अगर किसी को काम हमारा लगे शहद जैसा
वह कूबाची में आ देखे सचमुच वह कैसा।
कूबाची की कला-वस्तु पर आलेख
मैं गुलाम हूँ अपनी इन कविताओं का श्रम करता रहता डटकर
हाड़ तोड़ता, कमर झुकाता रात-दिवस, बहे पसीना माथे पर
फिर भी मेरी मालिक, मेरी कविताएँ, मुझ से तुष्ट न हो पातीं,
बहुत रात को, बहुत देर से वे मुझको जब मन आता, दौड़ातीं।
मैं रिक्शा हूँ, मेरी दोनों बगलों से, बम भिड़ते हैं, टकराते,
जहाँ-तहाँ से मेरी त्वचा उधड़ जाती, वे धचके दे, धकियाते।
पहिए, जिनसे जुता हुआ चिर तन मेरा भारी ही होते जाते।
यह घटना बहुत पहले घटी थी, मगर मुझे आज भी वह इतनी अच्छी तरह और इतनी साफ तौर पर याद है मानो कल ही घटी हो। मैं तो इस पर एक कविता भी रच चुका हूँ, मगर यहाँ दोहराए बिना नहीं रह सकता।
दागिस्तान के कवि हमजात का मैं बेटा, जिसे उस वक्त कोई नहीं जानता था, अपना गाँव छोड़कर पहले मखचकला और फिर मास्को चला गया। साल बीते। मैंने साहित्य-संस्थान की पढ़ाई समाप्त की, दस कविता-संग्रह निकाल दिए। एक संकलन के लिए मुझे स्तालिन पुरस्कार भी मिल गया। मैंने शादी की। थोड़े में यह कि कवि रसूल हमजातोव बन गया। तभी मेरे दिल में फिर से अपने गाँव जाने का ख्याल आया।
सारा-सारा दिन मैं उन जगहों पर घूमता रहता, जहाँ कभी बचपन और किशोरावस्था में भागा फिरता रहा था। मैं चट्टानों और गुफाओं को देखता, लोगों से बातें करता, निर्झरों के गीत सुनता, कब्रिस्तान में चुपचाप बैठा रहता और फिर से खेतों में घूमने लगता।
सं.रा. अमरीका में मैंने फोर्ड के कारखाने में वह जगह देखी, जहाँ नई कारों की आजमाइश की जाती है। लेखक के लिए ऐसा परीक्षण-स्थल वह होना चाहिए, जहाँ उसका जन्म हुआ है।
औरतें गेहूँ के खेतों में निराई करके घर लौट रही थीं। वे थकी-हारी और धूल से लथ-पथ थीं, पैनी घास से उनके हाथों पर खरोंचें आ गई थीं, उनमें चीर पड़ गए थे। औरतें आराम करने के लिए सड़क किनारे बैठ गई। मैं उनके पास गया।
मालूम नहीं कि या तो मुझे देखकर वे मेरी चर्चा करने लगी थीं या पहले से ही मेरा जिक्र छिड़ा हुआ था, मगर अचानक मैंने मुट्ठी भर घास से माथे का पसीना पोंछनेवाली नारी को यह कहते सुना -
'अगर मुझसे कोई यह पूछे कि मैं सबसे अधिक क्या चाहती हूँ, तो मेरा जवाब होगा - रसूल हमजातोव का बेफिक्र दिल और उसके जैसी मजे की जिंदगी।'
'तुम क्या समझती हो कि रसूल के सीने में दिल की जगह पनीर का टुकड़ा है और वह कभी नहीं कसकता?' मेरी एक रिश्तेदार ने मेरा पक्ष लिया।
'पनीर का टुकड़ा तो चाहे न हो, मगर फिर भी उसे गेहूँ के खेत की निराई नहीं करनी पड़ती। सामूहिक फार्म की घंटी उसे काम पर नहीं बुलाती और दोपहर का खाना खाने की अनुमति नहीं देती। उसे यह मालूम नहीं कि श्रम-दिवस किसे कहते हैं, कैसे उसके लिए काम किया जाता है और क्या मुआवजा मिलता है। मजे से अंट-शंट, अल्लम-गल्लम लिखता रहता है... उसे किस बात की चिंता हो सकती है? किसलिए उसका दिल टीस सकता है? इससे ज्यादा क्या मौज हो सकती है?'
ओ भली मानस! कैसे मैं तुम्हें अपने काम, अपने अविराम और कठिन श्रम के बारे में बताऊँ?
उदास-उदास-सा मैं खेत से गाँव की ओर चला गया। गाँव के चौपाल में पके बालोंवाले बुजुर्ग ठंडे पत्थरों को गर्मा रहे थे। बड़े इतमीनान से वे आपस में जमीन, भावी फसल, पहाड़ों, चरागाहों, बीमारियों और जड़ी-बूटियों तथा हमारे गाँव के बीते दिनों की चर्चा कर रहे थे। मैं उनके पास गया, सलाम-दुआ की और ठंडे पत्थर पर बैठ गया।
एक बुजुर्ग के पास ताजा अखबार था, जिसमें मेरी कविताएँ छपी हुई थीं। उन्हीं के बारे में बातचीत होने लगी। घुड़सवार को अपने घोड़े की तारीफ से खुशी होती है। मुझे भी उम्मीद थी कि मेरे गाँववासी अभी मेरी कविता की प्रशंसा करेंगे। बात यह है कि मास्को और मखचकला में मैं तारीफ सुनने का आदी-सा हो चला था। उस बुजुर्ग ने, जिसके हाथ में अखबार था, कहा -
'तुम्हारे पिता हमजात कविता रचते थे। तुम, हमजात के बेटे भी कविता लिखते हो। तुम काम कब करोगे? या तुम रोटी के टुकड़े से कुछ अधिक भारी चीज उठाए बिना ही अपनी सारी जिंदगी बिता देने का इरादा रखते हो?'
'कविता ही तो मेरा काम है,' मैंने यशाशक्ति धीरज से जवाब दिया। बातचीत के ऐसा रुख ले लेने पर मैं सकते में आ गया था।
'अगर कविता लिखना ही काम है, तो निठल्लापन किसे कहते हैं? अगर गीत ही श्रम है, तो मौज और मनोरंजन क्या है?'
'गीत गानेवालों के लिए वह सचमुच मनोरंजन हैं, मगर जो उन्हें रचते हैं, उनके लिए वही काम है। नींद और आराम, साप्ताहिक और वार्षिक छुट्टियों के बिना काम। मेरे लिए कागज वही मानी रखता है, जो खेत तुम्हारे लिए। मेरे शब्द - मेरे दाने हैं। मेरी कविताएँ - मेरे अनाज की बालें हैं।'
'हाँ, ये सब तो बहुत सुंदर शब्द हैं। खेत मेरे घर की छत पर नहीं आ जाता। मुझे खेत में काम करने जाना पड़ता है। मगर तुम तो कहीं भी क्यों न हो, चाहे बिस्तर में ही, गीत अपने आप ही तुम्हारे पास आ जाता है। तुम्हारा हर गीत तो जैसे तुम्हारा मेहमान होता है, जो तुम्हारे घर पर दस्तक देता है। इसका मतलब यह है कि हर गीत एक पर्व है। मगर हमारा खेत तो रोजमर्रा की आम जिंदगी है।'
हमारे गाँव के बुजुर्गों ने इस तरह या लगभग इस तरह अपने विचार प्रकट किए।
'मगर गीत ही तो मेरी जिंदगी है।'
'इसका यह मतलब है कि तुम्हारी जिंदगी तो स्थायी पर्व है। बात यह है कि गीत तो प्रतिभा का मामला है। जिसके पास प्रतिभा है, उसके लिए अच्छा गीत रचना बहुत आसान काम है। मगर जिसके पास उसकी कमी है, उसे श्रम करना पड़ता है। हाँ, इस संबंध में श्रम से बहुत लाभ नहीं होता।'
'नहीं, आपकी बात सही नहीं है। जिसके पास कम प्रतिभा होती है, वह कला को बच्चों का खेल समझता है। वही एक गीत से दूसरे गीत पर उड़ता फिरता है। जैसा कि कहा जाता है, घास काटता है। बड़ी प्रतिभा के साथ-साथ उसके प्रति जिम्मेदारी भी आती है और वास्तविक प्रतिभावाला व्यक्ति अपनी कविताओं को बहुत कठिन और महत्वपूर्ण काम मानता है। गाई जानेवाली हर चीज गीत नहीं होती, सुनाई जानेवाली हर चीज कहानी नहीं होती।'
'तो बताओ कि तुम कैसे काम करते हो और तुम्हारे धंधे में क्या कठिनाइयाँ होती हैं?'
मेरे इर्द-गिर्द बुजुर्ग हलवाहे बैठे थे। मैं उन्हें अपने काम के बारे में बताने लगा, मगर जल्दी ही यह समझ गया कि मेरे लिए बहुत ही साधारण बातों को, जिन्हें मैं बहुत ही अच्छी तरह समझता हूँ, दूसरों को समझाना मुश्किल है। मैं अटकने और बेचैनी महसूस करने लगा और खामोश हो गया। बाजी बुजुर्गों के हाथ रही थी। मैं उन्हें यह नहीं समझा पाया कि कविता रचना क्यों मुश्किल है और कुल मिलाकर कविता रचना काम ही क्या है।
तब से अब तक बहुत साल बीत चुके हैं। मगर आज भी अगर कोई मुझसे यह पूछता कि मेरा काम क्या है, कि वह क्यों मुश्किल और दूसरे कामों से कैसे भिन्न है, तो शायद मैं साफ तौर पर यह न समझा पाता।
मेरे काम की जगह कहाँ है? मेज पर, हाँ, काम की मेज पर। मगर सैर के वक्त वह पहाड़ी पर भी होती है, जब मैं अपनी कविता की कल्पना करता हूँ और शब्द तथा ध्वनियाँ मेरे पास आती हैं, मगर मैं उन्हें ठुकराकर एक तरफ को फेंक देता हूँ। मेरे काम की जगह रेलगाड़ी भी है, जिसमें बैठकर मैं किसी दूसरे देश को जाता हूँ। कारण कि इस वक्त भी मेरे दिमाग में नई कविता के विचार आ सकते हैं। हवाई जहाज, ट्राम, लाल चोक, नदी-तट, जंगल और किसी मंत्री का स्वागत-कक्ष भी मेरे काम की जगह हो सकती है। पृथ्वी पर हर जगह ही मेरा कार्य-स्थल, मेरा खेत है, जहाँ मैं रहता और हल चलाता हूँ।
किस वक्त मैं काम करता हूँ? सुबह को या शाम को? कितना बड़ा है मेरा कार्य-दिवस? आठ घंटे का या छह घंटे का, बारह घंटे का, बारह घंटे का या इससे अधिक लंबा है वह? पर यदि इससे बड़ा है, तो मैं क्यों हड़ताल नहीं करता, आठ घंटे के कार्य-दिवस के लिए संघर्ष क्यों नहीं करता?
बात यह है कि जब से मुझे होश है, मैं हमेशा ही काम करता रहा हूँ। खाने के वक्त और थिएटर में, बैठक में और शिकार के समय, चाय पीते और मातम मनाते हुए भी, मोटर में और शादी के मौके पर भी। यहाँ तक कि नींद में भी कविता की पंक्तियाँ, उपमाएँ और विचार तथा कभी-कभी तो पूरी की पूरी तैयार कविताएँ दिखाई देती हैं। इसका मतलब यह है कि नींद में भी मेरा कार्य-दिवस जारी रहता है। बहुत पहले ही हड़ताल कर देनी चाहिए थी मुझे।
मैं कैसे काम करता हूँ? इस सवाल का जवाब देना सबसे ज्यादा मुश्किल है। कभी-कभी मुझे ऐसा लगता है कि मेरा काम दूसरे सभी लोगों के काम के समान है। कभी-कभी मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि वह बिल्कुल अनूठा है और दुनिया के लोग जितने भी काम कर रहे हैं, उनमें से किसी के साथ भी इसकी तुलना नहीं की जा सकती।
कभी-कभी मैं ऐसा महसूस करता हूँ कि इर्द-गिर्द सभी लोग काम करते हैं और मैं अकेला ही कुछ नहीं करता। कभी-कभी मुझे ऐसी अनुभूति होती है कि सिर्फ मैं ही काम करता हूँ और मेरी तुलना में बाकी सभी निठल्ले हैं।
पक्षियों के बड़े मजे हैं। वे जिंदगी भर वही गीत गाते रहते हैं, जो उनके माँ-बाप उन्हें सिखा देते हैं। नदी भी मौज करती है। हजारों सालों से वह एक ही धुन गाती चली जा रही है। मगर मुझे तो अपनी छोटी-सी जिंदगी में इतने गीत रचने हैं, जो बहुत-बहुत सालों तक काफी हों।
जमीन का छोटा-सा टुकड़ा जोतनेवाले पहले आदमी का काम शायद काफी मुश्किल रहा होगा। पहला गीत रचनेवाले का काम भी आसान नहीं रहा होगा।
यदि एक हजार आदमी जमीन जोत चुके हों, एक हजार एकवें के लिए यह काम अपेक्षाकृत आसान होगा। पर यदि एक हजार आदमी कविताएँ लिख चुके हैं, तो एक हजार एकवें के लिए यह और भी ज्यादा मुश्किल काम होगा।
हाँ, खेतिहर, कुछ हद तक तो मेरा काम तुम्हारे काम जैसा ही है। इसलिए कृपया, मुझे ऐसा निठल्ला नहीं समझो, जिसका जीवन स्थायी रूप से मनोरंजन और मौज-बहार ही है। लंबी और उनींदी रातों में मैं तुम्हारी ही तरह अपने खेत के बारे में सोचता रहता हूँ। तुम अपने खेत के लिए बढ़िया बीज चुनते हो और मैं कुल शब्दों में से सबसे अच्छे शब्द चुनता हूँ। हजारों में से मुझे केवल एक ही चुनना होता है। मेरी भी अपनी जोत है, उसमें भी बीज फूटते हैं, जिनसे मुझे खुशी होती है, मुझे भी अपने श्रम के फल मिलते हैं। मैं भी अपने ढंग की बोवाई-निराई करता हूँ, क्योंकि मेरे खेत में भी काँटे और घास-पात हैं। मशीन की मदद से भी अच्छे-बुरे बीजों को अलग करना मुश्किल होता है। उपयोगी, हितकर और अच्छे शब्दों को गंदे-गंदे शब्दों से अलग करना और भी ज्यादा मुश्किल होता है।
किसान, तुम ओलों, पाले और सूखे से अपने खेत की रक्षा करते हो। मेरे लिए ऐसे गीत रचना जरूरी है, जो अपने सबसे भयानक शत्रु यानी समय के भय से मुक्त हों, क्योंकि मैं ऐसे गीत रचना चाहता हूँ, जो सदियों तक जिंदा रहें।
मुझे भी अपने ढंग के हानिकारक जीव-जंतुओं, कीड़ों-मकोड़ों, टिड्डियों और चूहों-से निपटना पड़ता है। वे मेरी फसल को कम कर सकते हैं या बिल्कुल ही नष्ट कर सकते हैं अथवा ऐसी बदमजा कर सकते हैं कि लोग मेरे श्रम के फलों से मुँह मोड़ लेंगे।
इतना ही नहीं, तुम्हारे चूहों और धानीमूषों के मुकाबले में मेरे खेत के फसल-नाशक चूहे कहीं बड़े और भयानक हैं, उनके विरुद्ध संघर्ष करना कहीं अधिक कठिन और कभी-कभी तो बिल्कुल व्यर्थ होता है।
चूल्हा जलता, छत के ऊपर टेढ़ा-मेढ़ा धुआँ दिखे
फिर भी है यदि सेंध कहीं पर, छोटी-सी भी उस घर में,
तब तो हवा किसी भैंसे-सा, अपना भारी सिर लेकर
घुस आएगी भीतर झटपट, बर्फ जमेगी घर भर में।
मेरी कविता के संग भी तो, ऐसा ही कुछ होता है
उसकी सेंधों का मैं भी तो, मूल्य चुकाता हूँ भारी,
ढीले-ढाले शब्दों में तो हवा तुरत घुस आती है
और बर्फ-सी जम जाती है, कविता तब मेरी सारी।
बाद में मुझे अपने फल लोगों में बाँट देने होते हैं। दागिस्तान और दूसरे देशों के लोगों को उन्हें चखना होता है, उनकी मिठास या कड़वाहट, उनके विशेष स्वाद को जानना होता है। मेरे फल का स्वाद अन्य सभी फलों के स्वाद से भिन्न होना चाहिए।
मुझे याद है कि कैसे मेरे बचपन के दिनों में पिता जी मुझे पूले बाँधना सिखाते थे। जब मैं घुटना टेककर पूरे जोर से पूले को कसता था, तो पिता जी कहते थे -
'रसूल, ध्यान से। पूले का गला नहीं घोटों।'
अब, जब कभी कोई कविता नहीं बनती, मेरे बहुत धकेलने पर भी कोई पंक्ति बाहर निकल आती है और मैं कविता को जैसे-तैसे खत्म कर डालने के लिए एड़ी-चोटी का जोर लगाता हूँ, तो ऐसे क्षणों में मुझे अक्सर पिता जी की यह सीख याद आ जाती है - 'रसूल, ध्यान से। पूले का गला नहीं घोंटो।'
खेतों में हर साल एक जैसी फसलें नहीं होतीं। एक साल तो इतना अनाज हो जाता है कि बखार और एलीवेटर भी काफी नहीं होते और फिर ऐसा भी होता है कि तीन साल तक कुछ भी पैदा नहीं होता। मेरा भी ऐसा ही हाल है। हमेशा एक ही तरह से काम नहीं कर पाता। वैसे खाद और बीज तो मैं बढ़िया डालता हूँ, जुताई भी ढंग से करता हूँ, मगर अनाज पैदा नहीं होता। ऐसे वक्तों में अनुवाद करना और अनाज कहीं आस्ट्रेलिया या कनाडा से खरीदना पड़ता है। जब मेरी काव्य-दीप्ति मंद पड़ जाती है और कविताएँ मेरी आत्मा से निकलकर कागज पर नहीं आना चाहतीं, तब किसी भी तरह के रासायनिक पदार्थ मेरी मदद नहीं कर पाते।
मगर क्या किया जाए? अगर हर अभियान और शुरू किया गया हर काम सिरे ही चढ़ जाता, तो सभी संतुष्ट और खुश रहते। अगर जमीन हर साल भरपूर फसल देती, तो दुनिया में कोई भी भूखा न रहता। अगर कागज पर लिखी हर चीज गीत होती, तो लोग कभी के साधारण भाषा में बातचीत करने के बजाय गाते ही रहते। मगर गीत रचना बहुत टेढ़ी खीर है।
मुझे दागिस्तान, जार्जिया, आर्मीनिया और बल्गारिया के शराब के कारखानों तथा पील्जेन की बीयर-फैक्टरियों में भी जाने का मौका मिला है। मुझे लगता है कि कवियों और शराब बनानेवालों में बहुत कुछ साझा है। दोनों की अपनी बारीकियाँ और रहस्य हैं। शराब की तरह कविता भी आत्मा में उठनी चाहिए, उसे वहाँ ही पकना चाहिए। शराब की तरह अच्छी कविता में भी आत्मा को खुश करनेवाला कोई रहस्यपूर्ण खुमार छिपा रहता है। इस दृष्टि से कविता और शराब एक-दूसरी के बहुत निकट हैं।
कभी-कभी किसी पहाड़ी गाँव में, जहाँ दुकान है, शराब के पीपे लादे हुए ट्रक आती है। एक पीपा इस गाँव में, दूसरा उस गाँव में - बूयनाक्स्क से लाई गई शराब को ड्राइवर इस तरह पहाड़ी गाँवों में पहुँचाते हैं।
ऐसी ट्रक को देखते ही नीजवान लोग ऐसा जाहिर करते हुए कि न तो उन्हें कोई उतावली है और न जल्दी, मगर वास्तव में बेहद बेसब्र होते हुए, गाँव के सभी कोनों से उस दुकान की ओर चल पड़ते हैं। वे पीपे को ऐसे घेर लेते हैं जैसे चरवाहे द्वारा रखे हुए नमक के डले को भेड़ें।
शराब को घड़ों में डाला जाता है, सभी चखने लगते हैं और तब सभी को भारी निराशा होती है। ऐसी आवाजें सुनने को मिलती हैं -
'यह भी कोई शराब है। यह तो पानी है।'
'नाले का मामूली पानी।'
'बेचनेवाले खुद ही पी लें ऐसी शराब।'
'मुझ पर क्यों बिगड़ रहे हैं?' विक्रेता विरोध करता है। 'आप लोगों ने तो देखा है कि पीपा ट्रक में लाया गया है। आपके सामने ही नीचे उतारा गया है। आप लोगों ने उसे उतरवाने में भी मदद की है। तो फिर मेरा क्या दोष है? जैसी शराब आई है, वैसी ही बेच रहा हूँ। नहीं चाहते, तो नहीं खरीदिए।'
असल बात यह है कि शहर के गोदाम में ऐसे लोग हैं, जो हल्के में शराब भेजने के पहले पीपे में से जितनी भी चाहते हैं, शराब निकाल लेते हैं और उसकी जगह शुद्ध जल डाल देते हैं। 'हलकों में तो ऐसी शराब पाकर भी बहुत खुश होंगे।' हलके के गोदाम से गाँवों को शराब रवाना करने के पहले वहाँ के कर्मचारी भी यह किस्सा इसी तरह दोहराते हैं। 'गाँवों के लिए तो ऐसी शराब भी चलेगी।' वे कहते हैं। रास्ते में ड्राइवर और कुली तन गर्माने तथा लंबे सफर की ऊब मिटाने के लिए कई लीटर शराब निकाल लेते हैं और किसी निर्झर या नदी से निर्मल जल डाल लेते हैं। तो इस तरह या तो पानी से खराब हुई शराब या शराब से खराब हुआ पानी बन जाता है।
कुछ कविताओं को पढ़ते हुए भी यह समझ में नहीं आता कि उनमें कवित्व अधिक है या कोरी शब्द-भरमार। काहिल कवि ही, जो मेहनत करने से घबराते हैं, ऐसी कविताएँ रचते हैं। मगर उछल-कूद करनेवाली नदी शायद ही कभी सागर तक पहुँच पाती है। आलसी यात्री शायद ही कभी मक्का तक पहुँच पाता है। जब दो सवारों को एक ही घोड़े पर जाना होता है, तो वे एक-दूसरे को सहारा देते हैं। प्रतिभा और श्रम भी एक ही घोड़े पर सवारी करते हैं।
अबूतालिब कहा करते थे कि प्रतिभा और श्रम को कविता में ऐसे घुल-मिल जाना चाहिए जैसे खंजर और म्यान मिलकर एक हो जाते हैं।
नोटबुक से। उन दिनों मैं घर के बजाय बाहर सड़क पर ज्यादा वक्त बिताता था। मैं स्कूल में पढ़ता था, और कविता रचने लगा था। मगर मुझमें कविता रचने, पढ़ने और घर पर तैयार करने के लिए दिए गए स्कूली पाठों को पूरा करने का धीरज नहीं होता था। मेज के पास टिककर बैठना तो मैं जानता ही नहीं था। बहुत जल्दी ही मैं बेचैनी महसूस करने लगता, मेज पर से उठता और मौका मिलते ही बाहर सड़क पर भाग जाता। अभी भी मैं न तो बहुत टिककर बैठ सकता हूँ और न मुझमें बहुत धीरज ही है।
एक दिन पाठ तैयार करने या कविता रचने के लिए मुझे बैठाकर पिता जी थोड़ी देर को बाहर गए। दरवाजा बंद हुआ ही था कि मैं झटपट मेज पर से उठा और अपने घर की छत पर जा पहुँचा। मुझे वहाँ देखकर पिता जी ने माँ को पुकारा और कहा -
'जरा मुझे वह रस्सा ला दो जो कील पर लटका हुआ है।'
'क्या जरूरत है तुम्हें उसकी?'
'मैं रसूल को कुर्सी के साथ बाँधना चाहता हूँ, वरना वह कभी काम का आदमी नहीं बनेगा।' पिता जी ने बड़े इतमीनान से और कसकर मुझे कुर्सी के साथ बाँध दिया, धीरे-से मेरे माथे पर चपत लगाई और कागज की तरफ इशारा करके बोले -
'भेजे में जो कुछ है, यहाँ लिखो।'
काश कि हम लेखकों को अब भी कोई जब-तब कुर्सी पर बाँध देता।
मुमकिन है कि दिमाग तो काम करता हो, मगर यदि दिमाग काम करता है और हाथ कुछ नहीं करते, तो यह तो वैसी ही बात होगी कि चक्की आटा पीसने के बजाय खाली ही घूमती जाए।
शानगिराई, उसके बेटे और पाँच रूबलों का किस्सा। कुछ अर्से पहले की बात है कि खूंजह में शानगिराई नाम का एक धनी और सर्वसम्मानित व्यक्ति रहता था। उसका इकलौता और इसलिए बिगड़ा हुआ तथा सनकी बेटा था। पिता ने चाहा कि उसका बेटा गाँव के अन्य लोगों की तरह काम करे और इस तरह सही अर्थ में इनसान बने। मगर बेटा काम करना नहीं चाहता था। पिता के दोस्त और रिश्तेदार उसे बिगाड़ते थे। कोई उसे घोड़ा भेंट कर देता, कोई चेर्केसी कोट, कोई पैसे और कोई खंजर।
एक बार शानगिराई बहुत सख्त बीमार हो गया। दवाइयों से उसे कोई फायदा न हुआ। सभी रिश्तेदार, दोस्त-मित्र बीमार के पास जमा हुए।
'तुम अच्छे हो जाओ, इसके लिए हम क्या करें?'
'मैं तो जानता हूँ कि कैसे मैं भला-चंगा हो सकता हूँ मगर तुम लोग मेरी इच्छा पूरी करने में असमर्थ हो।'
'तुम अपनी इच्छा तो प्रकट करो। हम उसे पूरा करने के लिए कोई कसर न उठा रखेंगे।'
'अगर मेरा बेटा खुद कमाकर पाँच रूबल लाए और मुझसे कहे : 'पिता जी, इन्हें ले लो, ये आपके हैं,' तो मैं ठीक हो जाऊँगा।'
दो दिन बाद बेटा अपने बाप के पास आया और पाँच रूबल का नोट बढ़ाते हुए बोला -
'पिता जी, ये रूबल ले लीजिए। गोईसुव खड्ड में से तने बहाकर मैंने कमाए हैं।'
पिता ने नोट की तरफ, फिर बेटे की तरफ देखा और नोट को आग में फेंक दिया। बेटा बुत बना खड़ा रह गया। उसके चेहरे का ऐसे रंग उड़ गया मानो किसी ने तमाचा रसीद कर दिया हो।
वास्तव में बीमार शानगिराई की इच्छा जानकर लड़के की मदद करने के लिए वे पाँच रूबल उसके चाचा ने दिए थे।
कुछ दिन बाद बेटा फिर से बाप के पास आया और पाँच रूबल का नोट बढ़ाते हुए बोला -
'मैंने गूनीब में बन रही नई सड़क की तामीर में हिस्सा लेकर इन्हें खुद कमाया है।'
पिता ने बेटे की तरफ, फिर नोट की तरफ देखा और उसे मोड़कर खिड़की से बाहर फेंक दिया।
बेटा बुत बना खड़ा रहा। उसे ये रूबल होत्सातल में रहनेवाले पिता के एक दोस्त ने दिए थे।
बेटा तीसरी बार पिता के पास आया और तीसरी बार उसने पाँच रूबल का नोट पिता की तरफ बढ़ाया। पिता ने बेटे की तरफ देखे बिना ही नोट लिया और उसके दो टुकड़े कर डाले। बेटा बाज की तरह नोट के उन दो टुकड़ों पर झपटा और उन्हें उठाकर जोड़ने लगा। उसने चिल्लाकर पिता से कहा -
'मैंने इसलिए पेत्रोव्स्क में घुड़सालों की सफाई करके ये रूबल नहीं कमाए थे कि आप इन्हें मामूली कागज की तरह फाड़कर फेंक दें। मेरे हाथों पर गट्टे पड़ गए हैं।'
'हाँ, अब यह बात बिल्कुल साफ है कि तुमने खुद ही ये रूबल कमाए हैं।'
शानगिराई खुश हो उठा, उसकी तबीयत सँभलने लगी और जल्दी ही वह बिल्कुल स्वस्थ हो गया।
अपनी मेहनत से कमाई गई दौलत का ही वास्तविक मूल्य होता है।
शायद कविता के बारे में भी ऐसा ही कहा जा सकता है। अगर कविता रचने के लिए कवि को खुद कष्ट उठाना पड़ा है, तो हर शब्द और हर कॉमा भी उसे प्यारा होगा। अगर उसने राह चलते पराये विचार इकट्ठे कर लिए हैं, तो उनसे बढ़िया कविता नहीं बनेगी।
मेरे घर के पास सुनार कई रहते
देख चुका हूँ कभी-कभी जा उनके घर,
घिसकर ताँबा, सोना तनिक कसौटी पर
आसानी से बतलाते उनका अंतर।
मेरे पाठक - मेरी तुम्हीं कसौटी हो
तुम ही मुझको मेरा सत्य दिखा पाते,
चालाकी से बुनी पंक्तियों में मेरी
सोने-ताँबे का तुम अंतर दिखलाते।
अगर तुम यह चाहते हो कि मछली मजेदार हो, तो झील पर जाकर उसे खुद पकड़ो। उकाब हवा के रुख के विपरीत उड़ता है। मछली बहाव के प्रतिकूल तैरती है। कवि भी प्रबल भावनाओं की और बढ़ता हुआ ही, वे चाहे सुखद होने के बजाय दुखद हों, काव्य-रचना करता है। एक बार अबूतालिब ने मुझे कुछ ऐसा ही किस्सा सुनाया था।
बालखारी के कुम्हारों, उनके मिट्टी के बर्तनों और शैतान गाहकों का किस्सा। बालखारी के कुम्हारों ने मिट्टी से बनाई हुई अपनी चीजों को बड़ी-बड़ी टोकरियों में रखा, उन्हें गधों और खच्चरों पर लादा और बेचने शहर चल दिए। रास्ते में उन्हें अपने निकटवर्ती गाँव के शरारती लड़के मिले।
'कुम्हारो, बहुत दूर जा रहे हो क्या?'
'बर्तन बेचने।'
'क्या कीमत है इनकी?'
'छोटों की बीस कोपेक और बड़ों की पाँच।'
'ऐसा क्यों?'
'इसलिए कि बड़े बर्तनों की तुलना में छोटे बर्तन बनाना ज्यादा मुश्किल होता है।'
शरारती लड़कों ने बालखारीवासियों से उनके सारे बर्तन खरीद लिए।
'हमारे माल से बहुत खुशी होगी तुम्हें,' कुम्हारों ने लड़कों से विदा लेते और अपने गधों-खच्चरों को गाँव की ओर मोड़ते हुए कहा। 'बहुत मन लगाकर हमने अपना माल तैयार किया है। तुम्हारे पोते-पोतियों तक हमारे बनाए हुए ये बर्तन काम देते रहेंगे।'
पहाड़ पर चढ़कर कुम्हार आराम करने के लिए बैठ गए। उन्होंने दूर से पहाड़ी सड़क पर नजर डाली और अचानक उन्हें यह जानने की कुरेद हुई कि लड़के उनके बनाए हुए टनकते और सुंदर बर्तनों का क्या कर रहे हैं। लड़कों ने उन बर्तनों को खड्ड के सिरे पर रख दिया था और खुद उनसे बीस कदम हटकर उनपर कंकड़ फेंक रहे थे। शायद उनमें होड़ हो रही थी कि कौन ज्यादा बर्तन तोड़ता है। बर्तन टनकती आवाज करते हुए टूटते और उनके टुकड़े खड्ड में बिखर जाते। लड़कों को इससे बहुत खुशी हो रही थी।
कुम्हार एक साथ ऐसे उछलकर खड़े हुए मानो उन्हें फौजी हुक्म मिला हो और म्यानों से खंजर निकालकर वे उन बदमाश लड़कों की ओर भागे।
'अरे दुष्ट लड़को, यह तुम क्या कर रहे हो।' वे चिल्लाए। 'हमने तो अपने बहुत ही अच्छे बर्तन बेचे हैं और तुम... कोई शर्म-हया है तुममें?'
'किसलिए बिगड़ रहे हैं आप?' कुछ न समझते हुए लड़कों ने पूछा। 'आपने अपना माल हमें बेच दिया, हमने आपको उसके अच्छे पैसे दे दिए, अब ये बर्तन हमारे हैं। हम इनका क्या करते हैं, आपको इससे मतलब? जी में आएगा, तो फोड़ेंगे, जी में आएगा, तो घर ले जाएँगे और जी में आएगा, तो यहीं सड़क पर छोड़ देंगे।'
मगर इन बर्तनों के साथ हमारा भी तो नाता है। बर्तन बनने के पहले हमने इनके लिए मिट्टी तैयार करने में बहुत मेहनत की। हमने बड़े मन से उसे गूँधा ताकि उसके सुंदर बर्तन बनें, ताकि लोग उन बर्तनों को देखकर मुग्ध हों। हमने तो यह सोचा था कि हमारी बनाई चीजों से लोगों को खुशी मिलेगी, कि वे किसी के जीवन में रंगीनी लाएँगे। तुम्हें इन बर्तनों को बेचते हुए हमने यह आशा की थी कि एक गागर से तो तुम अपने मेहमानों को बूजा पिलाओगे, दूसरी में चश्मे का ठंडा पानी रखोगे और कुछ गमलों में सुंदर फूल उगाओगे। मगर तुम तो बड़े ही बेहया हो, इन सभी बर्तनों के टुकड़े कर डाले। हमारी सारी मेहनत, हमारी सारी कोशिश, हमारे सारे सपनों को तुमने खड्ड के सिरे पर चूर-चूर कर डाला। तुमने हमारी बनाई हुई चीजों पर वैसे ही कंकड़ फेंके है, जैसे कि नासमझ बालक गानेवाले सुंदर पक्षियों पर कंकड़ फेंकते हैं।'
कुम्हारों ने लड़कों से वे सभी बर्तन, जो वे तोड़ नहीं पाए थे, दृढ़तापूर्वक छीन लिए और अपने घर लौट गए।
कुम्हारों के दिल को लगी ठेस को हर वह आदमी समझ जाएगा, जो खुद कड़ी मेहनत करता है, अपने काम में पूरी तरह से अपना मन लगा देता है और अपने श्रम के फल पर मुग्ध होता है। इस तरह अबूतालिब ने अपना यह किस्सा खत्म किया।
अबूतालिब का सुनाया हुआ यह किस्सा मुझे न जाने क्यों, तब याद हो आया, जब दूरस्थ जापान में मैंने मोती खोजनेवाली लड़कियों को देखा। जवान और हष्ट-पुष्ट सुंदरियाँ सागर-तल में गहरे गोते लगातीं और वहाँ बड़ी मुश्किल से साँस लेती हुई अपनी जाँघ के साथ लटकते थैले में कुछ सीपियाँ डाल पातीं। ऐसी ही किसी एक सीपी में शायद कोई मोती हो सकता है। मगर मोतीवाली ऐसी एक खुशकिस्मत सीपी पाने के लिए हजारों सीपियाँ निकालनी पड़ती हैं। अब कल्पना कीजिए कि असली मोतियों की माला बनाने के लिए कितनी बार गोते लगाना और कितनी हजार सीपियाँ निकालना जरूरी होगा?
तो क्या उन्हीं शब्दों से, जिनका लोग हर दिन की बातचीत में इस्तेमाल करते हैं, गीतों की माला तैयार करना आसान है? सभी साधारण शब्द, सभी घटनाएँ, सभी भावनाएँ, जीवन के सभी अनुभव - यह है वह महासागर, जिसमें ढेरों सीपियाँ बिखरी पड़ी हैं। मगर मोती की तालश करनेवाले को अत्यधिक कठिन श्रम करना पड़ता है, लगातार महासागर की गहराइयों में गोते लगाने पड़ते हैं। इसके लिए अत्यधिक दक्षता, धीरज, स्वास्थ्य और सहनशीलता तथा प्रयास आवश्यक है। यह भी जरूरी है कि किस्मत साथ दे। मोती खोजनेवाले का धीरज, चाँदी पर काली नक्काशी करनेवाले कूबाची कारीगर का धीरज - इस सब का प्रतिभा से संबंध है, यह सब एक साथ प्रतिभा और श्रम है।
अधिक समय तक जी पाए कविता मेरी
सीख रहा हूँ मैं तो सुखी, दुखी होकर
उस कूबाची के कारीगर-सा कैसे
धीरज, दृढ़ता पा जाऊँ मैं भी आखिर।
नियम, जिन्हें हर पहाड़ी जानता है।
बालिग होने से पहले बेटी की शादी नहीं करो।
पानी तक पहुँचने से पहले जूते नहीं उतारो।
जब तक जानवर जंगल में है और तुमने उसका शिकार नहीं कर लिया, उसे पकाने के लिए पतीला आग पर नहीं चढ़ाओ।
रुपहली लोमड़ी उसकी नहीं है, जिसने उसे देखा, बल्कि उसकी है, जिसने उसे पकड़ा।
संस्मरण। मैं एक घटना लोगों को बताना तो नहीं चाहता, क्योंकि उसमें मेरी तारीफ की कोई बात नहीं है। पर जब सिलसिलेवार सब कुछ बताना शुरू ही कर दिया, तो अब इसे ही क्या छिपाना? पहाड़ों में ठीक ही कहा जाता है - 'अगर पेट तक पानी में चले गए, तो पूरी तरह ही घुस जाओ,' 'अगर बोरी का मुँह खोल ही दिया, तो उसमें जो कुछ भी है, झटककर बाहर निकाल दो।'
यह किताब, जो मैं इस वक्त लिख रहा हूँ, कभी की पूरी हो गई होती, अगर यह मूर्खतापूर्ण घटना न घट जाती, जिसकी मैं अब चर्चा करने जा रहा हूँ।
आम तौर पर ऐसा होता है कि अगर मैं कोई किताब लिखना शुरू कर चुका हूँ और तभी मुझे कहीं जाना पड़ जाए, तो उसकी पांडुलिपि मैं अपने साथ ले जाता हूँ। इस तरह मेरी पांडुलिपियाँ विभिन्न देशों की लंबी यात्राएँ कर चुकी हैं। जाहिर है कि मैं उन्हें यों ही अपने साथ नहीं ले लेता - होटल में हमेशा ही कोई न कोई ऐसी सुबह मिल जाती है, जब पांडुलिपि लेकर बैठा जा सकता है, उस पर विचार करना और एकाध पृष्ठ लिखना संभव होता है। तो इस तरह यह किताब भी मेरे साथ समुद्रों, महासागरों और महाद्वीपों की सैर कर आई है।
एक बार ब्रसेल्स से लौटते हुए मैं मास्को के 'मोस्क्वा' होटल में आठवीं मंजिल पर ठहरा। अब जब इस होटल का जिक्र आ ही गया है, तो यह भी बता दूँ कि यह मेरे लिए महज होटल नहीं है। यह एक तरह से मेरा दूसरा घर है। अगर उन सालों को ध्यान में रखा जाए, जब से मैं लेखक बना हूँ और तरह-तरह के कामों के सिलसिले में राजधानी आता-जाता रहा हूँ, तो लगभग मेरी आधी जिंदगी इसी होटल में गुजरी है।
सभी प्रबंधक, सभी मंजिलों पर ड्यूटी देनेवाली और सफाई करनेवाली नारियाँ मुझे अच्छी तरह जानती हैं और मैं भी उन्हें जानता हूँ। मास्को के मेरे दोस्तों को भी यह मालूम है कि मैं हमेशा 'मोस्क्वा' होटल में ही ठहरता हूँ। इन दोस्तों में सचमुच कुछ तो ऐसे भी हैं, जिनके लिए 'रसूल मास्को में' शब्दों का यही अर्थ होता है कि फुरसत का वक्त काटने का एक अच्छा संयोग बना है।
मैं हाथ-मुँह भी नहीं धोने पाता हूँ कि रह-रहकर टेलीफोन की घंटी बजने लगती है, दरवाजे पर बार-बार दस्तक होने लगती है और कुछ ही देर बाद कमरे में कहीं बैठने या हिलने-डुलने तक की जगह नहीं रहती। होटल का कमरा बेशक पहाड़ी घर नहीं होता, फिर भी पुरानी परंपरा के अनुसार हम पहाड़ी लोग तीसरे दिन ही मेहमान का नाम पूछते हैं। पर चूँकि तीन दिनों तक कोई मेहमान भी होटल के कमरे में बैठा नहीं रहता, इसलिए अपने पास आनेवाले बहुत-से लोगों के नाम मुझे कभी मालूम ही नहीं हो पाते।
तो खैर, ब्रसेल्स से लौटने पर एक बार मैं 'मोस्क्वा' होटल में ठहरा। हमेशा की तरह मेरे कमरे में लोगों की भीड़ थी। कुछ मेरे विदेश से लौटने की बधाई और कुछ दागिस्तान की मेरी यात्रा के लिए शुभकामनाएँ देने आए थे और कुछ ऐसे ही, किसी भी काम के बिना आ गए थे। कुछ को मैंने खुद बुलाया था और कुछ बिन बुलाए मेहमान थे।
हो-हल्ला करते हुए हमने कुछ की तारीफ की और इसलिए जाम चढ़ाए; शोर मचाते हुए दूसरों की आलोचना की और इसलिए पी। हम बातें करते थे और पीते थे। खिलखिलाकर हँसते थे और पीते थे। गाने गाते थे और पीते थे। इसके अलावा कमरे में इतना धुआँ फैला हुआ था मानो मेज या पलंग के नीचे गीली लकड़ियों का अलाव जल रहा हो।
अबूतालिब कहा करते थे कि तीन कारणों से वे बुढ़ा गए हैं।
सबसे पहले तो इस कारण से कि जब सभी आमंत्रित मेहमान आ जाते हैं और एक उस मेहमान का इंतजार करना पड़ता है, जो वक्त पर नहीं पहुँचता।
दूसरा कारण यह है कि बीवी ने तो मेज पर खाना लगा दिया है, मगर वोद्का की बोतल के लिए भेजा हुआ बेटा आने का नाम नहीं लेता।
तीसरा कारण यह है कि जब सारे मेहमान चले जाते हैं और सिर्फ वही एक जो सारी शाम गुम-सुम बैठा रहा है, दहलीज के पास रुककर बोलना शुरू कर देता है और अपनी खामोशी के घंटों की कमी पूरी करने लगता है तथा ऐसा अनुभव होता है कि उसकी बातों का कभी अंत नहीं होगा।
हम चाहे कितने भी थके हुए क्यों न हों, हमारी आँखें चाहे नींद से घुटी क्यों न जा रही हों, मगर हमें उसकी सारी बकवास सुननी पड़ती है। हम उसकी हर बात से सहमत होने की कोशिश करते हैं ताकि वह जल्दी से चलता बने। मगर हमारे इस तरह सहमत होने से उसे और प्रेरणा मिलती है और वह नई से नई बकवास जारी रखता है।
ऐसा ही एक मेहमान उस शाम को, जिसका इतना भयानक अंत हुआ और जिसकी अब मैं चर्चा करना चाहता हूँ, होटल के मेरे कमरे में आ गया। सभी मेहमानों के चले जाने के बाद यह नशे में धुत्त मेहमान मेरी खोपड़ी पर सवार रहा, कमरे की हर मुमकिन जगह पर उसने सिगरेट के टोटे बुझाए। ऐसा करते हुए उसने न तो पर्दों का छोड़ा, न कुर्सी की टेक को, न मेरे सूटकेस और न ही मेज पर रखे मेरे कागजों को ही।
शुरू में उसने मेरी तारीफ की और मैंने उसकी हाँ में हाँ मिलाई। फिर उसने अपनी तारीफ की, मैंने सहमति प्रकट की। उसके बाद उसने अपनी बीवी की तारीफ की, मैं इससे भी सहमत रहा। आखिर वह मुझे भला-बुरा कहने और मुझ पर सभी तरह का कीचड़ उछालने लगा, मैंने इसके साथ भी सहमति प्रकट की। 'अब यह अपने को और फिर अपनी बीवी को भला-बुरा कहना शुरू करेगा,' मैंने घबराकर मन ही मन सोचा। मगर उस स्थल तक पहुँचते न पहुँचते, जहाँ तर्कसंगत ढंग से उसे अपने को कोसना चाहिए था, मेरे मेहमान ने अचानक जल्दबाजी दिखानी शुरू की और अपने कमरे मैं सोने चला गया। हाँ, इस ख्याल से कि उसके जाने से मुझे बहुत दुख न हो, वह अगले रोज आने का वादा कर गया।
कभी-कभी ऐसा कहा जाता है कि मेहमान हर पहलू से सुंदर होता है, पर फिर भी उसकी पीठ सबसे अधिक सुंदर होती है। इस दिन मैं इस कहावत का सही अर्थ समझा। अपने इस जाते हुए मेहमान की पीठ मुझे बहुत ही खूबसूरत लगी। 'तो आज की शाम की सारी मुसीबतों से पिंड छूटा,' मैंने राहत की साँस लेते हुए मन ही मन सोचा, 'अब चैन से सोया जा सकता है।' मैंने झटपट दरवाजा बंद किया, दबे पाँव कंबल के नीचे जा दुबका और फौरन ही मेरी आँख लग गई। मुझे ऐसी मजे की नींद आई जैसी उस समय लंबे गर्म लबादे के नीचे आती है, जब बाहर बारिश पटापट का अपना राग अलापती होती है। सपने में मुझे दिखाई दिया कि मैं सचमुच ही अलाव के पास लंबा गर्म लबादा ओढ़े पड़ा हूँ और मेरे इर्द-गिर्द चरवाहे बैठे हैं। वे अलाव में चैलियाँ डाल रहे हैं। अलाव से धुआँ निकल रहा था, जिससे मेरी आँखों में जलन और नाक में खुजली हो रही थी। इसके बाद मैंने अपने को मानो बेकरी में पाया, जहाँ न जाने किस कारण जली हुई रोटी की गंध आ रही थी। इसके बाद मैंने यह देखा कि इतवार के दिन मैं दोस्तों के साथ शहर के बाहर गया हूँ और वहाँ हम जायकेदार सीख-कबाब भून रहे हैं।
आँखों में असह्य जलन अनुभव होने पर मेरी आँख खुली। मैं झटपट उठा, मुझे कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था। कमरा धुएँ से भरा हुआ था और दरवाजे के करीब भी मानो आग जल रही थी। मैं आग की तरफ लपका, तो देखा कि मेरा सूटकेस जल रहा है।
मेरे सूटकेस पर दुनिया के बेहतरीन होटलों के निशान लगे हुए थे। कितने देशों की मैंने इसके साथ यात्रा की थी। कितने चुंगीघरों से हम किसी परेशानी के बिना निकले थे। यह सही है कि उसमें कभी कोई आपत्तिजनक चीज नहीं होती थी, मगर फिर भी वोद्का की बोतल, जो दोस्तों को भेंट करने के लिए होती है, या सिगरेटों का फालतू पैकेट या बीवी के लिए सुंदर ब्लाउज देखकर भी चुंगीवाले कभी-कभी चमक उठते हैं।
तो मेरा यह सूटकेस जो इतने चुंगीघरों से सही-सलामत निकल आया था, मास्को होटल के शांत कमरे में आकर जल गया।
मैंने जलते हुए सूटकेस के बचे-बचास हिस्सों को जल्दी से उठाया, नहाने के टब में डाला और नल चला दिया। धुएँ के नए बादल उठे। मेरे हाथ और शायद चेहरा भी कुछ जल गया था। मगर जिस कुर्सी पर पहले सूटकेस रखा था, अब उसकी तथा कालीन और पर्दों की आग बुझाना जरूरी था। मैंने लपककर अपनी मंजिल पर ड्यूटी देनेवाली औरत को टेलीफोन किया।
'मैं जला जा रहा हूँ' मैंने चिल्लाकर कहा, 'मेरी मदद को आइए।'
मगर ड्यूटीवाली ने शायद यही सोचा कि रसूल तो सिर्फ प्यार की आग में ही जल सकता है और इस वक्त उसी की मुहब्बत की आग में जल रहा है। इसलिए उसने बड़े इतमीनान से, माँ के से अंदाज में जवाब दिया -
'रसूल, बस, यह सब रहने दो, अब सो जाओ। सुबह तक बिल्कुल ठीक-ठाक हो जाओगे।'
ओ नारियो। कितनी बार मैंने उनसे मजाक में यह कहा था कि मैं जला जा रहा हूँ और मुझ पर विश्वास करके वे मरी मदद को आई थीं। मगर जब जिंदगी में सिर्फ एक बार ही असली आग ने मुझे आ घेरा था, तो किसी ने मुझ पर एतबार नहीं किया।
आग बुझानेवाले एक बहादुर आदमी की तरह मैंने आग के विरुद्ध मोर्चा लिया। आखिर मुझे कालीन, कुर्सी और पर्दों की आग और लकड़ी के फर्श की सुलगती तख्तिओं को बुझाने में भी कामयाबी मिल गई। हाँ, मैंने आग पर विजय तो प्राप्त कर ली थी, मगर ऐसा कर पाने के पहले उसने मेरा काफी नुकसान कर दिया था।
शायद नशे में धुत्त मेहमान ने मेरे सूटकेस में सिगरेट का टोटा घुसेड़ दिया था और वहीं से यह सारी मुसीबत शुरू हुई थी। मेरी कमीजें, सूट और ब्रसेल्स से लाए गए सारे तोहफे जल गए। होटल के प्रबंधकों ने कालीन, कुर्सी और पर्दों का हिसाब जोड़कर खासी बड़ी रकम का बिल मेरे सामने पेश कर दिया। खुद मुझे अस्पताल जाना पड़ा। घर पर बीवी को टेलीफोन किया कि जरूरी काम से रुक रहा हूँ। पर चूँकि अभी यह नहीं सोचा था कि किस जरूरी काम से रुक रहा हूँ इसलिए फिर टेलीफोन करने का वादा किया। तो कंबख्त एक टोटे ने क्या गजब कर डाला था।
मगर सच तो यह है कि मेरे सबसे बड़े नुकसान के मुकाबले में यह सब हानि तो बड़ी तुच्छ-सी प्रतीत हुई। सूटकेस के तल में वह पांडुलिपि पड़ी थी, जिस पर मैं पिछले दो साल से काम कर रहा था...
कहते हैं कि सबसे बड़ी मछली वह होती है, जो काँटे से निकल जाए, सबसे मोटा पहाड़ी बकरा वह होता है, जिस पर साधा हुआ निशाना चूक जाए, सबसे ज्यादा खूबसूरत औरत वह होती है, जो तुम्हें छोड़ जाए।
मेरी पांडुलिपि के बहुत-से पृष्ठ जल गए। अब मुझे लगता है कि वे ही मेरे सबसे अच्छे पृष्ठ थे।
इसके अलावा, काँटे से निकल जानेवाली मछली तो मेरी थी ही नहीं, जिस पहाड़ी बकरे पर साधा गया निशाना चूका, वह भी मेरा नहीं था। छोड़कर जानेवाली नारी भी मेरी नहीं थी। मगर जल जानेवाले पृष्ठ मेरे थे। उनकी मैंने खुद कल्पना की थी, मैंने उन्हें जिया था और व्यथित होकर रचा था। बड़े धैर्य से अनेक उनींदी रातों और दिनों में मैंने उन पर श्रम किया था। इसीलिए अपनी पांडुलिपि के नष्ट होने से मुझे इतना दुख हुआ था। इसीलिए मैं यह सोचता हूँ कि वह मेरी सबसे अच्छी पुस्तक थी।
मैं आन की आन में उस खेत की तरह वीरान-सा हो गया, जिस पर से पूले उठा लिए जाते हैं या उस आखिरी पूले जैसा हो गया, जिसे लोग ले जाना भूल गए थे।
जले हुए पृष्ठों का हर शब्द मुझे मोती-सा प्रतीत होने लगा। पंक्तियाँ मेरी कल्पना में कीमती हार बन गईं।
मुझे ऐसा धक्का लगा था कि दो साल तक मैं नष्ट हुई पांडुलिपि को बहाल करने नहीं बैठ सका। आखिर जब शांत हो गया, तो यह बात मेरी समझ में आई कि बेशक मैं लगभग उन्हीं चीजों के बारे में फिर से लिख सकता हूँ, मगर पहलेवाले पृष्ठों को लौटाना संभव नहीं।
यह बिल्कुल वैसी ही बात थी कि जैसे किसी माँ-बाप का बहुत प्यारा बच्चा मर जाता है, तो कुछ वक्त गुजरने पर उनका दूसरा बच्चा हो सकता है और उसे भी वे उतना ही प्यार करेंगे, मगर फिर भी वह वही नहीं, जिसे वे खो चुके हैं, बल्कि दूसरा व्यक्ति होगा।
कहते हैं कि कविता पानी से घबराती है। कविता तो आग है और कवि का सृजन उस आग में उसका दहन। हाँ, कविताओं में पानी नहीं होना चाहिए। मगर अल्लाह उन्हें ऐसी आग से भी बचाए, जिससे होटल के कमरे में मेरी कविताओं का वास्ता पड़ा।
अबूतालिब के फ्लैट में कैसे चोरी हुई। मैं नहीं जानता कि यह कैसे हुआ, किसने यह चाल चली और क्यों ऐसे हुआ कि अबूतालिब के घर पर कोई नहीं था और उसके फ्लैट में चोरी हो गई। जब जाँच की गई, तो बेटी की सोने की घड़ी, सोने की अँगूठी, काँटे और ऐसे ही कुछ दूसरे गहने गायब मिले। फर-कोट, फ्राक, सैंडल, जूते और रुपए भी नहीं थे... अबूतालिब की बीवी तो गश खाते-खाते बची, बेटी तख्ते पर गिरकर रोने लगी। मगर अबूतालिब दूसरे कमरे में जाकर फर्श पर बैठ गए और जुरना बजाने लगे।
अबूतालिब की बीवी झटपट वहाँ आकर बिगड़ी -
'कोई शर्म-हया है तुम्हें। इतनी बड़ी मुसीबत और तुम क्या कर रहे हो। जल्दी से मिलीशियामैन या प्रोसीक्यूटर को बुलाना चाहिए...'
'ऐसी भी क्या मुसीबत है। मेरी कविताएँ सही-सलामत हैं। देखो तो, मेरे सभी कागज पहले की तरह ही पड़े हुए हैं। चोरों ने उन्हें छुआ तक नहीं। मुझे तो दुखी होने की कोई वजह नजर नहीं आती।'
'किसे जरूरत है तुम्हारी कविताओं की, सो भी लाक भाषा में?'
'अरी, मेरी भोली बीवी, तुम कुछ भी तो नहीं जानतीं। ऐसे भी लोग हैं, जो कवि भी कहलाते हैं और वैसे, पराई कविताएँ ही चुराया करते हैं। शुक्र है अल्लाह का कि मेरी कविताएँ नहीं चुराई गईं। साल भर मैंने इन पर मेहनत की है और अगर इनमें से एक भी खो जाती, तो मेरे लिए बड़े दुख की बात होती। इसके अलावा मेरा जुरना भी कायम है। तो फिर मैं खुश होकर इसे क्यों न बजाऊँ?'
और अबूतालिब अपनी बीवी-बेटी की चीख-पुकार पर और ध्यान न देकर मजे से जुरना बजाते रहे।
आफंदी कापीयेव ने मुझे यह बात सुनाई। गर्मी के एक सुहाने दिन सुलेमान स्ताल्स्की अपने पहाड़ी घर की छत पर लेटा हुआ आसमान को ताक रहा था। आस-पास पक्षी चहचहा रहे थे, झरने झर-झर कर रहे थे। हर कोई यही सोचता था कि सुलेमान आराम कर रहा है। उसकी बीवी ने भी ऐसा ही सोचा। छत पर चढ़कर उसने पति को आवाज दी -
'खीनकाल तैयार हो गए। मैंने मेज पर भी लगा दिए हैं। खाने का वक्त हो गया।'
सुलेमान ने कोई जवाब नहीं दिया, सिर तक नहीं घुमाया।
कुछ देर बाद ऐना ने दूसरी बार पति को पुकारा -
'खीनकाल ठंडे हुए जा रहे हैं। थोड़ी देर बाद खाने लायक नहीं रहेंगे।'
सुलेमान हिला-डुला तक नहीं।
तब उसकी बीवी यह सोचकर कि पति नीचे नहीं आना चाहता, छत पर ही खाना ले आई। उसने यह कहते हुए उसकी तरफ तश्तरी बढ़ाई -
'तुमने सुबह से कुछ नहीं खाया। देखो तो, मैंने तुम्हारे लिए कैसे मजेदार खीनकाल तैयार किए हैं।'
सुलेमान आपे से बाहर हो गया। वह अपनी जगह से उठा और चिंताशील पत्नी पर बरस पड़ा -
'तुम तो हमेशा मेरे काम में खलल डालती रहती हो।'
'मगर तुम तो योंही बेकार लेटे हुए थे। मैंने सोचा...'
'नहीं, मैं काम कर रहा हूँ। फिर कभी मेरे काम में खलल नहीं डालना।'
हाँ, इसी दिन सुलेमान ने अपनी नई कविता रची थी।
तो कवि जब लेटा हुआ आकाश को ताकता है, तब भी काम करता होता है।
पत्नी के प्रति कवि ने ऐसे भाव जताए -
'तुम प्रकाश मेरे जीवन का, तुम प्रभात, तुम तारा
जब तुम निकट, पास में मेरे, सुखद, मधुरतम जीवन
जब तुम दूर, तभी बनता वह, कटुमय, सागर खारा।'
पर प्रकाश वह, तारा जिस क्षण, कवि के सम्मुख आया,
उसे देख वह चौंका, चमका, घबराकर चिल्लाया।
'फिर से तुम आ गई यहाँ पर, हाय राम जी
मुझे काम करने दो कुछ तो, मैं तुमसे भर पाया।'
पिता जी ने यह बात सुनाई। प्रेम का महान गायक महमूद किसी सम्मानित व्यक्ति के यहाँ आमंत्रित था। दूसरे कई मेहमान भी थे। आधी रात तक कवि ने एकत्रित लोगों को अपनी कविताओं का रस-पान कराया। इसके बाद सभी सोने चले गए। महमूद को सबसे अच्छा कमरा सोने के लिए दिया गया। गृह-स्वामी ने वहाँ हाथ-मुँह धोने के लिए चिलमची और गागर रख दी, शुभरात्रि की कामना की और चला गया।
सुबह को इस डर से कि महमूद सुबह की नमाज के वक्त कहीं सोया ही न रह जाए, गृह-स्वामी ने दबे पाँव महमूद के कमरे में झाँका। उसने देखा कि कवि ने तो सोने की बात ही नहीं सोची। कालीन पर उकड़ूँ बैठा हुआ वह तो बोल-बोलकर यह कविता लिख रहा था -
नहीं चाहिए जन्नत का वह चमन मुझे
सच कहता हूँ, उससे मुझे बचाओ,
बड़ी खुशी से ले लो तुम जन्नत सारी
मेरे दिल का प्यार मगर देते जाओ।
'महमूद, सुबह की नमाज का वक्त हो गया, कविता छोड़कर अल्लाह की बंदगी करो।'
'मेरी तो यही बंदगी है,' महमूद ने जवाब दिया। तो इस तरह कवि पूजा-पाठ के समय भी काम करता रहता है।
नोटबुक से। अब मैं खुद एक अवार कवि का किस्सा सुनाता हूँ। मैं उसका नाम नहीं बताऊँगा। मैं नहीं चाहता कि बाद में आप उस पर उँगलियाँ उठाएँ और उसका मजाक उडाएँ। कारण कि मजाक उड़ाने की बात भी है।
इस कवि ने शादी की, खूब धूम-धाम रही। आखिर मेहमान नवदंपति को उनके लिए विशेष रूप से तैयार किए गए कमरे में छोड़कर चले गए। दुलहन सुहाग-रात के अरमान लिए पलंग पर जा लेटी और दूल्हे का इंतजार करने लगी। मगर दूल्हा अपनी दुलहन के पास जाने के बजाय मेज पर बैठकर कविता लिखने लगा। रात भर वह कविता लिखता रहा और सुबह होने पर ही उसने प्यार, दुलहन और सुहाग-रात के बारे में अपनी कविता खत्म की।
तो क्या हम यह नतीजा निकालें कि कवि प्यार की रात में भी काम करता रहता है? अगर मैं भी इस अवार कवि की तरह काम करता, तो जितनी अब मेरी किताबें हैं, उससे पचास गुना ज्यादा होतीं। मगर मेरे ख्याल से उनमें बनावट ही बनावट होती।
दुलहन जब अपने दूल्हे को बाँहों में भरने को बेकरार हो, तो उस वक्त जो मेज पर लिखने बैठ जाता है, रूप-रानी की उपस्थिति में जो कागज और लेखनी को उठाकर एक तरफ नहीं रख देता, वह सिर्फ ढोंगी है। बेशक वह दस या बीस गुना ज्यादा लिख ले, मगर उसके शब्दों में ईमानदारी नहीं होगी।
हाँ, मेहनत करना जरूरी है। कहते हैं कि कोई अक्लमंद आदमी इस उम्मीद में पेड़ के नीचे जाकर लेट रहा कि कब सेब उसके मुँह में आकर गिरता है। सेब नहीं गिरा।
पर काम और शायद प्रतिभा से भी ज्यादा कवि के लिए दूसरों के और खुद अपने सामने भी ईमानदार होना जरूरी है।
कहते हैं कि बहादुर या तो जीन पर होता है या जमीन में।
कहते हैं - 'दुनिया में सबसे बुरा और घृणित क्या है?'
'डर से काँपनेवाला मर्द।'
'इससे भी बढ़कर बुरा और घृणित क्या है?'
'डर से काँपनेवाला मर्द।'