जोतीराव : ज्ञानेश्वरी अध्याय बारह में यह कहा गया है कि "अजी प्राणी मात्र में कहीं। द्वेष का जो नाम भी नहीं। आप-पर-भाव भी नहीं। चैतन्य का-सा" ।।44।। यदि सचमुच में इस प्रकार की समझ अनजान कृष्णजी में होती तो उन्होंने किसी भी हालत में पांडवों की मदद न की होती और उन्ही" पांडवों के हाथों कौरवों को पराजित करके उनका सर्वनाश न करवाया होता। उन्होंने यह जो कुछ करवाया है, वह हम सभी के निर्माता के लिए शोभा नहीं देता। उसी प्रकार उसके द्वारा निर्मित जंगली असभ्य लोगों को भी उस तरह का बर्ताव करना अच्छा नहीं लगेगा।
फिर उसमें कहा गया है कि "उत्तम का करना स्वीकार। अधम का करे अस्वीकार। नहीं जानती ऐसा प्रकार। जैसे धरणी" ।।45।। यदि सच में इस प्रकार की समझ अनजान कृष्णजी की थी तो उसने धर्मराज को सम्मान देकर उसका हर तरह से सत्कार न किया होता। उसका यह पक्षपातपूर्ण आचरण किसी असभ्य आदमी को भी पसंद नहीं आएगा।
फिर कहा गया है कि, "करे गाय का तृष्णा-निवारण। विष बन व्याघ्र को दे मरण। न जानता ऐसा एक भी क्षण। नदी-नीर"।।47।। यदि सचमुच में इस प्रकार की समझ अनजान कृष्णजी की थी, तो उसने कालिया का नाश न किया होता।
फिर कहा गया है, "वैसे हैं सभी भूत-मात्र। उसके समान जो मित्र। जैसे धात्री को है सर्वत्र। सम-भाव" ।।48।। यदि सच में इस प्रकार की समझ अनजान कृष्णजी की थी, तो उसने शिशुपाल के साथ ब्याही जाने वाली रुक्मिणी को चुराकर न ले गया होता और उसके साथ राक्षस विवाह न किया होता।
फिर कहा गया कि "मैं-तू की भाषा बोलना। सुख-दुख को जानना। 'मेरा' ऐसा भी कहना। नहीं है उसे"।।49।। यदि सच में इस प्रकार की समझ अनजान कृष्णजी की थी, तो उसने द्रौपदी वस्त्र-हरण के समय बहुरूपिया की तरह छल से द्रोपदी को मदद न की होती।
फिर कहा गया कि "क्षमा में वैसी ही क्षमता। धारित्री समान योग्यता। संतोष नित है बढ़ता। उसकी गोद में" ।।150।। यदि सच में इस प्रकार की समझ अनजान कृष्णजी की थी, तो उसने छल-कपट से काल-यवन की हत्या न करवाई होती। उसका यह कर्तव्य कर्म किसी असभ्य आदमी के भी दिमाग में न आया होता।
फिर कहा गया है कि "व्यापक तथा उदास। रहता जैसे आकाश। वैसे उसका मानस। सदा-सर्वत्र"।।180।। यदि सच में अनजान कृष्णजी का मन व्यापक होता, तो उसके प्रद्युम्न नाम के बेटे को जब शंबर नाम का दैत्य चुरा करके ले गया, उस समय उसकी व्यापकता क्या सोई पड़ी थी? फिर उसके बारे में कहा जाता है कि उसने नरकासुर के साथ उसके सात हजार बेटों की भी हत्या की थी, इसका मतलब क्या है?
फिर कहा गया है कि "जो है संसार-व्यथा से मुक्त। निरपेक्षालंकार-भूषित। मानो व्याध-बाण से विमुक्त। विहंगम-सा" ।।181।। यदि इसी प्रकार की अनजान कृष्णजी की आर्य (ब्राह्मण) संन्यासी की तरह जीविका थी, तो उसने सोलह सहस्र एक सौ आठ नारियों के साथ मजा लूट करके यादव कुल में संतानों की संख्या बढ़ाकर उन सभी में कलह पैदा करके आपस में सभी का नाश न कराया होता।
फिर कहा गया है कि "जो आत्मलाभ के समान। सुंदर कुछ नहीं आन। तभी भोग में नदे मन। न हो आनंदित" ।।190।। पहली गाथा से सातवीं गाथा तक जब हम सोचते हैं तब ऐसा लगता है कि केवल खोखले आत्मज्ञान को प्राप्त कर लेने से आत्मा का उद्धार होकर उसको अच्छी गति प्राप्त होती है, लेकिन उसकी आत्मा की हिफाजत करने वाले शरीर को उससे कौन-सा लाभ होने वाला है? इसके बारे में कृष्णजी ने गीता में कुछ भी नहीं कहा है, इसका मतलब क्या होना चाहिए? क्योंकि, यदि शरीर ही नहीं होता तो आत्मा का विचार कहाँ से आया होता?
फिर कहा गया है कि "अपनों को प्रकाश देना। परायों को अँधेरा देना। जैसा दीप यह सोचना। जानता नहीं" ।।198।। लेकिन दिया तले अँधेरा होता है, यह बात अनजान कृष्णजी को कैसे मालूम नहीं थी? क्योंकि, उस समय शायद आरपार दिखनेवाली काँच की हंडिया नहीं थीं।
फिर कहा गया है कि "करता जो वृक्ष-छेदन। या करता गाछ-पालन। दोनों को दे छाया समान। जैसे वृक्ष" ।।199।। इस दुनिया में कई जहरीले पेड़ हैं और उन्हीं की वजह से तालाब, कुएँ, बावली आदि का जल जहरीला बन जाता है और वह जहरीला जल पीते ही बेकसूर लोगों को हानि पहुँचकर उनकी जान तक छिन जाती है, यह क्यों?
फिर कहा गया है कि "माली को देता मीठा रस। पेरक को न खट्टा रस सबको है मधुर रस। देता ईख-सा" ।।200।। माली गन्ने की बोआई करके जब उसको पानी देते हैं तब वे माली के आँखों पर पानी का जोर से छिड़काव करके उसकी आँखें बेमतलब घायल करते हैं, यह क्यों?
फिर कहा गया है कि "तीनों ऋतुओं में समान। रहता है जैसे गगन। वैसे ही एक समान। शीतोष्ण जैसे" ।।202।। आसमान में जैसे-जैसे ऊँचाई पर जाइए, वैसे-वैसे ज्यादा शीतलता का अनुभव होगा। फिर इसके बारे में क्या अनजान कृष्णजी को अनुभव नहीं था?
फिर कहा गया है कि "चंद्रमा की शीतलता। राज-रंक की समता। वैसे जो सकल भूत। हैं समान" ।।208।। जब सागर के जल की तरंग का चढ़ाव-उतार चंद्रमा के आकर्षण से होता है, उस समय कितने जीवन-जंतुओं का नाश होता है, इसके बारे में अनजान कृष्णजी को क्या कुछ भी मालूम नहीं?
फिर कहा गया है कि "संपूर्ण जगत एक। जैसे सेवन उदक। वैसे उसकी त्रिलोक। करते चाह"।।205।। धरती के ऊपर जिसको जल (रॉक आयल) कहते हैं, उसका तीनों लोक के लोग उपभोग करना पसंद नहीं करते, इसका मतलब क्या होना चाहिए?
फिर कहा गया है कि "लाभ से जो न हरषाता। न अलाभ से कुम्हलाता। वर्षा के बिन न सूखता। समुद्र जैसा" ।।210।। वर्षा न होने पर भी सागर सूखता नहीं, उसी प्रकार ज्यादा वर्षा होने से भी सागर का जल बढ़ता नहीं, वह दोनों समय एक जैसा दिखाई देता है, आखिर इसका मतलब क्या है?
फिर कहा गया है कि "जैसा वायु का इक ठौर। रहता नहीं है आधार। वैसा ही न उसका घर। कहीं रहता" ।।211।। वायु ठोस शक्ल में नहीं रहता, लेकिन वह सभी रिक्त स्थानों में ठहरता है, यह निर्विवाद है।
फिर कहा गया है कि "विश्व ही यह मेरा घर। ऐसी मति जिसकी स्थिर। या हुआ जो सचराचर। अपने में आप" ।।213।। इस पर भी "हे पार्थ, मेरे भजन में आस्था। उसको करूँ मैं माथा। पर मुकुट" ।।214।। जिसकी मति स्थिर है, उसको विश्व को अपना घर मानकर, बल्कि जो कोई भी मानव प्राणी यदि चराचर हुआ तो फिर उसे उस खोखले कृष्ण के भजन के प्रति आस्था क्यों रखनी चाहिए? क्योंकि, उसका इसी अध्याय की पहली गाथा (ओवीं) से लेकर सातवीं गाथा तक वर्णित आचरण यदि लगातार कायम रहता है, तो उसमें पाप या पुण्य का आचरण करने से न कुछ कम न ज्यादा ही होता।
ज्ञानेश्वरी , तेरहवाँ अध्याय
तेरहवें अध्याय की सातवीं और आठवीं गाथा का प्रयोजन बारहवें अध्याय की दूसरी गाथा के बिलकुल विरोध में है, जैसे, जिस किसी को भी सर्वज्ञता प्राप्त होगी उसकी महिमा बढ़ेगी, इस डर से उसको पागले का स्वाँग रचाना और उसको अपनी चतुराई को चाह से छुपाने के लिए पागल होना। तेरहवें अध्याय की बीसवीं गाथा है, "अहिंसा के अनेक प्रकार। कहते हैं नाना मतांतर। करते हैं अपना प्रचार। निरूपण से" ।।217।। इस तरह के शब्दों का इस्तेमाल करने से यह सिद्ध होता है कि दुनिया के अन्य धर्मों के बारे में अनजान कृष्णजी को कुछ जानकारी नहीं थी। क्योंकि यदि ऐसा होता तो कृष्णजी ने "करते हैं अपना प्रचार। निरूपण से।" इन शब्दों का इस्तेमाल न किया होता। और उसी प्रकार उन्होंने धूर्त ब्राह्मणों के मीमांसा ग्रंथों का आधार प्रस्तुत न किया होता। बारहवें अध्याय के "विश्व ही यह मेराघर। ऐसी मति जिसकी स्थिर। या हुआ जो सचराचर। अपने में आप" ।।213।। ऐसा होने पर भी तेरहवें अध्याय में कहा गया है कि "अजी, तोड़ बसाते घर। बाँधे जाते मंदिर-द्वार। व्यवहार में लूट कर। बाँधा अन्न-छत्र" ।।230।। इससे यह सिद्ध होता है कि अष्ट पहलू कृष्णजी केवल मूर्ति पूजक था। बारहवें अध्याय की पहली गाथा से सातवीं गाथा तक अध्ययन करने से यह सिद्ध होता है कि आर्यों के देवताओं का यदि यही आचरण है तो बदलते युग में जोनष्ट होने वाले हैं, उन धूर्त आर्य लोगों को क्यों धृव मानना चाहिए? इसका आज प्रयोजन भी क्या है?
फिर उसी अध्याय में कहा गया है कि, "अपने शिखरों का जो भार। नहीं जानता है गिरिवर। भूमि का बोझ वाराहावतार। नहीं जानता जैसे" ।।347।। वराहने (सूकर) अपने दाँतों पर पृथ्वी को उठाया उस समय उसको कुछ भी बोझ नहीं लगा। फिर उसी वराह (सूकर) का छोटा भाई कृष्णजी ने गोवर्धन पर्वत को उठाकर अपनी छोटी अँगुली पर रखा तब उसको बोझ नहीं हुआ, इसमें कौन-सा आश्चर्य है?
फिर उसी अध्याय में उन्होंने कहा है कि, "उदय होते ही बोधार्क। बुद्धि के अक्षत, सात्विक। भर के चझाता त्र्यंबक। पर लक्षावधि" ।।387।। यह गाथा बारहवें अध्याय की छठी गाथा के बिलकुल विरोध में है। फिर इसी तेरहवें अध्याय में कहा गया है कि "जैसे लाश पर लादा आभूषण। या गर्दभ को कराया प्रयाग-स्नान। कड़वी तुंबी पर मधु-लेपन। किया वैसे" ।।468।। यदि गधे ने तीर्थस्थलों में जाकर स्नान किया, तब भी उसको पवित्रता नहीं आती, फिर धूर्त आर्य ब्राह्मणों में तीर्थस्थलों की जो इतनी बड़ाई की जाती है उसका आखिर मतलब क्या है? तात्पर्य, जानकार लोगों को कुछ सही हकीकत मालूम हो, इसलिए नमूने के तौर पर आर्य ज्ञानोबा की ज्ञनेश्वरी के फालतू तर्कों के कुछ ही चुने हुए नमूने लेकर जितनी जरूरत है, उनका उतना ही खंडन करके इस विषय को यहाँ फिलहाल समाप्त कर रहा हूँ।