hindisamay head


अ+ अ-

कविता

पहाड़

ओमप्रकाश वाल्मीकि


पहाड़ खड़ा है
स्थिर सिर उठाए
जिसे देखता हूँ हर रोज
आत्मीयता से

बारिश में नहाया
या फिर सर्द रातों की रिमझिम के बाद
बर्फ से ढका पहाड़
सुकून देता है

लेकिन जब पहाड़ थरथराता है
मेरे भीतर भी
जैसे बिखरने लगता है
न खत्म होने वाली आड़ी-तिरछी
ऊँची-नीची पगडंडियों का सिलसिला

गहरी खाइयों का डरावना अँधेरा
उतर जाता है मेरी साँसों में

पहाड़ जब धंसकता है
टूटता मैं भी हूँ
मेरी रातों के अंधेरे और घने हो जाते हैं

जब पहाड़ पर नहीं गिरती बर्फ
रह जाता हूँ प्यासा जलविहीन मैं
सूखी नदियों का दर्द
टीसने लगता है मेरे सीने में

यह अलग बात है
इतने वर्षों के साथ हैं
फिर भी मैं गैर हूँ
अनचिन्हे प्रवासी-पक्षी की तरह
जो बार-बार लौट कर आता है
बसेरे की तलाश में

मेरे भीतर कुनमुनाती चींटियों का शोर
खो जाता है भीड़ में
प्रश्नों के उगते जंगल में

फिर भी ओ मेरे पहाड़ !
तुम्हारी हर कटान पर कटता हूँ मैं
टूटता-बिखरता हूँ
जिसे देख पाना
भले ही मुश्किल है तुम्हारे लिए
लेकिन
मेरी भाषा में तुम शामिल हो
पारदर्शी शब्द बनकर

मेरा विश्वास है
तुम्हारी तमाम कोशिशों के बाद भी
शब्द जिन्दा रहेंगे
समय की सीढ़ियों पर
अपने पांव के निशान
गोदने के लिए
बदल देने के लिए
हवाओं का रुख

स्वर्णमंडित सिंहासन पर
आध्यात्मिक प्रवचनों में
या फिर संसद के गलियारों में
अखबारों की बदलती प्रतिबद्धताओं में
टीवी और सिनेमा की कल्पनाओं में
कसमसाता शब्द
जब आएगा बाहर
मुक्त होकर
सुनाई पड़ेंगे असंख्य धमाके
विखण्डित होकर
फिर-फिर जुड़ने के

बंद कमरों में भले ही
न सुनाई पड़े
शब्द के चारों ओर कसी
सांकल के टूटने की आवाज़

खेत-खलिहान
कच्चे घर
बाढ़ में डूबती फसलें
आत्महत्या करते किसान
उत्पीड़ित जनों की सिसकियों में
फिर भी शब्द की चीख
गूंजती रहती है हर वक्त
गहरी नींद में सोए
अलसाए भी जाग जाते हैं
जब शब्द आग बनकर
उतरता है उनकी सांसों में

मौज-मस्ती में डूबे लोग
सहम जाते हैं

थके-हारे मजदूरों की फुसफुसाहटों में
बामन की दुत्कार सहते
दो घूंट पानी के लिए मिन्नतें करते
पीड़ित जनों की आह में
जिन्दा रहते हैं शब्द
जो कभी नहीं मरते
खड़े रहते हैं
सच को सच कहने के लिए

क्योंकि,
शब्द कभी झूठ नहीं बोलते!

 


End Text   End Text    End Text