंत सम्मानजनक मालूम होता है।
उन्हीं दिनों एक साईस ने सूचना दी कि लड़काना में एक घोड़ी तेलिया कुमैत बिलकुल मुफ्त यानी तीन सौ रुपये में मिल रही है। बस वडेरे के दिल से उतर गयी है। गन्ने की फस्ल की आमदनी से उसने गन्ने ही से लंबाई नाप कर एक अमरीकी कार खरीद ली है। आपकी सूरत पसंद आ गयी तो हो सकता है मुफ्त ही दे दे। इसका विरोध पहले हमने और बाद में किबला ने किया। उन दिनों कुत्ते पालने का नया-नया शौक हुआ था। हर बात उन्हीं के संदर्भ में करते थे। कुत्तों के लिए अचानक मन में इतना आदर-भाव पैदा हो गया था कि कुतिया को मादा-कुत्ता कहने लगे थे।
हमने बिशारत को समझाया कि खुदा के लिए मादा घोड़ा न खरीदो। आमिल कालोनी में दस्तगीर साहब ने एक मादा-कुत्ता पाल लिया है। किसी शुभचिंतक ने उन्हें सलाह दी थी कि जिस घर में कुत्ते हों, वहां फरिश्ते, बुजुर्ग और चोर नहीं आते। उस जालिम ने यह न बताया कि फिर सिर्फ कुत्ते ही आते हैं। अब सारे शहर के बालिग कुत्ते उनकी कोठी का घेराव करे पड़े रहते हैं। शहजादी स्वयं शत्रु से मिली हुई है।
ऐसी तनदाता नहीं देखी। जो ब्वॅाय स्काउट का 'मोटो' है - वही उसका - Beprepared - मतलब यह कि हर आक्रमणकारी से सहयोग के लिए पूरे तन-मन से तैयार रहती है। फाटक खोलना असंभव हो गया है। महिलाओं ने घर से निकलना छोड़ दिया। पुरुष स्टूल रखकर फाटक और कुत्ते फलांगते हैं। दस्तगीर साहब इन कुत्तों को दोनों वक्त नियमित रूप से खाना डलवाते हैं, ताकि आने-जाने वालों की पिंडलियों से अपना पेट न भरें। एक बार खाने में जहर डलवा कर भी देख लिया। गली में मुर्दा कुत्तों के ढेर लग गये। अपने खर्च पर उनको दफ्न किया। एक साहब का पालतू कुत्ता जो बुरी संगत में पड़ गया था, उस रात घर वालों की नजर बचा कर सैर-तमाशे को चला आया था, वो भी वहीं खेत रहा। इन चंद कुत्तों के मरने से जो रिक्त-स्थान पैदा हुआ, वो इसी प्रकार पूरा हुआ जैसा साहित्य और राजनीति में होता है। हम तो इतना जानते हैं कि स्वयं को indispensable समझने वालों के मरने से जो रिक्त-स्थान पैदा होता है, वह वास्तव में केवल दो गज जमीन में होता है, जो उन्हीं के पार्थिव शरीर से उसी समय पूरा हो जाता है। खैर! यह एक अलग किस्सा है। कहना यह था कि अब दस्तगीर साहब सख्त परेशान हैं। खानदानी मादा है। नीच जात के कुत्तों से वंशावली बिगड़ने का डर है। मैंने तो दस्तगीर साहब से कहा था कि इनका ध्यान बंटाने के लिए कोई मामूली जात की कुतिया रख लीजिये ताकि कम-से-कम यह धड़का तो न रहे, रातों की नींद तो हराम न हो। इतिहास में आप पहले व्यक्ति हैं जिसने कुत्तों के चाल-चलन की चौकीदारी का बीड़ा उठाया है।
अकेलेपन का साथी
इस किस्से से हमने उन्हें सीख दिलाई। किबला ने दूसरे पैंतरे से घोड़ी खरीदने का विरोध किया। वो इस बात पर गुस्से से भड़क उठते थे कि बिशारत को उनके चमत्कारी वजीफे पर विश्वास नहीं। वो खासे गलियर थे। बेटे को खुल कर तो गाली नहीं दी। बस इतना कहा कि अगर तुम्हें अपना वंश चलाने के लिए पेडिग्री घोड़ी ही रखनी है तो शौक से रखो, मगर मैं ऐसे घर में एक मिनट नहीं रह सकता। उन्होंने यह धमकी भी दी कि जहां बलबन घोड़ा जायेगा वो भी जायेंगे।
किस्सा दरअस्ल यह था कि किबला और घोड़ा एक दूसरे से इस हद तक घुल-मिल चुके थे कि अगर घर वाले न रोकते तो वे उसे ड्राइंग रूम में अपनी चारपायी के पाये से बंधवा कर सोते। वो भी उनके पास आकर अपने-आप सर नीचे कर लेता ताकि वो उसे बैठे-बैठे प्यार कर सकें। वो घंटों मुंह-से-मुंह भिड़ाये उससे घर वालों और बहुओं की शिकायतें और बुराइयां करते रहते। बच्चों के लिए वो जीता-जागता खिलौना था। किबला कहते थे जब से यह आया है, मेरे हाथ का कंपकंपाना कम हो गया है और बुरे सपने आने बंद हो गये हैं। वो अब उसे बेटा कहने लगे थे। सदा के रोगी से अपने-पराये सब उकता जाते हैं। एक दिन वो चार-पांच घंटे दर्द से कराहते रहे, किसी ने खबर न ली। शाम को घबराहट और मायूसी अधिक बढ़ी तो रसोइये से कहा कि बलबन बेटे को बुलाओ। बुढ़ापे और बीमारी के भयानक सन्नाटे में यह दुखी घोड़ा उनका अकेला साथी था।
इक तर निवाले की सूरत
घोड़े को जोत नहीं सकते, बेच नहीं सकते, मरवा नहीं सकते, खड़े खिला नहीं सकते, फिर करें तो क्या करें। जब ब्लैक मूड आता तो अंदर-ही-अंदर खौलते और अक्सर सोचते कि सेठ, सरमायेदार, वडेरे, जागीरदार और बड़े अफसर अपनी सख्ती और करप्शन के लिए जमाने-भर में बदनाम हैं। मगर, यह 'अत्याचार वाले' दो टके के आदमी किससे कम हैं। उन्हें इससे पूर्व ऐसे प्रतिक्रियावादी और आक्रांतकारी विचार कभी नहीं आये थे। उनकी सोच में इंसानों से परेशान व्यक्ति की झुंझलाहट उतर आई। ये लोग तो गरीब हैं, दुःखी हैं, मगर यह किसको छोड़ते हैं। संतरी बादशाह भी तो गरीब है, वो रेहड़ी वाले को कब छोड़ता है और गरीब रेहड़ी वाले ने कल शाम आंख बचाकर एक सेर सेबों में दो दागदार सेब मिलाकर तोल दिये। उसकी तराजू एक छटांक कम तोलती है। केवल एक छटांक इसलिए कि एक मन कम तोलने की गुंजाइश नहीं। स्कूल मास्टर दया और आदर के योग्य हैं। मास्टर नजमुद्दीन बरसों से चीथड़े लटकाये जालिम समाज को कोसते फिरते हैं। उन्हें साढ़े-चार सौ रुपये खिलाये, तब जा के भांजे के मैट्रिक के नंबर बढ़े और रहीम बख्श कोचवान से बढ़कर बदहाल कौन होगा?
जुल्म, जालिम और जुल्म सहने वाले दोनों को खराब करता है। जुल्म का पहिया जब अपना चक्कर पूरा कर लेता है और मजलूम की बारी आती है तो वो भी वही सब करता है जो उसके साथ किया गया था। अजगर पूरे का पूरा निगलता है, शार्क दांतों से खूनम-खून करके खाती है। शेर डॉक्टरों के बताये नियमों के अनुसार अच्छी तरह चबा-चबा के खाता है। बिल्ली, छिपकली, मकड़ी और मच्छर अपनी-अपनी हिम्मतानुसार खून की चुस्की लगाते हैं। वो यहां तक पहुंचे थे कि सहसा उन्हें अपने इन्कमटैक्स के डबल बहीखाते याद आ गये और वो अनायास मुस्कुरा उठे। भाई मेरे! छोड़ता कोई नहीं, हम सब एक-दूसरे का भोजन हैं। बड़े जतन से एक-दूसरे को चीरते-फाड़ते हैं। 'तब नजर आती है इक लुक्म-ए-तर की सूरत'
समुद्र तल और गरीबी रेखा से नीचे
आये दिन के चालान, तावान से वो तंग आ चुके थे। कैसा अंधेर है। सारे देश में यही एक जुर्म रह गया है! बहुत हो चुकी। अब वो इसका दो टूक फैसला करके छोड़ेंगे। मौलाना करामत हुसैन से वो एक बार मिल चुके थे और सारी दहशत निकल चुकी थी। पौन इंच कम पांच फ़ुट का पोदना! उसकी गर्दन उनकी कलाई के बराबर थी। गोल चेहरे और तंग माथे पर चेचक के दाग ऐसे चमकते थे, जैसे तांबे के बर्तन पर ठुंके हुए खोपरे। आज वो घर का पता मालूम करके उसकी खबर लेने जा रहे थे। पूरा डायलॅाग हाथ के इशारों और आवाज के उतार-चढ़ाव के साथ तैयार था।
उन्हें मौलाना करामत हुसैन की झुग्गी तलाश करने में काफी परेशानी हुई। हालांकि बताने वाले ने बिल्कुल सही पता बताया था कि झुग्गी बिजली के खंबे नं.-23 के पीछे कीचड़ की दलदल के उस पार है। तीन साल से खंबे बिजली के इंतजार में खड़े हैं। पते में उसके दायीं ओर एक ग्याभिन भैंस बंधी हुई बतायी गयी थी। सड़कें, न रास्ते, गलियां, न फुटपाथ। ऐसी बस्तियों में घरों के नंबर या नाम का बोर्ड नहीं होता। प्रत्येक घर का एक इंसानी चेहरा होता है, उसी के पते से घर मिलता है। खंबा तलाश करते-करते उन्हें अचानक एक झुग्गी के टाट के पर्दे पर मौलाना का नाम सुर्ख रोशनाई से लिखा नजर आया। बारिश के पानी के कारण रोशनाई बह जाने से नाम की लकीरें खिंची रह गयी थीं। चारों ओर टखनों-टखनों बजबजाता कीचड़, सूखी जमीन कहीं दिखाई नहीं पड़ती थी। चलने के लिए लोगों ने पत्थर और ईंटें डालकर पगडंडियां बना लीं थीं। एक नौ-दस साल की बच्ची सर पर अपने से अधिक भारी घड़ा रखे अपनी गर्दन तथा कमर की हरकत से पैरों को डगमगाते पत्थरों और घड़े को सर पर संतुलित करती चली आ रही थी। उसके चेहरे पर पसीने के रेले बह रहे थे। रास्ते में जो भी मिला, उसने बच्ची को संभल कर चलने का मशवरा दिया। थोड़ी-थोड़ी दूरी पर पांच-छः ईंटों का ट्रैफिक आईलैंड आता था, जहां जाने-वाला आदमी खड़े रह कर आने वाले को रास्ता देता था। झुग्गियों के भीतर भी कुछ ऐसा ही नक्शा था। बच्चे, बुजुर्ग और बीमार दिन भर ऊंची-ऊंची खाटों और खट्टों पर टंगे रहते। कुरान-शरीफ, लिपटे हुए बिस्तर, बर्तन-भांडे, मैट्रिक के सर्टिफिकेट, बांस के मचान पर तिरपाल तले और तिरपाल के ऊपर मुर्गियां। मौलाना करामत हुसैन ने झुग्गी के एक कोने में खाना पकाने के लिए एक टीकरी पर चबूतरा बना रखा था। एक खाट के पाये से बकरी भी बंधी थी। कुछ झुग्गियों के सामने भैंसें कीचड़ में धंसी थीं और उनकी पीठ पर कीचड़ का प्लास्टर पपड़ा रहा था। यह भैंसों की जन्नत थी। इनका गोबर कोई नहीं उठाता था। क्योंकि उपले थापने के लिए कोई दीवार या सूखी जमीन नहीं थी। गोबर भी इंसानी गंदगी के साथ इसी कीचड़ में मिल जाता था। इन्हीं झुग्गियों में टीन की चादर के सिलेंडरनुमा डिब्बे भी दिखाई दिये। जिनमें दूध भरने के बाद सदर की सफेद टाइलों वाली डेरी की दुकानों में पहुंचाया जाता था। एक लंगड़ा कुत्ता झुग्गी के बाहर खड़ा था। उसने अचानक खुद को झड़झड़ाया तो उसके घाव पर बैठी हुई मक्खियों और अध-सूखे कीचड़ के छर्रे उड़-उड़ कर बिशारत की कमीज और चेहरे पर लगे।
मुगल वंश का पतन
बिशारत ने झुग्गी के बाहर खड़े होकर मौलाना को आवाज दी। हालांकि उसके 'अंदर' और 'बाहर' में कुछ ऐसा अंतर नहीं था। बस चटायी, टाट और बांसों से अंदर के कीचड़ और बाहर के कीचड़ के बीच हद बंदी करके एक काल्पनिक एकांत, एक संपत्ति की लक्ष्मण रेखा खींच ली गयी थी।
कोई जवाब न मिला तो उन्होंने हैदराबादी अंदाज से ताली बजाई, जिसके जवाब में अंदर से छः बच्चों का तले ऊपर की पतीलियों का-सा सेट निकल आया। इनकी आयु में नौ-नौ महीने से भी कम का अंतर दिखाई दे रहा था। सबसे बड़े लड़के ने कहा, मगरिब की नमाज पढ़ने गये हैं। तशरीफ रखिये। बिशारत की समझ में न आया, कहां तशरीफ रखें। उनके पैरों-तले ईंटें डगमगा रही थीं। सड़ांध से दिमाग फटा जा रहा था। 'जहन्नुम अगर इस धरती पर कहीं हो सकता है तो, यहीं है, यहीं है, यहीं है।'
वो दिल-ही-दिल में मौलाना को डांटने का रिहर्सल करते हुए आये थे - यह क्या अंधेर है मौलाना? किचकिचा कर मौलाना कहने के लिए उन्होंने बड़े कटाक्ष और कड़वाहट से वह स्वर कंपोज किया था - जो बहुत सड़ी गाली देते समय अपनाया जाता है, लेकिन झुग्गी और कीचड़ देखकर उन्हें अचानक खयाल आया कि मेरी शिकायत पर इस व्यक्ति को अगर जेल हो भी जाये तो इसके तो उल्टे ऐश हो जायेंगे। मौलाना पर फेंकने के लिए लानत-मलामत के जितने पत्थर वो जमा करके आये थे, उन सब पर दाढ़ियां लगाकर नमाज की चटाइयां लपेट दी थीं ताकि चोट भले ही न आये, शर्म तो आये - वो सब ऐसे ही धरे रह गये।
उनका हाथ जड़ हो गया था। इस व्यक्ति को गाली देने से फायदा? इसका जीवन तो खुद एक गाली है। उनके गिर्द बच्चों ने शोर मचाना शुरू किया तो सोच का सिलसिला टूटा। उन्होंने उनके नाम पूछने शुरू किये। तैमूर, बाबर, हुमायूं, जहांगीर, शाहजहां, औरंगजेब, या अल्लाह! पूरा मुगल वंश इस टपकती झुग्गी में ऐतिहासिक रूप से सिलसिलेवार उतरा है।
ऐसा लगता था कि मुगल बादशाहों के नामों का स्टॉक समाप्त हो गया, मगर औलादों का सिलसिला समाप्त नहीं हुआ। इसलिए छुटभैयों पर उतर आये थे। मिसाल के तौर पर एक जिगर के टुकड़े का प्यार का नाम मिर्जा कोका था जो अकबर का दूध-शरीक भाई था, जिसको उसने किले की दीवार पर से नीचे फिंकवा दिया था। अगर सगा भाई होता तो इससे भी कड़ी सजा देता यानी समुद्री डाकुओं के हाथों कत्ल होने के लिए हज पर भेज देता या आंखें निकलवा देता। वो रहम की अपील करता तो भाई होने के नाते दया और प्रेम की भावना दिखाते हुए जल्लाद से एक ही वार में सर कलम करवा कर उसकी मुश्किल आसान कर देता।
हम अर्ज यह कर रहे थे कि तैमूरी खानदान के जो बाकी कुलदीपक झुग्गी के अंदर थे, उनके नाम भी तख्त पर बैठने, बल्कि तख्ता उलटने के क्रम के लिहाज से ठीक ही होंगे, इसलिए कि मौलाना की स्मरण शक्ति और इतिहास का अध्ययन बहुत अच्छा प्रतीत होता था। बिशारत ने पूछा तुममें से किसी का नाम अकबर नहीं? बड़े लड़के ने जवाब दिया, नहीं जी, वो तो दादा जान का शायरी का उपनाम है।
बातचीत का सिलसिला कुछ उन्होंने कुछ बच्चों ने शुरू किया। उन्होंने पूछा, तुम कितने भाई-बहन हो? जवाब में एक बच्चे ने उनसे पूछा, आपके कितने चचा हैं? उन्होंने पूछा, तुम में से कोई पढ़ा हुआ भी है? बड़े लड़के तैमूर ने हाथ उठा कर कहा, जी हां, मैं हूं। मालूम हुआ यह लड़का जिसकी उम्र तेरह-चौदह साल होगी, मस्जिद में बगदादी कायदा पढ़ कर कभी का निबट चुका। तीन साल तक पंखे बनाने की एक फैक्ट्री में मुफ्त काम सीखा। एक साल पहले दायें हाथ का अंगूठा मशीन में आ गया, काटना पड़ा। अब एक मौलवी साहब से अरबी पढ़ रहा है। हुमायूं अपने हमनाम की भांति अभी तक आवारागर्दी की मंजिल से गुजर रहा था। जहांगीर तक पहुंचते-पहुंचते पाजामा बार-बार हो रहे राजगद्दी परिवर्तन की भेंट चढ़ गया। हां! शाहजहां का शरीर फोड़ों, फुंसियों पर बंधी पट्टियों से अच्छी तरह ढंका हुआ था। औरंगजेब के तन पर केवल अपने पिता की तुर्की टोपी थी। बिशारत को उसकी आंखें और उसे बिशारत दिखाई न दिये। सात साल का था, मगर बेहद बातूनी। कहने लगा, ऐसी बारिश तो मैंने सारी जिंदगी में नहीं देखी। हाथ पैर माचिस की तीलियां, लेकिन उसके गुब्बारे की तरह फूले हुए पेट को देखकर डर लगता था कि कहीं फट न जाये। कुछ देर बाद नन्हीं नूरजहां आई। उसकी बड़ी-बड़ी आंखों में काजल और कलाई पर नजर-गुजर का डोरा बंधा था। सारे मुंह पर मैल, काजल, नाक, और धूल लिपी हुई थी। केवल वो हिस्से इससे अलग थे जो अभी-अभी आंसुओं से धुले थे। उन्होंने उसके सर पर हाथ फेरा। उसके सुनहरे बालों में गीली लकड़ियों के कड़वे-कड़वे धुएं की गंध बसी हुई थी। एक भोली-सी सूरत का लड़का अपना नाम शाह आलम बता कर चल दिया। आधे रास्ते से लौट कर कहने लगा कि मैं भूल गया था। शाह आलम तो बड़े भाई का नाम है। ये सब मुगल शहजादे कीचड़ में ऐसे मजे से फचाक-फचाक चल रहे थे जैसे इनकी वंशावली अमीर तैमूर के बजाय किसी राजहंस से मिलती हो।
हर कोने-खुदरे से बच्चे उबले पड़ रहे थे। एक कमाने वाला और यह टब्बर! दिमाग चकराने लगा।
कोई दीवार सी गिरी है अभी
कुछ देर बाद मौलाना आते हुए दिखाई दिये। कीचड़ में डगमग-डगमग करती ईंटों पर संभल-संभल कर कदम रख रहे थे। इस डांवाडोल पगडंडी पर इस तरह चलना पड़ता था जैसे सरकस में करतब दिखाने वाली लड़की तने हुए तार पर चलती है। लेकिन क्या बात है, वो तो अपने आप को खुली छतरी से संतुलित करती रहती है। जरा डगमगा कर गिरने लगती है तो दर्शक पलकों पर झेल लेते हैं। मौलाना खुदा जाने बिशारत को देखकर बौखला गये या संयोग से उनकी खड़ाऊं ईंट पर फिसल गयी, वो दायें हाथ के बल जिसमें नमाजियों की फूंकें मारे हुए पानी का गिलास था - गिरे। उनका तहबंद और दाढ़ी कीचड़ में लथपथ हो गयी और हाथ पर कीचड़ की जुराब-सी चढ़ गयी। एक बच्चे ने बिना कलई के लोटे से पानी डालकर उनका मुंह हाथ धुलाया, बिना साबुन के। उन्होंने अंगोछे से तस्बीह, मुंह और हाथ पोंछकर बिशारत से हाथ मिलाया और सर झुका कर खड़े हो गये। बिशारत ढह चुके थे, इस कीचड़ में डूब गये। अनायास उनका जी चाहा कि भाग जायें, मगर दलदल में व्यक्ति जितनी तेजी से भागने का प्रयास करता है उतनी ही तेजी से धंसता चला जाता है।
उनकी समझ में न आया कि अब शिकायत और चेतावनी की शुरुआत कहां से करें, इसी सोच एवं संकोच में उन्होंने अपने दाहिने हाथ से जिससे कुछ देर पहले हाथ मिलाया था, होंठ खुजाया तो उबकाई आने लगी। इसके बाद उन्होंने उस हाथ को अपने शरीर और कपड़ों से एक बालिश्त की दूरी पर रखा। मैलाना आने का उद्देश्य भांप गये। खुद पहल की। यह मानने के साथ कि मैं आपके कोचवान रहीम बख्श से पैसे लेता रहा हूं - लेकिन पड़ोसन की बच्ची के इलाज के लिए। उन्होंने यह भी बताया कि मेरी नियुक्ति से पहले यह नियम था कि आधी रकम आपका कोचवान रख लेता था। अब जितने पैसे आपसे वसूल करता है, वो सब मुझ तक पहुंचते हैं। उसका हिस्सा समाप्त हुआ। हुआ यूं कि एक दिन वो मुझसे अपनी बीबी के लिए तावीज ले गया। अल्लाह ने उसका रोग दूर कर दिया। उसके बाद वो मेरा भक्त हो गया। बहुत दुखी आदमी है।
मौलाना ने यह भी बताया कि पहले आप चालान और रिश्वत से बचने के लिए जब भी उसे रास्ता बदलने का आदेश देते थे, वो महकमे वालों को इसका एडवांस नोटिस दे देता था। वो हमेशा अपनी इच्छा, अपनी मर्जी से पकड़ा जाता था। बल्कि यहां तक हुआ कि एक बार इंस्पेक्टर को निमोनिया हो गया और वो तीन सप्ताह तक ड्यूटी पर नहीं आया तो रहीम बख्श हमारे आफिस में ये पता करने आया कि इतने दिन से चालान क्यों नहीं हुआ, खैरियत तो है? बिशारत ने कोचवान से संबंधित दो-तीन प्रश्न तो पूछे, परंतु मौलाना को कुछ कहने सुनने का साहस अब उनमें न था। उनका बयान जारी था, वो चुपचाप सुनते रहे।
मेरे वालिद के कूल्हे की हड्डी टूटे दो बरस हो गये। वो सामने पड़े हैं। बैठ भी नहीं सकते। चारपायी काट दी है। लगातार लेटे रहने से नासूर हो गये हैं। पड़ोसी आये दिन झगड़ता है कि 'तुम्हारे बुढ़ऊ दिन भर तो खर्राटे लेते हैं और रातभर चीखते-कराहते हैं, नासूरों की सड़ांध के मारे हम खाना नहीं खा सकते।
वो भी ठीक ही कहता है। खाली चटायी की दीवार ही तो बीच में है। चार माह पहले एक और बेटे ने जन्म लिया। अल्लाह की देन है। बिन मांगे मोती मिले, मांगे मिले न भीख। जापे के बाद ही पत्नी को Whiteleg हो गयी। मौला की मर्जी! रिक्शा में डालकर अस्पताल ले गया। कहने लगे, तुरंत अस्पताल में दाखिल कराओ, मगर कोई बेड खाली नहीं था। एक महीने बाद फिर ले गया। अब की बार बोले - अब लाये हो, लंबी बीमारी है, हम ऐसे मरीज को दाखिल नहीं कर सकते। फज्र और मगरिब की नमाज से पहले दोनों का गू-मूत करता हूं। नमाज के बाद स्वयं रोटी डालता हूं तो बच्चों के पेट में कुछ जाता है। एक बार नूरजहां ने मां के लिए बकरी का दूध गर्म किया तो कपड़ों में आग लग गयी थी। अल्लाह का लाख-लाख शुक्र है, मेरे हाथ-पांव चलते हैं।
पलीद हाथ
मौलाना को जैसे कोई बात अचानक याद आ गयी। वो 'एक्सक्यूज मी' करके कुछ देर के लिए अंदर चले गये। इधर बिशारत अपने विचारों में खो गये। इस एक आरपार झुग्गी में जिसमें न कमरे हैं, न पर्दे, न दीवारें, न दरवाजे, जिसमें आवाज, टीस और सोच तक नंगी है, जहां लोग शायद एक दूसरे का सपना भी देख सकते हैं। यहां एक कोने में बूढ़ा बाप पड़ा दम तोड़ रहा है, दूसरे कोने में बच्चा पैदा हो रहा है और बीच में बेटियां जवान हो रही हैं। भाई मेरे! जहां इतनी रिश्वत ली थी, वहां थोड़ी-सी और लेकर पत्नी को अस्पताल में दाखिल करा देते तो क्या हरज था। जान पर बनी हो तो शराब तक हराम नहीं रहती, लेकिन फिर हांडी, चूल्हा, बुहारी कौन करता? इस टब्बर का पेट कैसे भरता? मौलाना ने बताया था कि उन्होंने बच्चों के लिए रोटी पकायी और कपड़े धोये थे। बिशारत सोचने लगे कि उन जंगजू तातारी स्त्रियों की प्रशंसा से तो इतिहास भरा पड़ा है जो अरब शाह के कथनानुसार तैमूर की फौज में कंधे से कंधा मिला कर लड़ती थीं। अगर यात्रा के दौरान किसी स्त्री को प्रसव पीड़ा आरंभ हो जाती तो वो दूसरे घुड़सवारों के लिए रास्ता छोड़कर एक तरफ खड़ी हो जाती। घोड़े से उतर कर बच्चा जनती, फिर उसे कपड़े में लपेट कर अपने गले में लटकाती और घोड़े की नंगी पीठ पर सवार होकर फौज से जा मिलती, मगर झुग्गियों में चुपचाप जान से गुजर जाने वाली इन महिलाओं का शोकगीत कौन लिखेगा?
बिशारत का दम घुटने लगा। अब तलक मौलाना ने कुल मिलाकर यही सौ, डेढ़ सौ रुपये वसूल किये होंगे। वो फिजूल यहां आये। उन्होंने विषय बदला और फूंकें मारे हुए पानी के प्रभाव के बारे में सोचने लगे कि अभी तो ये बेचारी एक रोग से ग्रस्त है। सौ आदमियों का फूंका हुआ पानी पी कर सौ नयी बीमारियों में घिर जायेगी।
कुछ देर बाद मौलाना ने अंदर पर्दा कराया यानी जब नूरजहां ने अपनी बीमार मां को सर से पैर तक चीकट लिहाफ उढ़ा कर लिटा दिया तो मौलाना ने बिशारत से झुग्गी में चलने को कहा। दोनों एक चारपायी पर पैर लटका कर बैठ गये। अदवान पर दो कप रखे थे। कप के किनारे पर मक्खियों की कुलबुलाती झालर, मौलाना ने कप में थोड़ी सी चाय डाली और उंगली से अच्छी तरह रगड़ कर धोया। फिर उसमें चाय बनाकर बिशारत को पेश की। अगर वो उस उंगली से न धोते जो कुछ देर पहले कीचड़ में सनी हुई थी तो शायद इतनी उबकाई न आती। मौलाना चाय देने के लिए झुके तो उनकी दाढ़ी से गटर की गंध आ रही थी।
मौलाना का बयान जारी था। बिशारत में अब इतना साहस बाकी नहीं रहा था कि नजर उठाकर उनकी सूरत देखें। मुझे महकमा साठ रुपये तन्ख्वाह देता है। एक बेटा सात बरस का है। दिमाग, डील डौल और शक्ल-सूरत में सबसे अच्छा। चार-पांच महीने हुए, उसे तीन दिन बड़ा तेज बुखार रहा। चौथे दिन बायीं टांग रह गयी। डॉक्टर को दिखाया, बोला, पोलियो है। इंजेक्शन लिख दिये। खुदा का शुक्र किस मुंह से अदा करूं कि मेरा बच्चा केवल एक ही टांग से अपाहिज हुआ। पड़ोस में चार झुग्गी छोड़कर एक बच्ची की दोनों टांगें रह गयीं। महामारी फैली हुई है। जो रब चाहता है वही होता है। बिन बाप की बच्ची है। डॉक्टर की फीस कहां से लायें। मैंने अपने बेटे के तीन इंजेक्शन उस बच्ची के लगवा दिये। क्या बताऊं उस विधवा ने कैसी दुआयें दीं। हर नमाज में उस बच्ची के लिए भी दुआ करता हूं। प्रत्येक शुक्रवार को जंगली कबूतर के खून और लौंग तथा बादाम के तेल से बेटे और उस बच्ची की टांगों की मालिश करता हूं। वैसे डॉक्टरी उपचार भी चल रहा है। आपके कोचवान से जितनी बार पैसे लिए उसी के लिए लिए।
बिशारत को ऐसा लगा, जैसे दिमाग सुन्न हो गया हो। बीमारी, बीमारी, बीमारी! यहां लोग कचर-धान बच्चे पैदा करने और बीमार पड़ने के अतिरिक्त कुछ और भी करते हैं या नहीं? इस आधे घंटे में उनके मुंह से मुश्किल से दस-बारह वाक्य निकले होंगे। मौलाना ही बोलते रहे। बिशारत की जबान पर एक प्रश्न आ-आ कर रह जाता था। क्या सब झुग्गियों में यही हाल है? क्या हर घर में लोग इसी तरह रिंझ-रिंझ कर जीते हैं?
मौलाना जारी थे 'आपके कोचवान ने धमकी दी थी कि हमारा साब कहता है दढ़ियल को बोल देना ऐसा जलील करूंगा, ऐसा मटियामेट करूंगा कि याद करेगा। यह आप देख रहे हैं, बरसता बादल हमारा ओढ़ना और कीचड़ हमारा बिछौना है। इसके बाद अब और क्या होगा? मौला से दुआ की थी, इज्जत की रोटी मिले। गुनाहगार हूं, दुआ कुबूल न हुई। उससे कुछ छुपा नहीं। आज सुब्ह नाश्ते में एक रोटी खाई थी। उसके बाद खील का दाना भी मुंह में गया हो तो सुअर खाया हो। वो जिसको चाहता है बेहिसाब देता है। वो कहता है, तुम इतने बेबस और लाचार हो कि तुम्हारे हाथ से मक्खी भी एक जर्रा उठाकर ले जाये तो तुम उससे छीन नहीं सकते।
मौलाना ने कुर्ता उठाकर अपना पेट दिखाया जिसमें गार पड़ा हुआ था। धोंकनी-सी चल रही थी। बिशारत ने नजरें झुका लीं।
अर्से से हजरत जहीन शाह ताजी का मुरीद होना चाहता हूं। एक पड़ोसी ने जो उस विधवा से शादी करने का इच्छुक है और मुझे इसमें रुकावट समझता है, पीरो-मुर्शिद को एक गुमनाम पत्र भेजा कि मैं रिश्वत लेता हूं। अब हजरत फर्माते हैं कि हजरत बाबा फरीदुद्दीन गंजे-शकर ने हलाल के खाने को इस्लाम का छटा स्तंभ माना है। जब तक तुम रिश्वत का एक-एक पैसा वापस न कर दोगे दीक्षा नहीं दूंगा। खुदा मुझ पर रहम करे। मेरे लिए दुआ कीजिये।
दो अकेले
एक सप्ताह बाद देखा कि मौलाना करामत हुसैन बिशारत की दुकान पर मुंशी की ड्यूटी अंजाम दे रहे हैं, और फीता हाथ में लिए 'देवदार' और 'पेन' लकड़ी नापते खुश-खुश फिर रहे हैं। उनकी तन्ख्वाह तिगुनी हो गयी। तीन चार दिन बाद बिशारत ने केवल इतना कहा कि मौलाना ईमानदारी अच्छी चीज है, मगर आप ग्राहक के सामने लकड़ी की गांठ को इस तरह न तका कीजिये जैसे घोड़े की गर्दन के घाव को देख रहे हों। रहीम कोचवान को बर्खास्त करने की आवश्यकता न पड़ी। मौलाना के आते ही वो बिना कहे सुने गायब हो गया।
घोड़े के बिकने के कोई आसार नजर नहीं आते थे। मौलाना के लिहाज में 'अत्याचार' वालों ने सताना छोड़ दिया। बिशारत ने आदरणीय से इशारों में कहा कि आपकी दुआ से चालानों का सिलसिला समाप्त हो गया है, अब आप ड्राइंग रूम से अपने कमरे में तशरीफ ले जा सकते हैं। लेकिन आदरणीय घोड़े के इतने आदी हो गये थे कि किसी प्रकार वजीफा छोड़ने के लिए तैयार नहीं थे। घोड़ा उन्हें देखते ही (कोचवान के कहे अनुसार) बुचियाने लगता था, यानी मारे खुशी के अपने कान खड़े करके दोनों सिरे मिला देता था। तड़के घोड़ा ड्राइंग रूम में आग्रह करके आवश्यक तौर पर बुलवाया जाता। जैसे ही 'घोड़ा आ रहा है!' का शोर होता तो जिसे दीनो-दिल या कुछ और भी अजीज होता, रास्ता छोड़कर तमाशा देखने दूर खड़ा हो जाता। यह दृश्य दूल्हा दुल्हन के आईने में एक दूसरे को देखने की रस्म की याद दिलाता था। जब दूल्हा को जनाने में बुलवाया जाता है तो बार-बार ऐलान किया जाता है 'लड़का आ रहा है! लड़का आ रहा है!' यह सुनकर लड़कियां बालियां और पर्दानशीन बीबियां नकाब उलट कर चेहरे खोलकर बैठ जाती हैं।
यह धारणा अकारण प्रतीत नहीं होती कि कुछ मर्द बुढ़ापे में शादी केवल 'लड़का आ रहा है' सुनने के लालच में करते हैं। वरना जहां तक महज निकाह या स्त्री का संबंध है तो
इससे गरज निशात है किस रू-सियाह को
( इससे खुशी कौन कलमुंहा हासिल करना चाहता है - गालिब ) ।
किबला उसके माथे पर तर्जनी से 'अल्लाह' लिखते। कुछ अर्से से उसके पैर पर दुआ पढ़के, फूंक मार के हाथ भी फेरने लगे थे। जिस दिन से वो उसकी दुम में उंगलियों से कंघी करते हुए उससे घर वालों की शिकायतें नाम ले-लेकर करने लगे, उस दिन से रिश्ता इंसान और जानवर का नहीं रहा। जब वो अपनी नयी तकलीफों का हाल सुनाकर चुप हो जाते तो वो बड़े प्यार से अपना मुंह उनके लक्वाग्रस्त शरीर से रगड़ता और फिर सर झुका लेता। जैसे कह रहा हो कि बाबा! आप तो मुझसे भी अधिक दुखी निकले। वो कहते थे कि मुझे ऐसा महसूस होता है, मेरी बायीं टांग में फिर से सेंसेशन आ रही है।
गरज यह कि आदरणीय अब उसे घोड़ा समझ कर बात नहीं करते थे। उधर घोड़ा भी उनसे इतना हिल गया और ऐसा अपनापन दिखाने लगा मानो वो इंसान न हों। वो अब उसे कभी घोड़ा नहीं कहते थे बलबन या बेटा कहकर बुलाते। वो आता तो दोनों के मिलने का दृश्य देखने-सुनने वाला होता।
किबला एक दिन कहने लगे कि घोड़े की टांगों के जोड़ अकड़ गये हैं। फिर उसके जोड़ खोलने के लिए ड्राइंग रूम में अंगीठी जलवा कर अपनी निगरानी में तीन सेर खोये और अस्ली घी में घीक्वार का हलवा बनवा कर चालीस दिन तक खुद खाया, जिससे उनकी अपनी जबान और भूख खुल गयी। इधर कुछ दिनों से वो यह भी कहने लगे थे कि घोड़े में जिन्न समा गया है। उसे उतारने के लिए हर बृहस्पतिवार को मिर्चों की धूनी देते और आधा सेर दानेदार कलाकंद पर नियाज देकर बांट देते। मतलब यह कि आधा खुद खाते, आधा अपने दोस्त चौधरी करम इलाही के यहां भिजवाते। कलाकंद खाते जाते और फर्माते जाते कि कुछ जिन्नों की नीयत किसी तरह नहीं भरती। पूर्व कोचवान रहीम बख्श भी कहता था कि यह घोड़ा नहीं जिन्न है। जिन्न नापाक पलीद लोगों को दिखाई नहीं देते।
उसी का कहना है कि एक दिन मैं बलबन को सुब्ह ड्राइंगरूम में न ले जा सका तो शाम को नमाज के बाद रस्सी तुड़ाकर खुद ही दुआ पढ़वा के वापस आ गया। मैं दाना चारा ले के गया तो उधर कुछ और ही दृश्य था। देखा कि उसके खुर कपूर के हो गये हैं और उनमें से ऐसी चकाचौंध करने वाली किरणें निकल रही हैं कि आप उधर आंख भर-कर देख नहीं सकते। नथुनों से लोबान का धुआं निकल रहा है। इस पर अब्दुल्लाह गजक वाले ने रहीम बख्श के सर की कसम खाकर कहा, जिस समय यह घटना घटी, ठीक उसी समय मैंने घोड़े को हजरत अब्दुल्लाह शाह गाजी की दरगाह के सामने खड़ा देखा। उस पर एक नूरानी दाढ़ी वाले हरे कपड़े पहने बुजुर्ग सवार थे।
आदरणीय ने घोड़े के चमत्कार को अपना चमत्कार समझा। कुरेद कुरेद-कर कई बार बुजुर्ग का हुलिया पूछा और हर बार उन्हें झुंझलाहट हुई, क्योंकि बुजुर्ग का हुलिया उनसे नहीं मिलता था। अब वो बलबन बेटे को शाम की नमाज के बाद भी अपने पास बुलवाने लगे। दोनों रात तक सर जोड़े ऐसी बातें करते कि
'लोग सुन पायें तो दोनों ही को दीवाना कहें।'
इस घटना के पश्चात कोचवान घोड़े को बलबन साहब और शाह जी कहने लगा। आदरणीय अक्सर फर्माते कि घोड़ा शुभ है। बिशारत के यहां पुत्र जन्म को वो घोड़े के आने से जोड़ते थे। मोहल्ले की कुछ बांझ औरतें शाह जी के दर्शन को आईं।
घट घटना गयी
हम यह बताना भूल ही गये कि रहीम बख्श के जाने के बाद उन्होंने एक नया कोचवान रखा। नाम मिर्जा वहीदुज्जमां बेग, मगर नौकरी की शर्तों के अनुसार किबला इसे भी अलादीन ही बुलाते थे। बातचीत और शक्ल सूरत से भलामानुस लगता था। उसने अपना हुलिया ऐसा बना रखा था कि उसके साथ चाहे न चाहे भलाई करने को जी चाहता। मंगोल नैन नक्श, सांवला रंग, गठा हुआ बदन, छोटे-छोटे कान, ऊंचा माथा, काठी ऐसी ठांठी कि उम्र कुछ भी हो सकती थी। सदरी की अंदरूनी जेब में पिस्तौल के बजाय एक घिसी हुई नाल का शेरपंजा तेज करके रख छोड़ा था। बंदर रोड के पीछे ट्राम डिपो के पास जहां थियेटर कंपनी थी, उसके खेल-रुस्तम सोहराब में वो डेढ़ महीने तक रुस्तम का घोड़ा 'रख्श' बना था। स्टेज पर पूरी ताकत से हिनहिनाता तो थियेटर के बाहर खड़े हुए तांगों की घोड़ियां अंदर आने के लिए लगाम तुड़ाने लगतीं। उसकी एक्टिंग से खुश होकर एक दर्शक ने यह नाल स्टेज पर फेंकी थी। छोटे से शरीर पर बड़ी पाटदार आवाज पायी थी। आगा हश्र के धुंआधार ड्रामों के गरजते कड़कते संवाद जबानी याद थे, जिन्हें घोड़े के साथ बोलता रहता था। जिस समय की यह चर्चा है, उस समय तांगे वाले, मिलों के मजदूर और खोमचे वाले तक आपस में इन्हीं संवादों के टुकड़े बोलते फिरते थे।
मिर्जा वहीदुज्जमां बेग, जिसके नाम के आगे या पीछे कोचवान लिखते हुए कलेजा खून होता है, अपना हर वाक्य 'कुसूर माफ' से शुरू करता था। इंटरव्यू के दौरान उसने दावा किया कि मैं मोटर ड्राइविंग भी बहुत अच्छी जानता हूं। बिशारत ने जल कर कहा तो फिर तुम तांगा क्यों चलाना चाहते हो? दुआ के अंदाज में हाथ उठाते हुए कहने लगा, अल्लाह पाक आपको कार देगा तो कार भी चला लेंगे।
बिशारत ने उसे यह सोचकर नौकरी पर रखा था कि चलो सीधा-सादा आदमी है। काबू में रहेगा। मिर्जा अब्दुल वुदूद बेग ने टिप दी कि बुद्धिमानी पर रीझ कर कभी किसी को नौकर नहीं रखना चाहिये। नौकर जितना ठस होगा उतना अधिक आज्ञाकारी और सेवा करने वाला होगा। उसने कुछ दिन तो बड़ी आज्ञाकारिता दिखाई फिर यह हाल हो गया कि स्कूल से कभी एक घंटा लेट आ रहा है। कभी दिन में तीन तीन घंटे गायब। एक बार उसे एक आवश्यक इन्वाइस लेकर भेजा। चार घंटे बाद लौटा। बच्चे स्कूल के फाटक पर भूखे-प्यासे खड़े रहे। बिशारत ने डांटा तो अपनी पेटी, जिसे राछ औजार की पेटी बताता था और तांगे में हर समय साथ रखता था, की ओर इशारा करके कहने लगा, 'कुसूर माफ, घटना घट गयी। म्यूनिस्पिल कार्पोरेशन की बगल वाली सड़क पर घोड़ा ठोकर खा कर गिर पड़ा। एक तंग टूट गया था। नाल भी झांझन की तरह बजने लगी। कुसूर माफ, नाल की एक भी कील ढीली हो तो एक मील दूर से केवल टाप सुनकर बता सकता हूं कि कौन सा खुर है।' बिशारत ने आश्चर्य से पूछा, 'तुम स्वयं नाल बांध रहे थे?' बोला, 'और नहीं तो क्या, कहावत है, 'खेती, पानी, बिंती और घोड़े का तंग, अपने हाथ संवारिये चाहे लाखों हों संग', घोड़े की चाकरी तो खुद ही करनी पड़ती है।'
वो हर बार नयी कहानी, नया बहाना गढ़ता था। झूठे लपाड़ी आदमी की मुसीबत यह है कि वो सच भी बोले तो लोग झूठ समझते हैं। अक्सर ऐसा हुआ कि उसी की बात सच निकली, फिर भी उसकी बात पर दिल नहीं ठुकता था। एक दिन बहुत देर से आया। बिशारत ने आड़े हाथों लिया तो कहने लगा, 'जनाबे-आली मेरी भी तो सुनिये। मैं रेस क्लब की घुड़साल के सामने से अच्छा भला गुजर रहा था कि घोड़ा एक दम रुक गया। चाबुक मारे तो बिल्कुल ही अड़ गया। राहगीर तमाशा देखने खड़े हो गये। इतने में अंदर से एक बूढ़ा सलोतरी निकल के आया। घोड़े को पहचान के कहने लगा, 'अरे अरे! तू इस शहजादे को काये को मार रिया है। इसने अच्छे दिन देखे हैं, किस्मत की बदनसीबी को सैयाद क्या करे। यह तो अस्ल में दुर्रे-शहवार (घोड़ी का नाम) की बू लेता यहां आन के मचला है। जिस रेस में इसकी टांग में मोच आई, दुर्रे-शहवार भी इसके साथ दौड़ी थी। दो इतवार पहले फिर पहले नंबर पर आई है। अखबारों में फोटो छपे थे। भागवान ने मालिक को लखपती कर दिया।' फिर उसने इसके पुराने साईस को बुलाया। हम तीनों इसे तांगे से खोल के भीतर ले जाने लगे। इसे सारे रास्ते मालूम थे। सीधा हमें अपने थान पर ले गया। वहां एक बेडौल, काला भुजंग घोड़ा खड़ा दुलत्ती मार रहा था। जरा दूर पे दूसरी ओर दुर्रे-शहवार खड़ी थी। वो इसे पहचान के बेचैन हो उठी। कहां तो ये इतना मचल रहा था और कहां यह हाल कि बिल्कुल चुपका, बेसुध हो गया। गर्दन के घाव की मक्खियां तक नहीं उड़ायीं। साहब जी! इसका घाव बहुत बढ़ गया है। साईस ने इसे बहुत प्यार किया। कहने लगा, बेटा इससे तो अच्छा था कि तुझे उसी समय इंजेक्शन देकर सुला देते। ये दिन तो न देखने पड़ते, पर तेरे मालिक को तरस आ गया, फिर उसने इसके सामने क्लब का रातिब रखा। साहब, ऐसा चबेना तो इंसान को भी नसीब नहीं पर कसम ले लो जो उसने चखा हो। बस सर झुकाये खड़ा रहा। साईस ने कहा इसे तो बुखार है। उसने इसका सब सामान खोल दिया और लिपट के रोने लगा।
'साहब जी मेरा भी जी भर आया। हम दोनों जने मिलके रो रहे थे कि इतने में रेस क्लब का डॉक्टर आन टपका। उसने हम तीनों को निकाल बाहर किया। कहने लगा, अबे भिनकती हत्या को यहां काये को लाया है? और घोड़ों को भी मारेगा?'
नथ का साइज
एक और अवसर पर देर से आया तो इससे पूर्व कि बिशारत डांट डपट करें, खुद ही शुरू हो गया, 'साहब जी! कुसूर माफ, घटना घट गयी। म्यूनिस्पिल कार्पोरेशन के पास एक मुश्की घोड़ी बंधी हुई थी। उसे देखते ही दोनों बेकाबू हो गये। आगे-आगे घोड़ी उसके पीछे घोड़ा। फिर क्या नाम, यह रूसियाह। चौथे नंबर पे घोड़ी का धनी। साहब जी, अपना घोड़ा इस तरियो जा रिया था जैसे गले से मलाई उतर रही हो।' यहां उसने चाबुक अपनी टांगों के बीच में दबाया और दौड़कर बताया कि किस तरह घोड़ा, आपका गुलाम और घोड़ी का मालिक, इसी क्रम से घोड़े की इच्छा का पीछा करते सरपट जा रहे थे। 'जनाबे-वाला उस आदमी ने पहले तो मुझे, क्या नाम कि, नर्गिसी कोफ्ते जैसी आंखें से देखा, फिर उल्टा मुझी पे गुर्राया हालांकि मेरे घोड़े का कुसूर नहीं था। सारे रस्ते उसी की घोड़ी मुड़-मुड़ के अपुन के घोड़े को देखती रही कि पीछे बरोबर आ रहा है कि नहीं। मैंने उसको बोला कि ऐसा ही है तो अपनी बेनथनी शंखनी को संभाल के क्यों नहीं रखता। मालिक की इज्जत तो घोड़ी के हाथ में होती है। राह चलते घोड़े के साथ छेड़जड़ करती है। जिनावर को पैगंबरी इम्तिहान में डालती है। आखिर को मर्द जात है। बर्फ का पुतला तो है नहीं। साहब जी! मैंने क्या नाम कि उस दय्यूस को बोला कि जा जा! तेरी जैसी घोड़ियां बहुत देखी हैं। इस ठेटर (थियेटर) कंपनी में इस जैसी ही एक उजल छक्का छोकरी है पर उसकी नायिका मां उसे अब भी कुंवारपने की नथ पहनाये रहती है। जैसे-जैसे उस पटाखा का चाल-चलन खराब होता जाये है, नथ का साइज बड़ा होता जाता है। साहब जी! यह सुनते ही उसका गुस्सा रफूचक्कर हो गया। मुझसे ठेटर कंपनी का पता और छोकरी का नाम पूछने लगा। कहां तो गाली पे गाली बक रहा था और अब मुझे उस्ताद! उस्ताद! कहते जबान सूख रही थी। बोला उस्ताद! गुस्सा थूको, यह पान खाओ! कसम से अपुन का घोड़ा तो नजरें नीची किये, तोबड़े में मुंह डाले, म्यूनिसिपल कार्पोरेशन के पास खड़ा जुगाली कर रहा था। जनाबे-वाला! सोचने की बात है, उसकी घोड़ी तो बहुत ऊंची थी, ढऊ की ढऊ! जबकि घोड़ा बहुत से बहुत आपके कद के बराबर होगा।' बिशारत के आग ही तो लग गयी 'अबे कद के बच्चे! तेरे घोड़े के साथ हर घटना म्यूनिस्पिल कारर्पोरेशन के पास ही घटती है।'
हाथ जोड़ के बोला 'कुसूर माफ अबकी बार घटना घोड़े के साथ नहीं घटी बल्कि...'
बिशारत हेयर कटिंग सेलून
म्यूनिस्पिल कारर्पोरेशन वाली गुत्थी भी आखिर खुल गयी। उन दिनों बिशारत अपनी दुकान में सड़क वाली साइड पर कुछ परिवर्तन करना और बढ़ाना चाहते थे। नक्शा पास कराने के सिलसिले में म्यूनिस्पिल कार्पोरेशन जाने की आवश्यकता पड़ी, मगर कोचवान का कहीं पता न था। थक हार कर वो तीन बजे रिक्शा में बैठकर म्यूनिसिपल कार्पोरेशन चल दिये। वहां क्या देखते हैं कि फुटपाथ पर मिर्जा वहीदुज्जमां बेग कोचवान फटी दरी का टुकड़ा बिजये एक आदमी की हजामत बना रहा है। वो ओट में खड़े होकर देखने लगे। हजामत के बाद उसने अपनी कलाई पर लगे साबुन और शेव के टुकड़े उस्तरे से साफ किये और उस्तरा चिमोटे और अपनी कलाई पर तेज किया। फिर घुटनों के बल आधे खड़े होकर बगलें लीं। उन्हें अपनी आंखों पर विश्वास नहीं हुआ। लेकिन औजारों की जानी पहचानी पेटी से फिटकरी की डली और तिब्बत टेल्कम पाउडर निकालते देखा तो अपनी आंखों पर विश्वास बहाल हो गया। अब जो गौर से देखा तो दरी के किनारे पर गत्ते का एक साइन बोर्ड भी नजर आया, जिस पर बड़े सुंदर ढंग से मोटे-मोटे अक्षरों में लिखा था...
बिशारत हेयर-कटिंग सैलून हेडआफिस
हरचंद राय रोड पर बीच बाजार में उसे अपमानित करना उचित न जाना। क्रोध में भरे, रिक्शा लेकर दुकान वापस आ गये। उस रोज वो स्कूल से बच्चों को लेकर शाम को सात बजे घर लौटा। बिशारत ने आव देखा न ताव। उसके हाथ से चाबुक छीनकर धमकी भरे अंदाज में लहराते हुए बोले 'सच सच बता, वरना अभी चमड़ी उधेड़ दूंगा। हरामखोर, तुम नाई हो! पहले क्यों नहीं बताया? हर बात में झूठ, बात-बेबात झूठ। अब देखता हूं कैसे झूठ बोलता है। सच-सच बता कहां था। वो हाथ जोड़ कर खड़ा हो गया और थर-थर कांपते हुए कहने लगा 'कुसूर माफ! सरकार सच फर्माते हैं। आज से, कसम अल्लाह पाक की, हमेशा सच बोलूंगा।'
इसके बाद जीवन में उसकी जितनी भी बेइज्जती हुई, सब सच बोलने के कारण हुई। मिर्जा कहते हैं कि सच बोल कर जलील होने की तुलना में झूठ बोल कर अपमानित होना बेहतर है। आदमी को कम से कम सब्र तो आ जाता है कि किस बात की सजा मिल रही है।
बिशारत की जिरह पर पहला सच जो उसने बोला वो ये था कि म्यूनिस्पिल कार्पोरेशन के बंधे हुए ग्राहकों को निपटा कर मैं साढ़े चार बजे बर्नस रोड पर खत्ने करने गया। खत्ने के बरातियों को जमा होने में खासी देर हो गयी फिर लौंडा किसी तरह राजी नहीं होता था। इकलौता लाड़ला है, आठ साल का धींगड़ा, उसके बाप ने बहुतेरा बहलाया-फुसलाया कि बेटा! मुसलमान डरते नहीं। जरा तकलीफ नहीं होगी, मगर लौंडा अड़ा हुआ था कि पहले आप! आपके तो दाढ़ी भी है। बिशारत का चेहरा गुस्से से लाल हो गया।
एक और सच चाबुक के जोर पर उससे यह बुलवाया गया कि उसका अस्ल नाम बुद्धन है। उसके मेट्रिक पास बेटे को उसके नाम और काम दोनों पर आपत्ति थी, बार-बार आत्महत्या की धमकी देता था। उसने बहुत समझाया कि बेटा! बुजुर्गों के नाम ऐसे ही होते हैं। नाम में क्या धरा है। झुंझला के बोला 'अब्बा! यह बात तो शेख पीर (शेक्सपियर) ने कही थी, पर उसके बाप का नाम बुद्धन थोड़े ही था। वो क्या जाने। तुम और कुछ नहीं बदल सकते तो कम से कम नाम तो बदल लो।' इसलिए जब कुछ दिन उसने ईस्टर्न फेडरल इंश्योरेंस कंपनी में चपरासी की नौकरी की तो अपना नाम मिर्जा वहीदुज्जमां बेग लिखवा दिया। बस उसी समय से चला आ रहा है। दरअस्ल यह उस अफसर का नाम था, जिसकी वो बीस बरस पहले हजामत बनाया करता था। वो निःसंतान मरा। रिश्वत से बनायी हुई जायदाद पर भतीजियों, भांजों ने और नाम पर उसने अधिकार जमा लिया।
अब जो कमबख्त सच बोलने पर आया तो बोलता ही चला गया। मिर्जा अब्दुल वुदूद बेग का कहना है कि आज के युग में 100 प्रतिशत सच बोल कर जीना ऐसा ही है जैसे बजरी मिलाये बिना सिर्फ सीमेंट से मकान बनाना। कहने लगा, कुसूर माफ! अब मैं सारा सच एक ही किस्त में बोल देना चाहता हूं। मेरा खानदान गैरतदार है। अल्लाह का शुक्र है, मैं जात का साईस नहीं। सौ वर्षों से बुजुर्गों का पेशा हज्जामी है। माशाअल्लाह, दस-बारह खाने वाले हैं। सरकार जानते हैं कि एक घोड़े पर जितना खर्च आता है उसकी आधी तन्ख्वाह मुझे मिलती है। सत्तर रुपये से किस किसकी नाक में धूनी दूं। झक मार कर यह प्राइवेट प्रेक्टिस करनी पड़ती है। बरसों अपना और बीबी बच्चों का पेट काट के बड़े लड़के को मेट्रिक करवाया।
'अलीमुद्दीन साहब के बाल बीस बरस से काट रहा हूं। सरकार! सर पे तो अब कुछ रहा नहीं। बस भौंहे बना देता हूं। सरकार! इस फन के कद्रदान तो सब अल्लाह को प्यारे हो गये। अब तो बाल्बर (बार्बर) इस तरह बाल उतारें हैं, जैसे भेड़ मूंड रहे हों। मेरी नजर मोटी हो गयी है, मगर आज भी पैर के अंगूठे के नाखून निहरनी रोके बिना एक बार में काट लेता हूं। अलीमुद्दीन साहब के हाथ पैर जोड़ के लौंडे को बैंक में क्लर्क लगवा दिया। अब वो कहता है मुझे तुम्हारे नाई होने में शर्म आती है, पेशा बदलो। सरकार! मेरे बाप-दादा नाई थे, नवाब नहीं। मेहनत मुशक्कत से हक-हलाल की रोटी कमाता हूं। पर साब जी, मैंने देखा है कि जिन कामों में मेहनत अधिक पड़ती है लोग उन्हें नीचा और घृणित समझते हैं। बेटा कहता है कि मेरे साथ के सब लड़के एकाउंटेंट हो गये। तिजोरी की चाबियां बजाते फिरते हैं। केवल बाप के कारण मेरी तरक्की रुकी हुई है, अगर तुमने नाई का धंधा नहीं छोड़ा तो तुम्हारे ही उस्तरे से अपना गला काट लूंगा। कभी-कभी अपनी मां को डराने के लिए रात गये ऐसी आवाजें निकालने लगता है, जैसे बकरा काटा जा रहा हो। वो भागवान मुझे खुदा-रसूल के वास्ते देने लगी। मजबूर हो के मैंने कोचवानी शुरू कर दी। यह प्राइवेट प्रेक्टिस उससे लुक-छुप के करता हूं। उसकी बेइज्जती के डर से पेटी, औजार आदि कभी घर नहीं ले जाता। यकीन कीजिये, इसी वज्ह से अपने हेयर ड्रेसिंग-सेलून के साइन-बोर्ड पे हुजूर का नाम पता लिखवाया, बड़ी बरकत है आपके नाम में -कुसूर माफ!'
अलादीन बेचिराग
वो हाथ जोड़ कर जमीन पर बैठ गया और फिर हिल-हिल के उनके घुटने दबाने लगा, जैसे ही वो पसीजे उसने एक और सच बोला। कहने लगा कि सरकार के चेहरे को रोजाना सुब्ह देखकर उसका दिल खून हो जाता है। देसी ब्लेड बाल कम और खाल अधिक उतारता है, खूंटियां रह जाती हैं। कुसूर माफ! कलमें भी ऊंची-नीची। जैसे नौ बजकर बीस मिनट हुए हों। उसने अनुरोध किया कि उसे घोड़े का खरेरा करने से पहले उनकी शेव बनाने की इजाजत दे दी जाये। अन्य सेवायें ये कि बच्चों के बाल काटेगा, निहारी, कबाब, बंबइया बिरयानी, मुर्ग का कोरमा और शाही टुकड़े लाजवाब बनाता है। देग का हलीम और ढिबरियों की फीरनी ऐसी कि उंगलियां चाटते रह जायें। सौ-डेढ़ सौ आदमियों की दावत के लिए तीन घंटे में पुलाव जर्दा बना सकता है। बिशारत चटोरे आदमी ठहरे। यूं भी अंग्रेजी मुहावरे के अनुसार, आदमी के दिल तक पहुंचने का रास्ता पेट से हो कर गुजरता है। कार्ल मार्क्स भी यही कहता है।
हर रह जो उधर को जाती है
मेदे से गुजर कर जाती है
उन्हें यह हज्जाम अच्छा लगने लगा। उसने यह भी कहा कि घोड़े के खरेरे के बाद वो उनके वालिद के पैर दबायेगा और रात को उनकी (बिशारत की) मसाज करेगा। गर्दन के पीछे जहां से रीढ़ की हड्डी शुरू होती है, एक रग ऐसी है कि नरम-नरम उंगलियों से हौले-हौले दबायी जाये तो सारे बदन की थकान उतर जाती है। यह आंख को दिखाई नहीं देती। उसके उस्ताद स्वर्गवासी लड्डन मियां कहते थे कि मालिशिया अपनी उंगली की पोर से देखता है। यही उसकी दूरबीन है, जो छूते ही बता देती है कि दर्द कहां है। फिर उसने बिशारत को लालच दिया कि जब वो रोगन-बादाम से सर की मालिश करेगा और अंगूठे से हौले-हौले कनपटियां दबाने के बाद दोनों हाथों को सर पर परिंदे के बाजुओं की तरह फड़फड़ायेगा तो यूं महसूस होगा जैसे बादलों से नींद की परियां कतार-बांधे रुई के परत-दर-परत गौलों सी हौले-हौले उतर रही हैं। हौले-हौले, हौले-हौले।
बिशारत दिन भर के थके हारे थे। उसकी बातों से आंखें आप-ही-आप बंद होने लगीं।
और अंतिम नॉक आउट वार उस जालिम ने ये किया कि 'माशाल्लाह से नन्हें मियां तीन महीने के होने को आये। खत्ने जित्ती कम उम्र में हो जायें वित्ती जल्दी खुरंड आयेगा'।
अब तो चेहरे का गुलाब खिल उठा। बोले, 'भई, खलीफा जी! तुमने पहले क्यों न बताया, अमां हद कर दी! तुम तो छुपे रुस्तम निकले!' इस पर उसने जेब से वो नाल निकाल कर दिखाई जो उसे रुस्तम का घोड़ा बनने पर इनआम में मिली थी।
मिर्जा वहीदुज्जमां बेग उस दिन से खलीफा कहलाये जाने लगे। वैसे यह अलादीन नवम था। काम कम करता था, डींगें बहुत मारता था। मिर्जा अब्दुल वुदूद बेग इसे अलादीन बेचिराग कहते थे। आदरणीय ने उसको अलादीन के बजाय खलीफा कहना इस शर्त पर स्वीकार कर लिया कि आइंदा उसकी जगह कोई और कोचवान या नौकर रखा जायेगा तो उसे भी खलीफा ही कहेंगे।
घोड़े के आगे बीन
आहिस्ता-आहिस्ता मौलाना, खलीफा, घोड़ा और बुजुर्गवार महत्व के लिहाज से इसी क्रम में परिवार के सदस्य समझे जाने लगे। यह मेल जोल इतना संपूर्ण था कि घोड़े की लंगड़ी टांग भी कुनबे का अटूट अंग बन गयी। घोड़े की वज्ह से घर के मामलात में आदरणीय का दुबारा अमल-दख्ल हो गया। अमल-दख्ल हमने मुहावरे में कह दिया, वरना सरासर दख्ल ही दख्ल था।
सब घर वाले बलबन को चुमकारते, थपथपाते। दाना चारा तो शायद अब भी उतना ही खाता होगा। प्यार की नजर से उसकी दुम और चमड़ी ऐसी चमकीली और चिकनी हो गयी कि निगाहें और मक्खियां फिसलें। बच्चे छुप-छुप कर उसे अपने हिस्से की मिठाई खिलाने आते और उसी की तरह कान हिलाने का प्रयास करते। कुछ बच्चे अब फुटबाल को आगे किक करने के बजाय एड़ी से दुलत्ती मार कर पीछे की ओर गोल करने लगे थे, बैतबाजी के मुकाबले में जब किसी लड़के का गोला बारूद समाप्त हो जाता या कोई गलत शेर पढ़ देता तो विरोधी टीम और श्रोतागण मिलकर हिनहिनाते। स्वयं आदरणीय कोई अच्छी खबर सुनते या सूरज के सामने बादल का कोई टुकड़ा आ जाता तो तुरंत घोड़े को हार्मोनियम सुनाने बैठ जाते। अक्सर कहते कि जब वाकई अच्छा बजाता हूं तो ये अपनी दुम चनोर की तरह हिलाने लगता है। हमें उनके दावे की सच्चाई में न तब संदेह था न अब है, आश्चर्य इस पर है कि उन्होंने कभी यह गौर नहीं किया कि घोड़ा उनकी कला की दाद किस अंग से दे रहा है!
बलबन आदरणीय का खिलौना, संतान का विकल्प, अकेलेपन का साथी, आंसुओं से भीगा तकिया-सभी कुछ था। उसके आने से पहले वो सारा समय अपनी जंग खाई चूल पर अनघड़ किवाड़ की भांति कराहते रहते। चाहे दर्द हो या न हो, अगर उनके सामने कोई दूसरा बोझ उठाता तो मुंह से ऐसी आवाजें निकालते मानों स्वयं भी बोझा भर रहे हों। कोई पूछता तबियत कैसी है तो उत्तर में दायां हाथ आसमान की ओर उठाकर नकारात्मक ढंग से डुगडुगी की तरह हिलाते और दो तीन मिनट तक सुर बदल-बदल कर खांसते। ऐसा लगता था जैसे वो अपनी बीमारी को 'एंज्वाय' करने लगे हैं।
कुछ अभ्यासी रोगी यह मानना अपने रोग की शान के विरुद्ध समझते हैं कि अब दर्द में फायदा है। आदरणीय बड़ी जबर्दस्त आत्मशक्ति के मालिक थे, यदि रोग कभी दूर हो जाता तो महज अपनी आत्मशक्ति के बल पर दुबारा पैदा कर लेते। आपने उन्हें नहीं देखा, मगर उन जैसे चिररोगी बुजुर्ग अवश्य देखे होंगे जो अपनी पाली-पोसी बीमारियों का हाल इस तरह सुनाते हैं जैसे निन्यानवे पर आउट होने वाला बैट्समैन अपनी अधूरी सेंचुरी और देहात की औरतें अपने प्रसवों के किस्से सुनाती हैं, मतलब ये कि हर बार नयी कमेंट्री और नये पछतावे के साथ। बलबन के आने से पूर्व तबीयत बेहद चिड़चिड़ी रहने लगी थी। लोग उनका हाल चाल पूछने आने से कतराने लगे थे। सबने उनको अपने हाल पर छोड़ दिया। किसी का साहस नहीं था कि उनके रोगानंद में विघ्न डाले।
नश्शा बढ़ता है शराबी जो शराबी से मिले
उनके एक पुराने, बड़े रख-रखाव वाले मित्र फिदा हुसैन खां तायब हर शुक्रवार मिलने आते थे। किसी समय बड़े जिंदादिल और रंगीनमिजाज हुआ करते थे। चोरी छुपे पीते भी थे, मगर मुफ्त की। गुनाह समझ कर चोरी छुपे पीने में फायदा ये है कि एक पैग में सौ बोतलों का नशा चढ़ जाता है, लेकिन एक अजीब आदत थी। जब बहुत चढ़ जाती तो सारे विषय छोड़ कर केवल इस्लाम पर बातचीत करते। इस पर तीन-चार बार शराबियों से पिट भी चुके थे। वो कहते थे हमारा नशा खराब करते हो, लेकिन शेख हमीदुद्दीन, जिनके साथ तायब पीते थे, उनके विषय पर कोई ऐतराज नहीं करते थे। शेख साहब बड़े एहतमाम से पीते और यारों को पिलाते थे। बढ़िया व्हिस्की, चेकोस्लोवाकिया के क्रिस्टल के गिलास, तेज मिर्चों की भुनी कलेजी और कबाब, रियाज खैराबादी के अशआर और एक तौलिए से मदिरापान आरंभ होता। तायब को जैसे ही चढ़ती अपनी पहली पत्नी को याद करके भूं भूं रोते और तौलिए से आंसू पोंछते जाते। कभी लंबा नागा हो जाता तो शराब पर केवल इसलिए टूट पड़ते कि
इक उम्र से हूं लछजते-गिरिया से भी महरूम
कभी नशा अधिक चढ़ जाता और घर या मुहल्ले में जाकर चांदनी रात में स्वर्गवासी पत्नी को याद करके दहाड़ें मारते, या गुल-गपाड़ा करते तो मौजूदा बीबी और मुहल्ले वाले मिलकर उनके सर पर भिश्ती से एक मशक छुड़वा देते। एक बार जनवरी में ठंडी बर्फ मशक से उन्हें जुकाम हो गया, जिसने बाद में निमोनिया का रूप धारण कर लिया। इसके बाद पत्नी उनको तुर्की टोपी उढ़ा कर मशक छुड़वाती थीं।
फिदा हुसैन खां तायब
फिदा हुसैन खां तायब की उम्र यही साठ के लगभग होगी, लेकिन ताकने-झांकने का लपका नहीं गया था। जिस नजर से वो परायी बहू बेटियों को देखते थे, उस नजर के लिए उनकी अपनी बीबी एक उम्र से तरस रही थी। तीसरे बच्चे के बाद उनके पति प्रेम में कुछ अंतर आ गया था कि हमारे यहां गृहस्थी, मुहब्बत के लिए बच्चे स्पीड ब्रेकर्ज का काम देते हैं। उदार स्वभाव ने एक ही पत्नी तक सीमित न रहने दिया। मुद्दतों शीघ्र-प्राप्त सुंदरियों के बिस्तरों में निर्वाण ढूंढ़ते रहे। जब तक बादशाह होने की हिम्मत रही, निकाह की तंग गली से निकल-निकल कर रात के अंधेरे में जपामारी करते रहे। उधर बेजबान बीबी यह समझ कर सब सहती रही।
'कुछ और चाहिये वुस्अत मेरे मियां के लिए'
तायब किसी समय एक सहकारी बैंक में नौकरी और शायरी करते थे। अंकों, संख्याओं के साथ भी शायरी करने की कोशिश की और गबन के आरोप में निकाले गये। शायरी अब भी करते थे, मगर साल में केवल एक बार, पचासवीं वर्षगांठ के उपरांत यह नियम बना लिया था कि हर साल पहली जनवरी को अपनी मरण-तिथि मानकर इस मौके पर कित्आ कह कर रख लेते, जो बारह-तेरह बरस से उनके काम आने से वंचित था। साल के दौरान किसी मित्र या परिचित का निधन हो जाता तो उसका नाम किसी मिसरे में ठूंस कर अपनी कविता उसे बख्श देते।
Thy need is yet greater than mine
नाम परिवर्तन की वज्ह से बहुत से कित्ओं का छंद टूटता, जिसे वो काव्य की आवश्यकता तथा मृत्यु के तकाजे के तहत जाइज समझते थे। कुछ दोस्त, जिनके पैर कब्र में लटक रहे थे, महज उनकी कविता के डर से मरने से बच रहे थे। आदरणीय को तायब साहब का आना भी नागवार गुजरने लगा। एक दिन कहने लगे, 'यह मनहूस क्यों मंडराता रहता है। मैं तो जानूं, इसकी नीयत मुझ पे खराब हो रही है। इस बरस का कित्आ मेरे सर, मेरे सरहाने चिपकाना चाहता है।' फिर विशेष रूप से वसीयत की कि अव्वल तो मैं ऐसा होने नहीं दूंगा, परंतु मान लो, अगर मैं फिदा हुसैन खां तायब से पहले मर जाऊं, अगरचे मैं हरगिज ऐसा होने नहीं दूंगा - तो इसका कित्आ मेरी पांयती लगाना।
जिन कब्रों के समाधिलेख पर यह कित्ए स्वर्गवासियों के नामों और उनके उपनाम 'तायब' के साथ लिखे थे, उनसे यह पता नहीं चलता था कि वास्तव में कब्र में कौन दफ्न है। बकौल काजी अब्दुल कुदू्दस, निधन कब्र वाले का हुआ है अथवा शायर का?
कुछ लोग यह शिलालेख देखकर आश्चर्य करते कि एक ही शायर को बार-बार क्यों कब्र में उतारा गया लेकिन जब कित्आ पढ़ते तो कहते कि ठीक ही किया। किसी शायर ने ही कहा है कि बहुत से शरीर ऐसे होते हैं जो मृत्यु के उपरांत भी जीवित रहते हैं। शायर मर जाता है, मगर कलाम बाकी रह जाता है। उर्दू शायरी को यही चीज ले डूबी।
महफिले - समाखराशी ( कानों को कष्ट देनी वाली महफिल )
यूं कोई दिन ऐसा नहीं जाता था कि आदरणीय मरने की धमकी न देते हों। कब्रिस्तान में एक भूखंड खरीद कर अपना पक्का मजार बनवा लिया था जो काफी समय से गैरआबाद पड़ा था क्योंकि उस पर अधिकार लेने से वो अभी तक कतराते थे। अक्सर खुद पर निराशा तारी करके यह शेर पढ़ते
देखते ही देखते दुनिया से उठ जाऊंगा मैं
देखती की देखती रह जायेगी दुनिया मुझे
शेर में अपनी चटपट मौत पर जबान का खेल दिखाया गया है। इससे तो मिर्जा अब्दुल वुदूद बेग के कथानुसार यही पता चलता है कि आदरणीय की मृत्यु जबान के चटखारे के कारण हुई, यानी जबान से अपनी कब्र खोदी।
जिस दिन से घोड़ा उनकी संगीत की महफिल में आने लगा, उन्होंने पुरानी कमख्वाब की अचकन उधड़वा कर हार्मोनियम का गिलाफ बनवा लिया। खलीफा धोंकनी संभालता और वो लरजती कांपती उंगलियों से हार्मोनियम बजाने लगते। कभी बहुत जोश में आते तो मुंह से अनायास गाने के बोल निकल जाते। यह फैसला करना मुश्किल था कि उनकी आवाज जियादा कंपकंपाती है या उंगलियां। जैसे ही अंतरा गाते सांस झकोले खाने लगता, उनके पड़ोसी चौधरी करम इलाही, रिटायर्ड एक्साइज इंस्पेक्टर टिलकते हुए आ निकलते। अर्सा हुआ पानी उतर आने के कारण उनकी दोनों आंखों की रोशनी जाती रही थी। उन्होंने खासतौर पर गुजरात से एक घड़ा मंगवाकर उसके चटख रंग पर सिंधी टाइल्ज के चित्र पेंट करवा लिए थे। कहते थे - औरों को तो नजर आता है। वो जब अपनी आस्तीन चढ़ाकर चौड़ी कलाई पर चमेली का गजरा लपेटे घड़े पर संगत करते तो समां बांध देते। वो अक्सर कहते थे कि जब से आंखें गयी हैं मालिक ने मुझ पर सुर, संगीत और सुगंध के अनगिनत भेद खोल दिये हैं। गम्मत हो चुकती और राग खुशबू बन कर सारे में रच बस जाता तो आदरणीय कहते 'वाह वा! चोई साहब! भई खूब बजाते हो' और चौधरी साहब अपने अंधेरी आंखें आनंद में बंद करते हुए कहते 'लो जी! तुसी भी अज वड्डा कमाल कीता ए' और यह वास्तव में कला की पराकाष्ठा नहीं तो और क्या थी कि दोनों अपाहिज बुजुर्ग जब झूम-झूम के अपने-अपने साज पर एक साथ अपने अपने राग यानी राग दरबारी और तीन ताल बेताल में माहिया की धुन बजा कर एक दूसरे की संगत करते तो ये कहना बहुत कठिन होता कि कौन किसका साथ नहीं दे रहा।
क्या - क्या मची है यारों , बरसात की बहारें :
आदरणीय अपनी लकवाग्रस्त टांग की पोजीशन चौधरी करम इलाही से बदलवाते हुए अक्सर कहते कि जवानी में ऐसा हार्मोनियम बजाता था कि अच्छे-अच्छे हार्मोनियम मास्टर कान पकड़ते थे। उनका यह शौक उस दौर की यादगार था जब वो बंबई से आई हुई थियेट्रिकल कंपनी का एक ही खेल एक महीने तक रोज देखते और शेष ग्यारह महीने उसके डायलॉग बोलते फिरे। 1925 से वो हर खेल आर्केस्ट्रा के पिट में बैठकर देखने लगे थे, जो उस जमाने में शौकीनी और रईसाना ठाठ की चरम सीमा समझी जाती थी। हार्मोनियम एक कंपनी के रिटायर्ड हार्मोनियम बजाने वाले से सीखा था, जो पेटी मास्टर कहलाता था। कहते थे कि पोरों के जोड़ों और उंगलियों के रग पट्ठों को नरम और रवां रखने के लिए मैंने महीनों उंगलियों पर बारीक सूजी का हलवा बांधा। उनका रंग गोरा और त्वचा अत्यंत साफ तथा कोमल थी। इतनी लंबी बीमारी के बावजूद अब भी जाड़े में गालों पर सुर्खी झलकती थी। गिलाफी आंखें बंद कर लेते तो और खूबसूरत लगतीं। सफेद अचकन, भरी-भरी पिंडलियों पर फंसा हुआ चूड़ीदार। जवानी में वो बहुत सुंदर थे। हर प्रकार के कपड़े उन पर सजते थे। अपनी जवानी का जिक्र आते ही तड़प उठते।
इक तीर तूने मारा जिगर में कि हाय हाय !
वो भी कैसे अरमान भरे दिन थे। जब हर दिन, एक नये कमल की भांति खिलता था
जब साये धानी होते थे
जब धूप गुलाबी होती थी
उनकी कल्पना से ही सांस तेज-तेज चलने लगती। बीते हुए दिन, महीना और साल पतझड़ के पत्तों की तरह चारों ओर उड़ने लगते। हाय! वो उस्ताद फय्याज खां का वहशी बगूले जैसा उठता हुआ आलाप, वो गौहरजान की ठिनकती, ठिंकारती आवाज और मुख्तार बेगम कैसी भरी-भरी संतुष्ट आवाज से गाती थी। उसमें उनकी अपनी जवानी तान लेती थी। फिर स्वप्न पियाले पिघलने लगते। यादों का दरिया बहते-बहते स्वप्न मरीचिका के खोये पानियों में उतरता चला जाता। मोटी-मोटी बूंदें पड़ने लगतीं। धरती से लपट उठती और बदन से एक गर्म मदमाती महक फूटती। बारिश में भीगे महीन कुर्ते कुछ भी तो न छुपा पाते। फिर बादल बाहर भीतर ऐसा टूट के बरसता कि सभी कुछ बहा ले जाता।
सीने से घटा उट्ठे , आंखों से झड़ी बरसे
फागुन का नहीं बादल जो चार घड़ी बरसे
ये बरखा है यादों की बरसे तो बड़ी बरसे
झमाझम मेंह बरसता रहता और वो हार्मोनियम पर दोनों हाथों से कभी बीन, कभी उस्ताद झंडे खां की चहचहाती धूम मचाती सलामियां बजाते तो कहने वाले कहते कि काले नाग बिलों से निकल के झूमने लगते। दरीचों में चांद निकल आते, कहीं अधूरे छिड़काव से कोरे बदन की तरह सनसनाती छतों पर लड़कियां इंद्रधनुष को देख देख कर उसके रंग अपने लहरियों में उतारतीं और कहीं चंदन बांहों पर से चुटकी और कच्ची चुनरी के रंग छुटाये नहीं छूटते। अंतरे की लय तेज होती तो वातावरण कैसा झन-झनन-झनन गूंज उठता, जैसे किसी ने मस्ती में धरती और आकाश को उठा कर मंजीरे की तरह टकरा दिया हो और अब रंग-तारों की झलक-झंकार है कि किसी तौर थमने का नाम नहीं लेती।
अखबारी टोपी
तीन-चार महीने बड़ी शांति से बीते, बच्चों का स्कूल गर्मियों की छुट्टियों में बंद हो गया था। एक दिन बिशारत ने तांगा जुतवाया और कोई दसवीं बार नक्शा पास करवाने म्यूनिसिपल कॉरपोरेशन गये, चलते-चलते मौलाना से कह गये कि आज नक्शा पास करवा के ही लौटूंगा। बहुत हो चुकी। देखता हूं, आज बास्टर्ड कैसे पास नहीं करते। यह केवल गाली भरी शेखी नहीं थी। अब तक वो तर्क और उदाहरण साथ ले के जाते थे लेकिन आज पांच हरे नोटों से सशस्त्र हो के जा रहे थे कि पैसे की तलवार हर गुत्थी और गिरह को काट के रख देती है। तांगा गलियों-गलियों, बड़े लंबे रास्ते से ले जाना पड़ा। इसलिए कि बहुत कम सड़कें बची थीं, जिन पर तांगा चलाने की अनुमति थी। तांगा अब रिक्शा से अधिक फटीचर चीज समझा जाने लगा था, इसलिए सिर्फ अत्यंत गरीब इलाकों में चलता था जो शहर में होते हुए भी शहर का हिस्सा नहीं थे।
समय के उलटफेर को क्या कहिये। कानपुर से यह सपना देखते हुए आये थे कि अल्लाह एक दिन ऐसा भी लायेगा, जब फिटन में टांगों पर इटालियन कंबल डाल के निकलूंगा तो लोग एक दूसरे से पूछेंगे, किस रईस की सवारी जा रही है? परंतु जब सपने की परिणिति सामने आई तो दुनिया इतनी बदल चुकी थीं कि न सिर्फ तांगा छुप कर निकलता बल्कि वो खुद भी उसमें छुप कर बैठते। उनका बस चलता तो इटालियन कंबल सर से पैर तक ओढ़ लपेट कर निकलते कि कोई पहचान न ले। दिन में जब भी तांगे में बैठते तो अखबार के दोनों पृष्ठ अपने चेहरे और सीने के सामने इस प्रकार फैलाकर बैठते कि उनकी लटकी हुई टांगें अखबार का ही परिशिष्ट प्रतीत होती थीं। मिर्जा अब्दुल वुदूद बेग ने तो एक दिन कहा भी कि तुम अखबार की एक टोपी बनवा लो जिसमें अपना मुंह छुपा सको। वैसी ही टोपी जैसी मुजरिम को फांसी पर लटकाने से पहले पहनाई जाती है। बल्कि वो तो यहां तक कहते हैं कि मुजरिम को अखबारी टोपी ही पहना कर फांसी देनी चाहिये ताकि अखबार वालों को भी तो सीख मिले।
घोड़े की इक छलांग ने ...
म्यूनिस्पिल कॉरपोरेशन की इमारत चार-पांच सौ गज दूर रह गयी होगी कि अचानक गली के मोड़ से एक जनाजा आता दिखाई दिया। खलीफा को नौकरी पर रखते समय उन्होंने सख्ती से निर्देश दिया था कि घोड़े को हर हाल में जनाजे से दूर रखना, परंतु इस समय उसका ध्यान कहीं और था और जनाजा था कि घोड़े पर चढ़ा चला आ रहा था। बिशारत अखबार फेंक कर संपूर्ण शक्ति के साथ चीखे 'जनाजा! जनाजा!! खलीफा!!!' यह सुनते ही खलीफा ने चाबुक मारने शुरू कर दिये। घोड़ा वहीं खड़ा हो के हिनहिनाने लगा। खलीफा और बदहवास हो गया। बिशारत ने खुद लगाम पकड़ कर घोड़े को दूसरी ओर मोड़ने का प्रयास किया, लेकिन वो अड़ियल होकर दुलत्तियां मारने लगा। उन्हें मालूम नहीं था कि दरअस्ल यही वो जगह थी, जहां खलीफा रोज घोड़े को बांध कर हजामत करने चला जाता था। वो चीखे, 'जरा ताकत से चाबुक मार' उधर खतरा यानी जनाजा पल-प्रतिपल निकट आ रहा था। उन पर अब दहशत तारी हो गयी। उनके बौखलाये अनुमान के अनुसार जनाजा अब उसी 'रेंज' में आ गया था जहां चंद माह पूर्व, बकौल स्टील मिल सेठ के
घोड़े की इक छलांग ने
तय कर दिया किस्सा तमाम
इस समय वो खुद घोड़े से भी जियादा बिदके हुए थे। इसलिए कि घोड़े के पेट पर लात मारने की कोशिश कर रहे थे, उसकी हिनहिनाहट उनकी चीखों में दब गयी। घोड़े के उस पार खलीफा दीवानों की तरह चाबुक चला रहा था। चाबुक जोर से पड़ता तो घोड़ा पिछली टांगों पर खड़ा हो-हो जाता। खलीफा ने गुस्से में बेकाबू हो कर दो बार उसे 'तेरा धनी मरे!' की गाली दी तो बिशारत सन्नाटे में आ गये, परंतु फिलहाल वो घोड़े को नियंत्रित करना चाहते थे। खलीफा को डांटने लगे 'अबे क्या ढीले-ढीले हाथों से मार रहा है। खलीफे!'
यह सुनना था कि खलीफा फास्ट बॉलर की तरह स्टार्ट लेकर दौड़ता हुआ आया और दांत किचकिचाते हुए, आंखें बंद करके पूरी ताकत से चाबुक मारा जिसका अंतिम सिरा बिशारत के मुंह और आंख पर पड़ा। ऐसा लगा, जैसे किसी ने तेजाब से लकीर खींच दी हो। कहते थे, 'यह कहना तो ठीक न होगा कि आंखों तले अंधेरा छा गया। मुझे तो ऐसा लगा जैसे दोनों आंखों का फ्यूज उड़ गया हो।' खलीफा से खलीफे, खलीफे से अबे और अबे से उल्लू के पट्ठे की सारी मंजिलें एक ही चाबुक में तय हो गयीं। वहशत की हालत में वो खलीफा तक कैसे पहुंचे, घोड़े को छलांग कर गये या टांगों के नीचे से, याद नहीं। खलीफा के हाथ से चाबुक छीनकर दो तीन उसी के मारे। उसने अपनी चीखों से घोड़े को सर पर उठा लिया।
एक आंख में इतनी जलन थी कि उसके असर से दूसरी भी बंद हो गयी और वो बंद आंखों से घोड़े पर चाबुक चलाते रहे। कुछ देर बाद अचानक महसूस हुआ कि चाबुक को रोकने के लिए सामने कुछ नहीं है। घायल दायीं आंख पर हाथ रखकर बायीं खोली तो नक्शा ही कुछ और था। जनाजा बीच सड़क पर डायग्नल रखा था। तांगा बगटुट जा रहा था। कंधा देने वाले गायब, खलीफा लापता। अलबत्ता एक शोकाकुल बुजुर्ग जो अमलतास के पेड़ से लटके हुए थे, घोड़े की वंशावली में पिता की हैसियत से दाखिल होने की इच्छा व्यक्त कर रहे थे।
कुछ मिनट के बाद लोगों ने अपनी-अपनी घुड़पनाह से निकल कर उन्हें घेरे में ले लिया। जिसे देखो अपनी ही धांय-धांय कर रहा था। उनकी सुनने को कोई तैय्यार नहीं। तरह-तरह की आवाजें और वाक्य सुनायी दिये। 'इस पर साले अपने आप को मुसलमान कहते हैं' 'घोड़े को शूट कर देना चाहिए' 'थाने ले चलो'। (बिशारत की टाई पकड़ कर घसीटते हुए) 'हमारी मय्यत की बेइज्जती हुई है।' 'इसका मुंह काला करके इसी घोड़े पे जुलूस निकालो।' बिशारत ने उसी समय फैसला कर लिया कि वो इंजेक्शन से बलबन को मरवा देंगे।
घर आकर उन्होंने बलबन को चाबुक से इतना मारा कि मोहल्ले वाले जमा हो गये।
उस रात वो और बलबन दोनों न सो सके। इससे पहले उन्होंने नोटिस नहीं किया था कि खलीफा ने चाबुक में बिजली का तार बांध रखा है।
बलबन को सजा - ए - मौत
सुब्ह उन्होंने खलीफा को बर्खास्त कर दिया। वो पेटी बगल में मार के जाने लगा तो हाथ जोड़ के बोला, 'बच्चों की कसम! घोड़ा बेकुसूर था। वो तो चुपका खड़ा था। आप नाहक में पिटवा रहे थे। इतनी मार खा के तो मुर्दा घोड़ा भी तड़प के सरपट दौड़ने लगता। अस्सलामअलैकुम (लौट कर आते हुए) कुसूर माफ! हजामत बनाने शुक्रवार को किस समय आऊं?'
एक दोस्त ने राय दी कि घोड़े को 'वैट' से इंजेक्श्न न लगवाओ। जानवर बड़ी तकलीफ सह के तड़प-तड़प के मरता है। मैंने अपने अल्सेशियन कुत्ते को अस्पताल में इंजेक्शन से मरते देखा तो दो दिन तक ठीक से खाना न खा सका। वो मेरे कठिन समय का साथी था। मुझे बड़ी बेबसी से देख रहा था। मैं उसके माथे पर हाथ रखे बैठा रहा। ये बड़ा बदनसीब, बड़ा दुखी घोड़ा है। इसने अपनी अपंगता और तकलीफ के बावजूद तुम्हारी, बच्चों की बड़ी सेवा की है।
उसी दोस्त ने किसी से फोन पर बात करके बलबन को गोली मारने की व्यवस्था कर दी। बलबन को ठिकाने लगवाने का काम मौलवी करामत हुसैन के सुपुर्द हुआ। वो बहुत उलझे, बड़ी बहस की। कहने लगे, पालतू जानवर, खिदमती जानवर, जानवर नहीं रहता वो तो बेटा बेटी की तरह होता है। बिशारत ने उत्तर दिया, आपको मालूम है घोड़े की उम्र कितनी होती है? इस लंगड़दीन को आठ नौ बरस तक खड़ा कौन खिलायेगा? मैंने सारी उम्र इसे ठुंसाने, जिंदा रखने का ठेका तो नहीं लिया। मौलाना अपनी नौकर की हैसियत भूल कर एकाएक क्रोध में आ गये। जमीन के झगड़े का रुख आसमान की ओर मोड़ते हुए कहने लगे कि इंसान की यह ताकत, यह मजाल कहां कि किसी को रोजी दे सके। अन्नदाता तो वही है जो पत्थर के कीड़े को भी खाना देता है। जो बंदा यह समझता है कि वो किसी को रोजी देता है वो दरअस्ल खुदाई का दावा करता है। प्रत्येक प्राणी अपना खाना अपने साथ लाता है। अल्लाह का वादा सच्चा है। वो हर हाल में हर सूरत में खाना देता है।
'बेशक! बेशक! रिश्वत की सूरत में भी!' बिशारत के मुंह से निकला और मौलाना के दिल में तीर की तरह उतर गया। मौलाना ही नहीं स्वयं बिशारत भी धक से रह गये कि क्या कह दिया। जिस कमीने, प्रतिशोधी वाक्य को व्यक्ति वर्षों सीने में दबाये रखता है, वो एक न एक दिन उछल कर अचानक मुंह पर आ ही जाता है। पट्टी बांधने से कहीं दिल की फांस निकलती है और जब तक वो न निकल जाये, आराम नहीं आता।
मौलाना तड़के बलबन को लेने आ गये। ग्यारह बजे गोली मारी जाने वाली थी।
बिशारत नाश्ते पर बैठे तो ऐसा महसूस हुआ जैसे हल्क में फंदा लग गया हो। आज उन्होंने बलबन की सूरत नहीं देखी। 'गोली तो जाहिर है माथे पर ही मारते होंगे' उन्होंने सोचा बायीं आंख के ऊपर वाली भौरी सच में मनहूस निकली। जान लेके रहेगी। मौलाना को उन्होंने रात ही को समझा दिया था कि लाश को अपने सामने ही गढ़े में दफ्न करायें। जंगल में चील कौओं के लिए पड़ी न छोड़ दें। उन्हें झुरझुरी आई और वो कबाब-परांठा खाये बिना अपनी दुकान रवाना हो गये। रास्ते में उन्होंने उसका सामान और पुरानी रुई का वो खून से भरा पैड देखा तो उसकी घायल गर्दन पर बांधा जाता था। ऐसा लगा जैसे उन्हें कुछ हो रहा है। वो तेज-तेज कदम उठाते हुए निकल गये।
आदरणीय को अस्ल सूरते-हाल नहीं बतायी गयी। उन्हें सिर्फ यह बताया गया कि बलबन दो ढाई महीने के लिए चरायी पर पंजाब जा रहा है। वो कहने लगे, गाय भैंसों को तो चरायी पर जाते सुना था मगर घोड़े को घास खाने के वास्ते जाते आज ही सुना!' यह उनसे उलझने का अवसर नहीं था! उनका ब्लड प्रेशर पहले ही बहुत बढ़ा हुआ था। उन्हें किसी जमाने में अपनी ताकत और कसरती बदन पर बड़ा घमंड था। अब भी बड़े गर्व से कहते थे कि मेरा ब्लड प्रेशर दो आदमियों के बराबर है। दो आदमियों के बराबर वाले दावे की पुष्टि हम भी करेंगे। हमने अपनी आंखों से देखा कि उन्हें मामूली सा दर्द होता तो दो आदमियों की ताकत से चीखते थे, इसलिए बिशारत अपने झूठ पर डटे रहे, और ठीक ही किया। मिर्जा अक्सर कहते हैं कि अपने छोटों से कभी झूठ नहीं बोलना चाहिये, क्योंकि इससे उन्हें भी झूठ बोलने की प्रेरणा मिलती है, परंतु बुजुर्गों की और बात है, उन्हें किसी बाहरी प्रेरणा की आवश्यकता नहीं होती।
मौलाना रास पकड़े बलबन को आदरणीय से मिलवाने ले गये। उनका आधे से जियादा सामान उनके अपने कमरे में शिफ्ट हो चुका था। हार्मोनियम रहीम बख्श के लाल खेस में लपेटा जा रहा था। बलबन का फोटो जो रेस जीतने के बाद अखबार में छपा था, अभी दीवार से उतारना बाकी था। वो रात से बहुत उदास थे। अपने नियम के विरुद्ध रात की नमाज के उपरांत दो बार हुक्का भी पिया। अब वो सुब्ह शाम कैसे काटेंगे? इस समय जब बलबन उनके पास लाया गया तो वो सर झुकाये देर तक अपनी दुम में उंगलियों से कंघी कराता रहा। आज उन्होंने उसके पांव पर दुआ पढ़के फूंक नहीं मारी। जब वो उसके माथे पर अल्लाह लिखने लगे तो उनकी उंगली चाबुक के उपड़े हुए लंबे निशान पर पड़ी और वो चौंक पड़े। जहां तक यह दर्द की लकीर जाती थी वहां तक वो उंगली की पोर से खुद को जख्माते रहे। फिर दुख-भरे स्वर में कहने लगे 'किसने मारा है, हमारे बेटे को?' मौलाना उसे ले जाने लगे तो उसके सर पर हाथ रखते हुए बोले 'अच्छा बलबन बेटे! हमारा तो चल-चलाव है। खुदा जाने वापसी पर हमें पाओगे भी या नहीं। जाओ अल्लाह की हिफाजत में दिया।' बलबन की जुदाई के खयाल से वो ढह गये। अब वो अपने मन की बात किससे कहेंगे? किसकी सेहत की दुआ को हाथ उठेंगे? उन्होंने सोचा भी न था कि कुदरत को इतना-सा आसरा, एक जानवर की दुसराथ तक स्वीकार न होगी। जो कभी स्वयं अकेलेपन की जान को घुला देने वाली पीड़ा से न गुजरा हो, वो अनुमान नहीं लगा सकता कि अकेला आदमी कैसी-कैसी दुसराथ का सहारा लेता है।
मौलाना दिन भर अनुपस्थित रहे, दूसरे दिन वो बंद-बंद और खिंचे-खिंचे से नजर आये। कई सवाल होंठों पर कांप-कांप कर रह गये। किसी को उनसे पूछने की हिम्मत न हुई कि बलबन को गोली कहां लगी। कहते हैं जानवरों को मौत का पूर्वाभास हो जाता है। तो क्या जब वो वीरान पहाड़ियों में ले जाया जा रहा था तो उसने भागने की कोशिश की? और कभी अंतिम क्षण में चमत्कार भी तो हो जाता है। वो बहुत मेहनती, सख्त जान, और साहसी था। दिल नहीं मानता था कि उसने आसानी से मौत से हार मानी होगी।
Do not go gentle into that good night,
rage, rage against the dying of the light.
आहा आहा ! बरखा आई !
कोई दो सप्ताह बाद बिशारत की ताहिर अली मूसा भाई से मुठभेड़ हो गयी। मूसा भाई वोहरी था और उसकी लकड़ी की दुकान उनसे इतनी दूरी पर थी कि पत्थर फेंकते तो ठीक उसकी सुनहरी पगड़ी पर पड़ता। यह हवाला इसलिए भी देना पड़ा कि कई बार बिशारत का दिल उस पर पत्थर फेंकने को चाहा। वो कभी सीधे मुंह बात नहीं करता था। उनके लगे हुए ग्राहक तोड़ता और तरह-तरह की अफवाहें फैलाता रहता। दरअस्ल वो उनका बिजनेस खराब करके उनकी दुकान खरीदना चाहता था। उसकी छिदरी दाढ़ी तोते की चोंच की तरह मुड़ी रहती थी।
वो कहने लगा 'बिशारत सेठ! लास्ट मंथ हमको किसी ने बोला आप घोड़े को शूट करवा रहे हो। हम बोला, बाप रे बाप! ये तो एकदम हत्या है। वो घोड़ा तो मुहर्रम में जुलजिनाह बना था। हमारी आरा मशीन पे एक मजूर काम करता है तुराब आली, उसने हमको आ के बोला कि मेरी झुग्गी के सामने से दुलदुल की सवारी निकली थी। आप ही का घोड़ा था सेम टू सेम सोला आने। तुराब अली ने उसको दूध जलेबी खिलाई। आपके कोचवान ने उसका पूरा भाड़ा वसूल किया। पचास रुपये, बोलता था कि बिशारत सेठ दुलदुल को भाड़े टैक्सी पे चलाना मांगता है। दुलदुल के आगे आगे वो शाहे-मर्दां, शेरे-यजदां वगैरा वगैरा गाता जा रहा था। उसके पंद्रह रुपये अलग से। घोड़े को हमारे पास भी सलाम कराने लाया था। गरीब बाल-बच्चेदार मानुस है।'
उसके अगले रोज मौलाना काम पर नहीं आये। दो दिन से मुसलसल बारिश हो रही थी। आज सुब्ह घर से चलते समय कह आये थे 'बेगम आज तो कढ़ाई चढ़नी चाहिये।' कराची में तो सावन के पकवान को तरस गये। खस्ता समोसे, करारे पापड़, और कचौरियां। कराची के पपीते खा-खा के हम तो बिल्कुल पिलपिला गये। शाम को जब दुकान बंद करने वाले थे, एक व्यक्ति सूचना लाया कि कल शाम मौलाना के पिता का देहांत हो गया। आज दोपहर के बाद जनाजा उठा। चलो अच्छा हुआ, अल्लाह ने बेचारे की सुन ली। बरसों का कष्ट समाप्त हुआ। मिट्टी सिमट गयी। बल्कि यूं कहिये कीचड़ से उठा के सूखी मिट्टी में दबा आये। वो पुर्से के लिए सीधे मौलाना के घर पहुंचे। बारिश थम चुकी थी और चांद निकल आया था। आकाश पर ऐसा लगता था जैसे चांद बड़ी तेजी से दौड़ रहा है और बादल अपनी जगह खड़े हैं। ईटों, पत्थरों और डालडा के डिब्बों की पगडंडियां जगह-जगह पानी में डूब चुकी थीं। नंग धड़ंग लड़कों की एक टोली पानी में डुबक-डुबक करते एक घड़े में बारी-बारी मुंह डाल कर फिल्मी गाने गा रही थी। एक ढही हुई झुग्गी के सामने एक बहुत बुरी आवाज वाला आदमी बारिश को रोकने के लिए अजान दिये चला जा रहा था। हर लाइन के आखिरी शब्द को इतना खींचता जैसे अजान के बहाने पक्का राग अलापने की कोशिश कर हो। कानों में उंगली की पोर जोर से ठूंस रखी थी ताकि अपनी आवाज की यातना से बचा रहे। एक हफ्ते पहले इसी झुग्गी के सामने इसी आदमी ने बारिश लाने के लिए अजानें दी थीं। उस वक्त बच्चों की टोलियां घरों के सामने 'मौला मेघ दे! मौला पानी दे! ताल, कुएं, मटके सब खाली मौला! पानी! पानी! पानी!' गातीं और डांट खातीं फिर रही थीं।
अजीब बेबसी थी। कहीं चटाई, टाट, और अखबार की रद्दी से बनी हुई छतों के पियाले पानी के लबालब बोझ से लटके पड़ रहे थे और कहीं घर के मर्द फटी हुई चटाइयों में दूसरी फटी चटाइयों के जोड़ लगा रहे थे। एक व्यक्ति टाट पर पिघला हुआ तारकोल फैला कर छत के उस हिस्से के लिए तिरपाल बना रहा था, जिसके नीचे उसकी बीमार मां की चारपायी थी। दूसरे की झुग्गी बिलकुल ढेर हो गयी थी। उसकी समझ में नहीं आ रहा था मरम्मत कहां से शुरू करे, इसलिए वो एक बच्चे की पिटाई करने लगा।
एक झुग्गी के बाहर बकरी की आंतों पर बरसाती मक्खियां खुजलटे कुत्ते के उड़ाये से नहीं उड़ रही थीं। ये दूध देने वाली मगर बीमार और दम तोड़ती हुई बकरी की आंतें थी जिसे थोड़ी देर पहले उसके दो महीने के बच्चे से एक गज दूर तीन पड़ौसियों ने मिलकर हलाल किया था ताकि छुरी फिरने से पहले ही खत्म न हो जाये इसका खून नालों और नालियों के जरिये दूर-दूर तक फैल गया था। वो तीनों एक दूसरे को बधाई दे रहे थे कि एक मुसलमान भाई की मेहनत की कमाई को हराम होने से बाल-बाल बचा लिया। मौत के मुंह से कैसा निकाला था उन्होंने बकरी को, झुग्गियों में महीनों बाद गोश्त पकने वाला था। जगह-जगह लोग नालियां बना रहे थे जिनका उद्देश्य अपनी गंदगी को पड़ौसी की गंदगी से अलग रखना था।
एक साहब आटे की भीगी बोरी में बगल तक हाथ डाल-डाल कर देख रहे थे कि अंदर कुछ बचा भी है या सारा ही पेड़े बनाने योग्य हो गया। सबसे जियादा आश्चर्य उन्हें उस समय हुआ जब वो उस झुग्गी के सामने से गुजरे, जिसमें लड़कियां शादी के गीत गा रही थीं। बाहर लगी हुई कागज की रंग-बिरंगी झंडियां तो अब दिखाई नहीं दे रही थीं लेकिन उनके कच्चे रंगों के लहरिये टाट की दीवार पर बन गये थे। एक लड़की आटा गूंधने के तस्ले पर संगत कर रही थी कि बारिश से उसकी ढोलक का गला बैठ गया था।
अम्मा! मेरे बाबा को भेजो री के सावन आया!
अम्मा! मेरे भैया को भेजो री के सावन आया!
हर बोल के बाद लड़कियां अकारण बेतहाशा हंसतीं, गाते हुए हंसतीं और हंसते हुए गातीं तो राग अपनी सुर सीमा पार करके जवानी की दीवानी लय में लय मिलाता कहीं और निकल जाता। सच पूछिये तो कुंवारपने की किलकारती, घुंघराली हंसी ही गीत का सबसे अलबेला हरियाला अंग था।
एक झुग्गी के सामने मियां-बीबी लिहाफ को रस्सी की तरह बल दे कर निचोड़ रहे थे। बीबी का भीगा हुआ घूंघट हाथी की सूंड़ की तरह लटक रहा था। बीस हजार की इस बस्ती में दो दिन से बारिश के कारण चूल्हे नहीं जले थे। निचले इलाके की कुछ झुग्गियों में घुटनों-घुटनों पानी खड़ा था। बिशारत आगे बढ़े तो देखा कि कोई झुग्गी ऐसी नहीं जहां से बच्चों के रोने की आवाज न आ रही हो। पहली बार उन पर खुला कि बच्चे रोने का आरंभ ही अंतरे से करते हैं। झुग्गियों में आधे बच्चे तो इस लिए पिट रहे थे कि रो रहे थे और बाकी आधे इसलिए रो रहे थे कि पिट रहे थे।
वो सोचने लगे, तुम तो एक व्यक्ति को धीरज बंधाने चले थे। यह किस दुख सागर में आ निकले। तरह-तरह के खयालों ने घेर लिया। बड़े मियां को तो कफन भी भीगा हुआ नसीब हुआ होगा। यह कैसी बस्ती है। जहां बच्चे न घर में खेल सकते हैं, न बाहर। जहां बेटियां दो गज जमीन पर एक ही जगह बैठे-बैठे पेड़ों की तरह बड़ी हो जाती हैं जब ये दुल्हन ब्याह के परदेस जायेगी तो इसके मन में बचपन और मायके की क्या तस्वीर होगी? फिर खयाल आया, कैसा परदेस, कहां का परदेस। यह तो बस लाल कपड़े पहन कर यहीं कहीं एक झुग्गी से दूसरी झुग्गी में पैदल चली जायेगी। यही सखियां सहेलियां 'काहे को ब्याही बिदेसी रे! लिखी बाबुल मोरे!' गाती हुई इसे दो गज पराई जमीन के टुकड़े तक छोड़ आयेंगी। फिर एक दिन मेंह बरसते में जब ऐसा ही समां होगा, वहां से अंतिम दो गज जमीन की ओर डोली उठेगी और धरती का बोझ धरती की छाती में समा जायेगा। मगर सुनो! तुम काहे को यूं जी भारी करते हो? पेड़ों को कीचड़ गारे से घिन थोड़ा ही आती है। कभी फूल को भी खाद की बदबू आई है?
उन्होंने एक फुरेरी ली और उनके होठों के दायें कोने पर एक कड़वी-सी, तिरछी-सी मुस्कराहट का भंवर पड़ गया। जो रोने की ताकत नहीं रखते वो इसकी तरह मुस्करा देते हैं।
उन्होंने पहले इस अघोरी बस्ती को देखा था तो कैसी उबकाई आई थी। अब डर लग रहा था। भीगी-भीगी चांदनी में यह एक भुतहा नगर प्रतीत हो रहा था। जहां तक नजर जाती थी ऊंचे-नीचे बांस ही बांस और टपकती चटाइयों की गुफायें; बस्ती नहीं बस्ती का पिंजर लगता था, जिसे परमाणु धमाके के बाद बच पाने वाले ने खड़ा किया हो। हर गढ़े में चांद निकला हुआ था और भयानक दलदलों पर भुतहा किरणें अपना छलावा नाच नाच रही थीं। झींगुर हर जगह बोलते सुनायी दे रहे थे और किसी जगह नजर नहीं आ रहे थे। भुनगों और पतंगों के डर से लोगों ने लालटेनें गुल कर दी थीं। ठीक बिशारत के सर के ऊपर से चांद को काटती हुई एक टिटहरी बोलती हुई गुजरी और उन्हें ऐसा लगा जैसे उसके परों की हवा से उनके सर के बाल उड़े हों। नहीं! यह सब कुछ एक भयानक सपना है। जैसे ही वो मोड़ से निकले, अगरबत्तियों और लोबान की एक उदास-सी लपट आई और आंखें एकाएकी चकाचौंध हो गयीं। या खुदा! होश में हूं या सपना है?
क्या देखते हैं कि मौलाना करामत हुसैन की झुग्गी के दरवाजे पर एक पेट्रोमेक्स जल रही है। चार-पांच पुर्सा देने वाले खड़े हैं और बाहर ईंटों के एक चबूतरे पर उनका सफेद बुर्राक घोड़ा बलबन खड़ा है। मौलाना का पोलियो-ग्रस्त बेटा उसको पड़ोसी के घर से आये हुए मौत के खाने की नान खिला रहा था।