hindisamay head


अ+ अ-

कविता

घूँट

मार्क ग्रेनिअर

अनुवाद - रति सक्सेना


मेरी माँ को पीने को तीन जग पानी चाहिए
जो उतना ही मुश्किल है, जितना कि होना चाहिए

जब कि आपकी 93 साल बूढ़ी हड्डियाँ अस्थिसंधिरोग से
दुखने लगें, थोड़ी थोड़ी घूँट भरा करो' मैंने कहा...
हालाँकि मैं अच्छी तरह से जानता हूँ कि
इस नखलिस्तान में पानी अमृत से भी ज्यादा दुरूह है
मुझे मीलों लंबे सोख्ता कागज इकट्ठे करने होंगे
उसे निकाल पाने के लिए, पहाड़ी झरने में उतरना होगा
जो कि उनके बेतरतीब आँखों पर ढुलकते बालों से कहीं ज्यादा गहरे हैं
जब कि वह चुल्लू में भरती हैं
स्वादपूर्ण शीतल जल, युद्ध के उपरांत के किसी कोहरे से ढके
शहर में चढ़ते हुए (म्युनिच, बेलफास्ट और रोम...)
जिनकी भीड़भरी गलियों मे जगह नहीं है, और कोई जगह नहीं हैं
चौवन साल के बेटे के लिए, जो उससे बार बार कह रहा है
छोटी छोटी घूँट भरो...

 


End Text   End Text    End Text

हिंदी समय में मार्क ग्रेनिअर की रचनाएँ