हिलती कहीं नीम की टहनी ! भूल गईं वे बातें कब की सब जो तुम को कहनी। गंध वृक्ष से छूटी-छूटी चलीं हवाएँ कितनी तीखी मार रही हैं कैसे ताने कहती हैं - कैसी-अनकहनी ! हिलती कहीं नीम की ट-ह-नी !
हिंदी समय में परमानंद श्रीवास्तव की रचनाएँ