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कविता

रफ्तार

मार्क ग्रेनिअर

अनुवाद - रति सक्सेना


फुटपाथ पर अपनी पीठ के बल पड़ी, एक सलेटी गिलहरी
जैसे कि अभी अभी मरियल उपर लटकते पेड़ों से गिरी है

आश्चर्य से मुँह बाए, कार्टूनी पीले दाँत... ऊपर के कलियाये से...
रसबेरी के दाग से सने

ऐसा नहीं लगता कुछ बिगड़ा, पेट के दुधिया रोएँ
दुधीले भूरे के धब्बे लिए हुए... ऐसी है वह, एक काली आँख
कांक्रीट से लगभग रगड़ती हुई, आगे के पंजे मुड़े हुए
उनके नन्हें नन्हें कुश्ती वाले हुक

हवा को कस के पकड़े, आखिरी शाखा का प्रेत :
यह हमारे कदमों में खटके से खुलने वाले उपहार सी रखी है
उसकी घनी मुलायम पट्टी, इतनी मुलायम कि हाथ फेरने का मन हो
गुजरती गाड़ियों से उछलते पानी से जरा जरा कंपित होती

 


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