न्यूनाधिक 45 बरस का साथ था। आधी सदी ही कहिये। बीबी की मौत के बाद बिशारत बहुत दिन खोये-खोये से गुम-सुम रहे। जैसे उन्होंने कुछ खोया न हो खुद खो गये हों। जवान बेटों ने मय्यत कब्र में उतारी, उस समय भी सब्र, धीरज की तस्वीर बने ताजा खुदी मिट्टी के ढेर पर चुपचाप खड़े देखते रहे। अभी उनके बटुए में स्वर्गीया के हाथ की रखी हुई इलाइचियां बाकी थीं और डीप फ्रीज में उसके हाथ के पकाये हुए खानों की तहें लगी थीं।
क्रोशिये की जो टोपी वो उस वक्त पहने हुए थे वो इस स्वर्गीया बीवी ने चांदरात को दो बजे पूरी की थी ताकि वो सुब्ह इसे पहन कर ईद की नमाज पढ़ सकें। सब मुट्ठी भर-भरकर मिट्टी डाल चुके और कब्र गुलाब के फूलों से ढक गयी तो उन्होंने स्वर्गीया के हाथ के लगाये हुए मोतिया की चंद कलियां जिनके खिलने में अभी एक पहर बाकी था, कुर्ते की जेब से निकाल कर अंगारा फूलों पर बिखेर दीं, फिर खाली-खाली नजरों से अपना मिट्टी में सना हुआ हाथ देखने लगे।
अचानक ऐसी दुर्घटना हो जाये तो कुछ अर्से तक तो विश्वास ही नहीं होता कि जिंदगी भर का साथ यूं अचानक आनन-फानन बिछड़ सकता है। नहीं, अगर वो सब कुछ सपना था तो ये भी सपना ही होगा। ऐसा लगता था जैसे वो अभी यहीं किसी दरवाजे से मुस्कुराती हुई आ निकलेंगी। रात के सन्नाटे में कभी-कभी तो कदमों की परिचित आहट और चूड़ियों की खनक तक साफ सुनायी देती और वो चौंक पड़ते कि कहीं आंख तो नहीं झपक गयी। किसी ने उनकी आंखें भीगी नहीं देखीं। अपने-बेगाने सभी ने उनके सब्र और धीरज की दाद दी फिर अचानक एक दरार डालने वाला क्षण आया और एकदम यकीन आ गया फिर सारे भरोसे, सारे आंसुओं के बांध और तमाम धीरज की दीवारें एक साथ ढह गयीं और वो बच्चों की तरह फूट-फूट कर रोये।
लेकिन हर दुःख बीतने वाला है हर सुख समाप्त होने वाला। जैसे और दिन गुजर जाते हैं ये दिन भी गुजर गये। लारोश फोको के अनुसार प्रकृति ने कुछ ऐसी जुगत रखी है कि इंसान मौत और सूरज को जियादा देर तक टकटकी बांध कर नहीं देख सकता। धीरे-धीरे सदमे की जगह दुःख और दुःख की जगह उदास तन्हाई ने ले ली।
मैं जब मियामी से कराची पहुंचा तो वो इसी दौर से गुजर रहे थे, बेहद उदास, बेहद अकेले। जाहिर में वो इतने अकेले नहीं थे जितना महसूस करते थे मगर आदमी उतना ही अकेला होता है जितना महसूस करता है। तन्हाई आदमी को सोचने पर विवश कर देती है। वो जिधर नजर उठाता है आईने को सामने पाता है इसलिए वो तन्हाई यानी अपने साथ से ही बचता है और डरता है। अकेले आदमी की सोच उसकी अंगुली पकड़कर खेंचती हुई, हर छोड़े राजपथ, एक-एक पगडंडी, गली-कूचे और चौराहे पर ले जाती है। जहां-जहां रास्ते बदले थे वहां खड़े होकर इंसान पर ये बात प्रकट होती है कि वस्तुतः रास्ते नहीं बदलते इंसान बदल जाता है। सड़क कहीं नहीं जाती वो तो वहीं की वहीं रहती है मुसाफिर खुद कहां से कहां पहुंच जाता है। राह कभी गुम नहीं होती राह चलने वाले गुम हो जाते हैं।
बुढ़ापे में पुरानी कहावत के अनुसार सौ बुराइयां हो न हों, एक बुराई ऐसी है जो सौ बुराइयों पर भारी है और वो है नास्टेलजिया। बुढ़ापे में आदमी आगे अपनी अप्राप्य और अनुपलब्ध मंजिल की तरफ बढ़ने के बजाय उल्टे पैरों उस तरफ जाता है जहां से यात्रा शुरू की थी। बुढ़ापे में अतीत अपनी तमाम रौशनियों के साथ जाग उठता है। बूढ़ा और अकेला आदमी एक ऐसे खंडहर में रहता है जहां भरी दोपहर में दीवाली होती है और जब रोशनियां बुझा कर सोने का वक्त आता है तो यादों के फानूस जगमग-जगमग रौशन होते चले जाते हैं। जैसे-जैसे उनकी रौशनी तेज होती जाती है खंडहर की दरारें, जाले और टूटी-फूटी ढही दीवारें उतनी जियादा रौशन होती जाती हैं। सो उनके साथ भी यही कुछ हुआ।
खोये अतीत की तलाश
कराची में अल्लाह ने उन्हें इतना दिया था कि सपने में भी अपने छूटे बल्कि छोड़े हुए वतन कानपुर जाने की इच्छा नहीं हुई मगर इस दुर्घटना के बाद अचानक एक हूक सी उठी और उन्हें कानपुर की याद बेतहाशा सताने लगी। इससे पहले अतीत ने उनके अस्तित्व पर यूं पंजे गाड़ कर कब्जा नहीं जमाया था। वर्तमान से मुंह फेरे प्रत्यक्ष और प्रकट से आंखें मूंदे भविष्य से निराश अब वो सिर्फ अतीत में जी रहे थे। वर्तमान में कोई विशेष बुराई नहीं थी सिवाय इसके कि बूढ़े आदमी के वर्तमान की सबसे बड़ी बुराई उसका अतीत होता है जो भुलाये नहीं भूलता।
हर घटना बल्कि सारी जिंदगी की फिल्म उलटी चलने लगी। जटाधारी बरगद क्रोध में आकर फुनंग के बल अपनी भुजंग-जटायें और पाताल-जड़ें आसमान की तरफ करके शीर्षासन में उल्टा खड़ा हो गया। 35 बरस बाद उन्होंने अपनी खोयी जन्नत कानपुर जाने का फैसला किया। वो गलियां, बाजार, मुहल्ले, आंगन, चारपायी, अधूरे छिड़काव से रात गये तक जवान बदन की तरह सुलगती छतें, वो दीवानी ख्वाहिशें जो रात को ख्वाब बन कर आतीं और ख्वाब जो दिन में सचमुच ख्वाहिश बन जाते... एक-एक करके बेतहाशा याद आने लगे। हद ये कि वो स्कूल भी जन्नत का टुकड़ा मालूम होने लगा जिससे भागने में इतना मजा आता था। सब मजों, सब यादों ने एकाएक हमला कर दिया। दोस्तों से चरचराती चारपाइयां और हरी-हरी निबोलियों से लदे-फंदे नीम की छांव, आमों की बौर, महुए की महक से बोझल पुरवा, इमली पर गदराये हुए कतारे और उन्हें ललचायी नजरों से देखते हुए लड़के, हिरनों से भरे जंगल, छर्रे से जख्मी होकर दो-तीन सौ फिट की ऊंचाई से गद से गिरती हुई मुर्गाबी, खस की टट्टियां, सिंघाड़ों से पटे तालाब, गले से फिसलता मखमल फलूदा, मौलश्री के गजरे, गर्मियों की दोपहर में जामुन के घने पत्तों में छुपे हुए गिरगिट की लपलपाती महीन जबान, अपने चौकन्ने कानों को हवा की दिशा के साथ ट्यून किये टीले पर अकेला खड़ा हुआ बारहसिंघा, उमड़-घुमड़ जवानी और पहले प्यार की घटाटोप उदासी, ताजा कलफ लगे हुए दुपट्टे की करारी महक, धूम मचाते दोस्त... अतीत के पहाड़ों से ऐसे बुलावे, ऐसी आवाजें आने लगीं कि -
इक जगह तो घूम के रह गयी
एड़ी सीधे पांव की
वो बच्चे नहीं रहे थे। हमारा मतलब है कि सत्तर के आसपास थे। लेकिन उन्हें एक पल के लिए भी ये ध्यान नहीं आया कि तमाम रंगीन और रोमांटिक चीजें... जिन्हें याद करके वो सौ-सौ decibel की आहें भरने लगे थे, पाकिस्तान में न केवल उपलब्ध थीं बल्कि बेहतर क्वालिटी की थीं। हां! सिर्फ एक चीज पाकिस्तान में न थी और वो थी उनकी जवानी, जो तलाश करने के बाद कानपुर में भी न मिली।
ये बच्चे कितने बूढ़े हैं, ये बूढ़े कितने बच्चे हैं
उन्होंने अपने नार्थ नाजिमाबाद वाले घर के सामने मौलश्री का पेड़ लगाने को तो लगा लिया, लेकिन यादों की मौलश्री की भीनी-भीनी महक, फबन और छब-छांव कुछ और ही थी। अब वो पहली सी किस्म के फूल कहां कि हर फूल से अपनी ही खुश्बू आये। उन पर भी वो मुकाम आया जो बुढ़ापे के पहले हमले के बाद हर शख्स पर आता है, जब अचानक उसका जी बचपन की दुनिया की एक झलक... आखिरी झलक... देखने के लिए बेकरार हो जाता है, लेकिन उसे ये मालूम नहीं होता कि बचपन और बुढ़ापे के बीच कोई दैवीय हाथ चुपके-से सौगुनी ताकत का Magnifier (बड़ा दिखाने वाला शीशा) रख देता है। बुद्धिमान लोग कभी इस शीशे को हटाकर देखने की कोशिश नहीं करते। इसके हटते ही हर चीज खुद अपना Miniature मालूम होने लगती है। कल के राक्षस बिल्कुल बालिश्तिये नजर आने लगते हैं, अगर आदमी अपने बचपन के Locale से लंबे समय तक दूर रहा है तो उसे एक नजर आखिरी बार देखने के लिए हरगिज नहीं जाना चाहिये लेकिन वो जाता है। वो दृश्य उसे एक अदृश्य चुंबक की तरह खींचता है और वो खिंचा चला जाता है। उसे क्या मालूम कि बचपन के सारे इंद्रजाल, अगर प्रौढ़ locale पड़ जाये तो टूट जाते हैं। रूपनगर की सारी परियां उड़ जाती हैं और शीश महल पर कालिख पुत जाती है; और इस जगह तो अब सुगंधों की जगह धुआं ही धुआं है। यहां जो कामदेव का दहकता इंद्रधनुष हुआ करता था वो क्या हुआ?
ये धुआं जो है ये कहां का है
वो जो आग थी वो कहां की थी
आदमी को किसी तरह अपनी आंखों पर यकीन नहीं आता वो सौंदर्य क्या हुआ? वो चहकती बोलती महक कहां गयी? नहीं, ये तो वो चित्रकारों की बनाई गलियां और बाजार नहीं जहां हर चीज अचंभा लगती थी। ये हर चीज, हर चेहरे को क्या हो गया? Was this face that launched a thousand ships and burnt the topless towers of Ilium! जिस घड़ी ये इंद्रजाल टूटता है, अतीत के तमन्नाई का स्वप्न महल ढह जाता है, फिर उस शख्स की गिनती न बच्चों में होती है न बूढ़ों में। जब ये पड़ाव आता है तो आंखें अचानक कलर ब्लाइंड हो जाती हैं। फिर इंसान को सामने नाचते मोर के सिर्फ पैर दिखाई देते हैं और वो उन्हें देख-देख कर रोता है। हर तरफ बेरंगी और बेदिली का राज होता है।
बेहलावत उसकी दुनिया और मुजबजब उसका दीं
जिस शहर में भी रहना, उकताये हुए रहना
सो इस बच्चे बूढ़े ने कानपुर जा कर बहुत आंसू बहाये। 35 बरस तक तो इस पर रोया किये कि हाय ऐसी जन्नत छोड़ कर कराची क्यों आ गये, अब इस पर रोये कि लाहौल विला कूव्वत! इससे पहले ही छोड़कर क्यों न आ गये। ख्वामख्वाह प्यारी जिंदगी का एक तिहाई हिस्सा गलत बात पर रोने में गंवा दिया। रोना ही जुरूरी था तो इसके लिए 365 मुनासिब कारण मौजूद थे, इसलिए कि साल में इतनी ही मायूसियां होती हैं। अपनी ड्रीमलैंड का चप्पा-चप्पा जन मारा लेकिन
वो लहर न दिल में फिर जागी
वो रंग न लौट के फिर आया
35 साल बाद पुराना नास्टेल्जिया अचानक टूटा तो हर जगह उजाड़, हर चीज खंडहर नजर आई। हद ये जिस मगरमच्छ भरे दरिया में जिसका ओर न छोर, वो आसमान चूमने वाले बरगद की फुंगी से बिना डरे छलांग लगा दिया करते थे, अब उसे जाकर पास से देखा तो वो एक मेंढक भरा बरसाती नाला निकला। अब वो विराट बरगद तो निरा बोंजाई पेड़ लग रहा था।
कबूतर खाने की नक्ल
यूनानी कोरस (Greek Chorus) बहुत दर्शन बघार चुका। अब इस कहानी को खुद इसके हीरो बिशारत की जुबानी सुनिये कि इसका मजा ही कुछ और है
ये अफसाना अगरचे सरसरी है
वले उस वक्त की लज्जत भरी है
साहब मैं तो अपना मकान देख कर भौंचक्का रह गया कि हम इसमें रहते थे और इससे जियादा हैरानी इस पर कि बहुत खुश रहते थे। मिडिल क्लास गरीबी की सबसे दयनीय और असह्य किस्म वो है, जिसमें आदमी के पास कुछ न हो लेकिन उसे किसी चीज की कमी महसूस न हो। ईश्वर की कृपा से हम तले-ऊपर के नौ भाई थे और चार बहनें, और तले-ऊपर तो मैंने मुहावरे की मजबूरी के कारण कह दिया वरना खेल-कूद, खाने और लेटने-बैठने के वक्त ऊपर-तले कहना जियादा सही होगा। सबके नाम त पर खत्म होते थे। इतरत, इशरत, राहत, फरहत, इस्मत, इफ्फत वगैरा। मकान खुद वालिद ने मुझसे बड़े भाई की स्लेट पर डिजाइन किया था। सवा सौ कबूतर भी पाल रखे थे, हर एक की नस्ल और जात अलग-अलग। किसी कबूतर को दूसरी जात की कबूतरी से मिलने नहीं देते थे। लकड़ी की दुकान थी। हर कबूतर की काबक उसकी लंबाई बल्कि दुम की लंबाई-चौड़ाई और बुरी आदतों को ध्यान में रखते हुए खुद बनाते थे। साहब अब जो जाके देखा तो मकान के आर्किटेक्चर में उनके फालतू शौक का प्रभाव और दबाव नजर आया बल्कि यूं कहना चाहिये कि सारा मकान दरअस्ल उनके कबूतरखाने की भौंडी सी नक्ल था। वालिद बहुत प्रैक्टिकल और दूर की सोचने वाले थे। इस भय से कि उनकी आंख बंद होते ही औलाद घर के बंटवारे के लिए झगड़ा करेगी, वो हर बेटे के पैदा होते ही अलग कमरा बनवा देते थे। कमरों के बनाने में खराबी की एक जियादा सूरत छिपी हुई थी, यानी बड़े-छोटे का लिहाज-पास था कि हर छोटे भाई का कमरा अपने बड़े भाई के कमरे से लंबाई-चौड़ाई दोनों में एक-एक गज छोटा हो। मुझ तक पहुंचते-पहुंचते कमरे की लंबाई-चौड़ाई तकरीबन पंजों के बल बैठ गयी थी। मकान पूरा होने में पूरे सात साल लगे। इस अरसे में तीन भाई और पैदा हो गये। आठवें भाई के कमरे की दीवारें उठायीं तो कोई नहीं कह सकता था कि कदमचों की नींव रखी जा रही है या कमरे की। हर नवजात के आने पर स्लेट पर पिछले नक्शे में जुरूरी परिवर्तन और एक कमरे में बढ़ोतरी करते। धीरे-धीरे सारा आंगन खत्म हो गया। वहां हमें विरसे में मिलने वाली कोठरियां बन गयीं।
साहब! कहां कराची की कोठी, उसके एयरकंडीशंड कमरे, कालीन, खूबसूरत पेंट और कहां ये ढंढार कि खांस भी दो तो प्लास्टर झड़ने लगे। चालीस बरस से रंग सफेदी नहीं हुई। फुफेरे भाई के मकान में एक जगह तिरपाल की छत बंधी देखी। कराची और लाहौर में तो कोई छतगीरी और नमगीरी के अर्थ भी नहीं बता पायेगा।
छतगीरी पर तीन जगह नेल पालिश से X का निशान बना है मतलब ये कि इसके नीचे न बैठो। यहां से छत टपकती है। कानपुर और लखनऊ में जिस दोस्त और रिश्तेदार के यहां गया, उसे परेशान हाल पाया। पहले जो सफेदपोश थे, वो अब भी हैं मगर सफेदी में पैवंद लग गये हैं। अपने स्वाभिमान पर कुछ जियादा ही घमंड करने लगे हैं। एक छोटी-सी महफिल में मैंने इस पर उचटता सा जुमला कस दिया तो एक जूनियर लैक्चरर जो किसी स्थानीय कॉलेज में इकोनोमिक्स पढ़ाते हैं, बिगड़ गये। कहने लगे 'आपकी अमीरी अमेरिका और अरब देशों की देन है। हमारी गरीबी हमारी अपनी गरीबी है। (इस पर उपस्थित लोगों में से एक साहब ने गा कर अल्हम्दुलिल्लाह कहा) कर्जदारी का सुख आप ही को मुबारक हो। अरब अगर थर्ड वर्ल्ड को भिखारी कहते हैं तो गलत नहीं कहते।' मैं मेहमान था उनसे क्या उलझता। देर तक जौ की रोटी, कथरी, चटायी, सब्र, गरीबी और स्वाभिमान की आरती उतारते रहे और इसी तरह के शेर सुनाते रहे। लिहाज में मैंने भी दाद दी।
कोई चीज ऐसी नहीं जो हिंदुस्तान में नहीं बनती हो। एक कानपुर ही क्या सारा देश कारखानों से पटा पड़ा है। कपड़े की मिलें, फौलाद के कारखाने, कार और हवाई जहाज की फैक्ट्रियां। टैंक भी बनने लगे। एटम बम तो बहुत दिन हुए फोड़ लिया। सैटेलाइट भी अंतरिक्ष में छोड़ लिया। अजब नहीं कि चांद पर भी पहुंच जायें। एक तरफ तो ये है, दूसरी तरफ ये नक्शा भी देखा कि एक दिन मुझे इनआमुल्ला बरमलाई के यहां जाना था। एक पैडल-रिक्शा पकड़ी। रिक्शा वाला टी.बी. का मरीज लग रहा था। बनियान में से भी पसलियां नजर आ रहीं थीं। मुंह से बनारसी किवाम वाले पान के भबके निकल रहे थे। उसने उंगली का आंकड़ा-सा बना कर माथे पर फेरा तो पसीने की तलल्ली बंध गयी। पसीने ने मुंह और हाथों पर लसलसी चमक पैदा कर दी थी जो धूप में ऐसी लगती थी जैसे वैसलीन लगा रखा हो। नंगे पैर, सूखी कलाई पर कलाई से जियादा चौड़ी घड़ी, हैंडिल पर परवीन बॉबी का एक सैक्सी फोटो। पैडिल मारने में दोहरा हो हो जाता और पीसने में तर माथा बार-बार बॉबी पर सिजदे करने लगता। मुझे एक मील ढो कर ले गया मगर अंदाजा लगाइये कितना किराया मांगा होगा? जनाब! कुल पिचहत्तर पैसे, खुदा की कसम! पिचहत्तर पैसे। मैंने उनके अलावा चार रुपये पच्चीस पैसे का टिप दिया तो पहले तो उसे यकीन नहीं आया फिर बांछें खिल गयीं। कद्दू के बीज जैसे पान में लिथड़े दांत निकले के निकले रह गये। मेरे बटुए को ललचाई नजरों से देखते हुए पूछने लगा, बाऊजी आप कहां से आये हैं? मैंने कहा - पाकिस्तान से। मगर 35 बरस पहले यहीं हीरामन के पुरवे में रहता था। उसने पांच का नोट अंटी से निकाल कर लौटाते हुए कहा `बाबूजी मैं आपसे पैसे कैसे ले सकता हूं? आपसे तो मुहल्लेदारी निकली। मेरी खोली भी वहीं है।`
गरीब गुर्राने लगे
और आबादी, खुदा की पनाह। बारामासी मेले का-सा हाल है। जमीन से उबले पड़ते हैं। बाजार में आप दो कदम नहीं चल सकते। जब तक कि दायें-बायें हाथ और कुहनियां न चलायें। सूखे में खड़ी तैराकी कहिये। जहां कोहनी मारने की भी गुंजाइश न हो वहां धक्के से पहुंच जाते हैं। लाखों आदमी फुटपाथ पर सोते हैं और वहीं अपनी जीवन की सारी यात्रा पूरी कर लेते हैं, मगर फुटपाथ पर सोने वाला किसी से दबता है-न डरता है, न सरकार को बुरा कहने से पहले मुड़ कर दायें-बायें देखता है। हमारे जमाने के गरीब वास्तव में दयनीय होते थे। अब गरीब गुर्राते बहुत हैं। रिक्शे को तो फिर भी रास्ता दे देंगे मगर कार के सामने से जरा जो हट जायें।
अजीजुद्दीन वकील कह रहे थे कि हमारे यहां राजनैतिक जागरूकता बहुत बढ़ गयी है। खुदा जाने, मैंने तो यह देखा कि जितनी गरीबी बढ़ती है उतनी ही हेकड़ी भी बढ़ती जाती है। ब्लैक का पैसा वहां भी बहुत है, मगर किसी की मजाल नहीं कि बिल्डिंग में नुमाइश करे। शादियों में खाते-पीते घरानों तक की औरतों को सूती साड़ी और चप्पलें पहने देखा। मांग में अगर सिंदूर न हो तो विधवा-सी लगें। चेहरे पर बिल्कुल मेक-अप नहीं। जबकि अपने यहां ये हाल कि हम मुर्गी की टांग को भी हाथ नहीं लगाते जब तक उस पर रूज न लगा हो। साहब आपने तारिक रोड के लाल-भबूका चिकन सिकते देखे होंगे? कानपुर में मैंने अच्छे-अच्छे घरों में दरियां और बेंत के सोफा-सेट देखे हैं और कुछ तो वही हैं जिन पर हम 35 साल पहले ऐंडा करते थे। साहब रहन-सहन के मामले में हिंदुओं में इस्लामी सादगी पायी जाती है।
जो होनी थी सो बात हो ली, कहारो!
कहने को तो आज भी उर्दू बोलने वाले उर्दू ही बोलते हैं, मगर मैंने एक अजीब परिवर्तन महसूस किया। आम आदमी का जिक्र नहीं, उर्दू के प्रोफेसरों और लिखने वालों तक का वो ढंग नहीं रहा जो हम-आप छोड़ कर आये थे। करारापन, खड़ापन, वो कड़ी कमान वाला खटका चला गया। देखते-देखते ढुलक कर हिंदी के पंडताई लहजे के करीब आ गया है `Sing-Song` लहजा You know what I mean. विश्वास न हो तो ऑल इंडिया रेडियो की उर्दू खबरों के लहजे की, कराची रेडियो या मेरे लहजे से तुलना कर लीजिये। मैंने पाइंट आउट किया। इनामुल्ला बरमलाई सचमुच नाराज हो गये। अरे साहब! वो तो आक्षेपों पर उतर आये। कहने लगे `और तुम्हारी जुबान और लहजे पर जो पंजाबी छाप है तुम्हें नजर नहीं आती, हमें आती है। तुम्हें याद होगा 2 अगस्त 1947 को जब मैं तुम्हें ट्रेन पर सी-ऑफ करने गया तो तुम काली रामपुरी टोपी, सफेद चूड़ीदार पाजामा और जोधपुरी जूते पहने हाथ का चुल्लू बना-बना कर आदाब-तस्लीमात कर रहे थे, कहो हां! कल्ले में पान, आंखों में ममीरे का सुरमा, मलमल के चुने हुए कुर्ते में इत्रे-गिल! कहो, हां! तुम यहां से चाय को चांय, घास को घांस और चावल को चांवल कहते हुए गये! कहो हां! और जिस वक्त गार्ड ने सीटी बजायी तुम चमेली का गजरा गले में डाले थर्मस से गरम चाय प्लेट में डाल कर, फूंकें मार-मार कर सुटर-सुटर पी रहे थे। उस वक्त भी तुम कराची को किरांची कह रहे थे। कह दो कि नहीं। और अब तीन Decades of decadence के बाद सर पर सफेद बालों का टोकरा रखे, टखने तक हाजियों जैसा झाबड़ा-झिल्ला कुर्ता पहने, टांगों पर घेरदार शलवार फड़काते, कराची के कंक्रीट जंगल से यहां तीर्थ यात्रा को आये हो तो हम तुम्हें पंडित-पांडे दिखाई देने लगे। भूल गये? तुम यहां `अमां! और ऐ हजरत` कहते हुए गये थे और अब सांईं-सांईं कहते लौटे हो।` साहब मैं मेहमान था। बकौल आपके, अपनी बेइज्जती खराब करवा के चुपके से उठकर रिक्शा में घर आ गया।
जो होनी थी सो बात हो ली, कहारो
चलो ले चलो मेरी डोली, कहारो
हम चुप रहे , हम हंस दिये
लखनऊ और कानपुर उर्दू के गढ़ थे। अनगिनत उर्दू अखबार और पत्रिकायें निकलती थीं। खैर आप तो मान कर नहीं देते। मगर साहब, हमारी जबान प्रामाणिक थी। अब हाल यह है कि मुझे तो सारे शहर में एक भी उर्दू साइन बोर्ड नजर नहीं आया। लखनऊ में भी नहीं। मैंने ये बात जिससे भी कही वो आह भर के या मुंह फेर के खामोश हो गया। मत मारी गयी थी कि ये बात एक महफिल में दोहरा दी तो एक साहब बिखर गये। शायद जहीर नाम है। म्यूनिस्पिलिटी के मैंबर हैं। वकालत करते हैं। न जाने कब से भरे बैठे थे। कहने लगे `खुदा के लिए हिंदुस्तानी मुसलमानों पर रहम कीजिये। हमें अपने हाल पर छोड़ दीजिये। पाकिस्तान से जो भी आता है, हवाई जहाज से उतरते ही अपना फॉरेन एक्सचेंज उछालता, यही रोना रोता हुआ आता है। जिसे देखो, आंखों में आंसू भरे शहर का मर्सिया पढ़ता चला आ रहा है। अरे साहब! हम आधी सदी से पहले का कानपुर कहां से ला कर दें। बस जो कोई भी आता है, पहले तो हर मौजूदा चीज की तुलना पचास बरस के पहले के हिंदुस्तान से करता है। जब ये कर चुकता है तो आज के हिंदुस्तान की तुलना आज के पाकिस्तान से करता है। दोनों मुकाबलों में चाबुक दूसरे घोड़े के मारता है, जितवाता है अपने ही घोड़े को।` वो बोलते रहे। मैं मेहमान था क्या कहता, वरना वही सिंधी कहावत होती कि गयी थी सींगों के लिए, कान भी कटवा आई।
लेकिन एक सच्चाई को स्वीकार न करना बेईमानी होगी। हिंदुस्तान का मुसलमान कितना ही परेशान, बेरोजगार क्यों न हो, वो मिलनसार, मुहब्बत-भरा, स्वाभिमानी और आत्मविश्वासी है। नुशूर भाई से लंबी-लंबी मुलाकातें रहीं। साक्षात् मुहब्बत, साक्षात् प्यार, साक्षात् रोग। उनके यहां लेखकों और शायरों का जमाव रहता है। पढ़े-लिखे लोग भी आते हैं। पढ़े-लिखे हैं मगर बुद्धिमान नहीं। सब एक सुर में कहते हैं कि उर्दू बड़ी सख्त जान है। पढ़े-लिखे लोगों को उर्दू का भविष्य अंधकारपूर्ण दिखाई देता है। बड़े-बड़े मुशायरे होते हैं। सुना है कि एक मुशायरे में तो तीस हजार से जियादा श्रोता थे। साहब! मैं आपकी राय से सहमत नहीं कि जो शेर एक साथ पांच हजार आदमियों की समझ में आ जाये वो शेर नहीं हो सकता, कोई और चीज है।
अनगिनत सालाना कांफ्ऱैंस होती हैं। सुना है कई उर्दू लेखकों को पद्मश्री और पद्मभूषण के एवार्ड मिल चुके हैं। मैंने कइयों से पद्म और भूषण के अर्थ पूछे तो जवाब में उन्होंने वो रकम बतायी जो एवार्ड के साथ मिलती है। आज भी फिल्मी गीतों, द्विअर्थी डॉयलॉग, कव्वाली और आपस की मारपीट की जबान उर्दू है। संस्कृत शब्दों पर बहुत जोर है मगर आप आम आदमी को संस्कृत में गाली नहीं दे सकते। इसके लिए संबोधित का पंडित और विद्वान होना जुरूरी है। साहब! गाली, गिनती और गंदा लतीफा तो अपनी मादरीजबान में ही मजा देता है। तो मैं कह रहा था कि उर्दू वाले काफी उम्मीद से भरे हैं। कठिन हिंदी शब्द बोलते समय इंदिरा गांधी की जुबान लड़खड़ाती है तो उर्दू वालों को कुछ आस बंधती है।
कौन ठहरे समय के धारे पर
नुशूर वाहिदी उसी तरह तपाक और मुहब्बत से मिले। तीन-चार घंटे गप के बाद जब भी मैंने ये कह कर उठना चाहा कि अब चलना चाहिये तो हाथ पकड़ कर बिठा लिया। मेरा जी भी यही चाहता था कि इसी तरह रोकते रहें। याददाश्त खराब हो गयी है। एक ही बैठक में तीन-चार बार आपके बारे में पूछा `कैसे हैं? सुना है हास्य व्यंग्य लेख लिखने लगे हैं। भई हद हो गयी।` रोगी तो आप जानते हैं सदा के थे। वज्न 75 पौंड रह गया है। उम्र भी इतनी ही होगी। चेहरे पर नाक ही नाक नजर आती है। नाक पर याद आया, कानपुर में चुनिया केले, इसी साइज के अब भी मिलते हैं। मैंने खास तौर पर फरमाइश करके मंगवाये। मायूसी हुई। अपने सिंध के चित्तीदार केलों के आसपास भी नहीं। एक दिन मेरे मुंह से निकल गया कि सरगोधे का मालटा, नागपुर के संतरे से बेहतर होता है, नुशूर तड़प कर बोले `ये कैसे मुमकिन है?` वैसे नुशूर माशाअल्लाह चाक-चौबंद हैं। सूरत बहुत बेहतर हो गयी है। इसलिए कि आगे को निकले हुए लहसुन की पोथी जैसे ऊबड़-खाबड़ दांत सब गिर चुके हैं।
आपको तो याद होगा, सुरैया एक्ट्रेस क्या कयामत का गाती थी? मगर लंबे दांत सारा मजा किरकिरा कर देते थे। सुना है कि हमारे पाकिस्तान आने के बाद सामने के निकलवा दिये थे। एक फिल्मी मैगजीन में उसका ताजा फोटो देखा तो खुद पर बहुत गुस्सा आया कि क्यों देखा? फिर उसी डर के मारे उसके रिकार्ड नहीं सुने। एजाज हुसैन कादरी के पास उस जमाने के सारे रिकार्ड मय भोंपू वाले ग्रामोफोन के अभी तक सुरक्षित हैं। साहब! विश्वास नहीं हुआ कि यह हमारे लिए साइंस, गायकी और ऐश की इंतहा थी। उन्होंने उस जमाने के सुर-संगीत सम्राट सहगल के दो-तीन गाने सुनाये। साहब! मुझे तो बड़ा शॉक लगा कि माननीय के नाक से गाये हुए गानों से मुझ पर ऐसा रोमांटिक मूड कैसे तारी हो जाता था।
मोती बेगम का मुंह झुरिया कर बिल्कुल किशमिश हो गया है। नुशूर कहने लगे, मियां तुम औरों पर क्या तरस खाते फिरते हो। जरा अपनी सूरत तो 47 के पासपोर्ट फोटो से मिला कर देखो। कोई अखिल भारतीय मुशायरा ऐसा नहीं होता, जिसमें नुशूर न बुलाये जायें। शायद किसी शायर को इतना पारिश्रमिक नहीं मिलता, जितना उन्हें मिलता है। बड़ी इज्जत की नजर से देखे जाते हैं। अब तो माशाअल्लाह घर में फर्नीचर भी है मगर अपनी पुरानी परंपरा पर डटे हुए हैं। तबियत हमेशा की तरह थी, यानी बहुत खराब।
मैं मिलने जाता तो बान की खुर्री चारपायी पर लेटे से उठ बैठते और तमाम वक्त बनियान पहने तकिये पर उकड़ू बैठे रहते। अक्सर देखा कि पीठ पर चारपायी के बानों का नालीदार पैटर्न बना हुआ है। एक दिन मैंने कहा प्लेटफॉर्म पर जब एनाउंस हुआ कि ट्रेन अपने निर्धारित समय से ढाई घंटा विलंब से प्रवेश कर रही है तो खुदा की कसम मेरी समझ में ही नहीं आया कि ट्रेन क्या कर रही है। आ रही है या जा रही है या ढाई घंटे से महज कुलेलें कर रही है। ये सुनना था कि नुशूर बिगड़ गये।
जोश में बार-बार तकिये पर से फिसल पड़ते थे। एक बेचैन पल में जियादा फिसल गये तो बानों की झिरी में पैर के अंगूठे को जड़ तक फंसा के फुट ब्रेक लगाया और एकदम तन कर बैठ गये। कहने लगे `हिंदुस्तान से उर्दू को मिटाना आसान नहीं। पाकिस्तान में पांच बरस में उतने मुशायरे नहीं होते होंगे जितने हिंदुस्तान में पांच महीने में हो जाते हैं। पंद्रह बीस हजार की भीड़ की तो कोई बात ही नहीं। अच्छा शायर आसानी से पांच सात हजार पीट लेता है। रेल का किराया, ठहरने-खाने का इंतजाम और दाद इसके अलावा। जोश ने बड़ी जल्दबाजी की। बेकार चले गये, पछताते हैं।` अब मैं उन्हें क्या बताता कि जोश को 7-8 हजार रुपये महीना... और कार... दो बैंकों और एक इंश्योरेंस कंपनी की तरफ से मिल रहे हैं। शासन की तरफ से मकान अलग से। यूं इसकी शक्ल कृपा की जगह कष्ट की-सी है।
गा कर पढ़ने में अब नुशूर की सांस उखड़ जाती है। ठहर-ठहर कर पढ़ते हैं, मगर आवाज में अब भी वही दर्द और गमक है। बड़ी-बड़ी आंखों में वही चमक। तेवर और लहजे में वही खरज और निडरपन जो सिर्फ उस वक्त आता है जब आदमी पैसे ही नहीं, जिंदगी और दुनिया को भी हेच समझने लगे। दस-बारह ताजा गजलें सुनायीं। क्या कहने। मुंह पर आते-आते रह गया कि डेंचर लगाकर सुनाइये। आपने तो उन्हें बहुत बार सुना है। एक जमाने में `ये बातें राज की हैं किबला-ए-आलम भी पीते हैं` वाली गजल ने सारे हिंदुस्तान में तहलका मचा दिया था, मगर अब `दौलत कभी ईमां ला न सकी, सरमाया मुसलमां हो न सका` वाले शेरों पर दाद के डोंगरे नहीं बरसते। सुनने वालों का मूड बदला हुआ है। श्रोताओं का मौन भी एक प्रकार की बेआवाज हूटिंग है, अगर उस्ताद दाग या नवाब साइल देहलवी भी अपनी वो तोप गजलें पढ़ें जिनसे 70-80 बरस पहले छतें उड़ जाती थीं तो श्रोताओं की अरसिकता से तंग आ कर उठ खड़े हों मगर अब नुशूर का रंग बदल गया। मुशायरे अब भी लूट लेते हैं। हमेशा के मस्त-मलंग हैं। कह रहे थे कि अब कोई तमन्ना, कोई हसरत बाकी नहीं। मैंने तो हमेशा उन्हें बीमार, कमजोर, बुरे हाल और निश्चिंत पाया। उनके स्वाभिमान और रुतबे में कोई फर्क नहीं आया। धनी-मानी लोगों से कभी पिचक कर नहीं मिले। साहब ये नस्ल ही कुछ और थी। वो सांचे ही टूट गये जिनमें ये मस्त और दीवाने चरित्र ढलते थे। भला बताइये, असगर गोंडवी और जिगर मुरादबादी से जियादा दिमाग वाला और स्वाभिमानी कौन होगा? पेशा, चश्मे बेचना। वो भी दुकान या अपने ठिये पर नहीं... जहां पेट का धंधा ले जाये। नुशूर से मेरी दोस्ती तो अभी हाल में चालीस बरस से हुई है वरना इससे पहले दूसरा रिश्ता था। मैंने कसाइयों के मुहल्ले में स्थित मदरसा-उल-इस्लाम में फारसी इन्हीं से पढ़ी थी। और हां! अब इस मुहल्ले के कसाई पोथ की अचकन और लाल पेटेंट लेदर के पंप-शू नहीं पहनते। उस जमाने में कोई शख्स अपनी बिरादरी का लिबास छोड़ नहीं सकता था। उसका हुक्का-पानी बंद कर दिया जाता।
दुबारा रिश्वत देने को जी चाहता है
जाने पहचाने बाजार अब पहचाने नहीं जाते। ऐसे मिलनसार दुकानदार नहीं देखे। बिछे जाते थे। दुकान में पैर रखते ही ठंडी बोतल हाथ में थमा देते थे। मेरा ऐसी जालिम सेल्समैनशिप से वास्ता नहीं पड़ा था। बोतल पी कर दुकान से खाली हाथ निकलना बड़ा खराब मालूम होता था, इसलिए सेल्समैनों की पसंद की चीजें खरीदता चला गया। अपनी जुरूरत और फरमाइश की चीजें खरीदने के पैसे ही नहीं रहे। यकीन नहीं आया जहां इस वक्त धक्कम-पेल, चीखम-दहाड़ मच रही है और बदबुओं के बगोले मंडरा रहे हैं, ये वही चौड़ी साफ-सुथरी `मॉल` बल्कि `दी मॉल` है। साहब! अंग्रेज ने हर शहर में `दी मॉल` जुरूर बनायी। फैशनेबल ऊंची दुकानों वाली माल। धनी लोगों की धन-राह कहिये, अभी कल की-सी बात मालूम होती है। मॉल के किनारे काफी दूर तक बबूल की छाल बिछी होती थी, ताकि कोतवाले के लौंडे के घोड़े को दुलकी चलने में आसानी रहे। दायें बायें दो साईस नंगे पैर साथ-साथ दौड़ते जाते कि लौंडा गिर न जाये। वो हांफने लगते तो हंसी से दोहरा हो जाता। हमारी उससे दोस्ती हो गयी थी।
एक दफा हम पंद्रह बीस दोस्तों को बहराइच के पास अपने गांव शिकार पे ले गया। हर पांच लोगों के लिए एक अलग खेमा। खेमों के पीछे एक सम्मानित फासले पर नौकरों की छोलदारी। हम खेमों में सोते थे। क्या बताऊं जंगल में कैसे ऐश रहे। एक रात मुजरा भी हुआ। सूरत इतनी अच्छी थी कि खुदा की कसम! गलत सोच पर भी प्यार आने लगा। पेशेवर शिकारी रोज शिकार मार कर ले आते थे, जिसे बावर्ची लकड़ियों और छपटियों की आग पर भूनते। हमारे जिम्मे तो सिर्फ पचाना और ये बताना था कि कल कौन किस जानवर का गोश्त खाना पसंद करेगा। सांभर का गोश्त पहले-पहल वहीं चखा। आखिरी शाम चार भुने हुए पूरे काले हिरन दस्तरख्वान पर सजा दिये गये। हर हिरन के अंदर एक काज और काज में तीतर और तीतर के पेट में मुर्गी का अंडा। हमारी आंखें फटी की फटी रह गयीं। खाते क्या खाक।
कानपुर का वो कोतवाल हद दर्जा लायक, सूझ-बूझ वाला, इंतहाई मिलनसार और उसी दर्जे का बेईमान था। साहब आप रिश्वतखोर, व्यभिचारी और शराबी को हमेशा मिलनसार और मीठे स्वभाव का पायेंगे। इस वास्ते कि वो अक्खड़पन, सख्ती और बदतमीजी एफोर्ड कर ही नहीं सकता। इस लड़के ने कुछ करके नहीं दिया। लिवर के सिरोसिस में मरा। उसका छोटा भाई पाकिस्तान आ गया। लोगों से कह सुन कर मारीपुर के स्कूल में टीचर लगवा दिया। कोई तीन बरस हुए मेरे पास आया था। कहने लगा मैं बी.टी. नहीं हूं। थोड़ी-सी तन्ख्वाह में गुजारा नहीं होता। सऊदाबाद से मारीपुर जाता हूं। दो जगह बस बदलनी पड़ती है। आधी तन्ख्वाह तो बस के किराये में निकल जाती है। अपने यहां मुंशी रख लीजिये। उसकी तीन जवान बेटियां कुवांरी बैठी थीं। एक के कपड़ों में आग लग गयी, वो जल कर मर गयी। लोगों ने तरह-तरह की बातें बनायीं। खुद उसे दो बार हार्ट अटैक हो चुके थे। जिन्हें उसने स्कूल वालों से छिपाया, वरना वो गयी-गुजरी नौकरी भी जाती रहती। कोतवाल सारे शहर का, गुंडों समेत, बादशाह होता था, मतलब यह जिसे चाहे जलील कर दे। साहब मिर्जा ठीक ही कहते हैं कि डेढ़ सौ साल के हालात पढ़ने के बाद हम इस नतीजे पर पहुंचते हैं कि तीन डिपार्टमेंट ऐसे हैं जो पहले दिन से बेईमान हैं। पहला पुलिस, दूसरा पी.डब्ल्यू.डी., तीसरा इंकमटैक्स। अब इनमें मेरी तरफ से एंटीकरेप्शन विभाग को और बढ़ा लीजिये। ये सिर्फ रिश्वत लेने वालों से रिश्वत लेता है। रिश्वत हिंदुस्तान में भी खूब चलती है। मुझे भी थोड़ा बहुत निजी अनुभव हुआ मगर साहब हिंदू रिश्वत लेने में ऐसी नम्रता, ऐसी शालीनता और गंभीरता बरतता है कि खुदा की कसम दुबारा देने को जी चाहता है।
और साहब विनम्रता का ये हाल कि क्या हिंदू-क्या मुसलमान, क्या बूढ़ा-क्या जवान सब बड़ी नम्रता से हाथ जोड़कर सलाम-प्रणाम करते हैं। बड़े-बड़े लीडर स्पीच से पहले और स्पीच के बाद और बड़े से बड़ा संगीत सम्राट भी पक्के राग गाने से पहले और गाने के बाद इंतहाई विनम्रता के साथ श्रोताओं के सामने हाथ जोड़ कर खड़ा हो जाता है। मैंने खुद अपनी आंखों और कानों से एक मुशायरे में हजरत अली सरदार जाफरी को दस-बारह बहुत लंबी नज़्में सुनाने के बाद हाथ जोड़ते हुए स्टेज से उतरते देखा। खैर ऐसी वारदात के बाद तो हाथ जोड़ने का कारण हमारी समझ में भी आता है।
बाजारे-हुस्न पे क्या गुजरी
और साहब मूलगंज देखकर तो कलेजा मुंह को आ गया। ये हुस्न का बाजार हुआ करता था। आप भी दिल में कहते होंगे, अजीब आदमी है। डबल हाजी, माथे पर गट्टा मगर हर किस्से में तवायफ को जुरूर कांटों में घसीटता है। क्या करूं, हमारी नस्ल तो तरसती फड़कती बूढ़ी हो गयी। उस जमाने में तवायफ साहित्य और स्नायु-समूह पर बुरी तरह सवार थी। कोई जवानी और कहानी उसके बगैर आगे नहीं बढ़ सकती थी। ये भी ध्यान रहे कि रंडी अकेली वो परायी औरत थी, जिसे आप नजर भर कर देख सकते थे। वरना हर वो औरत जिससे निकाह जायज हो, मुंह ढांके रखती थी। मैंने देखा कि अब तवायफों ने गृहस्थिनों के से शरीफाना लिबास और ढंग अपना लिए हैं। अब उन्हें कौन समझाये कि इसी चीज से तो घबरा कर दुखियारे तुम्हारे पास आते थे। गृहस्थी, पवित्रता और एकरंगी के उकताये हुए लोग अजनबी बदन-सराय में रात-बिरात विश्राम के लिए आ जाते थे। यह आसरा भी न रहा।
तो मैं कह रहा था कि मूलगंज में हुस्न का बाजार हुआ करता था। जमाने भर की दुर-दुर, हुश-हुश के बाद तवायफों ने अब रोटी वाली गली में पनाह ली है। बाजार काहे को है, बस एक गटर है, यहां से वहां तक। वो जगह भी देखी जहां पचास बरस पहले मैं और मियां तजम्मुल हुसैन दीवार की तरफ मुंह करके सींक से उतरे कबाब खाया करते थे। जैसे चटखारेदार कबाब तवायफों के मुहल्ले में मिलते थे, कहीं और नहीं देखे। सिवाय लखनऊ के मौलवी मुहल्ले के। गजरे भी गजब के होते थे और हां! आपके लिए असलम रोड का एक कबाबिया डिस्कवर किया है। आपके लंदन जाने से पहले बानगी पेश करूंगा। साहब! कबाब मैंने बाहर का और पान हमेशा घर का खाया है। आपने कभी तवायफ के हाथ की गिलौरी खाई है, मगर आप तो कहते हैं कि आपने अपने खत्नों पर (लिंग की खाल काटना) मुजरे के बाद कभी रंडी का नाच ही नहीं देखा और बरसों इसी इंप्रेशन में रहे कि मुजरा देखने से पहले हर बार इस पड़ाव से गुजरना होता है। रंडी के हाथ का पान कभी नहीं रचता। मैंने देखा है कि बुड्ढों, भड़भड़ियों और शायरों को पान नहीं रचता। मगर आप नाचीज के होंठ देख रहे हैं। आदाब!
मियां तजम्मुल घर जाने से पहले रगड़-रगड़ के होंठ साफ करते और कबाब, प्याज के भबके को दबाने के लिए जिंतान की गोली चूसते। हाजी साहब (उनके बाप) ताजा-ताजा चेंवट से आये थे, सींक के कबाब और पान को यू.पी. की अय्याशियों में गिनते थे। कहते थे बेटो! तुम्हें जो कुछ करना है मेरे सामने करो लेकिन अगर उनके सामने ये काम किया जाता तो कुल्हाड़ी से सर फाड़ देते, जो उनके लिए बायें हाथ का खेल था कि वो एक अरसे से रोज कसरत के तौर पर सुब्ह की नमाज के बाद दस सेर लकड़ी फाड़ते थे। आंधी-पानी हो तो मर्दाना बैठक में दस-दस सेर के मुगदर घुमा लेते। वो चेंवट से रोजी-रोटी की तलाश में निकले थे। उनके वालिद यानी मियां तजम्मुल के दादा ने बुरी राह पे भटकने से रोकने के लिए एक हजार दाने की जपने की माला, एक जोड़ी मुगदर, कुल्हाड़ी और बीबी सफर के सामान में रख दी और कुछ गलत नहीं किया, इसलिए कि इन उपकरणों पे अभ्यास करने के बाद बुराई तो एक तरफ रही, आदमी अच्छाई करने के लायक भी नहीं रहता।
मगर खुदा के लिए आप मेरी बातों से कुछ और न समझ बैठियेगा। बार-बार तवायफ और कोठे का जिक्र आता है, मगर `तमाम हो गयीं सब मुश्किलात कोठे पर` वाला मामला नहीं। खुदा गवाह है, बात कभी पान, कबाब खाने और कोठे पर जाने वालों को ईर्ष्या की नजर से देखने से आगे न बढ़ी। कभी-कभी मियां तजम्मुल बड़ी हसरत से कहते, यार! ये लोग कितने लकी हैं। इनके बुजुर्ग या तो मर चुके हैं या अंधे हैं।
बात ये है कि वो जमाना और था। नयी पौध पर जवानी आती थी तो बुजुर्ग-नस्ल दीवानी हो जाती थी। सारे शहर के लोग एक दूसरे के चाल-चलन पर पहरा देना अपना फर्ज समझते थे।
हम उसके पासबां हैं वो पासबां हमारा
बुजुर्ग कदम-कदम पर हमारी इस्तेमाल में न आई जवानी की चौकीदारी करते थे; बल्कि यूं कहना चाहिये कि हमारी भटकनों और लड़खड़ाहटों को पकड़ने के लिए अपना सारा बुढ़ापा चौकन्ने विकेट कीपर की तरह घुटनों पर झुके-झुके गुजार देते थे। समझ में नहीं आता था कि अगर यही सब कुछ होना था तो हम जवान काहे को हुए।
साहब अपनी तो सारी जवानी-दीवानी दंड पेलने और भैंस का दूध पीने में गुजर गयी। अब इसे दीवानापन नहीं तो और क्या कहें?
खुली आंखों से गाना सुनने वाले
मेरे वालिद, अल्लाह-बख्शे, थियेटर और गाने के रसिया थे। ऐसे-वैसे! जब मौज में होते और बैठक में हारमोनियम बजाते तो रस्ता चलते लोग खड़े हो जाते। बजाते में आंखें बंद रखते। उस जमाने में शौकीन सुनने वाले भी गाना सुनते वक्त आंखें बंद ही रखते थे ताकि ध्यान केवल सुरों पर ही केन्द्रित रहे। अलबत्ता तवायफ का गाना खुली आंखों से सुनना जायज था। उस्ताद बुंदू खां की तरह वालिद के मुंह से कभी-कभार अनायास गाने का बोल निकल जाता जो कानों को भला लगता था। वैसे बाकायदा गाते भी थे मगर उसके सामने, जो खुद भी गाता हो। ये उस जमाने के शरीफों का ढंग था। शाहिद अहमद देहलवी भी यही करते थे।
आपने तो वालिद साहब का आखिरी जमाना देखा जब वो बिल्कुल बिस्तर पर लेट चुके थे। जवानी में हीराबाई के गाने के आशिक थे। `दादर कंठिया` थी यानी दूसरों में कयामत ढाती थी। `बेशतर मुजरई`, मेरा मतलब है बैठ कर गाती थी। सौ मील के दायरे में कहीं उसका गाना हो, तो सारा काम-धंधा छोड़ कर पहुंच जाते। इत्तफाकन किसी महफिल में न पहुंच पायें तो खुद भी बेचैन-सी रहती। राजस्थानी मांड और भैरव थाट सिर्फ उन्हीं के लिए गाती थी। धैवत और रिषभ सुरों को लगाते वक्त जरा थम-थम के उन्हें झुलाती तो एक समां बांध देती। जैसी चौंचाल तबियत पायी, वैसी ही गायकी थी। दादरा गाते-गाते कभी चंचल सुर लगा देती तो सारी महफिल फड़क उठती। आपको बखूबी मालूम है कि वालिद घर के रईस नहीं थे। इमारती लकड़ी की छोटी सी दुकान थी। मेरी मौजूदा दुकान की एक चौथाई समझिये। बस काम-चलाऊ। लकड़मंडी में किसी की दुकान तीन दिन तक बंद रहे तो उसका ये मतलब होता था कि किसी करीबी रिश्तेदार की मौत हो गयी है। चौथे दिन बंद होने का मतलब था कि खुद उसकी मौत हो गयी है लेकिन वालिद साहब की दुकान सात दिन भी बंद रहे तो लोग चिंतित नहीं होते थे। समझ जाते कि हीराबाई से अपनी गुणग्राहकता की दाद लेने गये हैं, लेकिन उनके बंधे ग्राहक लकड़ी उन्हीं से खरीदते। हफ्ते-हफ्ते भी वापसी का इंतजार करते बल्कि आखिर-आखिर तो ये हुआ कि तीन-चार ग्राहकों को भी चाट लगा दी। वो भी उनकी अर्दली में हीराबाई का गाना सुनने जाने लगे। जब उन्हें पूरी तरह चस्का लग गया तो सवारी का इंतजाम, सेहरा गाने पर बेल और हर अच्छे शेर या मुरकी पर रुपया देने का काम भी उन्हीं के सुपुर्द कर दिया। हीराबाई रुपया उनसे लेती, सलाम वालिद को करती। ये तो मुझे मालूम नहीं कि उन दुखियारों को संगीत की भी कुछ सूझ पैदा हुई कि नहीं लेकिन आखिर में वो लकड़ी खरीदने के लायक नहीं रहे थे। एक ने तो दीवाला निकालने के बाद हारमोनियम मरम्मत करने की दुकान खोल ली। दूसरा इस लायक भी न रहा। कर्जदारों से इज्जत बचा कर बंबई चला गया जहां बगैर टिकिट के रोज थियेटर देखता और मुख्तार बेगम, मास्टर निसार का गाना सुनता था। मतलब यह कि थियेटर में पर्दा खींचने का औनरेरी काम करने लगा। दिन में तुर्की टोपी के फुंदने बेचता था। उस जमाने में दाऊद सेठ भी बंबई में फुंदने बेचा करता था, हालांकि उसने तो हीराबाई का गाना भी नहीं सुना था।
और ये जो आप ठुमरी, दादरा और खयाल में मेरा शौक देख रहे हैं, ये बाबा की ही मेहरबानी है। इकबाल बानो, सुरैया और फरीदा खानम अब मेरी सूरत पहचानने लगी हैं; मगर मियां तजम्मुल कहते हैं कि सूरत से नहीं सफेद बालों से पहचानती हैं। अरे साहब! पिछले साल जो डांस टॉप आया था, उसके शो में खुदा झूठ न बुलवाये हजार आदमी तो होंगे। मियां तजम्मुल का टिकट भी मुझी को खरीदना पड़ा। तीसरा हज करने के बाद उन्होंने अपने पैसे से नाच-गाना और सिनेमा देखना छोड़ दिया है। कहने लगे `इस भीड़ में एक आदमी तुम जैसा नहीं` मैंने शुक्रिया अदा किया `आदाब` तो बोले `मेरा मतलब तुम्हारी तरह झड़ूस नहीं, एक आदमी नहीं, जिसके तमाम बाल और भवें तुम्हारी तरह सफेद हों। भाई मेरे या तो इन्हें काले कर लो या डांस मुजरे से तौबा कर लो।` मैंने कहा `भाई तजम्मुल मुंह काला करने के लिए तुम्हारे साथ इस गली की परिक्रमा मेरे लिए काफी है। मैं एक साथ अपना मुंह और बाल काले नहीं करना चाहता।`
कोई नमाज और मुजरा नहीं छोड़ा
वैसे तो आपको मालूम ही है कि वालिद पाक-साफ, पांचों वक्त नमाज पढ़ने वाले आदमी थे। हम सब भाई-बहन पांचों वक्त नमाज पढ़ते हैं ये सब उन्हीं के कारण है। उन्होंने कभी कोई नमाज और मुजरा नहीं छोड़ा। 1922-23 का जिक्र है जब एक पारसी थ्येट्रिकल कंपनी आई तो एक महीने तक एक ही खेल रोजाना... बिना नागा... इस तरह देखा जैसे पहली बार देख रहे हैं। कुछ ही दिनों में थियेटर वालों से ऐसे घुल-मिल गये कि डॉयलाग में तीन-चार जगह मूड के हिसाब से परिवर्तन करवाया। एक मौके पर दाग के बजाय उस्ताद जौक की गजल राग यमन कल्याण में गवायी। बिब्बू को समझाया कि तुम डॉयलाग के दौरान एक ही वक्त में आंखें भी मटकाती हो, कमर और कूल्हे भी। मौके की जुरूरत के हिसाब से तीनों में से सिर्फ एक हथियार चुन लिया करो। दो मर्तबा हीरो को स्टेज पर पहनने के लिए अपना साफ पाजामा दिया। मैनेजर को आगाह किया कि तुमने जिस शख्स को लैला का बाप बनाया है उसकी उम्र मजनूं से भी कम है। नकली दाढ़ी की आड़ में वो लैला को जिस नजर से देखता है उसे बाप का प्यार हरगिज नहीं कहा जा सकता।
एक दिन पेटी मास्टर गुर्दे के दर्द से निढाल हो गया तो हमारे बाबा हारमोनियम बजाने बैठ गये। हिना के इत्र में बसा रूमाल सर पर डाल लिया और मान लिया कि कोई नहीं पहचानेगा। लाली मिला हुआ सफेद रंग सफेद चमकदार दांत, पतले होंठ, कम हंसते थे मगर जब हंसते थे तो गालों पर लाली और आंखों से आंसू छलकने लगते। हर लिबास उन पर फबता था। चुनांचे शीरीं बात फरहाद से करती मगर नजरें हमारे बाबा पर ही जमाये रखती। थियेटर से उनका ये लगाव मां को बुरा लगता था। हम भाई-बहन सयाने हो गये तो एक दिन मां ने उनसे कहा `अब तो ये शौक छोड़ दीजिये। औलाद जवान हो गयी है` कहने लगे `बेगम! तुम कमाल करती हो। जवान वो हुए हैं और नेक चलनी का उपदेश मुझे दे रही हो।`
उन्हें ये शौक पागलपन की हद तक था। आगा हश्र कश्मीरी को शेक्सपियर से बड़ा ड्रामा लिखने वाला समझते थे। इस तुलना में जान बूझकर डंडी मारने या धार्मिक भेदभाव का जरा भी हाथ न था। उन्होंने शेक्सपियर सिरे से पढ़ा ही नहीं था। इसी तरह अपने दोस्त पंडित सूरज नारायण शास्त्री से इस बात पर लड़ मरे कि दाग देहलवी कालीदास से बड़ा शायर है। तुलना के समय दलील में जोर पैदा करने के लिए उन्होंने कालीदास को एक गाली भी दी। जिसका पंडितजी पर गहरा असर हुआ और उन्होंने दाग देहलवी के शागिर्द नवाब साइल देहलवी तक को कालीदास से बड़ा मानने के लिए अपनी तरफ से प्रतिबद्धता प्रकट की।
जिस दिन आगा हश्र काश्मीरी की मौत की खबर आई तो वालिद की जेबी घड़ी में दस बज रहे थे। दुकान पर ग्राहकों का झुंड था मगर उसी समय दुकान में ताला डाल कर घर आ गये। दिन भर मुंह-औंधे पड़े रहे। पंडितजी ढांढस बंधाने आये तो चादर से मुंह निकाल कर बार-बार पूछते कि पंडितजी! मुख्तार बेगम (जो आगा हश्र काश्मीरी की संभावित बीबी थीं) का क्या बनेगा? पहाड़ सी जवानी कैसे कटेगी? आखिर में पंडितजी ने जवाब दिया। हर पहाड़ को कोई न कोई काटने वाला फरहाद मिल ही जाता है। कला का सुहाग भी कभी उजड़ा है? उसकी मांग तो सदा सिंदूर और सितारों से भरी रहेगी। वालिद जैसे ही सुब्ह घर में दुखी और उदास दाखिल हुए, बरामदे की चिवफें डाल दीं और मां से कहा `बेगम! हम आज लुट गये। आज घर में चूल्हा नहीं जलेगा` सरे-शाम ही कलाकंद खा कर सो गये।
पंडितजी को गाने से बिल्कुल शौक नहीं था लेकिन बला के मुहब्बती और उतने ही दूसरे के दुःख में शरीक होने वाले। दूसरे दिन सुब्ह तड़के वालिद साहब से भी जियादा उदास रोनी सूरत बनाये, आहें भरते आये। शेव भी बढ़ा हुआ था। घर से हलवा पूरी और काशीफल की तरकारी बनवा कर लाये थे। वालिद को नाश्ता करवाया। हमें तो आशंका हो गयी थी कि वालिद के डर के मारे पंडितजी कहीं भदरा (किसी निकट संबंधी की मृत्यु के बाद सर, दाढ़ी और मूंछ के बाल मुंड़वाना) न करवा लें।
आसमान से उतरा, कोठे पर अटका
माफ कीजिये ये किस्सा शायद मैं पहले भी सुना चुका हूं। आप बोर तो नहीं हो रहे? हर बार वर्णन में कुछ अंतर आ जाये तो याददाश्त का कुसूर है गलत बताना उद्देश्य नहीं है। बाबा से कभी हम नाटक देखने की फरमाइश करते तो वो मैनेजर को चिट्ठी लिख देते कि बच्चों को भेज रहा हूं, अगली सीटों पर जगह दे दीजियेगा। बाद को तो मैं खुद चिट्ठी लिख कर बाबा के दस्तखत बना देता था। ये बात उनकी जानकारी में भी थी, इसलिए कि एक दिन झुंझला कर कहने लगे, जाली दस्तखत बनाते हो तो बनाओ मगर गलतियों से तो मुझे शर्मिंदा मत करो। सही शब्द `बराहे-करम` है `बराए-करम` नहीं।
हमेशा मैटिनी शो में भेजते थे। उनका खयाल था कि मैटिनी शो में खेल देखने से होने वाली बरबादी और बिगड़ने का असर, टिकट की कीमत की तरह आधा रह जाता है। सब मुझे बच्चा समझते थे, मगर अंदर कयामत की खद-बद मची थी। मुन्नी बाई जब स्टेज पर गाती तो एक समां बंध जाता। ये वो उस्ताद दाग वाली मुन्नी बाई हिजाब नहीं, जिस पर उन्होंने पूरा महाकाव्य लिख डाला। गजब की आवाज, बला की खूबसूरत। पलक झपकने, सांस भी लेने को जी नहीं चाहता कि इससे भी खलल पड़ता था। क्या शेर है वो अच्छा-सा, आपको तो याद होगा। `वो मुखातिब भी हैं, करीब भी हैं` लुक्मा, `उनको देखूं कि उनसे बात करूं` शुक्रिया, साहब! याददाश्त तो बिल्कुल चौपट हो गयी है। महफिल में पहले तो शेर याद नहीं आता और आ भी जाये तो पढ़ने के बाद पता लगता है कि बिल्कुल गलत मौके का शेर पढ़ा, जैसा कि उस समय हुआ। दोगुनी झुंझलाहट होती है। दरअस्ल उस समय `नज्जारे को ये जुंबिशे-मिजगां भी बार है` (दृश्य को पलक झपकना भी बोझ है) वाला शेर पढ़ना चाहता था। खैर, फिर कभी। आपने उस दिन बड़े अनुभव और पते की बात कही कि पचपन के बाद शेर की सिर्फ एक पंक्ति पर सब्र करना चाहिये। तो साहब! जिस वक्त मुन्नी बाई उस्ताद दाग की गजल गाती तो न उसे होश रहता, न सुनने वालों को।
माना कि दाग आशिक की हैसियत से निरा लौंढिहार है और उसका माशूक बाजारी, मगर इश्क की बातचीत बाजारी नहीं है। जबान जमुना में धुली किला मुअल्ला की है। मुहावरा और रोजाना की बातचीत की जबान दाग की शायरी का ओढ़ना-बिछौना है, मगर गजब ये किया कि बिछाने की चीज ओढ़ कर सार्वजनिक जगह पर लंबे हो गये। हजरते-दाग जहां लेट गये, लेट गये। बकौल आपके मिर्जा वदूद बेग के, दाग का कलाम सरल भाषा के आसमान से उतरा तो कोठे पर अटका, वहां से फिसला तो कूल्हे पे आके मटका। लेकिन ये फिराक गोरखपुरी की सरासर जियादती है कि, `उस शख्स ने हरमजदगी को जीनियस की जगह बिठा दिया।` आपने तो खैर वो समय नहीं देखा, मगर आज भी... किसी भी गायकी की सभा में दाग की गजल पिट नहीं सकती। देखने वालों ने दाग की सर्वप्रियता का वो समय भी देखा है जब मौलाना अब्दुल सलाम नियाजी जैसे अद्वितीय विद्वान को शायरी का शौक चर्राया तो दाग के शिष्य हो गये। श्रद्धा की यह स्थिति कि कोई उस्ताद का शेर पढ़ता तो सुब्हानअल्लाह कह कर वहीं सिजदे में चले जाते।
तो मैं ये कह रहा था कि, जह्रे-इश्क में मुन्नी बाई ने दाग की पांच गजलें गाईं। पांचों लाजवाब और पांचों की पांचों बेमौका। साहब! सन् 47 के बाद रंडियां तो ऐसी गयीं जैसे कभी थीं ही नहीं मगर ये भी सही है कि अब वैसे कद्रदान भी नहीं रहे।
चांदी का कुश्ता और चिन्योट की चिलम
खूब याद आया। हमारे एक जानने वाले थे, मियां नजीर अहमद, चिन्यौट बिरादरी से तअल्लुक रखते थे। चमड़े के कारोबार से सिलसिले में बंबई जाते रहते थे। वहां रेस का चस्का लग गया। घोड़ों से जो कमाई बच रहती, उसी से घर-परिवार का खर्चा चलता। गुलनार तवायफ से निकाह पढ़वा लिया था। हज करने के बाद जो तौबा की सो की। बल्कि मियां नजीर अहमद को भी बहुत-सी इल्लतों से तौबा करवा दी और उनके दिन फिर गये। जो अधेड़ उम्र में तवायफों की सूरत पे फिटकार बरसने लगती है और आवाज फटा बांस हो जाती है वो हालत कतई नहीं थी। मीलाद (धार्मिक प्रवचन के काव्य) खूब पढ़ती थी, आवाज में गजब का दर्द था। जब सफेद दोपट्टे से सर ढांके जामी (एक शायर) की नात (पैगंबर मुहम्मद के सिलसिले की कविता) या अनीस का मर्सिया (शोक काव्य) पढ़ती तो माहौल में आस्था तैर जाती।
हम छुप-छुप कर सुनते। मुहर्रम में काले कपड़े उस पर फबते थे। पाकिस्तान आ गयी थी। बर्नस रोड पर अदीब सहारनपुरी के फ्लैट से जरा दूर तीन कमरों का फ्लैट था। मियां साहब जाड़े में भी मलमल का कुरता पहनते और सुब्ह ठंडे पानी से नहा कर लस्सी पीते थे। मशहूर था कि तुरंत ताकत हासिल करने के हौके में ढेर सारा रूप-रस यानी चांदी का अधकच्चा कुश्ता (उस जमाने की वियाग्रा) खा बैठे थे।
गुलनार की छोटी बहनें मुन्नी और चुन्नी भी आफत की परकाला थीं। आपने भी तो एक बार किसी छोटी इलायची और बड़ी इलायची का जिक्र किया था। बस वैसा ही कुछ नक्शा था। अफसोस अब खानों में बड़ी इलायची का इस्तेमाल खत्म होता जा रहा है। हालांकि इसकी महक, इसका जायका ही और है। आप तो खैर बड़ी इलायची से चिढ़ते हैं, मुझे तो किसी तरफ से भी काकरोच जैसी नहीं लगती। तो साहब, मुन्नी बेगम का चेहरा और भरे-भरे बाजू कुछ ऐसे थे कि कुछ भी पहन ले, नंगी-नंगी सी लगती थी। यू नो व्हाट आई मीन। चुन्नी बेगम फारसी की गजलें गाती थी। लोग बार-बार फरमाइश करते। वो भी आम तौर पर बैठ कर गाती।
कभी दाद कम मिलती या यूं ही तरंग आती तो अचानक उठ खड़ी होती। दोनों सारंगे और तबलची भी अपने-अपने जरी के कामदार पटके कस लेते और खड़े हो कर संगत करते। महफिल में दो तीन चक्कर तो नाचती हुई लगाती, फिर एक जगह खड़ी हो कर फिरकी की तरह तेजी से घूमने लगती। जरदोजी की लश्कारा मारती पिशवाज (लहंगा) हर चक्कर के बाद ऊंची उठती-उठती कमर तक पहुंच जाती। यूं लगता कि जुगनुओं का एक झुंड नाचता हुआ घूम रहा है। लय और चाल तेज होती। किरन से किरन में आग लगती चली जाती, फिर नाचने वाली नजर न आती, सिर्फ नाच नजर आता था।
और जब अचानक रुकती तो पिशवाज सुडौल टांगों पर अमरबेल की तरह तिरछी लिपटी चली जाती। साजिंदे हांफने लगते और खिरन (तबले की सियाही) पर तबलची की तन्नाती उंगलियों से लगता कि खून अब टपका कि अब टपका।
देखिये, मैं फिर भटक कर उसी लानत के मारे बाजार में जा निकला। आपने Nots लेने बंद कर दिये। बोर हो गये? या मैं घटनाओं को दुहरा रहा हूं। वादा है, अब किसी तवायफ को चाहे वो कितनी आफत की परकाला क्यों न हो, अपने और आपके बीच नहीं पड़ने दूंगा। साहब, हमारी बातें ही बातें हैं।
बातें हमारी याद रहें, फिर बातें न ऐसी सुनियेगा
परसों आप लंदन चले जायेंगे। मीर ही ने अस्थिर दुनिया पर अपने एक शेर में यारों की महफिल को जाने वाली महफिल कहा है, कि यहां हर यार मुसाफिर और हर साथ बीतने वाला है। तो साहब! जिक्र मियां नजीर अहमद साहब का हो रहा था। मियां साहब कानपुर के 104 डिग्री टेंप्रेचर से घबराकर मई का महीना हमेशा से चिन्यौट की 104 डिग्री टेंप्रेचर की गर्मी में गुजारते थे। उनका दावा था कि चिन्यौट की लू कानपुर की लू से बेहतर होती है। हम लोग आपस में शेक्सपियर के गीत की दुर्गति बनाते थे,
'Blow thou Chinyot loo'
"Thou art not so unkind
As local specimen`s of mankind,
who could not care who is who!"
मियां साहब अक्सर कहते थे कि प्रकृति का कोई भी काम अकारण नहीं होता। चिन्यौट की गर्मी में साल भर के इकट्ठे, गंदे विचार पसीने के रास्ते बह जाते हैं। रोजे कभी रेस और बीमारी की हालत में भी नहीं छोड़े। मई जून में भी एक डली लाहौरी नमक की चाट कर हुक्के के आंतों तक उतर जाने वाले कश से रोजा खोलते।
पहले तीन-चार बार यूं ही चैक करने के लिए गुड़गुड़ाते जैसे संगत करने से पहले सितार बजाने वाले मिजराब से तारों की कसावट को और तबलची हथौड़ी से तबले के रग-पट्ठों को ठोक बजा कर टैस्ट करता है। फिर एक ही सिसकी भरे कश में सारे तंबाकू की जान निकाल लेते, बल्कि अपनी जान से भी गुजर जाते। सु सु सु, शूअ शूअ, सू सू, वू वू वू...वह। हाथ पैर ढीले पड़ जाते। ठंडे पसीने आने लगते। पुतलियां ऊपर चढ़ जातीं। पहले बेसत, फिर बेसुध हो कर वहीं पड़े रह जाते। गुलनार उन्हें अनार का शर्बत पिला कर नमाज के लिए खड़ा करती।
हुक्के की नय पर चमेली का हार और नेचे पर खस लिपटी होती। तंबाकू तेज और कड़वा बेबना पसंद करते थे। किवाम लखनऊ से मंगवाते थे। चांदी की मुंहनाल दिल्ली के कारीगर से गढ़वायी थी। मिट्टी की चिलम और तवा हमेशा चिन्यौट से आता था। फर्माते थे, बादशाहो! इस मिट्टी की खुशबू अलग से आती है।
लाहौर में आज बसंत है।
मियां नजीर अहमद संक्रांति के दिन कड़कड़ाते जाड़े में मलमल का कुरता पहने, नंगे सर छत पर पतंग जुरूर उड़ाते थे। यह भी उनका भोलापन ही था कि मलमल के कुरते को जवानी का सर्टिफिकेट बल्कि पोस्टर समझ कर पहनते थे। मियां साहब लिहाफ सिर्फ उस वक्त ओढ़ते जब हिल-हिला कर जाड़ा-बुखार चढ़ता। यू.पी. के जाड़े को कुछ नहीं समझते थे। हिकारत से कहते, ये भी कोई सर्दी है। दरअस्ल वो लाहौर के जाड़े के बाद सिर्फ मलेरिया के जाड़े के कायल थे।
आपके मिर्जा अब्दुल वुदूद बेग भी तो यही इल्जाम लगाते हैं ना कि यू.पी. के कल्चर में जाड़े को रज के सैलिब्रेट करने की कोई सोच ही नहीं, जबकि पंजाब में गर्मी के इस तरह चोंचले और नखरे नहीं उठाये जाते जिस तरह यू.पी. में। साहब यू.पी. में जाड़े और पंजाब में गर्मी को केवल सालाना सजा के तौर पर बर्दाश्त किया जाता है। कमो-बेश इसी तरह का अंतर बरसात में दिखाई देता है। पंजाब में बारिश को केवल इसलिए सह लेते हैं कि इसके बगैर फस्लें नहीं उग सकतीं। जबकि यू.पी. में सावन का एकमात्र उद्देश्य ये होता है कि कड़ाही चढ़ेगी। पेड़ों पर आम और झूले लटकेंगे। झूलों में कुंवारियां। पंजाब में पेड़ों पर आम या कुछ और लटकने की खुशी केवल तोतों को होती है।
और इंग्लैंड में बारिश का फायदा, जो साल के 345 दिन होती है (बाकी बीस दिन बर्फ पड़ती है) आप यह बताते हैं कि इससे शालीनता और विनम्रता को बढ़ावा मिलता है। मतलब ये कि जो गालियां अंग्रेज एक दूसरे को देते, अब मौसम को देते हैं। संक्रांति के दिन मियां नजीर अहमद पेंच तो क्या खाक लड़ाते, बस छह-सात पतंगें कटवा और डोर लुटवा कर अपना... और अपनों से जियादा दूसरों का... जी खुश कर लेते थे। हर पतंग कटवाने के बाद लाहौर के मांझे को बेतहाशा याद करते। अरे साहब, पतंग कटती नहीं तो और क्या। पेच कानपुर में लड़ाते और किस्से लाहौर के बसंत के रंगीले आसमान के सुनाते जाते। आंखें भी अच्छी खासी कमजोर हो चली थीं, लेकिन चश्मा केवल नोट गिनने और मछली खाते समय सावधानी और परेशानी के कारण लगा लेते थे। चश्मा न लगाने का एक नतीजा ये निकलता कि जिस पतंग को वो प्रतिस्पर्धी की पतंग समझ कर बेतहाशा खेंच करते, वो दरअस्ल उनकी अपनी ही पतंग निकलती जो कुछ क्षणों बाद विरोधी रगड़ से कट कर हवा में लालची की नीयत की तरह डांवाडोल होने लगती। डोर अचानक लिजलिजी पड़ जाती तो अचानक उन्हें पता चलता।
कटी पतंग तिरी डोर अब समेटा कर
मियां साहब अक्सर फर्माते कि पतंग और कनकव्वे बनाने में तो बेशक लखनऊ वालों का जवाब नहीं, लेकिन बादशाहो! हवा लाहौर ही की बेहतर है। सच पूछो तो पतंग लाहौर ही की हवा में पेटा छोड़े (झोल खाये) बिना डोर पे डोर पीती और जोर दिखाती है। पतंग के रंग और मांझे के जौहर तो लाहौर ही के आसमान में खुलते और निखरते हैं। कानपुर में वो काटा इस तरह कहते हैं जैसे क्षमा मांग रहे, बल्कि शोक व्यस्त कर रहे हों। लाहौर में वो काटा में पिछड़े हुए पहलवान की छाती पर चढ़े हुए पहलवान का नारा सुनायी देता है बल्कि पसीने में डूबे हुए बदन से चिमटी हुई अखाड़े की मिट्टी तक दिखाई देती है।
मियां साहब की चर्खी लाहौर ही के एक जिंदादिल पकड़ते थे, जो हलीम कॉलेज कानपुर में लेक्चर थे। अब्दुल कादिर नाम था। शायरी भी करते थे। दोनों मिल कर पतंग को लंतरानी का मांझा और यादों की उलझी-सुलझी तल चांवली (दुरंगी) डोर ऐसी पिलाते कि चर्खियां खाली हो जातीं और पतंग आसमान पे तारा हो कर लाहौर की चौबुर्जी पे जा निकलती।
यहां से बिशारत का बयान खत्म और ख्वाबे-नीम रोज (दोपहर का सपना) शुरू होता है।
दोपहर का सपना : अब यह चढ़ी पतंग जो कुछ रावी पार देखती, उसका हाल कुछ इन दोनों लाहौर के जिंदादिलों, कुछ बिशारत और रहा-सहा तीनों से दुखी किस्सा कहने वाले की जबानी सुनिये।
आज लाहौर में बसंत है। रंग हवा से यूं टपके है जैसे शराब चुवाते हैं। बसंत और बरसात में लाहौर का आसमान आपको कभी बेरंग, उकताया हुआ और निचला नजर नहीं आयेगा। लाड़ले बच्चे की तरह हर वक्त चीख-चीख कर अपनी मौजूदगी का अहसास दिलाता है और ध्यान खींचता है कि इधर देखो, इस वक्त मुझे एक और शोखी सूझी है। कैसे कैसे रंग बदलता है। कभी तारों भरा... बच्चों की आंखों की तरह जगमग-जगमग, कभी प्रकाशवर्षों की दूरी पर आकाशगंगा-सा झिलमिलाता, कभी सांवली घटाओं से सोने के तार-सा बरसता हुआ, कभी तांबे की तरह तपता-तपता एकाएकी अमृत बरसाने लगा और सूखी खेतियों और उदास आंखों को जल-थल कर गया। अभी कुछ और था, अभी कुछ और है। घड़ी भर को चैन नहीं। कभी कृपालु, कभी अनिष्टकारी।
पल में अग्निकुंड, पल में नील-झील, पल भर पहले बीहड़ रेगिस्तानों की धूल-धमास उठाये, लाल-पीली आंधियों से भरा बैठा था, फिर आप-आप धरती के गले में बांहें डाल कर खुल गया, जैसे कुछ हुआ ही न था। समुद्री झाग जैसे बादलों के बजरे पिघले नीलम में फिर तैरने लगे। कल शाम ढले जब क्षितिज लाल हुआ तो यूं लगा जैसे आसमान और धरती का मलगिजा संगम जो सूरज को निगल गया, अब यूं ही तमतमाता रहेगा। फिर गर्म हवा एकाएकी थम गयी, सारा वातावरण ऐसे दम साधे खड़ा था कि पत्ता नहीं हिलता था। देखते-देखते बादल घिर आये और पिछले पहर तक बिजली के त्रिशूल आसमान पर लपकते, लहराते रहे। पर आज दोपहर से न जाने क्या दिल में आई कि अचानक ऐसा मोरपंखी नीला हुआ कि देखे से रंग छूटे। पहर रात गये तक अपनी धुली-धुलाई नीलाहटें रावी की चांदी में घोलता रहा।
लाहौर के आसमान से अधिक सुंदर और अधिक रंगों से भरी, चंचल कोई चीज है तो वो है सिर्फ लाहौर की फूलों भरी धरती, चार सौ साल पहले भी ये धरती और आसमान ऐसे ही थे। तभी तो नूरजहां ने जान के बदले में लाहौर की जन्नत में दो गज जमीन खरीद ली, मगर लाहौर के जिंदादिल लोगों ने लाहौर को इस कदर चाहने वाले को याद रखने की तरह याद न रखा, नूरजहां की कब्र में अब अबाबीलों का डेरा है।
दोपहर का सपना तो खत्म हुआ। अब बाकी कहानी बिशारत की जबानी उन्हीं के अंदाज में सुनिये। जहां तक कलम और याददाश्त साथ देगी हम उनका खास मुहावरा और लहजा... और लहजे की ललक और लटक ज्यों की त्यों बरकरार रखने की कोशिश करेंगे। वो एक बार कहानी सुनाना शुरू करें तो विवादी स्वर भी अपना अलग सम्वाद करने लगते हैं। हुंकार भरने की भी मुहलत नहीं देते। मिर्जा ऐसे शिकंजे में जकड़े जाने को कहानी पाठ कहते हैं।
तो साहब! मियां नजीर अहमद का मकान भी देखने गया। कैसी-कैसी यादें जुड़ीं हैं मकान से, मगर अब पहचाना नहीं जाता। अच्छी खासी फेस लिफ्टिंग हुई है। तीन एयरकंडीशनर चल रहे थे। बरामदे में एक बूढ़े सरदार जी कंघा हाथ में पकड़े जूड़ा बांध रहे थे। सिर्फ यही ऐसा मकान है जो पहले से बेहतर दिखाई दिया। मैंने अपना परिचय दिया और अपने आने का कारण बताया तो खुशी-खुशी अंदर ले गये। बड़ी आवभगत की। देर तक अपनी जन्मभूमि गुजरांवाला का हाल पूछते रहे। मैं गढ़-गढ़ के सुनाता रहा, और क्या करता? एक साल पहले मिनी बस में गुजरांवाला से गुजरा था, उस एक स्नेप शाट को एनलार्ज करके उर्दू का बैस्ट-सेलर यात्रा वृतांत बना दिया।
गुजरांवाला गुजरांवाला है : सरदार जी कुरेद-कुरेद कर बड़े चाव से पूछते रहे और मैं बड़े भरोसे के साथ गुजरांवाला का झूठा सच्चा हाल सुनाता रहा। उन्होंने आवाज दे कर अपने बेटों, पोतों और बहुओं को बुलाया, इधर आओ। बिशारत जी को सलाम करो। ये नवंबर में अपने गुजरांवाला हो कर आये हैं। इधर मेरी ये मुसीबत कि मैंने लाहौर के अलावा सिर्फ एक कस्बा टोबा टेक सिंह करीब से देखा है। वहां मेरा एक रिश्तेदार, अक्खन खाला का पोता, एग्रीकल्चर बैंक में तीन महीने नौकरी करने के बाद, ग्यारह महीने से निलंबित पड़ा था, बस इसी कस्बे के भूगोल को ध्यान में रख कर गुजरांवाला को याद करते हुए सरदार जी की प्यास बुझाता रहा।
आश्चर्य इस बात पर हुआ कि सरदार जी मेरे झूठे विस्तृत विवरण से न केवल संतुष्ट हुए बल्कि एक-एक बात की पुष्टि भी की। मैंने उस नहर का भी काल्पनिक चित्रण कर दिया जिसमें सरदार जी कपड़े उतार कर पुल पर से छलांग लगाते थे और कुंवारी भैंसों के साथ तैरा करते थे। मैंने उनके उस प्रश्न के उत्तर में यह भी स्वीकार किया कि पुल की दायीं तरफ कैनाल के ढलवान पर जिस टाहली थले वो अपनी हरक्यूलिस साइकिल और कपड़े रखते थे, वो जगह मैंने देखी है। यहां से एक बार चोर उनके कपड़े उठा कर ले गया मगर साइकिल छोड़ गया। इस घटना के बाद सरदार जी ने एहतियातन साइकिल लानी छोड़ दी।
मैंने जब ये टुकड़ा बताया कि अब वो शीशम बिल्कुल सूख गया है और कोई दिन जाता है कि बूढ़े तने पर नीलामी का आरा चल जाये तो बूढ़े सरदार जी की आंखें डबडबा आईं। उनकी मंझली बहू ने जो बहुत सुंदर और शोख थी मुझसे कहा, बाबू जी को अभी पिछले महीने ही हार्ट अटैक हुआ है। आप उन्हें मत रुलायें अंकल। उसका मुझे अंकल कहना जरा भी अच्छा नहीं लगा, और यह तो मुझे आप ही से पता लगा कि नहर में भैंस नहीं तैर सकती चाहे वो कुंवारी ही क्यों न हो।
सरदार जी मेरी किसी बात या सुंदर वाक्य पर खुश होते तो मेरी जांघ पर हाथ मारते और अंदर से लस्सी का एक गिलास और मंगा कर पिलाते। तीसरे गिलास के बाद मैंने टॉयलेट का पता पूछा। अपनी जांघों को उनके कृपापूर्ण हाथों से बचाया और बातचीत में एहतियात बरतनी शुरू कर दी कि बेध्यानी में कोई शोख वाक्य न निकल जाये। सरदार जी कहने लगे, इधर अपना ट्रांसपोर्ट का बड़ा शानदार बिजनेस है। सारा हिंदुस्तान घूमा हूं, पर गुजरांवाला की बात ही और है। यहां की मकई और सरसों के साग में वो स्वाद, वो सुगंध नहीं और गुड़ तो बिल्कुल फीका फूक है। उन्होंने यहां तक कहा कि यहां के पानी में पानी बहुत है जबकि गुजरांवाला के पानी में शराब की ताकत है। वो शरीर को शक्ति देने वाली हर वस्तु की उपमा शराब से देते थे।
विदा होते हुए मैंने कहा कि मेरे योग्य कोई सेवा हो तो निसंकोच कहें। बोले, तो फिर किसी आते जाते के हाथ लाहौरी नमक के तीन-चार बड़े से डले भेज देना। उनकी इच्छा थी कि मरने से पहले एक बार अपने बेटों पोतों को साथ लेकर गुजरांवाला जायें और अपने मिडिल स्कूल के सामने खड़े होकर फोटो बनवायें। उपहार में उन्होंने मुझे Indian Raw Silk का छोटा थान दिया। चलने लगा तो मंझली बहू ने मुझे आदाब किया। इस बार अंकल नहीं कहा।
सरदार जी ने मुझे सारा घर दिखाया। बहुओं ने लपक-झपक बिखरी हुई चीजें बड़े करीने से गलत जगह पर रख दी थीं। जो चीजें जल्दी में रखी न जा सकीं उन्हें समेट कर बिस्तर पर डाल दिया और ऊपर सफेद चादर डाल दी। इसलिए घर में जहां जहां साफ चादर नजर आई मैं ताड़ गया कि नीचे काठ कबाड़ दफ्न है। साहब Curiosity भी बुरी बला है। एक कमरे में मैंने नजर बचा कर चादर का कोना सरकाया तो नीचे से सरदार जी के मामा निहायत संक्षिप्त कच्छा पहने केश खोले बरामद हुए। उनकी दाढ़ी इतनी लंबी और घनघोर थी कि कच्छे के तकल्लुफ की जरा भी जुरूरत नहीं थी।
घर का नक्शा बदल गया है। सह्न अब पक्का करवा लिया है। चमेली की बेल और अमरूद का पेड़ नहीं दिखाई दिया। यहां मियां साहब शाम को छिड़काव करके मूढ़े बिछवा दिया करते थे। अपने लिए खराद पर बने चिन्यौट के रंगीन पायों वाली चारपायी बिछवाते थे। वतन की याद जियादा सताती तो हमें लोकल गंडीरियां खिलाते। उनका गला लायलपुर की गंडीरियों की याद करके रुंध जाता। चांदनी रातों में अक्सर ड्रिल मास्टर की आवाज में मिर्जा साहिबां और जुगनी चिमटा बजा कर सुनाते। खुद भी रोते और हमें भी रुलाते। यूं हमारे रोने का कारण दूसरा होता। कुछ देर बाद खुद ही अपने बेसुरेपन का अहसास होता तो चिमटा बड़ी खिन्नता से सह्न में फेंक कर कहते कि बादशाहो! कानपुर के चिमटे गाने की संगत के लिए नहीं, चिलम भरने के लिए ही स्यूटेबिल हैं।
सरदार जी से झूठ-सच बोल कर बाहर निकला तो सारा नास्टेल्जिया हिरन हो चुका था। पुराना मकान दिखाने मुझे इनआमुल्ला बरमलाई ले गये थे। वापसी में एक गली के नुक्कड़ पर मिठाई की दुकान के सामने रुक गये। कहने लगे, रमेश चंद अडवानी एडवोकेट के यहां भी झांकते चलें। जेकबाबाद का रहने वाला है, सत्तर का है, मगर लगता नहीं। अस्सी का लगता है। जबसे सुना है, कोई साहब कराची से आये हैं, मिलने के लिए तड़प रहा है। जेकबाबाद और सक्खर की खैरियत मालूम करना चाहता है। सितार पर तुम्हें काफियां सुनायेगा, अगर तुमने प्रशंसा की तो और सुनायेगा, न की तो भी और सुनायेगा कि शायद ये बेहतर हों। शाह अब्दुल लतीफ भट्टायी का रसालू जबानी याद है। हिंदी सीख ली है मगर जोश में आता है तो अजीब प्रेत-भाषा में बात करने लगता है। खिसका हुआ है मगर है दिलचस्प।
तो साहब अडवानी से भी बातचीत रही। बातचीत क्या Monologue कहिये। `कंधा भी कहारों को बदलने नहीं देते` वाला मामला है। उन्होंने यह पुष्टि चाही कि जेकबाबाद अब भी उतना ही हसीन है या नहीं, जैसा वो जवानी में छोड़ कर आया था? यानी क्या अब चौदहवीं को पूरा चांद होता है? क्या अब भी सिंध नदी की लहरों में लश-लश करती मछलियां दूर से ललचाती हैं? मौसम वैसा ही हसीन है? (यानी 115 डिग्री गर्मी पड़ती है या उस पर भी उतार आ गया है) और क्या अब भी खैरपुर से आने वाली हवायें लू से पकती हुई खजूरों की महक से बोझल होती हैं? सब्बी में सालाना दरबार मेला मवेशियां लगता है कि नहीं।
मैंने जब उसे बताया कि मेला मवेशियां में अब मुशायरा भी होता है तो देर तक मेले के पतन पर अफसोस करता रहा और पूछने लगा कि सिंध में अच्छे मवेशी इतने कम हो गये? उसे गंगा जमनी मैदान जरा नहीं भाता। कहने लगा, सांईं। हम सीधे, खुरदरे, रेगमाली, रेगिस्तानी लोग हैं। अपने रिश्ते, प्यार और संबंधों पर काई नहीं लगने देते। आप सफाचट दोआबे और दलदली मैदानों में रहने वाले, आप क्या जानें कि रेगिस्तान में गर्म हवा रेत पर कैसी चुलबुली लहरें, कैसे कैसे चित्र बना-बना के मिटाती और मिटा-मिटा के बनाती है। सांईं, हमारा सारा Sand Scape अंधड़, आंधियां तराशती हैं।
गर्म हवा, झक्कड़ और जेठ के मीनार बगूले सारे रेगिस्तान को मथ के रख देते हैं। आज जो रेत की वादी है, कल वहां से लाल आंधी की धूम सवारी गुजरती थी। जलती दोपहर में भूबल, धूल बरसाती रेत पहाड़ियां। पिछले पहर की ठंडी होती मखमल बालू पर धीमी-धीमी पवन पखावज, जवान बलवान बांहों की मछलियों की तरह रेत की उभरती फड़कती लहरें, एक लहर दूसरे लहर जैसी नहीं। एक टीला दूसरे टीले से, एक रात दूसरी रात से नहीं मिलती। बरसात की रातों में जब थोथे बादल सिंध के रेत सागर से आंख मिचौली खेलते गुजरते हैं तो उदास चांदनी अजब इंद्रजाल रचती है। जिसको सारा रेगिस्तान एकसार लगता है, उसकी आंख ने अभी देखना ही नहीं सीखा, सांईं। हम तुम्हारे पैरों की धूल, हम रेत महासागर की मछली ठहरे। आधी रात को भी रेत की तहों में उंगली गड़ा के ठीक-ठाक बता देंगे कि आज पोछांड़ू कहां था। (यानी टीले का वो हिस्सा जिस पर सूरज की पहली किरन पड़ी) दोपहर को हवा का रुख क्या था। ठीक इस समय शहर की घड़ियों में क्या बजा होगा। धरती ने हमें फूल, फल और हरियाली देते समय हाथ खींच लिया तो हमने इंद्रधनुष के सारे चंचल रंगों की पिचकारी अपनी अजरकों, रल्लियों, ओढ़नियों, शलूकों, चोलियों और सजावटी टाइलों पर छोड़ दी।
वो अपनी आंसू-धार पिचकारी छोड़ चुका तो मैंने बाहर आकर इनामुल्ला बरमलाई से कहा, भाई मेरे, बहुत हो चुकी, ये कैसा हिंदू है जो गंगा-किनारे खड़ा रेगिस्तान के सपने देखता है।
कहीं दिल और कहीं नगरी है दिल की
ये सारी उम्र का वनवास देखो
ऐसा ही है तो उसे ऊंट पर बिठा कर बीकानेर ले जाओ और किसी टीले या कीकर के ठूंठ पर बिठाओ कि `ऊपर छांव नहीं-नीचे ठांव नहीं।` अबके तुमने मुझे किसी अतीत में खोये आदमी से मिलाया तो कसम खुदा की लोटा, डोर, चटाई, नजीर अकबराबादी की किताब और फ्रूटसाल्ट बगल में मार कर बियाबान को निकल जाऊंगा और कान खोल कर सुन लो, अब मैं किसी ऐसे व्यक्ति से हाथ भी मिलाना नहीं चाहता जो मेरा हमउम्र हो, साहब! मुझे तो आपसे कै आने लगी। आपके मिर्जा साहब ने कुछ गलत नहीं कहा था कि अपने हमउम्र बूढ़ों से हाथ मिलाने से आदमी की उम्र हर बार एक साल घट जाती है।
मुल्ला आसी भिक्षू : कानपुर में जी भर कर घूमा। एक एक से मिला। एक जमाना आंखों के आगे से गुजर गया मगर यात्रा की उपलब्धि मुल्ला आसी अब्दुल मन्नान से भेंट रही। अब्दुल मन्नान के नाना अपने हस्ताक्षर से पहले आसी लिखा करते थे। उन्होंने उचक लिया और सातवीं क्लास से अपना नाम आसी अब्दुल मन्नान लिखना शुरू कर दिया। आठवीं में ही दाढ़ी निकल आई थी। दसवीं तक पहुंचते पहुंचते मुल्ला आसी कहलाने लगे। ये ऐसा चिपका कि इसी नाम से पहचाने और पुकारे जाते हैं। नेम प्लेट पर भी A. Asi A. Mannan लिखा है।
अजीब तमाशा है। इकहरा गठा हुआ बदन। खुलता हुआ गेहुंआ रंग, मंझोला कद। आजानुभुज यानी असाधारण लंबे हाथ, जैसे बंदर के होते हैं। कोट हैंगर के से ढलके हुए कंधे। घने बाल अब सफेद हो गये हैं मगर घुंघरालापन बाकी है। बाहर निकली हुई मछली जैसी गोल गोल आंखें, दायीं आंख और मुंह के दायें कोने में बचपन में ही Tick था। अब भी इसी तरह फड़कते रहते हैं। दाढ़ी निकलने के दस साल बाद तक रेजर नहीं लगने दिया। सच पूछिये तो दाढ़ी से बहुत बेहतर लगते थे। लंबी गर्दन, छोटा और गोल मटोल चेहरा, जिस रोज दाढ़ी मुंडवा आये तो ऐसे लगे जैसे हुक्के पर चिलम रक्खी है।
मुल्ला आसी खुद कहते हैं कि समझ आने और बालिग होने के बाद मैंने कभी नमाज नहीं पढ़ी। अलबत्ता कहीं नमाज के समय फंस जाता और लोग जिद करते तो पढ़ा देता था। दाढ़ी का ये बड़ा हैंडीकैप था। आखिर तंग आकर मुंडवा दी। जबसे उन्होंने बुद्धिज्म का ढोंग रचाया, लोगों ने मुल्ला भिक्षू कहना शुरू कर दिया। अभी तक `र` साफ नहीं बोल सकते थे मगर उनके मुंह से अच्छा लगता है। बातचीत का लहजा जैसे मिसरी की डली। सनकी जैसे तब थे, अब भी हैं, बल्कि और उभार पर हैं। करीब से देखा तो देखता-ही रह गया, जीवन ऐसे भी गुजारा जा सकता है। सारा काम छोड़ कर साये की तरह साथ रहे, मजा आ गया, क्या बताऊं ऐसी दरिया मुहब्बत, ऐसा बरखा प्यार।
यकीन कीजिये सन् 48 में जैसा छोड़ कर आये थे वैसे के वैसे ही हैं। पिचहत्तर से कुछ ऊपर ही होंगे, लगते नहीं। मैंने पूछा, इसका क्या राज है? बोले कभी शीशा नहीं देखता, कसरत नहीं करता। कल के बारे में नहीं सोचता। आखिरी बात उन्होंने कुछ जियादा ही बढ़ा-चढ़ा कर कही, इसलिए कि कल तो बाद की बात है, ऐसा लगता है वो आज के बारे में भी नहीं सोचते। जिस पीड़ा से जीवन शुरू किया, उसी से बिता दिया। बड़ी गर्मजोशी से मिले। सीने से क्या लगाया, अचानक Twenties में पहुंचा दिया। ऐसा लगा जैसे अपने ही जवान स्वरूप से भेंट हो गयी है। वैसे मैं आपकी इस राय से सहमत हूं कि कुछ लोग इस तरह सीने से लगते हैं कि उसके बाद आप वो नहीं रहते जो इससे पहले थे लेकिन आपने जिस चपड़कनात बुजुर्ग की मिसाल दी, मैं उससे सहमत नहीं, दिल नहीं ठुकता।
आप आज भी मुल्ला आसी को हर एक का काम, हर तरह का काम करने के लिए तैयार पायेंगे, सिवाय अपने काम के। शहर में हर अफसर से उनकी जान पहचान है। किसी को आधी रात को भी सिफारिश की जुरूरत हो तो वो साथ हो लेते हैं। कोई बीमार बेआसरा हो तो दवा-दारू, हाथ-पैर की सेवा के लिए पहुंच जाते हैं। होम्योपैथी में भी दख्ल रखते हैं। होम्योपैथिक दवा में असर हो या न हो उनके हाथ में शिफा जुरूर है। बीमार घेरे रहते हैं। मशवरे और दवा का कुछ नहीं लेते।
जवानी में भी ऐसे ही थे। इलाहदीन के जिन्न की तरह हर काम करने के लिए तैयार। बला के इंतजाम करने वाले। सन् 47 की घटना है, गर्मियों के दिन थे, मियां तजम्मुल हुसैन को दूर की सूझी, किसलिए कि उनके वालिद कलकत्ता गये हुए थे। कहने लगे यार मुल्ला `मुजरा देखे अरसा हुआ, आखिरी मुजरा जमाल साहब के बेटे की शादी पर देखा था, सात महीने होने को आये, दस बारह जने मिल कर चंदा कर लेंगे। बस तुम बिल्ली की गर्दन बल्कि पैरों में घुंघरू बांध कर लिवा लाओ तो मजा आ जाये।`
कोर्निश बजा लायेगी : शनिवार को देखा कि दोपहर की नमाज के बाद अपनी जिम्मेदारी को इक्के में बिठाये लिए आ रहे हैं। खुद इक्के के पर (तख्ते का बाहर निकला किनारा) पे टिके हुए थे। पानदान, तबले, सारंगी, चौरासी (घुंघरू) और बुढ्ढे तबलची को अपने हाथों से उतारा। मेरे कान में कहने लगे, दाढ़ी के कारण तवायफ को मेरे साथ आने में संकोच था। रुपया तो खैर हम सबने चंदा करके इकट्ठा किया मगर बाकी सारा इंतजाम उन्हीं पर था। इसमें शहर के बाहर इस सरकारी बंगले का चयन और अनुमति भी सम्मिलित थी जहां ये महफिल होनी थी। डिप्टी कलक्टर से उनकी यारी थी।
दस्तरख्वान पर खाना उन्होंने अपने हाथ से चुना। कानपुर से सफेद और लाल रसगुल्लों के कुल्हड़ स्वयं खरीद कर लाये, मीठे में मिला कर खाने के लिए मलाई खासतौर से लखनऊ से मंगवायी। उनका कहना था कि गिलौरियां भी वहीं की एक बांकी तंबोलिन के हाथ की हैं। करारे पान की गिलौरी इस तरकीब से बनाती है कि किसी के खींच के मारे तो बिलबिला उठे। गिलौरी टुकड़े-टुकड़े भले ही हो जाये लेकिन मजाल है कि खुल जाये। दस्तरख्वान बिछने से जरा पहले अपनी निगरानी में तंदूरी रोटी पर गुड़ और नमक का छींटा दिलवाया। कानपुर में इसे छींटे की रोटी कहते थे। दो ताजा कलई की हुईं सिलफचियों में नीम के पत्ते डाल कर रखवा दिये। मुजरे और दावत का सारा इंतजाम कर दिया। सब खाने पर बैठ गये तो किसी ने पूछा मुल्ला कहां हैं? ढुंडैया पड़ी। कहीं पता न था। महफिल तो हुई मगर उकतायी हुई रही। दूसरे दिन उनसे पूछा गया तो तुनक कर बोले, आपने मुझे इन्वाइट कब किया था। मेरे सुपुर्द इंतजाम किया गया था, सो मैंने कर दिया।
क्या छिपकली दूध पिलाती है : स्वभाव का सदैव से यही रंग रहा। जो टेढ़ और सनक तब थी, वो अब भी है। कुछ बढ़ ही गयी है। एक घटना हो तो सुनाऊं। पढ़ाई का जमाना था। वो कोई असामान्य बौड़म नहीं थे। मेरा मतलब है सामान्य श्रेणी के नार्मल नालायक थे। परीक्षाओं में तीन महीने रह गये थे, दिसंबर का महीना-कड़कड़ाते जाड़े। उन्होंने क्रिसमस के दिन से पढ़ाई की तैयारियां प्रारंभ कीं।
वो इस तरह कि आंखों और दिमाग को तरावट पहुंचाने के लिए सर मुंडवा कर तेल से सिंचाई की, जो एक मील दूर से पहचाना जाता था कि विशुद्ध सरसों का है। पहली ही रात उनके सर पर नजला गिरा तो दूसरे दिन चहकते हरे रंग का रुई का टोपा सिलवाया जिसे पहन कर पान खाते तो बिल्कुल तोता लगते थे। वृहस्पतिवार को तड़के सफेद बकरी की सिरी और कलेजी खरीद लाये। सिरी पकवा कर शाम को फकीरों को खिलाई। उस जमाने में बेपर्दगी के अंदेशे से मुहल्ले के मर्दों को छत पर चढ़ना मना था। इसके बावजूद छत पर खड़े हो कर देर तक चील, चील, चील, पुकारा किये, फिर हवा में उछल-उछल कर चीलों को कलेजी की बोटियां और खुद को पर्दे वाले घरों के मर्दों की गालियां खिलवायीं। दोपहर को बान की चारपायी बाहर निकाली और औटते पानी से उन खटमलों को जिन्हें बरसों अपना खून पिला कर बड़ा किया था, अंतिम स्नान कराया, फिर चारपायी धूप में उल्टी करके मुर्दों और अधमरों पर ढेरों गर्म मिट्टी डाली।
मच्छरदानी के बांस में झाड़ू बांध कर ततैया के छत्ते और जाले उतारे। रात को अलग-अलग समय पर छत पर टार्च से रौशनी डाल-डाल कर छिपकलियों की संख्या की गिनती की। उनमें तीन छिपकलियां शायद छिपकले थे। शायद इसलिए कि मिर्जा के कथानानुसार पक्षियों, छिपकलियों, मछलियों, पंक्स और उर्दू शब्दों में नर-मादा पहचान पाना मनुष्य के बस का काम नहीं। पक्षी, छिपकलियां, मछलियां और पंक्स तो फिर भी शारीरिक आवश्यकताओं के वशीभूत अपने-अपने विपरीत लिंग को पहचान कर क्रिया और कार्य करते हैं लेकिन उर्दू शब्दों के केस में तो यह सुविधा भी उपलब्ध नहीं। उनके लिंग तय करना और स्त्री-पुरुष की पहचान करना, टटोलना संभव ही नहीं।
उस्ताद जलील मानकपुरी ने कभी एक शोधपरक लेख स्त्रीलिंग और पुलिंग पर लिखा था, जिनमें सात हजार शब्दों के यौन-परीक्षण के बाद हर एक के बारे में दो टूक फैसला कर दिया था कि वे स्त्री हैं या पुरुष। साथ ही उन शब्दों की भी पहचान कर दी थी, जिनके लिंग के बारे में असमंजस था और जिन पर लखनऊ वाले और दिल्ली वाले एक-दूसरे का सर फोड़ने को तैयार हो जाते थे।
वो तीन रंगीन स्वभाव के छिपकले, जिनके कारण से यह बात निकली, टर्राते थे। रात भर डबलडैकर बने छत पर छुटे फिरते थे, जिसके कारण पढ़ायी और मानसिक शांति के भंग होने का भय था। इन सब कुकर्मियों को उनके अंतिम बुरे परिणाम तक पहुंचाने के लिए वो एक दोस्त से डायना एयरगन मांग कर लाये, मगर चलाई नहीं क्योंकि उनके अनुसार, लिबलिबी पर हाथ रचाते ही ध्यान आया कि उनमें कइयों के दूध पीते बच्चे हैं।
मैंने टोका कि यार, छिपकली अपने बच्चों को दूध नहीं पिलाती। बोले, तो फिर जो कुछ पिलाती है वो समझ लो। छत की झाड़-पोंछ के बाद दीवार की बारी आई, लिखने की मेज के ऊपर टांगी हुई माधुरी, कज्जन और सुलोचना एक्ट्रेसों की तस्वीरें हटायीं तो नहीं, मगर उल्टी कर दीं। खुद को सही मार्ग पर रखने और खुदा का खौफ दिलाने की गरज से तस्वीरों के बीचों-बीच आपने वालिद गिरामी (पूज्य पिता) का, जो बड़े हथछुट और विकट बुजुर्ग थे, फोटो टांग दिया। ड्रेकुला की तरह शीशे भी कपड़े से ढंक दिये ताकि चेहरे पर इम्तहान की घबराहट देख कर और न घबरायें। उनके दोस्त हरि प्रकाश पांडे ने इम्तहान के जमाने में सात्विक रहने और ब्रह्मचर्य का बड़ी सख्ती से पालन करने की ताकीद की जो बिल्कुल बेतुकी थी। कारण कि उनकी और हमारी नस्ल के लिए असात्विक रहना प्रॉबलम नहीं, हार्दिक इच्छा थी।
खुद को ठंडा, और शांत रखने का उन्होंने यह गुर बताया कि मन में कोई ऐसी वैसी कामना आ जाये, तो फौरन अपने अंगूठे में पिन चुभो लिया करो और जब तक इच्छा पूरी तरह दिल से निकल न जाये पिन चुभोये रखो, मगर हुआ ये कि उनके मुंह से हमेशा चीख निकल गयी लेकिन इच्छा नहीं निकली। पहले ही दिन यह नौबत आ गयी कि दोनों Pin Cushions यानी दोनों अंगूठों में पिन चुभोने की जगह न रही। पांव के अंगूठे प्रयोग करने पड़े। दूसरे दिन जब वो जूते पहनने के काबिल न रहे तो पिन चुभोने की बजाय मुस्कुरा देते और कपड़ा हटा कर शीशा देख लेते थे।
बुरी आदतों से तौबा कर ली थी, मतलब यह कि रात गये तक अनुपस्थित दोस्तों की बुराई, ताश, शतरंज, बाइस्कोप और बुरी सुहबत यानी अपने-ही जैसे दोस्तों की सुहबत से मीयादी तौबा की, यानी क्रिसमस के दिन से परीक्षा के दिन तक और दिल में both days inclusive कह कर मुस्कुरा दिये। मसनवी `जह्रे-इश्क`, जो एक प्रतिबंधित किताब थी और दस-बारह बदनाम मसनवियों के वृहद संस्करण, जिनकी गिनती उन दिनों Porn में होती थी, ताला बंद अलमारी से निकाले। यह सब उनके हाथ की लिखी नक्लें थीं। इन सब को ताश की दो गड्डियों के साथ, जिनमें से एक नयी थी, जलाने के लिए सह्न में ले गये।
लालटेन से तेल निकाल कर अभी पुरानी गड्डी जलाई ही थी कि बड़ों की एक नसीहत याद आ गयी कि कोई भी काम हो, जल्दबाजी नहीं करनी चाहिये। जल्दी का काम शैतान का। अतः शैतान के काम पर लानत भेजी और नयी गड्डी और मसनवियां वापस ले आये। फिर दो पेन्सिलें और छह रबर खरीदे कि उनके यहां इन चीजों के इस्तेमाल का यही अनुपात था। आप भी तो पेन्सिल से लिखते हैं कि पांडुलिपि फेयर करने के झमेले से बच जायें, मगर दुश्मनों का कहना है - लिखते कम हैं, मिटाते अधिक हैं। आपने पेन्सिल की लत मुख्तार मसऊद को भी लगा दी। अब वो भी आपकी तरह रबर से लिखते हैं।
फिर मुल्ला आसी `रफ-वर्क` के लिए रद्दी वाले के यहां से रेलवे की बड़ी रसीदों और बिल्टियों की पांच सेर कापियां एक आने में खरीद लाये। उस समय के मितव्ययी लड़के उनकी पीठ पर रफ वर्क करते थे। आधा सेर सौंफ भी लाये। उसके कंकर मुहल्ले की एक कुंवारी लड़की से बिनवा कर एक शीशी में इस तरह सुरक्षित कर लिए, जिस तरह आप्रेशन के बाद कुछ वाचाल मरीज गुर्दे और पित्ते की पथरियां सजा कर रखते हैं और दिखाते, बताते हैं मगर कुंवारी लड़की की अलग कहानी है, कभी और सही। फिर सौंफ में एक पाव धनिये के बीज मिला कर दोनों मर्तबान में भर दिये। हरि प्रकाश पांडे ने कहा था कि धनिये के अर्क की दो बूंदें भी मस्त सांड़ या भड़कते ज्वालामुखी पे डाल दो तो वहीं बुलबुले की तरह बैठ जायेगा। सौंफ से आंखों की ज्योति बढ़ती है और दिमाग को तरावट पहुंचती है, चुनांचे एक फुंकी नींद के झोंके से पहले और एक बाद में मार लेते थे।
जब पढ़ाई का माहौल बन गया तो पढ़ाकू लड़कों से पूछताछ करके कोर्स की किताबों की लिस्ट बनायी; कुछ नयी, मगर अधिकतर सेकिंड-हैंड खरीदीं। सैकिंड-हैंड किताबों को कम कीमत के कारण नहीं, बल्कि केवल इसलिए प्रमुखता दी कि कई एडीशन ऐसे मिल गये जिनमें फेल होने वाली दो-तीन अनुभवी पीढ़ियों ने एक के बाद दूसरे आवश्यक हिस्सों पर निशान लगाये थे। कई निशान तो लाइट हाउस की तरह थे, जहां ज्ञान की तलाश में निकले हुए बेध्यान लड़कों की उदास नस्लों का बेड़ा गर्क हुआ था।
एक अद्भुत किताब ऐसी भी हाथ लगी जिसमें केवल अनावश्यक हिस्से अंडरलाइन किये गये थे ताकि उन्हें छोड़-छोड़ कर पढ़ा जाये। उन्हें विश्वास था कि कोर्स की किताबों की उपलब्धता के बाद परीक्षक के विरुद्ध युद्ध में आधी विजय तो प्राप्त कर ही चुके हैं। इसके बाद वो हरि प्रकाश पांडे के घर गये, जो गवर्नमेंट कॉलेज में हमेशा फर्स्ट आता था। चिरौरी, विनती करके उसकी सारी किताबें दो दिन के लिए उधार लीं और इक्के में ढोकर घर लाये, फिर छठी क्लास के एक गरीब लड़के को एक आने दैनिक की दिहाड़ी पर इस काम के लिए तैनात किया कि हरि प्रकाश पांडे की किताबों में जो हिस्से अंडरलाइन किये हुए हैं, उन्हीं के अनुसार मेरी तमाम किताबें हरी पेन्सिल से अंडर लाइन कर दो। फिर एक आने में रबर की दो मुहरें Important और Most Important की खड़े-खड़े बनवायीं और अपनी किताबों के सैट पांडे को दे आये कि जिन-जिन हिस्सों को तुम इम्तहान की दृष्टि से आवश्यक समझते हो, आवश्यकता के हिसाब से मुहरें लगा दो। ...प्लीज!
किताबों की किस्में और नकटे दुश्मन : सब निशान लग गये तो उन्होंने अनावश्यक और फालतू ज्ञान से छुटकारा पाने के लिए एक और हंगामी टैकनीक का आविष्कार किया, जिसे वो Selective Study कहते थे। इसका उर्दू पर्यायवाची तो मुझे मालूम नहीं;
विस्तृत विवरण ये कि जो सवाल पिछले साल आ चुके थे, उनसे संबंधित चैप्टर पूरे के पूरे कैंची से काट कर फेंक दिये कि उनके कारण ध्यान भटकता था और दिल पर किताब की मोटायी देख-देख कर घबराहट बैठती थी। यही नहीं उनकी अमर बेल की-सी जड़ें जो दूसरे चैप्टरों में कैंसर की Secondaries की तरह फैली हुईं जहां-जहां नजर आईं, काट कर फेंक दीं। फिर वो चैप्टर भी निकाल फेंके जिनके बारे में उनके परामर्शदाताओं और शुभचिंतकों ने कहा कि इनमें से कोई सवाल आ ही नहीं सकता। थोड़ा-बहुत अपने अंतर्ज्ञान से भी काम लिया। अंत में जी कड़ा करके वो कठिन हिस्से भी निकाल फेंके जिन्हें वो दस बार भी पढ़ते तो कुछ पल्ले न पड़ता। इस शल्यक्रिया से किताबें छंट-छंटा कर एक-चौथाई से भी कम रह गयीं।
इनमें से तीन के चिथड़े तो ऐसे उड़े कि उनके अवशेषों को क्लिप से दूसरी किताबों के नेफे में उड़सना पड़ा। एक किताब का तो केवल गत्ता ही शेष रह गया, इसके कुछ अनावश्यक पन्ने शगुन और परीक्षक का दिल बहलाने के लिए रख लिए। उनका प्रोग्राम था कि जीवन और आंखों ने साथ न छोड़ा तो इन चयनित पन्नों के खास-खास हिस्सों पर एक उचटती-सी नजर डाल लेंगे। आखिर हर किताब एक ही ढंग से तो नहीं पढ़ी जा सकती। फिर ईश्वरीय कृपा और स्वाभाविक समझ-बूझ भी तो कोई चीज है। रही फेल होने की आशंका तो `इस तरह तो होता है, इस तरह के कामों में` बहरहाल अपनी शक्तिशाली बांहों से मेहनत करके सम्मानित ढंग से फेल होना, नक्ल करके पास होने से हजार-गुना बेहतर है।
किसी ने इन्हें किताबों के बारे में बेकन का मशहूर कथन सुनाया जो उनके दिल को बहुत भाया। मजे की बात यह है कि बेकन का यह निबंध उनके कोर्स में शामिल था और उसे उन्होंने बेकार समझते हुए काट कर फेंक दिया था। वो `कोटेशन` आपको तो याद होगा। कुछ इस तरह है कि कुछ किताबें सिर्फ चखी जानी चाहिये, कुछ को निगल जाना चाहिये। कुछ इस लायक होती हैं कि आहिस्ता-आहिस्ता चबा-चबा कर हज्म की जायें; कुछ ऐसी होती हैं, जिन्हें किसी वैकल्पिक व्यक्ति से पढ़वा कर संक्षिप्त करवा लेना चाहिये। मुल्ला आसी ने इस अंतिम निष्कर्ष में इतना जोड़ अपनी ओर से किया कि अगर सब नहीं तो अधिकतर किताबें इस लायक होती हैं कि सूंघ कर ऐसों के लिए छोड़ दी जायें, जो नाक नहीं रखते।
इतिहास का कलेजा : इतिहास की समस्या को भी उन्होंने पानी कर दिया। वो इस तरह कि हरि प्रकाश पांडे से कहा कि परीक्षक की दृष्टि से जितने सन् आवश्यक हों उनकी List बना कर मुझे दे दो, ताकि एक ही हल्ले में सबसे निपट लूं, लेकिन बीस से अधिक न हों। अब तक वो केवल पांच-छह सनों से काम चला रहे थे। मास्टर फाखिर हुसैन ने एक बार कहा था कि इतिहास, जैसा कि इसके नाम से ही प्रकट है, सनों के संकलन के अतिरिक्त कुछ नहीं। अपने जवाब में जितने अधिक सन् लिखोगे, उतने ही अधिक नंबर मिलेंगे। लेकिन जब मास्टर फाखिर हुसैन ने यह कहा कि हमारे यहां बड़े आदमियों का मरण दिवस उनके जन्म दिवस से अधिक महत्वपूर्ण होता है तो मुल्ला आसी का माथा ठनका कि दाल में कुछ काला है। मास्टर साहब ने ये टिप भी दिया कि परीक्षक अपना मन तुम्हारे पहले उत्तर के पहले पैराग्राफ से बना लेता है। इस आंखें खोल देने वाले ज्ञानार्जन के बाद दसवीं क्लास की जो छहमाही परीक्षा हुई, उसमें मुल्ला आसी ने पहले ही सवाल में कॅापी पर इतिहास का कलेजा निकाल कर रख दिया। मतलब ये कि पहले पन्ने के पहले पैराग्राफ की गागर में वो सारे सन् भर दिये जो वो अपनी हथेली और "Swan ink" के डिब्बे के पेंदे पर लिख कर ले गये थे।
इन सनों का मूल प्रश्न से कोई संबंध नहीं था, बल्कि आपस में भी कोई संबंध नहीं था। उन सबको एक लड़ी में इस तरह पिरो देना कि मास्टर फाखिर हुसैन पर अपनी नसीहत के परिणाम प्रकट हो जायें, सिर्फ उन्हीं का काम था।
सवाल लार्ड डलहौजी की पॅालिसी पर आया था। उनका जवाब मुझे पूरा तो याद नहीं, लेकिन उसका पहला पैराग्राफ जिसमें उन्होंने धर्म-संप्रदाय की चिंता, परवाह किये बिना सारे बादशाहों को एक ही लाठी से हांक कर मौत के घाट उतारा, कुछ इस तरह था।
अशोक महान (मृत्यु 232 ई.पू.) के बाद सबसे बड़ा साम्राज्य औरंगजेब (मृत्यु 1680) का था जो 1658 ई. में अपने बाप का तख्ता उलट कर सिंहासन पर बैठा। इस बीच में पानीपत में घमासान की जंग हुई, मगर उथल-पुथल समाप्त न हुई। हालांकि औरंगजेब ने अपने भाइयों के साथ दुश्मनों का-सा सुलूक किया, यानी एक के बाद दूसरे को मौत के घाट उतारा, अगर वो ये न करता तो भाई उसके साथ यही करते। दरअस्ल, अकबर (जन्म 1542, मृत्यु 1605) की चौकस आंख बंद होते ही साम्राज्य के बिखराव के आसार शुरू हो गये जो लगातार शाही मौतों के बाद 1757 में प्लासी के युद्ध और 1799 में श्रीरंगापट्टम के युद्ध के बाद प्रखर हुए। उधर योरोप में नेपोलियन (मृत्यु 1852) का तूती रुक-रुक कर बोलने लगा था। (यहां उन्हें दो सन् और याद आ गये चुनांचे उन्हें भी आग में झोंक दिया) यह नहीं भूलना चाहिये कि फीरोज तुगलक (मृत्यु 1388) ई.) और बलबन (मृत्यु 1287) भी साम्राज्य को स्थिरता नहीं दे सके थे। यहां हमें यह भी नहीं भूलना चाहिये कि 1757 से 1857 तक...।
सन् को परीक्षक को ढेर कर देने के उपकरण के तौर पर प्रयोग करने और इतिहास का सही मूल्यांकन करने से संबंधित मास्टर फाखिर हुसैन की नसीहत उन्होंने पल्ले में बांध ली। उन्हें अपनी सही जन्मतिथि मालूम नहीं थी; अतः उसके खाने में `नामालूम` लिख दिया करते थे। लेकिन जिस दिन मास्टर फाखिर हुसैन ने कचोका दिया कि बेटे! हमारे यहां नामालूम तो केवल वल्दियत हुआ करती है तब से अपने अनुमानित जन्म-वर्ष 1908 के बाद A. D. भी लिखने लगे ताकि भ्रम न रहे और कोई कूढ़मग्ज B. C. न समझ बैठे।
जिस जमाने का यह जिक्र है, उनकी याददाश्त खराब हो चली थी। कोई बात या जवाब दिमाग पर जोर डालने के बावजूद याद न आये तो `इस समय मन एकाग्र नहीं है` इस तरह कहते कि हम अपनी नालायकी पर लज्जित होते कि कैसे गलत समय पर सवाल कर बैठे। साहब! अगले वक्तों के शिक्षकों की शान ही कुछ और थी।
परीक्षा संबंधी चालाकियों पर मास्टर फाखिर हुसैन का एक पाइंट और याद आया। फर्माते थे कि जहां मुश्किल शब्द प्रयोग कर सकते हो वहां आसान शब्द न लिखो। तुम विद्यार्थी हो। सादगी तो केवल विद्वानों को शोभा देती है।
मुल्ला अब्दुल मन्नान और नेपालियन : इसी तरह के एक शुभ चिंतक ने एक जमाने में टिप दिया था कि अगर तीन Essays और तीन ऐतिहासिक युद्ध रट लो तो अंग्रेजी और इतिहास में फेल होना असंभव है, बशर्ते कि परीक्षक ज्ञान-गुण-अग्राही और मूर्ख न हो। ये वो जमाना था, जब वो हर मशवरे पर शब्द-शब्द अमल करते थे चुनांचे हर बार एक भिन्न ढंग से फेल होते और परीक्षक की नालायकी पर रह-रह कर अफसोस करते। वाटरलू का परिणामकारी संग्राम, जिसमें उनके हीरो नेपोलियन की चूर-चूर कर देने वाली पराजय हुई, उन तीन युद्धों में, जो उन्होंने युद्ध के नक्शे समेत रट लिए, उनका फैवरेट था। दोस्तों को अपने फेल होने की सूचना भी इन्हीं ऐेतिहासिक शब्दों में देते थे जिसमें विद्यार्थी की लज्जित विनम्रता की जगह जनरली घमंड पाया जाता था।
I have met my waterloo
बाद में अपने जीवन की अन्य असफलताओं का ऐलान भी इन्हीं ऐतिहासिक शब्दों में करने लगे थे, मगर साहब! नेपोलियन की और उनकी असफलताओं में जमीन-आसमान का अंतर था। नेपोलियन तो एक ही पराजय में ढेर हो गया था, मगर उनके पराजय के ऐलान में दुबारा पराजित होने का फौलादी संकल्प पाया जाता था।
ताला नहीं खुलता : जब परीक्षक को जाल में फांसने के तमाम हथकंडे और शार्टकट पूरे हो गये तो परीक्षा में कुल चार हफ्ते शेष रह गये थे। शार्टकट दरअस्ल उस रास्ते को कहते हैं जो बुद्धिमान मगर सुस्त लोग कम-से-कम दूरी को अधिक-से-अधिक समय में तय करने के लिए ढूंढ़ते हैं। साहब! दूरी को मीटर से नहीं, समय से नापना चाहिये। खैर अब मुल्ला आसी सचमुच पढ़ाई में जुट गये। सुब्ह सात-आठ पूरियों, पाव भर कड़ाही से उतरती जलेबियों और रात भर तारों की छांव में भीगे दस बादामों की ठंडाई का नाश्ता करने के बाद वो खुद को कमरे में बंद करके बाहर से ताला डलवा देते कि खुद भी अगर चाहें तो बाहर न निकल सकें। शाम के वक्त ताला खुलता था। दो ढाई हफ्ते यही चलता रहा, मगर परीक्षा नहीं दी। कहने लगे, दिमाग का ताला नहीं खुलता।
और साहब! ताला खुलता भी कैसे? परीक्षा के कुछ दिन पहले यह ढंग बना लिया कि शाम होते ही साइकिल ले कर निकल जाते और पौ-फटे लौटते। परचे आउट करने की मुहिम में लगे हुए थे। जिन-जिन प्रोफेसरों के बारे में उन्हें जरा भी शक हुआ कि उन्होंने परचा बनाया होगा, उनके चपरासियों, रसोइयों, मेहतरों यहां तक कि उनके दूध पीते बच्चों को आयाओं समेत cultivate कर रहे थे। जैसे ही कहीं से हिंट मिलता या गैस पेपर हाथ लगता, उसे रातों-रात घर-घर बांट रहे थे।
जब वो अधिकारी लोगों, यानी शहर के तमाम नालायक छात्रों तक पहुंच जाता तो किसी दूसरे परचे को आउट करने की मुहिम पर साइकिल और मुंह उठाये निकल जाते। एक रात देखा कि एक प्रिटिंग प्रेस के बाहर जो कागज की कतरनें, प्रूफ की रद्दी और कूड़ा करकट पड़ा था, उसे उन पर में आस्था रखने वाले खास नालायक से दो बोरियों में भरवा कर बारीक मुआयने के लिए अपने घर ले आये। उन्हें किसी ने बहुत खुफिया हिंट दिया था कि एक परचा इसी प्रेस में छपा है।
उनके जासूस शहर के अलग-अलग हिस्सों में काम कर रहे थे। उनके कथनानुसार आगरा, मेरठ, बरेली, राजपूताना और सेंट्रल इंडिया के शहरों में, जिनका आगरा यूनिवर्सिटी से संबंध था, उनके गुप्तचरों ने जासूसी का जाल बिछा रक्खा था। (जिससे किसी परीक्षक का सम्मानित ढंग से बच निकलना असंभव था) ये सब वो थे जो कई साल से अलग-अलग विषयों में फेल हो रहे थे। हर जासूस उसी विषय के परचे में स्पेशलाइज किये हुए था जिसमें वो पिछले साल लुढ़का था। Leaakage और गुप्त सूचनाओं के सोते सूखने लगे तो उन्होंने हिम्मत नहीं हारी, अपनी अंतरात्मा की आवाज और अंतर्ज्ञान से इस कमी को पूरा किया।
पहला परचा सैट करने वाले परीक्षक के घर के बाहर थड़े पर गरदन और पैर लटकाये दो घंटे तक परचे की बू लेते रहे। तीन प्रश्न इसी हालत में सूझे। घर आ कर इनमें तीन प्रश्नों की वृद्धि इस तरह की कि दस प्रश्नों की कागज की गोलियां बनायीं और उसी कुंवारी लड़की के, जिसका जिक्र पहले कर चुका हूं, पांच साला भाई से कहा कि कोई-सी तीन उठा लो। सोमवार की सुब्ह पहला परचा था। इतवार की रात को सुब्ह चार बजे तक दस सवालों पर आधारित अपना आउट किया हुआ परचा हर उस छात्र के घर पहुंचाया, जो पिछले सालों में लगातार फेल होता रहा था या जिसमें उन्हें आइंदा फेल होने की जरा भी योग्यता दिखाई दी।
इस परमार्थ से सुब्ह साढ़े तीन बजे निवृत्त हुए। घर आ कर ठंडे पानी से नहाये। बाहर निकल कर भोर के तारे की तरफ टकटकी बांधे देर तक देखा किये, एक हिंदू पड़ौसी से जो कुएं की मन पर लुटिया से स्नान कर रहा था और हर लुटिया के बाद जितनी अधिक सर्दी लगती उतने ही जोर से `हरि ओम` `हरि ओम` पुकार रहा था, बाहर से ताला लगाने को कहा। फिर अंदर आकर सो गये, किस लिए कि दिमाग का ताला नहीं खुला था।
मुल्ला आसी की सिद्धि और चमत्कार : जितनी मेहनत और साधना, परोपकार के लिए परचे आउट करने में की, उसकी 1/100 भी अपनी पढ़ाई में कर लेते तो फर्स्ट डिवीजन में पास हो जाते। बहरहाल अफसोस इसका नहीं कि उन्होंने ऐसे वाहियात काम में समय नष्ट किया, रोना इस बात का है कि परीक्षा के पहले परचे में आठ में से पांच सवाल ऐसे थे जो इनके आउट किये हुए परचे में मौजूद थे। ऐसा लगता था कि परीक्षक ने उनका परचा सामने रख कर परचा सैट किया है। ये भी सुनने में आया कि परीक्षक के खिलाफ इन्क्वायरी हो रही है। मुल्ला आसी ने तो यहां तक कहा कि परीक्षक ने वो थड़ा ही तुड़वा दिया जिस पर बैठे-बैठे उन्हें अंतर्ज्ञान (बोध) हुआ था, एक अर्से तक वो जगह सूफियों में चर्चा का विषय रही, खुदा जाने।
अब क्या था, सारे शहर में उनकी धूम मच गयी। दूसरे दिन उनके घर के सामने परीक्षा में बैठने वाले छात्रों के ठठ लग गये, इसके बाद परीक्षा में चार दिन का नागा था। इस बीच में पास और दूर के छात्रों ने... कोई बस, कोई ट्रेन, कोई पैदल... झुंड के झुंड आ कर उनके घर के सामने पड़ाव डाल दिया। यू.पी. के नालायक लड़कों का ऐसा विराट सम्मेलन आसमान ने न कभी इससे पहले, न उसके बाद देखा। ये भी सुनने में आया कि पुलिस ने केस अपने हाथ में ले लिया है; भीड़ में सी.आई.डी. के आदमी बापों को भेस बनाये फिर रहे हैं। मुल्ला आसी का बयान था कि दो बुरके वाली लड़कियां भी आई थीं, उनमें से लंबी वाली लड़की के बारे में शकील अहमद ने, जो क्लास का सबसे छोटा और चिकना लड़का था, ये गवाही दी कि उसने मेरे कूल्हे पे चुटकी ली और उसकी नकाब के पीछे मुझे ताव दी हुई मूंछ नजर आई, खुदा जाने।
हालांकि मुल्ला आसी अब खुद इम्तहान में नहीं बैठ रहे थे लेकिन औरों की खातिर दिन-रात एक किये हुए थे। कहते थे अगर खुद इम्तहान में बैठ जाऊं तो सारी सिद्धि समाप्त हो जायेगी। छात्रों में ये अफवाह आग की तरह फैल गयी कि जब से बोध हुआ है, मुल्ला आसी दुनिया से किनारा करके सूफी हो गये हैं और लगातार चमत्कार घटित हो रहे हैं। उनसे पूछा गया तो उन्हें जवाब दिया, मैं इस अफवाह का खंडन नहीं कर सकता।
वो कमरे में ताला डलवा कर दिन-भर छटी इंद्रिय की मदद से परचा बनाते। रात को ठीक बारह बजे और फिर ढाई बजे अपने मामू मरहूम सज्जाद अहमद वकील का पुराना काला गाउन पहने सिद्धि स्थान से बाहर तशरीफ लाते और परचा आउट करते। तीन दिन तक यही नक्शा रहा। सिद्धि, विद्धि के बारे में मैं कुछ नहीं कह सकता, मुझे तो उनके चेहरे पर तपस्या करने वाले साधुओं की गंभीर शांति नजर आई। आंखें एक चौथाई से जियादा नहीं खोलते थे। गोश्त, लहसुन और झूठ छोड़ दिया था। सुब्ह तड़के ऐसे ठंडे पानी से स्नान करते कि चीख को रोकने के लिए पूरा जोर लगाना पड़ता। निगाहों की पवित्रता का ये आलम कि औरत तो औरत, मुर्गी या बकरी भी सामने आ जाये तो ब्रह्मचारियों की तरह शरमा कर नजरें नीची कर लेते। विपरीत लिंग से इतना एहतियात और परहेज कि कई ऐसे शब्दों को भी पुल्लिंग बोलने लगे जो अंधे को भी नजर आते हैं कि स्त्रीलिंग हैं। गरज कि परचे आउट करने के लिए अपनी सारी दैहिक, दैविक और भौतिक ताकतें दांव पर लगा दीं।
पहले परचे को छोड़कर, बाकी परचों में उनका बताया हुआ एक सवाल भी नहीं आया। वो मुंह दिखाने के काबिल न रहे। उनके पक्ष में बस यही कहा जा सकता है कि उन्होंने अच्छे इरादे से ईश्वर की सृष्टि की रेड़ मारी। इस साल कानपुर और इसके आस-पास पचास साठ मील के दायरे में जितने भी लड़के फेल हुए उन सबका यही कहना था कि मुल्ला आसी के आउट किये हुए परचों के कारण लुढ़के हैं। हद ये कि आदी फेल हो जाने वाले लड़के, जो हर साल किस्मत और परीक्षक को गालियां दिया करते थे, वो भी मुल्ला आसी की जान के पीछे पड़ गये। नौबत गाली-गलौज पर आने लगी तो वो चुपके से अपने ननिहाल अमरोहा सटक गये। एक लड़के के मामा ने तो मुल्ला आसी के मामा को सरे-बाजार मारा-पीटा। एक-डेढ़ महीने तक उनके खानदान का कोई बुजुर्ग घर से बाहर नहीं निकल सका।
तो साहब ये थे हमारे मुल्ला आसी अब्दुल मन्नान। चंद सनकों को छोड़ दें तो जवानी उनकी भी वैसी गुजरी, जैसी उस जमाने में आम छात्रों की गुजरती थी, आपने उस दिन मिर्जा अब्दुल वुदूद बेग का एक चिरांदा सा जुमला सुनाया, किस-किस बवाल, बल्कि आफत से जुड़ी होती थी जवानी उस जमाने में।
साल-भर ऐश, इम्तिहान से पहले चिल्ला (चालीस दिन की साधना) मुंहासे, मुशायरों में हूटिंग, आगा हश्र काश्मीरी के ड्रामे, रिनाल्ड और मौलाना अब्दुल हलीम शरर के इस्लामी नॉविल, सोने से पहले आधा-सेर औटता दूध, बिना-नागा दंड-बैठक, जुमे के जुमे नहाना, रातों की गपशप, रेलवे स्टेशन पर लेडीज कंपार्टमेंट के सामने (बत्तख की-सी अकड़ी चाल में चहलकदमी) अंग्रेज के खिलाफ नारे और उसी की नौकरी की तमन्ना।
मुल्ला आसी ने सारी जिंदगी इसी तरह गुजार दी। सेहरा बंधा, न शहनाई बजी, न छुआरे बंटे, खुद ही छुहारा हो गये। मैंने बहुत कुरेदा, पुट्ठे पर हाथ नहीं रखने देते। गढ़े-गढ़ाये विकट वाक्य लुढ़काने लगे, जो उनके अपने नहीं मालूम होते `बस तमाम उम्र ऐसी अफरातफरी रही कि इस सुख-चैन के बारे में सोचने की फुर्सत ही न मिली, मुझे तो औरतों के बगैर जिंदगी में कोई कमी महसूस न हुई अलबत्ता उनका कोई अधिकार छिना हो तो मुझे जानकारी नहीं, अल्लाह मुआफ करे वगैरा-वगैरा।` अब भी इसी कमरे में रहते हैं जिसमें पैदा हुए। मेरा तो सोच कर ही दम घुटने लगा कि कोई शख्स, अपनी सारी जिंदगी, सत्तर-पिचहत्तर बरस एक ही मुहल्ले, एक ही मकान, एक ही कमरे में कैसे बिता सकता है। कराची में तो इतने साल आदमी कब्र में भी नहीं रह सकता, जहां कब्र खोदने वालों ने देखा, अबके शबे-बरात, ईद, बकरीद पर भी कोई फातिहा पढ़ने नहीं आया, वहीं हड्डियां और पिंजर निकाल कर फेंक दिये और ताजा मुर्दे के लिए जगह बना ली।
साहब वैसे तो दुनिया में एक-से-एक Crack Pot (सनकी) पड़ा है, लेकिन मुल्ला आसी का सवा लाख में एक वाला मामला है। इनके एक परिचित का कहना है कि आखिरी `वाटर लू` के बाद खिसक गये हैं। नमाज इस तरह पढ़ते हैं जैसे बहुत से मुसलमान शराब पीते हैं यानी चोरी छिपे। एक साहब बोले - `मुद्दत हुए इस्लाम को छोड़े।` इस पर दूसरे साहब बोले कि - `मुसलमान थे कब जो छोड़ते` हैदर मेंहदी ने बताया कि एक दिन मैंने पूछा - `मुल्ला क्या ये सच है कि तुम बुद्धिस्ट हो गये हो?` हंसे, कहने लगे `जब मैंने पचासवें साल में कदम रखा तो खयाल आया, जिंदगी का कोई भरोसा नहीं, क्यों न अपनी आस्था का करेक्शन कर लूं।`
एक दिन बहुत अच्छे मूड में थे, मैंने घेरा, पूछा कि `मौलाना बुद्धिज्म में तुम्हें इसके अलावा और क्या खूबी नजर आई कि महात्मा बुद्ध अपनी बीबी यशोधरा को सोता छोड़ कर रातों-रात सटक गये?` मुस्कुराये, कहने लगे, `मेरी यशोधरा तो मैं खुद हूं, वो भाग-भरी तो, अब अगले जन्म में जागेगी,` एक रहस्य से परिचित ने तो यहां तक कहा, मुल्ला आसी ने वसीयत की है कि मेरी लाश तिब्बत ले जाई जाये, हालांकि तिब्बत वालों ने उनको कभी कोई नुकसान नहीं पहुंचाया। प्रोफेसर बिलगिरामी, जो एक स्थानीय कॉलेज में अंग्रेजी पढ़ाते हैं, इस अफवाह का सख्ती से खंडन करते हैं। वो कहते हैं कि मुल्ला आसी ने वसीयत लिखी है कि मेरी लाश को बगैर नहलाये जला दिया जाये। गरज कि जितने मुंह, उतने इल्जाम, उतनी लानतें। लेकिन इतना तो मैंने भी देखा कि कोने में उनकी मां की नमाज की चौकी पर नमाज की चटायी उल्टी बिछी थी यानी चटायी के डिजाइन का मुंह पश्चिम की जगह पूरब की तरफ था।
सुना है इस पर आसन मार के ध्यान और तपस्या करते हैं, तूंबी भी पड़ी देखी, जिसके बारे में एक दोस्त ने कहा - अगर उन्होंने कभी संजीदगी से कोई होल-टाइम पेशा अपनाया तो इसी तूंबी में घर-घर भीख मांगेंगे। मेज पर जेन बुद्धिज्म पर पांच छह किताबें पड़ी थीं। मैंने यूं ही पन्ने पल्टे, अल्लाह जाने उन्हें किसने अंडर लाइन कराया है। कमरे में सिर्फ एक डैकोरेशन पीस है, ये एक इंसानी खोपड़ी है जिसके बारे में मशहूर है कि गौतमबुद्ध की है निर्वाण से पहले की।
सलीके से तह की हुई एक गेरुवा चादर पर गज भर लंबा चिमटा रखा था, मुझे तो बजाने वाला, अपने आलम लाहौर वाला चिमटा लगा। पास ही लकड़ी की साधुओं वाली खड़ावें पड़ी थीं। वही जिनके पंजे पर शतरंज का ऊंट बना होता है। नमाज की चौकी पर एक मिट्टी का पियाला, इकतारा, बासी-तुलसी और बुद्ध की मूर्ति रखी थी। संक्षिप्त कथा ये कि कमरे में बुद्धिज्म के उपकरण धूल में अंटे इधर-उधर पड़े थे। मुझे तो ऐसा लगा कि उनका मकसद सिर्फ नुमाइश है, गोया दूसरों का मुंह चिढ़ाने के लिए अपनी नाक काट ली।
खुल जा सिम-सिम : आप जरा गैस कीजिये वो क्या करते हैं, मैं आपको दो मिनट देता हूं। (आधे मिनट बाद ही) जनाब! वो ट्यूशन करते हैं। गरीब लड़कों को मैट्रिक की तैयारी करवाते हैं, रात को बारह-एक बजे लौटते हैं। पांच-छह मील चल कर जाना तो कोई बात ही नहीं, कहते हैं। `सवारी से मिजाज मोटा होता है सिवाय गधे की सवारी के। इसीलिए इजराईल के पैगंबरों ने गधे की सवारी की है।` मगर सुना है पढ़ाने का पैसा एक नहीं लेते। कहते हैं - `पूरब की हजारों साल पुरानी रीत है कि पानी, उपदेश और ज्ञान का पैसा नहीं लिया जाता, पैसा ले लो तो अंग नहीं लगता और अंततः पैसा भी नहीं बचता। आज तक ऐसा नहीं हुआ कि पैसा देकर बदले में प्राप्त किये हुए ज्ञान से कोई आत्मिक परिवर्तन आया हो। सच्चा परिवर्तन केवल नजर से आता है और नजर का कोई मोल नहीं।
अल्लाह जाने गुजर-बसर कैसे होती है? ईश्वरीय कृपा तो हो नहीं सकती, चूंकि बुद्धिस्ट ईश्वर और उसकी कृपा को मानते नहीं, भीख को प्रधानता देते हैं। दर्शन का एक पूरा किला खड़ा कर लिया है मुल्ला आसी ने। हम जैसों के पल्ले तो खाक नहीं पड़ता। अब इसे पागलपन कहिये, झक कहिये, बस है तो है। कौन कह सकता था कि पढ़ाई से भागने वाला लड़का, पढ़ाने में अपना निर्वाण तलाश करेगा। याद नहीं आपका कथन है कि मेरा, कि पाकिस्तान में जो लड़के पढ़ाई में फिसड्डी होते हैं वो फौज में चले जाते हैं और जो फौज के लिए Medically unfit होते हैं, वो कालिजों में प्रोफेसर बन जाते हैं। साहब, कुदरत जिससे जो चाहे काम ले, आप भी तो एक जमाने में लेक्चरर बनने की तमन्ना रखते थे। खुदा ने आप पर बड़ा अहसान किया कि इच्छा पूरा न होने दी। वैसे आपको मालूम ही है, मैंने भी कई बरस टीचरी की है, दिल की बात पूछिये तो जीवन का सुनहरा काल वही था।`
लेकिन खूब बात है; सभी कहते हैं कि पढ़ाते बहुत अच्छा हैं। अच्छा शिक्षक होने के लिए शिक्षित होने की शर्त नहीं है। कुछ समय तब गवर्नमेंट स्कूल में भी पढ़ाया। लेकिन जब एजुकेशन डिपार्टमेंट ने ये पख लगाई कि तीन साल के अंदर B.T.C. पास करो वरना डिमोट कर दिये जाओगे, तो ये कह कर इस्तीफा दे दिया कि, `मैं बेसब्रा आदमी हूं, तीन साल इस घटना के इंतजार में नहीं गुजार सकता। मैं हमेशा बी.टी. पास टीचरों से पढ़ा और फेल हुआ।` इसके बाद कहीं नौकरी नहीं की। अलबत्ता अंधों के स्कूल में मुफ्त पढ़ाने जाते हैं। लहजे में मिठास और धीरज बला का है, हमेशा से था। शब्दों से बात समझ में आती है, लहजे से दिल में उतर जाती है। जादू शब्दों में नहीं लहजे में होता है। अलिफ लैला के खजानों का दरवाजा हर ऐरे-गैरे के, `खुला जा सिम सिम` कहने से नहीं खुलता, वो इलाहदीन का लहजा मांगता है। दिलों के ताले की ताली भी शब्द में नहीं, लहजे में होती है। अपनी बात दुहरानी पड़े या दूसरा उलझने लगे तो उनका लहजा और भी रेशम हो जाता है। लगता है फालूदा गले से उतर रहा है। हर अच्छे शिक्षक के अंदर एक बच्चा बैठा होता है जो हाथ उठा-उठा कर, सर हिला-हिला कर बताता जाता है, कि बात समझ में आई कि नहीं। अच्छे शिक्षक का पढ़ाना बस उस बच्चे से वार्तालाप है जो उम्र भर चलता रहता है। उन्होंने उस बच्चे को बच्चा ही रहने दिया।
वो कमरा बात करता था : मुल्ला आसी से उसी कमरे में घमासान की मुलाकातें रहीं, जहां पैंतीस बरस पहले उन्हें खुदा-हाफिज कह कर पाकिस्तान आया था। उस जमाने में सभी पाकिस्तान खिंचे चले आ रहे थे... जमीन-जायदाद, भरे-बतूले घर..., लगे-लगाये रोजगार और अपने यारों-प्यारों को छोड़ कर। उसी कमरे में मुझे गले लगा कर विदा करते हुए कहने लगे, `जाओ, सिधारो मेरी जान, तुम्हें खुदा के सुपुर्द किया।` आज भी उन्हें इतना ही आश्चर्य होता है कि भला ठीक-ठाक होशो-हवास वाला कोई शख्स कानपुर कैसे छोड़ सकता है। कमरे में वही पंखा, उसी डगमग-डगमग कड़े में लटका, उसी तरह चर्रख-चूं करता रहता है।
मुझे तो जब बात करनी होती थी तो पंखा ऑफ कर देता था। ये पंखा चलते ही आंधी-सी आ जाती है और किताबों, दीवारों और दरी पर जमी हुई धूल कमरे में उड़ने लगती है, जिससे मच्छरों का दम घुटने लगता है। वो पंखा गर्मी से नहीं मच्छरों से बचने के लिए चलाते हैं, मगर कम बहुत ही कम। इसलिए नहीं कि बिजली की बचत होती है, बल्कि चलाने से पंखा घिसता है। इसकी लाइफ कम होती है। माशाअल्लाह! चालीस-पैंतालीस बरस का तो होगा, इन हिसाबों सौ तक तो घसीट ले जायेंगे।
कई साधुओं और जोगियों का मानना है कि इंसान के भाग्य में भगवान ने गिनती के सांस लिखे हैं, चुनांचे अधिकतर समय सांस रोके बैठे रहते हैं ताकि जिंदगी दम घुटने से लंबी हो जाये। मजबूरी और तकलीफ में सांस इसलिए ले लेते हैं कि इसे रोक सकें। बस पंखे की उम्र भी इसी तरह लंबी की जा रही है।
उनके कमरे में गोया एक दुनिया की सैर हो गयी, संसार-दर्शन का कमरा कहिये, हर चीज वैसी की वैसी है बल्कि वहीं की वहीं है। कसम से मुझे तो ऐसा लगा कि मकड़ी के जाले भी वही हैं, जो छोड़ कर आया था। केवल एक परिवर्तन देखा, दाढ़ी फिर मुंडवा दी है। पूछा तो गोल कर गये। कहने लगे, `दाढ़ी उस समय तक ही बरदाश्त है जब तक काली हो।` इस पर इनआम साहब आंख मारते हुए कहने लगे - `महात्मा जी भी तो मुंडवाते थे।` कमरे का नक्शा वही है, जो सन 47 में था। अलबत्ता दीवारों पर चीकट चढ़ गयी है, सिर्फ वो हिस्से साफ नजर आये जिनका प्लास्टर हाल में झड़ा है। बायीं दीवार पर पलंग से दो फिट ऊपर, जहां पैंतालीस साल पहले मैंने पेन्सिल से पिकनिक का हिसाब लिखा था, उनकी ऊपर की चार लाइनें अभी तक ज्यों-की-त्यों हैं। साहब रुपये में 192 पाई होती थीं और एक पाई आजकल के रुपये के बराबर थी। हैरत इस पर हुई कि दीवार पर भी हिसाब करने से पहले मैंने 786 लिखा था।
बकौल आपके मिर्जा अब्दुल वुदूद वेग के, उस जमाने में मुसलमान लड़के हिसाब में फेल होने को अपने मुसलमान होने की दलील समझते थे, हिसाब, किताब, व्यापार और हर वो काम जिसमें फायदे की जरा सी भी संभावना हो, बनियों, बक्कालों और यहूदियों का काम माना जाता था मगर मुझे चक्रवर्ती अर्थमेटिक कंठस्थ थी। पौना, सवाया और ढाई का पहाड़ा मुझे अब तक याद है। इनका फायदा-वायदा तो समझ में खाक नहीं आया। दरअस्ल ये उनकी उच्छृंखलता को मारने, बल्कि खुद उन्हीं को उच्छृंखलता समेत मारने का एक बहाना था। मुसलमान पर याद आया कि यह जो पांच वक्त टक्करें मारने का गट्टा आप देख रहे हैं, ये पच्चीस छब्बीस बरस की उम्र में पड़ चुका था। मियां तजम्मुल हुसैन की दोस्ती और नियाज फत्हपुरी के लेख भी नमाज न छुड़वा सके, आपको विश्वास नहीं होगा दो-तिहाई बाल भी उसी उम्र में सफेद हो गये थे।
खैर तो ये कह रहा था शीशम की मेज के ऊपर वाली दीवार पर मैट्रिक की फेयरवैल पार्टियों के ग्रुप फोटो लगे हैं, लगातार पांच सालों के। खुदा-खुदा करके पांचवीं साल उनका बेड़ा उस वक्त पार लगा, जब उनका एक क्लासफेलो B.A. करके उन्हें अंग्रेजी पढ़ाने लगा।, पांचों में वो हैडमास्टर के पीछे कुर्सी की पीठ मजबूती से पकड़े खड़े हैं। मशहूर था कि वो इस कारण पास नहीं होना चाहते कि पास हो गये तो मॉनीटरी खत्म हो जायेगी, कॉलेज में मास्टर का क्या काम।
एक फोटो सीपिया रंग का है। मैं तो इसमें अपना हुलिया देख कर भौंचक्का रह गया, या अल्लाह ऐसे होते थे हम जवानी में। कैसे उदास होते थे लड़के उस दिन, अंतिम सांस तक दोस्ती निभाने का वादा, दुखी मानवता की सेवा और एक-दूसरे को सारी उम्र हर तीसरे दिन खत लिखने की कैसी-कैसी कसमें। मेज पर अभी तक वही हरी बनात मढ़ी हुई है। रौशनाई के धब्बों से 9/10 नीली हो गयी है। टूट के जी चाहा कि बाकी 1/10 पर भी दवात उडेल दूं ताकि ये रंग किसी तरह खत्म तो हो। चपरासियों की वर्दी भी इसी बनात की बनती थी। सर्दी कड़ाके की पड़ने लगती तो कभी-कभी स्कूल का चपरासी बशीर डांट कर हमें घर वापस भेज देता कि मियां! कोट, लंगोट से काम नहीं चलेगा, कमरी, मिरजई (रुई की बास्कट) डाट के आओ। मगर खुद घर से एक पतली मिरजई पहन कर आता जो इतनी पुरानी हो गयी थी कि पैटर्न के चारखाने के हर खाने में रुई का अलग गूमड़ा बन गया था। यूनिफार्म की अचकन घर पहन कर नहीं जाता था। मैंने उस पर कोई सिलवट या दाग नहीं देखा। छुट्टी का घंटा इस तरह बजाता कि घड़ियाल खिलखिला उठता।
बड़े काम और छोटा आदमी : मछली बाजार की मस्जिद शहीद होने पर मौलाना शिबली की `हम कुश्तगाने-मारका-ए-कानपुर हैं` वाली अद्भुत नज्म अभी तक उसी कील पर लटक रही है, जो ठोंकने में दुहरी हो गयी थी। साहब, जिस शख्स ने कील ठोकते वक्त हथौड़ा कील के बजाय अपने अंगूठे पर कभी भी नहीं मारा मुझे उसकी वल्दियत में शक है। ऐसे चौकस, चालाक आदमी से होशियार रहना चाहिये। इस मस्जिद के बारे में ख्वाजा हसन निजामी ने लिखा था कि ये `वो मस्जिद है जिसके सामने हमारे बुजुर्गों की लाशें तड़प-तड़प कर गिरीं और उनकी सफेद दाढ़ियां खून से लाल हो गयीं।
नज्म के फ्रेम का शीशा बीच में ऐसा तड़खा है कि मकड़ी का जाला-सा बन गया है। मैंने कोई पचास साल बाद ये पूरी नज्म और `बोलीं अम्मा मुहम्मद अली की, जान बेटा खिलाफत पे दे दो` वाली नज्म पढ़ी। क्या निवेदन करूं। दिल पर वो असर न हुआ। उस काल के कई जनांदोलन, मसलन, रेशमी-रूमाल वाला आंदोलन, खिलाफत, बलकान का युद्ध (लुत्फ मरने का अगर चाहे तो चल बलकान चल) स्त्रियों की शिक्षा और साइंसी शिक्षा का विरोध (जिसमें अकबर इलाहाबादी आगे-आगे थे) शारदा एक्ट के विरोध में मुसलमानों का मौलाना मुहम्मद अली के नेतृत्व में आंदोलन... ये और बहुत ऐसे ही काम, जिनके लिए कभी जान की बाजी लगा देने का जी चाहता था, अब अजीब लगते हैं।
खिलाफत मूवमेंट ही को लीजिये। उसका समर्थन तो गांधीजी ने भी किया था। इससे अधिक जोशीले, देशव्यापी, व्यवस्थित, उल्टे और बेतुके आंदोलन की कल्पना भी नहीं की जा सकती है, मगर वो बड़े लोग थे। आज काम तो बड़े हो रहे हैं, मगर आदमी छोटे हो गये हैं। वो अजीब भावनात्मक काल था। मुझे याद है बद्री नारायण ने एक बार महमूद गजनवी को लुटेरा मुल्लड़ कह दिया तो जवाब में अब्दुल मुकीत खां ने शिवाजी को Mountain Rat कहा। इस पर बात बढ़ी और बद्री नारायण ने मुगल बादशाहों का नाम ले लेकर बुरा-भला कहना शुरू कर दिया। औरंगजेब की बेटी पर तो बहुत ही गंदा आरोप लगाया। जवाब में अब्दुल मुकीत खां ने पृथ्वीराज चौहान, महाराणा प्रताप, मिर्जा सवाई मान सिंह को तूम के रख दिया। लेकिन जब महाराजा रणजीत सिंह पर हाथ डाला तो ब्रदीनारायण तिलमिला उठा, हालांकि वो सिख नहीं था, गौड़ ब्राह्मण था। दोनों वहीं गुत्थमगुत्था हो गये। मुकीत खां का अंगूठा और ब्रदीनारायण की नाक का बांसा टूट गया, दोनों एक ही लौंडे पर आशिक थे।
चिड़िया की दुसराहट : दीवारों पर वही पलस्तर में उभरी हुई नसें, वही उपदेशात्मक पोस्टर और चारपायी भी वही, जिसके सिरहाने वाले पाये पर अब्दुल मुकीत खां ने चाकू से उस लौंडे का नाम खोदा था और उसी से उंगली में चीरा लगा कर खून अक्षरों में भरा था। आप भी दिल में कहते होंगे कि अजीब आदमी है, इसकी कहानी में तवायफ खुदा-खुदा करके विदा होती है तो लौंडा दर्राता चला आता है। साहब, क्या करूं? इन पापी आंखों ने जो देखा, वही तो बयान करूंगा।
आप मीर की समग्र रचनावली उठाकर देख लीजिये, उनकी आत्मकथा पढ़ लीजिये, मुसहफी के दीवान देखिये, आपको जगह-जगह इसकी तरफ खुल्लमखुल्ला इशारे मिलेंगे। साहब! औरतों के बारे में तो बात करने की जुगत बी.ए. में आ कर लगती थी। अब उस लौंडे का नाम क्या बताऊं? कांग्रेस की टिकिट पर मिनिस्टर हो गया था, करप्शन में निकाला गया। एक डिप्टी सेक्रेट्री की बीबी से शादी कर ली जो डिसमिस होने के तीन महीने बाद एक सिख बिजनेसमैन के साथ भाग गयी। उस जमाने के शारीरिक आनंद के अभाव और घोर-घुटन का आप बिल्कुल अंदाजा नहीं लगा सकते। इसलिए कि आप उस समय तक बालिग नहीं हुए थे। मजाज ने झूठ नहीं कहा था -
मौत भी इसलिए गवारा है
मौत आता नहीं है, आती है
साहब! विश्वास कीजिये, उस जमाने का हाल ये था कि औरत का एक्सरे भी दिख जाता तो लड़के उसी पर दिलो-जान से फिदा हो जाते।
रौशनदान में अब शीशे की जगह गत्ता लगा हुआ है। उसके सूराख में से एक चिड़िया बड़े मजे से आ-जा रही थी। नीचे झिरी में घोंसला बना रक्खा है। उसके बच्चे चूं-चूं करते रहते हैं। एक दिन मुल्ला आसी कहने लगे कि बच्चे जब बड़े हो कर घोंसला छोड़ देंगे तो हमारा घर बहुत सुनसान हो जायेगा। धूल में दरी की लाइनें मिट गयी हैं।
मियां तजम्मुल के सिग्रेट से चालीस, पैंतालीस बरस पहले सूराख हो गया था, वो अब बढ़ कर इतना बड़ा हो गया है कि उसमें से तरबूज निकल जाये, सूराख के हाशिये पर फूसड़ों की झालर-सी बन गयी है। उसके पीछे से वही रेलवे वेटिंग-रूम और डाक-बंगलों वाला कत्थई रंग का सीमेंट का फर्श काट खाने को दौड़ता है। मियां तजम्मुल हुसैन की उम्र उस वक्त कुछ नहीं तो तीस बरस होगी। तीन बच्चों के बाप बन चुके थे, मगर बड़े हाजी साहब (उनके पिता) का रोब इतना था कि सिग्रेट की तलब होती तो किसी दोस्त के यहां जा कर पी आते थे। हाजी साहब सिग्रेट की गिनती आवारगी में करते थे, खुद हुक्का पीते थे। बाइस्कोप की गिनती बदमाशी में करते थे चुनांचे मियां तजम्मुल हुसैन को तन्हा सिनेमा देखने नहीं जाने देते थे। खुद साथ जाते थे।
छिपकली की कटी हुई दुम : छत बिल्कुल खस्ता, दीमक की खाई हुई कड़ियां, पंखे का कड़ा घिसते-घिसते चूड़ी बराबर रह गया है। मैं ज्योतिषी तो हूं नहीं, ये कहना मुश्किल है कि इन तीनों में पहले कौन गिरेगा। मिलने आने वाले को ऐन पंखे के नीचे बिठाते हैं। उस गरीब की आंखें हर समय पंखे पर ही जमी रहती हैं। एयरगन से मैंने जहां छिपकली मारी थी, और हां, छिपकली पर याद आई, आपके उस दोस्त की, जिसकी चिट्ठी हॉस्टल के लड़कों ने चुरा कर पढ़ ली थी। उसकी बीबी ने क्या लिखा था? हिंदी में थी शायद, जगत नारायण श्रीवास्तव नाम था, नयी-नयी शादी हुई थी। लिखा था `राम कसम, तुम्हारे बिना रातों को ऐसे तड़पती हूं, जैसे छिपकली की कटी हुई दुम।`
वाह! इस उपमा के आगे बिना पानी की मछली की उपमा पानी भरती है मगर आप इसे नास्टेल्जिया के मारे लोगों के लिए सिंबल के तौर पर इस्तेमाल करते हैं। ये जियादती है। ये तो मैं आपको बता चुका हूं कि मुल्ला आसी की कमाई का कोई साधन नहीं है, न कभी था मगर ठाली भी नहीं रहे। बेराजगार हमेशा रहे, मगर बेकार कभी नहीं। शायद सन 50-51 की बात है, उनकी मां उनकी नौकरी लगने तथा बुद्धिज्म से छुटकारे की मिन्नत दूसरी बार मांगने अजमेर-शरीफ गयीं। वहीं किसी ने कहा, अम्मां! तुम हजरत दाता गंजबख्श के मजार पर जाओ। वहां खुद ख्वाजा अजमेरी ने चिल्ला खींचा था। सो वो छह महीने बाद मिन्नत मांगने लाहौर चली गयीं। मजार पर चढ़ाने के लिए जो कामदार रेशमी चादर वो साथ ले गयीं थीं, उसमें न जाने कैसे शाम को आग लग गयी। लोगों ने कहा कि वजीफा उल्टा पड़ गया। कृपा-दृष्टि न होनी हो तो भेंट स्वीकार नहीं होती। वो रात उन्होंने रोते गुजारी। सुब्ह को नमाज पढ़ते हुए सिजदे की हालत में परलोक सिधार गयीं। दमे और दिल की बीमारी थी। लाहौर में ही मियानी साहब कब्रिस्तान में दफ्न हैं।
मां की मौत के बाद उनके घर में चूल्हा नहीं जला। उन्होंने मकान का बाकी हिस्सा किराये पर उठा दिया। किरायेदार ने पंद्रह साल से वो भी देना बंद कर दिया है। सुना है अब उल्टा इनको कमरे से निकालने के लिए कानूनी कारवाई करने वाला है।
चपरासी की नौकरी का स्वर्णकाल : बशीर चपरासी से मिलने गया। बिल्कुल बूढ़ा फूस हो गया है, मगर बंदूक की नाल की तरह सीधा, जरा जोश में आ जाये तो आवाज में वही कड़का। कहने लगा मियां! बेगैरत हूं, अब तो इसलिए जिंदा हूं कि अपने छोटों को, अपनी गोद में खिलाये हुओं को कंधा दूं। हमारा भी एक जमाना था। अब तो पसीना और सपने आने भी बंद हो गये। छटे छमाहे कभी सपने में खुद को घंटा बजाते देख लेता हूं तो तबियत दिन-भर चोंचाल रहती है। अल्लाह का शुक्र है अभी हाथ-पैर चलते हैं। मास्टर समी `उल` हक मुझसे उम्र में पूरे 12 बरस छोटे हैं, तिस पर ये हाल कि याददाश्त बिल्कुल खराब, पेट उससे जियादा खराब। लोटा हाथ में लिए खड़े हैं और यह याद नहीं आ रहा कि पाखाने जा रहे हैं या होकर आ रहे हैं। अगर आ रहे हैं तो पेट में गड़गड़ाहट क्यों हो रही है? और जा रहे हैं तो लोटा खाली क्यों हैं?
मुझे हर लड़के का हुलिया और हरकतें याद हैं। मियां! आपकी गिनती ठीक-ठाक शक्ल वालों में होती थी। हालांकि सर मुंडाते थे। मुल्ला आसी औरतों की तरह बीच की मांग निकालता था। आपका दोस्त आसिम गले में चांदी का तावीज पहनता था। जिस दिन उसका मैट्रिक का पर्चा था, उसी दिन सुब्ह उसके वालिद की मौत हुई। जब तक वो पर्चा करता रहा, मैं खड़ा अलहम्द और आयतुल-कुर्सी पढ़ता रहा। दो बार आधा-आधा गिलास दूध पिलाया और जिस साल कोयटा में भूकंप आया, उसी साल आपके दोस्त गजनफर ने इंजन के सामने आ कर आत्महत्या की थी। अपने बाप का इकलौता बेटा था। पर मेरे तो सैकड़ों बेटे हैं। कौन भड़वा कहता है - बशीर बेऔलादा है।
शराफत से गाली देने वाले : फिर कहने लगा ये भी मालिक की कृपा है कि सही वक्त पर रिटायर हो गया। नहीं तो कैसी दुर्गत होती। अल्लाह का शुक्र है चाक चौबंद हूं। बुढ़ापे में बीमारी लानत है। फालतू तंदुरुस्ती को आदमी काय पे खर्च करे। मियां! हट्टा-कट्टा बुड्ढा न घर का न घाट का। उसे तो घाट की हेर फेरी में ही मजा आवे है। चुनांचे पिछले साल टिलकता हुआ स्कूल जा निकला। देखता-का-देखता रह गया। चपरासी साहब बिना चपरास, बिना अचकन, बिना पगड़ी-टोपी के कुदकड़े मारते फिर रहे थे। मियां! मैं तो आज तक पाखाने भी बिना टोपी के नहीं गया, और न कभी बगैर लंगोट के नहाया।
एक दिन हमीदुद्दीन चपरासी ने अपनी अचकन रफूगर को रफू करने के लिए दी और सिर्फ कुरता पहने ड्यूटी करने लगा। हैड मास्टर साहब बोले कि आज तुम बच्चों के सामने काय को नंगी तलवार से फिर रहे हो? हमारे जमाने में चपरासी का बड़ा रौब हुआ करता था। हैड मास्साब सलाम करने में हमेशा पहल करते। आपने तो देखा ही है, मुझे आज तक किसी टीचर ने बशीर या तुम कह कर नहीं पुकारा और मैंने भी किसी छोटे को तुम नहीं कहा।
एक बुरी जबान वाले हैडकांस्टेबल ने मुझे एक बार भरे बाजार में `अबे परे हट` कह दिया। मैं उस टेम अपनी सरकारी यूनिफार्म में था। मैंने उसे दोनों कान पकड़ के हवा में उठा लिया। ढाई मन की लाश थी। मैंने जिंदगी में बड़े-से-बड़े तीसमारखां का घड़ियाल बजा दिया। आजकल के तो चपरासी शक्ल-सूरत से चिड़ीमार लगे हैं। हमारे जमाने के रख-रखाव, अदब-आदाब कुछ और ही थे। शरीफ लोगों की जबान पर तू और तेरी नहीं आता था। गाली भी देते तो आप और आपकी कहते थे, मियां! आपके दादा बड़े गुस्सैल थे पर बड़ी तहजीब से गाली देते थे। संबोधित के स्तर के अनुसार भोंदू, भटियारा, भड़भूजा, भांड। कोई बहुत ही बेशर्म हुआ तो भाड़ू, भड़वा कह दिया। एक दिन उर्दू टीचर कहने लगा, वो बड़े भारी विद्वान हैं। गाली नहीं बकते, अलंकार पहनाते हैं। कमाल के टीचर थे। उनकी बातें दिल में ऐसे उतरती थीं जैसे बावली में सीढ़ियां। किस कारण कि मुझ जैसे कम पढ़े-लिखे का आदर करना जानते थे। मियां! आजकल के घमंडी मास्टर अपने-आपको सबसे बड़ा समझते हैं। नया ज्ञान इन्हें यूं चुभे है जैसे नया जूता। पर सारा समंदर डकोस के और सारी सीपियां निगल के एक भी मोती नहीं उगल सकते।
आखिरी घंटा : ये कह के बशीर चचा देर तक पोपले मुंह से हंसता रहा। अब तो मसूढ़े भी घिस चले मगर आंख में अभी तक वही ट्विंकल, फिर टूटे मूढ़े पर अकड़ कर बैठ गया। शेखी ने, थोड़ी देर के लिए ही सही गर्दन, हाथ और आवाज का कांपना दूर कर दिया। कहने लगा, मियां! यकीन जानो, घंटा सुन के मुझे तो हौल आने लगा। अब हर घसियारा-डोम दिहाड़ी घंटा बजाने लगा है। अब तो सत्यानासी ऐसे घंटा बजावे हैं, जैसे दारू पी के होली का ढोल पीट रहे हों। ऐसे में बच्चे क्या खाक पढ़ेंगे। पांचवां घंटा तो मैंने जैसे-तैसे सुना, फिर फौरन से पहले भाग लिया। किस वास्ते कि छटा घंटा सुनना बर्दाश्त से बाहर था। बूढ़ा खून एक बार खौल जाये तो फिर बड़ी मुश्किल से जा कर ठंडा होवे है।
मुझे पंद्रह साल की नौकरी और जूतियां सीधी करने के बाद घंटा बजाने के अधिकार मिले थे। उस जमाने में घंटा बजाने वाला सम्मानित और अधिकार वाला होता था। एक दिन हैडमास्टर साहब के घर से खबर आई कि घरवाली के यहां बाल-बच्चा लगभग हुआ चाहता है, हड़बड़ी में वो सालाना इम्तहान के परचे मेज पर खुले छोड़ गये। उस रात मैं घर नहीं गया। रात भर परचों पर सरकारी वर्दी पहने सांप बन कर बैठा रहा। इसी तरह एक बार की बात है - भूगोल के मास्टर को मुझसे और मुझे उनसे अकारण दुश्मनी हो गयी। मियां अनुभव की बात बताता हूं। अकारण दुश्मनी और बदसूरत औरत से प्यार, वास्तव में दुश्मनी और प्यार की सबसे निखालिस और खतरनाक किस्म हैं। किस वास्ते कि ये शुरू ही वहां से होती है जहां अक्ल खत्म हो जावे है।
मतलब ये कि मेरी मत तो दुश्मनी में मारी गयी थी मगर उसकी अक्ल का दिया एक बदसूरत औरत ने बुझाया, जो मेरे ही मुहल्ले में रहती थी। मुहब्बत अंधी होती है, चुनांचे औरत का सुंदर होना जुरूरी नहीं। बस मर्द का अंधा होना काफी होता है। ये कह कर बशीर चचा पेट पकड़ कर पोपले मुंह से हंसा। आंखों से भी हंसा। फिर कहने लगा हमारी जवानी में काली-कलूटी औरत को काली नहीं कहते थे, सांवली कहते थे। काली से अफीम और शक्ति की देवी अभिप्रेत होती थी। तो मैं कहने यह चला था कि जब भूगोल का मास्टर नवीं-दसवीं का घंटा लेता तो मैं घंटा दस मिनट देर से बजाने लगा। वो तीसरे ही दिन चीं बोल गया। दूसरे टीचर भी त्राहि-त्राहि करने लगे। मुझे स्टाफ रूम में कुर्सी पे बिठाल के बोले, `बशीर मियां अब गुस्सा थूक भी दो, घुन के साथ हमें काय को पीस रहे हो।`
मैंने हमेशा अपने मर्जी और अटकल से घंटा बजाया। बंदा कभी घड़ी का गुलाम नहीं रहा। मेरे अंदर की टिक-टिक ने मुझे कभी धोखा नहीं दिया। अपनी मर्जी का मालिक था। मजाल है कोई मेरे काम में टांग अड़ाये। अपने कानपुर के मौलाना हसरत मोहानी की मौत हुई तो कसम खुदा की, किसी से पूछे-पाछे बगैर मैंने छुट्टी का घंटा बजा के स्कूल बंद करवा दिया। गुलाम रसूल एक डरपोक क्लर्क था। बोला कि बशीर! तेरी खैर नहीं। डायेरक्टर ऑफ एजुकेशन तुझसे जवाब-तलब करेगा। मैं बोला, सेवक का जवाब ये होगा कि महामहिम निश्चिंत रहें, जब आप स्वर्गवासी होंगे तब भी बिना पूछे छुट्टी का घंटा बजा कर स्कूल बंद कर दूंगा।
पर जब वल्लभ भाई पटेल के मरने की सूचना मिली तो हैड मास्साब ने कहा बशीर! छुट्टी का घंटा बजा दो। मैंने दो बार सुनी-अनसुनी कर दी। तीसरी बार उन्होंने फिर कहा तो उधर को मुंह फेर के लुंज-लुंजे हाथ से बजा दिया। किसी ने सुना किसी ने नहीं सुना। सन सैंतालीस के बाद तो केवल हाते की दीवार की परछाईं देख कर घंटा बजाने लगा था। पास-पड़ौस वाले घंटे से अपनी घड़ियां मिलाते थे। रिटायर हुए अब तो पंद्रह बरस होने को आये पर अब भी पहले और आखिरी घंटे के समय सीधे हाथ में चुल-सी उठती है। बुरी तरह फड़कने लगता है।
कोई सोच नहीं सकता नौकरी का आखिरी दिन आदमी पे कितना भारी होवे है। मेरा आखिरी दिन था और मैं आखिरी घंटा बजाने जा रहा था कि रस्ते में एकाएकी जी भर आया। वहीं बैठ गया। मजीद चपरासी को मूंगरी थमते हुए बोला, `बेटा मुझमें इसकी ताकत नहीं, अपना चार्ज यहीं संभाल ले। कूच-नगाड़ा तू ही बजा।` फिर हेड मास्साब से मिलने गया तो वो बोले कि बशीर मियां, मास्टर लोग तुम्हें विदाई भेंट के रूप में एक अच्छी-सी घड़ी देना चाहते हैं। मैंने कहा, जनाबे-अली, मैं घड़ी ले के क्या कंरूगा? मुझे कौन सी टाइमकीपरी करनी है। जब घंटा ही घड़ी देखे बिना बजाता रहा तो अब अंतिम समय में कौन-सा काम है, जो घड़ी देख के करूंगा। अलबत्ता कुछ देना ही है तो ये चपरास (वर्दी) दे दीजिये। चालीस साल पहनी है। कहना पड़ेगा कि हैड मास्साब का दिल बड़ा था। त्योरी पे बल डाले बिना बोले, `ले जाओ` वो सामने खूंटी पर टंगी है। तीन चार महीने में एक बार इसके पीतल को नींबू से झमाझम चमका लेता हूं। अब हाथों में पहली-सी ताकत नहीं रही। चपरास के बिना कंधा बिल्कुल खाली-खाली उलार-सा लगे है। कभी-कभी पालिश के बाद गले में डाल लेता हूं तो आप ही मेरा कूबड़ निकल जाता है। घड़ी भर के लिए पहले की तरियों चलत-फिरत आ जावे है।
मियां! 1955 की बात है। जबरदस्ती स्कूल बंद करवाने पे तुले सैकड़ों हड़ताली गुंडों ने धावा बोल दिया। हाथापाई-मारामारी पे उतारू थे। मासूम बच्चे रुआंसे, टीचर हरियान, हैड मास्साब परेशान, मुझसे न देखा गया। मैंने ललकारा कि किसी माई के लाल की ताकत नहीं कि मेरे घंटा बजाये बिना स्कूल बंद करा दे। मनहूसो! मेरे सामने से हट जाओ, नईं तो अभी तुम सब का घड़ियाल बजा दूंगा। हैड मास्साब ने पुलिस को फोन किया। थानेदार ने कहा, आपकी आवाज साफ सुनाई नहीं दे रही। मैंने गुस्से में आन के रिसीवर एक गज डोरी समेत जड़ से उखाड़ लिया। फिर मैं एक हाथ में कागज काटने का नंगी तलवार का-सा चाकू और दूसरे में रिसीवर लठ की तरह यूं हवा में दायें-बायें, शायें-शायें घुमाता, फुल सरकारी यूनिफार्म डाटे, बंकारता-डकारता आगे बढ़ा तो जनाबे-वाला! काई-सी छंट गयी। सरों पे मौत मंडरा रई थी। कोई यहां गिरा, कोई वहां गिरा, जो नहीं गिरा उसे मैंने जा लिया।
उस वक्त बशीर चाचा की आंख में वही ट्विंकल थी जो सारी उम्र शरीर बच्चों की संगत में रहने से पैदा हो गयी है। बच्चों ही की तरह जागते में सपने देखने की आदत पड़ गयी है।
पांयती बैठने वाला आदमी : उसने घंटा बजाने की कला की कई ऐसी बारीकियों की तरफ ध्यान आकर्षित किया, जिनकी तरफ कभी ध्यान नहीं गया था। जैसे यही कि पहले घंटे में वो मूंगरी खींच कर घड़ियाल के ठीक दिल में मारता था। एक अटलपन और आदेशात्मक संक्षेप के साथ। खेल के घंटे का ऐलान तेज सरगम में किनारे की झन-झन से करता। सोमवार के घंटों का ठनाका सनीचर की ठठ्ठे मारती ठनठन से बिल्कुल अलग होता था। कहने लगा मियां, नयी पीढ़ी के च्मवदे को सुब्ह, दोपहर और तीन पहर के मिजाज का फर्क मालूम नहीं। उसने खुल कर तो दावा नहीं किया, मगर उसकी बातें सुनकर मुझे सचमुच महसूस होने लगा कि वो सुब्ह का पहला घंटा अपने हिसाबों भैरवी में ही बजाता होगा।
जितनी देर मैं वहां बैठा वो हिर-फिर के अपने काम का बखान करता रहा। वो चपरासी न होता, कुछ और होता तो भी अपना काम इतना जी-लगा कर ही नहीं बल्कि जी-तोड़ कर करता। जब आदमी अपने काम पर गर्व करना छोड़ दे तो बहुत जल्दी शिथिल और निकम्मा हो जाता है। फिर वो अपने काम को भी सचमुच जलील और घटिया बना देता है। बशीर चाचा कहने लगा कि मेरे रिटायरमेंट से कुछ महीने पहले हैड-मास्साब ने सिफारिश की कि पुराना नमकख्वार है, इसकी तन्ख्वाह खास तौर से बढ़ा दी जाये। इस पर महकमे से उल्टा हुक्म आया कि इसकी पेंशन कर दी जाये। ये तो वही कहावत हुई कि मियां नाक काटने को फिरें, बीबी कहे नथ गढ़ा दो। रिटायरमेंट का कारण ये बताया कि एक चपड़कनात इंस्पेक्टर ने मेरे बारे में अपनी रिपोर्ट में लिखा कि ये चपरासी बहुत बूढ़ा हो गया है। कमर झुक गयी हैं और लंगड़ाने भी लगा है। मियां! खुदा की शान देखो कि छः महीने बाद इसी कुबड़े और लूले लंगड़े बूढ़े ने उसे कंधा देकर आखिरी मंजिल तक पहुंचाया। रहे नाम अल्लाह का।
फिर कहने लगा, हमारे जमाने में पलंग, चारपायी पर ही चौपाल जमती थी। बुजुर्गों की नसीहत थी कि चारपायी पर कभी सिरहाने की तरफ मत बैठो ताकि कोई तुमसे बड़ा आ जाये तो जगह न छोड़नी पड़े। सो सारी जिंदगी पांयती बैठे गुजारी। मियां, अब तो नैया किनारे आन लगी। गरीब पैदा हुआ, गरीब ही मंरूगा। पर मौला का करम है किसी का दबैल नहीं। मैंने अपनी चपरास को हमेशा जेवर समझा और यूनिफार्म को खिलअत (शाही बख्शिश की पोशाक) जान कर पहना।`
उसने ये भी कहा कि हर साल लड़कों की एक नयी खेप आई, पर एक लड़का ऐसा नहीं कि जिसे इसने नसीहत न की हो। अपनी सुनहरे चपरासी-काल में नौ हैड-मास्टरों और तेरह इंस्पेक्टरों को भुगता दिया। सब अपनी-अपनी बोलियां बोल कर उड़नछू हो गये। फकीर ने बड़े-बड़ों का घड़ियाल बजा दिया। यह कहते हुए उसकी हिलती हुई गर्दन अकड़ गयी और उसने सीना तान लिया। अपनी खांसी रोकते हुए बोला, `हैड मास्साब ने कई बार कहा कि मैं तुमको प्रोमोट करके सब चपरासियों, भिश्ती, मेहतरों वगैरह मुलाजिमों के ऊपर अफसर बनाना चाहता हूं। पर मैंने कह दिया कि जिंदगी में बड़े-बड़े अफसर टांग के नीचे से निकाल दिये। अफसरी, घमंड का ताज है। आपका गुलाम इसे जूती की नोक पे रखता है।` कहानियां गढ़ते-गढ़ते बशीर चाचा उन्हें सच भी समझने लगा है। बुढ़ापे में कपोल कल्पनायें सच मालूम देती हैं।
अब भी हमारे आगे यारो जवान क्या है : मैंने उसका दिल खुश करने के लिए कहा, `चचा तुम तो बिल्कुल वैसे के वैसे ठांठे रखे हो, क्या खाते हो?` ये सुनते ही लाठी फेंक, सचमुच सीना तान के, बल्कि पसलियां तान के खड़ा हो गया। कहना लगा, `सुब्ह निहार-मुंह चार गिलास पानी पीता हूं। एक फकीर का टोटका है। कुछ दिन हुए मुहल्ले वाले मेरे कने झुंड बना के आये। आपस में खुसर-पुसर करने लगे। मेरे सामने बात करने का हिसाब नहीं पड़ रहा था। मैंने कहा, बरखुरदारो! कुछ मुंह से फूटो, अर्ज और गरज में काहे की शर्म। कहने लगा, चचा, तुम्हारे औलाद नहीं है, दूसरी शादी कर लो। अभी तुम्हारा कुछ भी तो नहीं बिगड़ा। जिस कुंवारी की तरफ भी नजरों से इशारा कर दो, कच्चे धागे में बंधी चली आयेगी। हम खुद रिश्ता ले कर जायेंगे। मैं बोला, पंचायत का फैसला सर-आंखों पर। पर `जवान जोखों` का काम है। सोच कर जवाब दूंगा। किस वास्ते कि मेरी एक बीबी मर चुकी है। ये भी मर गयी तो सह नहीं सकूंगा। जरा दिल्लगी देखो। उनमें का एक बकबक करने वाला लौंडा बोला कि चचा, ऐसा ही है तो किसी पक्की उम्र की सख्त-जान लुगाई से निकाह कर लो। बिलकीस दो बार रांड हो चुकी है। मैंने कहा, हुश्त! क्या खूब! `घर के पीरों का, तेल का मलीदा।` साहब! मलीदे के जुमले को अब कौन समझेगा। यूं कहिये कि मुर्दे का शिकार करने के लिए घुड़सवार होने की जरूरत नहीं होती।
मैंने छेड़ा, `चचा! अब बुढ़ापे में नयी खयालों की बीबी से निकाह करना, उसे काबू में रखना बड़ा मुश्किल काम है।` बोला, `मियां, आपने वो पुरानी कहावत नहीं सुनी कि हजार लाठी टूटी हो मगर घर-भर के बरतन-बासन तोड़ने को बहुत है।` ये कह के लाठी पे सर टेक के इतनी जोर से हंसा कि दमे का दौरा पड़ गया। दस मिनट तक खूं-खूं, खुस-खुस करता रहा। मुझे तो हौल आने लगा कि सांस आयेगा भी कि नहीं।
गौतम बुद्ध बतौर पेपर वेट : एक दिन मुल्ला आसी से तय हुआ कि इतवार को लखनऊ चलेंगे और वो हसीन शहर देखेंगे जिस पर अवध की शाम समाप्त हुई। लखनऊ के आशिक और शब्दों में मोती पिरोने वाले मौलाना अब्दुल हलीम शरर ने शालीनता के शहर का ये अध्याय डूबते हुए सूरज की लाली से लिखा है। चालीस बरस बाद अकेले देखने का किसमें हौसला था। लोगों ने डरा दिया था कि जिंदगी और जिंदादिली का वो संगम जिस पर सारी रौनकें और रंगीनियां खत्म थीं, हजरतगंज - अब हसरतगंज दिखलाई देता है साहब! लखनऊ हॉन्टिड (भुतहा) शहर हो न हो, अपना दिमाग तो हॉन्टिड हई है। मुझे तो एक साहब ने ये कह के भी दहला दिया कि तुम्हें चारबाग रेलवे स्टेशन का नाम अब सिर्फ हिंदी में लिखा नजर आयेगा। अलबत्ता कब्रों के पत्थर अब भी निहायत खूबसूरत उर्दू में लिख जाते हैं। ऐसी खूबसूरत लिखाई और ऐसे मोती पिरोने वाले लेखक तुम्हें पाकिस्तान में ढूंढे से ही मिलेंगे। मैं मेहमान था। चुपका हो रहा। दो दिन पहले मैंने एक दिल्ली वाले से सीधे सुभाव कहीं ये कह दिया कि दिल्ली की निहारी और गोले के कबाब दिल्ली के मुकाबले कराची में बेहतर होते हैं। अरे साहब! वो तो सर हो गये। मैंने कान पकड़े।
आसी तय समय पर नहीं आये। पहले तो गुस्सा आया फिर चिंता होने लगी। उनके कमरे पर गया। दरी पर पुराने पीले कागजात, फाइलें, तीस बरस के सैकड़ों बिल और रसीदें फैलाये, उनके बीचों-बीच पंजों के बल बैठे थे। मेंढक की तरह फुदक कर वांछित कागज तक पहुंचते, जिस कागज का बाद में गौर से मुआयना करना हो उस पर बुद्ध की मूर्ति रख देते थे। तीन बुद्ध थे उनके पास। आंखें मूंदे हौले-हौले मुस्कुराते हुए बुद्ध। बीबी को सोता छोड़ कर घर से जाते हुए जवान बुद्ध। महीनों की लगातार भूख से हड्डियों का पिंजर बुद्ध। इन तीनों बुद्धों को वो इस समय बतौर पेपरवेट इस्तेमाल कर रहे थे। मैं तेज-तेज पैदल चल कर आया था। पसीने में शराबोर मलमल का कुर्ता प्याज की झिल्ली की तरह चिपक गया। कमरे में घुसते ही मैंने पंखा ऑन किया तो स्विच के शॉक से पजड़ खा कर फर्श पर गिरा। खैर साहब, इसे ऑन करना था कि कमरे में आंधी आ गयी और सैकड़ों पतंगें उड़ने लगीं। यहां तक कि हम एक-दूसरे को नजर आने बंद हो गये। उनका तीस साला फाइलिंग सिस्टम उड़ान भर रहा था।
उन्होंने लपक कर लकड़ी की खड़ावें पहनीं और पंखा बंद किया। चालीस-पचास साल पुराना पीतल का स्विच शॉक मारता है। ऑन और ऑफ करने से पहले खड़ाऊं न पहनो तो मृत्यु घटित होने की संभावना रहती है। फिर उन्होंने दौड़-दौड़ कर अपने दफ्तर के बल्कि जिगर के टुकड़े इस तरह जमा किये जिस तरह लौंडे पतंग लूटते हैं। कहने लगे, भाई! माफ करना, आज लखनऊ साथ न जा सकूंगा। एक आकस्मिक उलझेड़े में फंस गया हूं।
मुर्गा बनने की खासियत : साहब! वो उलझेड़ा ये था कि नगर पालिका ने पानी का जो बिल उन्हें कल भेजा था, उसमें उनके पिता का नाम एजाज हुसैन के बजाय एजाज अली लिखा था। इससे पहले उन्होंने लिखाई की ये गलती नोट नहीं की थी। अब वो बीते तीस साल के सारे बिल चैक कर रहे थे कि इस गलती की शुरुआत कब हुई। किसी और विभाग के बिल या सरकारी लिखापढ़ी में ये वल्दियत है कि नहीं। अगर है तो क्यों है? और नहीं है तो क्यों नहीं है?
खोज-बीन के क्षेत्र का एक विस्तार ये भी निकला कि जल विभाग को वल्दियत से क्या सरोकार। इसी का एक उपप्रश्न ये भी निकला कि और विभागों के बिल में संबंधित बाप की निशानदेही होती है कि नहीं। मैंने कहा कि मौलाना! बिल पैक कीजिये और खाक डालिए। क्या फर्क पड़ता है। बोले, फर्क की भी एक ही कही, अगर बाप के नाम से फर्क नहीं पड़ता तो दुनिया की किसी भी चीज से नहीं पड़ेगा।
पांचवीं क्लास में मैंने शाहजहां के बाप का नाम हुमायूं बता दिया तो मास्टर फाखिर हुसैन ने मुर्गा बना दिया। वो समझे, मजाक कर रहा हूं। यह गलती न करता तो और किसी बात पर मुर्गा बना देते। अपनी पढ़ाई का काल तो इसी पोज में गुजरा। बेंच पर आना तो उस समय होता था जब मास्टर कहता कि अब बेंच पर खड़े हो जाओ। अब भी कभी पढ़ाई के काल के सपने देखता हूं तो या तो खुद को मुर्गा बना देखता हूं या वो अखबार पढ़ता हुआ देखता हूं, जिसमें मेरा रोल नंबर नहीं होता था। मिस्टर द्वारिका दास चतुर्वेदी, डायरेक्टर ऑफ एजुकेशंस हाल में योरोप और अमरीका का दौरा करके आये हैं। सुना है, उन्होंने अपनी रिपोर्ट में लिखा है कि दुनिया के किसी और मुल्क ने मुर्गा बनाने का पोज डिस्कवर ही नहीं किया है। मैंने तंग आकर तुर्की-टोपी ओढ़नी छोड़ दी थी। मुर्गा बनता तो उसका फुंदना आंखों से एक इंच की दूरी पर पूरे समय पेंडुलम की तरह झूलता रहता था - दायें-बायें! पीरियड के आखिर में टांगें बुरी तरह कांपने लगतीं तो फुंदना आगे पीछे झूलने लगता। इसमें तुर्कों की तौहीन का पहलू भी निकलता था जिसे मैं बर्दाश्त न कर पाया। वो दिन है और आज का दिन, मैंने किसी-भी किस्म की टोपी नहीं ओढ़ी।
मैंने वाक्य चिपकाया, महात्मा बुद्ध भी तो नंगे सिर रहते थे। वाक्य को इग्नोर करते हुए कहा, आपने कभी ध्यान दिया, जब से लड़कों का मुर्गा बनाना बंद हुआ है शिक्षा और शालीनता का स्तर गिर गया है। वैसे तो मैं अपने छात्रों की हर नालायकी बर्दाश्त कर लेता हूं लेकिन अशुद्ध उच्चारण पर आज भी खट-से मुर्गा बना देता हूं। जिस्म से चिपकी हुई जींस पहनने की अनुमति नहीं देता। इसलिए कि इससे फारसी शब्दों के उच्चारण, पेशाब करने और मुर्गा बनने में दिक्कत आती है मगर आजकल के लौंडों की टांगें पांच मिनट में लड़खड़ाने लगती हैं।
मैं अपने जमाने के ऐसे लौंडों को जानता हूं जो बीस-बीस बेंत खाने पर भी `सी` नहीं करते थे। एक तो एस.पी. होकर रिटायर हुआ। दूसरा देहात सुधार विभाग में डायरेक्टर हो गया था। अब वैसे शरारती और तगड़े लड़के कहां? दरअस्ल तब करैक्टर बहुत मजबूत होता था। बस यूं समझो, जैसे रसायन बनाने में एक आंच की कसर रही जाती है? इसी तरह आजकल की शिक्षा में एक बेंत की कसर रह जाती है।
एक कटोरा चांदी का : उस दिन सख्त गर्मी थी। कोई चौथाई शताब्दी के बाद नारियल के डोंगे से पानी निकाल कर उसी कटोरे से पिया। अंदर सूरे-यासीन (कुरआन की आयत) खुदी हुई है, ठोस चांदी का है। आपने कटोरे सी आंख का मुहावरा सुना है? साहब मैंने देखी हैं। शाम को जब हम फुटबाल खेल कर लौटते तो इसके पतले किनारे को होठों के बीच में लेते ही लगता था कि ठंडक रग-रग में उतर रही है। इसी कटोरे में शहद घोल कर मुल्ला आसी को पैदा होते ही मां के दूध से पहले चटाया गया। इसी कटोरे से अंतिम समय में उनके दादा और पिता के मुंह में आबे-जमजम चुवाया गया था। अब भी आये दिन लोग मांग कर ले जाते हैं और बीमार को पानी पिलाते हैं। मैंने पीने को तो पानी पी लिया मगर अजीब-सा लगा। खुदे हुए अक्षरों में काला सियाह मैल भरा हुआ था।
साहब, सच्ची बात ये कि पानी आज भी उतना ही ठंडा है, कटोरा भी वही। पीने वाला भी वही मगर वो पहली-सी प्यास कहां से लायें।
यूं तो घर में एक मुरादाबादी काम का गिलास भी है। उन्हीं का हमउम्र होगा। पहली बार उनसे मिलने गया तो एक शिष्य को दौड़ाया। वो कहीं से एक पुड़िया में शक्कर मांग कर लाया। उन्होंने इसी गिलास में उल्टी पेंसिल से घोल कर शरबत पिलाया। मैं तो शक्कर के शरबत का स्वाद भी भूल चुका था। हमारे बचपन में अक्सर इसी से मेहमान की खातिर होती थी। सोडे और जिंजर की बोतल तो केवल बदहज्मी और हिंदू मुस्लिम दंगों में इस्तेमाल की जाती थीं।
शेर (शाह) लोहे के जाल में है : देखिये मैं कहां आ निकला। बात बिलों से शुरू हुई थी। जब उन्होंने अपना बिखरा हुआ दफ्तर समेट लिया तो मैंने फिर पंखा ऑन करना चाहा, मगर उन्होंने रोक दिया। कहने लगे, माफ करना, शेरशाह बीमार है, पंखे से बुखार और तेज हो जायेगा। मैंने चारों तरफ नजर दौड़ायी। इस नाम का बल्कि किसी भी नाम का, कोई बीमार नजर नहीं आया। और आता भी कैसे, शेरशाह दरअस्ल उस बीमार कबूतर का नाम था, जो कोने में एक जालीदार नेमतखाने में बंद था। ऐसे नेमतखाने, उस जमाने में रेफ्रिजरेटर की जगह इस्तेमाल होते थे। लंबाई चौड़ाई भी लगभग वही। लकड़ी के दो तीन मंजिला फ्रेम पर चारों तरफ लोहे की महीन जाली मढ़ी रहती थी, जिसका प्रत्यक्ष उद्देश्य हवा पहुंचाना, लेकिन वास्तविक उद्देश्य मक्खियों, बिल्लियों, चूहों और बच्चों को खाने से दूर रखना था। उसके पायों के नीचे पानी से भरी चार पियालियां रखी होती थीं, जिसमें उन चटोरी चींटियों की लाशें तैरती रहती थीं जो जान पर खेल कर, यह खंदक पार करके वर्जित खाद्य-सामग्री तक पहुंचना चाहती थीं। ये नेमतखाने डीप फ्रिज और रेफ्रिजरेटर से इस लिहाज से बेहतर थे कि इन में रखा हुआ बेस्वाद खाना नौ-दस घंटे बाद ही सड़ जाता था। उसे रोज निकाल कर हफ्तों नहीं खिलाया जाता था। ऐसे नेमतखाने उस समय में हर खाते-पीते घराने में होते थे। निचले कम आमदनी वाले तबके में छींका इस्तेमाल होता था। जबकि गरीबों के यहां रोटी की स्टोरेज के लिए आज भी सबसे सुरक्षित जगह पेट ही होती है।
उल्लेखित नेमतखाना 1953 से मुल्ला आसी के बीमार कबूतरों का इंटेंसिव केयर यूनिट है। उस दिन लखनऊ जाने का एक कारण ये भी था कि वो बीमार कबूतर को अकेला छोड़ कर सैर-सपाटे के लिए जाना नहीं चाहते थे। एक कबूतरी नूरजहां अचानक मर गयी तो दस बारह दिन तक घर से नहीं निकले, क्योंकि उसके बच्चे बहुत ही छोटे और गाउदी थे, उन्हें सेते रहे। द्रोपदी नाम की एक अनारा (लाल आंखों वाली) कबूतरी की चोंच टूट गयी, उसे महीनों अपने हाथ से चुग्गा खिलाया। उन्होंने हर कबूतर का एक नाम रख छोड़ा है। इस वक्त एक लक्का कबूतर, रंजीत सिंह नाम का, दरवाजे के सामने सीना और दुम फुलाये, दूसरे संप्रदाय की कबूतरियों के आसपास इस तरह चक्कर लगा रहा था कि अगर वो इंसान होता तो सांप्रदायिक दंगों में कभी का मारा जा चुका होता। `न कभी जनाजा उठता न कहीं शुमार होता।`
कबूतरों की छतरी : कबूतरबाजी इनका पुराना शौक है। इनके वालिद को भी था। मेरे वालिद भी पालते थे। कबूतर की श्रेष्ठता के तो आपके मिर्जा अब्दुल वदूद बेग भी कायल हैं। सच्चे शौक और हॉबी की पहचान ये है कि बिल्कुल फजूल और निरर्थक हो। जानवर को इंसान किसी न किसी फायदे और स्वार्थ के तहत पालता है। उदाहरण के लिए कुत्ता वो दुखियारे पालते हैं, जो मुसाहिब और दरबारी अफोर्ड नहीं कर सकते। कई लोग कुत्ता इस भ्रम में पाल लेते हैं कि उसमें छोटे भाई की खूबियां होंगी। बकरी इस विचार से पालते हैं कि उसकी मेंगनी दूध में मिला कर जवाब में उर्दू आलोचकों को पिलायेंगे। हाथी अधिकतर वो अमीर लोग पालते थे, जिन्हें बादशाह कुपित हो कर सजा के तौर पर हाथी मय-हौदा-चांदी के बख्श देता था कि जाओ! अब इसे सारी उम्र खिलाते, ठुंसाते रहो। तोते को अरमानों से इस लिए पालते हैं कि बड़ा होकर अपनी बोली भूल जायेगा और सारी उम्र हमारा सिखाया हुआ बोल दुहराता रहेगा। मौलवी मुर्गे की अजान सिर्फ मुर्गी के लालच में बरदाश्त करते हैं और 1963 में आपने बंदर केवल इस लिए पाला था कि उसका नाम डार्विन रख सकें।
लेकिन साहब! कबूतर को केवल इसलिए पाला जाता है कि वो कबूतर है और बस, लेकिन मुल्ला आसी के एक पड़ौसी सैदुल्ला खां आशुफ्ता ने कसम खा-कर कहा कि एक दिन कड़ाके की सर्दी पड़ रही थी। वो सुब्ह छह बजे गर्म कश्मीरी चाय की केतली लेकर उनके यहां गये तो देखा कि कमरा ठंडा बर्फ हो रहा है और वो गरमायी के लिए हाथों में एक-एक कबूतर दबाये बोधिसत्व की मूर्ति के सामने ध्यान में डूबे हुए हैं। गुलू-ओ-गीबत, बर गरदने-रावी। (झूठ हो तो पाप, बताने वालों की गरदन पर)
एक दिन साथ में कबूतरों का जिक्र छिड़ गया तो कहने लगे, मैंने सुना है, वैसे विश्वास नहीं होता कि कराची में कबूतरों की एक भी छतरी नहीं। यारो! तुमने कैसा शहर बनाया है? जिस आसमान पर कबूतर, उषा की लाली, पतंग और सितारे न हों तो ऐसे आसमान की तरफ नजर उठा के देखने को जी नहीं चाहता। भाई अबरार हुसैन दिसंबर 1973 में कराची में थे। दो महीने रहे होंगे। आसमान हमेशा बादलों से घिरा रहा, केवल एक दिन दूरबीन की मदद से एक तारा नजर आया। वो पुच्छल तारा था। कह रहे थे कि कराची में लोग हम लखनऊ वालों की तरह पतंग, तीतर, मुर्गे और मेढ़े नहीं लड़ाते, खुद लड़ लेते हैं मगर सच तो ये है कि इस मुहल्ले में भी अब न कोई पतंग उड़ाता है न कबूतर। ले दे कि यही एक छतरी रह गयी है। लखनऊ का हाल इससे भी बुरा है और एक वो जमाना था कि तुम्हारे जाने के बाद, दिसंबर 1947 में अलीमुद्दीन ने, भाई! वही अपना शेखचिल्ली लड्डन - पाकिस्तान जाने के लिए बोरिया-बिस्तर बांध लिया था, मगर ऐन वक्त पर इरादा छोड़ दिया, किस लिए कि मास्टर अब्दुल शकूर बी.ए.बी.टी. ने उसे डरा दिया कि तुम ट्रेन में कबूतरों की छतरी साथ नहीं ले जा सकते और चोरी-छुपे ले भी गये तो वाहिगा बार्डर पर पाकिस्तान कस्टम वाले न जाने क्या समझ कर तुमको धर लें। भाई बिशारत! तुम तो पाकिस्तान जा कर परदेसी हुए। हम तो अपने शहर में बैठे-बैठे ही अजनबी हो गये। ये वो शहर थोड़ा ही है। वो शहर तो किस्सा कहानी हो गया। आकार बदल चुका है। अब इस मुहल्ले में 95 फीसद घरों में वैजिटेरियन रहते हैं। उनकी बिल्लियां गोश्त को तरस गयी हैं। चुनांचे सारे दिन मेरी छतरी के चारों तरफ मंडराती रहती हैं।
भई तुम्हें तो याद होगा, कोपर एलन एंड कंपनी का बड़ा साहब। क्या नाम था उसका? सर आर्थर अंस वूथ? उसकी मेम जब विलायत से सियामी बिल्ली लाई तो सर आर्थर ने कानपुर शहर के सारे बिल्लों को खस्सी करा दिया ताकि बिल्ली कुंवारी और पवित्र रहे। दो बंगले छोड़ कर अजमल बैरिस्टर रहते थे, कहने वाले तो यहां तक कहते थे कि एक रात उनके कुत्ते को भी पकड़ कर एहतियातन खस्सी करवा दिया। सन इकतालीस का किस्सा है - क्विट इंडिया आंदोलन से जरा पहले।
हम दोनों देर तक हंसते रहे। वो अब भी हंसते हैं तो बच्चों की तरह हंसे चले जाते हैं। फिर आंखें पोंछ कर एकाएक गंभीर हो गये। कहने लगे, अब मुझमें इतना दम नहीं रहा कि छत पर आवाज लगा कर सबको काबुकों में बंद करूं। सधे-सधाये कबूतर तो दिया-जले खुद आ-आ कर काबुक में दुबक जाते हैं, बकिया को शार्गिद घेर घार के बंद कर देते हैं। वही दाना-चुग्गा डालते हैं। शरीफों (उच्च वर्ग) के जितने शौक हैं, सब पर उतार आ गया है। शहर में ज्वार तक नहीं मिलती। पचास मील दूर एक गांव से मंगाता हूं। पटवारी मेरा शिष्य रह चुका है। आजकल के किसी ग्रेजुएट को पकड़ कर पूछ देखो, ज्वार, बाजरे और कंगनी का फर्क बात दे तो उसी के पेशाब से अपनी भवें मुंडवा दूं। निनानवे प्रतिशत ने जिंदगी में जौ नहीं देखे होंगे। अमां! क्या कराची का भी यही हाल है?
काला कबूतर और कुंवारी की बिल्ली : उनके सिड़ीपन की एक घटना हो तो सुनाऊं। मैट्रिक के समय ही (जब वो अपनी बाईसवीं सालगिरह मना चुके थे) उन्होंने यह ढंग चुन लिया था कि परीक्षाफल अखबार में नहीं देखते थे। चुनांचे अखबार लेना और पढ़ना और पढ़ने वालों से मिलना छोड़ देते थे। संभव है, इसका कारण उपेक्षा हो, डर भी हो सकता है। मिर्जा का विचार है कि अपनी सालाना नालायकी को `कोल्ड-प्रिंट` में फेस नहीं कर सकते थे। बहरहाल, परीक्षाफल आने से एक हफ्ता पहले अपने एक जिगरी दोस्त इमदाद हुसैन छौदी को अपना एक काला गिरहबाज और एक सफेद लोटन कबूतर दे आते। इमदाद हुसैन को ये इंस्ट्रक्शन थे कि जैसे ही अखबार में मेरे पास होने की खबर पढ़ो, फौरन सफेद लोटन कबूतर छोड़ देना और फेल हो जाऊं तो काला। फिर दिन भर खिड़की से आधा धड़ निकाल कर कभी आसमान और कभी छतरी को देखते कि कबूतर खबर लाया कि नहीं। हर साल मनहूस काले कबूतर को हलाल करके मरजीना (कुंवारी की बिल्ली का नाम) को खिला देते। ये बादशाहों वाली रीत उन्होंने बी.ए., तक बनाये रखी कि पुराने जमाने में बादशाह भी बुरी खबर लाने वाले एलची का सर धड़ से अलग करवा देते थे।
रिजल्ट वाले हफ्ते में घर में रोज कई बार रोना-पीटना मचता था। इसलिए कि उनकी मां और बहनें जैसे ही कोई काला कबूतर देखतीं, रोना पीटना शुरू कर देतीं। यूं तो छतरी पर दिन में कई बार सफेद कबूतर भी आते थे, मगर वो उनका कोई नोटिस नहीं लेती थीं। उन्हें भरोसा था कि गलती से आन बैठे हैं। आखिर में तीन-चार साल बाद रुला-रुला कर वो सफेद लोटन कबूतर आता जिसका इंतजार रहता था तो इस खुशी में अपने तमाम कबूतरों को, जिनकी तादाद सत्तर अस्सी के लगभग होगी, ज्वार की बजाय गेहूं खिलाते और सबको एक साथ उड़ाते।
दूसरे दिन उस कबूतर के पांव में चांदी की मुन्नी-सी पैंजनी (कबूतर की झांझन) डाल देते और उसकी काबुक में दस ताफ्ता (सफेद चमकीले रंग का कबूतर) पठोर कबूतरियां बढ़ा देते। कबूतरखाना तो हम रवानी में लिख गये, वर्ना हालत तो ये थी, जब उन्होंने बी.ए. पास किया तो मैट्रिक, इंटरमीडियेट और बी.ए. तीनों को मिला कर तीस अदद कबूतरियों की बढ़ोतरी के बाद उनका सारा घर इस सुसम्वाद लाने वाले कबूतर के निजी हरम में बदल चुका था। घर वालों की हैसियत उन कबूतरों के सेवक और बीट उठाने वालों से अधिक नहीं रही थी।
वो एक फौज जो इस तरह फौज से कम है
जिस दिन वो शेरशाह नाम के कबूतर की बीमारी के कारण मेरे साथ लखनऊ न जा सके, मैंने कुछ झुंझलाते हुए उनसे कहा, `खुदा के बंदे! दुनिया कहां से कहां पहुंच गयी है, अब इस कबूतरबाजी पे खाक डालो।` बोले, `तुम्हारे वालिद भी तो बड़े पाये के कबूतरबाज थे। मैं तो उनके सामने बिल्कुल अनाड़ी हूं। अब लोग इसे घटिया शौक समझने लगे हैं वर्ना ये केवल शरीफों का शौक हुआ करता था। मैंने कहीं पढ़ा था कि बहादुरशाह जफर की सवारी निकलती थी तो दो सौ कबूतरों की टुकड़ी ऊपर हवा में सवारी के साथ उड़ती जाती और बादशाह पर छांव किये रहती। जब वाजिद अलीशाह मटियाबुर्ज में बंदी बनाये गये तो उस गयी-गुजरी हालत में भी उनके पास चौबीस हजार से अधिक कबूतर थे, जिनकी देख-रेख पर सैकड़ों कबूतरबाज तैनात थे।`
मैंने निवेदन किया, `इसके बावजूद लोगों की समझ में नहीं आता, साम्राज्य समाप्त क्यों हुआ। तलवारों की छांव में पलने वाले सरों पर जब कबूतर मंडराने लगें तो सवारी मटियाबुर्ज और रंगून जा कर दम लेती है। बहादुरशाह जफर ने कबूतरखाने पर जितना पैसा और ध्यान दिया उसका दसवां हिस्सा भी तोपखाने पर देते तो फौज बल्कि कबूतरफौज की यह दुर्गत न बनती कि डट कर लड़ना तो दूर, उसके पास हथियार डालने के लिए भी हथियार न निकले।`
`वो एक फौज जो इस तरह फौज से कम है।`
बिगड़ गये, `तो आपके विचार में मुगल साम्राज्य का पतन कबूतरों के कारण हुआ। यह बात तो यदुनाथ सरकार तक ने नहीं कही। मिस्टर चतुर्वेदी कह रहे थे कि ब्रिटेन में पिचहत्तर लाख कुत्ते हैं। फ्रांस में सवा तीन करोड़ पैट्स हैं। सरकारी गणना के अनुसार ब्रिटेन में हर तीसरा बच्चा बिना मां-बाप की शादी के होता है। इसके अलावा वहां पिछले दस साल में पच्चीस लाख गर्भपात कराये गये। आखिर उनका पतन क्यों नहीं होता?`
चड़या
मुल्ला आसी के खट्मिट्ठे मिजाज का अनुमान एक घटना से लगायें, जो एक साहब ने मुझे सुनायी। उनके पड़ौसी ने कई बार शिकायत की, `आपके किरायेदार ने एक नयी खिड़की निकाल ली है जो मेरे दालान में खुलती है, औरतों की बेपर्दगी होती है।` उन्होंने कई दिन नोटिस नहीं लिया तो एक दिन धमकी दी, `आपने खिड़की न चुनवायी तो ठीक न होगा। नालिश कर दूंगा। अगर घर के सामने कुर्की का ढोल न बजवाया तो मेरा नाम नहीं। सारा बुद्धिज्म धरा रह जायेगा।`
ये बेचारे खुद किरायेदार के सताये हुए थे, क्या कर सकते थे। अलबत्ता, पर्दे के नुक्सान बयान कर दिये जिससे वो और बिगड़ गया। दो-तीन दिन बाद उसने एक नवंबर को कानूनी नोटिस दिया कि अगर एक महीने के अंदर-अंदर आपने खिड़की बंद न करवायी तो आपके खिलाफ मुकद्दमा दायर कर दिया जायेगा। उन्होंने नोटिस पढ़ कर फाड़ दिया। उसका समय तीस नवंबर को समाप्त होता था। पहली दिसंबर को सुब्ह पांच बजे उन्होंने इस पड़ौसी के दरवाजे पर दस्तक दी। वो हड़बड़ा कर आंखें मलता हुआ नंगे पैर बाहर आया तो कहने लगे, `हुजूर! गुस्ताखी माफ, मैंने कच्ची नींद से जगा दिया। मैं सिर्फ ये याद कराने आया हूं कि आज आपको मेरे खिलाफ मुकद्दमा दायर करना है। आदाब!`
हम कराची वालों की नजर में `चड़या` (खिसके हुए) तो वो सदा के थे, मगर अब सुधार और बर्दाश्त की सीमा से पार निकल गये हैं। आठवीं क्लास से लेकर बी.ए., तक कोर्स की तमाम किताबें, जो इन्होंने पढ़ी थीं, बल्कि यूं कहना चाहिये कि नहीं पढ़ी थीं, एक अलमारी में सजा रखी हैं। परीक्षा के परचों की एक अलग फाइल है। इनके अन्नप्राशन पर जिस चांदी की पियाली में केसर घोला गया और खत्ने के समय जरदोजी के काम की जो टोपी इन्हें पहनायी गयी और इसी तरह की दूसरी, प्रसाद का दर्जा रखने वाली वस्तुऐं दूसरी अलमारी में सुरक्षित हैं। वो तो गनीमत है कि पैदाइश के समय अपना काम आप न कर सकने में सकारण असमर्थ थे वरना अपना नाल भी दूसरी यादगार चीजों की तरह सिंगवा कर रख लेते। इस बात का विस्तृत विवरण देने चलें तो पन्ने कम पड़ जायेंगे। संक्षेप में यूं समझें कि आमतौर पर इतिहासकारों या रिसर्च करने वालों को बड़े आदमियों के जीवन के बारे में बारीक विवरण खोद-खोद कर निकालने में जो मेहनत करनी पड़ती है, उन्होंने वो अपनी तमात वाहियात चीजें उनकी हथेली पर रख कर आसान कर दी हैं। मैंने ऐसा आदमी नहीं देखा। मेरा विचार था कि अपनी कोई चीज नहीं फेंक सकते, अपनी आस्था के अलावा अपने कूड़े को भी एंटीक बना देते हैं। कमरा क्या है - यादों का मलबा है, जिसे बेलचे से खोदें तो अंतिम परत के नीचे से स्वयं बरामद होंगे।
छोटी बीबी के नाम
इसी तरह बीते तीस चालीस सालों में इन्हें जितनी चिट्ठियां दोस्तों, रिश्तेदारों ने लिखी हैं। वो सब की सब खड़े सूओं में दिनांक, सप्ताह, महीना, बरस के क्रम में पिरोयी हुई सुरक्षित हैं। अधिकांश पोस्टकार्ड हैं। उस जमाने में पिचानवे प्रतिशत चिट्ठियां पोस्टकार्ड पर लिखी जाती थीं। एक कोना जरा-सा काट दिया जाये तो यह एलार्म होता था कि किसी के मरने खबर आई है। अनपढ़ घरानों की औरतें नामालूम मुरदे के झूठे गुणों को बयान करके रोना-पीटना शुरू कर देती थीं। इसी कालक्रम में कोई पड़ौसी पोस्टकार्ड पढ़ देता तो बैन में मृतक के नाम की बढ़ोतरी और गुणों में कमी कर दी जाती थी। पोस्टकार्ड पर एक तरफ तीस-तीस लाइनें तो मैंने स्वयं लिखी देखी हैं, जिन्हें शायद घड़ी ठीक करने वालों की एक आंख वाली खुर्दबीन लगा कर ही लिखा और इसी तरह पढ़ा जा सकता था।
मैं एक चमड़े के व्यापारी शेख अता मुहम्मद को जानता था, जो माल बुक कराने कलकत्ता जाता तो अपनी नयी और सुंदर छोटी बीबी को (जिसे मुहल्ले वाले प्यार में सिर्फ छोटी कहते थे) खर्च बचाने के लिए पोस्टकार्ड पर चिट्ठी लिखता, लेकिन निजी बातों के प्रकरण में बिल्कुल बचत नहीं करता था। दूसरों की चिट्ठी पढ़ने का लपका उस जमाने में बहुत आम था। पोस्टमैन हमें यानी मुझे, मियां तजम्मुल हुसैन और मुल्ला आसी को पोस्टकार्ड पढ़वा देता था। हम उसे हिरन के कोफ्ते खिलाते थे। साहब! जबान का चटखारा बुरी बला है।
मैं जब इटावा के स्कूल में तैनात हो कर गया तो उसने मेरी चिट्ठी जो मैंने शादी के कुछ दिनों बाद आपकी भाभी को लिखी थी, मुल्ला आसी और मियां तजम्मुल हुसैन को पढ़वा दी। चिट्ठी का विवरण हैजे की तरह सारे शहर में फैल गया। मैंने कई सुलगते हुए वाक्य और बेकरार पैरे चमड़े के व्यापारी के पोस्टकार्डों से उड़ाये थे। हालांकि वो कच्चा चमड़ा बेचता था और निबंध लेखन उसके व्यावसायिक गुणों और पतिपन में सम्मिलित नहीं था लेकिन चौधरी मुहम्मद अली रुदौलवी ने बीबी के नाम सर्वोत्तम चिट्ठी की जो प्रशंसा की है उस कसौटी पर शेख अता मुहम्मद की चिट्ठी खरी उतरती थी यानी ऐसी हो कि दोनों किसी को दिखा न सकें। किसी दुष्ट ने शेख अता मुहम्मद को भी मेरी चिट्ठी की जानकारी दे दी। कहने लगा अगर कोई मेरी बिल्कुल अंतरंग भावनाओं को अपनी बीबी तक पहुंचाना चाहता है तो मेरा सौभाग्य है। धीरे-धीरे आपकी भाभी तक जब इस चोरी की खबर पहुंची तो उन्हें महीनों मेरे ओरीजनल वाक्यों से भी कच्चे चमड़े की बू आती रही। अजीब घपला था। वो और छोटी एक दूसरे को अपनी सौतन समझने लगे जो हम दोनों मर्दों के लिए डूब मरने की बात थी।
दिसंबर की छुट्टियों में जब मैं कानपुर गया तो इस हरमजदगी पर पोस्टमैन को आड़े हाथों लिया और धमकी दी कि अभी पोस्टमास्टर को रिपोर्ट करके तुझे डिसमिस करा दूंगा। मैंने चीख कर कहा, `बेईमान! अब तुझे वो दोनों हिरन के कोफ्ते खिला रहे हैं।` कहने लगा, `कसम कुरआन की, जब से आप गये हैं, हिरन के कोफ्ते खाये हों तो सुअर खाया हो।` मैं जूता लेकर पीछे दौड़ा तो बदमाश कुबूला कि नीलगाय के खाये थे।
ब्लैक बॉक्स
हां, तो मैं क्या कह रहा था? सूओं में पिरोयी चिट्ठियों के बारे में बता रहा था। हर सूए पर पांच पांच साल के काल खंड को सूली दी है। लकड़ी के गोल पेंदे में ठुके हुए यह सूए उस समय में फाइलिंग कैबिनेट के स्थानापन्न के रूप में प्रयोग होते थे। काले पेंदे का एक सूआ स्वर्गवासियों के लिए सुरक्षित है। कहने लगे जब किसी के देहांत का समाचार मिलता है तो उसकी तमाम चिट्ठियां अलग सूओं से निकाल कर इसी काले पेंदे वाले सूए में लगा देता हूं और ये ब्लैक बॉक्स बहुत ही अहम और निजी कागजों के लिए रख छोड़ा है। मैंने वसीयत की है कि मरने के फौरन बाद जला दिया जाये। मेरा मतलब है कागजात को।
पलंग के नीचे रखे जिस काले संदूक की तरफ उन्होंने इशारा किया था, वो दरअस्ल एक कैश बॉक्स था। उनके पिता के दिवाले और उसके परिणाम में उनकी मौत के बाद बस यही जमा-जथा उन्हें विरसे में मिली। अब भी अक्सर बताते हैं कि इसमें एक लाख नकदी की जगह है। लोगों का विचार है कि इस बक्स में उनकी वसीयत है जिसमें स्पष्ट हिदायत है कि उनके शव का क्या किया जाये। मतलब यह कि मुसलमानों की तरह दफ्न किया जाये या पारसियों की तरह लाश चील कव्वों को खिला दी जाये या बौद्ध परंपरा के अनुसार ठिकाने लगाई जाये। जहां आस्थाओं का इतना घालमेल हो वहां यह स्पष्टीकरण आवश्यक है। गालिब को उसकी, `गलियों में मेरी लाश को खींचे फिरो कि मैं` वाली इच्छा के विपरीत उसके सुन्नी शिष्य सुन्नी तरीके से गाड़ आये जबकि उस गरीब का संप्रदाय शिया था। साहब! इस बात पर याद आया गालिब ने कैसी जालिम बात कही है,
`हैफ काफिर मुर्दनो-आदख मुसलमां जीस्तन`
यानी हे ईश्वर! मुझे काफिरों की तरह से मरने और मुसलमानों की तरह जीने से बचा। सब कुछ छह शब्दों की एक लाइन में सुमो दिया।
उनके एक निकट के दोस्त सय्यद हमीदुद्दीन का बयान है कि वसीयत में यह लिखा है कि मैं मुसलमान था, मुसलमान ही मरा, बाकी सब ढोंग था, जो मुसलमानों को चिढ़ाने के लिए रचना पड़ा यानी उनका कुफ्र अस्ल में मक्कारी थी। ये भी सुनने में आया कि उन्होंने ये भी हिदायत की है कि मेरी वसीयत उसी दिन खोली जाये जब मौलाना अबुल कलाम आजाद की किताब के अनछपे हिस्से बैंक के सेफ डिपाजिट लॉकर से निकाले जायें। इस पर एक दिलजले ने ये नीम चढ़ाया कि वसीयत में मुल्ला आसी ने मौलाना आजाद के बारे में अपनी गाली-भरी राय लिख दी है, जिसका प्रकटन वो अपने जीवन में पब्लिक से पंगे और पिटने के डर से नहीं कर सकते थे। मगर सोचिये तो सही मुल्ला आसी ने कौन-सी तोप चलाई होगी? बुरे-से-बुरा अनुमान यही हो सकता है कि सच बोला होगा। लेकिन साहब! वो सच्चाई क्या, जिसके एलान की जीते जी जुर्रत न हुई हो।
हर लम्हे की अपनी सच्चाई, अपनी सूली और अपना ताज होता है। इस सच्चाई का एलान इसी और इसी लम्हे जुरूरी होता है। सो, जो चुप रहा, उसने इस लम्हे से और अपने-आप से कैसी दगा की। बकौल मिर्जा अब्दुल वुदूद बेग के, सारे जीवन आवश्यकता के कारण समझौते करने और हंसी खुशी गुजारने के बाद कब्र में पहुंच कर, कफन फाड़ कर सच बोलने और मुंह चिढ़ाने की कोशिश करना मर्दों ही को नहीं, मुर्दों को भी शोभा नहीं देता।
प्रेम पत्र और गौतम बुद्ध के दांत
शहर में ये भी मशहूर है कि बॉक्स में उस शरणार्थी लड़की की चिट्ठियां और फोटो हैं जिसे वो ट्यूशन पढ़ाते थे। पता नहीं। ये बुद्धिज्म से पहले की बात है। मैं तो उस जमाने में कराची आ चुका था। सब उसकी टोह में हैं, मगर बक्से पे पीतल का सेर-भर का ताला पड़ा है, जिसकी चाबी वो अपने कमरबंद में बांधे फिरते हैं। लोगों की जबान किसने पकड़ी है। किसी ने कहा, लड़की ने ब्लेड से कलाई की नसें काट कर आत्महत्या की। किसी ने इसका एक अकथनीय कारण बताया। ये भी सुनने में आया कि लड़की को एक दूसरा ट्यूटर भी पढ़ाता था। कहने वाले तो कहते हैं श्मशान तक अर्थी से जीता-जीता खून टपकता गया। उसी रात उसका बाप नींद की तीस चालीस गोलियां खा कर ऐसा सोया कि फिर सुब्ह उसकी अर्थी ही उठी। लेकिन देखा जाये तो न लड़की मरी न उसका बाप, मौत तो उस विधवा और छह बच्चों की हुई जो उसने छोड़े। तीन-चार दिन बाद किसी ने गली के मोड़ पर मुल्ला आसी के पेट में छुरा घोंप दिया। आंतें कट कर बाहर निकल पड़ीं। चार महीने गुमनामी की मौत और बदनामी की जिंदगी के बीच झूलते हुए अस्पताल में पड़े रहे। सुना है जिस दिन डिस्चार्ज हुए, उसी दिन से जोग ले लिया। मगर साहब! जोगी तो वो जन्म-जन्म के थे। एक कहावत है कि जोगी का लड़का खेलेगा तो सांप से। सो, ये नागिन न भी होती तो किसी और सांप से खुद को डंसवा लेते।
अल्लाह जाने! मजाक में कहा या सच ही हो, इनआमुल्लाह बरमलाई कहने लगे कि ब्लैक बॉक्स में मुल्ला आसी के चार टूटे हुए दांत सुरक्षित हैं, जो अपने श्रद्धालुओं और भविष्य की नस्लों के लिए बतौर Relic छोड़ कर मरना चाहते हैं। आखिर महात्मा बुद्ध के भी तो कम से कम सौ दांत विभिन्न पवित्र स्थानों पर दर्शनार्थियों के लिए भारी पहरे में रखे हुए हैं।
कमरे में केवल एक चीज नयी देखी। पत्रिका `इरफान` का नया अंक। अल्लाह जाने किसी ने डाक से भेजा या कोई शरारतन छोड़ गया। जहां-तहां से पढ़ा। साहब! परंपरा का इस पत्रिका पर अंत है। पचास साल पहले और आज के `इरफान` में जरा जो अंतर आया हो। वही क्रम, वही छपायी और गैटअप, जो पचास बरस पहले थे, अल्लाह के करम से आज भी है। विषय और समस्यायें भी वही हैं जो सर सय्यद और शिबली के जमाने में थी। मुझे तो जपाखाना और कातिब भी वही मालूम देता है। काश ये अंक सत्तर अस्सी साल पहले छपा होता तो बिल्कुल `आप टू डेट` मालूम देता। मौलाना शिबली नोमानी और डिप्टी नजीर अहमद एल.एल.डी. इसे देख के कैसे खुश होते।
सांभर का सींग
कमरे में सांभर का सर अभी तक वहीं टंगा है। इस अजायबघर बल्कि पिरामिड में सिर्फ यही लाइफ लाइक दिखाई देता है, लगता है अभी दीवार से छलांग लगा कर जंगल की राह लेगा। उसके नीचे उनके दादा की सीपिया रंग की तस्वीर है। साहब, उस जमाने में सभी के दादाओं का हुलिया एक जैसा होता थ। भरवां दाढ़ी, पग्गड़ बांधे, फूलदार अचकन पहने, एक हाथ में फूल और दूसरे में तलवार पकड़े खड़े हैं। 1857 के बाद बल्कि इससे बहुत पहले भद्र लोग तलवार को वाकिंग स्टिक के तौर पर और शायर बतौर प्रतीक यानी अप्राप्य मिलन की कामना के आरोप में खुद को माशूक के हाथों कत्ल करवाने के लिए इस्तेमाल करने लगे थे। उपमहाद्वीप में यह शालीनता और शर्म का काल था। प्रयाणगीत के डफ डफली बन चुके थे और युद्ध के नगाड़ों की जगह तबले ने ली थी। साम्राज्य की महानता के सुबूत में सिर्फ खंडहर पेश किये जाते थे।
यह सांभर सत्तर अस्सी साल का तो होगा। दादा ने नेपाल की तराई में गिराया था। लोगों की सेवा के लिए एक सींग आधा काट कर रख लिया है। घिस कर लगाने से गुर्दे के दर्द में आराम आ जाता है। दूर-दूर से लोग मांग कर ले जाते हैं। एक बेईमान मरीज ने एक इंच काट कर लौटाया। उसके दोनों गुरदों में दर्द रहता था। मुल्ला आसी अब सींग को अपनी निजी निगरानी में कुरंड की सिली पर घिसवाते हैं। हिंदोस्तान में अभी तक ये जाहिलों के टोटके खूब चलते हैं। वो इसके लेप की तारीफें करने लगे तो मैंने चुटकी ली `मगर मुल्ला गुर्दा तो बहुत अंदर होता है।` बोले हां, तुम्हारे वालिद ने भी पाकिस्तान जाने से पहले तीन-चार बार लेप लगाया था। एक सींग काट कर अपने साथ ले जाना चाहते थे। मैंने मना कर दिया। मैंने कहा, `किब्ला! बारहसिंहों के देस में इस घिसे-घिसाये सींग से काम नहीं चलने का।`
नटराज और मुरदा तीतर
मुल्ला आसी ने एक और यादगार फोटो दिखाया जिसमें मियां तजम्मुल हुसैन नटराज का सा विजयी पोज बनाये खड़े हैं, यानी नीलगाय के सर पर अपना पैर और 12 बोर का कुंदा रखे, खड़े मुस्कुरा रहे हैं, और मैं गले में जस्ते की नमदा-चढ़ी छागल, दोनों हाथों में एक-एक मेलर्ड मुरगाबी (नीलसर) और अपना मुंह लटकाये खड़ा हूं। मियां तजम्मुल हुसैन का दावा था कि थूथनी से दुम की नोक तक नीलगाय की लंबाई वही है जो बड़े से बड़े आदमखोर बंगाल टायगर की होती है। नीलगाय का शिकार हिंदुस्तान में बहुत दिन तक प्रतिबंधित रहा, अब खुल गया है। जब वो फस्लों की फस्लें साफ करने लगे तो नीलगाय को घोड़ा कह कर मारने की इजाजत मिल गयी है। जैसे इंग्लैंड में कालों और सांवलों को ब्लैक नहीं कहते एथनिक्स कह कर ठिकाने लगाते हैं।
ये फोटो चौधरी गुलजार मुहम्मद फोटोग्राफर ने मिनट कैमरे से मियां तजम्मुल हुसैन के घर के अहाते में खींचा था। फोटो खिंचवाने में इतनी देर सांस रोकनी पड़ती थी कि सूरत कुछ से कुछ हो जाती थी। चुनांचे सिर्फ मुर्दा नीलगाय का फोटो अस्ल के मुताबिक था। गुलजार मुहम्मद अक्सर शिकार में साथ लग लेता था। शिकार से मुझे कोई दिलचस्पी नहीं रही। मेरा मतलब शिकार करने से है, खाने से नहीं। बस! मियां तजम्मुल हुसैन हर समय अपनी अर्दली में रखते थे। खुदा न ख्वास्ता कभी नर्क में भेजे गये तो मुझे यकीन है, अकेले हरगिज नहीं जायेंगे। एलची के तौर पर पी.आर. के लिए पहले मुझे भेज देंगे। शहर से सात-आठ मील पर शिकार-ही-शिकार था। आम तौर पर तांगे में जाते थे।
घोड़ा अपने ही वज्न, अपनी ही शक्ल और अपने ही रंग की नीलगाय को ढो कर लाता था। शिकार के तमाम कर्तव्य और व्यवस्था इस दुखियारे के जिम्मे थी, सिवाय बंदूक चलाने के। उदाहरण के लिए, न सिर्फ ठंसाठस भरा हुआ टिफिन-कैरियर उठाये फिरना, बल्कि अपने घर से सुब्ह चार बजे ताजा तरतराते परांठे और कबाब बनवा कर ठंसाठस भर-कर लाना और सब को ठुंसाना। दिसंबर के कड़कड़ाते जाड़े में तालाब में उतर कर छर्रा खाई हुई मुर्गाबी का पीछा करना। हिरन पर निशाना चूक जाये, जो कि आमतौर पर होता रहता था, तो मियां तजम्मुल हुसैन को कसमें खा-खा कर यकीन दिलाना कि गोली बराबर लगी है, हिरन बुरी तरह लंगड़ाता हुआ गया है। जरा ठंडा होगा तो बेशर्म वहीं पछाड़ खा कर ढेर हो जायेगा। तीतर हलाल होने से पहले दम तोड़ दे तो उसके गले पर पहले हलाल हुए तीतर का खून लगाना भी मेरे दायित्वों में सम्मिलित था। इसलिए कि अगर छुरी फेरने से पहले मर जाये तो हफ्तों मुझे बुरा-भला कहते थे। लिहाजा छर्रा या गोली लगने के बाद मैं जख्मी जानवर की उम्र बढ़ने की प्रार्थना करता था ताकि उसे जिंदा हालत में हलाल कर सकूं।
मुर्दा तीतर और मुर्गाबियां वो सर आर्थर के बंगले पर भिजवा देते थे। भिजवा क्या देते थे, मुझी को साइकिल पर लाद कर ले जाना पड़ता था। पीछे वो कैरियर पर शिकार को खुद अपनी गोद में ले कर बैठते थे कि साइकिल पर बोझ न पड़े। उनका अपना वज्न (खाली पेट) 230 पौंड था। इसके बावजूद मैं बहुत तेज साइकिल चलाता था, वर्ना शिकार की बू पर लपकते कुत्ते फौरन आ लेते। मियां तजम्मुल कहते थे - बंदूक मेरी, कारतूस मेरे, निशाना मेरा, शिकार मेरा, छुरी मेरी, साइकिल मेरी। हद ये कि साइकिल में हवा भी मैंने ही भरी, अब अगर इसे चलाऊं भी मैं ही तो आप क्या करेंगे?
वफा भी हुस्न ही करता तो आप क्या करते?
मुलाहिजा फर्माया आपने। बस! क्या अर्ज करूं! इस यारी में कैसी-कैसी मिट्टी पलीद हुई है। ये तो कैसे कहूं कि मियां तजम्मुल हुसैन ने सारी उम्र मेरे कंधे पर रख कर बंदूक चलाई है। अरे साहब कंधा खाली था ही कहां कि बंदूक रखते। कंधे पर तो वो खुद मय-बंदूक सवार रहते थे। खुदा की कसम! सारी उम्र उनके नाज नखरे ही नहीं Literally खुद उन्हें भी उठाया है।
ऊंट की मस्ती की सजा भी मुझको मिली
ये तो शायद मैं पहले भी बता चुका हूं कि बड़े हाजी साहब, यानी तजम्मुल के वालिद तांगा और मोटर कार रखने को घमंड और काहिली की निशानी समझते थे। साइकिल और ऊंट की सवारी पर अलबत्ता ऐतराज नहीं करते थे। इसलिए कि वो इनकी गिनती इंद्रिय-दमन के साधनों में करते थे। अक्सर फर्माते कि, `मैं पच्चीस साल का हो गया, उस वक्त तक मैंने हीजड़ों के नाच के अलावा कोई नाच नहीं देखा था, वो भी तजम्मुल (अपने बेटे) की पैदाइश पर, छब्बीसवें साल में चोरी-छिपे एक शादी में मुजरा देख लिया तो वालिद साहब ने हंगामा खड़ा कर दिया` मुझे बेदख्ल करने की धमकी दी, हालांकि विरसे में मुझे सिवाय उनके कर्जों के, और कुछ मिलने वाला नहीं था। कहने लगे कि `लौंडा बदचलन हो गया है। चेंवट बिरादरी में मैं पहला बाप हूं जिसकी नाक बेटे के हाथों कटी। चुनांचे बतौर सजा मुझे उधार कपास खरीदने चेंवट से झंग एक मस्ती में आये हुए ऊंट पर भेजा, जिसके माथे से बदबूदार मद रिस रहा था।` चलता कम, बिलबिलाता जियादा था। डूबते सूरज की रौशनी में सरगोधे के पेड़ों के झुंड और हद दिखाई देने लगी तो एकाएक बिदक गया। उसे एक ऊंटनी नजर आ गयी। उसका पीछा करने में सरगोधा पार करके मुझे अपने कूबड़ पर हाथ-हाथ भर उछालता पांच मील आगे निकल गया। मुझे तो एक मील बाद ही ऊंटनी दिखाई देनी बंद हो गयी, इसलिए कि मैं ऊंट नहीं था मगर वो मादा की गंध पर लपका जा रहा था। मैं एक मस्त भूकंप पर सवार था। अंत में ऊंट इंतहाई जोश की हालत में एक दलदल में मुझ समेत घुस गया और तेजी से धंसने लगा। मैं न ऊपर बैठा रह सकता था, न नीचे कूद सकता था। गांव वाले रस्से, सीढ़ी और कब्र खोदने वाले को ले कर आये तो जान बची।
हौदा गज भर चौड़ा था। एक हफ्ते तक मेरी टांगें एक दुखती गुलैल की तरह चिरी-की-चिरी रह गयीं। इस तरह चलने लगा जैसे खतरनाक खूनी-कैदी डंडा-बेड़ी पहन कर चलते हैं या लड़के खत्नों के बाद। मेहतर से कह कर कदमचे एक-एक गज की दूरी पर रखवाये। ऊंट की मस्ती की सजा भी मुझी को मिली। किब्ला का विचार था कि बेटे की चाल देख कर ऊंट भी सुधर गया होगा।
अलीगढ़ कट पाजामा, अरहर की दाल
हाजी साहब किबला ने कानपुर में एक हिंदू सेठ के यहां 1907 में 4 रुपये महीना की नौकरी से शुरुआत की। इंतहाई ईमानदार, दबंग, लंबे और डील-डौल के मजबूत आदमी थे। सेठ ने सोचा होगा उगाही में आसानी रहेगी। दूसरे विश्व युद्ध के बाद हाजी साहब करोड़पति हो गये। मगर रखरखाव में जरा जो बदलाव आया हो। मतलब ये कि खुद को यातना देने तक पहुंची हुई कंजूसी। विनम्रता, बातचीत और ढंग से यही लगता था कि अब भी 4 ही रुपये मिलते हैं। गाढ़ी मलमल का कुरता और टखने से ऊंची चारखाने की लुंगी बांधते थे। शलवार सिर्फ किसी फौजदारी मुकदमे की पैरवी के लिए अदालत में जाने और जनाजे में सम्मिलित होने के अवसर पर पहनते थे। गॉगल्स लगाने वाले, पतलून और चूड़ीदार पाजामा पहनने वाले को कभी उधार माल नहीं देते थे।
कुछ नहीं तो चालीस पैंतालीस बरस तो यू.पी. में जुरूर रहे होंगे, मगर लगी हुई फिरनी, निहारी और अरहर की दाल दुबारा नहीं खाई। न कभी दुपल्ली टोपी और पाजामा पहना। अलबत्ता 1938 में ऑप्रेशन हुआ तो नर्सों ने बेहोशी की हालत में पाजामा पहना दिया जो उन्होंने होश में आते ही उतार फेंका। बकौल शायर-
बेहोश ही अच्छा था, नाहक मुझे होश आया
अक्सर फर्माते कि अगर चिमटे को किसी शरई तकाजे (धार्मिक निर्देश) के तहत या फुकनी के फुसलावे में कुछ पहनना पड़े तो इसके लिए अलीगढ़ कट पाजामे से अधिक उपयुक्त कोई पहनावा नहीं।
नीलगाय और परी जैसे चेहरे वाली नसीम
मैंने मुल्ला आसी को छेड़ा, `अब भी शिकार पर जाते हो?` कहने लगे `अब न फुरसत, न शौक, न गवारा। हिरन अब सिर्फ चिड़ियाघर में दिखाई पड़ते हैं। मैं तो अब मुर्गाबी के परों का तकिया तक इस्तेमाल नहीं करता।` फिर उन्होंने अलगनी पर से एक लीर-लीर बनियान उतारा। कुछ देर रगड़ा तो बातचीत के दूसरे ैनइरमबज के नीचे से एक शीशा और शीशे के नीचे से फोटो बरामद हुआ। ये फोटो चौधरी गुलजार मुहम्मद ने जंगल में शिकार के दौरान खींचा था। इसमें ये दुखियारा और एक चमार काले हिरन को डंडा-डोली करके तांगे तक ले जा रहे हैं। गनीमत है इसमें वो चील कव्वे नजर नहीं आ रहे जो हम तीनों के सरों पर मंडरा रहे थे। क्या बताऊं साहब! हमारे यार ने हमसे क्या-क्या बेगार ली है। मगर सब कुछ गवारा था।
फरिश्तों को कुएं झंकवा दिये इस इश्क जालिम ने
बड़ा खूबसूरत और कड़ियल हिरन था वो। उसकी बड़ी-बड़ी आंखें बहुत उदास थीं। मुझे याद है, उसे हलाल करते समय मैंने मुंह फेर लिया था। अच्छे शिकारी आमतौर पर काला नहीं मारते। सारी डार बेआसरा, बेसिरी हो जाती है। आपने वो कहावत तो सुनी होगी `काला हिरन न मारो सत्तर हो जायेंगी रांड` चौधरी गुलजार मुहम्मद पिंडी भटियां का रहने वाला, पंद्रह बीस साल से कानपुर में आबाद और नाशाद था। अपने स्टूडियो में ताजमहल और कुतुबमीनार के फोटो, जो उसने खुद खींचे थे, बेचता था। अपने मकान की दीवारों को पिंडी भटियां के दृश्यों से सजा रक्खा था। इसमें उसका फूस के छप्पर वाला घर भी शमिल था, जिस पर तुरई की बेल चढ़ी थी। दरवाजे के सामने एक झिलंगे पर एक बुढ्ढन टाइप के बुजुर्ग हुक्का पी रहे थे। पास ही एक खूंटे से गुब्बारा थनों वाली बकरी बंधी थी। हर दृश्य लैला की तरह था जिसे सिर्फ मजनूं की आंख से देखना चाहिये।
वो देगची को देचगी और तमगा को तगमा कहता तो हम सब उस पर हंसते थे। लंबा-चौड़ा आदमी था। बड़ी से बड़ी हड्डी तोड़ने के लिए भी बुगदा केवल एक बार मारता था। चार-मन वज्नी नीलगाय की खाल आधे घंटे में उतार तिक्का बोटी कर के रख देता था। कबाब लाजवाब बनाता था। हर समय बंबई के सपने देखता रहता था। खाल उतारते समय अक्सर कहता कि कानपुर में नीलगाय के अलावा और क्या धरा है? देख लेना एक दिन मिनर्वा मूवीटोन में कैमरामैन बनूंगा। माधुरी और महताब के क्लोज-अप ले कर भेजूंगा। फिर खुद ही नृत्य करके सैक्सी पोज बनाता और खुद ही काले कपड़े के बजाय अपने सिर पर खून में लिथड़ा हुआ झाड़न डाल कर फर्जी कैमरे से खुद का क्लोज-अप लेता हुआ इमैजिन करता। एक बार इसी तरह परी-चेहरा नसीम का क्लोज अप लेते-लेते उसकी छुरी बहक कर नीलगाय की खाल में घुस गयी। मियां तजम्मुल चीखे, `परी चेहरा गयी भाड़ में। ये तीसरा चरका है। तेरा ध्यान किधर है। खाल दागदार हुई जा रही है` कानपुर में एक लाजवाब Tascidermist था। शेर का सर अलबत्ता बंगलौर भेजना पड़ता था। रईसों के फर्श पर शेर की और मिडिल क्लास घरानों में हिरन की खाल बिछी होती थी। गरीबों के घरों में औरतें गोबर की लिपाई के कच्चे फर्श पर पक्के रंगों से कालीन के से डिजाइन बना लेती थीं।
किस्सा एक मृगछाला का
मुल्ला आसी के कमरे में दरी पर अभी तक निसार अहमद खां की मारी हुई हिरनी की खाल बिछी है। खां साहब के चेहरे, स्वभाव और लहजे में खुशवंत थी। आस्था में हमेशा से वहाबी प्रसिद्ध थे, खुदा जाने। शिकार के लती। मुझ पर बहुत मेहरबान थे। मियां तजम्मुल कहते थे, तुम्हें पसंद करने का कारण तुम्हारा मुंडा हुआ सर और टखने से ऊंचा पाजामा है। गर्राब जहां लगा था, उसका छेद खाल पर ज्यों का त्यों मौजूद है। उसके पेट से पूरे दिनों का बच्चा निकला। किसी ने मांस नहीं खाया। खुद निसार अहमद दो रातें नहीं सोये। इतना असर तो उनके दिल पर उस समय भी नहीं हुआ था जब तीतर के शिकार में उनके फायर के छर्रों से झाड़ियों के पीछे बैठे हुए किसान की दोनों आंखें जाती रही थीं। दो सौ रुपयों में मामला रफा-दफा हुआ।
हिरनी वाली घटना के तीन महीने के अंदर-अंदर उनका इकलौता बेटा जो बी.ए. में पढ़ रहा था, जख्मी मुर्गाबी को पकड़ने की कोशिश में तालाब में डूब कर मर गया। कहने वालों ने कहा ग्याभन, गर्भवती का श्राप लग गया। जनाजा दालान में ला कर रखा गया तो जनाने में कोहराम मच गया, फिर एक भिंची-भिंची चीख कि सुनने वाले की जती फट जाये। निसार अहमद खां ने भर्रायी हुई आवाज में कहा, `बीबी! सब्र, सब्र, सब्र` ऊंची आवाज में रोने से अल्लाह के रुसूल ने मना किया है। वो बीबी खामोश हो गयी, पर खिड़की के जंगले से सर टकरा-टकरा के लहूलुहान कर लिया। मांग खून से भर गयी। लाश कब्र में उतारने के बाद जब लोग कब्र पर मिट्टी डाल रहे थे तो बाप दोनों हाथ से अपने सफेद सर पर मुट्ठी भर-भर के मिट्टी डालने लगा। लोगों ने बढ़ कर हाथ पकड़े।
मुश्किल से छह महीने बीते होंगे कि बीबी को सब्र के लिए समझाने वाला कफन ओढ़ के मिट्टी में जा सोया। वसीयत के मुताबिक कब्र बेटे के पहलू में बनायी गयी है। उनकी पांयती बीबी की कब्र है। बड़ी मुश्किल से कब्र मिली। शहर तो फिर भी पहचाना जाता हैं कब्रिस्तान तो बिल्कुल बदल गया है। पहले हर कब्र को सारा शहर पहचानता था कि मरने वाले से जन्म-जन्म का नाता था। साहिब! कब्रिस्तान भी सीख लेने की जगह है। कभी जाने का मौका मिलता है तो हर कब्र को देख कर ध्यान आता है कि जिस दिन इसमें लाश उतरी होगी, कैसा कुहराम मचा होगा। रोने वाले कैसे बिलख-बिलख कर, तड़प-तड़प कर रोये होंगे। फिर यही रोने वाले दूसरों को रुला-रुला कर यहीं बारी-बारी मिट्टी का पैवंद होते चले गये। साहब! यही सब कुछ होना है तो फिर कैसा शोक किसका दुख, काहे का रोना।
बात दरअस्ल मृगछाला से निकली थी। एक बार मैंने लापरवाही से होल्डर झटक दिया था। रौशनाई के छींटे अभी तक खाल पर मौजूद हैं। मैंने देखा कि आसी खाल पर पांव नहीं रखते। सारे कमरे में यही सबसे कीमती चीज है। आपने भी किसी बिजनेस एक्जीक्यूटिव का जिक्र किया था, जिसके इटालियन मार्बल के फ्लोर पर हर साइज के ईरानी कालीन बिछे हैं। कमरे के एक सिरे से दूसरे सिरे तक जाना हो तो वो इन पर कदम नहीं रखते। इनसे बच-बच कर नंगी राहदरियों पर इस तरह कदम रखते आड़े-तिरछे जाते हैं जैसे वो खुद सांप-सीढ़ी की गोट हों। अरे साहब! मैं भी एक बिजनेसमैन को जानता हूं। उनके घर पर कालीनों के लिए फर्श पर जगह न रही तो दीवारों पर लटका दिये। कालीन हटा-हटा कर मुझे दिखाते रहे कि इनके नीचे निहायत कीमती रंगीन मारबल है।
मैं भी किन यादों की भूल-भुलैया में आ निकला। वो मनहूस बंदूक निसार अहमद खां ने मुल्ला आसी को बख्श दी कि उनके बेटे के जिगरी दोस्त थे। दंगों के समय पुलिस ने सारे मुहल्ले के हथियार जमा कराये तो ये बंदूक भी मालखाने पहुंच गयी, फिर उसकी शक्ल देखनी भी नसीब नहीं हुई। केवल मुहर लगी रसीद हाथ में रह गयी। दौड़-धूप तो बहुत की, एक वकील भी किया। मगर थानेदार ने कहला भेजा कि, `डी.आई.जी. को पसंद आ गयी है। जियादा ऊधम मचाओगे तो बंदूक तो मिल जायेगी मगर पुलिस तुम्हारे यहां से शराब खेंचने वाली भट्टी बरामद करवा लेगी। तुम्हारे सारे रिश्तेदार पाकिस्तान जा चुके हैं। तुम्हारा मकान भी इवेक्वेट प्रोपर्टी घोषित किया जा सकता है, सोच लो।
चुनांचे उन्होंने सोचा और चुप हो रहे। अल्लाह, अल्लाह, एक समय था शहर कोतवाल उनके बाबा से मिलने तीसरे-चौथे आता था। परडी की बड़ी नायाब बंदूक थी। आजकल छह लाख कीमत बतायी जाती है, मगर साहब मुझसे पूछिये तो छह लाख की बंदूक से नरभक्षी शेर, नरभक्षी राजा या खुद से कुछ कम मारना, इतनी कीमती बंदूक का अपमान है। मुल्ला आसी अभी तक जब्त की हुई बंदूक की मुहर लगी रसीद और लाइसेंस दिखाते हुए कहते हैं कि आधा मील दूर से उसका गर्राब उचटता हुआ भी लग जाये तो काला (ब्लैक बक) पानी न मांगे।
स्वाभाविक मृत्यु
पुराने दोस्त जब मुद्दतों के बाद मिलते हैं तो कभी-कभी बातों में अचानक एक तकलीफदे मौन का अंतराल आ जाता है। कहने को इतना होता है कि कुछ भी तो नहीं कहा जाता। हजार यादें, हजार बातें उमड़ कर आती हैं और कुहनी मार-मार कर, कंधे पकड़-पकड़ कर एक-दूसरे को आगे बढ़ने से रोकती हैं। पहले मैं, पहले मैं। तो साहब! मैं एक ऐसे ही अंतराल में उनकी बदहाली और कंगाली पर दिल-ही-दिल में तरस खा रहा था और सोच रहा था कि अगर वो हमारे साथ पाकिस्तान आ गये होते तो सारे दलिद्दर दूर हो जाते। अचानक उन्होंने मौन तोड़ा। कहने लगे, तुम वापिस क्यों नहीं आ जाते। तुम्हारे हार्ट अटैक की जिस दिन खबर आई तो यहां रोनी पड़ गयी। तुम्हें ये राजरोग, रईसों की बीमारी कैसे लगी। सुना है, मैडिकल साइंस को अभी तक इसका कारण पता नहीं चला। मगर मुझे विश्वास है कि एक-न-एक दिन ऐसा माइक्रोस्कोप जुरूर बना लिया जायेगा जो इस बीमारी के कीटाणु करैंसी नोटों में ट्रेस कर लेगा। खुदा के बंदे! तुम काहे को पाकिस्तान चले गये।
यहां किस चीज की कमी है। देखो! वहां तुम्हें हार्ट अटैक हुआ। मियां तजम्मुल हुसैन को हुआ, मुनीर अहमद का बाईपास हुआ, जहीर सिद्दीकी के पेसमेकर लगा, मंजूर आलम के दिल में छेद निकला मगर मुझे विश्वास है पाकिस्तान में ही हुआ होगा, यहां से तो साबुत-सलामत गये थे। खालिद अली लंदन में एन्जियोग्राफी के दौरान मेज पर ही अल्लाह को प्यारे हो गये। और! तो और दुबले सींक-छुआरा भय्या एहतशाम भी लाहौर में हार्ट-अटैक में गये। सिब्तैन और इंस्पेक्टर मलिक गुलाम रुसूल लंगड़याल को हार्ट-अटैक हुआ। मौलाना माहिर-उल-कादरी को हुआ। यूं कहो, किसको नहीं हुआ। भाई मेरे, यहां मानसिक शांति है, त्याग है, सब अल्लाह-भरोसे है। यहां किसी को हार्ट-अटैक नहीं होता, हिंदुओं में अलबत्ता केसेज होते रहते हैं।
यानी सारा जोर किस पर हुआ? इस पर कि कानपुर में हर आदमी स्वाभाविक मौत मरता है। हार्ट-अटैक से बेमौत नहीं मरता। अरे साहब! मेरे हार्ट-अटैक को तो उन्होंने खूंटी बना लिया और जिस पर जान-पहचान के गड़े मुर्दे उखाड़-उखाड़ कर टांगते चले गये। मुझे तो सब नाम याद भी नहीं रहे। दूसरे हार्ट अटैक के बाद मैंने दूसरों की राय से असहमत होना छोड़ दिया है। अब अपनी राय हमेशा गलत समझता हूं। सब खुश रहते हैं, लिहाजा चुपका बैठा सुनता रहा और वो उन सौभाग्यवान मृतकों का नाम गिनवाते रहे जो हार्ट अटैक में नहीं मरे, किसी और बीमारी में मरे।
`अपने मौलवी मोहतशिम टी.बी. में मरे। खान बहादुर अजमतुल्लाह खां के पोते सीनियर क्लर्क हमीदुल्ला का गले के कैंसर में देहांत हुआ। शहनाज के मियां, आबिद हुसैन वकील, हिंदू-मुस्लिम दंगे में मारे गये। कायमगंज वाले अब्दुल वहाब खां पूरे पच्चीस दिन टाइफाइड से जकड़े रहे। हकीम की कोई दवा काम न आई। पूरे होशो-हवास के साथ दम छोड़ा। मरने से दो मिनट पहले हकीम का पूरा नाम ले कर गाली दी। मुंशी फैज मुहम्मद हैजे में एक दिन में चटपट हो गये। हाफिज फखरुद्दीन फालिज में गये, मगर अल्लाह के करम से हार्ट अटैक किसी को नहीं हुआ। कोई भी अस्वाभाविक मौत नहीं मरा। पाकिस्तान में मेरी जान-पहचान का कोई शख्स ऐसा नहीं जिसके दिल का बाईपास नहीं हुआ। यही हाल रहा तो वो दिन दूर नहीं जब खाते-पीते घरानों में खत्ने और बाईपास एक साथ होंगे।
फिर वो आवागमन और निर्वाण की फिलासफी पर लैक्चर देने लगे। बीच लैक्चर में उन्हें एक और उदाहरण याद आ गया। अपनी ही बात काटते हुए और महात्मा बुद्ध को बोधिवृक्ष के नीचे अकेला ऊंघता छोड़ कर कहने लगे, `हद ये है कि ख्वाजा फहीमुद्दीन का भी हार्ट फेल नहीं हुआ। बीबी के मरने के बाद दोनों बेटियां ही सब कुछ थीं। उन्हीं में मगन थे। एक दिन अचानक पेशाब बंद हो गया। डाक्टर ने कहा प्रोस्टेट बढ़ गया है। फौरन एमरजेन्सी में आप्रेशन करवाना पड़ा, जो बिगड़ गया। तीन चार महीने में लोटपोट के ठीक हो गये।
लेकिन बड़ी बेटी ने बिना खबर दिये अचानक एक हिंदू वकील और छोटी ने एक सिख ठेकेदार से शादी कर ली तो जानो कमर टूट गयी। पुरानी चाल और पुराने खयाल के आदमी हैं। अटवाटी-खटवाटी लेकर पड़ गये और उस वक्त तक पड़े रहे, जब तक उस क्रिस्चियन नर्स से शादी न कर ली जिसने प्रोस्टेट के आप्रेशन के दौरान उनका गू-मूत किया था। वो कट्टो तो जैसे उनके इशारे के इंतजार में बैठी थी। इन्हीं की तरफ से हिचर-मिचर थी।
बाप के सेहरे के फूल खिलने की खबर सुनी तो दोनों भागी हुई बेटियों ने कहला भेजा हम ऐसे बाप का मुंह देखें तो बुरे जानवर (सुअर) का मुंह देखें। वो चीखते ही रह गये कि कमबख्तो! मैंने कम-से-कम ये काम शरीयत के हिसाब से तो किया है। मियां! ये सब कुछ हुआ, मगर हार्ट अटैक ख्वाजा फहीमुद्दीन को भी नहीं हुआ। तुम्हारे हार्ट अटैक की खबर सुनी तो देर तक अफसोस करते रहे। कहने लगे, यहां क्यों नहीं आ जाते? साहब! मुझसे न रहा गया। मैंने कहा, प्रोस्टेट बढ़ गया तो मैं भी आ जाऊंगा।
पिंडोले का पियाला : लड़कपन में खाने के मामले में बड़े नफासत पसंद थे। दोप्याजा गोश्त, लहसुन की चटनी, सिरी पाये, कलेजी, गुर्दे, खीरी और मग्जे से उन्हें बड़ी घिन आती थी। दस्तरख्वान पर कोई ऐसी डिश हो तो भूखे उठ जाते थे। इस विजिट में एक जगह मेरे सम्मान में दावत हुई तो भुना हुआ मग्ज भी था। साहब! लहसुन का छींटा दे दे कर भूना जाये तो सारी बसांद निकल जाती है बशर्ते कि गर्म-मसाला जरा बोलता हुआ और मिर्चें भी चहका मारती हों। मुझे ये देख कर आश्चर्य हुआ कि उन्होंने खाया भी और बुरा भी न माने। मैंने पूछा, हजरत, ये कैसी बदपरहेजी? बोले, जो सामने आ गया, जो कुछ हम पर उतरा, खा लिया। हम इन्कार करने, मुंह बनाने वाले कौन।
फिर कहने लगे, `भाई! तुमने वो भिक्षु वाला किस्सा नहीं सुना, भिक्षु से सात बरस भीख मंगवायी जाती थी ताकि घमंड का फन ऐड़ियों तले बिल्कुल कुचल जाये। इसके बगैर आदमी कुछ पा नहीं सकता। भिक्षा-पात्र को महात्मा बुद्ध ने सम्राट का मुकुट कहा है। भिक्षु को कोई अगर एक समय से अधिक का खाना देना भी चाहे तो भी वो स्वीकार नहीं कर सकता और जो कुछ भी उसके पात्र में डाल दिया जाये उसे बिना ना-नुकर के खाना उसका कर्तव्य है। पाली के पुराने ग्रंथों में आया है कि पिंडोले नाम के एक भिक्षु के पात्र में एक कोढ़ी ने रोटी का टुकड़ा डाला। डालते समय उसका कोढ़ से गला हुआ अंगूठा भी झड़ कर पात्र में गिर गया। पिंडोले को दोनों का स्वाद एक सा लगा, यानी कुछ नहीं।
साहब! वो तो ये किस्सा सुना कर सर झुकाये खाना खाते रहे, मगर मेरा ये हाल कि मग्ज तो एक तरफ रहा, मेज पर रखा सारा खाना जहर हो गया। साहब! अब उनका दिमाग भी पिंडोले का पात्र हो गया है।
मुल्ला भिक्षु
लड़की की आत्महत्या वाली घटना 1953 की बतायी जाती है। सुना है, उस दिन के बाद अपने में सिमट आये और पढ़ाने का मेहताना लेना छोड़ दिया। तीस साल हो गये, किसी ने कुछ खिला दिया तो खा लिया वरना तकिया पेट पर रखा और घुटने सिकोड़, दोनों हाथ जोड़, उन्हें दायें गाल के नीचे रख कर सो जाते हैं। क्या कहते हैं इसको? जी, Foetal Posture! उर्दू में इसे कोख-आसन या जन्म-आसन (गर्भासन) कह लीजिये मगर मैं आपकी इस फ्रायड वाली बात से बिल्कुल सहमत नहीं। आप खुद भी तो इस तरह कुंडली मार कर सोते हैं मगर इसका कारण तपस्या नहीं अल्सर है।
मुल्ला आसी भिक्षु कहते हैं कि महात्मा बुद्ध भी दाहिने पांव पर बायां पांव और सर के नीचे हाथ रख कर दाहिनी करवट सोते थे। इसे सिंह शय्या कहते हैं। भोग विलासी यानी अय्याश बायीं करवट सोते हैं। इसे कामभोगी शय्या कहते हैं। ये मुझे इन्हीं से पता चला कि बदचलन आदमी केवल सोने के आसन से भी पकड़ा जा सकता है। बहरहाल, अब हाल ये है कि जो किसी ने पहना दिया, पहन लिया, जो मिल गया, खा लिया। जिससे मिला जैसा मिला, जब मिला। जहां थक गये वहीं रात हो गयी। जहां पड़ रहे, वहीं रैन बसेरा। तन तकिया, मन विश्राम। चार-चार दिन घर नहीं आते, मगर क्या अंतर पड़ता है।
जैसे कंथा घर रहे वैसे रहे बिदेस
खुदा भला करे उनके चेलों का। वही-देख रेख करते हैं। ऐसे चाहने वाले, सेवा करने वाले शिष्य नहीं देखे।
एक दिन मुल्ला हाथ का पियाला-सा बना कर कहने लगे। बस मुट्ठी भर दानों के लिए बंजारा कैसा घबराया, कैसा बौलाया फिरता है। हर व्यक्ति पर अगर ये खुल जाये कि जीवन जीना कितना आसान है तो ये सारा कारखाना ठप्प हो जाये, ये सारा पाखंड, ये सारा आडंबर पल-भर में खंडित हो जाये। हर आदमी का शैतान उसके अंदर होता है और इच्छा इस शैतान का दूसरा नाम है। आदमी अपनी इच्छाओं को जितना बढ़ाता और हुशकारता जायेगा, उसका मन उतना ही कठोर और उसका जीवन उतना ही कठिन होता जायेगा। डायनासौर का बदन जब इतना बड़ा हो गया और खाने की इच्छा इतनी विकट हो गयी कि जिंदा रहने के लिए उसे लगातार चौबीस घंटे चरना पड़ता था तो उसकी प्रजाति ही नष्ट हो गयी। खाना केवल इतनी मात्रा में ही उचित है कि शरीर और प्राण का संबंध बना रहे। बदन दुबला होगा तो आत्मनियंत्रण होना सहज है। मैंने आज तक कोई पतला मौलवी नहीं देखा। भरे-पेट इबादत और खाली-पेट अय्याशी नहीं हो सकती।
ये कहते हुए वो मेज पर से अपने अनुवाद किये हुए बोध मंत्रों की हस्तलिखित प्रति उठा लाये और इसकी प्रस्तावना से श्लोक पढ़ने वाली शैली में लहक-लहक कर भूमिका सुनाने लगे।
बोधिसत्व ने भगवान सचक से कहा ऐ अगी वेसन! जब मैं दांतों पर दांत जमा कर और जीभ को तालु से लगा कर अपने मन-मस्तिष्क को नियंत्रण में करने की कोशिश करता था तो मेरी बगलों से पसीना छूटने लगता था। जिस तरह कोई बलवान आदमी किसी कमजोर आदमी का सर या कंधा पकड़ कर दबाता है, ठीक उसी तरह मैं अपने दिल और दिमाग को दबाता था, ऐ अगी वेसन! इसके बाद मैंने सांस रोक कर तपस्या की। इस समय मेरे कानों से सांस निकलने की आवाजें आने लगीं। लोहार की धोंकनी जैसी ये आवाजें बहुत तेज थीं। फिर ऐ अगी वेसन! मैं सांस रोक कर और कानों को हाथों से दबा कर तपस्या करने लगा। ऐसा करने से मुझे यों लगा जैसे कोई तलवार की तेज नोक से मेरे माथे को छलनी कर रहा है, फिर भी ऐ अगी वेसन! मैंने अपनी तपस्या जारी रखी।
ऐ अगी वेसन! तपस्या और उपवास से मेरा शरीर दिन प्रतिदिन कमजोर पड़ता गया। बांस की गांठों की तरह मेरे शरीर का जोड़-जोड़ साफ दिखाई देता था। मेरा कूल्हा सूख कर ऊंट के पांव की तरह हो गया। मेरी रीढ़ की हड्डी सूत की तकलियों की माला की तरह दिखाई देती थी। जिस तरह गिरे हुए मकान की बल्लियां ऊपर नीचे हो जाती हैं मेरी पसलियों की भी वही दशा हो गयी। मेरी आंखें किसी गहरे कुएं में सितारों की परछाईं की तरह अंदर को धंस गयीं। जैसे कच्चा-कड़वा कद्दू काट कर धूप में डाल देने से सूख जाता है वैसे ही मेरे सर की चमड़ी सूख गयी। जब पेट पर हाथ फेरता था तो मेरे हाथ में रीढ़ की हड्डी आ जाती थी और जब पीठ पर हाथ फेरता तो हाथ पेट की चमड़ी तक पहुंच जाता था। इस तरह मेरी पीठ और पेट बराबर हो गये। शरीर पर हाथ फेरता तो बाल झड़ने लगते थे।`
ये पढ़ने के बाद जरा-सी ढील दी, आंखें मूंद लीं। मैं समझा ध्यान-ज्ञान की गोद में चले गये हैं। जरा देर बाद आंखें बस इतनी खोलीं कि पलक से पलक जुदा हो जाये। जब वो ध्यान की सातवीं सीढ़ी पर झूम रहे थे, हाथ का चुल्लू बना कर कहने लगे, `एक प्यास वो होती है जो घूंट-दो-घूंट पानी से बुझ जाती है, एक वो होती है कि जितना पानी पियो, प्यास उतनी ही भड़कती है। हर घूंट के बाद जबान में कांटे पड़ते चले जाते हैं। आदमी आदमी पर निर्भर है। किसी को काया मोह, किसी को धन-धरती की प्यास लगती है। किसी को ज्ञान और प्रसिद्धि की, किसी को खुदा के बंदों पर खुदायी की और किसी को औरत की प्यास है, जो बेहताशा लगी चली जाती है पर सबसे जियादा बेचैन करने वाली वो झूठी प्यास है जो इंसान अपने ऊपर ओढ़ लेता है। ये प्यास नदियों, बादलों और ग्लेशियरों को निगल जाती है और बुझती नहीं है। इंसान को दरिया-दरिया बंजर-बंजर लिए फिरती है, बुझाये नहीं बुझती। आग-आग, फिर होते-होते यह अनबुझ प्यास खुद इन्सान को ही पिघला कर पी जाती है।
कुरआन में आया है कि, `जब जालूत लश्कर ले कर चला, तो उसने कहा, एक दरिया पर अल्लाह की तरफ से तुम्हारी परीक्षा होने वाली है। जो उसका पानी पियेगा वो मेरा साथी नहीं। मेरा साथी सिर्फ वो है, जो इससे प्यास न बुझाये। हां! एक आध चुल्लू कोई पी ले तो पी ले, मगर एक छोटे गिरोह के अलावा सभी ने इसका भरपूर पानी पिया। फिर जब जालूत और उसके साथी दरिया पार करके आगे बढ़े तो उन्होंने जालूत से कह दिया कि आज हममें दुश्मन और उसके लश्करों का सामना करने की ताकत नहीं।` सो इस दरिया के किनारे सबका इम्तहान होता है। जिसने उसका पानी पी लिया उसमें बुराई का मुकाबला करने की ताकत नहीं रही। जीत उसकी, निजात उसकी जो बीच दरिया से प्यासा लौट आये।
देखा आपने, बस इसी कारण मुल्ला भिक्षु कहलाते हैं। बातचीत बालों से भी अधिक खिचड़ी और आस्था के नियम उनसे अधिक रंग-बिरंग, सूफियों की-सी बातें करते करते, अचानक साधुओं का-सा बाना धारण कर लेते हैं। शब्दों के सर से अनायास अमामा (अरबी पगड़ी) उतर जाता है और हर शब्द, हर अक्षर की जटायें निकल आती हैं। आबे-जमजम से वजू करके भभूत रमा लेते हैं। अभी कुछ है, अभी कुछ। आपको ऐसा महसूस होगा कि भटक कर कहां-से-कहां जा निकले।
कश्का खेंचा, दैर में बैठा, कब का तर्क इस्लाम किया
और कभी ऐसा महसूस करा देंगे जैसे गौतम बुद्ध ने वृक्ष तले अपनी समाधि छोड़ कर नमाज की टोपी पहन ली है। मगर कभी एक बिंदु पर टिकते नहीं हैं। टिड्डे की तरह एक से दूसरे, दूसरे से तीसरे पर फुदकते रहते हैं। मैंने एक दिन छेड़ा। मौलाना, कुछ आलिमों के विचार में इस्लाम छोड़ने वाले मुरतद की सजा कत्ल है। इशारा समझ गये, मुस्कुरा दिये। कहने लगे, जिसने पहले ही खुदकुशी कर ली हो उसे सूली पे लटकाने से फायदा -
तमाम चेहरे हैं मेरे चेहरे
तमाम आंखें हैं मेरी आंखें
अपने तमाम प्यार और गर्मजोशी के बावजूद भी वो मुझे अच्छे-खासे बेतअल्लुक लगे। एक तरह की सूफियों वाली तटस्थता और निस्पृहता-सी आ गयी है, रिश्तों में भी। एक दिन कहने लगे, कोई वस्तु हो या व्यक्ति उससे नाता जोड़ना ही दुख का मूल कारण है। फिर इंसान की सांस छोटी और उड़ान ओछी हो जाती है। इंसान जी कड़ा करके हर चीज से नाता तोड़ ले तो दुख और सुख के अंतहीन चक्कर से बाहर निकल जाता है। फिर वो सुखी रहता है न दुखी।
मेरी वापसी में दो दिन रह गये तो मैंने छेड़ा, `मौलाना यहां बहुत रह लिए, जोरू न जाता, कानपुर से नाता। अब मेरे साथ पाकिस्तान चलो। सब यार-दोस्त, सारे संगी-साथी वहीं हैं।`
`पुरखों के हाड़-हड़वार (हड्डियां) तो यहीं हैं।`
`तुम कौन से इन पर फातिहा पढ़ते हो या जुमेरात की जुमेरात फूलों की चादर चढ़ाते हो, जो छूटने का दुख हो।`
इतने में एक चितकबरी बिल्ली अपना बच्चा मुंह में दबाये उनके कमरे में दाखिल हुई। नेमतखाने में बंद कबूतर सहम-कर कोने में दुबक गये। बिल्ली के पीछे पड़ौसी की बच्ची मैना का पिंजरा हाथ में लटकाये और अपनी गुड़िया दूसरी बगल में दबाये आई और कहने लगी कि सुब्ह से इन दोनों ने कुछ नहीं खाया। बोलते भी नहीं, दवा दे दीजिये। उन्होंने बीमार गुड़िया की नब्ज देखी और मैना से उसी के लहजे में बोलने लगे तो मैना उन्हीं के लहजे में बोलने लगे लगी। उन्होंने एक डिब्बे में से लेमन ड्रॉप निकाल कर बच्ची को दी। उसने उसे चूसा तो गुड़िया को आराम आ गया। वो मुस्कुरा दिये फिर बहस का सिरा वहीं से उठाया जहां से बिल्ली, बच्ची और मैना के अचानक आने से टूट गया था। मुझसे कहने लगे, `यहां मैं सबके दुख दर्द में साझी हूं, वहां मेरी जुरूरत किसको होगी? वहां मुझ-सा गरीब कौन होगा, यहां मुझसे भी गरीब हैं।`
खुदा के बंदे! एक बार चल कर तो देखो, पाकिस्तान का तुम्हारे दिमाग में कुछअजीब-सा नक्शा है। वहां भी दुखी बसते हैं। हमारी खातिर ही चलो, एक हफ्ते के लिए ही सही।
`कौन पूछेगा मुझको मेले में?`
तो फिर यूं समझो कि जहां सभी ताज पहने बैठे हों वहां नंगे सिर आदमी, धरती पे बैठा आदमी सबसे उजागर होता है।
खुदा जाने सचमुच कायल हुए या केवल जिच हो गये, कहने लगे, `बिरादर, मैं तो तुम्हें दाना डाल रहा था। अब तुम कहते हो कि हमारी छतरी पे आन बैठो। खैर, चला तो चलूं, मगर खुदा जाने इन कबूतरों का क्या होगा?`
`ये खुदा की नीयत पर नहीं, बिल्ली की नीयत पर है, मगर सुनो तुम खुदा के कब से कायल हो गये?`
`मैंने तो मुहावरा कहा था। सामने जो जामुन का पेड़ देख रहे हो, ये मेरे दादा ने लगाया था। जिस समय पौ फटती है और इस खिड़की से सुब्ह का सितारा नजर आना बंद हो जाता है या जब दोनों वक्त मिलते हैं और शाम का झुटपुटा-सा होने लगता है तो इस पर अनगिनत चिड़ियां जी-जान से चहचहाती हैं कि दिल को कुछ होने-सा लगता है। इस जामुन की देखभाल कौन करेगा?`
`अव्वल तो इस बूढ़े जामुन को तुम्हारी और बुद्धिज्म की जुरूरत नहीं, गोबर की खाद की जुरूरत है; दूसरे, तुम्हें भ्रम हो रहा है। महात्मा बुद्ध को निर्वाण जामुन के नीचे नहीं, पीपल-तले प्राप्त हुआ था। और अगर तुम पशु, पक्षी और पेड़ की सेवा के बगैर जिंदा नहीं रह सकते तो कराची के कमजोर गधों और लाहौर की अपर-मॉल की जामनों की रखवाली करके शौक पूरा कर लेना।`
`मैं आऊंगा, लाहौर एक दिन जरूर आऊंगा। मगर फिर कभी और,`
`अभी मेरे साथ चलने में क्या परेशानी है?`
`इन बच्चों का क्या होगा?`
`होगा क्या? बड़े हो जायेंगे, तुम्हें कोई मिस नहीं करेगा। आखिर को तुम मर गये, तब क्या होगा?`
`तो क्या हुआ। ये बच्चे - इन बच्चों के बच्चे तो जिंदा रहेंगे। सीनों में उजाला भर रहा हूं। मर गया तो उनके मुंह से बोलूंगा। इनकी अवतार आंखों से देखूंगा।`
बिशारत की जबानी कहानी यहीं खत्म होती है।
नेपथ्य कथा
लो वो भी हार्ट अटैक में गये : 3 दिसंबर, 1985 को सूरज उगने से जरा पहले, जब उन्हीं के शब्दों में, जामुन पर चिड़ियां इस तरह चहचहा रही थीं, जैसे जी जान से गुजर जायेंगी, मुल्ला अब्दुल मन्नान आसी का हृदयगति रुक जाने से देहांत हो गया। मुहल्ले की मस्जिद के इमाम ने कहला भेजा, इस्लामद्रोही के जनाजे की नमाज जायज नहीं। जिसके अस्तित्व के ही मियां कायल न थे उससे बख्शिश की दुआ का क्या मतलब। बड़ी देर तक जनाजा जामुन तले रखा रहा। अंत में उनके एक प्रिय शिष्य ने नमाज पढ़ाई, सैकड़ों लोग सम्मिलित हुए। दफ्न से पहले उनके ब्लैक-बॉक्स का ताला मुहल्ले वालों के सामने खोला गया। इसमें स्कूल की कापी के एक पन्ने पर पेंसिल से लिखी हुई तहरीर मिली। लिखा था, `मरने के बाद मेरी जायदाद (जिसका विस्तृत विवरण और हाल आप पिछले पृष्ठों में पढ़ चुके हैं) नीलाम करके कबूतरों का ट्रस्ट बना दिया जाये और ध्यान रखा जाये कोई गोश्त खाने वाला ट्रस्टी न बनाया जाये।' ये भी लिखा था - `मुझे कानपुर में न दफ्न किया जाये, लाहौर में मां के कदमों में लिटा दिया जाये।`