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कविता

मक्खियों की रानी

निकोलाई जबोलोत्स्की

अनुवाद - वरयाम सिंह


पंख झाड़ रहा है बूढ़ा मुर्गा
सब ओर छा रही है रात।
तारों की तरह मक्खियों की रानी
उड़ रही है दलदल के ऊपर

थरथरा रहे हैं उसके पंख,
नग्‍न है शरीर का ढॉंचा
सीने पर अंकित हैं जादुई चिह्न
दो पारदर्शी परों के बीच
जैसे अज्ञात कब्रों के निशान।

अजीब-सी काई पनपती है दलदल में
कई-कई पतली गुलाबी टाँगें लिये।
पूरी तरह पारदर्शी, जरा-सी जिंदा
झेलती हैं घास की नफरत।

दूर-दूर बेआबाद जगहों को
आबाद करती है अनाथ वनस्‍पति।
यहाँ आमंत्रित करती है वह
मक्‍खी को जो स्‍वयं में पूरा ऑर्केस्‍ट्रा होती है।
मक्‍खी दस्‍तक देती है परों से,
अपने पूरे वजूद से
फैला कर छाती की मांसपेशियाँ
उतरती है दलदल में गीले पत्‍थर पर।

सपनों के सताये हुए तुम
जानते हो यदि शब्द एलोइम
इस अजीब-सी मक्‍खी को डाल दो डिब्‍बे में,
डिब्‍बे को लेकर खेत पर से जाओ
ध्‍यान देना संकेतों पर -
यदि मक्‍खी जरा आवाज करे
समझना पैरों के नीचे तॉंबा है,
जिस ओर मूँछें हिलाये
समझना उधर चॉंदी है,
यदि सिकोड़ दे अपने पंख
समझना यहाँ सोना है।

धीरे-धीरे कदम रख रही है रात,
फैल रही है पॉपलर के पेड़ों की महक।
मेरा मन भी सुस्‍ताने लगा है
चीड़ और खेतों के बीच।
सो रहे हैं संतप्‍त दलदल
हिल रही हैं घास की जड़ें।
पहाड़ी की तरफ मुँह किये
कोई रो रहा है कब्रिस्‍तान में
रो रहा है जोर-जोर से,
आकाश से गिर रहे हैं तारे,
दूर से पुकार रही है काई -
ओ मक्‍खी, तू कहाँ है?

 


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