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मेरा दागिस्तान
खंड - दो

रसूल हमजातोव

अनुवाद - डॉ. मदनलाल मधु

अनुक्रम जमालुद्दीन का गाना पीछे     आगे

आठ वर्ष की उम्र में बंधक बनाया गया जमालुद्दीन चौबीस वर्षीय जवान के रूप में दागिस्‍तान लौटा। बेटे को वापस लाने के लिए इमाम शामिल को बहुत-सी शक्ति लगानी पड़ी, बहुत सब्र और चालाकी से काम लेना पड़ा। शामिल ने जार के सामने बंदी बनाए गए अनेक रूसी सैनिकों को बेटे के बदले में देने के प्रस्‍ताव पेश किए, लेकिन जार राजी नहीं हुआ। जार को दागिस्‍तान के किशोर की पीटर्सबर्ग में जरूरत थी। उसे मौत के घाट उतार देने की धमकी देकर जार शामिल को व्‍यर्थ की लड़ाई खत्‍म करने को मजबूर करना चाहता था। इमाम ने इन धमकियों की कोई परवाह नहीं की। बेटे की तरफ से (शायद खुद बेटे ने) इमाम को यह लिखा कि जार बहुत शक्तिशाली है और उस पर जीत हासिल करने की कोई उम्‍मीद नहीं की जा सकती। दागिस्‍तान में खून बह रहा है और जार के विरुद्ध जूझते रहने से हानि तथा दुख-दर्द के सिवा कुछ भी नहीं मिलेगा।

हठी इमाम ने किसी भी बात पर कान नहीं दिया।

ऐसा हुआ कि कुछ मुरीदों के साथ हाजी-मुरात रूसियों से जा मिला। किंतु अपने परिवार-माँ, बीवी, बहन और बेटे को उसने पहाड़ों में ही छोड़ दिया। जाहिर है कि वे सब शामिल के हाथों में आ गए। 'अगर तुम वापस नहीं आओगे,' शामिल ने हाजी-मुरात को लिखा, 'तो तुम्‍हारे बेटे बूलिच का सिर काट डालूँगा और तुम्‍हारी माँ, बहन तथा बीवी को उनकी मिट्टी पलीद करने के लिए फौजियों के हवाले कर दूँगा।'

उधर हाजी-मुरात भी अपने परिवार को बचाने के रास्‍ते ढूँढ़ रहा था और इस तरह जिद्दी इमाम के विरुद्ध संघर्ष करने के लिए अपने को आजाद कर लेना चाहता था। उन दिनों में उसने यह कहा था - 'मैं रस्‍सी से बँधा हुआ हूँ और रस्‍सी का सिरा शामिल के हाथ में है।' बदले में धन-दौलत देकर परिवार छुड़ाने का कोई सवाल ही नहीं पैदा होता था। शामिल को जब यह मालूम हुआ कि उसका भूतपूर्व मुरीद धन-दौलत देकर अपना परिवार छुड़ा लेना चाहता है तो उसने कहा - 'लगता है कि और सब चीजों के अलावा, हाजी-मुरात का दिमाग भी चल निकला है।'

लेकिन अगर शामिल के हाथों में हाजी-मुरात को बाँधनेवाली रस्‍सी का सिरा था तो हाजी-मुरात के हाथों में वह धागा था जो सीधा शामिल के दिल तक पहुँचता था। यह धागा जमालुद्दीन था। हाजी-मुरात ने वोरोंत्सोव से अनुरोध किया - 'जार से कहिए कि वह जमालुद्दीन को उसके पिता को लौटा दें। तब यह मुमकिन है कि शामिल मेरे परिवार के लोगों को आजाद कर दे। जब तक मेरा परिवार शामिल के हाथों में है, मेरे लिए उसके विरुद्ध लड़ने का मतलब है - अपने ही हाथों से अपनी माँ, बेटे और बीवी यानी पूरे कुनबे को कत्‍ल कर डालना।'

वोरोंत्सोव ने जार को यह सब कुछ बताया और जार इसके लिए राजी हो गया। शामिल को यह लिखा गया - 'अगर तुम हाजी-मुरात के परिवार को छोड़ दोगे तुम्‍हें तुम्‍हारा बेटा मिल जाएगा।'

शामिल के सामने अब यह यातनापूर्ण चुनाव था। तीन रातों तक न तो वह खुद और न उसका परिवार ही सोया। चौथे दिन इमाम ने हाजी-मुरात के बेटे बुलिच को अपने पास बुलवाया।

'तुम हाजी-मुरात के बेटे हो?'

'हाँ, मैं हाजी-मुरात का बेटा हूँ, इमाम।'

'तुम जानते हो कि उसने क्‍या किया है?'

'जानता हूँ, इमाम।'

'इसके बारे में तुम क्‍या कहोगे?'

'इसके बारे में क्‍या कहा जा सकता है?'

'उससे मिलना चाहते हो?'

'बेहद चाहता हूँ।'

'मैं तुम्‍हें तुम्‍हारी माँ, दारी, पूरे परिवार के साथ उसके पास जाने को आजाद करता हूँ।'

'नहीं, मैं पिता के पास नहीं जा सकता। मेरा स्‍थान दागिस्‍तान में है। लेकिन वहाँ तो दागिस्‍तान नहीं है।'

'तुम्‍हें जाना चाहिए, बूलिच। यह मेरा हुक्‍म है।'

'मैं नहीं जाऊँगा, इमाम! यही बेहतर होगा कि आप यहीं और इसी वक्‍त मेरी जान ले लें।'

'मैं देख रहा हूँ कि अपने बाप की तरह तुम भी हुक्‍म मानना नहीं जानते।'

'हम सब आपका हुक्‍म मानने को तैयार हैं, इमाम। लेकिन मुझसे यह नहीं कहिए कि में वहाँ जाऊँ। यही ज्‍यादा अच्‍छा होगा कि आप मुझे जंग में भेज दें। मैं अपनी जान की परवाह नहीं करूँगा।'

'पिता के खिलाफ लड़ने को?'

'दुश्‍मनों के खिलाफ।'

उस दिन शामिल ने अपना एक सबसे अच्‍छा खंजर बूलिच को भेंट किया।

'अपने पिता की तरह ही इसके इस्‍तेमाल में कमाल हासिल करो। लेकिन हमेशा यह ध्‍यान रखना कि इससे कि पर वार करना है।'

हाजी-मुरात की सौदेबाजी कामयाब नहीं हुई। उसका बेटा उसके पास नहीं गया। जमालुद्दीन भी इमाम के पास वापस नहीं आया।

लेकिन इसी बीच शामिल ने अपने दूसरे उपाय किए। उसने अपने दूसरे बेटे, काजी-मुहम्‍मद को जार्जियाई रियासत त्सिनानदाली पर धावा बोलने को भेज दिया। इसके फलस्‍वरूप प्रिंसेस चावचावाद्जे, प्रिंसेस ओर्बेलियानी और इनके साथ उनकी फ्रांसीसी शिक्षिका भी बंदी बना ली गईं। नीना ग्रिबोयेदोवा की बहन येकातेरीना चावचावाद्जे को मुरीदों ने पेड़ के कोटर में छिपा पाया और उन्‍होंने उसे वहाँ से निकालकर कैदी बना लिया।

अब तो शामिल जार को अपनी शर्तें मानने के लिए मजबूर कर सकता था।

कारण कि जार हर हालत में जार्जियाई प्रिंसेसों को बचाना चाहेगा।

'अपने बेटे के बदले में ही प्रिंसेसों को लौटाऊँगा,' शामिल ने अपना आखिरी फैसला सुना दिया।

तो वह दिन आया। चौड़ी नदी बह रही थी। उसके तट पर बंदी बनाकर लाई गई प्रिंसेसें अपने आजाद होने की राह देख रही थीं। दूसरे तट पर रूसी फौजियों के साथ इमाम का बेटा सामने आया। शामिल भी अपने घोड़े पर सवार होकर नदी-तट पर आ गया। वह दूसरे तट पर अन्‍य लोगों के बीच अपने बेटे को देखने-पहचानने की कोशिश कर रहा था। उन्‍होंने इतने बरसों तक एक-दूसरे को देखा जो नहीं था। क्‍या बाप और बेटा अब एक-दूसरे को पहचान सकेंगे?

इमाम को सुनहरी फीतियोंवाला फौजी ओवरकोट पहने हुए एक सुघड़-सुडौल रूसी फौजी अफसर दिखाया गया। यह अफसर दूसरे रूसी अफसरों से बातचीत कर रहा था, उसने उनसे विदा ली और उन्‍हें गले लगाया। इसके बाद वह एक ओर को अलग खड़ी हुई एक युवती के पास गया और उसने उसका हाथ चूमा। जब-तब वह सफेद घोड़े पर सवार अपने पिता की तरफ भी देख लेता था।

'क्‍या यही है मेरा बेटा?' इमाम ने इस अफसर को टकटकी बाँधकर देखते और उसकी किसी भी गतिविधि को नजर से न चूकने देने की कोशिश करते हुए पूछा।

'हाँ, यही है जमालुद्दीन।'

'चेर्केस्‍का और हमारे हथियार उस तट पर ले जाकर उसे दे दो। इस क्षण से वह जार की फौज का अफसर नहीं, बल्कि दागिस्‍तान का सैनिक है। जो कपड़े वह इस वक्‍त पहने है उन्‍हें नदी में फेंक दो। वरना मैं बेटे को अपने करीब नहीं आने दूँगा।'

जमालुद्दीन ने पिता की इच्‍छानुसार अपने कपड़े बदल लिए। पहाड़ी चेर्केस्‍का के ऊपर उसने पहाड़ी लोगों के हथियार बाँध लिए। लेकिन चेर्केस्‍का और समूर की बड़ी टोपी के नीचे जमालुद्दीन का दिल तथा सिर तो जहाँ के तहाँ रह गए थे और उन्‍हें तो किसी तरह भी बदलना मुमकिन नहीं था।

आखिर वह नदी पार करके अपने पिता के पास आया।

'मेरा प्‍यारा बेटा!'

'मेरे अब्‍बा!'

जमालुद्दीन को घोड़ा दे दिया गया। वेदेनो तक के पूरे रास्‍ते में बाप और बेटा साथ-साथ सवारी करते रहे। इमाम शामिल कभी-कभी पूछता -

'जमालुद्दीन यह बताओ, तुम्‍हें यह जगहें याद हैं? तुम इन चट्टानों को भूल तो नहीं गए? तुम्‍हें हमारे गीमरी गाँव की याद है? अखूल्‍गो याद है?'

'अब्‍बा, तब तो मैं बहुत छोटा था।'

'यह बताओ कि तुमने दागिस्‍तान के लिए कभी एक बार भी अल्‍लाह के दरबार में इबादत की? तुम हमारी इबादत तो नहीं भूल गए, कुरान की नज्‍में तो नहीं भूल गए?'

'वहाँ, जहाँ मैं रहता था, कुरान नहीं था, जमालुद्दीन ने मन मारकर जवाब दिया।

'क्‍या तुमने एक बार भी सर्वशक्तिमान अल्‍लाह के सामने सिर नहीं झुकाया? उसकी इबादत नहीं की? रोजे नहीं रखे? नमाज अदा नहीं की?'

'अब्‍बा, हमें कुछ बातें करनी चाहिए।'

लेकिन शामिल ने कोई बात न करके घोड़े को एड़ लगा दी।

अगले दिन इमाम ने बेटे को अपने पास बुलवा भेजा।

'देखो, जमालुद्दीन पहाड़ों के पीछे से सूरज ऊपर उठ रहा है। बहुत खूबसूरत नजारा है न?'

'हाँ खूबसूरत है, अब्‍बा।'

'तुम इन पहाड़ों, इस सूरज के लिए अपनी जिंदगी कुर्बान करने को तैयार हो?'

'अब्‍बा, हमें कुछ बातें करनी चाहिए।'

'तो कर लो।'

'अब्‍बा, जार महान है, बहुत अमीर है, बड़ा ताकतवार है। हमें इन पहाड़ों की गरीबी, खस्‍ताहाली और जहालत की रक्षा करने की क्‍या जरूरत है? रूस में महान साहित्‍य, महान संगीत और महान भाषा है। ये सब हमारे हो जाएँगे। रूस के साथ मिल जाने पर दागिस्‍तान का भला ही होगा। आँखें खोलकर सचाई को देखने, हथियार फेंकने और घावों को भरने का वक्‍त आ गया है। यकीन मानिए कि मैं दागिस्‍तान को आपसे कुछ कम प्‍यार नहीं करता हूँ...'

'जमालुद्दीन...!'

'अब्‍बा जान, दागिस्‍तान में एक भी तो ऐसा गाँव नहीं है जो कम से कम एक बार न जला हो। एक भी तो ऐसी चट्टान नहीं है जो घायल न हुई हो। एक भी तो ऐसा पत्‍थर नहीं है जो खून से न रंगा गया हो।'

'मैं देख रहा हूँ कि तुम न तो इन घायल चट्टानों की हिफाजत करने को तैयार हो और न ऐसा करने के लायक ही हो।'

'अब्‍बा जान!'

'मैं तुम्‍हारा अब्‍बा नहीं हूँ। और तुम मेरे बेटे साबित नहीं हुए। तुम्‍हारे लफ्ज सुनकर तो मुर्दों को कब्रों से निकल आना चाहिए। लेकिन जब मैं तुम्‍हारे मुँह से यह सब कुछ सुनता हूँ तो मैं जिंदा आदमी क्‍या करूँ? देखते हो, चट्टानें कैसे काली हो गई हैं?'

शामिल ने अपने सबसे वफादार लोगों और घरवालों को बुलवा भेजा।

'लोगो, मैं आपको वह बताना चाहता हूँ जो मेरा बेटा कहता है। वह कहता है कि गोरा जार महान है, कि दुश्‍मन बहुत ताकतवर है, कि जार का राज्‍य बहुत बड़ा है और हम बेकार ही उसके खिलाफ लड़ रहे हैं। उसका कहना है कि हमें अपने हथियार फेंककर बड़ी नम्रता से जार के सामने अपना सिर झुका देना चाहिए। मैं यह मानता था कि जो आदमी न केवल ऐसा कहने, बल्कि ऐसा सोचने की भी हिम्‍मत करेगा, मैं उसे एक घंटे तक भी दागिस्‍तान में नहीं रहने दूँगा। आज ये शब्‍द सुनाई दे रहे हैं और वह भी कहाँ? हमारे घर में। कौन कह रहा है ये शब्‍द? मेरा बेटा! इसके साथ, ऐसे आदमी के साथ क्‍या किया जाए जिसे जार ने दागिस्‍तान और मुझे बेइज्‍जत करने के लिए यहाँ भेजा है? आप लोग बहुत अच्‍छी तरह से यह जानते हैं कि दुश्‍मन की संगीनों ने कितनी बार दागिस्‍तान और खुद मेरी छाती को भी जख्‍मी किया है। लेकिन जो संगीन मैंने खुद बनाई थी, जार ने उसे तेज करके उससे मेरे ही दिल को निशाना बनाया है। बताइए, अब क्‍या किया जाए?'

इमाम के नजदीकी लोगों ने बड़े दुखी मन से उसके ये शब्‍द सुने। सिर्फ माँ ही इस सब पर यकीन करने को तैयार नहीं थी।

शामिल ने जमालुद्दीन को संबोधित करते हुए कहा -

'ओ, पहाड़ों के दुश्‍मन! तुम वहाँ रहोगे, जहाँ से मुझे तुम्‍हारी आवाज सुनाई न दे। न तो अब तुम्‍हारा कोई बाप है, न दागिस्‍तान है। मैंने जार्जियाई प्रिंसेसों से तुम्‍हें बदल लिया, लेकिन तुम्‍हें किससे बदलूँ? मैं तुम्‍हारा क्‍या करूँ?'

'अपने बेटे के साथ आप जो भी चाहें, वही कर सकते हैं। बेशक जान ले लीजिए, लेकिन पहले मेरी बात सुन लीजिए।'

'रहने दो अपनी बात। मैं हमेशा अल्‍लाह की बात सुनता रहा हूँ, लेकिन आज उसे भी नहीं सुन रहा हूँ। अल्‍लाह कह रहा है - 'इस दुश्‍मन को कत्‍ल कर डालो!' मगर मैं उसे जवाब देता हूँ कि यह दुश्‍मन नहीं, गुमराह हो जानेवाला बेटा है। मैं उससे कहता हूँ कि मुझमें अपने हाथ की उँगली काटने की हिम्‍मत नहीं है। इ‍सलिए तुम जिंदा रहो, लेकिन खंजर उतार दो। हथियार की उसे जरूरत होती है जो दुश्‍मन से लोहा लेने को तैयार हो।'

शामिल ने अपने बेटे को दूर के एक गाँव में भेज दिया। जमालुद्दीन वहाँ पेड़ से अलग हुए पत्‍ते की तरह रहता था। अवसादपूर्ण विचारों से क्षीण होने, बुरी खुराक और ऐसे जलवायु के कारण, जिसका वह आदी नहीं था, जमालुद्दीन को तपेदिक हो गया। इमाम दुश्‍मन से मोरचा ले रहा था और उधर बेटे के लिए साँस लेना अधिकाधिक कठिन होता जा रहा था। उसे उसके भाग्‍य पर छोड़ दिया गया था। इसी वक्‍त इमाम से चोरी-छिपे जमालुद्दीन की माँ, पातीमात, उसके पास गई। वह रोटी से बनाए गए खिलौने अपने साथ ले गई थी। ऐसे एक खिलौने की शक्‍ल खंजर जैसी थी, दूसरे की उकाब और तीसरे की तलवार जैसी। इसके बाद उसने अहाते से उपले लाकर आग जलाई। पातीमात ने रोटी के खिलौने गर्म किए, अपने घुटनों पर रगड़कर उनकी राख साफ की और उनमें से एक खिलौने को तोड़कर जमालुद्दीन को ऐसे दिया मानो वह बच्‍चा हो।

'जब माँ का अपना दूध नहीं उतरता तो वह बच्‍चे को पहाड़ी बकरी के दूध का आदी बनाने की कोशिश करती है,' पातीमात ने कहा।

जमालुद्दीन हैरत से माँ को देख रहा था। उसे लगा मानो वह उसे पहली बार देख रहा हो। अचानक वह जवान और सुंदर नारी के रूप में उसे याद हो आई। बचपन में वह उसे ऐसी ही रोटियाँ खिलाया करती थी। घोड़े की शक्‍लवाले पालने के करीब बैठकर वह उसे शेरनी का दूध पिलाकर पाले-पोसे गए तरुण के बारे में गाना सुनाया करती थी। उसके सिरहाने, छोटे-से तकिये के नीचे लकड़ी का छोटा-सा खंजर रखा रहता था।

'अम्‍माँ!' जमालुद्दीन बचपन के वक्‍त की तरह ही चिल्‍ला उठा।

'जमाल, मेरे बेटे, तुम फिर से मेरा बेटा बन जाओ!' पातीमात ने कहा।

जमालुद्दीन ने अपनी माँ को पहचान लिया। चूल्‍हे की बुझती आग के करीब बैठकर और बीमार बेटे के ऊपर झुककर माँ उसे उसी तरह से लोरियाँ सुना रही थी, जिस तरह उसके जीवन की उषा बेला में।

बेटा अपने जिस बाप को समझ नहीं पाया था, वह मुरीदों के साथ कहीं दूर मोरचे पर जूझ रहा था। और उसकी बीवी पातीमात आखिरी साँसें गिनते हुए अपने पहलौठे के लिए चिर विदा-गान गा रही थी।

जमालुद्दीन को लगा कि कहीं नजदीक ही चट्टानों के बीच कोई दरिया कराह रहा है। उसे ऐसा आभास हुआ कि दरवाजे के पास कटी और सूखी घास पर बछड़ा लेटा हुआ है।

उसे गीमरी में अपने घर, अपने पिता, अपने पहले घोड़े की याद आ गई। माँ खुशमिजाज डिंगीर-डंगारचू के बारे में गाना गा रही थी जो बारिश की धार के सहारे आकाश में चढ़ गया था।

- 'कहाँ गए थे यह बतलाओ, डिंगीर-डंगारचू?'
- 'वन में जरा गया था मैं, तो, डिंगीर-डंगारचू।'
- 'तुम क्‍या करने वहाँ गए थे, डिंगीर-डंगारचू?'
- 'लकड़ी लाने वहाँ गया था डिंगीर-डंगारचू।'
- 'तुम्‍हें जरूरत क्‍या लकड़ी की, डिंगीर-डंगारचू?'
- 'ताकि बनाऊँ मैं घर अपना, डिंगीर-डंगारचू।'
- 'तुम्‍हें जरूरत है क्‍या घर की, डिंगीर-डंगारचू?'
- 'शादी करना चाह रहा मैं, डिंगीर-डंगारचू।'
- 'चाह रहा क्‍यों शादी करना, डिंगीर-डंगारचू?'
- 'ताकि जन्‍म दूँ मैं वीरों की, डिंगीर-डंगारचू।'
- 'तुम्‍हें जरूरत क्‍या वीरों की, डिंगीर-डंगारचू?'
- 'ताकि गर्व हो जग को उन पर, डिंगीर-डंगारचू?'

जमालुद्दीन की नजरों के सामने उसके अपने, प्‍यारे पर्वत उभर आए। हिम पिघल रहा है, जल-धाराओं में कंकड़-पत्‍थर शोर मचा रहे हैं। पर्वतमाला पर बादल रेंग रहे हैं। पराये क्षेत्र में रहते हुए वह जिस दागिस्‍तान को भूल गया था, उसने उसे सभी ओर से घेर लिया। और माँ गाती जा रही थी, गाती जा रही थी। उनमें वे गीत भी थे जो शिशु के जन्‍म पर गाए जाते हैं और वे भी जो बेटों के मरने पर गाए जाते हैं। उनमें यह भी कहा गया था कि बेटों के मर जाने पर उनके बारे में गीत बने रहते हैं। माँ गा रही थी शामिल के संबंध में, हाजी-मुरात, काजी-मुहम्‍मद, हमजात-बेक, बहादुर खोचबार, पार्तू-पातीमात, नादिरशाह के छक्‍के छुड़ाए जाने और उन बहादुरों के बारे में जो युद्ध के अभियानों से वापस नहीं आए।

चूल्‍हे में आग बुझती जा रही थी। दागिस्‍तान युद्ध की ज्‍वालाओं में जल रहा था। जमालुद्दीन की आँखों में अब ये दोनों लपटें प्रतिबिंबित हो रही थीं। माँ के गीत ने उसे उद्वेलित कर दिया। बेटे के दिल में दागिस्‍तान के प्रति प्रेम ने पलक खोल ली, वह भड़क उठा। वह उसे पिता की बगल में खड़ा होने के लिए पुकारने लगा।

'माँ, मैं तो अभी दागिस्‍तान में लौटा हूँ। अपने अब्‍बा से अभी मिला हूँ। मुझे हथियार ला दो। मैं - शामिल का बेटा हूँ। मुझे घर के चूल्‍हे के पास दम नहीं तोड़ना चाहिए। मुझे वहाँ जाने दो, जहाँ गोलियाँ चलती है।'

तो इस तरह माँ के गीत ने वह कर दिखाया जो कुरान और पिता के हुक्‍म नहीं कर पाए थे।

लेकिन यह तो शोले के भड़क उठने के समान था। माँ की लोरियाँ और गाने जमालुद्दीन के दिल में बसे हुए दूसरे गानों को मूक नहीं बना सकते थे। वह पीटर्सबर्ग को नहीं भूल सकता था, जहाँ बड़ा हुआ था। वह दागिस्‍तान के पहाड़ी लोगों की समझ में न आनेवाली भाषा और उनकी समझ में न आनेवाली पंक्तियाँ सुनाता था -

प्‍यार तुम्‍हें बेहद करता हूँ, ओ, तुम पीटर की रचना
प्‍यारा मुझको रूप तुम्‍हारा, सुघड़, धीर-गंभीर बना,
नेवा की संयत धारा भी
प्‍यारी पत्‍थर तट-कारा भी,
प्‍यारे लोहे के जंगले भी, जिन पर नक्‍काशी सुंदर,
चिंतन में डूबी रातें भी
पारदर्श झुटपुटे शाम के
तम-प्रकाश की घातें भी,
और चाँद के बिना चमक जो
छाई रहती है नभ पर,
अपने कमरे में मैं इससे बिना दीप के भी पढ़ता
ऊँचे-ऊँचे भवन ऊँघते, सड़कें निर्जन, नीरवता,
मुझे स्‍पष्‍ट सब कुछ दिखता
और 'एडमिरल्‍टी' के ऊपर इस्‍पाती छड़-डंड चमकता।

धुएँ से भरे हुए पहाड़ी घर में इन शब्‍दों की गूँज अजीब-सी लगती। जमालुद्दीन को रातों को सपने आते मानो वह फिर से जार के सैनिक-विद्यालय में शिक्षा पा रहा है, मानो ग्रीष्‍मकालीन उद्यान के जंगले के करीब वह जार्जियाई सुंदरी नीना से मिल रहा है...

जमालुद्दीन के दिल में दो उकाब साथ-साथ जी रहे थे और दोनों उसे अपनी-अपनी तरफ खींचते थे। उसकी आत्‍मा में दो गीत गूँजते रहते थे। उसकी प्‍यारी नीना बहुत दूर थी। उनके बीच प्रबल नदी की धारा थी। इस नदी के पार डाक भी नहीं जाती थी। रूसी अफसर, दागिस्‍तान के इमाम का बेटा मानो इस नदी में डूब गया। यह नदी उसके सारे सपनों को बहा ले गई और उन सपनों में उसका एक सबसे बड़ा सपना भी था।

जमालुद्दीन का एक सबसे प्‍यारा सपना इस प्रबल नदी के ऊपर एक पुल बनाना था, दोनों तटों को जोड़ना था, युद्ध की क्रूरता, अर्थहीन मार-काट की जगह दोस्‍ती, प्‍यार और जिंदगी के सुखद सूत्र स्‍थापित करना था। वह पहाड़ों में गाए जानेवाले गीतों, माँ के गीतों को समझता था, लेकिन साथ ही पुश्किन के गीतों को भी। उसके दिल में दो गीत एक-दूसरे के साथ घुल-मिल गए थे। काश, उसके पिता यह समझ पाते! काश, सभी यह समझ पाते! काश, गीत एक-दूसरे को समझ लेते और प्‍यार करते!

किंतु गीत तो तलवारों के समान थे। वे हवा में टकराते थे, उनसे चिनगारियाँ निकलती थीं। खून से लथपथ होता हुआ दागिस्‍तान खून, बहादुरों, कौवों द्वारा नोची जानेवाली आँखों, घोड़ों की हिनहिनाहट, खंजरों की खनक और उस घोड़े के बारे में ही गीत गाता था जो अपने सवार को युद्ध-क्षेत्र में खोकर घर वापस आ जाता था।

और जब गीत एक-दूसरे को समझ पाते थे, जब एक तट के लोग दूसरे तट के लोगों को समझ जाते थे तो गोलियाँ चलनी बंद हो जाती थीं, खंजरों की खनक शांत हो जाती थी, खून बहना बंद हो जाता था, हाथ बदला लेने को नहीं उठता था और हृदय में क्रोध के बजाय प्‍यार हिलोरें लेने लगता था।

वालेरिक नदी के तट पर हुई लड़ाई में शामिल का जख्‍मी हो जानेवाला मुरीद मोल्‍ला-मुहम्‍मद रूसियों के हाथों में पड़ गया। गाँव के लोगों ने यह मानते हुए कि वह लड़ाई में मारा गया, उसका मातम भी मना लिया। लेकिन एक महीने बाद वह जीता-जागता और बिल्‍कुल स्‍वस्‍थ व्‍यक्ति के रूप में घर वापस आ गया। आश्‍चर्यचकित लोग उससे पूछने लगे कि उसे आजाद होने में कैसे कामयाबी मिल गई। मुरीद को यह बात बुरी लगी और उसने कहा -

'यह मत सोचिए कि मोल्‍ला-मुहम्‍मद झूठ या खुशामद की बदौलत आजाद होकर आ गया है। मैं बुजदिल नहीं हूँ।'

'हम जानते हैं कि तुम बहादुर मुरीद हो। शायद तुमने तलवार की मदद से आजादी हासिल की है।'

'मेरे पास तलवार नहीं थी। और अगर होती भी तो वह मेरी मदद न कर पाती।'

'तो तुम कैसे बचकर निकल आए?'

'मुझे तहखाने में बंद कर दिया गया। दरवाजे पर ताला लगा दिया गया।'

'तो वहाँ तुमने अपने को कैसे महसूस किया?'

'फंदे में फँस गए पहाड़ी बकरे की तरह। लेकिन इस तहखाने में मुझे अचानक अली के बारे में, जिसे उसके मक्‍कार भाइयों ने ऊँची चट्टान पर अकेला छोड़ दिया था, गाना याद आ गया। मैंने यह गाना गाया। इसके बाद मैं दूसरे गीत गाने लगा। मैंने वसंत में लौटनेवाले मौसमी परिंदों, पतझर में उड़ जानेवाले सारसों के बारे में गाने गाए, उस हिरन के संबंध में भी गाना गाया, जिसे अकुशल शिकारी ने नौ बार घायल किया था, पतझर और जाड़े के बारे में भी गाने गाए। में ऐसे गाने गाता रहा जिन्‍हें अभी तक किसी ने नहीं गाया था। तीन दिन तक मैंने गीत गाने के सिवा और कुछ भी नहीं किया। पहरेदारों ने कोई बाधा नहीं डाली। अगर गाने के शब्‍द सभी की समझ में न आएँ तो भी गाना तो गाना ही होता है। गाने को सभी सुनते हैं। एक दिन एक जवान अफसर पहरेदारों के पास आया। मैंने सोचा कि अब मेरा काम तमाम हुआ। इस अफसर के साथ एक और आदमी भी था जो हमारी भाषा जानता था। उस आदमी ने मुझसे कहा - 'अफसर जानना चाहता है कि तुम किस बारे में गाना गा रहे हो। तुम्‍हारे गीत का क्‍या विषय है? तुम हमारे लिए इसे एक बार फिर गाओ।' मैं आग की लपटों में जलते दागिस्‍तान के बारे में गाने लगा। मुझसे और गाने का अनुरोध किया गया। मैंने बेचारी माँ और प्‍यारी पत्‍नी के बारे में गाया। अफसर सुनता और पहाड़ों की तरफ देखता जाता था। पहाड़ बादलों से ढके हुए थे। उसने पहरेदारों से कहा कि मुझे छोड़ दिया जाए। हमारी भाषा जाननेवाले आदमी ने मुझे बताया - 'यह अफसर तुम्‍हें रिहा करते हैं। इन्‍हें तुम्‍हारे गीत बहुत अच्‍छे लगे हैं और इसलिए वह तुम्‍हें तुम्‍हारी मातृभूमि जाने की इजाजत देते हैं।' इसके बाद मैं कभी-कभी यह सोचता हूँ कि शायद खून बहाने के बजाय दागिस्‍तान को हमेशा अपने गाने ही गाने चाहिए।'

लेकिन शामिल ने दुश्‍मन की कैद से रिहा होकर आनेवाले मुरीद से पूछा -

'मैंने तो गाने की मनाही कर दी है, फिर तुम किसलिए गाते रहे?'

'इमाम, तुमने दागिस्‍तान में गाने की मनाही की है, लेकिन वहाँ गाने की तो नहीं।'

'तुम्‍हारा जवाब मुझे पसंद आया है,' शामिल ने कहा। और कुछ देर सोचने के बाद इतना और जोड़ दिया - 'तुम्‍हें गाने की आजादी देता हूँ, मोल्‍ला-मुहम्‍मद।'

इस वक्‍त से लोग मोल्‍ला-मुहम्‍मद को ऐसा मुहम्‍मद कहने लगे जिसे गाने ने बचा लिया।

दागिस्‍तान को बचाने के लिए भी गाने की जरूरत थी। लेकिन क्‍या सभी ने उसे उसी तरह से समझ लिया होता जैसे उस अफसर ने समझा? और कौन था वह फौजी अफसर? क्‍या लेफ्टिनेंट लेर्मोंतोव नहीं? उसने भी तोवालेरिक की लड़ाई में हिस्‍सा लिया था।

एक अन्‍य घटना प्रस्‍तुत है। तेमीरखान-शूरा पर कामयाबी से धावा बोलने के बाद हाजी-मुरात अपने फौज के साथ वापस लौट रहा था। सड़क से कुछ दूर एक जंगल में उसे दो रूसी सैनिक दिखाई दिए। वे अलाव के करीब चैन से बैठे हुए गाने गा रहे थे। हाजी-मुरात ने थोड़ी-बहुत रूसी समझनेवाले अपने एक सैनिक से पूछा -

'ये किस बारे में गा रहे हैं?'

'अपनी माँ, अपनी प्रेमिका और दूरस्‍थ मातृभूमि के बारे में।'

हाजी-मुरात देर तक रूसी गाना सुनता रहा। इसके बाद धीरे से बोला -

'ये लोग दुश्‍मन नहीं हैं। इन्‍हें परेशान नहीं करना चाहिए। गाते रहें माँ के बारे में अपना गाना।'

इस तरह गाने ने लोगों को गोलियों का निशाना बनने से बचा लिया। अगर लोग एक-दूसरे को समझ सकते तो कितनी ही ऐसी गोलियाँ चलने से रुक जातीं, लोगों की जानें बच जातीं!

तीसरी घटना। दागिस्‍तान की क्रांतिकारी समिति के अध्‍यक्ष मखाच ने मशहूर शायर महमूद को एक बहुत महत्‍वपूर्ण रुक्का देकर खूँजह के छापेमारों के पास भेजा और उससे कहा -

'खंजर से नहीं, बल्कि पंदूरे से अपने लिए रास्‍ता बनाना।'

त्‍सादा गाँव में महमूद को गिरफ्तार करके काल-कोठरी में बंद कर दिया गया। महमूद के पास से उन्‍हें मखाच का रुक्का भी मिल गया और जाहिर है, कि उसे गोली मार दी गई होती। काल-कोठरी में बैठा हुआ शायर महमूद अपने प्‍यार के बारे में गाने लगा। सारा गाँव उसका गाना सुनने को जमा हो गया, दूसरे गाँवों तक के लोग भी आ गए। तब नज्‍मुद्दीन गोत्‍सीन्‍स्‍की यह समझ गया - 'अगर मैं आज इस गायक की जान ले लेता हूँ तो कल सभी पहाड़ी लोग मुझसे मुँह मोड़ लेंगे। शायर महमूद को रिहा कर दिया गया।

इरची कजाक कहा करता था कि साइबेरिया के निर्वासन काल में अगर गाने उसका साथ न देते तो गम से उसकी जान चली गई होती।

ऐसे अनेक किस्‍से-कहानियाँ हैं। उन पर विश्‍वास करना चाहिए। गीतों-गानों ने अनेक लोगों की जानें बचाईं, अनेक प्‍यादों को घुड़सवार बना दिया। बहादुरों के बारे में गाना सुनकर अनेक डरपोक लोगों ने डरना छोड़ दिया।

यह किस्‍सा मैंने अबूतालिब से सुना।

जब मैं भारत से लौटा तो अबूतालिब ने इस देश के बारे में मुझसे बहुत कुछ पूछा। मैंने उसे बताया कि किसी तरह से भारत में फकीर, साँपों को वश में करनेवाले सपेरे एक खास तरह की बीन बजाते हुए कोबरा नाग को बैले-नर्तकी की तरह नचाते हैं।

'यह तो कोई खास हैरानी की बात नहीं है,' अबूतालिब ने कहा, 'हमारे चरवाहे भी तो ऊँचे पहाड़ों में मुरली बजाकर पहाड़ी बकरों को नाचने के लिए विवश किया करते थे। मैंने अपनी आँखों से यह देखा कि हमारे सबसे डरपोक हिरन भी संगीत की धुन पर कितनी खुशी से उसकी तरफ खिंचे चले आते थे। मैंने जुरने की स्वर-लहरियों पर रज्जु-नर्तकों की तरह भालुओं को रस्‍से पर नाचते देखा है।' अबूतालिब कुछ क्षण तक चुप रहा और इसके बाद बोला - 'संगीत ने मेरे जीवन में भी मदद की है। तुम तो शायद यह जानते ही हो कि जुरने को ही मैं सबसे ज्‍यादा प्‍यार करता हूँ। उसकी आवाज दूर तक गूँजती है। वह तो बेटे के जन्‍मदिन, दोस्‍त के आगमन और शादी-ब्‍याह की घोषणा करता है। कोई कुश्‍ती में जीतता है या घुड़दौड़ में - दागिस्‍तान में जुरना ही सभी खुशियों की सूचना देता है। सभी संगीत-वाद्यों या साजों के बीच उसकी हैसियत दावत के टोस्‍ट-मास्‍टर जैसी है। मैं इस कारण भी जुरने को प्‍यार करता हूँ कि जवानी के दिनों में इसने मेरा पेट भरा, मुझे रोटी दी। एक बार मेरे साथ जो घटना घटी, मैं तुम्‍हें वह सुनाना चाहता हूँ।

'यह मेरे जवानी के दिनों की बात है। एक बार मुझे एक दूर के पहाड़ी गाँव में शादी में हिस्‍सा लेने के लिए बुलाया गया। सर्दियों के दिन थे। खूब जोर से बर्फ गिर रही थी। रास्‍ता साँप की तरह टेढ़ा-मेढ़ा और बल खाता हुआ था। मैं थककर एक पत्‍थर पर आराम करने के लिए बैठ गया। गाँव अभी इतना दूर था कि सिगरेट पीते-पीते तंबाकू की पूरी थैली खत्‍म हो जाती। अचानक मोड़ के पीछे से घंटियों की आवाज सुनाई दी और एक फिटन सामने आई। फिटन में खूब पेट भरकर खाने और शराब पीने के बाद शोर-गुल मचानेवाले तीन आदमी बैठे थे। ये अमीर लोग थे। फिटन में जुते दो घोड़ों में से एक चीनी की तरह सफेद और दूसरा काला था जिसके माथे पर सफेद पद्म था। 'अससलामालेकुम'- 'वाससलामालेकुम' सलाम-दुआ हुई। यह मालूम होने पर कि फिटन में सवार ये लोग भी उसी शादी में जा रहे हैं जिसमें मुझे जाना था, मैंने उनसे अनुरोध किया कि वे मुझे अपने साथ बिठा लें। लेकिन उन्‍होंने उसी तरह, जिस तरह आजकल कारवाले बुरे लोग या टैक्‍सी-ड्राइवर करते हैं, इनकार कर दिया और इसके अलावा मेरा मजाक भी उड़ाया - 'कोई बात नहीं, तुम अगली शादी तक गाँव पहुँच जाओगे। लगता है कि इसमें तो तुम्‍हारे बिना ही काम चल जाएगा।'

'मैंने, थके-हारे और उनके उपहास के कारण जले-भुने व्‍यक्ति ने अपना जुरना निकाला और उसे बजाने लगा। ऐसा बढ़िया जुरना मैंने पहले कभी नहीं बजाया था। बस, कमाल ही हो गया। जुरना सुनकर घोड़े ऐसे रुक गए मानो उनके पैरों में कील ठोंक दी गई हो। फिटन में बैठे लोग आपे से बाहर हो रहे थे, घोड़ों पर चाबुक बरसा रहे थे, लेकिन बेसूद। घोड़े टस से मस नहीं हो रहे थे। शायद उन्‍हें मेरी धुन अच्‍छी लगी थी। संभवतः घोड़ों में उनके मालिकों की तुलना में ज्‍यादा मानवीयता थी। देर तक यह खींचातानी चलती रही। घोड़ों ने मेरा साथ दिया और मालिकों को मजबूर होकर मुझे अपनी फिटन में बैठाना पड़ा। तो मेरे जुरने ने इस तरह मेरी मदद की। गीत ही तो मुझे तहखाने से बाहर निकालकर आदर और सम्‍मान के बड़े मार्ग पर ले गए।'

'मैंने अबूतालिब से पूछा -

'तुम तो मुरली, जुरना और सभी तरह की बाँसुरियाँ भी बजाते हो। तुम न केवल उन्‍हें बजाना जानते हो, बल्कि अपने हाथों से उन्‍हें बनाते भी हो। लेकिन तुम वायलिन क्‍यों नहीं बजाते? तुम तो जानते हो कि पहाड़ी लोगों को वायलिन बेहद पसंद है।'

'तुम्‍हें बताऊँ कि मैं वायलिन क्‍यों नहीं बजाता? तो सुनो। जब मैं जवान था तो वायलिन बजाता था। एक बार हमारे लाक गाँव में एक बदकिस्‍मत और थका-हारा अवार आया। उसने अपने एक गाँववासी की हत्‍या कर दी थी और इसके लिए उसे गाँव से निकाल दिया गया था। इस तरह के निर्वासित व्‍यक्ति को हमेशा गाँव के छोरवाला पहाड़ी घर रहने को दिया जाता है। लोग उसके यहाँ नहीं आते-जाते हैं। वह भी किसी के यहाँ नहीं आता-जाता है। चूँकि मैं थोड़ी-सी अवार भाषा जानता था तो कभी-कभी उसके यहाँ आने-जाने लगा। एक शाम को मैं अपनी वायलिन लेकर उसके यहाँ गया। वह चूल्‍हे के करीब बैठा हुआ पतीले के नीचे फूस के अंगारों को हिला-डुला रहा था। पतीले में भी फूस उबल रहा था। मैं वायलिन बजाने लगा और किस्‍मत का मारा अवार आग को देखता तथा चुपचाप उसे सुनता रहा। इसके बाद उसने अचानक मेरी वायलिन अपने हाथ में ले ली, उसे गौर से देखा, उसे इधर-उधर घुमाया, उसके कुछ तार कसे और बजाने लगा।

'वाह, वाह, कितनी बढ़िया वायलिन बजाता था वह, रसूल! जिंदगी भर उसका वायलिन बजाना नहीं भूल सकूँगा। चूल्‍हे में फूस जलता जा रहा था। कभी-कभी वह जोर से भड़क उठता और तब उसकी लपट की रोशनी में हमारी आँखें चमक उठतीं। हमारी आँखों से कभी-कभी आँसू बहते होते। मैं अपनी वायलिन इस अवार के यहाँ ही छोड़कर घर चला गया। अगले दिन मैं पहाड़ों में गया, मैंने उसका गाँव खोजा और फिर उसके रक्‍त-प्रतिशोधियों को ढूँढ़ा। मैं उन्‍हें उसके गाँव से निर्वासित किए गए अवार के घर लाया। दिन को वे मेरे घर में बैठे रहते और रातों को मेरे साथ यह सुनने जाते कि उनका खूनी दुश्‍मन कितनी बढ़िया वायलिन बजाता है। लगातार तीन रातों तक यह सिलसिला चलता रहा। चौथे दिन खून का बदला खून से लेने के इच्‍छुकों ने अपनी इस इच्‍छा से इनकार कर दिया। उन्‍होंने अपने गाँववासी से कहा - 'तुम घर लौट आओ, हमने तुम्‍हें माफ कर दिया।' मुझसे विदा लेते समय उस अवार ने मेरी वायलिन मुझे लौटानी चाही, लेकिन मैंने उसे नहीं लिया। मैंने उससे कहा - 'तुम्‍हारी तरह वायलिन बजाना मुझे कभी नहीं आ सकेगा और उससे बुरे ढंग से मैं अब इसे बजा नहीं सकता। इसलिए इस वायलिन की अब मुझे जरूरत नहीं।' तब से मैंने कभी वायलिन हाथ में नहीं ली। लेकिन जिस संगीत ने खूनी दुश्‍मनों के बीच सुलह करवा दी, उसे भी मैं कभी नहीं भूलूँगा। मैं अक्‍सर यह सोचता हूँ कि अगर सभी लोग वायलिन पर ऐसा संगीत सुन सकते तो बुराई करनेवाला एक भी आदमी दुनिया में न मिलता और कहीं भी वैर-भाव न होता।'

अब मैं अपने पिता जी से संबंधित दो घटनाओं का उल्‍लेख करता हूँ।

गोत्‍सात्‍ल गाँव के निवासी हाजी नाम के एक व्‍यक्ति ने खूँजह में एक रेस्‍तराँ खोला। उसने मेरे पिता जी को बुलाकर उनसे कहा -

'आप पहाड़ी इलाकों में बड़े प्रसिद्ध व्‍यक्ति हैं। आप मेरे रेस्‍तराँ के बारे में एक गीत रच दें, उसमें उसकी कुछ प्रशंसा कर दें, ताकि सभी लोग उसके बारे में जान जाएँ। इसके लिए परिश्रमिक देने के मामले में जरा भी देर नहीं होगी।'

पिता जी ने सचमुच ही एक गीत रच दिया और गोत्‍सात्‍ल गाँव के निवासी के इस रेस्‍तराँ को मशहूर भी कर दिया, लेकिन गंदे और बेहूदा रेस्‍तराँ के रूप में। इसके बाद सभी लोग इस रेस्‍तराँ और इसके मालिक की तरफ इशारा करते हुए कहते - 'यह है वह आदमी जिसे हमारे हमजात ने धूल में मिला दिया।'

रेस्‍तराँ के मालिक को जब यह पता चला कि उसके रेस्‍तराँ के बारे में एक ऐसा गीत है तो वह परेशान हो उठा।

उसने पिता जी से कहा कि अगर वह अपने इस गीत का आम लोगों में प्रचार नहीं करेंगे तो इसके बदले में वह उन्‍हें जीन समेत घोड़ा देने को तैयार है। किंतु यदि कोई शब्‍द एक दर्रे को लाँघ जाता है तो वह सारे पहाड़ों में पहुँच जाता है और कोई भी उसे नहीं रोक पाता। किस्‍मत के मारे इस हाजी के बारे में रचा गया यह गीत जल्‍द ही सभी गाँवों में पहुँच गया। लोग उसे अभी तक गाते हैं। और हाजी को अपना रेस्‍तराँ बंद करना पड़ा।

एक बार हमारे घर से भेड़ की बगलों का धूप में सुखाया गया मांस गायब हो गया। उसके वापस आने की कोई उम्‍मीद नहीं हो सकती थी। लेकिन अचानक गाँव में यह अफवाह फैल गई कि हमजात ने चोर के बारे में एक गीत रचा है। नतीजा यह निकला कि सुखाया हुआ यह मांस उसी दिन हमारे छज्‍जे में फेंक दिया गया, यद्यपि मेरे पिता जी का ऐसा गीत रचने का जरा भी इरादा नहीं था।

नवदंपतियों में कभी-कभी झगड़ा हो जाता है। ऐसे मौकों पर नवदंपतियों के मित्र, अक्‍सर तो जवान पति के मित्र घर की खिड़की के नीचे खड़े होकर चोंगूर बाजा बजाने लगते हैं। चोंगूर की ध्‍वनियाँ नवदंपति को अपने छोटे-से झगड़े के बारे में भूलने को मजबूर कर देती हैं।

मेरा भी अमीन चुतूयेव नाम का एक बहुत अच्‍छा दोस्‍त था, फोटोग्राफर और संगीतज्ञ। मेरी शादी के पहले साल में उसे मेरी खिड़कियों के नीचे अक्‍सर चोंगूर बजाना पड़ा।

अमीन चुतूयेव, तुम अपनी वायलिन लेकर दुनिया की खिड़कियों के नीचे उसे क्‍यों नहीं बजाते, ताकि हमारे युग के झगड़े सुलझ जाएँ, शांत हो जाएँ?

शिकागो की एक भेंट में एक अमरीकी सहयोगी के साथ मेरी बहुत ही गर्मागर्म बहस हो गई। बहस ने बड़ा ही उग्र रूप ले लिया और ऐसे लगता था कि यह कभी खत्‍म नहीं हो सकेगी। किंतु बाद में अमरीकी ने अचानक अपने भाई की, जो पहले युद्ध के समय खेत रहा था, कविता सुना दी। मैंने भी उसी समय मौत के मुँह में चले जानेवाले अपने भाई की कविता वहाँ सुनाई। हमारा वाद-विवाद शांत हो गया। केवल कविताएँ ही बाकी रह गईं। काश हम अक्‍सर ही वीरगति को प्राप्‍त होनेवालों को याद करते, काश कि हम अक्‍सर ही कविताओं और गीतों की ओर ध्‍यान देते!

मेरे पूर्वज पड़ोस के जार्जिया पर अक्‍सर हमले करते थे। ऐसे ही एक हमले के वक्‍त वे जवान दविद गुरामिश्‍वीली को, जो बाद में जार्जिया का क्‍लासिक कवि बना, वहाँ से भगाकर अवार पर्वतों में ले आए।

ऊँचे पहाड़ी उंत्सूकूल के एक गहरे तहखाने में बंद यह बदकिस्‍मत बंदी जार्जियाई गाने गाता रहता। वहीं वह कविता रचने लगा। उसे उंत्सूकूल से रूस भागने में सफलता मिल गई और वहाँ से वह उक्रइना चला गया।

इस अनूठे कवि की जयंती के समय मैं त्बिलीसी गया। मुझसे वहाँ बोलने को कहा गया। मैंने मजाक करते हुए कहा कि दविद मुरामिश्‍वीली जैसे बड़े कवि, के लिए जार्जिया हमारा, हम दागिस्‍तानियों का आभारी है। अगर हम उसे न भगा ले जाते, गहरे तहखाने में न बंद कर देते तो शायद वह कविता न रचने लगता, रूस और उक्रइना न पहुँच सकता। उसकी जीवनी ने दूसरा ही रूप ले लिया होता। लेकिन इसके बाद मैंने यह भी कहा - 'मेरे पूर्वज जब जवान प्रिंस को भगाकर लाए थे तो यह नहीं जानते थे कि एक कवि को भगाकर ले जा रहे हैं। अगर उन्‍हें यह मालूम होता तो वे कभी ऐसा न करते। खैर, जो हुआ सो हुआ, लेकिन इतना जरूर है कि अगर पहले दागिस्‍तान ने दविद गुरामिश्‍वीली को अपना बंदी बनाया था तो अब दागिस्‍तान उसके काव्‍य के जादू में बँधा हुआ है। कितना उलट-फेर हुआ है जमाने में!'

अब नए गीत गाए जाते हैं। लेकिन हम पुराने गीतों को भी नहीं भूले। अब दागिस्‍तान की जनता अपनी इन बहुमूल्‍य निधियों को सारी दुनिया को भेंट करती है।

पर्वतों में प्रकृति अपना कठोर रूप दिखाती है। पुराने वक्‍तों में यहाँ बड़ी संख्‍या में बच्‍चे मरते थे। लेकिन जो जिंदा रह जाते थे, वे बहुत लंबी उम्र तक, सौ साल से अधिक समय तक जीते रहते थे।

गाए गए सभी गीत जिंदा नहीं रहे, मगर जो जिंदा रह गए हैं, वे सदियों तक जीवित रहेंगे।

बचपन में अधिकतर लड़के ही मरते थे। लड़कियाँ अधिक शक्तिशाली, अधिक जानदार सिद्ध होती थीं।

गीतों के बारे में भी यही ठीक है। मर्दाना, जवान सूरमाओं के गीत, युद्ध के गीत, हमलों और मार-काट के गीत, कब्रों, प्रतिशोध, खून, साहस तथा वीरता के गीत प्‍यार के गीतों की तुलना में कहीं कम जीवित रहे हैं।

किंतु सभी पुराने गीत मानो दागिस्‍तान के नए संगीत की भूमिका हैं। पुराने पंदूरे पर नए तार लगाए जा रहे हैं और जब पहाड़ी औरतों की फुरतीली उँगलियाँ पियानो के सफेद और काले परदों पर भी भागती हैं।

गीतोंवाले घर में मेरा जन्‍म हुआ और वहीं मैं बड़ा हुआ। मैंने बहुत झिझकते-झिझकते पेंसिल हाथ में ली। मैं कविता से नाता जोड़ते हुए घबराता था, मगर ऐसा किए बिना रह नहीं सकता था। मेरी स्थिति बड़ी विकट थी। हमजात त्‍सादासा के बाद रसूल त्‍सादासा (यानी त्‍सादा गाँव के वासी) की किसे जरूरत हो सकती थी! उसी गाँव, उसी घर और उसी दागिस्‍तान के रसूल की!

मैं कहीं भी क्‍यों न गया, किसी भी जगह मुझे लोगों से मिलने और बात करने का मौका क्‍यों न मिला, अभी भी, जब मेरे अपने बाल पक गए हैं, हर जगह और हमेशा यही कहा जाता है - 'अब हमारे हमजात के बेटे रसूल से अपने विचार प्रकट करने का अनुरोध किया जाता है।' बेशक यह सही है कि हमजात का बेटा होना कुछ कम सम्‍मान की बात नहीं है, लेकिन मन चाहता है कि मेरी अपनी अलग पहचान हो।

एक बार मैं एक पहाड़ी क्षेत्र में गया। कई गाँवों में जाने के बाद मेरे रास्‍ते में त्‍सुमादा नाम का एक ही गाँव बाकी रह गया था। मैंने दूर से देखा कि गाँव के छोर पर बहुत-से लोग जमा हैं। जुरना-वादन और गानों की ध्‍वनियाँ सुनाई दे रही थीं। किसी का स्‍वागत होनेवाला है। लेकिन मेरे सिवा तो वहाँ कोई आनवाला नहीं था। मुझे यह अच्‍छा भी लगा और कुछ शर्म भी महसूस हुई, क्‍योंकि मैं तो मानो अभी ऐसे बढ़िया स्‍वागत-सत्‍कार के लायक नहीं हुआ था। हमारी मोटर लोगों के नजदीक पहुँची। हम मोटर से बाहर निकले। लोगों ने पूछा -

'बुजुर्ग हमजात कहाँ हैं?'

'हमजात तो मखाचकला में हैं। उनका तो यहाँ आने का कोई प्रोग्राम नहीं था। मैं हमजात का बेटा रसूल आपके पास आया हूँ।'

'लेकिन हमें तो यह बताया गया था कि हमजात आएँगे।'

लोग अपने घरों को जाने लगे। कुछ जवान लोग ही मेरे साथ रह गए। हम गीत गाने लगे। हमने बहुत गाने गाए। वे गाने, जिन्‍हें जनता ने रचा, जिन्‍हें मेरे पिता जी ने रचा और यहाँ तक कि मेरे द्वारा रचा गया एक गीत भी।

मेरा यह गीत उस लड़के के समान था जो हाथ में छोटा-सा चाबुक लिए जीन ले जानेवाले पिता के पीछे-पीछे जीने पर चढ़ता जाता है।

हमारे पहाड़ी पंदूरे! ज्‍यों-ज्‍यों मेरी आयु बढ़ती जाती है, ज्‍यों-ज्‍यों मुझे जीवन, लोगों और दुनिया का अधिकाधिक ज्ञान होता जाता है, त्‍यों-त्‍यों मुझे हाथ में लेते हुए अधिकाधिक घबराता हूँ। हजारों सालों से तुम्‍हारे तारों को कसा और सुर में किया गया है। हजारों गायकों ने तुझमें से अद्भुत ध्‍वनियाँ निकाली हैं। जब मैं तेरे तार कसने लगता हूँ तो मेरे दिल की धड़कन बंद हो जाती है। अगर इस क्षण तार टूट जाएगा तो, मुझे लगता है, कि मेरे दिल के भी टुकड़े-टुकड़े हो जाएँगे। तार तो बहुत आसानी से टूट सकता है। इसका मतलब है कि गीत की हत्‍या हो जाएगी।

लेकिन चाहे कुछ भी क्‍यों न हो, मुझे तुझे हाथ में लेना ही होगा, सुर में करना और अपना गीत गाना होगा। बेशक वह दागिस्‍तान के अन्‍य गीतों में खो जाए, क्‍योंकि मेरी आवाज तो पुराने गायकों की आवाज की बराबरी नहीं कर सकती। फिर हमारे गाने भी तो भिन्‍न हैं।

'क्‍या महमूद के बाद कभी किसी ने मुहब्‍बत नहीं की? लेकिन अब प्रेम-गीत सुनाई नहीं देते।'

'मुहब्‍बत तो की गई है। लेकिन गीतों की क्‍या जरूरत है? आज की मूई जैसी प्रेमिका को प्रेम-गीत सुनाने और भगाकर ले जाने की जरूरत नहीं रही। वह तो खुद ही चली आती है।'

'क्‍या शामिल के बाद बहादुरों का नाम-निशान मिट गया? अब तो वीरों के वीर-कृत्‍यों और शानदार लड़ाइयों के गीत सुनाई नहीं देते।'

'बहादुर तो शायद अभी भी हैं। लेकिन अब लड़ाइयों के गीतों की क्‍या जरूरत है, जबकि खुद तलवार भी चैन चाहती है।'

इससे भला क्‍या फर्क पड़ता है कि मेरी आवाज दागिस्‍तान की दूसरी आवाजों में खो जाएगी। दूसरे गायक आएँगे जो वह गा देंगे जिसे मैं नहीं गा पाया।

बुढ़ापा आदमी को जिंदगी की बहुत-सी खुशियों से वंचित कर देता है। वह इनसान की ताकत, आँखों की तेज रोशनी, अच्‍छी तरह सुनने की क्षमता छीन लेता है, उसके सामने झुटपुटे का परदा गिराकर उसे दुनिया से अलग कर देता है। कभी-कभी तो उसका हाथ शराब का जाम तक नहीं सँभाल पाता।

लेकिन मैं बुढ़ापे से नहीं डरता हूँ, क्‍योंकि वह मुझसे सब कुछ छीनकर भी मेरा गीत नहीं छीन पाएगा। वह मुझसे मेरा महमूद, बातीराय, पुश्किन, हाइने, ब्‍लोक, सभी महान गायकों को, जिनमें दागिस्‍तान जैसा गायक भी शामिल है, कभी नहीं छीन सकेगा। जब तक दागिस्‍तान है, हमारे लिए चिंता करने की कोई बात नहीं। वह बना रहेगा तो हमारा बाल भी बाँका नहीं होगा, हम भी बने रहेंगे।

एक पहाड़ी गाँव में बच्‍चों का एक खेल है जिसे कुछ ऐसा नाम दिया जा सकता है - 'जो खोजता है, उसे मिलता है, जिसे मिलता है, वह उसी का हो जाता है।' एक बार मैंने इस खेल में हिस्‍सा लिया।

एक लड़के को दूसरे कमरे में भेज दिया जाता है, ताकि वह यह न देख सके कि लड़कियों में से कोई एक कहाँ छिपी है। इतना ही नहीं, लड़के की आँखों पर पट्टी बाँध दी जाती है। कुछ देर बाद यह लड़का उस कमरे में जाकर, जहाँ लड़की छिपी हुई है, उसे ढूँढ़ने लगता है। सभी लड़के-लड़कियाँ मिलकर, 'आई, दाई, दालालाई' गाते हैं। लड़का जब गलत जगह पर ढूँढ़ता है तो गानेवाले धीमी और करुण आवाज में गाते हैं। जब वह ठीक दिशा में बढ़ता है तो वे बड़े उत्‍साह और खुशी भरी आवाज में गाने लगते हैं। जब वह लड़की को ढूँढ़ लेता है तो सभी तालियाँ बजाते हैं और उन दोनों को नाचने के लिए मजबूर करते हैं। इस तरह से गाना उस लड़के को, जिसकी आँखों पर पट्टी बँधी होती है, सही रास्‍ता दिखाता है और उसे मनवांछित लक्ष्‍य पर पहुँचाता है।

गीतोंवाले घर, गीतोंवाले दागिस्‍तान, गीतोंवाले रूस और गीतोंवाली दुनिया में मेरा जन्‍म हुआ है। मैं गीत की शक्ति, गीत का महत्‍व जानता हूँ। अगर दागिस्‍तान के पास गीत न होते तो कोई भी उसे ऐसे न जानता, जैसे सब लोग आज जानते हैं। तब दागिस्‍तान भटके हुए पहाड़ी बकरे जैसा होता। किंतु हमारा गीत हमें खड़ी पहाड़ी पगडंडियों से विराट संसार में ले गया, उसने हमें दोस्‍त दिए।

'तुम गाना गा दो और मैं तुम्‍हें बता दूँगा कि तुम कैसे आदमी हो,' अबूतालिब कहा करता था। दागिस्‍तान ने अपना गाना गाया और दुनिया उसे समझ गई।


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