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कविता

महान नायक

बद्रीनारायण


यह एक अजीब सुबह थी
जो लिखना चाहूँ, लिख नहीं पा रहा था
जो सोचना चाहूँ, सोच नहीं पा रहा था
सूझ नहीं रहे थे मुझे शब्द
कामा, हलंत सब गै़रहाजिर थे।

मैंने खोल दिए स्मृतियों के सारे द्वार
अपने भीतर के सारे नयन खोल दिए
दस द्वार, चौदह भुवन, चौरासी लोक
घूम आया
धरती गगन मिलाया

फिर भी एक भी शब्द मुझे नहीं दिखा
क्या खता हो गई थी, कुछ समझ में नहीं आ रहा था

धीरे-धीरे जब मैं इस शाक से उबरा
और रुक कर सोचने लगा
तो समझ में आया

कि यह शब्दों का एक महान विद्रोह था
मेरे खिलाफ

एक महान गोलबंदी
एक चेतस प्रतिकार

कारण यह था कि
मैं जब भी शब्दों को जोड़ता था
वाक्य बनाता था
मैं उनका अपने लिए ही उपयोग करता था

अपने बारे में लिखता रहता था
अपना करता रहता था गुणगान

अपना सुख गाता था
अपना दुख गाता था

अपने को ही करता था गौरवान्वित
अजब आत्मकेंद्रित, आत्मरति में लिप्त था मैं

शब्द जानते थे कि यह वृत्ति
या तो मुझे तानाशाह बनाएगी
या कर देगी पागल बेकार
और शब्द मेरी ये दोनों ही गति नहीं चाहते थे

शब्द वैसे ही महसूस कर रहे थे कि
मेरे भीतर न प्रतिरोध रह गया है

न प्यार
न पागल प्रेरणाएँ

अतः शब्दों ने एक महान नायक के नेतृत्व में
मेरे खिलाफ विद्रोह कर दिया था ।

 


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