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कविता

जागो मन के सजन पथिक ओ!

फणीश्वरनाथ रेणु


मेरे मन के आसमान में पंख पसारे
उड़ते रहते अथक पखेरू प्यारे-प्यारे!
मन की मरू मैदान तान से गूँज उठा
थकी पड़ी सोई-सूनी नदियाँ जागीं
तृण-तरू फिर लह-लह पल्लव दल झूम रहा
गुन-गुन स्वर में गाता आया अलि अनुरागी
यह कौन मीत अगनित अनुनय से
निस दिन किसका नाम उतारे!
हौले, हौले दखिन-पवन-नित
डोले-डोले द्वारे-द्वारे!
बकुल-शिरिष-कचनार आज हैं आकुल
माधुरी-मंजरी मंद-मधुर मुस्काई
क्रिश्नझड़ा की फुनगी पर अब रही सुलग
सेमन वन की ललकी-लहकी प्यासी आगी
जागो मन के सजग पथिक ओ!
अलस-थकन के हारे-मारे
... ... ... ... ... ... ...
... ... ... ... ... ... ...
कब से तुम्हें पुकार रहे हैं
गीत तुम्हारे इतने सारे!


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