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कविता

घोड़े का चेहरा

निकोलाई जबोलोत्स्की

अनुवाद - वरयाम सिंह


जानवरों को नींद नहीं आती।
रात के अंधकार में पत्‍थर की दीवार की तरह।

खड़े रहते हैं वे दुनिया के ऊपर।
चिकने सींगों से भूसे के बीच
आवाज करता है गाय का सिर।

गालों की युगों पुरानी हड्डी को खिसकाकर
सिकोड़ दिया है पथरीले माथे ने
और अब तुतलाती आँखें
घूम नहीं पा रही हैं जुलाई के महीने में।

घोड़े का मुँह समझदार है और सुंदर
उसे सुनाई देती है पत्तियों और पत्‍थरों की बातें,
सावधान! वह समझता है पशुओं की चीखें,
पूरे जंगल में कोयल की आवाज।

सब कुछ जानता है वह, पर किसे सुनाये
चमत्‍कार जो देखे हैं उसने।
गहरी है रात। साँवले क्षितिज पर
प्रकट हो रहे हैं तारों के हार।
और घोड़ा खड़ा है
योद्धा की तरह पहरा दे रहा है
उसके हलके बालों से खेल रही है हवा
और आँखें जल रही हैं जैसे दो-दो विशाल दुनिया
सम्राटों के नीले वस्‍त्र की तरह
चमक रही है उसकी गर्वीली ग्रीवा।
संभव होता यदि मनुष्‍य के लिए देख पाना
घोड़े का जादुई चेहरा

निकाल फेंकता अपनी कमजोर जीभ
और भेंट कर देता उसे घोड़े को,
जीभ पाने का सच्‍चा पात्र है जादुई घोड़ा!
हमें सुनाई देते शब्‍द
सेवों की तरह बड़े-बड़े
दूध या शहद की तरह घने।
ऐसे शब्‍द जो चुभते हैं लपटों की तरह,
झोंपड़ी में रोशनी की तरह
दिखाते हैं झोंपड़ी की गरीबी और कृपणता।
ऐसे शब्‍द जो कभी नहीं मरते
जिनके गाते आ रहे हैं हम गीत आज तक।

लो, खाली हो गया है अस्‍तबल
बिखर गये हैं पेड़ भी
कंजूस सुबह ने कपड़े पहनाये हैं पहाड़ों को,
काम करने के लिए खोल दिये हैं खेत।
धीरे-धीरे घोड़ा खींच रहा है बोझ
वफादार आँखों से देख रहा है
रुके हुए रहस्‍य भरे संसार की ओर।

 


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