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कविता

हवाएँ न जाने

परमानंद श्रीवास्‍तव


हवाएँ,
न जाने कहाँ ले जाएँ।
यह हँसी का छोर उजला

यह चमक नीली
कहाँ ले जाएँ तुम्हारी
आँख सपनीली

चमकता आकाश-जल हो
चाँद प्यारा हो
फूल-जैसा तन, सुरभि-सा
मन तुम्हारा हो

महकते वन हों नदी-जैसी
चमकती चाँदनी हो
स्वप्न-डूबे जंगलों में
गंध डूबी यामिनी हो

एक अनजानी नियति से
बँधी जो सारी दिशाएँ
न जाने
कहाँ...ले...जा...एँ ?

 


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