मानाजी बोलूजी पाटील : मानव प्राणियों को पापयुक्त आचरण करके दुख नहीं भोगना चाहिए, इसलिए मानव समाज के बचाव के लिए अपने निर्माता ने उसको कुछ साधन दिए हैं या नहीं?
जोतीराव : ऐसा कैसे हो सकता है? निर्माता सर्वज्ञ है, दयालु है। उसने हम मानव प्राणियों को पैदा करने के पहले ही हमारे बचाव के लिए सभी कुछ व्यवस्था करके रखी है। इतना ही नहीं, उसने वह सब व्यवस्था बड़े अच्छे ढंग से करके रखी है।
मानाजी : तो फिर कुछ पुरुषों में यह लोभ क्यों पैदा हुआ कि उन्हें औरतें चाहिए? निर्माता ने जो योजना बनाई थी, जो साधन पैदा किए थे, उनसे उन्होंने अपना बचाव क्यों नहीं किया?
जोतीराव : एक जग जाहिर कहावत है कि 'अपने से सारी दुनिया को पहचानो', आपको तो मालूम ही होगा कि इस तरह जिनका मन लोभ से आकर्षित हुआ ऐसे लोग ईश्वर द्वारा दी हुई सदाचारी बुद्धि को, गुणों को एक तरह से अस्वीकार करके पापी हो गए और इसीलिए उनको प्रायश्चित भोगने पड़ते हैं।
मानाजी : अभी आपने जो कुछ कहा है, उसे मैं समझ नहीं सका। इसलिए आप अपना मंतव्य मुझे विस्तार से समझाएँ, तो बहुत ही अच्छा हो।
जोतीराव : कुछ स्वार्थी लोग ज्यादा से ज्यादा सुख या अपने मन की इच्छा पूरी करने के लिए एक घर में दो-दो, तीन-तीन शादियाँ करके औरतों से इश्क फरमाते हैं और इस सबके समर्थन में वे लोग कुछ मूर्ख लोगों द्वारा लिखे गए धर्मग्रंथों का हवाला भी देते हैं, लेकिन पुरुषों की तरह यदि कुछ औरतों ने अपने मन की इच्छा तृप्त करने के लिए दो-दो, तीन-तीन पुरुषों से एक ही समय में शादी की और वे सभी एक ही घर में रहने लगें तो हम पुरुषों को यह बुरा लगेगा या नहीं?
मानाजी : यदि नारियों ने उस तरह का जगविरोधी अघोर आचरण किया तो उनको उसकी सजा मिलनी चाहिए।
जोतीराव : यदि तुमको नारियों का उस तरह का आचरण अच्छा नहीं लगता तो हम पुरुषों का उसी तरह का आचरण नारियों को क्यों अच्छा लगना चाहिए? क्योंकि नारी और पुरुष दोनों समान रूप से सभी मानवीय अधिकारों का उपभोग करने के लिए हकदार हैं फिर नारियों को एक अलग प्रकार का नियम और लोभी, अहंकारी पुरुषों के लिए दूसरे प्रकार का नियम व्यवहार में लाना, पक्षपात के अलावा और कुछ नहीं है। ऐसे कुछ अहंकारी पुरुषों ने अपनी जाति के स्वार्थ के लिए नकली, स्वार्थ-प्रेरित धर्म किताबों में नारियों के बारे में इस तरह के स्वार्थी लेख लिखे हैं।
मानाजी : इस तरह के अन्य विषय सभी के मन को अच्छी तरह प्रभावित करे, इसलिए कृपया कुछ उच्चतम और सर्वसम्मत उदाहरण दें तो आपकी बड़ी मेहरबानी होगी।
जातीराव : आर्यभट्ट ब्राह्मणों के धर्म-द्रोही, व्यभिचारी, रिश्वतखोर, झूठी किताबें लिखनेवाले, तबलजी आदि लोगों को भी यदि शूद्रादि-अतिशूद्रों ने नीच मानना शुरू कर दिया और उनके स्पर्श से भी परहेज करने का निश्चय करके इस बात को व्यवहार में लाना शुरू कर दिया तो यह बात किसी भी ब्राह्मण को क्या सच में अच्छी लगेगी?
मानाजी : उस तरह का आचरण किसी भी ब्राह्मण को अच्छा नहीं लगेगा।
जोतीराव : उसी प्रकार शूद्रादि-अतिशूद्रों ने ब्राह्मणों की पगड़ियाँ और उनका सब कुछ छीन लिया तो किसी एक भी अहंब्रह्म संन्यासी हुए ब्राह्मण को क्या सच में अच्छा लगेगा?
मानाजी : नहीं। उस तरह से करना उस आर्यभट्ट ब्राह्मण संन्यासी को भी अच्छा नहीं लगेगा, तो फिर संसार में व्यस्त हुए ब्राह्मण को कहाँ से अच्छा लगेगा?
जोतीराव : आर्य ब्राह्मणों जैसे ही अन्य काल्पनिक शेषशायी की नाभि से निकले ब्रह्मदेव द्वारा ताड़ के पत्तों पर लिखे नये धर्म-ग्रंथों के आधार पर सभी शूद्रादि-अतिशूद्रों के पाँव के तीर्थ का साफ-निर्मल जल मानवद्रोही आर्य ब्राह्मणों को पिलाया जाए और उन्हें सीधा और दक्षिणा लेने को विवश किया जाए तो किसी भी ब्राह्मण दासीपुत्र को क्या यह अच्छा लगेगा?
मानाजी : नहीं, उस तरह से करना किसी भी ब्राह्मण भट्ट दासीपुत्र को अच्छा नहीं लगेगा।
जोतीराव : उसी प्रकार शूद्रादि-अतिशूद्रों द्वारा धूर्त ब्राह्मणों की तरह मनचाहे ढंग से ईश्वर के नाम से काल्पनिक नये धर्मशास्त्रों की रचना करके उन ग्रंथों के एक शब्द तक भी किसी ब्राह्मण को सुनने से वंचित रखा जाए और शूद्रादि-अतिशूद्रों द्वारा ब्राह्मणों को अपने खानदानी दास बनाकर और उनको हमेशा के लिए अपनी सेवा करने का विधान थोपकर उन्हें यह सब कुछ करने को विवश किया जाए तो किसी गोलक ब्राह्मण को क्या यह बात अच्छी लगेगी?
मानाजी : उस तरह से करना किसी भी उड़ाऊ गोलक ब्राह्मण को अच्छा नहीं लगेगा, फिर खुद को असल ब्राह्मण कहने वालों की तो बात ही क्या!
जोतीराव : यदि इस प्रकार से शूद्रादि-अतिशूद्रों का व्यवहार किसी नीच ब्राह्मण को भी अच्छा नहीं लगेगा तो मनुसंहिता में शूद्रों के बारे में ब्राह्मणों का जो नीच व्यवहार वर्णित है वह शूद्रों के साधु-संतों को और राजा-रजवाड़ों को कैसे अच्छा लगेगा? इसी को कहते हैं कि 'अपने ऊपर से दुनिया को पहचानों'। ब्राह्मणों के धर्मग्रंथों में ब्राह्मणों द्वारा शूद्रों से लेने के अलग माप तय किए हुए हैं और ब्राह्मणों द्वारा शूद्रादि-अतिशूद्रों को देने के माप अलग। फिर इन्हीं कारणों के आधार पर धूर्त ब्राह्मण विद्वानों और अनपढ़ शूद्रादि-अतिशूद्र भाइयों में स्नेह की भावना पैदा होकर धर्म के बारे में एकता कैसे हो सकती है? इसके अलावा आर्य ब्राह्मणों ने शूद्रादि-अतिशूद्रों को पढ़ने-लिखने की मनाही कर दी और उन्होंने अपना वर्चस्व कायम रखने के लिए झूठ-मूठ के धर्मग्रंथों की रचना की, अपनी कल्पना के आधार पर रामायण-महाभारत जैसे ग्रंथ लिखे। फिर उन्होंने ढोंगी बगुले की तरह धार्मिक होने का स्वांग रचाया। फिर उन्होंने दिन-रात अज्ञानी, भोले-भाले शूद्रादि-अतिशूद्रों को निरर्थक पुराण-कथाएँ सुनानी शुरू कीं और उनके दिलो-दिमाग को पवित्र मुसलिम और र्इसाई राजकर्ताओं के विरोध में मैला किया। इसके लिए उन्होंने बड़े-बड़े युद्ध करवाए, और तभी वे स्वयं किसी मंदिर के अंदर के शिवलिंग के सामने निश्चिंत होकर जप-अनुष्ठान करते रहे। इन्हीं सब बातों की वजह से इस देश में शूद्रादि-अतिशूद्र लोगों का और मुसलिम तथा ईसाई लोगों का कई बार नुकसान हुआ है और आज तक इस देश में भयंकर पाप भी हुए हैं और अब भी हो रहे हैं।