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कविता

दु:स्वप्न के बाद

परमानंद श्रीवास्‍तव


एक के बाद एक कई हादसे हो चुके थे
दुश्‍मन चुन चुन कर ठिकाने लगा दिए गए थे
बस्तियाँ उजाड़ दी गई थीं
घर जला दिए गए थे

धर्मयोद्धा उन्‍मत्‍त नींद में हर बार की तरह
दहाड़ रहे थे
सेनाएँ गुफाओं में थीं
नशे में गुम और बेखबर

वह बदहवास निकला था घर से
तो अब घर लौट नहीं पा रहा था
एक एक लमहा भारी था उस पर
हिम्‍मत जुटा कर उखड़ी साँस के बावजूद
वह भाग रहा था

अदृश्‍य घोड़ों की टापें कहीं दूर से
पीछा कर रही थीं
इसके बाद भी असहनीय सन्‍नाटा था
जैसा कई कई मौतों के बाद होता है

रात का अँधेरा घना था
और शहर था कि बियाबान जंगल

वह भटक गया था और घर के आसपास
पहुँच कर भी
घर का पता नहीं पा रहा था

आखिर वह पहुँचा भी तो एक वीरान
अजनबी-सी बस्‍ती में
और घबरा कर उसने एक दरवाजा खटखटाया
सहमे सहमे एक बुजुर्ग निकले
इतनी रात! उनकी आँखों से छूटता सवाल था!

मुझसे गलती हो गई थी
क्‍योंकि सब ओर निगाह डाल कर लगा
कि अपनी बस्‍ती तो होने से रही
क्‍योंकि पहचाना-सा कुछ न था

न आटे की चक्‍की
न वह खाली खाली लगने वाला लंबा मैदान
न पनवाड़ी की दुकान
न पी सी ओ

भूल ही तो गया हूँ अपना घर अपना पता ठिकाना
और अब बताना भी चाहूँ तो कैसे बताऊँ
कोशिश करके जितना बता पा रहा था
बता तो रहा था बिना आवाज के

उन्‍होंने सिर हिलाया
क्‍या पता उन्‍हें कैसा लगा हो

मेरा बेवक्‍त आना
नहीं, नहीं, यहाँ तो नहीं ही...
वे कुछ कह रहे थे...

मैं हिम्‍मत करके बढ़ा
और घूम कर मैंने
एक और दरवाजा खटखटाया -

हाय! मैं तो मारा गया!
यह तो किसी अजनबी कुनबे का जनानखाना था

मैं जहाँ था वहीं गायब हो जाना चाहता था
पर यह कैसे मुमकिन था

वहाँ तो रोशनी ही रोशनी थी
जल रहे थे कई कई चूल्‍हे
चूल्‍हों में आग जल रही थी
डेगचियाँ चढ़ी हुई
और सबमें कुछ न कुछ पकता हुआ
महक भी दूर तक फैली हुई

जबकि मेरी तो सिट्टीपिट्टी गुम थी

मैं एक बार फिर कहना चाहता था
गलती हो गई मुझसे
मैं - भूल ही तो गया हूँ अपना घर -

हालाँकि यहीं आसपास होना चाहिए
गुजरता रहा हूँ यहीं से
कहीं था यहीं नीम का पेड़ भी
पर समझ नहीं पा रहा
कहाँ से निकलूँ कि मिल जाए मेरा अपना घर!

फिक्र! नहीं - दिलासा देती एक उम्रदराज स्‍त्री ने
जैसे इशारा किया -

फिक्र नहीं - अब यों न जाएँ आप अकेले
खराब वक्‍त है
क्‍या रात और क्‍या दिन...

ये जाएँगी - सकीना और शब्‍बो -
हमारी बच्चियाँ - सब जानती हैं -
छोड़ आएँगी आपको... आपके घर तक...
इतना डर चुकी है कि अब डरेंगी नहीं...

हदस से भरा हुआ निकला उनके साथ
वे खामोश थीं और बोल रही थीं
मुझे साथ लिए... पहुँचीं मेरे घर के सामने तक
अलविदा... कहने से पहले उनके शब्‍द थे...
''यह रहा आपका घर!
खुश तो हैं आप!"
मैं क्‍या कहता! मैं जो घर में था!
सुरक्षित!

पर यह भी तो सपना ही था -
जो सकीना और शब्‍बो मेरे लिए छोड़ गई हैं।
मुझे सुकून है कि जलते हुए जंगलों से निकल कर भी
दोनों आँखें साबुत हैं - जैसे कि दोनों बहनें -
आखिर, दोनों आँखें मिल कर ही तो देखती हैं
कोई सपना
अच्‍छा और खुशगवार!

 


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