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विमर्श

सार्वजनिक सत्यधर्म पुस्तक

जोतीराव गोविंदराव फुले


।।मना त्‍वांचि रे पूर्वसंचीत केलें।। तयासारिखें भोगणे प्राप्‍त झाले ।।8।।

- रामदास

गणपतराव दर्याजी थोरात - किस्‍मत (दैव) के लिए विकल्‍प या प्रतिशब्द कौन-से हैं?

जोतीराव फुले : किस्‍मत के लिए दैव, भाग्‍य, नियति, नसीब, प्रारब्‍ध, कर्मफल, माथा प्राक्‍तन, संचित कर्म, सुकृत, भाग्यरेखा, ब्रह्म लिखित आदि कई प्रतिशब्द हैं। इस संबंध में कुछ उदाहरण दे रहा हूँ - कोई माँ-बाप अपने बच्‍चे को विद्या पढ़ाने की इच्‍छा से उसका नाम स्‍कूल में दाखिल करवाकर उसको अभ्‍यास करने के लिए प्रेरित करते हैं, जबकि उसकी पढ़ने की बिलकुल इच्‍छा नहीं है, यह सब उसके मन के विरोध में हो रहा है। उसको वास्‍तव में विद्या पढ़ने की बिलकुल इच्‍छा नहीं होने की वजह से जब वह अनपढ़ रह जाएगा तो लोग उसके बारे में कहेंगे कि विद्या सीखने की इच्‍छा होने पर भी उसको स्‍कूल में भेजने का प्रयास नहीं करते फिर भी उस बच्‍चे ने खुद अपनी कोशिश से स्‍कूल में जाकर विद्या प्राप्‍त कर ली है, उसके बारे में सभी लोग कहेंगे कि विद्या सीखना उसकी किस्‍मत में ही था। किसी कारीगर ने शिल्‍पशास्‍त्र आदि विद्या में आवश्‍यक जानकारी हासिल करने के पहले रेलगाड़ी बनाने की कल्‍पना करके उसको बनाने का प्रयास शुरू कर दिया तभी उसका सारा पैसा खर्च होने लगा। उसे बहुत धनहानि भी हुई, उसके बारे में लोग कहते हैं कि रेलगाड़ी तैयार करके उसमें सफलता हासिल करना उसकी किस्‍मत में ही नहीं था।

इसी प्रकार किसी कारीगर ने शिल्‍पशास्‍त्र आदि विद्या में अच्‍छी-खासी योग्‍यता प्राप्‍त की और उसके बाद उसने आसानी से रेलगाड़ी बनाई तो उसके बारे में कहने लगते हैं कि रेलगाड़ी बनाने की बात उसकी किस्‍मत में ही थी। किसी व्‍यापारी द्वारा व्‍यापार के बारे में किसी भी प्रकार की जानकारी हासिल करने के पहले ही व्‍यापार करने का काम शुरू करते ही उसमें उसकी यदि पूरी तरह से हानि होती है तो लोग उसके बारे में कहने लगते हैं कि व्‍यापार में सफलता पाना उसकी किस्‍मत में ही नहीं था। इसी प्रकार कोई व्‍यक्ति व्‍यापार के बारे में जानकारी प्राप्‍त करने के लिए किसी कुशल व्‍यापारी की दुकान में नौकरी करके व्‍यापार के संबंध में अच्‍छी जानकारी हासिल कर लेता है फिर जब वह व्‍यापार करने लगता है तो उसको सफलता भी मिलती है। तब उसके बारे में लोग कहते हैं कि व्‍यापार में सफलता मिलना यह उसकी किस्‍मत में ही था। किन्‍हीं माँ-बाप को चोरी करने की आदत होने की वजह से उनके बच्‍चे भी उनकी तरह चोर बनते हैं। उसका परिणाम यह होता है कि अंत में उनको कालेपानी की या फाँसी की सजा होते ही सभी लोग कहने लगते हैं कि उसको काले पानी की सजा होना या फाँसी की सजा होना उसकी किस्‍मत में ही था।

उसी प्रकार किसी बच्‍चे के माँ-बाप के स्‍वभाव से सदगुणी होने की वजह से उनके बच्चा" भी उन्‍हीं की तरह सदगुणी होते हैं और उनको बड़ी-बड़ी सरकारी नौकरियाँ मिलती हैं, उनका सम्‍मान बढ़ता है। उस समय लोग उनके बारे में कहने लगते हैं कि उनको बड़ी-बड़ी सरकारी नौकरियाँ मिलना और सम्‍मान बढ़ना उनकी किस्‍मत में ही था। कोई राजा युद्ध के लिए हर तरह के आवश्‍यक साधन तैयार किए बगैर ही दुश्‍मन के साथ युद्ध करता है और उसकी हार हो जाती है। तब सभी लोग उसके बारे में कहने लगते हैं कि युद्ध में उसकी पराजय होना उसकी किस्‍मत में ही लिखा हुआ था। इसी प्रकार कोई राजा युद्ध की सभी प्रकार की तैयारी करके हर तरह के हथियार जुटाकर जब दुश्‍मन का मुकाबला करता है और उसको पराजित करता है तो सभी लोग उसके बारे में कहने लगते हैं कि युद्ध में सफलता हासिल करना उसकी किस्‍मत में ही था।

यदि कोई अनपढ़ व्‍यक्ति जिसको व्‍यापार के बारे में स्‍वयं कोई अनुभव नहीं है, लेकिन वह हेरा-फेरी करके सरकारी काम में इजारा पा लेने की हिम्‍मत करता है। उस समय उसकी यह समझ होती है कि, "किस्‍मत के सामने अकल किसी काम की नहीं।" इस तरह के अनपढ़-गँवार मनुष्‍य ने मान लीजिए कोई बड़ा इजारा पा लिया और उसने केवल खोखली किस्‍मत पर भरोसा रखा और उसमें जान-बूझकर लापरवाही करने से उसको नुकसान हुआ है। उस समय सभी लोग उसके बारे में यह कहने लगते हैं कि उसको इजारे में घाटा हुआ है, इसका कारण है उसकी किस्‍मत। उसी प्रकार किसी अपनढ़-गँवार आदमी ने किसी बड़े इजारे में सरकारी कर्मचारियों को रिश्‍वत देकर या चालाकी से उस काम में कुछ खामियाँ रखकर जैसे-तैसे चला दिया, इसलिए उस काम में उसको अच्‍छी-खासी आमदनी हो गई। तब सभी लोग उसके बारे में यह कहने लगते हैं कि उसकी तो किस्‍मत ही खुल गई, इसलिए उसको नफा हुआ है। इस तरह लाग किस्‍मत (दैव, भाग्‍य) के गुलाम बन जाते हैं।

सत्‍यशोधक समाज का एक कार्यकर्ता एक बार वैसाख माह की भरी धूप में यात्रा कर रहा था। वह दोपहर बारह बजे गर्मी की मार की वजह से कुंभला गया और नहर के किनारे एक शीतल वृक्ष की छाया में धूप से बचने के लिए बैठ गया। उसी समय बारह बजे की तोप गरजने लगी और नहर का कचरा साफ करने वाले कैदियों को दोपहर की छुट्टी मिलते ही कुछ हवलदार सभी कैदियों को दोपहर के भोजन के लिए उस पेड़ की छाया में ले आए जहाँ यह सत्‍यशोधक यात्री आराम करते हुए बैठा था। दोपहर के भोजन के बाद उनमें से कुछ कैदियों के साथ इस सत्‍य-शोधक यात्री की बातचीत हुई। उसका कुछ अंश यहाँ दे रहे हैं -

यात्री : (यह कैदी से सवाल करता है।) तु किस जाति का है?

पहला कैदी : महाशय, मैं ब्राह्मण जाति का हूँ।

यात्री : अरे, तू गौ की तरह जाति से ब्राह्मण है फिर भी तेरे पाँवों में इस तरह की बेड़ियाँ पड़ने की वजह क्या है?

पहला कैदी : मैं गो की तरह गरीब जाति से ब्राह्मण हूँ, त्रिकाल पूजा-स्‍नान करने वाला हूँ, यह बात बिलकुल सही है, लेकिन बेड़ियाँ पड़ना यह मेरी किस्‍मत की बात है, इसलिए अब मैं क्या कर सकता हूँ।

यात्री : तेरी किस्‍मत की वजह से तेरे पाँव में बेड़ियाँ पड़ी, तो फिर तेरे जैसे धूर्त आर्यों की किस्‍मत बड़ी चमत्‍कारिक है, कहना पड़ेगा।

पहला कैदी : महाशय, वैसी बात नहीं है, मैंने नकली नोट छापे और कई बार चौपाल पर दिन-दहाड़े डाका डाला, मैंने सरकार की आँखों में धूल झोंककर अपने आत्‍माराम को शांत किया। लेकिन मेरी यह सारी चलाकी जब सरकार के ध्‍यान में आई, तब उन्‍होंने मुझे मेरे अपराध के लिए यह सजा उचित ही दी है। इसमें किस्‍मत का सवाल ही कहाँ आता है? मैं यह अपने कुकर्मों का फल भोग रहा हूँ।

यात्री : (दूसरे कैदी से सवाल करता है।) तेरे गले में भी धूर्त आर्य ब्राह्मणों की तरह सफेद धागा है, इसलिए तुझे ब्राह्मण तो होना ही चाहिए, ऐसा मुझे लगता है।

दूसरा कैदी : हाँ, महोदय, मेरी जाति ब्राह्मण ही है।

यात्री : तुम ब्राहम्ण लोग तो केवल दया, क्षमा और शांति के प्रतीक माने जाते हो, फिर यहाँ तुम्‍हारे पाँव में बेड़ियाँ क्‍यों?

दूसरा कैदी : इस जन्‍म में मेरे पाँव में कभी न कभी बेड़ियाँ पड़ने वाली थीं, यह तो मेरे भाग्‍य में ही लिखा हुआ था, इसको कौन बदल सकता है? यहाँ तो हमारे वश में कुछ भी नहीं।

यात्री : तेरे पाँव में बेड़ियाँ पड़ना यह यदि तेरे भाग्‍य में ही लिखा हुआ था, तो फिर सरकार ने तेरे को सजा क्‍यों दी? उस समय उसने तेरे भाग्‍य की रेखा के बारे में कुछ सोच-विचार क्‍यों नहीं किया?

दूसरा कैदी : वैसी बात नहीं महोदय, मैं केवल सरकार के खर्च पर विद्वान हुआ हूँ और बाद में सरकारी कर्मचारी भी। लेकिन मैंने त्रिकाल स्‍नान-पूजा करके भगवान का स्‍मरण करने की बजाय सारे समय सुबह-शाम दीन, गरीब, आनी शूद्रादि-अतिशूद्रों पर जुल्‍म करके कई बार उनसे रिश्‍वत खाई, इसलिए सरकार ने मुझे उचित ही सजा दी है। वास्‍तव में सोचा जाए तो यहाँ न कहीं भाग्‍य है और न कहीं किस्‍मत।

यात्री : (हँसते-हँसते कहता है।) क्‍यों भाई सफेदधागे वाले तीसरे महाशय, अठारह वर्णों के तो तुम लोग अपने को गुरू कहलवाने लगते हो, तुम्‍हारी जाति क्या है?

तीसरा कैदी : महोदय, मैं भी ब्राह्मण जाति में ही पैदा हुआ हूँ।

यात्री : लगता है, यहाँ तो ब्राह्मण कैदियों की बाढ़ ही आई हुई है। खैर, तुम क्‍यों सजा भोग रहे हो? तुम किस वजह से यहाँ आए हो?

तीसरा कैदी : इस जन्‍म में सजा भोगना यह तो हमारे माथे पर ब्रह्म लिपि में लिखा था, यह तो अपने हाथ की बात नहीं थी। यहाँ तो हमारा कोई उपाय नहीं चलता। अब मैं क्या कर सकता हूँ?

यात्री : अरे, जब तेरे माथे पर दुख भोगना ही लिखा हुआ था, तो फिर सरकार ने तुझे सजा क्‍यों दी?

तीसरा कैदी : ऐसी बात नहीं, महोदय, नाना पेशवा की तरह मैंने अपने धर्म के विरोधी हिंसक सरकार के खिलाफ बगावत करके कई अज्ञानी रामोशी, माली आदि लोगों की जानें ले लीं। इससे अज्ञानी लोगों की शांति भंग हुई, इसलिए मुझे सजा हुई है। यह ब्रह्मलेख में लिखा है सोचकर किसी को दोष नहीं दिया जा सकता, बल्कि मैं इसको अपने बुरे कर्म का परिणाम मानता हूँ और उसको मैं भोग रहा हूँ।

यात्री : कहो पंडितजी, यदि तुम हिंसक नहीं तो फिर तुम्‍हारा नाना पेशवा रेजिडेंट साहब की टेबिल पर बैठकर उसके हाथ-में-हाथ देकर, उसके साथ कभी-कभी मद्य और मांसाहार करते थे या नहीं? उसी तरह तुम ब्राहम्णों के पुरखे यज्ञ और श्राद्ध के बहाने गौ-बैल का मांस खाते थे या नहीं? यह बात हकीकत है फिर भी तू अंग्रेजों पर नाक चढ़ा करके क्‍यों बोल रहा है?

तीसरा कैदी : अब हमारे काम का समय हो रहा है, वरना इसके बारे में मैं आपको उचित जवाब देता।

यात्री : अरे भाई, काले धागे वाले, तू किस जाति का है?

चौथा कैदी : जोहार महाराज, मैं हूँ, मैं तुम्‍हारा दास जूठा खाने वाला महार (महरा) हूँ। कई साल हो गए, ब्राह्मण लोगों ने हमारे गले में काला धागा बाँध करके हमारे लोगों को गाँव के बाहर भगा दिया।

यात्री : अरे, भले आदमी, तू वास्‍तव में निरुपद्रवी महार जाति का है, फिर भी तू सजा क्‍यों भोग रहा है? तू इन बेड़ियों में क्‍यों जकड़ा हुआ है?

चौथा कैदी : ऐसा है सरकार, कि इस जन्‍म में गुलामी-दुख बर्दाश्‍त करना यह मेरे भाग्‍य में ही था।

यात्री : अरे, यदि तेरी किस्‍मत में बेड़ियाँ ही लिखी थीं तो फिर इस अनजान सरकार ने तुझे सजा क्‍यों दी है?

चौथा कैदी : ऐसी बात नहीं, देशमुख महोदय, मेरी औरत ने बड़ी बेवकूफी की, इसलिए गुस्‍से में आकर मैंने उसको एक थप्‍पड़ मार दिया, बस, उसकी जान निकल गई। इसलिए मुझे यह सजा भोगनी पड़ रही है। इसका दोष मेरी किस्‍मत पर कुछ भी नहीं है।

यात्री : तेरी औरत ने बहुत बेवकूफी की वह किस प्रकार से?

चौथा कैदी : एक दिन मैं दुष्‍ट ब्राह्मण तहसीलदार के झमेले में फँस गया। उसने रात को बारह बजे तक बगैर खिलाए-पिलाए मुझसे गाँव की सेवा का काम लिया। फिर मैं घर चला गया। आकर मैंने घर में क्या देखा कि मेरी औरत ने चूल्‍हे के पास ...गंदगी करके रख दी थी और घर के एक कोने में सोकर बड़े जोर-जोर से खर्राटे भर रही थी। जगाकर मैंने उसको पूछा कि तू घर के बाहर जाने के बजाय घर में ही क्‍यों...? वह 'अंधेरी रात होने की वजह से मुझे बाहर... जाने में बहुत डर लगा और चुड़ैल के डर से मैं घर के भीतर ही...' ऐसा सही जवाब देने की बजाय घबराकर जवाब दिया कि, 'चूल्‍हे के पास...और किस्‍मत में जो था वह हो गया।' मैंने दिन-भर का भूखा-प्‍यासा होने के कारण गुस्‍से में अपने होश खो दिए और उसको एक तमाचा मार दिया। मारते ही मुर्गी की तरह चोट खाकर चिल्‍लाई और वहीं उसकी जान खत्‍म हो गई। इसी की वजह से सरकार ने उस अपराध के लिए मुझे आजीवन कारावास की सजा दी। यहाँ भाग्‍य या दुर्भाग्‍य का क्या संबंध है।

गणपतराव : इसीलिए किस्‍मत है या नहीं, इसके बारे में यदि आप अच्‍छी तरह विश्‍लेषण करके बताएँगे तो बहुत ही अच्‍छा होगा।

जोतीराव : किस्‍मत एक काल्‍पनिक अंदाज से माना हुआ कर्म है। उसमें सच में वास्‍तविकता का कोई आधार नहीं होता, ओर न कोई उसको बनाने वाला होता है। भाग्‍य, किस्‍मत, दैव आदि सभी के कर्ता को हमने अनुमान से, कल्‍पना से माना है। कर्मफल, भाग्‍यरेखा आदि को हमने अपने पूर्वजन्‍म का फल माना है। हमारे पूर्वजन्‍म के पाप और पुण्‍य के आधार पर हमें पैदा करते समय ब्राह्माजी ने भाग्‍यरेखा और ब्रह्मलेख हमारे माथे पर लिखकर रखा था, उसी के अनुसार यह सारा घटित हो रहा है। इन तमाम बातों से यह सिद्ध होता है कि उद्योग और आलस के परिणाम सभी लोग नहीं जानते, इसीलिए उसको वे लोग अनुमान से किस्‍मत कहते हैं। रामायण और महाभारत जैसी बेकार की पुराण कथाओं की तरह किस्‍मत की भी कल्‍पना की गई है। यह सब मिथ्‍या है। अब इसके लिए संत रामदास का ही उदाहरण ले लिजिए :

अभंग

एक देव आहे खरा ।। माये नाथिला पसारा ।।1।।
हेंचि विचारें जाणावें ।। ज्ञाता तयासी म्‍हणावें ।।2।।
रामदासाचें बोलणें ।। स्‍वप्‍नापरी जायी जिणे ।।3।।

अभंग

जया ज्ञान हें नेणवे ।। पशु तयासी म्‍हणावें ।।1।।
कोणे केले चराचर ।। कोण विश्‍वाचा आधार ।।2।।
ब्रह्मादिकाचा निर्माता ।। कोण आहे त्‍यापरता ।।3।।
अनंत ब्रह्मांडाच्‍या माळा ।। हे तो भगवंताची लिळा ।।4।।
रामदासाचा विवेक ।। सर्व-कर्ता देव एक ।।5।।

अभंग

ज्ञानाविणें जे जे कळा ।। ते ते जाणावी अवकळा ।।1।।
ऐसें भगवंत बोलीला ।। चित्त द्यावें त्‍याच्‍या बोला ।।2।।
एकें ज्ञानेची सार्थक ।। सर्व कर्म निरर्थक ।।3।।
दास म्‍हणे ज्ञानावीण ।। प्राणी जन्‍मला पाषाण ।।4।।

अभंग

ज्‍याचें होतें त्‍याणें नेले ।। एथें तुझे काय गेलें ।।1।।
वेगीं होई सावधान ।। करी देवाचें भजन ।।2।।
गती नकळे होणाराची ।। हे तो इच्‍छा भगवंताची ।।3।।
पूर्व संचिताचें फळ।। होती दु:खाचे कल्‍लोळ ।।4।।
पूर्वी केलें जें संचित ।। तें तें भोगावें निश्‍चीत ।।5।।
दास म्‍हणे पूर्व रेखा ।। प्राक्‍तन टळे ब्रह्मादिकां ।।6।।

प्रस्‍तुत अभंगों में अनंत ब्रह्मांड के ब्रह्माजी को निर्माणकर्ता की लीला और ज्ञान के बारे में अनंत ब्रह्मांड के निर्माण्‍कर्ता भगवान ने जो कुछ कहा, वह मानव आर्य ब्राह्मण रामदास ने सुना, उसी प्रकार भगवान की इच्‍छा और आर्यों का ब्रह्म आदि को न भूलने योग्‍य पुण्‍य इन तीनों वाक्‍यों का सही तथ्‍य (संत) रामदास की समझ में नहीं आया था, इस बात का बड़ा आश्‍चर्य होता है। क्‍योंकि लीला के बारे में ज्ञान, इच्‍छा और पुण्‍य ये एक-दूसरे से कितना विरोधी अर्थ रखते हैं, यह बात सामान्‍य जनों को भी आसानी से समझ में आती है।


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