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कविता

हिलती कहीं

परमानंद श्रीवास्‍तव


हिलती कहीं
नीम की टहनी !
भूल गईं वे बातें कब की
सब जो तुम को कहनी।

गंध वृक्ष से छूटी-छूटी
चलीं हवाएँ कितनी तीखी
मार रही हैं कैसे ताने
कहती हैं -
कैसी-अनकहनी !

हिलती कहीं
नीम की ट-ह-नी !

 


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