गोविंद गणपतराव काले : श्राद्ध का मतलब क्या है?
जोतीराव फुले : मरे हुए पुरखों के उद्देश्य से पुत्रों-पौत्रों द्वारा ब्राह्मणों को भोजन-दान, पिंडदान देते रहना, यही इस श्राद्ध का प्रधान कर्म है।
गोविंद : इसका मतलब शुद्रादि-अतिशूद्रों के पुत्रों-पौत्रों को अपने मृत माता-पिता तथा पुरखों के उद्देश्य से आर्य ब्राह्मणों को भोजनदान, पिंडदान देते रहना चाहिए, ऐसा ही होता है?
जोतीराव : शूद्रादि-अतिशूद्रों के घर में आर्य ब्राह्मणों को भोजन ग्रहण नहीं करना चाहिए, इसके लिए मनुस्मृति आदि ग्रंथों में कहा गया है कि "राजा ने यदि भोजन ग्रहण किया तो उसके बल का पतन होता है। शूद्र का भोजन ग्रहण करने से उम्र का पतन होता है। सुनार का भोजन ग्रहण करने से भी उम्र का पतन होता है। और चमार का भोजन ग्रहण करने से यश की हानि होती है।" इस तरह और "शूद्र उपाध्याय (याजक) जितने ब्राह्मणों को अपने बदन से स्पर्श कर लें, उन सभी ब्राह्मणों को दान देने पर दान देनेवाले मनुष्य को उस दान से किसी भी प्रकार के फल की प्राप्ति नहीं होती।" उसी तरह मनुस्मृति में कहा गया है कि "ब्राह्मणों के घर के भोजन को अमृत की तरह मानना चाहिए और शूद्रों के घर के भोजन को खून के समान। इसलिए शूद्रों के घर का भोजन वर्ण के आधार पर घटिया दर्जे का है।" लेकिन फिर यहाँ कोई संदेह खड़ा कर सकता है कि हम शूद्रों के घर का भोजन नहीं ग्रहण करते, कच्चा अनाज ही स्वीकार करते हैं, इसलिए कच्चे अनाज (रसद) में दोष नहीं है। ऐसा कहेंगे तो ऐसे कच्चे अनाज के बारे में प्रमाण इस प्रकार है कि "शूद्रों के यहाँ का जो कच्चा अनाज है उसको शूद्रान्न कहना चाहिए। और पका हुआ जो भोजन होगा उसको जूठा (उच्छिष्ट) समझना चाहिए। इसलिए शूद्रों के घर के दोनों प्रकार के भोजन का त्याग करना चाहिए। क्योंकि इन दोनों प्रकार के भोजनों से ब्राह्मण दोषी होता है।"
गोविंद : फिर गरुड़ पुराण में मृत पुरखों के नाम से दान करने के बारे में जो कहा गया है वह सब काल्पनिक है, यह आपके बोलने से सिद्ध होता है या नहीं?
जोतीराव : धूर्त, स्वार्थी, निकम्मे आर्य भट्ट ब्राह्मणों ने अपना पेट पालने के लिए कच्छ, मच्छ आदि पुराणों जैसे ग्रंथों की रचना की है। उन्होंने गरुड़ पुराण जैसे पाखंड को अपनी कल्पना से लिखा है, इसके लिए बृहस्पति नाम के महापुरुष के ग्रंथों का प्रमाण दे रहा हूँ। वह इस प्रकार है :
ततश्च जीवनोपायो ब्राह्मणैर्विदितस्त्विह।
मृतानां प्रेतकार्याणि न त्वन्य विद्यते क्वचित्।।
गोविंद : इस महाविद्वान बृहस्पति के प्रमाण से यह सिद्ध होता है कि शूद्रादि-अतिशूद्रों के लड़के-लड़कियों को अपने मृत माता-पिता के नाम से धूर्त आर्य ब्राह्मणों को सुवर्णदान, शय्यादान, छत्रदान, गौदान और जूतियों आदि का दान नहीं देना चाहिए।
जोतीराव : अरे बाबा, इसमें किस बात का संदेह है? क्योंकि शूद्रादि-अतिशूद्रों के माता-पिता के जिंदे होने पर उन्होंने उनको दाने-दाने के लिए सताया और उनके मरने के बाद उनके नाम से धूर्त आर्य ब्राह्मणों को सुवर्ण दान देने से उसके बारे में उनके मृत पुरखों को कहाँ, किस प्रकार का और कब लाभ होगा? वैसे तो उन्होंने अपने माता-पिता को कपड़ों-लत्तों से परेशान किया। लेकिन उनके मरने के बाद उनके नाम से धूर्त आर्य ब्राह्मणों को शय्यादान करके उनको नरम बिछौने पर लेटने के लिए अवसर प्रदान करा दिया, इसलिए उनके मृत पुरखों को कब, कहाँ और किस प्रकार का आराम, सुख मिलने वाला है? उसी प्रकार उन्होंने अपने माता-पिता को धूप में तड़फड़ाते रखा और उनके मरने के बाद उनके नाम से धूर्त आर्य ब्राह्मणों को छतरीदान देने से उनके मृत माता-पिता को कब, कहाँ और किस तरह से छतरी की छाँव का सुख मिलने वाला है? उसी प्रकार उन्होंने अपने माता-पिता को जलती धूप में नंगे पैर आने-जाने पर तड़फड़ाने के लिए मजबूर किया और अब उनके मरने के बाद उनके नाम से धूर्त आर्य ब्राह्मणों को जूतियाँ दान देने से उनके मृत पुरखों को जूता पहन कर चलने का सुख कब, कहाँ और किस तरह से मिलनेवाला है? इन सभी बातों को सिद्ध नहीं किया जा सकता, इसलिए धूर्त आर्य ब्राह्मणों के बारे में बृहस्पति का कहना सही है या झूठ, इसके बारे में आप अपनी दृष्टि से सोचिए। बस, यही काफी है।
गोविंद : फिर शूद्रादि-अतिशूद्रों ने अपने मृत माता-पिता के नाम से आर्य ब्राह्मणों को यदि दान नहीं किया तो उनकी स्थिति किस प्रकार की रहेगी?
जोतीराव : वाह, खास सवाल है! धूर्त आर्य ब्राह्मणों के मृत माता-पिता की स्थिति ठीक बनाने के लिए वे भी क्या शूद्रादि-अतिशूद्रों को भी कुछ दान करते हैं?
गोविंद : आर्य भट्ट ब्राह्मणों के माता-पिता की स्थिति ठीक बनाने के लिए वे लोग शूद्रादि-अतिशूद्रों को कुछ भी दान नहीं करते।
जोतीराव : फिर धूर्त आर्य ब्राह्मणों के मृत माता-पिता की स्थिति किस प्रकार से ठीक-ठाक रहती होगी, इसके बारे में तुमको क्या लगता है?
गोविंद : शूद्रादि-अतिशूद्रों के मृत माता-पिता की स्थिति ठीक करने के लिए धूर्त आर्य ब्राह्मण अपने पाँव का तीर्थोदक पिलाकर उससे यदि दान लेते हैं तो ये ब्राह्मण लोग अपने मृत माता-पिता की स्थिति ठीक करने के लिए शूद्रादि-अतिशूद्रों के पाँव का तीर्थजल क्यों नहीं पीते? लेकिन वे उनका तीर्थजल भी नहीं पीते और न उनको दान ही देते हैं। इसी की वजह से ब्राह्मणों के पुरखे स्वर्ग के रास्ते के बीचों-बीच में लटकते रहते होंगे, ऐसा मुझे लगता है। लेकिन शूद्रादि-अतिशूद्रों को अपने मृत माता-पिता के उपकारों से मुक्ति पाने के लिए क्या करना चाहिए?
जोतीराव : शूद्रादि-अतिशूद्रों के माता-पिता के मरते ही उनके परिवारजन, भाई-बहन, रिश्तेदार और मित्र सभी उनके घर पर आकर मृत शरीर की व्यवस्था करने के लिए उनको हर तरह की सहायता करते हैं। उसके वारिस बनने के लिए, उनके उपकारों से मुक्त होने के लिए मृत व्यक्ति के तेरहवें दिन अपने सामर्थ्य के अनुसार पुत्र सभी को भोजन खिलाते हैं और उन सभी के गले में फूलों की माला पहनाते हैं। उसी प्रकार अपनी क्षमता के अनुसार कुछ दान देते हैं। और अपने-अपने स्कूलों में जाने वाले उनके लड़के-लड़कियों को खुशी में खिलौने दान करते हैं। और हर साल अपने माता-पिता का स्मरण हो, इसलिए अपनी क्षमता के अनुसार हर साल वे श्राद्ध करते हैं। और उसमें अपने परिवारजनों को, रिश्तेदारों-मित्रों को भोजन करवाते हैं। उसी तरह किसी भी पसंदगी-नापसंदगी का ख्याल किए बगैर हम सभी के निर्माता के नाम से स्कूल जानेवाले बेसहारा लड़के-लड़कियों को मामूली भी सहयोग हमने दिया तो हमारा मनुष्य जन्म में आना सार्थक हो गया समझ लीजिए।