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कविता

अमूर्त हर्फों में लिखे हुए

वाज़दा ख़ान


तुमने कहा था किसी हिम युग में
एक बार हम जो नहीं कह पाते
हलक में घुट जाते हैं शब्द
उन्हें हम अपने मन की डायरी के
पन्नों पर उतार देते हैं
और ये भी कहा था कि युग के
बदलने से पहले
शब्दकोश में सतही मायने होते हैं
हमें खुद ही ढूँढ़ने होते हैं मायने
पर मैंने तो अनवरत यात्रा के
तमाम कालों में अपनी खामोशी में
कई बार कहा तुमसे
तुम मेरी आकाशीय इच्छाओं के अनुरूप हो
कई कई रूप हो
जो ढलते रहे अलग अलग नक्षत्रों अक्षांश
और देशांतर की रेखाओं में
वही रूप सैंधव घाटी दजला फरात
ग्रीक प्रतिमाओं में भटकते रहे
यहाँ तक कि मिस्र की ममीज में भी
कितने कितने मायने थे
इनमें अमूर्त हर्फों में लिखे हुए
जिन्हें तुम बिना चश्मे के
साफ साफ पढ़ सकते थे
दिव्य दृष्टि थी तुम्हारी
मेरे भीतर का सच
तुम्हारे होठों पर आते आते
रुक गया कई बार
छुपा लेते हो तुम उन्हें
अपने अतीत के गलियारे में
वर्तमान से बेपरवाह
वक्त मिलने पर करते हो तुम
उन सचों का विश्लेषण
ढूँढ़ते हो तुम भी उसमें थोड़ा थोड़ा
अपना सच
तभी तो मुक्त नहीं हो पाते हो
अपनी जड़ों से
चूँकि तुम उसी बोधि वृक्ष के नीचे जन्मे थे
नि:संग अनंत
जहाँ मैंने अपनी इच्छाएँ रखी थीं
साथ में रखा था अँधेरे कागज पर
लिखा खत
तुम ही उसे पढ़ सकते थे बारंबार
तुम्हारे पास गहन लिपि के
दस्तावेज हमेशा से थे।

 


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